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क्यों पाला जा रहा है कसाब को!!

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देश की आर्थिक राजधानी मुंबई पर अब तक के सबसे बडे आतंकी हमले के इकलौते जिन्दा आतंकी अजमल कसाब को भारत सरकार सर माथे पर क्यों बिठाए हुए है, यह बात आज तक समझ में नहीं आई है। लगभग पांच सौ दिन बीतने के बाद भी उससे भारत सरकार कुछ भी नहीं उगला पाई है, और न ही अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ही इसके जवाबदार पाकिस्तान के खिलाफ ही कोई ठोस कार्ययोजना बना सकी है। मुंबई की अंडा जेल में कसाब आज देश का सबसे अधिक सुरक्षित व्यक्ति कहा जा सकता है। सच है कि अगर जनता के पैसे से भारत गणराज्य की सरकार द्वारा मुंबई हमले के जिंदा आरोपी कसाब को पाला जा रहा है तो यह देश के लिए सबसे बडे दुर्भाग्य की बात मानी जा सकती है।

गौरतलब होगा कि पूर्व में दुनिया के चौधरी कहे जाने वाले अमेरिका के तत्कालीन महामहिम राष्ट्रपति जार्ज बुश ने यह स्वीकार किया था कि उन्होंने वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हुए हमले (9/11) के आतंकियों को ”वॉटरबोर्डिंग” जैसी अमानवीय यातना दी थी। यहां उल्लेखनीय तथ्य यह है कि इस तरह की यातना समूची दुनिया में प्रतिबंधित है। वॉटर बोर्डिंग जैसी थर्ड डिग्री से भी बुरी यातना में आरोपी को निर्वस्त्र कर उसका चेहरा कपडों से ढक दिया जाता है, और फिर उसके मुंह पर पानी की धार इतनी तेज मारी जाती है कि उसे डूबने का अहसास होने लगता है। इससे अभियुक्ति की जान भी जा सकती है। आरोपी जैसे ही अपने आप को मौत के करीब पाता है, वह टूट जाता है, और सच्चाई का बखान आरंभ कर देता है।

अमेरिका ने 9/11 के बाद अपने देश में सुरक्षा तंत्र की समीक्षा की और विदेशियों के आने के मसले में वीजा नियमों को बहुत ही कठोर कर दिया। आज किसी भी देश का नागरिक जब अमेरिका की सैर पर जाता है तो उसे कडे नियम कायदों के अनेक दौर से होकर गुजरना पडता है। अमेरिका को इस बात की चिंता नहीं है कि उसकी सरजमीं पर इन कडे नियमों के कारण कौन आता है और कौन आने से कतराता है। अमेरिका के लिए उसके नागरिकों की सुरक्षा सर्वोपरि है। इससे उलट हिन्दुस्तान में ”अतिथि देवो भव” की परंपरा के निर्वहन में नियम कायदों में छूट दिए जाने के अनेक मामले प्रकाश में आए हैं। यहां तक कि सार्वजनिक स्थानों, परिवहन के साधनों आदि में धूम्रपान प्रतिबंधित है, पर कोई भी गोरी या काली चमडी वाले को भारत गणराज्य में यह छूट है कि वह जहां चाहे वहां अपनी बीडी सिगरेट सुलगा सकता है। भारत सरकार द्वारा अपने ही नागरिकों के साथ इस तरह का सौतेला व्यवहार समझ से ही परे कहा जा सकता है।

हो सकता है भारत सरकार को यह भय हो कि नियमों के कडे करने से पर्यटकों की संख्या में कमी हो जाएगी। सीधी सी बात है जिसे भारत के इतिहास, यहां की पुरातात्तविक वस्तुओं, परंपराओं में जिज्ञासा होगी वह इन कडे नियमों को पार करके भी भारत आने का जतन करेगा। भारत के नागरिकों की सुरक्षा की कीमत पर पर्यटक अगर आते हैं तो यह किसी भी दृष्टिकोण से उचित नहीं माना जा सकता है। मुंबई हमले के उपरांत कुछ दिन आतंकी शांत रहे फिर उनके हौसले बुलंदी की ओर दिखाई दे रहे हैं। भारत के लचर कानून के चलते आतंकियों के लिए हिन्दुस्तान मुफीद जगह होती जा रही है, जहां वे अपने नापाक इरादों को आसानी से परवान चढा सकते हैं।

जहां तक अब तक हुई आतंकी घटनाओं का सवाल है, तो इतिहास गवाह है कि भारत सरकार द्वारा अपनी नाकामियों पर पर्दा डालने के लिए सदा ही पडोसी देशों को कोसकर अपने कर्तव्यों की इतिश्री की है। अब तक आतंकियों ने देश के न जाने कितने सपूतों को असमय ही काल के गाल में समाया है, पर भारत सरकार हाथ पर हाथ रखे ही बैठी रही। हमें यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि देश में अब तक की नपुंसक सरकारों द्वारा भारत गणराज्य के नागरिकों को सुरक्षा मुहैया कराने की दिशा में कोई ठोस कदम नहीं उठाया है। अपने आप को उदार कहकर भारत सरकार अपनी पींठ खुद अवश्य ही थपथपा सकती है, पर इस तथ्य को वह भी जानती है कि कायर और और नपुंसक भारत सरकार उदारता का चोला पहनने का स्वांग कर रही है।

विडम्बना देखिए कि अनेक लोगों को मौत के घाट उतारने और भारत सरकार एवं निजी क्षेत्र की संपत्ति को नुकसान पहुंचाने वाले आतंकियों में से जिंदा पकडे कसाब को पाला जा रहा है। उसकी सुरक्षा में सरकार कोई कोताही नहीं बरत रही है। यह सब कुछ जनता के पैसे से ही हो रहा है। मंहगाई और कर्ज से लदी फदी भारत की जनता भी चुपचाप हाथ बांधे इस तमाशे को देखने पर मजबूर है। हम महज इतना ही कहना चाहते हैं कि देश के बेटों को शहीद करने वाले इस कसाब को भारत सरकार को पालना है तो खूब पाले पर उसकी सुरक्षा और खान पान में खर्च होने वाले पैसे की वसूली जनसेवकों के मोटे वेतन से ही वसूले जाएं। देश की जनता अखिर इस भोगमान को क्यों भोगे। जिस भी सूबे में इस तरह की घटना हो तब पीडितों को या उनके परिजनों को दी जाने वाली सहायता राशि भी उसी राज्य के सांसद, विधायक, मंत्री और मुख्यमंत्री से वसूलना होगा, तभी जनसेवकों को समझ में आएगी और वे सरकारी सिस्टम पर दवाब बना पाएंगे।

यक्ष प्रश्न तो यह है कि कसाब को लगभग पांच सौ दिन तक इस तरह जिंदा रखकर भारत गणराज्य द्वारा आतंकियों को क्या संदेश दिया जा रहा है, यही न कि अगर वे मौके पर मारे नहीं गए तो उनकी सुरक्षा में भारत सरकार कोई कोर कसर नहीं रख छोडेगी। भारत सरकार द्वारा अगर कसाब को जिंदा रखकर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी कोई तीर मारा होता तो बात समझ में आती। सारे सबूतों के बाद भी पाकिस्तान द्वारा भारत के तर्कों को बहुत हल्के में लिया जा रहा है। भारत की लचर कानून व्यवस्था में पेशी पर पेशी मिलती जा रही है, और कसाब मस्त हलुआ पुरी खाकर मुटा रहा है। किसी अन्य देश में अगर यह हुआ होता तो अब तक कसाब को कब का चौराहे पर लटका दिया गया होता, जिससे आतंकियों के हौसलों में काफी हद तक कमी आती,, पर क्या करें हम नपुंसक, कायर, नाकारा हैं जो उदारता का मौखटा लगाकर अपने ही आप को धोखा देने का प्रयास कर रहे हैं।

-लिमटी खरे

जलवायु प्रश्न

धरती की जलवायु पर कोपेनहेगन सम्मेलन (7–18 दिसंबर ’09) खत्म हो गया। सम्मेलन के अंदर और बाहर, सभी जगह बेहिसाब उत्तेजना रही। उत्तेजना के मूल में यह चिंता थी कि इस पृथ्वी ग्रह को बचाने का आखिरी मौका है। अब न चेता गया तो पृथ्वी और उसपर मनुष्य मात्र के अस्तित्व पर खतरा है।

इसके बावजूद, अमेरिका, चीन, भारत, ब्राजिल, जर्मनी, फ्रांस आदि आज की दुनिया के सबसे महत्वपूर्ण माने जाने वाले देशों के राष्ट्राध्यक्ष घंटों सर खपाते रह गये, लेकिन जिसे सख्ती के साथ सारी दुनिया पर लागू किया जा सके, ऐसी वैधानिक बाध्यता वाला कोई नतीजा सामने नहीं आया। निष्कर्ष के तौर पर जिस समझौते की घोषणा की गयी, वह पर्यावरण को बचाने के बारे में एक सामान्य प्रकार की प्रतिबद्धता के अलावा और कुछ नहीं था। धरती के तापमान को और 2 डिग्री सेंटीग्रेट से ज्यादा नहीं बढ़ने दिया जाना चाहिए, धनी देश अपने ग्रीनहाउस गैस के उत्सर्जन में कटौती करेंगे, विकासशील देश अपने उत्सर्जन पर नियंत्रण करेंगे और गरीब देशों को मौसम में परिवर्तन से निपटने के लिये आर्थिक सहायता दी जायेगी – इस तरह की कुछ सामान्य प्रतिश्रुतियों के अलावा वन–संरक्षण और ग्रीन तकनीक के महत्व की बातें इस समझौते में कही गयी है।

फिर भी जो लोग इस सम्मेलन को पूरी तरह से विफल बताते हैं, उनके मंतव्य पर ‘टाईम’ पत्रिका का कहना है कि यह कोरा ‘सरलीकरण’ है। उसके टिप्पणीकार के अनुसार विवादों का होना ही इस सम्मेलन का होना है। कोपेनहेगन में समझौते पर पहुंचने के लिये किया गया संघर्ष ही यह बताता है कि मौसम संबंधी नीति अब जाकर परिपक्व हुई है। कोपेनहेगन में चली वार्ता इतने विवादों से भरी हुई इसलिये थी क्योंकि इसके प्रस्तावों का वास्तविक असर सिर्फ पर्यावरण पर नहीं, बल्कि राष्ट्रीय अर्थ–व्यवस्थाओं पर पड़ेगा। चीन और अमेरिका ने वार्ता के लिये अपने राष्ट्राध्यक्षों को भेजा और सिर्फ इसलिये काफी फूंक-फूंक कर कदम रखे क्योंकि इसमें उन्हें कुछ खोना था।

संयुक्त राष्ट्र के तत्वावधान में पर्यावरण सम्मेलनों का सिलसिला 1972 से शुरू हो गया था। कोपेनहेगन सम्मेलन 15वां सम्मेलन था। 1997 में जापान के क्योटो में तो ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन पर अंकुश लगाये जाने के बारे में दुनिया के देशों के बीच बाकायदा एक समझौता हुआ था, जिसे 2005 के फरवरी से कानूनन लागू कर दिये जाने की बात थी। उस समझौते पर दुनिया के 141 देशों ने हस्ताक्षर किये थे तथा सबने अपनी राष्ट्रीय सभाओं से उन पर मोहर भी लगवा ली थी। लेकिन अकेले अमेरिका की सीनेट ने उसे स्वीकार नहीं किया और वह पूरा समझौता अधर में लटक कर रह गया। क्योटो संधि के अनुसार सात वर्ष के अंदर दुनिया के विकसित देशों को ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में 1990 के स्तर से 5 प्रतिशत कटौती करनी थी। अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने उस पर हस्ताक्षर किये थे। लेकिन 2001 में अमेरिका के नये राष्ट्रपति जार्ज बुश ने इस संधि को यह कह कर ठुकरा दिया कि यह एक बेहद महंगा मामला है। परवर्ती दिनों में व्हाइट हाउस ने ग्लोबल वार्मिंग के बारे मे वैज्ञानिकों के आकलन पर ही सवाल उठाना शुरू कर दिया और कहा जाने लगा कि यदि अमेरिका इस संधि को मान लेता है तो उससे सारी दुनिया में करोड़ों लोगों के रोजगार छिन जायेंगे।

प्रश्न जहां इस पृथ्वी और उसपर मनुष्य–मात्र के अस्तित्व से जुड़ा हुआ हो, वहां भी राष्ट्रों के खोने–पाने का स्वार्थी हिसाब किया जा रहा है, इसे देख कर बहुतों को आश्चर्य हो सकता है। लेकिन ‘वैश्विक’ चिंताओं वाले इस युग की सबसे बड़ी सचाई यही है। इससे साफ है कि जलवायु परिवर्तन और पर्यावरण का सवाल सिफ‍र् प्राकृतिक विज्ञान की किसी एक शाखा और उसके विशेषज्ञों का सवाल नहीं है, जैसा कि इस बीच तैयार होगयी पेशेवर पर्यावरण विशेषज्ञों की एक बड़ी सी फौज बताना चाहती है, बल्कि उससे बहुत आगे पूरे सभ्यता विमर्श से जुड़ा हुआ एक व्यापक सामाजिक–आर्थिक सवाल है।

कोपेनहेगन में भी इस सच के अहसास की झलक दिखाई दी थी। इसका प्रमाण अखबारों की रिपोर्टों से पता चलता है कि वहां इका हुए गैर–सरकारी प्रतिनिधियों के बीच गांधीजी के प्रति बड़ा आग्रह था और सम्मेलन स्थल के बाहर ही गांधीजी की एक बड़ी सी तस्वीर भी लगी हुई थी। आज के काल में पर्यावरण के संदर्भ में गांधीजी का स्मरण अनायास नहीं है। यह साल गांधीजी की पुस्तक ‘हिंद स्वराज’ की शताब्दी का साल है और ‘हिंद स्वराज’ को आधुनिक सभ्यता के खिलाफ तीव्र घृणा से भरा एक जोरदार अभियोग पत्र कहा जा सकता है। इसमें मौजूदा पूंजीवादी आधुनिक सभ्यता को ‘अधर्म’, ‘शैतानी राज्य’, ‘कलियुग’, ‘नाशकारी’ और ‘नाशवान’ क्या–क्या नहीं कहा गया है। यह ऐसी सभ्यता है कि इसकी लपेट में पड़े हुए लोग अपनी ही सुलगाई आग में जल मरेंगे। इस सभ्यता के प्रतीक रेलगाड़ी, वकील और डाक्टर पर गांधीजी का आरोप था कि भारत को रेलगाडि़यों, वकीलों और डाक्टरों ने कंगाल बना दिया है।

गांधीजी ने इस सभ्यता को बुरी तरह कोसा था, 1909 के बाद से लेकर आजादी के पहले तक वे अपने उन विचारों में किसी परिवर्तन के पक्ष में नहीं थे, लेकिन इतिहास इस बात का भी गवाह है कि खुद अपनी देख–रेख में उन्होंने कांग्रेस के मंच से भारत के भावी विकास की जिन तमाम योजनाओं को अनुमोदित किया, वे रेल की पटरियों को उखाड़ फेंकने या अदालतों को खत्म कर देने और आधुनिक चिकित्सा को ठुकराने की योजनाएं नहीं थी। अगर गहराई से देखे तो पता चलेगा कि गांधीजी की आधुनिक वर्तमान की त्रासदियों की पहचान और उसे अधर्म बताना उनके ‘असहयोग’ की तरह ही उनका ‘नकार’ था, विकल्प नहीं। किसी भी बात को अस्वीकार करना भी उतना ही बड़ा आदर्श हो सकता है जितना किसी बात को स्वीकार करना। असहयोग के बारे में रवीन्द्रनाथ की आपत्तियों पर बहस करते हुए गांधीजी का यही मूल जवाब था। उनके विपरीत रवीन्द्रनाथ का सारा बल इस बात पर था कि मनुष्य के अंत:करण का धर्म यही है कि वह परिश्रम से केवल सफलता ही नहीं बल्कि आनंद भी प्राप्त करता है। …यदि कुछ लोग कहें, यह पत्थर का फलक हमारे दादा–परदादाओं का हथियार है, इसको यदि हम छोड़ दें तो हमारी जाति नष्ट हो जायेगी तो जिसको वे ‘जाति–रक्षा’ कहते हैं वह संभव हो भी सकती है लेकिन वे मानवता की महान परंपरा को आघात पहुंचाते हैं जो उनकी भी है। जो लोग आज भी पत्थर के फलक से संतुष्ट हैं उनको मनुष्य ने जाति से बाहर कर दिया है वे जंगलों में छिपकर जीवन व्यतीत करते हैं।

