Home Blog Page 23

आतंकवाद के वित्तपोषण पर रोक जरूरी

सुरेश हिंदुस्तानी

आतंकवाद को आश्रय देने वाले देश पाकिस्तान की असलियत को उजागर करने के लिए भारत ने बहुत बड़े रणनीतिक स्तर पर कार्य किया है। एक तरफ जहां पाकिस्तान केवल तीन ऐसे मुस्लिम देशों का समर्थन प्राप्त करने में सफल रहा है, जो उसे पहले से ही समर्थन कर रहे थे। वहीं भारत ने इससे आगे बढ़कर वैश्विक समुदाय के समक्ष पाकिस्तान को आतंकियों को संरक्षण देने वाला देश बताने में कोई संकोच नहीं किया। भारत ने विश्व के तमाम देशों में अपने प्रतिनिधि मंडल भेजकर भारत का पक्ष रखकर यह बताने का प्रयास किया है कि आतंकी हमला पाकिस्तान की ओर से किया गया। इसके विपरीत भारत की ओर से केवल जवाबी कार्यवाही ही की गई है, जिसका भारत को पूरा अधिकार है। भारत के प्रतिनिधि मंडलों की ओर से इस सच को दुनिया को बताने का प्रयास किया जा रहा है कि भारत की ओर से पाकिस्तान पर हमला नहीं किया गया, बल्कि आतंकवाद पर प्रहार किया गया। इसी बात पर भारत को विश्व समुदाय का समर्थन भी मिल रहा है। सबसे ख़ास बात यह है पाकिस्तान में जहां अपनी ही सरकार विपक्ष के निशाने पर है, वहीं भारत सरकार ने अपनी कूटनीतिक चाल चलते हुए इन प्रतिनिधि मण्डलों में सत्ता पक्ष के नेताओं के साथ ही विपक्ष के कई प्रभावी नेताओं को शामिल किया है। यही नेता विश्व के देशों में भारत का पक्ष मजबूती से रख रहे हैं। इससे स्वाभाविक रूप से विश्व बिरादरी से पाकिस्तान पर अलग थलग होने का गंभीर खतरा भी उत्पन्न हो गया है। यह बात सही है कि पाकिस्तान में आश्रय और संरक्षण प्राप्त करने वाले आतंकी आकाओं को आतंकी गतिविधियों को बढ़ाने के लिए वित्त पोषण प्राप्त होता रहा है। इसका आशय स्पष्ट है कि पाकिस्तान आतंक को समाप्त करने के लिए तैयार नहीं है। क्योंकि आतंकवादियों को जब तक वित्त पोषित कया जाता रहेगा, तब तक पाकिस्तान की ओर से आतंक फैलाने वालों पर अंकुश लगाने की कल्पना भी नहीं की जा सकती। इसलिए आतंकवाद को समाप्त करने के लिए सबसे पहले उसके वित्त पोषण पर रोक लगाना बहुत जरूरी है।

यहां यह कहना बहुत आवश्यक है कि पाकिस्तान गिड़गिड़ाकर समर्थन पाने का प्रयास कर रहा है, वहीं भारत की ओर से पाकिस्तान को अलग थलग करने का ठोस प्रयास भी किया जा रहा है। जिसमें भारत का बहुत हद तक सफलता भी मिल रही है। आज के समय में पाकिस्तान इस बात को नकारने का साहस नहीं कर सकता कि उसके देश में आतंकवादी संगठन सक्रिय नहीं हैं। क्योंकि यह तथ्य विश्व के सामने उजागर हो चुका है। आज भी पाकिस्तान में लश्कर ए तैयबा, लश्कर ए ओमर, जैश ए मोहम्मद, हरकतुल मुजाहिद्दीन, सिपाह ए सहाबा, हिज़्बुल मुजाहिदीन आदि पाकिस्तान में रहकर अपनी आतंकी गतिविधियाँ चलाते हैं। कई मामलों में आईएसआई से इन्हें सक्रिय प्रशिक्षण एवं अन्य सहयोग भी मिलते हैं। इतना ही नहीं कई बार सेना और सरकार का भी खुला संरक्षण भी इनको मिलता रहा है। पाकिस्तान सरकार की मानें तो उसके यहां 20 से अधिक आतंकी संगठन सक्रिय हैं, जबकि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद इस संख्या को 150 से अधिक तक बताता है। वहीं, अमेरिकी स्टेट डिमार्टमेंट के मुताबिक यह संख्या 70 से अधिक है। वैश्विक समुदाय के दबाव में पाकिस्तान कई बार आतंकी समूहों के विरोध में कार्यवाही करने की बात करता है, लेकिन वहीं दूसरी ओर सेना और राज्य सरकारों की ओर से आतंकी संगठनों को खाद पानी प्राप्त होता रहता है। इससे पता चलता है कि पाकिस्तान में आतंकवाद की जड़ें बहुत ही गहरी हैं।

वैश्विक समुदाय को पाकिस्तान की वास्तविकता बताने के लिए भारत की ओर से ठोस रणनीति बनाकर कार्यवाही को अंजाम दिया जा रहा है। जहां पाकिस्तान सरकार को अपने ही देश के विपक्षी दलों के कोप का सामना करना पड़ रहा है, वहीं भारत सरकार के साथ विपक्ष के सांसदों ने पाकिस्तान की पोल खोलने के लिए सामूहिक वैश्विक अभियान चलाया है। इससे पाकिस्तान को यह डर सता रहा है कि कहीं पाकिस्तान एक बार फिर से ग्रे सूची में नहीं आ जाए। ऐसा इसलिए भी है, क्योंकि पाकिस्तान की तसवीर यही चित्र प्रदर्शित कर रही है। आर्थिक बदहाली के दौर से गुजर रहे पाकिस्तान में अब इतना साहस नहीं है कि वह विश्व के आर्थिक प्रतिबंधों को झेल सके। इसमें पाकिस्तान में आतंरिक विरोधाभास आग में घी डालने का कार्य कर रहा है। ब्लूचिस्तान में पाकिस्तान से अलग होने के लिए चल रहे आंदोलन में और तेजी आई है। इतना ही नहीं बीएलए ने तो कई कदम आगे बढ़कर अपने आपको स्वतंत्र देश घोषित कर दिया है। ब्लूचिस्तान का यह कदम पाकिस्तान को बहुत कमजोर करने वाला है।

पाकिस्तान के बारे में यह आम धारणा निर्मित हो चुकी है कि वह आतंकवाद को बढ़ावा देता है। इसके अलावा यहां पर आतंकवादी संगठनों को वित्त पोषित भी किया जाता है। विश्व के कई देश आतंकवाद को समाप्त करने के लिए आवाज उठा रहे हैं। लेकिन बड़ा सवाल यह है कि जब तक आतंकवाद को वित्त पोषित किया जाता रहेगा, तब तक उसे समाप्त करना कठिन है। इसलिए सबसे पहले आतंकवादी संगठनों के वित्त पोषण पर लगाम लगाने की आवश्यकता है।

सुरेश हिंदुस्तानी

दोस्ती या मौत की सैर: युवाओं की असमय विदाई का बढ़ता सिलसिला

“जब यार ही यमराज बन जाएं, तो मां-बाप किस पर भरोसा करें?”

– डॉ सत्यवान सौरभ

हरियाणा में इन दिनों एक डरावना चलन पनपता दिख रहा है। हर हफ्ते कहीं न कहीं से यह खबर आती है कि कोई युवा दोस्तों के साथ घूमने गया और लौट कर अर्थी में आया। ये घटनाएं केवल अखबार की सुर्खियां नहीं, बल्कि हमारे सामाजिक ताने-बाने और व्यवस्था की खामियों की वीभत्स तस्वीर हैं। ‘दोस्ती’ अब ‘दुर्घटना’ का पर्याय बनती जा रही है।

घटनाएं जो झकझोर देती हैं

पिछले कुछ हफ्तों में ही हरियाणा में कई ऐसी घटनाएं सामने आई हैं:

हिसार में दो युवकों की झील में डूबकर मौत, जहां वे अपने दोस्तों के साथ पिकनिक मनाने गए थे। परिजनों का आरोप है कि साथी दोस्त वीडियो बनाते रहे, मदद नहीं की।

सोनीपत में एक लड़के की दोस्तों ने गला दबाकर हत्या कर दी, फिर शव को नहर में फेंक दिया।

रेवाड़ी में एक छात्र का शव जंगल में मिला, जो आखिरी बार अपने दोस्तों के साथ देखा गया था।

इन घटनाओं में कुछ समानताएं हैं: (1) युवा अपने भरोसेमंद दोस्तों के साथ थे,

(2) परिवार को जानकारी नहीं थी कि असल में कहां गए हैं,

(3) मौत के बाद दोस्तों की भूमिका संदिग्ध रही।

दोस्ती के पीछे छिपता अपराध

माना जाता है कि दोस्ती सबसे मजबूत रिश्ता होता है, खून से भी गाढ़ा। पर हरियाणा में यह धारणा दरक रही है। अब दोस्ती की आड़ में जलन, प्रतिस्पर्धा, चालबाज़ी और यहां तक कि हत्या तक के मामले सामने आ रहे हैं। कई बार ये दोस्त ड्रग्स, जुए, बाइक रेसिंग जैसे खतरनाक कामों में एक-दूसरे को फंसा देते हैं।

परिवारों की असहायता और गूंगी चीखें

इन घटनाओं में सबसे ज़्यादा पीड़ित वे माता-पिता हैं, जिन्होंने अपने बच्चों को घर से हँसते हुए विदा किया और फिर लाशों में बदलकर पाया। वे न समझ पा रहे हैं कि गलती उनकी थी या सिस्टम की या फिर उस ‘दोस्ती’ की, जिस पर उन्होंने आँख मूँदकर विश्वास किया था।

कई बार परिवार को यह भी नहीं पता होता कि बच्चा किसके साथ गया है। सोशल मीडिया और मोबाइल की दुनिया ने एक झूठी पारदर्शिता बनाई है, जिसमें हर चीज़ दिखती है, पर सच्चाई कहीं छिप जाती है।

सिस्टम की नाकामी

प्रशासन और पुलिस का रवैया भी इन मामलों में बेहद सुस्त रहा है। अधिकतर मामलों में पुलिस तब हरकत में आती है जब मीडिया दबाव डालता है या परिजन सड़क पर उतर आते हैं। शुरुआती रिपोर्ट में अकसर दुर्घटना कहकर मामला रफा-दफा कर दिया जाता है।

बच्चों की लोकेशन ट्रेसिंग, उनके घूमने की सूचना, पार्क और पर्यटन स्थलों पर सुरक्षा बंदोबस्त—इन सभी में भारी कमी दिखाई देती है।

शिक्षा और संवाद की कमी

एक और बड़ा कारण है युवाओं के साथ संवादहीनता। परिवार, शिक्षक और समाज युवाओं को केवल ‘कैरियर’ या ‘शादी’ के चश्मे से देखते हैं। दोस्त कौन हैं? जीवन में क्या तनाव है? किस दिशा में सोच रहे हैं?—इन सवालों पर कोई ध्यान नहीं देता।

जब संवाद की जगह सन्नाटा ले लेता है, तो दोस्ती ही सबसे बड़ा प्रभाव बन जाती है—फिर चाहे वह सकारात्मक हो या घातक।

क्या हर सैर मौत की मंज़िल बनेगी?

