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या रब हमारे मुल्क में ऐसी फिजा बने…

-तनवीर जाफ़री

इसमें कोई शक नहीं कि हमारा देश भारतवर्ष अनेकता में एकता, सर्वधर्म समभाव तथा सांप्रदायिक एकता व सद्भाव के लिए अपनी पहचान रखने वाले दुनिया के कुछ प्रमुख देशों में अपना सर्वोच्च स्थान रखता है। परंतु दुर्भाग्यवश इसी देश में वैमनस्य फैलाने वाली तथा विभाजक प्रवृति की तमाम शक्तियां ऐसी भी सक्रिय हैं जिन्हें हमारे देश का यह धर्मनिरपेक्ष एवं उदारवादी स्वरूप नहीं भाता। कहना ग़लत नहीं होगा कि भारतीय समाज में इन्हीं शक्तियों की सक्रियता के परिणामस्वरूप इसी सर्वधर्म समभाव के विश्व के सबसे बड़े अलमबरदार देश भारत वर्ष को मात्र 1947 से लेकर अब तक कम से कम 4 ऐसी बड़ी हिंसक घटनाओं से जूझना पड़ा है जो पूर्णतया सांप्रदायिक दुर्भावना पर आधारित थीं। इनमें सर्वप्रथम 1947 का भारत-पाक विभाजन,उसके पश्चात 1984 के सिख विरोधी दंगे, तत्पश्चात 6 दिसंबर 1992 का बाबरी मस्जिद विध्वंस तथा 2002 के गुजरात दंगे। उपरोक्त सभी हिंसक घटनाएं देश के लिए विशेषकर देश के धर्म निरपेक्ष व उदारवादी स्वरूप के लिए एक कलंक रूपी सांप्रदायिक हिंसक घटनाएं थीं। निश्चित रूप से उपरोक्त सभी घटनाओं का खामियाज़ा आज तक देश को किसी न किसी रूप में भुगतना पड़ रहा है। यह भी सच है कि उपरोक्त सभी घटनाओं के कारण विभिन्न संप्रदायों केमध्य पैदा हुई दरारों को भी अभी पूरी तरह से भरा नहीं जा सका है।

ऐसे में एक सवाल यह तो जरूर किया जा सकता है कि आखिर देश की अब तक की सबसे बड़ी हिंसक वारदातों से तथा उन जैसी और सैकड़ों तमाम सांप्रदायिक हिंसा फैलाने वाली घटनाओं से अब तक हमारे समाज व देश को आंखिर मिला क्या है। खासतौर पर उन बेगुनाह परिवारों को जो उपरोक्त सांप्रदायिक हिंसा की घटनाओं की भेंट चढ़ गए। इसी के साथ साथ हमें इस बात पर भी नजर रखना जरूरी है कि उपरोक्त घटनाओं के भुक्तभोगियों को भले ही कुछ हासिल हुआ हो या न हुआ हो परंतु आंखिरकार उन घटनाओं का राजनैतिक लाभ उठाने वाला वर्ग विशेष कोई न कोई जरूर है? और इस बात पर भी नजर रखना जरूरी है कि धर्म व संप्रदाय के नाम पर समाज को बांटने या उसकेमध्य टकराव की स्थिति पैदा करने के परिणामस्वरूप कौन सा वर्ग लाभान्वित होता है। जिस दिन हम भारतवासियों की नारें उन शक्तियों तक पूरी सूझबूझ, पारदर्शिता व निष्पक्षता के साथ पहुंच पाएंगी उसी दिन हमारे देश में न तो हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, बौद्ध, पारसी आदि को लेकर फैली सांप्रदायिकता या वर्गवाद रह जाएंगे और न ही मंदिरों, मस्जिदों, गुरुद्वारों, गिरिजाघरों, दरगाहों, इमामबाड़ों, शिवालों तथा किन्हीं अन्य धर्मस्थलों को किसी भी धर्मावलंबी से कोई खतरा नजर आएगा।

कितनी अफसोसनाक बात है कि एक ओर तो अयोध्या के विवादित मंदिर-मस्जिद प्रकरण को लेकर माननीय इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ बेंच अपना निर्णय सुनाने की तैयारी में है तो दूसरी ओर देश में ऐसा वातावरण बनता दिखाई दे रहा है गोया पृथ्वी पर कोई बहुत बड़ी घटना घटने जा रही हो। पूरे देश विशेषकर उत्तर प्रदेश में हाई अलर्ट जैसी स्थिति है। अतिरिक्त सुरक्षा बलों की तैनाती, अस्पतालों में किसी अनहोनी से निपटने के उपाय, उच्च न्यायालय की जबरदस्त सुरक्षा, यहां तक कि जिन तीन सदस्यीय न्यायपीठ को निर्णय सुनाना है उन तीनों माननीय न्यायधीशों की अलग-अलग विशेष सुरक्षा के उपाय किए गए हैं। जाहिर है इन सब सुरक्षा संबंधी उपायों का कारण केवल एक ही है कि ऐसी आशंका है कि अयोध्या के विवादित स्थल के संबंध में उच्च न्यायालय का निर्णय जिसके पक्ष में आएगा वह पक्ष अति उत्साहित होगा तथा दूसरा पक्ष नाराज व निराश। और यही उत्साह, नाराजगी व निराशा देश को सांप्रदायिक हिंसा की आग में धकेल सकते हैं। ज़रा सोचिए उपरोक्त संभवनाएं क्या किसी सभ्‍य समाज में पनपने वाली संभावनाएं प्रतीत होती हैं? या ऐसे वातावरण से साफ तौर पर यह जाहिर होता है कि भारत में इस प्रकार के भावनात्मक फैसले अदालत के द्वारा नहीं बल्कि संख्‍या व शक्तिबल के आधार पर किए जाने चाहिए? जैसाकि 6 दिसंबर 1992 को हुआ?

एक भारतीय नागरिक होने के नाते तथा देश में सांप्रदायिक सद्भावना बनाए रखने की खातिर मेरा भी यही मत है कि भव्य राम मंदिर का निर्माण अयोध्या में ही हो। मैं यह भी मानता हूं कि बाबरी मस्जिद चूंकि इतने विवादित स्थल पर निर्मित है कि शरीयत के अनुसार भी वहां पढ़ी जाने वाली नमाज का अब कोई मूल्य नहीं रह गया है। इस्लाम धर्म विवादित स्थल पर नमाल पढ़ने की कतई इजाजत नहीं देता। परंतु बात दरअसल मंदिर या मस्जिद पर कब्‍जे को लेकर है ही नहीं। बात तो दरअसल शक्ति प्रदर्शन तथा वर्चस्व दिखाने को लेकर है। जिसका प्रयास देश के विभाजन के समय से ही होता चला आ रहा है। जहां तक भगवान राम का प्रश्न है तो रहीम, रसखान व जायसी से लेकर इकबाल जैसे मुस्लिम कवियों ने भी अपने काव्यों में मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम का गुणगान तथा उनकी प्रशंसा की है। गोया भगवान राम का अस्तित्व अविवादित है। सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा जैसा अमर गीत लिखने वाले शायर इक़बाल, भगवान राम के अस्तित्व को स्वीकार करते हुए स्वयं कहते हैं—है राम के वजूद पे हिंदोस्तां को नाज। अहले नजर कहते हैं जिसको इमाम-ए-हिंद॥ परंतु अफसोस इस बात का है कि भगवान राम के नाम तथा उनके जन्म स्थान को लेकर राष्ट्रीय स्तर पर किया जाने वाला शोर-शराबा पूर्णतया राजनैतिक है तथा यह हमारे देश की सांप्रदायिक एकता के लिए सबसे बड़ा खतरा है।

अयोध्या विवाद की बुनियादी हकीकत को अयोध्या जाकर समझा व देखा जा सकता है। साहित्यकार एवं लेखक स्वर्गीय कमलेश्वर ने अयोध्या नगरी का स्वयं दौरा किया था। अपने अयोध्या प्रवास के पश्चात उन्होंने सुलगते शहर का सफरनामा नामक एक पुस्तिका लिखी तथा बाद में अपने प्रसिद्ध उपन्यास कितने पाकिस्तान में भी विवादित अयोध्या प्रकरण का बखूबी जिक्र किया। कमलेश्वर अपने अयोध्या प्रवास के दौरान रामजन्म भूमि न्यास के तत्कालीन प्रमुख साकेतवासी श्री रामचंद्र परमहंस जी से भी मिले तथा बाबरी मस्जिद की ओर से मुख्‍य ट्रस्टी हाशिम अंसारी से भी उन्होंने मुलाकात की थी। दोनों का एक साथ बैठकर यह सांफ कहना था कि यदि ‘बाहरी शक्तियां’ इस मामले में दखल देना बंद कर दें तो हम अयोध्यावासी इस विवाद को स्वयं सुलझा लेंगे। परंतु ‘वह लोग’ हमें ऐसा नहीं करने देते। दरअसल देश को खतरा भी उन्हीं ‘वह लोगों’ से ही है जो मात्र सत्ता तक पहुंचने हेतु अपनी राजनैतिक रोटियां सेकने के लिए मंदिर या मस्जिद के नाम का बवंडर खड़ा कर कहीं बहुसंख्‍यक मतों के ध्रुवीकरण का प्रयास करते हैं तो कहीं अल्पसंख्‍यक मतों को आकर्षित करने की कोशिश की जाती है। भारतीय जनता पार्टी तो अपनी पूरी राजनैतिक दुकानदारी ही भगवान राम के नाम पर चला रही है। कल्याण सिंह के मुख्‍यमंत्रित्व काल में 6 दिसंबर 1992 को भाजपा ने ही संवैधानिक जिम्‍मेदारियों को धत्ता बताते हुए अयोध्या में उस घटना को अंजाम दे डाला जिससे न केवल पूरे विश्व में हमारे देश की किरकिरी हुई बल्कि भारत में भी सांप्रदायिक दुर्भावना की दरारें और गहरी हो गईं। यदि हम मान लें कि भाजपा के लिए तथा भाजपा संरक्षक संगठनों जैसे आरएसएस और विश्व हिंदू परिषद् के लिए बाबरी मस्जिद का विध्वंस कल्याण सिंह की संवैधानिक जिम्‍मेदारियों से भी अहम व ऊंचा था तो भी दो बातें और सामने आती हैं। एक तो यह कि ऐसे में 1998 में अटल बिहारी वाजपेयी ने राम मंदिर मुद्दे को हाशिए पर डालकर अन्य धर्मनिरपेक्ष दलों के साथ समझौता कर केंद्र में अपनी सरकार क्यों बनाई? यहां कल्याण सिंह की उत्तर प्रदेश सरकार की ही तरह केंद्र सरकार को भी भगवान राम के नाम पर कुर्बान करने जैसा फार्मूला क्यों नहीं अपनाया गया? दूसरी बात यह कि फरवरी 2002 में जब उत्तर प्रदेश में चुनाव हुए उस समय भी भारतीय जनता पार्टी ने अपने चुनाव घोषणापत्र तक में राम मंदिर निर्माण के विषय को शामिल नहीं किया। और इन सब अवसरवादी राजनैतिक दावंपेंच के बावजूद न जाने आज फिर इसी पार्टी के कई प्रमुख नेता यही बोलते नजर आते हैं कि भगवान राम के मंदिर का निर्माण मेरे लिए सर्वोपरि है। गोया अभी तक यह देशवासियों को यह बता ही नहीं पा रहे हैं कि वास्तव में उनके लिए सत्ता सर्वोपरि है या भगवान राम का मंदिर निर्माण?

कुल मिलाकर अयोध्या प्रकरण के सद्भावना पूर्ण समाधान के पक्ष में दो ही बातें समझ में आती हैं। एक तो यह कि इस मामले का समाधान केवल संबंधित पक्षों के मध्य सौहार्द्रपूर्ण बातचीत के द्वारा ही निकाला जाना चाहिए। हां इतना जरूर है कि बातचीत से समाधान निकालने वाले दोनों ही पक्षों को यह सोचकर वार्ता की मेज पर बैठना चाहिए कि उनकी नारों में देश की एकता, अखंडता, सांप्रदायिक सौहाद्र ही सर्वोपरि है। दूसरी बात यह कि दोनों ही पक्षों को त्याग, समर्पण, भाईचारा, सौहार्द्र को सबसे आगे रखकर बात करनी चाहिए। अपने पक्ष में पाए जाने वाले इतिहास के पन्नों में उलझना, बेवजह की बातों को प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाना या नफरत तथा विद्वेष को दिलों में रखकर वार्ता करना आदि समस्या का समाधान हरगिज नहीं हो सकता। हमारे ऐसे वार्ताकारों को यह भी याद रखना चाहिए कि देश के समक्ष इस समय सबसे बड़ी चुनौती भूख, बेराजगारी, स्वास्थ्‍य व शिक्षा को लेकर है न कि मंदिर और मस्जिद जैसे आस्था संबंधी मामलों को लेकर। और यदि ऐसी सद्बुद्धि हमारे वार्ताकारों में न पैदा हो सके तो अदालत का फैसला सर्वमान्य होना चाहिए। परंतु किसी भी शक्ल में देश में तनावपूर्ण वातावरण का पैदा होना तथा इनसे निपटने की तैयारियों में सरकार का ध्यान बटना तथा उन पर सैकड़ों करोड़ रुपये खर्च होना किसी भी सभ्‍य समाज के लिए अत्यंत शर्मनाक तथा अफसोसनाक घटनाक्रम ही कहा जा सकता है। देश में सांप्रदायिक सौहार्द्र से परिपूर्ण वातावरण की कल्पना करते हुए देश की प्रसिद्ध शायरालता हया ने फरमाया है कि –

या रब हमारे मुल्क में ऐसी फिजा बने।

मंदिर जले तो रंज मुसलमान को भी हो॥

पामाल होने पाए न मस्जिद की आबरू।

यह फिक्र मंदिरों के निगेहबान को भी हो॥

हरमदवाहिनी का मिथ और यथार्थ

-जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

पश्चिम बंगाल में तमाम समाचार पत्रों में ‘हरमदवाहिनी’ के पदबंध का कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के खिलाफ दुष्प्रचार आम बात है। इस नाम से माओवादी-ममता और मीडिया के लोग माकपा को कलंकित करना चाहते हैं वे बार-बार मीडिया में यह प्रचार कर रहे हैं कि लालगढ़ इलाके में माकपा संचालित ‘हरमद वाहिनी’ के कैंप हैं। इनमें हथियारबंद गुण्डे रहते हैं जिनका काम है हत्या करना और ऐसे कैंपों की एक सूची माओवादियों के हमदर्दों द्वारा संचालित बेवसाइट ‘संहति’ पर उपलब्ध है।

इस सूची में 86 कैंप के नाम हैं और इनमें भी इनमें कितने लोग हैं उनकी संख्या भी बतायी गयी है। यह पूरी सूची https://sanhati.com/articles/2716/ पर देख सकते हैं। समस्या यह है कि इन कैंपों को किस रूप में व्याख्यायित करें। माओवादियों के लिए ये माकपा के गुण्डाशिविर हैं और माकपा के हिसाब से ये माओवादी हिंसाचार के कारण बेघर हुए शरणार्थियों के कैंप हैं। सच क्या है इसके बारे में सिर्फ अनुमान ही लगा सकते हैं।
सवाल उठता है किस कैंप में कितने गुण्डे हैं यह दावा माओवादी किस आधार पर कर रहे हैं ? क्योंकि इन इलाकों में मीडिया अनुपस्थित है।  माओवादी इस प्रसंग में किस तरह मिथ्या प्रचार कर रहे हैं उसकी बानगी देखें, ‘संहति’ बेवसाइट की रिपोर्ट में कहा गया है कि The armed CPI(M) cadres, called locally as harmads, have been raiding villages, burning and looting houses, killing people, raping women and working closely with the joint forces in tracking down and killing leaders of the PCAPA, all in the name of regaining lost territory in the Lalgarh area.
सारे देश के अखबार और स्थानीय अखबार भरे पड़े हैं कि विगत एक साल में माओवादियों ने किस तरह लालगढ़ में आतंक की सृष्टि की है और माकपा के सदस्यों और हमदर्दों की हत्याएं की हैं और उन्हें बेदखल किया है। माकपा के ऊपर खासकर ‘हरमद वाहिनी’ के नाम से हमले,लूटपाट,हत्या,औरतों के साथ बलात्कार आदि के जितने भी आरोप लगाए गए हैं वे सब बेबुनियाद हैं। एक साल में एक भी घटना ऐसी नहीं घटी है जिसमें माकपा के लोगों ने किसी पर भी लालगढ़ में एक भी हमला किया हो इसके विपरीत माओवादी हिंसाचार ,हत्याकांड और स्त्री उत्पीडन की घटनाएं असंख्य मात्रा में घटी हैं ।
कोई भी व्यक्ति जो बांग्ला या अंग्रेजी बेवसाइट पढ़ सकता हो तो उसे लालगढ़ में माओवादी हिंसाचार की असंख्य घटनाओं की खबरें मिलेंगी। विगत एक साल से स्थानीय खबरों में भी माकपा के सदस्यों द्वारा किसी भी किस्म की हिंसा किए जाने की खबर नहीं आयी है।