इसीलिये मसला गांधीजी के इस ‘नकार’ को सत्य मानने का नहीं है, उसकी अन्तरदृष्टि को समझने और आत्मसात करने का है। गांधीजी ने वर्तमान की त्रासदी की लाक्षणिक पहचान की और उसकी बुराइयों की निंदा में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। लेकिन इस त्रासदी की बुनियाद में पूंजीवादी उत्पादन संबंधों के जरिये सक्रिय जो लोभ–लालच काम कर रहा है, जो रवीन्द्रनाथ के संधानशील मानवीय अंत:करण को, विज्ञान भी जिसकी एक अभिव्यक्ति है, नगद–कौड़ी की सेवा में नियुक्त किये हुए है, गांधीजी उसके प्रति कभी उतने निर्मम और कठोर नहीं हो पाये।

प्रकृति के साथ मनुष्य के व्यवहार को मनुष्य के साथ मनुष्य के व्यवहार से अलग करके नहीं समझा जा सकता। जिस समाज में उत्पादन के साधनों से विच्छिन्न मनुष्य की श्रम शक्ति एक बिकाऊ माल होती है, प्रकृति को अपना दास मानना और उसका अधिक से अधिक पण्यीकरण भी उसी समाज की मूल प्रवृत्ति है। श्रम की तरह ही प्रकृति संपदा का एक प्रमुख स्रोत है। पूंजीवादी अर्थनीतिशास्त्र उसे मुफ्त की चीज नहीं मानता। और, कहना न होगा, पूरी समाज व्यवस्था प्रकृति तथा श्रम, इन दोनों की ही अबाध लूट को बदस्तूर कायम रखने के समूचे ताम–झाम के अलावा और कुछ नहीं है। ‘श्रम ही सारी संपदा का श्रोत है’ क्लासिकल अर्थशास्त्र के इस कथन को माक्र्स एक दुरभिसंधिमूलक कथन मानते थे। उनके शब्दों में पूंजीपति अगर झूठे ही श्रम पर अलौकिक सृजन शक्ति का आरोप करते हैं तो वे ऐसा सकारण करते हैं, क्योंकि ठीक इसी बात से कि श्रम प्रकृति पर निर्भर करता है, यह बात पैदा होती है कि जिस मनुष्य के पास अपनी श्रम–शक्ति के अलावा और कोई संपत्ति नहीं है, उसे समाज और संस्कृति की सभी अवस्थाओं में उन दूसरे मनुष्यों का दास होना पड़ेगा, जिन्होंने अपने को श्रम की भौतिक परिस्थितियों का मालिक बना लिया है।

मार्क्‍स के साम्यवादी समाज का श्रमजीवी मनुष्य एक ‘सहचर मजदूर’ है। वह प्रकृति का स्वामी नहीं, उसका साझीदार है। समाजवादी समाज का योजनाबद्ध विकास मुनाफे की किसी अंधी दौड़ पर नहीं, प्रकृति और मनुष्य के साहचर्य पर टिका होता है। मजदूर वर्ग की मुक्ति का आह्वान करने वाले माक्र्स को थामस मुंजर का यह कथन बहुत प्रिय था कि सभी प्राणियों को संपत्ति में तब्दील कर दिया गया है, जल में मछली को, हवा में पक्षी को, धरती पर पौधों को – सभी जीवित चीजों को मुक्त किया जाए।

जलवायु और पर्यावरण की तरह के प्रश्नों के टिकाऊ समाधान के लिये मानव समाज और प्रकृति के संबंधों की एक ऐसी अविभाज्य दृष्टि के विस्तार की जरूरत है। पर्यावरण की लड़ाई पूंजीवाद के खात्मे की लड़ाई से जुड़ी हुई है।

– अरुण माहेश्वरी

हिन्दी के लेखक संगठनों में दरबारी संस्कृति

उनकी आलोचना करो तो नाराज हो जाते हैं और प्रशंसा करो तो फूलकर कुप्पा हो जाते हैं। वे चाहते हैं सच को किंतु प्यार करते हैं झूठ को। रहते हैं हकीकत में जीते हैं कल्पना में। ऐसी अवस्था है हिन्दी के लेखक संगठनों की।

जो जितना बेहतरीन लेखक सामाजिक तौर पर उतना ही निकम्मा। श्रेष्ठता और सामाजिक निकम्मेपन का विलक्षण संगम हैं हिन्दी के लेखक संगठन। जैसे पुराने जमाने में राजा के दरबार में लेखक थे अब लेखक संगठनों में वैसे ही लेखक सदस्य होते हैं। फर्क यह है पहले दरबार था अब लेखक संगठन है। पहले राजा का दरबार था अब विचारधारा का दरबार है।

कहने का तात्पर्य यह है कि आधुनिक अर्थ में हिन्दी में अभी भी लेखक संगठन बन नहीं पाया है। लेखक संगठन के नाम पर हिन्दी में विचारधारा के दरबार हैं और जो इनके सदस्य वे दरबारी हैं। दरबारी अनुकरण और नकल के लिए अभिशप्त होता है। उसमें स्वयं जोखिम उठाने की क्षमता नहीं होती। वह अपने अधिकारों के प्रति अनभिज्ञ होता है। उदास होता है। उसके फैसले कोई और लेता है वह तो सिर्फ अनुकरण करता है। हिन्दी लेखक संगठनों में तीन बड़े संगठन हैं प्रगतिशील लेखक संघ, जनवादी लेखक संघ और जन संस्कृति मंच। इन तीनों संगठनों के पास कुल मिलाकर पांच-छह हजार लेखक सदस्य हैं। इनके निरंतर जलसे,सेमीनार,सम्मेलन आदि होते रहते हैं। कभी-कभार राजनीतिक मसलों पर प्रतिवाद के आयोजन भी करते हैं।

हिन्दी के लेखक संगठनों के बारे में इंटरनेट और इलैक्ट्रोनिक मीडिया के परिप्रेक्ष्य में मूल्यांकन किया जाना चाहिए। लेखक संगठन और स्वयं लेखक मूलत: मीडिया है अत: उसका मूल्यांकन इंटरनेट और इलैक्ट्रोनिक मीडिया के परिप्रेक्ष्य में करना समीचीन होगा। आमतौर पर लेखक संगठनों की गतिविधियों का राजनीतिक-सामाजिक संदर्भ में मूल्यांकन किया जाता है जो कि बुनियादी तौर पर गलत है।

लेखक मीडियम है और मीडिया भी। लेखक संगठनों के ज्यादातर विमर्श प्रिंटयुग के विमर्श हैं। पुराने विमर्श हैं। ये वर्तमान को सम्बोधित नहीं करते। हिन्दी के लेखक संगठनों पर चर्चा करने का अर्थ व्यक्तिगत राग-द्वेष को व्यक्त करना नहीं है बल्कि उन तमाम पहलुओं को समग्रता में पेश करना है जिनकी लेखक संगठनों के द्वारा अनदेखी हुई है। लेखक संगठनों ने क्या किया है इसे लेखक अच्छी तरह जानते हैं। इस आलेख का लक्ष्य लेखक संगठनों के प्रति घृणा पैदा करना नहीं है बल्कि यह लेखक संगठनों की सीमा के दायरे के परे जाकर लिखा गया है।

विलोम के युग में इंटरनेट युग में संगठन की बजाय व्यक्ति बड़ा हो गया है। व्यक्ति की सत्ता,महत्ता और निजता का दायरा बढ़ा है। व्यक्ति के अधिकारों,परिवेश और दायित्वों को नए सिरे से परिभाषित किया जा रहा है। इस प्रक्रिया में लेखक संगठन, राजनीतिक दल और आधुनितायुगीन सांगठनिक संरचनाएं अप्रासंगिक हुई हैं। संगठन की अंतर्वस्तु अब वही नहीं रह गयी है जो कागज पर लिखी है अथवा भाषणों या दस्तावेजों में है। संगठनों ने अपना विलोम रचा है। हर चीज अपना विलोम रच रही है। विलोम की प्रक्रिया उन समाजों में ज्यादा तेज हैं जहां पर इंटरनेट संरचनाएं पैर पसार चुकी हैं।

इंटरनेट ने सांगठनिक संरचनाओं को नपुंसक बना दिया है,प्रभावहीन और भ्रष्ट बना दिया है। अब लेखक संगठन नहीं लेखक बड़ा है। लेखक संगठन की बनिस्पत लेखक के पास प्रचार-प्रसार के ज्यादा अवसर हैं। लेखन ज्यादा सरल और कम खर्चीला हो गया है। लेखक और समाज के बीच के सभी पुराने मध्यस्थ गायब हो चुके हैं। पुराने सेतुओं में आधुनिक और आखिरी सेतु था लेखक संगठन,इन दिनों वह भी प्रभावहीन और प्रतीकात्मक रह गया है।

लेखक संगठन का प्रतीक में तब्दील हो जाना, लेखक संगठन के प्रस्तावों का प्रभावहीन हो जाना,लेखकों की एकजुटता का टूट जाना, लेखकों का जोखिम उठाने से कतराना, लेखक संगठन के सदस्यों में मानवीयता का अभाव आम बात हो गयी है। यह परवर्ती पूंजीवाद के सकारात्मक और अनिवार्य प्रभाव हैं। इंटरनेट युग मनुष्य की नहीं तकनीकी की महानता का युग है,लेखन इसकी धुरी है।

सवाल उठता है सूचना युग में लेखक संगठनों की क्या प्रासंगिकता है? सूचना युग में क्या लेखक संगठन वही रह जाते हैं जो प्रिंटयुग में थे? क्या साहित्य का स्वरूप सूचना युग में बदलता है? क्या उपन्यास का सूचनायुग में वही अर्थ है जो प्रिंट युग में था? क्या छपे हुए उपन्यास और हाइपरटेक्स्ट अथवा स्क्रीन उपन्यास में कोई फर्क है? क्या ‘मौत’ या ‘अंत’ के पदबंधों का चालू अर्थ में विवेचन संभव है? क्या साहित्यिक कृति की सूचना युग में अर्थ और भूमिकाएं बदली हैं? इत्यादि सवालों पर समग्रता में विचार करने की जरूरत है।

एक जमाना था साहित्यिक कृति का काम था सुनिश्चित संस्कृति और मूल्यों का प्रचार करना। आज कृति की इस भूमिका को ‘चिप्स’, डेटावेस, इलैक्ट्रोनिक अर्काइव और तद्जनित तकनीकी रूपों ने अपदस्थ कर दिया है। हाइपरटेक्स्ट आख्यान ने अपदस्थीकरण की इस समूची प्रक्रिया को जटिल और तेज कर दिया है। साहित्य का निरंतर डिजिटल अवस्था में रूपान्तरण हो रहा है। आज साहित्य पूरी तरह इतिहास से अपने को अलग कर चुका है। साहित्य के सारे विवाद इतिहास से अलग करके पेश किए जा रहे हैं।

सामयिक दौर की बड़ी घटनाएं त्रासद घटनाएं हैं। आज इतिहास और त्रासद घटनाएं हमारे विमर्श का संदर्भ नहीं हैं। फलत: यथार्थ का लोप हुआ है और हम नकल के युग में दाखिल हो गए हैं। नकली यथार्थ के चित्रण में मगन हैं। इतिहास और अतीत के प्रति लाक्षणिक प्रतिक्रियाएं व्यक्त हो रही हैं। इतिहास के प्रति लाक्षणिक प्रतिक्रिया का आदर्श उदाहरण है हाल के वर्षों में चला ”रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद आन्दोलन।” प्रतिक्रिया में व्यक्त की गई चीजों को स्मृति में रखना संभव नहीं होता। उसे हम जल्दी भूल जाते हैं।

प्रतिक्रियास्वरूप पैदा हुए भारत-विभाजन की विभीषिका को भूल चुके हैं। गुजरात के दंगे भूल चुके हैं। नंदीग्राम के जनसंहार को भूल चुके हैं। वह विस्मृति के गर्भ में चली जाती है। हम बहुत जल्दी ही भूल गए कि द्वितीय विश्वयुद्ध में क्या हुआ था। द्वितीय विश्वयुद्ध की विभीषिका को अब साउण्ड ट्रेक, इमेज ट्रेक, सार्वभौम स्क्रीन और माइक्रोप्रोसेसर के जरिए ही जानते हैं। पहले हमने विभीषिका को देखा, सौंदर्यबोधीय बनाया, फिर हजम किया और बाद में सब भूल गए।

-जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

व्यंग्य/ देश के फ्यूचर का सवाल है बाबा!

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ऐक्चुअली मैं उनका खासमखास तबसे हुआ जबसे मैंने चुनाव में उनके नाम भारी जाली मतदान सफलतापूर्वक करवाया था और वे भारी मतों से जीते थे।

आज की डेट में उनको अकबर तो नहीं कह सकता पर मैं उनके लिए बीरबल की तरह हूं। जब भी वे परेशान होते हैं लाइफ लाइन में मुझे ही यूज करते हैं।

कल वे मेरे घर आए। लड़खड़ाते हुए चल रहे थे, जैसे हाउस में ठीक ठाक पिट गए हों। चेहरे पर इतनी उदासी जैसे महीनों से कुछ खाया ही न हो। कहीं किसी कार्यक्रम में न गए हों। शायद हाउस में किसी मुद्दे को लेकर विपक्ष से उलझ गए होंगे, दिमाग के पतले शरीर के मोटे जो ठहरे। पार्टी ने इनको टिकट दिमाग देखकर नहीं शरीर देख कर ही तो दिया है। आजकल हाउस में किसी मुद्दे को लेकर बहस कम होती है लात घूंसे अधिक चलते हैं। फिर भी आज की डेट में सबसे कमाई वाला धंधा या तो राजनीति है या फिर धर्म, अध्यात्म। मजे करो जनसेवा के नाम पर जितने कर सकते हो। पिछले महीने ही वे हमारी पंचायत के प्रधान बने, कल जो फटी चप्पलों में वोट मांगने आए थे आज वही लग्जरी कार में शौच जाते हैं। फूंक वाले बाबा जी, मजे करो भगवान के नाम पर जितने कर सकते हो। भक्तों को कहो, वासना से दूर रहो। खुद आठों पहर चौबीसों घंटे वासना के सागर में डुबकियां लगाते रहो। मानो हरि की पौड़ी पर डुबकियां लगा रहे हों।

‘क्या बात गुरू! ये क्या हाल बना रखा है? कुछ खाते क्यों नहीं?’

‘यार क्या खाऊं! यहां तो हाथों के तोते उड़ रहे हैं।’ उन्होंने कहा तो मैं उनके खाली हाथों को देखने लगा कि यार! इनके हाथों में तोते तो है नहीं। बंदे ने माल पकड़ने के बदले तोते पकड़ने का धंधा कबसे शुरू कर दिया! जब कुछ समझ में नहीं आया तो मैंने अपना सिर खुजलाते उनसे कहा, ‘देखो गुरू! मैं जनता तो हूं नहीं कि आपके खाली हाथों में तोते देख सकूं। मैं ठहरा जाली मतों का जुगाड़ करने में सिध्दहस्त! सीधी बात पर अपुन की कमांड है सो सीधी बात कहो।’

‘यार! रीयली दुविधा में हूं।’ और वे सच्ची को दुविधा में लगे। हद है यार! पूरे देश को दुविधा में डालकर खुद मजे लेने वाला खुद दुविधा में? ये कोई बंदे का नया पैंतरा तो नहीं? चलो देखते हैं माजरा क्या है? कम तो हम भी नहीं, ‘कहो गुरू, दुविधा क्या है? साली दुविधा के हाथ पांव तोड़कर आपके हाथ में न दे दूं तो मेरा नाम भी… अभी इन हड्डियों का दम गया नहीं है। ‘मैंने खद्दर के कुरते के सारे बटन खोल मारे तो उन्होंने मेरे कुरते के बटन बंद कर मेरे जोश को कुछ शांत करते कहा, ‘यार! ये दुविधा दिमाग की है! है तेरे पास?’

