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श्री महान …………. जी

मनीष अरजरिया

सूत्रधार :- तो भाइयों और बहिनों , हमारे प्रधानमंत्री ने अफ़सोस जताया है कि वे भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारियों से लड़ने और उन्हें चित्त करने में अक्षम है. यानि कि वे उतने ही मजबूत है जितना कि भ्रष्टाचारी उन्हें मजबूत रखना चाहते है . और उतने ही कमजोर है जितना कमजोर उन्हें भ्रष्टाचारी रखना चाहते है .हमारे मजबूत लोकतंत्र की सच्चाई यही है कि सत्ता कमजोर करती है ज्यादा सत्ता ज्यादा कमजोर करती है . कल तक जनता की खातिर जान कि बाज़ी पर खेल जाने की बात कहने वाले सारे धुरंधर भ्रष्टाचार के मुद्दे पर अपना सर अपनी टांगो में घुसाए नजर आ रहे है .

विदूषक :- तो क्या हुआ जो हमारे प्रधानमंत्री ने अफ़सोस जता दिया कि वे भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारियो से लड़ने और उन्हें चित्त करने में अक्षम है. आखिर सक्षम कौन रहा है? वे बिचारे तो अपनी नालायक संतानों से इतने परेशान है कि उनके किये पर सफाई देते नही कि नया कांड सामने आ जाता है .अब तो कांड ढांकने के लिए चादरे भी छोटी पड़ने लगी है .

हिन्दुस्तानी :- काश ! ऐसा बाप सबको मिले जो अपनी औलादों खातिर इतना कुछ कर सकता है . अब तो लगता है कि उनका पूरा बुढ़ापा अपनी औलादों के महान प्रदर्शन पर सफाई देते बीतना है .

हिंदुस्तान :- यदि संप्रग सरकार आम आदमी कि सरकार है तो यकीनन प्रधानमन्त्री ने वही काम किया है जो देश कि सुविधाभोगी राजनीति और सुविधाभोगी मीडिया को जमता है ,काम कि बजाये काम का दिखावा ही हमारी शैली है . प्रधानमन्त्री और उनके चारण-गवैये पत्रकारों ने

तो आम आदमी को यही संदेश दिया है कि – सीधे सादे प्रधानमन्त्री से इससे ज्यादा की उम्मीद न करे .

विदूषक :- लेकिन हुजूर कुछ लोगो ने थोडा बहुत खा लिया तो क्या गजब हो गया ? आखिर खाने वाला भी आदमी है और खिलने वाला भी तो आदमी है .

हिंदुस्तान :- मगर खाया जाने माल भी तो आदमी है .लोग क्यों भूलते है कि अगर कोई एक जरूरत से ज्यादा खता है तो किसी न किसी को अपना पेट काटना पड़ता है . बेहिसाब खर्च करना अय्याशी नहीं अपराध है , ये समाज के आखिरी छोर पर खड़े आदमी के प्रति अपराध

है.

सूत्रधार :मगर जिन्होंने खा पचा कर हल्ला गुल्ला मचाना शुरू किया है उन्हें चुप कराने के वास्ते थोड़ी बहुत करवाई तो उन्हें करनी ही चाहिए .

विदूषक :- करवाई तो उन्होंने कर तो दी है . कुछ जेल जाकर कसमसा रहे है तो कुछ जेल जाने के लिए कसमसा रहे है . जेलयात्रा का रिकॉर्ड राजनीति में हर हाल में अच्छा ही समझा जाता है . न हो तो लालूजी से पूछ लीजिये .

हिन्दुस्तानी :- मुझे समझ में नही आता कि जब भ्रष्टाचार सामूहिक साझेदारी है तो फिर क्यों अलग अलग होकर एक दूसरे पर कीचड़ उछालते है .प्रधानमन्त्री ने तो लगभग अपील कर ही दी है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ जनता ज्यादा बड़ी करवाई की उम्मीद न करे.

हिंदुस्तान :- जब मनमोहन सिंह पहली बार प्रधानमन्त्री बने थे तो आम मध्यमवर्गीय लोगों के प्रतीक पुरुष के रूप में देखे गये थे . नैतिक तौर पर मजबूत छवि वाले ऐसे व्यक्ति जो आगे बढ़ते भारत के लिए सबसे बेहतर मुखिया साबित होते . पिछले कार्यकाल अमेरिका से परमाणु संधि करके उन्होंने ये साबित भी किया था . पर अब जिस तरह भ्रष्टाचार के सामने नतमस्तक हो रहे है उससे क्या साबित हो रहा है ? जिस तरह परमाणु सौदे के मसले पर उन्होंने शहीदाना अन्दाज में अपने पद को दांव पर लगाया था क्या अब वे भ्रष्टाचार के मुद्दे पर अपना पद दांव पर लगाएँगे ? ईमानदार और मजबूत प्रधानमन्त्री से यह नैतिक प्रश्न कोई ठोस उत्तर मांग रहा है .

पुष्‍करणा सावा : एक दृष्टिकोण

श्‍याम नारायण रंगा ‘अभिमन्यु’

बीकानेर एक ऐसा शहर जहाँ परम्पराओं का निवास होता है, जहाँ के लोग अपनी संस्कृति और अपने रिवाजों के लिए जाने जाते हैं और उन्हीं रिवाजों और परम्पराओं में से एक परम्परा है बीकानेर में रहने वाले पुष्‍करणा समाज के लोगों का सामूहिक विवाहोत्सव – सावा। जी हाँ सावा एक ऐसी परम्परा जिसमें सैकड़ों शादियाँ एक ही दिन सम्पन्न हो जाती है। इस परम्परा के अंतर्गत पुष्‍करणा समाज के लोग एक दिन निश्चित कर अपने बेटे बेटियों की शादियाँ एक ही दिन सामूहिक रूप से सम्पन्न कर देते हैं। इस परम्परा में शादी के सारे कार्यक्रम एक निश्चित कार्यक्रम के अनुसार सम्पन्न किए जाते हैं और उस दिन ऐसा लगता है जैसे सारा शहर ही मण्डप हो गया है और शहर के लोग बाराती। जहाँ देखो वहाँ दूल्हा, दूल्हन और बारातें ही नजर आती हैं।

यह परम्परा बीकानेर के पुष्‍करणा ब्राह्मण समाज में आज से नहीं बल्कि करीब सवा चार सौ साल से निभाई जा रही है। इस परम्परा को शुरू करने के पीछे क्या कारण रहे होंगे यह तो निश्चित तौर पर नहीं कहा जा सकता पर ऐसा माना जाता है कि एक समय था जब पुष्‍करणा ब्राह्मण अपने राजाओं के साथ युद्ध पर जाया करते थे, (बीकानेर की बगीचीयों में लगे पुश्करणा ब्राह्मणों के पूर्वजों के चित्रों से यह स्पष्‍ट है कि पुष्‍करणा ब्राह्मण राजाओं की युद्ध में पूरी सहायाता किया करते थे), वह ऐसा समय था जब युद्ध वर्तमान समय की तरह नहीं बल्कि हाथों में हथियार पकड़ कर लड़े जाते थे और ऐसे युद्धों में समय भी बहुत लगता था। यह वह दौर था जब मनुष्‍य की साम्राज्यवादी अभिलाषा जोरों पर थी और राजा महाराजा अपने जीवन का एक बड़ा भाग इन युद्धों में लगा देते थे और इनके साथ आम सैनिक इनके सरदार और सब तरह के लोग भी युद्धों में अपना जीवन होम करते थे। माना जाता है कि ऐसे ही एक समय में बीकानेर के इन पुष्‍करणा ब्राह्मणों को लम्बा समय हो गया और इनके घरों में शादी विवाह जैसे संस्कार ही नहीं हो पाए। इन ब्राह्मणों ने राजा के सामने फरियाद करी और राजा ने उपाय सुझाया कि क्यों न ऐसा हो कि एक दिन निश्चित कर दिया जाए और उस दिन ब्राह्मणों के घर में शादी हो जाए और ऐसा करने के राजा के काम भी प्रभावित नहीं होंगे और शादी जैसा पवित्र संस्कार भी सम्पन्न हो जाएगा और माना जाता है कि ऐसे करके पुष्‍करणा ब्राह्मणों ने सावे ही शुरूआत की।

शुरूआत में यह सावा सात साल में एक बार मनाया जाता था फिर समय के साथ इसमें परिवर्तन हुआ और यह सावा चार साल में एक बार मनाया जाने लगा। वर्तमान में बढ़ती आबादी के कारण समय में फिर परिवर्तन हुआ और यह सावा अब दो साल में एक बार मनाया जाता है। इस सावे की तिथियाँ सावे वाले साल में दिपावली से पहले तय की जाती है। यह तिथियाँ पण्डितों के शास्त्रार्थ द्वारा तय की जाती है जिसमें पुश्करणा ब्राह्मण समाज के किराड़ू, ओझा, छंगाणी, जोशी सहित कईं जातियों के लोग हिस्सा लेते हैं। सामाजिक व्यवस्था के अनुसार यह इन पण्डितों को सावे की तिथियाँ तय करने के लिए पुश्करणा समाज के लालाणी व किकाणी व्यास समाज लोग वाकायदा आमंत्रित करते हैं और जब यह तिथियाँ तय हो जाती है तो धनतेरस के दिन पूरे समाज के सामने समारोहपूर्वक यह तिथियाँ घोषित की जाती है। इन तिथियों में हाथकाम, गणेश परिक्रमा, पाणिग्रहण संस्कार सहित बरी की तिथियाँ व ब्राह्मण बालकों के यज्ञोपवित धारण करने की तिथियाँ घोशित की जाती है। इसी के साथ पूरी दुनिया में रहने वाले पुश्करणा ब्राह्मणों में एक उत्साह दौड़ जाता है कि सावे के दिन बीकानेर जाना है।

वास्तव में सामूहिक शादियों का यह उत्सव सावा प्रतीक है ब्राह्मण समाज की प्रगतिशील सोच का और समाजवादी दृष्टिकोण का। जिस समाजवाद की कल्पना कार्ल मार्क्‍स, गाँधी ने की थी, जिस समाजवाद को स्थापित करने का संकल्प भारतीय संविधान में लिया गया है उस समाजवादी सोच के अनुसार शादियाँ करने की यह परम्परा बीकानेर के पुष्‍करणा समाज में सदियों पुरानी रही है। एक ही दिन सैकड़ों शादियाँ होने से धन का अपव्यय नहीं होता और कम खर्च में सारा काम हो जाता है। महंगाई के इस दौर में सदियों पुरानी यह परम्परा उन परिवारों के लिए जीवनदान है जिनकी आय कम है और जो शादी के लाखों रूपये खर्च करने में अपने आप को असमर्थ समझता है और उन धनाढय वर्ग के लिए भी वरदान है जो अपनी विशिश्ट पहचान बनाना चाहता है। एक दिन सैकड़ो शादी मतलब लगभग हर घर में शादी इसलिए न तो रूठना न मनाना न ज्यादा खर्च न ज्यादा दिखावा और न ही किसी प्रकार का आडम्बर। सभी एक ही जैसे चाहे अमीर हो या गरीब चाहे छोटा हो या बड़ा। साहब सावा है सो सावे की शादी परम्पराओं के अनुसार शादी।

सावे की जो सबसे बड़ा फायदा होता है वह यह है कि सावे में शादी करने वाला दहेज का लेन-देन बिल्कुल नहीं करता वैसे यहाँ यह बात मैं आपको बताना चाहूंगा कि पुष्‍करणा ब्राह्मण समाज में दहेज के लेन देन की प्रथा नहीं के बराबर रही है। आज भी इस समाज में दहेज हत्या या दहेज के कारण तलाक के मामले लाखों में कोई ही नजर आता है। सावे के कारण दहेज नहीं होना इस सामूहिक विवाह की सबसे बड़ी उपलब्धि कहा जा सकता है।

