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वैलन्टाइन डे के लिये चाहिये एक बड़ा दिल

vadayमैं एक सम्भ्रान्त परिवार से सम्बन्ध रखता हूं। हम दकियानूसी नहीं है। उदारवादिता और आधुनिकता हमारी पहचान है।

 

हम वैलेन्टाइन डे को बुरा नहीं मानते । कुछ मूढ़ रूढ़िवादी व्यक्तियों व संगठनों की तरह। वस्तुत: मैं तो समझता हूं कि हम एक हज़ार वर्ष से अधिक समय तक ग़ुलाम रहे उसका एक मात्र कारण था अपनी परम्पराओं तथा थोथी नैतिकता के साथ बन्धे रहना।

 

हर वर्ष की तरह इस बार भी हमने वैलटाइन डे बड़ी धूमधाम से मनाने का निश्चय किया। सारा परिवार रोमान्चित था। परिवार के सारे सदस्य अपने-अपने तौर पर अपनी तैयारी में लगे थे। सभी इस आयोजन को आनन्दमय बनाने के लिये सब कुछ कर रहे थे पर एक-दूसरे को कुछ नहीं बता रहे थे। बताते भी क्यों? प्यार का, दिल का मामला जो ठहरा। यदि इसका सब कुछ सब को पता लग जाये तो फिर मज़ा ही क्या है?

 

उस दिन मैं घर में सब से पहले उठा। तैयार होकर सब से पहले घर से निकल गया। मेरी एक पड़ोसन बड़ी सुन्दर थी। वह मुझे बहुत अच्छी लगती थी। सोचा अपना प्यार जताने का वैलन्टाइन डे से बढ़िया मौका नहीं है। सो हाथ में प्यार का चिर परिचित चिन्ह गुलाब लेकर मैंने उसका दरवाज़ा खड़का दिया।धत्त तेरे की। दरवाज़ा खुला तो दर्शन हुये उसके पतिदेव के। मेरे हाथ में गुलाब देखकर खुश होने की बजाये वह तो लगता है जल-भुन सा गया। बड़े बड़े दु:खी व कड़े भाव में बोला, ”क्या है?”

हैप्पी वैलन्टाइन डे”, मैंने बुझे मन से कहा।

 

कुछ बड़ा धूर्त दकियानूस लगा। ज़ोर से दरवाज़ा बन्द करते हुये गुर्राया, ”थैंक यू। लगा जैसे दिल में लगी आग की तपस बाहर निकाल रहा हो।

 

पर मुझे तो विश करनी थी उसकी सुन्दर पत्नि को, उसे नहीं। इसलिये फिर घंटी बजा दी। सोचा इस बार शायद वह स्वयं ही दर्शन देंगी। पर कहां? वही महाशय फिर आ धमके। और भी कठोर भाव से बोले, ”अब क्या है?”

 

उसके इस अभद्र भाव के बावजूद मैंने पूरी मुस्कान देते हुये पूछा टरीनाजी हैं?”

 

उसका भाव कुछ और भी सख्त हो गया। बोला, ”क्यों?”

 

वस्तुत:”, मैंने बड़े शालीन भाव से कहा, ”मुझे उनको हैपी वैलन्टाइन डे  कहना है।

 

उसका पारा कुछ और भी चढ़ गया लगा। गुस्से में बोला, ”अपनी बीवी को बोलो हैप्पी वलन्टाइन डे। पर मैंने गुस्सा नहीं किया। मैं सहल भाव से बोला, ”भइया, तुम लगता है इस दिन का महत्व नहीं समझते यह दिन अपनी पत्नी को विश करने का नहीं आप दूसरे को जिसे आप प्यार करते हैं। बीवी तो कर्वाचौथ का व्रत रखती है। उसे तो तब आशीर्वाद देते है, विश थोड़े करते है

 

वह और भी उत्तोजित हो उठा बोला, ”तुम मेरे पड़ोसी हो और तुम्हारी उम्र का मैं लिहाज़ कर रहा हूं वरन् मैं पता नहीं तुम से क्या व्यवहार कर बैठता। उसने मेरे मुंह पर दरवाज़ा इतने ज़ोर से दे मारा कि मुझे लगा कि वह टूट ही गया हो।

 

मैंने सोचा यह तो मुहूर्त ही खराब हो गया। वैलन्टाइन डे पर किस जाहिल से पाला पड़ गया। खैर मैंना अपना मूड खराब नहीं किया । यहां नहीं तो और घर सही। मैं तो दिन मनाने के लिये निकला हूं। चलो कहीं और सही।

 

अभी सोचता सड़क पर जा ही रहा था कि अब कहां जाऊं कि गुझे एक महिला अकेली आती दिख गई। वैलन्टाइन डे पर महिला अकेली और वह भी सुन्दर? मैंने देर नहीं की। उसके पास जाकर मुस्कराते हुये जड़ दिया, ”हैप्पी वैलन्टाइन डे। उसने कुछ नहीं कहा और थैंक यू कह कर आगे बढ़ गई।

 

मैंने अपना प्यारा सा गुलाब आगे बढ़ाते हुये कहा, ”आप आज मेरे साथ वैलेन्टाईन डे मनायेंगी?”

 

तुमने अपनी शक्ल देखी है?” महिला ने मेरी भावनाओं की तरह मेरे मुलायम गुलाब को अपने हाथ से परे कर दिया। गुलाब नीचे गिर गया। वह तेज़ी से आगे बढ़ गई।

 

मेरे पास शीशा नहीं था कि मैं दुबारा अपना मुंह देख लेता। मैंने कहा, ”अभी थोड़ी देर पहले घर से देख कर निकला था। बिल्कुल ठीक था

 

घर जाकर दुबारा देख लो”, यह कहकर वह तेज़ी से आगे बढ़ गई।

 

मेरा मनोबल कुछ गड़बड़ा गया। पहले तो सोचा घर जाकर अपना चेहरा एक बार फिर देख ही लूं। पर तभी एक नाई की दुकान दिख गई। उसके पास शीशे में मुस्कराते हुये अपना चेहरा देखा। मुझे बहुत आकर्षक लगा। मुझे मूर्ख बना गई”, मन ही मन सोचा और अपने लक्ष्य की ओर आगे प्रस्थान कर गया।

 

तब तक सायं भी ढलने लगी थी। एक पार्क में पहुंचा। बहुत से जोड़े एक दूसरे की बगल में हाथ डाल कर झूम रहे थे। हंस-खेल रहे थे। कई किलकारियां मार रहे थे। मुझे अपना अकेलापन अखर रहा था।

 

इधर-उधर घूमते मैंने देखा एक महिला एक वृक्ष के नीचे अकेली बैठी थी। मुझे लगा जैसे वह किसी का इन्तज़ार कर रही हो। अब साथी की तलाश तो मुझे भी थी। पास जाकर मैंने उसे वैलेन्टाईन डे की मुबारकबाद दी। वह मुस्कराई। मैंने सोचा काम बन गया। मुझे अपनी मन्ज़िल मिल गई।

 

मैंने पूछा, ”किसी का इन्तज़ार कर रही हो?”

