क्या आप इरोम शर्मीला को जानते हैं? नहीं, आप अरुंधती रॉय को जानते होंगे और हाँ आप ऐश्वर्या राय या मल्लिका शेहरावत को भी जानते होंगे, आज(2 नवंबर) शर्मीला के उपवास के १० साल पूरे हो गए उसके नाक में जबरन रबर का पाइप डालकर उसे खाना खिलाया जाता है, उसे जब नहीं तब गिरफ्तार करके जेल भेज दिया जाता हैं, वो जब जेल से छूटती है तो सीधे दिल्ली राजघाट गांधी जी की समाधि पर पहुँच जाती है और वहां फफक कर रो पड़ती है, कहते हैं कि वो गाँधी का पुनर्जन्म है, उसने १० सालों से अपनी माँ का चेहरा नहीं देखा, उसके घर का नाम चानू है जो मेरी छोटी बहन का भी है और ये भी इतफाक है कि दोनों के चेहरे मिलते हैं।
कहीं पढ़ा था कि अगर एक कमरे में लाश पड़ी हो तो आप बगल वाले कमरे में चुप कैसे बैठ सकते हैं? शर्मीला भी चुप कैसे रहती? नवम्बर २, २००० को गुरुवार की उस दोपहरी में सब बदल गया, जब उग्रवादियों द्वारा एक विस्फोट किये जाने की प्रतिक्रिया में असम राइफल्स के जवानो ने १० निर्दोष नागरिकों को बेरहमी से गोली मार दी, जिन लोगों को गोली मारी गयी वो अगले दिन एक शांति रैली निकालने की तैयारी में लगे थे। भारत का स्विट्जरलैंड कहे जाने वाले मणिपुर में मानवों और मानवाधिकारों की सशस्त्र बलों द्वारा सरेआम की जा रही हत्या को शर्मीला बर्दाश्त नहीं कर पायी, वो हथियार उठा सकती थी, मगर उसने सत्याग्रह करने का निश्चय कर लिया, ऐसा सत्याग्रह जिसका साहस आजाद भारत में गाँधी के बाद किसी हिन्दुस्तानी ने नहीं किया। शर्मिला उस बर्बर कानून के खिलाफ खड़ी हो गयी जिसकी आड़ में सेना को बिना वारंट के न सिर्फ किसी की गिरफ्तारी का बल्कि गोली मारने कभी अधिकार मिल जाता है, पोटा से भी कठोर इस कानून में सेना को किसी के घर में बिना इजाजत घुसकर तलाशी करने के एकाधिकार मिल जाते हैं, ये वो कानून है जिसकी आड़ में सेना के जवान न सिर्फ कश्मीर और मणिपुर में खुलेआम बलात्कार कर रहे हैं बल्कि हत्याएं भी कर रहे हैं। शर्मिला का कहना है कि जब तक भारत सरकार सशस्त्र सेना विशेषाधिकार कानून-१९५८ को नहीं हटा लेती, तब तक मेरी भूख हड़ताल जारी रहेगी।
आज शर्मीला का एकल सत्याग्रह संपूर्ण विश्व में मानवाधिकारों कि रक्षा के लिए किये जा रहे आंदोलनों की अगुवाई कर रहा है। अगर आप शर्मिला को नहीं जानते हैं तो इसकी वजह सिर्फ ये है कि आज भी देश में मानवाधिकार हनन के मुद्दे पर उठने वाली वही आवाज सुनी जाती है जो देश के खिलाफ जाने का भी साहस रखती हो और कोई भी आवाज सत्ता के गलियारों में कुचल दी जाती है, मीडिया पहले भी तमाशबीन था आज भी है। शर्मीला कवरपेज का हिस्सा नहीं बन सकती क्यूंकि उसने कोई बुकर पुरस्कार नहीं जीते हैं वो कोई माडल या अभिनेत्री नहीं है और न ही गाँधी का नाम ढो रहे किसी परिवार की बेटी या बहु है।
इरोम शर्मिला के कई परिचय हैं। वो इरोम नंदा और इरोम सखी देवी की प्यारी बेटी है, वो बहन विजयवंती और भाई सिंघजित की वो दुलारी बहन है जो कहती है कि मौत एक उत्सव है अगर वो दूसरो के काम आ सके, उसे योग के अलावा प्राकृतिक चिकित्सा का अदभुत ज्ञान है, वो एक कवि भी है जिसने सैकडों कवितायेँ लिखी हैं। लेकिन आम मणिपुरी के लिए वो इरोम शर्मीला न होकर मणिपुर की लौह महिला है वो महिला जिसने संवेदनहीन सत्ता की सत्ता को तो अस्वीकार किया ही, उस सत्ता के द्वारा लागू किये गए निष्ठुर कानूनों के खिलाफ इस सदी का सबसे कठोर आन्दोलन शुरू कर दिया। वो इरोम है जिसके पीछे उमड़ रही अपार भीड़ ने केंद्र सरकार के लिए नयी चुनौतियाँ पैदा कर दी हैं, जब दिसम्बर २००६ में इरोम के सत्याग्रह से चिंतित प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह ने बर्बर सशस्त्र सेना विशेषाधिकार कानून को और भी शिथिल करने की बात कही तो शर्मीला ने साफ़ तौर पर कहा की हम इस गंदे कानून को पूरी तरह से उठाने से कम कुछ भी स्वीकार करने वाले नहीं हैं। गौरतलब है इस कानून को लागू करने का एकाधिकार राज्यपाल के पास है जिसके तहत वो राज्य के किसी भी इलाके में या सम्पूर्ण राज्य को संवेदनशील घोषित करके वहां यह कानून लागू कर सकता है। शर्मीला कहती है ‘आप यकीं नहीं करेंगे हम आज भी गुलाम हैं, इस कानून से समूचे नॉर्थ ईस्ट में अघोषित आपातकाल या मार्शल ला की स्थिति बन गयी है, भला हम इसे कैसे स्वीकार कर लें?’
३५ साल की उम्र में भी बूढी दिख रही शर्मीला बी.बी.सी को दिए गए अपने इंटरव्यू में अपने प्रति इस कठोर निर्णय को स्वाभाविक बताते हुए कहती है ‘ये मेरे अकेले की लड़ाई नहीं है मेरा सत्याग्रह शान्ति, प्रेम, और सत्य की स्थापना हेतु समूचे मणिपुर की जनता के लिए है।‘’ चिकित्सक कहते हैं इतने लम्बे समय से अनशन करने, और नली के द्वारा जबरन भोजन दिए जाने से इरोम की हडियाँ कमजोर पड़ गयी हैं, वे अन्दर से बेहद बीमार है। लेकिन इरोम अपने स्वास्थ्य को लेकर थोडी सी भी चिंतित नहीं दिखती, वो किसी महान साध्वी की तरह कहती है ‘मैं मानती हूँ आत्मा अमर है, मेरा अनशन कोई खुद को दी जाने वाली सजा नहीं, यंत्रणा नहीं है, ये मेरी मानवीय मूल्यों की स्थापना के लिए किये जाने वाली पूजा है। शर्मिला ने पिछले ८ वर्षों से अपनी माँ का चेहरा नहीं देखा वो कहती है ‘मैंने माँ से वादा लिया है की जब तक मैं अपने लक्ष्यों को पूरा न कर लूँ तुम मुझसे मिलने मत आना।’लेकिन जब शर्मीला की ७५ साल की माँ से बेटी से न मिल पाने के दर्द के बारे में पूछा जाता है उनकी आँखें छलक पड़ती हैं, रुंधे गले से सखी देवी कहती हैं ‘मैंने आखिरी बार उसे तब देखा था जब वो भूख हड़ताल पर बैठने जा रही थी, मैंने उसे आशीर्वाद दिया था, मैं नहीं चाहती कि मुझसे मिलने के बाद वो कमजोर पड़ जाये और मानवता की स्थापना के लिए किया जा रहा उसका अदभुत युद्ध पूरा न हो पाए, यही वजह है कि मैं उससे मिलने कभी नहीं जाती, हम उसे जीतता देखना चाहते है।‘
इस बात में कोई न राय नहीं है कि जम्मू कश्मीर, पूर्वोत्तर राज्य और अब शेष भारत आतंकवाद, नक्सलवाद और पृथकतावाद की गंभीर परिस्थितियों से जूझ रहे हैं। मगर साथ में सच ये भी है कि हर जगह राष्ट्र विरोधी ताकतों के उन्मूलन के नाम पर मानवाधिकारों की हत्या का खेल खुलेआम खेला जा रहा है, ये हकीकत है कि परदे के पीछे मानवाधिकार आहत और खून से लथपथ है, सत्ता भूल जाती है कि बंदूकों की नोक पर देशभक्त नहीं आतंकवादी पैदा किये जाते है। मणिपुर में भी यही हो रहा है, आजादी के बाद राजशाही के खात्मे की मुहिम के तहत देश का हिस्सा बने इस राज्य में आज भी रोजगार नहीं के बराबर हैं, शिक्षा का स्तर बेहद खराब है, लोग अपनी बुनियादी जरूरतों के लिए दिन रात जूझ रहे हैं, ऐसे में देश के किसी भी निर्धन और उपेक्षित क्षेत्र की तरह यहाँ भी पृथकतावादी आन्दोलन और उग्रवाद मजबूती से मौजूद हैं, लेकिन इसका मतलब ये बिलकुल नहीं है कि सरकार को आम आदमी के दमन का अधिकार मिल जाना चाहिए। जब मणिपुर की पूरी तरह से निर्वस्त्र महिलायें असम रायफल्स के मुख्यालय के सामने प्रदर्शन करते हुए कहती हैं की ‘भारतीय सैनिकों आओ और हमारा बलात्कार करो ‘तब उस वक़्त सिर्फ मणिपुर नहीं रोता, सिर्फ शर्मिला नहीं रोती, आजादी भी रोती है, देश की आत्मा भी रोती है और गाँधी भी रोते हुए ही नजर आते हैं। शर्मीला कहती है ‘मैं जानती हूँ मेरा काम बेहद मुश्किल है, मुझे अभी बहुत कुछ सहना है, लेकिन अगर मैं जीवित रही, खुशियों भरे दिन एक बार फिर आयेंगे। अपने कम्बल में खुद को तेजी से जकडे शर्मीला को देखकर लोकतंत्र की आँखें झुक जाती है।
भारत और अमेरिका के कूटनीति और राजनीतिक संबंध तो पूर्व प्रेसिडेंट बिल क्लिंटन के वक्त में ही एक नए दौर में पंहुच गए थे, जबकि शीत युद्ध की समाप्ति के पश्चात 1991 में भारत सोवियत समाजवादी कैंप से बाहर निकलकर फिर से अमेरिका से उसी गर्मजोशी के साथ हाथ मिला रहा था, जैसे कभी राष्ट्रपति जॉन एफ कनैडी के दौर में उसने अमेरिका से मिलाए थे। 1971 के बांग्ला देश युद्ध के पश्चात जो कटुता भारत-अमेरिकी संबधों में शुरू हुई थी, वह अमेरिका द्वारा कश्मीर के प्रश्न पर पाकिस्तान को अंध सर्मथन प्रदान करने के साथ बढती ही चली गई। परिणामस्वरूप भारत शनै: शनै: अमेरिका से बहुत दूर हटते हुए सोवियत सोशलिस्ट कैंप के अत्यंत निकट चला गया। 1990 में सोवियत संघ के पराभव के पश्चात सब जैसे कुछ बदलने लगा। भारत में मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था की लहर ताकतवर हो उठी। भारत लाइसेंस राज की जकड़न से बाहर आ गया और विदेशी पूंजी निवेश की अपार संभावनाओं ने उसे अमेरिका और पश्चिम के अत्यंत निकट ला दिया। जब 9/11 को न्यूयार्क वर्ल्ड ट्रेड सेंटर को जे़हादी अलका़यदा ने नेस्तोनाबूद कर दिया, तभी अमेरिका को जे़हाद के हाथों 1988 से जख़्म झेलते आए भारत के दुख दर्द का ऐहसास हुआ और उसने कश्मीर के प्रश्न पर पाकिस्तान के अंध सर्मथन से गुरेज़ प्रारम्भ किया। अमेरिका ने इस बात के अहम इक़दामात भी किए कि अमेरिकी सैन्य और आर्थिक सहायता का इस्तेमाल भारत में जेहादी आतंकवाद के विस्तार के लिए न हो सके। इंटरनेशनल जे़हाद जैसे ताकतवर विध्वसंक साझा शत्रु के बरखिलाफ़ अमेरिका और भारत अब एक दूसरे के बहुत निकट आ चुके हैं और इस कूटनीतिक दोस्ती के उत्तरोतर मजबूत होते चले जाने की बेहद जरूरत भी है। इस दोस्ती में अगर कोई खलल है तो वह है पाकिस्तान, जिसका दामन किसी हाल में अमेरिका छोड़ नहीं सकता, क्योंकि अफ़गान जे़हादी युद्ध में पाकिस्तान अमेरिका का विश्वस्त रणनीतिक सहयोगी बना है। ओबामा की भारत यात्रा इसलिए भी बेहद महत्वपूर्ण है, क्योंकि इसमें भारत- अमेरिकी आर्थिक सहयोग को बढाने के अतिरिक्त जे़हाद से संयुक्त मुकाबले के प्रश्न पर भी गहन चर्चा होगी। ओबामा ने बाकायदा विश्व रंगमंच पर स्वीकार किया है कि एक उभरती हुई आर्थिक ताकत भारत यकी़नन विश्व अर्थव्यवस्था में अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह कर सकता है। वह प्रथम अमेरिकी प्रेसिडेंट हैं, जिन्होने राष्ट्र के रूप में भारत को शानदार हैसियत को कूटनीतिक स्वीकृति प्रदान की है।
