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लीबिया पर नाटो आक्रमण और गद्दाफी की तानाशाही

प्रो. भीमसिंह

गृहयुध्द के मुहाने पर खड़ा है 65 लाख लोगों का देश लीबिया। जन-विद्रोह का सामना कर रहे लीबिया के सुप्रीमो गद्दाफी की समर्थक सेनाएं विद्रोहियों के कब्जे वाले क्षेत्रों पर जोरदार हमले कर रही हैं और दूसरी ओर से एंग्लो-अमेरिकन नेतृत्व ने लीबिया के तेल भंडार वाले शहरों पर नाटो के आक्रमण से लीबिया की सार्वभौमिकता पर गहरा आघात हुआ हैं। उनके देश में मंत्री या राष्ट्रपति के पद की कोई मौजूदगी नहीं है। गद्दाफी और विद्रोह-समर्थक लोगों के बीच घमासान युध्द चल रहा है। ऐसा लगता है कि पश्चिमी और उत्तरी लीबिया का विभाजन रोकना आज की परिस्थिति में नामुमकिन हो गया है। अनेक कबीलों पर आधारित लीबिया देश बेनगाज़ी और त्रिपोली के बीच दो खेमों में बंटकर रह गया है। जहां तक आज की स्थिति का सम्बंध है, लगभग 80 कबीलों के समर्थन से तवारिग़ समूह का नेतृत्व भूतभूर्व न्याय मंत्री मुस्तफा अब्दल जलील और राष्ट्रसंघ में लीबिया के भूतपूर्व राजदूत अली औजाली कर रहे हैं, जिन्हें गद्दाफी की बनायी हुई तथाकथित जनरल कांग्रेस का भी पूरा समर्थन प्राप्त है। यहां तक कि इन दोनों के नेतृत्व में बेनगाज़ी और उसके आसपास के कस्बों में एक आरजी सरकार भी स्थापित कर दी है, जिसे ‘लीबिया कौंसिल’ का नाम दिया गया है।

नाटो सैनिकों के जमीनी और हवाई हमले की मदद से विपक्षी समूह ने जाविया कस्बे पर, जो राजधानी त्रिपोली से लगभग 50 किलोमीटर की दूरी पर है, कब्जा कर लिया है। नवीनतम सूचनाओं के अनुसार गद्दाफी की सेनाओं ने इस शहर को लीबियन नेशनल कौंसिल से खाली करवा लिया था। परन्तु हाल ही के भयानक द्रोण जंगी हवाई जहाजों से मिसराता और अन्य ठिकानों से गद्दाफी की सेनाओं को वापसी पर मजबूर कर दिया है।

अमेरिका ने बारबार अरबों और अफ्रीकी देशों के विषय में अपनी नीति स्पष्ट शब्दों में दोहरायी है कि उसकी दिलचस्पी भूमध्यसागर में समुद्री व्यापार और जमीनी कच्चे तेल में है। चूंकि तेल पैदा करने वाले देशों में लीबिया का स्थान नौवें नम्बर पर है। वहां लगभग 40 मिलियन कच्चे तेल का भंडार छिपा हुआ है और अमेरिका अरबों की तेल की खपत तक अपने घर का तेल 21वीं शताब्दी तक इस्तेमाल नहीं करना चाहता। यहां इस बात का उल्लेख करना जरूरी है कि दुनिया में कच्चा तेल पैदा करने वालों में लीबिया नौवें स्थान पर है। लीबिया के पास 39.1 बिलियन बैरल कच्चे तेल का भंडार है और विश्व में यूरोप को सप्लाई होने वाले तेल का 3.7 प्रतिशत तेल लीबिया से किया जाता है।

कर्नल गद्दाफी के नेतृत्व में लीबिया की सरकार ने यूरोप के कई देशों से सस्ते दामों पर तेल सप्लाई करने का ठेका भी कर रखा है। यही वजह थी कि नाटो देश लीबिया में विद्रोहियों की सहायता के लिए अभी तक फौजें भेजने का फैसला करने में असमर्थ रहे थे। ईराक में एंग्लो-अमेरिकन फौजें 2003 में तुरन्त घुस गयी थीं, क्योंकि वहां तमाम यूरोपीय देशों के साझे सरोकार थे और लीबिया में इटली, फ्रांस, इंग्लैंड और अमेरिका के अलग-अलग सरोकार हैं। यह भी एक दिलचस्प बात हैं कि तेल पैदा करने वाले 20 देशों में लीबिया ही एक ऐसा देश है, जहां एक बैरल तेल निकालने पर एक डालर खर्च आता है, जबकि अन्य देशों में तेल निकालने का खर्च 15 से 20 डालर से कम नहीं है।

यूरोपीय देशों के लिए भूमध्यसागर रणनीतिक दृष्टि से बहुत ही महत्वपूर्ण है। लीबिया में अशांति होने से पूरे यूरोप की आमदोरत, तिजारत और जलवायु प्रभावित हो सकती है। इसलिए यूरोपीय देश बड़े असमंजस में पड़े हुए हैं। फ्रांस के राष्ट्रपति सरकोजी ने लीबिया के विद्रोही धड़े यानि लीबियन नेशनल कौंसिल, जिसकी अगुआई अब्दल जलील कर रहे हैं, को मान्यता देकर एक नया विवाद खड़ा कर दिया है।

लीबिया का झगड़ा कोई शिया-सुन्नी का नहीं है और न ही कोई नस्ली झगड़ा है। जिस कबीले गद्दाफा का नेतृत्व लीबिया के तानाशाह गद्दाफी कर रहे हैं, वह भी अल्पसंख्या में है। सबसे पुराना कबीला तो बर्बर नस्ल से सम्बंध रखता है जो अपने आपको हज़रत मोहम्मद की नस्ल से सम्बंधित बताता है। यह बर्बर कबीला मौरितानिया से लीबिया तक फैला हुआ है और राजनीतिक रूप से भी यह बड़ा प्रभावशाली है। इस बर्बर नस्ल के कबीले के तहत अन्य 30 कबीले हैं। यहां हर कबीले की भाषा, संस्कृति, बोली और रहन-सहन का ढंग भी अलग-अलग है। इनकी परिभाषा समझना किसी यूरोपीय देश के लिए अभी 100 साल तक मुमकिन नहीं होगा।

लीबिया की क्रांति की वजह क्या है? आखिर वह क्रांति, जिसे अरबी भाषा में ‘सौरा’ कहते हैं, उसकी ज्वाला कहां से आयी? इसमें कोई संदेह नहीं कि बहुत से इंजीनियरों और डाक्टरों की शिक्षा विदेशों में हुई है और उसमें अधिकतर भारत से पढ़कर गये हैं। परन्तु आम नागरिक जो आज भी विश्व के इतिहास से नावाकिफ रहा है वह क्रांति अथवा परिवर्तन, न्याय और अधिकार की बात कहां से सीखा, इसके बारे में इस लेखक ने पिछले दिनों लीबिया के तानाशाह गद्दाफी को एक पत्र लिखा, जिसमें उन्होंने गद्दाफी की किताब ‘ग्रीन बुक’ का हवाला दिया है, जिसे गद्दाफी सरकार ने तमाम स्कूल-कालेजों में पढ़ना अनिवार्य कर दिया था।लोकतंत्र की समस्याओं के समाधान के लिए सुप्रीमो गद्दाफी ने ‘ग्रीन बुक’ में जनता और शासक के बीच उठने वाली समस्याओं पर धार्मिक उपदेशों और प्रवचनों के द्वारा उन्हें हल करने का रास्ता बताया है। उन्होंने स्वयं यह स्वीकार किया है कि इस ‘ग्रीन बुक’ में जिसे वे मुस्लिम सम्प्रदाय के लिए पाक कुरान के बाद दूसरी अहम पुस्तक मानते हैं, स्वयं भविष्यवाणी की है कि शोषण और अत्याचार के विरुध्द किया जाने वाला जन-विद्रोह एक दिन समूल क्रांति के रूप में बदल जाएगा।

इस लेखक को सन् 1993 में लीबिया दौरे के समय स्वयं सुप्रीमो गद्दाफी ने यह किताब भेंट की थी, जिसमें बताया गया है कि लोगों, खासकर लीबियनों की किस्मत बदलने के लिए सुप्रीमो गद्दाफी ने अपनी ‘ग्रीन बुक’ में बहुत-कुछ कहा है। जब उन्होंने सत्ता सम्भाली थी, जिसे उन्होंने खुद एक क्रांति बताया, उस समय लीबिया के लोगों में मात्र 10 प्रतिशत साक्षरता थी और आज से आबादी भी आधी थी और अब जहां आबादी 60-70 लाख हो गयी है वहीं साक्षरता का प्रतिशत 70 हो गया है। लीबिया के करीब 90 प्रतिशत लोग गद्दाफी की ‘ग्रीन बुक’ के उपदेश पढ़ते रहे है, जिसमें उन्होंने बड़े जोरदार शब्दों में हिंसा का पक्ष लिया है और जुल्म और शोषण को खत्म करने के लिए बगावत को जरूरी बताया है।

लीबिया के लोग कल का इन्तजार नहीं कर सकते और उनका आज गद्दाफी की मुट्ठी में बंद है। अब यह गद्दाफी का नाम और शान है कि वह अपने को इस बनावटी सत्ता से दूर कर लें, क्योंकि वैसे भी वो अब किसी भी समय वे सत्ता से हटाए जा सकते हैं। ‘कुल्लूनफासीन जायकैतुल मौत’ (हर आदमी को एक दिन मरना ही है)। जो आदमी महात्मा बुध्द, ईसा मसीह, हजरत इमाम हुसैन, महात्मा गांधी और मार्टिन लूथर किंग की तरह सच्चाई और अपने लोगों के लिए कुर्बान होता है, वह कभी नहीं मरता और हमेशा-हमेशा के लिए अपने संदेश के साथ जीवित रहता है।

लीबिया का भविष्य क्या है? यह लेखक सबसे पहले 1968 में मोटरसाइकिल पर वहां पहुंचे थे और उसके बाद 1992 और 1995 में कर्नल गद्दाफी के आमंत्रण पर अपनी टीम के साथ कितनी ही बार लीबिया के दौरे पर गये थे और सबसे पहले लीबिया में ‘ग्रीन बुक’ पर बहस करने पर जोर दिया था। आज लीबिया की जनता क्रांति के दरवाजे पर खड़ी है। कर्नल गद्दाफी अब इस सुनामी की होड़ को जरा भी रोक नहीं सकेंगे। हो सकता है कि लीबिया दो हिस्सों में बंटकर रह जाय–‘पूर्वी और पश्चिमी’। और यही रणनीति अमेरिका और यूरोप के माफिक है कि वे विद्रोहियों को लिबरेशन कौंसिल के नाम पर पूर्वी लीबिया में अपनी सत्ता स्थापित करने में कामयाब हो सकते हैं। गृहयुध्द को आगे लेजाने में यूरोप गद्दाफी के खिलाफ विद्रोहियों को समर्थन देता रहेगा। इसका एक यह भी विकल्प है कि कर्नल गद्दाफी मिस्र के राष्ट्रपति की तरह लोकप्रिय चुनावों द्वारा वहां की संसद और नेतृत्व का गठन कराएं। हो सकता है कि गद्दाफी ससम्मान लीबिया से निकलकर किसी अफ्रीकी देश में शरण ले लें। भारतीय चुनाव पध्दति तमाम अरब और अफ्रीकी देशों के लिए एक आइना बन सकती है, जिस तरह मिस्र ने कुछ दिन पहले भारत के मुख्य चुनाव आयुक्त को इस विषय में चर्चा करने के लिए मिस्र में बुलाया था।

लीबिया के हालात दिन-ब-दिन बदल रहे हैं। ओबामा प्रशासन ने भयानक द्रोण जंगी हवाई जहाजों से लीबिया और पाकिस्तान की जनता पर आसमानी हमले किये हैं, जो न सिर्फ मानवता के खिलाफ हैं, बल्कि उनसे राष्ट्रसंघ के संविधान की अवहेलना भी हुई है। जार्ज बुश, टोनी ब्लेयर ने ऐसे ही भयंकर युध्द थोपा था ईरान की जनता पर 2003 में और पूरा विश्व खामोश रहा। 1999 में अमेरिका ने नाटो के नाम पर यूगोस्लाविया में मानवता का ह्नास किया था और यूगोस्लाविया के टुकड़े-टुकड़े कर दिये थे। सर्विया को तोड़कर कोसावो में आतंकवादियों की सरकार बना दी थी। पाकिस्तान और लीबिया पर द्रोण आक्रमण विश्व-शांति के लिए और छोटे-छोटे अफ्रीकी देशों की सार्वभौमिकता के लिए एक खतरे की घंटी हैं। गद्दाफी को लोकतंत्रवाद अपनाने के लिए कोई और रास्ता भी अपनाया जा सकता है, जो राष्ट्रसंघ के संविधान में भी शामिल हो। नाटो देशों या अमेरिका को द्रोण या दूसरे आक्रमण करने का कोई अधिकार नहीं है। आज विश्व की स्थिति ऐसे चरण में पहुंच चुकी है, जहां भारत फिर से विश्व-शांति की मशाल लेकर छोटे-छोटे देशों की एकता, अखंडता की रक्षा कर सकता है। भारत के प्रधानमंत्री डा. मनमोहनसिंह के लिए आज विश्व-शांति का नेतृत्व करने का एक बहुत बड़ा मौका है, जो शायद जवाहरलाल नेहरू, नासिर और टीटो को भी नसीब नहीं हुआ था।

* लेखक बैरिस्टर-एट-ला हैं, लन्दन विश्वविद्यालय से स्‍नातकोत्तर डिग्री प्राप्त हैं, अरब मामलों के विशेषज्ञ हैं और वर्तमान में वे जम्मू-कश्मीर नेशनल पैंथर्स पार्टी के चेयरमैन और राष्ट्रीय एकता परिषद के सदस्य हैं।

पाक-चीन गठजोड़ और आंतरिक सुरक्षा

नीरेन कुमार उपाध्याय

स्वाधीन भारत के अब तक के इतिहास में कश्मीर सर्वाधिक विवादित राज्य के रूप में प्रस्तुत किया गया। सत्तासीन राजनीतिक दलों ने लाभ-हानि को दृष्टिगत रखते हुए कश्मीर समस्या को देखा। विलय, विलगाव और विवाद के भंवर में कश्मीर को उलझाया जा रहा है। पूर्ण विलय पर प्रश्न खड़े किये जा रहे हैं। राज्य में देशद्रोही शक्तियां संगठित अपराध का पर्याय बन गई हैं। राजनीतिक दलों ने धर्मनिरपेक्षता की मैली चादर ओढ़ ली है। देश का मुकुट कहा जाने वाला राज्य कांटों का ताज बन गया है। सम्पूर्ण जम्मू-कश्मीर राज्य विकास से वंचित क्यों है? केंद सरकार की समस्त योजनाओं का पैसा कब और कहां व्यय हुआ, कोई पूछने वाला नहीं है। कश्मीर में बेरोजगारी, अशिक्षा व अपराध का बोलबाला है। प्रश्न यह उठता है कि भारत के कई राज्य ऐसे हैं जो विकास की दौड़ में काफी पीछे हैं, उनकी अनदेखी कर कश्मीर को ही विशेष राज्य का दर्जा क्यों बहाल है? राज्य में झंडा फहराना अपराध हो गया है। बे सिर-पैर की दलीलें दी जा रहीं थीं। कुछ मीडिया समूहों का व्यवहार तो राजनीतिक दलों जैसा देखा गया। जम्मू-कश्मीर राज्य भारत की आंतरिक व बाह्य सुरक्षा की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। पहले पाकिस्तान और अब उसके साथ चीन की कुदृष्टि जम्मू-कश्मीर पर लगी हुई है। इसे गंभीरता से लेना होगा। समस्याओं से ग्रसित जम्मू-कश्मीर राज्य के भविष्य का निर्णय करना होगा। यह तभी संभव होगा जब केंद्र और राज्य सरकार की अंतः शक्ति राष्ट्र और राज्य के साथ समरस होगी। प्रश्न सरकार की नीयत और निष्पक्षता का भी है।

अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत को एक शक्तिशाली देश के रूप में देखा जा रहा है। भारत की मेघा और मजबूत आर्थिक तंत्र का लोहा विश्व मानने लगा है। विकसित देशों के लिए भारत बहुत बड़ा बाजार है। राजनीतिक, आर्थिक और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर विश्व के प्रमुख देशों द्वारा भारत के साथ द्विपक्षीय संबंधों को स्थापित करने का प्रयास किया जा रहा है। भारत की वैश्विक ताकत बढ़ने से चीन परेशान और चिंतित है। साम्राज्यवादी चीन और अस्थिरतावादी पाकिस्तान की बढ़ती निकटता भारत के लिए शुभ संकेत नहीं है। चीन के बढ़ते खतरों और उसकी भारत विरोधी नीतियों का प्रतिकार भारत सरकार के द्वारा पूरी ताकत से न करना चिंता का विषय है। चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी द्वारा कई बार भारतीय सीमाओं का अतिक्रमण करने के समाचार के बावजूद सरकार की तरफ से दिये गए बयान कि, यह वास्तविक नियंत्रण रेखा की जानकारी के अभाव में साझा विचार की कमी है, सोई हुई सरकार का प्रत्यक्ष उदाहरण है। यह देश के लिए घातक हो सकता है। चीन और पाकिस्तान की बढ़ती निकटता और उस पर अमेरिका का वरदहस्त भारत के साथ इन देशों के दोहरे चारित्रिक व्यवहार को दर्शाता है। आतंकवाद पाकिस्तान सरकार का गृह उद्योग है जिसे अब चीन और अमेरिका अपनी नीतियों के अनुसार इस्तेमाल कर रहे हैं। पाक अधिकृत कश्मीर के स्कार्डू क्षेत्र में सड़क और अन्य निर्माण कार्यों की आड़ में चीनी सेना के 10 हजार सैनिकों की सीमा पर उपस्थिति चीन की भारत विरोधी दीर्घकालीक नीति का ही हिस्सा है। जिसे भारत को समझना होगा, साथ ही विश्व मंच पर चीन की कारस्तानियों को मजबूती से उठाना होगा।

पाकिस्तान को बैलेस्टिक मिसाइलें और प्रौद्योगिकी देने का सीधा सा अर्थ है क्षेत्र में नाभिकीय युध्द की स्थिति पैदा करना। पिछले कुछ दिनों से चीन ने एक नई चाल भारत के खिलाफ चली है। 1962 के युध्द में भारत की 37,555 वर्ग किमी भूमि पर कब्जा करने वाले चीन ने भारत पर आरोप लगाया है कि उसने अरूणाचल और सिक्किम सहित 90 हजार वर्ग किमी भूमि को दबा रखा है। चीन अपने सरकारी मानचित्रों में इन राज्यों को अपना भू-भाग तो बताता है साथ ही जम्मू-कश्मीर को भारत का हिस्सा नहीं दिखाता है। भारत-तिब्बत सीमा पर 1600 किमी लम्बी नियंत्रण रेखा को भी नहीं दर्शाता। भारत के साथ उसकी आक्रामक नीति यहीं पर समाप्त नहीं हो जाती, उसने जम्मू-कश्मीर और अरूणाचल प्रदेश के भारतीय नागरिकों को अलग कागज पर वीजा देना शुरू कर दिया है। इसका सीधा सा अर्थ यह हुआ कि वह अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इन राज्यों को विवादित क्षेत्र घोषित करवाने की कुचेष्टा कर कब्जे की कोशिश कर सकता है। चीन की दुष्प्रचार की नीति का यह स्याह पहलू है जिसे उजागर करने की महती आवश्यकता है। चीनी सेना ने पिछले दिनों डेमचोक के गम्बीर क्षेत्र में घुसकर वहां चल रहे निर्माण कार्यों को रूकवा दिया। 2009 में लद्दाख में बनायी जा रही सड़क को भी चीन की आपत्तियों के कारण बंद कर दिया गया। जबकि चीन ने नियंत्रण रेखा के अंदर घुसकर 54 किमी लम्बी सड़क बनायी। फिर भी भारत सरकार मौन रही। यह आश्चर्य का विषय है।

चीन भारत के लिए बाहर से खतरा तो बना ही है, वह पूर्वोत्तर के अलगाववादियों एनएससीएन(आईएम, के), एनडीएफबी व उल्फा जैसे संगठनों को सहयोग देकर भारत को भीतर से कमजोर करने की रणनीति पर भी काम कर रहा है। पूर्वोत्तर के राज्यों में आईएसआई चीन के सहयोग से काम कर रही है। भारत के भीतर चीनी जासूसों का पकड़ा जाना और जल्दीबाजी में भारत सरकार द्वारा उन्हें छोड़ देने के निहितार्थ खतरनाक ही जान पड़ते हैं। चीन में निर्मित शस्त्र बंगलादेश के रास्ते भारत में माओवादियों, आतंकवादियों और भारत विरोधी अलगाववादियों तक पहुंचाये जा रहे हैं। जो कि भारत की आंतरिक और बाह्य सुरक्षा के लिए खतरनाक है। चीन की सेना के जवान नेपाल में खुलेआम घूम रहे हैं। पिछले कुछ दिनों से नेपाल में कम्युनिस्टों के प्रभावी होने के बाद, वहां से भारत विरोधी गतिविधियों को संरक्षण मिल रहा है। भारत के नेपाल, बंगलादेश, वर्मा, पाकिस्तान आदि पड़ोसी देशों के साथ सम्बन्ध पहले जैसे मधुर नहीं हैं। तिब्बत के मामले पर भारत सरकार की चुप्पी चिंताजनक है। तिब्बत और भारत का गुरू-शिष्य का सम्बन्ध रहा है। तिब्बत भारत के भीतर चीन के सीधे प्रवेश करने से रोकने के लिए मजबूत दीवार था, जिसे चीन ने सरलतापूर्वक कब्जा कर लिया है। अब भारत में प्रवेश के लिए चीन को आसान मार्ग मिल गया है। चीन के तिब्बत पर अवैध कब्जे को मौन स्वीकृति या अनदेखी करने के दूरगामी दुष्परिणाम भारत को भुगतने पड़ सकते हैं। पाकिस्तान और चीन दोनों देशों से भारतीय नकली नोटों की खेप भेजे जाने के प्रमाण सरकार को मिल चुके हैं। भारत को आर्थिक रूप से कमजोर करने की उनकी कोशिशों को भारत के भीतर बैठे उनके सहयोगी मूर्त रूप देने में जुटे हुए हैं। चीन मेें बने विभिन्न प्रकार के सस्ते उत्पाद भारत के बाजारों में धड़ल्ले से बिक रहे हैं। जो कि हमारे उद्योगों, स्वास्थ्य, पर्यावरण और सुरक्षा के लिए गंभीर चुनौती हैं। भारतीय नागरिक चीनी उत्पादों को सस्ता होने के कारण खरीद कर एक प्रकार से चीन जैसे भारत विरोधी देश की मदद ही कर रहे हैं। भारत के देशभक्त नागरिकों को इसे समझना होगा। सरकार चीनी उत्पादों पर प्रतिबंध लगाये इसकी मांग जन आंदोलन के रूप में होनी चाहिए। चीन ने सिंधु और ब्रह्मपुत्र नदियों के जल प्रवाह को मोड़कर भारत के लिए खतरा पैदा कर दिया है। पिछले दिनों हिमाचल प्रदेश और अरूणाचल प्रदेश में बाढ़ के कारण व्यापक नुकसान हुआ था। नदियों के रास्ते को मोड़ने और भारतीय इंजीनियरों को नदी की धारा का अध्ययन करने की अनुमति न देना, चीन पर संदेह को पुष्ट करते हैं।

भारत से प्रत्यक्ष युध्द में हार चुका पाकिस्तान यह समझ चुका है कि वह भारत से सीधे युध्द में कभी जीत नहीं सकता। इसलिए, वह आतंकवादियों, माओवादियों के अलावा अब चीन के साथ मिलकर कश्मीर को पाने की लालसा पाले बैठा है। भारत की 78114 वर्ग किमी0 भूमि पर पाकिस्तान ने स्वतंत्रता के बाद ही कब्जा कर लिया था। पीओके की 5180 वर्ग किमी भूमि पाकिस्तान ने चीन को दिया है, वहां चीन ने अपने सैनिकों के लिए बंकर बनाए हैं। भारत को घेरने की उसकी कोशिशों को पाकिस्तान सहयोग दे रहा है। दुश्मन का दुश्मन दोस्त। इन दोनों देशों ने जम्मू-कश्मीर राज्य की लगभग 54.6 प्रतिशत भूमि पर कब्जा कर रखा है। भारत में रहने वाले पाकिस्तानी, चीनी व बंग्लादेशी नागरिकों की भारत विरोधी गतिविधियों में लिप्तता की जांच होनी चाहिए। भारत में आतंकियों की घुसपैठ के पीछे पाकिस्तान है। इनसे लड़ते हुए सेना और सुरक्षा बल के हजारों जवान शहीद हो चुके हैं। हजारों नागरिक मारे जा चुके हैं। लाखों की संख्या में लोग देश के कई हिस्सों में शरणार्थियों का जीवन जीने को मजबूर हैं। राज्य सरकार की मांग पर भारत की सुरक्षा को ताक पर रखते हुए कश्मीर में तैनात हजारों जवानों की वापसी तथा राज्य की सुरक्षा राज्य पुलिस के हवाले करना सुरक्षा बलों को केवल पुलिस का सहयोग करने के लिए रखा जाना केंद्र की तुष्टीकरण नीति का प्रत्यक्ष प्रमाण है। सरकार इससे कश्मीर की समस्या को हल करने की बजाय और विवादों में उलझाने जा रही है। राज्य में नेशनल कांफ्रेंस और पीडीपी तथा कांग्रेस की नीतियों ने एक तरह से अलगाववादियों और भारत विरोधियों की मंशा पूरा करने में सहयोग दिया। बंटवारे के बाद भारत के कश्मीर क्षेत्र में आए हिन्दू और मुस्लिम पाकिस्तानी शरणार्थियों को नागरिकता देने के मामले में जिस प्रकार से कांग्रेस, पीडीपी, पीडीएफ, सीपीआईएम तथा नेशनल कांफ्रेंस ने विरोध किया वह इन राजनीतिक दलों के दोहरे चरित्र को उजागर करता है। इन दलों ने बंटवारे के समय पाकिस्तान जा चुके लोगों को कश्मीर में आकर रहने के लिए प्रस्ताव पास किया था।

भारत का कोई भी नागरिक आज भी जम्मू-कश्मीर में स्थायी रूप से नहीं रह सकता। भारत सरकार का कोई अधिकारी वर्षों अपनी सेवायें इस राज्य को देने के बाद रिटायर होता है तो उसे वापस अपने ही राज्य में जाना होगा उसे वहां किसी प्रकार की अचल संपत्ति बनाने की अनुमति नहीं है। विस्थापित कश्मीरी पंडितों को वापस जम्मू-कश्मीर में स्थापित करने के नाम पर सरकार ने दोहरे मापदण्ड अपनाए है। भारत के लिए जीने मरने वालों को एक इंच भूमि नहीं और दुश्मनों को मान-सम्मान। यह कैसा राज्य है जो सुविधाओं, सुरक्षा, और आर्थिक मदद के लिए तो भारत का है, लेकिन विलय के नाम पर प्रश्न भी वही उठाता है। जम्मू-कश्मीर का भारत में पूर्ण विलय हुआ था। यह बात कश्मीरी नेताओं को अब स्पष्ट हो जानी चाहिए। पं0 नेहरू की गलतियों को दोबारा दुहराने की किसी भी कोशिश को सदैव के लिए दफन कर देना होगा। वोट बैंक की राजनीति धारा 370 को समाप्त करने की राह का सबसे बड़ा रोड़ा है। अधिकांश राजनीतिक दल देशहित को पार्टी की विचारधारा की कसौटी पर कसते रहे हैं। धारा – 370 समाप्त करने के विषय पर इनका व्यवहार भारत के भविष्य के लिए चिंताजनक है। कब तक यह देश एक राजनीतिक दल की पारिवारिक सोच को अपने कंधे पर ढोता रहेगा। अब विचार करने का समय आ गया है।

भारतीय मीडिया ने समय-समय पर देश की आंतरिक और बाह्य सुरक्षा के प्रति लोगों को जागृत करने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका को निभाया है। चीन और पाकिस्तान की सीमा पार और भारतीय सीमा के भीतर की गतिविधयों की जानकारी को लोगों तक पहुंचाया है। जिसकी सैन्य अधिकारियों ने बाद में पुष्टि भी की। सरकार आज भी हिन्दी चीनी भाई-भाई के छलावे में जी रही है। उसे चीन से सावधान रहने की आवश्यकता है। लाल चौक पर झंडा फहराने को लेकर इलेक्ट्रॉनिक और प्रिंट मीडिया के कुछ समूहों की भूमिका सिर्फ सनसनी खबर बनाने से ज्यादा नहीं रही। उसने इस मामले को एक पार्टी की राजनीतिक लाभ लेने और कश्मीर में हिंसा फैलाने की कोशिश बताने में ही अपनी भूमिका को स्थिर कर दिया था। झंडा फहराने को लेकर देश की जनभावनाओं को कोई महत्व नहीं दिया गया। कश्मीर की वर्तमान स्थिति में भारत विरोधी ताकतों को प्रश्रय दिया जा रहा है। स्वतंत्रता का बेसुरा राग अलापने वालों को मीडिया में स्थान मिलने से उनके उद्देश्य की पूर्ति होती दिखाई देती है।

माओवादियों के संरक्षकों पर जब कानूनी कार्रवाई शुरू की गई तब भी मीडिया के कुछ लोगों ने मानवाधिकार विरोधी करार देने की कोशिश की। कुछ मामलों में मीडिया निष्पक्ष होने की बजाय सेक्युलर होना अधिक पसंद करती है। यह देश भक्त पत्रकारों और मीडिया समूहों को कलंकित करने वाली स्थिति है। भारत की आंतरिक सुरक्षा, भारत की सीमाओं की सुरक्षा के साथ-साथ भीतर के दुश्मनों के साथ कड़ाई से निपटने से ही संभव है। कश्मीर में पत्थरबाजों और पूर्वोत्तर में मुइवा के आगे सरकार महीनों शीर्षासन की मुद्रा में खड़ी रही उससे इनका मनोबल बढ़ा है। इनके विरूध्द कार्रवाई करने की बजाय बातचीत की मेज पर आमंत्रित करने की नीति किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है।

कश्मीर पर कोई भी अपना अधिकार बतायेगा और जनता मान जायेगी या कश्मीर की कीमत पर देश की सुरक्षा की बातें अब इस देश की जागृत जनशक्ति के आगे नहीं चलने वाली। पाकिस्तान से बार-बार बात करने से कोई लाभ नहीं है। बातों से मनाने के प्रयास विफल हो चुके हैं। समस्या यथावत् बनी हुई है। कश्मीर पर होने वाली कोई भी बातचीत पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर को लौटाने से शुरू हानी चाहिए।

