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परिवारों से मिटता दादी मां का अस्तित्व चिंता का विषय

आज अनाथालयों में वृद्ध महिलाओं के झुंड आंसू बहा रहे हैं। हमारे देश की परंपरा तो “मातृ देवो भव, पितृ देवो भव, आचार्य देवो भव, अतिथि देवो भव” अर्थात माता-पिता, गुरु और अतिथि का देवता के समान सम्मान करना चाहिए- की रही है। इसके उपरांत भी यदि वृद्ध माताएं दुख के आंसू बहा रही हैं तो समझना चाहिए कि हम अपने देश की ऋषि परंपरा के विपरीत आचरण कर रहे हैं। वास्तविकता यह है कि आज हमारे देश में माता-पिता गुरु और अतिथि चारों ही उपेक्षा के पात्र बन चुके हैं। यह स्थिति हमारे विपरीत दिशा में चलने की परिचायक है। स्थिति यह है कि इसके उपरांत भी हम पतन की ओर ही जा रहे हैं। संभलने का कोई संकेत दूर-दूर तक भी दिखाई नहीं दे रहा। शिक्षा उलटी, दिशा उल्टी, सोच उल्टी, कार्य शैली उल्टी – सब कुछ उलट पलट हो चुका है। हम जाति के नाम पर, भाषा के नाम पर, संप्रदाय के नाम पर और क्षेत्र के नाम पर लड़ रहे हैं। जिनका कोई वास्तव में मूल्य नहीं है और जिनका मूल्य है – उन्हें हम उजड़ने दे रहे हैं। माता-पिता गुरु और अतिथि वास्तव में नाम नहीं हैं, ये संस्थाएं हैं और जिस देश की संस्थाएं उजड़ जाती हैं उसका भविष्य उजड़ जाता है। जाति भाषा संप्रदाय और क्षेत्रवाद तो मिटना चाहिए था। उजड़ना चाहिए था। परन्तु हम उन्हें आबाद करते जा रहे हैं और जो आबाद रहनी चाहिए थीं, उन्हें उजाड़ रहे हैं। यह प्रवृत्ति हमारी मूर्खता और दुर्बुद्धि का परिचायक है। हमारी स्थिति कुछ दुर्योधन जैसी हो चुकी है, जिसने श्री कृष्ण जी से कहा था :-
जानामि धर्मं न च मे प्रवृत्तिः।
जानाम्यधर्मं न च मे निवृत्तिः।।”
अर्थात मैं धर्म के बारे में जानता हूं किन्तु मेरी उसमें प्रवृत्ति या रूचि नहीं है। मैं अधर्म के बारे में भी जानता हूं, किन्तु उसमें मेरी निवृत्ति नहीं है।
हम जानते हैं कि धर्म क्या है और अधर्म क्या है? परंतु धर्म में हमारी प्रवृत्ति नहीं हो रही है और अधर्म से हमारी निवृत्ति नहीं हो रही है। अधर्म नित्य हमारा पीछा कर रहा है।
जब किसी गाड़ी के पीछे यह लिखा देखता हूं कि “बेटी बचाओ- बेटी पढ़ाओ” तो लगता है कि इस नारे को हमने केवल नारे तक ही सीमित रखा है या अधिक से अधिक इस सीमा तक अपनाया है कि बेटी बचाओ जिससे कि संतान बढ़ाई जा सके ! उसके बाद इस बेटी को जब वह दादी मां बनने का सपना देखे तो उठाकर वृद्ध आश्रम में डाल देंगे। यदि हमारी सोच यही बन चुकी है और देश की सच्चाई यही हो चुकी है तो हमारा भविष्य कैसा हो सकता है ? अर्थात अधर्म का दुर्योधन हमारा विनाश करेगा ही – यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। इस सबके बीच हम नारी सशक्तिकरण की बात कर रहे हैं। वृद्ध माता को वृद्ध आश्रम की जेल की हवा खिलाती घर की बहू के आचरण के चलते कई प्रकार के प्रश्न खड़े होते हैं। जैसे – यह कौन सा नारी सशक्तिकरण है ? कैसा नारी सशक्तिकरण है ? किसके लिए नारी सशक्तिकरण है ? नारी सशक्त हुई या हो रही है तो क्या वह केवल सास और वृद्ध महिला को घर से उठाकर वृद्ध आश्रम में पहुंचाने के लिए हो रही है ? यदि नारी सशक्तिकरण का यही अर्थ है तो फिर तो हमने नारी का सशक्तिकरण नहीं निष्ठुरीकरण किया है। सशक्त होती हुई महिला ने आज परिवार के भीतर घुटन और कुंठा का परिवेश सृजित कर दिया है। नारी सशक्तिकरण का अभिप्राय था कि वह नारी की गरिमा का ध्यान रखेगी ? इसका अभिप्राय यह तो कदापि नहीं था कि वह नारी होकर भी नारी को अपमानित करेगी ? पति, सास ,ससुर और परिवार के प्रत्येक सदस्य का अपमान करेगी। नारी का अभिप्राय है ‘ न ‘ ‘ अरि’ अर्थात जिसका कोई शत्रु नहीं है। यदि नारी सशक्तिकरण ने नारी को नारी का ही शत्रु बना दिया है तो समझिए कि नारी सशक्तिकरण का सारा प्रयास और पुरुषार्थ व्यर्थ गया, अपितु हमारे लिए और भी अधिक विध्वंसकारी हो गया है। इससे तो अच्छा वही कथित पुरुष प्रधान समाज था , जिसमें दादी मां को विशेष जिम्मेदारियां देकर उसका सम्मान बढ़ाया जाता था। वह चार-पांच भाई बहनों के परिवार की मुखिया होती थी। इसके विरुद्ध आज की नारी समाज और परिवार उजाड़ती जा रही है। किसी के भी प्यार में पागल हुई किसी लड़की को आप समझा नहीं सकते। यहां तक कि विवाह के बाद भी विवाहेत्तर संबंध बनाने की प्रवृत्ति जिस खतरनाक स्थिति तक बढ़ी है , उसमें भी संतान तक के प्रति मां निष्ठुर होती देखी जा रही है। इसे आप क्या कहेंगे – नारी सशक्तिकरण या नारी का निष्ठुरीकरण ? नानी मां के किस्से और दादी मां का लाड प्यार कभी समाज का मार्गदर्शक होता था। वह हमारी विरासत थी। जिसे हमने सहेजकर रखा था और उसे हम बड़े सम्मान के साथ ओढ़कर चलते थे । आज नारी ने दादी मां को जिस प्रकार बड़ी निर्दयता के साथ समाज से बहिष्कृत किया है, उसका पाप यह समाज या देश निश्चय ही भुगतेगा।
कभी वह समय था- जब नई लड़कियों के निकलते पंखों को दादी मां तोलती थी। उसके उठते कदमों को पहचानती थी। उसके उभरते अंगों को लज्जा से ढकने का तरीका बताती थी। उसके लड़खड़ाते कदमों को संतुलित करने का उपाय खोजती थी । उसे सदाचरण का पाठ सिखाती थी। आज की नारी ने अपने सशक्तिकरण के नाम पर दादी मां को ठेंगा दिखाते हुए कह दिया है कि मैं जो कुछ करूं मेरी मर्जी। दादी मां का हस्तक्षेप मुझे बर्दाश्त नहीं।
कभी वह भी समय था जब नवजात बालिका को जन्म लेते ही मार दिया जाता था। उसे मटके में बंद कर जमीन में गाड़ना पुरुष का कार्य होता था। परंतु उससे पहले उसे मारने का काम नारी करती थी। आज भी तो यही हो रहा है। उस समय तो नवजात बालिका को ही मारा जाता था, आज तो भ्रूण हत्या की जा रही है और यदि इसके उपरांत भी किसी कारण बालिका बच जाए तो उसे बुढ़ापे में जेल की हवा खिलाई जाती है। संभवत: उसे इस बात का दंड दिया जाता है कि तू बची क्यों और बचने के बाद तूने परिवार नाम की संस्था को बसाया क्यों ? यदि तूने यह पाप किया है तो तुझे अपने किए का दंड यही मिलेगा कि तुझे अब अब से आगे अभिशप्त जीवन व्यतीत करना होगा। तनिक सोचिए ! दादी मां के बिना आने वाला समय कितना भयानक होगा ?

डॉ राकेश कुमार आर्य

युवाओं की जिंदगी को गर्त में धकेल रही आनलाइन गेमिंग

हाल ही में भारत के माननीय सुप्रीम कोर्ट ने स्टूडेंट्स सुसाइड और गेमिंग ऐप से बर्बादी पर चिंता जताई है और इस पर सख्त लहजा अपनाते हुए यह बात कही है कि ‘विद्यार्थी मर रहे हैं, सरकार कर क्या रही है…? मामले को हल्के में न लें !’ पाठकों को बताता चलूं कि हाल ही में 23 मई 2025 को ही सुप्रीम कोर्ट ने  ऑनलाइन और ऑफलाइन सट्टेबाज़ी ऐप्स को विनियमित करने की मांग वाली एक जनहित याचिका (पीआइएल) पर केंद्र सरकार से जवाब मांगा है। दरअसल,यह कदम युवाओं और बच्चों पर इन ऐप्स के कथित दुष्प्रभाव को लेकर बढ़ती चिंता के बीच उठाया गया है। यह वाकई बहुत ही चिंताजनक है कि आज सट्टेबाज़ी और जुए की लत के कारण विशेष रूप से तेलंगाना में सैकड़ों युवाओं ने आत्महत्या कर ली है। उपलब्ध जानकारी के अनुसार अकेले तेलंगाना में 1,023 से अधिक लोगों ने आत्महत्या की है। कहना ग़लत नहीं होगा कि आज बॉलीवुड और टॉलीवुड के 25 से अधिक अभिनेता और सोशल  मीडिया इन्फ्लुएंसर इन ऐप्स का प्रचार कर रहे हैं, जिससे बच्चे इनकी ओर आकर्षित हो रहे हैं। यहां तक कि कुछ पूर्व क्रिकेटर भी इन ऐप्स का प्रचार कर रहे हैं जिससे युवाओं में इसकी लत बढ़ रही है। जानकारी के अनुसार तेलंगाना में इन इन्फ्लुएंसर्स के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज की गई है क्योंकि यह मामला मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है। गौरतलब है कि इस पर सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने कहा कि कानून बनाना हमेशा ऐसे सामाजिक विचलनों को रोकने का उपाय नहीं हो सकता। जस्टिस सूर्यकांत ने टिप्पणी की, ‘सैद्धांतिक रूप से हम आपके साथ हैं कि इसे रोका जाना चाहिए… लेकिन शायद आप इस भ्रांति में हैं कि इसे कानून से रोका जा सकता है। जैसे हम हत्या को पूरी तरह नहीं रोक सकते, वैसे ही सट्टेबाज़ी और जुए को भी नहीं रोका जा सकता।’ इतना ही नहीं, इधर कोटा में आत्महत्याओं पर भी माननीय कोर्ट ने राजस्थान सरकार को फटकार लगाई है। दरअसल, सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में दो अलग-अलग मामलों की सुनवाई में गेमिंग ऐप के जरिए सट्टे के कारण युवाओं की बरबादी और कोचिंग व शिक्षण संस्थानों में विद्यार्थियों की आत्महत्या के प्रकरणों पर चिंता और सख्ती दिखाई। पाठक जानते होंगे कि कोटा शिक्षा नगरी के नाम से पूरे देश में विख्यात है और यहां विभिन्न राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों से छात्र नीट व इंजीनियरिंग प्रवेश परीक्षाओं की तैयारी करने आते हैं। कोचिंग का हब कहलाने वाले कोटा में पिछले कुछ सालों से छात्र-छात्राओं की आत्महत्याओं की खबरें हर किसी को विचलित करतीं हैं और अब माननीय कोर्ट ने देश में मेडिकल और इंजीनियरिंग प्रवेश परीक्षाओं की तैयारी के लिए कोचिंग हब बने राजस्थान के कोटा में विद्यार्थियों की सुसाइड पर कोर्ट ने राजस्थान सरकार को कड़ी फटकार लगाई है। यहां पाठकों को बताता चलूं कि, जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस आर. महादेवन की बेंच कोटा व खड़गपुर आइआइटी में विद्यार्थियों के सुसाइड मामलों की सुनवाई कर रही थी। सुनवाई के दौरान बेंच कोटा में एक छात्रा के सुसाइड मामले में एफआइआर दर्ज नहीं करने से नाराज दिखी और राजस्थान सरकार के वकील से इस संबंध में तीखे सवाल पूछे। खड़गपुर आइआइटी में छात्र के सुसाइड मामले में माननीय कोर्ट ने यह कहा कि ‘एफआइआर दर्ज करने में चार दिन क्यों लगे? बेंच ने कहा कि कोटा में इसी साल 14 कोचिंग स्टूडेंट सुसाइड कर चुके हैं, सरकार इसे लेकर कर क्या रही है? कोटा में ही विद्यार्थी क्यों मर रहे हैं, क्या सरकार ने इस पर कोई विचार नहीं किया?’ बहरहाल, कहना ग़लत नहीं होगा कि आजकल ऑनलाइन गेमिंग सिर्फ एंटरटेनमेंट का साधन ही नहीं, बल्कि युवाओं में एक गंभीर लत बन चुका है। पाठकों को बताता चलूं कि कई रिपोर्ट्स में यह सामने आया है कि ऑनलाइन गेमिंग की लत के कारण किशोर और युवा मानसिक तनाव में आकर आत्महत्या तक कर रहे हैं।आज आनलाइन का युग है और ऑनलाइन गैंबलिंग में पैसे या पुरस्कार जीतने के लिये खेल और आयोजनों पर दाँव लगाकर इंटरनेट के माध्यम से जुआ गतिविधियों में भाग लेना शामिल है। इसे विभिन्न उपकरणों जैसे कंप्यूटर, एंड्रॉयड मोबाइल फोन, लैपटॉप आदि पर खेला जा सकता है और इसमें नकदी के बजाय वर्चुअल चिप्स या डिजिटल मुद्राएँ शामिल होती हैं। भारत आज विश्व का एक बड़ा देश है और यदि हम यहां आंकड़ों की बात करें तो एक उपलब्ध जानकारी के अनुसार आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और ऑनलाइन गेमिंग वर्ष 2026-27 तक भारत की जीडीपी में 300 बिलियन अमेरिकी डॉलर तक जोड़ सकते हैं। यदि हम यहां पर भारत में ऑनलाइन गेमिंग और गैंबलिंग की वैधता की स्थिति की बात करें तो भारत के संविधान की सातवीं अनुसूची की सूची II (राज्य सूची) की प्रविष्टि संख्या 34 के तहत राज्य विधानमंडल को गेमिंग, बेटिंग या सट्टेबाजी और गैंबलिंग या जुए के संबंध में कानून बनाने की विशेष शक्ति दी गई है। भारत में डिजिटल कैसीनो, ऑनलाइन गैंबलिंग एवं गेमिंग की चुनौतियों से निपटने के लिये 

