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कुमार केतकर साहब “नमक का कर्ज़” उतारिये, लेकिन न्यायपालिका को बख्श दीजिये…

सुरेश चिपलूनकर

संघ-भाजपा-हिन्दुत्व के कटु आलोचक, बड़बोले एवं “पवित्र परिवार” के अंधभक्त श्री कुमार केतकर के खिलाफ़ दापोली (महाराष्ट्र) पुलिस ने कोर्ट के आदेश के बाद मामला दर्ज कर लिया है। अपने एक लेख में केतकर साहब ने सदा की तरह “हिन्दू आतंक”, “भगवा-ध्वज” विरोधी राग तो अलापा ही, उन पर केस दर्ज करने का मुख्य कारण बना उनका वह वक्तव्य जिसमें उन्होंने कहा कि “भारतीय न्यायपालिका में संघ के आदमी घुस गये हैं…”।

इस लेख में केतकर साहब ने अयोध्या मामले के निर्णय का हवाला देते हुए कहा कि पुलिस, प्रशासन, प्रेस और न्यायपालिका में “संघ के गुर्गे” घुसपैठ कर गये हैं। पहले तो सामाजिक कार्यकर्ता श्री एन आर शिगवण ने केतकर से पत्र लिखकर जवाब माँगा, लेकिन हेकड़ीबाज केतकर ऐसे पत्रों का जवाब भला क्यों देने लगे, तब शिगवण जी ने कोर्ट में केस दायर किया, जहाँ माननीय न्यायालय ने लेख की उक्त पंक्ति को देखकर तत्काल मामला दर्ज करने का निर्देश दिया…। लेख में अपने “तर्क”(???) को धार देने के लिए केतकर साहब ने महात्मा गाँधी के साथ-साथ राजीव गाँधी की हत्या को भी “हिन्दू आतंक” बता डाला, क्योंकि उनके अनुसार राजीव के हत्यारे भी “हिन्दू” ही हैं, इसलिए… (है ना माथा पीटने लायक तर्क)। यह तर्क कुछ-कुछ ऐसा ही है जैसे दिग्विजय सिंह साहब ने 26/11 के हमले में संघ का हाथ होना बताया था। केतकर साहब का बस चले तो वे अजमल कसाब को भी संघ का कार्यकर्ता घोषित कर दें…।

जहाँ अपने इस लेख में कुमार केतकर ने ठेठ “रुदाली स्टाइल” में संघ-भाजपा के खिलाफ़ विष-वमन किया, वहीं इसी लेख में उन्होंने “पारिवारिक चरण चुम्बन” की परम्परा को बरकरार रखते हुए सवाल किया कि “RSS के “प्रातः स्मरण” (शाखा की सुबह की प्रार्थना) में महात्मा गाँधी का नाम क्यों है, जबकि जवाहरलाल नेहरु का नाम क्यों नहीं है…” (हो सकता है अगले लेख में वे यह आपत्ति दर्ज करा दें कि इसमें जिन्ना का नाम क्यों नहीं है?)। इससे पहले भी कुमार केतकर साहब, बाल ठाकरे को “मुम्बई का अयातुल्लाह खोमैनी” जैसी उपाधियाँ दे चुके हैं, साथ ही “अमूल बेबी” द्वारा मुम्बई की लोकल ट्रेन यात्रा को एक लेख में “ऐतिहासिक यात्रा” निरूपित कर चुके हैं…

इन्हीं हरकतों की वजह से कुछ समय पहले केतकर साहब को “लोकसत्ता” से धक्के मारकर निकाला गया था, इसके बाद वे “दिव्य भास्कर” के एडीटर बन गये… लेकिन लगता है कि ये उसे भी डुबाकर ही मानेंगे…। (पता नहीं दिव्य भास्कर ने उनमें ऐसा क्या देखा?)।

उल्लेखनीय है कि कुछ समय पहले माननीय प्रधानमंत्री “मौन ही मौन सिंह” ने पूरे देश से चुनकर जिन “खास” पाँच सम्पादकों को इंटरव्यू के लिए बुलाया था, उसमें एक अनमोल नगीना कुमार केतकर भी थे, ज़ाहिर है कि “नमक का कर्ज़” उतारने का फ़र्ज़ तो अदा करेंगे ही…, लेकिन न्यायपालिका पर “संघी” होने का आरोप लगाकर उन्होंने निश्चित रूप से दिवालिएपन का सबूत दिया है।

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नोट :- सभी पाठकों, शुभचिंतकों एवं मित्रों को दीपपर्व की हार्दिक शुभकामनाएं, आप सभी खुश रहें, सफ़ल हों…। इस दीपावली संकल्प लें कि हम सभी आपस में मिलकर इसी तरह हिन्दुत्व विरोधियों को बेनकाब करते चलें, उन्हें न्यायालय के रास्ते सबक सिखाते चलें…हिन्दुओं, हिन्दू संस्कृति, हिन्दू संतों, हिन्दू मन्दिरों के द्वेषियों को तर्कों से ध्वस्त करते चलें…

स्रोत :- https://en.newsbharati.com//Encyc/2011/10/21/Kumar-Ketkar-saving-face-on-Court-action-for-his-defamatory-article-.aspx?NB&m2&p1&p2&p3&p4&lang=1&m1=m8&NewsMode=int

यह कैसी दीवाली ?

विजय कुमार

दीवाली अंधकार पर प्रकाश की जीत का विजय पर्व है। प्रकाश ज्ञान का प्रतीक है। भारतवासी ज्ञान के पुजारी हैं। इसीलिए भारतीय मनीषियों ने ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ कहकर प्रकाश का स्वागत और अभिवंदन किया है।

जन-जन के आराध्य मर्यादा पुरुषोत्तम श्री रामचंद्र जी द्वारा रावण वध के बाद अयोध्या आने पर अयोध्या के नागरिकों ने घी के दीपक जलाकर खुशी मनायी थी। उसी की याद में लाखों वर्ष बीत जाने के बाद भी दीपावली मनाई जाती है। भारत में ऐसे सैकड़ों पर्व हैं, जो किसी ऐतिहासिक घटना की याद में मनाये जाते हैं।

लेकिन समय-समय पर इन पर्वों के साथ कुछ परम्पराएं भी जुड़ जाती हैं। ये परम्पराएं कभी सुखद होती हैं, तो कभी दुखद। लम्बा समय बीतने पर ये कई बार कुरीति और अंधविश्वास का रूप भी ले लेती हैं। होली के पर्व पर कई बार आपस में झगड़ा हो जाता है। यद्यपि बरसाने की लट्ठमार होली की मधुरता का आनंद लेने दुनिया भर से लोग आते हैं; लेकिन दीवाली पर आपस में युद्ध की बाद सुनकर कुछ अजीब सा लगता है; पर यह भी सत्य ही है।

खूनी दीवाली 

उत्तर प्रदेश के बदायूं जिले में दीवाली से एक दिन पूर्व (कार्तिक कृष्ण 14, छोटी दीवाली) को होने वाले खूनी युद्ध की विकृत परम्परा गत 400 साल से निभाई जा रही है।

बुजुर्गों के अनुसार बदायूं में गंगपुर और मिर्जापुर के लोगों के बीच फैजगंज गांव को बसाने के लिए कई बार विवाद और झड़प हुई। हर बार गंगपुर के लोग हार जाते थे। एक बार छोटी दीवाली पर हुए पथराव में गंगपुर वालों की जीत हुई और उसी दिन फैजगंज बेहटा आबाद हो गया। तब से हर छोटी दीवाली पर दोनों गांवों के लोग एक मैदान में एकत्र होकर एक-दूसरे पर पथराव करते हैं और लाठी चलाते हैं। यह युद्ध दोपहर से रात तक चलता है। इसमें कई लोग लहूलुहान हो जाते हैं; पर परम्परा के नाम पर लोग इसे छोड़ने को तैयार नहीं हैं।

इस दिन पुलिस वाले भी वहां उपस्थित रहते हैं। उन्हें भय रहता है कि इसकी आड़ में कोई निजी रंजिश न निकाल ले। प्रशासन चाहता है कि यह विकृत परम्परा बंद हो; पर स्थानीय लोगों का कहना है कि इसमें घायल लोग पुलिस में नहीं जाते। इसलिए कानून-व्यवस्था के नाम पर प्रशासन को चिंता करने की आवश्यकता नहीं है। इतना ही नहीं, लोग युद्ध के बाद एक-दूसरे के घर जाकर घायलों का हालचाल पूछते हैं तथा मिठाई खाते-खिलाते हैं।

अनेक समाजसेवी लोग यह प्रयास कर रहे हैं कि पत्थर और लाठी की बजाय फूल और फलों की मार से परम्परा निभा ली जाए; पर उनके प्रयास कब सफल होंगे, कहना कठिन है।

हिंगोट युद्ध

मध्य प्रदेश में इंदौर के पास होने वाले ‘हिंगोट युद्ध’ की चर्चा भी यहां उचित होगी। आंवले के आकार का फल हिंगोट इंदौर के पास देपालपुर क्षेत्र में बहुतायत में होता है। दीवाली से दो माह पूर्व इसे तोड़कर सुखा लेते हैं। फिर इसे खोखला कर इसमें छोटे कंकड़ और बारूद भरते हैं। एक ओर छोटी लकड़ी लगाकर जब इसमें आग लगाते हैं, तो यह राकेट की तरह उड़कर दूसरी ओर जा गिरता है।

दीवाली से अगले दिन (कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा) को गौतमपुरा तहसील के मैदान में निकटवर्ती गांवों के लोग आकर तुर्रा और कलंगी नामक दो दलों में बंट जाते हैं। फिर वे एक-दूसरे पर हिंगोट छोड़ते हैं। इसमें कई लोगों को चोट आती है। कई दर्शक भी घायल हो जाते हैं; पर सैकड़ों वर्षों से चली आ रही परम्परा के नाम पर लोग इसे छोड़ने को तैयार नहीं हैं। राजनेता भी जनता का समर्थन खोने के भय से इसके विरुद्ध नहीं बोलते।

यहां भी पुलिस-प्रशासन तथा चिकित्सक उपस्थित रहते हैं। फिर भी कुछ लोगों को अस्पताल भेजना पड़ जाता है। कुछ स्थानीय लोगों का कहना है कि प्रतिभागियों को हेलमेट और जैकेट उपलब्ध कराई जाएं, जिससे चोट की संभावना कम हो सके।

परम्परा किसी भी देश और समाज के इतिहास तथा संस्कृति का अभिन्न अंग हैं; पर कभी-कभी यह कर्मकांड बनकर अहितकारी हो जाती है। ऐसे में समाज के पुरोधा उसे उचित मोड़ दे सकते हैं। जैसे कई मंदिरों में पशुबलि की जगह नारियल फोड़कर या कद्दू काटकर लोग परम्परा का निर्वाह करने लगे हैं। ऐसे ही अपना या दूसरे का खून बहाने वाले पर्वों के बारे में भी धार्मिक और सामाजिक नेताओं को मिलकर कोई नया मार्ग खोजना चाहिए।

