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नशीली दवाओं के खिलाफ महत्वाकांक्षी युद्ध का आह्वान

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नशीली दवाओं के खिलाफ अंतर्राष्ट्रीय दिवस – 26 जून, 2025
– ललित गर्ग –

नशीली दवाओं के दुरुपयोग और अवैध तस्करी के खिलाफ अंतर्राष्ट्रीय दिवस हर साल 26 जून को नशीली दवाओं मुक्त दुनिया को निर्मित करने के लक्ष्य को प्राप्त करने, कार्रवाई और सहयोग को मजबूत करने के लिए मनाया जाता है। इसका उद्देश्य गलत सूचनाओं का मुकाबला करना और नशीली दवाओं के बारे में तथ्यों को साझा करना है। साथ ही साक्ष्य आधारित रोकथाम, स्वास्थ्य जोखिमों और विश्व नशीली दवाओं की समस्या, उपचार और देखभाल से निपटने के लिए उपलब्ध समाधानों के बारे में जागरूकता पैदा करना है। अवैध ड्रग्स एवं तस्करी मानव के लिए बहुत बड़ी पीड़ा एवं संकट का स्रोत हैं। सबसे कमज़ोर लोग, खास तौर पर युवा लोग, इस संकट का खामियाजा भुगतते हैं। ड्रग्स का इस्तेमाल करने वाले और नशे की लत से जूझ रहे लोग अंधेरी दुनिया में भटकते हुए कई चुनौतियों का सामना कर रहे है। नशीली दवाओं एवं ड्रग्स के खुद के हानिकारक प्रभाव, उनके द्वारा झेला जाने वाला कलंक, स्वास्थ्य संकट और भेदभाव और अक्सर उनकी स्थिति के प्रति कठोर और अप्रभावी प्रतिक्रियाएं दुनिया को एक महासंकट में धकेल रही है। इसलिये नशे एवं नशीली दवाओं के बढ़ते प्रचलन एवं तस्करी को रोकने के लिये दुनिया को एकजुट होकर इस महत्वाकांक्षी युद्ध को सफल बनाना नितांत अपेक्षित है।
हर साल संयुक्त राष्ट्र मादक पदार्थ एवं अपराध कार्यालय (यूएनओडीसी) वैश्विक जागरूकता अभियानों और नीति सिफारिशों का मार्गदर्शन करने के लिए एक थीम निर्धारित करता है। 2025 की थीम है- ‘‘जंजीरों को तोड़ना : सभी के लिए रोकथाम, उपचार और पुनर्प्राप्ति!’’ यह नारा सामुदायिक समर्थन, स्वास्थ्य सेवा तक पहुंच और नशीली दवाओं के दुरुपयोग और अवैध तस्करी से निपटने में वैश्विक एकजुटता की आवश्यकता पर जोर देता है। यूएनओडीसी की विश्व मादक पदार्थ रिपोर्ट 2020 के अनुसार, वर्ष 2018 में वैश्विक स्तर पर 269 मिलियन लोगों ने मादक पदार्थों का उपयोग किया, जो वर्ष 2009 की तुलना में 30 प्रतिशत अधिक है; तथा अनुमान है कि 35 मिलियन लोग मादक पदार्थ उपयोग विकारों से पीड़ित हैं। यह दिवस न्याय, शिक्षा, स्वास्थ्य देखभाल और वैकल्पिक आजीविका सहित रोकथाम में निवेश का आह्वान करता है-जो टिकाऊ लचीलेपन के निर्माण के साथ उन्नत एवं स्वस्थ मानव जीवन का आधार हैं। दुनिया में सभी राष्ट्रों में राजनीति और ड्रग्स का चोली दामन का संबंध है, सभी देशों में बड़ी राजनीतिज्ञ पार्टियों की नशा माफिया एवं नशीले पदार्थों के तस्करों के साथ काफी मिलीभगत है और यही वजह है कि दुनिया ‘नशीले पदार्थों की राजनीति’ के युग से गुजर रही है। इसलिये भी यह समस्या उग्र से उग्रतर होती जा रही है। जिससे समय के साथ दुनिया में हेरोइन, अफीम, गांजा, चरस के अलावा अन्य नशों के साथ कैप्सूल और नशीली दवाइयों का चलन बढ़ने लगा है।
नशीली दवाओं का दुरुपयोग और अवैध तस्करी वैश्विक स्तर पर चिंता का विषय बनी हुई है, जिससे लाखों व्यक्ति, परिवार और समाज प्रभावित हो रहे हैं। इसीलिये यह दिवस एक स्वस्थ और नशीली दवाओं से मुक्त समाज बनाने के लिए साक्ष्य-आधारित नीतियों, सामुदायिक सहभागिता और नुकसान कम करने की रणनीतियों के महत्व पर प्रकाश डालता है। पिछले वर्ष विश्वभर में 15-64 वर्ष की आयु के 300 मिलियन से अधिक लोगों ने नशीले पदार्थों का उपयोग किया है। मादक द्रव्यों के सेवन संबंधी विकार से पीड़ित 8 में से 1 व्यक्ति को उपचार मिल पाता है, जिससे बेहतर स्वास्थ्य सेवा पहुंच की तत्काल आवश्यकता उजागर होती है। वैश्विक नशीली दवाओं का व्यापार प्रतिवर्ष 400 बिलियन डॉलर से अधिक उत्पन्न करता है, जिससे संगठित अपराध, भ्रष्टाचार और हिंसा को बढ़ावा मिलता है। इस बड़े संकट की रोकथाम की आवश्यकता को महसूस करते हुए ही संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 7 दिसंबर, 1987 को संकल्प 42/112 के माध्यम से आधिकारिक तौर पर इस दिवस को स्थापित किया। इसका लक्ष्य नशीली दवाओं से संबंधित समस्याओं से निपटने में वैश्विक सहयोग को मजबूत करना और दंडात्मक उपायों के बजाय सार्वजनिक स्वास्थ्य-आधारित प्रतिक्रियाओं को बढ़ावा देना है। नशीली दवाओं का दुरुपयोग शरीर में लगभग हर प्रणाली को प्रभावित करता है, जिससे गंभीर अल्पकालिक और दीर्घकालिक परिणाम सामने आते हैं। मादक द्रव्यों के सेवन से दीर्घकालिक स्वास्थ्य स्थितियाँ पैदा होती हैं, जिसमें ओपिओइड, मेथ और सिंथेटिक ड्रग्स सबसे ज्यादा मृत्यु दर और दीर्घकालिक अंग क्षति का कारण बनते हैं। इसके अलावा, नशीली दवाओं के दुरुपयोग के मानसिक स्वास्थ्य परिणाम उपयोगकर्ता से परे तक फैल जाते हैं, जिससे अक्सर परिवार टूट जाते हैं, रोजगार छिन जाता है और अपराध दर बढ़ जाती है।
भारत में नशीली दवाओं का दुरुपयोग एक बढ़ता हुआ संकट है, जो भौगोलिक रूप से कमजोर, बढ़ती उपलब्धता और कम उम्र में इसकी शुरुआत से प्रेरित है। यह समस्या सभी आयु समूहों में फैली हुई है, लेकिन युवाओं में यह विशेष रूप से चिंताजनक है, जिसके स्वास्थ्य और सामाजिक परिणाम महत्वपूर्ण हैं। नशा मुक्त भारत अभियान – जागरूकता, शिक्षा और सामुदायिक कार्रवाई वाला एक राष्ट्रीय अभियान है। सीमा नियंत्रण और नारकोटिक्स ब्यूरो (एनसीबी)- बढ़ते नशीली दवाओं एवं नशे उत्पादों की तस्करी से निपटता है। यह नशीली दवाओं की जब्ती और अंतर्राष्ट्रीय सहयोग पर काम करता है। नशे एवं ड्रग्स के धंधे की रोकथाम एवं जन-जागृति के लिये प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भारत में उल्लेखनीय उपक्रम किये हैं, नयी-नयी योजनाओं को लागू किया है। मोदी सरकार नशीली दवाओं के दुरुपयोग के शिकार लोगों के कल्याण, नशामुक्ति एवं नशामुक्त भारत को निर्मित करने के प्रतिबद्ध है।
पाकिस्तान ने भारत में आतंकवाद की ही तरह नशे एवं ड्रग्स को व्यापक स्तर पर फैलाया है, जिसके दुष्परिणाम विशेषतः पंजाब के साथ-साथ समूचे देश को भोगने को विवश होना पड़ रहा है। पंजाब नशे की अंधी गलियों में धंसता जा रहा है, सीमा पार से शुरू किए गए इस छद्म युद्ध की कीमत पंजाब की जनता को चुकानी पड रही है, देर आये दुरस्त आये की भांति लगातार चुनौती बने नशीली दवाओं एवं ड्रग्स के धंधे के खिलाफ आप सरकार ने एक महत्वाकांक्षी युद्ध एवं अभियान शुरू किया है। दरअसल, सबसे बड़ा संकट यह है कि पाकिस्तान, अफगानिस्तान और ईरान में हेरोइन उत्पादन के केंद्र- गोल्डन क्रिसेंट के निकट होने के कारण पंजाब लंबे समय से मादक पदार्थों की तस्करी से जूझ रहा है। पंजाब के 26 प्रतिशत युवा चरस, अफीम तथा कोकीन व हेरोइन जैसे सिंथेटिक ड्रग्स लेने में लिप्त हैं। पंजाब देश में ड्रग्स में सर्वाधिक संलिप्त राज्यों में आता है। यह डाटा गतदिनों गृहमंत्री अमित शाह की उपस्थिति में ‘मादक पदार्थों की तस्करी एवं राष्ट्रीय सुरक्षा’ पर आयोजित क्षेत्रीय सम्मेलन में सामने आया।
पंजाब में नशे की समस्या पर सुप्रीम कोर्ट भी चिन्ता व्यक्त करता रहा है, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी पूर्व में ‘ड्रग्स-फ्री इंडिया’ अभियान चलाने की बात कहकर इस राष्ट्र की सबसे घातक बुराई की ओर जागृति का शंखनाद किया है। देश के युवा अपनी अमूल्य देह में बीमार फेफड़े और जिगर सहित अनेक जानलेवा बीमारियां लिए एक जिन्दा लाश बने जी रहे हैं, पौरुषहीन भीड़ का अंग बन कर। ड्रग्स के सेवन से महिलाएं बांझपन का शिकार हो रही हैं। पुरुषों पर भी इसका प्रभाव पड़ रहा है। नशे के ग्लैमर की चकाचौंध ने जीवन के अस्तित्व पर चिन्ताजनक स्थितियां खड़ी कर दी है। चिकित्सकीय आधार पर देखें तो अफीम, हेरोइन, चरस, कोकीन, तथा स्मैक जैसे मादक पदार्थों से व्यक्ति वास्तव में अपना मानसिक संतुलन खो बैठता है एवं पागल तथा सुप्तावस्था में हो जाता है। मामला सिर्फ स्वास्थ्य से नहीं अपितु अपराध से भी जुड़ा हुआ है। कहा भी गया है कि जीवन अनमोल है। नशे के सेवन से यह अनमोल जीवन समय से पहले ही मौत का शिकार हो जाता है या अपराध की अंधी गलियों में धंसता चला जाता है, पाकिस्तान युवाओं को निस्तेज करके एक नये तरीके के आतंकवाद को अंजाम दे रहा है। संगठित अपराध और मादक पदार्थों की तस्करी के चक्र को तोड़ने के लिए समन्वित दीर्घकालिक कार्रवाई की आवश्यकता है। जरूरत है दुनिया की इस बड़े संकट एवं नासूर बनती इस समस्या को जड़मूल से समाप्त करने के लिये सरकारों के साथ गैर-सरकारी संगठन कमर कसे।

अमेरिकी वर्चस्ववाद के शिकार डोनाल्ड ट्रंप

संदर्भः इजरायल-ईरान युद्ध और परमाणु टकराव

प्रमोद भार्गव

     इजरायल के कंधे पर बंदूक रखकर डोनाल्ड ट्रंप अमेरिकी वर्चस्ववाद की महिमा को स्थापित करने में लगे हैं। उनका यही बर्ताव पहली बार राष्ट्रपति बनने के बाद ईरान के परिप्रेक्ष्य में रहा था। परमाणु शक्ति संपन्न पश्चिमी देशों को आशंका है कि ईरान परमाणु बम बना लेने के निकट है। यही आशंका इजरायल की है। हालांकि अभी तक इजरायल घोषित रूप में परमाणु शक्ति संपन्न देश नहीं है, लेकिन अमेरिका और अन्य पश्चिमी देशों का उसके सिर पर वरदहस्त है। अतएव इजरायल अपनी संपूर्ण शक्ति से ईरान पर हमला कर रहा है। ऐसी भी जानकारी आ रही है कि की उसने ईरान के परमाणु केंद्र नतांज पर भी हमला बोल दिया है। कई ईरानी वैज्ञानिक भी हताहत हो चुके हैं। ट्रंप धमकी के लहजे में कह रहे हैं कि हम इस जंग का समापन ‘असली अंत‘ के रूप में देखना चाहते हैं, जो केवल संघर्ष विराम में नहीं है। यह असली अंत ईरान को परमाणु समझौते के लिए बाध्य करने के साथ परमाणु कार्यक्रम को पूरी तरह खत्म करने में निहित लग रहा है। या फिर ईरान के 86 वर्शीय सर्वोच्च नेता अयातुल्ला अली खामेनेई को सत्ता के षीर्श पद से पदच्युत कर उन्हीं के वंष के किसी व्यक्ति को नेता बनाना है। इसी परिप्रेक्ष्य में यूएस ने दो लड़ाकू जहाज ईरान के निकट भेज दिए हैं। यूके ने भी इजरायल की मदद के लिए लड़ाकू विमान तैनात किए हैं। फ्रांस भी ईरान की मदद करने को तत्पर है। साफ है, ईरान के अस्तित्व पर चहुंओर से खतरा मंडरा रहा है।

     ट्रंप 2018 में उस ऐतिहासिक परमाणु समझौते से अलग हो गए थे, जिसे बराक ओबामा ने अंजाम तक पहुंचाया था। हालांकि यह संभावना टं्रप के राश्ट्रपति बनने के बाद से ही बन गई थी। ट्रंप ने चुनाव प्रचार के दौरान इस समझौते का खूब मखौल भी उड़ाया था। ट्रंप को हमेशा यह संदेह बना रहा है कि ईरान समझौते की शर्तों का उल्लंघन कर रहा है। यह आशंका इसलिए पुख्ता दिखाई दे रही थी, क्योंकि ईरान लगातार गैर परमाणु बैलिस्टिक मिसाइलों का परीक्षण कर रहा था। वर्तमान के युद्ध में ईरान इन्हीं मिसाइलों से इजरायल की राजधानी तेल अवीव और अन्य नगरों में भीषण हमले कर रहा है, इससे इजरायल को भारी नुकसान हुआ है। उस समय ओबामा ने ट्रंप के निर्णय को बड़ी भूल बताया था। दरअसल ओबामा को भरोसा था कि समझौते के बाद ईरान ने अपने परमाणु कार्यक्रम में कटौती की थी, लेकिन ट्रंप अंध-राश्ट्रवाद और अमेरिकी वर्चस्व को लेकर इतने पूर्वाग्रही हैं कि उन्हें न तो अमेरिकी विदेष नीति की फिक्र है और न ही विष्व षांति के प्रति उनकी कोई प्रतिबद्धता दिखाई देती है। इसीलिए यह आषंका जताई जा रही है कि ईरान ट्रंप के दबाव में नहीं आता है तो विष्व षक्तियों के संतुलन बिगड़ सकता है ?

