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खतरनाक भी हो सकती हैं सोशल नेटवर्किंग साइट्स

सतीश सिंह

वैसे तो भारत में अनेक सोशाल नेटवर्किंग साइट्स चल रही हैं, पर उनमें से लोकप्रिय फेसबुक, ऑरकुट और ट्विटर को ही कहा जा सकता है। जवान, बूढ़े एवं बच्चे सभी आज इसके दीवाने हैं। युवाओं के बीच इसकी दीवानगी व लोकप्रियता अद्भुत है। विश्‍व को एक गाँव में तब्दील करने में इसकी भूमिका महत्वपूर्ण रही है। आज आप एक छोटे से गाँव में रहकर भी अपने को अपने रिश्‍तेदारों तथा दोस्तों से जोड़कर रखने की कल्पना को साकार कर सकते हैं।

इसकी वजह से आपको कभी भी अपने अजीज से बिछड़ने का अहसास तक नहीं होगा। इसकी सहायता से आप हर रोज, हर पल अपने चाहने वालों के साथ रह सकते हैं।

अपनी खुषी व गम को उनके साथ बाँट सकते हैं। रोजगार चाहने वाला या व्यापार करने की चाहत रखने वाला या फिर अपनी किसी नई रचना के प्रचार-प्रसार करने की तमन्ना रखने वाला या प्रकाषक से नाउम्मीद होने के बाद अपनी किताब को स्वंय प्रकाषित करके उसे बेचने के लिए उत्सुक रहने वाला हर षख्स आसानी से सोषल नेटवर्किंग साइट्स के माध्यम से अपने मन की मुराद को पुरा कर सकता है।

आजकल तो पुलिस भी सोशल नेटवर्किंग साइट्स के जरिए अपराधियों को पकड़ रही है। इसकी मदद से भागम-भाग की जिंदगी के बीच भी लोग अपने पुराने दोस्तों से मिल रहे हैं। उनसे संवाद कायम करके फिर से संबंधों की गर्माहट को पुर्नजीवित कर रहे हैं। संवादहीनता की स्थिति को समाप्त करने में सोषल नेटवर्किंग साइट्स का योगदान सचमुच अतुलनीय है। सच कहा जाए तो यह संप्रेषण का अमूल्य जरिया बन चुका है। भारत के संदर्भ में बात करें तो यहाँ सबसे पहले ऑरकुट सबकी पहली पंसद थी, बाद में उसकी जगह फेसबुक ने लिया और अब ट्विटर का जमाना है।

जाहिर है जिस तरह हर सिक्के के दो पहलू होते हैं, ठीक उसी तरह सोशल नेटवर्किंग साइट्स से लाभ के साथ-साथ नुकसान भी हैं। ध्यातव्य है कि सोशल नेटवर्किंग साइट्स में किसी के पहचान का अंकेक्षण नहीं किया जा सकता है और न ही आसानी से अपराधी प्रवृति वाले इसके सदस्यों की करतूतों पर आप अंकुश लगा सकते हैं। इस मामले में साइबर लॉ अभी भी बहुत कमजोर है। भारतीय पुलिस की साइबर षाखा न तो अधतन तकनीक से लैस है और न ही तकनीकी तौर दक्ष व सक्षम। इस कारण से इसके बरक्स में पुलिस की विवेचना का सरलता से कभी भी कोई परिणाम नहीं निकल पाता है।

इंसान से बड़ा कोई जानवर नहीं है, इस बात को साबित अब तक लाखों लोग सोषल नेटवर्किंग साइट्स के द्वारा घिनौना अपराध करके कर चुके हैं। अपराधों के मुमकिन होने के पीछे मूल कारण किसी भी सदस्य के पहचान की वास्तविकता पता नहीं चलना है। उल्लेखनीय है कि विविध सोषल नेटवर्किंग साइट्स में खुले फर्जी खातों की वास्तविक संख्या की जानकारी किसी को भी नहीं है।

लिहाजा अगर आप इन सोशल नेटवर्किंग साइट्स के सदस्य हैं और किसी उलझन में उलझने से बचना चाहते हैं तो आपको ही अपने तथाकथित दोस्तों के बीच में कौन दोस्त की षक्ल में भेड़िया बना हुआ है, इसका पता लगाना होगा, अन्यथा किस लड़की की अश्‍लील सीडी कब इंटरनेट पर डाली जाएगी या फिर कब किस लड़की को ब्लेकमेल किया जाएगा, इसका अंदाजा न तो आप लगा पायेंगे और न ही पुलिसवाले।

आज की तारीख में आतंकवादी से लेकर गली के गुंडे सभी इन सोशल साइट्स से अपने धंधे को चमका रहे हैं। वर्तमान हालात में जरुरत इस बात की है कि सरकार कम-से-कम इन पर अपना पूरा नियंत्रण रखने में सक्षम हो। सक्षम होना तथा अपनी सक्षमता का उपयोग करना दो चीज है। भारत एक लोकतांत्रिक देष है, वह कभी भी चीन की तरह तानाशाह नहीं हो सकता है। पर अफसोस की बात यह है कि भारत सरकार अभी भी तकनीकि तौर पर पिछड़ी हुई है। यहाँ की साइबर पुलिस की व्यवस्था वाकई में बहुत लचर है। ऐसे में सोषल नेटवर्किंग साइट्स के माध्यम से लगातार अपराध का होते रहना फिलवक्त लाजिमी है।

अभी कुछ दिनों पहले ट्विटर पर बने एआईडीएमके के महासचिव जे जयललिता के फर्जी खाता का खुलासा हुआ। गौरतलब है कि जया के इस खाते में जनता पार्टी के अध्यक्ष सुब्रमण्यम स्वामी एवं प्रसिद्ध स्तंभकार एस गुरुमूर्ति बतौर फॉलोवर्स शामिल हैं। हालांकि कुल फॉलोवर्स की संख्या 500 से भी ज्यादा है। जे जयललिता के इस खाते में बेहद ही अहम् बातें लिखी गई हैं। इस खाते में यह भी लिखा गया था कि 2 फरवरी को कोई घटना घट सकती है।

ज्ञातवय है कि 2 फरवरी को ए राजा की गिरफ्तारी के बाद पुनः इस खाते में लिखा गया कि मैंने क्या कहा था? इसी खाते में लिखा गया कि ‘केंद्रीय मंत्री (कपिल सिब्बल) को स्वामी का बकाया पैसा देना ठीक नहीं है’ इसके प्रत्यूत्तर में स्वामी ने लिखा कि ‘उनका पैसा आईआईटी, दिल्ली के समय से बकाया है। मामला नहीं सुलझने पर वे अदालत का सहारा लेंगे’।

जानकारों का मानना है कि जे जयललिता अपने विचार को इस तरह से व्यक्त नहीं कर सकती हैं। यह काम उस व्यक्ति का हो सकता है जो जे जयललिता का खास है या रहा है। इस खाता के फर्जी होने की संभावना इसलिए भी अधिक है, क्योंकि जे जयललिता ने अपने नाम के नीचे यह डिस्क्लेमर दिया है कि ‘यह पैरोडी है’। स्तंभकार एस गुरुमूर्ति भी इस तर्क से सहमत हैं। उनका कहना है कि आरंभ में ट्विटर पर जे जयललिता का बना खाता असली लग रहा था, पर मैं पूरी तरह से आष्वस्त नहीं था। इसलिए असलियत जानने के लिए मैंने कुछ निजी संदेष दिया और संदेह होने पर खुद को उससे अलग कर लिया।

लब्बोलुबाव के तौर पर कहा जा सकता है कि सोषल नेटवर्किंग साइट्स पर दोस्त बनाने में जल्दबाजी नहीं करें। अनजान लोगों से कभी भी दोस्ती नहीं करें। अपने स्तर पर छानबीन करें तथा आष्वस्त होने के बाद ही किसी के दोस्त बनाने के आग्रह को कुबूल करें। इस बाबत अपने जानने वालों पर संदेह करने में भी कोई बुराई नहीं है। अपने फॉलोवर्स तथा दूसरे का फाॅलोअर्स बनने से पहले भी सावधानी बरतें, क्योंकि आपकी गलती या लापरवाही आपको एक ऐसे दलदल में ढकेल सकती है, जहाँ से निकलना शायद संभव न हो।

कांग्रेस की नीति बदली न नीयत

रामबिहारी सिंह

देश में अधिकांश समय तक सत्ता में काबिज रही सत्तारूढ़ कांग्रेस की देश को लेकर नीति तो बदल गई है पर उसकी नीयत नहीं बदली है। देश में आजादी के पहले से अस्तित्व में रही कांग्रेस ने समय के साथ सत्ता का सफर तय किया है। इस दौरान वह शुरुआत से ही वोट बैंक की राजनीति करती आई है। चाहे नेहरू के जमाने की कांग्रेस हो या फिर वर्तमान में सोनिया गांधी के। कांग्रेस ने वोट की राजनीति के लिए हमेशा ही देश को दांव पर रखा। कांग्रेस का यह दांव समय-समय पर देश की जनता के सामने भी आता रहा है। तुष्टिकरण की नीति तो पर्दे के पीछे बनती है पर इसका असर देशव्यापी है और कांग्रेस ने वोट बैंक के चलते हमेशा ही देश में की राष्ट्रीय एकता को दरकिनार कर रखा है। ऐसे में कांग्रेस की न तो नीति बदली और न ही नीयत, जो आज देश के लिए खतरनाक साबित हो रही है।

एक जमाना था जब जवाहरलाल नेहरू ने जम्मू-कश्मीर में वीर पुरुष डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी की कश्मीर जेल में साजिश के तहत हत्या के बाद जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री शेख अब्दुला को जेल में डाल दिया था और एक आज की कांग्रेस है, जो इसी कश्मीर मसले पर शेख अब्दुला के पोते और जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुला को न सिर्फ मुख्यमंत्री बनाने में मदद की है, बल्कि येन-केन-प्रकारेण समर्थन देना भी जारी रखा है। कांग्रेस की नीयत सबके सामने है। कांग्रेसनीत यूपीए सरकार ने गत 26 जनवरी को गणतंत्र दिवस पर श्रीनगर के लाल चौक पर भाजपा कार्यकर्ताओं को तिरंगा फहराने से रोकने में जम्मू-कश्मीर सरकार के देशविरोधाी व तानाशाही फरमान पर न सिर्फ उमर फारूख सरकार का समर्थन किया, बल्कि पूरी कोशिश की कि भाजपा वहां पर तिरंगा फहराने में कामयाब न हो। सत्ताा के सहारे आखिरकार देशद्रोही ताकतें देशभक्तों पर भारी पड़ीं और तिरंगा फहराने में सफलता नहीं मिली। जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुला की मंशा तो पूरी हो गई पर कांग्रेस की नीयत सामने आ गई। कांग्रेस ने न सिर्फ एक राजनीतिक दल के रूप में बल्कि बतौर सत्ता में रहते एक देशभक्त को अपनी ही मातृभूमि में तिरंगा फहराने से रोकने का खुला समर्थन किया। श्रीनगर के लाल चौक पर तिरंगा फहराने का अरमान लिए देशभक्तों के लिए यह अरमान ही रह गया और सबसे बदनीयति यह रही कि देशभक्तों को न सिर्फ लालचौक पर झंडा फहराने से रोका गया, बल्कि इस दौरान एक देशभक्त जवान को जम्मू-कश्मीर पुलिस का कोपभाजन भी बनना पड़ा। जो आज अस्पताल में जिंदगी और मौत से जूझ रहा है।

शेख अब्दुल्ला ने जम्मू-कश्मीर को भारत से अलग करने के लिए अमेरिकी राजनयिक के साथ मिलकर षडयंत्र किया था। और कश्मीर में परमिट सिस्टम, कस्टम, अलग प्रधान, अलग निशान और अलग संविधान तथा धारा 370 को लागू करवाया। इस दौरान भारत का एक और विभाजन होने का ख्याब पाकिस्तानियों को पूरा होता दिख रहा था। पर पाक के नापाक इरादों को देशभक्तों ने पूरा नहीं होने दिया और कश्मीर में आंदोलन शुरू हो गया। पांच हजार से अधिक देशभक्तों को अब्दुला सरकार ने जेलों में ठूंस दिया और भयंकर प्रताड़ित किया गया। इस दौरान करीब 22 लोग तिरंगे की रक्षा करते हुए भारत मां के लिए शहीद हो गए। परमिट कानून को तोडने का दृढ निश्चय श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने किया तो उन्हें कश्मीर की सीमा में प्रवेश करते ही गिरफ्तार कर जेल भेज दिया। परमिट कानून को तोडने पर श्यामा प्रसाद मुखर्जी को जेल में ही साजिश के तहत मार दिया गया। यह घटना देश में आग की तरह फैली और देशभक्तों को झकझोर कर रख दिया। इसके बाद नेहरू सरकार की आंखें खुलीं और 1953 में शेख अब्दुला को जेल में डाल दिया गया। नेहरू ने तानाशाही परमिट कानून को समाप्त किया और जम्मू-कश्मीर में भारतीय संविधान लागू हुआ, जिसके बाद यहां तिरंगा लहराया।

नेहरू सरकार ने यहां पर दो संविधान और दो विधान, दो निशान के साथ ही धारा 370 को यथावत रहने दिया, जो उनकी अक्षम्य गलतियों में शुमार हैं, जिसके लिए हो सकता है देश उन्हें कभी माफ नहीं करे। वर्तमान की कांग्रेस भी इन गलतियों से कोई सीख न लेते हुए उसी रास्ते पर है, जो देश के लिए आज नासूर बना हुआ है। नेहरू की गलतियां जो देश के लिए सबसे बड़ी भूल साबित हुईं और आज इसका खामियाजा देश की जनता के साथ ही जम्मू-कश्मीर की निर्दोष आवाम को भुगतना पड़ रहा है। केंद्र में सत्तारूढ़ कांग्रेस एक बार फिर उसी रास्ते पर है, जिससे जम्मू-कश्मीर मसले पर कोई समाधान नहीं दिखता। देश का दुर्भाज्य है कि आज देश की बागडोर उस पार्टी के हाथ में है, जो आज भी भारत विरोधी व अलगाववादियों की भाषा बोलने वाली जम्मू-कश्मीर सरकार के साथ हर मोड़ पर बतौर रक्षक खड़ी है। इसी का नतीजा है कि आज आतंकियों ने देश के खिलाफ फिर साजिश शुरू कर दी है और फिर घाटी में पाक समर्थित अलगाववादी नेताओं और चरमपंथियों ने इस्लाम के नाम पर कश्मीरी भारतीयों पर कहर बरपाना शुरू कर दिया है।