‘गुरू दिमाग होता तो… आज पता चला साला दिमाग पास न हो तो हाथी भी गधा ही होता है, ‘पर गुरू कहो तो सही। शायद दिमाग पर जोर डाल कर कुछ हल निकल ही आए।’ मैंने यों ही कह दिया। हालांकि मेरे दिमाग के बारे में मेरे से अधिक उनको पता था।

‘ये महिला आरक्षण बिल देर सबेर लागू तो होगा ही !’ कह वे रोने से हो गए।

‘तो क्या हो गया?? राज तो फिर भी मर्द ही करेंगे ना!’

‘नहीं यार वो बात नहीं! पर मर्दों की सीटें तो कम हो जाएंगी?’

‘हां ये बात तो है!’ पहली बार मेरे दिमाग पर बोझ सा पड़ा कुछ’, तो???’

‘तो क्या यार! शादी भी नहीं करवाई। ऐसे ही निकल रहा था। तब सोचा था विवाह करवा कौन पंगा ले। अब शादी होने से रही। मेरी सीट कल को महिला के लिए आरक्षित हो गई तो???’

‘मेरी बीवी है ना गुरू!’ लगा जैसे मैं दिल्ली में सांसदों के आलीशान मकान के आगे के लॉन में टहल रहा होऊं। भाई लोग आंखों ही आंखों में बात कर रहे हैं, ‘वो तो तेरी है ना?’

‘तो क्या हुआ गुरू! मैं तो आपका हूं ना!’

‘सो तो ठीक है भैया! सब जगह औरों की बीवी चल सकती है पर चुनाव के लिए तो अपनी ही बीवी चलती अच्छी लगती है। अच्छा , एक बात बता?’

‘कहो गुरू!’ गुरू पर गुस्सा आया था उस वक्त। पर चुप रहा। साले का नमक जो खाया है। और अपुन लोग सबकुछ भूल जाते हैं पर किसी का खाया नमक नहीं।

‘किसी अच्छे डाक्टर को जानता है?’

‘गुरू अपुन को साले जुकाम से अधिक कभी कुछ हुआ ही नहीं। सो दो गोली किसी भी झोला छाप से ली और दारू के साथ गटक ली। इधर दारू के साथ गोली अंदर तो उधर जुकाम विपक्ष से हाउस की तरह बाहर। पर करना क्या है?’ मैंने पूछा तो वे अपने मुंह को मेरे कान के पास ले फुसफुसाए ,’ यार! सेक्स चेंज करवाना था।’ फिर इधर उधर देखने लगे।

‘सेक्स चेंज करवाना है? क्यों मर्द होकर जीने में मजा नहीं रहा अब??’

‘नहीं रहने वाला है न! समझा करो ना यार! तुम हमेषा पैरों के पास की सोचते हो। तुम्हारे साथ यही सबसे बड़ी दिक्कत है। मैं फ्यूचर की सोच रहा हूं। इससे पहले कि मेरी सीट महिला के लिए आरक्षित हो मैं… जनता की सेवा करने के लिए मैं कुछ भी कर सकता हूं। कोई अच्छा सा डॉक्टर जितनी जल्दी हो सके ढूंढना। ये सोचकर कि मैं अपना सेक्स चेंज नहीं, तुम अपना सेक्स चेंज करवा रहे हो। कहीं ऐसा न हो कि गलत हाथों में पड़कर न इधर का रहूं न उधर का। ये मेरे कद का नहीं तुम्हारे कद का सवाल है।’

अब साहब मैं क्या करूं?? आपकी नजर में कोई भरोसेमंद डॉक्टर हो तो अवश्‍य बताइएगा। देश की इज्जत का सवाल है।

-डॉ. अशोक गौतम

माओवादी नेताओं के साथ आम अपराधियों जैसा व्यवहार हो

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बिहार के गया जिले में टिकारी प्रखंड कार्यालय से लगभग 40 किलोमीटर की दूरी पर बारा नाम का एक गांव है। उसी गांव में 12 फरवरी सन् 1992 की रात को माओवादी काम्यूनिस्ट सेंटर ने 35 किसानों की गला रेत हत्या कर खूनी जलसे का आयोजन किया था। विगत दिनों उस नरसंहार से संबंधित मामले में जिला एवं सत्र न्यायाधीश के सामने गवाही गुजारी गयी। प्रत्याक्षदर्शी महिला गवाह जिसके पिता की हत्या उसके सामने की गयी थी, आतंकवादियों को देखते विलखने लगी और अपनी भावनाओं पर नियंत्रण नहीं रखने के कारण जोर जोर से चिल्ला कर कहने लगी कि हां इसी आदमी ने हमारे घर के दरवाजे को डायनामाईट से उडा दिया और मेरे पिता को बाहर लेजाकर हमारी नजरों के सामने गला रेत कर हत्या कर दी। हालांकि उस महिला ने उसके साथ हुई अपमानजनक घटना की बात न्यायालय को नहीं बतायी लेकिन उसके चेहरे के खैफ से साफ जाहिर हो रहा था कि चरम साम्यवादी दरिंदों ने उस महिला के साथ क्या किया होगा। महिला गवाह ने अपने अपमान का खुलासा शायद इसलिए भी नहीं किया होगा कि उस खुलासे के बाद महिला के साथ शायद ही कोई सादी के लिए तैयार होता। सम्भवत: इस कारण से भी मामले को दबा दिया गया होगा। ऐसा, महिला के बयान और भाव भंगिमा से प्रतीत हो रहा था। आज से लगभग 18 साल पहले घटी उस खौफ की तष्वीर महिला के चहरे से साफ दिखाई दे रही थी। गवाह महिला के आर्तनाद ने पूरे न्यायालय को मानों हिला कर रख दिया हो। हालांकि बचाव पक्ष के वकील ने माओवादी हत्यारे के बचाव में कई दलीलें दी, लेकिन बचाव पक्ष के अधिवक्ता ने जब गवाह महिला का चेहरा देखा तो एक बार वह भी सहम गये।

उन दिनों बिहार में इस प्रकार की घटनाए आम हो गयी थी। माओवादी वर्ग शत्रु के नाम पर लगातार किसानों की हत्या कर रहे थे। तर्क यह दिया जा रहा था कि सामंत तो समाप्त हो गये है लेकिन सामंती प्रवृति के कारण्ा नये वर्ग शत्रु पैदा हो रहे हैं। इसको समाप्त करने के लिए माओवादी अभियान चला रहे हैं, लेकिन अन्दरखाने मामला कुछ और था। उन दिनों संयुक्त बिहार का माओवादी समूह एक पार्टी विषेषे के लिए काम कर रहा था। उस पार्टी के द्वारा इस प्रकार की हत्याओं के लिए माओवादियों को बाकायदा पैसे दिये जाते थे और माओवादी नेता गरीब किसानों की हत्या का फरमान जारी करते थे। उन दिनों नरसंहारों के काराणें पर जब माओवादी बुध्दिजीवियों से सवाल पूछे जाते थे तो वे कहते थे कि हम भी मानते हैं कि जो लोग मारे जा रहे हैं वे न तो सामंत हैं और न ही बूर्जआ लेकिन चरम साम्यवादी, सामंती मनोवृति को परास्त करने के लिए एक खास प्रकार के वर्ग शत्रुओं को चिंहित किया है तथा उसके हत्या की रणनीति बनायी है। हालांकि रणवीर सेना के गठन के बाद बिहार में चरम साम्यवादियों को अपनी रणनीति बदलनी पडी। रणवीर सेना ने माओवादियों को रणनीति बदलने को मजबूर कर दिया। अब स्थिति और बदल गयी है। अब चरम साम्यवादी सरकारी अधिकारियों को अपना निषाना बना रहे हैं। पुलिस का हथियार लूट रहे हैं। कुल मिलाकर भारतीय माओवादियों के सिध्दांतों में न तो कोई स्थिरता है और न ही कोई स्थायित्व। माओवादी कहने के लिए चाहे कितना भी कह ले कि वे समझौतावादी नहीं हैं लेकिन उनकी रणनीति की जानकारी रखने वाले उनको अस्थई चरम शक्ति के रूप में ही देखते रहे हैं। विगत दिनों जमुई जिला में हुए नरसंहार ने एक बार फिर दलेलचक बघैडा, साहोबिगहा, रामपुर चौरम और सेनारी की घटना को ताजा कर दिया। एक ही गांव के 12 र्निधन आदिवासियों को माओवादियों ने मौत की निन्द सुला दी। इस गांव के आदिवासियों की गलती यह थी कि उसने डाक डालकर भाग रहे कुछ गुंडों को मार गिराया था। माओवादियों ने घोषणा की कि मारे गये डकैत नहीं माओवादी कार्यकर्ता थे, और जिसने उनको मारा उसको भी मौत की सजा दी जाएगी। फिर जो होना था वहीं हुआ और 12 निरपराध आदिवासियों को अपनी जान गवानी पडी। पष्चिम बंगाल में भी एक घटना घटी और 25 के करीब पुलिस को मौत के घाट उतार दिया गया। अब इसके बाद भी माओवादी समर्थक समूह लगातार गाल बजा रहा है कि माओवादी तो गरीबों के लिए बंदूक उठाए हुए है। अगर सचमुच माओवादी गरीबों के लिए लड रहे हैं तो गरीबों के बच्चे जहां पढते हैं उस विद्यालय को डायनामाईट से क्यों उडाया जा रहा है। षिक्षक, चिकित्सक, या कोई अन्य ग्रामीण क्षेत्रों में काम करने वाला अधिकारी माओवादी प्रभाव वाले क्षेत्र में अब जाता ही नहीं है। माओवादी उनके वेतन का कुछ पैसा लेकर उन्हें काम पर नहीं आने की छूट दे रखे हैं। माओवादी विस्तार वाले क्षेत्र में 100 एकड से भी ज्यादा जमीन जोतने वाले ठाठ से रह रहे हैं। वे ठाठ से गरीबों का शोषण भी कर रहे हैं लेकिन माओवादियों को तो अपने लेभी से मतलब है। शहुकार ब्याजखोरी में मगन है लेकिन माओवादियों को लेभी देता है और गरीबों का शोषण करने की उसे छूट दे दी जाती है।

कुछ प्रांतों को छोड कर पूरे देश में माओवादी सक्रिय हो गये हैं। माओवादी आग लगा रहे हैं। माओवादी गरीब, किसानों की हत्या कर रहे हैं। माओवादी ईसाई मिसनरियों के इषारे पर हिन्दु संतों के खिलाफ अभियान चला रहे हैं। माओवादी पुलिस पर आक्रमण कर रहे हैं। माओवादी खान, जंगल, तेनु के पत्ते और नासपाती के बागनों का बंदोवस्त कर रहे हैं। लोगों से लेभी के नाम पर करोडों रूपये वसूल रहे हैं। भष्ट अधिकारियों व्यापारियों, उद्योगपतियों से पैसे लेकर उनको ठेका दिलवा रहे हैं। उडीसा के संत लक्ष्मनानंद की हत्या के बाद यह साबित हो गया कि माओवादी ईसाई मिसनरियों से भी पैसे ले रहे हैं। इन तमाम गैर कानूनी काम करने वाले माओवादियों को जब पकडा जाता है तो उसको प्रथम दर्जे के राजनीतिक कैदी का दर्जा दिया जाता है। उसके लिए सारी सुख सुविधा सरकार के खीसे से उपलब्ध करायी जाती है। लेकिन उनके नेताओं को जेल में अपराधियों के जैसा सलूक नहीं होना चाहिए। नार्को परीक्षण हुआ तो मिसनरियों के द्वारा संपोषित मानवाधिकार संगठन दुनिया भर में प्रचारित करेगा कि भारत में मानवाधिकार की धज्जियां उडाई जा रही है। पहले तो मात्र जेहादी ही भारतीय संघ का दामाद हुआ करता था आजकल माओवादी नेताओं को भी वही दर्जा प्रप्त हो गया है। माओवादी नेताओं पर करोडों रूपये खर्च किये जा रहे हैं। उन्हें लैपटॉप मुहया कराया जा रहा है। माओवादी नेताओं के लिए जेल में ही पंचसितारा सुविधायुक्त कार्यालय खोल दिये गये हैं। वहां वे किसी से भी मिल सकते हैं। ऐसे में बहुप्रचारित माओवाद के खिलाफ जंग देश की जनता के साथ छलावा नहीं तो और क्या है?

पिछले साल कोबाद घांटी नामक चरम साम्यवादी आतंकवादी को गिरफ्तार किया गया। उसके लिए कैदीगृह में ही पंचसिताराई कार्यालय का निर्माण किया गया है। घांटी अपने कार्यालय में बाकायदा बैठते हैं और अपने समर्थकों से मिलते हैं। जब नार्को परीक्षण के लिए पुलिस ने उनपर सिकंजा कसा तो जन संगठनों के नेताओं ने तो इसका विरोध किया ही सरकार भी इसके लिए तैयार नहीं हुई। माओवादी नेता अरबों खरबों कमा रहे हैं। माओवादियों की अईयासी को देख अरबपति दंग रह जाते हैं। लूट हत्या डकैती में संलिप्त माओवादियों को जेल के अंदर भी सुविधा दी जता है लेकिन जिन हिन्दु संतों पर आरोप सिध्द भी नहीं हुआ होता है उनको पुलिस तो प्रताडित करती ही है उनके खिलाफ मीडिया ट्रायल भी प्रारंभ हो जाता है। या यों कहें कि मीडिया को उनके खिलाफ ट्रयल के लिए उकसाया जाता है। ऐसे में एक निष्पक्ष राज्य की परिकल्पना बेमानी नहीं तो और क्या है?

