ठीक इसी प्रकार 24 सितम्बर को श्रीराम जन्मभूमि के स्वामित्व विवाद मामले में अदालती फैसले के मद्देनजर कई प्रकार की आशंकाएं व्यक्त की जा रही हैं। इन आशंकाओं में देश भर में हिंसा भड़कना भी शामिल है।
कहा जा रहा है कि देश भर में काफी बावेला मच सकता है। फैसला जिसके पक्ष में नहीं आएगा, वह पक्ष खूनी खेल खेल सकता है। लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं होगा। यदि सामान्य तौर पर सोचा जाए तो हिंसा भड़कने का कहीं कोई आधार नहीं दिखता है, क्योंकि यह अदालत का आखिरी फैसला नहीं है। इसके बाद भी कई प्रकार के न्यायिक और लोकतांत्रिक विकल्प शेष हैं।
इस मामले में फैसला जिसके पक्ष में नहीं आएगा वह पक्ष उच्चतम न्यायालय में निश्चित रूप से अपील करेगा, इसमें कहीं कोई शंका नहीं है। इस संदर्भ में पूरे देश भर में झूठ में चिल्ल-पों मची हुई है। वास्तविकता यह है कि होगा कुछ नहीं।
क्योंकि 1992 के बाद से गंगा, यमुना और अदृश्य सरस्वती में काफी पानी बह चुका है। एक 1992 का दौर था और एक आज का दौर है। इतने वर्षों में एक पीढ़ी बदल चुकी है और यदि नहीं बदली तो बूढ़ी जरूर हो चुकी है। इसके साथ ही दोनों पीढ़ियों के लोगों की सोच में जमीन-आसमान का अंतर है।
एक यह बात भी पते की है कि आज का युवा ‘सामाजिक’ कम और ‘प्रोफेशनल’ ज्यादा हो गया है। हर क्षण उसको अपने ‘करियर’ की ही चिंता लगी रहती है। इस कारण भी उसका इस प्रकार के संघर्षों में ऱूचि नहीं के बराबर है। दुनिया का कोई राजनीतिक व सामाजिक आंदोलन हो या संघर्ष हो, उसमें युवाओं की ही प्रमुख भूमिका देखी गई है। बिना युवाओं की भागीदारी के इस प्रकार के कार्यक्रम या अभियान सफल नहीं हो सकते।
युवाओं का यदि ऐसा रुख है तो उसका भी एक कारण है। आज का युवा शांति का पक्षधर ज्यादा है। इसके अलावा भी सभी शांति चाहते हैं। सुख-चैन की जिंदगी सबको प्रिय है। हालांकि, सुख व चैन की जिंदगी जीने की मनुष्य की इच्छा कोई नई बात नहीं है, यह उसकी सदा-सर्वदा से इच्छा रही है। तो आखिर ये बावेला कौन मचाएगा ?
लेकिन इतना सब कुछ होते हुए भी जब सत्य और असत्य का प्रश्न आएगा तो पूरा देश उठ खड़ा होगा। इस बात को किसी भी तर्क से काटा नहीं जा सकता। क्योंकि सत्य और असत्य क्या है, सब जानते हैं। सबको भलीभांति मालूम है।
इस सृष्टि में जो कुछ भी है उसका होना सत्य है और जो कुछ भी नहीं है उसका न होना सत्य है। यह होने और न होने का क्रम समय के साथ-साथ चलता ही रहता है। मनुष्य के जीवन में कभी-कभी ऐसी भी परिस्थितियां आती हैं कि जो दिखता है वह सत्य नहीं होता। हर पीली दिखने वाली वस्तु सोना नहीं हुआ करती।
सत्य यही है कि दशरथ नन्दन श्रीराम सूर्यवंश के 65वें प्रतापी राजा थे। वह इस सृष्टि के आदर्श महापुरुष योद्धा थे। उनका जन्म अयोध्या में अपने पिता महाराजा दशरथ के राजमहल में हुआ था। फिरभी उनके जन्मस्थान के स्वामित्व का मामला वर्षों से अदालत में लंबित है। सभी जानते हैं कि सत्य क्या है। फिरभी मामला लंबित है। लेकिन न्यायालय को इस सत्यता से क्या लेना देना। न्यायालयीन प्रक्रिया के लिए केवल सबूत की आवश्यकता होती है। विश्वास, आस्था और श्रद्धा न्यायालय के विषय नहीं हैं।
हालांकि, मुकदमेबाजी की पूरी प्रक्रिया को सत्य के अपमानित होने का कालखंड कह सकते हैं। लेकिन सत्य केवल अपमानित ही हो सकता है, पराजित नहीं। यह सृष्टि का नियम है। न्यायालय के हर फैसले में देशवासियों की पूर्ण श्रद्धा है। न्यायालय ईश्वर का दूसरा रूप है। इसलिए फैसला किसी के भी पक्ष में आए, वह ईश्वरीय माना जाएगा। और इस कारण अन्ततः भगवान श्रीराम की ही विजय होगी।
सृष्टि का एक यह भी सत्य है कि ‘सत्य’ की लड़ाई अंत तक और ‘सत्य’ को पा लेने तक लड़ी जाती है। धैर्य, उत्साह व स्वाभिमानपूर्वक लड़ी गई लड़ाई ही तपस्या है और सफलता के लिए तपस्या आवश्यक है। इसलिए शांति बनी रहेगी।
कांग्रेस के ताकतवर महासचिव राजा दिग्विजय सिंह के कुलदीपक युवराज जयवर्धन सिंह के मन मस्तिष्क में भी राजनीति के बियावान में हाथ अजमाने की इच्छाएं कुलाचंे मारने लगी हैं। राजा और युवराज दोनों ही सक्रिय राजनीति में एक साथ पदार्पण कर सकते हैं। युवराज जयवर्धन सिंह ने मीडिया को दिए साक्षात्कार में कहा है कि वे 2013 में योजना बद्ध तरीके से कांग्रेस की सदस्यता लेकर सक्रिय राजनीति में पदार्पण करेंगे। जयवर्धन की शिक्षा दीक्षा सुप्रसिद्ध दून स्कूल और फिर श्रीराम कालेज से वे वाणिज्य स्नातक हैं। कम ही लोग जानते होंगे कि मेनेजमेंट की पढ़ाई करने के इच्छुक जयवर्धन योजना आयोग के लिए काम कर रहे हैं। मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री राजा दिग्विजय सिंह ने 2003 में विधानसभा चुनाव में बुरी तरह पराजित होने के उपरांत दस साल तक चुनाव न लड़ने का कौल लिया था, जिस पर वे आज भी कामय हैं। 2013 में उनकी यह कसम पूरी होने जा रही है, तब वे सक्रिय होंगे, पर अपने इकलौते पुत्र जयवर्धन के साथ। राजा दिग्विजय सिंह अभी कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी को राजनीति का ककहरा सिखा रहे हैं, तो निश्चित तौर पर उन्होंने अपने सपूत जयवर्धन को भी राजनीति के दांव पेंच से वाकिफ करा ही दिया होगा।
जदयू, भाजपा: हनीमून इज ओवर
जैसे जैसे बिहार में चुनावों की तारीखें पास आती जा रही है, वैसे वैसे भारतीय जनता पार्टी और जनता दल यूनाईटेड की संयुक्त सरकार में दरारें बढ़ती जा रही हैं। पोस्टर विवाद से आरंभ हुए इस झगड़े के उपरांत भाजपा और जदयू के नेताओं के बीच वार थमने का नाम ही नहीं ले रहा है। बीच बीच में अवश्य ही सीज फायर की स्थिति बन जाती है, किन्तु राख के नीचे शोले जलते दिखाई पड़ ही रहे हैं। दरअसल कुल मिलाकर झगड़ा सत्ता की मलाई दुबारा चखने का है। जदयू को लगने लगा है कि वह अकेले ही बिहार में सरकार बनाने की स्थिति में है, तो उधर भाजपा भी कम मुगालते में नहीं है। लालू पासवान और कांग्रेस भी अपने अपने स्तर पर जोर अजमाईश में लगे हैं। बिहार के मुख्यमंत्री नितीश कुमार ने दो टूक शब्दों में कह दिया है कि वे नरेद्र मादी को बिहार में घुसने नहीं देंगे। निंितीश के बयान ने ठहरे हुए पानी में एक बार फिर लहरें पैदा कर दी हैं। इसका कारण यह है कि हाल ही में भाजपा के वरिष्ठ नेता मुख्तार अब्बास नकवी ने कहा था कि बिहार चुनाव अभियान के दौरान नरेंद्र मोदी अवश्य ही शिरकत करेंगे।
कॉमन वेल्थ गेम्स में भ्रष्टाचार से आहत हैं असलम
राष्ट्रमण्डल खेलों में तबियत से हो रहे भ्रष्टाचार से 1975 में हाकी विश्व कप के हीरो रहे पूर्व संसद सदस्य असलम शेर खान बुरी तरह आहत हैं। वे कामन वेल्थ गेम्स को भ्रष्टाचार गेम्स की संज्ञा देते हैं। गौरतलब है कि कांग्रेसनीत केंद्र और कांग्रेस की ही दिल्ली सरकार की छत्रछाया में कामन वेल्थ गेम्स के नाम पर भ्रष्टाचार का नंगा नाच नाचा जा रहा है। असलम शेर खान का कहना है कि लोग आजकल स्पोर्टस से कम अर्थात सेक्स, दाम अर्थात पैसा और नाम यानी प्रसिद्धि से जोड़कर देखते हैं। असलम की इस बात में दम है कि कामन वेल्थ गेम्स के नाम पर 28 हजार करोड़ फूंककर हमे क्या हासिल होने वाला है, अगर हम एक खेल पर एक हजार करोड़ खर्च करते तो हमारी झोली में 28 स्वर्ण पदक निश्चित तौर पर आ ही जाते। अपनी बेबाक टिप्पणियों के लिए प्रसिद्ध असलम शेर खान के इस कथन के बाद उनके विरोधी यह कहने से भी नहीं चूक रहे हैं कि असलम भाई अगर आप कलमाड़ी के स्थान पर होते तो क्या तब भी आप भ्रष्टाचार और धन फूंकने की बात इतनी शिद्दत के साथ करते!