सवाल यह है माओवादी इसके बाबजूद सफेद झूठ क्यों बोल रहे हैं ? माओवादियों और ममता बनर्जी के पास माकपा या अर्द्ध सैन्यबलों के लालगढ़ ऑपरेशन के दौरान किसी भी किस्म के अत्याचार,उत्पीड़न आदि की जानकारी हो तो उसे अखबारों को बताना चाहिए, टीवी पर बताना चाहिए,अपने केन्द्र सरकार में बैठे गृहमंत्री को बताना चाहिए। कांग्रेस के द्वारा बिठाए गए राज्यपाल को बताना चाहिए। इनमें से
किसी को भी ठोस प्रमाण देकर बताने की बजाय ममता बनर्जी और माओवादी मिलकर मिथ्या प्रचार अभियान चलाए हुए हैं कि माकपा के लालगढ़ में हथियारबंद गुण्डाशिविर लगे हैं और उन्हें हटाया जाए। जब तक माओवादी और ममता बनर्जी लालगढ़ में गुण्डागर्दी और उत्पीड़न के ठोस प्रमाण नहीं देते तब तक उनके आरोप को मिथ्या प्रचार की कोटि में ही रखा जाना चाहिए।

दूसरी ओर माकपा ने यह कभी नहीं कहा कि उनके लालगढ़ में शिविर नहीं हैं। वे कह रहे हैं कि उनके शिविर हैं और इनमें माओवादी हिंसा के कारण शरणार्थी बने ग्रामीण रह रहे हैं। ममता बनर्जी जिन्हें गुण्डाशिविर कह रही हैं वे असल में शरणार्थी शिविर हैं ।
दूसरी एकबात और वह यह कि लालगढ़ में माकपा को रहने का हक है या नहीं ? ममता और माओवादी चाहते हैं कि माकपा को लालगढ़ से बाहर किया जाए। इसके लिए जो भी करना हो वह किया जाए और इसी काम के लिए ममता बनर्जी ने माओवादी हिंसाचार और पुलिस संत्रास विरोधी कमेटी के हिंसाचार का खुला समर्थन किया है। ममता का मानना है माकपा को लालगढ़ से बाहर करने के लिए जो भी कर सकते हो करो ममता तुम्हारे साथ है। इस आश्वासन के साथ माओवादी दनादन हत्याएं कर रहे हैं और इन हत्याओं के बदले में वे ममता बनर्जी से संभवतः धन भी वसूल रहे हैं।

ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस और माओवादी संगठन मिलकर लोकसभा चुनाव के बाद से एक भी माकपा हमले की घटना का जिक्र नहीं कर रहे। यहां तक कि बांग्ला का कारपोरेट मीडिया जो अहर्निश माकपा विरोधी प्रचार में लगा रहता है वह भी एक भी ऐसी घटना रिपोर्ट पेश नहीं कर पाया है जिसमें लालगढ़ में माकपा ने हमला किया हो। अभी कांग्रेस के महासचिव राहुल गांधी तीन दिन के पश्चिम बंगाल दौरे पर आए हुए थे वे भी लालगढ़ पर चुप थे वे इसके पहले भी आए थे उस समय भी लालगढ़ पर चुप थे।
यदि माकपा के लोग लालगढ़ में हमले कर रहे होते,बलात्कार कर रहे होते.उत्पीड़न कर रहे होते तो कहीं से तो खबर बाहर आती। लालगढ़ से साधारण लोग बाहर के इलाकों की यात्रा कर रहे हैं और प्रतिदिन सैंकड़ों-हजारों लोग यातायात करते हैं इसके बाबजूद भी माकपा के द्वारा लालगढ़ में अत्याचार किए जाने की कोई खबर बाहर प्रकाशित नहीं हुई है।

यह सच है कि मीडिया पर लालगढ़ जाने पर रोक है। लेकिन ममता बनर्जी की लालगढ़ रैली में तो लाखों लोग आए थे। माओवादी भी आए थे। ममता बनर्जी ने माकपा के द्वारा  लालगढ़ में सताए गए एक भी व्यक्ति को पेश नहीं किया। माओवादियों के दोस्त मेधा पाटकर और अग्निवेश भी मंच पर थे वे भी किसी उत्पीडित को पेश नहीं कर पाए। उन्हें वहां पर कोई रोकने वाला नहीं था। नंदीग्राम में जिस तरह तृणमूल
कांग्रेस ने माकपा के अत्याचार के शिकार लोगों को मीडिया के सामने पेश किया था वैसा अभी तक लालगढ़ में वे नहीं कर पाए हैं। जब तक वे कोई ठोस प्रमाण नहीं देते तब तक लालगढ़ में ‘हरमद वाहिनी’ के नाम पर माकपा को बदनाम करने की कोशिश से कुछ भी हाथ लगने वाला नहीं है।

अंत में , मेरी उपरोक्त बात रखने का यह अर्थ नहीं है माकपा संतों का दल है। जी नहीं माकपा एक संगठित कम्युनिस्ट पार्टी है। उसके पास एक विचाराधारा से लैस कैडरतंत्र है जो इस विचारधारा की रक्षा के लिए जान निछाबर कर सकता है। विचारधारा से लैस कैडर को पछाड़ना बेहद मुश्किल काम है। माकपा के पास गुण्डावाहिनी नहीं है लेकिन विचारधारा के हथियारों से लैस कॉमरेड हैं। विचारों के हथियार
सचमुच के हथियारों से ज्यादा पैने-धारदार और आत्मरक्षा में मदद करने वाले होते है।

दूसरी बात यह है कि माकपा के पास लंबे समय से पश्चिम बंगाल में हथियारबंद गिरोहों से आत्मरक्षा करने और लड़ने का गाढ़ा अनुभव है। यह अनुभव माकपा ने लोकतंत्र पर कांग्रेसियों और नक्सलों के हमलों से जूझते हुए हासिल किया है। माकपा भारत का एकमात्र राजनीतिक दल है जिसने लोकतंत्र की रक्षा के लिए हथियारों के हमले झेले हैं और जरूरी होने पर हथियारों से हमले किए हैं। लेकिन लोकतंत्र
को बचाया है। 1972-77 का खूनी अनुभव और 1977 के बाद पश्चिम बंगाल में हिंसक हमलों में काम करते हुए लोकतंत्र का 35 सालों से सफल प्रयोग करने में माकपा को सफलता मिली है। लोकतंत्र और राजनीतिक दल के रूप में कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) ने आत्मरक्षा की जो मिसाल कायम की है वह बेजोड़ है।

जिसे ‘हरमद वाहिनी ’ कहा जा रहा है वैसा संगठन कहीं पर भी अस्तित्व में नहीं है। इसका अर्थ यह नहीं है कि माकपा के साथ गुण्डे नहीं हैं,जी नहीं, अपराधियों का एकवर्ग माकपा के साथ भी है उनका माकपा के लोग सहयोग भी करते हैं। लेकिन लालगढ़ जैसे राजनीतिक ऑपरेशन को सफल बनाने में गुण्डे मदद नहीं कर रहे बल्कि कैडर काम कर रहे हैं और लोकतंत्र में माकपा को अपनी राजनीतिक जमीन बचाने और उसका विस्तार करने का पूरा हक है।

लोकतंत्र कमजोरों का तंत्र नहीं है। ताकत का तंत्र है। वर्चस्व का तंत्र है। इस तंत्र पर वही सवारी कर सकता है जिसमें ताकत हो और वर्चस्व स्थापित करने की क्षमता हो। लालगढ़ में वर्चस्व की जंग चल रही है। इस जंग में लोकतंत्र के संरक्षक के रूप में माकपा अग्रणी कतारों में है इसलिए उस पर ही हमले सबसे ज्यादा हो रहे हैं।

केन्द्र सरकार और राज्य सरकार के द्वारा माओवाद के खिलाफ अभियान में माकपा ने लालगढ़ में जनता और पुलिसबलों के बीच में सेतु का काम किया है। कायदे से ममता बनर्जी के दल को यह काम करना चाहिए था,लेकिन वह जनता और पुलिसबलों के बीच में विरोधी की भूमिका अदा कर रही हैं। माओवाद या उग्रवादियों या आतंकवादियों या पृथकतावादियों के खिलाफ राज्य के अभियान में पुलिस या सेना को स्थानीय जनता की मदद स्थानीय राजनीतिक दलों के सहयोग से ही मिलती है और यदि कोई राजनीतिक दल लोकतंत्र की रक्षा में अपनी इस भूमिका को नहीं समझता तो वह राष्ट्र विरोधी की कतारों में रखा जाना चाहिए। हम उत्तर-पूर्व से लेकर कश्मीर तक राजनतिक दलों की भूमिका पर जरा एक नजर डालें तो सारी स्थिति तत्काल समझ में आ जाएगी।

लालगढ़ में माकपा के लोग इसलिए नहीं मारे ता रहे कि वे माकपा के सदस्य हैं, इसलिए भी नहीं मारे जा रहे कि उनका माओवादियों या पुलिस संत्रास विरोधी कमेटी के लोगों से व्यक्तिगत पंगा है, यह इलाका दखल की लड़ाई भी नहीं है। यहां किसी किसान की जमीन का भी राज्य सरकार ने अधिग्रहण नहीं किया है। माकपा के कार्यकर्त्ता इसलिए मारे जा रहे हैं क्योंकि वे लालगढ़ के गांवों में लोकतंत्र को बचाने की कोशिश कर रहे हैं और लोकतंत्र की खातिर मारे जा रहे हैं। वे न तो गुण्डे हैं और न महज पार्टी मेम्बर हैं। वे लोकतंत्र के रक्षक हैं ।

लोकतांत्रिक संरचनाओं और लोकतांत्रिक वातावरण पर लालगढ़ में जो हमला माओवादी कर रहे हैं उसका वे प्रतिवाद कर रहे हैं और लोकतंत्र को बचाना प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है दुर्भाग्य की बात यह है कि ममता बनर्जी ने अपनी सारी शक्ति अंध कम्युनिस्ट विरोध में लगा दी है और इसके कारण वह माकपा की लोकतांत्रिक शक्ति को देख ही नहीं पा रही हैं।

बाबरी मस्जिद विवाद- स्व.राजीव गांधी और लालकृष्ण आडवाणी का असली खेल


-जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

यहां उल्लेखनीय है कि आडवाणीजी ने बेल्जियम के विद्वान की पुस्तक के अलावा एक और पुस्तक जारी की थी ‘‘हिंदू मंदिर: उनका क्या हुआ ’’ इसमें अरूण शौरी, हर्ष नारायण, जय दुबासी, राम स्वरूप तथा सीताराम गोयल आदि के लेख हैं। गोयल के लेख में 2000 मुस्लिम इमारतों की सूची है। ये वे इमारतें हैं जो मंदिरों को तोड़कर बनाई गई थीं। अब आडवाणी तय करें कि वे किस पुस्तक को अपने प्रमाण के लिए इस्तेमाल करना चाहेंगे? क्योंकि ऐतिहासिक, साहित्यिक, पुरातात्विक प्रमाण उनके साथ नहीं हैं। यहां तक कि विदेशी बेल्जियम विद्वान भी उनके मूल लक्ष्य को पूरा नहीं करता।

इस समूचे प्रकरण में विहिप एवं भाजपा ने डा.एस.सी.गुप्ता के इतिहास लेखक को खूब अपने पक्ष में उछाला है, इन्हीं महाशय ने 23 दिसंबर 1989 को गुंटूर आंध्र प्रदेश में कहा था कि राममंदिर मस्जिद के सामने वाले हिस्से में स्थित ‘चबूतरे’ पर था। क्या इतिहासकार महोदय बताएंगे कि गुंटूर के बयान में एक वर्ष में ऐसा कौन सा ऐतिहासिक साक्ष्य जुड़ गया, जिसके कारण वे अचानक नए ऐतिहासिक साक्ष्य लेकर अवतरित हुए हैं। असल में, उस समय एक नई कोशिश चल रही थी। भूतपूर्व प्रधानमंत्री स्व.राजीव गांधी ने उस समय प्रस्ताव दिया था। संघ परिवार उसी प्रस्ताव की ओर आंखें लगाए बैठा है। स्व.राजीव गांधी ने 1 दिसंबर 1990 के अपने प्रस्ताव में कहा था कि एक जांच कमीशन बनाया जाए जो यह पता करे कि क्या राममंदिर तोड़कर मस्जिद बनाई गई थी इसके लिए पांच कार्यरत सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों का कमीशन बनाया जाए जिनका चयन मुख्य न्यायाधीश करेंगे। तत्कालीन प्रधानमंत्री स्व.चंद्रशेखर ने भी इस फॉर्मूले को लागू करने का मन बना लिया था । उस समय वामपंथी दलों खासकर माकपा के वरिष्ठ नेता हरिकिशन सिंह सुरजीत के दबाब के कारण यह प्रस्ताव लागू नहीं हो पाया था।

संघ परिवार और कांग्रेस के लोग अंदर -अंदर फिर से इस प्रस्ताव की दिशा में काम कर रहे हैं। धर्मनिरपेक्ष ताकतों को केन्द्र सरकार पर निगरानी रखनी चाहिए जिससे वह ऐसा कोई भी प्रस्ताव लागू न कर सके जो भारत धर्मनिरपेक्ष चरित्र को कलुषित करे। वस्तुत: यह प्रस्ताव ही बेमानी है। इस प्रक्रिया में हिंदू तत्ववादियों के हाथों मस्जिद की जमीन सौंपे जाने की आशाएं हैं।

बाबर ने मंदिर तोड़ा था या नहीं, किसी और ने तोड़ा था या नहीं, क्या इसका फैसला हो जाने भर से भारतीय दंड संहिता एवं पुरातत्व संरक्षण कानून के प्राचीन इमारतों से संबंधित सभी कानूनी प्रावधानों को क्या कोई भी सरकार एक ही झटके में बदल सकती है ? अगर ऐसा होता है तो धर्मनिरपेक्ष संविधान एवं कानून की समूची प्रकृति ही बदलनी होगी।

स्व. राजीव गांधी का फॉर्मूला वस्तुत: धर्मनिरपेक्ष कानून की प्रकृति को ही तोड़ देगा। अपने प्रधानमंत्री काल में स्व.चंद्रशेखर जी ने स्व.राजीव गांधी के प्रस्ताव का खुला समर्खन किया था। यह प्रस्तान अभी भी पुराने अखबारों और राजनीतिक दलों की फाइलों में हैं।

उल्लेखनीय है जनता पार्टी के अध्यक्ष के नाते स्व.चंद्रशेखर ने 9 नवंबर 1987 को कहा था कि बाबरी मस्जिद के सवाल पर इतिहास का दुरूपयोग किया जा रहा है। मंदिर का ताला खोलकर बड़ी भूल की गई है, अमृतसर का ब्लूस्टार ऑपरेशन ही पर्याप्त था, इसे राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद के संदर्भ में दोहराया नहीं जाना चाहिए। आप जानते हैं कि मस्जिद पांच सौ वर्षों से है, क्या तुम इतिहास की पुनर्रचना करोगे? (द टेलीग्राफ, 11 नवंबर 1987)

उम्मीद है कि बाबरी मस्जिद प्रकरण के बहाने स्व.राजीव गांधी के प्रस्ताव का उनकी पत्नी सोनिया गांधी और उनका बेटा राहुल गांधी अनुकरण नहीं करेंगे और दुबारा इतिहास रचना नहीं होने देंगे! और न ही किसी भी किस्म का सांप्रदायिक शक्तियों की ओर समर्पण करेंगे। देश का प्रधानमंत्री होने के नाते वह राष्ट्रीय एकता परिषद् के उस प्रस्ताव से बंधे हैं, जिसमें बाबरी मस्जिद विवाद पर आम राय

कायम हुई थी, सिर्फ भाजपा इसके खिलाफ थी, देश की शांतिप्रिय जनता इस विवाद का सर्वमान्य समाधान चाहती है, पर शांति एवं सद्भाव के साथ, न कि सांप्रदायिक तुष्टीकरण के माध्यम से।

संघ परिवार और भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी ने कई बार कहा है कि जिस तरह सोमनाथ मंदिर बनाकर पटेल ने राष्ट्रीय गौरव बढ़ाया, उसी तरह अयोध्या का राम मंदिर बनाकर पुन: राष्ट्रीय गौरव बढ़ाया जाना चाहिए।

इस संदर्भ में पहली बात तो यह है कि सोमनाथ मंदिर का निर्माण किसी अन्य देवस्थान या इमारत को गिराकर या स्थानांतरित करके नहीं किया गया। वहां खाली जमीन थी तथा सरकार ने मंदिर बनाने का फैसला किया था। तत्कालीन केंद्रीय मंत्री एन.वी.गाडगिल ने अपनी पुस्तक गवर्नमेंट फ्रॉम इनसाइड में लिखा है कि ‘सरदार पटेल और मैं जूनागढ़ गए थे और वह प्राचीन जगह देखी जहां कभी प्राचीन मंदिर था।’

हमने यह फैसला किया कि ‘इस मंदिर का पुनर्निर्माण किया जाए।’

आडवाणी का तर्क कि पटेल ने सोमनाथ बनाया। मैं (आडवाणी) अयोध्या मंदिर बनाऊंगा, हास्यास्पद ही नहीं, पटेल का अनादर भी है। सरदार बल्लभभाई पटेल ने 9 जनवरी 1950 को गोविंदबल्लभ पंत को लिखे पत्र में अयोध्या विवाद पर कहा था, ‘अगर हम इस मुद्दे का किसी गुट को लाभ उठाने देते हैं तो यह दुर्भाग्यपूर्ण होगा।’ वे कहते हैं, ‘इस तरह के विवादों को ताकत के जरिए हल करने का कोई सवाल ही नहीं उठता है। अगर ऐसा हाता है तो कानून तथा व्यवस्था के बलों को हर कीमत पर शांति बनाए रखनी होगी। अगर शांतिपूर्ण तथा समझाने-बुझाने के तरीकों का इस्तेमाल किया जाना है तो आक्रमण या जोर-जबर्दस्ती के रूख पर आधारित किसी भी एकतरफा कार्रवाई को बर्दाश्त नहीं किया जा सकता है। इसीलिए, यह मेरा पक्का विश्वास है कि इस सिलसिले को इस प्रकार ज्वलंत मुद्दा नहीं बनाया जाना चाहिए।’ यानी पटेल शांतिपूर्ण समाधान चाहते थे, जोर-जबरर्दस्ती के विरोधी थे, इसे ज्वलंत मुद्दा नहीं बनाना चाहते थे, इसके विपरीत पटेल के नए भक्त आडवाणीजी जोर-जर्बदस्ती से हिंसा के जरिए एवं ज्वलंत मुद्दा बनाकर इसे हल करना चाहते हैं। क्या अब भी पटेल और आडवाणी को एक स्तर पर रखा जा सकता है?

