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दबाव की राजनीति में इतिहास और तथ्य की विदाई / जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

समझौते , समाधान या न्याय के नाम पर इतिहास और तथ्यों की अनदेखी करने, इतिहास और तथ्य की बलि चढ़ाने का अधिकार किसी भी व्यक्ति या संस्थान को नहीं दिया जा सकता। चाहे वह जज ही क्यों न हों।

लखनऊ बैंच ने कई मुद्दों पर इतिहास और तथ्यों की अनदेखी की है। आधुनिककाल में इतिहास और तथ्यों की अनदेखी के आधार पर कोई भी रास्ता शांति के समाधान की ओर नहीं ले जा सकता। बाबरी मसजिद के प्रसंग में जजों ने अपने फैसले में दो असंतुलित काम किए हैं पहला , जजों ने कानून को ‘दबाब की राजनीति’ का हिस्सा बना दिया है। कानून जब भी दबाब की राजनीति का हिस्सा बनकर काम करेगा कानूनी और सामाजिक संतुलन गड़बड़ाएगा।

दूसरा, खराब काम यह किया कि कानून,इतिहास,संविधान आदि के ऊपर उसने धार्मिक आस्थाओं को रखा है और इसमें भी उसने हिन्दू धार्मिक आस्थाओं के प्रति घोषित रूप में पक्षधरता का प्रदर्शन किया है। इससे भारत के गैर हिन्दुओं की न्यायपालिका के प्रति आस्थाएं कमजोर होंगी।

यह आयरनी है कि जब विवादित पक्ष इंतजार कर रहे थे कि उन्हें बाबरी मसजिद की विवादित जमीन के स्वामित्व का फैसला सुनाया जाए उस समय अदालत ने उन्हें राम जन्म के बारे में फैसला करके सुना दिया। राम कहां हुए कैसे हुए ? राम का जन्म हुआ था या नहीं ? राम मंदिर आस्था का प्रश्न है ? आदि प्रश्न कानून के दायरे में नहीं आते। इसके बारे में सर्वोच्च न्यायालय 1994 में एकबार निर्णय दे चुका है ।

तत्कालीन जस्टिस वर्मा ने कहा था कि संपत्ति के स्वामित्व का अदालत फैसला कर सकती है। लेकिन आस्था का फैसला नहीं कर सकती। राम जन्म कहां हुआ इसका फैसला अदालत नहीं कर सकती।

इलाहाबाद हाईकोर्ट की तीन सदस्यीय लखनऊ बैंच ने राम मंदिर का फैसला राम भक्तों की आस्था के आधार पर करके कानून का एक गलत उदाहरण पेश किया है। अदालत के इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट को अपने पुराने फैसले की रोशनी में दुरूस्त करना चाहिए। वरना अब अगला नम्बर काशी-मथुरा और ताजमहल का होगा। क्योंकि हिन्दू आस्थाओं के अनुसार ये तीनों स्थान हिन्दुओं के पवित्र मंदिर हैं। इस तरह की तकरीबन 3000 मसजिदों को संघ परिवार ने चिह्नित किया है ,जिन्हें वह मुसलमानों के कब्जे से मुक्त करना चाहते हैं।

दूसरी बात यह कि आस्थाओं के आधार पुराने धार्मिक विवादों को उठाना और उनमें देश को उलझाए रखना भारत के भविष्य के लिहाज से सही नहीं होगा । जजों ने आस्था और मान्यताओं के आधार पर कानूनी फैसला देकर दबाब की राजनीति के सामने कानून को बौना बनाया है। यह संदेश भी दिया है कि यदि कोई संगठन या सामाजिक समुदाय अपनी भावनाओं को बार-बार आंदोलन के माध्यम से या समूहबल के आधार पर उठाता है तो उसके दबाब में अदालतें आ सकती हैं। इतिहास और तथ्य को तिलांजलि दी जा सकती है। न्यायपालिका में यह खतरनाक रूझान का संकेत है। यह इस बात का भी संकेत है कि हमारे न्यायाधीशों के मन में पुरानी धार्मिक अस्मिता के अवशेष अभी भी सक्रिय हैं। वे इतिहास और तथ्यों की बजाय आस्था के आधार पर सोचते हैं।

विवादित अंश है –

‘Whether the disputed site is the birth place of Bhagwan Ram?

The disputed site is the birth place of Lord Ram. Place of birth is a juristic person and is a deity. It is personified as the spirit of divine worshipped as birth place of Lord Rama as a child. Spirit of divine ever remains present every where at alltimes for any one to invoke at any shape or form in accordancewith his own aspirations and it can be shapeless and formless also.’

इस फैसले का एक और विवादित अंश महत्वपूर्ण है । इसमें दो बातें हैं, पहली, यह कि बाबर ने बाबरी मसजिद के निर्माण का आदेश दिया था, लेकिन यह मसजिद कब बनी इसे निश्चित करने में जज महोदय असमर्थ रहे हैं। साथ ही उन्होंने यह भी लिखा है कि इस्लाम धर्म की मान्यताओं के आधार पर यह मसजिद नहीं बनी। इसलिए इसे मस्जिद मानना सही नहीं होगा। इस प्रसंग में सबसे पहली बात तो यह है कि बाबरी मसजिद थी और सैंकड़ों सालों से ठोस शक्ल में थी। वह तो मसजिद थी वह कैसे बनी और किन नियमों के आधार पर बनी इसका फैसला आज करना संभव नहीं है। इस पर विवाद नहीं हो सकता कि वह मसजिद थी या नहीं ? इस्लाम धर्म के अनुसार उसका निर्माण हुआ था या नहीं ? यदि इसके आधार पर मसजिदों के बारे में फैसले अदालत लेने लगेंगी तो मामला गंभीर दिशा ग्रहण कर सकता है। यह कानून के दायरे बाहर है कि वह यह बताए कि बाबरी मसजिद गैर-इस्लामिक है।

जजमेंट का यह बिंदु भड़काने वाला है और इसको सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी जानी चाहिए। साथ ही यह मुसलमानों के निजी कानूनों में खुला हस्तक्षेप है। कोई इमारत मसजिद है या नहीं यह फैसला भारतीय अदालतें नहीं कर सकतीं इसका फैसला मुसलमान और उनके धार्मिक संस्थान ही कर सकते हैं। बाबरी मसजिद का स्वामित्व सुन्नी वक्फ बोर्ड के पास है । मसजिद के मालिक कम से कम हिन्दू नहीं हो सकते। मंदिर के मालिक हिन्दू हो सकते हैं। मसजिद के मालिक के रूप में कानूनन वक्फ बोर्ड को ही अधिकार हैं। मुसलमान ही मसजिदों की देखभाल करते रहे हैं। विवादित अंश को पढ़ें-

Whether the disputed building was a mosque? When was it built? By whom?

The disputed building was constructed by Babar, the year is not certain but it was built against the tenets of Islam. Thus, it cannot have the character of a mosque.

इस फैसले का एक अन्य विवादास्पद हिस्सा है जिसमें यह कहा गया है कि हिन्दू मंदिरों को तोड़कर मसजिद बनायी गयी थी। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग द्वारा जो रिपोर्ट दी गयी है उस पर भारत के अधिकांश इतिहासकार पहले ही अनेक तथ्यपूर्ण आपत्तियां उठा चुके हैं और उस रिपोर्ट की ऐतिहासिक आलोचना कर चुके हैं। अदालत ने उन सबकी अनदेखी की है और इस अनदेखी का प्राथमिक आधार है हिन्दू आस्थाओं के प्रति जजों का समर्पणभाव। वे इसके कारण अन्य इतिहासकारों की राय की अनदेखी करके इस नतीजे पर पहुँचे हैं।

सवाल उठता है क्या धार्मिक जमीन के स्वामित्व के विवादों को सैंकड़ों-हजारों साल पीछे ले जाकर सुलझाना सही कानूनी तरीका है ? क्या इससे हम भारत में एक नए विवादों को जन्म नहीं दे रहे हैं ? हाईकोर्ट के जजों ने सामाजिक भविष्य,तथ्य ,इतिहास और कानून को आधार बनाकर फैसला नहीं दिया है। जजों की नजर अतीत और आस्था पर टिकी रही है।

अतीत और आस्था के आधार पर कानून सिर्फ उनका मददगार हो सकता है जो इस समाज को अंधियारे अतीत में ले जाना चाहते हैं। आधुनिक जज जब अतीत की ओर भरोसा करके फैसले देंगे तो फैसले अन्तर्विरोधपूर्ण होंगे। अस्पष्ट होंगे। इस फैसले में कानूनी और तथ्यपूर्ण समझ कम व्यक्त होती है राजनीतिक समाधान की ओर झुकाव ज्यादा व्यक्त हुआ है। जजों को राजनीति के पीछे चलने वाले भक्त नहीं होना चाहिए।

बल्कि वे तो राजनीति के आगे चलने वाली मशाल हैं।

भारत में कोई भी इमारत ऐसी नहीं होगी जो किसी न किसी पुरानी इमारत के मलबे पर न बनी हो। सवाल यह है कि लखनऊ के आधुनिक जज हमारे सामने निर्णय की किस तरह की आधारशिला रख रहे हैं ? उनकी नजर में वर्तमान है और वे उसके संकट से निकलना भी चाहते हैं । लेकिन वर्तमान के संकट से अतीत के मार्ग और राजनीतिक शार्टकट के जरिए नहीं निकला जा सकता। अतीत का मार्ग यदि संकटमुक्त रहा होता तो हम इस विवाद का अतीत का मलबा अब तक न ढ़ो रहे होते। बाबरी मसजिद के गैर इस्लामिक अस्तित्व के सवाल को उठाकर जजों ने आग में घी डालने का काम किया है। एक अन्य चीज है जिस पर हम गौर करें ,जब मंदिर के मलबे पर बनी बाबरी मसजिद अवैध है तो मसजिद के मलबे पर बना राम मंदिर वैध कैसे हो सकता है ? यह कैसे हो सकता है मंदिर के मलबे पर इमारत बनाना अवैध है लेकिन मसजिद के मलबे पर इमारत बनाना वैध है । मलबे में भी हिन्दू पक्षधरता की जजों ने यह बेजोड़ मिसाल पेश की है। विवादित अंश देखें-

Whether the mosque was built after demolishing a Hindu temple?

The disputed structure was constructed on the site of old structure after demolition of the same. The Archaeological Survey of India has proved that the structure was a massive Hindu religious structure.

आश्चर्य की बात है कि जजों ने माना कि 22 दिसम्बर 1949 की रात को बाबरी मसजिद में राम की मूर्ति कोई रख गया। कौन रख गया ,कैसे रख गया ,इसका ब्यौरा एफआईआर में उपलब्ध है और जज भी मानते हैं बाबरी मसजिद में उपरोक्त तारीख को ये मूर्तियां रखी गयीं । सवाल यह है कि ये मूर्तियां वैध रूप में जब नहीं रखी गयीं तो फिर इन्हें हटाने का निर्णय माननीय जजों ने क्यों नहीं लिया ? जजों ने सैंकड़ों साल पुरानी बाबरी मसजिद को गैर-इस्लामिक मान लिया, लेकिन चोरी से मसजिद में जाकर राम की मूर्ति को रखे जाने को गैर हिन्दू धार्मिक हरकत नहीं माना। राम मंदिर को अवैध नहीं माना ? यह जजों की खुली हिन्दुत्ववादी पक्षधरता है।

यह खुला सच है कि बाबरी मसजिद के अंदर वाले हिस्से में या इस इमारत के अन्य किसी भी हिस्से में 22-23 दिसम्बर 1949 के पहले कोई हिन्दू मूर्ति नहीं थी। ये मूर्तियां अवैध रूप से रखी गयी थीं और भारत के संविधान,कानून और हिन्दू धर्म की समस्त धार्मिक मान्यताओं और मर्यादाओं को ताक पर रखकर रखी गयी थीं। इन मूर्तियों को किसी भी रूप में वैधता प्रदान नहीं की जा सकती। कम से कम कानून और हिन्दू धर्म की नजर में ये मूर्तियां अवैध और अधार्मिक कृत्य के दायरे में आती हैं। लेकिन जजों को इसमें कोई अधार्मिकता और अवैधता नजर ही नहीं आयी। इससे यही निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि जजों का हिन्दू धर्म के लिए एक पैमाना था,और इस्लाम धर्म के लिए दूसरा पैमाना था। धर्म के प्रति अपने और पराए का भाव जजों के लिए खतरनाक बात है। पेशेवर लोगों को धर्म,नस्ल,भेदभाव आदि से ऊपर उठकर काम करना होता है। वे सबके होते हैं। जज सबके हैं। वे किसी एक जाति या धर्म के नहीं हो सकते। वैसे ही एक डाक्टर सबका होता है, एक शिक्षक या इंजीनियर सबका होता है। वह किसी एक धर्म के मानने वालों का नहीं हो सकता।

कानून की नजर में ,पेशेवर लोगों में धर्मों के प्रति यदि भेदभाव का नजरिया आने लगेगा तो इससे बेहद खतरनाक स्थिति पैदा हो सकती है । बाबरी मसजिद में चोरी छिपे मूर्तियां बिठा देना गलत था। भारत के कानून का उल्लंघन था। इसे किसी भी आधार पर सही नहीं ठहराया जा सकता। जजमेंट के इस विवादित अंश को पढ़ें-

4. Whether the idols were placed in the building on the

night of December 22/23rd, 1949? The idols were placed in the middle dome of the disputed structure in the intervening night of 22/23.12.1949.

