Home Blog Page 2551

और भी ग़म है जमाने में क्रिकेट के सिवा

ए एन शिबली

वैसे तो क्रिकेट के दसवें विश्व कप का आग़ाज़ 19 फरवरी को भारत और बांग्लादेश के बीच खेले गए मैच से 19 फरवरी को हुआ मगर इस के कुछ दिन पहले से ही भारत पूरी तरह से इस के रंग में रंग गया है। विश्व कप शुरू होने के लगभग एक सप्ताह पहले से ही क्रिकेट की खबरें तो खूब आ ही रही थीं अब जबसे विश्व कप शुरू हुआ है ऐसा लगता है क्रिकेट के अलावा इस देश में कुछ हो ही नहीं रहा है। समझ में नहीं आता यह क्रिकेट का बुखार है या फिर जनता की बेहिसि जो कई बड़े मुद्दों को छोडकर पूरी तरह से क्रिकेट के पीछे लगी हुई है। जिसे देखो वो सिर्फ और सिर्फ क्रिकेट की बात कर रहा है। जब से विश्व कप की गहमा गहमी शुरू हुई है तब से भारत समेत विश्व के दूसरे देशों में भी कई बड़ी खबरें सामने आयीं हैं मगर उन खबरों को वैसा महत्व नहीं दिया जा रहा है जैसा क्रिकेट को दिया जा रहा है।

टू जी स्पेक्टरम घोटाले में प्रधानमंत्री ने खुद को हर ओर से घिरता देख एलेक्ट्रोनिक मीडिया के पत्रकारों के साथ प्रैस कानफेरेंस का आयोजन। किया। संसद का काम काज ठीक से चले इसके लिए कोशिशें होती रहीं। कई मुस्लिम देशों में बड़ा संघर्ष देखने को मिला। मगर यह सब खबरें क्रिकेट से पीछे दब गईं । हद तो यह हो गयी की पत्रकारों ने प्रधान मंत्री के साथ एक संजीदा इशू पर हुई कनफेरेंस में क्रिकेट से संबंधित सवाल पूछ लिया। समाचारपत्रों में और टेलीविज़न पर इन दिनों घट रही बड़ी खबरों को उतनी जगह नहीं मिली जितनी मिलनी चाहिए। कारण यह की अब हर किसी को क्रिकेट पसंद है, क्रिकेट पसंद नहीं भी है तो जबरदस्ती आपको क्रिकेट को पसंद करना पड़ेगा। कियुंकी यदि आप टेलीविज़न देखने के शौकीन हैं तो आपको तो क्रिकेट के अतिरिक्त वहाँ कोई खबर मिलेगी ही नहीं तो फिर देखेंगे किया। मज्बूरी में आपको भी क्रिकेट को पसंद करना पड़ेगा। मार्केट के बड़े बड़े खिलाड़ियों की एक साजिश के तहत अब क्रिकेट ने हर किसी को अपनी गिरफ्त में ले लिया है। अगर ऐसा नहीं है तो फिर विश्व कप के दौरान झारखंड में राष्ट्रिए गाने भी हो रहे थे उसके बारे में तो किसी को पता ही नहीं चला। इस गेम के दौरान कई नए रिकार्ड बन गए मगर आम पाठक को इसका अंजदाजा हुआ भी नहीं। होता भी कैसे अखबार में तो हर तरफ क्रिकेट की ही धूम थी और है। पहले कहा जा रहा था की क्रिकेट को इतना महत्व दिया जा रहा है की दूसरे खेल बिल्कुल दब गए हैं। मगर अब सिर्फ खेल नहीं दब गए हैं बल्कि कई बड़े समाचार भी दब गए हैं। दूसरे खेलों में बड़ा बड़ा कमाल करने वाला खिलाड़ी अपनी पहचान नहीं बना पाता मगर क्रिकेट में बारहवाँ खिलाड़ी भी हर किसी की नज़र में आ जाता है। अब सवाल यह है की यह कमाल क्रिकेट का है या फिर उन लोगों का जो अपने अपने लाभ के लिए क्रिकेट को इतना महत्व दे रहे हैं। क्रिकेट दिन भर का खेल है जबकि फूटबाल का फैसला सिर्फ 90 मिनट में हो जाता है। फूटबाल में आप ने एक पल के लिए आँख फेरि तो पता नहीं कौन सा शानदार पल आपने मिस कर दिया जबकि क्रिकेट में दिन भर फंसे रहना पड़ता है, बल्लेबाज़ी और गेंदबाजी करने एयाले खिलाड़ी के अलावा बाक़ी खिलाड़ी उल्लू की तरह मुंह ताकते रहते हैं उसके बावजूद भारत जैसे देश में क्रिकेट ने अब एक बहुत बड़े तेवहार का रूप धरण कर लिया है। यही कारण है की विश कप आते ही सरकारी अफसरों ने छुट्टियाँ ले ली हैं, विददारथियों ने बहाने बना कर स्कूल जाना छोड़ दिया है, बड़े बड़े होटलों ने खिलाड़ियों के नाम पर डिश तैयार कर ली है। कुछ लड़कियां अपने चेहरों पर विश्व कप का लोगो बनवा रही है तो किसी ने लोगो के लिए अपनी पूरी पीठ ही दे दी है। अखबारों ने पृष्ठों की संख्या बढ़ा ही दी है चैनल वालों ने तो एक अजब सा ड्रामा ही शुरू कर दिया है। टॉस जीतने से लेकर वो अब हर गेंद और हर विकेट को ब्रेकिंग न्यूज़ के तौर पर पेश कर रहें हैं। किसी किसी चैनल पर पूर्व खिलाड़ी अपनी राय दे रहें हैं तो कहीं कहीं बाबा रामदेव के हमशक्ल से नौटंकी कराई जा रही है।

क्रिकेट कोई नया खेल नहीं है। इस की शुरूआत 1876 में हुई थी। फिर 1971 में पहली बार एकदिवसीए अंतराष्ट्रीए मुकाबला हुआ। धीरे धीरे वन डे मैचो में रंगीन कपड़ों का इस्तमल हुआ। एक दिन ऐसा आया जब क्रिकेट 20-20 ओवरों की होने लगी और आई पी एल जैसे मुकाबले भी होने लगे जिन में खेल तो हुआ ही पैसों की बरसात भी हुई और जाम कर अय्याशी भी हुई। अय्याशी का यह आलम था की स्टेडियम में शराब भी परोसी गयी। सच्चाई यह है की अब क्रिकेट को पूरी तरह से मार्केट से जोड़ दिया गया है। पहले खिलाड़ी शायद देश के लिए खेलते थे उनमें यह जज़्बा होता था की देश के खेलूँगा तो खुद का और माँ बाप का नाम रोशन होगा मगर अब ऐसा नहीं है खिलाड़ी पैसे के लिए खेल रहें हैं। क्रिकेट में अब दौलत भी मिल रही है और शोहरत भी मिल रही है। खिलाड़ी की बस अब एक ही इच्छा है किसी तरह देश के लिए दो चार महीने खेल लो। किसी तरह से 6 महीना भी खेलने में सफल रहे तो मैच फीस के तौर पर मोटी रकम तो मिलेगी ही बड़ी बड़ी कंपनियों के विज्ञापन भी मिल जाएँगे और फिर टी वी पर बकवास कर के कमाई हो ही जाएगी। कीकेट को अब पूरी तरह से गलेमर से जोड़ दिया गया है। एक तरफ जहां क्रिकेट में भी नाच गाने होने लगे हैं वहीं अब क्रिकेटर भी नाचने गाने लगा है। क्रिकेट में आने के बाद आदमी कितना बहक सकता है इसका अंदाज़ा आप इरफान पठान और युसुफ पठान जैसे मौलाना के बेटे को देख कर लगा सकते हैं जो क्रिकेट में आने से पहले बड़े भोले थे मगर अब फिल्मी हीरोइनों के साथ नाचते हुये नज़र आ जाते हैं। असल में यह सारी चीज़ें मार्केटिंग अजेंसियाँ तय करती हैं। कुल मिलाकर देखें तो यह सही है की जनता का कीमती समय तो बर्बाद हो रहा है मगर इसके अलावा क्रिकेट से हर किसी का फायेदा ही हो रहा है। खिलाड़ी भी कमा रहें हैं, क्रिकेट बोर्ड भी कमा रहा है, कंपनियां भी कमा रही है, चैनल भी कमा रहें हैं , जो विज्ञापन दे रहा है वो भी कमा रहा है और जिन खिलाड़ियों ने अपने कैरियर के दौरान नहीं कमाया वो अब चैनलों पर मेहमान बन कर कमा रहें हैं। हर न्यूज़ चैनल अपनी अपनी हैसीयत के हिसाब से मेहमान बुला रहा है।

क्रिकेट ने अगर बड़ी तरक़्क़ी कर ली है औए इस से किसी को लाभ हो रहा है तो अच्छी बात है मगर किया इस समय देश में क्रिकेट के अलावा और कुछ नहीं हो रहा है या फिर यह की इन दिनों किया क्रिकेट ही सबसे बड़ी खबर है। लीबिया से 40 साल बाद गद्दाफ़ी की कुर्सी हिलती हुई नज़र आ रही है, यमन, बहरीन और दूसरे मुस्लिम देशों में इन दिनों आग लगी हुई है। खुद अपने देश भारत में इन दिनों कई ऐसे मुद्दे हैं जिनको सुर्खियों में होना चाहिए मगर अफसोस की ऐसा नहीं हो रहा है। समाचारपत्र या फिर चैनल जनता की सोच तय करते हैं। वो जैसा प्रकाशित करेंगे या दिखाएँगे वही जनता देखेगी और समझेगी इसलिए समाचार पत्र और चैनल को भी चाहिए की वो क्रिकेट की खबरें ज़रूर दें मगर क्रिकेट से दीवानगी के चक्कर में बड़ी खबरों को न छोड़ें। उन्हें समझना चाहिए की और भी ग़म हैं जमाने में क्रिकेट के सिवा.

