अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा ने लीबिया में शांतिपूर्ण आंदोलनकारियों पर पुलिसबलों के हमलों की कड़े शब्दों में निंदा की है। लेकिन उन्होंने गद्दाफी के खिलाफ एक शब्द नहीं बोला है। उल्लेखनीय है अमेरिकी प्रशासन को निंदा करने में 7 दिन लग गए। जबकि वे आमतौर पर तत्काल प्रतिक्रिया देते हैं।
ओबामा ने कहा है-“The suffering and bloodshed is outrageous and unacceptable,”. “So are threats and orders to shoot peaceful protesters and further punish the people of Libya.” “These actions violate international norms and every standard of common decency. This violence must stop.”
मानवाधिकार संगठनों के अनुसार लीबिया में अभी तक 700 से ज्यादा आंदोलनकारियों को गद्दाफी की पुलिस और सेना मौत के घाट उतार चुकी है। ऐसी स्थिति में ओबामा का यह कथन मायने रखता है “In a volatile situation like this one, it is imperative that the nations and peoples of the world speak with one voice,”
लीबिया में अभी जो चल रहा है वो कई मायनों में महत्वपूर्ण है। पहली बात यह कि लीबिया की जनता लोकतंत्र और अपने अधिकारों के लिए एकजुट हो रही है। दूसरी बड़ी बात यह है कि बड़े पैमाने पर जनता पर जो 41 सालों में जुल्म हुआ है उसकी पीड़ाएं और अन्याय की प्रतिक्रियाएं हो रही हैं। तीसरी बात यह कि लीबिया में कितनी खोखली शासन व्यवस्था चल रही है इसका भी पता चला है।
मसलन् हाल के आंदोलन के कारण अनेक शहरों में नागरिक प्रशासन की बागडोर बागियों के हाथों में आ गयी है और आम जनता के आंदोलन के सामने सेना ने भी आत्मसमर्पण कर दिया है। लेकिन सेना की टुकड़ियों के इस तरह के समर्पण से गद्दाफी के शासन पर कोई खास असर नहीं होगा। इसका प्रधान कारण है गद्दाफी का समानान्तर सैन्यबल।
गद्दाफी ने अपने शासन में लीबिया की सेना-पुलिस को मजबूत बनाने की बजाय अपने संगठन की सेना-पुलिस तैयार की है जिसमें हजारों वफादार और भाड़े के विदेशी सैनिक हैं। इसके कारण गद्दाफी को सेना में बगाबत से भी कोई खतरा नहीं होने वाला।क्योंकि सरकारी सेना कमजोर है। लीबिया में सेना प्रतीकात्मक रूप में है।उसकी तुलना में गद्दाफी ने जो निजी सेना बनायी है वो ज्यादा ताकतवर है। इसलिए लीबिया में सेना की नया सत्ता संतुलन बनाने में कोई बड़ी भूमिका शायद न बन पाए। जैसाकि मिस्र में देखा गया था।
गद्दाफी के भाषण में जनता के प्रति जो घृणा,अहंकार और बदले की भावना व्यक्त हुई है वो चिंन्ता की बात है। जनांदोलनकारियों को उसने क्रांक्रोच कहा है और उन्हें घर में घुसकर मारने का अपने समर्थकों से आह्वान भी किया है।
गद्दाफी जानता है कि सेना के बगावत करने से उसका कोई नुकसान नहीं होगा। लीबिया का जनांदोलन यदि गद्दाफी की निजी सेना को तोड़ पाता है तो यह उनकी बड़ी सफलता कही जाएगी। इसके बाबजूद लीबिया की जनता एकजुट होकर प्रतिवाद कर रही है।अनेक शहरों पर उनका कब्जा हो गया है। दुनिया में भी दबाब बढ़ रहा है।
गद्दाफी की निजी सेना का समाज में आतंक है और कोई भी व्यक्ति उनके खिलाफ एक वाक्य भी नहीं बोल सकता। आमतौर पर सार्वजनिक आलोचना सुनने को नहीं मिलती थी,आम जनता ने इस आतंक के माहौल को काटकर अब तक के आंदोलन में सफलताएं हासिल की हैं। त्रिपोली में अभी भी आतंक है। किसी भी व्यक्ति का घर से निकलना संभव नहीं है,घर के बाहर किसी भी व्यक्ति को देखते ही गोली मार देने के आदेश दे दिए गए हैं। त्रिपोली की सड़कें सुनसान हैं। शहर में जहां-तहां पुलिस और सेना के द्वारा मारे गए लोगों की लाशें पड़ी हैं। इसके अलावा जो विदेशी नागरिक हैं वे परेशान हैं कि किसी तरह सुरक्षित जान बचाकर अपने मुल्क भागें।
अलजजीरा के अनुसार लीबिया के अनेक शहरों में आंदोलनकारियों का प्रशासन पर नियंत्रण कायम हो चुका है और इन इलाकों में सेना के अफसरों और जवानों ने गद्दाफी प्रशासन का साथ देने से इंकार कर दिया है। दूसरी ओर सारी दुनिया में अधिकांश लीबियाई राजदूतों ने इस्तीफा दे दिया है या फिर वे जनता पर हमले की आलोचना कर रहे हैं,निंदा कर रहे हैं। देश के गृहमंत्री,न्यायमंत्री,गद्दाफी के बेटे सैफ अल इस्लाम के सहयोगी ने इस्तीफा दे दिया है। अनेक सैन्य अफसरों ने साझा बयान जारी करके जनता के आंदोलन में शरीक होने की अपील की है।
भोपाल, 25 फरवरी। आज के समय में ऐसी कोई सूचना नहीं है जो इंटरनेट पर उपलब्ध न हो। इंटरनेट की सामान्य जानकारी रखकर आप किसी भी विषय में विशेषज्ञता हासिल कर सकते हैं।
यह कहना है लीगल इंडिया डाट इन एवं प्रवक्ता डॉट काम के प्रबंध निदेशक भारतभूषण का। वे यहां माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल के जनसंचार विभाग द्वारा अंडरस्टेडिंग इंटरनेट एंड प्रिंट मीडिया विषय पर आयोजित कार्यशाला में बोल रहे थे। उन्होंने इंटरनेट की महत्ता पर प्रकाश डालते हुए कहा कि समाज में इंटरनेट योग्य शिक्षक की भूमिका निभा रहा है। उन्होंने पावर पांइट के माध्यम से विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों को सर्च इंजन की विस्तृत जानकारी दी जिससे की छात्र बिना समय नष्ट किए बिना अपने विषय की सही व सटीक जानकारी हासिल कर सकते हैं।
कार्यशाला के दूसरे सत्र में लांचिग ऑफ न्यूजपेपर विषय पर अपने विचार व्यक्त करते हुए वरिष्ठ पत्रकार डा. शशिभूषण (शिमला) ने कहा कि मीडिया में वहीं लोग आगे आएं जिनके अंदर समय के साथ अपने आप को बदलने का माद्दा हो नहीं तो समय आपको पीछे धकेल देगा। उन्होंने कहा कि नई तकनीकी ने मीडिया की ताकत को कई गुना अधिक मजबूत कर दिया है। देश में साक्षरता दर जिस तरह से बढ़ रही है उससे आने वाले समय में प्रिंट मीडिया ओर तेजी के साथ विकास करेगा। कार्यशाला के दौरान छात्रों के प्रश्नों के जबाव देकर उनकी जिज्ञासाओं को भी शांत किया गया। अतिथियों का स्वागत वरिष्ठ पत्रकार पूर्णेंदु शुक्ला एवं प्राध्यापक सुरेंद्र पाल ने किया। कार्यक्रम के अंत में योगिता राठौर और श्रीकांत सोनी ने सांस्कृतिक प्रस्तुति दी।
26 नवंबर 2008 दहशतगर्ती की काली रात.. जिसने 166 लोगों को मौत की नींद सुला दी…इस काली रात के गुनहगार को निचली अदालत ने 9 महीने पहले फांसी की सजा सुनाई थी…जिसे मुंबई हाईकोर्ट ने बरकरार रखा है…लेकिन अब भी इस दरिंदे कसाब के पास सुप्रीम कोर्ट जाने का रास्ता बचा है…कसाब सुप्रीम कोर्ट जाएगा…और सौ आने की सच्चाई ये भी है कि…सु्प्रीम कोर्ट यानि देश के माननीय उच्च न्यायलय में भी फांसी की इस सजा को बरकरार रखा जाएगा….बॉम्बे हाईकोर्ट के इस फैसले के सबने खुले दिल से स्वागत किाया…स्वागत लाजमी भी था…आखिर देश की आर्थिक राजधानी पर हमला कर 166 बेगुनहागारों के कातिल को सजा जो मिली है…लेकिन सवाल ये है कि…क्या ये सजा दहशतगर्दी पर लगाम लगाने के लिए काफी है…और सबसे बड़ी बात तो ये है कि…हाईकोर्ट ने कसाब के कथित दो भारतीय मददगारों को बाइज्जत बरी कर दिया…निचली अदालत ने भी फहीम अंसारी और शहाबुद्दीन की सबूतों के अभाव में बरी कर दिया था…जाहिर सी बात है…इन गुनहगारों को सजा दिलाने के लिए हमारे पास सबूतों का अभाव है…और हम उन्हें सजा नही दिलवा पाएंगे….सुप्रीम कोर्ट भी उन्हे बाइज्ज़त बरी कर देगी…दूसरे इस फैसले के खिलाफ अब कसाब सुप्रीम कोर्ट में अपील करेगा…मुमकिन है कि…सुप्रीम कोर्ट उस सजा को बरकरार रखे…उसके बाद एक और रास्ता दहशथगर्दी के इस सिरमौर के पास बचता है…वो है राष्ट्रपति के पास जाने का…विशेषज्ञों की मानें तो…कसाब को मौत की फंदा कसाब तक पहुंचने में सालों का वक्त लग सकता है…
मुंबई हादसा…और कसाब पर दो साल से भी ज्यादा समय से चल रहा मुकदमा कई सवालों को जन्म दे रहा…पहला सवाल तो यही है…कि क्यों हमारी कानून प्रक्रिया इतनी लंबी है…कि एक दहशतगर्द कातिल को सजा मिलने में सालों का वक्त लग जाता है…क्या भारतीय न्याय प्रणाली का लचीलापन उसकी कमजोरी नहीं बन गया है…क्यों गुनहगार को इतना वक्त मिलता है…यहां संविधान निर्माताओं को तर्क था कि…किसी बेगुनाह को सजा नहीं मिलनी चाहीए…इसलिए वो न्याय पाने के लिए कई सीढ़ियों तक अपील कर सकता है…ऐसे में गुनाहगार आराम से समय काटते हैं…और निचली अदालत से हाईकोर्ट और हाईकोर्ट से सुप्रीम कोर्ट तक के चक्कर लगाने में सालों का वक्त लग जाता है…कसाब को भी पता है कि…उसे उसके जघन्यतम अपराध के लिए उच्च न्यायालय माफ करने वाली नहीं है….न ही माननीय राष्ट्रपति द्वारा उसकी अर्जी पर दया की मुहर लगेगी…ये वक्त और पैसे की बर्बादी के साथ साथ…166 लोगों के परिवार के लिए हर पल न्याय के आखिरी अंजाम तक पहुंचने की आस की बाट को भी तोड़ता है…आखिर कब एक दहशतगर्द को उसके किए की सज़ा मिलने का इंतजार कर रहें हेंमत करकरे, विजय सालस्कर, संदीप उन्नीकृष्णन के परिवार वाले… न्याय की बाट जोहते जोहते न्याय पाने की आस इतनी लंबी हो गई कि….संदीप के चाचा को खुदकुशी करनी पड़ी…इसका जवाब न तो सरकार के पास है और न ही माननीय सुप्रीम कोर्ट के पास.
सवाल और भी हैं…क्यों दहशतगर्दों के साथियों को सजा दिलाने के लिए अभियोजन पक्ष सबूत इक्टठा नहीं कर पाया…और फहीम अंसारी के साथ शहाबुद्दीन को बाइज्जत बरी कर दिया गया…इन्हें सजा नहीं मिलना अभियोजन पक्ष के लिए भी बहुत बड़ा झटका है…अगर इन जैसे लोगों को सजा नहीं मिलेगी तो हमेशा सबूतों के अभाव में फहीम और शहाबुद्दीन जैसे अपराधी बरी होते रहेंगे…इन्हें न तो कानून का डर रहेगा…न ही पुलिस प्रशासन का….