अमेरिका भारत का मित्र नहीं हो सकता। यह हम सब पिछले कई वर्षों से देख रहे हैं। अमेरिका व्यापारी वृत्ति का देश है। प्रमाण होने के बाद भी उसने आज तक पाकिस्तान को आतंकवादी देश घोषित नहीं किया। उसे आर्थिक और सामरिक सहायता लगातार दे रहा है। वह विश्व में अपनी दादागिरी कायम करना चाहता है। जो कि संभव नहीं है। कश्मीर के मामले में अमेरिका की नीयत साफ नहीं है।

चीन, पाकिस्तान, माओवादियों, आतंकवादियों, आईएसआई, एनएससीएन, उल्फा, आदि संगठनों के अंतर्सम्बन्धों तथा इनके समर्थक तथाकथित नेताओं व समाजसेवियों की व्यापक जांच कर कार्रवाई करनी चाहिए। भारत का विकास तभी संभव है जबकि उसकी सीमाओं के साथ-साथ आंतरिक सुरक्षा भी सुदृढ़ होगी। भारत को अस्थिर करने की कोशिशों को समूल नष्ट करना होगा।

लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं।

पाखण्डी गुरूओं की लगी हैं मंडी…

पण्डित परन्तप प्रेमशंकर

बंदउ गुरुपद पदुम परागा……

गुरू महिमा –

आषाढ शुक्ल पूर्णिमा को व्यास पूर्णमा कहते हैं । भगवान के ज्ञानावतार श्री द्वैपायन कृष्णने वेद का व्यास एवं अनेक पुराणादि की रचनाद्वारा सनातन वैदिक संस्कृतिको अनुपम योगदान दिया हैं । विद्वद्गण तो मानते हैं कि व्यासोच्छिष्ठं जगत्सर्वं । संस्कृतिकी अनन्त सेवाको सन्मानित करनेके लिए विश्वगुरू वेदव्यासको इस पुनितपर्व पर कोटीकोटी वंदन करते हैं ।

हमारी सनातन संस्कृति में गुरू की अपार महिमा हैं । गुरूका स्थान सर्वोच्च हैं । गुरूगीता गुरूकी महिता का प्रतिपादन करता हुआ ग्रंथ हैं – गुरूपूर्णमा के पुनित दिवस पर उसका पठन करना चाहिए । गुरूगोविंद दोऊं खडे काके लागु पाय, बलिहारी गुरू आपने गोविंद दियो बताय – स्वयं भगवान से भी उपर किसीका स्थान हैं तो वह है सद्गुरूका । श्रुति-स्मृति-पुराणेतिहासादि समस्त वैदिक वाङमयमें गुरू की महत्ताका वर्णन मिलता हैं । यहां कुछ उधृत प्रस्तुत हैं – यो गुरू सःशिवः प्रोक्तो यः शिवः स गुरूः स्मृतः । यथा शिवस्तथाविद्या यथा विद्या तथा गुरूः । शिवविद्या गुरूणां च पूजया सदृशं फलम् ।। सर्वदेवात्मश्चासौ सर्वमंत्रमयो गुरूः । तस्मात्सर्वप्रयत्नेन यस्याज्ञां शिरसा वहेत् ।। शिवपुराण वायवीय संहिता ।

हमारी सनातन वैदिक परम्परा गुरूपसदन होनेका सिखाती हैं । उपगम्य गुरूं विप्रमाचार्यं तत्ववेदिनम् – । तद्विज्ञानार्थं स गुरुमेवाभिगच्छेत्समित्पाणि: श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठम् (मु.उप) – स गुरूमेवाभिगच्छेत्…..श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठम्…अशिष्यायाविरक्ताय यत्किंचिदुपदिश्यते, तत्प्रयात्यपवित्रत्वं गोक्षीरंश्वद्रतौ यथा – आचार्यवान् भव । योगविशिष्ठकारने तो बताया हैं कि गुरूपदेशशास्त्रर्थेबिना आत्मा न बुध्यते । गुरू तो चाहिए ही चाहिए । वशिष्ठजी कहते हैं – गुरूम्बीना वृथो मंत्रः ।

बीन गुरूज्ञान कहां से पाए….. यूं तो दुनियामें सभी विद्याओंकी पुस्तके उपलब्ध हैं किन्तु क्या कोई सर्जरीकी पुस्तक पढकर सर्जरी कर सकता हैं या कोई एरक्राफ्ट चला सकता हैं ? गुरू की आवश्यकता अनिवार्य हैं । चाहे मंत्रविज्ञान हो या यज्ञादि कर्म प्राधान्य, सभी जगहपर गुरू की परमावश्यकत रहती ही हैं । स्वयं नारायणने भी राम व कृष्ण बनकर गुरूचरण सेवा की हैं । वशिष्ठजी कहते हैं – गुरूम्बीना वृथो मंत्रः यदि बीना गुरूके कोई मंत्र पठन कर भी लो तो निरर्थक हैं । अदिक्षिता ये कुर्वन्ति जपयज्ञादिका क्रिया सर्वं नष्फलतां यान्ति शीलायामुप्तबीज वत् – यथा पत्थरपर पडा बीज अंकूरित नहीं होता, बीना गुरूका मंत्र कभी फलित नहीं होता । लेकिन गुरू भी ईश्वरकी कृपाके बीना नहीं मिलते – बीन हरि कृपा मिलहीं नहीं संता सत संगति संसृति कर अन्ता । अतः सद्गुरूकी प्राप्ति के लिए इश्वरकृपा होनी चाहिए ।

आज के गुरू –

आजकल गुरूओंकी तो लम्बी लाईन हैं । एसी गाडीयोंमें ओर आलिशान मठोंमें निवास करनेवाले गुरूओकी लम्बी यादी हैं । पानी पिजे छानकर गुरू किजे जानकर । सुयोग्य गुरू न मिले तो गुरू न करें । स्वामि विवेकानन्दजी गुरूदिक्षा के पूर्व श्रीरामकृष्ण परमहंसजी पास गए थे । उन्होंने सुना था की गुरूजी द्रव्यको श्पर्श नहीं करते हैं । नरेन्द्रने (विवेकानन्दजीने) गुरूका ध्यान न हो ऐसे उनकी गद्दी पर सिक्का रख दिया । परमहंसजी जैसे ही विराजमान हुए सहसा खडे हो गए ओर बोले आज आसनमें कूडा आगया हैं । ऐसी परिक्षा समर्थ रामकृष्णजी की भी हुई थी । आज तो मठोंकी मंडी लगी हैं ओर चारों और सेल्समेन-एजन्ट गुमते हैं – शिष्योकी खोजमें । उनकी दुकान अच्छी चलनी चाहिए ओर ऐसा करनेके लिए वे कुछ भी हद तक गीर सकते हैं । वे यो यहां तक दुराग्रह रखते हैं कि वे जो कहे वो ही सनातन सत्य हैं – डायरेक्ट प्रभु के एजन्ट । शास्त्रमर्यादा की ऐसी की तैसी । कोई कहे स्त्रीयोंका दर्शन तक मत करो – प्रायः उनका प्रागट्य ब्रह्माण्डसे सीधा ही हुआ होगा । हमारे शास्त्रोने स्त्रीको जगदम्बाका स्वरूप बताया हैं । कोई कर्मकाण्डका विरोध करता हैं । कोई वेद – उपनिषदोके मंत्रोको बदलनेका साहस करता हैं, जो अपौरूषेय हैं । रामजी तो स्वयं भगवान थे उनको यज्ञ, पूजा, सन्ध्या की क्या जरुरत थी, फिर भी वह यह सब करते थे । स्वयं वशिष्ठ व विश्वामित्र जैसे ब्रह्मर्षि भी उन यज्ञादि का आचार्यत्व करते थे । आज के स्वयं बन बैठे गुरु ऐसे यज्ञादि, पूजनार्चन, कर्मकाण्ड से विमुख है और भले भोले लोगो को बहकाकर लूटते है । सीधा वेद किसी को नहीं पचता नानुष्ठानं विनावेद वेदनं पर्यस्यति ब्रह्मधीस्तवतैवस्यात्फलदेति परामाता अनु.प्रकाश श्रीविद्यारण्यस्वामि ने इसपर विशेष बात कही हैं । गीता भी कहती है कि सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत् । यज्ञदानतपः कर्म न त्याज्यं कार्यमेव तत् । भगवान ने सुस्पष्ट कहा हैं यज्ञ-पूजादि कार्य लोग हितार्थ भी हैं अतः कभी न त्यागें, क्योंकि जो श्रेष्ठनर आचरण करते है उसीका ही अनुसरण शिष्यगण करते हैं । विद्वानो संतो के लिए गीता में आदेश है न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसंगिनाम् । जोषयेत्सर्व कर्माणि विद्वान्युक्तः समाचरन् ।।गी.3.26 । समर्थ गुरू ब्रह्मतत्त्वकी शास्त्रविरूध्द व्याख्या नहीं करते । तस्माच्छात्रं प्रमाणंते कार्याकार्य व्यवस्थितौ, ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्मकर्तुमिहार्हसि (गी.17.24) परमार्थाय शास्त्रीतम् । श्रुति भी कहती हैं कि शास्त्रज्ञोsपि स्वातंत्रेण ब्रह्मज्ञानान्वेषणं न कुर्यात् (मु.उप)। शास्त्रं तु अन्त्य प्रमाणम्। समर्थ होते हुए भी शास्त्रविरूध्द नहीं बोलना ये शास्त्र मर्यादा है । पानी पीजे छानकर, गुरू कीजे जानकर । ज्ञान ध्यान जाने नहीं मनवाँ मूढ अजान, पाप चडावें शीश पै बिन जाने गुरू मान । आजकल तो प्राय: शिष्यवित्तोपहारक: । यस्यागमः केवलजीविकायै तं ज्ञानपण्यं वणिजं वदन्ति । शिष्योकी संम्पत्तिसे मठ-आश्रम चलानेवाले, ए.सी. कारवाले सन्त (मठरूपी दुकान चलानेवाले) ही ज्यादा मिलते है । जिसके जीवनमें तप नहीं, तितिक्षा या उपरति नहीं वह कैसे सन्त हो सकता हैं । प्रकृतिजन्य उष्मा-शीत-वर्षा नहीं सह सकता, तो वह तपहीन गुरूको पाखण्डी समझना यथोचित हैं । भगवान वेदव्यासजीने ऐसे धनी-कुटिल गुरूओंसे सावधान रहनेकी बात कई जगह पर की हैं । संत शिरोमणी तुलसीदासजी ने भी कहा हैं बहुदाम सँवारहिं धाम जति । विषया हरि लीन्हि न रहि बिरती । तपसी धनवंत दरिद्र गृही । कलि कौतुक तात न जात कहीं । धनवंत कुलीन मलीन अपी । द्विज चिन्ह जनेउ उघार तपी । नाहि मान पुरान न बेदही जो । हरि सेवक संत सही कलि सो । कलिमल ग्रसे धर्म सब लुप्त भए सद्ग्रंथ । दंभिन्ह निज मति कल्पि करि प्रकट किए बहु पंथ । कलियुग में अरबो-खरबोकी संपत्ति के मालिक-ट्रस्टी संत महंतो की कमी नहीं होगी । अखण्ड सनातन सभ्यताको अपनी दुकान चलाने हेतु छोटी छोटी मान्यता – विचारधाराओंमे बटोरकर – दंभ व स्वार्थयुक्त अनेक छोटे-छोटे संप्रदायोंमें विघटित कर दी हैं । इस परिस्थिति में सुज्ञ प्रजा व विद्वानोंका परम कर्तव्य हैं कि इस पाखण्ड लीला का निरसन करनेकी दिशामें प्रशस्त हों, आज नहीं तो आनेवाला कल इस विघटनके द्वारा सर्वनाश की दिशामें और आंतरिक कलहमें निःसंदेह परिणित होगा ।

कथा एवं ज्ञानसत्र के माध्यम से भोले-भले एवं सीधे लोगों को लूंटनेका कार्य आज जोरशोर से चारो तरफ चल रहा हैं । शास्त्र मर्यादा का कौन विचार करता हैं ? भागवत रामायणादि के पारायणका पूर्ण विधान होते हुए भी स्वच्छन्दासे अपने हिसाबसे पारायण को ज्ञानसत्रका नाम देकर चलाते हैं । भगवति श्रुति कहती हैं कि समर्थोपि स्वातंत्रेण ब्रह्मान्वेषणं न कुर्यात् । आजकल तो अत्रि वशिष्ट अंगिरा या विश्वामित्र से भी अधिक ज्ञानी हो ऐसे मनचले अनेक बाबा निकल पडे हैं । पुराणोंका तत्त्व निरूपण एवं यथार्थता की बात तो एक तरफ रही समग्र समाज को कर्मभ्रष्ट करने चले हैं । स्वयं के जीवनसे तो तप को तिलांजली दे दी हैं ओर सामान्य जनमानस को गुमराह करते हैं । संत शिरोमणी श्री तुलसीदास ने कहा हैं सबदी साखी दोरहा, कहि किहनी उपहान । भगति निरूपहीं भगत कली निन्दहिं वेद-पुरान ।। आजकल तो किसी उपनिषदके एक शब्दको पकडकर (जो वे समझते भी नहीं), साखी, दोहे, उपाख्यान कहानियां, चुटकुले, कव्वालीयां, गजल कहकर केवल लोकमानस का रंजन करके धर्मात्मा बने बैठे हैं । वेद – शाखा – धर्मशास्त्र किसीका ज्ञान न होते हुए भी समर्थ ज्ञाता होनेका पाखण्ड करते हैं और उनके एजन्ट हमारे बीच मीडिया के माध्यम से ग्राहक ढूंढते रहते हैं । नित्य एक नया पंथ नया आश्रम नया सम्प्रदाय कीडे मकोडे की तरह उभर आता हैं । सहज समाधि कोर्ष, राजयोग शिबिर.. आज आपको अक्षरों की जरूरत नहीं सीधे ही निबंध लिख सकते हैं । महर्षि पातञ्जलिने अष्टांग योग एवं क्रमशः उद्गमन की बात की है । आज के गुरू आपको सीधे ही उपर भेज रहे हैं – समाधि लगा देते हैं । दैहिक व्यायाम – आसान इत्यादि को राजयोग का नाम देकर सीधे सादे लोगोंको मतिभ्रम कर रहे हैं । आप विचार करें उनके आंतरिक चरित्रका । आप देखिए कभी वो बीना गाडी या बिना ए.सी. रह सकते हैं । किसी गरीब के घर उच्छिष्ठ भोजन अन्न ब्रह्म मानकर खा सकते हैं ? कभी दिखावे के लिए तो कर भी लेंगे लेकिन यह उनकी पाखण्ड का एक भाग ही हैं । लाखों रूपए मिडीयावालों को प्रचार के लिए दे ते हैं । नकली चीज बेचने के लिए ही ज्यादा शोर मचाना पडता हैं । शिक्षित समाज आगे आकर ऐसे पाखण्ड का निरसन करेगा तब हीं निर्मल भारत का निर्माण होगा । यह एक आतंकवाद से भी अति गंभीर समस्या है । जिनके चरणोंमें अरबों खरबों के काले धन का ढेर लगता हो उनका चरित्र भी तो काला ही होता हैं । आहार शुद्धो सत्व शुद्धि शास्त्र कहता हैं जिनका आहार शुद्ध है उनका मन शुद्ध रहता हैं । जिनके मठोंमे काले धनका ढेर लगा हो उनका जीवन – चरित्र कदापि शुद्ध नहीं हो सकता । ये गुरू प्रतिहजार बीस रूपये लोक कल्याणार्थ खर्च करते हैं और वो भी मिडिया द्वारा विज्ञापन हेतुसे ही । अन्यथा जिनको केवल एक लंगोटीकी जरूरत हैं उनको इतनी संपत्ति की क्या आवश्यकता । हमारे ऋषि, भगवान शंकराचार्य, रामानुजाचार्य, वल्लभाचार्यजी का जिवन देखों । सेंकडों वर्षोके उपरान्त भी उनकी अमला किर्ती बनी रहेगी । उन्होंने धन इकठ्ठा नहीं किया । आज पांच हजार वर्षके बाद भी वेदव्यास, विश्वामित्र एवं वशिष्टको याद करते हैं । जनसेवा के लिए धन इकठ्ठा करनेका बहाना बनाकर आजके पाखण्डी संत ऐय्याशी करते हैं ।