 

वह मुस्कराई और बोली, ”आप बैठ सकते हैं।और उसने एक ओर खिसक कर मेरे लिये जगह बना दी। भूखे का क्या चाहिये? दो रोटी। और वह मुझे मिल गई।

 

मैं उसके साथ बैठ गया। पहले तो मैंने उसे वह गुलाब थमा दिया जो अब तक तिरस्कृत मेरे हाथ में ही मुर्झाने लगा था। उसने सहर्ष स्वीकार कर थैंक यू कहा। मैंने सोचा मेरी मुराद तो पूरी हो गई। मैंने अपनी जेब से एक चाकलेट निकाली और उसे बड़े प्यार से भेंट कर दी। उसने ली और उसके दो हिस्से कर एक मुझे दे दिया और एक अपने मुंह में डाल लिया। बहुत स्वीट है तुम्हारी तरह – यह कहकर उसने अपनी आंखें मटका दीं। मुझ पर वैलेन्टाईन डे का सरूर चढ़ता लग रहा था।

 

मैंने कहा, ”कुछ चाट-पापड़ी का स्वाद लें?”

 

वह एक दम उठकर तैयार हो गई। बड़े चटकारे लेकर हमने चाट-पापड़ी का मज़ा उठाया। थोड़ा सा और घूमे। अनेक जोड़े एक-दूसरे की बगलों में हाथ डाल कर झूम रहे थे। मैंने सोचा मैं क्यों पीछे रहूं और अलग से दिखूं। मैंने भी उसकी बगल में हाथ डाल दिया। उसने मेरी ओर एक मोहक नज़र फैलाई और मेरी बगल में हाथ डाल दिया। उस दिन के खुमार में हम थोड़ा इधर-उधर घूमे।

 

 

अब भोजन का समय भी होने वाला था। भूख भी लग रही थी। मैंने पूछा, ”डिन्नर कर लें?”

 

क्यों नहीं?” उसने फिर एक मोहक मुस्कान फैंकी। आपके साथ सौभाग्य रोज़ तो मिलेगा नहीं।

 

मैं उसे एक बढ़िया रैस्तरां की ओर ले गया। रैस्तरां पहली मन्ज़िल पर था। ज्यों ही उसे पहली सीढ़ी पर पांव रखने केलिये आशिकाना अन्दाज़ में मैंने हाथ फैला कर इशारा किया, वह बोली, ”कोठे पर ले जाने से पहले कुछ पैसे तो मेरे पर्स में डाल दो।

 

पहली मंज़िल पर जाने को कोठे पर जाने की संज्ञा देने की ठिठोली मेरे मन को भा गई। मैंने तपाक से एक एक हज़ार का नोट उसके पर्स में थमा दिया। थैंक यू कह कर उसने सीढ़ियां चढ़नी शुरू कर दी।

 

खाना बड़ा बढ़िया था। उसका बड़ा आनन्द उठाया। बाद में इस ठण्ड में भी हमने बड़ी स्वादिष्ट आइसक्रीम ही खाई। पर उससे भी वैलन्टाइन डे की गर्मजोशी में किसी प्रकार की ठण्डक न आई।

 

अब मेरा डे तो सफल हो गया था। मैंने सोचा पहली मुलाकात तो इतनी नज़दीकी तक ही सीमित रखी जाये। पहली ही मुलाकात में ज्यादा बढ़ जाना ठीक नहीं। आगे के लिये स्कोप रख लेते हैं। पहल मैंने ही की, ”अब चलें। आपके साथ बड़ा आनन्द आया। मेरा तो वैलन्टाई डे सफल हो गया।

 

मैंने बिल दिया। बिल मोटा था। उस पर प्रभाव जमाने के लिये टिप भी मैंने दिल खोल कर दिया।

 

हम नीचे उतरे। उसकी बगल में हाथ डालकर मैंने कहा, ”थैंक यू। आपने तो मेरी शाम रंगीन कर दी। फिर मिलते रहना।मैंने उसे अपना विज़िटिंग कार्ड थमा दिया। कहो तो कहीं छोड़ दूं?”

 

नो, थैंक्सकह कर प्यार भरे रोब से बोली, ”बस दो हज़ार रूपये और दे दो

 

अवाक्, मैंने पूछा, ”किस लिये?”

 

मैं जब किसी को शाम को कम्पनी देती हूं तो यही चार्ज करती हूं

 

पर आज तो मैडम वैलन्टाइन डे है?”

 

तभी तो कम रेट लगा रही हूं, वरन् तो ज्यादा मांगती

 

मैं थोड़ा झुंझला गया। मैंने कहा, ”मैडम, मैं पैसे देकर वैलन्टाइन डे नही मनाता।

 

पर मैं मनाती हूं।उसने थोड़ा तलखी से बोला। आप जल्दी से रूपसे निकाल दो वरन्ण्ण्ण्ण्

 

मैं अकलमन्द निकला। इशारा समझ गया। मैं तो मौज-मस्ती मनाने आया था, तमाशा बनाने या बनने नहीं। आखिर मैं इज्ज़तदार आदमाी था। मुझे याद आया कल ही तो हमें अपनी बेटी के रिश्ते की बात करनी है। मैंने चुपचाप बुझे मन से एक-एक हज़ार के दो नोट उसके हाथ थमा दिये। एक प्यारी सी मुस्कान देकर उसने एक बार फिर थैंक यू कहा और चलती बनी।

 

मन बुझ सा गया। अब और घूमने का मन भी न रहा। रात के ग्यारह भी बज चुके थे।

 

घर पुहुचा तो ताला बन्द। घर में कोई नहीं। सामने मैदान में चहलकदमी करने लगा। थोड़ी देर बाद मेरे घर के सामने एक कार रूकी। मेरी धर्मपत्नी बाहर निकली। कार चलाने वाले का बड़े प्यार से बाई-बाई की और बिना दायें-बाये देखते घर का ताला खोलने लगी। मैं भी पीछे से आ गया। मैंने पूछा, ”रिंकी और विंकू नहीं आये?”