आज़ाद होते अरब मुल्कों की चुनौतियाँ

भुवन शर्मा

लीबिया के तानाशाह मुअम्मर मुहम्मद अबू मिनयार अल – गद्दाफी की हत्या ने ये साबित कर दिया है कि किसी भी देश के लोगों पर लंबे अर्से से चली आ रही तानाशाही का अंत हमेशा बुरा होता है। लाख कोशिशों के बाद भी गद्दाफी अपने आप को विरोधियों से बचा नहीं सका और आखिरकार लोगों पर किए अत्याचार और शोषण का फल उसे अपनी जान देकर चुकाना पड़ा। किसने सोचा था कि ट्यूनीशिया के एक छोटे से शहर में तानाशाह के खिलाफ लगी एक चिंगारी आग का इतना भीषण रूप ले लेगी जिससे समूचे अरब देशों में तानाशाह के खिलाफ लोगों में विद्रोह का गुबार पैदा होगा जो ट्यूनिशिया में बेन अली, मिश्र में हुस्नी मुबारक, और फिर लीबिया में गद्दाफी जैसे बड़े तानाशाहियों को तबाह कर देगा लेकिन चिंता की बात है कि लीबिया में तबाही के बाद का परिणाम क्या होगा..इसके लिए हमें ट्यूनिशिया में आंदोलन की रूपरेखा और तनाशाही के अंत के पश्चात वहाँ कि राजनीतिक और सामाजिक हालात को समझना होगा.१९५६ तक फ्रांस का उपनिवेश रहे ट्यूनीशिया में १९८७ से ज़ाइन अल अबीदीन बेन अली का शासन चला आ रहा था, जिसमें सत्ता के बेजा इस्तेमाल से संपूर्ण विपक्ष ही खतम कर दिया गया था | अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता कुचल दी गई थी और बेरोज़गारी अपने चरम पर थी | २०१० के अन्त में शुरू हुए जनाआंदोलन और कुछ शहादतों से उत्पन्न स्थिति के कारण बेन अली को सत्ता छोडकर भागना पडा | लेकिन तानाशाह खत्म होने के बाद भी एक और बड़ी समस्या अभी भी मुहँ बाएं खड़ी है वो है एक संगठनात्मक और लोकतांत्रिक देश के नवनिर्माण की जिसमें देश के विकास में सभी लोगों की भीगीदारी हो और उस विकास का लाभ सभी लोगों तक समूचित रूप से पहुँचे लेकिन इस बात के संकेत अभी तक किसी भी रूप में नहीं मिले हैं…हालाँकि अभी कुछ समय बाद होने वाले चुनाव के बाद ही सारी तस्वीर साफ हो पाएगी लेकिन एक ऐसे देश में जहाँ का कोई लोकतांत्रिक इतिहास नहीं है जहाँ कभी इस तरह का कोई आयोजन नहीं किया गया वहाँ लोगों के बीच जागरूकता उत्पन्न कर उन्हें वोटिंग बूथ तक लाना वहाँ के अंतरिम प्रधानमंत्री के लिए एक बड़ी चुनौती है…, ठीक यही स्थीति अब लीबिया में बनी हुई है.. लेकिन यहाँ हालात थोड़े से अलग हैं..गद्दाफी के खिलाफ छिड़े आन्दोलन में विभिन्न गुटों की मौजूदगी जिसमें इस्लामिक कट्टरपंथी मुस्लिम ब्रदरहुड , पश्चिमी उदारवादी और तीसरा खेमा ऐसा भी है जो गद्दाफी के तानाशाह का समर्थक है..लेकिन इसकी संख्या अपेक्षाकृत कम है…परंतु चिंता की बात है कि यहाँ मौजूद कट्टरपंथियों की तादाद बहुत अधिक है.. जिसने कि शुरूआत से ही इसे हाईजैक किया हुआ है..और यह खेमा शरियत कानून लाने के पक्ष में है..अब जहाँ समूचे आन्दोलन में इस तरह के लोगों का वर्चस्व हो वहाँ पर उस देश के भविष्य के हालातों का पूर्वानुमान आसानी से लगाया जा सकता है….यह कुछ-कुछ पाकिस्तान के हालात जैसें ही है जहाँ आतंकवाद के नाम पर अमरीका की सहायता से वहाँ मौजूद कट्टरपंथी आतंकवाद का पालन-पोषण करते रहे जिसका परिणाम अमरीका में 9/11 और भारत में 26/11 जैसे दो सबसे बड़े आतंकी हमले हैं…ठीक यही हालात लीबिया में भी दिखाई दे रहे हैं जहाँ अमरीका की नाटो सेना की मदद से कट्टरपंथियों द्बारा गद्दाफी को मार गिराया गया.. इसमें कोई दो राय नही कि तेल संसाधनों में धनी देश को आजाद कराने में अमरीकी हस्तेक्षेप की मंशा क्या रही है..लेकिन इस बात पर ध्यान देना जरूरी है कि यहाँ भी अमरीकी मदद निकट भविष्य में लीबिया में भी आतंकवादियों के लिए जमीन तैयार न करे….!!!

आडवाणी जी, बड़े धोखे हैं इस राह में

नितिन गडकरी की अध्यक्षता भी सेहत के लिये खतरनाक साबित हो रही है तो वहीं मोदी का बढ़ता कद और लोकप्रियता आडवाणी की राजनीतिक सेहत को दिनों दिन बिगाड़ने में खास भूमिका निभा रही है। तमाम दिक्कतों और परेशानियों के बावजूद आडवाणी खुद को पीएम की रेस में बनाए रखना चाहते हैं…

डॉ. आशीष वशिष्ठ

भाजपा के भीष्म पितामह लालकृष्ण आडवाणी जबसे भ्रष्टाचार के विरूद्व रथ यात्रा पर निकले हैं सवाल और संशय उनका पीछा नहीं छोड़ रहे हैं। उनकी पार्टी के नेता उनकी इस यात्रा को पीएम पद की दावेदारी के रूप में देखते हैं तो वे इनकार में सफाई देते फिर रहे हैं। लब्‍बोलुआब यह है कि बीजेपी में अंर्तकलह, खींचतान और आरोपों-प्रत्यारोपों का सिलसिला चरमसीमा पर है और आडवाणी हैं कि रथ पर हिचकोले खा रहे हैं।

असल में आडवाणी पार्टी में इस समय सबसे सीनियर लीडर हैं और उन्हें लगता है कि बीजेपी उन्हीं के मजबूत कंधों पर टिकी हुयी है। पिछले आम चुनावों में बीजेपी ने आडवाणी के व्यक्तित्व को ध्यान में रखकर ही पीएम पद के लिये उनको प्रचारित किया था, लेकिन देश की जनता ने आडवाणी के साथ ही साथ बीजेपी के नकार कर साफ संदेश दे दिया था। पिछले दो सालों में पार्टी की लोकप्रियता का ग्राफ बड़ी तेजी से गिरा है।

पार्टी चाहकर भी यूपीए सरकार को घेर पाने में सफल नहीं हो पायी थी। सुषमा स्वराज को नेता विपक्ष की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी सौंप कर पार्टी ने साफ कर दिया था कि पुरानी पीढ़ी के नेता केवल मार्गदर्शन दें हस्तक्षेप न करें। आडवाणी भी इस इशारे को समझ गये थे लेकिन रामदेव और अन्ना के आंदोलन ने देश की जनता को जगाने और यूपीए सरकार के खिलाफ माहौल तैयार करके सुप्त पड़े आडवाणी के मन में पीएम बनने की चाहत को पुनः जगाने का काम कर डाला है।

आज पार्टी में उठापटक, अंर्तविरोध और खींचतान का माहौल चरम पर है। भ्रष्टाचार के आरोपों के चलते बीजेपी को अपने दो-दो मुख्यमंत्रियों को बदलना पड़ा ऐसे में आडवाणी का भ्रष्टाचार के विरूद्व जन चेतना रथ यात्रा निकालने का तुक समझ से परे है। सच तो यह है कि रथ यात्रा की आड़ में आडवाणी एक बार फिर देश की जनता और पार्टी के भीतर ये मैसेज देना चाहते हैं कि उनमें पीएम बनने के गुण और शक्ति की कोई कमी नहीं है।

ऐसे में सवाल ये है कि व्यक्तिगत तौर पर आडवाणी को जो नफा नुकसान होगा वो तो आडवाणी जो, लेकिन आडवाणी की रथ यात्रा बीजेपी को कहां लेकर जाएगी ये बात सोचने वाली है। खुद को पाक साफ बताने वाली बीजेपी के दामन पर भी भ्रष्टाचार के दाग लगे हुये हैं। ऐसे में आडवाणी की रथ यात्रा से देश की जनता में क्या संदेश जाएगा ये बात कोई छुपी हुयी नहीं है। असल में इस बात को पार्टी के नेता भी बखूबी समझते हैं और सोची समझी नीति के तहत ही वो खुलकर आडवाणी की रथ यात्रा का विरोध नहीं कर रहे हैं।

पार्टी के दूसरे नेताओं को लगता है कि आडवाणी को घूम घूम कर खुद ही अपनी हैसियत का अंदाजा लग जाएगा। अभी तक आडवाणी की रथ यात्रा देश की जनता और मीडिया का ध्यान अपनी और खींचने में कामयाब नहीं हो पायी है। वहीं पार्टी के भीतर गुटबाजी के चलते छोटे बड़े नेता नफे नुकसान का हिसाब लगाकर ही आडवाणी के हमराही बन रहे हैं। असलियत आडवाणी से भी छुपी हुयी नहीं है। आज पार्टी के भीतर से लगभग आधा दर्जन नेता उनको खुली चुनौती और टक्कर दे रहे हैं।

गडकरी का अध्यक्षता भी उनकी सेहत के लिये खतरनाक साबित हो रही है तो वहीं मोदी का बढ़ता कद और लोकप्रियता आडवाणी की राजनीतिक सेहत को दिनों दिन बिगाड़ने में खास भूमिका निभा रही है। तमाम दिक्कतों और परेशानियों के बावजूद आडवाणी खुद को पीएम की रेस में बनाए रखना चाहते हैं । उन्हें पता है कि अगर वो थक हार कर घर बैठ गये तो उनका हश्र वही होगा जो अटल बिहारी वाजपेयी या दूसरे कदावर नेताओं का हुआ है।

आडवाणी की रथ यात्रा से बीजेपी को राजनीतिक तौर पर कहीं कोई नफा होता दिखाई नहीं देता है। अगर अन्ना और रामदेव की बोई फसल काटने की आडवाणी कोशिश कर भी रहे हैं तो देश की जनता इसकी असलियत बखूबी जानती है। भाजपा ने सत्ता में रहकर क्या गुल खिलाये हैं ये किसी से छिपा नहीं है। राम मंदिर के लिए जब आडवाणी ने रथयात्रा की थी तो रथ यात्रा की पूरे देश में धूम और उत्साह था।

अब माहौल बदल चुका है अगर मीडिया न बताए तो जनता को यह पता ही नहीं है कि आडवाणी का रथ किस सड़क पर दौड़ रहा है। आडवाणी की रथ यात्रा से पहले मोदी का सदभावना उपवास भी पीएम की दौड़ का मोदी का पहला कदम था। मोदी के उपवास ने आडवाणी की रथयात्रा का रंग फीका तो किया ही वहीं आडवाणी को खुली और स’ाक्त चुनौती भी दी है।

आडवाणी ने ख्वाब तो बहुत ऊंचे और दूर के हैं लेकिन जमीनी हकीकत यह है कि जनहित से जुड़े मुद्दों की बजाय अन्ना और रामदेव की बोयी फसल काटने को बीजेपी अधिक उत्सुक नजर आ रही है। मंहगाई ने पिछले कई सालों से आम आदमी का जीना दूभर कर रखा है लेकिन बीजेपी ने एक बार भी दमदार तरीके से मंहगाई का विरोध नहीं किया। बीजेपी की कार्यशैली से ऐसा आभास ही नहीं होता है कि देश में कोई दमदार विपक्षी दल भी है।

शरद पवार को गुस्सा क्यों आता है

संजय द्विवेदी

राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष शरद पवार को अपने प्रधानमंत्री पर सार्वजनिक रूप से हमला बोलना चाहिए या नहीं यह एक बहस का विषय है। किंतु पवार ने जो कहा उसे आज देश भी स्वीकार रहा है। एक मुखिया के नाते मनमोहन सिंह की कमजोरियों पर अगर गठबंधन के नेता सवाल उठा रहे हैं तो कांग्रेस को अपने गिरेबान में जरूर झांकना चाहिए।

