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मिस्र में जनता के प्रतिवाद का भविष्य

जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

मिस्र में लोकतंत्र के लिए आंदोलन चल रहा है बड़े पैमाने पर जनता राष्ट्रपति हुसनी मुबारक के खिलाफ सड़कों पर निकल आयी है। 150 से ज्यादा लोग मारे गए हैं। सैंकड़ों लोगों को जेलों में डाल दिया गया है। मुबारक के बारे में यह सब जानते हैं कि वह अमेरिका के पिट्ठू शासक हैं और सेना के बल पर शासन चला रहे हैं।

मध्यपूर्व में इस्राइल के बाद मिस्र दूसरा देश है जिसे अमेरिका के द्वारा सबसे ज्यादा आर्थिक मदद दी जाती है। मुबारक के शासन को सालों से सालाना 2बिलियन डॉलर की मदद मिलती रही है। यह पैसा मिस्र में विकासकार्यों पर खर्च नहीं होता। यह पैसा कहा जाता रहा है ? इस पैसे से मिस्र केशासक सैन्य सामग्री, खरीदते रहे हैं। न्यू अमेरिका फाउण्डेशन के अनुसार “It’s a form of corporate welfare for companies like Lockheed Martin and General Dynamics, because it goes to Egypt, then it comes back for F-16 aircraft, for M-1 tanks, for aircraft engines, for all kinds of missiles, for guns, for tear-gas canisters [from] a company called Combined Systems International, which actually has its name on the side of the canisters that have been found on the streets there.”

हाल ही में प्रकाशित एक किताब, “Prophets of War: Lockheed Martin and the Making of the Military-Industrial Complex.” में हर्तुंग ने लिखा है- “Lockheed Martin has been the leader in deals worth $3.8 billion over that period of the last 10 years; General Dynamics, $2.5 billion for tanks; Boeing, $1.7 billion for missiles, for helicopters; Raytheon for all manner of missiles for the armed forces. So, basically, this is a key element in propping up the regime, but a lot of the money is basically recycled. Taxpayers could just as easily be giving it directly to Lockheed Martin or General Dynamics.” मिस्र की जनता सैनिक तानाशाही से तंग आ चुकी है और इस मौके का भी अमेरिका मध्यपूर्व में अपने हितों के विस्तार के लिए लाभ उठाना चाहता है।

अनेक लोग यह भी कह रहे हैं कि मिस्र में संचार क्रांति के उपकरणों इंटरनेट, मोबाइल आदि के साथ अलजजीरा की बड़ी भूमिका है। यह सच है कि संदेशों के आदान-प्रदान में संचार तकनीक से मदद मिली है लेकिन संचार तकनीक के जरिए प्रतिवाद पैदा नहीं हुआ है प्रतिवाद की जननी है मिस्र की जनता।

मिस्र की जनता को मुबारक ने भरोसा दिया है वह आगामी 30 सितम्बर को राष्ट्रपति का चुनाव नहीं लड़ेगे। लेकिन जनता तुरंत राष्ट्रपति पद छोड़ने की मांग कर रही है। कुछ लोग यह तर्क भी दे रहे हैं मिस्र में जनता सड़कों पर इसलिए उतर आयी है क्योंकि मिस्र में आर्थिक असमानता बहुत है। आर्थिक असमानता के पैमाने से देखें तो सारी दुनिया में असमानता की सूची में मिस्र का 90वां स्थान है और अमेरिका का 42वां। आज अमेरिका के हालत काफी बदतर हैं। अमेरिका में कई स्थान ऐसे हैं जिनकी तुलना हित्ती और जिम्बाबे से की जा सकती है। जिन देशों में लोकतंत्र है वहां पर गरीब और अमीर के बीच में भयानक अंतर है। आखिर क्या करें ?

मिस्र और ट्यूनीशिया में जो व्यापक जन प्रतिवाद हो रहा है उसमें प्रसिद्ध मार्क्सवादी स्लावोज जीजेक के अनुसार गरीबी और भ्रष्टाचार प्रधान कारण हैं। जीजेक का भी मानना हैं कि वहां फंडामेंटलिस्ट ताकतें इस संघर्ष में नहीं हैं। इससे यह भी मिथ टूटता है कि मिस्र आदि मध्यपूर्व के देशों में फंडामेंटलिस्ट और राष्ट्रवादी ताकतें ही जनता को गोलबंद कर सकती हैं।

प्रसिद्ध मार्क्सवादी जीजेक का मानना है मिस्र और ट्यूनीशिया में ”old regime survives but with some liberal cosmetic surgery, this will generate an insurmountable fundamentalist backlash. In order for the key liberal legacy to survive, liberals need the fraternal help of the radical left. Back to Egypt, the most shameful and dangerously opportunistic reaction was that of Tony Blair as reported on CNN: change is necessary, but it should be a stable change. Stable change in Egypt today can mean only a compromise with the Mubarak forces by way of slightly enlarging the ruling circle. This is why to talk about peaceful transition now is an obscenity: by squashing the opposition, Mubarak himself made this impossible. After Mubarak sent the army against the protesters, the choice became clear: either a cosmetic change in which something changes so that everything stays the same, or a true break.”

जो लोग मिस्र में क्रांति देख रहे हैं वे द्विवा-स्वप्न देख रहे हैं। यह सच है जनता सड़कों पर है लेकिन मुश्किल यह है कि मुबारक के विरोध में जो लोग आ रहे हैं उनके अमेरिका के साथ और भी गहरे संबंध हैं। मसलन उपराष्ट्रपति और अंतर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा आयोग के पूर्व अध्यक्ष अल बरदाई को अमेरिकी गुलामी करते हुए इस संगठन में अनेक मर्तबा देख चुके हैं। अमेरिका कोशिश में है कि सत्ता मुबारक के हाथ में रहे या विपक्ष के हाथ में रहे लेकिन उसे अमेरिकापंथी होना चाहिए।

डिजिटल अंधकार में मिस्र में मजदूरों का जनज्वार

जगदीश्वर चतुर्वेदी

मिस्र में कल शाम को सेना के हमले और मुबारक समर्थकों और विरोधियों की झड़पों में 3 लोग मारे गए हैं और 600 घायल हुए हैं। यह आंकड़ा मिस्र के स्वास्थ्य मंत्रालय ने जारी किया है। मारे गए और घायलों की संख्या इससे कहीं ज्यादा होने का अनुमान है। अमेरिका-ब्रिटेन आदि दोमुँही बातें कह रहे हैं। इसके अलावा चिन्ता की बात यह है कि मिस्र में जनता के प्रतिवादी आंदोलन पर सेना के हमले तेज हो गए हैं । इस प्रतिवाद ने कई चीजों की ओर ध्यान खींचा है।

मिस्र के जन आंदोलन के प्रतिवाद की धुरी है मध्यवर्ग और मजदूरवर्ग। बड़ी तादाद में मजदूरवर्ग का सड़कों पर संगठित प्रतिवाद के रूप में उतरना इस बात का संकेत है कि मध्यपूर्व में लोकतांत्रिक संघर्ष की धुरी मजदूरवर्ग ही है। मिस्र के प्रतिवादी आंदोलन में मजदूरों के नेतृत्वकारी भूमिका निभाने का यह भी मतलब है कि मध्यपूर्व में धार्मिक फंडामेंटलिज्म के अलावा भी जनता के पास धर्मनिरपेक्ष ताकतों का बड़ा मोर्चा है।

सारा कारपोरेट मीडिया विभ्रम पैदा करता रहा है कि मध्यपूर्व में कोई भी आंदोलन फंडामेंटलिस्टों के बिना नहीं चल सकता। मिस्र के आंदोलन की विशेषता है मध्यवर्ग और मजदूरवर्ग की अगुवाई में लोकतांत्रिक शक्तियों का संगठित उदय और यह चीज अमेरिकी शासकों के लिए असहनीय है। ओबामा के बयान और एक्शन में जमीन-आसमान का अंतर है। दूसरी ओर मध्यपूर्व के सामंती शासकों की मिस्र के प्रतिवाद ने नींद उडा दी है।

निष्कर्ष के रूप में कहें तो मिस्र की जनता का प्रतिवाद मजदूरवर्ग की फौलादी शक्ति का शानदार प्रदर्शन है और यह मुबारक के सैन्यशासन और अमेरिकी साम्राज्यवाद के खिलाफ मिस्र की जनता की शानदार एकजुट अभिव्यक्ति है।यह इस बात का भी संकेत है कि मिस्र में इस्लाम के होते हुए भी आम जनता में धर्मनिरपेक्ष-लोकतांत्रिक मूल्यों की गहरी जड़ें हैं।समाज लोकतांत्रिक है।

मिस्र के मौजूदा जनांदोलन को कुचलने के लिए संचार के आधुनिक नेटवर्क को राष्ट्रपति हुसनी मुबारक ने बाधित किया और सबसे पहले मीडिया पर हमले तेज किए अलजजीरा के काहिरा ऑफिस बंद कर दिया,पत्रकारों पर हमले हुए और इंटरनेट सेवाएं बंद कर दी गयीं।

आम जनता संकट की अवस्था में होती है तो उसे सूचनाओं की ज्यादा जरूरत होती है और वह एसएमएस ,ईमेल ,ट्विट आदि के जरिए जानना चाहती है कि क्या हो रहा है,नाते-रिश्तेदार सकुशल हैं या नहीं । लेकिन जिस समय जनता ने अपना प्रतिवाद तेज किया और प्रशासन के साथ जनता का पंगा तेज हुआ ठीक उसी समय इंटरनेट सेवाएं ठप्प कर दी गयीं। अधिकांश संचार कंपनियों ने मुबारक के सामने समर्पण कर दिया और संचारसेवाओं को ठप्प कर दिया। इससे एक सबक तो यह निकलता है कि कारपोरेट हितों के सामने जनता के हितों का कोई मोल नहीं है।

जिस समय मिस्र की जनता प्रतिवाद कर रही थी उस समय वहां डिजिटल कनेक्शन कटे हुए थे। डिजिटल अंधकार में जनता का प्रतिवाद नई बुलंदियों पर पहुँचा था। उल्लेखनीय है मिस्र में ब्रिटेन की कंपनी वोडाफोन का बड़ा कारोबार है और इस कंपनी के 45 फीसदी अंश की मालिक अमेरिकी संचार कंपनी वेरीजॉन है, वोडोफोन ने जनता का प्रतिवाद आरंभ होते ही इंटरनेट और मोबाइल सेवाएं ठप्प कर दीं।

इसके अलावा बोईंग की सहयोगी कंपनी नारूस ने मिस्र में एक संचार उपकरण की बड़े पैमाने पर बिक्री की है जिसके आधार पर मिस्र की संचार कंपनियां यह पता लगा सकती हैं कि मोबाइल फोन से जो टेक्स्ट मैसेज भेजा जा रहा है वह प्रतिवादी मैसेज है या नहीं। वे यह भी पता लगा सकते हैं कि मोबाइल फोन करने वाला कितनी दूरी से संदेश भेज रहा है और उसके बाद तुरंत उसको पुलिस पकड़ सकती है।

मिस्र में जिस समय डिजिटल अंधकार चल रहा था चल रहा था हठात गूगल ने एक नया प्रयोग किया और मिस्र की जनता को गूगल ने एक उपहार दिया कि बिना इंटरनेट कनेक्शन के जनता ट्विट कर सकती है। यह काम सिर्फ वॉयस कनेक्शन के जरिए हो सकता है। गूगल ने अपने ब्लॉग पोस्ट में उज्ज्वल सिंह ने लिखा Like many people we’ve been glued to the news unfolding in Egypt and thinking of what we could do to help people on the ground. Over the weekend we came up with the idea of a speak-to-tweet service—the ability for anyone to tweet using just a voice connection.

We worked with a small team of engineers from Twitter, Google and SayNow, a company we acquired last week, to make this idea a reality. It’s already live and anyone can tweet by simply leaving a voicemail on one of these international phone numbers (+16504194196 or +390662207294 or +97316199855) and the service will instantly tweet the message using the hashtag #egypt. No Internet connection is required. People can listen to the messages by dialing the same phone numbers or going to

We hope that this will go some way to helping people in Egypt stay connected at this very difficult time. Our thoughts are with everyone there.

Update Feb 1, 12:47 PM: When possible, we’re now detecting the approximate (country-level) geographic origin of each call dialing one of our speak2tweet numbers and attaching a hashtag for that country to each tweet. For example, if a call comes from Switzerland, you’ll see #switzerland in the tweet, and if one comes from Egypt you’ll see #egypt. For calls when we can’t detect the location, we default to an #egypt hashtag.

गूगल के इस तकनीकी सहयोग ने मिस्र की जनता की बड़ी मदद की। इसका अर्थ यह है कि आज के युग में संचार सेवाओं का इस्तेमाल करके आंदोलन करना बेहद खर्चीला और कौशल का काम है। चीन,ईरान और अब मिस्र की जनता के प्रतिवादी तेवरों ने संचार तकनीक के नए आंदोलनकारी उपयोग की अनंत संभावनाओं के द्वार खोले हैं। जरूरत इस बात की है कि आंदोलनकारियों की नई संचार तकनीक पर मास्टरी हो और तुरंत ही आंदोलनकारी जनता को इसके उपयोग को सिखाने की क्षमता हो।

अंध-आस्था से लेस सांप्रदायिकता ही कट्टरवाद की जननी है…..