बराक़ आबोमा जब अमेरिका के प्रेसिडेंट निवार्चित हुए तो उनके चुनाव ने अमेरिका और समूचे विश्व में एक नई आशा और विश्वास का संचार किया। जिस वक्त आबोमा ने अमेरिकन प्रेसिडेंट का पद संभाला था, उस वक्त इराक़ युद्ध और अफ़गानिस्तान युद्ध के साथ ही अमेरिका गहन आर्थिक मंदी की चपेट में आकर बेहद संकटग्रस्त था। आबोमा की जबरदस्त शख्सियत और उनकी थंडरिंग तकरीरों ने जटिल समस्याओं से जूझने और निपटने के लिए अमेरिका को एक नई प्रेरणा और उर्जा प्रदान की। बर्बादी के क़गार तक जा पंहुचे अमेरिकी ऑटो उद्योग को ओबामा ने मंदी से उबार लिया। ओबामा ने तेल को बचाने के लिए कुछ महत्वपूर्ण फैसले लिए। अपने चुनाव के दौरान अमेरिकी जनमानस से किए गए जोरदार वायदों को निभाने की दिशा में ओबामा ने स्वास्थ्य सेवाओं के सुधार के लिए कुछ कडे़ कदम उठाए। ओबामा ने स्वास्थ्य योजनाओं में जेनेरिक दवाओं के उपयोग बढाने और दवा कंपनियों से सस्ती जेनरिक दवाओं की आपूर्ति पर बहुत जोर दिया। आबोमा की स्वास्थ्य सुधार योजना ने बडी़ अमेरिकी दवा कंपनियों के कैंप्स से हडकंप मचा दिया।
अमेरिकी की भयावह आर्थिक मंदी से निपटने के लिए ओबामा ने बेहद कारगर समाजवादी फार्मूले अजामाए और दिवालिया बैंकों एवं फाइनेंशियल इंस्टीट्यूशन को दोबारा उठ खडा़ होने के लिए विशाल धन राशि के शासकीय कोष से पैकज के तौर पर प्रदान की। ओबामा के इन तमाम आर्थिक फैसलों का दक्षिणपंथी रिपब्लिकन पार्टी के कैंप के अलावा अमेरिकी के आम लोगों ने जोरदार खैर मक़दम किया। अमेरिका की शिक्षा व्यवस्था को गुणात्मक तौर पर सुधारने की खातिर समाजवादी अंदाज में ध्यान दिया, जिसके लिए जबरदस्त समर्थन अमेरिकी जनमानस ने ओबामा को प्रदान किया।
संयुक्त राष्ट्र की जनरल ऐसम्बली को प्रथम बार संबोधित करते हुए आबोमा ने महत्पूर्ण कूटनीतिक कामयाबी हासिल की। ओबामा ने ईरान को प्रदान किए जाने वाले भारी भरकम पैकैज पर दोबारा से विचार करने के लिए रशिया को मना लिया। रशिया और चाइना को परमाणु अस्त्रों में कटौती करने के लिए भी राजी कर लिया। स्वयं का महात्मा गॉंधी का अनुयायी घोषित करते हुए संपूर्ण विश्व को परमाणु हथियारों से पूर्णत: मुक्त कराने की दिशा में आगे बढने का संकल्प दोहराया।
प्रेसिडेंट आबोमा ने दुनिया के सामने एक सभ्य, सुसस्ंकृत और सौहार्दपूर्ण अमेरिका की तस्वीर पेश करने का समुचित प्रयास किया। अपने पूववर्ती अमेरिकी प्रसिडेंट्स के एकदम विपरीत ओबामा ने अमेरिकी अंहकार का परित्याग करते हुए बेहद विनम्रतापूर्ण लहजा अपनाया। बेहद जटिल फिलीस्तीन समस्या पर इजराइल को अंध समर्थन देना बंद करते हुए ओबामा ने सार्वजनिक तौर पर इजराइल को समस्या का शांतिपूर्ण समाधान निकालने का निर्देश देकर, एक नई अमेरिकी नीति पेश की।
प्रेसिडेंट ओबामा के समक्ष सबसे बडी़ चुनौती रही है, अलकायदा के विश्वव्यापी जे़हाद से निपटना। ओबामा ने इराक के दीर्घ युद्ध के बेहद दुखद अनुभव को दृष्टिगत रखते हुए, उससे यथाशीघ्र बाहर निकलना ही श्रेयस्कर समझा। अपनी समस्त ताक़त को अफगानिस्तान में केंद्रित करने का समुचित प्रयास किया। इसके लिए अफ़गानिस्तान में अमेरिकी सैनिकों की सख्ंया में पचास हजार की बढोत्तरी अंजाम दी। भारत ने भी युद्ध में ध्वस्त अफ़गानिस्तान को पुर्ननिर्माण के लिए एक हजार करोड़ की धनराशि प्रदान की। अलका़यदा जे़हादियों की अफ़गा़निस्तान में निर्णायक पराजय में ही भारत और अमेरिका की सुरक्षा निहित है। भारत एक विश्वस्त दोस्त के तौर पर राष्ट्रपति ओबामा से यह उम्मीद करता रहा है कि वह अपनी कूटनीतिक ताकत का सकारात्मक इस्तेमाल करके पाकिस्तानी हुकूमत को विवश करे कि वह भारत के विरूद्ध आईएसआई की आतंकवादी कारगुजारियों पर कारगर रोक लगाएं। कश्मीर में यदि निरंतर भारतीय रक्त बहता रहेगा तो यही समझ आएगा कि इस कश्मीर प्रश्न पर अमेरिकी कूटनीतिक आश्वासन एक छलावा मात्र हैं और भारत- अमेरिकी सबंध उन ऊंचाइयों को कदाचित नहीं छू नहीं सकेगें, जिनकी उम्मीद की जा रही है। सोवियत रूस और भारत के संबंध इसीलिए अत्यंत प्रगाढ़ता के साथ बढे, क्योंकि कश्मीर के प्रश्न पर सोवियत रशिया ने खुलकर भारत की हिमायत की थी। कश्मीर का सवाल भारत के लिए जीवन मरण का प्रश्न रहा है और बना रहेगा। अमेरिकी राष्ट्रपति के दिलो दिमाग में यदि आतंकवादी जे़हाद को समूल नष्ट करने का संकल्प विद्यमान है तो उन्हे दुनिया के सबसे विशाल प्रजातांत्रिक देश भारत की भावनाओं को समझना ही होगा कि पाकिस्तान किसी तरह उसका भरासेमंद साथी सिद्ध नहीं हो सकता, क्योंकि वहॉं के हुक्मरान वहॉं की शासन व्यवस्था आज भी बाकायदा बर्बर सामंती आचरण की रहनुमा है। अमेरिकी राष्ट्रपति को अफ़गानिस्तान युद्ध की विभिषिका से निकलना है तो उनका मार्ग भारत ही प्रशस्त कर सकता है, पाकिस्तान तो कदाचित नहीं। आइए इस उम्मीद के साथ बराक़ आबोमा का इस्तक़बाल करें कि इंडियन कॉन्टिनेंट में वह अपने पूववर्ती प्रेसिडेंट्स द्वारा अंजाम दी गई ऐतिहासिक गलतियों का दुरूस्त करने का समुचित प्रयास करेगें।
प्रवक्ता डॉट कॉम के इस बहस पर पहले तो अपना विचार यही था कि अब खुद से कुछ न लिखूं. इस साईट ने ऐसे ईमानदार एवं निष्ठित विद्वानों का लोक संग्रह किया है जो हर चुनौतियों का डट कर मुकाबला कर सकते हैं. अगर अनुचित लगे तो साईट के संपादक को भी खरी-खोटी सुनाने से बाज़ नहीं आते. वही लोग जबाब दे ही रहे हैं तो क्यू जिस बात के विरोध में यह बहस शुरू हुई है वही काम यानी एक ही मुद्दे पर दर्ज़नों लेख क्यू पेला जाय. लेकिन रहा नहीं गया. अब मैं भी इधर-उधर की बातें न करके पहले सिर्फ लेखकीय अभिमान के फिनोमिना के बारे में कहना चाहता हूँ. उस घमंड के बारे में जिसके बारे में किसी विचारक ने कहा है कि अगर ‘आपको किसी बात का घमंड हो तो ‘ज्ञान’ उस घमंड को दूर कर सकता है. लेकिन उसका क्या किया जाय जब आपको ज्ञान का ही घमंड हो जाय.’ वह घमंड जो पंडित जी और उनके जैसे लेखकों और विद्वानों में घुस आया है. यह साम्यवादी-फासीवादी संस्कृति का बुज़ुर्ग बकवास फिनोमिना है. यह रेलमपेल संस्कृति है. इसमें भी सब कुछ असारवान ही है.
मेरी समस्या चतुर्वेदी जी नहीं हैं. वह घमंड है जिसकी वे अभिव्यक्ति कर रहे हैं. वह मानसिकता है जो यह कह रहा है कि ‘खाता न बही, जो पंडित जी कहें वही सही.’ यह बुजुर्गों की इज्जत को मिट्टी में मिलाने वाला घमंड है. यह घमंड इस बात की द्योतक है कि वामपंथी पीढ़ी के लोग यह मानते हैं कि ज्ञान का ठेका अकेले उन्ही के पास है. नयी पीढ़ी, नए लोग, नए विचार, नया मीडिया कूड़ा से ज्यादा कुछ नहीं. यह इस बात का भी संकेत है कि देश में ऐसे लोगों का समूह पैदा हो गया है जो अपने आगे और कुछ देखना ही नहीं चाहता है.
विचार-विमर्श के समूचे अवसर को हड़प लेने की रेलमपेल संस्कृति की अनुमति किसी को नहीं दी जा सकती. इस संस्कृति की विशेषता है कि यह घाव को धोना नहीं चाहता, उसे नासूर बना कर रखना चाहता है. यह इस बात का प्रतीक है कि अभी हमारे बुजुर्गों का एक हिस्सा वेबसंस्कृति के लायक सक्षम नहीं बन पाया है. यह हीन ग्रंथि से भरी वह संस्कृति है जो यह कहता है कि जो भी अपना है वह बकवास है. और जो भी कूड़ा मुझे विदेशों से प्राप्त हुआ वह पूज्यनीय. ये लोग अपने स्वाभिमान की संस्कृति और घमंड की संस्कृति में अंतर करना नहीं जानते. हम इसे दयनीयता कहते हैं.
कायदे से पंडित जी का लेख न छपता तो बेहतर था. फिर भी यह टिप्पणीकारों की उदारता है कि उसने पंडित जी का लेख छापने पर कभी आपत्ति नहीं की. आपत्ति केवल इस बात की थी कि संपादक, अवसर की समानता का ख्याल रखें. वो चतुर्वेदी जी से इस बात का आग्रह करें कि जो भी कहना हो ‘गागर में सागर की तरह’ कम लेखों में ही संक्षिप्त रूप से कह दिया करें. प्रासंगिक मुद्दों का चयन करें. नयी मीडिया के लिए लेखन और किताबों के लेखन में यह फर्क है कि जहां आपकी किताब किसी भी मुद्दे पर हो सकता है, लेकिन इस माध्यम में आपको विषय का चयन प्रासंगिक तरह से रखना पड़ता है. लेख और इस पर आई टिप्पणियों पर ध्यान देकर बांकी लोगों की बात भी सुनते रहना पड़ता है. लेकिन पंडित जी ने जिस धृष्टता और जिद्द के साथ लिखा है उससे मेरी यह धारणा पुष्ट हुई है कि वामपंथियों को अभी दूसरों को भी बोलने देने, उनके विचारों के प्रति भी सहिष्णु होना सीखने की ज़रूरत है. सही अर्थों में उन्हें मानवीय संचार के व्यवहारिक पक्ष को सीखने की सख्त जरूरत है.
मुझे समझ नहीं आता कि इतना विद्वान होने के बाद भी पंडित जी ने चीज़ों को अपने अनुकूल तोडना-मरोडना ही सीखा. चीज़ों को मेनुपुलेट करने के कुछ नमूने उनके लेख से देखें- उन्होंने मेरे लेख का उद्धरण ‘‘किसी व्यक्ति की तारीफ़ या निंदा में किये गए लेखन सामान्यतः निकृष्ट श्रेणी का लेखन माना जाता है. लेकिन 2 दिन में ही अगर यह लेखक दुबारा ऐसा निकृष्ट काम करने को मजबूर हुआ है तो इसके निहितार्थ हैं.’’ देते हुए मुझ पर आरोप लगाया है कि मैंने उनके लेखन को निकृष्ट श्रेणी का कहा है. जबकि सचाई यह है कि यह बात मैंने दुबारा आ. चतुर्वेदी जी पर कलम चलाते हुए खुद के बारे में कही है.
मैं और इस विषय पर टिप्पणी करने वालों ने उचित ही अनुमान लगाया है कि चतुर्वेदी जी ने प्रवक्ता के संसाधनों और मंच का दुरूपयोग किया है और अभी भी कर रहे हैं. बस मेरा यही निवेदन है कि चतुर्वेदी साहब ज़रूर संपन्न व्यक्ति हैं. व्याख्याता होने के कारण अच्छा-ख़ासा वेतन-भत्ता प्राप्त कर रहे हैं लेकिन संजीव जी और उनके मित्रों के प्रयासों से चल रहे प्रवक्ता डॉट कॉम का स्पेस अनर्गल बातों के लिए घेरकर वे क्या अच्छा काम नहीं कर रहे. क्या चतुर्वेदी जी को यह गलतफहमी हो गयी है कि मेरे नेट का या संजीव जी के नेट का खर्चा उनके पीएफ एकाउंट से आता है? वेबसाइट पर खर्चा आता है और इसका सभ्यता विमर्श, पाठकों की चेतना बढ़ाने, उन्हें समाज के प्रति और भी जागरूक बनाने लिए इस्तेमाल होना चाहिए न कि केवल एक वामपंथी विद्वान को उनके भड़ास के लिए. प्रवक्ता फोकट की कमाई से नहीं चलता. संजीव जी वगैरह किस तरह कष्ट करके उसके लिए संसाधन जुटाते हैं हम समझते हैं. मैं पंडित जी कि इस बात से सहमत हूँ और उम्मीद है आगे से चतुर्वेदी साहब इसका ध्यान रखेंगे कि वेब पत्रिका कचरे का डिब्बा नहीं है कि उसमें कुछ भी फेंक दिया जाए.
