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पाक ध्वज में काल कल्वित- सफ़ेद रंग

पाक के इकलौते अल्पसंख्यकों के मंत्री शाहबाज़ भट्टी की दिन दिहाड़े हत्या कर पाक के कट्टरवादी मुसलामानों ने सारे विश्व को एक स्पष्ट सन्देश दे दिया है. यह सन्देश है की पाक में कुरआन और मुहम्मद को न मानाने वालों के लिए कोई स्थान नहीं. भट्टी पाक के एक मात्र ईसाई मंत्री थे. भट्टी ईशनिंदा क़ानून के मुखालिफ थे जिसे पाक में अल्पसंख्यकों को प्रताड़ित करने में प्रयुक्त किया जाता रहा है. इसे कुफ्र क़ानून से भी जाना जाता है. पाक में इस्लाम के पैरोकार कुफ्र और काफ़िर को मिटाने वाले को गाजी कह कर सम्मानित करते है. पंजाब के गवर्नर सलमान तासीर की हत्या करने वाले बाड़ी गार्ड को भी गाजी के रूप में सम्मानित किया गया.

एक और तो पाक के प्रधान मंत्री युसूफ रज़ा गिलानी अल्पसंख्यकों की सलामती के बड़े बड़े दावे करते हुए फरमा रहे हैं कि पाक के राष्ट्र ध्वज का सफ़ेद हिस्सा अल्पसंख्यकों का प्रतीक है. गिलानी ने ईशनिंदा क़ानून में फेर बदल से भी इनकार किया और इस कानून के कारन अल्पसंख्यकों के पलायन को भी बेवजह बताया. गिलानी ने दावा किया की इंडोनेशिया में कोई ईशनिंदा कानून नहीं फिर भी गैर मुसलमान मुल्क छोड़ कर जा रहे हैं. – गिलानी के इस ब्यान से ज़ाहिर है की मुस्लिम बहुल देश जहाँ कुरआन और शरिया का कानून नासिर है वहां काफिरों के लिए सहज जीवन जीना मुहाल है.? दूसरी ओर आंतरिक सुरक्षा मंत्री रहमान मालिक साफ़ साफ़ शब्दों में आगाह कर रहे हैं कि ‘हमारे मुल्क में सिविल वार से खून खराबा होना तय है. पिछले दिनों पाक के ६६ वर्षीय हिन्दू विधायक ने पाक से भाग कर भारत में शरण ली. पाक में कुफ्र के नाम पर बढ़ रही अल्पसंख्यकों की कठिनाईयों पर ईसाई सांसद अकरम मसीह गिल ने कहा कि सबसे कठिन दौर में हैं अल्पसंख्यक- उन्हें अंधी गली में धकेला जा रहा है. प्रसिद्ध लेखिला तसलीमा नसरीन ने तो यहाँ तक कह दिया कि सभी अल्पसंख्यकों को पाक छोड़ देना चाहिए. तसलीमा नसरीन ने अपने ट्वीट पर ‘अब तीसरा कौन’ आशंका भी ज़ाहिर की. भाट्टी की हत्या के बाद ,नयूक्लेअर सईन्स्दा ,निबंधकार,राजनैतिक रक्षा विश्लेषक व् काय्देआज़म युनिवर्सटी -इस्लामाबाद में फिजिक्स विभाग की मुखिया डॉ.प्रोफ. परवेज़ हूद भाई ने ‘ पाक के भविष्य पर गहरी चिंता जताई .

ईशनिंदा या कुफ्र के क़ानून के तहत जन . जिया उल हक़ के समय से अब तक ६०० काफिरों पर केस दर्ज हुए – कुछ को तो जेल में ही मौत के घाट उतार दिया गया. पाक में आम हिन्दू या ईसाई की तो बात छोडो शाहबाज़ भट्टी और अकरम मसीह गिल जैसे मंत्री व् सांसद भी पाक के मुस्लिम समाज में अपने ईसाई नाम के साथ नहीं रह सकते उन्हें भी मुस्लिम नाम रखने पड़ते हैं.

गत छह दशकों में पाक में इस्लाम और मुहम्मद के नाम पर अल्पसंख्यकों पर इस कदर जुल्मोसितम ढाए गए की लगभग ३५ मिलियन अल्पसंख्यक यातो मार दिए गए या फिर अपनी जान बचाने के लिए मुसलमान हो गए और बहुत सारे पाक छोड़ भाग गए. आंकड़े गवाह हैं – १९४७ में जब जिन्ना ने सेकुलर इस्लामिक राज्य की स्थापना की और अल्पसंख्यकों के जान ओ माल और धर्म की पूरी हिफाज़त का वायदा किया तो उस वक्त पाक में २४% अल्पसंख्यक थे और कुल आबादी थी ३० मिलियन . २०१० आते आते आबादी तो हो गई १७०

मिलियन अर्थात ५ गुना से अधिक और अल्प संख्यक रह गए मात्र ३% जिसमें १.५% हिन्दू और १.५% ईसाई हैं और यह संख्या भी तेज़ी से घट रही है.

मानवाधिकार के ठेकेदार और भारत के सेकुलर शैतान ‘हिन्दुओं और ईसाइओ ‘ पर पाक में हो रहे अमानवीय अत्याचारों पर अपराधिक चुप्पी साधे हुए हैं . और तो और पाक में ईश निंदा के नाम पर हो रही राजनैतिक हत्याओं पर भारत के किसी भी कांग्रेसी या कौम्नष्ट ने एक शब्द नहीं बोला ….. पांच राज्यों में होने जा रहे चुनावों में कहीं मुस्लिम वोट बैंक न फिसल जाएं !!!!!!!

 

 

आकाशवाणी का कवि सम्मेलन

नई दिल्ली : होली के अवसर पर आयोजित होनेवाला आकाशवाणी का अखिल भारतीय कवि सम्मेलन इस वर्ष त्रिवेणी सभागार मंडी हाउस में 8 मार्च को सायं 5.00 बजे आयोजित किया जा रहा है। इस कवि सम्मेलन का संचालन हिंदी के लब्ध-प्रतिष्ठ कवि पंडित सुरेश नीरव कर रहे हैं। कवि सम्मेलन में भागलेनेवाले कवियों में प्रमुख हैं-सर्वश्री-सोम ठाकुर,उदय प्रताप सिंह,अशोक चक्रधर,सरिता शर्मा,डॉक्टर कीर्तिकाले, डॉक्टर विनय विश्वास, महेन्द्र अजनबी,अनुभूति चतुर्वेदी,लक्ष्मीशंकर वाजपेयी, बालस्वरूप राही तथा पंडित सुरेश नीरव प्रमुख हैं।

फतवा एक सलाह है, फरमान नहीं

– वसीम अकरम

उत्तर प्रदेश के सहारनपुर में स्थित भारत में मुसलमानों के लिए शिक्षा की सबसे बडी संस्था दारुल ओलूम देवबंद ने मुसलमानों की जिंदगी से जुड़े सवालों पर जवाब देते हुए पिछले साल कई फतवे जारी किया और चरचा में रही. देवबंद ने इस साल 5 जनवरी को भी एक अहम फतवा जारी कर मुस्लिम जगत को संदेहों के घेरे में डाल दिया. फतवे में यह कहा गया है कि, बैंक में काम करने वाले अपने भाई के साथ न रहें, क्योंकि सूदी कारोबार और ब्याज का पढ़ना, लिखना और गिनना इस्लाम में हराम है. इसलाम का दायरा इतना बड़ा है कि इसमें दीन और दुनिया ही नहीं बल्कि दोनों जहान की वो सारी बातें समायी हुयी हैं, जिसके बरक्स आज हम अपनी छोटी बड़ी तमाम बुनियादी चीजों के बारे में सही-गलत का फैसला लेते हैं. लेकिन उन फैसलों को फरमान बना कर जिस तरह से पेश किया जाता है, उससे इस्लाम पर खतरा तो नहीं लेकिन सवाल जरूर खड़ा किया जाता रहा है. दरअसल फतवों का जो मसला है वो सवाल और जवाब का मसला है. अगर किसी शख्स को किसी बात का इल्म नहीं है या अगर वो किसी ऐसी चीज के बारे में जानना चाहता है, तो वह इसलामी विद्वानों से सवाल करके उनसे जवाब हासिल कर सकता है. और यह जो जवाब होता है, वो इस्लामी नजरिये से कुर्आन और हदीस की रोशनी में दिया गया मशवरा होता है, जिसे फतवा कहा जाता है.

अब ये जो दारुल ओलूम देवबंद का फतवा आया है कि ”बैंक में काम करने वाले भाई के साथ नहीं रहना चाहिए,” तो यह पूरी तरह बेबुनियाद है, क्योंकि इसमें उस शख्स की सामाजिक हालात की अनदेखी की गयी है. हदीस में आता है, कि आने वाले दिनों में एक दिन हमारे समाज में सूद इस कदर फैल जायेगा कि जब हम सांस लेंगे तो उसके साथ भी सूद हमारे साथ शामिल होगा. आज दुनिया के किसी कोने में कोई ऐसी जगह नहीं जहां बैंक और ब्याज का कारोबार न होता हो. हां, इस्लाम में सूद हराम है, लेकिन तब, जब हम जानबूझकर सूदखोरी करें. बैंक में काम करना भी आम कारोबार की तरह मेहनत करना है. ऐसे में यह फतवा बेबुनियाद हो जाता है, क्योंकि यह जिस कलम से लिखा गया है, उसमें भी कहीं न कहीं ब्याज शामिल है. हम जो कपडे़ पहनते हैं, हम जो खाना खाते हैं या हम जिन चीजों का इस्तेमाल करते हैं, उन सभी चीजों में कहीं न कहीं से सूद शामिल है. भले ही हमें लगता है कि हम जायज चीजों का इस्तेमाल करते हैं. हम इस सूद से नहीं बच सकते, क्योंकि जिन कंपनियों में हमारे उपभोग की चीजें बनती हैं, वो सब सूद और ब्याज के कारोबार से कहीं न कहीं से संबंधित हैं. ऐसे में सिर्फ बैंक में नौकरी करने वाला शख्स ही सूदखोर नहीं बल्कि सभी कंपनियों में काम करने वाले लोग सूद का पैसा खाते हैं. अगर गौर करें तो इस फतवे से हिंदुस्तान ही नहीं पूरी दुनिया के लोगों को अपने परिवार से अलग होना पड़ेगा, क्योंकि यह सिर्फ भाई पर ही नहीं बल्कि सारे रिश्तों के लिए होगा. इस तरह के फतवों से उन मुसलमानों के दिल में नौकरी को लेकर डर बैठ जायेगा जो बैंक या किसी और ऐसी जगह काम करना चाहते हैं. सबसे अहम बात यह है कि जहां आदमी मजबूर हो जायेगा वहां शरियत नहीं लागू होती.

पाकिस्तान में जियाउल हक के समय में बैंकों को बंद कर दिया गया था, जिससे वहां कई तरह की परेशानियां आ गयीं और लोग पैसों को बचा पाने में नाकाम होने लगे. यह जो माडर्न बैंकिंग है, वो आज की जरूरत है. इस तरह के फतवों से सामाजिक विकास रुकता है. इसलाम ऐसा धर्म है जो कानून, समाज, राजनीति और दूसरे सभी धर्मों को लेकर चलता है, लेकिन पता नहीं क्यों इसके धार्मिक विद्वान इसकी अच्छाइयों की बात नहीं करते. हमेशा ऐसे फतवे देते हैं जिससे लोग असमंजस में पड़ जाते हैं कि वो क्या करें? बारहवीं-तेरहवीं सदी में अरबिया में केमिस्ट्री को लेकर बहुत शोध हुए लेकिन आज विज्ञान पर भी इसलामी विद्वान उंगलियां उठाने लगते हैं.

