शांति की संस्कृति एवं समझ को विकसित करने जरूरत
Updated: February 24, 2025
विश्व शांति और समझ दिवस- 23 फरवरी, 2025-ः ललित गर्ग:-एक शांतिपूर्ण एवं सौहार्दपूर्ण समाज के निर्माण, विविध संस्कृतियों, धर्मों और क्षेत्रों के बीच सद्भाव, करुणा…
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इतिहास का विकृतिकरण और नेहरू : अध्याय 1
Updated: February 26, 2025
( ‘ डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया ‘ की ‘ डिस्कवरी ‘ ) नेहरू जी और धर्म की परिभाषा वर्तमान में धर्म , मजहब और रिलीजन –…
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मातृभाषाएं संवारती हैं संस्कार और संस्कृति को
Updated: February 24, 2025
अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस- 21 फरवरी 2025-ः ललित गर्ग:-मातृभाषा केवल संचार का माध्यम नहीं, बल्कि संस्कृति, परंपराओं, जीवनमूल्यों और इतिहास को संजोने का एक सशक्त साधन…
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दिल्ली की नई मुख्यमंत्री : चुनौतियों का सफर
Updated: February 26, 2025
प्रधानमंत्री श्री मोदी अपनी अलग कार्य शैली के लिए जाने जाते हैं। उन्होंने श्रीमती रेखा गुप्ता को दिल्ली के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठाने के…
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जनजातीय हितों व श्रद्धा पर केंद्रित हो नई वननीति
Updated: February 24, 2025
वनग्राम, वनों से सटे राजस्व ग्राम, जनजातीय समाज, वनों के भीतर कृषि का अधिकार, जनजातीय समाज को वनों के सीमित उपयोग की अनुमति आदि-आदि विषय…
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अफजल खान का वध और शिवाजी महाराज का नेतृत्व
Updated: February 26, 2025
(19 फरवरी को शिवाजी जयंती के अवसर पर विशेष ) बीजापुर के बादशाह आदिलशाह के सरदार अफजल खान ने एक बड़ी सेना के साथ शिवाजी…
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संघ साधना के तपोनिष्ठ ऋषिवर : श्री गुरुजी
Updated: February 24, 2025
~कृष्णमुरारी त्रिपाठी अटल आक्रमणों और वर्षों की परतन्त्रता के कारण कमजोर और दैन्य हो चुके हिन्दू समाज को संगठित करने के ध्येय से डॉ.हेडगेवार ने…
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शिक्षा में स्मार्टफोन के प्रचलन से एकाग्रता एवं हेल्थ खतरे में
Updated: February 24, 2025
-ः ललित गर्ग:-शिक्षा में तेजी से बढ़ते स्मार्टफोन के उपयोग और उसके घातक प्रभावों को लेकर दुनियाभर में हलचल है, बड़े शोध एवं अनुसंधान हो…
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सामाजिक ताना-बाना बिखेर रहे नंगापन और रील्स के परिवेश
Updated: February 24, 2025
— डॉo सत्यवान सौरभ पूरा देश नग्नता के लिए फ़िल्मों को दोष देता है परंतु आज सोशल मीडिया (सामाजिक पटल) पर इतनी भयंकर नग्नता है…
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श्री गुरुजी – शक्तिशाली भारत के कल्पक
Updated: February 24, 2025