सार्वजनिक जुआ अधिनियम 1867 की स्थापना की गई है लेकिन यह अपर्याप्त कानून है। यहां पाठकों को बताता चलूं कि शिक्षा मंत्रालय ने 27 सितंबर, 2021 को ऑनलाइन गेमिंग के नुकसानों पर काबू पाने के लिए अभिभावकों और शिक्षकों के लिए एक एडवाइजरी जारी की थी। इसके बाद, शिक्षा मंत्रालय ने 10 दिसंबर, 2021 को बच्चों के सुरक्षित ऑनलाइन गेमिंग पर अभिभावकों और शिक्षकों को भी एक एडवाइजरी जारी की थी। दरअसल, अभिभावकों और शिक्षकों को एडवाइजरी को व्यापक रूप से प्रसारित करने और बच्चों को मानसिक और शारीरिक तनाव से जुड़े सभी ऑनलाइन गेमिंग नुकसानों पर काबू पाने में प्रभावी उपयोग सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक कार्रवाई के लिए उन्हें शिक्षित करने की सिफारिश की गई।बहरहाल, कहना ग़लत नहीं होगा कि आज भारत धीरे-धीरे एक डिजिटल क्रांति की ओर अग्रसर हो रहा है। हमारे यहां ऑनलाइन गेमिंग को विनियमित करने के लिए हालांकि कदम उठाए गए हैं लेकिन ऑनलाइन गेमिंग में मजबूत विनियमन की तत्काल आवश्यकता है।ऑनलाइन गेमिंग से जहां एक ओर हमारी युवा पीढ़ी में इसकी लत विकसित हो रही है, वहीं दूसरी ओर यह हमारे युवाओं के मानसिक व शारीरिक स्वास्थ्य को भी गंभीर नुकसान पहुंचा रहा है। बच्चे पढ़ाई से विमुख हो रहे हैं और अनेकों बार वे अतिवादी कदम उठाने को मजबूर हो रहे हैं। कहना ग़लत नहीं होगा कि ऑनलाइन गेमिंग जहां वित्तीय धोखाधड़ी को जन्म दे रहा है वहीं दूसरी ओर यह राष्ट्रीय सुरक्षा जोखिमों को भी कहीं न कहीं जन्म दे रहा है। अतः बहुत अच्छा हो यदि देश में आनलाइन गेमिंग को विनियमित करने के क्रम में और भी अधिक प्रभावी व माकूल कदम उठाए जाएं।

सुनील कुमार महला

विश्वसनीयता के संकट से जूझती हिंदी पत्रकारिता

डॉ घनश्याम बादल

30 मई 1826 को कोलकाता से प्रकाशित हिंदी के पहले समाचार पत्र ‘उदन्त मार्तण्ड’ के प्रकाशन की ऐतिहासिक शुरुआत को याद करते हुए हर साल 30 मई को हिंदी पत्रकारिता दिवस मनाया जाता है। 

बेशक, हिंदी पत्रकारिता का इतिहास गौरवशाली है लेकिन आज हिंदी पत्रकारिता की देश में सबसे ज्यादा समाचार पत्रों एवं चैनल होने के बावजूद भी वह जगह नहीं है जो उसे मिलनी चाहिए। 

आज हिंदी पत्रकारिता अनेक संकटों से जूझ रही है। उनमें से कुछ बाह्य संकट हैं तो कुछ उसने खुद पैदा किए हैं। 

    आज हिंदी पत्रकारिता का बड़ा हिस्सा कॉरपोरेट घरानों के अधीन है। इससे स्वतंत्रता प्रभावित हुई है और कमाई व विज्ञापन आधारित अर्थ केंद्रित पत्रकारिता हावी हो गई है। सूचनाओं की विश्वसनीयता में गिरावट आई है. फेक न्यूज़, अफवाहों और आधी-अधूरी खबरों का चलन बढ़ा है।  इंटरनेट, सोशल मीडिया और यूट्यूब जैसे प्लेटफॉर्म  पारंपरिक पत्रकारिता के समक्ष एक बड़ी चुनौती बनकर खड़े हैं। अच्छे खासे संसाधन होने के बावजूद हिंदी मीडिया शहरी और राजनीति-केंद्रित खबरों पर ज़्यादा आश्रित हो गया है जिससे सामाजिक मुद्दे पीछे छूट रहे हैं। यदि एक नज़र हिंदी के समाचार पत्रों पर डाले तो अधिकांश नकारात्मक खबरों के बल पर ही ज़िंदा हैं । भेदभाव भरी रिपोर्टिंग और कॉपी पेस्ट वाले संपादकीय हिंदी पत्रकारिता का स्तर और भी गिरा रहे हैं .अब क्योंकि संपादक की डेस्क मैनेजमेंट ,मालिकों की जी हुजूरी तक सीमित रह गई है इसलिए हिंदी पत्रकारिता की विश्वसनीयता पर भी बड़े प्रश्नवाचक चिन्ह लगे हैं । 

     एक समय था जब हिंदी पत्रकारिता में गणेश शंकर विद्यार्थी की परिपाटी वाले पत्रकारों की बड़ी संख्या थी. राजेंद्र माथुर, प्रभाष जोशी, लाला जगत नारायण, जगदीश किंजल्क जैसे एक से बढ़कर एक प्रखर पत्रकार हिंदी पत्रकारिता ने दिए हैं लेकिन आज ऐसे लोग न के बराबर रह गए हैं। 

    एक युग वह भी था जब हिंदी पत्रकारिता ने जनजागरण का कार्य किया। गणेश शंकर विद्यार्थी, बाल मुकुंद गुप्त, माखनलाल चतुर्वेदी जैसे पत्रकारों का का बोलबाला था जिन्हें सिद्धांतों से डिगाने की हिम्मत न राजनीति में थी ,न पैसे में । संपादक के रूप में उन्हें अखबार के मालिकों तक के आगे झुकना मंज़ूर नहीं था मगर अब वह बात कहां?

संकट अनेक है लेकिन फिर भी कुछ बात तो है हिंदी पत्रकारिता में जो आज भी ‘देश की पत्रकारिता’ के रूप में पहचान रखती है। हिंदी पत्रकारिता ने न केवल आमजन तक सूचनाएं पहुंचाईं अपितु भारत जैसे बहुभाषी देश में हिंदी माध्यम से करोड़ों लोगों को समाचार उपलब्ध कराए जो एक बड़ी उपलब्धि है। इंटरनेट के माध्यम से हिंदी न्यूज़ पोर्टल्स, टीवी चैनल्स और यूट्यूब चैनल्स ने ग्रामीण और दूरस्थ क्षेत्रों तक पहुँच बनाई है। अब हिंदी पत्रकारिता सिर्फ अखबारों तक सीमित नहीं है। राज्यों और जिलों में सशक्त क्षेत्रीय हिंदी पत्रकारिता विकसित हुई है,  एक दौर वह भी था जब ख़बरों की सत्यता और विश्वसनीयता के लिए केवल अंग्रेजी अखबारों को ही मानक माना जाता था लेकिन आज ऐसी बात नहीं है और इससे कहा जा सकता है कि हिंदी पत्रकारिता का भविष्य अंधकारमय तो नहीं ही है। 

       समय के साथ हिंदी में डिजिटल कंटेंट की माँग बढ़ रही है। पोडकास्ट, यूट्यूब चैनल्स और ब्लॉगिंग के माध्यम से नई पीढ़ी हिंदी पत्रकारिता से जुड़ रही है। डेटा जर्नलिज्म और खोजी पत्रकारिता भी अब हिंदी पत्रकारिता का एक अनन्य अंग बन चुका है। भविष्य में तो ख़ैर हिंदी पत्रकारिता में डेटा आधारित रिपोर्टिंग और इन्वेस्टिगेटिव जर्नलिज्म की अहम भूमिका होगी ही।

    हिंदी पत्रकारिता की एक खास बात इसका लचीलापन भी है. यदि अन्य भारतीय भाषाओं के साथ सहयोग बढ़े तो राष्ट्रीय स्तर पर एक मजबूत वैकल्पिक मीडिया मॉडल बन सकता है। भविष्य में “पाठक-समर्थित पत्रकारिता” जैसे मॉडल हिंदी में भी फल-फूल सकते हैं ।

आज हिंदी पत्रकारिता संक्रमण काल से गुजर रही है। एक ओर वह कॉरपोरेट और तकनीकी दबावों से जूझ रही है, वहीं दूसरी ओर डिजिटल युग में उसके सामने नए अवसर भी हैं। यदि हिंदी पत्रकारिता जनहित, निष्पक्षता और विश्वसनीयता को बनाए रख सके, तो उसका भविष्य उज्ज्वल हो सकता है।

    लेकिन आज भी हिंदी पत्रकारिता में कई सुधार जरूरी हैं ताकि वह फिर से जनविश्वास अर्जित कर सके और लोकतंत्र का सशक्त स्तंभ बन सके।

    हिंदी पत्रकारिता की स्वतंत्रता और निष्पक्षता बनाए रखनी है तो पत्रकारों पर राजनीतिक या कॉरपोरेट दबाव नहीं होना चाहिए और दबाव हो भी तो उसे स्वीकार नहीं करना चाहिए। खबरें निष्पक्ष और तथ्यों पर आधारित होनी चाहिए, न कि किसी एजेंडा के अनुसार। फेक न्यूज़ और अफवाहों पर नियंत्रण के लिए फैक्ट-चेकिंग टीमों का गठन हो । आज हर खबर की सत्यता की जांच समय की मांग है। भ्रामक हेडलाइन और ‘क्लिकबेट’ यानी सुर्खियों से शिकार संस्कृति पर भी लगाम कसे जाने की सख़्त जरूरत है। किसानों, आदिवासियों, महिलाओं, मज़दूरों, बेरोजगारी आदि जैसे मुद्दों को प्राथमिकता दी जाएगी तो हिंदी पत्रकारिता अधिक प्रभावशाली होकर सामने आएगी। 

हिंदी पत्रकारिता के उज्जवल भविष्य के लिए अत्यावश्यक है कि क्षेत्रीय पत्रकारों को आर्थिक व कानूनी सुरक्षा प्रदान की जाए, उन्हें डिजिटल टूल्स, डेटा जर्नलिज्म, और एथिकल रिपोर्टिंग का नियमित प्रशिक्षण दिया जाए। अपनी अलग पहचान बनाए रखने के लिए हिंदी पत्रकारिता को भाषा की शुद्धता और उच्च आदर्श व निष्पक्षता का मानक तय करना होगा । भाषा की दृष्टि से भी गुणवत्ता में भारी गिरावट आई है। व्याकरण, शैली और शब्द चयन में  बहुत सुधार आवश्यक है।

      इनके साथ-साथ ‘पेड न्यूज’ के दौर में प्रायोजित समाचार और खबरों के बीच स्पष्ट अंतर दिखना चाहिए और ‘पेड न्यूज़’ की प्रवृत्ति पर सख्त नियंत्रण होना बहुत ज़रूरी है। खबर और विज्ञापन को स्पष्ट रूप से अलग नज़र आना ही चाहिए। 

     अब अखबार केवल हार्ड कॉपी के रूप में नहीं अपितु ई पेपर के रूप में भी फल फूल रहे हैं । ऑनलाइन पत्रकारिता में त्वरित रिपोर्टिंग के दबाव में  अक्सर तथ्यात्मक गलतियाँ होती हैं पर इसे रोकना होगा। सोशल मीडिया पर पत्रकारिता करते समय भी पेशेवर मानकों का पालन आवश्यक है।

      इन सबसे बढ़कर हिंदी पत्रकारिता के दिशा निर्देशकों पाठकों की भागीदारी बढ़ाने की और विशेष ध्यान देना होगा। ओपन कमेंट सेक्शन, फीडबैक कॉलम और जन संवाद के माध्यम से पाठकों की राय को महत्व दिया जाए व जनहित पत्रकारिता को प्राथमिकता मिले तो हिंदी पत्रकारिता सब संकटों से पार पाकर नई ऊंचाइयों पर दिखाई देगी इसमें संदेह नहीं है  मगर संदेह है तो केवल इस बात का कि आज के अर्थप्रधान युग में निरर्थक खबरें, निहितस्वार्थ, राजनीतिक दबाव, मालिकों की मनमानी, कमजोर संकल्प वाले संपादक और बदहाली में जी रहे स्थानीय संवाददाता और उन पर मंडराता माफियाओं के साया क्या ऐसा होने देगा ?

 यदि हिंदी पत्रकारिता को लोकतंत्र का मजबूत स्तंभ बनना है तो उसे अपने सिद्धांतों, भाषा, और ज़िम्मेदारी का पुनः मूल्यांकन करना होगा और तकनीकी, पारदर्शिता और जनसरोकार को प्राथमिकता देकर ही यह विश्वसनीयता प्राप्त की जा सकती है।

डॉ घनश्याम बादल 

सावधान रहना होगा कोरोना के नए वेरियंट्स से

संजय सिन्हा

भारत सहित अन्य देशों में एक बार फिर से कोरोना वायरस संक्रमण का खतरा मंडराने लगा है। स्वास्थ्य मंत्रालय द्वारा जारी हालिया आंकड़ों के अनुसार देश में अब तक कुल 1200 से अधिक कोविड-19 के सक्रिय मामले दर्ज किए जा चुके हैं, जबकि 12 लोगों की मौत की पुष्टि हुई है। एक ओर जहां लंबे समय तक कोरोना के मामलों में गिरावट देखने को मिली थी, वहीं अब नए वेरिएंट्स के साथ यह वायरस एक बार फिर लोगों को चिंता में डाल रहा है। आइये समझते हैं महामारी की वापसी कैसे हुई।

2020 और 2021 में देश ने कोरोना की भयावह लहरों का सामना किया था जिसने लाखों लोगों को प्रभावित किया। टीकाकरण और जनसहभागिता के चलते पिछले कुछ समय से स्थिति नियंत्रण में थी लेकिन अब 2025 में फिर से मामलों में इजाफा देखने को मिल रहा है। भारत में 1200 से अधिक सक्रिय मामले सामने आ चुके हैं और इस बार भी सबसे अधिक असर दक्षिणी राज्यों, विशेषकर केरल, महाराष्ट्र और तमिलनाडु में देखा जा रहा है। अगर हम राज्यों की स्थिति के बारे में सोचें तोः केरल में 420 से अधिक सक्रिय मामले हैं, तीन मौतें भी हुईं । महाराष्ट्र में 280 केस, दो मौतें। दिल्ली और गुजरात में धीरे-धीरे मामले बढ़ते हुए दिख रहे हैं। नए वेरिएंट्स में जे एन1, एल एफ.7 और एन बी.1.8.1 से खतरा बढ़ा है। वर्तमान में जिन वेरिएंट्स के कारण संक्रमण फैल रहा है, वे हैं जे एन1, एल एफ.7 और एन बी.1.8.1। स्वास्थ्य विशेषज्ञों का मानना है कि ये वेरिएंट्स पहले के मुकाबले अधिक संक्रामक हैं, हालांकि इनमें से कुछ वेरिएंट गंभीर लक्षण उत्पन्न नहीं करते। विशेषज्ञों की राय है कि येल यूनिवर्सिटी द्वारा हाल में किए गए अध्ययन में यह स्पष्ट हुआ है कि नए वेरिएंट्स तेजी से म्यूटेट हो रहे हैं और यह हमारी प्रतिरक्षा प्रणाली को चकमा दे सकते हैं हालांकि, बूस्टर डोज और अपडेटेड टीकों से इनका प्रभाव काफी हद तक रोका जा सकता है।

गौरतलब है कि नए वेरिएंट्स के लक्षण मुख्यतः समान ही हैं लेकिन कुछ मामलों में हल्के बदलाव देखे जा रहे हैं। अधिकतर मरीजों को हल्के बुखार, गले में खराश, खांसी और बदन दर्द की शिकायत हो रही है। विशेषज्ञ मानते हैं कि लक्षण हल्के हैं परंतु उच्च जोखिम वाले वर्गों (60 वर्ष से ऊपर, पहले से बीमार व्यक्ति) में इसका खतरा अधिक है। सामान्य लक्षणों में गले में खराश, हल्का या तेज बुखार, सिरदर्द, सांस फूलना, बदन दर्द और स्वाद और गंध का जाना (कुछ मामलों में)। मई 2025 की स्थिति को देखते हुए राज्य सरकारें और केंद्र सरकार सतर्क हो चुकी हैं। रेलवे स्टेशनों, एयरपोर्ट्स, बस अड्डों पर फिर से थर्मल स्क्रीनिंग, रैपिड एंटीजन टेस्टिंग, और आर टी पी सी आर टेस्ट को अनिवार्य किया जा रहा है, खासकर उन यात्रियों के लिए जो विदेश या उच्च संक्रमण क्षेत्रों से आ रहे हैं। सरकार के प्रयासों में सभी जिलों में कोविड-हेल्पलाइन नंबर सक्रिय। अस्पतालों में ऑक्सीजन बेड्स की संख्या बढ़ाई गई। स्वास्थ्य कर्मियों को फिर से प्रशिक्षण दिया जा रहा है।