कुछ दिनों पहले एक फतवा आया था कि मुसलमान लड़कियों और औरतों को मर्दों के साथ काम नहीं करना चाहिए. जहां तक लड़कियों या औरतों के मर्दों के साथ काम न करने का सवाल है, तो इसे फिर इस्लामी तारीख में झांक कर देखने की जरूरत है. शादी से पहले मुहम्मद साहब की बीवी खदीजा ने मुहम्मद साहब को अपने पास काम पर रखा. खदीजा को एक ईमानदार आदमी की जरूरत थी, जो उनके व्यापारिक काफिले को सीरिया और जार्डन तक ले जा सके. अगर मर्दों के साथ औरतों को काम करने से इस्लाम मना करता है, तो उस वक्त ही मुहम्मद साहब, बीवी खदीजा के प्रस्ताव को ठुकरा देते. अगर यह उस वक्त हो सकता था, तो आज आधुनिक समय में क्यों नहीं हो सकता. ये फतवे लोगों द्वारा पूछे गये सवाल के जवाब में मशवरा भर हैं. इन्हें फरमान की तरह लागू नहीं किया जा सकता.

पुरूष ही नहीं महिलाएं भी होती हैं दबंग : मध्यप्रदेश की एक मात्र जेल अधिक्षक सुश्री शैफाली तिवारी

अकसर महिलाओं को लेकर तमाम सवाल उठते रहे हैं। मध्यप्रदेश में महिलाओं पर अत्याचार का होना कोई नई बात नहीं हैं। पुरूष प्रधान समाज में जहां पर नारी को पैरो की जूती समझा जाता रहा हैं। उस पुरूष समाज में पहली बार किसी महिला ने अपनी दबंगाई दिखाते हुए उस चुनौती को स्वीकार किया जिसे कोई आम महिला स्वीकार नहीं कर सकती। मध्यप्रदेश में पहली बार आयोजित जेल  अधिक्षक के पद की पीएससी परीक्षा में मेरीट लिस्ट में आई उज्जैन के पूर्व एडीशनल कमीशनर श्री जेपी तिवारी की बिटीया सुश्री शैफाली तिवारी को मध्यप्रदेश की पहली एक मात्र खुली जेल का जेलर बनाया गया लेकिन जेल का जैसे ही शुभारंभ होने को आया इस महिला अधिकारी का बैतूल तबादला करवा दिया गया। तीन साल की नौकरी में तीन तबादले की त्रासदी झेल चुकी सुश्री शैफाली तिवारी का जन्म 18 जून 1982 को हुआ था। सुश्री तिवारी के पापा मध्यप्रदेश के नामचीन आइएस अधिकारी रहे हैं। वे मध्यप्रदेश एवं वर्तमान छत्तिसगढ़ में सेवारत रहने के बाद सेवानिवृत होकर जबलपुर में रह रहे हैं। अपने पापा के कार्यो से प्रभावित सुश्री शैफाली तिवारी ने डिप्टी कलैक्टर की पीएससी में भी भाग लिया था लेकिन उनका नम्बर लगा जेल की पीएससी में और वे भोपाल में पदस्थ हुई। वैसे तो पूरे प्रदेश में मात्र तीन ही महिला जेल अधिक्षक हैं। जिसमें एक श्रीमति अलका सोनकर शाजापुर , श्रीमति उषाराज दतिया में पदस्थ हैं। बेगमगंज की महिला जेलर श्रीमति ज्योति तिवारी की तरह दबंग महिला जेल अधिक्षक बनी सुश्री शैफाली अपनी स्वजाति श्रीमति ज्योति तिवारी की कार्यप्रणाली की कायल हैं। इन सब से हट कर आपने कभी सपने में नहीं सोचा होगा कि अग्रेंजो के जमाने की जेल में जेल अधिक्षक के पद कोई दबंग महिला पदस्थ होगी। बैतूल जिले की प्रथम महिला जेल अधिक्षक सुश्री शैफाली तिवारी मध्यप्रदेश एवं महाराष्ट्र के सीमावर्ती आदिवासी बाहुल्य बैतूल जिला जेल का बदनाम नक्शा बदलने जा रही सुश्री शैफाली तिवारी मध्यप्रदेश की एक मात्र अनारक्षित परिवार की लाड़ली बिटीया है जिसने जेल जैसे बदनाम विभाग की सूरत और शक्ल बदलने का बीड़ा उठाया हैं। आपको याद होगा हिन्दी की बहुचर्चित शोले फिल्म के जेलर असरानी का वह डायलाग जिसमें वह कैदियों से कहता हैं कि आजकल के जेलरो की तरह नहीं है जो कैदियो को सुधारने की फिकर में लगे रहते हैं। हम जानते हैं कि आजकल हमारी बातो को नहीं पसंद नहीं किया जाता हैं। इसलिए हमारी हर जगह से बदली हो जाती हैं इतनी बदली के बाद में हम नहीं बदले…? शोले के जेलर के उक्त डायलाग ठीक विपरीत बैतूल जिले के कैदियो और जेल को सुधारने में लगी सुश्री शैफाली तिवारी ने समाज शास्त्र   से उच्च शिक्षा पाने के बाद जब जेल अधिक्षक के लिए पीएससी की परीक्षा दी तो उन्हे सपने में भी कल्पना नहीं थी कि बैतूल जैसे जिले में भी पदस्थ होना पड़ सकता है। महानगरो में पढ़ी – लिखी सुश्री तिवारी के लिए बैतूल एक अग्रि परीक्षा की तरह हैं। बैतूल जिले के आदिवासी क्षेत्र की महिलाओं के द्वारा घटित अपराधों की विवेचना करने के बाद वे कहती हैं कि जिले की अधिकांश महिला बंदी आदतन अपराधी नहीं हैं। किसी परिस्थिति और अनजाने में हुए अपराधों के बोझ तले दबी कुचली महिलाओं को सुधारने का प्रयास उनकी पहली प्राथमिकता रहेगी। सुश्री तिवारी कहती हैं कि इन्दौर के आसपास की महिला बंदी के अपराध और झाबुआ , मंदसौर , नीमच की महिला बंदी के अपराधो के पीछे की कहानी में भिन्नता हैं। आपका यह मानना हैं कि हिन्दुस्तान में महिलाए आज भी कानून के प्रति जानकार नहीं है जो थोड़ा बहुुंत जानती हैं वह उसका उपयोग दुसरो के हित में करने के बजाय उसका दुरूप्रयोग करती हैं। मां नर्मदा के किनारे पली – बढ़ी सुश्री शैफाली को ताप्ती का तट अच्छा जरूर लगेगा लेकिन वे अभी तक ताप्ती के तट पर जा नहीं सकी हैं। दबे स्वर में सुश्री शैफाली तिवारी भी मानती हैं कि मध्यप्रदेश की जेले भी महिला जेल अधिक्षको , महिला जेलरो , महिला जेल आरक्षक के लिए किसी यातना से कम नहीं हैं। पुरूष प्रधान समाज में आज भी पुरूषो द्वारा खास कर अपने अधिनस्थ महिला अधिकारियों , कर्मचारियों को ना ना प्रकार से प्रताडि़त किया जाता हैं। सुश्री तिवारी भी मानती हैं उनके पापा यदि आइएस अधिकारी नहीं होते तो वह भी प्रताडऩा का शिकार होती और आज भी हो रही हैं। अपने तीन साल के कार्यकाल में तीन तबादले को सुश्री शैफाली तिवारी एक प्रकार से प्रताडऩा ही मानती है लेकिन इसे चुनौती समझ कर स्वीकार भी किया और आज बैतूल में पदस्थ हैं। अंतराष्ट्रीय महिला दिवस पर सुश्री तिवारी कहती हैं कि भाषणों एवं नेतागिरी से महिलाओं का उद्धार नहीं होगा। नारी को अबला नहीं सबला बनना होगा। आपका यह भी मानना हैं कि नारी को हर उस जाब में जाना चाहिए जिसके बारे में यह भ्रम फैला दिया जाता है कि यह काम औरतो का नहीं है,उसे तो सिर्फ चुल्हा चौका ही संभालना चाहिए। आप इस कटु सत्य को भी स्वीकार करती हैं कि चुल्हा चौका और बेलन नारी की पहचान हैं लेकिन उससे हट कर भी तो कुछ किया जा सकता हैं। सुश्री तिवारी सवाल करती हैं कि क्या अमेरिका के राष्टपति की पत्नी को या भारत की महिला प्रधानमंत्री ने कभी अपने चुल्हे चौके में अपने परिवार के लिए काम नहीं किया होगा। मां अपने बच्चे को अपने ही हाथ का बनाया खाना खिलाना पसंद करती हैं। इसी तरह पत्नि भी अपने पति के लिए और बेटी अपने परिवार के लिए चुल्हा चौका संभालती हैं। हम जिस समाज में रह रहे है, हमें उसकी थोड़ी सी नकारात्म सोच को बदलना हैं।

तुर्कमेन समाज में महिला दिवस के अनुभव – डा.सुधा सिंह

8 मार्च 2011 को विश्व महिला दिवस सारी दुनिया में मनाया जाता है। मैं यहां तुर्कमेनिस्तान की राजधानी अस्काबाद में विश्वभाषा संस्थान में हिन्दी विभाग में प्रोफेसर हूँ, नया विभाग खुला है, मेरी यह दूसरी विदेश यात्रा है,पांच महिने गुजर चुके हैं यहां पर। महिला दिवस पर इस देश का माहौल देखकर आश्चर्य हो रहा है और उसी अनुभव को मैं साझा करना चाहती हूँ। यह देश पहले समाजवादी सोवियत संघ का हिस्सा था। इन दिनों संप्रभु राष्ट्र है। बेहद सम्पन्न हैं यहां के लोग।

 

करीब पांच छः रोज पहले मेरी तुर्कमेन दोस्त शमशाद ने वायदा किया है कि वो इस दिन मुझसे मिलने आएगी और मुझे एक सरप्राइज गिफ़्ट( मेरी एक पेंटिंग) देगी। मुझे हठात् 8 मार्च का प्रसंग ध्यान नहीं आया तो उसने याद दिलाया कि मंगलवार को 8 मार्च है। तब तक मुझे उम्मीद नहीं थी कि 8 मार्च का दिन तुर्कमेनिस्तान में इस तरह बड़े पैमाने पर मनाया जाता है। 6 मार्च से ही राष्ट्रीय चैनलों पर बार-बार बधाई संदेश दिखाया जा रहा है। महिला दिवस मुबारक हो। राष्ट्रपति ने सभी महिलाओं और देशवासियों को इस दिन की बधाई दी है। कल 8 मार्च को राष्ट्रीय अवकाश है।

 

आज 7 मार्च से ही सारे दिन ‘यास्लिक’ नाम के राष्ट्रीय चैनल पर महिलाओं के लिए तरह तरह के कार्यक्रम आयोजित किए गए हैं। इसमें सक्रिय सरकारी भागीदारी है। मैंने महिला दिवस पर ऐसा कोई दृश्य अन्य किसी चैनल पर नहीं देखा, इस कारण सुखद आश्चर्य हुआ।

वैसे भी तुर्कमेनिस्तान उत्सवप्रिय देश है। उत्सवधर्मिता यहां के लोगों की रग़-रग़ में है, थोड़ा शर्माकर सुंदर तरीके से कहते भी हैं कि हमारे देश में उत्सव बहुत हैं। पर अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर इस तरह का उत्सवपूर्ण आयोजन देखना बहुत ही प्रीतिकर है। आम तौर पर अन्य अंतर्राष्ट्रीय चैनल बहस और रिपोर्टें दिखाते हैं, महिलाओं की स्थिति का वैश्विक आकलन प्रस्तुत करते हैं, उनमें उत्सवधर्मिता और उल्लास कहीं ग़ायब हो जाता है। मैं ये नहीं कह रही कि बहसों और आंकड़ों की जरुरत नहीं। इनकी जरूरत है, कांगो में बलात्कार का युद्ध के अस्त्र के रुप में इस्तेमाल, मध्य पूर्व के देशों में महिलाओं द्वारा हाल के जनांदोलनों में भागीदारी पर और इस तरह के अन्य मसलों पर बहस की जरूरत है।

