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स्वीटजरलैंड सबसे अमीर कैसे???

-दिवस दिनेश गौड़

मित्रों शीर्षक पढ़ कर चौंका जा सकता है कि तुम्हे क्या पड़ी है कोई देश कितना भी अमीर क्यों है? तुम तो अपने देश की चिंता करो न कि तुम्हारा देश इतना गरीब क्यों है? किन्तु मित्रों मेरा आपसे आग्रह है कि कृपया एक बार मेरे इस लेख को ध्यान से अवश्य पढ़ें। लेख शायद जरूरत से ज्यादा लम्बा हो जाये और बीच में शायद आप को ऐसा भी लगे कि मै कहीं लेख के मुख्य शीर्षक से कहीं भटक गया हूँ किन्तु जो बात आपको कहना चाहता हूँ उसके लिये आपके कुछ मिनट चाहूँगा।

मित्रों जैसा कि आप सब लोग जानते ही होंगे कि विश्व में इस समय करीब २०० देश हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ के पिछले वर्ष के एक सर्वेक्षण के अनुसार विश्व में ८६ महा दरिद्र देश हैं और उनमे भारत १७वे स्थान पर आता है। अर्थात ६९ महा दरिद्र देश भारत से ज्यादा अमीर हैं। केवल १६ महा दरिद्र देश विश्व में ऐसे हैं जो भारत के बाद आते हैं। दुनिया का सबसे अमीर देश इसके अनुसार स्वीटजरलैंड है। मित्रों अब प्रश्न यहाँ से उठता है कि स्वीटजरलैंड सबसे अमीर कैसे है? मेरे एक परीचित एवं अग्रज तुल्य देश के एक वैज्ञानिक श्री राजिव दीक्षित से मिली एक जानकारी के अनुसार स्वीटजरलैंड में कुछ भी नहीं होता। कुछ भी का मतलब कुछ भी नहीं। वहां किसी प्रकार का कोई व्यापार नहीं है, कोई खेती नहीं, कोई छोटा मोटा उद्योग भी नहीं है। फिर क्या कारण है कि स्वीटजरलैंड दुनिया का सबसे अमीर देश है?

मित्रों श्री राजीव दीक्षित के एक व्याक्यान में उन्होंने बताया था कि वे एक बार जर्मनी गए थे और वहां एक प्रोफेसर से उनका विवाद हो गया। विवाद का विषय था ”भारत महान या जर्मनी?” जब कोई निर्णय नहीं निकला तो उन्होंने एक रास्ता बनाया कि दोनों जन एक दूसरे से उसके देश के बारे में कुछ सवाल पूछेंगे और जिसके जवाब में सबसे ज्यादा हाँ का उत्तर होगा वही जीतेगा और उसी का देश महान। अब राजीव भाई ने प्रश्न पूछना शुरू किया। उनका पहला प्रश्न था-

प्र-क्या तुम्हारे देश में गन्ना होता है?

उ-नहीं।

प्र-क्या तुम्हारे देश में केला होता है?

उ-नहीं।

प्र-क्या तुम्हारे देश में आम, सेब, लीची या संतरा जैसा कोई फल होता है?

उ-(बौखलाहट के साथ) हमारे देश में तो क्या पूरे यूरोप में मीठे फल नहीं लगते, आप कुछ और पूछिए।

प्र-क्या तुम्हारे देश में पालक होता है?

उ-नहीं।

प्र-क्या तुम्हारे देश में मूली होती है?

उ-नहीं।

प्र-क्या तुम्हारे देश में पुदीना, धनिया या मैथी जैसी कोई चीज होती है?

उ-(फिर बौखलाहट के साथ) पूरे यूरोप में पत्तेदार सब्जियां नहीं होती, आप कुछ और पूछिए।

इस पर राजीव भाई ने कहा कि मैंने तो तुम्हारे यहाँ के डिपार्टमेंटल स्टोर में सब देखा है, ये सब कहाँ से आया? तो इस पर उसने कहा कि ये सब हम भारत या उसके आस पास के देशों से मंगवाते हैं। तो राजीव भाई ने कहा कि अब आप ही मुझसे कुछ पूछिए। तो उन्होंने और कूछ नहीं पूछा बस इतना पूछा कि भारत में क्या ये सब कूछ होता है? तो उन्होंने बताया कि बिलकुल ये सब होता है। भारत में करीब ३५०० प्रजाति का गन्ना होता है, करीब ५००० प्रजाति के आम होते हैं। और यदि आप दिल्ली को केंद्र मान कर १०० किमी की त्रिज्या का एक वृत बनाएं तो इस करीब ३१४०० वर्ग किमी के वृत में आपको आमों की करीब ५०० प्रजातियाँ बाज़ार में बिकती मिल जाएंगी। इन सब सवालों के बाद प्रोफेसर ने कहा कि इतना सब कूछ होने के बाद भी आप इतने गरीब और हम इतने अमीर क्यों हैं? ऐसा क्या कारण है कि आज आपकी भारत सरकार हम यूरोपीय या अमरीकी देशों के सामने कर्ज मांगने खड़ी हो जाती है? प्राकृतिक रूप से इतने अमीर होने के बाद भी आप भिखारी और हम कर्ज़दार क्यों हैं?

तो मित्रों शंका यही है कि प्राकृतिक रूप से इतने अमीर होने के बाद भी हम इतने गरीब क्यों हैं? और यूरोप जहाँ प्रकृति की कोई कृपा नहीं है फिर भी इतना अमीर कैसे?

मित्रों भारत को विश्व में सोने की चिड़िया कहा गया किन्तु एक बात सोचने वाली है कि यहाँ तो कोई सोने की खाने नहीं हैं फिर यहाँ विश्व का सबसे बड़ा सोने का भण्डार बना कैसे? यहाँ प्रश्न जरूर पैदा होते हैं किन्तु एक उत्तर यह मिलता है कि हम हमेशा से गरीब नहीं थे। अब जब भारत में सोना नहीं होता तो साफ़ है कि भारत में सोना आया विदेशों से। किन्तु हमने तो कभी किसी देश को नहीं लूटा। इतिहास में ऐसा कोई भी साक्ष्य नहीं है जिससे भारत पर ऐसा आरोप लगाया जा सके कि भारत ने अमुक देश को लूटा, भारत ने अमुक देश को गुलाम बनाया, न ही भारत ने आज कि तरह किसी देश से कोई क़र्ज़ लिया फिर यह सोना आया कहाँ से? तो यहाँ जानकारी लेने पर आपको कूछ ऐसे सबूत मिलेंगे जिससे पता चलता है कि कालान्तर में भारत का निर्यात विश्व का ३३% था। अर्थात विश्व भर में होने वाले कुल निर्यात का ३३% निर्यात भारत से होता था। हम ३५०० वर्षों तक दुनिया में कपडा निर्यात करते रहे क्यों की भारत में उत्तम कोटी का कपास पैदा होता था। तो दुनिता को सबसे पहले कपडा पहनाने वाला देश भारत ही रहा है। कपडे के बाद खान पान की अनेक वस्तुएं भारत दुनिया में निर्यात करता था क्यों कि खेती का सबसे पहले जन्म भारत में ही हुआ है। खान पान के बाद भारत में करीब ९० अलग अलग प्रकार के खनीज भारत भूमी से निकलते है जिनमे लोहा, ताम्बा, अभ्रक, जस्ता, बौक् साईट, एल्यूमीनियम और न जाने क्या क्या होता था। भारत में सबसे पहले इस्पात बनाया और इतना उत्तम कोटी का बनाया कि उससे बने जहाज सैकड़ों वर्षों तक पानी पर तैरते रहते किन्तु जंग नहीं खाते थे। क्यों की भारत में पैदा होने वाला लौह अयस्क इतनी उत्तम कोटी का था कि उससे उत्तम कोटी का इस्पात बनाया गया। लोहे को गलाने के लिये भट्टी लगानी पड़ती है और करीब १५०० डिग्री ताप की जरूरत पड़ती है और उस समय केवल लकड़ी ही एक मात्र माध्यम थी जिसे जलाया जा सके। और लकड़ी अधिकतम ७०० डिग्री ताप दे सकती है फिर हम १५०० डिग्री तापमान कहा से लाते थे वो भी बिना बिजली के? तो पता चलता है कि भारत वासी उस समय कूछ विशिष्ट रसायनों का उपयोग करते थे अर्थात रसायन शास्त्र की खोज भी भारत ने ही की। खनीज के बाद चिकत्सा के क्षेत्र में भी भारत का ही सिक्का चलता था क्यों कि भारत की औषधियां पूरी दुनिया खाती थी। और इन सब वस्तुओं के बदले अफ्रीका जैसे स्वर्ण उत्पादक देश भारत को सोना देते थे। तराजू के एक पलड़े में सोना होता था और दूसरे में कपडा। इस प्रकार भारत में सोने का भण्डार बना। एक ऐसा देश जहाँ गाँव गाँव में दैनिक जीवन की लगभग सभी वस्तुएं लोगों को अपने ही आस पास मिल जाती थी केवल एक नमक के लिये उन्हें भारत के बंदरगाहों की तरफ जाना पड़ता था क्यों कि नमक केवल समुद्र से ही पैदा होता है। तो विश्व का एक इ तना स्वावलंबी देश भारत रहा है और हज़ारों वर्षों से रहा है और आज भी भारत की प्रकृती इतनी ही दयालु है, इतनी ही अमीर है और अब तो भारत में राजस्थान में बाड़मेर, जैसलमेर, बीकानेर में पेट्रोलियम भी मिल गया है तो आज भारत गरीब क्यों है और प्रकृति की कोई दया नहीं होने के बाद यूरोप इतना अमीर क्यों?

तो मित्रो इसका उत्तर यहाँ से मिलता है। उस समय अफ्रीका और लैटिन अमरीका तक व्यापार का काम दो देशों चीन और भारत से होता था। आप सब जानते ही होंगे कि अफ्रीका दुनिया का सबसे बड़ा स्वर्ण उत्पादक क्षेत्र रहा है और आज भी है। इसके अलावा अफ्रीका की चिकित्सा पद्धति भी अद्भुत रही है। सबसे ज्यादा स्वर्ण उत्पादन के कारण अफ्रीका भी एक बहुत अमीर देश रहा है। अंग्रेजों द्वारा दी गयी ४५० साल की गुलामी भी इस देश से वह गुण नहीं छीन पायी जो गुण प्रकृति ने अफ्रीका को दिया। अंग्रेजों ने अफ्रीका को न केवल लूटा बल्कि बर्बरता से उसका दोहन किया। भारत और अफ्रीका का करीब ३००० साल से व्यापारिक सम्बन्ध रहा है। भौगोलिक दृष्टि से समुद्र के रास्ते दक्षिण एशिया से अफ्रीका या लैटिन अमरीका जाने के लिये इंग्लैण्ड के पास से निकलना पड़ता था। तब इंग्लैण्ड वासियों की नज़र इन जहाज़ों पर पड़ गयी। और आप जानते होंगे कि इंग्लैण्ड में कूछ नही था, लोगों का काम लूटना और मार के खाना ही था, ऐसे में जब इन्होने देखा कि माल और सोने भरे जहाज़ भारत जा रहे हैं तो इन्होने जहाज़ों को लूटना शुरू किया। किन्तु अब उन्होंने सोचा कि क्यों न भारत जा कर उसे लूटा जाए।।। तब कूछ लोगों ने मिल कर एक संगठन खड़ा किया और वे इंग्लैण्ड के राजा रानी से मिले और उनसे कहा कि हम भारत में व्यापार करना चाहते हैं हमें लाइसेंस की आवश् यकता है। अब राज परिवार ने कहा कि भारत से कमाया गया धन राज परिवार, मंत्रिमंडल, संसद और अधीकारियों में भी बंटेगा। इस समझौते के साथ सन १७५० में थॉमस रो ईस्ट इण्डिया कम्पनी के नाम से जहांगीर के दरबार में पहुंचा और व्यापार करने की आज्ञा मांगी। और तब से १९४७ तक क्या हुआ है वह तो आप भी जानते है।

थॉमस रो ने सबसे पहले सूरत के एक महल नुमा घर को लूटा जो आज भी मौजूद है। फिर पड़ोस के गाँव में और फिर और आगे। खाली हाथ आये इन अंग्रजों के पास जब करोड़ों की संपत्ति आई तो इन्होने अपनी खुद की सेना बनायी। उसके बाद सन १७५७ में रोबर्ट क्लाइव बंगाल के रास्ते भारत आया उस समय बंगाल का राजा सिराजुद्योला था। उसने अंग्रेजों से संधि करने से मना कर दिया तो रोबर्ट क्लाइव ने युद्ध की धमकी दी और केवल ३५० अंग्रेज सैनिकों के साथ युद्ध के लिये गया। बदले में सिराजुद्योला ने १८००० की सेना भेजी और सेनापति बनाया मीर जाफर को। तब रोबर्ट क्लाइव ने मीर जाफर को पत्र भेज कर उसे बंगाल की राज गद्दी का लालच देकर उससे संधि कर ली। रोबर्ट क्लाइव ने अपनी डायरी में लिखा था कि बंगाल की राजधानी जाते हुए मै और मीर जाफर सबसे आगे, हमारे पीछे मेरी ३५० की अंग्रेज सेना और उनके पीछे बंगाल की १८००० की सेना। और रास्‍ते में जितने भी भारतीय हमें मिले उन्होंने हमारा कोई विरोध नहीं किया, उस समय यदि सभी भारतीयों ने मिल कर हमारा विरोध किया होता या हम पर पत्थर फैंके होते तो शायद हम कभी भारत में अपना साम्राज्य नहीं बना पाते। वो डायरी आज भी इंग्लैण्ड में है। मीर जाफर को राजा बनवाने के बाद धोखे से उसे मार कर मीर कासिम को राजा बनाया और फिर उसे मरवाकर खुद बंगाल का राजा बना। ६ साल लूटने के बाद उसका स्थानातरण इंग्लैण्ड हुआ और वहां जा कर जब उससे पूछा गया कि कितना माल लाये हो तो उसने कहा कि मै सोने के सिक्के, चांदी के सिक्के और बेश कीमती हीरे जवाहरात लाया हूँ। मैंने उन्हें गिना तो नहीं किन्तु इन्हें भारत से इंग्लैण्ड लाने के लिये मुझे ९०० पानी के जहाज़ किराये पर लेने पड़े। अब सोचो एक अकेला रोबर्ट क्लाइव ने इतना लूटा तो भारत में उसके जैसे ८४ ब्रीटिश अधीकारी आये जिन्होंने भारत को लूटा। रोबर्ट क्लाइव के बाद वॉरेन हेस्टिंग्स नामक अंग्रेज अधीकारी आया उसने भी लूटा, उसके बाद विलियम पिट, उसके बाद कर्जन, लौरेंस, विलियम मेल्टिन और न जाने कौन कौन से लुटेरों ने लूटा। और इन सभी ने अपने अपने वाक्यों में भारत की जो व्याख्या की उनमे एक बात सबमे सामान है। सबने अपने अपने शब्दों में कहा कि भारत सोने की चिड़िया नहीं सोने का महासागर है। इनका लूटने का प्रारम्भिक तरीका यह था कि ये किसी धनवान व्यक्ति को एक चिट्ठी भेजते थे जिसमे एक करोड़, दो करोड़ या पांच करोड़ स्वर्ण मुद्राओं की मांग करते थे और न देने पर घर में घुस कर लूटने की धमकी देते थे। ऐसे में एक भारतीय सोचता कि अभी नहीं दिया तो घर से दस गुना लूट के ले जाएगा अत: वे उनकी मांग पूरी करते गए। धनवानों के बाद बारी आई देश के अन्य राज्यों के राजाओं की। वे अन्य राज परीवारों को भी ऐसे ही पत्र भेजते थे। कूछ राज परिवार जो कायर थे उनकी मांग मान लेते थे किन्तु कूछ साहसी लोग ऐसे भी थे जो उन्हें युद्ध के लिये ललकारते थे। फिर अंग्रेजों ने राजाओं से संधि करना शुरू कर दिया।

