विप्रलम्ब तन शीतल मन शीतल कर दो, प्रिय अपनी बाहों में भर लो। ————————————— मंद हवाओं का ये झौंका, आंचल को सहलाता हैं। ————————————— पुष्पों की सुरभित मादकता, तन में आग लगाता है। ————————————— मिलने की उत्कंठा दिल में, धड़कन और ब़ाता है। ————————————— तेरे आने की हर आहट, मन में आस जगाता है। ————————————— तन शीतल मन शीतल कर दो, प्रिय अपनी बाहों में भर लो। —————————————
तुम याद आये
उषा श्वेतांचल से सजकर, प्राची दिश मिली अरूण से जब तुम याद आए, तुम याद आये, तुम याद आए, तुम याद आये। ———————————————– सूरज की स्वर्ण किरण के संग, स्वर्णिम सी हुई शिखर जबजब तुम याद आए, तुम याद आये। तुम याद आए, तुम याद आये। ———————————————– बिखरा सिन्दूरी रंगत को, आया गोधूलि समय जबजब तुम याद आए, तुम याद आये, तुम याद आये, तुम याद आये। ———————————————– सुरमई श्याम की रंगत में, अम्बर से मिली निशा जब जब तुम याद आए, तुम याद आये, तुम याद आए, तुम याद आये। ———————————————–
यादें
जज्ब सीने में किए बैठा हूं, एक शोला तुम्हारी यादों का। ————————————— अक्श आंखों में उतर आया है, हसीन चन्द मुलाकातों का। ————————————— जब से मैंने तेरा दीदार किया, करके दीदार तुझे प्यार किया। ————————————— जब से भूला हूं इस जहां को मैं, याद बस तुझको बारबार किया। —————————————–
प्यास मेरे जेहन में यह सवाल उभरता ही रहा। तुम्हारी मांग सितारों से सजाऊं कैसे। ———————————————– चांदनी रात के साये में सोचता ही रहा। तुम्हारे पास मैं ये नाजनी आऊँ कैसे। ———————————————– तुम तो हो कैद इक पक्षी की तरह पिंजड़े में। मैं तो आजाद हूं पर कटे पक्षी की तरह। ———————————————— अपनी मायूसी जिंदगी से पूछता ही रहा। मैं तेरे साथ निभाऊँ तो निभाऊँ कैसे। ———————————————— आज जब एक झलक देख ली मैंने तेरी, न तो वश में रहे जज्बात न काबू मन पे। ————————————————- कदम ब़े ही थे कि याद आ गई कसमें, मैं तेरे पास कसम तोड़ के आऊँ कैसे। ———————————————— —————- एक शहर जन्नत का एक तहजीब का अहसास किया है मैंने, रूबरू देख लिया एक शहर जगत का । नूर ही नूर है बिखरा हुआ हर कूचे में, खुशनुमा है फिजा, लम्हात है ये मन्नत का। ————————————————————— जिस अमन चेन का इकरार किया है इसने, मजहबी इश्क का इजहार किया है इसने। दिनब-दिन उसको ब़ाने की दुआ करना है, रंग सारे यहां इन्सानियत के भरना है। —————————————————————- छोड़ के शिकवे गिले साथसाथ रहना है, दर्द हर सांस का हमें साथसाथ सहना है हम न हिन्दू है मुसलमा है न ईसाई है, सिख न जैन है न बौद्ध है हम भाई है धर्म इन्सानियत व कर्म है मनवता का, रूप इन्सान का पर आत्मा है देवता का हम दिखा दे है शहर प्यार का जज्बातों का हम बता दे है शहर सच में करामातों का हमारा प्यार जहां में निजाम रखता है, हमारा शहर हजारों में नाम रखता है।
एक तहजीब का अहसास किया है मैंने, रूबरू देख लिया एक शहर जगत का । नूर ही नूर है बिखरा हुआ हर कूचे में, खुशनुमा है फिजा, लम्हात है ये मन्नत का। ————————————————————— जे0पी0 गुप्ता ॔जगत’
महाराष्ट्र के कोल्हापुर में पुलिस टेनिंग स्कूल में महिला कांस्टेबल यौन शौषण। पुलिस टेनिंग स्कूल में महिला कांस्टेबल यौन उत्पीड़न की इस घटना ने देश भर में तूफान मचाने के साथ साथ उन तमाम घरो में बवाल मचा दिया जिन घरो की बहू बेटिया कोल्हापुर के पुलिस टेनिंग स्कूल में महिला कांस्टेबल की टेनिंग ले रही थी। इन में से अधिकांश महिलाओ और युवतियो के माता पिता और पतियो ने उन्हे फौरन टेनिंग छोडने के लिये कह दिया। इस पूरे मामले के मास्टर माइंड महिला कांस्टेबल यौन शौषण के मुख्य आरोपी इंस्पेक्टर युवराज कांबले को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया है पर क्या कानून के जाल में वो बडी मछलिया भी फंसेगी जिन के फैलाए में फंस कर ये लडकिया बहुत छटपटाई होगी। किसी को घरेलू मजबूरी के कारण तो कोई हालात से समझौता कर इन भूखे भेडियो के सामने अपनी देह का सर्मपण करने को मजबूर होना पडा होगा। क्यो कि पकड में आने के बाद कांबले का ये कहना के उसे तो बलि का बकरा बनाया गया है इस सैक्स स्कैंडल में लिप्त बडे अधिकारियो की ओर सीधा साीधा इशारा है। दरअसल इस सैक्स स्कैंडल का खुलासा तब हुआ जब टेनिंग स्कूल की 11 महिला कांस्टेबल के गर्भवती होने की खबरे सामने आई। गत मार्च में इस टेनिंग स्कूल की 71 महिला कांस्टेबल का जब मेडिकल टेस्ट किया गया तो दो कांस्टेबल के गर्भवती होने की बात सामने आई, जिस में से एक को कुछ दिनो बाद सामान्य करार दे दिया गया। पर तब तक बात पराई हो चुकी थी। क्यो कि एक या दो नही पूरी 11 महिला टेनी कांस्टेबल गर्भवती थी जिन में से अधिकतर कुवॉरी थी। एक पीडित टेनी महिला कांस्टेबल की शिकायत पर राज खुला कि इंस्पेक्टर युवराज कांबले ने गत जनवरी में उसे टेस्ट पेपर देने के बहाने अपने कमरे पर बुलाया और उस की मजबूरी का फायदा उठाया। पीडित टेनी महिला कांस्टेबल ने यह भी आरोप लगाया की जॉच के दौरान उस की मेडीकल रिर्पोट में भी हेराफेरी की गई। पुलिस के इस पूरे मामले ने देश को हिला कर रख दिया जो बाते कल तक हम रील लाइफ में देखा करते थे आज वो सारी की सारी रीयल लाइफ में हो रही है पुलिस को जनता का रक्षक कहा जाता है। मगर इस सब से हमारे देश की पुलिस पर कोई फर्क नही पडता। वर्ष 2008 में नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो(एनसीआरबी) की रिपोर्ट के अनुसार मध्य प्रदेश और दिल्ली पुलिस के बाद सब से ज्यादा शिकायते उत्तर प्रदेश पुलिस के खिलाफ दर्ज हुई। मगर उ0प्र0 पुलिस की होशयारी के कारण इन में 50 प्रतिशत झूठी साबित हो गई।अगर पूरे देश के आकंडे देखे तो देश भर के लोगो ने पुलिस के खिलाफ लगभग 49000 हजार शिकायते दर्ज कराई, जिन में लगभग 50 प्रतिशत अकेले मध्य प्रदेश और दिल्ली पुलिस के खिलाफ थी। ब्यूरो के आकंडो के अनुसार मध्य प्रदेश में कुल 18315 यानी 35.8 फीसदी शिकायते मिली जबकि दिल्ली पुलिस के खिलाफ 6031 और उत्तर प्रदेश पुलिस के खिलाफ 6015 शिकायते दर्ज हुई। रिपोर्ट के मुताबिक दिल्ली में 539 पुलिसकर्मिर्यो के खिलाफ विभागीय जॉच गठित की गई जब कि 93 के खिलाफ मामला दर्ज किया गया। विभागीय कार्यवाही 1185 पुलिसकर्मिर्यो के खिलाफ शुरू की गई जब कि 87 पुलिसकर्मिर्यो कों सेवा से बर्खास्त किया गया, 319 पुलिसकर्मिर्यो को कठोर दंड दिया गया। इस रिपोर्ट के अनुसार जम्मूकश्मीर में सब से ज्यादा 219 पुलिसकर्मिर्यो को नौकरी से हाथ धोना पडा। इस के बाद पंजाब और उत्तर प्रदेश का नम्बर रहा। वो टेनिंग स्कूल जहॉ फर्ज और कानून की बुनियाद डाली जाती हो उस स्कूल में ये घिनौना अनाचार उन पुलिस अधिकारियो के चरित्र और मानसिकता को उजागर तो कर रहा है पर इन पुलिस अधिकारियो को सजा देने वाले और कानून के रक्षको का इनके साथ मिला होना पुलिस की साख में एक बडा सूराख है। इस बडी घटना के बाद सवाल ये उठता है कि किसी भी देश की पुलिस की भूमिका देश के नागरिको की रक्षक की होती है। पर कुछ कानून के रखवाले आज भक्षक बने है। पैसा कमाने, अय्याशी, शराब, डांस बारो में जाना आज हाई सोसायटी में फैशन बन गया है जिस के लिये लोग अपना फर्ज और ईमान तक बेचने लगे है। इस पूरे मामले पर गृहमंत्री ने कहा है कि मेडीकल जॉच में केवल एक ही लडकी गर्भवती पाई गई है जो कि शिकायतकर्ता भी है लेकिन स्थानीय सांसद सदाशिव मंडलिक ने दावा किया कि पुलिस प्रिशक्षण केंद्र में कुल 11 महिला कांस्टेबल गर्भवती हुई है जिन में से एक ने गर्भपात भी कराया है। माननीय सांसद का ये भी कहना है कि इस पूरे कांड में कोल्हापुर के पुलिस अधीक्षक पूरी तरह शामिल है इस लिये इस कांड की निष्पक्ष जॉच के लिये उनका तबादला होना बेहद जरूरी है उनके मुताबिक लगभग तीन साल से पुलिस टेनिंग स्कूल में महिला कांस्टेबल के साथ ये यौन शौषण का कारोबार चल रहा था इस के साथ ही महिला टेनी कांस्टेबलो को पुलिस के वरिष्ट अफसरो के घरो पर सेक्स के लिये भेजा जाता था। इस पूरे कांड में ऐसा भी लगता ह कि ये किसी संगठित अपराध का हिस्सा भी हो सकता ह यदि इस पमरे प्रकरण की जॉच गम्भीरता से कि जाये तो कई रसूखदार और राजनीति में रचे बसे बडे बडे नाम लोगो के चेहरे बेनकाब हो सकते है। हमारे देश की पुलिस यू तो पुलिस रिकार्ड के अनूसार चौबीसो घंटे जनता की सेवा में ही लगी रहती है,लंिन ऐसा बिल्कुल नही है। अब कहने को एफआईआर एक बहुत ही मामूलीसी प्रकि्रया है,लेकिन इसे दर्ज कराने में अच्छे अच्छो के पसीने छूट जाते है। जायज केस होने के बावजूद पुलिस वालें इसे कागज तक नही आने देते। दरअसल एसपी या आईजी के डर से ये लोग बडे से बडे और छोटे से छोटे अपराध को अपने इलाके में दिखाना ही नही चाहते, क्योकि ये एक ऐसे भ्रष्ट तंत्र के अधीन काम कर रहे होते है, जहा अतिरिक्त कार्यक्षम दिखने दिखाने के मोह में ये अपने इलाके के तमाम अपराधो को छुपा जाते है। आज देश में दिन प्रति दिन अपराध का ग्राफ ब रहा है, नोएडा और मुज्फ्फरनगर अपराधो की मंण्डी बनते जा रहे है वही देश में दस लाख की आबादी वाले अधिकतर शहरो में भी अपराध का ग्राफ ब रहा है ऐसे शहरो में मध्य प्रदेश का इंदौर अपराध दर के मामलो में सब से ऊपर है जब कि भोपाल इस सूची में दूसरे स्थान पर है एनसीआरबी रिपोर्ट 2008 के मुताबिक, इंदौर में अपराध दर 941.4 दर्ज की गई जो मेगा शहरो में सब से ज्यादा है इंदौर के बाद उच्च अपराध दर वाले शहरो में भोपाल 791.4, जयपुर 663, कोच्चि 587.2 और राजकोट 551.4 यह फेहरिस्त उन आपराधिक घटनाओ पर आधारित है,जिन में आईपीसी के तहत रिपोर्ट दर्ज कराई गई। आज जब बेटिया अपने घरो में ही सुरक्षित नही तब हम उन्हे कार्य स्थलो पर किस प्रकार सुरक्षित समझ सकते है ? ये सब हमे सोचना और समझना भी चाहिए!