बीकानेर के पुष्‍करणा ब्राह्मण आज पूरे भारतवर्ष में फैले हैं इसलिए सावे के दिनों में बीकानेर शहर लघु भारत का रूप धारण कर लेता है कोई बंगाल से आया होता है तो कोई महाराष्‍ट्र या गुजरात से कोई उड़ीसा से आता है तो कोई मध्यप्रदेश से। इस तरह पूरे शहर में खुशी का माहौल रहता है। देर रात तक शहर की सड़कों पर उत्सव का माहौल रहता है। पान की दुकानों पर, चौक के पाटों पर मेल-मिलाप के साथ साथ चर्चाओं व खाने पीने के दौर चलते रहते हैं। बीकानेर शहर का हर भवन बुक रहता है और सारा शहर रोशनी से नहाया होता है। औरतें मंगल गीत गाती है तो पुरूष तैयारियों में लगे रहते हैं। खुशी का यह माहौल सारे शहर को एकता के धागे में पिरोता है। सावे वाले दिन पारम्परिक विष्‍णु रूप में दूल्हे दौड़ते नजर आते हैं तो बाराती भी एक के बाद एक बारात में जाने की कोशिश करता है। बीकानेर के उत्साही युवक आजकल सावे के दिन तरह तरह के आयोजन

भी करते हैं जैसे बारहगुवाड़ चौक में विष्‍णु रूप में जो दूल्हा सबसे पहले आता है उसे सम्मानित किया जाता है और बाकी आने वाले दूल्हों का भी अभिनन्दन किया जाता है। इसी तरह का आयोजन साले की होली के चौक सहित कईं अन्य चौकों में भी होता है। वर्तमान में राज्य सरकार द्वारा सावे के कारण सस्ती दरों पर चीनी, चावल व गेंहूँ, दूध के साथ ईंधन की व्यवस्था भी की जाती है तो समाज कल्याण विभाग द्वारा सामूहिक शादी के आयोजन मे शादी करने के कारण चार हजार पाँच सौ रूपये की आर्थिक सहायता भी की जाती है। इस तरह सावे का यह आयोजन अपने में कईं तरह के अन्य आयोजन भी समेटे होता है। इन दिनों में शहर में सांस्कृतिक कार्यक्रम, रंगोली प्रतियोगिता, ब्याह के गीत आदि के आयोजन भी किए जाते हैं।

सावे का प्रभाव सिर्फ पुश्करणा समाज के लोगों पर ही नहीं रहता है वरन् बीकानेर का रहने वाला हर व्यक्ति विवाह की इन खुशियों में शामिल होता है। विवाह के कारण हर वर्ग का व्यक्ति चाहे वह कपड़े का व्यापारी हो या खाने पीने की वस्तुओं का व्यापारी, दूध दही बेचने वाला हो या सब्जी वाला सब कोई इस सावे में अपने आप को खुश व उत्साह से भरा हुआ महसूस करता है। घरों में रंग रोगन से लेकर सफाई कर्मचारी तक की व्यवस्था शादी ब्याह में करनी होती है सो सावे के कारण यह सारा वर्ग अपने आप को व्यस्त करता है और दिल से इस सावे का स्वागत करता है। दूकानदार अपनी दुकानों को रंग बिरंगी रोशनी सहित कईं तरह से सजाते हैं। इस सावे के कारण शहर की अर्थव्यवस्था को गति मिलती है और संस्कृति जीवित हो उठती है। शुभ मुहुर्त होने के कारण अन्य जातियों के लोग भी इस दिन शादियाँ करते हैं।

सामूहिक शादी का यह उत्सव सावा बीकानेर के पुश्करणा ब्राह्मण समाज में ही होता है जबकि बीकानेर के अलावा पुश्करणा समाज के लोग जैसलमेर, जोधपुर, फलौदी, पोकरण सहित कई स्थानों पर रहते हैं परन्तु परम्परा का यह अनूठा आयोजन सिर्फ बीकानेर में ही मनाया जाता है। आज विभिन्न समाजों के लोग सामूहिक शादियाँ करते हैं शायद उनकी प्रेरणा का स्रोत यह उत्सव ही रहा है।

एक बात और जहाँ आम दिनों में शादियों में बारातों में सैकड़ों और हजारों लोग होते हैं वहीं इस दिन बारात में आपको दस से बीस लोग ही नजर आएंगे कारण साफ है कि सैकड़ों शादियाँ है हर घर में शादी है सो कौन किसके जाए सब अपने अपने घर में हो रही शादी में शरीक होते हैं। इसी तरह पण्डितों को भी समय नहीं मिलता क्योंकि आज पण्डित जी को एक ही रात में कईं जोड़ों का मिलन करवाना है सो पण्डित जी भी काफी व्यस्त रहते हैं और यही हाल बैण्ड वालों का टैण्ट वालों का होता है। मतलब जिधर देखो शादी शादी और बस शादी। ऐसा होता है माहौल बीकानेर का सावे वाले दिन।

इस बार यह सावा चौबीस फरवरी को हो रहा है अत: अगर आपकों इस माहौल में शामिल होना है तो आईए बीकानेर और साक्षी बनिए एक ऐसे आयोजन के जिसे देखकर आप यह जरूर कहेंगे वाह क्या बात है ! और एक बात सावे में निमन्त्रण की आवष्यकता भी नहीं होती बीकानेर में सो जहाँ अच्छा लगे वहाँ खाना भी खा सकते हैं आप और खिलाने वाले भी बड़े प्यार से खिलाएंगे।

 

पारंपरिक मीडिया का विकास जरूरीः मुजफ्फर हुसैन

”भारतीय संस्कृति में पत्रकारिता के मूल्य” विषय पर राष्ट्रीय संविमर्श

भोपाल 23 फरवरी। वरिष्ठ पत्रकार पद्मश्री मुजफ्फर हुसैन का कहना है कि पत्रकारिता एक भविष्यवेत्ता की तरह है जो यह बताती है कि दुनिया में क्या होने वाला है। वे यहां माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवम संचार विश्वविद्यालय,भोपाल के तत्वाधान में भारतीय संस्कृति में पत्रकारिता के मूल्य विषय पर आयोजित राष्ट्रीय संविमर्श के दूसरे दिन समापन सत्र में अध्यक्ष की आसंदी से बोल रहे थे। उन्होंने कहा कि आज सामाजिक मुद्दों से जुड़े समाचार मीडिया में अपनी जगह नहीं बना पा रहे हैं, इसके लिए जरूरत है कि पारंपरिक मीडिया का संवर्धन किया जाए। उन्होंने कहा कि एक आदमी की विचारधारा कभी भी संवाद का रूप नहीं ले सकती। तानाशाही में संवाद नहीं होता और संस्कृति लोकतंत्र को जन्म देती है। उन्होंन कहा कि संवाद रूकता है तो समाज मरता है, चलता है तो समाज सजीव होता है। उन्होंने कहा कि पत्रकारों का खबरों का चुनाव करते समय उसके प्रभाव को नहीं भूलना चाहिए।

सत्र के मुख्यवक्ता साधना न्यूज के समूह संपादक एनके सिंह ने कहा कि मीडिया पर बाजारवाद हावी है जिसके चलते सामाजिक मुद्दों की उपेक्षा हो रही है। जबकि कोई भी लोकतंत्र निरंतर संवाद से ही प्रभावी होता है। भारत में इलेक्ट्रानिक मीडिया का विकास बहुत नया है किंतु यह धीरे-धीरे परिपक्व हो जाएगा। उन्होंने कहा मीडिया को बदलना है तो दर्शकों को भी बदलना होगा क्योंकि जागरूक दर्शक ही इन रूचियों का परिष्कार कर सकते हैं। श्री सिंह ने देश के इतिहास में इतना कठिन समय कभी नहीं था जब पूरे समाज को दृश्य माध्यम जड़ बनाने के प्रयासों में लगे हैं। इसके चलते विवाह एवं परिवार नाम की संस्थाओं के सामने गहरा संकट उत्पन्न हो रहा है। इस सत्र में स्कूल शिक्षा राज्यमंत्री नानाभाऊ माहोर एवं गोसंवर्धन बोर्ड के अध्यक्ष शिव चौबे ने भी अपने विचार व्यक्त किए। इस अवसर पर कुलपति प्रो. बृजकिशोर कुठियाला ने कहा कि पूरे विश्व में मानव सभ्यता आज इस स्तर पर है कि मानव के अस्तित्व और भूमिका पर सवाल और संवाद कर सकती है। पत्रकारिता समाप्त न हो जाए यह चिंता आज सबके सामने है, परंतु भारतीय संस्कृति के आधार पर मीडिया की पुर्नरचना संभव है।

इसके पूर्व प्रातः भारतीय संस्कृति में संवाद की परंपराएं विषय पर चर्चा हुयी जिसके मुख्यवक्ता प्रो. नंद किशोर त्रिखा ने कहा कि पत्रकारिता का मूल उद्देश्य लोकहित होना चाहिए, इसके बिना यह अनर्थकारी हो सकता है। आज पत्रकारिता की आत्मा को अवरोध माना जा रहा है जबकि यह अत्यंत आवश्यकता है। पत्रकार को सत्य , उदारता , स्वतंत्रता और निष्पक्षता पर अडिग रहना चाहिए। उन्होंने कहा कि पत्रकारों को समाज में उच्च आदर्शों को प्रस्तुत करना चाहिए। स्वदेश ग्वालियर के संपादक जयकिशन शर्मा ने कहा कि भारतीय साहित्य का वाङमय संवाद से ही शुरू होता है। हमारे यहां धर्म का अर्थ धारणा से है, हमारे धर्म ग्रंथ सही और गलत के निर्णय का आधार देते हैं। विश्व में अन्य किसी संस्कृति में ऐसा नहीं है। उन्होंने भारतीय संस्कृति में संवाद के महत्व को रेखांकित करते हुए कहा की समाज के अधिकतम लोगों को शोषण से मुक्ति दिलाने का दायित्व पत्रकार का है। सिर्फ रोजी रोटी के लिए पत्रकारिता करना उचित नहीं। देवी अहिल्याबाई विश्वविद्यालय, इंदौर में पत्रकारिता विभाग के अध्यक्ष डॉं. एमएस परमार ने कहा कि आज जब विज्ञान की सारी शक्तियां सब कुछ नष्ट करने में लगी है तव भारतीय ग्रंथों में संवाद की परंपरा इसका हल बताती है। यदि भारतीय ग्रंथों का अनुसरण करें तो पश्चिम की तरफ देखने की जरूरत नही पड़ेगी। हमारी वैदिक मान्यताओं के अनुसार संवाद सत्य पर आधारित होना चाहिए। उन्होंने कहा कि आज लोकतंत्र के चारों स्तम्भों पर भष्टाचार हावी है जो कि लोकतंत्र के लिए अनर्थकारी है। अनावश्यक खबरों को जरूरतों से ज्यादा तूल देने पर उन्होंने अपनी चिंता जाहिर की। साहित्यकार डॉ. विनय राजाराम ने संवाद में बौद्ध परंपरा पर सबका ध्यान आकृष्ट करते हुए कहा कि देशाटन पत्रकारिता का अहम हिस्सा है। बौद्ध धर्म का प्रसार तंत्र आज के पत्रकारों के लिए अनुकरणीय है। विद्यार्थी सत्र में विभिन्न विषयों पर छात्र-छात्राओं ने अपने विचार रखे। इनमें सर्वश्री सुनील वर्मा, मयंकशेखर मिश्रा, नरेंद्र सिंह शेखावत, उर्मि जैन, कुंदन पाण्डेय, पूजा श्रीवास्तव, हिमगिरी ने अपने विचार रखे। सत्रों का संचालन प्रो. आशीष जोशी, डॉ. पवित्र श्रीवास्तव एवं स्निग्धा वर्धन ने किया।