     ईरान पर लगे प्रतिबंध हटने के साथ ही विष्वस्तरीय कूटनीति में नए दौर की ष्ुरूआत होने लगी थी। ईरान, अमेरिका, यूरोपीय संघ और छह बड़ी परमाणु षक्तियों के बीच हुए समझौते ने एक नया अध्याय खोला था। इसे ‘संयुक्त व्यापक कार्रवाई योजना‘ नाम दिया गया था। इसकी षर्तों के पालन में ईरान ने अपना विवादित परमाणु कार्यक्रम बंद करने की घोशणा की थी। बदले में इन देषों ने ईरान पर लगाए गए व्यावसायिक प्रतिबंध हटाने का विष्वास जताया था। प्रतिबंधों के बाद से ईरान अलग-थलग पड़ गया था। इसी दौर में ईरान और इराक के बीच युद्ध भी चला,जिससे वह बर्बाद होता चला गया। यही वह दौर रहा जब ईरान में कट्टरपंथी नेतृत्व में उभार आया और उसने परमाणु हथियार निर्माण की मुहिम षुरू कर दी थी। हालांकि ईरान इस मुहिम को असैन्य ऊर्जा व स्वास्थ्य जरूरतों की पूर्ति के लिए जरूरी बताता रहा था, लेकिन उस पर विश्वास नहीं किया गया। प्रतिबंध लगाने वाले राश्ट्रों के पर्यवेक्षक समय-समय पर ईरान के परमाणु कार्यक्रम का निरीक्षण करते रहे थे, लेकिन उन्हें वहां संदिग्ध स्थिति का कभी सामना नहीं करना पड़ा। अंत में आषंकाओं से भरे इस अध्याय का पटाक्षेप तब हुआ जब अंतरराश्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी ने निगरानी के बाद यह कहा कि ईरान ऐसे किसी परमाणु कार्यक्रम का विकास नहीं कर रहा है,जिससे दुनिया का विनाष संभव हो। ओबामा ने इस समझौते में अहम् भूमिका निभाई थी। किंतु ट्रंप को पहली बार राष्ट्रपति बनने के बाद लगा कि  इस समझौते में अमेरिका कुछ ज्यादा झुका है। बावजूद उसके कोई हित नहीं सध रहे हैं। ट्रंप की मंशा थी कि ईरान प्रतिबंधों से पूरी तरह बर्बाद हो जाए और अमेरिका के आगे घुटने टेक दे। लेकिन ऐसे परिणाम नहीं निकले। पश्चिमी एषियाई की राजनीति में ईरान की तात्कालिक हसन रूहानी सरकार का वर्चस्व कायम रहा। उसने रूस, चीन और भारत के साथ मजबूत द्विपक्षीय संबंध बनाए, जो ट्रंप को कभी रास नहीं आए। ट्रंप की वजह से ही कोरिया प्रायद्वीप में अमेरिका की जगहंसाई हुई।दरअसल अमेरिका अपनी षक्ति की नींव पर ही कोई संधि करने का आदि रहा है। साफ है कि अमेरिका ईरान से करार तोड़कर ऐसे प्रतिबंधों की मंषा पाले था कि ईरान उसकी ताकत के आगे नतमस्तक तो हो ही और यदि भविश्य में समझौता हो तो पूरी तरह एकपक्षीय हो।यह निर्णय इस्लाम और ईसाईयत में टकराव का कारण भी बन सकता है।

     इस समझौते की प्रमुख शर्ते थी कि अब ईरान 300 किलोग्राम से ज्यादा यूरेनियम अपने पास नहीं रख सकेगा। ईरान अपनी परमाणु सेन्ट्रीफ्यूज प्रयोगशालाओं में दो तिहाई यूरेनियम का 3.67 फीसदी भाग ही रख सकेगा। यह षर्त इसलिए लगाई गई थी, जिससे ईरान परमाणु बम नहीं बना पाए। दरअसल यूरेनियम की प्राकृतिक अवस्था में 20 से 27 प्रतिशत ऐसे बदलाव करने होते हैं, जो यूरेनियम को खतरनाक परमाणु हथियार में तब्दील कर देते हैं। ईरान ने यूरेनियम में परिवर्तन की यह तकनीक बहुत पहले हासिल कर ली थी। इस षंका के चलते उसे न्यूनतम मात्रा में यूरेनियम रखने की अनुमति समझौते में दी गई थी, जिससे वह आसानी से परमाणु बम नहीं बना पाए। सबसे अहम् षर्तों में अंतरराश्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी के निरीक्षकों को परमाणु सेन्ट्रीफ्यूजन के भंडार, यूरेनियम खनन एवं उत्पादन की निगरानी का  भी अधिकार दे दिया गया था। यह षर्त तोड़ने पर ईरान पर 65 दिनों के भीतर फिर से प्रतिबंध लगाने की षर्त भी प्रारूप में दर्ज की गई थी। ईरान को उसे मिसाइल खरीदने की भी छूट नहीं दी गई थी। ईरान के सैन्य ठिकाने भी संयुक्त राष्ट्र की निगरानी में थे। साफ है ईरान ने आर्थिक बदहाली के चलते इन षर्तों को मानने को बाध्य हुआ था। प्रतिबंध की षर्तों से मुक्त होने के बाद ईरान तेल और गैस बेचने लग गया था। भारत ने भी ईरान से बड़ी मात्रा में कच्चा तेल खरीदना षुरू कर दिया था। भारत के लिए ईरान से तेल खरीदना इसलिए लाभदायी रहता है, क्योंकि भारत के तेल षोधक संयंत्र ईरान से आयातित कच्चे तेल को परिषोघित करने के लिहाज से ही तैयार किए गए हैं। गोया, ईरान के तेल की गुणवत्ता श्रेश्ठ नहीं होने के बावजूद भारत के लिए यह लाभदायी रहता है। भारत ईरान से रुपए में तेल खरीदता है, इसलिए यह तेल डॉलर या पौंड में खरीदे जाने की तुलना में सस्ता पड़ता है। 

     ईरानी विदेष मंत्रालय के प्रवक्ता इस्माइल बाघेई ने कहा है कि इजरायल ईरान पर जब तक परमाणु हमले बंद नहीं करता है तब तक परमाणु वार्ता स्थगित रहेगी। क्योंकि ऐसी परिस्थितियों में उस पक्ष से बातचीत व्यर्थ है, जो आक्रमणकारी का सबसे बड़ा समर्थक है। दूसरी तरफ ईरान ने धमकी दी है कि अगर अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, इजरायल को मदद करते हैं तो वह इन देषों के हितों को नुकसान पहुंचाएगा। दरअसल अमेरिका के पष्चिम एषिया क्षेत्र के ईराक में विषेश बलों के बड़े षिविरों के अड्डे हैं। खाड़ी में अनेक सैन्य अड्डे हैं। ईरान के समर्थक सषक्त आतंकी गुट हमास और हिजबुल्ला भले ही कमजोर हो गए हों, लेकिन ईराक में इनके समर्थक मिलिषिया अभी भी मजबत है। अमेरिका को ऐसी आषंका पूर्व में ही हो गई थी, इसलिए उसने अनेक सुरक्षाबलों को वापिस बुला लिया है। बहरहाल मध्यपूर्व में बढ़ता यह तनाव कहां पहुंचेगा फिलहाल कुछ निष्चित नहीं कहा जा सकता है। क्योंकि जो अमेरिका खुद के वर्चस्व के लिए युद्ध की जमीन को रक्त से सींच रहा है, अमेरिका बड़बोले ट्रंप के राश्ट्रपति बनने के बाद न तो रूस और यूक्रेन के युद्ध को रोक सका है और न ही इजरायल और फिलिपींस के बीच युद्ध विराम कर पाया है। लिहाजा ट्रंप का यह अहंकार अस्थिर होती दुनिया में वैष्विक संघर्श को बढ़ावा देने का काम कर रहा है।   

प्रमोद भार्गव

कॉलर ट्यून या कलेजे पर हथौड़ा: हर बार अमिताभ क्यों?

 प्रियंका सौरभ

सरकार को समझना चाहिए कि चेतावनी सिर्फ चेतना के लिए होती है, प्रताड़ना के लिए नहीं। एक बार, दो बार, चलिए तीन बार — पर हर कॉल पर वही ट्यून, वही स्क्रिप्ट, वही अंदाज़ — यह सिर्फ संचार व्यवस्था को बोझिल नहीं बना रही, बल्कि जनता का भरोसा भी खो रही है। आखिर हम कब तक तकनीक के इस बोझ को झेलती रहेंगी?

भाई साहब, बात एकदम सीधी और साफ है — मैं भी अमिताभ बच्चन की कला की उतनी ही बड़ी प्रशंसक हूँ जितना कोई और। कौन नहीं है? वे अभिनय के सम्राट हैं, आवाज़ में गरज है, आंखों में भाषा है, और संवाद अदायगी ऐसी कि शब्दों को भी पसीना आ जाए। लेकिन अब वक्त आ गया है कि हम भावुकता और वास्तविकता को अलग-अलग करके देखें। एक तरफ हम उस कलाकार का सम्मान करते हैं, तो दूसरी तरफ आज आम जनता जिस मानसिक थकावट और व्यवहारिक समस्या से जूझ रही है, उस पर सवाल उठाना भी जरूरी है। जी हाँ, मैं बात कर रही हूँ उस चेतावनी भरी कॉलर ट्यून की, जो अमिताभ बच्चन की आवाज़ में साल भर से हर मोबाइल कॉल पर हमारे कानों में हथौड़ा मार रही है।

अब सोचिए, जब भी आप किसी को कॉल करते हैं, आपको पहले 30 सेकंड तक अमिताभ बच्चन की कर्कश, बूमिंग आवाज़ में एक रटा-रटाया साइबर ठगी से बचने का उपदेश सुनना पड़ता है। न मर्जी पूछी जाती है, न विकल्प दिया जाता है। आप चाहे दिन में पहली बार कॉल कर रहे हों या पचासवीं बार, वही चेतावनी… वही लय, वही थर्राती चेतावनी। लोगों का तो यहाँ तक कहना है कि ये कॉलर ट्यून अब जनता का मानसिक उत्पीड़न बन चुकी है। दिमाग की नसों में जो कंपकंपी फैलती है, उसे विज्ञान वाले ‘वाइब्रेशन’ कहें, पर आम जनता इसे ‘तंग आना’ कहती है। किसी से एक ज़रूरी बात करनी हो, और सामने से आवाज़ आती है — “आपका कॉल साइबर अपराध से सुरक्षा हेतु रोका गया है…” — आदमी खुद को अपराधी न मान बैठे, तो क्या करे?

अब मुद्दे की बात ये है कि आखिर ये कॉलर ट्यून क्यों अभी भी जारी है? यह कोई नया अभियान नहीं है। यह चेतावनी करीब एक साल से हर मोबाइल उपभोक्ता तक रोज़ाना, बार-बार पहुंचाई जा रही है। क्या इस देश में अब भी कोई ऐसा कोना बचा है जहाँ यह संदेश नहीं पहुंचा? क्या सचमुच सरकार को लगता है कि आम जनता इतनी जड़ है कि 365 दिन में भी वह यह नहीं समझ पाई कि उसे OTP किसी को नहीं बताना चाहिए? क्या सरकार ने कभी यह अध्ययन किया कि इस कॉलर ट्यून के शुरू होने के बाद साइबर ठगी के मामलों में कोई गिरावट आई भी है या नहीं?

सच तो यह है कि अगर इस चेतावनी से कोई फर्क पड़ता, तो अब तक तो साइबर अपराधी बोरिया-बिस्तर समेटकर दुबई या नाइजीरिया भाग चुके होते। लेकिन सच्चाई यह है कि ठगी भी वैसी की वैसी है, और जनता की झल्लाहट भी। क्योंकि असली समाधान यह नहीं है कि हर बार कान में चिल्ला-चिल्ला कर डराया जाए, बल्कि यह है कि तंत्र को मज़बूत किया जाए, डिजिटल साक्षरता बढ़ाई जाए, और साइबर अपराधियों पर त्वरित कार्यवाही हो।

लेकिन इस देश में समस्या का समाधान जनता पर मानसिक बोझ डालकर ढूंढा जाता है। कहने को यह ट्यून सिर्फ 30 सेकंड की है, लेकिन इसका असर कई गुना बड़ा है। किसी को दिल का दौरा पड़ गया, दुर्घटना हो गई, कोई बच्चा जलते हुए कमरे में फंसा है — और आपको मदद के लिए कॉल करनी है। लेकिन कॉल से पहले 30 सेकंड तक आपको ‘सावधान! OTP किसी को न दें!’ सुनना पड़ेगा। सोचिए, ऐसे में क्या बीतती होगी? उस कॉल का हर सेकेंड कीमती है, लेकिन हम सिस्टम से उम्मीद नहीं कर सकते कि वह आम इंसान की जान को प्राथमिकता देगा।

एक बार एक हादसा हुआ था — अहमदाबाद में एक अस्पताल में आग लग गई। चंद सेकेंडों में 300 जानें चली गईं। अब कल्पना कीजिए, यदि वहाँ से किसी ने बचाव के लिए फोन किया हो, और उससे पहले कॉलर ट्यून चल गई हो — क्या वह 30 सेकंड उस वक्त ज़्यादा ज़रूरी थे, या इंसानी ज़िंदगी?

और अब तो यह स्थिति और खतरनाक हो गई है। मान लीजिए किसी लड़की का अपहरण हो जाए, और किसी तरह उसे मौका मिले फोन करने का — तो पहले उसे विज्ञापन सुनना पड़ेगा। क्या हम यकीन के साथ कह सकते हैं कि तब तक कोई अनहोनी नहीं होगी? आपातकाल में एक-एक सेकेंड जिंदगी और मौत के बीच की रेखा बन जाता है, और हमारा सिस्टम उसमें ‘सावधानी हटी, दुर्घटना घटी’ की लोरी सुनाता है।

लोग अब सोशल मीडिया पर इस ट्यून के खिलाफ मोर्चा खोलने लगे हैं। कहा जा रहा है कि इस ट्यून को दिन की पहली कॉल तक सीमित कर दिया जाए, या उपभोक्ता को विकल्प मिले कि वह इसे बंद कर सके। लेकिन जैसे किसी सरकारी दफ्तर में फाइल दबा दी जाती है, वैसे ही जनता की ये आवाज़ भी अनसुनी रह जाती है। टेलीकॉम कंपनियाँ तो मानो अपना पल्ला झाड़ चुकी हैं — उनकी तरफ से कोई जवाब नहीं आता।

सबसे बड़ी विडंबना यह है कि इस पूरी समस्या का विरोध करते ही कुछ लोग तुरंत आहत हो जाते हैं। “अरे! यह तो अमिताभ बच्चन की आवाज़ है! उनका अपमान कैसे कर सकते हो?” तो भाइयों और बहनों, कृपया समझिए — यहाँ कोई बच्चन साहब के खिलाफ नहीं है। उनकी कला के प्रति पूरा देश श्रद्धा रखता है। पर आवाज़ की जगह और समय भी कोई चीज होती है। यह ठीक वैसा ही है जैसे कोई किसी की मृत्युशैया पर बैठा हो, और आप उसके कान में ‘खुश रहो अहले वतन’ की देशभक्ति ट्यून बजा दें। भावना की कोई जगह होनी चाहिए।

यह आवाज़, जो कभी हमारी जागरूकता का प्रतीक थी, अब धीरे-धीरे एक मानसिक शोर में बदलती जा रही है। यह सरकारी प्रणाली की असंवेदनशीलता का प्रमाण बनती जा रही है, जो जनता की थकान को नहीं, केवल अपनी औपचारिकता को देखती है। कहीं ऐसा न हो कि कल को हम किसी गंभीर परिस्थिति में फोन करने से डरने लगें कि पहले 30 सेकेंड तक वही चिल्लाती आवाज़ झेलनी पड़ेगी। लोग अब कॉल करने से पहले सोचते हैं — “अरे यार! फिर वही ट्यून सुननी पड़ेगी।”

सरकार को समझना चाहिए कि चेतावनी सिर्फ चेतना के लिए होती है, प्रताड़ना के लिए नहीं। एक बार, दो बार, चलिए तीन बार — पर हर कॉल पर वही ट्यून, वही स्क्रिप्ट, वही अंदाज़ — यह सिर्फ संचार व्यवस्था को बोझिल नहीं बना रही, बल्कि जनता का भरोसा भी खो रही है। आखिर हम कब तक तकनीक के इस बोझ को झेलती रहेंगी?

