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एंड्रीनी रिच की चार कविताएं

1. जीत

भीतरी तहों में कुछ पसर रहा है, हमसे अनकहा

त्वचा के अंदर भी उसकी उपस्थिति अघोषित है

जीवन के समस्त रूप-प्रत्यय नाटकीय स्वार्थों की

सघन झाड़ियों में उलझे मशीनी देवताओं से संवाद

नहीं करना चाहते, स्पष्टत: कटे-छँटे शरणार्थी

प्राचीन या अनित्य ग्रामों से हमारे अवसरवादी

चाहनाओं में फँसे पगलाकर ढूँढ़ रहे हैं

एक मेजबान एक जीवनरक्षक नाव

अचानक ही वह कला, जिसे हम एकटक तकते रहे थे, की बजाय व्यक्ति चिह्नित किए जा रहे हैं और चर्च की पावन पारदर्षिता दागदार हो गई है

क्रूर नीले, बैंगनी बेलबूटों, संक्षिप्त पीले रंग में सनी

एक सुंदर गाँठ

2. औरतें

मेरी तीन बहनें काली शीशे-सी चमकीली

लावे की चट्टानों पर बैठी हैं।

पहली बार, इस रोशनी में, मैं देख सकती हूँ वे कौन हैं।

मेरी पहली बहन शोभा-यान्ना के लिए अपनी पोशाक सिल रही है।

वह एक पारदर्शी महिला की तरह जा रही है

और उसकी सभी शिराएँ देखी जा सकेंगी।

मेरी दूसरी बहन भी सिल रही है,

उसके हृदय की फाँक को जो कभी पूरी तरह नही भरा,

अन्तत:, वह आशान्वित है, उसकी छाती का यह कसाव ढीला होगा।

मेरी तीसरी बहन लगातार देख रही है

समुद्र में सुदूर पश्चिमी छोर तक फैली गाढ़ी-लाल पपड़ी को।

उसके मोजे फट गए हैं फिर भी वह सुंदर है।

3. शक्ति

पृथ्वी पर जीवित होना इतिहास में संचित होना है

आज एक विशालकाय यन्ना ने धरती के पार्श्व को

टुकड़ा-टुकड़ा खोल दिया है

गहरे पीले रंग की एक शीशी पिछले सौ वर्षों से उपचार

कर रही है ज्वर या खिन्नता का, एक औषधि है

इस मौसम की सर्दियों में यहाँ मौजूद प्राणियों के लिए।

आज मैं मेरी क्यूरी के बारे में पढ़ रही थी:

वह ज़रूर जानती रही होगी कि वह किरणों के

विकिरण से अस्वस्थ हो गई है

सालों उसकी देह ने इस तत्व की बम वर्षा को झेला था

उसने स्वच्छ कर दिया था

ऐसा जान पड़ता है उसने अंत को नकार दिया था

उसकी ऑंखों में हुए मोतियाबिंद के स्रोत को

उँगलियों के कोरो की चटकन और मवाद को

यहाँ तक कि वह टेस्ट टयूब या पेंसिल पकड़ने

में भी असमर्थ हो गई

वह मर गई, एक ख्यातिलब्ध स्त्री नकारती रही

अपने घावों को

नकारती रही

अपने घावों को जिनका उद्गम वहीं से हुआ था जहाँ से उसकी अजस्र शक्ति का।

4.हमारा समूचा जीवन

हमारा समूचा जीवन जायज़

मामूली झूठों का अनुवाद हैं

और अब असत्यों की गाँठ स्वयं को

ही निरस्त करने के लिए कुतर रही है

शब्द ही शब्द को डँस रहे हैं

सारे अभिप्राय जलती मशाल की

लपटों में बदरंग हो गए हैं

वे सभी बेजान चिट्ठियाँ

जो उत्पीड़कों की भाषा में अनूदित थीं

डॉक्टर को अपनी पीड़ा बताने की कोशिश

करते अल्जीरियन की भाँति हैं

जो अपने गाँव से हल्के मखमली

कंबल में लिपटा

सम्पूर्ण दग्ध देह के साथ दर्द से

घिरा चला आया है

और उसके पास बयान के लिए कोई शब्द नहीं है

सिवाय खुद के।

(प्रसिद्ध स्त्रीवादी लेखिका एंड्रीनी रिच की अंग्रेजी कविताओं का अनुवाद, अनुवादिका- विजया सिंह, रिसर्च स्कॉलर, कलकत्ता विश्‍वविद्यालय, कोलकाता)

मधुसूदनजी की कविता: मास्‍को में बारिश, मुंबई में छाता

बिन बादल,

बिन बरसात,

बिना धूप,

सर पर छाता!

एक लाल मित्र मुम्बई में मिले।

पूछा, भाई छाता क्यों, पकडे हो?

बारिश तो है नहीं?

तो बोले,

वाह जी,

मुम्बई में बारिश हो,

या ना हो, क्या फर्क?

मास्को में तो, बारिश हो रही है।

१० साल बाद।

जब मास्को से भी कम्युनिज़्म

निष्कासित है।

अब भी वे मित्र, बिन बारिश

छाता ले घूम रहे हैं।

हमने किया वही सवाल–

कि भाई छाता क्यों खोले हो?

अब तो मास्को में भी बारिश बंद है?

तो बोले देखते नहीं

अब तो जूते बरस रहें है।

{सूचना: आज कल चीन में वर्षा हो रही है।}

राजीव दुबे की कविता : प्रश्नों के बढ़ते दायरे

प्रश्नों के दायरे बढ़ रहे हैं,

और आवाजें फुसफुसाहटों से कोहराम में बदल रही हैं।

‘कलावती’ का नाम लेकर संसद में तालियाँ तो बज़ गईं,

और ‘कलावती’ को कुछ रुपये भी मिल गये होंगे – सहायता के नाम पर।

अब उसी ‘कलावती’ और उस जैसों के हजारों करोड़ लुट गए दिल्ली की निगरानी में – खेल-खेल में,

और आप चुप हैं राहुल जी।

इसे आपकी नियत का खोट कहें हम, या अयोग्यता का नाम दें,

पर हमें यह न कहिएगा कि यह केवल अफसरों की करामात थी, या कि आप अंजान हैं।

दूरसंचार के घोटालों में भी,

हम बेचारे नागरिक देखते रहे दूर – दूर से ….।

और लुटते रहे हमारे हक के पैसे आपकी सरकार के मंत्रियों की निगरानी में,

अब बैठ जाएगी कोई जाँच और हम करेंगे एक अंतहीन इंतजार।

अब न कहिएगा हमसे कि,

यह तो मनमोहन जी जानें।

सोनिया जी की कितनी ज्यादा चलती है,

यह हम सब – ‘कलावती’ और ‘नत्थू लाल’ – अच्छी तरह से पहचानें।

प्रश्नों के दायरे बढ़ रहे हैं,

और आवाजें कोहराम से नारों में बदल रही हैं।

कारगिल के नाम पर बनी इमारत की नींव के नीचे,

दफन कर दी आपकी सरकार ने सारी नैतिकता सरकार चलाने की, और आप चुप हैं !

महँगाई की मार झेल-झेल कर सुन्न पड़ गई जनता की जीभ,

और आप हैं, कि चले आते हैं तसला लेकर मिट्टी उठाने – बनाने को हमारा मजाक।

अच्छा लगता हमें अगर सस्ती होती दाल,

और मिल जाता दो वक्त थोड़ा प्याज मेहनत का – अपना तसला तो हम खुद भी उठा लेते।

प्रश्नों के दायरे बढ़ रहे हैं,

और आवाजें नारों से आंदोलनों में बदल रही हैं …।

कारपोरेट मीडिया में घृणा की उपासना

-जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

इन दिनों कारपोरेट मीडिया आरएसएस के नेता इन्द्रेश कुमार के कवरेज पर लगा हुआ है। कुछ लोग सोच रहे होंगे कि इससे संघ परिवार समाज में नंगा हो जाएगा। वे सब गलतफहमी के शिकार हैं। सवाल उठता है क्या इससे आरएसएस को सामाजिक तौर पर अलग-थलग करने में मदद मिलेगी? या इससे आरएसएस को राजनीतिक लाभ मिलेगा? इस कवरेज से संघ परिवार को कोई राजनीतिक नुकसान नहीं होगा। घृणा का प्रचार उसे और मजबूत करेगा। गुजरात के संदर्भ में किया गया घृणा प्रचार अंततः संघ परिवार के लिए वरदान साबित हुआ है। बाबरी मसजिद का कवरेज जजों तक को प्रभावित करने में सफल रहा है। मूल बात यह कि घृणा को प्रचार से सामाजिक तौर पर अलग-थलग करना संभव नहीं है। प्रचार से घृणा बढ़ती है घटती नहीं है।

इससे भी बड़ा सवाल यह है कि कारपोरेट मीडिया निरंतर घृणा के सवालों पर कवरेज क्यों बनाए हुए है? कारपोरेट मीडिया में घृणा सुंदर लगती है। इससे रेटिंग, विज्ञापन, घृणा की राजनीति करने वाले संगठनों की शक्ति और मीडिया की बिक्री में इजाफा होता है। भारत में विगत 60 सालों में घृणा से प्यार करने वालों की संख्या बढ़ी है। मीडिया में घृणा का कवरेज बढ़ा है।

पहले हमारे अंदर घृणा के खिलाफ सामूहिक तौर पर आवाज उठाने की परंपरा थी। तमाम किस्म की सामाजिक रूढ़ियों के खिलाफ समाज को जाग्रत करने का मीडिया और समाज सुधारकों ने प्रयास किया था। आजादी के आंदोलन में भी कमोबेश इस पहलू को लेकर सतर्कता थी,इसका परिणाम यह हुआ कि मीडिया में उन लोगों को कम कवरेज मिलता था जो घृणा फैलाते थे। सहिष्णुता के कवरेज पर जोर था। भारत में असहिष्णुता फैलाने वाले निशाने पर हुआ करते थे। मीडिया उन्हें निशाना बनाता था।

लेकिन आजादी के बाद से क्रमशः यह फिनोमिना घटता गया है। भारत विभाजन के समय प्रेस में घृणा के प्रचारकों को व्यापक कवरेज मिला इससे सहिष्णुता के पक्ष में मीडिया में जो संयुक्त मोर्चा बना था वह टूट गया। हिन्दू मीडिया और मुस्लिम मीडिया के रूप में प्रेस बंट गया।

प्रथम प्रेस कमीशन ने भारत विभाजन के समय मीडिया की साम्प्रदायिक भूमिका की विस्तृत आलोचना की है। जो लोग सोचते हैं कि मीडिया और खासतौर पर कारपोरेट मीडिया सामाजिक बंधुत्व का प्रचार करता है वे गलतफहमी के शिकार हैं। समय-समय पर कारपोरेट मीडिया घृणा फैलाने वाले विषयों को चुनता रहा है और घृणा और असहिष्णुता को कवरेज देता रहा है। इन दिनों कारपोरेट मीडिया कवरेज की धुरी सहिष्णुता नहीं है।

आज चारों ओर जिस तरह घृणा को व्यापक सामाजिक स्वीकृति मिली हुई है उसकी जड़ों में कारपोरेट मीडिया की लंबी साधना का हाथ है। भारत में मीडिया ने घृणा को समय-समय पर उठाकर क्षेत्रीय स्तर पर संगठित किया है।

भारत विभाजन के कवरेज ने मुसलमानों के प्रति असहिष्णुता के बीज बोए थे जो आज घृणा का बड़ा वटवृक्ष बन गया है। उस समय हिन्दू मीडिया और मुस्लिम मीडिया की धारणा के आधार पर भारत और पाक, हिन्दू और मुसलमान की खबरों को एक खास किस्म की आख्यानशैली में पेश करने की परंपरा का आरंभ हुआ था।

मैनस्ट्रीम मीडिया बुरी तरह साम्प्रदायिक आधार पर बंटा हुआ था, दूसरी ओर उर्दू मीडिया में हिन्दू विरोधी आधार पर मुसलमानों की लामबंदी शुरू हुई। इसका कालांतर में उर्दू के पठन-पाठन,मुसलमानों के सामाजिक विकास और उर्दू प्रेस के विकास पर बहुत बुरा असर हुआ। मुसलमानों की विगत 60 सालों में बदहाल अवस्था होती चली गयी,उर्दू शिक्षा का ह्रास हुआ,उर्दू प्रेस तबाह हो गया।

मैं इस घृणा के माहौल पर लिखे सआदत हसन मंटो के एक निबंध के दो अंश उद्धृत करना चाहूँगा-

‘अजब थी बहार और अजब सैर थी।

जी ने कहा घर से निकल, टहलता-टहलता ज़रा बाग़ चल।

बाग़ पहुँचने से पहले, जाहिर है, मैंने कुछ बाजार और कुछ गालियाँ तय की होंगी और मेरी आँखों ने कुछ देखा भी होगा -पाकिस्तान तो पहले ही का देखाभाला था, पर जब से जिंदाबाद’ हुआ, वह कल सबेरे देखा।

बिजली के खंबे पर देखा, परनाले पर देखा,शःनशीन (बैठने की चौकी) पर देखा,छज्जे पर देखा,चौबारे पर देखा-गरज़ेकि हर जगह देखा और जहाँ न देखा,वहाँ देखने की हसरत लिए घर लौटा।

पाकिस्तानः जिंदाबाद-यह लकड़ियों का टाल है।

पाकिस्तानःजिंदाबाद-फ़टाफ़ट मुहाजिर हेयर कटिंग सैलून।

पाकिस्तानःजिंदाबाद-यहाँ ताले मरम्मत किए जाते हैं।

पाकिस्तानःजिंदाबाद-गरमा गरम चाय।

पाकिस्तानःजिंदाबाद- बीमार कपड़ों का हस्पताल।

पाकिस्तानःजिंदाबाद-अलहमदुलिल्लाह कि यह दूकान सैयद अनवार हुसैन मुहाजिर जालंधरी के नाम अलाट हो गई है. सुबह का वक़्त था ।अजब बहार थी और अजब सैर थी।

करीब-करीब सारी दूकानें बंद थीं।

एक हलवाई की दूकान खुली थी -मैंने कहा,चलो लस्सी पीते हैं।

दूकान की तरफ़ बढ़ा तो देखता हूँ,बिजली का पंखा चल तो रहा है,लेकिन उसका मुँह दूसरी ओर है।

मैंने हलवाई से कहाः ‘‘ यह उलटे रूख़ पंखा चलाने का क्या मतलब है ?’’

