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अफ़वाहें… जंगल में आग की तरह फैलती हैं…

-फ़िरदौस ख़ान

अफ़वाहें… जंगल में आग की तरह फैलती हैं… मौजूदा वक़्त की नज़ाकत को देखते हुए इससे बचकर रहना बेहद ज़रूरी है…क्योंकि अफ़वाहें और दहशत दोनों की ही प्रतिक्रियाएं संक्रामक होती हैं. अफ़वाहें महज़ एक फ़ीसदी लोग ही फैलाते हैं. ज़्यादातर अफ़वाहें तथ्यों से परे होती हैं. अफ़वाहों के बारे में सच्चाई को जानने का सबसे बढ़िया तरीक़ा यह है कि बताने वाले से पूछना चाहिए ”आपको किसने कहा?” इसका जवाब किसी एक का नाम होगा. जब तक उसका नाम न सुन लें और उसकी सच्चाई का पता न कर लें तब तक उस पर भरोसा न करें. मानव की यह प्रवृत्ति होती है कि वह जितना सुनता है, उससे कहीं ज़्यादा वह बोलता है.

हार्ट केयर फाउंडेशन ऑफ इंडिया के अध्यक्ष डॉ. के के अग्रवाल के मुताबिक़ अफ़वाहें वैज्ञानिक होती है और ये 100 बंदरों की गाथा पर आधारित होती हैं. एक बार जब यह आबादी में फैल जाती हैं तो फिर यह जंगल में आग की तरह फैलती हैं. 1000 लोगों की भीड़ में महज़ 10 लोगों को अफ़वाह फैलाने की ज़रूरत होती है और इसके साथ दहशत भी फैल सकती हैं. युध्द जैसी स्थिति में लोगों में अफ़वाह फैलाना आसान होता है और इससे दहशत भी बढ़ती है साथ ही एक अजीब तरह का खौफ़ सताने लगता है.

दहशत के आधात को परिभाषित नहीं किया जा सकता. साथ ही इससे निपटने के लिए भी ज़रूरी उपाय तय नहीं हैं. शरीर में अचानक से जान जाने की प्रतिक्रिया जैसी स्थिति सामने आ जाती है. दहशत के आघात से आमतौर पर दुर्भाग्यवश हार्ट अटैक जैसी स्थिति होती है और इससे बहुत ज़्यादा खौफ़ हो जाता है. एन्जाइटी भी कभी-कभी दहशत आघात की वजह बन सकती है और बहुत से लोग जो एन्जाइटी की गिरफ़्त में होते हैं, वे दहशत के आघात का शिकार बन सकते हैं.

एन्जाइटी का ज़िक्र करते हुए डॉ. अग्रवाल ने बताया कि यह एक अनुभव होता है जिसको व्यक्ति एक समय विशेष में या अन्य तरह से ग्रसित हो जाता है. यह क्षण भावुक होता है और इसमें अधिकतर लोग खतरे का अनुभव करते हैं। दिल की धड़कन बढ़ जाती है, मांस पेशियां तनाव में आ जाती हैं, व्यक्ति ज़िन्दगी से जूझने के लिए तैयार हो जाता है. इसे ” फाइट या फ्लाइट” प्रतिक्रिया कहते हैं और ऐसे में व्यक्ति को अतिरिक्त ताक़त की ज़रूरत होती है, जिससे खतरनाक स्थिति से बचाया जा सके. वहीं दूसरी ओर, एंजाइटी डिसआर्डर की स्थिति तब होती है जब इसके लक्षण दिखाई दें, लेकिन ”फाइट या फ्लाइट” प्रतिक्रिया का अनुभव स्पश्ट नहीं होता.

दहशत का अटैक अचानक से आता है और इसमें किसी भी तरह के कोई चेतावनी सूचक भी नहीं होते और इसकी कोई ख़ास वजह भी नहीं होती. जितना आप अनुभव करते हैं, उससे कहीं ज़्यादा इसकी क्षमता हाती है जैसा कि अनुभवी लोग खुलासा करते हैं. दहशत के आघात के लक्षणों में शामिल हैं-

 दिल की धड़कन बढ़ जाना

• सांस लेने में दिक्कत या जितनी आपको हवा चाहिए उतनी न मिल पा रही हो

 खौफ़ जो कि शरीर को शक्तिहीन करने लगता है

 ‘ट्रम्बलिंग,’ पसीना आना, कांपना

 ‘चोकिंग,’ सीने में दर्द होना

 अचानक से गरम या बहुत ठंडे का अहसास होना

 हाथ की या पैर की उंगलियों का सुन्न हो जाना

 एक ऐसा डर जिससे आपके सामने मौत का मंज़र दिखे

इन लक्षणों के अलावा दहशत के आघात को निम्न परिस्थितियों में चिन्हित किया गया है:

 यह अचानक होता है, इसके लिए कोई विशेष स्थिति नहीं होती और अकसर इसका कोई जोड़ या किसी से संबंध नहीं होता है.

 यह कुछ मिनटों में गुज़र जाता है, शरीर ”फाइट या फ्लाइट” को लम्बे समय तक नहीं झेल सकता. लेकिन बार-बार अटैक घंटों तक असर डाल सकता है.

दहशत का आघात ख़तरनाक नहीं होता, लेकिन इससे बड़े पैमाने पर खौफ छा जाता है क्योंकि इसमें व्यक्ति ‘क्रेजी’ और ‘नियंत्रण से बाहर’ का अनुभव करता है. पैनिक डिसआर्डर से खौफ़ व्याप्त हो जाता है, क्योंकि पैनिक अटैक से इसका संबंध है और इसकी वजह से अन्य तरह की जटिलताएं जैसे फोबिया, डिप्रेशन, सब्स्टेंस एब्यूज, चिकित्सीय जटिलताएं और यहां तक की आत्महत्या भी शामिल है. इसका असर हल्के या सामाजिक असंतुलन तक शामिल होता है. इसलिए बेहतर है कि अफ़वाहों को फैलने से रोका जाए.

बाबरी मसजिद प्रकरण- सांप्रदायिक विचारधारा ने असत्‍य का साथ थामा

-जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

बाबरी मस्जिद प्रकरण में उपजी सांप्रदायिक विचारधारा ने जहां एक ओर कानून एवं संविधान को अस्वीकार किया, दूसरी ओर, इतिहास का विद्रूपीकरण किया। इतिहास के तथ्यों की अवैज्ञानिक एवं सांप्रदायिक व्याख्या की गई, इतिहास के चुने हुए अंशों एवं तथ्यों का इस्तेमाल किया। और यह सब किया गया विद्वेष एवं घृणा पैदा करने के लिए व समाज में विभेद पैदा करने के लिए। इस काम में झूठ का सहारा लिया गया। मुस्लिम शासकों, मुसलमानों एवं भारतीय इतिहास की विकृत एवं खंडित व्याख्या की गई। इस प्रक्रिया में इतिहास के नाम पर तथ्यों को गढ़ा गया। जो तथ्य इतिहास में नहीं थे, उनकी रचना की गई।

भारतीय समाज का वैज्ञानिक दृष्टिकोण से इतिहास क्या है तथा बाबरी मस्जिद प्रकरण से जुड़े वास्तविक तथ्य एवं उनकी वैज्ञानिक व्याख्या क्या हो सकती है। यहां हम कुछ उन तथाकथित ऐतिहासिक तथ्यों की जांच करेंगे जो बाबरी मस्जिद प्रकरण के संदर्भ में गढ़े गए हैं। एक लेखक हैं रामगोपाल पांडे, उन्होंने राम जन्मभूमि का रोमांचकारी इतिहास लिखा है। इस पुस्तक के उद्धरणों का सांप्रदायिक संगठन सबसे ज्यादा प्रयोग कर रहे हैं, इस पुस्तक में बिना किसी प्रमाण के इतिहास के बारे में अनेक दंतकथाएं दी गई हैं। जाहिर है दंतकथाएं, तथ्यों की पुष्टि के बिना सिर्फ दंत कथाएं ही कहलाएंगी उनको इतिहास का दर्जा नहीं दिया जा सकता। इस पुस्तक में बताया गया है कि हिंदुओं में दस बार, अकबर के युग में 20 बार, औरंगजेब के समय तीन बार, अंग्रेजों के समय 31 बार और अवध के शासन के समय आठ बार मंदिर मुक्ति के लिए कोशिश की गई थी पर लेखक ने अपने दावे के लिए किसी भी समसामयिक तथ्य का हवाला नहीं दिया है। हकीकत में, बाबरी मस्जिद के मुद्दे पर हिंदुओं एवं मुसलमानों में सबसे पहली लड़ाई 1855 ई. में हुईथी, जिसका वर्णन मिर्जाजान की हदी गाह-अल-शुहद में विस्तार से किया गया है, हालांकि यह वर्णन एकांगी है।

इसी तरह मॉडर्न रिव्यू 6 जुलाई 1924 के अंक में किन्हीं ‘सत्यदेव परिव्राजक’ का लिखा विवरण हिंदू सांप्रदायिक संगठन प्रचारित कर रहे हैं। इसमें कहा गया है, ”परिव्राजकजी को किसी पुराने कागजों की छानबीन में प्राचीन मुगलकालीन सरकारी कागजातों के साथ फारसी लिपि में लिथो प्रेस द्वारा प्रकाशित शाही मुहर संयुक्त बाबर का एक शाही फरमान प्राप्त हुआ था, जो अयोध्या में स्थित श्री रामजन्मभूमि को गिराकर मस्जिद बनाने के संबंध में शाही अधिकारियों के लिए जारी किया गया था। परिव्राजक द्वारा पेश तथाकथित दस्तावेज इस प्रकार है- ‘शहंशाहे हिंद मालिकुल जहां बादशाह बाबर के हुक्म से हजरत जलाल शाह के हुक्म से बमूजिव अयोध्या में राम जन्मभूमि को मिसमार करके उसकी जगह उसी के मसाले से मस्जिद तामीर करने की इजाजत दे दी गई है, बजरिए इस हुक्म-नामें के तुमको बतौर इत्तला करके आगाह किया जाता है कि हिंदुस्तान के किसी भी गैर सूबे से कोई हिंदू अयोध्या न जाने पाए, जिस शख्त पर सुबहा हो कि वह जाना चाहता है, फौरन गिरफ्तार करके दाखिल जींदा कर दिया जाए, हुक्म का सख्ती से तामील हो फर्ज समझकर।”

इस दस्तावेज की विश्वसनीयता पर सवालिया निशान लगाया गया है। दस्तावेज एवं परिव्राजक के बयान से कई प्रश्न उठते हैं, पहली बात यह कि बाबर के जमाने में लिथो प्रेस नहीं था। अगर लिथोप्रेस होता तो सभी शाही फरमान उसी में छापे जाते। दूसरी बात यह कि परिव्राजक महोदय ने इस फरमान को कहां से प्राप्त किया, उस स्रोत का हवाला क्यों नहीं दिया? अगर मुगलकालीन कागजों में मिला था तो वे कागज उन्हें कहां मिले थे? तीसरी बात यह कि बाबरनामा में इतने महत्वपूर्ण दस्तावेज का जिक्र न होना क्या यह साबित नहीं करता कि यह फरमान गढ़ा गया है। आखिरी बात यह है कि बाबर के जमाने में उर्दू भाषा सरकारी भाषा नहीं थी। अत: यह दस्तावेज पूरी तरह अप्रामाणिक सिद्ध होता है।

इसी तरह की असत्य से भरी अनेक कृतियां हिंदू सांप्रदायिक संगठनों ने छापी हैं। विश्व हिंदू परिषद् के एक अन्य प्रकाशन अतीत की आहुतियां, वर्तमान का संकल्प में दीवान-ए-अकबरी का हवाला दिया गया है। दीवान-ए-अकबरी के उद्धरण के सहारे लिखा गया कि अकबर लिखता है-”जन्मभूमि के वापस लेने के लिए हिंदुओं ने बीस बार हमले किए, अपनी हिंदू रिआया का दिल जख्मी न हो, इसलिए बादशाह हिंदशाह जलालुद्दीन अकबर ने राजा बीरबल और टोडरमल की राय से इजाजत बख्श दी और हुक्म दिया कि कोई शख्स इनके पूजा-पाठ में किसी तरह की रोक-टोक न करे।” बाबर युगीन स्थापत्य पर शोधरत इतिहासकार श्री शेरसिंह ने इस संदर्भ में कई महत्वपूर्ण बातें कही हैं।

शेरसिंह ने पहली बात यह कही कि अकबर पढ़ा-लिखा नहीं था। अत: उसके द्वारा दीवान-ए-अकबरी का लिखना गलत है। आईन-ए-अकबरी में अबुल फजल ने लिखा है कि अकबर के लिए प्रतिदिन कुछ विद्वान जुटते थे और उसके लिए पाठ करते थे, बादशाह बेहद गौर से शुरू से आखिर तक सुनता था और पाठ करने वालों को पन्नों के हिसाब से भुगतान करता था।

इतिहासकार शेरसिंह ने दूसरी बात यह बताई है कि दीवान-ए का मतलब है संपूर्ण रचनावली, जब लिखना-पढ़ना ही नहीं जानता था तो संपूर्ण रचनावली कैसी?

इस प्रसंग में डी.एन.मार्शल की कृति मुगल इन इंडिया महत्वपूर्ण सूचना देती है, इस पुस्तक में उस समय की दो पुस्तकों का जिक्र है:

1. दीवान-ए-अली अकबर, जो हिजरी 1194 यानी सन 1784 में लिखी गई, इसका लेखक है अली अकबर बिन असद अल्लाह, इस पुस्तक में सूफी कविताओं का संकलन है।

2. दीवान-ए-अली अकबर, इसके लेखक हैं मुहियाल दीन अली अकबर मोइदी चिश्ती। इसकी रचना 12वीं हिजरी के आखिर में हुई या 18वीं सदी में। यह भी सूफी कविताओं का संकलन है।

डी.एन.मार्शल की सूची में दीवान-ए-अकबरी का कहीं कोई नाम नहीं है, अगर इस नाम से कोई ग्रंथ है तो वह धोखे से अधिक कुछ नहीं है। अकबर के प्रधानमंत्री अबुल फजल अलामी ने ‘आईन-ए-अकबरी’ जरूर लिखा था, जो सन् 1857 में प्रकाशित हुआ था। इस पुस्तक में ‘अयुध्या’ का जिक्र है, अबुल फजल लिखता है ‘अयुध्या (अयोध्या) पवित्र जगह है, यह अवध में है, जहां चैत में शुक्ल पक्ष की नवमी को बड़ा भारी मेला जुटता है,

‘हिंदू त्यौहारों’ पर भी उसने अलग से लिखा है। पर, कहीं भी उसने जन्मस्थान, राम जन्म मंदिर का जिक्र नहीं किया है। अगर उस जमाने में बाबरी मस्जिद को लेकर विवाद रहा होता तो अबुल फजल उसका जिक्र जरूर करता। अत: दीवान-ए-अकबरी धोखे से ज्यादा महत्व नहीं रखता।

हिंदू सांप्रदायिक संगठनों की तरफ से जिन ऐतिहासिक साक्ष्यों का उपयोग किया है, वे सबके सब ब्रिटिश इतिहासकारों ने तैयार किए हैं जिनमें सोची-समझी योजना के तहत हिंदू-मुस्लिम विवाद के बीज बोए गए हैं। इसका कोई भी ऐतिहासिक साक्ष्य पेश नहीं किया गया है जिससे इस बात का पता चले कि बाबरी मस्जिद की जगह ही राम मंदिर था।

दूसरी बात यह है कि अगर ऐसा साक्ष्य हो भी तो क्या मध्ययुग की गलती को एक दूसरी गलती करके दोहराना तर्कसंगत होगा? बाबर ने अगर कोई काम किया तो उसकी भरपाई सारे देश की जनता एवं लोकतांत्रिक राज्य क्यों करें? यह मध्ययुग की गलती सुधारने के लिए मध्ययुग में जाने जैसा ही होगा और आज के दौर में मध्ययुग में जाने का मतलब एक भयानक स्वप्न जैसा ही हो सकता है।

यहां स्मरणीय है कि अयोध्या माहात्म्य नामक संस्कृत ग्रंथ के बारे में बंगाल की एशियाटिक सोसाइटी के सन् 1875 के अंकों से यह बात प्रमाणित होती है कि राम का जन्मस्थान विवादास्पद जगह से दक्षिणपूर्व की ओर था।

अवध एवं अयोध्या के इतिहास का गंभीर अध्ययन करने वाले इतिहासकार सुशील श्रीवास्तव ने प्रोब इंडिया में 19 जनवरी 1988 में लिखा कि राम जन्मभूमि स्थान बाबरी मस्जिद की जगह ही था, यह स्थानीय लोकविश्वासों एवं लोकगीतों में वर्णित धाराणाओं पर आधारित है इसके पक्ष में कोई ऐतिहासिक साक्ष्य नहीं हैं, वे यह भी कहते हैं कि इसके कोई प्रमाण नहीं हैं कि बाबर ने मंदिर तोड़ा था।

प्रोब इंडिया पत्रिका ने एक अन्य इतिहासकार आलोक मित्र को भी अयोध्या भेजा था, जिनका सुशील श्रीवास्तव से अनेक मसलों पर मतभेद था। उन्होंने अपनी रिपोर्ट में निष्कर्ष देते हुए लिखा-‘विवादास्पद स्थान पर ही राम जन्मभूमि थी यह एक झूठी कहानी है।’

एक अन्य शोधटीम इतिहाकसार शेर सिंह, इतिहासकार सुशील श्रीवास्तव एवं शोध छात्र इंदुधर द्विवेदी के नेतृत्व में अयोध्या गई थी। इस टीम ने अयोध्या माहात्म्य पुस्तक के आधार पर यह पता लगाने की कोशिश की थी कि वास्तविक जन्मस्थान कहां है? इस टीम ने पाया कि अयोध्या में सात ऐसी जगह हैं, जिन्हें जन्मस्थान कहा जाता है। इनमें से कोई भी जगह बाबरी मस्जिद स्थान को स्पर्श तक नहीं करती।

हाल ही में विश्व हिंदू परिषद् के तर्कों के पक्ष में कुछ इतिहासकारों ने वी.वी.लाल की पुरातात्विक खुदाई के बारे में चौंकने वाले तथ्य दिए हैं जिनका पिछले 15 वर्षों से कहीं अता-पता नहीं था और न ही वी.वी.लाल की खुदाई संबंधी रिपोर्ट में उनका जिक्र है। यह बात इतिहासकारों प्रो.के.एन. पन्निकर, प्रो.रोमिला थापर, प्रो.एस.गोपाल ने बताई है। हिंदू सांप्रदायिक तत्वों के बाबरी मस्जिद प्रकरण के ऐतिहासिक सूत्र ज्यों-ज्यों झूठे साबित होते जा रहे हैं, वे नए-नए झूठ एवं तथ्य गढ़ते जा रहे हैं। उनमें नवीनतम है इस विवाद का गांधी फॉर्मूला, भाजपा के महामंत्री कृष्णलाल शर्मा ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर इस फॉर्मूले की जानकारी दी है। अंग्रेजी दैनिक टाइम्स ऑफ इंडिया ने तथाकथित गांधी फार्मूले की प्रामाणिकता की गहराई से छानबीन की और पाया कि न तो ऐसा कोई अखबार छपता था और न ही गांधी ने ऐसा कोई लेख लिखा था। हिंदू सांप्रदायिक संगठनों की इतिहास गढ़ने की ये कुछ बानगियां हैं, असल में उनका समूचा साहित्य तो सैकड़ों टन में है। उस सबका विवेचन इस लेख में असंभव है।

इस समूचे प्रकरण में सबसे त्रासद पक्ष यह भी है कि हिंदी साहित्य के अनेक लेखकों पर मध्ययुगीन इतिहास का प्रभाव पड़ा है, खासकर आधुनिक युगीन लेखकों के ऊपर, यहां मैं सिर्फ एक उदाहरण दे रहा हूं-अमृतलाल नागर कृत उपन्यास है ‘मानस का हंस’। यह तुलसीदास के कृतित्व एवं व्यक्तित्व पर प्रकाश डालने वाला उपन्यास है। इस उपन्यास में वे सभी तथ्य हैं जो तथाकथित इतिहास लेखक रामगोपाल पांडे की कृति राम जन्मभूमि का रोमांचकारी इतिहास में हैं या जो ‘तथ्य ’परिव्राजकजी के मॉर्डन रिव्यू वाले शाही फरमान तथा लेख में हैं, और विश्व हिंदू परिषद् द्वारा प्रकाशित अतीत की आहुतियां: वर्तमान का संकल्प में उद्धृत तथाकथित दीवान-ए-अकबरी में है। ये सभी कृतियां गढ़ी गई हैं।

