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इस्लाम का चिंतन

भारत प्राचीन राष्ट्र है। सभी राष्ट्र उसके निवासियों के सह अस्तित्व से ही शक्‍ति पाते हैं। राष्ट्र से भिन्‍न सारी अस्मिताएं राष्ट्र को कमजोर करती है। भारत में जाति अलग अस्मिता है। मजहबी अस्मिता की समस्या से ही भारत का विभाजन हुआ था। गांधीजी हिन्‍दू-मुस्लिम की साझा आस्था बना रहे थे। आस्थाएं तर्कशील और वैज्ञानिक नहीं होतीं। यों हिन्‍दू समाज की आस्थाएं विभाजित हैं। यहां जातियां हैं, आस्तिक हैं, दार्शनिक हैं, ढेर सारी आस्थाएं हैं। प्रत्येक हिन्‍दू ने अपना निज धर्म बनाया है, अपनी अलग आस्थाएं भी गढ़ी हैं लेकिन इस्लाम की आस्था संगठित है। सभ्य समाज में प्रत्येक व्‍यक्ति को अपनी आस्था और विवेक के अनुसार जीवन जीने का अवसर मिलना चाहिए। विज्ञान और दर्शन आस्थाएं ढहाते हैं लेकिन दुनिया के अनेक दार्शनिक और वैज्ञानिक भी आस्थावादी है। आस्थावादी अपनी मान्‍यताओं को ठीक और दूसरे की मान्‍यता को गलत बताते हैं। आस्था के टकराव राष्ट्र की शक्‍ति घटाते हैं। गांधीजी ने इसीलिए हिन्‍दू मुस्लिम एकता के लिए आजीवन काम किया। वे चाहते थे कि सब अपनी आस्था के अनुसार जीयें, देश को सर्वोपरि मानें। लेकिन ऐसा नहीं हो सका। उन्‍होंने अंततः हार मानी और समस्या जस की तस है। लेकिन इस लक्ष्य को असंभव मानकर खारिज नहीं किया जा सकता।

‘दि एम्बीशन’ (महात्वाकांक्षा) भारतीय प्रशासनिक सेवा, प्रांतीय सिविल सेवा के परीक्षार्थियों के लिए उ0प्र0 की राजधानी से प्रकाशित अनूठी मासिक पत्रिका है। पत्रिका सामयिक घटनाओं को जस का तस प्रस्तुत करती है। सत्य की अपनी शक्‍ति होती है, तथ्य की अपनी तासीर होती है। सत्य तथ्य के असर से बचना नामुमकिन होता है। लेकिन बात इतनी ही नहीं है। इस पत्रिका के प्रकाशक प्रधान संपादक अंशुमान द्विवेदी व संपादक आरिफ फजल खान उत्कृष्ट श्रेणी के इतिहासवेत्ता हैं। हड़प्पा सभ्यता पर अंशुमान की लिखी पुस्तक हजारों शोधार्थियों के बीच लोकप्रिय हुई है। आरिफ भारत सरकार की आकाशवाणी सेवा में रहे हैं। योग्य भाषा विज्ञानी हैं। बावजूद इसके दोनों संपादक आस्थावादी हैं। अंशुमान शिवभक्‍त हैं, तीर्थाटन करते हैं, नियमित पूजा करते हैं। आरिफ सच्चे मुसलमान हैं, नियत व्रत पर नमाज पढ़ते हैं। दोनों एक साथ एक कमरे में ही रहते हैं। नमाज और आयतों से अंशुमान को दिक्‍कत नहीं होती। मंत्रों की ध्वनि और पूजा की घंटी से आरिफ को तकलीफ नहीं होती। पत्रिका के इस भवन में कई बड़े कमरे हैं तो भी दोनों की इबादत एक ही कमरे में चलती है। दोनों साथ-साथ खाना खाते हैं। आस्थाओं में बुनियादी अंतर है लेकिन जीवन के छंद, रस, प्रीति, प्यार की वीणा एक है। सुर एक जैसे हैं। ऐसा अक्‍सर नहीं होता। लेकिन ऐसा इन्‍हीं दिनों लखनऊ में हो रहा है। अंशुमान के पढ़ाए कई आई.ए.एस. मुसलमान हैं, वे उन्‍हें प्रणाम करते हैं, आरिफ के पढ़ाए तमाम हिन्‍दू हैं, वे उन्‍हें नमस्कार (आदाब) करते हैं। यह एक खूबसूरत जोड़ी है। गांधी ऐसा ही समाज चाहते थे लेकिन कट्टरपंथी अंध आस्थावादी ऐसा समाज नहीं चाहते। डॉ. जाकिर नायक इस्लामी आग्रहों के नये प्रवक्‍ता हैं। ‘म?तबा नूर’ अमीनाबाद लखनऊ, से प्रकाशित उनकी प्यारी किताब आधुनिक विज्ञान कुरान के अनुकूल या प्रतिकूल काफी दिलचस्प हैं। डॉ. नायक के अनुसार कुरान पूर्णतः ईशववाणी है। (पृ-9) वे लिखते हैं, कुरान की यह आयतें मानव जाति के लिए एक चैलेंज है। इसके बाद सूरा 2 से 23 व 24 क्रमांक की आयतों का अरबी में उल्लेख है। फिर उनका अनुवाद है हमने जो कुछ अपने बंदे पर उतारा है उसमें अगर तुम्हें शक हो और तुम सच्चे हो तो तुम उस जैसी एक सूरह तो बना लाओ। तुम्हें अख्तियार है कि अल्लाह ताला के सिवा और अपने मददगारों को भी बुला लो। पर अगर तुमने न किया और तुम हरगिज़ नहीं कर सकते तो उसे सच्चा मानकर उस आग से बचो जिसका ईधन इंसान हैं और पत्थर, जो काफिरों के लिये तैयार की गई है। यहां इंकार करने वाले-काफिरों के लिए आग और पत्थर हैं। डॉ. जाकिर काफिर, आग और पत्थर की व्‍याख्या नहीं करते। सृष्टि के रहस्य अनंत हैं। वैज्ञानिक सृष्टि रहस्यों की परतें उघाड़ रहे हैं। डॉ. जाकिर ने अध्याय-3 में अंतरिक्ष विज्ञान शीर्षक से ब्रह्मांड की रचना को कुरान की रोशनी में देखा है। उन्‍होंने ‘बिगबैंग’ का आधुनिक वैज्ञानिक सिद्धांत भी उध्दृत किया है। उन्‍होंने यहां पवित्र कुरान से सूरा 30 की 21वीं आयत अरबी में उध्दृत की है। इसी आयत का उनका अनुवाद गौरतलब है क्‍या काफिर लोगों ने यह नहीं देखा कि आसमान व जमीन मुंह बंद मिले-जुले थे। फिर हमने उन्‍हें खोलकर जुदा किया। (वही पृ-12) कुरान के मुताबिक धरती-आकाश को अलग करने का काम ईश्वर ने किया है। ईश्वर को मानने वाली सारी आस्थाएं यही एक काम नहीं दुनिया की सारी घटनाओं को ईश्वर की ही कृपा मानती हैं। खोजी वैज्ञानिकों और दार्शनिकों के लिए ईश्वर एक समस्या है। डॉ. जाकिर ने कुरान (41.11) की आयत का अरबी उद्धरण भी दिया है और उसे बिगबैंक सिद्धांत के अनुरूप बताया है। लिखा है, वैज्ञानिकों का कहना है कि आकाश गंगाओं के वजूद में आने से पूर्व यह ब्रह्मांड का मूल तत्व गैस में था। इसे स्पष्ट करने के लिए धुवे शब्‍द का प्रयोग किया जाय तो मुनासिब होगा। फिर मूल आयत का अनुवाद है, फिर आसमान की तरफ मुतवज्जह हुआ और वह धुवां सा था उससे और जमीन से फरमाया कि तुम दोनों खुशी से आओ या जबर्दस्ती। दोनों ने अरज किया हम बखुशी हाजिर हैं। (वही पृ-13) कुरान ईश्वरीय आस्था है।

कुरान के अनुसार धरती आकाश मिलेजुले थे, उन्‍हें ईश्वर ने जुदा किया। दुनिया के प्राचीनतम ज्ञान रिकार्ड ऋग्वेद में भी यही स्थापना है लेकिन बुनियादी अंतर है – धरती आकाश पहले एक थे। उन्‍हें वायु ने अलग किया। दोनों का संवर्द्धन भी किया। (ऋ0 1.85.1)ऋग्वेद की इस स्थापना में ईश्वर नहीं है। वायु-मरु?ण ही धरती आकाश के मध्य आते हैं। वायु प्रत्यक्ष भौतिक तत्व है। ऋग्वेद में यहां इस बात को न मानने वालों को काफिर वगैरह नहीं कहा गया। वैज्ञानिक दृष्टिकोण वाले लोग अपने तथ्य को माने जाने का आग्रह नहीं करते। वे विपरीत दृष्टिकोण का स्वागत भी करते हैं। अब सृष्टि विज्ञान को लीजिए। डॉ. जाकिर ने पवित्र कुरान की कई आयतों को वैज्ञानिक सिद्ध करने की हसरत में अच्छी खासी कसरत की है। उन्‍हें आस्था और विज्ञान को आमने-सामने नहीं खड़ा करना चाहिए। इस कसरत में ‘ईश्वर’ बार-बार बाधा बनता है। वैज्ञानिकों ने फिलहाल ईश्वर को सिद्ध नहीं किया है। ऋग्वेद में सृष्टि रचना संबंधी कई सूत्र हैं लेकिन पहले मंडल के सूत्र 129 व दसवे मंडल के सूत्र 72, 121, 129, 190 काफी दिलचस्प हैं। इन सूत्रों में ईश्वर कोई काम नहीं करता। ऋग्वेद में प्रकृति की शक्‍तियों की कार्यवाही का विवेचन है। कुरान की रोशनी में डॉ. जाकिर के आकाशीय धुवें वाले ईश्वरीय विवेचन के संबंध में ऋग्वेद (10.72.2) में कहते हैं देवों के पहले – देवानां पूर्वे युगे, असत् से सत् उत्पन्‍न हुआ। यहां सृष्टि के विकास का क्रम है। आदिमकाल में मनुष्य ने देवता नहीं पहचाने (नहीं गढ़े) थे। आगे कहते हैं, आदि प्रवाह (सूक्ष्म ऊर्जा) से उपरिगामी सूक्ष्म ऊर्जा कण बने। आदि सत्ता – अदिति से सृजन प्रारंभ हुआ, दक्ष (सर्जन शक्‍ति) उत्पन्‍न हुए। सूर्य उत्पन्‍न हुए। सर्जन चलता रहा। दिव्‍य शक्‍तियों के नर्तन से तेज गतिशील ऊर्जा कण प्रकट हुए। (वही, 4-6) इन देवशक्‍तियों के लिए ऋग्वेद में सुसंर?धा (आपस में संयुक्‍त) शब्‍द प्रयुक्‍त हुआ है। इन्‍हीं के नृत्य से आकाश में धुंध बनी। कुरान की स्थापना वाला धुवां ऐसा ही है। मार्क्‍सवादी चिंतक डॉ. रामविलास शर्मा ने ग्रिथ का अनुवाद दिया है – धूलि का घना बादल ऊपर उठा। वालिस के अनुसार देवों के नृत्य से अणुओं पर हुए पदाघात से धरती बनी। ऋग्वेद का?यात्मक है। ऋग्वेद में प्रकृति सृष्टि के विकास में ईश्वर कोई करिश्मा नहीं करता। यूरोप के तत्ववेत्ता और वैज्ञानिक कोई 17वीं सदी तक प्रकृति के विकासवादी सिद्धांत से अपरिचित रहे हैं। भारत में वैदिक काल में ही वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विकास हो चुका था। ऋग्वेद तमाम जिज्ञासाओं से भरापूरा है। भारत छोड़ समूचे यूरोप और एशिया की भी बुनियादी समस्या आस्था है। भारत में वैज्ञानिक दृष्टिकोण और तर्क-प्रतितर्क आधारित दर्शन का विकास पहले हुआ। आस्था बाद में आई। बाकी जगह आस्था पहले आई, विज्ञान बाद में आया। आस्था और विज्ञान का तालमेल बिठाना आसान नहीं होता। आस्था को लेकर वैज्ञानिक दृष्टिकोण वालों को ‘चैलेंज’ देना सामान्‍य शिष्टाचार के विरुद्ध होता है लेकिन डॉ. जाकिर ने लिखा है ‘कुरान की आयतें मानव जाति के लिए चैलेंज’ हैं। कुरान दुनिया की बहुत बड़े जनसमुदाय की आस्था है। आस्था पर बहस नहीं होती, होनी भी नहीं चाहिए। बहस से आस्थावानों की भावनाओं को चोट पहुंचती है। कुरान के सूरा (अध्याय) अलबकरा 2 का उद्धरण जाकिर भाई ने दिया है। मौलाना मुहम्मद फारूख खां ने इस सूरा की 68 व 7वीं आयत का अनुवाद किया है जिन लोगों ने इंकार किया, उनके लिए बराबर है चाहे तुमने उन्‍हें सचेत किया हो या सचेत न किया हो। वे ईमान नहीं लाएंगे। अल्लाह ने उनके दिलों पर और उनके कानों पर मुहर लगा दी है और उनकी आंखों पर परदा पड़ा है और उनके लिए बड़ी यातना है। ऐसे में डॉ. जाकिर के चैलेंज के जवाब में बहस की गुंजाइश कहां हैं? कुरान बाईबिल और सारे आस्था ग्रंथ सबके लिए आदरणीय होने चाहिए। उनको बहस में न लाइए। भारत को विवेकशील, तार्किक, वैज्ञानिक दृष्टिकोण से ही विकसित कीजिए। चैलेंज का उत्तर विनयशीलता ही हो सकता है।

– हृदयनारायण दीक्षित

भारतीय कृषि: सुख-समृद्धि का मूलाधार

महंगे रसायनों के कर्जे, जमीन मृत, झूठे सपने दिखाने वाली सरकारों के कारण लिए हुए अन्य कर्जे, बिचौलिए इन सबमें हमारा किसान मारा गया। हमारी धरती माता मारी गयी, जिसके मूलाधार उसकी समृद्ध मृत्तिका और शुद्ध जलस्रोत थे।