श्रीराम तिवारी

ईश्वर का नाम लेने में न तो कोई बुराई है और न ही किसी का अनिष्ट होने कि कोई संभावना है.मानव सभ्यता के विभिन्न दौर में प्राकृतिक आपदाओं और वैयक्तिक कष्टों से निज़ात पाने या संघर्ष क्षमता हासिल करने कि चेष्टा में प्रबुद्ध मानवों ने वैज्ञानिक आविष्कारों कि तरह ही मानसिक ,चारित्रिक ,सामाजिक ,आर्थिक और धार्मिक उन्नोंयन में महारत हासिल कि है .यह कार्य हर युग में , हर देश में ,हर द्वीप में और हर कबीले या मानव समूह में अनवरत चलता रहा है .कोई देश विशेष,समाज विशेष,जाति विशेष या सम्प्रदाय विशेष जब ओरों कि बनिस्पत अपनी रेखा को – दर्शन या मजहब के मद्देनजर बढ़ा दिखाने के फेर में असत्याचरण करते हुए ,प्रभुत्व का इस्तमाल करते हुए आक्रामक हो जाये तो समझो कि वो धरम या मजहब छुई -मुई भर है ,उसका कोई सत्यान्वेषण संभव नहीं,उसके मानने वालों का कोई नैतिक या चारित्रिक उत्थान संभव नहीं ,ऐसी कौम को मानवीयता के इतिहास में सदैव संदेह का सामना करना पड़ता है ,कई अग्नि परीक्षाएं भी उसके स्खलन को रोक नहीं पातीं .

भारत दुनिया का एकमात्र और सर्वश्रेष्ठ लोकतंत्रात्मक -धर्मनिरपेक्ष -गणतंत्र है ;जहाँ सभी धर्मों ,सभी जातियों ,और सभी विचारधाराओं को संवैधानिक संरक्षण प्राप्त है ,हालाँकि भारतीय संविधान कि प्रस्तावना में ही उसके नीति निर्देशक सिद्धांतों कि महानता स्पष्ट उद्घोषित होती है ‘हम भारत के जन गण यह संकल्पित करते हैं कि हम सर्व प्रभुत्व सम्पन्न ,लोकतंत्रात्मक ,धर्मनिरपेक्ष ,समाजवादी गणतंत्र कि स्थापना हेतु बचन बध्ध होंगे …….”हालाँकि तीसरा संकल्प याने समाजवाद अभी भी दूर कि कौड़ी है ,अभी तो पहले दो सिद्धांत याने लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता ही डांवाडोल होते नजर आ रहे हैं इसके लिए सिर्फ सत्ता ही जिम्मेदार हो ऐसी बात नहीं ,जनता के वे हिस्से जिनके हितों का ताना -बाना भृष्ट आचरण से जुड़ गया वे भी इस इस स्थिति के लिए जिम्मेदार हैं. बहुसंख्यक सम्प्रदायवादी जितने जिम्मेदार हैं ;अल्पसंख्यक सम्प्रदायवादी -कट्टरपंथी भी उतने ही जिम्मेदार हैं .विदेशीशत्रु जितने जिम्मेदार हैं आंतरिक तथाकथित अंध राष्ट्रीयतावादी भी उतन्रे ही जिम्मेदार हैं .

देश कि बहुसंख्यक साम्प्रदायिक राजनीत में यदि ढपोरशंखियों को सर माथे लिए जायेगा और विकाश कि -धर्म निरपेक्षता कि .समाजवाद कि बात करने वालों को हासिये पर धकेला जायेगा तो संविधान के नीति निर्देशक सिद्धांतों कि बखत ही क्या रहेगी?अल्पसंख्यक समूह कि उदारवादी कतारों को हासिये पर धकेला जायेगा तो कट्टरपंथ हावी होगा ही फिर उससे से जूझने के लिए उदारचेता समदृष्टि उभय हितेषी कौन बचेगा ?

पहले अयोध्या काण्ड फिर गोधरा काण्ड उसके उपरान्त गुजरात कांड ,मुंबई काण्ड ,मालेगांव .अजमेर .हैदरावाद और समझौता एक्सप्रेस से लेकर अब स्वामी असीमानंद कि अपराध स्वीकारोक्ति के निहतार्थ हैं कि अल्पसंख्यकों को उदारवादी ट्रेक पर चल पड़ना चाहिए किन्तु हतभाग्य ऐसा हो नहीं पा रहा है .कतिपय उच्च शिक्षित उदारमना हिन्दू खुलकर अल्पसंख्यकों का पक्ष पोषण करते रहते हैं ,वाम जनतांत्रिक कतारों में सदैव अल्पसंख्यकों के हितों की पेरवी के लिए शिद्दत से काम होता रहा है कांग्रेस ,समाजवादी पार्टी ,बहुजन समाज पार्टी ही नहीं बल्कि भाजपा भी सिकंदर वख्त से मुख्तार अंसारी तक यह जताने के लिए जी जान से जुटी रही की वह अल्पसंख्यक विरोधी नहीं .आर एस एस ने भी बाज मर्तवा जाहिर किया की हिंदुत्व का मतलब ये नहीं वो नहीं -मतलब देश में छोटे भाई की तरह रहो तुम भी खुश हम भी खुश .हालाँकि सत्ता के लिए जब ये गंगा जमुनी मार्ग जमीन पर नहीं बन सका तो रथारूढ़ होकर ,हाथ में त्रिशूल लेकर हिन्दू जनता के सामने राम लला के नाम पर छाती कूटकर जल्द बाज़ी में ‘दोउ गंवाँ बैठे …माया …मिली न राम ….इसी तरह अल्पसंख्यकों की उदारवादी कतारों को परे हटाते हुए इस्लामिक कट्टरपंथी भी बिना आगा पीछा सोचे भारत राष्ट्र के धर्मनिरपेक्ष और लोकतान्त्रिक स्वरूप को विच्छेदित करने में लगे हैं.

दारुल -उलूम -देवबंद के कुलाधिपति या वाईस चांसलर मौलाना गुलाम मोहम्मद वास्तन्वतीके जबरिया इस्तीफे से साफ़ है कि भारत में कट्टरपंथी इस्लामिक ताकतें विवेक और सद्भाव कि आवाजों को मुखर नहीं होने देना चाहतीं . इसमें किसी को भी शक नहीं कि गुजरात के २००२ में हुए दुखांत दंगों में मुस्लिम समुदाय के निर्दोष लोगों को जान माल का भारी नुक्सान हुआ था किन्तु क्या निर्दोष हिन्दुओं को भी इसी तरह कि बीभत्स तस्वीर का सामना नहीं करना पड़ा था ?साम्प्रदायिक दंगों कि आग में अधिकांश मजदूर और वेरोजगार ही क्यों मारे गए ?क्या यह सर्वहारा वर्ग को साम्प्रदायिक आधार पर विखंडित करने कि पूंजीवादी -साम्राज्यवादी कुचाल नहीं ?किंतुं इन नर संहारों में सबसे ज्यादा छति धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत कि हुई इसके वावजूद यदि मौलाना वास्तान्वती इस गंगा जमुनी एकता को पुख्ता करने के लिए मुसलमानों से गुजारिश करते हैं कि अतीत की कालिमा को भूलो आगे बढ़ो तो इसमें ऐसा क्या गजब हो गया कि उन्हें त्यागपत्र देने के लिए बाध्य किया गया . मौलाना वास्तान्वती सिर्फ इस्लामी आलिम ही नहीं वे एम् वी ए भी हैं और गुजरात खास तौर से सूरत उनकी कर्म भूमि भी रही है वे गुजरात या शेष भारत में मुस्लिमों के साथ तथाकथित भेद भाव की अवधारणा से परे प्रोग्रेसिव विचा रों के हामी हैं .उनकी यह समझ भी है कि क्षेत्रीय और भाषाई कारणों से देश के मुसलमान सार्वदेशिक तौर पर एक सी सोच नहीं रखते .अर्थात यह जरुरी नहीं कि यु पी या बिहार का मुस्लिम चीजों को जिस नज़र से देखता है गुजरात का मुस्लिम भी वही नजरिया धारण करे.हो सकता है कि गुजराती मुसलमानों के जख्म अभी भी न भरे हों किन्तु मानव जीवन यात्रा में जो सकारात्मकता जरुरी है वो जनाब वास्तान्व्ती ने व्यक्त कि थी .अब दारुल उलूम की मजलिसे शूरा ने उन्हें मनाने का फैसला तो किया किन्तु कट्टरपंथी छात्र समूह की हरकतों से एक महान विद्वान् एक सर्वश्रेष्ठ उलेमा इस्तीफ़ा वापिस लेने को तैयार नहीं .उनके पदारूढ़ होने से देवबंद में शिक्षा के नए द्ववार खुलने ,देश में इस्लामी तालीम को रोजगार मूलक बनाने और रोशन ख़याल हमवतनो की आवाज बुलंद होने के सपने साकार करने की उम्मीदें बनी थीं कट्टरपंथियों की हरकतों से ये अधुनातन कपाट बंद होते से लग रहे हैं .आज जबकि दुनिया भर में इस्लामी कट्टरवाद और इस्लामिक उदारवाद के बीच जंग छिड़ी है तब देश और दुनिया के उदारवादी आवाम की एकजुटता सहिष्णुता और उदारवाद की पक्षधरता जरुरी है .उसके पूर्व भारत में बहुसंख्यक कट्टरवाद पर तगड़ी लगाम जरुरी है और वास्तन्वती जैसे इस्लामिक शिक्षा शाश्त्रियों को भरपूर सहयोग तथा समर्थन जरुरी है .यह एक के बस का काम नहीं सभी की थोड़ी थोड़ी आहुति जरुरी है …..

राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी का अंतिम दिवस…

श्रीराम तिवारी

“आज नई दिल्ली में शाम के पांच बजकर सत्रह मिनिट पर , राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी की हत्या हो गई ” उनका हत्यारा एक हिन्दू है ‘ वह एक ब्राम्हण है ‘ उसका नाम नाथूराम गोडसे है ‘ स्थान बिरला हॉउस ……….ये आल इंडिया रेडिओ है ……..{पार्श्व में शोक धुन }……

उस वैश्विक शोक काल में तत्कालीन सूचना और संचार माध्यमों ने जिस नेकनीयती और मानवीयता के साथ सच्चे राष्ट्रवाद का परिचय दिया वह भारत के परिवर्ती-सूचना और संचार माध्यमों का दिक्दर्शन करने का प्रश्थान बिंदु है. यदि गाँधी जी का हत्यारा कोई अंग्रेज या मुस्लिम होता तो भारतीय उपमहादीप की धरती रक्तरंजित हो चुकी होती. तमाम आशंकाओं के बरक्स आल इण्डिया रेडिओ और अखवारों की तात्कालिक भूमिका के परिणाम स्वरूप देश एक और महाविभीशिका से बच गया ………

लेरी कार्लिस और डोमनिक लेपियर द्वारा १९७५मे लिखी पुस्तक ‘फ्रीडम एट मिडनाइट’ में भारतीय स्वाधीनता संग्राम की आद्योपांत कहानी का वर्णन है …इसमें गांधी जी की हत्या का विषद और प्रमाणिक वर्णन भी है …..

मोहनदास करमचंद गाँधी के जीवन का अंतिम दिन -की दिन चर्या में सूर्योदय से पहले लगभग ०३.३० बजे उनका जागना और ईश्वर आराधना .दोपहर के आराम के बाद वे १०-१२ प्रतीक्षारत आगंतुको से मिले ,बातचीत की .अंतिम मुलाकाती के साथ चर्चा उनके लिए घोर मानसिक वेदना दायक रही .वे अंतिम मुलाकाती थे सरदार वल्लव भाई पटेल . उन दिनों पंडित जी और पटेल के बीच नीतिगत मतभेद चरम पर थे . पटेल तो संभवत: नेहरु मंत्रिमंडल से त्यागपत्र देने के मूड में थे ; लेकिन गांधीजी उन्हें समझा रहे थे कि यह देश हित में नहीं होगा .

गांधीजी ने समझाया कि नवोदित स्वाधीन भारत के लिए यह उचित होगा कि तमाम मसलों पर हम तीनो -याने गांधीजी .नेहरूजी और पटेल सर्वसम्मत राय बनाए जाने कि अनवरत कोशिश करेंगे .आपसी मतभेदों में वैयक्तिक अहम् को परे रखते हुए देश को विश्व मानचित्र पर पहचान दिलाएंगे .पटेल से बातचीत करते समय गांधीजी कि निगाह अपने चरखे और सूत पर ही टिकी थी .जब बातचीत में तल्खी आने लगी तो मनु और आभा जो श्रोता द्वय थीं ,वे नर्वस होने लगीं ,लगभग ग़मगीन वातावरण में उन दोनों ने गांधीजी को इस गंभीर वार्ता से न चाहते हुए भी टोकते हुए याद दिलाया कि प्रार्थना का समय याने पांच बजकर दस मिनिट हो चुके हैं .

पटेल से बातचीत स्थगित करते हुए गांधीजी बोले ‘अभी मुझे जाने दो. ईश्वर कि प्रार्थना-सभा में जाने का वक्त हो चला है ‘ आभा और मनु के कन्धों पर हाथ रखकर गाँधी जी अपने जीवन कि अंतिम पद यात्रा पर चल पड़े ,जो बिरला हॉउस के उनके कमरे से प्रारंभ हुई और उसी बिरला हॉउस के बगीचे में समाप्त होने को थी …..