क्या अब हर माता-पिता को डरना होगा जब उनका बच्चा कहेगा, “दोस्तों के साथ घूमने जा रहा हूँ”? क्या अब युवाओं को बाहर जाने के लिए पुलिस वेरिफिकेशन कराना होगा? ये सवाल जितने बेतुके लगते हैं, आज के संदर्भ में उतने ही वास्तविक हैं।

अगर समाज ने अभी चेतावनी नहीं ली, तो वह दिन दूर नहीं जब ‘दोस्ती’ शब्द से ही डर लगेगा।

समाधान की राह

इन घटनाओं को रोकने के लिए महज शोक या गुस्से से काम नहीं चलेगा, हमें ठोस कदम उठाने होंगे:

1. युवा सुरक्षा नीति: हरियाणा सरकार को युवाओं की सुरक्षा को लेकर अलग नीति बनानी चाहिए, जिसमें घूमने वाले समूहों की जानकारी, पर्यटन स्थलों पर सुरक्षा, और आपातकालीन हेल्पलाइन जैसी व्यवस्थाएं हों।

2. माता-पिता से संवाद: स्कूलों और कॉलेजों में माता-पिता और बच्चों के बीच संवाद को बढ़ावा देने के लिए कार्यक्रम होने चाहिए।

3. मनोवैज्ञानिक परामर्श: युवाओं को काउंसलिंग और मेंटल हेल्थ सपोर्ट मिलना चाहिए, ताकि वे सही और गलत दोस्ती के बीच फर्क समझ सकें।

4. सोशल मीडिया निगरानी: कई बार लड़ाई-झगड़े या जलन की जड़ें इंस्टाग्राम, Snapchat या WhatsApp जैसे प्लेटफॉर्म से उपजती हैं। अभिभावकों को डिजिटल व्यवहार पर भी सतर्क रहना होगा।

5. सख्त कानूनी कार्रवाई: जिन मामलों में दोस्त ही अपराधी पाए जाते हैं, वहां त्वरित और सख्त कार्रवाई की जाए ताकि एक स्पष्ट संदेश जाए।

6. युवाओं को आत्मनिर्भर बनाना: शिक्षा व्यवस्था में ऐसी सामग्री और संवाद जोड़े जाएं जो युवाओं को जीवन मूल्यों, संबंधों की समझ और संवेदनशीलता सिखा सकें।

 दोस्ती के मायने फिर से गढ़ने होंगे

हरियाणा के युवाओं को एक ऐसे समाज की जरूरत है जहां दोस्ती भरोसे का पर्याय बने, भय का नहीं। और माता-पिता को भी एक ऐसे माहौल की दरकार है जहां वे अपने बच्चों को मुस्कुराकर विदा कर सकें—बिना इस डर के कि लौटेंगे या नहीं।

हमें मिलकर यह तय करना होगा कि दोस्ती की राह मौत की मंज़िल न बने। वरना वो दिन दूर नहीं जब “मैं दोस्तों के साथ जा रहा हूँ” सुनते ही हर माता-पिता का कलेजा कांप उठेगा।

स्त्रियाँ जो द्रौपदी नहीं बनना चाहतीं

वे स्त्रियाँ
अब चीरहरण नहीं चाहतीं,
ना सभा की नपुंसक दृष्टि,
ना कृष्ण का चमत्कारी वस्त्र-प्रदर्शन।
वे अब प्रश्न नहीं करतीं —
“सभागृह में धर्म कहाँ है?”
वे खुद ही धर्म बन चुकी हैं।
वे स्त्रियाँ
न तो द्रौपदी हैं,
ना सीता,
ना कुंती,
वे अपना नाम खुद रखती हैं —
कभी विद्रोह,
कभी प्रेम,
कभी ‘ना’।
वे अब अग्निपरीक्षा नहीं देतीं,
क्योंकि वे जान चुकी हैं —
आग से नहीं,
सवालों से जलाया जाता है।
वे अब चौखट पर दीपक नहीं जलातीं
बल्कि आंधियों से पूछती हैं —
“तुम्हारा साहस कितना है, मुझे बुझाने का?”
वे स्त्रियाँ
अपने भीतर
एक कोमल क्रांति पालती हैं —
जो फूलों से नहीं,
संवेदना की चुप्पियों से खिलती है।
वे अब खुद को
‘स्त्री’ कहने से पहले
‘मनुष्य’ कहती हैं —
क्योंकि उन्हें अब
देह से पहले, चेतना चाहिए।

प्रियंका सौरभ

तपती धरती, पिघलते ग्लेशियर: चिंता का सबब !

सुनील कुमार महला

धरती का तापमान लगातार बढ़ रहा है। वास्तव में धरती का तापमान का लगातार बढ़ना कहीं न कहीं गंभीर ख़तरों का संकेत दे रहा है। आज मानव की जीवनशैली लगातार बदलती चली जा रही है और मानवीय गतिविधियों के कारण, अंधाधुंध विकास, जंगलों की अंधाधुंध कटाई, शहरीकरण, औधोगिकीकरण के कारण ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को लगातार बढ़ावा मिल रहा है जिससे नीले ग्रह पर खतरा मंडराने लगा है। एक जानकारी के अनुसार मानवीय जीवनशैली के कारण इस सदी के अंत तक धरती का औसत तापमान 2.7°C बढ़ जाएगा। वास्तव में धरती के तापमान के इतना बढ़ने का सीधा सा मतलब यह है कि इस सदी के अंत तक धरती के ग्लेशियरों की बस एक चौथाई बर्फ़ ही बची रहेगी तथा बाकी तीन चौथाई बर्फ़ ख़त्म हो जाएगी। कहना ग़लत नहीं होगा कि ग्लेशियर अब किताबों का ही हिस्सा बनकर रह जाएंगे।

ग्लोबल वार्मिंग बढ़ने के कारण  दुनिया के कई तटीय शहर डूब जाएंगे। यदि हम यहां आंकड़ों की बात करें तो भारत में मुंबई, चेन्नई, विशाखापट्टम जैसे कई तटीय शहरों का बड़ा इलाका क़रीब दो फुट तक पानी में डूब जाएगा। दरअसल यह खुलासा किसी और ने नहीं बल्कि दुनिया की प्रतिष्ठित पत्रिका साइंस में छपी एक ताज़ा रिसर्च में किया गया है। इस संदर्भ में ताज़ा उदाहरण स्विट्जरलैंड का है, जहां ऊंचे पहाड़ों से टूटे एक ग्लेशियर ने निचले इलाके में तबाही मचा दी। नीचे घाटी में बसे ब्लैटन गांव (नब्बे फीसदी गांव को) बर्च नाम के ग्लेशियर ने बर्बाद कर दिया।दरअसल,ग्लेशियरों के इस तरह टूटने के पीछे सबसे बड़ी वजह है धरती के औसत तापमान का बढ़ना। कहना ग़लत नहीं होगा कि तापमान में बढ़ोत्तरी भारी बारिश(अतिवृष्टि), तो कहीं सूखा(अनावृष्टि), कभी ग्लेशियरों की झीलों के फटने तो कभी बड़े तूफ़ानों जैसे अतिमौसमी बदलावों की शक्ल में हमारे सामने आ रहा है। यहां पाठकों को बताता चलूं कि प्रतिष्ठित पत्रिका साइंस में छपी रिसर्च के मुताबिक दुनिया के ग्लेशियर मौजूदा अनुमान से कहीं ज़्यादा तेज़ी से पिघल रहे हैं और इस सदी के अंत तक अगर धरती का औसत तापमान अगर 2.7°C और बढ़ा तो दुनिया में मौजूद ग्लेशियरों में सिर्फ़ 24% बर्फ़ ही बची रह जाएगी, जो कि एक बड़ा और गंभीर खतरा है। जानकारी के अनुसार ग्लेशियरों की 76% बर्फ़ पिघल चुकी होगी।

पाठकों को बताता चलूं कि पेरिस समझौते में ये तय हुआ था, कि दुनिया के तापमान को पूर्व औद्योगिक तापमान से 1.5°C से ज़्यादा नहीं बढ़ने देना है, लेकिन आज विकसित देश ही कार्बन उत्सर्जन के अधिक जिम्मेदार हैं और कोई भी ग्लोबल वार्मिंग को कम करने को लेकर जिम्मेदार नजर नहीं आते। साइंस पत्रिका में छपी रिसर्च के मुताबिक अगर दुनिया का औसत तापमान 1.5°C तक ही बढ़ा तो भी ग्लेशियरों की 46% बर्फ़ पिघल जाएगी, सिर्फ़ 54% बर्फ़ ही बची रहेगी, यह बहुत ही चिंताजनक है, क्योंकि ग्लेशियर पानी के बड़े स्रोत  होते हैं और जल ही जीवन है। शोध में सामने आया है कि अगर औसत तापमान बढ़ना बंद हो जाए और उतना ही रहे, जितना कि आज है, तो भी दुनिया के ग्लेशियरों की बर्फ़ 2020 के स्तर से 39% कम हो जाएगी। मतलब यह है कि आज भी तापमान कुछ कम नहीं है और यह नीले ग्रह को काफी नुकसान पहुंचा रहा है।

 शोध में पाया गया है कि यदि  दुनिया का औसत तापमान 2°C बढ़ा तो स्कैंडिनेवियन देशों यानी नॉर्वे, स्वीडन और डेनमार्क के ग्लेशियरों की सारी बर्फ़ पिघल जाएगी। इतना ही नहीं, उत्तर अमेरिका की रॉकी पहाड़ियों, यूरोप के आल्प्स और आइसलैंड के ग्लेशियरों की क़रीब 90% बर्फ़ पिघल जाएगी।औसत तापमान में 2°C की बढ़ोतरी का भारी असर दक्षिण एशिया में हिंदूकुश हिमालय पर भी पड़ने की संभावनाएं जताई गईं हैं। यहां पाठकों को जानकारी देना चाहूंगा कि हिंदू कुश हिमालय का ग्लेशियर दो अरब लोगों का भरण-पोषण करने वाली नदियों को पानी देता है, लेकिन सदी के अंत तक ये अपनी 75 प्रतिशत बर्फ खो सकता है, जिससे नदियों का पानी भी सूख सकता है। यहां कहना ग़लत नहीं होगा कि अगर दुनिया के देश तापमान को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक रोक पाते हैं (जैसा कि पेरिस समझौते में तय हुआ था), तो हिमालय और कॉकेशस पर्वत में ग्लेशियर की 40-45 प्रतिशत बर्फ बचाई जा सकती है। यानी अब भी कुछ किया जाए, तो हालात बहुत हद तक सुधर सकते हैं। वाकई यह बहुत ही चिंताजनक बात है कि साल 2020 के मुक़ाबले हिंदूकुश हिमालय के ग्लेशियरों में महज़ 25% बर्फ़ ही रह जाएगी।

 वास्तव में हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हिंदूकुश हिमालय से निकलने वाली नदियां जो गंगा, सिंधु और ब्रह्मपुत्र की घाटियों में बहती हैं वो क़रीब दो अरब आबादी के लिए अनाज, मनुष्य की आजीविका और पानी की गारंटी हैं। वास्तव में आज धरती का लगातार बढ़ता हुआ तापमान न केवल मनुष्य के लिए अपितु धरती के सभी जीवों, वनस्पतियों, हमारे पर्यावरण और पारिस्थितिकी तंत्र के लिए संकट का सबब बनता चला जा रहा है। अंत में यही कहूंगा कि ग्लोबल वार्मिंग को कम करने के लिए हमें सामूहिक रूप से कदम उठाने होंगे और पर्यावरण संरक्षण के प्रति हमें अपनी जिम्मेदारियों को बखूबी समझना होगा। कहना ग़लत नहीं होगा कि हमारे नीले ग्रह को गर्म करने वाले उत्सर्जन को कम करने के लिए स्वच्छ ऊर्जा को अपनाना ही ग्लेशियरों के पिघलने की गति को धीमा करने का सबसे प्रभावी तरीका है। हमें यह बात अपने जेहन में रखनी चाहिए कि धरती के तापमान में मामूली वृद्धि भी कहीं न कहीं मायने रखती है। मानव को समझने की जरूरत है कि विकास के नाम पर हमें प्रकृति से छेड़छाड़ और खिलवाड़ को बंद करना होगा। पर्यावरण के साथ संबंध स्थापित करते हुए भी विकास किया ही जा सकता है।एक जानकारी के अनुसार दुनिया में क़रीब पौने तीन लाख ग्लेशियर हैं। पाठकों को बताता चलूं कि पृथ्वी पर, 99% ग्लेशियल बर्फ ध्रुवीय क्षेत्रों में विशाल बर्फ की चादरों (जिन्हें “महाद्वीपीय ग्लेशियर” भी कहा जाता है) के भीतर समाहित है।

 एक जानकारी के अनुसार ग्लेशियल बर्फ पृथ्वी पर ताजे पानी का सबसे बड़ा भंडार है, जो बर्फ की चादरों के साथ दुनिया के ताजे पानी का लगभग 69 प्रतिशत रखता है।पृथ्वी के कुल जल का लगभग 2% भाग ग्लेशियरों में संग्रहीत है। इतना ही नहीं,ग्लेशियर अतीत की जलवायु के बारे में बहुमूल्य जानकारी प्रदान करते हैं। ये ग्लेशियर ही हैं, जिनसे कृषि, जल विद्युत एवं पेयजल हेतु जल मिलता है। समुद्र जल स्तर में ग्लेशियरों का महत्वपूर्ण योगदान होता है। अंत में यही कहूंगा कि हमें ग्लेशियरों को संरक्षित करना होगा और जल प्रबंधन को बढ़ावा देना होगा, ताकि भविष्य में पानी की आपूर्ति सुनिश्चित की जा सके।