लखनऊ पीठ के फैसले ने एक सकारात्मक काम किया है कि उसने इस विवाद को समाधान करने की दिशा में ठेल दिया है। उम्मीद है हाईकोर्ट के जजमेंट में जो कमियां हैं वे सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के दौरान दूर हो जाएंगी। इस जजमेंट का एक बड़ा संदेश है कि राजनीतिक दल और संसद जो काम करने में असफल रहे हैं उन कामों को अदालतें कर सकती हैं। न्यायपालिका के इस साहस भरे काम की हम सबको प्रशंसा करनी

चाहिए। इससे यह मसला आगामी दिनों में जल्दी सुलझने की प्रक्रिया में आ गया है। लेकिन इस समस्या के राजनीतिक शार्टकट से बचने की जरूरत है। लखनऊ बैंच की सबसे बड़ी कमजोरी यही है और इसे सुप्रीम कोर्ट को दुरूस्त करना चाहिए।

बाबरी मसजिद प्रकरण- लखनऊ का सांस्कृतिक समझौता फार्मूला

-जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

आज जब इलाहाबाद उच्चन्यालय की लखनऊ पीठ ने बाबरी मसजिद पर  फैसला सुनाया तो आरंभ में टीवी चैनलों पर भगदड़ मची हुई थी,भयानक भ्रम की स्थिति थी। समझ में नहीं आ रहा था आखिरकार क्या फैसला हुआ ? लेकिन धीरे-धीरे धुंध झटने लगा। बाद में पता चला कि उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ ने बुनियादी तौर पर विवाद में शामिल पक्षों को सांस्कृतिक समझोते का रास्ता दिखाया है। इस फैसले की कानूनी पेचीदगियों को तो वकील अपने हिसाब से देखेंगे। लेकिन एक नागरिक के लिए यह फैसला चैन की सांस लेने का  मौका देता है।
लखनऊ पीठ के फैसले की धुरी है भारत की सामयिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक विविधता और भाईचारा। बाबरी मसजिद का विवाद राजनीतिक-साम्प्रदायिक विवाद है। यह मंदिर-मसजिद का विवाद नहीं है बल्कि एक तरह से विचारधारात्मक विवाद भी है औऱ विचारधारात्मक विवादों पर बुर्जुआ अदालतों में फैसले अन्तर्विरोधी होते हैं।
राम के जन्म को लेकर जिस चीज को आधार बनाया गया है वह कानूनी आधार नहीं है ,वह सांस्कृतिक-राजनीतिक समझौते का आधार है। अदालत के फैसले से राम पैदा नहीं हो सकते और न भगवान के जन्म को तय किया जा सकता है। भगवान अजन्मा है। यह विवाद का विषय है।
मौटे तौर पर जस्टिस एस .यू.खान के फैसले ने आरएसएस को विचारधारात्मक तौर पर करारा झटका दिया है। इस फैसले की पहली महत्वपूर्ण बात यह है कि बाबर ने राममंदिर तोड़कर मस्जिद नहीं बनायी थी। संघ परिवार का प्रौपेगैण्डा इस राय से ध्वस्त होता है। संघ परिवार का सारा प्रचार अभियान इसी आधार पर चला आ रहा था कि बाबर ने राम मंदिर तोड़कर बाबरी मस्जिद बनायी थी। अदालत ने इसे नहीं माना है।
अदालत ने विवादित जमीन पर साझा स्वामित्व को स्वीकार किया है। यानी हिन्दू-मुसलमानों के साझा स्वामित्व को माना है। यानी राममंदिर की मूर्ति जहां रखी है वह वहीं रहेगी और मुसलमानों को एक तिहाई जमीन पर स्वामित्व मिलेगा। संघ परिवार की यह मांग थी कि रामजन्मस्थान पर मसजिद नहीं बननी चाहिए। इस मांग को अदालत ने एकसिरे से खारिज कर दिया है। आज की स्थिति में मंदिर -मसजिद साथ में हो सकते हैं। मुसलमानों को एक तिहाई जमीन का स्वामित्व देकर अदालत ने संघ परिवार की मांग को एकसिरे से खारिज किया है।
संघ परिवार चाहता था कि अयोध्या में कहीं पर भी बाबरी मसजिद नहीं बनायी जाए। उसे दोबारा बनाया जाए तो अयोध्या के बाहर बनाया जाए। वे यह भी चाहते थे कि राम जन्मभूमि की जमीन पर मुसलमानों का कहीं पर भी कोई प्रतीक चिह्न न हो। लखनऊ पीठ ने विवादित जमीन पर मुसलमानों का एक-तिहाई स्वामित्व मानकर संघ परिवार को करारा झटका दिया। वक्फ बोर्ड की पिटीशन कानूनी दायरे के बाहर थी इसलिए खारिज की है।
लखनऊ पीठ के फैसले में सबसे खतरनाक पहलू है आस्था के आधार पर रामजन्म को मानना। निश्चित रूप से आस्था के आधार पर भगवान के जन्म का फैसला करना गलत है। इस आधार पर बाबरी मसजिद की जगह पर राम जन्मभूमि को रेखांकित करना, बेहद खतरनाक फैसला है। इसके आधार पर संघ परिवार आने वाले दिनों में अपने मंदिर मुक्ति अभियान को और तेज कर सकता है और जिन 3000 हजार मसजिदों की उन्होंने सूची बनायी है उनकी जगह वह मंदिर बनाने की मांग पर जोर दे सकता है। इससे काशी विश्वनाथ मंदिर के पास वाली मसजिद और मथुरा के कृष्णजन्मभूमि के पास बनी ईदगाह मसजिद को गिराने या हटाने या हिन्दुओं को सौंपने की मांग जोर पकड़ सकती है।
आस्था के आधार पर जब एकबार हिन्दू मंदिर या हिन्दू देवता की प्राचीनकाल में उपस्थिति को अदालत ने आधार बना लिया है तो फिर इस निर्णय के आदार संघ परिवार कम से कम इन दो मंदिरों के पास बनी मसजिदों को हासिल करने के लिए आंदोलन तेज करेगा। वे हाईकोर्ट में जा सकते हैं अथवा हाईकोर्ट के इस फैसले के आधार पर अपनी अतार्किकता को वैधता प्रदान करने की कोशिश कर सकते हैं।
लखनऊ पीठ के फैसले पर आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने जो बयान दिया है वह निश्चित रूप से महत्वपूर्ण है उन्होंने सभी से शांति बनाए रखने की अपील की है। उन्होंने राम मंदिर निर्माण में सभी से सहयोग मांगा है। लेकिन वे यह नहीं बोले कि उन्हें विवादित जमीन पर मसजिद भी कबूल है। इस प्रसंग में भाजपानेता और सुप्रीम कोर्ट वकील रविशंकर प्रसाद ने जिस तरह वकील की बजाय एक हिन्दू स्वयंसेवक के नाते मीडिया को संबोधित किया उससे यही बात पुष्ट होती है कि वे वकील कम स्वयंसेवक ज्यादा है।

संघ और भाजपा को सांप्रदायिक कहने वालों का मुंह हुआ काला

-धीरेन्द्र प्रताप सिंह

स्वतंत्र भारत में अब तक के सबसे बड़े मुकदमे के तौर पर माने जा रहे राम जन्मभूमि के मालिकाना हक से संबंधित मामले पर 60 साल चली लंबी लड़ाई के बाद आखिरकार आज फैसला आ ही गया। इस फैसले के आने के बाद से ही जहां तथाकथित धर्म निरपेक्ष लोगों का मुंह काला हो गया वहीं राश्ट्र मंदिर के निर्माण के लिए सतत संघर्शषील राष्‍ट्रीय स्वयंसेवक संघ और एकात्म मानववाद की कल्पना को साकार करने की प्रेरणा लेकर राजनीति की गंदी गलियों में उतरी भाजपा की संयत और शिष्ट मर्यादित टिप्पणी ने इनके उपर सांप्रदायिकता का आरोप लगाने वाले लोगों के मुंह पर करारा तमाचा मारा है।

तमाम तथाकथित छद्म धर्मनिरपेक्ष का मुखौटा पहने और लाशों पर राजनीति करने वाले संगठनों और लोगों को गुरूवार को एक साथ दो मोर्चो पर हार का सामना करना पड़ा। एक तो वे शुरू से अयोध्या को राम जन्म भूमि मानने से इंकार करने और इस देश में राम के असतित्व को कल्पना करार देने में जो सक्रियता दिखा रहे थे उसे उच्च न्यायालय ने गलत करार दिया। दूसरे उन लोगों ने एक हफ्ते से पूरे देश को सांप्रदायिक हिंसा में जलाने का जो सपना देख रहे थे उसे आरएसएस और भाजपा ने अपनी संयत टिप्पणी से नाकाम कर दिया। अब इन लोगों की स्थिति खिसियानी बिल्ली खंभा नोचे वाली हो गई है। जिस तरह से पूज्य सरसंघ चालक श्री भागवत जी ने कहा कि इस फैसलों को कोई भी जीत हार में न ले वह निश्चित ही प्रशंसनीय है। इसी तरह भाजपा ने भी इस मामले पर सधी हुई टिप्पणी देकर गंदी राजनीति करने वालों की मनोकामना को निश्फल किया है।

वैसे भी ये देश सदैव सांप्रदायिकता का विरोधी रहा है। इस सनातन हिन्दू देश में प्राचीन काल से सभी धर्मों को समान मानने की परंपरा रही है। लेकिन कभी भी किसी देश के खिलाफ युद्ध न छेड़ने वाले इस देश की संस्कृति को विदेशी आक्रान्ताओं ने तहस नहस किया। चूंकि ये सनातन परंपराओं वाला देश है इसलिए इसमें कट्टरता ज्यादा दिन चलती नहीं। जिसका ज्वलंत उदाहरण है आज का फैसला है।

आज इस फैसले के आने के बाद मुझे अपने दिल्ली कार्यकाल की याद आ गई जब मैं हिन्दुस्थान समाचार के लिए वामपंथी पार्टियों को कवर करता था। एक दिन गोल मार्केट स्थित माकपा मुख्यालय पर माकपा के बड़े नेता सीताराम येचुरी की प्रेस कांफ्रेंस थी। इस कांफ्रेंस में जब सेतुबंध रामेश्‍वरम की बात आई तो सीताराम येचुरी ने कहा कि राम जैसा कोई व्यक्ति इस धरती पर कभी हुआ ही नहीं और न तो उनका कोई अस्‍तित्व रहा। उन्होंने कहा कि राम का नाम मात्र कल्पना है। उनकी ये बात सुनते ही एक बुजुर्ग पत्रकार ने तुरंत जवाब देते हुए कहा कि अरे सीताराम कम से कम तू तो ऐसी अनर्गल बात मत बोल तेरे नाम में तो राम और सीता दोनों का नाम है। उनके इस उत्तर ने सीतराम येचुरी का मुंह काला कर दिया और वे इसका बिना कोई जवाब दिए वहां से निकल लिये। खैर राम इस देश की आस्था के प्राण लोगों की श्रद्धा है। इसलिए जब भी कोई व्यक्ति या संस्था इनके अस्तित्‍व पर प्रश्नचिन्ह लगाएगा उसको मुंह की खानी पड़ेगी।

ऐतिहासिक फैसला या ऐतिहासिक चूक

-धीरेन्द्र प्रताप सिंह

भारत की राष्‍ट्रीय अस्मिता के प्रतीक भगवान श्रीराम चंद्र की जन्म स्थली अयोध्या में एक विदेषी आक्रान्ता द्वारा तोड़ कर बनाई गई बाबरी मस्जिद पर राम मंदिर स्वीकार करने की 60 साल लंबी चली कानूनी कार्रवाई के बाद आखिरकार गुरूवार के दिन फैसला आ ही गया। फैज़ाबाद की अदालत से चलता हुआ ये मामला इलाहाबाद पहुंचा और बाद में इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनउ बेंच के माध्यम से निस्तारित किया गया। ये फैसला न सिर्फ देश के करोड़ो हिन्दुओं के लिए बल्कि देश को विकास की राह पर ले जाने वालों के लिए भी राहत भरा कहा जा सकता है।

गुरूवार को सुनाए अपने फैसले में उच्च न्यायालय की लखनउ खंडपीठ के तीनों माननीय न्यायाधीशों ने एक मत से ये बात स्वीकार की उक्त स्थल पर हिन्दू आस्थ के प्रतीक भगवान श्रीराम का जन्म हुआ था इसलिए उक्त स्थान को हिन्दू मतावलंबियों की पूजा पाठ की हद में रखा जाना आवष्यक है। माननीय न्यायालय का ये फैसला बेहद उचित और तर्क पूर्ण माना जा रहा है। मैं भी माननीय न्यायालय के फैसले का स्वागत करता हूं लेकिन स्वतंत्र अभिव्यक्ति का सांवैधानिक अधिकार होने के नाते मैं कह रहा हूं कि ये मामला भविष्य में एक ऐतिहासिक भूल बनने जा रहा है। जिस तरह से अदालत ने अपने फैसले में दोनों पक्षों या कहे निर्मोही अखाड़ा को भी एक पक्ष मान लिया जाए तो तीनों पक्षों को संतुष्ट करने का प्रयास किया है वह आने वाले दिनों में इस मामले को उलझा कर रख देगा।