खतरों से खेलते बचपन पर सर्वोच्च न्यायालय की अंकुश लगाने की पहल एक अच्छी शुरूआत है। क्योंकि करतब दिखाने वाले नाबालिग बच्चों को प्रदर्शन के दौरान जिस अनुशासित संतुलन बनाए रखने के मानसिक तनाव से गुजरना होता है, निशिचत रूप से वह पीड़ादायी होता है। इसलिए इन बच्चों को संजीदगाी से लेने की जरूरत है। हैरतअंगेज कारनामे दिखाने में दक्षता हासिल करने के प्रशिक्षण के बीच भी इन मासूमों को कठिन परिश्रम करने होते हैं। जिन्हें हम दण्ड के दायरे में भी ला सकते हैं। गरीबी और लाचारी की प्रतिच्छाया, मनोरंजन के पीछे दबी यातना को बाहर नहीं आने देती। सर्कस की जिंदगी बचपन को ही खतरे में नहीं डालती, बल्कि बौने लोगो के पैदायशी शारिरिक विकारों को तात्कालिक खुशी के केंन्द्र्र में लाकर उन्हें भी उपवास के रूप में पेश करती है। बलिकाओं से यौनाचार की आशंका तो सर्कस में बनी ही रहती है, वन्यजीवों को भी क्रुरतापूर्वक कारनामे दिखाने के लिए मजबूर किया जाता है। इसलिए बचपन बाचाओ आंदोलन की जनहित याचिका पर न्यायालय ने सर्कस में बच्चों की भरती पर रोक संबंधी अध्यादेश जारी करने का सरकार को जो हुक्म दिया हैं उस पर तो जल्द अमल होना ही चाहिए, नएनए कीर्तीमान बनाने के लिए बच्चों के बीच जो होड़ लगाई जा रही है उसे भी बाधित करने की जरूरत है। क्योंकि इसे सामाचार माघ्याम ग्लेमराइन्ड करके जिस तरह से पेश करते हैं, उसे सफलता के लक्ष्यभेद का भ्रम मान लिया जाता हैं। यह सही है कि बच्चों को नादान उम्र में ही आय का स्त्रोत बनाकर काम पर लगा देने से उनके बाल अधिकारों का हनन तो होता ही है, वह शिक्षा से भी कमोवेश बहिष्कृत हो जाते हैं। जबकि बच्चों को शिक्षा से वंचित करना संविधान के अनुच्छेद 21 ए के तहत उन्हें मिले मौलिक अधिकारों की उपेक्षा है। यह स्थिति उन्हें खेलने, अपने से सोचने और मर्जी का काम करने की स्वंतत्रता से बधित करती है। इसकी जड़ में जाएं और इसे कानूनी नजरिए से देखें तो यह संविधान द्वारा दी गई अभिव्यक्ति की स्वंतत्रता की भी अवहेलना है। इन सब हालातों का खयाल रखते हुए ही शायद शीर्ष अदालत ने केंद्र्र सरकार को स्पष्ट निर्देश दिये हैं कि वह देशभर में सकर्स कंपनियों पर छापे डालकर उनमें कार्यरत मनोरंजन का साधन बने बच्चों को छुड़ाए। अदालत ने यह भी माना है कि यहां इन बच्चों को कष्टदायी हालातों से गुजारते हुए जानलेवा बाजीगरियों से गुजरना होता है। इनमें करतबों के प्रर्दशन में जोर जर्बदस्ती भी बरती जाती है। संतुलन बिगड़ने की जरा सी चुक इनकी जान भी ले सकती है अथवा जीवनभर के लिए आपाहिज बना सकती है। इसलिए मानवीयता का तकाजा है कि तमाशे से मुक्ति दिलाकर उन्हें मौलिक आधिकारों से जोड़ा जाए। वैसे सर्कसों में कोई मातापिता अपने बच्चों को स्वेच्छा से नहीं सौपते। इसके लिए अब बड़े पैमाने पर बच्चों के खरीदफरोक्त की जानकारियां आ रही हैं। गरिब परिवारों के बच्चों को बेहतर जिंदगाी का प्रलोभन देकर और आमदानी का सशक्त जरिया बना देने का भरोसा देकर भी बच्चों को कमोबेश हथिया लिया जाता है। सर्कस की अंदरूनी दुनिया की दीवारों में बंद हो जाने के बाद, बाहरी दुनिया से इनका ताल्लोक खत्म जैसा हो जाता है। चूंकि सर्कस की दुनिया खुद यायावरी का हिस्सा है, इसलिए इनके पड़ाव स्थायी नहीं रहते। लिहाजा इन बालकों का अपने आत्मीय परिजनों से भी धीरेधीरे संर्पक टूट जाता हैं। सर्कसों के लिए नेपाल से भी बच्चे तस्करी कर के लाए जा रहे हैं। कुछ गेर सरकारी संगठंन भी बच्चों के क्रयविक्रय से जुडे पाए गए हैं। ये इन बच्चों को सर्कस, खतरनाक उधोगों और अवैध कारोबारियों से मोटी धनराशी लेकर बेच देते हैं। यहां इन से बंधुआ मजदूरों जैसा व्यवहार किया जाता हैं। महाराष्ट्र उच्च न्यायाल्य में एक एनजीओ के खिलाफ गरीब बच्चों की खरीद फरोक्त से जुड़ा मामला विचाराधीन है। इससे यहां यह सवाल भी खड़ा होता हैं कि कुकुरमुत्तों की तरह बाल अधिकार संरक्षण के लिए उग आए एनजीओ वाकई में किसके हित साधने में लगे हैं। सर्कस और उधोगों में कार्यरत बच्चों के यौन शोषण से जुड़े मामले भी सामने आ रहे हैं। बालिकाएं तो इस क्रुरता का शिकार होती ही हैं, बालकों को भी दरिंदे अपनी हवस का शिकार बनाने से नहीं चूकते। इसलिए अदालत ने बच्चों को सभी सर्कसों के जंजाल से मुक्त कराने के आदेश के साथ उचित पुनर्वास की भी हिदायत दी है। हालांकि महिला एवं बाल विकास मंत्रालए बच्चों के शारीरिक, मानसिक और यौनाचार से जुड़े मामलों पर नजर रखता है। बाल संरक्षण गृह भी इसी मकसद पूर्ति के लिए वजूद में लाए गए हैं, लेकिन भ्रष्टाचार के दलदल में धंसे इन महकामों से भी बच्चों पर अत्याचार और यौनजन्य खिलवाड़ करने के मामले सामने आते रहते हैं। इसके बावजूद लिप्त पाए जाने वाले अधिकारी व कर्मचारी साफ बच निकलते हैं। ऐसे बाल संरक्षण व बाल सेहत से जुड़े विभाग ही अपने कर्तव्यों का ईमानदारी से पालन नहीं कर रहे तो अन्य किस विभाग से इनके सुरक्षित भविष्य की अपेक्षा की जाए ? बच्चों को देश का भविष्य माना जाता है लेकिन जब देश का भविष्य ही भ्रष्टाचार की चौखट पर दम तोड़ रहा हो तो आशा और उम्मीद की किरण कहां से प्रकट हो ? सर्कस में भी इन बच्चों को तरजीह तब तक दी जाती है जब तक इनके शरीर में लचीलापन बना रहता है। क्योंकि इसी लोच की नजाकत इन्हें करतब से जोड़ती है। किंतु उम्र्र ब़ने से साथ जब लोच समाप्त हो जाता है और शरीर करतब दिखाने लायक नही रह जाता, तो इन्हें नौकरी से बेदखल कर दिया जाता है। ऐसे में परिवार से पहले ही वंचित हो चुके बालक से नौजवान हुए इन लोगों की गति, धोबी का कुत्ता न घर का न घाट का, वाली हो जाती है। चूंकि अन्य किसी काम में यह पांरगत नहीं होते इसलिए इनके सामने दो ही रास्ते बचे रहते हैं, भीख मांग कर गुजारा करें या चुल्लू भर पानी में डूब मरें। बहरहाल सर्वोच्च न्यायाल्य के आदेश को केंद्र्र सरकार को बेहद गंभींरता से लेने की जरूरत हैं। इन लाचारों की आशा इसी आदेश से बंधी है।
भ्रष्टाचार के उन्मूलन के लिए अकेला बेचारा बूढ़ा अन्ना क्या कर सकेगा। क्योंकि यह भ्रष्टाचार अत्र, तत्र, अन्यत्र और सर्वत्र विराजमान है, सर्वव्यापी है, यानी दसों दिशाओं में व्याप्त है। इसका दायरा बहुत व्यापक है। यह केवल नेताओं तक ही सीमित नहीं है। जहां देखो वहीं भ्रष्ट लोग और भ्रष्टाचार दिखायी व सुनाई देता है। भ्रष्टाचार के खिलाफ लोकपाल बिल भी क्या कर सकेगा? किसी व्यक्ति के भ्रष्ट आचरण को आप केवल कानून बनाकर कैसे बदल देंगे। क्या यह संभंव है? कदापि नहीं। भ्रष्टाचार मन का विषय है और कहते हैं कि मन बड़ा चंचल होता है। इसके प्रादुर्भाव का कारण मनोमालिन्यता, मनोवाद, मनोविकार, मनोव्याधि, मनोभ्रंश, मनोदशा और मनोग्रंथि है। आप कानून बनायेंगे तो यह मानव मन उसकी भी काट ढूंढ लेगा। तब आप क्या कर सकेंगे?
अन्ना ने जब अनशन किया तो हजारों लोग दिल्ली के जंतर मंतर पर उनके समर्थन में पहुंच गये। देशभर में उनके समर्थन में लोग अनशन करने लगे। ऐसा प्रतीत हो रहा था कि ये सभी महानुभाव लोग दूध के धुले हैं और इन सभी ने अपने जीवन में कभी भी भ्रष्टाचार नहीं किया है, या अब से नहीं करने की ठान ली है। इस भीड़ में कई ऐसे लोग भी शामिल थे जिनको बिजली के मीटर को सुस्त करने में महारत हासिल है, ताकि बिजली बिल कम देना पड़े।
भ्रष्टाचार के कितने प्रकार हैं, आप इसका अंदाजा नहीं लगा सकते हैं। हर घंटे एक भिन्न प्रकार का भ्रष्टाचार और उसको अंजाम तक पहुंचाने का तरीका पनप रहा है। यात्रा के दौरान ट्रेन की सीट कन्फर्म न होने या टिकट वेटिंग में होने पर हम प्रयास करने लगते हैं कि टिकट परीक्षक किसी भी प्रकार से ले-देकर एक सीट का जुगाड़ कर दे, ताकि रात को हम चैन की नींद ले सकें। इसके लिए हम दूसरे का हक भी मारने को तैयार हो जाते हैं। यह भी तो एक प्रकार का भ्रष्टाचार ही है। यात्रा के दौरान ट्रेन में यह हर रोज और हर क्षण होता है।
गेहूँ की कम्बाईन से कटाई के कारण मवेशियों के लिये भूसे की पर्याप्त कमी हो जा रही है। इसके कारण भूसा गेहूँ से भी महंगे दामों पर बिक रहा है। भूसे की उपलब्धता बाजार में भी नहीं है। उत्तर प्रदेश के कई जिलों में यह बात चायखाने की चर्चा का विषय है कि गेंहूँ की कम्बाइन से कटाई पर जिलाधिकारी (डीएम) ने रोक लगा दी है, ताकि भूसे की उपलब्धता बढ़ाई जा सके। जिलाधिकारी के इस आदेश के पालन के लिए उप-जिलाधिकारी (एसडीएम) और तहसीलदार साहब गांव-गांव का दौरा कर रहे हैं। इस नये आदेश के बाद एक और भ्रष्टाचार उत्पन्न हो गया है। ‘सरकारी साहब’ लोग गेहूँ की कटाई कम्बाइन से होने देने के लिए कम्बाइन मालिकों से मोटी रकम वसूल रहे हैं और जो कम्बाइन मालिक रकम देने से इन्कार कर रहे हैं उनको डीएम का फरमान सुना दे रहे हैं। हालांकि, इन सब बातों में कितनी सत्यता है, यह जांच का विषय है। लेकिन यह भी एक भ्रष्टाचार ही है।
इस भ्रष्टाचार के कारण ही ‘शुद्ध’ शब्द ज्यादा प्रचलित हुआ है। आप जहां कहीं भी जायें; लिखा रहता है- “यहां हर सामान शुद्ध मिलता है; यथा- शुद्ध दूध, शुद्ध घी, शुद्ध मिठाई इत्यादि।” प्रश्न यह है कि दूध, दही, घी, मिठाई और भी अन्य सामग्रियां क्या स्वयं में शुद्ध नहीं होतीं कि इसको प्रमाणित करने के लिए ‘शुद्ध’ शब्द लिखना पड़ रहा है, या कुछ मिलावट के बाद ही ये सामग्रियां शुद्ध होती हैं। बात साफ है- ‘मिलावट रूपी भ्रष्टाचार’ का प्रमाणन ही शुद्ध शब्द लिख कर किया जाने लगा है।
ग्वाला डंके की चोट पर एक ही दूध को कई दामों पर बेचता है। पूछने पर वह कहता है कि कम दाम वाले दूध में अधिक पानी और अधिक दाम वाले में कम पानी मिलाया गया है। यदि आप पूछेंगे कि बिना पानी वाला दूध कौन सा है, तो वह दूध का एक दूसरा डिब्बा आपको थमा देगा और कहेगा- “बाबूजी, इसमें तनिक भी पानी नहीं मिलाया गया है, इसीलिये इसका दाम ऊंचा है।” ये ‘मिलावटी भ्रष्टाचार’ हम लोग रोज देखते व सुनते हैं और सहन भी करते हैं। कहने का तात्पर्य है कि भ्रष्टाचार का दीमक सर्वत्र विराजमान है।
इसके बावजूद भी “इस सृष्टि में कभी भी असत् की सत्ता नहीं रही है और सत् का कभी अभाव नहीं रहा है। इसका प्रत्यक्ष अनुभव तत्वदर्शियों ने किया है।” (श्रीमद्भगवद्गीता)। फिलहाल, चाहे जो हो लेकिन हर युग में भ्रष्टाचार की व्याप्ति रही है। कभी कम तो कभी कुछ ज्यादा। लेकिन वर्तमान भारत में भ्रष्टाचार अपने चरम पर है। इसलिए सत्पुरूष समाज घबराया हुआ है। हालांकि, इसका समूल उन्मूलन कभी भी नहीं किया जा सका है। फिर भी सत्पुरूष समाज सदैव इसके उन्मूलन के लिए कटिबद्ध रहा है। सवाल यह है कि यदि हम सदैव अच्छे की कामना करें तो इसमें बुरा क्या है? करना भी चाहिए। हालांकि भ्रष्टाचार उन्मूलन के लिए वर्तमान का जो संघर्ष है उसका लक्ष्य कानून बनाकर भ्रष्टाचारियों में भय पैदा करने की है। यह भी एक अच्छी सोच है। भय बिनु होय न प्रीति…। यह भय तब और प्रभावी होगा जब इसके समर्थन में सहस्रों हाथ उठेंगे। अतः भ्रष्टाचार उन्मूलन के इस अभियान में हम सबको आत्मपरिष्कार के मार्ग का वरण करते हुए सक्रिय होकर प्राण-प्रण से लगना चाहिए, तभी भ्रष्टाचार का उन्मूलन संभव है।
मित्रों अभी कुछ दिन पहले किसी ने मुझसे कहा कि भाई आज से मैं मंदिरों में भगवान की पूजा नहीं करूँगा, आज से मैं प्रकृति की पूजा करूँगा| मैंने कहा यह तो अच्छी बात है, प्रकृति ईश्वर ही तो है| किन्तु मंदिर में रखी पत्थर की मूरत भी तो प्रकृति है| क्या पत्थर प्रकृति की देन नहीं है? और फिर हम तो मानते हैं कि कण-कण में ईश्वर है, तो यह ईश्वर जब प्रकृति में है तो उस पत्थर में क्यों नहीं हो सकता?