कांग्रेस वोट की राजनीति और मुस्लिम तुष्टिकरण का घिनौना खेल खेलकर जम्मू-कश्मीर में अलगाववाद समर्थक उमर फारूख सरकार को भारतीयों के खिलाफ ही समर्थन दे रही है तो देश का दुश्मन और कश्मीर पर निगाह गड़ाए बैठे पाक को अरब देशों से भी बड़े रूप में आर्थिक सहायता मिल रही है। ऐसे में यह अलगाववादी ताकतें देश के लिए बड़ा खतरा बन सकती हैं, जो भविष्य में ऐसे जख्म देंगे जो कभी भुलाए नहीं जा सकेंगे। हालांकि अभी भी यह ऐसे घाव दे चुके हैं, जो हमारे लिए किसी सबक से कम नहीं है, पर अफसोस इस बात का है कि इन घटनाओं से हमारी सरकारों ने कभी कोई सबक नहीं लिया। और आज भी कश्मीर समस्या और सीमापार से आतंकी घुसपैठ अनवरत जारी है। कांग्रेस के साथ पाकिस्तान की मंशा भी कश्मीर और भारत को लेकर नहीं बदली। यूपीए नीति कांग्रेस सरकार की नीति और कांग्रेस के तथाकथित हिन्दू नेता, जो हमेशा ही देशभक्त हिन्दुओं के खिलाफ आग उगलते रहते हैं तो भगवा आतंकवाद के नाम पर मुस्लिमों को खुश करने की गंदी राजनीति करने वाले यह तथाकथित देशभक्त भगवा रंग को देश के लिए खतरा बताकर मुस्लिम वोट बैंक को अपने पक्ष में करने की मंशा के चलते देश के दुश्मन पाकिस्तान के हौंसले बुलंद कर रहे हैं। इससे न सिर्फ भारतीय सेना का मनोबल टूट रहा है, बल्कि हर देशभक्त के मन में ऐसे देशद्रोहियों के प्रति विद्रोह की भावना बलवति हो रही है, जो कभी भी मिस्र की तरह विकराल रूप धारण कर सड़कों पर आ सकती है।

असुरक्षित युवा शक्ति

संजय सक्सेना

इस समय देश ‘युवा’ सा लगता है। सभी राजनैतिक दलों में युवा नेताओं का बोलबाला है। बीते कुछ सालों की बात की जाए तो इसमें कोई संदेह नहीं है कि मल्टीनेशनल कम्पनियों ने भारतीय युवाओं के लिए काफी तादात में काम के नए अवसर प्रदान किए हैं।लोगो के जीवन स्तर बढ़ा है। शिक्षा के क्षेत्र में क्रांतिकारी बदलाव का ही नतीजा है जो आज मध्य वर्गीय परिवार के युवक-युवतियां भी डाक्टर इंजीनियर ही नहीं आइएएस और पीसीएस जैसी परीक्षाओं में अपना परचम लहरा रहे हैं, लेकिन तमाम उपलिब्धयों के बीच दुखत पहलू यह भी है कि आज भी युवाओं का एक बड़ा वर्ग अपने भविष्य को लेकर अंधकारमय स्थिति में है। यह वो वर्ग है जो सपने तो देखता है लेकिन ‘अर्थव्यवस्था’ के मामले में पिछड़ा हुआ है। आर्थिक रूप से कमजोर इस वर्ग के युवाओं को आज भी सरकारी नौकरियों में अपना भविष्य तलाशना पड़ता है।इसमें से कई खुशनसीब होते हैं जिन्हें अपनी मंजिल आसानी से मिल जाती है लेकिन यह संख्या बेरोजगारों की जमात में मुट्ठी भर होती है। लाखों-करोड़ों युवा बेरोजगारों की फौज बढ़ाने में न चाहते हुए भी अहम भूमिका निभाते है।यह फौज कहीं भी कोई नौकरी निकलती है,उसकी तरफ हुजूम बना कर दौड़ पड़ती है। ऐसे युवाओं को अकसर खाने की पोटली के साथ जड़ा-गर्मी-बरसात की चिंता न करते हुए रेलवे स्टेशन, बस स्टेशन या फिर कालेज के बाहर(जहां परीक्षा होनी है)रात गुजारते देखा जा सकता है। परीक्षा देने आए युवाओं का हुजूम देखकर ऐसा प्रतीत होता है मानों यह लोग किसी रैली में भाग लेने आए हों। परीक्षा देने से पहले ही अपनी आधी उर्जा खो चुकने वाले यह युवा,परीक्षा खत्म होते ही घर पहुंचने को बेताब हो जाते हैं जो लाजिमी भी है। क्योंकि इन युवाओं के मॉ-बाप किसी तरह से अपनी जेब काट कर बच्चों को परीक्षा दिलाने के लिए भेजते हैं।अक्सर इनके पास इतना पैसा भी नहीं होता है कि वह कहीं ठीकठाक जगह बैठ कर खा भी खा पाए। यह लोग लद-फंद के आते हैं और ऐसे ही चले जाते हैं। इनकी सुरक्षा का ख्याल किसी को नहीं होता। इसका बात का प्रमाण 01 फरवरी को उत्तर प्रदेश के रोजा जंक्शन (जिला शाहजहांपुर) पर देखने को मिला।जब बरेली में मंगलवार को भारत तिब्बत सीमा पुलिस (आईटीबीपी) में टे्रडमैन की भर्ती की परीक्षा देकर लौट रहे उत्तर भारत के 11 राज्यों से आए हजारों छात्रों के लिए हिमगिरी एक्सप्रेस मौत का सफर बन गई।घर जाने की जल्दी और जगह की कमी के कारण छत पर चढकर अपनी मंजिल की तरफ चल दिए इन इन मासूम युवाओं को इस बात का आभास नहीं था कि उनकी यह नादानी कितनी खतरनाक साबित हो सकती है,जिसका खामियाजा 19 छात्रों को मौत की कीमत और करीब एक दर्जन को गंभीर रूप से जख्मी होकर चुकाना पड़ा। इससे अधिक दुख की बात यह थी कि इन मासूमों की मौत की जिम्मेदारी भी किसी ने नहीं ली।बल्कि बखेड़ा इस बात पर ज्यादा हुआ कि भर्ती परीक्षा देने आए युवाओं ने जगह-जगह उपद्रव और तोड़फोड़ तथा आगजनी की घटनाओं को अंजाम दिया।

इन मौतों ने एक बार साबित कर दिया कि असमय कालकवलित होते जवान देश के लिए अभिशाप बनते जा रहे है। जिस बच्चे को माता पिता पाल पोषकर पढ़ा लिखाकर देश के लिए तैयार करते हैं। इन युवाओं को देश परदेश भेजते हैं, भविष्य के खातिर। पर देश के सेवायोजक इनकी जोशीली ताकत के लिए बिल्कुल बेखबर हैं। कभी अध्ययन के वक्त रैंगिंग, कभी सड़क हादसों, कभी रेल हादसों और कभी पारिवारिक वजहों से उनकी मृत्यु दिन प्रतिदिन अखबारों की सुर्खियों में बनने लगी है। वहीं शराब,शौकीनी, व अपराधी संगत, वह बुरी लतों में पड़ने के कारण भी वे असमय मरजाते हैं। बरेली में हुआ रेल हादसा उसी की एक कड़ी के रूप में घटित हुआ है। आर्थिकवाद के चक्कर में सरकार देश का भविष्य खो रही है। भारत अंतरिक्ष में खोज कर रहा है, लेकिन भारत की जमीन में आग लगी है।

सुरक्षा बलों में भर्ती के दौरान तरह-तरह के हादसों से दो चार होने के बावजूद जिस तरह बरेली में भारत तिब्बत सीमा पुलिस की भर्ती के समय अव्यवस्था का परिचय दिया गया, उससे यही पता चलता है कि पुरानी भूलों से कोई भी सबक सीखने के लिए तैयार नहीं, न तो इस तरह की भर्ती का आयोजन करने वाले सुरक्षा बल और न ही स्थानीय प्रशासन । भारत तिब्बत सीमा पुलिस के अधिकारियों को इसका अहसास होना ही चाहिए था कि भर्ती के दौरान बड़ी संख्या में छात्र आ सकते है। ऐसा लगता है कि इस बारे में खानापूर्ति करने के अलावा कहीं कोई गंभीर प्रयास ही नहीं किया गया था। परिणाम यह रहा कि जब भर्ती में अनुमान से अधिक प्रतिभागी आ गये तो आईटी बीपी के अधिकारियों के हाथ पांव फूल गये और उन्होंने प्रतिभागियों को टरकाने की कोशिश की। इस स्थिति में भर्ती के लिए आए प्रतिभागियों में आक्रोश उमड़ना स्वाभाविक ही था, लेकिन यह समझना कठिन है कि उन्होंने अपना गुस्सा वाहनो, दुकानों और रेलगाड़ियों पर क्यों उतारा? ऐसा लगता है कि स्थानीय प्रशासन भी इस सबसे अनजान था कि आईटीबीपी की भर्ती में बड़ी संख्यामें प्रतिभागी आ सकते हैं और भारी भीड़ के कारण कई तरह की समस्याएं पेदा हो सकती हैं।

भर्ती से लोट रहे प्रतिभागियों के साथ शाहजहांपुर में जो दुर्घटना हुई वह भी अव्यवस्था का ही परिचायक हैं । आखिर किसी ने छात्रों को ट्रेल की छत पर चढ़ने से क्यों नहीं रोका गया ? रेलकर्मियों ओर अधिकारियों को तो यह पता ही होगा कि ट्रेन की छत पर बैठकर यात्रा करना वाले छात्र हाईटेंशन तारों की चपेट में आ सकते हैं। करीब अस्सी किलोमीटर का सफर इन युवाओं ने टे्रन की छत पर बैठ कर पूरा कर लिया लेकिन किसी ने इस ओर ध्यान नहीं दिया जबकि बीच में कई छोटे-बडे स्टेशन पड़ते हैं। इससे अधिक दुर्भायपूर्ण और क्या होगा कि छात्रों के साथ हुई इस दुर्घटना और बरेली में तोड़फोड़ तथा आगजनी की घटनाओं को लेकर दोषरोपण का सिलसिला आरंभ हो गया।, भारत तिब्बत सीमा पुलिस और स्थानीय प्रशासन के बीच अव्यवस्था के लिए जिस तरह एक दूसरे को दोषी ठहराने का सिलसिला आरंभ हो गया है, इस खेल में केन्द्र और राज्य सरकारें भी एक-दूसरे पर दोषारोपण करने में पीछे नहीं रहीं। आरोप-प्रत्यारोप के इस सिलसिले को देखते हुए इस पर आश्वस्त नहीं हुआ जा सकता कि भर्ती के लिए आवश्यक इंतजाम करने में लापरवाही करने वाले लोगों को दंडित किया जा सकेगा। हॉ, यूपी ने केन्द्र को चिट्ठी लिखकर पूरी जिम्मेदारी आईटीबीपी पर मढ़ते हुए इसे केन्द्रीय बल के अफसरों की अदूरदर्शिता का नतीजा बताते हुए दोषी अफसरों के खिलाफ कार्रवाई के लिए पत्र जरूर भेजा हैं।

बहरहाल, रेलवे ने हादसे की जांच शुरू कर दी है लेकिन उसने मृतकों और घायलों को किसी तरह का मुआवजा देने से साफ मना कर दिया है। आईटीबीपी भर्ती परीक्षा से लौट कर आ रहे युवकों की मौत पर केन्द्रीय गृह मंत्री पी चिदंबरम के वक्तव्य, ‘आईटीबीपी के अफसरों के पूर्व में सूचना देने के बाद भी सुरक्षा व्यवस्था कम मुहैया कराई गई,’ को उत्तर प्रदेश के पुलिस महानिदेशक कानून-व्यवस्था बृजलाल ने भी भर्ती प्रक्रिया और प्रबंधन पर सवाल खड़े कर दिए।उन्होंने कहा कि 11 राज्यों के अभ्यार्थियों को आमंत्रित करने के बाद भी आईटीबीपी ने न तो कोई समन्वय स्थापित किया और न ही कारगर योजना बनाई।

व्यंग्य/ जाओ! जमकर हुड़दंग पाओ!!

