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अन्ना हजारे तुम इतने टेढ़े क्यों हो ?

अन्ना हजारे भले हैं और जो मन में आता है उसे बिना लाग लपेट के बोलते हैं। उनकी इस साफ़गोई पर कोई भी कुरबान हो सकता है। कल उनकी प्रेस कॉफ्रेस थी,उनकी एक तरफं अरविंद केजरीवाल थे दूसरी ओर किरन बेदी बैठी थीं। कुछ अन्ना रह रहे थे कुछ ये दोनों कह रहे थे। इस तरह ये तीनों मिलकर सिविल सोसायटी का भ्रष्टाचार विरोधी नया आख्यान रच रहे थे।

ये तीनों एक साथ थे। एक दूसरे से सहमत होते हुए बोल रहे थे। उनमें विचार भेद नहीं था। मसलन अन्ना ने जब बिहार और गुजरात के मुख्यमंत्री की प्रशंसा की तो यह मानकर चलना चाहिए कि किरन बेदी और केजरीवाल भी उनके प्रशंसक ही हैं । क्योंकि उन लोगों ने अन्ना की राय का वहां पर विरोध नहीं किया। मैं सोच रहा था मल्लिका साराभाई के बारे में जो अन्ना हजारे को लेकर बेहद उत्साहित थीं और टीवी पर कह रही थीं कि वे अन्ना के मैसेज को गुजरात के गांवों में ले जाएंगी। मैं नहीं जानता कि मोदी की प्रशंसा के बाद मल्लिका के पास क्या बचा है मोदी का विरोध करने के लिए ? मैं सोच रहा हूँ कांग्रेसनेत्री सोनिया गांधी के बारे में क्या वे मोदी के साथ अन्ना को हजम कर पाएंगी ?

लोकपाल बिल का सवाल नहीं है वह तो आएगा और उसका स्वरूप ,शक्ति और संभावनाएं क्या होंगी ,इसके बारे में प्रेस कॉफ्रेस में ही अरविन्द केजरीवाल ने बता दिया कि वे एक और सीबीआई जैसा संगठन बनाना चाहते हैं। इसके पास सीबीआई और सीवीसी के अधिकारों को मिलाकर अधिकार होंगे और इसके दायरे को व्यापक रखा जाएगा। इसके पास पुख्ता कानूनी ढ़ांचा होगा।

इसके अलावा अन्ना हजारे ने प्रेस कॉफ्रेस में एक बेहद अपमानजनक और घटिया बात कही है और यह भारत के नागरिकों के लिए अपमानजनक है। अन्ना से जब पूछा गया कि आप चुनाव लड़ेंगे तो उन्होंने कहा नहीं, मैं चुनाव लडूँगा तो मेरी जमानत जब्त हो जाएगी। इसी क्रम में उन्होंने कहा भारत का मतदाता जागरूक नहीं है। वह सौ रूपये,एक शराब की बोतल में बिक जाता है। सुविधा के लिए टाइम्स ऑफ इण्डिया ( 11 अप्रैल 2011) की वह कटिंग यहां पेश कर रहा हूँ-

“His five-day fast for a strong anti-graft law drew groundswell support across the country, but social reformer Anna Hazare feels that if he contested an election, he will lose his security deposit.

“If I stand for election, I will lose my security deposit,” Anna Hazare said jest-fully answering a question at a press conference on Sunday.

 

“(People) Take Rs100 and vote, take bottle of wine to vote, an election costs Rs 6-7 crore,” he said.

 

Anna Hazare stressed that electoral reforms can rectify this situation.

 

“Give the option of dislike, if all candidates are bad, then voters will not vote for anyone,” he said ”

अन्ना नहीं जानते कि वे क्या कह रहे हैं ? अथवा बहुत ही सुचिंतित ढ़ंग से बोल रहे हैं ? इस बयान में वर्तमान लोकतंत्र को लेकर गहरी घृणा झलक रही है और भारत के मतदाताओं का अपमान भी झलक रहा है।

अन्ना भारत के अधिकांश वोटर घूसखोर नहीं हैं। यदि ऐसा होता तो 60 साल में लोकतंत्र में गर्व करने लायक कुछ नहीं होता। बहुत छोटा सेक्शन है जो घूस खाता है। लेकिन अधिकांश जनता बिना 100 रूपया लिए और शराब की बोतल लिए ही वोट देने जाती है। अन्ना अपनी झोंपड़ी से बाहर निकलो और पूछो मनमोहन सिंह -सोनिया-मोदी-नीतीश से क्या उन्होंने 100 रूपये और बोलत बांटी है ?

अन्ना तुमको आज जो कुछ मिला है वह लोकतंत्र के कारण मिला है। सिविल सोसायटी के कारण नहीं। सिविल सोसायटी में गरीब नहीं रहते अन्ना। बहुत पहले अनेक समाजशास्त्री बता गए हैं कि सिविल सोसायटी में किस वर्ग के लोग रहते हैं। सिविल सोसायटी खाए-अघाए और लोकतंत्र से भागे हुए लोगों का समाज है। ये लोकतंत्र के फल खाना चाहते हैं लेकिन लोकतंत्र के लिए कुर्बानी देने को तैयार नहीं हैं।

अन्ना एक बात पर गंभीरता से सोचो यदि वोटर भ्रष्ट हो गया है और जैसा आप मानते हैं तो अब तक लोकतंत्र चल कैसे रहा है ? अन्ना क्या अमेरिका में लोकतंत्र की दोषरहित,मनी पावर रहित व्यवस्था है ? अन्ना आप जानते हैं लोकतंत्र कमजोर का अस्त्र है लेकिन इसकी कमाण्ड अभिजन और पूंजीपतियों के हाथों में है।

अन्ना आप कल्पना में रहते हैं लोकतंत्र कल्पना से नहीं चलता। लोकतंत्र महज नियमों से भी नहीं चलता। लोकतंत्र में जनता की शिरकत और लोकतांत्रिक संरचनाएं ही हैं जो उसे ताकतवर बनाती हैं। लोकतंत्र की धुरी है लोकतांत्रिक मनुष्य। आपकी सिविल सोसायटी और उससे जुड़े चिंतक अपने को डेमोक्रेट नहीं सुपर डेमोक्रेट समझते हैं।

मेरा सवाल है आप चुनाव में भाग क्यों नहीं लेते ? आपकी बात मानी जाए लोकतंत्र मनीतंत्र से मुक्त हो जाए तब क्या आप और सिविल सोसायटी वाले भाग लेंगे ? लोकतंत्र कैसा होगा यह इस बात से तय होगा कि भारत के लोग कैसे हैं ? लोकतंत्र में जैसा मिट्टी-पानी-सीमेंट लगाएंगे वैसा ही लोकतंत्र बनेगा। लोकतंत्र का कच्चा माल विदेश से नहीं आएगा,स्वर्ग से भी नहीं आएगा। यह काम मात्र चुनाव सुधारों से होने वाला नहीं है। लोकतंत्र मात्र चुनाव सुधार का मसला नहीं है। कितने भी चुनाव सुधार कर लिए जाएं पैसे की सत्ता बनी रहेगी।

पैसे की सत्ता ,भ्रष्टाचार आदि को खत्म करने का एक ही सुझाव है अन्ना जो किसी जमाने में मार्क्स ने दिया था व्यक्तिगत संपत्ति का खात्मा। अन्ना आप मार्क्स के इस सुझाव को मानेंगे ? जब व्यक्तिगत संपत्ति का स्वामित्व ही नहीं होगा तो संपत्ति से जुड़ी बहुत सारी बीमारियां भी नहीं होगी।

लेकिन मैं जानता हूँ अन्ना आपको मार्क्स से नफ़रत है। कम्युनिस्टों से घृणा है। आपको तो मोदी से प्यार है। आपके अनुसार मोदी ने ग्रामीण विकास के लिए सुंदर काम किए हैं । अन्ना हम जानना चाहते हैं नरेन्द्र मोदी ने कितने एकड़ जमीन गुजरात के भूमिहीन किसानों में भूमि सुधार कार्यक्रम के तहत वितरित की ? अन्ना इस मामले मे आप नीतीश कुमार से भी पूछ लें कि गांव के गरीबों को क्या उन्होंने फाजिल जमीन दी है ? अन्ना जरा एनडीए की सभी सरकारों से पूछें कि क्या उन्होंने भूमिसुधार कार्यक्रमों के तहत खेतिहर मजदूरों को जमीन दी है ? नहीं अन्ना नहीं। आप इतनी जल्दी अपने असली अभिजन रंग में सामने क्यों आ गए ?

अच्छा अन्ना बताओ हिटलर के विकास मॉडल पर आपके क्या विचार हैं ? मोदी ने गुजरात में जो किया है उसे किसी भी कीमत पर माफ नहीं किया जा सकता । मोदी का विकास मॉडल अल्पसंख्यकों के मानवाधिकारहनन पर आधारित है। क्या आप ऐसे विकास मॉडल को पसंद करते हैं जहां अल्पसंख्यक आतंकित,असुरक्षित रहें ? उनके खिलाफ लगातार घृणा का प्रचार किया जाए ? अन्ना आप कभी गुजरात में हुए अल्पसंख्यक विरोधी हमलों के खिलाफ गुजरात में मोमबत्ती जुलूस लेकर क्यों नहीं निकले ? आपने गुजरात की हिंसा के खिलाफ आमरण अनशन का मन भी नहीं बनाया। अन्ना क्या गांधी ऐसे ही साम्प्रदायिकता से लड़े थे जैसे आप लड़ रहे हैं ?

अन्ना क्या यह बताने की जरूरत है कि आपने मुंबई और महाराष्ट्र के दूसरे ठिकानों पर राजठाकरे के दल के लोगों के जो बिहारियों पर विगत में जो हिंसक हमले किए थे उस समय आपने हिन्दीभाषियों के महाराष्ट्र में आने पर आपत्ति जतायी थी। आपकी मराठी अंधक्षेत्रीयतावाद के प्रति गहरी आस्थाएं हैं। आप मानते हैं महाराष्ट्र सिर्फ मराठियों के लिए है।

अन्ना आप कैसे बांधेगे देश को एकसूत्र में ? क्या इस देश को सिविल सोसायटी वाले एकजुट रखे हुए हैं ? क्या राजठाकरे और नरेन्द्र मोदी के विचारों के आधार पर नया भारत बनाना चाहते हैं ? अन्ना आप अच्छी तरह जानते हैं भारत को एकजुट बनाए रखने और लोकतंत्र को गतिशील बनाए रखने में 100 रूपये लेकर वोट देने वाले या शराब की बोतल लेकर वोट देने वाली अनपढ़-जाहिल जनता की केन्द्रीय भूमिका है। सिविल सोसायटी वाले कारपोरेट गुलामों और मीडियावीरों को तो भारत का सही में भूगोल और संस्कृति तक का ज्ञान नहीं है । वे बातों के वीर हैं।कर्मवीर नहीं हैं। सिविल सोसायटी आपके लिए ठीक हैं,लोकतंत्र के लिए नहीं।

अन्ना यह सही है आपने राजठाकरे और उनके दल की हिंसा का समर्थन नहीं किया लेकिन हिंसा करने वालों को दण्डित कराने के लिए भी आपने बयान तक नहीं दिया। यह भी सच है आपने मोदी की साम्प्रदायिक हिंसा का समर्थन नहीं किया लेकिन इतने भयानक गुजरात के दंगे देखकर भी आपकी आत्मा बेचैन नहीं हुई और मोदी और उनके लठैतों के खिलाफ आप गुजरात की सड़कों पर नहीं उतरे ? अन्ना आपने ऐसी कायरता क्यों दिखाई ? गुजरात के दंगाईयों के खिलाफ सख्त कार्रवाई करने को लेकर आपका दिल नहीं मचला ? लोकपाल बिल से ज्यादा दंगों में मारे गए आम आदमी की समस्या महत्वपूर्ण है अन्ना । दंगे सीधे मानवाधिकारों पर हमला है । मानवाधिकारों पर क्रूरतम हमलावर के रूप में मोदी को सारी दुनिया जानती है लेकिन आपने मोदी को ही श्रेष्ठ मुख्यमंत्री का खिताब दे दिया। मोदी के शासन में देवालय,मजार,मस्जिद,चर्च आदि सब पर हमले हुए। अन्ना नहीं यह नहीं चलेगा।

मोदी मानवाधिकार हनन का नायक है वह विकास पुरूष नहीं है। उसने गुजरात को साम्प्रदायिक आधार पर बांटा है और आप उसको आदर्श बता रहे हैं। अन्ना क्षमा करें मोदी गुजरात में आतंक का पर्याय है। अल्पसंख्यकों के मन और समाज को उसने तबाह किया है। आपको अल्पसंख्यकों की तबाही नहीं दिखाई दी,मेरे लिए इसमें आश्चर्य नहीं हुआ ।क्योंकि आप अपने तथाकथित सर्वजन प्रेम के मुहावरे पर चल रहे हैं। आप जिस भाव में हैं वह कम से कम गांधी का भाव नहीं है। अन्ना इस समय सबसे ज्यादा भ्रष्टाचार करने वाले कारपोरेट घरानों के संगठन भी आपके साथ हैं। फिक्की से लेकर एस्सोचैम तक सभी ने आपका समर्थन किया है। मनमोहन से लेकर आडवाणी तक,माओवादियों से लेकर मोदीतक,ममता से लेकर माकपा तक भ्रष्टाचार विरोधी लोकपाल बिल के सवाल पर आपके साथ हैं और ये सभी राजनीतिक दल किसी न किसी बहाने कभी न कभी लोकपाल बिल को संसद में आने देने से रोकते रहे हैं।

अन्ना एक बात का जबाब जरूर दो क्या लोकतंत्र में पैसे के बिना चुनाव लड़ सकते हैं ? क्या अमेरिका-ब्रिटेन -जापान-जर्मनी में लोकतंत्र में पैसा खर्च होता है ? आप जानते हैं लोकतंत्र पैसातंत्र है। इसे लेकर आम जनता को आप कल्पना की लंबी उड़ानों में क्यों ले जा रहे हैं ? आपकी टीम में संतोष हेगडे साहब हैं, ये जजसाहब आरक्षण विरोधी फैसला देने के कारण नाम कमा चुके हैं। जिन श्रीश्री रविशंकर को आपने अनशन तोड़ते धन्यवाद दिया वे भी आरक्षण के विरोधी हैं। अन्ना ध्यान रहे सामाजिक न्याय के बिना लोकपाल बेकार है। लोकपाल पैसे की लूट को कुछ हद तक रोक सकता है लेकिन सामाजिक असमानता,खासकर जातिभेद तो सामाजिक कोढ़ है और इस भेद को कम करने का यदि कोई उपाय सुझाया जाता है तो आपके समर्थकों की तलवारें म्यान से बाहर निकल आ जाती हैं। अन्ना आपकी सिविल सोसायटी में दलितों और मुसलमानों के लिए कोई एजेण्डा है ? आप 60 सालों से इन समुदायों के बारे में खामोश क्यों हैं ?

– जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

 

मात्र-ज़न-लोकपाल विधेयक से ’भ्रष्टाचारमुक्त भारत’ क्या सम्भव है?