जन्मजयंती 19 फरवरी पर विशेष श्री गुरुजी, माधव सदाशिव राव गोलवलकर, शक्तिशाली भारत की अवधारणा के अद्भुत, उद्भट व अनुपम संवाहक थे। वे भारत की…
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भारत की आत्मचेतना का मूर्त-रूप: छत्रपति शिवाजी
Updated: February 17, 2025
19 फरवरी जन्मदिवस पर विशेष वीरेन्द्र सिंह परिहार प्रसिद्ध इतिहासकार जदुनाथ सरकार ने लिखा -‘‘जहाँगीर ने प्रयाग के वट वृक्ष को जड़ों से काट डाला था। उसकी जड़ों पर उबलता शीशा उड़ेंला था पर एक वर्ष के अंदर ही खाक हुए उन्ही जड़ों से वह वट फिर अंकुरित हुआ। दासता के शीश कवचों को दूर फ़ेंक कर बढ़ते-बढ़ते बनकर खड़ा हो सका। यह बात शिवाजी ने अपने जीवन में साबित कर दिखायी है।‘ प्रसिद्ध विचारक और संघ के पूर्व सरकार्यवाह हो.वि. शेषाद्रि के शब्दों में-‘‘स्वराज की बाती बुझ गई थी, धर्म अंतिम सांसे ले रहा था। हिमालय से रामवेश्वरम् तक सिंधु से ब्रह्मपुत्र तक दासता का घना साम्राज्य फैल गया था। तभी पश्चिम तटीय सह्याद्रि के पहाड़ों के गर्भ में एक नवजात बालक का उदय हुआ। बाल्यावस्था में ही विदेशी बीजापुर बादशाह को उस लड़के ने मुजरा करना नामंजूर किया। आते-आते उसने बीजापुर के तख्त को जड़ो से हिलाया। भाग्यनगर के कुतुबशाह को झुका दिया। दिल्ली बादशाह के दिल में भी उस सह्याद्रि के बालक ने कंपकंपी पैदा की। ईरान के युवा बादशाह अब्बास द्वितीय ने तो पत्र लिखकर औरंगजेब की हंसी उड़ायी। ‘‘तुम खुद को आलमगीर यानी विश्व-सम्राट कहते हो, लेकिन एक छोटे सरदार के बेटे को जीतना तेरे लिए संभव नहीं हुआ। इस तरह से बीजापुर के एक सरदार संभाजी के बागी बेटे की कीर्ति हिन्दुस्तान के बाहर भी पहुंच चुकी थी। उसका खड़ग दुष्ट दुश्मनों का मारक एवं स्वराज तथा स्वधर्म का तारक बना। यह शिवाजी के संघर्ष का परिणाम था कि आगे उनके वंशजों ने बीजापुर सल्तनत को जड़ो से उखाड़कर फ़ेंक दिया। निजामशाही का अस्तित्व नाममात्र रहा। दिल्ली के विश्व सम्राट बादशाह को उसके साम्राज्य की राजधानी दिल्ली में निवृत्त कराते हुए उसे एक कोने में बिठा दिया। सह्याद्रि से निकले बौने टट्टू सिंधु प्रदेश पारकर आगे दौड़ पडें। उस बालक के वंशज अटक, काबुल, कंधार तक जाकर हिन्दुस्तान का विजयध्वज गाड़ कर आ गये।’’ शाहजी मुस्लिम सल्तनत बीजापुर के एक सरदार मात्र थे जिनके पास न तो कोई अपना राज्य था, न सेना थी और न किला ही था। उस पिता शाहजी एवं माता जीजाबाई के बेटे शिवाजी ने अपने दम-खम शूरता और बुद्धिमानी के बल पर जिस तरह से एक साम्राज्य की स्थापना कर दी, उसे सुनकर लोग आचंभित ही नहीं रह जाते, बल्कि दांतों तले उंगली भी दबा लेते है। 