अशोक गौतम

ज्यों ही दूरदर्शन ने मौसम विभाग की ओर से जानकारी दी कि अबके वसंत सही समय पर आ रहा है जिससे जनता में निरंतर गिर रहे प्रेम की रेपोदर में धुआंधार वृद्धि होने की पूरी आशंका है तो सरकार की बांछें खिल गईं। वह खुश थी कि चलो उसके राज में कुछ तो सही समय पर आया । सरकार ने आव देखा न ताव महंगाई, बेरोजगारी से लकवा हुई जनता का मन रखने के लिए,आनन फानन में देश को मच्छरों से मुक्त करवाने की सहर्श घोषणा कर दी ताकि देश की जनता गई ऋतु के तमाम हादसों को भूल वसंत का भरपूर आनंद ले सके।

मच्छरों ने अगली सुबह चारपाई पर पड़े पड़े अखबार में सरकार की घोषणा पढ़ी तो उनके नीचे से चारपाई सरक गई। दिल्ली के सारे मच्छरों ने जंतर मंत्र पर इकट्ठे हो एक आम सभा कर तय किया कि अविलंब मच्छरों का एक प्रतिनिधिमंडल सरकार से जाकर मिले और सरकार पर दबाव बनाए कि इस घोषणा का तत्काल वापस लिया जाए वरना इसके दूरगामी परिणाम भुगतने के लिए तैयार रहे। इसके साथ ही साथ यह भी तय हुआ कि सरकार पर दबाव बनाने के लिए मच्छर देष के कोने कोने में तब तक प्रदर्शन करते रहेंगे जब तक सरकार मच्छर विरोधी इस घोषणा को वापस नहीं ले लेती।

और साहब! वसंत के सरकार के दरबार में सलाम ठोंकने से पहले मच्छरों के प्रतिनिधियों का मंडल सरकार के दरबार में जा पहुंचा। आंखों में पालिका बाजार से खरीदे नकली आंसू लगा, होंठों पर टीवी सीरियलों की नायिकाओं की प्रायोजित सिसकियां सजा सरकार को अपनी व्यथा सुनाते हुए उसने कहा,’ हे सरकार! आपने वसंत के आने की खुशी में जनता के लिए क्या घोषणा कर दी? आपने तो ये भी नहीं देखा कि वसंत के आने पर तो मरे हुए भी जिंदा हो उठते हैं । हमें भी बसंत के आने पर कोई तोहफा देने के बदले उल्टे हमें ही सृष्टि से खत्म करने की घोषणा कर दी! यानि चौरासी लाख योनियों में से एक योनि कम करने का दुस्साहस! वह भी चौबीसों घंटे रोती जनता के लिए? यह घोषणा करने से पहले आपने यह भी नहीं सोचा कि यह कर आप भगवान के विधान में हस्तक्षेप कर रहे हैं। जिस दिन से आपने यह घोषणा की है भगवान के हाथ पांव फूले हों या न पर अपने तो फूल गए हैं। दिन का चैन रातों की नींद गायब हो गई है। न किसीको काटने को मन कर रहा है न चाटने को। हम तो हस्तिनापुर के जन्म से वफादार रहे हैं। यकीन न हो तो इतिहास उठा कर देख लीजिए। अपने वफादारों पर ऐसा सितम ठीक नहीं।’

‘सरकार के वफादार! कैसे?’ सरकार असमंजस में। तो मच्छरों का नेता बड़बड़ाता बोला,’ सरकार! हम न होते तो आज को मुर्दा भी आपके खिलाफ लामबंद हो चुका होता। हम ही तो हैं कि जनता में माशा भर खून हुआ नहीं कि उसे पी लिया। जनता को उठने ही नहीं देते। आपको तो हमारा ऋणी होना चाहिए। आपके कर्मचारियों में भी जनता का खून चूसने का वह कौशल नहीं जो हमारे पास है। आपको तो चाहिए कि आप अपने कर्मचारियों से अधिक हमें अपना वफादार मानें। वे भी जनता का खून चूसने में कभी कभी कोताही बरत जाते हैं। पर हम आपके हित के लिए अपना यश अपयश भुला निष्‍काम कर्मयोगी हो जनता का खून चूसते रहते हैं। वह भी बिना किसी पगार के। न कभी डीए की मांग करते हैं न कभी सीए की। हड़ताल पर जाने की धमकी देना तो अपने खून में ही नहीं सरकार! हमारे कारण जो जनता उठने में भी असमर्थ हो वह आपके खिलाफ क्या खाक खड़ी होगी? हद है सरकार!आपके इतने शुभचिंतक होने के बाद भी आप हमारी ही जड़ें काटने की घोषणा कर बैठे।’

यह सुन सरकार ने तब उनके नेता को एक कोने में ले जाकर बड़े प्यार से समझाया,’ अरे यार! समझा करो न! सरकार भी अपनी कुछ मुश्किलें होती हैं। तुम तो खामखाह ही हम पर लाल पीले हो रहे हो। देखो! सरकार होने के नाते जनता के प्रति अपने कुछ दायित्व तो होते ही हैं। और उन दायित्वों को घोषणाओं के माध्यम से ही पूरा किया जा सकता है। ऐसा करने से सांप भी नहीं मरता और लाठी भी नहीं टूटती। सांप के इधर उधर संभलकर लाठी मारने में सबका कार्यकाल मजे से कटता रहता है। सरकार किसी न किसी अवसर पर कोई न कोई घोषणा कर अपने दायित्वों से मुक्त होती रहती है। तुम ही कहो? घोषणाओं के सिवाय सरकार और कर भी क्या सकती है? देखो, हमने भय खत्म करने की घोषणा कि तो क्या उसे समाज से खत्म होने दिया? हम हर बार देश से गरीबी को खत्म करने की घोषणा करते हैं। पर क्या हमने उसे घोषणा के बावजूद मस्ती में जीने का लाइसेंस नहीं दिया है? क्या है न कि कोई न कोई घोषणा करते रहने से जनता को भी लगता है कि सरकार उसके बारे में सोच रही है और हमें भी लगता है कि हम भी जनता का ख्याल रखे हुए हैं। इसलिए जाओ! इस घोषणा को भी रूटीन की घोषणा समझो, परेशान होने की कोई जरूरत नहीं। सरकार के प्रति ऐसे ही वफादार बने रहो और निर्भय हो वसंतोत्सव में जमकर हुड़दंग मचाओ! और हां ! मुख्यातिथि मुझे ही बनाना, कामदेव को नहीं।’

समाचार जगत की महात्रासदी : बीबीसी रेडियो सेवा का बंद होना

तनवीर जाफरी

बीबीसी अर्थात ब्रिटिश ब्रॉडकास्टिंग कॉरपोरेशन के प्रमुख पीटर हॉक्स द्वारा की गई एक अप्रत्याशित घोषणा के अनुसार भारत में सर्वाधिक लोकप्रिय बीबीसी रेडियो सर्विस के हिंदी प्रसारण सहित मैसोडोनिया, सर्बिया, अल्बानिया, रूस, यूक्रेन, तुर्की, मेड्रिन, स्पेनिश, वियतनामी तथा अजेरी भाषा के बी बी सी प्रसारण मार्च के दूसरे पखवाड़े, संभवत: 20 मार्च से बंद कर दिए जाएंगे। ग़ौरतलब है कि विश्व की सबसे लोकप्रिय निष्पक्ष एवं बेबाक समझी जाने वाली बीबीसी समाचार सेवा का मुख्यालय हालांकि लंदन स्थित बुश हाऊस में है तथा यह सेवा पब्लिक ट्रस्ट से संचालित होती है। परंतु बीबीसी के कर्मचारियों तथा पत्रकारों की तनख्वाह के लिए ब्रिटेन का विदेश मंत्रालय पैसा मुहैया कराता है। लिहाज़ा ब्रिटिश विदेश मंत्रालय ने ही यह फैसला लिया है कि बीबीसी को दिए जाने वाले अनुदान में 16 प्रतिशत की कटौती की जाए। ब्रिटिश विदेश मंत्री विलियम हेग का कहना है कि बीबीसी की भविष्य की प्राथमिकताएं नए बाज़ार होंगे। जिसमें ऑनलाईन प्रसारण, इंटरनेट तथा मोबाईल बाज़ार प्रमुख हैं। ब्रिटिश विदेश मंत्रालय के इस अप्रत्याशित फैसले से जहां बीबीसी के लगभग 650 कर्मचारी तथा योग्य पत्रकार अपनी सम्मानपूर्ण नौकरियां गंवा बैठेंगे वहीं बीबीसी से आत्मीयता का गहरा रिश्ता रखने वाले समाचार श्रोताओं के हृदय पर यह निर्णय एक कुठाराघात भी साबित होगा।

ब्रिटिश विदेश मंत्रालय के इस फैसले से पहले गत वर्ष एक और प्रमुख अंतर्राष्ट्रीय हिंदी समाचार सेवा वॉयस ऑफ अमेरिका को भी ी अमेरिकी प्रशासन द्वारा बंद किया जा चुका है। यह फैसला भी वित्तीय संकटों के चलते वित्तीय खर्चों में कटौती करने की गरज़ से लिया गया था। परंतु भारत जैसे देश में वॉयस आफ अमेरिका का रेडियो प्रसारण बंद होने पर इतनी बवाल नहीं मची थी जितनी कि बीबीसी हिंदी सेवा के रेडियो प्रसारण के बंद होने के फैसले पर दिखाई दे रही है। इसका सीधा एवं स्पष्ट कारण यही है कि बीबीसी विश्व समाचार हिंदी के रेडियो प्रसारण ने अपनी निष्पक्ष, बेबाक, शुद्ध साहित्य से परिपूर्ण तथा त्वरित पत्रकारिता के चलते भारत की करोड़ों अवाम के दिलों में जो सम्मानपूर्ण एवं आत्मीयता से परिपूर्ण जो जगह बनाई थी वह जगह वॉयस आफ अमेरिका तो क्या शायद भारतीय रेडियो की विविध भारती तथा आकाशवाणी सेवा भी नहीं बना सकी थी। बीबीसी ने अपने शानदार समाचार विश्लेषण, साहित्यिक सूझबूझ रखने वाले पत्रकारों तथा शुद्ध एवं शानदार उच्चारण के चलते स्वतंत्रता के बाद से लेकर अब तक भारतीय श्रोताओं के दिलों पर राज किया। यह कहने में कोई हर्ज नहीं कि बीबीसी सुनकर ही हमारे देश में न जाने कितने युवक आईएएस अधिकारी बने,कितने लोग नेता बने तथा तमाम लोग छात्र नेता, लेखक, पत्रकार व अन्य अधिकारी बन सके। बीबीसी परीक्षार्थियों तथा विभिन्न प्रतियोगिताओं में भाग लेने वाले युवकों को भी अत्यंत लोकप्रिय था। बीबीसी रेडियो की हिंदी सेवा ने गरीबों, रिक्शा व रेहड़ी वालों,चाय बेचने वालों, दुकानदारों से लेकर पंचायतों व चौपालों आदि तक पर लगभग 6 दशकों तक राज किया। भारत में अब भी बीबीसी के लाखों श्रोता ऐसे हैं जिनका नाश्ता बीबीसी पहली सेवा से ही होता है तथा रात में अंतिम सेवा सुनकर ही उन्हें नींद आती है। यह कहने में भी कोई हर्ज नहीं कि भारत में बीबीसी हिंदी सेवा सुनने के लिए ही समाचार प्रेमी श्रोतागण रेडियो व ट्रांजिस्टर खरीदा करते थे। तमाम भारतीय समाचार पत्र-पत्रिकाएं तथा टीवी चैनल बीबीसी के माध्यम से $खबरें लेकर प्रकाशित व प्रसारित केवल इसलिए किया करते थे क्योंकि बीबीसी की $खबरों की विश्वसनीयता की पूरी गांरटी हुआ करती थी। परंतु अब सभवत:यह गुज़रे ज़माने की बातें बनकर इतिहास के पन्नों में समा जाएंगी।

इसमें कोई दो राय नहीं कि इस समय पूरा विश्व विशेषकर पश्चिमी देश भारी मंदी व इसके कारण पैदा हुए आर्थिक संकट के दौर से गुज़र रहे हैं। परंतु आर्थिक संकट के इस दौर में यदि कटौती करनी भी हो तो सर्वप्रथम युद्ध के खर्चों में कटौती की जानी चाहिए। इराक, अफगानिस्तान तथा अन्य उन तमाम देशों में जहां अमेरिका तथा उसके परम सहयोगी देश के रूप में ब्रिटिश फौजें तैनात हैं दरअसल वहां होने वाले भारी-भरकम एवं असीमित खर्चों में कटौती की जानी चाहिए। न कि पूरी दुनिया में विश्वसनीयता का झंडा गाडऩे वाले बीबीसी जैसी रेडियो सेवा पर खर्च होने वाले पैसों में। एक बड़ा देश होने के नाते बीबीसी हिंदी सेवा के श्रोतागणों की नाराज़गी भारतवर्ष में का$फी मुखरित होती दिखाई दे रही है। परंतु वास्तव में जिन-जिन देशों कीअपनी भाषाओं के बीबीसी प्रसारण बंद हो रहे हैं उन देशों में भी बीबीसी ने अपनी पत्रकारिता की निष्पक्ष तथा बेलाग-लपेट के अपनी बात कहने की अनूठी शैली के चलते श्रोताओं के दिलों में ऐसी ही जगह बनाई थी। परंतु बड़े ही दु:ख एवं आश्चर्य का विषय है कि ब्रिटिश विदेश मंत्रालय तथा बीबीसी प्रबंधन ने दुनिया के करोड़ों श्रोताओं की परवाह किए बिना इस प्रकार का कठोर निर्णय ले डाला।

अपनी शानदार पत्रकारिता एवं बेहतरीन प्रसारण के बल पर बीबीसी ने विश्व स्तर पर जो प्रतिष्ठा श्रोताओं के मध्य अर्जित की थी वह अब तक दुनिया की किसी और समाचार सेवा ने नहीं हासिल की। गत् वर्ष बीबीसी ने भारत में अपने श्रोताओं से संबंध स्थापित करने के लिए एक विशेष रेल यात्रा निकाली तथा कई राज्यों में बस यात्राएं भी कीं। अपने श्रोताओं से मिलने से सीधा संपर्क स्थापित करने के बीबीसी के इस प्रयास से ऐसा प्रतीत हो रहा था कि अब बीबीसी और भी अधिक सक्रिय होने जा रहा है। यहां तक कि बीबीसी के श्रोता यह आस भी लगाए बैठे थे कि संभवत: अब बीबीसी का हिंदी न्यूज़ चैनल भी शीघ्र ही शुरु होगा। परंतु बीबीसी प्रेमियों की सारी उम्मीदों पर ब्रिटिश विदेश मंत्रालय एवं बीबीसी प्रबंधन ने पानी फेर दिया। बीबीसी के भारतीय श्रोतागण इस सेवा को पूर्ववत् जारी रखने के लिए बीबीसी को शुल्क देने,अपनी मासिक आय देने तथा अन्य तरी$कों से उसकी आर्थिक मदद करने तक को तैयार हैं। यदि बीबीसी ब्रिटिश मंत्रालय द्वारा सोलह प्रतिशत की खर्च कटौती की पूर्ति के लिए बाज़ार से विज्ञापन लेना शुरु कर दे तो भी उसके खर्च पूरी हो सकते हैं। इस प्रतिष्ठित समाचार सेवा को बंद करने के बजाए इसे और अधिक मज़बूत व मुखरित तथा प्रतिष्ठापूर्ण बनाने के लिए बीबीसी प्रबंधन को तथा ब्रिटिश सरकार को और अधिक प्रयास करने चाहिए थे। ब्रिटिश सरकार को स्वयं इस बात पर $गौर करना चाहिए था कि वॉयस ऑ$फ अमेरिका रूस,चीनी तथा जर्मनी रेडियो की समाचार सेवाओं को कहीं पीछे छोड़ते हुए बीबीसी ने अपनी लोकप्रियता का जो झंडा बुलंद किया था उसे बर$करार रखा जाए। परंतु आर्थिक संकट के नाम पर इतना बड़ा फैसला ले लेना तथा दुनिया के करोड़ों श्रोताओं की अनदेखी करना इस बात का सा$फ प्रमाण है कि ब्रिटिश सरकार सही फैसले ले पाने में निश्चित रूप से असमर्थ है। यह कहना गलत नहीं होगा कि दुनिया में ब्रिटेन का आज भी जो थोड़ा-बहुत स मान आम लोगों के दिलों में था उसका एक सबसे बड़ा कारण बीबीसी लंदन जैसी विश्वसनीय समाचार सेवा ही थी।