माओवादियों के द्वारा मारे गये लोगों के परिजनों को न्याय नहीं मिला। बडे किसानों, पूंजी पत्तियों और उद्योग पत्तियों पर मेहरवान तथा साधारण लोगों के खिलाफ माओवादी अभियान चलाने वाले माओवादियों के प्रति चाहे सरकार कुछ भी कह ले लेकिन वह नरम रवैया अपना रही है। लेकिन याद रहे जो लोग माओवादियों को हथियार के रूप में इस्तेमाल कर रहे हैं माओवादी उनका भी भला नहीं करेगा। बिहार में उन दिनों जब माओवादी कथित वर्ग शत्रुओं को खोज खोज कर मौत के घाट उतार रहे थे, उस समय बिहार में शहर के अंदर रहने वाले लोग यह कहते थे कि गांव में सामंती प्रवृति के कारण ऐसी घटना घट रही है। प्रशासन भी माओवादियों से हमदर्दी रखती थी, लेकिन आज माओवाद अपने आवरण से बाहर निकल आया है। गांव में उसने किसानों को साथ लेकर शहरियों और प्रषासन को निषाना बनाने लगा है। अब प्रशासन और शहर में रहने वाले लोगों को ऐहसास होने लगा है कि माओवाद सचमुच में एक समस्या है। यह गरीबी के कारण नहीं एक आतंकी मनोवृति के कारण विस्तार प्रप्त कर रहा है। माओवाद और कुछ भी नहीं केवल संगठित आपराधिक समूह बर कर रह गया है। माओवाद के नाम पर माओवादियों को पैसे चाहिए, सराब चाहिए, काम वासना की तृप्ति के लिए जवान लडकियां चाहिए। ऐसे में माओवादियों के वर्तमान समर्थकों को समझ लेना चाहिए कि यह न तो व्यवस्था परिवर्तन की लडाई है और इससे अमीरी गरीबी की खाई भी पटने वाली है। यह लोकतंत्र के खिलाफ कुछ अराजक तत्वों का अभियान है जिसे कराई से नहीं निवटा गया तो यह घाव नासूर हो जाएगा और फिर देश को विघटित होने से कोई रोक नहीं सकता है।

-गौतम चौधरी

बिहार का बदलता परिवेश – संतोष सारंग

बिहार के बंटवारे के बाद प्रचुर प्राकृतिक संसाधन झारखंड के हिस्से में चला गया। यहां के लोगों को बाढ़ व सुखाड़ की त्रासदी मिली। ऊपर से राजनीतिक पार्टियों का जाति व धर्म के नाम पर झूठी दिलासा। ऐसे में, यहां के गरीब-गुरबों के सामने पलायन के सिवा कोई चारा नहीं था। गांधीजी श्रम करनेवालों को सम्मान की दृष्टि से देखते थे, लेकिन हाल के वर्षों में श्रमशील बिहारी मजदूरों को इज्जत देने की बजाय उन्हें प्रताड़ित किया जाता रहा है। मराठा क्षत्रप बाल ठाकरे एवं उनके भतीजे राज ठाकरे ने तो सारी मर्यादाओं एवं राष्ट्रीय एकता को तार-तार कर दिया, लेकिन केंद्र की सरकार मूकदर्शक बनकर ताकती रही। यह देश का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा। राजनीतिक महत्वाकांक्षा ऊपर रही, राष्ट्रीय अखंडता चूर-चूर होती रही। प्रांतीय कट्टरता व क्षेत्रवाद की संकीर्ण मानसिकता से ऊपर उठना होगा इन प्रांतों के आम नागरिकों को एवं देश के रहनुमाओं को भी, तभी संप्रभु भारत का विकास संभव है। बिहार के लोगों की भलमनसाहत देखिए कि जब मुंबई में बिहार के लोगों को पर मराठियों का अत्याचार जारी था, उसी वक्त बिहार से गुजरने वाली ट्रेन पर सवार दर्जन भर मराठियों को यहां के लोगों ने फूल-मालाओं से स्वागत किया। इस कदम से भी देश के अन्य हिस्सों के नागरिकों को सीख लेनी चाहिए। जिसे आप पिछड़ा कहते हैं, उन्होंने सद्भावना व भाईचारे की ऐसी मिसाल कायम की। देष के कईं हिस्सों में बिहार के छात्र-मजदूर पिटते रहे, किंतु बिहार में रह रहे अन्य प्रांतों के लोगों को छुआ तक नहीं यहां के नागरिकों ने। दिल्ली में पंजाबी लोग बिहार के मजदूरों को भद्दी-भद्दी गालियां देकर प्रताड़ित करते हैं। लेकिन बिहार में उसी पंजाब के लोगों को श्रध्दा की दृष्टि से देखते हैं बिहारवासी। बिहार में अवस्थित गुरुद्वारे को कभी क्षति नहीं पहुंचाई जाती है। क्या पंजाबी भाई बिहारियों से कुछ सीख ले सकते हैं?

बिहार ने पंद्रह साल तक कुशासन का दंश झेला। नीतीश की सरकार आई तो राज्य में विकास की हल्की बयार चली। राज्य सरकार के गठन के बाद सूचना अधिकार अधिनियम कानून को लागू किया गया। नीतीश सरकार ने भ्रष्ट पदाधिकारियों-कर्मचारियों पर नकेल कसने के लिए विजीलेंस को सक्रिय किया। फलतः प्रदेश के दर्जनों पदाधिकारी रिश्वत लेते पकड़े गए। स्पीडी ट्रायल के जरिये आपराधिक किस्म के राजनीतिज्ञों एवं अपराधियों को जेल की सींखचों में डाला। स्पीडी ट्रायल के तहत केवल जनवरी माह में 68 अभियुक्तों को मुजफ्फरपुर कोर्ट द्वारा सजा सुनाई गई है। मुख्यमंत्री द्वारा नियमित जनता दरबार लगाकर प्रदेशवासियों के दुख-दर्द दूर करने की कोशिश भी राज्य सरकार की सराहनीय पहल है। बीते लोकसभा चुनाव में जनता ने तमाम आपराधिक पहचान वाले नेताओं को हराकर यह जता दिया कि बिहार की जनता भले निर्धन हों लेकिन परिपक्व और महान है। इक्के-दुक्के आपराधिक किस्म के नेताओं को जदयू ने टिकट थमा दिया तो, जनता ने जदयू लहर के बावजूद उसे नकार दिया और नीतीश को एक तरह की चेतावनी दे डाली कि अब बहुत हुआ। सरकार के साढ़े चार साल के शासनकाल में जर्जर हो चुके अधिकांश स्कूल भवन, अस्पताल एवं अन्य सरकारी कार्यालयों का कायाकल्प हो गया है। दीवारों पर रंग-रोगन चढ़ गए और वीरान हो चुके अस्पतालों में मरीजों की भीड़ उमड़ने लगी है। सड़क बनाने वाले ठेकेदारों पर भी नकेल कसा गया, जिसका परिणाम आया कि सड़कों के निर्माण में घटिया सामग्री के इस्तेमाल पर कुछ अंकुश लगा है। इन पंक्तियों के लेखक को गत दिनों दक्षिण बिहार के नक्सल प्रभावित गया, जहानाबाद, औरंगाबाद एवं चंपारण की यात्रा पर जाने का मौका मिला। वहां के लोगों से बातचीत हुई। राजद शासन के दौरान बारा हत्याकांड में 42 लोगों की गर्दन रेतकर हत्या कर दी गई थी। बारा के पीड़ित परिवारों ने बताया कि इस सरकार में कम-से-कम हमलोग चैन से सोते हैं। अपराधियों में भय का माहौल है। पक्की सड़कें गांव-गांव तक बिछ रहीं है। हालांकि, अभी बहुत काम बाकी है। बावजूद इसके, आए परिवर्तन से बिहार की छवि भी बदलने लगी है। रोजगार के अवसरों में इजाफा होता देख प्रताड़ित गिरमिटिया मजदूर अपने सम्मान की खातिर भी अपने प्रदेश वापस लौटने लगे हैं। जब पंजाब के खेतों में धान-गेंहूं काटने के लिए मजदूरों का अभाव हो गया, तब वहां के किसानों को बिहार के मानव संसाधन की अहमियत समझ में आई। अंततः वहां के किसानों ने बिहार के मजदूरों को ससम्मान पंजाब बुलाया।

खैर, तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावजूद बिहार की तस्वीरें बदल रही हैं। यहां की कईं युवा प्रतिभाओं ने अपने काम से देश-दुनिया का ध्यान खींचा है। पटना का सुपर थर्टी देश का एकमात्र ऐसा संस्थान बना, जिसने गरीब रिक्शाचालक, रेहड़ीवाले, दैनिक मजदूर, निर्धन किसान आदि के बच्चों को मुफ्त कोचिंग देकर आईआईटी में प्रवेश दिलाया। गत दो साल से सुपर थर्टी ने शत-प्रतिशत सफलता के साथ दुनिया भर में नाम कमाया। इसके कर्ताधर्ता आनंद कुमार के इस कारनामे पर डिस्कवरी चैनल ने डॉक्यूमेंट्री फिल्म बनाया। मुजफरपुर की मधुमक्खी वाली अनीता कुशवाहा की शानदार कहानी दुनिया के मानचित्र पर पहुंची। यूनिसेफ ने अनीता को स्टार गर्ल घोषित किया एवं अपने वार्शिक रिपोर्ट के कवर पर उसकी तस्वीरें छापी। आज वह एनसीआरटी के पाठ्यक्रम में पढ़ाई जा रही है। गांव के एक सामान्य किसान परिवार की अनीता को अमेरीका बुलाकर सम्मानित किया गया। मुजफ्फरपुर में ही 2007 में शुरू हुआ ग्रामीण लड़कियों का समाचार चैनल ‘अप्पन समाचार’ भी दुनिया में पहले ऑल वुमेन विलेज न्यूज चैनल के रूप में चर्चित हुआ। इस अनोखे काम ने भी देश-विदेश का ध्यान बिहार की ओर खींचा। सीएनएन-आईबीएन की ओर से अप्पन समाचार को ‘सिटीजन जर्नलिस्ट अवार्ड’ दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने प्रदान किया। वैशाली जिले के डॉ विन्देश्वरी पाठक ने सुलभ इंटरनेशनल के जरिये शौचालय व स्वच्छता पर अद्वितीय काम कर बिहार का नाम सरहद पार पहुंचाया। गया के स्वर्गीय दशरथ मांझी ने बाइस सालों तक छेनी-हथौड़ी चलाकर पहाड़ का सीना चीर डाला और रास्ते की लंबाई लगभग 70 किलोमीटर कम कर दी। दशरथ की तपस्या सिध्द करती है कि बिहार के लोग कितने उद्यमशील होते हैं। फेहरिस्त लंबी है, सबका जिक्र करना एक छोटे से लेख में संभव नहीं है।

आजाद भारत के लोग, जो खुद को मराठी, सरदार, असमिया, बंगाली, गुजराती, दिल्लीवाला मानकर गौरवान्वित होते हैं और बिहार, उत्तर प्रदेश एवं अन्य हिन्दी प्रदेशों को उपेक्षा की दृष्टि से देखते हैं, इन प्रदेशों का अक्स यहां के गरीब मजदूरों के निम्न रहन-सहन में देखते हैं तथा भारत को टुकड़ों में देखते हैं। क्या उपरोक्त उल्लिखित अद्वितीय प्रतिभाओं में देख सकते हैं, जिसने दुनिया को कुछ नायाब चीजें देकर भारत का गौरव बढ़ाया है। आस्ट्रेलिया में पिटे भारतीय छात्रों से जरा पूछिए कि तब क्या उनके अंदर यह भाव आया था कि वे पंजाबी हैं, असमिया हैं, गुजराती हैं, पंजाबी हैं अथवा भारतीय होने का एहसास हुआ था। जब हम देश के बाहर इसी तरह का सौतेला व्यवहार झेलते हैं तब हमें भारतीय होने का एहसास होता है। आइए, हम सब मिलकर एक-दूसरे को सम्मान दें। एक-दूसरे की भाषा, संस्कृति, समाज में घुले-मिले और सिर्फ भारतीय होने का संकल्प लें।

न्यायपालिका और लोकतंत्र – राजीव तिवारी

न्यायपालिका, विधायिका तथा कार्यपालिका का समन्वित स्वरूप ही लोकतंत्र होता है। लोकतंत्र में न्यायपालिका, विधायिका तथा कार्यपालिका एक दूसरे के पूरक भी होते हैं तथा नियंत्रक भी। इसका अर्थ यह हुआ कि इन तीनों में से कोई अंग कमजोर पड़ रहा हो तो शेष दो उसे शक्ति दें और यदि कोई अंग अधिक मजबूत हो रहा हो तो उसके पंख कतर दें। लोकतंत्र की सबसे घातक स्थिति वह होती है जब तीनों अंग एक दूसरे को कमजोर करके स्वयं शक्तिशाली होने की प्रतिस्पर्धा में जुट जाएं। लगता है कि वर्तमान भारत में न्यायपालिका और विधायिका के बीच ऐसी प्रतिस्पर्धा शुरू हो गई है। इस टकराव की पहल तो विधायिका ने ही की है और न्यायपालिका ने लंबे समय तक इसे सहन भी किया लेकिन जबसे न्यायपालिका इस टकराव में कूदी है तबसे उसने भी मुड़ कर समीक्षा नहीं की। परिणाम टकराव के रूप में दिख ही रहे हैं।

इसी माह न्यायपालिका ने दो महत्वपूर्ण विचार दिये, पहला सुप्रीम कोर्ट द्वारा किसी भी मामले में सीबीआई जांच के आदेश देने के अधिकार संबंधी और दूसरा नक्सलवाद का मुख्य कारण राजनैतिक न होकर आर्थिक होने की सलाह संबंधी। इन दोनों की विस्तृत विवेचना आवश्यक है। पहला मामला यह है कि बंगाल सरकार हाई कोर्ट के आदेश के विरुध्द सुप्रीम कोर्ट गई थी कि न्यायालय किसी भी राज्य सरकार की सहमति के बिना किसी मामले में सीबीआई जांच का आदेश नहीं दे सकती। बंगाल सरकार के अनुसार कानून व्यवस्था राज्य सरकार का विषय है और सीबीआई केंद्र सरकार की जांच एजेंसी है। इस मामले सुप्रीम में कोर्ट की पांच सदस्यीय बेंच ने विचार किया और कई वर्ष तक विचार करने के बाद निर्णय दिया कि न्यायालय को ऐसा अधिकार है।

न्यायपालिका के कई कार्य हैं। सामान्यतया न्यायपालिका कानून के अनुसार न्याय करती है। यदि न्याय और कानून आपस में विरुध्द हो जाएं तो न्यायपालिका संविधान के अनुसार उक्त कानून की समीक्षा करती है। किन्तु यदि कभी संविधान और न्याय भी आपस में टकरा जाएं तब न्यायपालिका प्राकृतिक न्याय के पक्ष में संविधान की भी समीक्षा कर सकती है। जब इंदिरा गांधी ने तानाशाहीपूर्ण अधिकारों से लैस होकर कहा था कि संसद सर्वोच्च होने से उसे संविधान संशोधन के असीमी अधिकार प्राप्त है तब न्यायपालिका ने निर्णय दिया था कि संसद ऐसा कोई संविधान संशोधन नहीं कर सकती जिससे संविधान का मौलिक स्वरूप ही बदल जाएं। यह मौलिक स्वरूप क्या है इसकी आज तक व्याख्या नहीं हुई, किन्तु संविधान का मौलिक स्वरूप है तो अवश्य। मेरे विचार में संविधान का मौलिक स्वरूप यही है कि संविधान स्वयं भी किसी व्यक्ति के प्राकृतिक अधिकार अकारण नहीं छीन सकता। इसका सीधा-सीधा अर्थ हुआ कि मनुष्य एक स्वतंत्र इकाई है जिसे प्राकृतिक रूप से जीने का मौलिक अधिकार स्वतः प्राप्त है। यह अधिकार कोई भी संविधान छीन नहीं सकता। भारत में भी यही व्यवस्था है। मनुष्य को मौलिक अधिकार संविधान प्रदत्त भी नहीं है और संविधान उसकी व्याख्या नही कर सकता। वे तो मनुष्य को प्राकृतिक रूप से प्राप्त है जिनकी सुरक्षा की गारंटी मात्र संविधान देता है।

जब संविधान प्रत्येक व्यक्ति की सुरक्षा की गारंटी देता है और न्यायपालिका उस संविधान की पहरेदार तीन इकाइयों में से एक है तो न्यायपालिका का यह दायित्व है कि किसी भी मामले में संविधान की रक्षा करे और यदि कोई समस्या खड़ी हो तो संविधान से ऊपर भी व्यक्ति के प्राकृतिक अधिकारों की सुरक्षा करे। राज्य और केन्द्र ने आपस में अधिकारों का जो विभाजन किया है वह सरकारों का आपसी विभाजन है। वह विभाजन वहीं तक न्याय संगत है जहाँ तक वह व्यक्ति के अधिकारों की सुरक्षा में सक्रिय और सहायक है। यदि वह विभाजन ऐसी सुरक्षा के विरुध्द है तो न्यायपालिका को हस्तक्षेप करना ही चाहिये क्योकि न्याय विहीन व्यवस्था घातक होती है और व्यवस्था विहीन न्याय असफल। बंगाल सरकार का तर्क न्याय विहीन व्यवस्था के पक्ष में होने से प्रथम दृष्टि में अमान्य था। पता नहीं सुप्रीम कोर्ट ने इतने वर्ष इस मामूली बात में क्यों लगाये।