शाकवने रम्यं चन्दने रक्तचंदनै:।

हरीतकी कणिकार धात्री वन विभूषितम॥

द्राक्शावाल्ली नागवल्ली कणावल्ली शतावृतम।

मल्लिका यूथिका कुंदमदयन्ति सुगंधितम॥

(स्रोत : काशी खण्ड अध्याय 1, श्लोक 31-32)

अर्थात् साग, चन्दन और रक्तचन्दन इनसे परम रमणीक विन्ध्य हरै, कठचंपा और आमला के वन से विभूषित है। वह द्राक्ष (अंगूर), ताम्बूल और पीपल आदि लताओं से आवृत एवं बेला (बिल्व पत्र), जूही, कुंद और मदयंती आदि से सुगंध-सम्पन्न हो रहा है।

विश्व भर में केवल भूख से मरनेवालों की संख्या सन् 2000 में 8 करोड़ ही थी। 2009 यानी गत वर्ष में यह 10 करोड़ हुई है। (स्रोत : FAO) गरीबी के साथ इसके मूल कारण अन्न का अभाव, अन्न में भी पर्याप्त जीवन त्तवों का अभाव और अनारोग्य हैं। अब कृषिबलों की स्थिति देखते हैं। किसानों की आत्महत्याएँ हम सबके लिए केवल दु:ख का नहीं, वरन् क्रोध, उद्वेग और अब तुरंत कृतिशील होने का विषय है। केवल संख्या की भयावहता के कारण नहीं; चूंकि आत्महत्या करने वाला हर एक किसान हिन्दू है! इसलिए भी हमें तुरंत सतर्क होकर इस विषय का अध्ययन करने की आवश्यकता है।

भारत में सबसे बड़े जो 5 राज्य हैं, उनमें किसानों की आत्महत्याएं सबसे अधिक हैं। भारत की हर 12 आत्महत्याओं में 1 कृषिबल की रही है- वर्ष 1997-2002 में। आन्ध्र प्रदेश, कर्नाटक, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के 5 राज्यों को मिलाकर 1997 में 7236 किसानों ने आत्महत्या की। 1998 में 8383 किसान, 1999 में 9430 किसान, 2000 में 9837 किसान, 2001 में 10374 किसान, 2002 में 10509 किसान स्वयं की जिन्दगी समाप्त कर मर गए। ये आंकड़े केवल 5 राज्यों के हैं।

भारत में 1997 में 13622, 1998 में 16015, 1999 में 16082, 2000 में 16608, 2001 में 16415 और सन् 2002 में 17971 किसानों ने आत्महत्याएं की। दिखता यह है कि 5 राज्यों के किसानों की आत्महत्याओं का प्रमाण सबसे अधिक है। 2002 में जो प्रमाण भारत की कुल आत्महत्याओं में 59.5 प्रतिशत था, वह 2008 में 66.7 प्रतिशत जा पहुचा है। भारत में किसानों की कुल आत्महत्याएं 2008 में 1,02,424 हुईं, उनमें केवल 5 राज्यों में ही 67054 थीं। (स्रोत : NCRB Reports) केवल 2003 से 2008 में के ये आंकड़े हैं।

अब प्रश्न यह है कि, क्या हम केवल भूख से मरनेवाले आम आदमी, उसके परिवार और बच्चों के आंकड़े देते रहेंगे? नहीं! हर हिन्दू का यह उत्तरदायित्व बनता है कि इस भयंकर समस्या का विषय ठीक से समझ लें, उस पर तुरंत सोचे और भारत के गरीब और हिन्दू किसानों को बचाना यानि भारत का मूलाधार बचाना, यह समझकर कृतिशील हो।

भारत आरंभ से ही कृषि प्रधान देश है। हमारी नदियां जो जलस्रोत से भरी-पूरी होती थीं, उनके किनारे-किनारे हमारी कृषि, हमारी संस्कृति और सभ्यता फलती-फूलती गयी। जब विश्व में वनों में रहकर कच्चा मांस और कच्ची मूलियां खानेवाले विदेशी थे, तब और उसके भी पूर्व से भारत ने चक्र से लेकर अग्नि तक और पानी के विविध उपयोगों से लेकर समृद्ध कृषितंत्र तक शास्त्र ढूंढ़ निकाले थे। इन सबके कारण हिन्दू सुख और आनंद से रहते थे। फिर ऐसा क्या हुआ कि हमारा मूलाधार जो हमारी कृषि, उनकी विविध उपज, उनके विविध पशु, हमारा किसान सबों पर ऐसी बला आ धमकी कि उनका जीवन दूभर हो जाए?

अधिक दूर के इतिहास में न जाते हुए, हम कुछ ऐसे पहलू समझें जो आज समझना उचित है, आवश्यक है-

1. हरितक्रान्ति, श्वेतक्रान्ति जैसी कल्पनाओं में बहककर भारत में ‘अति-कृषि’ हुई। इसके मायने क्या? अधिक कृषि यानि ‘अति-कृषि’ नहीं। कृषि विज्ञान भी कहता है कि किसी भी खेत में, मिट्टी को थोड़ा आराम दिए बिना, वहीं धान्य/फल/फूल की बार-बार पैदा की जाए तो वह मिट्टी कुछ समय में अपनी संधारणा-क्षमता खो बैठती है। वही हुआ। जब हमारे अनपढ़ किसान भी समझते थे कि एक बार गेहूँ उगाया तो बीच में रूकना चाहिए, बांधों और जमीन पर सब्जियां उगाना चाहिए, जमीन को थोड़ा आराम देना चाहिए, हमारी राजनीति यह जानकर भी कृषि को रेस के घोड़ों जैसी दौड़ाती रही।

परिणाम? मृद्संधारण शून्य होता गया, उपजाऊ जमीन रेगिस्तान में परिवर्तित हो गई। ‘अति-कृषि’ ने भारत की 40 प्रतिशत जमीन खा डाली। हरितक्रान्ति का अतिशयीकरण भारत को महंगा पड़ा। श्वेतक्रान्ति में गायों को अधिक दुग्धोत्पादक बनाने के चक्कर में क्या-क्या रसायनों के इंजेक्शन्स दिए गए, यह अलग विषय है- उस पर हम किसी और समय अवश्य चर्चा करेंगे। हरितक्रान्ति, श्वेतक्रान्ति के झमेले में लोभी राजनीतिज्ञों ने किसानों को सपने दिखाकर, वोट बैंक तैयार की और जो हमारा भारत ‘अश्वक्रान्ति, रथक्रान्ति, विष्णुक्रान्ति वसुन्धरा’ कहलाता था, वह बंजर होने लगा।

2. अब अगर एक ही जमीन के टुकड़े में फिर वह बड़ा हो या छोटा जमीन की मर्यादा से अधिक उपज करनी हो तो जमीन में ठूंसने के लिए विदेश से अनेकानेक रसायन मंगवाए गए। रासायनिक खाद ने इस देश की धरतीमाता को जितना पीड़ित किया है, उतना उत्पीड़न किसी भले ने अपनी जन्मदात्री, अन्नदायी मां का कभी नहीं किया होगा!

हमारा वैद्यकशास्त्र कहता है कि शरीर में यूरिया की मात्रा प्रमाण से अधिक बढ़ती है तो उससे अनावश्यक जल के साथ विषमय रसायन शरीर में बढ़ते हैं। इससे किडनी खराब होती है, रक्तप्रवाह असंतुलित होता है और हृदय क्रिया के लिए तथा मस्तिष्क की अन्य क्रियाओं के लिए आवश्यक प्राणवायु (ऑक्सीजन) की मात्रा शरीर के कम होती जाती है। परिणाम? व्यक्ति की मृत्यु! वहीं इन रासायनिक खादों ने हमारी धरती माता के साथ किया। यूरिया, अमोनिया, फॉस्फोरस, फॉस्फेट…कई रसायन हमारी समृद्ध मृत्तिका में, उसमें से हमारे शुद्ध जल स्रोतों में ठूंस दिए गए। किसी भी स्टीरिऑरड से शुरु में जैसे स्नायू अच्छे दिखते हैं, वैसे ही इन रसायनों से शुरु में अनाज, फल, फूल बड़े दिखें, अधिक उगें। बाद में शुरु हुआ संपूर्ण मृत्तिका मरने का क्रम। छोटे और मध्यम किसान इस सिलसिले में बर्बाद हो गए। महंगे रसायनों के कर्जे, जमीन मृत, झूठे सपने दिखानेवाली सरकारों के कारण लिए हुए अन्य कर्जे, बिचौलिए इन सबमें हमारा किसान मारा गया। हमारी धरती माता मारी गयी, जिसके मूलाधार उसकी समृद्ध मृत्तिका और शुद्ध जलस्रोत थे।

3. अब उपज तो लहलहाई थी शुरु में। उसको हमारे नैसर्गिक खादों से बड़ा न कर, रसायनों से बड़ा किया गया था। उपज नाजुक हो गयी। हमारा परंपरागत कृषिधन- गोबर, गोमूत्र का खाद उपयोग करने वाले कुछ राज्यों के किसानों की जमीनें बची हैं। लेकिन रसायनों से बढ़ाए धान्य कीड़े न खाएं इसलिए फिर से और रसायनों के फव्वारे, गोलियां उन पर, उनके मूल में डाली गईं। परिणाम? घातक कीड़े, जंतु शुरु में मरे, फिर इम्यून होकर ऐसे लौटे कि 2 वर्ष में लिए हुए अधिक उत्पादों का कमाया धन एक-एक कीड़ा मारने में जाना लगा। अति-कृषि की यह एक और बलि। मृत्तिका, जल के साथ-साथ धान्य, फल और फूल इन सब में रसायन भर गए। उन्हें खाकर हमारे बच्चे जवानी में प्रमेह, अंधत्व, नैराश्य आदि इनके शिकार होने लगे। जबकि इन रसायनों का उत्पादन करने वाली विदेशी कंपनियां और उन्हें भारत में लाने वाले राजकीय नेता, अधिकारी समृद्ध होते गए।

4. अब इतनी सारी उपज इतने कम समय में एक ही खेती से लेना हो तो जल? भारत की 80 प्रतिशत कृषि पर्जन्य जल पर चलती थी। इसका अर्थ यह नहीं था कि भारत में 80 प्रतिशत समय बारिश गिरती रहती थी। हमारी नदियां, उनके अनेकानेक कोनों तक पहुंचे, जलस्रोत, झरने, जीवंत झरनों से बने तालाब और कूप, बाद में अनेक राजाओं द्वारा बनाए हुए कुण्ड इन सबसे भारत में नैसर्गिक पद्धति से पर्जन्यजल संधारण तथा समृद्धि (Rainwater Conservation & Harvesting) होती थी। नदियों में खनन, गंदे नाले, रसायन कंपनियों के विष भरे उत्सर्जन इन सबसे हमारी नदियां सिकुड़ती गयीं।

जंगलों, पर्वतों को काट-काट कर कारखाने, घर, मॉल्स बनाने में वर्षा के बादल कम होते गए, कूप, तालाब, कुण्ड पाट दिए गए और किसानों को मजबूर किया गया कि वे बोअर बेल बनाए, उसके लिए कर्जें लें। जमीन से धरती माता के सहेजे हुए स्रोतों से क्रूर रीति से महाभयंकर प्रमाण में इतना जल खींचा गया कि, अब कई बार धरती ऐसी कांप उठती है कि कच्छ से लेकर हैती तक जमीन हिल जाती है। इतना कर के भी किसान गरीब होता गया, बिचौलिए अमीर ! नेता अमीर और विदेशी कंपनियां भी अमीर।

ये केवल कुछ कारण हैं। कृषि विशेषज्ञ कई ऐसे कारण जानते हैं। अब UNO ने यह वर्ष (Bio-Diversity Year) जैविक विविधता वर्ष घोषित किया है, जो हमारे किसान युगों से करते थे। अलग-अलग प्रकार की उपज लेकर जमीन, मृत्तिका को आराम और जीवन सत्तव देते थे, सेंद्रिय खेती से मृत्तिका की उपजाऊ क्रिया टिकाते भी थे, बढ़ाते भी थे, इनसे पानी कम लगता था क्योंकि, गोमय के खाद पानी संधारित करके रखते थे, गोमूत्र का छिड़काव करके कीड़ी भगायी जाती थी। धान्य, फल, फूल अधिक मात्रा में और शुद्ध आते थे। जो हम युगों से करते आए, वही सब आज, फिरंग विद्यापीठों के वैज्ञानिक कठिन शब्दों में, रंग-बिरंगे प्रेजेन्टेशन में बताने लगे हैं, वैश्विक उष्मीकरण, Climate Change जैसी बातें बच्चे भी बोल रहे हैं।

अब समय रहते हम सब हिन्दू और हिन्दू संगठन यदि एकत्रित होकर अपनी हिन्दू कृषि-पद्धति पर नहीं जोर देंगे तो भारत में अन्न और जल की ऐसी कमी आयेगी कि प्रलय भी उनसे डर जाए !

विश्व मंगल गौ ग्राम यात्रा से आरंभ हुआ ही है, किन्तु यह एक सर्वंकष हिन्दू कृषि-शास्त्र है, जो आज भारत को ही नहीं, संपूर्ण विश्व को बचा सकता है। हम कुछ हिन्दू बंधुओं ने मिलकर सोच-विचार कर इनका त्वरित अध्ययन और कृतिशीलता के लिए ‘किसान काउन्सिल प्रकल्प’ आरंभ भी किया है। कई अन्य हिन्दू बन्धु, वैज्ञानिक ऐसे अन्य कार्यों में लगे हैं, कई समझदार हिन्दू कृषि बचाने के लिए सहयोग देना चाहते हैं, चलें हम सब मिलकर हिन्दू किसान को बचाएं। यूरिया की कीमतें 10 प्रतिशत बढ़ीं तो हमारा किसान हताश न हो, ऐसी स्थितियां निर्माण करें। क्यों चाहिए यूरिया या अन्य रसायन, जब हमारी परम्परा ने हमें इतने समृद्ध नैसर्गिक खाद, कीटनाशक, मृद्संधारक दिए हैं? आइए! सब मिलकर कहें और करें- भारतीय कृषि-पद्धति, भारतीय सुख-समृद्धि का मूलाधार।

-डॉ. प्रवीण तोगड़िया

हुसैन की बिल्ली थैले से बाहर निकली

MF Hussain's Painting 'Rape of India'

MF Hussain's Painting 'Rape of India'

बिल्ली तो अब थैले से बाहर आ ही गई। यह कहावत विख्यात चित्रकार मुहम्मद फिदा हुसैन पर पूरी तरह चरितार्थ होती है। साथ ही उनकी पोल भी खुल गई है। भारत की नागरिकता त्याग कर खाडी देश कतर की नागरिकता ग्रहण कर अपने आप को सम्मानित महसूस कर उन्होंने भी सैकुलरवाद, उदारवाद तथा जनतन्त्र के अनुयायी होने का चोगा उतार फैका है। कतर ही नागरिकता मिल जाना, उनके ही शब्दों में, यदि उनके लिये सम्मान व गौरव का अवसर है तो क्या भारत की नागरिकता व्यक्तिगत रूप में उनके लिये शर्म की बात थी?