पूर्व माकपा सांसद के पास करोड़ों की बेनामी जमीन

बासुदेब पाल

गरीबों- मजदूरों की पार्टी कहलाने का दम्भ भरने वाली मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के ‘सादगीपूर्ण-भ्रष्टाचार रहित’ नेतृत्व की पोल एक ही छापे में खुल गई है। माकपा की पूर्व राज्यसभा सदस्य एवं पार्टी की प्रमुख महिला नेत्री सरला माहेश्वरी के यहां पड़े आयकर विभाग के छापे में बेहिसाब और गैरकानूनी सम्पत्ति मिलने से अब पार्टी नेतृत्व सकते में होने का नाटक कर रहा है और कोई कुछ बोल नहीं रहा है। गत 27 जनवरी की प्रात:काल आयकर विभाग के उपनिदेशक (विवेचना) सुनील अग्रवाल के नेतृत्व में 100 से अधिक आयकर विभाग के कर्मचारियों ने अलग-अलग दलों में बंटकर श्रीमती सरला माहेश्वरी के आवास सहित उनके पति व उनकी कम्पनी के कर्मचारियों के ठिकानों पर छापेमारी कर उनकी सघन तलाशी ली। इस तलाशी में सरला माहेश्वरी और उनके पति अरुण माहेश्वरी के पास से जिन जमीनों के दस्तावेज मिले उनकी कीमत 600 करोड़ रुपए के लगभग आंकी जा रही है। आयकर विभाग ने अरुण माहेश्वरी, सरला माहेश्वरी, उनके पुत्र अभिमन्यु माहेश्वरी, दामाद अभिताभ केजरीवाल, उनकी कम्पनी के एकाउंटेंट संदीप जैन, भांजे पीयूष डागा, कम्पनी के कर्मचारी विकास बागड़ी और माहेश्वरी परिवार के करीबी व कानूनी सलाहकार जयकृष्ण दुजारी के बैंक एकाउंट, घर-दफ्तर, जमीनों के कागज आदि की जांच कर उनमें से कुछ को जांच के लिए सील तथा जब्त भी कर दिया है।

यह सारा मामला तब खुला जब सरला माहेश्वरी-अरुण माहेश्वरी के कार्यालय में काम करने वाले एक पूर्व कर्मचारी शंकर भट्टाचार्य से आयकर विभाग ने पूछा कि मात्र 2850 रुपए महीने की नौकरी करने के बावजूद उसके पास एक कम्पनी और उसके नाम पर जमीन कैसे है। अपने जवाब में शंकर भट्टाचार्य ने आयकर विभाग को गत वर्ष अगस्त माह में बताया कि जब वह अरुण माहेश्वरी के कार्यालय में काम करता था तब उन्होंने बिना जानकारी दिए मेरे व मेरी पत्नी प्रगति भट्टाचार्य के नाम से एक कम्पनी बनाई। हम दोनों की जानकारी और हस्ताक्षर के बिना ही पैनकार्ड भी बना लिया। 2002 में जब मैं नौकरी से सेवानिर्वत हुआ तो हम पति-पत्नी से कुछ कागजातों पर हस्ताक्षर करा लिए। आयकर विभाग ने यह जानकारी मिलने के बाद अरुण माहेश्वरी-सरला माहेश्वरी के आस-पास जो जाल बिछाया उससे पता चला कि 2004-5 में एक एकड़ जमीन के भी मालिक न होने वाले अरुण माहेश्वरी मात्र 5 साल में 300 एकड़ से भी अधिक जमीन के स्वामी बन बैठे हैं। 2009 के सितम्बर माह में साल्टलेक के सबसे महंगे बोटिंग काम्प्लैक्स में अपने पुत्र अभिमन्यु की शादी में करोड़ों रुपए के खर्च से भी आयकर विभाग अधिक चौकन्ना हो गया। इसीलिए छापेमारी की गई और अब उनके घर और कार्यालय से बरामद दस्तावेजों के आधार पर जांच की जाएगी। जिन लोगों के नाम पर उन्होंने जमीन खरीदी है, उन्हें अपनी आय के स्रोत बताने होंगे वरना सम्पत्ति जब्त की जाएगी और दण्ड भी भरना होगा। फर्जी पैन कार्ड बनवाने के मामले में अरुण माहेश्वरी पर आपराधिक मुकदमा भी चल सकता है।

बहरहाल माकपा अपने महिला मोर्चे की नेत्री और वरिष्ठ नेताओं की करीबी पूर्व सांसद और उनके पति-पुत्र के पास से मिली बेनामी और अवैध सम्पत्ति के मामले में चुप्पी साधे हुए है। माकपा के मुखपत्र ने भी इस विषय में कुछ नहीं लिखा और पार्टी प्रवक्ता मोहम्मद सलीम ने झुंझला कर कहा-हम कुछ नहीं जानते।

अपनी कुर्सी के लिए जज्बात को मत छेड़िए

गोधरा दंगों के फैसलों की नुक्ताचीनी करने के बजाए नए गुजरात को सलाम करें

– संजय द्विवेदी

गुजरात एक नया इतिहास रच रहा है। लेकिन कुछ कड़वी यादें उसे उन्हीं अंधेरी गलियों में ले जाती हैं, जहां से वह बहुत आगे निकल आया है। गुजरात दरअसल आज विकास और प्रगति के नए मानकों की एक ऐसी प्रयोगशाला है जहां सांप्रदायिकता के सवाल काफी छूट गए हैं। उसे विकास और गर्वनेंस के नए माडल के रूप में देखा जा रहा है। ऐसे में गोधरा काण्ड पर आया फैसला एक बार फिर छद्मधर्मनिरपेक्ष ताकतों को एक अवसर की तरह है कि वे हमेशा की तरह इस फैसले की नुक्ताचीनी करें और उसके अर्नथों को विज्ञापित करें। यह कोशिश शुरू हो गयी हैं। किंतु हमें यह सोचने की जरूरत है कि ऐसी व्याख्याओं से हमें क्या हासिल होगा ? क्या गुजरात को देने के लिए हमारे पास कोई नए विचार हैं? अगर नहीं हैं तो जो गुजरात दे रहा है उसे लेने में हममें संकोच क्यों है? क्या सिर्फ इसलिए कि नरेंद्र मोदी नाम का एक आदमी वहां मुख्यमंत्री है जिसने इस देश को एक राज्य के विकास का माडल दिया। जिसने गुजराती समाज को उसकी अस्मिता की याद दिलाई और गुजरात को विकास के एक ब्रांड में बदल दिया है।

ऐसे समय में जब दुनिया के सारे कारपोरेट, देश के बड़े धराने ही नहीं, विकास के काम में लगी एजेंसियां गुजरात को एक आर्दश की तरह देख रही हैं क्या जरूरी है कि हम गोधरा और उसके बाद घटे गुजरात के दंगों की उन खूरेंजी यादों के बहाने जख्मों को कुरेदने का काम करें। आखिरकार साबरमती जेल में गठित विशेष कोर्ट ने 27 फरवरी,2002 को गोधरा रेलवे स्टेशन पर एस-6 डिब्बे में आग लगने की घटना को हादसा नहीं वरन एक साजिश करार देते हुए 31 लोगों को दोषी ठहराया है। इसके साथ ही सबूतों के अभाव में 63 लोगों को बरी कर दिया गया। प्रत्यक्ष सबूत न होने के आधार पर बरी होने का अर्थ किसी का बिल्कुल निर्दोष होना नहीं है। वैसे भी, अभियुक्तों की तरह ही गुजरात पुलिस के सामने भी उच्च एवं उच्चतम न्यायालय में जाने का विकल्प खुला है। अफसोस की बात है कि फैसला आने के बाद भी बहुत से राजनेताओं और संगठनों की प्रतिक्रिया रेल कोच में मारे गए कारसेवकों के प्रति उतनी ही संवेदनहीन है। इसी के चलते हमारे कथित धर्मनिरपेक्षतावादियों पर संदेह होता है और उनके प्रति एक प्रतिक्रिया जन्म लेती है। मारे गए कारसेवकों को प्रति निर्ममता का वक्तव्य देकर आप किसकी मदद कर रहे हैं। मृतकों के प्रति तो शत्रु भी सदाशयता का भाव रखता है। किंतु हमारे राजनेता लाशों की राजनीति से भी बाज नहीं आते।विशेष जांच दल (एसआइटी) के आरोप-पत्र में वर्णित घटनाक्रम को न्यायालय ने लगभग स्वीकार कर लिया है। इसमें अमन गेस्ट हाउस में साजिश रचने की बैठक से लेकर वहीं पेट्रोल रखने तथा उसे पीपे द्वारा डिब्बे के बाहर से अंदर डालने और कपड़ों के गट्ठर में आग लगाकर अंदर फेंकने की बात शामिल थी। जांच दल ने अमन गेस्ट हाउस के मालिक रज्जाक कुरकुर को मुख्य अभियुक्त कहा था। न्यायालय ने भी इस पर मुहर लगा दी है और उसे पांच मुख्य साजिशकर्ताओं में माना है। तीन अभियुक्तों द्वारा पीपे से पेट्रोल का छिड़काव तथा कपड़ों के गट्ठर में आग लगाकर अंदर फेंकने की बात भी न्यायालय ने स्वीकार की। राज्य फोरेंसिक विज्ञान निदेशालय ने कोच को जलाने के लिए पेट्रोल के प्रयोग की बात स्वीकार की थी। न्यायालय ने 253 गवाहों के बयान, 1500 दस्तावेजी सबूतों के अध्ययन, परिस्थितिजन्य साक्ष्यों के गहरे विश्लेषण तथा आठ अभियुक्तों द्वारा अपराध की स्वीकारोक्ति के आधार पर फैसला दिया है। निश्चय ही यह ऐसा फैसला है जो गोधरा काण्ड के बाद फैलाए गए भ्रम को साफ करता है। खासकर नानावटी आयोग और यूसी बनर्जी आयोग ने जिस तरह से अपनी रिपोर्ट दी, उसने पूरे मामले को उलझाकर रख दिया था। नानावटी आयोग ने कहा था कि कि आग जानबूझकर लगाई गयी और बाहरी लोगों ने आग लगाई। आग लगने से जलकर मौत हुयी और स्टेशन पर भारी भीड़ थी। जबकि यूसी बनर्जी आयोग ने तो विचित्र बातें कीं। उसका कहना था कि दुर्धटनावश आग लगी और दम घुटने से मौत हुयी है। इस साजिश में कोई बाहरी नहीं था। स्टेशन पर भीड़ नहीं थी और डिब्बे बाहर से बंद नहीं थे। इसी बनर्जी आयोग की रिपोर्ट के तत्कालीन रेलमंत्री लालू प्रसाद यादव ने खूब प्रचारित किया। जाहिर तौर पर 58 लोगों की मौत पर इस तरह की राजनीति भारत में ही संभव है।

गोधरा की प्रतिक्रिया स्वरूप जो कुछ गुजरात में हुआ, उसे पूरे देश ने देखा और भोगा है। आज भी गुजरात को उन दृश्यों के चलते शर्मिंदा होना पड़ता है। किंतु हमें देखना होगा कि आक्रामकता का फल कभी मीठा नहीं होता। गोधरा ने जो आग लगाई उसमें पूरा गुजरात झुलझ गया। यह सोचना संभव नहीं है कि किसी भी दंगे की प्रतिक्रिया न हो। आज जबकि गुजरात 2002 की घटनाओं से बहुत आगे निकलकर विकास और प्रगति के नए मानक गढ़ रहा है तब राजनीतिक दलों को चाहिए कि वे गुजरात को लेकर राजनीति बंद करें। वे इसे देखने के प्रयास करें कि इतने बिगड़े हालात और कई प्राकृतिक आपदाओं के बावजूद गुजरात के मुख्यमंत्री ने किस तरह एक राज्य के भाग्य को अपने संकल्प से बदल दिया है। आज का गुजरात, गोधरा और उसके बाद हुए दंगों को भूलकर आगे बढ़ चुका है। उसे पता है कि उसकी बेहतरी शांति और सद्भाव में ही है। इसलिए देश के अन्य राजनीतिक दलों को भी इस सच को स्वीकार कर लेना चाहिए। आज गुजरात की प्रगति की तारीफ योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया से लेकर विश्व बैंक तक कर रहे हैं तो यह अकारण नहीं है। भारतीय न्याय प्रक्रिया पर भी विश्वास ऐसे फैसलों से बढ़ता है और उसके नीर-क्षीर विवेक का भी पता चलता है। इस फैसले के बाद देश के छद्मधर्मनिरपेक्ष लोगों को यह मान लेना चाहिए कि गोधरा का काण्ड एक गहरी साजिश का परिणाम था जिसका भुगतान गुजरात के तमाम निर्दोष और बेगुनाह लोगों ने किया। गुजरात के दंगे आज भी हमें दुखी करते हैं। किसी भी सभ्य समाज के दंगें और आपराधिक धटनाएं शुभ नहीं कही जा सकतीं। किंतु इन दुखद घटनाओं के बाद गुजरात ने जो रास्ता पकड़ा है, वही सही मार्ग है।

गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक राज्य को जिस तरह की मिशाल बना दिया है वह काबिले तारीफ है। बस हमें यह ध्यान देना होगा कि जख्मों को बार-बार कुरेदने से वे हरे होते हैं, सूखते नहीं। क्या गुजरात के मामले पर देश के राजनीतिक दल बार-बार जख्मों को कुरेदने से बाज आएंगें और नए गुजरात को अपनी शुभकामनाएं देने का साहस जुटा पाएंगें? लेकिन हमें पता है कि राजनीति बहुत निर्मम होती है। वह कोई मौका नहीं छोड़ती। हमें पता है दंगे हमेशा आम आदमी पर कहर बनकर बरसते हैं। रोजमर्रा की जिंदगी के संघर्ष में लगे लोगों पर वे जुल्म की इंतहा करते हैं। इसलिए इन घटनाओं में आम आदमी ही सबसे ज्यादा तबाह होता है। उनकी रोजी-रोटी पर बन आती है, घरों में फांके पड़ जाते हैं। लेकिन सियासत में सबसे ज्यादा इस्तेमाल उसके उसकी भावनाओं का होता है। देश को बांटने और तोड़ने में लगी ताकतों को अब हिंदुस्तान पर रहम करना चाहिए। गोधरा और गुजरात दंगों से आगे निकालकर गुजरात जिस तरह अपने सपनों में रंग भर रहा है, हमें उस गुजरात का इस्तकबाल करना चाहिए।

मिस्र का जनांदोलन और वाम की हताशा

जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

काहिरा में जनांदोलन चरम पर है राष्ट्रपति हुस्नी मुबारक इस्तीफा देकर अज्ञातवास के लिए जा चुके हैं । लेकिन पश्चिम बंगाल में मिस्र की राजनीतिक गरमी पहुँच गयी है। 13 फरवरी को कोलकाता में वाममोर्चे की विशाल चुनाव रैली के आरंभ में ही माकपा सचिव विमान बसु ने जिस उत्तेजना में मुबारक और बुद्धदेव भट्टाचार्य के शासन की तुलना की आलोचना की और एक बांग्ला दैनिक को गरियाया ,उससे साफ था कि मिस्र के जनांदोलन से माकपा घबड़ाई हुई है। विमान वसु जैसे माकपा के नेताओं की नींद गायब है। जबकि मुख्यमत्री ने मिस्र के जनांदोलन पर कुछ नहीं बोला। यह संकेत है कि माकपा बंटी हुई है मिस्र पर।

काहिरा के जनांदोलन का संदेश है सर्वसत्तावादी राजनीतिज्ञों के दिन अब खत्म हुए। राज्य में माकपा और वाममोर्चे की कार्यप्रणाली सर्वसत्तावादी है और इसे बड़े सुंदर तर्कों के आधार पर वैध ठहराया जाता है। सर्वसत्तावादी पद्धति का नमूना है पार्टी निर्देशों पर काम करना। राज्य प्रशासन को माकपा ने जिस तरह पंगु बनाया है ,उसने सभी लोकतांत्रिक लोगों की चिन्ताएं बढ़ा दी हैं। योग्यता,कार्यकुशलता,पेशेवर दक्षता और नियमों आदि को पार्टी आदेश के आधार पर लागू करने की शैली मूलतः सर्वसत्तावादी शैली है, मुबारक की भी यही शैली थी।

आगामी दिनों में राज्य प्रशासन को इस शैली से चलाने वालों को जनता एकदम चुनने नहीं जा रही। सर्वसत्तावादी शासन पद्धति को भूमंडलीकरण और नव्य उदारनीतियों ने जगह-जगह कमजोर किया है। सन् 2009 के लोकसभा चुनाव में वाममोर्चे की व्यापक पराजय का प्रधान कारण यही था। पश्चिम बंगाल की जनता अब सर्वसत्तावादी कार्यशैली को वोट देने नहीं जा रही। सतह पर पश्चिम बंगाल में मिस्र को लेकर कोई बड़ी हलचल नहीं है लेकिन मिस्र के जनांदोलन से पश्चिम बंगाल के लोग,खासकर मुसलमान गहरे प्रभावित हैं। सर्वसत्तावाद लोकतंत्र के माध्यम से भी आ सकता है और बगैर लोकतंत्र के भी आ सकता है। इसलिए वामनेताओं का यह कहना सही नहीं है कि मिस्र और पश्चिम बंगाल में तुलना नहीं की जा सकती। मिस्र और अरब देशों के जनांदोलन का पश्चिम बंगाल की सामयिक राजनीति और अंतर्राष्ट्रीयतावादी चेतना के लिए महत्व है ।

मिस्र में फौजी तानाशाही के युग का अंत होने वाला है। सरकारी खेमे में भगदड़ मची हुई है और इस भगदड़ में भविष्य में क्या निकलेगा यह कोई नहीं जानता,लेकिन यह तय है मिस्र का भविष्य में वह चेहरा नहीं रहेगा जो अब तक रहा है और यही बात पश्चिम बंगाल के बारे में कही जा सकती है। राज्य में भविष्य में विधानसभा चुनाव के बाद सरकार किसी भी दल की बने लेकिन राज्य का चेहरा बदल जाएगा, माकपा जैसा शक्तिशालीदल भी इस प्रक्रिया में बदलेगा।

मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य का लगातार विभिन्न जिलों में सार्वजनिक सभाओं में भाषण देना, बड़े पैमाने पर टेलीविजन विज्ञापन जारी करना और लगातार विभिन्न समुदाय के लोगों के लिए कल्याणकारी योजनाओं की घोषणा करना इस बात का संकेत है कि लोकतंत्र का जो दबाब वाममोर्चा विगत 34 साल में महसूस नहीं कर रहा था वह दबाब उसे विगत एक साल में महसूस हुआ है। जिस तरह की लोकलुभावन घोषणाएं मुख्यमंत्री कर रहे हैं उससे एक बात साफ है कि उनका दल हताश है और ताबड़तोड़ ढ़ंग से जनता का दिल जीतना चाहता है।

मुख्यमंत्री ने लोकसभा चुनाव के बाद पार्टीलाइन की बजाय निजी विवेक से काम करने का फैसला किया है और इस क्रम में वे लगातार सोनिया गांधी-मनमोहन सिंह के करीब चले गए हैं। मसलन सोनिया गांधी ने कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों को मुंबई के आदर्श सोसायटी घोटाले के बाद कहा था कि मुख्यमंत्री कोटा जैसी केटेगरी को अपने राज्य में खत्म कर दें। लेकिन अभी तक किसी भी कांग्रेसी मुख्यमंत्री ने यह कोटा खत्म नहीं किया लेकिन मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने यह काम कर दिया।

मुसलमानों की बदहाली पर केन्द्र सरकार द्वारा बनाए कमीशन की रिपोर्ट पर देश में किसी भी राज्य ने ध्यान नहीं दिया लेकिन पश्चिम बंगाल सरकार ने मुसलमानों के लिए नौकरी में 10 प्रतिशत आरक्षण लागू कर दिया। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने माओवाद को देश की सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा माना और बुद्धदेव भट्टाचार्य ने तुरंत मान लिया। उल्लेखनीय है प्रधानमत्री मनमोहन सिंह के बोलने के पहले माकपा का कोई नेता माओवाद को देश का सबसे बड़ा खतरा नहीं मानता था। माकपा ने माओवाद के खिलाफ राजनीतिक संघर्ष पर हमेशा जोर दिया था। लेकिन प्रधानमत्री मनमोहन सिंह ने सशस्त्रबलों की कार्रवाई पर जोर दिया और मुख्यमंत्री ने पार्टी की नीति और राय के खिलाफ जाकर केन्द्र के फैसले का समर्थन किया। मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने पार्टीलाइन के बाहर जाकर माओवादियों के खिलाफ संयुक्त सशस्त्रबलों की साझा कार्रवाई पर सक्रियता दिखाई है। मुख्यमंत्री के रवैय्ये में दूसरा परिवर्तन यह हुआ है कि प्रशासन चलाने के मामले में विमान बसु को हाशिए पर डाल दिया गया है। इसके कारण अनेक क्षेत्रों और समुदायों लोगों के लिए कल्याणकारी घोषणाएं करने में मुख्यमंत्री सफल रहे हैं। यह इस बात का भी संकेत है कि प्रशासन के मामले में मुख्यमंत्री महत्वपूर्ण है,प्रशासन महत्वपूर्ण है, पार्टी गौण हो गयी है। ये सारे परिवर्तन सन् 2009 के लोकसभा चुनावों में भारी पराजय के बाद उठाए गए हैं। इससे एक संकेत यह मिलता है कि माकपा से राज्यप्रशासन को स्वायत्त बनाने की प्रक्रिया में मुख्यमंत्री को किसी हद तक सफलता मिली है। लेकिन अभी इस दिशा में बुनियादी परिवर्तन करने की जरूरत है। मसलन् 13 फरवरी की विशाल चुनावसभा में मुख्यमंत्री कोई सकारात्मक भावी कार्यक्रम की घोषणा नहीं कर पाए। वाममोर्चे की पहली विशाल चुनावसभा में आगामी चुनाव के लिए कोई नारा नहीं दिया गया । भावी नई वाम सरकार की कोई परिकल्पना और कार्यक्रम भी घोषित नहीं किया गया। मुख्यमंत्री का समूचा भाषण ममता बनर्जी पर केन्द्रित था। ममता बनर्जी पर हमला करने के चक्कर में मुख्यमंत्री यह भूल गए कि उन्हें आगामी चुनाव का प्रधान एजेण्डा बताना है। यह बड़ी चूक है। इस बार वाममोर्चे ने चुनावी नारे और कार्यक्रम के अभाव में चुनाव अभियान की शुरूआत की है। यह अशुभ संकेत है।

विकिलीक्स के लीक

विजय कुमार

बचपन में आपने भी ऐसी कहानियां सुनी होंगी, जिनमें वनदेवी की कृपा से किसी बच्चे को पक्षियों की बोली समझने का वरदान मिल गया। कुछ दिन पहले मैंने नाली में फंसे एक कुत्ते के पिल्ले की जान बचाई थी। सबने मेरे इस काम की प्रशंसा की। यद्यपि कुछ विरोधियों ने इसे मेरा ‘भाईचारा’ कहकर हंसी भी उड़ाई।

खैर जो भी हो, पर उस दिन से मुझे पशु-पक्षियों की तो नहीं; पर बहुत दूर से ही राजनेताओं में हो रही वार्ता सुनने की शक्ति मिल गयी। मुझे लगता है वह कुत्ते के पिल्ला पूर्व जन्म में जरूर राजनेता रहा होगा। ऐसा ही एक प्रसंग आपको बताता हूं।

परसों मैं हर दिन की तरह अपने मोहल्ले के पार्क में व्यायाम और आसन कर रहा था। सामने की बैंच पर बैठे दो लोग धीरे-धीरे किसी गंभीर वार्तालाप में व्यस्त थे। चेहरे से तो वे आदमी जैसे ही लग रहे थे; पर उनकी बातचीत पर ध्यान दिया, तो पता लग गया कि वे राजनेता हैं।

वर्मा – शर्मा जी, ये विकीलीक्स क्या चीज है ?

– फेविकोल की तरह प्लास्टिक या कांच के बरतनों की टूटफूट और लीकेज रोकने के लिए कोई नयी गोंद बनी होगी।

वर्मा – अरे नहीं।

– कई बार बरसात में मकान की छत चूने लगती है। उसे रोकने के लिए ये तारकोल जैसी कोई चीज होगी।

वर्मा – नहीं शर्मा जी।

– सरदी और गरमी में कई बार नाक बहने लगती है, इसके लिए विक्स कम्पनी ने कोई नई गोली बनाई होगी।

वर्मा – शर्मा जी, आपको हंसी सूझ रही है; पर इसके कारण सारी दुनिया में तहलका मचा है। सुना है जूलियन असांजे नामक किसी आदमी ने अमरीका के रक्षा मंत्रालय से गुप्त दस्तावेज चुराकर उन्हें अंतरजाल पर जारी कर दिया है।

– तो उससे हमें क्या अंतर पड़ता है, वर्मा जी ?