ठीक इसी समय छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा का एक मामला सुप्रीम कोर्ट में रहा। सच्चाई यह है कि सम्पूर्ण भारत में छत्तीसगढ़ अकेला ऐसा प्रदेश है जिसकी सरकार पूरी ईमानदारी से नक्सलवाद का मुकाबला कर रही हैं। अन्यथा अन्य सरकारें तो मुकाबले का नाटक मात्र कर रहीं है। छत्तीसगढ़ सरकार ने देश भर के मानवाधिकार वादियों को यहाँ आइना दिखा दिया। मेधा पाटकर, संदीप पांडे सहित कई मानवाधिकारी सांढ़ पूरे भारत में छुट्टा घूमते रहे किन्तु छत्तीसगढ़ के आदिवासी इलाके में उनका नकाब उतर गया। उस सरकार के दंतेवाड़ा गोलीकांड मामले में समीक्षा अवसर पर न्यायालय ने टिप्पणी कर दी कि नक्सलवाद राजनैतिक संघर्ष न होकर आर्थिक संघर्ष है जिसके लिये आर्थिक विकास का मार्ग भी पकड़ने की जरूरत है। पहली बात तो यह है कि न्यायपालिका विधायिका और कार्यपालिका की सलाहकार इकाई न होकर समीक्षक इकाई है। न्यायपालिका को यह अधिकार नहीं कि वह लोकतंत्र की अन्य दो इकाइयों को सलाह दे कि वे नक्सलवाद से कैसे निपटें। नक्सलवाद की पहचान, कारण और समाधान की नीति बनाना विधायिका का काम है, नीति का कार्यान्वयन कार्यपालिका का और उस नीति से संविधान का उल्लंघन न हो यह समीक्षा करना न्यायपालिका का। जब न्यायपालिका को ही यह अधिकार प्राप्त नहीं तब न्यायालय के न्यायाधीशों की ऐसी टिप्पणी तो भ्रम भी पैदा करती है और हानिकर भी है। किसी न्यायाधीशों की व्यक्तिगत धारणा भी भिन्न हो सकती है और सोच भी, किन्तु न्यायाधीश को ऐसी धारणाएं कुर्सी पर बैठ कर व्यक्त करने का अधिकार नहीं। वहाँ बहस इस बात पर नहीं हो रही थी कि नक्सलवाद क्या है और उसका समाधान क्या है ? चर्चा का मुद्दा मात्र यह था कि क्या छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा मारे गये लोग सामान्य नागरिक थे या नक्सलवादी। पता नहीं क्या सोचकर न्यायाधीशों ने ऐसी अनावश्यक और गलत टिप्पणी कर दी।

सच बात यह है कि नक्सलवाद के फैलाव का कारण कही भी विकास का अभाव नहीं है। नक्सलवाद की लड़ाई अनपढ़ और गरीब लोग नहीं लड़ रहे। इस लड़ाई को लड़ने वाले प्रमुख लोग जो पढ़े-लिखे विद्वान लोग हैं यह मानते हैं कि सत्ता परिवर्तन का यही एक उपयुक्त मार्ग है। अविकसित क्षेत्रों से तो संघर्ष का प्रारंभ मात्र है जिसे बढ़ते-बढ़ते विकसित क्षेत्रों तक जाना है। वे तो चाहते हैं कि इस बहाने इस पिछड़े क्षेत्र में बड़ी मात्रा में सरकारी धन आए जिसका बड़ा हिस्सा उनके आंदोलन के काम आए। न्यायाधीश महोदय नक्सलवाद आने के बाद जो बात कह रहे हैं वह बात या तो पहले कहनी चाहिये थी या बाद में, किन्तु ठीक युध्द के मैदान में इस तरह की अनावश्यक सलाह घातक हो सकती है।

मेरी अब भी मान्यता है कि नक्सलवाद का समाधान न ही बंदूक है, न ही विकास। नक्सलवाद का समाधान है स्थानीय स्वायत्तता। सरकार गांवों को अधिकतम स्वायत्तता दें और इसके बाद भी जो न माने उसे चाहे कानून से मारे या बिना कानून के यह सोचना हमारा विषय नहीं। हमारा विषय तो सिर्फ इतना ही है कि सरकार ग्राम सभाओं को मजबूत करें। मुझे खुशी है कि वे छत्तीसगढ़ सरकार ने ग्राम सभा सशक्तीकरण पर गंभीरता से विचार करना शुरू किया है। मुझे दुख है कि माननीय न्यायपालिका का ध्यान इस तीसरे समाधान की ओर नहीं गया।

अंत में मै कहना चाहता हूं कि न्यायपालिका लोकतंत्र की रक्षा में तैतीस प्रतिशत की हिस्सेदार है। वह अपनी गंभीरता को समझे तो लोकतंत्र में सहायक होगा।

महंगाई घटने के आसार!

नई दिल्ली. महंगाई से जहां परेशान जनमानस बेहाल है, वहीं सरकार का मानना है महंगाई में कमी के संकेत मिले हैं. कृषि एवं उपभोक्ता मामले, खाद्य एवं सार्वजनिक वितरण मंत्रालय की मानें तो पिछले कई सप्ताहों के दौरान खाद्य पदार्थों की कीमतों में गिरावट के संकेत मिले हैं. पिछले तीन महीने के दौरान आटा, चना दाल, अरहर दाल, उड़द दाल, मूंग दाल, मसूर दाल, आलू और प्याज के मूल्यों में जहां गिरावट के संकेत मिले हैं, वहीं चावल, गेंहूं और नमक के दाम स्थिर रहे हैं. इसके अलावा पिछले एक माह के दौरान गेंहूं, चीनी, सरसों तेल और चाय की क़ीमतों में भी गिरावट के संकेत मिले हैं.

सरकार का दावा है कि वह नियमित रूप से कीमतों की स्थिति पर नज़र रखे हुए है और खाद्य पदार्थों की क़ीमतों को घटाने और लोगों, विशेषकर गरीब लोगों के लिए किफायती दरों पर उनकी उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए ज़रूरी क़दम उठा रही है. खाद्य पदार्थों की उपलब्धता में सुधार को ध्यान में रखते हुए निर्यातों को घटाने और आयातों को प्रोत्साहित करने की दिशा में नीति संबंधी निर्णय किए गए. कुछ खास मामलों में सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों को कुछ सामग्रियों के आयात के लिए और सार्वजनिक वितरण प्रणाली के माध्यम से वितरण के लिए राज सहायता दी गई है. कुछ सामग्रियों के निर्यातों पर पूरी तरह रोक लगाई गई है. देश में कमज़ोर वर्गों के संरक्षण को सुनिश्चित करने के उद्देश्य से सरकार ने सार्वजनिक वितरण प्रणाली को काफ़ी समर्थन प्रदान किया है. केन्द्र की ओर से जारी मूल्यों को साल 2002 से स्थिर रखने की कोशिश करना इस दिशा में उठाया गया एक बेहद अहम क़दम है. प्रतिकूल मानसून के बावजूद चावल की अच्छी खरीद करते हुए ख़रीफ़ विपणन मौसम 2009-10 (अक्तूबर-सितम्बर) में 24 फरवरी, 2010 तक 2278 लाख टन चावल की खरीद की गई है. नतीजतन पहली फरवरी, 2010 को केन्द्रीय पूल में 206.23 लाख टन गेंहूं और 256.58 लाख टन चावल का पर्याप्त भंडार मौजूद रहा. इसके अलावा कई आवश्यक वस्तुओं के लिए भंडार सीमाओं के निर्धारण और क्रियान्वयन के लिए राज्य सरकारों को शक्तियां प्रदान करने हेतु आवश्यक वस्तु अधिनियम के अधीन जारी किए गए आदेशों में सुधार किए गए हैं. इससे इन वस्तुओं की जमाखोरी रोकने में मदद मिलेगी.

कृषि और खाद्य मंत्री शरद पवार ने संसद में हुई मूल्य वृध्दि पर चर्चा के दौरान अपने हाल के जवाब में इनमें से कुछ कदमों के अलावा कारणों को स्पष्ट किया. उन्होंने कहा कि सरकार एक खुली बाज़ार योजना के माध्यम से भंडार जारी करती रही है, ताकि खाद्यान्न की उपलब्धता सुनिश्चित होने के साथ ही उनके मूल्यों पर भी नियंत्रण कायम हो और सार्वजनिक वितरण प्रणाली तथा अन्य कल्याणकारी योजनाओं से संबंधित जरूरतें भी पूरी हों. राज्य सरकारों ने खुदरा उपभोक्ताओं के बीच वितरण के लिए अक्तूबर 2009 से लेकर मार्च 2010 के दौरान 20 लाख टन गेंहूं और 10 लाख टन चावल का आबंटन किया। राज्य सरकार इसके लिए पर्याप्त वितरण सुनिश्चित करना चाहती है, ताकि खुले बाजार में कीमतों पर नियंत्रण कायम हो सके. इसके अलावा 20.8 लाख टन गेंहूं बड़े उपभोक्ताओं के लिए आबंटित किया गया है, जिसे निविदा के माध्यम से बेचा गया है. अन्त्योदय अन्न योजना, गरीबी रेखा से नीचे वाले परिवारों और गरीबी रेखा से ऊपर वाले परिवारों के राशन कार्डों के स्वीकृत सदस्यों के लिए प्रति परिवार प्रतिमाह 10 किलाग्राम गेंहूं चावल का अतिरिक्त आबंटन किया गया है. यह आबंटन सार्वजनिक वितरण प्रणाली के अधीन मौजूदा आबंटन के अतिरिक्त है.

खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए देश में खाद्यान्न का पर्याप्त भंडार होना चाहिए. इस प्रकार सरकार की नीति का एक लक्ष्य खाद्यान्न का पर्याप्त भंडार रखना है, ताकि सार्वजनिक वितरण प्रणाली और कल्याण योजनाओं की मांग पूरी की जा सके और मूल्य वृध्दि को भी नियंत्रण में रखा जा सके. बफर मानकों के मुताबिक़ 118 लाख टन चावल और 82 लाख टन गेंहूं (कुल 200 टन) के भंडार के स्थान पर हमारे पास पहली जनवरी, 2010 को 242 लाख टन से भी अधिक खाद्यान्न भंडार उपलब्ध था. सरकार ने पिछले वर्ष में खाद्यान्न की रिकार्ड खरीद की थी और ऐसा प्रतीत होता है कि मौजूदा वर्ष में भी ऐसी ही उम्मीद की जा रही है.

पिछले पांच वर्षों के दौरान प्रमुख फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) बढ़ा दिए गए हैं, ताकि किसानों की आय में सुधार हो सके, जो देश की जनसंख्या का लगभग 62 प्रतिशत हैं. गेंहूं का न्यूनतम समर्थन मूल्य 640 रुपए प्रति क्विंटल से बढ़ाकर 1100 रुपए प्रति क्विंटल कर दिया गया था और धान के लिए इसे 560 रुपए से बढ़ाकर 1000 रुपए प्रति क्विंटल कर दिया गया है. विदर्भ के किसानों को उनके कपास के लिए 2500 रुपए से लेकर 3000 रुपए प्रति क्विंटल का भुगतान किया गया है. इन उपायों से किसानों की जीविका के स्तर में सुधार के साथ ही उनकी क्रय शक्ति में भी सुधार हुआ है. न्यूनतम समर्थन मूल्य में वृध्दि करना सरकार का एक जागरूक निर्णय था, जिसके बारे में सरकार ने अपने न्यूनतम साझा कार्यक्रम में स्पष्ट तौर से किसान समुदाय के हित में इसे व्यापार का रूप देने के प्रति अपनी प्रतिबध्दता दर्शाई थी. बढ़े हुए न्यूनतम समर्थन मूल्य के माध्यम से किसानों को सही मूल्य का संकेत देना देश में खाद्यान्न का उत्पादन बढ़ाने के साथ ही खाद्य सुरक्षा कायम करने के लिए जरूरी है.

एक ओर जहां वर्ष- दर -वर्ष में न्यूनतम समर्थन मूल्य बढाए गए हैं, वहीं अन्त्योदय अन्न योजना, बीपीएल और एपीएल परिवारों के लिए वर्ष 2002 से लेकर केन्द्र की ओर से जारी मूल्यों (सीआईपी) में कोई वृध्दि नहीं की गई है। इसके कारण पिछले छह वर्षों में खाद्य पदार्थों पर राजसहायता 20,000 करोड़ रुपए से बढ़ाकर 60,000 करोड़ रुपए हो गई है.

लगातार पिछले दो वर्षों में चीनी के कम उत्पादन के कारण चीनी के मूल्यों पर काफी दबाव पड़ा है. इसके अलावा सरकार ने किसानों को उनके गन्ना उत्पादन के लिए दिया जाने वाला मूल्य बढ़ा दिया है. किसानों को अब गन्ने की अच्छी कीमत मिल रही है और यह आशा है कि इससे किसान आगामी फसल सीजनों में और भी अधिक क्षेत्र में गन्ने की बुआई हेतु प्रोत्साहित होंगे. मांग और आपूर्ति के बीच की विसंगति को दूर करने और मूल्य नियंत्रित करने के क्रम में सरकार ने कई उपाय किए हैं. बिना शुल्क के ही सफेद परिष्कृत और कच्ची चीनी के आयात को अनुमति दी गई है, ताकि इसकी कमी दूर हो सके और खुले बाजार में चीनी की कीमतों में कमी हो सके. चीनी की अधिशेष प्रतिशतता को 10 प्रतिशत से बढ़ाकर 20 प्रतिशत किया गया है. इससे खुले बाज़ार की ऊंची कीमतों के कारण मूल्य वृध्दि के प्रभाव से समाज के कमजोर वर्गों के लोगों को बचाया जा सकेगा. इसके अलावा मई 2009 में चीनी के व्यापार पर 30 सितम्बर, 2010 तक रोक लगा दी गई है. केन्द्र सरकार ने उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा आयात की गई कच्ची चीनी को अन्य राज्यों में प्रसंस्कृत करने की भी अनुमति दी है. केन्द्र सरकार ने थोक विक्रेताओं और बड़े उपभोक्ताओं के लिए भंडार सीमाओं का निर्धारण कर दिया है। राज्य सरकारों को खुदरा विक्रेताओं के लिए भंडारण सीमा निर्धारित करने की अनुमति दी गई है और कई राज्यों ने ऐसा किया भी है। सरकार के हस्तक्षेप के कारण चीनी की कीमतें लगातार कम हो रही हैं और यह अब 38-40 रुपए के आसपास तक नीचे आ गई है, जबकि ऐसी आशंका थी कि यह 50रुपए तक पहुंचेगी।

भारत में दलहन एक प्रमुख आहार है. हालांकि दलहनों का उत्पादन इनकी मांग की तुलना में कम हुआ है और इस कमी को पूरा करने के लिए इसका आयात करना होगा. इसलिए सरकारी एजेंसियों को आयात बढ़ाने का निर्देश दिया गया. वर्ष 2008-09 के दौरान 24.80 लाख टन दलहनों का आयात किया गया. मौजूदा वित्त वर्ष में अक्तूबर तक 15.90 लाख टन दलहनों का आयात किया गया, जबकि पिछले साल इसी अवधि के दौरान 13.20 लाख टन दलहनों का आयात किया गया था. दलहनों की उपलब्धता बढ़ाने और उसकी कीमतों को नियंत्रित करने के उद्देश्य से कई उपाय किए गए हैं. काबुली चना को छोड़कर दलहनों के निर्यात पर 22 जून, 2006 से लेकर 31 मार्च 2010 तक रोक लगाई गई है. दलहनों के आयात पर 10 प्रतिशत सीमा शुल्क को पूरी तरह हटा दिया गया है और इस रियायत की अवधि को समय-समय पर बढ़ाते हुए इसे 31 मार्च, 2010 तक लागू किया गया है. अरहर और उड़द दाल के लिए व्यापार पर रोक लगाई गई है. केवल चना दाल का व्यापार भारत में किया जा रहा है जिसकी कीमत स्थिर रही है. दलहनों की घरेलू उपलब्धता सुनिश्चित करने के उद्देश्य से एसटीसी, पीईसी,एमएमटीसी, एनसीसीएफ और एनएएफईडी नामक सार्वजनिक उपक्रमों सहकारी संगठनों को दलहनों के आयात की अनुमति दी गई है और इसके लिए आवश्यकतानुसार उन्हें इस संचालन में लागत की तुलना में अधिकतम 15 प्रतिशत और सीआईएफ के 1.2 प्रतिशत सेवा शुल्क के भुगतान का भी प्रावधान है. इस योजना के अधीन वर्ष 2009-10 में 5.44 लाख टन दलहनों का आयात किया गया और 23 फरवरी, 2010 तक 5.27 लाख टन दलहनों का निपटारा भी कर दिया गया. सार्वजनिक वितरण प्रणाली के जरिए दलहनों के वितरण की स्कीम के तहत सार्वजनिक वितरण प्रणाली के माध्यम से वितरित आयातित दलहनों के लिए 10 रुपए प्रति किलोग्राम की सब्सिडी दी गई है. अब तक पीईसी, एसटीसी, एमएमटीसी और एनसीसीएफ ने सार्वजनिक वितरण प्रणाली के ज़रिये वितरण के लिए नौ राज्यों – पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, केरल, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, राजस्थान और हिमाचल प्रदेश को एक लाख 62 हजार टन दलहनों की आपूर्ति की है. हाल ही में 6 फरवरी, 2010 को हुए राज्यों के मुख्यमंत्रियों के सम्मेलन में अनेक राज्यों ने इस स्कीम का एक और साल तक विस्तार करने का आग्रह किया. इस स्कीम का विस्तार अगले वर्ष तक करने का प्रस्ताव है. पीली मटर प्रोटीन का अच्छा स्रोत होती है. वे पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हैं तथा अन्य दालों की तुलना में उनके वर्तमान भाव भी बहुत नीचे हैं. पीली मटर दाल केन्द्रीय भंडार, मदर डेयरी, नेफेड और एनसीसीएफ के चुनिंदा खुदरा केन्द्रों पर 8 नवम्बर, 2009 से 26 रुपए प्रति किलोग्राम की दर पर उपलब्ध कराई जा रही है.