अमृतलाल नागर ने ‘मानस का हंस’ 23 मार्च 1972 को लिखकर पूरा किया। यहां उस उपन्यास के कुछ अंश दिए जा रहे हैं जो सांप्रदायिक प्रचार सामग्री से हूबहू मिलते हैं। वे एक जगह लिकते हैं: रामनवमी की तिथि निकट थी। अयोध्या में उसे लेकर हलचल भी आरंभ हो गई थी, जब से जन्मभूमि के मंदिर को तोड़कर मस्जिद बनाई गई है, तब से भावुक भक्त अपने आराध्य की जन्मभूमि में प्रवेश करने से रोक दिए गए हैं। प्रतिवर्ष यों तो सारे भारत में रामनवमी का पावन दिन आनंद से आता है, पर अयोध्या में वह तिथि मानो तलवार की धार पर चलकर ही आती है। भावुक भक्तों की विह्वलता और शूरवीरों का रणबांकुरापन प्रतिवर्ष होली बीतते ही बढ़ने लगता है। गांव दर-गांव लड़के न्योते जाते हैं, उनकी बड़ी-बड़ी गुप्त योजनाएं बनती हैं, आक्रमण होते हैं, राम जन्मभूमि का क्षेत्र शहीदों के लहू से हर साल सींचा जाता है। ऐसी मान्यता है कि विजेताओं के हाथों से अपने पर-ब्रह्म की पावन अवतार भूमि को मुक्त कराने में जो अपने प्राण निछावर करते हैं, उनके लिए स्वर्ग के द्वार खुल जाते हैं।… रामजी का जन्मदिन भक्तों के घरों में गुपचुम मनाया जाता है, पहले तो किसी भी समय नगर में खुले आम कोई धार्मिक कृत्य करना एकदम मना था, पर शेरशाह के पुत्र के समय जब हेमचंद्र बक्काल उनके प्रमुख सहायक थे तब से अयोध्यावासियों को छूट मिल गई थी। …राम की जन्मभूमि में रामकथा न कही जाए यह अन्याय उन्हें सहन नहीं होता था।

एक अन्य जगह वे लिखते हैं:

तुलसीदास के कानों में आगामी रामनवमी के दिन होने वाले संघर्ष की बातें पड़ने लगीं। उस दिन अयोध्या में बड़ा बखेड़ा होगा। ऐसा लगता था कि अब की या तो रामजी की अयोध्या में उनकी भक्त जनता ही रहेगी या फिर बाबर की मस्जिद ही। लोग बाग अकसर निडर और मुखर होकर यह कहते सुनाई पड़ते थे कि उन्हें इस बार कोई भी शक्ति राम जन्मभूमि में जाकर पूजा करने से रोक नहीं सकेगी।

बस्ती में फैली हुई यह दबी-दबी अफवाहें तुलसीदास को एक विचित्र स्फूर्ति देती थीं। वे प्रतिदिन ठीक मध्याह्न के समय बाबरी मस्जिद की ओर अवश्य जाया करते थे। एक जगह वे लिखते हैं-

मध्याह्न बेला के लगभग आधी-पौन घड़ी पहले ही अयोध्या में जगह-जगह डौंढी पिटी मुल्क खुदा का, मुल्क हिंदोस्थान का, अमल शहंशाह जलालुद्दीन अकबर शाह का…। अयोध्या की गली-गली में आनंद छा गया था।…

अमृतलाल नागर के उद्धृत अंशों की तुलना तथाकथित दीवान-ए-अकबरी में वर्णित अंशों से सहज ही की जा सकती है जिसका पर्दाफाश इतिहासकार शेरसिंह ने किया है।

उल्लेखनीय है इतिहास एवं साहित्य के क्षेत्र में विद्रूपीकरण की कोशिश सांप्रदायिक शक्तियों के द्वारा वर्षों से अंदर ही अंदर चल रही थी। अमृतलाल ने जिस सच का वर्णन किया है अगर वह सच था तो उसका जिक्र तुलसीदास ने अपनी रचनाओं में क्यों नहीं किया? उनके समकालीन किसी भी हिंदू लेखक-कवि ने क्यों नहीं किया? तुलसीदास रचित बारह ग्रंथ हैं। इनमें विनयपत्रिका रामजी के दरबार में फरियाद के रूप में लिखी गई रचना है। बाबरी मस्जिद प्रकरण एवं मुस्लिम शासकों के द्वारा हिंदुओं के उत्पीड़न के बारे में तुलसी ने कही भी कुछ क्यों नहीं लिखा? क्या तुलसी का हिंदुत्व निकृष्ट श्रेणी का था? जो वे ऐसा सोच एवं लिख नहीं पाए और नागरजी को 500 वर्ष बाद दिखाई दे गया! तुलसीदास का रहीम के साथ पत्र-व्यवहार दोहों में चलता था। इस पत्र-व्यवहार में भी इस सबका जिक्र नहीं है। तब तुलसी को क्या मुसलमानों ने खरीद लिया था? या नागरजी को हिंदू सांप्रदायिक तत्वों ने खरीद लिया? तुलसी का यथार्थ तुलसी न लिखे। तुलसी को दिखाई न दे। हठात् सैकड़ों वर्ष बाद नागरजी को दिखाई दे। सांप्रदायिकीकरण का कमाल।

खैर, हो सकता है, तुलसीदास से भूल हो गई और वे बाबरी मस्जिद प्रकरण एवं हिंदुओं के उत्पीड़न पर वह सबकुछ नहीं लिख पाए जो नागरजी ने लिका है, पर दूसरे लेखकों का क्या करेंगे जिन्होंने इसका जिक्र तक नहीं किया। स्वामी अग्रदास (सन 1575), नाभादास (सन 1600) और प्राणचंद चौहान (1610 ई.) ये तीनों ही रामाश्रयी हैं, ये भी तथाकथित मुस्लिम बर्बरता पर चुप हैं। इसके अलावा कृष्णाश्रयी शाखा के भी कवियों की परंपरा थी जो बाबर के ही युग की है जिनमें सूरदास, नंददास, कृष्णदास, कुंभनदास, छीतस्वामी, मीराबाई इन सबने बाबरी मस्जिद के संदर्भ में उन सब बातों को नहीं उठाया, जिनका नागरजी ने मानस का हंस में जिक्र किया है।

बाबर अगर मूर्ति तोड़क, हिंदू विरोधी एवं मंदिर तोड़क था तो अपनी राजधानी आगरा के पास मथुरा में मौजूदा मंदिरों को उसने क्यों नहीं तोड़ा? बाबर जब भारत आया था कृष्णाश्रयी शाखा के संतों का आंदोलन चरमोत्कर्ष पर था, अगर उसने हिंदुओं पर अत्याचार किए थे, मंदिर तोड़े थे तो उन सबका जिक्र तत्कालीन लेखकों की रचनाओं में क्यों नहीं है? यहां तक वैष्णव संप्रदाय के प्रवर्तक महाप्रभु बल्लभाचार्य की रचनाओं में म्लेच्छों के प्रभाव बढ़ने का कोई जिक्र है, पर, राम जन्मस्थान मंदिर तोडे ज़ाने और बाबरी मस्जिद बनाये जाने का कोई जिक्र नहीं है। क्या आज के हिंदुत्ववादी महाप्रभु वल्लभाचार्य से बड़े हिंदू हैं? सिखों के गुरू गोविंद सिंह ने जफरनामा काव्य में कहीं भी राममंदिर तोड़े जाने का जिक्र नहीं किया है। यह काव्य औरंगजेब को चिट्ठी की शैली में लिखा गया था।

हिंदुत्ववादी संगठन शिवाजी को अपना हीरो मानते हैं। शिवाजी ने औरंगजेब को जो पत्र लिखा था, उसमें भी अयोध्या के राममंदिर को तोड़कर बाबरी मस्जिद बनाए जाने का जिक्र नहीं है। ये सब हिंदू थे और हिंदू होने के कारण स्वाभिमान महसूस भी करते थे। इनके अलावा राष्ट्रवादी हिंदू नेताओं बालगंगाधार तिलक, बंकिम, दयानंद, लाला लाजपत राय, रामकृष्ण परमहंस, महर्षि अरविंद, महात्मा गांधी आदि ने कहीं भी अयोध्या के बारे में वह कुछ नहीं कहा और लिखा जिसकी नागरजी ने चर्चा की है।

बाबरी मसजिद प्रकरण- अब साठ साल बाद सुप्रीम कोर्ट क्या करेगा ?

-जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

अब साठ साल बाद अचानक हमारे देश के सर्वोच्च न्यायालय को लगा है कि बाबरी मसजिद विवाद का कोई सर्वमान्य हल निकाल लिया जाए। सवाल उठता है यह काम सर्वोच्च न्यायालय ने पहले क्यों नहीं किया? उसे रथयात्रा के समय, बाबरी मसजिद गिराए जाने से पहले इसका ख्याल क्यों नहीं आया? सर्वोच्च न्यायालय ने साठ साल बाद इस मसले पर समाधान कराने के चक्कर में कम से कम भारतीय न्यायपालिका का मान नहीं बढ़ाया है। इससे हमारी दुनिया में भारतीय न्याय की नाक कटी है। चूंकि अब यह मामला सर्वोच्च अदालत के सामने है अतः इसके कुछ महत्वपूर्ण कानूनी पहलुओं पर गौर कर लेना समीचीन होगा।

बाबरी मस्जिद स्थान पर कानूनी विवाद की शुरूआत सबसे पहले सन् 1885 में हुई थी। उस जमाने में एक मुकदमा ‘रघुवरदास महंत जन्मस्थान अयोध्या बनाम सैक्रे ट्री ऑफ स्टेट फार इंडिया’ के नाम से चला था। इसका फैसला 24 दिसंबर 1885 को हुआ। महंत रघुवरदास ने उस समय दावा किया था कि एक चबूतरा जो मस्जिद के सामने है तथा जिसकी लंबाई पूरब-पश्चिम 21 फुट और उत्तर-दक्षिण में चौड़ाई 17 फुट है, इसी चबूतरे की जगह पर राम पैदा हुए थे। महंत रघुवरदास का दावा था कि वे इस जगह वर्षों से सेवा पूजा करते आ रहे हैं। अत: उन्हें इस पर मंदिर बनाने की अनुमति दी जाए।

फैजाबाद के सब जज पंडित हरिकिशन ने यह याचिका खारिज कर दी और फैसले में कहा कि मस्जिद के सामने मंदिर बनाने की अनुमति नहीं दी जा सकती। इस फैसले के विरोण में महंत रघुवर दास ने जिला जज एवं अवध के जुडीशियल कमिश्नर के यहा क्रमश: दावे दायर किए, पर दोनों ही जगह उनकी याचिकाएं खारिज हुईं और पंडित हरिकिशन का फैसला बरकरार रखा गया।

स्मरणीय है, महंत रघुवरदास के मुकदमे में मस्जिद की जगह मंदिर बनाने की मांग नहीं की गई थी, बल्कि चबूतरे पर राममंदिर बनाने की अनुमति मांगी गई थी, जबकि, आज हिंदू सांप्रदायिक संगठन बाबरी मस्जिद को गिराकर उसकी जगह मंदिर बनाना चाहते हैं, या मस्जिद को स्थानांतरित करना चाहते हैं। आज अगर यह विवाद चबूतरे तक सीमित होता तो शायद सुलझ भी जाता, क्योंकि मुसलमानों के धार्मिक नेताओं को इस पर कोई आपत्ति नहीं है क्योंकि यह स्थान मस्जिद से अलग है।

स्वतंत्र भारत में 23 दिसंबर 1949 को नए सिरे से यह मसला उठा है। 22-23 दिसंबर की रात में कुछ लोगों ने विवादित स्थल पर राम की मूर्ति रख दी। इस बात को स्थानीय पुलिस थानेदार ने प्राथमिक रिपोर्ट में भी दर्ज किया, जिलाधीश ने ‘रेडियो संदेश’ में उ.प्र. सरकार को इसी रूप में सूचित किया, इस घटना से पहले मस्जिद में लगातार नमाज पढ़ी जाती रही थी, मस्जिद में मूर्तियां पधारने का काम जबर्दस्ती किया गया, इस बात की ताकीद सभी सरकारी बयानों से भी होती है। मस्जिद में मूर्ति रखने के आरोप में 50-60 व्यक्तियों के खिलाफ भारतीय दंड संहिता की धारा 147,295,448 के तहत थानाध्यक्ष रामदेव दुबे की प्राथमिकी रिपोर्ट के आधार पर केस बनाया गया। इसी रिपोर्ट के आधार पर जाब्ता फौजादारी की धारा 145 के तहत शांतिभंग होने का मुकदमा भी दायर किया गया, जिस पर मजिस्ट्रेट मार्कडेय सिंह ने 29 दिसंबर 1949 को बाबरी मस्जिद की कुर्की का आदेश देते हुए निर्णय दिया। साथ ही, फैजाबाद नगगरपालिका के तत्कालीन अध्यक्ष प्रिय दत्तराम को रिसीवर बना दिया। प्रिय दत्तराम ने 5 जनवरी 1950 को कार्यभार संभाला। यह मसला काफी गंभीर एवं संवेदनात्मक था। इस पर बुर्जुआ सरकारों ने समुचित ध्यान भी नहीं दिया, वरना, इसी धारा के तहत यह मामला सुलझाया भी जा सकता था। अदालत मुसलमानों का मस्जिद के विवादित हिस्से पर कब्जा बहाल भी कर सकती थी। इसी धारा (145) के तहत जब नई कांग्रेस एवं पुरानी कांग्रेस के बीच में नई दिल्ली स्थित 7, जंतर-मंतर केंद्रीय कार्यालय को लेकर कानूनी विवाद उठा था तो मजिस्टे्रट ने कहा कि 13 दिसंबर 1971 को इस भवन पर नई कांग्रेस ने जबरिया कब्जा किया है और पुरानी कांग्रेस को कब्जे से बेदखल किया है। अत: पुरानी कांग्रेस का कार्यालय पर कब्जा बहाल किया जाए, जब तक कि सक्षम न्यायालय इस विवाद पर फैसला न कर दे।

बाबरी मस्जिद प्रकरण में भी सन् 1949 हो या 1986 इसी तरह का फैसला कराया जा सकता था। पर, बुर्जुआ सरकार की मंशाएं कुछ और थीं! जिस समय मस्जिद में मूर्ति र¹ने की घटना हुई थी उस समय पंडित नेहरू बेहद ¹फा हुए थे पर अक्षम साबित हुए क्योंकि जिलाधीश ने किसी भी आदेश को मानने से इनकार कर दिया। तत्कालीन मुख्य सचिव भगवान सहाय तथा आईजीपी वी.एन.लाहिड़ी ने मस्जिद में रखी मूर्तियां हटाने के लिए जिलाधीश के.के.नैय्यर को कई संदेश भेजे। पर सब बेकार साबित हुए। बाद में जिलाधीश के.के.नैय्यर ने इस्तीफा देकर जनसंघ की टिकट पर संसद का चुनाव लड़ा।

विवादित स्थान पर रिसीवर की नियुक्ति के बाद से यह विवाद दीवानी अदालत में है जिसमें अयोध्या निवासी गोपाल सिंह विशारद 16 जनवरी 1950 का मुकदमा, राम चौक अयोध्या निवासी परमहंस रामचंद्र दास 5 दिसंबर 1950 का मुकदमा, अयोध्या स्थित निर्मोही अखाड़े के महंत का मुकदमा 17 दिसंबर 1959 एवं सुन्नी सैंट्रल वक्फ बोर्ड ल¹नऊ का मुकदमा 1961 एक साथ सुने जा रहे हैं। इन मुकदमों में पहले दो मुकदमों में विशारद और रामचंद्र दास केंद्रीय मुद्दा हैं विवादित जगह पर पूजा का अधिकार बहाल र¹ना, विशारद की याचिका पर न्यायालय ने विवादित स्थल से मूर्तियां न हटाने और पूजा सेवा से न रोकने की अंतरिम आदेश भी दिया हुआ है पर इस दावे में बाबरी मस्जिद को गिराने, स्थानांतरित करने या उसकी जगह राम मंदिर बनाने की बात कहीं भी नहीं गई है। निर्मोही अखाड़े के महंत के मुकदमे में केंद्रीय मुद्दा है विवादित मंदिर के प्रबंध, पुजारी के अधिकार एवं चढ़ावा प्राप्त करने का। इसमें मस्जिद को गिराकर मंदिर बाने की बात नहीं उठाई गई है। सुन्नी सैंट्रल वक्फ बोर्ड के मुकदमे में विवादित स्थान को मस्जिद की जगह घोषित करने तथा वक्फ बोर्ड को सौंपने की प्रार्थना की गई है यानी कि चारों मुख्य मुकदमों में विवादित जगह के बारे में अदालत से न्याय मांगा गया है। इनमें से कोई भी मुकदमा या उसका पैरोकार मस्जिद गिराकर मंदिर बनाने या मस्जिद की जगह ही राम पैदा हुए थे, यह सब बातें नहीं उठाता।

इस न्यायिक प्रक्रिया के दौरान महत्वपूर्ण दो घटनाएं घटी हैं, पहली घटना है 26 फरवरी 44 के गजट नोटिफिकेशन को अदालत द्वारा 21 अप्रैल 1966 को खारिज कर दिया जाना।

दूसरी घटना है 8 अगस्त 1970 को रिसीवर की मृत्यु। उसके बाद नए रिसीवर की नियुक्ति के लिए अदालत में विवाद चल ही रहा था कि इसी बीच 25 जनवरी 1986 को स्थानीय वकील उमेश चंद्र पांडेय ने मुंसिफ सदर फैजाबाद के यहां एक प्रार्थनापत्र दिया जिसमें मांग की गई कि विवादित स्थल का ताला खोल दिया जाए और हिंदुओं के पूजा-सेवा के अधिकार पर कोई पाबंदी न लगाई जाए। मुंसिफ सदर ने इस याचिका पर समुचित कागजों के अभाव में फैसला नहीं दिया और याचिका खारिज कर दी।

बाद में इस आदेश के खिलाफ फैजाबाद के जिला जज के यहां संबंधित पक्ष ने याचिका दी जिस पर जिला जज ने ताला खोलने का आदेश दिया। इस आदेश के विरूद्ध 3 फरवरी 1986 को फैजाबाद निवासी मुहम्मद हाशिम ने हाईकोर्ट में याचिका दी। जिस पर अग्रिम आदेश तक यथास्थिति बनाए रखने का आदेश न्यायमूर्ति ब्रजेश कुमार ने दिया। जिला जज के निर्णय के खिलाफ सैंट्रल वक्फ बोर्ड ने 12 मई 1986 को उच्चन्यायालय में एक याचिका दायर की थी। दोनों की एक साथ सुनवाई हो रही थी कि 23 जुलाई 1987 को न्यायमूर्ति कमलेश्वर नाथ सिविल जज फैजाबाद ने नए रिसीवर की नियुक्ति के मसले पर दायर एक अपील पर 23 जुलाई 1987 को निर्णय दिया कि दीवानी प्रक्रिया संहिता की धारा 24 के तहत निचली अदालत में चल रहे चारों दावों को एक ऐसे अतिरिक्त जिला जज के सामने सुनवाई के लिए रखा जाए जिसका 18 माह तक स्थानांतरण न हो सके।

इस आदेश के पांच महीने बाद अचानक 15 दिसंबर 1987 को सरकार ने इलाहाबाद हाईकोर्ट लखनऊ बैंच में याचिका दी कि विवादित संपत्ति से संबंधित फैजाबाद न्यायालय में चल रहे सभी मुकदमों को अपने यहां स्थानांतरित करके सुनवाई करें। यह प्रार्थना पत्र फरवरी 1989 तक विचाराधीन रहा। इसी दौरान जुलाई 1989 को ‘भगवान श्रीराम विराजमान’ के प्रतिनिधि के रूप में देवकीनंदन अग्रवाल ने सिविल जज फैजाबाद के यहां एक नया मुकदमा दायर कर दिया, जिसमें संपूर्ण विवदित संपत्ति को राम जन्मभूभि घोषित करने तथा विपक्षी मुस्लिम समुदाय और सरकार को इस बात को रोकने का आदेश देने की प्रार्थना की गई कि वे मौजूदा इमारत को गिराकर नया मंदिर बनाने में कोई हस्तक्षेप न करें। 10 जुलाई 1989 को हाईकोर्ट ने विवाद से संबंधित सभी मुकदमों का अपने यहां स्थानांतरण करने का आदेश दिया और तीन जजों की पूर्णपीठ ने सरकार के 7 अगस्त के प्रार्थनापत्र पर विवादास्पद संपत्ति का अगले आदेश तक स्वरूप न बदले जाने का आदेश दिया।

इसी दौरान हिंदुत्ववादी सांप्रदायिक संगठनों ने 9 नवंबर 1989 को नए मंदिर के शिलान्यास का कार्यक्रम घोषित कर दिया। उ.प्र. सरकार चाहती थी कि शिलान्यास हो। उसने 6 नवंबर को पूर्णपीठ से यह पूछा कि विवादास्पद संपत्ति में वास्तव में कौन-कौन सा स्थान आता है। साथ ही, यह भी जानना चाहा कि 14 अगस्त 1949 को पारित यथास्थिति बनाए र¹ने का आदेश क्या पूरी संपत्ति के लिए है? हाईकोर्ट (ल¹नऊ बैंच) की

पूर्णपीठ ने स्पष्ट किया कि 14 अगस्त का आदेश विवादित भू¹ंडों के लिए भी लागू होता है जिसमें 586 नंबर का वह भू¹ंड भी शामिल है और जिस पर 9 नवंबर 1989 को शिलान्यास किया गया था। तब से यह विवाद एक नई दिशा ग्रहण कर चुका है। इस समूची प्रक्रिया में एक बात उभरकर आती है कि देवकीनंदन अग्रवाल की याचिका के पहले की जितनी भी याचिकाएं हैं उन सबमें बाबरी मस्जिद को गिराकर मंदिर बनाने का मुद्दा नया है और इसकी शुरूआत 7 अक्टूबर 1984 में राम जन्मभूमि ऐक्शन कमेटी की स्थापना से हुई जिसमें ताला खोलो आंदोलन एवं राम रथयात्रा के कार्यक्रम शुरू किए। पर इंदिरा गांधी की हत्या के कारण ये कार्यक्रम कुछ समय के लिए स्थगित कर दिए गए। बाद में 23 अक्टूबर 1985 से विश्व हिंदू परिषद् के नेतृत्व ने ताला खोलो अभियान देश में 25 शहरों में शुरू किया और 1 फरवरी 1986 को विवादास्पद इमारत का ताला खोलने का आदेश स्थानीय जिला जज ने दे दिया। बाद में शिलान्यास के बारे में सारे देश से ईंट लाई गईं। शिलान्यास जुलूसों का आयोजन किया गया। राजीव सरकार यह सब मूक

दर्शक की तरह देखती रही। इस प्रक्रिया में सामाजिक-राजनीतिक प्रक्रिया का सांप्रदायिकीकरण करने में सांप्रदायिक शक्तियां सफल हो गईं। यह प्रक्रिया कारसेवा के 30 अक्टूबर, 2 नवंबर एवं 6 दिसंबर 1990 के चरण के बाद से सघन एवं तेज हुई है जिसका राजनीतिक प्रतिवाद भी हो रहा है पर प्रतिवाद की शक्तियों पर सांप्रदायिक शक्तियों ने अभी तो बढ़त हासिल कर ली है। इसमें राज्य की निष्क्रियता ने सबसे गंभीर भूमिका अदा की है जिसके कारण चारों तरफ सांप्रदायिक हिंसा एवं वैचारिक उन्माद पैदा हो गया है। इस उन्माद एवं हिंसा का दो स्तरों पर समाधान किया जाए। पहला-प्रशासनिक एवं राजनीतिक। दूसरा-विचारधारात्मक। ये दोनों प्रक्रियाएं साथ-साथ चलें तब ही सांप्रदायिक शक्तियों एवं सांप्रदायिक विचारधारा को अलग-थलग कर पाएंगे।

दोस्तों से वफ़ा की उम्मीदें, किस ज़माने के आदमी तुम हो……!