 

पत्रकारिता की वास्तविकता

-राजेश कुमार

हम अक्सर उस दिशा की तरफ जाने के लिए लालायित रहते है, जहां हम खुद को एक हीरो की भांति पेश कर सकें। गलैमर और शान भरी जिंदगी के लिए प्रसिद्ध पत्रकारिता क्षेत्र में इसी कारण बीते कुछ सालों में काफी छात्र-छात्राएं खिंचे चले आ रहे हैं। छात्राओं की बढ़ती भीड़ के कारण देश में पत्रकारिता के संस्थानों में धड़ल्ले से ईजाफा हो रहा है, लेकिन क्या इतने विद्यार्थियों के लिए मीडिया क्षेत्र में पर्याप्त संभावनाएं हैं? यह सच है कि देश मीडिया के क्षेत्र में दिन रात उन्निती कर रहा है और पत्रकारिता के क्षेत्र में पिछले एक दशक में क्रांति सी आ गई है। इसके बावजूद लोगों को यह बात नहीं भूलनी चाहिए कि देश की जनसंख्या भी माशाअल्लाह दिन दुगुनी रात चौगुनी रफ्तार से बढ़ रही है। ऐसे में जाहिर है हर किसी को तो पत्रकार नहीं बनाया जा सकता।

 

खैर मैं अपने लेख में पत्रकारिता में प्रवेश करने के बाद की चुनौतियों से अवगत करवाना चाहता हूं ताकि इस क्षेत्र में आने वाले किसी से प्रभावित होकर या मात्र चकाचौंध भरी दुनिया का ख्बाब मन में संजोए हुए न आए, बल्कि पत्रकारिता में प्रवेश करने से पहले मानसिक रूप से पूरे तैयार बनें। सबसे पहले बात की किसी भी संस्थान में पत्रकारिता की पढ़ाई कर लेने मात्र से कोई पत्रकार नहीं बन जाता। इसके लिए हमें अपने भीतर अनेक गुणों को पैदा करना होगा। बल्कि यूं कहें कि यदि कोई व्यक्ति गहरी सूझबूझ रखता है और स्वयं को किसी भी चुनौती में ढालने से कतराता नहीं, वह बिना किसी डिग्री के भी पत्रकार बन सकता है। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि जो भी नौजवान पत्रकारिता में कदम रखना चाह है, वह अपने मन से यह सोच मिटा दे कि पत्रकार बनने का मतलब मात्र बड़ी बड़ी शख्सियतों से बातें करना व खुद को कैमरे के सामने खड़ा करना ही नहीं है। पत्रकारिता का क्षेत्र इस सोच से भी कहीं अधिक विस्तृत है व चुनौतियों कहीं अधिक खतरनाक। एक पत्रकार को रात व दिन एक बराबर होते हैं, उसे अधूरी नींद होने के बावजूद भी हर वक्त चुस्त-दुरुस्त रहना पड़ता है।इएक छोटी सी छोटी गलती भी पत्रकारिता में आपके करियर के लिए घातक साबित हो सकती है। फिर चाहे वह गलती आपके लिखने में हो या जानकारी में। सबसे अहम बात तनाव में काम करने का गुण आपको अपने भीतर ईजाद करना ही होगा, अन्यथा आप मानसिक तौर पर बीमार पड़ जाएंगे। भाषा व शब्दों पर सही पकड़ इस क्षेत्र के लिए काफी अहम हैं। पत्रकारिता में रहते हुए अधिक छट्टियों की आशा करना व्यर्थ्थ है, आपको अपने ऑफिस में ही अपने परिवार को टटोलकर काम पर पूरा ध्यान देना होगा। यदि आप ऐसा सब कर पाने में सक्षम हैं तो निश्चित तौर पर आप बहुत बढ़िया पत्रकार बन सकते हैं और आपको मेरी तरफ से शुभकानाएं।

 

कालेधन की कालिख और कांग्रेस की कसक

डॉ.मनोज जैन

 

स्वामी रामदेव के कालाधन और भ्रष्टाचार बिरोधी अभियान से घबरा कर भ्रष्टाचार के दलदल में गहरे तक धंसी हुयी कांग्रेस पार्टी का बौखला कर अमर्यादित आचरण करना कोई नई बात नहीं है यह तो कांग्रेस की कार्यसंस्कृति का हिस्सा है। कांग्रेस पार्टी में भ्रष्टाचार का स्तर यह हो गया है कि भ्रष्टाचार और कांग्रेस एक ही सिक्के के दो पहलू हो गये हैं। यही कारण है कि जब भी कोई भ्रष्टाचार के सफाये की बात करता है तो काग्रेंस पार्टी को यह लगता है कि उसके सफाये की बात की जा रही है।

दिग्विजय सिंह की हालत आजकल इतनी पतली हो गयी है कि वह 10 जनपथ में अपने नंबर बढवाने की खातिर हर बार इतनी उटपंटाग हरकत करते हैं कि उनको राजनीतिक गलियारों में काग्रेसी विदूषक कहा जाने लगा है। कभी आर.एस.एस. के विरुद्ध विषवमन तो कभी दिवंगत हेमन्त करकरे के बारे में अर्नगल बयानबाजी, तो कभी आजमगढ की तीर्थयात्रा तो अब स्वामी रामदेव के बारे में बेमतलब की बयानबाजी करके काग्रेंस पार्टी के महासचिव दिग्विजय सिंह अपने आपको राजमाता सोनिया गांधी का राजाबेटा साबित करना चाहते हैं।

यद्यपि स्वामी रामदेव ने पहले ही यह स्वीकार किया है कि उनके ट्रस्ट के सभी खाते विधिवत तरीके से आडिट किये जाते हैं और उनका आना-पाई से व्यवस्थित हिसाब-किताब भी रखा जाता है तथा उनके ट्रस्ट के पास 1,115 करोड़ की संपत्ति है। परन्तु स्वामी रामदेव से हिसाब मांगने से पूर्व दिग्विजय सिंह को स्वयं अपना हिसाब प्रस्तुत करना चाहिये था। यही नहीं गांधी परिवार और उनके ट्रस्टों की अकूत संपत्ति का ब्यौरा मांगना चाहिये। देश में हर व्यक्ति की संपत्ति के स्रोतों के बारे में जानने का देश को हक हैं परन्तु ऐसी क्या बात है कि जब भी भ्रष्ट्राचार पर हमला बोलने की बात होती है तो केवल कांग्रेस पार्टी को क्यों लगता है कि उस पर ही हमला बोला जा रहा होता है और जबाब में कांग्रेस पार्टी के वफादार उत्तेजित होकर हमला कर देतें हैं चाहे वह निनोंग इरिंग हो या दिग्विजय सिंह सबका मतलब एक ही है कि अपने आपको सोनिया गांधी का वफादार सेवक साबित करना।

स्वामी रामदेव आज न केवल भारत में अपितु सारी दुनिया में योग और स्वदेशी के हीरो के रूप में खडे हुये है। एक ऐसे समय में जब हमारे देश में रोल माडॅल की कमी को बहुत गहराई से अनुभव किया जा रहा है ऐसे में स्वामी रामदेव आशा की एक किरण के रुप में सामने आये हैं उन्होनें केवल योग ही नहीं अपितु स्वदेशी के माध्यम से आयुर्वेद, भारतीय भोजन, सहित रोजमर्रा के उपयोग में आने वाली वस्तुओं के उत्पादन के द्वारा लाखों लोगों को रोजगार प्रदान किया है। उनके विजन में देश का उत्थान स्पष्ट दिखाई दे रहा हैं। भारत में एक अहिंसक क्रान्ति महात्मा गांधी के नेतृत्व में की थी और दूसरी अंहिसक क्रान्ति की पदचाप स्वामी रामदेव के नेतृत्व में होने की पदचाप सुनाई दे रही है। अभी 2 जनवरी से 5 जनवरी को सम्पन्न हुये प्रथम अन्‍तरराष्ट्रीय योग सम्मेलन में दुनियाभर के महान विश्वविद्यालयों और मेडीकल कालेजों के प्रोफेसरों ने स्वामी रामदेव के द्वारा किये जा रहे कार्यो को मानवता के लिये महान योगदान के रुप में स्वीकार किया था। लेखक उस घटनाक्रम का साक्षी रहा है। महात्मा गांधी के बाद स्वामी रामदेव ऐसे व्यक्तित्व हुये हैं कि उनकी एक झलक पाने के लिये जनसैलाब उमड़ पड़ता है। महात्मा गांधी की हत्या भले ही नाथूराम गोडसे की गोली से हुयी हो पर गाधीं के विचारों की, उनकी नीतियों की, उनके सिध्दान्तों की हत्या का आरोपी यदि कोई है तो बह निश्चित ही काग्रेंस पार्टी ही है। गांधी जी की हत्या को तो देश ने बर्दास्त कर लिया पर यदि स्वामी रामदेव के साथ कुछ हो जाता है तो देश उसे नहीं झेल पायेगा। इसलिये देश को स्वामी रामदेव और उनके क्रान्तिकारी विचारों का संरक्षण पोषण करना ही चाहिये।

 

कहानी/बाबूजी

एस. के. रैना

 

हमारे पड़ोस में रहने वाले बाबूजी की उम्र यही कोई अस्सी के लगभग होनी चाहिए। इस उम्र में भी स्वास्थ्य उनका ठीक-ठाक है। ज़िन्दगी के आखिरी पड़ाव तक पहुंचते-पहुंचते व्यक्ति आशाओं-निराशाओं एवं सुख-दु:ख के जितने भी आयामों से होकर गुज़रता है,उन सब का प्रमाण उनके चेहरे को देखने से मिल जाता है। इक्कीस वर्ष की आयु में बाबूजी फौज में भर्ती हुए थे।अपने अतीत में डूबकर जब वे रसमग्न होकर अपने फौजी जीवन की रोमांचकारी बातों को सुनाने लगते हैं तो उनके साथ-साथ सुनने वाला भी विभोर हो जाता है।विश्व युध्द की बातें,कश्मीर में कबाइलियों से मुठभेड़, नागालैण्ड, जूनागढ़ आदि जाने कहां-कहां की यादों के सिरों को पकड़कर वे अपने स्मृति कोष से बाहर बहुत दूर तक खींचकर ले आते हैं। ऐसा करने में उन्हें अपूर्व आनन्द मिलता है।

