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शिक्षक का विकल्प नहीं ए.आई.

डॉ घनश्याम बादल 

 

5 सितंबर को हर वर्ष देश भर में भारत के दूसरे राष्ट्रपति सर्वपल्ली डॉक्टर राधाकृष्णन के जन्मदिन पर शिक्षक दिवस मनाया जाता है और हर शिक्षक दिवस पर ही शिक्षक के अस्तित्व और उसके महत्व पर कई प्रश्न खड़े किए जाते हैं। 

    एक और जहां आज का दिन शिक्षक के सम्मान का दिन है वही युगबोध एवं परिस्थितियों के अनुसार यह प्रश्न भी प्रासंगिक है कि आने वाले समय में क्या शिक्षक का स्थान कृत्रिम बुद्धि यानी ए.आई.  ले सकती है ?

  इस प्रश्न के कई उत्तर अलग-अलग दिशाओं से सुनने को मिलते हैं और जब यह उत्तर आता है कि  तकनीक एवं ए.आई. के चलते शिक्षक का अस्तित्व एवं वर्चस्व दोनों ही संकट में है तब इस प्रश्न पर मंथन और भी समीचीन हो जाता है। 

   निस्संदेह 21वीं शताब्दी ज्ञान-विज्ञान और प्रौद्योगिकी की तीव्र गति से बदलती दुनिया की साक्षी है। कृत्रिम बुद्धिमत्ता  का प्रवेश शिक्षा, स्वास्थ्य, उद्योग, परिवहन और जीवन के लगभग प्रत्येक क्षेत्र में हो चुका है। शिक्षा जगत भी इससे अछूता नहीं है। 

  लआने वाले समय के कक्षा कक्षों की एक परिकल्पना ऐसी भी दिखाई जा रही है जिसमें शिक्षण अधिगम की प्रक्रिया किसी बंद कमरे में नहीं अपितु दूरस्थ संसाधनों के द्वारा संभव हो पाएगी और कक्षा कक्ष में भी मानव शिक्षक नहीं अपितु एंड्राइड, रोबोट या फिर और कोई नया तकनीकी डिजिटल अविष्कार नई पीढ़ी को पढ़ा रहा होगा । यह परिकल्पना जहां एक और रोमांचित करती है वही डराती भी है तथा पुनः वही यक्ष प्रश्न खड़ा करती है कि क्या आने वाले समय में मानव शिक्षक का समय समाप्त होने जा रहा है? 

   आज ए.आई. आधारित सॉफ़्टवेयर, वर्चुअल कक्षाएँ, स्मार्ट कंटेंट, चैटबॉट और स्वचालित मूल्यांकन प्रणाली शिक्षा का अभिन्न हिस्सा बन रहे हैं। ऐसे समय में प्रश्न उठता है कि क्या भविष्य में ए.आई. शिक्षक को पूरी तरह रिप्लेस कर देगा या फिर दोनों की भूमिका मिलकर शिक्षा को और भी प्रभावी बनाएगी? और साथ ही साथ इन दोनों में से किसका महत्व अधिक होगा? 

इस प्रश्न का उत्तर केवल तकनीकी दृष्टि से नहीं, बल्कि सामाजिक, नैतिक और मानव मूल्य आधारित दृष्टिकोण से  देना आवश्यक है। 

ए.आई. की भूमिका और संभावनाएँ

भविष्य की शिक्षा में ए.आई. का महत्व कई स्तरों पर दिखाई देता दे रहा है। इसमें तो दो राय नहीं हैं कि आने वाले समय में शिक्षा बिना तकनीकी के असंभवप्राय एवं प्रभावहीन होने जा रही है। ऐसा क्यों सोचा जा रहा है सबसे पहले इसी पर विचार करते हैं। 

सूचना तक त्वरित पहुँच

ए.आई. की सबसे बड़ी शक्ति उसकी गति और अपरिमित विशाल ज्ञानसंग्रह है। विद्यार्थी किसी भी विषय पर तुरंत जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। एक ही क्लिक पर पुस्तकालय, शोधपत्र और उदाहरण उपलब्ध हो जाते हैं।

व्यक्तिगत शिक्षण 

ए.आई. आधारित सिस्टम विद्यार्थी की सीखने की क्षमता, गति और रुचि का विश्लेषण कर व्यक्तिगत पाठ्यक्रम और अभ्यास प्रश्न उपलब्ध करा सकते हैं। यह सुविधा प्रत्येक छात्र को उसकी ज़रूरत के अनुसार शिक्षा प्रदान करने में मदद करेगी।

सुलभता 

ए.आई. दूरस्थ और पिछड़े क्षेत्रों में भी डिजिटल शिक्षा सामग्री उपलब्ध कराकर शिक्षा को सुलभ बनाएगा। भाषा अनुवाद और स्पीच-टू-टेक्स्ट तकनीक विकलांग छात्रों के लिए शिक्षा को सरल बनाएगी।

शिक्षक का सहायक

भविष्य में ए.आई. शिक्षक का बोझ कम करेगा। परीक्षा मूल्यांकन, उपस्थिति, होमवर्क जाँच जैसे प्रशासनिक कार्य ए.आई. द्वारा किए जा सकेंगे, जिससे शिक्षक विद्यार्थियों के समग्र विकास पर अधिक समय दे सकेंगे।

रचनात्मकता और नवाचार

ए.आई. आधारित सिमुलेशन, वर्चुअल लैब और 3 डी तकनीक विद्यार्थियों को नए प्रयोगों और खोजों के लिए प्रेरित करेगी।

इस विवेचन से ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे सचमुच ही कृत्रिम बुद्धिमत्ता एवं तकनीकी मिलकर शिक्षक को शिक्षण अधिगम के परिदृश्य से गायब कर देंगे लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं है।  डी स्कूलिंग,अनस्कूलिंग, होम एजुकेशन एवं  डिस्टेंस एजुकेशन जैसे अनेक प्रयोग पहले भी शिक्षा के क्षेत्र में हुए हैं और सब का सार यही है कि शिक्षक का कोई विकल्प हो ही नहीं सकता। 

शिक्षक की अनिवार्यता

हालाँकि ए.आई. अनेक सुविधाएँ प्रदान कर सकता है, परंतु शिक्षक का स्थान पूर्णतः अपरिवर्तनीय है। इसके कुछ कारण हैं—

मानवीय स्पर्श और भावनात्मक जुड़ाव

शिक्षा केवल जानकारी देने का नाम नहीं है, बल्कि यह मूल्य, संस्कार और संवेदनाओं का संचार भी है। विद्यार्थी को प्रोत्साहन, प्रेरणा और आत्मविश्वास देने का कार्य केवल एक मानव शिक्षक कर सकता है।

चरित्र निर्माण और नैतिक शिक्षा

भविष्य का समाज केवल तकनीकी ज्ञान से नहीं, बल्कि नैतिक मूल्यों और सामाजिक जिम्मेदारियों से चलता है। यह कार्य शिक्षक ही कर सकते हैं, ए.आई. नहीं।

आलोचनात्मक सोच 

ए.आई. डेटा और पैटर्न पर आधारित है। लेकिन “क्यों” और “कैसे” पूछने की आदत, स्वतंत्र सोच और रचनात्मकता को विकसित करने का का कार्य केवल और केवल शिक्षक ही करने में सक्षम है।

सामाजिक संबंध और नेतृत्व क्षमता

विद्यालय केवल पढ़ाई के केंद्र मात्र नहीं हैं, बल्कि सामाजिकता और नेतृत्व क्षमता विकसित करने के स्थान भी हैं। शिक्षक समूह गतिविधियों, खेल, सांस्कृतिक कार्यक्रमों और संवाद के माध्यम से यह गुण विकसित करते हैं। साथ ही साथ बच्चों में सहानुभूति सहयोग आपसी विचार विनिमय एवं संवेदनशीलता उत्पन्न एवं विकसित करने में महत्वपूर्ण योगदान निभाता है। 

 परिस्थिति अनुकूल मार्गदर्शन

जीवन की समस्याएँ हमेशा तकनीकी समाधान से नहीं सुलझतीं। कभी-कभी विद्यार्थी को मानसिक, सामाजिक और व्यक्तिगत संकटों से निकलने के लिए संवेदनशील मार्गदर्शक की आवश्यकता होती है, जो केवल शिक्षक हो सकते हैं। यह तो संभव है कि सीखने सिखाने की प्रक्रिया में आई सूचनाओं का बड़ा और व्यापक क्षेत्र तो विद्यार्थियों के लिए खोल दे लेकिन जब एक मोटीवेटर उत्प्रेरक एवं उत्साह वर्धन तथा प्रेरणादाई फैक्टर की बात आएगी तब केवल और केवल शिक्षक ही यह भूमिका अदा कर पाएगा। 

ए.आई. और शिक्षक का परस्पर संबंध

भविष्य की शिक्षा में यह सोचना भ्रम होगा कि ए.आई. शिक्षक की जगह ले लेगा। वास्तविकता यह है कि ए.आई. और शिक्षक मिलकर शिक्षा को और अधिक सशक्त, गतिशील और प्रभावी बना सकते हैं। ए.आई. सूचना और तकनीकी सुविधाएँ उपलब्ध कराएगा, जबकि शिक्षक उसे जीवन से जोड़ेंगे। ए.आई. विद्यार्थियों को व्यक्तिगत अभ्यास देगा, जबकि शिक्षक उन्हें नैतिकता और सहयोग का पाठ पढ़ाएँगे। ए.आई. प्रशासनिक कार्य संभालेगा, जबकि शिक्षक विद्यार्थियों की रचनात्मकता और नेतृत्व को विकसित करेंगे।

अस्तु, सार रूप में कहा जा सकता है कि शिक्षक को आने वाले समय में नई से नई तकनीकों को सिखाने एवं सीखने दोनों में सिद्धहस्त होना पड़ेगा । उसे लगातार अपने ज्ञान का समय, परिस्थिति, ज़रूरत एवं मांग के अनुसार अपडेशन करना होगा तभी शिक्षक आने वाली पीढ़ी के सर्वांगीण विकास का आधार बन सकेगा। 

डॉ घनश्याम बादल 

बिहार का  नतीजा तय करेगा सत्ता पक्ष और विपक्ष का भविष्य 

कुमार कृष्णन 

बिहार में 17 अगस्त से शुरु हुई वोटर अधिकार यात्रा का समापन कार्यक्रम 1 सितंबर को पटना में हो गया। 

यह 16 दिनों की यात्रा राज्य के 25 जिलों और 110 विधानसभा क्षेत्रों से गुजरी। करीब 1300 किलोमीटर की इस यात्रा का उद्देश्य कथित तौर पर लाखों मतदाताओं के नाम मतदाता सूची से हटाने के खिलाफ आवाज उठाना था। राहुल गांधी ने इसे “नैतिक” लड़ाई बताया। यात्रा के दौरान विपक्षी दलों ने एकजुटता दिखाई। राहुल गांधी की ‘वोटर अधिकार यात्रा’ सासाराम से शुरू हुई थी और पटना में समाप्त हुई। इस यात्रा का मकसद उन लाखों मतदाताओं के लिए आवाज उठाना था जिनके नाम वोटर लिस्ट से हटा दिए गए हैं। चुनाव आयोग की मसौदा मतदाता सूची में राज्य के 65.5 लाख वोटरों के नाम शामिल नहीं किए गए हैं।