 

वह भी वैलन्टाइन डे मना रहे होंगे। दोनों इकट्ठे हैं न?” मैंने पूछा।

 

तुम भी मूर्ख के मूर्ख ही रहे”, वह भड़क कर बोली। कभी बहन और भाई भी साथ वैलन्टाई डे मनाते हैं? रिंकी अलग होगी, विंकू अलग

 

सॉरी, मैं तो भूल ही गया। पर तुम्हें याद है कि प्रात: रिंकी को उसके ससुराल वाले और लड़का आ रहा है? मैं तो इसलिये चिन्तित हूं।

 

तो क्या हुआ?” वह मुझे आश्वस्त करते हुये बोली। लड़का भी तो आज कहीं वैलन्टाई डे मना रहा होगा।

 

मेरी चिन्ता दूर हो गई। हमने भी तो अपनी प्यारी बेटी केलिये एक सभ्य, सम्भ्रान्त और उदार मन परिवार ही तो चुना है।

 

 

अम्बा चरण वशिष्ठ

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

जारी है हिन्दी की सहजता को नष्ट करने की साजिश – चिन्मय मिश्र

hindi_divasनई दिल्ली, 13 सितम्बर (आईएएनएस)। मुक्तिबोध के एक लेख का शीर्षक है अंग्रेजी जूते में हिंदी को फिट करने वाले ये भाषाई रहनुमा।यह लेख उस प्रवृत्ति पर चोट है जो कि हिंदी को एक दोयम दर्जे की नई भाषा मानती है और हिंदी की शब्दावली विकसित करने के लिए अंग्रेजी को आधार बनाना चाहती है।


भाषा विज्ञानियों का एक बड़ा वैश्विक वर्ग जिसमें नोम चॉमस्की भी शामिल हैं हिंदी की प्रशंसा में कहते हैं कि यह इस भाषा का कमाल है कि इसमें उद्गम के मात्र एक सौ वर्ष के भीतर कविता रची जाने लगी, परंतु वास्तविकता इसके ठीक विपरीत है। इस बात के प्रमाण मौजूद हैं कि पिछले एक हजार वर्षो से अधिक से भारत में हिंदी का व्यापक उपयोग होता रहा है। अपभ्रंश से प्रारंभ हुआ यह रचना संसार आज परिपक्वता के चरम पर है।अंग्रेजों के भारत आगमन के पूर्व ही हिंदी की उपयोगिता सिद्ध हो चुकी थी। तत्कालीन भारत विश्व व्यापार का सबसे महत्वपूर्ण भागीदार था अतएव यह आवश्यक था कि इस देश के साथ व्यवहार करने के लिए यहां की भाषा का ज्ञान हो। गौरतलब है कि अंग्रेजी को विश्वभाषा के रूप में मान्यता भारत पर इंग्लैंड द्वारा कब्जे के बाद ही मिल पाई थी।दिनेशचंद्र सेन ने हिस्ट्री ऑफ बेंगाली लेंगवेज एंड लिटरेचर (बंगाली भाषा और साहित्य का इतिहास)नामक पुस्तक में लिखा है अंग्रेजी राज के पहले बांग्ला के कवि हिंदुस्तानी सीखते थे।इसी क्रम में वे आगे लिखते हैं दिल्ली के मुसलमान शहंशाह के एकछत्र शासन के नीचे हिंदी सारे भारत की सामान्य भाषा (लिंगुआ फ्रांका) हो गई थी।हिंदी की व्यापकता के लिए एक और उदाहरण का सहारा लेते हैं। इलाहाबाद स्थित संत पौलुस प्रकाशन ने 1976 मेंहिंदी के तीन आरम्भिक व्याकरणनामक ग्रंथ का प्रकाशन किया। ये तीनों व्याकरण हिंदी भाषा के हैं और सत्रहवीं और अठारहवीं शताब्दी में विदेशियों द्वारा लिखे गए थे। इन व्याकरणों से खड़ी बोली हिंदी के प्रसार और उसके रूपों के बारे में बहुत दिलचस्प तथ्य हमारे सामने आते हैं। इनमें पहला व्याकरण जौन जोशुआ केटलर ने डच में 17वीं के उत्तरार्ध का है।केटलर पादरी थे और उनका संबंध डच (हालैंड) ईस्ट इंडिया कंपनी से था। इसमें भाषा की जिस अवस्था का वर्णन है वह16 वीं सदी के उत्तरार्ध की है। दूसरा व्याकरण बेंजामिन शुल्ज का है जो 1745 ई. में प्रकाशित हुआ था। इसका विशेष संबंध हैदराबाद से था, इसलिए उनकी पुस्तक को दक्खिनी हिंदी का व्याकरण भी कह सकते हैं। तीसरा व्याकरण कासियानो बेलागात्ती का है और इसका संबंध बिहार से विशेष था।यहां पर एक अन्य महत्वपूर्ण तथ्य पर गौर करना आवश्यक है कि तीनों व्यक्ति पादरी थे। वे यूरोप के विभिन्न देशों से यहां आए थे और ईसाई धर्म का प्रचार ही उनका मुख्य उद्देश्य भी था। इसमें से दो व्याकरण लेटिन में लिखे गए और तीसरे का लेटिन में अनुवाद हुआ। तब तक अंग्रेजी धर्मप्रचार की भाषा नहीं थी न ही वह अंतर्राष्ट्रीय भाषा के रूप में मान्यता प्राप्त कर पाई थी।ध्यान देने योग्य बात यह है कि ये तीनों पादरी नागरी लिपि का भी परिचय देते हैं और बेलागात्ती ने अपनी पुस्तक केवल इस लिपि का परिचय देने को ही लिखी है। अपनी बात को और विस्तार देते हुए डा. रामविलास शर्मा लिखते है पादरी चाहे हैदराबाद में काम करे, चाहे पटना में और चाहे आगरा में, उसे नागरी लिपि का ज्ञान अवश्य होना चाहिए।यह बात 17 वीं व 18 वीं शताब्दी की है।बेलागात्ती हिंदुस्तानी भाषा और नागरी लिपि के व्यवहार क्षेत्र के बारे में लिखते है, ‘हिंदुस्तानी भाषा जो नागरी लिपियों में लिखी जाती है पटना के आस-पास ही नहीं बोली जाती है अपितु विदेशी यात्रियों द्वारा भी जो या तो व्यापार या तीर्थाटन के लिए भारत आते हैं प्रयुक्त होती है।‘ 1745 ई.में हिंदी का दूसरा व्याकरण रचने वाले शुल्ज ने लिखा है ’18 वीं सदी में फारसी भाषा और फारसी लिपि का प्रचार पहले की अपेक्षा बढ़ गया था।पर इससे पहले क्या स्थिति थी? इस पर शुल्ज का मत है समय की प्रगति से यह प्रथा इतनी प्रबल हो गई कि पुरानी देवनागरी लिपि को यहां के मुसलमान भूल गए।इसका अर्थ यह हुआ कि इससे पहले हिंदी प्रदेश के मुसलमान नागरी लिपि का व्यवहार करते थे। जायसी ने अखरावट में जो वर्ण क्रम दिया है, उससे भी इस तथ्य की पुष्टि होती है। मुगल साम्राज्य के विघटन काल में यह स्थिति बदल गई। हम सभी इस बात को समझें कि हिंदी एक समय विश्व की सबसे लोकप्रिय भाषाओं में रही है और उसका प्रमाण है भारत का विशाल व्यापारिक कारोबार। जैसे-जैसे मुगल शासन शक्ति संपन्न होते गए वैसे-वैसे भारत का व्यापार भी बढ़ा और हिंदी की व्यापकता में भी वृद्धि हुई थी।क्या इसका यह अर्थ निकाला जाए कि किसी देश की समृद्धि ही उसकी भाषा को सर्वज्ञता प्रदान करती है। भारत व इंग्लैंड के संदर्भ में तो यह बात कुछ हद तक ठीक उतरती है। हिंदी जहां व्यापार की भाषा रही, वहीं उसका दूसरा स्वरूप आजादी के संघर्ष में भी हमारे सामने आता है। महात्मा गांधी ने जिस तरह हिंदी को देश की भाषा बनाने का उपक्रम किया उसने एक बार पुन: हिंदी को वैश्विक परिदृश्य पर ला दिया था । गांधी की भारत वापसी के पश्चात का काल हिंदी की पुनर्स्थापना का काल भी रहा है। वैसे इसका श्रेय भारतेंदु हरिश्चंद्र को दिया जाना चाहिए, जिन्होंने लिखा था –निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति कौ मूल।बिनु निजभाषा ज्ञान के, मिटै न हिय कौ शूल।इस पर पं.हजारी प्रसाद द्विवेदी की बहुत ही सागरर्भित टिप्पणी है। वे लिखते हैं, ‘उन्होंने निज भाषा शब्द का व्यवहार किया है, ‘मिली-जुली‘, ‘आम फहम‘, ‘राष्ट्रभाषाआदि शब्दों को नहीं। प्रत्येक जाति की अपनी भाषा है और वह निज भाषा की उन्नति के साथ उन्नत होती है।इसी परम्परा के विस्तार को वे हिंदी का जन आंदोलन की संज्ञा भी देते हैं।आजादी के संघर्ष के दौरान ही पढ़े-खिले समुदाय का एक वर्ग अंग्रेजी कोआभिजात्यभाषा के रूप में स्वीकार कर चुका था। भारत की आजादी के पश्चात यह आभिजात्य वर्ग एक तरह के पारम्परिक कुलीन वर्गमें परिवर्तित हो गया और उसने अपनी कुलीनता को ही इस देश की नियति निर्धारण का पैमाना बना दिया। इस दौरान षड़यंत्र के तहत हिंदी-उर्दू और हिंदी बनाम भारत की अन्य भाषाओं का मुद्दा अनावश्यक रूप से उछाला गया। ध्यान देने योग्य है कि मुगलकाल तक, जब हिंदी पूरे देश में व्यवहार में आ रही थी तब भी बंगला, तमिल, उड़िया तेलुगु जैसी भाषाएं अपने अंचलों में पूरे परिष्कार से न केवल स्वयं को संवार रही थीं बल्कि अपनी संस्कृति का निर्माण भी कर रही थीं।इस संदर्भ में हिंदी पर यह आरोप भी लगता है कि हिंदी की सबसे बड़ी विफलता यह है कि वह अपनी संस्कृति विकसित नहीं कर पाई, परंतु ध्यानपूर्वक अध्ययन से ऐसा भी भान होता है कि संभवत: हिंदी को कभी भी अपनी पृथक संस्कृति निर्मित करने की आवश्यकता ही महसूस नहीं हुई होगी। अवधी, भोजपुरी, ब्रज जैसी संस्कृतियों ने सम्मिलित रूप से व्यापक स्तर पर हिंदी संस्कृति के निर्माण में कहीं न कहीं योगदान दिया है।कहने का तात्पर्य यह है कि हिंदी अगर अपनी पृथक संस्कृति के निर्माण के प्रति सचेत होती तो संभवत: भारत में इतनी विविधता भी नहीं होती और वह भी एकरसता वाला देश बन कर रह जाता। भारत के पूरे व्यापार का माध्यम होने के बावजूद एकाधिकारी प्रवृत्ति से बचे रहने से बढ़ा कार्य कोई समाज नहीं कर सकता था। हिंदी समाज ने इस असंभव को संभव कर दिखाया है।आज जब हिंदी पुन: बाजार की भाषा बन गई है तब विदेशी व्यापारिक हथकंडों से लैस एक वर्ग इसमें अनावश्यक रूप से हस्तक्षेप कर इसकी सहजता को नष्ट कर देना चाहता है। दु:ख इस बात का है कि हिंदी को समझने व व्यवहार में लाने वाला प्रबुद्धतम वर्ग भी इसमें षड़यंत्रपूर्वक सम्मिलित हो गया है। आज की सबसे बड़ी आवश्यकता है कि इसके लोकव्यापी स्वरूप को बचाए रखा जाए। पिछले एक हजार साल हिंदी विपरीत परिस्थितियों के बावजूद स्वयं को भारतीय संस्कृति का पर्याय बनाए हुए है और यहां पर निवास करने वाला समाज इसका यह स्वरूप हमेशा बनाए भी रखेगा।