चूंकि ये आस्था और विश्वास का मामला है और एक ही जगह पर मंदिर और मस्जिद होने के जो दुष्परिणाम आमतौर पर आते है वे यहां भी प्रभावी भूमिका दिखाएंगे। चूंकी अदालत का मामला है तो इस पर कोई टिप्पणी करना उसकी मानहानि हो सकती है। इसलिए इस पर कोई टिप्पणी करने की बजाय हम भारतीय संसद से और विशेष कर केन्द्र सरकार से इस मामले को हल करने की अपील कर सकते है। अभी भी वक्त है अगर केन्द्र सरकार चाहे इस मामले को गंभीर होने से बचा सकती है। इसके कई रास्ते है। जिनमें से एक तो यही है कि केन्द्र प्रथम राश्ट्रपति श्री राजेन्द्र प्रसाद की तरह इसे देष के बहुसंख्यक हिन्दू समाज की आस्था का विषय मानते हुए हिन्दुओं को सौंप दे या खुद उस स्थान पर राममंदिर का निर्माण कराए।

दूसरा मुस्लिम भाईयों से बातचीत कर इसका समाधान भी तलाश सकती है।

तीसरा जिस तरह से पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने शाहबानों मामले में संसद में कानून बनाकर एक इबारत लिखी थी उसी तरह अयोध्या में राम मंदिर बनाने के लिए संसद में कानून बनाए। यदि उपरोक्त किसी भी प्रक्रिया को अपनाते हुए इस विवाद को हल नहीं किया गया तो निष्चित ही आने वाले समय में दोनों समुदायों में जो जहर फैलेगा उसका असर कई सदियों तक दिखेगा।

‘भगवा’ की आड़ में पनपता अपराध

-निर्मल रानी

इसमें कोई संदेह नहीं है कि भगवा अथवा केसरिया रंग भारतीय संस्कृति के समक्ष अत्यंत सम्‍मानित व पवित्र स्थान रखता है। प्राचीन धर्म ध्वज से लेकर स्वामी विवेकानंद की पोशाक तक तथा भारतीय तिरंगे में इस रंग के शामिल होने से लेकर देश के हजारों प्रतिष्ठित व सम्‍मानित साधु-संतों एवं धर्मगुरुओं के लिबास तक का यही रंग देखा जा सकता है। कभी-कभार हमारे देश की संसद में भी कुछ भगवा प्रेमी सांसद इसी रंग की पोशाक पहने या केसरिया पगड़ी अपने सिरों पर रखे दिखाई देते हैं। वर्तमान दौर में गरीबों, बाल मादूरों तथा मेहनतकशों के अधिकारों की लड़ाई लड़ रहे स्वामी अग्निवेश भी इसी भगवे रंग की पोशाक को प्राथमिकता के आधार पर धारण करते हैं। कुल मिलाकर हम इस निष्कर्ष पर पहुंच सकते हैं कि भगवा अथवा केसरिया रंग का भारतीय जनमानस से लगाव सदियों पूर्व भी था और आज भी है। शायद यही वजह थी कि पिछले दिनों भारत के गृहमंत्री पी चिदंबरम द्वारा अपने एक भाषण में जब ‘भगवा आतंकवाद’ के शब्द का प्रयोग किया गया था उस समय इस विषय पर पूरे देश में हंगामा करने वाला एक वर्ग भगवा रंग को लेकर कुछ भी नकारात्मक अथवा अपमानजनक तर्क सुनना ही नहीं चाहता था।

अब जरा गौर कीजिए कि हमारे ही देशवासी इसी भगवा रंग की पोशाक को धारण कर क्या-क्या गुल खिला रहे हैं और किस प्रकार हमारी संस्कृति व भावनाओं से जुड़े इस पवित्र रंग को बदनाम करने का बीड़ा उठाए हुए हैं। पूरे देश में लाखों बेटिकट साधु, भिखारी अथवा बाबा वेशधारी रेल गाड़ियों पर बेझिझक पूरे देश की यात्रा करते हुए देखे जा सकते हैं। इनका भगवा वस्त्र ही गोया टिकट होने का ‘प्रमाण पत्र’ होता है। यह बेटिकट घुसपैठिए रेल गाड़ियों में टिकट धारक यात्रियों के लिए प्राय: समस्याएं खड़ी करते रहते हैं। आमतौर पर इन्हें रेल के डिब्बे के दरवाजों के पास बैठे या शौचालय के मार्ग में बैठा देखा जा सकता है। प्राय: रेल यात्री इन्हें अपमानित करते हैं तथा इन्हें भला बुरा भी कहते हैं। अक्सर टिकट निरीक्षक अथवा गश्ती पुलिस के लोग भी इन्हें गालियां देते हैं व इनके साथ दुर्व्‍यवहार करते भी देखे जा सकते हैं। परंतु ऐसे लोगों को देखकर तो यही महसूस होता है कि हमारे स्वतंत्र भारत में भगवा वस्त्र धारण करने का अर्थ ही गोया यह हो गया है कि आपसे रेल यात्रा का टिकट कोई पूछेगा ही नहीं।

उसके पश्चात् यही भगवाधारी बेटिकट यात्री किसी न किसी रेलवे स्टेशन पर उतर कर प्लेटफार्म, प्लेटफार्म को जोड़ने वाले रेलवे पुल, विश्रामालय तथा रेलवे स्टेशन के आसपास के क्षेत्रों में कब्‍जा जमाए देखे जा सकते हैं। जुआ, सट्टा, शराबखोरी तथा तमाम किस्म के नशीले द्रव्यों का सेवन तथा खरीद-फरोख्‍त इन्हीं भगवाधारियों के नेटवर्क के बीच पनपता है। परंतु न तो इनके विरुद्ध कोई कार्रवाई होती है न ही इन्हें इस बात के लिए बाध्य किया जाता है कि वे कम से कम भगवा वस्त्र धारण कर ऐसी हरकतों को तो अंजाम न दें।

भगवाधारियों के रेलगाड़ियों में बेटिकट चलने का तो कुछ ऐसा प्रभाव दिखाई देने लगा है कि अब तो तमाम यात्री केवल रेल यात्रा के दौरान ही भगवा वस्त्र धारण करते हैं। और अपनी मंजिल पर पहुंचकर वह प्लेटफार्म से बाहर आते ही उस ‘रेल पास’ रूपी भगवा पौशाक को अपने थैले में डालकर अन्य सामान्य कपड़े धारण कर अपने गंतव्य की ओर प्रस्थान कर जाते हैं। गोया मुफ्तखोर प्रवृति के रेल यात्रियों के लिए भी भगवा वस्त्र एक कवच का काम करता है। लूट-खसोट, चोरी, व्याभिचार जैसे और भी तमाम अपराध इन्हीं के नेटवर्क के अंतर्गत होते रहते हैं। यही भगवाधारी आमतौर पर रेलवे स्टेशनों के करीब पड़ने वाले शराब के ठेकों के ऐसे समर्पित एवं पहले ग्राहक होते हैं जो शराब का ठेका खुलने से पहले ही अंधेरे में आकर ठेके के सामने बैठ जाते हैं। और ठेका खुलते ही सूर्योदय से पूर्व ही यह नशे में धुत होने को ही अपने जीवन की सफलता समझते हैं।

दिल्ली-अमृतसरके मध्य राष्ट्रीय राजमार्ग सं या-1 पर कई दशकों से भगवाधारियों काएकऐसा गिरोह सक्रिय है जो जीप पर सवार होता है।यह गिरोह राजमार्ग पर मिलने वाले किसी पैसे वाले व्यक्ति की पहचान कर अपने एक चेले को उस व्यक्ति के पास भेजते हैं। वह चेला उस व्यक्ति से यह अनुरोध करता है कि जीप में बैठे महाराज जी आपको बुला रहे हैं। जब वह व्यक्ति उनके पास जाता है तो वे सभी भगवाधारी साधुरूपी लोग उस व्यक्ति को भावनात्मक व मानसिक रूप से इस बात के लिए तैयार कर लेते हैं कि वह मंदिर निर्माण, धर्मशाला, भंडारा आदि किसी भी बहाने से अच्छी खासी रंकम उन्हें दे दे। और इस गिरोह के दिनभर के प्रयासों में कई धर्मात्मा उनकी बातों में आ ही जाते हैं। राष्ट्रीय राजमार्ग पर दशकों से चला आ रहा यह सिलसिला आज भी भगवा वस्त्र की आड़ में बदस्तूर जारी है। इसी प्रकार के संगठित गिरोह के लोग गेहूं व धान की कटाई के बाद गांव-गांव जाकर जमींदारों से भी तरह- तरह के झूठ बोलकर धर्म के नाम पर राशन इकट्ठा कर लाते है जिसे बाद में बाजार में बेचकर अपनी जरूरतें पूरी करते हैं। पूरे देश में भगवा कपड़े पहनकर भविष्य बताने, योतिष विद्या का ढोंग करने,सांप दिखाने, चमत्कार दिखाने आदि का नाटक करते हुए तमाम लोगों को देखा जा सकता है। देश के तमाम छोटे व बड़े तीर्थस्थान तो भगवा वस्त्रधारी मुफ्तखोरों से पटे पड़े हैं। यदि ऐसे भगवाधारियों से भगवा वस्त्र अथवा भगवा रंग के विषय में कुछ पूछा जाए या यही पूछा जाए कि आपने इसी विशेष रंग की पोशाक क्यों धारण की हुई है तो उनके पास इस सवाल का कोई उत्तर नहीं होता।

तीर्थ स्थानों पर तमाम ऐसे बुजुर्ग, असहाय, अपाहिज, कमाखोर भगवाधारी लोग दिखाई देते हैं जो अपनी खराब पारिवारिक परिस्थितियों के कारण उन तीर्थ स्थलों पर आकर अपने जीवन का शेष समय बिताने के लिए मजबूर हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि ऐसे असहाय बुजुर्ग दया के पात्र भी हैं। परंतु इन्हीं के मध्य लाखों ऐसे हरामंखोर, आलसी तथा कामचोर लोग भी अपनी घुसपैठ कर चुके हैं जो शारीरिक रूप से पूरी तरह हृष्ट पुष्ट, स्वस्थ तथा मेहनत मादूरी कर अपना पेट पालने की पूरी क्षमता रखते हैं। परंतु भगवा पोशाक धारण करने के बाद मुफ्त में प्राप्त होने वाला रोटी, कपड़ा, नशा, नक़दी तथा रेलवे स्टेशन जैसा सर्व सुविधा संपन्न विशाल नि:शुल्क आशियाना उन्हें मेहनत-मजदूरी के काम करने से रोक देता है। इसी प्रकार के कुछ लोग भगवा वस्त्र पहनकर कभी किसी हाथी की पीठ पर सवार होकर गली-गली यह कहते घूमते हैं कि गणेश जी आपके द्वार पर आए हैं। इस प्रकार आम लोगों को गणेश जी के नाम पर भावनात्मक रूप से ठगकर यह भगवाधारी अपनी जरूरतें पूरी करते हैं। अक्सर कुछ लोग गाय पर कोई चादर डालकर उसे लेकर गली-गली घुमाते हैं तथा गऊ माता के नाम पर पैसे व खाद्य सामग्री इकट्ठा करते फिरते हैं। यह सब कुछ अर्थात् अपराध, झूठ, फ़रेब, मक्कारी, व्याभिचार, नशा, नशीली वस्तओं का व्यापार, भावनात्मक ब्लैकमेलिंग, कामचोरी, हरामखोरी आदि सभी र्दुव्यसनों को भगवा रंग का लिबास अपने आप में आसानी से ढक लेता है।

अत: यदि हमें वास्तव में भगवा रंग के मान-सम्‍मान की रक्षा करनी है तो इसके दुरुपयोग को रोकने की सख्‍त जरूरत है। ऐसे संगठन जो स्वयं को भारतीय संस्कृति का रखवाला या ठेकेदार समझते हैं खासतौर पर वह संगठन जो ‘भगवा आतंकवाद’ जैसे शब्दों को सुनना भी पसंद नहीं करते सर्वप्रथम उन्हीं का यह दायित्व है कि वे भगवा रंग की पोशाक धारण करने वालों के लिए कुछ दिशा निर्देश भी जारी करें। निश्चित रूप से भगवा रंग की आड़ में पनप रहे अपराध व पाखंड को दूर करने के लिए ऐसे प्रयास किए जाने चाहिए जिससे कि हमारे देश की संस्कृति से जुड़े इस रंग का रुतबा हमारे देश के राष्ट्रीय ध्वज में शामिल केसरिया रंग की ही तरह बुलंद रह सके।

रामजन्मभूमि पर अदालत का निर्णय : एक रास्ता या एक मन्ज़िल

-तरुणराज गोस्वामी

रामजन्मभूमि को लेकर साठ सालों से अदालत में चल रहे विवाद पर निर्णय आने के तुरंत बाद जिलानी साहब आकर कहते हैं कि वे सुप्रीम कोर्ट जायेंगे, ये वही जिलानी साहब है जो सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड की ओर से अदालत मेँ तथ्य प्रस्तुत कर रहे थे और कल तक बड़ा ज़ोर लगाकर अदालत के निर्णय के सम्मान की बात कर रहे थे। क्या सम्मान केवल कल तक मीडिया मेँ बयान देने तक ही था। हालाँकि धर्मनिरपेक्ष भारत का संविधान उनको ऐसा करने के लिये कोई रोक नहीँ लगाता, अदालत ने तो निर्णय में कहा भी है कि जो पक्ष असंतुष्ट हो उसके लिये ऊपरी अदालत के दरवाज़े खुले हैँ लेकिन उससे पहले अदालत ने कहा कि तीनों पक्ष तीन महीने की अवधि में बैठकर विवादित भूमि के तीन हिस्से करलें। प्रश्न यही उठता है कि अदालत के पूरे निर्णय का अध्ययन करे बिना ही जिलानी साहब असंतुष्ट क्योँ हो गये? क्या यही किसी अदालत का वास्तविक सम्मान है कि उसके निर्णय के तुरंत के बाद (बिना पूरी जानकारी के) असंतोष जताया जाये?