छत्तीसगढ़ बंधक प्रकरण और राष्ट्रीय मीडिया

– पंकज झा.

रायपुर से कोलकाता के लिए एक सेमीनार में शामिल होने कुछ पत्रकार मित्रों के साथ जा रहा हूं. मौसम अच्छा है और ट्रेन भी रफ़्तार में. जंगली इलाकों से ट्रेन गुजर रही है. तब-तक मोबाइल का टावर यह बताने लगता है कि हम झारग्राम स्टेशन के पास आ गए हैं. नाम सुनकर ही सिहरन पैदा हो जाती है. याद आता है अभी कुछ दिन पहले ही मोओवादियों द्वारा ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस पर हमला कर दर्ज़नों जाने ले ली गयी थी. थोड़े ही आगे बढ़ने पर उस अभागी ट्रेन का मलवा भी दिख जाता है. मन में ढेर सारा आक्रोश और ह्रदय से इन माओवादियों के सफाये की कामना के साथ ट्रेन के दरवाज़े पर एक “विशेषज्ञ” से बात शुरू होती है. बातचीत के क्रम में पूछ बैठता हूं कि यह इलाका किस जिले में आता है? थोडा सर खुजाते हुए वह कहते हैं कि जिले का तो मालूम नहीं लेकिन राज्य यह ‘छत्तीसगढ़’ है. अब सर पीट लेने की बारी अपनी. खिसियानी हंसी हंस उनसे विदा लेता हूं. तो पिछले कुछ सालों में ‘छत्तीसगढ़’ और ‘नक्सलवाद’ एक दुसरे का पर्याय बन सामने आया है. आप जब रायपुर से कोलकाता के लिए निकलते हैं तो ओडिशा, झारखण्ड होते हुए पश्चिम बंगाल की सीमा में प्रवेश करते हैं. लेकिन जनसामान्य की समझ से देखें तो अगर बात नक्सलवाद की हो तो ज़ाहिर है झाड़ग्राम भी छत्तीसगढ़ का ही हिस्सा माना जाएगा.

अब एक दूसरी तस्वीर देखिये. बस्तर इलाके के भोपालपट्टनम बाजार से सात पुलिस जवानों का अपहरण हो जाता है. वहां के भद्राकाली नामक थाने में पदस्थ ये जवान 19 सितम्बर को अपहृत कर लिए गए थे. इनमें से तीन की ह्त्या तो उसी दिन कर दी गयी और शेष चार को बंधक बनाकर नक्सली, सरकार से सौदेबाजी कर रहे हैं. ऐसी ही घटना कुछ ही दिन पहले बिहार में हुई थी जहां के लखीसराय से चार जवानों को अपहृत किया गया था. उनमे से भी एक की हत्या कर दी गयी थी बांकी तीन कुछ दिन तक माओवादियों के कब्ज़े में रहने के बाद रिहा हो पाए थे. लेकिन जहां बिहार वाले मामले में सभी राष्ट्रीय कहे जाने वाले मीडिया ने आसमान सर पर उठाकर उसे सभी समस्यायों से ज्यादा विकराल घोषित कर दिया था वहीं छत्तीसगढ़ के मामले में किसी के कान पर भी जूं नहीं रेंगी है अभी तक.

बात अगर ‘भारत’ और ‘इंडिया’ के फर्क का हो तो समझ में आती है. सभी जानते हैं कि दिल्ली में किसी एक लड़की का प्रेमी के वियोग में भी आत्महत्या कर लेना सबसे बड़ी खबर है. तो अगर बाजारू मीडिया के लिए दिल्ली की घटना ही खबर हो तो रहे, अपनी बला से. जनसरोकारों से दूर ऐसा माध्यम आज ना कल अपनी मौत मरेगा ही. उसके बारे में ज्यादा चिंता करने की कोई ज़रूरत नहीं. लेकिन यहां तो मामला ‘भारत’ के बीच का ही है. गरीबी, पिछडापन, असमानता, बेरोजगारी, माओवाद आदि सबमें सामान जैसा होते हुए भी आखिर क्या कारण है कि बिहार का मामला तो तूल पकड़ लेता है लेकिन छत्तीसगढ़ की परेशानियों से किसी को कोई मतलब नहीं होता ?

लेकिन इसके उलट देखिये तब पता चले. अगर किसी नक्सली का कोई एनकाउंटर हो या मानवाधिकार के नाम पर दूकान चलाने वाले भाई लोग किसी मामले को उठाना चाहे तो फिर वह राष्ट्रीय मामला बन जाता है. फिर तो आलोच्य मीडिया भी आसमान सर पर उठा ले. आप किसी नक्सली को गिरफ्तार करके देख लीजिए. फिर देखिये प्रदेश के गरीब आदिवासियों के खिलाफ कैसा हंगामा करते हैं दिल्ली में बैठे ‘गोरे’ लोग. मामला चाहे किसी नक्सली डॉ. की गिरफ्तारी का हो या फिर गांधी के नाम पर आश्रम चलाने वाले व्यक्ति द्वारा किसी नक्सली के संरक्षण का, हर मामले में आपको फिर मीडिया और ऐसे तत्वों की सक्रियता देखते ही बनती है. तब प्रदेश के बारे में सामान्य समझ भी नहीं रखने वाले लोग भी ऐसे दिखायेंगे जैसे सबसे बड़े विशेषज्ञ वही हों. लेकिन आप उनसे थोड़ा तथ्य पर आधारित बात करके देखिये तो झारग्राम को छत्तीसगढ़ का हिस्सा बताने वाले व्यक्ति से भी इनकी जानकारी कई बार आपको कम दिखेगी. अभी हाल ही में ऐसे समूहों द्वारा मिलकर एक पत्रिका के बैनर तले राज्य द्वारा की जा रही कथित हिंसा पर संगोष्ठी का आयोजन किया गया. आपको जानकार ताज्जुब होगा कि उस गोष्ठी के आधार पर सम्पादकीय लिखने वाले को ये तक नहीं पता था कि छत्तीसगढ़ का पुलिस महानिदेशक कौन है. फिर भी विश्वरंजन को पुलिस अधीक्षक मानते हुए पिले पड़े थे सब लोग राज्य की आलोचना करने बे सर पैर की बातों को लेकर.

तो सवाल यह नहीं है कि राष्ट्रीय कहे जाने वाले मीडिया का या दिल्ली में बैठे स्व-घोषित बुद्धिजीवियों की उपेक्षा का प्रदेश को कोई नुक्सान होता है. सब जानते हैं कि टीआरपी का कोई केन्द्र छत्तीसगढ़ में नहीं होने के कारण किसी का फोकस यहां नहीं है. कई मायने में लोग निश्चिंत भी रहते हैं उनके प्रकोप से. लेकिन दिक्कत तब आती है, आक्रोश तब देखने को मिलता है जब यही लोग प्रदेश के सभी पत्रकारों को बिकाऊ या पैसे लेकर खबर दबाने वाला कह कर यहां का अपमान करते हैं. जबकि दर्ज़नों उदाहरण ऐसा दिया जा सकता है जब यहां के मीडिया ने कई बार दिल्ली वालों को आइना दिखाया है.

अभी ज्यादे दिन नहीं हुए जब नक्सलियों के पक्ष में लिख कर प्रदेश को बदनाम करने वाले एक स्तंभकार ने यहाँ के पत्रकारों पर बिके होने का आरोप लगाया था. आज वह व्यक्ति स्वतः निर्वासित होने को मजबूर हैं. प्रदेश में कोई उन्हें घास नहीं डालता. इसी तरह कभी अरुंधती राय तो कभी मेधा पाटकर जैसे लोगों की मंशा से आहत होकर प्रदेश के प्रेस क्लब ने उनका बहिष्कार किया हुआ है. इतना ही क्या कम था कि उस गोष्ठी में खुले आम स्वामी अग्निवेश ने यह आरोप लगाया कि प्रदेश के पत्रकार मुख्यमंत्री के सिखाए हुए और उद्योगपतियों के दलाल जैसे लगे. तमाम शिष्टाचार को तिलांजलि दे उन्होंने प्रदेश के एक वरिष्ठतम पत्रकार रमेश नय्यर को भी बदनाम करने की साज़िश की. बाद में श्री नय्यर द्वारा लेख लिख कर अग्निवेश की पोल खोली गयी.

तो सवाल यह बिल्कुल नहीं है कि प्रदेश कोई इनके द्वारा कवरेज का मुहताज है. वास्तव में इनके बिना ही लोग बेहतर से अपना काम-काज कर रहे हैं. पिछले कुछ दिनों का अनुभव यह कहता है प्रदेश की बात उठाने में यहां का मीडिया सक्षम और परिपक्व है. बस सवाल केवल इतनी है कि प्रदेश को बदनाम कर अपना उल्लू सीधा करने वाले लोगों की पहचान कर उनका सतत बहिष्कार किये जाने की ज़रूरत है. बात जहां तक हालिया अपहरण प्रकरण की है तो विपक्ष का यह कहना सही नहीं है कि एक उपचुनाव के कारण सरकार इस पर ध्यान नहीं दे पा रही है. वास्तव में ‘लाल मीडिया’ के दबाव से मुक्त होकर सरकार अपनी तरफ से पूरी कोशिश कर रही है. अगर केवल उपचुनाव के लिए ध्यान नहीं देने की बात होती तब तो बिहार में पूरे विधानसभा के लिए ही आम चुनाव की प्रक्रिया चल रही है. फिर भी वहां मीडिया के हाईप के कारण वह अपहरण राष्ट्रीय मुद्दा बन पाया था. तो छत्तीसगढ़ में असली बात मीडिया की प्राथमिकता और उसके द्वारा मुद्दे विशेष को महत्त्व देने या नहीं देने की है. उन्हें ना देना हो महत्त्व ना दें यह मायने रखता भी नहीं है. बस किसी भी तत्व द्वारा प्रदेश के दुःख-दर्द को अपना उत्पाद बनाए जाने का डट कर विरोध किया जाय. निश्चय ही प्रदेश अपनी हर समस्या से पार पा जाने के कूवत रखता है.

दीनदयाल उपाध्याय चिन्तन की प्रासंगिकता

-डॉ. कुलदीप चन्द अग्निहोत्री

दीनदयाल उपाध्याय जी राष्‍ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक थे। 1950 में जब भारतीय जनसंघ का गठन हुआ तो वे जनसंघ का कार्य देखने लगे। डॉ श्‍यामा प्रसाद मुखर्जी ने कहा था यदि मुझे दीनदयाल उपाध्याय जैसे चार कार्यकर्ता मिल जाये तो मैं देश की राजनीति बदल सकता हूं। उपाध्याय जी जोड़ने की कला में माहिर थे। शायद यही कारण था कि जब जनसंघ की स्थापना के 2 वर्ष के भीतर ही डॉ0 मुखर्जी की श्रीनगर में संदिग्ध हालात में मृत्यु हो गई तो बहुत लोगों को लगता था कि अब जनसंघ चल नहीं पायेगा, तो दीनदयाल जी ने इस आशंका को र्निमूल सिद्ध किया और जनसंघ प्रगति पथ पर बढ़ने लगा। दीनदयाल उपाध्याय राम मनोहर लोहिया के साथ मिलकर देश की राष्‍ट्रवादी शक्तियों का एक मंच तैयार करना चाहते थे। परन्तु इसे देश का दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि जनसंघ के केरल अधिवशन के बाद उनकी भी मुगलसराय के पास हत्या कर दी गई। इसी दुर्योग ही कहना चाहिए कि न तो डा. श्‍यामा प्रसाद मुखर्जी की हत्या पर से पर्दा उठ पाया और न ही दीनदयाल उपाध्याय की हत्या से। लेकिन दीनदयाल जी ने राष्‍ट्रवादी शक्तियों के लिए जो आधार भूमि तैयार कर दी थी उसी का सुफल था कि बीसवीं शताब्दी के अन्त तक राष्‍ट्रवादी शक्तियां देश की राजनीति की धुरी में स्थापित हो गई।

दीनदयाल जी की प्रसिद्धि का एक और कारण भी रहा। जब उन्होंने एकात्म मानववाद की अवधारणा दी तो उस पर खूब चर्चा हुई। विश्‍वविद्यालयों में, बौद्विक संस्थानों में यह गर्मागर्म बहस का विषय बना। सहमत होना या न होना अलग बात थी लेकिन एकात्म मानववाद की अवेहलना करना बौद्विक जगत के लिए मुश्किल था। दीनदयाल उपाध्याय ने मानव व्यवहार, व्यक्ति और समाज, मानव विकास के मौलिक प्रष्नों पर चिन्तन करके एकात्म मानववाद की अवधारणा स्थापित की थी। दरअसल मानव को लेकर विश्‍व भर के चिन्तकों में आदि काल से चिन्तन होता रहा है। सभी चिन्तन मानव के विकास और उसके सुख के लिए समर्पित होने का दावा करते हैं। लेकिन इस दिशा में चिन्तन करने से पहले यह भी जरूरी है कि मानव के मन को समझ लिया जाये। यदि मानव के मन की ठीक समझ आ जाये तभी तो उसके सुख व विकास के लिए रास्ते तय किये जा सकते हैं। यह काम पश्चिम में भी होता राह है और भारत में भी। पश्चिम ने मानव मन को समझने का दावा किया। ऐसे चिन्तकों ने यह निष्‍कर्ष निकाला कि मनुश्य समाजिक प्राणी है। वह अकेला नहीं रह सकता उसका सुख दुख समाज के सुख दुःख से जुड़ा हुआ है। दूसरे चिन्तकों ने इसे अमान्य किया। उन्होंने निष्‍कर्ष निकाला कि मनुष्‍य वास्तव में आर्थिक प्राणी है। उसकी सामाजिकता भी तब तक ही है जब तक इससे उसके आर्थिक हितों की पूर्ति होती है। जीवन यापन के लिए जो बुनियादी जरूरते हैं, उन्हीं की प्राप्ति मनुष्‍य का लक्ष्य है और इसी से उसे सुख मिलता है। पश्चिम के कुछ चिन्तकों ने इसे भी नकार दिया। उनके अनुसार मानव व्यवहार वस्तुतः काम से संचालित होता है बाकी सब चीजे गौण हैं। पश्चिमी चिन्तकों के ये निष्‍कर्ष ठीक हो सकते हैं परन्तु सब मिलकर ठीक हैं। एकांगी ठीक नहीं है। परन्तु पष्चिमी चिन्तक इस बात को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं। इसलिए उन्होंने मानव शास्त्र के जितने सिद्धांत गढ़े वे सभी किसी एक कारक को प्रमुख मान कर ही गढ़े। पूंजीवाद और साम्यवाद की अवधारणाएं वस्तुतः भौतिक कारकों को आधार बनाकर गढ़ी गई। इन अवधारणाओं और सिद्वांतों से जिस प्रकार का नुकसान हो सकता था, पश्चिम उसको भोग रहा है।

दीनदयाल उपाध्याय ने एकात्म मानववाद की अवधारणा स्थापित की। यह अवधारणा भारत के युगयुगीन सांस्कृतिक चिन्तन पर आधारित है। उपाध्याय जी मानते थे कि समाजवाद, पूंजीवाद या फिर साम्यवाद, एक शब्द में कहना हो तो अर्थवाद या भौतिकवाद मूलतः भटकाव ज्याद पैदा करता है और समाधान कम देता है। पूंजीवाद या फिर साम्यवाद के निष्चित खांचों में फिट होने के लिए मानव नहीं है। मूल अवधारणा मानववाद की होनी चाहिए और बाकी सभी वाद या सिद्धांत मानव को केन्द्र में रखकर ही रचे जाने चाहिए। लेकिन पश्चिम में इसके विपरीत हो रहा है। अर्थवाद के प्रणेताओं ने सिद्वांत गढ़ लिये है और अब मानव को विवश कर रहे हैं कि इन काल्पनिक सिद्वांतों के आधार पर स्वयं को ढालें। मानव वाद या मानव के विकास को खंड खंड करके नहीं देखा जा सकता उसके लिए एकात्म दृष्टि चाहिए। मानव को सभी प्रकार की वस्तुओं की दरकार है। उसे समाज भी चाहिए, बुनियादी जरूरतों की पूर्ति भी चाहिए, काम के क्षेत्र में संगीत साहित्य कला भी चाहिए। परन्तु ध्यान रखना चाहिए कि उसे ये सब एक साथ ही चाहिए। शायद इसलिए दीनदयाल उपाध्याय जी ने मानव के विकास अथवा मानववाद के रास्ते को एकात्म कहा है। एकात्म मानववाद मानव के सम्पूर्ण विकास की बात करता है। दीनदयाल उपाध्याय इसे पुरूशार्थ चतुष्‍ट्य की पुरातन भारतीय अवधारणा से समझाते थे। भारतीय चिन्तकों ने चार पुरूशार्थो की चर्चा की है। धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष। परन्तु ये चारों पुरूषार्थ अलग अलग नहीं है। परस्पर गुम्फित हैं। अर्थ और काम की साधना तो मनुश्य करेगा ही लेकिन इन दोनों क्षेत्रों में कर्म करने के लिए धर्म की सीमा रेखा निश्चित है। एक बात और ध्यान में रखनी होगी कि सभी प्रकार के पुरूशार्थों की साधना करते हुए मानव जीवन का कोई न कोई लक्ष्य भी होना चाहिए। भारतीय चिन्तकों ने इसी लक्ष्य को मोक्ष कहा है।

एकात्म की अवधारणा को समझाने के लिए दीनदयाल जी संबधों का एक और उदाहरण दिया करते थे। एक ही व्यक्ति एक साथ कई सम्बन्धों को निभाता है। वह एक साथ ही पिता है, भाई है, बेटा है। ये सभी संबध एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। यही मानव प्रकृति की एकात्मता है। मनुष्‍य शिशु होता है फिर जवान होता है और अंत में बूढ़ा होता है लेकिन मनुष्‍य की ये तीनों अवस्थाएं एक सम्पूर्ण इकाई बनती हैं। पश्चिम ने शायद मानव की इस सम्पूर्णता को अन देखा किया और उसे खंडित नजरिये से देख कर विकास के मॉडल तैयार किये। दीनदयाल उपाध्याय ने इन्हीं मॉडलों के विकल्प में मानव विकास का भारतीय मॉडल दिया जिसे बौद्धिक समाज में एकात्म मानववाद के नाम से जाना जा रहा है। कुछ साल पहले की बात है। मैं तिब्बत पर हो रहे एक अन्‍तरराष्‍ट्रीय सम्मेलन में भाग लेने के लिए चैक गणराज्य की राजधानी प्राग गया हुआ था। सम्मेलन का उद्घाटन चैक के पूर्व राष्‍ट्रपति जॉन हावेल ने किया था। उन्होंने अपने उद्बोधन में कहा कि हमने तो पूंजीवादी और साम्यवादी दोनों व्यवस्थाओं को देख लिया है। दोनों व्यवस्थाए हीं मूलतः अर्थवादी हैं और एकांगी हैं। जॉन हावेल शायद अप्रत्यक्ष रूप से दीनदयाल उपाध्याय के एकात्ममानववाद का ही समर्थन कर रहे थे जो कम से कम एकांगी नहीं एकात्म है।

एकात्म मानववाद की अवधारणा में दीनदयाल उपाध्याय ने आज के एकांगी विकास मॉडलों की दुःखती रग पर हाथ रखा है। मनुष्‍य जो भी क्रियाएं करता है और जिस प्रकार के भी विकास मॉडलों को लागू करता है उन सभी का अन्तिम उद्देश्‍य तो सुख या संतुष्टि प्राप्त करना ही है। अर्थवादी यह समझते हैं कि ज्यादा भोग से ही ही सुख मिलता है परन्तु दीनदयाल जी ने उदाहरण देकर कहा कि सुख मन की स्थिति पर निर्भर करता है। इसलिए विकास की समग्र अवधारणा का समर्थन किया जिसमें मन बुद्वि और शरीर तीनों के विकास का समन्वय हो।

आज जब भोगवादी विकास के सिद्वांतों से दुनियां भर में सुख क्षीण हो रहा है, संसाधनों के अनुचित प्रयोग से मानव के अस्तित्‍व पर ही संकट आ गया है तब दीनदयाल उपाध्याय की एकात्म मानववाद की प्रासंगिकता और भी बढ़ गई है।

आदमी और बन्दर : संस्कृति का अन्तर

मनुपैन्ज़ी होते यदि हम वृद्ध न होते.