सवाल तो ये भी है कि….पाकिस्तानी आतंकी कसाब को तो सजा मिल जाएगी…लेकिन भारतीय जमीं को दहशतगर्दी में झोंकने वाले उसके आकाओं को सजा कब मिलेगी… पाकिस्तानी कोर्ट में इस हमले की सुनवाई लगातार टाली जा रही है…हैरान करने वाली बात ये भी है…हमारे देश का कानून तो लचीला है कि…यहां के राजनीतिज्ञ और भी ढ़ीले हैं….मास्टरमाइंड जकी उर रहमान लखवी को जल्द से जल्द सजा दिलाने के लिए कुछ ख़ास प्रयास भी नहीं किए जा रहे हैं… पाकिस्तान ने नवंबर, 2008 में हुए हमले के मुख्य आरोपी जकी-उर-रहमान लखवी के बारे में कहा है कि… उसे पाकिस्तान की अदालतें छोड़ सकती हैं …क्योंकि पाकिस्तान के जांच दल को भारत नहीं आने दिया गया है।
जाहिर है…हत्यारे की सजा को बरकरार रखने का बॉम्बे हाईकोर्ट का फैसला दहशतफैलाने वाले हर उस दरिंदे के लिए एक सबक है…जो दहशत फैलाने और लोगों की हत्या करने को जेहाद मानते हैं…लेकिन अपने देश में कसाब को मिली ये सजा…सजा में लगने वाला वक्त…सबूतों के अभाव में बरी होते आरोपी, कसाब की सुरक्षा पर किए जा रहे खर्च सवाल तो कई पैदा करते हैं…लेकिन इनका जवाब किसी के पास नहीं है…किसी के पास नहीं…
वैसे तो भारत को आजाद हुए 63 साल हो गए हैं, फिर भी हम अभी तक मानसिक रुप से अंग्रेजों के गुलाम हैं। हमारे देश में अंग्रेजों के द्वारा बनाए हुए अधिकांश नियम-कानून आज भी अक्षरश: लागू हैं। जबकि आजादी के बाद से देश की आवो-हवा, हालत, आवाम की सोच व स्थिति में आमूल-चूल परिवर्तन आया है। पर अंग्रेजों के कायदे-कानून से हम और हमारे चुने हुए नुमाइंदे इतने प्रभावित हैं कि हमारी सरकार निर्विरोध बिना देश के बदले चेहरे पर नजर डाले अतार्किक नियम व कानून बना रही है।
गौरतलब है कि कीमतों को मापने वाला थोक मूल्य सूचकांक भी इसी तरह का एक कायदा है, जो अतार्किक तो है ही साथ में महंगाई को मापने में भी पूर्ण रुप से असफल है।
थोक मूल्य सूचकांक में उन्हीं वस्तुओं को शामिल किया जाता है जिसका लेन-देन बड़ी व्यापारिक इकाईओं के बीच होता है। इन वस्तुओं की संख्या 2400 है। इस सूचकांक से वस्तुओं की मांग एवं आपूर्ति पर नजर रखा जाता है। पुनष्च: इसकी सहायता से विनिर्माण क्षेत्र में होने वाले उतार-चढ़ाव पर भी निगाह रखा जाता है।
ज्ञातव्य है कि इस सूचकांक का मूल उद्देश्य है 2400 वस्तुओं की कीमतों में होने वाले उतार-चढ़ाव को मापना। वह भी थोक स्तर पर होने वाली खरीद-बिक्री से संबंधित। ताकि महंगाई दर का पता चल सके।
जाहिर है थोक मूल्य सूचकांक थोक के भाव से बिकने वाले सामानों की कीमत का प्रतिनिधित्व करता है। भारतीय रिजर्व बैंक इसी मूल्य सूचकांक की मदद से अपनी मौद्रिक नीति की दशा और दिशा तय करता है। थोक मूल्य सूचकांक के मीटर पर वस्तुओं की कीमतों में आने वाले उतार-चढ़ाव को प्रत्येक सप्ताह गुरुवार के दिन दर्षाया जाता है, जिसका प्रभाव मुद्रार्स्फीति दर और शेयर बाजार दोनों पर पड़ता है।
लिहाजा थोक मूल्य सूचकांक का महत्व सरकार एवं भारतीय रिजर्व बैंक के लिए होना लाजिमी है। यहाँ विडम्बना यह है कि यह सूचकांक कभी भी महंगाई की वास्तविक तस्वीर जनता को बताने में सफल नहीं रहा है।
वस्तुओं की थोक भाव की कीमत और खुदरा भाव की कीमत में जमीन-आसमान का अंतर रहता है। आजादपुर सब्जी मंडी में जो भिंडी 20 रुपये किलो बिकती है वह दिल्ली के विभिन्न हिस्सों में रहने वाले ग्राहकों तक पहुँचते-पहुँचते 50-60 रुपये किलो तक पहुँच जाती है। यही हाल गेहूँ और चावल से लेकर हर खाद्य पदार्थ का है। दूसरी वस्तुओं की भी यही कहानी है। स्पष्ट है खुदरा स्तर पर आए कीमतों में इस तरह के उछाल को थोक मूल्य सूचकांक कभी भी माप नहीं पाता है।
लब्बोलुबाव के रुप में कह सकते हैं कि गलत आंकड़ों से हम जिस तरह की तस्वीर बनाना चाहते हैं वह स्वभाविक रुप से कभी भी हकीकत बयां नहीं कर सकती है। कहने का तात्पर्य यह है कि गलत आंकड़ों से भारतीय रिजर्व बैंक की मौद्रिक नीति भी गलत होगी और शेयर बाजार की हलचलों में भी हमेशा कृत्रिमता का मुल्लमा चस्पां रहेगा। साथ ही हम बेवजह मुद्रार्स्फीति के असंतुलन को लेकर विधवा विलाप करते रहेंगे।
अगर ‘देर आयद दुरस्त आयद’ वाली कहावत को प्रासंगिक माना जाए तो महंगाई मापने वाले नये मीटर यानि खुदरा मूल्य सूचकांक का हमें तहेदिल से स्वागत करना चाहिए। इस मीटर के आने के बाद यह उम्मीद की जा सकती है कि महंगाई की सही तस्वीर से कुछ हद तक हम जरुर रुबरु हो सकेंगे।
ध्यातव्य है कि विश्व के अन्य देषों के केन्द्रीय बैंक अपनी मौद्रिक नीति तैयार करने के लिए पहले से ही खुदरा मूल्य सूचकांक का सहारा ले रहे हैं। भारत की प्रख्यात रेटिंग एजेंसी क्रिसिल के वरिष्ठ आर्थिक विष्लेशक डॉ डी के जोशी का मानना है कि ‘भारत में महंगाई के समग्र पैमाने की कमी थी।
नया महंगाई मीटर उपभोक्ता मूल्य सूचकांक की कमी को पूरा करेगा और यह महंगाई का सही मापक बन सकेगा, क्योंकि नये महंगाई मीटर से खुदरा स्तर पर वस्तओं की खरीद-बिक्री के दरम्यान होने वाले उतार-चढ़ाव को मापा जाएगा’।
उल्लेखनीय है कि थोक मूल्य सूचकांक से जिन वस्तुओं की महंगाई मापी जाती थी, उसका भारतीय अर्थव्यवस्था में योगदान महज 45 फीसद है। जबकि खुदरा मूल्य सूचकांक का दायरा काफी व्यापक है। सेवा क्षेत्र को भी इसके दायरे में लाया गया है।
पुन: घ्यान देने वाली बात यह है कि इस सूचकांक के अंतर्गत महंगाई की दर को मापने के लिए तैयारी मासिक आधार पर होगी आर्थात फरवरी, 2011 से खुदरा स्तर पर वस्तुओं की कीमतों में होने वाली बढ़ोत्तारी को हर माह जोड़कर वार्षिक आधार पर महंगाई की दर जनवरी, 2012 में निकाली जाएगी। इस दृष्टिकोण से इस सूचकांक को अमलीजामा पहनाने में अभी एक साल की देरी है।
जानकारों का मानना है कि इस सूचकांक से महंगाई की वास्तविक तस्वीर उभर कर हमारे समक्ष आयेगी। जिससे भारतीय रिजर्व बैंक व सरकार को सही मौद्रिक नीति अपनाने तथा महंगाई को रोकने के लिए अन्यान्य नीतिगत कदम उठाने में सकारात्मक मदद मिलेगी।
सांख्यिकी तथा योजना कार्यान्वयन मंत्रालय के अनुसार नए सूचकांक के तहत महंगाई की दर मापने के लिए ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों के हिसाब से अलग-अलग मानक निर्धारित किए गए हैं।
इसी के बरक्स में 18 फरवरी को सरकार द्वारा जारी अधिसूचना में बताया गया है कि खुदरा मूल्य सूचकांक का आधार 100 रहेगा और जनवरी, 2011 के लिए महंगाई की दर का निर्धारण 106 किया गया है। इसका मतलब यह है कि जनवरी, 2011 में महंगाई की दर मात्र 6 फीसद थी। यह निष्चित रुप से चौंकने वाला आंकड़ा है।
सभी जानते हैं कि पिछले महीनों में महंगाई का पारा आसमान को छूता रहा है और जनवरी माह में भी महंगाई डायन के बाणों से सभी बदहवास रहे हैं। अस्तु सरकार द्वारा जारी इस आंकड़े को पूर्णरुप से भ्रामक एवं अतार्किक कह सकते हैं।
स्पष्ट है इस गलतबयानी से खुदरा मूल्य सूचकांक की विश्वसनीयता हमेशा के लिए संदेह के घेरे में आ गई है। बावजूद इसके हम आशा कर सकते हैं कि जनवरी, 2012 तक आंकड़ों की इस बाजीगिरी में काफी हद तक कमी आयेगी और हम महंगाई के वास्तविक चित्र से अवगत हो पायेंगे।
हमारा देश जहां महारानी लक्ष्मीबाई, महाराणा प्रताप, टीपू सुल्तान, भगतसिंह तथा चंद्रशेखर आज़ाद व इन जैसे हज़ारों देश भक्त सूरमाओं का देश कहा जाता है वहीं जयचंद और मीर जाफर जैसे ग़द्दार भी हमारे देश की देन थे। यह देश का दुर्भाग्य ही है कि समय के आगे बढऩे के साथ-साथ सच्चे देश भक्त जांबाज़ तो इतिहास के पन्नों तक में सिमट कर रह गए जबकि दूसरी ओर देश की राजनीति पर चारों ओर राष्ट्र विरोधियों लुटेरों, असमाजिक तत्वों तथा स्वार्थी व सत्ता लोलुप प्रवृति के लोगों का वर्चस्व हो गया। परिणामस्वरूप इन तथाकथित जिम्मेदार सत्ताधीशों ने देश को दोनों हाथों से लूटने के लिए भ्रष्टाचार का ऐसा खुला खेल खेलना शुरू कर दिया कि इन्हें अपने काले धन को छुपाने के लिए दूसरे पश्चिमी देशों के उन बैंकों का सहारा लेना पड़ा जो उच्च कोटि की गोपनीयता बरतने में विश्व विख्यात हैं। आज यह अंदाज़ा लगाया जा रहा है कि हमारे देश के उन तथाकथित जिम्मेदार नेताओं,अधिकारियों तथा अन्य तमाम अति विशिष्ट समझे जाने वाले हज़ारों लोगों की अकूत धन संपत्ति उन विदेशी बैंकों में सुरक्षित है।
पिछले दिनों अमेरिका में आई भारी मंदी तथा आर्थिक संकट के बाद अमेरिका ने भी इस बात की ज़रूरत महसूस की कि उच्च स्तरीय गोपनीयता बरतने वाले ऐसे कई देशों के बैंकों से उन अमेरिकी खातेदारों का भी हिसाब-किताब मांगा जाए जो अपना काला धन इन बैंकों में जमा करते हैं। उसी समय से भारत में भी ऐसी ही आवाज़ ज़ोर पकड़ती गई। अब उसी काले धन की वापसी के लिए भारत में इतने अधिक लोग अपनी आवाज़ बुलंद कर रहे हैं गोया सबके सब ईमानदार हों तथा यह जानते ही न हों कि काला धन किसे कहते हैं और प्रत्येक व्यक्ति अपने आप को साफ-सुथरा तथा हक व हलाल की कमाई करने वाला भारतीय प्रदर्शित करना चाह रहा है। इस शोर शराबे में मज़े की बात तो यह नज़र आ रही है कि सत्तारूढ़ यूपीए सरकार विशेष कर कांग्रेस के जिम्मेदार नेताओं को काला धन वापसी के इन हिमायतियों द्वारा इस प्रकार कठघरे में खड़ा किया जा रहा है गोया कांगेस या यूपीए ही काला धन विदेशों में जमा करने की सबसे बड़ी दोषी हैं। और तो और काला धन का यह मुद्दा बाबा राम देव जैसे योग सिखाने वाले योग गुरूओं के लिए भी राजनीति में प्रवेश करने का एक मुख्य द्वार सा बन गया है। स्वाभिमान ट्रस्ट के नाम से बनाए गए अपने संगठन के बैनर तले रामदेव पहले तो आम लोगों को बीमारी से मुक्ति दिलाने हेतु योगाभ्यास कराने की बात कहकर सुबह सवेरे चार या पांच बजे अपने निर्धारित शिविर में आमंत्रित करते हैं। उसके पश्चात योग सिखाने के दौरान या उसके बाद वे जनता से राजनैतिक मुद्दों को लेकर रूबरू हो जाते हैं। जनता व उनके मध्य संवाद का इस समय सबसे बड़ा मुद्दा विदेशों से काला धन मंगाना तथा राजनीति में भ्रष्टाचार ही खासतौर पर होता है।