बहरहाल अदालत ने सर्वसम्मति से यह निर्णय तो दे ही दिया कि अयोध्या की पावन भूमि (जिसे विवादित माना जाता है) ही मर्यादा पुरुषोत्तम राम की जन्मभूमि है और जहां रामलला विराजमान है किसी स्थिति मेँ हटाये नहीं जा सकते। निर्णय के पश्चात कम से कम एक बात तो स्पष्ट हो ही गई कि देश आज बानवे से बहुत आगे निकल आया है। आज भारत का आम आदमी रोज़ गिरती राजनीति के भँवरजाल में उलझा नहीं हाँलाकि राजनेताओं ने तो चैनलोँ पर बार-बार शांति की अपील कर ऐसा जताने की कोशिश की जैसे निर्णय आते ही देश मेँ आग लग जायेगी लेकिन कहीँ कोई अप्रिय घटना नहीँ हुई, यह बार-बार की गई अपीलोँ का परिणाम कतई नहीँ था यह तो बदलती पीढ़ी की बदलती सोच का परिणाम था। ऐसा भी नहीं है कि आज हिन्दू समुदाय भव्य राम मन्दिर का निर्माण नहीं चाहता, बिल्कुल चाहता है लेकिन राजनेताओं द्वारा लाशों पर खड़ा किया मन्दिर नहीं बल्कि वह ऐसा मन्दिर चाहता है जहां पूजा अर्चना करते हुये उसे ऐसा न लगे कि देश का अल्पसंख्यक उसे यह जता रहो कि वह खुद को ठगा हुआ अनुभव करता है।

हाईकोर्ट के निर्णय से एक ओर बात तो स्पष्ट हो ही गई कि– जहाँ रामलला विराजमान, वहाँ रामजन्मभूमि। इससे दशकों से कुछ लोगों के मन मेँ उठ रही इस शंका का तो समाधान हो ही गया कि रामलला यहाँ जन्मे थे? अब तो कम से कम लोगोँ को स्वीकार कर लेना चाहिये कि अयोध्या की यही पावन भूमि श्रीराम की जन्मभूमि है जो सहस्त्रों वर्षों से हिन्दुत्व मेँ विश्वास रखने वाले प्रत्येक हिन्दू के लिये आस्था और विश्वास का मूल रही है, ये वही आस्था है जो तब भी राम के वचन की तरह द्रढ़प्रतिज्ञ थी जब रामसेतु के अस्तित्व को लेकर प्रश्न खड़े किये गये थे और उसी तरह सत्य साबित हुई थी जिस तरह अग्नि परीक्षा में जानकी। आज फ़िर वही आस्था अयोध्या की तरह शाश्वत सिद्ध हुई। (इसी आस्था को लेकर एक नामी चैनल पर चर्चा मेँ भाग लेते हुए एक सज्जन ने फ़िर सवाल किया कि रामजन्मभूमि को लेकर हिन्दुओं की यह आस्था कितने दिन, महीने, वर्ष या दशक पुरानी है? उनको इतिहास फ़िर समझना चाहिये कि यह कम से कम 1400-1500 वर्षों से तो ज्यादा पुरानी है और इस समयावधि का इतिहास का ज्ञान तो उन्हें होना ही चाहिये) अब ये एक बहस का विषय हो सकता है कि इस आस्था का पिछले काफ़ी समय से राजनीतिक दुरुपयोग होता रहा जब कुछ दल इसी आस्था का उपयोग आग की तरह करते रहे तो कुछ दल उस पर अपनी रोटियाँ सेकते रहे, लेकिन यह शाश्वत सत्य है कि आस्था की हमेशा विजय होती है।

यह विडम्बना ही तो थी कि हिन्दुत्व का पुजारी , राम का भक्त न राजनीति का खेल समझता था न कानून के दाँव पेंच, लेकिन सूचना क्रांति के इस युग मेँ सांप्रदायिक तनाव न होना दर्शाता है कि आज आम आदमी काफ़ी समझदार हो गया है बदली हुई परिस्थतियों में विवाद नहीँ चाहता।

फिर भी करोड़ों लोगों के मन में आज भी यह प्रश्न बना हुआ है कि अयोध्या की उस भूमि पर मन्दिर निर्मित होगा कि नहीं जहाँ राम जन्मे थे और होगा तो आखिर कब? जिलानी साहब के तेवरों को देखकर लगता नहीं कि राम भक्त जल्द ही भव्य राम मन्दिर मेँ पुजा कर पायेंगे क्योँकि अभी भी कुछ लोग एक ओर तो अदालत के सम्मान की बात कर रहे हैँ तो दूसरी ओर फ़िर राम को अदालत की तारीख़ों में वनवास देने की कोशिशों में लग गया हैं। ये पूर्वाग्रही और हठी लोग आखिर क्योँ समझना नहीं चाहते कि कुछ सौ वर्षों पूर्व उनके पूर्वज भी राम और रामायण के अनुयायी थे। फिर भी आज जब भारत अधिकांश क्षेत्रों में प्रगति के पथ पर खड़ा है और आशा कर रहा है कि उसका प्रत्येक नागरिक विकास यात्रा मेँ सहभागी बने। तो फ़िर क्यों न सभी मिलकर सांप्रदायिक विद्वेष भुलाते हुए मंदिर निर्माण मेँ बढ़ चढ़कर भाग ले और विश्व के सामने अनेकता मेँ एकता के सूत्र को सिद्ध करे। येन केन प्रकारेण भारत की एकता अखंडता पर चोट पहुँचाने वाले राष्ट्र के शत्रुओं के सामने भी यह एक करारा जवाब होगा और जो आने वाली कई सदियों तक विश्व शांति के लिये एक महान उदाहरण भी। इससे ये लाभ भी होगा कि राजनीति मेँ सांप्रदायिकता और धर्मनिरपेक्षता जैसे शब्दों का शोर तो कम होगा और देशवासी एक दूसरे को अलग नज़र से देख पायेँगे।

कुल मिलाकर कहा जाये तो हिन्दू हो या मुस्लिम सभी को अयोध्या में भव्य राममन्दिर का निर्माण करने की शुरुआत करनी चाहिये और बदलते भारत की बदलती तस्वीर दुनिया के सामने रखनी चाहिये हालांकि फ़िर एक ओर अदालत का दरवाजा देखने की चाह रखने वाले निर्णय से असंतुष्ट रहेंगे ही लेकिन अब महान लोकतन्त्र के बुद्धिजीवियों, कानून के कर्णधारों, समाज के ठेकेदारोँ और राष्ट्रभक्त होने का दावा करने वा लो को ही निर्णय करना है कि अदालत ने अपने आदेश से जिस दिशा में ऊँगली दिखाई है उसे उन्हें रास्ता मानना है या मंज़िल। आखिर रास्ता भी इसी मंज़िल पर पहुँचने वाला होगा क्योँकि रामराज्य में अन्याय नहीं हो सकता।

कन्हैया लाल नंदन जी की स्मृति में लंदन में शोक सभा

दिनांक 26 सितंबर 2010 को लंदन के नेहरू केन्द्र की निदेशक श्रीमती मोनिका मोहता की उपस्थति में यू.के हिंदी समिति द्वारा भारत के प्राख्यात कवि, लेखक एवं पत्रकार डॉ. कन्हैया लाल नंदन जी को भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित की गई। शोक सभा में लंदन के लेखक, कवियों, अध्यापकों एवं गणमान्य नागरिकों, के अलावा हिंदी समिति के सैकड़ों छात्रों ने भी भाग लिया। 

नंदन जी के काव्यपाठ पर एक फिल्म की प्रस्तुति की गई।

हिंदी समिति के अध्यक्ष डॉ. पद्मेश गुप्त ने कहा कि यू.के. के अनेक रचनाकारों को गगनांचल में छाप कर नंदन जी ने प्रवासी हिंदी लेखन को हमेंशा प्रोत्साहित किया है। हिंदी समिति के अनेक योजनाओं में नंदन जी शामिल रहें और हमारी स्मृतियों में वे सदैव जीवित रहेंगे।

यू.के के वरिष्ठ लेखक डॉ. सत्येन्द्र श्रीवास्तव ने कहा कि हिंदी साहित्य के परिवर्तन के दौर में वे श्री नंदन जी के साथ संघर्ष के अंग रहें। नंदन जी ने हिंदी लेखन में अपनी एक अलग शैली बनाई और वे गद्य के जादूगर थें। उनके संघर्ष का हर एक खरोंच उनकी रचनाओं में पाई जाती है।

बी.बी.सी हिंदी सेवा के पूर्व अध्यक्ष श्री कैलाश बुधवार ने नंदन जी के संघर्षशील जीवन को एक मिसाल बताया। उन्होंने कहा कि नंदन जी के अभाव को भरना आसान नहीं है।

पुरवाई की संपादिका श्रीमती उषा राजे सक्सेना ने नंदन जी को बहुअयामी व्यक्तित्व बताते हुए उनके सम्मान में अनेक राजनीतिज्ञों एवं साहित्यकारों द्वारा कही गई बातें प्रस्तुत करते हुए उन्हें याद किया।

लंदन के प्राख्यात कवि श्री सोहन राही जी ने अपने गीत ‘जग में तो कोई बच न पाए माटी के बिछौने से, ये जीवन क्या जीवन होवे एक तेरे न होने से’ के माध्यम से नंदन जी को श्रद्धांजलि दी। 

लंदन के वरिष्ठ पत्रकार श्री विजय राना ने कहा कि नंदन जी साहित्य के विभिन्न पहलुओं के महत्वपूर्ण स्तंभ रहें है और उन्हें एक प्रेरणादायी पत्रकार के रूप में हमेशा बहुत सम्मान के साथ याद किया जाएगा।

डॉ. रिषि अग्रवाल ने कहा नंदन जी अपने साहित्य के माध्यम से हमारे बीच हैं और अमर हैं।

यू.के.हिंदी समिति के श्री वेद मोहला, के.बी.एल सक्सेना, सुरेखा चोपला, अंजलि सुबुराज, शशि वालिया, देविना रिशि, पियूष गोयल, एवं कृति यू.के. की तितिक्षा शाह, अख्तर गोल्ड, मधुशर्मा, मीना कुमारी, और शशि जी ने भी नंदन जी को याद किया।

त्‍वरित टिप्‍पणी: है राम के वजूद पे हिन्दोस्तां को नाज़

-फ़िरदौस ख़ान

है राम के वजूद पे हिन्दोस्तां को नाज़

अहल-ए-नज़र समझते हैं इस को इमाम-ए-हिन्द

लबरेज़ है शराब-ए-हक़ीक़त से जाम-ए-हिन्द

सब फ़सलसफ़ी हैं ख़ित्त-ए-मग़रिब के राम-ए-हिन्द

बाबरी मस्जिद और राम जन्मभूमि मामले में इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच का फ़ैसला आ चुका है। अदालत ने विवादित ज़मीन को तीन हिस्सों में बांटा है। एक हिस्सा हिन्दुओं, दूसरा हिस्सा निर्मोही अखाड़े और तीसरा हिस्सा मुसलमानों को देने के निर्देश दिए गए हैं। न्यायाधीश एसयू ख़ान, न्यायाधीश सुधीर अग्रवाल और न्यायाधीश धर्मवीर शर्मा की खंडपीठ द्वारा दिए गए इस फ़ैसले का इससे बेहतर हल शायद ही कोई और हो सकता था। यह फ़ैसला देश की एकता और अखंडता को बनाए रखने वाला है। इसलिए सभी पक्षों को इसे दिल से क़ुबूल करना चाहिए। हालांकि मुस्लिम पक्ष के वकील इस फ़ैसले के ख़िलाफ़ सुप्रीम कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाने की बात कर रहे हैं। मुसलमानों को चाहिए कि इस मामले को यहीं ख़त्म कर दें और देश और समाज की तरक्क़ी के बारे में सोचें। देश और समाज के हित में सांप्रदायिक सौहार्द्र बढ़ाने के लिए यह एक बेहतरीन मौक़ा है। विवादित ज़मीन पर मंदिर बने या मस्जिद, दोनों ही इबादतगाह हैं। दोनों के लिए ही हमारे मन में श्रद्धा होनी चाहिए।

राम हिन्दुओं के तैंतीस करोड़ देवी-देवताओं में से एक हैं। राम ने अपने पिता के वचन को निभाने के लिए अपना सिंहासन त्यागकर वनवास क़ुबूल कर लिया। मुस्लिम बहुल देश इंडोनेशिया में भी राम को एक आदर्श पुरुष के रूप में देखा जाता है। यह दुनिया में सबसे बड़ी मुस्लिम आबादी वाला देश है। हम जिस धरती पर रहते हैं, राम उसकी संस्कृति के प्रतीक हैं। हमें अपने देश की संस्कृति और सभ्यता का सम्मान करना चाहिए। अदालत के फ़ैसले का सम्मान करते हुए उदारवादी मुसलमानों को आगे आना चाहिए।

रामजन्‍मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद: ना तुम हारे ना हम जीते

-पंकज झा

राम जन्मभूमि बाबरी मस्जिद विवाद पर आया फैसला यूं तो इस मामले का पटाक्षेप नहीं है. एक पक्ष के वकील के अनुसार तीनों जजों ने अपने फैसले में कहा कि विवादित भूमि को तीन हिस्सों में बांटा जाएगा. उसका एक हिस्सा – जहां राम लला की प्रतिमा विराजमान है- हिंदुओं को मंदिर के लिए दिया जाएगा. दूसरा हिस्सा निर्मोही अखाड़ा को दिया जाएगा और तीसरा हिस्सा मस्जिद के लिए सुन्नी वक्फ बोर्ड को दिया जाएगा. कोर्ट ने फिलहाल तीनों को संपूर्ण विवादित जमीन का संयुक्त मालिक बताया है.