गठबंधन सरकारों के प्रयोग के दौर में कांग्रेस ने मजबूरी में गठबंधन तो किए हैं किंतु वह इन रिश्तों को लेकर बहुत सहज नहीं रही है। वह आज भी अपनी उसी टेक पर कायम है कि उसे अपने दम पर सरकार बनानी है, जबकि देश की राजनीतिक स्थितियां बहुत बदल चुकी हैं। देश पर लंबे समय तक राज करने का अहंकार और स्वर्णिम इतिहास कांग्रेस को बार-बार उन्हीं वीथिकाओं में ले जाता है, जहां से देश की राजनीति बहुत आगे निकल आई है। फिर मनमोहन सिंह कांग्रेस के स्वाभाविक नेता नहीं हैं। वे सोनिया गांधी के द्वारा मनोनीत प्रधानमंत्री हैं, ऐसे में निर्णायक सवालों पर भी उनकी बहुत नहीं चलती और वे तमाम मुद्दों पर 10-जनपथ के मुखापेक्षी हैं। सही मायने में वे सरकार को नेतृत्व नहीं दे रहे हैं, बस चला रहे हैं। उनकी नेतृत्वहीनता देश और गठबंधन दोनों पर भारी पड़ रही है। देश जिस तरह के सवालों से जूझ रहा है उनमें उनकी सादगी, सज्जनता और ईमानदारी तीनों भारी पड़ रहे हैं। उनकी ईमानदारी के हाल यह हैं कि देश भ्रष्टाचार के रिकार्ड बना रहा है और अर्थशास्त्री होने का खामियाजा यह कि महंगाई अपने चरम पर है। सही मायने में इस दौर में उनकी ईमानदारी और अर्थशास्त्र दोनों औंधे मुंह पड़े हैं।

अटलबिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में राजग ने गठबंधन का जो सफल प्रयोग किया, उसे अपनाना कांग्रेस की मजबूरी है। किंतु समय आने पर अपने सहयोगियों के साथ न खड़े होना भी उसकी फितरत है। इस अतिआत्मविश्वास का फल उसे बिहार जैसे राज्य में उठाना भी पड़ा जहां राहुल गांधी के व्यापक कैंपेन के बावजूद उसे बड़ी विफलता मिली। देखें तो शरद पवार, ममता बनर्जी सरीखे सहयोगी कभी कांग्रेस का हिस्सा ही रहे। किंतु कांग्रेस की अपने सहयोगियों की तरफ देखने की दृष्टि बहुत सकारात्मक नहीं है। लालूप्रसाद यादव, रामविलास पासवान, मुलायम सिंह यादव, मायावती सभी तो दिल्ली की सरकार को बाहर से समर्थन दे रहे हैं, किंतु कांग्रेस का इनके साथ मैदानी रिश्ता देखिए तो हकीकत कुछ और ही नजर आएगी। कांग्रेस गठबंधन को एक राजनीतिक धर्म बनाने के बजाए व्यापार बना चुकी है। इसी का परिणाम है अमर सिंह जैसे सहयोगी उसी व्यापार का शिकार बनकर आज जेल में हैं। सपा सांसद रेवतीरमण सिंह का नंबर भी जल्दी आ सकता है। यह देखना रोचक है कि अपने सहयोगियों के प्रति कांग्रेस का रवैया बहुत अलग है। वहां रिश्तों में सहजता नहीं है।

शरद पवार के गढ़ बारामती इलाके की सीट पर राकांपा की हार साधारण नहीं है। एक तरफ जहां कांग्रेस की उदासीनता के चलते महाराष्ट्र में राकांपा हार का सामना करती है। वहीं केंद्रीय मंत्री के रूप में शरद पवार हो रहे हमलों पर कांग्रेस का रवैया देखिए। कांग्रेसी उन्हें ही महंगाई बढ़ने का जिम्मेदार ठहराने में लग जाते है। एक सरकार सामूहिक उत्तरदायित्व से चलती है। भ्रष्टाचार हुआ तो ए. राजा दोषी हैं और महंगाई बढ़े तो शरद पवार दोषी ,यह तथ्य हास्यास्पद लगते हैं। फिर खाद्य सुरक्षा बिल जैसै सवालों पर मतभेद बहुत जाहिर हैं। श्रीमती सोनिया गांधी के द्वारा बनाया गयी राष्ट्रीय सलाहकार परिषद मंत्रियों और कैबिनेट पर भारी है, उसके द्वारा बनाए गए कानून मंत्रियों पर थोपे जा रहे हैं। यह सारा कुछ भी सहयोगी दलों के मंत्री सहज भाव से नहीं कर रहे हैं, मंत्री पद का मोह और सरकार में बने रहने की कामना सब कुछ करवा रही है।

सीबीआई का दुरूपयोग और उसके दबावों में राजनीतिक नेताओं को दबाने का सारा खेल देश के सामने है। ऐसे में यह बहुत संभव है कि ये विवाद अभी और गहरे हों। सरकार की छवि पर संकट देखकर लोग सरकार से अलग होने या अलग राय रखने की बात करते हुए दिख सकते हैं। ममता बनर्जी सरकार में मंत्री रहते हुए अक्सर ऐसा करती दिखती थीं और अपना जनधर्मी रूख बनाए रखती थीं। सहयोगी दलों की यह मजबूरी है कि वे सत्ता में रहें किंतु हालात को देखते हुए अपनी असहमति भी जताते रहें, ताकि उन्हें हर पाप में शामिल न माना जाए। शरद पवार जैसै कद के नेता का ताजा रवैया बहुत साफ बताता है कि सरकार में सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है। जब गठबंधन नकारात्मक चुनावी परिणाम देने लगा है, सहयोगी दल चुनावों में पस्त हो रहे हैं तो उनमें बेचैनी स्वाभाविक है। जिस बारामती में शरद पवार, कांग्रेस के बिना भी भारी पड़ते थे वहीं पर अगर वे कांग्रेस के साथ भी अपनी पार्टी को नहीं जिता पा रहे हैं, तो उनकी चिंता स्वाभाविक है। जाहिर तौर पर सबके निशाने पर चुनाव हैं और गठबंधन तो चुनाव जीतने व सरकार बनाने के लिए होते हैं। अब जबकि गठबंधन भी हार और निरंतर अपमान का सबब बन रहा है तो क्यों न बेसुरी बातें की जाएं। क्योंकि सरकार चलाना अकेली शरद पवार की गरज नहीं है, इसमें सबसे ज्यादा किसी का दांव पर है तो कांग्रेस का ही है। शरद पवार से वैसे भी आलाकमान के रिश्ते बहुत सहज नहीं रहे क्योंकि सोनिया गांधी के विदेशी मूल का सवाल उठाकर एनसीपी ने रिश्तों में एक गांठ ही डाली थी। बाद के दिनों में सत्ता साकेत की मजबूरियों ने रास्ते एक कर दिए। ऐसी स्थितियों में शायद कांग्रेस को एक बार फिर से गठबंधन धर्म को समझने की जरूरत है, किंतु अपनी ही परेशानियों से बेहाल कांग्रेस के इतना वक्त कहां है? श्रीमती सोनिया गांधी की खराब तबियत जहां कांग्रेस संगठन को चिंता में डालने वाली है वहीं कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी की क्षमताएं अभी बहुज्ञात नहीं हैं।

हास्य-व्यंग्य / वन्दे श्वान भारतम

पंडित सुरेश नीरव

मानव समाज में कुत्तों की हमेशा से पूछ रही है। ऐसा माना जाता है कि उसकी इस पूछ में सारा योगदान खुद उसकी पूंछ का ही रहा है। उसकी हिलती पूंछ देखकर बेचारे आदमी का भी मन पूंछ हिलाने को ललचा-ललचा जाता है। भले ही ईश्वर ने उसे कुत्ते की तरह पूंछ नहीं दी फिर भी वह अफसर के आगे पूंछ हिलाने का कठिन कारनामा कुत्तों की प्रेरणा लेकर कर ही डालता है। पूंछ हिलाने की कुत्तों की इस प्राचीन लोककला का मानव हमेशा से ही मुरीद रहा है। इसीलिए तो सतयुग से लेकर आज के लेटेस्ट कलियुग तक कुत्तों के रुतबे में एक मिलीमीटर की भी कमी नहीं आई है। जिन वेदों में द्विवेदी या त्रिवेदी की तो बात छोड़िए एक अदद किसी चतुर्वेदी को भी जगह नहीं मिल पाई उन पवित्र वेदों में एक नहीं बल्कि श्याम और शबिल नामक दो कुत्तों ने अपनी हाजरी दर्ज़ कराके साबित कर दिया कि कुत्तों के आगे आदमी की कोई हैसियत नहीं। आदमी से कुत्ता हमेशा ज्यादा प्रतिष्ठित रहा है। शायद इसलिए कि कुत्ता कभी चरित्रहीन नहीं होता है। और न केवल वो आदमी को अपराधी के घर तक पहुंचाता है बल्कि सोए हुए काल देवता मिस्टर यमराज को भी सिंसियरली जगाता है। अपराधी तक कुत्तों के पहुंचने की मौलिक प्रतिभा के आगे तब बड़ा धर्मसंकट खड़ा हो जाता है जब खुद अपराधी कुत्ते पाल लेते हैं और कुत्तों से सावधान की तख्ती अपने दरवाजे पर टांग देते हैं। सावधान तो आदमी को अपराधी से रहना चाहिए शरीफ कुत्तों से सावधान होने की क्या जरूरत होती है। हो सकता है यह बोर्ड मकान मालिक अपने चोर भाइयों को सावधान करने के लिए लगाते हों क्योंकि ऐसी मान्यता है कि कुत्ते चोरों पर ही भूंकते हैं।

कुत्तों की भावुक प्रशंसा को मेरी पुरुषवर्चस्वी मानसिकता न मान लिया जाए इसलिए मैं मैडम श्वानों का भी ससम्मान स्मरण सरमा नामक उस दिव्य कुतिया के जरिए करना चाहूंगा जिसने इंद्र की चोरी गई गऊओं की बरामदगी में सीबीआई से भी ज्यादा फास्ट कार्रवाई कर इंद्र को भी अपना अटूट फेन बना डाला था।

आज के भ्रष्ट दौर में भी जब ईमानदार कुत्ते अपराधियों को ढ़ूंढते हुए बार-बार थाने पहुंच जाते हैं तो इनके निर्मल कुत्तत्व को देखकर कुत्तों की पूंछ की डिजायन में ही महकमें के लोगों की भंवें टेढ़ी हो जाती हैं।

ये हैं कुत्तों की ड्यूटी -परायणता। जिसकी ऐवज में ये स्वाभिमानी कभी किसी प्रमोशन की मांग भी नहीं करते। कुत्तों की इसी अदा पर तो आदमी क्या देवता भी फिदा हो जाते हैं। यही कारण है कि आज भूतपूर्व राजे-महाराजे और जनता से खारिज नेता भले ही कुत्तों-जैसी जिंदगी जीने को विवश हों मगर कुत्तों के शाही ठाट-बाट में कहीं कोई कमी नहीं आई है। कुत्तों के इसी टनाटन मुकद्दर से कुंठित होकर किन्हीं दिनकर नामक कवि ने लिख डाला था- श्वानों को मिलता दूध यहां बच्चे भूखे अकुलाते हैं। बताइए कवि होकर कुत्तों के मुंह लगना कौन-सी शराफत है। वीतरागी इन कुत्तों ने तो कभी आदमी पर व्यंग्य नहीं किया कि कैसे पूंछ हिला-हिलाकर पुरस्कार और पद गड़प्प लेते हो तुम लोग। क्षमा बड़न को चाहिए छोटन को उत्पातवाली दार्शनिक मुद्रा में कुत्तों ने हमेशा आदमी को माफ किया है। आदमी के क्या मुंह लगना। आखिक कुत्तों की भी तो कोई हैसियत होती है। गरज हो तो वे कुत्तों का मुंह चाटें। बहुत कम लोग जानते हैं कि श्रीराम के यंगर ब्रदर भरत कुत्तों के बड़े शौकीन थे। रामचंद्रजी कुत्तों- के शौकीन नहीं थे।