यदि आप भी इस समस्या की भुक्तभोगी हैं, तो अब वक्त आ गया है कि एक आवाज़ बनें। सोशल मीडिया पर लिखिए, जनप्रतिनिधियों को टैग कीजिए, याचिका शुरू कीजिए। मैं अमिताभ बच्चन से शिकायत नहीं कर रही, मैं सरकार से सवाल कर रही हूँ। क्योंकि जीवन की अंतिम सांसों पर यदि कोई आवाज़ सबसे पहले पहुँचे — तो वह किसी अपने की होनी चाहिए, न कि एक रिकॉर्डेड चेतावनी।

याद रखिए, चेतावनी से ज़्यादा जरूरी है चेतना। अब फैसला आपको करना है — आप कब तक फोन कॉल की हर शुरुआत को सरकारी भाषण से बर्बाद होने देंगी? या आप अपनी आवाज़ मिलाकर इस सिस्टम को सुधारने की कोशिश करेंगी?

भारत आध्यात्म एवं युवाओं के बल पर प्रतिव्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद में अतुलनीय वृद्धि कर सकता है

जापान की अर्थव्यवस्था को पीछे छोड़ते हुए भारत आज विश्व की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया है और संभवत आगामी लगभग दो वर्षों के अंदर जर्मनी की अर्थव्यवस्था से आगे निकलकर विश्व की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाएगा। विश्व की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं की अपनी अपनी विशेषताएं हैं, जिसके  आधार पर यह अर्थव्यवस्थाएं विश्व में उच्च स्थान पर पहुंची हैं एवं इस स्थान पर बनी हुई हैं। प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद के मामले में आज भी कई विकसित देश भारत से आगे हैं। इन समस्त देशों के बीच चूंकि भारत की आबादी सबसे अधिक अर्थात 140 करोड़ नागरिकों से अधिक है, इसलिए भारत में प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद बहुत कम है। अमेरिका के सकल घरेलू उत्पाद का आकार 30.51 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर है और प्रति ब्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद 89,110 अमेरिकी डॉलर हैं। इसी प्रकार, चीन के सकल घरेलू उत्पाद का आकार 19.23 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर है और प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद 13,690 अमेरिकी डॉलर है और जर्मनी के सकल घरेलू उत्पाद का आकार 4.74 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर है और प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद 55,910 अमेरिकी डॉलर है। यह तीनों देश सकल घरेलू उत्पाद के आकार के मामले में आज भारत से आगे हैं। भारत के सकल घरेलू उत्पाद का आकार 4.19 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर है तथा प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद केवल 2,880 अमेरिकी डॉलर है। भारत के पीछे आने वाले देशों में हालांकि सकल घरेलू उत्पाद का आकार कम जरूर है परंतु प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद के मामले में यह देश भारत से बहुत आगे हैं। जैसे जापान के सकल घरेलू उत्पाद का आकार 4.18 लाख करोड़ है और प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद 33,960 अमेरिकी डॉलर है। ब्रिटेन के सकल घरेलू उत्पाद का आकार 3.84 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर और प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद 54,950 अमेरिकी डॉलर है। फ्रान्स के सकल घरेलू उत्पाद का आकार 3.21 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर है और प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद 46,390 अमेरिकी डॉलर है। इटली के सकल घरेलू उत्पाद का आकार 2.42 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर है और प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद 41,090 अमेरिकी डॉलर है। कनाडा के सकल घरेलू उत्पाद का आकार 2.23 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर है और प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद 53,560 अमेरिकी डॉलर है। ब्राजील के सकल घरेलू उत्पाद का आकार 2.13 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर और प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद 9,960 अमेरिकी डॉलर है। 

सकल घरेलू उत्पाद के आकार के मामले में विश्व की सबसे बड़ी 10 अर्थव्यवस्थाओं में भारत शामिल होकर चौथे स्थान पहुंच जरूर गया है परंतु प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद के मामले में भारत इन सभी अर्थव्यवस्थाओं से अभी भी बहुत पीछे है। इस सबके पीछे सबसे बड़े कारणों में शामिल है भारत द्वारा वर्ष 1947 में राजनैतिक स्वतंत्रता प्राप्ति पश्चात, आर्थिक विकास की दौड़ में बहुत अधिक देर के बाद शामिल होना। भारत में आर्थिक सुधार कार्यक्रमों की शुरुआत वर्ष 1991 में प्रारम्भ जरूर हुई परंतु इसमें इस क्षेत्र में तेजी से कार्य वर्ष 2014 के बाद ही प्रारम्भ हो सका है। इसके बाद, पिछले 11 वर्षों में परिणाम हमारे सामने हैं और भारत विश्व की 11वीं अर्थव्यवस्था से छलांग लगते हुए आज 4थी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया है। दूसरे, इन देशों की तुलना में भारत की जनसंख्या का बहुत अधिक होना, जिसके चलते सकल घरेलू उत्पाद का आकार तो लगातार बढ़ रहा है परंतु प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद अभी भी अत्यधिक दबाव में है। अमेरिका में तो आर्थिक क्षेत्र में सुधार कार्यक्रम 1940 में ही प्रारम्भ हो गए थे एवं चीन में वर्ष 1960 से प्रारम्भ हुए। अतः भारत इस मामले में विश्व के विकसित देशों से बहुत अधिक पिछड़ गया है। परंतु, अब भारत में गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वाले नागरिकों की संख्या में तेजी से कमी हो रही है तथा साथ ही अतिधनाडय एवं मध्यमवर्गीय परिवारों की संख्या बहुत तेजी से बढ़ रही है, जिससे अब उम्मीद की जानी चाहिए कि आगे आने वाली समय में भारत में भी प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद में तेज गति से वृद्धि होगी।   

विश्व की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था, अमेरिका में सेवा क्षेत्र इसकी सबसे बढ़ी ताकत है। अमेरिका में केवल 2 प्रतिशत आबादी ही कृषि क्षेत्र पर निर्भर है और अमेरिका की अधिकतम आबादी उच्च तकनीकी का उपयोग करती है जिसके कारण अमेरिका में उत्पादकता अपने उच्चत्तम स्तर पर है। पेट्रोलीयम पदार्थों एवं रक्षा उत्पादों के निर्यात के मामले में अमेरिका आज पूरे विश्व में प्रथम स्थान पर है। वर्ष 2024 में अमेरिका ने 2.08 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर मूल्य के बराबर का सामान अन्य देशों को निर्यात किया है, जो चीन के बाद विश्व के दूसरे स्थान पर है। तकनीकी वर्चस्व, बौद्धिक सम्पदा एवं प्रौद्योगिकी नवाचार ने अमेरिका को विकास के मामले में बहुत आगे पहुंचा दिया है। टेक्निकल नवाचार से जुड़ी विश्व की पांच शीर्ष कम्पनियों में से चार, यथा एप्पल, एनवीडिया, माक्रोसोफ्ट एवं अल्फाबेट, अमेरिका की कम्पनियां हैं। इन कम्पनियों का संयुक्त बाजार मूल्य 12 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर से भी अधिक है, जो विश्व के कई देशों के सकल घरेलू उत्पाद से बहुत अधिक है। अतः अमेरिका के नागरिकों ने बहुत तेजी से धन सम्पदा का संग्रहण किया है इसी के चलते प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद अमेरिका में बहुत अधिक है। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद वर्ष 1944 में अमेरिका के ब्रेटन वुड्ज नामक स्थान पर हुई एतिहासिक बैठक में विश्व के 44 देशों ने वैश्विक वित्तीय व्यवस्था के नए ढांचे पर सहमति जताते हुए अपने देश की मुद्रा को अमेरिकी डॉलर से जोड़ दिया था। इसके बाद से वैश्विक अर्थव्यवस्था में अमेरिकी डॉलर का दबदबा बना हुआ है। आज विश्व का लगभग 80 प्रतिशत अंतरराष्ट्रीय बैंकिंग लेन देन अमेरिकी डॉलर में होता है।

अमेरिका के बाद विश्व की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था चीन को पूरे विश्व का विनिर्माण केंद्र कहा जाता है क्योंकि आज पूरे विश्व के औद्योगिक उत्पादन का 31 प्रतिशत हिस्सा चीन में निर्मित होता है। चीन में पूरे विश्व की लगभग समस्त कम्पनियों ने अपनी विनिर्माण इकाईयां स्थापित की हुई हैं। चीन के सकल घरेलू उत्पाद में विनिर्माण इकाईयों का योगदान 27 प्रतिशत से अधिक हैं। पूरे विश्व में आज उत्पादों के निर्यात के मामले में प्रथम स्थान पर है। विभिन्न उत्पादों का निर्यात चीन की आर्थिक शक्ति का प्रमुख आधार है। सस्ती  श्रम लागत के चलते चीन में उत्पादित वस्तुओं की कुल लागत तुलनात्मक रूप से बहुत कम होती है। वर्ष 2024 में चीन का कुल निर्यात 3.57 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर से अधिक का रहा है। 

विश्व की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था अर्थात जर्मनी ने पिछले एक वर्ष में 25,000 पेटेंट अर्जित किए हैं। जर्मनी को, ऑटोमोबाइल उद्योग ने, पूरे विश्व में एक नई पहचान दी है। चार पहिया वाहनों के उत्पादन एवं निर्यात के मामले में जर्मनी पूरे विश्व में प्रथम स्थान पर है। जर्मनी में निर्मित चार पहिया वाहनों का 70 प्रतिशत हिस्सा निर्यात होता है। यूरोपीय यूनियन के देशों की सड़कों पर दौड़ने वाली हर तीसरी कार जर्मनी में निर्मित होती है। जर्मनी विश्व का तीसरा सबसे बड़ा निर्यातक देश है, जिसने 2024 में 1.66 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर मूल्य के बराबर राशि के उत्पाद एवं सेवाओं का निर्यात किया था। मुख्य निर्यात वस्तुओं में मोटर वाहनों के अलावा मशीनरी, रसायन और इलेक्ट्रिक उत्पाद शामिल हैं।

आज भारत सकल घरेलू उत्पाद के आकार के मामले में विश्व में चौथे पर पहुंच गया है परंतु भारत को प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद के मामले में जबरदस्त सुधार करने की आवश्यकता है। भारत पूरे विश्व में आध्यात्म के मामले में सबसे आगे है अतः भारत को धार्मिक पर्यटन को सबसे तेज गति से आगे बढ़ाते हुए युवाओं के लिए रोजगार के नए अवसर निर्मित करने चाहिए जिससे नागरिकों की आय में वृद्धि करना आसान हो। दूसरे, भारत में 80 करोड़ आबादी का युवा (35 वर्ष से कम आयु) होना भी विकास के इंजिन के रूप में कार्य कर सकता है। भारत की विशाल आबादी ने भारत को विश्व की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनाने में अपना योगदान दिया है। भारत की अर्थव्यवस्था में विविधता झलकती है और यह केवल कुछ क्षेत्रों पर निर्भर नहीं है। भारतीय अर्थव्यवस्था में कृषि क्षेत्र का योगदान 16 प्रतिशत है तथा रोजगार के अधिकतम अवसर भी कृषि क्षेत्र से ही निकलते हैं, जिसके चलते प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद विपरीत रूप से प्रभावित होता है। सेवा क्षेत्र का योगदान 60 प्रतिशत से अधिक है परंतु, विनिर्माण क्षेत्र का योगदान बढ़ाने की आवश्यकता है। वाणिज्य मंत्रालय द्वारा प्रदान की गई जानकारी के अनुसार वित्तीय वर्ष 2024-25 में भारत में 81 अरब अमेरिकी डॉलर से अधिक का प्रत्यक्ष विदेशी निवेश हुआ है अर्थात विदेशी निवेशक भारत में अपनी विनिर्माण इकाईयों की स्थापना करते हुए दिखाई दे रहे हैं। आज विदेशी निवेशकों का भारतीय अर्थव्यवस्था में विश्वास बढ़ा है। आज भारत का विदेशी मुद्रा भंडार भी 694 अरब अमेरिकी डॉलर की आंकड़े को पार कर गया है। आगे आने वाले समय में अब विश्वास किया जा सकता है कि भारत में भी प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद में तेज गति से वृद्धि होती हुई दिखाई देगी। 

प्रहलाद सबनानी 

क्या पुरस्कार अब प्रकाशन-राजनीति का मोहरा बन गए हैं?

 डॉ. सत्यवान सौरभ

“साहित्य समाज का दर्पण होता है।” यह वाक्य हमने न जाने कितनी बार पढ़ा और सुना है। परंतु आज साहित्य के दर्पण पर परतें चढ़ चुकी हैं—राजनीतिक, प्रकाशकीय और प्रतिष्ठान-प्रेरित परतें। प्रश्न यह नहीं है कि कौन किससे छप रहा है। प्रश्न यह है कि क्या हिंदी साहित्य का पुरस्कार अब केवल उन्हीं लेखकों को मिलेगा जो वाणी प्रकाशन या राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित होंगे?

पुरस्कार: साहित्यिक मान्यता या प्रकाशकीय गठजोड़?