वर्मा – उसमें कई दस्तावेज भारत से संबंधित भी हैं।

– होंगे। हम अपनी सीट, परिवार और दो नंबर के कारोबार की चिन्ता करें या भारत की ?

वर्मा – पर सुना है उन्होंने स्विस बैंक के गुप्त खातों की जानकारी भी प्राप्त कर ली है, और उसमें बहुत से खाते भारत वालों के हैं।

– अच्छा….! तब तो बड़ा झंझट हो जाएगा। इस अतंरजाल के जंजाल से बचने का कोई रास्ता बताओ।

वर्मा- इसका मतलब है कि तुम्हारा भी वहां खाता है ?

– क्यों, तुम्हारा नहीं है क्या ? हमसे मत छिपाओ वर्मा जी। ये बाल धूप में सफेद नहीं किये हैं।

वर्मा- पर ये तो बताओ शर्मा जी, यदि हमारे गुप्त खातों की बात जनता को पता लग गयी, तो लोग हमें नोच लेंगे।

– हां, मैंने तो सारे खातों को ठीक करने के लिए अपना एक खास आदमी वहां भेज दिया है।

वर्मा- यानी तुम्हारे वहां कई खाते हैं ?

– अरे चुप रहो, कोई सुन लेगा। एक खाते से कहीं काम चलता है क्या ?

वर्मा- शर्मा जी, सरकार पर भी बड़ा दबाव है कि वह इन बैंकों में काला धन रखने वालों के नाम सार्वजनिक करे।

– वर्मा जी, सरकार से तो डरो मत। क्योंकि सबसे अधिक खाते तो उन नेताओं और अफसरों के ही हैं, जो आजादी के बाद से देश को लूट रहे हैं। इसलिए सरकार उनके नाम नहीं खोलेगी।

वर्मा – पर विपक्ष वाले बहुत शोर मचा रहे हैं।

– उनका तो काम ही यही है। क्या उनके खाते नहीं हैं वहां ? चुनाव में करोड़ों रु0 खर्च करने के लिए कहां से आते हैं ? इस हमाम में अधिकांश दल नंगे ही हैं।

वर्मा – तो हम निश्चिंत रहें ?

– सरकार तो कुछ नहीं करेगी, हां विकीलीक्स, बाबा रामदेव या तहलका वाले कोई धमाका कर दें, तो परेशानी हो जाएगी।

वर्मा – तहलका वालों का तो काम ही यही है; पर बाबा रामदेव को ये क्या सूझी है ? अच्छा खासा योग करा रहे थे। जनता का स्वास्थ्य तो ठीक हुआ नहीं, देश के स्वास्थ्य के चक्कर में पड़ गये।

बात तो उनकी लम्बी थी; पर औरों की बजाय अपने स्वास्थ्य की चिंता करते हुए मैंने आसन के बाद प्राणायाम चालू कर दिया।

असमंजस और कुछ नहीं!

दुर्गेश कुमार मिश्रा

शासन और व्यवस्था से सभी पीडित हैं । जिम्मेदार कौन ? स्वयं उत्तर देते हैं, नेता ! ये जवाब सभी की जुबान पर होता है। जैसी आजादी के मतवालों के लिए वन्देमातरम्। हर कोई भ्रष्ट व्यवस्था व इस तंत्र के कानूनी मकड़जाल में फंसा है। हताश, परेशान, शोषित, झुझलाते आपको जरूर मिल जायेगा। इससे कुछ वक्त बचा तो नुक्कड़, चौराहों व चाय की दुकान पर नेता और बाबू को इतनी गालियाँ देंगे कि महाभारत में दुष्शासन ने भी श्रीकृष्ण को नहीं दिया । इससे इतर जो बुद्विजीवी है वे सत्ता और तंत्र पर बेबाक टिप्पणी करेंगे कि उन्हें छोड़कर मौजूदा हालात के सभी जिम्मेदार हैं और कहीं राजनीतिक पार्टियों से ताल्लुक रखते हैं, तो जगह कुछ भी हो कुरूक्षेत्र मानो वही है। एक वर्ग और भी जिसका केवल काम पुतला जलाओं और अनशन पर बेठना है। मसलन इस समूची व्यवस्था में दूसरे को चोर कहने से कोई पीछे नहीं हटता।

शासन से लेकर प्रशासन तक बिना माफियाओं एवं दलालों के कमजोर हैं । आज देशभक्ती वो दिखाते हैं, जिन्हें देश से कोई मतलब नहीं, वोट वो मांगते हैं, जिन्हें जनता से मतलब नहीं, धर्म के लिए वो लड़ते है जिन्हें कुरान, गीता से मतलब नहीं और समाज सेवा वो कर रहें है जिनके पास सबकुछ है पर समाज को देने के लिए कुछ नहीं । जनता भी इन्हीं महानुभावों की दीवानी है जैसे मीरा श्रीेकृष्ण की थी।

ये कैसा भारत और किसका भारत? शासन सत्ता स्वीकारती है भ्रष्टाचार है , न्यायालय मानती है भ्रष्टाचार है और मीडिया भी इससे अछूती नहीं है। सरकारी संपत्ति आपकी अपनी संपत्ति इसकी रक्षा करें अब इस आदर्श वाक्य को लोगों ने अपना लिया तो बुराई क्या है क्योंकि संपत्ति की हिफाजत तो घर की तिजोरी में होती है। अब इसे खत्म करने की मुहिम चलायी जा रही है और उसमें वही शामिल हैं जो इसके निरन्तर फलने-फूलने में प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से सहायक रहें है। मतलब चोरी खत्म करने की बात की जा रही पर चोर को पकड़कर उसे सजा देने की बात नहीं।ऐसे ही आतंकवाद को खत्म करो पर आतंकवादी को नहीं।अब ये खत्म कैसे हो? इस पर मंथन हो रहा है।

दुःख होता है जब आज की पीढ़ी लाचार और पंगु ऐसी खड़ी है मानो वे आज भी गुलाम हैं। और उन्हें देखकर लगे जैसे अंग्रेजों को भारत से खदेड़ने वाले देशभक्त एक काल्पनिक पात्र थे। आखिर ये कब तक? एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में महत्वपूर्ण है कि उसकी जनता कैसे शासित होती है। आज बदलाव की जरूरत है । केवल सत्ता में ही नहीं बल्कि सभी जगह। इसलिए प्रजातंत्र में स्वयं के अधिकारों को जानना होगा । परिवर्तन के लिए आगे आना पड़ेगा । लेकिन उससे पहले स्वयं ईमानदार, देशभक्त नागरिक बनना होगा।


लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं

घोटालों का युग

अखिलेश आर्येन्दु

यह मामने में हमें कोई दिक्कत महसूस नहीं होनी चाहिए कि हम जिस युग में जी रहे हैं वह घोटालों का युग है । इस युग की शुरुआत कब हुई इसके बारे में इतिहासकारों में मतभेद तो हो सकते हैं लेकिन यह कोई नहीं कह सकता कि यह महान युग ‘घोटाले’ का नहीं है। हर युग की अपनी खासियत होती है । इस युग के पैरोकारों को घोटाला साम्राट, घोटाला महाराज, घोटाला भूषण, घोटाला श्री और घोटाला पति जैसे तमाम अलंकारों से विभूषित किया जा सकता है । मसलन, भूमि घोटाला करने वाले महापुरुष को घोटाला श्री, गेम्स घोटाले बाजों को घोटाला भूषण और तेल घोटाले बाज को घोटाला सिंधु से विभूषित किया जा सकता है । जिस तरह से होली पर मूर्खाधिपति, लंठाधिराज और वैसाखनंदन आदि विशेषणों से विभूषित कर होली की महानता को प्रदर्षित करते हैं, कुछ वैसे घोटाले बाजों को भी तमाम तमगों से नवाज सकते हैं । मेरी समझ से अपने इस महान देश में हर कुछ संभव है । असंभव जैसे शब्द इस धरती के नहीं लगते। यह भी आयात किया हुआ लगता है । जब कृषि प्रधान देश में गेंहू, तेल, चावल और चीनी का आयात ताली ठोक के जनहित में किया जा सकता है तो ‘असंभव’ का भी आयात कर लिया गया। और इस असंभव जैसे हताश करने वाले शब्द का इस्तेमाल सरकार और गैरसरकारी स्तरों पर करने की एक परम्परा ही चल पड़ी है । जैसे पुलिस का सुधार असंभव है। देश से गरीब को पूरी तरह से हटा पाना असंभव है इत्यादि। उसी तरह से घोटालों के इस युग में घोटले बाजों को पूरी तरह से सफाया नहीं किया जा सकता है । यानी जिस तरह से हवा हमारी जिंदगी का पर्याय है उसी तरह घोटाला अर्थात् भ्रष्टाचार हमारे जिंदगी का अहम हिस्सा बन गया है । इसलिए इस युग को घोटाला युग से कहना कोई संविधान का सीधा-सीधा उल्लंघन नहीं है। वैसे इस महान देश को ही सोने की चिड़िया कहा जाता रहा है । बात बहुत ही रिसर्च वाली लगती है । जहां सोने की चिड़ियाएं इतनी बड़ी तादाद में हों, वहां घोटालेबाज यानी चिड़ियामार न हों, संभव ही नहीं है । इस लिए घोटाले बाजों का हमें खैरमखदम करना चाहिए। यदि देश को चर्चा में बनाए रखना है, तो ऐसे कार्यों को करने वालों का हौसला अफजाई करना ही चाहिए। वे चाहे राजा जी हों या राडिया जी। सभी इस धरती की संतान हैं । घोटाले के युग की महान धारा के पैरोकार और झंडाबरदार हैं। जो जिस युग का नेता या अभिनेता होता है उस युग की महान धारा को तो आगे बढ़ाएगा ही। अपने देश की तो परम्परा रही है, महानता की। जब भ्रष्टाचार, हरामखोरी और बेईमानी हमारे लिए कोई दिक्कत नहीं पैदा कर रहे हैं तो घोटालों और घोटालेबाजों को हम क्यों बुरा-भला कहते फिरते हैं? क्या यह स्वार्थपूर्ण भावना की अभिव्यक्ति नहीं है?

* लेखक ‘आर्य संदेश’ पत्रिका के संपादक हैं।

मिस्र में आखिरकार अभी आंदोलन क्यों हुआ ?

जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

मध्यपूर्व के अरब देशों में प्रतिवाद की आंधी चल रही है। सारे ज्ञानी और विशेषज्ञ परेशान हैं कि आखिरकार यह आंधी कहां से आई ? मिस्र में लोकतंत्र का जो आंदोलन चल रहा है वह इसी समय क्यों सामने आया ? मिस्र और दूसरे अरब देशों में जनता आज कुर्बानी के लिए आमादा क्यों है ? कुर्बानी और लोकतंत्र का यह जज्बा पहले क्यों नहीं दिखाई दिया ? लोकतंत्र का महानतम लाइव टीवी कवरेज क्यों आया ? इत्यादि सवालों पर हमें गंभीरता के साथ विचार करना चाहिए।

अरब में लोकतंत्र और सर्वसत्तावादी शासकों के खिलाफ जो आंधी चल रही है उसका बुनियादी कारण है इराक में अमेरिका और उसके सहयोगी देशों की सैन्य-राजनीतिक पराजय और उनका वहां से पलायन। आज अमेरिका इस स्थिति में नहीं है कि वह इराक में जीत जाए। इतने व्यापक खून-खराबे और जन-धन की व्यापक हानि के बाबजूद अमेरिकी सेनाएं 2011 के अंत तक इराक से वापस आ जाएंगी ऐसा ओबामा ने कहा है।

ओबामा के द्वारा इराक से सेना वापसी का कार्यक्रम घोषित करने के बाद से अरब जनता में अमेरिकी वर्चस्व का मिथ टूटा है। यह मिथ भी टूटा है कि मध्यपूर्व को सेना के नियंत्रण में रखा जा सकता है। साम्राज्यवाद और उसके गुर्गे तब तक ही शासन करते हैं जब तक सेना संभालने में सक्षम हो। सैन्य नियंत्रण के बिना साम्राज्यवाद अपना शासन स्थापित नहीं कर पाता। अमेरिकी सेना की वापसी इस बात का संकेत है कि अमेरिकी सेनाएं मध्यपूर्व को संभालने में सक्षम नहीं हैं। यह सैन्य आतंक के अंत की सूचना है और मध्यपूर्व और खासकर मिस्र की जनता ने इस इबारत को सही पढ़ा है।