कुत्तों की दुआओं से ही भरत अयोध्या के राजा बने और कुत्तों से बेरुखी के कारण ही राम को वनवास भोगना पड़ा। भगवान भैरों और दत्तात्रेय का श्वान प्रेम इंटरनेशनली जगजाहिर है। यह कुत्ते की ही दमखम थी कि वो अपने अकेले के इवविटेशन पर मालिक धर्मराज युधिष्ठिर को विद फेमली सशरीर स्वर्ग ले गया। अगर आदमी की इतनी औकात होती तो स्वर्ग से लात खाकर उसे त्रिशंकु नहीं बनना पड़ता। कलियुग में चंद्रमा से मामा के तमाम रिश्ते बनाकर भी आदमी चांद पर श्वानसुंदरी लायका से पहले नहीं जा पाया। गोरे-काले के मुद्दों पर जानवरों की तरह लड़ते हुए आदमी को कुत्तों से ट्यूशन पढ़कर नस्ली सदभाव का पाठ सीखना चाहिए। वसुधैव कुटुंमकम की ग्लोबल सोच के कारण कुत्ते विश्वमान्य हैं। इसीलिए दीपावली के एक दिन बाद नेपाल में कुत्तों

के सम्मान में कुकुर-तिहार यानी श्वानपर्व मनाया जाता है तो चीनी कैलेंडर में पूरा एक साल ही कुत्ता साल होता है। चाहे पांचसितारा आराम का लुत्फ उठाते कुत्ते हों या गली के कुत्ते कुत्तों में कहीं कोई वर्ग संघर्ष नहीं होता। और न ही किसी लोकपाल विधेयक की मांग ही उठती है। डबल डॉग और ब्लैक डॉग व्हिस्की के साथ होट डॉग खाकर आदमी कुत्ता होने की कितनी भी दुर्दांत कोशिश करले और धोबी का कुत्ता घर का न घाट की पदवी भले ही पा ले मगर वह परफैक्ट कुत्ता कभी नहीं बन सकता। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता कुत्तों का कुकरमूल संस्कार है। एक बार एक सिरफिरे एकलव्य ने तीर से एक श्वान का मुंह बंद कर अभिव्यक्ति पर सेंसरशिप लगाने की जघन्य हरकत की थी।

इस उद्दंडता के दंडस्वरूप ही द्रोणाचार्य ने उसका अंगूठा कटवाकर कुत्तों के प्रति अपना सम्मान व्यक्त किया था। हर साल श्राद्ध पश्र में ब्राहमणों से ज्यादा मार्केट वेल्यू कुत्तों- की होती है। यह हमारी संस्कृति है।

खुशी की बात है कि आजादी के बाद हमारे देश में कुत्तों- की इज्जत में माइंडब्लोइंग इजाफा हुआ है। कुत्तों के इस जलवो जलाल से कुंठित होकर राष्ट्रपशु शेरों और बाघों ने आत्म हत्याएं करली हैं और बचे-खुचों की सुपारी उठवाकर गीदड़ो ने हत्याएं करवा दी हैं। ताज्जुब नहीं कि संख्याबल के आधार पर कल कुत्तों को भारत देश का राष्ट्रीय पशु घोषित कर दिया जाए।

हमें खुशी है कि भले ही हमारा न हो मगर अपने देश में कुत्तों का और इन त्रैलोकमान्य मान्यवर कुत्तों के कारण इस देश का भविष्य भरपूर उज्ज्वल है। कुत्ता होना ही बड़ी बात है अब इंडिया में। वंदे श्वान भारतम..।

भ्रष्टाचार की जंग और राजनीतिक रंग

हिमकर श्याम

व्यवस्था के विरूद्ध कोई आंदोलन खड़ा करना जितना मुश्किल है, उससे ज्यादा कठिन है उसे संपूर्ण भावना के साथ बरकरार रखना और उसे मजबूती प्रदान करना। देश में जितने आंदोलन हुए हैं उनका अंत एक सा ही रहा है। सारे आंदोलन अंत में राजनीति की बलि चढ़ गये। राजनीति का रंग चढ़ते ही आंदोलन में बिखराव की प्रक्रिया शुरू हो जाती है। आंदोलन अपना मूल स्वरूप और चरित्र पीछे छोड़ देता है। कई बड़े आंदोलनों की परिणति देश देख चुका है। टीम अन्ना के हालिया रूख से लगता है कि उसपर भी राजनीति का रंग चढ़ने लगा है। राजनीति के रंग में रंग कर भ्रष्टाचार की जंग नहीं जीती जा सकती है।

जेपी ने व्यवस्था परिवर्तन के लिए जो संघर्ष किया था वह अंत में इंदिरा गांधी को सत्ता से हटाने की मुहिम बन कर रह गया। संपूर्ण क्रांति केवल मोहभंग की ओर ले गयी। तब जेपी ने 1974 में होनेवाले चुनावों के मद्देनजर पूरे देश का दौरा किया था, उनकी सारी सक्रियता इंदिरा गांधी की वैधानिकता को नष्ट करने और चुनावों में पराजित करने पर केंद्रित थी। परिणामतः जेपी आंदोलन अपने उद्देश्यों को प्राप्त करने में असफल रहा। वीपी सिंह का बोफोर्स घोटाले के खिलाफ किया गया आंदोलन भी सत्ता परिर्वतन तक ही सीमित रहा। राजनीतिक महत्वाकांक्षा की वजह से ही बाबा रामदेव के देशव्यापी अभियान को मुंह की खानी पड़ी थी। पूर्ववर्ती लोगों ने जो गलती की थी टीम अन्ना उसी राह पर जाती दिखायी दे रही है।

हिसार लोकसभा उपचुनाव में अन्ना फैक्टर के रूप में देखा जा रहा है। टीम अन्ना ने कांग्रेस के खिलाफ वोट डालने की अपील की थी। कांग्रेस उम्मीदवार जयप्रकाश तीसरे स्थान पर रहे। यह ध्यान देने योग्य है कि हिसार कांग्रेस का गढ़ नहीं रहा है। यहां मुख्य लड़ाई विश्नोई और चैटाला के बीच ही थी। नतीजों को टीम अन्ना की जीत के तौर पर देखना और उसमें अन्ना इफेक्ट तलाश कर अन्ना और उनके आंदोलन को छोटा करने का प्रयास किया जा रहा है। भ्रष्टाचार के खिलाफ जारी जंग की सारी बहस इस बात पर आकर टिक गयी है कि पांच राज्यों खासकर यूपी में होनेवाले उपचुनाव में अन्ना का क्या असर होगा। टीम अन्ना हिसार के नतीजों को अपनी सफलता मानकर यूपी के चुनाव में कांग्रेस के खिलाफ प्रचार करने का ऐलान कर चुकी है। टीम अन्ना का दावा है कि उसकी मुहिम से यूपी में कांग्रेस की बची सीटें भी खत्म हो जाएंगी।

कांग्रेस का सीधे तौर पर विरोध कांग्रेस के अलावा टीम अन्ना के कुछ सदस्यों को नागवार लग रहा है। टीम के प्रमुख सदस्य संतोष हेगड़े इस पर अपनी असहमति जता चुके हैं वहीं इस मुद्दे पर राजेंद्र सिंह और पीवी राजगोपाल ने कोर कमेटी से इस्तीफा दे दिया है। राजेंद्र सिंह और पीवी राजगोपाल का टीम अन्ना से अलग होना इस टीम के लिए एक झटका है। राजेंद्र सिंह ने कहा है कि जिस तरह हिसार में प्रचार किया, वो गलत था क्योंकि आंदोलन दलगत राजनीति की ओर जा रहा है। टीम अन्ना के कांग्रेस हराओ अभियान पर मेधा पाटेकर भी खुलकर अपनी नाराजगी जाहिर कर चुकी हैं। पहले दिल्ली में प्रशांत भूषण और फिर लखनऊ में अरविंद केजरीवाल पर हमले की घटनाएं चिंतित करने वाली हैं। प्रशांत भूषण पर हुए हमले के बाद टीम अन्ना कोई भी टिप्पणी करने से बचती रही। टीम में बिखराव साफतौर पर दिखने लगा है। टीम अन्ना को यह सुनिश्चित करना होगा कि उनके सहयोगी अलग-अलग मुद्दे पर अलग-अलग राय रखने के बावजूद एकजुट कैसे रहें। मजबूत संगठन न होना आंदोलन की कमजोरी साबित हो सकती है।

अन्ना के आंदोलन का गैर राजनीतिक स्वरूप इसकी सबसे बड़ी शक्ति रहा है। अन्ना ने लोगों को भरोसा दिलाया कि जनशक्ति के दबाव में शासकों को झुकाया जा सकता है। आंदोलन का वास्तविक मकसद भ्रष्टाचार की समाप्ति के लिए देश में एक सशक्त जन लोकपाल की स्थापना को लेकर है। कांग्रेस को हरा भर देने से इसका मकसद पूरा नहीं होगा। जब तक इस आंदोलन में पारदर्शिता नजर आयी तब तक संदेह की ऊंगुली नहीं उठी। जैसे ही इसपर राजनीति का रंग चढ़ा, लोगों के मन में आंदोलन को लेकर आशंकाएं होने लगी। भ्रष्टाचार का मुद्दा पीछे छूटता जा रहा है। भ्रष्टाचार की जंग के भविष्य पर प्रश्नचिन्ह खड़ा किया जाने लगा। शीतकालीन सत्र में जनलोकपाल बिल पेश किये जाने के आश्वासन के बाद अन्ना ने अपना अनशन तोड़ा था। इस बीच प्रधानमंत्री ने अन्ना को पत्र लिख कर कहा है कि चुनाव में प्रत्याशी खारिज करने के मतदाताओं को अधिकार दिये जाने की उनकी मांग पर सरकार विचार करेगी। अन्ना के अनशन के दौरान बैकफुट पर खड़ी कांग्रेस को यह कहने का मौका मिल गया है कि अन्ना के पीछे आरएसएस और भाजपा का हाथ है। टीम अन्ना भले ही सक्रिय राजनीति से दूर रहने की बात कहते रहे हो लेकिन सीधे तौर पर किसी पार्टी का विरोध जायज नहीं है। अन्ना टीम को यह लगने लगा है कि वह देश, देशवासियों और संसद सबसे ऊपर हैं। टीम अन्ना का उतावलापन और अहंकार आंदोलन की सेहत के लिए ठीक नहीं है।

राजनैतिक नेतृत्व के प्रति उदासीनता के माहौल ने ही अन्ना को जननायक बनाया है। आंदोलन का अराजनीति स्वरूप अन्ना आंदोलन के दौरान उभरी ऊर्जा का मुख्य कारण था। अन्ना के आंदोलन के दौरान जो व्यापक जनसमर्थन मिला, उसका व्यापक इस्तेममाल करने में टीम अन्ना चूक रही है। जन आंदोलन के लिए कम अंतराल भी दीर्घ अंतराल की तरह होता है। इस अवधि में जन आंदोलन और अधिक जोर पकड़ सकता है और क्षीण भी हो सकता है। पूरी ऊर्जा के साथ इसमें शामिल लोग इससे ऊब भी सकते हैं। भ्रष्टाचार के खिलाफ देश भर में जो माहौल बना था उसे बचाकर रखना एक बड़ी चुनौती है। राजनीतिक रंग चढ़ने के कारण आंदोलन को काफी नुकसान हो रहा है। यह जन आंदोलन अब चंद लोगों के इर्द गिर्द सिमटकर रह गया है। कोई भी आंदोलन मात्र इसके नेताओं और सदस्यों के बलबूते ज्यादा समय तक नहीं चलाया जा सकता। वैसे भी वैसे लोगों की संख्या बहुत कम है जो विपरीत परिस्थितियों में भी अपना सबकुछ न्योछावर कर देने को तैयार रहते हैं। अन्ना के अनशन के दौरान जो माहौल बना था उससे लगने लगा था कि देश को बहुत जल्द भ्रष्टाचार से मुक्ति मिल जाएगी लेकिन ऐसा नहीं हुआ। अनशन को बीते अभी दो माह भी नहीं हुए हैं और भ्रष्टाचार अपनी जगह और अपनी गति से कायम है।

टीम अन्ना भ्रष्टाचार और लोकपाल की बात छोड़ कांग्रेस को हरानेकी बात करने लगी है। अन्ना का कहना है कि वह ईमानदार प्रत्याशी का समर्थन करेंगे। टीम अन्ना यह कैसे तय करेगी कि कांग्रेस के अलावा किसी दल में बेईमान प्रत्याशी नहीं है। भ्रष्टाचार के विरूद्ध जारी जंग में किसी भी तरह के राजनीतिक रंग से परहेज जरूरी है। जन लोकपाल आंदोलन का यह ऐसा मोड़ है, जहां सिविल सोसाइटी और खुद अन्ना को इस बिखराव को समेटने का प्रयास करना चाहिए। अन्ना की मुहिम दलगत चुनावी राजनीति से परे एक जन आंदोलन है यही उसे मिले जनसमर्थन की बड़ी वजह है। जब तक आंदोलन पर राजीतिक रंग नहीं चढ़ा था तब तक देश की जनता ने अन्ना की टीम का दिल से समर्थन किया। जनता का मोहभंग इस बार हुआ तो भविष्य में किसी गैर राजनीतिे आंदोलन की सफलता संदिग्ध हो जाएगी।

असुविधाओं के बावजूद रेल सफर महंगा होगा ?