पंडित जी से इस बहस श्रृंखला की अंतिम बात. अपने ज्ञान के घमंड में वे हर उस चीज़ को सही साबित करना चाहते हैं जो उनका मत है और उनसे विपरीत विचार रखने वाले लोग, चाहे वो किसी भी आयु वर्ग के हों उनके भर्त्सना का पात्र. इसी का परिचय अभी उन्होंने आ. मधुसूदन जी को दी चुनौती में दिया है. मधुसूदन जी के या सभी ‘अविवेकी’ टिप्पणीकारों के बारे में ये कितना जानते होंगे पता नहीं लेकिन झट से सभी को उन्होंने ‘विश्व साहित्य’ थम्हा दिया. गोया विश्व साहित्य केवल इनकी व्यक्तिगत थाती है. व्याख्याता होने के कारण निश्चय ही वे अपने यहाँ लोगों के आदर का पात्र होंगे. लेकिन अगर आदर थोडा बड़ों को और स्नेह छोटों को देना सीखेंगे भी तो अच्छा रहेगा. इन्होने वैसे भी मुझे असभ्य, उज़ड्ड, अविवेकी और सभ्य भाषा में कोई ऐसे नकारात्मक शब्द नहीं बचा है जिससे संबोधित न किया हो. तो उन्हें यह बालक यह कहने में कोई संकोच नहीं कर रहा है कि सीखने की कोई उमर नहीं होती, इन्हें भी अभी काफी कुछ सीखने की ज़रूरत है. खैर.
तो जगदीश्वर जी को आदर पाने के साथ योग्य को देना भी सीखने के साथ-साथ Communication Reaserch के कुछ आधारभूत सिद्धांत भी सीखने की ज़रूरत है. वे चाहेंगे तो इस विषय पर दूसरों के लिखे कुछ पुस्तकों की सूची इन्हें आपको मेल कर दूंगा. यह धृष्टता इनके 29 पुस्तकों का ‘विज्ञापन’ जिसमें मीडिया पर भी कई पुस्तकें हैं, देखने के बाद भी करने की हिमाकत कर रहा हूँ. शायद ये जानते होंगे कि संचार विज्ञान में ‘शोध’ एक बड़ा तत्व है. जिनमे Participetry Observation Method के बारे में इन्होंने सुना होगा अगर नहीं तो ज़रूर पढ़ें. उसमें आपको किसी विषय की जानकारी लेने या निष्कर्ष निकालने के लिए सहभागी हो कर चीज़ों को समझना होता है. जैसा आप प्रवक्ता के विचार-विनिमय की इस प्रक्रिया में सहभागी थे. तो अब समय यह है इस बहस के आलोक में कुछ ठोस निष्कर्ष तक पहुचा जाय. सही कौन और गलत कौन इसका कोई मानदंड तय कर सीधे तौर पर जीत या हार तय किया जाय. अगर आप सही हो तो ठीक और अगर गलत हों तो अपने अंदर सुधार का उपाय करें. सरेआम अफ़सोस ज़ाहिर कर अपना कद बड़ा करें.
इसके आलावा संचार का ‘शोध शास्त्र’ विषय को समझने के लिए एक Sampling Method का इस्तेमाल करता है. शायद आपने किसी किताब में इसका जिक्र किया हो. इस Method से, कुछ नमूने का चयन कर आप निष्कर्ष तक पहुच सकते हैं. Sampling के तरीके में सबसे चर्चित है Purposive Sampling Method. इस प्रणाली के तहत Random तरीके से Sample का चयन कर उससे प्राप्त निष्कर्षों का सांख्यिकीय विश्लेषण कर नतीजों तक पहुचते हैं. खास कर चुनावी शोध के लिए इस तरीके का काफी उपयोग किया जाता है.
आशय यह कि अगर आपके दिमाग में अपनी विद्वता थोपने के बदले वास्तव में जन-मानस को समझने की जिज्ञासा हो, सही अर्थों में आप अध्येता हों, अपने विचारों के बंद गली के आखिरी मकान से आगे ले जाना भी चाहते हों तो इस बहस पर आयी तमाम प्रतिक्रियाओं को मद्देनज़र रख यह सोचें कि आप कहाँ गलत थे. आप अगर थोडा अपने अभिमान को अलग रख कर सोचेंगे तो पता चलेगा कि ये टिप्पणीकारगण किसी भी तरह से आपके द्वारा दिए गए नकारात्मक विशेषण के अधिकारी नहीं हैं. सब अपने-अपने क्षेत्र में महारत हासिल रखने वाले लोग हैं. और अगर मैं गलत नहीं हूँ तो मधुसूदन जी तो शायद खुद ही विदेश के किसी प्रसिद्ध विश्वविद्यालय में अभियान्त्रिकी के व्याख्याता हैं.
तो अनायास शुरू हुए इस बहस ने खुद को एक ऐसे मोड पर ला कर खड़ा किया है जो निष्कर्ष की मांग करता है. अगर शोध के प्रचलित तरीके से देखें तो चतुर्वेदी जी को अपनी हैसीयत का अंदाजा हो गया होगा. हां यह बात ज़रूर है जैसा कि पहले से अनुमान था या जैसे पहले भी इन जैसे लोग करते रहे हैं अगर जनमत आपके पक्ष में नहीं हो तो तुरत उसको बेवकूफ, असभ्य, गवार साबित करना शुरू कर देते हैं, जैसा कि इन्होंने यहाँ भी किया है. इससे भी बात न बने तो बहस में सीधे चार विदेशी लेखक का जिक्र कर दो और ‘किला फतह.’ तो अगर किट्स, बायरन, वर्डस्वर्थ, शेक्सपीयर या लुकास-नीत्से ने अपना सारा कापीराइट इन्हें ही दे रखा हो तो आपको मुबारक. लेकिन अपना सवाल बार-बार यही है कि सारे ज्ञान का ठेका इन्हें किसने दे दिया है? क्यू इनके लिए एक अलग तराजू हो जिसके बाट इनका मूल्यांकन करते हुए खत्म जाए. वे ही बताये कि इस बहस में हार-जीत के फैसले को किस तराजू पर रख कर तौलना चाहते हैं?
पंडित जी, उद्वेग में कई बार लोग कुछ ऐसा लिख जाते हैं जिस पर बाद में उसे अफ़सोस होता है. जैसे मैंने ‘हस्तमैथुन’ को वैचारिकता का विशेषण बना कर किया. वास्तव में उसके बदले वैचारिक आलाप, प्रलाप या ऐसे अन्य शब्द मैं इस्तेमाल कर सकता था. बाकी मस्तराम के उद्धरण के बिना आपकी बौद्धिक अश्लीलता सामने नहीं आ पाती. जैसा कि मैंने अफ़सोस जाहिर किया वैसे ही अगर अपने लिखे पर करके पंडित जी भी अपने बड़प्पन का परिचय देते तो बेहतर होता. ‘लेखक को अगर क़ानून की तराजू में तौलेंगे तो बाटे क़म पड़ जायेंगे.’ इससे बड़ा अश्लील शब्द, इससे बड़ा फासीवाद, अराजकतावाद और क्या हो सकता है कि लेखक अपने लिए एक ऐसे समाज की मांग करता है जहां क़ानून का तराजू न हो? लेकिन अफ़सोस यह कि ये स्वतंत्रता भी वह सबको देना नहीं चाहता. यह आजादी भी केवल जगदीश्वर या अरुंधती राय को चाहिए. पंकज का ‘कचड़ा’ तो प्रवक्ता से भी फेक दिया जाय.
आ. चतुर्वेदी जी, कभी भी मैंने प्रवक्ता से यह नहीं चाहा कि वह आपका लेख न छापें. बस अपना अनुरोध महज़ इतना था और है भी कि वह कोई सीमा निर्धारण करें. हर बार संपादक जी का यह कहना होता है कि रोज दर्ज़नों लेख उन्हें खारिज करना होता है. हो सकता है उन नए लोगों का लेखन आप जैसा विद्वता पूर्ण नहीं हो, लेकिन संपादक के पास समय हो तो उन नए विचारों को थोडा परिष्कृत कर छपने लायक बना सकते हैं. उसके अलावा अगर आपको यह पता चल जाय कि एक विषय पर एकाध लेख ही छप सकता है तो उसी आलेख में आप अपना अधिकतम देने के कोशिश करेगे. ज़ाहिर है आप संचारविद हैं तो पुस्तक और आलेख में फर्क ज़रूर समझते होंगे. जब आप ई मेल आलेख जैसा एक नया शब्द इजाद कर सकते हैं तो ज़रूर आप नेट के लिए लेखन की सीमा और मर्यादा भी जानते ही होंगे. इसके अलावा संचार का सामान्य सिद्धांत 5W1H Theory तो जानते ही होंगे कि आपको लेखन कौन, कहाँ, किस तरह, किसके लिए, कैसे आदि मर्यादा के अधीन भी रखना होता है.
आ. जगदीश्वर जी, अगर आप मर्यादित आचरण दूसरों से चाहते हैं तो पहले आपको खुद के लिए ऐसा लागू करना होगा. न केवल यह मर्यादा श्लीलता का अपितु शब्द का, विलोम विचारों के प्रति सहिष्णुता का, और अपनी अल्पज्ञता का भी रखना होगा. सुकरात ने कहा था ‘ Everyone Are Fool But I Am A Wise Man, Because I Know That I Am A Fool. धन्यवाद
इस्लामिक दर्शन और धर्म की परंपराओं के बारे में घृणा के माहौल को खत्म करने का सबसे आसान तरीका है मुसलमानों और इस्लाम धर्म के प्रति अलगाव को दूर किया जाए। मुसलमानों को दोस्त बनाया जाए। उनके साथ रोटी-बेटी के संबंध स्थापित किए जाएं। उन्हें अछूत न समझा जाए। भारत जैसे बहुसांस्कृतिक देश में धर्मनिरपेक्ष संस्कृति को निर्मित करने लिए जमीनी स्तर पर विभिन्न धर्मों और उनके मानने वालों के बीच में सांस्कृतिक-सामाजिक आदान-प्रदान पर जोर दिया जाए। अन्तर्धार्मिक समारोहों के आयोजन किए जाएं। मुसलमानों और हिन्दुओं में व्याप्त सामाजिक अलगाव को दूर करने के लिए आपसी मेलजोल, प्रेम-मुहब्बत पर जोर दिया जाए। इससे समाज का सांस्कृतिक खोखलापन दूर होगा, रूढ़िवाद टूटेगा और सामाजिक परायापन घटेगा।
भारत में करोड़ों मुसलमान रहते हैं लेकिन गैर मुस्लिम समुदाय के अधिकांश लोगों को यह नहीं मालूम कि मुसलमान कैसे रहते हैं, कैसे खाते हैं, उनकी क्या मान्यताएं, रीति-रिवाज हैं। अधिकांश लोगों को मुसलमानों के बारे में सिर्फ इतना मालूम है कि दूसरे वे धर्म के मानने वाले हैं। उन्हें जानने से हमें क्या लाभ है। इस मानसिकता ने हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच के सामाजिक अंतराल को बढ़ाया है। इस अंतराल ने संशय, घृणा और बेगानेपन को पुख्ता किया है।
मुसलमानों के बारे में एक मिथ है कि उनका खान-पान और हमारा खान-पान अलग है, उनका धर्म और हमारा धर्म अलग है। वे मांस खाते हैं, गौ मांस खाते हैं। इसलिए वे हमारे दोस्त नहीं हो सकते। मजेदार बात यह है कि ये सारी दिमागी गड़बड़ियां कारपोरेट संस्कृति उद्योग के प्रचार के गर्भ से पैदा हुई हैं।
सच यह है कि मांस अनेक हिन्दू भी खाते हैं, गाय का मांस सारा यूरोप खाता है। मैकडोनाल्ड और ऐसी दूसरी विश्वव्यापी खाद्य कंपनियां हमारे शहरों में वे ही लोग लेकर आए हैं जो यहां पर बड़े पैमाने पर मुसलमानों से मेलजोल का विरोध करते हैं। मीडिया के प्रचार की खूबी है कि उसने मैकडोनाल्ड का मांस बेचना, उसकी दुकान में मांस खाना, यहां तक कि गौमांस खाना तो पवित्र बना दिया है, लेकिन मुसलमान यदि ऐसा करता है तो वह पापी है, शैतान है, हिन्दू धर्म विरोधी है।
आश्चर्य की बात है जिन्हें पराएपन के कारण मुसलमानों से परहेज है उन्हें पराए देश की बनी वस्तुओं, खाद्य पदार्थों, पश्चिमी रहन-सहन, वेशभूषा, जीवनशैली आदि से कोई परहेज नहीं है। यानी जो मुसलमानों के खिलाफ ज़हर फैलाते हैं वे पश्चिमी सभ्यता और संस्कृति के अंधभक्तों की तरह प्रचार करते रहते हैं। उस समय उन्हें अपना देश, अपनी संस्कृति, देशी दुकानदार, देशी माल, देशी खानपान आदि कुछ भी नजर नहीं आता। अनेक अवसरों पर यह भी देखा गया है कि मुसलमानों के प्रति घृणा फैलाने वाले पढ़े लिखे लोग ऐसी बेतुकी बातें करते हैं जिन्हें सुनकर आश्चर्य होता है। वे कहते हैं मुसलमान कट्टर होता है। रूढ़िवादी होता है। भारत की परंपरा और संस्कृति में मुसलमान कभी घुलमिल नहीं पाए, वे विदेशी हैं।
मुसलमानों में कट्टरपंथी लोग यह प्रचार करते हैं कि मुसलमान तो भारत के विजेता रहे हैं।वे मुहम्मद बिन कासिम, मुहम्मद गोरी और महमूद गजनवी की संतान हैं। उनकी संस्कृति का स्रोत ईरान और अरब में है। उसका भारत की संस्कृति और सभ्यता के विकास से कोई लेना-देना नहीं है। लेकिन सच यह नहीं है।
