भारत में आम तौर पर कोई दुर्घटना होने पर लोग पुलिस में प्राथमिकी (एफ़आईआर) दर्ज कराते वक्त ड़रते हैं। ज्यादातर लोगों को मालूम ही नहीं होता कि प्राथमिकी कैसे दर्ज करवाई जाए। याद रखें किसी दुर्घटना के होने पर एफ़आईआर दर्ज कराना हर नागरिक का कर्तव्य है।
-आप किसी भी पुलिस स्टेशन पर एफ़आईआर दर्ज करवा सकते हैं। पुलिस अधिकारी की यह डयूटी होती है कि वह दुर्घटना के निकटतम पुलिस स्टेशन पर प्राथमिकी भेजें।
-एफ़आईआर हमेशा लिखित में दर्ज करें। आख़िर में आपके हस्ताक्षर भी होने चाहिए।
-एफ़आईआर दर्ज करवाने के लिए चश्मदीद गवाह का होना ज़रूरी नहीं। दुर्घटना के बारे में जानने पर कोई भी एफ़आईआर दर्ज करवा सकता है।
– ज़रूरी नहीं कि आप अपराध करने वाले का नाम लिखवाएं। अगर आपको उसका नाम मालूम नहीं है तो उसका हुलिया ज़रूर बताएं, जिससे पुलिस को अपराधी को पकड़ने में सुविधा रहे।
-एफ़आईआर मे दुर्घटना का स्थान, तिथि और समय का लिखा जाना ज़रूरी है।
-दुर्घटना की जानकारी पूर्ण, लेकिन छोटी और आवश्यक होनी चाहिए। एफ़आईआर से पुलिस कार्यवाही शुरू करती है, इसलिए अनावश्यक बातें लिखवाकर उसे लंबा न करें।
-अनावश्यक बातें लिखवाने से हो सकता है कि अगर अदालत में पेशी कई वर्षों बाद हो तो आप बेकार की बातें भूल भी सकती हैं।
-एफ़आईआर दर्ज करवाने में समय की कोई समस्या नहीं है, लेकिन अपराध के बाद आप जितने जल्दी प्राथमिकी दर्ज करवाएं आपके लिए अच्छा है।
-किसी भी पुलिस अधिकारी के लिए एफ़आईआर लिखने से मना करना ग़ैरक़ानूनी है। ऐसी हालत में पुलिस अधीक्षक से शिकायत करनी चाहिए।
-आमतौर पर एफ़आईआर दर्ज करते समय पुलिस स्थानीय भाषा का इस्तेमाल करती है। अगर आप स्थानीय भाषा नहीं जानते हैं तो किसी अन्य व्यक्ति की मदद ले सकते हैं।
-एफ़आईआर पर तब तक हस्ताक्षर न करें जब तक कि आप उसमें लिखे तथ्यों को पढ़कर संतुष्ट न हो जाएं।
-एफ़आईआर की एक कॉपी अपने साथ रख सकती हैं। अगर आपके पास कॉपी न हो तो मुमकिन है कि आपकी शिकायत पर ध्या नही न दिया जाए और आप कुछ न कर सकें।
-दुर्घटना की जानकारी आप पुलिस को फ़ोन पर भी दे सकती हैं। ऐसे में पुलिस आपका नाम, आयु, पता एवं फ़ोन नं. की जानकारी अपने रिकॉर्ड के लिए ले लेती है। (स्टार न्यूज़ एजेंसी)
दैनिक ‘इंडियन एक्सप्रेस’ के पूर्व प्रधान सम्पादक, पूर्व केन्द्रीय मंत्री तथा प्रतिष्ठित लेखक श्री अरुण शौरी अपने निर्भीक विचारों के लिए जाते हैं। नवम्बर-दिसम्बर 1992 में अयोध्या में श्रीराममन्दिर निर्माण के लिये कार-सेवा शुरू होनेवाली थी। उसके पहले लिखे गये इस लेख में श्री शौरी ने तत्कालीन परिस्थितियों और सम्भावित परिणामों का सटीक विश्लेषण किया है। यह लेख हम यहां प्रस्तुत कर रहे हैं-
एक- यदि हम अधिक पीछे न जायें तो जून 1975 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने श्रीमती गांधी को चुनाव में भ्रष्ट आचरण का दोषी पाकर छह सालों के लिए चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य ठहरा दिया था।
इसके खिलाफ प्रदर्शन करवाये गये। जज का पुतला जलाया गया। श्रीमती गांधी ने सर्वोच्च न्यायालय में फैसले के खिलाफ अपील की। उनके वकील ने न्यायालय से कहा,
‘’सारा देश उनके (श्रीमती गांधी के) साथ है। उच्च न्यायालय के निर्णय पर ‘स्टे’ नहीं दिया गया तो इसके गंभीर परिणाम होंगे।‘’
सर्वोच्च न्यायालय ने सशर्त ‘स्टे’ दिया। देश में आपात स्थिति लागू कर दी गई, हजारों लोगों को जेलों में बंद कर दिया गया। चुनाव-कानूनों में इस प्रकार परिवर्तन किया गया कि जिन मुद्दों पर श्रीमती गांधी को भ्रष्ट-आचरण का दोषी पाया गया था वे आपत्तिजनक नहीं माने गये, वह भी पूर्व-प्रभाव के साथ। कहा गया कि तकनीकी कारणों से जनादेश का उल्लंघन नहीं किया जा सकता। प्रगतिशील लोगों ने जय-जयकार की, अर्जुन सिंह तथा शंकरराव चह्वाण ने सबसे अधिक।
दो- कई वर्षों की मुकदमेबाजी तथा नीचे के न्यायालयों के कई आदेशों के बाद आखिरकार 1983 में सर्वोच्च न्यायालय ने आदेश दिया कि वाराणसी में शिया-कब्रगाह में सुन्नियों की दो कब्रें हटा दी जायें। उत्तर प्रदेश के सुन्नियों ने इस निर्णय पर बवाल खड़ा कर दिया। उत्तर प्रदेश की सरकार ने कहा कि न्यायालय का आदेश लागू करवाने पर राज्य की शांति, व्यवस्था को खतरा पैदा हो जायेगा। सर्वोच्च न्यायालय ने अपने ही आदेश के कार्यन्वयन पर दस साल की रोक लगा दी।
संविधान के किसी हिमायती ने जबान नहीं खोली।
तीन- 1986 में सर्वोच्च न्यायालय ने घोषित किया कि, जिस मुस्लिम पति ने चालीस साल के बाद अपनी लाचार और बूढ़ी पत्नी को छोड़ दिया है, उसे पत्नी को गुजारा भत्ता देना चाहिये। इसके खिलाफ भावनाएँ भड़काई गईं। सरकार ने डर कर संविधान इस प्रकार बदल दिया कि न्यायालय का फैसला प्रभावहीन हो गया।
”ऐसा नहीं करते तो मुसलमान हथियार उठा लेते”, राजीव भक्तों ने कहा। सेकुलरवादियों ने वाह-वाह की, अर्जुनसिंह, च.ाण ने सर्वाधिक उत्साह के साथ की।
चार-अक्तूबर 1990 में जब वी.पी.सिंह ने मण्डल को उछाला तो उनसे पूछा गया कि यदि न्यायालयों ने आरक्षण-वृद्धि पर रोक लगा दी तो क्या होगा? उन्होंने घोषणा की- हम इस बाधा को हटा देंगे। ‘प्रगतिशील’ लोगों ने उनकी पीठ ठोकी।
पांच- 1991 में सर्वोच्च न्यायालय ने कावेरी जल विवाद पर अपना फैसला सुनाया-
”न्यायाधिकरण के आदेश मानने जरूरी हैं” सरकार ने आदेश लागू नहीं करवाये। ”कर्नाटक जल उठेगा”, सबको यह समझाया गया।
छह- 22 जुलाई 1992 को जब विश्व हिन्दू परिषद की कार-सेवा हर किसी के गुस्से का निशाना बनी हुई थी तो भाजपा के एक सदस्य ने राज्यसभा में पूछा कि रेल विभाग की कितनी जमीन पर लोगों ने अवैध कब्जा जमाया हुआ है? रेल राज्य मंत्री ने स्वीकार किया कि 17 हजार एकड़ भूमि पर अवैध कब्जा है तथा न्यायालयों के आदेशों के बावजूद यह जमीन छुड़ाई नहीं जा सकी है क्योंकि गैरकानूनी ढंग से हड़पी गई जमीन को खाली कराने से शांति भंग होने का खतरा उत्पन्न हो जायेगा।
ऐसी अन्य अनेक घटनाएं हैं जिनकी सूची भाजपा ने जारी की है। इनमें जयपुर के ऐतिहासिक बाजारों में अवैध निर्माण को हटाने के न्यायालय के आदेशों से लेकर कलकत्ता उच्च न्यायालय के एक अवैध मस्जिद को नष्ट करने के आदेशों तक की सूची है, जिनकी अनुपालना शांति भंग होने की आशंका से नहीं की गई। बंगाल की अवैध मस्जिद को तो इसके उलट नियमित कर दिया गया।
नतीजे साफ दिखते हैं
इनका पहला सबक है, कि सरकार और कानून एक खोखला मायाजाल है। जब शासक वर्ग श्रीमती गाँधी की तरह अपने स्वार्थों के लिये कानून को बदल देता है, जब न्यायालय आपात-स्थिति में दिए गये निर्णयों की तरह शासकों के भय से खुद कानून की हत्या कर देते हैं, जब सरकार शाहबानों मामले की तरह एक वर्ग के भय से घुटने टेक देती है, जब सरकार आतंकवादियों की चुनौती का सामना करने में कमजोर साबित होती है तो दूसरे भी यह नतीजा निकालते हैं, कि सरकार को झुकाया जा सकता है- झुकाया जाना चाहिये, कि न्याय और कानून भी ताकतवर के कहे अनुसार चलते हैं।
दूसरा सबक और भी स्पष्ट है कि मुझे दुख है कि न्यायालय इसके लिए और अधिक जिम्मेदार हैं। मामले को निपटाने के स्थान पर अदालतें विवादों को कानूनी पेचीदगियों में फँसा देती है। ऐसी स्थिति में लोग यह मानने को मजबूर हो जाते हैं, कि न्यायालय मामलों के प्रति गम्भीर नहीं है। न्यायालयों के भरोसे रह जाने पर वर्षों तक कुछ नहीं होगा। चालीस साल से अयोध्या का मसला न्यायालय में पड़ा है। सुन्नी-वक्फ-बोर्ड का मुकदमा समयावधि में न होने की अपील दो साल से सर्वोच्च न्यायालय में लम्बित है। गत अक्तूबर-नवम्बर में उ.प्र. सरकार के भूमि अधिग्रहण को न्यायालय में चुनौती दी गई तो कहा गया कि दिसम्बर अंत तक निर्णय हो जायेगा। अभी तक उसकी सुनवाई ही शुरू नहीं हुई है। और अब जब वि.हि.प. ने कार-सेवा आरम्भ कर दी तो सरकार वादा करती है कि वह न्यायालयों को तीन महीने में फैसला देने को कहेगी। सर्वोच्च न्यायालय कहता है, कि कार-सेवा रुकते ही विशेष पीठ में रोजाना सुनवाई शुरु हो जायेगी, अयोध्या से सम्बन्धित सारे मामले सुप्रीम कोर्ट में स्थानांतरित कर लिये जायेंगे।
साफ है कि जिन्हें अखबार वाले ‘कट्टरपंथी’ कहते हैं- इस नतीजे पर पहुँचे हैं कि, सामान्य निवेदनों पर जो न्यायालय और सरकार कान नहीं देते वे एक धक्के में दो सप्ताह में ही ध्यान से बात सुनने को तैयार हो जाते हैं। यह सबक कोई अच्छा नहीं है पर हमारी सरकार और न्यायालयों ने ही यह सबक सिखाया है।
‘मीडिया’ का दोमुंहापन
तीसरा सबक ‘मीडिया’ के लिये है, हालांकि यह स्पष्ट है कि हमारे समाचार जगत ने यह सबक अभी नहीं सीखा है। जहाँ मुस्लिम और सिख साम्प्रदायिकता ने सरकार से मनमानी करवाई है, हमारे समाचार-पत्रों ने दोहरे-मापदण्ड, कुछ मामलों में तो दोगलेपन का सहारा लिया है।
जम्मू के डेढ़ लाख शरणार्थियों की अनदेखी इसका सबसे बड़ा प्रमाण है। आडवानी जी ने सवाल किया, ”यदि वे मुसलमान होते तो क्या समाचार-पत्र और मानवाधिकार संगठन उनको इस तरह नजर अन्दाज करते?”
अयोध्या मामले में भी अखबारों का यही रुख है। किसी अखबार ने यह नहीं लिखा, कि मध्य-पूर्व के देशों में सड़कें चौड़ी करने जैसे मामूली कारणों से सैंकड़ों मस्जिदें गिरा दी गई हैं।
किसी अखबार ने नहीं लिखा कि सऊदी अरब की सरकार ने सामान्य नहीं बल्कि पैगम्बर के साथियों की कब्रों और मकबरों तक को ध्वस्त किया है।
जब यह दिखने लगा कि वि.हि.प. द्वारा प्रस्तुत साक्ष्य वजनी हैं तो उनको अनदेखा किया गया। बाबरी कमेटी के प्रतिनिधि जब सरकार के आमंत्रण पर बुलाई गई मीटिंग (श्री चन्द्रशेखर के प्रधानमंत्रित्व के समय) में नहीं आये तो किसी अखबार ने चूं तक नहीं की। यदि वि.हि.प. के लोग नहीं आये होते तो क्या ऐसा ही होता? इस दोगले-पन ने भी हिन्दुओं का गुस्सा उतना ही भड़काया है जितना सरकार के सिख और मुस्लिम साम्प्रदायिकता के सामने घुटने टेकने ने।
पक्षपात की हद
यह रुका नहीं है। राम जन्मभूमि पर भूमि समतलीकरण के समय कुछ मन्दिरों के गिराये जाने पर अखबारों ने भी तथा वी.पी.सिंह और अर्जुन सिंह ने भी खूब हो-हल्ला किया। चार साल पहले स्वर्ण-मन्दिर की सुरक्षा और सुन्दरता के लिये आस-पास की दुकानों के साथ मन्दिरों को भी ढहाया गया, तो किसी ने आवाज उठाई?