इसी तरह खाद्य वस्तुओं की जमाखोरी और कालाबाजारी रोकने के लिए केन्द्र ने राज्यों को उपलब्ध कानूनों के तहत कड़ी कार्रवाई करने की सलाह दी है. फ़िलहाल 23 राज्यों संघीय क्षेत्रों ने दलहनों, चावल, धान, खाद्य तेलों, खाद्य तिलहनों तथा चीनी के लिए स्टॉक सीमा लाइसेंसिंग स्टॉक घोषणा जरूरी करने जैसे आदेश जारी किए हैं. खबर है कि राज्य सरकारों ने आवश्यक वस्तु अधिनियम के तहत कार्रवाई कर 1.5 लाख से अधिक छापे मारे तथा 7700 से अधिक लोगों को गिरपऊतार किया गया.

संघीय शासन व्यवस्था में राष्ट्रीय महत्व के मामलों के लिए केन्द्र एवं राज्य स्तर पर समन्वित ढंग से काम करने की जरूरत होती है. कृषि एवं खाद्य मंत्रालय फसल उत्पादन बढ़ाने तथा खाद्य क्षेत्र के प्रबंधन के लिए नियमित आधार पर राज्यों के संपर्क में रहे हैं. महंगाई के मसले पर प्रणानमंत्री ने राज्यों के मुख्यमंत्रियों की बैठक बुलाई. बैठक में हुई सहमति के आधार पर कार्रवाई की गई. कृषि, खाद्य उपलब्धता तथा कीमतें संबंधी सभी मसलों को देखने के लिए मुख्यमंत्रियों और कुछ केन्द्रीय मंत्रियों का कोर ग्रुप गठित किया गया है.

जैसा कि प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने हाल ही में कहा कि मुश्किल दौर गुजर चुका है तथा मूल्य स्थिति में सुधार होगा. रबी मौसम की बुआई लगभग पूरी हो चुकी है तथा नवीनतम उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार पिछले वर्ष की तुलना में इस वर्ष ज्यादा क्षेत्र में गेहूं और दलहनों की बुआई हुई है. जब मार्च के अंत में फसलें बाजार में आनी शुरू होंगी तो खाद्य वस्तुओं की कीमतें और नीचे आएंगी.

-फ़िरदौस ख़ान

दफन हो जाये ऐसी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता

मकबूल फिदा हुसैन को लेकर फिर चर्चा है। कतर की नागरिकता लेने के बाद उनके पक्ष में तकरीरें की जा रही है। प्रगतिशील और भारतीय आस्थाओं के विरोधी एक बार फिर लामबंद, सक्रिय और आक्रामक हैं। हुसैन की करतूतों के कारण भारत में उनका काफी विरोध हुआ। भारत में कानून की हालत यह है कि यहां सद्विचार और गाली में कोई भेद नहीं होता। लचर कानून और व्यवस्था के कारण मनमाफिक न्यायालय, प्रदेश और देश चुनने की सुविधा है। इसमें भी कुछ परेशानी हो तो देश छोड़कर ही चले जाओ। कानून के नाम पर भागने वाले को भगोड़ा कहा गया है। लेकिन इस देश के कई विद्वान, लेखक, साहित्कार और कलाकार एक भगोड़े के प्रति गुस्सा और क्षोभ व्यक्त करने की बजाए आंसू बहा रहे हैं। नाम भारत का, लोकतंत्र और कानून का ले रहे हैं, लेकिन अपने ही मुह पर हुसैन का जूता और तमाचा मार रहे हैं।

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का नाम लेकर कुछ हुसैन समर्थक अश्लीलता, भारतीय अस्मिता, देवी-देवताओं के प्रति आस्था, भारत के रूप में करोड़ों की माता का अपमान करने वाले हुसैन और उसकी करतूतों पर पर्दा डालने और उसका बचाव करने की कोशिश कर रहे हैं। हुसैन की करतूत या निम्न स्तरीय व घटिया कला निजी नहीं, बल्कि सार्वजनिक हुई है। अभिव्यक्ति जब सार्वजनिक होती है उसका प्रभाव व्यापक होता है। हुसैन की अभिव्यक्ति से करोड़ों लोग आहत होते रहे हैं। अपने-अपने अनुसार लोगों ने प्रतिक्रिया की अभिव्यक्ति भी की है। कुछ ने उनकी नाजायज कलाकृतियों को तोड़कर अपनी प्रतिक्रिया अभिव्यक्त की, इसमें अनुचित क्या है? जो सांप्रदायिक होगा वह सांप्रदायिक स्तर पर विरोध करेगा, जो कलाकार होगा वह कला के स्तर पर विरोध करेगा। जैसे शब्दवान शब्दों से प्रक्रिया करेगा, वैसे ही बलवान अपने बल से। अभिव्यक्ति का अपना-अपना माध्यम हो सकता है। होना भी चाहिए। ये तो अच्छा है कि भारत के हिन्दुओं या बजरंगियों ने अभिव्यक्ति का नक्सलवादी, माओवादी, मार्क्‍सवादी या इस्लामी तरीका अख्तियार नहीं किया। अगर किया होता तो कानून भी बेबस होता और हुसैन भी। अगर इस्लामी अभिव्यक्ति के तहत हुसैन का सिर कलम हो जाता तो वे कतर में न होते।

वो तो हिन्दुओं ने अपने उपर शराफत का मुल्लमा चढ़ा रखा है। नही ंतो अपनी मां और बहन-बेटी की इज्जत-आबरू को सार्वजनिक करने को पाप माना जाता है, ऐसा करने वाले को पापी। हिन्दू शास्त्रों में पापी को क्या सजा मिलती है? भला हो इस देश की न्याय व्यवस्था और कानून का जो हुसैन जैसे पापियों को भी कला और अभिव्यक्ति के नाम पर बक्श देती है। हुसैन ने जो किया है वह इस्लाम विरोधी तो है ही, लेकिन इस्लामी सोच वाले उनके कृत्य पर सजा नहीं पुरस्कार देंगे, क्योंकि उनका यह कृत्य हिन्दू विरोधी और भारत विरोधी है। अपनी श्रद्धा, आस्था और पूज्य मानकों के प्रति गलत विचार रखने के लिए हिन्दुओं में भी सजा का प्रवाधान है। लेकिन भारत में चूंकि अ-धर्म का बोल-बाला है। यहां धर्म से निरपेक्षता सबसे बड़ी बात है। इसलिए यहां विधर्मी, अधर्मी, धर्म विरोधी सब कानून से उपर हैं।

भारत के बुद्धिजीवी प्रगतिशीलता के नाम पर हुसैन के पाप को भी कला का दर्जा दे रहे हैं। हुसैन को भारत, भारतीयता, भारतीय संस्कृति हिन्दू और यहां की देवी-देवताओं से नफरत हैं। अपनी पेटिंग्स के माध्यम से वे इन सब को गालियां देते हैं। जाहिर है वे ही गालियां असरकारी होती हैं जो अपने प्रिय या आत्मीय के बारे में अधिकतम बुरा व्यक्त करती हैं। हिन्दुओं को ये गालियां लग गई हैं। लगना इसलिए स्वाभाविक है कि वे भारत को माता मानते हैं। अगर अपनी मां को नंगा होते देख उसका विरोध करना सांप्रदायिक है तो ये सांप्रदायिक विरोध भी जायज है। हुसैन के शुभचिंतकों से एक गुजारिश है। वे सब जो हुसैन की कला के मुरीद हैं, भारतमाता की ही तरह अपनी बहन-बेटियों और माताओं की एक-एक नंगी, खुली, संभोगरत तस्वीर या पेंटिंग बनवा लें। इनके प्रदर्शन के लिए कोई आर्ट गैलरी की जरूरत नहीं होगी। पूरा देश ही आर्ट गैलरी बन जायेगा। शायद कला की कम समझ रखने वाले भी कला प्रेमी हो जायें। कोणार्क और खजुराहो का नाम लेकर हुसैन के पाप को जायज ठहराने वाले तब अपने ही घर की कलाकृतियों का बेहतर उदाहरण दे सकेंगे। हुसैन की तरह पोर्नोग्राफी, यौन-विकृति और हिन्दू विरोध से ग्रस्त उनके प्रशंसकों को हुसैन की इस कला अभिव्यक्ति में रियलाइजेशन भी होगा। अगर ऐसा हो सका तो निश्चित ही हुसैन का विरोध कम हो जायेगा। ‘इरोटिक कला’ के प्रेमी, हुसैन प्रशंसकों और समर्थकों की बहु-बेटियों की उत्तेजक पेटिंग अपने डाइंग हॉल में लगा अपने कला प्रेम का इजहार भी कर सकेंगे और हुसैन की प्रशंसा भी। तब न हुसैन का इतना विरोध होगा और न ही उन्हें भारत से भगोड़ा होने की जरूरत रहेगी। देश में ‘इरोटिक कला’ प्रमियों का एक नया वर्ग तैयार होगा। हुसैन और उनके समर्थकों को काफी सुकून भी मिलेगा।

अगर ऐसा न हो सके तो हुसैन कतर और अन्य इस्लामी देश में ही अपनी रचनाधर्मी कला को अभिव्यक्त करें। वहां भी बहुत-सी बहन-बेटियां, बहुएं इस ‘पाप-कला’ के लिए मिल जायेंगी। अगर कम पड़े या कोई कठिनाई हो तो हुसैन अपने घर की ‘‘चीजों’’ का उपयोग कर सकते हैं। भारत की धरती उनके लिए ना-पाक है, ना-पाक ही बनी रहेगी। एक ऐसे इस्लामी कट्टर और यौन विकृति के शिकार कलाकार को भारत में न तो बौद्धिक और न ही भौतिक स्थान देने की जरूरत है जो करोड़ों लोगों की भावनाओं को आहत करता है। भारत में सब बुराइयों के बावजूद यहां स्त्रियों का बहुत आदर और सम्मान है। कम-से-कम इस्लाम और इसाई देशों से अधिक तो है ही।

हुसैन ने कतर की नागरिकता स्वीकार कर प्रगतिशील लेखकों और सेक्यूलर सोच वालों के मुह और सिर पर जूता जरूर मारा है, लेकिन हिन्दुओं, धर्मनिष्ठ नागरिकों और भारतमाता के पुत्रों में एक नए उत्साह और साहस का संचार किया है। अब कोई भी कला-पापी अपने को अभिव्यक्त करने से पहले कुछ तो सोचेगा ही। राष्ट्रवादी और आस्थावादी अभिव्यक्ति को नकार और सिर्फ हुसैनी और प्रगतिशील अभिव्यक्ति को स्वीकार मिलना हो तो दफन हो जाए ऐसी अभिव्यक्ति और ऐसी स्वतंत्रता! नक्सली, माओवादी और इस्लामी प्रतिक्रिया और अभिव्यक्ति के बरक्श बजरंगी अभिव्यक्ति को सलाम!

– अनिल सौमित्र

मोदी के लिए नासूर बनता जा रहा है महुआ का किसान आन्दोलन

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भावनगर जिले के महुआ प्रखंड में निरमा डिटरजेंट प्राईवेट लि0 को गुजरात सरकार ने सीमेंट उद्योग लगाने के लिए 4500 हेक्टर जमीन आवंटित की है। निरमा ने 4500 हेक्टर भूमि के अलावा जिलाधिकारी से 10 हेक्टर जमीन की अलग से मांग की। सरकार ने निरमा कंपनी को 200 एकड ऐसी जमीन भी आवंटित कर दी है जो तालाव की जमीन है तथा उस तालाव से स्थानीय किसानों को सिंचाई एवं पीने का पानी प्राप्त होता है। यही नहीं अगर निरमा का प्रस्तावित एक लाख मैटि्रक टन सीमेंट उत्पादन वाला कारखना यहां लग गया तो समुद्री क्षारीय जल सुरक्षा के लिए बनाये गये बांधों को क्षतिग्रस्त होने से बचाया नहीं जा सकता है, जिससे पूरा इलाका क्षारयुक्त भूमि में बदल जाएगा तथा मिट्टी में क्षार की मात्रा बढने से इस इलाके की खेती चौपट हो जाएगी। किसानों का आरोप है कि गुजरात सरकार और निरमा कंपनी साजिस के तहत ऐसा इसलिए कर रही है कि यहां के किसान पलायन कर जाएं और क्षेत्र की भूमि पर और कई बडे सीमेंट उद्योग लगा दिये जायें। जानकारों का मानना है कि सीमेंट उद्योग के लिए आवष्यक कच्चेमाल की वहुलता के कारण निरमा की गिद्धदृष्टि महुआ के इस समुद्री किनाने वाले इलाकों पर है। निरमा का अभियान अगर सफल रहा तो लगभग 40 हजार किसानों को अपने पारंपरिक पेषे को छोड कही और पलायन करना होगा। गुजरत सरकार की सह पर निरमा उद्योग समूह अपना उद्योग लगाने के लिए तैयारी कर रहा है लेकिन स्थानीय किसानों के प्रतिरोध के कारण निरमा का यह सीमेंट प्रोजेक्ट इतना आसान नहीं है। महुआ के भारतीय जनता पार्टी विधायक डॉ0 कनुभाई कलसरिया का मानना है कि महुआ के किसान इस लडाई को अगर हार गये तो इसका प्रभाव गुजरात के अन्य क्षेत्रों पर भी पडेगा और किसान कमजोर पड जाऐंगे तथा उद्योग समूह अपनी मनमानी करता रहेगा। डॉ0 कलसरिया अपनी ही सरका के खिलाफ मोर्चा ले रहे हैं। कलसरिया का यह भी आरोप है कि गुजरात सरकार ने निरमा को बिना ग्राम पंचायत की अनुमति के गोचर, एवं तालाव की जमीन आवंटित की है। इस मामले में डॉ0 कलसरिया ने एक याचिका गुजरात उच्च न्यायालय में भी दाखिल की थी लेकिन वे कानूनी लडाई हार गये। इस बावत कलसरिया और किसान आन्दोलन के अन्य कार्यकर्ताओं का आरोप है कि किसान इस कानूनी लडाई में इसलिए हार गये क्योंकि गुजरात सरकार के महाधिवक्ता ने माननीय न्यायालय को गलत सूचना दी।

