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वे स्त्रियां

प्रभुनाथ शुक्ल

वे सिर्फ स्त्रियां हैं
नहीं वे जीवन की चकबेनियां
वे जब चलती हैं तो गढ़ती हैं
एक परिवार, एक समाज और एक परिवेश
वे समर्पित और संघर्षशील हैं
घर, परिवार, बच्चे और पति के लिए
वे नींद में जागती हैं और बुनती हैं सपने
वे गतिशील हैं कुम्भार की चाक जैसी
उठ खड़ी होती हैं भोर के साथ
और चलती हैं चाँद के पार
चूल्हा, चौका और वर्तन है उनका संगीत
परिवार की चाहत है उनकी संतुष्टि
वे नहीं जाती होटल, रेस्तरां और सिनेमा
चुनती हैं चावल और दाल के दाने
सूप की परछती में उड़ा देती हैं मायके का सुख
और कभी बचती नहीं दाल तो सुखी खाती हैं रोटियां
जेठ की दोपहरी में तोड़ती हैं पत्थर
पीठ पर बच्चों को लाद ढोती हैं ईंटें
वे पति को मानती हैं परमेश्वर
एक जोड़ी बिछुवे, मांग भर सिंदूर और
भरे गोड़ के महावर से रहती हैं खुश
वे नहीं करती स्त्री स्वतंत्रता की बात
वे नहीं होना चाहती बेड़ियों से आजाद
वे बस, चाहती हैं
बेटियों के पीले हाथ, बहू की गोंद में किलकारियां
और शांत होती सांसों में पति का साथ

पिता-पुत्र का रिश्ता बेजोड़ एवं विलक्षण है

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अंतर्राष्ट्रीय पिता दिवस- 15 जून, 2025
– ललित गर्ग-

भारतीय संस्कृति में पिता का स्थान आकाश से भी ऊंचा माना गया है, पिता की धर्म है, पिता ही संबल है, पिता ही ताकत है। पिता हर संतान के लिए एक प्रेरणा हैं, एक प्रकाश हैं और संवेदनाओं के पुंज हैं। इसके महत्व को दर्शाने और पिता व पिता तुल्य व्यक्तियों के योगदान को सम्मान देने के लिए हर साल जून महीने के तीसरे रविवार को अंतर्राष्ट्रीय पिता दिवस यानी फादर्स डे मनाया जाता है। इस साल 15 जून 2025 को भारत समेत विश्वभर में यह दिवस मनाया जायेगा। फादर्स डे 2025 का आधिकारिक थीम ‘पिताः लचीलेपन का पोषण और भविष्य को आकार देना’ है। यह थीम हमारे जीवन में पिताओं की महत्वपूर्ण भूमिका पर प्रकाश डालती है, जो बच्चों में सकारात्मक भावनाओं और सामाजिक विकास को बढ़ावा देते हैं। दुनिया के अलग-अलग देशों में अलग-अलग दिन और विविध परंपराओं के कारण उत्साह एवं उमंग से यह दिवस मनाया जाता है। यह एक ऐसा दिन है जिसे अपने पिता के सम्मान के लिए मनाया जाता है, साथ ही पितृत्व, पैतृक बंधन और समाज में पिताओं के प्रभाव को भी याद किया जाता है। हिन्दू परंपरा के मुताबिक पितृ दिवस भाद्रपद महीने की सर्वपितृ अमावस्या के दिन होता है। पिता एक ऐसा शब्द जिसके बिना किसी के जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती। एक ऐसा पवित्र रिश्ता जिसकी तुलना किसी और रिश्ते से नहीं हो सकती। पिता ईश्वर का सबसे अच्छा उपहार हैं। जीवन में कोई भी पिता की जगह नहीं ले सकता। पिता अपनी संतान के सच्चे शुभचिंतक एवं हितैषी होते हैं।
सोनेरा डोड जब नन्ही-सी थी, तभी उनकी मां का देहांत हो गया। पिता विलियम स्मार्ट ने सोनेरो के जीवन में मां की कमी नहीं महसूस होने दी और उसे मां का भी प्यार दिया। एक दिन यूं ही सोनेरा के दिल में ख्याल आया कि आखिर एक दिन पिता के नाम क्यों नहीं हो सकता? इस तरह 19 जून 1910 को पहली बार फादर्स डे मनाया गया। 1924 में अमेरिकी राष्ट्रपति कैल्विन कोली ने फादर्स डे पर अपनी सहमति दी। फिर 1966 में राष्ट्रपति लिंडन जानसन ने जून के तीसरे रविवार को फादर्स डे मनाने की आधिकारिक घोषणा की। पिता ही बच्चों की सुरक्षा, विकास व समृद्धि के बारे में सोचते हैं। बावजूद बच्चों द्वारा पिता की लगातार उपेक्षा, दुर्व्यवहार एवं प्रताड़ना की स्थितियों बढ़ती जा रही है, जिन पर नियंत्रण के लिये इस दिवस की विशेष उपयोगिता एवं  प्रासंगिकता है। मानवीय रिश्तों में दुनिया में सबसे बड़ा स्थान मां को दिया जाता है, लेकिन एक बच्चे को बड़ा और सभ्य बनाने में उसके पिता का योगदान कम करके नहीं आंका जा सकता। पिता नीम के पेड़ जैसा होता है उसके पत्ते भले ही कड़वे होते हैं पर वो छाया ठंडी देता है। पिता और बच्चों का रिश्ता इस दुनिया में सबसे अलग होता है। एक तरफ पिता बच्चों को डांटते हैं, तो दूसरी तरह बच्चों से बेहद प्रेम भी करते हैं। पिता अपने बेटे की चोट पर व्यथित तो होता है लेकिन उसे बेटे के सामने मजबूत बने रहना है। ताकि बेटा उसे देख कर जीवन की समस्याओं से लड़ने का पाठ सीखे, सख्त एवं निडर बनकर जिंदगी की तकलीफों का सामना करने में सक्षम हो।
भारतीय संस्कृति एवं संस्कारों में पिता को देवतुल्य माना गया है। हमारे ग्रन्थों में माता-पिता और गुरु तीनों को ही देवता माना गया है। इनकी सेवा और भक्ति में कसर रह जाए तो फिर ईश्वर की प्राप्ति संभव नहीं। और अगर हमने इनकी सेवा पूरे मन से की तो भगवान स्वयं कच्चे धागे से बंधे भक्त के पीछे-पीछे चल पड़ते हैं। इस दिवस को मनाने के तरीके अलग-अलग हो सकते हैं, परन्तु सभी का मुख्य उद्देश्य यह होता है कि वे अपने पिता के योगदान को न भूलें और उनको अकेलेपन की कमी को महसूस न होने दें। इतिहास में अनेकों ऐसे उदाहरण है कि पिता की आज्ञा से भगवान श्रीराम जैसे अवतारी पुरुषों ने राजपाट त्याग कर वनों में विचरण किया, मातृ-पितृ भक्त श्रवण कुमार ने अपने अन्धे माता-पिता को काँवड़ में बैठाकर चारधाम की यात्रा कराई। फिर क्यों आधुनिक समाज में पिता और उनकी संतान के बीच दूरियां बढ़ती जा रही है। आज के पिता समाज-परिवार से कटे रहते हैं और सामान्यतः इस बात से सर्वाधिक दुःखी है कि जीवन का विशद अनुभव होने के बावजूद कोई उनकी राय न तो लेना चाहता है और न ही उनकी राय को महत्व देता है। समाज में अपनी एक तरह से अहमियत न समझे जाने के कारण हमारे पिता दुःखी, उपेक्षित एवं त्रासद जीवन जीने को विवश है। पिता को इस दुःख और कष्ट से छुटकारा दिलाना आज की सबसे बड़ी जरूरत है। माँ ममता का सागर है पर पिता उसका किनारा है। माँ से ही बनता घर है पर पिता घर का सहारा है। माँ से स्वर्ग है माँ से बैकुंठ, माँ से ही चारों धाम है पर इन सब का द्वार तो पिता ही है। उन्हीं पिता के सम्मान में पितृ दिवस मनाया जाता है। आधुनिक समाज में पिता-पुत्र के संबंधों की संस्कृति को जीवंत बनाने की अपेक्षा है।
हर पिता अपने पुत्र की निषेधात्मक और दुष्प्रवृत्तियों को समाप्त करके नया जीवन प्रदान करता है। वरुण जल का देवता होता है। जैसे जल वस्त्र आदि के मैल को दूर करता है, वैसे ही पिता पुत्र की मानसिक कलुषता को दूर कर सद्संस्कारों का बीजारोपण करता है एवं उसके व्यक्तित्व को नव्य और स्वच्छ रूप प्रदान करता है। चन्द्रमा सबको शांति और अह्लाद प्रदान करता है, वैसे ही पिता की प्रेरणाएं पुत्र को मानसिक प्रसन्नता और परम शांति देती है। जैसे औषधि दुख, दर्द और पीड़ा का हरण करती है, वैसे ही पिता शिव शंकर की भांति पुत्र के सारे अवसाद और दुखों का हरण करते हैं। पय का अर्थ है-दूध। जैसे माता का दूध पुष्टि प्रदान करता है, वैसे ही पिता पुत्र के आत्मिक बल को पुष्ट करते हैं। मेरे लिये मेरे पिता स्व. श्री रामस्वरूपजी गर्ग देवतुल्य एवं गहन आध्यात्मिक-धार्मिक जीवट वाले व्यक्तित्व थे। उनकी जैसी सादगी, उनकी जैसी सरलता, उनकी जैसा समर्पण, उनकी जैसी धार्मिकता, उनकी जैसी पारिवारिक नेतृत्वशीलता और उनकी जैसी संवेदनशीलता को जीना दुर्लभ है। उन्होंने परिवार एवं समाज को समृद्धशाली और शक्तिशाली बनाने की दृष्टि से उल्लेखनीय कार्य किया। मेरे लिये तो वे आज भी दिव्य ऊर्जा के केन्द्र हैं। मेरे पिता मेरे आदर्श हैं, मेरे पिता संघर्ष की आंधियों में हौंसलों की उड़ान रहे तो आत्मविश्वास की दीवार रहे।
पिता आंसुओं और मुस्कान का एक समुच्चय है, जो बेटे के दुख में रोता तो सुख में हंसता है। उसे आसमान छूता देख अपने को कद्दावर मानता है तो राह भटकते देख अपनी किस्मत की बुरी लकीरों को कोसता है। पिता गंगोत्री की वह बूंद है जो गंगा सागर तक एक-एक तट, एक-एक घाट को पवित्र करने के लिए धोता रहता है। पिता वह आग है जो घड़े को पकाता है, लेकिन जलाता नहीं जरा भी। वह ऐसी चिंगारी है जो जरूरत के वक्त बेटे को शोले में तब्दील करता है। वह ऐसा सूरज है, जो सुबह पक्षियों के कलरव के साथ धरती पर हलचल शुरू करता है, दोपहर में तपता है और शाम को धीरे से चांद को लिए रास्ता छोड़ देता है। पिता वह पूनम का चांद है जो बच्चे के बचपने में रहता है, तो धीरे-धीरे घटता हुआ क्रमशः अमावस का हो जाता है। पिता समंदर के जैसा भी है, जिसकी सतह पर असंख्य लहरें खेलती हैं, तो जिसकी गहराई में खामोशी ही खामोशी है। वह चखने में भले खारा लगे, लेकिन जब बारिश बन खेतों में आता है तो मीठे से मीठा हो जाता है। बचपन में चॉकलेट, खिलौने दिलाने से लेकर युवावर्ग तक बाइक, कार, लैपटॉप और उच्च शिक्षा के लिए विदेश भेजने तक संतान की सभी माँगों को पिता ही पूरा करते रहते हैं लेकिन एक समय ऐसा आता है जब भागदौड़ भरी इस जिंदगी में बच्चों के पास अपने पिता के लिए समय नहीं मिल पाता है। इसी को ध्यान में रखकर पितृ दिवस मनाने की परंपरा का आरम्भ हुआ।

गोस्वामी समाज क्यों कर रहा है ठाकुर बांके बिहारी कॉरिडोर एवं सरकारी न्यास का विरोध?

