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जनता के पैसे का तबियत से दुरूपयोग करते हैं जनसेवक

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आजाद भारत में जनता को दो महत्वपूर्ण अधिकार दिया गया है, एक है वोट देने का, और दूसरा है कर देने का। वोट देकर वह अपना जनसेवक चुनता है और कर देकर उस जनसेवक के भोग विलास के मार्ग प्रशस्त करती है। आज आम आदमी को एक समय खाना खाने के पूरे पैसे न हों पर देश के नीति निर्धारक जनसेवकों के ठाठ देखते ही बनते हैं। लक झक चमचमाती मंहगी कारें, आलीशान अट्टालिकाएं, परिजनों के लिए विलासिता की चीजें और न जाने क्या क्या। इतना ही नहीं अपने सरकारी आवासों को भी ये आलीशान फाईव स्टार के कमरों जैसा बनाने से नहीं चूकते हैं। सवाल यह उठता है कि जब केंद्रीय लोक निर्माण विभाग (सीपीडब्लूडी) के पास इतना बजट है ही नहीं तो आखिर ये अपने अरमानों को परवान कैसे चढा पाते हैं।

देखा जाए तो केंद्रीय मंत्रियों के आवासों की देखरेख और संवारने की महती जवाबदारी अपने जर्जर कंधों पर उठाए सीपीडब्लूडी का बजट इतना है कि वह मंत्रियों की फरमाईशों के सामने उंट के मुंह में जीरे की कहावत को चरितार्थ करता है। सीपीडब्लूडी के पास मंत्रियों के आवास को चमकाने के लिए महज 75 हजार से ढाई लाख रूपए तक का बजट होता है। मकानों को निखारने, संवारने के लिए सीपीडब्लूडी के पास 75 हजार, टाईप 5 से टाईप 7 तक की कोठियों के लिए डेढ लाख तो टाईप आठ के लिए ढाई लाख रूपए का बजट प्रावधान है। अगर कोई सूचना के अधिकार में मंत्रियों के आवासों पर हुए व्यय की जानकारी ले ले तो भारत के महालेखा परीक्षक भी दांतों तले उंगली दबाने पर मजबूर हो जाएंगे।

दरअसल जनसेवक जो मंत्री बन जाते हैं उनके विभाग के अंतर्गत आने वाले सार्वजनिक उपक्रम (पीयूसी) और विभाग में काम करने वाले ठेकेदारों द्वारा मंत्रियों के सरकारी आवास को चमकाने का काम किया जाता है। विडम्बना तो देखिए कि मंत्री के आवास पर हुए व्यय के बारे में कोई पूछ परख ही नहीं करता। अगर एक ईंट भी जोडी गई है, और वह सरकारी पैसे से नहीं जुडी है तो क्या उसके बारे में संबंधित मंत्री ने अपनी आयकर विवरण्ाी में इसका उल्लेख किया है। जाहिर है नहीं ही किया है। यह बात भी उतनी ही सच है जितनी कि दिन और रात कि मंत्रियों के आवासों को चमकाने के लिए पीयूसी द्वारा लाखों व्यय किए जाते हैं, यही कारण है कि मंत्रीपद से हटने के बाद भी जनसेवक अपने उस सरकारी आवास का मोह नहीं छोड पाते हैं, और महीनों वहां जमे ही रहते हैं।

जैसे ही आम चुनाव होते हैं और नए मंत्री चुनकर आते हैं, तब उनकी पत्नियों के हिसाब से मंत्री आवास का इंटीरियर डेकोरेशन किया जाता है। कमरों में वास्तु के हिसाब से दरवाजे, शयन कक्ष में फेरबदल कुल मिलाकर नए कमरे बनाना, पुराने को ठीक करना, रंग रोगन, प्लास्टर ऑफ पेरिस का काम, मंहगे रंग रोगन, फर्नीचर आदि को बाजारू कीमत पर देखा जाए तो एक आवास में 75 हजार से ढाई लाख रूपए का बजट बहुत ही कम है।

एकडों में फैले मंत्रियों के आवासों में उनके बंग्ला कार्यालय में भी मनचाहा परिवर्तन करवाया जाता है। उनके बंग्ला कार्यालय में पर्सनल स्टाफ के बैठने के स्थान को देखकर आम सरकारी बाबू रश्क ही कर सकता है। साथ ही ”शौकीन जनसेवकों” द्वारा तो अपने आवासों में मंहगी विदेशी लान ग्रास के साथ ही साथ लेंड स्केपिंग भी करवाई जाती है। इतना हीं नहीं मंत्रालयों में मंत्री कक्षों को सजाने संवारने में भी लाखों करोडों रूपए फूंक दिए जाते हैं। जनसेवकों का मानना होगा कि जब भी उनके निर्वाचन क्षेत्र से कोई मिलने आए तो वह वहां की साज सज्जा देख दांतों तले उंगली ही दबा ले। यही कारण है कि मंत्रियों के कार्यालयों में विजिटर्स रूम भी मंत्रीकक्ष से कम नहीं होते हैं।

बहुत ही साधारण सी बात है कि जब मंत्री द्वारा अपने आवास में लाखों खर्च कर उसे अपने अनुरूप बनाया जाता है तो फिर वे उसे मंत्रीपद से हटने के बाद जल्दी कैसे छोड दें। यही वजह उनके आवास में प्रवेश के दौरान आती है। जब मंत्री को आवास आवंटित होता है तब पुराना मंत्री उसे छोडता नहीं। बाद में साल छ: माह बीतने पर जब आवास खाली होता है, तब नए मंत्री के हिसाब से उसकी साज सज्जा में साल छ: महीना और लग जाता है, इस तरह इतने समय मंत्री कहां रहता है। जाहिर है फाईव स्टार होटल में। उस होटल का भोगमान कौन भुगतता है। पैसा पेडों पर तो नहीं लगता है, पैसा वही मतदाता करों के माध्यम से ही चुकाता है। हमें यह कहने में कोई संकोच नहीं कि ”सादा जीवन उच्च विचार” का नारा लगाकर देश के ”जनसेवक” किस तरह ”विलासिता पूर्ण जीवन और निम्न विचारों” को अंगीकार किए हुए हैं।

आज इस बात पर चिंतन करने की महती जरूरत है कि देश के नीति निर्धारक जनसेवक आखिर अपनी रियाया के साथ किस तरह का न्याय कर उसे क्या दे रहे हैं। इतिहास में इस बात का उल्लेख भी मिलता है कि मुगल शासकों में सबसे अधिक लोकप्रिय रहे सम्राट अकबर ने भी अनेकों बार भेष बदलकर अपनी रियाया के हाल चाल जाने और उनके दुखदर्द दूर किए। आजाद भारत में जनता किस कदर कराह रही है, और जनता की सेवा के लिए तत्पर जनसेवकों द्वारा अपने स्वार्थों को कितनी संजीदगी, तन्मयता और मुस्तैदी के साथ पूरा किया जा रहा है यह बात देखते ही बनती है। कहने को तो राजनैतिक दलों द्वारा ”रामराज” और ”सुराज” लाने का दावा किया जाता है, पर जमीनी हकीकत इससे उलट कुछ और बयां करती नजर आती है।

-लिमटी खरे

कहां गई गौरैया की चहचहाहट

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याद है, जब छोटे थे, तब स्कूल जाने के लिए अलह सुबह उठाया जाता था, यह कहकर देखो चिडिया आई, देखो कौआ आया, वो देखो मोर आया। घर की मुंडेर पर छोटी सी चिडिया चहकती रहती, और उठकर स्कूल के लिए तैयार होने लगते। गरमी में कोयल की कूक मन को अलग ही सुकून देती थी। आज आधुनिकता के इस दौर में जब बच्चों को उठाया जाता है तो उन्हें चिडिया, कौआ के स्थान पर टीवी पर ”डोरीमाल” ”नोमिता” जैसे कार्टून केरेक्टर्स को दिखाकर उठाया जाता है। यह सच है, परिवर्तन बहुत ही तेजी से हुआ है, हमारी पीढी इस द्रुत गति से होने वाले परिवर्तन की साक्षात गवाह है। यह परिवर्तन सतत् प्रक्रिया है, पर अस्सी के दशक के उपरांत परिवर्तन की गति को पंख लग चुके हैं। कल तक मुंडेर पर बैठे कौए और अन्य पक्षियों के कलरव पर गाने भी बना करते थे, शकुन अपशकुन के मामले में भी अनेकानेक धारणाएं हुआ करती थीं।

विडम्बना यही है कि हमने भाग दौड में आधुनिक दुनिया की कल्पना तो कर ली पर प्रकृति के साथ जो हमने छेडछाड या सीधे शब्दों में कहें बलात्कार किया है, वह अक्ष्म्य ही है। इसका भोगमान कोई ओर नहीं वरन हमारी आने वाली पीढी को ही भोगना है। ईश्वर ने इस कायनात की रचना की है। इस सृष्टि में जितने भी जीव जंतु प्रभु ने बनाए हैं, सबकी अपनी अलग अलग भूमिका और महत्व है। स्वच्छंद विचरित होने वाले पक्षियों पर अघोषित तौर पर मानव का हस्ताक्षेप भारी पडा है। अपने सुख सुविधा और स्वाद के चक्कर में पक्षियों को प्रश्रय देने के स्थान पर मौत के घाट उतारा गया, जिससे इनकी संख्या में तेजी से गिरावट दर्ज की गई, रही सही कसर पर्यावरण प्रदूषण ने पूरी कर दी।

हमें यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि आज पक्षियों की सैकडों प्रजातियां विलुप्तप्राय हैं। गिध्द, सारस, कोयल, गोरैया, कौवा आदि अब बमुश्किल ही दिख पाते हैं। गुजरे जमाने में राजा महराजाओं से लेकर नवाबों की थाली की शान होने वाली शीली, बटेर, दिघोची, तीतर, लालशर जैसी चिडिया अब देखने को नहीं मिलती। अनेक निरामिष भोजनालयों में अब भुने हुए तीतर या बटेर के स्थान पर गोरैया को ही परोसा जा रहा है। गाय, भैंस का दूध बढाने की गरज से दी जाने वाली दवाओं का प्रतिकूल असर भी देखने को मिला है। इनके मृत शरीर का भक्षण कर पर्यावरण का एक सशक्त पहेरूआ ”गिद्ध” अब देखे से नहीं दिखता है। पक्षियों की संख्या में कमी से पर्यावरण विशेषज्ञों की पेशानी पर चिंता की लकीरें साफ दिखाई पडने लगी हैं।

पर्यावरण विदों की मानें तो पक्षियों का होना मानव स्वास्थ्य के लिए अत्यावश्यक है। ये मानव जीवों के लिए खतरनाक कीट पतंगों को अपना निवाला बनाकर मनुष्यों की रक्षा करते हैं। ये पक्षी ही हैं जो कीट पतंगों के अलावा मृत जानवरों के अवशिष्ट को भी धरती से समाप्त करते हैं। विलुप्त होते पक्षियों को लेकर सरकारी और गैर सरकारी संगठन चिंता जाहिर कर रस्म अदायगी से बाज नहीं आते हैं। ”मन राखन लाल” की भूमिका निभाने वाले इन संगठनों ने कभी भी पक्षियों को बचाने की दिशा में कोई ठोस पहल नहीं की है। यहां तक कि भारत सरकार के सूचना प्रसारण मंत्रालय द्वारा भी ग्रामीणों को जागरूक बनाने की दिशा में डाक्यूमेंटरी या विज्ञापनों का निर्माण तक नहीं करवाया है। परिणाम यह है कि दीगर पक्षियों के अलावा हर घर में चहकने वाली गोरैया भी अब दुर्लभ पक्षी की श्रेणी में आ चुकी है।

कुछ माह पूर्व दिल्ली की निजाम श्रीमति शीला दीक्षित ने एक कार्यक्रम के दौरान कहा था कि अब गोरैया भी दुर्लभ हो गई है। यह सच है कि देश की राजनैतिक राजधानी दिल्ली में कबूतरों के अलावा और दूसरे पक्षी दिखाई ही नहीं पडते हैं। कबूतर भी इसलिए कि यहां के लोगों को कबूतर पालने का शौक है। वैसे जंगली कबूतरों की भी दिल्ली में भरमार ही है। नासिक के एक व्यक्ति ने गोरैया के घोसले बनाकर बेचना भी आरंभ किया है।