तो जैसा कि दुसरे पक्ष ने कहा भी है कि और जैसा की पहले से लोग मान कर चले भी रहे थे कि खुद को पराजित महसूस करने वाला पक्ष आगे अपील भी करेगा ही. हालाकि इस फैसले में किसी के लिए भी विजित जैसा महसूस करने की कोई ज़रूरत नहीं है. हो सकता है दोनों पक्ष पुनः अपील करने के बारे में सोचे. चुकि अभी के फैसले के अनुसार उसी जगह पर मंदिर और मस्जिद दोनों बनाए जाने की गुंजाइश है तो शायद ही किसी पक्ष के लिए यह फैसला अंतिम रूप से मान्य होगा.

मोटे तौर पर न्यायिक व्यवस्था और लोकतांत्रिक प्राणाली में मूलभूत अंतर भी यही है कि जहां कोर्ट से हमेशा दो टुक फैसले सुनाने की अपेक्षा की जाती हैं वही सामान्यतया ‘लोकतंत्र’ सबको खुश करने की बात करता है. संसदीय व्यवस्था में अगर आपकी नीयत सही हो तो सबको साथ लेकर चलने में बुराई भी नहीं है. लेकिन अगर आपने स्वार्थवश किसी तूष्टिकरण का सहारा लिया तब मामला गंभीर हो जाता है. देखा जाय तो उच्च न्यायालय के इस फैसले से इतना तो साबित हो ही गया है कि हिंदू पक्ष का दावा सही था कि सम्बंधित भूमि पर रामलला का अधिकार है. लेकिन जब हम ‘हिंदू पक्ष’ कहते हैं तो मोटे तौर होना तो यह चाहिए था कि यह ‘भारतीय पक्ष’ होता. और मामला हिंदू बनाम मुस्लिम का नहीं बल्कि भारत की गंगा-जामुनी तहजीब बनाम आक्रामक शासकों द्वारा इसको नुकसान पहुचाने के बीच का मामला होता.

प्रसिद्ध लेखक अलबर्ट टायन्वी ने अपने एक चर्चित लेख में ढेर सारे उदाहरणों के द्वारा यह समझाने का प्रयास किया है कि गुलाम रहा कोई राष्ट्र आजादी के बाद सबसे पहला काम यही करता है कि वह बाहरी आक्रान्ताओं द्वारा बनाए किसी भी स्मारक को भंग करें. भले ही देश के सभी नागरिक उसी मज़हब को मानने वाले हों फिर भी राष्ट्र के नाम पर अपना ही उपासना स्थल तोड़े जाने में भी कोई बुराई नहीं है. इस सम्बन्ध में उन्होंने पोलेंड समेत कई देशों का उदाहरण दिया था जहां इसाई मज़हब को मानने के बावजूद लोगों ने आक्रामकों द्वारा बनाए चर्च को स्वयं तोड़ने में देरी नहीं की.

इसी बात के मद्देनज़र भारत की आजादी के बाद सबसे पहले किये जाने वाले कामों में से एक था सोमनाथ में आक्रान्ताओं द्वारा बार-बार लुट कर तबाह किये गए मंदिर के जीर्णोद्धार करने का काम. और उस समय यह किसी एक बनाम दुसरे मज़हब का मामला नहीं था. उसे देश के स्वाभिमान उसके सम्मान से ही जोड़ा गया था. ये तो बुरा हो ‘राजनीति’ का जिसने इसी तरह के एक दुसरे मसले को राजनीति का सबब बना दिया. कई चर्चित फैसले देने के इतिहास वाले इलाहाबाद हाई कोर्ट के लखनऊ पीठ का यह मामले भले ही ‘मंजिल’ नहीं है लेकिन इसे मील का पत्थर तो कहा ही जा सकता है.

लेकिन यह समय न्यायिक फैसले से इतर सोचने का है. दोनों पक्ष चाहे अपील करें. मामला चाहे फिर दशकों के लिए लटक जाय. फिर वर्षों बाद ऐसे ही किसी दिन चाहे कोई नया फैसला आये. तब की सरकार शाहबानो मामले की तरह फिर भी चाहे कोर्ट के ऊपर अपना कोई फैसले लेकर राजनीति करने लगे. इन सब उबाऊ, थकाऊ और उलझाऊ चीज़ों के बाद शायद कभी जाकर ‘ज़मीन’ का फैसला हो पाय. लेकिन असली सवाल तो दिलों के फैसले का है. निश्चित ही सवाल तो आस्था का है.

वास्तव में ‘राम’ इस देश के प्रतीक पुरुष हैं. रहीम, रसखान से लेकर इकबाल तक ने जिस मर्यादा पुरुषोत्तम को भारत का ही पर्याय बता, देश की विविधता भरे तहजीब का गुणगान किया हो अव्वल तो उनको किसी आक्रांता के बरक्स खड़ा कर देना ही मौलिक रूप से गलत है. वास्तव में यह फैसला एक अवसर का रूप ले सकता है अगर सभी पक्ष अभी से थोड़ी समझदारी का परिचय दे कर मामले को न्यायालय से बाहर सुलझा लेने की पहल करे. अब जब विवादित माने जाने वाले स्थल पर राम जन्मभूमि का होना साबित हो ही गया है तब जिद्द के कारण केवल वहां मस्जिद भी बना कर फिर से सदियों के लिए किसी विवाद का नींव रख देने का कोई मतलब नहीं है.

निश्चित ही हर मज़हब के लोगों को अपनी तरह से उपासना करने की आजादी देश का संविधान देता है. सभी बहुसंख्यकों को उनकी इस आज़ादी का सम्मान करना ही चाहिए. लेकिन मुस्लिम पक्षों को यह फैसला एक बार फिर से विचार करने का अवसर देता है कि जिस तरह राम-जन्मभूमि हिंदुओं के लिए सबसे पवित्र आस्था का केन्द्र है वैसा तो अयोध्या उनके लिए नहीं है. बस यही सोचने की चीज़ है. इस अवसर पर मात्र इतना ही कहा जा सकता है कि देश में शांति और सौहार्द बना रहे.

देश के समक्ष उत्पन्न अन्य समस्या, वैश्वीकरण के बाद युवाओं के समक्ष उत्पन्न अन्य चुनौतियां मंदिर और मस्जिद से ज्यादे महत्त्व रखता है. लेकिन चुकि यह मामला काफी महत्त्वपूर्ण हो ही गया है तो अब यही निवेदन किया जा सकता है कि सभी पक्ष इस बार बदली हुई परिस्थिति में सौजन्यता और सद्भाव दिखायें. इस तरह कोई हारेगा नहीं बल्कि देश जीतेगा. देश का संविधान, इसकी अनेकता में एकता की पहचान, राष्ट्र का गौरवमयी इतिहास, ईद की सेवइयां और होली की मिठास मिल बैठ कर खाने वाली संस्कृति की विजय होगी. क्या आप हाथ बढाने को तैयार हैं

जहां राम लला की प्रतिमा विराजमान है, वह जमीन हिंदुओं को मंदिर के लिए दिया जाए: इलाहाबाद उच्‍च न्‍यायालय का ऐतिहासिक फैसला

लखनऊ। इलाहाबाद उच्‍च न्‍यायालय के लखनऊ बेंच ने बाबरी मस्जिद रामजन्मभूमि पर ऐतिहासिक फैसला देते हुए कहा है कि विवादित जमीन को तीन हिस्सों में बांटा जाए।

भाजपा के वरिष्ठ नेता और वरिष्ठ वकील रविशंकर प्रसाद ने बताया कि तीनों जजों ने अपने फैसले में कहा कि विवादित भूमि को तीन हि्स्सों में बांटा जाएगा। उसका एक हिस्सा (जहां राम लला की प्रतिमा विराजमान है हिंदुओं को मंदिर के लिए) दिया जाएगा। दूसरा हिस्सा निर्मोही अखाड़ा को दिया जाएगा और तीसरा हिस्सा मस्जिद के लिए सुन्नी वक्फ बोर्ड को दिया जाएगा। कोर्ट ने फिलहाल तीनों को संपूर्ण विवादित जमीन का संयुक्त मालिक बताया।

इलाहाबाद उच्‍च न्‍यायालय के लखनऊ बेंच की जस्टिस डी. वी. शर्मा, जस्टिस एस. यू. खान और जस्टिस सुधीर अग्रवाल की बेंच ने इस मामले में अपना फैसला कोर्ट नंबर 21 में दोपहर 3.30 बजे से सुनाना शुरू कर दिया। मीडियाकर्मियों को अदालत जाने की अनुमति नहीं दी गई थी। बाद में डीसी ऑफिस में बनाए गए मीडिया सेंटर में मीडियाकर्मियों को तीनों जजों के फैसलों की सिनॉप्सिस दी गई।

यह फैसला बेंच ने बहुमत से दिया। दो जज – जस्टिस एस.यू. खान और जस्टिस सुधीर अग्रवाल – ने कहा कि जमीन को तीन हिस्सों में बांटा जाए। जस्टिस डी.वी. शर्मा की राय थी कि विवादित जमीन को तीन हिस्सों में बांटने की जरूरत नहीं है। वह पूरी जमीन हिंदुओं को देने के पक्ष में थे।

गौरतलब है कि हाईकोर्ट को 24 सितंबर को ही फैसला सुना देना था, लेकिन पूर्व नौकरशाह रमेश चंद्र त्रिपाठी की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने 23 सितंबर को निर्णय एक हफ्ते के लिए टाल दिया था। याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने त्रिपाठी की अर्जी खारिज कर दी। उसके बाद हाई कोर्ट के फैसले सुनाने का रास्ता साफ हुआ।.

अर्से पुराने मुद्दे का दोनों समुदायों के बीच बातचीत से कोई हल नहीं निकल सका। पूर्व प्रधानमंत्रियों- पी. वी. नरसिम्हा राव, विश्वनाथ प्रताप सिंह और चंद्रशेखर ने भी इस मुद्दे के बातचीत से निपटारे की कोशिश की थी, लेकिन कामयाबी नहीं मिली।

हालांकि, उस जमीन पर विवाद तो मध्ययुग से चला आ रहा है लेकिन इसने कानूनी शक्ल वर्ष 1950 में ली। देश में गणतंत्र लागू होने से एक हफ्ते पहले 18 जनवरी 1950 को गोपाल सिंह विशारद ने विवादित स्थल पर रखी गईं मूर्तियों की पूजा का अधिकार देने की मांग करते हुए मुकदमा दायर किया था।

तब से चली आ रही इस कानूनी लड़ाई में बाद में हिन्दुओं और मुसलमानों के प्रतिनिधि के तौर पर अनेक पक्षकार शामिल हुए। अदालत ने इस मुकदमे की सुनवाई के दौरान दोनों पक्षों के सैकड़ों गवाहों का बयान लिया। अदालत में पेश हुए गवाहों में से 58 हिन्दू पक्ष के, जबकि 36 मुस्लिम पक्ष के हैं और उनके बयान 13 हजार पन्नों में दर्ज हुए।

हाई कोर्ट ने इस मामले की सुनवाई करते हुए वर्ष 2003 में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ( एएसआई) से विवादित स्थल के आसपास खुदाई करने के लिए कहा था। इसका मकसद यह पता लगाना था कि मस्जिद बनाए जाने से पहले उस जगह कोई मंदिर था या नहीं। हिंदुओं और मुसलमानों के प्रतिनिधियों की मौजूदगी में हुई खुदाई मार्च में शुरू होकर अगस्त तक चली।