धार्मिक चोला पहन कर या स्वयं को धर्मगुरू बताने के बाद राजनीति में प्रवेश करने का हमारे देश में कोई अच्छा परिणाम पहले नहीं देखा गया है। जय गुरूदेव तथा करपात्री जी भी हमारे देश में ऐसे धर्मगुरूओं के नाम हैं जिन्होंने राजनीति में क़दम रखकर कमाया तो कुछ नहीं हां गंवाया बहुत कुछ ज़रूर है। ऐसे में बाबा रामदेव उक्त धर्म गुरूओं से सबक लेना चाहेंगे या उनमें इनसे कहीं अधिक आत्म विश्वास भर चुका है यह तो उन्हीं को पता होगा। बहरहाल राजनीति में उनके पदार्पण की घोषणा के साथ ही उनकी फज़ीहत व आलोचना का दौर भी शुरू हो गया है। पिछले दिनों अरुणाचल प्रदेश में एक शिविर के दौरान उन्हें एक कांग्रेस सांसद ने ब्लडी इंडियन कह दिया। यह रामदेव का सार्वजनिक आरोप था । जबकि सांसद ने इस आरोप से इंकार किया है। सोनिया गांधी को भी यूरोप व इटली निवासी बताकर रामदेव उन पर विदेशी होने जैसा खुला हमला बोल रहे हैं। जगह-जगह योग शिविर में पहुंचने वाले लाभार्थियों की भारी संख्या देखकर बाबा जी कभी तो इतना गद गद हो जाते हैं कि उनके समझ में शायद यह भी नहीं आता कि वे जो कुछ भी बोल रहे हैं वह शिष्टाचार की परिधि में आता भी है या नहीं। जैसे गत् दिनों बिहार के बेतिया जि़ले के एक शिविर में बाबा रामदेव ने बड़े अहंकारपूर्ण ढंग से यह कहा कि राष्ट्रपति व प्रधानमंत्री तो मेरे चरणों में आकर बैठते हैं तो आखिर मैं क्यों प्रधानमंत्री बनना चाहूंगा। देश के लोगों ने तो कभी भी प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति को बाबा रामदेव के चरणों में बैठे नहीं देखा। परंतु बाबा जी ने अपनी शान स्वयं बढ़ाने के लिए ऐसा कहने में ज़रूर कोई हिचक महसूस नहीं की।
बहरहाल अब रामदेव व कांग्रेस पार्टी के एक सेनापति दिग्विजय सिंह उनसे दो-दो हाथ करने के लिए आमने-सामने आ चुके हैं। काले धन पर शोरशराबा करने वाले बाबा जी पर आक्रमण बोलते हुए दिग्विजय सिंह ने उनसे यह पूछा है कि आप भी इस बात का हिसाब दें कि आपके पास बारह वर्ष पूर्व तो महज़ एक साईकल हुआ करती थी आज आप एक हवाई जहाज़ सहित हज़ारों करोड़ रुपये की संपत्ति के मालिक कैसे बन गए? इसके जवाब में बाबा जी ने वही कहा जो आमतौर पर सवालों के घेरे में आने के बाद दूसरे तमाम लोग कहा करते हैं। यानि यह पैसा मेरे अपने नाम पर नहीं बल्कि अमुक ट्रस्ट, संगठन, संस्था या संस्थान के नाम है। परंतु दिग्विजय सिंह की एक बात में ज़रूर पूरा दम नज़र आया कि बाबा जी को अपने भक्तों द्वारा दान में दी जाने वाली राशि को लेकर यह सुनिश्चित कर लेना चाहिए कि वह रकम कहीं भ्रष्टाचार का पैसा या काला धन तो नहीं है। आमतौर पर देखा भी यही जाता है कि बाबा रामदेव जहां भी जाते हैं वहां का अधिकांशत: व्यापारी वर्ग ही उनके कार्यक्रम तथा स्वागत आदि का जि़ मा संभालता है। अब यहां यह कहने की ज़रूरत नहीं कि इन स्वागतकर्ता व्यवसायियों में कितने लोग ऐसे होते हैं जो दाल में नमक के बराबर मुनाफा कमा कर अपना व्यवसाय चलाते हैं तथा सभी सरकारी कर नियमित रूप से ठीक प्रकार से देते हैं। । बाबा रामदेव से ही जुड़ी दिव्य फार्मेसी नामक वह संस्था भी है जो बाबा जी का अपना आयुर्वेदिक उद्योग है। यहां भी जो दवाईयां मिलती हैं उनका मूल्य बाज़ार में आमतौर पर मिलने वाली दवाईयों से कहीं अधिक मंहगा होता है। इनके तो योग शिविर में प्रवेश करने तथा आगे-पीछे बैठने के भी अलग-अलग शुल्क निर्धारित किए जाते हैं। बताया जा रहा है कि इसी प्रकार रामदेव ने विदेशों में भी अपनी तमाम संपत्तियां बना ली हैं यहां तक कि कथित रूप से एक छोटा समुद्री द्वीप तक बाबा जी ने खरीद लिया है।
कांग्रेस बनाम बाबा रामदेव के मध्य काला धन मुद्दे को लेकर छिड़ी इस जंग में बंगारू लक्ष्मण, दिलीप सिंह जूदेव, येदूरप्पा जैसे नेताओं की पार्टी अर्थात् भारतीय जनता पार्टी रामदेव के पक्ष में उतर आई है। रामदेव अपने शिविर में 5-6 फीट के एक गद्दे पर बैठे एक-एक व्यक्ति की भीड़ को देखकर गदगद् हो उठते हैं तथा उन्हें शायद यह महसूस होने लगता है कि सभवत: सारा देश ही उनका अनुयायी बन चुका है। इसी तरह भाजपा भी इसी गलतफहमी की शिकार है कि वह रामदेव का साथ देकर उनके अनुयाईयों को समय आने पर अपने पक्ष में आसानी से हाईजैक कर लेगी। परंतु ज़मीनी हकीकत तो कुछ और ही है। भले ही स्वाब्जिमान ट्रस्ट,दिव्य फार्मेसी या पतंजलि योग पीठ जैसे संस्थानों के सक्रिय कार्यकर्ता व पदाधिकारीगण जगह-जगह उनके साथ क्यों न जुड़ रहे हों परंतु भीड़ के रूप में दिखाई देने वाले यह लोग दरअसल किसी योग शिविर में अपने इलाज व स्वास्थ्य लाभ के लिए ही जाते हैं न कि किसी प्रकार की राजनैतिक विचारधारा में बंधने की गरज़ से। वैसे भी जिस उम्र के लोग रामदेव के शिविर में आते हैं उस उम्र में आम लोगों की राजनैतिक सोच व दिशा पूरी तरह परिपक्व होती है तथा काला धन या भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों से को लेकर उन्हें अपने वैचारिक मार्ग से डगमगाया नहीं जा सकता। इन सब के बावजूद भी यदि बाबा रामदेव राजनीति में प्रवेश करना चाह रहे हैं तथा उनका मकसद वास्तव में विदेशों में जमा काला धन की वापसी तथा भ्रष्टाचार पर लगाम लगाना है तो वास्तव में उनका स्वागत किया जाना चाहिए। परंतु इसके लिए रामदेव को अपने आसपास के लोगों, सलाहकारों, समर्थकों तथा पदाधिकारियों की भी स्पष्ट व निष्पक्ष स्कैनिंग करनी चाहिए कि कहीं उनके भक्तजनों में भी ऐसे लोग तो शामिल नहीं जो कि भ्रष्टाचार तथा काले धन के संग्रह को ही अपने जीवन की सबसे बड़ी सफलता मानते हों।
लीबिया के नेता म्यूमार गद्दाफी का कल रात टीवी प्रसारण देखा। गद्दाफी साहब फासिस्टों की हिंसक भाषा में बोल रहे थे। यह भाषण जब चल रहा था तो उनके सामने जनता नहीं थी। इसका अर्थ यह है कि यह भाषण पहले रिकॉर्ड कर लिया गया था। गद्दाफी ने 75 मिनट भाषण दिया और समूचे भाषण में कहीं पर भी सभ्य भाषा का नामोनिशान नहीं था। एक राष्ट्राध्यक्ष की भाषा आज के जमाने में इस कदर हिंसक हो सकती है यह मैंने पहलीबार देखा है।
गद्दाफी के भाषण की हिटलर की हिंसक भाषा से तुलना की जा सकती है। गद्दाफी ने अपना भाषण पुराने निवासस्थान के विध्वस्त भवन के सामने खड़े होकर दिया,यह भवन त्रिपोली में है और 1980 तक गद्दाफी साहब वहीं रहते थे। उनके इसी निवासस्थान पर 1980 में अमेरिकी बमबर्षक विमानों ने हमला किया था जिसमें यह भवन पूरी तरह ध्वस्त हो गया था और गद्दाफी साहब बच गए थे।
गद्दाफी का रहना था “मैं लड़ाकू क्रांतिकारी हूँ और अंत तक लडूँगा और शहीद होना पसंद करूँगा।” उन्होंने सत्ता त्यागने से साफ इंकार कर दिया। गद्दाफी ने अपने समर्थकों से घरों से निकलने और सड़कों पर विरोधियों से संघर्ष करने की अपील की। गद्दाफी ने अपने भाषण में जनता को धमकी दी है कि यदि वो सही रास्ते पर नहीं आई तो उसके साथ बर्बर बर्ताब किया जाएगा। इस संदर्भ में उन्होंने कुछ उदाहरण भी दिए ,जैसे उन्होंने सन् 1989 में चीन के तियेनमैन चौक के जनसंहार का समर्थन में उदाहरण दिया। इराक में अमेरिकी सेना ने फलूजा पर किस तरह बमबारी करके तबाही मचायी ,उसका जिक्र किया,गद्दाफी ने अपने समर्थकों का आह्वान किया कि वे घर -घर जाएं और विरोधियों को निकालकर दंडित करें। उल्लेखनीय है जिस समय गद्दाफी का भाषण दिखाया जा रहा था उस समय उनके समर्थन में मुट्ठीभर पुलिस वाले और अन्य लोग नारे लगा रहे थे। गद्दाफी अपने भाषण में वस्तुतःआम जनता को धमका रहे थे। एक तरफ उन्होंने धमकी दी कि उनके समर्थक सड़कों पर निकलेंगे और विरोधियों को सबक सिखाएंगे,दूसरी ओर आदिवासी प्रशासन संचालकों के जरिए सारे देश में शुद्धीकरण अभियान चलाया जाएगा।
कर्नल गद्दाफी जिस समय भाषण दे रहे थे और सारी दुनिया को यह आभास दे रहे थे कि उनका प्रशासन एकजुट है तो वहीं दूसरी ओर उनके प्रशासन के गृहमंत्री ने 17 फरवरी आंदोलन के समर्थन में इस्तीफा दे दिया और सेना से अपील की है कि वह जनांदोलन का समर्थन करे। अरबलीग के प्रधान और अमेरिका में लीबिया के राजदूत ने भी इस्तीफा देने की घोषणा की।
हाल के वर्षों में जुलूस पर हवाई हमले, हवाई गोलीबारी कहीं नहीं देखी गयी है लेकिन गद्दाफी प्रशासन ने 17 फरवरी को जनता के शांतिपूर्ण जुलूस पर राजधानी त्रिपोली में हवाई फायरिंग करवाई जिसमें 300 से ज्यादा लोग मारे गए हैं। भारत में लीबिया के राजदूत ,जिन्होंने इस्तीफा दे दिया है, उन्होंने अलजजीरा को बताया कि 17 फरवरी के जुलूस पर हवाई फायरिंग की गई है। अंतर्राष्ट्रीय नियमों के अनुसार यह मानवता विरोधी जघन्य कार्रवाई है और इसे जनसंहार कहते हैं।