आरम्भ में ही आपको बता देना चाहता हूँ कि आप यहाँ शीर्षक पढ़ कर अनुमान न लगाएं| मै यहाँ किसी धर्म, वर्ण, जाति, सम्प्रदाय आदि की आलोचना नहीं करूँगा| क्योंकि मेरे देश की सभ्यता एवं संस्कारों ने मुझे ऐसा नहीं सिखाया| किन्तु अपनी संस्कृति का गुणगान अवश्य करूँगा जिस पर मुझे गर्व है| झूठ कहते हैं वे लोग जो किसी आस्था के उदय को अपनी आस्था के पतन का कारण मानते हैं| कोई एक सम्प्रदाय यदि आगे है तो हमारा सम्प्रदाय खतरे में है ऐसा कहना गलत है| हमारी आस्था का पतन हो रहा है यह कहना गलत है| तुम्हारी आस्था के पतन का कारण तुम स्वयं हो, हमारी आस्था के पतन का कारण हम स्वयं हैं| आस्था तुम्हारी है, फिर वह डिग कैसे सकती है और यदि तुम्हे अपनी आस्था में ही आस्था नहीं है, विशवास नहीं है तो इसमें हमारा क्या दोष? यदि आज तुम असुरक्षा का अनुभव कर रहे हो तो कारण बाहर नहीं भीतर है और यही पतन का कारण है| यदि तुम्हारी आस्था में कोई सत्य का आधार ही नहीं है तो उसका पतन हो जाना चाहिए| सत्य तक पहुँचने के भिन्न-भिन्न मार्ग हो सकते हैं| हमारे मार्ग पर जो हमारे साथ नहीं उसके मार्ग को गलत कहना अनुचित है| सम्प्रदाय तो केवल मार्ग हैं, लक्ष्य नहीं| साधक और साध्य के मध्य में साधना है| साधना भी एक मार्ग ही है और यह भी भिन्न हो सकती है| अत: साधना व सम्प्रदायों की भिन्नता से हमारी संस्कृति में भेद नहीं हो सकता| और संस्कृति तो जीवन की पद्धति है जिसके हम अनुयायी हैं| जीवन में हमारी आस्था ही हमारी संस्कृति व हमारे संस्कार हैं| हम जियो और जीने दो में विश्वास रखते हैं| भारत भूमि में जन्म लेने वाले समस्त सम्प्रदायों के मार्ग भिन्न हो सकते हैं किन्तु संस्कृति एक ही है, एक ही होनी चाहिए|
भाग्यशाली हैं वे जिन्होंने इस धरा पर जन्म लिया| जहाँ स्वर्ग और मुक्ति का मार्ग है| इन्ही शब्दों में देवता भी भारत भूमि की महिमा का गान करते हैं| पवित्रता त्याग व साहसियों की भूमि| ज्ञान-विज्ञान, कला-व्यापार व औषधियों से परिपूर्ण भूमि| हमारे पूर्वजों की कर्म भूमि| यही है मेरी भारत भूमि| भारत भूमि के इस इतिहास पर हम गर्व करते हैं परन्तु मै जानता हूँ कि कुछ मैकॉले मानस पुत्रों को हीन भावना का अनुभव भी होता है| समस्या उनकी है हमारी नहीं| हम हमारी माँ से प्रेम करते हैं, उस पर व उसके पुत्रों पर गर्व करते हैं| यदि तुम्हे शर्म आती है तो यह समस्या तुम्हारी है हमारी नहीं| चाहो तो इस भूमि का त्याग कर सकते हो| जिस माँ ने अपने वीर पुत्रों को खोया है वह माँ अपने इन नालायक पुत्रों के वियोग को भी सह लेगी|
धन्य है हमारी सनातन पद्धति जिसने हमें जीना सिखाया| फिर से कह देता हूँ कि सनातन केवल कोई धर्म नहीं अपितु जीवन जीने की पद्धति है| और अब तो सभी का ऐसा मानना है कि यही सर्वश्रेष्ठ पद्दति है, जिसने कभी किसी को कष्ट नहीं दिया| जियो और जीने दो का नारा दिया| इसी विश्वास के साथ हम अपनी सनातन पद्धति में जीते रहे और कभी किसी के अधिकारों का हनन नहीं किया| कभी किसी अन्य सम्प्रदाय को नष्ट करने की चे ष्टा नहीं की| कभी किसी देश के संवैधानिक मूल्यों का अतिक्रमण हमने नहीं किया| बस सबसे यही आशा की कि जिस प्रकार हम प्रेम से जी रहे हैं उसी प्रकार सभी जियें| किन्तु दुर्भाग्य ही था इस माँ का जो कुछ सम्प्रदायों ने हमारी सनातन पद्धति को नष्ट करने की चेष्टा की| हज़ार वर्षों से अधिक परतंत्र रहने के बाद भी हमारी सनातन पद्धति सुरक्षित है यही हमारी पद्धति की महानता है, यही हमारी संस्कृति की à ��हानता है| मुझे गर्व है मेरी संस्कृति पर|
मित्रों, मैं शीर्षक से भटका नहीं हूँ केवल भूमिका बाँध रहा हूँ|
अभी कुछ दिन पहले मैंने एक वीडियो देखा| इस वीडियो में डॉ. जाकिर नाईक से एक प्रश्न पूछा गया कि मुसलामानों को वंदेमातरम क्यों नहीं गाना चाहिए?
उत्तर में जाकिर नाईक का कहना है कि ”मुसलमानों को ही नहीं अपितु हिन्दुओं को भी वंदेमातरम नहीं गाना चाहिए| क्यों कि वंदेमातरम का अर्थ है कि मैं अपने घुटनों पर बैठ कर अपनी मातृभूमि को प्रणाम करता हूँ, उसे पूजता हूँ| जबकि हिन्दू उपनिषदों और वेदों में यह लिखा है कि भगवान् का कोई रूप नहीं है, कोई प्रतिमा नहीं है, कोई मूर्ति नहीं है| फिर भी यदि हिन्दू अपनी मातृभूमि को पूजते हैं तो वे अपने ही धर्म के विरुद्ध हैं| जबकि हम मुसलमान अपनी मातृभूमि से प्रेम करते हैं, आदर करते हैं, और आवश्यकता पड़ने पर अपनी जान भी इसके लिए दे सकते हैं किन्तु इसकी पूजा नहीं कर सकते| क्योंकि यह धरती खुदा ने बनाई है और हम खुदा की पूजा करते हैं| हम रचयिता की पूजा करते हैं रचना की नहीं|”
कितना तरस आता है इनकी बुद्धि पर| मैं मानता हूँ कि अधिकतर भारतीय मुसलमान इस विषय पर डॉ. जाकिर नाईक से सहमत नहीं होंगे| कितनी छोटी सी बात है और वह भी इन्हें समझ नहीं आई| केवल शब्दों पर ध्यान देना गलत है उनके पीछे छिपी भावना का भी तो कुछ मूल्य है| ऐसा कह देना कि हिन्दू ही अपनी आस्था को गलत ठहरा रहे है झूठ है|
सनातन पद्धति कहती है कि ईश्वर माँ है| माँ का अर्थ केवल वह स्त्री नहीं जिसने हमें जन्म दिया है| माँ तो वह है जिससे हमारी उत्पत्ति हुई है| जिस स्त्री ने नौ मास मुझे अपनी कोख में रखा व उसके बाद असहनीय पीड़ा सहकर मुझे जन्म दिया वह स्त्री मेरी माँ है, जिस स्त्री ने मुझे पाला मेरी दाई, मेरी दादी, मेरी नानी, मेरी चाची, मेरी ताई, मेरी मासी, मेरी बुआ, मेरी मामी, मेरी बहन, मेरी भाभी ये सब मेरी माँ है, जिस पुरुष ने मुझे जन्म दिया वह पिता मेरी माँ है, मेरे गुरु, मेरे आचार्य, मेरे शिक्षक जिन्होंने मुझे ज्ञान दिया वे सब मेरी माँ हैं, जिस मिट्टी में खेलते हुए मेरा बचपन बीता वह मिट्टी मेरी माँ है, जिन खेतों ने अपनी फसलों से मेरा पेट भरा वह भूमि मेरी माँ है, जिस नदी ने अपने जल से मेरी प्यास बुझाई वह नदी मेरी माँ है, जिस वायु में मै सांस ले रहा हूँ वह वायु मेरी माँ है, जिन औषधियों ने मेरी प्राण रक्षा की वे सब जड़ी बूटियाँ मेरी माँ हैं, जिस गाय का मैंने दूध पिया वह गाय मेरी माँ है, जिन पेड़ों के फल मैंने खाए, जिनकी छाँव में मैंने गर्मी से राहत पायी वे पेड़ मेरी माँ हैं, वे बादल जो मुझ पर जल वर्षा करते हैं वे बादल मेरी माँ है, वह पर्वत जो मेरे देश की सीमाओं की रक्षा कर रहा है वह पर्वत मेरी माँ है, यह आकाश जिसे मैंने ओढ़ रखा है वह भी मेरी माँ है, वह सूर्य जो मुझे शीत से बचाता है, अंधकार मिटाता है वह अग्नि मेरी माँ है, वह चन्द्रमा जो मुझ पर शीतल अमृत बरसाता है वह चंदा मामा मेरी माँ है, वह शिक्षा जिसे मैंने पढ़कर उन्नति की, वह विद्या मेरी माँ है, वह धन जिससे मैंने अपना भरण पोषण किया वह मेरी माँ है, आपकी माँ भी मेरी माँ है, वह सभ्यता, संस्कृति, परंपरा, जीवन पद्धति, जीवन मूल्य जिनमे मेरा जीवन बीत रहा है ये सब मेरी माँ हैं| मेरे पूर्वज जिन्होंने मेरे कुल को जन्म दिया वे �¤ �ुरखे मेरी माँ हैं, वे शूरवीर जिन्होंने मेरी रक्षा में अपने प्राणों की आहुति दी वे सब मेरी माँ हैं| इन सबसे मेरी उत्पत्ति हुई है अत: ये सब मेरी माँ हैं| और मेरी सनातन पद्धति यह कहती है कि माँ ईश्वर के तुल्य ही है तो मैं मेरी माँ की पूजा क्यों न करूँ?
क्या प्रकृति ने हमें जन्म नहीं दिया? क्या हमारी मातृभूमि ने हमारा पालन पोषण नहीं किया? जब यह हमारी माँ है और हम मानते हैं कि हमारी माँ ईश्वर है तो हम उसकी पूजा क्यों न करे? सनातन पद्धति में माँ को ईश्वर के समकक्ष रखने के पीछे यह एक महत्वपूर्ण कारण है| तभी तो हम प्रकृति की पूजा करते हैं| हम माँ-बाप का सम्मान करते हैं, बड़े बुजुर्गों का आदर करते हैं यह हमारी उपासना ही तो है| हम मूर्ति पूजा करते हैं, हम पेड़ों की पूजा करते हैं, हम मिट्टी की पूजा करते हैं, हम खेतों की पूजा करते हैं, हम गायों की पूजा करते हैं, अन्य कई जीवों की पूजा करते हैं, हम नदियों, झरनों, पहाड़ों, फूलों की पूजा करते हैं, हम सूर्य की पूजा करते हैं, हम चन्द्रमा व तारों की पूजा करते हैं, हम आकाश व बादलों की पूजा करते हैं, हम ज्ञान व विद्या की पूजा करते हैं, हम धन की पूजा करते हैं, हम गाय के गोबर की भी पूजा करते है ं, हम जड़ीबूटियों की पूजा करते हैं, हम वायु की पूजा करते हैं, और भी बहुत उदाहरण हैं क्यों कि इन सबसे हमारी उत्पत्ति हुई है अत: हम इन सबकी पूजा करते हैं|
मित्रों मैं फिर याद दिला दूं, मैं किसी की आस्था को ठेस नहीं पहुंचा रहा| ईश्वर की परिभाषा तो सभी धर्म एक ही देते हैं| जैसे इस्लाम भी यही कहता है कि खुदा का कोई रूप नहीं, आकार नहीं, उसी प्रकार हम भी तो ईश्वर की यही परिभाषा देते हैं| फिर हिन्दू और मुसलमान अलग कैसे? ईसाइयत में भी परमेश्वर की यही परिभाषा है| गौतम बुद्ध व महावीर जैन ने भी यही परिभाषा दी है| तो फिर अलग धर्म की आवश्यकता ही क्या है| ऐ से तो राम धर्म, कृष्ण धर्म, हनुमान धर्म और पता नहीं क्या क्या धर्म बन जाते| क्या पता ५०० वर्षों बाद कोई गांधी धर्म ही बन जाए जो केवल महात्मा गांधी तक सीमित हो|
तो यह कह देना कि ”हम अपनी मातृभूमि से प्रेम करते हैं, आदर करते हैं, और आवश्यकता पड़ने पर अपनी जान भी इसके लिए दे सकते हैं किन्तु इसकी पूजा नहीं कर सकते” यह कहाँ तह उचित है? जब प्रेम को भी ईश्वर का ही नाम दिया गया है तो उस प्रेम की पूजा क्यों नहीं कर सकते? मातृभूमि से प्रेम कर सकते हैं तो उसकी पूजा क्यों नहीं कर सकते?