लेकिन उत्सव की तरह इस दिन को मनाए जाने का अपना रचनात्मक और प्रतीकात्मक महत्व है। आज के कार्यक्रम की विशेषता है कि पूरा कार्यक्रम पुरुषों द्वारा पेश किया जा रहा है। इनमें किशोर हैं , युवा हैं और वृद्ध भी। वे ही काव्य-पाठ कर रहे हैं, नाच रहे हैं, वाद्य बजा रहे हैं। जबकि अमूमन किसी भी अन्य कार्यक्रमों में महिलाओं की बराबर भागीदारी होती है। वे गाती हैं, वाद्य भी बजाती हैं, नृत्य और अन्य सांस्कृतिक कार्यक्रम भी पेश करती हैं। पर आज हर उम्र की महिला को कार्यक्रम का केवल आनंद लेते देखा जा सकता है। उनके सम्मान में कार्यक्रम पेश किया जा रहा है मेल जेंडर के द्वारा। पुरुष मंडली नाच-गा कर महिला समाज की मेहरबानियों का बखान कर अपना आभार प्रकट कर रही है। स्त्री के अवदानों के प्रति यह एक कृतज्ञ समाज की सही भंगिमा है। बहस और रिपोर्टें भी हैं, चर्चाएं भी,महिलाओं की प्रतिक्रिया भी। सब समानुपातिक।

समाजवादी समाज के ढ़ांचे के अंदर विकसित स्त्रीवादी सरोकारों को यहां देखा जा सकता है। यहां औरतों को सरकारी स्तर पर कई तरह की सुविधाएं हासिल हैं। कामकाजी महिलाओं के लिए विशेष रूप से प्रावधान है कि पूरी नौकरी के दौरान दो बार वे गर्भधारण के दौरान मिलने वाली सरकारी सहूलियतें ले सकती हैं। जच्चा –बच्चा दोनों के लिए ही नौकरीपेशा और गैर नौकरीपेशा महिलाओं के लिए सरकारी सुविधाएं दी जाती हैं। मां और शिशु को मासिक तौर पर दो वर्षों तक धन दिया जाता है साथ ही बच्चे की पढ़ाई –लिखाई का खर्चा भी मिलता है। पूरी नौकरी के दौरान यदि महिला ने दो बार गर्भ धारण किया है तो वह समय उसकी नौकरी में तरक्की में बाधा नहीं होता। यही नहीं वह चाहे तो गर्भधारण के समय को नौकरी की पूरी अवधि में से घटाकर पूरे पेंशन के साथ रिटायरमेंट ले सकती है।

यह एक उदार मुस्लिम बहुल समाज है। धर्म को लेकर कहीं से भी कट्टरता का प्रदर्शन दिखाई नहीं देता। खान-पान, पहनावा, आचार-व्यवहार सबमें उदारता दिखाई देती है। मैंने यहां लगभग 6 महीनों में लोगों को जोर-जोर से बोलते या झगड़ा करते नहीं सुना। मेरे पड़ोस में रहनेवाली महिलाओं में भी मैंने कभी कोई कटु प्रसंग नहीं देखा। लड़की पैदा होने पर मां-बाप निश्चिंत होते हैं। लड़की स्वयं लड़का पसंद करती है। लड़की वाले शादी से पहले एक बार भी लड़के का घर देखने नहीं जाते। लड़के के घरवाले ही आते हैं और प्रस्ताव देते हैं।

वैवाहिक संबंधों के न चल पाने की स्थिति में तलाक यहां स्टीग्मा नहीं है। तलाक की स्थिति में घर पर स्त्री का ही अधिकार होता है, उसे घर नहीं छोड़ना पड़ता। सबसे महत्वपूर्ण यह कि यहां स्त्रियां जितने भी सर्विस सेक्टर हैं उनमें बड़ी संख्या में काम करती हैं। केयरटेकर, बाज़ार में दुकानदारी, विदेशों से सामान आयात करके व्यापार, मिलों-कारखानों और दस्तकारी के कामों विशेषकर कालीन बनाने और यहां के राष्ट्रीय पोशाक – ‘कोईनेक’ (कशीदाकारी)की कढ़ाई, सिलाई सभी कामों में स्त्रियों की ही भागीदारी है। अपवाद रूप में भी पुरुष दिखाई नहीं देते।

यहां ‘मॉल’ हैं उनमें पूरे दुकान की जिम्मेदारी स्त्रियों पर ही है। सेल्सगर्ल से लेकर कैश काउंटर तक वे ही हैं। ‘बिज़नेस वूमन’ की अवधारणा यहां आम है। पुरुष भवनों के निर्माण कार्य में या ऑफिसों में काम करते हैं। बाज़ार का पूरा अर्थतंत्र स्त्री के हवाले है। इस श्रम के अलावा इन स्त्रियों का घरेलू श्रम भी जुड़ा हुआ है। सदियों से चले आ रहे पितृसत्ताक विचारों के घुन ने इस समाज को भी खाया है। इतनी बड़ी संख्या में हर तरह के कामों में भागीदारी के बावजूद राजनीति और व्यापारिक क्षेत्र में महत्वपूर्ण जगहों पर महिलाओं की भागीदारी समुचित नहीं है।

 

भारत में इतनी बड़ी संख्या में बाज़ार की संचालक शक्ति के रूप में स्त्री को देखना मुश्किल है। वे दिखाई देती हैं उपभोक्ता के रूप में। विशेषकर शहरों में तो यही दृश्य है। घर और बाहर के कामों का पितृसत्ता के नियमों के अनुसार सख़्त बंटवारा स्त्री को व्यक्तित्व के विकास के बहुत सारे अवसरों से तो बाधित करता ही है बहुत सी रुढ़ियों की समाप्ति की प्रक्रिया को भी विलंबित करता है। मैं अभी तक तय नहीं कर पाई हूं कि अपनी उस छात्रा-मित्र द्वारा दी गई शिवरात्रि की बधाई का क्या प्रत्युत्तर दूं , उसी दिन शमशाद ने याद दिलाया था कि क्यों वह 8 मार्च को ही सरप्राइज देना चाहती है। पार्वती की कठिन 12 बरसों की तपस्या के बाद शिव प्रसन्न हुए थे और पार्वती से विवाह किया था। ‘शिवरात्रि’ के दिन कन्याएं इच्छित वर पाने के लिए और सुहागिनें सात जन्मों तक वर्तमान पति को पाने के लिए व्रत करती हैं। भारतीय स्त्रीवाद की विडंबना है कि यहां शिवरात्रि और अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस एक ही पैराडाइम में मौजूद हैं। भारत में महिला आंदोलन अभी तक इस दिन को राष्ट्रीय अवकाश घोषित नहीं करा पाया है लेकिन पूर्व समाजवादी समाज के मुस्लिम बहुल देश तुर्मेनिस्तान में राष्ट्रीय अवकाश है। शरीयत की जगह आधुनिक संविधान है,कानून है। यहां औरत के लिए जिस तरह के अधिकार,सामाजिक सम्मान और सामाजिक सुरक्षाएं उपलब्ध हैं ,उन्हें देखकर यही इच्छा होती है कि काश !भारत की औरतों के पास इस तरह के अधिकार होते ।

 

(लेखिका परिचय- डा.सुधासिंह, प्रोफेसर हिन्दी विभाग,विश्व भाषासंस्थान, अस्काबाद, तुर्कमेनिस्तान)

 

महिला उत्पीड़न : इंसाफ ! ढूंढते रह जाओगे – डा.गोपा बागची

महिला दिवस के मौके पर हम महिलाओं के अधिकारों और जागरुकता के लंबे चौडे समारोह-भाषण करके अपनी गिनती कुछ खास लोगों में कर लेते हैं। आधी आबादी के सरोकारों पर चर्चाएं सभी को पसंद आती हैं। नये दौर में महिलाओं के पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर आगे बढ़ने की मिसालें रखने में हम पीछे नहीं हटते। महिलाओं के शिखर पर पहुंचने और विविध क्षेत्रों में उपलब्धियों को गिनाकर गौरव का अनुभव करते हैं। सरकारें भी महिला अधिकारों के संरक्षण और उनके जागरुकता के लिये कार्यक्रम गिनाने में देर नहीं करती। गैर-सरकारी संगठन भी इन सरकारों के पीछे-पीछे महिलाओं के सशक्तिकरण का दावा प्रस्तुत करते हैं। बालीबुड की बालाओं का आकर्षण और तथाकथित आधुनिकता की हवा में सांस लेती महिलाओं की फैशनपरस्ती से यह लगता है कि महिलाएं काफी आगे निकल चुकी हैं। महिलाएं, अब अबला नहीं रह गई हैं। यह एक भ्रम हो सकता है, सच्चाई नहीं।

पिछले कुछ सालों में महिलाओं के प्रति बढ़ती बर्बरता और अत्याचार के किस्सों ने सोचने पर विवश कर दिया है कि क्या हम वाकई सभ्य समाज का हिस्सा हो चुके हैं। यह तो गर्व की बात हो सकती है कि देश के सर्वोच्च पद पर एक महिला को राष्ट्रपति होने का सम्मान मिला। लोकसभा की अध्यक्ष भी एक महिला है, नेता प्रतिपक्ष भी एक महिला है। देश में सत्ता की प्रमुख पार्टी की कमान भी एक महिला के हाथों में है। कुछ राज्यों में महिलाएं मुख्यमंत्री के पदों पर आसीन हैं। भारतीय प्रशासनिक सेवाओं और अन्य महत्वपूर्ण क्षेत्रों में भी महिलाएं सेवाएँ दे रही हैं। शायद स्त्री विमर्श का सबसे बड़ा पहलू भी यही है कि इतने विविध और महत्वपूर्ण पदों पर महिलाओं के होने के बावजूद महिलाओं के उत्पीडन-प्रताडना के मामलों में गिरावट क्यों नहीं आई, इसका ग्राफ बढ़ता ही क्यों गया। घर से लेकर आफिस तक, आंगन से खेतों तक महिलाओं के उत्पीडन के मामले लगातार बढ़ते जा रहे हैं। ताजा चौंकाने वाला मामला जबलपुर के एक मेडिकल कालेज में लड़कियों को पास कराने के नाम पर कालेज के अधिकारियों द्वारा यौन-शोषण को लेकर सामने आया है। शहरों की पाश कालोनियों और कुछ खास किस्म के साइबर कैफे, ब्यूटी पार्लर, होटल्स आदि ऐसी जगहें जहां महिलाओं के शोषण के मामले तेजी से उभर रहे हैं। यह उत्पीड़न किसी एक प्रकार का नहीं है, इस उत्पीड़न में दहेज, अश्लीलता, लज्जा भंग, व्यपहरण, अपहरण, नारी के प्रति क्रूरता, मानसिक कष्ट देना, ब्लात्संग, प्रकृति विरुद्ध अपराध के लिये विवश करना, अशिष्ट रुपण, औद्योगिक क्षेत्रों में नारी की दशा आदि आते हैं। कार्यस्थल पर होने वाले कुछ व्यवहारों से भी महिलाएं स्वयं को असहज और असुरक्षित पाती हैं। कुछ मामलों में अनेक ख्यातिलब्ध महिलाओं ने भी अपने साथ होने वाले कतिपय व्यवहारों पर गहरा असंतोष जताया है। ब्यूरोक्रेसी वाले सिस्टम में महिलाओं के लोकतांत्रिक अधिकारों पर भी अतिक्रमण होता रहा है। कई शैक्षणिक संस्थानों का माहौल भी महिलाओं के सम्मान की रक्षा को लेकर उपेक्षा रखता है।