बापू से प्रभावित थे मार्टिन लूथर

gandhi_jiबापू अब अमेरिकियों को खूब भा रहा है। अमेरिकी हाउस ऑफ रिप्रजेंटेटिव्स ने एक ऐसा प्रस्ताव पारित किया है, जिसमें इस बात का जिक्र है कि आम नागरिकों के अधिकार की लड़ाई लड़ने वाले मार्टिन लूथर किंग जूनियर पर महात्मा गांधी का प्रभाव था। प्रस्ताव में कहा गया है कि गांधी की विचारधारा से प्रेरित होकर ही मार्टिन लूथर ने अहिंसा को अपना हथियार बनाया था।

मार्टिन लूथर वर्ष 1959 में भारत की यात्रा की थी। उनकी इस यात्रा के स्वर्ण जयंती वर्ष के मौके पर बुधवार को इस प्रस्ताव को पारित किया गया है। इस प्रस्ताव में साफ-साफ कहा गया है कि लूथर ने गांधीवादी विचारधारा का गहरा अध्ययन किया था।

प्राप्त खबर के मुताबिक प्रस्ताव में कहा गया कि लूथर पर उनकी भारत यात्रा का गहरा असर रहा। इस यात्रा से उन्हें सामाजिक बदलाव के लिए बतौर हथियार अहिंसा का इस्तेमाल करने की प्रेरणा मिली। इससे उनके नागरिक अधिकारवादी आंदोलन को खास दिशा मिली।