स्‍वाभिमानी राष्‍ट्र गुलामी के कलंकों को बर्दाश्‍त नहीं करते : आर्नोल्‍ड टॉयन्‍बी

आर्नोल्‍ड टॉयन्‍बी आधुनिक युग के सर्वश्रेष्‍ठ इतिहासज्ञ माने गये। वर्ष 1960 में वे भारत आये तथा उन्‍होंने तीन भाषण दिये। इन भाषणों में उन्‍होंने आश्‍चर्य व्‍यक्‍त किया कि काशी और मथुरा के जन्‍मस्‍थलों पर अभी भी मस्जिद बनी हैं तथा उन्‍हें हटाने का कोई प्रयास भी नहीं हुआ है। हम उनके भाषणों पर आधारित यह लेख यहां प्रस्‍तुत कर रहे हैं।

काशी की ज्ञानवापी मस्जिद, कृष्‍ण जन्‍मभूमि पर बनी ईदगाह तथा देश के मंदिरों को तोड़कर बनाई गई हजारों मस्जिदें राष्‍ट्रीय अपमान और गुलामी की प्रतीक हैं। औरंगजेब को काशी और मथुरा में मस्जिद बनाने के लिए और भी काफी स्थान थे। बाबर को भी मस्जिद बनाने के लिए पूरी अयोध्‍या थी लेकिन उसने श्रीराम-जन्‍मभूमि मंदिर को ध्‍वस्त कर उसी स्थान पर मस्जिद का ढांचा खड़ा करने की कोशिश की। इसी तरह औरंगजेब ने भी ज्ञानवापी मंदिर तथा श्रीकृष्‍णजन्‍मभूमि मंदिर के स्थान पर ही मस्जिदें बनवाई। स्पष्ट है कि ये मस्जिदें विदेशी हमलावरों की विजय और भारत की हार और अपमान के स्मारक हैं। कोई भी स्वाभिमानी और स्वतंत्र राष्ट्र गुलामी की निशानियों को सहेजकर नहीं रखता, बल्कि उन्‍हें नष्ट कर देता है।

रूसियों ने चर्च को ध्‍वस्‍त किया

भारत के शासकों की स्वाभिमान-शून्‍यता और निर्लज्‍जता ऐसी है कि वे इन शर्मनाक-स्मारकों की सुरक्षा में जुटे हुए हैं। वर्तमान सत्ताधीशों की सत्ता लोलुपता तो देखिए कि काशी और मथुरा के कलंकों की सुरक्षा के लिए उन्‍होंने कानून तक बना दिये हैं। यही नहीं काशी-विश्वनाथ में जलाभिषेक होता है तो सारे सेकुलर-सियार हू-हू करना शुरु कर देते हैं। मथुरा में यज्ञ करने की बात आती है तो आसमान सर पर उठा लिया जाता है। पूरी केन्‍द्र सरकार हरकत में आ जाती है, केन्‍द्रीय मंत्री मथुरा में पहुंच जाते हैं, जबकि इन मंत्रियों को कश्मीरी विस्थापितों की सुध लेने की याद तक भी नहीं आती है। एक ओर भारत के हुय्मरानों की यह ‘आत्‍म-गौरवहीनता’ है तो दूसरी ओर ऐसे राष्ट्रों के उदाहरण हैं जिन्‍होंने गुलामी के निशानों को जड़ सहित मिटा दिया।

आर्नोल्ड टॉयन्‍बी आधुनिक युग के सर्वश्रेष्ठ इतिहासकार माने जाते हैं। सन 1960 में श्री टॉयन्‍बी ‘अब्‍दुल कलाम आजाद स्मृति व्याख्यानमाला’ में बोलने के लिए दिल्ली आये। ‘भारत और एक विश्व’ विषय पर उनके तीन भाषण हुए। ‘नेशनल बुक ट्रस्ट’ ने ये तीनों भाषण एक पुस्तक के रूप में प्रकाशित किये हैं। श्री टॉयन्‍बी ने अपने भाषण में पोलैंड का एक उदाहरण दिया कि किस प्रकार पोलैंड ने स्वतंत्र होते ही रूसियों द्वारा बनवाया गया चर्च ध्‍वस्त कर दिया। श्री टॉयन्‍बी के शब्‍दों में,

”सन् 1914-15 में रूसियों ने पोलैंड की राजधानी वार्सा को जीत लिया तो उन्‍होंने शहर के मुख्य चौक में एक चर्च बनवाया। रूसियों ने यह पोलैंडवासियों को निरन्‍तर याद करवाने के लिए बनवाया कि पोलैंड में रूस का शासन है। जब पोलैंड 1918 में आजाद हुआ तो पोलैंडवासियों ने पहला काम उस चर्च को ध्‍वस्त करने का किया, हालांकि नष्ट करने वाले सभी लोग ईसाई मत को मानने वाले ही थे। मैं जब पोलैंड पहुंचा तो चर्च ध्‍वस्त करने का काम समाप्‍त हुआ ही था। मैं एक चर्च को ध्‍वस्‍त करने के लिए पोलैंड को दोषी नहीं मानता क्‍योंकि रूस ने वह चर्च राजनीतिक कारणों से बनवाया था। उनका मन्‍तव्‍य पोल लोगों का अपमान करना था।‘’

उसी भाषण में श्री टॉयन्‍बी ने आगे कहा कि, ‘इसी सिलसिले में मैं काशी और मथुरा की मस्जिदों का जिक्र करना चाहूंगा। औरंगजेब ने अपने दुश्मनों को अपमानित करने के लिए जान-बूझकर इन मंदिरों को मस्जिदों में बदल डाला, उसी दुर्भावना के कारण जिसके कारण कि रूसियों ने वार्सा में चर्च बनाया था। इन मस्जिदों का उद्देश्य यह सिद्ध करना था कि हिन्‍दुओं के पवित्रतम स्थानों पर भी मुसलमानों की हुकूमत चलती है।”

श्री टॉयन्‍बी के अनुसार पोलिश लोगों ने समझदारी का काम किया क्‍योंकि चर्च ध्‍वस्त करने से रूस और पोलैंड के बीच की शत्रुता की भावना समाप्‍त हो गई। वह चर्च पोल लोगों को रूस के आक्रमण की याद दिलाता रहता था। आर्नोल्ड टॉयन्‍बी ने इस बात पर खेद प्रकट किया कि हिन्‍दुस्थान के लोग हिन्‍दू और मुस्लिमों में तनाव की जड़ इन मस्जिदों को हटा नहीं रहे हैं। उन्‍होंने यह कह कर अपनी बात समाप्‍त की कि, ‘’भारत की इस सहिष्‍णुता से मैं स्‍तभ्भित हूं साथ इससे मुझे अपार पीड़ा भी हुई है।‘’

नास्तिक रूसियों ने मूर्तियां स्‍थापित कीं

यह उन दिनों की घटना है जब रूस में साम्यवाद अपने उफान पर था। सन 1968 में भारत के सांसदों का एक प्रतिनिधिमंडल लोकसभा के तत्‍कालीन अध्‍यक्ष नीलम संजीव रेड्डी के नेतृत्‍व में रूस गया। रूसी दौरे के समय सांसदों को लेनिनग्राद शहर का एक महल दिखाने भी ले जाया गया। वह रूस के ‘जार’ (राजा) का सर्दियों में रहने के लिए बनवाया गया महल था। महल को देखते समय संसद सदस्यों के ध्‍यान में आया कि पूरा महल तो पुराना लगता था किन्‍तु कुछ मूर्तियां नई दिखाई देती थीं। पूछताछ करने पर पता लगा कि वे मूर्तियां ग्रीक देवी-देवताओं की हैं। सांसदों में प्रसिद्ध विचारक तथा भारतीय मजदूर संघ के संस्थापक श्री दत्तोपंत ठेंगड़ी भी थे। उन्‍होंने सवाल किया कि, ‘आप तो धर्म और भगवान के खिलाफ हैं, फिर आपकी सरकार ने देवी-देवताओं की मूर्तियों को फिर से बनाकर यहां क्‍यों रखा है?’ इस पर साथ चल रहे रूसी अधिकारी ने उत्तर दिया, ‘इसमें कोई शक नहीं कि हम घोर नास्तिक हैं किन्‍तु महायुद्ध के दौरान जब हिटलर की सेनाएं लेनिनग्राद पर पहुंच गई तो वहां हम लोगों ने उनसे जमकर संघार्ष किया। इस कारण जर्मन लोग चिढ़ गये और हमारा अपमान करने के लिए उन्‍होंने यहां की देवी-देवताओं की प्राचीन मूर्तियां तोड़ दी। इसके पीछे यही भाव था कि रूस का राष्ट्रीय अपमान किया जाये। हमारी दृष्टि में हमें ही नीचा दिखाया जाये। इस कारण हमने भी प्रणा किया कि महायुद्ध में हमारी विजय होने के पश्चात् राष्ट्रीय सम्मान की पुनर्स्थापना करने के लिए हम इन देवताओं की मूर्तियां फिर से स्थापित करेंगे।

रूसी अधिकारी ने आगे कहा कि, ‘हम तो नास्तिक हैं ही किन्‍तु मूर्ति भंजन का काम हमारा अपमान करने के लिए किया गया था और इसलिए इस राष्‍ट्रीय अपमान को धो डालने के लिए हमने इन मूर्तियों का पुनर्निर्माण किया।‘

ये मूर्तियां आज भी जार के ‘विन्‍टर पैलेस’ में रखी हैं और सैलानियों के मन में कौतुहल जगाती हैं।

दक्षिण कोरिया की कैपिटल बिल्डिंग

दक्षिण कोरिया अनेक वर्षों तक जापान के कब्‍जे में रहा है। जापानी सत्ताधारियों ने अपनी शासन सुविधा के लिए राजधानी सिओल के बीचों-बीच एक भव्य इमारत बनाई और उसका नाम ‘कैपिटल बिल्डिंग’ रखा। इस समय इस भवन में कोरिया का राष्ट्रीय संग्रहालय है। इस संग्रहालय में अनेक प्राचीन वस्तुओं के साथ जापानियों के अत्‍याचारों के भी चित्रा हैं।

वर्ष 1995 में दक्षिण कोरिया को आजाद हुए पचास वर्ष पूरे हो रहे हैं। अत: वहां की सरकार आजादी का स्‍वर्ण जयंती वर्ष’ धूमधाम से मनाने की तैयारी कर रही है। इस स्वतंत्राता प्राप्ति की स्‍वर्णा जयंती महोत्‍सव का एक प्रमुख कार्यक्रम होगा ‘कैपिटल बिल्डिंग’ को ध्‍वस्त करना। दक्षिण कोरिया की सरकार ने इस विशाल भवन को गिराने का निर्णय ले लिया है। इसमें स्थित संग्रहालय को नये बन रहे दूसरे भवन में ले जाया जायेगा। इस पूरी कार्रवाई में 1200 करोड़ रुपये खर्च होंगे।

यह समाचार 2 मार्च 1995 को बी.बी.सी. पर प्रसारित हुआ था। कार्यक्रम में ‘कैपिटल बिल्डिंग’ को भी दिखाया गया। इस भवन में स्थित ‘राष्ट्रीय वस्तु संग्रहालय’ के संचालक से बीबीसी संवाददाता की बातचीत भी दिखाई गई। जब उनसे इस इमारत को नष्ट करने का कारण पूछा गया तो संचालक महोदय ने बताया कि, ‘इस इमारत को देखते ही हमें जापान द्वारा हम पर लादी गई गुलामी की याद आ जाती है। इसको गिराने से जापान और दक्षिण कोरिया के बीच सम्‍बंधों का नया दौर शुरु हो सकेगा। इसके पीछे बना हमारे राजा का महल लोगों की नजरों से ओझल रहे यही इसको बनाने का उद्देश्‍य था और इसी कारण हम इसको गिराने जा रहे हैं।‘

दक्षिण कोरिया की जनता ने भी सरकार के इस निर्णय का उत्‍साहपूर्वक स्‍वागत किया। (यह भवन उसी वर्ष ध्‍वस्‍त कर दिया गया।)

पांच सौ साल पुराने गुलामी के निशान मिटाये कुछ वर्ष पहले तक युगोस्‍लाविया एक राज्‍य था जिसके अन्‍तर्गत कई राष्‍ट्र थे। साम्‍यवाद के समाप्‍त होते ही ये सभी राष्‍ट्र स्‍वतंत्र हो गये तथा सर्बिया, क्रोशिया, मान्‍टेनेग्रो, बोस्निया हर्जेगोविना आदि अलग-अलग नाम से देश बन गये। बोस्निया में अभी भी काफी संख्‍या में सर्ब लोग हैं। ऐसे क्षेत्रों में जहां सर्ब काफी संख्‍या में हैं, इस समय (सन् 1995) सर्बियाई तथा बोस्निया की सेना में युद्ध चल रहा है। इस साल के शुरु में सर्ब सैनिकों ने बोस्निया के कब्‍जे वाला एक नगर ‘इर्वोनिक’ अपने अधिकार में ले लिया।

इर्वोनिक की एक लाख की आबादी में आधे सर्ब हैं और शेष मुसलमान। सर्ब फौजों के कब्‍जे के बाद मुसलमान इस शहर से भाग गये तथा बोस्निया के ईसाई यहां आ गये। ब्रंकों ग्रूजिक नाम के एक सर्ब नागरिक को शहर का महापौर भी बना दिया गया। महापौर ने सबसे पहले यह काम किया कि नगर के बाहर बहने वाली ड्रिना नदी के किनारे बनी एक टेकड़ी पर एक ‘क्रास’ लगा दिया। महापौर ने बताया कि, ‘इस स्‍थान पर हमारा चर्च था जिसे तुर्की के लोगों ने सन् 1463 में ध्‍वस्‍त कर डाला था। अब हम उस चर्च को इसी स्‍थान पर पुन: नये सिरे से खड़ा करेंगे।‘ श्री ग्रूजिक ने यह भी कहा कि तुर्कों की चार सौ साल की सत्ता में उनके द्वारा खड़े किये गये सारे प्रतीक मिटाये जाएंगे। उसी टेकड़ी पर पुराने तुर्क साम्राज्‍य के रूप में एक मीनार खड़ी थी उसे सर्बों ने ध्‍वस्‍त कर दिया। टेकड़ी के नीचे ‘रिजे कॅन्‍स्‍का’ नाम की एक मस्जिद को भी बुलडोजर चलाकर मटियामेट कर दिया गया।

यह विस्‍तृत समाचार अमरीकी समाचार पत्र हेरल्‍ड ट्रिब्‍युन में 8 मार्च 1995 को छपा। समाचार लाने वाला संवाददाता लिखता है कि उस टेकड़ी पर पांच सौ साल पहले नष्‍ट किये गये चर्च की एक घंटी पड़ी हुई थी। महापौर ने अस्‍थायी क्रॉस पर घंटी टांककर उसको बजाया। घंटी गुंजायमान होने के बाद महापौर ने कहा कि, ‘मैं परमेश्‍वर से प्रार्थना करता हूं कि वह क्लिंटन (अमरीकी राष्‍ट्रपति) को थोड़ी अक्‍ल दे ताकि वह मुसलमानों का साथ छोड़कर उसके सच्‍चे मित्र ईसाइयों का साथ दे।

सोमनाथ का कलंक मिटाया गया

भारत में जब तक सत्ता की भूख नेताओं के सर पर सवार नहीं हुई थी, गुलामी के प्रतीकों को मिटाने का प्रयत्‍न किया गया। नागपुर के विधानसभा भवन के सामने लगी रानी विक्‍टोरिया की संगमरमर की मूर्ति आजादी के बाद हटा दी गई। मुम्‍बई के काला घोड़ा स्‍थान पर घोड़े पर सवार इंग्‍लैंड के राजा की प्रतिमा हटाई गई। विक्‍टोरिया, एंडवर्ड और जार्ज पंचम से जुड़े अस्‍पताल, भवन, सड़कों आदि तक के नाम बदले गये। लेकिन जब सत्ता का स्‍वार्थ और चाहे जैसे हो सत्ता में बने रहने की अंधी लालसा जगी तो दिल्‍ली की सड़कों के नाम अकबर, जहांगीर, शाहजहां तथा औरंगजेब रोड तक रख दिये गये।

भारत के आजाद होते ही सरदार पटेल ने सोमनाथ का जीर्णोद्धार कराया। उस स्‍थान पर बनी मस्जिदों व मजारों को ध्‍वस्‍त कर भव्‍य मंदिर का निर्माण कराया गया। मंदिर की प्राण-प्रतिष्‍ठा के समारोह में सेकुलरवादी पं. नेहरु के विरोध के बावजूद तत्‍कालीन राष्‍ट्रपति डॉ. राजेन्‍द्र प्रसाद सम्मिलित हुए। उस समय किसी ने मुस्लिम भावनाओं की या मस्जिदें नष्‍ट न करने की बात नहीं उठाई। इसलिए कि उस समय सरदार पटेल जैसे राष्‍ट्रवादी नेता थे और देश की जनता में भी आजाद के आंदोलन का कुछ जोश बाकी था। (पाथेय कण)

आकाश प्रथम तत्व है !