उसने घूरकर मुझे देखा और कहाः ‘‘देखते नहीं हो…’’

मैंने ग़ौर से देखा- पंखे का रूख़ कायदे-आजम अली जिनाह की रंगीन तसवीर की तरफ था, जो दीवार के साथ आवेज़ा ( लटका हुआ) थी- मैंने ज़ोर का नारा लगायाः ‘पाकिस्तान जिंदाबाद’ और लस्सी पिए बगैर वापस चल दिया।’’

मंटो के जरिए यह खाली एक बानगी है उस उन्माद की जो साम्प्रदायिकता पैदा करती है। हमारे यहां भी कई मसलों पर इसी तरह का उन्माद देखा गया है।

साम्प्रदायिकता कैसे भाषा बदलती है इसका एक नमूना मंटो के शब्दों में देखें-

‘ज़रा आगे एक देहलवी मुजाहिर अपने साहबज़ादे के साथ सैर फरमा रहे थे।

साहबज़ादे ने उनसे कहाः ‘‘अब्बाजान, आज हम छोले खाएँगे।’’

अब्बाजान के कान सुर्ख हो गएः ‘‘क्या कहा ?’’

बरख़ुर्रदार ने जबाब दियाः ‘‘हम आज छोले खाएँगे।’’

अब्बाजान के कान और सुर्ख हो गएः ‘‘छोले क्या हुआ, चने कहो।’’

बरख़ुरदार ने बड़ी मासूमियत से कहाः ‘‘नहीं अब्बाजान, चने दिल्ली में होते हैं…यहाँ सब छोले ही खाते हैं।’’

अब्बाजान के कान असली हालत पर आ गए।’

कहने का अर्थ यह है कि घृणा का प्रचार हमारी भाषा को भी प्रभावित करता है। घृणा के प्रचार की खूबी है कि वह व्यक्ति को उत्प्रेरित करता है। मीडिया हमेशा घृणा को महिमामंडित करता है और उसे आकर्षक बनाता है। खासकर असहिष्णुता की बातें, मुहावरे और भाषा को सक्रिय कर देता है,उसका अभ्यस्त बना देता है। इसी अर्थ में घृणा की खबर बुरी खबर होती है।

आज घृणा की खबरों के रूप में सामाजिक घृणा, धार्मिकघृणा, जातिघृणा, लिंगविद्वेष आदि को रूपायित करने वाली खबरें धडल्ले से आ रही हैं। घृणा के आधार पर नौकरियों में भर्ती, घृणा के आधार पर दुकानदार का चयन, किराएदार का चयन,घृणा के आधार पर कारपोरेट मीडिया में प्रचार,घृणा के आधार पर सामाजिक शिरकत,यहां तक कि टीवी कार्यक्रमों में कलाकारों की हिस्सेदारी को भी चुनौती दी जा रही है, इसे कारपोरेट मीडिया खूब उछाल रहा है। हिन्दुत्व, माओवाद, आतंकी, हिजबुल मुजाहिदीन, पृथकतावादी संगठनों, सर्वखाप पंचायत आदि का कारपोरेट मीडिया द्वारा दिया गया कवरेज घृणा की कोटि में आता है।

कारपोरेट मीडिया द्वारा किए जा रहे घृणा के कवरेज ने सहिष्णुता के एजेण्डे की मीडिया से विदाई कर दी है। इससे हमारी भाषा, मूल्य और सामाजिक एक्शन प्रभावित हो रहे हैं। हम घृणा के प्रति सहज हो गए हैं, अनेक लोगों ने घृणा के साथ सामंजस्य भी बिठा लिया है। उसमें आनंद लेने लगे हैं। उसकी हिमायत करने लगे हैं। यह हमारे सांस्कृतिक क्षय की निशानी है।

छत्तीसगढ़ : एक अटल-प्रतिज्ञा जो पूरी हुई

– अशोक बजाज

वह दृश्य अभी भी आँखों से ओझल नहीं हो पाया है जब 31 अक्टूबर 2000 को घड़ी की सुई ने रात के 12 बजने का संकेत दिया तो चारों तरफ खुशी और उल्लास का वातावरण बन गया। लोग मस्ती में झूमते- नाचते एक दूसरे को बधाइयाँ दे रहे थे .प्रधानमंत्री माननीय अटलबिहारी वाजपेयी की चारोँ तरफ जय-जयकार हो रही थी .घर घर में दीपमल्लिका सजा कर रोशनी की गई थी.आतिशबाज़ी का नजारा देखते ही बनता था . पहली सरकार कांग्रेस की बननी थी सो कुर्सी के लिए उठापटक का दौर बंद कमरे में चल रहा था. लोग एक तरफ नए राज्य निर्माण की खुशी मना रहे थे तो दूसरी तरफ कौन बनेगा प्रथम मुख्यमंत्री इस जिज्ञाषा में अपना ध्यान राजनीतिक गलियारों की ओर लगायें थे.

राज्य का गठन करना कोई हंसी खेल तो था नहीं। कई वर्षों से लोग आवाज उठा रहे थे अनेक तरह से आंदोलन भी करते रहे लेकिन राज्य का निर्माण नहीं हो पाया था। इस बीच प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी ने सन 1998 में सप्रेशाला रायपुर के मैदान में एक अटल-प्रतिज्ञा की कि यदि आप लोकसभा की 11 में से 11 सीटों में भाजपा को जितायेंगे तो मैं तुम्हें छत्तीसगढ़ राज्य दूंगा। लोकसभा चुनाव का परिणाम आया। भाजपा को 11 में से 8 सीटे मिली लेकिन केंद्र में अटल सरकार फिर से बनी। प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी ने अपनी प्रतिज्ञा के अनुरूप राज्य निर्माण के लिए पहले ही दिन से प्रक्रिया प्रारंभ कर दी। मध्यप्रदेश राज्य पुर्निर्माण विधेयक 2000 को 25 जुलाई 2000 में लोकसभा में पेश किया गया। इसी दिन बाक़ी दोनों राज्यों के विधेयक भी पेश हुए। 31 जुलाई 2000 को लोकसभा में और 9 अगस्त को राज्य सभा में छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण के प्रस्ताव पर मुहर लगी। 25 अगस्त को राष्ट्रपति ने इसे मंज़ूरी दे दी। 4 सितंबर 2000 को भारत सरकार के राजपत्र में प्रकाशन के बाद 1 नवंबर 2000 को छत्तीसगढ़ देश के 26वें राज्य के रूप में अस्तित्व में आया और एक अटल- प्रतिज्ञा पूरी हुई .

सी.पी. बरार

छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण के पहले हम मध्यप्रदेश में थे। मध्यप्रदेश का निर्माण सन 1956 में 1 नवम्बर को ही हुआ था। हम 1 नवम्बर 1956 से 31 अक्टूबर 2000 तक यानी 44वर्षों तक मध्यप्रदेश के निवासी थे तब हमारी राजधानी भोपाल थी। इसके पूर्व वर्तमान छत्तीसगढ़ का हिस्सा सेन्ट्रल प्रोविंस एंड बेरार ( सी.पी.एंड बेरार ) में था तब हमारी राजधानी नागपुर थी। इस प्रकार हम पहले सी.पी.एंड बेरार,तत्पश्चात मध्यप्रदेश और अब छत्तीसगढ़ के निवासी है। वर्तमान छत्तीसगढ़ में जिन लोंगों का जन्म 1 नवम्बर 1956 को या इससे पूर्व हुआ वे तीन राज्यों में रहने का सुख प्राप्त कर चुकें है।

परंतु छत्तीसगढ़ राज्य में रहने का अपना अलग ही सुख है। अगर हम भौतिक विकास की बात करे तो छत्तीसगढ़ के संदर्भ में यह कहा जा सकता है कि हमने 10 वर्षों से लंबी छलांग लगाई है। मैं यह बात इसीलिए लिख रहा हूँ क्योंकि हम 1 नवम्बर 2000 के पहले देश की मुख्य धारा से काफी अलग थे। गरीबी, बेकारी, भूखमरी, अराजकता और पिछड़ापन हमें विरासत में मिला। छत्तीसगढ़ इन दस वर्षों में गरीबी, बेकारी, भुखमरी, अराजकता एवं पिछड़ापन के खिलाफ संघर्ष करके आज ऐसे मुकाम पर खड़ा है जहां देखकर अन्य विकासशील राज्यों को ईर्ष्या हो सकती है। इस नवोदित राज्य को पलायन व पिछडापन से मुक्ति पाने में 10 वर्ष लग गये। सरकार की जनकल्याणकारी योजनाएं से नगर, गांव व कस्बों की तकदीर व तस्वीर तेजी से बदल रही है। छत्तीसगढ़ की मूल आत्मा गांव में बसी हुई है, सरकार के लिए गांवों का विकास एक बहुत बड़ी चुनौती थी लेकिन इस काल-खण्ड में विकास कार्यों के सम्पन्न हो जाने से गांव की नई तस्वीर उभरी है। गांव के किसानों को सिंचाई, बिजली, सड़क, पेयजल, शिक्षा व स्वास्थ जैसी मूलभूत सेवाएं प्राथमिकता के आधार पर मुहैया कराई गई है। हमें याद है कि पहले गाँवों में ग्राम पंचायतें थी लेकिन पंचायत भवन नहीं थे, शालाएं थी लेकिन शाला भवन नहीं थे, सड़के तो नहीं के बराबर थी, पेयजल की सुविधा भी नाजुक थी लेकिन आज गांव की तस्वीर बदल चुकी है। विकास कार्यों के नाम पर पंचायत भवन, शाला भवन, आंगनबाड़ी भवन, मंगल भवन, सामुदायिक भवन, उप स्वास्थ केन्द्र, निर्माला घाट, मुक्तिधाम जैसे अधोसंरचना के कार्य गांव-गांव में दृष्टिगोचर हो रहे हैं। अपवाद स्वरूप ही ऐसे गांव बचें होंगे जहाँ बारहमासी सड़कों की सुविधा ना हो ; गांवों को सडकों से जोड़ने से गांव व शहर की दूरी कम हुई है। अनेक गंभीर चुनौतियों के बावजूद ग्रामीण विकास के मामले में छत्तीसगढ़ ने उल्लेखनीय प्रगति की है। छत्तीसगढ़ को भूखमरी से मुक्त कराने के लिए डा. रमन सिंह की सरकार ने बी. पी. एल. परिवारों को 1 रुपये/२ रुपये किलों में प्रतिमाह 35 किलों चावल देने का एतिहासिक निर्णय लिया जो देश भर में अनुकरणीय बन गया है। किसानों को 3 %ब्याज दर पर फसल ऋण प्राप्त हो रहा है। स्कूली बच्चों को मुफ्त में पाठ्य पुस्तकें उपलब्ध कराई जा रहीं है। वनोपज संग्रहणकर्ता मजदूरों को चरण -पादुकाएं दी जा रहीं है। अगर यह संभव हो पाया तो केवल इसलिए कि माननीय अटलबिहारी वाजपेयी ने एक झटके में छत्तीसगढ़ का निर्माण किया; छत्तीसगढ़ की जनता उनका सदैव ऋणी रहेगीं।

चित्र परिचय:  छत्तीसगढ़ के निर्माता माननीय अटल जी का 36लाख पंखुड़ियों की पुष्पमाला से अभिनन्दन

लाडो के नये खलनायक अमन वर्मा

अभिनेता अमन वर्मा ने अपना अभिनय सफ़र छोटे परदे से ही आरम्भ किया था. देखने में आकर्षक अमन ने जब भी किसी धारावाहिक मे अभिनय किया है दर्शको ने हमेशा ही उसे सराहा है, चाहे वो ”क्योंकि सास भी कभी बहू थी” हो ”कुमकुम” हो या ”विरासत”.

अब अमन को दर्शक एक बार फिर देखेगें कलर्स पर प्रसारित लोकप्रिय धारावाहिक ”लाडो-न आना इस देस” में. इस धारावाहिक की टी आर पी को बेहतर सहारा देने के लिए अमन आ रहे हैं बहुत ही खतारनाक टाइप के खलनायक बन कर, जो कि अम्मा जी की सत्ता को पूरी तरह से हिला कर रख देंगे. आने वाले एपिसोड में अमन दिखायेगे अपने नये रंग.

वैसे आपको बता दे कि अमन पहली ही बार किसी धारावाहिक में विलेन का किरादार अभिनीत नही कर रहे हैं इससे पहले भी वो ”विरासत” में विलेन बन चुके हैं इसमें अभिनय के लिए उन्हें प्रशंसा भी बहुत मिली थी.