हाल ही की घटनाओं को लें एक दिन समाचार छपा कि, ‘श्री सिंहल का कार-सेवकों को अयोध्या पहुँचने का आह्वान बेअसर रहा’, दूसरे ही दिन अखबारों ने लिखा कि कार-सेवकों की भीड़ के कारण ढांचे को खतरा पैदा हो गया है। एक दिन संत तथा वि.हि.प. कार-सेवा की अपनी जिद पर अड़े बताये गये, दूसरे दिन प्रधानमंत्री से बात-चीत के बाद कार-सेवा बन्द करने को कदम पीछे हटाना माना गया।
पक्षपात का सबसे बड़ा उदाहरण नवीनतम पुरातत्वीय खोजों पर चुप्पी का आया। पहले तो कहा गया, कहाँ है इस बात का प्रमाण कि यहाँ पहले मन्दिर था? जब दस साल पहले की गई खुदाई के निष्कर्ष सामने आये और उनसे सिध्द हुआ कि राम जन्मभूमि पर पहले मन्दिर था तो अखबारों ने पुरातत्व को ही नकार दिया। एक कदम आगे जाकर उन्होंने दुनियाँ के प्रमुख पुरातत्वविदों में से एक तथा भारत के पूर्व महानिदेशक को बदनाम करने की कोशिश की।
अभी हुई खुदाई में और प्रमाण मिले हैं जो विवाद की दृष्टि से अत्यधिक महत्वपूर्ण हैं। कितने अखबारों ने इसका विस्तृत विवरण प्रकाशित किया? जब कि, देश के दो प्रमुख पुरातत्वविदों ने कहा, कि ये प्रमाण वहाँ मन्दिर होना सिद्ध करते हैं।
नजीता स्पष्ट है, ये दोहरे मापदण्ड यदि जारी रहते हैं तो हिन्दू इन अखबारों की परवाह करना और भी कम कर देगा।
इस दोगलेपन तथा साम्प्रदायिकता और आतंकवाद के सामने घुटने-टेकू सरकारी नीति के कारण हिन्दू भावनाएँ जितनी उग्र हो गई है उनको कम समझना जबर्दस्त भूल होगी। संदेश साफ है, ”यदि आप शाहबानों के मामले में सरकार से समर्पण करा सकते हैं तो हम अयोध्या के मामले में ऐसा करेंगे। यदि आप 10 फीसदी का वोट बैंक बना रहे हैं तो हम 80 प्रतिशात लोगों का वोट-बैंक बनायेंगे।”
शठे शाठ्यम समाचरेत्
एक नई बात और हुई है। जब विहिप से यह प्रश्न किया गया कि वे राम मन्दिर के सम्बन्ध में कहते कुछ हैं और करते कुछ हैं, तो जवाब मिला- जिस तरह की अदालत, मीडिया और सरकार आज है, वे हमें सीधे तरीके से काम नहीं करने देंगे इसलिये हमने लोकमान्य तिलक की ”शठै शाठ्यम् समाचरेत्” की नीति अपनाई है। हालात जैसे चल रहे हैं उनमें कोई बदल नहीं हुआ तो हिन्दू तिलक महाराज के इस सिध्दान्त और छत्रपति शिवाजी महाराज की नीति पर चल पड़ेंगे।
कुछ आलोचक कहते हैं कि ”किन्तु इसका मजहब से कोई सम्बन्ध नहीं है।” उनको यह अनुमान नहीं कि वे कितना सही कह रहे हैं। अयोध्या का राम मन्दिर आन्दोलन सात सौ साल पहले हुए एक दुष्कर्म का विरोध नहीं है। यह तो गत सत्तर सालों की राजनीति के विरोध का प्रतीक है, विशेष कर पिछले दस सालों की तुष्टीकरण, दलाली, दोमुंहेपन और वोट बैंक की राजनीति का। इसलिये अयोध्या विवाद का हल किसी ‘फारमूले’ में नहीं है। यदि किसी हल पर सहमति हो भी जाती है तथा राजनीति का स्वरूप ऐसा ही बना रहता है तो अयोध्या से भी बड़ा तथा उग्र आन्दोलन उठ खड़ा होगा। अत: इस राजनीति में परिवर्तन आना चाहिये। यदि प्रधानमंत्री संतों को दिए अपने वचन पर कायम रहते हैं तो परिस्थितियों में सुखद बदलाव आयेगा।
यदि सरकार फिर अपने वादे से मुकर जाती है, सर्वोच्च न्यायालय के सामने निर्णय के लिये उन मुद्दों को नहीं रखा जाता जिन पर संतों से बातचीत में सहमति हुई थी या अदालत फिर टाल-मटोल का सहारा लेती है, तो संत ही नहीं पूरा हिन्दू समाज समझ लेगा कि उनको फिर धोखा दिया गया और फिर क्या होगा कहा नहीं जा सकता।
बाबरी मस्जिद प्रकरण के दौरान आस्था पर सांप्रदायिक विचारधारा ने ज्यादा जोर दिया है तथा तर्क, कानून, वाद-विवाद इन सबसे परे माना है। पहली बात तो यह है कि अगर यह ‘आस्था’ एवं ‘भावना’ का मसला है तो इसे इतिहास से नहीं जोड़ा जाए। न ‘स्थापत्य’ से जोड़ा जाए, न हिंदू से जोड़ा जाए, न ही इसे धर्मनिरपेक्षता से जोड़ा जाना चाहिए। ‘आस्था’ सिर्फ ‘आस्था’ है, वह न धर्म है, न इतिहास है, न ईश्वर है, न संस्कृति है। न वह मात्र राम ही है वह सिर्फ आस्था है। ‘आस्था’ एवं ‘विश्वास’ के आधार पर आधुनिक युग की किसी भी समस्या का समाधान संभव नहीं है और अगर ‘आस्था’ तर्कातीत है तो फिर मिल-बैठकर समाधान की संभावना कैसी ? तथा कोशिशें क्यों ?
जब ‘आस्था’ सर्वोपरि है तो प्रत्येक व्यक्ति की ‘आस्था’ सर्वोपरि है। किसी एक व्यक्ति की या संगठन या विचारधारा की ‘आस्था’ सर्वोपरि नहीं हो सकती जो कोई यह माने कि उसी की ‘आस्था’ सर्वश्रेष्ठ एवं सर्वोपरि है, अगर ऐसा होता है तो वह मुसोलिनी एवं हिटलर के शब्दों में ही ‘आस्था’ दोहरा रहा होता है। हिंदू सांप्रदायिक संगठनों ने अपनी ‘आस्था’ को सबसे बड़ी ‘निर्णायक’ वस्तु माना है, तथा रेखांकित किया है। इसकी तुलना मुसोलिनी की सबसे निर्णायक वस्तु आस्था से ही की जा सकती है।
हिंदुत्ववादी संगठन भी आस्था के सहारे रामराज्य रूपी आध्यात्मिक राज्य का प्रत्येक नागरिक को सदस्य बनाना चाहते हैं। मुसोलिनी भी ‘आस्था’ के सहारे ‘आध्यात्मिक समाज का जागरूक सदस्य’ बनाना चाहता था। (वही, पृ.9)
हिंदुत्ववादी संगठनों जिनमें आरएसएस की केंद्रीय भूमिका है इसके सांप्रदायिक प्रचार अभियान की दिशा फासिस्ट संगठनों के नक्शेकदम पर तैयार की गई है जिसका बाबरी मस्जिद प्रकरण के दौरान जमकर प्रचार किया गया।
हिटलर की तर्ज पर ही आर्य श्रेष्ठता के सिद्धांत की तर्ज पर हिंदू श्रेष्ठता का नारा उछाला गया। यहूदी हनन की तरह मुस्लिम हनन एवं मुस्लिमों के प्रति घृणा को लक्ष्य रखा गया। विचारधारात्मक श्रेष्ठता के लिए धर्म में ही गहनतम अभिव्यक्ति देखी गई। हिटलर भी ऐसा ही सोचता था। हिटलर की ही तरह धर्म को सबसे ऊपर स्थान दिया गया।
अभिजनवाद की धारणा के आधार पर हिटलर ने एक नस्ल को दूसरी से घृणा करना सिखाया। हमारे यहां सांप्रदायिक संगठनों ने भी ऐसा ही प्रचार किया हिंदू सांप्रदायिक संगठनों ने इस दौरान भाषावार राज्यों के गठन का विरोध किया और नारी के प्रति फासिस्ट नजरिया होने के कारण उसे वर्ण व्यवस्था के तहत ही रहने-जीने की वकालत की। सांप्रदायिकता को इसी मायने में फासिस्ट विचारधारा के परिप्रेक्ष्य में रखा जाना चाहिए। राममंदिर निर्माण की योजना एवं आरएसएस के अभीप्सित लक्ष्य में अंतस्संबंध है, उसे भूलना नहीं चाहिए। मंदिर बनाना उसका अंतिम लक्ष्य नहीं है बल्कि अंतिम लक्ष्य हिंदू राष्ट्र के लिए राजसत्ता हासिल करना है।
इस समूची प्रक्रिया में कांग्रेस की भूमिका सबसे ज्यादा खतरनाक रही है। उसने निहित स्वार्थी नजरिए के कारण सबसे पहले शाहबानो प्रकरण में मुस्लिम सांप्रदायिकता के आगे घुटने टेके। बाद में हिंदू सांप्रदायिक शक्तियों के आगे शिलान्यास के प्रश्न पर आत्मसमर्पण किया। कांग्रेस के ढुलमुल नेतृत्व के कारण ही पिछले कई दशकों में सांप्रदायिक शक्तियों का एक नया उभार आया है जिसमें भाजपा एक उभरती आक्रामक हिंदू सांप्रदायिक विचारधारा को अभिव्यक्ति दे रही है तो महाराष्ट्र में शिवसेना, उत्तर-पूर्वी राज्यों एवं जम्मू-कश्मीर में भी सांप्रदायिक तथा पृथकतावादी ताकतें शक्तिशाली होकर उभरी हैं।
बाबरी मस्जिद प्रकरण पर उन तमाम संगठनों का यकायक सक्रिय एवं जिंदा संगठन के रूप में रूपांतरित हो जाना, इस बात का ही द्योतक है कि कांग्रेस ने सन् 80 के बाद से नई रणनीति के तहत पिछड़ी सामाजिक शक्तियों को अपने साथ जोड़ने एवं प्रोत्साहित करने की जो प्रक्रिया शुरू की थी उसका तात्कालिक लाभ उसे जरूर मिला पर मूलत: सांप्रदायिक एवं पिछड़ी शक्तियां ही मजबूत हुई हैं।
कांग्रेस नेतृत्व ने सन 1977 में जो जनाधार खोया था, उसे पुन: पाने के लिए ऐसा किया गया था। इसका तात्कालिक तौर पर सन् 1980 एवं 1984 के चुनावों में उसे लाभ मिला, पर इस प्रक्रिया में सांप्रदायिक शक्तियां ज्यादा मजबूत हुईं और सांप्रदायिक विचारधारा का व्यापक विस्तार हुआ।
कांग्रेस का शाहबानो प्रकरण एवं शिलान्यास के समय यही लक्ष्य था कि वह इन दोनों मसलों पर हिंदू और मुस्लिम सांप्रदायिक तत्वों को संतुष्ट करके लोकसभा चुनाव में सफलता हासिल करना चाहती थी पर ऐसा हो नहीं पाया, अपितु इस प्रक्रिया में भाजपा सबसे ज्यादा सफलता हासिल करने में सफल रही।
भाजपा ने सन 1977-79 के संक्षिप्त जनता पार्टी शासन के दौरान राम जन्मस्थान के मुद्दे को नहीं उठाया, यहां तक कि 1986 में शाहबानो विवाद पर कांग्रेस के समर्पण से पूर्व उसने कभी इस सवाल को नहीं उठाया। पर, जब भाजपा ने देखा कि राष्ट्रीय मोर्चा सरकार का अनिश्चित समर्थन उसे उसके सामाजिक आधार से काट सकता है तो भाजपा विरोध में सक्रिय हो उठी। सामाजिक आधार खोने का खतरा प्रमुख कारण था, वरना अपने जनसंघ के दौर में कभी भाजपा ने यह मसला क्यों नहीं उठाया ?
एक बार तो वह उ.प्र. की संयुक्त सरकार की सदस्य भी थी। असल बात है कांग्रेस की रणनीति की, भाजपा उसका विकल्प बनकर उभरना चाहती थी। कांग्रेस का सांप्रदायिक शक्तियों के प्रति समर्पण भाव भाजपा को ज्यादा से ज्यादा आक्रामक बनाने में सक्रिय भूमिका अदा करता रहा है।
बाबरी मस्जिद प्रकरण का एक अन्य सिरा भी है वह है लालकृष्ण आडवाणी की भूमिका, चंद्रशेखर-राजीव गांधी की वी.पी.सिंह सरकार के पतन के बाद की भूमिका एवं 30अक्टूबर एवं 2 नवंबर 1990 की घटनाएं। इन सबकी संक्षेप में पड़ताल जरूरी है। भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी ने 12 सितंबर 1990 को नई दिल्ली में प्रेस कान्फ्रेंस में ‘रथयात्रा’ के कार्यक्रम की घोषणा की थी और ‘रथयात्रा’ को देश में 25 सितंबर से 30 अक्टूबर तक अयोध्या पहुंचना था। कान्फ्रेंस में आडवाणी ने कहा ‘रथयात्रा’ का उद्देश्य राम जन्मभूमि के सवाल पर भाजपा की नीति बताने एवं जन समर्थन जुटाना है। इसी में उन्होंने विश्व हिंदू परिषद् के द्वारा की जाने वाली कारसेवा का भी पूरा समर्थन किया। उन्होंने यह भी कहा कि अगर कारसेवा की इजाजत नहीं दी गई तो वहां ‘शांतिपूर्ण सत्याग्रह’ किया जाएगा।
‘रथयात्रा’ के कारण जगह-जगह सांप्रदायिक उन्माद पैदा हुआ और दंगे हुए जिनमें सैकड़ों निरपराध व्यक्ति मारे गए जिनका ‘रथयात्रा’ से कोई लेना-देना नहीं था, क्या ये मौतें आडवाणी की यात्रा का लक्ष्य स्पष्ट नहीं करतीं ?
आडवाणी ने यह भी कहा था ‘मंदिर बनाने की भावना के पीछे बदला लेने की भावना नहीं है!’ अगर ऐसा नहीं था तो फिर अधिकांश स्थानों पर मुसलमानों के खिलाफ नारे क्यों लगाए गए? क्यों निरपराध मुसलमानों पर हमले किए गए उनके जानो-माल का नुकसान किया (इस क्रम में हिंदू भी मारे गए)।
दूसरी बात यह है कि इतिहास की किसी भी गलती के लिए आज की जनता से चाहे वह हिंदू हो या मुसलमान से उत्तर औ समर्थन क्यों मांगा जा रहा है? आरएसएस के पूर्व सरसंघचालक स्व. बाला साहब देवरस ने 29 दिसंबर 1990 को कहा था कि मैं मुसलमानों से सीधा प्रश्न पूछता हूं कि क्या वे अतीत में ‘मंदिर को तोड़े जाने की स्वीकृति देते हैं’ अगर नहीं तो ‘वे क्या इस पर खेद व्यक्त करते हैं’ यानी कि जो मुसलमान इस प्रश्न का सीधा उत्तर ‘ना’ में दे? उसका भविष्य …? क्या होगा इस पर सोचा जा सकता है। मैं यहां एक प्रश्न पूछता हूं कि क्या आरएसएस के नेतागण हिंदू राजाओं के द्वारा मंदिर तोड़े जाने खासकर कल्हण की राजतरंगिणी में वर्णित राजा हर्ष द्वारा मंदिर तोड़े जाने की बात के लिए ‘हिंदुओं से सीधा प्रश्न करके उत्तर चाहेंगे?’ क्या वे ‘हिंदुओं से बौद्धों एवं जैनों के मंदिर तोड़े जाने का भी सीधा उत्तर लेने की हिमाकत कर सकते हैं?’ असल में, यह प्रश्न ही गलत है तथा सांप्रदायिक विद्वेष एवं फासिस्ट मानसिकता से ओतप्रोत है।
आडवाणी एवं आरएसएस के नेताओं ने इसी तरह के प्रश्नों को उछाला है और फासिस्ट दृष्टिकोण का प्रचार किया है। आडवाणी ने कहा था कि वे हिंदू सम्मान को पुनर्स्थापित करने के लिए रथयात्रा लेकर निकले हैं। 30 सितंबर को मुंबई में उन्हें 101 युवाओं के खून से भरे कलश भेंट किए गए थे। इन कलशों में बजरंग दल के युवाओं का खून भरा था। यहां यह पूछा जा सकता है कि ‘युवाओं के खूनी कलश’ क्या सांप्रदायिक सद्भाव के प्रतीक थे? या सांप्रदायिक एवं फासिस्ट विद्वेष के? आखिर बजरंग दल के ‘मरजीवडों’ को किस लिए तैयार किया गया? क्या उन्होंने राष्ट्रीय एकता में अवदान किया अथवा राष्ट्रीय सद्भाव में जहर घोला?