एक समय था जब घरों में महिलाओं द्वारा गेंहूं या चावल बीनते समय कुछ दाने इन चिडियों के लिए जानबूझकर गिरा दिए जाते थे। इन दानों के चक्कर में घरों के आसपास चिडिया चहकती रहती थीं। अब माल और डिब्बा बंद प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थों के बढे प्रचलन ने इन पक्षियों के मुंह से निवाला छीन लिया है। इसके अलावा शहरों में सीना ताने खडे मोबाईल टावर की चुम्बकीय तरंगों, वाहनों के द्वारा छोडे जाने वाले धुंए ने भी पक्षियों के लिए प्रतिकूल माहौल तैयार किया है।

एक अनुमान के अनुसार पक्षियों के कम होने के पीछे कामोत्तेजक दवाओं का तेजी से प्रचलन में आना है। असंयमित खानपान और रहन सहन के चलते कामोत्तेजक दवाओं का बाजार तेजी से गर्माया है। गोरैया के अण्डों का इस्तेमाल कामोत्तेजक दवाओं में किया जाता है। चीन के माफिया सरगनाओं ने गैंडे के सींग से सेक्स बढाने की दवाएं इजाद की। कल तक गैंडों से आच्छादित भारत के जंगलों में अब इनकी तादाद महज 200 ही रह गई है।

अब समय आ चुका है कि पक्षियों को बचाने की दिशा में हम जागरूक हो जाएं। हमें हर हाल में पक्षियों के जीने के लिए अनुकूल माहौल प्रशस्त करना ही होगा। पक्षियों की तादाद अगर दिनों दिन कम होती गई तो पर्यावरण का जो असंतुलन पैदा होगा उसका भोगमान किसी और को नहीं हमारी आने वाली पीढी को ही भोगना होगा, जिसके उज्जवल भविष्य के लिए आज हम धन दौलत एकत्र कर छोडे जाने वाले हैं। हम अपने वंशजों को धन दौलत, संपन्नता, सुविधाएं तो देकर इस दुनिया से रूखसत हो जाएंगे, किन्तु जब पर्यावरण असंतुलन होगा तब हमारी आने वाली पीढी जिस कठिनाई में जीवन व्यतीत करेगी उसका अंदाजा आज लगाना असंभव ही है। सरकार को चाहिए कि वह गैर सरकारी संगठनों के साथ मिलकर पक्षियों को बचाने की दिशा में तत्काल ही कोई मुहिम की ठोस कार्ययोजना बनाए ताकि पक्षियों के कलरव को आने वाली पीढी सुन सके और महसूस कर सके।

-लिमटी खरे

गौ आधारित ग्रामीण विकास – हेमंत दुबे

कृषि में रसायनों का अनियंत्रित उपयोग मानव जगत के शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य हेतु हानिकारक है। अनुसंधानों के तथ्य यह बताते हैं कि रासायनिक उर्वरकों एवं कीटनाशकों के अनियंत्रित उपयोग से मानव स्वास्थ्य पर त्वरित एवं दूरगामी परिणाम होते हैं। जो मनुष्य इन रसायनों के सीधे संपर्क में आते हैं, उनमें त्वरित परिणाम देखने को मिलते हैं जैसे बेहोशी, चक्कर, थकान, सिरदर्द, चमड़ी में खुजली, ऑंखों के आगे अंधेरा छाना, उल्टी आना, श्वास लेने में परेशानी इत्यादि। ग्रामीण क्षेत्रों में अनेक लोगों के द्वारा कीटनाशक पीकर आत्महत्या की कई घटनाएं रिर्पोटेड हैं। कृषि रसायनों में दूरगामी परिणामों में मनुष्यों में नपुंसकता, गर्भपात, कैंसर, शारीरिक एवं मानसिक विकलांगता इत्यादि देखे गये हैं।

हमारे देश में हरितक्रांति काल में पंजाब प्रांत में अधिक उत्पादन के उद्देश्य से कीटनाशकों एवं उर्वरकों का बहुतायात में उपयोग किया जाने लगा। इसके दुष्परिणाम भी यहीं सामने आये। जमीनों की उर्वरता कम होने लगा। अनेक कृषक कर्ज के जाल में उलझ गये। बालों का सफेद होना, लैंगिक असंतुलन, प्रजनन प्रणाली में विकृति एवं कैंसर जैसी बीमारियों का एक प्रमुख धारणा खेती में कीटनाशकों के अनियंत्रित उपयोग को माना गया। पंजाब कृषि विश्वविद्यालय लुधियाना के एक शोध कार्य में अधिकांश खाद्य पदार्थ कीटनाशकों से संदुषित पास गए।

जान हापकिं ग्स यूनिवर्सिटी वाल्टीमोर (मेरीलैंड), अमेरिका के द जरनल ऑफ अल्टरनेटिव एण्ड कंपलीमेंट्री मेडिसिन (2001) में प्रकाशित एक अनुसंधान रिपोर्ट के अनुसार जैविक विधि से उत्पादन अनाज, सब्जी फलों की पोषण गुणवत्ता, रासायनिक विधि से उत्पादित अनाज सब्जी, फलों की तुलना में काफी अधिक होती है। हमारे बुजुर्ग भी अक्सर यही कहा करते हैंकि अन्न, सब्जी, फलों में पुराना स्वाद नहीं रह गया।

हरित क्रांति से पूर्व कृषि परंपरागत तरीकों पर आधारित थी। इस प्रणाली में खेती, बागवानी एवं पशुपालन एक दूसरे के पुरक थे, जिसके अंतर्गत एक प्रणाली का अवशेष अन्य प्रणाली के पोषक के रूप में उपयोग होता था। तात्पर्य यह है कि खेती बागवानी शहरो, गांवों, खलिहानों के सड़ने वाले अवशेष को जैविक खाद के रूप में परिवर्तित कर फसलोत्पादन के रूप में होता था तथा खेतों एवं बागवानी से प्राप्त उत्पादन प्राणी मात्र के उदर पोषण के साथ उद्योगों के उपयोग में आता था। यह थी हमारी संपूर्ण व्यवस्था, स्वस्थ खाद व्यवस्था जिससे ही स्वस्थ था हमारा शरीर और मन, जिससे ही स्वस्थ थे हमारे विचार था।

शुध्द आहार ही स्वस्थ शरीर का आधार है। हमारे चिकित्सक बंधुओं को जैविक आहार के विषय में जागरूक होने की आवश्यकता है ताकि वे रोगियों को ऐसे आहार की अनुशंसा कर सकें।

आज अवश्यकता है हम सबके अन्नदाता को सहारा देने की, शिक्षण देने की, परंपरागत ग्रामीण स्वस्थ खाद व्यवस्था लागू करने की। अन्न एवं अन्नदाता के महत्व को समझाने की। स्वस्थ अन्न के उपयोगकर्ता जब तैयार हो जाएंगे तो स्वस्थ अन्न उगाने वाले स्वतः ही तैयार हो जायेंगे। चाहे वह छोटा कृषक हो या बड़ा कृषक, अधिकांश बाजारोंन्मुखी खेती करते हैं। अच्छी गुणवत्ता वाला अन्न का दाम यदि अच्छा मिलने लगे तो हम कामयाब हो सकेगे जैविक अन्न उगाने में। मांग तैयार कर ही दाम मिल सकेंगे। दाम मिलेंगे तो लोग अपनायेंगे।

आज की परिस्थिति का पुनः अवलोकन करने पर ज्ञात होता है कि आज रबी की फसल के लिए खाद संकट उत्तर भारत में है। किसान अक्रोशित हैं। अन्नदाता असहाय है। इस वक्त इसके आंदोलनों के साथ खड़े होकर एक मुहिम चलाई जा सकती है। इस रासायनिक खाद की व्यवस्था से हमारी गौ संपदा खाद जो कि शुगर मिल के फ्रेसमड और देशी गाय के गोबर से निर्मित है और 11 लाख कुंटल मात्रा में उपलब्ध है, का उत्पादन व उपयोग बेहतर है। सभी दृष्टि में गुणवत्ता और मात्रात्मकता दोनों में यही एक मात्र विकल्प है। हमें यह समझाने का प्रबंध करना होगा कि ‘खाद संकट का स्थायी सस्टेनेविल उपाय गौ संपदा खाद का प्रयोग है’। वापस गौ, ग्राम, ग्रामीण और ग्रामोद्योग की व्यवस्था में जाने का यह सही वक्त है। खाद संकट से खाद्यान्न संकट उत्पन्न होंगे। खाद्यान्न संकट से खाद्य सुरक्षा गड़बड़ायेगी अवश्य। अच्छा मुद्दा हो सकता है गरीब, गाँव और विकास का।

हम इसी वक्त रासायनिक खाद, जो कि कुःखाद है, को हटाकर सुःखाद ‘गौसंपदा’ को स्थापित कर सकते हैं और जब मांग बन गई तो उत्पादन भी करना होगा। जन आंदोलन, खाद संकट के वक्त बनाये जा सकते है जैविक कृषि के लिए।

साझा कार्यक्रम चलाये जोएंगे। मॉडल गाँव में गौग्राम सेवा केंद्र बनाये जायेंगे, जहाँ गौपालन की सामूहिक सहकारी व्यवस्था होगी। नरेगा कार्यक्रम पर भी हम जन आंदोलन खड़े कर सकते हैं। नरेगा कार्यक्रम असफल हो चुका है। इसे पुनर्विचार करने हेतु सरकार का धेराव ग्रामीण अंचलों में कुछ परिणामदायक हो सकता है कि 100 रु. और 100 दिन के सत्ता का पिरामिड बदल सकता है।

गौ सेवा केंद्रों में बायोगैस प्लांट, दुग्ध उत्पादन एवं गौशाला प्रबंधन के कार्य किये जायेंगे। गौपालन सामूहिक होगा। अपने सदस्यों की एक गाय/बैल की व्यवस्था केंद्र करेगा तथा शुरू चरण में यह साझा घरेलू ईंधन गैस को अपने सदस्य किसानों को देगा। बायोगैस और जैविक खाद का उत्पादन उसके सदस्यों की होगी। इसके लिए समिति का गठन करना होगा।

इन गौ सेवा केंद्रों के बनाने से ही सत्ता पिरामिड बदला जा सकेगा। यह समानांतर व्यवस्था होगी ग्राम पंचायत के ग्राम पंचायत सत्ता का राजनैतिक ढांचा है तो हमारी गौ ग्राम सेवा केंद्र एक संपूर्ण सामाजिक ढांचा होंगे। प्रत्यक्ष रूप में तो यह किसान गौग्राम सेवा समितियां होंगी किंतु इस समाज की क्वालिटी ऑफ लाइफ जीवन मूल्यों के उन्नयन पर यानी स्वस्थ स्वच्छ वातावरण, सामाजिक विकास आदि। मूल विषयों के प्रति जन सहयोग और जन भागीदारी का ध्यान रखेंगी।

इनको पुनर्जागरण का केंद्र बनाया जा सकता है। बायोगैस ऊर्जा, जैविक कृषि, गौवंश संरक्षण एवं संबंधित आदि तमाम रोजगार परक योजनाओं के साथ-साथ अपने गौ ग्राम और ग्रामीण गरीबों की समस्या में गांवों के किसानों और युवकों को साथ लेकर समूह श्रम प्रयास किये जाने होंगे।

इस प्रकार हम प्रत्यक्षतः जैविक कृषि के लिए खाद उपलब्ध करवा सकेंगे। साथ ही साथ एक नव समाज का गठन कर सकेंगे। गौ आधारित एक ऐसी साझा संस्कृति का विकास किया जा सकेगा जिसमें धर्मों और संप्रदायों का भेदभाव न हो, केवल मानव बसे और केवल गौवंश आधारित व्यवस्था हो तभी यह श्वेत क्रांति होगी। किसान खुशहाल होंगेऔर तभी देश खुशहाल होगा। देश की खुशहाली का लक्ष्य है गौ आधारित ग्राम विकास मॉडल परियोजना का। इन्हीं प्रयासों द्वारा ही कृष्ण काल को लौटाया जा सकता है।