उल्लेखनीय है गद्दाफी ने अपने देश में विरोधियों से निबटने के लिए बड़े पैमाने पर भाड़े के सैनिक अल्जीरिया और दूसरे देशों से आयात किए हैं जिनका काम है जनता पर हमले करना । गद्दाफी ने अपने समर्थकों से सड़कों पर निकलकर विरोधियों को मुँहतोड़ जबाब देने की भी अपील की है। इसके अलावा आंदोलनकारियों के खिलाफ वायुसेना के बमबर्षक जहाजों,टैंक और दूसरे युद्दास्त्रों का प्रयोग करने का भी संकेत दिया है।
लीबिया के दूसरे सबसे बड़े शहर बेनगाजी में स्थिति यह है कि इस शहर पर विरोधियों का नियंत्रण है और इस शहर में तैनात सेना ने सरकार का साथ छोड़कर विरोधियों के आंदोलन में शामिल होने का फैसला किया है। इससे गद्दाफी की मुश्किलें और बढ़ गयी हैं। जिस समय गद्दाफी भाषण दे रहे थे ठीक उसी समय अरब लीग के मुखिया अमर मूसा ने सुरक्षा परिषद में अपने को लीबिया के प्रतिनिधिमंडल से उस समय अलग कर लिया जब सारी संस्थाओं के मुखियाओं की मीटिंग बुलाई गयी थी। सुरक्षा परिषद ने इस मौके पर जो बयान जारी किया है उसमें लीबिया प्रशासन की निंदा की गई है। बयान में कहा गया है कि “The members of the Security Council expressed grave concern at the situation in Libya. They condemned the violence and use of force against civilians, deplored the repression against peaceful demonstrators, and expressed deep regret at the deaths of hundreds of civilians.” ।
दूसरी ओर क्यूबा के नेता फिदेल कास्त्रो ने कहा है कि लीबिया में बिगड़ी हुई परिस्थितियों का बहाना बनाकर नाटो के हस्तक्षेप के लिए वातावरण बनाया जा रहा है। निकारागुआ के राष्ट्रपति डेनियल ऑर्तेगा ने गद्दाफी के प्रति अपना समर्थन व्यक्त किया है। वेनेजुएला के राष्ट्रपति हूगो चावेज अभी चुप बैठे हैं। पेरू ने अपने राजनयिक संबंधों को स्थगित कर दिया है। बोलविया सरकार ने गद्दाफी प्रशासन की निरीह जनता पर गोलीबारी की निंदा की है।
पेरिस स्थित अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार संगठन के अनुसार विरोधियों का सिर्ती,तॉबरूक,मिसोरटा,खोम्स, तारहुनाह,जेनटिन,जाबिया ,जौरा और बेनगाजी पर नियंत्रण है। इसके अलावा लीबिया के प्रमुख आदिवासी समूह ने गद्दाफी का साथ छोड़ दिया है। उल्लेखनीय है लीबिया के प्रमुख आदिवासी समूह का विगत 40 साल से गद्दाफी को समर्थन मिलता रहा है। और वे उनके समर्थन से ही टिके रहे हैं। लीबिया की प्रमुख सैन्य टुकड़ी इसी आदिवासी समूह के सैनिकों की है।
दूसरी ओर गद्दाफी के फैसलों का विरोध करे हुए और जनांदोलन का समर्थन करते हुए अनेक राजनयिकों ने इस्तीफे दे दिए हैं। लीबिया के मजदूर भी संघर्ष में कूद पड़े हैं और उन्होंने लीबिया के सबसे बड़े तेल उत्पादन केन्द्र नफूरा में कामकाज ठप्प कर दिया है।
अब तक लीबिया के एक दर्जन से ज्यादा राजनयिक इस्तीफा दे चुके हैं। इनमें प्रमुख हैं गृहमंत्री,अरबलीग के प्रधान,इसके अलावा भारत,अमेरिका,चीन,इंण्डोनेशिया, मलेशिया, पोलैण्ड ,बंगलादेश, और आस्ट्रेलिया के राजदूतों ने भी जनांदोलन के समर्थन में इस्तीफा दे दिया है। दूसरी ओर विकसित पूंजीवादी देश अपने आर्थिक हितों की,खासकर तेलहितों की रक्षा के लिए अति सक्रिय हो उठे हैं और लीबिया की ओर अमेरिकी नौसैनिक बेड़ा,जर्मनी,इटली और नीदरलैण्ड के नौ सेना जहाज प्रस्थान कर चुके हैं। लीबिया के तेल उत्पादन केन्द्रों पर जो विदेशी कर्मचारी,इंजीनियर आदि काम कर रहे हैं उन्हें तुरंत बाहर निकालने के प्रयास किए जा रहे हैं ,क्योंकि लीबिया में जो हालात बन गए हैं उसमें गृहयुद्ध के छिड़जाने की संभावनाएं बढ़ गयी हैं। लीबिया की इतनी विस्फोटक परिस्थितियों के बाबजूद अमेरिका राष्ट्रपति बराक ओबामा और विदेश सचिव हिलेरी क्लिंटन का अभी तक कोई बयान तक नहीं आया है।
हमारे देश की सबसे बड़ी समस्या भ्रष्टाचार और मंहगाई है परन्तु इसके समाधान हेतु व्यवस्था परिवर्तन के जंग का आगाज़ करना होगा . दुःख की बात यह है कि इस क्रांति के लिए जनचेतना का अभाव है. सोनिया गाँधी ने भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने के लिए बड़े- बड़े वायदे किए, परन्तु वे वायदे इतने खोखले हैं कि न केवल केन्द्रीय नेता भ्रष्ट हैं बल्कि कांग्रेस शासित राज्यों के मुख्यमंत्री भी जमकर पैसा बनाने में लगे हैं. पिछले कुछ दिनों में केंद्र व राज्य सरकारों द्वारा किए गए करोड़ों रूपए घोटाले का भंडाफोड़ हुआ है. देश कि जनता मंहगाई और गरीबी से कराह रही है , लेकिन नेता करोड़ों हड़पकर मजे लूट रहे हैं .पूर्वोत्तर में 58 हजार करोड़ का घोटाला ,76 हजार करोड़ का टू जी स्पेक्ट्रम घोटाला, 70 हजार करोड़ का कॉमनवेल्थ गेम घोटाला ,आदर्श सोसाईटी घोटाला , जल विद्युत घोटाला , अनाज घोटाला ,भ्रष्ट सीवीसी अधिकारी नियुक्ति और विदेशों में जमा अरबों रूपए का कालाधन आदि के खिलाफ आम आदमी काफी चिंतित है, जो अब आन्दोलन करना चाहता है. राजधानी सहित देश के करीब 62 शहरों में छात्रों -युवाओं -महिलाओं ने लाखों कि संख्या में प्रदर्शन कर केंद्र सरकार से भ्रष्टाचार के मामलों से निपटने के लिए जनलोकपाल बिल लागू करने तथा सभी राज्यों में जन लोकायुक्त बिल लागू करने की मांग की है. धीरे -धीरे यह आन्दोलन एक वृहद आकार लेने जा रहा है.
भ्रष्टाचार एक अभिशाप है. भ्रष्टाचार के कारण सरकार द्वारा आम आदमी के लिए बनाई गयी किसी भी योजना का प्रतिपादन नहीं हो सकता. यह दीमक कि तरह पूरे तंत्र को खोखला करता चला जा रहा है. यूपीए सरकार के घोटाले कि लम्बी सूची और बढ़ती मंहगाई से राजधानी ही नहीं सम्पूर्ण देश की जनता त्राहि- त्राहि कर रही है. राष्ट्रमंडल खेलों में हुए घोटालों में पर्यटन एवं शहरी विकास मंत्रालय और दिल्ली सरकार को बचाने का प्रयास करते हुए प्रधानमंत्री कार्यालय की ओर से सीधे हस्तक्षेप किया जा रहा है. केंद्रीय सतर्कता आयोग इन घोटालों की जांच सीबीआई से करने की बात कर रहा है. अब मुख्य सतर्कता आयुक्त पी जे थॉमस भी इन भ्रष्टाचारियों की सूची में शामिल हो गए हैं. सुप्रीम कोर्ट के शिकंजा कसने के बाद प्रशासन के घोटालों की पोल खुल गयी है. सीबीआई की ओर से पूर्व संचार मंत्री ए .राजा की गिरफ्तारी और उसके भ्रष्ट साथियों की चार्जशीट अदालत में पेश होने तथा कलमाड़ी के हर्ष से केंद्र सरकार की भ्रष्ट नीतियों का खुलासा हो गया है .लोगों के मनः मस्तिष्क में गूँज रहा है –
” डगर- डगर और नगर- नगर जन -जन की यही पुकार है! बचो- बचो रे मेरे भैया इस सरकार में केवल भ्रष्टाचार है! “
महंगाई चरम सीमा पर है. लोगों का घरेलू बजट बिगड़ गया है . तेल कंपनिया सरकार की मिलीभगत से हर दूसरे दिन पेट्रोल- डीजल- गैस के दामों में बढोतरी कर रही है , जिससे जनता आक्रोशित है. तेल माफिया का गुंडाराज इतना बढ़ गया है की वे कलेक्टर तक की हत्या करने से नहीं चूक रहे हैं. ऐसी स्थिति में आम आदमी के जान -माल की सुरक्षा भगवान भरोसे ही है. आरटीआई के माध्यम से आरटीआई कार्यकर्तागण भष्टाचार के विभिन्न मामलों को परत दर परत करके उजागर कर रहे हैं . भष्टाचारी लोग अब आरटीआई कार्यकर्ताओं पर हमले ही नहीं बल्कि उनकी हत्या भी करवा रहे हैं. सरकार आरटीआई दाखिल करने वालों को सुरक्षा देने की बात कह रही है ,लेकिन उनकी हत्याओं का सिलसिला जारी है. जनता के पैसे खाकर मंत्री मोटे हो रहे हैं और आम आदमी इस मंहगाई में दुबला होता जा रहा है. मंहगाई के मुद्दे पर केंद्र सरकार के एक मंत्री कहते है कि “मेरे पास मंहगाई खत्म करने हेतु अलादीन का चिराग नहीं” तो दूसरे मंत्री कहते है की “मैं कोई ज्योतिषी नहीं हूँ” , तो तीसरे मंत्री कहते हैं कि मैं इसके लिए जिम्मेवार नहीं”. दूसरी तरफ यूपीए सरकार कहती है कि मेरा प्रधानमंत्री ईमानदार है और कहीं से दोषी नहीं .स्वाभाविक है शक की ऊँगली प्रधानमंत्री को नियंत्रित करने वाली शक्ति के उपर उठ रही है. आज आम आदमी सोचने के लिए विवश है कि कौन है दोषी ? आम धारणा बन चुकी है की जांच का आदेश हो जाता है फिर गिरफ़्तारी का नाटक होता है . गिरफ्तार होने के बाद , उन्हें फाइव स्टार होटल की सुविधा दी जाती है और तुरंत उन्हें जमानत मिल जाती है .जादा विचार कीजिए देश में अब तक बड़े- बड़े सैकड़ों घोटाले हुए हैं ,परन्तु आज तक किसी दोषी नेता को फांसी की सजा क्यों नहीं हुई है ?घोटाले का पैसा जनता को वापस क्यों नहीं मिलता?क्यों नहीं इसके लिए मजबूत एवं कठोर दंड और कड़े नियम बनाए जाते हैं ? भ्रष्टाचार के मामलों की सुनवाई हेतु विशेष न्यायालय तथा त्वरित कारवाई क्यों नहीं होती है?
जहाँ एक ओर देश की 70 % जनता गरीबी रेखा के नीचे जैसे -तैसे अपनी जिन्दगी चला रही है , वहीं कुछ लोग ऐसे हैं जो देश को लूट कर सारा धन विदेश के बैंको में जमा कर देश को खोखला बना रहे हैं . कई देशों ने ऐसे काले धन जमा करने के लिए निजी बैंकिंग शुरू की ओर आज वे देश सिर्फ ऐसे ही लोगों के पैसे से फल फूल रहे हैं , ऐसे बैंक न तो जमाकर्ताओं के नाम बताते हैं और न ही उनकी जमा की गई राशि , लेकिन जब कुछ देशों का दबाब बढ़ा तो बैंकों ने नाम बताने की घोषणा की और उसने कुछ देशों को वहां के जमाकर्ताओं के नाम भी बताये हैं , लेकिन भारत की कमजोर नीतियों के कारण अब तक भारत को उन भष्ट लोगों के नाम नहीं मिल पाए है, जिनकी अकूत संपत्ति वहाँ जमा है. इससे यह भी पता चलता है की सरकार पर ऐसे लोगों का कितना दबाब है. ऐसे लोगों को बेपर्दा किया जाना चाहिए, जो देश को अंग्रेजों की तरह लूट रहे हैं . आश्चर्य की बात तो यह है की सरकार कालाधन को पूर्णरूपेण सरकारी कोष में जमा करने के बजाय उस पर टैक्स लगाने की बात कर रही है .