आडवाणी एवं अटल बिहारी वाजपेयी ने जो घोषणाएं ‘राम जन्मस्थान’ की वास्तविक जगह के बारे में की थीं, वह भी सोचने लायक हैं। अंग्रेजी दैनिक हिंदुस्तान टाइम्स के 18 मई 1989 के अंक में अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा था कि ‘उस वास्तविक जगह को रेखांकित करना मुश्किल है, जहां हजारों वर्ष पूर्व राम पैदा हुए थे,’ जबकि इन्हीं वाजपेयीजी ने 24 सितंबर 1990 को हिंदुस्तान टाइम्स से कहा कि ‘राम का एक ही जन्मस्थान’ है। यहां सोचा जाना चाहिए कि 18 मई 1989 तक कोई वास्तविक जगह नहीं थी, वह 24 सितंबर 1990 तक किस तरह और किस आधार पर जन्मस्थान की जगह खोज ली गई ? इसी तरह लालकृष्ण आडवाणी ने कहा कि ‘यह कोई साबित नहीं कर सकता कि वास्तविक जन्मस्थान की जगह कौन-सी है। पर यह ‘आस्था’ का मामला है जिसको सरकार नजरअंदाज नहीं कर सकती’ (द इंडिपेंडेंट 1 अक्टूबर 1990) यानी मामला आस्था का है, वास्तविक सच्चाई से उसका कोई संबंध नहीं है।
आडवाणी ने लगातार यह प्रचार किया कि बाबर हिंदू विरोधी था, हिंदू देवताओं की मूर्ति तोड़ता था, वगैरह-वगैरह। इस संदर्भ में स्पष्ट करने के लिए दस्तावेजों में ‘बाबर की वसीयत’ दी है, जो बाबर के हिंदू विरोधी होने का खंडन करती है। वे तर्क देते हैं कि ‘देश बाबर और राम में से किसी एक को चुन ले’। आडवाणी के इससे तर्क के बारे में पहली बात तो यह है कि इसमें से किसी एक को चुनने और छोड़ने का सवाल ही पैदा नहीं होता। बाबर राजा था, यह इतिहास का हिस्सा है। राम अवतारी पुरूष थे, वे सांस्कृतिक परंपरा के अंग हैं। अत: इन दोनों में तुलना ही गलत है। दूसरी बात यह कि हिंदुस्तान के मुसलमानों में आज कोई भी बाबर को अपना नेता नहीं मानता, आडवाणी स्पष्ट करें कि किस मुस्लिम नेता ने बाबर को अपना नायक कहा है ? अगर कहा भी है तो क्या उसे देश के सभी मुसलमान अपना ‘नायक’ कहते हैं ?
एक अन्य प्रश्न यह है कि आडवाणी हिंदुओं को एक ही देवता राम को मानने की बात क्यों उठा रहे हैं? क्या वे नहीं जानते कि भारतीय देवताओं में तैंतीस करोड़ देवता हैं, चुनना होगा तो इन सबमें से हिंदू कोई देवता चुनेंगे? सिर्फ एक ही देवता राम को ही क्यों मानें? आडवाणी कृत इस ‘एकेश्वरवाद’ का फासिज्म के ‘एक नायक’ के सिद्धांत से गहरा संबंध है।
हाल ही में जब पत्रकारों ने आडवाणी से पूछा कि वह कोई राष्ट्रीय संगोष्ठी मंदिर की ऐतिहासिकता प्रमाणित करने के लिए आयोजित क्यों नहीं करते? जिसमें समाजविज्ञान, पुरातत्त्व, साहित्य आदि के विद्वानों की व्यापकतम हिस्सेदारी हो तो उन्होंने कहा कि ऐसे सेमीनार तो होते रहे हैं। पत्रकारों ने जब उत्तर मांगा कि कहां हो रहे हैं? तो आडवाणीजी कन्नी काटने लगे। 16 दिसंबर 1990 के स्टेट्समैन अखबार की रिपोर्ट के मुताबिक आडवाणी ने कहा कि कुछ महीने पहले मैंने महत्वपूर्ण दस्तावेजों से युक्त एक पुस्तक जनता के लिए जारी की है जिसे बेल्जियम के स्कॉलर कोनार्ड इल्स्ट ने लिखा है। नाम है- राम जन्मभूमि वर्सेंज बाबरी मस्जिद। मैंने इस पुस्तक को कई बार गंभीरता से देखा-पढ़ा एवं आडवाणीजी के बयानों से मिलाने की कोशिश की तो मुझे जमीन आसमान का अंतर मिला।
आडवाणी इस पुस्तक को महत्वपूर्ण मानते हैं तथा बाबरी मस्जिद विवाद पर यह पुस्तक उनके पक्ष को पेश भी करती है, यह उनका बयान है। आइए, हम आडवाणी के दावे और पुस्तक के लेखक के दावे को देखें।
आडवाणी का मानना है कि राम का जन्म वहीं हुआ है जहां बाबरी मस्जिद है, राम मंदिर तोड़कर बाबर ने मस्जिद बनाई, अत: ‘राष्ट्रीय’ सम्मान के लिए मस्जिद की जगह मंदिर बनाया जाना चाहिए। बेल्यिजम के इस तथाकथित ‘स्कॉलर’ या विद्वान ने अपनी पुस्तक में बहुत सी बातें ऐसी लिखा हैं, जिनसे असहमत हुआ जा सकता है, यहां मैं समूची पुस्तक की समीक्षा के लंबे चक्कर में नहीं जा रहा हूं, सिर्फ लेखक का नजरिया समझाने के लिए एक-दो बातें रख रहा हूं। लेखक ने अपने बारे में कहा है कि वह ‘कैथोलिक पृष्ठभूमि’ से आता है पर उसने यह नहीं बताया कि आजकल उसकी पृष्ठभूमि या पक्षधरता क्या है? क्या इस प्रश्न की अनुपस्थिति महत्वपूर्ण नहीं है?
एक जमाने में आरएसएस के गुरू गोलवलकर ने बंच ऑफ पॉटस में हिंदुत्व के लिए तीन अंदरूनी खतरों का जिक्र किया था, ये थे-पहला मुसलमान, दूसरा ईसाई और तीसरा कम्युनिस्ट। क्या यह संयोग है कि बेल्जियम के विद्वान महाशय ने बाबरी मस्जिद वाली पुस्तक में लिखा है कि ‘हिंदू विरोधी प्रचारक हैं ईसाई, मुस्लिम और मार्क्सवादी’! क्या लेखक के दृष्टिकोण में और गोलवलकर के दृष्टिकोण में साम्य नहीं है? क्या इससे उसकी मौजूदा पृष्ठभूमि का अंदाजा नहीं लगता। खैर, चूंकि आडवाणी इस विद्वान की पुस्तक का समर्थन कर रहे हैं तो यह तो देखना होगा कि आडवाणी क्या पुस्तक की बातों का समर्थन करते हुए अपना फैसला बदलेंगे। बेल्जियम के विद्वान ने प्राचीन मार्गदर्शक अयोध्या माहात्म्य में राम मंदिर का जिक्र नहीं है- इस प्रश्न का उत्तर खोजते हुए लिखा है कि -‘यह बताया जा सकता है, पहली बात तो
यह कि अयोध्या माहात्म्य से संभवत: राम मंदिर का नाम लिखने से छूट गया हो, यह तो प्रत्यक्ष ही है। अपने इस प्रश्न का उत्तर खोजते हुए विद्वान लेखक ने इस बात को रेखांकित किया है कि ‘बाबर के किसी आदमी ने जन्मभूमि मंदिर’ नहीं तोड़ा। सवाल उठता है क्या आडवाणी अपने फैसले को वापस लेने को तैयार हैं? क्योंकि उनके द्वारा जारी पुस्तक उनके तर्क का समर्थन नहीं करती। इस पुस्तक में साफ तौर पर
विश्व हिंदू परिषद् के तर्कों से उस सिद्धांत की धज्जियां उड़ जाती हैं कि राम मंदिर तोड़कर बाबरी मस्जिद बनाई गई थी। चूंकि, आडवाणी इस पुस्तक पर भरोसा करते हैं, अत: वे इसके तथ्यों से भाग नहीं सकते। आडवाणी का मानना है कि बाबरी मस्जिद में 1936 से नमाज नहीं पढ़ी गई, बेल्जियम का विद्वान इस धारणा का भी खंडन करता है और कहता है कि ‘हो सकता है, नियमित नमाज न पढ़ी जाती हो, यदा-कदा पढ़ी जाती हो, पर 1936 से नमाज जरूर पढ़ी जाती थी।’ एक अन्य प्रश्न पर प्रकाश डालते हुए लेखक ने लिखा है कि ‘यह निश्चित है कि विहिप द्वारा ‘हिंदुत्व’ को राजनीतिक चेतना में रूपांतरित करने की कोशिश की जा रही है, उसे इसमें पर्याप्त सफलता भी मिली है। यह भी तय है कि राम जन्मभूमि का प्रचार अभियान इस लक्ष्य में सबसे प्रभावी औजार है, ‘विहिप’ अपने को सही साबित कर पाएगी: यह भविष्य तय करेगा, पर उसने कोई गलती नहीं की। हम हिंदू राष्ट्र बनाएंगे और इसकी शुरूआत 9 नवंबर 1989 से हो चुकी है।’ यानी कि आडवाणी के द्वारा बतलाए विद्वान महाशय का यह मानना है कि यह सिर्फ राम मंदिर बनाने का मसला नहीं है, बल्कि यह हिंदू राष्ट्र निर्माण की कोशिश का सचेत प्रयास है। क्या यह मानें कि आडवाणी अब इस पुस्तक से अपना संबंध विच्छेद करेंगे? या फिर बेल्जियम के विद्वान की मान्यताओं के आधार पर अपनी नीति बदलेंगे। असल में, बेल्जियम के लेखक की अनैतिहासिक एवं सांप्रदायिक दृष्टि होने के बावजूद बाबरी मस्जिद बनाने संबंधी धारणाएं विहिप एवं आडवाणी के लिए गले की हड्डी साबित हुई हैं। वह उस प्रचार की भी पोल खोलता है कि विहिप एवं भाजपा तो सिर्फ राम मंदिर बनाने के लिए संघर्ष कर रहें हैं। यह वह बिंदु है जहां पर आडवाणी अपने ही बताए विद्वान के कठघरे में खड़े हैं।
भोपाल। पत्रकार एवं मीडिया विश्वेषक संजय द्विवेदी की पुस्तक “मीडियाः नया दौर, नई चुनौतियां” का लोकार्पण समारोह 22 सितंबर, 2010 को अपराह्न 3.30 बजे भोपाल स्थित माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के सभागृह में आयोजित किया गया है।
कार्यक्रम के मुख्यअतिथि वरिष्ठ पत्रकार एवं सांसद प्रभात झा होंगे तथा कार्यक्रम की अध्यक्षता पत्रकारिता विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. बृजकिशोर कुठियाला करेंगे। आयोजन में इंडिया टीवी के कार्यकारी संपादक रविकांत मित्तल, विशिष्ट अतिथि होंगें। माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष संजय द्विवेदी की यह किताब यश पब्लिकेशन दिल्ली ने प्रकाशित की है, जिसमें आज के मीडिया पर खास विमर्श है।
पुस्तक परिचयः
पुस्तक का नामः मीडियाः नया दौर नई चुनौतियां
लेखकः संजय द्विवेदी
प्रकाशकः यश पब्लिकेशन्स, 1 / 10753 सुभाष पार्क, गली नंबर-3, नवीन शाहदरा, नीयर कीर्ति मंदिर, दिल्ली-110031, मूल्यः 150 रुपये मात्र
राजधानी दिल्ली में पिछले दिनों देश के सभी राज्यों के पुलिस महानिदेशकों के एक सम्मेलन में केंद्रीय गृह मंत्री पी. चिदंबरम ने देश में बढ़ रहे ‘भगवा आतंकवाद’ के खतरों के प्रति चिंता क्या व्यक्त कर दी कि मानो उन्होंने कोई बहुत बडा अपराध कर दिया हो। अतिवादी हिंदुत्व की राजनीति करने वाले नेताओं व संगठनों को गृह मंत्री द्वारा प्रयोग किया गया शब्द ‘सैफ़रॉन टेरोरिम’ अर्थात भगवा आतंकवाद बहुत बुरा लगा। इतना बुरा कि भारतीय जनता पार्टी ने संसद के दोनों सदनों में इस मुद्दे को उठाया तथा गृह मंत्री को खरी खोटी सुनाई। यहां यह बात काबिले ग़ौर है कि गृहमंत्री के भगवा आतंकवाद शब्द का विरोध वही शक्तियां कर रही थीं जो इस्लामी आतंकवाद तथा जेहादी आतंकवाद अथवा मुस्लिम आतंक जैसे शब्दों का प्रयोग ढोल पीट पीट कर करती हैं। परंतु इन्हीं लोगों को भगवा शब्द जोकि वास्तव में एक रंग विशेष को कहा जाता है, के साथ आतंकवाद का शब्द जोड़ने पर आपत्ति हुई। गोया इन दक्षिणपंथी शक्तियों ने भगवा रंग को अपने पक्ष में कॉपी राईट कर लिया हो।
बहरहाल शाश्वत सत्य तो यही है कि आतंकवाद, आतंकवाद ही होता है। न उसका किसी धर्म, संप्रदाय, जाति, वर्ग, वर्ण तथा रंग से कोई वास्ता होता है। न ही कोई संप्रदाय विशेष अपने अनुयाइयों को आतंकवाद के रास्ते पर चलने की प्रेरणा देता है। परंतु इन सब बातों को समझने-बूझने के बावजूद आज देश व दुनिया में इस्लामी आतंकवाद जैसे शब्द का बढ़-चढ़ कर इस्तेमाल किया जा रहा है। यहां तक कि मैं स्वयं अपने तमाम आलेखों में यह शब्द कई बार प्रयोग कर चुका हूं। सवाल यह है कि क्या इन शब्दों के प्रयोग करने मात्र से कोई समुदाय या धर्म आतंकी हो जाएगा? शायद हरगिज नहीं। परंतु इससे भी बड़ा सवाल यह जरूर उठता है कि आज दुनिया में किन परिस्थितियों के तहत इस्लामी आतंकवाद या जेहादी आतंकवाद जैसे शब्दों को उछाला जा रहा है। कौन सी तांकतें इन शब्दों के प्रचलित होने में अपना अहम योगदान दे रही हैं? मैं यह मानता हूं कि इस्लाम धर्म का विरोध करने में तथा इसकी बदनामी पर खुश होने में दिलचस्पी रखने वाले लोग ऐसे शब्दों का जानबूझ कर बार-बार प्रयोग करते हैं। परंतु मेरे जैसी सोच रखने वाला व्यक्ति इन इस्लाम विरोधी शक्तियों की इन कोशिशों का हरगिज बुरा नहीं मानता। मुझे तो उन बुनियादी कारणों पर नार डालनी होती है जिसके चलते इस्लामी आतंकवाद जैसे शब्द प्रचलन में आए। इस्लाम विरोधी ताकतों का इसमें क्या दोष। यह तो नीतिगत परिस्थितियां हैं जिसमें कि किसी भी दुश्मन को मौके क़ी तलाश होती है अर्थात् सबसे बड़ा दोषीवह जोकि ऐसा अवसर प्रदान करे।
तालिबान व अलकायदा जैसे आतंकी संगठन तथा इन संगठनों की विचारधारा का समर्थन करने वाली अतिवादी शक्तियां निश्चित रूप से देखने व सुनने में मुसलमान ही हैं। यह भी सच है कि इन संगठनों तथा इन जैसे और तमाम आतंकी संगठनों से जुड़े लोग स्वयं को सच्चा इस्लामपरस्त भी बताते हैं। ऐसे में यदि इनके द्वारा फैलाए जा रहे आतंकवाद को इस्लामी आतंकवाद का नाम मीडिया द्वारा अथवा इस्लामी विरोध की ताक में बैठी ताकतों द्वारा दिया जा रहा है तो इसमें मीडिया अथवा इस्लाम विरोधियों का दोष कम स्वयं उन तथाकथित मुसलमानों का अधिक है जो आतंकवाद जैसे बुनियादी इस्लाम विरोधी उसूलों पर चलते हुए भी स्वयं को इस्लाम परस्त तथा मुसलमान कहने से बाज नहीं आते।