– हृदयनारायण दीक्षित

भारतीय दर्शन के पांच तत्व गांव-गांव तक चर्चित है। रामचरित मानस की क्षिति जल पावक गगन समीरा वाली चौपाई हिन्दी भाषी क्षेत्रों में गंवई गंवार भी गाते हैं। तुलसीदास ने पांच तत्वों वाली बात कोई अपनी तरफ से ही नहीं कही थी। लेकिन यही पांच तत्व समूचे भारतीय साहित्य में भी मौजूद हैं। महाभारत में धर्म व्याध द्वारा एक ब्राह्मण को सृष्टि रहस्य समझाने की सरल कथा है – पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश ये पांच तत्व हैं। इस सूची में पूर्व वाले तत्व बाद वाले तत्वों के गुणों से युक्त हैं। आकाश यहां सबसे बाद में हैं। आकाश का गुण शब्द है। इसके पहले वायु है। वायु में आकाश का गुण शब्द है, अपना गुण स्पर्श है। वायु में दो गुण हैं। इसके पहले अग्नि हैं। अग्नि में पहले के दो गुण शब्द व स्पर्श हैं। उसका अपना गुण रूप भी है। अग्नि में तीन गुण हैं। अग्नि के पहले जल है। जल में ऊपर के तीनों गुण शब्द, स्पर्श, रूप तो हैं ही उसका अपना गुण रस है। जल में चार गुण हैं। सूची में बची पृथ्वी में पहले के चार गुण शब्द, स्पर्श, रूप रस के साथ ही अपना गुण गंध भी है। पृथ्वी में पांच गुण हैं। विकास की गति सूक्ष्म से स्थूल की दिशा में चलती है। प्रथम तत्व आकाश है। उसके पास एक गुण है। आकाश का विकास वायु है, दो गुणों से युक्त हैं, वायु का विकास अग्नि तीन गुण वाला है। अग्नि का विकास जल है। यह चार गुणों वाला है। सबसे बाद में विकसित पृथ्वी में 5 गुण हैं। आकाश प्रथम है। संसार पंच महाभूतों का ही प्रपंच है। ऋग्वेद के नासदीय सूक्त में सृष्टि रचना के पहले की स्थिति का वर्णन है न सत् था, न असत्, अंधकार ही अंधकार था। तब क्या था? यहां अंधकार आकाश की प्रथम अवस्था हो सकती है। स्वामी विवेकानंद ने ऋग्वेद के हवाले से आकाश को आदि तत्व माना और ‘राजयोग’ में लिखा आकाश ही वायु बनता है, द्रव व ठोस बनता है, आकाश से ही सूर्य, पृथ्वी, चन्द्र, नक्षत्र, धूमकेतु बनता है आकाश ही प्राणियों वनस्पतियों का शरीर बनाता है। उसका प्रत्यक्ष बोध नहीं होता। बिलकुल ठीक लिखा है। ऋग्वेद की ऋचाएं भी परम व्योम में रहती हैं। देवता भी वही रहते हैं। आकाश का गुण शब्द है, मंत्र ऋचाएं अक्षर-शब्दों की ही काया धारण कर नीचे उतरती है। सविता और ऊषा ऋग्वैदिक ऋषियों के निराले देव हैं, वे आकाश से झांकते हैं। मरुत, वरुण, मित्र इन्द्र आदि देवता आकाश में ही दीपित हैं। सारी दुनिया विश्व प्रपंचों के लिए ‘ऊपर’ की ओर देखती है। परम सत्ता का एक नाम ‘ऊपर वाला’ है। लोग अकसर कहते हैं कि ऊपर वाले की कृपा से यह काम हुआ और ऊपर वाले ने यह काम बिगाड़ दिया। ऊपर वाला ‘आकाश’ ही मूल तत्व है। भावविभोर ऋषि आकाश को पिता कहते हैं और पृथ्वी को माता। ऋषि कहते हैं, पहले दोनों मिले हुए थे। तब उनका नाम ‘रोदसी’ था। एक मंत्र के अनुसार धरती आकाश को अलग करने का काम मरुतों ने किया। काव्य सर्जन के भीतर झांकने पर सृष्टि विकास की परतें आसानी से खुलती हैं। वैज्ञानिक गाड पार्टीकिल – ईश्वरीय तत्व की खोज में है। सृष्टि रचना का मूल आधार कोई आदि तत्व या आदि द्रव्य ही होना चाहिए। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश हिन्दू चिन्तन के पांच तत्व हैं। यूनान और यूरोप के दर्शन में चार तत्व ही थे। वे आकाश को रिक्त स्थान या शून्य मानते थे। परवर्ती यूनानी चिन्तक अनक्सिमेंडर ने सृष्टि रचना के मूल तत्व को अनिश्चित – इनडिफनेट (ता-अपईरान) बताया था। अरस्तू ने उनके ‘अनिश्चित तत्व’ को ‘देशगत असीम’ कहा था। अनक्सिमेडर के ‘अनिश्चित तत्व’ के गुण ज्ञात नहीं थे। उनके अनुसार वह मूल चार तत्वों पृथ्वी, अग्नि और वायु से भिन्न है। वह कोई और है, उसी से आकाश उत्पन्न हुआ है। अरस्तू की टिप्पणी है कि अनक्सिमेंडर का असीम – या अनिश्चित सब चीजों को घेरे हुए हैं, सबका मूल संचालक भी है। कह सकते हैं कि अनक्सिमेंडर का असीम उपनिषदों वाला ब्रह्म जैसा है। उपनिषदों का ब्रह्म सबको आवृत करता है। सबके भीतर भी है, सबका संचालक भी है। लेकिन अनक्सिमेंडर का अनिश्चित और कोई अज्ञात तत्व नहीं है। उनका अनिश्चित भारतीय चिन्तन का ‘आकाश’ तत्व ही है। छान्दोग्य उपनिषद (1.9.1-2) के अनुसार समस्त भूत आकाश से उत्पन्न होते हैं। उसी में जाते हैं। वह अनंत है। इसी उपनिषद् में सनत् कुमार ने नारद को बताया आकाश तेज से बड़ा है, सूर्य, चन्द,्र विद्युत, नक्षत्र, अग्नि इसी में हैं। आकाश में उत्पत्ति है, आकाश से हम बोलते सुनते हैं। अनक्सिमेडर को आकाश का गुण नहीं पता था। वह असीम है, अनिश्चित है, सब कुछ उसमें है, भारतीय चिन्तन की यह धारणा उसने संभवतः भारत से प्राप्त की। दिलचस्प बात यह है कि प्राचीन यूनानी दार्शनिक थेल्स अनक्सिमेंडर और हिराक्लिटस एक ही भू-क्षेत्र के निवासी थे। थेल्स जल को आदि द्रव्य मानते थे। हिराक्लिट्स अग्नि को और अनक्सिमेंडर ‘अनिश्चित’ को। थेल्स की धारणाएं ऋग्वेद के आपः मातरम् से मिलती है। हिराक्लिट्स का चिंतन कठोपनिषद् और ऋग्वेद के अग्नि तत्व का निकटवर्ती है। अनेक विचारक उपनिषदों पर यूनानी दर्शन का प्रभाव खोजते हैं। बेशक दोनों देशों के चिन्तन में समानता है पर यूनान में थेल्स से पहले चिन्तन-दर्शन की कोई परम्परा नहीं है। भारत में उपनिषदों के पहले ऋग्वेद है। ऋग्वेद के बीज दर्शन का विस्तार उपनिषदें है। उपनिषदों का प्रभाव ही यूनानी दर्शन पर पड़ा हो तो आश्चर्य क्या है? अनक्सिमेंडर और यूनानी दर्शन के बहुत पहले भारत में कपिल का सांख्य दर्शन छाया हुआ था। सांख्य विकासवादी दर्शन है। प्रत्येक तत्व के दो रूप होते हैं, एक स्थूल और दूसरा सूक्ष्म। सूक्ष्म ही विकसित होकर स्थूल बनता है। सांख्य दर्शन के अनुसार प्रत्येक तत्व का अपना गुण है। आकाश का गुण शब्द है। वायु का विकास आकाश से ही हुआ लेकिन आकाश बना रहा। उसके बाद वाले तत्वों में भी पूर्ववर्ती सभी तत्वों के गुण आये। महाभारत में संजय ने धृतराष्ट्र को यही सांख्य समझाया था। लेकिन कपिल के सांख्य से भी पहले सृष्टि विकास की यही धारणा बीज रूप में ऋग्वेद में भी मौजूद है। यूनानी दार्शनिक पाइथागोरस भारतीय चिंतन से प्रभावित दिखाई पड़ते हैं। उनका आत्मा का सिध्दांत भारतीय दर्शन के पुनर्जन्म से मिलता है। हिराक्लिट्स ने कहा कि पुनर्जन्म की अवधारणा पाइथागोरस ने मिस्र से पाई थी। मिस्र में पुनर्जन्म की ठोस अवधारणा नहीं थी। पाइथागोरस भारतीय चिंतन से ही प्रभावित हो सकते हैं। पाइथागोरस के अनुयायी ‘शून्य’ का अस्तित्व मानते थे कि शून्य दो पदार्थों के बीच का हिस्सा है। यह दोनों को अलग करता है। पाइथागोरस का शून्य ही भारतीय दर्शन का आकाश है। भारत में सृष्टि रहस्यों के प्रति गहन जिज्ञासा की परम्परा अतिप्राचीन है। हजारों वर्ष का लम्बा कालखण्ड है। सिंगमंड फ्रायड का अनुयायी कार्लयुंग भी भारतीय चिन्तन से भौचक था। भारत में शोध, दर्शन और वैज्ञानिक चिन्तन की अविच्छिन्न परंपरा है। आकाश प्राचीन काल से ही सबकी जिज्ञासा था। आकाश प्रथमा है। वृहदारण्यक उपनिषद् में आकाश को ब्रह्म जाना गया है। यहां आकाश-ब्रह्म की उपासना का प्रीतिकर मन्त्र है – ओ3म् खं ब्रह्म। (अध्याय 5.1) मन्त्र में आकाश को सनातन बताया गया है – खं पुराणं वायुरं खमिति। इसमें वायु रहती है। शंकराचार्य का भाष्य है ‘ओ3म् खं ब्रह्म’ यह मन्त्र है। इसका अन्यत्र विनियोग नहीं हुआ। ध्यान कर्म में इसका विनियोग है। खं (आकाश) ब्रह्म का शब्द वाच्य ओ3म् है। ओ3म् का उच्चारण और खं-आकाश का ध्यान ही श्रेष्ठ आलम्बन है। ‘ब्रह्म सूत्र’ का आकाश-अधिकरण आकाश ब्रह्म की खूबसूरत विवेचना है। शंकराचार्य ने वृहदारण्यक के भाष्य में सावधान किया है कि लेकिन खं को भौतिक आकाश न समझा जाय क्योंकि उपनिषद् का कहना है – खं पुराणं अर्थात् सनातन आकाश। वैदिक साहित्य और पाणिनि के परवर्ती साहित्य में भी ख का अर्थात आकाश है। आकाश सबको आवृत करता है। सबके भीतर और बाहर है। ‘ख’ सुन्दर हो तो सु-ख यानी सुख और ‘ख’ कष्टदायी हो तो दु-ख यानी दुख। ऐसे सनातन आकाश ‘खं ब्रह्म’ को हम सब प्रणाम करते हैं। * लेखक उत्तर प्रदेश सरकार में मंत्री रह चुके हैं।

मन ही बंधन, मन ही मुक्ति

-हृदयनारायण दीक्षित

आनंद सबकी इच्छा है। सुख, स्वस्ति और आनंद का प्रत्यक्ष क्षेत्र यही प्रकृति है। यहां शब्द हैं, रूप, रस, गंध और स्पर्श आनंद के उपकरण हैं लेकिन आनंद की अनुभूति का केंद्र भीतर है। भौतिकवादी भाषा में कहें तो सारा मजा’मन’ का है लेकिन मन है कि भागा-भागा फिरता है। मन की ताकत शरीर की ताकत से बड़ी है। मन आया तो एक पल में ही हम यहां से वहां। शरीर की यात्रा के लिए साधन चाहिए, समय चाहिए लेकिन मन बंजारा है। निहायत घुमंतू, न पासपोर्ट, न वीजा लेकिन दुनिया के सभी देशों की यात्रा। मन विषयी भी है। सो बंधनकारी भी है। मन बुध्दि को भी हांक लेता है तब बुध्दि की युक्ति काम नहीं आती। बुध्दि और मन का मेल विरल है, दोनो मिल जाते हैं तो ‘मनीषा’ कहलाते हैं और मनीषा वाले लोग कहे जाते हैं मनीषी। मनीषा का अर्थ है ‘मन का शासक’। मन और ईशा (शासक) मिलकर ही मनीषा है। कृष्ण ने अर्जुन को स्थिर प्रज्ञा के लिए यही उपाय बताया था लेकिन अर्जुन ने मन का चरित्र बताया हे कृष्ण! मन बड़ा चंचल है, इसे नियंत्रित करना वायु पकड़ने से भी कठिन है। गीता बाद की है, महाभारत वैदिकाकल के बाद की घटना है। ऋग्वेद के ऋषि ‘मन’ की ताकत, प्रवृत्ति और प्रकृति से बखूबी परिचित थे। मन की क्षमता का खूबसूरत प्रयोग ही सांसारिक सफलता है।

प्रकृति की ऊर्जा बहुआयामी है। वैदिक ऋषि विराट् को देखकर भाव विभोर होते हैं, स्तुति करते हैं। इसलिए ऋग्वेद के देवताओं की नामावली लंबी है। ऋग्वेद में ‘मन’ भी एक देवता हैं आ तु एतु मनः पुनः क्रत्वे दक्षाय जीवसे, ज्योक च सूर्य दृशे- सतत् दक्ष-कर्म के लिए और दीर्घकाल तक सूर्य दर्शन के लिए श्रेष्ठ मन का आवाहन है। (10.57.4) पूर्वजों पितरों से यही स्तुति है पुनर्नः पितरो मनोददातु दैत्यो जनः – पूर्वज पितर हमारे मन को सत्कर्मो में प्रेरित करें। (वही, 5) सुख आनंद का क्षेत्र यही संसार और प्रत्यक्ष कर्म हैं लेकिन मन देव यहां वहां भागते है। ऋग्वेद की स्तुतियों में गजब का इहलोकवाद/भौतिकवाद है दिव्यलोक, भूलोक तक चले गए मन को वापिस लाते हैं। अस्थिर मन को दूरवर्ती प्रदेशों से वापिस लाते हैं। जो मन समुद्र या अंतरिक्ष लोक या सूर्य देव तक चला गया है, उसे वापिस लाते हैं। दूर से दूरस्थ, पर्वत, वन या अखिल विश्व में भ्रमणशील मन अथवा भूत या भविष्यत् में गए मन को भी वापिस लाते हैं। (10.58.1-12) सभी 12 मंत्रों के अंत में एक वाक्य समान रूप से जुड़ा हुआ है क्योंकि संसार में ही आपका जीवन है – तत्त आ वर्तयामसीह क्षयाय जीवसे। यहां संसार माया नहीं यथार्थ है।

यजुर्वेद ऋग्वेद का परवर्ती है। लेकिन ऋग्वेद के 663 मंत्र ज्यों के त्यों यजुर्वेद में भी हैं। यजुर्वेद के रचनाकाल तक भारतीय दर्शन का समुचित विकास हो चुका है। ऋग्वेद के अनेक सूक्त दार्शनिक है। ऋग्वेद में विश्व दर्शन का झरोखा है। यजुर्वेद यज्ञ प्रधान है लेकिन इसी का आखिरी अध्याय (40वां) ही विश्व की प्रथम उपनिषद् ईशावास्योपनिषद् बना। ईशावास्योपनिषद् दुनिया के तमाम विश्वविद्यालयों के कोर्स में है। कम लोग जानते हैं कि यजुर्वेद के 34वें अध्याय के प्रथम 6 मंत्रों को भी उपनिषद् की मांयता मिली। 6 मंत्रों वाली इस छोटी सी उपनिषद् का नाम ‘शिव संकल्प’ उपनिषद् पड़ा। छहों मंत्र बड़े प्यारे हैं और मनोविज्ञान में रूचि रखने वाले विद्वानों के दुलारे भी हैं। यजुर्वेद का यही हिस्सा मनोविज्ञान या मनः शास्त्र का सम्यक् विवेचन है। यहां मन की शक्तियों को जीवन की सफलता के लिए जोड़ने का संकल्प है। उपनिषद् प्रेमियों ने ठीक ही इसका नाम ‘शिवसंकल्पोपनिषद्’ रखा है। पहले मंत्र में मन का खूबसूरत विश्लेषण है – जैसे जाग्रत अवस्था में यह मन दूर-दूर तक जाता है, वैसे ही सोए हुए व्यक्ति का मन भी दूर-दूर तक भ्रमण करता है। गतिशील यह मन इंद्रियों की ज्योति-संचालक है। यह जीवन ज्योति का माध्यम है। स्तुति है कि यह हमारा मन कल्याणकारी संकल्पों वाला हो। मन का सबसे बड़ा गुण है विकल्प। यहां, वहां, इधर-उधर, जिधर, किधर, लेकिन, किंतु, परंतु और यथा तथा सब मन के विकल्प हैं। सदा असंतुष्ट रहना उसकी प्रकृति है सो मन विकल्पों का रसिया है। उसकी क्षमता बड़ी है। वही शोक, हताशा, निराशा और विषाद का कारण है सो वही बंधन है, वही हर्ष, उत्साह, प्रसाद का सोपान भी है सो वही मुक्ति का द्वार भी है।