अंग्रेजों ने भारत के एक भी राज्य पर शासन खुद युद्ध जीत कर नहीं जमाया। महारानी झांसी के विरुद्ध १७ युद्ध लड़ने के बाद भी उन्हें हार का मूंह देखना पड़ा। हैदर अली से ५ युद्धों में अंग्रेजों ने हार ही देखी। किन्तु अपने ही देश के कूछ कायरों ने लालच में आकर अंग्रेजों का साथ दिया और अपने बंधुओं पर शस्त्र उठाया।

सन १८३४ में अंग्रेज अधिकारी मैकॉले का भारत में आगमन हुआ। उसने अपनी डायरी में लिखा है कि ”भारत भ्रमण करते हुए मैंने भारत में एक भी भिखारी और एक भी चोर नहीं देखा। क्यों कि भारत के लोग आज भी इतने अमीर हैं कि उन्हें भीख मांगने और चोरी करने की जरूरत नहीं है और ये भारत वासी आज भी अपना घर खुला छोड़ कर कहीं भी चले जाते हैं इन्हें तालों की भी जरूरत नहीं है।” तब उसने इंग्लैण्ड जा कर कहा कि भार त को तो हम लूट ही रहे हैं किन्तु अब हमें कानूनन भारत को लूटने की नीति बनानी होगी और फिर मैकॉले के सुझाव पर भारत में टैक्स सिस्टम अंग्रेजों द्वारा लगाया गया। सबसे पहले उत्पादन पर ३५०%, फिर उसे बेचने पर ९०% । और जब और कूछ नहीं बचा तो मुनाफे पर भी टैक्स लगाया गया। इस प्रकार अंग्रजों ने भारत पर २३ प्रकार के टैक्स लगाए।

और इसी लूट मार से परेशान भारतीयों ने पहली बार एकत्र होकर सब १८५७ में अंग्रेजों के विरुद्ध क्रांति छेड़ दी। इस क्रांती की शुरुआत करने वाले सबसे पहले वीर मंगल पाण्डे थे और अंग्रेजों से भारत की स्वतंत्रता के लिये शहीद होने वाले सबसे पहले शहीद भी मंगल पांडे ही थे। देखते ही देखते इस क्रान्ति ने एक विशाल रूप धारण किया। और इस समय भारत में करीब ३ लाख २५ हज़ार अंग्रेज़ थे जिनमे से ९०% इस क्रांति में मारे गए। किन्तु इस बार भी कूछ कायरों ने ही इस क्रान्ति को विफल किया और अंग्रेजों द्वारा सहायता मांगने पर उन्होंने फिर से अपने बंधुओं पर प्रहार किया।

उसके बाद १८७० में अंग्रेजों के विरुद्ध क्रान्ति छेड़ी हमारे देश के गौरव स्वामी दयानंद सरस्वती ने, उनके बाद लोकमान्य तिलक, लाला लाजपतराय, वीर सावरकर जैसे वीरों ने। फिर गांधी जी, भगत सिंह, उधम सिंह, चंद्रशेखर जैसे बीरों ने। अंतिम लड़ाई लड़ने वालों में नेताजी सुभाष चन्द्र बोस रहे हैं। सन १९३९ में द्वितीय विश्व युद्ध के समय जब हिटलर इंग्लैण्ड को मारने के लिये तैयार खड़ा था तो अंग्रेज साकार ने भारत से एक हज़ार ७३२ करोड़ रुपये ले जा कर युद्ध लड़ने का निश्चय किया और भारत वासियों को वचन दिया कि युद्ध के बाद भारत को आज़ाद कर दिया जाएगा और यह राशि भारत को लौटा दी जाएगी। किन्तु अंग्रेज अपने वचन से मुकर गए।

आज़ादी मिलने से कूछ समय पहले एक बीबीसी पत्रकार ने गांधी जी से पूछा कि अब तो अंग्रेज जाने वाले हैं, आज़ादी आने वाली है, अब आप पहला काम क्या करेंगे? तो गांधी जी ने कहा कि केवल अंग्रेजों के जाने से आज़ादी नहीं आएगी, आज़ादी तो तब आएगी जब अंग्रेजो द्वारा बनाया गया पूरा सिस्टम हम बदल देंगे अर्थात उनके द्वारा बनाया गया एक एक कानून बदलने की आवश्यकता है क्यों कि ये क़ानून अंग्रेजों ने भारत को लूटने के लिये बनाए थे, किन्तु अब भारत के आज़ाद होने के बाद इन सभी व्यर्थ के कानूनों को हटाना होगा और एक नया संविधान भारत के लिये बनाना होगा। हमें हमारी शिक्षा पद्धति को बदलना होगा जो कि अंग्रेजों ने भारत को गुलाम बनाए रखने के लिये बनाई थी। जिसमे हमें हमारा इतिहास भुला कर अंग्रेजों का कथित महान इतिहास पढ़ाया जा रहा है। अंग्रेजों कि शिक्षा पद्धति में अंग्रजों को महान और भारत को नीचा और गरीब देश बता कर भारत वासियों को हीन भावना से ग्रसित किया जा रहा है। इस सब को बदलना होगा तभी सही अर्थों में आजादी आएगी।

किन्तु आज भी अंग्रेजों के बनाए सभी क़ानून यथावत चल रहे हैं अंग्रेजों की चिकित्सा पद्धति यथावत चल रही है। और कूछ काम तो हमारे देश के नेताओं ने अंग्रेजों से भी बढ़कर किये। अंग्रेजों ने भारत को लूटने के लिये २३ प्रकार के टैक्स लगाए किन्तु इन काले अंग्रेजों ने ६४ प्रकार के टैक्स हम भारत वासियों पर थोप दिए। और इसी टैक्स को बचाने के लिये देश के लोगों ने टैक्स की चोरी शुरू की जिससे काला बाजारी जैसी समस्या सामने आई। मंत्रियों ने इतने घोटाले किये कि देश की जनता भूखी मरने लगी। भारत की आज़ादी के बाद जब पहली बार संसद बैठी और चर्चा चल रही थी राष्ट्र निर्माण की तो कई सांसदों ने नेहरु से कहा कि वह इंग्लैण्ड से वह उधार की राशी मांगे जो द्वितीय विश्व युद्ध के समय अंग्रेजों ने भारत से उधार के तौर पर ली थी और उसे राष्ट्र निर्माण में लगाए। किन्तु नेहरु ने कहा कि अब वह राशि भूल जाओ। तब सांसदों का कहना था कि इन्होने जो २०० साल तक हम पर जो अत्याचार किया है क्या उसे भी भूल जाना चाहिए? तब नेहरु ने कहा कि हाँ भूलना पड़ेगा, क्यों कि अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में सब कूछ भुलाना पड़ता है। और तब यही से शुरुआत हुई सता की लड़ाई की और राष्ट्र निर्माण तो बहुत पीछे छूट गया था।

तो मित्रों अब मुझे समझ आया कि भारत इतना गरीब कैसे हुआ, किन्तु एक प्रश्न अभी भी सामने है कि स्वीटजरलैंड जैसा देश आज इतना अमीर कैसे है जो आज भी किसी भी प्रकार का कार्य न करने पर भी मज़े कर रहा है। तो मित्रों यहाँ आप जानते होंगे कि स्वीटजरलैंड में स्विस बैंक नामक संस्था है, केवल यही एक काम है जो स्वीटजरलैंड को सबसे अमीर देश बनाए बैठा है। स्विस बैंक एक ऐसा बैंक है जो किसी भी व्यक्ति का कित ना भी पैसा कभी भी किसी भी समय जमा कर लेता है। रात के दो बजे भी यहाँ काम चलता मिलेगा। आपसे पूछा भी नहीं जाएगा कि यह पैसा आपके पास कहाँ से आया? और उसपर आपको एक रुपये का भी ब्याज नहीं मिलेगा। और ये बैंक आपसे पैसा लेकर भारी ब्याज पर लोगों को क़र्ज़ देता है। खाताधारी यदि अपना पैसा निकालने से पहले यदि मर जाए तो उस पैसा का मालिक स्विस बैंक होगा, क्यों कि यहाँ उत्तराधिकार जैसी कोई परम्परा नहीं है। और स्वीटजरलैंड अकेला नहीं है, ऐसे ७० देश और हैं जहाँ काला धन जमा होता है इनमे पनामा और टोबैको जैसे देश हैं।

मित्रों आज़ादी के बाद भारत में भ्रष्टाचार तो इतना बढ़ा कि मधु कौड़ा जैसे मुख्यमंत्री ने झारखंड का मुख्यमंत्री बनकर केवल दो साल में ५६०० करोड़ की संपत्ति स्विस बैंक में जमा करवा दी। जब मधु कौड़ा जैसा मुख्यमंत्री केवल दो साल में ५६०० करोड़ रुपये भारत के एक गरीब राज्य से लूट सकता है तो ६३ सालों से सत्ता में बैठे काले अंग्रेजों ने इस अमीर देश से कितना लूटा होगा? ऐसे ही थोड़े ही राजीव गांधी ने कहा था कि जब मै एक रूपया देश की जनता को देता हूँ तो जनता तक केवल १५ पैसे पहुँचते हैं। कूछ समय पहले उत्तर प्रदेश के एक आईएएस अधिकारी अखंड प्रताप सिंह के घर जब इन्कम टैक्स का छापा पड़ा तो उनके घर से ४८० करोड़ रुपये मिले। पूछताछ में अखंड प्रताप सिंह ने बताया कि ऐसे मेरे १९ घर और हैं। और इस प्रकार से ये पैसा पहुंचता है स्विस बैंक।

तो मित्रों अब यहाँ से पता चलता है कि भारत आज़ादी के ६३ साल बाद भी इतना गरीब देश क्यों है और स्वीटजरलैंड इतना अमीर क्यों है? इसका उत्तर यह है कि १५ अगस्त १९४७ को भारत आज़ाद नहीं हुआ था केवल सत्ता का हस्तांतरण हुआ था। सत्ता गोरे अंग्रेजों के हाथ से निकल कर काले अंग्रेजों के हाथ में आ गयी थी।

और आज इन्ही काले अंग्रेजों की संताने आज हम पर शाशन कर रही हैं। वरना क्या वजह है कि मध्य प्रदेश के इंदौर शहर में नयी दुनिया नामक एक अखबार की पुस्तक का विमोचन करने पहुंचे चिताम्बरम ने यह कहा कि भारत तो हज़ारों वर्षों से भयंकर गरीब देश है। और इन्ही काले अंग्रेजों की एक और संतान हमारे प्रधान मंत्री जी हैं। जब ये प्रधान मंत्री बनने के बाद पहली बार ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय गए तो वहां उन्हà ��ंने कहा कि भारत तो सदियों से गरीब देश रहा है, ये तो भला हो अंग्रेजों का जिन्होंने आकर हमें अँधेरे से बाहर निकाला, हमारे देश में ज्ञान का सूरज लेकर आये, हमारे देश का विकास किया आदि आदि। अगले दिन लन्दन के सभी बड़े बड़े अखबारों में हैडलाइन छपी थी की भारत शायद आज भी मानसिक रूप से हमारा गुलाम है। और ये वही काले अंग्रेज हैं जो खुद तो देश का पैसा स्विस बैंक में जमा करते गए किन्तु गुजरात जैसे प्रदेश में भी विकास करने वाले नरेन्द्र भाई मोदी पर पता नहीं क्या क्या घटिया आरोप लगाते रहे। मानसिक गुलामी की बाढ़ इतनी आगे बढी कि हमारा मीडिया भी उसमे गोते खाने लगा। देश पर २०० साल तक राज़ करने वाली ईस्ट इण्डिया कम्पनी को एक भारतीय उद्योगपति संजीव मेहता ने १५० लाख डॉलर मूल्य देकर खरीद लिया, जिस कम्पनी ने भारत को २०० साल गुलाम बनाया वह कम्पनी आज एक भारतीय की गुलाम हो गयी है, किन्तु देश के किसी भी चैनल पर इसे नहीं देखा गया क्यों कि हमारा टीआरपी पसाद मीडिया तो उस समय सानिया शोएब की कथित प्रेम कहानी को कवर करने में बिजी था न, उस समय देश से ज्यादा शायद ये दो प्रेम के पंछी मीडिया के लिये जरूरी थे।

तो मित्रों अब यदि इन काले अंग्रेजों से आज़ादी चाहिए तो फिर से कोई स्वतंत्रता संग्राम छेड़ना होगा, कोई क्रान्ति को जन्म देना होगा। फिर से किसी को मंगल पण्डे बनना होगा, किसी को भगत सिंह तो किसी को सुभाष चन्द्र बोस बनना होगा। क्यों कि जीवन जीने के केवल दो हे तरीके इस देश में बचे हैं कि या तो जो हो रहा है उसे सहते रहो, शान्ति के नाम पर यथास्थिति बनाए रखो, और सब कूछ सहते सहते मर जाओ या फिर खड़े हो जाओ एक संकल्प के साथ और आवाज़ उठाओ अन्याय के विरुद्ध, फिर से खड़ी करो एक क्रान्ति, और केवल मै और मेरा पारिवार की विचारधारा से भार आकर मेरा राष्ट्र की विचारधारा को अपनाओ। किन्तु आज इस देश में यथास्थिति वाले लोग अधिक है। उन्ही से पूछना चाहूँगा कि क्या ये दिन देखने के लिये ही तुम्हारे पूर्वजों ने जीवन का बलिदान दिया था, क्या उनका त्याग व्यर्थ जाएगा, क्या आज तुम्हारे पूर्वजों को तुम प र गर्व होगा, क्या आने वाली पीढी को तुम पर गर्व होगा, क्या अपनी आने वाली पीढ़ी के लिये विरासत में तुम इन काले अंग्रेजों को छोड़ के जाओगे? आचार्य विष्णु गुप्त (चाणक्य) ने कहा था कि जितनी हानि इस राष्ट्र को दुर्जनों कि दुर्जनता से हुई है उससे कहीं अधिक हानि इस राष्ट्र को सज्जनों कि निष्क्रियता से हुई है। क्या आप सज्जन हमेशा निष्क्रीय ही बने रहेंगे? अब कोई भी यह पूछ सकता है कि हम क्या करें? मित्रों करने को बहुत कूछ है करने की इच्छा शक्ति होनी चाहिए। यदि आप में इच्छा शक्ति है, यदि आप में ज्ञान है तो आप खुद अपने लिये राह बना सकते हैं। चाणक्य ने मगध सम्राट धननंद के दरबार में उसे ही ललकारते हुए कहा था कि मेरे ज्ञान में अगर शक्ति है तो मै अपना पोषण कर सकने वाले सम्राटों का निर्माण स्वयं कर लूँगा।

मित्रों मै जानता हूँ कि ये लेख कूछ अधिक लम्बा हो गया है और इसमें लिखी गयी सभी बातों को आप भी जानते होंगे, किन्तु फिर भी इन सब बातों को एक साथ पिरो कर आपके सामने लाना जरूरी था क्यों कि कूछ राष्ट्र विरोधी शक्तियां चर्चा के समय बहुत से ऊट पटांग सवाल कर सकती हैं, तथ्यों की मांग उनकी तरफ से होती रहती है, जहाँ तक हो सकता था मैंने बहुत कूछ लिख देने की कोशिश की है, इस लिये मैंने पूरा इतिहास ही लिख डाला। अब भी यदि किसी तथ्य की आवश्यकता है तो हम पुराने समय में नहीं जा सकते कि सब कूछ आप को सीधा प्रसारण दिखा सकें। आशा करता हूँ कि सभी प्रश्नों के उत्तर आपको मिल जाएंगे और फिर भी कूछ रह जाए तो मै उत्तर देने के लिये प्रस्तुत हूँ।