गर हम अस्पतालों की तैयारी के बारे में बात करें तो दूसरी लहर जैसी स्थिति की पुनरावृत्ति नहीं है। मध्यप्रदेश के ग्वालियर स्थित जी आर मेडिकल कॉलेज समेत कई सरकारी अस्पतालों में कोविड वॉर्ड्स को दोबारा सक्रिय किया गया है। इनमें अतिरिक्त ऑक्सीजन सिलेंडर्स, वेंटिलेटर्स और दवाओं का स्टॉक सुनिश्चित किया जा रहा है। इसी प्रकार अस्पताल प्रबंधन में पृथक कोविड वार्डों की स्थापना। बायोमेडिकल कचरे के सुरक्षित निपटान की व्यवस्था। डॉक्टरों और नर्सों की तैनाती में तेजी। याद रहे टीकाकरण अभियान का देश में 2021 से ही आरंभ हो गया था जिसके बाद लाखों लोगों को दोनों डोज़ दी गईं। अब 2025 में यह प्रश्न उठ रहा है कि क्या पहले ली गई वैक्सीन वर्तमान वेरिएंट्स के विरुद्ध प्रभावी है? विशेषज्ञों का उत्तर है— “आंशिक रूप से हां”। येल यूनिवर्सिटी के शोध में यह निष्कर्ष सामने आया है कि बूस्टर डोज या अपडेटेड वैक्सीन इन वेरिएंट्स से रक्षा में सहायक हो सकती हैं। सरकार द्वारा तीसरी और चौथी डोज़ की सिफारिश की जा रही है, विशेष रूप से वरिष्ठ नागरिकों और कमजोर रोग प्रतिरोधक क्षमता वाले लोगों को। अब बात आती है कि क्या लॉकडाउन की फिर से जरूरत पड़ेगी? फिलहाल सरकार ने लॉकडाउन की कोई योजना घोषित नहीं की है परंतु ‘माइक्रो-कंटेनमेंट जोन’ की नीति को फिर से लागू किया जा रहा है। संक्रमण की दर बढ़ने पर प्रभावित इलाकों में सीमित आवागमन, दुकानें बंद करना और स्कूल-कॉलेजों को ऑनलाइन करना संभव है।लोगों से अपील है कि सतर्क रहें, घबराएं नहीं।

स्वास्थ्य मंत्रालय और विशेषज्ञों ने साफ तौर पर कहा है कि यह स्थिति 2021 जैसी नहीं है, लेकिन सावधानी जरूरी है। यदि लोग कोविड अनुरूप व्यवहार अपनाएं, तो तीसरी या चौथी लहर जैसे हालातों से बचा जा सकता है। नागरिकों के लिए दिशा-निर्देशों में मास्क पहनें, विशेष रूप से भीड़भाड़ वाले स्थानों पर। हाथों को नियमित रूप से सैनिटाइज करें। सामाजिक दूरी बनाए रखें।लक्षण दिखने पर घर पर रहें और जांच कराएं।इस दौरान मीडिया और सोशल मीडिया की भूमिका अहम है। अफवाहें और भ्रम की स्थिति से बचने के लिए मीडिया को भी जिम्मेदारी से काम करने की जरूरत है। सोशल मीडिया पर चल रहे भ्रामक वीडियो और फर्जी दावा लोगों में डर फैला सकते हैं। स्वास्थ्य मंत्रालय के आधिकारिक बुलेटिन और विशेषज्ञों की बातों पर ही विश्वास करें।अंत में कह सकते हैं कि भारत एक विशाल देश है और यहां की जनसंख्या के हिसाब से संक्रमण का खतरा कभी भी अधिक हो सकता है। परंतु अगर जनभागीदारी, सरकारी नीतियों और वैज्ञानिक सलाहों को गंभीरता से लिया जाए, तो इस संकट को बड़े स्तर पर फैलने से रोका जा सकता है। हमें याद रखना चाहिए कि “हम सुरक्षित तभी हैं जब हर कोई सुरक्षित है।”

संजय सिन्हा

प्रकाशन की लागत बढ़ने से गहराया आर्थिक संकट

हिंदी पत्रकारिता :  क्षेत्रीय भाषा और आर्थिक संकट की “छाया”

प्रदीप कुमार वर्मा

भारतीय शासन व्यवस्था में मुख्य रूप से तीन स्तंभ हैं जिनमें कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका शामिल हैं। देश में स्वतंत्र पत्रकारिता के महत्व एवं उपयोगिता को देखते हुए पत्रकारिता लोकतंत्र का चौथा स्तंभ माना जाता है। पत्रकारिता हर आम और खास को विभिन्न समाचारों, घटनाओं और मुद्दों से अवगत कराती है। पत्रकारिता को जनमानस को प्रभावित करने वाले प्रमुख कारक के रूप में भी जाना जाता है। पत्रकारिता के इसी महत्व को रेखांकित करने का दिन “हिंदी पत्रकारिता दिवस” है। यह हिंदी पत्रकारिता के गौरवशाली इतिहास को याद करने और इसकी वर्तमान उपलब्धियों का जश्न मनाने का दिन भी है। यह दिवस उन सभी पत्रकारों और लेखकों को याद करने का अवसर है जिन्होंने हिंदी भाषा को गौरव और सम्मान दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। भारत में हर साल 30 मई को हिंदी पत्रकारिता दिवस मनाया जाता है।

       यह दिन भारत के इतिहास का एक महत्वपूर्ण दिन है, क्योंकि वर्ष 1826 में इसी दिन हिंदी भाषा का पहला समाचार पत्र ‘उदन्त मार्तण्ड’ प्रकाशित हुआ था। इस प्राचीन समाचार पत्र का प्रकाशन कलकत्ता शहर से पंडित जुगल किशोर शुक्ल द्वारा शुरू किया गया था। यह ऐसा समय था जब भारत में उर्दू, अंग्रेजी, बांग्ला और फारसी भाषा का प्रचार-प्रसार चरम पर था। ऐसे समय में हिंदी भाषी लोगों के सामने साहित्य और पत्रकारिता का संकट पैदा हो रहा था।  तब हिन्दी भाषा के पाठकों को हिंदी समाचार पत्र की आवश्यकता हुई। हिंदी पत्रकारिता की इसी अनिवार्य आवश्यकता के चलते 30 मई 1826 को हिन्दी भाषा का प्रथम समाचार पत्र ‘उदन्त मार्तण्ड’ प्रकाशित  हुआ था। यह महज एक समाचार पत्र ही नहीं था बल्कि साहित्य एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में हिंदी के “उत्थान” के लिए किया गया यह एक प्रयोग भी था। 

         इसीलिए इस दिवस को हिन्दी पत्रकारिता दिवस के रूप में मानते हैं। भले ही यह पत्र एक साप्ताहिक के रूप में कलकत्ता से प्रकाशित होना प्रारम्भ हुआ था लेकिन इसने तत्कालीन समय में हिंदी भाषा एवं हिंदी पत्रकारिता को एक संजीवनी प्रदान की थी। उस जमाने मे कलकत्ता में हिन्दी पाठकों की संख्या बहुत कम थी। हिन्दी भाषी स्थानों पर यह डाक से भेजा जाता था, जिससे यह महंगा होता था और इसका खर्च नहीं निकल पाता था। इसके अलावा  उस समय आर्थिक तंत्र कुछ कुलीन लोगों के हाथ में था। जिनका हिंदी से कोई लेना देना नहीं था। यही वजह रही  कि ‘उदन्त मार्तण्ड’ को आर्थिक तंगी का सामना करना पड़ा। उस समय जुगल किशोर शुक्ल ने सरकार से अखबार को हिंदी पाठ उत्तर पहुंचने के लिए डाक खर्च में कुछ रियायत देने का अनुरोध भी ब्रिटिश सरकार से किया लेकिन तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने हिंदी भाषा के चलते इस अनुरोध को नकार दिया। 

            यही वजह रही  कि मात्र कुछ ही महीनों के बाद आर्थिक तंगी के कारण 19 दिसंबर 1826 को इसका प्रकाशन बंद करना पड़ा। इसके मात्र 79 अंक ही निकले थे  लेकिन करीब करीब दो सौ साल के लंबे सफर के बावजूद आज भी हिंदी पत्रकारिता पर संकट के बादल छाए हैं। संकट के यह बादल भाषाई पत्रकारिता में आए उछाल, सोशल मीडिया के बढ़ते दखल तथा अखबारों के प्रकाशन में बड़े खर्च और लागत को लेकर है। बदले समय में अब अखबारों को विज्ञापन कम मिल रहे हैं। इसके साथ ही कागज और छपाई के खर्चे बढ़ गए हैं। जिसके चलते अखबार मालिकों को अखबारों की रेट भी बढ़ानी पड़ी है। हालात ऐसे हैं कि आज के समय में कोई भी राष्ट्रीय अथवा प्रादेशिक समाचार पत्र 5 रुपये की कीमत से कम नहीं है और यह है कीमत कई अखबारों के मामले में 10 से 15 रुपए तक भी है। क्षेत्रीय भाषाओं के बढ़ते प्रभाव के चलते कुछ बड़े मीडिया घरानों ने देश के विभिन्न राज्यों में भाषा के आधार पर अपने क्षेत्रीय प्रकाशन भी शुरू कर दिए हैं  जिसकी वजह से भी आज के दौर में हिंदी पत्रकारिता को चुनौती मिल रही है।

अखबारों को मिल रही सरकारी मदद के बारे में गौर करें,तो आज भी आशा के अनुरूप सरकारी मदद का इंतजार अखबारों को है। देश में  केंद्रीय विज्ञापन एजेंसी डीएवीपी और राज्यों के सूचना एवं जनसंपर्क निदेशालयों की ओर से भी विज्ञापन जारी करने की संख्या में कमी आई है। जिसके चलते विज्ञापनों के रूप में अपेक्षित सरकारी मदद अखबारों को नहीं मिल पा रही है। इसके साथ ही सरकारी और गैर सरकारी संस्थानों से मिलने वाले विज्ञापनों पर एक मोटा कमीशन विज्ञापन एजेंसी को देना पड़ता है और इसका असर भी अखबारों की आर्थिक स्थिति पर पड़ रहा है। इसके अलावा लगभग हर राजनीतिक एवं जनप्रतिनिधियों, सामाजिक एवं व्यापारिक संस्थाओं ने भी अपने “प्रचार-प्रसार” का माध्यम सोशल मीडिया को बना लिया है।

         इसके चलते कम से कम विज्ञापन के मामले में उन्हें अखबारों की आवश्यकता ना के बराबर रह गई है। आज हिंदी पत्रकारिता दिवस के मौके पर इस बात पर भी चिंतन और मनन किया जाना जरूरी है कि हिंदी पत्रकारिता को कैसे न केवल जिंदा रखना जाए, बल्कि उसका पोषण और संवर्धन भी किया जाए? इस दिशा में जनता जनार्दन सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है और आज लोगों को यह संकल्प लेना होगा कि वह हिंदी समाचार पत्रों को पहले की तरह अपना प्रेम और आशीर्वाद देंगे। इसके साथ ही केंद्र एवं राज्य सरकारों को भी अखबारों को आर्थिक संकट से उबारने के लिए कोई विशेष नीति बनानी होगी। यह नीति सजावटी विज्ञापनों की संख्या में बढ़ोतरी के साथ-साथ रियायती दर पर अखबारों के प्रकाशन संस्थानों के लिए बिजली एवं पानी  तथा अन्य प्रकार के पैकेज दिए जा सकते हैं। जिससे वर्तमान दौर के साथ-साथ आने वाले समय में हिंदी पत्रकारिता को “संजीवनी” मिल सके और हिंदी पत्रकारिता को भाषायी और आर्थिक संकट की “छाया” से उबारा जा सके।

 प्रदीप कुमार वर्मा

सुप्रीम कोर्ट -किशोरों के बीच सहमति के संबंधों में पोक्सो एक्ट के तहत जेल क्यों?

रामस्वरूप रावतसरे

सुप्रीम कोर्ट ने एक प्रकरण की सुनवाई के दौरान केंद्र सरकार से कहा है कि किशोरों के बीच सहमति से बनने वाले प्रेम-संबंधों को अपराध की श्रेणी से बाहर करने और देश में यौन व प्रजनन स्वास्थ्य शिक्षा (सेक्स एजुकेशन) की नीति बनाने पर विचार करना चाहिए। ऐसा इसलिए ताकि किशोरों को प्रोटेक्शन ऑफ चिल्ड्रन फ्रॉम सेक्सुअल ऑफेंसेज (पोक्सो) एक्ट के तहत जेल न जाना पड़े। एक मामले की सुनवाई के दौरान कोर्ट ने सरकार को इस मुद्दे पर एक विशेषज्ञ समिति बनाने और 25 जुलाई 2025 तक रिपोर्ट देने को कहा। कोर्ट ने यह भी कहा कि वह इस रिपोर्ट के आधार पर आगे के निर्देश देगा।

यह पूरा मामला पश्चिम बंगाल की एक महिला की कानूनी लड़ाई से शुरू हुआ। इस महिला के पति को पोक्सो एक्ट के तहत 20 साल की जेल हुई थी क्योंकि जब वह 14 साल की थीं, तब उनके बीच सहमति से रिश्ता था। महिला अपने पति को बचाने के लिए सुप्रीम कोर्ट पहुँची। इस मामले को देखते हुए कोर्ट ने दो वरिष्ठ महिला वकीलों, माधवी दीवान और लिज मैथ्यू, को इस संवेदनशील मुद्दे पर सलाह देने के लिए नियुक्त किया। इन वकीलों ने कहा कि पोक्सो एक्ट का मकसद बच्चों को यौन शोषण से बचाना है लेकिन किशोरों के बीच सहमति वाले रिश्तों में इसका सख्ती से लागू करना कई बार गलत नतीजे देता है। इससे न सिर्फ किशोरों को, बल्कि उनके परिवारों को भी नुकसान होता है।

सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में पहले तो पति की सजा बरकरार रखी थी लेकिन सजा के अमल पर रोक लगाकर एक कमेटी का गठन कर दिया था। सुप्रीम कोर्ट की ‘न्यायमित्र’ कमेटी ने कुछ महत्वपूर्ण तथ्य सामने रखे जिसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने महिला के पति की सजा खत्म कर दी। इस फैसले के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने बेहद लचीला रुख अपनाया। सुप्रीम कोर्ट ने महिला के संघर्षों, उसके भविष्य, दोनों के बच्चे और उनके साथ रहने को भी अपने फैसले में शामिल किया। इस मामले के बाद ही सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से इस अहम मुद्दे पर सोच विचार करने के लिए कहा है।