एक दिन सुबह-सवेरे उन्होंने मुझे अपने पास बुलाया।मैं समझ गया कि आज बाबूजी अपने फौजी जीवन का कोई नया किस्सा मुझे सुनाएंगे। एक बार तो इच्छा हुई कि मैं जाऊं नहीं, मगर तभी बाबूजी ने हाथ के इशारे से बड़े ही भावपूर्ण तरीके से एक बार फिर मुझे बुलाया। यह सोचकर कि मैं जल्दी लौट आऊंगा, मैं कपडे बदलकर उनके पास चला गया। कमरे में दाखिल होते ही उन्होंने तपाक से मेरा स्वागत किया।चाय मंगवायी और ठीक मेरे सामने वाली कुर्सी पर बैठ गए। घुटनों तक लम्बी नेकर पर बनियान पहने वे आज कुछ ज्यादा ही चुस्त-दुरुस्त लग रहे थे।मैंने कमरे के चारों ओर नज़र दौड़ाई। यह कमरा शायद उन्हीं का था। दीवार पर जगह-जगह विभिन्न देवी-देवताओं के चित्र टंगे थे। सामने वाली दीवार के ठीक बीचोंबीच उनकी दिवंगत पत्नी का चित्र टंगा था। कुछ चित्र उनके फौजी-जीवन के भी थे।बाईं ओर की दीवार पर एक राइफल टंगी थी जिसको देखकर लग रहा था कि अब यह राइफल इतिहास की वस्तु बन चुकी है। बाबूजी को अपने सामने एक विशेष प्रकार की मुदा में देखकर मुझे लगा कि वे आज कोई खास बात मुझ से करने वाले हैं तथा कोई खास चीज़ मुझे दिखाने वाले हैं। तभी सवेरे से ही उनकी आखें मुझे ढूंढ़ रही थीं।इस बीच मेरा ध्यान सामने टेबिल पर रखे विभिन्न बैजों, तमगों प्रशस्तिपत्रों,मेडलों आदि की ओर गया जिन्हें इस समय बाबूजी एकटक निहार रहे थे।इन मैडलों,प्रशस्तिपत्रों आदि का ज़िक्र उन्होंने मुझ से बातों-ही-बातों में पहले कई बार किया था,मगर इन्हें दिखाने का मौका कभी नहीं मिला था।आज शायद वे इन सब को मुझे दिखाना चाह रहे थे। गौरवान्वित भाव से वे कभी इन मैडलों को देखते तो कभी मुझे। हर तमगे, हर बैज, हर प्रशस्तिपत्र आदि के पीछे अपना इतिहास था, जिसका वर्णन करते-करते बाबूजी, सचमुच, गद्गद् हो रहे थे। यह तमगा फलां युध्द में मिला, यह बैज अमुक पार्टी में अमुक अंग्रेज़ अफसर द्वारा वीरता प्रदर्शन के लिए दिया गया आदि आदि।बाबूजी अपनी यादों के बहुमूल्य कोष के एक-एकपृष्ठ को जैसे-जैसे पलटते जाते वैसे-वैसे उनके चेहरे पर असीम प्रसन्नता के भाव तिर आते।मेरे कन्धे पर अपना दायां हाथ रखते हुए वे अचानक बोल पड़े-

‘और भी कई बैज व तगमे हैं मगर बुढ़िया को ज्यादा यही पसन्द थे।’

बुड़िया का नाम सुनते ही मैं चौंक पड़ा। पूछा-

‘कौन बुढ़िया?’

‘अरे, वही मेरी पत्नी, जो पिछले साल भगवान को प्यारी हो गई।–बड़ी नेक औरत थी वह। मुझे हमेशा कहती थी- निक्के के बाबू, ये तगमे तुम को नहीं,मुझे मिले हैं–। बेचारी घंटों तक इन पर पालिश मल-मलकर इन्हें चमकाती थी।’

मैंने बाबूजी की ओर नज़रें उठाकर देखा। उनकी आंखें गीलीं हो गईं थीं।शब्दों को समेटते हुए वे आगे बोले-

‘बुढ़िया ज्यादातर गांव में ही रही और मैं कभी इस मोर्चे पर तो कभी उस मोर्चे पर,कभी इस शहर में तो कभी उस शहर में–। वाह! क्या डिसिप्लिन था। क्या रोबदाब था! अंग्रेज़ अफसरों के साथ काम करने का अपना अलग ही मज़ा होता था।’

कहते-कहते बाबूजी फिर यादों के समुद्र में डूब गए।इस बात का अंदाज़ लगाने में मुझे देर नहीं लगी कि बाबूजी आज कुछ ज्यादा ही भावुक हो गए हैं।पहले जब भी मैं उनसे मिला हूं हमारी बातें पड़ौसी के नाते एक दूसरे का हाल-चाल जानने तक ही सीमित रही हैं। प्रसंगवश वे कभी-कभी अपने फौजी जीवन की बातें भी कह देते जिन्हें मैं अक्सर घ्यान से सुन लिया करता। बाबूजी के बारे में मेरे पास जो जानकारी थी उसके अनुसार बाबूजी पहाड़ के रहने वाले थे। बचपन उनका वहीं पर बीता, फिर फौज में नौकरी की और सेवानिवृत्ति के बाद वर्षों तक अपने गांव में ही रहे। पत्नी के गुज़र जाने के बाद अब वे अपने बड़े बेटे के साथ इस शहर में मेरे पड़ौस में रहते हैं।बड़े बेटे के साथ रहते-रहते उन्हें लगभग पांच-सात साल हो गए हैं। बीच बीच में महीेन दो महीने के लिए वे अपने दूसरे बेटों के पास भी जाते हैं। मगर जब से उनकी पत्नी गुज़र गई,तब से वे ज्यादातर बड़े बेटे के साथ ही रहने लगे हैं।

इससे पहले कि मैं उनसे यह पूछता कि क्या ये बैज और मैडल दिखाने के लिए उन्होंने मुझे बुलाया है, वे बोल पड़े-

‘बुढ़िया को ये बैज और तगमे अपनी जान से भी प्यारे थे।पहले-पहल हर सप्ताह वह इनको पालिश से चमकाती थी। फिर उम्र के ढलने के साथ-साथ दो-तीन महीनों में एक बार और फिर साल में एक बार–। और वह भी हमारी शादी की सालगिरह के दिन–।

‘सालगिरह के दिन क्यों? ‘मैंने धीरे-से पूछा।

मेरा प्रश्न सुनकर बाबूजी कुछ सोच में पड़ गए।फिर सामने पड़े मेडलों पर नज़र दौड़ाते हुए बोले-

‘यह तो मैं नहीं जानता कि सालगिरह के ही दिन क्यों? मगर, एक बात मैं ज़रूर जानता हूं कि बुड़िया पढ़ी-लिखी बिल्कुल भी नहीं थी। पर हां, ज़िंदगी की किताब उसने खूब पढ़ रखी थी। मेरी अनुपस्थिति में मेरे मां-बाप की सेवा,बच्चों की देखरेख,घर के अन्दर-बाहर के काम आदि उस औरत ने अकेलेदम बड़ी लगन से निपटाए। आज पीछे मुड़कर देखता हूं तो सहसा विश्वास नहीं होता कि उस बुढ़िया में इतनी समर्पण-भावना और आत्मशक्ति थी।’ कहते-कहते बाबूजी ने पालिश की डिबिया में से थोड़ी-सी पालिश निकाली और सामने रखे मेडलों और बैजों पर मलने लगे।वे गद्गद् होकर कभी मुझे देखते तो कभी सामने रखे इन मेडलों को। मेडल और बैज धीरे-धीरे चमकने लगे। मुझे लगा कि बाबूजी मुझ से कुछ और कहना चाह रहे हैं किन्तु कह नहीं पा रहे हैं।एक मेडल अपने हाथों में लेकर मैंने कहा-

‘लाइए बाबूजी, इसपर मैं पालिश कर देता हूं।’

मेरे इस कथन से वे बहुत खुश हुए। शायद मेरे मुंह से वे भी यही सुनना चाहते थे।कुछ मेडलों की वे पालिश करने लगे और कुछ की मैं।इस बीच थोड़ा रुककर उन्होंने सामने दीवार पर टंगी अपनी पत्नी की तस्वीर की ओर देखा और गहरी-लम्बी सांस लेकर बोले-

‘आज हमारी शादी की साल गिरह है। बुढ़िया जीवित होती तो सुबह से ही इन मेड़लों को चमकाने में लग गई होती। ये मेडल उसे अपनी जान से भी प्यारे थे।–जाते-जाते डूबती आवाज़ में मुझे कह गई थी- निक्के के बाबू,यह मेडल तुम्हें नहीं,मुझे मिले हैं। हां-मुझे मिले हैं। इन्हें संभालकर रखना- हमारी शादी की सालगिरह पर हर साल इनको पालिश से चमकाना–।’ कहते-कहते बाबूजी कुछ भावुक हो गए। क्षणभर की चुप्पी के बाद उन्होंने फौजी अन्दाज़ में ठहाका लगाया और बोले-

‘बुढ़िया की बात को मैंने सीने से लगा लिया। हर साल आज के ही दिन इन मैडलों को बक्से से निकालता हूं,झाड़ता-पोंछता हूं और पालिश से चमकाता हूं। पालिश करते समय मेरे कानों में बुढ़िया की यह आवाज़ गूंजती है-

‘निक्के के बाबू! ये मेडल तुम को नहीं,मुझे मिले हैं–तुम को नहीं मुझे मिले हैं— ।’

सर्वमान्य नेतृत्व का अभाव : एक दृष्टिकोण

श्‍याम नारायण रंगा ‘अभिमन्यु’

 

वर्तमान में भारत का जो राजनैतिक दृश्‍य है उसे देखकर यह लगता है कि हमारे देश में एक केन्द्रीय नेतृत्व का अभाव है। एक ऐसा नेता जिसकी राष्‍ट्रव्यापी छवि हो और जिसे छ लाख गाँवों में भी वैसी ही पहचान मिली हो जैसी इस देश के गुने चुने महानगरों में। एक ऐसा नेतृत्व जिसकी आवाज आम आवाम के दिलों दिमाग पर असर करे और जिसका प्रभाव आमजन तक हो।

एक समय था जब इस देश में महात्मा गाँधी, पंडित जवाहर लाल नेहरू, सरदार बल्लभ भाई पटेल, लाल बहादुर शास्त्री, इंदिरा गाँधी, जय प्रकाश नारायण, राम मनोहर लोहिया व राजीव गाँधी जैसे एक छत्र नेताओं ने राज किया। ये वे नेता थे जिनकी पहचान राष्‍ट्रीय स्तर की थी और जिन्हें भारत का आम आदमी अपना नेता मानता था। ये ऐसे नेता थे जो इन देश की आमजन की नब्ज पहचानते थे और आम आदमी के सुख दुख में भी इन लोगों की सीधी भागीदारी थी। उस समय जब चुनाव होते थे तो लोग पार्टी को वोट देते थे, लोग नेहरू व इंदिरा को वोट देते थे उन्हें इस बात से कम मतलब होता था कि पार्टी ने जिस प्रत्याषी को खड़ा किया है वो कैसा है।