धन्यवाद…जय हिंद…

सूचना के अधिकार में संचार एवं सूचना प्रौद्योगिकी की भूमिका

12 अक्टूबर 2010 सूचना का अधिकार दिवस

इंटरनेट आरटीआई का दिल

-सरमन नगेले

मीडिया आरटीआई को प्रोत्साहित करे और आमजन इन्टरनेट के माध्यम से सूचना प्राप्त करना शुरू कर दे तो एक बड़ी क्रांति का सूत्रपात होगा।

इन्टरनेट आरटीआई का दिल है, यह बात किसी आईटी प्रोफेसनल या इन्टरनेट सर्विस प्रोवाइडर द्वारा अथवा ईमेल सेवा प्रदाता कंपनी ने नहीं कही। बल्कि ऐसे शख्स श्री वजाहत हबीबुल्लाह ने कही, जो केन्द्रीय सूचना आयोग के मुख्य सूचना आयुक्त रहे हैं।

जिस कार्यक्रम में मुख्य सूचना आयुक्त ने दिल की बात दिल से जोड़कर कही। उस कार्यक्रम में मैं भी मौजूद था। मैंने कार्यक्रम में आये भारत के विभिन्न राज्यों के प्रतिनिधियों व अन्य देशों से आये विषय विशेषज्ञों से आरटीआई को इन्टरनेट के जरिए प्रोत्साहित करने की बात कही। अब सवाल उठता है कि आरटीआई इंटरनेट का दिल है या नहीं यह तो समय ही बताएगा।

अलबत्ता आरटीआई के असर से अच्छे-अच्छे प्रभावशाली तक भय खाने लगे हैं। आरटीआई के जरिए सूचना क्रांति लाने के उपक्रम की कड़ी में सीडेक हैदराबाद द्वारा एक ई-लर्निंग कोर्स प्रारंभ किया गया, जबकि भारत सरकार द्वारा आरटीआई को बढ़ावा देने के लिए एक आनलाइन ई-डिग्री कोर्स प्रारंभ किया गया है। कुछ मीडिया हाउस व संस्थाओं ने आरटीआई अवार्ड भी स्थापित किए हैं। यहां यह बताना न केवल उचित होगा बल्कि सामयिक भी है कि विश्व बैंक द्वारा सूचनाओं के कम्प्यूटरीकरण के लिए 23 हजार करोड़ रूपये की व्यवस्था की गई है। इससे सूचनाओं को सुरक्षित रखने और उनके आदान-प्रदान में काफी सहायता मिलेगी।

सूचना के अधिकार कानून को और प्रभावी बनाने के लिए ई-गवर्नेस एवं ई-मेल के जरिए संवाद की सेवा को भारत सरकार ने सिद्धांत रूप में मंजूरी दे दी है। सूचना का अधिकार अधिनियम लोकतंत्र को मजबूत बनाने का कारगर माध्यम है। यह बात राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने स्वयं स्वीकार की है। ये उदाहरण इस बात के द्योतक हैं कि आरटीआई शनैः शनैः अपनी जड़े मजबूत करता जा रहा है।

यूं तो यह कानून जनता के हाथ में एक ऐसा औजार है जो सरकार को या सरकार से अनुदान प्राप्त संस्थाओं और आरटीआई के दायरे में आने वालों को कठघरे में उसे जवाबदेय और पारदर्शी होने पर मजबूर करता है। इससे सरकारी कामकाज में जहां पारदर्शिता आयी है वहीं लोग अपने आपको ज्यादा ताकतवर महसूस करते है सरकारी तंत्र के सामने।

लोग बेहतर प्रशासन और भ्रष्टाचार मुक्त प्रणाली की उम्मीद करते हैं और इसे पूर्ण रूप से हासिल करने के लिए वे आरटीआई का उपयोग तो करने लगे हैं लेकिन इंटरनेट आधारित सुविधा यानि आईसीटी का नहीं।

आरटीआई कानून में जनमानस के लिये एक बहुत बड़ा प्रावधान यह है कि कोई भी व्यक्ति आरटीआई से संबंधित जानकारी ईमेल के जरिए भी प्राप्त कर सकता है। इंटरनेट के द्वारा जानकारी लेने का यह माध्यम सबसे सस्ता और प्रभावी है इसमें पैसे और समय की बचत के साथ-साथ आवेदनकर्ता के लिए समयसीमा का कोई बंधन नहीं है। न ही किसी सरकारी कार्यालय के चक्कर लगाने की जरूरत है। व्यक्ति अपने घर से किसी भी समय आवेदन कर सकता है। आमजन ने इस माध्यम को अपना लिया तो देश में सूचना प्राप्त करने की एक बड़ी क्रांति का सूत्रपात होगा।

आरटीआई को घर-घर में पहुंचाने में संचार एवं सूचना प्रौद्योगिकी का उपयोग कारगर और प्रभावी ढ़ंग से हो मसलन- आरटीआई के तहत आने वाली शिकायतों का समाधान वीडियों क्रांफेंसिंग के जरिए होना चाहिए। कॉल सेंटर के माध्यम से आवेदन स्वीकार होना चाहिए। ई-मेल संस्कृति विकसित होना चाहिए। क्रेडिट कार्ड के माध्यम से ली जानी वाली फीस का भुगतान स्वीकार हो।

आईसीटी के तहत सूचना प्राप्त करने वाले आवेदक को आवेदन प्राप्त की सूचना संबंधित द्वारा एसएमएस के जरिए दे, आवेदक भी अभीस्वीकृति एसएमएस के जरिए दे। यह सुविधा निशुल्क हो। इस कार्य के लिए राज्य या केन्द्र सरकार साफ्टवेयर विकसित कर सूचना के अधिकार को आम-जन का अधिकार बनाने में महत्वपूर्ण योगदान दे सकता है।

आवेदक को एक ही स्थान पर समस्त प्रकार की जानकारी जैसे आवेदन पत्र, किसको देना है, कहां देना है, किस समय देना है, कितना शुल्क जमा करना है, सूचना के अधिकार की प्रक्रिया क्या है, किस अधिकारी से किस काम के लिए मुलाकात करना या आवेदन देना है। आरटीआई के आवेदन के समाधान से जुड़े हुए सभी स्तर के अधिकारी का नाम, पता, मोबाईल या फोन नंबर, ईमेल आईडी और अन्य जो कार्यालयीन जानकारी हो। इस प्रकार की सूचनाओं से परिपूर्ण ऐसी वेबसाइट सभी स्तर पर विकसित होना चाहिए। जहां पर भी आरटीआई के आवेदन का निराकरण होना प्रक्रियागत हो। तभी यह कानून सार्थक होगा।

सूचना के अधिकार को आमजन का अधिकार बनाने में मीडिया की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है। लिहाजा मीडिया के स्वरूप के अनुकूल अपने-अपने स्तर पर यदि मीडिया सूचना के अधिकार को प्रोत्साहित करने का उपक्रम प्रारंभ करता है तो सूचना का अधिकार भारत में पांचवें स्तंभ का स्थान प्राप्त कर सकता है।

लेखक- न्यूज पोर्टल एमपीपोस्ट डॉट ओआरजी के संपादक हैं।

चेग्वेरा क्यों नहीं बने नामवर सिंह

-जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

सवाल टेढ़ा है लेकिन जरूरी है कि चेग्वेरा क्यों नहीं बन पाए नामवर सिंह। उन्होंने क्रांतिकारी की बजाय बुर्जुआमार्ग क्यों अपनाया ? क्रांति का मार्ग दूसरी परंपरा का मार्ग है। जीवन की प्रथम परंपरा है बुर्जुआजी की। नामवरजी को पहली परंपरा की बजाय दूसरी परंपरा पसंद है। सवाल यह है कि दूसरी परंपरा क्या है ? दूसरी परंपरा है क्रांति की और क्रांतिकारी विचारों के निर्माण की।

दूसरी परंपरा वह नहीं है जो हजारीप्रसाद द्विवेदी ने खोजी है। वह तो साहित्य की बुर्जुआ परंपरा है। यह परंपरा तो उसी बुर्जुआ साहित्य परंपरा का एक रूप है जिसे रामचन्द्र शुक्ल ने खोजा था। रामविलास शर्मा शुक्लजी की परंपरा में अटककर रह गए और बाद में और भी पीछे चल गए। नामवर सिंह ने दूसरी परंपरा की खोज की और जो बातें कहीं उनमें वे बुनियादी तौर पर बुर्जुआ चिंतन के ढ़ांचे का अतिक्रमण नहीं कर पाते।

चे की पुण्यतिथि के मौके पर नामवर सिंह से हम यह सवाल करना चाहते हैं कि उन्होंने चे की परंपरा में जाने की बजाय बुर्जुआ परंपरा में रहना क्यों पसंद किया ? हम जानते हैं कि नामवरजी और उनके भक्तों के पास इस सवाल का जबाव नहीं है। लेकिन चे और नामवरजी में एक समानता है,चे जिस तरह सारी दुनिया में क्रांतिकारियों के प्यारे थे और हैं, नामवरजी भी प्रगतिशील, क्रांतिकारी लेखकों, युवाओं में आइकॉन की तरह हैं। हिन्दी के छात्रों में आज भी आइकॉन हैं। प्यारे हैं।

सवाल उठता है उनके व्यक्तित्व में ऐसा कौन सा जादू है जो लोगों पर असर डालता है और उन्हें महान बनाता है ? उनसे मिलकर यही लगेगा कि किसी महान व्यक्ति से मिले। बुर्जुआ महानायकों जैसी उदारता उनके व्यक्तित्व में रच बस गयी है।

मैं नहीं जानता कि उनके अंदर क्रांतिकारी विचारों का कौन सा महान पाठ छिपा है लेकिन एक बात उनकी चे से जरूर मिलती है वे चे की तरह असहमत होना जानते हैं और अपनी असहमति को वे बताना,समझाना और व्यवहार में उतारना भी जानते हैं। नामवरजी का यह असहमति वाला गुण क्रांतिकारी विरासत से मिलता-जुलता है। चे से उनके व्यक्तित्व की एक और बात मिलती है कि वे प्रेम के पुजारी हैं। चे की तरह उन्होंने भी प्रेम को अपने संस्कार का हिस्सा बनाया है। इसके बावजूद वे चे क्यों बन पाए यही मेरी मूल चिन्ता है।

चे की जिंदगी और विचारो ने करोड़ों युवाओं को सारी दुनिया में क्रांति के लिए जान निछाबर करने की प्रेरणा दी। क्रांतिकारी विचारों और क्रांति से प्यार करना सिखाया। भारत के युवाओं पर भी चे का गहरा असर रहा है। किसी भी क्रांतिकारी की जिंदगी उसके जनता के प्रति समर्पण,कुर्बानी और विचारधारात्मक स्पष्टता के पैमाने पर देखी जानी चाहिए। चे के विचारों और कर्म में गहरी एकता थी।

उनमें अन्य के प्रति,उसकी मुक्ति के प्रति गहरी निष्ठा थी। चे यह नहीं मानते थे कि वे जनता के मुक्तिदाता हैं बल्कि उनका मानना था “मैं मुक्तिदाता नहीं हूँ। मुक्तिदाता का अस्तित्व नहीं होता। जनता स्वयं को मुक्त करती है।”

हमें देखना चाहिए कि जिस समाज में बुनियादी परिवर्तन चाहते हैं वहां क्रांतिकारी ताकतें,क्रांति के लिए प्रतिबद्ध बुद्धिजीवी आखिर क्या कर रहे हैं ?क्या वे बुर्जुआ वर्ग के एजेण्डे पर काम कर रहे हैं या फिर क्रांतिकारियों के एजेण्डे पर काम कर रहे हैं ? भारत की आयरनी यह है कि यहां के क्रातिकारी बुद्धिजीवी बुर्जुआ एजेण्डे पर फुलटाइम काम करते हैं ,क्रांतिकारी एजेण्डे पर पार्टटाइम काम करते हैं। जाहिर है समग्रता में उनके कार्यों से क्रांति का कम बुर्जुआजी का ज्यादा भला होता है।

क्रांतिकारी कार्यकलाप का प्रेम की धारणा के साथ गहरा संबंध है जो प्रेम नहीं कर सकता वह क्रांति भी नहीं कर सकता। जो प्रेम नहीं कर सकता वह भक्ति भी नहीं कर सकता। ईश्वर उपासना भी नहीं कर सकता। प्रेम हमारे समस्त जीवन की धुरी है। उसका क्रांति के साथ भी अभिन्न संबंध है। क्रांतिकारी भावों-विचारों के प्रति निष्ठा बनाने में प्रेम के प्रति कर्म और व्यवहार में वचनवद्धता जरूरी है।

चे का मानना था”यह हास्यास्पद लग सकता है लेकिन मैं कहना चाहता हूँ कि सच्चा क्रांतिकारी प्रेम से निर्देशित होता है। ”

हम मध्यवर्ग के लोगों की बुनियादी समस्या यह है कि हम जीवन में सब कुछ पाना चाहते हैं। सुखी जीवन चाहते हैं। सारी सुविधाएं चाहते हैं। किसी भी किस्म के सामाजिक परिवर्तन के लिए विचार से लेकर व्यवहार तक हमारे पास समय नहीं है। हम सारी जिंदगी जुगाड़ में लगा देते हैं। जोड़ तोड़, कुर्सी,पद, सम्मान, पैसा, शोहरत आदि हासिल करने में सारी ऊर्जा खर्च कर देते हैं और इस चक्कर में ब्लडप्रेशर से लेकर डायविटीज तक अनगिनत बीमारियों के शिकार हो जाते हैं,खाली समय में अवसाद में भोगते हैं,इससे कुछ बचता है तो निंदा में खर्च करते हैं,इससे समय बचता है तो फिर सो जाते हैं।

हमारे पूरे जीवन के टाइमटेबिल में क्रांति और सामाजिक परिवर्तन के कामों के लिए कोई जगह नहीं होती। यदि हम महान प्रगतिशील आलोचक हुए तो सारी उम्र सेमीनार, चयन समिति,पुरस्कार समिति,अध्यक्षता आदि में आदरणीय नामवर सिंह की तरह खर्च कर देते हैं।

आप कल्पना कीजिए नामवरसिंह जैसे महान पंडित ने क्रांति के बारे में अपने जीवन का आधा समय भी खर्च किया होता तो भारत और हिन्दीभाषी समाज का कितना उपकार हुआ होता। अंत में चे के शब्दों में ” आप सब कुछ खोकर ,कुछ पाते हैं।’’ उसके बाद ही क्रांति कर पाते हैं। नामवर सिंह ने अपने जीवन में सब कुछ पाया। लेकिन बिना जोखिम उठाए। उनके जीवन की चे के मुताबिक सबसे बड़ी असफलता यही है कि उन्होंने कोई जोखिम नहीं उठाया। चे के अनुसार जोखिम उठाए बिना सब कुछ पाना जीवन की सबसे बड़ी विपत्ति है, और नामवरजी इसके आदर्श पुरूष हैं। नामवरसिंह ने सब कुछ पाया लेकिन कोई जोखिम नहीं उठाया। व्यक्तिगत जीवन से लेकर सामाजिक-राजनीतिक जीवन तक यदि वे जोखिम उठाते तो वे चे बन सकते थे।

यह बालक गुस्सा नहीं, उपेक्षा का पात्र है

-पंकज झा

एक कहावत है, कभी भी किसी जीवित व्यक्ति की प्रशंसा नहीं करें. पता नहीं कब आपको अपने कहे पर पछतावा होने लगे. ऐसे ही पछतावे का अवसर इस लेखक को हाल के राहुल गांधी के बयान ने दिया है. मध्यप्रदेश में राहुल ने बयान दिया कि संघ और सिमी में कोई फर्क नहीं है.