श्रीराम तिवारी

 

यह स्मरणीय है कि अपने आपको गांधीवादी कहने वाले कुछ महापुरुष पानी पी-पीकर राजनीतिज्ञों को कोसते हैं, जबकि गांधीवादी होना क्या अपने-आप में राजनैतिक नहीं होता? याने गुड खाने वाला गुलगुलों से परहेज करने को कह रहाहो तो उसके विवेक पर प्रश्न चिन्ह लगना स्वाभाविक नहीं है क्या? दिल्ली के जंतर-मंतर पर अपने ढाई दिनी अनशन को तोड़ते हुए समाज सुधारक और तथाकथित प्रसिद्द गांधीवादी{?}श्री अन्ना हजारे ने भीष्म प्रतिज्ञा की है कि ’निशचर हीन करों मही, भुज उठाय प्रण कीन” हे! दिग्पालो सुनो, हे! शोषित-शापित प्रजाजनों सुनो-अब मैं अवतरित हुआ हूँ {याने इससे पहले जो भी महापुरुष, अवतार, पीर, पैगम्बर हुए वे सब नाकारा साबित हो चुके हैं} सो मैं अन्‍ना हजारे घोषणा करता हूँ कि ’यह आन्दोलन का अंत नहीं है, यह शुरुआत है. भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के लिए पहले लोकपाल विधेयक का मसविदा बनेगा. नवगठित समिति द्वारा तैयार किये जाते समय या केविनेट में विचारार्थ प्रस्तुत करते समय कोई गड़बड़ी हुई तो यह आन्दोलन फिर से चालू हो जायेगा.यदि संसद में पारित होने में कोई बाधा खड़ी होगी तो संसद कि ओर कूच किया जायेगा. भ्रष्टाचार को जड़ से मिटाने, सत्ता का विकेन्द्रीयकरण करने, निर्वाचित योग्य प्रतिनिधियों को वापिस बुलाने, चुनाव में नाकाबिल उमीदवार खड़ा होने इत्यादि कि स्थिति में ’नकारात्मक वोट’ से पुनः मतदान की व्यवस्था इत्यादि के लिए पूरे देश में आन्दोलन करने पड़ सकते हैं. यह बहुत जरुरी और देश भक्तिपूर्ण कार्य है अतः सर्वप्रथम तो मैं श्री अणा हजारे जी का शुक्रिया अदा करूँगा और उनकी सफलता की अनेकानेक शुभकामनाएं.

उनके साथ जिन स्वनाम धन्य देशभक्त-ईमानदार और महानतम चरित्रवान लोगों ने -इलिम्वालों -फिलिम्वालों, बाबाओं, वकीलों और महानतम देशभक्त मीडिया ने जो कदमताल की उसका भी में क्रांतिकारी अभिनन्दन करता हूँ.दरसल यह पहला प्रयास नहीं है, इससे पहले भी और भी व्यक्तियों ,समूहों औरदलों ने इस भृष्टाचार की महा विषबेलि को ख़त्म करने का जी जान से प्रयास किया है, कई हुतात्माओं ने इस दानव से लड़ते हुए वीरगति पाई है, आजादी के दौरान भी अनेकों ने तत्कालीन हुकूमत और भृष्टाचार दोनों के खिलाफ जंग लड़ी है. आज़ादी के बाद भी न केवल भ्रष्टाचार अपितु अन्य तमाम सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक बुराइयों के खिलाफ जहां एक ओर विनोबा,जयप्रकाश नारायण ,मामा बालेश्वर दयाल ,नानाजी देशमुख ,लक्ष्मी सहगल,अहिल्या रांगडेकर और वी टी रणदिवे जैसे अनेक गांधीवादियों/क्रांतिकारियों /समाजसेवियों ने ताजिंदगी स�¤ �घर्ष किया वहीं दूसरी ओर आर एस एस /वामपंथ और संगठित ट्रेड यूनियन आन्दोलन ने लगातार इस दिशा में देशभक्तिपूर्ण संघर्ष किये हैं.यह कोई बहुत पुरानी घटना नहीं है कि दिल्ली के लोग भूल गएँ होंगे!विगत २३ फरवरी को देश भर से लगभग १० लाख किसान -मजदूर लाल झंडा हाथ में लिए संसद के सामने प्रदर्शन करने पहुंचे थे.वे तो अन्ना हजारे से भी ज्यादा बड़ी मांगें लेकर संघर्ष कर रहे हैं ,उनकी मांग है कि- अमà ��रिका के आगे घुटने टेकना बंद करो! देश के ५० करोड़ भूमिहीन गरीब किसानों -मजदूरों को जीवन यापन के संसाधान दो!बढ़ती हुई मंहगाई पर रोक लगाओ !देश कि संपदा को देशी -विदेशी सौदागरों के हाथों ओउने -पौने दामों पर बेचना बंद करो!गरीबी कि रेखा से नीचे के देशवासियों को बेहतर सार्वजनिक वितरण प्रणाली के माध्यम से गेहूं -चावल -दाल और जरुरी खद्यान्न कि आपूर्ती करो! पेट्रोल-डीजल-रसोई गैस और केरोसि�¤ ¨ के दाम कम करो! जनता के सवालों और देश कि सुरक्षा के सवालों को लगातार उठाने के कारन ही २८ जुलाई -२००८ कि शाम को यु पी ये प्रथम के अंतिम वर्ष में तत्कालीन प्रधान मंत्री श्री मनमोहनसिंह ने कहा था -हम वाम पंथ के बंधन से आज़ाद होकर अब आर्थिक सुधार कर सकेंगे’ याने जो -जो बंटाधार अभी तक नहीं कर सके वो अब करेंगे.इतिहास साक्षी है ,विक्किलीक्स के खुलासे बता रहे हैं कि किस कदर अमेरिकी लाबिस्टोà �‚ और पूंजीवादी राजनीतिज्ञों ने किस कदर २-G ,परमाणु समझोता,कामनवेल्थ ,आदर्श सोसायटी काण्ड तो किये ही साथ में लेफ्ट द्वारा जारी रोजगार गारंटी योजना को मनरेगा नाम से विगत लोक सभा चुनाव में भुनाकर पुनः सत्ता हथिया ली.

लगातार संघर्ष जारी है किन्तु पूंजीवाद और उसकी नाजायज औलाद ’भृष्टाचार’ सब पर भारी है.प्रश्न ये है कि क्या अभी तक की सारी मशक्कत वेमानी है?क्या देश की अधिसंख्य ईमानदार जनता के अलग-अलग या एकजुट सकारात्मक संघर्ष को भारत का मीडिया हेय दृष्टी से देखता रहा है?क्या देश की सभी राजनेतिक पार्टियाँ चोर और अन्ना हजारे के दो -चार बगलगीर ही सच्चे देशभक्त हैं?क्या यह ऐसा ही पाखंडपूर्ण कृà ��्य नहीं कि ’एक में ही खानदानी हूँ’याने बाकि सब हरामी?

दिल्ली के जंतर -मंतर पर हुए प्रहसन का एक पहलू और भी है’ नाचे कुंदे बांदरी खीर खाए फ़कीर’

बरसों पहले ’झूंठ बोले कौआ कटे’ गाने पर ये विवाद खड़ा हुआ था कि ये गाना उसका नहीं जिसका फिलिम में बताया गया ये तो बहुत साल पहले फलां-फलां ने लिखा था. यही हाल हजारे एंड कम्पनी का है. इनके और मजदूरों के संघर्ष में फर्क इतना है कि प्रधान मंत्री जी और सोनिया जी इन पर मेहरबान हैं. क्योंकि हजारे जी वो सवाल नहीं उठाते जिससे पूंजीवादी निजाम को खतरा हो. वे अमेरिका की थानेदारी, भारतीय पूंजीपतियों की इजारेदारी, बड़े जमींदारों की लंबरदारी पर चुप है, वे सिर्फ एक लोकपाल विधेयक की मांग कर मीडिया के केंद्र में है और भारत कि एक अरब सत्ताईस करोड़ जनता के सुख दुःख से इन्हें कोई लेना -देना नहीं . दोनों की एक सी गति एक सी मति.

अन्ना हजारे के अनशन को मिले तात्कालिक समर्थन ने उनके दिमाग को सातवें आसमान पर बिठा दिया है. मध्य एशिया-टूनिसिया, यमन, बहरीन, जोर्डन, मिस्र और लीबिया के जनांदोलनों की अनुगूंज को भारतीय मीडिया ने कुछ इस तरह से पेश किया है कि भारत में भी ’एक लहर उधर से आये, एक लहर इधर से आये, शासन-प्रशासन सब उलट-पलट जाये. जब भारतीय मीडिया की इस स्वयम भू क्रांतिकारिता को भारत की जनता ने कोई तवज्जों नहीं दी तो मीडिया ने क्रिकेट के बहाने अपना बाजार जमाया. अब क्रिकेट अकेले से जनता उब सकती है सो जन्तर-मंतर पर देशभक्ति का बघार लगाया. हालाँकि भ्रष्टाचार की सड़ांध से पीड़ित अवाम को मालूम है की उसके निदान का हर रास्ता राजनीति की गहन गुफा से ही गुज़रता है. किन्तु परेशान जनता को ईमानदार राजनीतिज्ञों की तलाश है,सभी राजनैतिक दल भ्रष्ट नहीं हैं, सभी में कुछ ईमानदार जरूर होंगे उन सभी को जनता का समर्थन मिले और नई क्रांतिकारी सोच के नौजवान आगे आयें, देश में सामाजिक-आर्थिक और हर किस्म की असमानता को दूर करने की समग्र क्रांति का आह्वान करें तो ही भय-भूख-भ्रष्टाचार से देश को बचाया जा सकता है. यह एक अकेले के वश की बात नहीं.

परिवर्तन की आंधी चली

बृजनन्दन यादव

भ्रष्टाचार और लोकपाल विधेयक पर अन्ना हजारे के आमरण अनशन से देश में एक नई चेतना का संचार हो रहा है। निश्चित ही यह देश के लिए शुभ संकेत है। यह परिवर्तन की आंधी है। इससे महापुरुषों की भविष्यवाणी सत्य सिद्ध होती दिखाई पड़ रही है। पं श्रीराम शर्मा आचार्य एवं हो. वे. शेषाद्रि सरीखे महापुरुषों ने कहा था कि 11 वीं सदी भारत की होगी। 2011 लगते ही देश में परिवर्तन का दौर शुरू हो गया था जैसे – जैसे समय बीत रहा है देश में परिवर्तन की लहर दिखाई पड़ रही है।

 

अन्ना हजारे के अनशन से तात्कालिक लाभ भले ही देश को न मिले लेकिन अन्ना की पहल ने देशवासियों को सोचने के लिए विवश कर दिया है यही कारण है कि आज देश भर में उनको भारी जनसमर्थन मिल रहा है। 2011 की शुरुआत होते ही योगगुरू बाबा रामदेव ने भ्रष्टाचार के खिलाफ हल्ला बोला तो क्रिकेट में भारतीय टीम ने जन्मजात दुश्मन पाक को परास्त कर श्रीलंका को चित करके विश्वकप पर कब्जा किया। इसके तुरन्त बात अन्ना हजारे ने भ्रष्टाचार एवं लोकबिल के मसौदे पर आमरण अनशन शुरू कर दिया। अन्ना हजारे के आमरण अनशन को पूरे देश में जन समर्थन मिल रहा है। उनके इस कदम का देशवासी पुरजोर समर्थन कर रहा है। आज राष्ट्रवादी शक्तियां देशघाती शक्तियों के विरूद्ध उठ खडी हुई दिखाई हुई दे रही हैं। निश्चित ही इससे भारत का भाग्योदय और अन्ना हजारे, योग गुरू बाबा रामदेव, अरबिन्द केजरीवाल और किरण बेदी सरीखे लोगों के मार्गदर्शन में भारत अपना खोया स्वाभिमान को प्राप्त कर सकेगा। अन्ना हजारे ने मांग की है कि लोकपाल बिल पास हो, देश के अन्दर लागू अंग्रेजों के सारे कानून समाप्त हों, भ्रष्टाचारियों को जेल, उम्रकैद और फँासी हो। यह परिवर्तन का दौर है। इस समय राष्ट्रवादी शक्तियों के एक मंच पर आने से सत्ताधीशों की सत्ता डोलती नजर आ रही हैं। भ्रष्टाचारियों के पाँव फूलते नजर आ रहे हैं। सत्ता की सूत्रधार सोनिया कहती हैं कि भ्रष्टाचार के खिलाफ हम अन्ना हजारे के साथ है लेकिन उनको आमरण अनशन त्याग देना चाहिए। वहीं दूसरी तरफ भ्रष्टाचार की संरक्षक व भ्रष्टाचार की जननी भी वही हैं।

 

देश के अन्दर अब विभाजनकारी देशघाती शक्तियों का अंत होने वाला है। आज भारत की सुप्त शक्ति का जागरण कर राष्ट्र एवं समाज हित में चेतना फूंकने का काम किया जा रहा है और देश के अन्दर चेतना निर्माण होती भी दिखाई पड़ रही है। जो स्वत: अपने बलबूते पर इन विधर्मी इशारों पर चलने वाले राक्षसी प्रतृति के लोगों को सबक सिखा सके। अब बहुत जल्द ही नकाबपोश नेताओं का काला चिट्ठा खुलकर देश के सामने आने वाला है। बस बहुत हो चुका है अब देश की जनता न्याय चाहती है। कोरे आश्वासनों एवं वादों से जनता का ध्यान हट गया है। नेता जनता पर शासन नहीं बल्कि जनता नेताओं पर शासन करेगी। नेता लोग सत्ता आगे समाज पीछे छोड़ देते हैं, वे अपना व्यक्तिगत हित साधने लगते हैं बल्कि समाज आगे सत्ता पीछे होना चाहिए तभी देश का कल्याण सम्भव है। अन्ना हजारे के आमरण अनशन को भारी जनसमर्थन मिलने से सरकार पर भी दबाव बढ़ता जा रहा है लेकिन सरकार झुकने को तैयार नही हो रही है। वह इस मुद्दे पर दोमुंही राजनीति कर रही है। अन्ना का यह कदम युवाओं के लिए प्रेरणादायी सिद्ध होगा। अब समय आ गया है कि देश के अन्दर मौजूद शक्तियां देश हित में अन्ना हजारे द्वारा उठाये गये कदम का समर्थन करते हुए अपने कर्तव्‍य का पालन करे। क्योंकि यही लोग जो राजनीति से अलग रहते हुए समाज एवं देश हित में लोकजागरण का काम कर रहे हैं। लोगों में आशा की किरण भी वही लोग हैं जो देश हित में कुछ कर सकते हैं और जनता का विश्वास भी उन पर है। राजनीतिज्ञ लोग तो चोर-चोर मौसेरे भाई वाला काम करते हैं। भ्रष्टाचार आज कांग्रेस पार्टी कर रही है कल को कोई दूसरी पार्टी आयेगी तो वह भी वही करेगी क्योंकि व्यवस्था ही ऐसी बन गयी है। हमारे देश का दुर्भाग्य रहा है कि आजादी के बाद देश ऐसे लोगों के हाथों गया जो विदेशी संस्कृति में पले बढे और भारतीय संस्कृति को तुक्ष मानते थे। उनकी धमनियों में देश के महापुरुषों का नही बल्कि अंग्रेजों का खून दौड़ रहा था। यह आन्दोलन भ्रष्टाचार एवं लोकपाल बिल को लेकर नही है बल्कि यह आन्दोलन सम्पूर्ण व्यवस्था परिवर्तन का आन्दोलन है। दिल्ली में अन्ना हजारे के आमरण अनशन स्थल पर राजनीतिज्ञों को शामिल न होने देना भी एक तरह से उचित ही है क्योंकि भ्रष्टाचार को प्रश्रय देने वाले भी यही लोग हैं। ये लोग धरने में शामिल होकर जनता की सहानुभूति लेना चाहते हैं। किन्तु कब से यह बिल संसद में लटका पड़ा है तब किसी ने आवाज नही उठायी। सत्ता परिवर्तन से कुछ होने वाला नही है, सत्ता परिवर्तन तो मात्र उसका एक छोटा सा भाग है। इसके लिए दृढ़ इच्छाशक्ति से युक्त, संघर्षशील नेतृत्व देश को आज आवश्यकता है। इसके लिए व्यक्ति के मन को बदलने की आवश्यकता है, क्योंकि व्यक्ति परिवर्तन से ही व्यवस्था परिवर्तन होता है, व्यवस्था परिवर्तन से ही समाज में परिवर्तन आता है और समाज परिवर्तन से ही देश में परिवर्तन आता है। यही आज की महती आवश्यकता है। जब तक इस देश की सोच को नही बदला जायेगा, तब तक इस देश के समक्ष चुनौतियों का अंबार लगा रहेगा। इसके लिए लोगों में अपनी संस्कृति एवं परम्पराओं का पालन करना होगा। भारतीय जीवन मूल्यों के समक्ष उत्पन्न चुनौतियों का सामना करने में भी सक्षम होना चाहिए। आज देश परिवर्तन के दौर से गुजर रहा है। इस परिवर्तन के दौर में प्रत्येक भारतवासी का कर्तव्‍य है कि देश एवं समाज हित में अपनी भूमिका का निर्वहन करते हुए कर्त्तव्य का पालन करते हुए लोकजागरण कर देश को वर्तमान चुनोतियों से निजात दिलाते हुए भविष्य के लिए तैयार करे। अन्ना हजारे की मांग है कि लोकपाल किसी भी मामले की जांच करने में सक्षम हो और लोगों से सीधे शिकायत स्वीकार करने की भी शक्ति हो। यह परामर्शदात्री संस्था के बजाय सशक्‍त संस्था एवं किसी अधिकारी पर अनुशासनात्मक कार्यवायी करने की भी सामार्थ्य हो। नौकरशाहों जजों की जांच करने की सामर्थ्य एवं उन्हें बर्खास्त करने की भी पावर होनी चाहिए तथा भ्रष्टाचारियों से घोटालों की रकम की भरपाई की जा सके। इसको आठ बार सरकारी एवं छ: बार गैर सरकारी विधेयक के रूप में स्थापित करने की कोशिश की गई लेकिन हर बार उसमें रोड़ा अटकाने का काम किया गया। इन सभी काली करतूतों के लिए जिम्मेदार हमारे राजनेता ही हैं एवं उनके पीछे जनता भी है क्योंकि जनता ही उनको चुनकर भेजती है और वे हमारे ही पर कतरते हैं।