विपक्ष ने इस यात्रा को सिर्फ एक अभियान नहीं, बल्कि एक “नैतिक” लड़ाई के तौर पर पेश किया। राहुल गांधी ने कहा कि वे उन लाखों लोगों के मताधिकार की रक्षा करना चाहते हैं जिनके नाम मतदाता सूची से हटा दिए गए हैं। यात्रा में संविधान की रक्षा की दुहाई दी गई और विपक्ष की एकता का प्रदर्शन किया गया। इस यात्रा के दौरान ‘वोट चोर, गद्दी छोड़’ जैसे नारे लगाए गए।

पटना की रैली में शामिल हुए मुंगेर से शामिल हुए राकेश कुमार मंडल और संजय पोद्दार बताते हैं कि इस समापन से एक नयी शुरुआत देश भर में हो चुकी है जिसमें अपने मताधिकार की रक्षा के लिए जनता स्वतःस्फूर्त खड़ी होती दिख रही है। पटना में समापन के मौके पर उमड़े जनसैलाब को संबोधित करते हुए राहुल गांधी ने कर्नाटक की महादेवपुरा सीट में फर्जी मतदाताओं की पड़ताल के प्रकरण को दोहराते हुए कहा कि तब तो केवल एटम बम फटा था, लेकिन उससे भी ताकतवर होता है हाइड्रोजन बम, जो अब फूटने जा रहा है।

उन्होंने भारतीय जनता पार्टी और चुनाव आयोग पर वोट चोरी करने का आरोप लगाया। राहुल गांधी ने कहा कि यह सिर्फ बिहार का मुद्दा नहीं है बल्कि भारतीय लोकतंत्र का मुद्दा है। राहुल गांधी ने कहा कि उनकी यात्रा का मुख्य संदेश – ‘एक व्यक्ति, एक वोट’ है। उन्होंने बीजेपी और चुनाव आयोग पर 65 लाख से ज्यादा वोटरों के नाम मतदाता सूची से हटाने का आरोप लगाया। उन्होंने कहा कि हटाए गए मतदाताओं में दलित, ओबीसी , मुस्लिम और गरीब वर्ग के लोग शामिल हैं। राहुल गांधी ने कहा, “यह सिर्फ बिहार के बारे में नहीं है, यह भारत के लोकतंत्र के बारे में है।” उन्होंने कहा कि यह यात्रा संविधान की रक्षा के लिए थी।

निश्चित ही कांग्रेस पार्टी ने कई ऐसे और सबूत अब तक एकत्र कर लिए होंगे जिनके सामने आने से बड़ा धमाका होने वाला है। दो दिन पहले गुजरात में कांग्रेस अध्यक्ष अमित चावड़ा ने लोकसभा सीट नवसारी और विधानसभा सीट चोरयासी पर जांच का दावा किया है। उन्होंने बताया कि कुल मतदाताओं में करीब 30 हज़ार फर्जी हैं। जब दो सीटों पर इतनी बड़ी संख्या में फर्जी वोटर हैं, तब इस फर्जीवाड़े का दायरा और कितना बड़ा होगा, यह अनुमान लगाया जा सकता है। महाराष्ट्र और हरियाणा के विधानसभा चुनाव इसके अलावा लोकसभा चुनावों में भी मतदाता सूची में हेरफेर के इल्जाम श्री गांधी लगा चुके हैं तो मुमकिन हैं अबकी बार इन्हीं से किसी चुनाव की गड़बड़ी फिर से सामने लायी जायेगी।

पटना में राहुल-तेजस्वी द्वय के साथ जेएमएम से हेमंत सोरेन, शिवसेना से संजय राउत, एनसीपी से जितेंद्र आव्हाड़, टीएमसी से युसूफ पठान, माकपा से एम ए बेबी, भाकपा से डी राजा और एनी राजा सभी समापन के मौके पर शामिल हुए। इससे पहले एम के स्टालिन, कनिमोझी, अखिलेश यादव, पप्पू यादव तो यात्रा में साथ चले भी हैं। इस मौके पर झारखंड के मुख्य मंत्री श्री हेमन्त सोरेन ने कहा कि वोट चोरी पहले से चल रही थी, पकड़ में अब आई है। इसके संकेत साफ़ हैं कि वोट चोरी या एसआईआर के जरिए मतदाता सूची से नाम काटने का मुद्दा केवल बिहार तक सीमित नहीं है, बल्कि यह पूरे देश का मुद्दा बन चुका है और समूचा विपक्ष इसमें एक साथ भाजपा के खिलाफ खड़ा है। पूरा विपक्ष चुनाव आयोग पर धांधली के एक जैसे इल्जाम लगा रहा है। अभी आम आदमी पार्टी इसमें शामिल नहीं हुई लेकिन वोट चोरी की शिकायत वह भी करती है और जब संसद से चुनाव आयोग तक विपक्ष का पैदल मार्च हुआ था, तब आप के सांसद संजय सिंह भी शामिल हुए थे। भाजपा, और ख़ास तौर से मोदी सरकार के लिये ये अच्छे संकेत नहीं हैं कि विपक्ष पहले से ज्यादा ताकतवर और एकजुट दिखाई दे रहा है।

वैसे तो पूरी यात्रा के दौरान भारी हुजूम उमड़ा रहा लेकिन समापन के मौके पर न केवल बिहार बल्कि देश के अलग-अलग जगहों से लोग अपने आप पहुंचे थे। गांधी मैदान से अंबेडकर प्रतिमा तक विपक्ष के काफ़िले को आगे बढ़ने में घंटों लगे क्योंकि तिल रखने की जगह भी नहीं थी। तिरंगे, हरे, लाल, नीले रंग के झंडों से पटना अटा पड़ा था और वहीं बहुत से लोगों ने काले कपड़ों में भी अपनी मौजदूगी दर्ज कराई लेकिन उनका भी राहुल-तेजस्वी से बैर नहीं था और न ही नरेन्द्र मोदी की तरह किसी को काले कपड़ों में आने से रोका गया बल्कि 30 अगस्त को यात्रा के आखिरी दिन भोजपुर में भारतीय जनता युवा मोर्चा के 4 कार्यकर्ताओं ने राहुल गांधी को काले झंडे दिखाए थे, तो उन्होंने उनमें से एक को पास बुलाकर उनकी बात सुनी और हक़ीक़त बताई।

वैसे भी चुनाव आयोग पर अब और नए आरोप सामने आए हैं।  पवन खेड़ा ने बताया कि मतदाता सूची में गड़बड़ी की 89 लाख शिकायतें चुनाव आयोग को दी गई हैं। क्योंकि इससे पहले चुनाव आयोग ने अदालत में कहा था कि उसके पास शिकायतें नहीं आई हैं। कांग्रेस नेता ने बताया कि चुनाव अधिकारी बूथ एजेंटों से शिकायतें नहीं लेते और व्यक्तिगत शिकायत जमा करने कहते हैं, जो कि संभव नहीं है, क्योंकि लाखों लोग, जिनके नाम वोटर लिस्ट से कट चुके हैं वे चुनाव अधिकारी तक नहीं पहुंच सकते हैं। कांग्रेस ने कहा है कि बूथ एजेंटों ने सभी के आवेदन इकट्ठा कर, जिला अध्यक्षों के माध्यम से जिला निर्वाचन अधिकारी को जमा करवाये हैं। 

इस खुलासे से ज़ाहिर है कि चुनाव आयोग तक शिकायत पहुंचाने की कोशिश राजनैतिक दल कर रहे हैं। इसी तरह वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण के पति परकला प्रभाकर ने चुनाव आयोग से सवाल किए हैं। क्योंकि पत्रकार श्रीनिवासन रमानी की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि बिहार में एसआईआर के तहत तो 65 लाख वोट विभिन्न इलाकों से काटे गए हैं, उनके विश्लेषण पर गंभीर सवाल उठते हैं। जैसे 80 इलाकों में युवा मतदाताओं के मृत्यु के आंकड़े आश्चर्यजनक रूप से सामने आए हैं। 127  इलाकों में वोटर लिस्ट में नाम काटने में लिंगभेद देखा गया है,1985 इलाके ऐसे हैं, जहां अतार्किक तौर पर मतदाताओं के नाम काटे गए हैं। 937 इलाके तो ऐसे हैं, जहां सारे मतदाताओं को मृत बताया गया है, 5084 इलाकों में बड़ी संख्या में अनुपस्थित मतदाता दिखाये गये हैं। ऐसी ही कई और अनियमितताओं का खुलासा रिपोर्ट में किया गया है, जिसकी गहन जांच की ज़रूरत बताई गई है।

वोटर अधिकार यात्रा के दौरान राहुल गांधी सफेद टी-शर्ट के ऊपर गमछा डाले हुए थे। वे खुली जीप पर सवार होकर गांवों में लोगों से बात करते हुए दिखाई दिए। पार्टी ने इन तस्वीरों को सोशल मीडिया पर खूब शेयर किया। उन्हें एक जमीनी और लोगों तक पहुंचने वाले नेता के तौर पर पेश किया गया। राहुल गांधी मखाने के खेतों में भी गए। उन्होंने देखा कि यह सुपरफूड कैसे उगाया जाता है। उन्होंने कहा कि 99 प्रतिशत ‘बहुजन’ लोग कड़ी मेहनत करते हैं, जबकि इसका फायदा सिर्फ एक प्रतिशत बिचौलियों को मिलता है। उन्होंने इस “अन्याय” के खिलाफ लड़ने का वादा किया।

बिहार में विधानसभा चुनाव अक्टूबर-नवंबर माह में होने की संभावना है। इस चुनाव से पहले बिहार का सियासी माहौल पूरी तरह गर्म हो चुका है। पक्ष-विपक्ष के बीच आरोप-प्रत्यारोप तेज होते जा रहे हैं। बिहार का विधानसभा चुनाव महत्वपूर्ण इसलिए है क्योंकि इसके नतीजे सत्ता पक्ष और विपक्ष के भविष्य के बारे में संकेत दे सकते हैं। इस चुनाव के करीब छह माह बाद मई 2026 में चार राज्यों असम, तमिलनाडु, केरल और पश्चिम बंगाल में विधानसभा चुनाव होंगे। इनमें से तीन राज्यों में विपक्ष की सरकारें हैं।

कुमार कृष्णन 

गुरुजी शिबू सोरेन : झारखंड की आत्मा, अस्मिता और संघर्ष के प्रतीक

अशोक कुमार झा

झारखंड की धरती संघर्षों, बलिदानों और असंख्य जनांदोलनों की साक्षी रही है। यहां के पहाड़ों, नदियों और जंगलों ने बार-बार उस पुकार को सुना है जिसमें आदिवासी अस्मिता, जल-जंगल-जमीन और अस्तित्व की रक्षा की गूँज रही है। इस संघर्ष की सबसे ऊँची आवाज़ और सबसे दृढ़ संकल्पित व्यक्तित्व रहे गुरुजी शिबू सोरेन
गुरुजी का नाम झारखंड की आत्मा के साथ ऐसे जुड़ा है कि उन्हें अलग करके इस भूमि की कहानी अधूरी हो जाती है।