जैसा कि ईश्वर की परिभाषा सभी धर्मों ने सामान ही दी है तो अंतर केवल इतना है कि उस ईश्वर को मानने वाले किसी एक अनुयायी का हमने अनुसरण आरम्भ कर दिया| ईसाईयों ने प्रभु येशु का अनुसरण किया, मुसलमानों ने पैगम्बर मोहम्मद का अनुसरण आरम्भ किया, जैन धर्म ने महावीर जैन का अनुसरण आरम्भ किया, बौद्ध धर्म ने गौतम बुद्ध का अनुसरण आरम्भ किया, किन्तु सनातनियों ने प्रत्येक महानता का अनुसरण आरम्भ किया| भगवान् राम, कृष्ण, हनुमान, ब्रह्मा, विष्णु, महेश, गणेश, दुर्गा, लक्ष्मी, सरस्वती, साईं, गुरु नानक देव, गुरु गोविन्द सिंह, तथागत बुद्ध, महावीर जैन, प्रभु येशु, पैगम्बर मोहम्मद आदि इन सभी का अनुसरण किया| जी हाँ सभी का| सनातनी वही है जो किसी भी धर्म स्थल पर पूरी आस्था के साथ ईश्वर की उपासना करता है| फिर चाहे वह मंदिर हो, मस्जिद, गुरुद्वारा, चर्च, जैन या बौद्ध मंदिर हो सभी स्थानों पर ईश्वर तो एक ही है| क्यों कि यह तो कण कण में विराजमान है|
फिर मै केवल रचयिता की पूजा करूँ किन्तु रचना की नहीं यह कैसे संभव है? मै मेरी माँ से प्रेम करता हूँ, तो जाहिर है मेरी माँ से जुडी प्रत्येक वस्तु भी मुझे प्रिय है| मेरी माँ के हाथ का भोजन जो वह मुझे प्रेम से खिलाती है, वह मुझे प्रिय है, क्यों कि यह मेरी माँ की रचना है| मेरी माँ की वह लोरी जिसे गाकर वह मुझे सुलाती है वह भी मुझे प्रिय है, मेरी माँ की वह डांट जो मेरे द्वारा कोई गलती करने पर मुझे पड़ती है वह भी मुझे प्रिय है| मेरी माँ तो रचयिता है जबकि ये सब उसकी रचनाएं हैं अत: ये सब मुझे प्रिय हैं|
अंत में मै फिर से दोहराता हूँ कि मै किसी भी धर्म, वर्ण, जाति, सम्प्रदाय आदि का विरोधी नहीं हूँ| मै मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा, चर्च आदि सभी स्थानों पर जाना पसंद करता हूँ| मै भगवान् राम, पैगम्बर मोहम्मद, प्रभु येशु, गुरु नानक आदि सभी की उपासना करता हूँ| क्यों कि यही मेरी सनातन पद्धति ने मुझे सिखाया है| आशा करता हूँ कि सभी सम्प्रदायों के अनुयायी इसे समझेंगे| अमानवीय कृत चाहे वे किसी भी धर्म में होते हों, उनकी निंदा करनी ही चाहिए| फिर चाहे वह अन्य धर्म के अनुयाइयों को पीड़ा देना हो, उनसे घृणा करना हो, निर्दोष जीवों की हत्या हो या कुछ और यह स्वीकार करने योग्य नहीं है|
नोट: इसे कोई प्रवचन न समझें, यह मेरी सनातन पद्धति है|
अक्सर कहा जाता है कि साधु-सन्यासियों को राजनीति में दखल नहीं देना चाहिए। उनका काम धर्म-अध्यात्म के प्रचार तक ही सीमित रहे तो ठीक है, राजनीति में उनके द्वारा अतिक्रमण अच्छा नहीं। इस तरह की चर्चा अक्सर किसी भगवाधारी साधु/साध्वी के राजनीति में आने पर या आने की आहट पर जोर पकड़ती है। साध्वी ऋतंभरा, साध्वी उमा भारती, योगी आदित्यनाथ आदि के राजनीति में भाग लेने पर नेताओं और कुछ विचारकों की ओर से अक्सर ये बातें कही जाती रही हैं। इसमें एक नाम और जुड़ा है स्वामी अग्निवेश का जो अन्य भगवाधारी साधुओं से जुदा हैं। हालांकि इनके राजनीति में दखल देने पर कभी किसी ने आपत्ति नहीं जताई। वैसे अप्रत्यक्ष रूप से राजनीति में ये अग्रणी भूमिका निभाते हैं, इस बात से कोई अनजान नहीं है। पूर्व में इन्होंने सक्रिय राजनीति में जमने का प्रयास किया जो विफल हो गया था।
अन्ना हजारे के अनशन से पहले से बाबा रामदेव ने भ्रष्टाचार के खिलाफ अलख जगा रखी है। उन्होंने कालाधन वापस लाने और भ्रष्टाचार के खिलाफ हल्ला बोलने के लिए अलग से भारत स्वाभिमान मंच बनाया है। वे सार्वजनिक सभा और योग साधकों को संबोधित करते हुए कई बार कहते हैं यदि कालाधन देश में वापस नहीं लाया गया तो लोकसभा की हर सीट पर हम अपना उम्मीदवार खड़ा करेंगे। उसे संसद तक पहुंचाएंगे। फिर कालाधन वापस लाने के लिए कानून बनाएंगे। उनके इस उद्घोष से कुछ राजनीतिक पार्टियों और उनके बड़बोले नेताओं के पेट में दर्द होता है। इस पर वे बयानों की उल्टी करने लगते हैं। आल तू जलाल तू आई बला को टाल तू का जाप करने लगते हैं। ऐसे ही एक बयानवीर कांग्रेस नेता हैं दिग्विजय सिंह उर्फ दिग्गी राजा। वे अन्ना हजारे को तो चुनौती देते हैं यदि राजनीतिक सिस्टम में बदलाव लाने की इतनी ही इच्छा है तो आ जाओ चुनावी मैदान में। लेकिन, महाशय बाबा रामदेव को यह चुनौती देने से बचते हैं। वे बाबा को योग कराने और राजनीति से दूर रहने की ही सलाह देते हैं। चार-पांच दिन से दिग्गी खामोश हैं। सुना है कि वे खुद ही एक बड़े घोटाले में फंस गए हैं। उनके खिलाफ जांच एजेंसी के पास पुख्ता सबूत हैं।
खैर, अपुन तो अपने मूल विषय पर आते हैं। साधु-संतों को राजनीति में दखल देना चाहिए या नहीं? जब भी कोई यह मामला उछालता है कि भगवाधारियों को राजनीति से दूर रहना चाहिए। तब मेरा सिर्फ एक ही सवाल होता है क्यों उन्हें राजनीति से दूर रहना चाहिए? इस सवाल का वाजिब जवाब मुझे किसी से नहीं मिलता। मेरा मानना है कि आमजन राजनीति को दूषित मानने लगे हैं। यही कारण है कि वे अच्छे लोगों को राजनीति में देखना नहीं चाहते। वहीं भ्रष्ट नेता इसलिए विरोध करते हैं, क्योंकि अगर अच्छे लोग राजनीति में आ गए तो उनकी पोल-पट्टी खुल जाएगी। उनकी छुट्टी हो जाएगी। राजनीति का उपयोग राज्य की सुख शांति के लिए हो इसके लिए आवश्यक है कि संत समाज (अच्छे लोग) प्रत्यक्ष राजनीति में आएं। चाहे वे साधु-संत ही क्यों न हो। वर्षों से परंपरा रही है राजा और राजनीति पर लगाम लगाने के लिए धार्मिक गुरु मुख्य भूमिका निभाते रहे हैं। वे राजनीति में शामिल रहे। विश्व इतिहास बताता है कि इस व्यवस्था का पालन अनेक देशों की राज सत्ताएं भी करती थीं। भारत में इस परिपाटी का बखूबी पालन किया जाता रहा। चाहे भारत का स्वर्णकाल गुप्त काल रहा हो या मौर्य काल हो या फिर उससे भी पीछे के पन्ने पलट लें। आचार्य चाणक्य हालांकि साधु नहीं थे, लेकिन उनकी गिनती संत समाज में तो होती ही है। इन्हीं महान चाणक्य ने राजनीति के महाग्रंथ अर्थशास्त्र की रचना की। प्रत्यक्ष राजनीति करते हुए साधारण बालक चंद्रगुप्त को सम्राट चंद्रगुप्त बनवाया और अत्याचारी घनानंद को उसकी गति तक पहुंचाया। वे सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य के राज व्यवस्था में महामात्य (प्रधानमंत्री) के पद पर जीवनपर्यंत तक बने रहे। छत्रपति शिवाजी के गुरु समर्थ रामदास को भी इसी श्रेणी में रखा जाना चाहिए।
रावण के अत्याचार से दशों दिशाएं आतंकित थीं। ऐसी स्थिति में बड़े-बड़े शूरवीर राजा-महाराजा दुम दबाए बैठे थे। विश्वामित्र ने बालक राम को दशरथ से मांगा और अपने आश्रम में उदण्डता कर रहे राक्षसों का अंत करवाकर रावण को चुनौती दिलवाई। इसके लिए उन्होंने जो भी संभव प्रयास थे सब करे। यहां तक कि राम के पिता दशरथ की अनुमति लिए बिना राम का विवाह सीता से करवाया। महाभारत के कालखण्ड में तो कितने ही ऋषि पुरुषों ने राजपाठ से लेकर युद्ध के मैदान में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई। महात्मा गांधी भी संत ही थे। उन्होंने भी राजनीति को अपना हथियार बनाया। उन्होंने विशेष रूप से कहा भी है कि ‘धर्म बिना राजनीति मृत प्राय है’। धर्म की लगाम राजनीति से खींच ली जाए तो यह राज और उसमें निवास करने वाले जन समुदाय के लिए घातक सिद्ध होती है। यह तो कुछेक उदाहरण हैं, जिनसे हम सब परिचित हैं। ऐसे उदाहरणों से इतिहास भरा पड़ा है।
मेरा मानना है कि संत समाज का काम सिर्फ धर्म-आध्यात्म का प्रचार करना ही नहीं है। समाज ठीक रास्ते पर चले इसकी व्यवस्था करना भी उनकी जिम्मेदारी है। अगर इसके लिए उन्हें प्रत्यक्ष राजनीति में आना पड़े तो इसमें हर्ज ही क्या है? साधु-संतों को राजनीति में क्यों नहीं आना चाहिए? इसका ठीक-ठीक उत्तर मुझे अब तक नहीं मिला। यदि आप बता सकें तो आपका स्वागत है।
इस बात से कोई भी इनकार नहीं कर सकता कि इन दिनों भारत में हर क्षेत्र में, भ्रष्टाचार चरम पर है| भ्रष्टाचार के ये हालात एक दिन या कुछ वर्षों में पैदा नहीं हुए हैं| इन विकट हालातों के लिये हजारों वर्षों की कुसंस्कृति और सत्ताधारियों को गुरुमन्त्र देने के नाम पर सिखायी जाने वाली भेदभावमूलक धर्मनीति तथा राजनीति ही असल कारण है| जिसके कारण कालान्तर में गलत एवं पथभ्रष्ट लोगों को सम्मान देने नीति का पनपना और ऐसे लोगों के विरुद्ध आवाज नहीं उठाने की हमारी वैचारिकता भी जिम्मेदार है|
आजादी के बाद पहली बार हमें अपना संविधान तो मिला, लेकिन संविधान का संचालन उसी पुरानी और सड़ीगली व्यवस्था के पोषक लोगों के ही हाथ में रहा| हमने अच्छे-अच्छे नियम-कानून और व्यवस्थाएँ बनाने पर तो जोर दिया, लेकिन इनको लागू करने वाले सच्चे, समर्पित और निष्ठावान लोगों के निर्माण को बिलकुल भुला दिया|
दुष्परिणाम यह हुआ कि सरकार, प्रशासन और व्यवस्था का संचालन करने वाले लोगों के दिलोदिमांग में वे सब बातें यथावत स्थापित रही, जो समाज को जाति, वर्ण, धर्म और अन्य अनेक हिस्सों में हजारों सालों से बांटती रही| इन्हीं कटुताओं को लेकर रुग्ण मानसिकता के पूर्वाग्रही लोगों द्वारा अपने चहेतों को शासक और प्रशासक बनाया जाने लगा| जो स्वनिर्मित नीति अपने मातहतों तथा देश के लोगों पर थोपते रहे|
एक ओर तो प्रशासन पर इस प्रकार के लोगों का कब्जा होता चला गया और दूसरी ओर राजनीतिक लोगों में आजादी के आन्दोलन के समय के समय के जज्बात् और भावनाएँ समाप्त होती गयी| जिन लोगों ने अंग्रेजों की मुखबिरी की वे, उनके साथी और उनके अनुयाई संसद और सत्ता तक पहुँच स्थापित करने में सक्षम हो गये| जिनका भारत, भारतीयता और मूल भारतीय लोगों के उत्थान से कोई वास्ता नहीं रहा, ऐसे लोगों ने प्रशासन में सुधार लाने के बजाय खुद को ही भ्रष्टाचार में आकण्ठ डूबे अफसरों के साथ मिला लिया और विनिवेश के नाम पर देश को बेचना शुरू कर दिया|
सत्ताधारी पार्टी के मुखिया को कैमरे में कैद करके रिश्वत लेते टीवी स्क्रीन पर पूरे देश ने देखा, लेकिन सत्ताधारी लोगों ने उसके खिलाफ कार्यवाही करने के बजाय, उसका बचाव किया| राष्ट्रवाद, संस्कृति और धर्म की बात करने वालों ने तो अपना राजधर्म नहीं निभाया, लेकिन सत्ता परिवर्तन के बाद यूपीए प्रथम और द्वितीय सरकार ने भी उस मामले को नये सिरे से देखना तक जरूरी नहीं समझा|
ऐसे सत्ताधारी लोगों के कुकर्मों के कारण भारत में भ्रष्टाचार रूपी नाग लगातार फन फैलाता जा रहा है और कोई कुछ भी करने की स्थिति में नहीं दिख रहा है| सत्ताधारी राजनैतिक गठबन्धन से लेकर, सत्ता से बाहर बैठे, हर छोटे-बड़े राजनैतिक दल में भ्रष्टाचारियों, अत्याचारियों और राष्ट्रद्रोहियों का बोलबाला लगातार बढता ही जा रहा है| ऐसे में नौकरशाही का ताकतवर होना स्वभाविक है| भ्रष्ट नौकरशाही लगातार मनमानी करने लगी है और वह अपने कुकर्मों में सत्ताधारियों को इस प्रकार से शामिल करने में माहिर हो गयी है कि जनप्रतिनिधि चाहकर भी कुछ नहीं कर सकें|
ऐसे समय में देश में अन्ना हजारे जी ने गॉंधीवाद के नाम पर भ्रष्टाचार के खिलाफ अनशन करके सत्ता को झुकाने का साहस किया, लेकिन स्वयं हजारे जी की मण्डली में शामिल लोगों के दामन पर इतने दाग नजर आ रहे हैं कि अन्ना हजारे को अपने जीवनभर के प्रयासों को बचाना मुश्किल होता दिख रहा है|
ऐसे हालात में भी देश में सूचना का अधिकार कानून लागू किया जाना और सत्ताधारी गठबन्धन द्वारा भ्रष्टाचार के मामले में आरोपी पाये जाने पर अपनी ही सरकार के मन्त्रियों तथा बड़े-बड़े नेताओं तथा नौकरशाहों के विरुद्ध कठोर रुख अपनाना आम लोगों को राहत प्रदान करता है|
अन्यथा प्रपिपक्ष तो भ्रष्टाचार और धर्म-विशेष के लोगों का कत्लेआम करवाने के आरोपी अपने मुख्यमन्त्रियों को उनके पदों से त्यागपत्र तक नहीं दिला सका और फिर भी भ्रष्टाचार के खिलाफ गला फाड़-फाड़ कर चिल्लाने का नाटक करता रहता है!