अपनी मण्डली सहित गांधीजी उस प्रार्थना सभा में पहुंचे जो लॉन के मध्य थी और जहाँ .नियमित श्रद्धालुओं कि भीड़ उनका इंतज़ार कर रही थी और उन्हीं के बीच हत्यारे भी खड़े थे .गांधीजी ने सभी उपस्थित जनों के अभिवादानार्थ नमस्कार कि मुद्रा में हाथ जोड़े ….. करकरे कि आँखें नाथूराम गोडसे पर टिकी थीं …जिसने जेब से पिस्तौल निकालकर दोनों हथेलियों के दरम्यान छिपा लिया …..जब गांधीजी ३-४ कदम फासले पर रह गए तो नाथूराम दो कदम आगे आकर बीच रास्ते में खड़ा हो गया …उसने नमस्कार कि मुद्रा में हाथ जोड़े ,वह धीमें -धीमें अपनी कमर मोड़कर झुका और बोला “नमस्ते गाँधी ‘देखने वालों ने समझा कि कोई भल-मानुष है जो गांधीजी के चरणों में नमन करना चाहता है …मनु ने कहा भाई बापू को देर हो रही है प्रार्थना में ..जरा रास्ता दो …उसी क्षण नाथूराम ने अपने बाएं हाथ से मनु को धक्का दिया …उसके दायें हाथ में पिस्तौल चमक उठी .उसने तीन बार घोडा दवाया …प्रार्थना स्थल पर तीन धमाके सुने गए …महात्मा जी कि मृत देह को बिरला भवन के अंदर ले जाया गया, आनन् -फानन लार्ड माउन्ट बेटन, सरदार पटेल, पंडित नेहरु और अन्य हस्तियाँ उस शोक संतृप्त माहोल के बीच पहुंचे …जहां श्रद्धा-सुमन अर्पित करते हुए अंतिम ब्रिटिश प्रतिनिधि ने ये उदगार व्यक्त किये …..’महात्मा गाँधी को …इतिहास में वो सम्मान मिले जो बुद्ध ,ईसा को प्राप्त हुआ ….

सांप्रदायिक सौहाद्र का प्रतीक बना एक और मुस्लिम उद्योगपति

निर्मल रानी

राजस्थान स्थित रणथभौर नामक स्थान वैसे तो पूरे विश्व में देश के एकमात्र सबसे बड़े ‘टाइगर रिज़र्व क्षेत्र के रूप में जाना जाता है। परन्तु पिछले दिनों रणथभौर का यही क्षेत्र हिन्दू-मुस्लिम सा प्रदायिक सद्भाव का भी एक ज्वलंत उदाहरण बना। रणथभौर टाइगर रिज़र्व क्षेत्र के अन्तर्गत एक ऐतिहासिक एवं प्राचीन मंदिर स्थित था जोकि गणेश धाम मंदिर के नाम से प्रसिद्ध था। परंतु इस मंदिर की इमारत की दशा अत्यंत दयनीय हो चली थी तथा यह पूरी तरह से जीर्ण अवस्था में पड़ा होने के कारण आम ाक्तजनों की अपेक्षा का सामना कर रहा था। काफ़ी लंबे समय से अपेक्षा के शिकार इस मंदिर पर राजस्थान के मुस्लिम समुदाय के मूल निवासी तथा वर्तमान में मुुंबई आधारित एक प्रसिद्ध उद्योगपति आशिक़ अली नथानी की नज़र इस खंडहर होते मंदिर पर पड़ी। उसी समय आशिक़ अली ने इस उस प्राचीन मंदिर का कायाकल्प किये जाने का संकल्प लिया तथा दो करोड़ रुपयों से अधिक की लागत से इस मंदिर का पुनर्निर्माण कराया। गौर तलब है कि अभी कुछ ही समय पूर्व विश्व के सुप्रसिद्ध उद्योगपति तथा विप्रो कंपनी के मालिक अज़ीम प्रेम जी ने भी नौ हज़ार करोड़ रुपये जैसी भारी-भरकम रकम भारतीय शिक्षा के सुधार तथा विकास के लिए दान देकर पूरी दुनिया में वाहवाही बटोरी थी। इसके पश्चात आशिक़ अली नथानी द्वारा मंदिर के निर्माण के लिए दो करोड़ रुपये खर्च करना भी पूरे देश तथा दुनिया के लिए संाप्रदायिक सद्भाव की एक जीती-जागती मिसाल बन गया है।

गौरतलब है कि इस्लाम धर्म में बुतपरस्ती या मूर्तिपूजा की साफ मनाही की गई है। इस्लाम धर्म पर चलने वाले रूढ़ीवादी अनुयायी अल्लाह तथा कुरान शरीफ के सिवा किसी अन्य को नहीं स्वीकार करते। यही रूढ़ीवादी शिक्षा प्राय: दो अलग-अलग समुदायों के मध्य वैमनस्य तथा बाद में सांप्रदायिक दुर्भावना या सांप्रदायिक दंगों तक का कारण बन जाती है। इस मंदिर के निर्माण के दौरान आशिक़ अली को भी अपने धर्म के कुछ कठ्मुल्लाओं के विरोध का सामना करना पड़ा। परंतु इस उदारवादी सोच रखने वाले भारतीय मुस्लिम उद्योगपति ने कठ्मुल्लाओं की घुड़कियों या उनके विरोध की परवाह किए बिना गणेश धाम मंदिर के पुनर्निर्माण तथा जीर्णोद्धार पर दो करोड़ रुपये खर्च कर दिए। इस विषय पर आशिक़ अली का कहना है ‘कि गणपति बप्पा तथा 33 करोड़ देवी-देवताओं ने मुझे इस पावन कार्य के लिए प्रेरित किया है। इन्हीं देवी-देवताओं तथा अल्लाह की मेहरबानी से ही मैं इस योग्य बन सका हूं कि मैंने इस पवित्र काम को पूरा किया । हमें मंदिर और मस्जिद में कोई भेद नज़र नहीं आता। यह सभी भगवान,ईश्वर तथा अल्लाह को याद करने की ही जगह हैं।

आशिक़ अली ने कठ्मुल्लाओं के विरोध की परवाह करना तो दूर बजाए इसके उन्होंने गणेश धाम मंदिर के निर्माण में स्वयं पूरी दिलचस्पी दिखाई तथा बेहतरीन िकस्म के कारीगरों के हाथों से इसमें निर्माण का काम कराया। मंदिर के निर्माण के दौरान वे स्वयं निर्माण कार्य के निरीक्षण हेतु भी अपना बहुमूल्य समय निकाल कर कई बार निर्माण स्थल पर पहुंचे। पिछले दिनों मंदिर के पुनर्निर्माण के पश्चात विधिवत् पुन:संचालन के समय भी वे गणपति बप्पा का आशीर्वाद लेने उस जगह पर मौजूद रहे। आशिक़ अली ने यह भी घोषणा की कि वे शीघ्र ही उसी क्षेत्र में एक स्कूल तथा एक अस्पताल का भी निर्माण कार्य कराएंगे। आशिक़ अली के इस सौहार्द्रपूर्ण कदम की न केवल राजस्थान बल्कि पूरे देश में प्रसंसा की जा रही है। राजस्थान के लोग आशिक़ अली नथानी को देश में सांप्रदायिक सौहाद्र्र एवं सर्वधर्म सम भाव स्थापित करने वाले एक प्रतीक के रूप में देखकर स्वयं को भी गौरवान्वित महसूस कर रहे हैं। उपरोक्त घटना इसलिए महत्वपूर्ण नहीं है कि किसी उद्योगपति ने दो करोड़ रुपये खर्च कर मंदिर का निर्माण करा दिया। बल्कि इस घटना का सबसे महत्वपूर्ण पहलू यही है कि वर्तमान समय में हमारे देश में लगभग सभी संप्रदायों में ऐसी कट्टरपंथी एवं रूढ़ीवादी शक्तियां सक्रिय हैं जिन्हें सांप्रदायिक सौहाद्र्र तथा सर्वधर्म स भाव जैसी एकता संबंधी बातें फूटी आंखों नहीं भातीं। हमारे देश में इस समय कुछ ही धर्मगुरु ऐसे स्वर्णिम मिशन चला रहे हैं जहां सभी धर्मों का सार एक ही ईश्वर,अल्लाह,गॉड,तथा वाहेगुरु के रूप में बताया जाता है। अन्यथा अधिकांशतया लगभग प्रत्येक समुदाय के तथाकथित धर्मगुरु अपनी ढाई ईंट की अलग मस्जिद बनाए बैठे हैं। ऐसे विद्वेषपूर्ण होते जा रहे वातावरण में आशिक़ अली द्वारा उठाया गया इस प्रकार का सौहाद्र्रपूर्ण कदम निश्चित रूप से कट्टरपंथी विचारधारा रखने वाले तथा भगवान,ईश्वर,अल्लाह,गॉड,तथा वाहेगुरू को अपनी प्राईवेट लिमिटेड संपत्ति समझने वाले तथाकथित धर्मगरुओं के मुंह पर एक करारा तमाचा है।

कहने को तो सभी यह बात बड़ी ही आसानी से कह बैठते हैं कि ‘मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना। परंतु अल्लामा इकबाल द्वारा लिखी गई इस पंक्ति पर अमल करना वास्तव में हर एक व्यक्ति के वश की बात प्रतीत नहीं होती । अब तो बढ़ती सांप्रदायिकता तथा धर्म-जाति व संप्रदाय के नाम पर बढ़ती जा रही दरिंदगी ने कई लेखकों व विशेषकों को इक़ बाल की उपरोक्त पंक्ति में इस प्रकार का संशोधन करने के लिए बाध्य कर दिया है। गोया-’मज़हब ही सिखाता है आपस में बैर रखना। भारत सहित दुनिया के आधे से अधिक देशों में चल रही सांप्रदायिकता की काली आंधी स्वयं इस बात का गवाह है कि आज दुनिया में सबसे ज्य़ादा कत्लोग़ारत,हिंसा व नफरत धर्म के नाम पर ही फैलाई जा रही है। हालांकि कोई भी धर्म हिंसा या न$फरत का पाठ हरगिज़ नहीं पढा़ता परंतु तमाम तथाकथित स्वार्थी व अर्धज्ञानी िकस्म के धर्मगुरुओं ने अपनी सीमित व संकुचित सोच के चलते धर्म,संप्रदाय तथा जाति के नाम का सहारा लेकर मानव समाज को इस प्रकार विभाजित कर दिया है कि ऐसा प्रतीत होने लग जाता है कि गोया मानवता में विभाजन का कारण ही केवल धर्म,जाति व संप्रदाय ही है।

परंतु हकीकत इसके बिल्कुल विपरीत है। सभी धर्मों की बुनियादी तथा वास्तविक शिक्षाएं मानवता का पहला पाठ पढ़ाती हैं। परोपकार,मानवता की सेवा सभी धर्मों व विश्वासों का स मान,आदर व सत्कार करना,किसी को दु:ख तकलीफ या ठेस न पहुंचाना हर विश्वास व धर्म के लोगों की पहली शिक्षा है। ऐसे में यदि नफरत तथा हिंसा का कारण धर्म को ही बनाया जाए तो इसमें धर्म या धर्मग्रंथों का दोष तो कतई नहीं बल्कि दोष उन अर्धज्ञानियों,कठ्मुल्लाओं व पोंगा पडितों का है जो कभीअपने स्वार्थवश तो कभी राजनीतिज्ञों के बहकावे में आकर तो कभी अपनी सीमित एवं पूर्वाग्रही शिक्षाओं के चलते धर्म को ही कभी हथियार के रूप में प्रयोग करते हैं तो कभी इसी की ढाल भी बना लेते हैं। अन्यथा ईसा,मोह मद,नानक,चिश्ती,कबीर,रामानंद,ख़ुसरू,बुल्लेशाह तथा बाबा फऱीद जैसे इंसानियतपरस्त व खुदापरस्त लोगों का धर्म यह कतई नहीं था कि ईश्वर,अल्लाह व गॉड जैसी असीम शक्ति व उर्जा को छोटी-छोटी सीमाओं में बांध कर स्वयं इंसानों द्वारा ही उसके अलग-अलग कायदे व कानून निर्धारित किए जाएं और जो भी व्यक्ति उन्हीं अर्धज्ञानी लोगों द्वारा बनाए गए कायदे-कानूनों या नियमों का हूबहू पालन न करे या उससे डगमगाए उसे धर्म विरोधी,नास्तिक,अधर्मी या कािफर अथवा मुशरिक होने की संज्ञा दे दी जाए। आशा ही नहीं बल्कि विश्वास किया जाना चाहिए कि आशिक अली जैसे भारतीय मुसलमान रूढ़ीवादी एवं पूर्वाग्रही सोच रखने वाले लोगों के लिए स्वयं एक मिसाल साबित होंगे।

भोजपुरी सिनेमा के पचास साल पर पटना में होगी बहस

16 फरवरी को भोजपुरी सिनेमा के पचास साल पूरे हो रहे हैं। इस मौके पर एफएमसीसीए (फाउंडेशन फॉर मीडिया कल्‍चर एंड सिनेमा अवेयरनेस) पटना में तीन दिनों का भोजपुरी फिल्‍म और सांस्‍कृतिक समारोह आयोजित करने जा रहा है। 14, 15 और 16 फरवरी को एएन सिन्‍हा इंस्‍टीच्‍यूट और श्रीकृष्‍ण मेमोरियल हॉल में आयोजित इस समारोह में भोजपुरी के लगभग सभी जाने माने चेहरे मौजूद रहेंगे।