उल्लेखनीय है कि अमेरिकी विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन एक सांस्कृतिक प्रतिनिधिमंडल को भारत रवाना करने वाली हैं। इस सांस्कृतिक दल को लूथर की भारत यात्रा की स्वर्ण जयंती के उपलक्ष्य में रवाना किया जा रहा है। यह प्रतिनिधिमंडल सबसे पहले दिल्ली पहुंचेगा और फिर गांधी की विरासत से जुड़े कुछ स्थलों का दौरा करेगा।*

भोपाल की फिजा में वेलेंटाइन डे का तड़का

ca6bepwlभोपाल, 14 फरवरी (आईएएनएस) भोपाल में वेलेंटाइन डे की गरमाहट आने लगी है। एक तरफ कुछ लोग 14 फरवरी को विशेष आयोजनों की तैयारी में जुटे हैं, जबकि दूसरी तरफ बजरंग दल जैसे कुछ संगठन इसके खिलाफ अभियान चलाने को तैयार हैं। पुलिस भी इन स्थितियों से निपटने को तैयार दिख रही है।

वेलेंटाइन डे को लेकर पिछले कुछ वर्षों से इसके समर्थन और विरोध में आवाजें उठती रही हैं। बजरंग दल ने इस दिन को भारतीय संस्कृति के खिलाफ करार देते हुए इसका विरोध किया है। इस दल ने घोषणा की है कि वह हर पार्क और चौराहे पर कड़ी नजर रखेगा। साथ ही उसे प्यार के कसीदे कड़ते जो भी जोड़े नजर आएंगे उनकी वह शादी कराएगा।

दूसरी ओर भारतीय राष्ट्रीय छात्र संगठन ने भोपाल में सदबुद्घि यज्ञ किया। संगठन के कार्यकर्ताओं ने यज्ञ में आहुतियां देकर ईश्वर से प्रार्थना की कि वह वेलेंटाइन डे का विरोध करने वालों को सदबुद्घि दें, जिससे वे समाज में अशांति फैलाने की मंशा त्याग दें।

भोपाल पुलिस के अधिकारी ने बताया कि वेलेन्टाइन डे पर किसी भी तरह का हुड़दंग बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। गड़बड़ी फैलाने वालों से पुलिस सख्ती से निपटेगी।

बाल अधिकार आयोग ने माना बच्चों की हालत ठीक नहीं

hungry-child-in-india-small1 राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग की अध्यक्ष शान्ता सिन्हा ने कहा है कि वर्तमान व्यवस्था बच्चों के जीवन के अधिकार को संरक्षित कर पाने में नाकाम रही है। उन्होंने कहा कि जरूरत इस बात की है कि जो भी बच्चा जन्म ले उसे हर हाल में जीवित रखा जाए।

मध्य प्रदेश के सतना जिले के मझगवां विकास खंड में जन सुनवाई में हिस्सा लेने आईं सिन्हा का मानना है कि बच्चों की मौत चाहे कुपोषण से हुई हो अथवा किसी अन्य वजह से। लेकिन, ऐसी मौतें तो हमारी व्यवस्था पर सवाल खड़े करने वाली हैं। उन्हें यह मानने में जरा भी हिचक नहीं है कि कुपोषण की स्थिति गंभीर है और इससे बच्चों की असमय मौत हो रही है।

 उन्होंने यहां जन सुनवाई के दौरान अपने से मिलने आए विभिन्न जन संगठनों से चर्चा करते हुए कहा कि हमें बच्चों की मौत के सच को स्वीकारना होगा। वर्तमान स्थिति में सरकारी अमले को एक दूसरे पर दोषारोपण करने से अलग सच को स्वीकार कर इस समस्या से निपटना चाहिए।

आयोग की कुपोषण विशेषज्ञ डा. वंदना प्रसाद ने किरहाई पुखरी गांव का दौरा करने के बाद बताया कि कुपोषण को समझने के लिए किसी विशेषज्ञ की जरूरत नहीं है। बच्चों की शारीरिक हालत देखकर ही हकीकत का अंदाजा लग जाता है।

एसएमएस से भावनाओं का इजहार करने में आगे हैं महिलाएं

t-mobile-mda महिलाएं बेशक प्रत्यक्ष रूप से अपनी भावना का इजहार करने में पुरुषों की अपेक्षा अधिक सकुचाती हैं। लेकिन, संचार के नए माध्यमों के जरिए अपनी भावनाओं को व्यक्त करने में वे पुरुषों से आगे हैं। यहां उनका वैचारिक खुलापन भी अधिक झलकता है।

तकनीकी ने महिलाओं की सोच में खुलेपन और उदारता का पुट दिया है। अमेरिका के एक विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने पाया कि जब महिलाओं को किसी मेलजोल कार्यक्रम के दौरान मोबाइल के जरिए भावना का इजहार करने की छूट दी गई तो वे इस मामले में पुरुषों से आगे निकल गईं। महिलाएं दिल की गहराइयों में छिपी भावना, चाहे वह रोमांस हो या कोई और  इसके लिए भाषाई अनुशासन को तोड़ने से वे परहेज नहीं करती।

 शोधकर्ताओं ने पाया कि महिलाओं ने एसएमएस के जरिए अपनी भावना का खुले मन से इजहार किया, जबकि पुरुषों के एसएमएस में झिझक का पुट दिखा। इस शोधकार्य के दौरान करीब 1164 एमएमएस का अध्ययन किया गया।

शोधकर्ताओं ने बताया कि प्रत्यक्ष इजहार के मामले में महिलाएं शिष्टाचार का भरपूर ख्याल रखती हैं, लेकिन मोबाइल के जरिए भेजे गए अपने संदेश में वे रोमांस आदि मसलों पर अधिक मुखर हो जाती हैं। वे संक्षिप्त शब्दों का इस्तेमाल कर इजहार को नाटकीय और असरदार बनाने में ज्यादा दिलचस्पी लेती हैं।

बांग्लादेश में मिला रवींद्रनाथ का लिखा खत

ravindra-nath-tagoreबीसवीं सदी के प्रारंभ में नोबल पुरस्कार से सम्मानित विश्व विख्यात बांग्ला भाषी कवि रवींद्रनाथ ठाकुर का लिखा एक खत बांग्लादेश के बज्र देहाद में मिला है। ठाकुर के निधन के ठीक 66 वर्षों बाद मिला यह पत्र उनसे जुड़ी एक अमूल्य निशानी है।