दत्त परिवार में अब आल इज वेल
नरगिस और सुनील दत्त के पुत्र पुत्रियों के बीच अब युद्ध समाप्त होता दिख रहा है। कल तक नम्रता, प्रिया दत्त और संजय दत्त के बीच जबर्दस्त अंर्तविरोघ की स्थिति बनी हुई थी। संजय दत्त के निवास पर उनकी पत्नि मान्यता ने एक पार्टी का आयोजन किया था। यह आयोजन ईद, गणेश चतुर्थी के साथ ही साथ एक अन्य कारण से भी काफी महत्वपूर्ण था। कारण था प्रिया दत्त के पति ओवेन रॉकन का जन्म दिन। संजय और मान्यता के घर की खुशियां एक बार फिर लौटती दिख रही हैं। संजय दत्त के घर आयोजित पार्टी मंे न केवल संजय, मान्यता, प्रिया और नम्रता के दोस्तांे ने शिरकत की वरन इसमें उनके लगभग सारे रिश्तेदार भी आए। लोगों का मुंह है, सो कहने से कहां चूके। लोगों का कहना है कि अमर सिंह के साथ संजय दत्त की दूरियों के बाद भाई बहन के बीच लड़ाई की बर्फ पिघलना आरंभ हुआ है। वैसे भी कहते हैं कि जब तक अंबानी बंधुओं के करीब अमर सिंह रहे तब तक उनके बीच तलवारें खिची रहीं। अमिताभ और गांधी परिवार के बीच भी यही स्थिति रही।
ममता के राज में मूषक को लगता है पहले भोग
भगवान गणेश का वाहन चूहा हर घर में सभी प्रकार के अनाज का भोग पहले ही लगा देता है। यही आलम ममता बनर्जी के नेतृत्व वाले रेल विभाग का है। यात्रियों के लिए बनने वाला भोग पहले चूहों द्वारा चखा जाता है फिर उसे रेल में सफर करने वाले मुसाफिरों को परोसा जाता है। पुरानी दिल्ली के प्लेटफार्म नंबर 20 के सेल किचन में आम मुसाफिरों के लिए खाना बनाया जाता है। रेल विभाग के अधिकारियों की अनदेखी से कटी सब्जियों, और अन्य खाद्य सामग्रियों पर चूहे सारे दिन उछल कूद मचाते रहते हैं। चूहों के कारण भोजन दूषित हुए बिना नहीं रह पाता। रेल में पेन्ट्री कार में भी चूहे और काकरोच का जलजला देखते ही बनता है। रेल विभाग के अधिकारियों द्वारा भी इस बारे में कोई कार्यवाही नहीं की जाती है। चूंकि यात्रियों को इसके बारे में पता नहीं चलता है, वरना आंखों देखी मक्खी भला कौन निगलेगा। हो सकता है कि पश्चिम बंगाल पर कब्जा करने की मंशा मन में रखने वाली ममता बनर्जी द्वारा भगवान गणेश को प्रसन्न करने के लिए उनके वाहन चूहे को भोग लगाने की बात पर सख्ती नहीं की जा रही हो।
प्रियंका के घर की उखड़ी छत
हिमाचल प्रदेश को देवताओं की भूमि माना जाता है। इस प्रदेश के शिमला के छराबड़ा में नेहरू गांधी परिवार की पांचवी पीढ़ी की सदस्य श्रीमति प्रियंका वढ़ेरा का आशियान तैयार किया जा रहा है। पिछले दिनों हुई ताबड़तोड़ बारिश ने प्रियंका के घर की छत ही उखाड़ दी है। यह छत जगह जगह टपकने लगी है। प्रियंका के निर्माणाधीन घर की छत पर लकड़ी के उपर स्लेट की चादरें लगाई गईं थीं, जो बुरी तरह टपकने लगी हैं। बताते हैं कि इस स्लेट की जगह अब स्टील की चादरें लगाए जाने का प्रावधान किया गया है, जिससे प्रियंका गांधी के इस घर में रहने का मामला अब एक साल और आगे बढ़ गया है। वैसे समय समय पर प्रियंका की मां और कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमति सोनिया गांधी द्वारा इस घर को जाकर देखा जाता रहा है। कांग्रेस की राजमाता जब भी शिमला गईं तो उन्होंने अपनी बेटी के इस आशियाने को अवश्य ही देखा है। जानकारों का मानना है कि सोनिया गांधी द्वारा प्रियंका के नए आवास में महज उनकी रसोई में ही खासी दिलचस्पी दिखाई है।
लालू ने तरेरी कांग्रेस पर आंखें
कभी कांग्रेस की आंखों के तारे रहे लालू की नजरों में कांग्रेस बहुत ही अच्छा राजनैतिक दल रहा है। पूर्व रेल मंत्री और स्वयंभू प्रबंधन गुरू लालू प्रसाद यादव ने कांग्रेस, श्रीमति सोनिया गांधी और राहुल गांधी के बारे में कई मर्तबा कसीदे पढ़े हैं, जो किसी से छिपे नहीं है, हाल ही में लालू प्रसाद यादव के सुर बदले बदले नजर आ रहे हैं। कांग्रेस को आड़े हाथों लेते हुए लालू प्रसाद यादव अब पानी पी पी कर कांग्रेस को कोस रहे हैं। बकौल लालू प्रसाद यादव, कांग्रेस उनका आदर्श नहीं है। सांप्रदायिक ताकतों को रोकने की गरज से उनकी पार्टी ने केंद्र में कांग्रेस को सहयोग दिया था। आजादी के उपरांत देश में जो भी समस्याएं हैं, उनके लिए कांग्रेस ही पूरी तरह से जिम्मेदार है। नई पीढ़ी द्वारा झेली जाने वाली हर समस्या कांग्रेस की ही देन है। इतना ही नहीं आपात काल के दौरान कांग्रेस की नीतियों के विरोध चलते ही वे एक साल तक मीसा में जेल में बंद रहे। सवाल तो यह है कि जब कांग्रेस इतनी ही बुरी है और देश का बट्टा बिठा रही है तब आप उसके नेतृत्व वाली सरकार में पांच साल तक रेल मंत्री रहे तब आपने कांग्रेस की शान में कसीदे किस आधार पर गढ़े हैं यह बात भी जनता को उन्हें बताना ही चाहिए।
निष्ठुर हो गया जेल प्रशासन
अपराधी या आरोपी को जेल में रखा जाता है ताकि उसे समाज से इतर होने की सजा मिल सके। कैदी जब बीमार पड़ते हैं तो उन्हें अस्पताल में भर्ती करवाया जाता है। यह अलहदा बात है कि कैदियों में ताकतवर, पैसे और रसूख वाले तथा पहुंचसम्पन्न लोग जेल में कम अस्पतालों में ज्यादा समय काटते हैं। कैदी को जब भी अस्पताल में रखा जाता है तब उसे हथकड़ी से मुक्त कर दिया जाता है। अस्पताल का विशेष वार्ड भी जेल से कम नहीं होता है, क्योंकि यहां कैदी पहरेदारों के साए में ही रहते हैं। महाराष्ट्र के औरंगाबाद में एक नया मामला प्रकाश में आया है। लंबे समय से अस्पताल में भर्ती कैदी संतोष कुमार को हाथ के बजाए पैरों में हथकड़ी बांधकर रखा गया है, जो मनवाधिकारों का सरासर उल्लंघन की श्रेणी में ही आता है। जेल प्रशासन द्वारा अगर किसी कैदी को हथकड़ी वह भी पैरों में लगाकर रखा जा रहा हो तो इसे जेल प्रशासन की निष्ठुरता ही माना जाएगा।
मुख्यमंत्री करें सौजन्य भेंट और पार्टी उतरे सड़कों पर
अगर किसी सूबे का निजाम जाकर केंद्र के किसी मंत्री से सोजन्य भेंट करे और समाचार चेनल्स उसे पूरी प्राथमिकता से दिखाएं, वहीं उसी सूबे की उनकी पार्टी उसी मंत्री के खिलाफ सड़कों पर उतरने की बात करे तो यह नूरा कुश्ती की श्रेणी में नहीं आएगा? जी हां, मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और लोक निर्माण मंत्री द्वारा केंद्रीय भूतल परिवहन मंत्री कमल नाथ से सोजन्य भेंट कर उनकी तारीफों में कशीदे गढ़े जाते हैं, सबसे ज्यादा आवंटन मध्य प्रदेश को मिलने की बात की जाती है, वहीं दूसरी ओर मध्य प्रदेश की भाजपा के प्रदेश पदाधिकारियों की बैठक में यह निर्णय लिया जाता है कि भूतल परिवहन मंत्रालय के द्वारा मध्य प्रदेश के साथ पक्षपात करने के विरोध में भाजपा सड़कों पर उतरेगी। लगता है मंत्रियों को लगने लगा है कि जनता निरी बेवकूफ है जो आज कुछ कहा जाए कल कुछ और जनता मान लेगी। भाजपा का कहना है कि वह केंद्र के भूतल परिवहन मंत्रालय द्वारा सूबे को मिलने वाली मदद को बंद करने के विरोध में 5 से 7 अक्टूबर तक एनएच पर पड़ने वाले कस्बों में हस्ताक्षर अभियान और 22 से 24 अक्टूबर तक मानव श्रंखला बनाकर अपना विरोध दर्ज कराएगी। अब पीडब्लूडी मंत्री की बात को सच माना जाए या भाजपा के इस विरोध को।
एक महीने में ही सवा करोड़ ग्राहक
भारत देश में गरीबी रेखा के नीचे रहने वालों की तादाद और उनकी गिनती करने के आधार को भले ही शंका कुशंका की नजर से देखा जाए किन्तु भारत एक मामले में तो सभी को पीछे छोड़ रहा है, और वह है मोबाईल के उपभोक्ताओं के आंकड़े को। अगस्त माह में ही देश में एक करोड़ 35 लाख ग्राहकों को जोड़ा है मोबाईल सेवा प्रदाता कंपनियों ने अपने साथ। अब देश में मोबाईल धारकों की संख्या का आंकड़ा 49 करोड़ को छूने ही वाला है। सेल्युलर ऑपरेटर एसोसिएशन ऑफ इंडिया के ताजा तरीन आंकड़े वाकई चौकाने वाले हैं। कहते हैं कि देश में सत्तर फीसदी लोगों की औसत आय बीस रूपए से कम है, पर फिर आधी आबादी के पास मोबाईल फोन होना अपने आप में एक अजूबे से कम नहीं है। अगर किसी के पास खाने को रोटी के लिए पैसे नहीं है तो वह फिर कम से कम एक हजार रूपए का मोबाईल, सौ रूपए की सिम और कम से कम सौ रूपए के रिचार्ज के लिए पैसा कहां से जुगाड़ लेता है, यह आश्चर्य की ही बात है।
सरकार से ज्यादा मजबूत है नक्सली नेटवर्क
देश में अलगाववाद, आतंकवाद, माओवाद, नक्सलवाद और न जाने कितने वाद फिजां में जहर ही घोल रहे हैं। सरकार की इच्छा शक्ति में कमी का घोतक है इस तरह के वादों का पोषण। छत्तीसगढ़ में नक्सलवाद की समस्या जबर्दस्त तरीके से सर उठा रही है। देश के न जाने सपूत जानों की बाजी लगाकर अपने प्राण तक न्योछावर कर चुके हैं, किन्तु समस्या सुरसा की तरह ही मुंह बाए खड़ी है। छत्तीसगढ़ के गृहमंत्री ननकी राम कंवर की यह स्वीकारोक्ति काफी महत्वपूर्ण है कि सरकार से ज्यादा मजबूत है नक्सली नेटवर्क। यही कारण है कि अनेक मोर्चों पर नक्सली सरकार पर भारी ही पड़े हैं। केंद्र और राज्य सरकारों की नीतियों की खामियों का लाभ इस तरह की ताकतें जमकर उठाती हैं। एसा नहीं है कि सरकार को यह पता न हो कि इस समस्या के मूल में क्या है? बावजूद इसके समस्या का जस का तस बना रहना निश्चित तौर पर कंेद्र और राज्यों की सरकारों के लिए शर्म की बात है, पर मोटी चमड़ी वाले जनसेवक और विपक्ष में बैठा ‘‘मैनेज विपक्ष‘‘ जनता के साथ अन्याय होते देख कर भी आंखे बंद किए बैठा है।
पुच्छल तारा
भारत में व्यवस्थाओं को लेकर जब तब कुछ न कुछ कहा जाता रहा है। बंग्लुरू से रचना तिवारी इस मामले में एक ईमेल भेजकर इसे बेहद करीने से चित्रित कर रहीं हैं। रचना लिखती हैं कि शिक्षक ने पूछा – इंडिया क्या है?‘‘ छात्र का जवाब था कि इंडिया एक एसा देश है, जहां पिज्जा एंबूलेंस और पुलिस से जल्दी आ जाता है. . ., एक एसा देश है जहां कार का लोन 5 प्रतिशत तो एजूकेशन लोन 12 फीसदी ब्याज दर पर मिलता है. . ., एक ऐसा देश है, जहां चावल 40 रूपए किलो तो सिम कार्ड महज दस रूपए में मिलता है. . ., एक एसा देश है जहां चाय की दुकान पर लोग अखबार पढ़ते हुए फरमाते हैं कि बच्चों से काम करवाने वालों को तो फांसी पर चढ़ा देना चाहिए, और फिर नाबालिग छोटू को पुकारकर दो चाय का आर्डर देते हैं . . .।‘‘ सच है ‘अतुलनीय है भारत‘।
हालांकि अपने रोजी-रोटी में मशगूल देश को शायद ही 24 सितम्बर के बारे में कोई खास जिज्ञासा हो. ऐसा कोई माहौल दिख भी नहीं रहा है कि आम जन आतुर हों राम जन्मभूमि पर आने वाले फैसले के लिए. राजनीतिक दल भी शायद इस मामले पर फूंक-फूंक कर ही कदम रखना पसंद करे. चुकि हालिया कोई बड़ा चुनाव भी नहीं है तो कोई फायदे नुकसान का हिसाब भी लगाने की ज़रूरत शायद नेताओं को नहीं है.अगर बिहार और पश्चिम बंगाल में चुनाव है भी तो ज़ाहिर है वहाँ कभी इस मुद्दे से किसी को कोई फायदा कभी नहीं मिला. जहां बिहार में जाति के आगे की बात कभी नहीं हुई, वही पश्चिम बंगाल में तो चुनाव के नाम पर मजाक ही होता रहा है दशकों से. अगर दोनों जगह परिस्थितियाँ इस बार बदली हुई भी हैं तो इसके कारण दुसरे हैं और वहाँ राम जन्मभूमि कोई मुद्दा हो नहीं सकता.