सामयिक अरब प्रतिवाद का पहला संदेश है भूमंडलीकरण के आने के साथ जिस अमेरिकी वर्चस्व की स्थापना हुई थी वह वर्चस्व खत्म हो गया है। जिस तरह पोलैण्ड की जनता के प्रतिवाद ने समाजवाद की सत्ता से विदाई कर दी ,समाजवाद में निहित सर्वसत्तावाद को नष्ट कर दिया था और उससे समूचा समाजवादी जगत प्रभावित हुआ था। ठीक वैसे ही भूमंडलीकरण के अमेरिकी वर्चस्व की कब्रगाह अरब मुल्क बने हैं। उल्लेखनीय है सोवियत सेनाओं की अफगानिस्तान से वापसी के बाद समाजवाद बिखरा था। इराक से सेना वापसी से अमेरिका प्रभावित होगा। उसका विश्वव्यापी सैन्यतंत्र प्रभावित होगा। यानी मुस्लिम देशों ने सोवियत संघ और अमेरिका दोनों को प्रभावित और पराजित किया है। सोवियत संघ की अफगानिस्तान से वापसी के साथ समाजवाद गया और इराक से अमेरिकी सेनाओं की वापसी की घोषणा के साथ भूमंडलीकरण -शीतयुद्ध का अंत हुआ है।

उल्लेखनीय है शीतयुद्ध का प्रधान संघर्ष केन्द्र मध्यपूर्व है। अमेरिकी विश्व राजनीति की यह प्रमुख धुरी है। अरब जनता और अरब देशों की एकता को सबसे पहले मिस्र को साथ मिलाकर अमेरिका-इस्राइल ने तोड़ा था। आज उसी मिस्र के पिट्ठू शासक हुसैनी मुबारक और उनकी चारणमंडली को मिस्र की जनता ने ठुकरा दिया है।

मिस्र का एक और संदेश है कि अमेरिकी वर्चस्व,सर्वसत्तावाद और सैन्यशासन को लोकतांत्रिक फौलादी एकता के आधार पर ही चुनौती दी जा सकती है।लोकतांत्रिक एकता सर्वसत्तावादी विचारधाराओं और शासकों के लिए मौत की सूचना है।

मिस्र में हुसैनी मुबारक ने राष्ट्रपति पद से इस्तीफा देने के बाद अज्ञातवास का निर्णय लिया है। अमेरिका को मालूम है कि मुबारक कहां रह रहे हैं। मिस्र की सेना के बड़े अफसर भी जानते हैं। कायदे से मुबारक के खिलाफ मानवाधिकार हनन के लिए मिस्र की अदालत में मुकदमे चलाए जाने चाहिए। उन्हें गिरफ्तार किया जाना चाहिए। सद्दाम और मिलोशेविच के लिए जो मानक अमेरिका ने लागू किए थे ,न्याय-अन्याय के वे मानक मुबारक पर भी लागू होते हैं। मुबारक के खिलाफ असंख्य अपराधों की शिकायत वहां की जनता ने की है और अमेरिकी प्रशासन ने उन्हें इस तरह अज्ञातस्थान पर क्यों जाने दिया ? ओबामा प्रशासन ने अभी तक मुबारक के मानवाधिकारहनन के कारनामों पर मुँह क्यों नहीं खोला ?

विगत तीन दशकों से मिस्र की जनता ने जिस तरह का दमन,उत्पीडन और आतंक झेला है उसका कायदे से मूल्यांकन होना चाहिए और उत्पीडितों को न्याय मिलना चाहिए । साथ ही मुबारक शासन के जो लोग मिस्र की जनता पर बेइंतिहा जुल्म ढाने के लिए जिम्मेदार हैं उनकी निशानदेही होनी चाहिए। इसके अलावा मुबारक और उनकी कॉकस मंडली के लोगों के बैंक खाते सील किए जाने चाहिए।

आश्चर्य की बात है कि मुबारक के द्वारा किए गए मानवाधिकारों के हनन पर अमेरिकी प्रशासन और बहुराष्ट्रीय अमेरिकी मीडिया एकदम चुप्पी लगाए बैठा है।जबकि यही मीडिया इराक के सद्दाम हुसैन और यूगोस्लाविया के मिलोशेविच के मामले में अतिरंजित और झूठी मानवाधिकार हनन की खबरें तक हैडलाइन बनाता रहा है। आज किसी भी अमेरिकी मीडिया में मुबारक के अत्याचारों का आख्यान नहीं मिलेगा।

उल्लेखनीय है सेना जनांदोलन में फूट पड़ने का इंतजार कर रही थी, बहुराष्ट्रीय मीडिया ने मुस्लिम ब्रदरहुड का फंडामेंटलिस्ट पत्ता चला था जो असफल रहा। जनता के अन्य ग्रुपों में भी दरार पैदा करने की कोशिश की जा रही है। लेकिन आम जनता में लोकतंत्र की मांग पर कुर्बानी का जज्बा देखकर सभी राजनीतिक संगठनों के दिमाग सन्न हैं। मिस्र के आंदोलन में पुलिस के हाथों 300 से ज्यादा लोग मारे गए हैं । सैंकड़ों आंदोलनकारी अभी भी जेलों में बंद हैं। 24 से ज्यादा पत्रकार बंद हैं।विगत 25 सालों में लोकतंत्र के लिए दी गई यह विश्व की सबसे बड़ी कुर्बानी है।

मिस्र के जनांदोलन ने अरब औरतों के बारे में कारपोरेट मीडिया निर्मित मिथ तोड़ा है । अरब औरतों ने जिस बहादुरी और समझबूझ के साथ इस आंदोलन में नेतृत्वकारी भूमिका अदा की है उसने बुर्केवाली,बेबकूफ,जाहिल मुस्लिम औरत की ग्लोबल मीडिया निर्मित इमेज को पूरी तरह तोड़ दिया है। बगैर किसी फेमिनिज्म के इतने बड़े पैमाने पर औरतों का संघर्ष में सामने आना, व्यापक शिरकत करना और नेतृत्व करना अपने आप में इस दौर की महानतम उपलब्धि है। औरतों का प्रतिवाद बगैर फेमिनिज्म के भी हो सकता है यह संदेश अमेरिकी विचारधाराओं के गर्भ से पैदा हुए फेमिनिज्म को संभवतः समझ में नहीं आएगा।

मिस्र के जनांदोलन में युवाओं का जो सैलाब दिखा है,मजदूर संगठनों का जो जुझारू और संगठित रूप दिखा है उसने संदेश दिया है कि लोकतंत्र की अग्रणी चौकी की रक्षा की कल्पना मजदूरों के संगठनों के बिना नहीं की जा सकती।

उल्लेखनीय है पोलैंड में मजदूरवर्ग ने ही समाजवाद को चुनौती दीथी और समाजवादी व्यवस्था के सर्वसत्तावाद को नष्ट किया था। मिस्र में भी मजदूर अग्रणी कतारों में हैं। देश के सभी मजदूर संगठनों ने व्यापक रूप में कामकाज ठप्प कर दिया । समूचे प्रशासन को ठप्प कर दिया। तहरीर एस्क्वेयर पर वे अग्रणी कतारों में थे।

तहरीर चौक पर स्त्रियों, मजदूरों और युवाओं की धुरी के कारण मुस्लिम ब्रदरहुड जैसे फंडामेंटलिस्ट संगठन को अपने फंडामेंटलिस्ट एजेण्डे को वैसे ही स्थगित करना पड़ा जैसे एनडीए में भाजपा को अपने हिन्दुत्व के एजेंडे को त्यागना पड़ा। इसी तरह अमेरिकी फंडिंग से चलने वाले किफाया संगठन को भी अपने एजेण्डे को स्थगित रखने पर मजबूर किया।

औरतों,मजदूरों और युवाओं की व्यापक लोकतांत्रिक फौलादी एकता ने मिस्र और अरब देशों में लोकतंत्र की अकल्पनीय विकल्पों की संभावनाओं के द्वार खोले हैं। किफाया और मुस्लिम ब्रदरहुड अपने एजेण्डे में सफल नहीं हो पाए हैं इसका बड़ा श्रेय औरतों, मजदूरों और युवाओं के संगठनों के बीच पैदा हुई लोकतांत्रिक एकता को जाता है।

सारी दुनिया में भूमंडलीकरण और नव्य उदार आर्थिक नीतियों के शिकार मजदूर,औरतें और युवा रहे हैं अतः मिस्र में ये वर्ग और समुदाय संघर्ष और कुर्बानी की अग्रणी कतारों में हैं।

मिस्र के जनांदोलन के कारण मध्यपूर्व में नए सिरे से युवाओं की लोकतांत्रिक जुझारू राजनीति में दिलचस्पी बढ़ेगी। अरब युवाओं के बागी तेवर नए सिरे से देखने को मिलेंगे। मिस्र के जनांदोलन ने युवाओं को नए सिरे से पहचान दी है और आज उनके पास टेलीविजन और इंटरनेट जैसा सशक्त माध्यम भी है।

मिस्र के जनांदोलन ने कारपोरेट मीडिया के जन-उपेक्षा और नियंत्रण का मिथ तोड़ा है। यह संदेश दिया है जनता का यदि कोई तबका आंदोलन करेगा तो टीवी वाले वहां सहयोगी होंगे। टीवी का सिर्फ कारपोरेट -मनोरंजन एजेण्डा नहीं होता बल्कि लोकतांत्रिक राजनीति के प्रचार-प्रसार का भी एजेण्डा हो सकता है।

अलजजीरा-अलअरबिया-बीबीसी लंदन आदि के कवरेज में कोई भी नजरिया व्यक्त हुआ हो,लेकिन आंदोलन के फ्लो का अहर्निश कवरेज हैडलाइन बना रहा है। कई दिनों तक लाइव कवरेज चलता रहा है। अभी तक मध्यपूर्व से सैन्य ऑपरेशन का लाइव कवरेज आया था जो 1992-93 में सीएनएन ने दिखाया था ।वह अमेरिकी वर्चस्व के चरमोत्कर्ष का कवरेज था। इस कवरेज को मिस्र की जनता के आंदोलन के कवरेज ने धो दिया है। मिस्र में मुबारक के खिलाफ जो गुस्सा था उस गुस्से में अमेरिकी नीतियों,नव्य उदार भूमंडलीकरण, सैन्यशासन और सर्वसत्तावाद के खिलाफ जन प्रतिवाद शामिल है। टीवी के लोकतांत्रिक लाइव कवरेज के मामले में मिस्र ने बाजी मार ली है। कहने का अर्थ यह है कि मीडिया के नए एजेण्डे की प्रयोगस्थली मध्यपूर्व है। विकसित पूंजीवादी देश नहीं।

लाशों के साए में लीबिया में लोकतंत्र की तलाश

जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

लीबिया में कर्नल गद्दाफी के 41 साल के अधिनायकवादी शासन के खिलाफ जनता सड़कों पर निकल आयी है। वहां पर गद्दाफी और उनके परिवार का एकच्छत्र शासन है और किसी भी किस्म के प्रतिवाद,अपील,वकील,दलील की देश में कोई संभावनाएं नहीं हैं। आम जनता के प्रतिवाद में अब तक 265 से ज्यादा लोग मारे गए हैं और सैंकड़ों घायल हुए हैं। जनता का प्रतिवाद निरंतर फैल रहा है और अब तक देश के 7 शहरों में आम जनता ने जमकर प्रतिवाद आयोजित किया है। लीबिया के प्रतिवाद में आम जनता गद्दाफी के अधिनायकवाद की समाप्ति चाहती है। इसके विपरीत गद्दाफी का परिवार किसी भी कीमत पर गद्दी छोड़ने के लिए तैयार नहीं है। वे अंतिम दम तक जनता से संघर्ष करने का संकल्प व्यक्त कर चुके हैं।