पूरन चन्द्र शर्मा

बांके बिहारी कॉरिडोर को लेकर पिछले कई सालों से जमकर विरोध हो रहा हैl विरोध करने वाले लोग मंदिर में पूजा-पाठ करने वाला गोस्वामी समाज हैl उन्होंने सख्त चेतावनी दी है कि अगर कॉरिडोर बना तो वे लोग अपने ठाकुरजी को लेकर यहां से पलायन कर जाएंगेl गोस्वामियों का कहना है कि मंदिर उनकी निजी संपत्ति है, फिर इसमें सरकार दखल क्यों दे रही हैl उन्होंने कॉरिडोर निर्माण के लिए ट्रस्ट बनाए जाने को लेकर सरकार की तरफ से जारी अध्यादेश को मानने से ही इनकार कर दिया l 

वृंदावन के मूल स्वरूप के साथ खिलवाड़ करने से कुंज गलियां नष्ट हो जाएंगी और वृंदावन की संस्कृति भी खत्म होगी l 

बांके बिहारी लाल मंदिर के सेवायत आचार्य आनंद बल्लभ गोस्वामी का कहना है कि ठाकुर बांके बिहारी लाल जी आज भी कुंज गली होते हुए निधिवन जाते हैं, अतः उनके मार्ग को नष्ट करने का दुस्साहस न करेंl 

  इसके अलावा दुकानें हटाए जाने से  रोजी- रोटी पर असर पड़ेगा तथा मनमाने तरीके से दुकानों के टेंडर पास किए जाएंगेl

क्यों है कॉरिडोर की जरूरत?* 

दरअसल वृंदावन के बांके बिहारी मंदिर में हर दिन हजारों की संख्या में श्रद्धालु दर्शन के लिए पहुंचते हैं. अगर वीकेंड हो या फिर नए नया साल या होली या रंग भरनी एकादशी तो भक्तों की संख्या लाख के करीब पहुंच जाती है. मंदिर में जाने के लिए रास्ता छोटा होने की वजह से व्यवस्था बिगड़ जाती है. दरअसल मंदिर तक कई सौ साल पुरानी कुंज गलियों से होकर गुजरना पड़ता है. कई बार भीड़ में लोगों के दबने की खबरें सामने आती है. इसीलिए सरकार चाहती है कि व्यवस्था इस तरह की हो जिससे श्रद्धालुओं को कोई परेशानी न हो और ज्यादा से ज्यादा लोग दर्शन के लिए आ सकें. 

कॉरिडोर बनाने की आवश्यकता ही नहीं* 

आचार्य आनंद वल्लभ गोस्वामी का मानना है कि इस समय बांके बिहारी जी मंदिर के जितने दर्शनाथी आ रहे हैं, इससे तीन गुना से अधिक दर्शनाथी आ सकते हैंl इतनी जगह मंदिर के पास पूरे परिसर में है जिसमें भोग भंडार के बगल का स्थान, इसके बाद पाठशाला तथा पोस्ट ऑफिस एवं बांके बिहारी जी का चबूतरा सब मिलकर के यदि इतना ही परिसर को चौड़ा कर दिया जाए तो एक बार में लगभग 25000 यात्री समा सकते हैं। इसके अलावा इस्कॉन के बगल वाला परिक्रमा मार्ग को कम से कम फोर लेन बना दिया जाए तथा एक्सप्रेस वे तक सीधे नैशनल हाईवे- 2 से जोड़ दिया जाए तो भीड़ जगह-जगह बट जाएगी। थोड़ा-थोड़ा अतिक्रमण हट जाए एवं ई रिक्शा स्टैंड, गाड़ी पार्किंग, जगह-जगह शौचालय आदि बन जाए तो  कॉरिडोर बनाने  की आवश्यकता ही नहीं होगी. इससे लोगों को परेशानी का सामना भी नहीं करना पड़ेगा तथा जमीन अधिग्रहण के समय दिया जाने वाला मुआवजा भी नहीं देना होगा. इससे सरकार को राजस्व की बचत होगी एवं वृन्दावन का वास्तविक स्वरूप भी बना रहेगाl  

क्या बांके बिहार मंदिर निजी संपत्ति नहीं? 

गोस्वामियों का कहना है कि मंदिर उनकी निजी संपत्ति है. लेकिन रेवेन्यू डॉक्युमेंट्स के मुताबिक ऐसा नहीं है. इन दस्तावेजों में यह जमीन मंदिर के नाम से है ही नहीं बल्कि गोविंददेव के नाम से दर्ज है. कॉरिडोर बनाने के लिए मंदिर के पास 100 दुकानों और 300 घरों का अधिग्रहण किया जाना है. हालांकि सरकार इसके लिए उचित मुआवजा देगी. लेकिन लोग इसके लिए भी तैयार नहीं हैं. 

5 एकड़ जमीन पर बनेगा कॉरिडोर*: 

बता दें कि बांके बिहारी मंदिर के पास करीब 5 एकड़ जमीन पर कॉरिडोर बनना है. मंदिर तक जाने के लिए तीन रास्ते बनाए जाएंगे. श्रद्धालुओं को वाहन खड़ा करने में परेशानी न हो इसके लिए 37 हजार वर्ग मीटर में पार्किंग बनाई जानी है. हालांकि कॉरिडोर इस तरह से बनाया जाना है जिससे मंदिर का मूल स्वरूप पहले जैसा ही रहे.

कॉरिडोर के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका :* 

देवेंद्र नाथ गोस्वामी ने सुप्रीम कोर्ट में 19 मई को एक याचिका दायर कर कहा था कि प्रस्तावित पुनर्विकास परियोजना का कार्यान्वयन अव्यावहारिक है और मंदिर के कामकाज से ऐतिहासिक और परिचालन रूप से जुड़े लोगों की भागीदारी के बिना मंदिर परिसर के पुनर्विकास का कोई भी प्रयास प्रशासनिक अराजकता का कारण बन सकता है. उन्होंने अदालत के आदेश में संशोधन किए जाने की अपील की थी. दरअसल कोर्ट ने 15 मई को बांके बिहारी मंदिर कॉरिडोर को विकसित करने की यूपी सरकार की योजना का मार्ग प्रशस्त कर दिया था. 

बता दें कि सुप्रीम कोर्ट ने यूपी सरकार की तरफ से दायर जनहित याचिका पर इलाहाबाद हाई कोर्ट के 8 नवंबर, 2023 के उस आदेश को 15 मई को संशोधित किया था जिसमें राज्य की महत्वाकांक्षी योजना को स्वीकार किया गया था लेकिन राज्य को मंदिर की निधि का इस्तेमाल करने की अनुमति देने से इनकार कर दिया गया था.

याचिका में क्या है गोस्वामी का दावा?* 

वहीं देवेंद्र नाथ गोस्वामी की याचिका में दावा किया गया था कि कॉरिडोर बनाए जाने से मंदिर और उसके आसपास के पारिस्थितिकी तंत्र के धार्मिक और सांस्कृतिक चरित्र के बदलने की आशंका है जिसका गहरा ऐतिहासिक और भक्ति संबंधी महत्व है. बता दें कि देवेंद्र नाथ मंदिर के संस्थापक स्वामी हरिदास गोस्वामी के वंशज हैं और उनका परिवार पिछले 500 सालों  से मंदिर का प्रबंधन कर रहा है. मंदिर का ट्रस्ट पहले से बना हुआ है. फिर नए ट्रस्ट बनाने की आवश्यकता क्यों ? बाहरी लोग न्यास में शामिल होने से उनका अनावश्यक हस्तक्षेप होगा जिसके चलते मंदिर के संचालन में परेशानी आयेगी सैकड़ों सालों से चली आ रही ठाकुर बांके बिहारी जी की पूजा- अर्चना में बाधा डाली जाएगी  जिसे हम किसी भी रूप में स्वीकार नहीं कर सकते हैंl

सरकार जनहित के लिए जो भी कार्य करेगी उस में हमारा पूरा सहयोग एवं समर्थन रहेगा बशर्ते  वृन्दावन की प्राचीन संस्कृति, परंपरा एवं इसके पुराने स्वरूप में किसी प्रकार की छेड़-छाड़ न होl यहां के दुकानदारों को भी आशंका है कि जिस तरह से अयोध्या में जिस दुकान का मुआवजा 1.5 लाख रुपये मिला , उसी साईज की दुकानों को 15 से 20 लाख रुपये में बेचा गया l

लोगों को आशंका है कि बृजवासियों की अधिगृहीत जमीन का एक हिस्सा माँल एवं आलीशान  होटल बनाने के लिए पूंजीपतियों को न बेच दें l यदि सरकार ऐसा करती है तो बृजवासी अपने आप को ठगा सा महसूस करने लगेंगेl 

अब राज्य सरकार की जिम्मेदारी बनती है कि गोस्वामी समाज एवं स्थानीय लोगों को भरोसा दिलाए कि किसी को कोई परेशानी नहीं होगी तथा काम में ईमानदारी एवं पारदर्शिता बरती जाएगीl

पूरन चन्द्र शर्मा

भारत में इस्लामोफोबिया के प्रचार में लगा पश्चिमी जमात, हकीकत के उलट है वास्तविकता  

गौतम चौधरी 

अंतरराष्ट्रीय गैर सरकारी संगठनों और अधिवक्ताओं के समूहों की ओर से लगाए जा रहे आरोपों की बढ़ती बाढ़ ने भारत को वैश्विक स्तर पर कड़ी जांच के दायरे में ला दिया है। दरअसल, दावा किया जा रहा है कि भारत में इस्लामोफोबिया बढ़ रहा है हालांकि, इनमें से कई दावों की बारीकी से जांच करने पर अतिशयोक्ति, गलत सूचना और कई बार जानबूझकर तोड़-मरोड़ का एक पैटर्न सामने आया है जो साबित करता है कि इस मामले में कुछ पूर्वाग्रही तो कुछ भारत विरोधी ताकत अपने हितों के लिए ऐसा कर रहे हैं। मसलन, इससे संबंधित अक्सर आधिकारिक आंकड़ों का जांच अभिकरणों और स्वतंत्र न्याय प्रणाली ने लगातार खंडन किया है। आज हम भी इस मामले के कुछ तथ्यों की पड़ताल करने वाले हैं।

जनवरी 2024 में, ह्यूमन राइट्स वॉच नामक एक स्वतंत्र संगठन ने अपने दक्षिण एशिया बुलेटिन में एक वीडियो का संदर्भ दिया जिसमें कथित तौर पर उत्तर प्रदेश में एक मुस्लिम युवक को उसकी आस्था के कारण प्रताड़ित किया जा रहा था। यह वीडियो वायरल हो गया और कई अंतरराष्ट्रीय मीडिया आउटलेट्स में इसका हवाला दिया गया। हालांकि, ऑल्ट न्यूज़ के तथ्य-जांचकर्ताओं ने फुटेज को 2022 की एक असंबंधित रोड रेज घटना से जोड़ा जिसका कोई सांप्रदायिक मकसद नहीं था। इस मामले में उत्तर प्रदेश पुलिस ने सांप्रदायिक पहलू को खारिज करते हुए एक आधिकारिक बयान जारी किया और भ्रामक कैप्शन के साथ वीडियो फैलाने वालों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई भी की। बूम लाइव, इंडिया टुडे फैक्ट चेक और पीआईबी फैक्ट चेक ने इसी तरह के उदाहरणों को चिह्नित किया है जिसमें एक प्रवृत्ति का खुलासा हुआ है जहां चुनिंदा फुटेज और अपुष्ट साक्ष्य का उपयोग करके सांप्रदायिक कथाएं गढ़ी जाती है और या सनसनीखेज बना कर लोगों के सामने प्रस्तुत कर दिया जाता है। 

भारत का कानूनी ढांचा धर्मनिरपेक्षता के प्रति कृतसंकल्पित है। संविधान के अनुच्छेद 14, 15 और 25 भारत के प्रत्येक नागरिकों को समानता का अधिकार देता है। यही नहीं, धर्म को स्वतंत्र रूप से मानने, अभ्यास करने और प्रचार करने की भी गारंटी देता है। न्यायपालिका ने सांप्रदायिक संघर्ष से जुड़े मामलों में लगातार हस्तक्षेप किया है जिसमें पीड़ितों के लिए मुआवज़ा देने, स्वतंत्र जाँच के आदेश देने और नफ़रत फैलाने वाले भाषणकर्ताओं को दंडित करने का निर्देश शामिल है। 2023 में, दिल्ली उच्च न्यायालय ने राज्य बनाम अंकित शर्मा में, 2020 के दंगों के दौरान हत्या के दोषी पाए गए लोगों के लिए आजीवन कारावास की सज़ा को बरकरार रखा। यह दर्शाता है कि न्यायपालिका शामिल लोगों की धार्मिक पहचान की परवाह किए बिना कड़े फ़ैसले सुनाने से नहीं कतराती है। इस बीच, कानून प्रवर्तन एजेंसियाँ भी नफ़रत फैलाने वाले भाषणों पर नज़र रख रही हैं और ग़ाज़ियाबाद के डासना के यति नरसिंहानंद जैसे अतिवादियों के खिलाफ निष्पक्ष रूप से मामले दर्ज कर रही हैं; जो अपने इस्लाम विरोधी बयानों के लिए चर्चा में रहते हैं।