जब राष्‍ट्रपिता महात्मा गाँधी की हत्या हुई तो लोगों को लगा कि अब यह देश कैसे चलेगा और कुछ ऐसा ही लोगों ने तब सोचा जब इंदिरा गाँधी नहीं रही। कहने का मतलब यह है कि इन लोगों ने अपने आप को इस देश का पर्यायवाची बना लिया था। इसी तरह जब इस देश में अनाज की कमी हुई तो लाल बहादुर शास्त्री ने लोगों को सोमवार के दिन उपवास रखने के लिए कहा और इस अपील का ऐसा प्रभाव हुआ कि आज तक हजारों लोग सोमवार का उपवास रखते हैं। पंडित नेहरू की एक आवाज पर लाखों लोग गाँव से शहरों से निकल कर आजादी के आंदोलन में कूद पड़े थे। जय प्रकाश नारायण की एक अपील सुनकर लोगों ने अपनी नेता इंदिरा गाँधी का तख्ता पलट दिया था। एक ऐसा व्यक्ति जिसकी बम विस्फोट में मौत होने पर लोगों को ऐसा लगा कि जैसे अपने खुद के घर में किसी की मौत हो गई हो। मुझे याद है कि जब राजीव गाँधी की हत्या हुई तो इस देश में हजारों षादियाँ स्थगित हो गई थी क्योंकि देश ने अपने प्रिय नेता को खो दिया था। वर्तमान में इस तरह का सर्वमान्य नेतृत्व नजर नहीं आता। ऐसे नेता का हमारे पास अभाव है जिसकी पहचान पूरे भारत में एक जैसी हो या यूं के जिसकी पहचान एक जन नेता की हो।

वर्तमान में हमारे पास राश्ट्रीय पार्टीयों के राष्‍ट्रीय अध्यक्ष हैं लेकिन इन राष्‍ट्रीय पार्टियों के पास कोई भी राष्‍ट्रीय नेता नहीं है। वर्तमान परिदृश्‍य में इस देश में एक भी ऐसा नेता नहीं है जो यह दावा कर सके कि उसे कश्‍मीर से लेकर कन्याकुमारी तक और बंगाल से लेकर पंजाब तक पहचाना जाता है और यही कारण है कि राश्ट्रीय पहचान का अभाव होने के कारण इन बड़ी पार्टीयों को क्षेत्रीय दलों से समझौते करने पड़ते हैं और गठबंधन की मजबूरी पूरे देश को उठानी पड़ती है।

नेताओं की राष्‍ट्रीय छवि पूरे भारत को एकसूत्र में पिरोने का काम करती है और उस नेता से जुड़ा हर कार्यकर्ता व आम अवाम अपने आप को एक परिवार की तरह समझता है पर वर्तमान में ऐसा कोई बड़ा परिवार हमारे सामने नजर नहीं आ रहा है। एक नेता होने से नीति निर्माण व शासन व्यवस्था चलाने में सुविधा रहती है और पार्टी अपनी खुद की विचारधारा पर चलकर देश के लिए कुछ कर सकती है। परन्तु वर्तमान में किसी भी पार्टी की विचारधारा का प्रभाव देश पर नहीं पड़ता नजर आता। सर्वमान्य नेता की कमी ने स्थानीय नेताओं को ताकतवर बनाया और स्थानीय नेताओं के ताकतवर होने से देश में गठबंधन की सरकारें बनने लगी और जैसा कि हमारे वर्तमान नेता मानते हैं कि गठबंधन की अपनी खुद की मजबूरियाँ होती है इसलिए सर्वमान्य नेतृत्व का अभाव केन्द्रीय सरकार पर नजर आने लगता है और ऐसी सरकार मजबूर सरकार बन जाती है।

यह सही भी है कि अगर किसी भी पार्टी में सर्वमान्य नेता हो तो छुटभैये नेताओं की नहीं चलती और उस कद्दावर नेता के सामने कोई भी टिक नहीं पाता और सर्वमान्य नेता का अभाव होने से हर कोई छोटा नेता भी अपने आप को बड़ा ताकतवर समझने लगता है। इससे पार्टी को तो नुकसान होता ही है साथ ही साथ इसका प्रभाव देश पर भी पड़ता है। जैसा कि पहले था कि काँग्रेस के पास नेहरू, इंदिरा जैसे सर्वमान्य नेता थे जिनकी पहचान अंतर्राष्‍ट्रीय नेता के रूप में थी और यही कारण था कि उनके सामने कोई भी विरोध के स्वर पैदा नहीं होते थे और अगर होते भी तो ऐसे विरोध करने वाले नेता खुद हाशिये पर चले जाते थे। कुछ ऐसा ही आलम भारतीय जनता पार्टी में रहा जब अटल बिहारी वाजपेयी जैसा बड़ा नेतृत्व पार्टी को मिला। लोग अटल बिहारी को भाजपा का मुखौटा कहते थे और इसी मुखौटै ने भाजपा की राष्‍ट्रीय पहचान बनाई थी, इसी एक नेतृत्व के कारण भाजपा ने कईं पार्टीयों को एक मंच पर लाने का काम किया और केन्द्र में सरकार भी बनाई।

वर्तमान में भारत की सबसे बड़ी लोकतांत्रिक पार्टी काँग्रेस व सबसे बड़ी विरोधी पार्टी भाजपा के पास केन्द्रीय नेतृत्व तो है लेकिन दोनों ही पार्टी के नेता उस स्तर के नहीं है जो स्तर इंदिरा गाँधी या कुछ हद तक अटल बिहारी वाजपेयी का रहा है। इसी कारण इन दोनों पार्टीयों को देश के लगभग हर राज्य में राज्य स्तरीय पार्टीयों से हाथ मिलाना पड़ रहा है। कारण साफ है कि इन राज्यों में दोनों पार्टीयों के पास ऐसे नेतृत्व का अभाव है जिसकी खुद ही पहचान उस राज्य में हो तो ऐसी स्थिति में राज्य में पहचान रखने वाले नेतृत्व का हाथ थामना पड़ता है। इस प्रकार सत्ता में रहने के लिए इन पार्टीयों के लिए गठबंधन एक मजबूरी बन जाता है। ये राश्ट्रीय पार्टीयाँ सत्ता चलाने के लिए फिर इन क्षेत्रीय पार्टीयों के दबाब में रहती है और इसी दबाब को ये लोग गठबंधन का धर्म कहते हैं और इसी दबाब को पूरे देश को मजबूरी के रूप में सहन करना पड़ता है।

अगर इन पार्टीयों के पास करिष्माई व पहचान वाला केन्द्रीय नेतृत्व हो तो इन पार्टीयों को इन क्षेत्रीय दलों की जरूरत न पड़े और नही ऐसे किसी दबाब में देश को सहन करना पड़े।

अगर हम चिंतन करें तो यह बात सामने आती है कि इस देश में केन्द्रीय नेतृत्व का अभाव इसलिए हुआ क्योंकि राष्‍ट्रीय स्तर की सोच व पूरे भारत की समझ रखने वाला कोई भी व्यक्ति वर्तमान में राजनीति में नजर नहीं आता है। अगर हम बात नेहरू, पटेल, गाँधी व इंदिर की करते हैं तो यह बात एकदम साफ है कि इन लोगों को पूरे भारत की समझ थी और ये लोग भारत की संस्कृति व भारत के लोगों से पूरी तरह परिचित थे। इन लोगों ने घूम घूम कर पूरे देश के दौरे किए थे। नेहरू इलाहबाद के कुंभ में काफी समय बिताया करते थे और पटेल ने पूरे देश को एकसूत्र में पिरोकर अपना कद बहुत बड़ा कर लिया था। इंदिरा गाँधी को नेहरू की पुत्री होने का लाभ मिला तो गाँधी जैसे कालजयी लोगों का भी सामीप्‍य मिला। कुछ ऐसी ही परिस्थितियाँ रामनोहर लोहिया व जय प्रकाश नारायण की थी कि ये लोग भारत भूमि से दिल से जुड़े थे और इन लोगों में विरोध करने की भी सकारात्मक ताकत थी। अटल बिहारी वाजपेयी की भी बात करें तो वाजयपेयी में भी भारतीय व राष्‍ट्रीय सोच थी जिसने उन्हें राश्ट्रीय नेता बनाया था। तो यह बात साफ है कि राष्‍ट्रीय नेता वो ही बन सकता है जिसके पास राष्‍ट्रीय सोच व नजरिया हो। वर्तमान में ऐसी सोच व नजरिये के व्यक्तित्व का अभाव है इसलिए राष्‍ट्रीय नेताओं का भी अभाव है।

जरूरत है ऐसे व्यक्तित्व की जो पूरे भारत को एक धागे में पिरो सके और पूरे देश को एक पहचान दिला सके। जब एक ऐसा नहीं होगा हमारे सामने महँगाई, क्षेत्रीयता, अलगाववाद व आतंकवाद जैसी समस्याएँ आती रहेगी। घर परिवार में जब बुजुर्ग व्यक्ति की मौत हो जाती है तो सभी भाई अपने अपने अलग अलग मकान बनाकर रहने लगते हैं और कुछ ऐसा ही किसी देश में तब होता है जब एकछत्र नेतृत्व नहीं होता तो ऐसी स्थिति में सभी क्षेत्रीय लोग अपनी ढफली अपनी राग बजाने लगते हैं। इसलिए जिस तरह घर का बुजुर्ग घर की पहचान होता है और पूरा परिवार उसी बुजुर्ग का परिवार कहकर जाना जाता है ठीक उसी तरह देश का एक सर्वमान्य नेता पूरे देश ही पहचान होत है और उस ऐसे नेतृत्व में ही देश प्रगति कर सकता है पहचान बना सकता है।

 

‘7 खून माफ’ और 6 पति साफ

फिल्‍म समीक्षक : डॉ. मनोज चतुर्वेदी

 

‘मकबुल’, ‘मकड़ी’, ‘ओमकारा’, ‘कमीने’, ‘इश्कियां’, ‘द ब्लू अंब्रेला’, के बाद ‘7 खून माफ’ में विशाल भारद्वाज ने निर्देशन का लोहा मनवाया है। अभी-अभी ‘नो वन किल्ड जेसिका’ में ”बीप” के प्रयोगों को देखा गया। 4-5 वर्षों पूर्व भी ‘ओमकारा’ में भरपूर रूप से ”बीप” का प्रयोग किया गया था। आजकल फिल्मों में प्रयोग का नया सिलसिला जारी है। जो बदलते सामाजिक मूल्यों एवं मानदंडों की नयी व्या’या है।

 

फिल्म ‘7 खून माफ’ एक ऐसी स्त्री सुजैन (प्रियंका चौपड़ा) की कहानी है जो प्यार की तलाश में छ:-छ: शादियां करती है तथा सभी पुरूष किसी न किसी तरह से मार दिए जाते हैं। इन्टरवल के बाद सूजैन कहती है कि दुनिया के सारे बिगड़ैल मेरे ही लिए बने थे।

 

यह एक ऐसे बिगड़ैल स्त्री की कहानी है जिसे देहाती भाषा में ‘मर्दखोर’ औरत कहा जा सकता है। प्राय: समाचार पत्रों में यह पढ़ने को मिल जाता है कि फलां औरत ने इतनी शादियां की थी। अपने यहां पुरूषार्थ चतुष्टय में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का प्रावधान किया गया। इन चौपायों के संतुलन के बिना गृहस्थी रूपी पाया एकाएक ढह जाता है। अत: कहा गया है कि भोगने से इच्छाओं की पूर्ति नहीं होती। जिस प्रकार हम अग्नि में हवि देते हैं तथा वह और तीव’ गति से जलने लगती है। ठीक उसी प्रकार अभ्यास और वैराग्य के द्वारा मानव वासना ही नही अपितु संपूर्ण कामनाओं पर विजय प्राप्त कर सकता है।