झारखंड की राजनीतिक और सामाजिक अस्मिता के इतिहास में यह दिन स्वर्ण अक्षरों में लिखा जाएगा। जब मुख्यमंत्री श्री हेमन्त सोरेन की अध्यक्षता में हुई राज्य मंत्रिपरिषद की बैठक में स्वास्थ्य मंत्री डॉ. इरफान अंसारी और नगर विकास मंत्री सुदिव्य सोनू ने एक ऐसा प्रस्ताव रखा, जिसने न केवल कैबिनेट के एजेंडे को ऐतिहासिक बना दिया बल्कि झारखंड के आंदोलन और उसकी आत्मा को अमरता प्रदान करने का मार्ग भी प्रशस्त कर दिया।

वह प्रस्ताव था—मोराबादी स्थित गुरुजी शिबू सोरेन का सरकारी आवास अब गुरुजी स्मृति संग्रहालय” में परिवर्तित किया जाए। साथ ही जामताड़ा के चिरुडीह में, जहाँ से गुरुजी ने सामाजिक और राजनीतिक संघर्ष की शुरुआत की थी, एक भव्य पार्क और विशाल प्रतिमा स्थापित करने का निर्णय लिया जाए।

कैबिनेट की मेज़ पर यह प्रस्ताव आते ही पूरा वातावरण भावनाओं से भर उठा था । जब डॉ. अंसारी ने भावुक स्वर में कहा— गुरुजी का घर केवल ईंट और पत्थर की इमारत नहीं हैयह झारखंड आंदोलन का मंदिर है। उनके घर के हर कोने में संघर्ष की गाथा लिखी है। इस घर को संग्रहालय का रूप देना हमारे लिए केवल कर्तव्य ही नहींबल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए एक संदेश भी होगा।

साथ ही नगर विकास मंत्री सुदिव्य सोनू ने समर्थन करते हुए कहा था कि गुरुजी झारखंड की आत्मा थे। उनका संघर्षउनका त्याग और उनकी दूरदर्शिता हमें हमेशा मार्गदर्शन देती रहेगी। यह संग्रहालय और चिरुडीह का स्मारक उनकी स्मृतियों को अमर बनाएगा।

आज जब हेमन्त सोरेन सरकार ने कैबिनेट की ऐतिहासिक बैठक में यह निर्णय लिया कि झारखंड राज्य के आधिकारिक दस्तावेजों, संस्थानों और विकास योजनाओं में गुरुजी के योगदान को स्थायी रूप से अमर किया जाएगा, तब यह केवल एक सरकारी घोषणा नहीं, बल्कि झारखंड की आत्मा को उसका सम्मान लौटाने जैसा क्षण था ।

बचपन और संघर्ष : मिट्टी से उठकर मिट्टी के लिए जीना

गुरुजी शिबू सोरेन का जन्म 11 जनवरी 1944 को गिरिडीह जिले के नेमरा गाँव में हुआ। बचपन से ही उन्होंने अभाव, भेदभाव और शोषण को नज़दीक से देखा। उनके पिता सोबरन मांझी, जो पेशे से एक शिक्षक थे ने  जमींदारों और महाजनों के खिलाफ आवाज़ उठाते हुए शहीद हो गए। यह घटना बालक शिबू के मन पर गहरी छाप छोड़ गई।

यह घटना गुरुजी के जीवन की धारा बदल गई। उन्होंने निश्चय किया कि वे शोषण और अन्याय के खिलाफ आवाज़ बनेंगे। उन्होंने पढ़ाई के साथ-साथ गाँव-गाँव घूमकर लोगों को जागरूक करना शुरू किया। उन्होंने समझाया कि “जमीन हमारी हैजंगल हमारा हैखनिज हमारा हैतो उसका मालिकाना हक भी हमारा होना चाहिए।”

बचपन से ही उनके भीतर यह सवाल उठता रहा कि आखिर क्यों आदिवासियों की जमीन उनसे छीन ली जाती है? क्यों जल-जंगल-जमीन, जो उनकी जीवन रेखा है, वह दूसरों के कब्ज़े में चला जाता है? गरीबी और संघर्ष के बावजूद उन्होंने शिक्षा पाई और जल्द ही वह उन लोगों की आवाज़ बनने लगे जिनकी आवाज़ सदियों से दबा दी गई थी।

झारखंड आंदोलन : जनांदोलन से राज्य निर्माण तक

झारखंड की माँग कोई नई बात नहीं थी। ब्रिटिश काल से ही यहां के आदिवासी और मूलवासी अपनी अस्मिता की रक्षा के लिए संघर्ष कर रहे थे। बिरसा मुंडा की ‘उलगुलान’ से लेकर सिदो-कान्हू के संथाल विद्रोह तक, यह धरती विद्रोह की गाथाओं से भरी हुई है।

लेकिन स्वतंत्रता के बाद भी झारखंड के लोगों को उनकी पहचान नहीं मिली। विकास के नाम पर यहां की खनिज संपदा का दोहन हुआ, लेकिन यहां के लोग गरीबी और बेरोज़गारी में डूबे रहे। 1960 और 70 के दशक में जब आदिवासी समाज अपनी जमीन से बेदखल हो रहा था, खनिज संपदा की लूट तेज थी और विस्थापन बढ़ रहा था, तभी शिबू सोरेन ने इस आवाज़ को उठाया। फिर इन्हीं हालातों में 1972 में झारखंड मुक्ति मोर्चा (JMM) के माध्यम से एक नए आंदोलन की शुरुआत हुई ।

उनकी आवाज़ खदानों में काम करने वाले मजदूरों, खेतों में पसीना बहाने वाले किसानों और जंगलों पर निर्भर आदिवासियों की आवाज़ थी। उन्होंने संसद से लेकर सड़क तक हर मंच पर झारखंड की अलग पहचान की माँग को उठाया। 1990 का दशक आते-आते झारखंड आंदोलन निर्णायक मोड़ पर पहुँच गया।

गुरुजी ने यह आंदोलन केवल झारखंड की सीमाओं तक नहीं रखा। वे कई बार संसद पहुँचे और वहाँ भी झारखंड के मुद्दे को जोरदार ढंग से उठाया। 1980 और 90 के दशक में संसद में उनकी आवाज़ आदिवासी अधिकारों की सबसे सशक्त आवाज़ मानी जाती थी।

इस दौरान अनेक गिरफ्तारियाँ, लाठियाँ, गोलियाँ और आंदोलनकारियों का बलिदान इस यात्रा का हिस्सा रहा। आख़िरकार 15 नवंबर 2000 को झारखंड एक अलग राज्य बना। यह दिन बिरसा मुंडा की जयंती पर मनाया गया और यही झारखंडवासियों की पीढ़ियों का सपना था।

गुरुजी का राजनीतिक सफर : सत्ता से संघर्ष तक

गुरुजी शिबू सोरेन सिर्फ एक आंदोलनकारी नहीं थे, वे एक दूरदर्शी राजनेता भी थे। उन्होंने संसद में पहुँचकर झारखंड के सवाल को राष्ट्रीय विमर्श का हिस्सा बनाया। वे कई बार सांसद बने, मंत्री बने और झारखंड के मुख्यमंत्री भी रहे।

हालांकि उनका सफर कभी आसान नहीं रहा। आरोप-प्रत्यारोप, राजनीतिक साज़िशें और उतार-चढ़ाव हमेशा उनके साथ रहे। लेकिन हर बार उन्होंने संघर्ष को स्वीकार किया और झारखंड की जनता के बीच लौट आए।
आज भी आम लोग उन्हें “गुरुजी” कहकर पुकारते हैं, क्योंकि वे किसी राजनेता से ज़्यादा जनआंदोलन के प्रतीक रहे हैं।

हेमन्त सरकार का निर्णय : भावनाओं और इतिहास को सम्मान

02 सितम्बर 2025 को झारखंड की कैबिनेट बैठक में मुख्यमंत्री हेमन्त सोरेन ने एक ऐतिहासिक निर्णय लिया।
निर्णय यह था कि गुरुजी शिबू सोरेन की स्मृति और योगदान को झारखंड की आधिकारिक पहचान का हिस्सा बनाया जाएगा। यह केवल औपचारिकता नहीं है, बल्कि यह उस भावनात्मक कर्ज़ की अदायगी है जो झारखंड की मिट्टी और लोग गुरुजी पर हमेशा मानते रहे हैं।

अब राज्य के सरकारी भवनों, विश्वविद्यालयों, योजनाओं और प्रमुख स्थलों का नाम गुरुजी के नाम से जोड़ा जाएगा। यह निर्णय आने वाली पीढ़ियों को यह याद दिलाएगा कि झारखंड आज जिस मुकाम पर है, वह लाखों आंदोलनकारियों के बलिदान और गुरुजी जैसे नेताओं की दृष्टि का परिणाम है।

सामाजिक और सांस्कृतिक महत्व

गुरुजी का योगदान केवल राजनीति तक सीमित नहीं था। वे झारखंडी संस्कृति, आदिवासी रीति-रिवाज और भाषा के भी संरक्षक थे। उन्होंने हमेशा कहा कि यदि संस्कृति मर जाएगी, तो समाज भी खत्म हो जाएगा।
इसलिए उन्होंने आदिवासी त्योहारों, पारंपरिक गीत-संगीत और सामुदायिक जीवन को बचाने पर ज़ोर दिया।
आज जब कैबिनेट ने उनके नाम को स्थायी रूप से अमर करने का निर्णय लिया है, तो यह केवल राजनीतिक नहीं बल्कि सांस्कृतिक पुनर्जागरण का भी प्रतीक है।

राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में गुरुजी

झारखंड आंदोलन और गुरुजी का संघर्ष केवल एक राज्य की लड़ाई नहीं थी बल्कि यह पूरे हिंदुस्तान में हाशिए पर खड़े समुदायों की आवाज़ था। उनकी लड़ाई ने यह संदेश दिया कि लोकतंत्र में पहचान, अस्मिता और अधिकार की लड़ाई कभी व्यर्थ नहीं जाती। गुरुजी ने हिंदुस्तान की संसद में खड़े होकर कहा था – “झारखंड कोई टुकड़ा भर जमीन नहीं, यह एक संस्कृति है, एक पहचान है।” आज उनके उसी संदेश को कैबिनेट के इस निर्णय ने और मज़बूती दी है।

भावी पीढ़ियों के लिए संदेश

आज का युवा, जो स्मार्टफोन और इंटरनेट की दुनिया में जी रहा है, उसके लिए गुरुजी की कहानी केवल एक इतिहास नहीं, बल्कि एक प्रेरणा है। उन्होंने बिना हथियार, बिना आधुनिक साधनों के केवल जनशक्ति और सच्चाई के बल पर एक राज्य का सपना पूरा किया। यह संदेश आने वाली पीढ़ियों के लिए हमेशा मार्गदर्शक रहेगा कि संघर्ष चाहे कितना भी कठिन क्यों न हो, यदि इरादे मज़बूत हों तो असंभव भी संभव बन जाता है।