19 फरवरी 1630 को शिवनेरी में जन्मे और पूना में पले-बढ़ें शिवाजी बचपन में साथियों के साथ माटी के किले बनाकर लड़ाई का खेल खेलना पंसद करते थे, इसी से पूत के पाव पालने में ही दिख गए थे। तभी तो दस वर्ष के शिवाजी जब अपने पिता के साथ बीजापुर दरबार में जाते है, तो बादशाह को सलाम तक नहीं करते। इतना ही नहीं, बीजापुर शहर में ही एक कसाई का हाथ इसलिए काट लेते है कि वह गाय की हत्या करने जा रहा था। ऐसे साहस और शौर्य के बचपन से ही साक्षात अवतरण थे, छत्रपति शिवाजी। यह बालक शिवाजी की संगठन-कौशल और नेतृत्व-क्षमता का ही कमाल था कि उन्होने 12 मावल प्रांतों के दीन-हीन, अशिक्षित, मावलों को संगठित कर एक श्रेष्ठ लड़ाकूओं में बदल दिया। माता जीजाबाई से प्राप्त संसकार और दादाजी कोंडदेव के मार्गदर्शन का ही यह कमाल था कि एक विधवा से बलात्कार के चलते वह बदफैली के पाटिल का हाथ-पाव कटवा लेते है जबकि उस वक्त सामर्थ्यवान लोगों के लिए यह साधारण बात थी। शिवाजी की यह चतुरता और शौर्य की ही विशेतषता है कि 16 वर्ष की उम्र में ही बगैर रक्तपात के बीजापुर के दुलक्षित दुर्ग तोरणगढ़ में तोरण बांध देते है। बीजापुर द्वारा सर कलम किए जाने की धमकी के बाबजूद क्रमशः कोंडाणा ,शिरवल,सुभानमंगल जैसे किलों पर अधिकार कर लेते है। जब बीजापुर दरबार शिवाजी को निबटाने के लिए दुर्दांत अफजल खान को भेजता है, और वह शिवाजी के राज्य में हत्या, आगजनी, विध्वंस, बलात्कार का तांडव करता है। पर शिवाजी सामने लड़ना उचित न समझने के कारण प्रतापगढ़ के किले में ही रहते है, और युक्तिपूर्वक अफजल खान को प्रतापगढ़ के पायते में बुलाकर 16 नवम्बर 1959 को सिर्फ उसका ही नहीं, उसकी अधिकांश सेना को यमलोक भेज देते है। बीजापुर दरबार द्वारा भारी सेना के साथ पुनः सिद्दी जौहर के द्वारा हमला किये जाने पर और पन्हालगढ़ में शिवाजी की 04 माह तक घेराबंदी किए जाने पर कैसे असीम साहस तथा युक्ति बाजीप्रभु देशपाण्डे जैसे साथियों के बलिदान के चलते वह पन्हालगढ़ से विशालगढ़ पहुंच जाते है, और सिद्दी जौहर के आक्रमण को निष्फल कर देते है, जो विश्व-इतिहास की अविस्मरणीय घटना है। पर शिवाजी के ऊपर सिर्फ सिद्दी जौहर का ही हमला नहीं होता। औरंगजेब का सिपहसालार शाइस्ताखान भी इसी बीच शिवाजी के राज में आंतक मचाता पुणे के लाल किलें में डेरा डाल दिया था, जहां शिवाजी का बचपन बीता था। 6 अप्रैल 1663 की आधी रात दो हजार सेना के साथ शिवाजी लालमहल में घुस गए और एक लाख सेना का जहां पहरा था, वहां तूफान बरपा दिया। स्वतः शाइस्ता खान की तीन उंगलिया कट गई, एक बेटा और कई बेगमों के साथ कई सैनिक मारे गये। इसका नतीजा यह हुआ कि शाइस्ता खान तुरंत ही औरंगाबाद निकल गया।इस तरह से दो साल जो-जो स्वराज को क्षति पहुंचाई गई थी, उसकी प्रतिपूर्ति के लिए शिवाजी ने औरंगजेब के सबसे समृद्ध बंदरगाह सूरत को भरपूर लूटा। औरंगजेब द्वारा मिर्जा राजा जयसिंह को शिवाजी पर आक्रमण करने के लिए भेजने पर शिवाजी उनसे समझौता कर लेते है, और औरंगजेब से मिलने दिल्ली चले जाते है। पर औरंगजेब उन्हे बंदी बनाकर जान से मरवाने को सोच रहा होता है, तो शिवाजी अपनी युक्ति और साहस से पुत्र संभाजी समेत मिठाई के टोकरों में बैठकर औरंगजेब की कैद से निकल आते है और अपने राज्य पहुंच जाते है। निःसन्देह उपरोक्त सभी घटनाएं दुर्लभ ही नहीं, असंभव भी प्रतीत होती है। इसके पश्चात् तो शिवाजी ने बीजापुर को तो खुले युद्धों में हराया ही, दिंडौरी और सालेर के खुले युद्धों