कुछ महीने पहले की बात है जब इस लेखक ने राजनीतिक प्रतिबद्धताओं से परे जा कर राहुल की इस बात के लिए तारीफ़ की थी कि वो दलितों के घर जा कर एक नए तरह का पहल कर रहे हैं. तब राहुल के उस काम को ‘नाटक’ कहने वालों के लिए अपना यह सवाल था कि अगर यह नाटक ही है तो शेष राजनीतिक दलों को ऐसा करने से कौन रोक रहा है? मोटे तौर पर अपनी यह समझ बनी थी कि उस मामले में राहुल की आलोचना वैसा ही है जैसे किसी प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी करने वाले का ये कह कर आलोचना की जाय कि यह कोई पढ़ने वाला लड़का नहीं है. चुकि इसको आईएएस बनना है इसलिए पढ़ रहा है. आशय यह कि भले ही लक्ष्य भौतिक हो, आपका कदम भले ही प्रतीकात्मक हो, फ़िर भी अगर आप कोई बड़ी लकीर खीचने के लिए प्रयासरत हों, आपके किसी उचित कदम हाशिए के लोगों को मुख्यधारा में लाने में मदद मिल रही हो तो उसकी तारीफ़ की जानी चाहिए. राजनीति में कई बार प्रतीक ही भविष्य का मेरुदंड बन जाता है. अन्यथा किसको पता था कि ‘असली गांधी’ द्वारा दांडी में एक मुट्ठी नमक उठाना अंग्रेजों के नमकहरामी की ताबूत में अंतिम कील साबित होगा. खैर.

तो इस नकली गांधी ने ऐसा कोई बयान दिया होगा पहले तो सहसा विश्वास करना ही मुश्किल था. अपनी स्थापना से लेकर आज तक दुष्प्रचारों को झेलता रहा संघ निश्चय ही हर अग्नि परिक्षा में कुंदन बन कर निकला है. लेकिन संघ के कटु से कटु आलोचकों ने कभी इस सांस्कृतिक संगठन की राष्ट्र के प्रति निष्ठा पर कोई शक नहीं ज़ाहिर किया है. गांधी-नेहरु-पटेल सभी ने अलग-अलग समय पर इस संगठन की तारीफ़ की है. जहां संघ द्वारा उठाये गए हर विषय, उसके द्वारा जताई गयी हर चिंता कल हो कर देश के लिए बड़ी समस्या के रूप में साबित हुआ है. जहां उसके द्वारा हाथ में लिए गए हर कामों को समय-समय पर न्यायालय भी मुहर लगाता रहा है, वही ‘सिमी’ किस तरह हर आतंकी दलों के लिए गुंडों की फौज बना हुआ है यह किसी से भी छुपा नहीं है. उस गिरोह को राहुल के केन्द्र सरकार ने खुद ही प्रतिबंधित किया हुआ है. जैसा कि सब जानते हैं अभी के केन्द्र के खेवनहार ने राहुल के लिए अपने गद्दी को ‘खडाऊ’ के रूप में सम्हाल कर रखा हुआ है. इसकी बागडोर प्रत्यक्ष रूप से राहुल की मां के पास ही है. तो अगर उसके इशारों पर नाचने वाली केन्द्र सरकार ने जिस सिमी पर नकेल कसी है क्या उसकी तुलना किसी देशभक्त संगठन से की जा सकती है?

संघ और सिमी को एक तराजू पर तौलने वाले किसी नेता की आंख में कौन सा चश्मा लगा हुआ है यह समझना कोई मुश्किल काम नहीं है. हां इस तरह का बयान देने वाले कांग्रेस के एक और महासचिव दिग्विजय सिंह जैसे लोग अगर इस तरह की बात करते तो यह अपेक्षित था. वास्तव में सिंह ने हमेशा ऐसे ही बयान दे कर जनता द्वारा बार-बार ठुकराए जाने के बाद भी स्वयं को प्रासंगिक बनाए रखने की कोशिश की है. लेकिन जिस तरह से मध्य प्रदेश में जा कर ही राहुल यह बयान दिया है तो यह मानने का पर्याप्त कारण है कि दिग्विजय अपनी बात राहुल के मूंह से कहाने में सफल सफल हुए है. तो इस आलोक में यह बात समझी जा सकती है कि राहुल के आस-पास किस मानसिकता के लोग हैं और भविष्य में हमें किस तरह की राजनीति से दो-चार होना पर सकता है.

यदि राहुल के इस बयान को उसका जुबान फिसल जाना माना जाय तो बात अलग है. लेकिन यह सभी जानते हैं कि उनकी जुबान इसलिए फिसल नहीं सकती क्यूंकि शब्द उनके अपने कभी होते नहीं. हां कई बार एक राज्य के लिए लिखे गए भाषण को किसी दुसरे सूबे में भी पढ़ने का कमाल ये ज़रूर करते रहे हैं. चंद महीने पहले की बात है. छत्तीसगढ़ के बस्तर दौरे के समय वहां जा कर राहुल कह आये कि प्रदेश की जातिवादी राजनीत ने बस्तर का बहुत नुकसान किया है. लोग ‘बाबा’ के इस बयान पर तब हस-हस कर लोट-पोट हो गए थे. सबको यह बाद में पता चला कि वस्तुतः उत्तर प्रदेश के लिए दिए गए कुछ नोट्स इन्होने यहां पढ़ दिया था. क्यूंकि तथ्य यह है कि छत्तीसगढ़, खास कर उसके आदिवासी इलाके में ‘जाति’ कभी भी कोई मुद्दा नहीं रहा है.

अगर वर्तमान बयान जैसा कि तथ्य इशारा कर रहे हैं जिसके द्वारा राहुल के मुंह में डाला गया हो उसके सन्देश साफ़ हैं. सब जानते हैं कि अयोध्या फैसले के बाद सभी ‘शर्म निरपेक्ष’ दलों को अपनी राजनीति खटाई में जाती नज़र आ रही है. इस फैसले ने संप्रदायों के फासले को खतम कर सद्भाव की बयार बहाई है. तो ज़ाहिर है, आज-तक तुष्टिकरण को ही अपना आधार बनाने वाली, अपने पुरुखों की तरह, लोगों को बांट कर ही राज चलाने वाली कांग्रेस के लिए यह मुफीद नहीं है. अयोध्या मामले को ही पहले जिस तरह ‘शाहबानो नुकसान’ को कम करने का प्रयास इस दल द्वारा किया गया था उसी तरह का प्रयास ऐसे बयान दे कर कांग्रेस ‘अयोध्या नुकसान’ की भरपाई करने के लिए कर रही है. तो ज़रूरत इस बात की है कि बाजार राहुल पर गुस्सा दिखाने के इनकी उपेक्षा की जाय.

आप एक मिनट के लिए राहुल को उनके ‘गांधी’ उपनाम से अलग करके देखिये. यह भूल जाइये कि वह किसी ‘शाही’ परिवार के हैं. क्या आपको उनमें देश को दिशा दे सकने लायक किसी व्यक्तित्व की छाप दिखेगी? क्या कभी आपने उनका कोई मौलिक विचार, कोई विजन, कोई सोच ऐसा देखा-सुना है जो इस देश को आगे ले जाने में सहायक हो? पिछले कई सालों से आप संसद में उन्हें मीडिया द्वारा बनाये गए किसी ‘स्टार’ की तरह देख रहे हैं. क्या आपको उनके पांच मिनट का भी कोई प्रभावी वक्तव्य याद है? तो आप सोचिये आखिर हम भविष्य में किस कद के नेताओं को देखना चाहते हैं. मैडम के इर्द-गिर्द और युवराज को स्थापित क़रने में लगे लोगों को यह बेहतर पता है कि इस तरह की हरकतों के बाद ही वह राजनीति के केन्द्र में परिवार के नयी पढ़ी को स्थापित कर पायेंगे. लेकिन देश को यह सोचना होगा कि लाख अयोग्यता के बावजूद किसी को नेता ‘लोकतंत्र’ में भी केवल इसलिए चुना जाय कि वह किसी राजवंश का अंग रहा है? यही सवाल एक ऐसा यक्ष प्रश्न है जिसके जबाब पर भविष्य के भारत और उसके लोकतंत्र की दिशा तय होनी है.

शासन में वंश की प्रासंगिकता पर एक कथा प्रासंगिक है. पुरी के ऐतिहासिक भगवान जगन्नाथ का भव्य मंदिर वहां के राजा इन्द्रद्युम्न द्वारा बनाया गया. कहते हैं भगवान ने राजा पर प्रसन्न हो कर उनसे कोई भी वर मांग लेने को कहा. तो ऐसी मान्यता है कि इन्द्रद्युम्न ने भगवान से ये प्रार्थना की कि उन्हें निपुत्र हो जाने का वरदान दें. ऐसा वरदान केवल इसलिए कि वे नहीं चाहते कि उनकी आने वाली पीढियां उनके यश को कभी भुनाने का प्रयास कर पाए. लोकतंत्र के सम्बन्ध में राजा इन्द्रद्युम्न के इस महान विचार को समझने की ज़रूरत है.

वाड्.मय पुरस्कार से नवाजे गए संजय द्विवेदी

मध्यप्रदेश के राज्यपाल रामेश्वर ठाकुर ने किया सम्मान

भोपाल,10 अक्टूबर। मध्यप्रदेश के राज्यपाल रामेश्वर ठाकुर ने रविवार को भोपाल स्थित हिंदी भवन के सभागार में आयोजित समारोह में युवा पत्रकार एवं लेखक संजय द्विवेदी को उनकी नई किताब ‘मीडियाः नया दौर- नई चुनौतियां’ के लिए इस वर्ष के वाड्.मय पुरस्कार से सम्मानित किया। स्व. हजारीलाल जैन की स्मृति में प्रतिवर्ष किसी गैर साहित्यिक विधा पर लिखी गयी किताब पर यह पुरस्कार दिया जाता है।

मध्य प्रदेश राष्ट्रभाषा प्रचार समिति द्वारा आयोजित इस सम्मान समारोह की अध्यक्षता प्रदेश के नगरीय विकास मंत्री बाबूलाल गौर ने की और विशिष्ट अतिथि के रूप में सांसद रधुनंदन शर्मा मौजूद थे। कार्यक्रम के प्रारंभ में स्वागत भाषण समिति के अध्यक्ष रमेश दवे ने किया और आभार प्रदर्शन कैलाश चंद्र पंत ने किया। संजय की यह किताब यश पब्लिकेशन, दिल्ली ने छापी है और इसमें मीडिया के विविध संदर्भों पर लिखे उनके लेख संकलित हैं। सम्मान समारोह में वितरित पुस्तिका में कहा गया है कि- “वर्ष 2010 में प्रकाशित इस कृति में लेखक के आत्मकथ्य सहित 27 लेख हैं। इन लेखों में प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया की दशा व दिशा का आज के बाजारवाद के परिप्रेक्ष्य में विशद् तार्किक विवेचन किया गया है। पुस्तक के लेखक संजय द्विवेदी स्वयं पत्रकारिता को जी रहे हैं, इसलिए पुस्तक के लेखों में विषय की गहराई, सूक्ष्मता और अनुभवपरकता तीनों मौजूद है। पुस्तक मीडिया से जुड़े कई अनदेखे पृष्ठ खोलने में सफल है।” श्री द्विवेदी अनेक प्रमुख समाचार पत्रों के अलावा इलेक्ट्रानिक और वेबमीडिया में भी महत्वपूर्ण पदों पर काम कर चुके हैं। उनकी अब तक आठ पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं और छः पुरस्कार भी मिल चुके हैं। संप्रति वे माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं।

पुस्तक परिचयः

पुस्तक का नामः मीडियाः नया दौर नई चुनौतियां

लेखकः संजय द्विवेदी

प्रकाशकः यश पब्लिकेशन्स, 1 / 10753 सुभाष पार्क, गली नंबर-3, नवीन शाहदरा, नीयर कीर्ति मंदिर, दिल्ली-110031, मूल्यः 150 रुपये मात्र

देशद्रोहियों और पाकिस्तानियों को टीवी कवरेज क्यों दिया जा रहा है?…(बिग बॉस-4)

कुछ साल पहले ही कलर्स नामक चैनल ने “बालिका वधू” सीरियल लाकर बाकी चैनलों की हवा निकाल दी थी। बालिका वधू घर-घर में महिलाओं और युवाओं में खासा लोकप्रिय हुआ, सीरियल भले ही कैसा भी हो, लेकिन उसमें बाल-विवाह जैसी सामाजिक बुराई के खिलाफ़ एक स्पष्ट संदेश तो था ही। उस सीरियल ने TRP के कई नए रिकॉर्ड कायम किये और स्टार टीवी पर “एकता कपूर छाप” सीरियलों को दर्शकों का सूखा झेलने की नौबत आ गई। एक और चैनल है “सब टीवी” जो फ़िलहाल “तारक मेहता का उलटा चश्मा” सहित कई अन्य हास्य-व्यंग्य(?) कार्यक्रमों के जरिये कम से कम फ़िलहाल “बाजारूपन” से बचा हुआ है।

जिस समय बिग-बॉस भाग-4 की घोषणा हुई थी और कहा गया कि सलमान खान इसमें बिग बॉस बनेंगे, उसी समय आशंका होने लगी थी कि इस भाग में “गिरावट की एक नई पहल” देखने को मिलेगी… यह आशंका उस समय सच हो गई जब बिग बॉस भाग-4 के सभी 14 प्रतिभागियों के नामों की लिस्ट सामने आई। हालांकि बिग बॉस के पहले तीन भाग भी कोई नैतिकता की प्रतिमूर्ति नहीं थे, और तथाकथित रियलिटी शो के नाम पर जितनी गंदगी बिग बॉस ने फ़ैलाई है शायद किसी और कार्यक्रम ने नहीं फ़ैलाई होगी।

अंग्रेजों के कार्यक्रम की भौण्डी नकल के नाम पर “सेलेब्रिटी” कहकर जिन्हें इस कार्यक्रम में शामिल किया जाता है वे चेहरे जानबूझकर ऐसे चुने जाते हैं जो खासे विवादास्पद हों, सामाजिक जीवन में उन्होंने कोई अनैतिक काम या चोरी-चकारी की हो, राहुल महाजन जैसे नशेलची हों, या राजा चौधरी जैसे बीबी को पीटने वाले दारुबाज हों… ऐसे लोगों को जमकर महिमामण्डित किया जाता है, इनके किस्से चटखारे ले-लेकर अखबारों को छापने के लिये दिये जाते हैं (अखबार यह सब छापते भी हैं), और तीन महीने तक इन तथाकथित सेलेब्रिटीज़ को, इनके कारनामों को, इनकी गिरी हुई हरकतों को देश के कोने-कोने में घर-घर तक पहुँचाया जाता है।

बालिका वधू के रुप में कलर्स चैनल ने नई ऊँचाईयों को छुआ और अपनी विशिष्ट पहचान बनाई, लेकिन बिग बॉस भाग-4 की सूची देखकर लगता है कि यह चैनल बहुत जल्दी अपनी “असली चैनलिया औकात” पर उतर आया है, पहले आप इन 14 लोगों के नामों और उनके “पवित्र कामों” पर नज़र डालें –