हेमन्त सोरेन सरकार का यह निर्णय झारखंड की आत्मा को सम्मान देने जैसा है। गुरुजी शिबू सोरेन केवल एक नेता नहीं, बल्कि एक युग हैं। उनका नाम इस मिट्टी के साथ हमेशा जुड़ा रहेगा और अब सरकारी पहचान में अमर होकर आने वाली पीढ़ियों को यह याद दिलाता रहेगा कि – “यह राज्य सिर्फ खनिजों और जंगलों का भंडार नहीं, बल्कि संघर्षों और बलिदानों की धरोहर है।”

आज जब हम गुरुजी को याद करते हैं, तो यह केवल श्रद्धांजलि नहीं, बल्कि यह संकल्प भी होना चाहिए कि हम उनके सपनों का झारखंड बनाएँ – एक ऐसा झारखंड जहां हर गरीब, हर किसान, हर मजदूर और हर आदिवासी को न्याय और सम्मान मिले। वही सच्चे अर्थों में  उनकी श्रद्धांजलि होगी ।

अशोक कुमार झा

अतिथि शिक्षकों की यह कैसी मेहमाननवाजी


ओ पी सोनिक


    ऐसा माना जाता है कि भारतीय समाज के व्यवहार में अतिथि को देवता के समान मानने की भावना समाहित है। पिछले कई वर्षों से भारत की शिक्षा व्यवस्था में शिक्षकों के लिए प्रयुक्त अतिथि शब्द जितना ट्रेंड करता रहा है, उतना पहले कभी नहीं देखा गया। जब शिक्षकों की भारी कमी का मुद्दा विभिन्न माननीय न्यायालयों में सरकारों के गले की फांस बनने लगा तो सरकारों द्वारा शिक्षकों की कमी को पूरा करने के लिए एक ऐसा अस्थाई जुगाड़ ईज़ाद कर लिया जिससे देश की डगमगाती शिक्षा व्यवस्था फिर से चलने लगी। सरकारी शिक्षण संस्थानों में नियमित शिक्षकों की अपेक्षा अतिथि शिक्षकों की बढ़ती संख्या को देखकर लगता है कि फिर से चलने वाली व्यवस्था अब लंगड़ी व्यवस्था का रूप ले रही है। विभिन्न राज्यों में ऐसे शिक्षकों को अतिथि शिक्षक, शिक्षा मित्र, संविदा शिक्षक, पारा शिक्षक, शिक्षक सेवक और विद्या वालंटियर्स जैसे भावनात्मक नामों से जाना जाता है। काम चाहें चुनाव का हो या मतदाता सूचियों का या किसी अन्य गैर शैक्षिणिक गतिविधि का, आमतौर पर नियमित शिक्षक उक्त गतिविधियों में व्यस्त रहते हैं। ऐसे में बच्चों को पढ़ाने का ज्यादा दायित्व अतिथि शिक्षकों के कंधों पर टिका होता है।
   अधिकांश राज्यों में शिक्षकों के प्रति राजनीतिक उदासीनता ने उन्हें मजदूरों के स्तर पर लाकर खड़ा कर दिया है। मजदूरों को भी कार्य दिवसों के हिसाब से पारिश्रमिक मिलता है और अतिथि शिक्षकों को भी। जिन राज्यों में मासिक आधार पर निर्धारित धनराशि देने का प्रावधान है भी तो वह अपर्यात है। मजदूरों और अतिथि शिक्षकों में बस फर्क सिर्फ इतना रह गया है कि अतिथि शिक्षकों को मजदूरों की तरह काम के लिए चौराहों पर खड़ा नहीं होना पड़ता। महात्मा गांधी रोजगार गारंटी योजना में मजदूरों को वर्ष में 100 दिनों के रोजगार की सरकारी गारंटी है, लेकिन सरकारी शैक्षणिक संस्थानों में काम करने वाले अतिथि शिक्षकों को वर्ष में कितने दिन का काम मिलेगा, इसकी कोई गारंटी नहीं है। लाला जी की दुकान पर काम करने वालों और घरों में काम करने वाली महिलाओं को महीने की तय धनराशि के आधार पर काम पर रखा जाता है। आमतौर पर इन्हें सप्ताह में एक दिन छुट्टी मिलती है जिसके पैसे नहीं कटते। और इन कार्यो को करने के लिए कोई शैक्षणिक योग्यता भी निर्धारित नहीं है, जो मानवीय पहलू के सकारात्मक पक्ष को दर्शाता है।


   शैक्षणिक योग्यता प्राप्त अतिथि शिक्षक विपरीत परिस्थितियों से जूझ रहे हैं। अधिकांश राज्यों में उन्हें कोई साप्ताहिक अवकाश नहीं मिलता। रविवार एवं राजपत्रित अवकाशों के पैसे काट लिए जाते हैं। दुनिया की बड़ी अर्थव्यवस्था के रूप में उभरने वाले देश में क्या राज्य सरकारें आर्थिक रूप से इतनी कमजोर हो गयी हैं कि अतिथि शिक्षकों को रविवार एवं राजपत्रित अवकाशों के पैसे देने में असमर्थ हैं। अतिथि शिक्षकों पर कभी भी कार्यमुक्त होने का खतरा मंडराता रहता है। ऐसे शिक्षकों के रोजगार की अनिश्चितता शोले फिल्म के उस डायलाग की याद दिलाती है जिसमें गब्बर सिंह बसंती को डांस करने को मजबूर करता है और फिर कहता है, कि जब तक तेरे पैर चलेंगे, तब तक उसकी यानी वीरू की सांसे चलेंगी। अतिथि शिक्षकों की नौकरी भी तभी तक लगातार चल पाती है जब तक कि उस पोस्ट पर कोई नियमित शिक्षक नहीं आ जाता। नियमित शिक्षक के आने पर अतिथि शिक्षक स्वतः ही कार्यमुक्त हो जाते हैं। उन्हें शिक्षक के रूप में फिर से काम करने के लिए लंबा इंतजार करना पड़ता है। प्रायः ग्रामीण क्षेत्रों से शहरों एवं कस्बों की ओर आए बेरोजगार युवक निराश होकर वापस गांव लौट जाते हैं। अतिथि शिक्षकों को उनके निवास से इतनी दूर के स्कूलों में नियुक्त कर दिया जाता है कि उनका अधिकांश समय आने जाने में ही व्यतीत हो जाता है।


   जब भी कभी अतिथि शिक्षकों का कोई आंदोलन सक्रिय होता है तो गिद्ध की दृष्टि लगाए बैठी राजनीति आंदोलन का राजनीतिक अपहरण कर उसको निष्प्रभावी बनाने का काम करती है। देश की राजधानी दिल्ली में अतिथि शिक्षकों के ऐसे कई आंदोलन राजनीतिक अपहरण का शिकार हो चुके हैं। यही वजह है कि दिल्ली में अतिथि शिक्षकों को पक्का करने की खोखली घोषणाएं कच्ची साबित हुई हैं। ऐसी घोषणाओं के लगे पोस्टर कई स्कूलों में आज भी देखे जा सकते हैं। अतिथि शिक्षकों की कुंठा एक ऐसी असमंजसता में फंसी है जो उन्हें न तो रोजगार में होने की अनुभूति होने देती है और न ही बेरोजगार होने की। भारत में हर वर्ष परीक्षा पर चर्चा होती है पर नौकरियों के लिए आयोजित उन प्रतियोगी परीक्षाओं पर चर्चा नहीं होती जिनमें पेपर लीक होने के कारण नियुक्तियों की प्रक्रिया को लम्बे समय तक टाल दिया जाता है। समय समय पर देश के कई राज्यों में अतिथि शिक्षकों के मामले माननीय न्यायालयों में सरकारी उदासीनता की भेंट चढ़ जाते हैं। भारत में सरकारी क्षेत्र में बढ़ती ठेकेदारी प्रथा ने एक अलग तरह के सामन्तवाद को जन्म देने का काम किया है।
  शिक्षा से संबंधित संसदीय समिति की रिपोर्ट के अनुसार देश में शिक्षकों के करीब दस लाख पद खाली पड़े हैं। चौंकाने वाली यह भी है कि केन्द्रीय सरकार द्वारा संचालित केन्द्रीय विद्यालयों और जवाहर नवोदय विद्यालयों में रिक्त पद अपेक्षाकृत अधिक हैं। उक्त आंकड़ों के आधार पर अंदाजा लगाया जा सकता है कि दूर दराज के क्षेत्रों में शिक्षकों के रिक्त पदों की हालत क्या होगी। उक्त संसदीय समिति ने जल्द ही खाली पदों को भरने को कहा है ताकि शिक्षा व्यवस्था की सुचारूता को सुनिश्चित किया जा सके। भारत जिस शिक्षा व्यवस्था के दम पर विश्व गुरू बनने के सपने देख रहा है, वह अभी कोसों दूर नजर आता है। जब शैक्षणिक संस्थानों में बच्चों को पढ़ाने वाले पर्याप्त संख्या में नियमित गुरू ही नहीं होंगे तो भारत विश्व गुरू कैसे बन पाएगा। अतिथि शिक्षकों की यह कैसी मेहमाननवाजी है जो उन्हें बेरोजगारी से जूझने को विवश कर रही है। चंद राज्यों ने अस्थाई शिक्षकों के हित के लिए सराहनीय प्रयास भी किए हैं पर यह समस्या राष्ट्रीय स्तर की है तो इसके समाधान भी राष्ट्रीय स्तर के होने चाहिए। बेहतर होगा कि अतिथि या अस्थाई शिक्षकों के लिए स्थाई रोजगार की व्यवस्था पर अधिक ध्यान दिया जाए।

ओ पी सोनिक

खोदा पहाड़ निकली चुहिया

वीरेन्द्र सिंह परिहार

बिहार में चुनाव आयोग मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण (एस.आई.आर.) के अभियान को लेकर कांग्रेस, राजद समेत दूसरे विपक्षी दलों ने कुछ ऐसा मुद्दा बनाने की कोशिश की- जिसे तिल का ताड़ या राई का पहाड़ ही कहा जा सकता है। इसके लिये उन्होंने संसद में पर्याप्त उत्पात मचाया। बिहार में राहुल और तेजस्वी इसके विरोध में पूरे बिहार की धरती नापते रहे। इसे चुनाव आयोग की मिलीभगत से सत्ताधारी पार्टी द्वारा वोट चोरी बताने का अभियान चलाते रहे। सर्वोच्च न्यायालय में तो याचिकाएं इसके विरोध में दायर हुई हीं। यह बात और है कि इसको लेकर सर्वोच्च न्यायालय ने न तो चुनाव आयोग के काम पर रोक लगाई और न ही याचिकाकर्ताओं को कोई विशेष राहत ही दी। यहाँ तक कि सर्वोच्च न्यायालय ने इस सम्बन्ध में विरोधी दलों की इस बात को भी मानने से इंकार कर दिया कि आधार, राशन कार्ड और वोटर आईडी नागरिकता तय करने के लिये पर्याप्त आधार हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी माना कि वोट जोड़ना और काटना चुनाव आयोग का काम है। बिहार के संदर्भ में चुनाव आयोग  सिर्फ यही परीक्षण कर रहा था कि मतदाता सूची में जिन मतदाताओं के नाम दर्ज हैं, वह भारतीय नागरिक है या नहीं।