शांति का आधार: शिक्षा – डॉ रामजी सिंह

शांति जीवन की आधारभूत अशंका है, लेकिन विडंबना है, वह आदिकाल से इसके लिए अशांति के आयोजन में लगा रहा है। यही कारण है अशांति कभी धर्म के रथ पर आती है तो कभी राजनीति की सखी बनकर प्रस्तुत होती है। यही कारण है कि विश्व मानवता हिंसा से लहूलुहान हो चुकी है और लगभग 20 हजार छोटे-बड़े युद्धों के बाद भी निःशस्त्रीकरण एक दिवास्वप्न हो रहा है और अभी भी परमाणु बम और आतंकवाद के विस्फोटों से हमारी धरती हिल रही है। विश्वशांति के लिए किये जा रहे प्रयास वास्तव में एक आडंबर प्रतीत होता है, या तो शांति का संकल्प एक प्रवंचना है तो क्या मान लिया जाये, जैसे बाघ और सिंह के लिए पशु और मनुष्यों का शिकार उसकी प्रकृति का अनिवार्य अंग है ही निराशावाद भी इसमें कमाल का है। भले डार्विन महोदय ने अस्तित्व के लिए जीवन संघर्ष और उसमें योग्यतम की विजय का सिद्धांत निरूपित किया है लेकिन फिर मानव जैसा सीमित शरीर बल का प्राणी किस प्रकार प्रभुसत्ता का अधिकारी बन गया। यदि हम मानव की विजय यात्रा में शरीर बल के साथ उसके बुद्धिबल के कारण उसकी विजय पताका को मानते हैं तो दूसरा प्रश्न आता है कि मानव समाज में बालक और वृद्ध, अशक्त और अक्षम व्यक्ति भी किस प्रकार सुरक्षित और संरक्षित रहते हैं। इसका अभिप्राय यह है कि शरीर बल और बुद्धिबल के अलावा भी नीतिबल और सामाजिक मर्यादा भी मानव सभ्यता का आधार है। सामाजिक और नैतिक जीवन मानवीय सभ्यता का अभिन्न अंग है जो अनुवांशिकता से कम किंतु वातावरण तथा शिक्षा और संस्कार से अधिक पाता है। मानव सभ्यता के उर्द्धचरण की कुँजी भी शिक्षा में निहित है। इसी कारण वह सभ्यता का सम्राट भी है और अपना भाग्य विधाता भी।

मानव सभ्यता के आदिकाल से सामाजिक सद्भाव और जागतिक शांति के लिए महान संतो ने असंख्य प्रयास किये लेकिन आज तक विश्व शांति मृगतृष्णा ही है। भगवान महावीर हों या बुध्द, जरथुरस्त हों या ईसा मसीह, सबों के अथक प्रयास से भी युध्द की ज्वाला और हिंसा व आतंकवाद की लपटें बुझ नहीं पायी हैं। आधुनिक युग की भुमिका में ही अगर सोचें तो 20 वीं शताब्दी यदि दो विश्वयुद्धों की और नरसंहार की शताब्दी रही तो 21 वीं सदी आतंकवाद और मानव बम की त्रासदी से कलंकित हो गई है। विश्व शांति के लिए बनायी गयी संस्थाएँ मूक और निस्तेज होकर महासंहार की तैयारियाँ और संकीर्ण राष्ट्रवाद और धर्म के नाम पर रक्तरंजित इतिहास को देख रही है। वस्तुतः आधुनिक युग की राजनीति विश्व की अशांति के समाधान का उपाय नहीं बल्कि उसका ही मूल कारण है। विश्व में विषमतामूलक आर्थिक संरचना या शोषण और संग्रह इन सबके मूल में राजनीति का शनिश्चर ही है। यहाँ तक कि पर्यावरण के विनाश और वैश्वीकरण के नाम पर छद्म पूँजीवाद और उससे होने वाले नुकसान का संचालन सूत्र भी राजनीति के हाथों में है। संक्षेप में, सभ्यता का संकट जैसा कि विश्व के 51 नोबल पुरस्कार विजेताओं ने घोषित किया है कि उसके मूल में मूल्यहीन राजनीति का ही हाथ है, इसलिए विश्व की संस्कृति की पुनःरचना के लिए शिक्षा ही अंतिम आशा है। लेकिन त्रासदी यह है कि मूल्यहीन शिक्षा व्यापारवाद की सहचरी हो गयी है और वह सत्ता एवं संपत्ति के लिए दासी बनकर निस्तेज और निःवीर्य बन गयी। उसमें शांतिमय समाज निर्माण के लिए तत्व तो नहीं ही है, उसमें न तो जीवन है और न ही जीविका की सर्वांगीण गारंटी ही है।

इसलिए लोकतंत्र में धीरे-धीरे नागरिक शक्ति के बदले पुलिस और सैनिक शक्ति का अनुप्रवेश हो रहा है। देश की सरहद पर सुरक्षा के लिए बेतहाशा खर्च पर भारी भरकम सैनिक व्यवस्था की जरूरत तो रहती है और अब तो देश में आंतरिक शांति व्यवस्था के लिए काफी मात्रा में अर्धसैनिक बल पुलिस की संख्या बढ़ती जा रही है जिससे 20 से 25 हजार करोड़ रुपए खर्च होता है। इस आर्थिक बोझ से चिंता है लोकतंत्र पर तानाशाही का खतरा। जकर्ता से लेकर काहिरा तक एवं अफ्रिका के अन्य देशों में धीरे-धीरे लोकतंत्र की अर्थी उठने लगी जो एक अशुभ का सूचक है, इसलिए नागरिक शक्ति को सुदृढ़ एवं शक्तिमान करना लोकतंत्र के लिए आवश्यक है। दुर्भाग्य यह है कि देश की सुरक्षा के नाम पर विश्वविद्यालयों में सैनिक शिक्षा के लिए और नौजवानों में अनुशासन लाने के लिए एन सी सी के प्रशिक्षण को आवश्यक तो समझा जाता है लेकिन देश में विभिन्न प्रकार की हिंसा और बढ़ते हुए उग्रवाद के लिए शिक्षा जगत से योगदान लेने की कल्पना भी नहीं आती। यही कारण है कि देश में सांप्रादायिक, जातिगत, नक्सलवादी और माओंवादी हिंसा के अतिरिक्त हिंसा और घरेलु हिंसा का ग्राफ संकट की स्थिति को पार कर रहा है। लेकिन समस्या और भी गंभीर हो रही है। अतः विभिन्न प्रकार के असंतोष से उत्पन्न उग्रवाद और बढ़ती हुई हिंसा की समस्या के समाधान के लिए केवल पुलिस एवं सैनिक शक्ति का सहारा लेना प्रति उत्पादक तो है ही साथ-साथ लोकतंत्र पर भी संकट बढ़ेगा।

अतः देश की शिक्षा व्यवस्था को जीवन अभिमुख एवं शांतिमूलक बनाना राष्ट्र की प्राथमिकता होनी चाहिए। सौभाग्य से देश में लगभग 75 लाख शिक्षक और 6 करोड़ विद्यार्थी यदि इनका उपयोग राष्ट्र निर्माण और शांति सद्भावना के लिए करते हैं तो यह एक बड़ी उपलब्धि होगी। शांति और सुव्यवस्था के अभाव में विकास के रथ के पहिए भी अवरुध्द हो जायेंगे और जिस प्रकार आज पाकिस्तान अपनी आजादी के साथ अपनी अस्मिता के खतरे से जूझ रहा है वही बदनसीबी हमको भी हो सकती है। शांति, शिक्षा और शांतिरोध पर आज पाश्चात्य देशों में लगभग दो हजार व छोटी-बड़ी संस्थाए कार्यरत है। भारत जैसे बहुपांथिक तथा बहुभाषी, बहुआयामी देश के लिए विभिन्नताओं में एकता क ो प्रस्थापित करना उसके लिए जीवन और मरण का प्रश्न है। अतः शांति की साधना न तो महावीर, बुध्द और महात्मा गांधी की निर्जीव अर्चना बल्कि यह राष्ट्र की सुरक्षा विकास और प्रगति के लिए आवश्यक है। शांति और सद्भावना की निष्ठा भारत की सामासिक संस्कृति के लिए अनिवार्य है। अनिवार्य तो है ही यह भारतीय लोकतंत्र के लिए संजीवनी है। केवल शांति का जप किया जाये लेकिन पाठयक्रम और पाठ्यक्रम के बाहर विस्तार कार्यों का शांति और आत्मज्ञान के समुचित विकास के लिए शांति की संस्कृति के साथ-साथ विज्ञान और आत्मज्ञान के समुचित विकास के लिए शांति की संस्कृति शायद सबसे अधिक आवश्यक है। डा. राधाकृष्णन ने भी अपने भारतीय दर्शन के लिए प्रारंभ में ही यह व्यक्त किया है कि भारत में दर्शन और संस्कृति का इतना उच्च विकास इसलिए हो सका था कि यहाँ समाज में सद्भावना और देश में शांति का अर्थ मरघट की शांति से न समझा जाये। आर्थिक विपन्नता और भयानक विषमता, सामाजिक कारण है कि देश के 78 करोड़ लोगों की दैनिक आमदनी मात्र 18 रुपये है। और राष्ट्रीय विकास के राजप्रासादों में देश के केवल दस प्रतिशत लोग सूखोपभोग कर रहे हैं। इसलिए माओवाद और नक्सलवाद देश के 129 जिलों में आगे बढ़ रहा है। बिहार, झारखंड, बंगाल, उड़ीसा से लेकर आंध्र प्रदेश और केरल तक माओवाद का लाल गलियारा हमें यह संकेत दे रहा है कि सच्ची शांति के लिए हर हाथ में काम या संविधान में हर नागरिक को काम का आधिकार दाखिल होना चाहिए और देश में आर्थिक विषमता दस प्रतिशत से अधिक नहीं होना चाहिए। हमारी पंचवर्षीय योजनाएँ अब तक राष्ट्रीय और जनता की योजना नहीं कही जा सकती जब तक सबको जिविका का आधार नहीं हो सके। मक्खियाँ और मच्छर तभी पैदा होते हैं जब नालियों में गंदगी जमा हो उसी तरह माओवाद और नक्सलवाद इसीलिए बढ़ते हैं कि भूख, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार और समाजिक अन्याय की वृद्धि होती है। इसलिए हिंसा के संगठन से लड़ने के लिए हमें एक हाथ में शांति का कपोत और दूसरे हाथ में सामाजिक आर्थिक अन्याय के खिलाफ अहिंसक युद्ध के लिए एक-एक गाँव और शहर के एक-एक मुहल्ले और हर शिक्षण संस्थान में शांति सेना की फौज खड़ी करने की जरूरत है।

सफ़ेद दूध का काला कारोबार

उपभोक्तावादी संस्कृति के चलते धन की चाहत ने लोगों को संवेदनहीन बना दिया है। वे पैसा कमाने के लिए खाद्य पदार्थों में भी मिलावट करने लगे हैं। कुछ जालसाज और स्वार्थी लोगों द्वारा शुद्ध दूध के नाम पर ‘सिंथेटिक दूध’ पीने के लिए मजबूर किया जा रहा है।

यह सिंथेटिक दूध रिफाइंड आयल, कास्टिक सोडा, यूरिया, चीनी और डिटर्जेंट के मिश्रण से बनाया जाता है। यह कृत्रिम दूध स्वास्थ्य के लिए विशेषकर बच्चों, गर्भवती महिलाओं, बुजुर्गों और हृदय व गुर्दे की बीमारी से पीड़ित लोगों के लिए बेहद नुकसानदेह है।

अकेले दिल्ली महानगर में रोजाना करीब 55 लाख लीटर दूध की मांग है, जिसमें से मदर डेयरी से करीब 13 लाख लीटर दूध, दिल्ली दुग्ध योजना से ढाई लाख लीटर, संगठित क्षेत्र की डेयरियों से करीब 14 लाख लीटर और असंगठित क्षेत्र के दुग्ध उत्पादकों, किसानों और पड़ोसी राज्यों से प्रतिदिन आने वाले दूध वालों से साढ़े तीन लाख लीटर दूध की आपूर्ति हो रही है। इसके अलावा करीब 23 लाख लीटर दूध की शुद्धता को लेकर भारी संदेह है।

इस बात की प्रबल संभावना है कि यह दूध् कृत्रिम तरीकों से निर्मित किया जाता है। गौरतलब है कि नकली दूध प्राकृतिक दूध की तरह ही दिखता है। लेकिन, इसका स्वाद थोड़ा-सा अलग होता है। इसके बावजूद चखने से इसकी पहचान नहीं हो पाती। सिंथेटिक दूध में सस्ते खाद्य तेल का इस्तेमाल किया जाता है। कपड़े धोने के काम आने वाले डिटर्जेंट का इस्तेमाल इमप्लीफाई करने में होता है। इस विलयन को पानी में मिलाकर झाग पैदा किए जाते हैं।