एक समय था जब किसी लेखक को पुरस्कार मिलने पर पूरे साहित्यिक समाज में उत्सव जैसा माहौल होता था। आज स्थिति यह है कि जैसे ही किसी लेखक को प्रतिष्ठित पुरस्कार मिलता है, सबसे पहला सवाल यह पूछा जाता है—“कहाँ से छपे हैं?” अगर जवाब वाणी या राजकमल है, तो चर्चा बदल जाती है—“चलो, सेटिंग होगी…!” यह कटाक्ष नहीं, आज के साहित्यिक वातावरण का यथार्थ है। क्योंकि अब पुरस्कार प्रतिभा का नहीं, प्रकाशन और पहुंच का प्रमाण बनते जा रहे हैं।

साहित्यिक ब्रांडिंग का दौर

वाणी और राजकमल जैसे संस्थान निस्संदेह हिंदी के प्रमुख स्तम्भ हैं। उन्होंने उत्कृष्ट लेखकों को छापा है और साहित्य की सेवा की है। लेकिन अब समस्या यह नहीं है कि वे छाप रहे हैं, समस्या यह है कि बाकी किसी को छापना, सुनना और पुरस्कृत करना साहित्यिक प्रतिष्ठानों को “जोखिम” जैसा लगता है।

जिस तरह फिल्मों में केवल बड़े बैनर की फिल्में ही राष्ट्रीय पुरस्कार पाती हैं, उसी तरह अब साहित्य में भी “ब्रांडेड प्रकाशन” ही पुरस्कारों का टिकट बन चुके हैं।

प्रतिभा बनाम पहुँच

हिंदी साहित्य के छोटे लेखक, ग्रामीण पृष्ठभूमि के रचनाकार, स्वतंत्र प्रकाशनों से जुड़ी प्रतिभाएँ — सब धीरे-धीरे इस “पुरस्कार तंत्र” से बाहर हो चुके हैं। उनके पास न तो साहित्यिक लॉबियों से संपर्क हैं, न दिल्ली-मुंबई जैसे केन्द्रों में मौजूदगी, और न ही ब्रांडेड कवर पृष्ठ। तो फिर पुरस्कार किसके हिस्से आएंगे? जवाब स्पष्ट है: उन्हीं के जो पहले से स्थापित हैं, और एक खास प्रकाशकीय घेरे में फिट होते हैं।

पुरस्कार चयन प्रक्रिया की पारदर्शिता पर सवाल

जब पुरस्कारों की चयन समितियों में उन्हीं संस्थानों के प्रतिनिधि बैठें जिनके लेखक पुरस्कार जीतते हैं, तो यह नैतिकता की नहीं, तंत्र की समस्या बन जाती है। क्या कोई लेखक इसलिए श्रेष्ठ है क्योंकि वह किसी प्रसिद्ध प्रकाशन से छपा है? क्या एक गाँव की लड़की की कहानी इसलिए उपेक्षित है क्योंकि वह “स्व-वित्तपोषित” किताब में छपी है? क्या साहित्य केवल महानगरों में लिखा जा रहा है? यह सवाल मात्र भावुकता नहीं, साहित्य के लोकतंत्र की माँग है।

“सेटिंग और गैटिंग” का साहित्यिक संस्करण

अब साहित्यिक पुरस्कार भी वैसी ही ‘लॉबिंग’ का हिस्सा बन चुके हैं जैसे राजनीति या सिनेमा में होता है। कोई वरिष्ठ आलोचक पुरस्कार समिति में बैठता है और उसी साल उसका शिष्य पुरस्कार पाता है। कोई लेखक चर्चित होता है क्योंकि उसके प्रकाशक ने किताब के विमोचन में ‘नामचीन लोगों’ को बुला लिया। समीक्षाएँ छपती हैं—पर लेखन नहीं पढ़ा जाता, सिर्फ “प्रकाशक का नाम” देख लिया जाता है।

स्वतंत्र प्रकाशकों की उपेक्षा: एक अन्यायपूर्ण प्रवृत्ति

हिंदी में आज कई स्वतंत्र, ईमानदार, मेहनती प्रकाशक सक्रिय हैं। वे बिना किसी शोर-शराबे के अच्छे लेखकों को प्रकाशित कर रहे हैं, नए विषय ला रहे हैं, जोखिम ले रहे हैं। लेकिन उन्हें पुरस्कारों की सूची में शायद ही जगह मिले। क्या इसलिए कि उनके पास प्रचार का पैसा नहीं है?

या इसलिए कि वे किसी पुरस्कार समिति के सदस्य के ‘प्रकाशकीय मित्र’ नहीं हैं?

पुरस्कार नहीं, पाठक चाहिए

आज कई लेखक इस पुरस्कार-तंत्र से परेशान होकर कहते हैं—“हमें पुरस्कार नहीं चाहिए, हमें पाठक चाहिए।” यह बदलाव एक क्रांतिकारी सोच है। क्योंकि एक समय ऐसा आएगा जब पाठक पूछेगा—“क्या यह लेखक अच्छा है, या बस पुरस्कार मिला हुआ है?”

क्या राजकमल या वाणी में छपना गुनाह है?

बिलकुल नहीं। वाणी, राजकमल या अन्य बड़े प्रकाशकों से छपना एक उपलब्धि हो सकती है, लेकिन वह एकमात्र रास्ता नहीं होना चाहिए। समस्या तब होती है जब पुरस्कार देने वाले संस्थान यह मान बैठते हैं कि अच्छा साहित्य वहीं छपता है।

इस मानसिकता को बदलना होगा, क्योंकि एक समाज का साहित्य उसकी विविधता, भूगोल, बोली और संघर्षों का समुच्चय होता है — न कि केवल दिल्ली की प्रेस या कॉफी टेबल रीडिंग।

नवलेखकों के लिए क्या संदेश है?

आज का नवलेखक यह देख रहा है कि अगर उसकी किताब किसी “ब्रांडेड” प्रकाशक से नहीं छपी, तो उसके पुरस्कार पाने की संभावना लगभग समाप्त है। यह मानसिक अवसाद और हतोत्साहन की स्थिति है। उसे यह समझाना ज़रूरी है कि —

पुरस्कार अंतिम सत्य नहीं हैं। साहित्य एक दीर्घकालीन संवाद है, जिसमें पाठक का प्रेम, समाज की प्रतिक्रिया और लेखकीय ईमानदारी सबसे महत्वपूर्ण है।

साहित्यिक लोकतंत्र की आवश्यकता

हमें ऐसे मंचों और पुरस्कार संस्थाओं की आवश्यकता है जो छोटे, स्वतंत्र, स्थानीय और डिजिटल प्रकाशकों से छपने वाली पुस्तकों को भी समान अवसर दें। हमें “साहित्यिक समानता” की बात करनी होगी, जहाँ प्रकाशन का नाम नहीं, रचना की संवेदना और सामाजिक प्रासंगिकता मूल्यांकन का आधार हो।

प्रश्न जो रह गए हैं:

क्या साहित्यिक संस्थाएँ पुरस्कार चयन से पहले अंधभक्ति की परत हटा पाएँगी? क्या आलोचक अपने संपर्कों से ऊपर उठकर नए साहित्य को खोजने का साहस दिखाएँगे? क्या हम अपने बच्चों को बताएँगे कि “सच्चा साहित्य पुरस्कारों से नहीं, अनुभवों से उपजता है?”

पुरस्कार नहीं, ईमानदारी चाहिए

पुरस्कार मिलना अच्छा है, लेकिन ईमानदारी से लेखन करना उससे कहीं ज़्यादा बड़ा पुरस्कार है। वह पुरस्कार जो आत्मा देती है, पाठक देते हैं, और समय देता है। साहित्य वह नहीं जो पुरस्कार पाता है, साहित्य वह है जो मनुष्य को भीतर से झकझोर दे — चाहे वह किसी भी प्रकाशक से छपा हो।

तो अगली बार जब कोई आपसे पूछे – “कहाँ से छपे हो?”,

तो जवाब हो — “जहाँ मेरी आत्मा ने कलम चलाई और पाठकों ने उसे पढ़ा।”

डॉ. सत्यवान सौरभ

गरम होता एशिया: समंदर से पहाड़ तक जलवायु संकट की मार, लेकिन चेतावनी और तैयारी ने बचाई जानें

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साल 2024 का साल एशिया के लिए सिर्फ गर्म नहीं था, ये एक जलवायु चेतावनी की घंटी जैसा था—कभी धधकते शहर, कभी पिघलते ग्लेशियर, तो कभी डूबते खेत। वर्ल्ड मेट्रोलॉजिकल ऑर्गनाइज़ेशन (WMO) की ताज़ा रिपोर्ट State of the Climate in Asia 2024 बताती है कि एशिया अब पूरी दुनिया से लगभग दोगुनी रफ्तार से गरम हो रहा है, और इसका असर हर किसी की ज़िंदगी पर पड़ रहा है।

तापमान ने तोड़े रिकॉर्ड, एशिया अब ‘हीट ज़ोन’

2024 में एशिया का औसत तापमान 1991–2020 की तुलना में 1.04°C ज़्यादा रहा। चीन, जापान, कोरिया, म्यांमार जैसे देशों में महीनों तक लगातार हीटवेव्स चलीं।
म्यांमार ने 48.2°C का नया रिकॉर्ड बना दिया—इतनी गर्मी कि इंसानी शरीर जवाब देने लगे। अप्रैल से लेकर नवंबर तक कुछ हिस्सों में लगातार गर्मी से राहत नहीं मिली।

समंदर भी कर रहे हैं उबाल

एशिया का पूरा समुद्री इलाका अब तेज़ी से गर्म हो रहा है। WMO की रिपोर्ट कहती है कि समुद्री सतह का तापमान अब हर दशक में 0.24°C बढ़ रहा है—ये ग्लोबल औसत (0.13°C) से लगभग दोगुना है।

2024 में रिकॉर्डतोड़ “मरीन हीटवेव्स” आईं। अगस्त-सितंबर के दौरान, करीब 15 मिलियन वर्ग किलोमीटर समुद्र इस हीटवेव से प्रभावित हुआ—यानी पूरी धरती के महासागरीय क्षेत्र का 10% हिस्सा

इससे मछलियों की ब्रीडिंग, समुद्री जीव-जंतु और तटीय आजीविकाओं पर सीधा असर पड़ा। छोटे द्वीपीय देशों और भारत के तटीय क्षेत्रों के लिए ये एक नया खतरा बन चुका है।

हिमालय से आती है एक और चिंता: पिघलते ग्लेशियर

“तीसरा ध्रुव” कहे जाने वाले हाई माउंटेन एशिया (HMA)—जो तिब्बती पठार और हिमालय क्षेत्र में फैला है—अब तेज़ी से अपनी बर्फ खो रहा है

2023–24 के आंकड़ों में, 24 में से 23 ग्लेशियरों का द्रव्यमान घटा। मध्य हिमालय और तियन शान की चोटियों पर कम बर्फबारी और अत्यधिक गर्मी ने ग्लेशियरों को खोखला बना दिया है।
उरुमची ग्लेशियर नंबर 1, जो 1959 से मॉनिटर किया जा रहा है, उसने अब तक की सबसे बड़ी बर्फीली गिरावट दर्ज की।

ग्लेशियरों के पिघलने से ग्लेशियल लेक आउटबर्स्ट फ्लड्स (GLOFs) और भूस्खलन की घटनाएं बढ़ रही हैं। इसका सीधा असर पानी की सुरक्षा और लाखों लोगों की ज़िंदगी पर पड़ता है जो इन नदियों पर निर्भर हैं।

बारिश और सूखे की दोहरी मार

WMO की रिपोर्ट बताती है कि 2024 में कहीं सूखा तो कहीं भीषण बाढ़ ने ज़िंदगी को उलट-पलट कर दिया:

  • नेपाल: सितंबर में रिकॉर्ड बारिश से आई बाढ़ में 246 लोगों की मौत हुई और 130,000 से ज्यादा लोगों को समय रहते राहत दी गई
  • भारत, केरल: 30 जुलाई को भयानक बारिश (48 घंटे में 500 मिमी से ज्यादा) ने भूस्खलन और 350 से ज्यादा मौतों को जन्म दिया।
  • चीन: सूखे ने 4.8 मिलियन लोगों को प्रभावित किया, 3.35 लाख हेक्टेयर फसल नष्ट हुई, और ₹400 करोड़ से ज्यादा का नुकसान हुआ।
  • UAE: 24 घंटे में 259.5 मिमी बारिश—1949 से अब तक की सबसे ज्यादा—ने मध्य पूर्व की जलवायु स्थिरता पर सवाल खड़े कर दिए।
  • कज़ाकिस्तान और रूस: भारी बर्फ पिघलने और असामान्य बारिश ने 70 साल की सबसे बड़ी बाढ़ लाई, 1.18 लाख लोग बेघर हुए।

लेकिन चेतावनी और तैयारी काम आई

रिपोर्ट का एक अहम हिस्सा नेपाल का केस स्टडी है। जहां समय रहते “early warning systems” और स्थानीय प्रशासन की तैयारी ने जानें बचाईं।
सरकारी एजेंसियों और समुदायों के बीच तालमेल ने 1.3 लाख लोगों को पहले ही अलर्ट कर दिया, जिससे जान-माल का नुकसान सीमित रहा।

संदेश साफ है: जलवायु बदल रही है, तैयारी ही रक्षा है

WMO की महासचिव सेलेस्टे साओलो ने कहा, मौसम अब सिर्फ मौसम नहीं रहा, ये लोगों की आजीविका, अर्थव्यवस्था और सुरक्षा का सवाल बन गया है।”

रिपोर्ट सरकारों के लिए एक सीधा संदेश है:

जलवायु संकट को आंकड़ों से नहीं, तैयारी और नीतियों से जवाब देना होगा।

क्या करें आगे?

  • गांव-शहरों में लोकल वेदर वार्निंग सिस्टम्स को मज़बूत करना होगा
  • जलवायु शिक्षा और तैयारी को स्कूलों से लेकर पंचायतों तक पहुँचाना होगा
  • और सबसे अहम, स्थानीय कहानियों के ज़रिये लोगों को जोड़ना होगा—क्योंकि आंकड़े डराते हैं, लेकिन कहानियां समझाती हैं।

षड्यंत्रों के साये में राष्ट्रीयता का मानक गढ़ने वाले वीतरागी श्यामा प्रसाद मुखर्जी

~कृष्णमुरारी त्रिपाठी अटल

राष्ट्र की एकता-अखण्डता के लिए प्रतिबद्ध अपना सर्वस्व आहुत करने वाले डॉ.श्यामा प्रसाद मुखर्जी ऐसे महान व्यक्तित्व हैं जिनका जीवनवृत्त भारतीय राजनीति में सबसे ज्यादा प्रभावित करने वाला रहा है।6 जुलाई सन् 1901 को कलकत्ता के प्रतिष्ठित परिवार आशुतोष मुखर्जी के घर जन्मे डॉ. मुखर्जी अपने प्रारंभिक जीवन से ही राष्ट्र और समाज के प्रति समर्पित हो गए थे। घर-परिवार के संस्कारों से समृद्ध डॉ मुखर्जी शैक्षणिक और सामाजिक कार्यों के प्रति तत्परता से संलग्न रहने लगे थे। मैट्रिक, स्नातक और कानून की पढ़ाई के बाद वे सन् 1926 में इंग्लैंड से बैरिस्टर की डिग्री प्राप्त कर भारत लौटे। तत्पश्चात वे सन् 1934 में कलकत्ता विश्वविद्यालय के कुलपति बन गए। उनका मात्र 32/33 वर्ष की आयु में कलकत्ता विश्वविद्यालय के कुलपति होने का गौरव प्राप्त करना अपने आप में ऐतिहासिक घटना थी। यदि हम सामान्य दृष्टि से देखें तो क्या एक सम्पन्न एवं प्रतिष्ठित परिवार से होने के कारण श्यामा प्रसाद मुखर्जी जी को स्वयं को संघर्ष में झोंकने की कोई आवश्यकता थी? लेकिन उनसे राष्ट्र और समाज की दुर्दशा नहीं देखी गईं । अतएव उन्होंने स्वेच्छा से राष्ट्र के लिए आहुति बनना स्वीकार किया।