गद्दाफी की तुलना किसी फासिस्ट से ही की जा सकती है। उसने आम जनता के शांतिपूर्ण जुलूसों पर बर्बर गोलीबारी की है। जमीन और आकाश से जुलूसों पर गोलीबारी की गई है। अनेक ब्लॉगर हैं जो लीबिया में जान जोखिम में डालकर लिख रहे हैं और आम जनता को एकजुट आंदोलन चलाने में मदद कर रहे हैं। लेकिन इस सप्ताह से लीबिया के शासकों ने इंटरनेट सर्वर बंद कर दिए हैं। लैंडलाइन फोन काट दिए हैं।मोबाइल सेवाओं को बाधित कर दिया है। घरों की बिजली सप्लाई बंद कर दी गयी है।

लंदन से प्रकाशित गार्दियन ने अनुसार यहां तक कहा जा रहा है कि यदि जनता ने अपना प्रतिवाद जारी रखा तो पीने के पानी में जहर मिला दिया जाएगा। आंदोलनकारियों के मारी गयी ज्यादातर गोलियां सिर में लगी हैं। अनेक शहरों में स्थानीय पुलिस के अनेक जवानों ने जनांदोलन में शिरकत की है। कल रविवार (20 फरवरी 2011) के दिन बेनगाजी में एक साथ 60 आंदोलनकारियों की लाशों के साथ जुलूस निकाला गया था जिसमें हजारों लोगों शिरकत की। उल्लेखनीय है कि बेनगाजी शहर राजधानी त्रिपोली से 650 किलोमीटर दूर है और विपक्ष का बड़ा केन्द्र है। लीबिया में आंदोलन स्थलों पर विदेशी या स्थानीय पत्रकारों को जाने की अनुमति नहीं है और न किसी पत्रकार को फोन से बात करने दी जा रही है। फोन कटे पड़े हैं,या काट दिए जाते हैं। जो सूचनाएं बाहर आ रही हैं उनकी पुष्टि करना संभव नहीं है। लीबिया में चल रहे आंदोलन के संदर्भ में Shariah Scholars Association, Libya Sheikh Nasrallah Said Akkub ने जो बयान दिया है वह उल्लेखनीय है। उन्होंने कहा है-

”Bear the Jamiat Ulema-law of Libya Libyan regime fully responsible for everything that happened and is happening from the massacres and crime against the citizens of Libya’s isolation, carrying Colonel Muammar Gaddafi personally and his children and those around him responsible for the rivers of blood flowing and flowing profusely in all our cities Libya, especially in the city of Benghazi, and responsibility Launched for the lives that have killed for premeditated and deliberate, which amounted to hundreds, and the wounded, whose number exceeded one thousand wounded during a few days, so by the foreign mercenaries from Africa and elsewhere, and by the militias of the Revolutionary Committees armed under the control of Colonel Muammar Gaddafi personally.

It calls on the Assembly of Shariah scholars to Libya all the sons and daughters of our Libyan east and west, north and south, and all tribes, and the Libyan families and our armed forces and honest security services and the nobility of the revolutionary committees to stand together and cohesion with their fellow citizens demanding a decent life and decent living, and freedom, dignity and social justice, and the lifting of restrictions of oppression and shackles of injustice , and all forms of despotism and tyranny, and asking them to prevent militia, the Revolutionary Committees and foreign mercenaries to kill the sons and daughters Libya insulation, and to stop the bleeding blood-Libi, and learning that they stand with their fellow citizens and legitimate duty, patriotic does not excuse the failure to him. Also confirms Association Sharia scholars to Libya that the legitimacy of Colonel Muammar Gaddafi has fallen a legitimate, popular and morally, and it calls for the trial to a fair trial to be a lesson to all criminal and serial killer, and calls for the Assembly of Sharia scholars Libya international courts to issue a request to bring the right of Colonel Muammar Gaddafi, to be tried as a war criminal.”

इसके अलावा सुन्नी बोर्ड के प्रधान का भी एक बयान आया है जिसमें कहा गया है-

In the name of God the Merciful

Praise be to Allah, and peace and blessings be upon His Messenger Secretary and after: The eye tears and the heart to grieve, do not say except what pleases our Lord and God and to Him we shall return, and no strength except in Allah the Almighty. The heart of any Muslim can be received by the painful news we get from Libya beloved killed a number of sons at the hands of their children some security men who are supposed to be protectors of their fellow compatriots.

It is a truism to recall in this place how great bloodshed, and murder innocent people, how Allah Almighty says: {And whoever kills a believer intentionally, his recompense is Hell to abide therein and the wrath of God upon him, and prepared for him a great punishment}, and says: {for that we wrote to the Children Israel that whoever kills the same or corruption in the earth as if he killed all people live as if it is recited by all the people} And our Prophet peace be upon him says: (still a believer in a space of religion unless it pours blood haram).

We urgently call on the following: 1 off the battalions that are fired live bullets on civilian demonstrators. Two immediate halt to all who gave the orders to fire live bullets at demonstrators and carried out these orders and bring them to trial.

3 released immediately to all detainees who have been security agents arrested them without any conditions. 4 to allow citizens to demonstrate peacefully to demand their rights without intimidation, and intimidation.5 respect people’s right to self-determination.

We as a matter of legitimate performance of the Secretariat these messages go to everyone who has a heart or who gives ear and earnestly witnesses. The first message: To all those who bear the responsibility, and wore a dress the Secretariat, and presented himself to the question in the world and the Hereafter true to say peace be upon him {you is a shepherd and is responsible for his flock shepherd and is responsible for his flock}: to improve their listening to the demands of their brothers and their children, who came out to express them peaceful world without violence or abuse, and consider it into wisdom, justice and equity, and to know that these young men are sons of this homeland, and that the right which is guaranteed to them all the heavenly religions and all laws ground to express their demands, needs and grievances and aspirations of all freedom of choice and, secretly and openly, individually and collectively, is committed to peace and non-aggression.

The second message: To all Secretaries of the committees on security and public sectors in Libya: to issue orders and categorically to prevent the use of force against unarmed innocent people, and that they take at the hands of anyone who violates it, the they do not they partners in the crime of murder, and will bear full responsibility before God for every drop of blood being shed from the blood of the sons of the Libyan people Aziz.

The third message: To our brothers and sisters of the Libyan people who came out demanding their rights to commit themselves to peaceful expression, and to come together on the word either, and decide what they want clearly, and adhere to the ethics of Islam in such a citizen that forbid the use of curses, insults, and the injustice of others, and abuse the property of innocent people and destroying their shops, or their windows or lighting the fire in the public utilities and the like.

{And Allah has full power over His Affairs, but most people do not know}.

And free on Friday, 15 Rabi I 1432 – 02/18/2011

President of the Association: Dr.. Ahmad Chris

Secretary-General of the Commonwealth of d. Safwat Hegazi

Date: 20/02/2011

अलजजीरा के अनुसार मानवाधिकार संगठनों ने भी लीबिया के बारे में एक बयान जारी किया है,अलजजीरा के अनुसार- Crossed the Arab Organization for Human Rights expressed its strong condemnation of what it called the massacre of protesters in Libya. The African mercenaries and the elements of the Revolutionary Committees, firing live bullets at demonstrators.

The statement said the organization was in Cairo yesterday Eighty people were killed in the protests, which began peaceful demonstrations in the early days the first three, and that its goal was to obtain political freedoms, respect for human rights, combating corruption, and to desist from repressive means in the management of the country, and the accountability of perpetrators of massacres of prisoners at Abu properly.

The organization said that the Libyan security services were involved, “Sadly,” with African mercenaries and the elements of the Revolutionary Committees in the use of live bullets to quell protesters, and the threat of the revolutionary committees of more killings and intimidation what it calls a shocking reply landing on the demonstrators.

The statement said “The system is arranged counter-demonstrations led by Colonel (Muammar) Gaddafi personally in Tripoli, and carried by public TV, as well as blocking the Internet and mobile phone in areas of protests, and so on as used in Egypt, which backfired.”

The organization called the Libyan authorities to refrain from “acts of murder and intimidation and immediately release all detainees.”

It also called for an international investigation into the massacres taking place in Libya, “after all efforts failed since 1996 to conduct a serious investigation into the massacre of more than 1200 people in the Abu Salim prison.”

Date: 20/02/2011

कर्ज से हारती किसान की जिंदगी

राजेन्‍द्र बंधु

”किसान से कब बंधुआ मजदूर बन गया, यह नंदकिशोर का पता ही नहीं चला। महंगे कीटनाशक, महंगे बीज और रासायनिक खाद ने उसे कर्जदार बना दिया। अपने एक भाई, दो बेटियों और बुजुर्ग मां सहित छह सदस्‍यों का भरण पोषण चार एकड् खेती से संभव नहीं रहा और इधर साहूकार का 50 हजार का कर्ज सिर पर था। खेती की जिम्‍मेदारी भाई को सौपकर खुद बंधुआ मजदूर बनकर साहूकार के ट्रेक्‍टर की ड्राईवरी करने लगा। कुछ सालों तक बंधुआ मजदूर बने रहकर उसे लगा कि इससे तो कभी कर्ज उतरेगा नहीं। लिहाजा उसने बटाई पर खेती करने का उपाय सोचा। नंदकिशोर ने उसी साहूकार की 20 बीघा जमीन 25 हजार रूपए में बंटाई पर ली, जिसके यहां वह बंधुआ था। ये 25 हजार रूपए भी उसके सिर पर कर्ज के तौर पर बढ् गए, जिसकी जमानत के रूप में उसने पत्‍नी के चांदी के जेवर गिरवी रखे। इस तरह बंधुआ मजदूरी और खेती साथ-साथ चलने लगी। इस बीच बेटी बीमार हो गई, जिसके इलाज के 10 हजार रूपए भी उसी साहूकार से उधार लेने पड़े। बढ़ते कर्ज के बावजूद खेतों में लहलहाती फसलें उसमें उत्‍साह पैदा कर रही थीं। लेकिन ठंड पड़ते ही पाला पड़ गया और पूरी फसल तबाह हो गई। लहलहाती फसलों के बर्बाद होने का सदमा वह झेल नहीं पाया और कीटनाशक पीकर अपनी जिंदगी खत्‍म कर ली।”

मध्‍यप्रदेश के बुंदेलखंड क्षेत्र के दमोह जिले के हर्रई नामक गांव के नंदकिशोर की यह कहानी बताती है कि किस तरह लघु और सीमांत किसान मजदूर में तब्‍दील होते जा रहे हैं। पिछले दो महीनों में मध्‍यप्रदेश में 38 किसानों ने आत्‍महत्‍या के प्रयास किए, जिनमें 22 किसानों ने हमेशा के लिए अपनी जिंदगी खो दी। इसके पीछे पाला पड़ना और फसलों का तबाह होना मुख्‍य कारण माना जा रहा है। गौरतलब है कि इन 38 किसानों में से 26 किसान एक से पांच एकड़ खेती वाले हैं, जबकि तीन किसान सात से दस एकड़ तथा तीन किसान पन्‍द्रह से बीस एकड़ जमीन के मालिक रहे हैं। इनमें दो किसान ऐसे भी पाए गए, जिनके पास अपनी जमीन नहीं है, बल्कि वे बंटाई पर जमीन लेकर खेती करते रहे हैं। यानी आत्‍महत्‍या करने वाले किसानों में सर्वाधिक तादाद लघु और सीमांत किसानों की है।

साहूकारी कर्ज से मुक्ति नहीं

किसानों की आत्‍महत्‍या के पीछे कर्ज एक बड़ा कारण है। लोगों का मानना है कि कम भूमि वाले किसानों के लिए बगैर कर्ज के खेती करना असंभव हो गया है। बैंकों से मिलने वाला कर्ज अपर्याप्‍त तो है ही, साथ ही उसे पाने के लिए खूब भागदौड़ क‍रनी पड़ती है। ग्रामीण क्षेत्रों में स्थित बैंकों की शाखाएं अभी भी नौकरशाही से मुक्‍त नहीं हो पाई है, जो लघु व सीमांत किसानों के लिए असुविधाजनक है। इस दशा में किसान आसानी से साहूकारी कर्ज के चंगुल में फंस जाते हैं। मध्‍यप्रदेश में पिछले दो महीनों में आत्‍महत्‍या करने वाले किसान 20 हजार से लेकर 3 लाख रूपए तक के साहूकारी कर्ज में दबे थे। साहूकारी कर्ज की ब्‍याजदर इतनी ज्‍यादा होती है कि सालभर के अंदर की कर्ज की मात्रा दुगनी हो जाती है। ऐसे में यदि फसल खराब हो जाए तो आने वाले समय में यह संकट और भी बढ़ जाता है। आत्‍महत्‍या करने वाले पांच एकड़ जमीन वाले छह किसानों पर तो एक लाख रूपए से अधिक का कर्ज था। जिन 38 किसानों ने आत्‍महत्‍या के प्रयास किए उनके नाम पर कुल मिलाकर साहूकारों के 45 लाख रूपए और बैंको के 11 लाख रूपए का कर्ज है। इस तरह उनके कुल कर्ज का 80 प्रतिशत हिस्‍सा भारी ब्‍याज वाले साहूकारी कर्ज का है। यानी ग्रामीण क्षेत्रों तक बैंकों की पहुंच और किसान क्रडिट कार्ड के बावजूद किसान साहूकारों के सामने हाथ पसारने को विवश है।