इसमें यूरिया और चीनी प्राकृतिक दूध के प्रोटीन, विटामिन और खनिज लवण का स्थान लेते हैं। तेल वसा के लिए इस्तेमाल किया जाता है। प्राकृतिक दूध में 86 फीसदी पानी होता है। भैंस के दूध में छह फीसदी वसा होता है। गाय के दूध में वसा तीन से साढ़े चार फीसदी होता है। प्रोटीन, विटामिन, पोटेशियम और पोटेशियम-कैल्शियम के खनिज लवणों की मात्रा नौ फीसदी होती है। कच्चा दूध जल्दी ही फट जाता है। निकालने के चार घंटे के भीतर उबाल न लिया जाए या पाश्चराइज्ड न कर लिया जाए। तो यह निश्चित ही फट जाता है।

कहते हैं कि करीब डेढ़ दशक पहले हरियाणा के चंद ग्वालों ने कृत्रिम ढंग से दूध बनाना शुरू किया था। लेकिन, उसके बाद सफेद दूध का यह काला कारोबार उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, दिल्ली और राजस्थान सहित देशभर में फैल गया। सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि आम उपभोक्ता प्राकृतिक दूध और सिंथेटिक दूध में फर्क नहीं कर पाता। दूध के वसा और तेल के वसा में अंतर का पता विशेष उपकरणों के माध्यम से ही किया जा सकता है। ‘लेक्टोमीटर’ तो यह भी नहीं बता सकता कि दूध में यूरिया मिलाया गया है या नहीं? लेकिन, कोई भी तरीका इतना सस्ता और सुलभ नहीं है कि उसे घर पर ही इस्तेमाल में लाया जा सके। अगर कुछ देर बाद दूध के प्राकृतिक रंग में पीलापन आ जाए तो यह तय है कि दूध में कास्टिक सोडा मौजूद है।

प्राकृतिक दूध को अधिक समय तक संरक्षित रखने के लिए यूरिया, कास्टिक, रीठा पाउडर, केस्टर आयल, पैराफिन आदि रसायनों का इस्तेमाल किया जाता है। यह दूध काफी समय तक नहीं फटता। यहां तक कि छेना मिठाई बनाने वाले हलवाई भी इस दूध को फाड़ने में परेशानी महसूस करते हैं। दूध को संरक्षित रखने के लिए उसमें रसायनों को मिलाने जाने को उचित ठहराते हुए दुग्ध व्यापारी दलील देते हैं कि दिल्ली, कोलकाता और मुंबई आदि महानगरों में दूध की खपत ज्यादा है। इसलिए दूर-दराज के इलाकों से दूध ले जाना पड़ता है। परिवहन में दो से सात घंटे तक का समय लगता है। ऐसी हालत में दूध को खराब होने से बचाने के लिए उन्हें मजबूरन रासायनिक पदार्थों का इस्तेमाल करना पड़ता है।

स्वास्थ्य विशेषज्ञों के मुताबिक कास्टिक सोडे में मौजूद सोडियम से अत्यधिक तनाव की बीमारी हो सकती है। बुजुर्गों के लिए तो यह और भी ज्यादा नुकसानदायक है। हृदय रोगियों के लिए भी यह घातक साबित हो सकता है। कास्टिक सोडे के कारण शरीर लाइसिन का इस्तेमाल नहीं कर पाता है। लाइसिन नामक एमीनो एसिड बच्चों के विकास के लिए जरूरी है। इसके सेवन करने से आंतों में घाव होने का खतरा भी पैदा हो जाता है।

बाजार में दूध के नाम पर सिंथेटिक दूध बेचकर लोगों की सेहत के साथ खिलवाड़ किया जा रहा है। स्वास्थ्य विभाग को चाहिए कि वह समय रहते कृत्रिम दूध की बिक्री पर अंकुश लगाने के लिए उचित व कारगर कदम उठाए। कृत्रिम दूध बनाने वालों के खिलाफ सख्त कार्रवाई की जानी चाहिए। जनता को संचार माध्यम द्वारा जागरूक करना चाहिए। हालांकि दिल्ली राज्य के स्वास्थ्य मंत्रालय ने सिंथेटिक दूध की रोकथाम के लिए अधिकारियों को विशेष निर्देश दिए हैं। लेकिन, इससे कुछ नहीं हो रहा है। अत: गंभीर कदम उठाने की जरूरत है।

-फ़िरदौस ख़ान

बातचीत नहीं करना क्रूरता एवं तलाक का आधार!

हिन्दू विवाह अधिनियम में क्रूरता को तलाक का आधार माना गया है, लेकिन क्रूरता की परिभाषा को लेकर शुरू से ही निचली अदालतों में मतैक्य का अभाव रहा है। इसलिये जब भी क्रूरता का कोई नया मामला सामने आता है तो पक्षकार अन्तिम निर्णय के लिये सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा अवश्य ही खटखटाते हैं। सुप्रीम कोर्ट की मोहर लगने के बाद निचली अदलतों के लिये ऐसे मामले आगे के निर्णयों के लिये अनुकरणीय बन जाते हैं।

हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने क्रूरता की कानूनी परिभाषा को विस्तृत करते हुए कहा है कि यदि विवाहित पति-पत्नी आपस में बातचीत नहीं करते हैं तो ऐसा करने वाला अपने साथी पर क्रूरता करने का दोषी ठहराया जा सकता है और पीडित पक्षकार को केवल इसी आधार पर तलाक मिल सकती है। इसलिये ऐसे सभी पतियों और पत्नियों को सावधान होने की जरूरत है, जो बात-बात पर मुःह फुलाकर बैठ जाते हैं और महीनों तक अपने साथी से बात नहीं करते हैं। वैसे तो मुःह फुलाना और मनमुटाव होना पति-पत्नी के रिश्ते में आम बात है, लेकिन यदि इसके कारण दूसरे साथी को सदमा लगे या अकेलापन अनुभव हो या अपने मन पर बोझ अनुभव होने लगे तो इसे दर्दनाक स्थिति माना जा सकता है। सम्भवतः इन्हीं मानसिकता पीडाओं को कानूनी समर्थन प्रदान करते हुए भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने अपने निर्णय में कहा है कि चुप्पी क्रूरता का परिचायक है, जिसे तोडना परिवार की सेहत के लिये जरूरी है। अन्यथा परिवार टूट जायेगा।

हाल में सुनाये गये एक फैसले में सर्वोच्च न्यायालय का कहना है कि आपसी विवाद की स्थिति में पति या पत्नी का खामोश रहना भी मुश्किलें पैदा कर सकता है। इसलिये इस तरह की चुप्पी क्रूरता की श्रेणी में आती है और हिन्दू विवाह अधिनियम के अनुसार यह तलाक का आधार बन सकती है। इसे आधार बनाकर पति या पत्नी तलाक के लिए आवेदन कर सकते हैं। कोर्ट ने यह व्यवस्था एक ऐसे मामले में फैसला सुनाते हुए दी, जिसमें पति ने पत्नी पर दुर्व्यवहार और अकेला छोड देने का आरोप लगाते हुए तलाक की मांग की थी। कोर्ट के अनुसार चुप रहना या आपस में बातचीत नहीं करना एक-दूसरे के प्रति सम्मान और आपसी समझ की कमी दर्शाता है।

हमें इस बात को समझना होगा कि एक ओर तो हमारा समाझ धीरे-धीरे समझदार और शिक्षित होता जा रहा है। जिसके कारण हमारे देश की वह छवि ध्वस्त हो रही है, जिसमें कहा जाता था कि भारत साधु-सन्तों और सपेरों का देश है। दूसरे हमारी न्यायपालिका भी अब अधिक मुखर हो रही है। जिसके चलते कोर्ट में अब केवल तकनीकी आधार पर ही निर्णय नहीं सुनाये जाते हैं, बल्कि मानवजनित भावनाओं और संवेदनाओं पर भी ध्यान दिया जाने लगा है। जिसके चलते ऐसे निर्णय सामने आ रहे हैं, जो मानवता के उत्थान में मील का पत्थर सिद्ध हो रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट के उक्त निर्णय को भी ऐसा ही एक निर्णय माना जा सकता है।

इसकी एक वजह और भी है। आखिर जज भी तो समाज के अभिन्न अंग हैं। जज भी तो मानव हैं। यदि जज किसी सुखद या कटु स्थिति या अनुभव से गुजरता है तो स्वाभाविक तौर पर उसका उसर उसके सोचने के तरीके पर भी असर पडता है। जिसका प्रभाव उसके निर्णयों में देखा जा सकता है। पूर्व में भी यह प्रभाव होता था, लेकिन धीरे-धीरे अब यह मुखर हो रहा है। पहले अपने अनुभव को जज घुमाफिरा कर बतलाते थे, जबकि अब सीधे तौर पर अपने निर्णयों में समाहित कर रहे हैं। यह एक अच्छा संकेत माना जा सकता है, लेकिन तब तक ही जब तक कि जज सकारात्मक प्रवृत्ति का व्यक्ति रहा हो और उसकी सौच रचनात्मक हो अन्यथा यह प्रवृत्ति घातक भी सिद्ध हो सकती है।

-डॉ. पुरुषोत्तम मीणा “निरंकुश”

छोटे प्रांत समस्या ही समस्या – मृत्युंजय दीक्षित

केंद्रीय गृहमंत्री पी. चिदंबरम द्वारा प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री के रोसैया के बीच दो दौर की वार्ता और कांग्रेसाध्यक्षा सोनिया गांधी व कैबिनेट के वरिष्ट सहयोगियों के साथ बैठक करने के बाद 9 दिसंबर, 2009 को तेलंगाना को अलग राज्य का दर्जा देने की मांग मान ली गई। उक्‍त मांग के स्वीकार होते ही तेलंगाना राष्ट्र समिति के नेता चन्‍द्रशेखर राव ने अपना 11 दिन से चला आ रहा आमरण अनशन समाप्त कर दिया और पूरे क्षे? में समर्थकों द्वारा खुशियां मनाई गयी वहीं गृहमंत्री की घोषणा के 24 घंटे के अंदर ही स्वयं कांग्रेस पार्टी में ही आंध्र प्रदेश के विभाजन का विरोध प्रारंभ हो गया। यहां तक एक बड़े गुट के नेता ने तो रायलसीमा क्षे? को भी अलग करने की मांग उठानी शुरू कर दी। केंद्रीय गृहमंत्री द्वारा तेलंगना के रूप में एक नये राज्य को स्वीकार करने के बाद देश भर में वर्षों से चली आ रही नये प्रांतों की मांग अब और बलवती हो गयी है। नए राज्यों की मांग उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती ने की है। अपनी मांगों के अनुरूप उन्‍होंने प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर पूर्वांचल, बुंदेलखंड व हरित प्रदेश के रूप में तीन नए प्रांतों की मांग कर डाली है।

उधर केंद्र सरकार द्वारा तेलंगाना राज्य की मंजूरी मिलने के बाद पश्चिम बंगाल में गोरखालैंड के समर्थक भी अपनी मांगो को मनवाने के लिए जी-जान से जुट गए है। गोरखा लैंड समर्थकों ने तो आमरण अनशन भूख हड़ताल जैसे जनआंदोलन प्रारंभ कर दिए हैं। उधर बिहार में मिथिलांचल व जम्मू कश्मीर को तीन हिस्सों में विभाजित करने व महाराष्ट्र में विदर्भ के गठन को लेकर भी राजनीति प्रारंभ हो गयी है।