उनके जीवन से संबंधित एक चीज कौतूहल का विषय बनती है। वह यह कि डॉ मुखर्जी स्वातंत्र्य संघर्ष और स्वातंत्र्योत्तर काल के ऐसे शिखर पुरुष थे। जो सरदार पटेल, महात्मा गांधी आदि के बराबर का क़द रखते थे। राष्ट्र और समाज के प्रति समर्पित डॉ मुखर्जी का योगदान सर्वज्ञात ही था। इसके बावजूद भी नेहरू-गांधी परिवार ने अपने सत्ता के कालखण्ड में उन्हें उपेक्षित क्यों किया ? क्या उनका योगदान एक क्रांतिकारी एवं संगठक के रूप में राष्ट्र के लिए अपने आप में अद्वितीय नहीं है? वे मुखर्जी जी जिन्होंने अपने जीवन को निजी स्वार्थ एवं पद-प्रतिष्ठा के मोह से खुद को विरक्त कर दिया।एक भी प्रसंग नहीं है जब राष्ट्र के जमीनी मुद्दों पर लड़ने से वे पीछे हटे हों। बल्कि उन्होंने स्वयं को राष्ट्र के लिए समर्पित कर दिया। राष्ट्र की नस-नस में घुल-मिल गए। राष्ट्रीयता और भारत की अखंडता के संकल्प को अपने कार्यों से साकार किया।

जब सत्ता के गलियारों में कोई सांसद अपनी आवाज भी प्रधानमंत्री पंडित नेहरू के मत खिलाफ नहीं उठा सकते थे। उस समय भी मुखर्जी जी संसद में बेबाकी से धारा-370 के लिए आवाज बुलंद कर रहे थे। एक ऐसे प्रकाण्ड विद्वान शिक्षाविद् और राजनेता थे जिन्होंने देश के पहले उद्योग मंत्री रहते हुए भी सरकार को घेरा। वे सत्य के लिए-राष्ट्र के लिए किंचित मात्र नहीं डिगे। क्या उनमें हम किसी भी प्रकार के साहस की कमी की कल्पना कर सकते हैं?
लेकिन ऐसे व्यक्तित्व को हमेशा मुख्यधारा से काटना क्या भारतीय जनमानस में व्याप्त राष्ट्र-प्रेम का गला काटना नहीं था? नेहरू खानदान की पैरवी करने वाले जरा बताएँ कि मुखर्जी जी तत्कालीन समय में शीर्ष पर बैठने वाले राजनेताओं से किस पैमाने पर पीछे थे? चाहे वह शिक्षा का क्षेत्र रहा हो याकि राष्ट्रसेवा सेवा में तत्परता का भाव रहा हो। याकि स्वतंत्र भारत के लिए नीतियों के स्पष्ट एवं दूरदर्शी रोडमैप के स्वरूप को प्रस्तुत करने की उनकी दृष्टि रही हो। यदि उनका आँकलन किया जाए तो वे किसी भी पैमाने पर कमतर नहीं दिखे। किन्तु-परन्तु उन्हें क्यों पीछे धकेला जाता रहा ?

श्यामा प्रसाद मुखर्जी को नेपथ्य में कोसों ढकेलने का कार्य हुआ। इसकी केवल एक ही वजह दिखती है कि -नीतियों को लेकर पंडित नेहरू से राष्ट्रीय एकता एवं राष्ट्रीय हितों के विषय पर मतांतर रखना।इसके अलावा अन्य कोई कारण स्पष्ट दृष्टव्य नहीं होता है। लेकिन इतिहास आज नहीं तो कल परत दर परत खुलता ही है।चाहे कुछ भी हो इतिहास और समय सभी के चाल-चरित्र एवं कार्यों का निर्धारण स्वमेव करता है।

वे मुखर्जी जी ही थे,जिन्होंने राष्ट्र पर आए संकट को पहले भांपकर उसका हल खोज निकाला था। उन्होंने 1946 में मुस्लिम लीग के धार्मिक उन्माद से प्रेरित बंगाल विभाजन के हिन्दू-सिख नरसंहार की त्रासदी के नापाक इरादों को कामयाब नहीं होने दिया। उस समय उन्होंने हिन्दुओं को सशक्त करने में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी ।यह बात उस समय की थी जब तत्कालीन समय में राजनीतिक हस्तक्षेप करने में सक्षम देश के किसी भी बड़े नेता की इस ओर नजर नहीं जा रही थी कि – “पाकिस्तान के लिए लड़ने वाले लोगों की कुत्सित दृष्टि सम्पूर्ण पंजाब व बंगाल को पाकिस्तान के हिस्से में मिलाने की है, जिसके लिए वे किसी भी सीमा तक गिर सकते हैं तथा मुस्लिम लीग एवं सोहराबर्दी ने बर्बरता की सारी सीमा लाँघ दी थी।”

उस समय मुखर्जी जी ने अपनी कुशल दूरदृष्टि एवं रणनीतिक कौशल का का परिचय दिया। भारत-पाकिस्तान के विभाजन के समय पंजाब एवं बंगाल के आधे-आधे भाग को विभाजित कर शेष भारत के हिस्से में करने का अतुलनीय कार्य किया था।यह एक प्रखर राष्ट्रवादी देशभक्त का संकल्प था जिसके हृदय में अखण्ड भारत का संकल्प आलोड़ित हो रहा था।अपने इसी ध्येय को उन्होंने जीवन पर्यन्त निभाया।

राष्ट्र की एकता-अखण्डता एवं सर्वांगीण विकास के लिए आजीवन संघर्षरत रहने वाले मुखर्जी जी ही थे। उन्होंने देश की सभ्यता, संस्कृति के साथ किसी कदम पर कोई समझौता नहीं किया। बल्कि राष्ट्रीय चेतना के प्रखर उद्घोष के साथ संसद व देश भर में अपनी आवाज बुलंद करते रहे। मुखर्जी जी एक बार जिस निर्णय पर डट गए तो फिर कभी पीछे नहीं हटे। भले ही इसके लिए उन्हें अपने प्राणों की बाजी ही क्यों न लगानी पड़ गई हो।राष्ट्र हित के लिए उनकी अनन्य निष्ठा ही उन्हें विरला बनाती है।जब देश स्वतंत्र हुआ और कैबिनेट का गठन हो रहा था। उस समय डॉ मुखर्जी , सरदार पटेल और महात्मा गांधी के अनुरोध पर ही मंत्रिमंडल में शामिल हुए थे। आगे जब उन्हें नेहरू सरकार में राजनीतिक स्वार्थपरता, पदलिप्सा का जोर दिखा। नेहरू सरदार राष्ट्र की समस्याओं एवं मुख्य उद्देश्यों से भटकती हुई दिखी। ऐसे में उन्होंने मंत्री पद से सहर्ष त्यागपत्र दे दिया।विपक्ष में बैठकर राष्ट्र की आवाज बनना न्यायोचित समझा।

वे भारत में जम्मू-कश्मीर कै सम्पूर्ण विलय एवं धारा-370 की समाप्ति के लिए सम्पूर्ण निष्ठा एवं समर्पण के साथ प्रतिबद्ध थे।वे इस पर नेहरू सरकार के विरुद्ध मुखरता के साथ प्रतिरोध दर्ज करवा रहे थे। राष्ट्र जागरण में जुटे थे।जब पंडित नेहरू के खासमखास शेख अब्दुल्ला ने जम्मू कश्मीर के अलावा शेष भारत के लोगों को जम्मू-कश्मीर में बगैर परमिट प्रवेश करने पर प्रतिबंध लगा दिया था। उस समय श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने अपना आक्रोश व्यक्त करते हुए – “एक देश, दो विधान, दो प्रधान , नहीं चलेंगे” ; ये उद्घघोष कर काश्मीर की ओर 8 मई सन् 1953 को कूच कर दिया।जहाँ उन्हें 10 मई 1953 को जम्मूकश्मीर की सीमा में ही शेख अब्दुल्ला सरकार ने गिरफ्तार करवा लिया।उनकी इस गिरफ्तारी में साजिशों की दुर्गंध आती है। उनकी इस गिरफ्तारी में तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू की भूमिका का पर्दे के पीछे होने से इनकार नहीं किया जा सकता है। क्योंकि नेहरू व शेख अब्दुल्ला अजीज मित्र की तरह ही थे। इसीलिए पंडित नेहरू ने महाराजा हरिसिंह से सत्ता का स्थानांतरण शेख अब्दुल्ला के हाथों करवा दिया था।यानी कश्मीर में पृथकता और अलगाववाद की पूरी व्यवस्था प्रधानमंत्री पंडित नेहरू ने कर दी थी।‌

शेख अब्दुल्ला सत्ता में आए और फिर शुरू हुआ कश्मीरी हिन्दुओं के उत्पीड़न का अंतहीन सिलसिला। अब्दुल्ला सरकार ने 1952 से ही डोगरा समुदाय का उत्पीड़न प्रारंभ कर दिया गया था। इसके विरोध में श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने मुखरता के साथ आवाज़ बुलंद की। उन्होंने बलराज माधोक और डोगरा समुदाय के प्रतिष्ठित पंडित प्रेमनाथ डोगरा के द्वारा गठित ‘प्रजा परिषद पार्टी’ का सदैव समर्थन किया। जम्मू-कश्मीर की मूल भावना और राष्ट्र की एकता और अखंडता के लिए सदैव प्रतिबद्धता व्यक्त की। अगस्त 1952 में ही श्यामा प्रसाद मुखर्जी जी ने जम्मू की विशाल रैली में अपना संकल्प व्यक्त करते हुए कहा था कि – “या तो मैं आपको भारतीय संविधान प्राप्त कराऊँगा या फिर इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये अपना जीवन बलिदान कर दूँगा”

फिर अपने इस संकल्प को पूर्ण करने के लिए उन्हें अपने प्राणों की आहुति देनी पड़ गई।उनकी गिरफ्तारी के बाद जम्मू-कश्मीर भारत का अभिन्न अंग होते हुए भी श्रीनगर के कारावास में उनके लिए सभी प्रकार के प्रतिबंध थे। उनके साथ ऐसा ट्रीटमेंट किया जाता था जैसे कि उन्होंने देशद्रोह किया हो। यह सब प्रधानमंत्री नेहरू और शेख अब्दुल्ला के गठजोड़ के चलते ही संभव हो रहा था। प्रतिबंधों की कड़ाई इतनी कि – मुखर्जी जी लिए आने वाली चिठ्ठियों का अनुवाद करवाकर जाँचा जाता था कि चिठ्ठियों में लिखा क्या है? उसके बाद उनका आदान-प्रदान होता था। इतना ही नहीं उन्हें जेल में किसी से भी मिलने की अनुमति नहीं थी। क्या यह सब पंडित नेहरु के संरक्षण व इच्छा के बिना ही हो रहा था? भारत के किसी हिस्से में एकता की बात करने के लिए जेल में डालना क्या कभी सही ठहराया जा सकता है? क्या इसके पीछे पंडित नेहरू की मौन‌ सहमति नहीं थी?

अगर पंडित नेहरू चाहते तो क्या श्यामा प्रसाद मुखर्जी जी को शेख अब्दुल्ला सरकार से रिहा नहीं करवा सकते थे ? क्या जम्मू-कश्मीर सरकार नेहरू के वर्चस्व से बड़ी थी? किन्तु उस समय राष्ट्र के दैदीप्यमान ज्योतिपुंज को जिस तरह से बुझाने का संयुक्त प्रयास किया जा रहा था।उसके पीछे के सभी षड्यंत्र स्पष्ट दिखलाई दे रहे थे।लेकिन उस समय मुखर्जी जी की प्रताड़ना पर किसी ने कभी भी उफ! तक की आवाज नहीं उठाई। सवाल कई आते हैं कोई कहता है कि हर चीज के लिए नेहरू को ही जिम्मेदार क्यों ठहराया जाता है?सवाल यह भी कि उनकी भूमिका की संलिप्तता को हर चीज में दिखाने का प्रयास किया जाता है। इस पर हम आप तो दूर अब इतिहास की ही तारीखों की ओर ही चलते हैं —

तारीख थी 24 मई 1952.. इस दिन प्रधानमंत्री नेहरू और डॉ.कैलाशनाथ काटजू श्रीनगर में थे। लेकिन उन्होंने शेख अब्दुल्ला सरकार के कारावास में बंद श्यामा प्रसाद मुखर्जी जी का हाल-चाल तक पूछना भी उचित नहीं समझा। क्या यह उनकी भूमिका पर प्रश्नचिन्ह नहीं लगाता है? क्या ये तथ्य मुखर्जी जी की गिरफ्तारी के प्रति पंडित नेहरू की कूटरचित संलिप्तता को नहीं दर्शाता है? क्या पंडित नेहरू को श्यामा प्रसाद मुखर्जी द्वारा धारा-370 का विरोध करना स्वीकार नहीं था? क्या पंडित नेहरू कश्मीर को शेख अब्दुल्ला के हाथों सौंपकर अलगावद को खाद-पानी दे रहे थे?

सत्ता का मोह त्यागने वाले वीतरागी श्यामा प्रसाद मुखर्जी जिन्होंने राष्ट्र हित के लिए मंत्री पद त्याग दिया।विपक्ष में बैठे मुखर और आक्रामक प्रतिकार किया। लेकिन राष्ट्रीय अस्मिता से रत्तीभर भी समझौता नहीं किया।
ऐसे प्रकाण्ड विद्वान,राजनीतिज्ञ व्यक्तित्व को पंडित नेहरू द्वारा उपेक्षित करना-क्या कभी सही ठहराया जा सकता है? मुखर्जी जी के जम्मू-कश्मीर जाने पर उनकी गिरफ्तारी एवं स्थान की जम्मू-काश्मीर की शेख अब्दुल्ला सरकार को पल-पल की ख़ुफ़िया जानकारी देने वाले कौन लोग थे? फिर ‘परमिट सिस्टम’ के षड्यंत्र के अन्तर्गत उन्हें गिरफ्तार करने के साथ-साथ, उनकी गिरफ्तारी का स्थान और कानूनी दाव-पेंचों का चयन करने वाले लोग कौन थे?