भावनगर जिले के समुद्री किनारे पर बसा नैप, कलसर, वांगर, माढीया, गुजरडा, दूधेरी, दूधाला, पढीयारका, डोलीया आदि कई गांव बसे हैं। इन्हीं गांवों के इर्द-गीर्द की सरकारी परती, तालाव और गोचर की जमीन निरमा डिटरजेंट प्रा0 लि0 को दिया गया है। कुल 45 सौ हेक्टर जमीन में से 200 एकड भूमि तालाव की है। यही नहीं सरकार ने उस भूमि का आवंटन भी निरमा को कर दिया है जो गोचर की जमीन है। गुजरात में गोचर की भूमि को आवंटित करने के लिए ग्राम पंचायत की स्वीकृति आवष्यक है लेकिन गुजरात सरकार ने बिना ग्राम प्रचायत की अनुमति के गोचर की भूमि निरमा के नाम कर दी है। चौकाने वाला तथ्य तो यह है कि जिस तालाव की जमीन को निरमा के हवाले किया गया है उस जमीन को भी सरकारी संचिकाओं में सरकारी परती जमीन ही दिखाया गया है। निरमा डिटरजेंट प्रा0 लि0 का इस क्षेत्र में एक इकाई पहले से काम कर रहा है। इस इकाई के विस्तान के लिए निरमा ने वर्ष 2004 में सरकार को आवेदन किया था। इस आवेदन के आलोक में गुजरात सरकार ने सन 2008 के इनवेस्टर समिट में निरमा कंपनी को लीज विस्तान और भूमि आवंटन का प्रमाण-पत्र सौंपा। अब निरमा डिटरजेंट प्रा0 लि0 इस क्षेत्र में प्रति वर्ष एक लाख मैटि्रक टन सीमेंट उत्पादन वाली एक इकाई लगाने की योजना में है। स्थानीय किसानों का मानना है कि निरमा के इस इकाई से क्षेत्र का वातावरण प्रदूषित होगा। यही नहीं यहां की खेती भी चौपट हो जाएगी। जानकारी में रहे कि महुआ का यह समुद्री किनाने वाला इलाका गुजरात के कश्‍मीर के रूप में जाना जाता है। यहां आम, चीकू, नरियल जैसे फलों की खेती होती है। जमीन हरा भर है तथा यहां के किसान खुसहाल है। निरमा का षडयंत्र है कि यहां की खेती चौपट हो जाये और किसान अपनी जमीन बेच कर कही अन्य जगह पलायन कर जाएं। इसकी वजह यह बतायी जाती है कि सीमेंट उद्योग में प्रयुक्त होने वाले कच्चे माल की यहां वहुलता है। निरमा कंपनी की दृष्टि लाईम स्टोन पर है। इस लिए निरमा ने ऐसे बांधों को भी अपने स्वामित्व में लिया है जिससे समुद्री क्षारीय जल को रोका जाता है। जिससे क्षारीय पानी से उपजाउ जमीन बची आज तक बची हुई है तथा जोरदार खेती होती है। निरमा की योजना अगर सफल रही तो इन बांधों को तोड दिया जाएगा, जिससे क्षेत्र में क्षारीय जल प्रवेश कर जाएगा और इस इलाके की खेती चौपट हो जाएगी। जब खेती चौपट हो जाएगी तो किसान अपनी जमीन बेच कर चले जाएंगे तथा निरमा को विना किसी लाग लपेट के लाई स्टोन शोषण का अवसर मिल जाएगा।

इस लडाई का नेतृत्व भारतीय जनता पार्टी के स्थानीय विधायक डॉ0 कनुभाई कलसरिया कर रहे हैं। ममले को तूल देने के लिए डॉ0 कलसरिया लडाई के कई मोर्चों पर सक्रिय हैं। गुजरात विधानसभा के चालू सत्र में भी उन्होंने इस मामले को उठाया और सरकार से यह पूछा कि गुजरात की सरकार चार उद्योग समूहों के लिए है या फिर गुजरात के आवाम के लिए है। विधायक डॉ0 कनुभाई कलसरिया के नेतृत्व में राजकोट, महुआ प्रखंड मुख्यालय, अहमदाबाद आदि कई स्थानों पर धरना और प्रदर्षन हो चुका है। महुआ किसान आन्दोलन की गंभीरता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि विगत दिनों जब किसानों ने अहमदाबाद से रैली निकाली तो हजारों प्रदर्षनकारियों को गिरफ्तार कर लिया गया। प्रशासन ने प्रदर्शन की अनुमति नहीं दी। महुआ में पुलिस ने तो हद ही कर दी प्रदर्शन कर रही महिलाओं को बरबरतापूर्ण पीटा गया। हालांकि कलसरिया मामले को एक बार फिर न्यायालय में ले जाने की योजना बना रहे हैं लेकिन इधर आन्दोलन भी तेज होता जा रहा है। कनुभाई के साथ और कई शक्तियों का ध्रुवीकरण हो रहा है। इससे इस आषंका को बल मिल रहा है कि महुआ का आंदोलन आने वाले समय में एक निर्णायक आन्दोलन साबित होगा।

महुआ आन्दोलन के साथ कई शक्तियों के ध्रुविकरण के संकेत मिल रहे हैं। जहां एक ओर गांधीवादी धारा के लोग महुआ किसान आन्दोलन से जुड रहे हैं वही साम्यवादी खेमा ने भी महुआ के किसानों के साथ अपनी हमदर्दी दुहराई है। इस आन्दोलन से राज्य में एक नये राजनीतिक समिकरण के भी संकेत मिल रहे हैं। विगत दिनों भारतीय जनता पार्टी से टुट कर बनी महागुजरात जनता पार्टी के नेताओं ने भी राज्य सरकार पर किसाना विरोधी होने का आरोप लगाया था। फिर एसयुसीआई और माक्र्सवादी वाम धारा से भी डॉ0 कलसरिया को समर्थन मिल रहा है। यही नहीं राज्य में सक्रिय गांधीवादी, सर्वोदयी और लोहिलयावादी कलसरिया के नेतृत्व वाले इस आन्दोलन को अपना समर्थन देने लगे हैं। हालांकि राज्य की प्रधान प्रतिपक्षी पार्टी कांग्रेस उद्योग विरोधी नहीं दिखना चाहती है लेकिन राज्य की जनता का मिजाज भंप विगत दिनों चालू विधानसभा सत्र में कांग्रेस ने भी कलसरिया का समर्थन किया तथा अपनी सीट से उठकर सरकार विरोधी नारे लगाये। कनुभाई के नेतृत्व वाले आन्दोलन का रूख क्या होगा यह तो भविष्य के गर्भ में है लेकिन इस आन्दोलन से राज्य में नऐ राजनीतिक ध्रुविकारण की सुगबुगाहट को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। कलसरिया इस आन्दोलन के लिए अपना पूरा कैरियर दाव पर लगा रखे हैं। इस विषय पर डॉ0 कलसरिया ने कहा कि महुआ के किसानों के लिए एक क्या सौ सौ भारतीय जतना पार्टी कुरवान कर सकता हूं। इस आन्दोलन को धारदार बनाने के लिए डॉ0 कलसरिया ने देशभर के सामाजिक कार्यकर्ताओं से संपर्क करना प्रारंभ कर दिया है। इधर क्षेत्र के किसानों का मनोबल भी उंचा है और आन्दोलन को लक्ष्य तक पहुंचाने के लिए वे किसी भी हद तक जाने को तैयार हैं।

-गौतम चौधरी

पुस्‍तक समीक्षा/‘बुद्धिजीवियों’ की मुश्किल

पूरन चंद जोशी की नयी किताब ‘यादों से रची यात्रा’ किसी उपन्यास की तरह एक सांस में पढ़ गया। सभ्यता के भविष्य को लेकर गहरे सात्विक आवेग से भरी यह एक बेहद विचारोत्तेजक किताब है। मनुष्यता का भविष्य समाजवाद में है, इसमें उन्हें कोई शक नहीं है। पूंजीवाद उन्हें कत्तई काम्य नहीं है। ‘समाजवाद या बर्बरता’ के सत्य को वे पूरे मन से स्वीकारते हैं। वे समाज में समता चाहते हैं और साथ ही मूलभूत मानवतावादी मूल्यों की भी प्राणपण से रक्षा करना चाहते हैं। समाजवाद और मानव–अधिकारों में कोई अन्तर्विरोध नहीं, बनिश्बत एक दूसरे के पूरक है, इसीलिये दोनों के एक साथ निर्वाह को ही स्वाभाविक भी मानते हैं। सभ्यता का रास्ता समाजवाद की ओर जाता है, इसमें उनका पूरा विश्वास है। ‘इतिहास का अंतिम पड़ाव’ होने के दावे के साथ अमेरिका की धरती से जो उदार जनतंत्र के झंडाबरदार निकलें, उनका तो दो कदम चलते ही दम फूलने लगा है। यह उदार जनतंत्र कुछ जरूरी प्रश्नों को उठाने के बावजूद पूंजीवाद के क्षितिज के बाहर सोचने में असमर्थ है और इसीलिये सभ्यता की मूलभूत समस्याओं का समाधान नहीं दे सकता, इसे वे भलीभांति समझते हैं।

त्रासदी यह है कि समाजवाद भी अपने प्रयोग की पहली भूमि पर विफल हो गया। रूस की कम्युनिस्ट पार्टी (बोल्शेविक पार्टी) के नेतृत्व में वैज्ञानिक समाजवाद की विचारधारा के आधार पर रूस में जिस समाजवाद की स्थापना हुई, वह ‘अर्थनीतिशास्त्र’ और मानवतावाद की कई कसौटियों पर खरा न उतर पाने के कारण टिक नहीं पाया, नाना प्रकार की विकृतियों का शिकार हुआ। और, इसमें सबसे बड़ी परेशानी का सबब यह है कि सोवियत संघ में पनपने वाली विकृतियों को समय रहते पहचानने में बुद्धिजीवियों का एक खास, माक्र्सवाद की वैज्ञानिक विचारधारा से लैस कम्युनिस्ट तबका क्यों बुरी तरह चूक गया? माक्र्सवादी बुद्धिजीवियों की इस कमी का कारण क्या था और इससे उबरने का उपाय क्या हो सकता है, श्री जोशी की पुस्तक की बेचैनी का सबसे प्रमुख विषय यही है। अपनी इसी तलाश को वे ‘विकल्प की तलाश’ कहते हैं।

जोशीजी ने इस सिलसिले में खास तौर पर हिंदी के मार्क्‍सवादी लेखकों और बुद्धिजीवियों को, जिन्हें सोवियत जमाने में रूस जाने और वहां रहने तक के अवसर मिले, अनेक प्रश्नों से बींधा है और साथ ही जिन चंद लोगों ने अपनी अंतर्दृष्टि का परिचय देते हुए सोवियत समाज में पनप रही विद्रूपताओं को देखा, अपने परिचय के ऐसे कम्युनिस्ट और गैर–कम्युनिस्ट लोगों के अनुभवों का जीवंत चित्र खींचते हुए उनकी भरपूर सराहना भी की है।

तथापि, यह भी साफ जाहिर है कि समाजवाद पर आस्था के बावजूद श्री जोशी कम्युनिस्ट नहीं है। वे मूलत: एक मानवतावादी है। कम्युनिस्ट वर्ग संघर्ष को इतिहास की चालिका शक्ति मानते हैं। कम्युनिस्टों के लिये वर्ग संघर्ष इतिहास का एक अन्तर्निहित नियम होने के बावजूद सर्वहारा के वर्ग संघर्ष का अर्थ इस सत्य के आगे की चीज है। वह कोई ऐतिहासिक परिघटना अथवा इतिहास का ब्यौरा भर नहीं है। यह ऐसा वर्ग संघर्ष है जिसका लक्ष्य वर्ग संघर्ष का ही अंत और एक ऐसी समाज–व्यवस्था का उदय है जो किसी भी प्रकार के शोषण को नहीं जानती। वे सर्वहारा क्रांति से निर्मित उत्पीड़कों और उत्पीडि़तों से रहित समाज–व्यवस्था में ही मनुष्य की गरिमा देखते है। आर्थिक परनिर्भरता मानव गरिमा के विरुद्ध है और इसीलिये माक्र्स की शब्दावली में ‘आर्थिक ताकतों की अंधशक्ति’ को तोड़ कर वे ऐसी उच्चतर शक्ति को समाज का नियामक बनाना चाहते हैं जो मानव गरिमा के अनुरूप हो। जबकि मानवतावादी जोशीजी के लिये वर्ग संघर्ष नहीं, मनुष्य की मुक्ति और गरिमा का रास्ता सभ्यता द्वारा अर्जित कुछ सार्वदेशिक मानव मूल्यों के संचय का, भारत में गांधी और नेहरू का समन्वयवाद का रास्ता है।

समाजवाद की स्थापना के मामले में कम्युनिस्ट किसी ऐतिहासिक नियतिवाद पर विश्वास नहीं करते। वे यह मानते हैं कि समाजवाद सभ्यता के इतिहास की एक अनिवार्यता होने पर भी अपने आप अवतरित होने वाली सच्चाई नहीं है। इसे लाने के लिये मजदूर वर्ग के नेतृत्व में समाजवादी क्रांति जरूरी है। कम्युनिस्ट पार्टी इसी मजदूर वर्ग के सबसे सचेत हिस्से, इसके हरावल दस्ते का प्रतिनिधित्व करती है, क्रांति के लिये जरूरी सम्यक रणनीति और कार्यनीति को निर्धारित करती है। इसीलिये पार्टी की अधीनता, उसका अनुशासन किसी भी कम्युनिस्ट की मजबूरी नहीं, उसका आत्म–चयन है।

कम्युनिस्ट पार्टी, उसका समूचा ढांचा, उसका अनुशासन और खास तौर पर ‘बुद्धिजीवियों’ द्वारा स्वीकार ली जाने वाली उसकी अधीनता – यही वे बिंदु है, जो जोशी जी की इस पुस्तक की सारी परेशानियों के मूल में है।

पाठकों को अपनी इन्हीं परेशानियों के घेरे में लेते हुए जोशी जी उन्हें अपने निजी अनुभवों और विचारों की एक लंबी ‘चित्ताकर्षक’ यात्रा पर ले चलते हैं। सोवियत संघ की यात्राओं के समृद्ध अनुभवों, सभ्यता के संकट के बरक्स समाजवादी विकल्प के पहले प्रयोग की भूमि के प्रति रवीन्द्रनाथ, बर्टेंड रसेल, जवाहरलाल नेहरू आदि की तरह के कई मनीषियों के आंतरिक आग्रह, विस्मय और संशय की रोशनी में सोवियत संघ के बारे में अपने जमाने में सामने आये ख्रुश्चेव–उद्घाटनों, बे्रजनेव काल के गतिरोध संबंधी तथ्यों का ब्यौरा देते हुए जोशी जी कम्युनिस्ट बुद्धिजीवियों पर अनेक सवालों की बौछार करते हैं कि आखिर किस गरज से उन्होंने समाजवाद के इस पहले प्रयोग के अंदर की कमजोरियों और विकृतियों को देख कर भी नहीं देखा; क्यों समाजवाद की विकृतियों की निर्मम आलोचना करने का अपना ‘बौद्धिक धर्म’ निभाने के बजाय उन विकृतियों के लिये ही लगभग बचकाने प्रकार के तर्कों को जुटाते रहे?