जानकारी के अनुसार सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से कहा कि पोक्सो एक्ट के तहत 18 साल से कम उम्र के किशोरों के बीच सहमति से बने रिश्तों को अपराध न माना जाए। कोर्ट ने सरकार से कहा कि वह इस मुद्दे की जाँच के लिए एक विशेषज्ञ समिति बनाए। इस समिति में महिला और बाल विकास मंत्रालय के सचिव, वरिष्ठ सरकारी अधिकारी और कुछ विशेषज्ञ शामिल हों। कोर्ट ने यह भी कहा कि समिति में टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज (टीआईएसएस) की डॉ. पेखम बसु, क्लिनिकल साइकोलॉजिस्ट जयिता साहा, और दक्षिण 24 परगना के जिला सामाजिक कल्याण अधिकारी संजीब रक्षित को स्थायी सदस्य के तौर पर शामिल किया जाए। समिति को इस मुद्दे पर विचार करके 25 जुलाई 2025 तक अपनी रिपोर्ट देनी होगी।

कोर्ट ने यूनेस्को की एक रिपोर्ट का हवाला दिया, जिसमें कहा गया कि भारत में यौन शिक्षा सिर्फ सेकेंडरी स्कूलों में दी जाती है, और वह भी बहुत सीमित तरीके से। कोर्ट का कहना है कि अगर किशोरों को सही समय पर यौन और प्रजनन स्वास्थ्य की जानकारी दी जाए तो वे अपने फैसलों के कानूनी और सामाजिक परिणामों को बेहतर समझ सकेंगे। कोर्ट ने सरकार से कहा कि वह इस दिशा में एक ठोस नीति बनाए। इस दरम्यान सुप्रीम कोर्ट ने कई हाई कोर्ट्स के फैसलों का जिक्र किया, जो इस मुद्दे पर पहले ही संवेदनशील रुख अपना चुके हैं। कोर्ट ने खास तौर पर दिल्ली, मद्रास और कलकत्ता हाई कोर्ट के फैसलों का उल्लेख किया है।

मद्रास हाई कोर्ट ने कई मामलों में कहा कि पोक्सो एक्ट का मकसद सहमति वाले रिश्तों को अपराध बनाना नहीं था। कोर्ट ने यह भी माना कि सहमति वाले रिश्तों में ‘पेनेट्रेटिव सेक्सुअल असॉल्ट’ की परिभाषा लागू नहीं होनी चाहिए क्योंकि इसमें ‘हमला’ जैसी कोई बात नहीं होती। 2001 में भी मद्रास हाई कोर्ट ने सुझाव दिया था कि ऐसे रिश्तों को सजा से बचाने के लिए कानून में बदलाव करना चाहिए।

कलकत्ता हाई कोर्ट के अनुसार पोक्सो एक्ट में ‘पेनेट्रेशन’ को एकतरफा हरकत माना गया है यानी इसे सिर्फ आरोपित की हरकत माना जाता है लेकिन सहमति वाले रिश्तों में यह जिम्मेदारी सिर्फ एक पक्ष पर नहीं डाली जा सकती।

दिल्ली हाई कोर्ट ने फरवरी 2024 में एक लड़के को राहत देते हुए उसके खिलाफ पोक्सो का मामला रद्द कर दिया। कोर्ट ने कहा कि कानून का मकसद शोषण और दुरुपयोग को रोकना है, न कि प्रेम को सजा देना। कोर्ट ने यह भी कहा कि प्रेम एक बुनियादी मानवीय अनुभव है और किशोरों को भी सहमति से भावनात्मक रिश्ते बनाने का हक है बशर्ते उसमें कोई दबाव या शोषण न हो। उच्च न्यायालयों ने यह भी माना कि अगर ऐसे मामलों में कानूनी कार्रवाई की जाए, तो इससे पीड़ित (लड़की) और उसके परिवार को भी नुकसान हो सकता है। कई बार ऐसे मामलों को रद्द किया, जहाँ आगे कार्रवाई करना पीड़ित के लिए ही हानिकारक था।

दरअसल सुप्रीम कोर्ट ने बीते साल एक मामले की सुनवाई करते हुए कहा था कि ज्यादातर लोग इस बात से अनजान हैं कि सहमति की उम्र (एज ऑफ कंसेंट) को 2012 में 16 साल से बढ़ाकर 18 साल कर दिया गया है। इस अनजानपन की वजह से कई किशोर अनजाने में कानून तोड़ रहे हैं। पोक्सो एक्ट के तहत अगर कोई 18 साल से कम उम्र के व्यक्ति से यौन संबंध बनाता है तो उसे अपराध माना जाता है, भले ही वह सहमति से हो। इसके अलावा कोर्ट ने माना कि किशोरावस्था में हार्मानल और जैविक बदलावों की वजह से लड़के-लड़कियाँ रिश्तों की ओर आकर्षित होते हैं। ऐसे में उन्हें सजा देने के बजाय, उनके माता-पिता और समाज को उनका समर्थन और मार्गदर्शन करना चाहिए। कोर्ट ने कहा कि किशोरों के फैसलों को बड़ों के नजरिए से नहीं देखा जाना चाहिए क्योंकि इससे उनके प्रति सहानुभूति की कमी हो सकती है।

सुप्रीम कोर्ट की सलाह से साफ है कि पोक्सो एक्ट और यौन शिक्षा को लेकर कुछ बदलाव जरूरी हैं। जैसे सहमति वाले रिश्तों को अपराध की श्रेणी से बाहर करने के लिए पोक्सो एक्ट में बदलाव की जरूरत है। खासकर 16-18 साल के किशोरों के मामले में कानून को और संवेदनशील करना होगा। स्कूलों में यौन और प्रजनन स्वास्थ्य शिक्षा को अनिवार्य करना चाहिए। इससे किशोरों को अपने शरीर, रिश्तों, और कानूनी सीमाओं की सही जानकारी मिलेगी। समाज को किशोरों के रिश्तों को अपराध की तरह देखने के बजाय, उन्हें समझने और समर्थन देने की जरूरत है।

सुप्रीम कोर्ट की यह सलाह किशोरों के हितों को ध्यान में रखते हुए एक बड़ा कदम बताया जा रहा है। पोक्सो एक्ट जरूरी है लेकिन इसका गलत इस्तेमाल किशोरों और उनके परिवारों को नुकसान पहुँचा सकता है। सहमति वाले रिश्तों को अपराध की श्रेणी से बाहर करने और यौन शिक्षा की नीति बनाने से न सिर्फ किशोरों को सही दिशा मिलेगी, बल्कि समाज में यौन शोषण के खिलाफ लड़ाई भी मजबूत होगी।

 जानकारों के अनुसार सुप्रीम कोर्ट की सलाह को देखें तो ये पश्चिमी देशों की व्यवस्थाओं, सामाजिक बुनियादों, स्वच्छंदता, अपराधिक माइंडसेट जैसे नजरियों को ध्यान में रख रहा है। माननीय सुप्रीम कोर्ट को इन मुद्दों पर भारत की व्यापकता को देखना होगा क्योंकि पश्चिमी समाजों में जो नियम चल सकते हैं, वे भारत में भारी नुकसान पहुँचा सकते हैं। भारत में पहले से ही जबरन बाल विवाह, नाबालिग लड़कियों की निकाह, शादी के नाम पर मानव तस्करी और धर्म परिवर्तन के लिए ग्रूमिंग जैसी गंभीर समस्याएँ हैं। अगर किशोरों के बीच सहमति वाले यौन संबंधों को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया गया तो ये एक कानूनी खामी बन सकती है जिसका गलत लोग फायदा उठा सकते हैं।

पोक्सो एक्ट का मकसद प्रेम को रोकना नहीं है लेकिन इसे इसलिए भी बनाया गया था ताकि बड़े लोग नाबालिग लड़कियों के साथ ‘किशोर प्रेम’ के नाम पर शादी या रिश्ते बनाकर उनका शोषण न करें। कई बार निकाह का रास्ता अपनाकर पोक्सो एक्ट से बचा जाता है। उदाहरण के लिए, जून 2022 में पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट ने शरिया का हवाला देकर कहा था कि 16 साल की मुस्लिम लड़की निकाह के लिए योग्य है। क्या ऐसी नरमी तस्करों और शोषण करने वालों को और हिम्मत नहीं देगी जो पहले से ही सिस्टम का गलत इस्तेमाल कर रहे हैं?

राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग के पूर्व चेयरमैन प्रियंक कानूनगो ने इस मुद्दे कहा है कि नाबालिग अपनी सरकार नहीं चुन सकते, उन्हें वोट देने का अधिकार भी नहीं है। क्या हम उनसे यह उम्मीद कर रहे हैं कि वे अपने यौन साथी को समझदारी से चुनें? सावधान रहें, इससे नाबालिग लड़कियों के साथ निकाह और बाल विवाह के अन्य रूपों को वैधता मिल सकती है। दरअसल, यह सिर्फ कानूनी भाषा का मामला नहीं है बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक जटिलताओं का भी सवाल है। अगर 14 या 15 साल की उम्र के बच्चों के बीच सहमति वाले रिश्तों को कानूनन मंजूरी दे दी गई तो प्रेम और शोषण के बीच की रेखा और धुँधली हो जाएगी। सहमति की जाँच कौन करेगा? गरीब और हाशिए पर रहने वाली लड़की, जो 14-15 साल की है, क्या वाकई में दबाव या लालच को ‘प्रेम’ समझने की गलती से बच पाएगी?

सुप्रीम कोर्ट का इरादा भले ही अच्छा हो, लेकिन भारत जैसे देश में ऐसी सलाह को बहुत सावधानी से लागू करना होगा। पश्चिमी देशों का नजरिया यहाँ काम नहीं करेगा। अगर सांस्कृतिक और सामाजिक संदर्भ को ध्यान में नहीं रखा गया, तो ये फैसले प्रेम को बचाने की बजाय शोषण को वैध कर सकते है जिसकी संभावना भी अधिक हैं। कानून की थोड़ी सी खामी समाज को गर्त में ले जा सकती है। इसलिए न्यायालय , सरकार और समाज को मिलकर एक ऐसा रास्ता निकालना होगा, जो किशोरों के हितों की रक्षा करे लेकिन साथ ही ’’हितों’’ का संरक्षण शोषण करने वालों को भी कोई किसी प्रकार का मौका न दे।

रामस्वरूप रावतसरे

आखिरकार बंगलादेश की कमजोर नसों को कब दबाएगा भारत?

कमलेश पांडेय

कभी ‘ग्रेटर बंगलादेश’ का स्वप्न संजोने वाले नोबेल पुरस्कार विजेता और बंगलादेश के कार्यवाहक सरकार के मुखिया मोहम्मद यूनुस अब अपने ही देश में ऐसे घिरे हैं कि जब उन्हें आगे का कोई रास्ता नजर नहीं आया तो फिर अपने जन्मदाता भारत पर ही अनर्गल लांछन लगाने लगे। वह अमेरिका, चीन, पाकिस्तान की गोद में खेलें, कोई बात नहीं लेकिन भारत और हिंदुओं से खेलेंगे तो अगले ऑपरेशन सिंदूर के लिए तैयार रहें। याद रखें, तब कोई बाप बचाने नहीं आएगा। हाल ही का पाकिस्तानी मंजर देख लें, अंजाम समझ लें और हो सके तो भारत के पड़ोस में बचकानी हरकत बंद कर दें।

बता दें कि अपनी पिछली चीन यात्रा के दौरान ही उन्होंने बढ़ चढ़ कर “भारत के चिकेन नेक” पर काबिज होने, पश्चिम बंगाल-उत्तर-पूर्व बिहार और उत्तर-पूर्व के सात बहन राज्यों को मिलाकर ग्रेटर बंगलादेश बनाने और नार्थ-ईस्ट राज्यों को लैंड लॉक्ड बताकर इलाकाई समुद्र का बेताज बादशाह होने का जो दिवास्वप्न उन्होंने देखा है, उसके मुताल्लिक भारत भी उन्हें दिन में ही तारे दिखाने की रणनीति बना चुका है। अब वो आगे बढ़ेंगे तो पीछे से भारत भी एक बार फिर बंगलादेश का अंग भंग कर देगा क्योंकि कभी पाकिस्तान से पूर्वी पाकिस्तान का अंग भंग करवाकर भारत ने ही जिस बंगलादेश का निर्माण करवाया था, आज वही बांग्लादेश जब भारत को आंखें दिखाएगा तो अपने अंजाम को भी भुगतने को तैयार रहेगा। 

इस बात में कोई दो राय नहीं कि वहां की शेख हसीना सरकार के तख्तापलट के बाद महज 6 माह में ही परवर्ती कार्यवाहक सरकार के मुखिया मोहम्मद यूनुस की अगुवाई में बंगलादेश भारत विरोधी चीनी, पाकिस्तानी और अमेरिकी अखाड़े का अड्डा बन चुका है जो उसके लिए शर्म की बात होनी चाहिए। यही वजह है कि इस विफल सरकार के खिलाफ अब वहां भी विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं, जिससे देश में अस्थिरता बढ़ रही है। ऐसे में यूनुस ने अपना सारा दोष भारत पर मढ दिया है हालांकि भारत के पास उन्हें जवाब देने के लिए ऐसे-ऐसे विकल्प मौजूद हैं जिससे उनके होश उड़ सकते हैं।


स्थानीय मीडिया की रिपोर्ट के मुताबिक, बांग्लादेश एक बार फिर से उबल रहा है, जिससे मोहम्मद यूनुस की अंतरिम सरकार अस्थिरता के बवंडर की ओर निरंतर बढ़ रही है। उनकी सेना से ही उनकी ऊटपटांग नीतियों का विरोध हो रहा है जबकि उनकी सरकार के खिलाफ जनता द्वारा भी अविलंब चुनाव की मांग को लेकर विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं। इससे मुल्क में तनाव का आलम व्याप्त हो चुका है। चूंकि

इस विरोध प्रदर्शन में सरकारी कर्मचारी भी शामिल हो चुके हैं। इसलिए अपनी उल्टी गिनती शुरू होते देख मोहम्मद यूनुस अपनी नाकामियों को बिना नाम लिए भारत पर थोपने की कोशिश कर रहे हैं। वहां उनकी लापरवाही और अदूरदर्शिता से अब जो कुछ भी हो रहा है, उसके लिए ‘विदेशी साजिश’ को जिम्मेदार बता रहे हैं। 

हकीकत ये है कि उन्हें सिर्फ चुनाव करवाने तक के लिए सरकार चलाने भर की जिम्मेदारी मिली है लेकिन जानकार बताते हैं कि वह चुनाव छोड़कर बाकी हर तरह के हथकंडे अपनाने में लगे हैं। बांग्लादेश की विदेश नीति, उसका संविधान, उसका इतिहास और यहां तक कि उसके जन्म की मूल अवधारणा तक को नकारने के लिए वो आत्मघाती दांव लगा रहे हैं। यही वजह है कि आज बांग्लादेशी फौज भी उनके विरोध में खड़ी हुई है। 

ऐसे में यह कहना गलत न होगा कि मोहम्मद यूनुस जब से बांग्लादेश की सत्ता में आए हैं, भारत के चीन और पाकिस्तान जैसे दुश्मनों के साथ झूम-झूम कर नाचने-गाने की कोशिश कर रहे हैं लेकिन उन्हें चीन के दम पर भारत के जिस भारत के चिकन नेक कॉरिडोर (सिलीगुड़ी कॉरिडोर) को दबा पाने की गलतफहमी हो गई है, ग्रेटर बंगलादेश बनवाने में विदेशियों व भारत के मुसलमानों के साथ मिलने का भ्रम हो चुका है और लैंड लॉक्ड नार्थ ईस्ट के चलते समुद्र का बेताज बादशाह होने के जो सपने उन्होंने चीन को दिखाए हैं, तब उन्हें शायद यह अंदाजा भी नहीं रहा होगा कि भारत के रणनीतिकार उनके साथ और उनके हमदम चीन-पाकिस्तान-म्यांमार के साथ क्या क्या कर सकता है।