जेल में अचानक से मुखर्जी जी का स्वास्थ्य खराब होना तत्पश्चात रहस्यमयी ढंग से उनकी 23 जून 1953 को मृत्यु होना।इसके बाद उनकी संदिग्ध मृत्यु की जाँच को नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की मृत्यु के रहस्य की तरह ही ठण्डे बस्ते में डालना आखिर क्या दर्शाता है? क्या यह श्यामा प्रसाद मुखर्जी जी की षड्यंत्र पूर्वक हत्या नहीं थी? क्या उनका अपराध धारा-370 के खत्म करने की दृढ़ प्रतिज्ञा थी? क्या उनका अपराध राष्ट्रवादी चिंतन और जनसंघ की स्थापना कर नेहरू के लिए चुनौती देने वाला होना था? क्या पंडित नेहरू को श्यामा प्रसाद मुखर्जी जी का भय सता रहा था? इसके चलते उन्होंने षड्यंत्रों को समर्थन दिया? क्या इन‌ सवालों का ज़वाब मिलेगा?‌

वर्तमान में कितने भी सवाल उठाएँ जाए लेकिन सच्चाई यह है कि-इस राष्ट्र ने राजनीतिक षड्यंत्रों में एक ऐसे राष्ट्रीय नेतृत्व के महापुरुष को खोया जिसकी उपस्थिति से राष्ट्र को अप्रत्याशित लाभ होता।अगर उनकी षड्यंत्रों के साये में मृत्यु न होती तो सम्भवतः राष्ट्रीय मुद्दों की दशा और दिशा बहुत पहले ही कुछ और होती। किन्तु यह सब संभव न हो सका। धारा-370 की समाप्ति के लिए जनसंघ और भाजपा ने उनके बलिदान को याद रखा। ‘जहां हुए बलिदान मुखर्जी-वह कश्मीर हमारा है’ — इस नारे के साथ वर्षों तक उनके बलिदान की ज्वाला को वैचारिक चेतना में जगाए रखा। असंख्य आंदोलन और प्रदर्शन किए। अंततोगत्वा नरेंद्र मोदी सरकार ने 5 अगस्त 2019 को धारा-370 को समाप्त करने का ऐतिहासिक कार्य किया।श्यामा प्रसाद मुखर्जी जी को सच्चे अर्थों में श्रृद्धांजलि दी।श्यामा प्रसाद मुखर्जी जैसे श्रेष्ठ राजनीतिज्ञ, चिंतक-विचारक ही भारत के मूल को उद्घाटित करते हैं।‌ राष्ट्रीयता के संस्कारों और व्यवहारों से समृद्ध उनकी वैचारिकी जन-जन के लिए प्रेरणा है। उनका समूचा जीवन त्याग, संघर्ष और बलिदान का प्रतीक है। उन्होंने जिस ‘अखण्ड भारत’ का चित्र अपने हृदय में बसाया-संघर्ष किया और राष्ट्र यज्ञ की आहुति बन गए। उन्हीं भावों और विचारों पर आधारित राजनीति ही भारत को नई दिशा दे सकती है।‌यही भारत का आत्म स्वर है। यही स्व और राष्ट्रीयता का शाश्वत उद्घोष है।‌आवश्यकता है कि उनके इस संदेश को आत्मसात किया जाए— “राष्ट्रीय एकता के धरातल पर ही सुनहरे भविष्य की नींव रखी जा सकती है।”
~ कृष्णमुरारी त्रिपाठी अटल

राष्ट्रीय एकता के महानायक: डॉ श्यामा प्रसाद मुकर्जी

डॉ श्यामा प्रसाद मुकर्जी बलिदान दिवस ,२३ जून

डा. विनोद बब्बर 

भारत वर्ष उस काले दिन को कभी भुला नहीं सकता जब 23 जून, 1953 को अपने ही देश में जाने के लिए परमिट प्रणाली का विरोध करने के लिए महान राष्ट्रभक्त, भारतीय जनसंघ के संस्थापक अध्यक्ष, उत्कृष्ट शिक्षाविद डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी को श्रीनगर जेल में शहीद कर दिया गया। हम भारत की चर्चा करते हुए ‘कश्मीर से कन्याकुमारी तक’ का शब्द चित्र खींचते  है. उसे साकार बनाने वाले डॉ. मुखर्जी ऐसे व्यक्तित्व थे जिन्होंने अपने सम्पूर्ण जीवन को भारत राष्ट्र की सेवा में समर्पित किया। अपने विचारों और कृतित्व से भारत राष्ट्रीय एकता और अखंडता को अक्षुण बनाने वाले माँ भारती के उस महान सपूत ने भारतीय राजनीति में अपनी विशेष पहचान बनाई। देश के विभाजन के समय उन्होंने बंगाल के बहुत बड़े भूभाग को अभारत बनने से बचाया तो पंजाब के बहुत बड़े हिस्से जिसमें गुरदासपुर और आसपास का क्षेत्र भी शामिल है, को उस पार जाने से रोका। इस कल्पना से ही सिहरन पैदा होती है कि यदि यह क्षेत्र पाकिस्तान में शामिल हो जाता तो यहां भी एक चिकन-नेक देश की सुरक्षा के लिए बहुत बड़ा सिर दर्द बन सकता था।


स्वतंत्रता के पश्चात बने मंत्रिमंडल में डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी भी शामिल थे। वे स्वतंत्र भारत के पहले कानून मंत्री बने। 1950 में लागू हुए अपने संविधान के साथ ही तत्कालीन कांग्रेसी सरकार ने देश के संविधान में अनुच्छेद 370 जोड़कर राष्ट्रीय अखंडता को गंभीर नुकसान पहुंचाने का प्रयास किया। डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी जी का जीवन राष्ट्रीय एकता, सांस्कृतिक समर्पण, शिक्षा और विकास के नवीन विचारों का एक अद्भुत संगम था। डॉ. मुखर्जी जी की विद्वता और ज्ञान सम्पदा का लोहा उनके राजनीतिक विरोधी भी मानते थे। जब उन्होंने महसूस किया कि नेहरू जी की नीतियों से राष्ट्र का अहित हो रहा है तो उन्होंने मंत्री पद त्यागकर कांग्रेस के विकल्प के रूप में अक्टूबर 1951 में भारतीय जनसंघ की स्थापना की थी। संसद में अपने ऐतिहासिक भाषण में डॉ मुखर्जी ने विभाजक धारा 370 को समाप्त करने की भी जोरदार वकालत करते हुए कहा था कि ‘राष्ट्रीय एकता की शिला पर ही भविष्य की नींव रखी जा सकती है। देश के राष्ट्रीय जीवन में इन तत्वों को स्थान देकर ही एकता स्थापित करनी चाहिए। एक देश में दो निशान, एक देश में दो प्रधान, एक देश में दो विधान नहीं चलेंगे, नहीं चलेंगें।’


उन्होंने संसद और बाहर इसके खिलाफ लड़ाई लड़ी और 1952 में अपने लोकसभा भाषण में इसे पुरजोर तरीके से उठाया। नेहरू और मुखर्जी के बीच मतभेद और भी गहरे हो गए। डॉ. मुखर्जी ने द्विराष्ट्र सिद्धांत के खिलाफ आवाज उठाई। उनके प्रयासों से हिंदू महासभा और जम्मू प्रजा परिषद ने साथ मिलकर बड़े पैमाने पर सत्याग्रह शुरू किया जिसके परिणामस्वरूप 1953 में उन्हें कश्मीर जाने से रोक दिया गया। वास्तव में प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू की मानसिकता तानाशाही की थी। जनसंघ की स्थापना होने के बाद नेहरू जी ने लोकसभा में डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी को धमकी देते हुए कहा था, ‘आई विल क्रश यू’ (मैं आपको कुचल कर रख दूंगा)। लेकिन दंगों के घमासान के मध्य ढाका के नवाब से उसके घर में अकेले जाकर उत्तर मांगने वाले श्यामा प्रसाद जी ने नेहरू की इस घुड़की से दबने की बजाय करारा जवाब देते हुए कहा था, ‘वी विल क्रश युवर क्रशिंग मेंटालिटी’ (आपकी कुचलने वाली मनोवृत्ति को ही हम कुचल देंगे)।

 इतिहास साक्षी है, डॉ. मुखर्जी का वह कथन साकार हो रहा है। उनकी विचारधारा सशक्त हुई है तो नेहरू जी का दल अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहा है।
जम्मू कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग मानने वाले डॉ. मुखर्जी ने जम्मू की विशाल रैली में संकल्प व्यक्त किया था कि या तो मैं आपको भारतीय संविधान प्राप्त कराऊंगा या फिर इस उदे्दश्य की पूर्ति के लिए अपना जीवन बलिदान कर दूँगा। अपने संकल्प को पूरा करने के लिए उन्होंने 11 मई 1953 को बिना परमिट लिए जम्मू कश्मीर में प्रवेश किया। जहाँ उन्हें गिरफ्तार कर नज़रबंद कर लिया गया। कश्मीर सत्याग्रह में शेख अब्दुल्ला की पुलिस के अत्याचारों से 40 सत्याग्रही शहीद हुए। 23 जून, 1953 को जनसंघ के अध्यक्ष डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी की श्रीनगर जेल में संदिग्ध परिस्थितियों में मृत्यु हो गई। जब इन अत्याचारों के विरोध में लोकसभा में आवाज़्ा उठाई गई तो प्रधानमंत्री पं. नेहरू अपने सखा शेख अब्दुल्ला के अत्याचारों का समर्थन करते हुए दिखाई दिए। नेहरू जी के शब्द थे, ‘शेख अब्दुल्ला सत्याग्रहियों के साथ बहुत नरमी दिखा रहे हैं। मैं उनके स्थान पर होता तो इस आंदोलन को कठोरता से कुचल देता।’ जनसंघ ने जम्मू कश्मीर से परमिट को हटाने तक डॉ. मुखर्जी का अंतिम संस्कार न करने का निश्चय किया तो केन्द्र सरकार को जबरदस्त जनाक्रोश के सम्मुख झुकना पड़ा। उसके बाद से पूरा देश बिना परमिट के जम्मू कश्मीर, वैष्णोदेवी अथवा अमरनाथ जा सका तो उसका श्रेय डॉ. मुकर्जी के अमर बलिदान को है।


यह सुखद संयोग है कि 5 अगस्त, 2019 को डॉ. मुखर्जी द्वारा स्थापित विचारधारा से जुड़े यशस्वी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में अनुच्छेद 370 और 35ए को हटाकर राष्ट्रीय एकता के अवरोध को दूर किया। विशेष उल्लेखनीय यह कि देश विभाजन के दोषी कांग्रेस और उनके सहयोगी दल खुले आम धमकी दे रहे थे कि ‘धारा 370 हटते ही कश्मीर में खून की नदियां बहेगी’ लेकिन उनकी इन धमकियों के विपरीत जम्मू-कश्मीर ने विकास और सदभावना की राह चुनी। इससे सिद्ध हुआ कि डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ही सही थे। मुखर्जी से मोदी तक पहुंची भाजपा (पूर्व जनसंघ) की इस विचार यात्रा ही देश की आवाज है।


सांस्कृतिक राष्ट्रवाद  के पुरोधा डॉ.मुखर्जी का मत था कि एक राष्ट्र का उज्ज्वल भविष्य उसकी अपनी मूल संस्कृति और चिंतन की मजबूत नींव पर ही संभव है। उनके लिए राष्ट्र कागज पर बना टुकड़ा नहीं था जिसे लकीरों से पहचाना जाए। वे हर भारतीय के हृदय में प्रवाहित एकता अखण्डता की अजस धारा भारतीय राजनीति और समाज को एक ऐसी दिशा दी, जो सशक्त भारत का भाव लिए हुए हैं।


कांग्रेस के षड़यंत्रों ने मात्र 52 वर्ष की आयु में डॉ.मुखर्जी जैसे भारत माता के महान सपूत को जीने के अधिकार से वंचित कर दिया लेकिन राष्ट्र की एकता-अखण्डता के महानायक के रूप में वे सदा-सदा हर भारतीय के हृदय में जीवंत रहेंगे। हर सजग भारतपुत्र उनके योगदान के प्रति कृतज्ञता पूर्वक नतमस्तक है। इसीलिए हर देशभक्त की मांग है कि गुजरात के ‘स्टेच्यू ऑफ युनिटी’ की तरह कश्मीर में जवाहर टनल के उस पार पीओके में शीघ्र से शीघ्र डॉ मुखर्जी की विशाल मूर्ति स्थापित की जाए तो दूसरी ओर डॉ. मुखर्जी की जन्मभूमि बंगाल को घुसपैठियों से मुक्त कराया जाएं। 

डा. विनोद बब्बर 

नया मानवः नया विश्व के प्रणेता थे आचार्य महाप्रज्ञ

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आचार्य महाप्रज्ञ का 106 वां जन्म दिवस- 23 जून, 2025
– ललित गर्ग –