 

अलग और अनूठा रहा हजारे आन्दोलन

शादाब जफर ”शादाब”

मैं अकेला ही चला था जानिब-ए-मंजिल मगर, लोग साथ आते गये और कॉरवा बनता गया। इन पंक्तियो को मशहूर गॉधीवादी समाजसेवी अन्ना हजारे ने भ्रष्टचार के खिलाफ जन लोकपाल बिल को पास कराने को लेकर सरकार की नीतियो के खिलाफ मंगलवार 5 अप्रैल 2011 को जंतर मंतर पर अपने आमरण अनषन के द्वारा सच कर के दिखा दिया। गली गली मोहल्ले मोहल्ले चौहराहों पर लोग अन्ना हजारे के सर्मथन में बैठे है। इन में से अधिकतर लोगो को ये भी नही पता कि आखिर ये जन लोकपाल बिल क्या है अन्ना हजारे कौन है और इन की क्या मांगे है। पर एक बात सभी लोग अच्छी प्रकार से जानते थे वो ये कि ये लडाई देश में कोढ की तरह फैल चुके भ्रष्टाचार के खिलाफ है। नि:संदेह काफी समय बाद ऐसा साफ सुथरा जन आन्दोलन देखने को मिला है। वरना देष में काफी दिनो से मारकाट तोड़फोड़ हिंसावादी आन्दोलन ही देखे जाते रहे है। शिव सेना, एमएनएस, गुर्जर या जाटों का आन्दोलन बस तोड़फोड़, राष्ट्रीय सम्पत्ति और देश के आम नागरिकों को नुकसान पहुंचाने के लावा इन आन्दोलनों और पार्टियों के नेताओं का दूसरा कोई मकसद नहीं लगा। अन्ना हजारे द्वारा किया आन्दोलन जिससे पूरे देश की जनता जुडी और षान्तिपूर्वक तरीके से अपना रोष सड़कों पर निकल कर प्रकट किया। सिर्फ पॉच दिन के इस आन्दोलन में आज देश का कोई छोटा बडा जिला ऐसा नहीं जहॉ देश में फैले भ्रष्टचार के खिलाफ और अन्ना के सर्मथन में लोग सडकों पर न आये हो। लगभग सात करोड लोगो के एसएमएस अमिताभ बच्चन, आमिर खान, सोनिया गांधी, सचिन तेंदुलकर, अनुपम खेर, देश के साहित्यकारों, बुद्विजीवियों, युवाओं, बुर्जुगों, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, चेन्नई, चण्डीगढ, और असम के लाखों सर्मथक अन्ना के अनशन के पहले दिन से आखिर तक धरना स्थल पर जमे रहे। दरअसल इस आन्दोलन के कामयाब होने की सब से बडी वजह ये रही है के यह आन्दोलन पूर्ण रूप से आम आदमी का आन्दोलन रहा। अन्ना, स्वामी अग्निवेष और अरविंद के जरीवाल ने इसे राजनीति और राजनेताओ से दूर रखा।

आजकल की राजनीति और राजनेताओं से दूरी रखकर सादगी से जीवन जीने वाले अन्ना हजारे का जन्म 15 जून 1938 को महाराष्ट्र में अहमदनगर जिले के रोलेगन सिद्वी गॉव में एक कृषक परिवार में हुआ था। भारत चीन युद्व के बाद जब भारत सरकार ने देश के युवाओ से सेना में शामिल होने की अपील की तब महज 22, 23 साल की उम्र में अन्ना हजारे फौज में 1963 में षामिल हुए और वीर अब्दुल हमीद के साथ भारत पाकिस्तान युद्व में खेमकरन सेक्टर में तैनात रहे। भारत पाकिस्तान युद्व के दौरान युद्व में दुष्मन के विमानो की बमबारी का मुकाबला करने वाले सेना की जीप चलाने वाले अन्ना सेना में पन्द्रह साल अपनी सेवा देकर स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति के बाद अपने गांव लौट आये और अविवाहित रहने का फैसला किया। अन्ना हजारे यू तो किसी औपचारिक परिचय के मोहताज नही है राष्ट्रपिता महात्मा गॉधी के बाद हमारे देश में ऐसे बहुत ही कम लोग है जिन का पूरा का पूरा जीवन बेहद सादगी के साथ जनता के हितों पर कुर्बान होकर देष को समर्पित हो जाता है। भ्रष्टाचार के कारण आज देष में त्राही-त्राही मची है। आईपीएल घोटाला, राष्ट्रमंडल खेलो में घोटाला, मुंबई के आदर्ष आवास सोसायटी घोटाला, टु-जी स्पेक्ट्रस आवंटन घोटाला सतर्कता अधिष्टान में पुस्तक घोटाला, विशिष्ट बीटीसी घोटाला, उप्र निर्यात निगम घोटाला, पुलिस भर्ती घोटाला, खाद्यान्न घोटाला, मीड डे मील घोटाला, जेल में बंदीरक्षक सीधी भर्ती घोटाला, यूपीएस आईडीसी में सस्ती दरो पर जमीन देने का घोटाला, सीवीसी थॉमस की नियुक्ति, ”नोट के बदले वोट” का जिन्न विकिलीक्स के खुलासे सहित आज भ्रष्टाचार देष के हर क्षेत्र में अपनी गहरी जडे जमा चुका है।

इस पूरे भ्रष्टतंत्र में आज अन्ना हजारे का भारत देश को सोने की चिडिया वाला देश बनाने का ख्वाब देखना बुरा नही। भ्रष्टाचार में जकडे भारत के लिये एक बहुत ही अच्छी पहल है। और उससे भी अच्छा है इस आन्दोलन को जन सर्मथन मिलना वो भी ऐसे समय में जब देश में चारो ओर घोटाले ही घोटाले सामने आ रहे हो। ये जन लोकपाल बिल यकीनन ऐसे तमाम भ्रष्ट राजनेताओ के लिये मौत बन कर सामने आयेगा जो जुर्म करने के बाद भी संसद भवन में बैठ कर मजा करते है। सवाल ये उठता है की यदि अन्ना हजारे यह चाह रहे है कि लोकपाल विधेयक के लिये एक नया मसैदा तैयार हो और उसे तैयार करने में उस में जनता की भागीदारी भी हो तो इस में क्या बुरा है। मौजूदा सरकार देश के सामने ऐसा क्यो प्रदर्शित कर रही है कि ऐसा करने से देश में कोई भूचाल आ जायेगा और सारे भ्रष्ट राजनेता एकदम जेल चले जायेगे। सरकार को ये समझना चाहिये कि ये मॉग सिर्फ और इस लिये कि जा रही है कि आज देष में फैले भ्रष्टचार ने हम देषवासियो में अमीरी और गरीबी की एक बहुत ही गहरी खाई पैदा कर दी है। देष तरक्की तो कर रहा है पर वो तरक्की दिखाई नही दे रही। आजादी से आज तक देष में भ्रष्टचार और भ्रष्ट राजनेताओ के खिलाफ कितनी कार्यवाही हुई है हमने देखा है। पूर्व संचार मंत्री सुखराम के अलावा देश की जॉच एजेंसिया किसी भी राजनेता को सजा के कटघरे तक नही पहुंचा सकी। बोफोर्स दलाली के सभी आरोपियो के खिलाफ बिना सजा व जॉच के केस बन्द कर दिये गये, बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव व राबडी देवी के खिलाफ आय से अधिक सम्पत्ती का मामला निचली अदालत तक पहुंच कर हीं दम तोड़ गया, हवाला कांड में सीबीआई द्वारा मेहनत से जुटाये सारे सुबूतो को सुप्रीम कोर्ट ने मानने से इन्कार कर दिया, बिहार चारा घोटाले में आरोपी लालू यादव व जगन्नाथ मिश्र को आज 14 साल बाद भी ऑच तक नही, मायावती व मुलायम सिंह के खिलाफ आय से अधिक सम्पत्ती मामला आज भी अधर में है, विधायको की खरीद फरोख्त मामले में काग्रेस के लीडर और छत्तीसगढ के पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी के खिलाफ सात साल बाद भी कोई चार्जषीट नही दाखिल हो पाई। ये कुछ ऐसे भ्रष्टाचार के मामले है जिन से सीधा या कहीं न कहीं कांग्रेस का रिष्ता जरूर है। कांग्रेस ने सत्ता सुख पाने की खातिर देश को पूरी तरह बरबाद कर दिया और जो भी तरक्की हमे आज कागजों पर बताई या दिखाई जा रही है वो पूरी तरह से फर्जी है कंाग्रेस का सत्ता में बने रहने के लिये छद्म आवरण है। देश में मंहगाई आसमान छूने को तैयार है लोग दिन भर खून पसीना बहाने के बाद भी अपने बच्चों को पेट भर रोटी भी नही दे पा रहे है।

अन्ना हजारे द्वारा भ्रष्टाचार के खिलाफ शुरू की गई ये लड़ाई धीरे धीरे परवान जरूर चढ पर इस आन्दोलन ने सरकार की नींद हराम कर के रख दी। पूरा राष्ट्र भ्रष्टाचार के खिलाफ एक सूत्र में बंध गया। अन्ना हजारे के इस आमरण अनषन से ज्यादा सरकार इस बात से भयभीत रही की भ्रष्टाचार के मुद्दे पर यदि लोगो में गुस्सा और बढ गया तो देष को मिस्र बनने में चन्द मिनट ही लगेगे। इस आन्दोलन के द्वारा आज एक या दो लोगो का अन्ना को सर्मथन नही मिला बल्कि हर रोज करोडो लोगो के कदम खुद व खुद जंतर मंतर की ओर उठ पडे। जो जहॉ था वही से अन्ना को सर्मथन दे रहा था। पिछले चालीस सालों से भ्रष्ट राजनेताओं के कारण जो लोकपाल विधेयक कानून का रूप नही ले पाया सिर्फ पॉच दिन में ही सरकार और देष के तमाम राजनीतिक दल लोकपाल व्यवस्था बनाने के लिये तैयार हो गये। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जी ने 2004 में यूपीए 1 में केन्द्र की सत्ता सभालते समय लोकपाल व्यवस्था बनाने का वायदा किया था, लेकिन उनकी सरकार का पूरा एक कार्यकाल गुजर गया पर उन्हे अपने वादे और लोकपाल विधेयक की याद नही आई। दूसरे कार्यकाल में लोकपाल विधेयक तब सतह पर आया जब घपलों-घाटालों के कारण सरकार को चेहरा छुपाना मुष्किल हो गया। अन्ना हजारे के इस जन आन्दोलन को भरपूर सर्मथन मिला। अन्ना हजारे की इस चिंगारी को अब षोला बनाने की जिम्मेदारी हमारी है। एक अकेले शख्स ने सिर्फ पॉच दिन में भष्टाचारियों की नींदे उडा दी। अब ये देखना है कि एक सौ इक्कीस करोड लोगों ने अन्ना के आमरण अनशन और आचरण से कुछ सबक भी लिया है या नही। आज देष में फैले भ्रष्टाचार के लिये सिर्फ सरकार, प्रधानमंत्री या देश के राजनेता ही जिम्मेदार नहीं काफी हद तक देश के वो नागरिक भी जिम्मेदार है जो अपना काम निकालने के लिये खुद भष्टाचार का रास्ता चुनते है। और भ्रष्टाचार देखकर ऑख मूंदने वाली दृष्टि रखते है।

 

अन्ना, आई मस्ट सैल्यूट यू

लिमटी खरे

सवा अरब की आबादी है जो भारत के भूमण्डल में निवास करती है। सवा सौ साल पुरानी कांग्रेस जिसने भारत वर्ष पर आजादी के उपरांत आधी सदी से ज्यादा राज किया है। दोनों के साथ ही सवा सैकड़ा का आंकड़ा जुड़ा हुआ है। कांग्रेस अब तक देश की जनता को एक ही लाठी से हांकती आई है। जो मन आया वो नीति बना दी, जो चाहा वो शिक्षा के प्रयोग करवा दिए। आजादी के उपरांत राष्ट्रपिता मोहन दास करमचंद गांधी के अवसान के बाद आई रिक्तता को लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने कुछ हद तक भरने का प्रयास किया था। अस्सी के दशक के आरंभ होते ही एक बार फिर देश में असली गांधीवादी नेता के मामले में शून्यता महसूस की जा रही थी। नकली गांधीवादी नेताओं से तो भारत देश पटा पड़ा है।