यदि अन्ना कोई विदेशी सेलिब्रिटी होते और फेसबुक पर होते तो उन्हें क्लिक करने वालों की संख्या भी मीडिया के लिए एक समाचार होता। आखिर हो भी क्यों नहीं, हमारी मीडिया के लिए वह हर बात समाचार होती है, जिसे नयी होने का भ्रम दिया जा सकता हो। अन्ना हजारे मीडिया के लिए महत्वपूर्ण हैं या भारत की जनता के लिए, इस पर विचार इसलिए भी जरूरी है क्योंकि मीडिया ने उन्हें सुर्खियां बनाया जबकि जनता ने उन्हें सर्वमान्य नेता। पहले हम मीडिया वाले अन्ना हजारे पर विचार करें। भ्रष्टाचार के लगातार आते समाचारों ने मीडिया को इस विषय पर केन्द्रित कर दिया था। ऐसे में अन्ना हजारे द्वारा भ्रष्टाचार के विरूद्ध संग्राम भी उन्हीं समाचारों की एक कड़ी था जिसे लेकर मीडिया पहले से ही सिर फुटौव्वल कर रहा था। दरअसल मीडिया ने जब अन्ना हजारे को कैमरे में लिया तो उसे भी अहसास नहीं था कि पूरा देश इस विषय पर एक होकर अन्ना हजारे को नेता और सबसे बड़ा ब्रेकिंग न्यूज बना देगा। इसलिए मीडिया का अन्ना हजारे उतना महान नहीं हो सकता जितना देश की जनता का। यह कैसे, आइये इसपर भी थोड़ा विचार करते हैं।
भ्रष्टाचार की खबरों से देश के करदाताओं को बहुत दुख होता है। आम आदमी इस भ्रष्टाचार के कारण अपनी रोजी-रोटी से हाथ धो बैठता है। परन्तु इन बेचारों के पास भ्रष्टाचार के विरोध के लिए कोई सांगठनिक प्रयास नहीं था।
गलियों, नुक्कड़ों और ऑफिस में चर्चा करने के सिवाय भ्रष्टाचार के खिलाफ कोई विज्ञापन कैम्पेन भी नहीं चला सके थे यह लोग। विरोध दर्ज कराने का तो कोई सवाल ही नहीं पैदा होता था। दरअसल सभी जानते थे कि शिकायत या विरोध जिसके पास भी दर्ज कराया जा सकता है, वह खुद भ्रष्ट हैं। यानि कुत्ते से कहना कि तू कुत्ता है। यह कुत्ता से कटवाने का ही काम होगा। इसलिए जनता चुप बैठी थी। मन मारकर खीज कर रह जाती थी। ऐसे में जब अन्ना हजारे को मीडिया वालों ने समाचार बनाया तो जनता को स्पष्ट लगा कि यह ब्रेकिंग न्यूज ही नहीं है, बल्कि यह तो एक अवसर है अपनी बात को कहने का। अपने विरोध को देश की संसद तक पहुंचाने का। प्रखर मूक ने होंठ हिलाए और हाथ में झंडे थामे। मीडिया का समाचार देश की जनता का संदेश बन गया। अन्ना को वह खुला और प्रखर समर्थन मिला कि वह खुद हतप्रभ रह गए। जंतर मंतर पर अन्ना से अधिक कठिन और लम्बा अनशन करने वाले भौंचक्के रह गए। देश की वह हस्तियां जो वास्तव में देश के भ्रष्टाचार से दुखी थीं, सक्रिय हो गईं और हर आम-ओ-खास ने एक चेन बना ली। इस समर्थन से देश की जनता का स्पष्ट संदेश निकला,‘भ्रष्टाचार को खतम करो।’ इस संदेश को देश की संसद ने समझा। हमेशा से बहरी और बेशर्म रही सरकार तुरन्त जागी और अन्ना से मिलने के लिए देश के चोटी के नेता आने लगे। वह राजनीतिक दल जो स्वयं भ्रष्ट लोगों से चन्दा लेकर अपनी जेब भरते हैं, हुंकार भरने लगे अन्ना के साथ आने के लिए। स्विस बैंकों में अपने खाते रखने वाले नेताओं ने सोचा यदि वह अन्ना के साथ नहीं हुए तो जनता उनके खिलाफ भी आवाज बुलन्द कर सकती है। वे भी भागे अन्ना से मिलने और समाचार बनने। परन्तु भला हो अन्ना का, जो उन्होंने ऐसे नेताओं से मिलने को मना कर दिया। अब जनता ने अपना संदेश दे दिया है। अपनी एकता इस मुद्दे पर दिखा दी है। जाहिर है कि अब इस उद्देश्य के लिए मंच भी बनेंगे और उनसे यह आवाज निरन्तर प्रसारित होती रहेगी। आशा की जा सकती है कि अगले आम चुनावों में भ्रष्टाचार अब सबसे बड़ा मुद्दा होगा।
जनता की आवाज तो सब तक पहुंच गई। अब लोकपाल बिल पर अन्ना हजारे और उनकी टीम जुटी है परन्तु इस टीम के साथ जुड़े विवाद और टीम का देश के भ्रष्ट नेताओं के साथ बैठ जाना, देश की आम जनता को शंका में डाल रहा है। देश की जनता की आवाज बड़ी स्पष्ट थी और आशा है इस आवाज को मंच देने वाले अन्ना भी इस आवाज के पीछे छिपे संदेश को पूरी तरह समझ रहे होंगे। अन्ना यह अवश्य समझ रहे होंगे कि महत्वपूर्ण घटना जनता की आवाज है न कि अन्ना हजारे स्वयं या मीडिया द्वारा उन्हें मिला प्रचार। यह जनता का संदेश था जिसे सभी स्थानों पर पहुंचना है। यह आवाज पहली बार उभरी है इसलिए इस आवाज की जय। अन्ना इसका माध्यम बने, इसलिए अन्ना की जय। परन्तु इस आवाज के साथ खिलवाड़ कोई करने का साहस न करे। न नेता, न संसद और न ही अन्ना की टीम।
साप्ताहिक चौथी दुनिया ने अपने 25–—01 मई, 2011 के अपने अंक में ”26 लाख करोड् का महाघोटाला” शीर्षक से मुख्य पृष्ठ पर एक रिपोर्ट छापी है जिस में कोयला मन्ञालय में हुये घोटाले का पर्दाफाश करने का दावा किया है। संयोगवश इस मन्ञालय का प्रभार स्वयं प्रधान मन्ञी डा0 मनमोहन सिंह के पास है। साप्ताहिक के अनुसार इस घोटाले की जानकारी उन्हें मध्य प्रदेश के भारतीय जनता पार्टी सांसद श्री हंसराज गंगाराम अहीर से प्राप्त हुई जिन्होंने अपने पञ दिनांक 18 नवम्बर 2010 को कंटरोलर एवं आडिटर जनरल आफ इण्डिया (सीएजी) को इसकी विस्तृत जानकारी दे दी है। सीएजी कार्यालय ने भी अपने पञ संख्या AMG-III/Coal Blocks/MP/2010-11/216. दिनांक 8 दिसम्बर 2010 द्वारा इसकी पावती सांसद महोदय को भेज दी है। अब इसकी जांच के बाद सीएजी किस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं और अपनी क्या रिपोर्ट भेजेंगे यह तो समय ही बतायेगा। पर इतना अवश्य है कि अभी तक इस सनसनीखेज रहस्योदघाटन पर सरकार ने अपनी जुबान नहीं खोली है। न आरोप लगाने बाला ही कोई मामूली व्यक्ति है और न ही छापने वाला कोई थैलाछाप समाचारपञ। आरोप एक जिम्मेदार सांसद ने लगाये हैं और एक ऐसे साप्ताहिक ने छापे हैं जो ब्लैकमेलर नहीं माना जाता। यह साप्ताहिक 1986 से छप रहा है जिसके संपादक एक पूर्व सांसद हैं। सांसद और पञकार दोनों ही जानते है कि इतने गम्भीर आरोप लगाने का हशर क्या हो सकता है। झूठे आरोप लगाना एक आपराधिक कुकर्म है जिस कारण उन्हें जेल भी हो सकती है और मानहानि के जुर्म में भारी जुर्माना भी भरना पड सकता है। सरकार को भी पता है कि चुप्पी सदैव निर्दोष होने का सबूत नहीं होती। कुछ लोग इसका अर्थ दोष की स्वीकारोक्ति भी मानते हैं। वैसे आज निर्दोष होने के दावे की कोई विश्वसनीयता भी नहीं बची है। 2जी स्पैक्टरम घोटाला हो या कामनवैल्थ खेल घोटाला सरकार के मन्ञी ए राजा और सुरेश कलमाडी भी छाती ठोंक कर निर्दोष होने का डंका पीटते थे। दोष और निर्दोष का निर्णय न तो आरोपी स्वयं ही कर सकता है और न इस पर जनता ही अपना फतवा सुना सकती है। इसका निर्णय तो अन्तता अदालत को ही करना होता है।
पर इस सारे प्रकरण में मीडिया की भी पोल खुल गई है। अपने आपको सदा सतर्क, निर्भीक, निष्पक्ष और अपने कर्तव्य के प्रति ईमानदार होने का दावा भरने वाला मीडिया आज स्वयं कटघरे में खडा दिख रहा है। किसी बडे नेता, विशेषकर गुजरात के मुख्य मन्ञी नरेन्द्र मोदी के, स्वामीरामदेव के विरूद्व कोई भी छुटभैयया नेता या नौकाशाह आरोप लगा दे। कोई भी कुछ बोल दे। कोई अनजान स्वयंसेवी संस्था का सदस्य कोई आरोप जड् दे तो यह मीडिया के लिये एक ब्रेकिंग न्यूज बन जाती है जिस के लिये हमारी न्यूज चैनल घंटों का समय दे देते है। लम्बी लम्बी चर्चाये शूरू कर देते हैं वह। हमारे समाचार पत्रों के प़ृष्ठ भरे पडे रहते हैं। पर अब जब कि एक साप्ताहिक पत्र् ने एक सांसद के हवाले से गम्भीर आरोप लगाये हैं तो हमारे निर्भीक, निष्पक्ष, स्वतन्त्र् और अन्वेषी पत्रकारों की तो मानों आंख पर ही पटटी बंध गई हैख् जुबान बन्द हो गई है।
यह एक ऐसा मौका था जब हमारे पञकारों को अपनी कौशलता, निर्भीकता, स्वतंञता व ईमानदारी के सिक्के जमा सकते थे। इस समाचार व आरोप को परम सत्य का रूप मान लेना भी उतना ही गलत होगा जितना कि उसे सफेद झूठ कह कर नकार देनाा न मीडिया ही इस पर अपना अन्तिम निर्णय सुना सकता है। पर इतना तो अवश्य है कि जैसे अन्य समाचारों व आरोपों पर मीडिया अपना मत व अपनी टिप्पणी प्रस्तुत करना अपना नैतिक कर्तव्य समझता है, वैसी ही कर्तव्यपरायण्ता का प्रदर्शन व परिचय उसे इस रहस्योदघाटन पर भी करना चाहिये था। वह सत्य की तह तक जाकर या उसे नकार देता या स्वीकार कर लेता। मीडिया का यह तो ऐसा अधिकार है जिसे भारत सरीखे जनतंञ में कोई चुनौति नहीं दे सकता। पर इस कर्तव्यपरायणता से मीडिया अपना पल्लू भी नहीं झाड् सकता। ऐसे में तो मीडिया की चुप्पी भी उतनी ही रहस्यमयी बन जायेगी जितनी कि सरकार की। तब तो इस हमाम में सब नंगे हैं वाली कहावत ही चरितार्थ हो जायेगी–मीडिया भी।