इस विवाद की शुरुआत सदियों पहले सन् 1528 में मुगल शासक बाबर के उस स्थल पर एक मस्जिद बनवाने के साथ हुई थी। हिंदू समुदाय का दावा है कि वह स्थान भगवान राम का जन्मस्थल है और पूर्व में वहां मंदिर था। विवाद को सुलझाने के लिए तत्कालीन ब्रितानी सरकार ने वर्ष 1859 में दोनों समुदायों के पूजा स्थलों के बीच बाड़ लगा दी थी। इमारत के अंदर के हिस्से को मुसलमानों और बाहरी भाग को हिन्दुओं के इस्तेमाल के लिए निर्धारित किया गया था। यह व्यवस्था वर्ष 1949 में मस्जिद के अंदर भगवान राम की मूर्ति रखे जाने तक चलती रही।

उसके बाद प्रशासन ने उस परिसर को विवादित स्थल घोषित करके उसके दरवाजे पर ताला लगवा दिया था। उसके 37 साल बाद एक याचिका पर वर्ष 1986 में फैजाबाद के तत्कालीन जिला जज ने वह ताला खुलवा दिया था

समय गुजरने के साथ इस मामले ने राजनीतिक रंग ले लिया। वर्ष 1990 में वरिष्ठ भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी ने गुजरात के सोमनाथ मंदिर से अयोध्या के लिए एक रथयात्रा निकाली, मगर उन्हें तब बिहार में ही गिरफ्तार कर लिया गया था। केंद्र में उस वक्त विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार थी और उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव के नेतृत्व में जनता दल की सरकार थी। 31 अक्टूबर 1990 को बड़ी संख्या में राम मंदिर समर्थक आंदोलनकारी अयोध्या में आ जुटे और पहली बार इस मुद्दे को लेकर तनाव, संघर्ष और हिंसा की घटनाएं हुईं।

सिलसिला आगे बढ़ा और 6 दिसम्बर 1992 को कार सेवा करने के लिए जुटी लाखों लोगों की उन्मादी भीड़ ने वीएचपी, शिव सेना और बीजेपी के वरिष्ठ नेताओं की मौजूदगी में बाबरी मस्जिद को ढहा दिया। प्रतिक्रिया में प्रदेश और देश के कई भागों में हिंसा हुई, जिसमें लगभग दो हजार लोगों की जान गई। उस समय उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह के नेतृत्व में बीजेपी की सरकार थी और केंद्र में पी. वी. नरसिम्हा राव की अगुवाई वाली कांग्रेस की सरकार थी।

हालांकि, इस बार अदालत का फैसला आने के समय वर्ष 1990 व 1992 की तरह कोई आंदोलन नहीं चल रहा था, बावजूद इसके सुरक्षा को लेकर सरकार की सख्त व्यवस्था के पीछे कहीं न कहीं उन मौकों पर पैदा हुई कठिन परिस्थितियों की याद से उपजी आशंका थी।

अयोध्या के विवादित स्थल पर स्वामित्व संबंधी पहला मुकदमा वर्ष 1950 में गोपाल सिंह विशारद की तरफ से दाखिल किया गया , जिसमें उन्होंने वहां रामलला की पूजा जारी रखने की अनुमति मांगी थी। दूसरा मुकदमा इसी साल 1950 में ही परमहंस रामचंद्र दास की तरफ से दाखिल किया गया , जिसे बाद में उन्होंने वापस ले लिया। तीसरा मुकदमा 1959 में निर्मोही अखाडे़ की तरफ से दाखिल किया गया, जिसमें विवादित स्थल को निर्मोही अखाडे़ को सौंप देने की मांग की गई थी। चौथा मुकदमा 1961 में उत्तर प्रदेश सुन्नी सेंट्रल बोर्ड की तरफ से दाखिल हुआ और पांचवां मुकदमा भगवान श्रीरामलला विराजमान की तरफ से वर्ष 1989 में दाखिल किया गया। वर्ष 1989 में उत्तर प्रदेश के तत्कालीन महाधिवक्ता की अर्जी पर चारों मुकदमे इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ बेंच में स्थानांतरित कर दिए गए थे।

भारत की आत्मा है हिन्दू-मुस्लिम सांस्कृतिक एकता

‘साझा संस्कृति’ का एक प्रमुख तत्व है- ‘हिंदू-मुस्लिम सद्भाव’ तथा संस्कृति में हिंदू-मुस्लिम संस्कृतियों का एक-दूसरे में घुल-मिल जाना और इसी आत्मसातीकरण की दुहरी प्रक्रिया में भारतीय संस्कृति की आत्मा का निर्माण हुआ है। ‘साझा संस्कृति’ की अवधारणा का यह केंद्रीय बिंदु है। ‘साझा संस्कृति’ का मतलब ‘हिंदू-मुस्लिम एकता’ भर नहीं है बल्कि इसे बृहत्तर अर्थों में ग्रहण किया जाना चाहिए। भारतीय ज्ञान-विज्ञान, रहन-सहन, खान-पान, ललितकलाएं आदि सभी में ‘साझा संस्कृति’ की परंपरा घुली-मिली है। सांप्रदायिक विचारधारा साझा संस्कृति का मुखर विरोध करती है, इसके पीछे मूल मकसद है भारतीय संस्कृति की आत्मा की ही हत्या कर देना।

भारतीय संस्कृति में से मुस्लिम अवदान या इस्लाम के अवदान को निकाल देने का मतलब है देश को सांस्कृतिक रूप से खत्म कर देना। आधुनिक दौर में फासिज्म ही एक मात्र ऐसी वियारधारा है जो संस्कृति को खत्म करती है, बर्बरता को स्थापित करती है। यूरोप में फासिस्ट विचारधारा को जैसा आधार एवं अवसर संस्कृति पर प्रत्यक्ष हमला करने का मिला था, अगर वैसा अवसर हमारे यहां सांप्रदायिकता को मिल जाए तो वह उसी भूमिका को अदा करेगी।

बाबरी मस्जिद प्रकरण के दौरान मुस्लिम विरोधी उन्माद को सबने देखा है। लोकतांत्रिक प्रक्रिया में सांप्रदायिक शक्तियों का चुनाव जीतकर सत्तारूढ़ हो जाना कोई बड़ी बात नहीं है। हिटलर भी लोकतंत्र के वोटों से ही आया था। मूल बात है सांप्रदायिक विचारधारा, यह विचारधारा फासिज्म का भारतीय प्रतिरूप है। इसे सांप्रदायिक दंगों, सांप्रदायिक दलों मात्र में सीमित करके नहीं देखना चाहिए बल्कि बृहत्तर विचारधारात्मक परिप्रेक्ष्य में रखकर देखा जाना चाहिए।

सांप्रदायिक विचारधारा ने पिछले कुछ वर्षों में अपना जनता से सीधे संवाद बनाया है। जबकि, धर्मनिरपेक्ष विचारधारा अभी जनता में पूरी तरह पहुंची नहीं है। साझा संस्कृति के खंडित हो जाने की जो लोग बात करते हैं, वे संस्कृति को बहुत सीमित अर्थों में ग्रहण करते हैं, जबकि साझा संस्कृति हमारी सांस्कृतिक आत्मा में समा चुकी है। उसे आसानी से नष्ट करना बेहद मुश्किल है। साझा संस्कृति पर हमले की बृहत्तर योजना के तहत ही मुसलमानों को देश से बाहर चले जाने की बात उठाई गई है। इस्लाम धर्म एवं मुसलमानों के अवदान को नकारा जा रहा है। अभी इस अवदान को नकारा जा रहा है। कालांतर में सांप्रदायिक विचारधारा देश में सत्तारूढ़ होने में सफल हो जाए तो वह उन सभी बहुमूल्य तत्वों को चुन-चुनकर नष्ट भी करेगी, जिनका किसी भी रूप में इस्लाम या मुसलमान से कोई नाता रहा हो। क्या हम साझा संस्कृति में से उन तत्वों को निकाल सकते हैं जिनके निर्माण में मुसलमानों एवं इस्लाम धर्म की निर्णायक एवं आविष्कारक की भूमिका रही है। उन आविष्कारों को देश की विरासत से निकालने का मतलब होगा, बर्बरता के युग में लौटना दूसरी बात यह कि क्या साझा संस्कृति के तत्व पूरी तरह खंडित हो गए हैं, या नकारा हो गए हैं?

साझा संस्कृति के अनेक महत्वपूर्ण तत्व आज भी जिंदा हैं और जब तक सभ्यता रहेगी तब तक जिंदा रहेंगे। ये तत्व साझा संस्कृति की धुरी हैं। वे तत्व क्या हैं-

1. सूफी संत परंपरा एवं सूफी साहित्य हमारी साहित्यिक परंपरा का अभिन्न अंग हैं। ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती से लेकर मलिक मुहम्मद जायसी तक सभी सूफी संतों एवं कवियों की भारतीय संस्कृति में जुडे हैं और वे घुल-मिल गए हैं। सूफी संतों-कवियों का प्रेममार्गी साहित्य हमारी साझा संस्कृति का स्फटिक है।

2. हिंदी साहित्य का पहला कवि अमीर खुसरो हमारा साहित्यिक पूर्वज है और साझा संस्कृति का जनक भी। अमीर खुसरो को बहिष्कृत कर देंगे तो हम साहित्यिक अनाथ हो जाएंगे ? हिंदी साहित्य के लिए अमीर खुसरो वैसे ही आवश्यक है जैसे कि मनुष्य के लिए वायु।

3. साझा संस्कृति में शामिल इस्लाम एवं मुस्लिम अवदान को खारिज कर देंगे तो हमारे पास बचेगा क्या? यह सच है कि भारत में कागज एवं बारूद के आविष्कारक मुसलमान थे, आज ये दोनों ही वस्तुएं देश की सुरक्षा एवं ज्ञान के लिए आवश्यक हैं। क्या साझा संस्कृति की सर्जना से कागज एवं बारूद को बहिष्कृत किया जा सकता है? क्या आधुनिक जीवन में यह संभव है?

4. मुसलमानों ने ही मीनाकारी एवं बीदरी का काम शुरू किया। धातुओं पर कलई करके चमक लाने के आविष्कारक वही थे। यह कला ईरान से भारत आई। मुगल राजकुमारों ने ही कपड़े पर कढ़ाई एवं जरी की असंख्य डिजाइनों का आविष्कार किया। इत्रों की खोज की। आज हम सबके जीवन में ये चीजें घुल-मिल गई हैं।

5. साझा संस्कृति के जनक अमीर खुसरो ने ही कव्वाली, तराना का श्रीगणेश किया था। जिलुफ, सरपदा, साजगीरी जैसे रागों को जन्म दिया। अमीर खुसरो ने नायक गोपाल के साथ मिलकर ही सितार एवं तबला का आविष्कार किया। क्या सितार और तबला को बहिष्कृत कर सकते हैं?

6. साझा संस्कृति हिंदू-मुसलमान का शारीरिक सहमेल एवं एकता का मोर्चा मात्र नहीं है बल्कि इससे बढ़कर है। वह एक विचारधारात्मक शक्ति है। हिंदू-मुस्लिम संस्कृति के सहमिलन के कारण ही अनेक अरबी एवं फारसी राग भारतीय संस्कृति में घुल-मिल गए हैं। वे साझा संस्कृति के ही अंग हैं। इनमें कुछ हैं-जिलुक, नौरोज, जांगुला, इराक, यमन, हुसैनी, जिला दरबारी, होज, खमाज ये सभी जनता एवं राजा दोनों में ही लोकप्रिय रहे हैं। भारतीय संगीत की ध्रुपद परंपरा मरणोन्मुखथी पर मुगल दरबारों के संरक्षण के कारण ही बच पाई जिसे कालांतर में तानसेन ने चरमोत्कर्ष पर पहुंचाया।

7. जौनपुर के सुल्तान हुसैन ने प्रसिद्ध राग हुसैनी, कान्हडा और तोड़ी का आविष्कार किया था। उसके दरबार में हिंदू और मुसलमान दोनों समुदाय के विद्वान थे जिनमें-नायक बख्श, बैजू (बावरा), पांडवी, लोहुंग, जुजूं, ढेंढी और डालू के नाम प्रमुख हैं। अकबर के नवरत्नों में तानसेन सर्वोपरि था।

8. जहांगीर के दरबार में चतरखा, पार्विजाद, जहांगीर दाद, खुर्रम दाद, मक्कू, हमजान और विलास खां (तानसेन का बेटा) प्रमुख थे, जिनका संगीत की साझा परंपरा बनाने में बड़ा योगदान है।

9. मोहम्मद शाह रंगीला ने नादिरशाह के आक्रमण के बावजूद अदारंग, सदारंगा और शोरी आदि के जरिए संगीत की परंपरा को सुरक्षित रखा जिसमें सदारंगा ने ख्याल का आविष्कार किया। हालांकि इसके साथ हुसैन शाह सरकी को भी जोड़ा जाता है। शोरी ने पंजाबी टप्पा को दरबारी राग में रूपांतरित किया। इन सबके अलावा रेख्ता, कौल, तराना, तख्त गजल, कलबना, मर्सिया और सोज के भी गायक थे। वजीर खां ख्याली, फिदा हुसैन सरोदिया, मुहम्मद अली खां रूबाइया को क्या हम साझा संस्कृति से काट सकते हैं? इससे भी बड़ी बात यह कि क्या संस्कृति में संगीत आता है या नहीं? यदि हां तो फिर संगीत परंपरा की उपेक्षा क्यों? क्या यह हमारे संकीर्ण नजरिए का द्योतक नहीं हैं?