तीन दशकों के बाद एक बार फिर अन्ना हजारे के रूप मंे देश को एक गांधी वादी नेता मिला है जो निस्वार्थ भाव से देश के लिए काम करने को राजी है, सबसे महत्वपूर्ण बात तो यह है कि अन्ना के आव्हान पर समूचे देश ने अहिंसक तरीके से पूरे जोश के साथ उनका साथ दिया। खुफिया एजेंसियों के प्रतिवेदन ने कांग्रेस के हाथ पैर फुला दिए, और सरकार को अंततः इक्कीसवीं सदी के इस गांधी के सामने घुटने टेकने ही पड़े। हो सकता है कि कांग्रेस के वर्तमान स्वरूप और आदतों के चलते वह अन्ना के साथ ही साथ देश के सामने घुटने टेकने का प्रहसन कर फौरी तोर पर इससे बचना चाह रही हो किन्तु कांग्रेस को यह नहीं भूलना चाहिए कि जिस अन्ना की एक आवाज पर देश के युवाओं ने उनका साथ दिया है, वे अगर कांग्रेस धोखा करती है तो आगे किस स्तर पर जा सकते हैं।

बहरहाल आधी लंगोटी पहनकर सादगी पसंद किन्तु कठिन अनुशासन में जीवन यापन करने वाले महात्मा गांधी ने उन ब्रितानियों को देश से खदेड़ दिया था, जिनका साम्राज्य और मिल्कियत इतनी थी कि उनका सूरज कभी अस्त ही नहीं होता था। एक देश में अगर सूरज अस्त हो जाता तो दूसरे देश में उसका उदय होता था। इतने ताकतवर थे गोरी चमड़ी वाले। बेरिस्टर गांधी ने सब कुछ तजकर सादगी के साथ देश की सेवा का प्रण लिया और उसे मरते दम तक निभाया।

महात्मा गांधी ने अहिंसा को ही अस्त्र बनाकर अपनी पूरी लड़ाई लड़ी। बापू के आव्हान पर अनेक बार जेल भरो आंदोलन का आगाज हुआ। 1918 में चंपारण सत्याग्रह के दौरान ब्रितानी हुकूमत ने महात्मा गांधी के आंदोलन पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया गया। तब बापू ने आंदोलन का एक्सीलयेटर बढ़ा दिया था। जैसे ही देशव्यापी समर्थन बापू को मिला वैसे ही ब्रितानी हुकूमत उसी तरह घबराई जिस तरह अन्ना हाजरे के आंदोलन के बाद वर्तमान में कांग्रेसनीत संप्रग सरकार घबराई है।

उस वक्त के सियासतदारों ने अहिंसा के पुजारी महात्मा गांधी को हिंसा फैलाने के आरोप में पकड़ लिया। जैसे ही यह खबर फैली वैसे ही भारत के हर नागरिक का तन बदन सुलग गया। बापू के समर्थन में अनेकों समर्थकों ने जेल जाने की इच्छा व्यक्त की। जेल के बाहर होने वाले प्रदर्शन ने गोरों को हिलाकर रख दिया। इसके अलावा 1922 में चौरी चौरा में तनाव को देखकर ब्रितानी सरकार बहुत ही भयाक्रांत थी। निर्मम गोरों ने बापू को दस मार्च 1922 को पकड़कर जेल में डाल दिया। 1930 में कमोबेश यही स्थिति नमक सत्याग्रह के दौरान निर्मित हुई थी।

आजादी के उपरांत बापू की हत्या के बाद भारत में कुछ साल तो सब कुछ ठीक ठाक चला किन्तु इसके उपरांत तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमति इंदिरा गांधी की सराउंडिंग (इर्द गिर्द के लोग) ने उन्हें अंधेरे में रखकर अत्त मचाना आरंभ कर दिया। प्रियदर्शनी इंदिरा गांधी की जानकारी के बिना ही अनेक फैसले लिए जाकर उन्हें अमली जामा भी पहनाया जाने लगा। देश में अराजकता की स्थिति बन गई थी।

इसी दौरान भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के महान जननायक जय प्रकाश नारायण ने एक आंदोलन की रूपरेखा तैयार की और 25 जून 1975 को इसे मूर्त रूप दिया। जेपी ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से त्यागपत्र की मांग कर डाली। इंदिरा गांधी के आंख नाक कान बने लोगों ने रातों रात जेपी सहित अनेक लोगों को बंद कर जेल में डाल दिया। यह जनता का रोष और असंतोष था कि आजादी के बाद सबसे ताकतवर कांग्रेस पार्टी को सत्ता छोड़कर विपक्ष के पटियों पर बैठना पड़ा था।

अन्ना हजारे ने यह साबित कर दिया है कि भारतवासी एकजुट होकर अन्याय के खिलाफ कभी भी खड़े हो सकते हैं। भारत के हर नागरिक ने भी यह दिखा दिया है कि भारतवासी सहिष्णु, सहनशील शांत और सोम्य अवश्य हैं, किन्तु वे नपुंसक कतई नहीं हैं। अन्ना हजारे के इस कदम ने हर भारतवासी के दिल में बसने वाले राष्ट्रपिता महात्मा गांधी और लोकनायक जय प्रकाश नारायण की यांदें ताजा कर दी हैं।

देश पर आधी सदी से ज्यादा राज करने वाली कांग्रेस को अब भविष्य का रोड़मैप तय करना होगा, जिसमें घपले, घोटाले, भ्रष्टाचार, अनाचार, धोखेबाजी आदि को स्थान न दिया जा सके। अन्ना हजारे की सादगी पर कोई भी मर मिटे। जिस सादगी के साथ उन्होने अनशन कर राजनेताओं को इससे दूर रखा और सरकार को झुकने पर मजबूर किया अन्ना की उस शैली को देखकर बरबस ही मुंह से फूट पड़ता है -‘‘अन्ना, आई मस्ट सैल्यूट यू।‘‘

 

भ्रष्टों को अन्ना के अनशन से होना चाहिए शर्मसार

लिमटी खरे

अमेरिकी मूल के गोरे लेखक जोसेफ लेलीवेल्ड की किताब में महात्मा गांधी पर आपत्तिजनक टिप्पणियां की गई हैं। कहा गया है कि बापू 1908 में चार बच्चों को जन्म देने के बाद कस्तूरबा गांधी से प्रथक होकर कालेनबाश के साथ रहने चले गए थे। इस किताब में अनेक पत्रों का हवाला देकर बापू के बारे में अश्लील और अमर्यादित टिप्पणियां की गई हैं कि वे समलेंगिक या गे थे। इस किताब में कहा गया है कि बापू समलैंगिक थे। आधी धोती पहनकर ब्रितानियों के दांत खट्टे करने वाले बापू का सरेआम करने के बावजूद भी एक सप्ताह तक कांग्रेस ने इसकी सुध नहीं ली। बापू को समलेंगिक बताना वाकई कांग्रेस को छोड़कर समूचे भारत के लिए शर्म की बात है। अब कांग्रेसनीत केंद्र सरकार यह कह रही है कि इस किताब पर प्रतिबंध नहीं लगाया जा सकता है।

अपनी शहादत के 63 साल बाद भी आज गांधी समूचे विश्व में प्रासंगिक बने हुए हैं। समूची दुनिया उस महात्मा की कायल है जिसने आधी धोती पहनकर ब्रितानियों के दांत खट्टे कर दिए थे, जिनके बारे में कहा जाता था कि उनका सूरज नहीं डूबता है। इसका अर्थ था कि उनका साम्राज्य इतना फैला हुआ था कि एक देश में सूरज डूबता था तो दूसरे देश में उग जाता था।

गांधीवादी नेता अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार के खिलाफ हल्ला बोल को जबर्दस्त जनसमर्थन मिलने पर किसी को आश्चर्य नहीं है। धर्मगुरूओं का यह कहना ही अपने आप में पर्याप्त है कि कांग्रेस को शर्म आनी चाहिए कि आजाद और लोकतांत्रिक देश में उसके नेतृत्व वाली सरकार के रहते हुए एक बुजुर्ग गांधीवादी को भ्रष्टाचार मिटाने के लिए अमरण अनशन करने पर मजबूर होना पड़ रहा है।

बापू के आदर्शों को आज भी समूची दुनिया अंगीकार किए हुए है, विशेषकर उनके अंहिसा आंदोलन को। गांधीवादी तरीके से अन्ना हजारे ने भी सरकार को कटघरे में खड़ा कर ही दिया है। कुछ दिनों पहले अमेरिका के डाक्टूमेंट्री फिल्म निर्माता जेम्स ओटिस ने बापू की कुछ अनमोल चीजों की नीलामी करने की घोषणा की थी। इस घोषणा के बाद भारत सरकार को राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की याद आई और आनन फानन उसने इस चीजों को वापस लाने की पहल आरंभ की।

कितने आश्चर्य की बात है कि ओटिस ने बापू के चश्मे, जेब वाली घड़ी, चमड़े की चप्पलें, कटोरी, प्लेट आदि को भारत को सौंपने के एवज में एक मांग रखी थी। ओटिस का कहना था कि अगर भारत सरकार अपने बजट का पांच प्रतिशत हिस्सा गरीबी उन्नमूलन पर खर्च करे तो वे इन सामग्रीयों को भारत को लौटा सकते हैं।

ओटिस की इस मांग को दो नज़रियांे से देखा जा सकता है। अव्वल तो यह कि भारत सरकार क्या वाकई देश के गरीबों के प्रति फिकरमंद नहीं है? और क्या वह गरीबी उन्नमूलन की दिशा में कोई पहल नहीं कर रही है। अगर एसा है तो भारत सरकार को चाहिए कि वह हर साल अपने बजट के उस हिस्से को सार्वजनिक कर ओटिस को बताए कि उनकी मांग के पहले ही भारत सरकार इस दिशा में कार्यरत है। वस्तुतः सरकार की ओर से इस तरह का जवाब न आना साफ दर्शाता है कि ओटिस की मांग में दम था।

वहीं दूसरी ओर ओटिस को इस तरह की मांग करने के पहले इस बात का जवाब अवश्य ही देना चाहिए था कि उनके द्वारा एकत्र की गईं महात्मा गांधी की इन सारी वस्तुओं को किसी उचित संग्रहालय में महफूज रखने के स्थान पर इनकी नीलामी करने की उन्हंे क्या ज़रूरत आन पड़ी।

ज्ञातव्य होगा कि 1996 में एक ब्रितानी फर्म द्वारा महात्मा गांधी की हस्तलिखित पुस्तकों की नीलामी पर मद्रास उच्च न्यायालय द्वारा रोक लगाई गई थी। यह पहल भी 1929 में गठित किए गए नवजीवन ट्रस्ट द्वारा ही की गई थी। सवाल तो यह उठता है कि महात्मा गांधी द्वारा जब अपनी वसीयत में साफ तौर पर लिखा था कि उनकी हर चीज, प्रकाशित या अप्रकाशित आलेख रचनाएं उनके बाद नवजीवन ट्रस्ट की संपत्ति होंगे, के बाद उनसे जुड़ी वस्तुएं सात समुंदर पार कर अमेरिका और इंग्लेंड कैसे पहुंच गईं?

जिस चश्मे से उन्होंने आजाद भारत की कल्पना को साकार होते देखा, जिस चप्पल से उन्होंने दांडी जैसा मार्च किया। जिस प्लेट और कटोरी में उन्होंने दो वक्त भोजन पाया उनकी नीलामी होना निश्चित रूप से बापू के विचारों और उनकी भावनाओं का सरासर अपमान था।

समूचे विश्व के लोगों के दिलों पर राज करने वाले अघोषित राजा जिन्हें हिन्दुस्तान के लोग राष्ट्र का पिता मानते हैं, उनकी विरासत को संजोकर रखना भारत सरकार की जिम्मेवारी बनती है। इसके साथ ही साथ महात्मा गांधी के दिखाए पथ और उनके आचार विचार को अंगीकार करना हर भारतीय का नैतिक कर्तव्य होना चाहिए।

महात्मा गांधी के नाम से प्रचलित गांधी टोपी को ही अगर लिया जाए तो अब उंगलियों में गिनने योग्य राजनेता भी नहीं बचे होंगे जो इस टोपी का नियमित प्रयोग करते होंगे। अपनी हेयर स्टाईल के माध्यम से आकर्षक दिखने की चाहत मंे राजनेताआंे ने भी इस टोपी को त्याग दिया है। यहां तक कि कांग्रेस की नजर में भविष्य के युवराज राहुल गांधी भी अवसर विशेष पर ही फोटो सेशन के लिए ही गांधी टोपी धारण किया करते हैं।

आधी सदी से अधिक देश पर राज करने वाली अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के अनुषांगिक संगठन सेवादल की पारंपरिक वेशभूषा में गांधी टोपी का समावेश किया गया है। विडम्बना ही कही जाएगी कि सेवादल में सलामी लेने के दौरान ही कांग्रेस के बड़े नेताओं द्वारा इस टोपी का प्रयोग किया जाता है। सलामी के बाद यह टोपी कहां चली जाती है इस बारे में किसी को कुछ भी पता नहीं होता है।

इसके साथ ही गांधी वादी आज भी खादी का इस्तेमाल करते हैं, मगर असली गांधीवादी। आज हमारे देश के 99 फीसदी राजनेताओं द्वारा खादी का पूरी तरह परित्याग कर दिया गया है, जिसके चलते हाथकरघा उद्योग की कमर टूट चुकी है। आज आवश्यक्ता इस बात की है कि गांधी जी की विरासत को तो संजोकर रखा ही जाए, साथ ही उनके विचारों को संजोना बहुत जरूरी है। बापू की चीजें तो बेशक वापस आ जाएंगी, किन्तु उनके बताए मार्ग का क्या होगा?

दुनिया के चौधरी अमेरिका का रहवासी लेखक जोसेफ लेलीवेल्ड द्वारा बापू को सरेआम समलेंगिक की श्रेणी में खड़ा किया जा रहा है और उनके नाम पर सत्ता की मलाई चखने वाली कांग्रेस द्वारा अपनी जुबान बंद रखी हुई है। कहा तो यह भी जा रहा है कि कांग्रेस की कमान इटली मूल की सोनिया मानियो उर्फ सोनिया गांधी के हाथों में हैं जिन्हें गांधी के नाम का प्रयोग तो आता है पर गांधी के बलिदान और उनकी शहादत से कोई लेना देना नहीं है।

देश के वर्तमान हालातों को देखकर हम यह कह सकते हैं कि देश के राजनेताओं ने अपने निहित स्वार्थों के चलते राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के आर्दशों को भी नीलाम कर दिया है। आज के परिवेश में राजनीति में बापू के सिद्धांत और आदर्शों का टोटा साफ तौर पर परिलक्षित हो रहा है। ओटिस की नीलामी करने की घोषणा हिन्दुस्तान के राजनेताओं के लिए एक कटाक्ष ही कही जा सकती है, कि भारत गांधी जी के सिद्धांतों पर चलना सीखे।

 

अनगिनत टैक्स से जूझता आम भारतीय नागरिक

गोपाल सामंतो

कुछ दिनों पूर्व जब मैं रायपुर से नागपुर तक का सफ़र अपनी गाड़ी से कर रहा था तो एक ख्याल मेरे मन में हर कुछ किलोमीटर के सफ़र के बाद बार बार आ रहा था कि आखिर मैं इन्कम टैक्स पटाता ही क्यों हूं? और ये सवाल इसलिए आ रहा था क्योंकि इस 300 किलोमीटर के सफ़र में मेरे जेब से टोल टैक्स के रूप में 100 रुपये लग चुके थे और वापस आते वक़्त भी इतने का ही चुना मुझे दोबारा लगा. मुझे ये भी पता है कि शायद इन पंक्तियों को पढ़ के कुछ लोग जरूर ये बोलेंगे कि देखो ये व्यक्ति मात्र 200 रूपये के लिए रो रहा है. क्योंकि सबसे बड़े लोकतन्त्र में ऐसी भावनाए रखने वालों को अक्सर हीन दृष्टि से देखा जाता है या ये सोचा जाता है कि ऐसी सोच रखने वालों के पास कोई काम नहीं होता है. ऐसे आजकल देश का इन्कम टैक्स डिपार्टमेंट बहुत तेज तर्रार हो चुका है और अपने विज्ञापनों के माध्यम से लोगों के बीच डर और देशप्रेम दोनों भावनाओं को जगाने में लगा हुआ है. इनके विज्ञापनों में ये बताया जाता है कि हमारे टैक्स के पैसो से रास्ते, पूल आदि अन्धोसंरचना का विकास होता है. पर अब मेरा सवाल ये है कि अगर मैं हर साल इन्कम टैक्स नियमित रूप से अदा करता हू तो इसका मतलब कही न कही मेरा योगदान भी इन सड़कों के निर्माण में है तो फिर मुझसे टोल टैक्स क्यों लिया जाता है?