1) पहला नाम है अज़मल कसाब के वकील SAG काज़मी का, शायद कसाब का केस लड़ने के उचित पैसे इन्हें नहीं मिले इसलिये अब ये बिग बॉस में दर्शन देंगे। बिग बॉस के घर में रहने से इन्हें नये-नये क्लाइंट मिलेंगे…

2) दूसरा नाम है समीर सोनी का – एक “बी” ग्रेड के मॉडल-अभिनेता, लेकिन कम से कम इनकी छवि तो थोड़ी साफ़-सुथरी है।

3) तीसरा नाम धमाकेदार है – भूतपूर्व डाकू रानी “सीमा परिहार”, जिन पर 70 से अधिक हत्याओं के मुकदमे विभिन्न अदालतों में चल रहे हैं और इन्होंने इलाहाबाद हाईकोर्ट से बिग बॉस में शामिल होने के लिये विशेष अनुमति याचिका दायर की है।

4) चौथी हैं श्वेता तिवारी – पिछले बिग बॉस में इसी का पति राजा चौधरी विजेता रहा था, अब दोनों अलग होने के बाद शायद श्वेता बिग बॉस में सबको बतायेगी कि राजा उसे कैसे और कब पीटता था…

5) पाँचवां नाम है अश्मित पटेल का – “अमीषा पटेल के भाई” होने से बढ़कर इसकी खुद की कोई पहचान नहीं है, दो-चार घटिया फ़िल्मों में काम करने के बाद अब ये साहब रिया सेन के साथ अपने अंतरंग MMS बनाते और उसे नेट पर डालते हैं।

6) छठा नाम सम्मानित है, ये हैं भोजपुरी फ़िल्मों के स्टार मनोज तिवारी। भोजपुरी फ़िल्मों में इनके प्रतिद्वंद्वी रवि किशन की हिन्दी में सफ़लता को देखकर शायद इनमें भी उत्साह जागा है और बिग बॉस भाग-4 में ये अपना “जलवा”(?) दिखायेंगे।

7) सातवें नम्बर पर एक और टीवी अभिनेत्री है, नाम है सारा खान जिसे दर्शकों ने “सपना बाबुल का” और “बिदाई” धारावाहिकों में देखा है… कोई खास उपलब्धि नहीं, कोई खास विवाद भी नहीं… (इसलिये जल्दी ही बिग बॉस से बाहर भी हो जायेगी)।

8) आठवें नम्बर पर एक पाकिस्तानी है, नाम है “वीना मलिक”, जी हाँ सही समझे आप… मोहम्मद आसिफ़ जैसे “चरित्रवान” क्रिकेट खिलाड़ी की पूर्व प्रेमिका, जो जल्दी से अपनी “टेम्परेरी लोकप्रियता” को भुनाने के लिये बिग बॉस में चली आई है… पाकिस्तान में सी ग्रेड की मॉडल और विभिन्न अफ़ेयर्स की मारी हुई एक प्रतिभागी… बिग बॉस जैसे कार्यक्रम के लिये “एकदम फ़िट”।

9) नौंवे प्रतिभागी हैं महेश भट्ट के “सुपुत्र”(?) राहुल भट्ट (यानी बिग बॉस में एक और राहुल), इसके बारे में लगभग सभी लोग जानते हैं, लश्कर के डेविड कोलमेन हेडली के साथ इसके रिश्ते खुल्लमखुल्ला सामने आने के बावजूद संदेहास्पद तरीके से पुलिसिया पूछताछ से बरी किया हुआ “सेकुलर” है ये। जब तक अपने बाप की उमर तक पहुँचेगा, तब तक स्कैण्डल और छिछोरेपन में उससे दो कदम आगे निकल चुका होगा यह तय मानिये…। राहुल भट्ट ने कहा भी है कि वह डेविड हेडली को धन्यवाद देना चाहता है, जिसकी वजह से उसे बिग बॉस में जगह मिली…

10) दसवीं है साक्षी प्रधान नाम की एक और “सी” ग्रेड मॉडल जो छिछोरेपन में बिग बॉस के बाप, यानी MTV के स्प्लिट्ज़विला में नमूदार होती है और इन्हें भी अपने अश्लील MMS नेट पर डालने का शौक है।

11) ग्यारहवे हैं रिशांत गोस्वामी, जो 2004 के “ग्लैडरैग्स” मॉडल के विजेता हैं। फ़िलहाल विवादों से परे…

12) बारहवी हैं आँचल कुमार – “सेलेब्रिटी” के तौर पर इनकी पहचान(?) सिर्फ़ इतनी है कि ये युवराज सिंह की पूर्व प्रेमिका कही जाती हैं…

13) तेरहवाँ नाम “आश्चर्यजनक किन्तु सत्य” है – देवेन्दर सिंह उर्फ़ बंटी चोर का, दिल्ली में 500 से अधिक चोरियों में शामिल और 13 साल की जेल यात्रा करके लौटे हैं और अब बिग बॉस में पूरे देश के हीरो बनेंगे, क्योंकि चोर-उचक्कों का ही जमाना है अभी तो…(बिग बॉस-4 ने बंटी चोर को हीरो बनाने की शुरुआत भी कर दी है, क्योंकि उसे बिग बॉस की शुरुआत में ही बाहर कर दिया गया फ़िर चैनलों-अखबारों में “एक राष्ट्रीय बहस”(?) चलाई गई कि बंटी चोर को बाहर क्यों किया गया?)

14) चौदहवाँ नाम और भी उबकाई लाने वाला है, पाकिस्तान की टीवी टॉक शो होस्ट, बेगम नवाज़िश अली का… उबकाई लाने वाला इसलिये, क्योंकि इसे यही नहीं पता कि यह मर्द है या औरत या “बीच” का। यह अजीबोगरीब जीव, कभी “अली सलीम” के नाम से जनता के सामने “आता” है तो कभी बेगम नवाज़िश के नाम से “आती” है।

तो देखा आपने, कलर्स चैनल ने किस तरह से चोर-उचक्कों-डकैतों-देशद्रोहियों-उनके वकीलों और छिछोरों की फ़ौज खड़ी की है देश के “मनोरंजन”(?) के लिये। ऐसा नहीं है कि इन चैनलों से दर्शक किसी भारी-भरकम नैतिकता की उम्मीद करते हैं, सभी को यह बात पता है कि चैनल अपने कार्यक्रम “पैसा कमाने” के लिये बनाते-दिखाते हैं, परन्तु कलर्स चैनल की ऐसी कौन सी मजबूरी थी कि उसे बालिका वधू जैसा कमाई और उच्च TRP जैसा साफ़-सुथरा कार्यक्रम छोड़कर इस कीचड़ में उतरने की जरुरत आन पड़ी? क्या बालिका वधू या उस जैसे अन्य कार्यक्रमों से कमाई नहीं होती? या लोकप्रियता नहीं मिलती? बल्कि कलर्स की पहचान ही बालिका वधू से बनी, तो फ़िर राहुल भट्ट, काज़मी, सीमा परिहार, बंटी चोर और बेगम जैसे विवादास्पद लोगों को देश के सामने पेश करके किस प्रकार की “कमाई” की जायेगी?

आजकल भारत के टीवी सीरियलों में पाकिस्तान के कलाकारों (कलाकारों??) को लेने की प्रवृति बढ़ चली है, बच्चों के एक गाने के कार्यक्रम में भी बाकायदा भारत-पाकिस्तान की टीमें बनाई गई हैं, जहाँ शुरुआत में भारत-पाकिस्तान की कथित एकता(?) के तराने जमकर गाये गये थे। यह बात और है कि “बड़ा भाई” बनने का शौक सिर्फ़ भारत को ही चर्राता है, पाकिस्तान तो भारत के कलाकारों को दरवाजे पर भी खड़े नहीं होने देता। परन्तु बिग बॉस-4 की बात अधिक गम्भीर है, यहाँ कसाब की पैरवी करने वाले काज़मी वकील मौजूद हैं, डेविड हेडली का दोस्त और सुपर-सेकुलर महेश भट्ट का बिगड़ैल नवाबज़ादा मौजूद है, बंटी चोर है, सीमा डकैत है, अश्लील MMS बनाने-दिखाने वाले एक दो “सी” ग्रेड के लोग मौजूद हैं… अब ये लोग अगले तीन माह तक विभिन्न अखबारों में अपने पक्ष में “माहौल” बनायेंगे, कुछ रोना-धोना मचाकर और कभी एक-दूसरे के कपड़े फ़ाड़कर शिल्पा शेट्टीनुमा सहानुभूति(?) भी अर्जित करेंगे… और यह सब होगा कभी “मनोरंजन” के नाम पर तो कभी “अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता” के नाम पर। अर्थात जिन लोगों को जेल में होना चाहिये, वे कैमरों के सामने, आपके घरों में मौजूद होंगे…। एक सवाल ये भी उठ रहा है कि क्या भारत के सारे चोर-उचक्के-हिजड़े मर गये थे, जो अब पाकिस्तान से बुलाकर हमें दिखाये जा रहे हैं?

बहरहाल, राखी सावन्त, राहुल महाजन, राजा चौधरी, पायल रोहतगी से होते-होते बिग बॉस ने गिरावट का लम्बा सफ़र(?) तय किया है और अब वह राहुल भट्ट, काज़मी, सीमा परिहार और बंटी चोर तक आ पहुँचा है, ऐसा ही जारी रहा तो शायद बिग बॉस के भाग-5 में हमें कसाब, अफ़ज़ल गुरु (अदालत की विशेष अनुमति से?), लादेन, जवाहिरी, हाफ़िज़ सईद, दाऊद इब्राहीम जैसे लोग भी देखने को मिल सकते हैं… कौन रोकेगा इन्हें? जो भी इनका विरोध करेगा, वह “साम्प्रदायिक”(?) कहलायेगा…। इस देश में “अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता”(?) के नाम पर प्राइम टाइम में किसी चैनल पर “ब्लू फ़िल्म” भी दिखाई जा सकती है… पैसा कमाने के लिये किसी भी हद तक गिरने को तैयार हैं चैनल-अखबार वाले… यह बात वीना मलिक और राहुल भट्ट को “सेलेब्रिटी” कहकर पुकारे जाने से तथा देश में कई गम्भीर समस्याओं के होते हुए भी, बंटी चोर को बिग बॉस से बाहर करने को “राष्ट्रीय मुद्दा”(?) बनाने से साबित होती है…।

देश के अधिकतर लोग अभी भी मानते हों और किताबों में भले ही पढ़ाया जाता हो, कि “भलमनसाहत”, “नैतिकता” और “ईमानदारी” से आपकी पहचान बनती है और आप जीवन में आगे बढ़ते हैं, लेकिन मीडिया चैनल और अखबार, गिरे से गिरे हुए लोगों को हेडलाइन्स और TRP का हिस्सा बनाकर साबित करना चाहता है कि आप भी ऐसे ही बनिए, वरना न तो आप “सेलेब्रिटी” बन सकेंगे और न ही आपके कामों को कोई “नोटिस” करेगा…। यदि कलर्स चैनल में थोड़ी भी शर्म बची हो तो उसे जल्दी से जल्दी, वकील काज़मी, वीना मलिक, बेगम नवाज़िश और राहुल भट्ट को बिग बॉस से बाहर कर देना चाहिये… पाकिस्तानियों और देशद्रोहियों के लिये भारत में कोई जगह नहीं होनी चाहिये… सीमा परिहार, बंटी चोर और अश्मित पटेल इन चारों से फ़िर भी थोड़े बेहतर हैं…

राहुल गांधी-उमर अबदुल्ला का मुसलमानों को रिझाने का छक्का

-डॉ कुलदीप चन्द अग्निहोत्री

पिछले दिनों दो राजनैतिक हस्तियों के बयान अखबारों में आये। कांग्रेस के महासचिव राहुल गांधी ने भोपाल में कहा कि राष्ट्रीय़ य स्वयंसेवक संघ और सिमी एक समान ही हैं। उन्हीं दिनों जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अबदुल्ला ने विधानसभा में कहा कि जम्मू कश्मीर का भारत में विलय नहीं हुआ है। उपर से देखने में दोनों बय़ानों का आपस में कोई सम्बन्ध दिखाई नहीं देता और बयान देने वाले लोग भी अलग अलग हैं। लेकिन थोड़ा गहराई से देखने पर दोनों बयान में भी एक तारतम्यता और दोनों व्यक्तियों में भी रणनीतिक सांझ दिखाई देती है। उमर अब्दुल्ला जिस पार्टी का प्रतिनिधित्व करते हैं केन्द्र और राज्य में उस पार्टी की कांग्रेस के साथ सत्ता में सांझेदारी है। वैसे भी अब्दुल्ला और नेहरू- गांधी परिवार का आपस में बहुत गहरा रिश्ता है और दोनों के चिन्तन में भीतरी साम्यता स्पष्ट दिखाई देने लगती है। राहुल गांधी की जिद्द के कारण ही उमर अब्दुल्ला को जम्मू कश्मीर का मुख्यमंत्री बनाया गया था। और पिछले दिनों जब उन्होंने प्रदेश को एक बार फिर से आंतकवादियों के लगभग हवाले कर दिया था तो उनके बचाव में पर्दे के पीछे से राहुल गांधी ही आगे आये थे। दोनों के उपरोक्त बयानों को समझने के लिए इस पृष्ठ भूमि को जानना जरूरी था।

राहुल गांधी देश को यह समझाने चाहते हैं कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और सिमी एक समान ही हैं। संघ क्या है, इसको सारा देश जानता है। कोई व्यक्ति संघ के विचारों से सहमत या असहमत हो सकता है, लेकिन संघ भारतीयता का पक्षधर है, इससे सभी सहमत हैं। आर्य समाज और सनातन मत वालों को अनेक प्रश्नों पर आपस में मतभेद रहता है। लेकिन दोनों में से किसी ने आज तक एक दूसरे पर यह आरोप नहीं लगाया कि वह भारतीयता के विरोध में है। मत या विचार भिन्नता एक चीज है और भारतीयता के पक्ष में या विपक्ष में खड़े होना बिल्कुल दूसरी चीज है। यदि राहुल गांधी यह आरोप लगायें भी कि संघ भारतीयता का पक्षधर नहीं है तो इस देश के लोग इस पर विश्वास नहीं करेंगे। इसे वे राहुल गांधी की अज्ञानता या बचकानापन ही कहेंगे। इस उम्र में राहुल गांधी इतना तो जानते ही होंगे। परन्तु राहुल गांधी का मकसद शायद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वभाव और प्रकृति पर टिप्पणी करना था भी नहीं। वे दरअसल सिमी की सहायता करना चाहते थे। सीधे सिमी के बारे में सकारात्मक टिप्पणी करते तो शायद पार्टी को नुकसान हो जाता। इसलिए उन्होंने सिमी की तुलना संघ से कर दी। जिसका अर्थ है कि सिमी भी भारत विरोधी नहीं है। यदि सिमी भारत विरोधी नहीं है तो उसपर प्रतिबन्ध आखिर किस लिए लगाया गया है। कहा जा सकता है कि सिमी हिंसा का रास्ता अपना रही है। हिंसा का रास्ता तो माओवादी भी अपना रहे हैं। सरकार उन से भी बातचीत करने के लिए तैयार ही नहीं रहती बल्कि केन्द्र के कुछ मंत्री भी उनकी वकालत करते है।