10. मुस्लिम संगीतकारों ने कुछ प्रमुख वाद्य यंत्रों का भी आविष्कार किया था। जिनमें कुछ हैं-सारंगी, दिलरूबा, तौस, सितार, रूबाब, सुरबीन, सुर सिंगार, तबला और अलगोजा। मुसलमानों की मदद से ही शहनाई, उन्स (रोशन चौकी) और नौबत (नगाड़ा) का आविष्कार हुआ था। तारों को झंकृत करने वाली मिजराब, मुस्लिम खोज का ही परिणाम है। क्या संगीत की इतनी लंबी परंपरा एवं अवदान को भारतीय संस्कृति और साझा संस्कृति से निकालकर हम अपने समाज को बर्बरता के युग में नहीं ले जाएंगे? संगीत हमारी साझा संस्कृति का बहुमूल्य रत्न है, वह हमारे दिलों को जोड़ता है हमें और ज्यादा मानवीय बनाता है। संगीत की परंपरा में हिंदू मुसलमान का और मुसलमान हिंदू का शिष्य बनता रहा है और दोनों अपने गुरू को देवता की तरह मान्यता देते रहे हैं।

11. ‘साझा संस्कृति’ का यह दायरा संगीत तक ही नहीं है बल्कि चित्रकला एवं स्थापत्य इसके प्रमुख रूप हैं। सांप्रदायिक विचारधारा ने बाबरी मस्जिद प्रकरण के संदर्भ में साझा संस्कृति की धरोहर ऐतिहासिक पुरातात्विक निधि को ही अपना निशाना बनाया है और इसी तरह की 3,000 मस्जिदें हैं जिनको गिराकर वे मंदिर बनाना चाहते हैं। यूरोप में फासिज्म ने सत्ता पर काबिज होने के बाद संस्कृति को नष्ट किया था। सांप्रदायिक शक्तियां जनता के नाम पर नीचे से दबाव डालकर ऐसा कर रही हैं। यह अचानक नहीं है कि वे मुगलकालीन स्थापत्य को नष्ट करना चाहती हैं बल्कि यह सोची-समझी योजना का हिस्सा है। इस बार स्थापत्य है, अगली बार समूची संस्कृति होगी। अत: इस रणनीति को विफल करना साझा संस्कृति के पक्षधरों की सबसे बड़ी जरूरत है।

12. साझा संस्कृति के एक अन्य तत्व चित्रकला को हम लोग अभी भी भूले नहीं है। चित्रकला में मुगलशैली का अवदान बेमिसाल है और गर्व की वस्तु है। मुगलदरबारों में यह अमूमन होता था कि अगर मुस्लिम चित्रकार ने खाका बनाया है तो हिंदू चित्रकार ने रंग भरे हैं। अकबरनामा में आदम खां के प्राणदंड वाले चित्र का खाका मिस्कीं ने खींचा, पर रंग शंकर ने भरे थे। एक दूसरे चित्र का खाका मिस्कीं ने खींचा रंग सरवन ने भरे, चेहरानामी तीसरे चित्रकार ने किया और सूरतें माधो ने बनाईं।

मुगल शैली का भारतीय चित्रकला पर प्रभुत्व ढाई सौ साल रहा। इस बीच हजारों चित्र बने। दरबारों में सैकड़ों चित्रकारों को संरक्षण मिलता था। स्वयं अबुल फजल ने सौ चित्रकारों का उल्लेख किया है जिनमें सत्रह प्रधान चित्रकार थे, जिनके चित्रों पर हस्ताक्षर मिलते हैं। 1600 ई. में तैयार की गई हस्तलिपि वाकियाते बाबरी में 22 चित्रकारों के हस्ताक्षर हैं। महत्वपूर्ण बात यह है कि इनमें हिंदू चित्रकार अधिक हैं। अबुल फजल ने जिन 17 कलाकार-चित्रकारों का जिक्र किया है, उनमें मात्र चार मुसलमान हैं और तेरह हिंदू हैं। इसी तरह रज्मनामा के हस्ताक्षरों में 21 नाम हिंदुओं के हैं, सात मुसलमानों के हैं। मुगलशैली का राजपूत शैली एवं दकनी शैली पर भी गहरा प्रभाव पड़ा। क्या आज हम मुगल शैली के प्रभाव को साझा संस्कृति से बहिष्कृत कर सकते हैं? क्या चित्रकला की परंपरा इस अवदान को भूल सकती है? चित्रकला को मुगल शैली की बहुत बड़ी संपदा ब्रिटिश साम्राज्यवादी लूटकर ले गए, पर कला इतिहास की पुस्तकों में इस परंपरा का विस्तृत वर्णन मिलता है। बेहतर होता कि भारत के शासक वह कलाकृतियां किसी भी रूप में वापस लाने का प्रयास करते।

13. मुगलों के अवदान के कारण ही भारतीय पहनावे में भारी परिवर्तन आया। यहां तक कि शिवाजी और महाराणा प्रताप तक भव्य मुगल पोशाकें पहनते थे। भारतीय पोशाक अचकन और पजामा मुगलों की देन है। तुर्क, पठान और मुगलों द्वारा प्रचलित जुराब और मोजा, जोरा और जाया, कुर्त्ता और कमीज,ऐचा, चोगा और मिर्जई भारतीय वस्त्र परंपरा का अभिन्न अंग है।

14. भारतीय जीवन शैली में हिंदू वधू को मुसलमानों का सबसे महत्वपूर्ण उपहार है नथ। आज नथ हिंदू औरत की सुंदरता का प्रतीक है। इसके आविष्कारक मुसलमान ही थे। मुगलों ने ही हिंदू दूल्हें के सिर पर सेहरा और मौर बांधा। सबसे अद्भूत बात है ‘रोटी’ का भारतीय शब्द-भंडार में समा जाना, ‘रोटी’ (फुलका या चपाती) शब्द तुर्की शब्द ‘रोती’ का सहजिया है। जिस पर रोटी सेंकते हैं वह होता है ‘तवा’ यह भी मुगलों की ही देन है। क्या ये सब ‘साझा संस्कृति’ में आज भी बरकरार नहीं हैं? तब ‘कंपोजिट कल्चर’ के खत्म हो जाने की बात बेबुनियाद है। वह कंपोजिट कल्चर खत्म हुई है जिसे बुर्जुआजी नेताओं एवं नेहरू ने विशेष रूप से उछाला था और यह बुर्जुआजी की तात्कालिक रणनीति से उपजी इकहरी धारणा थी।

15. उर्दू साहित्य की परंपरा एवं अवदान को सभी जानते हैं जिसे मैं दोहराना नहीं चाहता। सांप्रदायिक विचारधारा का साझा संस्कृति पर किया गया वैचारिक हमला वस्तुत: हमें संस्कृतिहीन एवं अमानवीय दिशा में ले जाने की एक कोशिश भर है। इस बार हमला स्थापत्य पर है, सन् 1977-78 के वर्षों में इतिहास की पुस्तकों पर था। विशेषकर उन पुस्तकों पर जो सांप्रदायिक इतिहास लेखन के बजाय वैज्ञानिक इतिहास लेखन पर बल देती थीं। साझा संस्कृति को अगर कोई खतरा है तो सांप्रदायिक विचारधारा और राज्य की निष्क्रिय-कमजोर धर्मनिरपेक्षता से जिसका सांप्रदायिक संगठन लाभ उठा रहे हैं।

बुर्जुआ विचारकों एवं दलों ने साझा संस्कृति पर होने वाले हमलों को कानून एवं व्यवस्था का मसला बना दिया है, वह इस हमले की विचारधारा से टकराना नहीं चाहते और न ही साझा संस्कृति का संवर्धन करना चाहते हैं क्योंकि बुर्जुआ मूलरूप से संस्कृति का शत्रु होता है और मासकल्चर का संवर्द्धक होता है। क्लासिक रचनाओं और उस युग के अवदान को वह नापसंद करता है। उनसे घृणा करता है, इसलिए वह कभी भी साझा संस्कृति का रक्षक भी नहीं हो सकता। विभिन्न कलारूपों एवं उर्दू भाषा के प्रति उसका विद्वेषभाव जग जाहिर है। अत: नेहरू की तर्ज पर साझा संस्कृति न तो समझी जा सकती है, न उसका संवर्धन संभव है। साझा संस्कृति की शक्ति, सीमा एवं संभावनाएं मार्क्सीय दृष्टि से ही समझी जा सकती हैं।

अचानक सभी को “न्यायालय के सम्मान”(?) की चिंता क्यों सताने लगी है?…

-सुरेश चिपलूनकर

पिछले एक-दो महीने से सभी लोगों ने तमाम चैनलों के एंकरों को गला फ़ाड़ते, पैनलिस्ट बने बैठे फ़र्जी बुद्धिजीवियों को बकबकाते और अखबारों के पन्ने रंगे देखे होंगे कि अयोध्या के मामले में फ़ैसला आने वाला है हमें “न्यायालय के निर्णय का सम्मान”(?) करना चाहिये। चारों तरफ़ भारी शोर है, शान्ति बनाये रखो… गंगा-जमनी संस्कृति… अमन के लिये उठे हाथ… सुरक्षा व्यवस्था मजबूत… भौं-भौं-भौं-भौं-भौं-भौं… ब्ला-ब्ला-ब्ला-ब्ला-ब्ला-ब्ला… आदि-आदि। निश्चित ही सभी के कान पक चुके होंगे अयोध्या-अयोध्या सुनकर, मीडिया और सेकुलरों ने सफ़लतापूर्वक एक जबरदस्त भय और आशंका का माहौल रच दिया है कि (पहले 24 सितम्बर) अब 30 सितम्बर को पता नहीं क्या होगा? आम आदमी जो पहले ही महंगाई से परेशान है, उसने कमर टूटने के बावजूद अपने घर पर खाने-पीने के आईटमों को स्टॉक कर लिया।

प्रधानमंत्री की तरफ़ से पूरे-पूरे पेज के विज्ञापन छपवाये जा रहे हैं कि “यह अन्तिम निर्णय नहीं है…”, “न्यायालय के निर्णय का पालन करना हमारा संवैधानिक और नैतिक कर्तव्य है”… “उच्चतम न्यायालय के रास्ते सभी के लिये खुले हैं…” आदि टाइप की बड़ी आदर्शवादी लफ़्फ़ाजियाँ हाँकी जा रही हैं, मानो न्यायालय न हुआ, पवित्रता भरी गौमूर्ति हो गई और देश के इतिहास में न्यायालय से सभी निर्णयों-निर्देशों का पालन हुआ ही हो…

प्रणब मुखर्जी और दिग्विजय सिंह जैसे अनुभवी नेता से लेकर “बुरी तरह के अनुभवहीन” मनीष तिवारी तक सभी हमें समझाने में लगे हुए हैं कि राम मन्दिर मामले के सिर्फ़ दो ही हल हैं, पहला – दोनों पक्ष आपस में बैठकर समझौता कर लें, दूसरा – सभी पक्ष न्यायालय के निर्णय का सम्मान करें, तीसरा रास्ता कोई नहीं है। यानी संसद जो देश की सर्वोच्च शक्तिशाली संस्था है वह “बेकार” है, संसद कुछ नहीं कर सकती, वहाँ बैठे 540 सांसद इस संवेदनशील मामले को हल करने के लिये कुछ नहीं कर सकते। यह सारी कवायद हिन्दुओं को समझा-बुझाकर मूर्ख बनाने और मामले को अगले और 50 साल तक लटकाने की भौण्डी साजिश है। क्योंकि शाहबानो के मामलेमें हम देख चुके हैं कि किस तरह संसद ने उच्चतम न्यायालय को लतियाया था, और वह कदम न तो पहला था और न ही आखिरी…।

अरुण शौरी जी ने 1992 में एक लेख लिखा था और उसमें बताया था कि किस तरह से देश की न्यायपालिका को अपने फ़ायदे के लिये नेताओं और सेकुलरों द्वारा जब-तब लताड़ा जा चुका है – गिनना शुरु कीजिये…

एक- यदि हम अधिक पीछे न जायें तो जून 1975 में इलाहाबाद उच्‍च न्‍यायालय ने श्रीमती गांधी को चुनाव में भ्रष्‍ट आचरण का दोषी पाकर छह सालों के लिए चुनाव लड़ने के लिए अयोग्‍य ठहरा दिया था। न्यायालय के इस निर्णय के खिलाफ “प्रायोजित प्रदर्शन” करवाये गये। जज का पुतला जलाया गया। श्रीमती गांधी ने सर्वोच्‍च न्‍यायालय में फैसले के खिलाफ अपील की। उनके वकील ने न्‍यायालय से कहा, ‘’सारा देश उनके (श्रीमती गांधी के) साथ है। उच्‍च न्‍यायालय के निर्णय पर ‘स्‍टे’ नहीं दिया गया तो इसके गंभीर परिणाम होंगे।” सर्वोच्‍च न्‍यायालय ने सशर्त ‘स्‍टे’ दिया। देश में आपात स्थिति लागू कर दी गई, हजारों लोगों को जेलों में बंद कर दिया गया। चुनाव-कानूनों में इस प्रकार परिवर्तन किया गया कि जिन मुद्दों पर श्रीमती गांधी को भ्रष्‍ट-आचरण का दोषी पाया गया था वे आपत्तिजनक नहीं माने गये, वह भी पूर्व-प्रभाव के साथ। कहा गया कि तकनीकी कारणों से जनादेश का उल्‍लंघन नहीं किया जा सकता। “तथाकथित प्रगतिशील” लोगों ने इसकी जय-जयकार की, उस समय किसी को न्यायपालिका के सम्मान की याद नहीं आई थी।