रही पूरे देश की बात तो ज़ाहिर है जो दल राम जन्मभूमि के आंदोलन के पक्ष में थे उन्हें यह बेहतर मालूम है कि उन्होंने अपना भरोसा कम से कम इस मुद्दे पर गंवा दिया है. ज़ाहिर है काठ की हांडी को एक बार ही चढ़ना होता है. वे शायद समझते हैं कि अगर मामले को ज्यादा तूल दिया तो लेने के देने भी पड सकते हैं. आम आदमी तो एक चर्चित फिल्म का गीत ही गाना शुरू कर देंगे कि ‘चोला माटी के राम एकर का भरोसा.’ इसके अलावा केन्द्र में सत्ताधारी दल की तो आज तक नीति ही रही है कि ‘चोर से कहो चोरी कर, साहूकार से कहो जागते रह.’ तो अवसरवाद को ही एकमात्र अपना ‘वाद’ समझने वाली कांग्रेस निश्चित ही तराजू पर वोटों को तौल कर ही अपना रुख अख्तियार करेगी.
तो इस मुद्दे के प्रति आज ना आम जनता में कोई कुलबुलाहट है और न ही राजनीतिक दलों में कोई कसमसाहट. अगर कही भविष्य सवांर लेने की आहट है तो केवल समाचार माध्यमों में. उनको ही केवल यह ऐसा अवसर दिख रहा है जहां मोटी कमाई की गुंजाइश है. सांप-सापिन और सावंत को बेचते-बेचते उकताए इन माध्यमों को ज़रूर इस बात का भरोसा है कि शायद राम जी फिर करेंगे बेरा पार. इस बार शायद एक अच्छा उत्पाद हाथ लगे. नयी बात ये है कि ‘नए मीडिया’ के रूप में स्थान बनाता जा रहा हिन्दी का वेब जगत भी टूट पड़ा है इस बार. लगभग हर साईट पर आपको राम ही राम दिखेंगे. आशंकाओं, संभावनाओं और खतरों के मार्केटिंग-ब्रांडिंग का दौर जारी है.
तो जैसा कि सब जानते हैं कि उक्त दिनांक को तीन बजकर तीस मिनट पर आने वाला फैसला भी अंतिम नहीं है. पिछले छः दशक के उबाऊ-थकाऊ और उलझाऊ फैसले का यह भी एक सामान्य कड़ी ही साबित होने वाला है. ज़ाहिर है दोनों में से किसी एक के पक्ष में ही फैसला आएगा और दूसरा पक्ष ऊपरी अदालत में अपील भी करेगा.फिर स्टे फिर लंबी सुनावाई और अगर कोई खास दबाव नहीं हुआ तो फिर दशकों के लिए छुट्टी. तो फैसले के मद्देनज़र प्रशासन द्वारा बरती जा रही सावधानी तो समझ में आ रही है लेकिन मीडिया को आखिर इतनी जल्दी किस बात की है? सबसे आपत्तिजनक व्यव्हार तो लग रहा है विद्वान लेखकों का. सभी करीब बीस साल पुरानी सन्दर्भ सामग्री को अपडेट करने में जुट गए हैं. अपने पुराने लेखों को धो-पोछ कर थोड़ा कम्प्युटरानुकूल बना कर अपनी-अपनी दूकान के साथ इस नए मीडिया की दुनिया में हाज़िर हैं.
सीधी सी बात है कि अगर न्यायालय में सारे तथ्यों को कलमबंद कर दिया गया है, सभी सम्बंधित सामग्रियां एक जगह इकट्ठी भी कर ली गयी है तो अभी उसका विषद वर्णन करने की ज़रूरत क्या है? इस लेखक को आशंका तो इस बात की है कि जिस तरह विगत लोकसभा चुनाव के दौरान बेकार के लोक-लुभावन प्रायोजित समाचारों की भीड़ में जन सरोकारों से जुड़े मुद्दे मीडिया द्वारा दबा दिए गए, उसी तरह शायद यूपीए सरकार इस मुद्दे का इस्तेमाल करके कहीं महंगाई, आतंकवाद, भुखमरी, अनाज के सड़ने पर पडी घुडकी, किसानों की आत्महत्या, राष्ट्रकूल नाम के गुलामी के खेलों की आड में किया जा रहा भ्रष्टाचार, स्पेक्ट्रम मामले में हज़ारों करोड के वारे-न्यारे समेत अन्य तमाम ढके-छुपे और सामने आये लूटों पर पर्दा डालने की कोशिश तो नहीं कर रही है. पिछले चुनाव के दौरान एक विशेषज्ञ ने यह टिप्पणी की थी कि कांग्रेस के चुनाव प्रबंधन की सबसे ज्यादा तारीफ़ इसलिए की जानी चाहिए कि वह अपने अनुकूल मुद्दों को उभारने से ज्यादा इस मामले में सफल रहा है कि अपने प्रतिकूल रहने वाले मुद्दे को दबाया कैसे जाय. वास्तव में उस चुनाव से प्राप्त अनुभव को अब भी इस्तेमाल करने का प्रयास कांग्रस क्यू छोड़ना चाहेगी ?
अगर बात राम जन्मभूमि के नाम पर एक बार फिर जनांदोलन खड़े करने की हो तो फिलहाल तो इसकी कोई ज़रूरत नज़र नहीं आ रही है. अगर सभी संबंधितों को अपना पक्ष मज़बूत दिख रहा हो तो न्यायिक प्रक्रिया पर भरोसा कर अपनी ऊर्जा सड़क पर गवाने के बजाय ‘कठघरे’ में लगाए यही ठीक होगा. हाँ अगर सत्ताधारी पार्टी द्वारा अपने लाभ के लिए न्यायिक फैसले को कुंद किये जाने का प्रयास किया गया तो निश्चय ही एक बार और उसी तरह का खुमार सड़कों पर दिखेगा जैसा नब्बे के शुरुआती दशक में दिखा था. उस समय जन-ज्वार को फैलने से पुनः कोई रोक नहीं सकता चाहे बाकी चीज़ें जाए भाड में.
इस आशंका का कारण भी नज़र आ रहा क्युकी इतिहास इस बात का गवाह है कि राजनीतिक लाभ के लिए कांग्रेस तुष्टिकरण के किसी भी हद तक जा सकती है. देश को आग में झोंक देने में भी उसे कोई परहेज़ नहीं होगा. आखिर जो कांग्रेस, शाहबानो को मिले चंद निवालों को छिनने के लिए संविधान में संशोधन करवा सकती है, वह निरपेक्ष भाव से अपना सब कुछ खोता हुआ देखती रहे यह कैसे संभव है? सामान नागरिक संहिता, धारा 370 समेत दर्ज़नों मामले में जिस कांग्रेस ने न्यायपालिका को ठेंगा दिखाया है वह इस मामले में बिलकुल चुप रह जाएगा यह नहीं कहा जा सकता है. और तो और, अनाज सड़ने के मामले में शालीन माने जाने प्रधानमंत्री ने भी सर्वोच्च अदालत तक को उसकी ‘हैसीयत’ बता यह सन्देश तो दे ही दिया है कि अपने खिलाफ जाने वाले किसी भी मामले में उनकी सरकार किसी भी हद तक जा सकती है. बावजूद उसके सभी पक्षों से यह निवेदन किया जा सकता है कि देश आज जिस तरह की समस्यायों से घिरा हुआ है, उसमें किसी नान-इशू को इशू बनाने के किसी भी प्रयास का विरोध करें. नागरिकों के सामने वैसे ही चुनौतियों का अम्बार है. उन्हें अपने घर-परिवार, रोजी-रोटी के बारे में सोचने, काम करने का अवसर दें.
प्रस्तावित स्थल पर भव्य राम मंदिर का निर्माण वास्तव में राष्ट्र के स्वाभिमान और सम्मान के पुनर्स्थापना हेतु आवश्यक है. लेकिन इसके लिए किसी का भी कोई बलिदान अब ना हो, कोई भी जन सामान्य अब इस मुद्दे पर राजनीति की भेंट ना चढ़े यही मर्यादा पुरुषोत्तम से प्रार्थना है. ‘डायन’ के बारे में भी कहा जाता है कि वह भी कम से कम एक घर को बख्स देती है. नेताओं एवं उनसे भी बड़े नेता ‘पत्रकारों-स्तंभकारों’ से आग्रह कि वे भी कम से कम इस मुद्दे को अब ‘उत्पाद’ की शक्ल ना दें, बेहतर हो कि वे ‘महंगाई डायन’ पर ही ध्यान केंद्रित करें….आमीन.
बारिश के मौसम में नंगे पैर चलना जोखिम भरा हो सकता है। कुछ लोगों के जूतों में छेद हो जाते हैं जिससे कटने या जख्म होने का डर होता है। ऐसे कुछ मामलों में जख्म संक्रमण का रूप ले लेता है, जिसके लिए ऑपरेशन की जरूरत होती है।
हार्ट केयर फाउंडेशन ऑफ इंडिया के अध्यक्ष डॉ. के के अग्रवाल के मुताबिक़ पानी के नीचे नुकीली चीजें हो सकती है जिसकी वजह से आप जख्मी हो सकते हैं।
बचाव के लिए टिप्स :
• टिटनेस का टीका लगवाएं। किशोरों और वयस्कों को हर 10 साल में बूस्टर शोट्स लगवाने चाहिए।
• स्विमिंग पूल के आस पास या बारिश के समय टहलने के दौरान सैंडिल पहनें। इससे पैर में किसी भी तरह के घाव आने से बचाव होता है साथ ही वायरस व बैक्टीरिया से भी बचाव संभव होता है। ये समस्याएं एथलीट फुट, प्लांटर वाट्र्स और अन्य पैर की समस्याओं के तौर पर सामने आती हैं।
• बारिश के दिनों में कीड़े भी बाहर निकल आते हैं, जिनकी वजह से संक्रमण संभव होता है।
• पैरों की उंगलियों में फंगस इन्फेक्शन भी हो सकता है।
• मधुमेह रोगियों को तो कतई नंगे पैर नहीं निकलना चाहिए यहां तक कि घर के अंदर भी वे चप्पलों का इस्तेमाल करें, क्योंकि उनके पैर में किसी भी तरह की चोट नहीं आनी चाहिए।
• अगर आपको लगता है कि आपके पैर में कोई जख्म है तो 24 घंटे के अंदर उसे डॉक्टर को दिखाना चाहिए। उस जख्म को सही तरीके से साफ करना जरूरी होता है और समस्या जटिल न हो इसके लिए आवश्यक उपाय अपनाने पड़ते हैं, उदाहरण के तौर पर टिश्यू और बोन इन्फेक्शन या पैर की टेंडन्स या मांसपेशियों का डैमेज हो सकता है।
• वाट्र्स, कैल्यूसिस, इनग्रोन टोनेल्स, सस्पीसशियस मोल्स, स्पॉट्स या फ्रेकलेस जैसी त्वचा सम्बंधी समस्याओं के लिए नियमित तौर पर जांच करते रहना चाहिए। जितनी जल्दी इनका पता लगा लिया जाए, उतनी जल्दी निदान संभव होता है।
• अपने पैरों को हमेशा सूखा रखना चाहिए। (स्टार न्यूज़ एजेंसी)
हृदय बीमारियों के बाद सैक्सुअल लाइफ पर विशेष फोकस किया जाना चाहिए. शादी के बाद इतर संबंध होना हृदय रोगियों के लिए सुरक्षित नहीं होता है, क्योंकि वे अपनी उम्र से बहुत कम उम्र के साथी के साथ संबंध बनाते हैं जिससे परिस्थियां, जगह, समय को लेकर तनाव रहता है। शादी के इतर संबंध से हार्ट पर खिंचाव होता है जिसकी वजह से पल्सदर बढ़ जाती हैं और इससे हार्ट अटैक हो सकता है।
हार्ट केयरफाउंडेशन ऑफ इंडिया के अध्यक्ष डॉ. के के अग्रवाल के मुताबिक़ शादी से इतर संबंधों की वजह से पुरुष वियाग्रा जैसी ड्रग्स का इस्तेमाल करते हैं जो हृदय के लिए हानिकारक साबित हो सकतीं है अगर व्यक्ति में गंभीर किस्म के ब्लॉकेज हों और वह सामान्य सैक्सुअल लाइफ का आनंद ना ले पा रहा हो। इसके लिए रूलऑफ थम्ब है कि अगर व्यक्ति 2 किलोमीटर पैदल चल सकता है या दो तल की मंजिल की सीढ़ियां चढ़ ले तो वह हृदय संबंधी समस्याओं से सुरक्षित होता है और ऐसे शादीशुदा संबंध बना सकते हैं।
थकने के बाद कड़ी मेहनत करना स्वास्थ्य के लिए ठीक नहीं
थक जाने के बाद मानसिक या शारीरिक काम करना आपके स्वास्थ्य के लिए नुकसानदायक साबित हो सकता है। यह खुलासा इंटरनेशनल जर्नल आफ साइकोफिजियोलॉजी में प्रकाशित बर्मिंघम की एलबामा यूनिवर्सिटी के एक अध्ययन में किया गया है। अध्ययन में कहा गया है कि थके हुए लोगों में आराम कर चुके लोगों की तुलना में मेमोराइजेशन टेस्ट के दौरान रक्तचाप कहीं ज्यादा बढ़ा हुआ होता है। जब थके हुए लोग पैसे के लिए या उपलब्धि हासिल करने के चक्कर में काम में जुटे रहते हैं, इससे वे अपनी क्षमता को कम करते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि थके हुए व्यक्ति का रक्ताप बढ़ जाता है और यह तब तक बढ़ता जाता है जब तक कि आप काम से मुक्त नहीं हो जाते।