यदि वह भारत छोड़ किन्हीं अन्य देशों में पनाह लिये फिर रहे थे तो उसके लिये भारत के लोग नहीं वह स्चयं ज़िम्मेवार थे। 1996 में हुसैन साहिब देश से बाहर खिसक गये जब उन्होंने हिन्दू देवियों के नग्न चित्र प्रकाशित करने का एक घृणित अपराध किया। तब से वह विदेशों में घूमते फिर रहे हैं। उनके हितचिन्तक चाहे कुछ भी कहते फिरते रहें, उन्होंने कभी तो इस बात को नकारा कि वह एक निर्वासित जीवन व्यतीत कर रहे हैं तो कई बार इसे नकारा। पिछले वर्ष बीबीसी हिन्दी के साथ एक साक्षात्कार में उन्होंने इस बात को नकारा और कहा कि मैं तो अनेक देशों में घूमता फिरता रहता हूं। पर पिछले दिसम्बर में वह अपनी बात से पलट गये और कहा कि उन्हें भारत वापस जाने में खतरा महसूस होता है।

हिन्दू देवियों व भारत माता के नग्न चित्र छाप कर उन्होंने बेशक हिन्दू भावना से खिलवाड़ किया है और उन्हें आहत किया है। वह और उनके प्रशंसक अपने इस अपराध से बचने के लिये चाहे इसे भारतीय संविधान में प्रदत्त अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के अधिकार की आड़ लें पर यह भी सब को पता है कि किसी भी सम्प्रदाय या समूह की भावनाओं को ठेस पहुंचाना एक कानूनन अपराध है जिसके लिये अनेक लोगों के विरूद्ध कार्यवाही हो चुकर है और सज़ा भी मिल चुकी है।

यह अपराध उन्होंने जानबूझ कर अपने पूरे होश-हवास में किया है, यह तो सब जानते ही है। प्रश्‍न तो यह भी है कि अपनी अभिव्यक्ति की इस स्वतन्त्रता का उपयोग उन्होंने अपनी माता जी या परिवार के किसी अन्य सदस्य के नग्न चित्र बनाने केलिये क्यों नहीं किया? वह तो भलीभान्ति जानते हैं कि भारत माता व हिन्दू देवियां सब भारतीयों के लिये मां से भी बढ़ कर हैं। किसी भी वित्रकार को किसी दूसरे के मां-बहन के नग्न चित्र बनाने का तब तक कोई नैतिक अधिकार नहीं है जब तक वह यही पुनीत कार्य अपनी मां-बहन से नहीं कर लेता।

इस्लाम समेत कोई भी धर्म इस कुकर्म की इजाज़त नहीं देता और न ही किसी की आत्मा, भावना या आस्था पर प्रहार करने को मान्यता देता है।

इतने हो-हल्ला के बावजूद न ही स्वयं हुसैन साहब ने और न ही उनके समर्थकों ने यह ऐलान किया है कि यदि कोई चित्रकार उनकी मां-बहन का नग्न चित्र बना देगा तो वह भी उसके अभिव्यक्ति के इस जनतान्त्रिक अधिकार का उसी प्रकार सहर्श सम्मान करेंगे जैसा कि वह स्वयं अपने अधिकार का चाहते हैं।

क्योंकि वह स्वयं मुसलमान हैं

Goddess Lakshmi naked on Shree Ganesh's head & M.F. Husain's mother fully clothed

कई हुसैन समर्थक आरोप लगाते हैं कि हुसैन साहिब को इसलिये प्रताड़ित किया जा रहा है क्योंकि वह मुसलमान हैं। सच्चाई तो इसके विपरीत है। उन्होंने हिन्दू देवियों व भारत माता के नग्न चित्र बनाने की हिमाकत ही केवल इसलिये की है क्योंकि वह स्वयं मुसलमान हैं और इसी कारण जब उन्होंने अपनी मां तथा अन्य मुसलिम महिलाओं के चित्र बनाये तो उन में पूरी शालीनता झलकती है और उन्हें पूरी तरह ढक संवार कर चित्रित किया गया है।

यदि वह गुनाहगार नहीं हैं तो वह अपने आपको भारत के कानून और न्यायालय के हवाले क्यों नहीं कर देते? या क्या इसका यह तात्पर्य लगाया जाये कि उनका भारतीय कानून व न्याय व्यवस्था में कोई विश्‍वास नहीं है?

उनकी राष्‍ट्रभक्ति

जब तक कि वह भारत के नागरिक थे तब तक उनकी राष्‍ट्रभक्ति पर संदेह करने का सवाल पैदा नहीं होता था। पर अब जब उन्होंने अपनी जन्मजात राष्‍ट्रीयता को लात मार दी है और कतर की राष्‍ट्रीयता प्राप्त करने पर गौरवान्वित महसूस कर रहे है तो उस पर शक पैदा हो जाना स्वाभाविक भी है। उन्होंने अपने उस मात्रि राष्‍ट्र को ठोकर मारी है जिसने उन्हें नाम और शोहरत प्रदान की – उस देश को जिसे वह अपने ही शब्दों में कहते फिरते थे कि वह बहुत प्यार करते हैं। आज उन्हें कतर प्यारा हो गया। उसकी नागरिकता से वह अपने आप को गौरवान्वित महसूस करते हैं।

किसी व्यक्ति का जन्म उसके जीवन की सर्वप्रथम सर्वाधिक महत्वपूर्ण घटना होती है और बाकी सब बाद में। पर हुसैन साहिब ने तो अब इस घटना को ही नकार दिया है। अपने देश को ही नकार दिया है जिसने उसे पाला-पोसा और बड़ा किया।

उन्होंने भारत के प्रति व्यक्त अपने प्रेम को स्वयं ही एक धोखा, झूठा और ढोंग बना कर रख दिया है

हुसैन साहिब जैसे व्यक्ति को यह याद कराना अजीब लगता है कि भारत और विश्‍व में अनेक ऐसे उदाहरण है जिन में लोगों ने अपने देशप्रेम के कारण अनेक यातनायें सही हैं और अपने प्राण तक न्योछावर कर दिये हैं। पर यहां हैं देशभक्त हुसैन जो अपने देश की नागरिकता त्याग कर दूसरे देश की नागरिकता ग्रहण करने पर अपने आपको सम्मानित महसूस करते हैं। हमारे पास ऐसे ढोंगियों की कमी नहीं है जो उनके लिये अनवरत आंसू बहा रहे हैं।

भारत नहीं, दूसरा देश महान्

हुसैन साहिब की कानून और व्यावहारिकता से अनभिज्ञता पर तरस भी आता है। वह किसी देश द्वारा किसी व्यक्ति को सम्मान के तौर पर नागरिकता प्रदान करने और किसी व्यक्ति द्वारा अपने देश की नागरिकता का परित्याग कर दूसरे देश की नागरिकता प्राप्त करने में फर्क नहीं समझ पाते। कोई भी देशभक्त कभी भी किसी सूरत में भी अपने देश की नागरिकता त्याग करने पर गर्व महसूस नहीं करता पर हुसैन साहिब अवष्य करते हैं। उनकी देशभक्ति और राष्‍ट्रभक्ति को सलाम!

चाहे वह छोटा हो या बड़ा, न तो डा0 अब्दुल कलाम, न डा9 मनमोहन सिंह, न श्रीमती सोनिया गान्धी, न राहुल गान्धी, और न डा0 फारूख अब्दुल्ला सरीखे कोई भी महानुभाव अपने आप को गौरवान्वित महसूस करेगा यदि कल को कतर या कोई अन्य देश उन्हें भारत की नागरिकता त्याग कर उस या किसी अन्य देश की नागरिकता प्रदान कर सम्मानित करना चाहें।

हुसैन साहिब का देशप्रेम कितना गहरा और सच्चा है यह तो वह स्वयं ही जानें।

उनका सैकुलरवाद

Goddess Durga in sexual union with a Tiger & The Prophet's daughter Fatima fully clothed

कारण कुछ भी रहे हों हुसैन साहिब पिछले 14 वर्श से इंगलैण्ड, अमरीका, जर्मनी सरीखे कई जनतन्त्रों, सैकुलर व उदारवादी देशों में रह चुके हैं। पर जब उन्हें अपनी नागरिकता बदलनी थी तो उनके अन्दर का मुसलमान जाग उठा और उन्होंने चुना कतर को जो किसी भी तराज़ू पर सैकुलरवाद, जनतन्त्र व उदारवाद की कसौटी पर खरा नहीं उतरता। कतर एक ऐसा देश है जहां की जनसंख्या में से केवल 15 प्रतिशत को ही नागरिकता का अधिकार दिया गया है। तो यह है वह सौभाग्यशाली देश जिस की नागरिकता प्राप्त कर हुसैन साहिब बाग़-बाग़ हो रहे हैं।

किस देश में कौन-सा शासन तन्त्र हो यह तो उस देश की जनता का अपना एकाधिकार है जिस पर किसी को कोई इतराज़ नहीं हो सकता। जिस प्रकार किसी भी दम्पत्ति को यह अधिकार है कि वह एक साथ रहें या सम्बन्ध विच्छेद कर तलाक ले लें उसी प्रकार किसी भी नागरिक को यह अधिकार है कि वह अपने देश से किनारा कर एक नये देश की नागकिता प्राप्त कर ले। जैसे तलाक लेने वाले पति-पत्नि पर यह चर्चा उठ ही जाती है कि यह इसलिये हुआ क्योंकि उन में पारस्परिक प्रेम व विष्वास की कमी हो गई, इसी प्रकार देश की नागरिकता त्याग कर देने वाले महानुभाव पर भी उसके देशप्रेम के प्रति तो उंगली उठनी स्वाभाविक ही है। यही कुछ हो रहा है आज हुसैन साहिब के उस कथन पर जिसमें वह कहते फिरते थे कि वह अपने वतन को सर्वाधिक प्रेम करते हैं।

हुसैन साहिब के देशप्रेम को सलाम!

अब एक प्रश्‍न और भी खड़ा हो जाता है। हुसैन साहिब ने अब अपना भारतीय पासपोर्ट भी वापस कर दिया है। अपने पदमविभूषण के सम्मान को उन्होंने अभी तक क्यों गले लगाये रखा है, यह अवश्‍य विचारणीय है। अब जब कि उन्होंने भारत के प्रति अपने प्रेम और उसकी नागरिकता को नकार दिया है तो वह भारत द्वारा दिये गये सम्मान को किस मुंह से और नैतिकता के किस तकाज़े से छाती से लगाये बैठे हैं? जिस व्यक्ति ने भारत की नागरिकता और उसके साथ प्रेम को नकार दिया हो, क्या उस भारत को उनके इस कृत्य का उचित उत्तर नहीं देना चाहिये? जिस व्यक्ति ने भारत का और देश के प्रति प्रेम का परित्याग कर दिया है और जो दूसरे देश की नागरिकता प्राप्त करने पर अपने को गौरवान्वित महसूस करते है, क्या वह फिर भी इस देश के इस सम्मान का पात्र रह जाता है?

शायद हमारे शासकों व कई राजनैतिक दलों की वोट वैंक राजनीति उन्हें ऐसा करने से रोके, पर देश का स्वाभिमान तो यही कहता है कि ऐसा व्यक्ति किसी राष्‍ट्रीय सम्मान का हकदार नहीं रह जाता। भारत की नागरिकता को ठुकरा कर हुसैन साहिब ने देश को गौरव प्रदान नहीं किया है।

-अम्बा चरण वशिष्‍ठ

नोबल पुरस्कार और गन्दगी

हम घर से निकले तो देखा कि कुडे करकट के ढेर के पास दडबे नुमा मकान में रहने वाला फटेहाल चितवन जो हमेशा ही मायूस और डरावनी सी खामोसी को चेहरे पर ओढे रखता था। आज अपनी बेगम को बडे ही उत्साह के साथ बता रहा था कि बेगम तुम्हे मालूम है कि समय सब का आता है और जब समय आता है तो गंदगी के ढेर के भी दिन फिर जाते है और लोग बडे ही सहज भाव से बिना नाक मुंह सिकोडे उसे सिर पर उठा कर ले जाते है।

हमारे पर्यावरण व वन मंत्री माननीय जयराम रमेश जी ने कहा है कि हमें भी नोबल पुरस्कार जरूर मिल सकता है। यह हमारे और हमारी आने वाली पीढी के लिये गौरव की बात है कि हम भी नोबल पुरस्कार पा सकते है और यह सब हमारे इन नेताओं की बदौलत ही हो रहा है जिन्होने इस हमारी सबसे महत्व पूर्ण बात को समझा है और हमें नोबल पुरस्कार के नजदीक लाकर खडा किया है। अब तुम्हें मन छोटा करने की आव यकता नही है।

हमने चितवन के घर में कदम रखा तो वह झट से खडा हुआ और मूंज की टूटी खाट की ओर इ ाारा करते हुए हमें सम्मान के साथ ले जाकर उस पर बैठाया। अन्यथा हम जब भी उसके पास आये है, वह गरीबी बेरोजगारी, भूखमरी का ही रोना ही रोता रहा है। हमने चितवन से जानना चाहा कि उसकी खु ाी का राज क्या है? उसने खुश्क एवं पपडी आये होटों पर सूखी जीभ को फिराया फिर उन्हें फैलाया और पीला पन लिये दांतों को दिखाते हुए बोला चचा आपने अखवार नही पढा शायद। अब हम भी नोबल पुरस्कार प्राप्त करने की लाईन में है। और यह पुरस्कार लेने से हमें कोई नही रोक सकता।