आले हसन, पुरुषोत्तमलाल पाहवा, रामपाल, मार्क टुली, ओंकार नाथ श्रीवास्तव से लेकर संजीव श्रीवास्तव, सलमा ज़ैदी, राजेश जोशी, महबूब खान, तथा अविनाश दत्त तक बीबीसी के सभी योग्य एवं होनहार पत्रकारों ने निश्चित रूप से भारतीय श्रोताओं के दिलों पर दशकों तक राज किया है। भारतीय श्रोता बीबीसी के आजतक, विश्वभारती, आजकल तथा हम से पूछिए जैसे उन कार्यक्रमों को कभी नहीं भुला सकेंगे जो भारतीय चौपालों, पंचायतों, भारतीय सीमाओं तथा चायख़ानों तक में बड़ी गंभीरता से सुने जाते थे। अभी भी 20 मार्च की तिथि आने में समय बाकी है। बीबीसी हिंदी प्रसारण के शाम को प्रसारित होने वाले इंडिया बोल कार्यक्रम में भारतीय श्रोताओं ने अपने विचार अपने दिलों की गहराईयों से व्यक्त किए हैं। इन्हें सुनने व पढऩे के बावजूद यदि ब्रिटिश सरकार तथा बीबीसी प्रबंधन ने बीबीसी की बंद होने वाली सेवाओं विशेषकर बीबीसी हिंदी सेवा को पूर्ववत् प्रसारित करते रहने का निर्णय नहीं लिया तो भारत के जागरुक नागरिक विशेष कर बीबीसी को अपने परिवार के विश्वसनीय सदस्य के रूप में स्वीकार कर चुके श्रोतागण विश्व समाचार जगत पर हो रहे अब तक के इस सबसे बड़े कुठाराघात को शायद सहन नहीं कर सकेंगे। साथ ही साथ इन बीबीसी प्रेमियों को ब्रिटिश सरकार तथा बीबीसी प्रबंधन की कार्यकुशलता,योग्यता व सक्षम संचालन के प्रति उत्पन्न होन वाले संदेह एवं अविश्वास से भी कोई नहीं रोक सकेगा।

राजनीति का शिकार न हो जाए एकलव्य

विनोद उपाध्याय

एकलव्य हूँ मैं ढूँढ़ता

हे द्रोण कहाँ हो ,

एकाकी शर संधान से

हे तात ! उबारो।

प्रश्न नहीं मेरे लिये

बस एक अंगूठा ,

कर लिये कृपाण हूँ

लो हाथ स्वीकारो।

है चाह नहीं देव !

अर्जुन की धनुर्धरता ,

एकलव्य ही संतुष्ट मैं

बस शिष्य स्वीकारो।

श्रीकांत मिश्र कांत की पंक्तियां आधुनिक भारत के एकलव्य की व्यथा को दर्शा रही हैं। महाभारत के पात्र एकलव्य को शिक्षा के लिए जिस तरह उपेक्षा झेलनी पड़ी थी, इसी प्रकार की उपेक्षा मध्यप्रदेश के आदिवासी, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति के बालकों को झेलना पड़ रही है और आगे भी पड़ सकती है, क्योंकि जिस पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष ने पद भार संभालते ही अपना अधिकतर समय इनके बीच गुजारने का ऐलान किया और जिस सरकार के मुख्यमंत्री ने उनके सम्मान में यात्रा निकाली उसी सरकार के आदिमजाति तथा अनुसूचित जाति कल्याण विभाग के आदिवासी मंत्री कुंवर विजय शाह की हठधर्मिता के कारण केन्द्र से मिली एकलव्य विद्यालयों की सौगात अधर में लटकी हुई है।

मप्र आदिवासी बहुल राज्य है। प्रदेश में सरकार बनवाने में आदिवासियों के वोट महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। जिसको देखते हुए राजनीतिक पार्टियों द्वारा इन्हें हर बार लोकलुभावन वायदों के जाल में फांसने का क्रम चलता है। कहा जाता है कि मध्यप्रदेश के आदिवासी बहुल इलाकों में चुनावी आग हमेशा अंदर ही अंदर धधकती रहती है लेकिन धुंआ दिखाई नहीं पड़ता है। सूबे में किसी की सरकार बनाने और बिगाडऩे में आदिवासियों की अहम भूमिका रहती है। आदिवासियों ने जब जब जिसका साथ दिया सरकार उसी की बनी। बीते 2003 के चुनाव में आदिवासी बहुल इलाकों में भाजपा को हर जगह बड़ी सफलता मिली थी। राज्य में आदिवासी दबदबे वाली लगभग पचपन सीटें हैं। बघेलखंड, महाकौशल, उज्जन , इंदौर से लेकर झाबुआ तक इनका विस्तार है। आमतौर पर आदिवासियों के बीच कांग्रेस ही प्रभावी रही है। लेकिन संघ परिवार के संगठन वनवासी आश्रम भी इनके बीच सक्रिय रहा है। धार, बाडवानी , खरगौन और बैतूल में इसीलिये जनसंघ के जमाने से पार्टी को वोट मिलते रहे हैं। विपरीत इसके झाबुआ, शहडोल, सीधी, रतलाम में समाजवादी पार्टी की पकड़ रही है। लेकिन प्रदेश भाजपा की कमान जब से प्रभात झा ने संभाली है उन्होंने आदिवासियों के वोट पर एकतरफा कब्जा जमाने की कवायद शुरू कर दी लेकिन लगता है कि पार्टी अध्यक्ष की मंशा पर उन्हीं की सरकार के मंत्री और नौकरशाह पानी फेर देंगे।

‘आम तौर पर आदिवासी चौथी या पांचवीं कक्षा के बाद पढ़ाई छोड़ देते हैं, इससे वे न तो खेती के लायक रहते हैं और न ही नौकरी के। इसलिए आदिवासियों की तकदीर और तस्वीर बदलने के लिए केंद्र देशभर के आदिवासी क्षेत्रों में नवोदय विद्यालयों की तर्ज पर ‘एकलव्य आवासीय विद्यालय खोलने जा रही है। उल्लेखनीय है कि केंद्रीय जनजातीय मंत्रालय ने 30 जून 2010 को आगामी वर्ष 2010-11 के लिए 50 एकलव्य विद्यालय स्वीकृत किए हैं। इस मामले में केन्द्र सरकार ने मध्यप्रदेश को अन्य राज्यों से अधिक प्राथमिकता देते हुए अनुसूचित जनजाति के विद्यार्थियों के लिए 6 नये एकलव्य आदर्श आवासीय विद्यालय खोलने की स्वीकृति एक साथ प्रदान की है।

जिन नये आवासीय विद्यालयों को मंजूरी दी गई है उनमें अलीराजपुर जिले के सोंडवा में, खंडवा जिले के विकास खंड खालवा के ग्राम रोशनी में, शहडोल जिले के सुहागपुर विकास खंड मुख्यालय में, बालाघाट जिले के बैहर विकास खंड के ग्राम उकवा, झाबुआ जिले के राणापुर विकास खंड के मोरडुडिया एवं छिदंवाड़ा जिले के बिछुआ विकास खंड के ग्राम सिंगारदीप हैं। अभी इन विद्यालयों को बनाने की कार्ययोजना भी नहीं बन पाई थी की केन्द्र ने दो और एकलव्य विद्यालय की सौगात दे दी। उल्लेखनीय है कि प्रदेश में वर्तमान में 12 एकलव्य विद्यालय संचालित हो रहे हैं। ये विद्यालय झाबुआ जिले के थांदला, धार के कुक्षी, बड़वानी, रतलाम के सैलाना, बैतूल के शाहपुर, सिवनी के घंसौर, अनूपपुर के अलावा मंडला जिले के सिझौरा, छिदंवाड़ा जिले के जुन्नारदेव, उमरिया के पाली, डिंडौरी एवं सीधी जिले के टंसार में हैं। इन विद्यालयों में लगभग 3750 विद्यार्थियों को सी.बी.एस.सी. पाठ्यक्रम के अनुसार पढ़ाई कराई जा रही है। इन शिक्षण संस्थाओं में विद्यार्थियों को ऐकेडेमिक शिक्षा के साथ-साथ कम्प्यूटर शिक्षा, व्यक्तित्व विकास प्रशिक्षण, भोजन, गणवेश, पुस्तकें, स्टेशनरी एवं लायब्रेरी की सुविधा नि:शुल्क उपलब्ध कराई जा रही है।

नवीन एकलव्य आदर्श आवासीय विद्यालय में आदिवासी छात्र-छात्राओं को बेहतर व गुणात्मक शिक्षा प्रदान करने के लिए मार्गदर्शिका में मंत्रालय द्वारा कई आमूल-चूल संशोधन किए गए हैं। इन संशोधन के अनुसार, राज्य में एक नवीन एकलव्य आदर्श आवासीय विद्यालय स्थापित करने के लिए राज्य सरकार को पूर्व में 2.50 करोड़ रुपये के राशि के स्थान पर अब अधिकतम 12.00 करोड़ रुपये दिये जा सकते है। इसके अतिरिक्त नव संशोधित मार्गदर्शिका में विद्यार्थियों की अधिकतम सीमा को 420 से बढा़कर 480 किया गया है । साथ ही बढ़ी कीमतों व बेहतर सुविधाएं प्रदान करने की दृष्टि से, अब प्रत्येक विद्यार्थी पर 17,000 रुपए प्रति वर्ष के स्थान पर 42,000 रुपए प्रति वर्ष देय होगा। बच्चों के खेलने व अन्य गतिविधियों के लिए जगह की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए, नवीन मार्गदर्शिका में एकलव्य विद्यालय की स्थापना के लिए 20 एकड़ भूमि की अनिवार्यता रखी गयी है। विद्यार्थियों के सर्वागीण विकास हेतु अन्य सुविधाओं के लिए आवश्यक प्रावधान भी इन नवीन मार्गदर्शिता में समाहित किये गये है। इसलिए मध्यप्रदेश को सर्वप्रथम कुल 72.00 करोड़ रुपये स्वीकृत किये गये है जिसमें से 36.00 करोड़ रुपये वर्ष 2010-11 में दिये जा रहे है ।

नई मार्गदर्शिका के अनुसार उक्त विद्यालयों का निर्माण उच्च कोटि का हो तथा निर्माण कार्य निर्धारित अवधि 2 वर्ष में पूरा हो जाये, जिससे अनुसूचित जनजाति के बच्चे इन नवीन एकलव्य आदर्श आवासीय विद्यालयों में उच्च गुणवत्ता की शिक्षा का लाभ शीध्र प्राप्त कर सके। उल्लेखनीय है कि अगर इस योजना में किसी भी प्रकार की देरी होती है और निर्माण कार्यों की लागत बढ़ती है तो उसका भुगतान राज्य सरकार को वहन करना होगा। बावजूद इसके आलम यह है कि मध्यप्रदेश में अभी तक इन विद्यालयों के निर्माण के लिए निर्माण एजेंसी का निर्धारण ही नहीं हो पाया है। इसके पीछे मुख्य वजह बताई जा रही है कि विभागीय मंत्री कुंवर विजय शाह और प्रमुख सचिव देवराज बिरदी में समन्वय का अभाव। पिछले सात महीने से लटकी इस बहुप्रतीक्षित योजना के निर्माण के लिए मंत्री ने अभी हाल ही में दस्तखत कर इस फाइल में मंडी बोर्ड को निर्माण करने को लिखा। लेकिन सूत्र बताते हैं कि मंडी बोर्ड ने यह कार्य करने से मना कर दिया है और फाइल प्रमुख सचिव के टेबल पर धूल खा रही है। उधर इस मामले में मंडी बोर्ड के आयुक्त अजातशत्रु श्रीवास्तव कहते हैं कि हमें एकलव्य विद्यालय बनाने का आदेश दिया गया था लेकिन हमने कार्य करने से मना कर दिया क्योंकि हमें मिले पिछले काम ही पूरे नहीं हो पा रहे हैं।

मंडी बोर्ड से एकलव्य विद्यालय बनवाने के पीछे विभागीय मंत्री की मंशा क्या है यह तो समझ से परे है लेकिन एक बात जरूर चर्चा का विषय बनी हुई है कि प्रदेश में पीडब्ल्यूडी जैसी निर्माण एजेंसी होने के बाद भी मंत्रीजी ने मंडी बोर्ड को निर्माण करने के लिए क्यों लिखा। प्रदेश में न तो मंडी बोर्ड का निर्माण कार्य का कोई बड़ा अनुभव है और न ही उसका प्रत्येक जिले में सेटअप है। जबकि पीडब्ल्यूडी की स्थापना इसी उद्देश्य से हुई है और उसका प्रदेशभर में अपना सेटअप है तथा उसके पास पर्याप्त अनुभव और इंजीनियर हैं। वैसे देखा जाए तो कुंवर विजय शाह हमेशा ही एक असंवेदनशील मंत्री के रूप में गिने जाते हैं। ऐसे में वे जिस भी विभाग में रहे हैं उस विभाग के प्रमुख सचिव उन्हें मार्गदर्शन करते रहे हैं, लेकिन यहां स्थिति बिल्कुल उसके उलट है। विभागीय प्रमुख सचिव देवराज बिरदी यह जानते हुए भी की आदिवासी एवं अनुसूचित जाति जनजाति वर्ग के लोग सरकार की प्राथमिकता में सबसे ऊपर हैं और इस विभाग के मंत्री भी आदिवासी समाज का प्रतिनिधित्व करते हैं सरकार और मंत्री की कसौटी पर खरा नहीं उतर रहे हैं।

उधर कांग्रेसी नेताओं का आरोप है कि भाजपा नेता संघ के इशारे पर काम करते हैं और उनकी सोच है कि राहुल गांधी ने आदिवासी क्षेत्रों में राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के ‘वनवासी कल्याण परिषद के स्कूलों का प्रभुत्व कम करने की नियत से यह रणनीति तैयार की है और उनके सुझाव पर केंद्रीय जनजाति कार्य मंत्रालय ने राष्ट्रीय स्तर पर ‘एकलव्य आवासीय विद्यालय खोलने की योजना बनाई है। यह आदिवासियों में सक्रिय आरएसएस संगठनों के लिए सिरदर्द साबित हो सकता है। इसलिए भाजपा कि सोच है कि इस योजना में जितना विलंब हो सके किया जाए।

मिस्र (ईजिप्ट) का वर्तमान आंतरिक हिंसक संघर्ष किसी के काम का नहीं.