देश के इकोनोमिक सिस्टम को अगर गौर से देखा जाए तो ये पता चलता है कि यहाँ हर नागरिक चाहे वो इन्कम टैक्स के दायरे में आता हो या न हो पर उसे हर दिन अनगिनत टैक्स पटाना पड़ता है. हद तो ये है कि मनोरंजन पर भी कर अदा करना पड़ता है और इन गाढ़ी मेहनत कि कमाई से हजारो करोड़ के घोटालो को अंजाम दिया जाता है. आलम तो ये है कि आज हर भारतीय नागरिक को अनगिनत टैक्स पटाने पड़ते है चाहे वो इन्कम टैक्स के दायरे में आता हो या नहीं. एक मोबाइल के बिल में सरकार 3 तरह के टैक्स वसूलती है, 10 फीसदी का सर्विस टैक्स, 2 फीसदी एजुकेशन सेस और उस पर 1 फीसदी का हायर एजुकेशन सेस. देश जब आज़ाद हुआ था तब सूदखोरी को कानूनन अपराध के श्रेणी में लाया गया था पर आज जो इन्कम टैक्स विभाग हर टैक्स के ऊपर टैक्स ले रही है तो ये क्या अपराध नहीं है. अगर यूरोप और एशिया के ज्यादातर देशों के टैक्स पालिसी को देखा जाए तो कही भी सर्विस टैक्स का उल्लेख न के बराबर ही है. अमरीका और ब्रिटेन में डायरेक्ट सर्विस टैक्स का प्रावधान है ही नहीं और न ही सेस का, आखिर भारत कि अर्थव्यवस्था में ऐसी क्या जरूरत आन पड़ी है कि एक एक नागरिकों को टैक्स के बोझ के तले दबा दिया जा रहा है .

आज देश के महंगाई के स्तर को देखें तो 1,80,000 कि टैक्स फ्री लिमिट बहुत कम लगती है, बड़े शहरों में तो इतने में मध्यम वर्ग का घर नहीं चल पाता है. महानगरों कि परिस्थिति ये है कि खाली किराया में ही लोगों को लाखो खर्च बढ़ जाते है, बच्चों कि शिक्षा और स्वस्थ के तो क्या कहने इन पर तो जितना खर्च कर ले उतना कम है. तो आखिर ये सब सरकार को समझ क्यों नहीं आती है. भारत शायद इस विश्व के कुछ चुनिन्दा देशो में आता है जहा मनोरंजन पर भी टैक्स लगाया जाता है, मतलब आपको खुश रहने का भी टैक्स अदा करना पड़ता है.

इस देश में जो वर्तमान टैक्स पोलिसी है उसके तहत यहाँ के नागरिकों को पहले पैसे कमाते वक़्त टैक्स चुकाना पड़ता है और जब वे अपने उन पैसो को खर्च करते है तो दोबारा टैक्स पटाना पड़ता है. बाद में यही टैक्स का पैसा है जो घोटालो के रूप में भ्रष्ट नेताओ और अधिकारिओं के जेब गरम करने का काम करता है और कभी कभी इन तमाम कद्देवर लोगों के स्विस बैंक में भी सड़ते है. एक सर्वे के अनुसार स्विस बैंक में रखे भारतीय पैसों को अगर देश में लाया जा सका तो एक ऐसी व्यवस्था कड़ी हो पायेगी जिससे आने वाले ३० सालों तक देश के नागरिको को टैक्स से राहत दिया जा सकेगा. ये वही देश है जहा एक केंद्रीय मंत्री के अध्यक्षता वाले अंतरास्ट्रीय क्रिकेट कमेटी को 45 करोड़ रुपये की टैक्स छूट प्रदान की जाती है. आखिर ऐसा इस कमेटी ने देश के लिए क्या कर दिया कि इस संस्था को इतनी बड़ी छूट दी गयी? ये समझ से परे है अलबत्ता देश के महंगाई मंत्री शरद पवार ने इस छूट कि नीव रखी ये जग जाहिर है.

जब अन्ना हजारे जी मैदान में भ्रष्टाचार के खिलाफ बिगुल फूका तो पूरा देश उनके साथ खड़ा हो गया, कभी अगर इस ओर भी उनका विचार गया तो शायद देश में सत्तासीन लोगो के कान में आवाज पहुच पायेगी.

 

जंतर मंतर पर फिर हुई ‘गांधीवाद की जय’

तनवीर जाफ़री

वयोवृध्द गांधीवादी नेता एवं समर्पित सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हजारे का, देश में व्याप्त भ्रष्टाचार से तंग आकर किया गया आमरण अनशन समाप्त हो गया। केंद्र सरकार ने अन्ना हजारे की अधिकांश मांगों को स्वीकार कर लिया। गोया जंतर मंतर पर एक बार फिर गांधी के सत्य अहिंसा व बलिदान की पताका देश में फहराई। वैसे तो भ्रष्टाचार का विरोध किए जाने की बातें सार्वजनिक रूप से सभी राजनैतिक दलों के सभी राजनेता करते देखे जा सकते हैं। वे भी जो आकंठ भ्रष्टाचार में डूबे हैं तथा वे भी जिन्होंने अपने थोड़े से समय के राजनैतिक जीवन में ही अकूत धन संपत्ति कमा डाली है। और वे भी जो भ्रष्टाचारियों को संरक्षण देते हैं तथा उनसे हर प्रकार के लाभ उठाते हैं। अत: यदि इस प्रकार के पाखंडी राजनेता या अधिकारी भ्रष्टाचार के विरुध्द आवाज उठाएं तो निश्चित रूप से इसे महा एक पाखंड या ढकोसला ही कहा जाएगा। परंतु जब भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम की लगाम अन्ना हजारे, अरविंद केजरीवाल तथा किरण बेदी या स्वामी अग्निवेश जैसे समर्पित एवं फक्कड़ लोगों के हाथों में हो तो देश की जनता का ध्यान इनकी ओर आकर्षित होना स्वाभाविक है। और कुछ ऐसा ही नजारा तब देखने को मिला जब महात्मा गांधी की सत्य,अहिंसा व बलिदान की नीतियों का अनुसरण करते हुए 71 वर्षीय अन्ना हजारे संसद में जन लोकपाल विधेयक पारित कराए जाने की मांग को लेकर 5 अप्रैल से आमरण अनशन पर बैठ गए। उनके समर्थन में न केवल पूरे देश में अनशन, भूख-हड़ताल, धरना, प्रदर्शन, जुलूस व रैलियां शुरु हुईं बल्कि विदेशों में भी उनके समर्थन में रैली व मार्च आयोजित किए जाने के समाचार आए।

सवाल यह उठता है कि जब केंद्र में मनमोहन सिंह जैसे ईमानदार व योग्य व्यक्ति के नेतृत्व में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार शासन कर रही हो और कांग्रेस पार्टी स्वयं को गांधी की विचारधारा की अलमबरदार पार्टी बताने का भी दम भरती हो ऐसे में अन्ना हजारे जैसे वरिष्ठ गांधीवादी नेता को आमरण अनशन तक जाने की जरूरत ही क्यों महसूस हुई। मनमोहन सिंह तथा कांग्रेस पार्टी के तमाम वरिष्ठ नेता यहां तक कि कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को अन्ना हजारे द्वारा सुझाए जा रहे जन लोकपाल विधेयक से आंखिरकार तब सहमत हुए जब अन्ना हजारे अपने तमाम साथियों सहित अनशन पर बैठे तथा इस आंदोलन को असंगठित होने के बावजूद ऐतिहासिक समर्थन मिला। गत् 40 वर्षों से विचाराधीन लोकपाल विधेयक को आख़िर जन लोकपाल विधेयक के रूप में कांफी पहले परिवर्तित कर दिया जाना चाहिए था। यदि राजनीतिज्ञ स्वयं को इतना ही सांफ-सुथरी तथा बेदांग छवि वाला समझते होते तो अन्ना हजारे के आमरण अनशन शुरु करने के एक ही दिन बाद शरद पवार जैसे नेता जोकि स्वयं को प्रधानमंत्री पद का सबसे माबूत दावेदार समझने की गलतफहमी भी पाले हुए थे, भ्रष्टाचार के विरुध्द बने मंत्रिमंडलीय समूह से त्यागपत्र न दे डालते।

बहराल, अन्ना हजारे की कुर्बानी रंग ले आई है। जन लोकपाल विधेयक सरकार द्वारा प्रस्तावित लोकपाल विधेयक का स्थान संभवत:लेने को है। देश में भ्रष्टाचार को समाप्त करने विशेषकर उच्चस्तरीय भ्रष्टाचार को समाप्त करने अथवा नियंत्रित करने की दिशा में यह एक महत्वपूर्ण कदम होगा। निश्चित रूप से जनप्रतिनिधि व उच्चाधिकारी अब जनलोकपाल विधेयक केभयवश दोनों हाथों से देश को लूटने की अपनी प्रवृति से बाज आ सकेंगे। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने भी अन्ना हजारे के आंदोलन के प्रति अपनी सहानुभूति दिखा कर इस बात के संकेत दे दिए हैं कि भ्रष्टाचार अब बहुत हो लिया और यह सिलसिला अब देश आगे और नहीं बर्दाश्त कर सकता। देश के नौजवानों से लेकर बुजुर्गों तक ने इस आंदोलन को बिना किसी निमंत्रण अथवा रणनीति के जिस प्रकार व्यापक समर्थन दिया तथा हजारे के आमरण अनशन के समर्थन में जो उत्साह दिखाया वह भी न केवल काबिले तारींफ था बल्कि इसे देखकर इस बात का भी सांफ अंदाजा हो रहा था कि देश का बहुसं य वर्ग वास्तव में भ्रष्टाचार तथा भ्रष्टाचारियों से बेहद दु:खी है। खासतौर पर उन जनप्रतिनिधियों के भ्रष्टाचार से जोकि जनता द्वारा पांच वर्षों के लिए निर्वाचित तो इसलिए किए जाते हैं ताकि वे अपने क्षेत्र का समग्र विकास करते हुए देश के बहुमुखी विकास में अपनी भागीदारी निभाएं। परंतु आमतौर पर यही प्रतिनिधि भ्रष्टाचार, स्वार्थ तथा परिवारवाद में ऐसा उलझ कर रह जाते हैं गोया कि जनता ने इन्हें लूट-खसोट करने, देश को बेच खाने तथा अपने परिवार को जनता की छाती पर जबरन सवार कर देने का लाईसेंस दे दिया हो।

इस आंदोलन का एक पहलू यह भी था कि अन्ना हजारे द्वारा उठाए गए आमरण अनशन जैसे साहसिक एवं बलिदानपूर्ण कदम को अपना समर्थन देने की आड़ में तमाम ऐसे राजनैतिक दलों व नेताओं में भी होड़ मची देखी गई जिनका भ्रष्टाचार से चोली-दामन का साथ है। ऐसे कई नेता हजारे को समर्थन देने के बहाने जंतरमंतर पर भी जा पहुंचे। परंतु अन्ना हजारे व उनके समर्थकों ने उनके ढोंगपूर्ण समर्थन को स्वीकार करने के बजाए उन्हें जंतरमंतर से वापस कर दिया। इसी प्रकार इस दौरान चली भ्रष्टाचार संबंधी राष्ट्रीय बहस में भी उन राजनैतिक दलों को बढ़चढ़ कर अन्ना हजारे का समर्थन करते देखा गया जिनके राष्ट्रीय अध्यक्ष, केंद्रीय मंत्री,मु यमंत्री सभी पर घोर भ्रष्टाचार के आरोप हैं। परंतु ऐसे दल व इनके नेता भी हजारे को समर्थन देते व कांग्रेस की गठबंधन सरकार को कोसते व भ्रष्टाचारी बताते दिखाई पड़े। जबकि नैतिकता का तकाजा तो यही है कि अन्ना हजारे के आंदोलन का समर्थन तथा भ्रष्टाचार का मुखरित हो कर विरोध करने का अधिकार केवल उसी को होना चाहिए जिसका दूर-दूर तक भ्रष्टाचार से कोई लेना-देना न हो। जो लोग स्वयं भ्रष्टाचार में डूबे हों या भ्रष्टाचारियों को संरक्षण देते हों अथवा चुनाव हेतु पार्टी फ़ंड में भ्रष्टाचारियों से काला धन लेते हों कम से कम उन्हें तो भ्रष्टाचार का विरोध करने का कोई अधिकार नहीं है।

भ्रष्टाचार के विरुध्द संघर्ष करते हुए अपना पूरा जीवन समर्पित कर देने वाले अन्ना हजारे ने भ्रष्टाचार से लड़ने की आड़ में अपनी कोई संपत्ति अर्जित नहीं की। न ही उन्होंने कोई विश्वविधालय बनाया, न ही किसी प्रकार का उद्योग स्थापित किया,न ही कोई टापू खरीदा, न ही मंत्रियों, मु यमंत्रियों या केंद्रीय मंत्रियों को अपने किसी आयोजन में बुलाकर अपना मान-स मान बढ़ाने का प्रयास किया। उनके किसी भक्त ने हजारे को शायद इस योग्य भी नहीं समझा कि वह भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम से संघर्ष करने हेतु कम से कम उन्हें एक हेलीकॉप्टर तो ‘गुप्तदान’ में दे देता? परंतु इन सभी सांसारिक एवं भौतिक संसाधनों के अभाव के बावजूद इस वरिष्ठ गांधीवादी ने अपने आमरण अनशन के बल पर केंद्र सरकार सहित पूरे देश व पूरी दुनिया में रह रहे भारतवासियों को झकझोर कर रख दिया। हजारे की इस कुर्बानी ने उन तमाम तथाकथित भ्रष्टाचार विरोधियों को भी बौना कर दिया जो कि बातें तो भ्रष्टाचार से लड़ने की करते हैं परंतु अपने साथ भ्रष्टाचारियों का ही समर्थन भी रखते हैं। और जरूरत पड़ने पर इन्हीं भ्रष्टाचारियों के दल को लाखों रुपये चंदा देने से भी नहीं हिचकिचाते। अन्ना हजारे ने न तो कभी किसी राजनैतिक दल के गठन की इच्छा जाहिर की, न ही कभी सत्ता अपने हाथ में लेकर उसमें स्वयं सुधार किए जाने जैसा कोई स्वार्थपूर्ण खाका तैयार किया। उन्होंने वही किया जो गांधी जी किया करते थे। अर्थात् सत्य, अहिंसा और बलिदान के मार्ग पर चलकर सरकार,देश व दुनिया को अपनी ओर आकर्षित करना।