इस सरकार ने तो हमें अपने ही देश के भू-भाग कश्मीर में तिरंगा फहराने पर प्रतिबंध लगाया है . अब आप ही सोचिये आप स्वतंत्र है या परतंत्र? क्या करे पीड़ित जनता ? क्या है इस समस्या का समाधान ? आज यह प्रश्न हर भारतीय के दिल में उमड़ – घुमड़ रही है . क्या आपने अपने इसी हश्र को पाने के लिए यूपीए सरकार को वोट दिया था ? संकल्प लें कि स्वच्छ , पारदर्शी और भयमुक्त प्रशासन के लिए प्रतिबद्ध वैसी पार्टी को चुनेंगे, जो सुशासन और विकास के मूलमंत्र पर चल सके और अपने वायदों पर खड़ा उतर सके .
“आग बहुत है आम आदमी के दिल में शांत न समझना ,
ज्वालामुखी की तरह फटी यह आज कल में.”
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प्रसिद्ध युवा क्रांतिकारी कवि आशीष कंधवे ने उपरोक्त तथ्यों के समर्थन में भ्रष्टाचार और महंगाई पर “समय की समाधि” नामक अपनी प्रथम पुस्तक में कविता के माध्यम से अपनी पीड़ा व्यक्त की है-
“हिलोर दो /झकझोर दो /मरोड़ दो
सत्ता के जयचंदों को/ हर मोड़ से खदेर दो “
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पाँच फुट का आदमी ,
होकर गरीबी से विवश
भूख ,मजबूरी और समय की मार से
तीन फुट में गया सिमट
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करुण ह्रदय से
मैं कर रहा पुकार
लिए ह्रदय में वेदना अपार
आखिर कब तक
मानव
भूख से लाचार
शोषण और भ्रष्टाचार से लड़ता रहेगा
कब तक
मानव
मानव पर अत्याचार करता रहेगा ?
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ना हुआ कोई सपना साकार
कल भी था मुश्किल में
हूँ आज भी लाचार
क्या करूँ विचार?
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कितना कमाऊँ मैं
कहाँ से लाऊं मैं
तन को तपाऊं या मन को जलाऊँ मैं
मंहगी हुई बिजली
बड़ी हुई है फीस
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ये आजादी नहीं अनुबंध है
सत्ता के हस्तांतरण का प्रबंध है
अगर होती है आजादी ऐसी
अगर मिलते हैं अधिकार ऐसे
तो अच्छे थे हम परतंत्र
फिर हम क्यों हुए स्वतंत्र ?
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भ्रष्टाचारियों के कुचक्र से
दमन के चक्र से
दासता की पराकाष्ठा से
घोर अन्याय की राह से
पराधीनता के भाव से
राष्ट्र को अब छुड़ाना है
बेईमानों को भागना है .
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निरंकुश शासन
कोरे आश्वासन
चढ़कर प्राचीर
देते भाषण
वोट का तिलस्म
सत्ता पाने का
गणतंत्र बना ‘एटीएम’
जन का जनतंत्र से भरोसा गया है टूट
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हर तरफ क्यूँ फैली है
भूख ,भ्रष्टाचार और लूट
हे भारत के वीरों
कब जागोगे तुम
लोकतंत्र की है संध्या बेला
तम घनघोर घिरने से पहले
जागो तुम
जागो फिर एक बार
जागो फिर एक बार !
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बेनकाब चेहरा ही
सत्ता समर्थ है
मन शंकित
सशंकित है जन
शंका ही समाधान है
जिसके हाथ में होगी सत्ता
उसका अपना विधान है
क्या यही बचा लोकतंत्र का
आख़िरी निशान है ?
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राम कृष्ण की धरती पर
जब सहना पड़े गो हत्या का दंश
ख़त्म हो रहा हो जहाँ किसानों का वंश
आकंठ भ्रष्टाचार में जहाँ डूबा हो
सरकार का हर अंश
सत्ता की हर कुर्सी पे
जब कब्ज़ा कर बैठा हो कंस
देश को बना दिया इन नेताओं ने दुकान
सब कुछ बेचने को बैठे हैं तैयार
ज्यादातर पर लग रहा कोई न कोई आपराधिक केस
इन कंस रूपी नेताओं के हाथ में
कब तक सुरक्षित रहेगी
भारत की आजादी शेष ?
भारत की आजादी शेष ?
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उठों वीरों ,भूमिपुत्रों तुम्हें फिर से क्रांति लानी है
सो गया हो पौरुष जिस देश का
उसमें राष्ट्रभक्ति का अलख जगाना है
तोड़ दुश्मन के हौसले को
पांव टेल दबाना है
बहुत हो गया बहुत खो दिया
अब आतंकवाद को मिटाना है
अब और नहीं हम खोएंगे
बीज क्रांति का हम बोएंगे
कट शीश दुश्मन के रक्त से
भारत मान का रक्त धोएंगे
फिर क्रांति का बीज बोएंगे
फिर क्रांति का बीज बोएंगे .
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ना रामराज
ना कृष्णराज
यह यूपीए राज का काल है
भारत की जनता का देखो
हुआ बुरा क्या हाल है !
एक-एक कर बर्ष बीत गए
गणतंत्र के साठ साल
पीने को पानी न मिला
रोटी कपड़ा का हुआ बुरा हाल
ये लोकतंत्र ये प्रजातंत्र से
करते हम सवाल हैं
भारत की जनता का देखो
हुआ बुरा क्या हाल है !
समाजवाद के नाम पे
पूंजीवाद का है बोलबाला
खोल दी है सरकार ने
अमीरों के लिए हर ताला
ये जनतंत्र ये गणतंत्र से
करते हम सवाल हैं
भारत की जनता का देखो
हुआ बुरा क्या हाल है !
जो सभ्यता जो संस्कृति
जो भारत की पहचान थी
चाणक्य अशोक की नीतियां
जहाँ सत्ता की कमान थी
सबको मिले थे हक़ बराबर
सबको अधिकार सामान था
भारत के राजतन्त्र की
अपनी एक पहचान थी
ये राजतन्त्र ये परतंत्र से भी
हुआ बुरा क्या हाल है
इस लोकतंत्र इस प्रजातंत्र से
जनता का सीधा सवाल है
भ्रष्टाचार, आतंकवाद और मंहगाई
गणतंत्र के उपहार हैं
सालोंभर है इनकी तेजी
जनता में हाहाकार है
ये लूट तंत्र ये भूखतंत्र से
करते हम सवाल हैं
भारत की जनता का देखो
हुआ बुरा क्या हाल है !
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जिसे अपना राष्ट्र प्यारा हो
देशभक्ति की ज्वाला हो
प्रतिरोध करो अन्याय ना हो
हर मोड़ पर नारी असुरक्षित ना हो
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लालकिले के प्राचीर से हर साल
घोषित होता है आजादी का जश्न
सत्ता और शासन
देते हमें आश्वासन
गरीबों को मिलेगा सस्ता राशन
बुनियादी शिक्षा और गरीबों को भोजन
होगा भ्रष्टाचार का निष्कासन
समाज में अनुशासन
किसानों की कर्ज माफी का ऐलान
और सबको मिलेगा बिजली पानी और मकान
पर भारत की जनता कब समझेगी
झूठे वादे और कोरे आश्वासन
कब तक विजय बनाकर भेजती रहेगी
लोकसभा में एक नहीं ,दो नहीं, अनेक दु:शासन ?
अब आश्वासन देनेवालों को नहीं
आश्वासन लेनेवालों को बदलना होगा
भारत की जनता को
अपना दृष्टिकोण बदलना होगा .
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उपरोक्त रचनाएँ समस्याओं के साथ -साथ समाधान की और दृष्टि प्रदान करता है .
कवि आशीष कंधवे की पीड़ा को आत्मसात करते हुए आपका मन भी दो
उत्तर प्रदेश विधानसभा का बजट सत्र अपने निर्धारित समय से छह दिन पूर्व खत्म हो गया। सरकार ने सभी मामले इतनी तेजी में निपटाए मानों उसे किसी बात की बहुत जल्दी हो। छह दिन का काम मात्र 15 मिनट में पूरा करा कर विपक्ष को पटकनी देने में बसपा सरका कामयाब रही, इसके लिए बसपा के रणनीतिकारों को बधाई मिलनी चाहिए लेकिन इससे जो विधायी मर्यादाएं तार-तार हुईं इसकी ओर सरकार ने जरा भी ध्यान न देकर यह साबित कर दिया कि उसे विधायी मर्यादाओं से अधिक अपनी सरकार की सेहत की चिंता थी, सरकारी तानाशाही के खिलाफ विपक्ष ने धरना-प्रदर्शन करके विरोध जताया तो रात के अंधेरे में उसके जनप्रतिनिधियों को मार्शल के द्वारा पहले तो विधान सभा से जर्बदस्ती बाहर निकाल दिया गया और उसके बाद विधान भवन के बाहर खड़ी पुलिस ने लाठियां बरसा कर लोकतंत्र का गला घोटने की कोशिश की।इसे दुर्भाग्यपूर्ण ही कहा जाना चाहिए कि माया सरकार ने 96 विभागों का एक लाख सत्तासी हजार करोड़ से भी अधिक का बजट मात्र 15 मिनट में पारित करा दिया वह भी तब जबकि विपक्ष धरने पर बैठा था। उत्तर प्रदेश अस्थानीय स्वायत्त विधीय द्वितीय संसोधन विेधेयक 2011 को पारित कराने को लेकर चल रहे हंगामें के बीच विनियोग विधेयक पारित कराना लोकतांत्रिक ही नहीं सरकार की ‘सेहत’ के लिए भी घातक हो सकता है।विधान सभा के साठ साल के इतिहास में इतनी जल्दबाजी पहले कभी नहीं देखने को मिली जितनी जल्दबाजी बसपा सरकार ने दिखाई।बसपा की सरकार बहुमत वाली है तो इसका मतलब यह नहीं हो सकता है कि विपक्ष को बोलने या अपना पक्ष रखने का मौका ही नहीं मिले। समाजवादी पार्टी ने बसपा के इस कृत्य के खिलाफ सदन से लेकर सड़क तक हो हल्ला किया तो कांग्रेस और भाजपा विरोध के नाम पर औपचारिकता ही निभाते रहे। कांग्रेस विधानमंडल दल के नेता प्रमोद तिवारी से तो कांग्रेस हाईकमान ने यहां तक पूछ लिया कि उन्होंने बसपा की मनमानी के खिलाफ धरना खत्म करने में जल्दबाजी क्यों दिखाई।
माया सरकार द्वारा विधायी कार्य तेजी से निपटाने के बाद विधान सभा की कार्रवाई अपने निर्धारित समय से करीब हफ्ते भर पहले स्थगित करने के पीछे मुख्य वजह बसपा सरकार के तौर-तरीकों पर विपक्ष का विरोध करना था। सपा और अन्य राजनैतिक दलों के उत्तार प्रदेश नागर स्थानीय स्वायत्ता शासन विधि (द्वितीय संशोधन) विधेयक 2011 पर चर्चा कराए जाने को लेकर अड़े हुए थे और हंगामा कर रहे थे। इसीके चलते सत्ता पक्ष ने सदन की कार्यवाही समय से पूर्व अनिश्चितकाल के लिये स्थगित कर दी,जबकि विधानसभा सत्र एक मार्च तक चलना था। स्थानीय निकायों की चुनाव प्रक्रिया में बदलाव सम्बन्धी विधेयक पर चर्चा कराने की मांग को लेकर सपा सदस्यों ने जोरदार हंगामा किया और विधानसभा अध्यक्ष सुखदेव राजभर पर कागज के गोले फेंके तथा मार्शलों की टोपियां उतारकर फेंक दीं। इसके अलावा कुछ सदस्य सदन की कार्यवाही लिख रहे अधिकारियों की मेज पर भी चढ़ गए। इसी बीच, संसदीय कार्यमंत्री लालजी वर्मा ने सदन की नियमावली शिथिल करते हुए एक मार्च तक के लिये सदन की पूर्व निर्धारित समूची कार्यवाही को उसी समय(21 फरवरी को ही) लिये जाने का प्रस्ताव पेश किया, जिसे शोरगुल के बीच सदन में ध्वनिमत से स्वीकार कर लिया गया। प्रस्ताव स्वीकार होते ही संसदीय कार्यमंत्री वर्मा ने अध्यक्ष की अनुमति से एक-एक कर सारी मदें पारित करने के लिये प्रस्ताव पेश किये और हंगामे के बीच वित्ताीय वर्ष 2011-12 के सम्पूर्ण बजट प्रस्तावों एवं विनियोग विधेयक को पारित कर दिया गया। शोरशराबे, नारेबाजी और हंगामे के बीच भाजपा ने संशोधन प्रस्ताव पेश किया। लेकिन इसी बीच सारी कार्यवाही पूरी कर ली गई और ससंदीय कार्य मंत्री के प्रस्ताव पर मतदान करवाकर विधानसभा अध्यक्ष ने सदन की कार्यवाही अनिश्चितकाल के लिये स्थगित कर दी।