दिसंबर 2024 में संसद में पेश गृह मंत्रालय की नवीनतम रिपोर्ट के अनुसार, पिछले वर्ष की तुलना में देश भर में सांप्रदायिक हिंसा के मामलों में 12.5 प्रतिशत की कमी आई है। महाराष्ट्र और तमिलनाडु जैसे राज्यों ने 2024 में दस से भी कम घटनाओं की सूचना दी जो सक्रिय सामुदायिक आउटरीच और पुलिसिंग कार्यक्रमों के कारण संभव हो पाया है। इसके अलावा, एनसीआरबी के आँकड़े इस बात की पुष्टि करते हैं कि सांप्रदायिक हिंसा के मामलों में सज़ा में वृद्धि हुई है जबकि पंजीकृत घृणा अपराधों की संख्या समान चुनौतियों का सामना करने वाले अन्य देशों की तुलना में सांख्यिकीय रूप से कम है।

एक स्वतंत्र अभिकरण का दावा है कि स्वतंत्र भारतीय पत्रकारों और डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म ने धार्मिक तनाव के वास्तविक मामलों और झूठे आख्यानों दोनों को उजागर करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। द वायर, स्क्रॉल.इन और इंडियास्पेंड ने सांप्रदायिक घटनाओं के पीछे के सामाजिक-राजनीतिक कारकों पर व्यापक रूप से रिपोर्ट की है, साथ ही गलत सूचना सामने आने पर सुधार या स्पष्टीकरण भी प्रकाशित किए हैं। मार्च 2024 में, द क्विंट ने मध्य प्रदेश में कथित ‘बीफ़ लिंचिंग’ के बारे में एक वायरल दावे की जाँच की। जांच में स्पष्ट हुआ कि इस मामले में धर्म का कोई एंगल था ही नहीं। उक्त समाचार एजेंसी ने दावा किया था कि उन्होंने एफआईआर विवरण और प्रत्यक्षदर्शियों के बयानों के आधार पर अपनी रिपोर्ट जारी की। इस मामले में बीफ लिंचिंग का कोई मामला था ही नहीं। यह मामला संपत्ति विवाद का था। फिर भी इस कहानी को पहले ही अंतरराष्ट्रीय ब्लॉगों ने ‘हिंदू भीड़ हिंसा’ का आरोप लगाते हुए सुर्खियों में लाया गया। 

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2023 में जी20 इंटरफेथ डायलॉग सहित कई मंचों पर इस मुद्दे को संबोधित किया है, जहां उन्होंने कहा – ‘‘भारत की ताकत इसकी विविधता में निहित है। हमारे संविधान या संस्कृति में नफरत के लिए कोई जगह नहीं है।’’ इसी तरह, विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने अक्टूबर 2023 में फ्रांस 24 के साथ एक साक्षात्कार में ‘‘अंतर्राष्ट्रीय गैर सरकारी संगठनों द्वारा एजेंडा-संचालित आख्यानों’’ की आलोचना की और ‘‘ज़मीनी तथ्यों के साथ अधिक ईमानदार जुड़ाव’’ का आह्वान किया। कुछ विश्लेषकों का तर्क है कि ये अभियान भू-राजनीतिक रूप से प्रेरित हैं। इस मामले में एशिया सोसाइटी पॉलिसी इंस्टीट्यूट के प्रो. सी. राजा मोहन कहते हैं, ‘‘ये समूह अपने घरों में अधिकारों के उल्लंघन को अनदेखा करते हुए चुनिंदा रूप से भारत को निशाना बनाते हैं। यह मानवाधिकारों के बारे में कम और वैचारिक लाभ के बारे में अधिक है सक्रिय रहते हैं।’’

भारत, किसी भी बहुलवादी समाज की तरह, जटिल अंतर-सामुदायिक गतिशीलता का सामना करता है लेकिन देश को व्यवस्थित रूप से इस्लामोफोबिक के रूप में चित्रित करने में अनुभवजन्य समर्थन का अभाव है। हमारा संविधान और न्यायिक तंत्र अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा करने में सक्षम है। यह भी सत्य है कि गलत सूचना, चाहे जानबूझकर हो या लापरवाही से, उसी शांति को खतरे में डालती है जिसकी रक्षा करने का दावा किया जाता है। ऐसे समय में जब तथ्यों को हथियार बनाया जा सकता है या वायरल आक्रोश के नीचे दबा दिया जा सकता है, सत्यापन और संतुलन की जिम्मेदारी घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय समुदाय दोनों की है।

 भारत एक धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य के रूप में अपनी यात्रा जारी रखे हुए है। भारत दुनिया की चुनौतियों से अलग नहीं है। दुनिया के सामने जो चुनौतियां हैं, वही चुनौतियां भारत के सामने भी हैं । ऐसे में दुनिया को भी चाहिए कि भारत को अपनी चुनौतियों का सामना करने में सहयोग करे न कि केवल अपने अपने राष्ट्रीय हितों की चिंता करें और महज कुछ पूर्वाग्रहों के कारण भारत की सकारात्मक छवि को नकारात्मक बना कर प्रस्तुत करे। 

गौतम चौधरी 

भारत की ‘ मेक इन इंडिया ‘ पहल को मिलेगी मजबूती

संजय सिन्हा

आखिरकार अमेरिका और चीन के बीच व्यापार समझौते को लेकर इंतजार खत्म हो गया है। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने  घोषणा की कि अमेरिका और चीन के बीच व्यापार समझौता लगभग पूरा हो गया है। अब बस उनकी और चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग की मंजूरी बाकी है। ट्रंप ने यह भी कहा कि अमेरिका चीन पर 55% टैरिफ लगाएगा। वहीं, चीन 10% टैरिफ लगाएगा। इस समझौते के तहत अमेरिका को चीन से मैग्नेट और रेयर अर्थ मिनरल्स (दुर्लभ खनिज) मिलेंगे। समझौते में यह भी शामिल है कि चीनी छात्र अमेरिकी कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में अपनी शिक्षा जारी रख सकेंगे। यह ट्रंप की उस नीति से अलग है जिसमें उन्होंने चीनी नागरिकों के अमेरिकी शिक्षण संस्थानों में आने पर रोक लगा दी थी।

ट्रंप ने ट्रूथ सोशल पर लिखा, ‘चीन के साथ हमारा समझौता पूरा हो गया है। अब बस राष्ट्रपति शी और मेरी अंतिम मंजूरी बाकी है। चीन की तरफ से पूरे मैग्नेट और जरूरी दुर्लभ खनिज दिए जाएंगे। इसी तरह, हम चीन को वो देंगे जिस पर सहमति हुई है, जिसमें चीनी छात्रों को हमारे कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में पढ़ने की अनुमति देना शामिल है (यह हमेशा से मुझे अच्छा लगता रहा है!)। हमें कुल 55% टैरिफ मिल रहा है, चीन को 10% मिल रहा है। हमारे रिश्ते बहुत अच्छे हैं! इस मामले पर ध्यान देने के लिए धन्यवाद!’

एक अन्य पोस्ट में ट्रंप ने कहा, ‘चीन के बारे में एक और बात, राष्ट्रपति शी और मैं मिलकर चीन को अमेरिकी व्यापार के लिए खोलने का काम करेंगे। यह दोनों देशों के लिए बहुत बड़ी जीत होगी!!!।’व्हाइट हाउस के एक वरिष्ठ अधिकारी ने रॉयटर्स को बताया कि अमेरिका-चीन व्यापार समझौते के तहत अमेरिका के पास चीनी आयात पर 55% टैरिफ लगाने का अधिकार है। इसमें 10% का मूल ‘रेसिप्रोकल’ टैरिफ, फेंटनिल से संबंधित चिंताओं के लिए अतिरिक्त 20% और मौजूदा टैरिफ का 25% जारी रहना शामिल है। अधिकारी के अनुसार, चीन अमेरिकी आयात पर 10% शुल्क लगाएगा।

लंदन में हुई बातचीत के बाद अमेरिका और चीन के प्रतिनिधियों ने अपने व्यापार समझौते को बहाल करने और रेयर अर्थ एक्‍सपोर्ट पर चीनी प्रतिबंधों को खत्म करने के लिए एक समझौते पर सहमति जताई थी। अमेरिका के वाणिज्य सचिव हावर्ड लुट्निक ने लंदन में दो दिनों की कड़ी बातचीत के बाद पत्रकारों से कहा कि यह समझौता पिछले महीने जिनेवा में हुए शुरुआती समझौते को और मजबूत करता है। उस समझौते का उद्देश्य उन भारी जवाबी टैरिफ को कम करना था जो तीन अंकों तक बढ़ गए थे।
डोनाल्ड ट्रंप की ओर से घोषित अमेरिका-चीन व्यापार समझौते का भारत के लिए काफी मायने हैं। इसके अच्छे और कुछ चुनौतीपूर्ण दोनों पहलू हैं। इन पर भारत को विशेष ध्यान देना होगा।आपको बता दूं कि जब अमेरिका और चीन के बीच व्यापार युद्ध चल रहा था तो अमेरिका ने चीनी उत्पादों पर ऊंचे टैरिफ लगाए थे। इससे भारतीय निर्यातकों को अमेरिकी बाजार में एक प्रतिस्पर्धात्मक लाभ मिला था क्योंकि उनके उत्पाद चीनी उत्पादों की तुलना में सस्ते पड़ते थे। इस नए समझौते से अगर अमेरिका चीनी उत्पादों पर टैरिफ कम करता है तो यह भारत के लिए वह ‘टैरिफ आर्बिट्रेज’कम कर देगा। इसका मतलब है कि चीनी सामान फिर से अमेरिकी बाजार में अधिक प्रतिस्पर्धी हो जाएंगे। इससे भारतीय निर्यातकों के लिए कुछ क्षेत्रों में चुनौतियां बढ़ेंगी, खासकर इलेक्ट्रॉनिक्स, कपड़े और ऑटो कंपोनेंट्स जैसे क्षेत्रों में।

व्यापार युद्ध के दौरान कई बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने चीन से बाहर निकलकर अपने मैन्यूफैक्चिरंग आधार को अन्य देशों में ट्रांसफर करने पर विचार किया था। भारत एक आकर्षक विकल्प के रूप में उभरा था। अगर अमेरिका-चीन व्यापार तनाव कम होता है और टैरिफ घटते हैं तो चीन से मैन्यूफैक्चरिंग के ट्रांसफर की यह रफ्तार धीमी हो सकती है या कुछ निवेश वापस चीन में जा सकता है। इससे ‘दुनिया की फैक्ट्री’ बनने की भारत की महत्वाकांक्षा पर कुछ हद तक असर पड़ सकता है।ग्लोबल सप्लाई में ‘चीन-प्लस-वन’ रणनीति को अपनाने की बात हो रही थी, जहां कंपनियां चीन पर अपनी निर्भरता कम करने के लिए अन्य देशों में भी उत्पादन आधार स्थापित कर रही थीं। समझौता होने से इस पुनर्गठन की रफ्तार धीमी हो सकती है, क्योंकि कंपनियों को चीन में वापस निवेश करने का प्रोत्साहन मिल सकता है।

अमेरिका और चीन दुनिया की दो सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाएं हैं। उनके बीच व्यापार तनाव में कमी आने से वैश्विक व्यापार और अर्थव्यवस्था में अधिक स्थिरता आएगी। यह वैश्विक आर्थिक अनिश्चितता को कम करेगा। इससे भारत जैसे व्यापार-निर्भर देशों को भी लाभ होगा।ग्लोबल आर्थिक मंदी की आशंका कम होने से IT और मेटल जैसे क्षेत्रों को लाभ हो सकता है। उदाहरण के लिए अमेरिकी कंपनियों की ओर से चीनी तकनीक पर निर्भरता कम करने से भारतीय IT फर्मों को अधिक काम मिल सकता है। मेटल की मांग भी बढ़ सकती है।यह समझौता भारत को अपनी आंतरिक प्रतिस्पर्धात्मकता और ‘मेक इन इंडिया’ पहल को मजबूत करने के लिए प्रेरित करेगा। भारत को केवल टैरिफ लाभों पर निर्भर रहने की बजाय अपनी उत्पादन क्षमता, गुणवत्ता और लागत-दक्षता में सुधार करना होगा। सरकार की उत्पादन-लिंक्ड प्रोत्साहन (PLI) योजनाएं और कुशल कार्यबल भारत को एक लचीला और आकर्षक मैन्यूफैक्चरिंग हब बनाने में मदद कर सकते हैं।

इस घटनाक्रम के बाद भारत के लिए सबसे महत्वपूर्ण संदेश यह है कि उसे अमेरिका के साथ जल्द से जल्द एक अनुकूल द्विपक्षीय व्यापार समझौता करना चाहिए। अगर भारत अमेरिका के साथ एक मजबूत फ्री ट्रेड एग्रीमेंट कर लेता है तो वह चीन पर टैरिफ लाभ को बरकरार और अपनी निर्यात बढ़ोतरी की रफ्तार को बनाए रख पाएगा।उल्लेखनीय है कि हाल ही में अमेरिका और चीन के बीच जेनेवा में बैठक हुई थी। इसके बाद दोनों ने एक-दूसरे पर लगाए गए टैरिफ को 90 दिनों के लिए घटा दिया था। अमेरिका ने चीनी सामान पर टैरिफ को 145 प्रतिशत से घटाकर 30 प्रतिशत कर दिया था। वहीं, चीन ने भी अमेरिकी सामान पर अपने करों को 125 प्रतिशत से घटाकर 10 प्रतिशत कर दिया था। 