गजब की बात तो यह कि चुनाव आयोग ने एस.आई.आर. के तहत बिहार में 65 लाख लोगो के नाम काटे। निश्चित रूप से जो फर्जी वोटों, बांग्लादेशी और रोहिंग्याओं के दम पर चुनाव जीतने का संकल्प संजोए बैठे थे, उन्हें तो चुनाव आयोग के इस कदम से भारी आघात पहुँचना स्वाभाविक है। यह भी उल्लेखनीय है कि बिहार के ही मुस्लिम बहुल इलाकों में 100 लोगो पर 123 प्रतिशत आधार का कवरेज है जबकि पूरे बिहार में यह कवरेज 94 प्रतिशत है। इससे समझा जा सकता है कि यदि आधार को लेकर मतदाता सूचियाँ फाइनल की गई, तो कितना बड़ा फर्जीवाड़ा हो सकता था। यह भी उल्लेखनीय है कि बिहार में मतदाता सूची में 65 लाख नाम काटने को लेकर भले ही जितना हंगामा मचाया गया हो, पर इस सम्बन्ध में 1 सितम्बर तक यानी पूरे एक महीने में सिर्फ 120 आपत्तिया ही आई। इससे यह समझा जा सकता है कि इस मामले में निर्वाचन आयोग पूरी तरह सही है।

अब एक तरफ तो राहुल गाँधी चुनाव आयोग पर वोट चोरी का आरोप लगा रहे हैं, कह रहे हैं कि एक ही पते पर कई वोटर्स, डुप्लीकेट और फेक वोटर हैं। कई के मकान नम्बर 0 है। वह तो यहाँ तक कहते हैं कि मोदी वोट चोरी करके प्रधानमंत्री बने हैं। यदि राहुल गाँधी की बाते आंशिक रूप से भी सच है, तो फिर देश में मतदाता सूचियों को गहन परीक्षण की जरूरत है। यह बात और है कि जब चुनाव आयोग राहुल गाँधी से इस सम्बन्ध में शपथ-पत्र माँगता है, तो वह शपथ-पत्र पर अपने आरोप लगाने को तैयार नहीं क्योंकि शपथ-पत्र झूठा होने पर 7 वर्ष तक की सजा का प्रावधान है। कुल मिलाकर विपक्ष सर्वोच्च न्यायालय जा सकता है। संसद को कई दिनों से बाधित कर रखा है और तमाम उल्टे सीधे आरोप लगा रहा है पर शपथ-पत्र पर अपनी बात कहने को तैयार नहीं। उल्लेखनीय तथ्य यह भी है कि रायबरेली और अमेठी जो नेहरू खानदान के विशेष चुनाव क्षेत्र हैं, वहाँ भी बड़ी संख्या में मतदाताओं के मकान नम्बर शून्य लिखे हुये हैं।

भाजपा नेता रविशंकर प्रसाद ने इस सम्बन्ध में राहुल गांधी के रवैये को लेकर कई सवाल उठाये हैं। उन्होंने राहुल गांधी से पूँछा है क्या मृत लोगो, पंजीकृत पते पर न रहने वाले लोगों और दो अलग-अलग निर्वाचन क्षेत्रों में जिन मतदाताओं के नाम हैं। क्या उनके नाम बने रहना चाहिए, क्या उन्हें दो बार मतदान करने की अनुमति मिलनी चाहिए ? अखिलेश और तेजस्वी जैसे नेता ई.वी.एम. की जगह बैलेट पेपर से चुनाव कराने की माँग बराबर करते रहते हैं, यानी वह चाहते हैं कि जैसे बिहार समेत देश के अधिकांश हिस्सों में बूथ लूट लिये जाते थे, उसकी शुरूआत फिर से हो जबकि चुनाव आयोग ने ई.वी.एम. के माध्यम से चुनाव कराकर बूथ लूटने की घटनाओं पर अमूमन विराम लगा दिया है। सबसे उल्लेखनीय बात इस सम्बन्ध में 1 सितम्बर को इस सम्बन्ध में सुनवाई को लेकर सर्वोच्च न्यायालय का रवैया रहा जिसमें सर्वोच्च न्यायालय ने साफ कह दिया कि हम आधार अधिनियम द्वारा निर्धारित सीमा से आगे आधार को नहीं बढ़ा सकते। शीर्ष न्यायालय ने स्पष्ट कहा कि हम पट्टूस्वामी फैसले को कायम रखते हुये आधार के सम्बन्ध में पाँच न्यायाधीशों की पीठ द्वारा कही गई बातों से आगे नहीं जा सकते जिस में यह तय किया गया था कि आधार संख्या अपने आप में नागरिकता या निवास का अधिकार प्रदान नहीं करते। यह भी उल्लेखनीय है कि आधार अधिनियम की धारा 9 कहती है- ‘‘आधार संख्या या उसका प्रमाणीकरण अपने आप में किसी आधार संख्या धारक को नागरिकता या निवास का कोई अधिकार प्रदान नहीं करेगा या उसका प्रमाण नहीं होगा। अब राहुल गांधी गली-मुहल्ले के शोहदो की तर्ज पर भले कहें कि वह एटम-बम फोड़ चुके हैं, अब हाइड्रोजन बम फोड़ने वाले हैं पर सर्वोच्च न्यायालय का रवैया इस सम्बन्ध में यही बताता है कि एस.आई.आर के सम्बन्ध में पूरे देश में जो हंगामा खड़ा करने की कोशिश की गई, उसका निहितार्थ मात्र यही निकलता है- ‘‘खोदा पहाड़, निकली चुहिया।’’

वीरेन्द्र सिंह परिहार

अपने ही घर में घिरते जा रहे डोनाल्ड ट्रंप

डोनाल्ड ट्रं

राजेश कुमार पासी

डोनाल्ड ट्रंप एक व्यापारी हैं और अपनी इस मानसिकता से बाहर नहीं निकल पाए हैं । सिर्फ सात महीनों के कार्यकाल में ही अपने फैसलों से वो न केवल विदेशों में बल्कि अपने ही देश में घिरते जा रहे हैं । बेशक वो एक व्यापारी हैं लेकिन वहां भी कोई बड़ी उपलब्धि उनके नाम नहीं है. वो केवल अपने पारिवारिक व्यापार को आगे बढ़ा रहे हैं । उनकी वर्तमान हालत को देखते हुए कहा जा सकता है कि उन्हें न तो घरेलू राजनीति की समझ है और न ही वो वैश्विक राजनीति को समझ पा रहे हैं । अभी तक सिर्फ उनकी नीतियों को लेकर सवाल उठाया जा रहा था लेकिन अब उनकी नीयत पर भी सवाल उठा दिया गया है । अमेरिका के पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जेक सुलिवन ने डोनाल्ड ट्रंप पर गंभीर आरोप लगाते हुए कहा है कि उन्होंने पाकिस्तान के साथ अपने परिवार के व्यापारिक हितों के कारण भारत के साथ दशकों पुराने रिश्तों को खतरे में डाल दिया है ।

 सुलिवन का कहना है कि ट्रंप ने निजी फायदे के लिए विदेश नीति का दुरुपयोग किया है जो अमेरिका के दीर्घकालिक हितों के लिए नुकसानदेह है । उन्होंने इसे अमेरिका के लिए बड़ा रणनीतिक दुस्साहस बताया है । देखा जाए तो यह एक बहुत ही गंभीर आरोप हैं क्योंकि इससे यह संदेश जाता है कि ट्रंप को केवल अपने निजी हितों की चिंता है । भारत के प्रति उनकी बेरुखी और सख्ती पर यह आरोप सवालिया निशान लगाते हैं । भारत तो पहले ही पूरी दुनिया में यह बता रहा है कि वो अमेरिका के खिलाफ कुछ नहीं कर रहा है, डोनाल्ड ट्रंप ही बेवजह उसे निशाना बना रहे हैं । अभी  तक तो यह माना जा रहा था कि डोनाल्ड ट्रंप अमेरिकी हितों के लिए भारत को झुकाकर समझौता करना चाहते हैं लेकिन जेक सुलिवन के आरोप कुछ और ही कहानी सुना रहे हैं । ऐसा नहीं है कि यह बात पहले नहीं कही गई है लेकिन इस तरीके से खुलकर किसी प्रतिष्ठित अमेरिकी ने ट्रंप को निशाने पर नहीं लिया है । 

यह आरोप उस समय लगाया गया है, जब पूरे अमेरिकी मीडिया में एससीओ शिखर सम्मेलन की खबरें चल रही हैं । इस समय पूरा अमेरिकी मीडिया डोनाल्ड ट्रंप को खलनायक साबित करने पर लगा हुआ है और प्रधानमंत्री मोदी को नायक बनाने पर तुला हुआ है । यह तब हो रहा है जब अमेरिकी मीडिया को भारत विरोधी रवैये के लिए जाना जाता है । जेक सुलिवन ने कहा है कि भारत अमेरिका का विश्वसनीय और मजबूत सहयोगी है, विशेष तौर पर तकनीक, प्रतिभा और आर्थिक क्षमता की दृष्टि से भारत महत्वपूर्ण देश है । उनका कहना है कि भारत के साथ मजबूत संबंध चीन और अन्य वैश्विक खतरों से निपटने में मदद कर सकते हैं ।  उन्होंने कहा है कि ट्रंप की  नीतियों का असर केवल भारत तक सीमित नहीं है बल्कि उनकी नीतियों के कारण अमेरिका के अन्य मित्र देशों में भी यह संदेश चला गया है  कि अमेरिका पर भरोसा करना जोखिम भरा कदम हो सकता है । देखा जाए तो उनकी इस बात में सच्चाई है क्योंकि जापान और आस्ट्रेलिया ने डोनाल्ड ट्रंप की परवाह न करते हुए भारत से अपने संबंधों को बढ़ाने की बात कही है । यूरोपीय देश भी भारत से सहयोग बढ़ाने की बात कर रहे हैं जबकि ट्रंप चाहते हैं कि यूरोपीय देश भारत पर अमेरिका की तरह टैरिफ लगा दें ।

सुलिवन का कहना है कि अमेरिका का वचन ही उसकी ताकत है, इसलिए मित्र देशों को यह भरोसा है कि अमेरिका रणनीतिक साझेदारियों में विश्वसनीय है । उन्होंने कहा है कि ट्रंप की नीति अमेरिका की विश्वसनीयता और अंतर्राष्ट्रीय नेतृत्व पर प्रश्न चिन्ह लगा सकती है । वास्तव में देखा जाए तो सेलिवन जो कह रहे हैं, वो होने का अंदेशा नहीं है बल्कि हो चुका है । अमेरिका की विश्वसनीयता तो सवालों के घेरे में आ चुकी है और उसके ही मित्र देश उससे परेशान हैं । डोनाल्ड ट्रंप पूरी दुनिया को अपने टैरिफ वॉर से डराकर मनमाना समझौता करना चाहते हैं । यूरोप सहित कई देशों से उन्होंने ऐसे समझौते कर भी लिए हैं । जिन देशों ने ट्रंप के दबाव में आकर समझौते कर लिए हैं, उन देशों में अमेरिका का विरोध बढ़ता जा रहा है । 