हमने चितवन की ओर देखा जो नोबल पुरस्कार प्राप्त कर लेने के बारे में इस प्रकार कह रहा था जैसे नोबल पुरस्कार गली कुचडों में ठोकरे खा खा कर पिचकाये हुए पुराने जंग खाये कनस्तर की तरह उसके सामने ही पडा हो ओर उसे ही उठा कर लेना हो। हमने चितवन से पुन: सारी बात तफसील से बताने को कहा। चितवन ने समाचार पत्र का एक फटा सा टुकडा हमारे सामने रखा और सारी स्थिति से अवगत कराया। समाचार पढ कर हमने अपने माथे पर हाथ मारा तो चितवन बोला चचा इस खु ाी के मौके पर आप मातम की ओर क्यों बढ रहे है। हमने चितवन की ओर देखा उसके फटे चिथडेनुमा कपडों को देखा, उसकी पत्नि जो दिवार का सहारा लिये पुराने फटे कपडों के बेतरतीब पडे गठ्ठर की तरह बैठी थी। उसके चेहरे की और देखा। यह भी देख कि चितवन के शरीर पर ही नही उसके घर में भी गन्दगी का ही सम्राज्य था।

इन सब बातों को लेकर मिलने वाले नोबल पुरस्कार पर चितवन का ही हक बनता है। यह बात उसकी जायज है। हमने पुन: चितवन के चेहरे की ओर देखा जो एक निरीह प्राणी की तरह लगातार हमें ताके जा रहा था। उसका चेहरा देख कर हमें बहुत दया आई। हमने चितवन से कहा चितवन तुम्हारी बात सही है कि हमें और किसी काम में नोबल पुरस्कार मिले या नही पर गन्दगी और कचरे के मामले में तो हमारा पहला हक बनता है। क्योंकि आजादी के बाद हमारे इन नेताओं ने हमें गन्दगी और कचरे के सिवा दिया ही क्या है।

चितवन रामायण में कहा गया कि जाकि रही भावना जैसी प्रभू मूरत देखी तिन तैसी। इन नेताओं कि भावना ही गन्दगी और कचरे के समान है ये चुनाव जीतने के लिये गन्दे हथकण्डे अपनाते है। इनका साम्राज्य बना रहे इसलिये ये गन्दें लोगों को सहेज कर रखते है। इसलिये ये गन्दगी और कचरे से ही नोबल पुरस्कार दिलाने की बात कर सकते है। जब इनकी सोच इससे आगे नही है तो जनता इससे आगे किस प्रकार सोच सकती है। क्योंकि हमारे यहां गुदडी के लालों को सहेजने की परम्परा नही है। हमारे यहां परम्परा फटेपुराने गुदडों को इक्टठा करने की है जो अब तक होता आया है।

चितवन इन नेताओं के साठ साला शासन में हमारे देश में जो कार्य हुआ है। विश्व स्तर पर उसी की चर्चा होगी। साठ साला शासन में इन नेताओं ने जो कुछ किया है उसी का परिणाम है कि आज हम चारों ओर गन्दगी और कचरे के ढेर पर है। हमारे देश के नेताओं को साधूवाद देना चाहिये कि गन्दगी और कचरे के ढेर पर आम आदमी को खडा करने के उपरान्त भी वे नोबल पुरस्कार दिलाने के सपने दिखाये जा रहे है। क्योंकि अब तक ये भूख व बेरोजगारी मिटाने के सपने दिखाते आ रहे थे। वह मिटि नही बल्कि ओर बढी और उसने भूखों व बेरोजगारों की संख्या को लाखों से करोडों में बढाया। इस संख्या को अब हजारों में नही लाया जा सकता इसलिये जिधर बहुमत हो उधर ही तो चलना चाहिये, यह हमारे नेताओं को अच्छी तरह आता है। फिर जब हमारे यहां की झुग्गी झोपडियों और उनमें रहने वाले गन्दें, मैले कुचेले बच्चों पर बनी फिल्म स्लमडोग मिलेनियर विश्व के पर्दे पर धूम मचा कर पुरस्कार प्राप्त कर सकती है तो हम गन्दगी को ओढने बिछाने व पहनने वाले नोबल पुरस्कार क्यों नही प्राप्त कर सकता।

-रामस्वरूप रावतसरे

टेलीविजन में स्त्री-मर्द का नया आख्यान

टेलीविजन ने समाज का मिजाज बदला है। सूचना और मनोरंजन की धारणा बदली है। किंतु इसके वैचारिक सरोकार नहीं बदले हैं।कार्यक्रम बदले हैं। चरित्र बदले हैं। तकनीकी प्रोन्नति हुई है। इसकी आमदनी बढ़ी है। चैनल बढ़े हैं। कलाकार, प्रस्तोता,एंकर,निर्देशक आदि सभी क्षेत्रों में तेजी से विकास हुआ है किंतु टेलीविजन का दकियानूसी स्वभाव नहीं बदला है। आरंभिक दिनों में टेलीविजन ‘सामाजिक हैसियत’ का प्रतीक था। किंतु आज वह ‘घरेलू वस्तु’ बन गया है। यह टीवी इमेज का रूपान्तरण है। आरंभ में कम लोग टीवी देखते थे। आज सबसे ज्यादा देखते हैं।इसने उपभोग के प्रति सक्रियता और मूल्यों के स्तर पर निष्क्रियता पैदा की है।राजनीति में दर्शकीय भावबोध पैदा किया है। राजनीति जागरूकता पैदा की है। किंतु राजनीतिक हस्तक्षेप के लिए हतोत्साहित किया है। टेलीविजन बातें खूब करता है, परिवर्तन कम करता है। यह ठलुआगिरी का स्रोत है। बेकारों का सहाराहै। अकेलेपन का साथी है। इस अर्थ में टेलीविजन गतिशील भूमिका अदा कर रहा है।

टेलीविजन अपनी भूमिका कई स्तरों पर अदा कर रहा है। साथ ही परिवर्तन के क्षेत्र में भी दबे पैर दाखिल हो रहा है। किंतु इसका मुख्य जोर अभी भी प्रतिगामी विचारों, मूल्यों और संस्कारों के रूपायन पर है। यहां हम विगत 30 वर्षों में सारी दुनिया के धारावाहिकों खासकर प्राइम टाइम कार्यक्रम में प्रसारित कार्यक्रमों की अंतर्वस्तु का विश्लेषण करना चाहेंगे। नैंसी सिंगमोरिल्ली और एरोन बाबू ने ” रिकॉगिनीशन एंड रेस्पेक्ट: ए कंटेंट एनालिसिस ऑफ प्राइम टाइम टेलीविजन करेक्टर्स एक्रॉस थ्री डिकेड्स’ नामक शोधपरक मूल्यांकन इसका प्रस्थान बिंदु हो सकता है।

यह देखा गया है कि टेलीविजन के प्राइम टाइम कार्यक्रमों में स्त्रियां बार-बार आती रही हैं। विगत तीस वर्षों में इनकी स्टीरियोटाइप भूमिका भी बदली है। औरतें अब ऐसी भूमिकाओं में आ रही हैं जिनके बारे में पच्चीस साल पहले कल्पना करना संभव नहीं था। खासकर 1990 के बाद टेलीविजन पर पुरूषों की तुलना में स्त्री चरित्रों की तादाद तेजी से बढ़ी है। साथ ही स्त्री चरित्र ज्यादा वैविध्यपूर्ण भूमिका अदा कर रहे हैं।इस सबके बावजूद स्त्री का स्टीरियोटाइप रूप दबाव बनाए हुए है। ज्यादातर स्त्री चरित्र कॉमेडी और पारिवारिक धारावाहिकों में आ रहे हैं। इन दोनों विधाओं को लोग खूब देखते हैं।जबकि घरेलू झगड़ों पर केन्द्रित कार्यक्रमों को कम देखते हैं। अपराध,एक्शन,एडवेंचर कार्यक्रमों में स्त्री चरित्र कम आ रहे हैं। प्राइम टाइम कार्यक्रमों में जो औरतें आ रही हैं वे मर्दों की तुलना में युवा हैं। ज्यादातर मर्दों की उम्र औरत से ज्यादा होती है।वे प्रौढ़ होते हैं।उल्लेखनीय है कि दृश्य में स्त्रियों की उम्र का काफी महत्व है।धारावाहिकों में 65 या उससे ज्यादा उम्र का बूढ़ा सक्रिय नजर आता है।जबकि स्त्रियों में ऐसी औरतें ज्यादा नजर आ रही हैं घर से बाहर काम करती हैं।स्त्री के लिए तय कार्यों जैसे सैकेट्री, नर्स, टीचर आदि में वे दिखेंगी।अधिकांश पुरूष चरित्र नौकरी देने वाले या स्त्री से बड़े ओहदे पर कार्यरत मिले हैं।जबकि अधिकांश स्त्रियों को घरेलू कार्यों में सक्रिय दिखाया गया है।नया फिनोमिना है स्त्री का छात्रा रूप में प्रस्तुतिकरण।

स्त्रियों की तुलना मे पुरूषों को मैनेजर,सेवा,सेना,कानूनभंजक,सार्वजनिक उद्यमों में कार्यरत (जैसे न्यायपालिका, पुलिस, वकील आदि) दिखाया गया। जबकि स्त्रियों को खुदरा बिक्री एवं सेवा कार्यों में ज्यादा दिखाया गया। टेलीविजन के मूल्यांकनकर्ताओं ने 40 पुरूष कार्य,10 स्त्री कार्य और 18 लिंगभेद रहित कार्य तय किए हैं।पुरूष कार्य हैं-पुलिस, वकील,न्यायपालिका, निर्माणकार्य आदि। स्त्री कार्य हैं-सचिव, गृहिणी, सामाजिक कार्यकर्ता, नर्स, टीचर, क्लर्क आदि। लिंगभेद मुक्त कार्य हैं- बेकार, कलाकार, पत्रकार, लेखक, एयरलाइन पर्सनल आदि।

सन् 1967 से 1998 तक के प्राइम टाइम कार्यक्रमों के कार्यक्रमों के मूल्यांकनों का निष्कर्ष है कि इनमें कुल 8,293 चरित्र टीवी पर आए। इनमें 34.5 फीसदी चरित्र महिलाओं के थे, जबकि 65.5 फीसदी चरित्र पुरूषों के थे। इन आंकड़ों को विस्तार से देखें तो पाएंगे कि सन 1960 और 1970 के दशक में मात्र 28 फीसदी महिला चरित्र थे। सन् 1980 के दशक में 34 फीसदी महिला चरित्र थे। सन् 1990 के दशक में 39 फीसदी महिला चरित्रों को प्राइम टाइम कार्यक्रमों में देखा गया। यानी प्रत्येक दशक में पुरूष चरित्रों का ही टेलीविजन प्राइम टाइम कार्यक्रमों में वर्चस्व था। किंतु क्रमश:स्त्री चरित्रों की तादाद में इजाफा हुआ है। एक अन्य अध्ययन में बताया गया है कि छोटे पर्दे पर सन् 1967 में 24 फीसदी महिला चरित्र नजर आए।जो 1996 में बढ़कर 43 फीसदी हो गए। जबकि सन् 1998 में यह आंकड़ा गिरकर 38 फीसदी रह गया। यानी पुरूषों का ही वर्चस्व बना रहा।ज्यादातर स्त्री चरित्र कॉमेडी, धारावाहिक में ही दिखते हैं।एक्शन,एडवेंचर,अपराध आदि के कार्यक्रमों में स्त्री चरित्र कम दिखाई दिए। सन् 1960 और 1970 के दशक में 42.9 फीसदी,सन् 1990 के दशक में 48.9 फीसदी स्त्री चरित्र कॉमेडी कार्यक्रमों में आए।जबकि 1980 के दशक में 36.7 फीसदी स्त्री चरित्र कॉमेडी में दिखाए गए।इसी तरह एक्शन, एडवेंचर, अपराध कार्यक्रमों में सन् 1960 और 1970 के दशक में 37 फीसदी,1980 के दशक में 28.2 फीसदी, सन् 1990 के दशक में 21.7 फीसदी चरित्र नजर आए। आंकड़े बताते हैं कि प्राइम टाइम कार्यक्रमों में पारिवारिक कथानकों या सामाजिक कथानकों पर केन्द्रित कार्यक्रमों में 1990 के दशक में स्त्री का रूपायन बढ़ा है। साथ ही प्रौढ़ उम्र के स्त्री-पुरूष चरित्रों का फीसदी भी बढ़ा है। कार्यक्रमों के मूल्यांकन से निष्कर्ष निकलता है कि 40 फीसदी औरतें युवा दिखती हैं। जबकि 47.9 फीसदी प्रौढ़ दिखती हैं। एक अन्य शोध में यह पाया गया कि सन् 1967-98 के बीच 5236 चरित्र पुरूष और 2,827 महिला चरित्र प्राइम टाइम कार्यक्रमों में आए।इनमें सन् 1967-79 के बीच 1,771 पुरूष चरित्र,720 स्त्री चरित्र थे।सन् 1980-89 के बीच 1,285 पुरूष चरित्र, 684 स्त्री चरित्र दिखाए गए ।सन् 1990-98 के बीच 2,100 पुरूष चरित्र और 1,423 स्त्री चरित्र दिखाई दिए।यह भी पाया गया कि बूढ़े चरित्र(स्त्री-पुरूष दोनों) मात्र 3 फीसदी दिखाए गए।सन् 1990 के दशक में 65 साल या उससे ज्यादा उम्र के चरित्रों में 34 फीसदी पुरूष और 16.1 फीसदी महिला चरित्रों का चित्रण मिलता है।