इस अध्यन में राइट और उसके साथियों ने 80 स्वयंसेवियों से कहा कि वे एक बढ़िया पुरस्कार जीत सकते हैं अगर दो मिनट के अंदर दो या छह नॉनसेंस ट्राइग्राम्स (बिना मतलब के तीन अक्षरों का क्रमानुसार) को याद रखें। इन्हीं में से जो स्वयंसेवी कम थके हुए थे, उनसे तुलना की गई, जो टू ट्राइग्राम मेमोराइजेशन टास्क करने के दौरान थोड़ा बहुत थके थे, उनका रक्तचाप बढ़ा हुआ पाया गया। (स्टार न्यूज़ एजेंसी)
एक अध्ययन में दिखाया गया है कि 73 फीसदी ग्राहकों के पेंट ब्रांड 12 देशों में टेस्ट किये गए और इसमें देखा गया कि ब्रांड अमेरिकी मानकों के 600 पाट्र्स प्रति मिलियन (पीपीएम) के पेंट थे।
इसके लिए निम्न टिप्स हैं:
1. ईनेमल पेंट्स सबसे ज्यादा चिंता का विषय हैं जिनको 1000 पीपीएम से भी अधिक चिंतनीय देखा गया है।
2. जो पेंटर पेंट उतारता है उसको इसकी वजह से पेट में दर्द हो सकता है।
3. कुछ पेंट में वोलाटाइल ऑर्गेनिक कंपाउंड्स की वजह से अस्थमा या खांसी की समस्या हो सकती है। वीओसीएस ऑर्गेनिक कैमिकल कंपाउंड्स होते हे जो वैपोराइज होकर वातावरण में पहुंच जाते हैं। वीओसीएस में एल्डीहाइड्स, कीटोन्स और हाइड्रोकार्बन शामिल होते हैं और ये या तो ऑर्ग्रेनिक कंपाउंड के तौर पर होते हैं या फिर कई तरह के मिश्रणों से तैयार होते हैं।
4. चूना (लाइमस्टोन) को घरों की सफेदी के लिए इस्तेमाल किया जाता है जो सुरक्षित होता है बनिस्बत हाई एंड पेंट्स को जो बाजार में उपलब्ध हैं।
5. बहुत ज्यादा इसका साबका पड़ने से उंगलियां कमजोर हो जाती हैं, ब्लड प्रेषर असामान्य हो जाता है, एनीमिया और गंभीर किस्म का ब्रेन या किडनी डैमेज का भी खतरा रहता है।
6. सूखी खांसी की वजह टाल्यूईन डासोसाइनेट (टीडीआई) एक प्रमुख संवेदनशील तत्व होता है और यह कैमिकल तत्व कार पेंट में इस्तेमाल किया जाता है।
7. अधिकतर टॉक्सिक असर में उल्टाव संभव होता है अगर इनका जल्द पता लगा लिया जाए।
8. अस्थमा रोगियों को चाहिए कि तुरंत पेंट हुए कमरे में प्रवेश करने से परहेज करें। (स्टार न्यूज़ एजेंसी)
कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी ने गत दिनों अपने एक बयान में कश्मीर घाटी की विस्फोटक स्थिति के बारें में राज्य के मुख्यमंत्री उमर अब्दुला द्वारा किए जा रहे प्रयासों का समर्थन करते हुए कहा कि स्थिति को संभालने के लिए उमर को आज समर्थन और सहयोग की दरकार है, कश्मीर की समस्या फुल टाईम समस्या है। अपने मीडिया प्रबंधकों द्वारा प्रायोजित बयान को देश के सामने मीडिया के माध्यम से रखने वाले गांधी-नेहरू खानदान के चिराग राहुल बाबा के बयान में समस्या का वास्तविक कारण, समाधान सब कुछ गायब रहा जिससे देशवासियों को कोई हैरत नहीं हुई क्योंकि जो समस्या स्वयं कांग्रेस एवं नेहरू-गांधी परिवार की देन है उस पर राहुल बाबा अगर साफगोई से कुछ कहते तो शायद यह उनके परिवार की गरिमा के प्रतिकूल होता। प्रश्न यह उठता है कि कांग्रेस के युवराज को आखिर समस्या की सही जानकारी भी है या नहीं?
भारत संविधान के अनुसार एक पंथ निरेपक्ष प्रजातंत्र है। जिसका अर्थ है सरकार सभी मतो- सम्प्रदायों को समान मानेगी किसी भी मत-सम्प्रदाय को विशेष महत्व नहीं देगी। यह भारतीय संविधान का सैद्धांतिक पक्ष है किंतु व्यवहार में 1947 से लेकर आज तक इस पंथ निरपेक्षता को लेकर मुस्लिम तुष्टिकरण का खेल खेला जा रहा है। हिन्दुओं ने अपनी सहिष्णुता के कारण मुस्लिम और इसाई तुष्टिकरण की इस राजनीति का कोई खास विरोध नहीं किया अतः हिन्दु समाज की उपेक्षा लगातार जारी है। इसी तुष्टिकरण के दुष्परिणाम के रूप में आज कश्मीर समस्या अपना भयानक रूप लेकर हमारे सामने खड़ी है जिसके समाधान का रास्ता देश के सत्ताधीशों को नहीं सूझ रहा है।
कश्मीर का दर्द आज से 600 साल पूर्व प्रारंभ हुआ था, जब सुल्तान सिकंदर ने कश्मीर पर आक्रमण करके कत्ले-आम मचाया था। उसने वहां रहने वाले लोगो को आदेश दिया था- अगर कश्मीर में रहना है तो मुसलमान होकर रहना पड़ेगा, नहीं तो मरना होगा या कश्मीर छोड़कर भागना होगा यानि सीधे शब्दों में कहे तो तीन में से एक चीज को चुनो – इस्लाम, मौत या पलायन। वही परम्परा कश्मीर में आज भी चल रही है। जो लोग अपना धर्म छोड़कर मुसलमान बन गए उन्होने हिन्दुओं पर भीषण अत्याचार प्रारंभ कर दिए। आर्य समाज की प्रेरणा से कश्मीर के मुसलमानों को हिन्दु धर्म में लाने का प्रयास भी हुआ, कश्मीर के तात्कालीन नरेश रणजीत सिंह भी इससे सहमत थे किंतु पण्डितों द्वारा मुसलमानों का परावर्तन करने से इंकार करने के कारण यह कोशिश फलीभूत नहीं हो सकी।
देश के बंटवारे के घाव कश्मीर की जनता को भी सहने पड़े। विभाजन के समय कश्मीर में महाराजा हरिसिंह सत्ता पर काबिज थे, आरएसएस के द्वितीय सरसंघचालक परम पूज्य माधव सदाशिव राव गोळवलकर उपाख्य श्रीगुरूजी द्वारा जम्मू-कश्मीर के महाराजा से की गई मंत्रणा के फलस्वरूप महाराजा ने अपनी रियासत का भारत में विलय कराने पर सिद्धांततः सहमति दी। जिस समय महाराजा द्वारा विलय पर सहमति प्रदान की गई उसी समय पाकिस्तानी कबायलियों द्वारा जम्मू-कश्मीर पर आक्रमण किया गया ताकि सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण इस रियासत को पाकिस्तान में मिलाया जा सके, इस आक्रमण को तात्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू द्वारा कतई गंभीरता से नहीं लिया गया। पंडित नेहरू ने अपनी अंग्रेजप्रियता और मुस्लिमपरस्ती से कश्मीर के राजा के बिना शर्त विलय प्रस्ताव को स्वीकृत करने में अनावश्यक विलम्ब किया जिस कारण जम्मू-कश्मीर का लगभग 78,000 वर्ग किमी क्षेत्र पाकिस्तानी कबायलियों के कब्जे में चला गया। यह तो तात्कालीन आरएसएस प्रमुख श्रीगंरूजी के व्यक्तित्व व संगठन कौशल्य का ही प्रभाव था कि जब तक तात्कालीन केन्द्रीय गृहमंत्री सरदार पटेल द्वारा जम्मू-कश्मीर में सेना भेजी गई तब तक संघ के स्वयंसेवकों द्वारा शत्रु सेना से लोहा लेने के साथ-साथ जम्मू-कश्मीर की हवाई पट्टियों को भी तक अपने कब्जे में रखा गया। संघ के कार्यकर्ताओं के आत्मोत्सर्ग व भारतीय सेना के शौर्य के कारण कश्मीर का वर्तमान भू-भाग तो हमारे पास रह गया किंतु जो भू-भाग पाकिस्तान के कब्जे में चला गया उसे सैन्यबल से प्राप्त करने की बजाए देश के प्रधानमंत्री नेहरू उसे संयुक्त राष्ट्र संघ में ले गए जिस कारण भारत की भूमि ही पूरी दुनिया की नजर में विवादित प्रकरण बनकर रह गई।
26 अक्टूबर 1947 को कश्मीर के भारत में विलय के साथ ही वहां के अलगाववादी तत्वों ने आजादी और पाकिस्तान जिन्दाबाद के नारे लगाने शुरू कर दिए थे। जिस कारण तात्कालीन केन्द्र सरकार ने प्रधानमंत्री के दबाब में आकर राज्य को विशेष राज्य का दर्जा देते हुए राज्य में धारा 370 लागू कर दी जिसका अभिप्राय है कि भारतीय संविधान की धारा 1 व 370 को छोड़कर अन्य कोई धारा कोई भी कानून राज्य में लागू नहीं होगा, राज्य के पृथक संविधान को मान्यता की मूक स्वीकूति मिली, धारा 370 के कारण जम्मू-कश्मीर के नागरिक भारत के नागरिक है किंतु भारत के अन्य राज्यों के नागरिक जम्मू-कश्मीर के नागरिक नहीं हो सकते, अन्य राज्यों की भांति भारतीय नागरिकों को राज्य में स्थायी निवास करने, जायदाद खरीदने से भी यह धारा वंचित करती है। अगर किसी भी भारतीय नागरिक को राज्य का प्रथम नागरिक अर्थात राज्यपाल भी मनोनीत कर दिया जाये तो भी वह राज्य में मतदान तक करने का अधिकारी नहीं है। इस धारा के कारण राज्य को देश के अन्य राज्यों की अपेक्षा विशेष दर्जा दिया गया जिसकी आड़ में मुस्लिम बहुल यह राज्य इस धारा का दुरूपयोग करते हुए केन्द्र सरकार पर दबाब बनाने के साथ-साथ अब तक देश का सवा दो लाख करोड़ रूपया ले चुका है। इसमें भी एक दूसरा पहलू है कि केन्द्र से प्राप्त पूरा धन मात्र घाटी में ही लगाया जा रहा है किंतु फिर भी कोई सार्थक परिणाम आज तक सामने नहीं आया है। 1989-90 में मुस्लिम अलगाववादियों से परेशान होकर 3 लाख से अधिक कश्मीरी पण्डित घाटी छोड़कर भारत की सड़कों पर शरणार्थी के रूप में जीवन बसर कर रहे है। इनके पुनर्वास के लिए भारत सरकार के पास कोई योजना नहीं है।
आज स्थिति इतनी भयावह है कि जम्मू-कश्मीर मात्र सेना के बल पर ही भारत का है। वोटो की राजनीति के चलते और मुस्लिम अलगावादियों के दबाब में जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर साहब केन्द्र सरकार से घाटी के अशांत क्षेत्र में सेना के विशेषाधिकार कम करने की बात कह रहे है। पिछले कुछ समय में वहां से 30 हजार सैनिक हटा लिए गए है, जिससे पाकपरस्त तत्वों का हौंसला बढ़ा ही है। वर्तमान में केन्द्र सरकार उग्रवाद से प्रभावित क्षेत्रों में सेना को विशेषाधिकार देने वाले आर्म्ड फोर्सेज स्पैशल पावर एक्ट में संशोधन का विफल प्रयास कर चुकी है। अब गेंद केन्द्र सरकार के पाले में है किंतु जिस प्रकार से केन्द्र सरकार व कांग्रेस पदाधिकारियों के बयान आ रहे है उससे लगता है कि कही देश को चीन द्वारा तिब्बत पर कब्जे के समय पण्डित नेहरू द्वारा की गई टिप्पणी पुनः न सुननी पड़े कि जिस जमीन पर घास का तिनका भी पैदा नहीं होता उसके लिए खून बहाने की क्या जरूरत है? कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी द्वारा इसे फुल टाइम समस्या बताने से क्या ऐसा संकेत नहीं मिलता है?