उन्होंने अब तक ”पचपन खम्भे लाल दीवारे, शांति, औरत, दुश्मन, खुल जा सिम सिम, पास हो तुम दूर भी, कहता है दिल, कुमकुम, जस्सी जैसी कोई नहीं ,तीन बहूरानियां, सुजाता, बेताब दिल की तमन्ना है, देवी, आदि धारावाहिकों के अलावा ”इस जंगल से मुझे बचाओ” जैसा रियल्टी शो किया और ”इंडियन आइडल” जैसे संगीत के कार्यक्रम को भी बहुत ही ख़ूबसूरती से पेश किया. तो तैयार हो जाइए उनके चाहने वाले उनके नये रूप को देखने के लिए कि क्या वो अम्मा जी का तख्ता पलट करते हैं या

IIT रुड़की : ये कैसी इंजीनियरिंग है? / सुरेश चिपलूनकर

अमूमन ऐसा माना जाता है कि IIT में आने वाले छात्र भारत के सबसे बेहतरीन दिमाग वाले बच्चे होते हैं, क्योंकि वे बहुत ही कड़ी प्रतिस्पर्धा करके वहाँ तक पहुँचते हैं। ऐसा भी माना जाता है कि यहाँ से निकले हुए प्रतिभाशाली दिमाग अपने नये-नये आईडियाज़ से देश और समाज को लाभान्वित करने के प्रकल्पों में लगायेंगे। जिन लोगों ने IIT रुड़की के छात्रों को टीवी पर “लिपस्टिक लगाओ प्रतियोगिता” में भाग लेते देखा होगा, उनकी कुछ धारणाएं अवश्य खण्डित हुई होंगी।

जिन लोगों ने IIT के “प्रतिभाशाली” छात्रों के “पुण्य प्रताप” नहीं देखे या इस बारे में नहीं जानते होंगे, उन्हें बताना जरुरी है कि रुड़की स्थित IIT के छात्रों ने कॉलेज में एक प्रतियोगिता आयोजित की थी, जिसे लिपस्टिक लगाओ प्रतियोगिता कहा गया। इसमें लड़कों ने मुँह में लिपस्टिक दबा रखी थी और उसे सामने वाली लड़की के होंठों पर उसे ठीक से लगाना था (मुझे यह नहीं पता कि यह “प्रतिभाशाली” आइडिया किस छात्र का था, किस शिक्षक का था या किसी आयोजन समिति का था), ऐसा “नावीन्यपूर्ण” आइडिया किसी IITian के दिमाग में आया होगा इस बात पर भी मुझे शक है… बहरहाल आइडिया किसी का भी हो, IIT रुड़की में जो नज़ारा था वह पूर्ण रुप से “छिछोरेपन” की श्रेणी में आता है और इसमें किसी भी सभ्य इंसान को कोई शक नहीं है।

इस घटना की तीव्र निंदा की गई और उत्तराखण्ड सरकार ने इसकी पूरी जाँच करने के आदेश दे दिये हैं।

पहले आप “छिछोरग्रस्त वीडियो” देखिये, फ़िर आगे बात करते हैं…

जब यह वीडियो टीवी चैनलों पर दिखाया गया तो स्वाभाविक रुप से “अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता”(?) के पक्षधर अपने-अपने तर्क लेकर खड़े हो गये। जब भी कभी इस प्रकार की कोई “अ-भारतीय” और “अशोभनीय” घटना होती है तो अमूमन उसका विरोध ABVP या विहिप द्वारा किया जाता है (NSUI के आदर्श, चूंकि रॉल विंसी घान्दी हैं इसलिये वह ऐसी घटनाओं का विरोध नहीं करती)। फ़िर मीडिया जिसे कि कोई बहाना चाहिये ही होता है कि वे किस तरह “भारतीय संस्कृति” की बात करने वालों को “पिछड़ा”, “बर्बर” और “हिंसक” साबित करें तड़ से इस पर पैनल चर्चा आयोजित कर डालता है। इस पैनल चर्चा में अक्सर “सेकुलरों” के साथ (खुद को तीसमारखां समझने वाले) “प्रगतिशीलों”(?) और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता वाले “वाचाल” मौजूद होते हैं।

ऐसे प्रगतिशील रटे-रटाये तर्क करते रहते हैं, जैसे कि “…यह प्राचीन देश “कामसूत्र” का देश है और हम ऐसे कृत्यों को सामान्य समझते हैं…” (इनसे पूछना चाहिये कि भईया जब यह कामसूत्र और खजुराहो का देश है तो क्या हम फ़ुटपाथ पर सेक्स करते फ़िरें?), या फ़िर तर्क ये होता है कि पुराने जमाने में भी भारतीय संस्कृति में इस तरह का खुलापन और “कामुकता” को राजा-महाराजों ने सामाजिक मान्यता दी थी (तो भईया, क्या हम भी राजाओं की तरह हरम और रनिवास बना लें और उसमें कई-कई औरतें रख लें? हमें मान्यता प्रदान करोगे?)…। इसी मूर्खतापूर्ण तर्क को आगे बढ़ायें तो फ़िर एक समय तो मनुष्य बन्दर था और नंगा घूमता था, तो क्या दिल्ली और रुड़की में मनुष्य को नंगा घूमने की आज़ादी प्रदान कर दें? कैसा अजीब तर्क हैं… भाई मेरे… यदि भारत में खजुराहो है… तो क्या हम भी अपने घरों में “इरोटिक” पेंटिंग्स लगा लें?

रही बात “अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता” की… तो इसका “वीभत्स देशद्रोही रुप” एक औरत हाल ही में हमें रायपुर, दिल्ली और कश्मीर में दिखा चुकी है, क्या “वैसी” अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता चाहते हैं ये प्रगतिशील लोग? भारत में अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का फ़ायदा एक “घटिया चित्रकार” पहले भी उठा चुका है, जिसे बड़ी मुश्किल से खदेड़ा गया था इस देश से।

और सबसे बड़ी बात यह कि, क्या IIT के ये छात्र, लड़कियों को लिपस्टिक लगाने को “स्वतन्त्रता” या “स्वस्थ प्रतियोगिता” मानते हैं? यदि मानते हैं तब तो इनकी बुनियादी शिक्षा पर ही सवाल उठाये जाने चाहिये। क्या IIT में पढ़ने वाले इन छात्रों को पता नहीं है कि आज भारत के गाँव-गाँव में बच्चे यहाँ तक पहुँचने के लिये कड़ी मेहनत कर रहे हैं और IIT उनके लिये एक सपना है, एक आदर्श है… वहाँ ऐसी छिछोरी हरकते करते उन्हें शर्म नहीं आई? कभी सोचा नहीं कि इस कृत्य के दृश्यों का प्रभाव “बाहर” कैसा पड़ेगा? नहीं सोचा तो फ़िर काहे के “प्रतिभाशाली दिमाग” हुए तुम लोग? भारत के इन चुनिंदा प्रतिभाशाली बच्चों को “अल्हड़”(?) और इसे “नादानी में किया गया कृत्य” कहा जा सकता है? जिस छिछोरे ने यह आइडिया दिया, क्यों नहीं उसी समय उसके मुँह पर तमाचा जड़ दिया गया? आज तुमने लिपस्टिक लगाओ प्रतियोगिता रखी है और “प्रगतिशील” उसका गाल बजा-बजाकर समर्थन कर रहे हैं…। इन सड़े हुए दिमागों का बस चले तो हो सकता है कि कल कॉलेज में तुम “ब्रा पहनाओ प्रतियोगिता” भी रख लो, जिसमें लड़के अपनी लड़की सहपाठियों को एक हाथ से “ब्रा पहनाकर देखें”…। फ़िर ABVP और विहिप को गालियाँ दे-देकर मन भर जाये और भारतीय संस्कृति और शालीनता को बीयर की कैन में डुबो दो… तब हो सकता है कि 3-4 साल बाद आने वाली IIT बैच के लड़के “पैंटी पहनाओ प्रतियोगिता” भी रख लें। यदि सड़क पर खुलेआम चुम्बन लेना और देवताओं के नंगे चित्र बनाना अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता है, तो उसके थोबड़े पर हमें भी चार चप्पल लगाने की स्वतन्त्रता दो भईया… यह भेदभाव क्यों?

ऐ, IIT वालों… माना कि तुममें से अधिकतर को भारत में नहीं रहना है, विदेश ही जाना है… तो क्या पश्चिम का सिर्फ़ नंगापन ही उधार में लोगे? तरस आता है ऐसी घटिया सोच पर…। कुछ दिन पहले दिल्ली के राजपथ पर BSF का एक जवान अपने चार बच्चों के साथ पूर्ण नग्न अवस्था में विरोध प्रदर्शन कर रहा था… उसका वह नंगापन भी “अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता” था, लेकिन नौकरी गंवाने और बच्चों को भूख से बेहाल देखकर उसने व्यवस्था के खिलाफ़ नंगा होना स्वीकार किया, जबकि IIT के इन छात्रों ने “नंगापन” सिर्फ़ और सिर्फ़ मस्तीखोरी के लिये किया… और यह अक्षम्य है… अपने घर के भीतर तुम्हें जो करना है करो, लेकिन सार्वजनिक जगह (और वह भी कॉलेज) पर ऐसी “अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता” कतई बर्दाश्त नहीं की जानी चाहिये…।

अब अन्त में कुछ सलाह ABVP और विहिप के लिये –

1) वर्तमान समय में यह बात हमेशा याद रखो कि मीडिया पर एक “वर्ग विशेष” का पूरा कब्जा है, जो हमेशा इस ताक में रहता है कि कैसे आपको बदनाम किया जाये, इसलिये प्रत्येक विरोध का तरीका शालीन, तर्कपूर्ण और सभ्य रखने की पूरी कोशिश करो…

2) छिछोरों को “जमकर रगेदने” का सबसे बढ़िया तरीका है “अदालत” का रास्ता, आपके पास वीडियो उपलब्ध है, उसमें दिखाई दे रहे लड़कों के खिलाफ़ “अश्लीलता फ़ैलाने” का आरोप लगाकर उन्हें कोर्ट में घसीटो। ऐसे दसियों कानून हैं और यदि जेठमलानी और जेटली जैसे वकीलों को छोड़ भी दिया जाये तो कोई भी सामान्य सा वकील इन उच्छृंखल और असभ्य लड़कों को कोर्ट के कम से कम 10-20 चक्कर तो आसानी से खिलवा सकता है। ये IIT के लड़के हैं, कोई ऊपर से उतरे हुए देवदूत नहीं हैं, जब MF हुसैन जैसे घाघ को सिर्फ़ मुकदमों के बल पर देशनिकाला दे दिया तो इन कल के लौण्डों की क्या औकात है।कोर्ट के 2-4 चक्कर खाते ही अक्ल ठिकाने आ जायेगी और फ़िर ऐसी छिछोरी हरकतें भूल जायेंगे और पढ़ाई में ध्यान लगाएंगे। इस प्रक्रिया में एकाध लड़के (जिसने यह फ़ूहड़ आइडिया दिया होगा) को IIT से बाहर भी निकाल दिया जाये तो देश पर कोई आफ़त नहीं टूट पड़ेगी… कम से कम आगे के लिये एक सबक तो मिलेगा।

तात्पर्य यह कि जिस तरह अक्षय कुमार को सरेआम अपनी पत्नी ट्विंकल द्वारा पैंट की चेन खोलने को लेकर पहले सार्वजनिक रुप से और फ़िर कोर्ट में रगेदा गया था, वैसा ही इन लड़कों को भी रगेदना चाहिये… अक्षय-ट्विंकल तो फ़िर भी पति-पत्नी थे, रुड़की के ये छात्र तो पति-पत्नी नहीं हैं। राखी सावन्त या मल्लिका शेरावत टीवी पर ऐसी हरकतें करें तो उसे एक-दो बार “इग्नोर” किया जा सकता है लेकिन कॉलेज (वह भी कोई साधारण दो कौड़ी वाला नहीं, बल्कि IIT) के सांस्कृतिक कार्यक्रम में ऐसी बदनुमा हरकत!!!

3) यही तरीका उन लड़कियों के लिये भी अपनाया जा सकता है जो कि हो सकता है अपने बॉयफ़्रेण्ड की फ़जीहत देखकर उसके बचाव में आगे आयें, लेकिन विरोध का तरीका वही अदालत वाला ही…। वरना कई “पिंक चड्डियाँ” भी आप पर हमला करने को तैयार बैठी हैं।

भारतीय संस्कृति को गरियाने और लतियाने का यह उपक्रम काफ़ी समय से चला आ रहा है और इसमें अक्सर “रईसों की औलादें” शामिल होती हैं, चाहे मुम्बई की रेव पार्टियाँ हों, रात के 3 बजे दारु पीकर फ़ुटपाथ पर गरीबों को कुचलना हो, कॉलेज के सांस्कृतिक कार्यक्रम में कपड़े उतारना हो, या फ़िर एमटीवी मार्का “चुम्बन प्रतियोगिता”, “वक्ष दिखाओ प्रतियोगिता”, “नितम्ब हिलाओ प्रतियोगिता”…इत्यादि हो। परन्तु IIT के छात्रों द्वारा ऐसा छिछोरा मामला सार्वजनिक रुप से पहली बार सामने आया है जो कि गम्भीर बात है। फ़िर भी जैसा कि ऊपर कहा गया है, श्रीराम सेना जैसा मारपीट वाला तरीका अपनाने की बजाय, इन “हल्के” लोगों को न्यायालय में रगड़ो, देश के विभिन्न हिस्सों में पार्टी और संगठन के वकीलों की मदद से ढेर सारे केस दायर कर दो… फ़िर भले ही इन के बाप कितने ही पैसे वाले हों… जेसिका लाल को गोली मारने वाले बिगड़ैल रईसजादे मनु शर्मा की तरह जब एड़ियाँ रगड़ते अदालतों, थानों, लॉक-अप के चक्कर काटेंगे, तब सारी “पश्चिमी हवा” पिछवाड़े के रास्ते से निकल जायेगी… ध्यान में रखने वाली सबसे प्रमुख बात यह है कि “कथित उदारतावादियों”, “अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के कथित पक्षधरों”, “अश्लील से अश्लील बात को भी हमेशा भारतीय इतिहास और संस्कृति से जोड़ने वालों” इत्यादि की कतई परवाह न करो… ये भौंकते ही रहेंगे और मीडिया भी इन्हीं को अधिक कवरेज भी देगा।

फ़िर ऐसा भी नहीं है कि ABVP या विहिप को “इन जैसों” के खिलाफ़ आक्रामक रुख अपनाना ही नहीं चाहिये, जब पानी सिर के ऊपर से गुज़रने लगे तो इन पर और आसपास मौजूद कैमरों पर कम्बल ओढ़ाकर एकाध बार “जमकर सार्वजनिक अभिनन्दन” करने में कोई बुराई नहीं है। फ़िर भी कोई इस मुगालते में न रहे कि ये लोग मुन्ना भाई की तरह सिर्फ़ गुलाब भेंट करने से मान जायेंगे… गुलाब के नीचे स्थित चार-छः कांटों वाली संटी भी खास जगह पर पड़नी चाहिये…।