केंद्रीय गृहमंत्री ने तेलंगाना को मंजूरी देकर अतिशीध्रता में एक गलत निर्णय लिया है। छोटे राज्यों का गठन निश्चय ही बहुत सोच-समझकर लिया जाना चाहिए। केंद्रीय गृहमंत्री ने चंद्रशेखर राव का आमरण अनशन तुड़वाने के लिए एक राजनैतिक चाल उनके गले की फांस बनती जा रही है। स्वयं कांग्रेस में ही विरोध के स्वर मुखारित ह?ए हैं। नए राज्यों के समर्थकों का यह तर्क बेबुनियाद है कि छोटे प्रांतों में ही त्वरित विकास संभव है। वर्ष 2000 में जिन तीन छोटे प्रांतों छत्तीसगढ़, झारखंड और उत्तराखंड का गठन हुआ, के विकास व प्रशासनिक स्थिति से पूरा देश वाकिफ है। छोटे राज्यों में नित नयी समस्याएं मुंह खोले खड़ी रहती हैं। देश के पूर्वोत्तर प्रांत बहुत छोटे हैं लेकिन वहां पर सत्ता पर नियंत्रण को लेकर घात-प्रतिघात बनी रहती है। छोटे प्रांतों में विशेष रूप से मिजोरम, नागालैंड में क्षेत्रवाद-भाषावाद की राजनीति व आतंकवाद को प्रश्रय देने वाले नेताओं व संगठनों की बयार आसानी से देखी जा सकती है। उधर गोवा जैसे शांत प्रांत में भी मात्र दो-तीन विधायक ही मिलकर सत्ता को हथियाने का खेल खेलते रहते हैं। छोटे प्रांतों में विकास कैसे होता है इसका एक प्रमुख उदाहरण झारखंड भी है, जहां मधु कोड़ा जैसे भ्रष्टाचार में लिप्त नेताओं व उनके सहयोगियों का उदय हुआ। झारखंड का संवैधानिक संकट सर्वोच्च न्‍यायालय से लेकर राष्ट्रपति भवन की चौखट तक पहुंच गया था। रही बात उत्तराखंड की तो यह राज्य भी अभी तक अपने पैरों पर खड़ा होने में सक्षम नहीं हो सका है। उत्तराखंड अभी भी हर छोटी-छोटी बात के लिए उत्तर प्रदेश की ओर मुंह ताकता है। केवल छत्तीसगढ़ ही एक ऐसा प्रांत निकला है जहां पर स्थिर सरकार व शासन के कारण कुछ सीमा तक विकास को गति मिली है।

अब रही उत्तर प्रदेश की विभाजन की बात तो यह मांग तो पूरी तरह से राजनैतिक ही है। छोटे प्रांतों का गठन सदा दुश्वारियों भरा होता है जिसमें केंद्र सरकार को नये सिरे से आर्थिक सहायता प्रदान करनी पड़ती है, प्रशासनिक ढांचा तैयार करना पड़ता है। अतः केंद्रीय नेतृत्व को छोटे प्रांतों के गठन की शीघ्रता नहीं करना चाहिए अपितु राज्य पुनर्गठन आयोग का गठन करके सभी मामलों को उसके पास भेज देना चाहिए और उसी रिपोर्ट के आधार पर नए राज्यों का गठन करना चाहिए। छोटे प्रांतों में प्रायः एक समस्या यह भी है कि छुटभैये नेता अपनी गुंडागर्दी के बल पर सरकारी ठेकों पर कब्‍जा करने का प्रयास करते हैं। जिसके कारण विकास की गति को ठेस पहुंचती है। झारखंड इसका एक बड़ा उदाहरण है।

वास्तव में बड़े प्रांत ही विकास की गति को दर्शाते हैं। छोटे राज्यों की पीड़ाएं होती है, जो उनके गठन के बाद की हीं दिखाई पड़ती हैं। प्रारंभिक राजनैतिक स्वार्थ भरा उत्साह शीघ्र ही बिखरने लगता है। छोटे राज्यों का गठन कई नये विवादों को जन्‍म देता है, जिसमें परिसंपत्तियों का बंटवारा, नदियों के जल का बंटवारा, कार्यरत कर्मचारियों की मूल निकासी की समस्या आदि प्रमुख है।

छोटे प्रांतों की मांग की राजनीति एक प्रकार विशुद्ध क्षेत्रवाद की ही राजनीति है। अतः देश के बड़े राजनैतिक दलों का यह प्रथमर् कर्तव्‍य भी बनता है कि वे क्षेत्रवाद की राजनीति को प्रश्रय व बढ़ावा न दें अपितु उन्‍हें समाप्त करने का प्रयास करें। छोटे प्रांतों की मांग को मानने से क्षेत्रवाद की राजनीति पुष्ट होती है और उससे उन विदेशी ताकतों को बल प्राप्त होता है जो भारत को खंड-खंड देखना चाहते हैं। अतः अब समय आ गया है कि सभी राष्ट्रीय राजनैतिक दल एक साथ बैठकर छोटे प्रांतों से संबंधित मांगों पर एक साथ विचार कर उक्‍त प्रकरणों को राष्ट्रहित में समाप्त करें अन्‍यथा क्षेत्रवाद पर आधारित मांगें देश को जला देंगी।

सपा से अमर अलगाव – संतोष कुमार मधुप

पिछडों, दलितों, अल्पसंख्यकों की पार्टी को ग्लैमराइज कर पूँजीपतियों के संपर्क में लाने वाले अमर सिंह की सपा से विदाई भले ही हो चुकी हो लेकिन सपा को अमर सिंह के प्रभाव से मुक्त होने में अभी थोड़ा वक्त लगेगा। जनसमर्थन के नजरिए से आधारहीन दिखने वाले अमर सिंह ने सपा में रहते हुए जबर्दस्त कारनामे किए जिससे पार्टी के अंदर उनका कद लगातार बढ़ता गया और जमीन से जुडे कई दिग्गज समाजवादी नेता उनके समक्ष बौने पड़ते गए। पार्टी अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव ने भी अमर सिंह को कमाउ पूत मान कर उन्‍हें हाथों-हाथ लिया और उनकी गुस्ताखियों को नजरअंदाज करते रहे। कदाचित मुलायम सिंह आखिर तक अमर सिंह के मोह में बंधे रहे तभी तो उनका इस्तीफा मंजूर करने में लगभग डेढ़ महीने का समय लिया। इस दौरान अमर सिंह लगातार आक्रामक तेवर दिखाते रहे और उन्‍होंने मुलायम के परिवार तक को नहीं बख्सा। दूसरी तरफ मुलायम सिंह संयम से काम लेते रहे। सपा की ओर से जब अमर सिंह से राज्य सभा की सदस्यता छोड़ने को कहा गया तो अमर सिंह ने सपा को चुनौती देते हुए कहा कि पार्टी कन्‍नौज या बदायूँ की सीट खाली करे तो वे चुनाव लड़ कर अपना दम-खम दिखा सकते हैं। दिलचस्प बात यह है कि कन्‍नौज से मुलायम सिंह के पुत्र अखिलेश सिंह तथा बदायूं से उनके भतीजे धर्मेन्‍द्र सांसद हैं। कल्याण सिंह के मुद्दे पर भी अमर सिंह ने मुलायम को आड़े हाथों लिया और कल्याण सिंह को पार्टी में लाने और फिर बाहर करने के लिए अप्रत्यक्ष रूप से मुलायम सिंह को जिम्मेदार ठहराया। दूसरी तरफ मुलायम सिंह ने एक बार भी अमर सिंह के खिलाफ तल्खबयानी नहीं की और इस मसले को पार्टी का अंदरूनी मसला बताते रहे। मुलायम सिंह के नरम रुख को लेकर राजनीतिक हलकों में कई तरह की अटकलबाजियाँ होती रही। मुलायम सिंह ने अमर का इस्तीफा मंजूर कर अटकलों पर विराम जरूर लगा दिया लेकिन अमर सिंह के जाने से समाजवादी पार्टी किस रूप में प्रभावित होगी इसे लेकर एक नई बहस शुरू हो गई।

वैसे देखा जाए तो समाजवादी पार्टी के उत्थान में अमर सिंह का कोई उल्लेखनीय योगदान नहीं रहा। अमर सिंह के सपा में आगमन से पूर्व ही पार्टी उत्तर प्रदेश में न सिर्फ अपनी जडें बेहद मजबूती से जमा चुकी थी बल्कि दो बार यूपी की सत्ता हासिल करने में भी कामयाब रही थी। 1989 और 1993 में मुलायम सिंह उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बन चुके थे। इस कामयाबी में उनकी अपनी मेहनत और समाजवादी आंदोलन से जुड़े उनके सहयोगी नेताओं का महत्वपूर्ण योगदान रहा था। यूपी में यादवों के साथ पिछड़ों और अल्पसंख्यकों को मिला कर मुलायम सिंह ने एक मजबूत वोट बैंक तैयार किया था। इसी के परिणामस्वरूप वर्ष 1996 में केंद्र में संयुक्त मोर्चा सरकार के गठन में मुलायम सिंह यादव ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और रक्षा मंत्री बनाए गए। लेकिन संयुक्त मोर्चा सरकार के पतन के बाद अचानक अमर सिंह का सपा में उद्भव हुआ और वे पार्टी के लिए बेहद महत्वपूर्ण हो गए। पार्टी में अमर सिंह के बढ़ते प्रभाव से जमीन से जुड़े कुछ सपा नेताओं का क्षुब्‍ध होना स्वाभाविक था। हालाँकि जनेश्वर मिश्र, बेनी प्रसाद वर्मा और मोहन सिंह जैसे नेता चाहते हुए भी अमर सिंह की राह में रोड़े नहीं अटका सके और अमर सिंह का काफिला आगे बढ़ता रहा। अमर सिंह ने मुलायम के दलितों और पिछड़ों का मसीहा बनने की रणनीति के उलट पार्टी में पूँजीवादी संस्कृति को जोर-शोर से बढ़ावा दिया और फिल्मी सितारों व उद्योगपतियों को पार्टी से जोड़ कर वाहवाही लूटते रहे। उन्‍होंने जहाँ पूंजीपतियों को सपा से जोड़ कर पार्टी को नई ताकत दी वहीं उनके मनमौजी रवैये से पार्टी को नुकसान भी उठाना पड़ा और बेनी प्रसाद वर्मा, आजम खान और राज बब्‍बर जैसे कई नेता सपा से अलग हो गए। इन नेताओं के स्थान पर जिन लोगों को पार्टी से जोड़ा गया उनका राजनीति से कोई वास्ता नहीं था। परिणामस्वरूप समाजवादी पार्टी कुछ हद तक अपनी दिशा से अलग होकर गरीबों-पिछड़ों के नाम पर राजनीति करने के बजाए अस्थाई रूप से ग्लैमर की चकाचौंध में उलझ कर रह गई। विगत लोकसभा चुनाव के दौरान अमर सिंह के ग्लैमर-प्रेम की वजह से ही आजम खान सपा छोड़ कर चले गए थे। जाहिर है, अमर सिंह ने पार्टी में अपनी एक अलग लॉबी बनाने की कोशिश की थी लेकिन खुद अमर सिंह की तरह पार्टी में उनके समर्थकों के पास भी कोई ठोस जनाधार नहीं होने की वजह से अमर सिंह को कोई खास फायदा नहीं मिला। दूसरी तरफ सपा को कोई बहुत बडा नुकसान होता भी नहीं दिख रहा।

उत्तर प्रदेश की राजनीति में अमर सिंह का प्रभाव सपा और मुलायम सिंह की वजह से था। हालाँकि अमर सिंह ने यूपी के राजपूतों का नेता बनने की जी तोड़ कोशिशें की थी लेकिन उन्‍हें प्रत्याशित सफलता नहीं मिली। हालाँकि सपा से उनके जाने के बाद मुलायम सिंह ने एक अन्‍य राजपूत नेता मोहन सिंह को पार्टी में तरजीह देकर संभावित कमी की भरपाई करने का प्रयास किया है। सपा से निकाले जाने के बाद अमर सिंह ने लोकमंच का गठन कर दावा किया है कि उन्‍हें सपा के 25 विधायकों का समर्थन हासिल है। वैसे, अभी तक उनके समर्थन में सिर्फ चार विधायक खुल कर सामने आए हैं। अमर सिंह के राजनीतिक भविष्य को लेकर भी तरह-तरह की अटकलें लगाई जा रही हैँ। वे अब किधर का रुख करेंगे यह फिलहाल किसी को मालूम नहीं है। वैसे भी अमर सिंह सिद्धांतवादी राजनीति करने के आदी नहीं है। समाजवादी पार्टी में रहते हुए बहुत कुछ हासिल कर चुके अमर सिंह कदाचित अपना अगला शिकार तलाश रहे हैं। यही वजह है कि वे फिल्म अभिनेत्री जया प्रदा व अन्‍य सहयोगियों को साथ लेकर मीडिया से रूबरू तो हो रहे हैं लेकिन अपनी रणनीति का खुलासा नहीं कर रहे। पूछने पर कहते हैं- ”पर्दे में रहने दो, पर्दा न उठाओ, पर्दा जो उठ गया तो भेद खुल जाएगा। वैसे अमर सिंह का भेद खुलने में अधिक समय नहीं लगेगा क्‍योंकि वे आदतन ज्यादा समय तक ‘बेकार’ नहीं रह सकते ेइसलिए इस बात की पूरी संभावना है कि वे जल्दी ही अपना अगला ठिकाना ढूंढ लेंगे। मुनमकिन है, कुछ राजनीतिक दल बॉलीवुड और कॉर्पोरेट जगत में अमर सिंह की पहुंच को देखते हुए उनकी तरफ देख रहे हों लेकिन जो उन्‍हें पनाह देंगे उनके लिए यह खतरा हमेशा बना रहेगा कि कहीं अमर सिंह उनकी राजनीतिक गाडी भी पटरी से न उतार दें। सपा से निकाले जाने के बाद अमर सिंह कह रहे हैं कि पार्टी ने कूड़े की तरह उनका इस्तेमाल किया। लगे हाथ उन्‍हें यह भी बता देना चाहिए कि उन्‍होंने सपा और मुलायम सिंह का इस्तेमाल किस रूप में किया। जब वे मुलायम सिंह के सिपहसालार के रूप में काम कर रहे थे तब मुलायम और सपा के प्रति उनकी नि?ा सैलाब की तरह बहा करती थी फिर अचानक उन्‍हें अहसास हुआ कि पार्टी उनका इस्तेमाल कर रही है और उन्‍होंने पार्टी छोड़ने का फैसला कर लिया। अमर का यह तर्क किसी के गले नहीं उतर रहा।