पूरे छह पन्नों का यह पत्र बांग्लादेश के नवगांव जिले के पातीसार गांव से प्राप्त हुआ है। सिराजगंज जिले में रवींद्रनाथ कच्चरीबारी संग्रहालय की कर्ताधर्ता ने इस बाबत जानकारी दी है। जानकारी के मुताबिक पत्र में पश्चिम बंगाल के बोलापुर के किसी व्यक्ति का पता दर्ज है। पत्र में खास बात यह है कि इसमें ठाकुर की जन्मतिथि छह मई, 1861 बताई गई है। एक स्थानीय समाचार पत्र डेली स्टारके मुताबिक पत्र पर भद्र 28, बंगाली वर्ष 1317 की तारीख दर्ज है।बांग्लादेश पुरातत्व विभाग का मानना है कि ठाकुर द्वारा लिखे गए किसी पत्र की पांडुलिपि देश के किसी भी संग्रहालय में नहीं है।

अंतर्राष्ट्रीय मंच पर भारतीय संगीतकारों का डंका बजा

a_r_rahmanभारतीय संगीतकारों का इन दिनों अंतर्राष्ट्रीय मंच पर डंका बजा रहा है। उन्हें खूब वाह-वाही मिल रही है। अभी-अभी देश के दो दिग्गज संगीतकार ए.आर. रहमान और मशहूर तबला वादक जाकिर हुसैन को अलगअलग अंतर्राष्ट्रीय संगीत सम्मान से नवाजा गया।

एक तरफ रहमान ब्रिटिश अकादमी ऑफ फिल्म एंड टेलीविजन आर्ट्स (बाफ्टा)सम्मान प्राप्त करने में सफल रहे। वहीं दूसरी तरफ दुनिया भर को अपने तबले की थाप से मंत्रमुग्ध करने वाले हुसैन ग्रैमी अवार्ड से नवाजे गए हैं।

हालांकि रहमान स्लमडॉग मिलियनेयरके लिए पहले ही गोल्डन ग्लोब अवार्ड प्राप्त कर चुके हैं। उन्हें इसी फिल्म के लिए बाफ्टा ने भी सम्मानित किया है, जबकि हुसैन ने अपने  एलबम ग्लोबल ड्रम प्रॉजेक्टके लिए यह अवार्ड हासिल किया है। गौरतलब है कि उन्हें कन्टेंपरेरी वर्ल्ड म्यूजिक एलबमवर्ग के लिए नामांकित किया गया था।

रहमान को तो ऑस्कर के लिए भी नामांकित किया गया है। वे आस्कर के तीन वर्गो में नामांकित किए गए हैं। अब ऐसा महसूस होने लगा है कि पश्चिमी देश के लोग भारतीय संगीतकारों के हुनर को पहचानने लगे हैं।

 

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हीरामन की बैलगाड़ी अब भी है सुरक्षित

harimancortपटना। सन 1966 में बनी यादगार फिल्म तीसरी कसम की चर्चा मात्र से साहित्यकार फणीश्वर नाथ रेणु की खूब याद आती है। जिले के कसबा प्रखंड के बरेटा गांव में मौजूद एक बैलगाड़ी भी इसी की एक कड़ी है। यह वही बैलगाड़ी है जिसपर फिल्म के नायक हीरामन यानी हिन्दी सिनेमा के शोमैन राजकपूर ने सवारी की थी। 

गाड़ी की खासियत यहीं खत्म नहीं होती है। इसपर अक्सर खुद रेणु भी सवार होकर गढ़बनैली स्टेशन आयाजाया करते थे। साथ ही तीसरी कसम से जुड़ी कई फिल्मी हस्तियों ने गाड़ी पर सफर किया था।

हाल ही में एक दैनिक अखबार में छपी रपट से यह बात सामने आई। इस बैलगाड़ी को तीसरी कसम फिल्म के मुहूर्त में भी शामिल किया गया था। रेणु ने भी अपनी कुछ रचनाओं में इस बैलगाड़ी से अपने लगाव का जिक्र किया है। 

खैर, बैलगाड़ी से रेणु के गहरे प्रेम का ही नतीजा है कि आज भी उनका भांजा और बरेटा गांव के तेजनारायण विश्वास ने उसे घर में धरोहर की तरह संभाल कर रखा है। गौरतलब है कि तीसरी कसम फिल्म रेणु की कहानी मारे गये गुलफाम पर आधारित है। साथ ही फिल्म के कई दृश्यों की शूटिंग भी इसी इलाके में की गई थी। इसी क्रम में फिल्म के नायक राजकपूर व नायिका वहीदा रहमान जिस गाड़ी पर गुलाबबाग आतेजाते दिखायी पड़ते हैं, वह गाड़ी रेणु की बड़ी बहन की थी। 

हालांकि अब उनकी बहन इस दुनिया में नहीं रहीं। लेकिन बहन की इच्छा को ध्यान में रखते हुए उनके पुत्र आज भी इस गाड़ी को रखे हुए हैं और उसमें रेणु की छवि देखते हैं। तेजनारायण विश्वास बतलाते हैं कि रेणु जी जब कभी उनके गांव आते थे, गढ़बनैली स्टेशन उन्हें लेने यही गाड़ी जाती थी। फिर इसी गाड़ी से उन्हें स्टेशन भी छोड़ा जाता था।

खास आकार के चलते इस गाड़ी से उन्हें बेहद प्रेम हो गया था। जब तीसरी कसम फिल्म निर्माण की बात सामने आई तो रेणु ने बिना सोचे ही फिल्म में इस गाड़ी के उपयोग की बात राजकपूर के समक्ष रखी थी। 

विश्वास के मुताबिक एक संस्मरण में इस बात की झलक भी है। चूनांचे , रेणु की यादों को संजोये इस बैलगाड़ी का भविष्य क्या होगा, यह बताना मुश्किल है। क्योंकि, यह जानकारी कम ही लोगों के पास है।

महात्मा गांधी का आर्थिक चिन्तन

economics_ashram_lg1किसी भी देश की उन्नति और विकास इस बात पर निर्भर होते हैं कि वह देश आर्थिक दृष्टि से कितनी प्रगति कर रहा है तथा औद्योगिक दृष्टि से कितना विकास कर रहा है।आज भारतवर्ष का कौन ऐसा नागरिक है जो महात्मा गांधी के नाम तथा राष्ट्र-निर्माण में उनके कार्यकलाप से भली-भांति अवगत नहीं है!