ऐसा क्या है कि हम महिलाओं के सम्मान, सुरक्षा और संरक्षण में किसी कारगर कदम की तरफ नहीं बढ़ पाते। कुछ दिनों पहले कार्यस्थल पर महिलाओं के यौन उत्पीडन का विधेयक तैयार किया गया है, इस विधेयक में महिलाओं को संरक्षण प्रदान करने के कुछ बिन्दुओं पर विचार चल रहा है। अभी इसे कानून बनने में वक्त लग सकता है। ऐसा नहीं है कि महिलाओं के उत्पीडन के मामले में कोई कानून नहीं है। भारतीय कानून और हमारे धर्म समाज में महिलाओं के उत्पीड़न को रोकने के लिये कई व्यवस्थाएं दी गई है। सुप्रीम कोर्ट के निर्देशानुसार विशाखा एक्ट के तहत महिलाओं को यौन उत्पीड़न के मामलों में गंभीरता से लेने की बात कही गई है। जिसमें जिलों के कलेक्टर और ऐसी समस्त संस्थाओं में जो विधि सम्मत हैं उन्हें अपने विभागों में यौन उत्पीड़न समिति गठित करके महिलाओं को न्याय दिलाने के निर्देश है। दुर्भाग्य यह है कि इस कानून के प्रति गंभीरता किसी सरकार में नहीं है। फिर समस्या यह भी है कि इन व्यवस्थाओं में महिलाओं पर होने वाले अत्याचारों को रोकने के लिये संवेदनशीलता की कमी है। महिलाओं के उत्पीड़न को रोकने में मीडिया जितनी आवाज उठाता है, उतना ही न्याय महिला के हिस्से में आता है। मीडिया चुप्प, तो न्याय भी खत्म।

महिलाओं के उत्पीड़न के मामलों को सुनने और समुचित न्याय दिलाने के लिये राज्य महिला आयोग और राष्ट्रीय महिला आयोग की सक्रियता से कुछ आस बनती है। किन्तु इन आयोगों की सुनवाई और निर्णयों को गंभीरता से नहीं लिया जाता हैं। महिला उत्पीड़न के मामलों में महिला संगठनों की स्थिति शून्य की तरह है, ये संगठन कभी सक्रिय नहीं हो पाते और न ही किसी मामले का संज्ञान स्वयं से लेते हैं। छत्तीसगढ़ जैसे राज्य में जहां नक्सली अत्याचारों से पुलिस महकमों के शहीद परिवारों की महिलाओं और मारे जाने वाले आदिवासी पुरुषों की महिलाओं की सुध लेने वाले नारी संगठन का अभाव कष्टप्रद है। छत्तीसगढ़ में ही ऐसी कई महिलाएं हैं जिन्हें टोना टोटका के नाम पर प्रताड़ित किया जाता है, इन पीड़ित ग्रामीण महिलाओं की सुध लेने का भी काम नहीं होता है। पुलिस में शिकायत देने पर कार्रवाई के नाम पर हीला हवाला समझ से बाहर है और यदि शिकायत किसी अधिकारी की हो तो न्याय की उम्मीद ही छोड़ दीजिये। सही मायनों में महिलाओं के साथ होने वाले प्रताड़ना के मामलों पर प्राथमिकता से कार्रवाई होना चाहिये, क्योंकि कोई महिला किसी शिकायत को लेकर पुलिस थाने तक आती है तो उसे कितने अवसाद से गुजरना पड़ता है वह पीड़ा कोई दूसरा महसूस नहीं कर सकता है। एक महिला होने का अर्थ उसके बच्चे, परिवार और माता-पिता के समूचे अंग से होता है, एक महिला की पीड़ा से उसके पूरे परिवार की पीड़ा और दर्द का रिश्ता होता है। एक महिला की प्रताड़ना पर उसके कई अंगों पर हमला होता है, इसलिये ऐसे मामलों में किसी भी प्रकार की उदासीनता बरतना या उसे सामान्य मामला समझकर छोड़ देना सबसे बड़ा अपराध है। ऐसे कई मामले सामने आये हैं जहां किसी लड़की या महिला पर छींटाकशी या टीका-टिप्पणी उसे आत्महत्या जैसा कठोर कदम उठाने पर मजबूर कर देती है। इसके उदाहरण में कई रुचिकाएं हैं।

बहरहाल ये सच है, कि महिलाओं के प्रति बढ़ती हिंसक घटनाएं उन सभी दावों को खारिज करती हैं कि महिलाएं आगे बढ़ रही है। आधी आबादी का संघर्ष अभी आधा है। महिलाओं में चेतना आई है लेकिन उनके संरक्षण के प्रयासों में सरकारें असफल हैं। महिलाएं अधिकारों के प्रति सजग हुई हैं किन्तु वातावरण उसके अनुकूल नहीं है। महिलाएं स्वतंत्रता में जीना चाहती हैं परन्तु मुश्किलें कम नहीं है। प्रचलित कानून और न्याय व्यवस्था में खासे सुधार की जरुरत है, जो यह तय करने के लिये बनें कि महिलाओं को उनके सम्मान से जीने का अधिकार सुनिश्चित हो सके। वर्तमान में महिलाओं पर बढ़ते प्रताड़ना और अत्याचारों के मामलों में इंसाफ का रास्ता काफी दुर्गम है। इंसाफ मांगने का मतलब किसी सुरंग में घुसकर रोशनी की किरण को तलाश करना है। जो समाज और सरकारें महिलाओं के प्रति सेवा और सम्मान का भाव नहीं रखती हैं वहां सृजन के फूल कभी खिल नहीं सकते हैं। महिलाओं के प्रति श्रद्धा का कोमल भाव ही समाज और राष्ट्र की संस्कृति को संवर्धन प्रदान कर सकता है।

 

– डा.गोपा बागची

(लेखिका स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

पता : ए-48, नेचर सिटी, उस्लापुर, बिलासपुर छ.ग.

 

यूपीए द्वितीय ओर वामपंथ दोनो की अग्नि परीक्षा होने वाली है .

पाँच राज्यों -पश्चिम बंगाल,तमिलनाडु,केरल,असम और पुद्दुचेरी के विधान सभा चुनाव कार्यक्रम घोषित हो चुके हैं . देश की राजधानी दिल्ली में और सम्बंधित राज्यों में राजनीतिक गतिविधियाँ तेज हो गईं हैं.घोषित चुनाव कार्यक्रम के मुताबिक -तमिलनाडु ,केरल और पुद्दुचेरी में एक ही चरण में १३ अप्रैल को जबकि असम में दो चरणों में ४ और ११ अप्रैल को मतदान होगा . सबसे लम्बी चुनावी प्रक्रिया पश्च� ��म बंगाल में निर्धारित की गई है , जहां १८ अप्रैल से १० मई तक ६ चरणों में मतदान कराया जायेगा . इन पाँच राज्यों

के चुनावों को स्थानीय मुद्द्ये तो प्रभावित करेंगे ही,साथ ही महँगाई , भृष्टाचार और आर्थिक नीतियों का असर भी पडेगा. ये विधानसभा चुनाव सम्बन्धित राज्यों के कामकाज की समीक्षा रेखांकित करेंगे,साथ ही केद्र की सत्तारूढ़ संयुक प्रगतिशील गठबंधन सरकार के कामकाज पर भी लघु जनमत संग्रह के रूप में देखे जायेंगे ,केंद्र में आसीन संप्रग सरकार का नेत्रत्व का रही कांग्रेस इन चुनाव वाले राज ्यों में से सिर्फ दो में -असम और पुदुचेरी में ही सत्ता में है. तमिलनाडु में उनके ’अलाइंस पार्टनर’द्रुमुक की सरकार है. कांग्रेस का अधिकतम जोर यही हो सकता है कि यथास्थिति बरकरार रहे.आसार भी ऐसे ही बनते जा रहे हैं.उक्त पाँच राज्यों में देश कि तथाकथित मुख्य विपक्षी पार्टी का कोई वजूद नहीं है अतेव कांग्रेस को भाजपा कि ओर से संसद में भले ही चुनौती मिल रही हो किन्तु इन राज्यों में क� ��ई चनौती नहीं है.

पश्चिम बंगाल में पिछले करीब ३५ साल से माकपा के नेत्रत्व में वाम मोर्चा काबिज है,उसे कामरेड ज्योति वसु का शानदार नेत्रत्व मिला था . उनके बाद का नेत्रत्व भी कमोवेश सुलझा हुआ और सेद्धान्तिक क्रांतीकारी आदर्शों का तरफदार है किन्तु भूमि सुधार कानून लागू करने,मजदूरों -किसानो को संगठित संघर्ष से अपने अधिकारों कि रक्षा का पाठ पढ़ाने,वेरोज्गरी भत्ता देने,राज्यमें धर्म निरपेक्ष मूल ्यों कि हिफाजत करने के वाबजूद आज का नौजवान बंगाली आर्थिक सुधारों के पूंजीवादी पैटर्न का हामी हो चला है.उसे किसीप्रजातांत्रिक क्रांति या समाजवाद में कोई दिलचस्पी नहीं,वह या तो हिंसक -बीभत्स नग्न छवियों का शिकार हो चला है,या उग्रवाम कि ओर मुड़ चला है. अतः उसे प्रतिकार कि भाषा का सिंड्रोम हो गया है ,इन तत्वों ने बंगाल में माओवाद,ममता ,तृणमूल और गैरवामपंथी दकियानूसी जमातों का ’म हाजोत’ बना रखा है ,कहने को तो कभी कांग्रेस और कभी तपन सिकदर भी इनके साथ हो जाते हैं किन्तु ये उनका एक सूत्रीय संधिपत्र है कि वाम को हटाओ .बाकि एनी सवालों ,नीतियों पर इन में जूतम पैजार होती रही है ,अतः कोई आश्चर्य नहीं कि घोर एंटी इनकम्बेंसी फेक्टर के वावजूद वाम फिर से{आठवीं बार} पश्चिम बंगाल कि सत्ता का जनादेश प्राप्त करने में कामयाब हो जाये.

केरल में तो आजादी के बाद से ही दो ध्रुवीय व्यवस्था कायम है .प्रतेक पाँच साल बाद सत्ता परिवर्तन में कभी कांग्रेस के नेत्रत्व में यु डी ऍफ़ और कभी माकपा के नेत्रत्व में लेफ्ट .अभी लेफ्ट याने वाम मोर्चे कि पारी है देश और दुनिया के राजनीतिक विश्लेषक , पत्रकार ,स्तम्भ लेखक और वुद्धिजीवी मानकर चल रहे होंगे कि अबकी बारी यु डी ऍफ़ याने कांग्रेस के नेत्रत्व में केरल कि सरक� �र बनेगी.विगत एक साल से यु पी ऐ द्वितीय कि सरकार कि जिस तरह से भद पिट रही है ,एक के बाद एक स्केम का भन्दा फोड़ हो रहा है ,कभी शशी थरूर ,कभी पी जे थामस और कभी टू-जी स्पेक्ट्रम घोटाला ,ये सब घोटाले न जाने देश को कहाँ ले जाते यदि न्यायपालिका कि भृष्टाचार के खिलाफ ईमानदार कोशिशें न होतीं !इन सब भयानक भूलों चूकों को केरल कि जनता भी जरूर देख सुन रही होगी.केरल कि शतप्रतिशत साक्षरता और साम्प्रद� �यिक सहिष्णुता के परिणाम स्वरूप कोई आश्चर्य नहीं कि केरल में भी वामपंथ पुनः सत्ता में आजाये.

तमिलनाडु में मुख्यमंत्री एम् करूणानिधि अब जनता और राज्य पर बोझ बन चुके हैं , उनके परिवार का हर वंदा और वंदी बुरी तरह बदनाम हो चुके हैं ,ऐ राजा,कनिमोझी ,अझागिरी ,दयानिधि मारन,स्टालिन और उस कुनवे का हर शख्स आपादमस्तक पाप पंक में डूब चूका है सो द्रुमुक तो डूवेगी ही, अपने साथ कांग्रेस को भी खचोर डालेगी, कांग्रेस का नेत्रत्व अपनी जिम्मेदारी का ईमानदारी से निर्वाह करने में असफल रहा � ��ो खमियाजा तो भुगतना ही होगा .जयललिता को पुनः सत्तासीन होने कि तैयारी करनी चाहिए .

जहां तक भाजपा कि बात है , इन चुनावों में उसके सरोकार कहीं भी उपस्थिति दर्ज करने में असमर्थ हैं.कुल मिलाकार इन चुनावों के नतीजे केंद्र कि संप्रग सरकार , कांग्रेस , वामपंथ , के भविष्य की दिशा तो तय करेंगे ही, साथ ही इन प्रान्तों की जनता का वर्तमान भृष्ट व्यवस्था से सरोकार रखने

 

कोई साथ, कोई दूर !