हिन्दी के वरिष्ठ आलोचक नामवर सिंह लंबे समय से ‘गायब’ हैं। कोई नहीं बता रहा वे कहां चले गए। वैसे व्यक्ति नामवर सिंह साक्षात इस धराधाम में हैं और मजे में हैं। गड़बड़ी यह हुई है कि ‘आलोचक नामवर सिंह’ गायब हो गए हैं। उनका गायब होना एक बड़ी खबर होना चाहिए था। लेकिन हिन्दी वाले हैं कि उनके आलोचक के रूप में गायब हो जाने को गंभीरता से नहीं ले रहे।
नामवर सिंह हम सबके पूज्य हैं। आराध्य हैं। हमें उनसे प्रेरणा मिलती है। उनका एक -एक कथन आलोचना में हीरे की कण की तरह होता है। लेकिन लंबे समय से वे आलोचना से गायब हो गए हैं। यह बात दीगर है कि उनके नाम पर कुछ डमी नामवर बाजार में उपलब्ध हैं।
‘आलोचक नामवर सिंह’ हम सबके बुजुर्ग हैं और बुजुर्गों का हम सब आदर करते हैं और उनकी बातें भी मानते हैं। हम सब पहले भी उनकी बातें मानते थे। वे जैसा कहते थे वैसा ही करते थे इन दिनों भी वे जैसा कह रहे हैं हम वैसा ही कर रहे हैं। वे जो कुछ कहते हैं उसे आंख बंद करके मान लेते हैं। वे जिसका लोकार्पण करते और दस-पांच मिनट बोल दें,उसकी किताब हाथों-हाथ बिक जाती है और जिस व्यक्ति को हजारीप्रसाद द्विवेदी के बाद का सबसे बड़ा आलोचक बना दें तो उसकी किताब का झटके में द्वितीय संस्करण आ जाता है। प्रथम संस्करण के प्रकाशन के साथ ही राजकमल प्रकाशन उसे एक लाख का इनाम दे देता है।
यही हाल अलका सरावगी का भी हुआ उसके उपन्यास की गुरूवर ने इतनी प्रशंसा की कि उसे साहित्य अकादमी पुरस्कार मिल गया। कहने का अर्थ है नामवर सिंह की प्रशंसा का दाम है और उनकी प्रशंसा की बाजार में हमेशा रेटिंग ऊँची रही है। वे अब हमेशा प्रशंसा करते है। आलोचना नहीं।
नामवर सिंह हिन्दी के एकमात्र ऐसे आलोचक हैं कि जिनका लोहा सभी मानते हैं और उनके जितने भी परिचित हैं,शिष्य हैं वे सब उनके फेन हैं। मैं भी उनका फेन हूँ। शिष्य भी हूँ। मेरी मुश्किल यह है मैंने आलोचक नामवर सिंह से पढ़ा था। मैंने सालीबरेटी नामवर सिंह से नहीं पढ़ा था।
मुझे आज ही एक दोस्त ने पूछा था कि आलोचक नामवर सिंह कब से गायब हैं ? मुझे यह सवाल प्रासंगिक लगा और मैंने आलोचक नामवर सिंह की खोज आरंभ कर दी तो मुझे सौभाग्य से यह पता चला कि आलोचक नामवर सिंह आपातकाल में ही गायब हो गए।
आपातकाल के बाद किसी ने आलोचक नामवर सिंह को नहीं देखा है। आपातकाल में लुप्त हुए नामवर सिंह को अभी तक लोग खोज रहे हैं लेकिन उन्हें वे नहीं मिले हैं। किसी को कुलाधिपति नामवर सिंह मिले हैं, किसी को अमिताभ बच्चन के रूप में मिले हैं,किसी को लोकार्पण वाले नामवर सिंह मिले हैं। किसी को प्रशस्तियां पढ़ने वाले नामवर सिंह मिले हैं किसी को पुराने के प्रेमी नामवर सिंह मिले हैं, किसी को साक्षात्कार देने वाले नामवरसिंह मिले हैं,किसी को राजकमल प्रकाशन वाले नामवर सिंह मिले हैं, किसी को गुरूवर नामवर सिंह मिले हैं, किसी को आशीर्वाद देकर काम कराने वाले नामवर सिंह मिले हैं।
मैं बेबकूफों की तरह आलोचक नामवर सिंह को खोज रहा था और अपने सभी लक्ष्यों की प्राप्ति में असफल साबित हुआ। मैंने 30 से ज्यादा एक से एक सुंदर विषय पर किताबें लिखीं है और हिन्दी माध्यम समीक्षा और साहित्य समीक्षा का मान ऊँचा किया। लेकिन आश्चर्य की बात है कि आलोचक नामवर सिंह की मेरे ऊपर नजर तक नहीं पड़ी। उन्होंने मेरी किताबों को स्पर्श योग्य भी नहीं समझा।
मैं बार-बार सोचता था कि एकबार आलोचक नामवर सिंह मेरी दस साल पहले आई स्त्रीवादी आलोचना की किताब ‘स्त्रीवादी साहित्य विमर्श’ को जरूर पढ़ेंगे। लेकिन मुझे आश्चर्य हुआ कि आलोचक नामवर सिंह ने मेरी किताब नहीं देखी,यह बात दीगर है कि मेरी सारी किताबें अंतर्वस्तु के बल पर ,बिना किसी समीक्षक की सिफारिश या प्रशंसा के लगातार बिक रही हैं और मेरी अधिकांश किताबों की सरकारी खरीद भी नहीं हुई है। मामला यहीं तक नहीं थमा है आलोचक नामवर सिंह को एडवर्ड सईद,बौद्रिलार्द, मेकलुहान,नॉम चोमस्की, बोर्दिओ आदि पर केन्द्रित किताबें भी नजर नहीं आयीं।
उन्हें हिन्दी की लुप्तप्राय कविताओं का संकलन ‘स्त्री काव्यधारा’ दिखाई नहीं दिया। इसमें हिन्दी की स्त्री लेखिकाओं की वे कविताएं हैं जो नामवर सिंह और उनके अनेक भक्तों ने भी नहीं पढ़ी हैं। इनमें से अधिकांश लेखिकाओं का हिन्दी साहित्य के इतिहास में किसी ने जिक्र तक नहीं किया।
आलोचक नामवर सिंह ने उस किताब पर भी कुछ नहीं बोला जिसमें 70 से ज्यादा हिन्दी लेखिकाओं के वे दुर्लभ निबंध हैं जो हिन्दी आलोचना और इतिहास में चर्चा के योग्य नहीं समझे गए। आलोचक नामवर सिंह का इस तरह मेरी किताबों को एक नजर भी न देखना मेरे लिए चिन्ता की बात है। यही वो संदर्भ है जहां से हमें यह सवाल उनसे पूछना है कि आखिरकार पुरूषोत्तम अग्रवाल की आलोचना किताब में ऐसा क्या है जिसके कारण आप बार-बार उसकी प्रशंसा के लिए बाध्य होते हैं और मेरी आलोचना की किताब आपको नजर नहीं आती ?
अलका सरावगी में ऐसा क्या खास है कि उसके उपन्यास की प्रशंसा में आप प्रशंसा के सभी मानक तोड़ देते हैं लेकिन उदयप्रकाश की रचनाओं की प्रशंसा के लायक शब्द नहीं होते ?
हमें लगता है आलोचक नामवर सिंह अब हमारे बीच नहीं है। अब हम जिस नामवर सिंह को देखते रहते हैं। वह प्रशंसा करने वाला व्यक्ति है। यह ऐसा व्यक्ति है जिसने आपातकाल में अपना आलोचनात्मक विवेक खोया तो फिर उसे दोबारा अर्जित नहीं कर पाया। अब वह आलोचक कम और प्रशंसा करने वाला व्यक्ति है। यह आलोचना नहीं करता बल्कि मार्केटिंग करता है।
आलोचक नामवर सिंह की जगह सैलीबरेटी नामवर सिंह का उदय ‘दूसरी परंपरा की खोज’ के प्रकाशन से होता है। उसके बाद वे हमेशा सैलीबरेटी भाव में रहते हैं। उनके सेवाभावी शिष्य भी सैलीबरेटी भाव में रहते हैं। सैलीबरेटी भाव के निर्माण के लिए मीडिया में उपस्थिति जरूरी है। इस ओर सैलीबरेटी नामवर सिंह ने बड़ी मेहनत की है। इतनी मेहनत उन्होंने आलोचक नामवर बनने के लिए की होती तो साहित्य का भला होता लेकिन सैलीबरेटी नामवर सिंह से मीडिया उपकृत हुआ। थोक किताबों के बिक्रेता उपकृत हुए। राजकमल प्रकाशन उपकृत हुआ।
उल्लेखनीय है आलोचक नामवर सिंह का सैलीबरेटी नामवर सिंह में रूपान्तरण मुझे अपने छात्र जीवन में करीब से देखने को मिला था। सैलीबरेटी नामवर सिंह की इमेज उनके अ-जनतांत्रिक कार्यकलापों से भरी पड़ी है। आलोचक के पास विवेक होता है ,सामाजिक जिम्मेदारी होती है। लेकिन सैलीबरेटी इनसे वंचित होता है। जिस तरह आलोचक नामवर सिंह का इतिहास है उसी तरह सैलीबरेटी नामवर सिंह का भी इतिहास है। यह इतिहास आलोचक नामवर सिंह का एकदम विलोम है।
सैलीबरेटी नामवर सिंह की यह खूबी है कि वह किसी भी चीज पर विश्वास नहीं करता। वह जो कुछ है उसे सीधे जानता है. वह किसी अन्य के बहाने जानने की बजाय सीधे जानना पसंद करता है उसे किसी अन्य की राय पर नहीं अपनी राय और बुद्धि पर भरोसा है। वह दर्शकीय और संशयवादी भावबोध में रहता है।
सैलाबरेटी नामवर सिंह प्रॉपरसेंस में विश्वास नहीं करता। प्रॉपरसेंस में नहीं सोचता। उसके लिए भक्ति और आस्था प्रधान है। जो इसे करने में असमर्थ हैं वह उन्हें अस्वीकार करता है। जो उन पर आस्था रखते हैं उनके प्रति वे संवेदनशील भी हैं। उनकी सीधे खबर भी रखते हैं। सैलीबरेटी नामवर सिंह ‘तर्क’ और सकारात्मक ज्ञान के आधार पर नहीं सोचता और नहीं बोलता । जिन पर वे विश्वास नहीं करते उनके बारे में चुप रहते हैं या नकारात्मक टिप्पणियां करते हैं। ज्यादातर समय चुप ही रहते हैं।
सैलीबरेटी नामवर सिंह का आस्था में अटूट विश्वास ही है जो उनके व्यक्तित्व में अनिश्चतता और भ्रम बनाता है। नामवर सिंह से आप किसी भी काम के लिए कहें इसके लिए कोई गारंटी नहीं है कि वह हो ही जाएगा। वे काम की गारंटी का वायदा नहीं करते वे आस्था की गारंटी का वायदा जरूर करते हैं। आपसे वे उम्मीद करते हैं आस्था बनाए रखो।
जबसे आलोचक नामवर सिंह का सैलीबरेटी नामवर सिंह में रूपान्तरण हुआ है तब से ऐतिहासिक दृष्टिकोण की मौत हो गयी है। अब चीजों,व्यक्तियों,कृतियों,रचनाकारों आदि के बारे में आए दिन अनैतिहासिक बयानबाजी करते रहते हैं। पहले वे दिमाग खोलने का काम करते थे अब दिमाग को नियंत्रित करने का काम करते हैं। पहले वे आलोचक की भूमिका निभाते थे अब नैतिकतावादी प्रिफॉर्मेंस पर जोर देने लगे हैं।
पहले उनका सामाजिक तौर पर जनता के साथ एलायंस था लेकिन आपात्काल से उनका सत्ता के साथ एलायंस बना है। पहले वे जनता के मोर्चे में थे अब सत्ता के मोर्चे में हैं। पहले वे आलोचनात्मक विवेक पैदा करते थे,अब मिथ बनाते हैं। व्यक्तियों और आलोचकों के मिथ बनाते हैं। मसलन ‘यह महान है’ , ‘वह गधा है’ आदि।
सैलीबरेटी नामवर सिंह ने आस्था को शिक्षा,साहित्य,आलोचना से ऊपर स्थान दिया है। आस्था के आधार पर वे इन दिनों साहित्यिक हायरार्की बना रहे हैं। वे अब आलोचना नहीं करते मेनीपुलेसन करते हैं। पर्सुएट करते हैं, फुसलाते हैं। पटाते हैं। इसी चीज को कोई जब उनके साथ भक्त करे तो उसे अपना बना लेते हैं। उन्हें फुसलाना और पटाना पसंद है। साहित्य,विवेक और शिक्षा नहीं है। उनके सामयिक विमर्श का आधार है पर्सुएशन। यह विज्ञापन की कला है। आलोचना की नहीं।
अभी एक पुराने सहपाठी ने सवाल किया था कि आखिरकार तुम नामवरजी के बारे में इतना तीखा क्यों लिख रहे हो ? मैंने कहा मैं किसी व्यक्तिगत शिकायत के कारण नहीं लिख रहा। वे अहर्निश आलोचना नहीं विज्ञापन कर रहे हैं और आलोचना को नष्ट कर रहे हैं। आलोचना के सम-सामयिक वातावरण को नष्ट कर रहे हैं। ऐसा नहीं है मैं पहलीबार उनके बारे में लिख रहा हूँ। पहले भी लिखा है लेकिन अब यह बेवयुग के लेखन है। नए परिप्रेक्ष्य का लेखन है।
नामवर सिंह ने अब तक जो किया है उसका वस्तुगत आधार पर उनसे हिसाब लेने का वक्त आ गया है। इधर उन्होंने नए सिरे से कबीर के बहाने पुरूषोत्तम अग्रवाल की जिस तरह मार्केटिंग की है उसके विचारधारात्मक आयामों को समझने की जरूरत है। मजेदार बात यह है कि नामवर सिंह-पुरूषोत्तम अग्रवाल कबीर को नए सिरे साहित्य में प्रतिष्ठित करना चाहते हैं। हमारा सवाल है आज ऐसा क्या नया घटा है जिसके कारण उन्हें कबीर को दोबारा आलोचना का औजार बनाने की जरूरत पड़ गयी ?