दरअसल, अमर सिंह जैसे हवाई राजनीति करने वाले नेता एक ठिकाने पर अधिक समय तक बसेरा नहीं कर सकते। सपा में रहते हुए उन्‍होंने धुऑंधार पारी खेली और अब रिटायर्ड हर्ट होने का दिखावा कर रहे हैं। दूसरी तरफ अमर सिंह की वजह से सपा के जो कार्यकर्ता उपेक्षित महसूस कर रहे थे वे उनके जाने के बाद एक बार फिर पूरे उत्साह के साथ सक्रिय हो जाएंगे जिसका लाभ पार्टी को जरूर मिलेगा। हालांकि यूपी की जनता पर पहले की तरह पकड़ बनाने के लिए मुलायम सिंह और उनके सहयोगियों को काफी पसीना बहाना पड़ेगा।

‘भक्ति’ की शक्ति से टूटा था सत्ता का अहं : डॉ कृष्णगोपाल

कोई भी व्यवस्था अपने उद्गम स्थल पर कितनी ही अच्छी क्यों न हो, आगे चलकर विकृत होती है, टूटती है और बिखरती है। तब समाज का विचारवंत वर्ग खड़ा होता है और अव्यवस्था, अराजकता, अन्याय के विरुद्ध संघर्ष करता है। समाज की प्रकृति स्वभावतः परंपरा और जड़ता-प्रिय होती है। यही जड़त्व समाज को बदलने से रोकता है और तब सद्विचार और कुरीति का परस्पर संघर्ष होने लगता है।

अच्छी बात यह है कि हिंदू समाज ने काल के अनुरूप स्वस्थ विचार और सद् समाज रचना को हमेशा प्राथमिकता दी है। इस कारण सद्विचार में से सद्परंपराएं निर्माण होती रहती हैं। वे पुरानी परंपराओं का स्थान ग्रहण करती हैं और समाज के अन्दर हर कालखण्ड में नवजागरण का सृजन होता है। हिंदू समाज सनातन सत्य को लेकर पुनः नए रूप में खड़ा हो जाता है। यही इस संस्कृति का अमृत घट है। हिन्दू समाज स्वभाव से क्रांतिधर्मा है। उसका जोर जिस क्रांति पर रहा है, वह संक्रांति कहलाती है। अर्थात् विचारवंत परिवर्तन, सद्गामी परिवर्तन, तमस और अन्धकार से प्रकाश और अमृत तत्व की ओर ले जाने वाला परिवर्तन।

इसी क्रांति-धर्म की अभिव्यक्ति हिंदू समाज ने परकीय आक्रमण के समय भक्ति आंदोलन के रूप में की थी। ‘भक्ति’ संसार को भारतीय आध्यात्मिक प्रज्ञा की विलक्षण देन है। भक्ति संपूर्ण संसार को ईश्वरमय मानती है। जैसा कि प्रथम उपनिषद ईशावास्य उपनिषद के पहले श्लोक में वर्णन आता है- ईशावास्यमिदम् सर्वम् यत्किंचत्जगत्यांजगत्, अर्थात् संसार में सब कुछ ईश्वर से परिपूर्ण है। भक्ति आंदोलन के संतों ने उपनिषदों की वाणी को साक्षात् रूप में साकार किया है। प्राणीमात्र के दुःख से वह व्याकुल हो उठता है।

मानव मात्र को कष्ट देना, उसे अपमानित और प्रताड़ित करने का विचार ईश्वरीय सृजन के विरूद्ध है, इसीलिए सच्चा संत या ईश्वर भक्त इसे कभी स्वीकार नहीं करता । वास्तविकता तो यही है कि संसार को ईश्वरभक्ति से शून्य अहंवादी, प्रमादी लोगों ने ही बार-बार हिंसा और रक्तपात की ओर धकेला है।

शायद यही कारण है कि भक्ति आंदोलन से जुड़े तमाम संत सम्राटों की चाकरी और राजनीतिक प्रभुता, धन-ऐश्वर्य से अपने को दूर रखते हैं। कहीं-कहीं तो वे धन-प्रभुता और ऐश्वर्य प्रदर्शन के अनुचित स्वरुप को देखकर दुःखी और ठगे से महसूस भी करते हैं। भक्त कुंभनदास को सम्राट अकबर द्वारा प्रदत्त राजकीय वैभव बेकार लगने लगता है और गोस्वामी तुलसीदास अकबर की मंसबदारी से स्वयं को दूर ही रखते हैं। इन भक्तों ने राजमहलों की शोभा बनने की बजाए अपने झौपड़े को अधिक आनन्ददायक माना और साधारण समाज जीवन को भी सम्राट की बजाए रामजी को राजा मानकर अपने जीवनयापन का निर्देश दिया। सम्राट अकबर को प्रस्ताव को ठुकराते हुए तुलसीदास ने कहा-

हम चाकर रघुवीर के…, अब तुलसी का होहिंगे नर के मंसबदार।

भक्त कुंभनदास ने तो एक कदम आगे जाकर अकबर के दरबार में ही घोषणा की-

जिनके मुख देखत अघ लागत तिनको करन पड़ी परनाम, आवत जात पनहिया टूटी, बिसर गयो हरि नाम। संतन सो कहां सीकरी सो काम।

यानी जिन्हें देखने पर भी पाप लगता है, उन्हें प्रणाम करना पड़ रहा है। सम्राट की सीकरी से संतों का आखिर क्या काम है, इनके कारण तो भगवान का नाम लेना भी विस्मृत हो जा रहा है। और अंत में भक्त कुंभनदास दरबार में यह कहने की हिम्मत भी करते हैं कि- आज पाछे मोकों कबहूं बुलाइयो मति सम्राट। यानी हे सम्राट, अब फिर कभी इस भक्त को अपने दरबार में बुलावा मत भेजना।

जब बड़े-बड़े प्रतापी राजाओं की हिम्मत टूट चली थी, तब ये संत कैसा साहस प्रकट कर रहे थे, सहज समझ आ सकता है। यह कोई आसान काम नहीं था जो हिंदुस्थान के संत कर रहे थे। इन संतों ने विदेशी मुगलों के राज्य को कभी अपनी मान्यता और सम्मति नहीं दी और इसके समानांतर जब हिंदू राजा केवल नामशेष रह गए, राजा राम को लोकजीवन का सम्राट घोषित कर दिया।

कैसा विस्मित और दिल को दहलाने वाला दृश्य रहा होगा जब गुरु अर्जुनदेव ने जहांगीर को सामने झुकने से इनकार कर दिया। भयानक कष्टों और शारीरिक पीड़ा भोगने के बावजूद मृत्यु के समय उनके मुख से गुरुवाणी ही गुंजती रही और अंत में भी यही निकला- तेरा किया मीठा लागे। जहांगीर के लिए इससे बढ़कर शर्म की क्या बात हो सकती थी कि उसके अत्याचारों को भी एक संत ‘मीठे कार्य’ बता रहा था। गुरु तेगबहादुर महाराज भी इसी प्रकार कंठ से जपुजी साहिब का कीर्तन करते हुए बलिदान हुए।

यह भक्ति की ताकत थी जिसने भारतीय समाज को बड़े से बड़ा बलिदान करने की ओर उन्मुख किया। यह भक्ति थी जिसने भारतीय समाज को यह भी प्रेरणा दी कि अत्याचारियों से स्वराज्य छीनकर पुनः भारतभूमि को अपने सपनों का स्वर्ग बनाएं। यही कारण है कि एक ओर उत्तर में गुरु गोविंद सिंह महाराज कहते हैं-

अगम सूर वीरा उठहिं सिंह योद्धा,

पकड़ तुरकगण कऊं करै वै निरोधा।

वहीं दूसरी ओर दक्षिण में विद्यारण्य स्वामी और मध्य भारत में समर्थ स्वामी रामदास जैसे संत विदेशी सल्तनत का जुआ उतार कर समाज को उठ खड़े होने का आह्वान देते हैं।

परकीय दासता के कालखण्ड में भक्ति पराक्रम के विरुद्ध कायरता या गृहस्थी और संसार के झंझटों से मुक्त होकर स्वयं को सुखी रखने का साधन नहीं थी। संतों की साधना स्वयं में एक कठिन कार्य था, उसमें भी समाज को विदेशी दासता से मुक्ति की शुभ घड़ी के आगमन तक धैर्य रखने के लिए आश्वस्त करने का काम तो और कठिन था। इसलिए भक्ति के कार्य में कायरों के लिए तो कोई जगह नहीं थी। तभी तो कबीर दास उस कालखण्ड में भक्ति को बलिदान का दूसरा नाम देते हुए कहते हैं-

भगति देहुली राम की, नहिं कायर का काम।

सीस उतारै हाथि करि, सो ले हरिनाम।

संपादकीय टिप्पणीः

डॉ. कृष्णगोपाल राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के जीवन समर्पित प्रचारकों की टोली से जुड़े यशस्वी और मेधावी प्रचारक हैं। वनस्पति विज्ञान में शोध करने के उपरांत उन्होंने अपना जीवन राष्ट्रकार्य के लिए अर्पित किया। संप्रति राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की योजनानुसार वह पूर्वोत्तर भारत के क्षेत्र प्रचारक का दायित्व निर्वाह कर रहे हैं। व्यक्तिरूप से वे गहन जिज्ञासु और अध्यावसायी हैं। स्वदेशी, डंकेल प्रस्तावों पर उन्होंने करीब 15 वर्ष पूर्व विचारपूर्वक अनेक पुस्तकों का लेखन किया।

मीडिया वर्चस्व का विभ्रम और यथार्थ

यह मीडिया वर्चस्व का युग है। सामाजिक,राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक वर्चस्व का यह मूलाधार है। मीडिया हमारे जीवन की धड़कन है। मीडिया के बिना कोई भी विमर्श, अनुष्ठान, कार्यक्रम, संदेश, सृजन, संघर्ष, अन्तर्विरोध फीका लगता है। हम यह भी कह सकते हैं कि मीडिया इस समाज की नाभि है। जहां अमृत छिपा है।

आज आपको किसी विचार,व्यक्ति, राजनीति, संस्कृति, मूल्य,संस्कार आदि को परास्त करना है या बदलना है तो मीडिया के बिना यह कार्य संभव नहीं है। मीडिया सिर्फ संचार नहीं है। वह सर्जक भी है। वह सिर्फ उपकरण या माध्यम नहीं है। बल्कि परिवर्तन का अस्त्र भी है।

मीडिया के प्रति पूजाभाव,अनुकरणभाव,अनालोचनात्मक भाव अथवा इसके ऊपर नियंत्रण और अधिकारभाव इसकी भूमिका को संकुचित कर देता है। मीडिया को हमें मीडिया के रूप में देखना होगा। पेशेवर नियमों और पेशेवराना रवैयये के साथ रिश्ता बनाना होगा।मीडिया को नियंत्रण, गुलामी, अनुकरण पसंद नहीं है। मीडिया नियमों से बंधा नहीं है।