विधानसभा में हंगामे के बीच बजट एवं विनियोग विधेयक पारित किये जाने के ढंग और एक मार्च तक चलने वाले सत्र को 21 फरवरी को ही अनिश्चितकाल के लिये स्थगित किये जाने के विरोध में भाजपा विधानमंडल दल के उपनेता हुकुम सिंह के अलावा सपा और कांग्रेस के सदस्य भी सदन में आमरण अनशन पर बैठ गए। इससे पूर्व सदन की कार्यवाही शुरू होते ही सपा सदस्यों ने राज्य के नगर निगमों तथा निकायों के अध्यक्षों की चुनाव प्रक्रिया में बदलाव के लिये गत 14 फरवरी को सदन में पेश हुए विधेयक पर चर्चा कराने की मांग करते हुए हंगामा किया। इसके चलते प्रश्नकाल नहीं हो सका। प्रश्नकाल की शुरुआत होते ही सपा के अम्बिका चौधरी ने विधेयक पर नियम 311 (सदन की कार्यवाही रोककर चर्चा कराना) के तहत चर्चा कराने की मांग की। उन्होंने इस विधेयक को स्थानीय निकाय चुनावों में लोकतंत्र का खात्मा करने की कोशिश करार दिया। सपा के वरिष्ठ नेता आजम खां ने भी चौधरी की बात का समर्थन करते हुए कहा कि इस मुद्दे पर तुरंत चर्चा कराई जानी चाहिये। हालांकि, विधानसभा अध्यक्ष सुखदेव राजभर ने कहा कि वह शून्यकाल में इस मुद्दे को सुनने के लिये तैयार हैं, लेकिन सपा सदस्य मायावती सरकार के खिलाफ नारेबाजी करते हुए सदन के बीचों-बीच आ गए। बार-बार के आग्रह के बावजूद जब सपा सदस्य अपनी सीटों पर जाने को तैयार नहीं हुए तो राजभर ने सदन की कार्यवाही पहले अपराह्न 11 बजकर 40 मिनट तक के लिये और फिर अपराहन 12 बजकर 20 मिनट तक के लिये स्थगित कर दी, नतीजतन प्रश्नकाल नहीं हो सका।
गौरतलब है कि सरकार ने गत 14 फरवरी को विधानसभा में ‘उत्तार प्रदेश नागर स्थानीय स्वायत्ता शासन विधि :द्वितीय संशोधन: विधेयक-2011’ पेश किया था। इस विधेयक में अध्यक्ष का चुनाव जनता के बजाय नगर परिषद या नगर पंचायत के सदस्यों की ओर से और महापौर का चुनाव नगर निगम के सदस्यों की ओर से किये जाने का प्रस्ताव था। विधेयक में यह भी व्यवस्था थी कि अगर अध्यक्ष और महापौर सम्बन्धित निकाय के सदस्य नहीं है तो उन्हें पदेन सदस्य माना जाएगा। विपक्षी दल इस विधेयक का यह कहते हुए विरोध कर रहे थे कि इससे स्थानीय निकायों में निर्वाचित सदस्यों की खरीद-फरोख्त बढ़ेगी। साथ ही धनबलियों और बाहुबलियों को बढ़ावा मिलेगा,लेकिन किसी की एक नहीं सुनी गई और नगर निकाय विधेयक में बदलाव कर दिया गया। विरोध स्वरूप विधान सभा में धरने पर बैठे विपक्षी विधायकों में सबसे पहले सपा के रियाज अहमद और उसके बाद उदयराज को निकाला गया। सदन में पुलिस के प्रवेश पर उन्होंने कड़ा विरोध जताया तो पुलिस वाले बाहर चले गए ।बाहर निकाले गए विधायक भी लौट आए, लेकिन थोड़ी देर में ही पुलिस के जवान और मार्शल फिर अंदर आए और विधायकों को निकालना शुरू किया। कुछ विधायकों को जबरिया निकाला गया। बाकी सरकार विरोधी नारेबाजी करते हुए खुद निकल गए। विधानसभा से विधायकों इस तरीके से निकालने का वाक्या वर्षों बाद हुआ।
इससे पहले मान मनौव्वल के कई दौर चले। इसके बाद सायं साढ़े चार बजे भाजपा ने और फिर रात करीब दस बजे कांग्रेस ने अपना धरना समाप्त कर दिया। मगर सपा और रालोद के सदस्य डटे रहे ।सपा के कई सदस्य विरोध स्वरूप फर्श पर ही लेट भी गए। विधान परिषद में भी यही नजारा थ, जहां सपा के सदस्य विधानसभा में सरकार की मनमानी के खिलाफ धरने पर बैठे थे। उधर विधानभवन के बाहर मुख्य सड़क पर सपा कार्यकर्ता धरने पर बैठ गए। कई कार्यकर्ताओ ंने विधान भवन की गेट पर चढ़कर अंदर जाने की कोशिश भी की लेकिन पुलिस ने उन्हे लाठियों के बदल पर खदेड़ दिया। बाद में पुलिस ने फलैग मार्च भी किया। सपा कार्यकर्ताओं ने ऐलान किया कि वे राजभवन का घेराव करेंगे।भाजपा और कांग्रेस ने अपना धरना समाप्त कर दिया था लेकिन रालोद के विधायक सपा के साथ धरने पर जमे हुए थे। रालोद के जो पाँच विधायक आमरण अनशन पर बैठे थे उनमें से एक पूरन प्रकाश का स्वास्थ्य भी बिगड़ा और उनके इलाज के लिए डाक्टर भी आए। डाक्टरों ने उन्हें बाहर चलने की सलाह दी लेकिन वे नहीं माने।
इस पूरे घटनाक्रम ने विपक्षी दलों के उस एका के दावों की पोल भी खोल दी जिसका ऐलान सत्र शुरू होने से पहले किया गया था। निकाय चुनावों की व्यवस्था में बदलाव के लिए विधायक पर सरकार को घेरने की कोशिश में सपा ने सदन में बढ़त लेने की कोशिश की तो भाजपा की ओर से आरोप लगा कि सपा की बसपा से मिली-भगत है। नेता विपक्ष की भूमिका पर भी सवाल उठे। वहीं कांग्रेस ने भी आरोप लगाया कि विधेयक पर उनकी ओर से संशोधन था, लेकिन सपा ने जिस तरह मामले को हाईजैक किया उसने सरकार को मनमानी का मौका दे दिया।
विधानसभा में विपक्ष के सामजस्य न होने का लाभ माया सरकार ने उठाया। विपक्ष के बिखराव का फायदा उठाते हुए सरकार ने तेजी से समाान्य बजट सहित सारे कामकाज पूरे कर लिए और विपक्षी नेता हाथ मलते रहे गये।विपक्षी आपस में तब लड़ रहे थे जबकि वह इससे पूर्व अपनी एकता के बल पर राज्यपाल के अभिभाषण के मुद्दे पर बसपा सरकार की मुखिया को छुकाने में कामयाब रहे थे। विपक्षी कएता की चलते ही राज्यपाल के अभिभाषण के बाद उनके अभिभाषण पर रखे गये संशोधन प्रस्ताव पर नेता विरोधी दल के बोलते समय मुख्यमंत्री को सदन में मौजूद रहना पड़ा था,लेकिन इस एकजुटता से विपक्ष ने कोई सीख नहीं ली । सोमवार 21 फरवरी को निकाय चुनाव प्रक्रिया में बदलाव के लिए सदन में पेश उत्तर प्रदेश नागर स्थानीय स्वायत्ता शासन विधि संशोधन विशेषकर 2011 के विरोध के लिए विपक्षी दलों की अपनी ढपली अपना राग छेड़ते देखा गया। सपा इस मुद्दे को नियम 311 के तहत उठाने पर अड़ी थी जबकि भाजपा ने इस पर संशाधन दे रखा था। वो चाहती थी सदन नियमानुसार चले और उसकी पूरी बात आ जाए। दोनों दलों के बीच की छिड़ी इस जंग में कांग्रेस ओर रालोद भी अपनी मौजूदगी दर्ज करना चाहते थे। सदन में संख्या बल से मजबूत सपा इस मुद्दे को हाथ से फिसलने नहीं देना चाहती थी, नतीजतन उसने समूचे मामले में लीड लेने के लिए कार्यवाही न चलने देने की रणनीति अपनायी और पूरे समय उसकी कोशिश रही कि मामला ठंडा न पड़ने पाये और इसके लिए उसने न केवल धरना दिया बल्कि पीठ पर पहुंचने को कोशिश में सुरक्षागार्डों से धक्का मुक्की भी की।
उधर, सदन में विधानसभा अध्यक्ष सुखदेव राजभर को सपा के अंबिका चौधरी, मोहम्मद आजम खां और उदयराज यादव आदि ने उक्त संशोधन विधायेक के प्रावधानों को नियम 311 की सूचना जरिये चुनौती दी थी। अध्यक्ष महोदय, उसे कार्य स्थगन में स्वीकार कर चुके थे और उसे शून्य प्रहर में सुनने के लिए तैयार भी थे लेकिन सुर्खिया पाने की होड में जुटी सपा सारे नियमों को निलंबित कर इस विषय को पहले सुनने के लिए हंगामा काट रही थी। सपा की जिद्द में समूचा प्रश्न प्रहर हंगामें की भेट चढ़ गया। जब दोबारा कार्यवाही शुरू हुई तो कांग्रेस के प्रमोद तिवारी और भाजपा के ओमप्राकश सिंह व हुकुम सिंह इस कोशिश में जुट गये कि किसी तरह सदन व्यवस्थित हो सके। इसके लिए नेताओं ने यहां तक प्रस्ताव किया कि भले विधेयक पर संशोशन भाजपा की ओर से आया हो पर इसकी शुरूआत सपा करे और नेता विरोधी दल पहले अपनी बात रखे फिर भाजपा, कांग्रेस और राष्ट्रीय लोकदल अपनी बात रखेंगे। यह प्रस्ताव भी सपा को स्वीकार नहीं हुआ। नतीजतन संख्या बल पर सरकार विधेयक को पारित कराने में कामयाब हो गयी और विपक्ष ठगा सा रह गया। सदन स्थगित होने के दूसरे दिन 22 फरवरी को विरोध स्वरूप भाजपा ने काला दिवस मनाया तो सपा ने प्रदेशव्यापी प्रदर्शन किया।वहीं मुख्यमंत्री मायावती ने विपक्ष के विरोध को आधारहीन करार दिया।विभिन्न दलों के नेता इस मुद्दे पर भले ही जुदा-जुदा राय रखते हों लेकिन आम जनता को तो यही लगा कि उत्तर प्रदेश में एक बार लोकतंत्र लाचारतंत्र बन कर रह गया और इसके लिए किसी भी राजनैतिक दल को माफ नहीं किया जा सकता है। जनता जानती है कि आज जहां मायावती खड़ी हैं,बीते कल में वहां कई नेता खड़े दिख चुके हैं। किसी भी सरकार ने अपनी राजनैतिक रोटियां सेंकने के लिए शायद ही लोकतंत्र की मर्यादा का ख्याल रखा होगा।
रविवार की संध्या थी और उस दिन ठण्ड भी बहुत थी परन्तु हिंदी साहित्य के कुछ कवियों की रचनाओं ने ठन्डे मौसम में गर्माहट लाने में कोई कसर नहीं छोड़ी .२० फरवरी तो लन्दन के नेहरु सेंटर में संपन्न हुआ हिंदी समिति द्वारा आयोजित एक कविता सेमीनार जिसकी अध्यक्षता की साउथ एशियन सिनेमा के फाउनडर श्री ललित मोहन जोशी ने .
मंचीय कवियों में शामिल थे श्री सोहन राही (वरिष्ठ कवि ) ,डॉ पद्मेश गुप्त (अध्यक्ष यू के हिंदी समिति,संपादक पुरवाई ) ,दिव्या माथुर (उपाध्यक्ष यू के हिंदी समिति) और डॉ. गौतम सचदेव ( वरिष्ठ लेखक,कवि और पत्रकार).
सभा का आगाज़ सोहन राही जी ने अपनी शानदार रचनाओं से किया, जिनका परिचय देते हुए डॉ पद्मेश गुप्त ने कहा कि जिस लन्दन में गीत लिखना तो दूर गीत गुनगुनाने का भी समय नहीं है वहां राही जी जैसे शायर की कलम मोती लुटा रही है, जो लन्दन की सारी चमक दमक को फीका कर रही है.उन्होंने कहा कि राही जी ७० वर्ष के ऐसे जवान हैं जिनके नवीनतम अशरार आज भी अच्छे अच्छे नौजवानों के दिल में गूँज उठते हैं.