सच यह है कि 15वीं शताब्दी से लेकर आज तक भारत के सांस्कृतिक -राजनीतिक-आर्थिक निर्माण में मुसलमानों की सक्रिय भूमिका रही है। पन्द्रहवीं से लेकर 18वीं शताब्दी तक उत्तरभारत की प्रत्येक भाषा में मुसलमानों ने शानदार साहित्य रचा है। भारत में तुर्क, पठान अरब आदि जातीयताओं से आने शासकों को अपनी मातृभाषा की भारत में जरूरत ही नहीं पड़ी, वे भारत में जहां पर भी गए उन्होंने वहां की भाषा सीखी और स्थानीय संस्कृति को अपनाया। स्थानीय भाषा में साहित्य रचा। अपनी संस्कृति और सभ्यता को छोड़कर यहीं के होकर रह गए। लेकिन जो यहां के रहने वाले थे और जिन्होंने अपना धर्म बदल लिया था उनको अपनी भाषा बदलने की जरूरत महसूस नहीं हुई। जो बाहर से आए थे वे स्थानीय भाषा और संस्कृति का हिस्सा बनकर रह गए।
हिन्दी आलोचक रामविलास शर्मा ने लिखा है मुसलमानों के रचे साहित्य की एक विशेषता धार्मिक कट्टरता की आलोचना, हिन्दू धर्म के प्रति सहिष्णुता, हिन्दू देवताओं की महिमा का वर्णन है। दूसरी विशेषता यहाँ की लोक संस्कृति, उत्सवों-त्यौहारों आदि का वर्णन है। तीसरी विशेषता सूफी-मत का प्रभाव और वेदान्त से उनकी विचारधारा का सामीप्य है।
उल्लेखनीय है दिल्ली सल्तनत की भाषा फारसी थी लेकिन मुसलमान कवियों की भाषाएँ भारत की प्रादेशिक भाषाएँ थीं। अकबर से लेकर औरंगजेब तक कट्टरपंथी मुल्लाओं ने सूफियों का जमकर विरोध किया। औरंगजेब के जमाने में उनका यह प्रयास सफल रहा और साहित्य और जीवन से सूफी गायब होने लगे। फारसीयत का जोर बढ़ा।
भारत में ऐसी ताकतें हैं जो मुसलमानों को गुलाम बनाकर रखने, उन्हें दोयमदर्जे का नागरिक बनाकर रखने में हिन्दू धर्म का गौरव समझती हैं। ऐसे संगठन भी हैं जो मुसलमानों के प्रति अहर्निश घृणा फैलाते रहते हैं। इन संगठनों के सामाजिक-राजनीतिक प्रभाव का ही दुष्परिणाम है कि आज मुसलमान भारत में अपने को उपेक्षित, पराया और असुरक्षित महसूस करते हैं।
जिस तरह हिन्दुओं में मुसलमानों के प्रति घृणा पैदा करने वाले संगठन सक्रिय हैं वैसे ही मुसलमानों में हिन्दुओं के प्रति घृणा पैदा करने वाले संगठन भी सक्रिय हैं। ये एक ही किस्म की विचारधारा यानी साम्प्रदायिकता के दो रंग हैं।
हिन्दी के महाकवि सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला ने हिन्दू-मुस्लिम भेद को नष्ट करने के लिए जो रास्ता सुझाया है वह काबिलोगौर है। उन्होंने लिखा-‘‘ भारतवर्ष में जो सबसे बड़ी दुर्बलता है, वह शिक्षा की है। हिन्दुओं और मुसलमानों में विरोध के भाव दूर करने के लिए चाहिए कि दोनों को दोनों के उत्कर्ष का पूर्ण रीति से ज्ञान कराया जाय। परस्पर के सामाजिक व्यवहारों में दोनों शरीक हों, दोनों एक-दूसरे की सभ्यता को पढ़ें और सीखें। फिर जिस तरह भाषा में मुसलमानों के चिह्न रह गए हैं और उन्हें अपना कहते हुए अब किसी हिन्दू को संकोच नहीं होता, उसी तरह मुसलमानों को भी आगे चलकर एक ही ज्ञान से प्रसूत समझकर अपने ही शरीर का एक अंग कहते हुए हिन्दुओं को संकोच न होगा। इसके बिना, दृढ़ बंधुत्व के बिना, दोनों की गुलामी के पाश नहीं कट सकते, खासकर ऐसे समय, जबकि फूट डालना शासन का प्रधान सूत्र है।’’
भारत में मुसलमान विरोध का सामाजिक और वैचारिक आधार है जातिप्रथा, वर्णाश्रम व्यवस्था। इसी के गर्भ से खोखली भारतीयता का जन्म हुआ है जिसे अनेक हिन्दुत्ववादी संगठन प्रचारित करते रहते हैं। जातिप्रथा के बने रहने के कारण धार्मिक रूढ़ियां और धार्मिक विद्वेष भी बना हुआ है।
भारत में धार्मिक विद्वेष का आधार है सामाजिक रूढ़ियाँ। इसके कारण हिन्दू और मुसलमानों दोनों में ही सामाजिक रूढ़ियों को किसी न किसी शक्ल में बनाए रखने पर कट्टरपंथी लोग जोर दे रहे हैं। इसके कारण हिन्दू-मुस्लिम विद्वेष बढ़ा है। सामाजिक एकता और भाईचारा टूटा है। हिन्दू-मुसलमान एक हों इसके लिए जरूरी है धार्मिक-सामाजिक रूढ़ियों का दोनों ही समुदाय अपने स्तर पर यहां विरोध करें।
हिन्दू-मुस्लिम समस्या हमारी पराधीनता की समस्या है। अंग्रेजी शासन इसे हमें विरासत में दे गया है। इस प्रसंग में निराला ने बड़ी मार्के की बात कही है। निराला का मानना है हिन्दू मुसलमानों के हाथ का छुआ पानी पिएं, पहले यह प्राथमिक साधारण व्यवहार जारी करना चाहिए। इसके बाद एकीकरण के दूसरे प्रश्न हल होंगे।
निराला के शब्दों में हिन्दू-मुसलमानों में एकता पैदा करने के लिए इन समुदायों को ‘‘वर्तमान वैज्ञानिकों की तरह विचारों की ऊँची भूमि’’ पर ले जाने की जरूरत है। इससे ही वे सामाजिक और धार्मिक रूढ़ियों से मुक्त होंगे।
”मैं कितनी सुन्दर हूं”!! या यह भी कि, ”मैं कितना सैक्सी हूं!!!”
दुनिया की सबसे अधिक लोकप्रिय वैब साइट फ़ेसबुक के ५० करो.ड से अधिक सक्रिय दीवाने हैं!!
इस अद्वितीय घटना के कारण अब मनोवैज्ञानिक इस की लोकप्रियता के कारणों पर शोध भी करने लगे हैं। सोराया मेहदिनाज़ेद ने टोरान्टो के यार्क विश्वविद्यालय के १०० विद्यार्थियों के फ़ेसबुक कार्य कलापों का अध्ययन किया और अपने शोध के निष्कर्ष ’साइबर साइकलाजी, बिहेवियर एन्ड सोशल नैटवर्किंग’ में प्रकाशित किये जो शायद फ़ेसबुक पर क्रियाशील व्यक्तियों को पसंद न आएं।
उऩ्होंने उनके ’फ़ोटो’, ’वाल पोस्टिंग’, नई जानकारियों की प्रस्तुति दर, उनके लाग करने की दर तथा लाग-अवधि आदि का अध्ययन किया। उऩ्होंने आत्ममुग्धता तथा आत्मसम्मान के नापने के उचित मानदण्डों का उपयोग कर पाया कि उनमें से अधिकांश में आत्ममुग्धता की अधिकता है तथा आत्मसम्मान की कमी है, वरन उऩ्होंने अक्सर इन दोनों चारित्रिकों में एक संबन्ध भी पाया ! जो जितना अधिक आत्ममुग्ध तथा कितना कम आत्मसम्मान वाला है वह उतना ही अधिक समय फ़ेसबुक पर बिताता है। आत्ममुग्ध लोग अपने रूप आदि की अन्य विख्यातों (सैलिब्रिटीज़) से तुलना करते हैं और अपनी प्रशंसा करते नहीं अघाते हैं।
आपने गौर किया होगा कि कुछ लोग अपने विषय में ही बातें तथा प्रशंसा करते हैं, आप किसी विषय पर बात प्रारंभ करें, ये आत्ममुग्ध व्यक्ति तुरंत अपनी ही बात, विशेषकर प्रशंसा, जड़ने लग जाते हैं। इस तरह के लोग मुख्यतया दो प्रकार के होते हैं, एक तो श्रेष्ठता ग्रन्थि से पीड़ित तथा दूसरे हीनभावना से। श्रेष्ठता गरंथि से पीड़ित व्यक्ति अपनी प्रशंसा के साथ दूसरे की कमियां भी बतलाता रहता है। इन दोनों‚ प्रकार के व्यक्तियों में अहंकार कम या अधिक मात्रा में होता है। जिनमें हीन भावना होती है उनमें आत्म सम्मान भी कम होता है, जिसे वे हमेशा बढ़ा चढ़ाकर दिखाते रहते हैं।
कुछ मनोवैज्ञानिकों की मान्यता है कि आत्ममुग्ध व्यक्ति आत्म प्रशंसा के भूखे होते हैं, आत्मश्रेष्ठता से ग्रस्त होते हैं और उनमें सहानुभूति या सहवेदना की कमी होती है। अपनी इस हीनता से बचाव के लिये वे फ़ेसबुक पर ऐसा व्यवहार कर अपनी आत्मछवि संपुष्ट करते रहते हैं।
यद्यपि मेहदिनाज़ेद का शोध उपरोक्त मान्यता का समर्थन करता है, किनु इस विषय के मह्त्व को देखते हुए इस पर अधिक शोध की आवश्यकता है। वे कहती हैं कि आत्ममुग्ध लोगों में गहरे और दीर्घकालीन संबन्धों को बनाने की क्षमता कम होती है, अतएव वे फ़ेसबुक आदि के वर्चुअल मित्रों तथा सच्ची संवेदना शून्य संचार माध्यमों का उपयोग करते हैं।
यह भी संभव है कि इससे फ़ेसबुक के नियनित पाठकों में भी ऐसी प्रवृत्ति आ सकती है, आखिरकार हम स्वाभाविकतया अच्छी चीज़ों की नकल तो करते ही हैं। अब यह प्रश्न तो बनता ही है कि क्या कम आत्मसम्मान वाले व्यक्तियों के लिये फ़ेसबुक अपना आत्मसम्मान बढ़ाने के लिये एक उपयोगी साधन नहीं है? मेरी समझ में आत्मसम्मान तो कार्यों के निष्पादन में अपनी क्षमता तथा योग्यता पर निर्भर करता है, शेष तो नाटक अधिक है वास्तविकता कम।
जनसंचार शब्द से आज कोई अछूता नहीं है। खासकर जब 1780 में हिक्की ने भारत में जनसंचार के माध्यम समाचार पत्र की शुरुआत कर क्रांति का बीज जो डाला था, वह छोटा सा वृक्ष आज विशाल बरगद बन चुका है। संवाद को एक जगह से दूसरी जगह तक पहुंचाने के लिए जिन जनसंचार माध्यमों का प्रयोग किया गया था वह वैश्विक होते हुए वे विभिन्नताओं के आगोश में है। जनसंचार के किसी भी राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, ऐतिहासिक यों कहे कि किसी भी पहलू से अछूता नहीं हैं। हर सामाजिक पहलू में इसकी जड़ता संजिदा के साथ मौजूद है। इससे समाज का कोई वर्ग अछूता नहीं है। जन संचार के आधुनिक माध्यमों ने गरीब-अमीर के बीच सूचनाओं के आदान-प्रदान को सहज बना दिया है। सूचना पाने के माध्यम इतने सहज है कि दस रूपये की रेडियो से देश-विदेश की खबर पलकों में प्राप्त कर ली जाती है। सूचनाओं के आदान प्रदान में मोबाइल फोन/अंतरजालों ने सभी बाधाओं को लांघ दिया है।
सच है कि शुरूआती दौर में संचार को अंतिम कतार में खड़े व्यक्ति तक पहुंचाने वालों के पास कोई माध्यम, मीडिया को लेकर शैक्षिक व तकनीकी योग्यता नहीं रहा था। फिर भी शुरूआती दौर में जो काम हुआ एक मकसद के साथ। जन संचार के माध्यम मीडिया को जन हथियार बनाया गया और इसके माध्यम से जनता को शिक्षित करने, खबर, सूचना पहुंचाने के साथ-साथ मनोरंजन करने का काम किया। इसने अपने को इतना मजबूत बना लिया और इसे लोकतंत्र का चौथा खंभा कहा जाने लगा। संचार का माध्यम यानी मीडिया। आमतौर पर प्रेस और पत्रकारिता को आज के आधुनिक स्वरूप में समग्र रूप से मीडिया के नाम से ही जाना जाता है। प्रेस यानी मीडिया, पत्रकारिता यानी मीडिया। यह पत्रकारिता के लिए सबसे प्रचलित नाम है। जो जन संचार से संबंध रखता है।