श्रीराम तिवारी

मिस्र में जो चल रहा है वो कुछ भी नामित हो किन्तु इसे क्रांति का नाम देना उचित नहीं होगा.विगत १० दिनों की राजनैतिक गतिविधियों का निचोड़ ये है की मिस्र का वर्तमान जानान्दोलन नितांत दिशाहीन और गृहयुद्ध पोषक है .इतने दिन मुबारक विरोधी सड़कों पर चिल्ल पों मचाते रहे किन्तु हुस्नी मुबारक ने संयम से काम लिया ;किन्तु जब देश से बाहर की अंतर्राष्ट्रीय ताकतों ने अपने मोहरे मिस्र की सरजमीं पर उतारने शुरू किये तो मुबारक समर्थक आवाम का धैर्य चुकने लगा और २ फरवरी को वे भारी तादाद में हुस्नी मुबारक के समर्थन में न केवल काहिरा बल्कि पूरे देश में सड़कों पर उतर आये , न केवल सड़कों पर उतर आये अपितु सेना के बैरीकेट्स तोड़कर तहरीर स्कायर पर जमा हो गए और नारा लगाया -लॉन्ग लीव हुस्नी मुबारक .स्थिरता सम्बन्धी हुस्नी मुबारक के कमिटमेंट पर वे यकीनी तौर पर आश्वस्त हैं अब इस विप्लवी माहौल को गृहयुद्ध नहीं तो क्या क्रांति कहेंगे ?

हुस्नी मुबारक की जगह शायद मोहम्मद अलबरदेई आ जाएँ ,या शायद कोई फौजी बन्दा सत्ता पर काबिज हो जाये किन्तु मिस्र की जनता की वास्तविक तकलीफें -महंगाई ,बेरोजगारी और उत्पीडन -कम होने की कोई गारंटी नहीं है ,ये विश्वव्यापी आर्थिक संकट का दौर है किसी एक व्यक्ति की जगह दूसरे को राष्ट्राध्यक्ष भर बना देने से व्यस्थाएं नहीं बदला करतीं .व्यवस्था परिवर्तन के लिए क्रन्तिकारी आमूलचूल परिà ��र्तन आवश्यक है .इस तरह के दिशाहीन विचारहीन ,व्यक्तिपरक आन्दोलन अपनी ऊष्मा बरकार रखने में ही असफल होते रहे हैं ,क्योंकि इस आन्दोलन के पास वैज्ञानिक तरीके से समाज ,राजनीत या आर्थिक दुरावस्था से निपटने का कौशल नहीं होता .

हुस्नी मुबारक ही एकमात्र अरेवियन हैं जिन पर इजरायल को यकीन है और इसीलिये वे अमेरिका के भी विश्वाशपात्र है .अलबरदेई होंगे तो वे भी उसी घात के हैं .जहाँ तक फौजों का सवाल है तो यह जगजाहिर है की इस भूतल पर जितने भी फौजी शासक हैं या विगत ५० सालों में हुए हैं- वे सभी अमेरिकी धुन पर नाचने बाले कालबेलिए भर रहे हैं फिर मिस्र की जनता का यह वर्तमान विप्लवी उपसंहार कहाँ समाप्त होगा ?

वैसे भी हुस्नी मुबारक की उम्र ढल चुकी है वे ३० साल से सत्ता पर काबिज हैं ;किन्तु मिश्र की जनता जिस लोकतंत्र की मांग कर रही है वो तो एलेक्ट्रोरल की राह ही आ पायेगा .हुस्नी कह भी रहे हैं की आगामी आम चुनाव में मैं खड़ा नहीं होऊंगा और मौजूदा संविधान के तहत सत्ता परिवर्तन का आवाम को मार्ग भी प्रशस्तकर्ता हूँ ;किन्तु लोग हैं कि मुबारक को गद्दी छोड़ने का आह्वान कर रहे हैं .यह लगातार १० दिन त क चलने से तंग आकार अभी तक जो चुप थे और हुस्नी से खुश थे वे भी मैदान में आ गए और इस तरह एक प्रतिष्ठित राष्ट्र फिर से दो रहे पर खड़ा है .मिश्र कि जनता एक दुखांत अध्याय कि ओर अग्रसर है .

मिस्र के अंदरूनी संघर्ष से पूर्व फ़्रांस ,ट्यूनीसिया ,तुर्की तथा दुनिया के अनेक भू-भागों में वर्तमान वैश्विक आर्थिक संकट की धमक महसूस की गई और अब तो भारत भी इस की चपेट में आने वाला है .भारत सरकार ने पेट्रोल डीजल के दाम विगत वर्ष में २-३ बार बढ़ाये हैं अब ओपेक ने जब १०० डालर प्रति वेरल कच्चा तेल कर दिया तो महंगाई का आलम नाकाबिल-ए बर्दास्त हो जायेगा .तब भारत की जनता भी सडको पर उमड़ पड़ेगा और फिर एक अदद कोई दूसरा दल या व्यक्ति सत्तासीन हो जायेगा और मंहगाई -बेरोजगारी -कुव्यवस्था -भृष्टाचार ज्यों के त्यों बरकरार रहेंगे क्योंकि पूंजीवादी अर्थ-व्यवस्था में मुनाफा केंद्र में होता है और इंसानियत ,भूख ,न्याय सभी हासिये पर होते हैं .बिना वैज्ञानिक तौर तरीके से व्यवस्था परिवर्तन एक प्रपंच मात्र है जो शक्तिशाली प्रभु वर्ग के हित संवर्धन की कुंजी है .इसमें नाहक ही आम जनता और खासतौर से निर्धनजन स्वाहा होते रहते हैं .मिस्र या इजिप्ट में यही सब हो रहा है .वहाँ एक सकारात्मक क्रांति की अभी कोई संभावना नहीं .

शनि अमावस्या का दुर्लभ योग 24 दिसंबर,2011 को ; Shani Amavasyaa

–(57 वर्ष बाद अपने नक्षत्र में शनि मानेगी अमावस्या)

शनि अमावस्या शुभ हो—-

शनिश्चरी अमावस्या को न्याय के देवता शनिदेव सभी को अभय प्रदान करते हैं। ऐसा शास्त्रों में उल्लेख किया गया है। सनातन संस्कृति में अमावस्या का विशेष महत्व है और अमावस्या अगर शनिवार के दिन पड़े तो इसका मतलब सोने पर सुहागा से कम नहीं। ज्योतिष के अनुसार, जिन जातक की जन्म कुंडली या राशियों पर शनि की साढ़ेसाती व ढैया का प्रभाव है वे इसकी शांति व अच्छे फल प्राप्त करने के लिए 24 दिसंबर को पड़ने वाली शनिश्चरी अमावस्या पर शनिदेव का विधिवत पूजन कर पर्याप्त लाभ उठा सकते हैं।

शनिवार को पडने वाली अमावस्या को शनैश्चरी अमावस्या कहा जाता है। इस दिन मनुष्य विशेष अनुष्ठानों से पितृदोष और कालसर्प दोष से मुक्ति पा सकता है। इसके अलावा शनि का पूजन और तैलाभिषेक कर शनि की साढेसाती, ढैय्या और महादशा जनित संकट और आपदाओं से भी मुक्ति पाई जा सकती है, इसलिए शनैश्चरी अमावस्या के दिन पितरों का श्राद्ध जरूर करना चाहिए। यदि पितरों का प्रकोप न हो तो भी इस दिन किया गया श्राद्ध आने वाले समय में मनुष्य को हर क्षेत्र में सफलता प्रदान करता है, क्योंकि शनिदेव की अनुकंपा से पितरों का उद्धार बडी सहजता से हो जाता है।

इस बार 57 साल बाद अपने नक्षत्र केतु और अपनी उच्च राशि तुला में शनिवार के दिन 24 दिसंबर को शनि अमावस्या आ रही हैं। शनि अमावस्या में शनिदेव की पूजा करने से कालसर्प, पितृदोष, साढ़ेसाती एवं शनि की ढैया वाले जातकों को विशेष राहत मिलती है। मलमास और अपने क्रोधी नामक संवत्सर में आने के कारण इसका महत्व और भी बढ़ जाता हैं। 24 दिसम्बर को सुबह सूर्योदय से शनि अमावस्या प्रारंभ होगी, जो रात्रि 11.40 बजे तक रहेगी।ज्योतिषाचार्य पं. दयानंद शास्त्री के अनुसार इससे पूर्व वर्ष 1954 में ऐसा हुआ था, जब अपने नक्षत्र और उच्च राशि तुला में शनि अमावस्या आई हो। इस बार मूल नक्षत्र केतु का काल 24 दिसंबर को सुबह 9.19 बजे ज्येष्ठा नक्षत्र का उपरांत प्रारंभ होगा।

शनिदेव को परमपिता परमात्मा के जगदाधार स्वरूप कच्छप का ग्रहावतार और कूर्मावतार भी कहा गया है। वह महर्षि कश्यप के पुत्र सूर्यदेव की संतान हैं। उनकी माता का नाम छाया है। इनके भाई मनु सावर्णि, यमराज, अश्वनी कुमार और बहन का नाम यमुना और भद्रा है। उनके गुरु शिवजी हैं और उनके मित्र हैं काल भैरव, हनुमान जी, बुध और राहु। ग्रहों के मुख्य नियंत्रक हैं शनि। उन्हें ग्रहों के न्यायाधीश मंडल का प्रधान न्यायाधीश कहा जाता है। शनिदेव के निर्णय के अनुसार ही सभी ग्रह मनुष्य को शुभ और अशुभ फल प्रदान करते हैं। न्यायाधीश होने के नाते शनिदेव किसी को भी अपनी झोली से कुछ नहीं देते। वह तो शुभ-अशुभ कर्मो के आधार पर मनुष्य को समय-समय पर वैसा ही फल देते हैं जैसे उन्होंने कर्म किया होता है।

क्रूर नहीं कल्याणकारी हैं शनि—-

लोग शनिदेव को क्रूर, क्रोधी, कष्टदायक और अमंगलकारी देवता समझते हैं शनि की साढेसाती, ढैय्या और महादशा और अंतरदशा होने पर लोग शनिदेव की शरण में आते हैं जबकि हकीकत यह है कि शनि मंगलकारी हैं। वह दुखदायक नहीं, सुखदायक हैं। शनि अशांति नहीं देते, शांति देते हैं। शनि भाग्यविधाता हैं, कर्म के दाता हैं, शनि मोक्ष के दाता हैं। शनि एक न्यायप्रिय ग्रह हैं। शनिदेव अपने भक्तों को भय से मुक्ति दिलाते हैं।

धन-वैभव, मान-समान और ज्ञान आदि की प्राप्ति देवों और ऋषियों की अनुकंपा से होती है जबकि आरोग्य लाभ, पुष्टि और वंश वृद्धि के लिए पितरों का अनुग्रह जरूरी है। देवों और ऋषियों से संबंधित जप-तप और यज्ञ से मनुष्य को वही चीजें हासिल हो सकती हैं जिन्हें प्रदान करना उनके अधिकार में है, किंतु जिस व्यक्ति पर पितृकोप होता है वह देवों या ऋषियों को प्रसन्न करने से दूर नहीं होता। उसके लिए पितृकोप शांत करने वाले अनुष्ठान जरूरी होते हैं। ऐसे में शनि अमावस्या पर की गई पूजा और अनुष्ठान से पितर खुश होते हैं और लोगों को पितृकोप से निजात मिलती है। पितरों को प्रसन्न करने के लिए मनुष्य को सदा तत्पर रहना चाहिए क्योंकि पितरों के आशीर्वाद से ही सांसारिक अभ्युदय और अच्छे स्वास्थ्य की प्राप्ति होती है। पितृदोष या कालसर्पदोष ग्रस्त, असाध्य रोगों से पीडित, संतानहीन मनुष्य को शनि अमावस्या पर पूजा अर्चना करनी चाहिए। इस दिन मनुष्य को सरसों का तेल, उडद, काला तिल, देसी चना, कुलथी, गुड शनियंत्र और शनि संबंधी समस्त पूजन सामग्री अपने ऊपर वार कर शनिदेव के चरणों में चढाकर शनिदेव का तैलाभिषेक करना चाहिए।