में शिवाजी ने औरंगजेब की सेनाओं को शिकस्त दी और अपना स्वतंत्र राज्याभिषेक कराया, जिसकी राजधानी रायगढ़ थी। यह बात अलग है कि सतत् युद्धों में जर्जर होने के चलते उनकी मृत्यु 50 वर्ष की उम्र में 1680 में हो गई। छत्रपति का कार्य सही अर्थो में ध्येयनिष्ठा से अभिमंत्रित था। उज्जवल राष्ट्रीय ध्येय में ही उसका मूल छिपा था। अनेक बार शिवाजी को स्वराज से बहुत दूर रहना पड़ा था। पन्हालगढ, आगरा, में उन्हे महीनों तक प्राणसंकटों से भरे दिगबंधनों में रहना पड़ा। तत्पश्चात् दक्षिण दिग्विजय के लिए निकलने पर दो वर्षो के दीर्घकाल तक वे स्वराज से दूर रहे। पर ऐसे किसी भी समय में स्वराज के शासन में गडबड़ी या शौथिल्य निर्माण नहीं हुआ। स्वराज के हरेक प्रजा के हृदय में उन्होने अपनी स्वतः की भक्ति के बदले स्वराज-स्वधर्म के अनुसार ध्येयनिष्ठा की कल्पना की थी। इसलिए ऐसे विषम प्रसंगों में भी राज्य का कारोबार कडाई तथा सुचारू रूप से चला था। उस दौर में प्रलोभन या प्राणभय से एक बार मुसलमान बनने पर उसे हिन्दू धर्म में वापस लेने को कोई धर्माचार्य तैयार नही होते थे। ऐसे में ऐसा व्यक्ति सदा के लिए हिन्दू समाज से विच्छिन्न ही नहीं हो जाता था, बल्कि हिन्दू समाज का ही नाश करने वाले खड़ें दुश्मनों के साथ मिल भी जाता था। विद्यारण्य स्वामी के पश्चात् जिन्होंने हरिहर और बुक्का को पुनः हिन्दू धर्म में लेकर विशाल विजयनगर साम्राज्य की स्थापना कराई थे, ऐसे संकट को पहचानने और उसका परिहार करने वाले उस दौर में केवल शिवाजी ही थे। उन्होंने धर्मान्तरिंतों का शुद्धिकरण करने का क्रम चलाकर अकल्पित मानसिक क्रांति का सूत्रपात किया। बीजापुर बादशाह द्वारा धर्मान्तरित बालाजी निबांलकर तथा औरंगजेब द्वारा धर्मान्तरित कराए हुए नेताजी पालकर का शुद्धिकरण कराते हुए हिन्दू धर्म में पुनः लिया। दूसरे लोग पीछे हटेंगे, इसलिए उनके साथ अपने ही परिवार वालों के रक्त-संबंध बढाकर शिवाजी महाराज ने समाज को एक नयी धर्म दृष्टि प्रदान की।इतना ही नहीं धर्म के नाम पर हिन्दू समाज की सुरक्षा तथा सामथ्र्य को संकट उत्पन्न करने वाले सब बंधनों का उन्हांने उन्मूलन किया। समुद्र-प्रयाण को लेकर जो धार्मिक विरोध की अंध श्रद्धा थी। उसे उखाड़कर फेंकने के लिए उन्होने स्वयं समुद्र-प्रयाण कर सागर तट से अंदर जाकर जलदुर्गो का निर्माण कराया। समर नौकाओं में बैठकर संचार करते हुए सागर पराक्रम की उज्जवल परंपराओं को स्थापित किया। मुसमलमान बादशाहों द्वारा तब प्रचालित पद्धति जागीर देने की थी। ऐसी स्थिति में जागीरों के सूबेदार ही उनके सैनिकों और प्रजा के निष्ठा के प्रथम केन्द्र थे। शिवाजी महाराज के राज्य में ऐसे अनेक जागीरगदार, देशमुख, देशपाण्डे थे। एक राज्य के अंदर अनेक राज्यों की अवस्था स्वराज के लिए कभी भी विपत्तिजनक बन सकती थी। परन्तु जागीरदारी प्रथा को समाप्त करना कोई आसान काम नहीं था परन्तु महाराज ने अपना कठोर निर्णय ले ही लिया तथा उसे सफल बनाया। जागीरे रद्द कर जमीनें गरीब किसानो को बाँट दी। अपने समधी पिलाजी शिर्के द्वारा मांगे