राहुल गांधी जिस सिमी की सहायता करना चाहते हैं, वह वास्तव में भारत में हिंसा के बल पर इस्लामी राज्य स्थापित करना चाहती है। सिमी का अर्थ है स्टुडैंट इस्लामिक मुवमेंट आफ ईडिया।स्टुडैंट को फारसी या उर्दू में तालिबान कहते हैं। भारतीय भाषा में कहना हो तो सिम्मी इस्लामी भारतीय तालिबान है। पूछा जा सकता है कि राहुल गांधी को या उनकी पार्टी को भारतीय तालिबान की मदद करने से क्या हासिल होगा। कहा जाता है कि पिछले दिनों अयोध्या का फैसला आने के बाद मुसलमान कांग्रेस से नाराज होने की मुद्रा में आ गये हैं। आने वाले चुनावों को देखते हुए कांग्रेस का सारा दारोमदार ही मुसलमानों की वोटों पर टिका हुआ है। उत्तर प्रदेश में तो कांग्रेस की पूरी रणनीति ही मुसलमान वोट बैंक पर टिकी हुई है। राहुल गांधी को देश का नेता सिद्व करने के लिए जो कवायद की जा रही है वह भी उत्तर प्रदेश के चुनावों पर ही आश्रित है। मीडिया ने ऐसा भ्रम पैदा कर दिया है कि अयोध्या मामले में मुसलमान स्वंय को ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं। केन्द्र में कांग्रेस की सरकार है। इस समय यदि कांग्रेस मुसलमानों की सहायता के लिए आगे नहीं आती तो मुसलमान मुलायम सिंह यादव या फिर मायावती की ओर जा सकते हैं। यदि वे इन दोनों की ओर न जाना चाहे तो यूपी में राम विलास पासवान भी अपनी दुकान सजा कर बैठ गये हैं। उन्होंने तो स्पष्ट ही घोषणा कर दी कि अयोध्या का फैसला मुसलमानों के साथ धोखा है। जाहिर है मुसलमनों के वोट बैक पर पासवानों, मुलायम सिंह यादवों के इस चैक्के पर कांग्रेस के युवराज को छक्का ही लगाना था। जिस प्रकार कभी इंदिरा गांधी ने पंजाब में अकालियों को सबक सिखाने के लिए भिंडरा वाले का आगे कर दिया था, लगता है राहुल गांधी उसी प्रकार मुसलिम वोट बैंक के अन्य दावेदारों को पछाड़ने के लिए भारतीय तालिबान के पक्ष में उतर आयें हैं । इससे राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनने या फिर कांग्रेस को ज्यादा सीटें जीतने में कितनी मदद मिलेगी यह तो समय ही बतायेगा परन्तु देश का इससे क्या नुकसान हो सकता है इसका सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है।

इस मरहले पर उमर अबदुल्ला के उस बयान की भी जांच कर लेना जरूरी है जिसमें उन्होंने कहा कि जम्मू कश्मीर का भारत में विलय नहीं हुआ है। उपर से देखने पर तो इस बयान से कोई ज्यादा फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि उमर अबदुल्ला की औकात इतनी बड़ी नहीं है कि वह प्रदेश के भारत में विलय को चुनौती दे सके। विलय का मसला महाराजा हरि सिंह द्वारा हस्ताक्षर कर देने के उपरांत समाप्त हो गया था। भारतीय सविंधान जम्मू कश्मीर को उसी प्रकार भारत का राज्य मानता है जिस प्रकार आंध्रप्रदेश या तमिलनाडु को। धारा 370 भारतीय सविंधान का प्रावधान है उसका रियास्त के विलय या न विलय से कोई सम्बन्ध नहीं है। इसलिए जहां तक उमर के बयान की वैधानिक स्थिति है वह शुन्य है। उमर अबदुल्ला यह भी जानते है कि उनके इस प्रकार के बयान से विलय की स्थिति पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा। लेकिन आखिर उन्होंने फिर ऐसा बयान क्यों दिया। क्योंकि यह बयान या तो हुर्रियत के लोग देते हैं, या फिर पाकिस्तान सरकार और या फिर सिमी अर्थात भारतीय तालिबान। उमर अब्दुल्ला अन्ततः इन्हीं की भाषा क्यों बोल रहे है। ये सभी व्यक्तियां भारतीयता की विरोधी हैं। इतिहास के इस मोड़ पर जब भारत, भारत विरोधी आतंकवादियों से लड़ रहा है, सैकड़ों लोग इस लड़ाई में शहादत प्राप्त कर रहे हैं, तो दोनों मित्र राहुल और उमर या तो सिमी के पक्ष में खड़े हैं या फिर हुर्रियत के पक्ष में। यह इनकी नादानी है या इनकी किसी लम्बी रणनीति की शुरुआत, इसका फैसला आने वाला समय ही करेगा। लेकिन इनको इतना ध्यान रखना चाहिए कि इनकी इस रणनीति से न तो भारतीयता के पक्षधर संघ को परास्त किया जा सकता है न ही जम्मू कश्मीर को भारत से अलग किया जा सकता है। या खुदा, जब नकाब उठेंगे तो न जाने अभी और कितने चेहरे नंगे होंगे।

कंधमाल के बहाने चर्च कर रहा ब्लैकमेल

– डॉं. कुलदीप चन्द अग्निहोत्री

उड़ीसा के कंधमाल में दो साल पहले जन्माष्टमी के दिन स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती जी की अमानुंषिक ढंग से हत्या कर दी गई थी। इस हत्या के बाद उपजी रोष लहर में पूरे जिला में हिन्दुओं और इसाईयों को काफी नुकसान उठाना पड़ा। कुछ कीमती जाने भी गई। लेकिन धीरे धीरे कंधमाल में जीवन फिर अपनी रफ्तार पकड़ने लगा और घाव भरने लगे। यद्यपि अभी तक स्वामी जी के हत्यौरों को सजा नहीं हुई। जो लोग इस हत्या में पकड़े गये हैं वे सचमुच इस ‘षडयंत्र में शामिल थे या फिर असली हत्यारों को बचाने के लिए पुलिस ने कुछ लोग पकड़ लिये हैं ताकि कागजी खानापुरी भी हो जाये और असली हत्यारे बच भी जायें। परन्तु इसके बावजूद कंधमाल शांति की और बढ़ रहा है। लेकिन दुर्भाग्य से शांत कंधमाल चर्च को अनुकूल नहीं लगता। इसलिए इसाई मिशनियारियां कंधमाल में अविश्वास और दुर्भावना पैदा करने के लिए निरन्तर प्रयत्नशील हैं इसी रणनीति के तहत कुछ मास पहले चर्च ने यूरोपीय यूनियन के प्रतिनिधि मंडल को कंधमाल बुलाया था। यह प्रतिनिधि मंडल कंधमाल के अनेक गॉव में घूमा और वहॉ के प्रषासकिय अधिकारियों को गोरी चमड़ी के रौब में डराता धमकाता रहा। यहॉ तक कि यह प्रतिनिधि मंडल मुकदमों की सुनवाई कर रहे न्यायधीशों से भी मिलना चाहता था परन्तु वकीलों के विरोध के कारण मिल नहीं पाया। इस सारे प्रयोग में चर्च का एक ही उद्देश्य रहता है कि दुनियां भर में यह प्रचारित किया जाये कि कंधमाल में मतांतरित इसाईयों पर अत्याचार हो रहे हैं। यूरोप में इन अत्याचारों की काल्पनिक अत्याचारों की कथाए पढ़ कर चर्च को पैसा भेजते रहें।यह अलग बात है कि इस पैसे का एक हिस्सा मतांतरण के काम में खर्च होता है व दूसरा हिस्सा चर्च के अधिकारी डकार जाते है। और शायद एक हिस्सा उस सेक्सुयल एब्यूज में भी खर्च होता हो जिसकी खबरें आये दिन अखबारों में छपती रहती हैं। इस अभियान का एक दूसरा हिस्सा राज्य सरकार को ब्लेकमेल करना भी होता है क्योंकि जब चर्च पहले ही अपने पीड़ित होने का शोर मचाना शुरु कर देता है तो राज्य सरकार उन कुकृत्यों की जांच करने से घबराने लगती है जो मिशनारियों के कार्यालयों और चर्च की दिवारों के भीतर होते हैं।

कंधमाल को लेकर भी चर्च यही रणनीति अपना रहा है।चर्च जितनी जोर से अपने आपको पीड़ित पक्ष घोषित करेगा, उसे पता है उतना ही उड़ीसा सरकार स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती के असली हत्यारों को पकड़ने से डरेगी। इस रणनीति के तहत पिछले महीने चर्च ने दिल्ली में एक बौद्विक प्रयास का पाखंड किया। कंधमाल में स्वामी जी के हत्यारों को बेनकाब करने की प्राथमिकता को धूमिल करने के उद्देश्य से चर्च ने पचास तथाकथित संस्थाओं का एक नेशनल सोलीडेरीटी फोरम बनाया। ध्यान रहे जिन 50 संस्थाओं को उल्लेख चर्च कर रहा है वे 50 संस्थाएं इसाईयों की ही संस्थाएं हैं और इनमें से अधिकांश को देश- विदेश के संदिग्ध स्रौतों से पैसा मिलता रहता है। उड़ीसा के लोग मांग करते रहते हैं कि इन संस्थाओं की गतिविधियों और इनके आर्थिक स्रौतों की जॉंच करने के लिए आयोग बैठाया जाये इस नेशनल सोलीडेरीटी फार्म ने आगे एक और संस्था खड़ी कर दी जिसका नाम नेशनल पीपलस ट्रिब्युनल आन न कंधमाल रखा। इस ट्रिब्युनल ने पिछले महीने इसी प्रकार का एक बौद्विक अनुष्ठान किया। ट्रिब्युनल का कहना है कि उसने 13 सदस्यों की एक ज्यूरी का गठन किया है। इस तथाकथित ज्युरी ने 22 से लेकर 24 अगस्त तक दिल्ली में जन सुनवाई की और इसके अनुसार कंधमाल जिला से एसे 50 दुखी लोग अपनी कथा सुनाने के लिए आये जिनको वहां तंग किया गया है। जाहिर है कि उनके अनुसार ये सभी के सभी 50 दुखी लोग मतांतरित इसाई ही हैं। दिल्ली के वातानुकूलित कांस्टीच्यूशन कलब में बैठ कर ज्युरी ने कंधमाल के वनवासियों की व्यथा कथा सुनी और उसके बाद अंग्रेजी भाषा में अपनी रपट भी जारी की। रिकार्ड के लिए इस तथाकथित ज्युरी में जो लोग शामिल थे उनके नाम भी पढ़ लिये जाये। ज्यूरी के अध्यक्ष ए0पी0 शाह हैं जो कभी दिल्ली उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायधीश रह चुके हैं। दूसरे सदस्य हर्ष मेंढर हैं जो सोनिया गांधी की अध्यक्षता वाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के सदस्य भी हैं। फिल्म बनाने वाले महेष भट्ट , योजना आयोग की सदस्या सैयदा हमीद और अपने आप को अन्तरराष्ट्रीय कानून की विशेषज्ञ बताने वाली वाहेदा नायेनार, जल सेना के पूर्व अध्यक्ष विश्णुभागवत, जिन्हें लेकर जल सेना में भी काफी विवाद हुआ था।

ताज्जुब है कि एन.पी.टी. ने स्वामी अग्निवेश, अरूणधती राय और तीस्ता सीतलबाड़ को ज्यूरी का सदस्य नहीं बनाया। वैसे हो सकता है कि उनके पास समय न रहा हो क्योंकि आजकल वे आतंकवादियों और माओवादियों के मानवाधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे हैं।

वैसे पूछा जा सकता है कि यदि ए.पी. शाह और महेश भट्ट को कंधमाल के मतांतरित इसाईयों की सचमुच चिन्ता थी तो वे ज्यूरी का यह जनअधिवेशन कंध माल के जंगलों में ही करते ताकि वहॉ के बनवासी इन्हें सचमुच क्या हुआ यह बता सकते। ज्यूरी इतना तो जानती होगी कि कंधमाल के साधारण वनवासियों के लिए कंधमाल से दिल्ली आना सम्भव नहीं है यह अलग बात है कि चर्च कुछ गिने चुने लोगों को दिल्ली लाकर जो चाहे कहलवा सकता है और वही उसने किया भी। वैसे तो सुनामधन्य ज्यूरी को भी न्याय -अन्याय से कुछ लेना देना नहीं था उनको भी इसाईयों पर हो रहे तथाकथित अत्याचारों की रपट जारी करनी थी ताकि चर्च विदेशों से ज्यादा से ज्यादा पैसा बटोर सके और उड़ीसा सरकार को भयभीत करके उससे मनमाफिक काम करवाया जा सके। वैसे इस जमावड़े में राम दयाल मुंडा भी थे जो भारत सरकार को ललकार कर कहते हैं कि तुम माओवादियों को हरा नहीं सकते। वैसे मुंडा भी सोनिया गांधी की सलाहकार परिषद में हैं और उनका घोषित एजेंडा झारखंड को पूरी तरह इसाई प्रदेश बनाना है। कंधमाल को लेकर की जा रही इस ब्लेकमेल से एक दिन पहले अपने आप को हिन्दुस्थान के इसाईयों की परिषद का महासचिव बताने वाले जॉन दयाल ने लक्ष्मणानंद सरस्वती की हत्या की दूसरी बरसी पर एक रपट राष्ट्र के नाम जारी की। रपट को पढ़कर एसा लगता है कि यह रपट भारत राष्ट्र के नाम पर नहीं है बल्कि वैटिकन राष्ट्र के नाम है । इस रपट के अनुसार कंधमाल में इसाईयों को बचाने में भारत सरकार भी असफल रही, उड़ीसा की नवीन पटनायक सरकार की तो उसमें हिस्सेदारी ही रही। उस समय के गृहमंत्री शिवराज पाटिल ने इसाईयों के दुःखों से मुह मोड़ लिया। देश की राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल भी इसाईयों को बचाने के लिए कुछ नहीं कर सकी। प्रदेश की सारी नौकरशाही इसाईयों के खिलाफ है। कंधमाल जिले का जिलाधिकारी तो इसाईयों के खिलाफ वनवासियों से मिला हुआ है। सारी की सारी पुलिस मतांतरित इसाईयों की सहायता करने के स्थान पर कंध वनवासियों की सहायता कर रही है। न्याय पालिका न्याय नहीं दिला पा रही। जॉन दयाल के अनुसार थोड़ी बहुत आषा उन विदेशी प्रतिनिधियों से जागी थी जो कंधमाल में आकर मतांतरित इसाईयों के दुःखदर्द को समझ पाये थे। जाहिर है जॉन दयाल की यह रपट भारत राष्ट्र के खिलाफ अभियोग पत्र है जो उसने अप्रत्यक्ष रूप् से वैटिकन के दरबार में अथवा दूसरी विदेशी शक्तियों के दरबार में पेश किया है। आशा की जानी चाहिए कि देश के अन्य मतांतरित इसाई जॉन दयाल के इस राष्ट्र विरोधी कृत्य में शामिल नहीं हैं। ज्यूरी ने अपने इस तथाकथित जनअधिवेशन के बाद अनेक सिफारिशें की हैं उनमें एक सिफारिश ये भी है कि प्रदेश में मतांतरण को रोकने वाले अधिनियम पर पुर्नविचार किया जाये।