दो सेमिनार, पांच सिनेमा, मूविंग एग्जिविशन, फूड कोर्ट और तीन संगीत संध्‍या से सजे इस समारोह की रौनक होंगे शारदा सिन्‍हा, छन्‍नूलाल मिश्रा, भरत शर्मा व्‍यास, गिरिजा देवी, मालिनी अवस्‍थी, ब्रजकिशोर दुबे, रवि किशन, मनोज तिवारी, नितिन चंद्रा और त्रिपुरारी शरण।

भोजपुरी के पांच दशक की कुछ चुनिंदा फिल्‍में दिखायी जाएंगी, जिनमें गंगा मइया तोहे पियरी चढ़इबो, बलम परदेसिया, हमार संसार, ससुरा बड़ा पइसा वाला, कब अइबू अंगनवा हमार, देसवा और उधेड़बुन जैसी फिल्‍में शामिल हैं। भोजपुरी के शेक्‍सपीयर कहे जाने वाले भिखारी ठाकुर कृत और संजय उपाध्‍याय निर्देशित बिदेसिया का मंचन भी इस मौके पर किया जाएगा।

पचास सालों में भोजपुरी जैसी भाषा ने सिनेमा के मोर्चे पर जितनी भी कामयाबी हासिल की हो, उसे विमर्श के केंद्र में लाना जरूरी है। दुनिया की तमाम भाषाओं के सिनेमा का विमर्श हमारे सामने है, लेकिन भोजपुरी सिनेमा को लेकर विमर्श की स्थिति अच्‍छी नहीं है। समारोह में भोजपुरी सिनेमा के विभिन्‍न आयामों और उसके भविष्‍य पर सिनेमा के बड़े दिग्‍गज अपनी राय रखेंगे।

सेमिनार के चेहरे होंगे अभय सिन्‍हा, अनीश रंजन, हृषिकेश सुलभ, त्रिपुरारी शरण, आनंद भारती, अनिल अजिताभ, कुणाल, राकेश पांडेय, शंकर प्रसाद, मनोज भावुक, किरण कांत वर्मा, सिद्धार्थ सिन्‍हा, विनोद अनुपम, आलोक रंजन, पंकज शुक्‍ला, मुन्‍ना कुमार पांडेय, ज्ञानदेव मणि त्रिपाठी, सफदर इमाम कादरी, डॉ सुनील कुमार, विनय बिहारी, रंजन सिन्‍हा और लालबहादुर ओझा।

इस मौके पर वरिष्‍ठ पत्रकार आलोक रंजन भोजपुरी सिनेमा के पचास सालों के सफर पर एक मूविंग एग्जिविशन भी लगाएंगे। साथ ही बिहार के स्‍वादों पर आधारित फूड कोर्ट्स भी लगेंगे।

भोजपुरी फिल्‍म एवं सांस्‍कृतिक समारोह से जुड़ी किसी भी तरह की सूचना के लिए आप समरेंद्र और अविनाश से संपर्क कर सकते हैं। समरेंद्र का ईमेल आईडी indrasamar@gmail.com है और नंबर है 09504901446, जबकि अविनाश से avinashonly@gmail.com और 09811908884 पर संपर्क किया जा सकता है।

भोपाल में अटकी इंदौर की मेट्रो

विनोद उपाध्याय

देवी अहिल्या की नगरी इंदौर का नाम देश के चुनिंदा 18 पर्यटन स्थलों में शुमार हो गया है। शहरवासियों के साथ-साथ प्रदेशवासियों के लिए भी यह खुश-खबर अवश्य है, जिससे नगर को सँवारने वाली संस्थाओं पर जवाबदारी और बढ़ गई है। इंदौर को प्रारंभिक विकास के दौर में जिन कपड़ा उद्योगों व हस्तशिल्प ने पहचान दिलाई थी, आज भी उसी हस्तशिल्प ने इस शहर को पर्यटन स्थलों में शुमार होने का गौरव दिलाया है लेकिन प्रदेश की भाजपा सरकार को शायद इसकी सुध ही नहीं है। यही कारण है कि यहां आने वाली मेट्रो रेल सेवा की फाईल भोपाल में अटक गई है।

मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री व वर्तमान नगरीय प्रशासन एवं विकास मंत्री बाबूलाल गौर भोपाल को पेरिस बनाने की घोषणा कई बार कर चुके हैं लेकिन आज तक भोपाल एक व्यवस्थित शहर भी नहीं बन पाया है। ऐसे में दूसरे शहरों की स्थिति क्या होगी इसका सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। बाबूलाल गौर का भोपाल प्रेम जग जाहिर है। जब वे प्रदेश के मुख्यमंत्री थे तब उन्हें भोपाल के मुख्यमंत्री की संज्ञा दी जाती थी। आखिर यह गलत भी नहीं था क्योंकि गौर साहब भोपाल के आगे कुछ सोच भी नहीं पाते हैं। मंत्री की इसी सोच का नतीजा है कि प्रदेश की व्यावसायिक राजधानी इंदौर में शुरू होने वाली मेट्रो रेल योजना लटकी हुई है।

उल्लेखनीय है कि नई दिल्ली के तजऱ् पर केन्द्र और राज्य सरकार भोपाल और इंदौर में मेट्रो रेल सेवा शुरू करने की तैयारी कर रही है ऐसे में इंदौर की मेट्रो ट्रेन की योजना भोपाल में नगरीय प्रशासन विभाग में ही अटक कर रह गई है। यह खुलासा किया है दिल्ली से भोपाल पहुंचे एक पत्र ने, जिसमें केंद्रीय शहरी विकास मंत्रालय ने राज्य सरकार की तरफ से ऐसा कोई प्रोजेक्ट मिलने से साफ इनकार किया है। सांसद व भाजपा प्रदेशाध्यक्ष प्रभात झा को दिए जवाब में मंत्रालय ने कहा कि हमें न तो कोई प्रस्ताव मिला है, न किसी तरह की वित्तीय मदद ही मांगी गई है। केंद्रीय शहरी विकास सचिव नवीन कुमार ने पत्र में स्पष्ट किया है कि मेट्रो रेल के लिए राज्य के नगरीय प्रशासन विभाग की ओर से विस्तृत आवाजाही की योजना प्रस्तुत करना प्राथमिक अनिवार्यता है, जो आज तक प्रस्तुत नहीं की गई है। इस मामले में नगरीय प्रशासन एवं विकास मंत्री बाबूलाल गौर कहते हैं कि वे होते कौन हैं। हम दिल्ली मे मेट्रो का काम करने वाली कंपनी से यह काम करवाना चाहते हैं और उन्हें प्रस्ताव भेज चुके हैं। शहरी विकास मंत्रालय को प्रस्ताव क्यों भेजें। वर्षो से इंदौर में मेट्रो ट्रेन के लिए संघर्षरत एक वरिष्ठ पत्रकार द्वारा यह मुद्दा ध्यान में लाने के बाद झा ने शहरी विकास मंत्रालय को पत्र लिखकर इंदौर में मेट्रो के बारे में जानकारी मांगी थी।

राज्य को योजना की जरूरत, कुल लागत तथा उपयोग में लाई जाने वाली टेक्नोलॉजी को एक साथ रखकर प्रस्ताव बनाना चाहिए। इसके बिना, मंत्रालय की ओर से वित्तीय मदद तो दूर, योजना पर विचार तक संभव नहीं है। मेट्रो रेल विशेषज्ञ ईश्रीधरन सहित इस क्षेत्र से जुड़े कई लोगों ने भोपाल की तुलना में इंदौर को मेट्रो रेल के लिए ज्यादा बेहतर माना है। यह भी कहा गया है कि इंदौर में मेट्रो की लागत भी भोपाल की तुलना में कम रहेगी क्योंकि यहां भूमिगत के बजाय ओवर ग्राउंड लाइट मेट्रो से ही काम चल सकेगा। नागरिकों सहित संबंधितों का कहना है कि मामले में मुख्यमंत्री के स्तर पर मानीटरिंग होना चाहिए। इसके लिए पृथक विभाग गठित कर उसे मेट्रो सहित लोक परिवहन के विकास व विस्तार को अंजाम देने का काम सौंपा जाना चाहिए।

केंद्र सरकार ने मेट्रो रेल के लिए गेज चयन, निर्माण, संचालन, प्रबंधन व प्रशासन के अधिकार राज्य सरकारों को पांच साल पहले ही सौंप दिए थे। राजस्थान सहित कई राज्यों ने इस दिशा में पहल की और उसके नतीजे भी सामने आने लगे, लेकिन मध्यप्रदेश की ओर से कोई सकारात्मक पहल नहीं हो पाई। इंदौर की बजाय भोपाल को इस योजना का लाभ पहले दिलाने की नगरीय प्रशासन मंत्री बाबूलाल गौर की जिद के चलते भी इस मामले में राज्य को पिछडऩा पड़ा।

उधर केन्द्रीय शहरी विकास मंत्रालय की सत्ता संभालते ही अपने गृह राज्य के प्रति दिलचस्पी दिखाते हुए कमलनाथ ने घोषणा की कि मध्यप्रदेश को हर क्षेत्र में प्राथमिकता दी जाएगी। उन्होंने कहा कि राज्य की राजधानी भोपाल समेत इंदौर, उज्जैन, सागर, जबलपुर और ग्वालियर को वल्र्ड क्लास शहर बनाया जाएगा। उन्होंने कहा कि देशभर में मेट्रो नेटवर्क का विस्तार किया जाएगा, साथ ही मेट्रो से जुड़ी जो भी परियोजनाएं मंत्रालय के समक्ष लंबित हैं उनका शीघ्रता से निपटारा किया जाएगा। मंत्री की इस मंशा से भोपाल और इंदौर में मेट्रो परियोजना के परवान चढऩे के आसार बढ़ गए हैं।

उधर नगरीय प्रशासन एवं विकास मंत्री बाबूलाल गौर कहते हैं किाभोपाल में पहले मेट्रो का कार्य शुरू होने की वजह वहां मेट्रो का विस्तार केवल 35 किलोमीटर में है वहीं इंदौर में जनसंख्या, क्षेत्रफल और बजट के हिसाब से यह बडा प्रोजेक्ट है। इंदौर में मेट्रो ट्रेने अंडरग्राउंड होगी, जिसके लिये 230 करोड रूपए प्रति किलोमीटर पर खर्च होगा। वहीं भोपाल में ट्रेने सडक से उपर चलेगी जिस पर 120 करोड रूपए प्रति किलोमीटर का खर्च संभावित है।ल गौरतलब है कि कोच्ची और लुधियाना जैसे शहरों में मेट्रो रेल परियोजना प्रारंभ हो चुकी है। जिसको देखते हुए भोपाल और इंदौर में भी मेट्रो रेल चलाने की तैयारी की जा रही हैं। वैसे मेट्रो रेल उन स्थानों पर सफल मानी जाती हैं जहाँ की आबादी लगभग 30 लाख के आसपास होती है एक अनुमान के मुताबिक भोपाल की आबादी 18 से 20 लाख के बीच वहीं इंदौर की आबादी 30 लाख के आसपास है। मेट्रो रेल परियोजना का काम शुरू होने के बाद इसे पूर्ण होने में 6-7 साल का समय लगता है लिहाजा तब तक भोपाल की बाडी भी तीस लाख के आसपास पहुँचने का अनुमान है दूसरी और इंदौर की आबादी 30 लाख होने से मेट्रो रेल पहले इंदौर में शुरू होने की संभावना व्यक्त की जा रही है। परियोजना प्रारंभ होने के बाद 12000 करोड़ का खर्चा आएगा और परियोजना लगभग 6-7 सालों में पूरी हो जायेगी। बहरहाल मेट्रो परियोजना के प्रारंभ हो जाने पर जहाँ एक और भोपाल और इंदौर अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य में नई पहचान मिलेगी तो दूसरी और प्रदेश में औधोगिक निवेश की संभावनाएं बढेंगी लेकिन अब देखना यह होगा कि 1200 करोड़ की इस परियोजना को कब मजूरी मिलेगी और कब इसका काम शुरू हो पायेगा

उल्लेखनीय है कि इन इंदौर हमेशा से पर्यटकों के आकर्षण का केन्द्र रहा है। यह शहर हस्तकला वस्तुओं की बिक्री के केंद्र हैं। पर्यटक इन स्थानों पर घूमने के साथ-साथ लुभावने व कलात्मक हस्तशिल्प की वस्तुओं को खरीदने के लिए भी बेताब रहते हैं। इन वस्तुओं पर की जाने वाली सूक्ष्म कारीगरी पर्यटकों का मुख्य आकर्षण होती है।

इंदौर में होलकर रियासत की पहचान बनीं महेश्वरी साडिय़ाँ पूरी दुनिया में इस क्षेत्र की याद दिलाती हैं। महेश्वर देवी अहिल्याबाई के जमाने से श्रेष्ठ बुनकरों का स्थान रहा है। शिल्प क्षेत्र के साथ आधुनिक वस्त्र व्यवसाय में भी इंदौर की ख्याति दूर-दूर तक है। शिल्प के पाँच चुनिंदा विषयों में सुई कार्य, जनजातीय कार्य, फायबर, पर्यावरण के अनुकूल (आर्गेनिक) शिल्प, उत्सव के सजावटी उत्पाद शामिल हैं। इंदौर शहर सरस्वती और खान नदियों के किनारे बसा शहर है। इन नदियों की दशा किसी से छिपी नहीं है। यहां की यातायात व्यवस्था प्रदेश में सबसे खराब है। ऐसे में अगर मेट्रो रेल के कार्य में बाधा उत्पन्न होती है तो इस शहर का भगवान ही मालिक होगा।लेकिन देखना यह है कि पेरिस के नाम पर भोपाल को गड्ढो का शहर बनाने वाले बाबूलाल गौर और उनका विभाग इंदौर पर कब मेहरबान होता है।