               अमेरिका के मशहूर अंतर्राष्ट्रीय मामलों के विशेषज्ञ प्रोफेसर जॉन मियशीर्मर ने ट्रंप प्रशासन की भारत नीति को बड़ी गलती माना है । उनका कहना है कि तेल खरीदने पर लगाए गए टैरिफ काम करने वाले नहीं हैं । उन्होंने कहा है कि अमेरिका के इस कदम से भारत के साथ रिश्तों को बड़ा नुकसान हुआ है और अब भारत अमेरिका से दूर जा रहा है । उन्होंने कहा कि यह हमारी बहुत बड़ी गलती है, यह समझ नहीं आ रहा है कि आखिर यहां क्या हो रहा है । उन्होंने ट्रंप पर आरोप लगाया है कि उन्होंने भारत के साथ मजबूत रिश्तों को जहरीला बना दिया है । उनका कहना है कि चीन को रोकना अमेरिका की सबसे बड़ी प्राथमिकता है और इसमें भारत अहम साझेदार है । ट्रंप के कारण भारत हमसे बहुत नाराज है, मोदी न सिर्फ रूस बल्कि चीन के भी  करीब आ रहे हैं । उन्होंने इसके लिए ट्रेड सलाहकार नवारो को जिम्मेदार बताते हुए कहा है कि उनकी नीतियों का उल्टा असर हो रहा है । उन्होंने कहा  है कि भारत को झुकाने की कोशिश की जा रही है लेकिन भारत जो कदम उठा रहा है उससे पता चलता है कि यह रणनीति गलत है । अमेरिका के पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जॉन बोल्टन का कहना है कि सोवियत संघ से नजदीकी और चीन से  बढ़ते खतरे के बावजूद पश्चिमी देशों ने भारत के साथ रिश्ते मजबूत किए थे, लेकिन ट्रंप के टैरिफ ने दशकों पुरानी सारी मेहनत बर्बाद कर दी है । उन्होंने कहा है कि ट्रंप ने आर्थिक दृष्टिकोण अपनाकर रणनीतिक फायदों को खतरे में डाल दिया है । उनका कहना है कि ट्रंप के कारण चीनी राष्ट्रपति शी चिनफिंग को पूर्वी देशों के साथ अपने रिश्ते सुधारने का मौका मिल गया है, ट्रंप की अपनी विनाशकारी टैरिफ नीति के कारण सारे प्रयासों पर पानी फिर गया है । उनका कहना है कि ट्रंप कूटनीति को समझना ही  नहीं चाहते है, उन्होंने चिनफिंग को पूर्व के साथ रिश्ते बेहतर करने का मौका दे दिया है । 

                वास्तव में देखा जाए तो इन लोगों द्वारा जो कुछ कहा जा रहा है, वो एससीओ की बैठक से सच साबित होता दिखाई दे रहा है । जिस पाकिस्तान को अमेरिकी राष्ट्रपति गोद में उठाकर घूम रहे हैं, उस पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ को उस बैठक में कोई पूछने वाला नहीं था । ट्रंप पाकिस्तान को भारत के बराबर रखकर देख रहे हैं लेकिन चीन और रूस ने दिखा दिया है कि भारत की ताकत क्या है । अमेरिकी मीडिया भारत विरोधी रवैया रखता है और भारत को ज्यादा महत्व नहीं देता लेकिन एससीओ की सफल बैठक के बाद भारत अमेरिकी मीडिया की सुर्खियों में छाया हुआ है । अमेरिकी मीडिया ने डोनाल्ड ट्रंप को भारत-अमेरिकी  संबंधों को खराब करने के लिए खलनायक की तरह पेश करना शुरू कर दिया है । कहा जा रहा है कि चीन नई विश्व व्यवस्था का समीकरण तैयार कर रहा है । प्रधानमंत्री मोदी के चीन में हुए भव्य स्वागत और चीन के राष्ट्रपति का उनके साथ व्यवहार अमेरिकी मीडिया की सुर्खियां बना हुआ है । वाशिंगटन पोस्ट ने लिखा है कि राष्ट्रपति शी चिनफिंग एससीओ को सिर्फ सुरक्षा मंच नहीं बल्कि आर्थिक-सहयोगी ब्लाक बनाना चाहते हैं ।

सीएनएन, न्यूयॉर्क टाइम्स, ब्लूमबर्ग समेत ज्यादातर अखबारों में इस बात का उल्लेख किया गया है कि ट्रंप ने अमेरिका की 25 सालों की मेहनत बर्बाद कर दी है । अमेरिकी मीडिया का कहना है कि ट्रंप ने एक झटके में भारत को रूस और चीन के खेमे में खड़ा कर दिया है । अमेरिकी मीडिया चिंता जता रहा है कि पीएम मोदी की रूस और चीन से नजदीकी उन्हें धीरे-धीरे अमेरिका से दूर कर रही है । द इकोनॉमिस्ट ने एससीओ शिखर सम्मेलन को भारत और चीन के बीच सुधरते रिश्तों का एक शानदार उदाहरण बताया है । द इकोनॉमिस्ट ने लिखा है कि ट्रंप के बेमतलब फैसलों ने भारत को अमेरिका से दूर कर दिया है । अखबार ने लिखा है कि चिनफिंग ने इस कार्यक्रम का इस्तेमाल चीन की वैश्विक ताकत का प्रदर्शन करने के लिए किया है । न्यूयॉर्क टाइम्स ने लिखा है कि रूस और भारत के नेताओं की यात्रा के जरिये  चीन ने दिखाया है  कि शासन कला, सैन्य शक्ति और इतिहास का उपयोग कैसे किया जा सकता है । अखबार लिखता है कि भारत, अमेरिका के लिए चीन का आर्थिक विकल्प था लेकिन ट्रंप ने उसे खत्म कर दिया है । वॉल स्ट्रीट ने लिखा है कि ट्रंप की नीतियों ने दुनिया को हिला दिया है, चीन इस मौके पर खुद को ग्लोबल लीडर के रूप में पेश कर रहा है । अमेरिकी मीडिया का ट्रंप के खिलाफ यह अभियान शायद ही उन्हें सोचने के लिए मजबूर करे । उम्मीद की जा रही है कि 2026 के मध्यावधि चुनाव के पहले ट्रंप की नीतियों में कुछ बदलाव हो ।  हमें उम्मीद करनी चाहिए कि डोनाल्ड ट्रंप को जल्दी समझ आ जाए कि भारत और अमेरिका स्वाभाविक रूप से सहयोगी देश हैं । भारत दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था है और सबसे बड़ा लोकतंत्र है । भारत सरकार दोनों देशों के रिश्तों को ज्यादा खराब होने से बचाने के लिए बदले की कार्यवाही नहीं कर रही है । भारत सरकार जानती है कि अमेरिका  से रिश्ते भारत के लिए जितने बहुत जरूरी हैं, उतने ही अमेरिका के लिए भारत से रिश्ते जरूरी हैं ।  

राजेश कुमार पासी

शिक्षक : दायित्वबोध और सम्मान

शिक्षक दिवस विशेष 

डा. विनोद बब्बर 

शिक्षक दिवस है तो वातावरण में ‘गुरु गोविंद दोउ खड़े, काके लागू पाय‘ से ‘शिक्षक राष्ट्र निर्माता है’,  ‘युग निर्माता है’ का शोर तो होगा ही लेकिन इस शब्दजाल और नारों के प्रवाह में बहने से पहले यह समझना जरूरी है कि क्या शिक्षक गुरु है? क्या हम उसे पर्याप्त सम्मान दे रहे हैं? अगर नहीं तो क्या ये नारे आत्म प्रवंचना हैं? समाज से छल हैं? कहीं ऐसा तो नहीं कि समाज में नैतिक मूल्यों में आई गिरावट के जिम्मेवार शिक्षक से अधिक हम ही हैं? यह सर्वविदित है कि आषाढ़ पूर्णिमा गुरु पूजा उत्सव तो 5 सितम्बर शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाता है। जब हम और हमारा समाज ही दोनो को एक नहीं मानता तो शिक्षक को गुरु कहे भी तो कैसे ? 

निजी विद्यालय का शिक्षक जो अपने आका का हर आदेश मानने के लिए बाध्य है। शिक्षक बनना उसकी प्राथमिकता भी नहीं थी। विश्वास न हो तो आज के किसी भी युवा से पूछो तो वह अपना लक्ष्य डाक्टर, इंजीनियर, पायलट, सीए, यहां तक कि नेता भी बताएगा लेकिन टीचर कहने से बचेगा। हाँ, यह बात अलग है कि जब कहीं नहीं तो यही सही। ऐसे बोझिल परिवेश में उससे छात्र के सर्वांगीण विकास की आपेक्षा करना स्वयं को धोखा देना नहीं तो औैर क्या है?

गत वर्ष  शिक्षक समारोह में एक मुख्यमंत्री ने कहा, ‘आज कहीं कोई आपराधिक घटना होती है तो उस राज्य का मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री पुलिस प्रमुख को बुलाकर कहता है, ‘एक सप्ताह में सब ठीक होना चाहिए।’ लेकिन मेरा स्वप्न है किजब भी कहीं कोई आपराधिक घटना हो तो मैं पुलिस चीफ को नहीं, स्कूलों, कालेजों के प्रमुखों और शिक्षामंत्री को बुलाकर कहूँ- ‘एक सप्ताह में सब ठीक हो जाना चाहिए।’ तालियों की गड़गड़ाहट तो होनी ही थी। लेकिन भावनाओं को उभारकर वोट तो पाये जा सकते हैं परंतु समस्या हल नहीं होती। उनके पास इस बात का कोई जवाब नहीं था कि पुलिस के पास बहुत से अधिकार हैं। लेकिन  जो शिक्षक गलती करने पर छात्र को दण्ड देना तो दूर डांट भी नहीं सकता। जो खुद डरकर समय बिता रहा हो। किसी अयोग्य को भी फेल तक नहीं कर सकता उससे आप अपराधमुक्त समाज की आपेक्षा आखिर किस आधार पर और क्यों करते हो? 