यहां एक बार फिर इस्लामी इतिहास का वही उदाहरण दोहराने की जरूरत महसूस हो रही है जो मैं अपने आलेखों में प्राय: लिखता रहता हूं। अर्थात् 1400 वर्ष पूर्व की करबला की ऐतिहासिक घटना। एक ओर सीरियाई शासक याजीद जोकि स्वयं को मुसलमान भी कहता था, नमाजी भी बताता था तथा इस्लामी देश का शासक होने की तमन्ना भी रखता था। तो दूसरी ओर हजरत इमाम हुसैन अर्थात् इस्लाम के प्रर्वतक हजरत मोहम्मद के सगे नाती। करबला में याजीद की सेना ने हजरत इमाम हुसैन व उनके 72 परिजनों व साथियों को कत्ल कर दिया। इस घटना का सार यह है कि हजरत हुसैन ने क्रूर, दुष्ट, अधर्मी, दुश्चरित्र तथा एक अहंकारी तथाकथित मुस्लिम बादशाह याजीद को इस्लामी राष्ट्र का बादशाह स्वीकार करने के बजाए उसके हाथों स्वयं शहीद होकर हजरत मोहम्मद के उस इस्लाम को जीवित रखा जो आज दुनिया का सबसे बड़ा धर्म माना जाता है। अब यहां इस्लाम धर्म के आलोचकों तथा विरोधियों को स्वयं यह फैसला करना चाहिए कि करबला में वास्तविक इस्लाम धर्म का वास्तव में प्रतिनिधित्व कौन कर रहा था? याजीद या हुसैन? आज दुनिया याजीद को इस्लाम धर्म का वास्तविक रहनुमा स्वीकार नहीं करती। यदि ऐसा होता तो निश्चित रूप से इस्लाम पर एक आतंकी धर्म होने का ठप्पा लग गया होता। परंतु न ऐसा हुआ न ऐसा है। आज दुनिया हजरत इमाम हुसैन की शहादत के आगे नतमस्तक है तथा केवल मुसलमान ही नहीं बल्कि सभी धर्मों के लोग हजरत इमाम हुसैन को ही इस्लामिक, धार्मिक प्रतिनिधि के रूप में स्वीकार करते हैं। प्रत्येक वर्ष मोहर्रम के अवसर पर हजरत हुसैन को अलग-अलग तरीकों से याद करना इस बात का स्पष्ट प्रमाण है।
क्या इसी नारिए के साथ भगवा आतंकवाद या हिंदू आतंकवाद के विषय पर चिंतन करने की जरूरत नहीं है? बजाए इसके कि आप गला फाड़-फाड़ कर यह चिल्लाएं कि हमें यह मत कहो, हम ऐसे नहीं, हम वैसे नहीं? आज जब कभी भी देश की पहली बड़ी राजनैतिक हत्या अर्थात् राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के कत्ल की बात आती है तो उंगली किस ओर उठती है? देश में आतंकवादी हमले जब भी कहीं होते थे तो आंख बंद कर देश का सारा मीडिया, दक्षिणपंथी तांकतें तथा मैं स्वयं भी सीमा पार से प्रायोजित आतंकवाद को कोसने लगते थे। यहां तक कि उन लगभग आधा दर्जन से अधिक आतंकवादी घटनाओं के लिए भी जिनमें कि भगवा आतंकवाद की कारगुजारियों के स्पष्ट प्रमाण मिल रहे हैं। परंतु जब जांच पड़ताल के बाद अब इन दक्षिणपंथी शक्तियों के चेहरे बेनंकाब हो रहे हैं तो यही तांकतें इस बात का बुरा मान रही हैं कि हम पर उंगली मत उठाओ। हमारे देश की सेना दुनिया की सबसे बड़ी उन धर्मनिरपेक्ष सेनाओं में एक है जिसमें परमवीर चक्र विजेता वीर अब्दुल हमीद सहित देश के सभी धर्मों व संप्रदायों के लोगों ने देश के लिए लड़ते हुए अपनी जानें न्यौछावर कीं। आज इसी सेना के एक दक्षिणपंथी सोच रखने वाले अधिकारी कर्नल पुरोहित ने हमारे देश की धर्मनिरपेक्ष सेना को दांगदार करने का प्रयास किया है। जिस देश में महान संत तथा भगवान राम के अवतार माने जाने वाले संत रामानंदाचार्य ने कबीर जैसे मुस्लिम जुलाहे को अपना शिष्य बनाकर सर्वधर्म समभाव की शिक्षा देने का संदेश दिया हो उसी धर्म के दयानंद पांडे तथा साध्वी प्रज्ञा जैसे चंद भगवाधारी साधुओं ने अपनी काली करतूतों से हिंदू धर्म की परंपरा को कलंकित करने का प्रयास किया है। स्पष्ट है कि यह तथाकथित साधु व साध्वी भगवाधारी ही हैं।
मैं डंके की चोट पर यह बात कह सकता हूं और पहले भी कई बार यह लिख चुका हूं कि विश्व में हिंदू धर्म से अधिक सहिष्णुता रखने वाला धर्म कोई भी नहीं है। शायद इसी कारण हजरत इमाम हुसैन ने भी याजीद के समक्ष लड़ाई टालने की गरज से यह प्रस्ताव रखा था कि वह उन्हें भारत जाने दे। आज हजरत निजामुद्दीन वाजा, मोईनुद्दीन चिश्ती तथा बाबा शेख़ फ़रीद जैसे तमाम पीरों-फ़क़ीरों की दरगाहों पर पसरी रौनक़ हिंदू सहिष्णुता की जीती जागती मिसाल पेश करती हैं। ऐसे में यदि उस विशाल ह्रदय रखने वाले विश्व के सबसे सहिष्णुशील धर्म पर उंगली उठने की नौबत आए तो एक भारतीय होने के नाते मुझे भी बहुत अफसोस होता है। परंतु मैं इन दक्षिणपंथी शक्तियों की तरह राजनैतिक स्टंट के रूप में हाय वावैला करने के बजाए उसी इस्लामी आतंकवाद के नामकरण के कारणों की तरह ही भगवा अथवा हिंदू आतंकवाद के शब्द के विषय में भी यही सोचता हूं कि आखिर ऐसा कहने की नौबत क्यों आ रही है। देश वासी प्रमोद मुत्ताली नामक उस असामाजिक तत्व से जरूर वाकिफ होंगे जो भगवा रंग के झंडे भी प्रयोग करता है तथा उसने अपने संगठन का नाम श्री राम सेना भी रखा हुआ है और फिर उस श्री राम सेना प्रमुख का वह स्टिंग आप्रेशन भी याद कीजिए जिसमें उसे पैसे लेकर सांप्रदायिक दंगे कराने की बात स्वीकार करते हुए दिखाया गया था। क्या ऐसे अराजक तत्व को यह अधिकार है कि वह अपने संगठन का नाम मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम जैसे त्यागी व तपस्वी महापुरुष के नाम से जोड़कर रखे?
दरअसल देश की जनता इस प्रकार के राजनैतिक हथकंडों से बखूबी वाक़िंफ है। गांधीजी की हत्या से लेकर गुजरात के दंगों तक सब कुछ देश के सामने है। 1992 में उत्तर प्रदेश की भाजपा सरकार द्वारा संविधान तथा लोकतंत्र की धज्जियां उड़ाने की घटना भी देश देख चुका है। यदि इन दक्षिणपंथी शक्तियों के आडंबरों अथवा पाखंडों में लेशमात्र भी सच्चाई होती तो भारतीय मतदाता इन्हें तीन सौ संसदीय सीटें देकर अब तक संसद में भेज चुके होते। परंतु भारतीय मतदाताओं ने इनके राम नाम रूपी उस दोहरे चरित्र को भी देख लिया है जबकि भगवान राम के नाम पर 183 सीटें लेकर यह संसद में पहुंचे परंतु सत्ता की लालच में राम नाम का त्याग कर उन्हीं ‘सेक्यूलरिस्टों’ से हाथ मिला लिया जिन्हें यह जनता के समक्ष राम विरोधी, हिंदुत्व विरोधी तथा कभी-कभी राष्ट्र विरोधी भी बता दिया करते थे।
आज एक बार फिर वैसी ही कोशिशें जारी हैं। अपनी कमियों व नकारात्मक नीतियों में सुधार लाने के बजाए फिर हिंदू मतों के ध्रुवीकरण का असफल प्रयास किया जा रहा है। परंतु अब बार बार ऐसे प्रयास संफल कतई नहीं होने वाले। हां इन दक्षिणपंथी शक्तियों के इस प्रकार हाय वावैला करने से देश में तनावपूर्ण माहौल जरूर पैदा हो सकता है। और इस प्रकार की परिस्थितियां निश्चित रूप से राष्ट्र के विकास में बाधक हैं। यदि यह शक्तियां वास्तव में देश का विकास चाहती हैं तथा सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की स्वयं को पैरोकार समझती हैं तो उन्हें देश की धर्मनिरपेक्ष संस्कृति को समझना व अपनाना होगा तथा बेवजह चीख़ने चिल्लाने के बजाए अपनी कमियों को दुरुस्त करना होगा।
रायपुर,14 सितंबर। मीडिया विमर्श के हिंदी पर केंद्रित अंक का विमोचन छत्तीसगढ़ के कृषि मंत्री चंद्रशेखर साहू ने किया। बीज भवन में आयोजित कार्यक्रम में छत्तीसगढ़ के पूर्व नेता प्रतिपक्ष एवं सांसद नंदकुमार साय, राज्यसभा के सदस्य श्रीगोपाल व्यास, छत्तीसगढ़ ग्रंथ अकादमी के संचालक एवं दैनिक भास्कर के पूर्व संपादक रमेश नैयर, छत्तीसगढ़ राज्य कृषक कल्याण परिषद के उपाध्यक्ष डा. विशाल चंद्राकर विशेष रुप से मौजूद थे।
आयोजन में ‘विश्वभाषा बनेगी हिंदी’ पर विषय पर वक्ताओं ने महत्वपूर्ण विचार व्यक्त किए।
अपने संबोधन में कृषि मंत्री चंद्रशेखर साहू ने कहा कि हिंदी विश्वभाषा के रूप में प्रतिष्ठित हो रही है, किंतु हमें अपने प्रयासों में तेजी लाने की जरूरत है। हमें गुलामी की मानसिकता छोड़कर तेजी से कदम बढ़ाने होंगें। उन्होंने मीडिया विमर्श के प्रयासों की सराहना करते हुए कहा कि वह पत्रकारों बंधुओं का एक स्वतंत्र और निष्पक्ष मंच बन गयी है। जिसके अंकों ने विविध संदर्भों पर सार्थक बहस का सूत्रपात किया है। सांसद नंदकुमार साय ने हिंदी की वैज्ञानिकता का जिक्र करते हुए कहा कि उसके विश्वभाषा बनने में शक नहीं है। राजकाज की भाषा में हिंदी का दखल बढ़ना चाहिए। चीन, जापान को हमें उदाहरण के रूप में लेना चाहिए जिन्होंने स्वभाषा में ही प्रगति की। सांसद श्रीगोपाल व्यास ने कहा कि हिंदी के लिए मैं ताजिंदगी काम करता रहूंगा, एक सांसद के नाते मैं इस दिशा में निरंतर सक्रिय हूं। वरिष्ठ पत्रकार रमेश नैयर ने कहा कि हिंदी भारतीय संस्कृति एवं हमारे सरोकारों की भाषा है। वैश्विक भाषाई सर्वेक्षण में हिंदी दूसरे क्रम पर है, सो वह विश्वभाषा तो बन चुकी है। हमें इसे लेकर किसी हीनताबोध का शिकार नहीं होना चाहिए।
स्वागत भाषण कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय, रायपुर में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष डा. शाहिद अली ने किया। कार्यक्रम का संचालन पत्रिका के संपादक मंडल के सदस्य प्रभात मिश्र ने एवं आभार प्रदर्शन डा. दिनेश शर्मा ने किया। इस अवसर पर गुरू घासीदास विश्वविद्यालय, बिलासपुर में पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग की रीडर डा. गोपा बागची, हेमंत पाणिग्राही, नवीन ओझा, सुभाष शर्मा, हरिभाई बाहेती, बीज निगम के प्रबंध संचालक एएन मिश्रा, डा. विनीता पाण्डेय, प्रशांत नीरज ठाकर, अनुराग जैन, एस. चावला मौजूद रहे।
इस अंक में क्या है खासः मीडिया विमर्श के सितंबर,2010 के इस अंक में सर्वश्री असगर वजाहत, रमेश नैयर, अष्टभुजा शुक्ल प्रकाश दुबे, बसंत कुमार तिवारी प्रो. कमल दीक्षित, प्रभु जोशी, डा. सुभद्रा राठौर,अरूंधती राय, कनक तिवारी, संजय द्विवेदी, साजिद रशीद आदि महत्वपूर्ण लेखकों के लेख प्रकाशित किए गए हैं। पत्रिका प्राप्ति का संपर्क है- संपादकः मीडिया विमर्श, 328, रोहित नगर, फेज-1, ई-8 एक्सटेंशन, भोपाल- 39 (मप्र)
वैसे तो वर्षा ऋतु अब अलविदा कह चुकी है और शीत ऋतु ने अपने आगमन की दस्तक भी दे दी है। परंतु अब भी वर्षा ऋतु में शहरों में होने वाले जल भराव का वह मंजर भुलाया नहीं जा सकता जिसने तमाम लोगों के घरेलू सामान बरबाद कर दिए, आम लोगों का सामान्य जीवन अस्त व्यस्त हो गया तथा तमाम मकान ध्वस्त हो गए। शहरी जल भराव के चलते अनजाने में किसी गङ्ढे, नाले अथवा खुले मेन होल में कभी किसी व्यक्ति की तो कभी किसी पशु के गिर कर मर जाने की ख़बरें भी अक्सर आती रही हैं। आमतौर पर इस प्रकार के जल भराव जैसी परिस्थितियां पैदा होने के बाद यही देखा गया है कि जनता द्वारा सीधे तौर पर सरकार को ही इन हालात का जिम्मेदार ठहरा दिया जाता है। विशेषकर नगरपालिकाएं अथवा नगरपरिषद के संफाई कर्मचारी इस आपदा के लिए जिम्मेदार ठहराए जाते हैं। परंतु इन्हें जिम्मेदार ठहराने वाले लोग स्वयं अपनी जिम्मेदारियों तथा कर्तव्यों से मुंह मोडे नार आते हैं।
यह माना जा सकता है कि अन्य सरकारी विभागों के कर्मचारियों की ही तरह नगरपालिका व नगरपरिषदों के कर्मचारी भी पूरी तत्परता, चौकसी तथा जिम्मेदारी के साथ अपना काम नहीं करते। परंतु यह भी सत्य है कि जब भी या देर-सवेर जैसे भी अपने कार्यों को करते हैं तो वही करते हैं। अर्थात् उदाहरणतया नालियों या नालों अथवा गटर की संफाई का काम देर-सवेर से ही सही आंखिर कार इन्हीं सफाई कर्मियों को ही करना पड़ता है। परंतु क्या कभी हमने यह ग़ौर करने की कोशिश की है कि हमारे तथाकथित सम्मानित नागरिक इन सफाईकर्मियों की राह में किस प्रकार बाधा साबित होते हैं? किसी भी शहर के किसी भी बाजार या मोहल्लों से गुजरने वाले नालों व नालियों पर नार डालिए तो आपको उस हकीक़त का एहसास हो जाएगा जो हमें यह बताती है कि शहरी जल भराव का वास्तव में कारण क्या है। आम लोगों ने तमाम नालों पर अपने मकान बना रखें हैं। कहीं चबूतरा बना कर नालों को ढक दिया गया है तो कहीं उसी नाले को व्यापारिक उपयोग में लाया जा रहा है। कहीं लोगों ने उन्हीं नालों व नालियों पर अपने घरों के चबूतरे या सीढ़ियां बना रखी हैं तो कहीं कार गैरेज बने हुए हैं। कहीं-कहीं मकान की बाहरी गैलरी उसी नाले व नाली पर बनाकर नाले को ढक दिया गया है।
अब जरा सोचिए कि उपरोक्त परिस्थितियों में क्या नालों व नालियों की संफाई ठीक ढंग से कर पाना संभव है? कई बार नगरपरिषदों द्वारा अतिक्रमण हटाओ अभियान के तहत इस प्रकार से नालों व नालियों पर किए गए नाजायज कब्जे के विरुद्ध अभियान भी चलाया जाता है। ऐसे में इस अभियान में शामिल सरकारी कर्मचारियों को कई जगहों पर जनता के विरोध, यहां तक कि हिंसक विरोध तक का सामना करना पड़ता है। यहां हम कह सकते हैं कि ऐसे लोगों की ‘एकता व जागरुकता’ सरकारी जमीनों विशेषकर नालों व नालियों पर अवैध कब्जा करने के लिए तो है परंतु बरसात में होने वाले जल भराव अथवा रुके हुए नालों व नालियों में पलने वाले कीड़ों-मकौड़ों व मच्छरों आदि को लेकर उनकी चिंताएं बिल्कुल नहीं है। सवाल यह है कि ऐसे लोग जो अपने कर्तव्यों तथा जिमेदारियों का सही ढंग से निर्वहन नहीं करते क्या उन्हें अपने अधिकारों की दुहाई देते रहने अथवा बेवजह केवल सरकार को दोषी ठहराने का कोई अधिकार है?