गुरू कैसे होने चाहिए –

जिनके चरण कमलों में परम शांति मिले और मन समाहित रहे, शांत रहे, संकल्प-विकल्पों का शमन हो ऐसे गुरु होने चाहिए । गुरूगीता क्या कहती हैं तमे दुर्लभं मन्ये शिष्यहृतापहारका । गुकारश्चान्धरा हि रूकारस्तेज उच्यते । अज्ञानग्रासकं ब्रह्म गुरूदेव न संशयः । दियते येन विज्ञानं क्षीयते पाशबंधनम् । अज्ञानरूपी अंधकारसे और वासनाओंके पाशबंधोसे जो मुक्ति दिला सकें । या विद्याच्चतुरोवेदान्सांगोपनिषदो द्विज:, पुराणं विजानाति य: सतस्माद्विचक्षण: वेद-वेदांत के ज्ञाता होने के साथ साथ अच्छे पौराणिक हो । धर्मशास्त्र विदो ये वै तेषां वचनमौषधम् ऐसे धर्मशास्त्र के विद्वानका वचन औषध जैसा होता है । तद्विज्ञानार्थं स गुरुमेवाभि गच्छेत्समित्पाणि: श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठम् (मु.उप) । दीक्षायुक्तं गुरो: ग्राह्यं मंत्रंह्यथ फलाप्तये, ब्राह्मण: सत्य पूतात्मा गुरोर्ज्ञानी विशिष्यते । उपगम्य गुरूं विप्रमाचार्यं तत्ववेदिनम्, जापिनं सद्गुणोपेतं ध्यानयोग परायणम् । उपासक, तत्ववेत्ता ओर ज्ञानी व पवित्र भी है, ईश्वर के ध्यान में रत रहते हो । शिष्यचित्तोपहारकः शिष्यके चित्तको समाहित कर सकें । जो सद्गुरू होते है उनको तो शिष्यके कल्याणमें ही रूचि होती हैं । उनका कोई संप्रदाय बढानेमें रस नहीं होता । आजके महंतोको शिष्यका कल्याण हो या न हो – कंठी बंधवाना – युनिफोर्म पहनाना – अपना तिलक करना (ट्रेडमार्क) – संप्रदायने नियत किया, उसीसे ही सभीका अभिवादन करना (कोडवर्ड) इत्यादि । आजके संप्रदाय कट्टरतावादी होते जा रहे हैं । कलके भारतके लिए आतंकवादसे भी यदि ज्यादा भय है तो, यह बढते कट्टरतावादी छोटे-छोटे परिवार, समाज, योगसंस्थाओंसे । भगवान श्रीकृष्णने गीतामें अढारह योगोका ज्ञान, अपने शिष्य अर्जून को दिया किन्तु गीता में कहीं भी कृष्ण उवाच नहीं हैं । अंतमें भगवानने अर्जूनको कहा कि यथायोग्यं तथा कुरू तेरी बुद्धि एवं श्रद्धा जिसे स्वीकार करे, वो ही तू कर । कोई संप्रदाय या शाखा नहीं । सद्गुरूतो कतकरेणुके (एलम) पुष्पकी तरह होते हैं । शिष्योंके संशयरूपी मलको लेकर पानीके नीचे बैठ जाते हैं – पानी निर्मल हो जाता हैं पर कहीं भी अपना नाम नहीं । भगवाननें सृष्टि बनाकर – सूर्य-चन्द्र बनाकर – पर्वत-नदिया-सागर बनाकर कहीं भी अपना नाम नहीं लिखा । वर्षा के जलके साथ कभी बिल नहीं आता । आजके गुरूओंकी शिबिरमें दक्षिणा देनी पडती हैं । किसी साधारण या जनसामान्यके वहां ये गुरू जाते नहीं – आर्थिक दक्षताके आधारपर ही उनका व्यवहार चलता हैं । हजार रूपये लेकर बीस रूपये लोक हितार्थ खर्च करते हैं, बाकी मठ-मंडीका मुनफा अपनी ऐयाशीके लिए । ऐसे अनेक छोटे-छोटे संप्रदायोके विकासमें, विद्वद्वर्गकी सुषुप्ति एवं जनजागृतिका अभाव ही कारणभूत हैं ।

गुरू के प्रकार –

जिस प्रकार ५ वॉल्ट के बल्बमें पावरस्टेशन का सीधा सप्लाय नहीं दे सकतें वैसे ही अनन्त शक्ति ब्रह्मका अनाधिकारीको अनुभूति सीधे ही नही कराई जाती हैं । शक्तिपातानुसारेण शिष्योनुग्रहमर्हति योग्यताके आधारपर ही इस परम तत्वका बोध हो सकता हैं । हर कोई मेडिकलमें नहीं जा सकता या आईएएस नहीं बन सकता । यथा योग्यताके अनुसार ही ईश्वर कृपासे गुरू मिलते हैं । अनुग्रह प्रकारस्य क्रमोयमविवक्षतः शि.पु.वा.सं.3-4 तंत्र व वैदिक मतानुसार तीन प्रकार के गुरू होते है (१) दिव्यौघ (२) सिद्धोघ (३) मानवौघ ।

जिस प्रकार १०००० वॉल्टकी मोटर को सीधा सप्लाय दे सकते हैं – किसी ट्रान्सफोर्मरकी जरूरत नहीं हैं, वैसे ही तप और भक्ति एवं पूर्वजन्मोंके अर्जित पुण्यकी जिसके पास पूंजी हैं, उसे स्वयं परमात्माके द्वारा उपदेश मिलता हैं जैसे कि प्रहलाद – ध्रुव – अर्जून – देवहूति आदि । दिव्य विग्रह ही अपने दिव्य स्वरूपसे उपदेश देते हैं । ये हैं दिव्यौघ गुरू परंपरा ।

कहीं पर प्रभु स्वयं न आते अपने दिव्य भक्तो ओर सिद्धो को गुरूके रूपमें भेजकर अनुग्रहीत करते हैं । क्योंकि ५०० वॉल्टके बल्ब के लिए ट्रान्सफोर्मर चाहिए । जैसे शंकराचार्य द्वारा चार शिष्योंको उपदेश, शुकदेवजी द्वारा परिक्षितको उपदेश हुआ हैं । ये हैं सिद्धौग परंपरा ।

अब आप समझ ही गए होंगे कि ५ वॉल्ट के बल्ब को तो मिटरसे जो सप्लाय आता है, वो भी सीधा नहीं दे सकतें । उसमें भी एक ओर ट्रान्सफोर्मर की आवश्यकता रहती हैं । सज्जन व साधारण अधिकारीयोंको साधुजन द्वारा जो उपदेश होता हैं, यह मानवौघ परंपरा हैं ।

गुरू कृपा –

इश्वर कृपा होती हैं या व्रत-तपादि द्वारा जब पुण्यसंचय होता हैं तब सद्गुरूकी प्राप्ति होती हैं । श्रुति कहती हैं व्रतेन दीक्षा माप्नोति व्रतादि द्वारा ही दीक्षाधिकारत्व मिलता हैं । दिव्यंज्ञानं यतो दद्यात्कुर्यात्पापक्षयं तथा । ततो दिक्षेति लोकेस्मिन्किर्तिता तंत्रपारगैः । जिसके द्वारा दिव्यज्ञानकी अनुभूति हो ओर पापोंका क्षय हो उसे शास्त्र दिक्षा कहते हैं । दिक्षाके कई प्रकार हैं जैसेकी शाम्भवी-शाक्ति-मान्त्री इत्यादि । सद्गुरू किसी भी प्रकारसे शिष्यको शक्तिपात करके अनुग्रहीत करते हैं । श्पर्शके द्वारा – शिष्यके मस्तिक या देह पर श्पर्श करके – जैसे मरघी या पक्षी श्पर्श करके अंडेको पुष्ट करती हैं । कृपा दृष्टि के द्वारा जिस प्रकार मछली अपने अंडेको देखकर ही पुष्ट करती हैं । ध्यान या चिंतन द्वारा जिस प्रकार काचबी (कच्छपी) ध्यानके द्वारा अपने अंडोको पुष्ट करती हैं । संकल्प द्वारा जिस प्रकार कीट भ्रमर बनता हैं । तपोबल का प्रकाश डालकर – जिस प्रकार सूर्यकी किरणों से कमल खिलते है – सूर्यमूखी पुष्प खिलते हैं । शिष्यकी योग्यताके आधारपर ही गुरू कृपाका आधार हैं, खगकी भाषा खग ही जाने जैसे गरूडजी जैसे पक्षीराज को ज्ञान देनेके लिए काकभूशुण्डीजी द्वारा रामकथा कही गई । इस प्रकार गुरूके माध्यमसे दिव्यशक्तिका संचार शिष्य पर होता हैं जिसे शक्तिपात कहते हैं ।

गुरू मिलना ईश्वर की कृपा व स्वकीय पुण्यपुरूषार्थ पर निर्भर हैं यद्यपि सबके लिए प्रथम गुरू माता-पिता ही होते हैं क्योकि पिताके बैजिक संस्कार व माताकी सगर्भावस्थामें सच्चिन्तन ही जातकको संस्कार के रूपमें मिलते हैं । न मातुः परमदैवतम् – सहस्रान्तुपितृन्माता गौरवेणातिरिच्यते – मनु छोटे बच्चेको भोजन कराना – शोचादि कराना – मामा-चाचा-दादा बोलते शिखाना – अपने वात्सल्यके अमृतसे पुष्ट करना माताका काम हैं । इसलिए कहा हैं कि माता एक हजार शिक्षकोंके बराबर हैं । अंगूली पकडकर चलना सिखाना – कंघेपर बिठाकर खिलौने से खेलना – सभ्यतासे बोलना पिता सिखाते हैं, यथा गुरूकी अनुपलब्धिमें एवं सर्वप्रथम गुरूके रूपमें माता-पिताकी पूजा भी आज अवश्य करनी चाहिए । ‘मधर्स डे’ या ‘फाधर्स डे’ वाली पाश्चात्य (पछात) संस्कृति को भी एकदिन के लिए माता पिता को याद करनेकी बात, भारतीय संसर्गसे समझमें आई हैं ।

गुरूकी कृपाका – ज्ञानका साक्षात्कार कब होगा, यह शिष्यकी योग्यता पर निर्भर हैं । आचार्यात्पादमाद्दत्ते पादंशिष्य स्वमेधया, कालेन पादमादत्ते पादं स ब्रह्मचारिभिः ।। कुछ बाते शीघ्र ही – तत्काल आत्मसात् होती हैं – कुछ तत्काल नहीं होती कालान्तरमें समझमें आती है – कुछ शिष्य स्वमेधा या चिंन्तनसे अनुभूत करता हैं – कुछ तप-चर्चा या मित्रोके माध्यम द्वारा आत्मसात् होता है । पारस केरा गुण किसा, पलटा नहीं लोहा । कै तो निज पारस नहीं, कै बीच रहा बिछोहा । अगर पारस के श्पर्श से लोहा सोना नहीं बनता तो या तो असली पारस नहीं या तो लोहे ओर पारस के बीच में कोई अन्तराय हैं ।

आज गुरू पूजनके अति पूनितपर्वपर, मेरी स्वल्प समझको साकृत करना गुरू पूजा ही समजता हूं । विवेकयुक्त विचार करके गुरूपसदन हो ओर इश्वर कृपासे शीघ्र ही सद्गुरुकी प्राप्ति हो ऐसी मंगल कामना ।

तस्मै श्री गुरवे नमः ।।…..

पण्डित परन्तप प्रेमशंकर

 

धारा के विरुद्ध

धारा के विरुद्ध

यह कैसा मजाक है यार?

तुम कहते हो मुझे,

धारा के विरुद्ध

तैरने को.

वंधु,

मुझे तो लगता है,दिमाग खराब है तुम्हारा.

पर मैं तो पागल नहीं.

मैं कहता हूँ,

बहो तुम भी बहाव के के साथ,

देखो कितनी हसीन है यह जिंदगी,

कितना आनंद है इसमें?

क्या कहा?

बहना बहाव के साथ,

नहीं है यह जिंदगी.

आखिर क्या है यह तब?

ये सफल इंसान आज के,

बह रहे हैं, बहाव के साथ ही,

और उठा रहे हैं तमाम लुफ्त जिंदगी के.

बंधु,

मुझे तो लगता है,

जाना चाहिए तुम्हें किसी मनोचिकित्सक के पस.

क्या कहा?

वहाँ भी लगी है भीड उनकी,

जिनको कहता हूँ मैं सफल इंसान?

यार,तुम झूठ तो नहीं बोल रहे.

हो सकता कैसे यह?

क्या कहा?

हाथ कंगन को आरसी क्या?

मैं देख लूँ खुद जाकर?

पर,

अगर ऐसा है तो आखिर क्यों?

क्या कहा?

भूल गया है इंसान परिभाषा इंसानियत की.

उतर आया है वह हैवानियत पर.

भूल गया वह,

इंसान बनने के लिए,

अमरत्व प्राप्त करने के लिए,

न्योछावर करना पडता है सर्वस्व.

तैरना पडता है, (बहना नहीं),

वह भी धारा के विरुद्ध.

तब जन्म होता है,

ईसा मसीह,गौतम बुद्ध,

गाँधी या भगत सिंह का.

साक्षी है इतिहास.

कितने लाल खो चुकी है ,

यह धरती माँ,

तब जाकर चमका है सितारा इंसानियत कI

और सुनो मेरे यार.

इंसान के चोले में छुपे हुए राक्षस,

कर रहे हैं अभिमान जिस सफलता पर,

इतरा रहे हैं जिस जिंदगी पर,

नहीं अंत है उसका मनोचिकित्सक तक.

यह तो आरंभ है उस अंत का,

जो रुकेगा कहाँ जाकर,

शक है पता है इसका,

भगवान को भी?

सावधान नीचे आग है.

आपने कहा,

सावधान नीचे आग है.

(आपको यह आज पता लगा)

आपने देखा तब,

जब वह आग उपर आ रही है.

चिनगारियाँ थी,

पर दिखी नहीं वे आज तक.

दबी हुई थी न वे.

उनके जलन को आपने महसूस नहीं किया.

मर चुकी है आपकी संवेदनशीलता जो.

लगा आपको कि वे बुझ चुकी हैं.

मैं बताऊँ?

यह भ्रम था आपका.

वे बुझी नहीं थी.केवल दब गयी थीं.

आपको सावधान होना पडा,

जब आपने धुएँ की लकीर देखी.

बोल पडे आप,

सावधान नीचे आग है.