‘एक अच्छा इंसान ही एक अच्छा नेता बन सकता है।’ यह एक सोच है। इस सोच को आसानी से झुठलाया नहीं कहा जा सकता। हिन्दुस्तान की राजनीति का इतिहास उठा कर देखा जाए तो इसकी बानगी सहज ही देखने को मिल जाएंगी।देश में कई ऐसा नेता और महापुरूष हुए जिन्होंने अपनी विचारधारा से कभी समझौता नहीं किया। इन नेताओं की कथनी और करनी में कोई फर्क नहीं होता था। मिसाल के तौर पर महात्मा गांधी, सुभाष चन्द्र बोस, लाल बहादुर शास्त्री, मौलाना अब्दुल कलाम आजाद आदि नेताओं का नाम लिया जा सकता है।जिन्होंने अपना पूरा जीवन देशसेवा में लगा दिया। अपवाद को छोड़कर उक्त नेताओं के आलोचक शायद ही कहीं दिखें।

खैर,वह दौर और था।इन नेताओं को बाहरी लोगों से मुकाबला करना पड़ा तो देश की जनता ने कंधे से कंधा मिलाकर इनका साथ दिया। आज दौर बदल गया है। देश को आजाद हुए 65 साल हो गए हैं। हिन्दुस्तानी 21 सदीं में पहुंच गए हैं। देश ने काफी तरक्की कर ली है,लेकिन इसका खामियाजा भी देश को भुगतना पड़ा।इन 65 सालों में हर तरफ मिलावट देखने को मिली। यहां तक की इंसान का जेहन भी साफसुथरा नहीं रह गया है। आम हिन्दुस्तानी में देश प्रेम की भावना लुप्त होती जा रही है। रिश्तो की मर्यादा तारतार हो गई है। लोगों के बीच फासलें इतने ब़ गए हैं कि दूरियां कम होने का नाम ही नहीं लेती। एक पी़ी के बाद दूसरी पी़ी को भी नफरत की आग में झोंक दिया जाता है। रिश्तों पर स्वार्थ इतना हावी को गया कि किसी को कुछ दिखाई ही नहीं पड़ता है। रिश्तों में घुली यह कड़वड़ाहट वैसे तो कम दिखाई पड़ती है लेकिन जब इसकी तपिश में कोइई ‘बड़ा’ घराना आता है तो चर्चा होना लाजमी है।

बात ताजीताजी है।देश के एक बड़े राजनैतिक घराने के ‘युवराज’ विवाह बंधन में बंध कर अपने जीवन की नई शुरूआत करने जा रहे थें बात बड़े लोगों की थी तो चर्चा होना लाजमी थी। मीडिया,राजनेताओं,उद्योगपतियों सहित आमजन विवाह से संबंधित खबरों को रूचि लेकर पॄ रहा था। मानों पूरा हिन्दुस्तान परेशान था कि ॔युवराज’ के विवाह समारोह में कौनकौन आएगा।अटकलें लगाई जा रही थीं। निमंत्रण पत्र बंट चुके थे।कहीं डाक से तो कहीं संचार क्रांति का फायदा उठाकर अतिथियों को निमंत्रित किया गया था।कई खास रिश्तेदारों को युवराज और उनकी माता जी स्वयं विवाह समारोह में उपस्थित होने के लिए बुलावा देने गईं।युवराज अपनी मॉ के अकेले बेटे थे,इस लिए शादी धूमधाम से होनी ही थी,भले ही युवराज अपनी मॉ का अकेला लाडला था लेकिन ऐसा भी नहीे था कि उसके खानदान में और कोई हो ही न। युवराज के सिर से दादादादी और बाप और ताऊ(पिता जी के बड़े भाई) का सांया जरूर उठ गया था, लेकिन ताई ,तरेरा भाई और तेरेरी बहन तो थे ही।

ताई के स्नेही स्पर्श और तरेरे भाईबहन के साथ खेलतेकूदते ही ‘युवराज’ ने अपना बचपन गुजारा था,लेकिन समय नेकरवट बदली और इस स्नेही रिश्ते में दूरियां ब़ती चली गई।घर के ‘बड़ों’ के बीच कौन सी ‘दरार’ पड़ी थी यह बात बाल मन तब तक समझ ही नहीं सका जब तक कि बुजुर्गो ने उन्हें समझाया नहीं।घर के बुजुर्गो में से किसने किस बच्चे को क्या पाठ पॄाया यह किसी को पता नहीं चल पाया ?आज यह चर्चा का विषय नहीं है, लेकिन इस खानदान में छोटे ‘युवराज’ की खुशी का मौका आया था,उसे जीवन संगिनी मिलने वाली भी। इस मुबारक मौके को यादगार बनाने के लिए छोटे युवराज बिना कोई कड़वड़ाहट दिखाए अपनी मॉ जैसी ताई और भाईबहनों को न्योता देने ॔देश के सबसे पावरफुल घराने के दरवाजे पर पहुंच गए।छोटे युवराज का घर में गर्म जोशी से स्वागत हुआ। छोटे युवरान ने सबकों शादी मे आने का बुलावा दिया और करीब एक घंटे तक रूकने के बाद वापस चले गए।वैवाहिक कार्यक्रम एक प्रसिद्ध धर्मनगरी में सम्पन्न हो रहा था।

देश की जनता सब कुछ देखसुन रही थी। मामला भले ही एक परिवार का था लेकिन यह परिवार एक पॉवरफुल राजनैतिक घराने से जुड़ा हुआ था, इसलिए लोगों की जिज्ञासा ब़ी हुईं थी, जो परिवार देश को चलाने के लिए उच्च मापदंड की बात करता हो उसके लिए भी यह समय कसौटी का था।अटकलें लग रहीं थीं सच्चाई क्या थी, यह कोई नहीं जानता था। लोग अपनेअपने हिसाब से कयास लगा रहे थे। बस, एक ही सवाल लोगों के जेहन में घूम रहा था कि क्या, देश को ॔नई दिशा’ देने का दावा करने वाले इस बिखरें हुए परिवार में ॔छोटे युवराज’ की शादी के बहाने ही सही कुछ दूरियां कम होंगी ?या फिर ॔बिखराव’ का सिलसिला यों ही चलता रहेगा। आखिर वो दिन आ ही गया जिस दिन युवराज को अपनी जीवन संगनी के साथ सात फेरे लेकर जीवनभर साथ लेने की कसम खाना था।

मेहमान पहुंच गए थे, छोटे युवराज और उनकी राजनीतिरू मॉ सबका गर्मजोशी से स्वागत कर रही थीं,लेकिन निगाहें अपनों को ‘तलाश’ रहीं थीं।घड़ी की सुइयां अपनी गति से आगे ब़ती जा रही थीं।इसी के साथ सम्पन्न हो या छोटे युवराज का वैवाहिक कार्यक्रम। करीबकरीब सभी मेहमान आए थे, नहीं आए तो छोटे युवराज की ताई,तरेरे भाई और तरेरी बहन। शायद,रिश्तों पर ‘अहम’ भारी पड़ा था। कौन आया कौन नहीं आया, इससे देश की जनता को न तो कुछ लेनादेना है और न ही वह कुछ कर सकती है, लेकिन इतना जरूर कहा जा सकता है कि देश के लिए हमेशा उच्च आदर्शों की बात करने वाले इस राजनैतिक परिवार ने देश के सामने कोई मिसाल नहीं कायम की। इससे जनता के बीच गलत संदेश तो गया ही,साथ ही सवाल यह भी खड़ा हो गया कि यह परिवार जब अपनों का नहीं हुआ तो देश को क्या होगा? क्योंकि इसमें कोई दो राय नहीं है कि एक अच्छा इंसान ही एक अच्छा राजनेता हो सकता है।वैसे इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि यह परिवार भी हिन्दुस्तानी समाज का ही हिस्सा है,आज से हर परिवार में दिखाई दे रहा है,उसी का ‘अश्क’ देश के इस सबसे पॉवरफुल परिवार में देखने को मिल रहा है।वरूण को जीवन संगनी का साथ तो मिल गया,लेकिन इस मौके पर अपनों की दूरी उन्हें हमेशा सताती रहेगी।

संवैधानिक पदों पर नियुक्ति में भी भ्रष्टाचार

एक तरफ देश में भ्रष्टाचार को जड़ से मिटाने के लिए यूपीए सरकार हर दिन बयानबाजी करती नजर आती है तो दूसरी तरफ संवैधानिक पदों पर ऐसे लोगों को नियुक्त किया जाता है जो खुद दागदार हैं और जिनकी प्रतिष्ठा दांव पर लगी है। सर्वोच्च अदालत ने अपने फैसले में साफ कहा है कि मुख्य सतर्कता आयुक्त की नियुक्ति के लिए बनी उच्चस्तरीय समिति और किसी भी सरकारी संस्था ने सीवीसी जैसी संस्था की ईमानदारी और निष्ठा के मुद्दे को प्राथमिकता नहीं दी। कुल मिलाकर सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले ने केंद्र सरकार को सबक देते हुए उसे सवालों के घेरे में लाकर खड़ा कर दिया है, क्योंकि सरकार द्वारा केंद्रीय सतर्कता आयोग,सीबीआई,प्रवर्तन निदेशालय,रॉ और गुप्तचर ब्यूरो में जो नियुक्तियां कि गई हैं उनमें भी भ्रष्टाचार की बू आ रही है।

यूपीए सरकार के अब तक के कार्यकाल में अहम संवैधानिक पदों, आयोगों और अन्य मलाईदार पदों पर होने हुए मनोनयन और नियुक्तियों की फेहरिस्त देखें तो हर जगह उसके मुख्य घटक-कांग्रेस की सिफारिशों का ही जलवा दिखता है। मई, 2004 में कांग्रेस की अगुवाई में चौदह दलों की गठबंधन सरकार बनी। लेकिन सत्ता की असल मलाई कांग्रेस ने ही खाई। सरकारी नियुक्तियों और मनोनयनों में उसका एकछत्र राज रहा है। किसी घटक की कुछ खास नहीं चली।

शुरूआत करते हैं केंद्रीय सतर्कता आयुक्त पीजे थॉमस से। 2003 में हुई सीवीसी एक्ट के मुताबिक इस पद पर वही नियुक्त हो सकता है, जिसका पूरा काल संदेह से परे हो क्योंकि ये केन्द्रीय भ्रष्टाचार निरोधक निकाय है और सरकार के उच्चअधिकारियों पर निगाह रखने के अलावा उनके खिलाफ जांच का आदेश देता है. ये सीबीआई की सुपरवायजरी अथॉरिटी भी है। दरअसल 1964 में सरकारी महकमों में करप्शन रोकने के लिए संथानम कमेटी के सुझाव पर सीवीसी का गठन किया गया था, जिसके मुताबिक एक स्वायत्त निकाय के रूप में स्थापित करना और सरकारी मुलाजिमों और सस्थाओं में बढ़ती हेराफेरी को रोकना और जांच एजेंसियों को जांच करने का आदेश देना है. यहीं नहीं देश के तमाम संस्थानों का ईमानदारी की राह पर चलने के लिए सचेत करना भी इसका काम है।