तमाम शास्त्रों व उपनिषदों में एक साथ दोहराया गया मन संबंधी एक श्लोक स्मरणीय है – ‘मन एवं मनुष्याणां कारणं बंधन मोक्षयोः’ – मन ही मनुष्यों के बंधन और मोक्ष का कारण है। फिर बंधन और मोक्ष के बारे में कहते हैं विषयों में आसक्ति बंधन है। विषयों से मुक्त मन मुक्ति है – बंधय विषयासक्तं, मुक्तये निर्विषयं। यजुर्वेद के ऋषि इसी मन को ‘शिव संकल्प’ से जोड़ना चाहते हैं। ऋषि मोक्षकामी नहीं हैं। वे संसार का लोकमंगल चाहते हैं। उनके सपने लौकिक हैं। पूरे सभी 6 मंत्रों के अंत में ऋषियों की एक ही लोकमंगल अभीप्सा है ‘तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु’ – वह हमारा मन कल्याणकारी संकल्पो वाला हो। दूसरे मंत्र में कहते हैं सत्कर्मी मनीषी जिस मन ने यज्ञ-शुभ कर्म करते हैं, जो मन सभी जीवों के शरीर के भीतर उपस्थित है, वह हमारा मन कल्याणकारी संकल्पो वाला हो। तीसरे मंत्र में मन को ही ज्ञान, धैर्य और चेतना का धारक बताते है, प्रज्ञान युक्त, धीर और चेतन मन समस्त प्राणियों के अंतःकरण में दिव्य ज्योति स्वरूप है, इसके अभाव में कोई भी कार्य नहीं हो सकता। वह हमारा मन कल्याणकारी संकल्पों वाला हो। मन अविनाशी है उसकी सामर्थ्य अपरंपार है, कहते हैं, जिसमें भूत, वर्तमान और भविष्य है, जिससे सत्कर्मो को विस्तार मिलता है वह हमारा मन श्रेष्ठ संकल्पो वाला बने।

प्रार्थना की क्षमता बड़ी है। प्रार्थना का केंद्र हृदय है। प्रार्थना का कर्म भौतिक है, मर्म आधिभौतिक है, प्रभाव रासायनिक है। चंचल मन को लोककल्याण से जोड़ना आसान नहीं है। विकल्पों में ही रमने वाले गतिशील परिवर्तनशील घुमंतू मन को संकल्प के खूंटे से बांधना सामांय काम नहीं है। यजुर्वेद के रचनाकाल में बेशक यज्ञ हैं लेकिन यज्ञ की कार्यवाही भी विकल्प प्रेमी मन को संकल्पों से नहीं जोड़ पाती। सो प्रार्थना ही एक मात्र उपाय है। ऋग्वेद के ऋषि मन को नमस्कार करते हैं। यजुर्वेद के ऋषि सीधे उसी से प्रार्थना करते हैं। मुक्त स्वेच्छाचारी और स्वच्छंद से ही एक जगह, एक केंद्र में रूकने की प्रार्थना पूरी दिलचस्प है। आगे कहते हैं, जिस मन में ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद के गान हैं, जैसे रथ के पहिए आरे हैं, जिस मन में संपूर्ण प्रज्ञाओं का ज्ञान है वह हमारा मन कल्याणकारी संकल्पों वाला हो। आगे मन का स्वभाव और निवास स्थान भी बताते हैं, जो कभी बूढ़ा नहीं होता, अतिवेगशाली है, हृदय में रहता है, कुशल सारथी की तरह अश्वों को नियंत्रित कर ठीक जगह पहुचाता है, वह हमारा मन कल्याणकारी संकल्पों वाला हो। मन वास्तव में कभी बूढ़ा नहीं होता। बूढ़े थके लोगों का मन भी तेज रफ्तार भागता है। मन इंद्रियों का सारथी है। इंद्रियां उसी के कहे विषय भोग मांगती हैं। इसी मन को लोक कल्याण में लगाने की स्तुतियों में गजब की जिजिवीषा है। ऐसी जिजिवीषा विश्व साहित्य में अंयत्र कहीं नहीं मिलती।

वैदिक कालीन समाज हर्षोल्लास पूर्ण था। दर्शन और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भरपूर था। मनोविज्ञान के रहस्यों से अवगत था। वह मनः शक्ति की विराट् ऊर्जा से सुपरिचित था। आधुनिक मनोविज्ञानी मनोविकारों के लिए औषधियां बताते हैं। वैदिक समाज भी तमाम औषधियों से परिचित लेकिन प्रार्थना शक्ति की खोज विश्व समुदाय को भारत की अद्भुत देन है। वैदिक साहित्य में प्रकृति की शक्तियों के प्रति प्रार्थी भाव है। पश्चिमी साहित्य और समाज में प्रकृति की शक्तियों के प्रति भोगवादी आक्रामकता है। मन को सरल और ऋक् रेखा में लाने का उपाय शिव संकल्प की प्रार्थना के अलावा और हो ही क्या सकता था? प्रार्थना का कोई विकल्प नहीं। यजुर्वेद की तमाम प्रार्थनाएं और नमस्कार के विषय भौचक करते हैं। ऋषि कहते हैं – ‘नमो हृस्वाय च वामनाय च नमो वृहते’ – अति छोटे कद वाले को नमस्कार, बौने को नमस्कार और बड़े शरीर वाले को भी नमस्कार है। (16.30) फिर कहते हैं, प्रौढ़ को नमस्कार, वृध्द को नमस्कार, अतिवृध्द को नमस्कार, तरूण को नमस्कार, अग्रणी और प्रथमा को भी नमस्कार है। यही परंपरा ऋग्वेद की भी है इंद नमः ऋषिभ्यः, पूर्वजेभ्यः, पूर्वेभ्यः पथिकद्भ्यः – ऋषियों को नमस्कार, पूर्वजों को नमस्कार, बड़ों को नमस्कार, मार्गद्रष्टाओं को भी नमस्कार है। (10.14.15) प्रार्थना और नमस्कार दरअसल मनः शक्ति संवर्ध्दन के ही अजब-गजब उपकरण हैं।

* लेखक उत्तर प्रदेश सरकार में मंत्री रह चुके हैं।

गंवई गंवार की प्रतीति आत्मगंध की अनुभूति

– हृदयनारायण दीक्षित

गांव की अपनी सुरभि है, अपनी गंध है। गंवई-गंवार की अपनी प्रतीति है और आत्मगंध की अपनी अनुभूति है। गांवों से बाहर जाती और सांझ समय खेतों से लौटती गायों की पदचाप से उठी धूलि गंध देवों को भी प्रिय है। गांव में गेंदा है, चमेली है, रातरानी है, गुलाब हैं तथा गेंहूं, जौ के भी पुष्प हैं। इन सबकी भीनी पुष्प गंध है। आम्र मंजरियों की रसगंध है, महुआ रस की महदोश गंध है। चाची, नानी, भौजाई के रिश्तों की प्रीति गंध है। बड़ो के प्रणाम की रीति गंध है। नवरात्रि, सत्यनारायण कथा और विवाह मुंडन पर आयोजित हवन की देव गंध है। भजन कीर्तन नौटंकी की गंधर्व गंध है। हाड़तोड़ श्रम तप के पसीने की मानुषगंध है। प्रकृति नर्तन की नृत्यगंध है। लोक गीतों की छंद गंध है। गांव गंध सुगंध का हहराता दिव्य लोक है। यही लोक आत्मगंध की अनुभूति बनकर परमतत्व को रसो वै सः – इस रूप अनुभव करता है। स्मृतिकार बोधायन ने ठीक ही कहा था कि शहरवासी को धर्म, अर्थ, काम भले ही मिल जाय लेकिन उसे मोक्ष नहीं मिल सकता। मैं ठेठ गांव वाला हूँ, गंवई हूँ, गंवई गंध से लैस हूँ गंवार हूँ। गंवई गंध गंवार में।

मेरा जन्म हुआ। हमारे होने में हमारी कोई भूमिका नहीं है। मैं 18, मई 1946 को भूलोक में आया। ऋतुराज बसंत और होली की मस्ती का स्पंदन मुझे मां के माध्यम से गर्भ में मिला होगा। चैत्र का नवसंवत्सर और वैशाख का महीना, परिवार में मेरे आगमन की प्रतीक्षा बना। ज्येष्ठ का ताप शनिवार का दिन और मूल नक्षत्र मेरी जन्मकुंडली में बैठ गये। पछुवा गरम हवा बड़े बड़ों को झुलसाती है। मरुद्गण मानौ अग्निरथ पर चलते हैं। वे अवनि-अंबर खौलाते हैं। मैं इसी माह इसी हवा में उगा। ज्येष्ठ के सूरज में प्रीतिकर तुलसी के पौधे भी झुलस जाते हैं। कनेर खिलने के प्रयास में मुरझा कर झर जाते हैं। लेकिन नीम खिलती है, नव पत्र पुष्प धारण करती है, फलों-फूलों से लद जाती है। बेला गुदगुदाता है। चमेली उकसाती है। आम बौराते हैं, महकाते हैं, गदराते हैं, अल्हड़ खुशियाली में कुछ समय के पहले भी पक जाते हैं। महुआ मदन रस टपकाते हैं। पछुवा और महुआ का मिलन अनूठा है। पछुवा की लू लपट कोयल को भी उकसाती है। वह सामवेद गाने लगती है और अनहद उद्गीथ ‘ओउंकार’ ध्वनि की तरह लू लपट को सरस बनाती है। पूरी प्रकृति अहैतुक गतिशील है। प्रकृति में स्वतः स्फूर्त सभवन की चिरंतन आत्मऊर्जा है।

मुझे अपने गांव के रूप, रस, गंध, अंतरंग में रमते हुए ऋग्वेद के जमाने के गांव के वर्णन याद आते हैं। गांव एक एकात्म परिवार थे। ऋग्वेद काल में वर्ण या जाति नहीं थे। उत्तर वैदिक काल में वर्णो का विकास हुआ। फिर श्रम के विशिष्टीकरण से ‘कर्म आधारित समूह’ बने, बाद में वे ही जन्मना होकर जाति बन गये। हमारे गांव में भी जाति भेद का विभाजन था लेकिन जातियां समरसता की डोर में थीं। प्रत्येक गांव का अपना जीवमान व्यक्तित्व था। पूरा गांव समवेत उत्सवों मे खिलता था और दुख मे एक साथ दुखी था। हमारा गांव प्रकृति की गोद में है। यहां सूर्य का तेजस् और चंद्रमा का मधुरस विभु और व्यापक है। ऋग्वेद में सूर्योदय के पहले ऊषा का भावुक वर्णन है – वे अप्रतिम सुंदरी हैं। सबको जगाती हैं। लेकिन गांववासी ऊषा आगमन के पहले ही जागते हैं। नगरवासी ऊषा के जगाने पर भी नहीं जागते हैं। वैदिक ऋषि भी ऊषा के पहले ही जागते रहे होंगे। जागे हुए लोग ही ऊषा काल की अरूणिमा और मधुरिमा में भावुक हुए होंगे। सविता देव तो ऊषा के बाद ही उगते हैं। प्रकृति की कार्यवाही में संविधान नहीं टूटता। पहले ऊषा फिर सूर्योदय। गंवई गंवार इस संविधान को छाती के भीतर मर्मस्थल पर धारण करते हैं। सो ऊषा के पहले ही जागरण, ऊषा का स्वागत, सूर्य को नमन फिर सतत् कर्म। मैंने अपने माँ-पिता के साथ ऊषा का आगमन और सूर्योदय का जागरण टकटकी लगाकर देखा है। गांव में दिव्यता का प्रसाद है। निर्दोष पक्षियों के कलरव हैं। छत पर, गांव के पेड़ पर पक्षी हैं। उनकी बोली गांव वालों को प्रिय है। उनके गीत छंदस् हैं। गायत्री जैसे मधुर हैं। गांव सांस्कृतिक रस में डूबी कविता हैं।

गांव की धरती माता है। गांव वाले धरती को प्रणाम करते हैं। यहां वैदिक परंपरा का निर्झर प्रवाह है। अथर्ववेद के ”भूमिसूक्त” में प्रार्थना है, ”ये ग्रामा, यदरण्यं याः सभाः- जहां गांव है, वन है, सभाएं होती हैं। हे भूमि! हम आपको प्रणाम करते हैं। (अथर्व 12.2.56) हमारे गांव में परिपूर्ण विचार स्वातांत्र्य था। बहसें थी, बकवास थे, तर्क थे, प्रतितर्क थे, कुतर्क भी थे। लेकिन मधुरता की मर्यादा थी। वेदों में मधुरता की प्यास है। अथर्ववेद में प्रार्थना है – ”यद वदामि मधुमतद्-जब भी बोले, मधुर बोलें।” ऋषियों ने मंत्रों में ग्रामीणों की सामूहिक इच्छा को ही गाया है। आसपास की नदियां मोहित करती हैं। हमारे गांव की अपनी सई नदी के प्रवाह में जीवन गति का दर्शन है। निर्मल नीर के पीछे निश्च्छल मन की धारा है। नदी में लोक मंगल की अथाह चेतना है। नदी भेदभाव नहीं करती। वह पशु, पक्षी, कीट, पतिंग, सांप, बिच्छू सबकी प्यास बुझाती है। नदी माता है। माता सबका भला चाहती है। नदी तट पर जंगल है, वनस्पतियों के झुरमुट हैं। वनस्पतियां औषधियां देती हैं। गांव की धरती ऋतंभरा है। पूरा गांव आनंद मगन है।

गांव वाले गंवई हैं लेकिन उन्हें गंवार भी कहते हैं। गंवार गांव वाले का पर्यायवाची है। गांवो का अपना संसार है, अपनी देशज संस्कृति। वे रिश्तों में डूबे हुए प्रायद्वीप हैं। गांव की परिभाषा करना सचमुच में बड़ा कठिन काम है। यहां प्रेम रस से लबालब उफनाते रिश्ते हैं, अपने होने का स्वाभिमान है, गरीबी और अभाव के बावजूद संतोष के छंद है, सबका साझा व्यक्तित्व है, संक्षेप में कहें तो प्रीतिरस की झील में रिश्तों नातों की मनतरंग नाव ही हमारे गांव हैं। दुनिया के सभी महानगर गांव वालों की उत्पादन शक्ति और श्रमशक्ति से ही बने। प्राचीन महानगरीय हड़प्पा सभ्यता के पीछे भी सिंधु सरस्वती के विशाल भूभाग में फैले गांवों की श्रमशक्ति का ही कौशल है। सभी महानगर गांववालों की कॉलोनी-उपनिवास हैं। गांव रोटी, दाल, दूध, सब्जी की गारंटी है। औद्योगिक उत्पादन की श्रमशक्ति का मूल केंद्र भी गांव ही हैं। गांवों को यों ही भारत की आत्मा नहीं कहा गया। गांव का जीवन ममता और समता में ही रमता है। यहां ईश भक्ति के साथ दर्शन का भी विविध आयामी सौंदर्य हैं। यहां आस्थावादी हैं, अंधआस्थावादी भी हैं, खांटी भौतिकवादी हैं, तो अध्यात्मवादी भी हैं।

हमारे गांव में सभी ऋतुओं की पुलक थी। मधुरस भरा बसंत था। आम्र मंजरियों की सुगंध थी। चहुं तरफा मदन रस था। जल-रस भरा सावन था। चैती थी, विरहा था, कजरी थी, रक्षा बंधन का नेह था, कजरी तीज थी, करवा चौथ थी। जगमग दीप पर्व थे। रावण दहन वाला दशहरा था। उत्तरायण/दक्षिणायन के मिलनसंधि पर मकर संक्रांति थी। सहभोज था। महाभोज था। ब्रह्मभोज था। ज्ञानदान था, दीपदान था, भूमिदान था, कन्यादान थे। बिटिया की बिदाई पर पूरा गांव रोता था, मैंने अपनी अम्मा को गांव की सभी कन्याओं के विवाह में रोते देखा है। उनका रोना-धोना सहज प्रीति का अश्रुप्रवाह था। बरात की अगवानी और स्वागत में पूरा गांव लहालोट था। नदियां माताएं थीं, नीम का पेड़ देवी था, बरगद का पेड़ देव था। पीपल का पेड़ ब्रहम था। कुलदेवता थे, चांद और सूरज भी देवता थे, ग्राम देवता भी थे। मुखिया गांव का मुख था। हमारे गांव में भी मुखिया थे। वे पुलिस-दरोगा और सरकारी अफसरों से गांव का कष्ट बताते थे। बाद में प्रधान होने लगे। गांव पंचायते सरकारी हो गयीं। चुनाव हुए तो गांव लड़ाई-झगड़े में फंस गये। अब हर माह लट्ठम्-लट्ठा है। जनतंत्र के उपवन में कांटे ही कांटे हैं, फूलों का कहीं अतापता नहीं। लेकिन गांव में सामंतवाद भी था। छूत-छात भी थी, जांत-पांत भी। पुलिस का गुंडाराज था ही। सो मैं सामाजिक परिवर्तन के संघर्ष का सिपाही बना। बाद में विधायक होने लगा। मेरा जीवन जनसंघर्षो में कटा। 64 बरस का हो गया। मंत्री हुआ। सत्ता भोगी, सम्मान मिला। लेकिन पद एेंषणा नहीं मरी। वेदांत पढ़ा, सारी दुनिया का दर्शन भी। आत्मविश्लेषण करता हूँ, आत्म दर्शन में रमता हूं। प्रतिपल सक्रिय हूं। लेकिन अपने होने का वास्तविक कारण नहीं जान पाया। आत्म गंध तो मिलती है लेकिन आत्म तत्व नहीं मिलता। मैं गहन आर्तभाव में हूं। सृष्टि के कर्ताधर्ता यदि कोई हों।