-विश्वमोहन तिवारी, एयर वाइस मार्शल (से.नि)

बुढ़ापा अर्थात् बीमारियां, अस्वस्थता, कमजोरी, कष्ट तथा दुख! बुढ़ापे का कारण है ‘इंद्रियों तथा यौन शक्ति का कमजोर होना’ जो कष्ट तो बढ़ाता ही है मानसिक तनाव पीड़ा तथा दुख भी बढ़ाता है, और उम्र तथा गरीबी इन को और बढ़ाती हैं। बुढ़ापा अर्थात अभिशाप। बुढ़ापे में कष्ट तो हो सकते हैं किन्तु यह दुख क्यों। अभिशाप क्यों। यदि जीवन का ध्येय उपभोक्तावाद है तब जीवन का अर्थ उपभोग की वस्तुएं खरीदकर उनके द्वारा सुख लूटना है। किन्तु बुढ़ापे में जब इंद्रियां शिथिल होने लगती हैं तब वस्तुओं से आनन्द नहीं मिलता। एक तो आर्थिक रूप से कमजोर हों और जब दिखाई नहीं देगा या सुना नहीं देगा तब देखने सुनने का सुख तो गया, किन्तु इन सुखों के जाने का दुख बहुत व्यापता है। तब क्या आश्चर्य कि वृद्ध लोग अपने युवा दिनों की बातें करते हैं या फिर अपने कष्टों और दुखों की। तब यह तो स्वाभाविक है कि ऐसा निरर्थक शिथिल इंद्रियों तथा बीमारियों वाला बुढ़ापा अभिशाप ही माना जाएगा. प्रकृति पर भी व्यर्थ का भार और उपभोक्तावदी समाज में बुढ़ापे के प्रति घृणा ही उपजेगी। बुढापे की क्या अच्छाइयां हो सकती हैं सिवाय इसके कि यह हमें मृत्यु की पूर्वसूचना ही देता है। दूसरी तरफ ’द यू टर्न्स आफ हैपिनैस’ वैबसाइट में आंकड़े दिये गए हैं जो यह दर्शाते हैं कि कि युवा तथा वृद्ध अधेड़ों की अपेक्षा अधिक सुखी होते हैं। ’ वैसे भी सुख की अवधारणा अत्यंत जटिल है और उन्हीं आंकड़ों से अपनी अपनी समझ के अनुसार भिन्न भिन्न निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं।

हमें वृद्धावस्था की समस्याओं पर भौतिक आर्थिक. मानसिक तथा सांस्कृतिक दृष्टियों से विचार विमर्श करना है।

स्वास्थ्यविज्ञान की कृपा से मनुष्य की औसत आयु बढ़ रही है। क्या यह खुश खबरी है। जैरॉण्टॉलॉजिस्ट वैस्टनडॉर्प लिखती हैं कि जब हमारी जीवन की परिस्थितियां बेहतर होती हैं. तब मृत्युदर कम होती है. शीघ्र प्रजनन के विकास संबन्धी दबाव कम होते हैं तथा अतिरिक्त संसाधन शारीरिक रखरखाव पर लगाए जा सकते हैं जिससे औसत उम्र तथा अधिकतम आयु बढ़ती हैं। साथ ही सभी विकसित देशों में देखा गया है कि औसत उम्र के बढ़ने से बुढ़ापे संबन्धी बीमारियां भी बढ़ती हैं। पिछली सदी के अन्तिम बीस वर्षो में यूके में महिलाओं की आयु में चार वर्षों की वृद्धि हुई है किन्तु स्वस्थ जीवन की वृद्धि केवल दो वर्ष की हुई है। अस्वस्थ्य जीवन की अवधि स्वस्थ्य जीवन की अवधि से कम बढ़ रही है। अर्थात आयु का बढ़ना अच्छाई ही अच्छाई नहीं है, क्योंकि तब बुढ़ापे के कष्ट और अधिक समय तक भुगतना पड़ेंगे। विकसित देशों में औसत उम्र तो बढ़ रही है, बूढ़ों का अनुपात भी तेजी से बढ़ रहा है। क्या 21वीं सदी रागों में डूबी होगी या प्रौद्योगिकी रोगों का अन्त कर देगी?

पिछली अर्धशताब्दी के मत्र्यता के आंकड़ों के विश्लेषणों से यह निष्कर्ष निकलता है कि आयु की कोई जैविक सीमा नहीं है। प्रचलित परिस्थितियों में हम लोग दीर्घ आयु लेकर अस्वस्थ्य ही रहेंगे। ” वैस्टनडार्प आगे कहती हैं. “संचित हुई आण्विक तथा कोशिकीय स्तर पर लगी चोटें जीवों की कोशिकाओं तथा ऊतकों के कार्यों में त्रुटियां पैदा करती हैं जिनके कारण कमजोरियां, रोग तथा मृत्यु होती हैं। जब तक उम्र लम्बी नहीं हुई थीं. प्रजनन आयु तक शरीर को प्रजनन योग्य रखने के अतिरिक्त उसके रखरखाव पर प्रकृति को खर्च करने की कोई आवश्यकता नहीं थी तथा प्रजनन की आयु के बाद तो बिलकुल ही नहीं थी। मानव की आयु का विकास प्रजनन की उम्र तक के पर्याप्त स्वस्थ्य रहने के लिये हुआ है. इससे अधिक क्षमता रोगों से लड़ने के लिये जैव विकास के कार्यक्रम में नहीं है। रोगों से लड़ने की क्षमता की कीमत पर प्रजनन उत्पादकता बढ़ाई गई है। ऐसा नहीं है कि आयुप्रभवन पर पर्यावरण तथा आनुवंशिकता का नियंत्रण नहीं है किन्तु यह पूर्वनिर्धारित भी नहीं है और न अवश्यम्भावी है। मनुष्य की औसत आयु लगातार बढ़ रही है। और हम लोग निकट भविष्य में अधिक वर्षों तक अस्वस्थ्य रहेंगे। मनुष्य की बढ़ती आयु विकसित देशों के लिये बड़ी चुनोती होगी। ”

आयुर्विज्ञानी लगातार वृद्धावस्था के रोगों के लिये औषधियों के आविष्कार कर रहे हैं। वे बेहतर जीवनशैली खोज रहे हैं। हम आशा कर रहे हैं कि इक्कीसवीं सदी में रोग नहीं होंग. वरन वृद्धों के शरीर का कायाकल्प होने लगेगा। दण्ड कोशिका प्रौद्योगिकी तथा जैनॉमिक्स स्वास्थ्य में अकल्पनीय उन्नति लाएंगे। नैनो, सूचना तथा संचार प्रौद्योगिकियां जीवन के सुभीते बढ़ाएंगी, हमारी क्षमताएं समुन्नत करेंगी, और जीवन को अधिक आरामदेह बनाएंगी। किन्तु यह विश्व की आबादी को 6 से बढ़ाकर 9 अरब कर देंगी जो पृथ्वी पर बोझ बढ़ाएंगे. वैश्विक तापक्रम बढ़ाएंगे, ध्रुव प्रदेशों के हिम को पिघला देंगे, और प्रलय जैसी स्थिति पैदा करेंगे। चारों तत्वों यथा आकाश. पृथ्वी. जल तथा वायु को अत्यधिक प्रदूषित करेंगे। नए रोगों का आक्रमण होगा. कैंसर जैसे रोगों की महामारी होगी। गरीबों के लिये बुढ़ापा और भी दुखदायी होगा। धनी व्यक्ति की मदद के लिये संतान न सही. रोबॉट्स होंगे। क्या हम प्रौद्योगिकी को अभिशाप सिद्ध कर रहे हैं। प्रौद्योगिकी भली सेविका है किन्तु स्वामिनी अधिक क्रूर है। विज्ञान अच्छा कार्य कर रहा है किन्तु उसके पास मानवता की ओर ले जाने वाला दर्शन नहीं है। हमारे ऋषियों ने वह दर्शन हजारों वर्ष पूर्व दे दिया था।

वृद्धावस्था को बेहतर बनाने के लिये समाजशास्त्री क्या सोच रहे हैं। उनके पास समस्यों के सतही हल ही नजर आ रहे हैं। उदाहरण के लिये वे कहते हैं कि वृद्धों को अकेलेपन से दूर रहना चाहिये क्योंकि अकेलेपन से अवसाद तथा अन्य दुर्दशाएं होती हैं. वृद्धों को मनपसंद गतिविधियों में हिस्सा लेना चाहिये जो उन्हें प्रफुल्ल बनाएगी। वे कहते हैं कि “अपने पिछले सुनहरे क्षणों का आस्वाद लें और वृद्धावस्था के लिये आरामदेह गद्दा बना लें…..वृद्धों को सुरुचिपूर्ण वस्त्र पहनना चाहिये. क्लब जाना चाहिये. नृत्य तथा गान में सक्रिय भाग लेना चाहिये. उन्हें नियमित व्यायाम कर अपने स्वास्थ्य का ध्यान रखना चाहिये तथा पौष्टिक भोजन करना चाहिये। ” यह सुझाव थोड़ी दूर तक ही जा सकते हैं क्योंकि एक तो यह समस्याओं के मूल में नहीं जाते और दूसरे इसमें कठिनाइयां आती हैं। पुराने मित्र उपलब्ध नहीं होते. नए मित्र बनाना कठिन काम है. बाहर निकलने में असुविधाएं होती हैं। घर में जो पौत्र पौत्रियां होना चाहिये जिनसे उन्हें प्रेम होता है. वे आज के संकुचित परिवारों में नहीं मिलते. वृद्ध जब बीमार पड़ते हैं तब दवाइयां तो मिल सकती हैं किन्तु जो स्नेहपूरित सान्त्वनाएं अपनों से मिल सकती हैं. वे नहीं मिलतीं। डॉ.दिलीप जैस्ते का कथन है कि कोई अच्छी तरह वृद्धावस्था की तरफ जा रहा है इसकी सर्वमान्य पहचान है उनमें रोग और अक्षमताओं का कम होना। किन्तु उनके इस अनुसंधान का निष्कर्ष है कि वृद्धावस्था के प्रति स्वयं वृद्धों के दृष्टिकोण का महत्व पारम्परिक सफलता तथा स्वास्थ्य की पहचान से भी अधिक होता है। सही दृष्टिकोण का विकास कैसे हो. इस पर बाद में चर्चा करेंगे।

‘हैपिनैस इन ओल्ड एज’ वैब साइट सुझाव देती है: वृद्वावस्था एक बैंख खाते की तरह है….आप उतने में ही से निकाल सकते हैं जितना आपने जमा किया है। इसलिये मेरा सुझाव है कि अपने खाते में बहुत सारा सुख जमा करें। ” सुख की अवधारणा की समझ उम्र के साथ थोड़ी बहुत बदलती रहती है। इसलिये पिछली यादें कोई आवश्यक नहीं कि सुख पहुचावें। और इस सुझाव के मानने पर तो भूतकाल में रहना कहलाएगा। जीवन तो वर्तमान में जीना है।

उसी साइट में से एक और सुझाव. “सुख तो पहले से ही चुन लिया जाता है। यह कमरा मुझे पसंद है या नहीं यह कमरे की सजावट पर निर्भर नहीं करता. वरन इस पर कि मैं अपना मन किस तरह सजाती हूं। मैंने यह कमरा पहले से ही पसंद कर लिया है। ….” यथार्थ का स्वीकार सुख के लिये आवश्यक गुण है. किन्तु तभी कि जब उसे समुन्नत करने के लिये पूरा प्रयास किया जा चुका हो। अन्यथा कल्पना का ही सुख लूटा जा सकता है। हम देखते हैं कि ये सुझाव ठीक हैं किन्तु पर्याप्त गहराई लिये नहीं हैं। इनसे स्वकेंद्रित समाज में वृद्धों को सुख शान्ति नहीं मिल सकती।

हम जानते हैं कि वृद्धावस्था में शारीरिक शक्तियां क्षीण होती हैं बीमारियां हो सकती हैं. इंद्रियों के क्षीण होने से वस्तुओं में ’स्वाद’ नहीं बचता. निरर्थकता का अनुभव भी हो सकता है। हमें अपनी शारीरिक शक्तियों के क्षीण होने पर कष्ट तो हो सकता है, किन्तु दुख क्यों? क्या इस दुख से बचा जा सकता है. इसका उत्तर हमारी जीवन दृष्टि पर निर्भर करता है। जिनके जीवन का अर्थ ही इंद्रियों के द् वारा भोग है, इंद्रियों के क्षीण होने से उन्हें निश्चित ही जीवन निरर्थक लगने लगता है और वे दुखी होते हैं। यह दुखद अनुभव भोगवादी, गरीब, और उसे जिसने जीवन को विस्तृत दृष्टि से नहीं देखा हो, अधिक होता है। भोगवादी समाज में बूढ़ा न केवल निरर्थक होता है, वरन अवांछनीय माना जाता है, उसके साथ मानवीय व्यवहार भी नहीं होता। इंद्रियों तथा स्वास्थ्य के क्षीण होने के दुख के साथ यह अमानवीय या संवेदना शून्य व्यवहार मनुष्य को कहीं अधिक दुख देता है।

पश्चिम में. और अब तो सारे संसार में भोगवाद की जड़ें बहुत गहरी जमी हैं। प्रसिद्ध उपन्यासकार सॉमरसैट मॉम को एक गोष्ठी में वृद्धावस्था के लाभ पर भाषण देना था। वे बोले– वृद्धावस्था के लाभ हैं। थोडा. और सोचने के बाद बोले– वृद्धावस्था के अनेक लाभ हैं। फिर और सोचकर बोले– वृद्धावस्था के बहुत लाभ हैं और फिर बैठ गए। अर्थात् उन्होंने रोचक शैली में घोषित कर दिया कि वृद्धावस्था के कोई लाभ न हीं हैं। कवि विलियम बटलर येट्स की एक कविता है, ‘द् लैंड आफ़ माई हार्ट्स डिज़ायर’, इस कविता में बूढों. का दयनीय चित्रण है–’ वे धार्मिक तथा रूखे होते हैंऌ उनकी बुद्धिमता चालाकी में ढल जाती हैऌ वे कडुआ बोलते हैं। अतएव कवि ऐसा परी लोक चाहता है जहां बूढे ही न हों। ’ एब्रहम लिंकन की प्रसिद्ध उक्ति है, ‘ओल्ड इज़ गोल्ड’ किन्तु ऐसे विवेकशील विद्वान वहां अपवादरूप ही मिलते हैं। एल्डस हक्से का उपन्यास ‘ब्रेव न्यू वर्ल्ड’ एक आदर्शसमाज की कल्पना करता है। उसमें मनुष्य को वृद्धावस्था के कोई कष्ट नही होते, यौन शक्ति रखते हुए आयु पूरी होने पर मृत्यु होती है! वे शराब कितनी भी पी लें, उऩ्हें हैंगओवर नहीं होता! यह दर्शाता है कि पश्चिम में भोगवादी जीवन दृष्टि कितनी गहरी है। बोस्टन में इतिहास के प्रोफैसर कर्नल एन्ड्रू बैसेविच का कथन है, ”यूएसए भोगवादी देश है और यही उसकी सबसे बड़ी समस्या है”।

एल्विन टॉफ्लर ने लिखा है कि ज्ञान की तेजी से बढ़ती दर के कारण वृद्ध लोग तारीख बाहर हो जाते हैं। इसलिये भी पश्चिम में वृद्धों का सम्मान कम होता है. यद्यपि शासन वृद्धों को अनेक सुविधाएं देता है। यह बेचारे वृद्धों के लिये सुविधाजनक तो है किन्तु उन्हे सुखी करने के लिये पर्याप्त नहीं। यूएसए के 98 प्रतिशत वृद्धाश्रमों में वृद्धों के साथ अमानवीय व्यवहार होता है। यथार्थ यह है कि वृद्धों को अपनी संतान से अपेक्षित प्रेम नहीं मिल पाता. समाज भी निरर्थक मानकर उनकी परवाह नहीं करता। उनके साथ ऐसा व्यवहार आधुनिकता के नाम पर. पारम्परिक मूल्यों के स्थान पर प्रगतिशीलता के नाम पर होता है। ब्रिटिश समाचार पत्र गार्जियन के सहायक सम्पादक मैलकम डीन कहते हैं, ‘वहां एजिज़म (वृद्धभेद) रेसिज़म (रंगभेद)की तरह ही फैला है। क्या यह प्रमाणित नहीं करता कि जब तक समाज में भोगवाद है वृद्ध अकेलापन तथा पीड़ा और दुख भोगेंगे ही।

भोगवादी समृद्ध पश्चिम में अनुत्पादक वृद्धों की संख्या में बढ़त ‘संभावित अवलम्ब अनुपात’ के कारण आर्थिक चुनौतियां पैदा कर रहा है। जापान में वृद्धों की उम्र में सर्वाधिक बढ़त हुई है। 2025 तक जापान की 73 प्रतिशत आय मुख्यतया वृद्धों के कल्याण तथा पैन्शन पर खर्च होगी। पश्चिम में वृद्धावस्था के शारीरिक तथा आर्थिक पक्षों पर जितने प्रयास हो रहे हैं, उतने संवेदन पक्ष पर नहीं। और प्रौद् योगिकी में अग्रणी पश्चिम के अधिकांश समृद्ध वद्ध भी संवेदनाशून्य जीवन व्यतीत कर रहे हैं क्योंकि उनकी संतान उनसे वर्ष में एक दो बार ही मिलने आती हैं, उनके मित्र बिछुड़ चुके होते हैं। यद्यपि वहां समृद्धि, कर्तव्य निष्ठा तथा ईमानदारी भारत से अधिक है तब भी अधिकांश वद्धाश्रम वृद्धों की समस्या से भरे पड़े हैं। हम भी उसी दिशा में जा रहे है।

अंधानुकरण किसी का भी हो अवांछनीय है। फिर भोगवाद का अंधानुकरण तो दुखदायी ही है। पश्चिम के अंधानुकरण का ही परिणाम है कि आज हमारे समाज में वृद्धों के प्रति जो व्यवहार देखने में आ रहा है वह न केवल निंदनीय है वरन हमारी मानवीय संस्कृति के प्रतिकूल है और समाज में दुख को बढ़ाने वाला है। अनेक युवा कहते हैं, ‘यदि हमारे माता पिता ने हमारा लालन पालन किया है तो कोई एहसान नहीं किया है, उन्होंने पैदा किया है तो वे लालन पालन भी करें, हम भी अपनी संतान का करेंगे। बुढ़ापे के लिये उन्हें अपना प्रबन्ध करना था, नहीं किया तो वे युवा वर्ग पर क्यों अपना वजन लादना चाहते हैं! आज जमाना बदल गया है, हम कृषि संस्कृति में नहीं रह रहे हैं। बूढे. लोग तो आउट ऑफ डेट हैं अनुत्पादक हैं, उनका हमारे लिये कोई उपयोग नहीं है, वे अपना बुढ़ापा चाहे जैसे काटें, हमारे आधुनिक जीवन में अपनी अतृप्त इच्छाओं तथा दकि यानूसी मान्यताओं के कारण बाधाएं न डालें।’ वे युवा भोगवादी हैं जो अपने सुख के लिये उन्हें वृद्धाश्रम में भरती करा देते हैं। ऐसा व्यवहार हमारे युवा वर्ग के दिमाग का दिवालियापन दिखलाता है, उनकी पाश्चात्य संस्कृति की गुलामी दर्शाती है। साथ ही यह सोच भी कि ‘माता पिता ने हमारा बचपन में लालन पालन किया है तथा वृद्धावस्था में वे असहाय हैं, अतः हमें उनकी मदद करना चाहिये’, भी वास्तव में गलत है!

बुढ़ापे के डर में एक कारण उसका मृत्यु से सम्बन्ध भी होता है। विज्ञान मृत्यु के कारणों की खोज कर रहा है जिसके लाभ होंगे। किन्तु मृत्यु के कारण समझने पर भी मृत्यु का भय तो रह ही सकता है। श्री अरबिन्द (विचार एवं झाँकियां) कहते हैं कि, “मृत्यु वह प्रश्न है जिसे प्रकृति ‘जीवन’ के समक्ष बार बार प्रस्तुत करती है ओर उसे स्मरण कराती है कि उसने अभी तक स्वयं को नही समझा है। मृत्यु द्वारा पीछा किये जाने पर वह पूर्ण जीवन के प्रति जागता है ओर उसके साधन एवं संभावना की खोज करता है।”

कोशिकाओं का समय के साथ क्षीण होना एक प्राकृतिक नियम है, किन्तु क्या बुढ़ापे का जीवन अनिवार्य है? मानवों के विपरीत, जानवर प्राकृतिक परिस्थितियों में बूढा. हो ही नहीं पाता, क्योंकि शैशव के कुछ काल को छोड़कर उन्हें अपना भरण पोषण स्वयं करना होता है। और जैसे ही वे अपना भरण पोषण और अपनी रक्षा करने में थोडा. ही अक्षम होते हैं, जीवित नहीं बचते। मनुष्य तथा अन्य जानवरों में यह बड़ा अंतर है कि जानवरों के सीखने की क्षमता बहुत सीमित होती है अतः उनका जीवन जन्मप्रदत्त क्षमताओं पर निर्भर करता है। चिम्पैन्जी मनुष्य का अन्य जातियों में अत्यंत निकट का संबन्धी है। उसके जीन्स हमारे जीन्स से केवल 2 प्रतिशत ही कम हैं। उसकी मादा 10, 12 वर्ष की आयु से प्रजनन प्रारंभ करती है, और उसकी प्रजनन क्षमता या युवावस्था चालीस वर्ष की उम्र तक ही होती है, और उसकी अधिकतम आयु भी लगभग 40 वर्ष की होती है। तुलना के लिये वनमानव गौरिल्ला की अधिकतम आयु 35 वर्ष ही है और उसकी मादा भी 30 या 32 वर्ष की उम्र तक प्रजनन करती है। लगभग इतनी ही आयु तक मानव स्त्री की भी उच्चकोटि की प्रजनन क्षमता होती है। तब मानव क्यों इससे लगभग चालीस पचास वर्ष और अधिक जीवित रहता है?