पर नहीं चलेगा अब केवल कह देने से,

सावधान नीचे आग है.

अब वह आग उपर आ रही है.

तेजी से उपर आ रही है.

प्रयत्न तो कर रहे हैं आप.

अपना रहे हैं साम,
दाम,दंड,भेद.

पर रोक न पायेंगे आप उस आग को.

क्या आप तैयार हैं उस दिन के लिए,

जब यह आग बन कर फटेगी ज्वालामुखी?

जब जला कर खाक कर देगी वह सब,

जो भष्म हो जाने थे अब से बहुत पहले.

कांग्रेस का मुगलिया अंदाज

कर्नाटक की पिछली कांग्रेस सरकार ने विधानसभा में एक विधेयक पारित करवाया था। जिसके अंतर्गत उन सभी लोगों को, जिनका व्यक्तिगत मन्दिर है और वे मन्दिर भी जो ट्रस्ट के आधीन चलाए जा रहे हैं, उन्हें प्रतिवर्ष सरकार को कर अदायगी करनी पड़ेगी। ऐसा नहीं करने पर सरकार उनके विरुद्ध दंडात्मक कार्रवाई करेगी। इस प्रकार का कानून केवल हिन्दू मन्दिरों पर ही लागू किया गया, मस्जिदों एवं चर्चों पर नहीं। संविधान की धारा 27 के अंतर्गत किसी भी व्यक्ति को अपने धार्मिककृत्य के लिए टैक्स नहीं देना पड़ेगा और यदि सरकार टैक्स लगाने का प्रावधान करती है तो यह सभी मजहबों पर लागू होगा। क्या यह संविधान की धारा 27 का खुला उल्लंघन नहीं था?

हिन्दुओं के मन्दिरों से प्राप्त होने वाली आय को मदरसों को अनुदान एवं हज यात्रा पर जाने के लिए प्रयोग किया जाता रहा है। कर्नाटक की पिछली कांग्रेस सरकार द्वारा मन्दिरों के धन को किस प्रकार मस्जिदों एवं चर्चों को दिया गया उसका एक उदाहरण :

वर्ष 1997 में कर्नाटक के दो लाख चौसठ हजार मन्दिरों से कुल प्राप्त होने वाली आय बावन करोड़ पैतीस लाख रुपए थी। इसमें से नौ करोड़ पच्चीस लाख रूपया मदरसों एवं तीन करोड़ रुपया चर्चों के लिए खर्च किया गया।

वर्ष 1998 में प्राप्त होने वाली राशि अट्ठावन करोड़ पैंतीस लाख रुपए थी। इसमें से चौदह करोड़ पच्चीस लाख रुपये मदरसों एवं पांच करोड़ रुपया चर्चों के लिए खर्च किया गया।

1999 में मन्दिरों से प्राप्त पैंसठ करोड़ पैंतीस लाख रुपयें में से सत्ताइस करोड़ रुपया मदरसों एवं आठ करोड़ रुपए चर्चों के लिए खर्च किया गया।

सन 2000 में कुल प्राप्त राशि उनहत्तर करोड़ छियान्वे लाख रुपए थी उनमें से पैतीस करोड़ रुपए अर्थात पचास प्रतित से भी ज्यादा राशि मदरसों एवं हज सब्सिडी पर एवं आठ करोड़ रुपए चर्चों पर खर्च किए गये। तेरह करोड़ इक्कीस लाख रुपया हज यात्रियों के लिए सुरिक्षत रखा गया।

वर्ष 2001 में कुल प्राप्त राशि इकहत्तर करोड़ रुपए में से पैतालीस करोड़ रुपए मदरसों एवं हज सब्सिडी पर (अर्थात साठ प्रतित से ज्यादा) और दस करोड़ चर्च के हेतु खर्च किया गया।

वर्ष 2002 में कुल बहत्तर करोड़ की धनराशि में से पचास करोड़ रुपए हज खर्च एवं मदरसों के लिए एवं दस करोड़ रुपए चर्च के पर व्यय किया गया।

हिन्दुओं के मन्दिरों की धनराशि  इनको देने का सीधा परिणाम यह निकला कि सौलह हजार मन्दिरों मंदिरों पर ताला पड़ गया, दूसरी और न जाने कितने हिन्दू ईसाई बनाये गये और अलगाववाद ओर उग्रवाद की फसल कितनी ब़ गई। कौन नहीं जानता कि मदरसें आतंकवादियों के निर्माण की फैक्ट्री ही हैं तथा चर्चों का एकमेव कार्य हिन्दुओं का धर्मपरिवर्तन करना और भारत में नागालैण्ड, मिजोरम जैसे अनेक छोटेबड़े ईसाई राज्यों का निमार्ण करना ही है।

मन्दिरों से प्राप्त धन राशि का मदरसों एवं चर्चो के पर खर्च किए जाने का मतलग क्या यह नहीं है कि मन्दिर की धनराशि  को मंदिरों के ही विरुद्ध प्रयोग किया जा रहा है? क्या इसका मतलग उन्हीं संस्थाओं को हिंदुओं के पैसे से पोशित करना नही जो हिन्दुओं को बुतपरस्त घोशित करके उनके विरुद्ध अभियान चलाकर धर्मपरिवर्तन कराने का उपक्रम रचते हैं?

भारत ही संभवतः विव का पहला गैर मुस्लिम दो है जिसके अंतर्राश्ट्रीय हवाई अड्डे पर हज यात्रियों के लिए अलग टर्मिनल की व्यवस्था की गई है और भारत ही संभवतः विव का अकेला दो है जहां हिन्दू भावनाओं को कुचलते हुए हज यात्रियों को सब्सिडी देती है। पिचम के उदारवादी दों की बात छोडिए अरब, पाकिस्तान अफ्रीका एवं एाशिया के मुस्लिम बहुल दो भी हज यात्रियों के लिए किसी भी प्रकार का अनुदान नहीं देते। परंतु भारत सरकार हज यात्रियों की सब्सिडी पर अरबों रुपये खर्च करती है, जो प्रायः हिन्दुओं से ही टैक्ट के द्वारा प्राप्त किया होता है।

भारत सरकार हज यात्रियों के जाने, मक्का में ठहरने तथा वहां उनके स्वाथ्य की देखभाल एवं वापसी का प्रबंध करती है। 199394 में प्रति हज यात्री हवाई यात्रा में सात हजार रुपए की रियात दी जाती थी, 2002-2003 में यह ब़कर बाइस से पच्चीस हजार रुपए के बीच हो गई थी अब तो यह और भी अधिक हो गई है। सोनिया गांधी के नेतृत्व में चलने वाली मनमोहन सरकार अनेक प्रकार से मुस्लिमों के लिए सरकारी खजाना लुटा रही है। जोकि संविधान की भावना के एकदम प्रतिकुल है।

 

भारत हथियाने के विदेशी षडयंत्र

डॉ.कैलाश चन्द्र

भारत हथियाने के विदेशी षडयंत् अंग्रेजों ने भारत को 200 वशोर्ं तक गुलाम बनाये रखा। कुछ अंग्रेज़ व्यापारी 17वीं शताब्दी में भारत में आकर व्यापार करने लगे, उन्होनें अपनी फैक्ट्रीयाँ बनाईं और उनकी सुरक्षा के प्रबंध करते हुए अपनी सैनिक भाक्ति यहां के लोगों को भरती करके ब़ाते चले गये। सर्वविदित है कि अंग्रेजों ने दो विश्वयुद्ध, पहला सन 1914 से 1918 का और दूसरा 1939 से 1945 का भारतीय फौजों के द्वारा ही जीते। परन्तु उससे भी पहले अंग्रेजों ने भारतीय सेना के द्वारा ही धीरेधीरे पूरे भारत को भी जीत लिया था। भारतीय सेना में आज भी डेढ़ दो सौ वर्ष पुरानी अंग्रेजों द्वारा बनाई हुई रेजिमेंटें हैं, यदि आप उनके इतिहास पढ़ें तो चकित रह जायेंगे कि किस प्रकार से यहां की सेना के बल पर ही भारतीय राजाओं को परास्त करके भारत को गुलाम बनाया गया।

आज कांग्रेस की अध्यक्षा बनी इटली की श्रीमती सोनिया गांधी अपनी बुद्धि और चतुराई के बल पर भारत की सर्वाशक्ति सम्पन्न बेताज बादाशह बन गई है। उन्हीं की इच्छा का प्रधानमंत्री बनता है, उन्हीं के आाशीर्वाद से राश्ट्रपति, पूरा मंत्रीमण्डल भी, चाहे गृहमंत्री, रक्षामंत्री हो, चाहे मुख्य निर्वाचन आयुक्त या केन्द्रीय सतर्कता आयुक्त हो, सी.बी.आई. का प्रमुख हो या राश्ट्रीय सलाहाकार परिशद के सदस्य हों। सभी एक ही व्यक्ति के आाीर्वाद से अपने पदों पर आसीन है। बस उनमें एक ही परिवार के प्रति वफादारी होनी चाहिए। हिन्दुओं के वोटों से ही सत्ता प्राप्त करके, लगातार हिन्दुओं को आर्थिक और राजनैतिक रूप से कमजोर करते हुए, दो के संसाधनों को अल्पसंख्यकों के ही साक्तिकरण में लगाकर, नौकरियों में हिन्दुओं का प्रतित घटाकर, सुरक्षा बलों में गैर हिन्दुओं को अधिक से अधिक भर्ती करके अपना खेलखेल रही हैं। क्योंकि यदि भारत पर राज करना है तो यहां के 80 प्रतित बहुसंख्यक हिन्दू समाज को कमजोर करके और अन्य अल्पसंख्यकों को साथ लेकर ही राज किया जा सकता है।

60 के दशक में होप कूक ;भ्वचम ब्ववामद्ध नाम की एक अमेरिकी लड़की भारत आई और सिक्किम के राजकुमार से विवाह रचा कर सिक्किम की महारानी बन बैठी और भारत को आंखें दिखाने लगी। पिचम बंगाल के दार्जलिंग जिले पर उसने अपना दावा ठोक दिया की भारत यह क्षेत्र सिक्किम को वापस करे। वह तो भारत की प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी की कुालता और बुद्धिमत्ता ही थी कि सिक्किम में राजपरिवार के विरुद्ध विद्रोह खडा हो गया और सिक्किम का भारत में विलय हो गया। ऐसे ही बारबरा नामक एक विदोी लड़की ने नेपाल के राजघराने से सम्बन्ध ब़ाकर राजा नहीं तो राजा के भाई से विवाह कर लिया।

लेडी मांउटबेटन ने पंडित जवाहरलाल नेहरु को अपने प्रेमपा में ऐसा फसाया कि नेहरु जी कई महत्वपूर्ण निर्णय लार्ड मांउटबेटन की इच्छा के अनुसार लेने लगे। मांउबेटन के कहने पर ही नेहरु जी ने कमीर के भारत में विलय पत्र पर प्लेबीसाइट (जनमत संग्रह) की भार्त लगायी। भारतीय सेना पाकिस्तान से अपने क्षेत्र वापिस ले सकती थी परन्तु नेहरु जी ने कमीर का प्रन न्छव में भेज दिया। 15 अगस्त 1947 को भारत स्वतंत्र हुआ किन्तु स्वतंत्र भारत को फिर से अंग्रेज गवर्नर जनरल मांउटबेटन के अधीन बनाये रखने का जो कारनामा श्री नेहरु जी ने किया क्या उसके पीछे भी लेडी मांउटबेटन का हाथ नहीं था? जबकि पाकिस्तान ने विदोी गर्वनर जनरल के अधीन रहना स्वीकार नहीं किया।

पंचतंत्र में ऐसा ठीक ही कहा गया है कि बुद्धिर्यस्य बलम तस्य निर्बुद्धेस्तु कुतो बलम अर्थात बुद्धिमान ही बलाली है और बुद्धिहीन के पास बल होते हुए भी वह निबर्ल है

’’ खिलोना माटी का ’’

एक लड़की मरने के बाद भगवान के द्वार पर पहुंची तो प्रभु उसे देख कर हैरान हो गये कि तुम इतनी जल्दी स्वर्गलोक में कैसे आ गई हो? तुम्हारी आयु के मुताबिक तो तुम्हें अभी बहुत उम्र तक धरती पर जीना था। उस लड़की ने प्रभु परमेश्वर को बताया कि वो किसी दूसरी जाति के एक लड़के से बहुत प्यार करती थी। जब बारबार समझाने पर भी हमारे घरवाले इस शादी के लिये राजी नही हुए तो हमारे गांव के चंद ठेकेदारों ने हमें मौत का हुक्म सुना दिया। इससे पहले कि वो हमें जान से मारते हम दोनों ने अपनी जिंदगी को खत्म करने का मन बना लिया। भगवान ने हैरान होते हुए कहा लेकिन तुम्हारा प्रेमी तो कहीं दिखाई नही दे रहा, वो कहां है? जब दूसरे देवताओ ने मामले की थोड़ी जांचपड़ताल की गई तो मालूम हुआ कि यह दोनों मौत को गले लगाने के लिये इक्ट्ठे ही एक पहाड़ी पर आये थे। जब लड़की कूदने लगी तो इसके प्रेमी ने यह कह कर आखें बंद कर ली कि प्यार अंधा होता है। अगले पल जब उसने देखा कि लड़की तो कूद कर मर गई है वो वहां से यह कह कर वापिस भाग गया कि मेरा प्यार तो अमर है, मैं काहे को अपनी जान दू।

यह सारा प्रंसग सुनने के बाद वहां बैठे सभी देवताओं के चेहरे पर क्रोध और चिंता की रेखाऐं साफ झलकने लगी थी। काफी देर विचार विमशर के बाद यह तय हो पाया कि समयसमय पर जब कभी भी स्वर्गलोक में कोई इस तरह की अजीब समस्यां देखने में आती है तो नारद मुनि जी से ही परामर्श लिया जाता है। सभी देवीदेवताओं की सहमति से परमपिता परमेश्वर ने उसी समय नारद मुनि को यह आदेश दिया कि हमने तो पृथ्वीलोक पर एक बहुत ही पवित्र आत्मा वाला ाुद्व माटी का खिलोना बना कर भेजा था। लेकिन यह वहां पर कैसेकैसे छल कपट कर रहा है। इसके बारे में खुद धरती पर जाकर जल्द से जल्द वहां का सारा विवरण हमें बताओ।