आखिर पीजे थॉमस में क्या खास था कि सरकार ने उन पर लगे आरोपों और नेता विपक्ष की आपत्ति के बावजूद उन्हें सीवीसी नियुक्त कर दिया? केंद्रीय सतर्कता आयोग (सीवीसी) का काम होता है भ्रष्टाचार के खिलाफ निगरानी करने का। इस आयोग के आयुक्त की नियुक्ति प्रधानमंत्री, गृहमंत्री और लोकसभा में विपक्ष के नेता की सदस्यता वाली समिति की सलाह पर राष्ट्रपति करते हैं। देश भर में भ्रष्टाचार की किसी भी शिकायत की जांच कराने वाली एजेंसी सीवीसी के मुखिया पीजे थॉमस की नियुक्ति की प्रक्रिया अपने आप में कई राज खोलती है। थॉमस केरल के पॉमोलीन आयात घोटाले में फंसे थे। केंद्र सरकार में सचिव बनने के लिए जरूरी केंद्र में दो साल के डेपुटेशन का अनुभव भी उनके पास नहीं था। इसके बावजूद केंद्र सरकार ने उन्हें सचिव बनाया। उनकी नियुक्ति पर ज्यादा लोगों का ध्यान न जाए इसलिए उन्हें कम महत्वपूर्ण माने जाने वाले संसदीय कार्य मंत्रालय में सचिव बनाया गया। फिर एक रुटीन ट्रांस्फर की तरह उन्हें हाई प्रोफाइल टेलीकॉम विभाग में सचिव बना दिया। उनकी ओर लोगों का ध्यान तब गया जब प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय कमेटी ने उन्हें सीवीसी नियुक्त किया। इस कमेटी में गृह मंत्री पी चिदंबरम ने तो प्रधानमंत्री का समर्थन किया लेकिन लोकसभा में नेता विपक्ष सुषमा स्वराज ने कड़ी आपत्ति जताई। इस नियुक्ति को लेकर देश भर में बवाल मचा और अन्त में सर्वोच्च न्यायालय ने इसे अवैध करार देकर सरकार को कटघरे में खड़ा कर दिया है।

मौजूदा सीबीआई प्रमुख अमर प्रताप सिंह की गिनती एक सख्त अफसर के रूप में की जाती है इस लिए इनकी नियुक्ति पर तो कोई विवाद नहीं हुआ। लेकिन सीबीआई से हाल ही में रिटायर हुए निदेशक अश्विनी कुमार की नियुक्ति पर भी विवाद हुआ था। सीबीआई निदेशक के पद के लिए सीवीसी की अध्यक्षता वाली कमेटी द्वारा तैयार तीन शीर्ष पुलिस अफसरों के पैनल में प्रकाश सिंह का नाम दूसरे स्थान पर था लेकिन प्राथमिकता अश्विनी कुमार को दी गई। उनके चयन पर इसलिए भी विवाद उठा क्योंकि वे कभी बहुत काबिल अफसर नहीं माने गए। हां, एक केंद्रीय मंत्री से उनकी निकटता के चर्चे जरूर सुर्खियों में रहे। सीबीआई के पूर्व निदेशक जोगिंदर सिंह कहते हैं कि खुफिया एजेंसियों के प्रमुखों की यह हालत है कि अगर सरकार उन्हें बैठने को कहती है तो वे लेट जाते हैं। जहां तक सीबीआई प्रमुख अमर प्रताप सिंह की नियुक्ति का मामला है उसके पीछे माना जा रहा है कि थॉमस की नियुक्ति से उठे विवाद के तुरंत बाद सरकार कोई और विवाद नहीं चाहती थी। इसीलिए पुलिस पदक व आईपीएस पदक से सम्मानित वरिष्ठतम अफसर को नियुक्त किया।

प्रवर्तन निदेशालय में फिलहाल केंद्र शासित कॉडर के अरुण माथुर एनफोर्समेंट निदेशक (ईडी) हैं। आर्थिक अपराधों की जांच के मुखिया के पद पर आने से पहले वे दिल्ली जल बोर्ड के अध्यक्ष थे। उस दौरान दिल्ली के ग्रेटर कैलाश क्षेत्र में उनके द्वारा कराए कामों को लेकर वे विवाद में थे। इस मामले में उन्हें अदालत ने समन भी किया था लेकिन तब तक वे ईडी बन चुके थे। हालांकि बाद में कोर्ट ने मामला खारिज कर दिया था। ईडी को हवाला, मनीलॉंड्रिंग और फेमा के मामलों की जांच करनी होती है। माथुर को दिल्ली के शीर्ष कांग्रेस नेतृत्व का खास माना जाता है। इस पद पर रहकर उन्होंने कॉमनवेल्थ खेलों, आईपीएल, 2जी स्पेक्ट्रम घोटाला, मधु कोड़ा के खिलाफ कार्रवाई, सत्यम इंफोटेक के एमडी एस राजू के खिलाफ मामलों की जांच के अलावा दिल्ली की रियल एस्टेट कंपनियों के खिलाफ छापे की कार्रवाई जैसे मामलों की निगरानी की हैं। उनकी नियुक्ति की सिफारिश करने वाली समिति के अध्यक्ष रहे पूर्व सीवीसी प्रत्यूष सिन्हा कहते हैं कि माथुर की नियुक्ति पूरी तरह नियमों के अनुसार हुई। आईएएस के चार वरिष्ठतम बैच के अफसरों में छांटकर समिति ने जो तीन लोगों की सूची तैयार की थी उसमें वे सबसे ऊपर थे। उनका कहना है कि जल बोर्ड के कार्यकाल के दौरान उठा कोई विवाद उनके सामने नहीं आया था।

रॉ —जो काम देश के अंदर आईबी करती है वही काम विदेशों में रॉ करती है यानी काउंटर इंटेलिजेंस या दूसरे देशों के प्रमुख लोगों की गतिविधियों की जानकारी जमा करना। लेकिन दूसरी खुफिया एजेंसियों की तरह रॉ के निदेशक की नियुक्ति भी राजनीतिक फैसला हो गया है। ताजा मामला मौजूदा निदेशक संजीव त्रिपाठी का है। उन्हें रॉ की सेवा से 31 दिसंबर 2010 को रिटायर होना था। तब वे एडिशनल डायरेक्टर थे। और तब डायरेक्टर के पद पर आसीन केसी वर्मा का रिटायरमेंट 31 जनवरी को होना था। लेकिन अचानक वर्मा ने 30 दिसंबर 2010 को पद से इस्तीफा दे दिया। त्रिपाठी रिटायर होने से बच गए। सरकार ने उन्हें दो साल के लिए रॉ का निदेशक बना दिया। या यूं कहें कि रिटायरमेंट की जगह उन्हें दो साल का न सिर्फ एक्सटेंशन दिया बल्कि प्रमोशन भी। हां, इस त्याग का लाभ वर्मा को भी मिला। उन्हें भी दो साल के लिए साइबर (इंटरनेट) अपराधों के लिए बनी खुफिया एजेंसी नेशनल टेक्निकल रिसर्च आर्गनाइजेशन (एनटीआरओ) का प्रमुख बना दिया गया। यह भी मात्र संयोग नहीं है कि त्रिपाठी के पिता गौरी शंकर त्रिपाठी भी रॉ में काम कर चुके रहे हैं।

गुप्तचर ब्यूरो (आईबी)को प्रधानमंत्री का आंख और कान माना जाता है। पूरे देश में राजनीति और आतंकवाद की खुफिया जानकारी जुटाने का काम इसके पास है। इसके निदेशक (डीआईबी) रोज सुबह प्रधानमंत्री से मुलाकात कर उन्हें देश में चल रही गतिविधियों की जानकारी देते हैं। इसीलिए प्रधानमंत्री अपने सबसे विश्वस्त आदमी को ही इस पद पर बिठाते हैं। अधिकतर राजनेताओं के फोन टेप करने का काम भी यही एजेंसी करती है। राष्टीय सुरक्षा सलाहकार (एनएसए) एम के नारायणन खुद डीआईबी रह चुके हैं। उनकी नियुक्ति के बाद से डीआईबी द्वारा प्रधानमंत्री को रोज सुबह दी जाने वाली ब्रीफिंग की प्रक्रिया बंद कर दी गई है। अब डीआईबी केवल नारायणन को ही ब्रीफ करते हैं। फिलहाल आईपीएस अधिकारी नेहचल संधू डीआईबी हैं।

क्या संवैधानिक पदों की गरिमा बरकरार रखना सरकार की जिम्मेदारी नहीं है? लगातार हो रहे घोटालों और भ्रष्टाचार के बढ़ते मामलों को देखते हुए क्या यह आवश्यक नहीं कि सरकार अपनी जिम्मेदारी को अधिक जिम्मेदारी से निभाती और संवैधानिक पदों पर नियुक्तियों के मामले में अधिक सतर्कता बरतती। बजाय इन सबके सरकार के मंत्री संवैधानिक संस्थाओं पर उंगलियां उठाकर उसकी अहमियत को चुनौती देने की कोशिश करते हैं। दूरसंचार घोटाले पर केंद्रीय मंत्री कपिल सिब्बल सरकारी खर्च के हिसाब-किताब पर नजर रखने वाली शीर्ष संस्था नियंत्रण एवं महालेखा परीक्षा यानी कैग के कामकाज के तरीके पर सवाल उठाते हुए यह बताने की कोशिश कर रहे थे कि टू जी स्पेक्ट्रम आवंटन घोटाले में सरकार को उतना नुकसान नहीं हुआ है जितना कैग की रिपोर्ट में बताया गया है। कुछ ऐसा ही बयान कानून मंत्री वीरप्पा मोइली ने भी दिया कि कैग उम्मीदों पर खरी नहीं उतरी। मोइली का कहना था कि अगर कैग ने समय रहते हस्तक्षेप किया होता तो कई घोटाले नहीं होते। वर्ष 2009 में भारत के तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त एन. गोपालस्वामी ने राष्ट्रपति से चुनाव आयुक्त नवीन चावला को बर्खास्त करने की सिफारिश की थी जिसे केंद्र सरकार ने खारिज कर दिया था। इस मामले में भाजपा ने चावला के कांग्रेस पार्टी से नजदीकी और पुराने संबंधों का आरोप लगाते हुए उनकी निष्पक्षता पर सवाल उठाए थे।

सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से सरकार की किरकिरी हुई है और विपक्ष के हाथ एक बड़ा मुद्दा लग गया है, लेकिन यहां सवाल संवैधानिक संस्थाओं की मर्यादा और उसकी गरिमा को बरकरार रखने का है। अदालत का कहना है कि विपक्ष के पास इस तरह की नियुक्ति को लेकर कोई वीटो तो नहीं है, लेकिन यदि विरोध होता है तो सरकार को इसको ध्यान में रखना चाहिए। इस मामले में एक याचिकाकर्ता और पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त जेएम लिंगदोह का कहना है कि सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले ने प्रधानमंत्री और गृहमंत्री पर भी सवाल खड़े किए हैं, लेकिन देश के कानून मंत्री वीरप्पा मोइली का अभी भी कह रहे हैं इस पूरे मामले में प्रधानमंत्री ने कुछ भी गलत नहीं किया।

सुप्रीम कोर्ट ने अपने इस फैसले में केवल थॉमस की नियुक्ति को रद ही नहीं किया, बल्कि सरकार को आने वाले समय में ऐसे अहम पदों पर नियुक्ति को केवल नौकरशाहों तक सीमित नहीं रखे जाने की बात भी कही है। कोर्ट का कहना है कि जब मुख्य सतर्कता आयुक्त की दोबारा नियुक्ति हो तो प्रक्रिया को केवल नौकरशाहों तक सीमित नहीं रखा जाए, बल्कि समाज से अन्य ईमानदार और निष्ठावान व्यक्तियों के नाम पर भी ध्यान दिया जाए।

नरक और मोक्ष के द्वंद्व में फंसे बाबा रामदेव

बाबा रामदेव ने कल रामलीला मैदान में शानदार मीटिंग की। उस मीटिंग में अनेक स्वनामधन्य लोग जैसे संघ के गंभीर विचारक गोविन्दाचार्य,भाजपा नेता बलबीर पुंज, नामी वकील रामजेठमलानी,सुब्रह्मण्यम स्वामी,स्वामी अग्निवेश,किरण बेदी आदि मौजूद थे। बाबा रामदेव ने यह मीटिंग किसी योगाभ्यास के लिए नहीं बुलायी थी। यह विशुद्ध राजनीतिक मीटिंग थी। इस मीटिंग में बाबा रामदेव के अलावा अनेक लोगों ने अपने विचार रखे। यह मीटिंग कई मायनों में महत्वपूर्ण है। यह बाबा रामदेव की राजनीतिक आकांक्षाओं को साकार करने वाली मीटिंग थी।