टेलीविजन में बड़बोलापन महंगा पड़ता है। यहां जो ज्यादा बोलता है टीवी उसी को पीटता है। विधानसभा कवरेज पर आने वाली खबरों और टॉक शो में राज्य के ठोस राजनीतिक मसलों पर बहसें हो रही हैं। टेलीविजन कवरेज ने इसबार के चुनाव को पूरी तरह अ-राजनीतिक बना दिया है। पहलीबार ऐसा हो रहा है कि समूचे प्रचार अभियान में राजनीति गायब है। ठोस राजनीतिक सवाल गायब हैं। परिवर्तन के नारे ने सारे राजनीतिक सवालों को हाशिए पर ठेल दिया है। टीवी टॉक शो में सतही और हास्यास्पद बातें खूब हो रही हैं। टीवी टॉकरों की शैली है वे एक मसले से दूसरे मसले,एक अत्याचार से दूसरे अत्याचार,एक झूठ से दूसरे झूठ,काले धन के एक आख्यान से दूसरे आख्यान की ओर रपटते रहते हैं। वे किसी मसले पर टिककर बात नहीं करते। एक से दूसरे विषय पर लुढ़कना और ओछी दलीलों के ढ़ेर लगाना यह टीवी का वामपंथी बचकानापन है। कीचड़ उछालने, छिछोरी नारेबाजी , फतवेबाजी और वामपंथी लफ्फाजी की टीवी पर आंधी चल रही है। नेताओं के चेहरों पर आत्ममुग्धता हावी है। टॉक शो और लाइव प्रसारणों में चरित्रहनन, धमकी, ब्लैकमेल,रईसी दृष्टिकोण, चरित्रहीन उपदेशक का ढुलमुलपन खुलकर अभिव्यक्त हुआ है। पश्चिम बंगाल में शेखी बखारने वाले नेता कभी-कभार नजर आते थे लेकिन इसबार टेलीविजन कवरेज में शेखी बघारने वालों की भीड़ पैदा कर दी है। टॉक शो में वे तर्क की बजाय निरूत्तर करने की कोशिश कर रहे हैं। स्कूली डिबेटर की तरह पॉइण्ट स्कोर करने की कोशिश कर रहे हैं। राजनीति को समझने और सीखने की बजाय रटे-रटाए वाक्य बोल रहे हैं। उकसावेभरी बातें, दून की हाँकना, एक-दूसरे के प्रति घृणा और आत्मरक्षा के तर्कों का जमकर इस्तेमाल हो रहा है। सामाजिक हित के बड़े सवालों की जगह दलीय प्रौपेगैण्डा चल रहा है।
वामपंथी बचकानापन किस तरह हावी है इसका आदर्श उदाहरण है माकपा नेता गौतमदेव के लाइव कवरेज टॉक शो, प्रेस कॉन्फ्रेस आदि। आश्चर्य की बात है गौतमदेव टीवी चैनलों पर 2-2 घंटे लाइव शो दे रहे हैं और उनमें ज्यादातर समय सतही और गैर जरूरी मसलों पर खर्च कर रहे हैं। मसलन् वे नव्य़ उदार आर्थिक नीतियों, महंगाई, अमरीकी साम्राज्यवाद,या राज्य के विकास से जुड़ी किसी समस्या पर नहीं बोलते। वे ममता बनर्जी की बातों का खंडन करने में सारा समय खर्च करते हैं। सवाल यह है ममता का जबाब देने के लिए टीवी के मूल्यवान 2 घंटे कितनी बार खर्च किए जाएं ? टॉकशो या लाइव प्रेस कॉफ्रेस में भी पत्रकार कोई ठोस राजनीतिक सवाल नहीं पूछते। मसलन् , हाल ही में अन्ना हजारे का जन लोकपाल बिल को लेकर इतना हंगामा हुआ। अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार के खिलाफ आमरण अनशन को माकपा ने भी समर्थन दिया। इसका बांग्ला चैनलों में प्रचार भी हुआ। लेकिन किसी ने माकपा नेताओं से यह सवाल नहीं किया कि वामशासित पश्चिम बंगाल,केरल और त्रिपुरा में आज तक लोकायुक्त नामक संस्था का गठन क्यों नहीं हुआ ? पश्चिम बंगाल में विभिन्न सरकारी संस्थाएं सूचना अधिकार कानून के तहत मांगने पर समय पर सूचनाएं क्यों नहीं देतीं ? हाल ही में माकपा महासचिव प्रकाश कारात ने एक जनसभा में कहा हरीपुर में परमाणु ऊर्जा उत्पादन केन्द्र नहीं लगेगा। सवाल यह है माकपा की सटीक परमाणु नीति के रहते हुए मुख्यमंत्री और राज्य की केबीनेट ने हरीपुर परमाणु ऊर्जा उत्पादन केन्द्र के निर्माण की अनुमति क्यों दी ? असल में विगत 35 सालों में पश्चिम बंगाल में मार्क्सवाद के नाम पर जो माहौल बना है वह संतोषशास्त्र की विचारधारा से बना है। वाममोर्चे के प्रतिगामी नजरिए के कारण राज्य की संरचनाओं का नव्य उदारीकरण के अनुकूल पर्याप्त विकास नहीं हो पाया। राज्य कर्मचारियों को पर्याप्त सुविधाओं और संसाधनों के अभाव में रखा गया। अभी भी राज्य सरकार ने कर्मचारियों का 16 प्रतिशत मंहगाई भत्ता रोका हुआ है। समय रहते महंगाई भत्ते की किश्त क्यों जारी नहीं हुई ? माकपा के नारे हैं ‘संतोष रखो, समर्थन करो ‘, ‘राज्य सरकार बंधु सरकार ,असंतोष व्यक्त मत करो ‘, ‘संतोष रखो आंदोलन मत करो’,’संतोष रखो पदोन्नति लो’ , ‘माकपा का समर्थन करो आगे बढ़ो।’ गांवों में ‘कम मजदूरी ‘ और ‘फसल की सरकारी खरीद के अभाव’ को पार्टी तंत्र और दलालों के जरिए नियमित किया गया। ‘संतोष’ और ‘दलाल’ ये दो तत्व शहरों से लेकर गांवों तक घुस आए हैं। संतोषशास्त्र के नाम पर नयी उपभोक्ता संस्कृति की गति को धीमा किया गया। माकपा का नारा है ‘उत्पादन गिराओ,गैर उत्पादकता बढ़ाओ।’ ‘निकम्मेपन को बढ़ावा दो’, ‘श्रमसंस्कृति की जगह पार्टीसंस्कृति प्रतिष्ठित करो।’ मंत्री से लेकर साधारण क्लर्क तक सभी का,एक ही लक्ष्य है ‘पार्टी काम ही महान है’, ‘दफ्तर में जनता की सेवा करना मूर्खता है’,’पेशेवर जिम्मेदारी निभाना गद्दारी है।’पार्टी के साथ रहो सुरक्षा पाओ’। मंत्रियों से लेकर विधायकों तक सब में प्रशासन के काम के प्रति मुस्तैदी कम और पार्टी कामों के प्रति ज्यादा मुस्तैदी ज्यादा है।पश्चिम बंगाल में दूसरा खतरनाक फिनोमिना में ‘अधिनायकवादी लोकतंत्र’ का । इस फिनोमिना के लक्षण हैं, सोचो मत,बोलो मत,पार्टी की हां में हां मिलाओ,शांति से रहो। जो देखते हो उसकी अनदेखी करो। स्वतंत्र प्रतिवाद मत करो। जो कुछ करो पार्टी के जरिए करो। आम लोगों में वाम के सामाजिक नियंत्रण की नीति और दलीय व्यवहार को लेकर जबर्दस्त आक्रोश है और यही आक्रोश परिवर्तन के नारे को जनप्रिय बना रहा है। इस समूची प्रक्रिया में राज्य में भयतंत्र टूटेगा और भविष्य में शांति लौटेगी। लोकतांत्रिक उदारतावाद को नए सिरे से फलने फूलने का मौका मिलेगा। यह मिथ्या भय है कि विधानसभा चुनाव के बाद भय,हिंसा और उत्पीड़न होगा। सरकार किसी की भी बने कम से कम पुराने ढ़र्रे से भविष्य में राज्य प्रशासन काम नहीं कर पाएगा। परिवर्तन के नारे और ममता बनर्जी के प्रौपेगैण्डा का दबाव है कि आज मुख्यमंत्री देर से नहीं तुरंत बोलते हैं। यदि उनके दल के किसी नेता ने गलती की है तो तुरंत माफी मांग लेते हैं । पूर्व सांसद रूपचंद पाल और अनिल बसु के बयानों पर बुद्धदेव की सक्रियता भविष्य के बारे में शुभसंकेत है। अशुभ संकेत हैं चुनावों में परिवारवाद और अफसरशाही की खुली शिरकत। नव्य-उदारतावाद विरोधी एजेण्डे का लोप और राजनीतिक अवसरवाद का महिमामंडन।
यह कहना मुश्किल है कि “झोलाछाप” सेकुलर NGO इंडस्ट्री के इस खेल में अण्णा हजारे खुद सीधे तौर पर शामिल हैं या नहीं, परन्तु यह बात पक्की है कि उनके कंधे पर बन्दूक रखकर उनकी “छवि” का “उपयोग” अवश्य किया गया है… चूंकि अण्णा सीधे-सादे हैं, इसलिये वह इस खेल से अंजान रहे और अनशन समाप्त होते ही उन्होंने नरेन्द्र मोदी और नीतीश कुमार की तारीफ़ कर डाली… बस फ़िर क्या था? अण्णा की “भजन मंडली” (मल्लिका साराभाई, संदीप पाण्डे, अरुणा रॉय और हर्ष मंदर जैसे स्वघोषित सेकुलरों) में से अधिकांश को मिर्गी के दौरे पड़ने लगे…उन्हें अपना खेल बिगड़ता नज़र आने लगा, तो फ़िर लीपापोती करके जैसे-तैसे मामले को रफ़ा-दफ़ा किया गया। यह बात तय जानिये, कि यह NGO इंडस्ट्री वाला शक्तिशाली गुट, समय आने पर एवं उसका “मिशन” पूरा होने पर, अण्णा हजारे को दूध में गिरी मक्खी के समान बाहर निकाल फ़ेंकेगा…। फ़िलहाल तो अण्णा हजारे का “उपयोग” करके NGOवादियों ने अपने “धुरंधरों” की केन्द्रीय मंच पर जोरदार उपस्थिति सुनिश्चित कर ली है,ताकि भविष्य में हल्का-पतला, या जैसा भी लोकपाल बिल बने तो चयन समिति में “अण्णा आंदोलन” के चमकते सितारों(?) को भरा जा सके।
जन-लोकपाल बिल तो जब पास होगा तब होगा, लेकिन भूषण साहब ने इसमें जो प्रावधान रखे हैं उससे तो लगता है कि जन-लोकपाल एक “सर्वशक्तिमान” सुपर-पावर किस्म का सत्ता-केन्द्र होगा, क्योंकि यह न्यायिक और पुलिस अधिकारों से लैस होगा, सीबीआई इसके अधीन होगी, यह समन भी जारी कर सकेगा, गिरफ़्तार भी कर सकेगा, केस भी चला सकेगा, मक्कार सरकारी मशीनरी और न्यायालयों की सुस्त गति के बावजूद सिर्फ़ दो साल में आरोपित व्यक्ति को सजा भी दिलवा सकेगा… ऐसा जबरदस्त ताकत वाला संस्थान कैसे बनेगा और कौन सा राजनैतिक दल बनने देगा, यही सबसे बड़ा पेंच है। देखते हैं यमुना में पानी का बहाव अगले दो महीने में कैसा रहता है… जन-लोकपाल बिल पर होने वाले मंथन (बल्कि खींचतान कहिये) में संसदीय परम्परा का प्रमुख अंग यानी“प्रतिपक्ष” कहीं है ही नहीं। कुल जमा दस लोग (पाँच-पाँच प्रतिनिधि) ही देश के 120 करोड़ लोगों का प्रतिनिधित्व करेंगे… इसमें से भी विपक्ष गायब है यानी लगभग 50 करोड़ जनता की रायशुमारी तो अपने-आप बाहर हो गई… पाँच सत्ताधारी सदस्य हैं यानी बचे हुए 70 करोड़ में से हम इन्हें 35 करोड़ का प्रतिनिधि मान लेते हैं… अब बचे 35 करोड़, जिनका प्रतिनिधित्व पाँच सदस्यों वाली “सिविल सोसायटी” करेगी (लगभग एक सदस्य के हिस्से आई 7 करोड़ जनता, उसमें भी भूषण परिवार के दो सदस्य हैं यानी हुए 14 करोड़ जनता)। अब बताईये भला, इतने जबरदस्त “सभ्य समाज” (सिविल सोसायटी) के होते हुए, हम जैसे नालायक तो “असभ्य समाज” (अन-सिविल सोसायटी) ही माने जाएंगे ना? हम जैसे, अर्थात जो लोग नरेन्द्र मोदी, सुब्रह्मण्यम स्वामी, बाबा रामदेव, गोविन्दाचार्य, टीएन शेषन इत्यादि को ड्राफ़्टिंग समिति में शामिल करने की माँग करते हैं वे “अन-सिविल” हैं…
जन-लोकपाल की नियुक्ति करने वाली समिति बनाने का प्रस्ताव भी मजेदार है-
1) लोकसभा के दोनों सदनों के अध्यक्ष रहेंगे (इनकी नियुक्ति सोनिया गाँधी ने की है)
2) सुप्रीम कोर्ट के दो वरिष्ठ जज होंगे (बालाकृष्णन और दिनाकरण नामक “ईसाई” जजों के उदाहरण हमारे सामने हैं, इनकी नियुक्ति भी कांग्रेस, यानी प्रकारान्तर से सोनिया ने ही की थी)
3) हाईकोर्ट के दो वरिष्ठतम जज भी होंगे… (–Ditto–)
4) मानव-अधिकार आयोग के अध्यक्ष होंगे (यानी सोनिया गाँधी का ही आदमी)
5) भारतीय मूल के दो नोबल पुरस्कार विजेता (अव्वल तो हैं ही कितने? और भारत में निवास तो करते नहीं, फ़िर यहाँ की नीतियाँ तय करने वाले ये कौन होते हैं?)