शायद मोहम्मद यूनुस शायद यह भूल चुके हैं कि बांग्लादेश की पैदाइश ही कुशल भारतीय विदेश नीति की सफल देन रही है जिसे तब अमेरिका व चीन नहीं रोक पाए थे। यह भारत की वीरता है जो युद्ध के मैदान में भारी पड़ती है। ऐसे में जब वो अपने जन्मदाता की संप्रभुता और अखंडता को ही चुनौती देने लगेंगे तो भारत को भी देर-सबेर अपने सटीक विकल्प तलाशने पड़ेंगे। यदि भारत के राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत के एक हालिया साक्षात्कार को देखें तो स्पष्ट प्रतीत होता है कि नागपुर मुख्यालय से भी मोदी सरकार को उसी तरफ इशारा किया गया है। 

मसलन, संघ के मुखपत्र ऑर्गेनाइजर और पांचजन्य में गत रविवार को छपे उनके एक इंटरव्यू के मुताबिक उन्होंने भारत के पड़ोस में ‘बुराई को खत्म’ करने के लिए शक्ति का इस्तेमाल करने की बात कही है, वह अब हमारी विदेश नीति का महत्वपूर्ण ध्येय बनने जा रहा है। उनके अनुसार जिन कुछ देशों में हिंदुओं पर अत्याचार हो रहा है, वहां पर हिंदू समाज की ताकत का इस्तेमाल उनकी रक्षा के लिए किया जाना चाहिए।

बता दें कि पहलगाम आतंकी हमले और ऑपरेशन सिंदूर के मुद्दे पर अपने विचार रखते हुए संघ के सर संघचालक ने ठीक ही कहा है कि, ”हमारी ताकत अच्छे लोगों की रक्षा और बुरे लोगों को नष्ट करने के लिए होनी चाहिए। जब कोई और चारा नहीं होता तो बुराई को जबरदस्ती खत्म करना पड़ता है, इसलिए, हमारे पास शक्तिशाली बनने के अलावा और कोई विकल्प नहीं है क्योंकि हम अपनी सीमाओं पर बुरी ताकतों की बुराई देख रहे हैं।”


हमारा तात्पर्य यह है कि शायद जो बात मोहन भागवत ने खुलकर नहीं कहा, उसे असम के मुख्यमंत्री और पूर्वोत्तर के दिग्गज बीजेपी नेता हिमंत बिस्वा सरमा ने अधिक विस्तार से बताने की कोशिश की है जो सराहनीय है। कुछ दिन पहले भी उन्होंने मोहम्मद यूनुस के भारत के चिकन नेक कॉरिडोर पर उनकी गलत नजर पर पलटवार करते हुए बांग्लादेश के पास भी दो चिकन नेक होने की जो बात कही थी, उससे बंगलादेश व उसके हमदमों का तिलमिलाना स्वाभाविक है। 

गौरतलब है कि उन्होंने गत 25 मई रविवार को एक एक्स (X) पोस्ट डाला है, जिसमें उन्होंने दो टूक लिखा है कि ‘जिन्हें भारत को चिकन नेक कॉरिडोर पर धमकाने की आदत पड़ चुकी है, उन्हें तीन तथ्यों को ध्यान से नोट कर लेना चाहिए।’ पहला, बांग्लादेश के पास अपने दो ‘चिकन नेक’ हैं और दोनों भारत से कहीं ज्यादा असुरक्षित हैं।

पहला है 80 किमी लंबा उत्तर बांग्लादेश कॉरिडोर जो दक्षिण दिनाजपुर से दक्षिण पश्चिम गारो हिल्स (मेघालय) तक जाता है। अगर यहां कोई रुकावट आती है, तो पूरा रंगपुर डिवीजन बांग्लादेश से कट सकता है । मतलब, रंगपुर का बाकी बांग्लादेश से संपर्क टूट जाएगा।

दूसरा है 28 किमी का चटगांव कॉरिडोर, जो साउथ त्रिपुरा से बंगाल की खाड़ी तक जाता है। यह कॉरिडोर भारत के ‘चिकन नेक’ से भी छोटा है पर यह बांग्लादेश की आर्थिक राजधानी और राजनीतिक राजधानी को जोड़ने वाला एकमात्र रास्ता है।

इससे साफ है कि बांग्लादेश के मौजूदा हालात, मोहम्मद यूनुस की ओर से सत्ता में बने रहने के लिए चलाए जा रहे खौफनाक एजेंडा की गवाही दे रहे हैं और भारत में अपनी संप्रभुता की रक्षा के लिए जो तल्ख विचार सामने आ रहे हैं, उससे भारतीयों को यह आस्वस्ति मिल रही है कि हमारा जवाब बहुत करारा होगा क्योंकि रंगपुर में चिकन नेक कॉरिडोर काटने का मतलब है कि भारत का सिलीगुड़ी कॉरिडोर बहुत ही विशाल हो जाएगा। कहने का तात्पर्य यह कि अभी जो लगभग 22 किलोमीटर की चौड़ी पट्टी है और जिसपर यूनुस और भारत के दुश्मनों की नजर लगी हुई है, वह अप्रत्याशित रूप से इतनी चौड़ी हो सकती है कि मतलब, पूर्वोत्तर की बहुत बड़ी समस्या एक ही झटके में खत्म हो सकती है।

वहीं, अगर हम त्रिपुरा के कुछ किलोमीटर तक नीच चले जाएं यानी चटगांव कॉरिडोर को भारत में मिला लें तो पूरे पूर्वोत्तर को जोड़ने वाला भारत का अपना समुद्र यहां भी हो जाएगा। देखा जाए तो यह सामरिक और आर्थिक रूप से बहुत ही फायदे का सौदा साबित होगा क्योंकि भविष्य में मोहम्मद यूनुस की तरह के विचार वाले बांग्लादेश के किसी अन्य शासक की भी आए दिन की होने वाली नौटंकी भी हमेशा के लिए खत्म की जा सकती है।


इसके अलावा, हमें यह भी पता होना चाहिए कि बांग्लादेश के चटगांव से नीचे ही म्यांमार का रखाइन इलाका है जहां पर रोहिंग्या मुसलमानों की गम्भीर समस्या है। इसका मतलब यह हुआ कि बांग्लादेश से चटगांव के कटते ही रोहिंग्या मुस्लिम समस्या खत्म हो सकती है क्योंकि तब भारत इस इलाके को रोहिंग्या मुसलमानों को सौंप सकता है और भारत में जो रोहिंग्या घुसपैठिए आ गए हैं और राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा पैदा कर रहे हैं, उन्हें यहां पर स्थायी रूप से भेजा जा सकता है क्योंकि यह उनका मूल इलाका है, जहां जाकर बसना उनके लिए भी आसान हो सकता है।


इसके अलावा, म्यांमार के रखाइन से ही थोड़ा उत्तर-पूर्व में उसका चिन इलाका है जो पहाड़ी क्षेत्र है और ईसाई (क्रिश्चियन) बहुल इलाका है, जो म्यांमार से अलग होना चाहता है। यह पहले से ही मिजोरम में मिलाए जाने की मांग कर रहे हैं। ऐसे में यदि भारत ने इस पूरे इलाके पर दबदबा कायम कर लिया तो पूर्वोत्तर की कई उग्रवादी समस्याओं का हल निकालना भी आसान हो सकता है क्योंकि विदेश की यह धरती अभी उग्रवादियों के लिए नर्सरी का काम करती है, जिसे नियंत्रित करना और खत्म करना भारत के हित में है।


इस बात में कोई दो राय नहीं कि 1971 में भारत, बांग्लादेश को पाकिस्तान से अलग करवाकर एक स्वतंत्र मुल्क के रूप में जन्म दे चुका है। इसलिए ऊपर जो चार विकल्प दिए गए हैं, वह इसके लिए असंभव भी नहीं है क्योंकि मोहम्मद यूनुस के कार्यकाल में जिस तरह से बांग्लादेश फिर से पाकिस्तान की ओर झुक गया है और वहां पर आईएसआई की गतिविधियां बढ़ गई हैं, उसके दृष्टिगत भारत के लिए इस वास्तविकता को ज्यादा लंबे समय तक टालना आसान नहीं है। इसलिए भारत अपने भविष्य को महफूज रखने की नीति अपनाए तो क्षुद्र पड़ोसियों को खण्ड-खंड करके कमजोर कर दे। पाकिस्तान-बंगलादेश इसी के पात्र हैं और भारत को दृढ़तापूर्वक अपनी कार्रवाई व रणनीति को अंजाम देना चाहिए।

कमलेश पांडेय

हिन्दी पत्रकारिता को व्यवसाय नहीं, मिशन बनाना होगा

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हिन्दी पत्रकारिता दिवस- 30 मई, 2025
– ललित गर्ग –

भारत में हिन्दी पत्रकारिता की न केवल आजादी के संघर्ष में बल्कि उससे पूर्व के गुलामी की बेड़ियों में जकड़े राष्ट्र की संकटपूर्ण स्थितियों में महत्वपूर्ण भूमिका रही है, नये बनते भारत में यह भूमिका अधिक महसूस की जा रही है, क्योंकि तब से आज तक समाज की आवाज़ उठाने, सत्ता से सवाल पूछने और जनभावनाओं को मंच देने में इसका योगदान अविस्मरणीय रहा है। हिंदी पत्रकारिता या स्थानीय पत्रकारिता, लोगों को उनकी भाषा में जानकारी उन तक पहुँचाता है और देश भर में ज्ञान के व्यापक प्रसार को सुगम बनाता है। हर साल 30 मई को हिंदी पत्रकारिता दिवस मनाया जाता है, दरअसल दो शताब्दी पूर्व ब्रिटिशकालीन भारत में जब तत्कालीन हिन्दुस्तान में दूर दूर तक मात्र अंग्रेजी, फ़ारसी, उर्दू एवं बांग्ला भाषा में अखबार छपते थे, तब देश की राजधानी “कलकत्ता” से हिन्दी भाषा में ‘उदन्त मार्तण्ड’ के नाम से पहला हिन्दी समाचार पत्र वर्ष 1826 को छपा था। पंडित जुगल किशोर शुक्ल ने इसे साप्ताहिक के तौर पर शुरू किया था। इसके प्रकाशक और संपादक भी वे खुद थे। भले ही अब यह समाचार पत्र बंद हो गया है, लेकिन इसने हिंदी पत्रकारिता के सूर्य को उदित कर दिया था जो आज भी देदीप्यमान है।
उन्नीसवीं शताब्दी के अंत और बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में हिंदी के अनेक दैनिक समाचार पत्र निकले जिनमें हिन्दुस्तान, भारतोदय, भारतमित्र, भारत जीवन, अभ्युदय, विश्वमित्र, आज, प्रताप, विजय, वीर अर्जुन आदि प्रमुख हैं। बीसवीं शताब्दी के चौथे-पांचवें दशकों में अमर उजाला, आर्यावर्त, नवभारत टाइम्स, नई दुनिया, जागरण, पंजाब केसरी, नव भारत आदि प्रमुख हिंदी दैनिक समाचार पत्र सामने आए। लोकतंत्र में मीडिया चौथे स्तंभ के रूप में खड़ा है, पत्रकारिता एक ऐसा माध्यम है जिसके माध्यम से हम देश की वर्तमान स्थिति से अवगत रहते हैं। पत्रकार अथक परिश्रम करते हैं, ताकि समाचार हमारे घर तक तुरंत पहुंचे। चाहे अखबारों के जरिए हो, टीवी चैनलों के जरिए हो या सोशल मीडिया के व्यापक प्रभाव के जरिए, नित-नये बनते एवं बदलते समाज में पत्रकारिता की शक्ति को कम करके नहीं आंका जा सकता। यह हमारे दृष्टिकोण को व्यापक बनाने और सूचित संवाद को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
हिन्दी पत्रकारिता में क्रांतिकारिता का रंग गणेश शंकर विद्यार्थी ने भरा था। उन्होंने उत्तर प्रदेश के कानपुर शहर से 9 नवंबर 1913 को 16 पृष्ठ का ‘प्रताप’ समाचार पत्र शुरू किया था। यह काम शिव नारायण मिश्र, गणेश शंकर विद्यार्थी, नारायण प्रसाद अरोड़ा और कोरोनेशन प्रेस के मालिक यशोदा नंदन ने मिलकर किया था। शिव नारायण मिश्र और गणेश शंकर विद्यार्थी ने ‘प्रताप’ को अपनी कर्मभूमि बना लिया। विद्यार्थीजी के समाचार पत्र प्रताप से क्रांतिकारियों को काफी बल मिला। मुंशी प्रेमचंद महान् लेखक-कहानीकार होने के साथ-साथ हिन्दी के क्रांतिकारी एवं जुझारू पत्रकार थे, उनकी पत्रकारिता भी क्रांतिकारी थी, लेकिन उनके पत्रकारीय योगदान को लगभग भूला ही दिया गया है। जंगे-आजादी के दौर में उनकी पत्रकारिता ब्रिटिश हुकूमत के विरुद्ध ललकार की पत्रकारिता थी। वे समाज की कुरीतियों एवं आडम्बरों पर प्रहार करते थे तो नैतिक मूल्यों की वकालत भी करते थे। मेरा सौभाग्य है कि मैं राजस्थान के यशस्वी पत्रकार स्व. श्रीरामस्वरूप गर्ग के पुत्र होने के नाते विरासत में पत्रकारिता के मूल्यों को आत्मसात करने का मौका मिला। उन्होंने 1936 एवं उसके बाद के दौर में ’राष्ट्रवाणी’ एवं ‘परिवर्तन’ जैसी पत्रिकाओं का प्रकाशन एवं सम्पादन किया। वे राजस्थान के प्रतिष्ठित दैनिक नवज्योति के साप्ताहिक रूप में निकले प्रारंभिक अंकों के सम्पादक रहे। इसका प्रारंभ पण्डित जवाहरलाल नेहरू के निजी सचिव रहे श्री रामनारायण चौधरी ने किया था।
आज जबकि हिन्दी देश एवं दुनिया में सर्वाधिक बोली एवं प्रयोग की जाने वाली तीसरी भाषा बन चुकी है, ऐसे में सहज ही हिन्दी पत्रकारिता का मूल्य बढ़ा है। निस्संदेह, सजग, सतर्क और निर्भीक हिन्दी पत्रकार एवं पत्रकारिता एक सशक्त विपक्ष की भूमिका निभाकर सत्ताधीशों को राह ही दिखाता है। अकबर इलाहाबादी ने इसकी ताकत एवं महत्व को इन शब्दों में अभिव्यक्ति दी है कि ‘न खींचो कमान, न तलवार निकालो, जब तोप हो मुकाबिल तब अखबार निकालो।’ उन्होंने इन पंक्तियों के जरिए हिन्दी पत्रकारिता को तोप और तलवार से भी शक्तिशाली बता कर इनके इस्तेमाल की बात कह गए हैं। अर्थात कलम को हथियार से भी ताकतवर बताया गया है। पर खबरनवीसों की कलम को तोड़ने, उन्हें कमजोर करने एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को निस्तेज करने के लिए बुरी एवं स्वार्थी ताकतें सत्ता, तलवार और तोप का इस्तेमाल कर रही हैं। लेकिन तलवार से भी धारदार कलम इसीलिये इतनी प्रभावी है कि इसकी वजह से बड़े-बड़े राजनेता, उद्योगपतियों और सितारों को अर्श से फर्श पर आना पड़ा।
हिन्दी पत्रकार एवं पत्रकारिता कई संकटों का सामना कर रहे हैं- संघर्ष और हिंसा, आतंक एवं अलगाव, साम्प्रदायिकता एवं अंधधार्मिकता, युद्ध एवं राजनीतिक वर्चस्व, गरीबी एवं बेरोजगारी, लगातार सामाजिक-आर्थिक असमानताएँ, पर्यावरणीय संकट और लोगों के स्वास्थ्य और भलाई के लिए चुनौतियाँ आदि जटिलतर स्थितियों के बीच हिन्दी पत्रकारों की महत्वपूर्ण भूमिका है। लोकतंत्र, कानून के शासन और मानवाधिकारों को आधार देने वाली संस्थाओं पर गंभीर प्रभाव के कारण ही यह भूमिका महत्वपूर्ण है। बावजूद इसके हिन्दी पत्रकारिता की स्वतंत्रता, पत्रकारों की सुरक्षा और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर लगातार हमले हो रहे हैं। कभी-कभी भारत में हिन्दी पत्रकारिता की स्वतंत्रता पर सख्त पहरे जैसा भी प्रतीत होता है, जो दुर्भाग्यपूर्ण है। जबकि बड़ी सचाई है कि इन्हीं पत्रकारों के बल पर हमें आजादी मिली है। पत्रकारिता लोकहित में सरकार को कदम उठाने का रास्ता सुझाती रहती है, इसीलिए उसकी विश्वसनीयता होती है। मगर सरकारें जब उसके मूल स्वभाव को ही बदलने का प्रयास करती हैं, तो उसकी विश्वसनीयता पर प्रहार करती हैं। ऐसे में पत्रकारिता लोकतंत्र का चौथा स्तंभ न होकर प्रचारतंत्र में तब्दील होने लगती है। पत्रकारिता आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक विसंगतियों को दूर करने में मदद करती है। उसका लाभ उठाने के बजाय अगर उसका गला घोटने का प्रयास होगा, तो सही अर्थों में विकास का दावा नहीं किया जा सकता, नया भारत-सशक्त भारत निर्मित नहीं किया जा सकता। अगर कोई सरकार सचमुच उदारवादी और लोकतांत्रिक होगी, तो वह आलोचना से कुछ सीखने का प्रयास करेगी। प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने भी हिन्दी पत्रकारिता के प्रति हमारे अविश्वसनीय समर्थन को दोहराने की बात कही है जो लोकतंत्र के लिए बेहद जरूरी है।’
हिन्दी पत्रकारिता कभी मिशन था, आज व्यवसाय बन गया है। आजादी के आंदोलन तक मिशन रहा। धीरे−धीरे इसमें व्यापारी आने लगे। औद्योगिक घराने उतर गए। इनका उद्देश्य समाज सेवा नही रहा, व्यापार हो गया। ये व्यापार करने लगे। वह छापने लगे जिससे इन्हें लाभ हो। डिजिटल युग में टीआरपी और व्यूज़ ही सफलता का पैमाना बन गए हैं। गंभीर पत्रकारिता की जगह सनसनीखेज खबरें, गॉसिप, और ‘डिबेट तमाशों’ ने ले ली है। तथ्य की जगह धारणा, विश्लेषण की जगह उत्तेजना, और संवाद की जगह शोर ने कब्जा कर लिया है। एंकर शोर मचाकर चीखकर पाठकों को आकर्षित करन में लगे हैं। हिन्दी पत्रकारिता ऐसी अनेक चुनौतियों एवं विसंगतियों का सामना कर रही है। बीते कुछ वर्षों में पत्रकारिता का स्तर चिंताजनक रूप से गिरा है, जबकि पत्रकारों की प्रसिद्धि, प्रभाव और पहुंच पहले से कहीं अधिक बढ़ी है। यह विरोधाभास क्यों? पत्रकार बड़े होते जा रहे हैं, पर पत्रकारिता एवं उसके मूल्य-मानक क्यों सिकुड़ रहे है? आज फेसबुक पत्रकार, न्यूज पोर्टल चलाने वाले पत्रकार, यूट्यूब चैनल चलाने वाले पत्रकारों की देश में बाढ़ सी आ गई है। टीवी पत्रकारिता का वर्चस्व बढ़ रहा है, बड़े एवं बहु-संस्करणों के दैनिक अखबार भी तेजी से बढ़ रहे हैं। आन लाइन समाचार पत्रों की रोज गिनती बढ़ती जा रही है। जिसे देखो पत्रकारिता कर रहा है। इतना सब होने के बावजूद पिछले कुछ साल में खबर एवं हिन्दी पत्रकारिता की विश्वसनीय घटी है। पत्रकारिता का स्तर गिरा है। पत्रकार का सम्मान घटा है। पहले माना जाता कि अखबार में छपा है तो सही होगा, किंतु मीडिया में आई खबर की आज कोई गारंटी देने को तैयार नहीं। पहले हिन्दी पत्रकारिता वैचारिक-क्रांति होती थी, आज खबर प्रधान बन गयी है, विचार लुप्त है। हिन्दी पत्रकारिता दिवस मनाना तभी सार्थक होगा जब उसे व्यवसाय नहीं, मिशन के तौर पर नये व्यक्ति, नये समाज, नये राष्ट्र का प्रेरक बनायेंगे। 