डारविन के जैव विकास सिद्धान्त के अनुसार, यदि मोटी तौर पर कहें, विश्व की प्रत्येक प्रजाति अपनी संख्या बढ़ाने में लगी रहती है। अपनी संख्या बढ़ाने की एक सरल विधि के अनुसार अपनी संतान अधिक से अधिक संख्या में पैदा की जाए और जब तक बन सके की जाए। ’मदर हाइपोथिसिस’ ’अर्थात् ’माता परिकल्पना’ के अनुसार एक प्रश्न उठता है कि मानव स्त्री साठ वर्ष की उम्र के बाद जबकि सबसे छोटी संतान बीस व र्ष की होकर लगभग स्वतंत्र जीवित रह सकेगी. क्यों लगभग सौ वर्य की उम्र तक जीवित रह सकती है। तब क्या वह परिवार पर और प्रकृति पर अनावश्यक भार नहीं बन जाती।

जीरियैट्रिशन विलियम थामस लिखते है, ‘आफ्रिका के गाम्बिया की जनजातियों के अध्ययन में यूनिवर्सिटी कॉलेज लंदन के नृशास्त्रियों ने देखा कि नानी की मदद वाले प्रजननों में शिशुओ की अतिजीतिवता (जीवित रहना) नानी की मदद न मिलने वालों की अतिजीविता की अपेक्षा 50त् अधिक थी’। ऐसे अवलोकन फिनलैंड तथा कैनेडा के औद्योगिक युग के पूर्व के आंकड़ों द्वारा भी प्रमाणित होतेहैं। अर्थात् 80 वर्ष की उम्र की वृद्ध स्त्रियां न केवल अपनी संतान के जन्म तथा विकास में वरन संतान की संतान के भी जन्म तथा विकास में प्रभावी मदद कर सकती हैं। प्रजनन में मदद करने के अतिरिक्त शिशुओं को बेहतर पौष्टिक आहार देने में भी मदद कर सकती हैं। इन अवलोकनों के आधार पर नृशास्त्री क्रिस्टिन हॉक ने ’ग्रैन्ड मदर हाइपोथीसिस” “मातामही परिकल्पना” प्रस्तुत की। वे कहती हैं. कि यदि एक मां 60 वर्ष की उम्र तक प्रजनन करती और 80 वर्ष की उम्र तक जीवित रहती अर्थात् केवल अपनी संतान की ही देखभाल करती रहती तब उसके जीन्स की अतिजीविता उतनी नहीं बढ़ती जितनी कि अभी बढ़ रही है। यह कैसे?

स्त्रियां 40 वर्ष की उम्र से कमजोर होने लगती हैं. जबकि प्रजनन के लिये मां का पूर्ण स्वस्थ होना आवश्यक है। आंकडे. दर्शाते हैं कि 40 वर्ष की उम्र के बाद की माताओं के बच्चों में कमजोरियां देखने मिलती हैं तथा मृतशिशु के जन्म तथा गर्भपात भी अधिक मिलते हैं. और अक्सर मां भी नहीं बच पाती हैं। इसलिये यदि मां अपने बच्चे 40 वर्ष की उम्र के बाद सफलतापूर्वक नहीं पैदा कर सकती तब बेहतर है कि वह अपनी पुत्रियों के प्रजनन में मदद करे और कम से कम 25 प्रतिशत अपने जीन्स का प्रसार करे। अर्थात वृद्ध स्त्रियों पर संसाधन व्यर्थ ही खर्च नहीं होते वरन बहुत लाभदायक होते हैं।

पितामह अपने लिये संसाधनों का अर्जन नहीं कर सकते. इसके लिये उन्हें अपनी संतान पर निर्भर रहना पड़ता है। और मानव ही ऐसा जानवर है जो पिता माता तथा बच्चों आदि के लिये अतिरिक्त संसाधन पैदा कर सकता है। इसलिये अपनी संतान की अतिजीविता बढ़ाने के लिये वह सहर्ष अपने वृद्ध माता पिता तथा पत्नी को सहारा दे सकता है। यही जैव विकास का कारण है कि परिवार के आपसी संबन्ध जैविकरूप से सुदृढ़ हुए हैं। अन्य जानवरों की तरह यदि मानव भी अतिरिक्त संसाधन पैदा नहीं कर सकता होता तब ’ग्रैन्ड मदर हाइपोथीसिस शायद ही सम्भव हो पाती। ग्रैन्ड मदर हाइपोथीसिस शिकारी फलाहारी जातियों के जीवन पर भी खरी उतरती है.यद्यपि ग्रैन्ड मदर हाइपोथीसिस पर वाद विवाद चलते रहते हैं।

यह भी एक रुचिकर तथ्य है कि चिम्पैन्ज़ी. गौरिल्ला में भी शिशुओं के बीच का न्यूनतम अंतराल लगभग 5 वर्ष है। उनके शिशु लगभग 4 वर्ष माता पर पूर्ण निर्भर करते हैं। जबकि मानव शिशु परिवार पर लगभग 20 वर्ष तक निर्भर करते हैं। किन्तु लगभग 1 वर्ष की आयु के बाद जब शिशु मां के दूध पर निर्भर करना छोड़ देता है. तब दादी या नानी उस शिशु की देखभाल में अच्छी खासी मदद कर सकती हैं। और इस तरह वह उस मां को एक और शिशु के जन्म के लिये स्वतंत्र कर सकती है। इस तरह मनुष्यों में शिशुओं के बीच का न्यूनतम अंतराल लगभग डेढ़ वर्ष का हो सकता है। और मनुष्य की स्त्री अपने प्रजनन काल में 12 से 13 बच्चों को जन्म दे सकती है। जब कि चिम्पैन्ज़ी या गौरिल्ला की मादाएं अपने जीवन काल में लगभग 4 बच्चे ही पैदा कर सकते हैं। किस्टिन हॉक बल देकर कहती हैं कि “जो गुण हमें एप्स अर्थात कपियों से अलग करता है वह यह नहीं कि हमारी पूर्ण आयु की तुलना में प्रजनन की अधिकतम आयु कमतर हुई है. वरन यह कि अन्य जानवरों में वृद्धावस्था नहीं है।”

इस विषय पर अनेक दृष्टियों से अनुसंधान किये जा रहे हैं यथा. अतिजीविता तथा संसाधनों के प्रभावी उपयोग के संबन्ध एक तरफ और दूसरी तरफ दीर्घ जीवन. बुद्धि तथा भोजन के आपसी सम्बन्धों की दृष्टि से। यह देखा गया कि मातामही परिकल्पना इन सम्बन्धों को समझाने में भी पूरी खरी उतरती है।’ पूरे वजन को बिना खास बढ़ाए. मस्तिष्क क्ष्व्के वजन का बढ़ना’ एक और इसी अनुसंधान का उदाहरण है। यदि मनुष्‍य के मतिष्क का वजन बढ़ाने के लिये उसके शरीर का वजन भी बढ़ाना पड़ता तब अनेक समस्याएं खड़ी हो जातीं। एक तो उसे अधिक भोजन की आवश्यकता होती. तब कि उस काल में बिना उपयुक्त हथियारों के जब पर्याप्त शिकार करना तथा फल इकट्ठे करना ही कठिन था। और मस्तिष्क स्वयं ही अपने ऊपर अपने वजन के अनुपात में कहीं अधिक ऊर्जा खर्च करता है। अतएव बिना वजन बढ़ाए भी. बड़े मस्तिष्क के लिये अधिक आहार की मांग शरीर के à ��जन में कमी की मांग कर रही थी। यह तब संभव था कि जब अधिक ऊर्जापूरित आहार पर्याप्त मात्रा में मिल सकता ताकि पेट का वजन कम किया जा सकता। बेहतर आहार की खोज के लिये बेहतर मस्तिष्क की आवश्यकता थी। इस तरह मस्तिष्क तथा पेट ने आपस में सहयोग किया। काश कि आज भी मस्तिष्क ओर पेट में ऐसा सहयोग होता. तब माटापे की समस्या न खड़ी होती। खैर, बेहतर मस्तिष्‍क के विकास के लिये तथा उपयोग करना सीखने के लिये लम्बे कैशोर्य की आवश्यकता है। अर्थात बच्चों की अपने संयुक्त परिवार पर तथा समाज पर निर्भरता भी बढ़ गई।

इसके पहले कि अधिक बड़े मस्तिष्क वाला शिशु पैदा हो सके. एक और महत्वपूर्ण विकास की आवश्यकता थी। लगभग 20 लाख वर्ष पहले मनुष्य के पूर्वज आस्ट्रैलोपिथैकस की मादा पुरुष से बहुत छोटी हुआ करती थी। चिम्पैन्ज़ी तथा गौरिल्ला की मादाएं भी नर की तुलना में बहुत छोटी होती हैं। यदि बड़े मस्तिष्क वाले अनेक बच्चे पैदा होना है तब स्त्री के शरीर को भी अधिक बड़ा तथा सशक्त होना जरूरी है। ऐसा विकास कुछ लाख वर्षों में हुआ जैसा कि ऑस्ट्रैलोपिथैकस से होमो एर्गास्टस और फिर होमो इरैक्टस के विकास में देखा जा सकता है। बड़ी स्त्री बडे. मस्तिष्क वाले शिशु को जन्म दे सकती है। आधुनिक शिशु का मस्तिष्क जन्म के समय 400 मि.लि.का होता है. जो विकास पश्चात 1200 मि.लि. का हो जाता है। । प्रकृति ने संभवतः इससे बड़े मस्तिष्क की आवश्यकता नहीं समझी। मेरे ख्याल में तो इतने मस्तिष्क ने ही विकास की बागडोर अपने हाथ में छीन ली है और सभी को खतरे में डाल रहा है। अस्तु. 400 से 1200 मि.लि. की विकास यात्रा में लगभग पन्द्रह से बीस वर्ष लगते हैं। मस्तिष्क का यह विकास मात्र न्यूरॉनों की बढ़त नहीं है. वरन उस का उपयोग करने की पद्धति सीखना भी उसमें शामिल है.और न्यूरॉन के विकास तथा सीखने के विकास परस्पर आश्रित हैं। यदि कोई कौशल अच्छे से सीखा जाए तब न्यूरॉन भी अच्छे से विकसित होंगे।

कपि की सीखने की योग्यता बहुत सीमित होती है. जब कि मनुष्य के सीखने की योग्यता असीम है। और इसलिये उसे सिखाने वाले की आवश्यकता भी होती है। मनुष्य विशेषकर शिशु गलतियां करके सीखते हैं। यदि शिशु को सिखानेवाला नहीं होगा तब वह वे गलतियां दुहराएगा जो उसके पूर्वज कर चुके हैं और इसलिये उसकी एक संतति से दूसरी संतति में प्रगति शायद ही होगी. यही कि जैसी चिम्पैन्ज़ी की संतानें आज भी अधिकांशतया वही गलतियां कर रही हैं जो उनके हजारों वर्ष पहले पूर्वज कर चुके हैं। अनुभवी व्यक्तियों से सीखने की यही प्रक्रिया है जिसकी कृपा से वह एक विवेकशील मानव. होमो सेपियन्स.बन सका है। और इसके लिये उसे बीस पच्चीस वर्ष लग जाते हैं।

यह शिक्षा अवश्य ही माता पिता तथा कुछ संस्थाएं देने का प्रयास करते हैं, किन्तु वह उन्हें मानवता प्रदान करने के लिये पर्याप्त नहीं हो पाती। एक तो. माता पिता अपने तथा परिवार के जीवन के लिये आवश्यक संसाधनों के अर्जन में व्यस्त रहते हैं। दूसरे. वे थक भी जाते हैं फिर. उनमें धीरज और ज्ञान की भी कमी होती है। और अतिरिक्त समय भी उनके पास कम ही होता है। जब कि दादा दादी नाना नानी के पास समय. अनुभव. धीरज. ज्ञान. अवकाश तथा स्नेहमय मन होता है जो सब शिशु के शिक्षण के लिये नितांत उपयोगी हैं। दादा दादी नाना नानी के होने से उन बच्चों की अतिजीविता तथा योग्यता कहीं अधिक बढ़ जाती है। दादी आदि द्वारा प्रदत्त अतिजीविता का यह लाभ केवल जन्म होने या शैशव अवस्था तक ही सीमित नहीं है। माता पिता मुख्यतया भैतिक जीवन के संसाधन इकट्ठे करने में बहुत व्यस्त रहते हैं। और यह सौभाग्य की बात है कि निर्बल शरीर वाले दादा दादी संसाधन इकट्ठे कर नहीं सकते, अन्यथा वे भी संसाधनों के अर्जन में लगे रहते जैसे कि डॉक्टर व्यापारी आदि..और मानवता का विकास बहुत धीमा हो जाता। अतः यदि रक्षा विभाग की शब्दावली का उपयोग करें तब, सेनापति जो कि मोर्चे पर जाकर टैक्टिकल (अल्पकालीन) युद्ध नहीं लड़ता, और स्ट्रैटजिक (दीर्घकालीन) योजनाएं बनाता है. उसकी तरह, वृद्ध जीवन के टैक्टिकल (अल्पकालीन)दबावों से मुक्त हो सकते हैं, अतः स्ट्रैटजिक (दीर्घकालीन) कार्य पभावी रूप से कर सकते हैं। और दादा दादी (नाना नानी) अपने जीवन के अनुभवों के तथा वे अपने दादा दादी द्वारा प्राप्त उपयोगी ज्ञान तथा मानवीय संस्कारों के भंडार होते हैं, और वृद्धावस्था की कृपा से ही उनके पास समय तथा योग्यता होती है, जिसमें उचित ज्ञान वे सहर्ष अपने प्रौत्रों तथा पौत्रियों को दे सकते है। शिक्षा के साथ ही वे शिशुओं को प्रेममय वातावरण देते हैं जो उनके संवेदनात्मक तथा मानवीय विकास के लिये अधिक आवश्यक होता है, जो उन्हें मँहगे ‘क्रेश’ भी नहीं दे सकते। तभी वे बालक बालिकाएं प्रेम. दया. भलाई. त्याग आदि का ’अर्थ’ समझकर आत्मसात कर सकते हैं। ऐसा जीवन स्वयं उन वृद्धों को भी सार्थक लगता है। प्रकृति ने परिवार को तीनों संततियों के साथ साथ प्रेम से रहने के लिये बनाया है। और वे सभी ऐसे प्रेममय वातावरण में रखते हुए, चाहे वे गरीब हों, सुखी रह सकते हैं। संस्कृति का विकास और इसलिये मानव का विकास वृद्धों द्वारा प्रदत्त ऐसी जीवनशैली से हुआ है।

दादी आदि द्वारा दी गई शिक्षा प्रत्येक संतति के साथ विकसित होती चलती है। दादा आदि के कार्य अपने परिवार तक ही सीमित नहीं हैं वरन विद्वत्ता के अनुसार वे समाज के लिये उपयोगी ज्ञान भी देते हैं रामायण. महाभारत आदि ग्रन्थ ऐसे ही महान वृद्धों की रचनाएं हैं जो हमें मानवता की शिक्षा दे रहे हैं। संस्कृति हजारों वर्षो का उपयोगी ज्ञान जीवन्त रखती है, जिसकी मदद से मानव तेजी से प्रगति कर सके हैं। हमारे यहां ऐसी कहावते हैं, एक अफ्रीकी कहावत भी है, ‘एक वृद्ध एक पुस्तकालय के समान है।’

सांस्कृतिक शिक्षा देने की सबसे पुरानी शैली कहानी ही हो सकती है। वह कहानी प्रारंभ में यथार्थिक अधिक रही होगी और धीरे धीरे उसे अधिक प्रभावी बनाने के लिये कल्पना का पुट जोड़ा गया होगा। कहानी का ध्येय रोजमर्रा के लिये आवश्यक जानकारी देना भी होगा और बच्चों को अन्य के साथ कैसा व्यवहार करना भी. और मानव बनने के लिये जीवन मूल्य देना भी। साथ ही बच्चों के मन को पकड़ने के लिये कहानी को रोचक बनाना आवश्यक रहा होगा।

वृद्ध लोग परिवार पर अपने संसाधनों के लिये निर्भर करते हैं यह स्वागत योग्य है। वृद्धावस्था मानवता के लिये प्रकृति का अनोखा वरदान है। वृद्धावस्था ने ही मानवीय संस्कृति तथा सभ्यता का विकास किया है। वृद्धावस्था प्रकृति की भूल या अभिशाप नहीं है, वरदान है। मानव जिस सभ्यता के शिखर पर पहुँचा हैं, वृद्धों की कृपा से पहुँचा है। बूढे. तथा वृद्ध में अंतर है। शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक शक्तियों का उम्र के साथ क्षीण होना बुढ़ापा है। वेद उसे वृद्ध कहते हैं जो वेदों का अध्येता है, ज्ञानी है. चाहे वह युवा ही क्यों न हो। भारतीय मनीषा के अनुसार मात्र सफेद बालों वाला.किन्तु अज्ञानी. व्यक्ति वृद्ध नहीं है, बूढ़ा है। हमारे वृद्ध अपने पौत्र पौत्रियों के भविष्य के लिये उत्सुक होते हैं। वृद्धावस्था के लिये ज्ञानी होना आवश्यक है जो उचित शिक्षा दे सकता है।

बच्चे के लिये सांस्कृतिक शिक्षा उतनी ही महत्वपूर्ण है.यदि अधिक नही. जितनी कि उनके शरीर की देखभाल करना। सांस्कृतिक शिक्षा में प्रेम, सत्य, अहिंसा, सहनशीलता, उदारता, विवेक, सहयोग, बौद्धिक विकास, परिश्रम, भावनाओं पर नियंत्रण, धैर्य, सेवा, क्षमा, अस्तेय, साहस, जोखिम, कल्पना शक्ति, खोज, नवाचार, सृजनशीलता आदि गुणों के विकास का प्रयास होता है जो उपयुक्त बालकथाओं द्वारा सरलतापूर्वक किया जा सकता है। बालकथाओं के संग्रहों के उदाहरण हैं पंचतंत्र.हितोपदेश, रामायण, महाभारत, संहासन बत्तीसी, विक्रम बेताल, आदि आदि। किन्तु आज नानी की कहानी का स्थान टीवी ने ले लिया है। यूके तक में टीवी कहर ढा रहा है। बी बी सी खबर देता है कि यू के में आज किशोर तथा युवा मानवीय गुणों में कमजोर हैं इतने कि वे समाज के लिये गंभीर समस्या बन गए हैं। मोटापा, शराबखोरी और हिंसा, कुमारी माताओं की समस्या पुलिस, माता पिता, शिक्षक आदि हताशा का अनुभव कर रहे हैं। मानवीय संस्कारों के बिना किशोर या युवा समाज के लिये बंदरों के समाज की अपेक्षा अधिक खतरनाक है।

टाफ़्लर जैसे कुछ चिन्तकों ने पारम्परिक परिवार के टूटने को आधुनिक जीवन के लिये आवश्यक माना है। वे कहते हैं कि प्रौद्योगिक युग में नौकरियां दूर दूर मिलती हैं। आज अच्छे अस्पताल उपलब्ध हैं अतः दादी की मदद आवश्यक नहीं है। ‘सोशल सैक्योरिटी’ वृद्धों को संसाधन देती है। क्रैश तथा नर्सरी स्कूल भी दादी का काम अच्छे से करते हैं। आज व्यक्ति अपनी स्वतंत्रता को अधिक महत्व देता है जो संयुक्‍त परिवार में संभव नहीं है। जिस गति से जानकारी बढ़ रही है. वृद्ध यहां तक कि माता पिता भी तारीख बाहर हो जाते हैं। अतः युवा को 16 वर्ष की आयु के बाद अपने हमउम्र साथियों के साथ रहना अधिक लाभदायक है। यह स्वतंत्र जीवन युवा को कुछ उपयोगी शिक्षा दे या न दे. किन्तु इसने निश्चित ही संयुक्त परिवार को तोड़कर नाभिक बना दिया है। यह दृष्टिकोण कि वृद्ध तारीख बाहर हैं, भोगवादी दृष्टिकोण है। वृद्ध नौकरी देने वाले ज्ञान में तारीख बाहर हो सकते हैं. किन्तु सांस्कृतिक ज्ञान देने में कतई नहीं। वे समाजशास्त्री भी जो पश्चिम की पदार्थवादी या साम्यवादी सोच से प्रभावित हैं, उनके जैसा ही सोचते हैं, उन्हें संयुक्त परिवार के लाभ दिखाई ही नहीं देते और न वहां की बुराइयां, जब कि वहां के समाज में युवा की दशा चिंतनीय है। सौभाग्य से वहां के कुछ चिन्तक अब वहां की कमजोरियों को समझने लगे हैं। यथा सिद्ध जनसांख्यिकी विद्वान बैन वाटैनबर्ग ने बहुत ही सूत्र रूप में कहा है. “क्या आप बुढ़ापे में सुरक्षा चाहते हैं. तब आप डॉलर्स अपनी सुरक्षा निधि में नहीं वरन बच्चों में लगाइये।” इस नाभिकीय परिवार की संस्कृति में वृद्धजन व्यर्थ हो रहे हैं. और परिवार दुखी हो रहे हैं। जब् कि सभी जीव सुखी होना चाहते हैं।