नारद जी प्रभु के हुक्म को सुनते ही नारायणनारायण करते हुए वहां से धरती की और निकल पड़े। धरती पर पांव रखते ही उनका सामना उस बेवफा प्रेमी से हो गया जिसने उस लड़की को धोखा देकर मौत के मुंह में धकेल दिया था। वो शराब के नश् में टुन झूमता हुआ अपनी मस्ती में हिंदी फिल्म के एक गाने को गुनगुना रहा था कि मुन्नी बदनाम हुई डार्लिंग तेरे लिये। नारद मुनि जी को देखते ही वो शराबी उनसे बोला कि भाई तुम कौन? नारद जी ने कहा कि लगता है तुमने मुझे पहचाना नही। उस शराबी ने कहा कि यह दारू बड़ी कमाल की चीज है यह अपने सारे दुखो से लेकर दुनियां के सारे गम तक भुला देती है। नारद जी ने अपना परिचय देते हुए मैं स्वर्गलोक से आया हॅू। यह सुनते ही शराबी ने नारद जी की खिल्ली उड़ाते हुए से कहा कि फिर तो यहां मेरे साथ बैठो, मैं अभी आपके लिये दारू मंगवाता हॅू। नारद जी कुछ ठीक से समझ नही पाये कि यह किस चीज के बारे में बात कर रहा है। फिर भी उन्होने इसे कोई ठंडा पेयजल समझ कर बोतल मुंह से लगा कर कर एक ही घूंट में उसे खत्म कर डाला। शराबी बड़ा हैरान हुआ कि हमें तो एक बोतल को खत्म करने में 46 घंटे लग जाते है और यह कलाकार तो एक ही झटके में सारी बोतल गटक गया। उसने एक और बोतल नारद जी के आगे रख दी। अगले ही क्षण वो भी खाली होकर जमीन पर इधरउधर लु़क रही थी। इसी तरह जब 46 बोतले और खाली हो गई तो उस शराबी ने नारद जी से पूछा कि तुम्हें यह दारू च़ती नही क्या? नारद जी ने कहा कि मैं भगवान हॅू, मुझे इस तरह के नशों से कुछ असर नही होता। अब उसशराबीने लड़खड़ाती हुई जुबान में कहा कि अब घर जाकर आराम से सो जाओ तुम्हें बुरी तरह से दारू चढ़ गई है। वरना पुलिस वाले तुम्हें दोचार दिन के लिए कृण जी की जन्मभूमि पर रहने के लिये भेज देगे। नारद जी को बड़ा अजीब लगा कि यह दो टक्के का आदमी सभी लोगो के बीच मेरी टोपी उछाल रहा है। सब कुछ जानते हुए भी नारद जी ने इस शराबी को गुस्सा करने की बजाए इसी से धरती के हालात के बारे में विस्तार से जानना बेहतर समझा।

जब शराबी के साथ थोड़ी दोस्ती का महौल बन गया तो उसने बताना शुरू किया कि आज धरती पर चारों और भ्रटाचार का बोलबाला है। जहां देखो हर इंसान हत्या, बलात्कार और हैवानियत के डर से दहशत के महौल में जी रहा है। देश के नेता बापू, भगत सिंह जैसे महान नेताओ की शिक्षा को भूल कर सरकारी खज़ाने को अंदर ही अंदर खोखला कर रहे है। नेताओ के साथ उनके परिवार वालों का चरित्र भी ीला होता जा रहा है। इतना सुनने के बाद नारद जी ने उस शराबी से कहा कि क्या आपके अध्यापकगण, गुरू या साधूसंत आप लोगो को धर्म की राह के बारे में कुछ नही समझाते।शराबी ने कहा कि आजकल के मटुक लाल जैसे अध्यापक खुद ही लव गुरू बने बैठे हैं बाकी रही साधूसंतो की बात तो स्वामी नित्यानंद जी जैसे संत खुद ही गेरूए वस्त्र धारण करके वासना की भक्ति में लीन पड़े हुए है। इंसान भगवान को भूलकर शौतान बनता जा रहा है, क्योंकि हर कोई यही सोचने लगा है कि यदि भगवान होते तो क्या इस धरती पर यह सारे कुर्कम हो पाते?

नारद जी ने प्रभु का ध्यान करते हुए उस शराबी से कहा कि कौन कहता है कि भगवान इस धरती पर नही है? कौन कहता है कि भगवान बारबार बुलाने पर भी नही आते? क्या कभी किसी ने मीरा की तरह उन्हें बुलाया है? आप एक बार उन्हें प्यार से पुकार कर तो देखो तो सही, भगवान न सिर्फ आपके पास आयेगे बल्कि आपके साथ बैठ कर खाना भी खायेगे। शर्त सिर्फ इतनी है कि आपके खाने में शबरी के बेरों की तरह मिठास और दिल में मिलन की सच्ची तड़प होनी चाहिये। भगवान तो हर जीव आत्मा के रूप में आपके सामने है लेकिन आप लोगो में कमी यह है कि आप हर चीज को उस तरह से देखना चाहते हो जो आपकी आखों को अच्छा लगता है। अब तक उस शराबी को नारद जी की जुबान से निकले एकएक शब्द की पी़ा का अभास होने लगा था। जौली अंकल तो यही सोच कर परेशान हो रहे है कि इससे पहले कि नारद जी जैसे सम्मानित गुरू प्रभु परमेश्वर को जा कर धरती के बारे में यह बताऐं कि वहां मानव दानव बनता जा रहा है उससे पहले हर मानव को मानव की तरह जीना सीख लेना चाहिये ताकि भगवान द्वारा बनाया गया पवित्र, ाुद्व और खालिस माटी का खिलोना फिर से मानवता को निखार सके।

नक्सलवाद से कौन लड़ना चाहता है ?

दुनिया के सबसे निर्दोष लोगों को खत्म करने का पाप कर रहे हैं हम

संजय द्विवेदी

उनका वहशीपन अपने चरम पर है, सोमवार की रात (23 मई,2011) को वे फिर वही करते हैं जो करते आए हैं। एक एडीशनल एसपी समेत 11 पुलिसकर्मियों को छत्तीसगढ़ के गरियाबंद में वे मौत के घाट उतार देते हैं। गोली मारने के बाद शवों को क्षत-विक्षत कर देते हैं। बहुत वीभत्स नजारा है। माओवाद की ऐसी सौगातें आए दिन छ्त्तीसगढ़, झारखंड और बिहार में आम हैं। मैं दो दिनों से इंतजार में हूं कि छत्तीसगढ़ के धरतीपुत्र और अब भगवा कपड़े पहनने वाले स्वामी अग्निवेश, लेखिका अरूंघती राय, गांधीवादी संदीप पाण्डेय, पूर्व आईएएस हर्षमंदर या ब्रम्हदेव शर्मा कुछ कहेंगें। पुलिस दमन की सामान्य सूचनाओं पर तुरंत बस्तर की दौड़ लगाने वाले इन गगनविहारी और फाइवस्टार समाजसेवियों में किसी को भी ऐसी घटनाएं प्रभावित नहीं करतीं। मौत भी अब इन इलाकों में खबर नहीं है। वह बस आ जाती है। मरता है एक आम आदिवासी अथवा एक पुलिस या सीआरपीएफ का जवान। नक्सलियों के शहरी नेटवर्क का काम देखने के आरोपी योजना आयोग में नामित किए जा रहे हैं। ऐसे में सवाल यह उठता है कि आखिर नक्सलवाद से क्या हमारी राजनीति और राज्य लड़ना चाहता है। या वह तमाम किंतु-परंतु के बीच सिर्फ अपने लोगों की मौत से ही मुग्ध है।

दोहरा खेल खेलती सरकारें

केंद्र सरकार के मुखिया हमारे प्रधानमंत्री और गृहमंत्री नक्सलवाद को इस देश के लिए सबसे बड़ा खतरा बता चुके हैं। उनके ही अधीन चलने वाला योजना आयोग अपनी एक समिति में नक्सल समर्थक होने के आरोपों से घिरे व्यक्ति को नामित कर देता है। जबकि उनपर राष्ट्रद्गोह के मामले में अभी फैसला आना बाकी है। यानि अदालतें और कानून सब बेमतलब हैं और राजनीति की सनक सबसे बड़ी है। केंद्र और राज्य सरकारें अगर इस खतरे के प्रति ईमानदार हैं तो इसके समाधान के लिए उनकी कोशिशें क्या हैं? लगातार नक्सली अपने कार्यक्षेत्र का विस्तार कर रहे हैं और यह तब हो रहा है जब उनके उन्मूलन पर सरकार हर साल अपना बजट बढ़ाती जा रही है। यानि हमारी कोशिशें ईमानदार नहीं है। 2005 से 2010 के बीच 3,299 नागरिक और 1,379 सुरक्षाकर्मी मारे जा चुके हैं। साथ ही 1,226 नक्सली भी इन घटनाओं में मारे गए हैं- वे भी भारतीय नागरिक ही हैं। बावजूद इसके नक्सलवाद को लेकर भ्रम कायम हैं। सरकारों में बैठे नौकरशाह, राजनेता, कुछ बुद्धिजीवी लगातार भ्रम का निर्माण कर रहे हैं। टीवी चैनलों और वातानुकूलित सभागारों में बैठकर ये एक विदेशी और आक्रांता विचार को भारत की जनता की मुक्ति का माध्यम और लोकतंत्र का विकल्प बता रहे हैं।

आदिवासियों की मौतों का पाप

किंतु हमारी सरकार क्या कर रही है? क्यों उसने एक पूरे इलाके को स्थाई युद्ध क्षेत्र में बदल दिया है। इसके खतरे बहुत बड़े हैं। एक तो यह कि हम दुनिया के सबसे सुंदर और सबसे निर्दोष इंसानों (आदिवासी) को लगातार खो रहे हैं। उनकी मौत सही मायने में प्रकृति के सबसे करीब रहने वाले लोगों की मौत है। निर्मल ह्रदय आदिवासियों का सैन्यीकरण किया जा रहा है। माओवादी उनके शांत जीवन में खलल डालकर उनके हाथ में बंदूकें पकड़ा रहे हैं। प्रकृतिपूजक समाज बंदूकों के खेल और लैंडमाइंस बिछाने में लगाया जा रहा है। आदिवासियों की परंपरा, उनका परिवेश, उनका परिधान, उनका धर्म और उनका खानपान सारा कुछ बदलकर उन्हें मिलिटेंट बनाने में लगे लोग आखिर विविधताओं का सम्मान करना कब सीखेंगें? आदिवासियों की लगातार मौतों के लिए जिम्मेदार माओवादी भी जिम्मेदार नहीं हैं? सरकार की कोई स्पष्ट नीति न होने के कारण एक पूरी प्रजाति को नष्ट करने और उन्हें उनकी जमीनों से उखाड़ने का यह सुनियोजित षडयंत्र साफ दिख रहा है। आदिवासी समाज प्रकृति के साथ रहने वाला और न्यूनतम आवश्यक्ताओं के साथ जीने वाला समाज है। उसे माओवादियों या हमारी सरकारों से कुछ नहीं चाहिए। किंतु ये दोनों तंत्र उनके जीवन में जहर घोल रहे हैं। आदिवासियों की आवश्यक्ताएं उनके अपने जंगल से पूरी हो जाती हैं। राज्य और बेईमान व्यापारियों के आगमन से उनके संकट प्रारंभ होते हैं और अब माओवादियों की मौजूदगी ने तो पूरे बस्तर को नरक में बदल दिया है। शोषण का यह दोहरा चक्र अब उनके सामने है। जहां एक तरफ राज्य की बंदूकें हैं तो दूसरी ओर हिंसक नक्सलियों की हैवानी करतूतें। ऐसे में आम आदिवासी का जीवन बद से बदतर हुआ है।

शोषकों के सहायक हैं माओवादी

नक्सलियों ने जनता को मुक्ति और न्याय दिलाने के नाम पर इन क्षेत्रों में प्रवेश किया किंतु आज हालात यह हैं कि ये नक्सली ही शोषकों के सबसे बड़े मददगार हैं। इन इलाकों के वनोपज ठेकेदारों, सार्वजनिक कार्यों को करने वाले ठेकेदारों, राजनेताओं और उद्योगों से लेवी में करोड़ों रूपए वसूलकर ये एक समानांतर सत्ता स्थापित कर चुके हैं। भ्रष्ट राज्य तंत्र को ऐसा नक्सलवाद बहुत भाता है। क्योंकि इससे दोनों के लक्ष्य सध रहे हैं। दोनों भ्रष्टाचार की गंगा में गोते लगा रहे हैं और हमारे निरीह आदिवासी और पुलिसकर्मी मारे जा रहे हैं। राज्य पुलिस के आला अफसररान अपने वातानुकूलित केबिनों में बंद हैं और उन्होंने सामान्य पुलिसकर्मियों और सीआरपीएफ जवानों को मरने के लिए मैदान में छोड़ रखा है। आखिर जब राज्य की कोई नीति ही नहीं है तो हम क्यों अपने जवानों को यूं मरने के लिए मैदानों में भेज रहे हैं। आज समय आ गया है कि केंद्र और राज्य सरकारों के यह तय करना होगा कि वे नक्सलवाद का समूल नाश चाहते हैं या उसे सामाजिक-आर्थिक समस्या बताकर इन इलाकों में खर्च होने वाले विकास और सुरक्षा के बड़े बजट को लूट-लूटकर खाना चाहते हैं। क्योंकि अगर आप कोई लड़ाई लड़ रहे हैं तो उसका तरीका यह नहीं है। लड़ाई शुरू होती है और खत्म भी होती है किंतु हम यहां एक अंतहीन युद्ध लड़ रहे हैं। जो कब खत्म होगा नजर नहीं आता।

माओवादी 2050 में भारत की राजसत्ता पर कब्जे का स्वप्न देख रहे हैं। विदेशी विचार और विदेशी मदद से इनकी पकड़ हमारे तंत्र पर बढ़ती जा रही है। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चीजों का तमाशा बनाने की शक्ति इन्होंने अर्जित कर ली है। दुनिया भर के संगठनों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं का सहयोग इन्हें हासिल है। किंतु यह बात बहुत साफ है उनकी जंग हमारे लोकतंत्र के खिलाफ है। वे हमारे जनतंत्र को खत्म कर माओ का राज लाने का स्वप्न देख रहे हैं। वे अपने सपनों को पूरा कभी नहीं कर पाएंगें यह तय है किंतु भारत जैसे तेजी से बढ़ते देश की प्रगति और शांति को नष्ट कर हमारे विकास को प्रभावित करने की क्षमता उनमें जरूर है। हमें इस अंतर्राष्ट्रीय षडयंत्र को समझना होगा। यह साधारण नहीं है कि माओवादियों के तार मुस्लिम जेहादियों से जुड़े पाए गए तो कुछ विदेशी एवं स्वयंसेवी संगठन भी यहां वातावरण बिगाड़ने के प्रयासो में लगे हैं।

समय दर्ज करेगा हमारा अपराध

किंतु सबसे बड़ा संकट हमारा खुद का है। क्या हम और हमारा राज्य नक्सलवाद से जूझने और मुक्ति पाने की इच्छा रखता है? क्या उसमें चीजों के समाधान खोजने का आत्मविश्वास शेष है? क्या उसे निरंतर कम होते आदिवासियों की मौतों और अपने जवानों की मौत का दुख है? क्या उसे पता है कि नक्सली करोड़ों की लेवी वसूलकर किस तरह हमारे विकास को प्रभावित कर रहे हैं? लगता है हमारे राज्य से आत्मविश्वास लापता है। अगर ऐसा नहीं है तो नक्सलवाद या आतंकवाद के खिलाफ हमारे शुतुरमुर्गी रवैयै का कारण क्या है ? हमारे हाथ किसने बांध रखे हैं? किसने हमसे यह कहा कि हमें अपने लोगों की रक्षा करने का अधिकार नहीं है। हर मामले में अगर हमारे राज्य का आदर्श अमरीका है, तो अपने लोगों को सुरक्षा देने के सवाल पर हमारा आदर्श अमरीका क्यों नहीं बनता? सवाल तमाम हैं उनके उत्तर हमें तलाशने हैं। किंतु सबसे बड़ा सवाल यही है कि नक्सलवाद से कौन लड़ना चाहता है और क्या हमारे भ्रष्ट तंत्र में इस संगठित माओवाद से लड़ने की शक्ति है ?