‘देशहित’ से ही बचेगी पत्रकारिता की साख

– लोकेन्द्र सिंह 

‘हिंदुस्थानियों के हित के हेत’ इस उद्देश्य के साथ 30 मई, 1826 को भारत में हिंदी पत्रकारिता की नींव रखी जाती है। पत्रकारिता के अधिष्ठाता देवर्षि नारद के जयंती प्रसंग (वैशाख कृष्ण पक्ष द्वितीया) पर हिंदी के पहले समाचार-पत्र ‘उदंत मार्तंड’ का प्रकाशन होता है। इस सुअवसर पर हिंदी पत्रकारिता का सूत्रपात होने पर संपादक पंडित युगलकिशोर समाचार-पत्र के पहले ही पृष्ठ पर अपनी प्रसन्नता प्रकट करते हुए उदंत मार्तंड का उद्देश्य स्पष्ट करते हैं। आज की तरह लाभ कमाना उस समय की पत्रकारिता का उद्देश्य नहीं था। भारत की स्वतंत्रता से पूर्व प्रकाशित ज्यादातर समाचार-पत्र आजादी के आंदोलन के माध्यम बने। अंग्रेज सरकार के विरुद्ध मुखर रहे। यही रुख उदंत मार्तंड ने अपनाया। अत्यंत कठिनाईयों के बाद भी पंडित युगलकिशोर उदंत मार्तंड का प्रकाशन करते रहे। किंतु, यह संघर्ष लंबा नहीं चला। हिंदी पत्रकारिता के इस बीज की आयु 79 अंक और लगभग डेढ़ वर्ष रही। इस बीज की जीवटता से प्रेरणा लेकर बाद में हिंदी के अन्य समाचार-पत्र प्रारंभ हुए। आज भारत में हिंदी के समाचार-पत्र सबसे अधिक पढ़े जा रहे हैं। प्रसार संख्या की दृष्टि से शीर्ष पर हिंदी के समाचार-पत्र ही हैं। किंतु, आज हिंदी पत्रकारिता में वह बात नहीं रह गई, जो उदंत मार्तंड में थी। संघर्ष और साहस की कमी कहीं न कहीं दिखाई देती है। दरअसल, उदंत मार्तंड के घोषित उद्देश्य ‘हिंदुस्थानियों के हित के हेत’ का अभाव आज की हिंदी पत्रकारिता में दिखाई दे रहा है। हालाँकि, यह भाव पूरी तरह समाप्त नहीं हुआ है, लेकिन बाजार के बोझ तले दब गया है। व्यक्तिगत तौर पर मैं मानता हूँ कि जब तक अंश मात्र भी ‘देशहित’ पत्रकारिता की प्राथमिकता में है, तब तक ही पत्रकारिता जीवित है। आवश्यकता है कि प्राथमिकता में यह भाव पुष्ट हो, उसकी मात्रा बढ़े। समय आ गया है कि एक बार हम अपनी पत्रकारीय यात्रा का सिंहावलोकन करें। अपनी पत्रकारिता की प्राथमिकताओं को जरा टटोलें। समय के थपेडों के साथ आई विषंगतियों को दूर करें। समाचार-पत्रों या कहें पूरी पत्रकारिता को अपना अस्तित्व बचाना है, तब उदंत मार्तंड के उद्देश्य को आज फिर से अपनाना होगा। अन्यथा सूचना के डिजिटल माध्यम बढ़ने से समूची पत्रकारिता पर अप्रासंगिक होने का खतरा मंडरा ही रहा है।   

              असल में आज की पत्रकारिता के समक्ष अनेक प्रकार की चुनौतियां मुंहबांए खड़ी हैं। यह चुनौतियां पत्रकारिता के मूल सिद्धांतों से डिगने के कारण उत्पन्न हुई हैं। पूर्वजों ने जो सिद्धांत और मूल्य स्थापित किए थे, उनको साथ लेकर पत्रकारिता मिशन से प्रोफेशन की ओर जाती, तब संभवत: कम समस्याएं आतीं। क्योंकि मूल्यों और सिद्धांतों की उपस्थिति में प्रत्येक व्यवसाय में मर्यादा और नैतिकता का ख्याल रखा जाता है। किंतु, जैसे ही हम तय सिद्धांतों से हटते हैं, मर्यादा को लांघते हैं, तब स्वाभाविक तौर पर चुनौतियां सामने आने लगती हैं। नैतिकता के प्रश्न भी खड़े होने लगते हैं। यही आज मीडिया के साथ हो रहा है। मीडिया के समक्ष अनेक प्रश्न खड़े हैं। स्वामित्व का प्रश्न। भ्रष्टाचार का प्रश्न। मीडिया संस्थानों में काम करने वाले पत्रकारों के शोषण, स्वाभिमान और स्वतंत्रता के प्रश्न हैं। वैचारिक पक्षधरता के प्रश्न हैं। ‘भारतीय भाव’ को तिरोहित करने का प्रश्न। इन प्रश्नों के कारण उत्पन्न हुआ सबसे बड़ा प्रश्न- विश्वसनीयता का है।  

यह सब प्रश्न उत्पन्न हुए हैं पूँजीवाद और कम्युनिज्म के उदर से। सामान्य-सा फलसफा है कि बड़े लाभ के लिए बड़ी पूँजी का निवेश किया जाता है। आज अखबार और न्यूज चैनल का संचालन कितना महंगा है, हम सब जानते हैं। अर्थात् मौजूदा दौर में मीडिया पूँजी का खेल हो गया है। एक समय में पत्रकारिता के व्यवसाय में पैसा ‘बाय प्रोडक्ट’ था। लेकिन, उदारीकरण के बाद बड़ा बदलाव मीडिया में आया है। ‘बाय प्रोडक्ट’ को प्रमुख मान कर अधिक से अधिक धन उत्पन्न करने के लिए धन्नासेठों ने समाचारों का ही व्यवसायीकरण कर दिया है। यही कारण है कि मीडिया में कभी जो छुट-पुट भ्रष्टाचार था, अब उसने संस्थागत रूप ले लिया है। वहीं, कम्युनिस्टों ने अपनी विचारधारा के प्रसार और भारतीयता को कमजोर करने के लिए पत्रकारिता को एक साधन के रूप में अपनाया। आज भी मीडिया में कम्युनिस्टों की पकड़ साफ दिखायी देती है। इसलिए वे जब चाहते हैं, भारत विरोधी विमर्श खड़े कर देते हैं।

इस्लामिक आक्रामकता पर पर्दा डालने और हिन्दुओं को सांप्रदायिक सिद्ध करने में कम्युनिस्ट पत्रकारों ने ऐड़ी-चोटी का जोर लगाया है। अभी हाल ही में भोपाल में ‘लव जिहाद’ का बड़ा मामला सामने आया, जिसमें आरोपी मुस्लिम लड़के भी स्वीकार कर रहे हैं कि हिन्दू लड़कियों को धोखे स फंसाना और उनका यौन शोषण करना, उनके लिए सवाब का काम है। जब हिन्दी के प्रमुख समाचारपत्रों ने मुस्लिम लड़कों की इस स्वीकारोक्ति को प्रकाशित किया, तब कम्युनिस्ट माइंडसेट के मीडियाकर्मियों को बहुत बुरा लगा। उन्होंने अपने संस्थानों के डिजिटल एवं प्रिंट संस्थानों में इसके खिलाफ लिखना शुरू कर दिया। मतलब सच सामने नहीं आना चाहिए। भले ही हिन्दू लड़कियां मजहबी दरिंदों का शिकार होती रहें। पता नहीं उन्हें सच्ची बात लिखना, सांप्रदायिकता और मुस्लिम विरोध क्यों लगता है? इस्लामिक अपराध पर पर्दा डालने के लिए इसी प्रकार के कम्युनिस्ट एक से बढ़कर एक चालाकियां दिखाते हैं। जब कोई मौलवी दुष्कर्म या किसी आपराधिक कृत्य में पकड़ा जाता है, तब ये उसके लिए मौलवी या औलिया नहीं अपितु साधु या बाबा शब्द का उपयोग करते हैं। लोगों को इसी प्रकार भ्रमित करने की पत्रकारिता कम्युनिस्टों ने की है। हिन्दुओं की मॉब लिंचिंग के समाचार को सिंगल कॉलम में कहीं छिपा दिया जाता है, जबकि मुस्लिम व्यक्ति की मॉब लिंचिंग पर भारत से लेकर अमेरिका तक के समाचारपत्रों के प्रथम पृष्ठ से लेकर संपादकीय पृष्ठ तक रच दिए जाते हैं। यह दोहरा आचरण ही दोनों समुदायों के बीच नफरत फैलाता है।

ऐसे ही कुछ तथाकथित विद्वानों ने यह भ्रम भी पैदा कर दिया है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में पत्रकारिता की भूमिका विपक्ष की है। जिस प्रकार विपक्ष ने हंगामा करने और प्रश्न उछालकर भाग खड़े होने को ही अपना कर्तव्य समझ लिया है, ठीक उसी प्रकार कुछ पत्रकारों ने भी सनसनी पैदा करना ही पत्रकारिता का धर्म समझ लिया है। लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ की विराट भूमिका से हटाकर न जाने क्यों पत्रकारिता को हंगामाखेज विपक्ष बनाने का प्रयत्न किया जा रहा है? यह अवश्य है कि लोकतंत्र में संतुलन बनाए रखने के लिए चारों स्तम्भों को परस्पर एक-दूसरे की निगरानी करनी है। पत्रकारिता को भी सत्ता के कामकाज की समीक्षा करनी है और उसको आईना दिखाना है। हम पत्रकारिता की इस भूमिका को देखते हैं, तब हमें वह हंगामाखेज नहीं अपितु समाधानमूलक दिखाई देती है। भारतीय दृष्टिकोण से जब हम संचार की परंपरा को देखते हैं, तब प्रत्येक कालखंड में संचार का प्रत्येक स्वरूप लोकहितकारी दिखाई देता है। संचार का उद्देश्य समस्याओं का समाधान देना रहा है।