कबीर की पुनर्प्रतिष्ठा करके आखिरकार ये दोनों आलोचक क्या करना चाहते हैं ? कबीर के खेल में असल खेल क्या है ? किसकी उपेक्षा कर रहे हैं या किसकी कीमत पर कबीर को प्रतिष्ठित करना चाहते हैं? मैं विनम्रता के साथ कहना चाहता हूँ कि कबीर के नाम पर आलोचना में स्त्री साहित्य और दलित साहित्य विरोधी पुंसवादी समीक्षाशास्त्र को नए कलेवर के साथ लाया जा रहा है।
आज कबीर का युग नहीं है स्त्री साहित्य और दलित साहित्य का युग है। कबीर-तुलसी-सूर आदि के बहाने हिन्दी आलोचना में पहली परंपरा और दूसरी परंपरा के आलोचक लंबे समय से पुंसवादी शास्त्र और पुंससाहित्य का प्रसार -प्रचार करते रहे हैं। इन लोगों से सवाल किया जाना चाहिए कि कबीर के बहाने उनका राजनीतिक खेल क्या है ? आखिर इस आलोचना की मंशा और राजनीति क्या है ? कबीर के नाम पर ये साहित्य में किसकी राजनीति खेल रहे हैं ?
बड़ी जद्दोजहद के बाद स्त्री साहित्य और दलित साहित्य केन्द्र में आया है। यह सब लोग जानते हैं कि स्त्री साहित्य को लेकर और स्त्री सवालों पर नामवर सिंह और दूसरी परंपरा के आलोचकों की राय अवैज्ञानिक रही है। स्त्री के बारे में गुरूवर नामवर सिंह क्या मानते हैं। इसका एक ही उदाहरण काफी है।
नामवर सिंह की किताब ‘जमाने से दो दो हाथ’ में एक निबंध है ‘ मुक्त स्त्री की छद्म छबि’। इसका पहला वाक्य ही नामवर सिंह जैसे महापंडित के लिए अनुपयुक्त है। वैसे पूरी टिप्पणी उनके स्त्री संबंधी अवैज्ञानिक और पुंसवादी सोच का आदर्श नमूना है।
नामवर सिंह ने लिखा है, ‘स्त्री-पुरूष संबंधों पर हम तीन दायरों में विचार कर सकते हैं। कानून ,समाज और परिवार।’ वे भूल ही गए स्त्री-पुरूष संबंधों पर इन तीन के आधार पर नहीं ‘लिंग’ के आधार पर विचार विमर्श हुआ है। स्त्री-पुरूष का मूल्यांकन गैर-लिंगीय आधार पर करने से गलत निष्कर्ष निकलेंगे और गलत समझ बनेगी।
कानून में स्त्री-पुरूष संबंधों को लेकर क्या लिखा है यह नामवर सिंह नहीं जानते अथवा जानबूझकर गलतबयानी कर रहे हैं,कानून में विवाह संबंधी प्रावधान हैं,लेकिन विवाह को कानून ने स्त्री-पुरूष संबंधों का मूलाधार नहीं बनाया है। भारतीय कानून लिंगीय समानता के आधार पर स्त्री-पुरूष संबंधों पर विचार करता है। न कि विवाह के आधार पर।
भारतीय कानून लंबे समय तक स्त्री विरोधी प्रावधानों से भरा था लेकिन विगत 60 सालों में औरतों के संघर्ष ने उसमें स्त्री अधिकारों के प्रति जो असंतुलन था उसे कम किया है। उसके पुंसवादी रूझान को तोड़ा है।
स्त्री-पुरूष संबंध का मतलब शादी का संबंध नहीं है। स्त्री-पुरूष संबंधों के बारे में नामवर सिंह की समझ बेहद सीमित है। वे इस टिप्पणी में स्त्री-पुरूष संबंधों को शादी के संबंध में रिड्यूज करके देखते हैं। शादी में भी बहुविवाह या अवैध विवाह में रिड्यूज करके स्त्री-पुरूष संबंध को कानूनी नजरिए से देखते हैं, वे बात शुरू करते हैं स्त्री-पुरूष संबंधों की और अचानक शिफ्ट कर जाते हैं विवाह,बहुविवाह,अवैध संबधों पर और उसमें भी निम्न-मध्यवर्गीय पुंसवादी नैतिकता के नजरिए को व्यक्त करते हैं ,विवाह के साथ ही औरतों के बारे में नामवर सिंह की टिप्पणियां पुंसवाद को अभिव्यक्त करती हैं।
नामवर सिंह ने लिखा है ,‘यह तो मानना ही होगा कि समलैंगिकता एक अपवाद है, कोई प्रचलन नहीं। वह चाहे पुरूष या स्त्री स्त्री के बीच हो,पर वह अप्राकृतिक है। साहित्य में इसे इसी रूप में आना चाहिए। कुछ अंग्रेजी लेखक पश्चिम के प्रभाव में इस अपवाद को ग्लोरिफाई करके सस्ती लोकप्रियता बटोरने की कोशिश कर रहे हैं। इस लिहाज से देखा जाए तो मुझे स्त्रियों के अधिकारों को लेकर चल रहे आन्दोलनों का उद्देश्य समझ में नहीं आता। कहा जा रहा है कि स्त्रियाँ चूँकि अब कामकाजी हो गई हैं इसलिए वे उग्रता से अपने अधिकारों की मांग कर रही हैं। पर मुझे कोई यह तो बताए कि स्त्रियाँ कब कामकाजी नहीं थीं। यह अलग बात है कि पहले वे घरों में काम करती थीं ,अब दफ्तरों में करने लगी हैं। पर घरों का काम क्या दफ्तरों के काम से कम था। इससे भी बड़ी बात यह कि क्या घरों में काम करते हुए उनके अधिकार कम थे।’( जमाने से दो दो हाथ,पृ.123)
नामवरसिंह जैसे प्रगतिशील विद्वान की उपरोक्त टिप्पणी स्वयं में इस बात का प्रमाण है कि उन्हें सेक्स ,परिवार और स्त्री के बारे में कितना कम और कितना गलत पता है। वरना कोई व्यक्ति इस तरह की टिप्पणी कैसे कर सकता है ‘क्या घरों में काम करते हुए उनके अधिकार क्या कम थे।’
सच यह है कि आज भी घरों में औरतों के साथ दोयम दर्जे से भी बदतर व्यवहार किया जाता है। हमारे घरों में औरतें आज भी अधिकारहीन हैं। इस बात को नामवर सिंह जानते हैं। औरतों के पास आज की तुलना में पहले भी घरों में अधिकार शून्य के बराबर थे, यदि ऐसा न होता तो औरतों को अपने अधिकारों के लिए संघर्ष ही नहीं करना पड़ता। घर वस्तुतःऔरत का कैदखाना है।
यदि नामवरसिंह के अनुसार औरतों के पास पहले अधिकार थे तो बताएं वह कौन सा जमाना था जब अधिकार थे ? औरत अधिकारहीन थी,असमानता की शिकार थी, और आज भी है। यही वजह है कि आधुनिककाल में औरत के अधिकारों ,महिला संगठनों और संघर्षों का जन्म हुआ।
इसी तरह समलैंगिकता पर भी नामवर सिंह अवैज्ञानिक बातें कह रहे हैं। समलैंगिकता स्वाभाविक आनंद है,मित्रता है। यह वैज्ञानिक सच है कि समलैंगिकता अस्वाभाविक नहीं है। वरना इस्मत चुगताई ‘लिहाफ’ जैसी महान समलैंगिक कहानी न लिखतीं। हिन्दी में आशा सहाय ‘एकाकिनी’ जैसा महान समलैंगिक उपन्यास नहीं लिख पातीं।
नामवर सिंह की महिला आंदोलन के बारे में भ्रांत धारणा है। उनका मानना है कि महिला आंदोलन का सामाजिक परिणाम है पति-पत्नी में तलाक। महिला आंदोलन पर चलताऊ ढ़ंग से नामवर सिंह ने लिखा है ‘ इन आंदोलनों की खास बात यह थी कि पुरूषों ने स्त्रियों के अधिकारों के लिए लड़ाई लड़ी। बाद में गांधी के असहयोग आन्दोलन और मार्क्सवाद से प्रेरित समाजवादी आन्दोलनों में स्त्रियों की महत्वपूर्ण भूमिका रही। यहाँ एक बात और कहना चाहूँगा कि पश्चिमी समाज में ऐसे आंदोलनों के अन्ततः क्या परिणाम निकले ? वहाँ हमारे समाज से अधिक तलाक होते हैं। और खासकर सम्बंधों के मामले में वहाँ स्त्रियों का हमारे समाज से कहीं अधिक शोषण होता है। साहित्य में ये सब बातें प्रतिबिम्बित होती रही हैं। भारतीय साहित्य में स्त्री को हमेशा ही एक सम्मानित दर्जा दिया गया है।
पति-पत्नी की मर्यादा का सभी लेखक निर्वाह करते आए हैं। निजी जीवन में कैसी भी स्थिति हो परन्तु साहित्य में उन्होंने पत्नी की गरिमा का ध्यान रखा है।’ (उपरोक्त,पृ.123-124)
नामवर सिंह के अनुसार महिला आंदोलन की परिणति क्या है ? तलाक। साथ ही वे महिला आंदोलन की स्वतंत्र भूमिका और विकास को नहीं देखते बल्कि मर्दों के संघर्ष का हिस्सा मानते हैं। सच यह है कि महिला आंदोलन का परिप्रेक्ष्य और मर्दों के द्वारा संचालित नवजागरण और समाजवादी आंदोलन के परिप्रेक्ष्य और सवालों में बुनियादी फर्क है।
दूसरी महत्वपूर्ण भूल यह कि स्त्री का भारतीय परिवार में पश्चिम की तुलना में कम शोषण होता है। यह बात तथ्य और सत्य दोनों ही दृष्टियों से गलत है। इस बयान में भारतीय साहित्य में स्त्री के प्रति जिस रवैय्ये की बात कही गयी है वह गलत है। भारतीय साहित्य की मूलधारा पुंसवादी है,वहां स्त्री का पुंसवादी परिप्रेक्ष्य में व्यापक चित्रण हुआ है। साहित्य में स्त्री साहित्य की भयानक उपेक्षा हुई है। स्त्री के पुंसवादी चित्रण जैसे पति-पत्नी की मर्यादा के पुंसवादी चित्रण को नामवरसिंह आदर्श चित्रण मानते हैं। स्त्री के प्रति पुंसवादी नजरिए और स्त्री नजरिए में वे अंतर नहीं करते।
श्रीराम जन्मभूमि के विषय में उच्च न्यायालय के आदेश का देश को बेसब्री से इंतजार है। केन्द्र व राज्य की सरकार ने अतिरिक्त पुलिस बल की चर्चा व अतिरिक्त सावधानी की बातें करके आम जनता में दहशत पैदा की है। भूमि का स्वामित्व विवाद उच्च न्यायालय के निर्णयाधीन है इसलिए इस विवाद पर कोई टिप्पणी उचित नहीं होगी। लेकिन इस पूरे मसले के अन्य पहलू भी हैं। वस्तुत: सारा विवाद विदेशी आक्रमण बनाम भारत की राष्ट्रीय अस्मिता के बीच है। यहां बाबर विदेशी आक्रामकता का प्रतीक है जबकि राम और श्रीराम जन्मभूमि राष्ट्रीय अस्मिता और स्वाभिमान की अभिव्यक्ति। राम भारतीय आस्था हैं। उत्तर प्रदेश विधान परिषद में 1936-37 में ही यह स्थल हिन्दुओं को ‘वापस’ देने के सवाल पर बहस हुई थी। तत्कालीन प्रीमियर (तब मुख्यमंत्री को प्रीमियर कहते थे) पंडित गोविन्द बल्लभ पन्त ने भी बहस में हिस्सा लिया था।