जन संचार की व्यापकता को देखते हुए सरकारी और गैर सरकारी स्तर पर काफी प्रयास हुए। इसे और व्यापक बनाने के लिए इसमें सैद्धांतिक और शैक्षिक पहलुओं को शामिल किया गया। वैष्विक और बाजारवाद ने जन संचार शिक्षा को जन्म दिया। इसकी व्यापकता ने व्यवसाय को जन्मा। बाजार व व्यवसाय के मायने बदल दिये। मीडिया जिससे जुड़ने में उच्च वर्ग कतराता था आज इसे व्यवसाय के रूप में चुनते है। इसे और धारदार बनाने के लिए तकनीकी और शैक्षिक बनाया गया। शुरूआती दौर में कुछ विष्वविद्यालयों में जनसंचार शिक्षा की पढ़ाई शुरू हुई। सरकारी तौर पर भारतीय जन संचार संस्थान इकलौती संस्था रही। जहां जनसंचार की पढ़ाई पढ़कर छात्र मीडियाकर्मी यानी संचारकर्मी बने और लोकतंत्र के चौथे खम्भे को और मजबूत करने के लिए मैदान में कूद पड़े। इसके प्रभाव ने हालात को बदला समय की मांग ने देश में जनसंचार के दो विष्वविद्यालय स्थापित किये। यहीं नहीं कालांतर में देश के विष्वविद्यालयों में जन संचार की पढ़ाई होने लगी। जहां सरकारी स्तर पर जन संचार शिक्षा बरगद के पेड़ की तरह और शाखाएं जोड़ी, वहीं निजी तौर पर देश में संस्थान खुले। इसमें भी व्यवसाय आया। आज हकीकत यह है कि देश भर में कुकुरमुत्ते की तरह जन संचार शिक्षा संस्थाने खुली हुई है और रोजाना खुल रही हैं। इन संस्थानों में पांच हजार से लेकर लाखों रुपए की फीस छात्रों से वसूली जाती रही है।
हजारों की तादाद में प्रत्येक वर्ष देश भर के सरकारी और गैर सरकारी संस्थानों से जन संचार की शिक्षा प्राप्त कर छात्र पत्रकार बन इसे और मजबूत करने के लिए प्रयासरत हो जाते हैं। लेकिन यहां सबसे बड़ा सवाल यह है कि आज कुकुरमुत्ते की तरह फैलते जनसंचार संस्थानों से निकलने वाले छात्रों का प्लेसमेंट क्या व्यापकता के साथ हो पाता है? जवाब मिलेगा- नहीं। अकेले बिहार में लगभग सभी विष्वविद्यालयों में पत्रकारिता की पढ़ाई हो रही है। पटना को ही लें तो सरकारी कॉलेजों में केवल एक कॉलेज में प्रत्येक साल कम से कम पचास छात्र पत्रकारिता की कक्षा में दाखिला लेते हैं। नालंदा खुला विश्वविद्यालय में तो पत्रकारिता की पढ़ाई में दाखिल लेने वाले छात्रों की संख्या सैंकड़ों में होती है। इसमें दो मत नहीं कि जन संचार शिक्षा को लेकर प्रमुख शहरों से होते हुए गली-कूचे में खुले पत्रकारिता संस्थानों के समक्ष कई तरह की चुनौतियां हैं। जहां एक ओर माना जा रहा है कि इस क्षेत्र में व्यापक बदलाव हुआ है, हजारों की तादाद में मीडिया के ग्लैमर और चकाचौंध से प्रभावित होकर हर वर्ग के छात्र इससे जुड़ रहे हैं। मीडिया को कैरियर बनाने की आपाधापी, छात्र-छात्राओं में देखी जा रही है। संस्थानों ने व्यापकता की सीमा को लांघते हुए संचार के शिक्षा संस्थानों को अति आधुनिक बना डाला है, तो वहीं यूजीसी और अन्य पत्रकारिता संस्थानों से मान्यता प्राप्त कर, चल रहे छोटे-मोटे शिक्षण संस्थानों में पांच हजार के शुल्क पर जन संचार की शिक्षा छात्र प्राप्त कर रहे हैं। इनके बीच एक संकट है कि आज भले ही भारी तादाद में मीडिया की ओर छात्रों का रुझान बढ़ा है, ज्यादातर मीडिया संस्थानों में मीडिया की पढ़ाई पढ़ने और पढ़ाने वाले अपने प्रोफेशन से न्याय नहीं कर पा रहे हैं। बिहार की राजधानी पटना में निजी और सरकारी तौर पर चलने वाले पत्रकारिता संस्थानों में लड़के और लड़कियों में कुछ ही के बीच मीडिया के रुझान को लेकर दिलचस्पी देखने को मिलती है। एक हाई-फाई मीडिया संस्थान के विभागाध्यक्ष कहते हैं कि मीडिया की पढ़ाई में प्रत्येक साल छात्रों की संख्या पचास से कम नहीं होती, लेकिन जो छात्र आते हैं उनमें कुछ मीडिया के ग्लैमर के तहत आते हैं तो कुछ टाइम पास के लिए। यह सोच अन्य शैक्षिक माहौल में भी व्याप्त है, लेकिन जहां तक मीडिया का सवाल है, इसमें अगर छात्रों के बीच गंभीरता नहीं रही तो वे असफल हो जायेंगे। एक बात और है कि कुछ लोग मीडिया की पढ़ाई इसलिए करते हैं कि कहीं प्रवेश नहीं मिला तो चलो मीडिया की पढ़ाई कर लेते हैं। हालांकि सरकारी स्तर पर सर्टिफिकेट कोर्स के तहत मीडिया की बारीकियों के बारे में पढ़ाया जाता है। एक संस्थान के निर्देशक ने बताया कि कुछ छात्र पूरी तरह से मीडिया के प्रति डिवोटी होकर आते हैं। वहीं पत्रकारिता संस्थानों में पढ़ाने वाले शिक्षक भी सवालों के घेरे में रहते हैं, वे छात्रों को पत्रकारिता की व्यावहारिक और तकनीकी ज्ञान पूरी तरह से देने में असफल रहते हैं। इसकी वजह यह है कि ज्यादातर निजी स्तर के पत्रकारिता संस्थानों में पढ़ाने वाले अखबारों से आते हैं। उनके पास भले ही रिपोर्टिंग, एडिटिंग का अनुभव हो, लेकिन वे पत्रकारिता के शैक्षिक पहलुओं को पूरी तरह नहीं बता पाते। इसके पीछे सामग्री का अभाव होना है। पहले पत्रकारिता की तमाम पुस्तकें विदेशी लेखकों के मिलते थे। आज माहौल बदला है और पत्रकारिता की तमाम पुस्तकें अंग्रजी के अलावे सभी भारतीय भाषाओं में अमूमन मिल ही जाते है। हिन्दी पत्रकारिता के क्षेत्र में माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता संस्थान ने पुस्तकें प्रकाशित कर काफी सामग्री मीडिया संस्थानों को दी है। साथ ही कई प्रकाशकों ने भी पुस्तकें छापी है।
दूसरी ओर पत्रकारिता संस्थान की व्यापकता और प्रत्येक वर्ष पढ़ाई पूरी कर निकलने वाले छात्रों के समक्ष प्लेसमेंट की भी समस्या रहती है। बड़े संस्थान तो सब्जबाग दिखा कर छात्रों को दाखिले के लिए प्रलोभित करते हैं, वहीं उनके प्लेसमेंट को लेकर उनमें सजगता नहीं दिखती है। मीडिया उद्योग बन चुका है। लेकिन इसमें जगह पाने की स्थिति पर प्रश्न चिन्ह लगा है। देखा जाये तो देश दुनिया की खबरों को मीडिया अनोखे अंदाज में लोगों के सामने लाने की दिशा में रोजाना कुछ न कुछ नया करके रिझाने की फिराक में रहता है। मीडिया के लिए मिशन शब्द उसके डिक्षनरी से लगभग गायब हो चुका है। दूसरों की जिंदगी में ताक झांक कर खबर बनाना, इसकी फिदरत है। लेकिन इसके अंदर की खबर किसी को नहीं मिलती? चर्चित साहित्यिक पत्रिकाओं ने जब खबरिया चैनलों पर एक विशेषांक निकाला तो मीडिया जगत की कुछ अंदरूनी बातें सामने आयी। लोग चौंके। बहस हुई। मीडिया के ठेकेदारों के बीच हड़कंप मचा। वाद-विवाद का दौर चल पड़ा। हंस और कथादेश में छपे मीडिया के अंदर की बात पर सफाई दी जाने लगी, तो वहीं मीडिया पर उंची जाति के कब्जे की बात को खारिज करने का भी सिलसिला चला। जाहिर है मीडिया के अंदर के सच पर जब मीडिया के ही लोगों ने हमला बोला तो इसे तथाकथित मीडियाकर्मी पचा नहीं पाये। आज कुछ अखबार जहां मीडिया पर आलेख छाप रहे हैं वहीं बेव पत्रकारिता से जुड़े लगभग सभी अंतरजालों ने अपने यहां मीडया पर एक कॉलम ही चला दिया है जबकि कई अंतरजाल सिर्फ मीडिया तक ही सीमित है। खैर, बात मीडिया के अंदर की है। इसमें स्थान पाने की बात है। मीडिया के अंदर कई सच है, जो सामने नहीं आते और आते भी हैं तो उसे जगह नहीं दी जाती। इधर, आर्थिक तंगी की मार से जहां पूरा विष्व परेशान है। हर जगह छटंनी/ संस्थान को बंद करने का सिलसिला सा चल पड़ा है। तो ऐसे में, मीडिया संस्थान भी इससे अछूते नहीं हैं। पत्रकारों को निकालने का दौर चल पड़ा है। अंतरजालों पर इन दिनों पत्रकारों के निकाले जाने और चैनल/ प्रकाशन के बंद होने से पत्रकारों के बेरोजगार की होने की खबरें लगातार मिल रही है। वहीं नये समाचार पत्रों के प्रकाशन की भी खबर है। जहां एक ओर पत्रकारों के निकाले जाने की खबर मिल रही है वहीं दूसरी ओर नये समाचार पत्रों के प्रकाशन की खबर भ्रम पैदा करती मिलती है। मीडिया हाउस के बंद होने और पत्रकारों के निकाले जाने की खबर किसी न किसी रूप में तो मिल जाती है। लेकिन मीडिया में एक बात है जो सामने नहीं आती। वह है नियुक्ति की। पत्रकारिता संस्थानों से पढ़ाई पूरी कर निकलने वाले अक्सर सवाल कर बैठते है।
प्रिंट हो या इलेक्ट्रोनिक इसके संपादक या फिर उपसंपादक/ संवाददाता या यो कहें कि मीडिया के अंदर किसी पद की नियुक्ति का पता ही नहीं चल पाता है। संपादक के पद के लिये तो विज्ञापन आता ही नहीं। अचानक पता चलता है कि फलाने अखबार के संपादक की जगह फलाने ने ले ली है। यहां तक मीडिया हाउस में कार्य कर रहे लोगों तक को पता नहीं चल पाता है और रातों रात संपादक बदल जाते हैं। वहीं सरकारी क्षेत्र की नियुक्तियां कई प्रक्रिया से गुजरती है। नियुक्ति आदेशपाल का हो या फिर अधिकारी-कर्मचारी का। विज्ञापन प्रकाशन के बाद कई महीनों तक नियुक्ति की प्रक्रिया चलती है। लेकिन मीडिया हाउसों में ज्यादातर नियुक्तियां अंधेरे में हो जाती है। हालांकि, कुछ मीडिया हाउस नाम के लिए विज्ञापन प्रकाशित करते हैं। इनका प्रतिशत बहुत ही कम है। देखा जाये तो नियुक्ति के मामले में जितनी पारदर्शिता सरकारी संस्थाएं बरतती हैं, उतना गैर सरकारी संस्थाएं नहीं। मामला केवल नियुक्ति तक का ही नहीं है। बल्कि वेतन को लेकर भी पारदर्शिता नजर नहीं आती। संपादक या फिर उच्चे पदों पर गोपनीय नियुक्ति का मामला थोड़ी देर के लिये समझ में आता है लेकिन निचले स्तर पर यानी उपसंपादक/संवाददाता या फिर प्रशिक्षु पत्रकार की गोपनीय नियुक्ति का मामला सवाल खड़े करते मिलते हैं। देश भर के विष्वविद्यालयों में आज पत्रकारिता की पढ़ाई होने लगी है। हर साल हजारों छात्र पत्रकारिता की पढ़ाई पूरी कर नौकरी की तलाश में मीडिया हाउसों के चक्कर लगाते मिलते हैं। कई जुगाड़ व जातीय संस्कृति की वजह से नौकरी पाने में सफल हो जाते हैं। जिन्हें नहीं मिल पाता है उनमें मीडिया को लेकर एक गतिरोध उत्पन्न हो जाता है। सूचना और प्रसारण मंत्रालय द्वारा जारी वार्षिक समीक्षा रिर्पोट के अनुसार देश में चार सौ से भी ज्यादा चैनल है। इनमें दो सौ से ज्यादा न्यूज चैनल यानी खबरिया चैनल है और लगभग डेढ़ सौ से ज्यादा गैर खबरिया चैनल यानी नॉन न्यूज एंड करंटअफेयर्स से संबधित चैनल हैं। जहां पत्रकारों की भारी संख्या में खपत होती है। इधर कई और नये चैनल खुले है। वहीं आरएनआई के अनुसार 31 मार्च 2006 तक पंजीकृत समाचार पत्रों की संख्या 62,483 थी। जाहिर सी बात है, जब देश भर के हर छोट-बडे शहरों में समाचार पत्र छप रहे हैं तो वे बिना पत्रकारों व संपादकों के नहीं। सच तो यह है कि एकाध समाचार पत्र ही नियुक्ति से संबंधित विज्ञापन विभिन्न समाचार पत्रों में प्रकाशित करते हैं। ज्यादातर मीडिया हाउसों में होने वाली नियुक्ति अंधेरे में ही हो जाती है। जिसका खामियाजा पत्रकारिता संस्थाओं से निकलने वाले छात्रों को भुगतना पड़ता है। इस बात को पत्रकारिता संस्थाओं में पढ़ने वाले छात्र समझ चुके हैं और वे भी पढ़ाई पूरी करने के बाद मीडिया हाउस में नौकरी पाने के लिए जुगाड़ संस्कृति की ओर मुड़ रहे हैं। हालांकि मीडिया हाउस जुगाड़ और जातीय समीकरण को खारिज करते हैं और योग्यता की दुहाई देने से परहेज नहीं करते। सवाल उठता है कि पत्रकारिता संस्थाओं के छात्र जब पढ़ाई पूरी कर नौकरी के लिये निकलते हैं तो क्या उनके पास योग्यता नहीं होती? बहरहाल, मीडिया को भी पारदर्शी होने की जरूरत है। खास कर पत्रकारों की नियुक्ति के मामले में। ताकि नई पौध को कुछ नया करने का अवसर मिल सके।