 

(प्रियंका चौपड़ा) ने इस फिल्म में कमाल का अभिनय किया है। एडविन (नील नितिन), सुजैन जिमि (जॉन अब’ाहम), कीमत लाल (अनू कपूर), वसी मुल्ला (इरफान खान), रूसी निकोलई (अलेकजेंद्र), डॉ. मधुसुदन (नसीरूदीन शाह) के बाद सांतवी शादी में यीशु अर्थात् परमेश्वर को सबकुछ मानकर सिस्टर बन जाती है। वालिवुड की फिल्मों का अर्थशास्त्र मु’य रूप से मैग्ससे पुरस्कारों हेतु ही होता है। आखिर क्या कारण है कि छ:-छ: पतियों की हत्या करने के बाद सुजैन यीशु की शरण में जाती है। जबकि पश्चिम पूर्णतया एंटी-क’ाइस्ट हो गया है। पश्चिम के सारे गिरिजाघर तोड़े जा रहे हैं। हाल हीं में जूलिया राबर्ट्स ने हिंदू धर्म को अंगिकार किया है। जब पश्चिम के देशों पर आपत्ति-विपत्ति आती हैं तो वे भारत की तरफ देखते हैं। लेकिन मैग्ससे के लोभियों ने फिल्म तकनीक के अर्थशास्त्र को विकृत किया है तथा यह पोप और ईसाईयत को खुश करने का प्रयोजन मात्र है।

 

गीत-संगीत के दृष्टि से ‘डार्लिंग आंखो से………’ तथा ‘बेकरार…’ गीत भी युवाओं को थिरकने के लिए विवश कर देते हैं।

 

निर्माता : रानी स्क्रूवाला

निर्देशक : विशाल भारद्वाज

कलाकार : प्रियंका चौपड़ा, जॉन अब’ाहम, नील नितिन मुकेश, अनू कपूर, नसीरूदीन शाह, इरफान खान, विवान शाह

गीत : गुलजार

संगीत : विशाल भारद्वाज

 

पत्रकारिता और दीनदयाल उपाध्याय

पुस्‍तक समीक्षक – डॉ. मनोज चतुर्वेदी

दीनदयाल उपाध्याय एक विचारक, प्रचारक, विस्तारक, राष्ट्रषि, संपादक, पत्रकार अर्थशास्त्री, समाजसेवी, एक प्रखर वक्ता, शिक्षाविद तथा अपूर्व संगठनकर्ता थे। उन्होंने अहोरात्र भारत माता की सेवा करते-करते अपने जीवन को होम कर दिया। दीनदयाल जी ने लेखन तथा संपादन की शिक्षा, आज के महाविद्यालयों-विश्वविद्यालयों से नहीं लिया था। उन्होंने ‘आर्गेनाइजर’ में ‘पॉलिटिकल डायरी’ तथा ‘पांचजन्य’ में ‘विचार विथि’ नाम से नियमित स्तंभों का लेखन किया। उन्होंने भारतीय सभ्यता-संस्कृति पर होने वाले प्रहारों से व्यथित होकर लेखनी को चुना। वे लेखकों के लेखक तथा संपादकों के संपादक थे। जिनके मार्गदर्शन में मा. अटलबिहारी वाजपेयी, राजीव लोचन अग्निहोत्री, देवेन्द्र स्वरूप तथा भानुप्रताप शुक्ल ने पत्रकारिता के क, ख और ग को सीखा।

 

आज जहां पत्रकारिता मिशन, प्रोफेशन से चलकर कमीशन में बदल गयी है। ऐसे समय में दीनदयाल उपाध्याय और पत्रकारिता पुस्तक का महत्व और बढ़ जाता है। आज जहां ‘पेड न्यूजों’ की चारों तरफ भरमार हैं समाचार-विचार पर विज्ञापन तथा कमीशन रूपी बाजार का बोलबाला है ऐसे समय मूल्यपरक पत्रकारिता हेतु दीनदयाल जी की प्रासंगिकगा और बढ़ जाती है।

 

यद्यपि यह पुस्तक तो ठीक-ठाक है पर इसमें और भी लेखकों को स्थान देने की आवश्यकता थी। जब नानाजी देशमुख के निवेदन पर पुस्तक की भूमिका संपूर्णानंद ने लिखी तो इस बात का अंदाज लगाया जा सकता है कि दीनदयाल जी जनसंघ के माध्यम से राष्ट्र जीवन की परंपरा का संरक्षण करना चाहते थे। इन्हीं बातों का ध्यान रखकर बाबुजी (संपूर्णानंद जी) ने पुस्तक की भूमिका लिखी।

 

यह पुस्तक पत्रकारों, शोधार्थियों तथा प्रबुध्दजनों के लिए पठनीय व संग’हणीय है। पुस्तक की छपाई, भाषा शैली तथा आवरण पृष्ठ बहुत ही आकर्षक हैं जो पाठकों को पढ़ने के लिए बार-बार बाध्य कर देती है। कुल मिलाकर दीनदयाल जी ने जब ‘भारतीय अर्थनीति विकास की एक दिशा’ पुस्तक लिखी तो लोगों को बहुत आश्चर्य हुआ कि यह व्यक्ति अर्थनीति में भी सिध्दहस्त है। साधारण ट्रेन से यात्रा करते हुए पढ़ना-लिखना इनका अध्यव्यवसाय था जिन्होंने दीनदयाल को पत्रकार-संपादक दीनदयाल बना दिया।

 

पुस्तक : पत्रकारिता और दीनदयाल उपाध्याय

संपादक : डॉ. महेशचंद्र शर्मा

प्रकाशक : दीनदयाल, समग’ भारतीय जनता पार्टी, 11, अशोक रोड, नई दिल्ली

संस्करण : फरवरी, 2011

मूल्य : 30 रूपये

पृष्ठ : 96

 

‘संगठन सर्वोपरि’ और नितिन गडकरी

पुस्‍तक समीक्षक : डॉ. मनोज चतुर्वेदी

भाजपा के कई राष्ट्रीय अध्यक्ष हुए जैसे श्री अटल बिहारी वाजपेयी, श्री लालकृष्ण आडवाणी, श्री कुशाभाऊ ठाकरे, डॉ. मुरलीमनोहर जोशी, श्री वेंकया नायडू, श्री बंगारू लक्ष्मण, श्री के. जना. कृष्णूर्ति, श्री राजनाथ सिंह तथा श्री नितिन गडकरी।

 

मुझे जहां तक लगता है। कुछ एक को छोड़कर ये सभी समान्य परिवारों से थे। पर पूर्ति उद्योग समूह के मालिक व बचपन से ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में दीक्षित तथा अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् से जुड़े जुझारू कार्यकर्ता नितिन ने सचमुच अपने एक वर्ष के कार्यकाल में गजब कर दिखाया है। यह बात सत्य है कि देश में राजनीतिक पार्टियां मां-बेटा, पिता-पुत्र तथा सगे-संबंधियों के सोच से उपर नहीं उठ सकती। भाजपा अकेले ऐसे पार्टी है जिसका कार्यकर्ता चप्पल घिसकर और बैनर-पोस्टर चिपकाकर राष्ट्रीय अध्यक्ष बन सकता है। और इसके बेमिसाल उदाहरण है भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी। नितिन गडकरी ने अपने 365 दिनों के कालखंड में भारत के कोने-कोने में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का संदेश फैलाया है। जिनके लिए ‘संगठन सर्वोपरि’ है। राष्ट्र सर्वोपरि है, देश के दलित, गरीब, आदिवासी, वनवासी तथा गिरीवासी सर्वोपरि है। पर राष्ट्र के समक्ष यही समस्या है वोट ऐसे नहीं हासिल किए जाते।

 

गडकरी को कांग्रेस से सीखने की जरूरत है कि वह केंद्र तथा राज्यों में कैसे वोट हासिल करती है। मुसलमानों को वोट बैंक मानती हैं सच्चर रिपोर्ट, रंगनाथ मिश्र आयोग के माध्यम से राष्ट्र के साथ द्रोह करती है।

 

आजादी के शुरू से ही यह देश को जाति, धर्म व प्रांतों में बांटकर राज करती आ रही हैजो भारत आज दिखाई पड़ रहा है वो कमजोर, छिन्न-भिन्न है। उसेक लिए कांग्रेस ही जिम्मेदार है। भ’ष्टाचार की सारी गंगोत्री उसी कांगे’स में जाकर मिल जाती है। गडकरी ने अपने कार्यकाल में आदर्श घोटाला, राष्ट्रमंडल खेल घोटाला, 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाला, बोफोर्स घोटाला, विदेशों में जमा धन तथा कृषक आत्महत्या का पोल खोला है। सचमुच, गडकरी भाजपा तथा भारतीय राष्ट्र के सच्चे प्रहरी है। सी. बी. आई. दुरूपयोग, एंडरसन को भगाना तथा बेलगाम महंगायी के मुद्दे को संसद से सड़क तक उठाया है।

 

प्रस्तुत पुस्तक भाजपा परिवार के कार्यकर्ताओं के लिए पठनीय व संग’हणीय है। साथ ही साथ जिज्ञासु जनों के लिए महत्वपूर्ण है जो भारतीय राजनीतिक दलों के नीतिगत अध्ययन पर जोर देते हैं।

पुस्तक : संगठन सर्वोपरि

संपादक : प्रभात झा

प्रकाशक : डॉ. मुखर्जी स्मृति न्यास पी. पी.- 66, सुब्रह्मण्यम भारती मार्ग, नई दिल्ली

पृष्ठ – 144

 

स्वातंत्र्यवीर सावरकर को शत-शत नमन्

सूर्यप्रकाश

यह धरा मेरी यह गगन मेरा,

इसके वास्ते शरीर का कण-कण मेरा.

 

इन पंक्तियों को चरितार्थ करने वाले क्रांतिकारियों के आराध्य देव स्वातंत्र्य वीर सावरकर की 26 फरवरी को पुण्यतिथि है. लेकिन लगता नहीं देश के नीति-निर्माता या मीडिया इस हुतात्मा को श्रद्धांजलि देने की रस्म अदा करेंगे. लेकिन चलिए हम तो उनके आदर्शों से प्रेरणा लेने का प्रयास करें. भारतभूमि को स्वतंत्र कराने में जाने कितने ही लोगों ने अपने जीवन को न्योछावर किया था. लेकिन उनमें से कितने लोगों को शायद हम इतिहास के पन्नों में ही दफन रहने देना चाहते हैं. इन हुतात्माओं में से ही एक थे विनायक दामोदर सावरकर. जिनकी पुण्य तिथि के अवसर पर आज मैं उनको शत-शत नमन करता हूँ.