वामपंथ के पतन के बाद आइए अपनी जड़ों में करें विकल्पों की तलाश / प्रो.बृजकिशोर कुठियाला

प्रो.बृजकिशोर कुठियाला

ऐसा माना जाता है कि भारत टेक्नॉलाजी के क्षेत्र में विकसित अर्थव्यवस्थाओं से लगभग 20 वर्ष पीछे चलता है। हाल ही में हुए विधानसभा के परिणाम से यह सिद्ध हुआ कि राजनीतिक विचारधारा के विस्तार और विकास में भी हम लगभग इतने ही वर्ष पीछे चल रहे हैं। शेष विश्व में साम्यवाद का सूर्य दो दशक पहले अस्त हो गया और वर्ष 2011 में भारत में साम्यवाद के दुर्ग केरल और पश्चिम बंगाल में भी यह विचारधारा धराशायी हुई। रूस, चेकोस्लोवाकिया और पूर्वी जर्मनी में साम्यवाद के पतन के लिये विश्लेषकों ने मार्क्स और लेनिन की विचारधारा को दोषी पाया। परन्तु भारत में मतदाताओं ने साम्यवाद को नकारा तो अधिकतर टिपण्णीकार वहाँ के संगठन और सरकार की कार्यप्रणाली को दोषी पा रहे हैं। यदि ऐसा होता तो वाममोर्चा को दो राज्यों में इतनी करारी हार का मुँह नहीं देखना पड़ता। पश्चिम बंगाल में तो वाम मोर्चे का अपमानजनक पतन हुआ है। कुल 294 में से केवल 63 साम्यवादी ही जीत कर विधानसभा में आये हैं। केरल में प्रदर्शन पश्चिम बंगाल से बेहतर परन्तु कुल मिलाकर शर्मनाक ही रहा। जहाँ पूर्व में दोनों दलों में थोड़े अन्तर से ही हार होती थी, इस चुनाव में वाम दलों को 140 में से केवल 68 स्थान ही प्राप्त हुए।

विषय संगठन की कमजोरी और सरकार की आम व्यक्ति की अपेक्षाओं में असफल रहना तो है, पर कहीं न कहीं यह प्रश्न भी उठना चाहिए की आखिर साम्यवाद का पतन क्यों? तर्क और व्यवहार के आधार पर साम्यवादी विचारधारा बड़ी आकर्षक लगती है क्योंकि वह सभी की समानता की बात करती है। समाज में एक ही वर्ग हो, ऐसा साम्यवादी विचारधारा का उद्देश्य रहता है। यहाँ तक तो ठीक है परन्तु इस समानता को प्राप्त करने के लिये जो आधार माना जाता है, उसके अनुसार हर व्यक्ति को एक राजनीतिक प्राणी की भूमिका में सोचा जाता है। व्यक्ति अपने अधिकारों को प्राप्त करे और अपने से उच्च श्रेणी वालों को या तो अपने स्तर पर लाये या फिर खुद उनके स्तर तक जाये। मूल स्रोत का तत्त्व है कि समाज का एक वर्ग शेष समाज का शोषण करता है।

हर नागरिक की मूल आवश्यकता रोटी, कपड़ा और मकान है, ऐसा साम्यवाद मानता हैं और सबको समान रोटी, कपड़ा और मकान मिले ऐसी व्यवस्था करना उद्देश्य है। विश्व में अनेकों उदाहरण ऐसे हैं जहाँ हिंसक क्रांति से साम्यवाद स्थापित हुआ और समानता स्थापित करने का प्रयास हुआ। वर्षों के बाद एक अलग तरह की वर्ग व्यवस्था समाज में बन गई और वर्गहीन समाज केवल सपना ही रह गया। रूस, पूर्व जर्मनी व क्यूबा में ऐसा ही हुआ। चीन में ऐसा ही हो रहा है।

कुछ देशों के साम्यवादियों ने हिंसक क्रांति की संभावना को कठिन या असम्भव मानते हुए प्रजातांत्रिक माध्यम से साम्यवाद की स्थापना का प्रयास किया। भारत में दोनों ही प्रयोग हुए सी.पी.एम. व सी.पी.आई. व सहयोगी दलों ने पश्चिम बंगाल केरल व कुछ-कुछ अन्य प्रान्तों में ऐसे सफल प्रयास किये। साथ ही कट्टर साम्यवादियों के बड़े हिस्से ने हिंसक क्रांति में विश्वास रखा और माओवाद और नक्सलवाद को विस्तार दिया। प्रजातंत्र के माध्यम ने तो साम्यवाद को सिकोड़ दिया। साम्यवाद का हिंसक रूप अपना प्रभाव बढ़ा रहा है, परन्तु क्रांति जैसी सफलता न तो उसको अभी मिली है और न ही मिलने का आसार नज़र आता है।

मूल समस्या कहीं साम्यवाद की अधूरी और कमजोर विचारधारा की है। समाज में एक नागरिक की भूमिका राजनीति के साथ-साथ सामाजिक आर्थिक व सांस्कृतिक भी है। केवल रोटी, कपड़ा और मकान से समाज नहीं बनता है। संबंध, परम्पराएं, संस्कृति और एक दूसरे पर निर्भरता मनुष्य के समाज के अनिवार्य अंग है। जिनको साम्यवाद या तो नकाराता है और या उनकी भूमिका अत्यन्त गौण मानता है इसलिये कुछ समय के बाद साम्यवाद पतन को प्राप्त होता है। अनेक ऐसे व्यक्ति हैं जिन्होंने अपने जीवन के महत्वपूर्ण प्रारम्भिक वर्ष साम्यवादी विचार के प्रचार-प्रसार में लगाये परन्तु कुछ ही वर्षों में उनको साम्यवाद का अधूरापन और अव्यवहारिकता समझ में आयी। उन्होंने साहस किया और कम्युनिस्ट आन्दोलन से अपने को अलग कर लिया। केरल और बंगाल की जनता को भी अब यह बोध हो गया है कि कम्युनिज्म के माध्यम से उनका विकास होना संभव नहीं है और जब ‘माँ, माटी और मानुस’ का विकल्प उन्हें मिला तो उन्होंने उसे सहज स्वीकार किया।

साम्यवाद का विकल्प पूंजीवाद माना जाता है और दोनों के बीच में कई रंगों का समाजवाद भी आता है। पूंजीवाद में व्यक्ति को एक उपभोक्ता के रूप में माना जाता है। जिसकी आवश्यकता को पूर्ण करने के लिये वस्तुओं और सेवाओं का निर्माण होता है। जिसमें पूंजी लगती है और उसका विस्तार होता है। मौलिक आवश्यकताएं पूर्ण होने पर और छद्म और काल्पनिक जरूरतें पैदा की जाती हैं जिससे की नयी-नयी वस्तुओं और सेवाओं की मांग बढ़े और पूंजी का चक्र चलता रहे। एक स्थिति ऐसी आती है कि व्यक्ति और समाज समृद्धि के ऐसे पड़ाव पर पहुंच जाते हैं जहाँ से आगे जाने का कोई रास्ता नहीं होता और जो होता है वह सब व्यर्थ लगता है। जहाँ राजनीतिक व्यक्ति होने से समानता प्राप्त करना अव्यावहारिक है वहीं उपभोक्ता व्यक्ति होने से मनुष्य का विकास भ्रमित रहता है और दिशाविहीनता का भाव बढ़ता है। विश्व में कम्युनिज्म लगभग समाप्त हो गया और पूंजीवाद असफल होता हुआ लगता है। आखिर विकल्प क्या है? विकल्प समग्रता में है। मनुष्य एक जीव होने के साथ-साथ एक सांस्कृतिक प्राणी भी है। भौतिक आवश्यकताएं पूर्ण होने पर उसके मन में प्रकृति के विषय में प्रश्न उठते हैं और उनका उत्तर पाना उसके लिये जीवन का उद्देश्य बनता है। उसको भौतिक जगत के साथ-साथ ऐसी भी अनुभूति होती है कि मानों पूरे विश्व में एकरूपता व एकात्मता हो। मनुष्य विभिन्नता को सृष्टि का नियम मानता है और उससे संबंध बना कर आनन्द प्राप्त करता है। समाज में प्रतिस्पर्द्धा के स्थान पर सहयोग और आपसी निर्भरता को वहाँ अधिक सार्थक और व्यावहारिक मानता है।

विविधता होने के बावजूद उसको लगता है कि सभी में कुछ एक समान तत्त्व भी हैं। जब उसको यह अनुभूति होती है कि सृष्टि के हर जीव और जड़ में कहीं न कहीं एक समान तत्त्व की उपस्थिति है तो ‘सब अपना’ और ‘सभी अपने’ का भाव आता है। भारत के प्राचीन ग्रंथों में इसी प्रकार के दर्शन का बार-बार वर्णन मिलता है। युनान और रोम के प्राचीन ग्रंथों में भी एकरूपता की बात कही गई है। अमरीका के मूल निवासियों जिनको रेड इंडियन के रूप में जाना जाता है, की संस्कृति में भी पक्षियों, पर्वतों, नदियों और बादलों आदि का मनुष्य से संबंध माना गया है। मैक्सिको के एक विश्व प्रसिद्ध लेखक पाएलो कोहेलो ने अपने उपन्यास ‘अलकेमिस्ट’ में लिखा है कि मनुष्य को रेत, मिट्टी पेड़, पर्वत, जल, वायु, बादल, घोड़े इत्यादि सभी से संवाद करने की क्षमता होनी चाहिए। उसने आगे लिखा है कि जब ऐसा होता है तो समूची प्रकृति षड़यन्त्र करके मनुष्य को सफल बनाती है। इस विचारधारा को राजनीतिक दृष्टि से सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का नाम दिया गया और दर्शन में इसे एकात्म मानववाद कहा गया। विश्व के वर्तमान परिवेश में जब साम्यवाद प्रायः नष्ट हो गया है और पूंजीवाद अंधी गली में अपने को पाता है, तो एकात्म मानववाद में मनुष्यता को अपने विकास का विकल्प ढूंढना होगा।

अमेरिका दुनिया का सब से क्रूर देश ?

सियना कालेज वाशिंगटन द्वारा 1982 सें हर वर्ष कराये जा रहे जनमत में इस बार अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा दुनिया के 44 श्रेष्ट राष्ट्रपतियो की सूची में 15वे स्थान पर रहे। दुनिया की सुपर पावर कहे जाने वाले इसी अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश दुनिया के पॉच सब से बुरे राष्ट्रपतियो में सब से निचले स्तर पर चुने गये। इस जनमत में हर बार की तरह इस बार भी फ्रेंकलिन रूजवेल्ट को ही बेस्ट प्रेसीडेंट चुना गया है।

आखिर अमेरिका की छवि दुनिया के लोगो की निगाह में दिन प्रतिदिन इतनी क्यो खराब होती जा रही है। इस की कई वजह है। छोटे देशो पर अमेरिकी आतंक, रोज रोज अपनी दादागिरी से अर्न्तराष्ट्रीय स्तर पर मानवधिकारो का हनन, अमेरिकी नागरिको का खुद को असुरक्षित महसूस करना, आतंकवाद के नाम पर बेकसूर देशो पर बमबारी करना। अमेरिकी जेलो में बन्द कैदियो के साथ जानवरो से बदतर व्यवहार अमेरिकी ग्राफ को नीचे लाने में काफी हद तक जिम्मेदार है। अमेरिका की जेलो की तरफ निगाह डाले तो आज अमेरिका की जेलो में इस वक्त करीब दो लाख महिला कैदी विभिन्न अपराधो में बन्द है। एक अनुमान के अनुसार इन में करीब तीन से चार प्रतिशत महिलाये गर्भवती अवस्था में लाई जाती है। अमेरिका के पेंसिलवेनिया राज्य में आज भी एक बहुत ही घिनौना, क्रूर तथा तमाम मानवीय हदो को पार करने वाला कानून लागू है जिस के तहत वहा कि जेलो में बन्द गर्भवती महिला कैदियो को प्रसव के दौरान भी बेडियो में रहना पडता है। दरअसल वहा महिला कैदियो को भागने से रोकने के लिये ये बेडिया डाल दी जाती है। इस से भी बढ़कर अमेरिकी सरकार का एक और घिनौना चेहरा यह है जिस में तमाम इन्सानियत की हदो को पार कर दिया गया है। मानवधिकारो की पेरवी करने वाली हिलेरी क्लिटन आखिर क्यो और किस खौफ से खामोश बैठ जाती है जब अमेरिका की फिलाडेल्फिया की एक जेल में एक महिला कैदी को अस्पताल में हथियारबन्द सुरक्षा कर्मियो की मौजूदगी में बच्चे को जन्म देना पडता है।

सवाल ये उठता है कि क्या किसी बच्चे को संसार में इस तरह आना चाहिये। सवाल यह भी उठता है कि क्या किसी महिला की इज्जत उस के अपने ही देश में यू तार तार होनी चाहिये। सवाल यह भी उठता है कि किसी भी कानून में बडे से बडे अपराध की सजा ये नही हो सकती कि एक महिला सार्वजनिक रूप से लोगो के सामने अपने बच्चे को जन्म दे। मगर ये सब आज अमेरिका में खुलओम हो रहा है। और मानवधिकारो की दुहाई देने वाले तमाम संघ अमेरिकी दादागिरी के सामने गॉधी जी के बंदरो के समान खामोश बैठे है।

बाल अधिकारो के मामले में भी अमेरिका का रवैय्या कुछ इसी प्रकार का है अमेरिका की सर्वोच्च न्यायालय में पिछले दिनो बच्चो और किशोरो के एक हिस्से के भविष्य से जुडी अहम याचिकाओ पर सुनवाई हुई है। दरअसल अमेरिका में बाल्यावस्था या किशोर(जुनेनाइल)में किये गये अपराध के लिये ताउम्र बिना किसी पैरोल के सजा काट रहे इन अभिशापित बंदियो के माता पिताओ और मानवधिकार कार्यकर्ताओ के प्रयास से ये याचिकाए अदालत के सामने आई है। अब अमेरिकी अदालते इस मसले पर विचार करेगी कि जेल प्रशासन द्वारा बच्चो और किशोरो पर उठाये जा रहे मौजूदा कदम कही असांविधानिक और सख्त तो नही है। इस वक्त अमेरिकी जेलो में 1700 से ज्यादा ऐसे बाल और किशोर बंदी है जो अपनी शेष उम्र उस अपराध के लिये जेल में बिता देगे, जो इन्होने बाल्यावस्था में किया था। इस दौरान उन्हे पैरोल पर रिहा होने की इजाजत नही मिलेगी। यहा में ये बताता चलू की दुनिया के सामने खुद को जनतंत्र का प्रहरी बताने वाले इस अमेरिका के अलावा किसी भी देश में ऐसा कानून नही है जिस में बच्चो और किशोरो को इस कदर दंडित करने का कोई कानून हो और जिस कानून के द्वारा मानवधिकारो का खुलकर हनन होता हो।

दो साल पहले ब्रिटेन के एक अखबार ”गार्डियन’’ ने अपने सर्वेक्षण में बताया था कि 2270 बाल और किशोर कैदी अमेरिका की विभिन्न जेलो में पैरोल के बिना उम्रकैद की सजा काट रहे है और ये सभी लोग अपराध करते वक्त 18 साल से कम उम्र के थे। हम सभी लोग जानते है कि यह एक ऐसी उम्र है जब बच्चे अक्सर गलत रास्तो पर भटक जाते है। यू इन्हे जेलो मे किसी खूंखार कैदियो की तरह डालकर क्रूर तरीको से यातनाये देना क्या अमेरिकी भविष्य से खिडवाड नही क्या ये मानवधिकारो का खुलकर हनन नही है। समुची दुनिया को मानवधिकार और जनतंत्र का पाठ पाने वाले और इसी जनतंत्र की दुहाई देकर इराक और आफगानिस्तान पर बमबारी कर निर्दोश लोगो को मौत की नींद सुलाने वाले सारी दुनिया में सुपर पावर के नाम से मशहूर दुनिया को मानवधिकार और जनतंत्र का सबक सिखाने का दावा करने वाला अमेरिका उन गिने चुने देशो में भी गिना जाता है जिन्होने बाल अधिकार संबंधि संयुक्त राष्ट्र समझौते पर दस्तखत करने से इन्कार किया है। अमेरिका से पूर्व सोमालिया भी बाल अधिकार संबंधि संयुक्त राष्ट्र समझौते पर दस्तखत करने से इन्कार कर चुका है जाहिर है यह समझौता स्पष्ट रूप से बाल या किशोर अपराधियो को इस तरह से दंडित करने पर पाबंदी लगाता है।