पर्यावरण के लिए बेहद घातक हैं प्लास्टिक

डॉ. बालमुकुंद पांडेय 

प्लास्टिक मानव समाज के लिए आवश्यक आवश्यकता हो चुका हैं। प्लास्टिक मनुष्यों के दिनचर्या के लिए उपयोगी हो चुका हैं । मानवीय समाज के लिए इसकी उपादेयता  के साथ इसके हानिकारक प्रभाव भी हैं। भू – वैज्ञानिकों एवं पर्यावरणविदों के अनुसार ,प्लास्टिक बैग्स पराबैंगनी किरणों के संपर्क में आते हैं तो उनसे ग्रीनहाउस गैस(GHG)निकलती है ,जो अत्यधिक मात्रा में हानिकारक एवं  अस्वास्थ्यप्रद हैं । प्लास्टिक एवं पॉलीथिन पालतू जानवरों, वन्यजीवों एवं समुद्रीजीवों के लिए अति खतरनाक एवं अत्यधिक हानिकारक हैं। प्लास्टिक बैग्स एवं प्लास्टिक खाने से प्रत्येक वर्ष लाखों जीव जंतुओं की मृत्यु हो जाती है. इन जानवरों में गाय, भैंस ,एवं दुधारू पशु हैं। प्लास्टिक समुद्री जीवों एवं जंतुओं के लिए भी हानिकारक होता है, इनके कारण बड़ी संख्या में व्हेल ,डॉल्फिन एवं कछुओं की मृत्यु होती है जो खाद्य पदार्थ  के साथ प्लास्टिक के बैग्स खा जाते हैं जिससे उनकी अकाल मृत्यु हो जाती है।

 वैज्ञानिकों द्वारा अन्वेषित प्लास्टिक ने नागरिक समाज, नागरिक जीवन एवं पृथ्वी पर उपस्थित संपूर्ण पारिस्थितिकी तंत्र पर प्रभाव डाला है। प्लास्टिक को विज्ञान ने हमारी आवश्यकताओं एवं सुविधाओं के लिए तैयार किया था लेकिन यह पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी के शत्रु के रूप में उपादेयता प्रदान कर रहा हैं । भू – तल  से लेकर समुद्र तक ,गांव से लेकर कस्बा तक एवं मैदान से लेकर पहाड़ तक प्लास्टिक का व्यापक प्रदूषण प्रभाव हैं। प्लास्टिक का दुष्प्रभाव मानव स्वास्थ्य पर पड़ रहा है। पेयजल एवं खाद्य पदार्थों में प्लास्टिक का प्रभाव है जिससे मानव स्वास्थ्य पर नकारात्मक एवं प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है।

लोग यात्रा एवं अन्य प्रयोजनों  में पॉलिथीन से बने लिफाफों एवं  पन्नियों का अंधाधुंध इस्तेमाल करते हैं। यह प्रक्रिया मानव स्वास्थ्य एवं प्रकृति के लिए नुकसानदायक हैं । प्लास्टिक एक ऐसा अवशिष्ट है जो अविनाशी हैं। इसके इसी विशिष्टता के कारण यह प्रत्येक जगह अनंत समय तक  बेतरतीब पड़ा रहता है एवं नष्ट नहीं होता हैं । यह  मिट्टी एवं जल में विघटित नहीं होता है एवं जलने पर पर्यावरण को अत्यधिक प्रदूषण का प्रसार करते हैं। प्लास्टिक प्रदूषण में बहुत हानिकारक तत्व हैं । प्लास्टिक की थैलियां एवं प्लास्टिक बैग्स पानी में बहकर  चले जाते हैं जिससे जलीय जीवों  एवं जंतुओं को संक्रमित करते हैं एवं समुद्री जीव जंतुओं के जीवन पर खतरा खतरा मंडरा रहा हैं। इससे संपूर्ण पारिस्थितिकी तंत्र खतरे में आ गया हैं । पारिस्थितिकी तंत्र में हुए इस खतरे से पर्यावरण को अत्यधिक खतरा हैं जिससे समुद्री वातावरण में प्रदूषण बढ़ता जा रहा है।

प्लास्टिक मनुष्य के स्वास्थ्य पर नकारात्मक प्रभाव डाल रहा हैं । इसका चिंताजनक दुष्प्रभाव हैं कि यह मानव स्वास्थ्य पर निरंतर गंभीर खतरा उत्पन्न कर रहा हैं ।

मनुष्य पेयजल में भी प्लास्टिक मिश्रण वाला पानी पी रहे हैं, नमक में भी प्लास्टिक का मिश्रण खा रहे हैं। वैज्ञानिकों एवं पर्यावरणविदों के अध्ययन से यह  स्पष्ट हो रहा है कि हृदय रोग से होने वाली मृत्यु  के लिए प्लास्टिक में मौजूद ‘ थैलेटस ‘ के संपर्क में आने के कारण वर्ष 2020 में हृदय रोग से 7 लाख से अधिक मृत्यु हुआ था। इस मृत्यु से होने वालों की अवस्था क्रमशः 55 से 64 वर्ष के बीच थी। 7 लाख लोगों में लगभग तीन – चौथाई दक्षिण एशिया ,पश्चिम एशिया, पूर्वी एशिया, एवं उत्तरी अमेरिका में हुई थी । न्यूयॉर्क विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों एकेडमिक  विशेषज्ञों एवं शोधार्थियों के दल ने लगभग 201 देश एवं महाद्वीपीय क्षेत्रों  में ‘ थैलेटस ‘ के नकारात्मक प्रभाव के मूल्यांकन के लिए जनसंख्या सर्वेक्षणों से मनुष्य के स्वास्थ्य एवं पर्यावरण संबंधी आंकड़ों का विश्लेषण किया। इस अध्ययन में खास प्रकार के  थैलेट्स पर गौर किया गया जिसका उपयोग खाद्य पदार्थों के कंटेनर जैसी वस्तुओं में प्लास्टिक को नरम बनाने के लिए किया जाता हैं जो मनुष्य के स्वास्थ्य को वृहद स्तर पर नुकसान एवं कठिनाई का सामना करना पड़ पड़ा था।  थैलेट्स मनुष्य के शरीर में प्रवेश करके ऑक्सीजन के साथ क्रिया करके कार्बन मोनोऑक्साइड का निर्माण करके रक्तपरिशंचरण तंत्र  को दूषित कर देता है एवं मनुष्य के स्वास्थ्य को अत्यधिक नुकसान पहुंचता है।

प्लास्टिक बैग्स को बनाने के लिए जिन तत्वों की प्रधानता होती हैं ,वह उच्च स्तरीय रसायन होता हैं ,जो खाद्य सामग्री को बहुत शीघ्र सड़ा देता हैं। प्लास्टिक के कारण कृषिभूमि की उर्वरता का क्षरण हो रहा हैं ,जिससे  भूमि की उर्वरता नष्ट हो जाती है। इसके कारण भू – जल स्रोत एवं जल स्रोत भी अत्यधिक मात्रा में दूषित हो रहे हैं जिससे  जल संक्रमित होता जा रहा हैं । प्लास्टिक गांव,  कस्बों,नगरों एवं महानगरों की जल निस्तारण प्रणाली को भी अवरुद्ध कर रहे हैं। गर्भावस्था के दौरान प्लास्टिक के संपर्क में आने पर नवजात शिशु के स्वास्थ्य में जटिलताएं उत्पन्न हो जाते हैं जिससे वह मानसिक स्तर पर मंद एवं शारीरिक विषमताओं से जकड़ जाते हैं । प्लास्टिक के कारण  पुरुषों में प्रोस्टेट कैंसर एवं नपुंसकता  हो रही है।

 कई वैज्ञानिक अध्ययनों एवं पर्यावरण विशेषज्ञों के अध्ययन के प्रतिवेदन से ज्ञात हुआ है कि खाद्य पदार्थों के पैकेजिंग में इस्तेमाल प्लास्टिक के प्रयोग से कैंसर, प्रजनन क्षमता में ह्रास,अस्थमा, त्वचा रोगों एवं हृदय रोगों का खतरा बढ़ता जा रहा हैं । यह नागरिक स्वास्थ्य के साथ-साथ हमारे धरती की सेहत को भी अत्यधिक क्षति पहुंचा रहा हैं। प्लास्टिक से निर्मितपदार्थों  से पैदा हुए कचरे का निपटारा करना अत्यंत कठिन काम होता  हैं। हमारे पृथ्वी पर प्रदूषण के प्रसार के लिए प्लास्टिक भी उत्तरदाई हैं।विगत 40 वर्षों में प्लास्टिक प्रदूषण का स्तर अति तीव्र गति से बड़ा हैं जो मानवीय समुदाय  के लिए एक गंभीर समस्या बन चुका है।

 प्रदूषण के लिए पॉलिथीन ही जिम्मेदार नहीं हैं बल्कि प्लास्टिक बैग्स एवं प्लास्टिक के फर्नीचर भी जिम्मेदार हैं । वैश्विक स्तर पर प्लास्टिक से निर्मित वस्तुएं प्रदूषण के लिए जिम्मेदार हैं। प्लास्टिक एवं प्लास्टिक से निर्मित वस्तुएं नागरिक समाज के स्वास्थ्य, पेयजल एवं स्वच्छ वातावरण के लिए जिम्मेदार हैं.  यह सभी वातावरण के लिए एक गंभीर समस्या एवं संकट हो चुके हैं। यह मानव जाति, मानवीय संस्कृति एवं मानव समुदाय के जीवन को क्षीण कर रहे हैं क्योंकि प्रदूषण मनुष्य के आयु को क्षीण कर रहा हैं । मानवीय संस्कृति के अमरता एवं प्रासंगिकता के लिए प्लास्टिक पर प्रतिबंध आवश्यक हैं । प्लास्टिक नियंत्रण की दिशा में नागरिक समाज की पहल से प्रदूषण के नकारात्मक प्रभाव को न्यून  किया जा सकता है।

1. नागरिक समाज को प्लास्टिक के बजाय अन्य विकल्प को अपनाना चाहिए; 

2. प्लास्टिक के नकारात्मक प्रभाव के विषय में जागरूकता की आवश्यकता है; 

3. हानिकारक प्लास्टिक के बढ़ते उपयोग को रोककर ही इसके भयावह समस्याओं पर काबू पाया जा सकता है;

4. सरकार को प्लास्टिक ,प्लास्टिक बैग्स एवं पॉलीथिन पर प्रतिबंध लगाना चाहिए; एवं 

5. संगोष्ठियों, जनसभाओं  एवं नागरिक समाज के पहल से समाज में संचेतना एवं जन जागरूकता की आवश्यकता है।

डॉ. बालमुकुंद पांडेय 

विकसित भारत : संकल्प का प्रथम कदम

डॉ. नीरज भारद्वाज

इतिहास के कुछ पन्ने हमें यह भी बताते हैं कि जब हमारा देश स्वतंत्र हुआ तो पाश्चात्य  देश यह कहते थे कि भारतवर्ष स्वतंत्रता को ज्यादा दिन तक संभाल नहीं पाएगा। इस देश का विकास होना संभव नहीं है। माना कि यह बात उस समय और परिस्थिति के आधार पर कुछ समीक्षकों और बुद्धिजीवियों ने की हो लेकिन आज वास्तविकता उससे बहुत परे है।

हमारे देश ने आजादी के बाद कई उतार-चढ़ावों को देखा। पड़ोसी देशों ने हम पर समय-समय पर आक्रमण किए। इन आक्रमणों से हमें आर्थिक, सामाजिक, जन हानि आदि को झेलना पड़ा। पड़ोसी देश पाकिस्तान आज भी हमारी विकास गति को पचा नहीं पाता  और वह स्वयं से या किसी अन्य देश के कहने से भारतवर्ष में आतंकवादी घटनाओं को अंजाम देता रहता है। उसे हर बार मुंह की खानी पड़ी है. इस बार ऑपरेशन सिंदूर के चलते उसके घर में ही घुसकर हमने उसके आतंकी ठिकानों को मिट्टी में मिलने का काम किया है।