दमोह जिले के कुलुआकला गांव में बंटाई पर खेती करने वाले 25 वर्षीय नंदराम रैकवाल पर करीब सवा लाख रूपए का साहूकारी था। इसी कर्ज की चिंता में उसने खुद को आग लगाकर जान दे दी। सागर जिले के देवरी गांव में 7 एकड़ जमीन पर खेती करने वाले त्रिलोकी पर डेढ़ लाख रूपए का कर्ज था। कीटनाशक पीकर आत्‍महत्‍या का प्रयास करने वाले दमोह जिले के मोहन रैकवार पर डेढ़ लाख रूपए के साहूकारी कर्ज का बोझ है। छतरपुर जिले के नाथनपुरवा गांव के कुंजीलाल के पास मात्र 7 एकड़ जमीन थीं और कर्ज की मात्रा तीन लाख। विदिशा जिले के रंगई गांव में तीन एकड़ जमीन के मालिक दौलतसिंह पर साहूकारों का 50 हजार रूपए का कर्ज है। कर्जदार किसानों की यह फेहरिश्‍त यहीं खत्‍म नहीं होती है, बल्कि मध्‍यप्रदेश के लगभग सभी लघु और सीमान्‍त किसान कर्ज के बोझ तले दबे हैं। यदि मध्‍यप्रदेश में किसानों पर कर्ज की मात्रा का आकलन करें तो इसका ग्राफ दस हजार करोड़ से उपर पहुंच दिखाई देता है। क्‍योंकि अपेक्‍स बैंक के रिकॉर्ड में प्रदेश के किसानों पर साढ़े सात हजार करोड़ रूपए कर्ज के रूप में दर्ज है। इसमें यदि कम से कम ढाई हजार करोड़ रूपए साहूकारी कर्ज से जोड़ दे तो यह आंकड़ा दस हजार करोड़ को पार कर लेता है। वर्ष 2006 में गठित राधाक़ष्‍णन समिति ने भी किसानों की आत्‍महत्‍या के लिए कर्ज को मुख्‍य कारण माना है।

भारत सरकार द्वारा किसानों की कर्ज माफी की घोषणा को राहत के रूप में देखा गया था। किन्‍तु 32 लाख से भी अधिक किसानों पर आज भी बैंकों का कर्ज बकाया है। सहकारी संस्‍थाओं में हुए घोटालों की वजह से किसानों के सौ करोड़ के भी अधिक के कर्ज माफ नहीं हो पाए।

संवेदनहीन प्रशासन

इस बार प्रदेश में पाले का असर कई किसानों के लिए जानलेवा साबित हुआ है। प्रदेश सरकार ने किसानों को राहत पहुंचाने के लिए तत्‍परता से कदम उठाए। किन्‍तु प्रशासन का रवैया संवेदनशील नहीं रहा है। एक ओर मध्‍यप्रदेश सरकार केन्‍द्र से किसानों की हालत बताकर राहत पैकेज की मांग करती रही है, वहीं दूसरी ओर उसके प्रशासनिक अधिकारी यह मानने क लिए तैयार नहीं है कि किसानों की आत्‍महत्‍या के पीछे खेती संबंधी कोई कारण है। दमोह जिले के जनसम्‍पर्क कार्यालय द्वारा जारी प्रेस विज्ञप्ति में नंदराम रैकवार की आत्‍महत्‍या का कारण पारिवारिक कलह बताया गया, वहीं सीहोर जिले में कर्ज के कारण आत्‍महत्‍या करने वाले शिवप्रसाद को पागल करार देने की कोशिश की गई। शिवप्रसाद के 16 वर्षीय पुत्र ने बताया कि जिला कलेक्‍टर ने यह कहने के लिए उस पर दबाव डाला की उसके पिता पागल थे। छतरपुर जिले में 40 वर्षीय लखनलाल को मानसि‍क रूप से विक्षिप्‍त बताया गया। लखनलाल की विधवा हीराबाई अपना दुख व्‍यक्‍त करते हुए कहती है कि ”चाहे मुझे सहारा मत दो, पर भगवान के लिए मेरे पति को पागल मत कहो।” आत्‍महत्‍या का प्रयास करने वाले बैतूल जिले के एक किसान को जिला प्रशासन ने शराबी बताया, जबकि डॉक्‍टर ने उसके पेट में शराब के बजाय ”इंडोसल्‍फान” नामक कीटनाशक पाया।

इस तरह प्रशासन किसी को पागल तो किसी को शराबी कहकर समस्‍या से पल्‍ला झाड़ने की कोशिश करता रहा है। जबकि सचाई यह है कि प्रदेश के 276 तहसीलों के 38464 गांवों के करीब 37 लाख किसानों की फसलें बुरी तरह बर्बाद हुई है। लघु व सीमांत किसानों के लिए फसलों की बर्बादी उन्‍हें बंधुआ मजदूरी की ओर धकेलती है। ऐसे समय में प्रशासन ने उनकी आत्‍महत्‍या के अन्‍य कारण कैसे ढूंढ निकाले, यह समझ से परे है।

मध्‍यप्रदेश में पिछले पांच सालों में 8360 किसानों द्वारा आत्‍महत्‍या की गई। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्‍यूरों की रिपोर्ट से पता चलता है कि पिछले साल पूरे देश में आत्‍महत्‍या करने वाले किसानों की तादाद 17 हजार थीं, जिसमें 62 प्रतिशत किसान महाराष्‍ट्र, आंध्रपदेश, कर्नाटक और मध्‍यप्रदेश के थे। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्‍यूरों की रिपोर्ट के मुताबिक मध्‍यप्रदेश मे वर्ष 2007 में 1263 किसानों द्वारा आत्‍महत्‍या की गई थी, जिनकी संख्‍या वर्ष 2009 में बढ़कर 1500 हो गई।

राहत का सच मध्‍यप्रदेश में किसानों की हालत पर प्रदेश सरकार द्वारा 600 करोड़ रूपए और केन्‍द्र सरकार 424 करोड़ रूपए की राहत राशि आवंटित करने की घोषणा की गई है। हालांकि केन्‍द्र सरकार द्वारा आवंटित राशि उंट के मुहं में जीरे के समान है। राज्‍य सरकार द्वारा 2 हेक्‍टेयर से अधिक भूमि वाले किसानों को 50 प्रतिशत से अधिक नुकसान होने पर 3400 रूपए प्रति हेक्‍टेयर और इससे कम भूमि वाले किसानों को 4500 रूपए प्रति हेक्‍टेयर की दर से आर्थिक सहायता देने का प्रावधान किया गया है। किन्‍तु यह राहत राशि उनकों हुए नुकसान की तुलना में बहुत कम है। केन्‍द्र और राज्‍य सरकार द्वारा आवंटित कुल राशि 1024 करोड़ रूपए है, जबकि किसानो के नुकसान का अनुमान 985237 लाख रूपए का है। यानी सरकारी राहत राशि किसानों के कुल नुकसान का सिर्फ 10 प्रतिशत ही है।

खेती की बढ़ती लागत

एक ओर खेती की बढ़ती लागत ने किसानो को कर्जदार बना दिया, वहीं दूसरी ओर सरकार द्वारा किसानों को दी जाने वाली सब्सिडी और सुविधाएं सिकुड़ती जा रही है। आधुनिक खेती उन्‍नत बीज, रासायनिक खाद और कीटनाशक पर निर्भर है, जिनकी आसमान छूती कीमतें किसान की पहुंच से बाहर होती जा रही है। मध्‍यप्रदेश के किसानों को अन्‍य राज्‍यों की तुलना में इनकी ज्‍यादा कीमत चुकानी पड़ रही है। पंजाब, हरियाणा, कर्नाटक और गुजरात में 465 से 485 रूपए प्रति बोरी बिकनी वाले डीएपी खाद की कीमत मध्‍यप्रदेश में 527 से 530 रूपए प्रति बोरी है। वहीं जो कीटनाशक पांच साल पहले 300 रूपए प्रति लीटर था, आज उसकी कीमत 500 रूपए से 15000 रूपए प्रति लीटर हो चुकी है। प्रदेश में बिजली की बिगड़ती दशा ने भी किसानों को नुकसान पहुंचाया है। गौरतलब है कि पिछले दो महीनों में बुंदेलखंड क्षेत्र के दमोह जिले में कर्ज से त्रस्‍त होकर 13 किसानों द्वारा आत्‍महत्‍या का प्रयास किया गया, उसी बुंदेलखंड में बिजली कंपनी ने किसानों से 3 करोड़ 98 लाख 82 हजार रूपए का लाभ कमाया। यहां बिजली कंपनी द्वारा 11000 किसानों को अस्‍थाई कनेक्‍शन इस वायदे के साथ दिए गए थे कि उन्‍हें प्रतिदिन कम से कम 10 घंटे बिजली दी जाएगी, जबकि उन्‍हें मात्र 3 से 5 घंटे ही बिजली दी गई।

छोटे हो रहे हैं खेत

खेती का संकट दिन ब दिन बढ़ता जा रहा है। एक ओर खेती की लागत बढ़ी है, वहीं दूसरी ओर जोतों का आकार भी कम हुआ है। राष्‍ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के अनुसार देश में 62 प्रतिशत किसानों के पास एक हेक्‍टेयर या इससे कम जमीन है। भूस्‍वामित्‍व के आकार में पिछले चार दशकों में 60 प्रतिशत की कमी आई है। नेशनल सैंपल सर्वे के अनुसार सन् 1960-61 में भूस्‍वामित्‍व का औसत आकार लगभग ढाई हैक्‍टेयर था, जो सन् 2002-03 में एक हेक्‍टेयर के करीब रह गया। इसके पीछे मुख्‍य कारण जमीन का बंटवारा होने के साथ ही औद्योगिक विकास के नाम पर होने वाला भूमि अधिग्रहण है। भूस्‍वामित्‍व के आकार में होने वाली कमी के आंकड़ो से यह बात स्‍पष्‍ट होती है कि पिछले चार दशकों में लघु एवं सीमांत किसान बड़े पैमान पर भूमिहीन मजदूर में तब्‍दील हुए हैं।

इन तथ्‍यों से स्‍पष्‍ट है कि मध्‍यप्रदेश में पिछले दो म‍हीनों में किसानों द्वारा आत्‍महत्‍या का तत्‍कालिक कारण पाला और कर्ज है। जबकि प्राक़तिक प्रकोपों से तो किसान सदियों से जूझते आ रहे हैं। अब फर्क यह आया है कि किसान ने इन प्रकोपों को झेलने और उनसे जूझने की क्षमता खो दी है। इसके पीछे सरकारी नीतियां जिम्‍मेदार है। ऐसा लगता है कि खेती सरकार की प्राथमिकता से बाहर का विषय बन गया है। उद्योगों के लिए बेरहमी से जमीन अधिग्रहण करने वाली सरकार को आखिर किसानों के लिए राहत पैकेज जारी करने में इतना समय क्‍यों लगा। सरकार अपनी शान के लिए हजारो करोड़ रूपए का बजट कॉमरवेल्‍थ खेलों के लिए आवंटित करती है, किन्‍तु उसकी तुलना में एक प्रतिशत राशि की किसानों को राहत के लिए अवंटित नहीं कर सकी है। इससे सरकार के नियम और नीति पर संदेह होना स्‍वाभाविक है।