संघ के बहाने, चले वोट कमाने

-तरुणराज गोस्वामी

किसी गाँव में एक कुत्ता रहता जो खा–खाकर बहुत मोटा तगड़ा हो रहा था। उसने गाँव में अच्छी खासी धमक जमा रखी थी, उसने गाँव भर में फैला रखा था कि उसके पूर्वज ही हर प्रकार के हमलों से ग्रामीणों की रक्षा करते रहे हैँ और वही सबका रखवाला है ये अलग बात है कि अपनी धमक का इस्तेमाल करते हुये वह किसी भी घर किसी भी रसोई में अपना मुँह मार आता और गुर्राता अलग। उसके ऐसे कामोँ से गाँव में उसका सम्मान �¤ �र डर पहले जितने नहीं रह गये थे। अपनी आदतों को सुधारने की बजाय वह थोड़ा उदास रहने लगा, सोचते– सोचते वह गाँव में नये – नये रहने आये परिवार के पास जाकर दुम हिलाने लगा लेकिन वहाँ से भी फटकार दिया गया। वह पहले ही गाँव में अपनी घटती साख से परेशान था उस पर नये परिवार से भी तवज्जो न मिलने पर उसे अपने खाने पीने के लाले पड़ते नज़र आये। वह बैठा विचार कर ही रहा था कि अचानक उसके चेहरे पर मुस्कान आ गयी, उसे अपने पूर्वजो का अपनाया तरीका जो याद आ गया था। अगले दिन वह उस परिवार के पास पहुँचा और कहा कि गाँव में जंगल से एक शेर आता है जो तुम लोगोँ को ही नुकसान पहुँचा सकता है क्योँकि गाँव के अधिकांश लोगों को वह जानता है और उन पर हमला नहीं करता, इसलिये तुम मेरा ध्यान रखो मैं तुम्हारा, और हाँ हो सके तो अपने संबंधियों को भी इसी गाँव में रहने बुला लो। परिवार के मुखिया को बाते जम गयी, उसने कुत्ते को खूब खिलाया भी और अपने परिचितो को रहने बुलाया भी। आज सालो बाद उस गाँव में उसी कुत्ते के वंशजों की ही धाक है, साथ ही उस वक्त के नये परिवार के सदस्योँ की संख्या गाँव की आधी आबादी के लगभग है।

‘’तेरा वैभव अमर रहे माँ’’ के वाक्य को अपने प्राण – प्रण से आत्मसात करने वाला संघ एक बार फिर बिकाऊ मीडिया और खाऊ काँग्रेस के निशाने पर है। पूरे प्रकरण में सरकार की मतकमाऊ एजेंसियां सरकार ही के इशारे पर मुख्य भूमिका निभा रही है। भारत की कैसी घोर विडम्बना है कि एक चार्जशीट में एक कार्यकर्ता का एक बार नाम जाने भर से एक राष्ट्रभक्त संगठन पर ऊँगलियाँ उठाई जा रही है जबकि देश को गाली देने वालोँ से बात करने को मरी जा रही सरकार कमर झुकाये कश्मीर तक पहुँच रही है। थोक वोटों को अपने कब्जे में बाँधे रखने के लिये काँग्रेस किस हद तक गिर सकती है किसी से छुपा नहीं रह गया है। धर्मनिरपेक्षता की दुहाई दे देकर अपनी राजनीति को जिंदा रखने वाली पार्टियों की असलियत गाहे बगाहे सामने आती ही रहती है। लेकिन वर्तमान में ‘भगवा आतंकवाद’ का जो जुमला उछाला जा रहा है वह भारत के भविष्य के लिए कतई सुखद नहीं होगा। एक वर्ग में दूसरे प्रति नफरत का जहर भरने वाले, अनपढ़ अशिक्षितों को बरगलाने वाले बुद्धिजीवी राजनेताओं के पास कोई जवाब है कि बेगुनाहों का बेवजह खून बहाने वाले आतंक का कोई रंग हो सकता है क्या? लेकिन लगता है विभाजनकारी नीतियों की राजनीति करने वाले दलों की आँखों पर वोटों की पट्टी बँध गयी है और उन्हें आतंक जैसे घिनौने कृत्‍य में भी राजनीति करने में अपना लाभ नज़र आ रहा है। ये वही दल है जो कल तक ईशरत जहाँ को निर्दोष बताते नहीं थकते थे , ये वही दल जो नहीं चाहते कि अफ़जल या कसाब को फांसी हो, ये वही दल है जो वंदेमातरम् का विरोध करते हैं, ये वही दल है जो महीने दो महीने में आजमगढ़ पहुँचकर राष्ट्रद्रोहियों की चौखट पर नाक रगड़ते हैं, ये वही दल है जो देश के लिये अपने प्राण न्यौच्छावर करने वाले शहीदोँ का अपमान करने से भी नहीं चूकते, ये वही दल है जिनके लिये राष्ट्र से बढ़कर सत्ता है। इन्हीं दलों की सत्ता लोभ के कारण देश को विभाजन का दंश झेलना पड़ा और इन्हीं लोगों के कारण कश्मीर आज तक सुलग रहा है।

इन्हीं दलों ने निश्चित ही रणनीति बना रखी होगी कि अयोध्या पर अदालत के निर्णय के बाद देश में कैसे आग लगाना है लेकिन संघ की संतुलित प्रतिक्रियाओं से इनको अपनी योजनाओं को अमलीजामा पहनाने का अवसर नहीं मिल पाया। बिहार चुनाव से ठीक पहले मिली इसी हताशा का ही परिणाम रहा होगा कि इन तथाकथित धर्मनिरपेक्षियों के युवराज संघ और सिमी को एक सा बताने पर ऊतारु हो गये। ये राजनीति का ओछापन या मानसिक दिवालियापन ही हो सकता है कि राहुल अपनी उम्र से ज्यादा पुराने संगठन को जाने बिना उस पर ऐसी ओछी टिप्पणी करते, सभी ने ऐसा ही सोचा होगा। लेकिन अगर गहराई से चिंतन किया जाये और वर्तमान में चल रहे संघ संबंधी विवादों को देखा जाये तो स्पष्ट हो जायेगा कि गाँधी उपनाम की बैसाखियोँ के सहारे चलते राहुल के पास जब बड़े– बड़े डिग्रीधारियोँ की फौज सलाहकार के रुप में आगे पीछे दौड़ती है तब वही राहुल ऐसी बचकानी हरकत कैसे कर सकता है लेकिन अब तो सभी को स्पष्ट हो जाना चाहिये कि बिहार के साथ आने वाले चुनावोँ में अपने युवराज की डूबती नैया को बचाने के लिये काँग्रेस परदेँ के पीछे कैसे कैसे षड्यंत्र रच रही है।

संघ जो विश्व का सबसे बड़ा स्वंयसेवी संगठन है और अपने अनुषांगिक संगठनों के माध्यम से सालों से समाज सेवा कर रहा है और राष्ट्रभक्ति जिस संघ की रग रग में रची बसी है, उस संघ पर ऐसे घिनौने आरोप मढ़ना किसी बड़े राजनैतिक षड्यंत्र का हिस्सा ही हो सकता है। लगता है काँग्रेस की रणनीति इस मुद्दे को और ज्यादा आगे तक ले जाने की है, जिससे कि काँग्रेस बढ़ती महँगाई, नक्सलवाद, आतंकवाद, कश्मीर की अस्थिर स्थिति और अन्य रुपों में सरकार की विफलता को ढँककर आमजन का ध्यान भटका सके साथ ही साथ काँग्रेस बाँटकर रखने के अपने पुराने खेल से विभिन्न पार्टियों में बिखर चुके अपने थोक वोट बैँक को फिर पा सके, नहीं तो काँग्रेस अपने युवराज को महाराज कैसे बना पायेगी। लाखों – करोड़ो लोगों को संस्कार देने वाले संघ पर सवाल खड़े करने के बहाने काँग्रेस केवल अपने खोये वोट को फिर कमाना चाहती है, काँग्रेस की ऐसी हरकतो से कभी – कभी शंका होती है कि काँग्रेस बंग्लादेशियोँ, पाकिस्तानियोँ को भारत लाकर बसा सकती है अगर उसे विश्वास हो जाये कि ये वोट उसे ही मिलेंगे, ठीक ऊपर लिखी कहानी के कुत्ते की तरह।

मीडिया की आचार संहिता बनाएगा पत्रकारिता विश्वविद्यालय

-माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल की महापरिषद की बैठक में कई महत्वपूर्ण फैसले

– डा. नंदकिशोर त्रिखा, प्रो. देवेश किशोर, रामजी त्रिपाठी और आशीष जोशी बने प्रोफेसर

भोपाल, 1 नवंबर, 2010। माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल की पिछले दिनों सम्पन्न महापरिषद की बैठक में कई महत्वपूर्ण निर्णय लिए गए। महापरिषद के अध्यक्ष और प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की अध्यक्षता में हुयी इस बैठक का सबसे बड़ा फैसला है मीडिया के लिए एक आचार संहिता बनाने का। इसके तहत विश्वविद्यालय मीडिया और जनसंचार क्षेत्र के विशेषज्ञों के सहयोग से तीन माह में एक आचार संहिता का निर्माण करेगा और उसे मीडिया जगत के लिए प्रस्तुत करेगा। पत्रकारिता विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो.बीके कुठियाला के कार्यकाल की यह पहली बैठक है, जिसमें विश्वविद्यालय को राष्ट्रीय स्वरूप देने के लिए महापरिषद ने अपनी सहमति दी और कहा है कि इसे मीडिया, आईटी और शोध के राष्ट्रीय केंद्र के रूप में विकसित किया जाए।

नए विभाग- नई नियुक्तियां- विश्वविद्यालय में शोध और अनुसंधान के कार्यों को बढ़ावा देने के लिए संचार शोध विभाग की स्थापना की गयी है। जिसके लिए प्रोफेसर देवेश किशोर की संचार शोध विभाग में दो वर्ष के लिये प्रोफेसर के पद पर नियुक्ति का फैसला लिया गया है। इस विभाग में मौलिक शोध व व्यवहारिक शोध के कई प्रोजेक्ट डॉ. देवेश के मार्गदर्शन में चलेंगें। प्रोफेसर (डॉ.) नंदकिशोर त्रिखा की दो वर्ष के लिये सीनियर प्रोफेसर पद पर नियुक्ति की गयी है। अगले दो वर्ष में डॉ. त्रिखा के मार्गदर्शन में मीडिया की पाठ्यपुस्तकें हिन्दी व अंग्रेजी में लिखी जाएंगी। इस काम को अंजाम देने के लिए विश्वविद्यालय में अलग से पुस्तक लेखन विभाग की स्थापना होगी। इसी तरह विश्वविद्यालय में प्रकाशन विभाग की स्थापना की गयी है। जिसमें प्रभारी के रूप में वरिष्ठ पत्रकार एवं पीपुल्स समाचार के पूर्व स्थानीय संपादक राधवेंद्र सिंह की नियुक्ति की गयी है, विभाग में सौरभ मालवीय को प्रकाशन अधिकारी बनाया गया है। अल्पकालीन प्रशिक्षण विभाग की स्थापना की गयी है, जिसके तहत श्री रामजी त्रिपाठी, केन्द्रीय सूचना सेवा (सेवानिवृत्त), पूर्व अतिरिक्त महानिदेशक, प्रसार भारती (दूरदर्शन) की दो वर्ष के लिये प्रोफेसर के पद पर अल्पकालीन प्रशिक्षण विभाग में नियुक्ति की गयी है। श्री त्रिपाठी जिला और निचले स्तर के मीडिया कर्मियों के लिये प्रशासन में कार्यरत मीडिया कर्मियों के लिये व वरिष्ठ मीडिया कर्मियों के लिये प्रशिक्षण व कार्यशालाओं का आयोजन करेंगे। इसी तरह श्री आशीष जोशी, मुख्य विशेष संवाददाता, आजतक की इलेक्ट्रॉनिक मीडिया विभाग में प्रोफेसर के पद पर नियुक्ति की गयी है। श्री आशीष जोशी, भोपाल परिसर में टेलीविजन प्रसारण विभाग में कार्यरत रहेंगे।

टास्क कर्मचारियों को दीपावली का तोहफा- विश्वविद्यालय में कार्यरत दैनिक वेतन पाने वाले लगभग 85 कर्मचारियों के वेतन में 25 प्रतिशत वृद्धि करने का फैसला किया गया है। इसी तरह शिक्षकों के लिए ग्रीष्मकालीन व शीतकालीन अवकाश की व्यवस्था भी एक बड़ा फैसला है। अब तक विश्वविद्यालय में जाड़े और गर्मी की छुट्टी (अन्य विश्वविद्यालयों की तरह) नहीं होती थी। आपात स्थिति के लिये 10 करोड़ रूपये का कार्पस फंड बनाया गया है , जिसमें हर वर्ष वृद्धि होगी। शिक्षक कल्याण कोष की स्थापना भी की गयी है। इसके अलावा चार प्रोफेसर, आठ रीडर व आठ लेक्चरार (कुल 20) अतिरिक्त शैक्षणिक पदों का अनुमोदन किया गया है, जिसपर विश्वविद्यालय नियमानुसार नियुक्ति की प्रक्रिया शुरू करेगा।

बनेगा स्मार्ट परिसरः विश्वविद्यालय के लिये भोपाल में 50 एकड़ भूमि पर ‘‘ग्रीन’’ व ‘‘स्मार्ट’’ परिसर बनाने के कार्यक्रम की शुरूआत की जाएगी। जिसके लिए भवन निर्माण शाखा की स्थापना भी की गयी है।

आगामी दो वर्षों में टेलीविजन कार्यक्रम निर्माण, नवीन मीडिया, पर्यावरण संवाद, स्पेशल इफैक्ट्स व एनीमेशन में श्रेष्ठ सुविधाओं का निर्माण के लिए यह परिसर एक बड़े केंद्र के रूप में विकसित किया जाएगा। इसके साथ ही आगामी पांच वर्षों में आध्यात्मिक संचार, गेमिंग, स्पेशल इफैक्ट्स, एनीमेशन व प्रकृति से संवाद के क्षेत्रों में अंतरराष्ट्रीय पहचान बनाने की तैयारी है।इस बैठक में प्रबंध समिति के कार्यों व अधिकारों का स्पष्ट निर्धारण भी किया गया है। बैठक में महापरिषद के अध्यक्ष मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान, जनसंपर्क मंत्री लक्ष्मीकांत शर्मा, कुलपति प्रो. बीके कुठियाला, रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय, जबलपुर के कुलपति प्रो. रामराजेश मिश्र, वरिष्ठ पत्रकार राधेश्याम शर्मा (चंडीगढ़), साधना(गुजराती) के संपादक मुकेश शाह, विवेक (मराठी) के संपादक किरण शेलार, सन्मार्ग- भुवनेश्वर के संपादक गौरांग अग्रवाल, स्वदेश समाचार पत्र समूह के संपादक राजेंद्र शर्मा, काशी विद्यापीठ के प्रोफेसर राममोहन पाठक, दैनिक जागरण भोपाल के संपादक राजीवमोहन गुप्त, जनसंपर्क आयुक्त राकेश श्रीवास्तव, छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री के सलाहकार अशोक चतुर्वेदी, विश्वविद्यालयय के रेक्टर प्रो.चैतन्य पुरूषोत्तम अग्रवाल, नोयडा परिसर में प्रो. डा. बीर सिंह निगम शामिल थे।

ये है दिल्ली मेरी जान

-लिमटी खरे

दीपावली पर लगा ओबामा का ग्रहण

अमावस्या के दिन होती है दीपावली। इस रात को घुप्प अंधेरे के बावजूद सारा हिन्दुस्तान कृत्रिम रोशनी से नहाया होता है। इस साल के त्योहारों पर मानो ग्रहण ही लग गया है। इस साल अधिकांश त्योहार वैसे भी रविवार के दिन ही पड़े, सो नौकरीपेशा लोगों की न जाने कितने दिनों की छुट्टी मारी गई। नवरात्र के समय राष्ट्रमण्डल खेलों ने दिल्लीवासियों का मजा फीका कर दिया था। वैसे भी दिल्ली में नवरात्र की खासी धूम रहा करती है। अब मुंबईवासियों पर दीपावली के मजे को किरकिरा करने की तैयारी की जा रही है। अवसर है दुनिया के चौधरी अमेरिका के महामहिम राष्ट्रपति बराक ओबामा की भारत यात्रा का। महाराष्ट्र की कांग्रेसनीत सरकार ने तुगलकी फरमान जारी कर दिया है कि मुंबईवासी दीपावली के पर उंची आवाज के फटाके नहीं चलाने का। स्काटलेंड यार्ड की पुलिस के बाद अघोषित तौर पर दूसरे नंबर का दर्जा पाने वाली मुंबई पुलिस भी चाह रही है कि मुंबईवासी उंची आवाज के फटाकों का प्रयोग न करें। यद्यपि इसके पीछे दलील दी जा रही है कि फटाखों की आवाजों से कहीं अफवाहें न फैलें और अफरातफरी का आलम न हो जाए, फिर भी कहा जा रहा है कि भारत गणराज्य के वजीरे आजम क्या इतना साहस कर पाएंगे कि वे क्रिसमस के मौके पर अमेरिका की यात्रा पर जाएंगे, और इस तरह की अफवाहों से बचने के लिए अमेरिका फटाखे फोड़ने या जश्न मनाने पर पाबंदी लगा पाएगा?