काला-धन-काली कमाई और राजनीति

प्रवक्ता डाट काम बधाई का पात्र है , इस मंच के  माध्यम से अपने विचारों और अभिव्यक्ति की इस शशक्त सार्थक पहल के लिए मैं आभार व्यक्त करते हुवे देश के एक अरब से ज्यादा देशवासियों से जिसमे मैं स्वयम भी शामिल हूँ जानना चाहता हूँ ,साथ ही सभी सहित अपनी अंतरात्मा से पूछना एक नैतिक दायित्व मानते हुवे प्रश्न करता हूँ ,की देश की खून पशीने की गाढी कमाई का बड़ा भाग लगभग ६७००० हज़ार अरब रूपये अवैध रूप से स्विस बैंक में ज़मा हैं ,इस रकम से देश की गरीबी,भुखमरी,शिक्षा,चिकित्सा जैसी अनेक ज्वलंत  समस्याएँ जो सुरसा राक्षशी  की तरह मुह बाए खड़ी हैं  का निदान आसानी से हो  सकता है ,इस देश पर राज अब कहने को प्रजा तंत्र के माध्यम से “जनता की-जनता के लिए और जनता के द्वारा” के सर्वोपरि सिधान्त को आधार मान कर हो रहा है किन्तु वास्तव में क्या ये सरकारें देश के लिए सोचती या कुछ करती हैं ?क्या इनमे इस दिशा में शशक्त कदम उठाने की प्रबल इच्छा शक्ति है ? नहीं बिल्कुल भी नहीं तभी तो सुप्रीम कोर्ट ने सवाल किया है की काले धन को जमा करने वालों का नाम स्विस बैंक से उजागर होने के बाद क्या कदम उठाया  गया?काला धन जमा करनेवाले लोगों और कंपनियों के खिलाफ क्या किया  गया ?यहाँ तक की कोर्ट ने शंका जताई है की देश की सुरक्षा से खिलवाड़ कर इस काली कमाई के  श्रोत में हथियारों का सौदा और मादक पदार्थों की तस्करी तक शामिल है ,इन सभी लोगों जिनमे ताक़तवर राजनैतिक लोग  ,भ्रष्ट आफिसर्स सहित पूंजीपति शामिल हैं  क्यों सरकार सिर्फ कर चोरी के पहलु तक ही सीमित है? क्यों  नहीं इन सभी पर देशद्रोह का मामला दर्ज कर ऐसी सज़ा दी जाए  की इस दुष्कृत्य पर हमेशा हमेशा के लिए रोक लग जाए ,बिना कड़ी कार्यवाही और प्रबल इच्छा शक्ति के केवल बातें ही बातें होंगी यथार्थ में कुछ भी नहीं ,स्विस बैंक एक ऐसा बैंक माध्यम है जिसमे अकाउंट खोलने वाले का नाम तक नहीं लिखा जाता केवल खाता नम्बर ही दिखाई देता है वास्तविक खातेदार का नाम केवल उच्च अधिकारीयों को ही पता होता है ये पूरी गोपनीयता का पालन करतें हैं , इसी लिए दुनिया भर के काली कमाई के लोगों का पसंदीदा स्थल स्विस बैंक ही होता है ,दुनिया के  कुछ देश ऐसे भी हैं , जिन्होनें अपनी प्रबल और ईमानदार कोशिशों से इस पर अंकुश लगाया भी है ,उन सभी से सबक लेकर हमारे देश में भी ठोस सार्थक पहल करनी होगी तभी कुछ हो सकेगा अन्यथा हम केवल लाप-विलाप -प्रलाप करते ही रह जायेंगे.उच्चत्तम न्यायलय कालेधन की वापसी को लेकर आस की किरण जगा रहा ,देश का आम नागरिक  चाहता है की किसी भी कीमत पर यह कालाधन देश में वापस ज़रूर आना चाहिए किंतुं सरकार “संधियों के मकड़जाल” की आड़ लेकर इससे बचने का पूरा पूरा प्रयास कर रही है ये भूल रहें हैं की इस देश में ४० करोड़ लोग गरीबी रेखा के नीचे का जीवन जी रहें हैं जब की कुल ज़मा धन का मात्र  ३०% हिस्सा ही  करीब २० करोड़ नई नौकरियां पैदा कर स्वावलंबन की और लेजाकर बेरोज़गारी की समस्या को हल कर सकता है ,भारत प्रतिवर्ष प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र में फिलहाल जितना खर्च करता है ,उसकी अगले १५० साल तक इस कालेधन से व्यवस्था हो सकती है,देशके अर्थशाष्त्री प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जी ने वादा किया था की अपने कार्यकाल के सौ दिन के भीतर विदेशों में ज़मा धन वापस लाने की प्रक्रिया वे शुरू कर देंगें किन्तु वे भी अब अर्थशाष्त्री प्रधानमंत्री के बजाय कांग्रेसी प्रधानमन्त्री साबित हो रहें हैं .हाल ही में किये गए एक विश्वशनीय आकलन में स्पष्ट किया गया है की भारत में पिछले ६० वर्षों में भ्रष्ट लोगों ने करीब ६५० अरब डालर यानी ३४ लाख करोड़ रुपये का कालाधन बनाया है जो इस देश के सकल घरेलु उत्पाद का ५० प्रतिशत के बराबर है ,इस पर भी मज़े की बात ये है की लगभग ४७० अरब डालर यानी २५ लाख करोड़ रुपये विदेशों में ज़मा किये गएँ हैं ,इस वक्त मुझे परम आदरणीय अटल जी की ये पंक्तियाँ फिर याद आ .रही हैं की “ना दीन-ना ईमान-नेता बेईमान-फिर भी मेरा भारत महान”……अंत में कहने लिखने को बहुत कुछ है किन्तु इस प्रार्थना के साथ अपनी बात पूरी करूँगा की “ईश्वर अल्हा तेरो नाम -सबको सम्मति दे भगवान् ”

आपका विजय सोनी अधिवक्ता, दुर्ग – छत्तीसगढ़

कैसे पड़ा भारत का नाम?

सूर्यकांत बाली

इस लेख में हम सिर्फ भारत का गुणगान करेंगे। भारत का गुणगान करना तो एक तरह से अपना ही गुणगान करना हुआ। तो भी क्या हर्ज है? गुणगान इसलिए करना है क्योंकि उनको, उन पश्चिमी विद्वानों को जो हमें सिखाने का गरूर लेकर इस देश में आए थे, उनको बताना है कि हमारे देश का जो नाम है, वह वही क्यों है।

वे जो अहंकार पाले बैठे थे कि इस फूहड़ (उनके मुताबिक) देश के वाशिंदों को उन्होंने सिखाया है कि राष्ट्र क्या होता है, राष्ट्रीय एकता क्या होती है, उन्हें बताना है कि इस देश के पुराने, काफी पुराने साहित्य में पूरी शिद्दत से दर्ज है कि भारत नामक राष्ट्र का मतलब क्या होता है और क्यों होता है? और उन तमाम इतिहासकारों को भी जिन्हें पश्चिमी विद्वानों द्वारा पढ़ाए गए भारतीय इतिहास के आर-पार सिर्फ अंधेरा ही अंधेरा नजर आता है, यह बताना है कि अपने देश का नाम रूप जानने के लिए उन्हें अपने देश के भीतर ही झांकना होता है। तेरा राम तेरे मन है।

महाभारत का एक छोटा सा संदर्भ छोड़ दें तो पूरी जैन परम्परा और वैष्णव परम्परा में बार-बार दर्ज है कि समुद्र से लेकर हिमालय तक फैले इस देश का नाम प्रथम तीर्थंकर दार्शनिक राजा भगवान ऋषभदेव के पुत्र भरत के नाम पर भारतवर्ष पड़ा। महाभारत (आदि पर्व-2-96) का कहना है कि इस देश का नाम भारतवर्ष उस भरत के नाम पर पड़ा जो दुष्यन्त और शकुन्तला का पुत्र कुरूवंशी राजा था। पर इसके अतिरिक्त जिस भी पुराण में भारतवर्ष का विवरण है वहां इसे ऋषभ पुत्र भरत के नाम पर ही पड़ा बताया गया है।

वायुपुराण कहता है कि इससे पहले भारतवर्ष का नाम हिमवर्ष था जबकि भागवत पुराण में इसका पुराना नाम अजनाभवर्ष बताया गया है। हो सकता है कि दोनों हों और इसके अलावा भी कुछ नाम चलते और हटते रहे हों, तब तक जब तक कि भारतवर्ष नाम पड़ा और क्रमश: सारे देश में स्वीकार्य होता चला गया। आप खुश हों या हाथ झाड़ने को तैयार हो जाएं, पर आज पुराण-प्रसंगों को शब्दश: पढ़ना ही होगा। जिनमें इस देश के नाम के बारे में एक ही बात बार-बार लिखी है। अपने देश के नाम का मामला है न? तो सही बात पता भी तो रहनी चाहिए।

भागवत पुराण (स्कन्ध-5, अध्याय-4) कहता है कि भगवान ऋषभ को अपनी कर्मभूमि अजनाभवर्ष में 100 पुत्र प्राप्त हुए, जिनमें से ज्येष्ठ पुत्र महायोगी भरत को उन्होंने अपना राज्य दिया और उन्हीं के नाम से लोग इसे भारतवर्ष कहने लगे, ‘येषां खलु महायोगी भरतो ज्येष्ठ: श्रेष्ठगुण आसीद् येनेदं वर्षं भारतमिति व्यपदिशन्ति।’ दो अध्याय बाद इसी बात को फिर से दोहराया गया है।

विष्णु पुराण (अंश 2, अध्याय-1) कहता है कि जब ऋषभदेव ने नग्न होकर गले में बाट बांधकर वन प्रस्थान किया तो अपने ज्येष्ठ पुत्र भरत को उत्तराधिकार दिया जिससे इस देश का नाम भारतवर्ष पड़ गया, ‘ऋषभाद् भरतो जज्ञे ज्येष्ठ: पुत्रशतस्य स: (श्लोक 28), अभिषिच्य सुतं वीरं भरतं पृथिवीपति: (29), नग्नो वीटां मुखे कृत्वा वीराधवानं ततो गत: (31), ततश्च भारतं वर्षम् एतद् लोकेषु गीयते (32)।’

लिंग पुराण देखा जाए। ठीक इसी बात को 47-21-24 में दूसरे शब्दों में दोहराया गया है, ‘सोभिचिन्तयाथ ऋषभो भरतं पुत्रवत्सल:। ज्ञानवैराग्यमाश्रित्य जित्वेन्द्रिय महोरगान्। हिमाद्रेर्दक्षिण वर्षं भरतस्य न्यवेदयत्। तस्मात्तु भारतं वर्ष तस्य नाम्ना विदुर्बुधा:।’ यानी (संक्षेप में) इन्द्रिय रूपी सांपों पर विजय पाकर ऋषभ ने हिमालय के दक्षिण में जो राज्य भरत को दिया तो इस देश का नाम तब से भारतवर्ष पड़ गया। इसी बात को प्रकारान्तर से वायु और ब्रह्माण्ड पुराण में भी कहा गया है।

अब बताइए कि जो विदेशी लोग और हमारे अपने सगे उनके मानस पुत्र किन्हीं आर्यों को कहीं बाहर से आया मानते हैं, फिर यहां आकर द्रविड़ों से उनकी लड़ाइयां बताते हैं, उन्हें और क्या बताएं? और क्यों बताएं? क्यों न उन लोगों के लिए कोशिश करें जो जानना चाहते हैं और जिनके इरादे नेक हैं?

पर सवाल यह है कि ऋषभ-पुत्र भरत में ऐसी खास बात क्या थी कि उनके नाम पर इस देश का नाम भारतवर्ष पड़ गया? भरत के विशिष्ट चरित्र का वर्णन करने के लिए इस देश के पुराण साहित्य में उनके तीन जन्मों का वर्णन है और प्रत्येक जन्म में दो बातें समान रूप से रहीं। एक, भरत को अपने पूर्व जन्म का पूरा ज्ञान रहा और दो, हर अगले जन्म में वे पूर्व की अपेक्षा ज्ञान और वैराग्य की ओर ज्यादा से ज्यादा बढ़ते चले गए। इनमें दूसरा जन्म हिरण का बताया गया है।

तीन जन्मों वाली बात पढ़ कर तार्किक दिमाग की इच्छा होती होगी कि ऐसी कल्पनाएं भी भला क्या पढ़नी हुई? बेशक कुछ लोग कहना चाहेंगे कि कई बार तर्क का रास्ता ऐसे अतार्किक बीहड़ में से भी निकल आता है। पर इस संबंध में जैन परम्परा तर्क के नजदीक ज्यादा नजर आती है जहां उनको एक ही जन्म में परम दार्शनिक अवधूत के रूप में चित्रित किया गया है। भरत अपने पिता की ही तरह दार्शनिक राजा थे। बल्कि उनसे भी दस कदम आगे निकल गए थे। जब भरत अपने पुत्रों को राज्य देकर तपस्या के लिए वन गमन कर गए तो आत्मज्ञान में लीन होकर सब कुछ भूल बैठे, लेकिन हिरण के एक छोटे से बच्चे पर उनकी तमाम ममता टिक गई और इसलिए उन्हें अपने अगले जन्म में हिरण बनना पड़ा।

दार्शनिक राजा भरत के बारे में जितनी कथाएं पुराणों में दर्ज हैं वे जाहिर है कि हमें कहीं पहुंचाती नहीं। पर उनके नाम के साथ ‘जड़’ शब्द जुड़ा होने और उनके नाम पर इस देश का नाम पड़ जाने में जरूर कोई रिश्ता रहा है जिसे हम भूल चुके हैं और जिसे और ज्यादा खंगालने की जरूरत है। आज चाहे हमारे पास वैसा जानने का कोई साधन नहीं है और न ही जैन परम्परा में मिलने वाला भरत का वर्णन इसमें हमारी कोई बड़ी सहायता करता है। पर राजा भरत ने खुद को भुलाकर, जड़ बनाने की हद तक भुलाकर देश और आत्मोत्थान के लिए कोई विलक्षण काम किया कि इस देश को ही उनका नाम मिल गया।

चूंकि मौजूदा विवरण काफी नहीं, आश्वस्त नहीं करते, कहीं पहुंचाते भी नहीं, पर अगर जैन और भागवत दोनों परम्पराएं भरत के नाम पर इस देश को भारतवर्ष कहती हैं तो उसके पीछे की विलक्षणता की खोज करना विदेशी विद्वानों के वश का नहीं, देशी विद्वानों की तड़प ही इसकी प्ररेणा बन सकती है। पर क्या कहीं न कहीं इसका संबंध इस बात से जुड़ा नजर नहीं आता कि यह देश उसी व्यक्तित्व को सिर आंखों पर बिठाता है जो ऐश्वर्य की हद तक पहुंच कर भी जीवन को सांसारिक नहीं, बल्कि आध्यात्मिक साधना के लिए होम कर देता है?