देश के विकास के लिए देश में शांति और भाईचारा बना रहना चाहिए। इसके साथ ही सबसे बड़ी बात कि देश को मजबूत राजनीतिक सत्ता अर्थात स्थिर सरकार का होना भी होता है। पिछले 11 वर्षों से देश में यशस्वी प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी की मजबूत और कारगर सरकार काम कर रही है। इससे पहले की सरकारों ने भी देश के लिए कार्य किया है, इसे भी नहीं भूलना चाहिए। यहाँ महत्वपूर्ण बात यह है कि अब जो सरकार काम कर रही है, वह वास्तव में देश-दुनिया को दिखाई दे रहा है।

भारतवर्ष ने हर एक क्षेत्र में अपनी स्थिति को मजबूत किया है। नए संकल्प के साथ भारतवर्ष में नई ऊंचाइयों को छुआ है। देश के विकास में हरित क्रांति, श्वेत क्रांति, पीली क्रांति, नीली क्रांति, गुलाबी क्रांति, रजत क्रांति, सुनहरी क्रांति आदि सभी का सहयोग बराबार रहा है। हमारे विज्ञान और तकनीक ने भी विश्व को नए आयाम दिए हैं। आज भारतवर्ष दुनिया का सबसे घनी आबादी का देश है, तो साथ ही अर्थव्यवस्था की दृष्टि से चौथे स्थान पर आ गया है। वह दिन भी दूर नहीं जब भारत विश्व की तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था होगा।

देश के लिए, देश के हर एक नागरिक के लिए यह अच्छी बात है कि हमारे श्रमबल, उद्योग, तकनीक आदि सभी ने मिलकर आज भारतवर्ष को चौथी बड़ी अर्थव्यवस्था बना दिया है। अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में अमेरिका, चीन और जर्मनी ही भारत से आगे हैं। रिपोर्ट और आंकड़े यह भी बता रहे हैं कि विकास की गति ऐसे ही आगे बढ़ती रही तो भारत अर्थव्यवस्था की दृष्टि से तीन वर्षों में ही जर्मनी को पीछे छोड़ देगा और तीसरे स्थान पर आ जाएगा।

भारत ने अर्थव्यवस्था में चौथा स्थान जापान को पीछे छोड़कर प्राप्त किया है। आंकड़े यह भी बताते हैं कि जापान की उम्र दराज आबादी और कम जन्म दर उसके लिए चुनौती बनकर उभरी है। दूसरी ओर ध्यान दें तो आज भारत विश्व का सबसे युवा शक्ति का देश बनकर उभरा है। आरबीआई ने अपनी वार्षिक रिपोर्ट में कहा है कि वर्ष 2025-26 में दुनिया में सबसे तेज गति से आर्थिक विकास दर हासिल करने वाला प्रमुख देश भारतवर्ष बना रहेगा। भारत की विकास दर तेजी से आगे बढ़ रही है। आंकड़े यह भी बताते हैं कि 2024- 25 में दुनिया में सबसे ज्यादा विकास दर 6.5% भारत की रहेगी। भारत धीरे-धीरे महाशक्ति बनता जा रहा है, आर्थिक रूप से भी भारत मजबूत होता जा रहा है।

भारतवर्ष के यशस्वी प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी ने 2047 तक विकसित भारत की बात कही है। देश के युवाओं को इसी ओर अग्रसर भी कर रहें हैं। विचार करें तो भारतीय अर्थव्यवस्था, तकनीक, विज्ञान आदि सभी कुछ इसी ओर अग्रसर भी दिखाई दे रहे हैं। भारत अपने संकल्प को जल्द ही पूरा करेगा। सही मायने में संकल्प से ही सिद्धि प्राप्त होती है।

भारतीय राजनीति का सकारात्मक पक्ष सामने आया

राजेश कुमार पासी

राजनीति में सिर्फ नकारात्मकता ही बची है ऐसा लगता है लेकिन सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल ने दिखाया है कि भारतीय राजनीति का एक सकारात्मक पहलू यह है कि जब भारत का नेता विदेश में जाता है तो वो सिर्फ भारतीय रह जाता है और उसके लिए अपनी दलगत राजनीति पीछे छूट जाती है । यह बात सभी के लिए नहीं कही जा सकती लेकिन इस सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल में गए हुए विपक्षी नेताओं के लिए जरूर  कही जा सकती है । राजनीति में नकारात्मकता के पीछे भागने वाले समाज और मीडिया के लिए ये अंचभा है कि विपक्षी नेता विदेशी धरती से मोदी की भाषा बोल रहे हैं । सोशल मीडिया के लिए तो यह  ज्यादा परेशानी की बात है क्योंकि सोशल मीडिया में सिर्फ नकारात्मकता ही बची हुई है । वहां हर आदमी को अपने नेता और पार्टी के अलावा सब कुछ बुरा ही दिखाई देता है । सोशल मीडिया में कोई सच न तो देखता है और न ही समझता है । तर्क और तथ्य की बात सोशल मीडिया में करना बेमानी होता जा रहा है ।

 ऑपरेशन सिंदूर के दौरान भारत ने पाकिस्तान की ऐसी बुरी गत बना दी थी कि न तो वो अपनी रक्षा करने के काबिल रहा और न ही उसके पास भारत पर आक्रमण करने की क्षमता बची । इसके बावजूद आज भी सोशल मीडिया में ज्यादातर वामपंथी, सेकुलर और मुस्लिम बुद्धिजीवी भारत को पाकिस्तान का डर दिखा रहे हैं । जब विदेशी मीडिया और विदेशी रक्षा विशेषज्ञ भी मान चुके हैं कि इस युद्ध में भारत की एकतरफा जीत हुई है तो ये लोग सोशल मीडिया में बता रहे हैं कि चीन के युद्धक विमानों से पाकिस्तान ने भारत के कई राफेल मार गिराए हैं । ये लोग आज भी भारत को पाकिस्तान को मिले चीनी हथियारों का डर दिखा रहे हैं । चीन ने पाकिस्तान को अपने स्टेल्थ विमान देने की बात कही है, इससे यह लोग इतना डरे हुए हैं कि अगर यह विमान पाकिस्तान में आ जाते हैं तो भारत को तबाह कर देंगे । भारत ने पाकिस्तान की वायु रक्षा प्रणाली समाप्त कर दी थी और इसके बाद भारत का हर विमान स्टेल्थ हो गया था । जब आप किसी के आकाश पर कब्जा कर लेते हैं तो आपका हर विमान स्टेल्थ बन जाता है और भारत ने ऐसा ही किया था ।

               जहां भारत में भारत-पाक युद्ध को लेकर अलग ही राग अलापा जा रहा है, वही दूसरी तरफ सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल में विपक्षी नेताओं ने पूरी दुनिया में भारत का पक्ष इस मुखरता और निष्पक्षता के साथ रखा है कि दुनिया को सत्ता पक्ष और विपक्ष के नेताओं में अंतर समझना मुश्किल हो रहा है ।  ऐसा लगता है कि ये भूल गए हैं कि विपक्षी नेता हैं और उनकी पार्टी देश मे कुछ और ही लाइन पर चल रही है । विशेष तौर पर कांग्रेस के नेताओं के बारे में तो ऐसा कहा ही जा सकता है कि विदेशी धरती पर ये नेता अलग भाषा बोल रहे हैं तो दूसरी तरफ कांग्रेस देश में अलग लाइन पर चल रही है ।  इन नेताओं को इससे कोई मतलब नहीं है कि देश में उनकी पार्टी किस लाइन पर चल रही है । उनके बयानों से ऐसा लगता है कि वो अपने मन की बात बोल रहे हैं । ये अजीब है कि जब यही नेता भारत में बोलते हैं तो लगता है कि ये कुछ देखना नहीं चाहते, समझना नहीं चाहते या इन्हें समझ नहीं आ रहा है । विदेशी धरती पर इनके भाषणों को सुनकर महसूस होता है कि उनकी राजनीतिक समझ कहीं से भी कम नहीं है लेकिन घरेलू राजनीति इनकी वास्तविक समझ का बाहर नहीं आने देती, पार्टी के अनुशासन के कारण उन्हें वही बोलना होता है जो इन्हें पार्टी ने कहा होता है । 

मेरा मानना है कि बहुत मुश्किल हो रहा होगा इन नेताओं के लिए कि विदेशी धरती पर उन्हें अपनी पार्टी लाइन से विपरीत जाकर अपने देश की बात को रखना पड़ रहा है । ऐसी मुश्किल भाजपा और एनडीए के दूसरे नेताओं की नहीं है क्योंकि उन्हें वही बोलना पड़ रहा है जो उनकी पार्टी की लाइन है । यही कारण है कि विपक्षी नेताओं के बयानों की मीडिया में बहुत ज्यादा चर्चा हो रही है लेकिन भाजपा नेताओं की कोई बात भी नहीं कर रहा है । भाजपा नेता जब  वापिस आयेंगे तो उन्हें कोई समस्या नहीं आने वाली है लेकिन विपक्षी नेताओं को भारत आकर दोबारा अपनी बात से अलग हटकर बोलना मुश्किल होने वाला है । सवाल यह है कि क्या ये नेता यह नहीं जानते होंगे कि जो कुछ वो यहां बोल रहे हैं उन्हें इसके विपरीत जाकर देश में बोलना मुश्किल होगा । वास्तव में यह नेता जानते हैं कि विदेश में वो अपने देश का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं और उनके कंधों पर देश ने बड़ी जिम्मेदारी डाली हुई है । ये नेता अपनी जिम्मेदारी को समझते हुए वही कर रहे हैं जो उन्हें करना चाहिए । 

            ये विदेशी मीडिया और जनता के लिए बड़ा अजीब है कि सत्ता पक्ष और विपक्ष के नेताओं के स्वर में कहीं भी विभिन्नता दिखाई नहीं दे रही है, सभी एक स्वर में अपनी बात रख रहे हैं। विदेशियों के लिए ये फर्क करना मुश्किल हो रहा है कि कौन सत्ता पक्ष से है और कौन विपक्ष से आया है । जहां भारत में मोदी सरकार की विदेश नीति को असफल करार दिया जा रहा है, वहीं ये नेता भारत की विदेश नीति को सफल बनाने का काम कर रहे हैं ।  देखा जाए तो ये नेता देश के लिए भी बड़ा मुश्किल काम कर रहे हैं क्योंकि पाकिस्तान को भारत पर हुए आतंकवादी हमलों के लिए सीधे तौर पर जिम्मेदार ठहराना इतना आसान काम नहीं है। जो लोग भारत की विदेश नीति को असफल करार दे रहे हैं उन्हें अहसास नहीं है कि अपने ही देश के आतंकियों द्वारा हमला करने पर किसी दूसरे देश की संप्रभुता को दरकिनार करके उसके इलाकों पर हमला किया गया है। जो लोग कहते हैं कि दुनिया भारत के साथ नहीं खड़ी हुई उन्हें यह दिखाई नहीं दे रहा है कि पाकिस्तान पर हमला करने के बावजूद दुनिया भारत के खिलाफ खड़ी नहीं हुई है । यही भारत की विदेश नीति की सबसे बड़ी सफलता है लेकिन कोई यह समझने को तैयार नहीं है । सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल इसी काम को बेहतर तरीके से करने गया है कि भारत ने पाकिस्तान पर हमला नहीं किया है उसने सिर्फ उन आतंकी ठिकानों को निशाना बनाया है जहां से भारत  पर वर्षों पर हमला किया जा रहा है । भारत ने पाकिस्तान के खिलाफ जो सैन्य कार्यवाही की है वो पाकिस्तानी हमले के जवाब में की गई है ।  जहां तक चीन, तुर्की और अजरबाइजान का सवाल है कि वो पाकिस्तान के साथ खड़े हैं तो भारत भी चीन के दुश्मन देशों के साथ पिछले कई वर्षों से खड़ा हुआ है और दूसरी तरफ भारत तुर्की और अजरबाइजान के विरोध में  आर्मेनिया के साथ खड़ा हुआ है। भारत पर तो यहां तक आरोप लगाया जा  रहा है कि भारत ही आर्मेनिया की रक्षा रणनीतियां बना रहा है और उसी के अनुसार हथियारों की सप्लाई कर रहा है जिसके कारण तुर्की और अजरबाइजान हताश हैं । 