टेलीविजन में युवाओं का महत्व है।इसे जवानी से प्यार है।यही वजह है कि स्त्री चरित्रों की जवानी के रूपायन पर जोर दिया जाता है। मात्र तीन फीसदी बूढ़ी औरतों को चित्रित किया गया। इस तरह के रूपायन से यह नकारात्मक संदेश जाता है कि स्त्री मूल्य के तौर पर जवानी का महत्व है।स्त्री की जवानी पर जोर सिर्फ टेलीविजन में ही दिखाई नहीं देता बल्कि फिल्मों में भी दिखाई देता है। 1940 से 1980 के बीच की फिल्मों में स्त्री की जवानी पर ही मुख्यत: जोर रहा है। इस दौर की फिल्मों में 35 साल से ज्यादा उम्र की महिलाएं कम पेश की गई हैं। जबकि बूढ़ी या प्रौढ़ औरतों को नकारात्मक भूमिका में ज्यादा पेश किया गया है। यही स्थिति टीवी में दिखने वाली बूढ़ी औरतों की है। यहां पर भी बूढ़ी औरतें कम हैं। इसके बावजूद टीवी ने औरत के सम्मान में इजाफा किया है।विगत 30 वर्षो में घर से बाहर जाकर काम करने वाली औरतों को आज सम्मान की नजर से देखा जाता है। पेशेवर कामों में औरतों की संख्या बढ़ी है। एक परिवर्तन यह भी हुआ है कि पेशेवर स्त्री चरित्रों की प्रस्तुतियों में कम से कम स्टीरियोटाइप दिखाई देता है। स्त्री चरित्रों को लिंगभेद रहित कामों में ज्यादा सक्रिय दिखाया गया है।जबकि मर्द अपने परंपरागत पेशों में सक्रिय दिखाए गए हैं। विगत तीस वर्षों में यह बुनियादी बदलाव आया है कि टेलीविजन के प्राइम टाइम कार्यक्रमों में स्त्री चरित्रों को लिंगभेद रहित पेशों में ज्यादा पेश किया गया हैं। इससे स्त्रियों के प्रति परंपरागत बोध, मूल्य और संस्कार को तोड़ने में मदद मिली है। सन् 70 के दशक की टेलीविजन प्रस्तुतियों में कामकाजी स्त्री-पुरूष के बीच 30 फीसदी का अंतर था। अस्सी के दशक में यह घटकर 20 फीसदी हो गया। सन् 1990 के दशक में यह अंतर घटकर 15 फीसदी रह गया। यानी प्रत्येक दशक में घर के बाहर निकलकर काम करने वाले स्त्री चरित्रों की संख्या में क्रमश:इजाफा हुआ है।मसलन् सत्तर के दशक में कामकाजी महिलाओं चरित्रों का प्राइम टाइम कार्यक्रमों में 55.1फीसदी हिस्सा था।अस्सी के दशक में 60.2 फीसदी, जबकि नव्वे के दशक में यह 60.1 फीसदी था।सबसे कम कामकाजी स्त्री चरित्र 1973 में दिखाई दिए,इस साल 43.1 फीसदी स्त्री चरित्र दर्ज किए गए।जबकि 1985में सबसे ज्यादा 76 फीसदी स्त्री चरित्र दर्ज किए गए। सन् 1990 के दशक में स्त्री चरित्रों का आंकड़ा 55 से 66 फीसदी के बीच झूलता रहा है। इसी तरह प्रोफेशनल स्त्री चरित्र सन् 1970 के दशक में 21.3 फीसदी, अस्सी के दशक में 22.7 फीसदी, सन् 1990 के दशक में 29.6 फीसदी दर्ज किए गए।जबकि कानून लागू करने वाली एजेन्सियों से संबंधित चरित्रों के बारे में आंकड़ा स्थिर रहा है। इस पेशे में मात्र आठ फीसदी महिलाओं को दर्शाया गया है। इसके विपरीत कानून लागू करने वाली एजेन्सियों से जुड़े पुरूष चरित्रों की संख्या में कमी आई है।

-जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

कला के जरिए कंडोम के प्रयोग पर जोर

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हमारे समाज में सेक्स को वर्जित माना जाता है और शारारिक जरुरतों की अवहेलना की जाती है। दरअसल जीवन को संपूर्णता में जीने की कोशिश कोई नहीं करना चाहता। यौन कार्यकलापों को अश्‍लीलता की श्रेणी में रखा जाता है। इसका मूल कारण है हमारी सभ्यता और संस्कृति, जो हमें उन्मुक्त एवं स्वछंद होने से रोकती है। इस पूरे कवायद में हम इतने शालीन हो जाते हैं कि कंडोम और अन्यान्य जरुरी ऐतिहातों को बरतना ही भूल जाते हैं। आज सेक्स से जुड़ी समस्याओं पर बात करने के लिए कोई तैयार नहीं है। इस संबध में सरकार द्वारा उठाये जा रहे कदम भी नाकाफी हैं।

इसी अधूरे काम को करने का बीड़ा उठाया है बिहार की कुछ ग्रामीण महिला कलाकारों ने। ऐसी ही एक महिला कलाकार है यासमीन, जो उत्तरी बिहार के एक छोटे से गाँव की रहने वाली है।

न तो वह शिक्षित है और न ही किसी नामचीन घराने से संबंध रखती है। फिर भी पारम्परिक खतवा कला में वह पारंगत है। अभी हाल ही में कोलकत्ता में उसकी कलाकृतियों की पर्दषनी गैर सरकारी संगठन ”जुबान” की मदद से लगायी गई थी। जिसका शीर्षक था ”यूज कंडोम”।

शीर्षक आपको चौंकाने वाला लग सकता है, पर यासमीन की प्रदर्शनी में प्रदर्शित कलाकृतियों में गर्भ निरोधक के प्रयोग तथा उसके फायदों को विभिन्न प्रतीकों और प्रतिबिम्बों के माध्यम से बहुत ही खूबसूरत तरीके से उकेरा गया था।

यासमीन अपना काम सिल्क के कपड़ों पर एपलिक की मदद से करती है। उसने इन कपड़ों पर पुरुष और नारी को, हाथों में गर्भ निरोधक पकड़े हुए दर्शाया है, जो इस बात का प्रतीक है कि गर्भ निरोधक का प्रयोग हमारे लिए कितना जरुरी है। अपने दूसरे कोलोज में यासमीन ने गर्भ निरोधक को जीवन रक्षक रक्त के रुप में दिखाया है।

यासमीन की चिंता की हद बहुत ही व्यापक है। वह अपनी कला के माध्यम से कन्या भ्रूण हत्या, महिलाओं पर घरों में हो रहे घरेलू हिंसा तथा गा्रमीण महिलाओं के पिछड़ेपन पर भी प्रकाश डालती है।

मधुबनी की पुष्पा कुमारी भी यासमीन के नक्‍शे-कदम पर चल रही है। उसने भी मिथिला चित्रकला में कोई औपचारिक प्रशिक्षण नहीं लिया है और न ही स्कूली शिक्षा प्राप्त की है। बावजूद इसके वह मिथिला चित्रकला में दक्ष है। उसने अपनी दादी से इस कला को सिखा है।

पुष्पा कुमारी के विषय मुख्यत: शराबी पति और दहेज समस्या से जुड़े हुए होते हैं, लेकिन इसके अलावा वह गाँवों में गर्भपात करवाने वाली दाईयों और झोलाछाप डॉक्टरों को भी अपना सबजेक्ट बनाती है।

मिथिला चित्रकला की एक अन्य कलाकार शिवा कश्‍यप ने तो दस हाथों वाली माँ दुर्गा की परिभाषा ही बदल दी है। वह अपनी कलाकृति में माँ दुर्गा के दस हाथों को महिलाओं की जिम्मेवारी और लाचारी का प्रतीक मानती है। वह माँ दुर्गा के हाथों में शस्त्र की जगह बाल्टी, झाड़ू इत्यादि दिखाती है। अपने इन बिम्बों से वह कहना चाहती है कि माँ दुर्गा शक्ति की जगह दासी की प्रतीक हैं।

आजकल मिथिला चित्रकला की तरह सुजानी कला भी धीरे-धीरे देश में अपनी पहचान बना रही है। इस कला से जुड़ी हुई उत्तरी बिहार के ग्रामीण अंचल की रहने वाली कलावती देवी का केंद्रीय विषय एड्स है। अपनी कलाकृतियों के द्वारा वह एड्स से जुड़ी हुई भा्रंतियों एवं उसके रोकथाम के संबंध में जागरुकता फैलाने का काम कर रही है। दुपहिए वाहन ने किस तरह से गाँवों में क्रांति लाने का काम किया है। यह भी कलावती देवी की कला का हिस्सा बन चुका है।

सच कहा जाये तो महिला सषक्तीकरण के असली प्रतीक ये ग्रामीण महिला कलाकार ही हैं। हर तरह की सुविधाओं से वंचित होने के बाद भी उन्होंने दिखा दिया है कि हाशिए से बाहर निकल करके कैसे उड़ान भरने का गुर सीख जाता है। उन्होंने स्वंय तो समग्रता से जीवन को जिया ही है और साथ में समाज को भी समग्रता और संपूर्णता में जीने की सीख दी है।

-सतीश सिंह

मकबूल फिदा हुसैन के पलायन को लेकर उठे प्रश्न

मकबूल फिदा हुसैन ने 95 साल की उम्र में भारत की नागरिकता छोडकर कतर देश की नागरिकता स्वीकार कर ली है। वे जाने माने चित्रकार हैं और उनके चित्र लाखों में बिकते हैं। जो चीज लाखों में बिकती है वो सैकडों में ही चर्चित होती है। आम आदमी से उसका कोई ताल्लुक नहीं होता। लेकिन लाखों में बिकना ही उस आदमी के रुआब को बढाता है और आम आदमी को डराता है। हुसैन के भारत की नागरिकता छोड देने के कारण गिने चुने लोगों को ईधर-उधर अखबारों में या बुद्धू बक्सा में रोते हुए देखा जा सकता है। उनका यह रोना भी उनके इस दम्भ को बढाता है कि वे बढे उंचे दर्जे की बातें कर रहे हैं और बाकि लोगों पर उनको तरस आता है कि मकबूल फिदा हुसैन कि चित्रकारिता की उंचाई को समझने की इन लोगों में तौफीक नहीं है।

आम आदमी जब बुद्धू बक्से में हो रही इस उठापटक को देखता है तो वह हैरान होता है कि इन लोगों को एक सीधी सी बात समझ में नहीं आती कि इनका हुसैन सरस्वती माता के नंगे चित्र बनाकर लाखों कमाता है। जब कोई इन भले मानुषों से ऐसा प्रश्न कर देता है तो वे उसे हिकारत की नजर से देखते हैं और सीधे खजुराहो की गुफाओं की तरफ भाग जाते हैं। लेकिन ये सब उंचे दर्जे की बातें है। चित्रकला से जुडी हुई। इसलिए , आम आदमी को इसमें हस्तक्षेप करने की मुमानियत है। इस पर, इन्हीं लोगों की इजारेदारी है जो पिछले कुछ दिनों से बुद्धू बक्से में रोना धोना मचाए हुए हैं। परन्तु इस प्रश्न को अभी पीछे छोडा जा सकता है। मुख्य प्रश्न उनकी चित्रकला नहीं बल्कि उनकी नागरिकता का बन गया है। वे कतर देश के नागरिक हो गए हैं। वहां के नागरिक हुए हैं तो जाहिर है कि वहां के राजा के प्रति निष्ठा की सौगंध भी खायी होगी। क्योंकि किसी दूसरे देश की नागरिकता लेने के लिए यह कानूनी प्रावधान है। फिदा हुसैन का सिजरा अभी उपलब्ध नहीं है। वैसे कोई शोधकर्मी शोध कार्य करे तो उसे ढूढंना असंभव भी नहीं है। इस देश में दो प्रकार के मुसलमान हैं। पहले तो वे जिनके पूर्वजों ने किन्हीं कारणों से भारतीय पंथों को छोडकर इस्लाम पंथ को स्वीकार कर लिया था। दूसरे वे मुसलमान है जो इस प्रकार से मतांतरित नहीं है बल्कि उनके पूर्वज अरब, तुर्क या ईरानी थे। वे उन देशों से आए थे। या तो आक्रांता के रुप में या व्यापार करने के लिए या फिर पढने-लिखने के लिए। परन्तु ऐसे मुसलमानों की संख्या इस देश में कम ही है। अब मकबूल फिदा हुसैन किस कोटि में आते हैं यह उनको ही पता होगा। इस देश में यह जानने की जरुरत भी नहीं थी परन्तु 95 साल बाद इस देश को तिलांजलि देने के कारण यह प्रश्न बडा महत्वपूर्ण हो गया है। यदि उनके पूर्वज विदेशी थे तब तो पंजाबी में एक कहावत है-अंत में कुंए की मिट्टी कुंए में ही जा लगी। यदि उनके पूर्वज भारतीय थे और उन्होंने अपना मजहब परिवर्तन कर लिया था तब हुसैन के देश को त्याग देने के कारणों की गहराई से मीमांसा की जानी चाहिए।

फिलहाल, फिदा हुसैन और उनकी ओर से रोने वालों का आरोप है कि देश में कुछ कट्टरपंथी हिंदू उनको तंग कर रहे थे। इसलिए, वे दुखी होकर देश को छोड गए और कतर के सम्मानित नागरिक बन गए। उनपर कुछ कचहरियों में मुकदमे भी चल रहे थे। इस देश में चाहे हिंदू हो या मुसलमान हो। सभी को इस देश के कानून को पालन करना होता है। लेकिन मकबूल फिदा हुसैन शायद अपनी नजरों में इतने उंचे उठ गए थे कि उन्हें अदालत का सामना करना भी अपना अपमान लगने लगा था। अदालत की इतनी हिम्मत कि हुसैन जैसे व्यक्ति को अपने सामने तलब करने की हिमाकत करे। यह अलग बात है िकइस देश में अदालतें राष्ट्रपति से लेकर चपरासी तक सभी को एक ही भाव से तलब करती रही हैं। लेकिन हुसैन तो आखिर हुसैन हैं। उनका बनाया हुअ एक -एक घोडा एक -एक करोड में बिकता है। असली घोडा दस हजार का और हुसैन का घोडा 1 करोड का। इसलिए, अदालत के सम्मन को भी मकबूल फिदा हुसैन हिन्दू कट्टरवादियों द्वारा सताया जाना ही मानते है। इसको आला दर्जे की चित्रकारी समझ कहा जा सकता है। बुद्धू बक्से में कए बेगम रोने लगी। हुसैन के बिना उनको लाखों सालों की विरासत संभाले खडा भारत बंजर भूमि दिखाई देने लगा। सांस अंटकी जा रही थी। इसलिए, रोनेवालों ने सुझाव भी दिया कि हुसैन के लिए विशेष प्रावधान कर देना चाहिए कि उनकी कतरी नागरिकता भी बनी रहे और भारतीय नागरिकता भी। देश के लोग डर रहे हैं कि कहीं मकबूल फिदा हुसैन के लिए देश के संविघान को ही निरस्त करने की सिफारिश न कर दी जाए।