गेम्स में भी दिखी पीएम की असफलता की छाप

भारत गणराज्य का दुर्भाग्य है कि देश के प्रधानमंत्री पद पर आसीन शख्स ने आज तक कोई चुनाव सीधे सीधे नहीं जीता है। हमेशा ही सरदार मनमोहन सिंह ने पिछले दरवाजे से ही दाखिला लिया है। जब से मनमोहन सिंह ने प्रधानमंत्री का पद संभाला है तब से भारत में मंहगाई का ग्राफ है कि रूकने का नाम ही नहीं ले पा रहा है। कामन वेल्थ गेम्स में भी उनका यह प्रभाव देखने को मिल ही गया। खेलों के दौरान भारत ने हाकी में काफी उत्साहजनक प्रदर्शन किया। जिन भी खेलों को देखने कांग्रेस की राजमाता श्रीमति सोनिया गांधी, कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी और सोनिया गांधी के दमाद राबर्ट वढेरा गए, उन मैचों या खिलाडियों ने जीत हासिल की। हाकी के उत्साहजनक प्रदर्शन के बाद जब फायनल मैच देखने प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह पहुंचे तो भारत आठ शून्य से हार गया। कहने वाले यह कहने से भी नहीं चूक रहे हैं कि ‘‘जहां जहां पैर पड़े सन्तन के तहां तहां . .।‘‘

पितृ पुरूष को ही भूली भाजपा

भारतीय जनता पार्टी का वर्तमान नेतृत्व कितना कृतध्न है कि वह अपने पितृ पुरूष पूर्व महामहिम राष्ट्रपति भैरो सिंह शेखावत को ही भूल गई। भैरो सिंह शेखावत ने भाजपा की जड़ों को जमाने के लिए न जाने क्या क्या जतन किए थे। उनकी पुण्य तिथि पर भारतीय जनता पार्टी द्वारा न तो केंद्रीय स्तर पर ही उनके गृह राज्य राजस्थान में ही कोई कार्यक्रम आयोजित करना ही मुनासिब समझा। भाजपा के उदय और उसके कार्यक्षेत्र के विस्तार में भैरो सिंह शेखावत के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता है। अपने अविस्मरणीय योगदान के लिए भैरो सिंह शेखावत सदा ही याद किए जाते रहेंगे, किन्तु लगता है भाजपा के नए निजाम नितिन गड़करी ने बीती ताहि बिसार दे आगे की सुध लेय की कहावत पर अमल करना आरंभ कर दिया है, यही कारण है कि भाजपा के पितृ पुरूष समझे जाने वाले भैरो सिंह शेखावत की पुण्य तिथि पर उन्हें याद तक नहीं फरमाया गया।

स्तरहीन बयानबाजी पर उतरे राजनेता

कहते हैं प्रेम और जग में सब कुछ जायज है, किन्तु सब कुछ नैतिकता के साथ ही जायज माना गया है। बिहार में आसन्न विधानसभा चुनावों में एक दूसरे के दामन पर कीचड़ उछालने में राजनेता अपनी वर्जनाएं ही भूलते जा रहे हैं। मध्य प्रदेश से अपने राजनैतिक जीवन आरंभ करने वाले शरद यादव ने तो हद ही कर दी। एक चुनावी सभा में उन्होंने फरमाया कि जवाहर लाल, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, सोनिया गांधी के बाद अब बबुआ राहुल गांधी राजकाज करने वालों में शामिल हो रहे हैं। उन्हें जो लिखकर दिया जाता है, वे पढ़ देते हैं उन्हें कुछ नहीं पता होता है। एसे नेता को गंगा में फेंक देना चाहिए। शरद यादव की उक्त बात से साफ हो जाता है कि वे राहुल गांधी के बढ़ते प्रभाव से कितने खौफजदा हैं। बेहतर होता शरद यादव राहुल गांधी को आमने सामने बहस की चुनौति देते। हो सकता है शरद यादव, राहुल पर भारी पड़ते, किन्तु स्तर हीन बयानबाजी राजनैतिक परिवेश में जहर ही घोलने का काम करती है।

चर्चा में प्रिंट मीडिया का एक विज्ञापन!

देश के बारह राज्यों में अपने आधा सैकड़ा से अधिक संस्करण निकालने वाले 64 साल पुराने एक अखबार में प्रकाशित होने वाला एक विज्ञापन इन दिनों चर्चाओं में है। इस विज्ञापन में एक व्यक्ति की शवयात्रा के दृश्य के साथ कुछ कोटेशन लिखे हुए हैं, जिसमें तंबाखू के उत्पाद के सेवन को न करने का मशविरा दिया गया है, वह भी चेतावनी के साथ। इस विज्ञापन की खासियत यह है कि इसमें जिस कोटेशन का उपयोग किया गया है, वही कोटेशन तम्बाखू सहित एवं रहित पान के विकल्प के तौर पर प्रचलित पाउच की निर्माता एक नामी गिरामी कंपनी द्वारा उपयोग में लाया जाता रहा है। अब लोगों में जिज्ञासा इस बात की है कि आखिर उक्त मीडिया में घराना पत्रकारिता के एक स्तंभ माने जाने वाले उक्त विशाल समूह को आखिर यह गूढ ज्ञान कहां से प्राप्त हो गया कि उसने तम्बाखू के सेवन से होने वाले नुकसान के बारे में लोगों को जागरूक करना आरंभ कर दिया है, वह भी पाठकों के लिए जनहित की पहल के तौर पर। कहीं यह सब इसलिए तो नहीं क्योंकि उक्त पाउच निर्माता कंपनी द्वारा इस समूह को अपना विज्ञापन नहीं दिया गया?

और यह रहा सीबीएसई का एक नायाब कारनामा

देश भर में स्कूल संचालकों का काम अब बच्चों को शिक्षित करने के साथ ही साथ इसको व्यवसाय बनाने का हो गया है। बहुत ही मुनाफे का व्यवसाय बन गया है आज की तारीख में स्कूल खोलकर उसे संचालित करना। केपीटेशन फीस के नाम पर लाखों करोड़ों रूपए अब तक स्कूल संचालकों द्वारा डकारे जा चुके हैं। शाला संचालक चाहते हैं कि उनकी शाला को केंद्रीय शिक्षा बोर्ड (सीबीएसई) से एफीलेशन मिल जाए। हाल ही में मध्य प्रदेश में निजी तौर पर संचालिए एक शिक्षण संस्था के साथ भी सीबीएसई ने जो किया वह निश्चित तौर पर अपने आप में अद्भुत ही माना जाएगा। शैक्षणिक सत्र 2010 – 2011 के लिए मान्यता आवेदन के निरीक्षण प्रतिवेदन में कमियां पाए जाने पर आवेदन निरस्त कर नया आवेदन करने के लिए आदेशित करने के बाद भी सीबीएसई बोर्ड ने इसी सत्र के लिए उसी आवेदन पर पुनः निरीक्षण कमेटी का गठन कर दिया। कहा जा रहा है कि अब सीबीएसई बोर्ड भी ‘‘लेन देन‘‘ के चक्कर से मुक्त नहीं है।

मंदी पड़ी भारती की रिंगटोन

भारत की बड़ी टेलीकाम कंपनियों की सिरमोर भारती एयरटेल की घंटी की आवाज इन दिनों मंदी पड़ती दिख रही है। जून की तिमाही में इसका मुनाफा 23 फीसदी नीचे आ गया है। अगर इसमें भारती की अफ्रीकी कंपनी जैन को शामिल किया जाए तो इस दौरान नुकसान बढ़कर 32 फीसदी हो जाता है। अप्रेल से जून की तिमाही में भारती का मुनाफा 1662 करोड़ रूपए था, जबकि पिछले साल यह आंकड़ा 2475 करोड़ रूपए का था। घरेलू बाजार में कड़ी चुनौति का सामना करने वाली भारती के सामने सबसे अधिक प्राथमिकता इस बात की है कि वह अफ्रीकी इकाई को लाभ में लाए। भारत में आज टेलीकाम से जुड़ने वालों की संख्या साठ फीसदी है। अगस्त माह के बाद टेलीकाम बाजार में आई कंपनियों और मोबाईल सेवा प्रदाताओं की गलाकाट स्पर्धा के कारण भारती को वैसे भी कड़ी टक्कर का सामना करना पड़ रहा है। अटल बिहारी बाजपेयी के प्रधानमंत्रित्व काल में भारती टेलकाम ने अनेक राज्यों में अपनी आमद दी थी, किन्तु अब उसकी जड़ें उतनी मजबूत नहीं मानी जा सकती हैं।

सरल या निरीह हैं प्रधानमंत्री

पिछले दिनों राष्ट्रमण्डल खेलों के उद्घाटन के दौरान हुए एक वाक्ये के बाद यह बहस और तेज हो गई है कि भारत के अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री डॉ.मनमोहन सिंह बेहद ही सरल स्वभाव के हैं या निरीह हैं? कामन वेल्थ गेम्स का उद्घाटन हो रहा था, प्रधानमंत्री भी इस कार्यक्रम में शिरकत कर रहे थे। प्रधानमंत्री सिंह अपने लिए निर्धारित स्थान पर ही आसनी पर बैठे थे। इतने में राष्ट्रपति भवन के आला अधिकारी ने आकर पीएम से कहा कि वे अपने स्थान से थोड़ा सा हट जाएं, ताकि भारत गणराज्य की पहली महामहिम राष्ट्रपति के पति के लिए कुर्सी खाली हो सके। पीएम ने बिना ना नुकुर के आगा पीछा सोचे बिना ही देवी सिंह पाटिल के लिए स्थान दे दिया। देखा जाए तो यह प्रोटोकाल, सुरक्षा, और नैतिकता के लिहाज से उपयुक्त नहीं होने के साथ ही साथ अपमान जनक भी था। अब लोग कहने लगे हैं कि कहीं एसा न हो कि उन्हें किसी दिन कह दिया जाए कि आप 7, रेसकोर्स (प्रधानमंत्री के सरकारी आवास) से थोड़ा सा खिसक जाएं, इसे अब कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी का अशियाना बनाना है।

घर में नहीं हैं दाने, अम्मा चली भुनाने!

देश की राजनैतिक राजधानी दिल्ली में पेयजल आज भी सबसे बड़ी समस्या बना हुआ है। नब्बे फीसदी घरों में या तो वाटर प्यूरीफायर लगा हुआ है, या फिर बोतल बंद पानी का उपभोग ही किया जाता है, पर इस किल्लत से दिल्ली सरकार को लेना देना नहीं है। उसे तो परवाह है लो फ्लोर बस की चमचमाहट से। कामन वेल्थ गेम्स में देश का चेहरा उजला दिखाने की गरज से सड़कों पर दौड़ने वाली लो फ्लोर एसी और नान एसी बसों की धुलाई से उनकी चमक फीकी पड़ रही थी, सो इन लो फ्लोर बसों के रखरखाव का जिम्मा संभालने वाली टाटा कंपनी ने दिल्ली सरकार से आरओ वाटर के लिए प्लांट लगाने की इजाजत मांगी थी, जो उसे मिल गई है। सरकार ने नौ बस डिपो में रिवर्स ओसमोसिस (आरओ) प्लांट लगाने की इजाजत दी थी। आपको यह जानकर घोर आश्चर्य होगा कि दिल्ली में टेक्स देने वाले नागरिकों को साफ शुद्ध पानी मयस्सर नहीं है पर दिल्ली की लाईफ लाईन बन चुकी मेट्रो रेल गाड़ी की धुलाई भी आरओ जैसे अतिशुद्ध विषाणू रहित पानी से की जाती है। अब इसे कांग्रेसनीत शीला सरकार का चमत्कार ही माना जाए कि कांग्रेसनीत केंद्र सरकार की नाक के नीचे सब कुछ हो रहा है पर कांग्रेस के आलंबरदार मौन साधे हुए हैं।

चूहों का पैसा ही ‘‘कुतर‘‘ गया विश्वविद्यालय!