              इसके अलावा भारत में भी कई विपक्षी नेताओं ने भारत की कार्यवाही का समर्थन किया है । फारूक अब्दुल्ला और उनके बेटे उमर अब्दुल्ला ने पाकिस्तान का जैसा विरोध पहलगाम हमले के बाद किया है और ऑपरेशन सिंदूर का जैसा समर्थन किया है, वो उनकी अब तक की राजनीति से बिल्कुल अलग दिखाई दे रहा है । महबूबा मुफ्ती के बयानों का विरोध करते हुए उमर अब्दुल्ला ने कहा कि वो पाकिस्तान के लिए बात कर रही है लेकिन ये ऐसा वक्त है जब हमें देश के साथ खड़े होना है । असदुद्दीन ओवैसी ने पाकिस्तान के खिलाफ जो मुहिम चलाई है उससे पाकिस्तान में सबसे ज्यादा चर्चा उन्हीं की हो रही है । पाकिस्तान में मोदी के बाद सबसे ज्यादा आलोचना ओवैसी की ही हो रही है । कांग्रेस नेता शशि थरूर ने मोदी सरकार के लिए वो काम किया है जो भाजपा के दूसरा नेता भी नहीं कर पाए हैं । थरूर का कहना है कि देश जिस दौर से गुजर रहा है उसमें देश के साथ खड़े होने के अलावा कोई रास्ता नहीं है । वो अपने आपको खुशकिस्मत मानते हैं कि उन्हें इस समय देश की सेवा करने का अवसर मिला है और इससे वो खुद को सम्मानित महसूस करते हैं ।

कांग्रेस ने भाजपा नेता अटल बिहारी वाजपेयी जी को देश का पक्ष रखने के लिए विदेशी धरती पर भेजा था लेकिन मोदी जी ने तो एक नहीं बल्कि कई विपक्षी नेताओं को यह मौका दिया है । बड़ी बात यह है कि इन नेताओं ने न तो मोदी जी को निराश किया और न ही देश को निराश किया बल्कि पूरी दुनिया को यह संदेश चला गया कि संकट के समय पूरा भारत एक है । दुनिया ने यह भी देखा कि भारत का लोकतंत्र कितना मजबूत है, जहां सत्ताधारी दल विपक्षी नेताओं को देश का पक्ष रखने के लिए भेज देता है और विपक्षी नेता घरेलू राजनीति को दरकिनार करके सरकार की बात बेहतर तरीके से दुनिया के सामने रखते हैं ।  जो काम भारत के लिए असदुद्दीन औवेसी, शशि थरूर, प्रियंका चतुर्वेदी, सलमान खुर्शीद, कनिमोझी, सुप्रिया फूले जैसे कई विपक्षी नेताओं ने किया है उसके कारण पूरी दुनिया को पता चल गया है कि दुश्मन के खिलाफ भारत एक है । 

आक्रामकता के शिकार बच्चों की पीड़ा और दर्द को समझें

0

आक्रामकता के शिकार मासूम बच्चों का अन्तर्राष्ट्रीय दिवस- 4 जून, 2025
– ललित गर्ग –

बच्चों को देश एवं दुनिया के भविष्य की तरह देखा जाता है। लेकिन उनका यह बचपन रूपी भविष्य लगातार हो रहे युद्धों की विभीषिका, त्रासदी एवं खौफनाक स्थितियों के कारण गहन अंधेरों एवं परेशानियों से घिरा है। आज का बचपन हिंसा, शोषण, यौन विकृतियों, अभाव, उपेक्षा, नशे एवं अपराध की दुनिया में धंसता चला जा रहा है। बचपन इतना उपेक्षित, प्रताड़ित, डरावना एवं भयावह हो जायेगा, किसी ने कल्पना भी नहीं की होगी। आखिर क्यों बचपन बदहाल होता जा रहा है? बचपन इतना उपेक्षित क्यों हो रहा है? बचपन के प्रति न केवल अभिभावक, बल्कि समाज, सरकार एवं युद्धरत देशों की सत्ताएं इतनी बेपरवाह कैसे हो गयी है? ये प्रश्न 4 जून को आक्रमण के शिकार हुए मासूम बच्चों के दिवस को मनाते हुए हमें झकझोर रहे हैं। इस दिवस को मनाने की प्रासंगिकता आज के परिप्रेक्ष्य में ज्यादा महसूस हो रही है। इस दिवस का उद्देश्य आक्रामकता के शिकार बच्चों की पीड़ा और उनके दर्द को स्वीकार करना, बाल अधिकारों की रक्षा के लिए संयुक्त राष्ट्र की प्रतिबद्धता को दोहराना, समाज में बच्चों के साथ दुर्व्यवहार और हिंसा के खिलाफ जागरूकता बढ़ाना, बच्चों के साथ हिंसा रोकने के लिए व्यक्तिगत और सामूहिक रूप से प्रयास करना, बच्चों के लिए सुरक्षित, हिंसामुक्त और अनुकूल वातावरण बनाना एवं बच्चों के अधिकारों की रक्षा और उन्हें हिंसा से सुरक्षित रखने के लिए जागरूकता फैलाना है। संयुक्त राष्ट्र ने इस दिवस की शुरुआत 1982 में की थी, जब फिलिस्तीनी और लेबनानी बच्चों पर हुए अत्याचारों के बाद यह दिवस घोषित किया गया था, जिसे मनाते हुए हमें दुनिया भर में बच्चों द्वारा झेले गए दर्द को स्वीकारना होगा, जो शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक शोषण के शिकार हैं। यह दिन बच्चों के अधिकारों की रक्षा के लिए संयुक्त राष्ट्र की प्रतिबद्धता की पुष्टि करता है।
बच्चे दुनिया की आबादी का एक चौथाई हिस्सा हैं और किसी भी समाज की भलाई के लिए बच्चों का सुरक्षित एवं संरक्षित होना जरूरी हैं। वे समाज के सबसे कमज़ोर सदस्य हैं, जिन्हें निष्कंटक, खुशहाल और सफल जीवन जीने के लिए समान अवसर दिए जाने और उनकी रक्षा किए जाने की आवश्यकता है। लेकिन, हर साल संघर्ष और युद्धों के कारण बच्चों की एक बड़ी संख्या हिंसा, विस्थापन, अपंगता और दुर्व्यवहार का शिकार होती है। यह केवल इस बात को साबित करता है कि बच्चों पर किसी भी संघर्ष का गंभीर एवं घातक प्रभाव पड़ता है। निश्चित ही रूस एवं यूक्रेन, गाजा एवं इजरायल जैसे लम्बे समय से चल रहे युद्धों के कारण हर दिन, दुनिया भर में बच्चे अकथनीय भयावहता एवं त्रासदियों का सामना कर रहे हैं। वे अपने घरों में सोने या बाहर खेलने, स्कूल में पढ़ने या अस्पतालों में चिकित्सा देखभाल प्राप्त करने में सुरक्षित नहीं हैं। हत्या और अपंगता, अपहरण और यौन हिंसा से लेकर शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं पर हमले नयी बन रही विश्व संरचना के लिये गंभीर चुनौती है। बच्चे चौंका देने वाले पैमाने पर युद्धरत दलों के निशाने पर आ रहे हैं।
हाल के वर्षों में, कई संघर्ष एवं युद्ध क्षेत्रों में, महामारियों एवं प्राकृतिक आपदाओं के कारण बच्चों के खिलाफ उल्लंघन की संख्या में वृद्धि हुई है। संघर्ष, युद्ध, हिंसा एवं महामारियों से प्रभावित देशों और क्षेत्रों में रहने वाले 250 मिलियन बच्चों की सुरक्षा के लिए और अधिक प्रयास किए जाने की आवश्यकता है। हिंसक अतिवादियों द्वारा बच्चों को निशाना बनाने से बचाने के लिए, अंतर्राष्ट्रीय मानव अधिकार कानून को बढ़ावा देने के लिए और बच्चों के अधिकारों के उल्लंघन के लिए जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिए और अधिक प्रयासों एवं संकल्पों की जरूरत है ताकि बच्चों के बेहतर भविष्य को सुरक्षित एवं सुनिश्चित किया जा सके। संयुक्त राष्ट्र के नए एजेंडे में पहली बार बच्चों के खिलाफ हिंसा के सभी रूपों को समाप्त करने के लिए एक विशिष्ट लक्ष्य शामिल था और बच्चों के दुर्व्यवहार, उपेक्षा और शोषण को समाप्त करने के लिए कई अन्य हिंसा-संबंधी लक्ष्यों को मुख्यधारा में शामिल किया गया। विश्वस्तर पर बालकों के उन्नत जीवन के ऐसे आयोजनों के बावजूद आज भी बचपन उपेक्षित, प्रताड़ित एवं नारकीय बना हुआ है, आज बच्चों की इन बदहाल स्थिति की प्रमुख वजहें हैं, वे हैं-सरकारी योजनाओं का कागज तक ही सीमित रहना, बुद्धिजीवी वर्ग व जनप्रतिनिधियों की उदासीनता, दुनिया की महाशक्तियों की ओर से बच्चों के ज्वलंत प्रश्नों पर आंख मूंद लेना, इनके प्रति समाज का संवेदनहीन होना एवं गरीबी-शिक्षा के लिये जागरुकता का अभाव है।
युद्धों एवं ऐसी ही स्थितियों में 11,649 बच्चे मारे गए या अपंग हो गए। अधिकांश मामलों में, विस्फोटक आयुध और बारूदी सुरंगों का उपयोग आबादी वाले क्षेत्रों में किया गया, जिसके कारण बच्चों की मृत्यु हुई और वे अपंग हो गए। 8,655 बच्चों का इस्तेमाल संघर्ष में किया गया और 4356 का अपहरण किया गया, जिनमें से सबसे ज्यादा संख्या कांगो, सोमालिया और नाइजीरिया के लोकतांत्रिक गणराज्य में पायी गयी। पीड़ितों में से लगभग 30 प्रतिशत लड़कियां थीं। 1,470 बच्चे यौन हिंसा के शिकार हुए है। संघर्ष में यौन हिंसा कलंक और कानूनी सुरक्षा की कमी के कारण लड़कियों और लड़कों दोनों के लिए सबसे कम रिपोर्ट की जाने वाली गंभीर हिंसा है। 90 प्रतिशत से अधिक यौन हिंसा लड़कियों के खिलाफ की गई, जो यौन हिंसा और जबरन विवाह से असमान रूप से प्रभावित हैं, हालांकि लड़कों के खिलाफ यौन हिंसा की घटनाओं में भी वृद्धि हुई है। 2022 से 2023 तक मानवीय सहायता से वंचित करने की घटनाओं में 32 प्रतिशत से अधिक की वृद्धि हुई है, जो अक्सर अन्य गंभीर उल्लंघनों में वृद्धि के साथ मेल खाती है। 2024 के लिए, मानवीय सहायता से वंचित करने की घटनाओं में कई संदर्भों में गिरावट आने की उम्मीद है, विशेष रूप से अफ़गानिस्तान, म्यांमार और सूडान में मानवीय संगठनों और कर्मियों पर नियंत्रण बढ़ाने वाले प्रतिबंधात्मक नियमों को अपनाने के कारण। 2023 तक, स्कूलों पर हमलों में लगभग 60 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। कोफी अन्नान ने एक बार कहा था, ‘दुनिया में बच्चों के साथ जो भरोसा है, उससे ज्यादा पवित्र कोई भरोसा नहीं है। यह सुनिश्चित करने से ज्यादा महत्वपूर्ण कोई कर्तव्य नहीं है कि उनके अधिकारों का सम्मान किया जाए, उनके कल्याण की रक्षा की जाए, उनका जीवन भय और अभाव से मुक्त हो और वे शांति से बड़े हो सकें।’
बच्चों के खिलाफ गंभीर उल्लंघनों को समाप्त करना और रोकना बच्चों और सशस्त्र संघर्ष पर जनादेश का मुख्य हिस्सा है। बच्चों को शत्रुता से बचाने का सबसे प्रभावी तरीका उन दबाव और खींचतान वाले कारकों को खत्म करना है जो उन्हें सशस्त्र संघर्ष में शामिल होने के लिए प्रेरित करते हैं। बच्चे बहुत अच्छे लगते हैं जब वे हँसते-मुस्कुराते हैं। बच्चे यदि तनावरहित रहते हैं तो चारों तरफ खुशी का माहौल बन जाता है। क्या आपने कभी सोचा है कि बच्चे भी पीड़ा महसूस करते हैं। यह पीड़ा शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक किसी भी तरह के शोषण से पैदा होती है। बच्चे खुश, स्वस्थ और सुरक्षित होने चाहिए। उन्हें जाने-अनजाने में भी कोई पीड़ा नहीं दी जानी चाहिए। बच्चों की खुशी में देश एवं दुनिया का उज्ज्वल भविष्य छुपा है। कुछ बीमार मानसिकता यानी पीडोफिलिया ग्रस्त व्यक्ति मासूम बच्चों को क्रूरतम मानसिक व शारीरिक यातनाएं देने में आनंद की प्राप्ति करता है तथा उसके लिए यह एक ऐसा नशा बन जाता है कि वह बच्चों को यातनाएं देने कि क्रूरतम विधियां इजाद करता जाता है जिसमें बच्चो के साथ सेक्स, शरीर को चोटिल करना-काटना, जलाना, यहाँ तक कि उनके टुकडे-टुकडे कर उनके मांस तक खाना शामिल है। कुछ देशों में बच्चों को ऊंट की पीथ पर बान्धकर ऊटों को दौड़ाया जाता है जिससे बच्चे कि चीत्कार-चीख से वहां के लोग आनन्द एवं मनोरंजन की प्राप्ति करते हैं, यह भी पीडोफिलिया का ही एक उदाहरण है। इन क्रूर एवं अमानवीय स्थितियों का मासूम बच्चों पर भारी दुष्प्रभाव पड़ता है और इन कमजोर नींवों पर हम कैसे एक सशक्त दुनिया की कल्पना कर सकते हैं? 