क्रांतिकारियों के मुकुटमणि और हिंदुत्व के प्रणेता वीर सावरकर का जन्म 28 मई, सन 1883 को नासिक जिले के भगूर ग्राम में हुआ था. इनके पिता श्री दामोदर सावरकर एवं माता राधाबाई दोनों ही धार्मिक और हिंदुत्व विचारों के थे. जिसका विनायक दामोदर के जीवन पर व्यापक प्रभाव पड़ा. वीर सावरकर के हृदय में छात्र जीवन से ही ब्रिटिश सत्ता के खिलाफ विद्रोह के विचार उत्पन्न हो गए थे. छात्र जीवन के समय में लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के विचारों से वीर सावरकर ने मातृभूमि को स्वतंत्र कराने की प्रेरणा ली. सावरकर ने दुर्गा की प्रतिमा के समय यह प्रतिज्ञा ली कि- ‘देश की स्वाधीनता के लिए अंतिम क्षण तक सशस्त्र क्रांति का झंडा लेकर जूझता रहूँगा’.

वीर सावरकर ने लोकमान्य तिलक के नेतृत्व में पूना में विदेशी वस्त्रों कि होली जलाकर विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार की घोषणा की. इसके बाद वे लोकमान्य तिलक की ही प्रेरणा से लन्दन गए. वीर सावरकर ने अंग्रेजों के गढ़ लन्दन में भी क्रांति की ज्वाला को बुझने नहीं दिया. उन्हीं की प्रेरणा से क्रांतिकारी मदन लाल धींगरा ने सर लॉर्ड कर्जन की हत्या करके प्रतिशोध लिया. लन्दन में ही वीर सावरकर ने अपनी अमर कृति 1857 का स्वातंत्र्य समर की रचना की. उनकी गतिविधिओं से लन्दन भी काँप उठा. 13 मार्च,191. को सावरकर जी को लन्दन में गिरफ्तार कर लिया गया. उनको आजीवन कारावास की सजा दी गयी. कारावास में ही 21 वर्षों बाद वीर सावरकर की मुलाकात अपने भाई से हुई. दोनों भाई 21 वर्षों बाद आपस में मिले थे, जब वे कोल्हू से तेल निकालने के बाद वहां जमा कराने के लिए पहुंचे. उस समय जेल में बंद क्रांतिकारियों को वहां पर कोल्हू चलाना पड़ता था.

वर्षों देश को स्वतंत्र देखने की छह में अनेकों यातनाएं सहने वाले सावरकर ने ही हिंदुत्व का सिद्धांत दिया था. स्वातंत्र्य वीर सावरकर के बारे में लोगों के मन में कई भ्रांतियां भी हैं. लेकिन इसका कारण उनके बारे में सही जानकारी न होना है. उन्होंने हिंदुत्व की तीन परिभाषाएं दीं-

(1)- एक हिन्दू के मन में सिन्धु से ब्रहमपुत्र तक और हिमालय से कन्याकुमारी तक संपूर्ण भौगौलिक देश के प्रति अनुराग होना चाहिए.

(2)- सावरकर ने इस तथ्य पर बल दिया कि सदियों के ऐतिहासिक जीवन के फलस्वरूप हिन्दुओं में ऐसी जातिगत विशेषताएँ हैं जो अन्य देश के नागरिकों से भिन्न हैं. उनकी यह परिभाषा इस बात की परिचायक है कि वे किसी एक समुदाय या धर्म के प्रति कट्टर नहीं थे.

(3)- जिस व्यक्ति को हिन्दू सभ्यता व संस्कृति पर गर्व है, वह हिन्दू है.

स्वातंत्र्य वीर सावरकर हिंदुत्व के प्रणेता थे. उन्होंने कहा था कि जब तक हिन्दू नहीं जागेगा तब तक भारत की आजादी संभव नहीं है. हिन्दू जाति को एक करने के लिए उन्होंने अपना समस्त जीवन लगा दिया. समाज में व्याप्त जातिप्रथा जैसी बुराइयों से लड़ने में उन्होंने महत्वपूर्ण योगदान दिया. सन 1937 में सावरकर ने कहा था कि-

”मैं आज से जातिओं की उच्चता और नीचता में विश्वास नहीं करूँगा, मैं विभिन्न जातियों के बीच में विभेद नहीं करूँगा, मैं किसी भी जाति के व्यक्ति के साथ भोजन करने को तत्पर रहूँगा. मैं अपने आपको केवल हिन्दू कहूँगा ब्राह्मण, वैश्य या क्षत्रिय नहीं कहूँगा”. विनायक दामोदर सावरकर ने कई अमर रचनाओं का लेखन भी किया. जिनमें से प्रमुख हैं हिंदुत्व, उत्तर-क्रिया, 1857 का स्वातंत्र्य समर आदि. वे हिन्दू महासभा के कई वर्षों तक अध्यक्ष भी रहे थे. उनकी मृत्यु 26 फरवरी,1966 को 22 दिनों के उपवास के पश्चात हुई. वे मृत्यु से पूर्व भारत सरकार द्वारा ताशकंद समझौते में युद्ध में जीती हुई भूमि पकिस्तान को दिए जाने से अत्यंत दुखी थे. इसी दुखी मन से ही उन्होंने संसार को विदा कह दिया. और क्रांतिकारियों की दुनिया से वह सेनानी चला गया. लेकिन उनकी प्रेरणा आज भी हमारे जेहन में अवश्य होनी चाहिए केवल इतने के लिए मेरा यह प्रयास था कि उनके पुण्यतिथि पर उनके आदर्शों से प्रेरणा ली जाये. स्वातंत्र्य वीर सावरकर को उनकी पुण्यतिथि पर उनको शत-शत नमन्…

 

भ्रष्टाचार का मुद्दा परिवर्तन का उत्प्रेरक बन सकता है

लालकृष्ण आडवाणी

भारत को स्वतंत्र हुए अब छ: दशक से ज्यादा हो गए। पहले तीन दशकों में कांग्रेस पार्टी का प्रभुत्व राजनीतिक परिदृश्य पर विशालकाय की भांति छाया रहा। अनेक राज्यों में यह सत्ता में थी। लोकसभा में, गैर -कांग्रेस दल इतनी संख्या नही जुटा पाए थे कि उन्हें मान्यता प्राप्त विपक्ष का पद मिलता और इसके नेता, नेता विपक्ष बन पाते।

 

सत्तार के दशक के मध्य में गुजरात में भ्रष्टाचार के विरुध्द एक सशक्त विद्यार्थी आंदोलन उभरा। इससे प्रेरित होकर जयप्रकाशजी ने भी बिहार में भ्रष्टाचार के विरुध्द विद्यार्थियों को जुटाया। इसी अभियान ने जे0पी0 को अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के करीब लाया और उसके माध्यम से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के। इसके अलावा चुनाव सुधारों में उनकी रुचि के चलते मैं उनसे अलग से मिलता रहता था। उन दिनों वह दोहराते थे कि सार्वजनिक जीवन में भ्रष्टाचार की जड़ें कांग्रेस सरकारों के अपने भ्रष्टाचार में है। जब तक विपक्षी दल विभाजित रहेंगे तब तक इस बुराई का मुकाबला असरदार ढंग से नहीं किया जा सकेगा।

 

अत: भ्रष्टाचार के विरुध्द जे0पी0 आंदोलन जनसंघ, काग्रेस (ओ), समाजवादी पार्टी, और भारतीय लोकदल को एक साथ लाया। अतत: इन दलों ने कांग्रेस के अजेय गढ़ गुजरात में जनता मोर्चे के रुप में महत्वपूर्ण विजय प्राप्त की।

 

गुजरात का निर्णय 12 जून, 1975 को घोषित हुआ। ठीक उसी दिन इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने रायबरेली से लोकसभा के लिए चुनी गई प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का चुनाव अवैध घोषित करते हुए भ्रष्ट चुनाव साधनों के आधार पर आगामी वर्षों के लिए चुनाव लड़ने हेतु अयोग्य करार दे दिया। 12 जून को घटित इन दोनों घटनाओं ने आपातकाल, एक लाख से ज्यादा लोगों को बंदी बनाने, प्रेस पर सेंसरशिप इत्यादि जैसी घटनाओं को जन्म दिया जिसकी समाप्ति मार्च 1977 में लोकसभा चुनाव से हुई जब कांग्रेस बुरी तरह पराजित हुई और श्री मोरारजी भाई के नेतृत्व में पहली गैर कांग्रेसी सरकार गठित हुई। नवगठित जनता पार्टी में जनसंघ का विलय हुआ और वह इस सरकार का एक घटक था। आज की द्विधु्रवीय राजनीति के बीज उसी समय पड़ हो गए थे।अत: इससे स्पष्ट होता है कि हमारे राजनीतिक इतिहास में निर्णायक मोड़ का पहला उत्प्रेरक भ्रष्टाचार था।

 

इसलिए यदि हमारे संविधान के अंगीकृत किए जाने के 6 दशक पश्चात दूसरी बार यदि भ्रष्टाचार परिवर्तन का मुख्य उत्प्रेरक बनने जा रहा है, तो किसी को भी आश्चर्य नहीं होगा।

 

जब सन् 2011 प्रारम्भ हुआ तो मैंने टिप्पणी की थी कि हाल ही में समाप्त हुआ वर्ष घपलों और घोटालो का वर्ष था। वास्तव में लोकसभा के शीतकालीन सत्र के पहले दिन ही भाजपा के नेतृत्व में समूचे विपक्ष ने तीन घोटाले – राष्ट्रमंडल खेल घोटाला, 2जी स्पेक्ट्रम घोटाला और मुंबई की रक्षा भूमि घोटाले को उठाने का निर्णय किया।

 

यदि पहले दिन ही विपक्ष को उसकी बात कहने दी जाती तो उस दिन से बना गतिरोध जो पूरे सत्र में बना रहा, शायद नहीं होता। विपक्ष का गुस्सा इससे भड़का कि सत्ताधारी पक्ष ने सामूहिक रुप से विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज को बोलने नहीं दिया। शीघ्र ही, अधिकांश विपक्षी दलों का यह मत बना कि जब तक सरकार इन घोटालों की जांच के लिए संयुक्त संसदीय समिति बनाने को तैयार नहीं होती और दोषियों को दण्डित नहीं किया जाता तब तक संसद में और कोई काम नहीं होगा।

 