जो लोग इसे नियमों में बांधना चाहते हैं, राज्य और निजी स्वामित्व के हितों के तहत बंदी बनाकर रखना चाहते हैं। उन्हें अंतत: निराशा ही हाथ लगेगी।मजेदार बात यह है कि प्रत्येक जनमाध्यम की अपनी निजी विशेषताएं होती हैं।किंतु कुछ कॉमन तत्व भी हैं।

मीडिया को आजादी, पेशेवर रवैयया,जनतंत्र,अभिव्यक्ति की आजादी, सृजन की आजादी पसंद है। मीडिया स्वभावत: साधारणजन या दरिद्र नारायण की सेवा में मजा लेता है। वही इसका लक्ष्य है। लेकिन मुश्किल यह है कि मीडिया के पास राज्य से लेकर बहुराष्ट्रीय निगमों तक जो भी जाता है। अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए जाता है। हमारी मुश्किल यहीं से शुरू होती है और हम मीडिया को गरियाने लगते हैं। उसके प्रति, उसकी सामाजिक भूमिका के प्रति निहित स्वार्थी दृष्टिकोण से रचे जा रहे उसके स्वरूप को ही असली स्वरूप मान लेते हैं।

मीडिया किसी का सगा नहीं है। वह अपना विलोम स्वयं बनाता है। वह जो चाहता है वह कर नहीं पाता। जो नहीं चाहता वह हो जाता है। मीडिया क्या कर सकता है? यह कोई व्यक्ति, व्यक्तियों का समूह, राजनीतिक दल, राज्य अथवा कारपोरेट हाउस तय नहीं कर सकता। कुछ क्षण, दिन, महीना या साल तक यह भ्रम हो सकता है कि मीडिया वही कर रहा है जो मालिक करा रहे हैं। सच्चाई किंतु इसके एकदम विपरीत होती है।मीडिया जो दिखाता है वह सच है और सच नहीं भी है।जो नहीं दिखाता वह उससे भी बड़ा सच होता है। इसे हम अदृश्य सत्य कह सकते हैं।मीडिया में दृश्य सत्य से बड़ा अदृश्य सत्य होता है। यही वह बिन्दु हैं जहां मीडिया अनजाने अपना विलोम रच रहा है। मीडिया का विलोम मीडिया में कभी नहीं आता। इसीलिए हमें मीडिया के बारे में द्वंद्वात्मक भौतिकवादी नजरिए से सोचना होगा। हमने समाज, साहित्य, संस्कृति, राजनीति, दर्शन, अर्थनीति आदि सभी क्षेत्रों में द्वंद्वात्मक भौतिकवादी नजरिए से विचार किया है। किंतु मीडिया के क्षेत्र में इस नजरिए की कभी जरूरत ही महसूस नहीं की। मीडिया की सृष्टि अस्थायी होती है।उसका सृजन चंचल होता है। प्रत्येक मीडिया का अपना स्वतंत्र चरित्र है।उसकी निजी माध्यमगत विशेषताएं हैं। मीडिया के मूल्यांकन के समय,उसकी अंतर्वस्तु के मूल्यांकन के समय माध्यमगत विशेषताओं और विधागत विशेषताओं को प्राथमिक तौर पर सामने रखना चाहिए।

भारत में माध्यम मूल्यांकन शैशव अवस्था में है। यह सिर्फ पेशेवर चंद माध्यम विशेषज्ञों और विज्ञापन एजेंसियों की सीमा में कैद है। हमें माध्यम पढ़ने का हुनर विकसित करना होगा। इसके लिए माध्यम साक्षरता को हमें सामान्य शिक्षा का अनिवार्य हिस्सा बनाना होगा। सभी किस्म के राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक प्रशिक्षण का हिस्सा बनाना होगा। अभी इन सभी क्षेत्रों का माध्यमों की समझदारी पूर्ण भूमिका के साथ कोई रिश्ता नहीं है।

मीडिया स्वभावत: वैश्विक है। मीडिया के जो रूप एक बार जन्म ले लेते हैं। व्यवहार में आ जाते हैं। ठोस भौतिक शक्ति बन जाते हैं। वे खत्म नहीं होते। अप्रासंगिक नहीं होते।मीडिया के विभिन्न रूपों में गहरा भाईचारा है। वे एक-दूसरे के पूरक हैं। वे साथ-साथ रहते हैं। इसलिए मीडिया के नए रूप के आने से भयभीत होने या अथवा यह कहने की जरूरत नहीं है कि नया मीडिया पुराने मीडिया को खत्म कर देगा। मीडिया तकनीकी में भी निरंतरता का तत्व होता है। तकनीकी परंपरा को आत्मसात् करके ही नया मीडिया जन्म लेता है।यदि किसी वजह है किसी मीडिया तकनीकी का पूर्ववर्ती मीडिया से स्वतंत्र रूप में विकास हो जाता है तो नई मीडिया तकनीकी पुराने मीडिया तकनीकी रूपों को अपग्रेड करती है। मीडिया वस्तुत: मनुष्य की तरह ही है वह अपनी परंपरा को भूलता नहीं है।उसे ठुकराता नहीं है। बल्कि उसे आत्मसात् करता है। बदलता है। उसमें नया जोड़ता है। निरंतरता बनाए रखता है। मीडिया में भी परंपरा और निरंतरता का तत्व सक्रिय रहता है। मीडिया को लेकर सशंकित होने, भयभीत होने, घृणा करने या अनुकरण करने की जरूरत नहीं है। मीडिया मनुष्य का बंधु है। उसके साथ मित्रता की शर्त है आलोचनात्मक रवैयया। आलोचनात्मक दृष्टिकोण से मीडिया पर बातें की जाएं तब ही मीडिया सुनता है। बदलता है।

भक्तिभाव, घृणा, नियंत्रण या गुलाम मानसिकता से इसे बदल नहीं बना सकते। मीडिया ने अब तक के सभी नियमों और कानूनों को तोड़ा है। यह कार्य वह रोज करता है। उसे स्वतंत्रता से प्यार है। यह छद्म स्वतंत्रता नहीं है। यह वर्गीय स्वतंत्रता भी नहीं है। बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा कि इसे विश्लेषित करने के लिए केटेगरी बनाकर बात शुरू की जा सकती है किंतु यह केटेगरी की सीमाओं से मुक्त होता है। यही वजह है कि वह सबका है। यह है भी और नहीं है।इसके सामाजिक प्रभाव के बारे में दावे के साथ कुछ भी कहना संभव नहीं है। यह मानवता का शत्रु नहीं है। बल्कि मित्र है। मीडिया की खूबी है कि उसके तकनीकी रूपों में अन्तर्विरोध नहीं होते।यही वजह है कि उसमें कनवर्जन के युग में पहुँच गए हैं।

-जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

देह प्रदर्शन का पर्याय बनते विज्ञापन

अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी / आंचल में है दूध् और आंखों में पानी।

हिन्दी कविता की ये पंक्तियां पारंपरिक भारतीय समाज में महिलाओं की स्थिति को बखूबी बयान करती हैं। भारत में ‘यत्र नार्यस्तु पूजयन्ते’ के आधार पर महिलाओं को देवी की संज्ञा देकर उनका गुणगान किया गया है। लेकिन, आधुनिक समाज में नारी का एक और रूप उभरकर सामने आया है, जहां उसे मात्र भोग की वस्तु बनाकर रख दिया गया है।

काफी हद तक इसका श्रेय विज्ञापन जगत को जाता है। मौजूदा दौर में विज्ञापनों में उत्पाद का कम और नारी काया का ज्यादा से ज्यादा प्रदर्शन कर दौलत बटोरने की होड़ मची हुई है।

पुरुषों के द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली शेविंग क्रीम, अंत:वस्त्र, सूट के कपड़े, जूते, मोटर साइकिल, तम्बाकू, गुटखा, सिगरेट और शराब तक के विज्ञापनों में नारी को दिखाया जाता है। जबकि, यहां उनकी कोई जरूरत नहीं है। इन वस्तुओं का इस्तेमाल मुख्यत: पुरुषों द्वारा किया जाता है। इसके बावजूद इसमें नारी देह का जमकर प्रदर्शन किया जाता है। इसके लिए तर्क दिया जाता है कि विज्ञापन में आर्कषण पैदा करने के लिए नारी का होना बेहद जरूरी है, यानी पुरुषों को गुमराह किया जाता है कि अगर वे इन वस्तुओं का इस्तेमाल करेंगे तो महिलाएं मधुमक्खी की तरह उनकी ओर खिंची चली आएंगी।

ऐसा नहीं है कि विज्ञापन में नारी देह के प्रदर्शन से उत्पाद की श्रेष्ठता और उसके टिकाऊपन में सहज ही बढ़ोतरी हो जाती है या उसकी कीमत में इजाफा हो जाता है। दरअसल, इस प्रकार के विज्ञापन कामुकता को बढ़ावा देकर समाज को विकृत करने का काम करते हैं। शायद इसका अंदाजा उत्पादक विज्ञापनदाताओं को नहीं है या फिर वे लोग इसे समझना ही नहीं चाहते। आज न जाने कितने ही ऐसे विज्ञापन हैं जिन्हें परिवार के साथ बैठकर नहीं देखा जा सकता। अगर किसी कार्यक्रम के बीच ‘ब्रेक’ में कोई अश्लील विज्ञापन आ जाए तो नजरें शर्म से झुक जाती हैं। परिजनों के सामने शर्मिंदगी होती है। विज्ञापन क्षेत्र से जुड़े लोगों का मानना है कि विज्ञापन को चर्चित बनाने के लिए कई चौंकाने वाली कल्पनाएं गढ़ी जाती हैं।

यह माना जा सकता है कि आज विज्ञापन कारोबार की जरूरत बन गए हैं। लेकिन, इसका यह भी मतलब नहीं कि अपने फायदे के लिए महिलाओं की छवि को धूमिल किया जाए। निर्माताओं को चाहिए कि वे अपने उत्पाद को बेहतर तरीके से उपभोक्ताओं के सामने पेश करें। उन्हें उत्पाद की जरूरत के साथ ही उसके फायदे, गुणवत्ता और विशेषता बताएं। लेकिन, निर्माताओं की मानसिकता ही आज बदल गई है। उन्हें लगता है कि वे विज्ञापनों में माडल को कम से कम कपड़े पहनवा कर ही अपने उत्पाद को लोकप्रिय बना सकते हैं। लेकिन, हकीकत में ऐसा कतई नहीं है।

पश्चिम में हुए कई सर्वेक्षणों से यह साबित हो चुका है कि सामान्य दृश्यों वाले विज्ञापन ही उपभोक्ताओं और उत्पाद के बीच बेहतर तालमेल स्थापित करते हैं। दुनिया के बड़े मनोवैज्ञानिक विशेषज्ञों में एक ब्रैंड बुशमन ने अपने अध्ययन में पाया है कि टेलीविजन शो के हिंसक और कामुकता भरे विज्ञापन के प्रदर्शन से विज्ञापित उत्पाद का कोई बेहतर प्रचार नहीं हो पाता। अगर विज्ञापन में खूनखराबे वाले दृश्य हों तो दर्शकों को विज्ञापित उत्पाद का नाम तक याद नहीं रहता। यही हाल यौन प्रदर्शन वाले विज्ञापनों का पाया गया है। आथोवा स्पेस विश्वविद्यालय के स्नातक की छात्रा एंजालिका बआंनक्सी ने हिंसा और यौन प्रदर्शन वाले विज्ञापनों के दर्शकों को 40-45 मिनट तक ऐसे विज्ञापन दिखाए।