—-श्याम रंग के शनिदेव —-: शनिदेव का रंग श्यामवर्ण है और अमावस्या की रात्रि भी काली होती है। दोनों के ही गुणधर्म एक समान हैं। इसलिए शनिदेव को अमावस्या अधिक प्रिय है। पूर्व से ही अमावस्या पर शनिदेव का पूजन शास्त्री, आचार्य, तांत्रिक विशेष रूप से करते हैं।

—-शनि की कृपा का पात्र बनें —: शनि की कृपा का पात्र बनने के लिए शनिश्चरी अमावस्या को सभी जातकगण विधिवत आराधना करें। भविष्यपुराण के अनुसार शनिश्चरी अमावस्या शनिदेव को अधिक प्रिय रहती है। 24 दिसंबर को शनिवार के दिन शनिश्चरी अमावस्या का योग बन रहा है।

क्यों बना यह संयोग —: पंचागों के अनुसार वर्तमान में क्रोधी नाम का संवत्सर चल रहा है। इसके स्वामी शनिदेव हैं।3 वर्ष पूर्व 2008 में मलमास में शनि अमावस्या आई थी। अगले वर्ष 2012 में एक बार अप्रैल में शनि अमावस्या आएगी।

आइये जानिए इस शनि अमावस्या का प्रभाव और क्या करें उपाय अपनी राशी अनुसार इस दुर्लभ शनि अमवस्या पर—-

आपकी राशि- प्रभाव – उपचार

मेष – दुर्घटना, यश हानि – शनि का तेलाभिषेक

वृष – आकस्मिक लाभ – लोहे की वस्तुदान

मिथुन – रोग व शत्रु पीड़ा – उड़द की वस्तुदान

कर्क – कर्ज से मुक्ति – शनि का तेलाभिषेक

सिंह – पारिवारिक कलह – बंदरों को गुड़ एवं चने

कन्या – धनलाभ, विदेशयात्रा – लोहे की वस्तुदान

तुला – मान-सम्मान में वृद्धि – उड़द की वस्तुदान

वृश्चिक – मानसिक क्लेश – लोहा एवं तेलदान

धनु – स्थान परिवर्तन, विदेश यात्रा- काले वस्त्रदान

मकर – आर्थिक लाभ, समृद्धि – शनि यंत्र की पूजन

कुंभ – राज पद की प्राप्ति – पानी में कोयला प्रवाह

मीन – कार्य सिद्धि – तेल, तिल व गुड़ का दान

शनि अमावस्या है तो क्यों न शनिदेव से अपने बुरे कर्मों के लिए माफ़ी मांग लें —

नाराज रुष्ट सनिदेव को मानाने/प्रसन्न करने के उपाय-टोटके—इस अवसर पर विशेष प्रयोग कर आप शनिदेव को प्रसन्न कर सकते हैं। कुछ विशेष पेड़-पौधों की जड़ों व माला धारण करने से शनि का बुरा प्रभाव कम होता है। नीचे ऐसे ही कुछ पेड़-पौधों की जानकारी दी गई है। इन उपायों को करने से आपके जीवन से शनि संबंधी परेशानियां कम हो जाएंगी—

—-शनिमंत्र व स्तोत्र सर्वबाधा निवारक वैदिक गायत्री मंत्र—- ‘ॐ भगभवाय विद्महे मृत्युरुपायधीमहि, तन्नो शनि: प्रचोदयात्।’

—-प्रतिदिन श्रध्दानुसार शनि गायत्री का जाप करने से घरमें सदैव मंगलमय वातावरण बना रहता है।

—-वैदिक शनि मंत्र —-ॐ शन्नोदेवीरमिष्टय आपोभवन्तु पीतये शंय्योरभिस्रवन्तुन:।

—-शनिदेव को प्रसन्न करने का सबसे पवित्र औरअनुकूल मंत्र है इसकी दो माला सुबह शाम करने से शनिदेव की भक्ति व प्रीति मिलती है।’पौराणिक’ शनि मंत्र –ॐ ह्रीं नीलांजनसमाभासं रविपुत्रं यमाग्रजम्। छायामार्तण्डसम्भूतंतं नमामि शनैश्चरम्॥

—यह बहुत ही सटीक फल देने वाला शनि मंत्र है। इसका यदि सवाकराड़ जाप स्वयं करे या विद्वान साधकों से करवाएं तो जातक राजा के समान सुख प्राप्तकरता है।

—-शनि ग्रह पीड़ा निवारण मंत्र सूर्यपुत्रे दीर्घ देहो विशालाक्ष: शिवप्रिय:। मंदचार:प्रसन्नात्मा पीड़ां हरतु में शनि:॥

—-सूर्योदय के समय, सूर्य दर्शन करते हुए इस मंत्र का पाठकरना शनि शांति में विशेष उपयोगी होता है।कष्ट निवारण शनि मंत्र —-नीलाम्बर: शूलधर: किरीटी गृघ्रस्थितस्त्रसकरो धनुष्मान्।चर्तुभुज: सूर्यसुत: प्रशान्त: सदाऽस्तुं मह्यं वरंदोऽल्पगामी॥

—-इस मंत्र से अनावश्यकसमस्याओं से छुटकारा मिलता है। प्रतिदिन एक माला सुबह शाम करने से शत्रु चाह करभी नुकसान नहीं पहुंचा पायेगा।

—–सुख-समृध्दि दायक शनि मंत्र —कोणस्थ:पिंगलो वभ्रु:कृष्णौ रौद्रान्त को यम:। सौरि: शनैश्चरौ मंद: पिप्पलादेन संस्तुत:॥

—-इस शनि स्तुति कोप्रात:काल पाठ करने से शनिजनित कष्ट नहीं व्यापते और सारा दिन सुख पूर्वक बीतताहै।शनि पत्नी नाम स्तुति —ॐ शं शनैश्चराय नम: ध्वजनि धामिनी चैव कंकाली कलहप्रिया।कंटकी कलही चाऽथ तुरंगी महिषी अजा॥ ॐ शं शनैश्चराय नम:

यह बहुत ही अद्भुत औररहस्यमय स्तुति है यदि आपको कारोबारी, पारिवारिक या शारीरिक समस्या हो।इस मंत्रका विधिविधान से जाप और अनुष्ठान किया जाये तो कष्ट आपसे कोसों दूर रहेंगे। यदिआप अनुष्ठान न कर सकें तो प्रतिदिन इस मंत्र की एक माला अवश्य करें घर में सुख-शांतिका वातावरण रहेगा।

—–ॐ शं शनैश्चराय नम:

– लाल चंदन की माला को अभिमंत्रित कर पहनने से शनि के अशुभ प्रभाव कम हो जाते हैं।

– शमी वृक्ष की जड़ को विधि-विधान पूर्वक घर लेकर आएं। शनिवार के दिन श्रवण नक्षत्र में किसी योग्य विद्वान से अभिमंत्रित करवा कर काले धागे में बांधकर गले या बाजू में धारण करें। शनिदेव प्रसन्न होंगे तथा शनि के कारण जितनी भी समस्याएं हैं उनका निदान होगा।

– काले धागे में बिच्छू घास की जड़ को अभिमंत्रित करवा कर शनिवार के दिन श्रवण नक्षत्र में धारण करने से भी शनि संबंधी सभी कार्यों में सफलता मिलती है।

– पीपल के पेड़ पर प्रतिदिन जल चढ़ाने और दीपक लगाने से भी शनिदेव प्रसन्न हो जाते हैं।

 

 

 

खतरे की तरंगें

लिमटी खरे

इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि इक्कीसवीं सदी के आगाज के साथ ही भारत गणराज्य में संचार क्रांति चरम पर पहुंच चुकी है। कमोबेश हर हाथ में मोबाईल ही दिखाई पड़ता है। एक समय था जब लेंड लाईन हुआ करती थी, वह भी बड़ी ही सीमित। फोन उठाईए, एक्सचेंज मिलाईए नंबर बताईए, फिर लोकल काल भी वही मिलाकर देगा। धीरे धीरे डायलिंग सिस्टम आरंभ हुआ। फिर ट्रंक काल बुकिंग, एक्सचेंज से आवाज आती थी, लाईटनिंग है, एक्सप्रेस या आर्डनरी। समय बदला राजीव गांधी के जमाने में सेम पित्रोदा ने संचार तकनीकों को बेहद उन्नत बनाया। उस दौरान कार्ड लेस फोन रखना ही स्टेटस सिंबाल होता था। आज हर हाथ में एक मोबाईल वह भी कलर स्क्रीन वाला दिखाई पड़ जाता है।

पिछले कुछ सालों में मोबाईल फोन उपभोक्ताओं की तादाद में विस्फोटक बढ़ोत्तरी दर्ज की गई है। इसी अनुपात में मोबाईल सेवा प्रदाता कंपनियों ने जगह जगह टावर लगा दिए गए हैं। इन टावर को लगाने के लिए जगह के मालिक को हर माह मोटी रकम भी अदा करती हैं मोबाईल कंपनियां। इन टावर्स की स्थापना के लिए बाकायदा मानक तय किए गए हैं। विडम्बना ही कही जाएगी कि इन मानकों के पालन में मोबाईल कंपनियां पूरी तरह से संवेदनहीन ही दिखाई पड़ी हैं।

मोबाईल फोन से होने वाले रेडिएशन की वास्तविकता इसके दुष्प्रभावों को जानने के लिए अब तक हम विदेशों में हुए अध्ययन, खोज आदि पर निर्भर थे, उस संदर्भ में अब हमारे सरकारी सिस्टम ने भी अपनी तरह से आंकलन किया है। मोबाईल फोन से निकलने वाले रेडिएशन की वजह से थकान, अनिंद्रा, चक्कर आना, रक्तचाप बढ़ना, रोग प्रतिरोधक क्षमता कम होना, तंत्रिका तंत्र से संबंधित बीमारियां, रिफलेक्शन की कमी, पाचन तंत्र में गड़बड़ी, हृदय संबंधी समस्याएं, एकाग्रता की कमी, नपुंसकता जैसी समस्याएं हो सकती हैं। हाल ही में विभिन्न मंत्रालयों की एक उच्च स्तरीय समिति आईएमसी ने इस तरह की चेतावनी के साथ ही रेडिएशन संबंधी नियम कायदों में देश की जरूरतों के हिसाब से बदलाव की सिफारिश भी की है।

समिति का कहना है कि घनी आबादी वाले इलाकों, स्कूलों, खेल के मैदानों के इर्द गिर्द मोबाईल टावर की स्थापना पर कड़े प्रतिबंध होने चाहिए। गौरतलब होगा कि इलेक्ट्रोमैग्निेटिक रेडएशन के मधुमख्खी, तितली और पक्षियों पर पड़ने वाले प्रभावों के मद्देनजर इस समिति का गठन किया गया था।

कितने आश्चर्य की बात है कि मोबाईल टावर के खतरों को भांपते हुए भी महज चंद सिक्कों की खनक के तले दबकर स्थानीय प्रशासन द्वारा सघन आबादी वाले क्षेत्रों में मोबाईल टावर स्थापित करने की छूट प्रदान कर दी जाती है। सूचना और प्रोद्योगिकी मंत्रालय ने पिछले साल जुलाई में इस मामले में संज्ञान लिया था। उस समय कहा गया था कि सेवा प्रदाता कंपनियों को इस आशय का प्रमाण पत्र देना अनिवार्य किया गया था कि उनके द्वारा संस्थापित टावर विकिरण के निर्धारित मानकों के अनुरूप है। समयावधि बीत जाने के बाद भी मंत्रालय को सुध नहीं आई है कि उनके निर्देशों का मोबाईल सेवा प्रदाता कंपनियों ने क्या हश्र किया है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन के निर्धारित मानकों के अनुसार मोबाईल टावर्स की फ्रिक्वेंसी तीन सौ गीगा हर्ट्ज से ज्यादा किसी भी कीमत पर नहीं होना चाहिए। साथ ही साथ इंटरनेशनल कमीशन फॉर नॉन आयोनाइजिंग द्वारा जारी दिशा निर्देशों में साफ कहा गया है कि इन टावर्स से हाने वाले विकिरण की तीव्रता अधिकतम छः सौ माईक्रोवॉट प्रति वर्गमीटर होना चाहिए। ज्यादा से ज्यादा कव्हरेज और कंजेशन से मुक्त होने की चाह में सेवा प्रदाता कंपनियों द्वारा तीव्रता को साढ़े सात हजार माइक्रोवॉट प्रति वर्गमीटर से अधिक कर रखी है।

अभी कुछ दिनों पहले जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में किए गए अध्ययन में मोबाईल रेडियएशन को मानव शरीर की कोशिकाओं के डिफेंस मेकेनिजम के लिए घातक माना गया था। केरल के कोल्लम ताल्लुका में पर्यावरण संगठन केरल पर्यावरण अध्ययनकर्ता एसोसिएशन ने दावा किया है कि गौरैया की संख्या रेल्वे स्टेशन, गोदाम, मानव बस्तियों में कमी हो रही है। अध्ययन में कहा गया है कि गौरैया के अंडे से बच्चे के बाहर आने में दस से चोदह दिए लग जाते हैं, लेकिन मोबाईल टावर के आसपास वाले घोसलों में अंडे तीस दिन में भी नहीं टूट पाए। तेरह साल की औसत आयु वाली गौरैया का चहकना अब कम ही देखने को मिल रहा है।

इतना ही नहीं मेरठ के लाला लाजपत राय आयुर्विज्ञान महाविद्यालय के प्रो.ए.क.ेतिवरी द्वारा भी इस बारे में शोध किया गया। इस शोध में प्रो.तिवारी ने पाया कि इंसानों के साथ ही साथ मधुमख्खी, चिडिया, यहां तक कि चूहों तक पर इसका प्रतिकूल प्रभाव देखने को मिल रहा है। उन्होने पाया कि मधुमख्खी के छत्ते, चिडिया के अंडे, और स्पर्म काउंट में कमी दर्ज की गई। इसमें पाया गया कि पराग चूसने गई मधुमख्खी लौटते समय रास्ता भटक जाती हैं, जिससे उनके छत्ते, कुछ ही दिनों में समाप्त हो जाते हैं। इसके अलावा जेएनयू में इन टावर्स के नीचे रखे गए चूहों के स्पर्म में कमी दर्ज की गई।