एक नागरिक के नाते बाबा में राजनीतिक आकांक्षाएं पैदा हुई हैं यह संतसमाज और योगियों के लिए अशुभ संकेत है। बाबा का समाज में सम्मान है और सब लोग उन्हें श्रद्धा की नजर से देखते हैं।उनके बताए योगमार्ग पर लाखों लोग आज भी चल रहे हैं। योग की ब्रॉण्डिंग करने में बाबा की बाजार रणनीति सफल रही है। मुश्किल यह है कि जिस भाव और श्रद्धा से बाबा को योग में ग्रहण किया गया है राजनीति में उसी श्रद्धा से ग्रहण नहीं किया जाएगा।

बाबा रामदेव को यह भ्रम है कि वे जितने आसानी से योग के लिए लिए लोगों को आकर्षित करने में सफल रहे हैं उसी गति से राजनीतिक एजेण्डे पर भी सक्रिय कर लेंगे । बाबा राजनीतिक तौर पर जिन लोगों से बंधे हैं और जिन लोगों को लेकर वे राजनीतिक मंचों से भाषण दे रहे हैं उनमें अनेक किस्म के स्वयंसेवी संस्थाओं के कार्यकर्ता और नेता हैं। किरणबेदी से लेकर स्वामी अग्निवेश आदि इन सबकी सीमित राजनीतिक अपील है और ये लोग दलीय राजनीति में विश्वास नहीं करते। वरना अपना दल बनाते।

भारत में लोकतंत्र दलीय राजनीति से बंधा है और दलीय राजनीति कोई करिश्माई चीज नहीं है। राजनीति रैली की भीड़ इकट्ठा करने की कला नहीं है,भाषणकला नहीं है। दलीय राजनीति की समूची प्रक्रिया बेहद जटिल और अंतर्विरोधी है। मसलन योग सिखाते हुए बाबा रामदेव को धन मिलता है। जो सीखना चाहता है उसे पैसा देना होता है। राजनीति में बाबा को रैली करनी है ,अपने राजनीतिक विचार व्यक्त करने हैं,प्रचार करना है तो उन्हें अपनी गाँठ से धन खर्च करना होगा अथवा किसी सेठ-साहूकार-तस्कर-माफिया-भ्रष्ट पूंजीपति से मांगना होगा और कहना होगा कि मेरी मदद करो। आम जनता से पैसा जुगाडना और राजनीति करना यह आज के जमाने की कीमती राजनीति में संभव नहीं है।

बाबा जानते हैं राजनीति का मतलब राजनीति है, फिर और कोई गोरखधंधा नहीं चल सकता। राजनीति टाइमखाऊ और पैसाखाऊ है। योग में बाबा को जो आनंद मिलता होगा उसका सहस्रांश आनंद उन्हें राजनीति में नहीं मिलेगा। अभी से ही बाबा ने राजनीति के चक्कर में शंकर की बारात एकत्रित करनी आरंभ कर दी है । मसलन दिल्ली में कल जो रैली बाबा ने की उसमें मंच पर बैठे जितने भी नेता और सामाजिक कार्यकर्ता थे उनकी आम जनता में कितनी राजनीतिक साख है यह बाबा अच्छी तरह जानते हैं। इनमें कोई भी जनता के समर्थन से चुनकर विधानसभा-लोकसभा तक नहीं जा सकता। रामजेठमलानी- सुब्रह्मण्यम स्वामी की एक-एक आदमी की पार्टी है नाममात्र की। बाकी दो भाजपानेता मंच पर थे जिनका कोई जनाधार नहीं है। किरनबेदी और स्वामी अग्निवेश कहीं पर नगरपालिका का चुनाव भी नहीं जीत सकते। यही हाल अन्य लोगों का है। बाबा रामदेव आज अपनी सारी चमक,प्रतिष्ठा और भव्यता के बाबजूद यदि अपने मंच पर इस तरह के जनाधारविहीन नेताओं के साथ दिख रहे हैं तो भविष्य तय है कि कैसा होगा। कहने का यह अर्थ नहीं है कि रामजेठमलानी, अग्निवेश,सुब्रह्मण्यम स्वामी आदि जो लोग मंच पर बैठे थे उनकी कोई प्रप्तिष्ठा नहीं है। निश्चित रूप से ये लोग अपने सीमित दायरे में यशस्वी लोग हैं। लेकिन राजनीति में ये जनाधाररहित नेता हैं। राजनीति में मात्र साख से काम नहीं चलता वहां जनाधार होना चाहिए।

बाबा रामदेव की एक और मुश्किल है वे राजनीति करना चाहते हैं साथ ही योग-भोग और राजनीति का संगम बनाना चाहते हैं। राजनीति संयासियों-योगियों का काम नहीं है । यह एक खास किस्म का सत्ताभोगी कला,शास्त्र,और सिस्टम है।बाबा को भोग से घृणा है फिर वे राजनीति में क्यों जाना चाहते हैं ? राजनीति लंगोटधारियों का खेल नहीं है। राजनीति उन लोगों का काम भी नहीं जो घर फूंक तमाशा देखते हों। राजनीति एक उद्योग है।एक सिस्टम है। जिस तरह योग एक सिस्टम है।

बाबा योग के सिस्टम से राजनीति के सिस्टम में आना चाहते हैं तो इन्हें अपना मेकअप बदलना होगा। वे योगी के मेकअप और योग के सिस्टम से राजनीति के सिस्टम में नहीं आ सकते। उन्हें सिस्टम बदलना होगा। राजनीतिक सिस्टम की मांग है कि अब योगाश्रम खोलने की बजाय राजनीतिक दल के ऑफिस खोलें। अपने कार्यकर्ताओं को शरीरविद्या और योगविद्या की बजाय दैनंदिन राजनीतिक फजीहतों में उलझाएं। योगचर्चा की बजाय राजनीतिक चर्चाएं करें। स्वास्थ्य की बजाय अन्य राजनीतिक सवालों पर प्रवचन दें। इससे बाबा के अब तक के कामों का अवमूल्यन होगा। बाबा नहीं जानते राजनीति में हर चीज का अवमूल्यन होता है। व्यक्तित्व,मान-प्रतिष्ठा,पैसा,संगठन आदि सबका अवमूल्यन होता है।

यह सच है राजनीति और सत्ता की चमक बड़ी जबर्दस्त होती है लेकिन राजनीति में एक दोष है अवमूल्यन का। इस अवमूल्यन के वायरस का सभी शिकार होते हैं वे चाहे जिस दल के हों,जितने भी ताकतवर हों। राजनीति में निर्माण और अवमूल्यन स्वाभाविक प्रक्रिया है। बाबा रामदेव की राजनीति के प्रति बढ़ती ललक इस बात का संकेत है कि वे अब अवसान की ओर जाना चाहते हैं। वैसे योग का उनका कारोबार अपने चरमोत्कर्ष पर पहुँच चुका है। वे योग से जितना निचोड़ सकते थे उसका अधिकतम निचोड चुके हैं। जितने योगी बना सकते थे उतने बना चुके हैं।

आज बाबा रामदेव का योग ब्राण्ड सबसे पापुलर ब्राँण्ड है और इसकी चमक योग तक ही अपील करती है। योग की आंतरिक समस्याएं कई हैं,मसलन् योग में राजनीति का घालमेल करने से फासिज्म पैदा होता है। बाबा रामदेव जानते हैं या जानबूझकर अनजान बन रहे हैं,योग वस्तुतः धर्म है और धर्म और राजनीति का घालमेल अंततः फासिज्म के जिन्न को जन्म दे सकता है। भारत 1980 के बाद पैदा हुए राममंदिर के नाम से पैदा हुए खतरनाक राजनीतिक खेल को देख चुका है।

बाबा रामदेव को लगता है कि वे भ्रष्टाचार से परेशान हैं तो वे योग को कुछ सालों के लिए विराम दें और खुलकर राजनीति करें। राजनेता बनें,कुर्ता-पाजामा पहनें,पेंट-शर्ट पहनें, अपना ड्रेसकोड बदलें। जिस तरह योगियों का अपना ड्रेसकोड है,संतों का है,पुजारियों का है,उसी तरह राजनीतिज्ञों का भी है। बाबा अपना ड्रेसकोड बदलें। संत जब तक संत के ड्रेसकोड में है वह धार्मिक व्यक्ति है और यदि वह धर्म और राजनीति में घालमेल करना चाहता है तो यह स्वीकार्य नहीं है । राममंदिर आंदोलन की विफलता सामने है। भाजपा ने संतों का इस्तेमाल किया आडवाणी जी संत नहीं बन गए। वे रामभक्त राजनीतिज्ञ बने रहे,रामभक्त संत नहीं बने।

संतों की पूंजी पर भाजपा के अटलबिहारी बाजपेयी प्रधानमंत्री के पद पर पहुँचे थे लेकिन भाजपा ने अपने सांसदों में बमुश्किल 10 प्रतिशत सीटें भी संतों को नहीं दी थीं। बाद में जो संत भाजपा से चुने गए उनका इतिहास सुखद नहीं रहा है। संतों की ताकत से चलने वाले आंदोलन,जिसका पीछे से संचालन आरएसएस कर रहा था, का हश्र सामने है।

एनडीए की सरकार बनने पर राममंदिर एजेण्डा नहीं था। यह संतों के साथ भाजपा का विश्वासघात था। भाजपानेता जानते थे राममंदिर एजेण्डा रहेगा तो केन्द्र सरकार नहीं बना सकते, अटलजी प्रधानमंत्री नहीं बन सकते और फिर क्या था रामभक्तों ने आनन-फानन में राममंदिर को तीन चुल्लू पानी भी नहीं दिया और सरकार में जा बैठे। संतसमाज का इतना बडा निरादर पहले कभी किसी दल ने नहीं किया।

कायदे से भाजपा को अड़ जाना चाहिए था कि राममंदिर को हम अपने प्रधान लक्ष्य से नहीं हटाएंगे,लेकिन सत्ता सबसे कुत्ती चीज है उसे पाने के लिए राजनेता किसी भी नरक में जाने को तैयार रहते हैं और एनडीए का तथाकथित मोर्चा तब ही बना जब राममंदिर के सवाल को भाजपा ने छोड़ दिया। संतों के राजनीतिक पराभव और भाजपा के राजनीतिक उत्थान के बीच यही अंतर्क्रिया है। संतों ने शंख बजाए भाजपा ने सत्ता पायी।

संदेह हो रहा है कि कहीं बाबा रामदेव नए रूप में संतसमाज को फिर से राजनीतिक गोलबंदी करके एकजुट करके भाजपा को सत्ता पर बिठाने की रणनीतियों पर तो नहीं चल रहे ?