हम सुख खोज तो रहे हैं किन्तु जानते नहीं हैं कि वह कैसे मिलता है। यह अमेरिकी नोबेल पुरस्कृत डैनी कानमैन, रिचर्ड ईस्टरलिंग आदि अनेक मनोवैज्ञानिकों का भी कहना है। वृद्धों के ज्ञान का एक रोचक उदाहरण उपयोगी भी है। प्रारंभिक अमेरिकी प्रवासी जब यूएसए गए तब उनहेने जिस क्रूरता से आदिवासियों का विनाश किया वह इतिहास का महत्वपूर्ण हिस्सा है। वे उनकी जमीनें लूट रहे थे और दिखावे के लिये उसे खरीदना कहते थे। सिएटल के दुवामिश तथा सुक्वामिश मूलजातियों के नेता ’चीफ सिएटल क्ष्क्ष्िि ’ ने ऐसे ही एक प्रस्ताव के उत्तर में राष्ट्रपति फ्रैंकलिन पियर्स को 1855 में एक पत्र लिखा था :

“वाशिंगटन के ग्रेट चीफ ने संदेश भेजा है कि वे हमारी जमीन खरीदना चाहते हैं। … किन्तु हम आपके प्रस्ताव पर विचार करेंगे. क्योंकि हम जानते हैं कि हमारे न कहने पर गोरे लोग बन्दूक लेकर हम पर बरस पड़ेंगे और हमारी जमीन छीन लेंगे। ….आप आकाश या जमीन की उष्णता कैसे खरीद या बेच सकते हैं। यह विचार ही हमें अजीब लगता है। क्योंकि हम तो हवा की सुगंध या कलकल करते जल के स्वामी ही नहीं हैं। ….प्रथ्वी का प्रत्येक कण हमारे लिये पवित्र है। ….जब सारे जंगल के भैंसों की हत्या कर दी जाएगी.वन अश्वों को पालतू बना दिया जाएगा. और जब वन के गुप्त कोनों में भी आदमी की गंध भर जाएगी. और जब पुरातन गिरि के दृश्य पर ’बात करने वाले तार’ छा जाएंगे. तब निकुंज कहां बचेगा. सुपर्ण कहां होगा. समाप्त हो गया होगा।” इसे उद्धृत करने का उद्देश्य यह देखना है कि तथाकथित अपढ़, असभ्य तथा क्रूर आदिवासी वृद्ध क ी जीवनमूल्यों की सोच कितनी मानवीय तथा प्रकृतिप्रेमी तथा शाश्वत हो सकती है, और उसके बरअक्स तथाकथित सुशिक्षित.सभ्य तथा भोगवादी के जीवनमूल्यों की सोच कितनी अमानवीय.प्रकृतिद्रोही तथा त्याज्य हो सकती है कि दुख बढ़ रहे हैं और प्रथ्वी का विनाश ही सिर पर नाच रहा है।

तैत्तरीय उपनिषद(2.7.1.)में ऋषि कहते हैं, “यद्वै तत्सुकृतं, रसो वै सः। ” ’जो उसने रचा है वह आनन्द ही है।’ वृद्धावस्था भी आन्दमय है! वरदान है अभिशाप नहीं। जीवन में कष्ट तो होंगे. किन्तु दुखी होना आवश्यक नहीं। जीन्स आयु का क्षरण करते हैं. शरीर दुर्बल करते हैं. किन्तु संस्कृति सुख पैदा करती है। यदि जीवन में सार्थकता है तो कष्टों.कठिनाइयों से जूझने में. उनके पार जाने में सुख है। न केवल हमारी अतिजीविता वरन सभ्यता, संस्कृति तथा सुख की समझ इसी वृद्धावस्था की परिपक्व सोच की देन हैं। संस्कृति आनुवंशिकता की संपूरक है। वृद्धजन स्नेहमय वातावरण में बालकों में संस्कार डालते हैं। नैतिक सूक्तों को अंकुरित करने के लिये मस्तिष्क नहीं. वरन हृदय प्रभावी भूमि है। जब मां या नानी बच्चे से कहती हैं कि सच बोलो तब बच्चा उसे सहज ही मान लेता है. किन्तु शिक्षक के बोलने पर वह सोचने लगता है। हमारे संयुक्त परिवार में वृद्ध निरर्थक नहीं समझे जाते, वरन सम्मानीय होते हैं। ‘सेवा सुश्रूषा’ का अर्थ होता है, कहानी आदि सुनने के साथ प्रसन्न होकर सेवा करना। कहानियों से बच्चे प्रसन्न होकर दादा दादी से प्रेम करते हैं, उनकी सेवा करते हैं। दोनों वरन तीनों संततियों को लाभ होता है. समाज को लाभ होता है। रामायण, महाभारत, पंचत्रंत, हितोपदेश, सिंहासन बत्तीसी, विक्रम बेताल जैसी कहानियों से बच्चों में मानवीय संस्कार पड़ते हैं, उनकी बुद्धि का विकास होता है। अतः आज तो यह और भी अधिक जरूरी हो गया है कि वृद्ध कम से कम अपने पौत्रादि को कहानियों आदि के माध्यम से मानवता के संस्कार दें। रुपए कमाने में अक्षम होने के कारण अब वृद्धजन उस संपत्ति का अर्जन कर सकते हैं जिसे रुपए नहीं खरीद सकते। इससे वृद्धों के जीवन में भी सार्थकता आएगी, उनका आत्मविश्वास बढे.गा और उनका समाज में सम्मान भी। वे यह संस्कार डालने का कार्य अपने पौत्रादि तक ही सीमित न रखकर यदि समाज के अन्य विशेषकर निर्धन बालकों के साथ भी कर सकें तब एक तो उनके जीवन में सार्थकता और बढ़ेगी तथा दूसरे, वे समाज का ऋण भी चुकाएंगे।

भोगवादी पश्चिम में परिवार नाभिक हैं, जो उन्हें अमानवीय बना रहे हैं। दार्शनिक कान्ट की नीति शास्त्र का आधार है “कैटैगॉरिकल इंपरेटिव’- ’एक मानव दूसरे का वस्तु की तरह उपयोग नहीं करेगा’। इसके विरुद्ध भोगवाद में ‘प्रत्येक मानव भोगवदियों के लिये भोग की वस्तु हो रहा है’। यही ’विश्वग्राम’ ’ग्लोबल विलेज’ का आधार है। और ’वसुधैव कुटुम्बकम’ का आधार प्रेम है। ’विश्वग्राम; के वृद्ध मातापिता अनुत्पादक तथा निरर्थक माने जाते हैं, अतः महत्वहीन हो जाते हैं. किन्तु संयुक्त परिवार में सार्थक तथा सम्माननीय होते हैं। फुको द्वारा प्रतिपादित अवधारणा कि सत्ता, केवल शासन या धन के पास नहीं, सत्ता सव जगह है, परिवार में भी है जो बूढो के पास रहती है और उसे तारीखबाहर बूढों के पास नहीं रहना चाहिये।’ भारतीय संस्कृति में सत्ता वृद्धों के पास रहती है क्योंकि संतान का मातापिता दादा आदि से अधिक भला चाहने वाला दूसरा नहीं होता। भारतीय वृद्ध की सत्ता का आधार प्रेम होता है. जिसका सदुपयोग करना वृद्ध जानता है, और त्याग करना भी। वृद्धों से सत्ता के छीनने का दुष्परिणाम है कि अब बच्चों पर पूंजीवादी तथा टीवी का कब्जा हो गया है। उनका भोगवादी समाज बच्चों किशोरों का शोषण करने के लिये परिवार में फूट डालता है, और दुख की बात कि हम उनके जाल में मस्त होकर फँस जाते हैं। भोगवादी चाहे जितना कुप्रचार करें, भारतीय सुसंस्कृत वृद्ध बालकों के लिये, मानवता के लिये कभी ‘तारीखबाहर’ नहीं होता, उसकी योग्यता कम अधिक हो सकती है।

हम पश्चिम की नकल कर भोगवादी हो रहे हैं। हमारे परिवार भी टूटकर नाभिक हो रहे हैं। वृद्धों को अनुपयोगी भार समझा जा रहा है। पढे. लिखे लोग भी नितान्त स्वार्थी होकर राक्षसत्व की ओर बढ़ रहे हैं। निठारी केवल नौएडा में नहीं वरन् भारत के हर शहर में छिपे हैं, और हम इतने स्वकेंद्रित हो गए हैं कि हमें पता तक नहीं! वृद्धों का घर में, समाज में सम्मान नहीं है। वृद्धों को बेटे बहू घर से बाहर निकाल रहा हैं। वृद्धों की हत्या कर उन्हें लूटा जा रहा हैं। आज भारत में भी वृद्धाश्रम खोले जा रहे हैं जो भारतीय संस्कृति के लिये कलंक हैं। हां, निस्सहाय वृद्धों के लिये वृद्धाश्रम खोले जा सकते हैं। शिक्षा में पश्चिम के और आज के भारतीय बालकों को रोटी कमाने का कौशल तो मिलता है, किन्तु पर्याप्त नैतिक शिक्षा नहीं मिलती, जिसके फलस्वरूप राक्षसत्व बढ़ रहा है। हम भूल जाते हैं कि यदि समाज में मानवता कम हो तो अपराधों के कारण हमारा जीवन नरक के समान हो जाएगा, और तब पुलिस भी तो अमानवीय होगी! अतः समाज को और बालकों को मानवीय संस्कार देना अत्यंत महत्वपूर्ण है।

यह स्पष्ट है कि हम भोगवाद अर्थात अमानवीयता की दिशा में तेजी से जा रहे हैं, और हम पश्चिम से भी अधिक दुखी होंगे। मानवीयता को लाना अर्थात भारतीय संस्कृति को वापिस लाना हमारे लिये सबसे पहली चुनौती हैं। यह वैश्विक ग्रामवाला बाजारवाद भोगवाद का ही उपकरण हैं। अनेक विद्वान कहते हैं कि यह बाजारवाद तो जा नहीं सकता। हमारे जीवन का दृष्टिकोण जब ‘त्यागमय भोग’ होगा तब बाजारवाद नहीं केवल बाजार बच सकेगा। हमें बाजार चाहिये बाजारवाद नहीं, क्योंकि बाजारवाद में बाजार हमारे जीवन पर नियंत्रण करता है। हम बाजार से वह ही खरीदें जिसकी हमें आवश्यकता हैं, वह नहीं जो हमें बाजार लुभाकर बेचना चाहता है। और त्यागमयभोग हमें अपनी आवश्यकताओं को समझने का विवेक दे सकता है। हमारी संस्कृति भोगवाद को निकाल बाहर करेगी। किन्तु विदेशी भाषा के माध्यम से शिक्षा विदेशी संस्कृति ही लाएगी। यदि हम अंग्रेजी माध्यम में शिक्षा प्राप्त करते रहे तब हमारी गुलामी की भावना और बढ़ती जाएगी, तथा पाश्चात्य संस्कृति हम पर हावी होगी और हम निश्चित ही भोगवाद तथा अलगाववाद की तरफ ही बढेंगे। अंग्रेजी सीखें. किन्तु हम भारतीय भाषाओं के माध्यम से ही शिक्षा प्राप्त करें।

हमारी संस्कृति ‘तारीख बाहर’ नहीं हैं, उसमें आधुनिक बने रहने की पूरी क्षमताएं हैं। हमारी संस्कृति हमें तथा विश्व को भोगवाद के राक्षस से बचाएगी, क्योंकि यह ‘तेन त्यक्तेन भुंजीथाः’ त्यागमयभोग वाली संस्कृति है। त्यागमय भोग का अर्थ है भोग की गुलामी का त्याग.न कि भोग का त्याग। इच्छाओं पर विवेक का अंकुश ही हमें प्रौद्योगिकी के दासत्व से मुक्ति दिलवाकर, उसका स्वामी बनाएगी। हमारी संस्कृति विज्ञान की मित्र है, अतः हमारी विज्ञान में सम्यक प्रगति हो सकेगी। हम अंग्रेजी सीखें उतनी कि जो नौकरी के लिये आवश्यक हैं, और अपनी संस्कृति लाने के लिये हम अंग्रेजी की गुलामी छोड़कर भारतीय भाषाओं को सम्मान दें।

भारतीय संस्कृति में संयुक्त परिवार की परम्परा है, वृद्धों का सम्मान है। मनु स्मृति में लिखा है,

“अभिवादन शीलस्य नित्य वृद्ध उपसेविनः। चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्या यशोबलम्।”

वृद्धावस्था में कष्ट तो होंगे, दुख होना जरूरी नहीं है। हमें तो वृद्धावस्था के वरदान पक्ष को लाना चाहिये। यह हम तभी कर सकते हैं कि जब हम भोगवादी न हों और प्रौद्योगिकी के स्वामी हों न कि गुलाम जैसे कि अभी हैं। हम वृद्ध होने से डरते नहीं हैं, हम तो उसकी कामना करते हैं। यजुर्वेद में कहा है: “अदीनाः श्याम शरदः शतम्। भूयश्च शरदः शतात्। ” ‘सौ वर्षों तक हम दीन न हों, सौ वर्षों तक जीवन जिये।’ हमारे यहां सौ वर्षों तक जीने का आशीर्वाद दिया जाता है। हम मानते हैं, “मातृ देवो भव, पितृ देवो भव, आचार्य देवो भव…..” वृद्धजन जीवन में एक सार्थक उद्देश्य चाहते हैं. अपना सम्मान चाहते हैं जो संयुक्त परिवार में सम्भव है। वह समाज की भी सेवा करेगा। वृद्धावस्था के कष्टों को सहर्ष झेलेगा। महाभारत में सभा की परिभाषा दी है, ‘ सभा वह है जहां सम्यक ज्ञान है। “ न सा सभा यत्र न सन्ति वृद्धः। वृद्धाः न ते ये न वदन्ति धर्मम्। ” जो ज्ञान की चर्चा नहीं करते वे वृद्ध नहीं। वह सभा नहीं जहां वृद्ध नहीं, वह चाहे लोक सभा हो या विधान सभा या यह सभा। भारत देश में जब वृद्धों का, भारतीय संस्कृति का तथा विज्ञान का उचित सम्मान होगा, तभी 21 वीं सदी में भारत विश्व में अपना माथा ऊँचा कर सकेगा, तथा विश्व का नेतृत्व भी।

विविधतापूर्ण खेती से कम हो सकती है मंहगाई

-सतीश सिंह

सुशासन बाबू के नाम से विख्यात बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के गृह जिले नालंदा के हिलसा प्रखंड के गांवों में आजकल पारंपरिक पद्धति की जगह अधतन एवं विविधतापूर्ण तरीके से खेती करने का चलन जोर पकड़ता चला जा रहा है। आय में वृध्दि के लिए इस प्रखंड के किसान पारंपरिक फसलों धान व गेंहूं की जगह नगदी फसलों मसलन सूरजमुखी, सब्जी और मसालों की खेती करने लगे हैं। गौरतलब है कि सूरजमुखी के फूलों से तेल निकाला जाता है और वह पारंपरिक अनाजों से महंगा बिकता है। मौसमी सब्जियों और मसालों से भी इस प्रखंड के किसानों को अच्छी आमदनी हो रही है। पखनपुर, बलवापुर, कावा, धर्मपुर, मजीतपुर इत्यादि गांवों के किसानों जोकि ज्यादा पढ़े-लिखे नहीं हैं ने बिना किसी सरकारी मदद के अपने बलबूते पर सभी लोगों के सामने एक नई मिसाल पेष की है। हिम्मत और कुछ नया करने की जिजीविषा की वजह से धीरे-धीरे इस प्रखंड के किसानों की जिंदगी बदल रही है।

पखनपुर गांव के अरविंद महत्तो बताते हैं कि उन्हें अपने पिताजी के इंतकाल के बाद एक लंबा संघर्ष करना पड़ा। पिताजी तीन भाई थे। दादा के पास लगभग 15 बीघा जमीन थी। बंटवारा के बाद पिताजी के हिस्से 5 बीघा जमीन आई। श्री महत्तो 4 भाई और 2 बहन हैं। पिताजी के देहांत के समय श्री महत्तो बहुत छोटे थे, लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। कम जमीन होने के कारण श्री महत्तो बटाई पर खेती करने लगे। दोनों चाचा नौकरी करते थे। इस कारण उनकी जमीन भी श्री महत्तो को मिल गई। बावजूद इसके श्री महत्तो का बमुकल गुजर-बसर हो पाता था। फिर श्री महत्तो ने घर और गांववालों के विरोध के बावजूद सूरजमुखी की खेती करना शुरु किया। थोड़ी-बहुत शुरुआती दिक्कतों के बाद श्री महत्तो की जिंदगी सूरजमुखी के कारण बदल गई। सूरजमुखी के साथ-साथ श्री महत्तो छिट-पुट तरीके से सब्जियों तथा मसालों की भी खेती कर रहे हैं। श्री महत्तो से प्रेरित होकर हिलसा प्रखंड के दूसरे गांवों में भी आज सूरजमुखी की खेती की जा रही है।

श्री महत्तो की सफलता के पीछे गांवों का सड़क मार्ग से जुड़ा रहना भी रहा है। इस प्रखंड में स्टोरेज की व्यवस्था भी ठीक-ठाक है। साथ ही जिला मुख्यालय बिहारषरीफ में सब्जियों की बहुत बड़ी मंडी भी है। वहां से झारखंड और दूसरे आस-पास के राज्यों में सब्जियों का निर्यात किया जाता है।

ज्ञातव्य है कि बिहार के नालंदा जिले में मसालों की बहुतायात मात्रा में खेती किया जाना संभव नहीं है, क्योंकि यहाँ की जलवायु प्रतिकूल है। फिर भी पारंपरिक खेती की तुलना में कम उत्पादन होने के बाद भी मसालों से इस प्रखंड के किसानों को अच्छी-खासी आमदनी हो रही है।

इस प्रखंड में अरविंद महत्तो सरीखे कई किसान हैं जो रोज एक नये मुकाम की ओर अग्रसर हैं। जागरुकता की नई हवा ने प्रखंड के गांवों की फिजा ही बदल दी है। यहाँ के किसानों ने कठिन और प्रतिकूल परिस्थितियों में सफलता की नई इबारत लिखना सीख लिया है। श्री अरविंद महत्तो की सफलता आज के प्ररिप्रेक्ष्य में इसलिए भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि महंगाई डायन के वाणों से आज भारत की 40 फीसदी गरीब जनता आहत है।

खाद्य पदार्थों की लगातार बढ़ती कीमत महंगाई डायन को और भी खतरनाक बना रही है। सरकार इसे काबू करने में नाकाम हो चुकी है। भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा रेपो और रिवर्स रेपो दरों में बारम्बार बढ़ोतरी के बाद भी मंहगाई की दर कम नहीं हो पा रही है। अगस्त के महीने में हालांकि थोक मूल्य सूचकांक में गिरावट आई है, फिर भी महंगाई की दर अभी भी 11.50 फीसदी पर बनी हुई है।

अब जानकारों का मानना है कि किसान ही इस महंगाई को कम कर सकते हैं, क्योंकि महंगाई के बेकाबू होने में मुख्य भूमिका खाद्य पदार्थों की लगातार बढ़ती कीमत की रही है।

योजना आयोग के मुख्य सलाहकार श्री प्रणव सेन भी कहते हैं कि भारत के किसानों को फसलों के उत्पादन के बरक्स में अपने रुझान को बदलना चाहिए। दरअसल अभी तक किसानों की सोच पारंपरिक फसलों के उत्पादन तक ही सीमित है। हो सकता है किसानों की इसतरह की सोच के पीछे सरकार की न्यूनतम समर्थन मूल्य तय करने की नीति रही हो या फिर यह भी हो सकता है कि देष के दूसरे हिस्से के किसानों में अरविंद महत्ताो के समान नई चुनौतियों का सामना करने का माद्दा न हो।

इसमें दो मत नहीं है कि यदि फसलों के उत्पादन में विविधता लाई जाती है तो मंहगाई पर काबू पाना आसान हो जाएगा। इससे जुड़ा दूसरा पहलू यह है भी है कि विविधतापूर्ण कृषि से किसानों की आर्थिक स्थिति में भी जबर्दस्त सुधार आएगा।

मुख्य फसलों की तरफ किसानों द्वारा सिर्फ ध्यान देने के कारण ही आज हमारे देश में सब्जी, मीट, मछली, फल, दूध इत्यादि का कम उत्पादन हो रहा है। इन विकल्पों के अभाव में किसान आत्महत्या करने के लिए भी विवश हो रहे हैं।

महंगाई को बढ़ाने में दूसरी महत्वपूर्ण कमी स्टोरेज और ट्रांसर्पोटेशन की समस्या का होना भी है। आज भी भारत में पंचायत, तहसील और जिला स्तर पर स्टोरेज का भारी अभाव है। पूरे देश में सड़क मार्ग जर्जर अवस्था में है, जबकि सड़क मार्ग को देश की धमनी माना जाता है। इसके कारण अनाज आम आदमी तक पहुँचने से पहले ही सड़ जा रहा है।