इन विज्ञापनों में 18 ऐसे विज्ञापन कुश्ती फेडरेशन, नाइट कल्ब और मिरैकल पेट्स जैसे हिंसक व कामुक शोज के थे। बाद में उन्हें सामान्य तटस्थता वाले विज्ञापन दिखाए गए जिनमें उत्पादों का प्रचार शामिल था। दर्शकों के आकलन में पाया गया कि हिंसा-यौन दृश्यों वाले विज्ञापनों में दर्शकों को उत्पाद का नाम याद रहने की प्रवृत्ति नगण्य पाई गई। उनके मुकाबले सामान्य तटस्थता वाले उत्पाद विज्ञापनों के आंकलन में पाया गया कि दर्शकों में उत्पादों का नाम याद रहने की क्षमता उनसे 17 फीसदी ज्यादा है। यौन दृश्यों वाले विज्ञापनों के मुकाबले सामान्य दृश्यों में निहित उत्पादों का नाम याद रखने की उनकी क्षमता 21 फीसदी अधिक देखी गई। निष्कर्ष यह रहा कि हिंसा से जुड़े विज्ञापनों में उत्पादों का नाम याद रहने की उनकी क्षमता जहां 21 फीसदी कम हो जाती है, वहीं तटस्थता के विज्ञापनों के मुकाबले में यौन विज्ञापनों में स्मरण क्षमता 17 फीसदी कम हो जाती है। इन आकलनों में ब्रांड के पहचान की कोई समस्या नहीं रखी गई थी। क्योंकि, सारे उत्पादों के नाम बराबर दिखाए जाते रहे। चाहे वे सामान्य थे, हिंसा वाले दृश्यों के थे या यौन दृश्यों वाले विज्ञापनों के थे।

यह नहीं भूलना चाहिए कि नारी को भारत में एक समय सती प्रथा के नाम पर पति के साथ चिता में जलकर मरने को मजबूर किया गया था। देवदासी प्रथा की आड़ में उनसे वेश्यावृत्ति कराई गई थी। सदियों के बाद महिलाओं में जागरूकता आई है। अब जब वे अपने सम्मानजनक अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही हैं तो ऐसे में देह प्रदर्शन के जरिए उन्हें भोग की वस्तु के रूप में पेश करना अपमानजनक है। यह देश के सांस्कृतिक और नैतिक मूल्यों पर भी कुठाराघात करने के समान है।

एक अनुमान के मुताबिक भारत के करीब 40 करोड़ लोग टेलीविजन देखते हैं और हर घर में यह आठ से दस घंटे तक चलता है। यानी विज्ञापन देश की करीब आधी आबादी को सीधे रूप से प्रभावित करते हैं। इसलिए टेलीविजन पर किस तरह के विज्ञापन दिखाएं इस पर नजर रखने और नियमों की अवहेलना करने वालों के खिलाफ सख्ती बरतने की जरूरत है। बेहतर समाज के निर्माण के लिए सरकार को अपना दायित्व ईमानदारी के साथ निभाना चाहिए।

-फ़िरदौस ख़ान

समाजसेवा का गोरखधंधा – अखिलेश आर्येन्दु

ग्रामीण विकास मंत्रालय की स्वायत्त इकाई कपार्ट (काउंसिल फॉर एडवांसमेंट ऑफ पीपल्स एक्‍शन एंड रूरल टेक्‍नोलॉजी) ने धन का दुरुपयोग करने के मामले में देश के 833 गैर सरकारी संगठनों (एनजीओ) और स्वैच्छिक संगठनों को काली सूची में डाल दिया है। इससे यह बात साफ हो गई कि एनजीओ के बारे में जो आम धारणा लोगों की है वह गलत नहीं है। आम लोगों का मानना है कि 80 प्रतिशत एनजीओ समाजसेवा के नाम पर स्वयंसेवा का कार्य करते हैं। यानी जो पैसा सरकार, विदेश और समाज से स्वयंसेवी संस्थाएं लेती हैं उसका उस मद में उपयोग न करके किसी और मद में करती हैं। आम तौर पर विकास और जन-कल्याण के जो कार्य सरकार नहीं कर पाती, वे स्वयंसेवी संगठनों और स्वैच्छिक संगठनों के लिए छोड़ दिये जाते हैं। आजादी के बाद इस तरह के संगठन अपने अच्छे कार्यों से जनता और सरकार के द्वारा पुरस्कृत भी होते रहें हैं। लेकिन अब इनके कार्य विवाद के दायरे में आ गये हैं।

अब एनजीओ और स्वैच्छिक संगठन का मतलब पैसा कमाऊ पूत। दरअसल, एनजीओ की जो भूमिका समाज कल्याण और विकास में होती थी अब वह स्वयं को पोषण देने और स्वार्थ साधने में होने लगी है। सरकारें अब अक्‍सर उन स्वयंसेवी संस्थाओं को धन मुहैया बगैर किसी जांच-पड़ताल के कराने लगीं हैं जिनकी पहुंच असरदार नेताओं और नौकरशाहों तक होती है। इस कारण हजारों की तादाद में ऐसी स्वयंसेवी संस्थाएं कुकुरमुत्तों की तरह उग आई हैं जिनका कार्य महज फाइलों तक ही सीमित होता है। सैकड़ों की तादाद में विदेशी धन के बल पर फूलने-फलने वाली संस्थाएं हैं जिनका कार्य विवादास्पद होता है। इन संस्थाओं को धन अमेरिका, इंग्लैंड, फ्रांस, जापान, नार्वे, स्वीडन, जर्मनी, रूस, कनाडा और आस्ट्रेलिया से आता है। यह विदेशी धन बाल विकास, बंधुआ मजदूरी, शिक्षा, पर्यावरण, सफाई, धर्म प्रचार, बाल श्रम उन्‍मूलन, विकलांग सेवा, योग, साम्प्रदायिक सद्भाव, स्वास्थ्य रक्षा, गरीबी उन्‍मूलन, बीज, सुलभ शौचालय, दहेज उन्‍मूलन और अंधविश्वास उन्‍मूलन के लिए आता है। एनजीओ और स्वैच्छिक संस्थाओं को इतनी बड़ी रकम सरकार, जनता और विदेश से मुहैया कराया जाता है लेकिन इनका अधिकांश हिस्सा दूसरे मद में बर्बाद कर दिया जाता है। बहुत बड़ी तादाद में काला धन भी इनके पास आता है जिसका कोई हिसाब-किताब नहीं होता है। विदेशी धन को लेकर बहुत बार विवाद होते रहे हैं। लेकिन विदेशी धन के नाम पर मजा करने वाली संस्थाओं का इस मामले में दो टूक जवाब होता है-पैसा तो पैसा होता है, उसमें स्वदेशी-विदेशी कुछ भी नहीं होता है। यदि विदेशी धन से जरूरतमंद लोगों की सेवा की जा सकती है तो इसमें बुराई क्‍या है।लेकिन वह सेवा हो तब न। इस तरह की तमाम दलीलें ये संस्थाएं देती हैं और विदेशों से प्राप्त धन का बड़े पैमाने पर दुरुपयोग करती हैं। कपार्ट ने जिन 833 एनजीओ और स्वैच्छिक संगठनों को काली सूची में डाला है वह तो दाल में नमक के भी बराबर नहीं है। हजारों नहीं लाखों की तादाद में ऐसी स्वैच्छिक संस्थाएं हैं जो अनुदान और विदेशों से प्राप्त अरबों रुपये यूं ही बर्बाद कर देती हैं। लाखों की तादाद में ऐसी स्वयंसेवी संस्थाएं हैं जो महज फाइलों में कार्य करती हैं। न तो सरकार उनकी पड़ताल करती है और न ही उनके कार्यों के बारे में कोई सरकारी समिति ही जांच करती है। मतलब जो भ्रष्टाचार नेताओं, नौकरशाहों और ठेकेदारों के जरिए किया जाता है उससे कहीं ज्यादा भ्रष्टाचार एनजीओ और स्वैच्छिक संगठनों में है। ऐसे में एक सवाल सहज रूप से उठता है कि जब ज्यादातर एनजीओ और स्वैच्छिक संगठनों का चरित्र पारदर्शी नहीं रह गया है तो क्‍यों इन्‍हें सरकार और जनता धन मुहैया कराती है? विदेशों से जो धन हवाला के जरिए आता है उसका तो कोई लेखाजोखा ही नहीं होता है। यह धन देश में आतंक फैला रहे आतंकवादियों के पास तो आता ही है, देश भर में फैले माफिया-तंत्र भी इस धन से अपना स्वार्थ सिद्ध करता है। विदेशी धन को लेकर अनेक सवाल उठाए जाते रहे हैं। इनमें सबसे महत्वपूर्ण सवाल यह है कि विदेश से जो पैसा एनजीओ प्राप्त करते हैं उनके साथ तमाम ऐसी शर्तें जुड़ी होती हैं जो देश और समाज के हित में नहीं होती हैं। इसमें कुछ ऐसी खुफिया बातें भी होती हैं जो देश और समाज के लिए छिपाने वाली होती हैं। विदेशी धन के बारे में यह भी रोचक बात है कि यह धन ज्यादातर पारदर्शी तरीके से नहीं प्राप्त होता है। इसलिए केंद्र सरकार इस धन पर खुफिया-तंत्र के माध्यम से नजर रखती है। इसके बावजूद विदेशी धन प्राप्त करने की शर्तों के मुताबिक देश के अनेक गुप्त योजनाएं और कार्य स्वयंसेवी संस्थाओं के जरिए बड़े गुप्त तरीके से दुनिया के अनेक देशों में पहुंच जातीं हैं।

एक अनुमान के मुताबिक हर साल 500 करोड़ से ज्यादा पैसा एनजीओ सेवा के नाम पर विदेशों से हासिल करते हैं। सबसे ताज्जुब की बात यह है कि विदेशी धन प्राप्त करने वाली स्वयंसेवी संस्थाओं के देशद्रोही कार्यों को न तो सरकार पकड़ पाती है और न तो खुफिया-तंत्र ही। एक तरह से पूरे देश में एक रैकेट चलने की बात पर्यवेक्षक मानते हैं जो विदेशी पैसे के जरिए फूल-फल रहा है। सरकार और खुफिया-तंत्र जब तक गहराई और निष्पक्ष तरीके से इनकी पड़ताल नहीं करेंगे तब तक इनके मकड़जाल को तोड़ना असंभव ही है। इसलिए जरूरत इस बात की है कि सरकार और खुफिया-तंत्र इन पर कड़ी नजर रखे। जो एनजीओ देश की अस्मिता को नुकसान पहुंचाने का कार्य करती पकड़ी जाएं, उन पर कानून के मुताबिक कार्रवाई की जाए और उनका पंजीयन हमेशा के लिए समाप्त कर दिया जाना चाहिए। साथ ही उसके मालिक के खिलाफ आपराधिक रपट दर्ज करके उसके प्रति कठोर से कठोर कार्रवाई करनी चाहिए। इसके अलावा जो संस्थाएं महज फाइलों पर ही कार्य करती पकड़ी जाएं, उनके विरुद्ध कड़ी कार्रवाई करने की जरूरत है, जैसे 833 गैर सरकारी संस्थाओं को ग्रामीण मंत्रालय की स्वायत्त इकाई कपार्ट ने पिछले दिनों काली सूची में डाल दिया, ऐसी ही कार्रवाई दूसरे मंत्रालयों से संबद्ध इकाइयों को भी उस क्षेत्र से संबंधित एनजीओ के कार्यों को पड़ताल करके करना चाहिए। इससे जहां एनजीओ के कार्यों में स्पष्टता एवं इमानदारी आएगी वहीं पर काले धन और सरकारी धन के दुरुपयोग पर भी लगाम लग सकेगी। केंद्र सरकार एनजीओ की गतिविधियों पर जिस तरह से नजर रखनी चाहिए वैसी नहीं रख पा रही है। राज्य सरकारों का भी वही रवैया है। इसलिए एनजीओ फायदे उठाकर काले का सफेद और सफेद का काला करने में लगे रहते हैं। सरकारें इस बात को जानती भी है लेकिन उनके खिलाफ कार्रवाई करने से हमेशा बचतीं रहती हैं। यह इसलिए कि ज्यादातर बड़े एनजीओ नेताओं, बड़े नौकरशाहों या ऊंचे पहुंच के लोगों के होते हैं। इसलिए हर वर्ष अरबों रुपए स्वयंसेवी संस्थान और एनजीओ समाजसेवा के नाम पर डकार जाते हैं। इसलिए जब तक सरकारें इनके प्रति निष्पक्ष तरीके से तीव्र कार्रवाई नहीं करती हैं तब तक इनके गोरखधंधे पर लगाम लगना असंभव हीं है। मतलब जनता के पैसे को जनता के लिए उपयोगी बनाने के लिए जनता द्वारा, जनता के लिए और जनता के प्रतिनिधि अपने निहित स्वार्थों से ऊपर उठकर कार्य करने के लिए आगे नहीं आते हैं, इस लूट को रोक पाना असंभव ही है।