संजय सिन्हा

मोदी शासन: एक रुद्र बनाम रौद्र रूप के सियासी मायने

कमलेश पांडेय

सदैव लोककल्याणकारी देवाधिदेव महादेव के दरबार में एक रुद्र का मतलब ग्यारह होता है। सनातन धर्म में यह बेहद कल्याणकारी अंक समझा जाता है। इस नजरिए से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के राजनीतिक क्लोन भारतीय जनता पार्टी के देशव्यापी शासन के छठवीं पारी में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की निरंतरता के 11 वर्ष पूरे होने पर देशवासियों यानी हर हिंदुस्तानी को गर्व तो होना ही चाहिए क्योंकि इसी वर्ष पाकिस्तान द्वारा प्रोत्साहित और चीन-अमेरिका द्वारा उकसाए हुए पहलगाम आतंकी हमले के बाद दी गई जवाबी प्रतिक्रिया में भारत सरकार द्वारा शुरू किए गए ऑपरेशन सिंदूर के दौरान हमारी संयुक्त सेनाओं ने जो अपना रौद्र रूप दिखलाया है, वह काबिले तारीफ है। इसने दुनियावी महाशक्तियों को अपनी हद में रहने अन्यथा दुष्परिणाम झेलने का दो टूक संदेश दिया है।

कहना न होगा कि भारतीयों की यह महानतम उपलब्धि अनायास नहीं है बल्कि मोदी सरकार की ग्यारह वर्षीय सैन्य साधना का चमत्कार है। यह आरएसएस के शताब्दी वर्ष को और भाजपा को 45 वर्ष पूरे करने की सलामी है जिसे जनसंघ को विघटित किये जाने के पश्चात एक नया रूप दिया गया था। वैसे तो जनसंघ के संस्थापक श्यामा प्रसाद मुखर्जी-दीन दयाल उपाध्याय, पूर्व प्रधानमंत्री अटलबिहारी बाजपेयी-पूर्व उपप्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी और मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी-गृहमंत्री अमित शाह सरीखे सैकड़ों-लाखों संघ पुरुषों के त्याग बलिदान के बाद यह शुभ दिन देखने को मिल रहा है, इसलिए युगपुरुष प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी विशेष बधाई के पात्र हैं क्योंकि उन्होंने जिस शिद्दत से यह महानतम उपलब्धि हासिल की है और विभिन्न उपलब्धियों की जो विश्वयव्यापी श्रृंखला बनाई है, वह अनुकरणीय है। इसके लिए मोहन भागवत जैसे विभिन्न संघ प्रमुखों व उनके लाखों स्वयंसेवकों व भाजपा कार्यकर्ताओं के त्याग व बलिदान को भी नहीं भुलाया जा सकता ।

कहना न होगा कि ‘विदेशी एजेंट्स’ के तौर पर कार्य करने वाले कतिपय भारतीय राजनेताओं ने जिस भाजपा को सियासी अछूत और साम्प्रदायिक पार्टी करार देने में कोई कोताही नहीं बरती, आज उसी की राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय उपलब्धियां व सूबाई रणनीति इन राजनेताओं के राजनीतिक अस्तित्व को ही समाप्त करती जा रही हैं। अमेरिका और चीन जैसे अंतरराष्ट्रीय दोगले देशों के साथ चूहे-बिल्ली का खेल खेलते हुए भारत अब दुनिया की बड़ी आर्थिक व सैन्य शक्ति बन गया है। आर्थिक रूप से शक्तिशाली देशों की सूची में भारत जहां वर्ष 2014 में 10वें स्थान पर था, वह अब 2025 में 4थे स्थान पर पहुंच चुका है। हमारी अर्थव्यवस्था अब उछलकर विश्व के चौथे स्थान पर जा पहुंची है।

कहने का तात्पर्य यह कि जिस ब्रिटेन ने दुनियाभर पर राज्य किया, वह तो कब का भारत से पिछड़ गया, वहीं अब धनकुबेर जापान को भी भारत ने पछाड़ दिया है और अपनी हठधर्मिता से दुनिया को दो विश्व युद्ध की सौगात देने वाले और तीसरे संभावित विश्वयुद्ध की पृष्ठभूमि तैयार करने वाले जर्मनी को आर्थिक चकमा देकर भारत कब दुनिया की तीसरी आर्थिक महाशक्ति बन जायेगा और फिर अमेरिका-चीन से आर्थिक होड़ शुरू कर देगा, इसमें ज्यादा अवधि नहीं बची है! क्या यह देशवासियों के खुश होने का वक्त नहीं है? 

आंकड़े बताते हैं कि 1947 में आजादी मिलने के बाद साल 2014 तक यानी लगभग 70 वर्षों में देश महज 2 ट्रिलियन डॉलर की इकोनॉमी ही बन पाया था। ऐसा इसलिए कि हमारी सरकारें विदेशियों के मुंह पोछते रहने की आत्मघाती नीतियों पर चल रही थीं। वहीं, राष्ट्र्वादी सरकार की 4थी से 6 ठी पारी के बीच यानी 11 साल बाद भारतीय अर्थव्यवस्था 4.2 ट्रिलियन डॉलर की इकोनॉमी बन चुकी है। अब भारत का तात्कालिक लक्ष्य तीसरे स्थान पर चल रहे जर्मनी को पछाड़कर 2028 तक 5 ट्रिलियन डॉलर की इकोनॉमी बनना है। मतलब साफ है कि एक विकासशील देश से विकसित देश बनने को आतुर भारत का अगला शिकार जर्मनी होगा। तब भारत की अर्थव्यवस्था से आगे सिर्फ चीन और अमेरिका रह जाएंगे जो हमसे पिछले कई दशकों से मजबूत प्रतिद्वंद्विता करते आए हैं।

ऐसे में हम विगत 11 सालों में मोदी सरकार या एनडीए सरकार पास हुई या फेल, इस विवाद को हम विपक्षी राजनीतिक पार्टियों के लिए छोड़ते हैं जबकि बाकी काम जनता जानती है और उसके पास जवाब देने के लिए अनेक अवसर हैं। जो असंभव को संभव बनाने का कार्य मोदी सरकार ने किया है, वह हम सबके सामने है। चाहे राम मंदिर निर्माण हो, जम्मू-कश्मीर से धारा 370 की समाप्ति हो और तीन तलाक़ नामक कुप्रथा की समाप्ति, आदि…. ऐसे बड़े काम हैं जो पिछली सरकारें कभी नहीं कर पातीं। 

उसे छोड़िए, हुआ न हुआ, इसको सरकार और विपक्ष पर छोड़ते हैं। 

लेकिन अब हमारी निगाहें 22 साल बाद यानी 2047 के विकसित भारत की ओर लगी हैं। वर्तमान अमृत काल खंड सबको आकर्षित कर रहा है। माना कि वह साल हम लोग और हमारी वर्तमान पीढ़ी नहीं देख पाएगी या जो सौभाग्यशाली होंगे, वो देख पाएंगे पर भारत को विकसित राष्ट्र बनते हमारे बच्चे देखेंगे और हम उनकी आंखों से देखेंगे। कहना न होगा कि विगत 11 सालों में भारत की गतिशील अर्थव्यवस्था का रास्ता खुद ही नहीं खुला बल्कि टीम मोदी प्रशासन की अथक तैयारियों के साथ खोला गया है। यदि एपल, स्टारलिंक और टेस्ला जैसी बड़ी अमेरिकी कंपनियां अमेरिका की बजाय भारत में अपना उद्योग लगाना चाहती हैं तो कोई तो बात हुई होगी इन 11 वर्षों में जबकि कुछ लोगों ने दंगों-फसादों में ही झुलसते रहने का ही ठेका ले लिया है?

आप गौर कीजिए कि आखिर अब ऐसा कौन-सा मोर्चा बचा हुआ है जिस पर भारत मजबूत न हुआ हो? क्योंकि कोई भी देश मजबूत अर्थव्यवस्था वाला देश तभी बनता है जब वह हर मोर्चे पर मजबूत हुआ हो। यही वजह है कि ऑपरेशन सिंदूर में दुनिया ने भारत की मजबूती देखी। भारत के हमलों की मार पाकिस्तान के उस परमाणु भंडार तक पहुंच गई जिसमें अमेरिका और चीन भी अपने अपने परमाणु हथियार रखे हुए हैं। भारत द्वारा 9 आतंकी ठिकाने और 11 एयरबेस उड़ाने की आग जब परमाणु भंडार की तरफ बढ़ी, तो अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंफ और चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग के पसीने भी छूटने लगे। फिर भारत ने आत्मशक्ति से अर्जित आत्मसंयम की मिसाल भी दुनिया के सामने खड़ी कर दी।

आप जरा गौर कीजिए, बीते कुछ महीनों-सालों में पाकिस्तान में पनवाड़ी से लेकर मोची तक और सिपाही से लेकर सेनाध्यक्ष मुनीर तक सभी परमाणु हमले की धमकी बार-बार दिया करते थे लेकिन भारत के ब्रह्मोस की रेंज में जब सरगोधा के बाद किराना हिल्स भी आ गई, तब अमेरिका तक किस तरह घबरा गया। चीन किस तरह से अमेरिका की चिरौरी करने लगा। वही आक्रमण था जब पाकिस्तानी सेना ने गिड़गिड़ाते हुए सीजफायर की गुहार भारतीय सेना से लगाई। 

अच्छा हुआ, वसुधैव कुटुंबकम का पथप्रदर्शक भारत मान गया लेकिन यदि न मानता तो आज पाकिस्तान का वजूद ही मिट गया होता। उसके बाद चीन अपनी कुटिल चालें चल रहा है। अमेरिका का नेतृत्व पागल की तरह भारत से व्यवहार कर रहा है लेकिन देखते रहिए, भारत की यह सैन्य शक्ति तथा बढ़ती हुई अर्थव्यवस्था ही इस महान देश को विकसित राष्ट्र और वैश्विक महाशक्ति बनने के रास्ते पर ले जाएगी। 

हमारे देश को जरा और आगे बढ़ने तो दीजिए? हमारे महान भारत को, हमारे कुशल भारतीयों को! उनका रौद्र रूप और शिव तांडव जब दुनिया देखेगी, तो अचंभित रह जायेगी क्योंकि विश्व को सत्य व अहिंसा का नया पाठ पढ़ाने के लिए हमलोग दुनियावी तांडव जरूर दिखाएंगे, आज नहीं तो निश्चय कल। इसलिए चेत जाए हिंसक-प्रतिहिंसक दुनिया!

कमलेश पांडेय

मुद्दा: वैवाहिक रिश्तों की डोर, क्यों हो रही कमजोर?