महात्मा गांधी उच्च कोटि के चिंतक थे। उनके बारे में विश्वविख्यात वैज्ञानिक अलबर्ट आइन्सटाइन का यह मत है कि-”हम बड़े भाग्यशाली हैं और हमें कृतज्ञ होना चाहिए कि ईश्वर ने हमें ऐसा प्रकाशमान समकालीन पुरुष दिया है-वह भावी पीढ़ियों के लिए भी प्रकाश-स्तंभ का काम देगा।”

ग्राम-विकास को प्राथमिकता

महात्मा गांधी भारतवर्ष को आत्मनिर्भर देखना चाहते थे। उन्होंने माना था कि भारत की आत्मा गांवों में निवास करती है, इसलिए उनका दृष्टिकोण था कि भारत को विकास-मार्ग पर ले जाने के लिए ‘ग्राम-विकास’ प्राथमिक आवश्यकता है। इस बात को ध्यान में रखते हुए, उन्होंने ग्रामीण अर्थव्यवस्था को सर्वोपरि स्थान दिया था। उनकी दृष्टि में इस अर्थव्यवस्था का आधार था-‘ग्रामीण जीवन का उत्थान’। इसीलिए, गांधीजी ने बड़े-बड़े उद्योगों को नहीं, वरन् छोटे-छोटे उद्योगों (कुटीर उद्योगों) को महत्व प्रदान किया, जैसे-चरखे द्वारा सूत कताई, खद्दर बुनाई तथा आटा पिसाई, चावल कुटाई और रस्सी बांटना आदि।

‘हिन्द स्वराज’ में उन्होंने विशाल उद्योगों एवं मशीनीकरण की कड़ी भर्त्सना की है। चरखे को वह भौण्डेपन का नहीं, वरन् श्रम की प्रतिष्ठा का प्रतीक समझते थे। चरखे पर सूत कातने में ‘चित्त की एकाग्रता’ बनाने की आवश्यकता पड़ती है। सन् 1923 ई. में उन्होंने ‘अखिल भारतीय ग्रामोद्योग संघ’ की भी स्थापना की थी, जिसका मूल उद्देश्य था-घरेलू तथा ग्रामीण उद्योगों को उन्नत बनाना।

ट्रस्टीशिप का सिध्दांत

गांधीजी शिक्षा से अर्थशास्त्री नहीं थे, किन्तु इस विषय में भी उनका चिन्तन क्रांतिकारी है। उन्होंने कहा था कि अपनी जरूरत से अधिक संग्रह करने का अर्थ है-‘चोरी’। उनके मतानुसार अर्थशास्त्र एक नैतिक विज्ञान है- ”इंसान की कमाई का मकसद केवल सांसारिक सुख पाना ही नहीं, बल्कि अपना नैतिक और आत्मिक विकास करना है।” इसीलिए उन्होंने त्यागमय उपभोग की बात का समर्थन किया था।

आर्थिक समानता और पूंजीपतियों की भोगवादी महत्वाकांक्षाओं पर अंकुश लगाने के लिए उन्होंने ‘ट्रस्टीशिप’ का विचार प्रस्तुत किया था। उनका मानना था कि पूंजीपति सामाजिक सम्पत्ति का ट्रस्टी या संरक्षक मात्र है। वस्तुत: गांधीजी का आर्थिक चिन्तन ‘नैतिक आदर्शों पर स्थापित समाजवाद’ या रामराज्य है।

गांधीजी ने यह माना था कि हर नागरिक को अपनी आजीविका ‘शारीरिक परिश्रम’ के द्वारा कमानी चाहिए। उन्होंने बुध्दिजीवी के लिए भी ‘शारीरिक परिश्रम’ की शिक्षा दी थी। इस बात को गांधीजी ने ‘रोटी का परिश्रम’ कहा था।

बुनियादी शिक्षा योजना

शिक्षा के बारे में गांधीजी का दृष्टिकोण वस्तुत: व्यावसायपरक था। वह ‘बुनियादी तालीम’ के पक्षधर रहे थे। उनका मत था कि भारत जैसे गरीब देश में शिक्षार्थियों को शिक्षा प्राप्त करने के साथ-साथ कुछ धनोपार्जन भी कर लेना चाहिए जिससे वे आत्मनिर्भर बन सकें। इसी उद्देश्य को लेकर उन्होंने ‘बर्धा-शिक्षा-योजना’ बनायी थी। शिक्षा को लाभदायक एवं अल्पव्ययी करने की दृष्टि से सन् 1936 ई. में उन्होंने ‘भारतीय तालीम संघ’ की स्थापना की।

गांधीजी का क्रांतिकारी चिन्तन आज भी सार्थक एवं अनुकरणीय है। उनके चिन्तन के आधार पर अनेक समस्याओं के समाधान उपस्थित किए जा सकते हैं। हमें यह बात कहने में कोई आपत्ति नहीं है कि भारत की आर्थिक-औद्योगिक व्यवस्था को लेकर गांधीजी का जो जीवन-दर्शन देशवासियों को उपलब्ध हुआ है, वह सदैव उपयोगी रहेगा।

-डॉ. महेशचन्द्र शर्मा

रीडर एवं अध्यक्ष,
हिंदी विभाग, लाजपतराय कॉलेज,
128ए, श्याम पार्क (मेन), साहिबाबाद,
गाजियाबाद-201005

फोटो साभार- https://www.calpeacepower.org/

गोविंदाचार्य से ब्रजेश कुमार झा की बातचीत

govindji__27प्रश्न- आपने गत 14 और 15 जनवरी को इलाहाबाद में देश की छोटी-छोटी पार्टियों के साथ एक बैठक की थी। इस बैठक में क्या हुआ ?

उत्तर- देश के विभिन्न प्रांतों में सक्रिय कई छोटी राजनीतिक पार्टियों के प्रतिनिधि के साथ इस बैठक में सामाजिक कार्यकर्ता व विभिन्न विषयों के जानकार भी शामिल हुए। वे सभी देश की मौजूदा राजनीतिक तंत्र की बदहाली से खासे चिंतित दिखे। अब सभी इस बात से सहमत हैं कि सुधार की छोटी-बड़ी कोशिशों के बावजूद देश की राजनीति निरंतर अमीरपरस्त, विदेशपरस्त होने के साथ दबंग लोगों के गिरोह में तबदील हो रही है। वर्तमान चुनाव प्रक्रिया में सज्जन शक्ति का चुन कर आना नामुमकिन होता जा रहा है। ऐसी स्थिति में चुनाव प्रक्रिया में सुधार की तत्काल जरूरत है। इस बाबत आम सहमति से राष्ट्रवादी मोर्चा का गठन किया गया है। यह मोर्चा चुनाव सुधार प्रक्रिया के लिए चौतरफा प्रयास करेगा।

प्रश्न- इस काम को राष्ट्रीय स्वाभिमान आंदोलन अपने तरीके से कर ही रहा है। फिर नए मोर्चे की जरूरत क्यों पड़ी ?

उत्तर- यह सही है। लेकिन, किसी राजनीतिक पार्टी का कार्यकर्ता राष्ट्रीय स्वाभिमान आंदोलन का सक्रिय सदस्य नहीं बन सकता है। जबकि, सक्रिय राजनीति में कई ऐसे लोग हैं जो वर्तमान चुनाव प्रक्रिया में बुनियादी स्तर पर मौजूद कमियों को महसूस कर रहे हैं। वे एक ऐसे मंच की तलाश में थे, जहां से इस दिशा में सार्थक पहल की जा सके। पिछले दिनों प्रवास के दौरान मेरी कई लोगों से मुलाकात हुई और तब एक सही मोर्चा के गठन की जरूरत महसूस हुई।

प्रश्न- बैठक में किन-किन पार्टियों के प्रतिनिधि शामिल थे ?