बाबा रामदेव को जितनी भ्रष्टाचार से नफरत है उन्हें विभिन्न दलों और खासकर भाजपा के बारे में अपने विचार और रिश्ते को साफ करना चाहिए। मसलन बाबा ने कांग्रेस को भ्रष्टाचार के लिए जिम्मेदार ठहराया है और वे बार-बार उसके खिलाफ बोल रहे हैं। लेकिन पश्चिम बंगाल में कुछ महिने पहले बाबा आए थे,कोलकाता में उन्होंने खुलेआम कहा वे ममता बनर्जी के लिए वोट मांगेगे। बाबा जानते हैं कि उनके बयान का अर्थ है कि कांग्रेस के लिए ही वोट मांगेगे। किनके खिलाफ वोट मानेंगे ? बाबा वाममोर्चे के खिलाफ वोट मांगेंगे। वे जानते हैं वाममोर्चा कालेधन के खिलाफ संघर्ष तब से कर रहा है जब बाबा का योगी के रूप में जन्म नहीं हुआ था। यदि बाबा अपने विचारों पर अडिग हैं और उन्हें भ्रष्टनेताओं से चिड़ है तो वे बताएं कि वामशासन में 35 सालों में किस मंत्री या मुख्यमंत्री के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोप आए ? इनदिनों वाममोर्चा अपनी अकुशलता और नाकामी की वजह से जनता में अलगाव झेल रहा है।

एक अन्य सवाल इठता है कि बाबा गेरूआ वस्त्र पहनकर,संत के बाने के साथ ही राजनीति क्यों करना चाहते हैं ?क्या इससे वोट ज्यादा मिलेंगे ? जी नहीं,रामराज्य परिषद नामक राजनीतिक दल का पतन भारत देख चुका है। किसी ने भी उस पार्टी को गंभीरता से नहीं लिया जबकि उसके पास करपात्री महाराज जैसा शानदार संत और विद्वान था।

संत का मार्ग राजनीति की ओर नहीं मोक्ष की ओर जाता है। बाबा रामदेव एक नयी मिसाल कायम करना चाहते हैं कि संतमार्ग को राजनीति की ओर ले जाना चाहते हैं। संत यदि राजनीति में जाते हैं यो यह संत के लिए अवैधमार्ग है। संत का वैध मार्ग राजनीति नहीं है। राजनीति में जो संत हैं वे संतई कम और गैर-संतई के धंधे ज्यादा कर रहे हैं। राजनीतिविज्ञान की भाषा में संत का राजनीति में आने का अर्थ धर्म का राजनीति में आना है और इससे राजनीति नहीं साम्प्रदायिकता यानी फासिज्म पैदा होता है।

धर्म का राजनीति में रूपान्तरण धर्म के रूप में नहीं होता। धर्म के आधार पर विकसित राजनीति कारपोरेट घरानों की दासी होती है। भाजपा के नेतृत्व में बनी सरकारों के कामकाज इस तथ्य की पुष्टि करते हैं। भाजपा ने संतों और धर्म को मोहरे की तरह इस्तेमाल किया है और राजनीति में नव्य आर्थिक उदारीकरण की नीतियों और मुक्तबाजार के सिद्धांतों को खुलेआम लागू किया है। बाबा रामदेव राजनीति करना चाहते हैं तो भाजपा, संघ परिवार की नीतियों, मुक्तबाजार और नव्य़ आर्थिक उदारीकरण के बारे में अपने एजेण्डे का लिखित में खुलासा करें। साथ ही संत और योग को विराम दें और राजनीति करें। जब तक वे यह पैकेज लागू नहीं करते वे अपना शोषण कराने के लिए अभिशप्त हैं वैसे ही जैसे राममंदिर आंदोलन के नाम पर संघ परिवार और भाजपा ने संतों का शोषण किया था।

आसान नहीं है भारत में चुनाव सुधार

इन दिनों भारत में चुनाव सुधार और चुनावी तौर-तरीकों में बदलाव की बयार तेज है |ऐसा कृत्रिम वातावरण निर्मित किया जा रहा ,कि लगता है की भारत के सब राज नेता और राजनितिक दल चुनाव सुधार करके ही दम लेंगे |भारत में लोकतंत्र का ये यज्ञ पहली बार सन १९५२ में हुआ था | इन प्रथम आम चुनावों में प्रत्याशी के नाम का बक्सा होता था जिसमें आपको मत डालना होता था ,फिर मतपत्र और अब वोटिंग मशीन यानि बदला है तो सिर्फ मत व्यक्त करने का तरीका |मत व्यक्त करने के इस तरीके में बदलाव भर से लोकतंत्र को हो रही इस सतत क्षति पर विराम लगता नहीं दिख रहा |

 

बड़ी आवशकता इस सम्पूरण निर्वाचन प्रक्रिया में शीर्ष से लेकर नीचे तक बदलाव करने की है|दुर्भाग्य से यह सब हुक्मरानों की प्राथमिकताओं में शुमार नहीं है |देश में समय-समय पर चुनाव सुधार की बातें तो बहुत हुई है ,लोकतंत्र के मठाधीशों ने इस बारें में जबानी जमा खर्च भी खूब किया है ,और अब भी कर रहें है लेकिन धरातल पर कुछ भी नहीं हुआ है|अब तो विख्यात संत महात्मा भी कह रहें है ,कि छोटे अपराधी जेलों में और बड़े अपराधी लोकतंत्र के मंदिरों में बैठे हुए है |सिर्फ टी.एन,शेषन के अतिरिक्त कोई भी भारत निर्वाचन आयोग को एक स्वायत संस्था के रूप में बहुत मजबूत से नहीं खड़ा रख पाया |निशचय ही पहले से तो स्तिथियाँ बहुत ठीक है ,लेकिन अमूल-चूल परिवर्तन की जगह अभी शेष है |

 

आज सबसे बड़ा संवाद इस पर है कि कैसे अपराधिक प्रवृती के लोग लोक सभा और विधान सभाओं से दूर रह सकें|कुछ ऐसा हो जाये ,कि ये अपराधी निर्वाचन प्रक्रिया की के पहले कदम यानी निर्वाचन नामांकन के स्तर पर ही इस प्रक्रिया से बाहर हो जायें |देश के कानून की विसंगातियों का पूरा लाभ लेकर ऐसे लोग आज निर्लाज्त्ता के साथ हमारे सांसद और विधायक भी है|दुखद यह है कि नियमनुसार ये सब उस कानून के निर्माता और संशोधानकर्ता है ,जो कथित रूप से इनकी जेब में है या ये उस कानून को तोडने के आदी है|

 

देश में आम चुनावों को लोकतंत्र की गंगा माना जाता है |वास्तविक गंगा के समान ये चुनावी गंगा भी दूषित और प्रदूषित हो चुकी है |इस को निर्मल और स्वचछ करने के प्रयास गंभीरता पूर्वक होंने जरूरी है| देश के कानून और न्याय मंत्रालय ने इसका खाका लगभग तैयार कर लिया है | इस वर्ष स्वतंत्र दिवस तक वे सुझाव सामने आ जायेंगे जो देश की चुनावी प्रक्रिया को अपराधीकरण और भ्रष्टाचार की गंदगी से दूर रख सकेंगे|

 

वर्तमान समय में अपराधी लोक सदन में इस बात की आड़ लेकर पहुच जातें है कि महज एफ आई आर से कुछ नहीं होता ,जब तक की न्यायालय हमें दोषी करार न करें |इस के बाद भी उच्च न्यायलयों में अपील कर काम चलाया जाता है और लोक तंत्र के लोक यह सब जानने समझाने के बाद भी असहाय है|वर्त्तमान लोकसभा में भी एक सौ पचास से ज्यादा सांसद ऐसे है ,जो गंभीर किस्म के मामलों में आरोपी है ,लेकिन अंतिम फैसला ना होने के कारण हमारे और आपके कर से मिले पैसे से खूब वेतन भत्ते और सुविधाएँ ले रहें है और मजे में है |

 

अपराधीकरण के साथ खर्चीली हो रही ,चुनाव प्रक्रिया से सब हैरान है .राज नेताओं के भ्रष्ट आचरण का एक बड़ा कारण यह भी है |चुनाव में वोट कबाड़ने के लिए इतना पैसा लगता है कि बिना काले धन के चुनाव लड़ा ही नहीं जाता जीतना तो दूर की बात है |यह चुनाव से जुड़े नेता अधिकार भी जानते है, पर व्यस्वस्था को बदलने का साहस किसी में नहीं है |सरकार ने विधान सभा के लिए दस लाख और लोकसभा के लिए पच्चीस लाख की सीमा रखी है |जिसे अब बढ़ाकर क्रमशःसोलह और चालीसा लाख करने का प्रस्ताव है| फिर प्रत्याशी भी इसका दुगना –तिगुना काला धन इस हवन में स्वहा करेंगे जो मुख्यता शराब ,पैसा ,सायकिल से लेकर अब तो दुपहिया वाहन तक बांटने में लगता है| इस सबके हिसाब किताब का दिखावा भी होता है और सब ठीक मान लिया जाता है |नियम –कायदे बताने और बनान वाले हमारे नेता और अफसर जब नैतिकता की बात करते है तो वो बात खोखली और ढकोसला प्रतीत होती है ,क्योकी अब विचार और भाषण कुछ और एवं आचरण कुछ और ही होता है |

चुनाव खर्च की सीमा बढ़ाने का सरकारी प्रस्ताव तो इसे और भ्रष्ट कर देगा |जरुरत तो पूरी प्रक्रिया को नए सिरे से परिभाषित करने की है |नामांकन की विशाल रैलियों से लेकर प्रचार के शोर-शराबे और झूठे चुनावी घोषण पत्रों और वादों पर रोक लगनी चाहिए एवं जो दल अपने चुनावी वादे समय सीमा में पूर्ण ना करें उसका हिसाब लगाकर उस दल और उसके प्रताय्शी के विरुद्ध कठोर कानूनी कार्रवाही होनी चहिये नहीं नेता ऐसे झूठे वादे से हमें बहलाते रहेंगे |

ऐसे ही प्रचार प्रसार के लिए झंडे –डंडे और मोटर गाडियों के स्थान पर समाचार पत्रों में कुछ अतिरिक पृष्ठ देकर उसकी मध्यम से प्रचार हो ,वैसा ही कुछ टी.वी.चैंनल करें जो दिन में चार या छह घंटे सिर्फ चुनाव प्रचार के लिए दें| प्रचार के लिए बड़ी स्क्रीन के वाहन हो जिस से प्रत्याशी अपनी बात रख सके और ये वाहन पूरे चुनाव क्षेत्र में घूम कर प्रचार करें | इनका पैसा सीधे पार्टी के खातों से प्रचार करने वाले को जाये |

 

जनता से सीधे मिलने के स्थान पर ऐसा कुछ हो तो चुनावी भ्रष्टाचार स्वत ही समाप्त हो जायेगा क्योकी सार्वजनिक रूप से जो आप किसी को वोट के लिए नोट नहीं दे सकते और आम जनता भी चुनाव शोर शाराबे से मुक्त रहेगी वही पूरा प्रचार रिकोर्ड में दर्ज रहेगा जिसकी समीक्षा कभी कि जा सकेगी ताकि असत्य वादों का हिसाब लिया जा सकें |

लेकिन यह सब इतनी आसनी से बदलने वाला नहीं है क्योकि जिन्हें इस बदलवा को हरी झंडी देनी है वे हमारे भ्रष्ट राज नेता ही है |जो इतनी आसानी से अपना काम नहीं खराब करेंगे |

लेकिन इन सब के लिए चेतावनी है ,कि मिस्त्र भारत से ज्यादा दूर नहीं है व्यवस्था परिवर्तन की हवा देश में कभी भी चल सकती है बस वातावरण निर्मित होने की देर है |

 

लेखक – एन .डी.सेंटर फॉर सोशल डेवलपमेंट एंड रिसर्च के अध्यक्ष है |

 

आदेश समझ लो !

सुनो थोड़ी मेरे मन की भी
ओ सरकार मेरे …
भटक रहे हैं हम कबसे
गुहार लिए ।

 

थोड़ी हमारी जरूरत है
फिर भी इतनी तकलीफ !
बड़ा बहुत प्रताप तुम्हारा
तुम सरकार बड़े ।

 

हमको थोड़ी रोटी दे दो
मेहनत हम कर लेंगे
थोड़ा हमको पानी दे दो
हम खुद भर लेंगे ।

 

एक छत की कमाई दे दो
हम जी लेंगे
बिटिया का स्कूल दे दो
बच्चे पढ़ लेंगे ।

 

बिजली दे दो
सड़क दे दो
बदले में हम खट लेंगे
जीवन से भी लड़ लेंगे ।

 

तुम्हारे दफ्तर का
भ्रष्टाचार न अच्छा
गांधी बाबा का
अपमान न अच्छा ।

 

भगत सुभाष
का मान रख लो
भारत का अभिमान
रख लो ।

 

हम न जानें
राजनीति को
पर हम जानें
यह देश हमारा ।

 

राम लला का
कृष्ण और गौतम का
अल्लाह के प्यारों का
नानक का – ईसा के दुलारों का ।

 

अबकी हमरी बात रख लो
हुई देर अब
बात बढ़ी अब
विश्वास को रख लो ।

 

सीधे हैं हम
चुप रहते हैं
मानी हैं
सब कुछ सहते हैं ।

 

पर भारत तो भारत है
देखो यह इक ताकत है
जो उठती जाती है
अब बदलाव चाहती है ।

 

इसको आजमाने का
लाभ नहीं –
शीश यहाँ झुक जाते हैं
या फिर कट जाते हैं … !

 

इस जन मंदिर की
बात रख लो –
समझ गए हो तो,
आदेश समझ लो !