प्राचीन समय से लेकर आधुनिक समय तक अनेकों साधकों, आचार्यों, मनीषियों, दार्शनिकों, ऋषियों ने अपने मूल्यवान अवदानों से भारत की आध्यात्मिक परम्परा को समृद्ध किया है, उनमें प्रमुख नाम रहा है -आचार्य महाप्रज्ञ। अपने समय के महान् दार्शनिक, धर्मगुरु, संत एवं मनीषी के रूप में जिनका नाम अत्यंत आदर एवं गौरव के साथ लिया जाता है। वे ईश्वर के सच्चे दूत थे, जिन्होंने जीवनमूल्यों से प्रतिबद्ध एक आदर्श समाज रचना का साकार किया है, वे ऐसे क्रांतद्रष्टा धर्मगुरु थे, जिन्होंने देश की नैतिक आत्मा को जागृत करने का भगीरथ प्रयत्न किया। वे एक अनूठे एवं गहन साधक थे, जिन्होंने जन-जन को स्वयं से स्वयं के साक्षात्कार की क्षमता प्रदत्त की। वे ऊर्जा का एक पूंज थे, प्रतिभा एवं पुरुषार्थ का पर्याय थे। इन सब विशेषताओं और विलक्षणताओं के बावजूद उनमें तनिक भी अहंकार नहीं था। आचार्य महाप्रज्ञ का जन्म हिन्दू तिथि के अनुसार विक्रम संवत 1977, आषाढ़ कृष्ण त्रयोदशी को राजस्थान के झुंझनू जिले के एक छोटे-से गांव टमकोर गाँव में हुआ था, जो इस वर्ष 23 जून, 2025 को हैं।
आचार्य महाप्रज्ञ बीसवीं सदी के उत्तर्राद्ध एवं इक्कीसवीं सदी के प्रारंभ के ऐसे पावन एवं विलक्षण अस्तित्व थे जिन्होंने युग के कैनवास पर नए सपने उतारे, जिन्होंने धर्मक्रांति के साथ व्यक्ति एवं समाजक्रांति का शंखनाद किया। वे व्यक्ति नहीं, संपूर्ण संस्कृति थे। दर्शन थे, इतिहास थे, विज्ञान थे। आपका व्यक्तित्व अनगिन विलक्षणताओं का दस्तावेज रहा है। तपस्विता, यशस्विता और मनस्विता आपके व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व में घुले-मिले तत्त्व थे, जिन्हें कभी अलग नहीं देखा जा सकता। आपकी विचार दृष्टि से सृष्टि का कोई भी कोना, कोई भी क्षेत्र अछूता नहीं रहा। विस्तृत ललाट, करुणामय नेत्र तथा ओजस्वी वाणी-ये थे आपकी प्रथम दर्शन में होने वाली बाह्य पहचान। आपका पवित्र जीवन, पारदर्शी व्यक्तित्व और उम्दा चरित्र हर किसी को अभिभूत कर देता था, अपनत्व के घेरे में बाँध लेता था। आपकी आंतरिक पहचान थी-अंतःकरण में उमड़ता हुआ करुणा का सागर, सौम्यता और पवित्रता से भरा आपका कोमल हृदय। इन चुंबकीय विशेषताओं के कारण आपके संपर्क में आने वाला प्रत्येक व्यक्ति आपकी अलौकिकता से अभिभूत हो जाता था और वह बोल उठता था-कितना अद्भुत! कितना विलक्षण!! कितना विरल!!! आपकी मेधा के हिमालय से प्रज्ञा के तथा हृदय के मंदरांचल से अनहद प्रेम और नम्रता के असंख्य झरने निरंतर बहते रहते थे। इसका मूल उद्गम केंद्र था-लक्ष्य के प्रति तथा अपने परम गुरु आचार्य तुलसी के प्रति समर्पण भाव।
आचार्य महाप्रज्ञ को हम बीसवीं एवं इक्कीसवीं सदी के एक ऐसी आलोकधर्मी परंपरा का विस्तार कह सकते हैं, जिस परंपरा को महावीर, बुद्ध, गांधी और आचार्य तुलसी ने आलोकित किया है। अतीत की यह आलोकधर्मी परंपरा धुंधली होने लगी, इस धुंधली होती परंपरा को आचार्य महाप्रज्ञ ने एक नई दृष्टि प्रदान की थी। इस नई दृष्टि ने एक नए मनुष्य का, एक नए जगत का, एक नए युग का सूत्रपात किया था। इस सूत्रपात का आधार आचार्य महाप्रज्ञ ने जहाँ अतीत की यादों को बनाया, वहीं उनका वर्तमान का पुरुषार्थ और भविष्य के सपने भी इसमें योगभूत बने। प्रेक्षाध्यान की कला और एक नए मनुष्य-आध्यात्मिक-वैज्ञानिक व्यक्तित्व के जीवन-दर्शन को अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचाने के लिए वे प्रयत्नशील थे। उनके इन प्रयत्नों में न केवल भारत देश के लोग बल्कि पश्चिमी राष्ट्रों के लोग भी जीवन के गहरे रहस्यों को जानने और समझने के लिए उनके इर्द-गिर्द देखे गये थे। आचार्य महाप्रज्ञ ने उन्हें बताया कि ध्यान ही जीवन में सार्थकता के फूलों को खिलाने में सहयोगी सिद्ध हो सकता है।
आचार्य महाप्रज्ञ जितने दार्शनिक थे, उतने ही बड़े एवं सिद्ध योगी भी थे। वे दर्शन की भूमिका पर खड़े होकर अपने समाज और देश की ही नहीं, विश्व की समस्याओं को देखते थे। जो समस्या को सही कोण से देखता है, वही उसका समाधान खोज पाता है। आचार्यश्री जब योग की भूमिका पर आरूढ़ होते थे, तो किसी भी समस्या को असमाहित नहीं छोड़ते। उन्होंने हिंसा, आतंक एवं युद्ध की समस्या के समाधान के लिये राजनीति, समाज और धर्म के लोगों मिल-जुलकर प्रयत्न करने का आह्वान किया। इसी ध्येय को लेकर उन्होंने समान विचारधारा के लोगों को एक मंच पर लाने का प्रयत्न किया और उसे नाम दिया अहिंसा समवाय।
आचार्य महाप्रज्ञ ने मानव चेतना के विकास के हर पहलू को उजागर किया। कृष्ण, महावीर, बुद्ध, जीसस के साथ ही साथ भारतीय अध्यात्म आकाश के अनेक संतों-आदि शंकराचार्य, कबीर, नानक, रैदास, मीरा आदि की परंपरा से ऐसे जीवन मूल्यों को चुन-चुनकर युग की त्रासदी एवं उसकी चुनौतियों को समाहित करने का अनूठा कार्य उन्होंने किया। जीवन का ऐसा कोई भी आयाम नहीं है जो उनके प्रवचनों/विचारों से अस्पर्शित रहा हो। योग, तंत्र, मंत्र, यंत्र, साधना, ध्यान आदि के गूढ़ रहस्यों पर उन्होंने सविस्तार प्रकाश डाला है। साथ ही राजनीति, कला, विज्ञान, मनोविज्ञान, दर्शन, शिक्षा, परिवार, समाज, गरीबी, जनसंख्या विस्फोट, पर्यावरण, हिंसा, जातीयता, राजनीतिक अपराधीकरण, लोकतंत्र की विसंगतियों, संभावित परमाणु युद्ध का विश्व संकट जैसे अनेक विषयों पर भी अपनी क्रांतिकारी जीवन-दृष्टि प्रदत्त की है।
जीवन के नौवें दशक में आचार्य महाप्रज्ञ का विशेष जोर अहिंसा पर रहा। इसका कारण सारा संसार हिंसा के महाप्रलय से भयभीत और आतंकित होना था। जातीय उन्माद, सांप्रदायिक विद्वेष और जीवन की प्राथमिक आवश्यकताओं का अभाव-ऐसे कारण थे जो हिंसा को बढ़ावा दे रहे थे और इन्हीं कारणों को नियंत्रित करने के लिए आचार्य महाप्रज्ञ प्रयत्नशील थे। इन विविध प्रयत्नों में उनका एक अभिनव उपक्रम था-‘अहिंसा यात्रा’। अहिंसा यात्रा ऐसा आंदोलन बना, जो समूची मानव जाति के हित का चिंतन कर रहा था। अहिंसा की योजना को क्रियान्वित करने के लिए ही उन्होंने पदयात्रा के सशक्त माध्यम को चुना। ‘चरैवेति-चरैवेति चरन् वै मधु विंदति’ उनके जीवन का विशेष सूत्र बन गया था। इस सूत्र को लेकर उन्होंने पाँच दिसंबर, 2005 को राजस्थान के सुजानगढ़ क्षेत्र से अहिंसा यात्रा को प्रारंभ किया, जो गुजरात, राजस्थान, मध्यप्रदेश, हरियाणा, छत्तीसगढ़, दिल्ली एवं महाराष्ट्र में अपने अभिनव एवं सफल उपक्रमों के साथ विचरण करते हुए असंख्य लोगों को अहिंसा का प्रभावी प्रशिक्षण दिया एवं हिंसक मानसिकता में बदलाव का माध्यम बनी। तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम को पोकरण परीक्षण के पश्चात अणुबम नहीं, अणुव्रत, हिंसा नहीं अहिंसा, युद्ध नहीं, अयुद्ध की प्रेरणा देकर उनकी जीवन-दिशा को बदलने वाले आचार्य महाप्रज्ञ ही थे।
आचार्य श्री महाप्रज्ञ का जीवन इतना महान और महनीय था कि किसी एक लेख, किसी एक ग्रंथ में उसे समेटना मुश्किल है। यों तो आचार्य महाप्रज्ञ की महानता से जुड़े अनेक पक्ष हैं। लेकिन उनमें महत्त्वपूर्ण पक्ष है उनकी संत चेतना, आँखों में छलकती करुणा, सोच में अहिंसा, दर्शन में अनेकांतवाद, भाषा में कल्याणकारिता, हाथों में पुरुषार्थ और पैरों में लक्ष्य तक पहुँचने की गतिशीलता। आचार्य महाप्रज्ञ जैसे महामानव विरल होते हैं। कहा जा सकता है कि आचार्य महाप्रज्ञ ऐसे सृजनधर्मा साहित्यकार, विचारक एवं दार्शनिक मनीषी थे जिन्होंने प्राचीन मूल्यों को नये परिधान में प्रस्तुत किया। उनका रचित साहित्य राष्ट्र, समाज एवं सम्पूर्ण मानवता को प्रभावित एवं प्रेरित करता रहा है। वे अध्यात्म-चेतना को परलोक से न जोड़कर वर्तमान जीवन से जोड़ने की बात कहते थे। उनका साहित्य केवल मुक्ति का पथ ही नहीं, वह शांति का मार्ग है, जीवन जीने की कला है, जागरण की दिशा है और रूपांतरण की सजीव प्रक्रिया है। उनका साहित्य जादू की छड़ी है, जो जन-जन में आशा का संचार करती रही है। मेरा सौभाग्य है कि मुझे उनके निकट रहने, उनके कार्यक्रमों से जुड़ने और उनके विचारों को जन-जन तक पहुंचाने का अवसर मिला। मुझे उनका असीम आशीर्वाद प्राप्त हुआ और मुझे पहला आचार्य महाप्रज्ञ प्रतिभा पुरुस्कार भी उन्ही के सान्निध्य में मिला। मेरा जीवन सचमुच ऐसे महापुरुष की सन्निधि से धन्य बना। आचार्य महाप्रज्ञ के निर्माण की बुनियाद भाग्य भरोसे नहीं, बल्कि आत्मविश्वास, पुरुषार्थी प्रयत्न और तेजस्वी संकल्प से बनी थी। हम समाज एवं राष्ट्र के सपनों को सच बनाने में सचेतन बनें, यही आचार्य महाप्रज्ञ की प्रेरणा थी और इसी प्रेरणा को जीवन-ध्येय बनाना उस महामानव के जन्म दिवस को मनाने की सच्ची सार्थकता है। 

‘तृतीय परमाणु युग’: बदलती दुनिया और डगमगाते वैश्विक मानदंड

रूस-यूक्रेन युद्ध, चीन की आक्रामकता और उत्तर कोरिया के मिसाइल परीक्षणों के बीच दुनिया एक नए परमाणु युग में प्रवेश कर चुकी है। पुरानी संधियाँ निष्क्रिय हो रही हैं, और तकनीकी प्रगति जैसे कृत्रिम बुद्धिमत्ता व हाइपरसोनिक मिसाइलें परमाणु जोखिम को बढ़ा रही हैं। इस युग में न केवल शक्ति-संतुलन अस्थिर है, बल्कि वैश्विक संस्थाओं की विश्वसनीयता भी संकट में है। भारत सहित वैश्विक दक्षिण को अब इस विमर्श में नैतिक नेतृत्व दिखाने की आवश्यकता है, ताकि भविष्य केवल हथियारों से नहीं, सहयोग और विवेक से गढ़ा जाए।

– डॉ सत्यवान सौरभ

जब 1945 में हिरोशिमा और नागासाकी पर परमाणु बम गिरे, तो मानवता ने पहली बार अपनी ही बनाई शक्ति के विनाशकारी रूप को देखा। उसके बाद शुरू हुआ था पहला परमाणु युग—शीत युद्ध की संदेहपूर्ण रणनीतियों और ‘पारस्परिक सुनिश्चित विनाश’ जैसी सोच से भरा समय। फिर आया दूसरा परमाणु युग, जिसमें परमाणु हथियार अमेरिका और रूस से बाहर निकलकर भारत, पाकिस्तान, उत्तर कोरिया, इज़राइल जैसे देशों तक पहुंचे। लेकिन अब, इक्कीसवीं सदी के तीसरे दशक में, विशेषज्ञों का मानना है कि हम ‘तृतीय परमाणु युग’ में प्रवेश कर चुके हैं—एक ऐसा समय, जहां पुराने संतुलन और समझौते टूटते जा रहे हैं, और परमाणु हथियार फिर से वैश्विक राजनीति के केंद्र में आ खड़े हुए हैं।

रूस और यूक्रेन के बीच चल रहे युद्ध ने इस नए युग की शुरुआत की घोषणा कर दी है। रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने खुलेआम परमाणु हथियारों के उपयोग की धमकी दी, जिससे पूरी दुनिया सकते में आ गई। यह पहली बार था जब किसी राष्ट्राध्यक्ष ने युद्ध नीति में परमाणु हथियारों को इतनी स्पष्टता से रखा। दूसरी ओर चीन ने ताइवान पर अपना दावा और कठोर किया है और अपने परमाणु भंडार का तीव्र आधुनिकीकरण कर रहा है। अमेरिका भी इस दौड़ में पीछे नहीं रहना चाहता और उसने भी अपने परमाणु हथियारों को तकनीकी रूप से उन्नत करने की प्रक्रिया तेज कर दी है। भारत और पाकिस्तान के बीच भी, बालाकोट और पुलवामा जैसे घटनाक्रमों के बाद, सीमाओं पर तनाव और ‘परमाणु विकल्प’ पर बहस बढ़ी है।

जब 1968 में परमाणु अप्रसार संधि अस्तित्व में आई, तब यह सोचा गया कि यह हथियार केवल पांच स्थायी शक्तियों तक सीमित रहेंगे और धीरे-धीरे उनका पूर्ण उन्मूलन होगा। लेकिन हकीकत इससे ठीक उलट है। आज भारत, पाकिस्तान, उत्तर कोरिया और इज़राइल जैसे देश संधि के बाहर रहकर भी परमाणु शक्ति से लैस हैं और इसे राष्ट्रीय गौरव का विषय मानते हैं। इसके साथ ही जो संधियाँ कभी परमाणु हथियारों पर नियंत्रण की रीढ़ मानी जाती थीं—जैसे कि मध्यम दूरी की परमाणु संधि और नया सामरिक हथियार संधि—या तो समाप्त हो चुकी हैं या निष्क्रिय हो गई हैं।

विकसित देश, जो खुद इन घातक हथियारों से लैस हैं, विकासशील देशों से निरस्त्रीकरण की अपेक्षा रखते हैं लेकिन स्वयं इस दिशा में कोई ठोस कदम नहीं उठाते। इससे वैश्विक मंच पर एक प्रकार की दोहरी नीति दिखाई देती है, जो न केवल इन समझौतों की विश्वसनीयता को चोट पहुंचाती है, बल्कि विकासशील देशों में असंतोष भी पैदा करती है।

कभी ‘परमाणु निवारण’ की नीति ने दो महाशक्तियों को सीधे युद्ध से रोके रखा था, लेकिन आज की बहु-ध्रुवीय दुनिया में यह सोच अब कमज़ोर होती दिख रही है। आज के विश्व में जहां निर्णयकर्ता नेता अधिक अस्थिर, अनिश्चित और राष्ट्रहित की आक्रामक व्याख्या करने वाले हैं, वहां यह नीति कितनी प्रभावी है, यह एक बड़ा प्रश्न बन चुका है। उत्तर कोरिया का लगातार मिसाइल परीक्षण करना, चीन द्वारा सैकड़ों नए मिसाइल प्रक्षेपण स्थल बनाना और रूस द्वारा बेलारूस में परमाणु हथियारों की तैनाती—ये सभी घटनाएं यह दर्शाती हैं कि परंपरागत निवारण नीति अब खंडित हो रही है।

इस युग की एक अन्य विशिष्टता यह है कि अब परमाणु हथियार अकेले नहीं हैं। इनके साथ कृत्रिम बुद्धिमत्ता, अतिशीघ्र गति से चलने वाली मिसाइलें, साइबर युद्ध और स्वचालित ड्रोन प्रणाली भी जुड़ चुकी हैं। अमेरिका और चीन जैसे देश अपने परमाणु निर्णय प्रणाली में कृत्रिम बुद्धिमत्ता को जोड़ने की दिशा में काम कर रहे हैं। यह तकनीक एक ओर जहां तुरंत निर्णय लेने की क्षमता बढ़ा सकती है, वहीं दूसरी ओर किसी तकनीकी त्रुटि या साइबर हमले से अनायास ही परमाणु युद्ध छिड़ने की आशंका को भी जन्म देती है।

भारत की स्थिति इस बदलती दुनिया में विशेष रूप से विचारणीय है। भारत ने अब तक ‘पहले प्रयोग नहीं करने’ की नीति अपनाई है और परमाणु हथियारों के नैतिक उपयोग पर बल दिया है। लेकिन चीन की बढ़ती आक्रामकता और पाकिस्तान के साथ बढ़ते तनाव के कारण भारत की परमाणु नीति की पुनर्समीक्षा की मांग अब उठने लगी है। यह बहस अब मुख्यधारा में है कि क्या ‘पहले प्रयोग न करने’ की नीति वर्तमान समय में व्यावहारिक और सुरक्षित है?