उत्तर- कई पार्टियों के प्रतिनिधि थे। इनमें डा. स्वामी की जनता पार्टी, भारतीय जनशक्ति पार्टी, जागृत भारत पार्टी, सद्भावना पार्टी, राष्ट्रीय क्रांति पार्टी आदि के प्रतिनिधि थे। साथ ही पहले से संविधान में सुधार व चुनाव सुधार की जरूरत पर बल देते हुए गंभीर बहस चला रहे बुद्धीजीवी भी बैठक में शामिल हुए यानी कुल 44 लोग थे।

प्रश्न- राष्ट्रवादी मोर्चा में शामिल राजनीतिक पार्टियां आगामी आम चुनाव में क्या एक साथ मैदान में उतरने की तैयारी में है ?

उत्तर- मैं इतना कह सकता हूं कि यह मंच सभी पार्टियों के बीच समझ का एका बनाएगा। साथ ही वर्ष 2009 में होने वाले आम चुनाव से पहले चुनाव प्रक्रिया में सुधार के लिए चुनाव आयोग के समक्ष एक संवर्धित चुनाव सुधार पत्रक प्रस्तुत करेगा।

प्रश्न- चुनाव प्रक्रिया में सुधार के लिए आपकी क्या मांगे हैं ?

उत्तर- आगामी लोकसभा चुनाव को ध्यान में रखते हुए पहली और सबसे छोटी मांग है कि वोटिंग मशीन (ईवीएम) में तमाम बटनों के साथ एक बटन यह भी लगा हो कि इनमें से कोई प्रत्यासी उचित नहीं । ताकि उम्मीदवार पसंद न आने के बावजूद मतदाताओं के पास अपने विचार अभिव्यक्त करने का विकल्प वहां मौजूद हो। दूसरी बात चुनाव अभियान के दौरान खर्च की जाने वाली राशि ठीक व इमानदारी से तय की जाए, जिससे पार्टी या उम्मीदवार को मुकाबला मूल्यों और मुद्दों के आधार पर लड़े के लिए बाध्य किया जा सके। किसी को संसाधनों के बेजा इस्तेमाल की छूट न दी जाए। ये दो छोटी मांगे हैं। इसपर किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए।

प्रश्न- कई लोग मानते है कि राष्ट्रवादी मोर्चा लालकृष्ण आडवाणी के प्रधानमंत्री बनने में बाधा उत्पन्न कर सकता है !

उत्तरसबों को सोचने व समझने का अधिकार है। पर मैं यह कहूंगा कि न काहू से दोस्ती न काहू से बैर।

प्रश्न- राष्ट्रवादी मोर्चा में शामिल लोग यदि अपनी चुनावी सभा में आपको बुलाते हैं तो क्या आप जाएंगे ?

उत्तर- मुझे नहीं लगता कि कोई प्रत्यासी अपनी चुनावी सभा में भीड़ कम करने के लिए ऐसा करेंगे। यदि वे ऐसा करेंगे तो देखा जाएगा।

सुरा पर फिदा तहजीब – ब्रजेश झा

20090129pubattackपब संस्कृति को खत्म करने के नाम पर श्रीराम सेना के लोगों ने बड़ा उत्पात मचाया। इस दौरान युवतियों के साथ जो बेअदबी हुई, उससे भारतीय संस्कृति से जुड़े कई गहरे सवाल खड़े हुए हैं। इसपर बहस जारी है और यह जरूरी है।

दरअसल, खान-पान निहायत व्यक्तिगत पसंद की चीज है। किसी भी तरह के खाने-पीने की आदतों व शौकों से उस जगह की तहजीब खूब समझ में आती है। लेकिन, उदार बाजारवाद की बयार ने इस तहजीब को बदला है। जहांजहां यह बयार पहुंची है, वहां ठेठ देशी संस्कृति आहत हुई है। आप खुद देख लें ! अब ज्यादातर समौसे की दुकान से सरसों की चटनी गायब है। बोतलबंद सॊस हावी है। दूसरी तरफ अब लोग लिट्टी खाकर उतना लुत्फ नहीं उठाते, जितना मोमोज खाकर उठाते हैं।

हालांकि, इस देश में पब का विकल्प भी जमाने से मौजूद है। इस देश की देहाती-दुनिया में आबादी से दूर कलाल-खाना (मद्यशाला) सेवा चलती रही है। दारू व ताड़ी के मुरीद वहां मजे से अपना शौक पूरा करते हैं। पर, इस कलाल-खाने से निकलकर कोई रईसजादा राहगीरों को नहीं कुचलता है। वहां किसी युवती को भी गोली नहीं मारी जाती है और न ही कोई सेना धमाचौकड़ी मचाती है। लेकिन, जब बाजार उदार हुआ तो इस मामले को लेकर कुछ लोग ज्यादा ही उदार हो गए। बड़े शहरों में शराबनोशी का अंदाज इससे बड़ा प्रभावित व प्रोत्साहित हुआ। मजे की बात यह है कि पहले शराबखोरी छिपकर होती थी। अब यह पार्टियों के ठाठ की पहचान बन गई है। इसके बारी-बारी से कई रंग दिख रहे हैं आम जनजीवन भी प्रभावित हो रहा है।

सिनेमा व टेलीविजन भी इस मामले में समय के साथ कमदताल कर रहा है। पेज थ्री के नामवर बंदे यहां दर्शन देने लगे। इससे शहरी समाज में संदेश गया कि भई, शराब तो हमारी तहजीब का हिस्सा है। और पब उनमुक्तता का प्रतीक। कलाल-खाना की तरह पब शहर व आबादी से दूर नहीं खोला जाता, बल्कि प्रमुख चौराहे पर जगह तलाशी जाती है। एक और बात यह है कि शहरी समाज पर हावी हो रही इस नई तहजीब को बारीकी से समझने के लिए उन चेहरों की पहचान, उनके दैनिक जीवन की जरूरतों, उलझनों व जटिलताओं को समाजशास्त्रीय निगाह से जानना होगा।

लेकिन, मालूम पड़ता है कि श्रीराम सेना को इतनी फुर्सत नहीं। वे लोग एक समस्या का दूसरी बड़ी समस्या खड़ी कर हल ढूंढ़ रहे हैं। दरअसल, नोट और वोट के इस दौड़ में सबों की अपनी डफली और अपना राग है। पर इसमें दोराय नहीं कि सुरा पर देशी तहजीब कुछ ज्यादा ही फिदा है। *