रोने वालों का सबसे बडा तर्क यही है कि हुसैन के भाग जाने से देश में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर सबसे बडा प्रश्न चिन्ह लग गया है। लेकिन जिस बुद्धू बक्से में बैठकर वे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर संकट की बात कर रहे हैं , वे अच्छी तरह जानते है कि इस बुद्धू बक्से के पीछे का तार बक्से का मालिक हिला रहा है।इस बक्से में बैठकर बोलने वाले को इतनी स्वतंत्रता नहीं है कि वह जो मन में आए बोलता रहे। मालिक की नीति ही बोलने के पैरामीटर तय करती है। इसलिए कायदे से तो बुद्धू बक्से के मालिकों ने रुदाली में रुदन के लिए जमावडा इकट्ठा किया है जो हुसैन के पलायन को महिमामंडित करने के लिए रिक्त स्थानों की पूर्ती कर रहे हैं।

जानी -मानी साहित्यकार तस्लीमा नसरीन ने इस सिलसिले में 28 फरवरी के जनसत्ता में एक बहुत ही तीखा प्रश्न उठाया है। इतना तीखा कि रोने वाले उसका सामना करने से बचते हैं और हुसैन नसरीन के इस प्रश्न का उत्तर देने में ही अपनी तौहीन समझेंगे। अरे भाई। कहां हुसैन और कहां नसरीन। तस्लीमा नसरीन का एक पूरा अंश उद्धृत करना उचित होगा -‘ हुसैन के सरस्वती की नंगी तस्वीर को बनाने को लेकर भारत में विवाद शुरु हुआ तो मैं स्वाभाविक रुप से चित्रकार की स्वाधीनता के पक्ष में थी। मुसलमानों में नास्तिकों की तादाद बहुत कम है। मैने मकबूल फिदा हुसैन के चित्रों को हर जगह से खोजकर देखने की कोशिश कि हिन्दू धर्म के अलावा किसी और धर्म, खासकर अपने धर्म इस्लाम को लेकर उन्होंने कोई व्यग्य किया है या नहीं। लेकिन देखा कि बिल्कुल नहीं किया है। बल्कि वे कैनवास पर अरबी में शब्दशः अल्लाह लिखते हैं। मैंने यह भी स्पष्ट रुप से देखा कि उनमें इस्लाम के प्रति अगाध श्रद्धा और विश्वास है। इस्लाम के अलावा किसी दूसरे धर्म में वे विश्वास नहीं करते। हिंदुत्व के प्रति अविश्वास के चलते ही उन्होंने लक्ष्मी और सरस्वती को नंगा चित्रित किया है। क्या वे मोहम्मद को नंगा चित्रित कर सकते है। मुझे यकीन है, नहीं कर सकते। मुझे किसी भी धर्म के देवी -देवता या पैगम्बर वगैरह को नंगा चित्रित करने में कोई हिचक नहीं है। दुनिया के हर धर्म के प्रति मेरे मन में समान रुप से अविश्वास है। मैं किसी धर्म का उपर रखकर दूसरे के प्रति घृणा प्रदर्शित करने, किसी के प्रति लगाव या विश्वास दिखाने की कोशिश नहीं करती। हुसैन भी उन्हीं धार्मिक लोगों की तरह है जो अपने धर्म में तो विश्वास रखते हैं , पर दूसरे लोगों के उनके धर्मांे में विश्वास की निंदा करते हैं।’ तस्लीमा नसरीन की इस बात के लिए सिफ्त की जानी चाहिए कि वे अपनी मान्यताओं के प्रति इमानदार हैं और उन्होंने बडी बेबाकी से हुसैन के पाखंड को उघाडकर रख दिया है।

अंग्रेजी के हिन्दुस्तान टाईम्स में जाने -माने पत्रकार वीर संघवी ने हुसैन के इस प्रसंग को लेकर एक और प्रश्न उठाया है जो मौजूं है। वीर संघवी उस जमात के पत्रकार हैं जो हुसैन के भाग जाने को भारत के माथे पर कलंक की तरह ले रहे हैं और तथाकथित हिंदू कट्टपंथियों को पानी पी-पी कर कोस रहे हैं। लेकिन उसके बावजूद भी वीर संघवी हुसैन के व्यवहार को लेकर अपने आप को ही संतुष्ट नहीं कर पा रहे हैं। उसका कारण शायद ये है कि हुसैन के पाखंड, जिसके अनेक क्षेत्र हो सकते हैं गोया कि तस्लीमा ने उसके एक क्षेत्र का ही उल्लेख किया है, ने रुदाली के इस रुदन कार्यक्रम में भाग लेने वालों को भी कन्फ्यूज्ड कर रखा है। वीर संघवी ने प्रकारांतर से हुसैन के एक दूसरे पाखंड का उघाडा है। उनके अनुसार यदि हुसैन भारत को इसलिए छोडकर गए हैं कि यहां उन्हें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नहीं है। फिर उन्हें किसी ऐसे स्थान पर जाना चहिए था जहां उन्हें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता मिलती। परन्तु वे तो उस अरब देश में गए हैं जहां अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तो दूर शासन की लोकतांत्रिक व्यवस्था भी नहीं है। अब वे उस देश में राज परिवार के लिए चित्र बनाया करेंगे। वे दरअसल, दरबारी चित्रकार बन गए हैं। वीर संघवी का यह प्रश्न बहुत जायज है परन्तु शायद हुसैन को दरबारी बनने में ही सुकून मिला होगा। परन्तु एक प्रश्न अभी भी अनुत्तरित ही है कि यदि उनकी फितरत दरबारी बनने की ही थी तो इस मुल्क में भी उसके मौके उपलब्ध हैं। यहां भी राजा या रानी का दरबार सजता है और बडी -बडी जानी मानी हस्तियां चाहें वे राजनीति की हो, साहित्य की हो, या संगीत की हो, दरबार में कोर्निश करती हुई दिखाई देती हैं। फिर आखिर हुसैन के भागने का रहस्य क्या है। कहीं पंजाबी की वह कहावत ही तो सच नहीं निकली कि कुंए की मिट्टी कुंए में जा लगी।

– डा. कुलदीप चंद अग्निहोत्री

राष्ट्रऋषि नानाजी देशमुख की स्‍मृति में आज श्रद्धांजलि सभा

पं. दीनदयाल उपाध्याय प्रणीत एकात्म मानवदर्शन को व्यवहार में चरितार्थ करने के लिए अपना कण-कण व क्षण-क्षण लगाकर तथा अपनी देहदान कर 27 फरवरी, 2010 को चित्रकूट में महाप्रस्थान कर गए।


दिवंगत राष्ट्रऋषि श्री नानाजी देशमुख की पावन स्मृति में

आज, सोमवार, 8 मार्च, 2010 को सांय. 5 :00 बजे

कांस्टीट्यूशन क्लब मैदान, रफ़ी मार्ग, नई दिल्ली में

श्रद्धांजलि सभा

आयोजित की जा रही है।


यह आयोजन परम श्रद्धेय नानाजी को श्रद्धांजलि अर्पित करने का अवसर होगा।

जायज मांग है महिला आरक्षण में आरक्षण

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स्त्री आरक्षण का मुद्दा समाज में स्त्री की अलग पहचान का मुद्दा है। स्त्री के साथ समाज का विषम संबंध, उसका शोषण और दमन, राजनीतिक सामाजिक पिछड़ापन आदि तर्कों के पीछे सर्वोपरि तर्क है स्त्री की भिन्नता का तर्क। स्त्री की जैविक, ऐच्छिक और सामाजिक-राजनैतिक जरुरतें बिल्कुल वही नहीं हैं जो मुख्यधारा की जरुरतें हैं और जिनके तहत समग्र रुप से स्त्री को घटाया जाता है। भिन्नता के इस सवाल को तब अहमियत मिली जब स्त्री की जैविक भिन्नता को विशिष्ट तौर पर उठाया गया।

लैंगिक विभाजन सामाजिक-सांस्कृतिक संस्थाओं में बहुत पहले से था लेकिन यूरोप में विभिन्न आंदोलनों के जरिए स्त्रीवादियों ने इसे राजनीतिक मुद्दा बनाया। जो लोग आरक्षण के अंदर आरक्षण मांग रहे हैं वे (सपा, बसपा आरजेडी आदि) सभी भिन्नता के नजरिए से बुनियादी तौर पर सही हैं। यह समझना चाहिए कि स्त्री के संदर्भ में व्यापक सवाल सार्वजनीन हैं। लेकिन स्त्री के समस्त सवाल सवाल और समस्याएं सार्वजनीन नहीं हो सकतीं।

जाति और धर्म भारतीय समाज की सांगठनिक विशेषता रही है। भारत में भिन्नता का मूलाधार है जाति और धर्म । यह कारक आरक्षण पर भी लागू होता है।स्त्री को जाति और धर्म से परे महज जेण्डर के रुप में देखना यूरोप की भोंडी नकल है,इसका भारतीय स्त्री के यथार्थ से बहुत कम संबंध है। उल्लेखनीय है संवैधानिक समानता प्राप्त होने के बावजूद मुसलमानों की 60 साल में दुर्दशा कम नहीं हुई, इससे महिला आरक्षण के प्रसंग में सबक लेने की जरुरत है। दूसरी बात यह है कि ओबीसी, अति पिछड़े, गरीब मुसलमान आदि को हमने नौकरीवगैरह में आरक्षण देने की बात मान ली है ऐसे में इन तबकों की औरतों को राजनीतिक आरक्षण की कैटेगरी के बाहर रखना अवैज्ञानिक है।

स्त्री अगर राजनीति के व्यापक फ्रेमवर्क में ऑपरेट करेगी तो उसे राजनीतिक तर्कों से ही ऑपरेट करना होगा। यह सच है कि नवजागरण के बाद का स्त्री लेखन जाति और धर्म के फ्रेमवर्क के बाहर का लेखन है। लेकिन आज के संदर्भ में स्त्री से जुड़े किसी भी मसले पर बात करने के लिए भिन्नता के परिप्रेक्ष्य की अनदेखी नहीं की जा सकती। यह भिन्नता सबसे पहले दर्शन के क्षेत्र में अभिव्यक्त हुई।

जो राजनीतिक दल (कांग्रेस, भाजपा, वाम वगैरह) स्त्री को एक जैसी मानकर चल रहे हैं वे बुनियादी तौर पर गलत सोच रहे हैं, स्त्री एक जैसी नहीं होतीं, उसमें विभिन्न किस्म की भिन्नता होती है, यह भिन्नता तब ही समझ में आएगी जब इसे दार्शनिक धरातल पर विवेचित किया जाए। इसके अलावा हमें स्त्रीवाद की सटीक अवधारणात्मक समझ और स्त्री आंदोलन की ऐतिहासिक प्रक्रिया को भी ध्यान में रखना होगा।

स्त्रीवाद की अनेक अवधारणात्मक परिभाषाएं मिलती हैं। इनमें सबसे सुसंगत परिभाषा पाम मोरिस ने दी है। मोरिस के अनुसार (1) स्त्री और पुरूष के बीच लिंगभेद का बुनियादी आधार है संरचनात्मक असमानता। इसके कारण स्त्री को नियोजित सामाजिक अन्याय का सामना करना पड़ता है। (2) दो लिंगों के बीच की असमानता बायोलॉजिकल जरूरत का परिणाम नहीं है, बल्कि यह लिंगभेद की सांस्कृतिक निर्मिति है। इस नजरिए से देखें तो स्त्रीवाद के सामने दोहरी चुनौतियां दिखाई देंगी। लिंग की पहचान को किस तरह के सामाजिक और मानसिक ताने-बाने के तहत निर्मित किया जाता है, प्रसारित किया जाता है उसे समझा जाए और उसे बदला कैसे जाए इस पर विचार किया जाए।

स्त्रीवादी समझ ‘पुरूष’ और ‘ स्त्री’ की स्पष्ट परिभाषा के साथ आरंभ होती है। इसी में उसकी बायोलॉजिकल कैटेगरी को समाहित कर दिया जाता है। यही वजह है कि औरत लंबे समय से बायोलॉजिकल सारतत्ववाद (एसेंसलिज्म) के तौर पर व्याख्यायित होती रही है। इसी के कारण यह विश्वास भी जम गया है कि औरत की बच्चा पैदा करने में अपरिहार्य भूमिका है। निष्कर्ष यह कि जो स्वाभाविक और अनिवार्य है उसे बदला नहीं जा सकता। क्योंकि उसी से चरित्र गठन होता है। यही बुनियादी समझ है जिसके आधार पर हजारों वर्षों से विभिन्न समाजों और देशों में औरत के समर्पणकारी और मातहत रूप की व्याख्या होती रही है। उसकी संस्कृति-दर-संस्कृति परिभाषा बदलती रही है।

स्त्रीवाद की धारणा के विकास का महिला आन्दोलन के विकास, स्वरूप और परिप्रेक्ष्य से गहरा संबंध है। यही वजह है कि स्त्रीवाद की परिभाषा का दायरा और केन्द्रीय विषय भी विभिन्न देशों में बदलता रहा है। अमेरिकी स्त्रीवादी इतिहासकार, रोजलिन बेक्सनवेल और लिण्डा गॉर्डन ने अनेक खण्डों में तैयार की गई अपनी पुस्तक में अमेरिकी स्त्रीवाद के इतिहास के बहुरंगी आयामों को समेटने की कोशिश की है। इसके बहाने महिला आन्दोलन के वैविध्य को रूपायित किया है। साथ ही उसमें आए विचलनों को भी रेखांकित किया है। जबकि ब्रिटिश संकलन में मिशेल बरेट और एन्नी फिलिप्स ने ‘डिस्टेबलाइजिंग थ्योरी : कंटेम्प्रेरी फेमिनिस्ट डिबेट’ (1992) पुस्तक में सत्तर और नब्बे के दशक में स्त्रीवादी सैद्धान्तिकी में आए अंतरालों की चर्चा की है।