शादाब जफर”शादाब

लगता है देश में रोज रोज बढती हुर्इ महंगार्इ से जल्द ही गरीब आदमी का पीछा छूटने वाला नही। खाध पदार्थ, पेट्रोल, डीज़ल, एलपीजी, दूध, बस के बढे हुए किराये से आज जहा आम आदमी की कमर टूटी हुर्इ है वही एक बार फिर यूपीए सरकार आम आदमी पर महंगार्इ का एक और वार करने की योजना बना रही है। आम आदमी की सवारी गाड़ी यानी रेल के सफर को दस प्रतिशत महंगा करने पर सरकार विचार कर रही है। प्रस्तावित वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) लागू होने पर रेल यात्रा को सेवा कर के दायरे में शीघ्र ही लाया जा सकता है। यदि ऐसा हुआ तो प्रति रेल यात्री को हर टिकट पर 10 प्रतिशत सर्विस टैक्स के रूप में मौजूदा रेल किराये से ज्यादा रेलवे को जल्द ही अदा करना पड़ेगा। सर्विस टैक्स वसूल करने की जुगत में लगी यदि भारतीय रेल की सर्विस और उस के स्टेशनो पर आज यदि नजर डाली जाये तो रेल और स्टेशनो की हालत बद से बदत्तर बनी हुर्इ है देश की राजधानी दिल्ली सहित देश में अधिकतर स्टेशनो पर यात्रियो को पीने का पानी तक मय्यसर नही होता। लेड़ीज और जैन्टस मूत्रालय की हालत ऐसी रहती है कि आदमी दूर से देखकर ही उल्टी कर दे। खाना पीने का सामान उस उस में इस्तेमाल होने वाली सामग्री की आये दिन अखवारो की सुर्खिया बनना आम बात सी हो गर्इ है। रेल और यात्रियो की सुरक्षा करने वाले सुरक्षाकर्मी, सुरक्षा कम आम आदमी को परेशान करते और पैसा कमाते ज्यादा नजर आते है।

वित्त मंत्रालय ने पिछले दिनो 29 अगस्त 2011 को बहुप्रतीक्षित जीएसटी के तहत निगेटिव लिस्ट के रूप में रखी जाने वाली सेवाओ की सूची जारी की थी। जिस में इस बात का साफ साफ जिक्र किया गया है कि सरकार जिन सेवाओ के लिये फीस लेती है उन्हे सेवाकर के दायरे में लाया जायेगा। जिन में भारतीय रेल, कैपिटेशन फीस, शैक्षिक संस्थाओ को दी जाने वाली डोनेशन, खेती के अलावा व्यावसायिक उपयोग के लिये दी जाने वाली खाली ज़मीन, विनिर्माण तथा रीएल एस्टेट के क्षेत्र से जुडी हुर्इ कुछ अतिरिक्त सेवाए जल्द ही सेवा कर के उायरे में आ सकती है। रेलवे द्वारा 10 प्रतिक्षत सेवाकर लगाने के बाद क्या यात्रियो को उन की जरूरतो के हिसाब से सेवाए प्रदान कर पायेगा आज ये सब से बडा सवाल है। यदि रेलवे के वित्त संबंधी आंकड़ो पर नजर डाली जाये तो आज रेलवे के पास आज भरपूर फंड मौजूद है इस के बावजूद रेलवे देश के अधिकतर रेलवे स्टेशनों पर यात्रियों को सुविधा के नाम पर पीने का साफ और ठंडा पानी, गर्मी बरसात में स्टेशनों पर टीन शैड तक मुहय्या तक नही करा पाया। यात्री सुरक्षा के नाम पर सिर्फ खाना पूरी कि जा रही है से हम सब लोग भली भाती परिचित है। जब कि रेलवे ने यात्री और रेल सुरक्षा संबंधी जरूरतो को पूरा करने के लिये कर्इ प्रकार के विशेष फंड बना रखे है जिन में आज करोड़ो रूपया जमा है। मगर इस सब के बावजूद यह विभाग हमेशा पैसे का रोना ही रोता नजर आता है। वर्ष 2003-2009 के लिये रेलवे का सुरक्षा बजट 4,607.33 करोड़ रूपये का था, लेकिन सिर्फ 2090.04 करोड़ रूपये ही खर्च हुए। रेल वजट में हर साल रेल मंत्री अपने अपने क्षेत्रो को नर्इ गाडि़यो का तोहफा देता है। देश के बाकी हिस्सो में नर्इ गाडि़यो की भी जरूरत है यात्री सुरक्षा व स्टेशनों पर यात्री शैड होना चाहिये इस बात से रेल मंत्री को मतलब नही रहता। हाँ मतलब रहता है तो इस बात से कि उस के क्षेत्र के मतदाता उस से नाराज न हो जाये।

पिछले कुछ सालो में रेल दुर्घनाओ की लम्बी लिस्ट बनती जा रही है। और इन दुघर्टनाओ में मरने वाले लोगो की संख्या हर बार सैकड़े के आंकड़े को छू रही है। 2008-09 में रेल दुर्घटनाओ में मरने वाले लोगो की संख्या 209 थी, जबकि 2009-10 में यह संख्या 225 और अप्रैल 2010 से जनवरी 2011 तक 336 लोग देश में हुए विभिन्न स्थानो पर रेल दुर्घटनाओ में मारे गये। शायद ये बात देश के अधिकतर लोग नही जानते हो कि हमारे देश में रेल दुर्घटनाओ में जितने लोग मारे मारे जाते है उतने दुनिया के किसी देश में नही मारे जाते। सरकार रेल यात्रा को सेवा कर के दायरे में लाने की बात तो सोच रही है पर यात्री सुरक्षा, यात्रियों की मूल भूत जरूरतो, रेलवे के आधुनिकीकरण, के बारे में आखिर कब सोचेगी। देश में गिनी चुनी आतंकी रेल दुर्घटनाओ की बात छोड दे तो अधिकतर रेल दुर्घटनाओ के पीछे माननीव भूल और भारतीय रेलवे का आघुनिकीकरण में पिछड़ना ही जिम्मेदार रहा है। आये दिन रेलवे द्वारा हार्इ स्पीड़ की नर्इ रेल गाडि़या तो चलार्इ जाती है लेकिन उनके हिसाब से रेलवे टै्रक को उन्नत नही किया जाता सिंगनल प्रणाली को आघुनिक नही किया जाता। जिस की कीमत बडी बडी दुर्घटनाओ के रूप में देश वासियो को अपनी जान देकर चुकानी पड़ती है। रेलवे के पास आज कर्इ ऐसे फंड है जिन में करोड़ो रूपया जमा होने के बावजूद रेलवे इन फंडो का इस्तेमाल नही कर पा रहा है जिन में डिप्रिसिएशन रिर्जव फंड-हर साल जरूरत के मुताबिक रेलवे इस फंड में पैसा डालता है इस फंड का इस्तेमाल पुरानी सामग्री को बदलने और उस की मरम्मत करने में किया जाता है। डेवलेपमेंट फंड-सुरक्षा संबंधी प्रोजेक्टस और विकास कार्य के लिये जैसे टै्रक सर्किटिक, इंटरलाकिग, फुटओवर ब्रिज का निर्माण शामिल होता है। रेलवे सेफ्टी फंड-सभी क्रासिंगो पर कर्मचारी तैनात करने और रेल ओवर तथा अंडर ब्रिज निर्माण के उद्देश्यों के लिये इस फंड का इस्तेमाल किया जाता है। स्पेशल रेलवे सेफ्टी फंड-रेलवे सुरक्षा संसाधनो को बदलने व सुधारने के लिये 17,000 रूपये हमेशा इस में जमा रहते है जो कि रेल मंत्रालय के सरकारी आंकड़े बताते है कि जनवरी 2010 तक इस फंड से केवल 550 करोड़ रूपये ही खर्च हो पाये है।

पिछले कर्इ सालो से ये देखने में आ रहा है कि सिर्फ राजनीतिक वाही वाही लूटने के लिये रेल मंत्री बिना गुणा भाग किये ट्रेनों की संख्या तो बढा देते है पर उसके अंजाम और गहरार्इ तक ये नही पहुच पाते। इसे देश की विडंबना ही कहा जायेगा कि आज भारत जैसे विकासशील देश में 15,993 मानव रहित रेलवे क्रासिंग है। चौकादार रहित इन रेलवे फाटको पर पिछले वर्ष 53 रेल दुर्घटनाए हुर्इ। हर साल देश की आबादी और रेल यात्रियो की संख्या बढ रही पर आज देश में रेलवे कर्मचारियो की संख्या 16 लाख से घटकर 14 लाख के आसपास रह गर्इ है। ऐसे में 10 प्रतिशत सेवाकर वसूलकर क्या भारतीय रेल मंत्रालय रेल यात्रियो को बेहतर सेवाए प्रदान का पायेगा या यू ही रेल मंत्रालय की गाडी राम भरोसे चलती रहेगी।

 