राही जी ने अपनी बेहतरीन ग़ज़ल और गीत अपने शानदार अंदाज में सुनाये जिससे महफ़िल में उनकी बयानगी के दौरान वाह वाह के स्वर गूंजते रहे .उन्होंने अपनी सुप्रसिद्ध रचना .
‘समंदर पार करके अब परिंदे घर नहीं आते
अगर वापस भी आते हैं तो लेकर पर नहीं आते’.
भी सुनाई और पूरी रचना के दौरान मुक़र्रर के स्वर गूंजते रहे.
राही जी के बाद दिव्या माथुर ने अपनी संवेदनशील रचनाओं का वाचन आरम्भ किया .जिसमें उन्होंने मेरी ख़ामोशी,धत्त ,तीन पीढियां आदि रचनाओं से श्रोताओं का मन मोह लिया .
दिव्या जी कि रचनाओं का परिचय देते हुए शिखा वार्ष्णेय ( स्वतंत्र पत्रकार ,लेखक ) ने कहा कि .- दिव्या माथुर की कविताएँ यथार्थ के धरातल पर लिखी हुयी हैं.सामजिक संरचना और उनमे व्याप्त कुरीतियों पर धारदार व्यंग उनकी रचना का एक महत्वपूर्ण भाव है .
दिव्या जी कि रचनाओं को एक ही वाक्य में समझाया जा सकता है ..और वह है ..गागर में सागर …बहुत थोड़े से शब्दों में गहरी और पूरी बात प्रभावी ढंग से कह देनी की अद्भुत क्षमता है उनकी लेखनी में…कहीं कहीं तो जैसे सिर्फ एक शब्द ही पूरी कहानी कह देता है .जैसे ..सुनामी सच .
तत्पश्चात पद्मेश जी का परिचय देते हुए डॉ श्री के के श्रीवास्तव (जो कि स्वं एक कवि होने के साथ साथ कृति यू के के अध्यक्ष हैं और बीबीसी में अपनी क्रिकेट कमेंट्री के लिए जाने जाते हैं ) ने कहा कि गूढ़ भावों को सरल शब्दों में व्यक्त करना आसान काम नहीं परन्तु पद्मेश जी के यह बाएं हाथ का काम है वह चाहें तो अपनी रचनाओं से रुला दें और चाहें तो हंसा हंसा कर लौट पोट कर दें .उन्होंने कहा कि साहित्य मंच पर जिस शान से पद्मेश जी बेट्टिंग करते हैं उनके सामने सहवाग और तेंदुलकर भी नहीं टिक सकते.
और उनका वक्तत्व एकदम खरा उतरा जब किसी एन्साइक्लोपीडिया की तरह पद्मेश जी ने अपनी रचनाये सुनानी शुरू कीं.बर्लिन की दीवार और नीम का पेड जैसी कवितायेँ सुनकर उन्होंने हर श्रोता के दिल को छू लिया .उनकी ऐनक ,घड़ी और छडी ने जैसे प्रावासियों के मन के हर तार को झंकृत कर दिया पद्मेश जी कविता वाचन के दौरान श्रोता भाव विभोर से हो गए. उनकी कविताओं में निहित प्रभावशाली भाव श्रोताओं के मुखमंडल पर भी उसी तरह दृष्टिगोचर होते देखे गए .
तदोपरांत वरिष्ठ कवि एवं पत्रकार गौतम सचदेव जी का परिचय डॉ पद्मेश गुप्त ने दिया .उन्होंने कहा कि डॉ गौतम सचदेव ब्रिटेन में हिंदी के ऐसे हस्ताक्षर हैं ,जिनसे हिंदी का हर छोटा बड़ा लेखक अपने साहित्य पर टिप्पणी चाहता भी है ,और टिप्पणी से घबराता भी है .उन्होंने आगे कहा कि साहित्य के प्रति पूरी इमानदारी लिये गौतम जी एक मात्र ब्रिटेन के ऐसे हिंदी लेखक हैं जिनका व्यंग निबंधों का संग्रह “सच्चा झूठ ” प्रकाशित हुआ है.
फिर क्या था गौतम जी ने अपनी धारदार रचनाओ से समा बाँध दिया .नंगापन,पुस्तक का मूल्य ,ज़ख्म जैसी रचनाओ ने श्रोताओं का खूब मनोरंजन किया .रचनाओं में समाहित धारदार व्यंग सभी के मन पर प्रभाव छोड़ने में पूर्णत: सफल रहे .
तत्पश्चात श्री ललित मोहन जोशी ने अपने अध्यक्षीय सन्देश में सभी कवियों का अवलोकन करते हुए कहा कि सोहन राही जी की रचनाओं में क्लासिक अदायगी है तो दिव्या माथुर की रचनाये सामाजिक यथार्थ पर लिखी गईं हैं.उन्होंने पद्मेश जी को हिंदी समिति और इस तरह के आयोजन के लिए बधाई दी और कहा कि उनकी रचनाये सरल और बेहद प्रभावी होती हैं.
गौतम जी की रचनाओं के बारे में बोलते हुए उन्होंने कहा कि उनकी रचनाओं में जटिलता ,गंभीरता ,इमेज्नेरी ,और सटीक उपमाओं के भाव प्रमुख होते हैं .
सभा के अंत में उन्होंने उन सभी लोगों की भी प्रशंसा की जिन्होंने मंचीय कवियों का बेहतरीन शब्दों में परिचय दिया था.
और इस तरह लन्दन में हिंदी साहित्य प्रेमी और बहुत से गणमान्य सदस्यों से भरे एक बेहद खूबसूरत रोचक और प्रसंशनीय समारोह का समापन हुआ जिसका सञ्चालन आयरलेंड के श्री दीपक मशाल ने किया.
आजकल लीबिया के तानाशाह कर्नल मुअज्जम गद्दाफी अपने हमवतनों के आक्रोश से भयभीत होकर देश छोड़ने की फ़िराक में हैं. इससे पूर्व इजिप्ट, ट्युनिसिया और यमन में भारी विप्लवी जन आक्रोश ने दिखा दिया था कि इन अरब देशों कि जनता दशकों से तानाशाही पूर्ण शासन को बड़ी वेदनात्मक स्थिति में झेलती आ रही थी. विगत दो वर्षों में वैश्विक आर्थिक संकट की कालीछाया ने न केवल महाशक्तियों अपितु छोटे-छोटे तेल उत्पादक अरब राष्ट्रों को भी अपनी आवरण में ले लिया था. इन देशों की आम जनता को दोहरे संकट का सामना करना पड़ा. एक तरफ तो उनके अपने ही मुल्क की सामंतशाही की जुल्मतों का दूसरी तरफ आयातित वैश्विक भूमंडलीकरण की नकारात्मकता का सामना करना पड़ा. इस द्वि-गुणित संकट के प्रतिकार के लिए जो जन-आन्दोलन की अनुगूंज अरब राष्ट्रों में सुनायी दे रही है, उसका श्रेय वैश्विक आर्थिक संकट की धमक और इलेक्ट्रोनिक मीडिया के विकिलीक्स संस्करण तथा सभ्यताओं के द्वंद की अनुगूंज को जाता है .
द्वितीय विश्वयुद्ध के उपरांत दुनिया दो ध्रुवों में बँट चुकी थी किन्तु, अरब समेत कई राष्ट्रों ने गुटनिरपेक्षता का रास्ता अपनाया था. भारत, मिस्र, युगोस्लाविया, लीबिया, ईराक, ईरान तथा अधिकांश लातिनी अमेरिकी राष्टों ने गुट निरपेक्षता को मान्य किया था. यह दुखद दुर्योग है कि पूंजीवादी राष्ट्रों, एम् एन सी और विश्व-बैंक के किये धरे का फल तीसरी दुनिया के देशों को भोगना पड़ रहा है. इसके आलावा अरब देशों में पूंजीवाद जनित रेनेसां की गति अत्यंत धीमी होने से आदिम कबीलाई जकड़न यथावत बरकरार थी .इधर मिश्र, जोर्डन को अन्तर्राष्ट्रीय मुद्राकोष तथा विश्व बैंक द्वारा आर्थिक सुधार के अपने प्रिय माडलों के रूप में पेश किया जाता रहा था. इन देशों के अन्धानुकरण में अन्य अरब राष्ट्र कहाँ पीछे रहने वाले थे, अतेव सभी ने बिना आगा पीछे सोचे विश्व अर्थ-व्यवस्था से नाता जोड़ लिया. नतीजा सब को विदित है कि जब इस वैश्विक अर्थतंत्र का तना{अमेरिका} ही हिल गया तो तिनको और पत्तों की क्या बिसात …विश्व वित्तीय संकट का बहुत प्रतिगामी प्रभाव कमोबेश उन सभी पर पड़ा जो इस सरमायादारी से सीधे जुड़ाव रखते थे. इजिप्ट में ३० लाख, जोर्डन में ५ लाख और अन्य देशों में भी इसी तरह लाखों युवाओं की आजीविका को वित्तीय क्षेत्र से जोड दिया गया था. सर्वग्रासी आर्थिक संकट के दरम्यान ही स्वेज-नहर से पर्यटन तथा निर्यातों में भारी गिरावट आयी .परिणामस्वरूप सकल घरेलु उत्पादनों में भी गिरावट आयी .मुद्रा स्फीति बढ़ने, बेरोजगारी बढ़ने, खाद्यान्नों की आपूर्ति बाधित होने से जनता की सहनशीलता जबाब दे गई .महंगाई और भ्रष्टाचार ने भारत को भी मीलों दूर छोड़ दिया. हमारे ए.राजा या सुरेश कलमाड़ी या मायावती भी अरेवियन अधुनातन नाइट्स{शेखों} के सामने पानी भरने लायक भी नहीं हैं.
यह स्पष्ट है कि शीत-युद्ध समाप्ति के बाद पूंजीवादी एकल ध्रुव के रूप में अमेरिका ने दुनिया को जो राह दिखाई थी वो बहरहाल अरब-राष्ट्रों को दिग्भ्रमित करने का कारण बनी. अतीत में भी कभी तेल-संपदा के बहुराष्ट्रीयकरण के नाम पर, कभी स्वेज का आधिपत्य जमाये रखने के नाम पर, कभी अरब इजरायल संघर्ष के बहाने और कभी इस्लामिक आतंकवाद में सभ्यताओं के संघर्ष के बहाने नाटो के मार्फ़त हथियारों की खपत इन अरब राष्ट्रों में भी वैसे ही की जाती रही, जैसे कि दक्षिण एशिया में भारत पाकिस्तान या उत्तर-कोरिया बनाम दक्षिण कोरिया को आपस में निरंतर झगड़ते रहने के लिए की जाती रही है; और अभी भी की जा रही है .ऊपर से तुर्रा ये कि हम {अमेरिका] तो तुम नालायकों {भारत -पकिस्तान ,कोरिया या अरब-राष्ट्र] पर एहसान कर रहे हैं, वर्ना तुम तो आपस में लड़कर कब के मर -मिट गए होते? हालांकि इस {अमेरिका} बिल्ली के भाग से सींके नहीं टूटा करते .सो अब असलियत सामने आने लगी है .
अरब देशों के वर्तमान कलह और हिंसात्मक द्वन्द कि पृष्ठभूमि में कबीलाई सामंतशाही का बोलबाला भी शामिल किया जाना चाहिए, लोकतान्त्रिक अभिलाषाओं को फौजी बूटों तले रौंदते जाने को अधुनातन सूचना एवं संपर्क तकनीकि ने असम्भव बना दिया है. संचार-क्रांति ने आधुनिक मानव को ज्यादा निडर, सत्यनिष्ठ, प्रजातांत्रिक ,क्रांतीकारी, धर्मनिरपेक्ष और परिवर्तनीय बना दिया है ,उसी का परिणाम है कि आज अरब में, कल चीन में परसों कहीं और फिर कहीं और ….और ये पूरी दुनिया में सिलसिला तब तलक नहीं रुकने वाला ’जब तलक सबल समाज द्वारा निर्बल समाज का शोषण नहीं रुकता , जब तलक सबल व्यक्ति द्वारा निर्बल का शोषण नहीं रुकता -तब तलक क्रांति कि अभिलाषा में लोग यों ही कुर्बानियों को प्रेरित होते रहेंगे .’हो सकता है कि इन क्रांतियों का स्वरूप अपने पूर्ववर्ती इतिहास कि पुनरावृति न हो. उसे साम्यवाद न कह’ ’जास्मिन क्रांति ’या कोई और सुपर मानवतावादी क्रांति का नाम दिया जाये, हो सकता है कि भिन्न-भिन्न देशों में अपनी भौगोलिक-सामाजिक-धार्मिक और सांस्कृतिक चेतना के आधार पर अलग-अलग किस्म की राजनैतिक व्यवस्थाएं नए सिरे से कायम होने लगें. यह इस पर निर्भर करेगा कि इन वर्तमान जन-उभार आन्दोलनों का नेतृत्व किन शक्तियों के हाथों में है? क्या वे आधुनिक वैज्ञानिक भौतिकवादी द्वंदात्मकता कि जागतिक समझ रखते हैं? क्या वे समाज को मजहबी जकड़न से आजाद करने कि कोई कारगर पालिसी या प्रोग्राम रखते हैं? क्या वे वर्तमान कार्पोरेट जगत और विश्व-बैंक के आर्थिक सुधारों से उत्पन्न भयानक भुखमरी , बेरोज़गारी से जनता को निजात दिलाने का ठोस विकल्प प्रस्तुत करने जा रहे हैं?