महिलाओं ने अपने पतियों को उतारा मौत के घाट, बदले हुए सामाजिक परिवेश में अब पुरुष हो रहे प्रताड़ित

प्रदीप कुमार वर्मा

नीला ड्रम और सीमेंट। फ्रिज में डेड बॉडी। कांटेक्ट किलिंग। जानलेवा जहर का कहर। और शादी के नाम पर साजिश और धोखा। बीते दिनों में प्यार, दोस्ती और शादी का यही स्याह सच समाज में सामने आया है। सात वचनों के जरिए सात जन्म तक साथ निभाने के वादे अब टूट रहे हैं। हालात ऐसे हैं कि बीते जमाने में जहां महिला को सामाजिक तिरस्कार का शिकार होना पड़ता था। वहीं, इसके उलट अब महिलाओं के हाथों पुरुष प्रताड़ित हो रहे हैं और उनकी जान तक जा रही है। मुस्कान से लेकर सोनम की बेवफाई अब शादी के सपने देखने वाले लोगों को डरा रही है। यही वजह है कि अब समाज में इंसानी और सामाजिक रिश्तों को लेकर एक नई बहस छिढ़ गई है और यह बहस इस तौर पर भी प्रासंगिक है कि आखिर हम किस तरफ जा रहे हैं? मनोविज्ञान के जानकारों का कहना है कि सामाजिक ताने-बाने को बचाने की खातिर हमें इस समस्या का कारण और समाधान निकालना ही होगा।

          साल 2025 में अपराध की दुनिया में एक अजीब सा बदलाव देखने को मिला है। अब तक की कहानी में यही बात सामने आई थी  कि किसी पति ने पत्नी को मौत के घाट उतार दिया या प्रेम संबंधों के चलते पति ने अपनी पत्नी को घर से निकाल दिया लेकिन इस बार कातिल का किरदार महिलाएं निभा रही हैं, वो भी अपने पतियों के खिलाफ। प्रेम, लालच, धोखा और साजिश की जाल में फंसकर पत्नियां वो हदें पार कर रही हैं जिनके बारे में सोचकर भी रूह कांप जाती है। ऐसे मामलों में ताजा उदाहरण राजा रघुवंशी हत्याकांड का है। मप्र के इंदौर के रहने वाले राजा रघुवंशी की लाश 2 जून को मेघालय के मशहूर वेईसावडॉन्ग झरने के पास एक गहरी खाई में मिली थी। वह अपनी नई नवेली पत्नी सोनम के साथ हनीमून पर गए थे लेकिन इस सफर का अंत बेहद खौफनाक रहा। अब मेघालय पुलिस ने खुलासा किया है कि राजा की हत्या उसी की पत्नी सोनम ने अपने प्रेमी राज कुशवाहा के साथ मिलकर करवाई थी।      

           फिलहाल सोनम सहित चार कांटेक्ट किलर सलाखों के पीछे हैं। इसी साल ऐसे ही एक अन्य मामले में 3 मार्च को मेरठ की मुस्कान ने अपने प्रेमी साहिल के साथ मिलकर मर्चेंट नेवी में काम करने वाले सौरभ राजपूत की हत्या कर दी। सौरभ राजपूत अपनी पत्नी मुस्कान रस्तोगी और 5 साल की बेटी के साथ मेरठ के ब्रह्मपुरी थाना के इंदिरा नगर में रहता था। अपनी नौकरी के सिलसिले में लंदन में पोस्टिंग पर सौरभ कुछ दिन पहले ही सौरभ लंदन से मेरठ अपने घर आया था। इस दौरान मुस्कान ने अपने प्रेमी साहिल के साथ मिलकर  सौरभ की हत्या कर उसके शव को कई टुकड़ों में काटा और अपना गुनाह छिपाने के लिए सौरभ के शव के टुकड़ों को नीले ड्रम में सीमेंट के साथ बंद कर दिया। मुस्कान की साजिश और सनकीपन यहीं समाप्त नहीं हुआ और इस गुनाह के बाद मुस्कान और उसका प्रेमी साहिल छुट्टियों पर घूमने चले गए। पति के हत्या करने वाली मुस्कान जब अपने प्रेमी साहिल के साथ वापस लौटी, तब यह मामला खुला। यह अलग बात है कि आज दोनों आरोपी जेल में बंद हैं। 

        उप्र के मेरठ में एक और चौंकाने वाला मामला सामने आया जिसमे रविता ने अपने प्रेमी अमरदीप के साथ मिलकर अपने पति अमित कुमार की गला घोंटकर हत्या कर दी और शव के पास सांप रख दिया ताकि यह हादसा लगे लेकिन पोस्टमार्टम रिपोर्ट ने सच्चाई सामने ला दी। ऐसे ही एक मामले में रेलवे में काम करने वाले दीपक कुमार की संदिग्ध परिस्थितियों में मौत हुई थी। उसकी पत्नी शिवानी ने दावा किया कि उसे हार्ट अटैक आया था लेकिन दीपक के परिवार ने पोस्टमार्टम की मांग की। जब जांच हुई तो पता चला कि दीपक की हत्या की गई थी और उसकी पत्नी ही आरोपी निकली। महिलाओं के अपराध की दुनिया में कदम रखने तथा अपने ही पति को अपने रास्ते का कांटा समझ उनकी हत्या करने का यह कोई अकेला मामला नहीं है। ऐसे कई और भी मामले हैं जिनमें महिलाओं ने अपने मर्यादा की सारी हद पर कर अपने पति को मौत की नींद सुला दिया। 

        बदलते परिवेश में अपराध के इस बदले हुए चलन से समाज में वह व्याप्त है और अब लोग शादी के नाम पर डरने लगे हैं। एक जमाना था जब शादी को एक सुखद एवं समर्पित सामाजिक संस्कार माना जाता था। शादी के दौरान पति-पत्नी द्वारा सात वचनों की कसमें खाई जाती थी और यह संबंध मात्र एक जन्म का न होकर सात जन्म तक निभाए जाने का एक वादा होता था लेकिन बीते दिनों में यह वचन कहीं पीछे छूट रहे हैं और संबंध कहीं टूट रहे हैं। इस संबंध में मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि भौतिक संसाधनों की दौड़ तथा अपनी “ईगो” के चलते महिलाओं ने अपने जीवन साथी को ही मौत के घाट उतारने को इस सामाजिक बंधन से मुक्ति का जरिया बना लिया है। यही नहीं, कई बार ऐसा भी देखने में आया है कि अपने घर परिवार की “मान मर्यादा”, दहेज नहीं दे पाने के हालात तथा अन्य मामलों के चलते महिलाओं ने जबरन शादी तो कर ली और इसके बाद जब उन्हें जीवन की कड़वी सच्चाई का पता चला, तब उन्होंने ऐसे कदम उठाना ही ठीक समझा। 

      इसके अलावा धन, संपदा और वैभव, सोशल स्टेटस तथा शिक्षा समेत अन्य मामलों में असमानता होने के चलते भी महिलाओं को अपना वैवाहिक जीवन रास नहीं आ रहा और वह इससे छुटकारा पाने के लिए किसी भी हद तक जा रही है। महिलाओं के इस अपराधिक कृत्य में जादू टोना और तंत्र-मंत्र के भी कुछ संकेत सामने आए हैं। नतीजतन हिंदू धर्म में परमेश्वर कहे जाने वाले पति को ही अपना सबसे बड़ा दुश्मन मान और समझ कर महिलाएं इन वारदातों को बेहिचक अंजाम दे रही है और इन्हें अपने इस कृत्य का कोई पछतावा भी नहीं है। उनके इस गुनाह में समाज के ही कुछ अन्य पुरुष जैसे प्रेमी, देवर, पिता तथा अन्य लोग भी उनकी मदद कर रहे हैं। इस नए चलन में सामाजिक तानेबाने को चूर-चूर करने के पीछे कहीं ना कहीं फिल्म टीवी सीरियल और सोशल मीडिया का भी हाथ माना जा रहा है। वर्तमान में समाज के इस नए चलन से समाजशास्त्री भी हैरान और परेशान है कि आखिर हम कहां जा रहे हैं?  समाजशास्त्रियों और घर परिवार के लोगों को इस बात की चिंता है कि यह क्रम कब तक जारी रहेगा और इसका उपाय क्या है? 

     इस साल के शुरुआत से सामने आई इस सामाजिक एवं अपराधिक समस्या के समाधान पर गौर करें तो पता चलता है कि दहेज प्रताड़ना और घरेलू हिंसा पर प्रभावी रोक और कानून की कड़ाई से पालना, विवाह से पूर्व वर एवं वधू का मनोवैज्ञानिक परीक्षण, दोनों की काउंसलिंग और आपसी रजामंदी तथा समाज में बराबरी का दर्जा और बेपनाह प्यार से इस प्रकार के कृत्य पर कुछ रोक लगाई जा सकती है। इसके साथ ही महिलाओं को घर-परिवार और समाज में अपेक्षित आजादी तथा सामाजिक कार्यों में बराबर की सहभागिता दी जानी चाहिए जिससे वे खुद को घर-परिवार का एक अनिवार्य हिस्सा मानें। इसके अलावा जादू-टोना तथा तंत्र-मंत्र के कथित प्रचलन पर भी जागरूकता के जरिए प्रभावी रोक लगाने की आवश्यकता है। कुल मिलाकर महिलाओं द्वारा अपने पति को रास्ते से हटाने के इस दौर में सबसे ज्यादा परेशानी इस बात को लेकर है कि परिवार और घर का आधार स्तंभ कहे जाने वाला पुरुष साथी ही जब मौत के साये के चलते भय से जब पीड़ित है तो मजबूत परिवार के साथ-साथ एक बेहतर समाज की कल्पना कैसे की जा सकती है?

प्रदीप कुमार वर्मा

‘सेक्रेड गेम्स’ से मशहूर हुई एक्‍ट्रेस राजश्री देशपांडे

सुभाष शिरढोनकर

महाराष्ट्र के औरंगाबाद में एक कृषक मजदूर परिवार में पैदा हुई एक्‍ट्रेस राजश्री देशपांडे तीन भाई-बहनों में सबसे छोटी हैं। उनका बचपन औरंगाबाद में बीता ।

स्कूल के दिनों से ही राजश्री ड्रामा में हिस्सा लेने लगी थी। डांस में रुचि थी तो एक आर्केस्ट्रा का हिस्सा बन कर गांव-गांव जाकर लावणी परफॉर्म करने लगीं।

आगे की पढाई के लिए राजश्री, औरंगाबाद से निकलकर पुणे पहुंची। वहां सिम्बॉयसिस कॉलेज से उन्‍होंने लॉ की पढ़ाई की। उन्‍होंने सिम्बायोसिस इंटरनेशनल यूनिवर्सिटी से विज्ञापन में स्नातकोत्तर की डिग्री भी हासिल की है।

अपनी जिद और मेहनत के दम पर राजश्री ने खुद की ऐड एजेंसी खोली और खूब पैसे भी कमाए लेकिन जल्द ही उन्हें अपना लक्ष्य मिल गया और वह मुंबई आ गईं। यहां आकर उन्‍होंने फिल्‍म मेकर सुभाष घई के व्हिसलिंग वुड्स इंटरनेशनल में एडमिशन लिया और फिल्म निर्माण में डिप्लोमा किया ।

वहां से पास आउट होने पर राजश्री नसीरुद्दीन शाह के साथ थिएटर का हिस्सा बनी । उन्‍होंने फिल्‍मों के लिए खूब सारे ऑडिशन दिए। वह शुरुआत के लगभग सारे ऑडिशन में फेल हुई।

लेकिन 2012 में आमिर खान अभिनीत फिल्म ‘तलाश’ में एक छोटी सी भूमिका के साथ राजश्री को बॉलीवुड में डेब्‍यू का अवसर मिला। फिर वह टेलीविजन पर चली गईं और ‘कुछ तो लोग कहेंगे’ (2012-2013) और ’24’ (2013) में दिखाई दीं।

सलमान खान की फिल्‍म ‘किक’ (2014) की एक छोटी सी भूमिका से उन्‍होंने बॉलीवुड में वापसी की। साल 2015 की मलयालम फिल्म ‘हराम’ में उन्‍होंने अमीना की भूमिका निभाई ।

राजश्री देशपांडे की अन्‍य बॉलीवुड फिल्‍मों में ‘मुंबई सेंट्रल’ (2016) और ‘सेक्सी दुर्गा’ (2017) के नाम शामिल हैं। रिलीज से पहले फिल्‍म ‘सेक्सी दुर्गा’ (2017) के टाइटल को लेकर काफी विवाद हुआ। फिल्म के नाम की वजह से राजश्री को एसिड अटैक की धमकी मिली। विवाद के चलते शुरुआत में फिल्‍म को बैन कर दिया गया लेकिन बाद में ‘एस दुर्गा’ (2017) टाइटल के साथ रिलीज की परमिशन मिली।

राजश्री ने जेम्स वाटकिंस द्वारा निर्देशित ब्रिटिश टेलीविजन सीरीज ‘मैकमाफिया’ (2018) के साथ डिजिटल डेब्यू किया। उसके बाद उन्‍होंने अनुराग कश्यप द्वारा निर्देशित नेटफ्लिक्स शो ‘सेक्रेड गेम्स’ (2018) में नवाजुद्दीन सिद्दीकी की पत्‍नी सुभद्रा का किरदार निभाया।

‘सेक्रेड गेम्स’ (2018) के लिए राजश्री की जमकर प्रशंसा हुई लेकिन सीरीज मे उन पर फिल्‍माए गए एक इंटीमेसी सीन को जब मार्फ कर किसी ने उसकी क्लिप पोर्न वेबसाइट पर डाली, उसके बाद राजश्री पर पोर्न स्टार होने का आरोप भी लगा लेकिन इस सीरीज ने उन्हें काफी मशहूर कर दिया।

राजश्री देशपांडे ने नंदिता दास की ‘मंटो’ (2018) में इस्मत चुगताई का किरदार निभाया। सीरीज ‘द फेम गेम’ (2022) में राजश्री को माधुरी दीक्षित के साथ काम करने का मौका मिला।

वेब सीरीज ‘ट्रायल बाई फायर’ (2023) राजश्री के करियर के लिए काफी अहम रही है। इसके लिए उन्‍होंने सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री केटेगरी में फिल्मफेयर ओटीटी अवार्ड्स जीता।