मन्दिर के साक्ष्य
भारतीय विद्वानों की तुलना में यूरोपीय विद्वानों को ज्यादा सच मानने वाले मित्रों के लिए कुछ तथ्य उपयोगी होंगे। विलियम फोस्टर की लंदन से प्रकाशित (1921) किताब ‘अर्ली ट्रेवेल्स इन इण्डिया- 1583 से 1619’ (पृष्ठ 176) में यूरोपीय यात्री फिंच का किस्सा है। उसने रामगढ़ी के खण्डहरों की चर्चा करते हुए कहा है कि हिन्दुओं की मान्यता है कि यहां राम ने जन्म लिया। ऑस्ट्रिया के टाइफेन्थेलर सन् 1766-71 तक अवध में रहे। वे कहते हैं कि बाबर ने राम मन्दिर को ध्वस्त किया। इसी के स्तम्भों का प्रयोग करके मस्जिद बनाई गई। (डिस्क्रिप्शन हिस्टोरिक एंड ज्योग्राफिक डि एल.इण्डे, पृष्ठ 253-254)। ब्रिटिश सर्वेक्षणकर्ता (1838) मान्ट गुमरी मार्टिन के अनुसार, मस्जिद में इस्तेमाल स्तम्भ राम के महल से लिए गये (मार्टिन, ‘हिस्ट्री एन्टीक्विटीज टोपोग्राफी एण्ड स्टेटिस्टिक्स आफ ईस्टर्न इण्डिया, खण्ड-2 पृष्ठ 335-36)। ‘एन्साइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका’ के तथ्यों पर सब विश्वास करते हैं। इसके 15वें संस्करण (1978, खण्ड 1, पृष्ठ 693) में भी यहां सन् 1528 से पूर्व बने एक मंदिर का हवाला है। एडवर्ड थार्नटन के अध्ययन ‘गजेटियर आफ दि टेरिटरीज अंडर दि गवर्नमेंट आफ दि ईस्ट इंण्डिया कम्पनी’ (पृष्ठ 739-40) के अनुसार, ‘बाबरी मस्जिद’ पुराने हिन्दू मंदिर के 14 खम्भों पर बनाई गई। बाल्फोर के अनुसार ‘अयोध्या की तीन मस्जिदें तीन हिन्दू मन्दिरों पर बनीं। ये मंदिर हैं जन्म स्थान, स्वर्गद्वार तथा त्रेता का ठाकुर’ (बाल्फोर, एनसाइक्लोपीडिया ऑफ इण्डिया एण्ड ऑफ ईस्टर्न एण्ड सदर्न एशिया, पृष्ठ 56)। यह भी सच्चाई है कि यूरोप के इन विद्वानों ने वोट लोभ के कारण ऐसे तथ्य नहीं लिखे।
पी. कार्नेगी ‘हिस्टोरिकल स्केच आफ फैजाबाद विद द ओल्ड कैपिटल्स-अयोध्या एण्ड फैजाबाद’ में बाबर द्वारा मन्दिर की सामग्री से मस्जिद निर्माण का वर्णन करते हैं। (वही, पृष्ठ संख्या 5-7 व 19-21) ‘गजेटियर आफ दि प्राविंस आफ अवध’ (खण्ड 1, 1877 पृष्ठ 6-7) में भी यही तथ्य दुहराए गये। ‘फैजाबाद सेटलमेंट रिपोर्ट (1880) भी इन्हीं तथ्यों को ठीक बताती है।
श्रीराम जन्मभूमि के सवाल पर मुस्लिम विद्वानों ने भी गौरतलब टिप्पणियां की हैं। मिर्जाजान अपनी किताब ‘हदीकाए शहदा’ (1856, पृष्ठ 4-7) में कहते हैं, ‘सुल्तानों ने इस्लाम के प्रचार और प्रतिष्ठा को शह दी। कुफ्र (हिन्दू विचार) को कुचला। फैजाबाद और अवध को कुफ्र से छुटकारा दिलाया। अवध राम के पिता की राजधानी थी। जिस स्थान पर मंदिर था वहां बाबर ने एक सरबलंद (ऊंची) मस्जिद बनाई।’ हाजी मोहम्मद हसन अपनी किताब ‘जियाए अख्तर’ (लखनऊ, सन् 1878, पृष्ठ 38-39) में कहते हैं, ‘अलहिजरी 923 में राजा राम चन्दर के महलसराय तथा सीता रसोई को ध्वस्त करके दिल्ली के बादशाह के हुक्म पर बनाई गई मस्जिद (और अन्य मस्जिदों) में दरारें पड़ गयी थीं।’ शेख मोहम्मद अजमत अली काकोरवी ने ‘तारीखे अवध’ व ‘मुरक्काए खुसरवी’ (1869) में भी मंदिर की जगह ‘मस्जिद’ बनाने का किस्सा दर्ज किया। मौलवी अब्दुल करीम ने ‘गुमगश्ते हालाते अयोध्या अवध’ (1885) में बताया कि ‘राम के जन्म स्थान व रसोई घर की जगह बाबर ने एक अजीम मस्जिद बनवाई।’ कमालुद्दीन हुसनी अल हुसैनी अल मशाहदी ने ‘कैसरूल तवारीख’ (लखनऊ, सन् 1896 खण्ड 2, पृष्ठ 100-112) में यही बातें कहीं। अल्लामा मुहम्मद नजमुलगनी खान रामपुरी ने ‘तारीखे अवध’ (1909, खण्ड 2, पृष्ठ 570-575) में वही सब बातें लिखीं। इस्लामी परम्परा में अन्तरराष्ट्रीय ख्याति के विद्वान मौ. अबुल हसन नदवी उर्फ अली मियां के पिता मौ. अब्दुलहई ने ‘हिन्दुस्तान इस्लामी अहद में’ नामक ग्रंथ अरबी में लिखा। अली मियां ने इसका उर्दू अनुवाद (1973) किया। इस किताब के ‘हिन्दुस्तान की मस्जिदें’ शीर्षक अध्याय में ‘बाबरी मस्जिद’ के बारे में कहा गया कि ‘इसका निर्माण बाबर ने अयोध्या में किया, जिसे हिन्दू रामचन्द्र जी का जन्मस्थान कहते हैं, बिल्कुल उसी स्थान पर बाबर ने यह मस्जिद बनाई।’
लोकजीवन का विश्वास
सारी दुनिया के हिन्दू श्रीराम जन्मभूमि पर श्रध्दा रखते हैं। आस्था लोकजीवन का विश्वास होती है। लोकविश्वास तथ्य देखता है। तर्क उठाता है। प्रतितर्क करता है। तब आस्था जन्म लेती है। श्रीराम जन्मभूमि के प्रति भारत की अक्षुण्ण श्रध्दा है। श्रध्दालुओं को राजनीतिक बहसें अखरती हैं। कुतर्क उन्हें आहत करते हैं। इतिहास के विद्वान कनिंघम ‘लखनऊ गजेटियर’ में लिखते हैं- ‘अयोध्या में श्रीराम जन्मभूमि मंदिर तोड़े जाते समय हिन्दुओं ने अपनी जान की बाजी लगा दी। इस लड़ाई में 1 लाख 74 हजार हिन्दुओं की लाशें बिछ जाने के बाद ही मीर बांकी तोपों के जरिए मंदिर को क्षति पहुंचा सका।’ आईने अकबरी कहती है कि ‘अयोध्या में राम जन्मभूमि की वापसी के लिए हिन्दुओं ने 20 हमले किये।’ औरंगजेब के ‘आलमगीरनामा’ में जिक्र आया है कि ‘मुतवातिर 4 साल तक खामोश रहने के बाद रमजान की सातवीं तारीख को शाही फौज ने फिर अयोध्या की जन्मभूमि पर हमला किया। 10 हजार हिन्दू मारे गये। लड़ाई चलती रही। अंग्रेजी राज में सन् 1934 में भी यहां संघर्ष हुआ। एक सैकड़ा हिन्दू गिरफ्तार हुए।’
राम वैश्विक अभिव्यक्ति
श्रीराम भारत का इतिहास हैं, आस्था भी हैं। उनकी कथाएं चीन, तिब्बत, जापान, लाओस, मलेशिया, कम्बोडिया, श्रीलंका, रूस, फिलीपीन्स, थाई देश और दुनिया के सबसे बड़े मुस्लिम देश इण्डोनेशिया तक गाई गयीं। चीन के ‘लिऊ ताओत्व किंग’ में वाल्मीकि रामायण का कथानक है। चीन के ही ‘ताओ पाओ त्वांड. किंग’ में राजा दशरथ मौजूद हैं। चीनी उपन्यासकार ऊचेंग एन की ‘द मंकी हृषि ऊची’ वस्तुत: हनुमान की कथा है। इण्डोनेशिया की ‘ककविन रामायण’ थाई देश की ‘राम कियेन’ और लाओस की ‘फालाम’ तथा ‘पोम्मचाक’ जैसी रचनाएं राम को अंतरराष्ट्रीय आधार देती हैं। न्यायालय के निर्देश पर अयोध्या में उत्खनन कार्य हुआ था। अब तक मिली चीजें वहां मंदिर सिध्द करने को काफी हैं। सर वी.एस. नायपॉल का भी यह कथन प्रासंगिक है कि ‘मैं नहीं समझ पाता कि मंदिर निर्माण का विरोध क्यों किया जा रहा है? विश्व भर में बुध्दिजीवियों को बहस शुरू करनी चाहिये कि क्यों मुस्लिम समाज गैर मुस्लिमों के साथ समानता का भाव अपनाकर नहीं रह पाता।’ समय की मांग है कि इस प्रश्न पर संसद कानून बनाए और श्रीराम जन्मभूमि पर भव्य मन्दिर निर्माण का मार्ग प्रशस्त करे।
वैश्विक मंदी ने अमेरिका की कमर तोड़ दी है। आर्थिक संकट के परिणामों के कारण आज वहां बेरोजगारी दर का आंकड़ा 10 फीसदी तक पहुँच गया है। दूसरे विश्व युद्ध के बाद से बेरोजगारी दर में यह सबसे बड़ी गिरावट है। गौरतलब है कि दिसम्बर 2007 से लेकर आज तक तकरीबन 84 लाख अमेरिकी अपने नौकरियों से हाथ धो चुके हैं।
यूरोपीय कर्ज संकट के बाद लग रहा था कि आउटसोर्सिंग में सुधार आएगा, पर वैश्विक स्तर पर अभी तक मंदी के बादल कम नहीं हुए हैं। अमेरिका में मंदी के परिणाम हाल के महीनों में और भी बढ़े हैं। यहां चालू वित्तीय वर्ष की पहली तिमाही में 3.7 फीसदी की आर्थिक वृद्धि दर दर्ज की गई थी, वह आश्चर्यजनक रुप से घटकर दूसरी तिमाही में 1.6 फीसदी रह गई। तीसरी तिमाही में भी आर्थिक वृद्धि दर के सुधरने के आसार कम हैं।
सैन फ्रांसिस्को के फेडरल रिजर्व बैंक ने अपने हालिया बयान में कहा है कि बेरोजगारी दर को 8 फीसदी से कम करने के लिए हर महीने कम से कम 2,94000 नये रोजगार सृजित करने होंगे, जोकि वर्तमान स्थिति में असंभव है। ऐसे प्रतिकूल हालत में बढ़ती बेरोजगारी को लेकर अमेरिका के युवाओं के बीच असंतोष पनपना स्वाभविक है। अमेरिकी प्रांतों में नवंबर में चुनाव होने वाले हैं। इसलिए युवाओं को खुश करने के लिए अमेरिकी नीति नियंता प्रांत संरक्षणवाद को बढ़ावा देने वाली नीतियां अपना रहे हैं।
फिलवक्त भारत में अमेरिकी कंपनियों की बदौलत लगभग 50 अरब डॉलर का आउटसोर्सिंग उद्योग चल रहा है। आउटसोर्सिंग के जरिये भारत के लाखों नौजवानों को रोजगार मिला हुआ है। उल्लेखनीय है कि भारतीय आईटी कंपनियों की आय का एक बहुत बड़ा हिस्सा आउटसोर्सिंग से ही आता है। इसमें दोराय नहीं है कि भारतीय कामगारों की आउटसोर्सिंग अमेरिकी कंपनियों के लिए हमेशा ही फायदेमंद रही है। अब अमेरिकी कंपनियां नेताओं की नाराजगी से बचने के लिए आउटसोर्सिंग के विदेशी अनुबंधों से परहेज करने लगी हैं।