जल भराव का एक और कारण भी गौर फरमाईए। इसके लिए भी सरकार या नगरपालिका नहीं बल्कि हम ही स्वयं दोषी हैं। जरा सोचिए कि नाली व नालों का निर्माण घर की नाली से लेकर शहर के प्रमुख नाले तक आंखिर क्यों किया जाता है। जाहिर है हमारे घरों से निकलने वाले गंदे पानी व बरसाती पानी की निकासी की खातिर। परंतु जरा शहरों के नालों व नालियों पर एक नार डालिए। नगरपालिका के संफाई कर्मचारी जब नालों व नालियों की सफाई करते हैं उस समय नालियों से निकलने वाले कचरे पर गौर फरमाईए। शीशे की बोतलें, कांच के टूटे-फूटे टुकड़े व गिलास, प्लास्टिक की बोतलें, पॉलिथिन, थर्मोकोल के छोटे व बड़े तमाम टुकड़े ईंट-पत्थर-लकड़ी, जूते-चप्पल, कपड़े-लत्ते,टीन-टप्पर आदि क्या नहीं निकलता है इन नालों व नालियों से। मैनें प्राय: यह भी देखा है कि मकान की ऊपरी मंजिल पर रहने वाले तमाम लोग अपने घरों का कूड़ा-करकट एक पॉलिथिन में बांधकर छत पर खड़े होकर अपने घर के सामने बहते हुए नाले व नाली में निशाना साधकर उसी में फेंक देते हैं। जाहिर है यह सभी वस्तुएं नालियों व नालों को बाधित अथवा जाम करने में अहम भूमिका निभाती हैं। आंखिर इन सब बातों के लिए दोषी कौन है? सरकार, नगरपालिका, नगरपरिषद या हम खुद?
तमाम लोगों ने अपने घरों में भैंसों की डेयरियां खोल रखी हैं। इनमें कुछ समझदार व जागरुक डेयरी मालिक तो ऐसे हैं जो अपने पशुओं के गोबर को इकट्ठा करवा कर किसी निर्धारित स्थान पर फेंकने की कोशिश करते हैं। परंतु तमाम डेयरी मालिक ऐसे भी हैं जो गायों व भैंसों के गोबर को अपनी डेयरी के नाली के मुहाने पर रखकर खुले पानी से उसे नाली या नाले की ओर आगे बहा देते हैं। जब भी शहरी जल भराव होता है उस समय यही गोबर के रेशे सबसे अधिक मात्रा में गलियों व सड़कों पर जल भराव होने के बाद जमी हुई शक्ल में दिखाई देते हैं। कई शहरों केप्रशासन द्वारा डेयरी मालिकों से यह निवेदन भी किया गया है कि वे शहरों से अपनी डेयरियां बाहर ले जाएं। यहां तक कि सरकार ने उन्हें शहर के बाहर डेयरियों हेतु स्थान भी उपलब्ध कराए हैं। परंतु अपना कारोबार चौपट होने के भय से तमाम डेयरी मालिक शहर से बाहर अपनी डेयरी ले जाने को राजी नहीं हुए। यहां हम इस निष्कर्ष पर पहुंच सकते हैं कि ऐसे डेयरी मालिकों को इसी ढर्रे पर चलने की आदत सी बन चुकी है। तथा उनकी नारों में नालियों व नालों में गोबर आदि का जमना तथा इसके चलते शहरी जल भराव होना या गंदगी अथवा बीमारी का फैलना कोई खास मायने नहीं रखता।
उपरोक्त हालात से कम से कम एक बात तो बिल्कुल साफ हो जाती है कि शहरी जल भराव तथा इसके कारण फैलने वाली गंदगी तथा उन गंदगियों के चलते फैलने वाली बीमारियों को लेकर हमारे ही समाज के तमाम लोग कतई जागरुक नहीं हैं। अफसोसनाक बात तो यह है कि यही लोग अपने अधिकारों की बातें करना तो खूब जानते हैं परंतु अपने कर्तव्यों से मुंह मोड़ना भी उन्हें बखूबी आता है। जाहिर है हमारी सोच व फिक्र का यही दोहरापन हमें उन हालात तक पहुंचने देता है जो अक्सर हमारे ही समाज के लिए किसी बड़े संकट का कारण बन जाती है। यहां तक कि ऐसी परिस्थितियां जानलेवा भी हो सकती हैं तथा महामारी जैसी बीमारियों का कारण भी बन सकती हैं। ऐसे में इस निष्कर्ष पर भी पहुंचा जा सकता है कि आजादी के लगभग 65 वर्षों बाद भी हम अभी तक कर्तव्यों व अधिकारों के मध्य अंतर कर पाने की क्षमता नहीं पा सके। हमें अभी तक यही नहीं मालूम कि नालियों व नालों का क्या काम है और इन्हें व्यवस्थित रखने तथा सुचारू रूप से संचालित होने के लिए आखिर हमारे क्या कार्य हैं। केवल नालों व नालियों के बन जाने मात्र से शहर की ड्रेनेज समस्या का समाधान नहीं हो जाता। बल्कि इसे कचरा मुक्त व निर्बाध रूप से प्रवाहित रखने के लिए इसे आम लोगों के सहयोग की भी सख्त जरूरत होती है। नालों व नालियों को कूड़ा घर या कचरा घर समझने के बजाए इसे केवल गंदे पानी की निकासी का स्त्रोत मात्र ही समझना चाहिए।
शहरों व क़स्बों में तमाम ग़ैर सरकारी संस्थाएं, सामाजिक व धार्मिक संस्थाएं आम लोगों की भलाई के लिए तमाम तरह के कल्याण संबंधी कार्य करती हैं। मेरे विचार से ऐसी संस्थाओं द्वारा आम लोगों को उपरोक्त अति प्रारंभिक जानकारी दिए जाने की सख्त ज़रूरत है। यह संस्थाएं आम लोगों को नालों व नालियों पर किए जा रहे अवैध अतिक्रमण व क़ब्जे के विषय में उन्हें जागरुक करें कि उनका यह क़दम शहर के लोगों के लिए कितना घातक है। यह संस्थाएं आम लोगों को यह बताएं कि पॉलिथीन, प्लास्टिक, थर्मोकोल, कांच जैसी तमाम वे वस्तुएं जो शीघ्र गलनशील नहीं हैं उन्हें हरगिज़ नालों व नालियों में न फेंकें। प्रत्येक नागरिक को यह कोशिश करनी चाहिए कि नाली व नाले में केवल जल का ही प्रवाह होता रहे। हमें इन बातों का जवाब इस प्रकार से क़तई नहीं देना चाहिए कि चूंकि अमुक व्यक्ति ऐसा कर रहा है, चूंकि हमारा पड़ोसी ऐसा कर रहा है अथवा पूरा शहर ऐसा कर रहा है तो हम भी वही करेंगे। एक जागरुक भारतीय नागरिक बनने के लिए यह ज़रूरी है कि न तो आप स्वयं किसी ग़लत रास्ते पर चलें और न ही किसी से ग़लत रास्ते पर चलने की प्रेरणा लें। बजाए इसके स्वयं ठीक मार्ग पर चलें और दूसरों को भी सद्मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करें। यही हमारे विकसित राष्ट्र तथा हमारे धर्म की बुनियाद है।
स्वामी अग्निवेश और रमेश नैयर जी, जवाब किनसे मिलेगा
-संजीत त्रिपाठी
स्वामी अग्निवेश, आज कौन नहीं जानता इन्हें देश में। विज्ञापन की भाषा में कहूं तो सिर्फ नाम ही काफी है।
छत्तीसगढ़ के देशबंधु पत्र समूह जिसका सबसे प्रमुख प्रकाशन दैनिक देशबंधु है,के प्रधान संपादक ललित सुरजन जी ने 16 सितंबर के अंक के संपादकीय पेज में स्वामी अग्निवेश और छत्तीसगढ़ का मीडिया शीर्षक से लेख लिखा।
लेख में वे लिखते हैं ” साहित्यिक पत्रिका हंस ने 31 जुलाई को नई दिल्ली में एक विचार गोष्ठी आयोजित की। इसका विषय था- ”वैदिकी हिंसा, हिंसा न भवति।” जाहिर है कि यह गोष्ठी राज्य द्वारा की जा रही हिंसा (स्टेट टैरर) पर चर्चा करने के लिए थी। प्रमुख वक्ता स्वामी अग्निवेश थे। उन्होंने जो वक्तव्य दिया वह हंस के सितम्बर 2010 के अंक में प्रकाशित हुआ है। इस सुदीर्घ वक्तव्य में उन्होंने अपनी छत्तीसगढ़ यात्रा के अनुभव भी दर्ज किए हैं। उल्लेखनीय है कि देश के अनेक जाने-माने सामाजिक कार्यकर्ताओं ने इसी वर्ष मई माह में छत्तीसगढ़ में नक्सलवाद के परिप्रेक्ष्य में एक शांति यात्रा का आयोजन किया था। इसमें सुप्रसिध्द गांधीवादी नारायण देसाई, प्रतिष्ठित शिक्षाशास्त्री प्रोफेसर यशपाल, आजादी बचाओ आन्दोलन के प्रमुख नेता प्रोफेसर बनवारीलाल शर्मा इत्यादि के साथ स्वामी अग्निवेश भी थे। मैं यहां हंस में प्रकाशित स्वामी जी के वक्तव्य का एक अंश अक्षरश: उध्दृत कर रहा हूं- ”इस बीच एक बड़ी मजेदार बात हुई। रायपुर की एक प्रेस कॉन्फ्रेंस का नजारा बता दूं। हमें रायपुर और दंतेवाड़ा में लगा कि हम पत्रकारों से बात नहीं कर रहे बल्कि बड़े-बड़े उद्योगपतियों के दलालों से बात कर रहे हैं। खरीदे हुए लोग। मुख्यमंत्री के समझाए हुए लोग, सब के सब बिके हुए लगे। फिर भी हमने किसी तरह प्रेस कॉन्फ्रेंस की। बाद में रमेश नैयर जी ने बताया कि स्वामी जी यहां पत्रकारिता का बहुत बुरा हाल है। लेकिन फिर भी आप लोग आ गए हैं तो आगे बढ़िए?”
इसके कुछ और पैराग्राफ ( जिस संदर्भ में मैं यहां लिख रहा हूं उस संदर्भ में यही दो पैराग्राफ महत्वपूर्ण है इसलिये बाकी नहीं ले रहा) के बाद सुरजन जी अंत में लिखते हैं कि ” अपने वक्तव्य में स्वामी अग्निवेश ने रमेश नैय्यर का जिक्र किया है। श्री नैय्यर पिछले पैंतालीस-छियालीस साल से पत्रकारिता में हैं। वे रायपुर के अनेक अखबारों में काम कर चुके हैं तथा मेरे पुराने मित्र होने के अलावा एक समय ”देशबन्धु” में सहयोगी भी रह चुके हैं। उनमें किसी को भी अपना बना लेने का भरपूर कौशल है। इसीलिए बुनियादी तौर से संघ परिवार से जुड़े होने के बावजूद पीयूसीएल के मंच पर भी उसी सम्मान के साथ आमंत्रित कर लिए जाते हैं। ऐसा व्यक्ति अपने ही पेशे की बुराई करेगा इस पर भरोसा तो नहीं होता, लेकिन जब सार्वजनिक तौर से स्वामी जी ने उनके हवाले से यह बात कही है तो मेरी ही नहीं, छत्तीसगढ़ के हर पत्रकार की नैय्यर जी से अपेक्षा होगी कि वे इस संबंध में अपनी स्थिति स्पष्ट करें।”
(इसी मुद्दे पर रायपुर प्रेस क्लब प्रेसीडेंट अनिल पुसदकर जी ने भी कुछ लिखा है, यहां देखें)
अब बात दोनों की होती है। एक तो यह कि स्वामी अग्निवेश जिनका नाम आज देश में हर वह आदमी जानता है जो देश को जानता है और वह भी जो रोजाना अखबार पढ़ता है। देश को जानने वाला इसलिए जानेगा कि स्वामी अग्निवेश ने इतने सालों में अपने कार्यों से जो विश्वसनीयता अर्जित की है वह आज उनका नाम है। रोजाना अखबार पढ़ने वाला उनका नाम इसलिए जानेगा कि आज हर दूसरी खबर में वह इसलिए छाए हुए हैं क्योंकि वे नक्सलियों के साथ मध्यस्थता करने का प्रस्ताव लेकर“डटे”हुए हैं। भले ही इसी एक मुद्दे के चलते वे इतने बरसों की कमाई हुई अपनी वह विश्वसनीयता खो रहे हैं जिस विश्वसनीयता की बदौलत आज उन्हें देश जानता है।
बाबा और स्वामियों के इस देश में वर्तमान में एक स्वामी अग्निवेश जी हैं जो अपनी थोड़ी बहुत विश्वसनीयता बचाए हुए चल रहे हैं, नहीं तो अभी जुम्मा-जुम्मा चार दिन नहीं हुए कि टीवी चैनल पर साधु-संतों का स्टिंग ऑपरेशन इस देश की जनता ने देखा। गनीमत है कि स्वामी अग्निवेश इस तरह के साधु-संतों में शुमार न तो होते हैं न किए जाते हैं।
इंटरनेट पर स्वामी अग्निवेश के नाम से हिंदी और अंग्रेजी दोनो ही भाषा में जानकारी एकत्र करने की कोशिश करने पर बकायदा उनके नाम की वेबसाइट मिली। यहां और आश्चर्य हुआ कि किसी प्रोफेशनल की तरह उनका सीवी/CV जिसे रिज्यूमे भी कहते हैं , मौजूद है। वह सीवी जिसे प्रोफेशनल्स नौकरी या प्रोजेक्ट पाने के लिए अप्लाई करने के लिए कहीं भेजते या उपयोग करते हैं।
लेकिन एक मुख्य बात यह है कि वह सज्जन जो खुद अपनी विश्वसनीयता खो रहे हैं ( ऐसा उनके साथ पिछले दिनों छत्तीसगढ़ आए उनके साथियों ने ही उन्हें लिखे अपने पत्र में कहा है कि वे स्व्यंभू मुखिया बन रहे हैं)
वे सज्जन, किसी एक राज्य छत्तीसगढ़ की मीडिया को, किसी एक पत्रकार नहीं, किसी एक चैनल नहीं, किसी एक अखबार को नहीं बल्कि समूचे पत्रकारिता जगत को ही बिकाऊ कह रहे हों और बकौल उनके जब वे ऐसा कह रहे हैं तो उसी समय देश भर में छत्तीसगढ़ की वर्तमान पत्रकारिता का प्रतिनिधित्व करने वाली शख्सियतों में से एक श्री रमेश नैयर जी कह रहे हैं कि” स्वामी जी यहां पत्रकारिता का बहुत बुरा हाल है। लेकिन फिर भी आप लोग आ गए हैं तो आगे बढ़िए?”