बच्चो को जेलो में ठूंसने वाले और महिला कैदियो के साथ अमानवीय व्यवहार करने वाले अमेरिका के बारे में यह तथ्य भी जानने योग्य है कि अमेरिकी जेलो की आबादी में 1970 के बाद लगभग आठ गुना बढ़ोतरी हुई है समूची दुनिया में अन्य कोई ऐसा मुल्क नही है जहॉ इतने छोटे से वक्त में इतने कैदी बे हो पूरी दुनिया में यह एक रिकार्ड बढ़ोतरी है। ऐसे में क्या इस वर्ष का नोबल शांति पुरस्कार अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा को देना उचित था। ओबामा अपनी और अमेरिका की असलियत जानते है तभी तो उन्होने खुद इस का अहसास किया और मंच पर स्वीकार किया कि इस पुरस्कार के असली हकदार और काबिल कई और दावेदार है। उन्हे शांति का नोबल पुरस्कार देने में एक कालदोष ये भी था कि वो एक युद्वरत राष्ट्रपति थे। नोबल शांति पुरस्कार ग्रहण करने से कुछ दिन पहले ही उन्होने युद्व के लिये तीस हजार अतिरिक्त सैनिक भेजने का आदेश दिया था। अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की वास्तविक उपलब्धियो का इन्तेजार न करते हुए जल्दबाजी में दिये गये नोबल शांति पुरस्कार बराक ओबामा को देने की अमेरिका सहित सारी दुनिया में आलोचना हुई थी। आखिर पूरी दुनिया के सामने अमेरिका को अपनी छवि अच्छे काम कर के, बाल अधिकार संबंधि संयुक्त राष्ट्र समझौते पर दस्तखत कर के सुधारनी चाहिये दादागिरी से नही। संयुक्त राष्ट्र संघ और तमाम ऐसे देशो को जो मानवधिकारो की पैरवी करते है मानते है अमेरिका पर दबाब बनाना चाहिये की वो बाल अधिकार संबंधि संयुक्त राष्ट्र समझौते पर दस्तखत करे।

वरिष्ट होने की बीमारी

बडे होने का अहसास इन्सान को जरूर होना चाहिये किन्तु लोग बडा कहे तब ही आदमी का बडप्पन अच्छा लगता है खुद अपने मुॅह मिॅया मिटठू बनने से सिर्फ जग हसॉई के सिवा कुछ नही मिलता। आज कल हमारे शहर में अर्जी फर्जी कवि, शायर, और कुछ पत्रकार इस रोग से पीड़ित होने के कारण शहर में चर्चित है। उन की अकडी हुई गर्दन देख कर हर कोई उन्हे दूर से ही पहचान लेता है। वरिष्ठता की ये बीमारी टीबी या फिर स्वाइन फ्लू की तरह बहुत खतरनाक भले ही न हो मगर ये सर्दी खॉसी की तरह आम भी नही है। ये बीमारी यू ही हर किसी लल्लू पंजू को नही होती ये सिर्फ उन्ही नाकारा निठल्ले, सुस्त, आलसी लोगो को होती है जिन में बिना संघर्ष किये छल, कपट, घात प्रतिघात, धूतर्ता, ठगी, छीना झपटी, के वायरस गुणो के रूप में होते है जो समाज में अपने इन अवगुण के बल पर मान सम्मान हासिल करना चाहते है। हा इतना जरूर है कि इस बीमारी के कीटाणु जब किसी व्यक्ति विशोष में उत्पन्न होते है तो स्थिति विकट जरूर हो जाती है।

कुछ ज्ञानी महापुरूषो ने इस बीमारी पर गहनता से शौध किया है जिस के परिणाम स्वरूप इस की केवल तीन प्रजातियो का ही पता चला है। सर्व प्रथम इस बीमारी से ग्रस्त व्यक्ति मुंगेरी लाल की तरह दिन में भी हसीन सपने देखता है और खुद को महान समझने लगता है। उस की गर्दन में अकड़न की शिकायत हो जाती है। धीरे धीरे उस का स्वर बदलने लगता है। अपनी तारीफ लल्लू पंजू यार दोस्तो और अपने इर्द गिर्द घूमने वाले चमचो से कराता है। कुछ अक्ल के अंधे लोग खाने और चाटने की गरज से ऐसे बीमार शायर की तुलना ग़ालिब और मीर से करते है। यदि साहित्यकार है तो दुनिया के बडे बडे साहित्यकारो से यदि वो पत्रकार है तो उसे और उस के घटिया अखबार और समाचारो को आसमान की बुल्दियो तक पहॅुचा दिया जाता है। इस बीमारी के दूसरे चरण में प्रतिष्टता के स्तर पर मामला चला जाता है और सामने वाला इन्सान ऐसे व्यक्ति को हर स्तर में अपने से कम नजर आता है। किसी किसी व्यक्ति में कीटाणु ज्यादा मात्रा में होने के कारण उसे अपने सामने सब छोटे और बौने नजर आते है। इस बीमज्ञरी के अन्तिम चरण में आते आते महानता के कीटाणु उत्पन्न होने के बाद व्यक्ति लाईलाज होने लगता है क्यो कि वरिष्ठता और प्रतिष्ठा के विरूद्व तो लडा भी जा सकता है मगर महानता के आगे हर आदमी मजबूर हो जाता है। ऐसे व्यक्ति को समाज उस के हाल पर छोड देता है। अन्तिम चरण में आकर ये बीमारी इतनी घातक हो जाती है की ऐसे बीमार व्यक्ति अपने यार दोस्तो और चमचो से संभाले भी नही संभलते।

वरिष्ठता की ऐसी बीमारी से ग्रस्त लोगो को कुछ लोग पागल भी कहने लगते है। जिस तरह की हरकते वो सभ्य समाज में रह कर करने लगते है उस लिहाज से ऐसे व्यक्ति को पागल की उपाधि दी जा सकती है। किन्तु अपनी और अपने चेलो चपाटो की नजर में महान हो चुके ऐसे आदमी पर इस बात का जरा भी असर नही पडता की लोग उसे क्या कह रहे है उस के कानो में तो अपने चमचो द्वारा दिन रात की जा रही अपनी प्रशंसात्मक आवाजे सुनाई देती रहती है अपनी जय जयकार और कारनामो के ख्वाब उसकी ऑखो में भ्रम का मोतियाबिंद आते ही आने लगते है। ऐसा कोई व्यक्ति यदि कभी आप के शहर, गॉव कस्बे में घूमता नजर आये तो कृप्या उसे अन्यथा न ले। क्यो की आज कल ऐसी वरिष्ठता की बीमारी के कीटाणु कुछ लोगो में तेजी के साथ फैलने लगे है।

गम्भीर मुद्दा फैसले कहा से होगे ,जज साहब ही नही

फरवरी 2010 में दिल्ली हाईकोर्ट से सेवानिवृत्त हुए मुख्य न्यायाधीश एपी शाह ने सुप्रीम कोर्ट में न्यायाधीशो की नियुक्ति में पारदिशर्ता की जरूरत है कहते हुए एक ब्यान दिया था। 2005 में तत्कालीन सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश आर सी लाहोटी ने सार्वजनिक रूप से ये कहा था कि आने वाले दिन एलपीजी के है। एलपीजी मतलब लिबलाइजेशन, प्राईवेटाइजेशन, और ग्लोबलाइजेशन यानी उदारीकरण, निजीकरण, और वैश्वीकरणभोपाल गैस त्रासदी पर अदालत के आये फैसले पर भारत सरकार के कानून एंव विधि मंत्री वीरप्पा मोइली का ये कहना कि ‘न्याय को दफना दिया गया है और इस फैसले से सबक सीखने की जरूरत है।’ एकदम सही है कानून मंत्री ही क्यो आज पूरा का पूरा देश अदालत के द्वारा 25 साल बाद आये इस फैसले और इस व्यवहार से आहत है। भारत की न्याय व्यवस्था आज समय पर न्याय नही कर पा रही है। नई अर्थव्यवस्था और नई तकनीके कैसी है। आज अदालतो का रूख ऐसा हो चला है मानो वे सरकार की नीतियो के अनुरूप अपने आप को बदल लेना चाहती है। न्याय जब तक होता है’ तब तक न्याय पाने वाला भगवान को प्यारा हो जाता है या न्याय के प्रति उस की आस पूरी तरह टूट जाती है। तब कही जाकर उस के हक में अदालत का फैसला आ पाता है। आखिर अदालतो को न्यायालयो में विचाराधीन मुकदमो का फैसला देने में इतनी देर क्यो हो रही है।

वजह बिल्कुल साफ है आज देश की हर एक अदालत में मुकदमो का अम्बार लगा हुआ है। कोर्ट कचहरी में वादी और प्रतिवादी की उम्र मुकदमे की तारीखो पर आते जाते ही बीत जाती है। तारीख पर तारीख लगते लगते कई लोग जवान से बूढ़े और बूढ़े परलोक सिधार जाते है। किन्तु अदालत का फैसला आना तब भी बाकी रहता है। कुछ लोग दीवानी का मुकदमा लडते लडते दीवाने हो जाते है। कुछ के मुकदमो में इतनी तारीखे लगी की वादी और प्रतिवादी की दूसरी जायदाद इन मुकदमो की पैरवी करते करते बिक गई पर अदालत का फैसला नही आया। सरकारी आंकडो और विधि मंत्रालय के पास ताजा मौजूद आंकडो के मुताबिक देश भर के विभिन्न उच्च न्यायालय में करीब 265 न्यायाधीशो की आज भी कमी है। और इस कमी के चलते लंबित मुकदमो की संख्या लगभग 39 लाख हो गई है वही देश की विभिन्न अदालतो में तकरीबन 3.128 करोड लंबित मामले चल रहे है। एक अनुमान के अनुसार यदि इसी प्रकार से अदालतो में न्याय प्रकि्रया चलती रही तो इन्हे निपटाने में लगभग 320 साल लगेगे। आज इन्सान की उम्र औसतन 60 से 65 साल के बीच हो रही है ऐसे में जब इन मुकदमो में अदालत का फैसला आने में 320 साल का वक्त लगेगा तो आखिर कितनी पी एक मुकदमे को लडेगी कितनी तारीखे लगेगी। कब फैसला होगा किस के हक में होगा कौन बचेगा कौन मरेगा भगवान जाने।

आखिर हमारी सरकार इस ओर ध्यान क्यो नही दे रही। आज देश भर में कॉईम तेजी से बढ़ता जा रहा है। जिस की सब से बडी वजह समय पर मुकदमो का न निपटना, लोगो को इन्साफ मिलने में देरी होना भी है। कानून मंत्रालय के पास इस वक्त जो ऑकडे है उन के अनुसार यदि आज देश की कानून व्यवस्था पर नजर डाले तो देश के 21 उच्च न्यायालयो में न्यायाधीशो के स्वीकृत पदो कि संख्या 895 है और महज 630 न्यायाधीश विभिन्न मामलो की सुनवाई कर रहे है। इलाहबाद उच्च न्यायालय में तो जजो कि कमी के कारण कामकाज बुरी तरह प्रभवित है उत्तर प्रदेश इलाहबाद उच्च न्यायालय में न्यायाधीशो के स्वीकृत पदो की संख्या160 है। जब कि 77 उत्तर प्रदेश इलाहबाद उच्च न्यायालय में न्यायाधीश विभिन्न मामलो की सुनवाई कर रहे है। यानी 83 न्यायाधीशो की कमी है। इस उच्च न्यायालय में स्थाई न्यायाधीशो के 30 और अतिरिक्त न्यायाधीशो के 53 पद रिक्त है। देश भर के उच्च न्यायालयो में सब से ज्यादा इलाहाबाद हाई कोर्ट के लिये जजो के पद स्वीकृत है। सितम्बर 2009 में प्राप्त आंकडो के अनुसार इलाहाबाद हाईकोर्ट में 160 में से 54 पद रिक्त थे जबकि अब इन रिक्त पदो कि सॅख्या 83 पहुच गई है। ये 160 न्यायाधीश जो विभिन्न मामलो की सुनवाई इलाहाबाद हाईकोर्ट में कर रहे थे इन में से भी कुछ जून 2010 में सेवानिवृत्त हो चुके है। ऐसे में लंबित मामलो की संख्या और बेढ़गी। जजो की भारी कमी को देखते हुए लखनऊ अवध बार एसोसिएशन ने पिछले दिनो सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश से जल्द जजो की नियिुक्त की अपील की थी किन्तु अभी तक इस ओर सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के द्वारा कोई ठोस कदम नही उठाया गया है जिस कारण इलाहाबाद हाईकोर्ट में लंबित मामलो की संख्या दिन प्रतिदिन बने से एक ओर जहॉ लोगो को इन्साफ मिलने में देरी हो रही है वही दूसरी ओर आज देश की हर एक अदालत में मुकदमो का अम्बार लगा हुआ है। सरकार को कानून व्यवस्था चुस्तदुस्त बनाने में बडी परेशानी का सामना करना पड रहा है।

आज गॉव कस्बो में लगभग 60 प्रतिशत लोग किसी न किसी तरह मुकदमेबाजी में फॅसे है। खास कर हमारे गॉवो का तो बुरा हाल है। कोई ऐसा घर होगा जिस घर में मुकदमेबाजी न हो। खेतो की डोल पर झगडा, आने जाने के रास्ते पर झगडा,पानी की निकासी और नहर के पानी पर मुकदमा, जरा जरा सी बात को गॉव के लोग अपनी मूछ का सवाल बना लेते है। और सीधे चले आते है कोर्ट कचहरी। आज किसी भी कोर्ट कचहरी में माननीय वकीलो की संख्या इतनी ज्यादा है कि ये गॉव के लोग ही इन वकीलो की खूब सेवा कर रहे है। दूसरी ओर भला हो उत्तर प्रदेश पुलिस का जो बडी से बडी डकैती को छोटी मोटी चोरी दिखाती है लूट, चोरी, बालात्कार, राहजनी, हत्या जैसी तमाम घटनाओ की रिपोर्ट ही दर्ज नही करती और यदि ऊपर से दबाव पडता है केस किसी रसूख वाले व्यक्ति का होता है तब मजबूरी के तहत पुलिस रिपोर्ट दर्ज करती है। पर यहॉ भी हमारी पुलिस डंडी मार लेती है और बडी घटना को छोटी छोटी धाराओ में दर्ज कर ऊपरी अदालतो तक पहुॅचने ही नही देती है। यदि हमारी पुलिस सही तरीके से केस दर्ज कर आईपीसी की धाराओ के अर्न्तगत सही सही कार्यवाही करे तो देश भर की अदालतो सहित उत्तर प्रदेश इलाहाबाद हाईकोर्ट में लंबित मामलो की संख्या कई गुना तक ब सकती है। जजो की कमी और मुकदमो का अंबार सरकार के लिये कोढ़ में खाज वाला काम कर सकता ह