राजस्थान में एक बड़े विश्वविद्यालय द्वारा चूहां का पैसा ही कुतरने का मामला प्रकाश में आया है। राजस्थान विश्वविद्यालय के प्राणी शास्त्र विभाग के एनीमल हाउस में रखे दुर्लभ प्रजाति के चूहों के संरक्षण के लिए स्वीकृत किए गए 11 लाख रूपए उपयोग के अभाव में लेप्स हो गए, जिसकी चर्चाएं मानव संसाधन एवं विकास मंत्रालय में चटखारे लेकर हो रही हैं। एनीमल हाउस में रखे अमेरिकन प्रजाति के सफेद चूहों की नस्ल अमेरिका के सुप्रसिद्ध वी स्टार इंस्टीट्यूट के वैज्ञानिकों ने तैयार की थी। एचआरडी मिनिस्ट्री के सूत्रों का कहना है कि इसके लिए दिए गए 11 लाख रूपयों को एनीमल हाउस में रखे प्राणियों के लिए एयर कंडीशनर आदि लगाने के लिए प्रदाय किया गया था, चूंकि बड़ी तादाद में एसी लगवाने पर आने वाले बिजली के बिल को उठाने में विश्वविद्यालय ने असमर्थता जता दी थी अतः यह काम रोक दिया गया, और राशि लेप्स हो गई। वी स्टार के नाम से प्रसिद्ध ये चूहे प्रयोगशाला में प्रयोग के लिए सर्वश्रेष्ठ माने जाते हैं, पर विश्वविद्यालय प्रशासन की तुगलकशाही के चलते इनका संरक्षण का काम नहीं हो सका। आश्चर्य तो इस बात पर है कि इस मामले में प्राणियों पर होने वाले अत्याचार पर सदा ही बोलती रहने वाली मेनका गांधी भी खामोश ही हैं।

सुरक्षित हैं राजधानी वासी

राजधानी दिल्ली सदा से ही अपराधों के मामले में चर्चाओं में रही है। किन्तु राजधानी पुलिस के आंकड़ों के बाजीगरों ने इसे संतोषप्रद जताने में कोई कसर नहीं रख छोड़ी है। नेशनल क्राईम रिकार्ड ब्यूरो के आंकड़ों पर अगर गौर फरमाया जाए तो आला 35 शहरों में अपराध के मामले में मध्य प्रदेश की आर्थिक राजधानी इंदौर पहली, राजनैतिक राजधानी भोपाल दूसरी तो जयपुर तीसरी पायदान पर है। दिल्ली का नंबर 12वें स्थान पर आता है। यद्यपि ब्यूरो के उक्त आंकड़े 2007 के हैं, फिर भी दिल्ली वासी यह सोचकर संतोष कर सकते हैं कि वे भोपाल इंदौर के मुकाबले ज्यादा सुरक्षित हैं। इसमें से वाहन चोरी और सड़क दुर्घटनाओं को माईनस कर दिया जाए तो दिल्ली का नंबर 20वें स्थान पर आ जाता है। इंदौर का क्राईम रेट 792, भोपाल का 760, जयपुर का 606, जबलपुर 585, विजयवाड़ा 552, पटना 526, कोच्चि 487, आईटी सिटी बंग्लुरू 461, तो दिल्ली का यह रेट 398 है। 2009 में दिल्ली का क्राईम रेट घटकर 277 हो गया है।

कुमारतुंगे की गुपचुप यात्रा!

श्रीलंका की पूर्व महामहिम राष्ट्रपति चंद्रिका कुमारतुंगे पिछले दिनों मध्य प्रदेश के कान्हा अभ्यारण में सुस्ताने के बाद वापस रवाना हो गईं। कुमारतुंगे की कान्हा नेशनल पार्क की यात्रा को सुरक्षा कारणों से गोपनीय रखा गया था। गौरतलब है कि श्रीलंका में एलटीटीई के आतंक के सफाए में कुमारतुंगे की भी महती भूमिका रही है। इधर आदिवासी बाहुल्य मण्डला जिले की सीमा में अवस्थित कान्हा नेशनल पार्क का क्षेत्र भी नक्सलवादियों की शरणस्थली और कार्यस्थली के रूप में सालों से बना हुआ है। जब इसकी खबर मीडिया को लगी तो उन्होंने वन विभाग से संपर्क किया तब वन विभाग ने इस बात को महज अफवाह ही करार दिया। उनके भ्रमण के पूरे होने के बाद वन विभाग ने बताया कि सुरक्षा कारणों के चलते उनका दौरा गुप्त रखा गया था। कुमारतुंगे अपने साथ क्या संस्मरण लेकर गईं हो यह बात तो वे ही जाने पर किसी देश के पूर्व शीर्ष राजनयिक की यात्रा को गुप्त रखने से भारत गणराज्य की आंतरिक सुरक्षा कितनी मजबूत है, यह बात अपने आप ही सिद्ध हो जाती है।

पुच्छल तारा

दीपावली आने को है, दीपावली पर लक्ष्मी पूजा का चलन भारत में जबर्दस्त है। लोग कर्म के बजाए भाग्य और भगवान पर ही विश्वास कर हाथ पर हाथ रखे बैठे रहते हैं। इस मामले को रेखांकित करने के लिए अहमदाबाद से सुरभी बैस ने एक बेहतरीन ईमले भेजा है। सुरभी लिखती हैं कि बिल गेट्स ने लक्ष्मी पूजा कभी नहीं की, पर बिल गेट्स सबसे अमीर व्यक्ति हैं। आईंस्टीन ने कभी सरस्वती को नहीं पूजा पर वे सबसे इंटेलीजेंट साबित हुए, तो कर्म पर विश्वास रखें, भाग्य पर नहीं। वैसे भी किसी ने कहा है कि भाग्य के भरोसे बैठे रहने वाले वही पा पाते हैं, जो तेज दौडने वाले राह में पड़ी चीजों को चुनकर बाकी बेकार की चीजें छोड़ जाते हैं।

ईमेल संस्कृति के आर-पार

-जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

प्रवक्ता डॉट कॉम ने बहस चलाकर अच्छा काम किया है। मैं इधर-उधर की बातें न करके पहले सिर्फ उस फिनोमिना के बारे में कहना चाहता हूँ। जो पंकज और उनके जैसे लेखकों और युवाओं में घुस आया है। यह नव्य उदार संस्कृति का प्लास्टिक पोलीथीन फिनोमिना है। यह ईमेल संस्कृति है। इसमें सारवान कुछ भी नहीं है।

ये एक व्यक्ति के विचार नहीं हैं बल्कि यह एक फिनोमिना है। एक प्रवृत्ति है। पहले मैं यही सोच रहा था कि पाठकों की राय पर प्रतिक्रिया नहीं दूँगा। लेकिन इधर कुछ असभ्यता ज्यादा हो रही है। इसलिए बोलना जरूरी है। मैं बहुत सोच समझकर लिख रहा हूँ कि पंकजजी ने अपने लेख में जो कुछ लिखा है और उनके पक्ष में जिस तरह की टिप्पणियां लोगों ने लिखी हैं। वे सबकी सब वेब संस्कृति के सभ्य विमर्श का हिस्सा नहीं बन सकतीं। हां, वे वेब संस्कृति के असभ्य विमर्श का हिस्सा जरूर हैं। जैसे पोर्नोग्राफी है। उन्हें व्यक्ति या व्यक्तियों की राय के रूप में न देखकर एक फिनोमिना के रूप में देखें तो बेहतर होगा। सवाल यह है वेब पर दीनदयाल उपाध्याय (विचार-विमर्श की परेपरा) के लेख हैं और पोर्नोग्राफी भी है, हम किस परंपरा में जाना चाहते हैं ?

मेरी समस्या पंकजजी नहीं हैं। वह फिनोमिना है जिसकी वे अभिव्यक्ति कर रहे हैं। वह असभ्य भाषा है जिसकी वे अभिव्यक्ति कर रहे हैं। यह हिन्दी की इज्जत को मिट्टी में मिलाने वाली भाषा है। यह भाषा इस बात की द्योतक है कि हिन्दी का युवाओं में अपकर्ष हो रहा है। यह इस बात का भी संकेत है कि हिन्दी में ऐसे युवाओं का समूह पैदा हो गया है जो विचारों में गंभीरता के साथ अवगाहन करने से भाग रहा है। वह विचार विमर्श को ईमेल कल्चर में तब्दील कर रहा है।

विचार-विमर्श को ईमेल संस्कृति में तब्दील करने की अनुमति किसी को नहीं दी जा सकती। ईमेल संस्कृति की विशेषता है पढ़ा और नष्ट किया। यही पोलिथीन प्लास्टिक फिनोमिना की विशेषता है। यह वेब विमर्श नहीं है। यह ईमेल विमर्श है। यह इस बात का प्रतीक है कि अभी हमारे युवाओं का एक हिस्सा वेबसंस्कृति के लायक सक्षम नहीं बन पाया है। ये लोग ईमेल संस्कृति और विमर्श संस्कृति में अंतर करना

नहीं जानते। इसे हम इसे वेब असभ्यता कहते हैं।

कायदे से पंकजजी का लेख न छपता तो बेहतर था। फिर भी संपादक की उदारता है कि उसने इस लेख और इस पर आई टिप्पणियों को प्रकाशित किया। पंकजजी ने जिस भाषा और जिस अविवेक के साथ लिखा है उससे मेरी यह धारणा पुष्ट हुई है कि हिन्दी को अभी माध्यम साक्षरता की सख्त जरूरत है। मुझे समझ नहीं आता कि इतना पढ़ लिखकर पंकजजी ने क्या सीखा ? अज्ञान की पराकाष्ठा के कुछ नमूने उनके लेख से देखें- लिखा है-

‘‘किसी व्यक्ति की तारीफ़ या निंदा में किये गए लेखन सामान्यतः निकृष्ट श्रेणी का लेखन माना जाता है. लेकिन 2 दिन में ही अगर यह लेखक दुबारा ऐसा निकृष्ट काम करने को मजबूर हुआ है तो इसके निहितार्थ हैं. खैर’’

उनके लेखे, मेरा लेखन निकृष्ट श्रेणी का लेखन है। यह निकृष्ट काम है। अरे भाई, यह किस स्कूल में पढ़ी भाषा है। विचार-विमर्श की यह भाषा नहीं है। लेखन तो सिर्फ लेखन है वह निकृष्ट और उत्कृष्ट नहीं होता। वे यह भी मानते हैं कि मैं अपने ‘‘कुतर्क थोपना’’ चाहता हूँ।जिससे असहमत हैं उसे कुतर्क कहना किस गुरू ने सिखाया है ? मैंने मुद्दे पर केन्द्रित लिखा है। उन्हें पूरा हक है कि वे किसी भी वामपंथ से संबंधित विषय पर प्रामाणिक ढ़ंग से आलोचना लिखें। पंकजजी नहीं जानते कि वे लेख नहीं लिखते, वे ईमेल लिखते हैं । ईमेल और लेख में अंतर होता है। यह विवेक उन्हें अर्जित करना होगा।

मैं सोच-समझकर हिन्दुत्व और उससे विषयों पर ही नहीं अन्य सैंकड़ों विषयों पर अपनी पहलकदमी से लिखता रहा हूँ। उसका एक सैद्धांतिक आधार है। मैं अनेक बार उस आधार की अपने लेखों में चर्चा भी करता हूँ। जिससे पाठक उन किताबों तक पहुँचे। ईमेल फिनोमिना ने सबसे बुरा काम किया है विचारों और विचारकों का असभ्यों की तरह उपहास करके। मार्क्स, लुकाच, आदि किसी से भी असहमत हो सकते हैं, लेकिन उन्हें पढ़ें और फिर लिखें लेकिन वे बिना पढ़े ही लिख रहे हैं।

मैं उनके लेख से सहज ही अनुमान लगा सकता हूँ कि वे प्रवक्ता के संसाधनों और मंच का दुरूपयोग कर रहे हैं और अपना पैसा भी बर्बाद कर रहे हैं। भारत की गरीब जनता का पैसा, संजीवजी और उनके मित्रों के प्रयासों से चल रहे प्रवक्ता डॉट कॉम का स्पेस अनर्गल बातों के लिए घेरकर हम क्या अच्छा काम नहीं कर रहे ।

वेबसाइट पर खर्चा आता है और इसका सभ्यता विमर्श, पाठकों की चेतना बढ़ाने, उन्हें समाज के प्रति और भी जागरूक बनाने लिए इस्तेमाल होना चाहिए। न कि ईमेल की बेबकूफियों के लिए। मैं जानता हूँ कि संजीवजी किस विचारधारा के हैं लेकिन क्या इसके लिए उनपर आरोप लगाना ठीक होगा ?

जो अपना दायित्व समझते हैं वे थोड़ा ठंड़े दिमाग से सोचें कि क्या उन्होंने इतने दिनों में एक भी ऐसा लेख लिखा जो बाद में प्रवक्ता वाले अपने लिए संपत्ति समझें ? वे लगातार ईमेल लिखते रहे हैं और ईमेल पढ़ते ही बेकार हो जाता है, अनेक बार उसे लोग पढ़ते भी नहीं हैं। यही वजह है प्रवक्ता पर पंकजजी और ऐसे ही लोगों के विचार जिस क्षण आते हैं, उसी क्षण मर जाते हैं। इस तरह वे अपनी और

प्रवक्ता की बौद्धिक और आर्थिक क्षति कर रहे हैं।

प्रवक्ता फोकट की कमाई से नहीं चलता। संजीव वगैरह किस तरह कष्ट करके उसके लिए संसाधन जुटाते होंगे, हम समझते हैं। प्रवक्ता या ऐसी ही अन्य वेब पत्रिकाओं के प्रति जो स्वैच्छिक प्रयासों से और सामाजिक तौर पर कुछ करने के इरादे से चलायी जा रही हैं उनका हमें बौद्धिक रूप से सही इस्तेमाल करना चाहिए। वेब पत्रिका कचरे का डिब्बा नहीं है कि उसमें कुछ भी फेंक दिया जाए। यह विचारों के आधान-प्रदान का गंभीर मंच है। उसे हमें ईमेल का मंच नहीं बनाना चाहिए। एक नमूना और देखें-

‘‘गरीब के भूखे पेट को अपना उत्पाद बना कर बेचने वाले इन दुकानदारों को ‘अपचय, उपचय और उपापचय’ पर बात करने के बदले सीधे ‘थेसिस, एंटीथेसिस और सिंथेसिस’ तक पहुचते हुए देखा जा सकता है. क्रूर मजाक की पराकाष्ठा यह कि ‘भूखे पेट’ को मार्क्स के उद्धरण बेच कर इनके एयर कंडीशनर का इंतज़ाम होता है. इन लोगों ने कोला और पेप्सी की तरह ही अपना उत्पाद बेचने का एक बिलकुल नया तरीका निकाला हुआ है. जिन-जिन कुकर्मों से खुद भरे हों, विपक्षी पर वही आरोप लगा उसे रक्षात्मक मुद्रा में ला दो. ताकि उसकी तमाम ऊर्जा आरोपों का जबाब देने में ही लग जाय. आक्रामक होकर वे इनकी गन्दगी को बाहर लाने का समय ही न सकें।’’