निश्चित रूप से शिक्षा का उद्देश्य मात्र अक्षर-ज्ञान नहीं है। सच्ची शिक्षा वह है जो ‘मस्तिष्क में ज्ञान, हृदय में गुण, शरीर में शक्ति और मन में सभी जीवों के प्रति दया, करूणा, सौहार्द का संचार करे। शिक्षक और विद्यार्थी किसी भी राष्ट्र की नींव के वे पत्थर हैं जिनका तन से ही नहीं, चरित्र से भी मजबूत होना आवश्यक है। एक समय था जब छात्र को गुरुकुल में रह कर शिक्षण के साथ वहां की व्यवस्था से संबंधित अन्य कार्य जैसे- जंगल से लकड़ियॉं लाना, साफ-सफ़ाई, भोजन बनाना आदि भी करते थे। राजा- प्रजा की सन्तानें एक समान, एक साथ रह कर शिक्षा प्राप्त करती थीं। विश्वामित्र, वशिष्ठ, चाणक्य, द्रोणाचार्य जैसे श्रेष्ठ गुरुओं की एक सुदीर्घ परम्परा के दर्शन भारतीय संस्कृति में होते हैं। तब अभिभावक अपनी प्रिय संतान को गुरु को सौंपते हुए कहते थे- यथेह पुरुषोऽसत् अर्थात्- हे आचार्य! आप इस बालक को श्रेष्ठ विद्या प्रदान कर ऐसी शिक्षा दें कि यह पुरुष बन जाये। (पुरुष पृ अर्थात् पालन और पूर्णयों धातु से बना है। जिसका अर्थ है- पालन करने वाला और पूर्ण) इस तरह  गुरु से अपेक्षा की जाती थी कि उनके मार्गदर्शन में उनका पुत्र यशस्वी, मनस्वी और वर्चस्वी बने, पूर्ण पुरुष बने। मनुष्यत्व प्राप्त करे। तब गुरु का आदर था। उसके प्रति राजा से समाज तक श्रद्धा थी। ऐसे में उससे शिष्य के सर्वांगींण विकास के लिए ‘हर संभव’ प्रयासो की अपेक्षा की जा सकती थी। तब गुरु-शिष्य दोनों ही प्रतिदिन प्रार्थना करते थे- सह नाववतु, सह नौ भुनक्तु सह वीर्यम् करवावहे तेजस्विना वधीत मस्तु, मा विद्विषावहे। अर्थात् हे प्रभु! हम दोनों को एक -दूसरे की रक्षा करने की सामर्थ्य दे। हम परस्पर मिलकर अपनी जाति, भाषा व संस्कृति की रक्षा करें। किसी भी शत्रु से भयभीत न हों। हमारी शिक्षा हमें एकता के सूत्र में बांधे, बुराईयों से मुक्त करे। हम एक-दूसरे पर विश्वास रखें।’

आज स्थिति क्या है?  दोनो  के हृदय में एक-दूसरे के प्रति अविश्वास एवं अनास्था का वातावरण  है। आज का शिक्षक छात्र को केवल वही विषय पढ़ाता है जिसके लिए उसे कहा गया है यथा- मैथ्स, कॉमर्स, से विज्ञान की हर शाखा की जानकारी देना वाला अलग शिक्षक। वह लगभग एक घंटे के लिए उस  कक्षा में आता है जहां 50 से अधिक बच्चेे हैं। वह उन्हें विषय की जानकारी भर ही दे सकता है। आज तो उसे छात्रों की विभिन्न गतिविधियों (?) के प्रति अनजान बने रहकर अपने विषय तक सीमित रहने के निर्देश भी हैं। ऐसे में यदि छात्र दिशाहीन होते हैं तो उस दायित्वहीनता का जिम्मेवार कौन है? क्या छात्र या उसके अभिभावक या वह राजनैतिक व्यवस्था जो बजट बढ़ाने का प्रचार तो खूब करती है परंतु छात्र शिक्षक अनुपात तय नहीं करती। अध्यापकों की कमी पूरा नहीं करती। ऐसे में चरित्र निर्माण की बाते भाषणों तक तो प्रशंसा पा सकती हैं परंतु व्यवहारिकता के धरातल पर उन्हें उपहास अथवा बकवास ही माना जाएगा।

कुछ लोग कहते हैं कि अध्यापक का कार्य नौकरी या व्यवसाय नहीं, सेवा है। लेकिन उनके पास इसका कोई जवाब नहीं है कि डाक्टर, सेना, पुलिस सहित आखिर  कौन सा काम सेवा नहीं है। अध्यापकों के वैयक्तिक, सामाजिक, राष्ट्रीय, राजनैतिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, नैतिक, व्यावसायिक उत्तरदायित्व भी होते है। पढ़ाना उनका कार्य है लेकिन बच्चें, युवा पीढी तथा समाज में उपयुक्त सभी की सहायता से आदर्श एवं संस्कारों का रोपण संभव है।  बेशक भारतीय संस्कृति में गुरु को उच्च स्थान प्राप्त था लेकिन आज शिक्षक से छात्र का दोस्त होने की आपेक्षा की जाती है। पर व्यवसाय बनती शिक्षा ने छात्र को ‘क्लाइन्ट’ और शिक्षक को ‘सर्विस प्रोवाइडर’ का रूप दे दिया है। ट्यूशन, कोचिंग फल-फूल रहा है क्योंकि आज शिक्षक को भी कोरा सम्मान नहीं, चंचला लक्ष्मी चाहिए क्योंकि उसके परिवार को भी उसे अपेक्षाएं इसलिए उसकी भी जरूरतें हैं। मोटी फीस देने वाले छात्र के हृदय में शिक्षक के प्रति श्रद्धा है या नहीं, इसका कोई पैमाना नहीं है। ऐसे में अध्यापक अपने कार्य एवं दायित्व बंधनों के कारण सिमट कर रह गया है। परिवार पालन व जीविका में निरंतरतता के लिए वह अपने अधिकारियों के आदेशों का पालन करने को विवश है। स्कूल में  शिक्षण के अतिरिक्त अनेक कार्य है। मिड डे मील जांचने से बांटने तक विद्यालय के वातावरण को शिक्षणेतर बनाते हैं। जनगणना, जाति गणना से मतदाता सूची तैयार करने, मतदान करवाने, मतगणना करने जैसे अनेकानेक कार्य भी शिक्षकों के कंधों पर है। ऐसे में वह अपने आप को केवल शैक्षिक कार्यों के प्रति एकाग्र कैसे करें?

 भौतिकवाद की मृग मारीचिका ने शिक्षक को कक्षा और टयूशन के बीच ‘पेन्डुलम’ बना दिया है। जिसका प्रभाव उसकी कार्यशैली और बौद्धिक क्षमता पर पड़ता है। 

एक सत्य यह भी है कि समय के साथ शिक्षा के तौर-तरीके भी बदले हैं। प्रत्यक्ष संवाद रेडियों, टीवी, कैसेट से आगे बढ़ता हुआ कम्प्यूटर, इंटरनेट आदि उपकरणों तक ऑन लाइन हो रहा है। इस बदलते परिदृश्य ने संवेदनात्मक स्पर्श के महत्व को समाप्त कर दिया है। दूसरी ओर प्रबंधन और तकनीक जैसे विषय परम्परागत शिक्षा पर हावी हो रहे हैं। अतः परम्परागत संस्कार और मानवीय मूल्यों के लिए स्थान सीमित हो रहा है। देश से अधिक विदेश का आकर्षण युवा विद्यार्थी को शिक्षा के वास्तविक अर्थ से दूर ले जा रहा है। ऐसे में सब यंत्रवत है। शिक्षक से विद्यार्थी तक। मनुष्य से व्यवस्था तक तो शिक्षक जो एक साधारण मनुष्य ही है। वह हम सब जैसा ही खाता है, पहनता है तो सोचता और करता भी हमारे ही जैसा होगा। फिर वहीं अकेला ‘राष्ट्रनिर्माता’ बनने की धुन पर क्यों झूमेगा।  लेकिन इसका अर्थ यह भी नहीं कि आज आदर्श शिक्षक नहीं है। अनेको हैं लेकिन सरकार, समाज और स्वयं हमने कब उसके महत्व को स्वीकारा है। कब उसकी परेशानियों को समझा है? हम भी तो मशीन के एक पुर्जे जैसा व्यवहार करते हुए उससे देवत्व वाले व्यवहार की आपेक्षा क्यों करते हैं?  नई शिक्षा नीति में अनेक अन्य परिवर्तन किये गये हैं उनके सकारात्मक परिणाम आने में कुछ समय लगेगा।  

आशा की जा सकती है शिक्षक दिवस जैसे अवसर पर देश के कर्णधारों से सामान्य जन चिंतन करेंगे कि शिक्षा, शिक्षक और छात्र अर्थात सम्पूर्ण समाज, सम्पूर्ण राष्ट्र का मंगल कैसे संभव है।  इसी से शिक्षक का  गौरव फिर से प्राप्त होने की आशा बंध सकती है। यदि सभी लोग गंभीरता से इस दिशा में चिंतन करेंगे तो समाज के लिए घाटे का सौदा नहीं होगा क्योंकि शिक्षक का कर्तव्यबोध उसे शिक्षा, संस्कृति और संस्कार के माध्यम से समाज के के लिए अपना श्रेष्ठ प्रदान करने को प्रेरित करेगा। हम सब के जीवन में जो शिक्षक रहे हैं, उन्हें श्रद्धा से स्मरण कर हम अपनी अगली पीढ़ी को भी शिक्षक का महत्व सिखा सकते हैं। फिलहाल गुरु से सेवाप्रदाता बनने को विवश शिक्षक को नमन! 