भारत एक लोकतांत्रिक देश है। विश्व के सबसे बड़े इस लोकतंत्र मे तंत्र का निर्माण लोक द्वारा किया जाता है और जनता का जनता के द्वारा जनता के लिए शासन का निर्माण होता है। परन्तु वर्तमान में जो तस्वीर नजर आती है उससे ये लगता है कि लोक अपने तंत्र का निर्माण तो करता है परन्तु निर्माण के बाद यही लोक इस तंत्र में इतना उलझ जाता है कि अपने ही बनाए जनप्रतितिनिधियों से मुलाकात तक वो नहीं कर पाता।
मेरे दादाजी आज इस संसार में नहीं है लेकिन मैंने उनके मुंह से सुना था कि एक समय वो था जब देश के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, राज्यपाल, मुख्यमंत्री या किसी कैबिनेट मंत्री से मिलना कोई बड़ी बात नहीं थी। यह वह दौर था जब आजादी नई नई आई थी दादाजी बताया करते थे कि राष्ट्रपति भवन के गलियारे में, संसद के गलियारे में आदि ऐसे स्थानों पर भारत भर से आए लोगों का तांता लगा रहता था और उस समय प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति महोदय अपनी देश की जनता से मिलने आते थे और उनके सुख दुख की सुनते थे। परन्तु वर्तमान हालात देखकर मन द्रवित हो जाता है कि इस देश का भाग्य विधाता आम जन, अपने ही एमएलए या एमपी तक से मिलने के लिए तरस जाता है और जीतने के बाद ये जनता से इतने दूर हो जाते हैं कि आम जन को इनसे मिलने के लिए किसी खास का सहारा लेना पड़ता है। बात कहने कि यह है कि यह कैसी विडम्बना है कि एमएलए एमपी को एमएलए एमपी बनाने वाली जनता ही इनसे दूर हो जाती है। आज लोकतंत्र में तंत्र लोक से दूर हो गया है। जब आमजन का काम इन हुक्मरानों से पड़ता है तो यह आम आदमी किसी की सिफारिश भिड़ाने की जुगत लगाता है, किसी ऐसे व्यक्ति को ढूँढता है जो नेताजी का खास हो जिसकी नेताजी के सामने चलती हो जिसकी नेताजी मानते हो और फिर वह नेताजी के सामने इस तरह से पेश आता है जैसे कोई गुनहगार अपने गुनाह की माफी मांग रहा हो और नेता इस आम आदमी के सामने ‘हाँ देख लूंगा’ की ऐसी वाणी निकालता है जैसे उसने कोई बहुत बड़ा उपकार कर दिया हो। आम जन से दूर होता यह नेता वह दिन भूल जाता है कि वह कैसे वोट मांगने इस आम आदमी के द्वार पर गया था और किस प्रकार एक याचक की तरह वोट की भीख मांगी थी और बेचारा आम आदमी अपने द्वार आए इस खास अतिथि की सेवा में लग गया था और अतिथि को भगवान का रूप समझ कर उसने इस भगवान को सिंहासन पर बैठा दिया था। नेताजी भूल जाते हैं कि यह वहीं आम आदमी है जिसने चुनाव के दौरान नेताजी को सिक्कों से, गुड़ से, केलों से और अपने खूने से तौला था और चाहे उस दिन इस आदमी ने खुद ने कोई कमाई न की हो परन्तु घर आए नेताजी को नोटों की माला पहनाई थी और आज जब चुनाव जीत कर नेताजी मंत्री बन गए या विधान सभा या संसद में चले गए तो अपने ही इस आदमी से इतने दूर हो गए कि यह आदमी सोचता है क्या मैंने माला पहना कर, सिक्कों से तौल कर कोई गलती तो नहीं कर दी। जनता से दूर होता यह राज जनता का राज नहीं रह गया है। आज राज कहने को तो आम आदमी का है लेकिन वास्तव में राज मंत्रियों का हे, अफसरों का है।
मैं आपको इस लेख के माध्यम से कहना चाहता हूँ कि आप आज ही प्रयास करो और सोचो कि आपको अपने देश के प्रधानमंत्री माननीय मनमोहन सिंह से मिलना है या महामहिम माननीया राष्ट्रपति महोदया से मिलना है या सोनिया गाँधी से मिलना है या लालकृष्ण आडवाणी से मिलना है। पहले पहल तो इस देश के आम आदमी के दिमाग में यह एक बहुत बड़ा काम है और ऐसा करना उसके लिए असंभव है और वह यह सोच कर खुश है कि यार मुझे क्या काम इनसे मैं क्यूं मिलूं। हालात यह है कि सोनिया गाँधी या मनमोहन सिंह या लालकृष्ण आडवाणी अपनी ही पार्टी के एमएलए और एमपी तक से नहीं मिलते। ये एमएलए और एमपी भी इन लोगों के खास आदममियों से या इनके दरबार के दरबारियों से मिल कर खुश हो जाते है तो आम जन से मिलने की बात तो छोड़ ही दी जाए। और अगर कोई भावुक आम आदमी इनसे मिलने का प्रयास करे भी तो शायद उसे एक बहुत बड़ा समय लग जाएगा और वह इन लोगों से मिल ही नहीं पाएगा।
मेरा कहने का मतलब यह है कि भारत के ये खास लोग जो संसद में बैठते हैं जो लालबत्तियों में घूमते है आखिर इनको किस बात का डर है कि आम जन से ही दूर भागते फिरते है। सुरक्षा के नाम पर इनके चारों और एक ऐसा घेरा बना दिया गया है कि इस घेरे ने इन तथाकथित जन प्रतिनिधियों को आम जन से दूर कर दिया है। और बाकी इनके आस पास इनके दरबारियों की ऐसी भीड़ जमा हो गई है जिन्होंने इनके दरबार में स्थान पाकर अपने आप को तो बड़ा बना लिया है लेकिन इन लोगों को आम आदमी की पहुँच से बहुत दूर कर दिया है। आम आदमी के लिए ये भारत के खास विषिष्ट लोग चॉद हो गए हैं जिन्हें धरती के लोग देख तो सकते हैं लेकिन प्राप्त नहीं कर सकते।
अब अगर हम इसके कारणो में जाए तो कईं बाते सामने आती है। समस्या यह है कि जहाँ एमएलए एमपी मंत्री बनने के बाद नेता अपने को खास समझने लगता है वहीं भारत की जनता की मानसिकता ने उसे ऐसा गुलाम बना रखा है कि वह आज भी सामंतशाही की अपनी समझ से छुटकारा नहीं पा पाई है। आज इस देश का आम नागरिक नेता मंत्री एमएलए एमपी को इतना बड़ा समझता है जैसे कोई भगवान का अवतार हो गया हो। वह अपने छोटे से छोटे से कार्यक्रम से लेकर बड़े से बड़े कार्यक्रम में नेताजी को बुलाकर अपने को भाग्यवान समझता है और अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा बढी हुई मानता है। आम आदमी ने आज यह मान लिया है कि साहब ये तो बड़े आदमी है। यह आम आदमी यह भूल गया है कि इस खास को खास आदमी आम आदमी ने ही बनाया है और अगर यह न चाहे तो यह खास आज भी आम बन जाए। आम आदमी यह भूल गया है कि राज जनता का है और इस तंत्र का निर्माण भारत की जनता ने ही किया है। इस देश की जनता की इसी समझ का फायदा इस देश के नेता उठा रहे है। इस देश का नेता जानता है कि भारत की जनता इतनी महान् है कि वह पाँच साल में सारे दु:ख भूल जाएगी और वह फिर से जाकर इस जनता को मुर्ख बना देगा। मुझे किसी विद्वान व्यक्ति की कही पंक्तियाँ याद आ रही है कि ‘जिस देश के नेता धूर्त होते है, उस देश की जनता मूर्ख होती है।’ मैं आगे यह बात जोड़ना चाहूँगा कि इन धूर्तों ने इन मुर्खों को सुधारने का कभी प्रयास नहीं किया और न करेंगे। इन मुर्खों में से ही कोई धूर्त और निकलेगा जो भोली भाली जनता पर राज करेगा। हम सब ने यह मान लिया है कि यह व्यवस्था ऐसी ही है और ऐसी ही रहेगी। आज भारत का आम आदमी स्वयं अपने को लाचार, कमजोर, बेचारा समझता है। वह अपने को दबा हुआ रखने का आदि हो गया है। हम अपने परिवार में खुश है, हम अपने बच्चों की प्रगति चाहते हैं और बच्चों की प्रगति में खुश हैं। हमारी सोचने की शक्ति ने बहुत सी बातों के साथ समझौता कर लिया है। इस तरह आज लोकतंत्र में लोक ही तंत्र से दूर हो गया है और जनता के राज में राज बनाने वाली जनता ही अपने राज से अनभिज्ञ है।
मेरे एक दोस्त हैं सीताराम सिंह वे हमारे साथ जेएनयू में पढ़ते थे,वे रूसी भाषा में थे और मैं हिन्दी में था। वे स्वभाव से बागी और बेहद क्रिएटिव हैं। अभी फेसबुक पर मिले और बोले कि पुरूषोत्तम अग्रवाल की किताब पढ़ रहा हूँ कबीर पर। मुझे उनकी बात पढ़कर एक बात याद आयी कि लोग जिस बात को मानते नहीं है उसकी हिमायत में लिखते क्यूँ हैं ? इस प्रसंग में मुझे सआदत हसन मंटो याद आए और उनका कबीर पर लिखा एक वाकया याद आ रहा है। वाकया यूं है-
‘‘छपी हुई किताब के फ़रमे थे,जिनके छोटे-बड़े लिफ़ाफ़े बनाए जा रहे थे।
कबीर का उधर से गुजर हुआ- उसने दो-तीन लिफ़ाफे उठाए और उन पर छपी हुई तहरीर पढ़कर उसकी आंखों में आंसू आ गए।
लिफ़ाफ़े बनानेवाले ने हैरत से पूछाः ‘‘ मियाँ कबीर,तुम क्यों रोने लगे? ’’
कबीर ने जबाब दियाः ‘‘ इन कागजों पर भगत सूरदास की कविता छपी हुई है… लिफ़ाफ़े बनाकर इसकी बेइज़्ज़ती न करो।’’
लिफ़ाफ़े बनानेवाले ने हैरत से कहाः ‘‘जिसका नाम सूरदास है,वह भगत कभी नहीं हो सकता।’’
कबीर ने ज़ारो-क़तार(फूट-फूटकर) रोना शुरू कर दिया।’’
मैं सोचता हूँ कि पुरूषोत्तम अग्रवाल की कबीर पर किताब और उनकी लोकसेवा को देखकर कबीर फूट-फूटकर रो रहे होंगे। जीवन और कर्म में इतनी बड़ी फांक कबीर झेल नहीं सकते।
कश्मीर से लेकर हर अशांत इलाके में सुरक्षाबलों के खिलाफ चल रहा है निंदा अभियान
-संजय द्विवेदी
कश्मीर के संकट पर जिस तरह देश की राय बंटी हुयी है और अरूंधती राय, अलीशाह गिलानी से लेकर बरवर राव तक एक मंच पर हैं, तो बहुत कुछ कहने की जरूरत नहीं रह जाती। यूं लगने लगा है कि कश्मीर के मामले हर पक्ष ठीक है दोषी है तो सिर्फ सेना। जिसने अपनी बहादुरी से नाहक लगभग अपने दस हजार जवानों का बलिदान देकर कश्मीर घाटी को भारत का अभिन्न अंग बनाए रखा है। अलीशाह गिलानी से लेकर हर भारतविरोधी और पाकिस्तान के टुकड़ों पर पलने वाले का यही ख्याल है कि सेना अगर वापस हो जाए तो सारे संकट हल हो जाएंगें। बात सही भी है।