दुग्धशाला की शक्ति का परिचायक है आत्मनिर्भरता

डॉ. शंकर सुवन सिंह

दूध में कैल्शियम, मैग्नीशियम, ज़िंक, फास्फोरस, आयोडीन, आयरन, पोटैशियम, फोलेट्स, विटामिन ए, विटामिन डी, राइबोफ्लेविन, विटामिन बी-12, प्रोटीन आदि मौजूद होते हैं। गाय के वसा रहित दूध (स्किम्ड मिल्क) में कोलेस्ट्रॉल 2-5 मिलीग्राम प्रति 100 मिलीलीटर होता है। पूर्ण वसा (फुल क्रीम) वाले दूध में कोलेस्ट्रॉल 10-15 मिलीग्राम प्रति 100 मिलीलीटर होता है। आंकड़ों के अनुसार  एक स्वस्थ्य व्यक्ति 300 मिलीग्राम कोलेस्ट्रॉल प्रतिदिन ले सकता है। अतएव दूध पीने से हृदयघात होने की संभावना नगण्य होती है। दूध में मुख्यतः केसिन और व्हेय नामक दो प्रोटीन पाए जाते हैं। दूध में प्रोटीन का 80 प्रतिशत हिस्सा केसिन के रूप में होता है और बाकी 20 प्रतिशत हिस्सा व्हे का होता है। दूध में व्याप्त केसिन प्रोटीन, कैल्शियम और फॉस्फेट के साथ मिलकर छोटे छोटे कण बनाते हैं जिन्हें मिसेल्स कहा जाता है। जब प्रकाश इन मिसेल्स से टकराता है तो यह प्रकाश अपरिवर्तित होकर फ़ैल जाता है। दूध में पाए जाने वाला वसा के कण (फैट ग्लोबुल्स) भी प्रकाश के प्रकीर्णन का कारण बनते हैं। अतएव दूध का रंग सफ़ेद दिखाई देता है। कहने का तात्पर्य यह है कि जिस दूध में जितना ज्यादा वसा (फैट) होगा उसका रंग उतना ही सफ़ेद दिखाई देगा। गाय के दूध में भैंस के दूध की अपेक्षा वसा (फैट) कम होता है और केसिन नामक प्रोटीन भी कम होता है। इसलिए गाय का दूध हल्का पीला दिखाई देता है। दूध में कैरोटीन और कैसिन नामक दो वर्णक (पिगमेंट) होते हैं जो उसके रंग को प्रभावित करते हैं। अतएव कैरोटीन की वजह से गाय के दूध में हल्का पीला रंग होता है, जबकि कैसिन की वजह से दूध का रंग सफेद होता है। भैंस के दूध में केरोटीन कम होता है और फैट ज्यादा। जबकि गाय के दूध में केरोटीन ज्यादा और फैट अपेक्षाकृत कम होता है। अतएव हम कह सकते हैं कि दूध एक अपारदर्शी, सफेद तरल उत्पाद है।

डेयरी शब्द को दुग्ध उद्योग से जोड़ कर देख सकते हैं। दूध को विभिन्न डेरी उत्पादों में परिवर्तन के लिए प्रसंस्करण किया जाता है। दूध के विभिन्न उप उत्पाद भी होते हैं जिन्हे तकनीकी भाषा में मिल्क बाई प्रोडक्ट (दूध के उप उत्पाद) भी कहा जाता है। डेयरी उत्पाद में दूध प्राथमिक घटक के रूप में प्रयोग होता है। जैसे की दूध, दही, पनीर, आइसक्रीम। डेयरी उप उत्पादों में व्हेय, छाछ, स्किम मिल्क, घी के अवशेष (घी रेज़िड्यू) आदि आते हैं। दूधऔर डेयरी (दुग्धशाला) का सम्बन्ध बगिया और माली जैसा है। जिस प्रकार एक माली अपनी बगिया को सींचता और सम्हालता है। उसी प्रकार एक माली रूपी डेयरी (दुग्धशाला), बगियारूपी दूध को सम्हालता और संरक्षित करता है। डेयरी (दुग्धशालाएँ) दूध की सुंदरता और उनकी दिव्यता का द्योतक है। दूध का रखरखाव और उसको ताजा बनाए रखने की जिम्मेदारी डेयरी (दुग्धशाला) की होती है। जिसको तकनीकी भाषा में शेल्फ लाइफ ऑफ़ मिल्क कहा जाता है। अर्थात दूध की पोषकता को लम्बे समय तक बनाए रखना। पोषकता का सम्बन्ध शुद्धता से होना चाहिए। शुद्ध दूध ही एक स्वस्थ्य शरीर का परिचायक है। डेयरी उद्योगों (दुग्धशालाओं) के लिए शुद्धता ही प्राथमिकता होनी चाहिए। अधिकांश डेयरी उद्योग (दुग्धशालाएं) शुद्धता का ख्याल रखते हैं और शुद्ध दूध को ही जन जन तक पहुँचाते हैं। भारत में ब्रांडेड डेयरी (दुग्ध्शाला) में अमूल, पारस, ज्ञान, नमस्ते इंडिया, सुधा, आदि डेयरी आती है। भारत में ग्रामीण क्षेत्रों में भी बहुत सी लोकल सर्टिफाइड डेयरी (दुग्धशालाएँ) काम कर रही हैं। ये सभी गुणवत्ता व शुद्धता के मामले में काफी आगे हैं। ये सभी डेयरी दूर दराज में रहने वाले लोगों के लिए राम बाण साबित होती हैं। जिस शहर और क्षेत्र में दुग्ध उत्पादन की कमी होती है, वहाँ इन डेयरी (दुग्ध्शाला) द्वारा कमी को पूरा किया जाता है। कुल मिलाकर जनसँख्या के हिसाब से दूध की जितनी खपत है भारत दूध का उतना उत्पादन करने में सक्षम है। अतएव हम कह सकते हैं कि दुग्धशालाएं, दूध को संरक्षित और सुरक्षित करती हैं। विश्व में भारत दुग्ध उत्पादन में प्रथम स्थान रखता है। वर्ष 2025 में विश्व दुग्ध दिवस की 25 वीं वर्षगाँठ मनाई जा रही है। विश्व दुग्ध दिवस प्रत्येक वर्ष 1 जून को मनाया जाता है। विश्व दुग्ध दिवस 2025 का थीम/प्रसंग है- आइए डेयरी की शक्ति का जश्न मनाएं। असली मायने में हम डेयरी की शक्ति का जश्न तभी मना सकते हैं जब हर घर दूध और दूध से बने उत्पाद शुद्धता के साथ पहुंचे। डेयरी उत्पाद का शुद्ध होना आवश्यक है। शुद्धता ही असली स्वास्थ्य की निशानी है। तभी हम कह सकते हैं कि दूध व दूध से बने उत्पाद वैश्विक पोषण का आधार हैं। भारत में राष्ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड डेयरी उद्योग के विस्तार के लिए काम करती है। राष्ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड (एन डी डी बी) के संस्थापक डॉ. वर्गीस कुरियन थे। डॉ. वर्गीस कुरियन को भारत में श्वेत क्रांति का जनक भी कहा जाता है। लोगों या किसानों को डेयरी के क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनाने के लिए सरकार की कुछ योजनाएं हैं जिनका लाभ उठाया जा सकता है। भारत सरकार की डेयरी उद्यमिता विकास योजना (डी ई डी एस) के तहत आम नागरिक और किसान मिल्क कलेक्शन सेंटर खोल सकते हैं। उत्तर प्रदेश सरकार की नंदिनी कृषक समृद्धि योजना, कामधेनु डेयरी योजना, नंद बाबा डेयरी मिशन आदि योजनाएं एक सफल डेयरी उद्योग खोलने में मदद कर सकती हैं। अतः बिना डेयरी उद्योग (दुग्धशाला) के दूध की दिव्यता अधूरी है। यह कहने में अतिश्योक्ति नहीं होगी कि दूध की दिव्यता का स्रोत डेयरी (दुग्धशाला) ही हैं। डेयरी (दुग्धशाला) सेक्टर आत्मनिर्भरता की कुंजी है। देश में बढ़ते डेयरी उद्योग लोगों को आत्मनिर्भर बना रहे हैं। आत्मनिर्भरता स्वतन्त्रता का सूचक है। स्वतन्त्रता सकून और शांति को जन्म देती है। अतएव हम कह सकते हैं कि आत्मनिर्भरता डेयरी (दुग्धशाला) की शक्ति का परिचायक है।

हिमालय की बर्फ़ खा गया ‘ब्लैक कार्बन’: दो दशक में बढ़ा 4°C तापमान, पानी संकट गहराने का ख़तरा

0

हिमालय की बर्फ़ तेजी से पिघल रही है। वजह? हमारे चूल्हों से उठता धुआं, खेतों में जलाई जा रही पराली, और गाड़ियों से निकलता धुआं — यानी ‘ब्लैक कार्बन’। दिल्ली की एक रिसर्च संस्था Climate Trends की नई रिपोर्ट बताती है कि पिछले 20 सालों में हिमालयी इलाकों में बर्फ़ की सतह का तापमान औसतन 4 डिग्री सेल्सियस बढ़ गया है। और ये बदलाव अचानक नहीं आया — इसकी एक बड़ी वजह है हवा में घुलता काला ज़हर।

ये ‘ब्लैक कार्बन’ दिखता तो धुएं जैसा है, लेकिन असर किसी धीमे ज़हर की तरह करता है। ये बर्फ़ पर जमकर उसकी चमक यानी रिफ्लेक्टिव ताकत को कम कर देता है, जिससे सूरज की गर्मी सीधे बर्फ़ में समा जाती है और वो तेज़ी से पिघलने लगती है।

रिपोर्ट में NASA के 23 साल के सेटेलाइट डेटा (2000-2023) का विश्लेषण किया गया है। पता चला कि 2000 से 2019 तक ब्लैक कार्बन की मात्रा में तेज़ी से इज़ाफा हुआ, जिससे हिमालय की बर्फ़ लगातार सिकुड़ती गई। 2019 के बाद इसकी रफ्तार थोड़ी थमी ज़रूर है, लेकिन नुक़सान हो चुका है।

विशेषज्ञों का कहना है कि जहां ब्लैक कार्बन ज़्यादा जमा होता है, वहां बर्फ़ की मोटाई सबसे तेज़ घट रही है। इससे नदियों के जलस्तर पर असर पड़ेगा और करीब दो अरब लोगों की पानी की सुरक्षा खतरे में पड़ सकती है — खासतौर पर भारत, नेपाल, भूटान और बांग्लादेश जैसे देशों में।