* लेखक उत्तर प्रदेश सरकार में मंत्री रह चुके हैं।

राजभाषा हिन्दी और संवैधानिक सीमाएं

-हरिकृष्ण निगम

क्या हमारे देश के करोड़ों हिंदी प्रेमियों को इस बात का अहसास है कि संवैधानिक प्रावधानों के अंतर्गत हिंदी को यद्यपि संघ की राजभाषा का दर्जा मिला है, पर उसके ऊपर जो अंकुश प्रारंभ से ही लगाए गए हैं वे इसके सर्वांगीण विकास में आज भी रोड़ा बने हुए हैं। संविधान का यह दायित्व कई अर्थों में अनोखा है, आज के बदले परिदृश्य में हमारे गले नहीं उतर रहा है।

हमारे संविधान के अनुच्छेद, 343(1) के अनुसार हिंदी को राजभाषा का स्थान प्रदान किया गया है पर राजभाषा अधिनियम 1963 (संशोधित अधिनियम 1967) के अनुसार संघ की राजसभा के रूप में अंग्रेजी को हमारे ऊपर अनिश्चित काल के लिए थोप दिया गया है। संसद ने न समझ में आने वाले प्रावधान को जन्म दिया जिस पर आज सहसा विश्वास नहीं होता है। जब देश के समस्त राज्यों की विधान सभाएं अंग्रेजी के स्थान पर हिंदी को स्वीकार करने का प्रस्ताव नहीं पारित करती हैं तब तक अंग्रेजी का प्रयोग रहेगा। क्या यह व्यावहारिक हैं, संभव हैं? आज के परिदृश्य में या किसी भी राजनीतिक संभावनाओं में ऐसा नहीं होगा यह हम जानते हैं। हम अपना मन कितना ही बहला लें कि ऐसा होगा नहीं, यह तो अनंतकाल तक संविधान द्वारा हिंदी को अंग्रेजी की अनुचरी बनाना हुआ। अनुच्छेद, 343(2) के अनुसार संघ की राजभाषा हिंदी 15 वर्ष की अवधि के बाद उसी सम्मान की अधिकारिणी थी जो हमारे राष्ट्रगीत और राष्ट्रीय झंडे को दिया जाता है। यह कहने की आवश्यकता नहीं कि हम भारतीय राजभाषा हिंदी के साथ-साथ दूसरी भारतीय भाषाओं के समर्थक भी हैं। क्या अब वह समय नहीं आ चुका है कि राष्ट्रीय स्तर पर हिंदी को पूरी स्वीकृति मिले? सरकारी स्तर पर हिंदी के उन्नयन हेतु प्रयास जारी हैं पर क्या अंग्रेजी मीडिया के दुराग्रहों के बीच, पर्याप्त है? क्या संविधान के अनुच्छेद, 343(1) को पूरी तरह लागू करने और राजभाषा अधिनियम 1963 (संशोधित 1967) को निरस्त कराने हेतु एक स्वर से आवाज उठाना आवश्यक नहीं है? एक ओर हम हिंदी को जनसाधारण की भाषा, आधुनिक युगबोध व समन्वय की भाषा, देश को बांधने की क्षमता रखने वाली वाणी कहते हैं पर दूसरी ओर संविधान निर्माताओं के निर्णय और मूल उद्देश्यों को भुलाकर 1967 के अधिनियम संशोधन से अपने पैरों में बेड़ियां डाल चुके हैं। मौलिक निर्णय सन 1949 में 14 सितंबर को इतिहास की आवश्यकता के रूप में लिया गया था। उसे न सामने रख कर तत्कालीन विकृत वातावरण व दबावों के कारण मात्र एक ऐसे अधिनियम में संशोधन किया गया है बल्कि उस रूप में जैसे संविधान के मूल उद्देश्य को ही नकार दिया गया हो। आज उसकी पुनर्वीक्षा की आम सहमति से जरूरत है। अनेक न्यायविदों का मत है कि राजभाषा अधिनियम 1963 (संशोधित अधिनियम 1967) की व्यवस्था हमारे संवैधानिक अधिकारों पर कुठाराघात हैं। हमारा संविधान हमारे प्रजातंत्र को सदैव दिशा-निर्देश देने के लिए हैं। पर किसी अधिनियम का एक संशोधन हमारी भावी पीढ़ियों को नहीं बांध कर रख सकता हैं। संसद का कोई भी नियम सामान्य बहुमत से पास होना चाहिए-अधिक से अधिक तीन-चौथाई बहुमत से। यह एक आश्चर्य है और अविश्वसनीय तथ्य भी है कि हमारे भाषायी संवैधानिक अधिकारों के लिए शत्-प्रतिशत विधान सभाओं के लिखित प्रस्ताव की शर्त क्यों? आगे आने वाली पीढ़ी कदाचित इसे समझ नहीं सकेगी? हिन्दी का अंग्रेजी भाषा या अन्य भारतीय भाषाओं से कोई बैर नहीं है पर यह भी एक क्रूर विडंबना है कि अंग्रेजी मीडिया का एक वर्ग हिंदी का उपहास उड़ाने, उसे-अपमानित करने का कोई अवसर नहीं छोड़ता हैं। हिंदी प्रेमी एवं राष्ट्रभक्त सदैव इस बात को रेखांकित करते रहे हैं कि हिंदी और भारतीय भाषाओं की संप्रभुता को चोट न पहुंचे जिसका स्वयं महात्मा गांधी ने दृढ़तापूर्वक समर्थन किया था। आज जब हम मुड़कर देखते हैं तब इस बात पर विस्मय और घोर व्यथा होती है कि 25 जनवरी, 1965 को 15 वर्ष की अवधि पूरी होने से पहले ही राजभाषा अधिनियम 1963 के जरिए हिंदी के पर कुतर दिए गए थे और हमारा भाषायी स्वाभिमान लहूलुहान हो गया था। वह कौन-सी राजनीतिक विकृति है कि संविधान पुनर्समीक्षा की न्यूनतम अवधि 15 वर्ष देता है और हम दबावों व कुचक्रों के कारण उसके पहले ही हिंदी पर अंकुश लगा बैठे थे। हमें याद है कि इस अधिनियम के पारित होने पर लालबहादुर शास्त्री व डॉ. लक्ष्मीमल सिंघवी ने खुलेआम अपनी असहमति प्रकट की थी और अनेक प्रतिष्ठित लेखकों व बुध्दिजीवियों ने सरकारी अलंकरण व सम्मान ठुकरा दिए थे। आज की परिचर्चा जरूरी है कि क्या राजभाषा अधिनियम 1963 (संशोधित अधिनियम 1967) को संसद द्वारा सामान्य बहुमत के बल पर निरस्त किया जा सकता है? राष्ट्रपति से देशवासी आग्रह करें कि हिंदी को उसकी मूल संवैधानिक स्वीकृति से वंचित न रखा जाए। कुछ दुराग्रही लोगों के राजनीतिक विरोध को अनदेखा करते हुए आज हमें पुनः देश की अखंडता अक्षुण्ण रखने के लिए व हिंदी व भारतीय भाषाओं की प्रमुखता स्थापित करने के लिए एकजुटता अनिवार्य प्रतीत होती हैं।

* लेखक वरिष्ठ स्तंभकार तथा अंतर्राष्ट्रीय मामलों के विशेषज्ञ हैं।

संवेदनाशून्यता में संस्कृति विनाश

– हृदयनारायण दीक्षित

सृष्टि एक है। दो नहीं। यह अद्वैत है। ढेर सारे रूप हैं, जीव और वनस्पतियां हैं लेकिन समूची सृष्टि में परस्परावलम्बन है। अथर्ववेद के ऋषि गौंओं से प्रार्थना करते हैं, आपकी सन्तति बढ़े, आप स्वच्छ चारा खायें। शुध्द जल पियें – प्रजावतीः सूयवसे रूशन्ती शुध्दा अपः। (अथर्व0 4.21.7) कहते हैं, आप अपनी कल्याणकारी ध्वनि से हमारे घरों को पवित्र करें – भद्रं गृहं कृणथु भद्रवाचो। (वही 6) भारत में गाय का बोलना घर को भद्र बनाता था। उन्हें शुध्दजल पीने का निमंत्रण दिया जाता था। लेकिन आज उसी देश में गौओं को पीने का पानी नहीं मिलता। महानगरों-नगरों में पशुओं के पानी का अभाव है। सब तरफ कंक्रीट हैं। परसों मेरे घर के सामने लगे इन्डिया मार्क टू हैंडपंप की टोटी को चांटती, उसे अपने मुंह में भरती प्यासी गाय की आखों में मैंने गहन संत्रास भाव देखा। उसकी सजल आंखें निर्जल महानगर से शोक संतृप्त थीं। गाय-बछड़े को एक साथ देखना भारतीय परम्परा में शगुन है। संस्कृत भाषा का ‘वत्स’ बछड़े के लिए ही आया है। बाद में वत्स का अर्थ पुत्र हो गया। ईश्वर को भक्त वत्सल कहा गया – यानी ईश्वर अपने भक्तों के प्रति गाय द्वारा बछड़े के लिए किया गया जैसा प्यार देता है। लेकिन गौंवें हताश हैं। वे डंडे की मार खाती हैं। कटने के लिए ट्रक में बांधकर रखी जाती हैं। ट्रक में बंधी ऐसी गायों की आंखों के भीतर उमड़ती समुद्र से भी गहरी अथाह जलराशि को मैंने अनुभव किया है। इसलिए हैंडपंप की टोंटी को मुंह में भरने की असफल कोशिश करती गाय ने मुझे भीतर तक बेचैनी दी है।

गाय वैदिक काल में अघन्या है, अबध्य है। समूची आर्य-हिन्दू परम्परा में वे देवता हैं। वे माता हैं, वे आदर योग्य हैं। गोवंश ही कृषि अर्थव्यवस्था की धुरी है। लेकिन गाय को माता माने जाने वाले इसी देश में गोमांस की तस्करी है। गाय की चर्चा करना भी यहां साम्प्रदायिकता है। लेकिन मौलिक विषय दूसरा है। गाय, कुत्ते और अन्य सभी पशु, पक्षी, कीट, पतंग क्या जीने का अधिकार नहीं रखते? धरती, वायु, जल और गगन उनके भी उतने ही हैं जितने हमारे। छिपकली किसी को नहीं काटती लेकिन कहां रहे? गौरैय्या निर्दोष पक्षी है, कहां पानी पाये? पालतू कुत्ते तो माम डैड के दुलारे हैं, बाकी कहां जायें? तितलियां गायब हो रही हैं, कहां उड़े? औद्योगिक सभ्यता प्रकृति की पूरी रसमयता ही निगल रही है। मनुष्य की संवेदना काठ हो गयी है। प्यासी गाय, प्यासे पशु, प्यासी चिड़ियों को हांफते देखकर भी हम विचलित नहीं होते। छोड़िए प्यासे दुखी मनुष्येतर प्राणियों को हमारी संवेदनहीनता दुखी प्यासे, दुर्घटनाग्रस्त मनुष्य को देखकर भी द्रवीभूत नहीं होती। औद्योगिक सभ्यता के ठाठ ने हमारी संवेदनाओं को काठ (लकड़ी) बनाया है। हम सुचालक नहीं रहे। निहायत कुचालक, बोदे और चिरकुट मन से संस्कृतियां परवान नहीं चढ़ती, भले ही हम और बड़े गगनचुम्बी मकान बना ड़ालें लेकिन मन लगातार बौना का बौना ही होता जा रहा है।

ज्येष्ठ मास अब नहीं तपता। आषाढ़ में कजरारे मेघ नहीं आते। सावन में झमाझम वर्षा नहीं होती। हरियाली तीज पर धरती माता हरे परिधान नहीं पहनती। बादल धरती चूमने के लिए नीचे नहीं आते। बादल की कड़क और बिजली की लपालप ध्वनि प्रकाश के खेल नहीं खेलती। आकाशीय बिजली भी नाराज है। सीधे गाज गिराती है और तमाम लोगों के प्राण ले लेती है। प्रकृति की सन्तति कुपुत्र हो गयी है। इंद्रदेव भी कोप में रहते हैं लेकिन कोप के बावजूद भारी वर्षा नहीं लाते। कहते हैं कि श्रीकृष्ण के जमाने में कुपित हुए इंद्र ने कई दिन तक झमाझम वर्षा की थी। लेकिन तब की वजह दूसरी है, अब बिलकुल दूसरी। अब मनुष्य प्रकृति का शोषण कर रहा है। बादल क्यों आये? तब मोर क्यों नाचें? बादल नहीं बरसते तो मेंढक भी टर्र-टर्र की वैदिक ध्वनि नहीं गाते। पपीहा उदास रहता है। कोयल गीत नहीं गाती। आकाश में इन्द्रधनुष नहीं सजते। सब तरफ सूखा ही सूखा। सीमेन्ट ही सीमेन्ट के अराजक जंगल। टैंपो, ट्रकाें और गाड़ियों के धुंवे से बढ़ती दुर्गंध। पृथ्वी माता भी अपनी मौलिक ‘गुण-गंध’ बिखरने का काम छोड़ गयीं। वैज्ञानिक लाए वर्षा। क्या-क्या लाएंगे ये वैज्ञानिक? बेशक विज्ञान बड़ी उन्नति कर चुका है लेकिन क्या वैज्ञानिक पृथ्वी को सुगन्धा बना सकते हैं? क्या वैज्ञानिक आकाश को शब्द गुण संपन्न बना सकते हैं। प्रकृति के पांचों महाभूत क्षिति, जल, पावक और गगन समीर इसी विज्ञानवादी औद्योगिक विकास ने ही चोटहिल किये हैं।

अथर्वा वैदिक काल के महान ऋषि थे। अथर्ववेद का नामकरण उन्हीं के नाम पर हुआ। वनस्पतियों-औषधियों पर अथर्वा रचित एक पूरा सूक्त (8.7) बहुत दिलचस्प है। मन्त्र 12 में कहते हैं इनकी जड़े मीठी हैं, मध्य मीठा है, अग्रभाग मीठा है, पत्ते और फूल-फल भी मीठे हैं – मधुंमूलं मधुमदग्रमासं मधुंमध्यं वीरूधां बभूव। मधुमत् पर्णं मधुमत पुष्पमासां। ऋषि मधु अभीप्सु है। वनस्पतियां मधुमय हैं। लेकिन इनका उपयोग और भी दिलचस्प है कि सम्पूर्ण मधुमय ये वनस्पतियां गौंओं को प्रधानस्थान, घी आदि देने वाली बनायें। अथर्वा का दर्शन संसार व्यापक है लेकिन भावजगत् और भी दिव्य। कहते हैं भूरे, श्वेत, नीले और काले वर्णो वाली सभी औषधियों-वनस्पतियों को हम पुकारते हैं – सर्वा अच्छावदामसि। (मन्त्र 1) यहां औषधियां-वनस्पतियां ऋषि की पुकार भी सुनती हैं। फिर औषधियों-वनस्पतियों का खूबसूरत मानवीकरण भी है इनकी माता पृथ्वी है, आकाश पिता है और जल ही इनका मूल है – द्योष्पिता, पृथ्वीमाता समुद्रों मूलं। (मन्त्र 2) पृथ्वी माता ठीक रहे, आकाश पिता स्वस्थ रहें और इनका मूल जल स्वच्छ रहे, तभी इनका उद्भव विकास और जीवन संभव है। लेकिन आधुनिक मनुष्य निर्मम हो गया है। वह वनस्पति जगत् उजाड़ रहा है। वह गौओं का शोषण कर रहा है। वह प्रकृति के पंच महाभूतों पर आक्रामक है।

प्रकृति में लाखों-करोड़ों जीव, वनस्पति और रूप हैं। सब परस्पर एक दूसरे पर निर्भर हैं। मनुष्य बाकी सभी जीवों और वनस्पतियों के उपभोग के लिए ही नहीं है। वह जल का उपयोग करे, बदले में जल को स्वच्छ करे। वह वायु उपभोग करे बदले में वायु को प्रदूषण से बचाये। वह पृथ्वी का उपभोग करे, पृथ्वी को पोषण भी दे। वैदिक ऋषि इसीलिए वनस्पतियों को देवता कहते हैं। वे गाय, बैल और सभी पशुओं का आदर करते हैं। वे जल को ‘आपः मातरम्’ कहते हैं। वे पृथ्वी को माता और आकाश को पिता कहते हैं। वे प्रकृति की सभी शक्तियों की आराधना करते हैं। इस आराधना से सामाजिक जीवन में जीव-निर्जीव सबके प्रति आदर पैदा होता है। अथर्ववेद के एक सूक्त (3.12) में निवासस्थान-शाला बनाने का खूबसूरत उल्लेख है। कहते हैं हम यहां स्थिर शाला (निवास) बनाते हैं – इहैव धु्रवां मिनोमि शालां। यह शाला घृत आदि का चिंतन करे, हमारा कल्याण करे। यहां निर्जीव घर को चिन्तन का काम सौंपा गया है। कहते हैं हे शाला आप सर्वसंपन्न विशाल छत वाली हैं। आपके अंदर बच्चे, बछड़े रहे और सायंकाल यहां गौएं पधारे। (वही मंत्र 3) अथर्वकाल के घर का प्रीतिकर वर्णन ध्यान देने योग्य है। घर से कहते हैं आप घास वस्त्रधारी है आपका मन बड़ा सुन्दर है – तृणं वसानां सुमना।