विगत तीन दशकों में पश्चिमी स्त्रीवाद में नाटकीय परिवर्तन आए हैं। पहले साझा अनुमानों और विवादरहित रूढि़यों के खिलाफत को स्त्रीवादी विचारकों और महिला आंदोलन ने तवज्जह दी। किन्तु सत्तर के दशक में स्त्रीवाद ने ‘छद्म निश्चितता’ को निशाना बनाया और स्त्री शोषण के संरचनात्मक कारणों की खोज पर ध्यान केन्द्रित किया। नब्बे के दशक में स्त्रीवाद ने स्त्री शोषण के सीधे-सादे सामाजिक और भौतिक कारणों की व्याख्या का काम छोड़कर ज्यादा जटिल सवालों पर अपने को केन्द्रित किया। सामाजिक हायरार्की, सामाजिक वैषम्य और खासकर लिंगभेद के सवाल पर केन्द्रित किया। इसी क्रम में ‘बायनरी अपोजीशन’ के सवालों पर भी गौर किया। साथ ही स्त्री के शरीर का नए सिरे से मूल्यांकन किया।

नवजागरण ने शक्तिसम्पन्न (काली, दुर्गा आदि) और आत्मसजग स्त्री की धारणा निर्मित की। यह ऐसी स्त्री थी जो तर्क और विवेकवाद में विश्वास करती थी। सामाजिक और राजनीतिक प्रगति में विश्वास करती थी। यही समाजसुधार के महाप्रकल्प की संभावना थी। इस समझ के आधार पर अमूर्त्त स्त्री सैध्दान्तिकी का जन्म हुआ।

सत्तर के दशक में स्त्रीवाद, महासैद्धान्तिकी से स्थानीय समस्याओं के अध्ययन की ओर मुखातिब हुआ। पितृसत्ता के अन्तरसांस्कृतिक विश्लेषण से सेक्स, नस्ल और वर्ग के ज्यादा जटिल ऐतिहासिक कारणों की खोज की ओर मुखातिब हुआ। स्त्री की अस्मिता अथवा स्त्री हितों पर विचार करने की बजाय स्त्री अस्मिता की अस्थिरता, स्त्री की जरूरतों के बारे में सचेत प्रयासों और सरोकारों की ओर मुखातिब हुआ।

इसी तरह उत्तर आधुनिकतावादी ‘स्त्रीवाद और ‘ आधुनिकतावादी’ स्त्रीवाद के बीच में बुनियादी फ़र्क आधुनिकता की धारणा को लेकर है। इस दौर में ‘नए’ के प्रति उत्साह और पुराने के प्रति त्याग की भावना प्रबल थी। जबकि उत्तर संरचनावादी इस बात पर जोर दे रहे थे कि आलोचनात्मक रिवाजों के बारे में कोई समग्र नजरिया नहीं बनाया जा सकता। इसी क्रम में ‘ सब्जेक्टिविटी’, ‘आइडेण्टिटी, ‘एजेन्सी’ आदि के सवालों पर विचार किया गया। इसके अलावा सामाजिक संरचनाओं, रिवाजों और संस्कारों के साथ संबंधों के सवालों पर भी विचार किया गया। पहले इन सवालों की राजनीतिक-आर्थिक पुनर्निर्माण, सामाजिक रूपान्तरण और स्त्री कल्याण के कार्यों के नाम पर उपेक्षा की गई थी।

इसी दौर में महिलाओं ने प्रजनन के अधिकारों, शिक्षा और प्रशिक्षण, औरतों को पुरूषों की तुलना में कम वेतन, कार्य क्षेत्र में औरतों के साथ भेदभाव, छेडखानी, घरेलू हिंसा और कामुक शोषण, विश्वव्यापी सैन्यीकरण, नस्लवाद, साम्राज्यवाद की विरासत के खिलाफ संघर्ष के साथ तीसरी दुनिया के देशों में विकास, शिक्षा, स्वास्थ्य के सवाल भी उठाए।

भारत में सत्तर के बाद तेजी से स्त्री आंदोलन का असमान विकास हआ है। स्त्री उत्पीड़न, छेड़खानी, दहेजप्रथा, बालविवाह, स्त्री-भ्रूणहत्या, कार्यक्षेत्र में महिलाओं के साथ भेदभाव और वैषम्य, राजनीतिक और सांस्कृतिक भेदभाव के सवालों के साथ स्त्री अस्मिता, प्रेम, पितृसत्ता, महिला के वस्तुकरण आदि के सवालों के साथ साम्प्रदायिक और आतंकवाद की शिकार महिलाओं की समस्याएं भी तेजी से विमर्श के केन्द्र में आई हैं। इसके अलावा विस्थापन, मजदूरी, खेतमज़दूर औरत, वेश्याओं और उनके बच्चों के भरण-पोषण और विकास के सवाल भी उठे हैं। ये सारे सवाल हैं जिन्हें किसी न किसी रूप में स्त्रीवादी विचारकों ,महिला और स्वैच्छिक संगठनों ने उठाया है। इस समग्र प्रक्रिया के गर्भ से ही महिला अस्मिता बनी और महिला आरक्षण के सवाल खड़े हुए हैं। महिला किसी राजनीतिक दल की धरोहर नहीं है बल्कि वह समाज की देन है और उसकी सत्ता और अस्मिता स्त्री प्रक्रिया की देन है।

-सुधा सिंह

भारतीय औरत का राजनीतिक मर्म

जेण्डर सामाजिक निर्मिति है। जेण्डर के प्रयोग को लेकर हिन्दी में समानधर्मा सही शब्द औरत या महिला है। जबकि लिंग के पर्याय के रूप में दोनों लिंग-स्त्री और पुरूष का बोध होता है। लिंग के रूप में जन्म प्रकृत्या होता है। किन्तु जेण्डर के रूप में औरत का निर्माण किया जाता है। कोई भी स्त्री जन्म से औरत के गुण लेकर पैदा नहीं होती। बल्कि उसके निर्माण में परिवार, शिक्षा, संस्कृति, राजनीति, अर्थशास्त्र आदि की केन्द्रीय भूमिका होती है।

सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया में औरत की पहचान के मानक भी बदले हैं। आज औरत की पहचान का जो मानक प्रचलन में है वह दो सौ साल पहले नहीं था।अत: औरत के बारे में बात करते समय ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य का होना प्राथमिक शर्त्त है। ऐतिहासिक नजरिए के बिना औरत को समझना मुश्किल है। औरत सिर्फ सामयिक ही नहीं है। वह सिर्फ अतीत भी नहीं है। उसे काल में बांधना सही नहीं होगा। उसकी पहचान को ऐतिहासिक प्रक्रिया के रूप में देखा जाना चाहिए। वह जितनी दिखती है उससे ज्यादा छिपी रहती है। वह प्रक्रिया है यही वजह है सबसे ज्यादा लोचदार है। किसी के साथ और किसी भी स्थिति में सामंजस्य बिठा लेती है। वह कब बदलेगी,उसका नया रूप कैसा होगा,नये रूप में वह समाज के साथ किस रूप में पेश आएगी इत्यादि सवालों के तयशुदा उत्तर हमेशा गलत साबित हुए हैं।

मसलन् यह सवाल किया जा सकता है कि भारत के स्वाधीनता संग्राम में औरतों ने व्यापक स्तर पर हिस्सा लिया और राजीतिक क्षेत्र में बड़े पैमाने पर कुर्बानी भी झेली। किन्तु यही औरत आजादी के बाद घर की चौहद्दी में वापस क्यों लौट गई? ऐसा क्यों हुआ कि जिस औरत ने सामाजिक-राजनीति जीवन में अपने लिए व्यापक जगह तैयार की थी और राजनीति-सामाजिक मसलों पर दृढ़ रवैय्या अपनाया था, उसका समाज में पूरी तरह राजनीतिक प्रक्रियाओं में रूपान्तरण क्यों नहीं हुआ? हमारे स्वाधीनता संग्राम ने औरत को राजनीतिक शिरकत का मौका दिया, गांधी और नेहरू जैसे नेताओं के नेतृत्व में आन्दोलन का अवसर दिया, सुभाषचन्द्र बोस के नेतृत्व में महिला सैन्य दल भी बना, महिला संगठनों के जुझारू दल भी बने किन्तु आजादी मिलने के बाद यह संघर्षशील औरत अचानक गायब हो गई। यह औरत कहां गुम हो गई? इसके बारे में अभी तक ठीक से कुछ भी पता नहीं है।

आजादी के बाद सत्ता को औरत के राजनीतिक-सामाजिक रूप की बजाय उसका घर की चारदीवारी में सक्रिय रूप ही ज्यादा पसंद था। इस औरत के गायब हो जाने का दूसरा प्रधान कारण था हमारी स्वाधीनता का पुंसवादी चरित्र। औरतें स्वाधीनता संग्राम हो या क्रांतिकारी कतारें हों सब जगहों पर नेतृत्व और फैसलेकुन कमेटियों का हिस्सा थीं। उसे राजनीतिक शिरकत के लिए घर से बाहर निकाला गया था, उसका ब्रिटिश शासकों के खिलाफ दबाव के औजार की तरह इस्तेमाल किया गया। उसके साम्राज्यवाद विरोधी भावबोध को स्त्री की स्वाधीनताकामी चेतना में रूपान्तरित नहीं किया गया। उसे देश की आजादी के लिए मर मिटने के लिए तैयार किया गया। देश की पहचान के साथ जोड़ा गया। ऐसा करते समय हम यह भूल गए कि देश या राष्ट्र पुंसवाद का प्रतीक होता है। हमारे आजाद भारत के नए नक्शे में औरत में परंपरागत औरत को ही रखा गया। यही वजह है कि जब स्वाधीन भारत का जन्म हुआ तो देश नया था, मर्द नया था, मध्यवर्ग नया था, मजदूर वर्ग नया था, किन्तु औरत का वही पुराना रूप था जिससे निकलकर उसने देश की मुक्ति की कामना की थी ?

यह सवाल महिला संगठनों से भी पूछा जाना चाहिए कि ऐसा कैसे हुआ कि स्वाधीनता संग्राम की आग में तपकर जो औरत सामने आयी थी वह अचानक गैर-राजनीतिक कैसे बन गयी? महिला संगठनों ने आजादी के तुरंत बाद औरत को राजनीतिक तौर पर जगाए रखने का काम क्यों नहीं किया? आजादी के तुरंत बाद कांग्रेसियों, सोशलिस्टों और कम्युनिस्टों ने स्त्री जागरण की उपेक्षा क्यों की?

जो औरत 15 अगस्त 1947 तक राजनीति में सक्रिय हिस्सेदारी के लिए महत्वपूर्ण मानी गयी वही औरत आजादी के बाद राजनीति के परिदृश्य से गायब क्यों हो गई? क्या सिर्फ राजनीतिक शिरकत से औरत की चेतना बदल जाती है? हमारे स्वाधीनता-संग्राम ने क्या स्त्री -चेतना को बदला था? क्या भारत-विभाजन के दौरान हुए साम्प्रदायिक कत्लेआम का औरत की चेतना के अ-राजनीतिकरण में अवदान है? क्या भारत विभाजन ने अ-राजनीति की राजनीति की वैचारिक जमीन तैयार की थी? क्या इसके कारण स्त्री-चेतना का साम्प्रदायिकीकरण हुआ था? इन सवालों का अभी तक संतोषजनक उत्तर नहीं मिला है।

यह सच है कि साम्प्रदायिक राजनीति का जो सिलसिला आजादी के आन्दोलन के दौरान शुरू हुआ उससे महिलाओं की राजनीतिक चेतना पर भी बुरा असर हुआ और भारत विभाजन में जिस तरह लाखों औरतों को नारकीय यंत्रणाएं झेलनी पड़ीं,कत्लेआम और शोषण का सामना करना पड़ा उसके कारण महिलाचेतना और महिलाओं की राजनीतिक शिरकत को गहरा धक्का लगा। महिलाओं का अ-राजनीतिकरण हुआ।

जिस समय सन् 1980 के बाद महिला आन्दोलन तेजी से आगे बढ़ रहा था। उसी समय बाबरी मस्जिद-रामजन्मभूमि आंदोलन के बहाने शुरू हुई साम्प्रदायिक लहर ने महिलाओं को भी प्रभावित किया। पहलीबार महिलाओं के साम्प्रदायिक राजनीतिक संगठन सामने आए, साम्प्रदायिक हिंसाचार में औरतों को सक्रिय रूप से भाग लेने के लिए साम्प्रदायिक हिन्दू संगठनों ने प्रयास शुरू किए। दंगों में महिलाओं की सक्रिय भागीदारी देखी गई।

-जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

दहलीज़ से सियासत तक ख्वातीन

सदियों की गुलामी और दमन का शिकार रही भारतीय नारी अब नई चुनौतियों का सामना करने को तैयार है। इसकी एक बानगी अरावली की पहाड़ियों की तलहटी में बसे अति पिछड़े मेवात ज़िले के गांव नीमखेडा में देखी जा सकती है। यहां की पूरी पंचायत पर महिलाओं का कब्जा है। ख़ास बात यह भी है कि सरपंच से लेकर पंच तक सभी मुस्लिम समाज से ताल्लुक़ रखती हैं। जिस समाज के ठेकेदार महिलाओं को बुर्के में कैद रखने के हिमायती हों, ऐसे समाज की महिलाएं घर की चारदीवारी से बाहर निकलकर गांव की तरक्की के लिए काम करें तो वाक़ई यह काबिले-तारीफ़ है।

गांव की सरपंच आसुबी का परिवार सियासत में दखल रखता है। क़रीब 20 साल पहले उनके शौहर इज़राइल गांव के सरपंच थे। इस वक्त उनके देवर आज़ाद मोहम्मद हरियाणा विधानसभा में डिप्टी स्पीकर हैं। वे बताती हैं कि यहां से सरपंच का पद महिला के लिए आरक्षित था। इसलिए उन्होंने चुनाव लडने का फैसला किया। उनकी देखा-देखी अन्य महिलाओं में भी पंचायत चुनाव में दिलचस्पी पैदा हो गई और गांव की कई महिलाओं ने पंच के चुनाव के लिए परचे दाखिल कर दिए।