जाने पर भी जागीर नहीं दी। इससे जनसामान्य में स्वराज के प्रति आत्मीयता बढी, उत्पादन बढ़ा और स्वराज की सुरक्षा के लिए अपायकारी ऐसे जागीरदारों का भी अंत हुआ। सर्वसाधारण किसानों का स्वामिभान से जीना संभव हुआ। स्वाभिमान याने व्यक्ति अभिमान ऐसा भ्रम सिर्फ उस समय ही नहीं, आज भी मौजूद है। बातों-बातों में ही हथियार निकलकर झगड़ा करना, और मरने, मारने के लिए तैयार होना, कुछ ऐसा ही स्वाभिमान उस वक्त था। मध्ययुग में इस तरह के स्वाभिमान को लेकर राजपूत एक-दूसरे के खून के प्यासे हो जाते थे। स्वाभिमान का अर्थ ऐसी राष्ट्रघातक व्यक्ति प्रतिष्ठा की जगह राष्ट्रपोषक स्वाभिमान ऐसा शिवाजी ने सिखाया। उन्होने ‘‘शठं प्रति साठ्यम’’नीति का पालन कर शत्रुओं को भरपूर मजा चखाया। एकाकी धर्मयुद्ध की जगह दुश्मनों के अनुसार अपनी नीति अपनायी। छत्रपति ने क्षात्रधर्म की संकल्पना को ही बदल दिया। हौताम्य की जगह उन्होने विजयोपासना की सार्थक नीति का प्रचलन किया। साम, दांम, दण्ड और भेद नीति में वह पूरे प्रवीण थे। समयानुसार कब पीछे हटना और कब हमला कर देना, इसके लिए प्रतिमान उन्होने गढे़ थे। हरेक बार समर संचालन का सूत्र वह अपने पास ही रखते थे। शत्रु पर अचानक हमला कर उसके संभलने तक फरार हो जाने का तंत्र था उनका गनिमी काबा, (गुरिलायुद्ध) इसी के चलते उनकी छोटी-छोटी टोलियां बडी फौजों को भी ठिकाने लगा सकी। दुर्गो की रचना में उन्होने जो कौशल दिखाया, उसे देखकर अंग्रेज इतिहासकार भी आश्चर्यचकित रह गए। तस्वीर का दूसरा बड़ा पहलू यह है कि सभी श्रेष्ठ मानवीय आदर्शो को प्रतिष्ठापित करने की परंपरा उन्होने आरंभ की। राज्याभिषेक के पश्चात् प्राचीन भारतीय अष्ट प्रधान पद्धति उन्होने लागू किया। उनका स्वराज हिंदवी और हिन्दू जीवन मूल्यों से ओत-प्रोत होने पर भी स्वराज निष्ठ होने पर मुसलमानों और ईसाइयों को भी पुरूस्कार मिलता था। शत्रु स्त्रियों के बारे में उनका मान-सम्मान, पूज्यभाव लोक विख्यात हैं। इस संबंध में कल्याण के सूबेदार के सौन्दर्यवती बहू की घटना सभी को पता है, जिसे पकड़कर लाए जाने पर उन्होने ससम्मान वापस भेज दिया था। इसके साथ कुरान और मस्जिद को कहीं भी अपवित्र न किया जाए, उनके सम्मान और पवित्रता का पूरा ख्याल रखा जाए, इसकी सराहना मुस्लिम इतिहासकारों ने खुले दिल से की है। सेना का आक्रमण करते समय देहातों में खड़ी फसल को हाथ नहीं लगाना, बाजारों में अन्यों जैसे ही पैसे देकर समान खरीदना। यदि किसी ने अवज्ञा की तो उसे कठोर सजा। ऐसे कल्याणकारी नीतियां छत्रपति की थी। गोवा को दो बार उन्होने बुरी तरह से लूटा, लेकिन पादरियों, मौलवियों, महिलाओं, बच्चें को तनिक भी धक्का नहीं लगा। सामान्य जनता, गरीबों को तिल-मात्र भी कष्ट नहीं पहुंचना चाहिए ऐसा उनका आदेश था। इतना ही नहीं शहर के परोपकारी धनवानों को भी लूट से मुक्त रखा गया। व्यक्तियों के चयन तथा उनके गुण-परीक्षण में तो छत्रपति बडें ही निष्णात थे। उनकी न्याय-निष्ठुरता, गुण-ग्राहकता, अनुशासनिक कठोरता आदि सें जनसामान्य की उनके प्रति निष्ठा हजार गुना बढ़ गई। न्याय-निष्ठुरता का आलम यह कि उन्हांेने अपने पुत्र संभाजी को भी दण्डित करने से नहीं छोड़ा। इसके बावजूद भी वृत्ति से वह महायोगी। स्वयं का ही कमाया हुआ समूचा राज्य समर्थ रामदास की झोली में डालकर फकीर जैसे निकल जाने को तैयार (राज्य शिवाजी का नहीं, राज्य धर्म का है।)