उनका निष्कर्ष यह है कि बुद्धिजीवियों की ऐसी दुर्दशा और किसी वजह से नहीं, कम्युनिस्ट पार्टी की अधीनता को स्वीकारने की वजह से हुई। धूर्जटि प्रसाद मुखर्जी के हवाले से कहते हैं : क्या बुद्धिजीवी के राजनीति में प्रवेश और हस्तक्षेप की यह जरूरी शर्त है कि वह किसी राजनैतिक पार्टी का सदस्य बने और उसका अनुशासन स्वीकार करे। ऐसा भी तो संभव है कि वह सदस्य न बने या उसके अनुशासन में न बंध कर भी उसके बुनियादी सिद्धांतों को ही नहीं उसके कार्यक्रम और नीतियों को स्वीकार करे।

अनुभव बताता है कि पार्टीबद्ध, अनुशासनबद्ध बुद्धिजीवी अंत में एक स्वतंत्र बुद्धिजीवी नहीं पार्टी का प्रवचनकार और व्याख्याता बन कर बुद्धिजीवी के रूप में समाप्त हो जाता है। कम्युनिस्ट पार्टी का संगठन और उसका अनुशसान तो और भी कठोर है, जो बुद्धिजीवी को स्वतंत्र चिंतन की दिशा में नहीं, कम्प्लायेंस और कन्फॉर्मिटी और अंत में ‘सबमिशन’ के रास्ते पर धकेलता है।

आज की तमाम परिस्थितियों में जोशी जी के इस कथन ने कितने ‘स्वतंत्रजनों’ को गदगद किया होगा, इसे आसानी से समझा जा सकता है। कोलकाता से निकलने वाली पत्रिका ‘वागर्थ’ ने तो अपने ताजा अंक के द्वितीय मुखपृष्ठ पर इस उद्धरण को किसी आप्तकथन की तरह प्रकाशित किया है।

इस बारे में जोशी जी से हमारा एक छोटा सा अनुरोध है कि वे सिर्फ यह बतायें कि एक शोषण–विहीन समाज की स्थापना के लिये कम्युनिस्ट पार्टी की जरूरत भी है या नहीं? इसी एक प्रश्न के जवाब से स्वत: बाकी सारे सवालों का जवाब मिल जायेगा। ध्यान देने की बात है कि अपनी इसी पुस्तक में उन्होंने ऐतिहासिक नियतिवाद की तरह के किसी भी विचार से खुद को सचेत रूप में अलग किया है।

जहां तक कम्युनिस्ट पार्टी के सांगठनिक ढांचे, समय–समय पर तय होने वाली उसकी कार्यनीतियों का सवाल है, वे किसी ईश्वरीय विधान से तय नहीं हुए हैं; यह एक लगातार विकासमान प्रक्रिया है; और इसीलिये बहस और विवादों से परे नहीं है।

और जहां तक इतिहास की गति को पकड़ने में बुद्धिजीवियों की असमर्थता का सवाल है, इसका ठेका अकेले कम्युनिस्ट बुद्धिजीवियों ने ही नहीं ले रखा है। बौद्धिक कर्म का पूरा इतिहास ऐसी तमाम कमजोरियों, भूलों और असंख्य मूर्खताओं से ही तो पटा हुआ है! इतिहास और वर्तमान, दोनों में ही किसे ग्रहण करे और किसे त्यागे, इसकी स्वतंत्रता सबके पास है और सभी अपनी–अपनी जरूरतों और प्राथमिकताओं (सही कहे तो अपने स्वार्थों) के अनुरूप यह काम करते रहते हैं। देखने की बात यह है कि किसका स्वार्थ किस बात से जुड़ा है?

इस संदर्भ में ‘पूंजी’ के पहले खंड की भूमिका में माक्र्स की यह बेहद सारगर्भित टिप्पणी देखने लायक है, जिसमें जर्मन अर्थशास्त्रियों की विडंबनां का चित्र खींचते हुए वे कहते हैं: जिस समय ये लोग राजनीतिक अर्थशास्त्र का वस्तुगत अध्ययन कर सकते थे, उस समय जर्मनी में आधुनिक आर्थिक परिस्थितियां वास्तव में मौजूद नहीं थीं। और जब ये परिस्थितियां वहां पैदा हुईं, तो हालत ऐसी थी कि पूंजीवादी क्षितिज की सीमाओं में रहते हुए उनकी वास्तविक ओर निष्पक्ष छानबीन करना असंभव होगया। जिस हद तक राजनीतिक अर्थशास्त्र इस क्षितिज की सीमाओं के भीतर रहता है, अर्थात् जिस हद तक पूंजीवादी व्यवस्था को सामाजिक उत्पादन के विकास की एक अस्थायी ऐतिहासिक मंजिल नहीं, बल्कि उसका एकदम अंतिम रूप समझा जाता है, उस हद तक राजनीतिक अर्थशास्त्र केवल उसी समय तक विज्ञान बना रह सकता है, जब तक कि वर्ग–संघर्ष सुषुप्तावस्था में है या जब तक कि वह केवल इक्की–दुक्की और अलग–अलग परिघटनाओं के रूप में प्रकट होता है।

फ्रांस और इंगलैंड में बुर्जुआ वर्ग ने राजनीतिक सत्ता पर अधिकार कर लिया था। उस समय से ही वर्ग–संघर्ष व्यावहारिक तथा सैद्धांतिक दोनों दृष्टियों से अधिकाधिक बेलाग और डरावना रूप धारण करता गया। इसने वैज्ञानिक बुर्जुआ अर्थशास्त्र की मौत की घंटी बजा दी। उस वक्त से ही सवाल यह नहीं रह गया कि अमुक प्रमेय सही है या नहीं, बल्कि सवाल यह हो गया कि वह पूंजी के लिए हितकर है या हानिकारक, उपयोगी है या अनुपयोगी, राजनीतिक दृष्टि से खतरनाक है या नहीं। निष्पक्ष छानबीन करने वालों की जगह किराये के पहलवानों ने ले ली; सच्ची वैज्ञानिक खोज का स्थान दुर्भावना तथा पक्षमंडन के कुत्सित इरादे ने ग्रहण कर लिया।

…जर्मनी में उत्पादन की पूंजीवादी प्रणाली उस वक्त सामने आयी, जब उसका विरोधी स्वरूप इंगलैंड और फ्रांस में वर्गों के भीषण संघर्ष में अपने को पहले ही प्रकट कर चुका था। इसके अलावा इसी बीच जर्मन सर्वहारा वर्ग ने जर्मन बुर्जु‍आ वर्ग की अपेक्षा कहीं अधिक स्पष्ट वर्ग–चेतना प्राप्त कर ली थी। इस प्रकार, जब आखिर वह घड़ी आयी कि जर्मनी में राजनीतिक अर्थशास्त्र का बुर्जु‍आ विज्ञान संभव प्रतीत हुआ, ठीक उसी समय वह वास्तव में फिर असंभव हो गया।

-अरुण माहेश्वरी

विकासमूलक संचार की तलाश में

विकासमूलक सम्प्रेषण का लक्ष्य है शोषण से मुक्ति दिलाना। व्यक्तिगत और सामुदायिक सशक्तिकरण। इस अर्थ में विकासमूलक सम्प्रेषण सिर्फ संदेश देने का काम नहीं करता बल्कि ‘मुक्तिकामी सम्प्रेषण’ है। आम लोगों में यह भाव पैदा करता है कि वे स्वयं भविष्य निर्माता बनें। इस प्रक्रिया में सभी शामिल हों। न कि सिर्फ लक्ष्यीभूत ऑडिएंस। इस परिप्रेक्ष्य की समझ यह है कि जब लोग शोषण और शक्ति को जान जाते हैं तो अपने आप समाधान खोज लेते हैं।

मुक्तिकामी विकासमूलक सम्प्रेषण की प्रकृति सब जगह एक जैसी नहीं होती। बल्कि इसमें अंतर भी हो सकता है। विकासमूलक सम्प्रेषण में मास कम्युनिकेशन और सूचना तकनीकी रूपों का कनवर्जन या समावेशन होता रहता है। कुछ लोग यह भी मानते हैं कि विकासमूलक सम्प्रेषण रणनीति में धार्मिक और आध्यात्मिक रणनीति मददगार साबित हो सकती है। विकासमूलक सम्प्रेषण में सभी किस्म के सवाल शामिल किए जा सकते हैं।

के.बालिस ने ”डिसपोजेविल पीपुल’ न्यू स्लेवरी इन दि ग्लोबल इकोनॉमी” में विभिन्न अनुसंधान निष्कर्षों को आधार बनाकर लिखा है कि सारी दुनिया में अभी दो करोड़ सत्तर लाख लोग गुलामी में जी रहे हैं। इनमें बच्चे और औरतें शामिल हैं जिन्हें हिंसा या हिंसा की धमकी के आधार पर गुलाम बनाया हुआ है। इनमें ऐसे लोग भी हैं जो वस्तु पाने के दले गुलामी में जी रहे हैं।

बालिस ने अपनी पुस्तक में एक अध्याय में बताया है कि थाईलैण्ड में जबरिया जिस्म की तिजारत हो रही है। पुस्तक में इसका शीर्षक ही रखा है ‘वन डॉटर इक्वल्स वन टेलीविजन। ‘यदि 21वीं शताब्दी में दुनिया का अभी भी यह हाल है तो हमें गंभीरता से भारत के संदर्भ में विकासमूलक सम्प्रेषण के मुक्तिकामी परिप्रेक्ष्य का निर्माण करना होगा। हमें यह तय करना होगा कि भारत के लिए विकासमूलक सम्प्रेषण धार्मिक मुक्ति का नजरिया प्रासंगिक है या मुक्ति का मार्क्सवादी नजरिया प्रासंगिक है।

विकासमूलक सम्प्रेषण के मुक्तिकामी धार्मिक नजरिए की सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि इसमें सामाजिक इकाईयों को धार्मिक इकाईयों के रूप में देखा जाता है। वैषम्य को समाधानरहित मान लिया गया है। विकास की सफलता का श्रेय ईश्वर को दिया जाता है। विकास की सफलता के लिए ईश्वरोपासना को महत्वपूर्ण करार दिया जाता है। भारत में विकास के लिए धर्म का इस तरह का इस्तेमाल कारपोरेट घरानों से लेकर तमाम धार्मिक स्वैच्छिक संगठनों की आम रणनीति का हिस्सा है। वे इसे मनोबल बढ़ानेवाली रणनीति के रूप में व्याख्यायित करते हैं। साथ ही विकास के केन्द्र में मनुष्य की केन्द्रीय भूमिका की बजाए ईश्वर या ईश्वरोपासना को प्रतिष्ठित करते हैं।

नए कारपोरेट जगत के साथ पैदा हुए कारपोरेट धर्म की उत्पत्ति का यही रहस्य है। यह रणनीति अंतत: साम्प्रदायिक सामाजिक विभाजन और तनावों को जन्म देती है। यहां व्यक्ति का महत्व है। वह एक अनैतिहासिक कोटि के रूप में सामने आता है। इस मॉडल पर आधारित संचार संकीर्णताओं और अविवेकपूर्ण मानसिकता में इजाफा करता है। ग्राम्शी ने इटली में प्रेस में इसी तरह की प्रवृत्तियों का जिक्र करते हुए लिखा कि ‘लोकप्रिय प्रेस पाठक की संस्कृति को नियंत्रित करने के लिए भूत-प्रेत की कहानियों,अंधविश्वास आदि पर केन्द्रित कथाएं छापते रहते हैं;परिणामत: ये पत्र मौजूदा राष्ट्र का गैर-प्रान्तीकरण करते हैं। इसे रोकने के लिए विज्ञान की खबरें बेहद जरूरी हैं। ”

विकासमूलक मीडिया का नजरिया मनोरंजन के व्यवसायीकरण अथवा मनोरंजन प्राप्ति के अधिकार को लेकर उतना चिन्तित नहीं है। क्योंकि यह दोनों तत्व- व्यवसाय और मनोरंजन- पहले के समाजों में भी थे। विकासमूलक संचार मॉडल की चिन्ता है उच्च कला का वर्तमान आम जनता से अलगाव और दुराव कैसे दूर हो। लम्बे समय से पूंजीवादी समाज में उच्च कलाओं की मौजूदगी सिर्फ कलाकारों के लिए रह गई है। आज हममीडिया में जो कला रूप देख रहे हैं उनमें जनता के प्रति सम्मान का दिखावटी भाव है।

मजेदार बात यह है कि हमारे समाज में दो तरह के आलोचक हैं पहली कोटि ऐसे आलोचकों की है जो मीडिया की आदर्श भूमिका की बातें करते हैं। समाज में घटित प्रत्येक अच्छी-बुरी चीज के लिए मीडिया को कोसते रहते हैं। असल में ये ऐसे लोग हैं जो सामाजिक अलगाव के शिकार हैं। वे ऐसी भाषा और तर्क का इस्तेमाल करते हैं जो किसी के गले नहीं उतरता। इन्हें आदर्शवादी माध्यम विशेषज्ञ कह सकते हैं। दूसरी ओर ऐसे भी आलोचक हैं जो मीडिया को गरियाते हुए कलाओं के अतीत में जीते हैं। इन्हें अतीतजीवी माध्यम विशेषज्ञ कह सकते हैं। ये दोनों ही नजरिए मीडिया के वस्तुगत अध्ययन,समझ और अंतर्वस्तु के मूल्यांकन से वंचित हैं। इन दोनों ही रूझानों से बचा जाना चाहिए।

आमतौर पर मीडिया के मालिक या उत्पादक के खिलाफ यह आरोप लगाया जाता है कि वे तो वही दिखाते हैं जो जनता मांग करती है। साथ ही यह भी आरोप लगाया जाता है कि मीडिया नई तरह की चीजों के लिए नकली मांग पैदा कर रहा है। अर्थात उपभोग में वृद्धि के लिए मांग पैदा कर रहा है। प्रसिध्द कला सिद्धान्तकार गेओर्ग जीम्मल ने लिखा है ‘ऐसा नहीं है कि चीजें पहले पैदा हों फिर फैशन में आएं; चीजें पैदा ही फैशन चालू करने के लिए की जाती हैं। ‘

अर्नाल्ड हाउजर ने लिखा कि ”जिन तथ्यों पर ध्यान देना है,जिन मुद्दों पर निर्णय लेना है,जन समाधानों को स्वीकार करना है -ये सब जनता के सामने इस रूप में परोसे जाते हैं कि वह इन्हें पूरी तरह निगल ले। सामान्य तौर पर उसके समक्ष चुनाव का कोई अवसर नहीं है और वह इससे संतुष्ट भी है। ”

”भीड़ संस्कृति के उत्पाद केवल यही नहीं करते कि लोगों की रूचि बरबाद कर दें,उन्हें स्वयं के बारे में सोचने न दें,समरूपता की शिक्षा दें;वे बहुसंख्यक लोगों की आंखों के सामने पहलीबार जीवन के उन क्षेत्रों को भी खोल देते हैं जिनके सम्पर्क में वे पहले कभी नहीं आए थे। अकसर उनके पूर्वाग्रहों का अनुमोदन होता है। फिर भी आलोचना और विरोध का एक रास्ता तो खुलता ही है। जब कभी कला के उपभोक्ताओं का घेरा विस्तृत हुआ है,उसका तात्कालिक परिणाम कला उत्पादन के स्तर में गिरावट ही निकला है। ”

आम तौर पर मीडिया के बारे में जिस कॉमनसेंस का हमारा हिन्दी बुद्धिजीवीवर्ग शिकार है और मीडिया के मूल्यांकन के नाम पर गैर-मीडिया सैध्दान्तिकी के रास्ते पर चल रहा है वह विकास का सही लक्षण नहीं कहा जा सकता। मीडिया मूल्यांकन के नाम पर साहित्यिक पत्रिकाओं में जिस तरह का दृष्टिकोण परोसा जा रहा है वह मीडिया समीक्षा का घटिया नमूना है। ये लोग मीडिया को षडयंत्रकारी और शैतान के रूप में चित्रित कर रहे हैं। ऐसी आलोचना का मीडिया की सही समझ से कोई लेना-देना नहीं है।

-जगदीश्‍वर चतुर्वेदी