राजश्री देशपांडे, जल्द ही नेटफ्लिक्‍स पर नई सीरीज ‘ब्‍लेक वारंट’ में नजर आएगी।

सुभाष शिरढोनकर

भारत में लगातार घटती गरीबी एवं बढ़ती धनाडयों की संख्या

वैश्विक स्तर पर वित्तीय संस्थान अब यह स्पष्ट रूप से मानने लगे हैं कि विश्व में भारत की आर्थिक ताकत बहुत तेजी से बढ़ रही है। हाल ही में जारी किए गए एक सर्वे रिपोर्ट में यह बताया गया है कि भारत में पिछले बीते वर्ष में उच्च नेटवर्थ व्यक्तियों की संख्या एवं उनकी संपतियों में अतुलनीय वृद्धि दर्ज हुई है। जबकि विश्व के कई देशों विशेष रूप से विकसित देशों में उच्च नेटवर्थ व्यक्तियों की संख्या एवं इनकी सम्पत्ति में वृद्धि दर लगातार नीचे गिर रही है। इसका आश्य तो अब यही लगाया जा सकता है विश्व में आर्थिक शक्ति अब पश्चिम से पूर्व की ओर स्थानांतरित हो रही है।

भारत में जिस व्यक्ति की शुद्ध सम्पत्ति 5 करोड़ रुपए या उससे अधिक होती है उसे उच्च नेटवर्थ व्यक्ति (HNWI) कहा जाता है। पिछले वर्ष भारत में उच्च नेटवर्थ व्यक्तियों की औसत सम्पत्ति 8.8 प्रतिशत की दर से बढ़ी है, जबकि विश्व में यह औसतन 2.6 प्रतिशत की दर से बढ़ी है। इसका परिणाम यह हुआ है कि भारत में मिलिनेयर्स की संख्या बढ़कर 378,810 हो गई है और इनकी कुल सम्पत्ति 1.5 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर अर्थात 129 लाख करोड़ रुपए के आंकड़े को पार कर गई है। वर्ष 2024 में भारत में 4,290 अल्ट्रा उच्च नेटवर्थ व्यक्ति निवास कर रहे थे, जिनकी कुल सम्पत्ति 53,477 करोड़ अमेरिकी डॉलर थी। अल्ट्रा उच्च नेटवर्थ व्यक्ति उस नागरिक को कहते हैं जिसकी शुद्ध सम्पत्ति 3 करोड़ अमेरिकी डॉलर अथवा उससे अधिक होती है।

भारत में तो उच्च नेटवर्थ व्यक्तियों की संख्या बढ़ी है परंतु यूरोप में इनकी संख्या 2.1 प्रतिशत घटी है। ब्रिटेन में 14,000, फ्रान्स में 21,000, जर्मनी में 41,000 उच्च नेटवर्थ व्यक्तियों की संख्या घटी है। एशिया प्रशांत क्षेत्र में उच्च नेटवर्थ व्यक्तियों की संख्या 1.7 प्रतिशत बढ़ी है तो लेटिन अमेरिका में उच्च नेटवर्थ व्यक्तियों की संख्या 8.5 प्रतिशत घटी है। साथ ही, मध्य पूर्व में भी उच्च नेटवर्थ व्यक्तियों की संख्या में 2.1 प्रतिशत की कमी दर्ज की गई है।

क्या भारत में उच्च नेटवर्थ व्यक्तियों की बढ़ती संख्या एवं इनकी बढ़ती सम्पत्ति से भारत में कहीं आर्थिक असमानता के गहराने का संकट तो खड़ा नहीं हो रहा है। हालांकि भारत में उच्च नेटवर्थ व्यक्तियों की बढ़ती सम्पत्ति, भारत की बढ़ती आर्थिक ताकत का प्रतीक भी है। परंतु, यदि इस बढ़ी हुई सम्पत्ति का लाभ समाज के समस्त नागरिकों को नहीं मिल पा रहा है तो यह सोचनीय प्रशन्न अवश्य है।

इसी संदर्भ में हाल ही में विश्व बैंक द्वारा जारी की गई एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में अत्यधिक गरीबी में जीवन यापन करने वाले नागरिकों की संख्या में अतुलनीय रूप से कमी दर्ज की गई है। यह भारत के लिए  निश्चित ही बहुत अच्छी खबर हो सकती है। इस रिपोर्ट के अनुसार, भारत में अत्यधिक गरीबी में जीवन यापन करने वाले नागरिकों की संख्या 34.44 करोड़ नागरिकों से घटकर 7.52 करोड़ नागरिक रह गई है। भारत में लगभग 27 करोड़ नागरिकों को अत्यधिक गरीबी से ऊपर ले आया जा सका है। विश्व बैंक की उक्त रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2011-12 में भारत की कुल जनसंख्या का 27.1 प्रतिशत नागरिक अत्यधिक ग़रीबी में जीवन यापन करने को मजबूर था परंतु वर्ष 2022-23 आते आते यह संख्या घटकर मात्र 5.3 प्रतिशत के स्तर पर पहुंच गई है, जबकि, इस बीच भारत की जनसंख्या में भी वृद्धि हुई है। यह भारत में तेज गति से विकसित किए गए रोजगार के अवसरों के चलते सम्भव हो सका है। इस संदर्भ में विशेष रूप से केंद्र सरकार द्वारा लागू की गई विभिन्न योजनाओं के लाभ को देश की अधिकतम जनसंख्या तक पहुंचाने के कारण भारत में बहुआयामी गरीबी को कम करने में अपार सफलता हासिल की जा सकी है। बहुआयामी गरीबी सूचकांक (MPI) वर्ष 2005-06 में 53.8 प्रतिशत से घटकर वर्ष 2022-23 में 15.5 प्रतिशत तक नीचे आ गया है। आगे आने वर्षों में भी यदि इसी प्रकार के आर्थिक विकास दर भारत में लागू रहती है तो बहुत सम्भव है कि कुछ ही वर्षों के उपरांत संभवत: भारत में गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन करने वाला एक भी नागरिक शेष नहीं रहेगा।      

विश्व बैंक की उक्त रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि भारत में शहरी एवं ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबी को कम करने में लगभग एक जैसी सफलता मिली है। इसी का परिणाम है कि भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में अत्यधिक गरीबी दर आज 18.4 फीसदी से घटकर 2.8 प्रतिशत रह गई है। इसी तरह से शहरी क्षेत्रों में भी अत्यधिक गरीबी दर जो 10.7 फीसदी के करीब थी, वह घटकर सिर्फ 1.1 पर आ गई है। इसी तरह का एक व्‍यापक अंतर ग्रामीण-शहरी जीवन के आर्थ‍िक व्‍यवहार में भी दूर हुआ है, यह अंतर 7.7 फीसदी से घटकर सिर्फ 1.7 प्रतिशत पर आ पहुंचा है। विशेष रूप से महिलाओं के बीच रोजगार के अवसरों में अतुलनीय वृद्धि दर हासिल की जा सकी है। ग्रामीण इलाकों में कृषि के क्षेत्र में महिलाओं को रोजगार के अवसरों में वृद्धि दर्ज की गई है। वित्त वर्ष 2024-25 की पहली तिमाही में शहरी क्षेत्रों के बेरोजगारी की दर 6.6 प्रतिशत तक नीचे आ गई है, जो वर्ष 2017-18 के बाद से सबसे कम है।

भारत में गरीबी दूर करने के लिए केंद्र एवं राज्य सरकारों ने मिलकर काम किया है। इस सम्बंध में विशेष रूप से केंद्र सरकार द्वारा कई योजनाएं लागू की गईं हैं। इन महत्वपूर्ण एवं विशेष योजनाओं में शामिल हैं – प्रधानमंत्री आवास योजना, प्रधानमंत्री सुरक्षा बीमा योजना, प्रधानमंत्री जन धन योजना, प्रधानमंत्री मुद्रा योजना, प्रधानमंत्री जीवन ज्योति योजना, प्रधानमंत्री उज्जवला योजना, प्रधानमंत्री आयुषमान भारत योजना, प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि योजना, प्रधानमंत्री गरीब अन्न कल्याण योजना, जैसी अनेक योजनाओं ने देश में गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन कर रहे नागरिकों को बहुत अधिक लाभ पहुंचाया है, जिससे इन्हें गरीबी रेखा के ऊपर लाया जा सका है। इसी प्रकार, स्वच्छ भारत मिशन, जल जीवन मिशन, डिजिटल क्रांति, मेक इन इंडिया, जन औषद्धि केंद्र, विभिन्न फसल की एमएसपी पर खरीदी एवं इसके माध्यम से किसानों को आय की गारंटी देना, मखाना बोर्ड का गठन, जनजातियों का सशक्तिकरण – ग्राम समृद्धि, दालों में आत्मनिर्भरता के लिए मिशन चलाना, प्रधानमंत्री धन धान्य कृषि योजना, ग्रामीण विद्युत आपूर्ति, किसानों को किफायती दरों पर यूरिया उपलब्ध कराना, भारत को पंख (उड़ान 2 की उड़ान और तेज हुई), विमानन के क्षेत्र में नए युग का प्रारम्भ, आदि क्षेत्रों में लागू की गई उक्त वर्णित विभिन्न योजनाओं के माध्यम से जो अतुलनीय कार्य किए गए हैं, उससे देश में रोजगार के करोड़ों नए अवसर निर्मित करने में सफलता हासिल की जा सकी है।

उक्त वर्णित विभिन्न योजनाओं को लागू करने में केंद्र सरकार ने कभी भी वित्त की कमी नहीं आने दी क्योंकि करों की वसूली में ईमानदारी एवं वित्तीय अनुशासन के चलते जीएसटी, आय कर एवं कारपोरेट करों में उच्च स्तरीय वृद्धि दर्ज हुई है। न केवल उक्त वर्णित विभिन्न योजनाओं को लागू करने के लिए पर्याप्त वित्त की उपलब्धता बनी रही है बल्कि पूंजीगत खर्चों में भी अतुलनीय वृद्धि दर्ज की जा सकी है। साथ ही, बजट में वित्तीय घाटे को भी लगातार कम करने में सफलता हासिल हुई है। और तो और, केंद्र सरकार के विभिन्न उपक्रमों की कार्यप्रणाली में इस प्रकार से सुधार किया गया है कि जो उपक्रम पिछले कुछ वर्षों पूर्व तक घाटे में चल रहे थे एवं केंद्र सरकार को इन उपक्रमों को चलायमान बनाए रखने के लिए प्रतिवर्ष वित्तीय सहायता उपलब्ध करानी होती थी, आज ये उपक्रम केंद्र सरकार के लिए कमाऊ पूत साबित हो रहे हैं। वित्तीय वर्ष 2024-25 में तो केंद्र सरकार के विभिन्न उपक्रमों ने 5 लाख करोड़ रुपए से अधिक की राशि का लाभ अर्जित किया है। इन सभी कारणों से केंद्र सरकार एवं विभिन्न राज्य सरकारों द्वारा आम नागरिकों के भले के लिए लागू की गई विभिन्न योजनाओं को चालू रखने में किसी भी प्रकार की परेशानी का सामना करना नहीं पड़ा है एवं जिसके चलते गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन कर रहे करोड़ों नागरिकों के जीवन स्तर में सुधार करने में अपार सफलता मिली है।  

प्रहलाद सबनानी

मोदी मैजिक के 11 वर्ष

प्रोफेसर मनोज कुमार
साल 2014 के पहले किसी ने कल्पना भी नहीं की थी कि देश की सत्ता में गैर-कांग्रेसी दल लगातार तीन बार सत्ता में बनी रह सकती है और अभी संभावना विपुल है. यह सोच स्वाभाविक भी थी कि जिस देश में एक वोट से केन्द्र की गैर-कांग्रेसी सरकार गिर जाए. खैर, यह चमत्कार है लोकतंत्र का तो यह कमाल है मोदी मैजिक का. प्रधानमंत्री के रूप में नरेन्द्र मोदी ने भारतीय समाज की नब्ज को थामा, जाँचा और उनकी जरूरतों के मुताबिक फैसले किए. यह कहना भी सर्वथा उचित नहीं है कि उनके सारे फैसले सार्थक साबित हुए लेकिन यह कहना उचित है कि उनके ज्यादतर फैसले जनता के हक में था. गाँव से लेकर सात समुंदर पार तक मोदी की आवाज गूँजती है. हालिया ऑपरेशन सिंदूर ने मोदी सरकार की लोकप्रियता को हजारों गुना बढ़ा दिया है. जैसा कि होता है विपक्ष सत्तासीन दल को निशाने पर लेती है लेकिन यह सब एक रिवाज है.  मोदी मैजिक यूँ ही नहीं चलता है. वह जानते हैं कि कब क्या कहा जाए और कब क्या फैसला किया जाए. उन्हें इस बात का भी अहसास है कि मीडिया जनता का मन बदलने की ताकत रखती है तो वे ऐसी जुगत बिठाते हैं कि मीडिया खुद उनकी मुरीद हो जाती है.  
11 वर्ष पहले जाकर कुछ पलट कर देखना होगा. तब मोदी गैर-कांग्रेसी सरकार के पहले दमदार प्रधानमंत्री होते हैं पूर्ण बहुमत के साथ सरकार बनाने वाले.  स्वाभाविक है कि दशकों से सत्ता में काबिज लोगों के लिए यह सदमा सा था और मोदी को कमजोर करने के लिए वे रणनीति बनाते लेकिन वे मोदी मैजिक को समझ ही नहीं पाए. प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने स्वयं होकर अपने दस लाख के लिबास को चर्चा में ला दिया. मोदी विरोधी उनके लिबास की कीमत में उलझ गए और जनता को संदेश चला गया कि विरोधी मोदी को कमजोर करना चाहते हैं. भव्यता की यह रणनीति कारगर साबित हुई और विपक्ष का कीमती समय व्यर्थ के विवाद में आज भी जाया हो रहा है. मोदी मैजिक भारतीय मन को जानता है और चुपके से वे भव्यता से दिव्यता की ओर चल पड़े. उन्होंने पारम्परिक भारतीय परिधान को अपनी जीवनशैली में शामिल कर लिया. अब वे पायजामा कुरता के साथ जैकेट पहन कर सादगी के प्रतीक हो गए. यहाँ भी कमाल हो गया कि नेहरू जैकेट को रिप्लेस कर मोदी जैकेट ने युवाओं को मोह लिया. यही मोदी मैजिक है जो लोगों को बार-बार लुभाता है और वे पूरी ताकत के साथ सत्ता में वापसी करते हैं.  