रिपोर्ट की मुख्य लेखिका, डॉ. पलक बलियान कहती हैं, “पूर्वी हिमालय में ब्लैक कार्बन सबसे ज़्यादा पाया गया है, क्योंकि वो इलाका ज़्यादा घना बसा है और वहां बायोमास जलाने की घटनाएं आम हैं।”

अच्छी बात ये है कि ब्लैक कार्बन ज़्यादा समय तक वातावरण में नहीं टिकता। अगर अभी इसकी मात्रा को कम किया जाए — जैसे कि चूल्हों को साफ़ ईंधन में बदला जाए, पराली जलाने पर रोक लगे, और ट्रांसपोर्ट सेक्टर साफ किया जाए — तो कुछ ही सालों में असर दिख सकता है।

Climate Trends की डायरेक्टर आरती खोसला कहती हैं, “ये ऐसा मुद्दा है जहां हम जलवायु परिवर्तन और वायु प्रदूषण — दोनों को एक साथ टारगेट कर सकते हैं। और इसमें जीत जल्दी मिल सकती है।”

निचोड़ ये है कि हिमालय की बर्फ़ अब उतनी ठंडी नहीं रही। अगर हम वक़्त रहते नहीं जागे, तो आने वाले सालों में पानी का संकट और तेज़ होगा। और इसका असर सिर्फ पहाड़ों तक सीमित नहीं रहेगा — मैदानी ज़िंदगी भी इसकी चपेट में आएगी।

माता-पिता और संतान के संबंधों की संस्कृति को जीवंतता दें

0

विश्व माता-पिता दिवसः 1 जून 2025
– ललित गर्ग –

विश्व के अधिकतर देशों की संस्कृति में माता-पिता का रिश्ता सबसे बड़ा एवं प्रगाढ़ माना गया है। भारत में तो इन्हें ईश्वर का रूप माना गया है। माता-पिता को उनके बच्चों के लिए किए गए उनके काम, बच्चों के प्रति उनकी निस्वार्थ प्रतिबद्धता और इस रिश्ते को पोषित करने के लिए उनके आजीवन त्याग के लिए सम्मान और सराहना देने के लिए प्रतिवर्ष विश्व माता-पिता (अभिभावक) दिवस 1 जून को मनाया जाता है। यह संयुक्त राष्ट्र (यूएन) का पालन दिवस है। यह दिन हमें परिवारों के विकास में माता-पिता और उनके जैसे लोगों की महत्वपूर्ण भूमिका की सराहना करने का अवसर प्रदान करता है। 2025 के लिए थीम है ‘माता-पिता का पालन-पोषण’। यह थीम माता-पिता के रूप में पालन-पोषण को एक महत्वपूर्ण कौशल के रूप में मान्यता देती है और हमें माता-पिता के रूप में बच्चों के विकास और कल्याण के लिए उनकी महत्वपूर्ण भूमिका पर ध्यान केंद्रित करने के लिए प्रेरित करती है। अधिकांश देशों में सदियों से माता-पिता का सम्मान करने की परंपरा रही है। माता-पिता ईश्वर का सबसे अच्छा उपहार हैं। जीवन में कोई भी माता-पिता की जगह नहीं ले सकता। वे सच्चे शुभचिंतक हैं।
माता-पिता ही बच्चों की सुरक्षा, विकास व समृद्धि के बारे में सोचते हैं। बावजूद बच्चों द्वारा माता-पिता की लगातार उपेक्षा, दुर्व्यवहार एवं प्रताड़ना की स्थितियों बढ़ती जा रही है, जिन पर नियंत्रण के लिये यह दिवस मनाया जाता है। भारत में जहां कभी संतानें पिता के चेहरे में भगवान और मां के चरणों में स्वर्ग देखती थीं, आज उसी देश में संतानों के उपेक्षापूर्ण व्यवहार के कारण बड़ी संख्या में बुजुर्ग माता-पिता की स्थिति दयनीय होकर रह गई है। इस दिवस को मनाने की सार्थकता तभी है जब हम केवल भारत में ही नहीं है बल्कि विश्व में अभिभावकों के साथ होने वाले अन्याय, उपेक्षा और दुर्व्यवहार पर लगाम लगाने की भी है। प्रश्न है कि दुनिया में अभिभावक दिवस मनाने की आवश्यकता क्यों हुई? क्यों अभिभावकों की उपेक्षा एवं प्रताड़ना की स्थितियां बनी हुई है? चिन्तन का महत्वपूर्ण पक्ष है कि अभिभावकों की उपेक्षा के इस गलत प्रवाह को कैसे रोके। क्योंकि सोच के गलत प्रवाह ने न केवल अभिभावकों का जीवन दुश्वार कर दिया है बल्कि आदमी-आदमी के बीच के भावात्मक फासलों को भी बढ़ा दिया है। विचारणीय है कि अगर आज हम माता-पिता का अपमान करते हैं, तो कल हमें भी अपमान सहना होगा। समाज का एक सच यह है कि जो आज जवान है उसे कल माता-पिता भी होना होगा और इस सच से कोई नहीं बच सकता। हमें समझना चाहिए कि माता-पिता परिवार एवं समाज की अमूल्य विरासत होते हैं। इन्हीं स्थितियों को देखते हुए 2007 में माता-पिता एवं वरिष्ठ नागरिक भरण-पोषण विधेयक संसद में पारित किया गया है। इसमें माता-पिता के भरण-पोषण, वृद्धाश्रमों की स्थापना, चिकित्सा सुविधा की व्यवस्था और वरिष्ठ नागरिकों के जीवन और संपत्ति की सुरक्षा का प्रावधान किया गया है। लेकिन इन सब के बावजूद हमें अखबारों और समाचारों की सुर्खियों में माता-पिता की हत्या, लूटमार, उत्पीड़न एवं उपेक्षा की घटनाएं देखने को मिल ही जाती है।
विश्व में इस दिवस को मनाने के तरीके अलग-अलग हो सकते हैं, परन्तु सभी का मुख्य उद्देश्य यह होता है कि वे अपने माता-पिता के योगदान को न भूलें और उनको अकेलेपन की कमी को महसूस न होने दें। हमारा भारत तो माता-पिता को भगवान के रूप में मानता है। इतिहास में अनेकों ऐसे उदाहरण है कि माता-पिता की आज्ञा से भगवान श्रीराम जैसे अवतारी पुरुषों ने राजपाट त्याग कर वनों में विचरण किया, मातृ-पितृ भक्त श्रवण कुमार ने अपने अन्धे माता-पिता को काँवड़ में बैठाकर चारधाम की यात्रा कराई। फिर क्यों आधुनिक समाज में माता-पिता और उनकी संतान के बीच दूरियां बढ़ती जा रही है। आज के माता-पिता समाज-परिवार से कटे रहते हैं और सामान्यतः इस बात से सर्वाधिक दुःखी है कि जीवन का विशद अनुभव होने के बावजूद कोई उनकी राय न तो लेना चाहता है और न ही उनकी राय को महत्व देता है। समाज में अपनी एक तरह से अहमियत न समझे जाने के कारण हमारे माता-पिता दुःखी, उपेक्षित एवं त्रासद जीवन जीने को विवश है। माता-पिता को इस दुःख और कष्ट से छुटकारा दिलाना आज की सबसे बड़ी जरूरत है।
बुजुर्गों के साथ दुर्व्यवहार किस सीमा तक, कितना, किस रूप में और कितनी बार होता है तथा इसके पीछे कारण क्या हैं, इस पर हुए शोध में पता चला कि 82 प्रतिशत पीड़ित बुजुर्ग अपने परिवार के सम्मान के चलते इसकी शिकायत नहीं करते। शोध के निष्कर्षों के अनुसार अभिभावकों पर होने वाले अत्याचार एवं दुर्व्यवहार की स्थितियां चिन्तनीय है। जिनमें परिजनों एवं विशेषतः बच्चों के हाथों बुजुर्ग अपमान (56 प्रतिशत), गाली-गलौच (49 प्रतिशत), उपेक्षा (33 प्रतिशत), आर्थिक शोषण (22 प्रतिशत) और शारीरिक उत्पीडऩ का शिकार (12 प्रतिशत) होते हैं और ऐसा करने वालों में बहुओं (34 प्रतिशत) की अपेक्षा बेटों (52 प्रतिशत) की संख्या अधिक है जबकि पिछले सर्वेक्षणों में बहुओं की संख्या अधिक पाई गयी है। प्रौद्योगिकी ने भी बुजुर्गों की उपेक्षा और उनसे दुर्व्यवहार में अपना योगदान दिया है और संतानें अपने माता-पिता की अपेक्षा मोबाइल फोन और कम्प्यूटरों को अधिक तवज्जो देती हैं। इसका बुजुर्गों के जीवन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है।
अभिभावकों को लेकर जो गंभीर समस्याएं आज पैदा हुई हैं, वह अचानक ही नहीं हुई, बल्कि उपभोक्तावादी संस्कृति तथा महानगरीय अधुनातन बोध के तहत बदलते सामाजिक मूल्यों, नई पीढ़ी की सोच में परिवर्तन आने, महंगाई के बढ़ने और व्यक्ति के अपने बच्चों और पत्नी तक सीमित हो जाने की प्रवृत्ति के कारण बड़े-बूढ़ों के लिए अनेक समस्याएं आ खड़ी हुई हैं। अभिभावकों के लिये भी यह जरूरी है कि वे वार्धक्य को ओढ़े नहीं, बल्कि जीएं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के दूरदर्शी नारे “सबका साथ, सबका विकास एवं सबका विश्वास’’ की गूंज और भावना अभिभावकों के जीवन में उजाला बने, तभी नया भारत निर्मित होगा। मानवीय रिश्तों में दुनिया में माता-पिता और संतान का रिश्ता अनुपम है, संवेदनाभरा है। माता-पिता हर संतान के लिए एक प्रेरणा हैं, एक प्रकाश हैं और संभावनाओं के पुंज हैं। हर माता-पिता अपनी संतान की निषेधात्मक और दुष्प्रवृत्तियों को समाप्त करके नया जीवन प्रदान करते हैं। माता-पिता की प्रेरणाएं संतान को मानसिक प्रसन्नता और परम शांति देती है। जैसे औषधि दुख, दर्द और पीड़ा का हरण करती है, वैसे ही माता-पिता शिव पार्वती की भांति पुत्र के सारे अवसाद और दुखों का हरण करते हैं।
माता पिता ही है जो हमें सच्चे दिल से प्यार करते हैं बाकी इस दुनिया में सब नाते रिश्तेदार झुठे होते हैं। पता नहीं क्यों हमे हमारे पिता इतना प्यार करते हैं, दुनिया के बैंक खाली हो जाते हैं मगर पिता की जेब हमेशा हमारे लिए भरी रहती हैं। पता नहीं जरूरत के समय न होते हुए उनके पास अपने बच्चों के लिये कहां से पैसे आ जाते हैं। भगवान के रूप में माता-पिता हमें एक सौगात हैं जिनकी हमें सेवा करनी चाहिए और कभी उनका दिल नहीं तोडना चाहिए। एक बच्चे को बड़ा और सभ्य बनाने में उसके पिता का योगदान कम करके नहीं आंका जा सकता। मां का रिश्ता सबसे गहरा एवं पवित्र माना गया है, लेकिन बच्चे को जब कोई खरोंच लग जाती है तो जितना दर्द एक मां महसूस करती है, वही दर्द एक पिता भी महसूस करते हैं। पिता कठोर इसलिये होते हैं ताकि बेटा उन्हें देख कर जीवन की समस्याओं से लड़ने का पाठ सीखे, सख्त एवं निडर बनकर जिंदगी की तकलीफों का सामना करने में सक्षम हो। माँ ममता का सागर है पर पिता उसका किनारा है। माँ से ही बनता घर है पर पिता घर का सहारा है। माँ से स्वर्ग है माँ से बैकुंठ, माँ से ही चारों धाम है पर इन सब का द्वार तो पिता ही है। आधुनिक समाज में माता-पिता और उनकी संतान के संबंधों की संस्कृति को जीवंत बनाने की अपेक्षा है। 