आश्चर्य होता है कि जिन रमेश नैयर जी से छत्तीसगढ़ की एक पूरी पीढ़ी ने पत्रकारिता का ककहरा सीखा हो, वे ऐसा कहेंगे……?
ललित सुरजन जी ने अपने लेख में सिर्फ रमेश नैयर जी से अपेक्षा की है कि वे अपनी स्थिति स्पष्ट करें लेकिन बतौर एक पाठक और एक छत्तीसढ़िया के साथ भारतीय होने के कारण रमेश नैयर जी के साथ-साथ स्वामी अग्निवेश जी से भी अपेक्षा करूंगा कि वे अपनी स्थिति स्पष्ट करें। बावजूद इसके कि मैं इन दोनों के सामने ही अकिंचन हूं लेकिन एक नागरिक हूं, एक पाठक हूं। जवाब की अपेक्षा दोनों से ही कर सकता हूं।
पता नहीं आप इन दोनों में से किनसे जवाब की अपेक्षा करेंगे, करेंगे भी या नहीं…? बताएं……
बाबरी मस्जिद प्रकरण पर उठा सांप्रदायिक उन्माद कोई यकायक पैदा नहीं हुआ है बल्कि सांप्रदायिक विचारधारा की 60 वर्षों की कड़ी मेहनत से उपजा दैत्य है जिसे आसानी से खत्म नहीं किया जा सकता। वर्षों के विचारधारात्मक प्रचार के बाद ही आज यह चरमोत्कर्ष पर दिखाई दे रहा है। यह किसी नेता या गुट मात्र का प्रतिफलन नहीं है बल्कि सांप्रदायिक विचार की चौतरफा बह रही धारा का ही सजातीय है। अत: इस प्रकरण को संपूर्ण राष्ट्र में प्रवाहित सांप्रदायिक विचारधारा के परिप्रेक्ष्य में ही देखा जाना चाहिए।
सांप्रदायिक विचारधारा ने राष्ट्र की लोकतांत्रिक एवं धर्मनिरपेक्ष संरचनाओं को गंभीर चुनौती दी है। अत: इस समस्या के बारे में राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य प्राथमिक जरूरत है। यह कोई स्थानीय या धार्मिक समस्या नहीं है जिसे स्थानीय परिप्रेक्ष्य तथा धार्मिक परिप्रेक्ष्य के स्तर पर सुलझा लिया जाएगा। इसका जो भी समाधान होगा वह राष्ट्रीय स्तर पर ही संभव है। कांग्रेस (इ) की इस मसले पर शुरू से ही यह नीति रही है कि यह मसला स्थानीय तथा धार्मिक स्तर पर हल कर लिया जाए पर हकीकत में यह संभव नहीं हो पाया बल्कि इसके कारण सांप्रदायिक शक्तियों एवं विचारधारा को अपना जनाधार बढ़ाने का मौका मिल गया।
इस संदर्भ में दो बातें महत्वपूर्ण हैं प्रथम, भारतीय राज्य का धर्मनिरपेक्ष चरित्र; वस्तुत: निष्क्रिय धर्मनिरपेक्ष राज्य का चरित्र है, यह निष्क्रियता ही वह मुख्य तत्व है जिसके कारण सांप्रदायिक विचारधारा आज इतनी आक्रामक दिखाई दे रही है। इसकी यह भी खूबी है कि इसमें विभिन्न विचारों, धर्मों एवं संप्रदायों को अंतर्भुक्त कर लेने की अद्भुत क्षमता है।
भारतीय धर्मनिरपेक्षता का मूल घोषित लक्ष्य है ‘सर्वधर्मसमभाव’। यह धारणा उन्नीसवीं सदी में पुनर्जागरण काल के पुरोधाओं राजा राममोहन राय, ईश्वरचंद्र विद्यासागर, विवेकांनन्द, रामकृष्ण परमहंस आदि ने सृजित की थी। इस परंपरा के चिंतकों ने धार्मिक आस्थाओं एवं सामाजिक संस्कारों के खिलाफ संघर्ष चलाया जिसकी परिणति स्वरूप धर्म एवं सामाजिक संस्थाओं में सुधारवाद की प्रक्रिया शुरू हुई। ये लोग भौतिक यथार्थ की वास्तविकता पर बल देते थे और सभी धर्मों के प्रति समानता के बोध के हिमायती थे। उस समय सभी धर्मों की समानता की हिमायत करने के पीछे मुख्य कारण यह था कि ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ सभी धर्मों की एकता स्थापित की जाए। सभी धर्मों की एकता का यह बोध औपनिवेशिक संघर्ष में ज्यादा दिन तक टिकाऊ नहीं रह पाया। कालांतर में इसमें प्रतिस्पर्धा का भाव आ घुसा जिसके कारण धर्मों के अंदर एक-दूसरे से स्वयं को श्रेष्ठ सिद्ध करने की होड़ लग गई और ‘सर्वधर्म समभाव’ की उपनिवेश विरोधी धार्मिक मतवादों का मोर्चा टूट गया।
यहां स्मरणीय है कि ‘सर्वधर्म समभाव’ की अवधारणा बुर्जुआ संरचना में अंतर्ग्रंथित रही है। पर अनुभव यह बताता है कि सर्व धर्म समभाव की अवधारणा के माध्यम से धर्मनिपेक्षता को पुष्ट नहीं रखा जा सकता था या यों कहें कि धर्मनिरपेक्षता के लिए यह नाकाफी है। यह धारणा धर्मनिरपेक्ष बोध पैदा करने के बजाय सामाजिक चेतना को धार्मिक दायरों में कैद रखती है, इसी दायरे में रहकर अपने-अपने धर्म को श्रेष्ठ सिद्ध करने वालों से लेकर इसके विरोधी तक इसमें अंतर्निहित रहते हैं, यही भारतीय धर्मनिरपेक्षता की बुनियादी कमजोरी है।
राज्य की धर्मनिरपेक्षता की दूसरी विशेषता यह है कि वह धर्म से अपने को पूरी तरह पृथक नहीं कर पाया है बल्कि तटस्थ होने का स्वांग करता है। राज्य खुले तौर पर सभी धर्मों के संस्कारों एवं रीति-रिवाजों को स्वीकार करता है। इस क्रम में समाज में पिछड़ी हुई संस्कृति, विचारधारा एवं सामाजिक संस्कार अपना नित-नूतन संस्कार करते रहते हैं और पवित्र बने रहते हैं। राज्य इन सबके खिलाफ एक आधुनिक राज्य की अनिवार्य जरूरतों के मुताबिक न तो हस्तक्षेप करता है और न ही पिछड़ी हुई विचारधारा के खिलाफ संघर्ष चलाता है। यही वह बिंदु है जहां पर सांप्रदायिक विचारधारा अपने को निर्द्वंद्व पाती है तथा समाज में अपनी मनमानी करने का संस्थागत औचित्य भी सिद्ध करती रहती है।
इन दिनों सांप्रदायिक विचारधारा आमलोगों को सांप्रदायिक संस्कारों, रहन-सहन, रीति-रिवाज एवं विचारधारा को मानने के लिए मजबूर करने लगी है और एक ठोस भौतिक शक्ति के रूप में उसने दैत्याकार ग्रहण कर लिया है। भारतीय सांप्रदायिक विचारधारा के विकास का यह केंद्रीय कारण है।
शाहबानो प्रकरण में सांप्रदायिक शक्तियों के आगे राज्य ने समर्पण इसीलिए कर दिया क्योंकि वह तटस्थ था और धर्म के आदेशों का दास था। हकीकत में राज्य को धर्मनिरपेक्षता को जनता के बीच में ले जाना चाहिए था। पर उसने ‘सर्वधर्म समभाव’ एवं तटस्थता के नाम पर सांप्रदायिक विचारधारा की निष्क्रिय रहकर मदद की है। इसीलिए भारतीय धर्मनिरपेक्षता न तो छद्म है, जैसा हिंदू एवं मुस्लिम तत्ववादी कहते हैं और न ही वास्तविक है जैसा बुर्जुआ पार्टियां तथा उनके चिंतक कहते हैं बल्कि निष्क्रिय धर्मनिरपेक्षता है। जरूरत है इसे सक्रिय बनाने की। यह कार्य धर्मनिरपेक्षता की ‘सर्वधर्म समभाव’ एवं ‘सभी धर्मों का भगवान तो एक ही है’ जैसे दायरे से बाहर निकाल कर उसे सामाजिक-राजनीतिक संघर्ष का अगुआ बनाकर ही किया जा सकता है। इसके लिए इस अवधारणा को जनता में ले जाना होगा। ऊपर से घोषणा करके इसे जीवन में अर्जित नहीं किया जा सकता। जनता के बीच में ठोस रूपों में उन तमाम विचारधाराओं के खिलाफ इसे अगुआ बनाने की जरूरत है जो धर्मनिपेक्षता के शत्रु हैं। इस प्रक्रिया की शुरूआत धार्मिक सुधार से तो हो सकती है। पर यही इसका अभीप्सित लक्ष्य नहीं है बल्कि धर्मनिपेक्षता का आधुनिक अर्थों में जीवन दृष्टिकोण से लेकर सामाजिक संस्कारों तक सृजन एवं प्रसार करना होगा। धर्म सुधार करके धर्मनिरपेक्षता को सक्रिय नहीं बनाया जा सकता बल्कि यह देखा गया है कि ऐसे सुधार कार्यक्रम का, धर्म का पूंजीवाद या साम्राज्यवाद विरोधी दृष्टिकोण बहुत समय तक टिका नहीं रहता।
धर्मकेंद्रित विचारधारा का सांप्रदायिक विचारधारा में रूपांतरण या पृथकतावाद का सांप्रदायिकता में रूपांतरण महत्वपूर्ण विचारधारात्मक प्रवृत्ति है। यह प्रवृत्ति अकाली संगठनों के आंदोलन के पृथकतावाद में बदल जाने तथा शिवसेना के पृथकतावादी आंदोलन के हिंदू सांप्रदायिकता में बदल जाने का उदाहरण हमारे सामने है।
सक्रिय धर्मनिरपेक्षता के लिए राज्य पर धर्मनिरपेक्ष शक्तियों का बाहर से दबाव बेहद जरूरी है क्योंकि भारतीय बुर्जुआजी की मंशा यही है कि ‘हम नहीं सुधरेंगे’। अगर किसी को उससे कुछ हासिल करना है या अपनी दिशा में ले जाना है तो उसे दबाव पैदा करना होगा। अभी तक सांप्रदायिक विचारधारा दबाव पैदा करके राज्य का अपने हित में प्रयोग करती रही है। अगर धर्मनिरपेक्ष ताकतें दबाव पैदा करें जनता को लामबंद करें तो राज्य उनकी तरफ झुक सकता है क्योंकि वह तो ‘बेपेंदी का लोटा’ है, पता नहीं कब किधर लुढ़क जाए।
बाबरी मस्जिद प्रकरण पर भी यह परिप्रेक्ष्य लागू होता है, यह मसला न तो स्थानीय है और न ही धार्मिक है बल्कि राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में ही इसका हल संभव है। राष्ट्रीय मोर्चा सरकार ने पहली बार यह बात समझी और इस मुद्दे को स्थानीय एवं धार्मिक स्तर से उठाकर राष्ट्रीय स्तर पर इसे ‘राष्ट्रीय एकता परिषद्’ में रखा था। ज्योंही ‘राष्ट्रीय स्तर’ पर इसे राष्ट्रीय समस्या के रूप में रखा गया, सबसे तीखी प्रतिक्रिया कांग्रेस (इ) एवं भाजपा में हुई। भाजपा ने ‘राष्ट्रीय एकता परिषद’ का बहिष्कार किया था। इसका बहाना उन्होंने यह दिया था कि सब-कमेटी का फैसला प्रेस को बता दिया गया। इसलिए वे शामिल नहीं हो रहे हैं पर मामला इससे ज्यादा गहरा था। भाजपा एवं हिंदू संगठन नहीं चाहते कि यह राष्ट्रीय मसला बने। वी.पी. सिंह सरकार ने इसे राष्ट्रीय मसला ही नहीं बनाया बल्कि राज्य
की तरफ से एक हल भी सुझाया जो केंद्र सरकार की अब तक की रणनीति में केंद्रीय बदलाव था। भाजपा इसे धार्मिक मसला मानती रही है तथा धार्मिक नेताओं के द्वारा ही यह हल हो, उसकी यही रणनीति रही है। कांग्रेस की भी कमोबेश यही रणनीति है। यही वजह है कि राष्ट्रीय एकता परिषद एवं राष्ट्रीय मोर्चा द्वारा इस विवाद के समाधान पर जारी अध्यादेश का उसने विरोध किया और विरोध करने वालों में सांप्रदायिक संगठन भी थे। उक्त अध्यादेश के पक्ष में वामपंथी दल एवं धर्मनिरपेक्ष व्यक्ति थे क्योंकि इनकी शुरू से ही यह राय रही है कि यह मसला राष्ट्रीय स्तर पर, राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य एवं राष्ट्रीय समस्या के तौर पर हल किया जाना चाहिए। स्व.चंद्रशेखर जी ने अपने प्रधानमंत्री काल में राष्ट्रीय मोर्चा सरकार की नीति बदलकर उसे धार्मिक नेताओं के द्वारा ही हल किए जाने पर बल
दिया । अत: दोनों ही पक्ष आपस में बात करने को तैयार हैं पर सरकार की मौजूदगी में, यानी राज्य निष्क्रिय रहे और वे दोनों सक्रिय रहें, जबकि राष्ट्रीय मोर्चा सरकार इन दोनों के साथ बैठकर सक्रिय ढंग से इसे हल करना चाहती थी। यह रणनीति दोनों ही संबद्ध पक्षों को अस्वीकार थी। उन्हें स्वीकार्य है निष्क्रिय धर्मनिरपेक्ष राज्य, और बातचीत जारी है! यहां पर प्रश्न उठता है कि अगर दोनों संबंधित पक्ष (बाबरी मस्जिद ऐक्शन कमेटी और विश्व हिंदू परिषद्) आपस में बातें करके इस मसले को सुलझाना चाहते हैं तो वे अपनी पहल पर सरकार की अनुपस्थिति में भी बात कर सकते थे या कर सकते हैं! सरकार को बीच में बिठाए रखने का मकसद क्या है? मेरे लिखने का, मकसद है राज्य द्वारा सांप्रदायिक शक्तियों के लिए स्वीकृति प्राप्त करना। यह स्वीकृति प्राप्त करना कि धर्म अपने मसले हल करेगा, राज्य इसमें कुछ नहीं बोलेगा। यानी धर्म मौजूदा धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक राज्य से बड़ा है। यही धारणा है जिसका वे प्रचार लोगों के जेहन में उतारना चाहते हैं। यही मूल रणनीति है।