कृषि के तकनीक में आते निरंतर बदलाव और आधारभूत संरचना में लगातार आते सुधार के माहौल में किसानों को बिहार के नालंदा जिले के हिलसा प्रखंड के किसानों से प्रेरणा लेकर अपनी पारंपरिक खेती करने की शैली में जरुर बदलाव लाना चाहिए। इससे महंगाई पर भी काबू पाया जा सकेगा तथा किसानों की आर्थिक स्थिति में भी उल्लेखनीय सुधार आयेगा।

उत्तराखंड पर भी मंडरा रहे है नक्सली संकट के बादल-डीजीपी

उत्तराखंड देश का नवसृजित किंतु अन्तर्राष्ट्रीय सीमाओं से लगा होने के चलते काफी महत्वपूर्ण राज्य है। देश में लगातार बढ रहे नक्सली प्रभाव का संकट अब यहां भी महसूस किया जा रहा है। यह बात न केवल प्रदेश के मुख्यमंत्री बल्कि पुलिस प्रशासन भी कहीं दबी जुबान तो कहीं खुल कर मानने लगा है। प्रदेश की नेपाल और चीन से लगती सीमाएं काफी संवेदनशील हो चली है। मुख्यमंत्री जहां इसके लिए केन्द्र से विशेष सुविधाओं की मांग कर रहे है वहीं पुलिस के मुखिया सीमाओं पर चौकसी की व्यवस्था को लेकर चिंतित नजर आ रहे है।

इन्ही सब मुद्दों पर हाल ही में प्रदेश के पांचवें पुलिस महानिदेशक के तौर पर कार्यभार संभालने वाले 1976 बैच के आईपीएस ज्योतिस्वरूप पांडे से धीरेन्द्र प्रताप सिंह ने बातचीत की। प्रस्तुत है उस बातचीत के मुख्य अंश।

प्रदेश की अन्तर्राष्ट्रीय सीमाओं को लेकर आपके विचार क्या हैं।

देखिए उत्तराखंड राज्य छोटा किन्तु अन्तर्राष्ट्रीय सीमाओं वाला दुर्गम राज्य है। इसकी सीमाएं चीन और नेपाल जैसे देशों से लगती है। जो अपने आप में ही सामरिक दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण और संवेदनशील हैं। चीन से लगती जो सीमाएं है वे रिमोट सीमाएं है और कुछ ऐसे क्षेत्र भी है जो वर्ष भर बर्फ से ढके रहते हैं। वहां पुलिसिंग की कोई व्यवस्था अभी तक नहीं है। दूसरी सीमा भारत-नेपाल सीमा है। चूंकी ये सीमा खुली सीमा है और इसी वजह से यहां पर समस्याएं भी अधिक हैं। दोनों देशों को काली नदी सीमांकित करती है। लेकिन इस नदी के आर पार जाने के लिए कोई रोक टोक नहीं है। कोई भी जांच का प्रावधान नहीं है। जिससे लोग आसानी से एक देश की सीमा से दूसरे देश में जा सकते हैं। इन सीमाओं पर पिछले 10 साल से भारत सरकार ने सशस्त्र सीमा पुलिस को सुरक्षा का जिम्मा दे रखा है।

क्या प्रदेश पुलिस यह मानती है कि उत्तराखंड में सीमाओं को लेकर कोई समस्या नहीं है।

नहीं ऐसा बिल्कुल नहीं है। प्रदेश पुलिस ऐसा नहीं मानती है। लेकिन प्रदेश पुलिस का कहना है कि इन सीमाओं पर सामान्य चेकिंग हो सकती है। जिससे हथियार, विस्फोटक, मादक पदार्थों की तस्करी पर रोक लगाई जा सकती है। लेकिन कई स्थान ऐसे है जहां से असामाजिक तत्व अपनी समाजविरोधी गतिविधियों को अंजाम दे सकते हैं। प्रदेश पुलिस का मानना है कि ऐसे स्थानों के लिए खास सुरक्षा इंतजाम किये जाने चाहिए। रही बात प्रदेश में इन सीमाओं को लेकर संकट की तो उत्तर प्रदेश और बिहार की तुलना में उत्तराखंड की सीमाएं ज्यादा सुरक्षित है। हां बनबसा और खटीमा से लगते क्षेत्रों में कुछ समस्याएं जरूर है। लेकिन उसकी सुरक्षा के लिए पुलिस सदैव अलर्ट है। हालांकि नेपाल में बढते माओवाद के प्रभाव से देश में हो रही नक्सली घटनाओं को देखते हुए यहां भी नक्सली तत्वों के विकास की संभावनाओं से इंकार नहीं किया जा सकता है। लेकिन इन क्षेत्रों में अभी तक कोई ऐसा दृष्टांत नहीं मिला है जिससे साबित हो सके कि इन क्षेत्रों में नेपाली माओवादी गतिविधियां संचालित हो रही है।

क्या आप ये दावा कर रहे है कि प्रदेश में अभी तक नक्सली गतिविधि के कोई संकेत नहीं मिले हैं।

जी बिल्कुल नहीं। मैं तो कह रहा हूं कि विगत दिनों उत्तराखंड में भी कुछ ऐसी घटनाएं पकड़ में आई हैं जिसमें ऐसी घटनाओं की साजिश का भंडाफोड़ हुआ है और ऐसी साजिशों के संकेत मिले। लेकिन पुलिस की सक्रियता ने उन्हें निष्क्रिय कर दिया। इन घटनाओं को देखते हुए प्रदेश में नक्सली घटनाओं के घटित होने की संभावनाओं से इंकार नहीं किया जा सकता है। इन घटनाओं को होने की आंशका इसलिए भी अधिक हो जाती है कि प्रदेश का एक बडा हिस्सा वनाच्छादित है और नियमित और सामान्य सुरक्षा से दूर है और नक्सली ऐसे क्षेत्रों की तलाश में रहते है। इसलिए ऐसी संभावनाएं बरकरार हैं।

उत्तराखंड के सीमावर्ती गांवों की सुरक्षा के लिए पुलिस की कोई विशेष योजना या विलेज विजिलेंसी की वर्तमान स्थिति के बारे में बताएं।

देखिए ये सवाल बहुत ही संवेदनशील है। लेकिन मैं आपको बताना चाहूंगा कि सीमावर्ती गांवों को लेकर पुलिस बिल्कुल संजीदा है और अलर्ट है। रही बात विलेज विजिलेंसी की तो पुलिस इन क्षेत्रों पर विशेष नजर रखती है और हिसंक घटनाओं या षडयंत्रों को समय रहते निष्क्रि्रय करने के लिए अपना नेटवर्क बना रखी है जिसके माध्यम से ऐसी गतिविधियों पर रोकथाम का प्रयास लगातार जारी रहता है।

पिछले दिनों हुई कुछ घटनाओं को लेकर पुलिस का मनोबल गिरने की बात भी की जा रही है। इसमें कितनी सत्यता है।

देखिए पुलिस का काम किसी भी समस्या को तत्काल प्रभाव से रोकना और उसका निदान करना है। इसके लिए पूरे देश में पुलिस ही एक मात्र वह एजेंसी है जिसको सरकार ने न्यूनतम् बल प्रयोग का अधिकार भी दे रखा है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि पुलिस उस बल प्रयोग के अधिकार का बेजा इस्तेमाल करे और जनता को परेशान करे। पुलिस को इस अधिकार का प्रयोग बहुत ही सजगता के साथ करना पडता है और सिर्फ कानून एवं व्यवस्था को बनाए रखने के लिए ही किया जाता है। रही बात पुलिस के मनोबल गिरने की तो मैं बताना चाहूंगा कि प्रदेश पुलिस का मनोबल बिल्कुल उंचा है और वो अपना कार्य पूरी ईमानदारी से कर रही है। पुलिस की डयूटी ही संघर्ष,गाली और गोली से शुरू होती है। इसलिए उसका मनोबल इन तीनों तत्वों से कभी भी प्रभावित नहीं होता।

पुलिसिंग सिस्टम में बदलाव को लेकर आपके क्या विचार है।

देखिए कोई भी सिस्टम हो उसमें समय के साथ बुराईयां आती ही है और समय के अनुसार ही उसमें बदलाव भी किए जाते है। इसलिए आज के पुलिसिंग सिस्टम की बात की जाए तो समय के साथ पुलिस के कार्यो में विभिन्नता आई है नई चुनौतियां और अपराध के नए तौर तरीके भी आए हैं उसके हिसाब से तो सिस्टम में बदलाव की जरूरत महसूस की जा सकती है। लेकिन इसके इतर तात्कालिक तौर पर पुलिस सिस्टम के सामने सबसे बडी चुनौती अपराध एवं शांति व्यवस्था को बनाए रखते हुए मानवाधिकारों की संपूर्ण सुरक्षा है। इस उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए जो सुधार आवश्यक हो वो किए जाने चाहिए। इसके साथ ही पुलिस में मानवाधिकारों के प्रति जागरूकता पैदा करना भी समय की सबसे बडी मांग है। पुलिस समस्याओं से निपटने के लिए मानवाधिकारों के हनन का रास्ता अपनाने की बजाय अपराधों का विस्तृत विश्लेषण करे और थर्ड डिग्री जैसी बुराईयों से बचते हुए निरोधात्मक कार्रवाई करे तो शायद यही सबसे बडा सुधार माना जाएगा। मैं मानता हूं कि कुछ केश ऐसे होते है जो पेचीदे हो जाते है जिसे सुलझाने के लिए ऐसे रास्ते अपनाने पड़ते है लेकिन अगर ऐसे मामले में जनता का विश्वास जीतते हुए उसका सहयोग लिया जाए और विक्टिम पर ज्यादा ध्यान दिया जाए तो शायद मामले का आसान हल भी मिल जाएगा और मानवाधिकारों की रक्षा भी हो सकेगी। इसके साथ ही मेरा मानना है कि पुलिस को किसी भी मामले को सुलह समझौते के आधार पर सुलझाने का प्रयास करना चाहिए इसमें समाज और सिस्टम दोनों का हित होगा।

उत्तराखंड में जेलों की दशा पर कोई टिप्पणी

देखिए जेलों की दशा पूरे देश में एक जैसी है। हर जगह जेलें क्षमता से अधिक कैदियों की समस्याओं से जूझ रही है। इसका तात्कालिक हल यहीं है कि पुलिस सिस्टम में कार्यो के मूल्यांकन का आधार गुणात्मक हो न कि संख्यात्मक। लेकिन ऐसा हैं नहीं पुलिस अपनी सीआर अच्छा बनाने के चक्कर में संख्यात्मक प्रदर्शन ज्यादा करती है। जिसके चलते जेलों में कैदियों की संख्या बढती है। इसलिए मेरा मानना है कि पुलिस को उसी के खिलाफ कार्रवाई करनी चाहिए जो वाकई में अपराधी हो और ऐसा तभी हो पाएगा जब पुलिस के कार्यो के आकलन का आधार क्वांटिटेटिव नहीं बल्कि क्वालिटेटिव होगा।

उत्तराखंड पुलिस के लिए सबसे बडी चुनौती इस समय क्या है।

मेरी नज़र में तो पुलिस के सामने हर समय चुनौती ही रहती है। लेकिन फिर भी यदि प्रदेश पुलिस के सामने चुनौती की बात करे तो मेरे हिसाब से मानवाधिकारों के सम्मान के साथ उनका संरक्षण करते हुए समाज की समस्याओं को दूर करना ही सबसे बडी चुनौती है।

प्रदेश पुलिस को कोई संदेश देना चाहेंगे।

इस मंच के माध्यम से प्रदेश की पुलिस को मैं कहना चाहूंगा कि वे मानवाधिकारों का सम्मान करते हुए प्रदेश की सेवा करे और धैर्य रखकर मामलों का निस्तारण करे। वे इस बात का ध्यान रखे  कि वे समस्याओं को सुलझाने के लिए है उलझाने के लिए नहीं। सबका सहयोग लेते हुए कानून एवं व्यवस्था,यातायात,जन सुरक्षा जैसे महत्वपूर्ण दायित्वों का निर्वहन कुशलतापूर्वक करे यही उनके लिए मेरा संदेश है।

इस मंच के माध्यम से प्रदेश की जनता को क्या संदेश देना चाहेंगे।

प्रदेश की प्रबुद्ध जनता को मैं यहीं संदेश देना चाहूंगा कि किसी भी वारदात या समस्या के समाधान को लेकर वह ज्यादा दबाव न बनाए। क्यों कि पुलिस के पास भी कोई ऐसा तंत्र नहीं है िकवह पलक झपकते ही किसी भी समस्या का समाधान कर दे। जनता पुलिस का सहयोग करे और किसी भी समस्या के जल्द समाधान के लिए पुलिस पर धरना प्रदर्शन व अन्य माध्यमों से दबाव बनाने पर पुलिस का ध्यान भंग होता है और वारदात को वर्कआउट करने में समय लगता है। इसलिए जनता पुलिस मित्र बन कर कानून एवं व्यवस्था स्थापित करने में पुलिस की मदद करे यही समाज के हित में होगा।

यह देश है, ‘गरीब जनता और धनी सरकार’ का

दिखावे में जुटी सरकार, भूली जनता के अधिकार

दिल्ली में होने वाले कॉमनवेल्थ गेम्स सरकार के लिए मील का पत्थर साबित होगा। लेकिन यही गेम्स आम जनता के लिए जी का जनजाल बन गया है। दुनिया भर के देश भारत में होने वाले कॉमनवेल्थ गेम्स का जायजा लेने के लिए हिन्दुस्तान की ओर अपना रूख कर रहे हैं। वहीं भारत सरकार उनके स्वागत में कोई कोर-कसर छोड़ना नहीं चाहती। दिल्ली को दुल्हन की तरह सजाया जा रहा है। हर तरफ फ्लाई ओवर, ब्रिज, पार्क, रोड लाईटस् इत्यादि से महानगर को सुन्दरता से सरावोर किया जा रहा है। ये सारी सुविधाएं दुनिया को दिखाने के लिए की जा रही है, उनके लिए जो देश में चंद दिनों के मेहमान बनने आ रहे हैं। लेकिन इनके पीछे अगर सबसे ज्यादा परेशानियों का सामना उठाना पड़ रहा है, तो राजधानीवासियों को।

दिल्ली की जनता पिछले एक साल से कॉमनवेल्थ गेम्स नाम के वबंडर का सामना कर रही है। जब से भारत में राष्ट्रमण्डल खेलों के होने की घोषणा की गई, तभी से यहां की सरकार अपनी सूरत को चमकाने में जुट गई। ऐसा नहीं है कि हम राष्ट्रमण्डल खेलों का विरोध कर रहे है। ऐसा भी नहीं है कि दिल्ली की तरक्की से हमें एतराज है। बल्कि हमे तो इस दिखावेपन से एतराज है। जो कि साफ झलक रहा है।

दिल्ली को साफ-सुथरा बनाने के लिए यूपी और बिहार के मजदूरों को काम करते हुए पूरी दिल्ली में देखा जा सकता है। लेकिन अफसोस की बात तो यह है कि जिन हाथों ने राजधानी को चमकाने का काम किया है। उन्ही लोगों को कॉमनवेल्थ गेम्स शुरू होने से पहले राजधानी से दूर जाने की हिदायत दी गई हैं। यह बात साफ किसी सूचना के माध्यम से तो नहीं दी गई लेकिन इतना जरूर जाहिर किया जा रहा है कि कॉमनवेल्थ गेम्स के दौरान राजधानी क्षेत्र में प्राईवेट बसे बंद कर दी जाएंगी। सड़क पर लगने वाले खोखा पट्टी वालों को दूर भगाया जायेगा।

कहने का मतलब केवल इतना है कि भारत सरकार अपनी छवि दुनिया के सामने साफ सुथरी बनाना चाहती है। अपने दिल में छुपे तमाम दागों को छुपा कर एक उजला मुखौटा औड़ना चाहती है। इस उजले मुखौटे के पीछे कितने दाग है ये वो परदेशी शायद कभी न समझ पायेंगे। देश में फैली बेरोजगारी, गरीबी, भ्रष्टाचार, ऐसे बदनुमा दाग हैं जिन्हें साफ नहीं किया जा सकता।

राष्ट्र मण्डल खेलों के नाम पर बड़े-बड़े अधिकारियों ने करोड़ों रूपये से अपना बैंक बैलेंस बना कर रख लिया। उनकी सोच भी शायद सही है कि 80 साल में कॉमनवेल्थ गेम्स हिन्दुस्तान में हो रहे है ना जाने फिर दुवारा ऐसा मौका मिला या ना मिला, तो ? इसलिए उन्होंने अपनी आने वाली एक पीढ़ी तक का बंदोबस्त कर लिया है। कॉमनवेल्थ गेम्स के नाम पर करोड़ाें रूपये के घोटालों की चर्चा शायद दुनिया वालों के सामने न की जाय। हो सकता है कि राजधानी की उजली सूरत दुनिया को पसन्द आये। लेकिन हम भारतीय है जो दिल से सोचते हैं। यहां भी हम सोच रहे है उन बेवस, गरीब, लाचार वर्ग के बारे में जो अपना घर-परिवार छोड़ कर दिल्ली में रोजगार की तलाश में आते हैं। वो दिन रात मेहनत मजदूरी कर सड़कों पर ही अपना जीवन बिता देते हैं। उनके हाथों में क्या हांसिल होता है ? वो तो दो जून की रोटी भी नहीं कमा पाते। वहीं खेलों के नाम पर सरकार उन गरीबों का हक मार रही है।

हमारा मानना है कि जितना पैसा इन खेलों के नाम पर खर्च किया जा रहा है उसका दसवां हिस्सा भी कभी इन गरीब लोगों पर किया गया है। अगर किया गया होता तो वो अपना घर-परिवार छोड़कर इन सड़को पर जीवन बिताने क्यों आते ? चलों खैर रोजगार के लिए अपना घर छोड़ भी दिया तो क्या ? आखिर अब इनका क्या होगा ? राष्ट्रमण्डल खेलों के कारण पूरी दिल्ली में आम जनता का जीवन भी अस्त व्यस्त हो गया है। जहां तहां खुदाई, निर्माण्ा, सौंदर्यीकरण किया जा रहा है। इन सबको झेलने का काम तो जनता का है और करोड़ों के घोटाले हमारे राजनेताओं का हक है ? वाह री हमारी सरकार !

अक्टूबर माह में दिल्ली में होने वाले राष्ट्रमण्डल खेलों के बजह से प्राइवेट बसों को बंद रखा जाएगा। प्राईवेट वाहनों के रूट बदल दिये जाएंगे। जहां पूरी दुनिया भारत की राजधानी में होने वाले कॉमनवेल्थ गेम्स को देखने के लिए यहां का रूख कर रही है। वहीं यहां के गरीब, मजदूर व खोखा पट्टी वाले लोग अपने अपने गांव वापस जाने की तैयारी कर रहे है। एक माह तक दिल्ली में गरीब और गरीबी का कोई काम नहीं है। सड़कों पर केवल दिल्ली सरकार की हरी और लाल वातनूकुलित बसें ही नजर आएंगी। ये सब इसलिए की सरकार दुनिया की नजरों में देश को सम्पन्न व खुशहाल दिखाना चाहती है। लेकिन सही बात तो यह है कि यह देश है ‘गरीब जनता और धनी सरकार का।’

व्यथा कॉमनवेल्थ गेम्स की

राष्ट्रमण्डल खेलों का शुभारम्भ सन् 1930 से हुआ। इन खेलों का विचारधारक रिवरेंट एल्श्री कूपर को माना जाता है। आगे चलकर इन खेलों को प्रत्येक चार वर्ष में करने का फैंसला लिया गया। पहला कॉमनवेल्थ गेम्स कनाडा के हेमिल्टन शहर में आयोजित किया गया जिसमें दुनिया भर के 11 देशों की भागीदारी रही। इसके बाद प्रत्येक चार वर्ष के अन्तराल में दुनिया के भिन्न-भिन्न शहरों में इनका आयोजन क्रमवध्द तरीके से किया जाने लगा। केवल सन् 1942 और 1946 में होने वाले कॉमनवेल्थ गेम्स को द्वितीय विश्व युध्द के कारण रद् कर दिया गया था। उसके बाद 1950 में कॉमनवेल्थ गेम्स न्यूजीलैण्ड के ऑकलैण्ड शहर में आयोजित किए गये। धीरे-धीरे कॉमनवेल्थ गेम्स का महत्व बढ़ता जा रहा था। जहां पहले कॉमनवेल्थ गेम्स में 11 देशों ने भाग लिया था वहीं अब भारत में होने वाले 19वें राष्ट्रमण्डल खेलों में दुनिया भर के 83 देश भाग लेने जा रहे हैं।

हमें भारतीय होने पर गर्व हैं …..