पत्रकारिता का केवल एक ही पक्ष होना चाहिए- देशहित। कलम का जनता के पक्ष और देशहित में चलना ही उसकी सार्थकता है। पत्रकारिता में हमें जरूर ध्यान रखना चाहिए कि हमारे शब्दों एवं प्रश्नों से राष्ट्र की प्रतिष्ठा पर आँच न आए। हमारी कलम से निकल बहने वाली पत्रकारिता की धारा भारतीय स्वाभिमान, सम्मान और सुरक्षा के विरुद्ध न हो। कहने का अभिप्राय इतना-सा है कि हमारी पत्रकारिता में ‘राष्ट्र सबसे पहले’ का भाव जागृत होना चाहिए। वर्तमान पत्रकारिता में इस भाव की अनुपस्थिति दिखाई दे रही है। यदि पत्रकारिता में ‘राष्ट्र सबसे पहले’ का भाव जाग गया तब पत्रकारिता के समक्ष आकर खड़ी हो गईं ज्यादातर चुनौतियां स्वत: ही समाप्त हो जाएंगी। हिंदी के पहले समाचार पत्र उदंत मार्तंड का जो ध्येय वाक्य था- ‘हिंदुस्थानियों के हित के हेत’। अर्थात् देशवासियों का हित-साधन। यही तो ‘राष्ट्र सबसे पहले’ का भाव है। समाज के सामान्य व्यक्ति के हित की चिंता करना। उसको न्याय दिलाना। उसकी बुनियादी समस्याओं को हल करने में सहयोगी होना। न्यायपूर्ण बात कहना।  

एमएसपी में वृद्धि :कृषि और किसान कल्याण को गति

हाल ही में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की अध्यक्षता में आर्थिक मामलों की मंत्रिमंडलीय समिति ने विपणन(मार्केटिंग) सीजन 2025-26 के लिए 14 खरीफ फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) में वृद्धि को मंजूरी  दी है, यह कृषि और किसान कल्याण के विचार से एक स्वागत योग्य कदम कहा जा सकता है। अच्छी बात है कि आज भारत सरकार कृषि उत्पादन बढ़ाने के साथ ही साथ उत्पादन की लागत घटाने की दिशा में लगातार अपना फोकस कर रही है। बहरहाल, अच्छी बात यह भी है कि सरकार ने वित्त वर्ष 2025-26 के लिए संशोधित ब्याज छूट योजना के अंतर्गत ब्याज छूट को जारी रखने और आवश्यक निधि व्यवस्था को भी मंजूरी दी है। पाठकों को बताता चलूं कि पिछले वर्ष की तुलना में एमएसपी में सबसे अधिक वृद्धि रामतिल (820 रुपये प्रति क्विंटल) के लिए की गई है, इसके बाद रागी (596 रुपये प्रति क्विंटल), कपास (589 रुपये प्रति क्विंटल) और तिल (579 रुपये प्रति क्विंटल) के लिए एमएसपी में वृद्धि की गई है। निश्चित ही एमएसपी में वृद्धि से उत्पादकों को उनकी उपज के लिए लाभकारी मूल्य सुनिश्चित हो सकेगा। कहना ग़लत नहीं होगा कि खरीफ सीजन 2025-26 के लिए 14 खरीफ फसलों पर न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) में बढ़ोतरी का यह एक ऐतिहासिक निर्णय है। सभी फसलों की एमएसपी में वृद्धि देशभर की औसत उत्पादन लागत का कम से कम 1.5 गुना सुनिश्चित करते हुए की गई है। वास्तव में सरकार का यह निर्णय हमारे देश के किसानों को सशक्त, समृद्ध और आत्मनिर्भर बनाने तथा उनकी आय बढ़ाने की दिशा में बड़ा कदम कहा जा सकता है। उपलब्ध जानकारी के अनुसार किसानों को उनकी उत्पादन लागत पर अपेक्षित मार्जिन बाजरा (63 प्रतिशत) के मामले में सबसे अधिक होने का अनुमान है, उसके बाद मक्का (59 प्रतिशत), तुअर (59 प्रतिशत) और उड़द (53 प्रतिशत) का स्थान है. शेष फसलों के लिए, किसानों को उनकी उत्पादन लागत पर मार्जिन 50 प्रतिशत होने का अनुमान है। बहरहाल, कहना ग़लत नहीं होगा कि आज कृषि और किसान कल्याण के क्षेत्र में लगातार काम हो रहा है। मसलन, आज किसानों को आज क्रेडिट कार्ड के तहत कम ब्याज पर ऋण उपलब्ध हो रहा है। किसानों को सस्ती खाद,बीज उपलब्ध करवायें जा रहे हैं और फर्टिलाइजर पर भी सब्सिडी प्रदान की जा रही है। इतना ही नहीं, प्रधान मंत्री किसान सम्मान निधि भारत सरकार की एक पहल है, जो किसानों को न्यूनतम आय सहायता के रूप में प्रति वर्ष ₹6,000 तक देती है। पाठकों को बताता चलूं कि इस पहल की घोषणा पीयूष गोयल ने 1 फरवरी 2019 को भारत के अंतरिम केंद्रीय बजट 2019 के दौरान की गई थी। हाल फिलहाल, फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) में वृद्धि के तहत सामान्य धान के लिए एमएसपी में 3% की वृद्धि की गई है, जो अब ₹2,369 प्रति क्विंटल निर्धारित की गई है, जबकि ग्रेड ए किस्म ₹2,389 प्रति क्विंटल पर उपलब्ध होगी। ये पिछले वर्ष की तुलना में ₹69 की वृद्धि को दर्शाती है। दालों में, तुअर (अरहर) के लिए एमएसपी को ₹450 बढ़ाकर ₹8,000 प्रति क्विंटल कर दिया गया है, जबकि उड़द में ₹400 की वृद्धि करके ₹7,800 प्रति क्विंटल कर दिया गया है। मूंग के एमएसपी को एडजस्ट किया गया है, जो ₹86 बढ़ाकर ₹8,768 प्रति क्विंटल कर दिया गया है। बहरहाल, अच्छी बात है कि सरकार ने खरीफ की फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य की घोषणा जरूर कर दी है लेकिन अब जरूरत इस बात की है कि सरकार इस पर प्रभावी निगरानी रखें और यह सुनिश्चित करें कि इसका क्रियान्वयन भी धरातल पर सही तरीके से हो सके। इसके साथ ही सरकार को विभिन्न दीर्घकालिक कृषि सुधारों पर भी ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता है। पाठक जानते हैं कि भारत विश्व का एक बड़ा कृषि प्रधान देश है और यहां की अर्थव्यवस्था कृषि पर आधारित है। ऐसे में फसलों के समर्थन मूल्यों में बढ़ोत्तरी से भारतीय कृषि क्षेत्र निश्चित ही मजबूत और सुदृढ़ हो सकेगा। बहरहाल, यहां पाठकों को बताता चलूं कि एमएसपी यानी कि न्यूनतम समर्थन मूल्य व्यवस्था की स्थापना वर्ष 1965 में कृषि मूल्य आयोग (एपीसी) (जिसे बाद में सीएसीपी नाम दिया गया) की स्थापना करके की गई थी, जो राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा को बढ़ाने और किसानों को बाजार मूल्यों में महत्वपूर्ण गिरावट से बचाने के लिए बाजार हस्तक्षेप का एक रूप था। दूसरे शब्दों में कहें तो एमएसपी दरअसल वह तयशुदा मूल्य होता है, जो किसानों को बाजार में उनकी उपज के मूल्य से अप्रभावित रहते हुए दिया जाता है। पाठकों को बताता चलूं कि न्यूनतम समर्थन मूल्य या यूं कहें कि एमएसपी का फायदा यह होता है कि बाजार में फसलों की कीमतों में भले ही कितना ही उतार चढ़ाव क्यों न हो, यदि किसी फसल की एमएसपी(न्यूनतम समर्थन मूल्य) तय होती है तो भी किसान को फसल का न्यूनतम समर्थन मूल्य (सरकार द्वारा तय) तो मिलता ही है। मतलब यह है कि बाजार में फसलों की कीमतों में होने वाले उत्तार-चढ़ाव का असर किसानों पर नहीं पड़ता है। गौरतलब है कि  फसलों के हर मौसम से पहले सरकार कृषि लागत एवं मूल्य आयोग (सीएसीपी) की सिफारिश पर एमएसपी(न्यूनतम समर्थन मूल्य) तय करती है।ताजा निर्णय के तहत ज्वार, बाजरा और रागी इत्यादि फसलों की एमएसपी भी बढ़ा दी गई है। विभिन्न कारणों से आज भारतीय कृषि में खेती की लागत लगातार बढ़ रही है। किसानों को असामान्य जलवायु परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है, जैसा कि भारतीय कृषि को ‘मानसून का जुआ’ कहा जाता है। वैश्विक मंदी के कारण आज बाजार भी लगातार अस्थिरता से जूझ रहे हैं। ऐसे समय में सरकार द्वारा धान एवं दालों के न्यूनतम समर्थन मूल्य में वृद्धि से जहां एक ओर देश के लाखों-करोड़ों किसान लाभान्वित हो सकेंगे, वहीं दूसरी ओर उन्हें कृषि उत्पादन बढ़ाने हेतु प्रोत्साहन मिल सकेगा। इससे देश की खाद्य सुरक्षा भी कहीं न कहीं सुनिश्चित हो सकेगी, लेकिन कहना ग़लत नहीं होगा कि एमएसपी का प्रभावी कार्यान्वयन बहुत ही जरूरी और महत्वपूर्ण है, क्यों कि बिचौलिए आज भी एक बड़ी समस्या हैं। अंत में यही कहूंगा कि किसान और कृषि भारत की अर्थव्यवस्था की असली रीढ़ हैं। आज जरूरत इस बात की है कि खेती से बिचौलियों की भूमिका को खत्म करने की दिशा में आवश्यक व जरूरी कदम उठाए जाएं। कृषि क्षेत्र में आज फसलों के भंडारण की समस्या भी बहुत बड़ी समस्या है। हमारे यहां विदेशों की भांति पारदर्शी खरीद तंत्र विकसित नहीं है। फसलों की बाजार तक पहुंच भी सुनिश्चित करने की आवश्यकता है। आज भारतीय कृषि में दीर्घकालिक सुधारों की आवश्यकता है। यहां पाठकों को बताता चलूं कि कृषि में दीर्घकालिक सुधार का अर्थ है एक ऐसी प्रणाली विकसित करना जो खाद्य उत्पादन, प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण और पर्यावरण को ध्यान में रखते हुए, कृषि क्षेत्र को टिकाऊ और लाभदायक बना सके।इस सुधार में भूमि पुनर्जनन, जैव विविधता का संरक्षण, और नई तकनीकों(सिंचाई, गुणवत्तापूर्ण बीज, तकनीकी सहायता व प्रशिक्षण) का उपयोग शामिल है।

सुखद है 199 वर्षों का हिन्दी पत्रकारिता का इतिहास

हिन्दी पत्रकारिता दिवस (30 मई) पर विशेष
जनसंचार का सशक्त माध्यम है हिन्दी पत्रकारिता
– योगेश कुमार गोयल

पूर्व राष्ट्रपति डा. शंकर दयाल शर्मा ने लोकतंत्र में प्रेस की भूमिका के बारे में कहा था कि प्रेस पर लोकतांत्रिक परम्पराओं की रक्षा करने और शांति व भाईचारा बढ़ाने की सबसे बड़ी जिम्मेदारी है। राष्ट्रीय अखण्डता के संदर्भ में पत्रकारिता की भूमिका की बात करें तो लोकतंत्र के अन्य स्तंभों के मुकाबले प्रेस की भूमिका कितनी महत्वपूर्ण है, इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि विश्वभर में भारत की प्रतिष्ठा के जो तीन प्रमुख कारण माने गए हैं, वे हैं जागरूक मतदाता, स्वतंत्र न्यायपालिका व स्वतंत्र प्रेस। भारत में प्रेस को जनता की एक ऐसी ‘संसद’ की उपाधि दी गई है, जिसका कभी सत्रावसान नहीं होता और जो सदैव जनता के लिए ही कार्य करती है। इसे समाज में परिवर्तन लाने का अथवा उसे जागृत करने के लिए जन संचार का सशक्त माध्यम माना गया है। प्रेस को समाज की चिंतन प्रक्रिया का एक ऐसा अनिवार्य तत्व माना गया है, जो उसे दिशा व गति देने में सक्षम हो। इसे जनता की ऐसी आंख माना गया है, जो सभी पर अपनी पैनी और निष्पक्ष दृष्टि रखे। प्रेस को जनता की उंगली माना गया है, जो गलत कार्यों के विरोध में स्वतः ही उठ जाती है। प्रेस को समाज के प्रति पूर्ण समर्पण के रूप में देखा जाता है। इसे केवल एक पेशा न मानकर जनसेवा का सबसे बड़ा माध्यम माना गया है।
प्रेस की भूमिका पर टिप्पणी करते हुए राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने कहा था, ‘‘प्रेस का प्रथम उद्देश्य जनता की इच्छाओं व विचारों को समझना और उन्हें सही ढ़ंग से व्यक्त करना है जबकि दूसरा उद्देश्य जनता में वांछनीय भावनाओं को जागृत करना और तीसरा उद्देश्य सार्वजनिक दोषों को निर्भयतापूर्वक प्रकट करना है।’’ वैसे भारत-पाक युद्ध का उल्लेख करें अथवा भारत-चीन लड़ाई का या अन्य चुनौतीपूर्ण अवसरों का, प्रेस ने ऐसे हर अवसर पर अपनी महत्ता सिद्ध की है और कहना गलत न होगा कि हिन्दी पत्रकारिता का स्थान इसमें सर्वोपरि रहा है। चाहे हिन्दी भाषी टीवी चैनलों की बात हो या हिन्दी के समाचारपत्र अथवा पत्रिकाओं की, उनका देश की बहुसंख्यक आबादी के साथ विशेष जुड़ाव रहा है और इस दृष्टि से राष्ट्र की एकता, अखण्डता एवं विकास की दिशा में हिन्दी पत्रकारिता की भूमिका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। हालांकि हिन्दी पत्रकारिता के 199 वर्षों के इतिहास में समय के साथ पत्रकारिता के मायने और उद्देश्य बदलते रहे हैं किन्तु उसके बावजूद सुखद स्थिति यह है कि हिन्दी पत्रकारिता के पाठकों या दर्शकों की रूचि में कोई कमी नहीं आई। यह अलग बात है कि अंग्रेजी मीडिया और उससे जुड़े कुछ पत्रकारों ने भले ही हिन्दी पत्रकारिता की उपेक्षा करते हुए सदैव उसकी प्रामाणिकता एवं विश्वसनीयता पर सवाल उठाने की कोशिशें की हैं किन्तु वास्तविकता यही है कि पिछले कुछ दशकों में हिन्दी पत्रकारिता ने अपनी ताकत का बखूबी अहसास कराया है और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी उसकी विश्वसनीयता बढ़ी है। यह हिन्दी पत्रकारिता की बढ़ती ताकत का ही नतीजा है कि कुछ हिन्दी अखबारों ने अनेक संस्करणों के साथ प्रसार संख्या के मामले में कुछ अंग्रेजी अखबारों को भी पीछे छोड़ दिया है।
हिन्दी पत्रकारिता की शुरूआत 30 मई 1826 को कानपुर निवासी पं. युगुल किशोर शुक्ल द्वारा प्रथम हिन्दी समाचार पत्र ‘उदन्त मार्तण्ड’ के प्रकाशन के साथ हुई थी, जिसका अर्थ था ‘समाचार सूर्य’। उस समय अंग्रेजी, फारसी और बांग्ला में कई समाचारपत्र निकल रहे थे किन्तु हिन्दी का पहला समाचारपत्र ‘उदन्त मार्तण्ड’ 30 मई 1826 को कलकत्ता से पहली बार प्रकाशित हुआ था, जो साप्ताहिक के रूप में आरंभ किया गया था। पहली बार उसकी केवल 500 प्रतियां ही छापी गई थी लेकिन चूंकि कलकत्ता में हिन्दी भाषियों की संख्या काफी कम थी और इसके पाठक कलकत्ता से बहुत दूर के भी होते थे, इसीलिए संसाधनों की कमी के कारण यह लंबे समय तक प्रकाशित नहीं हो पाया। 4 दिसम्बर 1826 से ‘उदन्त मार्तण्ड’ का प्रकाशन बंद कर दिया गया लेकिन इस समाचारपत्र के प्रकाशन के साथ ही हिन्दी पत्रकारिता की ऐसी नींव रखी जा चुकी थी कि उसके बाद से हिन्दी पत्रकारिता ने अनेक आयाम स्थापित किए हैं। ‘उदन्त मार्तण्ड’ के बाद अंग्रेजी शासनकाल में अनेक हिन्दी समाचारपत्र व पत्रिकाएं एक मिशन के रूप में निकलते गए किन्तु ब्रिटिश शासनकाल की ज्यादतियों के चलते उन्हें लंबे समय तक चलाते रहना बड़ा मुश्किल था, फिर भी कुछ पत्र-पत्रिकाओं ने सराहनीय सफर तय किया। अब परिस्थितियां बिल्कुल बदल चुकी हैं और हिन्दी पत्रकारिता भी मिशन न रहकर एक बड़ा व्यवसाय बन गई है किन्तु अच्छी बात यह है कि आज भी हिन्दी पाठक व दर्शक अपनी-अपनी पसंद के अखबारों व चैनलों के साथ पूरी शिद्दत से जुड़े हैं।
बहरहाल, घर बैठे-बैठे दुनिया की सैर कराने की बात हो या देश-विदेश की हर छोटी-बड़ी हलचल से लेकर तमाम ज्वलंत मुद्दों और हर प्रकार की नवीनतम जानकारियों को जुटाकर अपने पाठकों या दर्शकों के सामने प्रस्तुत करने की, व्यवसायीकरण के आरोपों या तमाम विरोधाभासों के बावजूद हिन्दी पत्रकारिता यह काम बखूबी कर रही है और आमजन के भरोसे पर खरा उतरते हुए हिन्दी पत्रकारिता आज आम जनजीवन का अभिन्न अंग बन चुकी है। अधिकांश हिन्दी समाचारपत्रों के अब ऑनलाइन संस्करण उपलब्ध हैं। विगत कुछ वर्षों में देश में बड़े-बड़े घोटालों का पर्दाफाश करके अनेक सफेदपोशों के चेहरों पर पड़े नकाब उतार फैंकने का श्रेय भी पत्रकारिता जगत को ही जाता है, जिसमें हिन्दी पत्रकारिता की भूमिका को भी किसी भी लिहाज से कमतर नहीं आंका जा सकता।
जहां तक राष्ट्रीय अखंडता में प्रेस की भूमिका और इसके दायित्वों का प्रश्न है तो प्रेस के कई प्रमुख दायित्व माने गए हैं, जिनमें कानून व्यवस्था की खामियों को प्रकाशित-प्रसारित करना, अपने प्रयासों से शासन को सुव्यवस्थित करना व लोक हितकारी बनाना, पथभ्रष्टों को सन्मार्ग पर लाना, भ्रष्ट तंत्र को चौकन्ना बनाना, असामाजिक तत्वों पर कड़ी नजर रखना, समाज के विभिन्न क्षेत्रों में पर्दे की ओट में होने वाले दुष्कृत्यों, अत्याचारों व अन्याय का जनहित में पर्दाफाश करना, समाज व मानवता के गुनाहगार चेहरों पर पड़े नकाब नोचकर जनता के सामने लाना, निजी स्वार्थों की पूर्ति के लिए धार्मिकता एवं राजनीति की आड़ लेने वालों के राज पर्दाफाश करना, समाज में स्वस्थ मानक स्थापित करना, लोक चेतना जागृत करना इत्यादि शामिल हैं। वर्तमान में जहां देशभर में नैतिक मूल्यों में बड़ी गिरावट आई है और राजनीतिज्ञों, विधायिका, कार्यपालिका तथा न्यायिक व्यवस्था पर से लोगों का विश्वास कम हो रहा है, वहीं हिन्दी पत्रकारिता भी इस नैतिक पतन का शिकार होने से नहीं बची है। फिर भी इतना संतोष तो किया ही जा सकता है कि इसने इसके बावजूद अधिकांश अवसरों पर सराहनीय भूमिका निभाई है। हालांकि आज के पूर्ण व्यावसायिकता के दौर में पत्रकारिता को अव्यावसायिक बनाए रखने की बात करना बेमानी होगा क्योंकि इस पेशे से जुड़े लोगों को भी अपने परिवार के पालन-पोषण के लिए इसे एक व्यवसाय के रूप में अपनाना अनिवार्य होता गया है लेकिन व्यावसायिकता के इस दौर में भी इसे एक उद्योग-धंधे के रूप में स्थापित करने के प्रयासों के चलते पत्रकारिता के मानदंडों को ताक पर रखने की प्रवृति से तो हर हाल में बचना ही चाहिए।