एक आंकलन के मुताबिक भारत में वर्तमान में डेढ़ दर्जन से अधिक सेवा प्रदाता कंपनियों के साढ़े तीन लाख से ज्यादा मोबाईल टावर अस्तित्व में हैं इनकी तादाद तेजी से बढ़ रही है। माना जा रहा है कि 2014 तक इनकी संख्या पांच लाख पार कर जाएगी। यूं तो विशेषज्ञों का मानना है कि इन टावर्स के इर्द गिर्द रहने वालों को अपने अपने घरों का रेडिएशन टेस्ट करवाकर अपने घरों को रेडिएशन प्रूफ कर लेना चाहिए। विशेषज्ञों का कहना अपनी जगह सही है, किन्तु यह कहां का न्याय है कि मुनाफा कमाएं मोबाईल सेवा प्रदाता कंपनियां और भोगमान भुगते देश की गरीब जनता।

पिछले साल अगस्त माह में ही केंद्रीय संचार मंत्रालय ने मोबाईल फोन टावर्स के लिए रेडीएशन की सीमा तय कर दी थी। उस समय संचार राज्यमंत्री सचिन पायलट के नेतृत्व में उच्च स्तरीय समिति ने फैसला लिया था कि 15 नवंबर तक रेडिएशन उत्सर्जन की सीमा लागू कर दे अन्यथा पांच लाख रूपए तक के जुर्माने का प्रावधान भी किया गया था।

वैसे मोबाईल टावर्स के लिए पर्यावरण विभाग द्वारा स्पष्ट निर्देश दिए गए हैं कि स्कूल, अस्पताल, सकरी तंग गलियों के आसपास टावर स्थापित न किए जाएं। इसमें मोबाईल सेवा प्रदाता कंपनी और जमीन के मालिक की मर्जी से टावर की संस्थापना का काम नहीं किया जा सकता है। इतना ही नहीं टावर के पास लोगों के लिए चेतावनी बोर्ड लगाना भी अत्यावश्यक है।

मोबाईल सेवा प्रदाता कंपनियों ने अपने एजेंट के माध्यम से टावर लगाने के खेल को अंजाम दिया जा रहा है। मामला चाहे सरकार की नवरत्न कंपनी भारत संचार निगम का हो या निजी सेवा प्रदाता का। हर मामले में कमोबेश यही आलम है। कंपनियों के एजेंट एक मीटर लेकर आपकी जमीन की जांच करेगा, फिर गांव में पांच हजार रूपए प्रतिमाह से आपके साथ बारगेनिंग आरंभ करेगा। अगर आपको पांच हजार रूपए हर महीने की आवक हो रही हो, वह भी महज चार सौ स्क्वेयर फिट जगह को देने पर तब कौन भला इंकार करेगा। इसके लिए इन एजेंट्स द्वारा एक साल का किराया आपसे अग्रिम ही मांग लिया जाता है। फिर आपके साथ पंद्रह साल का एग्रीमेंट।

बहरहाल आज के समय में मोबाईल दैनिक दिनचर्या का अभिन्न अंग बन गया है, तब सरकार रेडिएशन के प्रति चेती है। वैसे भी देश में मंहगाई चरम पर है। सरकार को चाहिए कि सेवा प्रदाता कंपनियों पर उनके पिछले ग्राहकों की संख्या के दावों के हिसाब से ही जुर्माना आहूत करे। इस जुर्माने से ही मोबाईल टावर्स के आसपास की रिहाईश को रेडीएशन पू्रफ बनाया जाए। अभी भी समय है, अगर समय रहते सरकार नहीं चेती तो आने वाले समय में देश में आने वाली पीढ़ी ठीक उसी तरह नजर आएगी जिस तरह नागासाकी और हिरोशिमा में परमाणुबम गिरने के बाद पीढी नजर आ रही थी।

वर्तमान वैश्विक आर्थिक संकट का विकल्प सत्ता परिवर्तन नहीं -अपितु नीति परिवर्तन ही सही विकल्प है

श्रीराम तिवारी

विगत दिनों महाराष्ट्र के मनमाड कस्बे में एक एस डी एम् को कुछ गुंडों ने जिन्दा जला डाला और खबर है कि इस कुकृत्य में शामिल खलनायक भी उसी आग में झुलस कर बाद में अस्पताल में तड़प- तड़प कर मर गया. यह वाकया सर्वविदित है की पेट्रोल में घासलेट की मिलावट करने वाले असमाजिक तत्वों ने यह दुष्कर्म क्यों किया ? प्राकृतिक न्याय का सिद्धांत भी सार्वभौम है कि किसी निर्दोष का कुछ जलाओगे तो या तो खुद भी जलोगे या झुलस जाओगे या कम से कम आंच तो आयेगी ही. सोवियत समाजवादी व्यवस्था को आग लगाने वाले यह सिद्धांत भूल गए और उस शानदार समाजवादी व्यवस्था को आग लगा दी. जिसकी अकाल मौत से उत्पन्न आर्थिक संकट रुपी भूत ने यों तो पूरी दुनिया को ही अपनी उष्म लपटों के आगोश में ले लिया था, किन्तु खास तौर से उसको आग लगाने वाले अमेरिका और यूरोप शनै: शनै: आर्थिक असंतोष की लपटों से घिरते चले गए. बाद में उसकी आंच उन सभी देशों और वित्तीय संस्थानों ने ज्यादा महसूस की जो इन आग लगाने वालों के ज्यादा नजदीक थे .

अमेरिका में २००७ से इस आंच में तीव्रता का अनुभव किया जाने लगा था. आर्थिक मंदी के चलते बेरोजगारी की दर ६% से बढ़कर १३%हो गई थी .यही हाल उसके बगल गीरों -इंग्लॅण्ड और फ्रांस का होने लगा था . और इस भयावह वित्तीय विक्षोभ ने कितना विकराल रूप धारण कर लिया है, इसकी खबर सभी को है .फ्रांस की मेहनतकश जनता ने वहां की सरकार द्वारा पेंसन में छेड़छाड़ ,रिटायरमेन्ट की उम्र में वृद्धि , बढ़ती हुई मंहगाई ,और कारखाना बंदी के खिलाफ जबर्दस्त लामबंदी आरम्भ कर दी है .मेहनतकशों के समर्थन में विश्वविद्यालय के छात्रों और युवाओं ने संघर्ष छेड़ रखा है. फ्रांस के राष्ट्रपति निकोलस सरकोजी की कुर्सी खतरे में है .

इंग्लॅण्ड में डेविड केमरून सरकार ने जनकल्याण के खर्चों में ८१ अरब पौंड की कटौती घोषित कर अपनी अंदरूनी दुर्व्यवस्था को ही जाहिर किया है .देश के सार्वजनिक उपक्रमों को बेचने की जरुरत जब दुनिया के उस मुल्क को भी होने लगे जिसका सूर्य कभी अस्त नहीं होता था, तो इस आर्थिक उदारीकरण बनाम वैश्वीकरण बनाम उद्दाम पूंजीवादी करण के वास्तविक निहतार्थ क्या हैं ? खबर है कि इंग्लॅण्ड कि सरकार ने ५० हजार कर्मचारियों {पब्लिक सेक्टर में ] की छटनी करने का प्रस्ताव किया है ,इस तरह के थेगडे वाले उपचार आग में घी का काम कर रहे हैं इंग्लॅण्ड के मजदूरों में असंतोष उफान पर है .

जर्मनी ,ग्रीक .पुर्तगाल ,स्पेन, इटली, इत्यादि में बेरोजगारी ७ से १४ फीसदी हो चुकी है आर्थिक संकट के पूंजीवादी उपचार निष्फल हो रहे हैं .एशिया में जापान की अंदरूनी आर्थिक स्थिति को काबू में रखने के लिए अमेरिकी नव्य आर्थिक सुधारों से इतर आर्थिक संकट का बोझ निर्यात किये जाने की तजबीज हो रही है . विशाल कृषि आधारित अर्थ व्यवस्था .मजबूत सार्वजनिक उपक्रम और मजदूरों के संगठित संघर्षों से भारत में इस आर्थिक मंदी का असर ज्यादा नहीं बढ़ने दिया. जो भी असर हुआ है उसका बोझ बड़ी चालाकी से देश की आवाम पर डालकर एलीट क्लास और शासक वर्ग खुश हैं. वे पूंजीवादी धडों में बटे होने पर भी अमेरिकी सरमायेदारी का समवेत समर्थन और पूंजीवादी निजाम को लोकतान्त्रिक खोल पहनाये रखने में हम-सोच, हम-प्याला, हम-निवाला हैं .जनता का आक्रोश इनके खिलाफ न फुट पाए सो ये समाज को साम्प्रदायिकता और क्षेत्रवाद में बांटकर ’फुट डालो राज करो ’ से अभिप्रेरित हैं .आगामी दिनों में देश की जनता के संघर्ष तेज होने के आसार हैं .

चीन ने जहाँ देश के अंदर साम्यवादी नीतियों को परिमार्जित किया है वहीं वैश्विक क्षितिज पर पूंजीवाद को उसी की भाषा में जबाब देकर न केवल चीन को आर्थिक महाशक्ति बनाया अपितु अमेरिका समेत तमाम पूंजीवादी राष्ट्रों को चुनौती दी है ,उसके राष्ट्रीय हित अक्षुण हैं . सोवियत व्यवस्था से मुख मोड़ लेने के वावजूद उसके दीर्घकालीन असर से वर्तमान रसिया और उसके फेडरल राष्ट्रों की वित्तीय स्थ िति बहरहाल तो काबू में है, किन्तु जब कुएं में भांग पडी हो तो क्या मछली और क्या मगर ? वैश्विक पूंजीवादी नव्य आर्थिक नीतियों की असफलता इसके अंदर के ही द्वंद्व में अन्तर्निहित हैं .न्यूयार्क का सेवेंथ एवेन्यू -जहाँ पर एक मल्टीस्टोरी पर कभी ’लेमन ब्रदर्स ’के नाम की स्क्रीन चमका करती थी आज उस पर ’बर्कले केपिटल ’का बोर्ड चमक रहा है वालस्ट्रीट के कारोबारियों को अब लेमन ब्रदर्स नाम तक पसंद नहीं .विगत तीन वर्षों में अमेरिका और यूरोप में लेमन ब्रदर्स जैसी हजारों कंपनियां धराशायी हो चुकी हैं.

पूरी दुनिया में आर्थिक मंदी के चलते लगभग १० करोड़ लोग सीधे -सीधे अपने जीवकोपार्जन से हाथ धो बैठे हैं और विभिन्न राष्ट्रों को जन कल्याणकारी मदों में कतारव्योंत करनी पड़ी सो अलग . विश्व पूंजीवादी आर्थिक संकट का यह पहला अनुभव नहीं है.१८७३ में सबसे पहले आर्थिक मंदी का कहर भुगता था .सामंतवाद के गर्भ से उत्पन्न होते ही यह अपने आंतरिक द्वन्द का शिकार हो चला था. उसके पश्चात् १९२८ में आई आर्थिकमंदी ने तो पूरे सात वर्ष तक दुनिया भर को रुलाया मानो साढ़े साती की सगी अम्मा हो. कल-कारखानों में अतिउत्पादन एवं बाजार में मांग-आपूर्ति में असंतुलन होने की वजह से यह दीर्घकालीन आर्थिक संकट जारी रहा था. वस्तुत सम्पूर्ण पूंजीवादी अर्थ-तंत्र असंतुलन एवं मुनाफे पर आधारित होने से वर्गीय समाजों में बेजा अंतर का निर्माणकर्ता है जिसमें पूँजी का भारी-भरकम गुरुत्व अधिकांश अत िशेष पूँजी और साथ ही श्रम को भी अपने में लील लेता है .इस प्रकार गरीब और अमीर के बीच का फासला तो बढ़ता ही है वर्ग संघर्ष का दावाग्नि भी सुलगने लगती है ,यही दावाग्नि आज ट्युनिसिया -तुर्की -जोर्डन -मिस्र और तमाम यूरेशिया में फ़ैल चुकी है .

आर्थिक-संकट के कारणों को जनता के अवैज्ञानिक हिस्सों में सत्ता-परिवर्तन से जोड़कर देखा जा रहा है ,जबकि यह मामला पूरी तरह से आर्थिक और राजनैतिक नीतियों के अमल का है .इस सन्दर्भ में G -२० देशों के सतत सम्मेलनों में पूंजीवादी उपचारों को ही दुहराया जाता रहा है ;जबकि इन्ही सम्मेलनों में भारत ,चीन और अन्य पूर्व और वर्तमान समाजवादी राष्ट्रों के आर्थिक उत्कर्ष की स्वीकारोक्ति भी विभिन्‍न मंचों पर ध्वनित हुई है .

अमेरिका अब स्वयम ही आगे होकर आर्थिक संरक्षण का पैरोकार बनता जा रहा है लेकिन केवल ’buy only american ’के नारे के साथ. दरअसल दुनिया की आर्थिक समस्याओं का निदान पूंजीवाद के पास न तो था और न है ,जबकि वैश्विक समाजवादी व्यवस्था को ध्वस्त करने के बाद पूंजीवाद का एकल-साम्राज्य सारे संसार को अपने आगोश में ले चुका था .वैश्विक समाजवाद की राह में एक अवरोध तब आया था जब फ़्रांसिसी क्रांती को कुचला à ��या था .उसके बाद दुनिया ने और तेजी से समाजवाद की और कदम बढ़ाये तो लेनिन -स्टालिन के नेत्रत्व में सोवियत क्रांती सम्पन्न हुई .सोवियत क्रांती के पराभव उपरान्त दुनिया की जन-बैचेनी को सही दिशा और गति देने का काम आज के नौजवानों का है की वे मौजूदा आर्थिक संकट को सिर्फ मांग या पूर्ती अथवा सत्ता परिवर्तन के नजरिये से न देखते हुए दूरगामी -राजनैतिक ,सामाजिक ,सांस्कृतिक और आर्थिक सरोकारों को वैज्ञानिक समाजवादी अहिंसक परिवर्तनों के सापेक्ष देखें. आज की तरूणाई को जानना होगा की परिवर्ती समाजवाद की प्रति-क्रन्तियाँ राजनैतिक और आर्थिक कारणों के कुचक्र का परिणाम थीं .पूंजीवाद का वर्तमान आर्थिक संकट एक ध्रुवीय विश्व-व्यवस्था का परिणाम भी है इसमें कई इराक .अफगानिस्तान और मिस्र स्वाहा हुए हैं .जो बच गए वे कहीं न कहीं समाजवाद की फटी-टूटी वैचारिक छतरी की छाँव का सहारा लेकर ही शेष रहे हैं वर्ना विश्वव्यापी आर्थिक संकट-रुपी अजगर ने उन्हें भी निगल लिया होता ….