मोदी भारतीय मन को बेहतर ढंग से जानते हैं लेकिन मोदी को समझना किसी पहेली को हल करने जैसा है. 11 वर्षों के उनके कार्यकाल की समीक्षा की जाए तो देश में अपवाद स्वरूप कोई मिल जाएगा जिसे मोदी के अगले कदम के बारे में कुछ पता हो या वह यह बता पाए कि मोदी क्या करने वाले हैं. थोड़ा पीछे चलें तो देखेंगे कि वे गुजरात राज्य के सबसे लम्बे कार्यकाल वाले मुख्यमंत्री थे जिन्हें भाजपा और संघ ने 2014 के चुनाव में प्रधानमंत्री का चेहरा बनाया था. तब की सरकार को कटघरे में खड़ा कर युवाओंं के बीच एक नायक की तरह उभरे थे. यह वह वर्ग था जिसे राजनीति की समझ बहुत नहीं थी लेकिन देश में बदलाव की चाहत थी. चाय पर चर्चा से लेकर वे तूफानी गति से देश के दिल में जगह बना रहे थे. और भारतीय राजनीति में ऐसा कायापलट हुआ कि भारतीय जनता पार्टी नरेन्द्र मोदी को कैश कर केन्द्र की सत्ता पर काबिज हो गई. नरेन्द्र मोदी से लेकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी बखूबी यह जानते थे कि जिस तेजी से उनकी लोकप्रियता आम भारतीय के मन में बनी है, उसे लम्बे समय तक बनाये रखना एक चुनौती है. जो आम आदमी के झटके में कांग्रेस और अन्य राजनीतिक दलों को जमीन दिखा सकता है, वह मोदी के साथ भी ऐसा कर सकता है. और खांटी राजनीतिक दल और राजनेता मोदी को कटघरे में खड़ा करेंगे. मोदी का मीडिया मैनेजमेंट इतना सधा हुआ था कि खांटी राजनेता भी मात खा गए. विरोधी ही नहीं, उनके अपनी पार्टी के लोगों की समझ से भी बाहर रहे मोदी. मोदी जानते थे कि विरोधियों से लेकर मीडिया तक को भटकाना है तो कुछ ऐसा किया जाए कि उनकी चर्चा और आलोचना के केन्द्र मेें मोदी की राजनीति नहीं, बल्कि उनके दूसरे पक्ष को लेकर वे चर्चा में बने रहे.
विपक्षी नेताओं को तो समझ ही नहीं आया तो उनके अपने ही विरोधी धड़ा भी शांत बैठ गया. परिणामत: पाँच वर्ष बाद केन्द्र में वापस मोदी सरकार की वापसी होती है. यही नहीं, अनेक राज्यों में भी भाजपा की सरकार सत्तासीन होती है बल्कि रिकार्ड कार्यकाल बनाती है. छत्तीसगढ़ में 15 साल तो मध्यप्रदेश में 18 महीने के छोटे से ब्रेक के बाद 20 वर्षों से अधिक समय से वह सत्तासीन है. इसके अलावा अनेक राज्यों में भाजपा सत्तासीन है. महाराष्ट्र जैसे बड़े राज्य में भी भाजपा की सत्ता कायम है. आलम यह है कि मीडिया कभी सटीक रूप से यह नहीं बता पाया कि मोदीजी का अगला कदम क्या होगा? मीडिया अनुमानों को ही हेडलाइन बनाते रहे और हर बार गच्चा खाते रहे. कई बार तो मोदीजी के फैसलों से यह भी पता नहीं चलता कि उन्हें स्वयं को पता होता है कि नहीं कि उनका अगला कदम क्या होगा? उनके लिए फैसले का दूरगामी परिणाम क्या होगा, इसकी मीमांसा की जाती है लेकिन फौरीतौर पर मीडिया और आम आदमी को वे चमत्कृत कर जाते हैं.
वे भारतीय मानस की नब्ज को बेहतर ढंग से पकड़ते हंै और उसी के अनुरूप वे फैसला करते हैं. भारत एक विशाल देश है और इस बहुसंख्य आबादी जिसमें बहु भाषा-भाषायी लोगों तक पहुँचना सरल नहीं होता है. ऐसे में उन्होंने आकाशवाणी पर प्रत्येक माह ‘मन की बात’ कार्यक्रम की शुरूआत की. ‘मन की बात’ कार्यक्रम के जो तथ्य और आँकड़ें को समझने की कोशिश की गई तो इसके लिए बकायदा एक रणनीति के तहत देशभर के अनाम से गाँव और ग्रामीणों को ‘मन की बात’ कार्यक्रम के लिए जोड़ा गया. देश का प्रधानमंत्री जब अपने कार्यक्रम में सुदूर आदिवासी गाँव की किसी महिला अथवा कोई उपलब्धि का उल्लेख करते हैं तो वह क्या, एक बड़ी आबादी उनकी मुरीद हो जाती है. लोग इस प्रयास में लग जाते हैं कि अगली बार ‘मन की बात’ कार्यक्रम में प्रधानमंत्री उनकी या उनके गाँव की कामयाबी का उल्लेख करें. आँकड़ों को जाँचें तो पता चलेगा कि घाटे में जा रहे आकाशवाणी की आय में बेशुमार वृद्धि हुई है. मोदीजी की तर्ज पर पूर्व मुख्यमंत्री डॉ. रमनसिंह और शिवराजसिंह ने भी रेडियो को माध्यम बनाया था लेकिन उन्हें वह सफलता नहीं मिली, जो मोदीजी के कार्यक्रम को मिल रही है. यही नहीं, ‘मन की बात’ कार्यक्रम की निरंतरता भी अपने आप में मिसाल कायम करती है. मोदीजी के पहले महात्मा गाँधी और इंदिरा गाँधी ने रेडियो के महत्व को समझा था लेकिन ‘मन की बात’ कार्यक्रम की तरह वे ऐसा कोई कार्यक्रम शुरू नहीं कर पाए थे.
11 साल के मोदी सरकार के कार्यकाल की समीक्षा की जाए तो सबसे बड़ी उपलब्धि यह रही कि समूचे भारतीय समाज की सोच और उनकी कार्यवाही को डिजीलाइटेशन कर दिया. अब हर सौदा-सुलह ऑनलाइन होगा. सरकारी दफ्तरों सेे कार्य के लिए भटकने की जरूरत नहीं है क्योंकि एक क्लिक पर आपका काम हो जाता है. इससे रिश्तवखोरी पर नियंत्रण पाया जा सका है. जन्म प्रमाण पत्र बनाने से लेकर पासपोर्ट बनाने तक के लिए अब दफ्तरों के चक्कर काटने की जरूरत नहीं है. मोदीजी बतौर प्रधानमंत्री सोशल मीडिया की ताकत भी जानते हैं सो वह अपनी बात एक्स से लेकर रील्स और इंटस्टा तक लेकर जाते हैं. यह पूरी कवायद करने के लिए उनकी टीम है लेकिन इसका मॉडल ऐसा बना हुआ है कि हर आम आदमी को महसूस होता है कि मोदीजी सीधे उनसे रूबरू हो रहे हैं. यही मोदीजी की ताकत बनती है और यही उनकी लोकप्रियता का कारण भी है.
भारतीय राजनीतिक इतिहास में गैर-कांग्रेसी दल से तीसरी बार केन्द्र में सत्तासीन होने वाले मोदी हैं. मोदीजी का सबसे प्रबल पक्ष है कम्युनिकेशन का. कम्युनिकेशन की थ्योरी कहती है कि वही कामयाब कम्युनिकेटर है जो लोगों तक अपनी बात प्रभावी ढंग से पहुँचा सके. इसमें कोई दो राय नहीं कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी इस दौर के सबसे बड़े संचारक के रूप में स्वयं को स्थापित किया है. वे जनसभा में लोगों को मोहित कर लेते हैं. आम आदमी से सीधे संवाद से मोदी सरकार के प्रति लोगों का विश्वास बढ़ता है. मोदी जी कई बार जानते हुए भी ऐसे बयान देते हैं कि विरोधी उनकी आलोचना पर उतर आते हैं. मोदीजी आम आदमी के सायक्लोलॉजी को भी बेहतर ढंग से समझते हैं. अनेक बार स्थिति-परिस्थितियों के चलते आम आदमी निराशा में डूब जाता है तब यह देश के मुखिया की जवाबदारी होती है कि कैसे उसे उबारे और उसमें उत्साह का संचार करे. भारत ही नहीं, समूचे वैश्विक परिदृश्य में देखें तो महँगाई, बेरोजगारी जैसे मुद्दे मुंहबाये खड़े हैं. ऐसे में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने नौकरी करना नहीं, नौकरी देना सीखो के मंत्र के साथ नवउद्यमी बनाने के लिए स्र्टाटअप के लिए प्रोत्साहित किया. डेढ़ सौ करोड़ की आबादी को कम लागत वाले काम करने के लिए प्रोत्साहित किया. तब उनकी आलोचना इस बात को लेकर हुई कि भारत का युवा अब पकौड़े तलेगा लेकिन आलोचना करने वालों का तब मुँह बंद हो गया जब एक पानीपुरी बेचने वाले को आइटी ने पकड़ा तो वह करोड़पति निकला. मोदीजी आईटी से जुडऩे के लिए भारतीय युवाओं को प्रोत्साहित करते रहे हैं. एआई और चैटजीपीटी आने के बाद रोजगार के अवसर घट रहे हैं लेकिन एआई और चैटजीपीटी सीख लेते हैं तो रोजगार के नए विकल्प आपका इंतजार कर रहा है.
निश्वित रूप से 11 वर्ष के कार्यकाल में सबकुछ भला-भला हुआ हो, यह तय नहीं है. एक मनुष्य के नाते अनेक अच्छी पहल हुई तो कुछ गलतियाँ भी हुई होंगी. वे क्या, पूर्ववर्ती प्रधानमंत्री भी इसी श्रेणी में आते हैं. कई बार उनकी पार्टी के नेताओं के कदाचार पर उनसे प्रतिक्रिया माँगी जाती है तो यह बेमानी लगता है क्योंकि इस पर बोलने और कार्यवाही करने की जवाबदारी पार्टी की है ना कि प्रधानमंत्री की हैसियत से सरकार की. वे भारतीय और भारतीयता के लिए लोगों में जज्बा पैदा करते हैं और सनातन युग की ओर वापसी का संकेत देते हैं. डिग्री वाली शिक्षा से बाहर लाकर स्किलबेस्ड शिक्षा भारत को गुरुकुल की ओर ले जाता है. मानना चाहें तो मोदीजी का कार्यकाल आपको देशहित में लग सकता है और न मानना चाहें तो खामियाँ गिनाते रहिए.
अपनी लम्बी राजनीतिक पारी और केन्द्र में 11 वर्ष के अपने कार्यकाल में मोदीजी युवा नेता नहीं रहे लेकिन वे एक जिम्मेदार बुर्जुग की भूमिका में आ गए हैं. यकिन ना हो तो अमेरिका के उपराष्ट्रपति जेडी वेंस की पत्नी उषा वेंस के अनुभव और उनकी बातों से समझ लें. इसी साल बीते अप्रैल में भारत दौरे को उपराष्ट्रपति जेडी वेंस का परिवार आया था. वेंस की पत्नी ने यह भी कहा कि उनके तीन छोटे बच्चों को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी में उनके दादाजी की झलक दिखी. उन्होंने पीएम मोदी से मिलते ही उन्हें दादा जी माना लिया और वे उनसे लडिय़ाते रहे. उपराष्ट्रपति जेडी वेंस के साथ उषा वेंस और उनके तीन छोटे बच्चे इवान, विवेक और मीराबेल भी थे. दादा जी बन जाने की यह छवि भारतीय मन को जोड़ता है. यही भारत है, यही श्रेष्ठ है.