भारतीय संस्कृति में ‘घर’ अति महत्वपूर्ण स्थल है। सुन्दर घर प्रत्येक जीवधारी की इच्छा है, सांप, नेवले, केचुए भी घर बनाते हैं। बया पक्षी तिनका-तिनका जोड़कर अद्भुद् तकनीकी से गृहनिर्माण करते हैं लेकिन आधुनिक मनुष्य की गृहनिर्माण इच्छा बड़ी कुरूप है। वैदिक ऋषियों के घर बच्चों-बछड़ों, गायों के लिए खुले हैं। गांव-देहात के घर गाय, गौरैय्या, छिपकली, चींटीं आदि के लिए आज भी वर्जित नहीं हैं। लेकिन नगरों, महानगरों के घर सीलबंद हैं। गौएं कहां जायें? गौरैय्या कहां अंडे दे? इसी सूक्त में कहते हैं यहां बच्चे, तरुण और गौंओं के साथ बछड़े भी आये – एमां कुमारतरुण, आ वत्सो जगता सह। यहां मधुर जल कलश रखे जाएं और दूध-दही से भरे घट भी। वैदिक जीवन की झांकी गांवों में मौजूद है। बेशक मनुष्य अपना घर बनाता है लेकिन अथर्ववेद के ऋषि इस निर्माण का श्रेय सविता, वायुदेव, इंद्र व बृहस्पति को देते हैं। दिलचस्प बात यह है कि घर बनाते है सूर्य, वायु, इंद्र और बृहस्पति लेकिन इसमें रहने वाले देव हैं जल और अग्नि ही। ऋषि कहते हैं हम स्वयं रोग विनाशक जल और अविनाशी अग्निदेव के साथ इस घर में रहते हैं।(वही 9) सुदूर अतीत में घर सबका था, सब घर के थे। पश्चिम की सभ्यता ने क्या से क्या कर दिया, गौएं तो दूर अपने बूढ़े माँ-बाप के लिए भी बहुत बड़े घर में छोटी-सी कोठरी नहीं मिलती। बहुत त्रासद समय में अंतिम सांसें ले रहे हैं हम सब।

* लेखक उत्तर प्रदेश सरकार में मंत्री रह चुके हैं।

वृहदारण्यक उपनिषद् की मैत्रेयी सौभाग्यशाली

– हृदयनारायण दीक्षित

वैदिक काल और उत्तर वैदिक काल में ढेर सारी तत्ववेत्ता महिलाएं हैं। लोपामुद्रा ऋग्वेद की मंत्रद्रष्टा हैं लेकिन मैत्रेयी की तत्व अभीप्सा बेजोड़ है। वह तत्ववेत्ता कुलपति याज्ञवल्क्य की दो पत्नियों में से एक थी। याज्ञवल्क्य ने संन्यास की तैयारी की। उन्होंने दोनाें पत्नियों मैत्रेयी व कात्यायनी को बुलाया, कहा कि हमारी अर्जित सम्पदा दोनों बांट लो। मैत्रेयी ने धन-दौलत लेने से इनकार किया और कहा कि इस धन से समूची पृथ्वी भी मेरी हो जाए तो क्या मैं इससे अमर हो जाऊंगी। श्रीमान् मुझे अमरतत्व का साधन बताएं। (वही 2.4.2-3) भारत का प्राचीन काल अग्निधर्मा था। तब भारत की स्त्री मेधा भी भौतिकवादी धन साधन की तुलना में सृष्टि रहस्यों के ज्ञान को बेचैन थी। याज्ञवल्क्य सारे जीवन की अर्जित सम्पदा छोड़ रहे थे। धन सम्पदा की एक सीमा है। वह सांसारिक जीवन में बेशक एक साधन है लेकिन परमतत्व के बोध की यात्रा में धन काम नहीं आता। हमारे पूर्वजों ने इसीलिए ज्ञानयात्रा की ‘प्रस्थानत्रयी’ बनाई। ज्ञान यात्रा प्रस्थान के तीन (त्रय) साधन बताये – ब्रह्मसूत्र, उपनिषद और गीता। मैत्रेयी उसी अमृततत्व को अपनी पति से पूछ रही थी।

याज्ञवल्क्य तत्व ज्ञानी थे। उन्होंने सभी सांसारिक रिश्तों को आत्मार्थ बताया और कहा, हे मैत्रेयी! पति के प्रयोजन के लिए पति प्रिय नहीं होता, स्वयं अपने प्रयोजन के लिए ही पति प्रिय होता है। स्त्री के प्रयोजन के लिए स्त्री प्रिय नहीं होती, अपने ही प्रयोजन के लिए स्त्री प्रिय होती है। (वृहदारण्यक उपनिषद, पृष्ठ 549, गीता प्रेस गोरखपुर) यहां अपने प्रयोजन का अर्थ निज स्वार्थ दिखाई पड़ता है लेकिन मूल संस्कृत वाक्य भवत्यात्मनस्तु कामाय का सीधा अर्थ आत्मा के लिए है। शंकराचार्य के भाष्य में यह बात सुस्पष्ट है – आत्मैव प्रियाः, नान्यत यानी आत्मा ही प्रिय है और कुछ नहीं। याज्ञवल्क्य ने आगे कहा पुत्रों के प्रयोजन के लिए पुत्र प्रिय नहीं होते, आत्म प्रयोजन के लिए ही पुत्र प्रिय होते हैं …….. देवता भी अपने प्रयोजन के लिए ही प्रिय होते हैं। अनेक उदाहरण देने के बाद उन्होंने कहा, इसलिए आत्मा ही दर्शनीय, श्रवणीय, मननीय और ध्यान के योग्य है। आत्मदर्शन, श्रवण, मनन और विज्ञान ‘इस सबका’ ज्ञान हो जाता है। (वही) यहां इस सबका ज्ञान – इदं सर्वं विशेष ध्यान देने योग्य है। ‘इदं सर्वं’ शब्द ईशावास्यापोनिषद् में भी आया है – ईशावास्याम् इदं सर्वं। इदं सर्वं का अर्थ है यह सब समूची सृष्टि। याज्ञवल्क्य का कथन है कि आत्मा के ज्ञान से समूचे संसार का ज्ञान हो जाता है। छान्दोग्य उपनिषद् (7.25.2) में भी आत्मैवेदं सर्वं आत्मा ही यह सब कुछ है। मैत्रेयी और याज्ञवल्क्य का संवाद प्रीतिकर है।

प्रत्येक जीव स्वार्थी होता है। मनुष्य कुछ ज्यादा ही स्वार्थी है। स्वार्थ सबके लिए प्रेय है लेकिन भारतीय लोकजीवन में हेय है। मजेदार बात है कि जो अलग-अलग सबका प्रेय है, वही सामाजिक बोध में हेय क्यों है? कठोपनिषद् में प्रेय के साथ श्रेय शब्द भी आया है। प्रेय का केन्द्र कामनाएं हैं और श्रेय का केन्द्र लोकमंगल। स्वार्थ वस्तुतः एक जटिल शब्द है। यह स्व और अर्थ से मिलकर बना है। स्व निजता और अस्मिता है। सृष्टि विराट है, एक है, अद्वैत है। मनुष्य इसी का अविभाज्य हिस्सा है लेकिन नाम, रूप और निजता के कारण अलग-अलग इकाई है। दर्शन की दृष्टि में समूची सृष्टि ‘व्यक्त’ है, इसी की इकाई व्यक्ति है। इकाई की अस्मिता ही ‘स्व’ है। लेकिन इकाई अनंत विराट का एकात्म भाग है। बूंद सागर का ही नाम, रूप है। बूंद की निजता और अस्मिता अल्पकालिक है। वह सागर का ही एक हिस्सा है। बूंद का यही बोध स्व का विस्तार है। तब बूंद छोटी सी इकाई न होकर स्वयं को सागर जान लेती है। स्व का लघुत्तम संकीर्णता है, महत्तम व्यापकता है लेकिन स्व0 का परमबोध स्वार्थ को परमार्थ बनाता है। उपनिषदों के अनुसार सारी कठिनाई स्वयं को अलग इकाई समझने की है। उपनिषद् इसे द्वैत कहते हैं। उपनिषद् और बुध्द इसका कारण ‘अविद्या’ बताते हैं। मनुष्य अविद्या के कारण ही दुखी है। अविद्या के कारण वह स्वयं को अलग समझता है, एकाकी होता है, निराश-हताश होता है। याज्ञवल्क्य ने मैत्रेयी से कहा जहां द्वैत है, वहीं अन्य हैं, अन्य अन्य को सूंघता है, अन्य अन्य की सुनता है, अन्य अन्य का अभिवादन करता है। अन्य अन्य से परिचित होता है लेकिन आत्मद्रष्टा के लिए समूची सृष्टि आत्मा ही है। वह किसके द्वारा किसको सूंघे? किसके द्वारा किसे देखे? किसके द्वारा किसे सुने? किसके द्वारा किसका अभिवादन करे? किसके द्वारा किसका मनन करे? जिसके द्वारा इस सबको जानता है उसे किसके द्वारा जाने? मैत्रेयी विज्ञाता को किसके द्वारा जाने? (वही पृष्ठ 573) बात जटिल है लेकिन सरल भी है। हम इन्द्रियबोध से संसार देखते, सुनते समझते हैं लेकिन इन्द्रियबोध तो उपकरण है। हम आखिरकार कौन हैं?

स्वयं का बोध ही आत्मबोध है। बाकी बोध हमारी इन्द्रियों द्वारा देखा, सुना, चखा, छुआ और सूंघा सामान्य ज्ञान है। भौतिकवादी इसे ‘यथार्थ’ कहते हैं। लेकिन स्वार्थ यथार्थ से बड़ा है। जैसे यथार्थ यथा-अर्थ है वैसे ही स्वार्थ स्व-अर्थ है। यथार्थ में नाम, रूप वाले पद हैं, पदों का अर्थ पदार्थ है लेकिन स्व नाम रूप वाली कोरी सत्ता नहीं है तब स्वार्थ का तात्पर्य क्या होना चाहिए? स्व की समझ इन्द्रियों से नहीं हो सकती। इन्द्रियबोध की सीमा है। उपदेशक आत्मविश्लेषण और आत्मचिन्तन की बातें करते हैं। आत्मविश्लेषण और आत्मचिन्तन के विषय संसारी होते हैं। मसलन मुझे गुस्सा आता है? क्यों आता है? मैं देर से उठता हूँ? आदि आदि। लेकिन उपनिषद दर्शन का आत्मतत्व इन विषयों के परे आत्मचिन्तन का संकेत करता है। मूलतत्व, मूल प्रश्न बार-बार एक ही है कि आखिरकार मेरे भीतर बैठा वह तत्व कौन सा है जो सुनता है? सूंघता है, हंसता है, जीता है और इस पूरी कार्रवाई का नियंता है? भारत के चिंतन में कोई अंतिम घोषणा नहीं है। जिज्ञासा और खोज के लिए खुला आकाश है। आस्था के निर्देश नहीं हैं। जो चाहे खोजे। सत्य की खोज में कोई आरक्षण नहीं है। महिलाएं भी यहां अग्रणी चिंतक रही हैं। कठोपनिषद के ऋषि व गीता की शानदार घोषणा है कि यह आत्मा तत्व प्रवचन अध्ययन से नहीं मिलता। भारत प्रश्नों, प्रतिप्रश्नों तर्कों, प्रतितर्कों और सतत् जिज्ञासा की पवित्र धरती है। वैज्ञानिक 18वीं शताब्दी के बाद से सृष्टि को एक अखण्ड सत्ता बता रहे हैं। वेद और उपनिषद् के ऋषि हजारों बरस पहले से ही ‘एकं सद्’ या अद्वैत के जरिए समूची सृष्टि को एक ही परम तत्व का विकार (विकास) बता चुके हैं। मैत्रेयी भाग्यवान थी कि उसके चित्त में आधारभूत प्रश्न उठे? गार्गी भी ऐसी ही थी उसने बड़े तीखे पैने सवाल किये थे। पार्वती और शिव के दार्शनिक संवाद भारत की थाती है। द्रौपदी द्वारा सभा पर्व (महाभारत) में उठाए गए प्रश्नों के सामने बड़े-बड़ों ने सिर झुकाए थे। दर्शन विज्ञान का क्षेत्र आस्था रहित होता है। आस्थामुक्त चित्त ही प्रश्नों में रमता है। बेशक आस्था रखना और प्रश्नों-प्रतिप्रश्नों से अलग रहना अपना विवेक है लेकिन ऋग्वेद के एक ऋषि ने देवताओं से प्रार्थना की थी कि हमें ऐसे लोगों से बचाओं जो प्रश्नों-प्रतिप्रश्नों में आनंद नहीं लेते।

* लेखक उत्तर प्रदेश में मंत्री रह चुके हैं।

मंदिर-मस्जिद विवाद का अंतिम अध्‍याय

-धाराराम यादव

लगभग 6 दशकों से न्यायपालिका के समक्ष लंबित राम मन्दिर -बाबरी मस्जिद विवाद के सम्बन्ध में इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ का निर्णय आगामी सितम्बर, 2010 में सम्भावित है। निर्णय की सम्भावना को देखते हुए उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा प्रदेश भर में हाई अलर्ट घोषित कर दिया गया है। पुलिस और गुप्तचर एजेंसियाँ उन स्थानों पर विशेष सतर्कता बरत रही हैं जहाँ न्यायालय का निर्णय घोषित होने के बाद विवाद की संभावना बलवती है। वैसे कहा तो यह जाता है कि लखनऊ पीठ के समक्ष लंबित वाद विवादग्रस्त स्थल मिल्कियत से संबंधित है, किन्तु कुछ वर्षों पूर्व मा. उच्च न्यायालय के निर्देश पर विवादग्रस्त स्थल पर भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग द्वारा नितान्त वैज्ञानिक विघि से करीब 70 स्थानों पर खुदाई करवाई गयी थी। समाचार माध्यमों से प्राप्त सूचनानुसार भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग द्वारा मा. उच्च न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत अपनी सीलबन्द रिपोर्ट में यह आख्या दी गयी है कि विवादित स्थल के नीचे एक हिन्दू मन्दिर के अवशेष अब भी विद्यमान हैं। इस बात की शत प्रतिशत संभावना है कि न्यायालय के निर्णय में यह तथ्य अवश्य समाहित होगा जिससे यह स्वतः प्रमाणित हो जायेगा कि मन्दिर को तोड़कर उसी स्थल पर मस्जिद तामीर करवाई गयी थी। निर्णय से असंतुष्ट पक्ष को मा. सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष अपील करने का अवसर सुलभ होगा।

वैसे इस मुकदमे का मूल बिन्दु उस विवादित स्थान का स्वामित्व (मिल्कियत) तय करना है। अब तक किसी स्तर पर यह तथ्य प्रमाणित रुप से सामने नहीं आया है कि बाबरी मस्जिद के पक्षकारों के पास उस विवादित भूमि को क्रय किये जाने का कोई बैनामा या सरकार द्वारा जारी कोई पट्टा मौजूद है। तर्क के लिए केवल लम्बी अवधि के कब्जे को ही आधार माना जा रहा है। इस तर्क को ज्यादा कानूनी महत्व नहीं दिया जा सकता कि जहाँ एक बार मस्जिद बन गयी, वह स्थल सदा के लिए मस्जिद का हो गया, चाहे किसी मन्दिर को जबरन ध्वस्त करके उसके स्थान पर ही वह मस्जिद बनवाई गयी हो। यदि लम्बी अवधि के कब्जे के सिध्दान्त को मान्यता दी जाती है, तो अंग्रेजी (ब्रिटिश सत्ता) द्वारा भी 200 वर्षों तक भारत पर कब्जा करने के सिध्दांत पर पुनः अपनी सत्ता लौटाने का दावा किया जा सकता है। यदि देश के सम्बन्ध में लम्बी अवधि के कब्जे का दावा स्वीकार्य नहीं हो सकता, तो किसी पूजा स्थल के सम्बन्ध में भी कब्जे का दावा मान्य नहीं किया जाना चाहिए। इस तथ्य के अनेक ऐतिहासिक और पुरातात्विक प्रमाण मौजूद हैं कि मुस्लिम काल में हजारों हिन्दू मन्दिर ध्वस्त किये गये थे और उन स्थलों पर उन्हीं मन्दिरों के मलवे से मस्जिदें तामीर करवाई गयी थीं। उन सबके सम्बन्ध में प्रमाण मौजूद होते हुए भी किसी प्रकार का विवाद किसी पक्ष द्वारा नहीं उठाया जा रहा है। केवल मथुरा के कृष्ण जन्म भूमि मन्दिर और वाराणसी की ज्ञानवापी मस्जिद के संबंध में प्रश्न उठाया गया है। शीघ्र ही इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ के निर्माणाधीन भवन में एक ‘मध्यस्थता न्यायालय’ स्थापित करने का प्रस्ताव है। उचित यह होगा कि एक बार ‘मध्यस्थता न्यायालय’ की शरण में जाकर यह विवाद सुलझा लिया जाय।