परमाणु हथियारों का यह नया युग केवल महाशक्तियों की आपसी होड़ तक सीमित नहीं है। इसका असर पूरे वैश्विक दक्षिण पर भी पड़ता है। विकासशील देशों के लिए यह स्थिति विशेष रूप से चिंताजनक है क्योंकि इससे उनकी अर्थव्यवस्था पर अतिरिक्त दबाव आता है, वे कूटनीतिक रूप से अधिक अस्थिर होते हैं, और युद्ध के अप्रत्यक्ष परिणाम उन्हें सबसे अधिक प्रभावित करते हैं। अफ्रीका, दक्षिण एशिया और लैटिन अमेरिका के देश इन वैश्विक खतरों से चिंतित हैं क्योंकि यह उनके बुनियादी मुद्दों—जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य, खाद्य सुरक्षा और जलवायु संकट—को पीछे धकेल देता है।

संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद और अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी जैसी संस्थाएं, जो कभी इन विषयों की संरक्षक मानी जाती थीं, अब प्रभावहीन होती दिख रही हैं। यूक्रेन युद्ध में सुरक्षा परिषद की निष्क्रियता और ईरान के परमाणु कार्यक्रम पर अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों की सीमित पहुंच इस वैश्विक ढांचे की कमजोरियों को उजागर करती हैं। अगर इन संस्थाओं को समय रहते सशक्त नहीं किया गया तो भविष्य में इनकी भूमिका महज़ औपचारिक रह जाएगी।

ऐसे में विकल्प क्या हैं? सबसे पहले तो यह जरूरी है कि पूरी दुनिया में एक बार फिर परमाणु युद्ध के खतरों को लेकर जनचेतना जागृत हो। दूसरी बात, अब हमें पुराने दौर की संधियों से आगे बढ़कर नई अंतरराष्ट्रीय व्यवस्थाएं बनानी होंगी, जो आधुनिक तकनीक, नई सामरिक चुनौतियों और विविध शक्ति केंद्रों को ध्यान में रखते हुए तैयार की जाएं। तीसरे, विकासशील देशों को भी अब इस विमर्श में सक्रिय भूमिका निभानी चाहिए ताकि वैश्विक नैतिकता की परिभाषा केवल परमाणु संपन्न देशों की मोनोपॉली न रह जाए। और अंततः, युद्ध प्रणालियों में कृत्रिम बुद्धिमत्ता के प्रयोग को नियंत्रित करने के लिए एक वैश्विक आचार संहिता तैयार की जानी चाहिए।

‘तृतीय परमाणु युग’ केवल हथियारों का नहीं, मानसिकता का युद्ध भी है। यह उस भ्रम की ओर इशारा करता है कि तकनीक और शक्ति से ही शांति संभव है, जबकि इतिहास बार-बार यह सिखाता है कि स्थायी शांति केवल पारदर्शिता, विश्वास और सहयोग से ही आती है।

आज जब परमाणु बटन मात्र एक व्यक्ति के निर्णय भर की दूरी पर है, और जब युद्ध की प्रणाली में स्वचालित निर्णय और अज्ञात खतरे जुड़े हुए हैं, तो यह सवाल फिर से हमारे सामने है—क्या हम वाकई विकास की ओर बढ़ रहे हैं, या उसी विनाश की ओर लौट रहे हैं जिससे पिछली सदी में हमने कठिनाइयों से खुद को निकाला था?

योग सिंधू में संघ की जलधारा

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राकेश सैन

भारत की सनातन संस्कृति की तरह योग भी सनातन है, अविरल है। यह तो संभव है कि आकाश के तारे गिन लिए जाएं या धरती के कणों की सही-सही संख्या का पता लगा लिया जाए परन्तु योग के सिंधू में कितनी जलधाराएं मिलीं, कितने नद समाहित हुए इसका अनुमान लगाना भी असंभव है। इन्हीं अनन्त जलराशियों में शामिल है राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, जिसका उद्देश्य व्यक्ति उत्थान से राष्ट्रोत्थान रहा है और संघ ने योग को अपने इस काम का साधन बनाया है।

सृष्टि के प्रारम्भ से ही भगवान शिव को ‘योगेश्वर’ माना गया है। अनेक योग परंपराएँ जैसे नाथयोग, हठयोग, मंत्रयोग, लययोग, राजयोग, आदि सभी भगवान शिव से ही प्रारंभ मानी जाती हैं। गुरु गोरखनाथजी के सम्प्रदाय में शिव को ‘आदिनाथके रूप में पूजा जाता है और ध्यान मुद्रा में उनकी उपासना की जाती है। नाथ संप्रदाय में योग को शिवविद्या या महायोगविद्या कहा गया है, जिसमें आत्मा और ब्रह्मांड के सामरस्य की अनुभूति प्रमुख है। शिवगीता में भगवान शिवजी ने भगवान राम को योग का दिव्य उपदेश दिया, जब वे सीता-वियोग से व्याकुल थे। उन्होंने आत्मज्ञान, चित्त की एकाग्रता, और भौतिक आसक्ति से विरक्ति का विस्तार से निरूपण किया। भगवान शिव को ध्यानमग्न योगी के रूप में भी दर्शाया गया है, जिनका ध्यान जीवन के परम लक्ष्य ‘मोक्षकी ओर उन्मुख करता है। वेदों में वर्णित शिवसंकल्पसूक्त योग के लिए वैदिक प्रेरणा का आधार है, जो भगवान शिव की चेतना और व्यापक दृष्टिकोण को दर्शाता है।

रामायणकाल में महर्षि वसिष्ठ ने भगवान श्रीराम को गहन अद्वैत वेदान्त के सिद्धांतों के माध्यम से योग का मार्ग बताया है। राम को उपदेश करते हुए महर्षि वसिष्ठ कहते हैं – द्वौ क्रमौ चित्तनाशस्य योगो ज्ञानं च राघव। योगो वृत्तिनिरोधो हि ज्ञानं सम्यगवेक्षणम्॥

(योगवासिष्ठ)

महर्षि वसिष्ठ योग के अत्यंत प्राचीन और समग्र दृष्टा माने जाते हैं। वे सप्तर्षि-मंडल में स्थित रहकर आज भी विश्वकल्याण में लगे हुए हैं।

महाभारत में योग को आत्मसाधना और अंत:करण की शुद्धि का मार्ग माना गया है। महर्षि वेद व्यासजी ने ध्यानयोग के लिए द्वादश साधनों (देश, कर्म, आहार, दृष्टि, मन आदि) के संयम को अनिवार्य बताया है। इसके शान्ति पर्व में ऋषियों को योग की 12 विधियों से ध्यानयोग का अभ्यास करते बताया गया है। भगवान श्रीकृष्ण को भी ‘योगेश्वर’ कहा गया है क्योंकि वे न केवल योग के आचार्य हैं बल्कि स्वयं योग के मूर्तिमान स्वरूप भी हैं। भगवद्गीता को स्वयं भगवान की साक्षात योगयुक्त वाणी कहा गया है, जो आज भी अज्ञान और मोह का नाश कर आत्मबोध करा सकती है। श्रीकृष्ण ने अर्जुन को विभिन्न योगों का उपदेश दिया – कर्मयोग, ज्ञानयोग, भक्ति योग, और ध्यानयोग। ‘समत्वं योग उच्यते’ और ‘योग: कर्मसु कौशलम’ जैसे श्लोक योग को जीवन की कुशलता और समत्व की दशा से जोड़ते हैं।

इसी तरह महर्षि पतंजलि, महर्षि चरक, आदिगुरु शंकराचार्य जी से लेकर आधुनिक काल के योग गुरुओं, शिक्षकों व साधकों सहित अनेक ज्ञात-अज्ञात जलनद योग के सिंधू को अपने ज्ञान से समृद्ध करते रहे हैं।

इन्हीं जलधाराओं में एक सम्मानित नाम है राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का जो अपने जन्म से ही भारतीय संस्कृति व अपने सांस्कृतिक मानबिन्दुओं की पुनस्र्थापना के काम में लगा है। संघ की स्थापना 1925 में डॉ. हेडगेवार द्वारा की गई थी, जिनका उद्देश्य था राष्ट्रभक्ति, शारीरिक और मानसिक विकास और आत्मानुशासन के माध्यम से भारत के युवाओं को संगठित करना। योग को संघ के आद्यात्मिक और शारीरिक प्रशिक्षण के अनिवार्य भाग के रूप में अपनाया गया। संघ की शाखाओं में सूर्य नमस्कार, प्राणायाम, ध्यान और आसनों का नियमित अभ्यास कराया जाता है।

योग और संघ का संबंध केवल शारीरिक स्वास्थ्य तक सीमित नहीं है, बल्कि यह आत्मनियंत्रण, सामाजिक सेवा, समरसता और आध्यात्मिक जागरण से भी जुड़ा है। संघ संस्थापक डॉ. हेडगेवार स्वयं योग साधक थे और उन्होंने शाखा पद्धति में योग को अनिवार्य रूप से जोड़ा।

संघ के दूसरे सरसंघचालक श्रीगुरुजी ने भी योग को आंतरिक तप और अनुशासन के अंग के रूप में देखा। उनका कहना था, ‘यदि स्वास्थ्य-रक्षा तथा रोग-प्रतिकार करने के लिए योगासनों के अभ्यास की ओर लोगों ने ध्यान दिया तो सर्वसाधारण जनता के स्वास्थ्य में सुधार हो कर उनका औषधियों पर होने वाला व्यय कम होगा तथा सब दृष्टि से उनका कल्याण होगा।’

योग केवल आत्मोन्नति का साधन नहीं बल्कि समाजोद्धार और राष्ट्रनिर्माण का भी पथ है। यही दृष्टिकोण संघ द्वारा अपनाया गया। संघ के प्रमुख शिक्षा वर्गों में योगासन और ध्यान की विधिवत् शिक्षा दी जाती है। योग के माध्यम से स्वयंसेवकों में संयम, साहस और शारीरिक स्फूर्ति का विकास किया जाता है, ताकि वे सेवाकार्यों में तत्पर रह सकें।

आज भी संघ की हजारों शाखाओं में योगाभ्यास अनिवार्य गतिविधियों में शामिल है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एक स्वयंसेवक के रूप में संघ से जुड़े रहे हैं। उनके द्वारा अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस की घोषणा और उसे विश्वपटल पर स्थापित करना इस संघ परंपरा की ही एक आधुनिक अभिव्यक्ति है। संघ का यह दृष्टिकोण ‘योग ही युक्ति है, योग ही शक्ति है’, के सूत्र में संक्षेपित किया जा सकता है। अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा 2015 के अनुसार, ‘योग भारतीय सभ्यता की विश्व को देन है।’

संघ द्वारा योग दिवस पर पारित प्रस्ताव में कहा गया है कि ‘संयुक्त राष्ट्र की 69वीं महासभा द्वारा प्रतिवर्ष 21 जून को अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस मनाने की घोषणा से सभी भारतीय, भारतवंशी व दुनिया के लाखों योग-प्रेमी अतीव आनंद तथा अपार गौरव का अनुभव कर रहे हैं। यह अत्यंत हर्ष की बात है कि भारत के माननीय प्रधानमंत्री ने 27 सितम्बर, 2014 को संयुक्त राष्ट्र की महासभा के अपने सम्बोधन में अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस मनाने का जो प्रस्ताव रखा उसे अभूतपूर्व समर्थन मिला। नेपाल ने तुरंत इसका स्वागत किया। 175 सभासद देश इसके सह-प्रस्तावक बनें तथा तीन महीने से कम समय में 11 दिसम्बर, 2014 को बिना मतदान के, आम सहमति से यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया गया।

अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा इस बात की ओर ध्यान आकर्षित करना चाहती है कि योग भारतीय सभ्यता की विश्व को देन है। ‘युज’ धातु से बने योग शब्द का अर्थ है जोडऩा तथा समाधि। योग केवल शारीरिक व्यायाम तक सीमित नहीं है, महर्षि पतंजलि जैसे ऋषियों के अनुसार यह शरीर मन, बुद्धि और आत्मा को जोडऩे की समग्र जीवन पद्धति है। शास्त्रों में ‘योगश्चित्तवृत्ति निरोध:’, ‘मन:प्रशमनोपाय: योग:’ तथा ‘समत्वंयोगउच्यते’ आदि विविध प्रकार से योग की व्याख्या की गयी है, जिसे अपना कर व्यक्ति शान्त व निरामय जीवन का अनुभव करता है। योग का अनुसरण कर संतुलित तथा प्रकृति से सुसंगत जीवन जीने का प्रयास करने वालों की संख्या दिन-प्रतिदिन बढ़ रही है, जिसमें दुनिया के विभिन्न संस्कृतियों के सामान्य व्यक्ति से लेकर प्रसिद्ध व्यक्तियों, उद्यमियों तथा राजनयिकों आदि का समावेश है। विश्व भर में योग का प्रसार करने के लिए अनेक संतों, योगाचार्यों तथा योग प्रशिक्षकों ने अपना योगदान दिया है, ऐसे सभी महानुभावों के प्रति प्रतिनिधि सभा कृतज्ञता व्यक्त करती है। समस्त योग-प्रेमी जनता का कर्तव्य है कि दुनिया के कोने कोने में योग का सन्देश प्रसारित करे।

अ. भा. प्रतिनिधि सभा भारतीय राजनयिकों, सहप्रस्तावक व प्रस्ताव के समर्थन में बोलने वालेस दस्य देशों तथा संयुक्त राष्ट्र के अधिकारियों का अभिनन्दन करती है जिन्होंने इस ऐतिहासिक प्रस्ताव को स्वीकृत कराने में योगदान दिया। प्रतिनिधि सभा का यह विश्वास है कि योग दिवस मनाने व योगाधारित एकात्म जीवनशैली को स्वीकार करने से सर्वत्र वास्तविक सौहार्द तथा वैश्विक एकता का वातावरण बनेगा।

अ.भा. प्रतिनिधि सभा केंद्र व राज्य सरकारों से अनुरोध करती है कि इस पहल को आगे बढ़ाते हुए योग का शिक्षा के पाठ्यक्रमों में समावेश करें, योग पर अनुसन्धान की योजनाओं को प्रोत्साहित करें तथा समाज जीवन में योग के प्रसार के हरसंभव प्रयास करें। प्रतिनिधि सभा स्वयंसेवकों सहित सभी देशवासियों, विश्व में भारतीय मूल के लोगों तथा सभी योग-प्रेमियों का आवाहन करती है कि योग के प्रसार के माध्यम से समूचे विश्व का जीवन आनंदमय स्वस्थ और धारणक्षम बनाने के लिए प्रयासरतर हैं।’

वृत्तपत्र में नाम छपेगा,

पहनूंगा स्वागत समुहार।

छोड़ चलो यह क्षुद्र भावना,

हिन्दू राष्ट्र के तारणहार।।

के सिद्धांत पर चलते हुए संघ ने कभी किसी काम का श्रेय नहीं लिया परन्तु योग रूपी सिंधू में संघ की अविरल धारा के योगदान को सदैव स्मरण किया जाता रहेगा।

राकेश सैन

योग साधना

योग भगाए रोग सब, करता हमें निरोग।
तन-मन में हो ताजगी, सुखद बने संयोग।।

योग साधना जो करे, भागे उसके भूत।
आलस रहते दूर सब, तन रहता मजबूत।।

खुश रहते हर पल सदा, जीवन में वो लोग।
आत्म और परमात्म का, सदा कराते योग।।

योग करें तो रोग सब, भागे कोसों दूर।
जीवन सुखदाई बने, चमके खुशियां नूर।।

योगासन करता सदा, तन-मन को तंदुरुस्त।
बने रक्त संचार से, मांसपेशियां चुस्त।।

देता है हम सबको यही, योग दिवस सन्देश।
दूर रहे सब व्याधियां, सबल- स्वस्थ हो देश।।

योग साधना साधकर, करें शुद्ध आचार।
नेति क्रिया जब स्वस्थ हो, रहते नहीं विकार।।

-डॉ. सत्यवान सौरभ