सरकार और स्पीकर द्वारा आहूत अनेक बैठकें इस गतिरोध का समाधान करने में असफल रहीं। हालांकि ज्यों ही बजट सत्र नजदीक आने लगा और विपक्ष के साथ सरकार की बैठकें हुई, उससे यह अहसास हुआ कि इन परिस्थितयों में जे0पी0सी0 का गठन एक सही कदम होगा। गत् सप्ताह कुछ प्रमुख पत्रकारों के साथ प्रधानमंत्री का संवाद निराशाजनक रहा। इसमें भ्रष्टाचार पर चिंता कम और नकली गठबंधनीय दवाबों के बारे में ज्यादा जोर दिया गया।

 

वास्तव में भाजपा इस तथ्य के प्रति सचेत है कि दूसरे दलों के गठबंधन में नीतिगत मामलों में अवरोधी प्रभाव रहता है। पिछले सप्ताह हैदराबाद की एन0डी0ए0 रैली में, मैंने बताया कि वाजपेयी जी के नेतृत्व वाली सरकार की उपलब्धियों में से तीन नए राज्यों – उत्तारांचल, छत्तासगढ, और झारखंड के सहज निर्माण को मैं विशिष्ट उपलब्धि मानता हूं। यदि हमारे गठबंधन की सहयोगी तेलगुदेशम पार्टी राजी होती तो हम काफी आसानी से तेलंगाना राज्य भी बना सकते थे लेकिन हमारे गठबंधन धर्म ने इसकी अनुमति नही दी। लेकिन न तो वाजपेयी सरकार और न ही राज्यों में अन्य एन0डी0ए0 सरकारों को गठबंधन धर्म को ईमानदारी या सुशासन का बहाना या आड़ नहीं बनने दिया गया।

 

पिछले महीने ‘दि हिन्दू‘ में प्रकाशित सीबीआई के पूर्व निदेशक आर.के. राघवन का लेख यूपीए सरकार द्वारा भ्रष्टाचार से निपटने के घोषित किए ‘एक्शन प्लान‘ के प्रति काफी तीखा प्रतीत होता है। उन्होंने इस तथाकथित प्लान को ‘असफल‘ के रूप में वर्णित किया है। लेख का शीर्षक है ”भ्रष्टाचार के विरूध्द हारती लड़ाई”। राघवन ने सीवीसी थामस को ”सरकार के गले में पड़ा बोझ (एलबेट्राेंस)” के रूप में वर्णित किया है। उन्होंने पूर्व सीवीसी विट्ठल के इस कथन से सहमति प्रकट करते हुए उद्दृत किया है कि भ्रष्टाचार भारत में कम जोखिम और ऊंचे लाभ वाली गतिविधि बन गई है।

 

तथापि मैं, सीबीआई के एक दूसरे पूर्व निदेशक सी.वी. नरसिम्हन, जिनकी ईमानदारी और कुशाग्र बुध्दि को सर्वज्ञ प्रतिष्ठा प्राप्त है, द्वारा रखे गए प्रस्ताव का समर्थन करता हूं।

 

नरसिम्हन ने सुझाया है कि सरकार को ‘सार्वजनिक लोगों के अपराधिक दुर्व्यवहार‘ (criminal misconduct of public men) का कानून बनाना चाहिए। वे कहते हैं कि यह कानून भ्रष्टाचार निवारक कानून, 1988 के तहत आने वाले सभी अपराधों के विरूध्द होगा। इसके तहत राजनीतिज्ञ और नौकरशाह भी आएंगे।

****

इसी प्रकार विदेशों के टैक्स हेवन्स में काले धन के मुद्दे को भी पूरी शक्ति से आगे बढ़ाए रखना चाहिए। देश, सर्वाच्च न्यायालय में लम्बित राम जेठमलानी की जनहित याचिका को इसकी तार्किक परिणिति तक पहुंचते देखना चाहता है। आज चुनावी कानून के तहत चुनाव लड़ने वाले प्रत्येक प्रत्याशी को अपनी सम्पत्तियां और देनदारियां बतानी पड़ती हैं। विदेशों में जमा भारतीय धन को भारत वापस लाने के मुद्दे को देखते हुए कानून में यह प्रावधान करना चाहिए कि प्रत्येक प्रत्याशी यह शपथ ले कि उसके पास विदेशों में अघोषित सम्पत्ति नहीं है। कानून में सरकार को यह अधिकार देना चाहिए कि यदि ऐसी सम्पत्ति सरकार को पता चलती है तो वह उसे जब्त कर सके।

 

इसी तरह का प्रावधान सभी मंत्रियों, सांसदों और पार्टी पदाधिकारियों तथा देश के प्रभावशाली वर्ग की विशेष श्रेणी के लोगों पर भी लागू किया जाना चाहिए।

 

राजा के स्पेक्ट्रम घोटाले में सी.ए.जी. द्वारा लगाए गए अनुमान 1 लाख 76 हजार करोड़ रूपए की चपत से देश को हतप्रभ कर दिया है। यदि ग्लोबल फाइनेंशियल इंटीग्रेटि द्वारा विदेशों के टैक्स हेवन्स में ले जाए गए भारतीय धन का मूल्यांकन बीस लाख पिचहत्तर हजार करोड़ रूप्ए लगभग बैठता है तो कल्पना की जा सकती है कि यदि सर्वोच्च न्यायालय सरकार को यह सारा धन वापस लाने को बाध्य कर दे तो भारत की गरीबी को मिटाने पर कितना चमत्कारी प्रभाव हो सकता है!

*****

प्रधानमंत्री के इंटरव्यू पर सुर्खियां

 

मैं इतना बड़ा अपराधी नहीं हूं जितना बताया जा रहा है : प्रधानमंत्री

(I’m not as big a culprit as being made out to be : PM)

Times News Network

 

मनमोहन का अकेलापन

(THE LONELINESS OF BEING MANMOHAN)

OUTLOOK

 

एक प्रधानमंत्री मीडिया को गपशप के लिए इसलिए नहीं बुलाता क्योंकि उसके प्रधान सचिव ने बताया कि उस सुबह उनका कोई कार्यक्रम नहीं है।

(A PM does not invite media over for a chat because his Principal Secretary has told him that he has nothing scheduled that morning½

INDIA TODAY

 

कुटिल कणिक की राह पर चल रहे दिग्विजय सिंह

पवन कुमार अरविंद

 

महाभारत कालीन हस्तिनापुर में महाराज धृतराष्ट्र का एक सचिव था, जिसका नाम था कणिक। उसकी विशेषता यह थी कि वह कुटिल नीतियों का जानकार था और धृतराष्ट्र को पांचों पांडवों के विनाश के लिए नित नए-नए तरकीब सुझाया करता था। महाराज ने उसे इसीलिए नियुक्त भी कर रखा था। इसके सिवाय उसकी और कोई विशेषता नहीं थी, जो राज-काज के संचालन में धृतराष्ट्र के लिए उपयोगी हो।

 

महाराज ने उसका वेतन और भत्ता भी ज्यादा तय कर रखा था। इसके अलावा उसकी सारी सुविधाएं उसके समकक्ष सभी राज-कर्मचारियों से ज्यादा थी। धृतराष्ट्र ने उसको हर प्रकार से छूट दे रखी थी। यानी उसके केवल सात खून ही नहीं; बल्कि सारे खून माफ थे। वह जो कुछ भी करता, धृतराष्ट्र उसकी खूब तारीफ करते थे।

 

अन्ततः उसको मिली सारी विशेष सुविधाएं व्यर्थ ही साबित हुईं। क्योंकि उसकी एक भी तरकीब पांडवों के विनाश के लिए काम न आ सकी। कणिक ने ही पाण्डवों को मारने के लिए वारणावत नगर में लाक्षागृह के निर्माण का सुझाव दिया था। जब उसके इस सुझाव का पता दुर्बुद्धि दुर्योधन, कर्ण और दुःशासन; आदि को लगा, तो उन लोगों ने इस सुझाव को जल्द ही अमल में लाने के लिए मामा शकुनि के माध्यम से धृतराष्ट्र को मनाने के प्रयास शुरु कर दिए थे। हालांकि उस धधकते लाक्षागृह से माता कुंती सहित पांचों पाण्डव सकुशल निकलने में सफल हुए।

 

खैर! जो हुआ सो हुआ। अन्ततः पाण्डवों को मारने की सारी तरकीब असफल साबित हुई। इसके बाद क्या हुआ यह सभी जानते ही हैं। महाभारत युद्ध में कौरवों का विनाश हो गया। यानी धर्म व सुव्यवस्था की विजय हुई और अधर्म व कुव्यवस्था का नाश हुआ। अर्थात- दूसरों का अहित चाहने वालों का विनाश हुआ। यही है महाभारत की कथा।

 

वारणावत नगर का लाक्षागृह कांड कुरु कुटुम्ब का वह जीता-जागता षड्यंत्र था जो अनेक क्रूरतम राज-षड्यंत्रों की सारी सीमाएं पार कर चुका था। वह कोई सामान्य घटना नहीं थी। मानवीयता की भी सारी सीमाएं पार कर देने वाली घटना थी। यह सारा षड्यंत्र हस्तिनापुर की सत्ता को दीर्घकाल तक हथियाए रखने के लिए चलाया जा रहा था।

 

हालांकि वर्तमान भारतीय संदर्भ में कणिक की चर्चा करने का मेरा औचित्य केवल कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह की तुलना करना भर ही है। इसके लिए मेरे पास कणिक के सिवाय और कोई उदाहरण नहीं है जो दिग्विजय सिंह पर सटीक बैठे। कणिक और दिग्विजय में कई मामलों में काफी समानता है। उनकी हर गलत बयानी को कांग्रेस सुप्रीमो सोनिया गांधी माफ कर देती हैं। उनको कुछ भी बोलने की पूरी छूट है। वह सबसे ऊपर हैं। कांग्रेस में सोनिया-राहुल को छोड़कर एक वही ऐसी शख्सियत हैं जिन पर पार्टी अनुसाशन का डंडा काम नहीं करता। पार्टी में उनके खिलाफ कोई शख्स बोलने की हिमाकत भी नहीं कर सकता। क्योंकि वह पार्टी सुप्रीमो के काफी खासम खास हैं। अतः उनके खिलाफ बोलकर कोई अपने कमीज की बखिया क्यों उधड़वाए ?