6) अन्तिम दो मैगसेसे पुरस्कार विजेता… (अन्तिम दो??)
7) भारत के महालेखाकार एवं नियंत्रक (CAG)
8) मुख्य चुनाव आयुक्त (यह भी मैडम की मेहरबानी से ही मिलने वाला पद है)
9) भारत रत्न से नवाज़े गये व्यक्ति (इनकी भी कोई गारण्टी नहीं कि यह सत्तापक्ष के प्रति झुकाव न रखते हों)
इसलिये जो महानुभाव यह सोचते हों, कि संसद है, मंत्रिमण्डल है, प्रधानमंत्री है, NAC है… वह वाकई बहुत भोले हैं… ये लोग कुछ भी नहीं हैं, इनकी कोई औकात नहीं है…। अन्तिम इच्छा सिर्फ़ और सिर्फ़ सोनिया गाँधी की चलती है और चलेगी…।2004 की UPA की नियुक्तियों पर ही एक निगाह डाल लीजिये –
1) सोनिया गाँधी ने ही नवीन चावला को चुनाव आयुक्त बनाया
2) सोनिया गाँधी ने ही महालेखाकार की नियुक्ति की
3) सोनिया गाँधी की मर्जी से ही बालाकृष्णन सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश बने थे
4) सोनिया गाँधी ने ही सीबीआई प्रमुख की नियुक्ति की…
5) सोनिया गाँधी की वजह से ही सीवीसी थॉमस नियुक्त भी हुए और सुप्रीम कोर्ट की लताड़े के बावजूद इतने दिनों अड़े रहे…
6) कौन नहीं जानता कि मनमोहन सिंह, और प्रतिभा पाटिल की “नियुक्ति” (जी हाँ, नियुक्ति) भी सोनिया गाँधी की “पसन्द” से ही हुई…
अब सोचिये, जन-लोकपाल की नियुक्ति समिति के “10 माननीयों” में से यदि 6 लोग सोनिया के “खासुलखास” हों, तो जन-लोकपाल का क्या मतलब रह जाएगा?नोबल पुरस्कार विजेता और मेगसेसे पुरस्कार विजेताओं की शर्त का तो कोई औचित्य ही नहीं बनता? ये कहाँ लिखा है कि इन पुरस्कारों से लैस व्यक्ति “ईमानदार” ही होता है? इस बात की क्या गारण्टी है कि ऐसे “बाहरी” तत्व अपने-अपने NGOs को मिलने वाले विदेशी चन्दे और विदेशी आकाओं को खुश करने के लिये भारत की नीतियों में “खामख्वाह का हस्तक्षेप” नहीं करेंगे? सब जानते हैं कि इन पुरस्कारों मे परदे के पीछे चलने वाली “लॉबीइंग” और चयन किये जाने वाले व्यक्ति की प्रक्रिया के पीछे गहरे राजनैतिक निहितार्थ होते हैं।
ज़रा सोचिये, एक माह पहले क्या स्थिति थी? बाबा रामदेव देश भर में घूम-घूमकर कांग्रेस, सोनिया और भ्रष्टाचार के खिलाफ़ माहौल तैयार कर रहे थे, सभाएं ले रहे थे, भारत स्वाभिमान नामक “संगठन” बनाकर, मजबूती से राजनैतिक अखाड़े में संविधान के तहत चुनाव लड़ने के लिये कमर कस रहे थे, मीडिया लगातार 2G और कलमाडी की खबरें दिखा रहा था, देश में कांग्रेस के खिलाफ़ जोरदार माहौल तैयार हो रहा था, जिसका नेतृत्व एक भगवा वस्त्रधारी कर रहा था, आगे चलकर इस अभियान में नरेन्द्र मोदी और संघ का भी जुड़ना अवश्यंभावी था…। और अब पिछले 15-20 दिनों में माहौल ने कैसी पलटी खाई है… नेतृत्व और मीडिया कवरेज अचानक एक गाँधी टोपीधारी व्यक्ति के पास चला गया है, उसे घेरे हुए जो “टोली” काम कर रही है, वह धुर “हिन्दुत्व विरोधी” एवं “नरेन्द्र मोदी से घृणा करने वालों” से भरी हुई है… इनके पास न तो कोई संगठन है और न ही राजनैतिक बदलाव ला सकने की क्षमता… कांग्रेस तथा सोनिया को और क्या चाहिये?? इससे मुफ़ीद स्थिति और क्या होगी कि सारा फ़ोकस कांग्रेस-सोनिया-भ्रष्टाचार से हटकर जन-लोकपाल पर केन्द्रित हो गया? तथा नेतृत्व ऐसे व्यक्ति के हाथ चला गया, जो “सत्ता एवं सत्ता की राजनीति में” कोई बड़ा बदलाव करने की स्थिति में है ही नहीं।
मुख्य बात तो यह है कि जनता को क्या चाहिये- 1) एक “फ़र्जी” और “कठपुतली” टाइप का जन-लोकपाल देश के अधिक हित में है, जिसके लिये अण्णा मण्डली काम कर रही है… अथवा 2) कांग्रेस जैसी पार्टी को कम से कम 10-15 साल के लिये सत्ता से बेदखल कर देना, जिसके लिये नरेन्द्र मोदी, रामदेव, सुब्रह्मण्यम स्वामी, गोविन्दाचार्य जैसे लोग काम कर रहे हैं? कम से कम मैं तो दूसरा विकल्प चुनना ही पसन्द करूंगा…
अब अण्णा के आंदोलन के बाद क्या स्थिति बन गई है… प्रचार की मुख्यधारा में “सेकुलरों”(?) का बोलबाला हो गया है, एक से बढ़कर एक “हिन्दुत्व विरोधी” और “नरेन्द्र मोदी गरियाओ अभियान” के अगुआ लोग छाए हुए हैं, यही लोग जन-लोकपाल भी बनवाएंगे और नीतियों को भी प्रभावित करेंगे। बाकी सभी को “अनसिविलाइज़्ड” साबित करके चुनिंदा लोग ही स्वयंभू “सिविल” बन बैठे हैं… यह नहीं चलेगा…। जब उस “गैंग” के लोगों को नरेन्द्र मोदी की तारीफ़ तक से परेशानी है, तो हमें भी “उस NGOवादी गैंग” पर विश्वास क्यों करना चाहिए? जब “वे लोग” नरेन्द्र मोदी के प्रशासन और विकास की अनदेखी करके… रामदेव बाबा के प्रयासों पर पानी फ़ेरकर… रातोंरात मीडिया के चहेते और नीति निर्धारण में सर्वेसर्वा बन बैठे हैं, तो हम भी इतने “गये-बीते” तो नहीं हैं, कि हमें इसके पीछे चलने वाली साजिश नज़र न आये…।
मजे की बात तो यह है कि अण्णा हजारे को घेरे बैठी “सेकुलर चौकड़ी” कुछ दिन भी इंतज़ार न कर सकी… “सेकुलरिज़्म की गंदी बदबू” फ़ैलाने की दिशा में पहला कदम भी ताबड़तोड़ उठा लिया। हर्ष मन्दर और मल्लिका साराभाई सहित दिग्गी राजा ने अण्णा के मंच पर “भारत माता” के चित्र को संघ का आईकॉन बता दिया था, तो JNU छाप मोमबत्ती ब्रिगेड ने अब यह तय किया है कि अण्णा के मंच पर भारत माता का नहीं बल्कि तिरंगे का चित्र होगा, क्योंकि भारत माता का चित्र “साम्प्रदायिक” है।शक तो पहले दिन से ही हो रहा था कि कुनैन की गोली खाये हुए जैसा मुँह बनाकर अग्निवेश, “भारत माता की जय” और वन्देमातरम के नारे कैसे लगा रहे हैं। परन्तु वह सिर्फ़ “तात्कालिक नौटंकी” थी, भारत माता का चित्र हटाने का फ़ैसला लेकर इस सेकुलर जमात ने “भविष्य में आने वाले जन-लोकपाल बिल का रंग” पहले ही दिखा दिये हैं। “सेकुलर चौकड़ी” ने यह फ़ैसला अण्णा को “बहला-फ़ुसला” कर लिया है या बाले-बाले ही लिया है, यह तो वे ही जानें, लेकिन भारत माता का चित्र भी साम्प्रदायिक हो सकता है, इसे सुनकर बंकिमचन्द्र जहाँ भी होंगे उनकी आत्मा निश्चित ही दुखेगी…
उल्लेखनीय है कि आंदोलन के शुरुआत में मंच पर भारत माता का जो चित्र लगाया जाने वाला था, वह भगवा ध्वज थामे, “अखण्ड भारत” के चित्र के साथ, शेर की सवारी करती हुई भारत माता का था (यह चित्र राष्ट्रवादी एवं संघ कार्यकर्ता अपने कार्यक्रमों में उपयोग करते हैं)।“सेकुलर दिखने के लालच”के चलते, इस चित्र में फ़ेरबदल करके अण्णा हजारे ने भारत माता के हाथों में तिरंगा थमाया और शेर भी हटा दिया, तथा अखण्ड भारत की जगह वर्तमान भारत का चित्र लगा दिया…। चलो यहाँ तक भी ठीक था, क्योंकि भ्रष्टाचार से लड़ाई के नाम पर, “मॉडर्न गाँधी” के नाम पर, और सबसे बड़ी बात कि जन-लोकपाल बिल के नाम पर “सेकुलरिज़्म” का यह प्रहार सहा भी जा सकता था। परन्तु भारत माता का यह चित्र भी “सेकुलरिज़्म के गंदे कीड़ों” को अच्छा नहीं लग रहा था, सो उसे भी साम्प्रदायिक बताकर हटा दिया गया और अब भविष्य में अण्णा के सभी कार्यक्रमों में मंच पर बैकग्राउण्ड में सिर्फ़ तिरंगा ही दिखाई देगा, भारत माता को बाहर का रास्ता दिखा दिया गया है (शायद “सिविल सोसायटी”, देशभक्ति जैसे “आउटडेटेड अनसिविलाइज़्ड सिम्बॉल” को बर्दाश्त नहीं कर पाई होगी…)।
दरअसल हमारा देश एक विशिष्ट प्रकार के एड्स से ग्रसित है, भारतीय संस्कृति, हिन्दुत्व एवं सनातन धर्म से जुड़े किसी भी चिन्ह, किसी भी कृति से कांग्रेस-पोषित एवं मिशनरी द्वारा ब्रेन-वॉश किये जा चुके “सेकुलर”(?) परेशान हो जाते हैं।इसी “सेकुलर गैंग” द्वारा पाठ्यपुस्तकों में “ग” से गणेश की जगह “ग” से “गधा” करवाया गया, दूरदर्शन के लोगो से “सत्यम शिवम सुन्दरम” हटवाया गया, केन्द्रीय विद्यालय के प्रतीक चिन्ह से “कमल” हटवाया गया, वन्देमातरम को जमकर गरियाया जाता है, स्कूलों में सरस्वती वन्दना भी उन्हें “साम्प्रदायिक” लगती है… इत्यादि। ऐसे ही “सेकुलर एड्सग्रसित” मानसिक विक्षिप्तों ने अब अण्णा को फ़ुसलाकर, भारत माता के चित्र को भी हटवा दिया है…और फ़िर भी ये चाहते हैं कि हम बाबा रामदेव और नरेन्द्र मोदी की बात क्यों करते हैं, भ्रष्टाचार को हटाने के “विशाल लक्ष्य”(?) में उनका साथ दें…।
भूषण पिता-पुत्र पर जो जमीन-पैसा इत्यादि के आरोप लग रहे हैं, थोड़ी देर के लिये उसे यदि दरकिनार भी कर दिया जाए (कि बड़ा वकील है तो भ्रष्ट तो होगा ही), तब भी ये हकीकत बदलने वाली नहीं है, कि बड़े भूषण ने कश्मीर पर अरुंधती के बयान का पुरज़ोर समर्थन किया था… साथ ही 13 फ़रवरी 2009 को छोटे भूषण तथा संदीप पाण्डे ने NIA द्वारा सघन जाँच किये जा रहे पापुलर फ़्रण्ट ऑफ़ इंडिया (PFI) नामक आतंकवादी संगठन द्वारा आयोजित कार्यक्रम में भी भाग लिया था, ज़ाहिर है कि अण्णा के चारों ओर “मानवाधिकार और सेकुलरिज़्म के चैम्पियनों”(?) की भीड़ लगी हुई है। इसीलिये प्रेस वार्ता के दौरान अन्ना के कान में केजरीवाल फ़ुसफ़ुसाते हैं और अण्णा बयान जारी करते हैं कि “गुजरात के दंगों के लिये मोदी को माफ़ नहीं किया जा सकता…”, परन्तु अण्णा से यह कौन पूछेगा, कि दिल्ली में 3000 सिखों को मारने वाली कांग्रेस के प्रति आपका क्या रुख है? असल में “सेकुलरिज़्म” हमेशा चुनिंदा ही होता है, और अण्णा तो वैसे भी “दूसरों” के कहे पर चल रहे हैं, वरना लोकपाल बिल की जगह अण्णा, 2G घोटाले की तेजी से जाँच, स्विस बैंकों से पैसा वापस लाने, कलमाडी को जेल भेजने जैसी माँगों को लेकर अनशन पर बैठते?