71 वर्षीय इस महान गांधीवादी नेता अन्ना हजारे के आंदोलन ने एक बार फिर यह भी प्रमाणित कर दिया है कि महात्मा गांधी के आदर्श व उनके सिध्दांत आज भी न केवल प्रासंगिक हैं बल्कि पूरी तरह जीवित भी हैं। बड़े आश्चर्य की बात है कि इस गांधीवादी आंदोलन का समर्थन वह लोग करते भी दिखाई दिए जो गांधीवादी विचारधारा के प्रबल विरोधी हैं। बेशक ऐसी शक्तियों द्वारा हजारे को दिया जाने वाला समर्थन उनके अपने स्वार्थवश दिया गया समर्थन ही था। परंतु हजारे ने गांधी जी के मार्ग पर चलते हुए एक बार फिर देश में महात्मा गांधी की याद को ताजा कर दिया है। इतना ही नहीं बल्कि आज की जिस पीढ़ी ने महात्मा गांधी के बारे में केवल पढ़ा है परंतु देखा नहीं, वह पीढ़ी भी अन्ना हजारे के इस आमरण अनशन को देखकर यह कल्पना करने लगी है कि वास्तव में महात्मा गांधी भी अहिंसा का दामन थाम कर इसी प्रकार अंग्रेजों से भी अपनी बातें मनवाते रहे होंगे।

हिंसा का सिध्दांत यही होता है कि किसी को मार कर, किसी का घर जलाकर या किसी की बस्ती उजाड़ कर अपनी बातें मनवाने का प्रयास किया जाए। इस देश में इस विचारधारा के समर्थक भी कांफी सक्रिय हैं तथा यही लोग महात्मा गांधी को कोसते भी रहते हैं। दूसरी ओर अहिंसा के मार्ग पर चलते हुए अपनी मांग पूरी करवाने का एकमात्र गांधीवादी तरींका यही होता है कि आमरण अनशन,सांकेतिक भूख हड़ताल, क्रमिक अनशन या उपवास आदि रखकर तथा स्वयं दु:ख उठाकर व अपनी जान को खतरे में डालकर अपनी जाया मांगों को पूरा करवाने हेतु सत्ता केंद्र को अपने घुटने टेकने के लिए मजबूर किया जाए। जैसाकि अन्ना हजारे व उनके समर्पित साथियों ने कर दिखाया है। अन्ना हजारे के इस बलिदानपूर्ण कदम ने जहां भ्रष्टाचार के विरुध्द संघर्ष करने में अपना परचम बुलंद किया है वहीं जंतरमंतर पर किए गए उनके आमरण अनशन ने देश को एक बार फिर महात्मा गांधी की याद ताजा कर दी है। निश्चित रूप से देश को अन्ना हजारे जैसे एक-दो नहीं हजारों अन्ना हजारे चाहिए जो समय-समय पर गांधी दर्शन को जीवित रख सकें तथा समय पड़ने पर इसी प्रकार सरकार को सचेत करते रहें।

वर्चुअल अन्ना का नकली मीडिया संग्राम

जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

अन्ना हजारे बड़े हैं। आदरणीय हैं। संघर्षपूर्ण जीवन जीते रहे हैं। लेकिन जन्तर-मन्तर में उन्होंने इसबार आम जनता के साथ आंदोलन का जो नाटक खेला है उसे श्रद्धा को एक तरफ रखकर राजनीतिक भाषा में पढ़ने की जरूरत है। इस बात को कहने का यह अर्थ नहीं है कि उनके प्रति किसी तरह की मेरे मन श्रद्धा कम हो गयी है लेकिन राजनीति की भाषा में कहें तो अन्ना हजारे लोकपाल बिल पर जन्तर-मन्तर में जो खेल कर रहे थे वह कांग्रेस का प्रायोजित खेल था। कांग्रेस ने अन्ना हजारे के माध्यम से यह खेल क्यों खेला इसका जबाब अन्ना हजारे ही दे सकते हैं। हम तो सिर्फ सामने इंटरनेट और मीडिया में जो घट रहा है उसकी ओर ध्यान खींच रहे हैं। अन्ना के आमरण अनशन के बाद की गयी घोषणाएं इस बात की सूचना है कि अन्ना के बहाने विभिन्न स्तरों पर नए सिरे दबाब की राजनीति का अलोकतान्त्रिक खेल भविष्य में होगा। पहले हम संक्षेप में उस राजनीति को पढ़ें जो अन्ना ने की है।

अन्ना हजारे ईमानदार हो सकते हैं। लेकिन उन्हें और उनके समर्थकों को सोनिया गांधीके सत्ता के तंत्र से अलग रखना होगा।सन् 1974 में कम से कम बाबू जयप्रकाश नारायण ने भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम चलाते समय सत्ता के गलियारों में सक्रिय किसी भी नेता या कांग्रेसी सलाहकार बुद्धिजीवी को अपने साथ नहीं रखा था।इस नजरिए से देखें तो अन्ना की जंग नकली जंग है और सरकार और सोनिया नियंत्रित जंग है। कैसे है यह जंग सरकार नियंत्रित उसका भंडाभोड यहां पर देखें।

लोकपाल बिल पर जो कमेटी बनी है उसमें अन्ना हजारे के जो लोग हैं वे सोनिया गांधी की अध्यक्षता में काम करने वाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद में भी हैं। खासकर लोकपाल बिल पर बनी कमेटी में वे सभी लोग हैं जिनको अन्ना ने प्रस्तावित किया है। लोकपाल बिल का नाटक शुरू होने के पहले अन्ना हजारे की प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से 15 मिनट बातचीत हुई। इसके पहले लोकपाल बिल के मसौदे पर भी सोनिया गांधी की नजरदारी में बैठक हुई। यह बात राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की वेबसाइट पर दी गयी सूचना में कही गयी है। लोकपाल बिल का मसौदा तैयारी की प्रक्रिया में है और इसे तैयार करने वाली कमेटी में जस्टिस संतोष हेगड़े हैं,प्रशान्तभूषण है,शांतिभूषण है,अरविंद केजरीवाल हैं, सिर्फ अन्ना हजारे इसमें नहीं हैं। बाकी अन्ना हजारे के सुझाए 4 आदमी उस कमेटी में हैं जिसने नए लोकपाल बिल का मसौदा तैयार किया है। लोकपाल बिल की समस्त जानकारी और उन सलाहकारों के नाम यहां सीधे पेस्ट कर रहे हैं जिससे अन्ना हजारे के इस सरकारी नाटक को समझ सकें।

अन्ना हजारे यदि सचमुच में ईमानदारी से संघर्ष करना चाहते हैं तो उन्हें और उनके सलाहकारों को राष्ट्रीय सलाहकार परिषद से अपने को अलग करना चाहिए।सत्ता के तमाम पापों को विभिन्न किस्म के नामों से पुण्य में बदलने का यह परिषद काम कर रही है। यह सत्ता की सलाहकार परिषद है। जनता के हितों की संरक्षक परिषद नहीं है। इस परिषद का काम वही है जिसे एक जमाने में कांग्रेस में युवा तुर्क अंजाम दिया करते थे। उन्होंने कांग्रेस में समाजवादी मंच बनाया हुआ था,संयोग से उसके अवशेष के रूप में शशिभूषण आज भी कांग्रेस के इस मंच में मौजूद हैं। अन्ना हजारे का संघर्ष किसी भी अर्थ में तब ही प्रामाणिक और ईमानदार बनेगा जब वे और उनके सलाहकार सत्ता की इस परिषद से बाहर आकर लड़ें।

अन्ना हजारे की तथाकथित जंग,सत्ता द्वारा प्रायोजित जंग है। सत्ता के द्वारा जो लक्ष्मण रेखा खींची गयी है उसके भीतर ही रहकर राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के लोग विभिन्न स्तरो पर और विभिन्न किस्म के एनजीओ में काम कर रहे हैं। यह नव्य उदार राजनीति का नया तरीका है काम करने का। सवाल यह नए लोकपाल बिल पर जब इतना काम आगे बढ़ चुका था तो आमरण अनशन का नाटक करने और आम जनता की आंखों में धूल झोंकने की क्या जरूरत थी ? जिन लोगों को अविश्वस हो वे राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की वेबसाइट पर दी गयी लोकपाल बिल संबंधी जानकारी को पढ़ लें और इस नाटक को जान लें।

 

Lokpal Bill

 

The National Advisory Council (NAC) took a decision on February 26, 2011 to examine the Lokpal Bill by the Transparency, Accountability & Governance Working Group. The NAC Working Group on Transparency, Accountability and Governance held its first consultation with civil society groups on the Lokpal Bill under the convenership of Smt. Aruna Roy on 4th April, 2011. The meeting discussed the draft prepared by various people’s movements and groups. After exhaustive discussions, there was consensus on most of the general principles underlying the draft Bill, though some provisions need to be examined further. The NAC WG on TA & G, will finalize the principles and framework, on the basis of this discussion. Another meeting of the WG is scheduled before the National Advisory Council meets on April 28, 2011. The attendees included S/Shri/Ms: Shanti Bhushanji, Prabhat Kumar, Aruna Roy, Trilochan Sastry, Jagdeep Chhokar, Kamal Jaswal, Zaware, Santosh Hegde, Narendra Jadhav, Nikhil Dey, Shekhar Singh, Vrinda Grover, Harsh Mander, Wajahat Habibullah, Arvind Kejriwal, Swami Agnivesh, Sarvesh Sharma, Usha Ramanathan, Amitabh Mukhopadhyay, Santosh Mathew, Shanti Narain, Prashant Bhushan, Sandeep Pandey and members of the NAC Secretariat

सॉरी गांधी! सॉरी अन्ना!

आशुतोष

आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री चले गये। छायावाद के इस पुरोधा ने सौ से अधिक रचनायें लिखीं, पांच हजार से अधिक गीत। कोई एक गीत दूसरे की प्रतिलिपि नहीं। साहित्य में ही नहीं, निजी जीवन में भी प्रसाद और निराला के अनुयायी, उन्हीं की तरह स्वाभिमानी। कुछ समय पूर्व सरकार ने पद्म पुरस्कार देने का निर्णय किया किन्तु उन्होंने विनम्रतापूर्वक अस्वीकार कर दिया। जीवन के अंतिम वर्षों में किसी ने उनके लिये कहा कि निराला को आदर्श मानने वाले को ‘उनके जैसे अन्त के लिये भी’ तैयार रहने चाहिये। उन्होंने इसे स्वीकार भी किया।

आचार्य जी का जाना मीडिया के लिये खबर नहीं है। संभवतः किसी भी राष्ट्रीय चैनल पर उनके निधन की खबर नहीं चली। चैनल पर छाया है अन्ना हजारे का अनशन, जिसमें हर पल समर्थन देने के लिये कोई न कोई सेलेब्रिटी पधार रहा है। उसका गाड़ी से उतरना, उसका एपीअरेंस, उसकी डायलॉग डिलीवरी, मंच की ओर उसका सधे कदमों से बढ़ना, सभी कुछ तो दिखाया जाना जरूरी है। इस हाईवोल्टेज ड्रामे के सामने शास्त्री जी के जाने की क्या मीडिया वैल्यू है।

अन्ना हजारे के नेतृत्व में देश भर के तमाम सामाजिक कार्यकर्ता दिल्ली के जंतर-मंतर पर आ जुटे हैं। दिल्ली का जंतर-मंतर इस तरह के धरने-प्रदर्शनों का लम्बे समय से साक्षी रहा है। आम तौर पर ऐसे धरने कुछ दिन तक चलते रहते हैं और धैर्य चुक जाने पर आंदोलनकारी ही किसी ऐसे व्यक्ति की तलाश शुरू कर देते हैं जो उन्हें कैसा भी आश्वासन देकर धरने से उठाये। कई बार तो ऐसा कोई भी व्यक्ति न मिलने पर रात के अंधेरे में अपना बैनर लेकर भागना पड़ता है।

प्रदर्शन की उम्र तो और भी कम होती है। जंतर-मंतर से चल कर संसद मार्ग थाने तक का सफर यह जलूस करता है जहां औपचारिक गिरफ्तारी के बाद लोग अपने-अपने घरों को लौट जाते हैं। आम तौर पर ऐसे सभी आयोजनों का उद्देश्य अपने अथवा अपने संगठन का नाम समाचार पत्रों में छप जाने तक सीमित होता है। अधिक जुझारू संगठनों के कार्यकर्ता अखबार में अपने नाम के साथ ही फोटो छपवाने में भी कामयाब होते हैं जो बाद में बरसों तक उनकी फाइल की शोभा बढ़ाते हैं।

ऐसा नहीं है कि सभी आयोजन इतने छोटे उद्देश्यों के लिये ही किये जाते हों। लोकहित और नागरिक अधिकारों की रक्षा के लिये भी अनेक बार लोग दिल्ली में जुटते हैं। सम्बंधित अधिकारी तक एक ज्ञापन और अधिकारी द्वारा दिया गया (यदि वह कृपापूर्वक देने को तैयार हो) निरर्थक आश्वासन ही इन का हासिल होता है। हिन्दी में परीक्षा की मांग को लेकर बरसों तक चले धरने का परिणाम भी वही हुआ जो एक घंटे के प्रदर्शन का होता है। बरसों धरना देने के बाद श्यामरुद्र पाठक, पुष्पेन्द्र चौहान और डॉ मुनीश्वर गुप्ता का संघर्ष रंग नहीं ला सका। जबकि राष्ट्रभाषा का प्रश्न भी गांधी की नीतियों को ही लागू करने का अभियान था और उनका तरीका भी गांधीवादी ही था।

अनशनकारी (और साथ में अपने-अपने एजेण्डे के साथ आ डटे ‘एनजीओ वाले’) सड़क घेर लेते हैं। पुलिस उन्हें आम दिनों की तरह दौड़ाती नहीं है। वह स्वयं सड़क बंद कर वाहनों का मार्ग बदल देती है। हुजूम आते और जाते हैं। माहौल मेले का है। लगता नहीं कि यहां कोई गांधीवादी अनशन कर रहा है। इक्का-दुक्का गांधी टोपियां तो हैं, पर न चरखा है और न राम धुन। मंच पर एक कलाकार गा रहे हैं- बॉस को पटा लो, माल बना लो, तो नीचे जेएनयू के कॉमरेड क्रांतिगीत गुनगुना रहे हैं। रेल का विरोध करने वाले गांधी के नाम पर आन्दोलनकारी इंटरनेट पर भिड़े हुए हैं। मोबाइल पर डटे हुए हैं। चर्चा यहां तक की जा रही है कि यदि आज गांधी होते तो फेसबुक और ट्विटर पर होते।

गांधी जिस व्यवस्था के खिलाफ रहे उसी व्यवस्था में जिंदगी भर ताबेदारी करने के बाद अब लोग उस पर लगाम लगाने की जरूरत बता रहे हैं। छत्तीसगढ़, उड़ीसा और आंध्रप्रदेश में जो नक्सलवादियों के समर्थन में नजर आते हैं वही दिल्ली में अन्ना के मंच पर गांधीवाद अलाप रहे हैं। व्यक्तिगत बात-चीत में ही नहीं, पोस्टरों में भी वह भाषा इस्तेमाल की जा रही है कि यदि गांधी होते तो अपना आन्दोलन समाप्त कर देते। फेसबुक और ट्विटर पर चल रही भाषा की तो चर्चा ही बेकार है।

अन्ना हजारे का अनशन सबसे अलग है। यहां सितारों का जमघट है। सरकार का इसे पीछे से समर्थन है। कांग्रेस सुप्रीमो स्वयं अन्ना के आन्दोलन को नैतिक समर्थन दे चुकी हैं। राहुल बाबा भी सरकार पर दवाब बना रहे हैं(और यह सब अखबार में छप भी रहा है)! सरकार शुरुआती अकड़ दिखाने के बाद अन्ना की सभी बातें मान लेती है। सब को नजर आ रहा है कि वह अकड़ भी दिखावटी थी और यह समर्पण भी नकली है।

आखिरकार, लाखों-करोड़ों लोग(!) अन्ना के समर्थन में उठ खड़े हुए हैं, यह मीडिया बताता है। हालांकि अनशन पर सिर्फ तीन-चार सौ लोग बैठे हैं। कुछ उत्साही आंदोलनकारी बताते हैं कि अनशनस्थल मिश्र के तहरीर चौक में बदल गया है (!) और सरकार भयभीत हो गयी है!