इस पूरे पैराग्राफ का मेरे प्रवक्ता पर प्रकाशित मेरे 200 से ज्यादा लेखों में से किसी से भी कोई लेना देना नहीं है। मैं नहीं जानता कि पंकजजी और उनके दोस्तों ने मेरी लिखी किताबें या मेरे ब्लॉग को गंभीरता से पढ़ा है या नहीं। वे आसानी से समझ सकते हैं कि मैं क्यों और किस नजरिए से लिखता हूँ।

मैं आज भी यही मानता हूँ कि हिन्दी में अभी बहुत ज्यादा विविध किस्म के गंभीर विचारों के उत्पादन और पुनर्रूत्पादन की जरूरत है। हमें गंभीरता और छिछोरेपन में अंतर करना चाहिए। हमें तर्क और कुतर्क में अंतर करना चाहिए। विचारधारा और कॉमनसेंस में अंतर करने की तमीज विकसित करनी चाहिए। विद्वानों, राजनेताओं आदि से लेखन में कैसे सम्मान के साथ संवाद करें इसके बारे में सीखना चाहिए। दुख के साथ कहना पड़ रहा है ईमेल फिनोमिना यह नहीं समझता, नहीं समझ सकता।

उनके कुतर्क का एक और नमूना देखें- ‘‘लेखक के विचारों को आप कानून की तराजू में रखकर तौलेंगे तो बांटे कम पड़ जाएंगे…..!अब आप सोचें….. फासीवाद का इससे भी बड़ा नमूना कोई हो सकता है? यह उसी तरह की धमकी है जब कोई आतंकवादी समूह कहता है कि मुझे गिरफ्तार करोगे तो जेल के कमरे कम पड जायेंगे।’’ वे समझ ही नहीं पाए हैं कि मैं लेखक की अभिव्यक्ति के विशाल दायरे से जुड़ा सवाल सामने रख रहा था और वे शैतानी भरे तर्क दे रहे हैं।

पंकजजी की निकृष्टतम मानसिकता और ईमेल असभ्यता का नमूना है उनका यह कथन ‘‘तो अगर पंडित जी की बात मान ली जाय तो देश रसातल में पहुचेगा ही साथ ही कुत्सित मानसिकता का परिवार से लेकर राष्ट्र तक में कोई आस्था नहीं रखने वाला हर वामपंथी, स्वयम्भू लेखक ‘मस्तराम’ की तरह बन बाप-बेटी, भाई-बहन तक में सम्‍बन्ध स्थापित करने वाला लेख लिख वैचारिक हस्तमैथुन कर मस्त रहेगा.’’।

वे जानबूझकर इस तरह की घटिया भाषा लिख रहे हैं। इन पंक्तियों को देखकर कोई भी संपादक कैसे लेख प्रकाशित कर सकता है ? कैसे कोई पाठक इन पंक्तियों के लिखे जाने के बाद पंकजजी को बधाईयां दे सकता है। पंकजजी जानते हैं उन्होंने यह क्या लिखा है-फिर से पढ़ें – ‘‘स्वयम्भू लेखक ‘मस्तराम’ की तरह बन बाप-बेटी, भाई-बहन तक में सम्‍बन्ध स्थापित करने वाला लेख लिख वैचारिक हस्तमैथुन कर मस्त रहेगा.’।

यह वैचारिक स्तर सिर्फ ऐसे व्यक्ति का ही हो सकता है जिसने अपने को सभ्य न बनाया हो। जो ईमेल सभ्यता में कैदहो। वे जानते हैं वैचारिक हस्तमैथुन किसे कहते हैं ? उन्होंने कभी मेरी किताबें नहीं देखी हैं ? बाजार में उपलब्ध हैं और वे माध्यम साक्षर बनाने के लिए ही लिखी गयी हैं। अपमानजनक, अश्लील भाषा में लिखकर ईमेल फिनोमिना ने मेरी धारणा को ही पुष्ट किया है कि अभी हिन्दी में सामान्य विचार-विमर्श बहुत पीछे है और इस दिशा में और भी ज्यादा लिखने की जरूरत है।

पंकजजी की समस्या यह है कि प्रवक्ता वाले मेरे इतने लेख क्यों छापते हैं ? दिक्कत उनकी समझ में है। मैं लिखता हूँ इसलिए छापते हैं, उनकी संपादकीय नीति के दायरे में लिखता हूँ इसलिए छापते हैं।

पंकजजी को आश्चर्य हो रहा है मेरे एक सप्ताह में एक दर्जन लेख प्रवक्ता पर देखकर। यदि वे मेरी एक साल में कभी-कभी आने वाली किताबों को देख लेंगे तो उनके हृदय की धड़कन बंद हो जाएगी। मैं एकमात्र लेखक हूँ जिसकी एक साथ नियमित कई किताबें आती रही हैं, मैं कभी खुशामद नहीं करता, मैं कभी सरकारी खरीद में किताब की बिक्री का प्रयास नहीं करता।मैंने कभी अपनी किताबों के पक्ष में आलोचनाएं नहीं लिखवायीं, इसके बावजूद वे बिकती हैं। मैं पंकजजी और उनके दोस्तों के ज्ञानवर्द्धन के लिए अपनी किताबों की एक सूची दे रहा हूँ। साथ में यह खबर भी कि ये किताबें महंगी हैं और बेहद सुंदर हैं। इन्हें एकबार पढ़ने के बाद आप कम से कम मीडिया में बहुत कुछ अनर्गल लिखना बंद कर देंगे।

मैं यदि कोई विषय चुनता हूँ तो उस पर एक नहीं कई लेख लिखता हूँ जिससे उस विषय को ठोस ढ़ंग से विस्तार के साथ सामने रखा जाए पाठकों को उस पर सोचने के लिए मजबूर किया जाए। मैं लेखन के लिए लेखन नहीं करता बल्कि माध्यम साक्षरता के परिप्रेक्ष्य में लिखता हूँ। इसका मकसद है आलोचनात्मक विवेक पैदा करना। इसका मकसद किसी विचारधारा को थोपना नहीं है। इस प्रसंग की अन्य बातें अगले लेख में जरूर पढ़ें।

अंत में एक बात प्रवक्ता से अनुरोध के रूप में कहनी है कि वे विषय पर केन्द्रित और सारवान लेख ही छापें, वे ईमेल और लेख में अंतर करें। अन्यथा उन्हें बार-बार पंकजजी जैसे फिनोमिना का सामना करना पड़ेगा। इससे प्रवक्ता की साख खराब होगी। प्रवक्ता का काम है आम पाठक की चेतना का स्तर ऊँचा उठाना। उसका काम यह नहीं है कि वह पाठक की चेतना के सबसे निचले धरातल पर ले चला जाए।

हिन्दी का पाठक पहले से ही चेतना के सबसे निचले स्तर पर जी रहा है। इसे ईमेल संस्कृति, फेसबुक की दो पंक्ति के लेखन की संस्कृति और ट्विटर की 140 अक्षरों की संस्कृति ने हवा दी है। यह व्यक्ति को असभ्यता के धरातल से बांधे रखती है। हमें इससे बचना चाहिए। लेखन, मीडिया और कम्युनिकेशन का मकसद है व्यक्ति को चेतना के निचले स्तर से ऊपर उठाना, उसे जोड़ना। यह काम करने के लिए पाठक की चेतना के सबसे निचले स्तर पर जाने की जरूरत नहीं है। इससे प्रवक्ता का मूल लक्ष्य ही नष्ट हो जाएगा।

प्रकाशित पुस्तकें

1. दूरदर्शन और सामाजिक विकास, 1991, डब्ल्यू न्यूमैन एंड कंपनी, कोलकाता.

2. मार्क्सवाद और आधुनिक हिन्दी कविता, 1994, राधा पब्लिकेशंस, दिल्ली

3.आधुनिकतावाद और उत्तर आधुनिकतावाद, 1994, सहलेखन, संस्कृति प्रकाशन, कोलकाता

4.जनमाध्यम और मासकल्चर, 1996, सारांश प्रकाशन दिल्ली.

5.हिन्दी पत्रकारिता के इतिहास की भूमिका, 1997, अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर प्रा.लि. दिल्ली

6.स्त्रीवादी साहित्य विमर्श, 2000, अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर प्रा.लि.दिल्ली

7.सूचना समाज, 2000, अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीग्यूटर प्रा.लि. दिल्ली.

8.जनमाध्यम प्रौद्योगिकी और विचारधारा, 2000, अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर प्रा.लि.दिल्ली

9.माध्यम साम्राज्यवाद, 2002, अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर प्रा.लि. दिल्ली

10. जनमाध्यम सैध्दान्तिकी, 2002, सहलेखन, अनामिका पब्लिशर्स एड डिस्ट्रीब्यूटर प्रा.लि. दिल्ली

11.टेलीविजन, संस्कृति और राजनीति, 2004, अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर. प्रा. लि. दिल्ली

12.उत्तर आधुनिकतावाद, 2004, स्वराज प्रकाशन, दिल्ली.

13.साम्प्रदायिकता, आतंकवाद और जनमाध्यम,, 2005, अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर प्रा.लि.दिल्ली

14.युध्द, ग्लोबल संस्कृति और मीडिया, 2005, अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर प्रा. लि.दिल्ली

15.हाइपर टेक्स्ट, वर्चुअल रियलिटी और इंटरनेट, 2006, अनामिका पब्लिकेशंस एंड डिस्ट्रीब्यूटर प्रा.लि.

16.कामुकता, पोर्नोग्राफी और स्त्रीवाद, 2007, (सहलेखन) आनंद प्रकाशन, कोलकाता.

17.भूमंडलीकरण और ग्लोबल मीडिया, 2007, (सहलेखन), अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर, प्रा.लि.दिल्ली

18. नंदीग्राम मीडिया और भूमंडलीकरण, 2007, अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर, प्रा.लि.दिल्ली

19.प्राच्यवाद वर्चुअल रियलिटी और मीडिया, (शीघ्र प्रकाश्य), अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर, प्रा.लि. दिल्ली

20. वैकल्पिक मीडिया, लोकतंत्र और नॉम चोम्स्की (2008), अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर, प्रा.लि. दिल्ली

21.तिब्बत दमन और मीडिया, 2009, अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर, प्रा.लि. दिल्ली

22. 2009 लोकसभा चुनाव और मीडिया, अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर, प्रा.लि.

दिल्ली.

23.ओबामा और मीडिया, 2009, अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर, प्रा.लि. दिल्ली

24.डिजिटल युग में मासकल्चर और विज्ञापन, (2010), सहलेखन, अनामिका पब्लिशर्स एंड

डिस्ट्रीब्यूटर, प्रा.लि. दिल्ली .

सम्पादित पुस्तकें

25.बाबरी मस्जिद-रामजन्मभूमि विवाद, 1991, डब्ल्यू न्यूमैन एंड कंपनी, कोलकाता.

26.प्रेमचंद और मार्क्सवादी आलोचना, सहसंपादन, 1994, संस्कृति प्रकाशन, कोलकाता.

27.स्त्री अस्मिता, साहित्य और विचारधारा, सहसंपादन, 2004, आनंद प्रकाशन, कोलकाता.

28.स्त्री काव्यधारा, सहसंपादन, 2006, अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर प्रा.लि. दिल्ली.

29.स्वाधीनता-संग्राम, हिन्दी प्रेस और स्त्री का वैकल्पिक क्षेत्र, सहसंपादन, 2006, अनामिका प्रा.लि. दिल्ली

हिंदुस्तान का लोकप्रदेश है छत्तीसगढ़

दस बरस का छत्तीसगढ़ (आज स्थापना दिवस-1 नवंबर)

माओवादी हिंसा नहीं, लोकधर्मी जीवन संस्कार है असली पहचान

– संजय द्विवेदी

इस राज्य को इसलिए मत जानिए कि देश में यह सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में अव्वल है, यह इसके विकास का एक चेहरा है जो उसने अपने दस नन्हें कदमों से हासिल किया है। उसकी असल पहचान तो है- उसका लोकजीवन जो उसे एक लोकप्रदेश बनाता है। वह राज्य है छत्तीस गढ़ों से संगठित जनपद छत्तीसगढ़ । लोकधर्मी जीवन संस्कारों से अपनी ज़मीन और आसमान रचता छत्तीसगढ़। भले ही राजनैतिक भूगोल में उसकी अस्मितावान और गतिमान उपस्थिति को मात्र दस वर्ष हुए हैं, पर सच तो यही है कि अपने रचनात्मक हस्तक्षेप की सुदीर्घ परंपरा से वह राजनीति, साहित्य,कला और संस्कृति के राष्ट्रीय क्षितिज में ध्रुवतारे की तरह स्थायी चमक के साथ जाना-पहचाना जाता है । यदि उत्तरप्रदेश, बिहार, राजस्थान, मध्यप्रदेश आदि से भारतीय और हिंदी संस्कृति के सूरज उगते रहे हैं तो छत्तीसगढ़ ने भी निरंतर ऐसे-ऐसे चाँद-सितारों की चमक दी है, जिससे अपसंस्कृति के कृष्णपक्ष को मुँह चुराना पड़ा है। अपनी आदर्श परंपराओं और संस्कारों के लिए जाना जाने वाला छत्तीसगढ़ सही अर्थों में सद्भावना का टापू है। भारतीय परम्परा की उदात्तता इसकी थाती है और सामाजिक समरसता इसका मूलमंत्र। सदियों से अपनी इस परंपरा के निर्वहन में लगी यह धरती अपनी ममता के आंचल में सबको जगह देती आयी है। शायद यही कारण है कि राजनीति की ओर से यहां के समाज जीवन में पैदा किए जाने वाले तनाव और विवाद की स्थितियां अन्य प्रांतों की तरह कभी विकराल रूप नहीं ले पाती हैं।