यदि नहीं तो किसी भी विप्लवी हिंसात्मक सत्ता परिवर्तन का क्या औचित्य है ? कहीं ऐसा न हो कि फिर कोई अंध साम्प्रदायिकता कि आंधी चले और दीगर मुल्कों में तबाही मचा दे, जैसा कि सिकंदर, चंगेज, तैमूर, बाबर, नादिरशाह या अब्दाली ने किया था.
इस बात में कोई सन्देह नहीं है कि राजस्थानी बोली मधुर अर्थात् बेहद मीठी है, जिससे सुनना हर किसी को सुखद अनुभव देता है, लेकिन इस मीठी बोली में कही जाने वाली बात को पूरी तरह से समझे बिना इसके बोले और सुने जाने का कोई मतलब नहीं है| राज्य के आधे से अधिक उन जिलों में भी राजस्थानी बोली को सम्पूर्ण आदर और सम्मान तो प्रदान किया जाता है, जहॉं पर इसे समझा और बोला भी नहीं जा सकता है, लेकिन राजस्थानी को जबरन थौपे जाने के प्रति भयंकर आक्रोश भी व्याप्त है|
विद्यार्थी वर्ग पर राजस्थानी बोली को, राजस्थानी भाषा के नाम पर जबरन थौपे जाने को उत्तरी, पूर्व एवं दक्षिणी राजस्थान के लोग कभी भी स्वीकार नहीं कर सकते| इसके उपरान्त भी देश के सबसे बड़े राज्य राजस्थान में भाषा के नाम पर वर्षों से कुटिल राजनीति चलाई जा रही है, जिसे राज्य की भाषाई संस्कृति से पूरी तरह से नावाकाफि पूर्व मुख्यमन्त्री वसुन्धरा राजे ने अपने पिछले कार्यकाल में जमकर हवा दी थी| अब इसी राजस्थानी बोली की आग में समय-सयम पर कुछेक छुटभैया साहित्यकार एवं राजनेता घी डालते रहते हैं और राजस्थानी के नाम पर राज्य के दो टुकड़े करने पर आमादा हैं|
जबकि इस बारे में सबसे महत्वपूर्ण और समझने वाली बात ये है कि जिस देश और राज्य में राष्ट्रीय स्तर पर बोली जाने वाली हिन्दी भाषा तक को दरकिनार करके अफसरशाही द्वारा हर क्षेत्र में लगातार अंग्रेजी को बढावा दिया जा रहा है, वहॉं पर कुछ लोगों द्वारा टुकड़ों-टुकड़ों में, भिन्न-भिन्न प्रकार से बोली जाने वाली कथित राजस्थानी बोली को, राजस्थानी भाषा के रूप में मान्यता दिलाने के नाम पर तुलनात्मक रूप से शान्त राजस्थान के आम लोगों को राजनेताओं और कुछ कथित साहित्यकारों द्वारा सौद्देश्य भड़काने का काम किया जा रहा है| जिसके परिणाम निश्चित तौर पर दु:खद होने वाले हैं|
21 फरवरी (2011) को विश्व मातृभाषा दिवस पर राज्य के कुछ मुठ्ठीभर लोगों द्वारा राजस्थानी भाषा को संवैधानिक मान्यता दिलाने के नाम पर जगह-जगह धरने देने का खूब नाटक किया गया| इस दौरान स्वनामधन्य कथित महान साहित्यकारों, रचनाकारों के साथ साथ जोशीले युवाओं को भी मीडिया के माध्यम से सामने लाया गया| धरने में कथित रूप से मानव शृंखला बनाकर राजस्थानी को लुप्त होने से बचाने का संदेश भी दिया| राज्य के बड़े समाचार-पत्रों पर काबिज पश्चिमी राजस्थान के पत्रकारों ने इस खबर को बढाचढाकर प्रकाशित भी किया और यह सिद्ध करने का प्रयास किया गया, मानो राजस्थानी बोली को राजस्थानी भाषा के रूप में मान्यता नहीं दी गयी तो जैसे राजस्थान का अस्तित्व ही समाप्त हो जायेगा|
यहॉं पर सबसे महत्वपूर्ण और समझने वाली बात ये है कि सभी दलों के राजनेता तो ये चाहते हैं कि राजस्थान के दो टुकड़े होने पर दो मुख्यमन्त्री, दो-राज्यपाल और अनेक मन्त्रियों के पदों में वृद्धि होगी| अफसरशाही भी चाहती है कि राज्य के टुकड़े होने से ढेरों सचिवों के पदों में वृद्धि होगी| मीडिया भी चाहता है कि दो राज्य बनने से दौहरे विज्ञापन मिलेंगे और दौहरी राजनीति एवं दौहरे भ्रष्टाचार की गंगा बहेगी जिसमें जमकर नहाने का अवसर मिलेगा|
इसलिये इनकी ओर से बिना सोचे-समझे राजस्थानी बोली को राजस्थानी भाषा के रूप में राज्य पर थोपे जाने की वकालत की जा रही है| यदि इस मूर्खतापूर्ण प्रयास के विरुद्ध उत्तरी, पूर्वी एवं दक्षिणी राजस्थान के लोगों में विरोधस्वरूप आन्दोलन खड़ा हो गया तो राज्य के सौहार्दपूर्ण माहौल में आग लगना तय है|
राज्य के राजनेता तो यही चाहते हैं कि राज्य के लोग एक-दूसरे के विरुद्ध सड़कों पर उतरें, हिंसा भड़के और आपस में धमासान हो, ताकि उन्हें राज्य में राजस्थानी को मान्यता प्रदान करने का राजनैतिक अवसर मिल सके या राजस्थानी को अस्वीकार किये जाने पर पूर्वी एवं पश्चिमी राजस्थान के नाम पर राज्य के दो टुकड़े करने का अवसर मिल सके| इन हालातों में राज्य के धीर, गम्भीर, संवेदनशील और समझदार लोगों को राजनेताओं, अफसरशाही एवं कुछेक कथित सहित्यकारों की इस गहरी साजिश को नाकाम करना होगा| अन्यथा परिणाम भयावह होंगे और कम से कम राज्य के दो टुकड़े होना तय है! क्या हम राजस्थान के टुकड़े करने को तैयार हैं?
बैंकिंग तो झमेला है और बैंकिंग अब चुटकी में यार! दो शिशु, जो खुद बोल भी नहीं सकते, आपको भरोसा दिला रहे हैं!
नीचे छोटे अक्षरों में लिखा है- बच्चे इसकी नकल न करें। तो उपर विज्ञापन में दो नन्हे मुन्ने ही मोटरसाइकिल पर बैठ, स्थिर मुद्रा में ही सही, पर इसे चलाकर गाड़ी की खूबियां बता रहे है! यही नहीं ‘कहानी’ में एक बच्ची लिफ्ट भी लेती है, गर्लफ्रेंड/ब्यायफ्रेंड के अंदाज में, तो अंत में दूसरे बाइक पर सवार बच्ची यह कहकर स्कूल जाने से इंकार करती है कि ‘मैं नहीं जाउंगी इस बोरिंग बाइक पर’। लगे हाथों एक घटना की खबर। पटना में सात फरवरी 2011 को स्कूटी फिसलने के बाद उसके स्कूल बस की चपेट में आने से एक 11वीं क्लास की छात्रा की मौत हो गई। यों तो यह देश के हजारों दुर्घटनाओं की तरह एक और एक दुखद दुर्घटना है। लेकिन बहुत सारे सवाल उठाते है। इसमें से एक है ड्राइविंग लाइसेंस न मिलने की उम्र में पूरी ट्रैफिक में रोजाना गाड़ी चलाना।
एक और कहानी बयान करती रहती है प्रिंट मीडिया में छपी एक तस्वीर। वो है जार में जंजीरों में बंद बिस्किट और गुस्से से भरी लड़की, इस स्लोगन के साथ कि ‘हिस्सा मांगो तो गुस्सा’। क्या यही हैं किसी समाज के संस्कार !
जब दो बड़े भाइयों/मित्रों के बीच एक किशोर हां रे/ ना रे के तहत अच्छे संस्कार सीख रहा है तो एक बबलगम अपना डिसीजन खुद लो की वकालत करता उसे गलत राह पर धकेलता दिखता है।
यह तो महज चंद उदाहरण हैं उन विज्ञापनों के जो बेतुके और बिना बात के जबरदस्ती बच्चों का इस्तेमाल करता है। साथ ही उन्हें गलत संस्कार भी सिखाता है। हमारे दिन रात चलने वाले टीवी सेट चाहे मनोरंजन चैनल हों या खबरिया या फिर प्रिंट मीडिया ऐसे ढेरों विज्ञापनों से भरे पड़े हैं जो मिनट दर मिनट हमारे, हमारे बच्चों के सामने घूमते फिरते दिन रात सजीव दिखते हैं और बुरी तरह से बच्चों को उकसाते हैं।
एक ओर मीडिया दिन प्रतिदिन किशोरों द्वारा किए गए रेप, चोरी- चकारी, अपराध के प्रति उनमें बढ़ते रुझान को लेकर चिंतित दिखता है और अक्सर इन मुद्दों पर विशेषज्ञों के साथ घंटों बैठकर चर्चा करता है। वहीं दूसरी ओर दिन में सैंकड़ों बार ‘गर्लफ्रेंड बहुत डिमांडिंग होती है’ किशोर किशोरियों को लेकर बनाया गया विज्ञापन दिन रात दिखाता रहता है। तो फिर क्यों न छोटे बच्चों का, किशोरों का उन्मुक्तता के लिए दिल मचले। फिर वह चाहे संबंधों के प्रति हो या भौतिक वस्तुओं के प्रति या फिर कम उम्र में बाइक चलाने जैसे खतरों के प्रति।
वैसे इन विज्ञापनों के मामलों में मीडिया की भूमिका स्वाभाविक रूप से निर्विकार नज़र आती है। क्योकि इनसे ही सारा का सारा मीडिया जगत चलता है। बिना विज्ञापनों के कोई भी मीडिया जिंदा नहीं रह सकता है और न ही उसके पास विज्ञापनों को चुनने की आजादी होती है कि वह खास विज्ञापन ही दिखाए। क्योंकि ऐसे विज्ञापन बनाने वाले बड़े व छोटे सभी विज्ञापनदाता है। और बात तो कमाई की ही है।
फिल्मों व रियलिटी शो को लेकर गंभीर व सेंसर रखने वाली हमारी सरकार भी विज्ञापनों के मामले में कोई कदम उठाती नहीं दिखती है। जबकि विज्ञापन सर्व सुलभ और अनायास हर घर में दिखते हैं। बच्चों को न देखने के लायक विज्ञापन के पहले कोई ऐसी चेतावनी भी नहीं होती जैसी फिल्मों के पहले होती है। वैसे भी विज्ञापन इतने कम समय के लिए होते हैं कि ऐसी चेतावनियां हो भी तो कोई फायदा नहीं हो सकता। ले दे के विज्ञापन बनाने वालों पर ही सारी जिम्मेदारी आती है कि वे उचित संस्कारों वाले विज्ञापन बनाएँ। क्योंकि आज हमारे समाज को विज्ञापन बहुत हद तक प्रभावित कर रहें हैं ।
सिर्फ बच्चों को उकसाने वाले विज्ञापन ही नहीं हैं बल्कि कई व्यस्क विज्ञापन भी कभी भी दिख जाते हैं, जिसे बच्चों के संग बैठकर टीवी देख रहे बड़े भी झेप जाते हैं।ऐसा नहीं है कि इस तरह के विज्ञापन अब ही बनाये जाने लगे हैं लेकिन अब इनकी संख्या दिन प्रति दिन बढ़ती जा रही है। सिर्फ झेपने या बुरा लगने की बात ही नहीं हैं बल्कि सबसे बड़ा मुद्दा गलत राह व संस्कारों की है। विज्ञापनों से मदद मांगने आई लड़की के प्रति ‘बेटा मन में लड्डू फूटा’ ही खयाल उन्हें आता है!