सिर्फ तीन दिन के आमरण अनशन के बाद केन्द्र की सरकार घुटने टेकने पर विवश हो जाती है! अर्थात, सरकार लोकपाल विधेयक पर चर्चा के लिये एक ऐसी मसौदा समिति गठित करने की अधिसूचना जारी करती है (यह जनलोकपाल विधेयक की स्वीकृति नहीं है!) जिसमें सिविल सोसायटी के भी पांच प्रतिनिधि होंगे। अन्ना हजारे के अतिरिक्त मंच पर पहले से विराजमान शांतिभूषण, उनके सुपुत्र प्रशांतभूषण, निवर्तमान न्यायाधीश संतोष हेगड़े तथा आरटीआई कार्यकर्ता अरविंद केजरीवाल इस समिति के सदस्य चुन लिये जाते हैं। मंच के सामने एकत्र जनता हमेशा की तरह तालिया बजाती है, खुद रेड़ी वाले से खरीद कर मशीन का ठंडा पानी पीते हुए

अनशनकारियों को जूस पीते देखती है, लोकतंत्र जिन्दाबाद के नारे लगाती है और अपने-अपने घर चली जाती है। कोई नहीं पूछता कि वहां जमा हजारों लोगों में से सिविल सोसायटी से प्रतिनिधि के रूप में यह पांच महापुरुष किस लोकतांत्रिक प्रक्रिया से चुने गये हैं।

अब जश्न की बारी है। आखिर लोकतंत्र की जीत जो हुई है। चैनल इस जश्न का लाइव कवरेज दे रहे हैं। हार गयी है सरकार! सरकार की चूलें हिल गयी हैं! अगले दिन के अखबार रंगे हैं इन शीर्षकों से।

लेकिन अन्ना कहां हैं! वे इस जश्न में कहीं नहीं हैं। उनका रक्तचाप बढ़ गया है। वे अपने गांव चले जायेंगे। रालेगण सिद्दी, जहां एक मंदिर से लगे कमरे में उनका बसेरा है। जहां के चप्पे-चप्पे पर उनके कर्मयोग की छाया है। अब शायद दिल्ली और सिविल सोसायटी को उनकी तभी जरूरत होगी जब ऐसे ही किसी मुद्दे पर आमरण अनशन करना होगा। अन्ना यह करते रहे हैं, शरीर ने साथ दिया तो फिर करेंगे। क्योंकि अन्ना सच्चे गांधीवादी हैं। उन्होंने गांधी को अपने जीवन में उतारा है।

अन्ना को पद, पैसा, प्रतिष्ठा की चाह नहीं है। अन्ना को दिल्ली की कृपा भी नहीं चाहिये। दिल्ली जीत के जश्न मनायेगी! वैसे ही जैसे स्वतंत्रता के समय नेहरू भारत के जागने का संदेश लालकिले से दे रहे थे! अन्ना इस शोर से दूर रालेगणसिद्दी की अपनी कुटिया में वैसे ही बैठेंगे जैसे गांधी सैकड़ों मील दूर जा बैठे थे!

जैसे आजाद भारत में गांधी का नाम लेकर त्रासदियों की फसल बोई गयी लेकिन गांधी का जीवन जीने में किसी की कोई रुचि नहीं रही, वैसे ही अन्ना को आगे कर जीत हासिल करने वाले अन्ना का सा जीवन जीने को तैयार नहीं है। बात शुरू हुई थी आचार्य जी को निराला जैसे अन्त के लिये तैयार रहने के संदेश से, समाप्त होती है इस प्रश्न से कि क्या अन्ना को भी उस पीड़ा से गुजरना होगा जिससे अपने अंतिम समय में गांधी गुजरे ? सॉरी गांधी! सॉरी अन्ना! मैं यह जख्म कुरेदना नहीं चाहता। लेकिन संभवतः आजाद भारत में गांधी और उनके वारिसों की यही नियति है।

अन्ना हजारे, एनजीओ राजनीति और मीडिया का कटु सत्य

जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

अन्ना हजारे वायदे के मुताबिक आज सुबह 10 बजे अनशन तोड़ देंगे और अपने ठीया पर चले जाएंगे। अन्ना हजारे का अनशन निश्चित रूप से एक सकारात्मक अनशन था। यह अनशन नव्य उदार राजनीति की दबाब की राजनीति का हिस्सा है। नव्य उदार राजनीति अनेक काम जनता के दबाब से करती है।सत्ता पर्दे के पीछे रहती है और आंदोलनकारी आगे रहते है। यह पॉलिटिक्स फ्रॉम विलो का खेल है। आम तौर पर जमीनी राजनीति प्रतिवादी होती है रीयलसेंस में। लेकिन नव्य उदार परिप्रेक्ष्य में काम करने वाले संगठनों के द्वारा सत्ता,संगठन और आंदोलन का दबाब की राजनीति के लिए इस्तेमाल हो रहा है। अन्ना हजारे का आमरण अनशन उसका ही हिस्सा है।

अन्ना हजारे ने जो कहा और किया है उस पर कम से कम इस आंदोलन के संदर्भ में गंभीरता के ताथ विचार करने की जरूरत है। अन्ना का मानना है लोकपाल बिल के लिए जो कमेटी बने उसका प्रधान किसी ऐसे व्यक्ति को बनाया जाए जो अ-राजनीतिक हो। आयरनी यह है कि अन्ना की तरफ से सह-अध्यक्ष के रूप में शांतिभूषण का नाम दिया गया जो आजीवन राजनीति करते रहे हैं ,देश के कानून मंत्री रहे हैं। वे वाम ऱूझान की राजनीति करते रहे हैं। अतः अन्ना की कथनी और करनी में अंतर है।

दूसरी बात यह कि एनजीओ की राजनीति करने वाले संगठनों में सूचना अधिकार रक्षा आंदोलन से जुड़े केजरीवाल भी राजनीति कर रहे हैं। यह बात दीगर है कि वे किसी दल से जुड़े नहीं हैं। जनाधिकार,मानवाधिकार आंदोलनों से जुड़े प्रशांतभूषण पेशे से वकील है लेकिन मानवाधिकार राजनीति से जुड़े हैं। हां संतोष हेगडे राजनीति से जुड़े नहीं हैं। उससे भी बडा सवाल यह है कि एनजीओ वाले जिस अ-राजनीति की राजनीति की हिमायत करते हैं उसका लक्ष्य भी राजनीति है।

भारतीय लोकतंत्र में नामांकित लोकतंत्र नहीं चलता जैसा अन्ना हजारे और उनके जैसे समाजसेवी सोच रहे हैं। वे जानते हैं कि अमेरिका में सिविल सोसायटी आंदोलन बहुत ताकतवर है लेकिन वे लोकतंत्र में चुनाव नहीं जीत पाते।सिविल सोसायटी आंदोलन का आर्थिक स्रोत है कारपोरेट घराने। अन्ना हजारे और उनके समर्थकों को राजनीति की गंदगी को साफ करना है तो उन्हें चुनाव लड़ना चाहिए। चुनाव लड़कर ईमानदार छवि के लोगों को जिताना चाहिए। वे यह भी देखें कि आम जनता कितनी उनकी सुनती है ? कितना उनके साथ है ?यह भी तय हो जाएगा कि मोमबत्ती मार्च और जनता के मार्च में कितना साम्य और बैषम्य है ? मोमबत्ती वाले युवा कितने टिकाऊ हैं ? कितने संघर्षशील है ?

 

अन्ना हजारे जानते हैं तथाकथित सिविल सोसायटी के नेतागण सिर्फ मीडियावीर हैं। जनता में बहुमत का समर्थन पाना उनके बूते के बाहर है। लोकतंत्र को हम सिविल सोसायटी के नाम पर ऐसे लोगों के रहमोकरम पर नहीं छोड़ सकते जिनकी कोई राजनीतिक जिम्मेदारी नहीं है।भ्रष्टाचार के खिलाफ बाबू जयप्रकाश नारायण का जनता पार्टी का प्रयोग पूरी तरह फेल हुआ है। केन्द्र में सत्ता मिलने के बाबजूद जनता पार्टी की सरकार भ्रष्टाचार के खिलाफ लोकपाल बिल पास नहीं करवा पायी। उस सरकार में स्वयं शांतिभूषण भी थे। आज वही शांतिभूषण कह रहे हैं कि हम 1978 का लोकपाल बिल पास कराना चाहते हैं। अजब बात है जब स्वयं सत्ता में थे तो कर नहीं पाए और अब दूसरों के कंधे पर बंदूक रखकर चलाना चाहते हैं।

 

अन्ना हजारे जानते हैं राजनीतिक दलों में वामपंथियों ने लंबे समय से लोकपाल बिल के दायरे में प्रधानमंत्री को भी शामिल करने की मांग की थी,उस समय इसका सभी ने विरोध किया। यहां तक बाबू जयप्रकाश नारायण भी पीछे हट गए।भाजपा और कांग्रेस ने भी विरोध किया था। खैर अब देखना होगा कि वामदलों की लोकपाल बिल के बारे में एक जमाने में सुझायी सिफारिशों के अलावा कौन सी नई चीज है जिसे नयी कमेटी सामने लाती है।

अन्ना हजारे का टेलीविजन चैनलों से जिस तरह धारावाहिक कवरेज हुआ है वह अपने आप में खुशी की बात है लेकिन इस कवरेज में एक बात साफ निकलकर आयी है लोग भ्रष्टाचार से दुखी हैं। वे इससे मुक्ति की आशा में ही आए थे,लेकिन लोकपाल बिल का आम जीवन में व्याप्त भ्रष्टाचार से कोई संबंध नहीं है। इसका संबंध जन प्रतिनिधि के भ्रष्टाचार से है। सरकारी अफसरों के खिलाफ भ्रष्टाचार विरोधी ढ़ेर सारे कानून आज भी हैं और सबसे ज्यादा भ्रष्ट कौन हैं ? हमारे आईएएस-आईपीएस अफसरान ।

विगत 60 सालों में भ्रष्ट अफसरों की एक पूरी पीढ़ी पैदा हुई है। यह पीढ़ी भ्रष्टाचार विरोधी कानूनों के होते हुए पैदा हुई है। इनसे भी ज्यादा करप्ट हैं देशी-विदेशी कारपोरेट घराने जो येन-केन प्रकारेण काम निकालने के लिए खुलेआम भ्रष्ट तरीकों का इस्तेमाल करते हैं। कारपोरेट भ्रष्टाचार पर अन्ना हजारे ने कोई मांग क्यों नहीं उठायी ? अन्ना जानते हैं कि सरकारी बैंकों का 80 हजार करोड़ रूपया बिना वसूली के डूबा पड़ा है और उसमें बड़ी रकम कारपोरेट घरानों के पास फंसी पड़ी है। क्या कोई समाधान है जन लोकपाल बिल में ?कारपोरेट करप्शन के 2 जी स्पेक्ट्रम मामले में हाल के बरसों में टाटा-अम्बानी आदि का नाम आया है। क्या राय है अन्ना हजारे की ? किसने हल्ला मचाया करपोरेट लूट के खिलाफ ? राजनीतिक दलों ने।

 

देश के एनजीओ आंदोलन की धुरी है देशी-विदेशी कारपोरेट घरानों का डोनेशन। इसके जरिए विभिन्न स्रोतों से 5 हजार करोड़ रूपये से ज्यादा पैसा विदेशों से एनजीओ संगठनों को आ रहा है । क्या गांधी के अनुयायियों को यह पैसा लेना शोभा देता है ? गांधी ने भारत में आंदोलन के लिए विदेशी धन नहीं लिया था। लेकिन एनजीओ आंदोलन,सिविल सोसायटी आंदोलन , तथाकथित गांधीवादी,मानवाधिकारवादी,पर्यावरणपंथी संगठन विदेशी फंडिंग से चल रहे हैं।

सवाल यह है कि वे देश की जनता की सेवा के लिए यहां की जनता से चंदा लें,विदेशी ट्रस्टों,थिंकटैंकों,कारपोरेट धर्मादा दानदाता संस्थाओं से चंदा क्यों लेते हैं ? क्या यह गांधीवादी राजनीति के साथ राजनीतिक भ्रष्टाचार नहीं है ?यदि है तो अन्ना हजारे सबसे पहले एनजीओ संगठनों को विदेशी धन लेकर संघर्ष करने से रोकें। ध्यान रहे एनजीओ को विदेशी धन ही नहीं आ रहा , राजनीति करने के विदेशी विचार भी सप्लाई किए जा रहे हैं। वे विदेशी राजनीति की भारतीय चौकी के रूप में काम कर रहे हैं। काश अन्ना उसे रोक पाते !

भ्रष्टाचार और अन्ना हजारे की मृग-मरीचिका

जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

समसामयिक दौर में प्रतीकात्मक आंदोलन हो रहे हैं। इन आंदोलनों को सैलीब्रिटी प्रतीक पुरूष चला रहे हैं। इस दौर के संघर्ष मीडिया इवेंट हैं। ये जनांदोलन नहीं हैं।अन्य प्रतीक पुरूषों की तरह अन्ना हजारे मीडिया पुरूष हैं। इवेंट पुरूष हैं। इनकी अपनी वर्गीय सीमाएं हैं और वर्गीय भूमिकाएं हैं। मीडिया पुरूषों के संघर्ष सत्ता सम्बोधित होते हैं जनता उनमें दर्शक होती है। टेलीविजन क्रांति के बाद पैदा हुई मीडिया आंदोलनकारियों की इस विशाल पीढ़ी का योगदान है कि इसने जन समस्याओं को मीडिया टॉक शो की समस्याएं बनाया है। अब जनता की समस्याएं जनता में कम टीवी टॉक शो में ज्यादा देखी -सुनी जाती हैं। इनमें जनता दर्शक होती है। इन प्रतीक पुरूषों के पीछे कारपोरेट मीडिया का पूरा नैतिक समर्थन है।

कारपोरेट मीडिया इस तरह की प्रतीकात्मक आंदोलनों को सुंदर कवरेज देता है। जरूरत पड़ने पर प्रतीक पुरूषों की जंग को लेकर उन्मादी ढ़ंग से प्रौपेगैण्डा भी किया जाता है। जैसाकि इन दिनों गांधीवादी अन्ना हजारे के दिल्ली में जंतर-मंतर पर चल रहे आमरण अनशन को लेकर चल रहा है। कारपोरेट मीडिया की इस भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम को आने वाले आईपीएल क्रिकेट टूर्नामेंट के पहले खत्म हो जाना है। क्योंकि कारपोरेट मीडिया के बड़े दांव इस टूर्नामेंट पर लगे हैं। मजेदार बात है कि अन्ना हजारे ने विश्व कप क्रिकेट टूर्नामेंट से आईपीएल क्रिकेट टूर्नामेंट के बीच की अवधि को अपने आमरण अनशन के लिए चुना है। उनका आमरण अनशन के लिए इस समय का चुनाव अचानक नहीं है। यह सुचिंतित रणनीति के तहत लिया फैसला है। यह क्रिकेट के जरिए हो रहे भ्रष्टाचार विरोधी मीडिया विरेचन की बृहत्तर प्रक्रिया का हिस्सा है।

आश्चर्य की बात है अन्ना हजारे को केन्द्र सरकार में कोई भ्रष्ट मंत्री नजर नहीं आया ? उन्होंने अपने मांगपत्र में भ्रष्टाचार का कोई मामला नहीं उठाया ? किसी मंत्री का इस्तीफा नहां मांगा ? उन्हें प्रधानमंत्री का इस्तीफा मांगने की जरूरत भी महसूस नहीं हुई ? उन्हें न्यायपालिका में बैठे जजों में भी कभी भ्रष्टाचार नजर नहीं आया ? उन्हें हटाने के लिए भी वे कभी जंग के मैदान में नहीं उतरे। अन्ना हजारे और उनकी भक्तमंडली तो मात्र अपने मनमाफिक लोकपाल कानून चाहती है । सवाल यह है वे कानून बनाने तक ही अपनी जंग क्यों सीमित रखकर लड़ रहे हैं ? उनके पास भ्रष्टाचार के खिलाफ कोई राजनीतिक कार्यक्रम क्यों नहीं है ? वे किसी भ्रष्ट मंत्री या प्रधानमंत्री को निशाना क्यों नहीं बना रहे ? क्या भ्रष्टाचार अ-राजनीतिक समस्या है ? क्या इसके खिलाफ अ-राजनीतिक संघर्ष से विजय पा सकते हैं ?