ऐसे स्थितिप्रज्ञ राजर्षि थे वह। अति श्रेष्ठ देशभक्त, संयमी, धर्मशील मातृभक्त, पितृभक्त, गुरूभक्त थे। तभी तो कवि परमानन्द ने संस्कृत में शिवाजी जीवनचरित्र शिवभारत लिखा। कवि भूषण तो हिन्दू छत्रपति का गुणगान करने दौड़ते हुए उत्तर से दक्षिण आ गए थे। ‘‘काशी जी कला जाती, मथुरा मस्जिद होती, शिवाजी न होते तो सुन्नत होती सबकी।’’ स्वयं गुरू समर्थ गुरू रामदास ने ही शिष्य का गौरवगान इस तरह किया – ‘‘आचारशील, विचारशील, न्यायशील, धर्मशील सर्वज्ञ सुशील जाणता राजा (जाणता यानी ज्ञानी) यशवंत, कीतिवंत, वरदवंत, सामथ्र्यवंत, प्राणवंत, नीतिवंत, जाणता राजा।।’’ जब भारत ही नहीं, पूरी दुनिया सामंतवाद के चंगुल में थी, उन्होंने अपने हिन्दवी स्वराज्य में शोषक सामंती तंत्र का अंत कर किसानों, व्यापारियों तथा समाज के अन्य तबकों न्याययुक्त शासन दिया था। उनके सामने सम्पूर्ण भारत का नक्शा था। तभी तो तात्कालीन पुर्तगाली गवर्नर ने शिवाजी को एक मंत्री से बातचीत के आधार पर यह उद्धृत किया है कि कैलाश मानसरोवर से लेकर कन्याकुमारी तक यह सम्पूर्ण देश हमारा है और इसे हम मुक्त कराकर रहेंगे। यह शिवाजी का ही दूरदृष्टि थी कि नेताजी पालकर और बालाजी निंबालकर जो मुस्लिम बन गए थे, उन्हें सिर्फ शिवाजी हिन्दू धर्म में ही वापस नहीं लाए, बल्कि निंबालकर के बेटे के साथ अपनी बेटी का विवाह कर एक अदभुत उदाहरण प्रस्तुत किया। आंग्ल तथा पुर्तगाली इतिहासकारों ने शिवाजी की तुलना अल-सिकंदर, सीजर, हाॅनिबल जैसे विश्वविख्यांत योद्धाओं से की है। तथापि उन सबको पहले ही सुसज्जित, प्रशिक्षित सेना, राज्य, राजकोष, आदि उपलब्ध थे। लेकिन शिवाजी महाराज ने इन सबका निर्माण बेचारे गरीब मावलों के बलवूते किया। दूसरे सभी अवर्णनीय परपीड़न, संहार, अत्याचार, करने में पीछे नहीं हटे, जबकि छत्रपति धर्मान्धता, विध्वंस, इत्यादि का नाश कर, शांति, धर्म, न्याय की प्रतिष्ठापना की। इग्लैण्ड के एक सार्वजनिक संस्था ने ‘‘विश्व का सर्वश्रेष्ठ वीर पुरूष कौन?’’ ऐसा प्रश्न विविध देशों को भेज दिया। अंत में शिवाजी ही उस लोकोत्तर पदवी के लिए सर्वदृष्टि से योग्य पुरूष है, ऐसा उसने निर्णय दिया। तभी तो महर्षि अरविंद की काव्य प्रतिभा और विश्व कवि रवीन्द्रनाथ टैगोंर की भावपूर्ण रसधारा के लिए भी छत्रपति का स्मरण प्रेरणा स्त्रोत बना।’’…
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सामाजिक न्याय की पिच पर नई सोशल इंजीनियरिंग अपेक्षित
Updated: February 18, 2025
विश्व सामाजिक न्याय दिवस- 20 फरवरी, 2025-ः ललित गर्ग:- विश्व सामाजिक न्याय दिवस सामाजिक न्याय को बढ़ावा देने की आवश्यकता को पहचानने वाला एक अंतरराष्ट्रीय…
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