क्रूर तानाशाह का क्रूर अन्त

शादाब जफर ”शादाब

बयालिस साल तक लिबिया पर सख्ती से राज करने वाले तानाशाह कर्नल मुअम्मद गद्दाफी का अंत बृहस्पतिवार 20 अक्तूबर को किस प्रकार हुआ पूरी दुनिया ने देखा और सबक लिया। दुनिया का सब से बडा तानाशाह, अकूत सम्पत्ती का मालिक सोने के सिहासन पर बैठने और नर्म मुलायम गद्दो पर सोने वाला लीबीया में 1969 में रक्तहीन तख्ता पलट का जिम्मेदार ये क्रूर शासक अपने ही देश में अपनी जान बचाने की खातिर एक पार्इप के गÏे में छुपा था। अपनी रंगबिरंगी पोशाको को लेकर हमेशा चर्चा में रहने वाले इस शख्स के बदन पर पूरे कपडे भी नही थे। लोगो को कुत्तो बिल्ली की मौत देने वाला ये तानाशाह विद्रोहियो से अपनी जिन्दगी की भीख मांग रहा था। 42 साल के लम्बे अरसे तक देश पर राज करने वाला ये शासक अपने देशवासियो के दिलो में इतनी जगह भी नही बना सका की इस की मौत पर ये लोग आसू बहा सके मातम मना सके। अपने देश के लोगो के साथ ही गद्दाफी के दुनिया के तमाम देशों से संबंध खराब रहें। मुहम्मद गद्दाफी ने 2009 में संयुक्त राष्ट्र महासभा में एक बार कूटनीतिक स्तर पर अपने सम्बोधन में भारत के लिये भी गंभीर सिथति ये कहकर पैदा कर दी थी कि ”वो आजाद कश्मीर राज्य का सर्मथन करते है। कश्मीर को भारत और पाकिस्तान के बीच स्वतंत्र राज्य माना जाना चाहिये। अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन ने एक बार मुहम्मद गद्दाफी को ”पागल कुत्ता तक कह दिया था। मुहम्मद गद्दाफी अपनी सनक मिज़ाज़ी और इष्क मिज़ाज़ी के लिये भी जाने जाते थें। गद्दाफी अपना ख्याल रखने के लिये खास तौर पर गोरे रंग और सुनहरे बालो वाली विदेशी हसीनाओ को अपनी देखभाल करने के लिये बतौर नर्स रखता था। वही गद्दाफी को अपनी सुरक्षा के लिये बंदूकधारी महिला बाडीगार्ड रखने का शौक था। गद्दाफी की सनक या यू कहा जाये कि इस तानाशाह के खौफ और अय्याषी के कारण इन सभी 40 महिला सुरक्षाकर्मियो ने खुद को अजीवन कुंवारी रहने और गद्दाफी की रक्षा की खातिर अपनी जान तक निछावर कर देने की कसमे खार्इ हुर्इ थी।

लीबिया के रेगिस्तानी इलाके सिर्ते में 1942 में जन्मे मुहम्मद गद्दाफी ने महज 27 साल में ही लीबिया की सत्ता हथिया ली थी। शासक सुल्तान इद्रीस प्रथम का तख्ता पलटने के बाद वो देश की सत्ता पर काबिज हो गया था। सत्ता हासिल करने के लिये इस तानाशाह क्रूर शासक ने जहा 1969 में ”फ्री आफिसर्स मूवमेंट द्वारा सुल्तान इद्रीस का तख्ता पलटा वही लीबिया में लीबियन अरब रिपबिलकन की स्थापना की। इस के अलावा सत्ता में काबिज रहने के लिये अपने विद्रोहियो पर इस शासक ने कभी रहम नही किया। गद्दाफी शासन को टेडी नजर से देखने वालो और गद्दाफी द्वारा बनाये गये नियम कानूनो का उल्लंघन करने वाले हजारो लोगो को अपने शासनकाल में गिरफ्तार कर उन्हे मौत की सजा व क्रूर यातनाए देने के आरोप गद्दाफी पर उन के शासनकाल में बडी तादाद में लगे। वही बडी तादाद में गद्दाफी के विरोधी लापता होने के बाद कभी घर लौटे ही नही। गद्दाफी का खुद कहना था कि वो अपने विद्रोहियो को इंच इंच कर, गली गली, मोहल्लो मोहल्लो व घर घर में तलाश कर चुन चुन कर मरवाता है। ये सही है कि आज लोग तानाशाह हिटलर को भी याद करते है पर चार दशकों तक लीबिया जैसे मुल्क में शासन करने वाले इस क्रूर तानाशाह को इतिहास एक ऐसी शखिसयत के रूप में भी याद करेगा जिसने देश का तख्ता पलट तो समतावाद का नारा देकर किया था पर सत्ता के नशे में चूर होकर वो खुद पूंजीवाद और साम्यवाद की राजनीति में उलझ गया।

सत्ता में बने रहने के लिये के तानाशाह गद्दाफी ने अपने चालीस साल के राजनीतिक सफर में खूब जोड़तोड़ किया। इस ने लीबीया के जहा कर्इ मजबूत कबाइली संगठनो को अपनी तरफ मिलाया वही आर्थिक विशेषाधिकार से लेकर वैवाहिक गठबंधनो तक का सहारा लिया इस लिये ताकि आजादी और ताकत के साथ 60 लाख की आबादी वाले देश पर अपने दुष्मनो को मिटाकर आसानी से देश पर राज कर सके। गद्दाफी ने सत्ता में बने रहने के लिये लोगो को पुचकारने के साथ ही घमकाने और मौत के घाट उतारने तक से गुरेज नही किया। वही अरब देशों को जागृत करने का श्र्रेय अगर किसी को दिये जाये तो इस पंकित में सब से पहला नाम गद्दाफी का ही लिया जायेगा। मिस्र के शेख नासिर को अपना सियासी गुरू मानने वाले गद्दाफी ने ही अरबो को राष्ट्रवाद का नारा दिया। आज जो अरब मुल्क अपने तेल के कुओं के कारण मालामाल और ऐश कर रहे है दरअसल ये सारी की सारी अरब मुल्को को गद्दाफी की देन है। पिछले साल तक मानव विकास सूचकांग के मोरचे पर लीबीया अफ्रीकी देशों की सूची में शीर्ष पर था। लेकिन इन सब बातो से न तो गद्दाफी द्वारा किये गये अपराध कम हो सकते है और न ही गद्दाफी को उस के द्वारा देश की जनता और अपने विद्रोहियो पर की गर्इ क्रूरता को कम या मांफ किया जा सकता है और न ही उस के द्वारा देश में मानवधिकार हनन के किये गये कुकृत्यो की अन्देखी की जा सकती है। लीबीया का इतिहास गवाह है कि सद्दाम हुसैन के अमेरिका के शिकंजे में फंसने के बाद गद्दाफी ने पश्चिम के सामने हथियार डाले और अमेरिका का दोस्त बन गया। लेकिन अरब क्रान्ति के शुरू होने के साथ ही इस तानाशाह के अन्दर का शैतान जाग गया जिस के बाद अपने खिलाफ लोकतांत्रिक आंदोलन को दबाने के लिये इस क्रूर शासक ने अपनी फौज द्वारा महिलाओ के साथ सामूहिक बलात्कार जैसे घिनौने अमानुशिक हथियार तक का सहारा लिया।

फलस्तीन के बारे में गद्दाफी ने हमेशा झूठ बोला। वो फलस्तीन के लड़ाको को हथियार जरूर सप्लार्इ करता था पर इस के बदले वो एक मोटी रकम फलस्तीन से वसूलता था। इस के अलावा फलस्तीनियो के साथ उस के रिश्ते बहुत सावधानी भरे और ठंडे थें। वही गद्दाफी की दोस्ती अबू नदाल ग्रुप से थी जो कि निषिक्रय था। गद्दाफी जैसे क्रूर शासक की लीबीया में विद्रोहियो के हाथो मौत होने पर दुनिया मे कोर्इ जबरदस्त हलचल नही हुर्इ। पर इतना जरूर है कि जिस तानाशाह ने अपने बयालिस साल के शासन में कभी मानवधिकारो की परवाह नही की आज संयुक्त राष्ट्र मानवधिकार संघ उस कर्नल मुहम्मद गद्दाफी की मौत की परिसिथतियो की जाच कराने को कह रहा है। पर गद्दाफी की इस प्रकार हुर्इ क्रूर मौत पर इतना जरूर कहा जा सकता है कि जिस व्यकित की सारी सफलता सिर्फ और सिर्फ ढोंग, पाखंड, घात प्रतिधात, धोखे से सत्ता हथियार्इ गर्इ हो और बयालिस सालो तक जिस देश की जनता और बच्चो ने अपने मा बाप भार्इ बहनो को अपनी आखो के सामने क्रूर तरीको से मरते देखा होगा उन लोगो ने गद्दाफी की मौत की कल्पना शायद कुछ ऐसी ही की होगी।

 

 

 

 

 

 

 

कार्तिक माह: स्वर्ग-प्राप्ति की आसान राह

राजेश कश्यप

कार्तिक का महीना व्रतों, त्योहारों और धार्मिक अनुष्ठानों के लिए बेहद पावन होता है। कार्तिक महीने की प्रतिपदा से लेकर कार्तिक महीने की पूर्णमासी तक पूरे महीने धार्मिक अनुष्ठान चलते रहते हैं। देव उठनी एकादशी, गोवद्र्धन पूजा, दीपावली, भैयादूज, करवाचौथ, अहोई जैसे त्योहार इसी कार्तिक महीने में ही आते हैं। पौराणिक दृष्टि से कार्तिक बदी पूर्णमासी को तो वर्ष का सबसे पवित्र दिन माना जाता है। इसीलिए इस पावन दिवस पर कई तरह के धार्मिक अनुष्ठान सम्पन्न किए जाते हैं।

कार्तिक के पूरे माह चलने वाले स्नान का तो धार्मिक दृष्टि से बड़ा ही महत्व रहा है। पूरे महीने चलने वाले इस पवित्र स्नान को ‘कार्तिक-स्नान’ पूर्णमासी से लेकर उतरते कार्तिक की पूर्णमासी तक अर्थात् दीपावली से पन्द्रह दिन पहले से लेकर, दीपावली के पन्द्रह दिन बाद तक ‘कार्तिक-स्नान’ का विशेष महात्म्य है। जो भी व्यक्ति कार्तिक महीने में सूर्योदय से पूर्व उठकर नदी, तालाब, कुएं अथवा नलकूप के पानी में स्नान करता है और अपने इष्ट का ध्यान व उपासना करता है तो उसे अत्यन्त पुण्य, सुख, समृद्धि, आयु, एवं आरोग्य की प्राप्ति होती है।

हमारे वेद एवं पुराणों में कार्तिक-स्नान को बेहद पावन, समृद्धिदायक एवं कल्याणकारी स्नान के रूप में वर्णित किया गया है। यथा :

कार्तिक मासी ते नित्यं तुलासंस्थे दिवाकरे।

प्रात: स्नास्यंति ते मुक्ता महापातकिनोदपि च।।

अर्थात्, जो मनुष्य तुला की संक्राति रहते हुए कार्तिक मास में प्रात:काल स्नान करते हैं, वे यदि बड़े से बड़े पापी हों तो भी वे उनसे मुक्त हो जाते हैं।

धर्म शास्त्रों के अनुसार जो मनुष्य कार्तिक मास में व्रत, स्नान एवं तप करता है, उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है। स्कन्द पुराण में उल्लेखित है :

मासानां कार्तिक: श्रेष्ठो देवानां मधुसूदन।

तीर्थं नारायणाख्यं हि त्रितयं दुर्लभं कलौ।।

अर्थात्, कार्तिक मास भगवान विष्णु एवं तीर्थ के समान ही श्रेष्ठ और दुर्लभ है।

पुराणों में कार्तिक मास की महिमा का उल्लेख इस प्रकार मिलता है :

न कार्तिकसमो मासो न कृतेन समं युगम्।

न वेदसदृशं शास्त्रं न तीर्थं गंगा समम्।।

अर्थात, कार्तिक के समान दूसरा कोई मास नहीं, सतयुग के समान कोई युग नहीं, वेद के समान कोई शास्त्र नहीं और गंगाजी के समान कोई तीर्थ नहीं है।

इस प्रकार पौराणिक दृष्टि से भी कार्तिक स्नान बड़ा ही कल्याणकारी माना गया है। यदि कार्तिक-स्नान को धार्मिक व पौराणिक दृष्टि के साथ-साथ प्राकृतिक दृष्टि से भी देखा जाए तो भी यह स्नान अति लाभकारी सिद्ध होता है। क्योंकि कार्तिक मास में प्रकृति एक नए रूप-रंग एवं सुगन्ध से युक्त होता है। यह वह समय होता है, जब ठण्ड धीरे-धीरे बढ़ रही होती है और शीत ऋतु में प्रवेश कर रही होती है। सुबह खेतों में घास व फसलों पर ओस की बूंदों के रूप में प्रकृति के अनुपम मोती आ टिकते हैं। सुबह-सवेरे इन मोतियों को निहारने व इन पर नंगे पाँव चलने से ने केवल नेत्र-ज्योति तेज होती है, बल्कि शारीरिक और मानसिक शक्ति भी सशक्त होती है। रात में चन्द्रमा द्वारा चांदनी के रूप में होने वाली उदात अमृतवर्षा तो अनूठी एवं अनुपम होती ही है।