दरअसल पूरे नाटक का उद्देश्य बहुत गहरा है। चर्च का यह आरोप है कि कंधमाल में लगभग 300 चर्च नष्ट हुए हैं। दरअसल बनवासी क्षेत्रों में यदि किसी झोंपड़ी के बाहर क्रास का चिन्ह लटका दिया गया तो मिशनरियों ने उसे भी गिरजाघर घोषित कर दिया। जो पक्के गिरजाघर बने हुए हैं वे आमतौर पर सरकारी जमीन पर अवैध कब्जा करके बनाये गये हैं।अब मिष्नरियों की योजना है कि उड़ीसा सरकार को ब्लेकमेल करके सरकारी खर्चें पर कंधमाल जिला में 300 गिरजाघर बनवा लिये जाये और अवैध कब्जे को भी वैध घोषित करवा लिया जाये। चर्च के अपने आंकड़ों के अनुसार ही रोष लहर के कारण लगभग दस हजार परिवार अपने घर छोड़कर पुर्नवास शिबिरों में चले गये थे। उनमें से अधिकांश लोग वापिस आ गये हैं लेकिन चर्च उनकी वापसी से प्रसन्न नहीं है। चर्च की योजना है कि ये लोग षिवरों में ही रहे ताकि इनको दिखाकर विदेशों से पैसा बटोरा जा सके। दूसरे चर्च सरकार पर यह दवाब डाल रहा है कि इन लोगों को सरकारी जमीन आबंटित की जाये और उस पर सरकारी खर्चे से इनको मकान बनाकर दिये जायें। चर्च उड़ीसा की जनता के पैसे से कंधमाल मे कुछ शत प्रतिशत इसाई गांव बना लेना चाहता है।

ताजुब है कि चर्च के इस ड्रामा में नन बलात्कार के बारे में कुछ नहीं कहा गया। यह चुप्पी रहस्य जनक लगती है। 2008 में चर्च ने बहुत शोर मचाया था कि कंध माल के दंगों में मीना नाक की एक नन के साथ लोंगों ने सामूहिक बलात्कार किया था। इस नन के साथ केरल का एक पादरी रहता था। उस पादरी ने भी कहा कि मुझे पीटते हुए लोगों ने जलुस निकाला। लेकिन कुछ दिनों के बाद पादरी और नन ने बलात्कार की कहानी सुनानी शुरु कर दी और उसे लेकर एफ0आई0आर0 भी लिखवाई। इसके कुछ दिन बाद नन गायब ही हो गई और पुलिस के लिए उसे ढुंढना मुश्किल हो गया। तब एक दिन अचानक वह दिल्ली में दिल्ली के आर्कबिशप के साथ प्रकट हुई। ये अलग बात है िकवह इस प्रकार पर्दे में छुपी हुई थी कि उसे पहचानना मुश्किल था। तब उसने रो रो कर बलातकार की कहानी पत्रकारों को सुनाई। सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर की गई की बलात्कार की जांच सी0बी0आई0 करे। सर्वोच्च न्यायलय ने यह याचिका खारिज कर दी। लेकिन चर्च इस बलात्कार को लेकर इतना हा हा कार मचाता रहा कि उसकी गुंज विदेशों में भी सुनाई देने लगी।तब नन ने उड़ीसा हाईकोर्ट में याचिका दायर कर दी कि मुझे कंधमाल में न्याय नहीं मिल सकता इसलिए वहॉं के न्यायलय से मेरा केस कटक में स्थानांतरित कर दिया जाये। उच्च न्यायलय ने नन की अर्जी स्वीकार करते हुए यह कैस कटक स्थानांतरित कर दिया और उसके आदेष पर जुलाई 2010 में इस पर सुनवाई शुरु हुई। तब से लेकर आज तक यह नन अपना ब्यान दर्ज करवाने के लिए बार बार समन भेजे जाने के बावजूद न्यालय में हाजिर नहीं हुई। हर बार बिमारी का कारण बताया जाता रहा। यह अलग बात है कि इसी बीच कटक में ही चौद्वार जैल में वह अपराधियों की शिनाख्त करने के लिए शिनाख्ती परेड में शामिल हुई। शिनाख्ती परेड में तथाकथित अपराधियों के साथ लोगों को भी खड़ा कर दिया जाता है। नन ने इस परेड में एक नकली को ही बलात्कारी बता दिया। कुछ ऐसा ही पादरी ने भी किया। जब एन0पी0टी0 की यह ज्यूरी कंधमाल को लेकर इतनी हायतौबा मचा रही थी तो नन के मामले में उसकी चुप्पी कई प्रश्नों को जन्म देती है। रिकार्ड क लिए कटक न्यायालय ने नन को 23अक्तूबर को न्यायलय में हाजिर होने के लिए अन्तिम अवसर प्रदान किया था और यह भी कहा था कि यदि वह हाजिर न हुई तो उसके खिलाफ गैर जमानती वारंट निकाल दिये जायेंगे। लेकिन नन ने दो दिन पहले उड़ीसा उच्च न्यायालय में एक और याचिका दायर कर यह मांग की कि कटक न्यायालय में चल रहे केस को स्थगित किया जाये। उच्च न्यायालय ने उसकी यह याचिका खारिज कर दी और नन 23-09-2010 को भी न्यायलय में हाजिर नहीं हुई। लगता है नन को लेकर चर्च ने जो ‘षडयंत्र रचा था और जिसके बलबुते वह स्वामी लक्ष्माणानंद सरस्वती के असली हत्यारों को बचाना चाहते थे वह धीरे धीरे बेनकाब होता जा रहा है। शायद इसलिए चर्च अब कंधमाल की लड़ाई दिल्ली में लड़ना चाहता है क्योंकि यहां उसे समर्थन करने वाले कुछ न कुछ लोग मिल ही जायेंगे जिनका न कंधमाल से वास्ता है न वनवासियों से।

आदिवासी और अल्पसंख्यक नेता की खोज में है राहुल गाँधी

–पंकज चतुर्वेदी

मध्य प्रदेश की राहुल गाँधी की तीन दिवसीय यात्रा राहुल के राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और सिमी की समानता के बयान से सरगर्म रही, तो वही राहुल द्वारा कांग्रेस के लिए मध्य प्रदेश से दस आदिवासी और दस अल्पसंख्यक नेता की खोज का ऐलान भी बहुत महत्त्वपूर्ण है। सिमी से तुलना के बयान ने तो कल भोपाल में भा.जा.पा. प्रदेश कार्यकारीणी के बैठक में अन्य मुद्दों को पीछे छोड़ दिया सबने ने राहुल के बयान की निंदा को प्राथमिकता दी और साथ मुख्य –मंत्री शिवराज से ये सवाल भी पूछा गया की राहुल को राज्य अतिथि का दर्जा क्यों?

कांग्रेस की सबसे बड़ी उम्मीद राहुल गाँधी ने युवा कांग्रेस के संगठन चुनाव में जान फूंकने के उद्देशय से मध्य प्रदेश के विभिन्न भागों का दौरा कर, यहाँ प्रयास किया की आदिवासी बाहुल्य इस राज्य में कांग्रेस को भविष्य के लिए आदिवासी और अल्पसंख्यक नेता मिल सकें। राहुल कांग्रेस महासचिव के तौर पर देश भर में कांग्रेस के छात्र संगठन और युवा इकाई के प्रभारी है और ऐसा प्रयास कर रहें है की ये दोनों संगठन कांग्रेस के बड़े नेताओं के कथित चुंगल से मुक्त हो सकें। ये बात और है की अभी राहुल के इस प्रयोग के परिणाम भविष्य के गर्त में है।

पर इस दौरे में उनके बयान एक बार फिर चर्चा में है ,प्रदेश में काबिज भारतीय जनता पार्टी ने आर.एस.एस.की सिमी से समानता पर ऐतराज जताते हुए राहुल को भारत की संस्कृति के अध्ययन की सलाह दी है। राहुल का ये बयान उनके के कथित राजनैतिक गुरु दिग्विजय सिंह के सामान ही है,जो समय –समय पर इसी आशय के बयान देते रहते है।

राहुल ने इस बयान के अलावा इस दौरे स्वयं को सिर्फ युवा कांग्रेस तक ही सिमित रखा और ये प्रयास किया की प्रदेश में मुख्य कांग्रेस संगठन का सामंजस्य इस युवा इकाई से बना रहें और दोनों के मध्य किसी प्रकार का गतिरोध ना आने पाए, इस के चलते उज्जैन में प्रदेश कांग्रेस की कार्यकारीणी को बुलकर समझाइश भी दी गयी और लताड भी लगई की प्रदेश में कांग्रेस के बड़े नेताओं की गुटबाजी खत्म हो, नही तो आपस में लड़ते-लड़ते कहीं कांग्रेस का हाल भी यहाँ यू.पी., बिहार जैसा ना हो जाये। और राहुल कि ये आशंका बेमानी नहीं है आज भी मध्य-प्रदेश में मुस्लिम कांग्रेस के साथ ही है. लेकिन तब तक, जब तक की कोई अन्य सशक्त विकल्प नहीं है, वैसा ही कुछ आदिवासी मतदाताओं का भी है गोंडवाना गणतन्त्र जैसे कई आदिवासी दल जब–तब कांग्रेस को आंख दिखाते रहतें है। राहुल ने शायद इस बात को समझ लिया है और इसीलिए इस प्रदेश से नए और नौजवान आदिवासी और अल्पसंख्यक नेता को ढूढने के बात करी है। प्रदेश कांग्रेस का युवा संगठन को सहयोग एवं मार्गदर्शन भी अति अवशक है, जिसकी कि कमी महसूस की जा रही है।

प्रदेश में नए कांगेस अध्यक्ष के मुद्दे पर राहुल के दो टूक इंकार से इस कुर्सी के दावेदारों को झटक लगा है, राहुल ने मीडिया से चर्चा में और नेताओं से बात में ये स्पष्ट कर दिए की वे इस मामले में दखल नही करेंगे और हमेशा की तरह प्रधानमंत्री की प्रशंसा कर अपने प्रधानमंत्री बनने के बारें में किये गए सवालों को भी टाल दिया।

रामजन्मभूमि विवाद, राजनीति के बांझपन का नतीजा

-भरत चन्‍द्र नायक

राजनीति को लोकनीति बनाना श्रेष्ठ स्थिति मानी गयी है, लेकिन आजादी के बाद सियासत सकरे दायरे में कैद हुई है, उससे वह बांझ बनकर रह गयी है। राम जन्म भूमि विवाद को पाल पोसकर रखा जाना फिरंगी शासन की ‘बांटो और राज करो’ की कुशल रणनीति का हिस्सा माना जा सकता था। लेकिन अब इसे समाधान की दिशा में ले जाने, निर्णय के मुहाने पर पहुंचते ही रास्ता रोक दिये जाने को जन आस्था के साथ क्रूर मजाक ही कहा जावेगा। छ: दशक तक अयोध्या में राम जन्म भूमि मिल्कियत विवाद अदालत में लंबित रहने के बाद 30 सितम्बर, 2010 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ खंडपीठ ने एक मत से कहा कि अयोध्या में भूमि मिल्कियत विवाद के बारे में यह बात निर्विवाद है कि यह लोक नायक, मर्यादा पुरुषोत्तम की जन्मभूमि है। राम जन्म भूमि विराजमान को पहले जमीन देने के बाद खंडपीठ ने दूसरा हिस्सा निर्मोही अखाड़ा को देते हुए बाहरी भूमि सुन्नी वक्फ बोर्ड को देकर भारत की जनता और देश की अद्वितीय न्याय परंपरा के बीच विश्वास का पुल बांध दिया है। न्यायालय का फैसला आने के पहले सभी ने एक मत से प्रतिबद्धता जतायी थी कि न्यायालय का निर्णय शिरोधार्य किया जावेगा। लेकिन निर्णय का जब देश की जनता ने स्वागत किया और सुन्नी वक्फ बोर्ड के दावेदार ने आगे की सहमति बनाने के लिए कदम बढ़ाये तो सियासतदार कूद पड़े। अल्पसंख्यकों के मान न मान पै तेरा मेहमान बनने की स्पर्धा शुरु हो गयी। मुलायम सिंह ने तो यहां तक कह दिया कि फैसले से अल्पसंख्यक ठगे से रह गये हैं। कांग्रेस ने मामले के सर्वोच्च न्यायालय से निर्णीत होने तक प्रतीक्षा करने की घोषणा कर दी। गोया उन्हें समाधान से नहीं समस्या पर गर्व है? ऐसे में जो लोग कहते है कि राजनीति बांझ हो गयी है, इसका क्या जवाब हो सकता है?

रामजन्म भूमि विवाद की तह में जाने की फौरी कोशिश की जाने पर साफ जाहिर होता है कि सियासतदारों को भूमि के मलिकाना हक के बाजिव निपटारे के बजाय विवाद को बनाए रखने, विवाद को अवाम को भड़काने का बहाना बनावे रखने में रुचि रही है। राम जन्म भूमि जहां भारत और भारतीय के मूल के इंडोनेशिया, मलेशिया, जावा, सुमात्रा, आदि देशों में अवाम के लिए धर्म के अलावा आस्था का प्रश्न है, भारत के तथाकथित धर्मनिरपेक्ष सियासतदार इसे सियासत का मुद्दा बनाकर जीवित रखना चाहते हैं। भारतीय मूल के जो लोग धर्मांतरण के बाद विदेश गये हैं अथवा धर्मातरित हो गये हैं। वे राम चरित्र को लोक जीवन का आदर्श मानते हैं। रामलीला का मंचन करते हैं। उनका आग्रह सही है कि धर्म बदलने से वल्दियत, पुरखे नहीं बदल जाते।

रामजन्म भूमि बाबरी ढांचा विवाद के निराकरण के लिए हुए प्रयासों की लंबी सूची है। 2004 में तो मुलायम सिंह ने ही समाधान की चौखट पर पहुंचकर ही कह दिया था कि इससे लोकसभा चुनाव के नतीजे प्रभावित हो जाएंगे। तब केंद्र एनडीए की अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में सरकार थी। मुसलमान और हिंदू सुधीजन ने समाधान स्वीकार कर लिया था। इसमें कुछ विदेशी मुस्लिम शासकों ने भी सद्भावना बनाने में योगदान दिया था। तब सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीश न्यायमूर्ति अहमदी साहब प्रारूप भी लगभग बना चुके थे। लेकिन समाजवादी पार्टी प्रमुख, उत्तरप्रदेश के राजनीतिक शासक की हैसियत रखने वाले मुलायम सिंह ने इस समाधान को सियासी चालों को शिकार बनाकर पलीता लगा दिया था। आज वही जवाब यदि मुसलमानों को भड़काते हुए कहते हैं कि 30 सितम्बर का फैसला उनके प्रतिकूल है, तो इसमें हैरत नहीं होना चाहिए। राजनेताओं को सुन्नी वक्फ बोर्ड के हितों की नहीं अपने राजनीतिक हितों, सियासी मिल्कियत (वोटो) की चिंता है।

दरअसल आस्था, विश्वास, सद्भावना, हिंदुत्व के प्राण है। सियासतदार देश के समृध्द इतिहास पर वर्णित होना सांप्रदायिकता मानते हैं। इन्हें याद नहीं आता कि 1857 में दिल्ली की फतेहपुरी मस्जिद अंग्रेजी सरकार ने नीलाम कर दी थी, जिसे खालिश हिन्दू चुन्नीलाल ने बोली लगाकर खरीद लिया था और बाद में मौजूदा मुकर्रम परिवार को सौंप दिया था। वहीं हिंदुत्व की उदारत और सही धर्मनिरपेक्षता है। परस्पर खौप पैदा करना, सहमति में पलीता लगाना और न्याय के लिए बंदर की भूमिका में आना सामाजिक पाप है।

1949 से यदि याद करें तो देश में समाजवाद के शिखर पर पुरुष और प्रवर्तक डॉ.राम मनोहर लोहिया ने कहा था कि राजनीति को लोकनीति बनाना चाहिए जिससे सभी की भावनाओं का आदर हो। तभी पं. नेहरू इस प्रतिस्पर्धा में कूद पड़े और सामने आए थे और उन्होंने हिंदुओं को अयोध्या में पूजा अर्चना की अनुमति दिलाते हुए जन्म भूमि के कपाट खोल दिये थे। लेकिन वे सियासत का मर्म जानते थे। चोर दरवाजे से 23 सितम्बर, 1949 को अयोध्या के पुलिस थाने में प्राथमिकी भी दर्ज करा दी थी जिससे सियासी जख्म हरा बना रहे। खोजबीन करने पर आप यह भी जान सकेंगे कि इस