अभी फिलहाल अयोध्या के राम जन्म भूमि मन्दिर विवाद में सितम्बर 2010 में आने वाले मा. उच्च न्यायालय पीठ के निर्णय में निहित बिन्दुओं के संबंध में अनुमान ही लगाया जा सकता है। किसी प्रकार के आरोप से बचने के लिए तीन न्यायाधीशों की पीठ में एक अल्पसंख्यक समुदाय के जज भी शामिल किये गये फैसले में यह तथ्य भी उजागर किया जाता है कि विवादित स्थल के नीचे अब भी एक हिन्दू मन्दिर का ढाँचा मौजूद है तो उसके स्पष्ट निहितार्थ यह होंगे कि उस स्थल पर पहले से निर्मित एक मन्दिर को तोड़कर ही मस्जिद बनायी गयी थी। ऐसे निष्कर्ष पर मुस्लिम समुदाय के साथ-साथ क्या देश के मूर्धन्य पंथनिरपेक्ष राजनेता यह कहने का साहस दिखायेंगे कि मन्दिर तोड़ा गया, तो कोई बात नहीं विगत् 22-23 दिसम्बर,1949 से उस स्थल पर हो रही राम की पूजा-अर्चना का वह ढाँचा क्यों तोड़कर उस स्थल पर मस्जिद बनाने का जायज हक है? किन्तु हिन्दू समुदाय को उसको वापस प्राप्त करने का तनिक भी अधिकार नहीं है अगर ऐसा सोचा भी तो तत्काल साम्प्रदायिकता फैल जायगी। विशेषकर देश के हिन्दू समाज को अपना मन्दिर वापस पाने का अधिकार नहीं माना जाता। इस देश की यह अत्यंत विडंबनापूर्ण सेकुलर सोच है।

प्राचीन भारतीय वाड.गमय के वायु पुराण के अनुसार सरयू की भीषण बाढ़ में तबाह हुई अयोध्या को श्रीरामचन्द्र के पुत्र महाराजा कुश द्वारा फिर से बसाया गया था जिसमें श्रीराम के जन्म स्थल का महल भी शामिल था। ध्वस्त महल के प्रमुख स्थानों को चिह्रित करके अपने पिता श्रीराम की कीर्ति को अक्षुण्ण रखने के लिए उनके जन्म स्थान पर एक भव्य मन्दिर का भी निर्माण महाराजा कुश द्वारा कराया गया था। लोमश रामायण से ज्ञात होता है कि वह भव्य मन्दिर कसौटी के 84 स्तंभों पर बनवाया गया था। समय के थपेड़ों और बाढ़ के प्रकोप से अयोध्या बार-बार उजड़ती रही। अंततः लगभग दो हजार वर्ष पूर्व उज्जयिनी नरेश विक्रमादित्य ने अयोध्या आकर वहाँ की उजाड़ हालत को देखकर न केवल दुःख प्रकट किया, वरन् नाज-जोखकर महाराज कुश द्वारा निर्मित और बाद में ध्वस्त हुए राम जन्म स्थान मंदिर को पुनर्निर्माण कराकर भव्य रूप प्रदान किया। विक्रमादित्य द्वारा निर्मित भव्य राम मन्दिर को ध्वस्त करने का प्रथम विजातीय प्रयास महमूद गजनवी के भांजे सैयद सालार महमूद गांजी द्वारा सन् 1033 में किया गया जिसे राजा सुहेलदेव ने बहराइच में खदेड़कर मार गिराया। अयोध्या की महिमा सुनकर फकीर जलाल शाह दरवेश और फकीर फजल अब्बास कलंदर अयोध्या पहुंचे जिनकी आंखों में राम का वह भव्य मन्दिर खटकने लगा।

सन् 1528 में विदेशी आक्रांता बाबर बिहार जाते समय अयोध्या में रुका था। उससे फकीर फजल अब्बास कलंदर ने राम मन्दिर को ध्वस्त कराकर उसी स्थान पर एक मस्जिद बनवाने का आग्रह किया। ‘लाइडेन मेमोरीज वाल्यूम ईसेजी (1877)’ के अनुसार बाबर ने थोड़ा ना-नुकुर के बाद अपने सेनापति मीर बांकी खां ताशकन्दी को मन्दिर ध्वस्त करके उस स्थान पर मस्जिद बनवाने का निर्देश दे दिया और चला गया। हिन्दुओं ने इसके विरोध में 17 दिन तक युध्द किया किन्तु मुगल सेना के हाथों मारे गये। मरने वालों में मन्दिर के पुजारी श्याम नन्दन भी थे। लखनऊ गजेटियर, अंक 36, पृष्ठ-3 के अनुसार राम मन्दिर को ध्वस्त करने के लिए मीर बांकी की फौजों ने तोप के गोले दागकर उसे गिराने में सफलता पायी थी। इसका स्पष्ट तात्पर्य यह हुआ कि श्रीराम का वह मन्दिर अत्यन्त सुदृढ़ था।

आइने अकबरी के अनुसार शाहंशाह अकबर को जब अपने दादा बाबर द्वारा राम मन्दिर को ध्वस्त करवाने की जानकारी हुई, तो उन्होंने अपने सलाहकारों (पार्षदों) राजा बीरबल और टोडरमल से सलाह लेकर यह फरमान जारी किया कि वहाँ एक चबूतरा और छोटा राम मन्दिर बनवा दिया जाए और हिन्दू रिआया की पूजा-अर्चना में कोई व्यवधान न डाला जाए। आलमगीर नामा के पृष्ठ-630 के अनुसार सन् 1680 में औरंगजेब की फौजों द्वारा वह छोटा मन्दिर और चबूतरा नष्ट कर दिया गया।

सुलतानपुर गजेटियर (पृष्ठ-36) और दिल्ली गवर्नमेन्ट गजेटियर (पृष्ठ-174) के अनुसार सन् 1857 में बाबा रामचरण दास और रायबरेली के मुस्लिम रहनुमा अमीर अली ने संयुक्त रूप से मुस्लिम भाइयों से अपील की कि बाबरी मस्जिद जो श्रीराम के पैदाइशी स्थल पर बनवायी गयी है, उसे नाइतफाकी दूर करने के लिए हिन्दुओं को सौंप दी जाय। उस समय अंग्रेजों का भारत पर कब्जा हो चुका था। उन्हें हिन्दू-मुस्लिम एकता का यह प्रयास रास नहीं आया और अंग्रेजों ने दोनों को बागी घोषित कर फांसी पर लटकवा दिया।

कहा जाता है कि सन् 1528 से 1914 तक राम जन्म भूमि के सम्बन्ध में हिन्दू-मुसलमानों के बीच 76 बार संघर्ष हुए जिसमें साढ़े तीन लाख राम भक्ताेंं को अपना बलिदान देना पड़ा। इस सम्बन्ध में 17 जुलाई, 1937 के नवजीवन, लखनऊ के अंक में महात्मा गांधी ने निम्नलिखित अपील प्रकाशित करायी थी ः-

”मुस्लिम बादशाहों ने अनेक मन्दिरों को तोड़ा लूटा और फिर उन्हीं स्थानों पर मस्जिदें बनवाईं। ऐसी बनाई गईं मस्जिदें गुलामी के चिह्र हैं। इन गुलामी के चिह्रों को हटा दिया जाय। मुसलमानों को चाहिए कि वे ऐसे सब स्थानों को हिन्दू समाज को खुशी-खुशी वापस कर दें। हिन्दुओं को भी चाहिए कि यदि मुसलमानों का कोई पूजाघर उनके कब्जे में है, तो वह भी खुशदिली के साथ मुसलमानों को वापस कर दें। दोनों तरफ से ऐसा हो जाने से देश में आपसी सच्ची एकता स्थापित होगी।”

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के प्रति श्रध्दा व्यक्त करने वाले उनके अनुयायियों को उनकी उक्त अपील पर अब गंभीरतापूर्वक सोच- विचार करना चाहिए। निश्चय ही महात्मा गाँधी ने देश में सदभावनापूर्ण वातावरण बनाने के लिए उक्त अपील जारी की थी।

भारत की स्वतंत्रता के तत्काल बाद कांग्रेस के कुछ मूर्धन्य देश भक्त राजनेताओं (जिनमें सरदार बल्लभ भाई पटेल, डॉ. राजेन्द्र प्रसाद एवं कन्हैयालाल मणिक लाल मुंशी आदि प्रमुख थे) ने मुस्लिम आक्रान्ता महमूद गजनवी द्वारा ध्वस्त किये गये गुजरात के सोमनाथ मन्दिर का जीर्णोध्दार करके भव्य मन्दिर निर्माण के संकल्प व्यक्त किया। प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु इससे सहमत नहीं थे किन्तु उनकी सहमति न होने के बावजूद प्रमुख राजनेताओं ने अपना संकल्प पूर्ण किया। इसी से प्रेरित होकर अयोध्या में 1528 में निर्मित बाबरी मस्जिद के प्रांगण में 22-23 दिसम्बर, 1949 को अर्ध्दरात्रि के समय कुछ संत महात्माओं द्वारा राम लला की मूर्तियां रखवाकर घंटा घड़ियाल के साथ पूजा-अर्चना शुरू की दी गयी। इस संबंध में स्मरणीय है कि तब तक जनसंघ या भाजपा और विश्व हिन्दू परिषद का जन्म भी नहीं हुआ था। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जरूर था जो महात्मा गांधी की हत्या के काल्पनिक आरोप में 4 फरवरी, 1948 से जुलाई, 1949 तक प्रतिबंधित था। अतः उसकी भी शक्ति शिथिल थी। मजे की बात यह है कि उस समय केन्द्र और राज्य दोनों स्थानों पर कांग्र्रेस का शासन था और दोनों सरकारों द्वारा 22-23, दिसम्बर 1949 को 1528 में बनी बाबरी मस्जिद के राम मन्दिर में रुपान्तरित हो जाने पर कोई आपत्ति नहीं की और प्रकट रूप से कोई कदम भी नहीं उठाया।

यह तथ्य निर्विवाद है कि 22-23 दिसम्बर,1949 को उस विवादित स्थल के राम मन्दिर में रुपान्तरित हो जाने के तथ्य का कांग्रेस द्वारा मौन समर्थन किया गया और न्यायपालिका में दायर वाद में भी यथास्थिति बने रहने दी गयी। राम मन्दिर निर्माण के लिए शिलान्यास का कार्यक्रम नवम्बर, 1989 में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी की सहमति से उनके गृहमंत्री सरदार बूटा सिंह की उपस्थिति में संपन्न कराया गया था। इसके स्पष्ट निहितार्थ तो यही होते हैं कि कांग्रेस भी राम मन्दिर निर्माण की समर्थक है। एक मुस्लिम राजनेता सैयद शहाबुद्दीन ने यह खुली घोषणा की थी यदि यह सिध्द हो जाय कि किसी मन्दिर को तोड़कर मस्जिद बनवाई गयी थी, तो वे मुसलमान भाइयों को उस पर से अपना दावा छोड़ने का आग्रह करेंगे। मा. उच्च न्यायालय के सम्भावित निर्णय से इस रहस्य से भी परदा उठ जायेगा। अब वे अपनी घोषणा का पालन करें।

* लेखक समाजसेवी तथा पूर्व बिक्री कर अधिकारी हैं।

उठ चुकी है ‘आदर्श पत्रकारिता’ की अर्थी

-विशाल आनंद

”क्या वह प्रेस, जिसका व्यापारिक लाभ के लिए संचालन होता है और जिसका इस प्रकार नैतिक पतन हो जाता है, स्वतंत्र है? इसमें संदेह नहीं कि पत्रकार को जिंदा रहने और लिखने के लिए धन कमाना जरूरी है, किन्तु उसको धन कमाने के लिए ही जिंदा रहना और लिखना नहीं चाहिए। प्रेस की पहली स्वतंत्रता इसमें है कि व्यापार से उसका छुटकारा हो। जो संपादक या स्वामी प्रेस के पतन के लिए जिम्मेदार है और जो उसको अर्थ का दास बना देता है, दण्ड पाने के योग्य है और इस आरंभिक दासता के लिए दण्ड वह बाह्य दासता है, जिसे प्रेस का नियंत्रण कहते हैं अथवा कदाचित उसका जिंदा रहना ही उसका दण्ड है।” -कार्ल मार्क्‍स: ”अर्ली राइटिंग्स” पृष्ठ 40

कार्ल मार्क्‍स की इस बात का हवाला मैं इसलिए दे रहा हूं क्योंकि आज पत्रकारिता को उसी दिशा में घसीटकर ले जाया जा रहा है। दूसरा सच यह भी है कि ”पत्रकारिता व्यवसायिक घरानों की गुलाम हो गई है।” यह बदलाव पिछले दो दशक से देखने को मिल रहा है। बदलाव के साथ साधन-संसाधन भी बदले हैं और संपादकों की सोच भी बदली है। सामाजिक सरोकारों से जो रिश्ता समाचार पत्र का हुआ करता था, अब वो आहिस्ता-आहिस्ता सुविधा संपन्न-समृध्द समाज से प्रगाढ़ हो चुका है। यही वजह है आम आदमी की आवाज पन्ने के किसी कोने में सिंगल कॉलम या दो चार लाइनों में सिमट कर रह जाती है और ‘ऐश्वर्या को सर्दी-जुकाम’ हो जाने की खबर पहले पन्ने पर पहुंच जाती है। हालांकि कुछ एक अखबारों-न्यूज-चैनलों को छोड़ अधिकांश अखबारों और चैनलों ने ‘आदर्श पत्रकारिता’ की अर्थी उठा दी है। या यू कहें कि निजी और व्यापारिक हितों की खातिर पत्रकारिता को पूंजी पतियों ने अपनी ‘रखैल’ बना लिया है। जिससे हर रोज जबरर्दस्ती और सामूहिक तौर पर बलात्कार किया जा रहा है। ‘अभिव्यक्ति की आजादी’ के बहाने पत्रकारिता में अवैध घुसपैठ भी हो चुकी है और लगातार हो रही है। यह अवैध घुसपैठ पत्रकारिता के लिए आत्मघाती है, यह उतनी ही खतरनाक और घातक साबित होगी, जितनी भारत में सीमापर से घुसपैठ और भीतर का नक्सलवाद। पत्रकारिता की दुनिया का एक मुहावरा ‘पहाड़े’ की तरह इन अवैध घुसपैठियों ने रट लिया है कि ‘मीडिया लोकतंत्र का चौथा स्तंभ है’। इस गुमान में, इस अभियान में चौथा स्तम्भ भी आज बाकी तीन स्तम्भों की तरह खोखला, जर्जर गिराऊ हालत में है। वजह साफ है पत्रकारिता की पवित्रता को दिनों-दिन मैला किया जा रहा है। मैला करने वाले वे चेहरे हैं जो अखबार या चैनल को धंधा समझकर खोले हैं। गैरपेशेवर लोगों ने आज पूंजी लगाकर मीडिया की दुकानें तो खोल ली पर ‘पत्र’ की सुरक्षा, ‘पत्रकार’ का सम्मान और ‘पत्रकारिता’ के सिध्दांत को खास तवज्जो नही दी। नतीजतन हाल ही में देश की पत्रकारिता के आदर्श चेहरे कहे जाने वाली शाख्सियतों के साथ न्यूज चैनलों के स्वामियों की बदसलूकी जगजाहिर है। मैं मानता हूं बाजारवाद के इस दौर में प्रतियोगी पत्रकारिता का दबाव है और उसके साथ तालमेल बनाना जरूरी है। बावजूद इसके पत्रकारिता में बाजारवाद तो शामिल किया जा सकता है, मगर पत्रकारिता की मूल आत्मा को व्यवसायी नहीं बनाया जा सकता।… पर ऐसा है नहीं। आज पत्रकारिता पूरी तरह धंधेबाज हो चुकी है। धंधा चोखा है सो हर कोई इस धंधे में हाथ आजमाना चाहता है क्योंकि ‘सूचना प्रसारण मंत्रालय’ की ‘कृपा’ से और ‘रजिस्ट्रार न्यूजपेपर ऑफ इण्डिया’ आरएनआई के ‘खुले दरबार’ से कोई भी खाली हाथ नहीं लौटता। वहां जो भी जाता है अपनी झोली में अखबार या चैनल खोलने का रजिस्टर्ड प्रमाण-पत्र ले आता है। मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ जब पिछली लोकसभा सत्र के दौरान केंद्रीय सूचना एवं प्रसारण राज्यमंत्री मोहन जटुआ ने एक लिखित सवाल के जवाब में बताया कि देश में तकरीबन 74,000 समाचार पत्र आरएनआई में रजिस्टर्ड हैं। इसमें सबसे ज्यादा रजिस्टर्ड यूपी से-11789, और उसके बाद दिल्ली, फिर महाराष्ट्र से पंजीकृत हैं। अब जरा सोचिए 74.000 समाचार पत्रों में वास्तविक कितने अखबार अस्तित्व में हैं और कितने बंद फाइलों में चल रहे हैं। दरअसल, ‘आरएनआई’ की निगरानी कमेटी भी कहां तक निगरानी कर पाएगी। 74,000 अखबार कोई कम नहीं होते। यह सभी जानते हैं कि 65 फीसदी अखबार न तो अस्तित्व में हैं, नाही वो नियमित प्रकाशित होते हैं और नाहीं वो अखबारी कायदे-कानूनों की परवाह करते हैं। ‘डीएवीपी’ के सौजन्य से विशेष मौकों पर जारी होने वाले विज्ञापनों को डकारने के लिए 65 फीसदी अखबार कब्र में से अचानक जिंदा हो उठते हैं। ऐसे अखबारों की कतार खास मौकों पर देखी जा सकती है। जब यह सूरत-ए-हाल हो तो ‘पत्रकारिता की पतंग’ और उस पतंग की ‘डोर’ किन हाथों में है ? यह सैध्दांतिक, प्रायोगिक और प्रतियोगी पत्रकारिता के पैरोकारों को सोचना होगा। खासतौर से देश की पत्रकारिता के आदर्श चेहरों को लामबंद होकर ‘व्यवसायी माफियाओं’ के चंगुल से पत्रकारिता को मुक्त कराना होगा नहीं तो ‘आजाद देश’ में ‘अभिव्यक्ति की आजादी’ जंजीरों में जकड़ी रहेगी।