कश्मीर घाटी के इन छ-सात जिलों का संकट यही है कि भारतीय सेना के रहते ये इलाके कभी पाकिस्तान का हिस्सा नहीं बन सकते। इसलिए निशाना भारतीय सेना है और वह भारत की सरकार है जिसने इसे यहां लगा रखा है। शायद इसीलिए देश के तमाम बुद्धिजीवी अब सेना के नाम पर स्यापा कर रहे हैं। जैसे सेना के हटाए जाते ही कश्मीर के सारे संकट हल हो जाएंगें। अलीशाह गिलानी, हड़तालों का कैलेंडर जारी करते रहें, उनके पत्थरबाज पत्थर बरसाते रहें, घाटी के सिखों और हिंदुओं को इस्लाम अपनाने या क्षेत्र छोड़ने की घमकियां मिलती रहें किंतु और सेना के हाथ से आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर्स एक्ट को वापस लेने की वकालत की जा रही है। क्या आपको पता है कि घाटी में भारतीय सेना को छोड़कर भारत माता की जय बोलने वाला कोई शेष नहीं बचा है ? क्या इस बात का जवाब भारत के उदारमना बुद्धिजीवियों और केंद्र सरकार के पास है कि गिलानी के समर्थकों के प्रदर्शन में पाकिस्तानी झंडे इतनी शान से क्यों लहराए जाते हैं ? देश यह भी जानना चाहता है कि अलग-अलग विचारधाराओं की यह संगति जहां माओवाद समर्थक, खालिस्तान समर्थक और इस्लामिक जेहादी एक मंच पर हैं तो इनका संयुक्त उद्देश्य क्या हो सकता है ? यदि ये अपने विचारों के प्रति ईमानदार हैं तो इनकी कोई संगति बनती नहीं। क्योंकि जैसा राज बरवर राव लाना चाहते हैं, वहां इस्लाम की जगह क्या होगी? और गिलानी के इस्लामिक इस्टेट में माओवादियों की जगह क्या होगी? इससे यह संदेश निकालना बहुत आसान है कि देश को तोड़ने और भारतीय लोकतंत्र को तबाह करने की साजिशों में लगे लोगों की वैचारिक एकता भी इस बहाने खुलकर सामने आ गयी है।
यह भी प्रकट है कि ये लोग अपने धोषित विचारों के प्रति भी ईमानदार नहीं है। इनका एकमात्र उद्देश्य भारत के लोकतंत्र को नष्ट कर अपने उन सपनों को घरती पर उतारना है, जिसकी संभावना नजर नहीं आती। किंतु अरूंधती राय जैसी लेखिका का इनके साथ खड़ा होना भी हैरत की बात है। एक लेखक के नाते अरूंधती की सांसें अगर भारत के लोकतंत्र में भी घुट रही हैं तो किसी माओवादी राज में, या इस्लामिक स्टेट में किस तरह वे सांस ले पाएंगी और अपनी अभिव्यक्ति के प्रति कितनी ईमानदार रह पाएंगीं। उस भारतीय लोकतंत्र में, जिसे लांछित करती हुयी वे कहती हैं कि यहां आपातकाल के हालात हैं, में भी वे पत्र-पत्रिकाओं में लंबे आलेख लिखती हैं, देशविरोधी भाषण करती हैं, किंतु भारत की सरकार उन्हें क्षमा कर देती है। क्या वे बताएंगी कि भारतीय लोकतंत्र के समानांतर कोई व्यवस्था पूरी इस्लामिक या कम्युनिस्ट पट्टी में कहीं सांस ले रही है ? भारतीय लोकतंत्र की यही शक्ति है और यही उसकी कमजोरी भी है कि उसने अभिव्यक्ति की आजादी को इतना स्पेस दिया है कि आप भारत मां को डायन, महात्मा गांधी को शैतान की औलाद और देश के राष्ट्र पुरूष राम को आप कपोल कल्पना और मिथक कह सकते हैं। इस आजादी को खत्म करने के लिए ही गिलानी के लोग पत्थर बरसा रहे हैं , जिनके लोगों के नाते 1990 में दो लाख कश्मीरी पंडितों को कश्मीर छोड़ना पड़ा। निमर्मता ऐसी कि कथित बुद्धिजीवी लिखते और कहते हैं कश्मीरी पंडितों को तो सरकार से मुआवजा मिलता है, राशन मिलता है। संवेदनहीनता की ऐसी बयानबाजियां भी यह देश सहता है। एक कश्मीरी पंडित परिवार को चार हजार रूपए, नौ किलो गेंहूं,दो किलो चावल और किलो चीनी मुफ्त मिलती है। अगर शरणार्थी शिविरों के नारकीय हालात में रहने के लिए इन सुविधाओं के साथ हुर्रियत के पत्थरबाजों और अरुंधती राय की टोली को कहा जाए तो कैसा लगेगा। किंतु आप आम हिंदुस्तानी की ऐसी स्थितियों का मजाक बना सकते हैं। क्योंकि आपकी संवेदनाएं इनके साथ नहीं है। आपके आका विदेशों में बैठे हैं जो आपको पालपोसकर हिंदुस्तान की एकता के टुकड़े-टुकड़े कर देना चाहते हैं।
यह सिर्फ संयोग ही नहीं है कि जो माओवादी 2050 में भारत की राजसत्ता पर कब्जे का स्वप्न देख रहे हैं और जो गिलानी कश्मीर में निजामे-मुस्तफा लाना चाहते हैं एक साथ हैं। इस विचित्र संयोग पर देश की सरकार ने कोई प्रतिक्रिया नहीं की है। किंतु देश के मन में इसे लेकर बहुत हलचल है। देश की आम जनता आमतौर पर ऐसे सवालों पर प्रतिक्रिया नहीं देती किंतु उसका मानस विचलित है। उसके सामने सरकार के दोहरे आचरण की तमाम कहानियां हैं। गिलानी श्री नगर से दिल्ली तक जहर उगलते घूम रहे हैं, अरूंधती राय दुनिया-जहान में भारत की प्रतिष्ठा को मिट्टी में मिला रही हैं। बरवर राव लोकतंत्र की जगह माओवाद को स्थापित करने के प्रयासों के साथ हैं और एक खूनी क्रांति का स्वप्न देख रहे हैं। इन सबके रास्ते कौन सबसे बड़ा बाधक है क्या हमारी राजनीति ? क्या हमारे राजनेता? क्या हमारी व्यवस्था? क्या हमारी राजनीतिक पार्टियां ? नहीं..नहीं..नहीं। इन देशतोड़कों के रास्ते में बाधक है हमारी जनता ,सुरक्षा बल और बहादुर सेना। इसलिए इन कथित क्रांतिकारियों के निशाने पर हमारे सुरक्षा बल,सेना और आम जनता ही है। नेताओं और राजनीतिक दलों का चरित्र देखिए। आज गिलानी और कश्मीर के मुख्यमंत्री एक भाषा बोलने लगे हैं। नक्सल इलाकों में हमारी राजनीति ,प्रशासन, कारपोरेट और ठेकों से जुड़े लोग नक्सलियों और आतंकवादियों को लेवी दे रहे हैं। जिस पैसे का इस्तेमाल ये ताकतें हमारी ही जनता और सुरक्षा बलों का खून बहाने में कर रही हैं। इन खून बहाने वालों को ही अरूंधती राय, गांधीवादी बंदूकधारी कहती हैं और जिनपर सुरक्षा व शांति बनाए रखने की जिम्मेदारी है उनको राज्य के आतंक का पर्याय बताया जा रहा है। इसलिए सारा निशाना उस सेना और सुरक्षाबलों पर है जिनकी ताकत के चलते ये देशतोड़क लोग हिंदुस्तान के टुकड़े करने में खुद को विफल पा रहे हैं। किंतु हमारी राजनीति का हाल यह है कि संसद पर हमलों के बाद भी उसके कान में घमाकों की गूंज सुनाई नहीं देती। मुंबई के हमले भी उसे नहीं हिलाते। रोज बह रहे आम आदिवासी के खून से भी उसे कोई दर्द नहीं होता।
पाकिस्तान के झंडे और “गो इंडियंस” का बैनर लेकर प्रर्दशन करने वालों को खुश करने के लिए हमारी सरकार सेनाध्यक्षों के विरोध के बावजूद आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर्स एक्ट में बदलाव करने का विचार करने लगती है। सेनाध्यक्षों के विरोध के बावजूद आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर्स एक्ट में बदलाव की गंदी राजनीति से हमारे सुरक्षाबलों के हाथ बंध जाएंगें। हमारी सरकार इस माध्यम से जो करने जा रही है वह देश की एकता-अखंडता को छिन्न-भिन्न करने की एक गहरी साजिश है। जिस देश की राजनीति के हाथ अफजल गुरू की फांसी की फाइलों को छूते हाथ कांपते हों वह न जाने किस दबाव में देश की सुरक्षा से समझौता करने जा रही है। यह बदलाव होगा हमारे जवानों की लाशों पर। इस बदलाव के तहत सीमा पर अथवा अन्य अशांत क्षेत्रों में डटी फौजें किसी को गिरफ्तार नहीं कर सकेंगीं। दंगों के हालात में उन पर गोली नहीं चला सकेंगीं। जी हां, फौजियों को जनता मारेगी, जैसा कि सोपोर में हम सबने देखा। घाटी में पाकिस्तानी मुद्रा चलाने की कोशिशें भी इसी देशतोड़क राजनीति का हिस्सा है। यह गंदा खेल,अपमान और आतंकवाद को इतना खुला संरक्षण देख कर कोई अगर चुप रह सकता है तो वह भारत की महान सरकार ही हो सकती है। आप कश्मीरी हिंदुओं को लौटाने की बात न करें, हां सेना को वापस बुला लें।क्या हम एक ऐसे देश में रह रहे हैं जिसकी घटिया राजनीति ने हम भारत के लोगों को इतना लाचार और बेचारा बना दिया है कि हम वोट की राजनीति से आगे की न सोच पाएं? क्या हमारी सरकारों और वोट के लालची राजनीतिक दलों ने यह तय कर लिया है कि देश और उसकी जनता का कितना भी अपमान होता रहे, हमारे सुरक्षा बल रोज आतंकवादियों-नक्सलवादियों का गोलियां का शिकार होकर तिरंगें में लपेटे जाते रहें और हम उनकी लाशों को सलामी देते रहें-पर इससे उन्हें फर्क नहीं पड़ेगा।
मेरे प्रवक्ता डॉट कॉम पर प्रकाशित धारावाहिक लेखों से अनेक लोग परेशान हैं कि मैं इतना क्यों लिखता हूँ? प्रवक्ता डॉट कॉम के संजीव जी मेरे इतने लेख क्यों छापते हैं? मेरे कॉमरेड दोस्त नाखुश हैं मैं संघ के व्यक्ति के द्वारा संचालित वेबसाइट पर क्यों लिखता हूँ? प्रवक्ता के पन्नों पर संघ के पक्ष में सुंदर लेख रहते हैं और जिस तरह हिन्दुत्ववादी मेरे लेखों को प्रवक्ता पर देखकर नाराज हैं और संजीवजी को सवालों के घेरे में ले आए हैं, वैसे ही मेरे कुछ कम्युनिस्ट दोस्त भी भ्रमित हैं। कुछ लोगों को आपत्ति है कि मैं उनके द्वारा उठाए गए सवालों के जबाब क्यों नहीं देता। उनके सब सवालों को मिलाकर तीन सवाल बनते है इंटरनेट पर कैसे लिखें? किस नजरिए से लिखें?किसके लिए लिखते हैं?
प्रवक्ता डॉट कॉम की विचारधारा क्या है? यह वेब के परिप्रेक्ष्य में अप्रासंगिक प्रश्न है। प्रेस या अखबार या पत्रिका आदि के संदर्भ में माध्यम की विचारधारा, संचालक की विचारधारा, संपादक की विचारधारा आदि के सवाल प्रासंगिक हुआ करते थे। कम्प्यूटर और उपग्रह क्रांति ने माध्यम से ही नहीं जीवन से लेकर राजनीति तक विचारधारा के तमाम सवालों को हाशिए पर ड़ाल दिया है।
सभी क्षेत्रों में फिसलन ही फिसलन है। आप कहीं पर भी पैर जमाकर खड़े नहीं हो सकते। आप किसी एक सवाल पर किसी एक राय पर कायम होकर खड़े नहीं रह सकते। खास किस्म का व्यवहारवाद हम सबके जीवन में आ गया है और जो व्यवहारवादी होने के लिए तैयार नहीं थे, जैसे मार्क्सवादी, हिन्दुत्ववादी, माओवादी, स्वयंसेवी अरूंधती राय, सोशलिस्ट, भाजपाई, कांग्रेसी, सभी रंगत के कम्युनिस्ट सभी को अपने विचारधारात्मक टैंट से बाहर आकर इस नई वास्तविकता का सामना करना पड़ रहा है कि वे जिन विचारों को प्राण से भी ज्यादा प्यार करते थे, उन्हीं विचारों को तिलांजलि देकर जनता के बीच में काम करने को मजबूर हैं।
हम सोच नहीं सकते थे कि भाजपा और संघ परिवार जिन मांगों को सबसे ज्यादा प्यार करते थे, उन्हीं मांगों को सत्ता और राजनीति में मोर्चा बनाने के लिए हमेशा के लिए छोड़ देंगे। हम सोच नहीं सकते हैं कि एक जमाने में दोहरी सदस्यता के सवाल पर सोशलिस्टों ने जनता पार्टी की सरकार गिरा दी, बाद में वे ही लोग भाजपा और संघ के दोस्त बन गए । कल तक माकपा का केरल में जिस मुस्लिम कट्टरपंथी दल से नापाक गठबंधन था उसे लोकसभा चुनाव के बाद उसने त्याग दिया और कांग्रेस ने हाल ही में सम्पन्न पंचायत और नगरपालिका चुनाव में उस दल को अपना लिया। यह नमूनाभर है विचारधारा की विदाई का।
इंटरनेट लोकतांत्रिक माध्यम है। यहां पर विचारधारा की भूमिका सिर्फ शब्दों तक सीमित है। इससे न तो पाठक प्रभावित होता है और न समाज प्रभावित होता है। यदि ऐसा ही होता तो अफगानिस्तान और इराक के संदर्भ में लाखों दस्तावेज जारी करने के बावजूद अमेरिका में युद्धापराधों के लिए जिम्मेदार राजनेताओं को कठघरे में खड़ा करने की मांग के लिए अमेरिका-ब्रिटेन आदि देशों में अभी तक एक भी प्रदर्शन क्यों नहीं हुआ?