रक्षा में आत्मनिर्भरता के बढ़ते कदमों से बढ़ती सैन्य-ताकत

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– ललित गर्ग –

ऑपरेशन सिंदूर की शानदार कामयाबी, पाकिस्तान को करारी चोट पहुंचाने, विश्व को भारत की सैन्य ताकत दिखाने और अपने सैनिकों के अद्भुत पराक्रम के प्रदर्शन की गौरवपूर्ण स्थितियों के बीच एक बड़ी खुशखबरी है कि भारत सरकार ने पांचवीं पीढ़ी के स्वदेशी लड़ाकू विमान (एडवांस्ड मीडियम कॉम्बैट एयरक्राफ्ट यानी एएमसीए) के प्रोडक्शन मॉडल को मंजूरी देते हुए इस परियोजना पर आगे बढ़ने को हरी झंडी दिखा दी है। निश्चित ही इस फैसले से दुनिया की महाशक्तियां चौंकी है, वहीं यह भारतवासियों के लिये एक नई आशा एवं संभावनाभरी खुशखबरी है। क्योंकि दुनिया की महाशक्ति बनने के लिये सैन्य साजो-सामान की दृष्टि से आत्म निर्भर होना प्रथम प्राथमिकता है। दुनिया पर वर्चस्व स्थापित करने का यह सबसे बड़ा आधार है कि हम सैन्य साजो सामान में स्वावलम्बी ही नहीं, निर्यातक बने। क्योंकि उन्हें दूसरे देशों से खरीदने में विदेशी पूंजी का व्यय होने के साथ कई तरह के दबावों का भी सामना करना पड़ता है। दूसरे देश अपनी शर्तों पर ये हमें उपलब्ध कराते हैं, अर्थ का व्यय भी स्वदेशी उत्पादन की तुलना में बहुत ज्यादा करना पड़ता है। जबसे रक्षा सामग्री के निर्माण में निजी क्षेत्र की भागीदारी बढ़ाई गई है, तब से भारत का रक्षा निर्यात तेजी से बढ़ा है। रक्षा मंत्रालय के ताजा फैसले के बाद सरकारी और निजी क्षेत्र की कंपनियों के शेयर जिस तरह उछले, उससे यही पता चलता है कि देश रक्षा क्षेत्र में आत्मनिर्भर होने के लिए नई दिशाओं को उद्घाटित कर रहा है।
निश्चित ही पांचवीं पीढ़ी के उन्नत लड़ाकू विमानों का देश में ही निर्माण करने और उसमें निजी क्षेत्र का सहयोग लेने की रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह की घोषणा एक ऐसा फैसला है, जो दूरगामी एवं देशहित का सराहनीय कदम है। ऐसे फैसलों में बिना विलम्ब के प्रोत्साहन एवं सहयोग होना चाहिए। हमें निश्चित करना चाहिए कि आधुनिक लड़ाकू विमानों के निर्माण तय समय में हो, इसके लिए हरसंभव उपाय किए जाने चाहिए। ऐसे फैसलों से भारत की ताकत बढ़ती है, दुनिया की अधीनता कमतर होती है। गौरतलब है, अभी तक अमेरिका, रूस और चीन ने ही पांचवीं पीढ़ी के स्वदेशी लड़ाकू विमान बनाने में सफलता हासिल की है। इस योजना के जरिये दुनिया को यह संदेश देना है कि भारत अब पांचवीं पीढ़ी का लड़ाकू विमान खरीदने की बजाय खुद बनाने का काम करेगा। इस स्वदेशी विमान के डिजाइन और विकास के लिए सुरक्षा मामलों की कैबिनेट समिति ने हाल ही में पन्द्रह हजार करोड़ रुपये की राशि मंजूर की थी। अब रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन (डीआरडीओ) की एयरोनॉटिकल डेवलपमेंट एजेंसी (एडीए) इस प्रोजेक्ट का नेतृत्व करेगी और डीआरडीओ के मुखिया की मानें, तो अगले एक दशक में यह लड़ाकू विमान भारतीय वायु सेना के बेड़े का हिस्सा होगा। निस्संदेह, हमारे रक्षा वैज्ञानिकों की सराहना की जानी चाहिए कि उनके अथक परिश्रम, तकनीकी कौशल और मेधा के कारण देश जल्द ही सुरक्षा साजो-सामान के मामले में भी आत्म-निर्भर बन जाएगा। इन स्थितियों के लिये जहां रक्षामंत्री राजनाथ सिंह की सराहना होनी चाहिए वही प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व का लोहा मानना चाहिए।
मौजूदा समय में भारत लड़ाकू विमान के मामले में दूसरे देशों पर निर्भर है। सरकार ने इस दिशा में भी आत्मनिर्भरता हासिल करने के लिए बड़ा कदम उठाया है। इस फैसले से घरेलू एयरोस्पेस इंडस्ट्री को सशक्त बनाने में मदद मिलेगी। एएमसीए का विकास भारतीय वायु सेना की लड़ाकू क्षमताओं को मजबूत करने और देश की रक्षा को बढ़ावा देने में मील का पत्थर साबित होगा। पडोसी देशों की हरकतों, युद्ध की संभावनाओं एवं षडयंत्रों को देखते हुए आने वाले समय में होने वाले युद्ध में वायुसेना की क्षमता और तकनीक को अधिक सशक्त बनाने की अपेक्षा है। भारत हमेशा से एक शांतिकामी मुल्क रहा है, मगर अपनी सरहदों व विशाल आबादी की सुरक्षा के लिए वह दूसरे देशों के हथियारों या सुरक्षा उपकरणों पर पूरी तरह निर्भर नहीं रह सकता। विदेशी लड़ाकू विमानों या हथियारों की खरीद में उनके तकनीकी हस्तांतरण को लेकर कई तरह की पेचीदगियां पेश आती हैं। कई देश उन्नत रक्षा उपकरण तो दे देते हैं, लेकिन उनकी तकनीक नहीं देते या फिर उनके कलपुर्जे देने में देरी करते हैं। इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि पर्याप्त संख्या में तेजस लड़ाकू विमान बनाने में इसलिए विलंब हो रहा है, क्योंकि अमेरिका उनके लिए इंजन देने में आनाकानी कर रहा है। इसलिए एचएएल, डीआरडीओ की स्थापना की जरूरत मससूस की गई थी और आज इनके बनाए हथियार न सिर्फ हमारी सैन्य शक्ति का हिस्सा बन रहे हैं, बल्कि इस वजह से हमारा 20 फीसदी से भी अधिक सैन्य आयात कम हुआ है। आज हम अपने स्वदेशी लड़ाकू विमान तेजस दुनिया को बेचने की स्थिति में हैं।
मौजूदा समय में लड़ाकू विमान के लिए भारत अमेरिका और पश्चिमी देशों और रूस पर निर्भर है। देश में लड़ाकू विमानों की कमी भी है। ऐसे में सरकार स्वदेशी निर्मित आधुनिक लड़ाकू विमान के निर्माण को बढ़ावा देने की दिशा में कदम उठाकर सूझबूझ एवं दूरगामी सोच का परिचय दिया है। आज जब युद्ध के तौर-तरीके बदल रहे हैं, तब भारत को हर तरह की रक्षा सामग्री स्वदेश में ही बनाने में इसलिए सक्षम होना होगा, क्योंकि ऐसा करके ही वह सच्चे अर्थों में महाशक्ति बन सकता है। प्रारंभ में विदेशी कंपनियों का सहयोग लेने में हर्ज नहीं, क्योंकि ऐसा करके ही तेजी के साथ उन्नत रक्षा समाग्री का निर्माण किया जा सकता है। भारत आधुनिक रक्षा उपकरण एवं तकनीक का निर्माण करने में सक्षम है, इसे आपरेशन सिंदूर ने साबित भी कर दिया। हमारे रक्षा उपकरणों और तकनीक ने जिस तरह तुर्किये के ड्रोन की हवा निकालने के साथ चीनी एयर डिफेंस की पोल खोल दी, उसे विश्व भर के रक्षा विशेषज्ञ भी मान रहे हैं। रूस के सहयोग से बनी ब्रह्मोस मिसाइल और स्वदेशी तकनीक पर आधारित आकाश ने सिद्ध किया कि हमारे रक्षा विज्ञानी किसी से कम नहीं। उन्हें भरपूर प्रोत्साहन देने की आवश्यकता है।
भारत की रक्षा सेना दुनिया में सबसे शक्तिशाली और सम्मानित सेनाओं में से एक है, जो अपने आकार, ताकत और उन्नत तकनीक के साथ वैश्विक मंच पर धूम मचा रही है। चाहे सीमाओं पर गश्त करना हो, आसमान की सुरक्षा करनी हो या विशाल हिंद महासागर को सुरक्षित रखना हो, भारत की सेना एक ऐसी ताकत है जिसका लोहा माना जाना चाहिए। भारत का लक्ष्य सिर्फ़ वैश्विक सैन्य शक्तियों के साथ बने रहनाभर नहीं है-यह उनके साथ है बल्कि अब उससे आगे भी आना है। किसी भी युद्ध या संघर्ष में वायु सेना की भूमिका निर्णायक हो चली है। हमास-इजरायल जंग हो या रूस-यूक्रेन लड़ाई, इस तथ्य को पूरी दुनिया स्वीकारती है। ऑपरेशन सिंदूर के जरिये हमारी वायु सेना ने भी दिखा दिया है कि किस सटीकता से शत्रुओं के लक्ष्य को मटियामेट करने में वह सक्षम है। ऐसे में भारतीय वायु सेना की जरूरतों पर गंभीरता से ध्यान देने की आवश्यकता है। वर्तमान में, भारत दुनिया में चौथे स्थान पर है, जो केवल संयुक्त राज्य अमेरिका, रूस और चीन से पीछे है। यह स्थान इसके उन्नत विमान, बेहतर प्रशिक्षण और रणनीतिक महत्व के संयोजन के कारण अर्जित किया गया है। बहुमुखी राफेल जेट से लेकर शक्तिशाली सुखोई अपने रास्ते में आने वाली किसी भी चुनौती से निपटने के लिए सुसज्जित है। निश्चित ही भारत ने एक ऐसा सैन्य बल बनाया है जो ध्यान आकर्षित करता है, जिसमें विशाल जनशक्ति, अत्याधुनिक तकनीक और गहन रणनीतिक फोकस का संतुलन है। यह अब सिर्फ़ एक क्षेत्रीय खिलाड़ी नहीं है; भारत खुद को एक प्रमुख वैश्विक शक्ति के रूप में स्थापित कर रहा है। भारतीय वायुसेना के पायलट दुनिया के सर्वश्रेष्ठ पायलटों में से हैं, जो न केवल हार्डवेयर बल्कि मानवीय तत्व के कारण हवाई प्रभुत्व बनाते हैं। चाहे वह सीमाओं पर खतरों का जवाब देना हो या हवाई श्रेष्ठता सुनिश्चित करना हो, भारत की वायु सेना अपनी रक्षा रणनीति में एक प्रमुख खिलाड़ी है, जो हमेशा आसमान की रक्षा के लिए तैयार रहती है।