एफआईआर को दर्ज कराने वाला कोई मुसलमान नहीं था। एफआईआर दर्ज कराने वाले कलेक्टर साहब के.के.नायर थे, जो प्रधानमंत्री की भावना से पूरी तरह वाकिफ थे। इससे भी अधिक त्रासद तथ्य यह है कि हिंदुओं पर सांप्रदायिकता का दाग लगाने वाले रामजन्मभूमि पर लगातर सियासत करते रहे। तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने चुनाव अभियान में बहुसंख्यकों को लुभाने के लिए 1986 में गर्भगृह निर्माण की बात आयी तो ताला खुलवाकर अपने विश्वस्त सियासतदार गृहमंत्री बूटा सिंह को भेजकर उद्धाटन भी करवा दिया था। साथ ही कांग्रेसी मुसलमान भाईयों को बाबरी एक्शन कमेटी गठित करने की प्रेरणा देकर जो जख्म था, उसे कैंसर की शकल में दे थी। देश के बहुसंख्यक समाज की आस्था के अनुरूप देश के अल्पसंख्यकों में जो सद्भाव रहा है, उसे गलत दिशा देना यहां सियासतदारों का शगल रहा है। क्योंकि उन्हें समाधान से अधिक चिंता विवाद बनाए रखने की रही है। नब्बे के दशक में नरसिंह राव सरकार में अयोध्या विवाद के समाधान के प्रयास हुए कई बार सहमति चौखट पर आयी लेकिन धर्मनिरपेक्षता अपने को आहत मानकर पैर पीछे हटायी रही। विश्व हिन्दू परिषद ने 1992 में ढांचा गिरने के पूर्व नरसिंह राव से मुलाकात कर निर्णयात्मक पहल करने का आग्रह किया। साधु-संतों का भी यही आग्रह था। मौनी बाबा (नरसिंह राव) ने सिर्फ इतना कहा कि कुछ होना चाहिए। ढांचा गिर गया तब कांग्रेस ने एक समिति बनाकर नेतृत्व चंद्रास्वामी को सौंप दिया, जिसे खुद कांग्रेस ने कबूल नहीं किया। 30 सितम्बर को आये फैसले को सकारात्मक पहल मानकर आगे बढ़ाये जाने की जरूरत है। लेकिन कांग्रेस और समाजवादी पार्टी को निर्णायक, सदभावपूर्ण कदम रास नहीं आ रहे हैं। उच्च न्यायालय ने दो आस्थाओं के बीच सहमति का सेतु बनाने की दिशा दिखायी है, जिसे पूरे मन से स्वीकार करने की आवश्यकता है। छोटे मन से बड़े काम नहीं हो सकते है। इसके लिए देश के सहोदरों को परस्पर विश्वास जताना होगा। रामजन्म भूमि तय हो जाने के बाद अब इस बात को सभी को स्वीकार करना होगा कि ऐसी परिस्थिति बनायी जाए जिससे भव्य राम मंदिर बनने का पथ प्रशस्त हो। सरयू के किनारे मस्जिद भी बने, कांग्रेस ने जिस तत्परता से बाबरी एक्शन कमेटी का गठन कराया था, उसी तत्परता से वह लखनऊ खंडपीठ के फैसले को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दिये जाने की व्याकुलता से प्रतीक्षा करती है, तो उसकी नीति और नीयत समझने में देर नहीं लगती। भारत में जो मुसलमान है, उन्हें अपनी सांस्कृतिक विरासत पर फक्र है, इसमें संदेह नहीं है। उनके हकों की अनदेखी नहीं की जाना चाहिए. फिर भी मुसलमानों को विस्तृत नजरिया से देखना होगा। प्रसन्नता की बात है कि यहां भी प्रवृध्द मुसलमानों की कमी नहीं है। यह भी मानने लगा है कि रामजन्मभूमि गर्भगृह पर यदि फैसला हो चुका है और उसे न्यायिक मान्यता दी जा चुकी है तो फिर बीचों-बीच विवाद की जड़ एक तिहायी भूमि सुन्नी-वक्फ बोर्ड को भले ही सदाशयता में दी गयी हो, लेकिन उसकी सामाजिक उपयोगिता अथवा सार्थकता अधिक नहीं रह जाती है। इसका न्यायिक पक्ष भी सुप्रीम कोर्ट में यह हो सकता है कि एक तिहायी जमीन का प्रसंग तार्किक नहीं है। कांग्रेस सर्वोच्च न्यायालय में मामले को धकेलकर यदि इसी तर्क पर विवाद का फैसला कराकर इस विवाद को स्थायी बनाए रखने की तलफगार है, तो इसे राजनीति का बांझपन ही कहा जाएगा। परिस्थितियों ने पिछले शतक में जो मानसिक क्रूरता का दंश देश को दिया है, उससे मुक्ति मिलना चाहिए। राजनेता और इसके लिए दूरदर्शिता का परिचय देना चाहिए।

रामजन्मभूमि विवाद पर न्यायिक समीक्षा को लेकर एक बात ध्यान में आती है कि जब सर्वोच्च न्यायालय से तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिंह राव ने राय जानना चाही थी तब सर्वोच्च न्यायालय ने अपनी राय देने से असमर्थता जता दी थी। न्यायालय का कहना था कि यह आस्था का विषय है। आज की राजनीति की निरर्थकता सामने आती है कि जो आस्था, जनविश्वास के मामले होते हैं, उससे राजनीतिक दल सियासी खुदगर्जी के कारण पीछे हट जाते हैं और न्यायालय को सौंप कर पिंड छुड़ाना चाहते हैं। लेकिन जब न्यायालय अपना फैसला देता है तो सरकारें उसे नीतिगत मामले में हस्तक्षेप बताने लगती है। सोमनाथ मंदिर के भव्य निर्माण का मार्ग तत्कालीन कांग्रेस नेतृत्व ने कानून बनाकर हल किया था। भव्य मंदिर के उद्धाटन में तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ.राजेंद्र प्रसाद शामिल हुए थे। महात्मा गांधी ने भी इसे आस्था की अभिव्यक्ति बताया था। ऐसे में यदि केंद्र सरकार रामजन्मभूमि मामले का भव्यता से पटाक्षेप करने के लिए हस्तक्षेप करके आगे आती है और कानून सम्मत हल खोजती है तो यह सोने में सोहागा होगा। रामजन्मभूमि धर्म का नहीं विश्व मानवता की आस्था का प्रतीक है।

नागार्जुन जन्मशती पर विशेष- मुस्लिम आर्थिक नाकेबंदी और हम

-जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

भगवान से भी भयावह है साम्प्रदायिकता। साम्प्रदायिकता के सामने भगवान बौना है। साम्प्रदायिकता और साम्प्रदायिक दंगे दहशत का संदेश देते हैं। ऐसी दहशत जिससे भगवान भी भयभीत हो जाए। जैसाकि लोग मानते हैं कि भगवान के हाथों (यानी स्वाभाविक मौत) आदमी मरता है तो इतना भयभीत नहीं होता जितना उसे साम्प्रदायिक हिंसाचार से होता है।

बाबा नागार्जुन ने दंगों के बाद पैदा हुए साम्प्रदायिक वातावरण पर एक बहुत ही सुंदर कविता लिखी है जिसका शीर्षक है ‘तेरी खोपड़ी के अन्दर’। दंगों के बाद किस तरह मुसलमानों की मनोदशा बनती है। वे हमेशा आतंकित रहते हैं। उनके सामने अस्तित्व रक्षा का सवाल उठ खड़ा होता है, इत्यादि बातों का सुंदर रूपायन नागार्जुन ने किया है।

यह एक लंबी कविता है एक मुस्लिम रिक्शावाले के ऊपर लिखी गयी है।लेकिन इसमें जो मनोदशा है वह हम सब के अंदर बैठी हुई है। मुसलमानों के प्रति भेदभाव का देश में सामान्य वातावरण हिन्दू साम्प्रदायिक ताकतों ने बना दिया है। प्रचार किया जाता रहा है कि किसी मुसलमान की दुकान से कोई हिन्दू सामान न खरीदे, कोई भी हिन्दू मुसलमान को घर भाड़े पर न दे, कोई भी हिन्दू मुसलमान के रिक्शे पर न चढ़े। साम्प्रदायिक हिंसा ने धीरे-धीरे मुसलमानों के खिलाफ आर्थिक नाकेबंदी और आर्थिक हिंसाचार की शक्ल ले ली है। मुसलमानों के खिलाफ बड़े ही सहजभाव से हमारे अंदर से भाव और विचार उठते रहते हैं।

हमारे चारों ओर साम्प्रदायिक ताकतों और कारपोरेट मीडिया ने मुसलमान की शैतान के रूप में इमेज विकसित की है। एक अच्छे मुसलमान, एक नागरिक मुसलमान,एक भले पड़ोसी मुसलमान, एक सभ्य मुसलमान, एक धार्मिक मुसलमान, एक देशभक्त मुसलमान की इमेज की बजाय पराए मुसलमान, आतंकी मुसलमान,गऊ मांस खानेवाला मुसलमान, हिंसक मुसलमान, बर्बर मुसलमान, स्त्री विरोधी मुसलमान, परायी संस्कृति वाला मुसलमान आदि इमेजों के जरिए मुस्लिम विरोधी फि़जा तैयार की गयी है। नागार्जुन की कविता में मुसलमान के खिलाफ बनाए गए मुस्लिम विरोधी वातावरण का बड़ा ही सुंदर चित्र खींचा गया है।

कुछ अंश देखें- ‘‘ यों तो वो/ कल्लू था-/ कल्लू रिक्शावाला/यानी कलीमुद्दीन…/मगर अब वो/ ‘परेम परकास’/ कहलाना पसन्द करेगा…/कलीमुद्दीन तो भूख की भट्ठी में / खाक हो गया था /’’ आगे पढ़ें- ‘‘जियो बेटा प्रेम प्रकाश / हाँ-हाँ, चोटी जरूर रख लो/ और हाँ, पूरनमासी के दिन /गढ़ की गंगा में डूब लगा आना/ हाँ-हाँ तेरा यही लिबास/ तेरे को रोजी-रोटी देगा/ सच,बेटा प्रेम प्रकाश, तूने मेरा दिल जीत लिया/लेकिन तू अब /इतना जरूर करना/मुझे उस नाले के करीब/ ले चलना कभी/ उस नाले के करीब/जहाँ कल्लू का कुनबा रहता है/ मैं उसकी बूढ़ी दादी के पास/बीमार अब्बाजान के पास/बैठकर चाय पी आऊँगा कभी/ कल्लू के नन्हे -मुन्ने/ मेरी दाढ़ी के बाल/ सहलाएंगे… और/ और ? / ‘‘ और तेरा सिर…/ ’’ मेरे अंदर से/ एक गुस्सैल आवाज आयी…/-बुडढ़े,अपना इलाज करवा/तेरी खोपड़ी के अंदर/ गू भर गयी है/खूसट कहीं का/कल्लू तेरा नाना लगता है न ? /खबरदार साले/ तुझे किसने कहा था/मेरठ आने के लिए ?…/ लगता है/वो गुस्सैल आवाज /आज भी कभी-कभी/सुनाई देती रहेगी…/एक जमाने में भाजपा को जनसंघ के नाम से जानते थे। जनसंघ पर बाबा ने लिखा ‘‘तम ही तम उगला करते हैं अभी घरों में दीप/वो जनसंघी, वो स्वतंत्र हैं जिनके परम समीप/ उनकी लेंड़ी घोल-घोल कर लो यह आँगन लीप/उनके लिए ढले थे मोती,हमें मुबारक सीप/तम ही तम उगला करते हैं अभी घरों में दीप।

नागार्जुन जन्मशती पर विशेष-हिन्दी में कीर्त्ति फल के उपभोक्ता

-जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

नागार्जुन पर जो लोग शताब्दी वर्ष में माला चढ़ा रहे हैं। व्याख्यान झाड़ रहे हैं। नागार्जुन के बारे में तरह-तरह का ज्ञान बांट रहे हैं ऐसे हिन्दी में 20 से ज्यादा लेखक नहीं हैं। ये लेखक कम साहित्य के कर्मकाण्डी ज्यादा लगते हैं। आप इनमें से किसी को भी फोन कीजिए ये लोग किसी भी कार्यक्रम और किसी भी विषय पर बोलने के लिए मना नहीं करते। वे जिस भावभंगिमा के साथ प्राचीन कवि स्वयंभू पर बोलते हैं उसी भावभंगिमा और विवेक के साथ नागार्जुन पर भी बोलते हैं। वे जिस भाव से अज्ञेय पर बोल रहे हैं उसी भाव से केदारनाथ अग्रवाल पर भी बोल रहे हैं। आप तय नहीं कर सकते कि इनका इस लेखक के बारे में क्या स्टैंड है? आपको यह पता नहीं लगेगा कि ये इस लेखक के बारे में कितना जानते हैं और इन्होंने क्या लिखा है। असल में ये हिन्दी में कीर्तिफल के उपभोक्ता हैं।

खासकर कवि चतुष्टयी के कवियों पर विगत दस सालों में नया क्या लिखा है? आप पता करने जाएंगे तो निराशा हाथ लगेगी। हिन्दी के ज्ञान कांड की यह वास्तव तस्वीर है। इसमें लेखकों और आलोचकों का एक झुंड है जो पूरे देश में कवि चतुष्टयी पर बोलता घूम रहा है।

मेरी अभी तक यह समझ में नहीं आता कि जब वक्ता ने संबंधित विषय पर विगत एक दशक में नया कुछ लिखा ही नहीं तो फिर आयोजक ऐसे वक्ताओं को क्यों बुलाते हैं? ऐसा क्यों होता है कि ये 20 हिन्दी लेखक-आलोचकों में से सभी कार्यक्रमों में लेखक बुलाए जाते हैं? सवाल उठता है कि वर्षों से जिसने उस लेखक या विषय पर कभी लिखा ही नहीं तो ऐसे व्यक्ति को आयोजक क्यों बुलाते हैं? संबंधित विषय के बारे में ये विद्वान कितने गंभीर हैं यह बात तो इससे ही सिद्ध हो जाती है कि उन्होंने वर्षों से उस पर लिखा ही नहीं।

असल में हिन्दी में आयोजनों का अधिकांश ठेका इन्हीं स्वनामधन्य विद्वानों के पास है। इन लोगों ने वातावरण ऐसा बनाया है कि आपको लगेगा कि नागार्जुन वाले कार्यक्रम में इन विद्वानों को नहीं बुलाएंगे तो कार्यक्रम बढ़िया नहीं हो पाएगा। बढ़िया कार्यक्रम के लिए बढ़िया अंतर्वस्तु और नई प्रस्तुति भी चाहिए। ये लेखक विगत 20 से भी ज्यादा सालों से सभी कार्यक्रमों में आ-जा रहे हैं

शोभा बढ़ा रहे हैं और हिन्दी के ज्ञानकांड को कर्मकांड में तब्दील कर चुके हैं। हिन्दी आलोचना के वातावरण को नष्ट करने में इनकी टोली और इनके मुखियाओं की जो भूमिका रही है उस पर इस शताब्दी वर्ष में कड़ी समीक्षा करने की जरूरत है।

ऐसी ही अवस्था पर नागार्जुन ने “कीर्त्ति का फल” नामक कविता लिखी थी-पढ़ें और सोचें-

अगर कीर्त्ति का

फल चखना है

कलाकार ने फिर-फिर

सोचा-

आलोचक को खुश रखना है!

अगर कीर्त्ति का

फल चखना है

आलोचक ने फिर-फिर

सोचा

कवियों को नाथे रखना है!!