भ्रष्टाचार में आकंठ डूबी केन्द्र सरकार के लिए यह सुकुन की घड़ी है। वे अन्ना हजारे को भ्रष्टाचार के खिलाफ चैम्पियन मानने को तैयार हैं। मीडिया भी उन्हें चैम्पियन बनाने में लगा है। केन्द्र सरकार लोकपाल बिल में राजनीतिक दलों के सुझावों को शामिल करने की बजाय अन्ना हजारे के बताए सुझावों को मानने को तैयार है। यह अ-राजनीतिकरण है। यह देखना दिलचस्प होगा कि अन्ना हजारे ऐसा कौन सा नया सुझाव देते हैं जिसे पहले विभिन्न राजनीतिक दलों ने न दिया हो ?

अन्ना हजारे का संघर्ष प्रतीकात्मक है और उसकी सीमाएं हैं। इस संघर्ष में जनता कम है स्वयंसेवी संगठन ज्यादा शामिल हैं। पता किया जाना चाहिए कि देश के विभिन्न इलाकों में स्वयंसेवी संगठनों का कितना जनाधार है ? कई हजार स्वयंसेवी संगठन हैं और उनमें सुंदर सांगठनिक समन्वय है। वे सभी किसी भी मसले को सुंदर मीडिया इवेंट बनाने में माहिर हैं। अन्ना हजारे स्वयंसेवी संगठनों के भीष्म पितामह हैं। वे जब अनशन करते हैं तो सारे देश का मीडिया सुंदर ढ़ंग से हरकत में आ जाता है। उनके सहयोगी राष्ट्रीय स्वयंसेवक भी हरकत में आ जाते हैं।

कारपोरेट मीडिया का आमतौर पर स्वयंसेवी संगठनों के संघर्षों और नेताओं को लेकर सकारात्मक भाव रहा है। अनेकबार यह भी देखा गया है कि स्वयंसेवी संगठनों को कारपोरेट मीडिया जमकर कवरेज देता है। केन्द्र सरकार और खासकर कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी इन स्वयंसेवी संगठनों के पुराधाओं और स्वतंत्र चिंतकों को अपनी राष्ट्रीय परिषद में भी रखे हुए हैं। इससे कम से कम यह बात साफ है कि कांग्रेस का इन संगठनों के साथ विरोध-प्रेम का संबंध है। इस विरोध-प्रेम को हम अनेकबार देख चुके हैं। कांग्रेस को इन संगठनों से विचारधारात्मक तौर पर कोई खतरा नहीं है क्योंकि इनमें से अधिकांश को चुनाव नहीं लड़ना है। सिर्फ जन-जागरण का काम करना है। मनमोहन सिंह की सरकार की घोषित नीति है जन-जागरण का स्वागत है।

अन्ना हजारे की इसबार की जंग अंततः राजनीतिक साख हो चुकी कांग्रेस की सुंदर रणनीति का अंग है। मसलन्,मनमोहन सिंह और कानूनमंत्री वीरप्पा मोइली ने कभी नहीं कहा कि हम अन्ना हजारे की बात नहीं मानेंगे। वे उनके दो सुझाव मान चुके हैं।देर-सबेर बाकी भी मान लेंगे। यह सत्ता और गांधीवाद की नूरा कुश्ती है। डब्ल्यू डब्ल्यू फाइट है।

मनमोहन सिंह की यूपीए-1 सरकार इससे पहले अन्ना हजारे और उनके सहयोगियों के सूचना अधिकार कानून बनाने संबंधी सुझावों को मान चुकी है। हम थोड़ा वस्तुगत होकर देखें तो सारे देश में इस कानून की दशा-दुर्दशा को आंखों से देख सकते हैं।सवाल किया जाना चाहिए सूचना प्राप्ति अधिकार कानून लागू किए जाने के बाद कितने नेता,अफसर, नौकरशाह जेल गए ? खासकर राजस्थान में । क्योंकि सूचना अधिकार कानून का आधार क्षेत्र यही राज्य रहा है। क्या हम नहीं जानते कि ‘नरेगा’ योजना में कितने बड़े पैमाने पर धांधली हुई है ?

मैं जब अन्ना हजारे आंदोलन को देखता हूँ और उनके पक्ष में कारपोरेट मीडिया का कवरेज देखता हूँ तो मीडिया बुद्धि, विशेषज्ञों की बुद्धि,उनके राजनीतिक ज्ञान और इतिहास ज्ञान को देखकर दुख होता है कि वे कितने सीमित दायरे में अन्ना हजारे को रखकर महिमामंडित कर रहे हैं।

अन्ना हजारे वैसे ही सरकारी संत हैं जैसे एक जमाने में विनोबा भावे थे जिन्होंने आपातकाल को अनुशासन पर्व कहा था। महान गांधीवादी बाबू जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में बिहार में 1973 में संपूर्ण क्रांति आंदोलन चला था और गुजरात में 1974 में नवनिर्माण आंदोलन चला था। गुजरात के आंदोलन की बागडोर गांधीवादी मोरारजी देसाई के हाथों में थी।बिहार में जयप्रकाश जी के हाथों में थी। ये दोनों ही आंदोलन भ्रष्टाचार के खिलाफ थे। इनमें लाखों लोगों ने शिरकत की थी। इन आंदोलनों से उस समय दिल्ली की गद्दी तक हिल गयी थी ।

आज दिल्ली में कुछ सौ लोग हैं अन्ना हजारे के जलसे में। दिल्ली में बाबू जयप्रकाश नारायण ने 20 लाख की रैली की थी। दिल्ली में कुछ सौ का जमघट और जयप्रकाश नारायण का महान आंदोलन ,जिसने समूचे बिहार को जगा दिया था। पटना में उस समय जितनी बड़ी रैलियां हुई थीं वैसी एक भी रैली अन्ना हजारे अभी तक नहीं कर पाए हैं। गुजरात में भ्रष्टाचार के खिलाफ मोरारजी देसाई ने 13 दिन तक आमरण अनशन किया था और गुजरात के मुख्यमंत्री को इस्तीफा देना पड़ा। विधानसभा भंग की गई।लाखों लोगों ने उस समय गुजरात में शिरकत की थी।

नरेन्द्र मोदी,लालूयादव,नीतीश कुमार आदि महान “ईमानदार” और “साफ छवि” वाले नेता इन संघर्षों की ही देन हैं। सबलोग जानते हैं संपूर्ण क्रांति के महान भ्रष्टाचार विरोधी बिगुल को बजाने वाले कालान्तर में बिहार के सबसे भ्रष्टनेता साबित हुए हैं।जे.पी आंदोलन के बाद बिहार में सबसे ज्यादा भ्रष्ट मुख्यमंत्री सत्तारूढ हुए हैं।

अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के बारे में एक सवाल उठता है कि अन्ना हजारे ने यही समय क्यों चुना ? वे ६० सालों से गांधीवादी सेवा कर रहे हैं। इस साल जितने घोटाले सामने आ रहे थे तब वे आमरण अनशन पर क्यों नहीं बैठे ?

मूल बात यह है कि मोरारजी देसाई भी तब अनशन पर बैठे जब चिमनभाई पटेल जैसे भ्रष्ट नेताओं का भ्रष्टाचार चरम पर आ गया था। यही हाल बिहार का था। असल में गांधीवादी और स्वयंसेवी नेतागण पूंजीवादी व्यवस्था के लिए सेफ्टी बॉल्ब का काम करते हैं। अन्ना हजारे भी आमरण अनशन पर तब बैठे हैं तब कांग्रेस की केन्द्र सरकार भ्रष्टाचार के चरम पर पहुँच गयी है।

अन्ना हजारे की नजर में भ्रष्टाचार एक कानूनी समस्या है। वे इसके लिए मनमाफिक जन लोकपाल बिल चाहते हैं। मनमोहन सिंह जिस रणनीति पर चल रहे हैं उसमें वे अन्ना हजारे की सारी मांगे मान लेंगे। सवाल उठता है क्या इससे भ्रष्टाचार कम होगा ? क्या लोकपाल को कानूनी शक्तियाँ दे दी जाएंगी तो भ्रष्टाचार रूक जाएगा ? क्या भ्रष्टाचार को रोकने के लिए जन लोकपाल बिल काफी है ? अन्ना हजारे के अनुसार उन्हें सिर्फ जन लोकपाल बिल चाहिए। अन्ना हजारे की सभी मांगें मानने से किसकी इमेज चमकेगी ? अन्ना हजारे की या मनमोहन सिंह की ?

नव्य उदार राजनीति की विशेषता है कि शासक वर्ग जनता की सकारात्मक भावनाओं का अपनी इमेज चमकाने के लिए इस्तेमाल करता है और उस काम में स्वयंसेवी संगठन उनकी मदद करते हैं। अन्ना हजारे का पूरा आंदोलन सीमित लक्ष्य के लिए है। यह जनांदोलन नहीं है। यह मीडिया इवेंट है। यह सैलीब्रिटी आंदोलन है।

जरा हम लोग ठंड़े दिमाग से सोचें बाबू जयप्रकाश नारायण और मोरारजी देसाई के जनांदोलन के बाद बिहार और गुजरात में क्या भ्रष्टाचार कम हुआ ? जनता पार्टी की सरकार जिसका जन्म ही भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ने लिए हुआ था उसका हश्र क्या हुआ ? जरा जयप्रकाश भक्त चन्द्रशेखर जी के प्रधानमंत्री काल को याद करें ? प्रधानमंत्री कार्यालय में खुलेआम भ्रष्टाचार होता था और कारपोरेट घरानों और मीडिया के वे सबसे लाडले प्रधानमंत्री थे और उनके पास बमुश्किल 44 सांसद थे।

सवाल यह है कि अन्ना हजारे भ्रष्टाचार को लोकपाल बिल तक सीमित क्यों रखना चाहते हैं ? जिस तरह जयप्रकाश नारायण-मोरारजी देसाई के साथ संघ परिवार था वैसे ही अन्ना हजारे के संघर्षों में संघ परिवार सक्रिय है । वे संघी नहीं हैं। गांधीवादी हैं। लेकिन भ्रष्टाचार के खिलाफ जिस तरह जयप्रकाश नारायण-मोरारजी देसाई के पास ठोस राजनीतिक कार्यक्रम नहीं था वैसे ही अन्ना हजारे के पास भी कोई दीर्घकालिक कार्यक्रम नहीं है।

अन्ना हजारे के इस आंदोलन का बड़ा योगदान यह है कि वे मीडिया में भ्रष्टाचार को एक गैर राजनीतिक मुहिम बनाने में सफल रहे हैं। यह अ-राजनीति की राजनीति है। देश में इस तरह की राजनीति करने वाला एक ही संगठन है वह है राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ।

भ्रष्टाचार के खिलाफ किसी भी जंग को अ-राजनीतिक बनाना,राजनीतिज्ञों को नपुंसक बनाना,हाशिए पर डालना यह नव्य उदार राजनीति है। इससे संघ परिवार को प्रच्छन्नतः वैचारिक मदद मिलती है। भाजपा के राष्ट्रीय उभार को मदद मिलती है।

अन्ना हजारे के आमरण अनशन के पहले मीडिया में कई महिनों से भ्रष्टाचार का व्यापक कवरेज आया है ।संसद लंबे समय तक ठप्प रही। सरकार को मजबूरन वे सारे कदम उठाने पड़े जो वो उठाना नहीं चाहती थी। जिस समय प्रतिदिन भ्रष्टाचार के स्कैण्डल एक्सपोज हो रहे थे अन्ना हजारे चुप थे। संसद ठप्प थी वे चुप थे। सवाल यह है कि उस समय वे आमरण अनशन पर क्यों नहीं बैठे ? अब जब मनमोहन सिंह सरकार को सुप्रीमकोर्ट से लेकर जेपीसी तक घेरा जा चुका है तो अचानक अन्ना हजारे को भ्रष्टाचार के खिलाफ नहीं जन लोकपाल बिल के लिए आंदोलन की याद आयी। यह बिल 42 सालों से पड़ा था उन्होंने कभी संघर्ष नहीं किया। इस बिल में जितने जेनुइन सुझाव विपक्ष ने पेश किए उन्हें कांग्रेस ने कभी नहीं माना। अब ऐसा क्या हुआ है कि वे अन्ना हजारे के बहाने अपनी खोई हुई साख को पाना चाहते हैं ?

अन्ना हजारे जानते हैं भ्रष्टाचार पूंजीवाद की प्राणवायु है। पूंजीवाद और खासकर परवर्ती पूंजीवाद तो इसके चल नहीं सकता। पूंजीवाद रहे लेकिन भ्रष्टाचार न रहे यह हो नहीं सकता। सवाल किया जाना चाहिए क्या अन्ना हजारे को पूंजीवाद पसंद है ? क्या परवर्ती पूंजीवाद में भ्रष्टाचार से मुक्ति संभव है ? काश ,अन्ना हजारे ने अमेरिका की विगत पांच सालों में भ्रष्टाचार गाथाओं को ही देख लिया होता। चीन के सख्त कानूनों के बाबजूद पनपे पूंजीवादी भ्रष्टाचार को ही देख लिया होता।

अन्ना हजारे जानते हैं जन लोकपाल बिल इस समस्या का समाधान नहीं है। यह मात्र एक सतही उपाय है। सवाल यह है कि भ्रष्टाचार जैसी गंभीर समस्या के प्रति इस तरह का कानूनी नजरिया अन्ना हजारे ने कहां से लिया ?असल में अन्ना हजारे पूंजीवाद की सडी गंगोत्री में स्वच्छ पानी खोज रहे हैं यह मृग-मरीचिका है।