पंच मैमूना का कहना है कि जब महिलाएं घर चला सकती हैं तो पंचायत का कामकाज भी बेहतर तरीके से संभाल सकती हैं, लेकिन उन्हें इस बात का मलाल जरूर है कि पूरी पंचायत निरक्षर है। इसलिए पढाई-लिखाई से संबंधित सभी कार्यों के लिए ग्राम सचिव पर निर्भर रहना पड़ता है। गांव की अन्य पंच हाजरा, सैमूना, शकूरन, महमूदी, मजीदन, आसीनी, नूरजहां और रस्सो का कहना है कि उनके गांव में बुनियादी सुविधाओं की कमी है। सडक़ें टूटी हुई हैं। बिजली भी दिनभर गुल ही रहती है। पीने का पानी नहीं है। महिलाओं को क़रीब एक किलोमीटर दूर से पानी लाना पड़ता है। नई पंचायत ने पेयजल लाइन बिछवाई है, लेकिन पानी के समय बिजली न होने की वजह से लोगों को इसका फ़ायदा नहीं हो पा रहा है।सप्लाई का पानी भी कडवा होने की वजह से पीने लायक़ नहीं है। स्वास्थ्य सेवाओं की हालत भी यहां बेहद खस्ता है। अस्पताल तो दूर की बात यहां एक डिस्पेंसरी तक नहीं है। गांव में लोग पशु पालते हैं, लेकिन यहां पशु अस्पताल भी नहीं है। यहां प्राइमरी और मिडल स्तर के दो सरकारी स्कूल हैं। मिडल स्कूल का दर्जा बढ़ाकर दसवीं तक का कराया गया है, लेकिन अभी नौवीं और दसवीं की कक्षाएं शुरू नहीं हुई हैं। इन स्कूलों में भी सुविधाओं की कमी है। अध्यापक हाज़िरी लगाने के बावजूद गैर हाज़िर रहते हैं। बच्चों को दोपहर का भोजन नहीं दिया जाता। क़रीब तीन हज़ार की आबादी वाले इस गांव से कस्बे तक पहुंचने के लिए यातायात की कोई सुविधा नहीं है। कितनी ही गर्भवती महिलाएं प्रसूति के दौरान समय पर उपचार न मिलने के कारण दम तोड़ देती हैं। गांव में केवल एक दाई है, लेकिन वह भी प्रशिक्षित नहीं है। पंचों का कहना है कि उनकी कोशिश के चलते इसी साल 22 जून से गांव में एक सिलाई सेंटर खोला गया है। इस वक़्त सिलाई सेंटर में 25 लड़कियां सिलाई सीख रही हैं।

गांववासी फ़ातिमा व अन्य महिलाओं का कहना है कि गांव में समस्याओं की भरमार है। पहले पुरुषों की पंचायत थी, लेकिन उन्होंने गांव के विकास के लिए कुछ नहीं किया। इसलिए इस बार उन्होंने महिला उम्मीदवारों को समर्थन देने का फ़ैसला किया। अब देखना यह है कि यह पंचायत गांव का कितना विकास कर पाती है, क्योंकि अभी तक कोई उत्साहजनक नतीजा सामने नहीं आया है। खैर, इतना तो जरूर हुआ है कि आज महिलाएं चौपाल पर बैठक सभाएं करने लगी हैं। वे बड़ी बेबाकी के साथ गांव और समाज की समस्याओं पर अपने विचार रखती हैं। पंचायत में महिलाओं को आरक्षण मिलने से उन्हें एक बेहतर मौका मिल गया है, वरना पुरुष प्रधान समाज में कितने पुरुष ऐसे हैं जो अपनी जगह अपने परिवार की किसी महिला को सरपंच या पंच देखना चाहेंगे। काबिले-गौर है कि उत्तराखंड के दिखेत गांव में भी पंचायत पर महिलाओं का ही क़ब्जा है।

गौरतलब है कि संविधान के 73वें संशोधन के तहत त्रिस्तरीय पंचायतों में महिलाओं के लिए 33 फ़ीसदी आरक्षण की व्यवस्था है। केंद्रीय पंचायती राज मंत्री मणिशंकर अय्यर द्वारा जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक़ पंचायती राज संस्थाओं में 10 लाख से ज़्यादा महिलाओं को निर्वाचित किया गया है, जो चुने गए सभी निर्वाचित सदस्यों का लगभग 37 फ़ीसदी है। बिहार में महिलाओं की यह भागीदारी 54 फ़ीसदी है। वहां महिलाओं के लिए 50 फ़ीसदी आरक्षण लागू है। मध्यप्रदेश में भी गत मार्च में पंचायत मंत्री रुस्तम सिंह ने जब मध्यप्रदेश पंचायत राज व ग्राम स्वराज संशोधन विधेयक-2007 प्रस्तुत कर पंचायत और नगर निकाय चुनाव में महिलाओं को 50 फ़ीसदी आरक्षण देने की घोषणा की। पंचायती राज प्रणाली के तीनों स्तरों की कुल दो लाख 39 हज़ार 895 पंचायतों के 28 लाख 30 हज़ार 46 सदस्यों में 10 लाख 39 हज़ार 872 महिलाएं (36।7 फ़ीसदी) हैं। इनमें कुल दो लाख 33 हजार 251 पंचायतों के 26 लाख 57 हज़ार 112 सदस्यों में नौ लाख 75 हज़ार 723 (36.7 फ़ीसदी) महिलाएं हैं। इसी तरह कुल छह हज़ार 105 पंचायत समितियों के एक लाख 57 हज़ार 175 सदस्यों में से 58 हजार 328 (37.1 फ़ीसदी) महिलाएं हैं। कुल 539 ज़िला परिषदों के 15 हज़ार 759 सदस्यों में पांच हज़ार 821 (36.9 फ़ीसदी) महिलाएं हैं। क़ाबिले-गौर यह भी है कि भारत में पंचायतों में महिलाओं के लिए आरक्षण की व्यवस्था लागू होने की वजह से ही वे आगे बढ़ पाईं हैं।

हालांकि देश की सियासत में आज भी महिलाओं तादाद उतनी नहीं है, जितनी कि होनी चाहिए। यह कहना भी क़तई गलत नहीं होगा कि अपने पड़ौसी देश पाकिस्तान, बांग्लादेश और चीन के मुकाबले संसद में महिलाओं के प्रतिनिधित्व के मामले में भारत अभी भी बहुत पीछे है। दुनियाभर में घोर कट्टरपंथी माने जाने वाले पाकिस्तान और बांग्लादेश में महिलाएं प्रधानमंत्री पद पर आसीन रही हैं। यूनिसेफ द्वारा कई चुनिंदा देशों में 2001-2004 के आधार पर बनाकर जारी की गई एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में संसद में महिलाओं का प्रतिनिधित्व 8।3 फ़ीसदी, ब्राजील में 8.6 फ़ीसदी, इंडोनेशिया में 11.3 फ़ीसदी, बांग्लादेश में 14.8 फ़ीसदी, यूएसए में 15.2 फ़ीसदी, चीन में 20.3 फ़ीसदी, नाइजीरिया में सबसे कम 6.4 फ़ीसदी और पाकिस्तान में सबसे ज़्यादा 21.3 फ़ीसदी रहा। इस मामले में पाकिस्तान ने विकसित यूएसए को भी काफी पीछे छोड़ दिया है। वर्ष 1996 में भारत की लोकसभा में महिलाओं का प्रतिनिधित्व 7.3 फ़ीसदी और 1999 में 9.6 फ़ीसदी था। हालांकि चुनाव के दौरान कई सियासी दल विधानसभा और लोकसभा में भी महिलाओं को आरक्षण देने के नारे देते हैं, लेकिन यह महिला वोट हासिल करने का महज़ चुनावी हथकंडा ही साबित होता है। बहरहाल, उम्मीद पर दुनिया कायम है। फिलहाल यही कहा जा सकता है कि नीमखेडा और दिखेत की महिला पंचायतें महिला सशक्तिकरण की ऐसी मिसालें हैं, जिनसे दूसरी महिलाएं प्रेरणा हासिल कर सकती हैं।

-फ़िरदौस ख़ान

तुलसीदास के वंशजों के जकड़न में बेहाल हैं महिलाएँ

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पुरुष और नारी एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। लिहाजा जरुरत है दोनों पहलूओं के साथ एक समान व्यवहार करने की, किंतु हकीकत है ठीक इसके विपरीत।

अनादिकाल से ही महिलाओं को दोयम दर्जे की श्रेणी में रखा गया है। कन्या के साथ भेदभाव माँ के गर्भ से ही शुरु हो जाता है। सबसे पहले गर्भ में पल रहे कन्या शिशु को मारने की कवायद की जाती है। अगर किसी कारण से वह बच जाती है तो उसकी स्थिति निम्नवत् पंक्तियों के समान होती है:-

अविश्‍वास को

सहेज कर प्रतिस्पर्धा करती है

लड़कों से एक लड़की

फिर भी

अपनी इस यात्रा में

सहेजती है वह

निराशा के खिलाफ आशा

अंधेरा के खिलाफ सहेजती है उजाला

और सागर में सहेजती है

उपेक्षाओं एवं उलाहनों के खिलाफ

प्रेम की छोटी सी डगमगाती नाव

सब कुछ सहेजती है वह

मगर

सब कुछ सहेजते हुए

वह सिर्फ

अपने को ही सहेज नहीं पाती।

21 वीं सदी के 9 साल बीतने के बाद हमारी दिल्ली सरकार लिंग परीक्षण के खिलाफ व्यापक अभियान छेड़ने की बात कह रही है। ”प्री नेटल डिटरमिनेशन टेस्ट एक्ट” को लागू करने की प्रतिबद्वता की दुहाई दी जा रही है। स्वास्थ एवं कल्याण मंत्री प्रो किरण वालिया 5 मार्च को एक गोष्ठी में कहती हैं कि बच्चियों को बचायें। उन्हें संसार में आने दें। जब देश की राजधानी का यह हाल है तो दूर-दराज के प्रांतों का क्या हाल होगा, इसका आप सहज ही अनुमान लगा सकते हैं?

संसद में महिला आरक्षण विधेयक को पुनश्‍च: पेश करने की तैयारी जोरों पर है। उल्लेखनीय है कि इस बार यह विधेयक अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस यानि 8 मार्च को प्रस्तुत किया जाएगा। उम्मीद की जा रही है कि इस दफा यह विधेयक पास हो जाएगा।

कांग्रेस महिला आरक्षण विधेयक को पास करवाने का श्रेय न ले ले। इसलिए भाजपा भी इस विधेयक को पास करवाने के लिए खुलकर मैदान में आ गई है। बावजूद इसके पूरा विपक्ष इस मुद्वे पर एकमत नहीं है। जदयू के नीतीश कुमार और शरद यादव के बीच मतभेद स्पष्ट रुप से दृष्टिगोचर हो रहा है।

महिला सशक्तीकरण के लिए प्रयास किये जा रहे हैं। पर अभी भी महिलाएँ संपत्ति के अधिकार से वंचित हैं। न तो उन्हें मायके में अपना हक मिलता है और न ही ससुराल में। इतना ही नहीं तलाक होने की स्थिति में उन्हें गुजारा भत्ता पाने के लिए भी संघर्ष करना पड़ता है।

भला हो शाहबानो का कि मुस्लिम महिलाओं को गुजारा भत्ताा के लिए 1986 में सर्वोच्च न्यायलय की मदद से एक रास्ता मिल गया। इसी राह पर 1994 में सर्वोच्च न्यायलय के हस्तक्षेप के बाद इसाई महिलाओं को भी गुजारा भत्ता पाने का अधिकार मिला।

ढृढ़ इच्छाशक्ति वाली महिलाएँ तो न्यायलय का रास्ता अख्तियार कर अपने अधिकार को प्राप्त कर लेती हैं, लेकिन कमजोर महिलाएँ आज भी न्याय पाने में असमर्थ हैं।

राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो की ऑंकड़ों पर विश्‍वास करें तो हमें यह मानना पड़ेगा कि महिलाओं के विरुद्ध हो रहे अपराधों का विकास दर हमारी जनसंख्या दर से कहीं अधिक तेज है।

घ्यातव्य है कि यौन उत्पीड़न का प्रतिशत इसमें सबसे अधिक है। घर से लेकर बाहर तक महिलाएँ कहीं भी सुरक्षित नहीं हैं। जब हमारे साधु-संत ही सेक्स रैकेट चलाने में शामिल हैं, तब हम किस पर विश्‍वास करेंगे?

हमारे समाज में हर स्थिति में पुरुष के लिए सबसे सॉफ्ट टारगेट महिलाएँ ही होती हैं। चाहे उन्हें बदला लेना हो या साम्राज्‍य हासिल करना, दोनों स्थिति में नारी को वस्तु समझा जाता है।

भले ही 1961 में दहेज निरोधक कानून पास हो गया, किंतु इससे दहेज को रोकने में कोई खास मदद नहीं मिल पायी है। दहेज की बलिवेदी पर अब भी प्रतिदिन सैकड़ों लड़कियाँ जिंदा जलायी जा रही हैं।

1956 में इमोरल ट्रेफिंकिंग एक्ट पास किया गया। ताकि लड़कियों की सौदेबाजी रुक सके। लेकिन इस कानून का हश्र भी अन्य कानूनों की तरह हो गया। धड़ल्ले से लड़कियों के हो रहे खरीद-फरोख्त पर लगाम लगाने में सरकार असफल रही है। झारखंड, छत्तीसगढ़, उड़ीसा और आंध्रप्रदेश से कितनी लड़कियों को अब तक अरब के शेखों की हरम में पहुँचाया गया है, इसकी ठीक-ठीक जानकारी न तो सरकार को है और न ही किसी गैर सरकारी संगटन को।

इसमें कोई शक नहीं है कि महिलाओं के हालत बदल रहे हैं, किंतु रफ्तार बहुत धीमी है। निष्चित रुप से सानिया मिर्जा, पी. टी. ऊषा, कुंजारानी देवी, सुषमा स्वराज, किरण बेदी, मायावती, सोनिया गाँधी, अनिता देसाई, झुम्पा लाहिड़ी, लता मंगेष्कर, अंजली ईला मेनन इत्यादि कुछ ऐसे नाम हैं जो हमारे मन में आशा का संचार करते हैं।

पंचायती राज की विचारधारा को अमलीजामा पहनाने से जरुर महिलाओं की हिस्सेदारी ग्रामीण स्तर तक बढ़ी है। इस रास्ते में महिला आरक्षण विधेयक मील का पत्थर साबित हो सकता है, पर इसके लिए हमें पुरुषवादी सोच के मकड़जाल से बाहर निकलकर दिमाग की जगह दिल से काम करना होगा, तभी महिलाओं को उनका वाजिब हक मिल पायेगा।

-सतीश सिंह