हिंदी पत्रकारिता उद्भव से लेकर डिजिटल युग तक

हिंदी पत्रकारिता दिवस (30 मई)विशेष-

-संदीप सृजन

हिंदी पत्रकारिता का इतिहास भारत के सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक परिदृश्य का एक महत्वपूर्ण हिस्सा रहा है। यह न केवल सूचना का माध्यम है, बल्कि समाज को जागरूक करने, विचारों को प्रेरित करने और परिवर्तन की दिशा में एक उत्प्रेरक की भूमिका निभाता है। हिंदी पत्रकारिता ने अपने उद्भव से लेकर आज तक कई उतार-चढ़ाव देखे हैं।हिंदी पत्रकारिता का सफर संघर्षों और उपलब्धियों से भरा रहा है। 19वीं सदी में अपने उद्भव से लेकर डिजिटल युग तक, इसने समाज को जागरूक करने और परिवर्तन लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। आर्थिक दबाव, डिजिटल युग की चुनौतियाँ, और पत्रकारों की सुरक्षा जैसे मुद्दों ने इसके सामने कई बाधाएँ खड़ी की हैं। फिर भी, डिजिटल क्रांति, स्थानीय पत्रकारिता, और तकनीकी नवाचारों के साथ हिंदी पत्रकारिता का भविष्य उज्ज्वल है।

हिंदी पत्रकारिता की शुरुआत 19वीं सदी में हुई, जब भारत में ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन अपने चरम पर था। इस दौर में हिंदी पत्रकारिता ने न केवल सूचना प्रसार का कार्य किया, बल्कि स्वतंत्रता संग्राम में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। पहला हिंदी समाचार पत्र “उदंत मार्तंड” 30 मई, 1826 को पंडित जुगल किशोर शुक्ल द्वारा कोलकाता से प्रकाशित किया गया। हालांकि, आर्थिक तंगी और अन्य संसाधनों की कमी के कारण यह पत्र केवल डेढ़ साल तक चल सका। यह हिंदी पत्रकारिता के शुरुआती संघर्ष का एक उदाहरण है।

उस दौर में हिंदी पत्रकारिता को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा। ब्रिटिश सरकार की सेंसरशिप, सीमित पाठक वर्ग, और तकनीकी संसाधनों की कमी ने पत्रकारों के लिए काम को और कठिन बना दिया। इसके बावजूद भारतेंदु हरिश्चंद्र, बाल गंगाधर तिलक, और महावीर प्रसाद द्विवेदी जैसे दिग्गजों ने हिंदी पत्रकारिता को एक मजबूत आधार प्रदान किया। भारतेंदु हरिश्चंद्र की पत्रिका कवि वचन सुधाऔर हरिश्चंद्र मैगजीन ने हिंदी साहित्य और पत्रकारिता को एक नई दिशा दी। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान हिंदी पत्रकारिता ने जनजागरण का महत्वपूर्ण कार्य किया। स्वदेश,कर्मवीर और प्रताप जैसे समाचार पत्रों ने लोगों को स्वतंत्रता के लिए प्रेरित किया। इस दौरान पत्रकारों को जेल, उत्पीड़न, और आर्थिक संकट का सामना करना पड़ा। फिर भी, हिंदी पत्रकारिता ने अपनी आवाज को दबने नहीं दिया।

स्वतंत्रता के बाद हिंदी पत्रकारिता ने नए आयाम हासिल किए। 1950 और 1960 के दशक में हिंदी समाचार पत्रों और पत्रिकाओं की संख्या में तेजी से वृद्धि हुई। हिंदुस्तान, नवभारत टाइम्स, धर्मयुग और साप्ताहिक हिंदुस्तान जैसे प्रकाशनों ने हिंदी पत्रकारिता को लोकप्रिय बनाया। इस दौरान हिंदी पत्रकारिता ने शिक्षा, सामाजिक सुधार, और राष्ट्रीय एकता जैसे मुद्दों पर ध्यान केंद्रित किया।

हालांकि, इस दौर में भी हिंदी पत्रकारिता को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा। हिंदी भाषी क्षेत्रों में साक्षरता दर कम होने के कारण पाठक वर्ग सीमित था। इसके अलावा, अंग्रेजी पत्रकारिता के मुकाबले हिंदी पत्रकारिता को कम गंभीरता से लिया जाता था। फिर भी, हिंदी पत्रकारिता ने अपनी पहुंच और प्रभाव को बढ़ाने के लिए लगातार प्रयास किए।

आज के दौर में हिंदी पत्रकारिता एक ओर जहां तकनीकी प्रगति और डिजिटल क्रांति के साथ कदमताल कर रही है, वहीं इसे कई नई और पुरानी चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है।हिंदी पत्रकारिता पर कॉर्पोरेट और विज्ञापनदाताओं का प्रभाव बढ़ रहा है। बड़े मीडिया हाउस विज्ञापन राजस्व पर निर्भर हैं, जिसके कारण कई बार पत्रकारिता की निष्पक्षता प्रभावित होती है। पेड न्यूज और प्रायोजित सामग्री ने पत्रकारिता की विश्वसनीयता पर सवाल उठाए हैं। छोटे और स्वतंत्र हिंदी समाचार पत्रों को बड़े मीडिया समूहों के साथ प्रतिस्पर्धा करना मुश्किल हो रहा है, जिसके कारण कई प्रकाशन बंद हो चुके हैं।

डिजिटल युग ने हिंदी पत्रकारिता को नई संभावनाएँ दी हैं, लेकिन इसके साथ ही कई चुनौतियाँ भी सामने आई हैं। सोशल मीडिया और डिजिटल प्लेटफॉर्म्स पर फेक न्यूज और मिसइन्फॉर्मेशन का प्रसार एक बड़ी समस्या है। हिंदी समाचार वेबसाइट्स और यूट्यूब चैनल्स की बाढ़ ने गुणवत्तापूर्ण पत्रकारिता को प्रभावित किया है। कई डिजिटल प्लेटफॉर्म सनसनीखेज और भ्रामक खबरों पर ध्यान केंद्रित करते हैं, जिससे पत्रकारिता की विश्वसनीयता पर असर पड़ता है। हिंदी पत्रकारों को अक्सर खतरनाक परिस्थितियों में काम करना पड़ता है। खोजी पत्रकारिता करने वाले पत्रकारों को धमकियाँ, हमले, और यहाँ तक कि हत्या का सामना करना पड़ता है। ग्रामीण और छोटे शहरों में काम करने वाले पत्रकारों को स्थानीय नेताओं और अपराधियों से खतरा रहता है। पत्रकारों की सुरक्षा के लिए ठोस कानूनी और सामाजिक ढाँचा अभी भी अपर्याप्त है।

हिंदी पत्रकारिता में प्रशिक्षित और कुशल पत्रकारों की कमी एक बड़ी चुनौती है। कई युवा पत्रकार अंग्रेजी मीडिया की ओर आकर्षित होते हैं, क्योंकि इसे अधिक प्रतिष्ठित और आर्थिक रूप से लाभकारी माना जाता है। इसके अलावा, हिंदी पत्रकारिता में नई तकनीकों और डेटा पत्रकारिता जैसे क्षेत्रों में प्रशिक्षण की कमी है। हिंदी पत्रकारिता को सामाजिक और सांस्कृतिक मुद्दों पर संतुलित दृष्टिकोण अपनाने की चुनौती का सामना करना पड़ता है। जातिगत, धार्मिक, और क्षेत्रीय संवेदनशीलताओं के कारण कई बार पत्रकारों को अपनी बात कहने में सावधानी बरतनी पड़ती है। इसके अलावा, हिंदी पत्रकारिता को अक्सर पिछड़ा या क्षेत्रीय माना जाता है, जो इसकी छवि को प्रभावित करता है। हिंदी भाषा की मानकता और शुद्धता को लेकर भी बहस चलती रहती है। डिजिटल युग में हिंदी में तकनीकी शब्दावली और आधुनिक भाषा का अभाव एक समस्या है। साथ ही, हिंदी पत्रकारिता को अंग्रेजी और अन्य अंतरराष्ट्रीय भाषाओं के साथ प्रतिस्पर्धा करनी पड़ती है, जो वैश्विक स्तर पर अधिक स्वीकार्य हैं।

हिंदी पत्रकारिता का भविष्य आशावादी होने के साथ-साथ चुनौतियों से भरा हुआ है। डिजिटल क्रांति और तकनीकी प्रगति ने हिंदी पत्रकारिता के लिए नए अवसर खोले हैं। डिजिटल प्लेटफॉर्म्स ने हिंदी पत्रकारिता को व्यापक दर्शकों तक पहुँचाने में मदद की है। द वायर हिंदी, क्विंट हिंदी, बीबीसी हिंदी और न्यूज़लॉन्ड्री जैसे डिजिटल मीडिया हाउस ने हिंदी पत्रकारिता को एक नया आयाम दिया है। सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स जैसे ट्विटर, फेसबुक, और यूट्यूब ने हिंदी समाचारों को तेजी से प्रसारित करने में मदद की है। भविष्य में, डिजिटल पत्रकारिता हिंदी भाषी क्षेत्रों में और अधिक लोकप्रिय होगी, क्योंकि इंटरनेट की पहुँच ग्रामीण क्षेत्रों तक बढ़ रही है।

हिंदी पत्रकारिता में खोजी और डेटा पत्रकारिता का विकास एक सकारात्मक संकेत है। डेटा-आधारित पत्रकारिता से न केवल खबरों की विश्वसनीयता बढ़ती है, बल्कि यह जटिल मुद्दों को सरलता से समझाने में भी मदद करती है। भविष्य में, डेटा पत्रकारिता और विश्लेषणात्मक लेखन हिंदी पत्रकारिता का महत्वपूर्ण हिस्सा बन सकते हैं।

हिंदी भाषी क्षेत्रों में स्थानीय और ग्रामीण पत्रकारिता का महत्व बढ़ रहा है। ख़बर लहरिया जैसे स्वतंत्र मीडिया संगठनों ने ग्रामीण भारत की समस्याओं को राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर लाने का काम किया है। भविष्य में, स्थानीय मुद्दों पर केंद्रित पत्रकारिता हिंदी भाषी समुदायों को सशक्त बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है।

आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, मशीन लर्निंग, और डेटा एनालिटिक्स जैसे तकनीकी नवाचार हिंदी पत्रकारिता को और अधिक प्रभावी बना सकते हैं। AI आधारित उपकरण समाचारों के अनुवाद, विश्लेषण, और प्रसार में मदद कर सकते हैं। इसके अलावा, पॉडकास्ट और वीडियो सामग्री जैसे नए प्रारूप हिंदी पत्रकारिता को और अधिक आकर्षक बना रहे हैं।

हिंदी पत्रकारिता के भविष्य के लिए पत्रकारों का प्रशिक्षण और शिक्षा महत्वपूर्ण है। पत्रकारिता संस्थानों को हिंदी पत्रकारों के लिए विशेष पाठ्यक्रम शुरू करने चाहिए, जिसमें डिजिटल पत्रकारिता, खोजी पत्रकारिता, और डेटा विश्लेषण जैसे विषय शामिल हों। इससे हिंदी पत्रकारिता में गुणवत्ता और पेशेवरता बढ़ेगी।

हिंदी पत्रकारिता के भविष्य की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि वह कितनी निष्पक्ष और विश्वसनीय रह पाती है। पाठकों का भरोसा जीतने के लिए हिंदी मीडिया को पेड न्यूज, सनसनीखेज खबरों, और पक्षपात से बचना होगा। स्वतंत्र और निष्पक्ष पत्रकारिता ही हिंदी पत्रकारिता को दीर्घकालिक सफलता दिला सकती है। हिंदी पत्रकारिता को अपने मूल्यों निष्पक्षता, विश्वसनीयता, और सामाजिक जिम्मेदारी को बनाए रखते हुए आगे बढ़ना होगा। पत्रकारों, मीडिया संगठनों, और पाठकों को मिलकर यह सुनिश्चित करना होगा कि हिंदी पत्रकारिता न केवल जीवित रहे, बल्कि समाज के लिए एक सकारात्मक बदलाव का माध्यम बने। यदि हिंदी पत्रकारिता अपनी चुनौतियों का सामना कर पाए और नई संभावनाओं को अपनाए, तो यह निश्चित रूप से भारत के लोकतांत्रिक और सांस्कृतिक परिदृश्य में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगी।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार और स्तम्भकार हैं)

संदीप सृजन