इंफोसिस के सीईओ गोपालकृष्णन का इस मुद्दे पर कहना है कि अब ग्राहक छोटी अवधि के लिए अनुबंध कर रहे हैं, साथ ही करार रद्द करने का अधिकार भी वे अपने पास सुरक्षित रख रहे हैं। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो सभी अमेरिकी कंपनियां आज की तारीख में छोटी अवधि का खेल खेलना चाहती हैं। अमेरिकी कंपनी फॉरेस्टर रिसर्च के वाइस प्रेसिडेंट और प्रधान विष्लेशक जानॅ सी मैकार्थी का मानना है कि मंदी के झंझावत और नवंबर में होने वाले चुनाव की वजह से कंपनियां पुराने और नये अनुबंधों को लेकर उत्साहित नहीं हैं।
उल्लेखनीय है कि हाल ही में भारत के तीन नामचीन आईटी कंपनियों-इंफोसिस , विप्रो और टाटा कंसल्टेंसी सर्विसेज (टीसीएस) के छह ग्राहकों ने नये अनुबंधों को फिलहाल ठंडे बस्ते में डालने का फैसला किया है। अमेरिकी कंपनियों के इस रवैये के कारण ये तीनों कंपनियां 2011 में आईटी आउटसोर्सिंग में होने वाले निवेश को लेकर बेहद चिंतित हैं। दरअसल अमेरिकी कंपनियां बड़े आईटी निवेश टाल रही हैं। जानकारों का कहना है कि इस अनिश्चितता के माहौल में अमेरिका के आईटी बजट में महज 2 फीसदी इजाफा होने का अनुमान है।
भारत में अमेरिकी कंपनियों के बदले रुख से बेचैनी और चिंता का माहौल है, क्योंकि यदि अमेरिकी कंपनियां भारतीय कामगारों से आउटसोर्सिंग का काम करवाना बंद करती हैं तो भारत में बेरोजगारी का गंभीर संकट उत्पन्न हो सकता है। इस संकट के मद्देनजर संरक्षणवाद की अमेरिकी नीति के बरक्स वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी ने विकसित और विकासशील देशों के समूह से आपसी व्यापार बढ़ाने और वित्तीय स्थिरता सुनिश्चित करने के लिए अनुरोध किया है।
साथ ही उन्होंने यह भी कहा है कि विश्व गांव की संकल्पना के तहत अंतरराष्ट्रीय व्यापार में लचीलापन लाने और संरक्षणवाद जैसी अवधारणाओं से बचने की जरुरत है। उन्होंने कहा कि जी-20 के सदस्य देशों को नीतिगत मामलों में ताल-मेल बैठाना चाहिए, ताकि विश्व में ठोस, सतत और संतुलित विकास हो सके।
ध्यातव्य है कि सितम्बर महीने के शुरु में अमेरिका के ओहायो प्रांत ने अमेरिकी सरकारी कंपनियों को भारतीय आईटी कंपनियों के साथ आउटसोर्सिंग के अनुबंध करने से मना कर दिया है। इसके पहले भी भारतीयों के अमेरिका में प्रवेश को कम करने के लिए अमेरिका ने एच-1 बी और एल-1 श्रेणी के लिए वीजा की फीस बढ़ा दी थी। लब्बोलुबाव ये है कि वैश्विक मंदी के कारण विश्व के हर देश में आर्थिक संकट का दौर जारी है और इसी की परिणति है, बेरोजगारी में अद्भुत इजाफा।
मौजूदा संकट से कोई भी देश अछूता नहीं है। बावजूद इसके भारत और चीन में तेजी से आर्थिक स्थिति में सुधार आया है। विडम्बना ही है कि एक तरफ अमेरिका दूसरे देशों को अपनी चौधराहट के बलबूते मुक्त व्यापार करने के लिए विवश करता है और खुद संरक्षणवाद की नीति को अपना रहा है। अमेरिका की इस दोमुंही नीति का कोई भी स्वाभिमानी देश समर्थन नहीं कर सकता है। अस्तु भारत ही नहीं, अपितु अन्यान्य विकसित और विकासशील देशों को भी अमेरिका के इस दोगलेपन नीति का पुरजोर विरोध करना चाहिए।
कांग्रेस के चिकने चुपड़े युवराज राहुल गाँधी को तीन दिन के बंगाल दौरे से वहां की उबड़-खाबड़ सियासी जमीन का अंदाज जरुर लग गया होगा. पार्क स्ट्रीट के रेस्तरां में मुर्ग मसल्लम उड़ाने से लेकर शांति निकेतन में नौजवान लड़कियों के रा-हुल रा-हुल नारों की मस्ती के बीच राहुल ने फुर्सत के क्षणों के लुत्फ़ जरूर उठाया, लेकिन बात जब सियासी जमीन पर कुछ कहने की आई तो ममता बनर्जी की पार्टी के साथ कांग्रेस के स्वाभिमान की बात उठा कर उन्होंने नयी मुसीबत मोल ले ली. राहुल गाँधी ने यहाँ कहा कि अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस तृणमूल के साथ हाथ जरूर मिलाएगी पर सर झुका कर नहीं. बंगाल में कांग्रेस के हाल से वाकिफ समझदार लोग सवाल कर रहे हैं कि यहाँ जब कांग्रेस ही नहीं बची है तो स्वाभिमान किसका?
बहरहाल, राहुल का बयान तैयार करने वालों के दिमाग में निश्चित तौर पर इस बयान के पीछे सोचा समझा मकसद रहा होगा. वर्ना दिल्ली से कोलकाता आकर ममता बनर्जी के बारे में कड़वा बयान देने की हिम्मत तो प्रणव मुख़र्जी जैसों में नहीं दिखती. वैसे भी हाल के दिनों में जब भी किसी कांग्रेसी ने ममता से मुटभेड़ लेने की कोशिश की तो उसे कुछ घंटों में ही अपना बयान वापस लेना पड़ा, या फिर उस बयान की बेतरह दुर्गति हुई है. कांग्रेसी दिग्गज अच्छी तरह जानते हैं कि बंगाल में वामपंथियों का सफाया करना कंगाल हो चुकी कांग्रेस के बस की बात हरगिज नहीं है. ऐसी स्थिति में ममता बनर्जी का सहारा अपरिहार्य है.
ममता बनर्जी पिछले एक-डेढ़ साल में जिस आक्रामकता से बंगाल में डटी हुई हैं, उसे देखते हुए अब वहां वामपंथियों का तम्बू उखाड़ना तय माना जा रहा है. आलम यह है कि ममता कांग्रेस की केंद्र सरकार में सहोदर जरूर है, पर बंगाल के मामले में वह सोनिया गाँधी के साथ भी सतर्क होकर समझौता करती हैं. ममता के लिए २०११ के विधान सभा चुनाव जीवन-मरण का आखिरी इम्तिहान हैं. कांग्रेसी स्वाभिमान की बात करने वाले राहुल गाँधी अपनी पार्टी के चिकने चेहरे हैं, और नेहरु ख़ानदान से होने का भरपूर फायदा उठा रहे हैं. पर बंगाल कि राजनीती की पगडण्डी पर चलना इतना आसान भी नहीं है. राहुल के कोलकाता दौरे पर ममता ने हल्की टिपण्णी करते हुए उन्हें बासंती कोयल कह डाला. यानी वह कोयल जो केवल बसंत में कूकती है. ममता के इस बयान के निहितार्थ को हलके से नहीं लिया जा सकता. फिर अपने दौरे के दूसरे दिन जब उन्होंने स्वाभिमान वाली बात कही, तो उस पर तृणमूल के नेता भड़क उठे. एक वरिष्ठ तृणमूल नेता ने कहा कि पहले कांग्रेस अपना घरेलू स्वाभिमान तो जगाये. घरेलू स्वाभिमान का मतलब यह कि जब कांग्रेस के इक्का-दुक्का को छोड़ कर सारे दिग्गज नेता तृणमूल में शामिल हो चुके हैं, तो उस पार्टी का वजन ही कहाँ ठहरता है. और इस मसले पर अभी तीन महीने पहले ही ममता ने दिखा दिया कि वह वामपंथियों से लोहा लेने में अकेले ही काबिल हैं. तमाम आशंकाओं को दरकिनार करते हुए ममता ने निगम चुनाव ना सिर्फ अकेले लड़े, बल्कि अधिसंख्य पालिकाओं पर विजय भी हासिल की. कांग्रेस इन चुनावों में बेतरह पसर गयी, हासिल कुछ नहीं हुआ. हुआ यह जरूर कि उसके कब्जे वाली कई पालिकाओं पर तृणमूल के परचम लहरा गया. अब ऐसे आलम में राहुल किस स्वाभिमान कि बात कर रहे हैं?
एक बात और. राहुल गाँधी को बंगाल दौरे में अपनी पार्टी के खुरदरे चेहरे का एहसास भी खूब हुआ होगा. मानस भुईयां को प्रदेश का अध्यक्ष बनाकर पार्टी ने दीपा दासमुंशी और प्रदीप भट्टाचार्य के गुट को बेवजह नाराज कर दिया. मानस भुईयां का कद प्रदीप और दीपा दोनों से ओछा है. उनका सियासी इतिहास भी कोई दमदार नहीं है. इसके बावजूद प्रणव मुख़र्जी के इशारे पर आलाकमान ने उन्हें प्रदेश कांग्रेस का अध्यक्ष बना दिया. राहुल के बंगाल दौरे में प्रदीप भट्टाचार्य जैसे दिग्गज कांग्रेसी नेता कहीं नजर नहीं आये. प्रदीप दा की नाराजगी कांग्रेस को आने वाले दिनों में भारी पड़ सकती है. उन्हें खुश करने के लिए फिलहाल इन्टक के अध्यक्ष पद की जिम्मेदारी दी गयी है, पर वे इस दायित्व से जरा भी खुश नहीं हैं.
राहुल ने बंगाल आकर मीडिया के सामने वही बातें की, जो वे पहले करते आये हैं. मसलन- बंगाल के दो चेहरे हैं. एक गरीब बंगाल, और एक अमीर बंगाल. वामपंथियों के खिलाफ उनके आक्रामक बयान ना होने और ममता के मामले में स्वाभिमान की बात करने को लेकर भी लोग अलग-अलग कयास लगा रहे हैं.
सच्चाई क्या है, यह तो वक्त बताएगा, पर लोग यह भी मान रहे हैं कि विधानसभा चुनावों में सीटों के बंटवारे पर ममता के साथ सौदा नहीं पता तो कांग्रेस परोक्ष रूप से वामपंथियों के साथ कड़ी रह सकती है. हालांकि इस तर्क में ज्यादा दम नहीं दिखाई पड़ता, फिर भी तीन के दौरे में राहुल गाँधी यदि अपनी सहोदर पार्टी के साथ संबंधों को उठाते हैं, तो माना जा सकता है कि कहीं ना कहीं उनके अपने घर की दीवार एकदम कमजोर है.