प्रेस के जमाने में इसी अमेरिका में वाटरगेट कांड ने राष्ट्रपति सिंहासन की चूलें हिला दी थीं। भारत में मात्र 62 करोड़ रूपये की बोफोर्स दलाली के सवाल पर केन्द्र सरकार गिर गयी थी और आज अरबों करोड़ रूपये के कॉमनवेल्थगेम भ्रष्टाचार के असंख्य प्रमाण आने के बाबजूद कहीं पर कोई चिन्ता की रेखा नजर नहीं आ रही है। कोई प्रतिवाद नहीं है, प्रधानमंत्री का इस्तीफा तक किसी ने नहीं मांगा है।
प्रतिदिन बड़े-बड़े घोटाले आ रहे हैं और ठंड़े बस्ते में जा रहे हैं, कहीं पर भी उनसे किसी की सत्ता को कोई खतरा नहीं हो रहा है। इस सबका प्रधान कारण है भारत में बदला हुआ मीडिया पैराडाइम। यह असाधारण परिवर्तन है। इंटरनेट और कम्प्यूटर ने हमारी समूची जीवनप्रणाली, विचारधारा, सामाजिक संरचनाओं आदि को पूरी तरह प्रभावित किया है। हम सबको सूचना मात्र में रूपान्तरित कर दिया है।
इंटरनेट लोकतांत्रिक माध्यम है। यह विचारधारा के प्रचार का माध्यम नहीं है, यह छोटे-बड़े के भेद का माध्यम नहीं है। यह संपादक की तानाशाही की समाप्ति करने वाला माध्यम है। यह धर्म का माध्यम नहीं है। यह हिन्दुत्व, मार्क्सवाद, साम्यवाद, फासीवाद आदि के प्रचार का माध्यम नहीं है। यह सिर्फ संचार, संपर्क और संवाद का माध्यम है। आप अपनी विचारधारा के खूब जोर से नगाड़े बजाएं कोई असर नहीं होगा। आप किसी को नंगा कर दें, कोई असर नहीं होगा। क्लिंटन-लॉबिंस्की सेक्सकांड का उद्धाटन वेब ने ही किया था लेकिन परिणाम क्या निकला? क्लिंटन की कुर्सी बची रही।
नेट पर गाली दें, निंदा करें, गंभीर लिखें, फालतू लिखें, सब कुछ संचार में रूपान्तरित हो जाता है। नेट की समस्त सामग्री का संचार में समाहार वैसे ही हो रहा है जैसे कम्प्यूटर में इसके पहले के सभी माध्यमों का कनवर्जन हो गया है। अब हिन्दी में इसे लेखन कहते हैं। बहुत पहले फ्रांसीसी दार्शनिक ज्यॉक देरिदा ने इस पहलू की ओर ध्यान दिलाया था। अब न विधाएं हैं। न मीडिया है। न विचारधारा है। अब तो सिर्फ लेखन है और संचार है। अनेक लोगों को अभी यह बात समझ में नहीं आएगी क्योंकि हमारी सोचने की अनेक आदतें और समझ प्रेसक्रांति से निर्मित विचारों से बंधी हैं।
प्रवक्ता डॉट कॉम ने जब लोकतांत्रिक मंच बनाया तो उन्होंने इंटरनेट को माध्यम के रूप में सही पकड़ा। हमारे वामपंथी दलों के लोग इंटरनेट के लोकतांत्रिक और जनशिरकत वाले रूप को अभी तक समझ नहीं पाए हैं। वे अपनी वेबसाइट पर सिर्फ अपनी बातें लिखते हैं, वहां विचारों का संचार नहीं होता बल्कि सिर्फ प्रचार होता है।
इंटरनेट प्रचार का नहीं संचार का माध्यम है। इसमें बहुस्तरीय संचार होता है, दुतरफा होता है। संचार के माध्यम के रूप में हम इंटरनेट के साथ कैसे रिश्ता बनाएं इसे सीख ही नहीं पाए हैं। हमारे बहुत सारे दोस्त इस भ्रम में हैं कि मैं वामपंथी विचारधारा के प्रचार-प्रसार के लिए लिखता हूँ। जी नहीं , मैं विचारधारा के प्रचार के लिए नहीं लिखता। मैं तो सिर्फ लिखता हूँ। यह मात्र संचार है, कम्युनिकेशन है। संवाद है। अनौपचारिक वर्चुअल बातचीत है। यहां गाली, निंदा, घृणा, विचारधारा, दलीय राजनीति, गली मुहल्ले की तू-तू मैं मैं आदि के लिए कोई जगह नहीं है। यह शुद्ध संचार है और संचार के अलावा कुछ भी नहीं।
यहां सामने सिर्फ वर्चुअल शब्द होते हैं। कोई व्यक्ति नहीं होता । विचारधारा नहीं होती। अब हम तय करें कि शब्दों और संचार के साथ किस तरह का संबंध बनाना चाहते हैं। वर्चुअल पन्ने का प्रभाव तब तक ही रहता है जब तक वह आपके सामने खुला है। पन्ना बंद तो प्रभाव भी खत्म । यही वजह है कि इंटरनेट पर आप कुछ भी लिखिए सब कुछ वर्चुअल में विलीन हो जाएगा। यानी शब्द नश्वर है। यह मंत्र याद कर लेना होगा।
अगर मैं भर्तृहरि के ‘वाक्यपदीय’ ग्रंथ के हवाले से कहूँ तो अनुमान और तर्क की सहायता से ही हम शब्द का सम्पूर्ण अर्थ समझते हैं। पाणिनी ने भी लिखा था शब्दों का भी सम्यक ज्ञान तर्क की सहायता से ही हो सकता है। इसी बात को आगे बढ़ाते हुए भर्तृहरि ने लिखा सभी शब्दों के अर्थ का ज्ञान तर्क पर निर्भर है। तर्क की कभी सार्थकता होती है और कभी नहीं। उन्होंने एक और महत्वपूर्ण बात कही थी, प्रत्यक्षज्ञान और शब्दज्ञान दोनों ही अस्थिर और अविश्वसनीय हैं। लंबे अनुभव के बाद इंटरनेटयुग आने के बाद, वर्चुअल संस्कृति आने बाद सारी दुनिया को यह बोध हुआ कि प्रत्यक्षज्ञान और शब्दज्ञान दोनों ही अस्थिर और अविश्वसनीय हैं। अब मैं मधुसूदन जी के कुछ सवालों के बारे में कहना चाहता हूँ।
मधुसूदन जी ने सवाल उठाया है , ‘‘चतुर्वेदी जी पाठकों के, प्रश्नों के उत्तर क्यों नहीं देते? कोई उत्तर है? कि अपने लेखों का नंबर बढाने में लगे होते हैं? या पाठक को नगण्य मानते हैं? क्या, यह पाठकों का अपमान करना चाहते हैं? कुछ कठोर सोद्देश्य कहा है।’’ बंधुवर, सवाल सही हों तो जबाब देना भी अच्छा लगता है। सवाल किया है-
‘‘आपने कभी कोई इस्लामी प्रथाकी आलोचना की है? क्यों नहीं?’’ मधुसूदनजी आपकी मुश्किल यह है कि आप चाहते हैं कि मैं उन विषयों पर लिखूँ जो आप बताएं। यह कैसे हो सकता है। विषय का चयन लेखक करता है पाठक नहीं। आपको मेरे लेख पर लिखना चाहिए, उसमें व्यक्त विचारों पर राय देनी चाहिए। आपमें साहस है तो कहो कि आप मुसलमानों से घृणा करते हो। आपको स्वयं मुसलमानों की या इस्लामी प्रथा की आलोचना लिखने से किसने रोका है। आप समझदार आदमी हैं, मेहनत करके इस्लामिक प्रथाओं पर लिखें , हम भी पढ़ेंगे। आप इंतजार करें और देखें कि मुसलमानों के यहां सच क्या है?
मधुसूदन जी का सवाल है- ‘‘दो अलग अलग लेखकों के “हृदय के आदेश” अगर मत भिन्नता के कारण एक दूसरे से विपरित होकर Conflict करें, टकरा जाए, तो महान लेखक शोलोखोव उसे कैसे सुलझाते हैं?’’ शोलोखोव यही चाहेंगे कि दोनों के ही विचार समाज में रहें। अन्तर्विरोधी विचार, अन्तर्विरोधीवर्ग आदि में न्यूनतम सामाजिक मान्यताओं के आधार पर सामंजस्य बना रहे। जैसे आप और हम में लोकतंत्र के न्यूनतम कार्यक्रम, नियम, कायदे कानून आदि के आधार पर सामंजस्य है।
मधुसूदन जी ने फिर सवाल किया है ‘‘लेखक का कोई राष्ट्र नहीं होता, राष्ट्रवाद नहीं होता। धर्म नहीं होता। वह समूची मानवता का होता है और सत्य का पुजारी होता है। सत्य के अलावा वह कोई चीज स्वीकार नहीं करता। उसके अंदर राष्ट्रप्रेम नहीं, सत्यप्रेम होता है। वह किसी का भोंपू नहीं होता वह महान रूसी लेखक शोलोखोव के शब्दों में हृदय के आदेश पर बोलता, सोचता और लिखता है।” मैं आप दोनो से पूछता हूं।
प्रश्न [क] क्या इस उद्धरण का उपयोग करके, सारे लेखकों को राष्ट्रद्रोह के लिए आप लायसेन्स देकर उकसा तो नहीं रहे हैं?’’ जी नहीं। लेखन राष्ट्रद्रोह नहीं होता है। वह क्या है , इसके बारे में आपको कोई वकील अच्छी तरह समझा देगा, वैसे अरूंधती प्रकरण पर हाल में हल्ला मचाने वालों को केन्द्र सरकार ने समझा दिया है कि अरूंधती राय का बयान राष्ट्रद्रोह की केटेगरी में नहीं आता, अरे भाई यह कैसा पाठ पढ़ा है कि कानून की किताब में लिखी बात को भी समझने में दिक्कत हो रही है !
सवाल किया है -‘‘[ग] मान लीजिए, कि, चतुर्वेदी जी भारत विरोधी और चीन के पक्षमें, लेख लिखकर भारत में क्रांति करवाएंगे, तो उन्हे एक लेखक होने के नाते { उन्हे ऐसा सत्य प्रतीत हो, तो, } ऐसा करने का पूरा अधिकार है? क्यों कि लेखक का कोई राष्ट्र नहीं होता, राष्ट्रवाद नहीं होता, ……. इत्यादि इत्यादि।’’ अरे भाई सोल्झेनित्सिन को भूल गए? वह कहां पर रहकर सोवियत संघ के समाजवाद का विरोध कर रहा था? वह जनतांत्रिक था । इसी तरह जर्मनी के अनेकों लेखकों ने हिटलर के फासीवाद का विदेश में रहकर जमकर विरोध किया था। उनका ऐसा करना मानवता की महान सेवा में गिना जाता है। भारत के राजा महेन्द्रप्रताप ने विदेश में रहकर भारत की सरकार बनायी थी, सैंकड़ों बुद्धिजीवियों ने विदेशों में रहकर, खासकर ब्रिटेन में रहकर ब्रिटिश शासकों की औपनिवेशिक शासन प्रणाली का विरोध किया था। फ्रांस की राज्य क्रांति से सारी दुनिया प्रभावित हुई है। उससे प्रेरणा लेने वालों में भारत भी है। ध्यान रहे फ्रांस की राज्य क्रांति हुई थी फ्रांस में , लेकिन उसने सारी दुनिया के लेखकों और राजनेताओं को प्रभावित किया। लेखक कैसे प्रभावित थे, उसका एक ही उदाहरण दूँगा।
बायरन अंग्रेजी साहित्य के बड़े कवि हैं। जिस समय फ्रांस की राज्य क्रांति हुई थी उस समय इंग्लैंड में बादशाही चल रही थी। बायरन ने लिखा ‘‘ बादशाह नहीं , मुझे प्रजातंत्र चाहिए। बादशाहों के दिन लद गए। खून पानी की तरह बहेगा और आंसू कुहासे की तरह झरेंगे। लेकिन जनता अंत में विजयी होगी। मैं यह सब देखने के लिए नहीं रहूँगा किन्तु भविष्य के गर्भ में मैं उसे देख रहा हूँ।’’ बायरन ने ही 1811 में ‘ द कर्स ऑफ मिनरवा’ नामक महान कविता लिखी थी। इस कविता से हमारे लेखक बहुत कुछ सीख सकते हैं। रामविलास शर्मा ने लिखा है मिनरवा नाम की देवी इंगलैंड के निवासियों को शाप देती है। अंग्रेजों को स्वाधीनता प्राप्त हुई है लेकिन वे अपनी स्वाधीनता का दुरूपयोग कर रहे हैं, वे दूसरों को गुलाम बना रहे हैं ।जिन्हें वे गुलाम बना रहे हैं, वे एक दिन अवश्य विद्रोह करेंगे। और इन्हें अपने देश से निकाल बाहर करेंगे। मिनरवा अंग्रेजों से कहती हैः‘ पूरब की तरफ देखो।गंगा के किनारे ये जो काले आदमी हैं, वे तुम्हारे अत्याचारी साम्राज्य को उसकी जड़ सहित हिला देंगे। देखो, वह विद्रोह अपना भयावना सिर उठा रहा है । और देशीजनों की मृत्यु का प्रतिशोध दहक रहा है। सिंधु नदी लाल रक्त की धारा जैसी बह रही है। उत्तर के निवासियों का रक्त वह माँगती रही है, वह बहुत पुरानी माँग अब पूरी हो रही है। इसी तरह तुम्हारा नाश हो। पैलास देवी ने जब तुम्हें स्वाधीन नागरिकों के अधिकार दिए थे, तब उसने निषेध किया था कि दूसरों को दास मत बनाना।’ इन पंक्तियों में बायरन ने अपने देश के शासकों का जमकर विरोध किया है और उनके विनाश की कामना की है। उनकी धारणा थी कि भारतवासी हमेशा गुलाम नहीं रहेंगे। वरन एक दिन प्रतिशोध लेंगे और अंग्रेजों की दासता से अपने को मुक्त करेंगे।
भारत में जो लोग क्रांति करना चाहते हैं वे बुनियादी सामाजिक परिवर्तन के प्रति वचनवद्ध हैं। जनता के प्रति वचनवद्ध हैं। वे किसी देश, सरकार, राष्ट्रवाद आदि के प्रति वचनवद्ध नहीं हैं। इससे भी बड़ी बात यह है कि मधुसूदन जी थोड़ा स्वाध्याय करें और जो सवाल उन्हें सता रहे हैं उनके उत्तर जानने और लिखने की कोशिश करें। सवाल के नाम पर सवाल उठाना, ऐसे सवाल उठाना जो बुनियादी रूप से गलत हैं, बहस को सही दिशा देना नहीं है। यही वजह है कि मैं आपके और आपके जैसे बहुत सारे दोस्तों के सवालों के जबाब नहीं दे पाता। वे पढ़ने और ज्ञान अर्जित करने के लंबे काम को अपनी ईमेल मार्का टिप्पणियों से पूरा करना चाहते हैं। यदि सवाल उठते हैं तो थोड़ा विश्व साहित्य पढ़ें जबाब मिल जाएंगे।