 

इस देश में जितने भी विवादित विषय हैं, उन सभी विषयों पर दिग्विजय अपने ‘कणिकवत कुटिल विचार’ प्रकट कर चुके हैं। इसके अलावा भी वह नित नए-नए विवादित विषयों की खोज-बीन में लगे रहते हैं। और उन विषयों पर बोल-बोलकर अपनी भद्द पिटवाते रहते हैं।

 

अभी हाल ही में अरुणाचल प्रदेश के अरुणाचल पूर्वी संसदीय सीट से कांग्रेसी सांसद निनोंग एरिंग ने योग गुरु स्वामी रामदेव को ब्लडी इंडियन तक कह डाला था। योग गुरु की गलती मात्र यही थी कि वह राज्य के पासीघाट में आयोजित योग शिविर में जुटे प्रशिक्षणार्थियों को भ्रष्टाचारी कांग्रेस के काले कारनामे का बड़े ही मनोहारी ढंग से वर्णन कर रहे थे। ठीक उसी वक्त सांसद महोदय आ धमके और उन्होंने योग गुरु के साथ जमकर गाली-गलौज की। स्वामी रामदेव के सहायक ने बताया- सांसद ने असंसदीय भाषा का इस्तेमाल करते हुए बाबा से कहा कि वह राज्य में चला रही भ्रष्टाचार विरोधी अपनी मुहिम बंद कर दें, वरना नतीजा अच्छा नहीं होगा। सबसे आश्चर्य की बात यह है कि कांग्रेस आलाकमान ने उस सांसद के खिलाफ कोई कार्रवाई तक करना उचित नहीं समझा।

 

विवादित विषय हो तो भला दिग्विजय सिंह कैसे चुप रहें। अतः उन्होंने इस विवाद की बहती नदी में हाथ धोना शुरु कर दिया। उन्होंने योग गुरु से सवाल किया कि भ्रष्टाचार की बातें करने वाले रामदेव को अपनी सम्पत्ति का हिसाब देना चाहिए। ध्यातव्य है कि स्वामी रामदेव पिछले कई महीनों से भ्रष्टाचार के खिलाफ देश भर में जनजागरण अभियान चला रहे हैं। अपने इसी अभियान के तहत योग गुरु अरुणाचल में थे।

 

दिग्विजय के रवैये से ऐसा लगता है कि उन्होंने हिंदुत्वनिष्ठ संगठनों, साधु-संतों और देशभक्तों को बदनाम करने का ठेका ले रखा है। यहां तक कि वे दिल्ली के बाटला हाउस मुठभेड़ में आतंकियों की गोली से शहीद मोहन चन्द शर्मा जैसे बहादुर सिपाही की शहादत पर भी प्रश्चचिन्ह उठाने से बाज नहीं आए। वह आजमगढ़ जिले के संजरपुर में आतंकी गतिविधियों में संलिप्त लोगों के घर जा कर उन्हें प्रोत्साहित करने से भी नहीं चूके। यही नहीं उन्होंने 26/11 मुम्बई हमलों में शहीद महाराष्ट्र के तत्कालीन एटीएस प्रमुख हेमंत करकरे की शहादत पर भी प्रश्नचिन्ह उठाने की कोशिश की थी। लेकिन स्वर्गीय करकरे की विधवा श्रीमती कविता करकरे ने दिग्विजय की जमकर खिंचाई की थी।

 

वैसे दिग्विजय के संदर्भ में इस बात की भी खूब चर्चा चलती है कि मुस्लिम मतों को बटोरने के लिए सोनिया गांधी ने उनको मुक्त-हस्त कर दिया है। दिग्विजय भी सोनिया के इस सम्मान का बदला अपने क्षत्रिय मर्यादा की कीमत पर चुकाने के लिए आमादा दिखते हैं। यहां तक कि वह अपनी सारी लोकतांत्रिक मान-मर्यादाएं भी भूल चुके हैं। जो मन में आया वही आंख मूदकर बोल देते हैं। मीडिया भी उनके बयान को खूब तरजीह देता है। यदि उनका यही रवैया रहा तो वह दिन दूर नहीं जब जनता उनको एक स्वर से मानसिक दिवालिया घोषित कर देगी।

 

लीबिया में जल्लादवाहिनी का खूनी खेल

जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

लीबिया में कर्नल गद्दाफी की जल्लादवाहिनी ने आम लोगों के घरों में घुसकर हमले करके पीटना आरंभ कर दिया है। जो लोग गद्दाफी का विरोध कर रहे हैं उनके घरों में घुसकर पिटाई का जा रही है,गोली से भूना जा रहा है और गिरफ्तारियां की जा रही हैं। लीबिया के इस खूनी शासक ने अपनी जल्लादवाहिनी के बलबूते पर एक ऐसा तंत्र बनाया है जिसकी सारी दुनिया में कहीं पर भी मिसाल नहीं मिलेगी। इसे गद्दाफी की जल्लादवाहिनी कहना समीचीन होगा। जल्लाद वाहिनी के हमलों और अत्याचारों को देखते हुए अरब लीग ने अपने संगठन की गतिविधियों में भाग लेने से लीबिया को फिलहाल रोक दिया है और कहा है कि लीबिया के शासक पहले आम लोगों पर जुल्म करना बंद करें।

अरब लीग का मानना है लीबिया का मौजूदा प्रशासन लगातार मानवाधिकारों का हनन कर रहा है और शांतिप्रिय आंदोलनकारियों पर हिंसक हमले किए गए हैं। आम जनता के आंदोलन पर हमले जब तक जारी रहेंगे लीबिया को अरब लीग की बैठकों में हिस्सा लेने नहीं दिया जाएगा।

लीबिया की राजधानी त्रिपोली में श्मशानी शांति है । आम लोगों को घरों से बाहर निकलने की इजाजत नहीं है। मीडिया पर पाबंदी लगी हुई है। आंदोलन के बारे किसी भी किस्म की खबरें बाहर नहीं आ रही हैं। जो लोग देश छोड़कर जा रहे हैं उनके कैमरे-मोबाइल आदि की जांच की जा रही है और किसी भी किस्म की कोई भी इमेज बाहर न जा सके इसका ख्याल रखा जा रहा है।

गद्दाफी की तथाकथित क्रांतिकारी कमेटी जो मूलतः जल्लादवाहिनी है, का आदेश है कि जो भी व्यक्ति गद्दाफी के खिलाफ है उसे जान से मार दो और इसी आधार पर खुलेआम कत्लेआम हो रहा है।

एक जमाने में फासिस्ट शासक विरोधी जनता को पकड़ते थे,बंदी बनाते थे,यातना देते थे, गद्दाफी ने फासिस्टों से भी एक कदम आगे जाकर विरोधी को सीधे कत्ल कर देने के आदेश दिए हैं और गद्दाफी की निजीसेना यह काम बखूबी अंजाम दे रही है। लीबिया के पूर्व के अनेक शहरों पर गद्दाफी विरोधियों का कब्जा है और इन शहरों पर फिर से गद्दाफी प्रशासन अपना राज कायम करना चाहता है। इसके कारण सीधे टकराव और खूनीजंग के आसार पैदा हो गए हैं। गद्दाफी के सैनिक लाउडस्पीकर से घोषणाएं कर रहे हैं कि विरोधी सरेंडर कर दें,जनता उनका साथ न दे वरना घरों में घुसकर हमले किए जाएंगे, कत्ल किया जाएगा।

दूसरी ओर जनता को सड़कों पर आने और सरकारी इमारतों पर हमले करने के लिए मौलवी लोग मस्जिदों से अपील कर रहे हैं। यानी खुली खूनी टकराहट का माहौल बन गया है। लीबिया में अब तक कितने लोग मारे गए हैं और कितने घायल हुए हैं.गिरफ्तार हुए हैं किसी को कुछ नहीं मालूम। इटली के विदेश मंत्री ने कहा है कम से कम एक हजार लोग मारे जा चुके हैं। जबकि फ्रांस के मानवाधिकार संगठनों का मानना है कि 2 हजार लोग मारे जा चुके हैं।

कॉमन ड्रीम डॉट कॉम ने मानवाधिकार कार्यकर्ता के हवाले से लिखा है “Armed Gaddafi loyalists, including some apparently from sub-Saharan Africa, were reported to have set up roadblocks and opened fire from rooftops. Another protester described ruthless violence in Green Square. “Men wearing civilian clothing in the square were shooting at us,” he told Human Rights Watch. “I saw guys taking off their shirts and exposing their chests to the snipers. I have never seen anything like it. I was very ashamed to hide under a tree but I am human.” दूसरी ओर गद्दाफी के खेमे में भगदड़ मची हुई है। गद्दाफी के एक करीबी रिश्तेदार ने जो जॉर्डन में राजदूत था इस्तीफा दे दिया है।अलजजीरा के अनुसार “Gaddafi is fast losing the support of his inner circle. His cousin, the country’s ambassador to Jordan and a close aide in Egypt all resigned on Thursday.

Ahmed Gadhaf al-Dam, one of Gaddafi’s top security official and a cousin, defected on Wednesday evening, saying in a statement issued by his Cairo office that he left the country “in protest and to show disagreement” with “grave violations to human rights and human and international laws”.

Al-Dam was travelling to Syria from Cairo on a private plane, sources told Al Jazeera. He denied allegations that he was asked to recruit Egyptian tribes on the border to fight in Libya and said he went to Egypt in protest against his government’s used of violence.”

लीबिया में फोन,सैटेलाइट कम्युनिकेशन आदि सभी को बाधित किया जा रहा है। ज्यादातर फोन बंद पड़े हैं। राजधानी त्रिपोली में मुर्दनी छाई हुई है।अलजजीरा के अनुसार- “the Libyan capital, meanwhile, is said to be virtually locked down, and streets remained mostly deserted, even though Gaddafi had called for his supporters to come out in force on Wednesday and “cleanse” the country from the anti-government demonstrators.

 

Witnesses in Tripoli have told Reuters that uniformed police were directing traffic as usual, state television was broadcasting and pro-Gaddafi supporters held a rally in the city.

 

Libyan authorities said food supplies were available as “normal” in the shops and urged schools and public services to restore regular services, although economic activity and banks have been paralysed since Tuesday.

 

London-based newspaper the Independent reported, however, that petrol and food prices in the capital have trebled as a result of serious shortages.

 

Foreign governments, meanwhile, continue to rush to evacuate their citizens, with thousands flooding to the country’s borders with Tunisia and Egypt.”

कल एक टेलीफोन प्रसारण में गद्दाफी ने ताजा आंदोलन के लिए अलकायदा,दूध ,नैस्कैफे कॉफी और नशीली दवाओं को जिम्मेदार ठहराया है।

लीबिया में जिस तरह के हालात हैं उनमें विदेशी और देशी नागरिकों का बड़े पैमाने पर पलायन हो रहा है। अपना माल- असबाब छोड़कर हजारों विदेशी नागरिक किसी न किसी तरह लीबिया से निकलकर बाहर जा रहे हैं। इसके कारण पड़ोसी देशों में यात्रियों की समस्याएं उठ खड़ी हुई है। त्रिपोली में गद्दाफी के लोग देश छोड़कर जाने वालों की तलाशी ले रहे हैं,कैमरा,मोबाइल फोन आदि छीन रहे हैं और घूस में पैसे भी मांग रहे हैं।