स्मोकिंग और सांसें – ये रिश्ता क्या कहलाता है


                                 – भाषणा बंसल गुप्ता

हमें जिंदा रहने के लिए क्या चाहिए? आप शायद इस सवाल पर हंस रहे होंगे कि कितना बचकाना सवाल है। बच्चा-बच्चा जानता है, कि जीवित रहने के लिए हमारी सांसों का चलना बहुत जरूरी है। सांसें गईं, तो सब गया। मतलब इन्सान खत्म। जितना सच ये है कि, सांसों की जरूरत के बारे में सबको पता है, उतना ही बड़ा सच ये भी है कि, शायद ही कोई ऐसा इन्सान होगा, जिसे पता नहीं होगा कि स्मोकिंग और सांसों के बीच क्या रिश्ता है। स्मोकिंग का सीधा संबंध, हमारे फेफड़ों से है। स्मोकिंग चाहे किसी भी रूप में हो, वो इन्सान के फेफड़ों को तबाह कर देती है। फेफड़े ही हैं, जो हमारी सांसों को चलता रखते हैं। ये खराब होते हैं, तो सांसों की लड़ी भी टूटने लगती है, बिखरने लगती है। 

इस बात में भी सौ प्रतिशत सच्चाई है कि सब जानते हैं कि स्मोकिंग करना गलत है। इससे फेफड़े खराब होते हैं। सिगरेट की डिब्बी पर भी लिखा होता है कि ये स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। इससे कैंसर होने का डर होता है। लेकिन फिर भी स्मोकिंग का चलन कम होने की बजाय, बढ़ता ही जा रहा है। ऐसा क्यों है?

हर जगह मौजूद हूं मैं

इसका मुख्य कारण है – स्मोकिंग प्रोडक्ट आसानी से मिलना। 18 साल से ऊपर का कोई भी व्यक्ति बड़े आराम से इन्हें खरीद सकता है। ये हर किसी के लिए आसानी से उपलब्ध हैं। और कुछ मिले न मिले, हर गली-नुक्कड़ की दुकान मिल जाती है, जहां इन्सान के फेफड़ों को गलाने का सामान धड़ल्ले से बेचा जाता है।

डिटेक्टिव गुरू राहुल राय गुप्ता कहते हैं, “मैंने जबसे अपनी कंपनी खोली है, तब से यही नियम बनाया है कि, स्मोकिंग करने वाला कोई भी इन्सान हमारी कंपनी में काम नहीं करेगा। इंटरव्यू के दौरान, कैंडिडेट से पूछा जाता है कि वो स्मोकिंग तो नहीं करता। मेरे ख्याल से हर ऑफिस में यही नियम होना चाहिए। मेरी कंपनी में ही नहीं, बल्कि मेरे घर में भी कोई स्मोकिंग नहीं कर सकता। मैं अपनी गाड़ी में किसी को स्मोकिंग करने की परमिशन नहीं देता, चाहे वो इन्सान कितना भी खास क्यों न हो। लेकिन बड़े अफसोस की बात है कि, बड़ी-बड़ी कंपनियां अलग से ‘स्मोकिंग ज़ोन’ बनाती हैं, जहां लोग ‘स्मोक ब्रेक’ के लिये जाते हैं। ये एक तरह से उन लोगों के साथ सहानुभूति की तरह लगता है। उनकी जरूरत बना दिया गया है। जिसको पूरा करना कंपनी अपना फर्ज समझती है। हर एयरपोर्ट पर ऐसे ज़ोन बने होते हैं। ऐसे जोन्स की जरूरत ही बताती है कि हम स्मोकिंग रोकने को कितना सीरियसली लेते हैं।”

बड़ी-बड़ी हस्तियां गुलाम हैं मेरी

स्मोकिंग के बढ़ते चलन का एक और बड़ा कारण है – फिल्मों, सीरीज में इसका बहुत ज्यादा प्रयोग। बॉलिवुड की फिल्में हों, या टॉलिवुड की या फिर हॉलिवुड की, हर जगह पात्रों से इतनी ज्यादा स्मोकिंग करवाई जाती है, कि दर्शकों को लगने लगता है कि, स्मोकिंग इन्सान की ज़िंदगी का एक अभिन्न अंग है। ये कोई खराब बात नहीं है। आपने देखा होगा कि, जैसे ही फिल्म या सीरीज के मुख्य पात्र को कोई टेंशन होती है, तो वो झट से सिगरेट सुलगा लेता है। इससे दर्शकों के मन में ये संदेश जाता है कि, स्मोकिंग, तनाव को दूर करती है। 

जब लोग अपने मनपसंद हीरो को पर्दे पर स्मोकिंग करते देखते हैं, तो उनको लगता है कि ये तो आम बात है। ऐसा सब करते हैं। यही नहीं, जब असली ज़िंदगी में भी लोग, बड़े-बड़े एक्टर्स के बारे में पढ़ते हैं, कि उसे स्मोकिंग करने की लत है, तो वो उनको और ज्यादा प्रोत्साहन मिलता है। उनको लगता है कि, एक्टर्स तो अपने स्वास्थ्य को बेहद गंभीरता से लेते हैं। क्या उनको अपनी ज़िंदगी की फिक्र नहीं है? मतलब, वो ये मान लेते हैं कि ये इतनी बड़ी या गलत बात नहीं है।

फिल्मों और सीरीज में बेवजह ही ऐसे सीन ठूंस दिए जाते हैं। कहानी की मांग कहकर, निर्माता-निर्देशक इससे अपना पीछा छुड़ा लेते हैं। लेकिन हर कहानी की मांग ऐसी नहीं होती कि फ्लां व्यक्ति चेन स्मोकर है। पूरा दिन स्मोकिंग करता रहता है। कुछेक कहानियां ऐसी होती हैं, जहां पर इसका जिक्र होता है, उसे माना जाएगा कि कहानी की मांग है, स्मोकिंग।

मुझसे छुटकारा आसान नहीं

स्मोकिंग की लत को छोड़ना बेहद मुश्किल जरूर है, लेकिन नामुमकिन तो बिल्कुल भी नहीं है। अगर इच्छाशक्ति हो तो इसे छोड़ा जा सकता है। इससे छुटकारा पाने के लिए पहले अपने अवचेतन मन को तैयार करना होगा। उसे बताना होगा कि ये आपके स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। हमारा अवचेतन मन बेहद मजबूत है। उसमें एक बार जो बात फिट हो जाती है, वो फिर मिटाए नहीं मिटती। इसलिए मन की गहराईयों से कहें कि स्मोकिंग आपके फेफड़े गला रही है। आपकी सांसों को खराब कर रही है। आपकी उम्र को कम कर रही है। रोजाना दिन में एक-दो बार भी ऐसा सोचेंगे तो आपका अवचेतन मन इसे ग्रहण कर लेगा और इसमें बैठ जाएगा कि जिंदा रहना है तो स्मोकिंग छोड़नी ही होगी। अच्छा स्वास्थ्य चाहते हैं, तो स्मोकिंग से किनारा करना ही होगा।

हमारा मन ही है, जो हमसे अच्छे या बुरे काम करवाता है। बस उसको बोल दें कि, आपको खुश रहना है, जिंदा रहना है, स्वस्थ रहना है, आपका काम हो जाएगा। फिर मन आपको ऐसे-ऐसे सुझाव देगा कि आपका मन ही नहीं करेगा कि आप स्मोकिंग करें। यकीन मानिए, ऐसा जरूर होगा, बस मन में इस लत को छोड़ने की धुन पाल लें। फिर देखना, कैसे चमत्कार होगा।

                        भाषणा बंसल गुप्ता

भारत में प्रति व्यक्ति आय बढ़ाने के तरीके

शिवानन्द मिश्रा

भारत जापान को पछाड़कर चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन चुका है।स्टॉक मार्केट रॉकेट बनकर उड़ रहा है। खबर सुकून वाली है लेकिन बस एक ही आंकड़ा है जो व्यथित करता है, जापान की आबादी 12 करोड़ है हमारी 150 करोड़। हर जापानी साल का 29 लाख रूपये कमा रहा है और हम 2.5 लाख भी नहीं। इसमें ये भी एक फैक्टर है कि जापान के सर्विस सेक्टर में काम करने वालो की डिमांड ज्यादा है जबकि लोग कम है। इस वज़ह से जॉब पैकेज अच्छे ही होते हैं लेकिन ये एक्सक्यूज़ तब काम करता ज़ब हमारी भी प्रति व्यक्ति 12 लाख रूपये सलाना के आसपास होती।

औसत भारतीय परिवार में चार लोग होते हैं। उनमें से एक कमाता है मान लीजिए कि उसकी सैलरी 60 हजार भी है. घर के खर्चे तो ठीक चल रहे है लेकिन ज़ब प्रति व्यक्ति आय की गणना होंगी तो इसे 15 हजार रूपये महीना ही गिना जाएगा और कुछ पश्चिमी लोग इसे पोवर्टी बोलेंगे।

भारत में परिवारो में रहने की परंपरा है. बच्चे नौकरी पर लगते हैं तो चाहते हैं कि पिता अब जॉब छोड़ दे और लाइफ एन्जॉय करें। इन सामाजिक मूल्यों के बीच प्रतिव्यक्ति आय सदा ही चुनौती रहेगी। परिवार का हर व्यक्ति कमाये ये पश्चिम का कॉन्सेप्ट है।

इसलिए हम खुद को अपने स्तर पर निखारे। भारत मे बड़े राज्यों मे सबसे ज्यादा प्रति व्यक्ति आय हरियाणा और गुजरात की है जो 4.5 लाख रूपये के आसपास है।

हम प्रयास करते है कि अगले 10 सालो में अन्य राज्य भी इस आंकड़े के करीब आ जाए. जाहिर है तब तक गुजरात हरियाणा और आगे भाग चुके होंगे, तब हम उस नंबर का पीछा करेंगे। इस तरह से काम करें तो दूर भविष्य में आर्थिक असमानता का मुद्दा हल हो सकता है।

इन आंकड़ों मे एक डरा देने वाला तथ्य यह है कि भारत के यदि टॉप 5% उद्योगपति ये देश छोड़ दे तो हमारी प्रतिव्यक्ति आय 1 लाख के इर्द गिर्द रह जायेगी जो भयावह है क्योंकि ये अफ़्रीकी देशो से नीचे हो जायेगी।

इसलिए ज़ब कोई नेता पूंजीवाद के विरुद्ध बात करके सामजिक न्याय और समानता का ढ़ोल पीटे तो आप समझ जाइये कि आप किसी अंतर्राष्ट्रीय प्रोपोगंडा के शिकार हो रहे है क्योंकि वोट की राजनीति ने आज तक किसी को न्याय नहीं दिलाया है।

दूसरा डर जो मन मे होना चाहिए वह ये कि समाज नशे से जितना दूर हो, उतना ठीक। शराब का चलन आज भी कायम है. ये जहर है. 40-45 की आयु तक लोगो के लीवर गल रहे है। ज़ब इस आयु का व्यक्ति मरता है तो वो परिवार को नहीं, देश को भी नुकसान देकर जा रहा है।

इस आयु मे समाज आशा करता है कि वह अब रिटर्न मे समाज को कुछ देगा फिर चाहे वो नई तकनीक हो, नया व्यापार हो, नया आविष्कार हो या नया विचार हो लेकिन शराब यहाँ आतंकवादी से कम किरदार नहीं निभाती।

तीसरी आवश्यक बात है कि महिलाओ को आगे आने दे क्योंकि वे जनसंख्या मे आधी है. इतिहास गवाह है रानी कैकयी युद्ध मे अपने पति दशरथ की सारथी बनी है. राज दरबारो मे महिलाओ ने शास्थार्थ मे पुरुषो को मात दी है। महिलाओ को घर मे कैद रखना हमारी परंपरा नहीं है। मुग़ल काल की मजबूरियों को आप प्रथा का नाम नहीं दे सकते,ये दासत्व का प्रतीक है, किसी स्थानीय शान का नहीं।बढ़ते तलाक, विवाह उपरांत संबंध और घर के आपसी झगड़ो के लिये नारी सशक्तिकरण उत्तरदायी नहीं है अपितु सामाजिक विचारो मे हो रहा परिवर्तन उसका दोषी है।

 ये तीन वे बिंदु है जिन पर हमें मंथन या कहे पुनः मूल्यांकन की आवश्यकता है। सरकार तो एक इंजन है ही लेकिन नागरिको को भी उस इंजन का अग्रदीप बनना होगा।

शिवानन्द मिश्रा