-राजीव कुमार बिश्‍नोई

अमेरिका में वहां के राष्ट्रपति पर उनकी नागरिकता पर जब सवाल उठाया गया , या 9/11 की बरसी पर कुरान शरीफ जलाने की एक पादरी द्वारा दी गई धमकी ये हाल ही में घटी वो घटनाये हैं जो पूरी दुनिया के मिडिया की सुर्खिया बनी अमेरिकी प्रशासन भी इस तरह की भ्रामक बातों से जेसे तेसे बहार निकले में उलझता रहा, अगर भारत की बात की जाये तो हमारे यहाँ लगभग 120 करोड़ की आबादी वाले देश में इस तरह की घटनाये चलती आ रही हैं लेकिन ये घटनाये हमारी राट्रीय अस्मिता पर कोई आंच नही आने देती ये वही सबसे बड़ा फर्क जो हमें दुनिया के ग्लोब पर धर्म-निरपेक्ष की छवि प्रदान करता हैं। यानि जितना सयंम हम भारतीयों में हैं वो पूरी दुनिया के सामने एक मिशाल हैं और हमें भारतीय होने का गर्व प्रदान करती हैं|

भारत के तीन बड़े नेता जिनमे प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह का जन्म पाकिस्तान में हुआ , श्री लाल कृष्ण आडवानी भी पाकिस्तान में जन्मे है व यु.पी.ए. अध्यक्षा श्रीमती सोनिया गाँधी इटालियन मूल की हैं, लेकिन हम भारतवाशियो ने कभी इन्हे रास्ट्रीय अस्मिता को हानी पहुचने वाला नही माना,चुकी हमारा संविधान कभी इसकी इजाज़त नही देता , जो हमें भारतीय होने का गर्व प्रदान करता हैं।

भारत विकासशील देशो की कतार में उन देशो में आगे हैं जिन्होंने दुसरे देशो को आर्थिक सहायता की हैं

भारत सरकार ने आठ वर्ष में विभिन्न देशों को लगभग 130 अरब रूपए की सहायता प्रदान की है। भले ही भारत सरकार विकास कार्यो के लिए विश्व बैंक व धनी देशों से धन लेती रहती है, लेकिन उसने अपने पड़ोसी देशों को भी दिल खोल कर मदद दी है। जो देश की बढती आर्थिक मजबूती का प्रतिक हैं

भारत की ओर से सर्वाघिक मदद प्राप्त करने वाले देशों में शीर्ष पर भूटान है। भूटान को आठ वर्ष में 70.14 अरब रूपए की मदद दी गई, जिसके तहत वहां ताला जल विद्युत परियोजना, खूंचू जल विद्युत परियोजना, पूनारसंगचू जल विद्युत परियोजना के अलावा दूंगसम सीमेंट परियोजना का विकास किया गया। पिछले तीन वर्षो में बांग्लादेश को लगभग 1.74 अरब रूपए का ऋण दिया गया। दुनिया के कुछ अन्य विकासशील देशों को आठ वर्ष में 21.49 अरब रूपए और कुछ अफ्रीकी देशों को 5.42 अरब रूपए प्रदान किए गए।

अफगानिस्तान को वित्त वर्ष 2007-08 से आर्थिक मदद शुरू की गई और इस वर्ष 4.34 अरब रूपए का आवंटन किया गया। इसके तहत काबुल-खुमरी डबल सर्किट ट्रांसमिशन लाइन के लिए विशेष तौर पर वित्त पोषण किया गया। 2008-09 में अफगानिस्तान को 4.18 अरब रूपए ,2009-10 में 2.87 अरब रूपए की मदद प्रदान की गई जिसके तहत दोस्त और चरख इलाके में दो विद्युत पारेषण केंद्र स्थापित करने के कार्यक्रम को रखा गया।

देश का उत्तरी भाग जो धरती का स्वर्ग है यानि कश्मीर , वो कुछ अरसे से झुलस रहा हैं, हालाँकि सरकार व सर्वदलीय राजनेतिक पार्टिया इसे सुलझाने में लगी हैं, या दक्षिणी -पूर्वोतर में नक्सली समस्या ….जो देश के सामने बड़ी चुनोती हैं……………|उम्मीद हैं की निकट भविष्य में हम इनसे भी बाहर निकल आयेगे। आने वाला समय हम युवाओ का हैं।पूरी दुनिया में सबसे ज्यादा युवा आबादी भारत की हैं, और इतनी प्रतिभावान हैं की अमेरिकी राष्ट्रपति भी भयभीत होकर अमेरिकियो को नसीहत देते हैं अपने आप को शिक्षा में दक्ष बनाओ ,वरना भारतीय और चीनी तुम्हारी जगह हथिया लेगे।

देश की आर्थिक विकास दर 2009 -2010 में सकल घरेलु उत्पाद की वृधि 7 .2 % की उम्मीद हैं , वही उद्योगिक विकास दर 8.2 % ,सेवा क्षेत्र 8.7% बढे हैं। हलाकि देश का आबादी आधारभूत ढांचा कृषि की विकास दर में -0.2 % की मामूली गिरावट आई है।

लेकिन खाद्यानो की कमी देश में बिलकुल भी नही हैं पर PDS सिस्टम की खामी के कारण अनेक परिवार आज भी मानक मात्रा में अन्न नही ले पा रहे हैं।जो कही न कहीं हमारी सफलता की हुनकर को कम करती हैं।

चूँकि अब देश में एशियाड गेम के बाद सबसे बड़े खेल आयोजन का समय हैं ,हालाँकि हमारे नेता , नोकर-शाहों की वजह से देश को बड़ी फजीयत झेलनी पड़ी हैं , जब माननीय अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में इस आयोजन को हरी झंडी मिली तब इसका बजट महज 767 करोड़ था , अब संसद में कुछ सदस्यों द्वारा इसका अनुमानित व्यय 1 लाख करोड़ तक बताया जाता हैं| इतनी बड़ी धन राशी का व्यय होना अपने आप में प्रश्न चिन्ह हैं ? अब सवाल उठाने से कोई तर्क नही बनता ,या तो आयोजन से पहले मीडिया,सरकार,या स्वयसेवी संघटन पहले कोई आवाज उठाते, अब वक्त पर शेर आया …शेर आया चिलाने पर न तो मचान बन पायेगा और न ही शेर का शिकार हो पायेगा , अब तो शेर से दूर भागने में ही भलाई हैं। हालाँकि कुछ लोग इन खेलो का विरोध भी कर रहे है और उनका ये विरोध शायद जायज भी है पर जो भी हमारे मेहमान खिलाडी,फोरेन डेलिगेशन के सदस्य है हम सभी हमारी वर्षो पुरानी “अतिथि देवो भव:” की परम्परा का निर्वहन करते हुआ उनका तहदिल से स्वागत करने को बेताब हैं|

इन विवादों पर चुप रहना हमारी कमजोरी नही हैं पर उम्मीद हैं की हमारी जागरूकता ही हमारा सुनहरा भविष्य निर्धारित करती हैं…….इसलिए हर क्षेत्र में हमारा विकास का आंकड़ा आज पूरी दुनिया में हमें भारतीय होने का अभिमान प्रदान करता हैं।

उत्तराखंड को मिली प्रकृति की चुनौती

-पारूल सिंह

उत्तराखंड भारत का सबसे सुन्दर और प्राकृतिक सौन्दर्य का बेमिसाल उदाहरण। देश को पर्यटन से सबसे ज्यादा राजस्व देने वाला प्रदेश। सीमाओं की रक्षा करने के लिए खुशी खुशी अपने प्राणों की आहुति देने वालों का प्रदेश। देश को ऊर्जा, सिंचाईं और पीने के लिए पानी देने वाला प्रदेश। आधा दर्जन हिमालयी राज्यों में विकास के मॉडल के तौर पर स्थापित प्रदेश और इन सबसे बढ़कर देश के सबसे युवा, साहित्यकार, पत्रकार और राजनेता डा. रमेश पोखरियाल निशंक के सपनों का प्रदेश आज प्राकृतिक आपदा के रूप में मिली प्रकृति की चुनौती से जूझता प्रदेश बन गया है। इस समय जितनी कड़ी परीक्षा से आपदा पीड़ित जनता को गुजरना पड़ रहा है उससे कही अधिक कठिन परीक्षा से निशंक सरकार को भी गुजरना पड़ रहा है। परंतु सरकार ने जिस तरह से राहतों और मदद के मोर्चो को संभाला है वह वाकई काबिले तारीफ है। सरकार की तत्परता को देखकर कहा जा सकता है कि मुख्यमंत्री ने रामचरित मानस के रचयिता तुलसीदास की उन पंक्तियों को गांठ बांध लिया है कि धीरज, धर्म, मित्र अरू नारी॥ आपदकाल परखिए चारी॥

कहने का तात्पर्य यह कि मुख्यमंत्री ने जिस तरह से पूरे धैर्य के साथ इस चुनौती को स्वीकार किया है और प्रभावित दुर्गम क्षेत्रों में खुद पहुंच कर राहत सामग्रियों का वितरण करवा रहे है और आधी आधी रात तक प्रशासनिक अधिकारियों के साथ इससे निपटने की रणनीति बना रहे है वह शायद स्वार्थो के इस राजनीतिक युग में एक आदर्श और लोगों के लिए प्रेरणादायी हैं।

विगत जनवरी से ही महाकुंभ आयोजन में लगे मुख्यमंत्री ने जिस तरह से इसे विश्व का सबसे बड़ा और सफल आयोजन बनाया उसकी पूरी दुनिया ने तारीफ की। अभी सरकार में इस सफलता को लेकर जश्न की स्थिति बन ही रही थी कि उन्होंने चारधाम यात्रा को भी विश्व स्तर पर स्थापित करने का मास्टर प्लान बना लिया और उसे कुशलतापूर्वक क्रियान्वयन की ओर मोड़ा भी। लेकिन शायद प्रकृति को कुछ और ही मंजूर था और विकास के पथ पर तेजी से अग्रसर राज्य को ना जाने की किसकी नजर लगी कि यहां मानसूनी मौसम ने अपना कहर ढा दिया और इसकी चपेट में क्या मैदान क्या पहाड़ पूरा प्रदेश ही आ गया। इस आपदा से जनता और शासन प्रशासन के लोग सकते में आ गए। लेकिन संकटों का सामना करने में प्रवीण मुख्यमंत्री ने मोर्चा संभाल लिया और ऐसी जगहों पर भी पहुंच कर शासन प्रशासन का हौंसला बढ़ाया जहां आम दिनों में भी जाना बड़ा कठिन कार्य है।

खैर मुख्यमंत्री कोई भी हो उसका तो दायित्व ही है ऐसे कार्यो को करने का। लेकिन डा. पोखरियाल इस मामले में औरों से अलग है कि वे लीक पर चलकर ही कोई काम करे। सरकार के मुखिया ने इस आपदा से जूझते प्रदेष की जनता को इस बात का बखूबी एहसास कराया कि उनके दुख में वे पूरी तरह उनके साथ है। शायद इसका कारण उनके राजनीतिक जीवन की ऐसी शुरूआत से है जिसके चलते वे एक गरीब किसान के घर से प्रदेश की सर्वोच्च पंचायत तक का सफर किये। 1991 में जब उन्होंने कर्णप्रयाग विधानसभा क्षेत्र में कांग्रेसी दिग्गज डा. शिवानन्द नौटियाल को धूल चटाकर विधानसभा पहुंचे होंगे तो शायद किसी को अंदाजा नहीं रहा होगा कि इस विधानसभा से एक विधायक नहीं बल्कि भविष्य के उत्तराखंड का स्वप्नदृष्टा चुना गया है।

बात हो रही उत्तराखंड में आई हुई अब तक की सबसे बड़ी प्राकृतिक आपदा की। यह सत्य है कि इस प्राकृतिक आपदा ने विकास के रास्ते पर तेजी से गतिमान प्रदेश के विकास के पहिए को जाम कर दिया है। इस आपदा ने प्रदेश के विकास को कम से कम 10 साल पीछे ढकेल दिया है। लेकिन पूरे प्रदेश की जनता को यह पूरा विश्वास है कि महाकुंभ में प्रबंधन का इतिहास रचने वाली सरकार इस आपदा से निपटने में भी इतिहास को दोहराएगी।

इस आपदा ने प्रदेश का जो नुकसान किया उससे तो पूरा देश अवगत है। लेकिन इस आपदा ने शायद सबसे अधिक नुकसान पहुंचाया 2020 में उत्तराखंड को देश का सर्वोत्तम प्रदेश बनाने के मुख्यमंत्री डा. रमेश पोखरियाल निषंक के सपनों को। पिछले एक सालों में मुख्यमंत्री ने विजन-2020 को लेकर जिस तरह से पर्यटन,पर्यावरण संरक्षण, ऊर्जा, जड़ी बूटी, कुटीर उद्योग, बेहतर मानव संसाधन, गंगा स्वच्छता अभियान को लेकर योजनाएं बनाई उनका क्रियान्वय कराया उस पर इस आपदा ने पानी फेर दिया है।

अब सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती मुख्यमंत्री के सपनों को पूरा करने की है। लेकिन इन सब बातों के इतर मुख्यमंत्री की सक्रियता देखी जाए तो लगता है कि इस आपदा ने मुख्यमंत्री के सपनों को तो जरूर प्रभावित किया है लेकिन उनके हौसलों पर इसका कोई असर नहीं पड़ा है। मुख्यमंत्री के प्रदेश भर के दौरों को देखकर लगता है कि आपदा से प्रदेश में मची तबाही ने मुख्यमंत्री के निश्चय को और दृढ किया है। चुनौतियों से निपटने में माहिर डा. निशंक ने जिस तरह से हवाई और सैकड़ों किमी पैदल यात्राएं कर पीड़ितों के आसूं पोछे है उससे लोगों के हौंसलों में जान आ गई है। उनकी मेहनत ने प्रदेश के शासन प्रशासन को तो ऐसे माहौल में कमर कसने के लिए प्रेरित किया ही है साथ ही प्रदेश के प्रबुद्ध नागरिकों और सामाजिक व स्वयंसेवी संस्थाओं को भी इस संकट से निपटने के उनके दायित्व की याद दिलाते हुए उन्हें इसके लिए प्रेरित किया है।

मुख्यमंत्री के प्रयासों को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि आने वाला उत्तराखंड निश्चित ही अग्नि परीक्षा में तपकर निकला हुआ हीरा होगा और अन्य प्रदेशों के लिए अभिप्रेरणा का वायस।

भाषा और बोली को लेकर सदन में दिखी निशंक सरकार की गंभीरता

-धीरेन्द्र प्रताप सिंह

उत्तराखंड को पूरे देश में देवभूमि होने का विशेष स्थान प्राप्त है। भारत के अधिकांश लोकप्रिय और श्रध्दा के केन्द्र तीर्थ स्थल इसी प्रदेश में है। वैसे तो यहां की सरकारें इन तीर्थस्थलों को लेकर शुरू से ही संवेदनीशील रही है। 10 वर्ष की आयु वाला यह प्रदेश कई राजनीतिक झंझावातों से समय समय पर जूझता रहा है और 10 साल में इसने पांच मुख्यमंत्री देखे।

लेकिन इन झंझावातों के बीच प्रदेश विकास की ओर लगातार गतिमान रहा है। प्रदेश के पांचवें मुख्यमंत्री के तौर पर कार्य कर रहे भारत के युवा विनम्र मुख्यमंत्री के तौर पर अपने आप को स्थापित कर चुके डा. रमेश पोखरियाल निशंक ने जिस तरह से प्रदेश में विकास की गति को बढ़ावा दिया है वह अन्य राज्यों के लिए नज़ीर बन गया है।

प्रसिध्द लेखक,प्रखर राजनीतिज्ञ और इन सबसे बढ़कर मझे हुए पत्रकार के रूप में वैसे तो मुख्यमंत्री ने कई कीर्तिमान बनाएं है लेकिन यदि संक्षिप्त में मुख्यमंत्री के ऐसे कार्य को रेखांकित करने को कहा जाए जिससे वे इतिहास में अपना अलग स्थान बनाते है तो वह कार्य निश्चित ही मुख्यमंत्री द्वारा भाषाओं और बोलियों को लेकर किया जाने वाला कार्य है।

कवि हृदय डा. पोखरियाल ने भाषाओं को लेकर जिस तरह की गंभीरता दिखाई है उससे अन्य राजनेता सीख ले सकते है। मुख्यमंत्री ने देवभूमि के रूप में स्थापित उत्तराखंड में देवभाषा संस्कृत को द्वितीय राजभाषा घोषित कर प्रदेश ही नहीं बल्कि पूरे देश के संस्कृत प्रेमियों का दिल जीत लिया। उनके इस कार्य से प्रसन्न लोगों ने जिस तरह से उनका पूरे देश में स्थान स्थान पर भव्य स्वागत और अभिनन्दन किया उससे संस्कृत को लेकर पूरे देश की भावना का पता चला।

हालांकि मुख्यमंत्री ने जिस तरह का साहित्य सृजन किया है वह अपने आप में ही उनकी साहित्यक गंभीरता का प्रमाण माना जा सकता है। लेकिन बीते मानसून सत्र में उन्होंने जिस तरह से उत्तराखंड की प्राचीन और लोकप्रिय बोलियों गढ़वाली,कुमाउनी और जौनसारी को शासकीय कार्य के लिए मान्यता प्राप्त करने का संकल्प प्रस्ताव पारित करवाया उसने मुख्यमंत्री की लोकप्रियता को चरम पर पहुंचा दिया है।

इस प्रदेश में उपरोक्त तीनों बोलियों का संपन्न इतिहास है तो साथ ही इन्हें बोलने वालों की बड़ी संख्या भी। बहुत अर्से से इन तीनों भाषाओं में राजकीय और न्यायिक कार्यो को करने की मांग उठती रही है। लेकिन इन मांगों को बराबर अनसुना किया जाता रहा है। इन बोलियों की मान्यता को लेकर मुख्यमंत्री ने गंभीर चिंतन किया और अन्त में इसे विधानसभा के मानसून सत्र में पेश किया।

सरकार के इस प्रस्ताव ने क्या पक्ष क्या विपक्ष सबको एक कर दिया पूरे सदन ने एकमत से इन बोलियों में शासकीय कार्य,अशासकीय और न्यायिक कार्य करने के संकल्प को ध्वनीमत से पारित कर दिया और इसे भारत की महामहिम राश्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा पाटिल के पास अनुमोदन के लिए भेज दिया। अब अगर महामहिम ने सहमती दे दी तो उत्तराखंड के सरकारी कार्यालयों और न्यायालयों में इन भाषाओं को बोलने वाले इसका प्रयोग कर सकेंगे।

विधानसभा में मानसून सत्र के दूसरे दिन प्रदेश के संसदीय कार्य मंत्री प्रकाश पंत ने सदन में यह प्रस्ताव पेश किया। इस प्रस्ताव में गढ़वाली,कुमाउनी और जौनसारी बोलियों को ग्राम पंचायतों,क्षेत्र पंचायतों और जिला पंचायतों की बैठकों में भागीदारी करते समय लोगों को बोलने का अधिकार दिए जाने की बात शामिल है।

इसके साथ ही आंगनबाड़ी केन्द्रों सरकारी अस्पतालों,राशन की दुकानों सर्व शिक्षा अभियान की बैठकों रोडवेज की बसों में टिकट लेने,मंडी परिषद में माल खरीदनें,बेचने के साथ ही सरकारी दफ्तरों में भी लोग इन बोलियों का धड़ल्ले से और आधिकारिक रूप से प्रयोग कर पाएंगे। इसके साथ ही इन बोलियों का प्रयोग निचली अदालतों में मौखिक रूप से अपना पक्ष रखने में भी किये जाने का प्रावधान होगा।

विधानसभा में पारित इस संकल्प में राष्ट्रपति से अपेक्षा की गई है कि वे उत्तराखंड की इन बोलियों को संबंधित प्रयोजनों के लिए सरकारी मान्यता प्रदान करेंगी। इस प्रस्ताव के बारे में संसदीय कार्य मंत्री प्रकाश पंत का यह कथन कि इन बोलियों को मान्यता मिलने के बाद राज्य की बोलियों को तो बढ़ावा मिलेगा ही साथ ही विभिन्न क्षेत्रों में लोग अपनी भावनाएं भी ज्यादा प्रभावी और स्पष्ट ढंग से व्यक्त कर सकेंगे। उनका यह कथन इन बोलियों की प्रासंगिकता और महत्व को स्पष्ट करता है।

ये तो हो गई सरकार की बोलियों को लेकर संवेदनशीलता। निशंक सरकार ने कार्यभार संभालने के तुरंत बाद से जिस तरह से प्रदेश को हर मंच पर अलग रूप में स्थापित करने का प्रयास किया है उसका परिणाम आने वाले भविष्य में दिखेगा। प्रखर मुख्यमंत्री के नेतृत्व में कुशल सरकार ने उत्तराखंड को भारत का भाल बनाने में दिनरात एक कर दिया जिसका परिणाम है कि करीब दर्जनभर हिमालयी राज्यों में उत्तराखंड कई मामलों में नंबर वन गया है और यहां से अन्य राज्यों को अलग कार्य करने की प्रेरणा मिल रही है।

महाकुंभ को सरकार ने कुशलता से संपन्न करवा कर उसे वैश्विक आयोजन बना डाला तो प्रदेश की देवभूमि के रूप में बनी पहचान को स्थापित करने के लिए हरिद्वार में जल्द ही एक विशेष संस्कृति विश्वविद्यालय खोलने की घोषणा की है। इतना ही नहीं हरिद्वार के धर्मक्षेत्रों में अन्य भाषाओं के साथ साथ सभी सरकारी गैर सरकारी संस्थाओं में संस्कृत भाषा में ही नाम और पदनाम पटिटकाएं लगाने का आदेश देकर इस भाषा को एक नया जीवन प्रदान किया है।

बहरहाल सरकार के ये कुछ ऐसे फैसलें है जिनका तुंरत परिणाम दिखने लगा है। लेकिन इसके अलावा भी सरकार ने प्रदेश हित में कई ऐसे फैसले लिए हैं जिनके चलते भविष्य में उत्तराखंड की सूरत बदलने वाली है।