पर जिस भारतवर्ष के नामकरण के कारण को हम पूरी संतुष्टि देने वाले तर्क की सीमा रेखा तक नहीं पहुंचा पा रहे हैं, उस भारत का भव्य और भावुकता से सराबोर रंगबिरंगा विवरण हमारे पुराण साहित्य में मिल जाता है जिसमें ‘वन्देमातरम्’ और ‘सारे जहां से अच्छा’ गीतों जैसी अद्भुत ममता भरी पड़ी है। विष्णु पुराण कहता है कि उसी देश का नाम भारतवर्ष है जो समुद्र के उत्तर और हिमालय के दक्षिण में है, ‘उत्तरम् यत् समुद्रस्य हिमाद्रे: चैव दक्षिणम्। वर्षम् तद् भारतम् नाम भारती यत्र संतति:’ (2,3,1)। इसमें खास बात यह है कि इसमें जहां भारत राष्ट्र का वर्णन है वहां हम भारतीयों को ‘भारती’ कहकर पुकारा गया है।

भारत के चारों हिस्सों में खड़े पर्वतों का विवरण इससे ज्यादा साफ क्या होगा, ‘महेन्द्रो मलयो सह्य: शुक्तिमान् दक्ष पर्वत:। विंध्यश्च पारियात्राश्च सप्तैते कुलपर्वता:’ (विष्णु पुराण 2,3,3)। फिर अनेक नदियों के नाम हैं, पुराने भी और वे भी जो आज तक चलते आ रहे हैं। भारत शरीर के इस सपाट वर्णन के बाद कैसे विष्णु पुराण अपने पाठकों को हृदय और भावना के स्तर पर भारत से जोड़ता है वह वास्तव में पढ़ने लायक और रोमांचकारी है। कवि कहता है कि हजारों जन्म पा लेने के बाद ही कोई मनुष्य पुण्यों का ढेर सारा संचय कर भारत में जन्म लेता है, अत्र जन्मसहस्राणां सहस्रैरपि संततम्। कदाचिद् लभते जन्तुर्मानुषं पुण्यसंचयात् (विष्णु 2,3)। स्वर्ग में बैठे देवता भी गा रहे हैं कि वे धन्य हैं जो भारत भूमि के किसी भी हिस्से में जन्म पा जाते हैं-

गायन्ति देवा: किल गीतकानि

धन्यास्तु ते भारतभूमिभागे।

स्वर्गापवर्गास्पदमार्गभूते भवन्ति भूय:

पुरूषा सुरत्वात् (वि.पु. 2,3)।

क्या किसी राष्ट्रगान से कम भावुकता इन पद्यों में है? ठीक इसी तरह से सरल लय और बांध देने वाली भावुकता से भरा इस देश का वर्णन भागवत पुराण (स्कन्ध 5, अध्याय 19, श्लोक 21-28) के आठ श्लोकों में मिलता है जिन्हें अगर हमारे संविधान लेखकों ने पढ़ लिया होता तो उन्हें राष्ट्र गान की खोज के लिए भटकना न पड़ता।

जाहिर है कि ऋषभ पुत्र भरत के नाम पर जब इस देश का नाम भारतवर्ष पड़ा होगा तो धीरे-धीरे ही पूरे देश को यह नाम स्वीकार्य हो पाया होगा। एक सड़क या गली का नाम ही स्वीकार्य और याद होने में वर्षों लग जाते हैं तो फिर एक देश का नाम तो सदियों की यात्रा पार करता हुआ स्वीकार्य हुआ होगा, वह भी तब जब संचार साधन आज जैसे तो बिल्कुल ही नहीं थे।

पर लगता है कि महाभारत तक आते-आते इस नाम को अखिल भारतीय स्वीकृति ही नहीं मिल गई थी, बल्कि इसके साथ भावनाओं का रिश्ता भी भारतीयों के मन में कहीं गहरे उतर चुका था। ऊपर कई तरह के पुराणसंदर्भ तो इसके प्रमाण हैं ही, खुद महाभारत के भीष्म पर्व के नौवें अध्याय के चार श्लोक अगर हम उद्धृत नहीं करेंगे तो पाठकों से महान अन्याय कर रहे होंगे। धृतराष्ट्र से संवाद करते हुए, उनके मन्त्री, जिन्हें हम आजकल थोड़ा हल्के मूड में ‘महाभारत का युद्ध-संवाददाता’ कह दिया करते हैं, संजय कहते हैं-

अत्र ते वर्णयिष्यामि वर्षम् भारत भारतम्।

प्रियं इन्द्रस्य देवस्य मनो: वैवस्वतस्य च।

पृथोश्च राजन् वैन्यस्य तथेक्ष्वाको: महात्मन:।

ययाते: अम्बरीषस्य मान्धातु: नहुषस्य च।

तथैव मुचुकुन्दस्य शिबे: औशीनरस्य च।

ऋषभस्य तथैलस्य नृगस्य नृपतेस्तथा।

अन्येषां च महाराज क्षत्रियाणां बलीयसाम्।

सर्वेषामेव राजेन्द्र प्रियं भारत भारतम्॥

अर्थात् हे महाराज धृतराष्ट्र, अब मैं आपको बताऊंगा कि यह भारत देश सभी राजाओं को बहुत ही प्रिय रहा है। इन्द्र इस देश के दीवाने थे तो विवस्वान् के पुत्र मनु इस देश से बहुत प्यार करते थे। ययाति हों या अम्बरीष, मन्धाता रहे हो या नहुष, मुचुकुन्द, शिबि, ऋषभ या महाराज नृग रहे हों, इन सभी राजाओं को तथा इनके अलावा जितने भी महान और बलवान राजा इस देश में हुए, उन सबको भारत देश बहुत प्रिय रहा है।

राजनीतिक सुधार का पहला कदम चुनाव सुधार

के. एन. गोविंदाचार्य

यदि हमारी चुनाव प्रणाली दोषरहित हो जाए तो काफी समस्याएं अपने आप सुलझ जाएंगी। देश की राजनीति स्वत: भारतपरस्त और गरीबपरस्त होने की राह पर चल पड़ेगी, क्योंकि जनता को इसी की जरूरत है।

चुनावों में अपदस्थ किए जाने के डर से कोई भी सरकार इसके विपरीत आचरण नहीं करेगी। जो भी सरकार इसके विपरीत काम करेगी, उसे जनता सबक सिखा सकेगी। यदि आज ऐसा कुछ हमारे यहां नहीं हो पा रहा है तो कहीं न कहीं चुनाव व्यवस्था इसके लिए जिम्मेदार है। चुनाव आयोग और कई ‘विशेषज्ञों’ को लगता है कि देश में चुनाव सफलतापूर्वक संपन्न हो रहे हैं। लेकिन सच यह नहीं है। किसी चुनाव की सफलता दो आधार पर मापी जाती है। पहला हिंसा की घटनाओं का न होना और डाले गए वोटों का प्रतिशत। लेकिन इन दोनों बातों के संदर्भ में कागजी और जमीनी हालात में काफी फर्क होता है। इस फर्क को समझे बगैर चुनाव की सफलता-असफलता की बाबत किसी भी तरह की राय कायम करना ठीक नहीं है। जमीनी हालत यह है कि देश के कई स्थानों पर चुनाव अधिकारियों को ग्रामीण क्षेत्रों में दबंग लोग आवभगत करके या धमका कर रखते हैं। यह कोई नई शुरुआत नहीं है बल्कि यह लंबे समय से चल रहा है। इन अधिकारियों को उनके बाल-बच्चों का वास्ता देकर स्थानीय स्तर पर धांधली में सहयोग करने को मजबूर किया जाता रहा है। ऐसा होने पर चुनाव आयोग की नजर में तो चुनाव शांतिपूर्ण हुआ, लेकिन लोकतंत्र की तो हत्या हो गई। इसके बावजूद दिल्ली में बैठे लोगों को लगता है कि चुनाव तो शांतिपूर्ण हुए यानी बहुत अच्छे से हुए।

कई राज्यों में यह प्रवृत्ति बेहद आम है कि प्रत्याशी धनबल और बाहुबल के दम पर वोटों की खरीद-फरोख्त करते हैं। कई पेशेवर संगठन भी इस काम में उन्हें मदद देते हैं। जिन संगठनों के साथ इस तरह के सौदे होते हैं वे पहले तो बहिष्कार की बात करते हैं। फिर सौदे के तहत वोटों को लेकर आपसी समझौता होता है। यही संगठन मतदान केंद्रों पर कब्जा जमाकर प्रत्याशियों से प्राप्त रकम के मुताबिक उन्हें वोट दिलाते हैं। इन बातों की जानकारी दिल्ली में बैठे लोगों को नहीं मिलती है और वे मान लेते हैं कि चुनाव बहुत अच्छा और निष्पक्ष हुआ। पर सही मायने में तो इस तरह के चुनाव को लोकतांत्रिक अधिकारों के दमन का जरिया ही माना जा सकता है।

कहा जा सकता है कि जहां ऐसा हो रहा है वहां की जनता अक्षम प्रशासन की जकड़न में है, या फिर वहां की जनता पर अराजकतावादी समूहों की जकड़न है। इसमें एक बात जो साफ तौर पर महसूस होती है कि अक्षम प्रशासन और अराजकतावादी समूहों के बीच अलिखित समझौता है, जो लोकतंत्र की जड़ें खोद रहा है। चुनाव आयोग इससे गाफिल होकर चुनाव की सफलता का दावा करे तो उसे कैसे स्वीकार किया जा सकता है।

वर्तमान चुनावी प्रणाली के आधार पर जो सरकारें बनती हैं, वे इन विकृतियों को दूर करने की बजाए इन्हें और मजबूत करती हैं। चूंकि सभी प्रमुख राजनीतिक दल चुनाव प्रणाली के इस दोष से कहीं न कहीं लाभान्वित होते हैं, इसलिए इसके खिलाफ आवाज उठाने में उन्हें कोई विशेष रूचि नहीं है। यह काम तो उन जनसंगठनों को ही करना पड़ेगा जो चुनावी राजनीति के तात्कालिक नफे-नुकसान की चिंता किए बिना जनअभिव्यक्ति को सटीक और सार्थक बनाना चाहते हैं।

चुनाव सुधार की बात करते हुए सबसे पहले तो हमें इलैक्ट्रोनिक वोटिंग मशीन से होने वाले कदाचार की संभावनाओं को समाप्त करने की मांग करनी चाहिए। जैसा कि हम सब जानते हैं कि हर विधानसभा क्षेत्र में कुछ अतिरिक्त वोटिंग मशीन रखी जाती हैं, उनके उपयोग-दुरुपयोग के बारे में भी सोचा जाना चाहिए। कुछ ऐसे मामलों की जानकारी मिली है, जहां इन इलैक्ट्रोनिक मशीनों का दुरुपयोग हुआ है। संबंधित सरकारी अधिकारियों को मिलाकर एक खास उम्मीदवार के पक्ष में इन मशीनों से मतदान करवाने की बात भी अनुभव में आई है। ऐसा बेहद आम नहीं है लेकिन जहां भी ऐसा होता है उसे सही नहीं कहा जा सकता है। ऐसा होना एक तरह से चुनाव के महत्व का अवमूल्यन है।

चुनाव सुधार की दिशा में जब हम सोचते हैं तो हमें एक बिंदु पर आकर आपसी सहमति बना लेनी चाहिए कि चुनाव में कदाचार को राष्ट्रद्रोह के समकक्ष अपराध माना जाए। अगर ऐसा हो जाए तो कदाचार पर काफी हद तक लगाम लगायी जा सकती है। इसके अलावा चुनाव आयोग को अधिकार संपन्न बनाते हुए कुछ निश्चित कानून के तहत उम्मीदवारी और दलों की मान्यता खारिज करने का अधिकार प्रदान किया जाए। ऐसा होने पर सियासी दलों के अंदर एक तरह का वैधानिक भय पैदा होगा, जिसकी वजह से वे अपना व्यवहार मर्यादित रख सकेंगे।