“उल्टा चोर कोतवाल को डाँटे” की तर्ज पर, कांग्रेस और मीडिया की मिलीभगत द्वारा भ्रम फ़ैलाने का एक और प्रयास यह भी है कि अण्णा हजारे, संघ और भाजपा के करीबी हैं। अण्णा हजारे का तो पता नहीं, लेकिन उन्हें जो लोग “घेरे” हुए हैं उनके बारे में तो निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि वे संघ-भाजपा के लोग नहीं हैं। अण्णा द्वारा मोदी की तारीफ़ पर भड़कीं मल्लिका साराभाई हों या अण्णा के मंच पर स्थापित “भारत माता के चित्र” पर आपत्ति जताने वाले हर्ष मंदर हों, अरुंधती रॉय के कश्मीर बयान की तारीफ़ करने वाले “बड़े” भूषण हों या माओवादियों के दलाल स्वामी अग्निवेश हों… (महेश भट्ट, तीस्ता जावेद सीतलवाड और शबाना आज़मी भी पीछे-पीछे आते ही होंगे…)। जरा सोचिये, ऐसे विचारों वाले लोग खुद को “सिविल सोसायटी” कह रहे हैं…।
फ़िलहाल सिर्फ़ इतना ही…… क्योंकि कहा जा रहा है, कि जन-लोकपाल बिल बनाने में “अड़ंगे” मत लगाईये, अण्णा की टाँग मत खींचिये, उन्हें कमजोर मत कीजिये… चलिये मान लेते हैं। अब इस सम्बन्ध में विस्तार से 15 अगस्त के बाद ही कुछ लिखेंगे… तब तक आप तेल देखिये और तेल की धार देखिये… आये दिन बदलते-बिगड़ते बयानों को देखिये, अण्णा हजारे द्वारा प्रस्तावित जन-लोकपाल बिल संसद नामक गुफ़ाओं-कंदराओं से बाहर निकलकर “किस रूप” में सामने आता है, सब देखते जाईये…
दिल को खुश करने के लिये मान लेते हैं, कि जैसा बिल “जनता चाहती है”(?) वैसा बन भी गया, तो यह देखना दिलचस्प होगा कि लोकपाल नियुक्ति हेतु चयन समिति में बैठने वाले लोग कौन-कौन होंगे? असली “राजनैतिक कांग्रेसी खेल” तो उसके बाद ही होगा…और देखियेगा, कि उस समय सब के सब मुँह टापते रह जाएंगे, कि “अरे… यह लोकपाल बाबू भी सोनिया गाँधी के ही चमचे निकले…!!!” तब तक चिड़िया खेत चुग चुकी होगी…।
इसलिये हे अण्णा हजारे, जन-लोकपाल बिल हेतु हमारी ओर से आपको अनंत शुभकामनाएं, परन्तु जिस प्रकार आपकी “सेकुलर मण्डली” का “सो कॉल्ड” बड़ा लक्ष्य, सिर्फ़ जन-लोकपाल बिल है, उसी तरह हम जैसे “अनसिविलाइज़्ड आम आदमी की सोसायटी” का भी एक लक्ष्य है, देश में सनातन धर्म की विजय पताका पुनः फ़हराना, सेकुलर कीट-पतंगों एवं भारतीय संस्कृति के विरोधियों को परास्त करना… रामदेव बाबा- नरेन्द्र मोदी सरीखे लोगों को उच्चतम स्तर पर ले जाना, और इन से भी अधिक महत्वपूर्ण लक्ष्य है, कांग्रेस जैसी पार्टी को नेस्तनाबूद करना…।अण्णा जी, भले ही आप “बुरी सेकुलर संगत” में पड़कर राह भटक गये हों, हम नहीं भटके हैं… और न भटकेंगे…
पश्चिम में आज अनेक देशों की सरकारें व कुछ बड़े राजनेता स्पष्ट रूप से बहुसंस्कृतिवाद या धर्म निरपेक्षता के माध्यम से सहज और स्वाभाविक पारंपरिक सहिष्णुता पर सीमाएं खींचना चाहते हैं। अरसे से चली आ रही बहुस्तरीय समाज में समरस्ता चली आ रही थी उस पर जो प्रश्न चिह्न लगाए जा रहे हैं उसके पीछे उनमें अल्पसंख्यकों की आक्रामकता, अतिरेकी विचार और कभी-कभी उभरता आतंकवाद भी है। पहले उदारवादी खुले समाज में जहां मानवाधिकार और छोटे-छोटे समूह की पहचान या उनको अपने तादात्म्य बनाने की ललक को जिस सम्मान से देखा जा रहा था वह फ्रांस, जर्मनी, डेनमार्क, इटली और स्पेन जैसे देशों में नदारद हो रहा है। आज खुल कर इन देशों में जारी बौध्दिक विमर्शों में बहुसंस्कृतिवाद या मुख्यधारा में न धुलमिल पाने वाले अल्पसंख्यक तत्वों के कारण अब तक की इस अनुदारवादी पुनर्दृष्टि को पुनर्परिभाषित किया जा रहा है। फ्रांस और दूसरे कुछ यूरोपीय देशों में बुर्के पर प्रतिबंध या धार्मिक चिह्नों को प्रदर्शित करने की मनाही अथवा पर्यटक स्थलों में मस्जिदों या दूसरे धर्मस्थलों को दूर ले जाने का प्रयासों को अब वहां के मीडिया में भी समर्थन दिया जाने लगा है।
जर्मन चांसलर एंजेला मॉरकल ने खुलकर कहना शुरू कर दिया है कि बहुसंस्कृतिवाद या मल्टीकल्टी की अवधारणा उनके देश में पूरी तरह असफल हो चुकी है। क्या जर्मनी फिर अपनी पूरानी कट्टरवादी संकीर्ण दृष्टि की ओर लौट रहा है? नार्दिक या काकेशियन मूल के वासियों के अलावा विदेशी मूल के इतर लोगों से विद्वेष की भावना या जिसे ”जेनोफोबिया” कहा जाता हैं वहां क्या फिर सिर उठाएगी? हाल में जर्मनी के विदेशमंत्री गिडोवेस्टरवेल भारत आए थेउन्होंने एक प्रेसवार्ता में बहुसंस्कृतिवाद को अपने तरह से परिभाषित करते हुए कहा कि इस तरह की भावना के बढ़ने का यह अर्थ नहीं है कि जर्मनी में खुले व उदार समाज को नकारा जा रहा हैं। उलटे वहां बहुसंख्यकों की समझ को भी उतना ही सम्मान करने का यत्न किया है। हर समाज यह स्वयं निर्णय लेता है कि उसको क्या स्वीकार्य है और किस सीमा तक! न्याय और मानवाधिकार की नई मान्यताओं में इस विकल्प का भी उन्हें अहसास है कि धार्मिक सह आस्तित्व की भावना का अवमूल्यन के लिए अल्पसंख्यक भी जिम्मेदार हो सकते हैं। उतना खुलकर तो नहीं पर विदेश मंत्री ने उसी बात का समर्थन किया जो जर्मन चांसलर मॉरकल कह रही है।
पर क्या ऐसा नहीं लगता है कि हमारे देश के कथित उदारवादी या जनमत बनाने का दावा करने वाले बुध्दिजीवी इस विषय पर जानबूझ कर सो रहे हैं। जर्मन चांसलर या विदेश मंत्री को विद्वेषी राजनीति चलने वाले दक्षिणपंथी या कट्टरपंथी अथवा अल्पसंख्यक विरोधी कहने का साहस किसी में नही हैऔर न ही हमारे प्रगतिशील कहलाने वाले मीडिया के कर्णधारों को यह हिम्मत है कि वे कहें कि फ्रांस या जर्मनी जैसे देशों से आए सरकारी नेताओं के उन रूझानों के कारण उनके क्रार्यक्रमों या प्रेस कांफ्रेंसों आदि का वे बहिष्कार करेंगे। उनको कुछ लोग इस बात की चुनौती भी दे रहे हैं कि वे चांसलर मॉरकल की नाजीवाद राजनीति के फिर से प्रारंभ करने के अपराध को उजागर क्यों नहीं करते? हमारी बौध्दिक असफलता का यह एक जीता जागता प्रमाण हैं। वर्षों बाद तक नरेंद्र मोदी के नाम को लेकर आज भी हहाकार करने वालों की यह चुप्पी देश के नागरिकों द्वारा विस्मयजनक मानी जा रही हैं। भारत में यदि बहुसंस्कृतिकवाद की समृध्द परंपरा जीवित है तो वह बहुसंख्यकों के प्रारंपरिक उदारवादी रूझानों के कारण है। इस बात को स्पष्ट रूप से हमारा अंग्रेजी मीडिया का एक बड़ा वर्ग नहीं समझ पा रहा हैं। विभिन्नता में एकता के सूत्र की समझदारी इस देश में हिंदुओं को उनकी आस्था व परंपरा में लगता है जो हमारे खून में हैं। इसके विपरित दुनियां में कहीं भी देखे तो उलटा ही दिखता है। हाल में टेक्सास के स्कूलों के बोर्ड में एक संकल्प पारित किया गया कि इस्लाम समर्थक या ईसाई विरोधी सारे पाठों को पाठ्यक्रम से तुरंत निकाला जाए। वे तो पाठयक्रमों में यह ढूंढ़ चुके हैं कि ईसाई धर्म को इस्लामी आस्था से कम पंक्तियां या पृष्ठ क्यों दिए गए हैं और इस्लामी संस्कृति के उनके अनुसार विकृत व असहिष्णुता के संदेशों पर क्यों लीपापोती हो रही है? हम भारतीयों को जान कर भी अनजान बने रहने की आदत सी पड़ गई है। मुंबई सहित देश के अनेक बड़े नगरों से दुबई जानेवालों के बच्चे भी वहां के कथित अंतर्राष्ट्रीय स्तर के स्कूलों में पढ़ते हैं। उनके अभिभावक या माता-पिता जानते हैं कि उनके बच्चों की अंग्रेजी में इतिहास, समाजशास्त्र और अनेक विषयों की पढ़ाई जाने वाली पुस्तकों में इस्लाम के अलावा चाहे ईसाई धर्म हो या हिंदू धर्म के साथ-साथ यदि वैदिक या प्राचीन भारतीय का कोई संदर्भ हो उसे ‘हाईलाइटर’ द्वारा काली या दूसरे रंग से ‘काटा’ या छिपाया जाता है और जिसका पढ़ना-पढ़ाना या पुस्तक में किसी भी प्रकार अछूता रखना मना है। यह एक कथित उदारवादी, सम्पन्न इस्लामी राज्य की व्यवस्था है जहां भारतीय दौड़ लगाते रहते हैं पर इस देश का कोई अंग्रजी समाचार पत्र यह टिप्पणी नहीं कर सकता। यह है हमारी दुविधा जहां हम स्वयं इस बात को छिपाते हैं कि उनके पर्स या निजी कागजों में भी यदि आपके आराध्य देवी-देवताओं के चित्र हो उन्हें भी जांच में मिलने पर फाड़ा जा सकता है। पर जो बात दूसरे देशों के प्रशासनतंत्र या सत्तारूढ़ दलों के नेताओं जैसे इटली के सिल्वियो बर्लुस्कोनी या फ्रांस के वैश्विक छवि वाले पूर्व राष्ट्रपति शिराक या इंगलैंड की पूर्व प्रधानमंत्री मार्गरेट थैचर या इंगलैंड व डेनमार्क के आज के प्रधानमंत्री खुल कर कह सकते हैं उन्हें यहां मात्र दोहराने में भी हमारे मीडिया को जैसे अपराध-बोध से गुजरना पड़ता है।
राजजन्मभूमि के आंदोलन से आज तक हिंदू विश्वासों को ”हिंदुत्ववालाज” या ”सिंडीकेटेड हिंदुइज्म” का माखौल उड़ाते हुए पृथक रूप से दर्शाने की अंग्रेजी मीडिया की धोखाधड़ी जग जाहिर है। हर समय यही दुष्प्रचार होता रहा है कि हिंदू संगठन बहुलतावादी, बहुस्तरीय समाज के विरोधी हैं तथा समरस्ता के स्थान पर केवल एकांगी दृष्टि वाले हैं। पर अब उच्च न्यायालय के ऐतिहासिक निर्णय के बाद सेक्यूलर मीडिया अपनी भड़काऊ टिप्पणियों से जो माहौल बनाना चाहता हैं उसके बावजूद भी बहुसंख्यक समाजपूर्ण शांति और वर्गों का सामंजस्य बनाए रख सका। जाति और धर्म के आधार पर कदाचित बहुसंख्यक समाज में आज एक भी शिक्षित व्यक्ति ढूंढ़ने से भी नहीं मिलेगा जो भेदभाव में खुलकर विश्वास जताए। इसके विपरित चाहे ब्रिटिश नेशनल पार्टी हो या यूरोपीय संघ की संसद हो या फ्रांस, डेनमार्क, जर्मनी अथवा, स्पेन के सर्वोच्च स्तर पर कार्य करने वाले नेता हों या संसद सदस्य अल्पसंख्यक ों के लिए क्या शब्द प्रयुक्त कर चुके हैं इस पर आलोचना तो दूर इस विषय पर टिप्पणी करने में भी उन्हें जैसे असुविधा व संकोच हो रहा हैं। स्पष्ट है कि जिस तरह आज यूरोप में महसूस किया जा रहा हैं कि सेक्यूलरवादी विचारकों, मानवाधिकार व वामपंथी संगठनों के अल्पसंख्यकों के अंध-समर्थन ने उनके समाज के लिए भावी खतरा पैदा किया है। वहीं हमारे देश में भी यह समझना आवश्यक हो गया है कि हमारे बुध्दिजीवी अल्पसंख्यकों में पहचान की राजनीति करते रहकर उन्हें अलगाव का अहसास कराने में ऐसी भूमिका अदा कर रहे हैं जो देश के लिए भावी चुनौती हो सकती हैं।