उल्लेखनीय है कि राज्य समय-समय पर धर्म की व्याख्याओं का काम भी करता रहा है। यानी धर्म के एक नए व्याख्याकार की भूमिका भी भारतीय राज्य गाहे-बगाहे निभाता रहा है। यह कार्य प्रचार माध्यमों के द्वारा और भी तेजगति से किया जा रहा है जिसका अंतिम परिणाम है कट्टरतावाद एवं सांप्रदायिक विचारधारा का विकास। पंजाब का अनुभव साक्षी है, राज्य ने ज्यों-ज्यों सिख धर्म की व्याख्या एवं श्रेष्ठता को प्रधानता दी कट्टरतावाद तथा पृथकतावाद बढ़ता चला गया एक जमाना था वहां पर पृथकतावादी संगठनों की शर्त एवं आदेश चलते थे। बाबरी मस्जिद प्रकरण में भी राज्य यही भूल कर रहा है। वह हिंदू धर्म के नए व्याख्याकार का काम कर रहा है। भविष्य में क्या होगा कोई नहीं जानता। इससे हिंदू धर्म के प्रचारक संगठनों को ही बल प्राप्त होगा यह बात निर्विवाद रूप से कही जा सकती है, जरूरत हैं धर्म की चौहद्दी से बाहर आकर राज्य अपनी भूमिका अदा करे, तब ही वह अपने स्वत्व की रक्षा कर पाएगा। वरना, उसका स्वत्व भी खतरे में पड़ सकता है।
हिन्दी में अनेक आलोचक हैं जो अभी भी चेतना की आदिम अवस्था में जी रहे हैं. कुछ ऐसे हैं जो सचेत रूप से आदिम होने की चेष्टा कर रहे हैं। समाज जितना तेजी से आगे जा रहा है वे उतनी ही तेजी से पीछे जा रहे हैं। हमें इस फिनोमिना पर गौर करना चाहिए कि हिन्दी का आलोचक और शिक्षक तेजी से कूपमंडूक क्यों बन रहा है? कूपमंडूकता का आलम यह है कि जिनकी ज्यादा बेहतर विश्वविद्यालय, यानी जेएनयू जैसे विश्वविद्यालय , में शिक्षा हुई है वे और भी ज्यादा कूपमंडूक बनते जा रहे हैं।
यह भी कह सकते हैं हिन्दी के कुछ आलोचकों में जल्दी -जल्दी कूपमंडूक बनने की होड़ लगी है। कहीं इस कूपमंडूकता की जड़ें हमारे हिन्दी के पठन-पाठन में तो नहीं हैं? यह भी हो सकता है हमारी हिन्दी साहित्य की शिक्षा-दीक्षा खास किस्म का हनुमान तैयार करती हो? हमें सोचना चाहिए कि आखिरकार वे कौन से कारण हैं जिनके कारण हिन्दी का सबसे शिक्षित तबका तेजी से कूमंडूकता, अतीतप्रेम और पुराने के नशे में मजा लेने लगा है।
इस भूमिका को बनाने का एक कारण है, पिछले दिनों कोलकाता में भारतीय भाषा परिषद ने एक सेमीनार किया जिसमें हिन्दी के एक नामी ‘आलोचक’ को बुलाया गया और उन्होंने बड़ी ही ‘विद्वतापूर्ण शैली’ में उन्होंने अपनी बातें रखी। वह ‘आलोचक’ मेरा दोस्त है, हम साथ पढ़े हैं, वे समझदार और संवेदनशील भी हैं। गुरूभक्ति में उन्होंने सभी साथियों को पछाड़ा है और जितने भी आशीर्वाद गुरूवर नामवर सिंह से मिल सकते थे वे प्राप्त किए हैं।
वे नामवर सिंह (जो हिन्दी के द्रोणाचार्य हैं) के अर्जुन हैं। यह सच है गुरूवर नामवर सिंह ने हिन्दी के द्रोणाचार्य के रूप में जितने अर्जुन पैदा किए हैं उससे ज्यादा एकलव्य पैदा किए हैं। जिन्हें कभी गुरू का आशीर्वाद नहीं मिला, हां, गुरूदक्षिणा लेने में गुरूवर ने कभी देरी नहीं की।
गुरूवर नामवर सिंह का व्यक्तित्व महान है। जो उनके महान व्यक्तित्व के प्रभाव में आकर भक्ति करता है वह कूपमंड़ूकता के मार्ग पर जाता है। दूसरी ओर उनके व्यक्तित्व की भक्ति किए बिना जो उनका सम्मान करते रहे हैं वे शिष्य वैज्ञानिकचेतना के करीब पहुँचे हैं। नामवर सिंह के व्यक्तित्व के इस दुरंगे प्रभाव की आमतौर पर हिन्दी में अनदेखी हुई है। कहने का अर्थ है नामवर सिंह की शिक्षा में शिष्य को मनुष्य और बंदर एक ही साथ बनाने की विलक्षण क्षमता है। समस्या यह है गुरूवर नामवर सिंह से शिष्य क्या सीखता है? किस परंपरा में जाता है। बंदर, भक्त और अर्जुन की परंपरा में जाता है या वैज्ञनिकचेतना संपन्न आधुनिक और मार्क्सवादी की परंपरा में जाता है।
यह सच है गुरूवर नामवर सिंह की दो परंपराएं हैं, एक भक्त परंपरा जो सीधे भक्ति साहित्य तक ले जाती है और दूसरी मार्क्सवादी परंपरा जो अत्याधुनिक विषयों और आधुनिक समाज की समस्याओं की ओर ले जाती है। जिन शिष्यों ने भक्तिमार्ग का अनुसरण किया वे लेखन में पुराने विषयों के प्रेमी बने। अतीत के प्रचारक बने। वे वर्तमान में लौटते ही नहीं हैं। वे सत्ता के चाकर बने। वर्चस्वशाली ताकतों का हिस्सा बने। भीड़ बने।
नामवर सिंह की कक्षा में हमेशा भक्त और आलोचक दो कोटि के विद्यार्थी रहे हैं। भक्तों को मेवा मिली, डिग्री मिली, ग्रेड मिले, पद मिले, पुरस्कार मिले, लेकिन ज्ञान नहीं मिला। आलोचक शिष्यों को ज्ञान मिला, सम्मान मिला, आलोचनात्मक विवेक मिला, संघर्ष का रास्ता मिला, चुनौतियां मिलीं और जनता का बेइंतिहा प्यार मिला।
गुरूवर नामवर सिंह के जो आलोचक शिष्य थे वे उनकी बातों पर विवाद करते थे, उनकी बातों, धारणाओं पर असहमति व्यक्त करते थे। इस कारण उन्हें अनेकबार क्षति भी उठानी पड़ती थी और क्षति का सिलसिला बाद में भी बना रहता था। इसके बावजूद नामवर सिंह की विद्वतापूर्ण परंपरा का विकास इन्हीं आलोचक शिष्यों ने किया, भक्त शिष्यों ने नहीं किया।
गुरूवर नामवर सिंह की शिष्य परंपरा का जिक्र करना इसलिए भी जरूरी है कि उसमें जो कूपमंडूक शिष्य रहे हैं, जो इन दिनों गुरूकृपा और सिंहों (स्व.विश्वनाथप्रताप सिंह, अर्जुन सिंह, दिग्विजय सिंह आदि) की कृपा से परमपदों को प्राप्त कर चुके हैं, वे इन दिनों ज्ञान में दूर की कौडियां फेंक रहे हैं उनमें से ही एक जनाब पिछले दिनों कोलकाता आए और बताकर गए कि 12वीं सदी में ही लोकसमाज था और उस लोकसमाज की अभिव्यक्ति का भक्ति साहित्य लिखा गया। अब बताइए इस अतीतप्रेम का क्या करें?
हमारे बीच में अतीतपूजकों की भीड़ है और वे सब जगह उपलब्ध हैं। श्रोताओं ने वाह-वाह की, अध्यक्षता कर रहे एक स्थानीय विद्वान ने प्रशंसा करते-करते चरण ही पकड़ लिए। मेरी समस्या यह नहीं है कि बोलने वाले कितने बड़े विद्वान हैं, विद्वान तो वे हैं ही, वे जेएनयू में प्रोफेसर रहे हैं, इन दिनों लोकसंघसेवा आयोग के सदस्य हैं। उनका नाम पुरूषोत्तम अग्रवाल है। वे सुंदर वक्ता हैं। लोग उनकी भक्ति करें और प्रशंसा में बिछ जाएं, मुझे इससे भी कोई शिकायत नहीं है। मेरी समस्या यह है कि भारत में 12वीं सदी में लोकसमाज कहां से पैदा हो गया?
आज के जमाने में कोई व्यक्ति, वह भी जेएनयू का पढ़ा-लिखा, वहां का भू.पू. प्रोफेसर जब यह कहे तो निश्चित रूप से चिंता की बात है। तथ्य, सत्य और सामाजिक इतिहास इन तीनों ही दृष्टियों से यह बात गलत और आधारहीन है। मजेदार बात यह है कि यह सच्चाई किसी भी मध्यकाल के मार्क्सवादी और गैर मार्क्सवादी इतिहासकार को नजर नहीं आयी। स्वयं कार्ल मार्क्स, एंगेल्स को एशियाई उत्पादन पद्धति का विश्लेषण करते हुए दिखाई नहीं दी। देवीप्रसाद चट्टोपाध्याय से लेकर के.दामोदरन तक किसी भी दर्शनशास्त्री को नजर नहीं आयी। रामशरण शर्मा से लेकर रोमिला थापर, मोहम्मद हबीब से लेकर इरफान हबीब तक किसी को भी 12 वीं सदी में लोकसमाज की धारणा हाथ नहीं लगी।
तकरीबन सभी बड़े इतिहासकारों ने भक्ति आंदोलन पर काम किया है उन्हें भी वहां लेकसमाज दिखाई नहीं दिया। यहां तक कि समाजशास्त्री धूर्जटि प्रसाद मुखर्जी को भी भक्ति आंदोलन के मूल्यांकन के क्रम में यह धारणा नजर नहीं आयी। मार्क्सवादी समाजशास्त्री टाम बाटमोर को भी दिखाई नहीं दी। मानवविज्ञानियों को भी यह बात नजर नहीं आयी और यह दूर की कौड़ी पुरूषोतम अग्रवाल को दिख गई है।
धन्य हैं वे और उनका ज्ञान। लोकसमाज समाज कभी औद्योगिक पूंजीवाद के बिना जन्म नहीं लेता। व्यापारिक पूंजीवाद में किसी भी देश में लोकसमाज नहीं बना है।
हिन्दी में पुरूषोत्तम अग्रवाल अकेले ‘आलोचक’ नहीं हैं जो 12वीं सदी में लोकसमाज खोज लाए हैं यह काम बड़े ही अवैज्ञानिक ढ़ंग से रामविलास शर्मा पहले कर चुके हैं। अन्य छुटभैय्ये आलोचक तो अनुकरण करके रामविलास शर्मा का भावानुवाद करते रहे हैं।
12वीं शताब्दी का भारत कैसा था और सामाजिक संरचनाएं कैसी थीं इस पर मध्यकाल के इतिहासकार अधिकारी विद्वानों ने इतना लिखा है कि उसे भी यदि गंभीरता से पुरूषोत्तम अग्रवाल ने पढ़ लिया होता तो उनका उपकार होता। लेकिन वे अतीतप्रेम और मौलिक खोज के चक्कर में जिन तर्कों के आधार पर 12 वीं सदी में लोकसमाज खोज रहे हैं वैसा और उससे भी सुंदर लोकसमाज तो वैदिककाल में भी है। ईसा के जमाने और देश में भी था। कुरान के रचनाकाल में था।
लोकसमाज एक समाजशास्त्रीय केटेगरी है। हिन्दी का आलोचक इसका बड़े ही चलताऊ ढ़ंग से इसका इस्तेमाल करता है और उसका यही चलताऊ ढ़ंग ही है जो उसे अवैज्ञानिक अवधारणात्मक समझ तक ले जाता है।
12 वीं सदी में लोकसमाज नहीं था बल्कि वर्ण व्यवस्था पर आधारित जाति समाज था। यह निर्विवाद सत्य है। जाति समाज में क्षय के लक्षण नजर आ रहे थे। लेकिन जाति संरचनाओं के सामाजिक आधार को कभी उस दौर में चुनौती नहीं दी गयी। भक्ति आंदोलन के कवियों के यहां जो जाति व्यवस्था का विरोध है वह एक मानसिक कोटि के रूप में है, भक्ति के कवि जातिप्रथा के सामाजिक आधार को कभी चुनौती नहीं देते। भौतिक तौर पर यह संभव भी नहीं था।
दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि लोकसमाज के उदय और विकास के लिए प्रकृतिविज्ञान का उदय जरूरी है। प्रकृतिविज्ञान की खोजों के पहले लोकसमाज, औद्योगिक पूंजीवाद जन्म नहीं लेता। कम से कम 12 वीं सदी में प्रकृतिविज्ञान का उदय सारी दुनिया में कहीं पर भी नहीं हुआ था। भारत में भी नहीं। प्रकृतिविज्ञान और आधुनिक विज्ञान की अन्य खोजों के कारण लोकसमाज के निर्माण की प्रक्रिया 18वीं सदी के आरंभ से दिखती है। उसके पहले नहीं।
24 सितंबर को अयोध्या की विवादित ज़मीन के मालिकाना हक़ पर ऊंची अदालत का फ़ैसला आएगा…निर्णय क्या होगा, कोर्ट ही जाने, उससे किसे ख़ुशी मिलेगी और किसका चेहरा लटक जाएगा, ये भी वक़्त बताएगा, लेकिन अयोध्या की पीर कब कम होगी…ये एक बड़ा सवाल है…अयोध्या की पीड़ा, उसकी ही ज़ुबानी…
-चंडीदत्त शुक्ल
मैं अयोध्या हूं…। राजा राम की राजधानी अयोध्या…। यहीं राम के पिता दशरथ ने राज किया…यहीं पर सीता जी राजा जनक के घर से विदा होकर आईं। यहीं श्रीराम का राज्याभिषेक हुआ। यहीं बहती है सरयू, लेकिन अब नदी की मस्ती भी कुछ बदल-सी गई है। कहां तो कल तक वो कल-कल कर बहती थी और आज, जैसे धारा भी सहमी-सहमी है…धीरे-धीरे बहती है। पता नहीं, किस कदर सरयू प्रदूषित हो गई है…कुछ तो कूड़े-कचरे से और उससे भी कहीं ज्यादा सियासत की गंदगी से। सच कहती हूं…आज से सत्रह साल पहले मेरा, अयोध्या का कुछ लोगों ने दिल छलनी कर दिया…वो मेरी मिट्टी में अपने-अपने हिस्से का खुदा तलाश करने आए थे…।
ऐसा पहली बार नहीं हुआ…सैकड़ों साल से मज़हबों के नाम पर कभी हिंदुओं के नेता आते हैं, तो कभी मुसलमानों के अगुआ आ धमकते हैं…वो ज़ोश से भरी तक़रीरे देते हैं…अपने-अपने लोगों को भड़काते हैं और फिर सब मिलकर मेरे सीने पर घाव बना जाते हैं…। कभी हर-हर महादेव की गूंज होती है, तो कभी अल्ला-हो-अकबर की आवाज़ें आती हैं….