वैसे भी जो व्यक्ति नित्य सूर्योदय से पूर्व उठकर बाहर घूमने व स्नान करने जाता है, वह अन्य व्यक्तियों की तुलना में कहीं अधिक स्वस्थ, प्रसन्नचित, विवेकशील, कर्मठ एवं बुद्धिमान होता है। लेकिन, कार्तिक-स्नान अन्य महीनों की तुलना में सर्वाधिक लाभदायक एवं कल्याणकारी माना गया है। अगर इस माह में तीर्थों में स्नान कर लिया जाए तो उसका पुण्य तो अपार कहा जाएगा। पौराणिक दृष्टि से कार्तिक मास में प्रात:काल उठकर तीर्थ-स्थान करने वाला महान् पुण्यात्मा होता है।

पौराणिक दृष्टि से मुख्यत: चार प्रकार के पवित्र स्नान माने गए हैं। पहला, ‘वायव्य स्नान’, जोकि ‘गो-रज’ में किया जाता है। दूसरा, ‘वारूण-स्नान’, जोकि समुद्र, नदी, सरोवर आदि मे किया जाता है। तीसरा, ‘दिव्य-स्नान’, जोकि वर्षा के जल से किया जाता है। चौथा, ‘ब्रह्म-स्नान’, जोकि कूप (कूंए) आदि मे मंत्रोच्चारण करते हुए किया जाता है। पुराणों में इन चारों स्नानों में ‘वारूण-स्नान’ को सर्वोत्तम माना गया है।

पुराणों मे कार्तिक-स्नान के साथ-साथ ‘कार्तिक-व्रत’ को भी सर्वोत्तम व्रतों में गिना गया है। पद्म पुराण में भगवान श्रीकृष्ण अपनी रानी सत्यभामा को कार्तिक-व्रत की महिमा का बखान करते हुए बतलाते हैं कि अवन्तीपुर में रहने वाला धनेश्वर नाम का भ्रष्ट आचरण वाला एक ब्राह्मण था। एक बार वह स्थान-स्थान पर भटकता हुआ महिष्मती नगर मे आ गया। वहां उसने नर्मदा नदी के तट पर अनेक नगरों से आए कार्तिक-व्रतियों को देखा। वह वहां प्रतिदिन स्नान करते, पुराण पढ़ते तथा हरि का गुणगान करते ब्राह्मणों को देखता। एक दिन कृष्ण सर्प द्वारा उसे डसे जाने से उस धने’वर ब्राह्मण की मृत्यु हो गई। कार्तिक-व्रतियों ने मृत ब्राह्मण को देखकर दयाद्र्रता से उसके मुख पर तुलसी दलों वाला जल छिड़का।

यमलोक में जाने पर उसका कोई पुण्य कर्म न देखकर चित्रगुप्त के निवेदन पर यमराज ने उसे अनंत काल तक नरकवास का दण्ड दिया। यमदूत ज्यों ही उसे अग्नि संतप्त कुम्भीपाक मे लाए, त्यों ही उन्होंने आश्चर्य से देखा कि वहां का वातावरण सौम्य और शीतल हो गया है। दूतों के इस कौतूक को सुनकर यमराज विस्मित हो ही रहा था कि नारद जी वहां पहुंचे और यमराज से बोले कि धनेश्वर ब्राह्मण द्वारा पुण्य कर्म कार्तिक-व्रती महात्माओं के किए गए दर्शनों का ही यह पुण्य-प्रसाद है कि उसकी उपस्थिति मात्र से ही नरक एकदम स्वर्ग में परिवर्तित हो गया है। वस्तुत: कार्तिक-व्रतियों के दर्शन और उनके साथ भाषण से धनेश्वर ब्राह्मण के सारे पाप नष्ट हो गए हैं। इधर यमराज ने अपने दूतों से कहकर धनेश्वर ब्राह्मण को नरक से निकलवाकर स्वर्गलोक में भेज दिया।

यह सारा आख्यान अपनी पत्नी सत्यभामा को सुनाने के बाद भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि देवी ! कार्तिक का प्रभाव ही ऐसा है। कार्तिक मास में किया गया स्वल्प शुभ कर्म भी वृहत फल देने वाला होता है। वस्तुत: कार्तिक मास में हरिपूजन से स्वर्ग की प्राप्ति हो जाती है, बशर्ते कि कार्तिक-स्नान और कार्तिक-व्रत पूरे विधि-विधान एवं पूरी श्रद्धा व विश्वास के साथ किया जाए।

 

मैसेजों की सीमाबंदी के बहाने मौलिक अधिकारों मे कटौती

अभिषेक रंजन

विश्व के सबसे बड़े लोकतान्त्रिक देश भारत में आम जनता की आवाज़ दबाने की एक बड़ी साजिश चल रही है | आम जनता से जुड़ी बातों से बेखबर और बेपरवाह सरकार अपनी नाकामियों के उजागर होने के भय से अपने ख़िलाफ हो रहे सभी विरोधों का दमन करने पर तुली हुई है | चाहे विषय राजनीतिक अधिकारों की हो या सामाजिक बराबरी की, जो भी मुद्दे सामाजिक सरोकारों से जुड़े तथा आम जन के कल्याण से सम्बंधित होते है उनसे सत्ता अपना कोई लेना देना नहीं रखना चाहती | लुट खसोट में व्यस्त तंत्र अपने ख़िलाफ उठ रहे हर एक आवाज़ को दबाने की हर संभव चालें चल रही है ताकि आमजन के ह्रदय में सुलगते आग अन्दर ही अन्दर दबी रहे | क्यूंकि फूटने पर जिस प्रकार का रूप और रंग आक्रोश की चिंगारी दिखाती है उससे व्यवस्था पर प्रश्नचिन्ह लग जाते है |

कुछ इसी प्रकार से अपनी तानाशाही का परिचय सरकार की एक संस्था ट्राई(TRAI) ने आम जनता विशेषकर युवावर्ग की सक्रियता में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वालें मोबाइल संदेशों (sms) पर सीमाबंदी(प्रति दिन १०० सन्देश भेजने की सीमा) लगा कर दी है | सुनने में पहले ठीक लगता है कि १०० सन्देश प्रति दिन के हिसाब से काफी है लेकिन यह किसके लिए काफी है? यह तय किये बिना, इसे समझे बिना ,इस सीमाबंदी के पीछे छिपे साजिश को जाने बगैर किसी भी प्रकार से निर्णय पर पहुचना की- सीमाबंदी करने का निर्णय उचित है ,सही नहीं है |

संयुक्त पारिवारिक व्यवस्था में जीनेवालें व्यक्ति जिनका सभी रिश्तेदारों से संपर्क रखना सामाजिक रूप से जरुरी है ,क्या उनके लिए यह निर्णय सही है? विद्यार्थी, जो अपनी क्षमता के दम पर कॉलेज की किसी सोसाइटी का संयोजक बनता है जिसमे उसे किसी भी प्रकार के कार्यक्रम आयोजित करवाने हेतु 100 से ज्यादा सदस्यों से संपर्क में रहना पड़ता है ,क्या उसके लिए यह सही फैसला है? सामाजिक रूप से संवेदनशील और राजनीतिक दृष्टि से सक्रीय लोगों के लिए, जिन्हें 100 से ज्यादा लोगों से संपर्क रखना ही पड़ता है, क्या उनके लिए यह नीति सही है ? जबाब ढूंढने पर आम राय नहीं के पक्ष में ही होगी |

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है जो लोगों के साथ संवाद स्थापित कर जीवनयापन करता है | सविंधान भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और गरिमा के साथ जीने की बात करता है | स्वाभाविक है लोगों के साथ मिलनसार स्वभाव के व्यक्ति का एक अच्छा रिश्ता बनता है जिसे जीवन-पर्यंत निभाने की कोशिश लोग करते है | अब जो व्यक्ति सामाजिक होगा उसके मोबाइल में स्वभावतः १०० से ज्यादा लोगों के सम्पर्क सूत्र होंगे जिनसे संवाद का एक सस्ता सुलभ और सुविधाजनक माध्यम मोबाइल मैसेज होते है | परन्तु वर्तमान नीति के कारण अब ये सामजिक प्राणी १०० से ज्यादा लोगों को मैसेज भी नहीं भेज सकते |

सोचने का विषय है कि मोबाइल हमारी, उसमे आने वाले खर्च हमारे जेब से, फिर कितनों को मैसेज भेजेंगे, यह तय करने वाली ट्राई कौन होती है ? अवांछित मैसेज को रोकने के बहाने व इससे होने वाली तथाकथित परेशानी का शिगूफा छोड़कर हमारे अधिकारों के उपर कैंची चलाने की कोशिस, एक बड़ी साजिश की तरफ इशारा करती है | जिस अवांछित मैसेज का बहाना बनाकर अपने तानाशाही इरादे को मैसेज की सीमाबंदी के सहारे हमपर थोपा जा रहा है उसकी वास्तविकता से आम जनता और बुधिजिवियों का बेखबर या जान बुझकर अंजान बने रहना चिंता का विषय है | जिन मैसेजों को अवांछित बताकर रोका जा रहा है वह कुछ लोगों के शिकायतों पर किया गया निर्णय है जिसे कतई भी लोकतान्त्रिक व्यवस्था में स्वीकार्य नहीं होना चाहिए | हम इस बात का पुरजोर समर्थन करते है कि लोकतंत्र में प्रत्येक व्यक्ति की आवाज़ को सुनना और सम्मान देना चाहिए, लेकिन इसका मतलब यह नहीं होना होना चाहिए कि बातों को अधिकांश लोगों के हितों के ख़िलाफ मान ली जाये | यह भी तो हो सकता है कि कुछ लोगों को बेकार लगने वाली मैसेज किसी के लिए फायदेमंद हो | व्यावसायिक हितों की रक्षा खातिर हमारे ही अधिकारों में कटौती करती सरकार की इस निर्णय ने लोकतांत्रिक बहसों को बंद करने का सोचा समझा षड्यंत्र रचा है | बिना जनता की राय लिए और अन्ना व उसके इर्द गिर्द चल रहे बहसों के बीच चुपके से व्यक्तिगत मैसेज की लक्ष्मण रेखा खीच देना बिलकुल तर्कसंगत नहीं है| लोकतंत्र के मजबूत स्तम्भ- सुचना और संपर्क, से जुड़ी मोबाइल मैसेज (sms) की यह सीमाबंदी भ्रष्टाचार, भुखमरी, बेकारी,गरीबी से त्रस्त जनता के अन्दर फुट रहे गुस्से को दबाने की चाल के तहत लगाई गयी है, जिसका पुरजोर विरोध होना चाहिए |

कांग्रेस को विद्रोह नहीं, आत्ममंथन की ज़रूरत

निर्मल रानी

पिछले दिनों एक लोकसभा तथा तीन विधानसभाओं के हुए उपचुनावों के परिणामों की विभिन्न राजनैतिक दलों व समीक्षकों द्वारा तरह-तरह से समीक्षा की जा रही है। इन चारों ही चुनाव क्षेत्रों में केवल एक विधानसभा की सीट गैऱ कांग्रेस शासित राज्य बिहार से थी जबकि दो विधानसभा सीटें कांग्रेस शासित राज्य महाराष्ट्र व आंध्र प्रदेश से थी। इसी प्रकार हिसार लोकसभा सीट भी कांग्रेस शासित राज्य हरियाणा से थी। इत्तेफाक से कांग्रेस पार्टी को इन चारों ही चुनाव क्षेत्रों में हार का मुंह देखना पड़ा। हिसार लोकसभा सीट पर तो कांगे्रस पार्टी लगभग 5 हज़ार मतों के अंतर से अपनी ज़मानत भी गंवा बैठी। चुनाव परिणाम आने के पश्चात जैसा कि हमेशा होता आया है यहां भी जीतने वाला पक्ष अपनी जीत को अपने अंदाज़ से परिभाषित कर रहा है जबकि हारने वाला पक्ष एक-दूसरे को हार का जि़म्मेदार ठहरा रहा है तथा पराजित पक्ष अर्थात् कांग्रेस पार्टी में आरोप व प्रत्यारोप का दौर देखा जा रहा है।