चुनाव में निष्पक्षता सुनिश्चित करने के लिए प्रांत के स्तर के अधिकारी उसी प्रांत में नहीं लगाए जाएं। ऐसा होने पर धांधली की संभावना पर एक हद तक विराम लगाया जा सकता है। यह काम व्यावहारिक तौर पर भी असंभव नहीं लगता। इसलिए चुनाव को अच्छी तरह से संपन्न कराने के लिए यह प्रयोग तो किया ही जाना चाहिए।

चुनाव सुधार की जरूरत इसलिए भी महसूस होती है कि हाल के अनुभवो से इस बात की पुष्टि हो चुकी है कि लोकतंत्र अब निगमतंत्र में बदल कर रह गया है। इस बात का सबसे बड़ा प्रमाण विश्वास मत प्राप्त करने के दौरान बीते 22 जुलाई लोकतांत्रिक आस्था के केंद्र संसद में देखने को मिला। सारी दुनिया ने उस शर्मनाक घटना को देखा कि सरकार बचाने के लिए; विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने का दंभ भरने वाले देश में सांसदों को खरीदने की कोशिश हुयी। इस घटना से कई गंभीर संकेत उभरकर सामने आए हैं। पहली बात तो यह कि जो वोट के बदले नोट नहीं चाहते थे उन्होंने तो सबके सामने यह पोल खोल दी, पर यह अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है कि जब इतने बड़े स्तर पर नोट से वोट और वोट से नोट का खेल चल रहा हो तो अंदर ही अंदर कई लोगों ने इस खेल में हिस्सा लिया होगा और अपना स्वार्थ साधा होगा। इस बात की पुष्टि उस वक्त भी हो गई थी जब कई सांसदों ने विश्वास मत के दौरान पाला बदलकर मतदान किया था और कई तो मतदान से गायब ही हो गए थे। यह लोकतंत्र के निगमीकरण का सार्वजनिक प्रदर्शन था।

इससे पहले भी संसद सदस्यों के चरित्र से देश उस वक्त परिचित हुआ था जब 2005 के आखिरी दिनों में एक स्टिंग ऑपरेशन के जरिए यह बात उजागर की गई थी कि कुछ सांसदों ने सदन में सवाल उठाने के लिए पैसे लिए थे। इस स्टिंग ऑपरेशन के जरिए तो उन्हीं का चेहरा सामने आया जो कैमरे की जद में आ गए। सदन ने उन्हें गुनाहगार मानते हुए सजा भी दे दी, जो स्वाभाविक ही था। पर इससे एक प्रवृत्ति की झलक मिलती है। वो यह कि पैसा लेकर संसद में सवाल पूछने की कुप्रथा चल पड़ी है। खुद को जनप्रतिनिधि कहने वालों के लिए यह बेहद शर्मनाक है। ऐसे में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि आखिर हमारी चुनाव प्रणाली में कहां खोट है जिसकी वजह से ओछे लोग इस व्यवस्था का संचालन करने के लिए निर्वाचित हो जा रहे हैं।

बहरहाल, इन अनुभवों से जो बात निकलकर सामने आ रही है वो यह है कि बडे दलों और गठबंधनों को निगमों ने निगल लिया है। निगमतंत्र के भारतीय राजनीति पर बढ़ते प्रभाव के लिए कुछ घटनाओं का उल्लेख करना आवश्यक है। कुछ साल पहले देश के बडे उद्योगपति ने अपने एक चहेते को ऊर्जा मंत्रालय दिए जाने की मांग की थी। ऐसा उन्होंने इसलिए कहा था कि उनके मनमाफिक मंत्री बनने के बाद उनके व्यावसायिक हितों को साधना आसान हो जाता। गुजरात सरकार में उद्योगपतियों को जबर्दस्त तरीके से प्रोत्साहन दिया गया। यहां तो बडे प्रोजेक्टस और इंफ्रास्ट्रक्चर के विकास की आड़ में थैलीशाहों को लाभ पहुंचाया जा रहा है। कर्नाटक में तो हद ही हो गई। बताया जा रहा है कि पिछले विधानसभा चुनाव में वहां के हर विधानसभा क्षेत्र में कार, मोटरसाइकल, रंगीन टीवी समेत नकद रुपए भी बांटे गए।

आज सत्ताधारी दलों में चुनावों के दौरान जमकर सरकारी धन के दुरुपयोग करने की प्रवृत्ति बढ़ती ही जा रही है। सरकारी विज्ञापन होर्डिंग्स और अन्य तरीके से सत्तारूढ़ दल अधिसूचना जारी होने से पहले तक सरकारी खर्च पर अपना विज्ञापन करता है। ज्यादातर सरकारें बजट का एक बड़ा हिस्सा सरकारी विज्ञापन पर ही खर्च करती हैं। चुनाव के दौरान जो विज्ञापन दिए जाते हैं, वे काफी महंगे होते हैं लेकिन चुनाव आयोग को कम खर्च का फर्जी बिल बनाकर थमा दिया जाता है और शक्तिहीन चुनाव आयोग के पास ऐसे सियासी दलों के खिलाफ आवश्यक कदम उठाने का कोई अधिकार ही नहीं होता। उत्तर प्रदेश के एक बड़े नेता की एक सभा में पांच सौ के नोट सरेआम बांटे गए, लेकिन ना ही उनके खिलाफ और ना ही उनकी पार्टी के खिलाफ कोई कदम उठाया जा सका।

चुनाव के दौरान सत्तारूढ़ दल द्वारा पूरे चुनाव को कई तरह से प्रभावित किया जाता है। सत्ता में बैठे लोग अपनी सुविधा के मुताबिक पक्षपातपूर्ण तरीके से रिटर्निंग अफसरों की नियुक्ति करते हैं। ऐसे में इन अफसरों के लिए अपने कार्य को निष्पक्षता से अंजाम दे पाना बेहद मुश्किल हो जाता है। सत्तारूढ़ दल हर कीमत पर चुनाव में अपनी जीत सुनिश्चित करने के लिए अपराधियों को इस मौके पर जेल से छुड़वाने और उन्हें जिलाबदर नहीं करवाने में अहम भूमिका निभाते हैं। सत्तारूढ़ दल के इशारे पर शराब बांटना, थाना कार्रवाई नहीं करना, विपक्षी कार्यकर्ताओं को झूठे मुकदमे बनाकर उन्हें जेल में डालना और उनके पुराने मुकदमे खोलना जैसी प्रवृत्तियां काफी तेजी से बढ़ रही हैं।

चुनाव सुधार की बात जब हम करते हैं तो सबसे पहले चुनाव प्रक्रिया में व्यापक सुधार की बात उठानी होगी। इसमें पहली बात तो यह है कि बूथ के हिसाब से वोटों की गिनती नहीं हो। क्योंकि ऐसा अनुभव आया है कि कई स्थानों पर दबंग प्रत्याशी और उनके गुर्गे गांव के लोगों को यह कहकर डराते-धमकाते हैं कि गिनती के दौरान हमें पता चल जाएगा कि इस बूथ से कितना वोट मिला है और अगर हमें वोट नहीं दिया तो इसका अंजाम ठीक नहीं होगा। इसका परिणाम यह होता है कि इन गुंडों से दुश्मनी मोल नहीं लेने की इच्छा से लोग डरकर, न चाहते हुए भी उनके पसंदीदा प्रत्याशी को वोट देने के लिए मजबूर हो जाते हैं।

चुनाव व्यवस्था को चाक-चौबंद करने के लिए कुछ नए तरीके भी अपनाए जाने चाहिए। चुनाव व्यवस्था में लोगों का भरोसा कायम रखने के लिए मोबाइल बूथ की भी व्यवस्था होनी चाहिए। पोस्टर से लेकर पूरे विज्ञापन अभियान का खर्च ठीक से तय हो। ताकि मुकाबला संसाधनों के बीच न होकर मुद्दों और मूल्यों के बीच हो। चुनाव सुधार के जरिए धन के अपव्यय पर तो हर हाल में लगाम लगनी ही चाहिए।

चुनाव आयोग द्वारा पुराने और बड़े दलों तथा उनके प्रत्याशियों को अतिरिक्त महत्व दिया जाता है। यह भेदभाव बंद होना चाहिए। उदाहरण के लिए टीवी और दूसरे प्रचार साधनों पर चुनाव प्रचार के लिए बड़े दल के प्रत्याशी को अधिक समय दिया जाता है जबकि छोटे दल के प्रत्याशी को अपेक्षाकृत कम समय मिलता है। इसके अलावा यह भेदभाव और भी कई स्तर पर है। चुनाव चिन्ह के आवंटन में भी नई पार्टियों को भेदभाव का शिकार होना पड़ता है। चुनाव संचालन की योजना बनाते समय ही बड़े दल के प्रत्याशियों को तो आयोग विचार-विमर्श के लिए बुलाता है, जबकि छोटे दल या निर्दलीय प्रत्याशियों को इन मामलों से आयोग दूर ही रखता है।

चुनाव से पहले के सर्वेक्षणों पर लगाई गई रोक का स्वागत किया जाना चाहिए। चुनाव सर्वेक्षण के जरिए अपने उल्लू सीधा करने की कोशिश संबंधित पक्ष करते हैं और मतदाता चुनाव परिणाम आने के बाद खुद को ठगा हुआ महसूस करता है। वैसी हालत में लोगों के पास पांच साल तक मन मसोसकर बैठे रहने और यथास्थितिवादी मानसिकता में ढल जाने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचता है।

चुनाव के दौरान यह अनुभव भी सामने आया है कि चुनाव चिन्ह को लेकर भी कई स्थानों पर गफलत पैदा हो जाती है। ऐसे में मतदाता अपना मत देना किसी और को चाहता है लेकिन भ्रम की स्थिति बन जाने या बना देने के कारण वोट किसी और को दे देता है। चुनाव के बाद जब उसका यह भ्रम टूटता है तब तक काफी देर हो जाती है। ऐसे हालात पैदा नहीं हो पाएं इसके लिए यह जरूरी है कि चुनाव चिन्ह पहले से ही आवंटित हो जाएं।

चुनाव के दौरान बोगस वोटिंग की घटना भी आम तौर पर हर जगह चलन में है। कई स्थानों पर तो प्रत्याशी बड़े ही सुनियोजित तरीके से इस कार्य को अंजाम देते हैं। चुनाव आयोग को यह अधिकार मिलना चाहिए कि बोगस वोटिंग करवाने में संलिप्त प्रत्याशी को अयोग्य करार देते हुए उसके चुनाव लड़ने पर आजीवन प्रतिबंध लगा दिया जाए। चुनाव लड़ने वालों के लिए घोषणा पत्र बंधनकारी होना चाहिए। साथ ही आयोग यह सुनिश्चित करे कि अगर कोई उम्मीदवार अपने घोषणापत्र में गलत जानकारी दे तो उसे चुनाव लड़ने से रोक दिया जाए।

चुनाव सुधार के तहत ही यह भी सुनिश्चित किया जाए कि अपराधी चुनाव नहीं लड़ सकें। बीते कुछ सालों से राजनीति का अपराधीकरण काफी तेजी से बढ़ा है। इस वजह से सही सोच और समझ के साथ काम करने की क्षमता से लैस सज्जनशक्ति राजनीति से दूर होती जा रही है। इसे रोकना इसलिए भी जरूरी है कि सज्जनशक्ति के राजनीति में नहीं होने की वजह से राजनीति के अमीरपरस्त और विदेशपरस्त होने की गति निरंतर बढ़ती ही जाएगी।

चुनाव के दौरान ही कई स्थानों के लोगों ने बताया कि उनके यहां जो ईवीएम लगाई गई वह अंधेरे में रखी गई और इस वजह से उन्हें चुनाव चिन्ह पहचानने में दिक्कत आई और मतदान करने में परेशानी उठानी पड़ी। हर स्थान पर ऐसा हुआ हो, यह संभव नहीं है। पर कुछ जगहों पर भी ऐसा क्यों हो। ऐसे हालात पैदा नहीं हो इसके लिए एक काम यह किया जा सकता है कि मतदान के लिए लगाया जाने वाला ईवीएम स्वंयप्रकाशित हो। इससे चुनाव चिन्ह पहचानने में किसी को कोई परेशानी नहीं होगी और चुनाव चिन्ह के घालमेल की शिकायत भी दूर हो जाएगी।

चुनाव के बाद या उस दौरान जो विवाद उत्पन्न हो जाते हैं, उनके न्यायिक निपटान की बेहतर व्यवस्था होनी चाहिए। ऐसे सभी मामलों को छह माह के अंदर हर हाल में निपटाना जरूरी होना चाहिए। तभी चुनाव की प्रक्रिया सही मायने में निष्पक्ष और जन अपेक्षाओं के अनुरूप हो पाएगी। मतदाता रजिस्ट्रेशन की प्रक्रिया में व्याप्त खामियों को भी दूर किए जाने की जरूरत है। इसमें कई तरह से फर्जीवाड़ा हो रहा है। हद तो तब हो जाती है जब मतदाता पहचान पत्र बनने के बाद उसे कूड़े के ढेर में पाया जाता है। ऐसा इसलिए किया जाता है कि दुबारा पहचान पत्र बनाने के लिए फिर पैसा वसूला जा सके। गुम हुए मतदाता पहचान पत्रों के दुरुपयोग का खतरा भी बना रहता है। उस पहचान पत्र का इस्तेमाल करके मोबाइल कनेक्शन ले लिए जाते हैं और उस फोन का दुरुपयोग होने पर जिसके नाम का वह पहचान पत्र होता है उसे पकड़ा जाता है। मतदाता पहचान पत्र बनाने के लिए जिन दस्तावेजों की जरूरत होती है, वो भी फर्जी तरीके से बनाए जा रहे हैं। राशन कार्ड, आवास प्रमाण पत्र जैसे कागज तो हर जिले में एक निश्चित रकम लेकर बनाए जा रहे हैं। हर जिले में राजपत्रित अधिकारियों के फर्जी मुहर बनाकर किसी भी कागज को अटेस्ट करने की कुप्रथा चल पड़ी है। बदहाली का आलम तो यह है कि मतदाता सूची में थोक में नाम जोड़े और घटाए जाते हैं। यह कार्य किसी खास पक्ष को फायदा पहुंचाने के मकसद से किया जाता है।