समता के गहरे भावः समाज की शक्तियों में समता का भाव इतने गहरे पैठा हुआ है कि तोड़ने वाली ताकतों को सदैव निराशा ही हाथ लगी है।संतगुरू घासीदास से लेकर पं. सुन्दरलाल शर्मा तक के प्रयासों ने जो धारा बहाई है वह अविकल बह रही है और सामाजिक तौर पर हमारी शक्ति को, एकता को स्थापित ही करती है। इस सबके मूल में असली शक्ति है धर्म की, उसके प्रति हमारी आस्था की। राज्य की धर्मप्राण जनता के विश्वास ही उसे शक्ति देते हैं और अपने अभावों, दर्दों और जीवन संघर्षों को भूलकर भी यह जनता हमारी समता को बचाए और बनाए रखती है।प्राचीनकाल से ही छत्तीसगढ़ अनेक धार्मिक गतिविधियों और आंदोलनों का केन्द्र रहा है। इसने ही क्षेत्र की जनता में ऐसे भाव भरे जिससे उसके समतावादी विचारों को लगातार विस्तार मिला। खासकर कबीरपंथ और सतनाम के आंदोलन ने इस क्षेत्र को एक नई दिशा दी। इसके ही समानांतर सामाजिक तौर पर महात्मा गांधी और पं. सुन्दरलाल शर्मा के प्रभावों को हम भुला नहीं सकते।

अप्रतिम धार्मिक विरासतः छत्तीसगढ़ में मिले तमाम अभिलेख यह साबित करते हैं तो यहां शिव, विष्णु, दुर्गा, सूर्य आदि देवताओं की उपासना से संबंधित अनेक मंदिर हैं। इसके अलावा बौद्ध एवं जैन धर्मों के अस्तित्व के प्रमाण यहां के अभिलेखों से मिलते हैं। कलचुरिकालीन अभिलेख भी क्षेत्र की धार्मिक आस्था का ही प्रगटीकरण करते हैं। छत्तीसगढ़ में वैष्णव पंथ का अस्तित्व यहां के साहित्य, अभिलेख, सिक्के आदि से पता चलता है। विष्णु की मूर्ति बुढ़ीखार क्षेत्र में मिलती है जिसे दूसरी सदी ईसा पूर्व की प्रतिमा माना जाता है। शरभपुरीय शासकों के शासन में वैष्णव पंथ का यहां व्यापक प्रचार-प्रसार हुआ। ये शासक अपने को विष्णु का उपासक मानते थे। इस दौर के सिक्कों में गरूड़ का चित्र भी अंकित मिलता है। शरभपुरीय शासकों के बाद आए पांडुवंशियों ने भी वैष्णव पंथ के प्रति ही आस्था जतायी। इस तरह यह पंथ विस्तार लेता गया। बाद में बालार्जुन जैसे शैव पंथ के उपासक रहे हों या नल और नाम वंषीय या कलचुरि शासक, सबने क्षेत्र की उदार परंपराओं का मान रखा और धर्म के प्रति अपनी आस्था बनाए रखी। ये शासक अन्य धर्मों के प्रति भी उदार बने रहे। इसी तरह प्रचार-प्रसार में बहुत ध्यान दिया। कलचुरि नरेशों के साथ-साथ शैव गुरूओं का भी इसके प्रसार में बहुत योगदान रहा।शाक्तपंथ ने भी क्षेत्र में अपनी जगह बनायी। बस्तर से लेकर पाली क्षेत्र में इसका प्रभाव एवं प्रमाण मिलता है। देवियों की मूर्तियां इसी बात का प्रगटीकरण हैं। इसी प्रकार बौद्ध धर्म के आगमन ने इस क्षेत्र में बह रही उदारता, प्रेम और बंधुत्व की धारा को और प्रवाहमान किया। चीनी यात्री हवेनसांग के वर्णन से पता चलता है कि इस क्षेत्र में बौद्ध धर्म का प्रभाव था। आरंग, तुरतुरिया और मल्लार इसके प्रमुख केन्द्र थे। हालांकि कलचुरियों के शासन काल में बौद्ध धर्म की लोकप्रियता कम होने लगी पर इसके समाज पर अपने सकारात्मक प्रभाव छोड़े। जैन धर्म अपनी मानवीय सोच और उदारता के लिए जाना जाने वाला धर्म है। यहां इससे जुड़े अनेक शिल्प मिलते हैं। रतनपुर, आरंग और मल्लार से इसके प्रमाण मिले हैं।

शांति और सद्भाव की धाराओं का प्रवक्ताः छत्तीसगढ़ क्षेत्र में व्याप्त सहिष्णुता की धारा को आगे बढ़ाने में दो आंदोलनों का बड़ा हाथ है। तमाम पंथों और धर्मों की उपस्थिति के बावजूद यहां आपसी तनाव और वैमनस्य की धारा कभी बहुत मुखर रूप में सामने नहीं आयी। कबीर पंथ और सतनाम के आंदोलन ने सामाजिक बदलाव में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। बदलाव की इस प्रक्रिया में वंचितों को आवाज मिली और वे अपनी अस्मिता के साथ खड़े होकर सामाजिक विकास की मुख्यधारा का हिस्सा बन गए। कबीर पंथ और सतनाम का आंदोलन मूलतः सामाजिक समता को समर्पित था और गैरबराबरी के खिलाफ था। यह सही अर्थों में एक लघुक्रांति थी जिसका समाज पर व्यापक प्रभाव पड़ा। हिंदू समाज के अंदर व्याप्त बुराइयों के साथ-साथ आत्मसुधार की भी बात संतवर गुरू घासीदास ने की। उनकी शिक्षाओं ने समाज में दमित वर्गों में स्वाभिमान का मंत्र फूंका और आगे बढ़ने की प्रेरणा दी। छत्तीसगढ़ में सतनाम के प्रणेता बाबा गुरूघासीदास थे। 1756 को गिरोद नामक गांव में जन्मे बाबा ने जो क्रांति की, उसके लिए यह क्षेत्र और मानवता सदैव आभारी रहेगी। मूर्तिपूजा, जातिभेद, मांसाहार, शराब व मादक चीजों से दूर रहने का संकल्प दिलवाकर सतनाम ने एक सामाजिक आंदोलन का रूप धारण कर लिया। भारत जैसे धर्मप्राण देश की आस्थाओं का यह क्षेत्र सही अर्थों में एक जीवंत सद्भाव का भी प्रतीक है। रतनपुर, दंतेश्वरी, चंद्रपुर, बमलेश्वरी में विराजी देवियां हों या राजीवलोचन और शिवरीनाराण या चम्पारण में बह रही धार्मिकता सब में एक ऐसे विराट से जोड़ते हैं जो हमें आजीवन प्रेरणा देते हैं। धार्मिक आस्था के प्रति इतने जीवंत विश्वास का ही कारण है कि क्षेत्र के लोग हिंसा और अपराध से दूर रहते अपने जीवन संघर्ष में लगे रहते हैं। यह क्षेत्र अपने कलागत संस्कारों के लिए भी प्रसिद्ध है। जाहिर है धर्म के प्रति अनुराग का प्रभाव यहां की कला पर भी दिखता है। शिल्प कला, मूर्ति कला, स्थापत्य हर नजर से राज्य के पास एक महत्वपूर्ण विरासत मौजूद है। भोरमदेव, सिरपुर, खरौद, ताला, राजिम, रतनपुर, मल्लार ये स्था कलाप्रियता और धार्मिकता दोनों के उदाहरण हैं।इस नजर से यह क्षेत्र अपनी धार्मिक आस्थाओं के कारण अत्यन्त महत्वपूर्ण है। राज्य गठन के बाद इसके सांस्कृतिक वैभव की पहचान तथा मूल्यांकन जरूरी है। सदियों से उपेक्षित पड़े इस क्षेत्र के नायकों और उनके प्रदेय को रेखांकित करने का समय अब आ गया है। इस क्षेत्र की ऐतिहासिकता और योगदान को पुराने कवियों ने भी रेखांकित किया है। आवश्यक है कि हम इस प्रदेय के लिए हमारी सांस्कृतिक विरासत को पूरी दुनिया के सामने बताएं। बाबू रेवाराम ने अपने ग्रंथ ‘विक्रम विलास’ में लिखा हैः

जिनमें दक्षिण कौशल देसा,

जहॅं हरि औतु केसरी वेसा,

तासु मध्य छत्तीसगढ़ पावन,

पुण्यभूमि सुर-मुनि-मन-भावन।

राजनीति की एक अलग धाराः छत्तीसगढ़ की इसी सामाजिक-धार्मिक परंपरा ने यहां की राजनीति में भी सहिष्णुता के भाव भरे हैं। उत्तर भारत के तमाम राज्यों की तरह जातीयता की भावना आज भी यहां की राजनीति का केंद्रीय तत्व नहीं बन पायी है। मप्र के साथ रहते हुए भी एक भौगोलिक इकाई के नाते अपनी अलग पहचान रखनेवाला यह क्षेत्र पिछले दस सालों में विकास के कई सोपान पार कर चुका है। अपनी तमाम समस्याओं के बीच उसने नए रास्ते देखे हैं। राज्य के प्रथम मुख्यमंत्री अजीत जोगी के तीन साल हों या डा. रमन सिंह के कार्यकाल के ये बरस, हम देखते हैं, विकास के सवाल पर सर्वत्र एक ललक दिखती है। राजनीतिक जागरूकता भी बहुत तेजी से बढ़ी है। नवसृजित तीनों राज्यों झारखंड,उत्तराखंड और छत्तीसगढ़ में अगर तुलना करें तो छत्तीसगढ़ ने तेजी से अनेक चुनौतियों के बावजूद, विकास का रास्ता पकड़ा है। प्रथम मुख्यमंत्री अजीत जोगी का कार्यकाल जहां एक नए राज्य के सामने उपस्थित चुनौतियों को समझने और उससे मुकाबले के लिए तैयारी का समय रहा, वहीं डा. रमन सिंह ने अपने कार्यकाल में कई मानक स्थापित किए। लोगों को सीधे राहत देने वाले विकास कार्यक्रम हों या नक्सलवाद के खिलाफ उनकी प्रतिबद्धता, सबने उन्हें एक नई पहचान दी। अजीत जोगी के कार्यकाल में जिस तरह की राजनीतिक शैली का विकास हुआ, उससे तमाम लोग उनके खिलाफ हुए और भाजपा को मजबूती मिली। डा. रमन सिंह ने अपनी कार्यशैली से विपक्षी दलों को एक होने के अवसर नहीं दिया और इसके चलते आसानी के साथ वे दूसरा चुनाव भी जीतकर पुनः मुख्यमंत्री बन गए। छत्तीसगढ़ की राजनीति के इस बदलते परिवेश को देखें तो पता चलता है कि संयुक्त मप्र में जो राजनेता काफी महत्व रखते थे, नए छत्तीसगढ़ में उनके लिए जगह सिकुड़ती गई। आज का छत्तीसगढ़ सर्वथा नए नेतृत्व के साथ आगे बढ़ रहा है। संयुक्त मप्र में कांग्रेस में स्व. श्यामाचरण शुक्ल, विद्याचरण शुक्ल, मोतीलाल वोरा, अरविंद नेताम, शिव नेताम, गंगा पोटाई, बीआर यादव, सत्यनारायण शर्मा, चरणदास महंत, भूपेश बधेल, बंशीलाल धृतलहरे, नंदकुमार पटेल, पवन दीवान, केयूर भूषण जैसे चेहरे नजर आते थे, तो भाजपा में स्व.लखीराम अग्रवाल, नंदकुमार साय, मूलचंद खंडेलवाल, रमेश बैस, लीलाराम भोजवानी, अशोक शर्मा, शिवप्रताप सिंह, बलीराम कश्यप, बृजमोहन अग्रवाल, प्रेमप्रकाश पाण्डेय जैसे नेता अग्रणी दिखते थे। किंतु पार्टियों का यह परंपरागत नेतृत्व राज्य गठन के बाद अपनी पुरानी ताकत में नहीं दिखता। नए राज्य के नए नेता के रूप में डा. रमन सिंह, अजीत जोगी, अमर अग्रवाल, धनेंद्र साहू, अजय चंद्राकर, केदार कश्यप, टीएस सिंहदेव, चंद्रशेखर साहू, धरमलाल कौशिक, राजेश मूणत, रामविचार नेताम, वाणी राव, सरोज पाण्डेय, महेश गागड़ा, रामप्रताप सिंह, डा.रेणु जोगी, हेमचंद्र यादव जैसे नामों का विकास नजर आता है। जाहिर तौर पर राज्य की राजनीति परंपरागत मानकों से हटकर नए आयाम कायम कर रही है। उसकी आकांक्षाओं को स्वर और शब्द देने के लिए अब नया नेतृत्व सामने आ रहा है। ऐसे में ये दस साल दरअसल आकांक्षाओं की पूर्ति के भी हैं और बदलते नेतृत्व के भी हैं। छत्तीसगढ़ एक ऐसी प्रयोगशाला के रूप में भाजपा नेतृत्व के सामने है जहां वह तीसरी बार सरकार आने की उम्मीद पाल बैठी है। जबकि राज्य का परंपरागत वोटिंग पैटर्न इसकी इजाजत नहीं देता। राज्य गठन के पहले इस इलाके की सीटें जीतकर ही कांग्रेस मप्र में सरकार बनाया करती थी। किंतु पिछले दो चुनावों में लोकसभा की 10-10 सीटें दो बार जीतकर और विधानसभा की 50-50 सीटें लगातार दो चुनावों में जीतकर भाजपा ने जो करिश्मा किया है, उसकी मिसाल न मिलेगी। कांग्रेस के लिए आज यह राज्य एक कठिन चुनौती बन चुका है। देश के दूसरे हिस्सों से छत्तीसगढ़ को देखना एक अलग अनुभव है। बस्तर की निर्मल और निर्दोष आदिवासी संस्कृति, साथ ही नक्सलवाद के नाम मची बारूदी गंध व मांस के लोथड़े, भिलाई का स्टील प्लांट, डोंगरगढ़ की मां बमलेश्लरी, गरीबी, पलायन और अंतहीन शोषण के किस्से यह हमारी पहचान के कुछ दृश्य हैं, जिनसे छतीसगढ़ का एक कोलाज बनता है। छत्तीसगढ़ आज भी इस पहचान को के साथ खड़ा है। वह अपने साथ शुभ को रखना चाहता है और अशुभ का निष्कासन चाहता है। छत्तीसगढ़ महतारी की मुक्ति और उसकी पीड़ा के हरण के लिए तमाम भागीरथ सक्रिय हैं। दसवें साल पर छत्तीसगढ़ को देश भी एक आशा के साथ देख रहा है।