दो- कई वर्षों की मुकदमेबाजी तथा नीचे के न्‍यायालयों के कई आदेशों के बाद आखिरकार 1983 में सर्वोच्‍च न्‍यायालय ने आदेश दिया कि वाराणसी में शिया-कब्रगाह में सुन्नियों की दो कब्रें हटा दी जायें। उत्तर प्रदेश के सुन्नियों ने इस निर्णय पर बवाल खड़ा कर दिया (जैसा कि वे हमेशा से करते आये हैं)। उत्तर प्रदेश की सरकार ने कहा कि न्यायालय का आदेश लागू करवाने पर राज्य की शांति, व्यवस्था को खतरा पैदा हो जायेगा। सर्वोच्च न्यायालय ने अपने ही आदेश के कार्यान्वयन पर दस साल की रोक लगा दी। लेकिन संविधान के किसी “हिमायती”(?) ने जबान नहीं खोली।

तीन- 1986 में सर्वोच्च न्यायालय ने घोषित किया कि, जिस मुस्लिम पति ने चालीस साल के बाद अपनी लाचार और बूढ़ी पत्नी को छोड़ दिया है, उसे पत्नी को गुजारा भत्ता देना चाहिये। इसके खिलाफ भावनाएँ भड़काई गईं। सरकार ने डर कर संविधान इस प्रकार बदल दिया कि न्यायालय का फैसला प्रभावहीन हो गया। राजीव भक्तों ने कहा कि यदि “ऐसा नहीं करते तो मुसलमान हथियार उठा लेते”। उस समय सभी सेकुलरवादियों ने वाह-वाह की, सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय को जूते लगाने का यह सबसे प्रसिद्ध मामला है।

चार-अक्तूबर 1990 में जब वी.पी.सिंह ने मण्डल को उछाला तो उनसे पूछा गया कि यदि न्यायालयों ने आरक्षण-वृद्धि पर रोक लगा दी तो क्या होगा? उन्होंने घोषणा की- हम इस बाधा को हटा देंगे, यानी संसद और विधानसभाओं में बहुमत के आधार पर न्यायालय के निर्णय को धक्का देकर गिरा देंगे, “प्रगतिशील”(?) लोगों ने उनकी पीठ ठोकी… न्यायालय के सम्मान की कविताएं गाने वाले दुबककर बैठे रहे…

पांच- 1991 में सर्वोच्च न्यायालय ने कावेरी जल विवाद पर अपना फैसला सुनाया-
“न्यायाधिकरण के आदेश मानने जरूरी हैं” परन्तु सरकार ने आदेश लागू नहीं करवाये। कभी कहा गया कर्नाटक जल उठेगा तो कभी कहा गया तमिलनाडु में आग लग जायेगीन्यायपालिका के सम्मान की बात तो कभी किसी ने नहीं की?

छह- राज्यसभा में पूछे गये एक सवाल- कि रेल विभाग की कितनी जमीन पर लोगों ने अवैध कब्जा जमाया हुआ है? रेल राज्य मंत्री ने लिखित उत्तर में स्वीकार किया कि रेल्वे की 17 हजार एकड़ भूमि पर अवैध कब्जा है तथा न्यायालयों के विभिन्न आदेशों के बावजूद यह जमीन छुड़ाई नहीं जा सकी है क्योंकि गैरकानूनी ढंग से हड़पी गई जमीन को खाली कराने से “शांति भंग होने का खतरा”(?) उत्पन्न हो जायेगा… किसी सेकुलर ने, किसी वामपंथी ने, कभी नहीं पूछा कि “न्यायालय का सम्मान” किस चिड़िया का नाम है, और जो हरामखोर सरकारी ज़मीन दबाये बैठे हैं उन्हें कब हटाया जायेगा?

सात अफ़ज़ल गुरु को सर्वोच्च न्यायालय ने फ़ाँसी की सजा कब की सुना दी है, उसके बाद दिल्ली की सरकार (ज़ाहिर है कांग्रेसी) चार साल तक अफ़ज़ल गुरु की फ़ाइल दबाये बैठी रही, अब प्रतिभा पाटिल दबाये बैठी हैं… सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय और सम्मान(?) गया तेल लेने।

आठलाखों टन अनाज सरकारी गोदामों में सड़ रहा है, शरद पवार बयानों से महंगाई बढ़ाये जा रहे हैं, कृषि की बजाय क्रिकेट पर अधिक ध्यान है। सर्वोच्च न्यायालय ने आदेश दिया कि अनाज गरीबों में बाँट दो, लेकिन IMF और विश्व बैंक के “प्रवक्ता” मनमोहन सिंह ने कहा कि “…नहीं बाँट सकते, जो उखाड़ना हो उखाड़ लो… हमारे मामले में दखल मत दो”। कोई बतायेगा किस गोदाम में बन्द है न्यायपालिका का सम्मान?

ऐसी अनेक घटनाएं हैं, जिनमें सरेआम निचले न्यायालय से लेकर, विभिन्न अभिकरणों, न्यायाधिकरणों और सर्वोच्च न्यायालय तक के आदेशों, निर्देशों और निर्णयों को ठेंगा दिखाया गया है, इनमें जयपुर के ऐतिहासिक बाजारों में अवैध निर्माण को हटाने के न्यायालय के आदेशों से लेकर कलकत्ता उच्च न्यायालय द्वारा एक “अवैध मस्जिद” को नष्ट करने के आदेशों तक की लम्बी श्रृंखला है, जिनकी अनुपालना “शांति भंग होने की आशंका”(?) से नहीं की गई, इसके उलट बंगाल की अवैध मस्जिद को तो नियमित ही कर दिया गया।

इनका पहला सबक है, कि सरकार और कानून एक खोखला मायाजाल है। जब शासक वर्ग श्रीमती गाँधी की तरह अपने स्वार्थों के लिये कानून को बदल देता है, जब न्यायालय आपात-स्थिति में दिए गये निर्णयों की तरह शासकों के भय से खुद कानून की हत्या कर देते हैं, जब सरकार शाहबानों मामले की तरह “एक वर्ग के भय”(?) से घुटने टेक देती है, जब सरकार आतंकवादियों की चुनौती का सामना करने में कमजोर साबित होती है तो दूसरे भी यह नतीजा निकालते हैं, कि सरकार को झुकाया जा सकता है- झुकाया जाना चाहिये, कि न्याय और कानून भी ताकतवर के कहे अनुसार चलते हैं, परन्तु राम मन्दिर के मामले में हिन्दुओं को लगातार नसीहतें, भाषण, सबक, सहिष्णुता के पाठ, नैतिकता की गोलियाँ, गंगा-जमनी संस्कृति के वास्ते-हवाले सभी कुछ दिया जा रहा हैकारण साफ़ है कि यह उस समुदाय से जुड़ा हुआ मामला है जो कभी वोट बैंक नहीं रहा, हजारों जातियों में टुकड़े-टुकड़े बँटा हुआ है, जिसका न तो कोई सांस्कृतिक स्वाभिमान है, और न ही जिसे इस्लामिक वहाबी जेहाद के खतरे तथा चर्च और क्रॉस की “मीठी गोलीनुमा” छुरी का अंदाज़ा है।

सेकुलरिज़्म के पैरोकार और वामपंथ के भोंपू जिसे ‘हिन्दू कट्टरपंथी’ कहते हैं वह रातोंरात पैदा नहीं हो गया है, उन्होंने देखा है कि सामान्य निवेदनों पर जो न्यायालय और सरकार कान तक नहीं देते वे “संगठित समुदाय के एक धक्के” से दो सप्ताह में ही ध्यान से बात सुनने को तैयार हो जाते हैं। यह सबक अच्छा तो नहीं है, पर कांग्रेसी सरकारों और कछुआ न्यायालयों ने ही यह सबक उन्हें सिखाया है। कांग्रेस का छद्म सेकुलरिज़्म, वामपंथ का मुस्लिम प्रेम और हिन्दू विरोध, हुसैन और तसलीमा टाइप का सेकुलरिज़्म और कछुआ न्यायालय ये चारों ही हिन्दू कट्टरपंथ को जन्म देने वाले मुख्य कारक हैं…

रही मीडिया की बात, तो उसे विज्ञापन की हड्डी डालकर, ज़मीन के टुकड़े देकर, आसानी से खरीदा जा सकता है, खरीदा जा चुका है…। जहाँ मुस्लिम और सिख साम्प्रदायिकता ने लगातार सरकार से मनमानी करवाई है, हमारे समाचार-पत्रों और चैनलों ने दोहरे-मापदण्ड, और कुछ मामलों में तो “दोगलेपन” का सहारा लिया है। जम्मू के डेढ़ लाख शरणार्थियों की अनदेखी इसका सबसे बड़ा प्रमाण है। क्योंकि यदि वे मुसलमान होते, तो क्या समाचार-पत्र और मानवाधिकार संगठन उनको इस तरह कभी नजर अन्दाज नहीं करते। मीडिया ने पिछले कुछ दिनों से जानबूझकर भय और आशंका का माहौल बना दिया है, ताकि आमतौर पर सहिष्णु और शान्त रहने वाला हिन्दू इस मामले से या तो घबरा जाये या फ़िर उकता जाये।

अयोध्या मामले में भी अखबारों और बिकाऊ चैनलों का यही रुख है। किसी अखबार ने यह नहीं लिखा, कि मध्य-पूर्व के देशों में सड़कें चौड़ी करने जैसे मामूली कारणों से सैंकड़ों मस्जिदें गिरा दी गई हैं। किसी अखबार ने नहीं लिखा कि सऊदी अरब की सरकार ने सामान्‍य नहीं, बल्कि पैगम्‍बर के साथियों की कब्रों और मकबरों तक को ध्‍वस्‍त किया है। जब यह दिखने लगा कि वि.हि.प. द्वारा प्रस्तुत साक्ष्य वजनी हैं तो उनको अनदेखा किया गया, पुरातात्विक साक्ष्यों को मानने से इंकार कर दिया गया, फ़र्जी इतिहासकारों के जरिये तोड़-मरोड़कर पेश किया गया। इस दोगलेपन ने भी हिन्दुओं का गुस्सा उतना ही भड़काया है, जितना सरकार के मुस्लिम साम्प्रदायिकता के सामने घुटने टेकने ने। हिन्दुओं का यह वर्षों से दबा हुआ गुस्सा, बाबरी ढाँचे के विध्वंस या गुजरात दंगों के रुप में कभीकभार फ़ूटता है।

बकौल अरुण शौरी… “…इस दोगलेपन तथा वहाबी साम्प्रदायिकता और आतंकवाद के सामने घुटने-टेकू सरकारी नीति के कारण हिन्दू भावनाएँ जितनी उग्र हो गई है उनको कम समझना जबर्दस्त भूल होगी…”। संदेश साफ है, ”यदि आप शाहबानों के मामले में सरकार से समर्पण करा सकते हैं तो हम अयोध्या के मामले में ऐसा करेंगे। यदि आप 10 फीसदी का वोट बैंक बना रहे हैं, तो हम 80 प्रतिशत लोगों का वोट-बैंक बनायेंगे, चाहे उसके लिये कोई भी तरीका अपनाना पड़े”। न्यायालय का सम्मान तो हम-आप, सभी करते हैं, लेकिन उसे अमल में भी तो लाकर दिखाओ… सिर्फ़ हिन्दुओं को नसीहत का डोज़ पिलाने से कोई हल नहीं निकलेगा।शाहबानो और अफ़ज़ल गुरु के मामलों में उच्चतम न्यायालय की दुर्गति से सभी परिचित हो चुके हैं, “न्यायालय के सम्मान” के नाम पर हिन्दुओं को अब और बेवकूफ़ मत बनाईये… प्लीज़।

अयोध्या का राम मन्दिर आन्दोलन सात सौ साल पहले हुए एक “दुष्कर्म” का विरोध भर नहीं है, यह तो गत सत्तर सालों की नेहरुवादी-मार्क्सवादी राजनीति के विरोध का प्रतीक है, विशेष कर पिछले दस-बीस सालों की तुष्टीकरण, दलाली, दोमुंहेपन और वोट बैंक की राजनीति का, इसलिये अयोध्या विवाद का हल किसी ‘फारमूले’ में नहीं है। मानो यदि किसी हल पर सहमति हो भी जाती है लेकिन सेकुलर-वामपंथी राजनीति का घृणित स्वरूप ऐसा ही बना रहता है तो अयोध्या से भी बड़ा तथा उग्र आन्दोलन उठ खड़ा होगा।

फ़िर मामले का हल क्या हो??? सीधी बात है, न्यायालय की “टाइम-पास लॉलीपाप” मुँह में मत ठूंसो, संसद में आम सहमति(?) से प्रस्ताव लाकर, कानून बनाकर राम मन्दिर की भूमि का अधिग्रहण करके उस पर भव्य राम मन्दिर बनाने की पहल की जाये, सिर्फ़ और सिर्फ़ यही एक अन्तिम रास्ता है इस मसले के हल का… वरना अगले 60 साल तक भी ये ऐसे ही चलता रहेगा…