लेकिन ये आवाज़ें, नारा-ए-तकबीर जैसे नारे अपने ईश्वर को याद करने के लिए लगाए जाते हैं…? पता नहीं…ये तो ऊंची-ऊंची आवाज़ों में भगवान को याद करने वाले जानें, लेकिन मैंने, अयोध्या ने तो देखा है…अक्सर भगवान का नाम पुकारते हुए आए लोगों ने खून की होलियां खेली हैं…और हमारे घरों से मोहब्बत लूट ले गए हैं। जिन गलियों में रामधुन होती थी…जहां ईद की सेवइयां खाने हर घर से लोग जमा होते थे…वहां अब सन्नाटा पसरा रहता है…वहां नफ़रतों का कारोबार होता है।
किसी को मंदिर मिला, किसी को मसज़िद मिली…हमारे पास थी मोहब्बत की दौलत, घर को लौटे, तो तिज़ोरी खाली मिली। छह दिसंबर, 1992 को अयोध्या में जो कुछ हुआ…हो गया पर वो सारा मंज़र अब तक याद आता है…और जब याद आता है, तो थर्रा देता है। धर्म के नाम पर जो लोग लड़े-भिड़े, उनकी छातियां चौड़ी हो जाती हैं…कोई शौर्य दिवस मनाता है, कोई कलंक दिवस, लेकिन अयोध्या के आम लोगों से पूछो–वो क्या मनाते हैं, क्या सोचते हैं। बाकी मुल्क के बाशिंदे क्या जानते हैं…क्या चाहते हैं? वो तो आज से सत्रह साल पहले का छह दिसंबर याद भी नहीं करना चाहते, जब एक विवादित ढांचे को कुछ लोगों ने धराशायी कर दिया था। हिंदुओं का विश्वास है कि विवादित स्थल पर रामलला का मंदिर था। वहां पर बनेगा तो राम का मंदिर ही बनेगा…। मुसलिमों को यकीन है कि वहां मसज़िद थी।
जिन्हें दंगे करने थे, उन्होंने घर जलाए, जिन्हें लूटना था, वो सड़कों पर हथियार लेकर दौड़े चले आए। नफरतों का कारोबार उन्होंने किया…और बदनाम हो गई अयोध्या…मैंने क्या बिगाड़ा था किसी का?
मेरी गलियों में ही बौद्ध और जैन पंथ फला-फूला। पांच जैन तीर्थंकर यहां जन्मे। इनके मंदिर भी तो बने हैं यहां. वो लोग भला क्यों नहीं झगड़ते। नहीं…मैं ये नहीं चाहती कि वो भी अपने मज़हब के नाम पर लड़ाइयां लड़ें, लेकिन मंदिर और मसजिद के नाम पर तो कितनी बड़ी लड़ाई छिड़ गई है।
आज, इस पहर, जैसे फिर वो मंज़र आंख के सामने उभर आया है…एक मां के सीने में दबे जख्म हरे हो गए हैं, कल फिर सारे मुल्क में लोग अयोध्या का नाम लेंगे…कहेंगे, इसी जगह मज़हब के नाम पर नफ़रत का तमाशा देखने को मिला था।
हमारे नेता तरह-तरह के बयान देते हैं। मुझे कभी हंसी आती है, तो कई बार मन करता है–अपना ही सिर धुन लूं। एक नेता कहती हैं—विवादित स्थल पर कभी मस्जिद नहीं थी, इसीलिए हम चाहते हैं कि वहां भव्य मंदिर बने। वो इसे जनता के आक्रोश का नाम देती हैं। उमा भारती ने साफ़ कहा है कि वो ढांचा गिराने को लेकर माफ़ी नहीं मांगेंगी, चाहे उन्हें फांसी पर चढ़ा दिया जाए।
सियासतदानों की ज़ुबान के क्या मायने हैं, वही जानें–वही समझें, ना अयोध्या समझ पाती है, ना उसके मासूम बच्चे। राम के मंदिर के सामने टोकरियों में फूल बेचते मुसलमानों के बच्चे नहीं जानते कि दशरथ के बेटे का मज़हब क्या था, ना ही सेवइयों का कारोबार करने वाले हिंदू हलवाइयों को मतलब होता है इस बात से कि बाबर के वशंजों से उन्हें कौन-सा रिश्ता रखना है और कौन-सा नहीं। वो तो बस एक ही संबंध जानते हैं—मोहब्बत का!
खुदा ही इंसाफ़ करेगा उन सियासतदानों का, जो मेरे घर, मेरे आंगन में नफ़रत की फसल बोकर चले गए? मैं देखती हूं…मेरी बहनें–दिल्ली, पटना, काशी, लखनऊ…सबकी छाती ज़ख्मी है।
एक नेता कहती हैं—जैसे 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद सिखों के ख़िलाफ़ नफ़रत फैली थी और कत्ल-ए-आम हुए थे, वैसे ही तो छह दिसंबर, 1992 को विवादित ढांचा गिरा दिया ….अयोध्या में मौजूद कुछ लोग जनविस्फोट को कैसे रोक पाते?
वो बताएं….सड़कों पर निकले हुए लोग एक-दूसरे को देखकर गले लगाने को क्यों नहीं मचल पड़ते। क्यों नहीं उनके मन में आता–सामने वाले को जादू की झप्पी देनी है। क्या नफ़रतों के सैलाब ही उमड़ते हैं? बसपा की नेता, उप्र की मुख्यमंत्री मायावती कांग्रेस को दोष देती हैं…कांग्रेस वाले बीजेपी पर आरोप मढ़ते हैं। बाला साहब ठाकरे कहते हैं…1992 में हिंदुत्ववादी ताकतें एक झंडे के तले नहीं आईं…नहीं तो मैं भी अयोध्या आता।
मुझ पर, अयोध्या पे शायद ही इतने पन्ने किसी ने रंगे हों, लेकिन हाय री मेरी किस्मत…मेरी मिट्टी पर छह दिसंबर, 1992 को जो खून बरसा, उसके छींटों की स्याही से हज़ारों ख़बरें बुन दी गईं। किसने घर जलाया, किसके हाथ में आग थी…मुझको नहीं पता। हां! एक बात ज़रूर पता है…मेरे जेहन में है…खयाल में है…विवादित ढांचे की ज़मीन पर कब्जे को लेकर सालों से पांच मुक़दमे चल रहे हैं…।
पहला मुक़दमा तो 52 साल भी ज्यादा समय से लड़ा जा रहा है, यानी तब से, जब जंग-ए-आज़ादी के जुनून में पूरा मुल्क मतवाला हुआ था। अफ़सोस…मज़हब का जुनून भी देशप्रेम पर भारी पड़ गया। मुझे पता चला है कि कई मामले 6 दिसम्बर 1992 को विवादित ढांचा गिराए जाने से जुड़े हैं। क्या कहूं…या कुछ ना कहूं…चुप रहूं, तो भी कैसे? मां हूं…मुझसे अपनी ऐसी बेइज़्ज़ती देखी नहीं जाती। कहते हैं—23 दिसंबर 1949 को विवादित ढांचे का दरवाज़ा खोलने पर वहां रामलला की मूर्ति रखी मिली थी। मुसलिमों ने आरोप लगाया था–रात में किसी ने चुपचाप ये मूर्ति वहां रख दी थीं।
किसे सच कहूं और किसे झूठा बता दूं…दोनों तेरे लाल हैं, चाहे हिंदू हों या फिर मुसलमान…मैं बस इतना जानना चाहती हूं कि नफ़रत की ज़मीन पर बने घर में किसका ख़ुदा रहने के लिए आएगा?
23 दिसंबर, 1949 को ढांचे के सामने हज़ारों लोग इकट्ठा हो गए. यहां के डीएम ने यहां ताला लगा दिया। मैंने सोचा—कुछ दिन में हालात काबू में आ जाएंगे…लेकिन वो आग जो भड़की, वो फिर शांत नहीं हुई। अब तक सुलगती जा रही है और मेरे सीने में कितने ही छाले बनाती जा रही है…। 16 जनवरी, 1950 को गोपाल सिंह विशारद, दिगंबर अखाड़ा के महंत और राम जन्मभूमि न्यास के तत्कालीन अध्यक्ष परमहंस रामचंद्र दास ने अर्ज़ी दी कि रामलला के दर्शन की इजाज़त मिले। अदालत ने उनकी बात मान ली और फिर यहां दर्शन-पूजा का सिलसिला शुरू हो गया। एक फ़रवरी, 1986 को यहां ताले खोल दिए गए और इबादत का सिलसिला ढांचे के अंदर ही शुरू हो गया।
हे राम! क्या कहूं…अयोध्या ने कब सोचा था कि उसकी मिट्टी पर ऐसे-ऐसे कारनामे होंगे। 11 नवंबर, 1986 को विश्व हिंदू परिषद ने यहीं पास में ज़मीन पर गड्ढे खोदकर शिला पूजन किया। अब तक अलग-अलग चल रहे मुक़दमे एक ही जगह जोड़कर हाईकोर्ट में एकसाथ सुने जाएं। किसी और ने मांग की—विवादित ढांचे को मंदिर घोषित कर दिया जाए। 10 नवंबर 1989 को अयोध्या में मंदिर का शिलान्यास हुआ और 6 दिसंबर 1992 को वो सबकुछ हो गया…जो मैंने कभी नहीं सोचा था…। कुछ दीवानों ने वो ढांचा ही गिरा दिया…जिसे किसी ने मसज़िद का नाम दिया, तो किसी ने मंदिर बताया। मैं तो मां हूं…क्या कहूं…वो क्या है…। क्या इबादतगाहों के भी अलग-अलग नाम होते हैं? इन सत्रह सालों में क्या-क्या नहीं देखा…क्या-क्या नहीं सुना…क्या-क्या नहीं सहा मैंने। मैं अपनी भीगी आंखें लेकर बस सूनी राह निहार रही हूं…क्या कभी मुझे भी इंसाफ़ मिलेगा? क्या कभी मज़हब की लड़ाइयों से अलग एक मां को उसका सुकून लौटाने की कोशिश भी होगी?
1993 में यूपी सरकार ने विवादित ढांचे के पास की 67 एकड़ ज़मीन एक संगठन को सौंप दी..। 1994 में सुप्रीम कोर्ट ने ये फैसला रद कर दिया। अदालत ने ध्यान तो दिया था मेरे दिल का…मेरे जज़्बात का…इंसाफ़ के पुजारियों ने साफ़ कहा था… मालिकाना हक का फ़ैसला होने से पहले इस ज़मीन के अविवादित हिस्सों को भी किसी एक समुदाय को सौंपना `धर्मनिरपेक्षता की भावना’ के अनुकूल नहीं होगा। इसी बीच पता चला कि उत्तर प्रदेश सचिवालय से अयोध्या विवाद से जुड़ी 23 फा़इलें ग़ायब हो गईं। क्या-क्या बताऊं…! मज़हब को लेकर फैलाई जा रही नफ़रत मैं बरसों-बरस से झेल रही हूं। 1528 में यहां एक मसज़िद बनाई गई। 1853 में पहली बार यहां सांप्रदायिक दंगे हुए।
1859 में अंग्रेजों ने बाड़ लगवा दी। मुसलिमों से कहा…वो अंदर इबादत करें और हिंदुओं को बाहरी हिस्से में पूजा करने को कहा। हाय रे…क्यों किए थे अंग्रेजों ने इस क़दर हिस्से? ये कैसा बंटवारा था…उन्होंने जो दीवार खींची…वो जैसे दिलों के बीच खिंच गई। 1984 में कहा गया–यहां राम जन्मे थे और इस जगह को मुक्त कराना है। हिंदुओं ने एक समिति बनाई और मुसलमानों ने इसके विरोध में बाबरी मस्जिद संघर्ष समिति गठित कर डाली। 1989 में विश्व हिंदू परिषद ने राम मंदिर निर्माण के लिए अभियान तेज़ कर दिया और विवादित स्थल के नज़दीक राम मंदिर की नींव डाल दी। 1990 में भी विवादित ढांचे के पास थोड़ी-बहुत तोड़फोड़ की गई थी। 1992 में छह दिसंबर का दिन…मेरे हमेशा के लिए ख़ामोशियों में डूब जाने का दिन…अपने-अपने ख़ुदा की तलाश में कुछ दीवानों ने मुझे शर्मसार कर दिया। विवादित ढांचे को गिरा दिया गया। अब कुछ लोग वहां मंदिर बनाना चाहते हैं…तो कुछ की तमन्ना है मसज़िद बने…। मैं तो चाहती हूं…कि मेरे घर में, मेरे आंगन में मोहब्बत लौट आए।
बीते सत्रह सालों में मैंने बहुत-से ज़ख्म खाए हैं…सारे मुल्क में 2000 लोगों की सांसें हमेशा के लिए बंद हो गईं…कितने ही घरों में खुशियों पर पहरा लग गया। ऐसा भी नहीं था कि दंगों और तोड़फोड़ के बाद भी ज़िंदगी अपनी रफ्तार पकड़ ले। 2001 में भी इसी दिन खूब तनाव बढ़ा…जनवरी 2002 में उस वक्त के पीएम ने अयोध्या समिति गठित की…पर हुआ क्या??? क्या कहूं…!!! मेरी बहन गोधरा ने भी तो वही घाव झेले हैं…फरवरी, 2002 में वहां कारसेवकों से भरी रेलगाड़ी में आग लगा दी गई। 58 लोग वहां मारे गए। किसने लगाई ये आग…। अरे! हलाक़ तो हुए मेरे ज़िगर के टुकड़े ही तो!! मां के बच्चों का मज़हब क्या होता है? बस…बच्चा होना!!
अब तक तमाम सियासतदां मेरे साथ खिलवाड़ करते रहे हैं। फरवरी, 2002 में एक पार्टी ने यकायक अयोध्या मुद्दे से हाथ खींच लिया…। जैसे मैं उनके लिए किसी ख़िलौने की तरह थी। जब तक मन बहलाया, साथ रखा, नहीं चाहा, तो फेंक दिया। आंकड़ों की क्या बात कहूं…कितनी तस्वीरें याद करूं…जो कुछ याद आता है…दिल में और तक़लीफ़ ताज़ा कर देता है। क्या-क्या धोखा नहीं किया…किस-किस ने दग़ा नहीं दी।
अभी-अभी लिब्राहन आयोग ने रिपोर्ट दी है..कुछ लोगों को दंगों का, ढांचा गिराने का ज़िम्मेदार बताया है…सुना है…उन्हें सज़ा देने की सिफ़ारिश नहीं की गई है। गुनाह किसने किया…सज़ा किसे मिलेगी…पता नहीं…पर ये अभागी अयोध्या…अब भी उस राम को तलाश कर रही है…जो उसे इंसाफ़ दिलाए।
कोई कहता है—अगर मेरे खानदान का पीएम होता, तो ढांचा नहीं गिरता…कोई कहता है—अगर मैं नेता होती, तो मंदिर वहीं बनता…कहां है वो…जो कहे…मैं होता तो अयोध्या इस क़दर सिसकती ना रहती…मैं होती, तो मोहब्बत इस तरह रुसवा नहीं होती।
(फोकस टीवी पर प्रसारित डॉक्यूमेंट्री का अविकल आलेख)