चुनाव सुधार की बात करते हुए हमें इस बात का भी खयाल रखना होगा कि फर्जी राजनीतिक दलों की मान्यता रद्द की जाए। अभी चार सौ से ज्यादा राजनैतिक दल ऐसे हैं जो चुनाव ही नहीं लड़ते। चुनाव लड़ने वाले दलों में से भी कई ऐसे हैं जो अन्य कारणों से चुनाव लड़ते हैं। इनका मकसद खुद को और किसी खास पक्ष को लाभ पहुंचाना होता है। आज जरूरत इस बात की है कि दलों की मान्यता के पैमाने पर फिर से विचार किया जाए। साथ ही दलों की आर्थिक व्यवस्था की निगरानी के लिए भी बेहतर बंदोबस्त किया जाए।

हाल ही में चुनाव आयोग में जो विवाद पैदा हुआ उसने भी आयोग की निष्पक्षता पर सवाल खड़ा किया है। इस विवाद में यह बात तो प्रमाणित हो गई कि नवीन चावला ने अपनी संस्था के लिए विधायकों और सांसदों की विकास निधि से पैसा लिया। ऐसा सामने आ जाने पर इतना तो तय हो जाना चाहिए था कि उन्हें मुख्य चुनाव आयुक्त नहीं बनाया जाए। पर सियासी लाभ लेने की चाह में ऐसा नहीं किया गया। जब चुनाव आयोग को अधिकार संपन्न बनाने की बात चलती है तो इसके साथ-साथ यह भी सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि आयोग से सेवानिवृत होने पर चुनाव आयुक्त कोई राजनीतिक पद नहीं ग्रहण कर सकें या किसी राजनीतिक दल के प्रत्याशी के तौर पर चुनाव नहीं लड़ सकें।

चुनाव सुधार एक ऐसा मुद्दा है जिसे देशहित में काम करने वाले सभी व्यक्तियों और संगठनों को मिलकर उठाना चाहिए। बेहतर चुनाव प्रणाली का सीधा सा अर्थ है एक बेहतर लोकतांत्रिक प्रणाली और एक ऐसी सरकार की स्थापना जो जनता के करीब होगी और उसके लिए ईमानदारी से काम करेगी।

बहिर् ने खींचा, अंतर ने सींचा

चैतन्य प्रकाश

सर्दी में त्वचा के खिचाव का अनुभव किसे नहीं होता? यही अनुभव शायद खिंचाव के संबंध में मनुष्य का प्राथमिक अनुभव है। कहावत ही बन गई है- ‘जाके पैर न फटी बिवाई, सो क्या जाने पीर पराई।’ खिंचाव पीड़ा की उपस्थिति का प्रमाण है।

जीवन में भी खिंचाव, तनाव के अर्थ में व्यक्त होता है जो पीड़ा का समानार्थी है। सर्दी लगातार सिकुड़न देती है, शायद यही सिकुड़न परिणामत: खिचाव बनती है। इसी तरह जीवन की केन्द्रीयता खिचाव का कारण बनती है। जब जीवन ‘मैं’ की केन्द्रीयता में आता है तो व्यक्ति तत्व लगातार सिमटता है, सिकुड़ता है, तत्क्षण खिचाव पैदा होता है। वास्तव में जीवन में जो भी बहिर् है, वह अधिकांशत: खींचने वाला बल है। मनुष्य की खोजों में गुरुत्वाकर्षण बल एक महत्वपूर्ण खोज है। न्यूटन ने पृथ्वी के जड़-चेतन को इस बल से प्रभावित पाया। न्यूटन की खोज पदार्थ वैज्ञानिक के दृष्टिकोण से हुई है। पर इसी खोज को जीवन के तात्विक प्रश्नों के संदर्भ से जोड़कर देखा जाए तो लगता है, संसार का समूचा बहिर् (बाहर) खिंचाव का कारण है। आशा, आकांक्षा, आकर्षण बहिर्जगत में समाए हैं, ये लगातार खींचते हैं। एक दूसरे अर्थ में समझा जाए तो अन्य और तन्य का बड़ा सीधा संबंध है। जो अन्य (स्वयं के अतिरिक्त) है, वह हमें तनाव देता है। अन्य के संदर्भों से जितना हम जुड़ते हैं, उतने ही तनावग्रस्त होते जाते हैं। इस तरह सारा संसार प्रतिसंवेदनात्मक (Response-oriented) होता चला जाता है। अन्य के अभाव, दबाव, प्रभाव से तन्य उत्पन्न होता है। वह अन्य ही बहिर् (बाहर) है और इसका सहज परिणाम ही खिंचाव (तन्यता) है।

फिर क्या ऐसा अंतिम रूप से मान लिया जाए कि जीवन में खिंचाव अपरिहार्य है, क्योंकि जीवन बहिर् के बिना या अन्य के बिना कैसे संभव है? जीवन का सारा विस्तार और विकास तो संबंधों के माध्यम से ही होता है, बल्कि संबधशीलता में ही जीवन की सर्वाधिक सक्षम अभिव्यक्ति होती है। अर्थ यह बनता है कि जीवन तनाव का दूसरा नाम है। इस अर्थ में सत्यांश तो है पर सत्य का संतुलित स्वरूप नहीं दिखता है, यह तस्वीर के सिर्फ एक पहलू की तरह ही प्रतीति देता है। फिर दूसरा पहलू कहां खो गया है? दरअसल दूसरा पहलू हमेशा, हर युग में खोया सा होता है। उस पहलू की खोज को इसलिए हर बार ‘सत्य की खोज’ कहकर संबोधित किया गया, क्योंकि वास्तव में उस पहलू की खोज से ही सत्य पूरा होता है। मगर उसकी शुरुआत पहले पहलू से हो जाती है। दोनों अनिवार्यत: जुडे हैं; पहला दृश्यमान है, दूसरा अदृश्य है। अदृश्य पहलू अन्तरतम में है, आंतरिक है, आभ्यंतरिक है।

त्वचा बाहर से खिंचती है तो भीतर की ग्रन्थियां इस खिंचाव को सींचने के लिए रस स्राव करती हैं। यह प्रक्रम प्राकृतिक है। चिकित्सकीय उपचार इस प्रक्रम को उद्दीप्त करते हैं। बाहर के खिंचाव को भीतर का रस स्वाभाविक रूप से भर दे तो वह उत्तम स्वास्थ्य माना जाता है। इसी तरह जगत के तनाव को अन्तर का सिंचन मिलता रहे तो जीवन का सारा असंतुलन समाप्त हो जाता है। जीवन सहज, शांत, संतुलित और समर्थ हो जाता है। बहिर् के सारे खिंचाव को सींचने की क्षमता अन्तर के सिंचन में है, बशर्ते अंतर से बहिर् का रास्ता खुला हो। आशा, आकांक्षा, आकर्षण के क्षणों में भीतर का प्रेम, समर्पण, संवेदनशीलता यदि स्रावित हो जाए तो जगत आनंदोत्सव में बदल जाता है। चित्त में शांति और चेहरे पर कांति आती है। स्रोत और सरिता का संबंध सतत रहे तो सरिता का सारा खिंचाव महासागरों को लबालब भरकर, सृजनात्मकता का पर्याय बनता है। बहिर् के खिंचाव और अन्तर के सिंचन के दोनों पहलू मिलकर जीवन सत्य बनते हैं। इन दोनों पहलुओं के योग में विकसता जीवन सरित प्रवाह की सी ऊर्जा, गरिमा, और पवित्रता लिए सागर-सम वैराटय में निरंतर मिलता जाता है। इस सहज, स्वाभाविक समर्थ जीवन का सूत्र हुआ- ‘बहिर् ने खींचा, अंतर ने सींचा’। यह जीवन सूत्र आध्यात्मिक और भौतिक के अनिवार्य योग का प्रतिपादन है।

यह एकांगी अर्थ को नहीं बल्कि समग्रता को व्यक्त करता है। बहिर् का खिंचाव और अंतर का सिंचन दोनों परस्पर पूरक हैं, पोषक हैं। इनमें से किसी एक की अनुपस्थिति जीवन की अपूर्णता, असंतुलन और अराजकता का कारण बनती है। सूत्र के दूसरे पहलू के खो जाने से सामान्य संसार की त्रासदी जन्मी है। दूसरा पहलू पा लेने पर यह त्रासद दिखने वाला जगत आश्चर्यजनक रूप से उत्सव बन जाता है।

धर्म और समाज में तालमेल जरूरी

विमल कुमार सिंह

पूर्ण मानव समाज, चाहे वह विश्व के किसी भी कोने में रहता हो, किसी न किसी धार्मिक विश्वास या मान्यता से अवश्य जुड़ा रहा है। यद्यपि कुछ लोग ऐसे भी रहे हैं जो धार्मिक विश्वास के सभी रूपों को नकारने में लगे रहे, परंतु इतिहास के पन्ने पलटने पर हमें ज्ञात होता है कि ऐसे लोग कभी भी एक संगठित जनसमुदाय के रूप में लंबे समय तक अपना अस्तित्व बना कर नहीं रख सके।अपने सहस्रों वर्ष के लंबे कालक्रम में भारतभूमि ने धार्मिक कर्मकांडों एवं परंपराओं की एक लंबी शृंखला देखी है। यहां के लोगों को वैदिक दर्षन के साथ-साथ समय-समय पर विभिन्न पंथों और संप्रदायों का भी मार्गदर्शन मिलता रहा है। मूल भावना में एकरूपता होने के बावजूद भारत में धर्म के बाह्य स्वरूप को लेकर कभी भी ठहराव की स्थिति नहीं रही। विभिन्न पंथों एवं संप्रदायों ने अपने धार्मिक विष्वास को प्रकट करने के विविध रूप अपनाए। उन्होंने तत्कालीन समाज की आवश्यकताओं को देखते हुए धार्मिक कर्मकांडों एवं मान्यताओं की स्थापना की। समाज में बदलाव के साथ ही धार्मिक कर्मकांड एवं मान्यताओं का रूप भी बदलता रहा। स्वस्थ समाज संचालन के लिए आवश्यक नियमों को धार्मिक मान्यताओं एवं कर्मकांडों का रूप देने और समय-समय पर उनमें आवष्यकतानुसार परिवर्तन करने की अद्भुत क्षमता के कारण ही भारत की संस्कृति जीवित और गतिशील बनी रही।

तथापि, भारत की यह अद्भुत क्षमता हजार वर्षों की गुलामी, विशेष रूप से पिछले दो सौ वर्षो से पाश्चात्य संस्कृति के निरंतर बढ़ रहे दुष्प्रभावों के कारण षिथिल पड़ गई है। वर्तमान सामाजिक परिवेश से तालमेल न होने के कारण अधिकतर धार्मिक मान्यताएं एवं कर्मकांड रुढियों का रूप लेते जा रहे हैं। उदाहरण-स्वरूप तुलसी के विलक्षण औषधीय गुणों के कारण हमारे मनीषियों ने उसे पूजनीय बताया। आज प्राय: देखने में आता है कि घरों में तुलसी की पूजा तो होती है, परंतु उसके औषधीय गुणों से लाभ उठाने की इच्छाशक्ति का अभाव है। इसी प्रकार गाय की पूजा आज भी होती है, परंतु गोधन की वर्तमान दुर्दशा को लेकर लोगों में कोई विशेष चिंता नहीं है। हम यदि ध्यान से अपने चारों ओर देखें तो ऐसे कई उदाहरण दिख जाएंगे, जहां धार्मिक श्र)ा सामाजिक सरोकारों से दूर होकर धार्मिक अंधविश्वास और रूढ़ि का रूप धारण कर चुकी है।

समाज की वर्तमान स्थिति और धार्मिक मान्यताओं के बीच तालमेल की कमी निश्चय ही हमारी संस्कृति के लिए चिंता का विषय है। हमें अपनी धार्मिक मान्यताओं एवं परंपराओं के मूल में झांकना होगा। प्रतीकों के माध्यम से कही गई बातों के निहितार्थ समझने होंगे। धर्म अपने आप में सनातन है। उसका मूल तत्व आज भी वही है, जो हजारों वर्ष पहले था, इसलिए वह कभी अप्रासंगिक नहीं होता। परंतु धर्म के बाह्य स्वरूप – कर्मकांड, परंपराएं एवं उनसे जुड़ी मान्यताएं शाश्वत नहीं होतीं। आज आवष्यकता इस बात की है कि हम इनकी युगानुकूल व्याख्या करें और धार्मिक श्रद्धा को समाजोपयोगी दिशा प्रदान करें। समाज के एक प्रबुद्ध वर्ग ने इस चुनौती को समय रहते पहचान लिया है और उसने अपने स्तर पर इस दिशा में प्रयास भी प्रारंभ कर दिए हैं। हमारा कर्तव्य है कि हम ऐसे लोगों को प्रोत्साहित करें और इस दिशा में एक संगठित प्रयास के लिए अवश्यक वातावरण का निर्माण करें।