जहां तक हिसार लोकसभा सीट पर कांगेस पार्टी का हार का प्रश्र है तो इसे कुछ लोग अन्ना हज़ारे द्वारा कांगे्रस के पक्ष में वोट न देने की अपील किए जाने को बता रहे हैं। जबकि विजयी प्रत्याशी, जनहित कांग्रेस व भारतीय जनता पार्टी के संयुक्त उम्मीदवार तथा हिसार लोकसभा सीट से सांसद रहे प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री चौधरी भजन लाल के पुत्र कुलदीप बिशनोई अपनी जीत का श्रेय अन्ना हज़ारे फैक्टर को कतई नहीं देना चाह रहे हैं। कांग्रेस पार्टी का भी कुछ ऐसा ही मत है। वरिष्ठ कांग्रेस नेता व केंद्रीय मंत्री वीरप्पा मोईली का तो यहां तक कहना है कि कांग्रेस पार्टी 130 वर्ष पुराना वह राजनैतिक संगठन है जिसने ब्रिटिश हुकूमत को अपने लिए कोई समस्या नहीं समझी। ऐसे में अन्ना हज़ारे अथवा अन्य किन्हीं चंद लोगों के ग्रूप को कांगेस पार्टी अपने लिए कोई समस्या नहीं समझती।

कांग्रेस पार्टी में स्वनिर्माण की वह क्षमता है जो बड़े से बड़े सुनामी या भूचाल का सामना कर सफलता से बाहर निकल आती है। मोईली का मत है कि यदि अन्ना फ़ै क्टर हिसार में काम करता तथा वहां ईमानदारी की जीत होती तो हिसार से कोई ईमानदार व्यक्ति ही चुनाव जीतता। यह और बात है कि अन्ना हज़ारे द्वारा कांगेस पार्टी के खिलाफ मतदान की अपील किए जाने पर कांगे्रस पार्टी पूरी तरह तिलमिला गई थी तथा अन्ना हज़ारे के भ्रष्टाचार विरोधी गैऱ राजनैतिक आंदोलन का स्वयं उनके अपने ही समूह में इतना प्रबल विरोध हुआ कि अन्ना की कोर क मेटी के सदस्य राजेंद्र सिंह व वी गोपाल ने तो अन्ना के इस फैसले के विरोधस्वरूप कोर ग्रुप से त्यागपत्र ही दे डाला। उधर कुलदीप बिश्राई भी चुनाव जीतने के बाद तो अपनी जीत को अन्ना हज़ारे फैक्टर की सफलता मानने से भले ही इंकार कर रहे हों परंतु चुनाव पूर्व उन्होंने भी अन्ना हज़ारे फैक्टर के चुनाव में काम न करने की बात से इंकार करने का साहस नहीं किया था।

बहरहाल, चौधरी भजनलाल की मृत्यु के पश्चात रिक्त हुई हिसार लोकसभा सीट उन्हीं के राजनैतिक उत्तराधिकारी कुलदीप बिश्रोई द्वारा जीती जा चुकी है। कुलदीप बिश्रोई भी स्वयं इसे हिसार के मतदाताओं द्वारा चौधरी भजनलाल के प्रति दर्शाया गया आदर स्वीकार कर रहे हैं तथा निष्पक्ष राजनैतिक विशेषक भी यही मान रहे हैं कि चौधरी भजनलाल के प्रति जनता की श्रद्धांजलि तथा कुलदीप के प्रति मतदातओं की सहानूभूति ने उन्हें लगभग 6हज़ार मतों से लोकसभा के लिए निर्वाचित कर लिया। परंतु अन्य विपक्षी दल इस चुनाव परिणाम को राष्ट्रीय राजनीति के परिपेक्ष्य में देख व प्रचारित कर रहे हैं। गौरतलब है कि इसके पूर्व भी जब चौधरी भजनलाल हिसार से सांसद निर्वाचित हुए थे उस समय भी यहां से कांग्रेस पार्टी तीसरे स्थान पर रही थी। और इस बार भी कांग्रेस पार्टी को तीसरा स्थान ही प्राप्त हुआ।

लिहाज़ा ऐसा कुछ नहीं है कि गत् डेढ़ वर्ष के अंतराल में कांग्रेस पार्टी के लिए कोई बहुत बड़ा मुसीबत का पहाड़ टूट पड़ा हो। जिस प्रकार का चुनाव परिणाम आया है विशेषकों को ऐसे ही चुनाव परिणाम की उम्मीद भी थी। परंतु विपक्षी दल कांग्रेस पार्टी के सामने हिसार परिणाम को लेकर एक बवंडर खड़ा कर देश में कांग्रेस विरोधी माहौल बनाने में हिसार परिणाम का सहारा लेना चाह रहे हैं।

विपक्ष द्वारा अपनाए जाने वाले राजनैतिक हथकंडे तो अपनी जगह पर, यहां तो कांग्रेस पार्टी के भीतर ही हिसार परिणाम को लेकर घमासान छिड़ गया है। राजनैतिक गुटबाज़ी के शिकार नेतागण इस चुनाव में हार का जि़म्मा एक-दूसरे के सिर मढऩे लगे हैं। इत्तेफाक से राज्य में जितने भी धड़े हिसार परिणाम को लेकर एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप कर रहे हैं वे सभी राज्य के मुख्यमंत्री पद के मज़बूत दावेदार हैं। इनके आपसी मतभेदों व आरोपों व प्रत्यारोपों के स्तर को देखकर सा$फतौर पर यह समझा जा सकता है कि इनकी दिलचस्पी पार्टी के हक में सोचने व काम करने की कम है जबकि अपने राजनैतिक भविष्य को लेकर इनकी चिंताएं कुछ अधिक हैं। वैसे कांग्रेस का इतिहास भी कुछ यही बताता है कि कांग्रेस पार्टी अपने सामने खड़े विरोधियों के हथकंडों या उनकी साजि़शों का शिकार कम होती रही है जबकि भीतरघाती व विभीषण सरीखे नेताओं ने कांग्रेस को कुछ ज्य़ादा ही नुकसान पहुंचाया है।

आज कद्दावर नेताओं का रूप धारण किए हुए यह लोग न जाने क्यों यह भूल जाते हें कि आज उनकी कद्दावरी का कारण उनका व्यक्तिगत् व्यक्तित्व उतना नहीं है जितना कि कांग्रेस पार्टी ने उन्हें प्रचारित व प्रतिष्ठित बनाया है। परंतु यह नेता यह नहीं सोचते कि एक सीट पर हार को लेकर कांग्रेस पार्टी में हो रही इस सिर फुटौवल की स्थिति का लाभ विपक्षी दलों को ही मिलेगा।

आज क्या देश का कोई भी व्यक्ति यहां तक कि कोई भी कांग्रेस कार्यकर्ता इन चंद सच्चाईयों से इंकार कर सकता है कि देश में आज जितनी मंहगाई है उतनी पहले कभी नहीं थी? मंहगाई का ग्रा$फ जिस तेज़ी से गत् दो वर्षों के भीतर बढ़ा है उतनी तेज़ी से मंहगाई क्या पहले कभी बढ़ी थी? खाद्य सामग्री,ईंधन,रसोई गैस, डीज़ल-पैट्रोल, फल-सब्जि़यां, तिलहन-दलहन आदि सभी रोज़मर्रा की ज़रूरत की वस्तुओं के दाम आसमान को छू रहे हैं। उस पर मरे को सौ दुर्रे वाली कहावत को चरितार्थ करते हुए हमारे देश के मुख्य योजनाकार मोंटेक सिंह आहलूवालिया 32 रुपये प्रतिदिन कमाने वाले व्यक्ति को गरीब व्यक्ति मानने को ही तैयार नहीं हो रहे थे।

ज़ाहिर है मंहगाई की बुरी तरह मार झेल रहा व्यक्ति ऐसे में उनसे यह सवाल ज़रूर करेगा कि श्रीमान जी ज़रा आप ही 32 रुपये रोज़ में अपना गुज़ारा आज के दौर में चलाकर दिखाईए। केवल मंहगाई ही नहीं बल्कि मंहगाई के लिए जि़म्मेदार समझी जाने वाली राजनेताओं की एक बड़ी टोली भी देश के बड़े से बड़े भ्रष्टाचार में शामिल पाई जा रही है तथा उन्हें एक-एक कर जेल की सला$खों के पीछे जाते हुए देश की जनता देख रही है। इन हालात में अन्ना हज़ारे जैसे साधारण सामाजिक कार्यकर्ता के पीछे जनता का संगठित होना भी कोई आश्चर्यचकित करने वाली घटना नहीं समझी जानी चाहिए। और न ही उपचुनावों में कांग्रेस पार्टी की हार को लेकर इधर-उधर की बातें कर सच्चाई से मुंह फेरने का प्रयास करना चाहिए।

ऐसे ही गुमराह करने वाले राजनैतिक हालात को देखते हुए शायर ने कहा है कि-

तू इधर-उधर की बात न कर,यह बता कि काफ़िला क्यों लुटा।

मुझे रहज़नों से गरज़ नहीं तेरी रहबरी का सवाल है। 

गोया कांग्रेस पार्टी यदि इन चुनाव परिणामों की ज़मीनी सच्चाईयों से आंख मूंदकर व्यक्तिगत् विद्वेषपूर्ण राजनीति में अब भी उलझी रही तथा मतदाताओं के मस्तक पर लिखी वास्तविक इबारत को पढऩे से इंकार किया तो 2014 कांग्रेस के लिए संकट का वर्ष भी साबित हो सकता है। कांग्रेस पार्टी के रणनीतिकारों को भारतीय जनता पार्टी, नरेंद्र मोदी अथवा लाल कृष्ण अडवाणी की जनचेतना यात्रा आदि में कमियां निकालने अथवा इन पर आरोपों की बौछार करने में समय गंवाने के बजाए बड़ी ईमानदारी से सिर्फ और सिर्फ आत्ममंथन करना चाहिए। भ्रष्टाचारियों को चाहे वह किसी भी ऊंचे से ऊंचे स्तर का क्यों न हों उन्हें इसी प्रकार जेल में डाल देना चाहिए, जिस प्रकार राजनीति पर बदनुमा दा$ग समझे जाने वाले दर्जनों लोग इस समय जेल में सड़ रहे हैं।

मंहगाई पर नियंत्रण के लिए एक उच्चस्तरीय कोर ग्रुप का गठन करना चाहिए तथा निचले स्तर पर मंहगाई बेवजह बढ़ाने के जि़म्मेदार लोगों विशेषकर जमाख़ोरों व मुना$फाखोरों के विरुद्ध राष्ट्रीय स्तर पर सख़्त अभियान चलाना चाहिए। कांग्रेस पार्टी को यह नहीं भूलना चाहिए कि उसने अपने आप को आम आदमी की पार्टी के रूप में प्रचारित करते हुए यह नारा दिया था कि कांग्रेस का हाथ आम आदमी के साथ। पार्टी को अपने दिए गए इस नारे पर अमल करते हुए भी नज़र आना चाहिए। उपचुनावों में हार के इन वास्तविक कारणों को यदि पार्टी आलाकमान ने ईमानदारी से समझ लिया तथा इन कैंसर रूपी समस्याओं का निवारण कर लिया तो निश्चित रूप से विपक्षी दल कांग्रेस के सामने कोई विकल्प पेश नहीं कर सकेंगे। लिहाज़ा बकौल शायर-

सवाल यह नहीं शीशा बचा कि टूट गया।

यह देखना है कि पत्थर कहां से आया है।