भारतीय गणतंत्र के साठ वर्ष

प्रभात कुमार रॉय

26 जनवरी 2011 को भारतीय गणतंत्र ने अपने 60 वर्ष पूरे कर लिए और अपनी 61 वीं वर्षगाँठ का जश्न भी मना लिया। भारतीय गणतंत्र की सबसे महान उपलब्धि रही है कि देश में उठे समस्त झंझावातों के मध्य इसने स्वयं को बाकायदा कायम बनाए रखा है। जबकि भारत के पडौ़सी मुल्क पाकिस्तान, म्यांमार, नेपाल, थाईलैंड आदि में गणतंत्र सदैव ही डांवाडोल बना रहा। भारतीय गणतंत्र ने अत्यंत कामयाबी के साथ 15 आम चुनाव आयोजित किए। संवैधानिक भारतीय गणतंत्र के तहत हमारा राष्ट्र, विश्व पटल पर एक जबरदस्त आर्थिक ताकत के तौर पर स्थापित हुआ। आतंकवाद की बर्बर चुनौतियों का मुकाबला करते हुए स्वयं को न केवल विखंडित होने से बचाया और बल्कि मजबूत और मुस्तहक़म बनाया। 26 जनवरी 1950 को भारतीय संविधान ने अपनी प्रथम अंगडाई ली थी, इस जबरदस्त उम्मीद के साथ कि भारतीय संविधान अपने निर्माताओं की कसौटी पर खरा सिद्ध होगा। भारतीय संविधान निर्मात्री सभा में एक से बढकर एक राजनीतिशास्त्र के विद्वान, प्रखर विधि विज्ञ और जंग ए आजादी के योद्धा विद्यमान रहे। जवाहरलाल नेहरु, सरदार बल्लभभाई पटेल, बी.आर.अंबेडकर, श्यामाप्रसाद मुखर्जी, डा.के.एम मुंशी, ह्रदयनाथ कुंजरु,, गोपालास्वामी अय्यर, विश्वनाथ दास, हीरेन मुखर्जी, बी.एन.राव, एवं अल्लादी कृष्णस्वामी अय्यर आदि सरीखे मूर्धन्य व्यक्तित्व संविधान सभा में विद्यमान रहे थे।

संविधान की प्रस्तावना में ऐलान किया गया कि हम भारतवासी सार्वभौमिक, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, जनवादी प्रजातंत्रिक भारत के निर्माण का अहद लेते हैं। इसके सभी नागरिकों के लिए सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय हासिल करेगें, स्वतंत्रता, समानता एवं भाईचारा स्थापित करेगें। भारतीय संविधान के प्रीएम्बल में किए गए ऐलान और इसमें लिए गए शानदार संकल्प को साकार करने की खातिर भारतीय नागरिकों के बुनियादी अधिकारों की जोरदार इबारत तशकील की गई। राज्यसत्ता की लिए राह प्रशस्त करने नीति निर्देशक सिद्धांतों की संरचना अंजाम दी गई। जन प्रतिनिधि सरकार की स्थापना के लिए संविधान के आर्टिकल्स रचित किए गए। संविधान के तहत ऐसी जन प्रतिनिधि सरकार की स्थापना का प्रावधान किया गया जो जनमानस के द्वारा जनमानस के लिए निर्मित की जाए। संविधान के आर्टिकिल्स के आधार पर संवैधानिक मक़सद को हासिल करने के लिए संसद, केंद्रीय सरकार, विधान सभाओं और प्रांतीय सरकारों का विशाल प्रजातांत्रिक ढांचा खडा़ किया गया।

विगत 60 वर्षों के संवैधानिक शासन के तहत संविधान के तहत लिए इस संकल्प को किस हद तक और कितना निभाया गया कि भारत के सभी नागरिकों के लिए सामाजिक और आर्थिक न्याय हासिल किया जाएगा। शासकीय आंकडें ही बयान करते हैं कि देश के 40 करोड़ नागरिक गरीबी रेखा के तले कुचल कर जिंदगी गुजारने के लिए विवश हैं। दबे कुचले इन 40 करोड़ नागरिकों में अधिकतर आदिवासी और दलित ही हैं, जिनके लिए भारतीय संविधान के प्रथम पैराग्राफ में ही सामाजिक और आर्थिक न्याय प्राप्त करने का संकल्प लिया गया। प्रख्यात आदिवासी नेता कैप्टन जयपाल सिंह ने 13 सितंबर 1946 को संविधान निर्मात्री सभा में तक़रीर करते हुए कहा था कि यदि भारतीय जनता के किसी समूह के साथ सबसे ज्यादा खराब व्यवहार किया गया है तो वे मेरे आदिवासी लोग रहे हैं। हमारा संपूर्ण इतिहास दमन, अत्याचार और शोषण से लबरेज है, जिसके विरुद्ध हम आदिवासी निरंतर विद्रोह करते ही रहे हैं। 1928 में एम्सटर्डम के मैदान में विजेता भारतीय हाकी टीम के कप्तान कैप्टन जयपाल सिंह के ये अल्फाज़ जीवंत और साकार हो उठे हैं, जबकि आदिवासी किसान गण, देश में जारी नक्सल विद्रोह का सशक्त जनआधार बन चुके हैं।

देश के किसानों को आधार बनाकर आजादी का संपूर्ण संग्राम लडा़ गया। संत कबीर का करघा, गाँधी का चरखा, भगत सिंह का पगडी़ संभाल जट्टा, सुभाष बोस का जय हिंद सबसे अधिक करोडों किसानों में गूंज उठा था। जंग ए आजादी का इतिहास गवाह है कि 1857 से 1942 तक लडे़ गए सभी स्वातंत्रय संग्रामों में सबसे अधिक कुर्बानियां किसानों ने अता की। विगत एक दशक के दौरान 2 लाख से अधिक किसानों द्वारा अंजाम दी गई आत्महत्याओं से उठी चीखों का आर्तनाद बयान करता हैं कि संविधान में उल्लेखित आर्थिक न्याय का संकल्प राजसत्ता के अलंबरदारों द्वारा एकदम ही विस्मृत कर दिया गया। यूं तो कथित ग्लोब्लाइजेशन की आँधी के दौर में तक़रीबन चालीस हजार मजदूभी आत्मघात कर चुके हैं। संवैधानिक संकल्पों की घनघोर उपेक्षा से उपजे असंतोष ने राष्ट्र को आतंकवाद के अंधकार में धकेल दिया। करोडों नौजवानों के मध्य बढती जाती बेरोजगारी ने प्रत्येक रंग के आतंकवाद को नए रिकरुट प्रदान किए और यह सिलसिला आज भी बदस्तूर जारी है। 31 वर्षों पूर्व पंजाब प्रांत से प्रारम्भ हुआ भयावह आतंकवाद कश्मीर, असम, मणिपुर आदि प्रांतों तक विस्तारित होकर, अभी तक कुल मिलाकर तीन लाख नौजवानों की हलाकतें अंजाम दे चुका है और भारत को एक बार पुनः खंडित करने के लिए दनदना रहा है।

गणतंत्र की 61 वीं वर्षगाँठ का जश्न मनाते हुए भारत बाकायदा विश्व की एक जबरदस्त आर्थिक शक्ति के तौर पर उभर चुका है, किंतु आर्थिक शक्ति के तौर पर स्थापित होने का समुचित फायदा भारत के वास्तविक जन गण तकरीबन सौ करोड़ किसान मजदूरों तक पंहुच नहीं सका। मुठ्ठी भर कारपोरेट घराने ही जिनकी तादाद महज सौ से अधिक कदाचित नहीं है, इनकी कुल संपदा विगत एक साल के दौरान ही लगभग 15 लाख करोड़ से बढकर 21 लाख करोड़ हो गई। विगत वर्ष 54 खरबपति थे इस वर्ष इनकी संख्या बढकर 93 हो गई है। यही रही है राष्ट्र की 9 फीसदी आर्थिक विकास दर की निर्मम वास्तविकता, जिसके चलते पिछले एक साल के काल में बेहद गरीब दरिद्र भारतीयों की संख्या तकरीबन 40 करोड से बढकर 42 करोड़ हो गई। ताजमहल के विषय में प्रख्यात लेखक एडल्स हक्सले का कमेंट बरबस याद आ जाता है कि इसके संगमरमर के पत्‍थरों की चमक दमक की पृष्ठभूमि में बेहिसाब अंधकारपूर्ण गुनाह दफ़न हैं।

नोट उगलती तिजोरियां और मरते किसान

रवीन्द्र जैन

मध्‍यप्रदेश में किसान पुत्र की सरकार में यह क्या हो रहा है? कर्ज से लदे किसान आत्महत्या कर रहे हैं और नेताओं अफसरों और उनके रिश्तेदारों की तिजोरियां नोट और सोना उगल रहीं हैं। राम के आदर्श और पं. दीनदयाल उपाध्याय के संदेश को लेकर सत्ता में आई भाजपा के शासनकाल में भ्रष्टाचार की सभी हदें पार कर हो चुकी हैं। मप्र में आयकर विभाग के ताजे छापों से संकेत मिल रहा है कि संवैधानिक पद पर बैंठे व्यक् ति और इंदौर की अति ईमानदार सांसद की छत्रछाया में पले नेता भी कंबल ओढ़कर घी पीने में पीछे नहीं है। भ्रष्टाचार की इस गगौत्री में अफसर भी जमकर डूबकी लगा रहे हैं।

गुरूवार को तड़के पहली खबर जबलपुर से आई जहां एक साथ कई स्थानों पर आयकर के छापे पड़े हैं। जिनके यहां छापे पड़े वे कौन हैं और पिछले छह साल में किस नेता के संरक्षण में फले फूले हैं, यह किसी को बताने की जरूरत नहीं है। मप्र विधानसभा के स्पीकर ईश्वरदास रोहाणी ने स्वीकार किया है कि उनके पुत्र अशोक रोहाणी वर्ष 2008 में शुभम मोटर्स में पार्टनर थे, लेकिन आर्थिक तंगी के कारण तीन महिने बाद ही यह पार्टनरशिप टूट गई। रोहाणी संवैधानिक पद हैं और उनकी बात पर अविश्वास करने का कोई कारण नहीं है, लेकिन इस बात पर किसी को यकीन नहीं है कि बिना राजनीतिक संरक्षण के जबलपुर में दवाईयों के यह व्यापारी रातों रात तीन सौ करोड़ से अधिक की सम्पत्ति के मालिक कैसे बन गए? आयकर विभाग के अधिकारी इशारों इशारों में संकेत कर रहे हैं कि इन छापों में उन्हें जो दस्तावेज मिले हैं वे आने वाले दिनों में किसी बड़े राजनेता के चेहरे से नकाब उठा दे तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए।

जबलुपर में इससे पहले तत्कालीन स्वास्थ मंत्री अजय विनोई के भाई के घर पड़े छापे के बाद उनका मंत्री पद छीन लिया गया था। मजेदार बात यह है कि आयकर विभाग ने विश्नोई के बारे में सप्रमाण लिखा है कि यह मंत्री कमीशनखोर है फिर भी विश्रोई शिवराज केबिनेट में बने हुए हैं। आयकर विभाग पिछले दो दिन से इंदौर में भाजपा नेता चंदू माखीजा का घर खंगालने में लगा है। इंदौर सांसद के अति करीबी माखीजा का एक परिचय यह भी है कि वे प्रदेश भाजपा महिला मोर्चा की निवृत्तमान अध्यक्ष अंजू माखीजा के पति हैं। भाजपा के सात साल के कार्यकाल में चंदू माखीजा की आर्थिक स्थिति में तेजी से सुधार किसी से छिपा नहीं है। उन्होंने आयकर विभाग के सामने डेढ़ करोड़ सरेन्डर करने का प्रस्ताव भी रखा है। लेकिन फिलहाल आयकर विभाग उनके घर से कई बौरे भरकर कागजात ले गया है। गुरूवार को ही लोकायुक्त ने दो सरकारी इंजीनियरों के घरों में छापा मारकर करोड़ों की अनुपातहीन सम्पत्ति का पता लगाया है।

मप्र का यह एक चेहरा है। लेकिन दूसरा चेहरा भोलभाले गरीब किसानों का भी है जिसकी सेवा का संदेश पं. दीनदयाल उपाध्याय ने दिया था और प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के भाषणों में भी इनके कल्याण की बात सुनाई देती है। लेकिन वास्तविकता यह है कि प्रदेश के किसान कर्ज से लदे हुए हैं और पाले से खराब हुई फसल को देखकर उसके आंसू थमने का नाम नहीं ले रहे। लगभग रोज दो चार किसान जहर पीकर अथवा फांसी लगाकर आत्महत्या कर रहे हैं। नोट गिनने की मशीनों से चिपके नेताओं को इन किसानों के अंासू पोंछने की फुर्सत नहीं है। आखिर यह कब तक चलेगा? किसान पुत्र मुख्यमंत्री शिव भ्रष्टाचार के खिलाफ अपना तीसरा नेत्र कब खोलेंगे? क्या मप्र में भ्रष्टाचार मिटाने की बात केवल भाषणों में होगी?