डा. विनोद बब्बर 

उम्मीदों की चीप से हौसलों की उड़ान भरता भारत

-ललित गर्ग-
भारत ने तकनीकी आत्मनिर्भरता की दिशा में एक नया इतिहास रचते हुए अपना पहला पूर्णतया स्वदेशी 32-बिट माइक्रोप्रोसेसर तैयार कर एक तकनीकी क्रांति को आकार दिया है। यह उपलब्धि न केवल वैज्ञानिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है बल्कि राष्ट्रीय गौरव का भी प्रतीक है। भारत ने इस तकनीकी क्रांति की तरफ कदम बढ़ते हुए आत्मनिर्भर एवं स्वदेशी तकनीकी प्रगति को नये आयाम दिये हैं। पहला पूर्णतः स्वदेशी 32-बिट माइक्रोप्रोसेसर विकसित करने की उल्लेखनीय उपलब्धि के लिये इसरो की सेमीकंडक्टर लैब साक्षी बनी है। पहली मेड इन इंडिया चिप का उत्पादन गुजरात के साणंद स्थित पायलट प्लांट से शुरू होगा। केंद्र की इस महत्वाकांक्षी परियोजना के अंतर्गत 18 अरब डॉलर से ज्यादा के कुल निवेश वाली दस सेमीकंडक्टर परियोजनाएं देश में चल रही हैं, अब भारत को इस तरह की तकनीक के लिये विदेशांें के पराधीन नहीं होना होगा। इस कड़ी प्रतिस्पर्धा वाले चिप क्षेत्र में भारत की यह दस्तक उत्साह जगाने वाली है, निश्चित ही इससे भारत की ताकत बढे़गी और तकनीक के साथ-साथ यह आर्थिक विकास को तीव्र गति देगा। फिलहाल आधुनिक समय की इस जादुई चिप के उत्पादन में ताइवान, दक्षिण कोरिया, जापान, चीन और अमेरिका जैसे देशों का वर्चस्व है। विशेषतः भारत की यह जादूई उपलब्धि अमेरिका को आइना दिखाने वाली है, ट्रंप को यह एक बड़ा झटका है।
 भारत इस क्षेत्र में एक प्रमुख वैश्विक खिलाड़ी बनने के लिये उत्सुक है। तभी सेमीकॉन इंडिया-2025 के उद्घाटन अवसर पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा कि वह दिन दूर नहीं है जब भारत की सबसे छोटी चिप दुनिया में बड़े बदलाव की नींव रखेगी। हालांकि, इस राह में अभी कई चुनौतियां हैं, लेकिन उम्मीद है कि छह सौ अरब डॉलर वाले वैश्विक सेमीकंडक्टर उद्योग में भारत की हिस्सेदारी आने वाले वर्षों में 45 से 50 अरब डॉलर की हो सकती है, जिससे भारत अनेक मोर्चें पर सफलता के परचम फहरायेगा। इस स्वदेशी 32-बिट माइक्रोप्रोसेसर को भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन की अर्धचालक प्रयोगशाला ने अभिकल्पित किया है और इसे “विक्रम” नाम दिया गया है। यह अंतरिक्ष-मानक माइक्रोप्रोसेसर है, जो मुख्यतः अंतरिक्ष अभियानों और रॉकेट प्रणालियों में प्रयोग के लिए तैयार किया गया है। इसरो ने सेमीकंडक्टर प्रयोगशाला (एससीएल) चंडीगढ़ के साथ मिलकर दो स्वदेशी 32-बिट माइक्रोप्रोसेसर विक्रम 3201 और कल्पना 3201 विकसित किए हैं। यह माइक्रोप्रोसेसर प्रक्षेपण यानों के नेविगेशन और नियंत्रण में मदद करेंगे। विक्रम 3201 पूरी तरह भारत में बना पहला 32-बिट प्रोसेसर है। इस कदम से इसरो को विदेशी प्रोसेसरों पर निर्भर नहीं रहना पड़ेगा जिससे अंतरिक्ष में देश की आत्मनिर्भरता बढ़ेगी। निश्चित ही इससे भारत ने महाशक्ति बनने की ओर अपनी गति को तीव्रता दी है, जिससे अमेरिका हिला और दुनिया भारत की ताकत से रू-ब-रू हो रही है।
अब तक भारत को अनेक जटिल अंतरिक्ष अभियानों के संचालन हेतु विदेशी सूक्ष्म-प्रक्रमकों और अर्धचालक पट्टिकाओं पर निर्भर रहना पड़ता था। यह विदेशी निर्भरता न केवल आर्थिक दृष्टि से बोझिल थी बल्कि राष्ट्रीय सुरक्षा के दृष्टिकोण से भी चुनौतीपूर्ण थी। “विक्रम” माइक्रोप्रोसेसर के निर्माण से भारत ने इस निर्भरता की बेड़ियों को तोड़ा है और आत्मनिर्भर भारत की दिशा में सशक्त कदम बढ़ाया है। निस्संदेह, भारत को चिप उत्पादन क्षेत्र में एक दिग्गज देश बनने के लिए निरंतर निवेश, अनुसंधान-विकास और विनिर्माण की आवश्यकता होगी। प्रधानमंत्री मोदी इसके लिये निरन्तर प्रयासरत है। हाल ही में प्रधानमंत्री की जापान यात्रा से उम्मीद जगी है कि वह वैश्विक सेमीकंडक्टर डिजाइन पारिस्थितिकीय तंत्र विकसित करने में भारत के लिये मददगार साबित हो सकता है। यह सुखद ही है कि भारत में चिप उत्पादन परियोजनाओं में जापानी निवेश बढ़ रहा है। प्रधानमंत्री मोदी की विदेश यात्राएं भारत को ऐसे ही विकास के नये शिखरों पर आरोहण कराने का सशक्त माध्यम बन रही है।
निश्चित रूप से मोदी सरकार के प्रयासों से भारत चिप उत्पादन के वैश्विक महत्वाकांक्षी अभियान की दौड़ में तेजी से आगे बढ़ सकता है। दरअसल, डिजिटल डिवाइसों का मस्तिष्क कहा जाने वाला सेमीकंडक्टर कंप्यूटर, मोबाइल, राउटर, कार, सैटलाइट जैसे उन्नत डिजिटल डिवाइस तैयार करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इन उपकरणों की कार्यकुशलता उन्नत चिप की ताकत पर निर्भर करती है। साधारण शब्दों में कहें चिप पतली सिलिकॉन वेफर पर बने लाखों-करोड़ों ट्रांजिस्टरों का संजाल है। जो कंप्यूट करने, मेमोरी प्रबंधन व सिग्नल प्रोसेस करके डिवाइस को उन्नत बनाती है। उम्मीद है कि भारत का स्वेदशी चिप इस साल के आखिर तक बाजार में आ सकेगी। जिसका असर जियोपॉलिटिक्स पर तो होगा ही, नये रोजगार सृजन का वातावरण भी बनेगा, भारत तकनीकी विकास के नये आयाम उद्घाटित करते हुए विश्व को अचंभित भी करेगा। निश्चय ही भारत यदि अनुसंधान-विकास व व्यापार सुगमता की स्थितियां निर्मित कर लेता है तो हमारी सेमीकंडक्टर आयात के लिये दूसरे देशों पर निर्भरता कम हो सकती है। इससे हम वैश्विक दबाव से मुक्त होकर अपनी आपूर्ति शृंखला को मजबूत बना सकते हैं।
32-बिट क्षमता का अर्थ है कि यह माइक्रोप्रोसेसर अधिक व्यापक स्मृति का उपयोग कर सकता है और जटिल संगणकीय कार्यों को तीव्र गति से संपन्न कर सकता है। अंतरिक्ष अभियानों में जहाँ प्रत्येक क्षण और प्रत्येक संकेत का महत्व होता है, वहाँ इस प्रकार की क्षमता अत्यंत आवश्यक है। यह केवल गति और कार्यकुशलता नहीं देता बल्कि विकिरण-सहनशीलता और दीर्घकालीन स्थिरता जैसे गुण भी समाहित करता है। अंतरिक्ष में प्रबल विकिरण, तापमान का उतार-चढ़ाव और कठोर परिस्थितियाँ होती हैं, जिनका सामना सामान्य माइक्रोप्रोसेसर नहीं कर सकते। इसलिए इस प्रकार का अंतरिक्ष-योग्य माइक्रोप्रोसेसर ही मिशनों की सफलता का आधार बन सकता है। इस उपलब्धि का एक और महत्वपूर्ण पहलू यह है कि इसके लिए आवश्यक रूपांकन, निर्माण और परीक्षण की सम्पूर्ण प्रक्रिया भारत में ही सम्पन्न की गई है। इसका अर्थ यह हुआ कि भारत अब केवल प्रौद्योगिकी का उपभोक्ता नहीं बल्कि उसका सर्जक भी है। सूक्ष्म-संगणक की यह अभिकल्पना केवल एक चिप का निर्माण नहीं है, यह भारत की वैज्ञानिक प्रतिभा, उसकी दूरदृष्टि और आत्मविश्वास का परिचायक है।
सेमीकंडक्टर क्षेत्र में सफलता हासिल करने की दिशा में भारत का एक सशक्त पक्ष यह भी है कि दुनिया के लगभग बीस फीसदी चिप डिजाइन इंजीनियर भारत में हैं। दरअसल, इलेक्ट्रॉनिक्स व आईटी क्षेत्र में कामयाबी के लिये भारत सरकार ने सेमीकंडक्टर परियोजना के रूप में एक महत्वाकांक्षी लक्ष्य रखा है। सरकार बड़ी घरेलू कंपनियों को संबल देने के लिये डिजाइन लिंक्ड इंसेंटिव यानी डीएलआई के तहत दिए जा रहे लाभ के विस्तार के साथ ही, इसके तहत दिये जाने वाले अनुदान को बढ़ाने पर गंभीरता से विचार कर रही है। जिसके तहत महत्वपूर्ण सेमीकंडक्टर उत्पादन परियोजनाओं के लिये केंद्र व राज्यों से प्रोत्साहन के रूप में परियोजना की कुल लागत का सत्तर फीसदी मिलना जारी रह सकता है। इस महत्वाकांक्षी परियोजना को भारत में गेम चेंजर टेक क्रांति माना जा रहा है।
इस संदर्भ में यह भी उल्लेखनीय है कि भारत के विभिन्न प्रौद्योगिकी संस्थान पहले ही “शक्ति” और “वेगा” जैसे स्वदेशी माइक्रोप्रोसेसर पर काम कर चुके हैं। इन प्रयासों ने आधारभूमि तैयार की और आज “विक्रम” के रूप में वह प्रयास मूर्त रूप में सामने आया है। यह न केवल अंतरिक्ष क्षेत्र बल्कि रक्षा, चिकित्सा उपकरणों और संचार प्रणाली में भी क्रांतिकारी परिवर्तन ला सकता है। निश्चित ही चुनौतियाँ भी कम नहीं हैं। बड़े पैमाने पर उत्पादन, उपकरण-समूह की उपलब्धता, संगणक-कार्यक्रमों का विकास, अनुप्रयोग-तंत्र का विस्तार और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रमाणन जैसी प्रक्रियाएँ अभी पूरी करनी होंगी। किंतु भारत ने जिस आत्मविश्वास के साथ इस दिशा में पहला कदम रखा है, वह आश्वस्त करता है कि भविष्य में हम और भी उन्नत सूक्ष्म-प्रक्रमक तैयार करने में सक्षम होंगे। “विक्रम” केवल एक तकनीकी उपलब्धि नहीं है, यह भारत की स्वाभिमानी यात्रा का घोष है। यह घोषणा है कि अब भारत केवल विज्ञान का अनुयायी नहीं बल्कि विज्ञान का निर्माता और मार्गदर्शक बनने की ओर अग्रसर है। आत्मनिर्भर भारत की संकल्पना अब शब्दों में नहीं, ठोस उपलब्धियों में आकार ले रही है।

चीन से निकटता के चलते क्या संयुक्त राष्ट्र में बदलेगी भारत की भूमिका ?

संदर्भ- एससीओ घोषणा-पत्र में पहलगाम हमले की निंदा के बाद संयुक्त राष्ट्र में भारत की भूमिका

प्रमोद भार्गव

 षंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) के शिखर सम्मेलन के बाद वैश्विक व्यवस्था में बदलाव का अनुभव किया जा रहा है। दुनिया एक नए षीतयुद्ध की ओर बढ़ती दिखाई दे रही है। निर्मित होती इस नई स्थिति में अमेरिका और उसके सहयोगी एक तरफ हैं, वहीं ब्रिक्स जैसे समूह दूसरी तरफ। इधर रूस, भारत और चीन एक मजबूत नए गठबंधन की ओर बढ़ रहे हैं। इसी का परिणाम रहा कि एससीओ में जारी संयुक्त घोशणा पत्र में पाकिस्तान की मौजदूगी में भारत में हुई आतंकी घटना पहलगाम हिंसा के जिम्मेदारों को सजा दिलाने पर मोहर लगना, भारत की एक बड़ी कूटनीतिक उपलब्धि है। पहलगाम हमले की निंदा पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ की उपस्थिति में की गई। इस घटनाक्रम को जहां पाकिस्तान की फजीहत के रूप में देखा जा रहा है, वहीं अमेरिकी अखबारों ने डोनाल्ड ट्रंप को भारत, अमेरिका संबंधों में दरार डालने वाले खलनायक के रूप में पेश किया गया है। चूंकि यह सम्मेलन चीन में संपन्न हुआ है, इसलिए चीन को नई विश्व व्यवस्था के सूत्रधार के रूप में देखा जा रहा है। बावजूद क्या यह मान लिए जाए कि चीन और भारत के बीच सुधरते संबंधों के आईने में भारत को संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद् में सदस्यता दिलाने में वह सहयोगी बनेगा ?
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चीन के तियानजिन में आयोजित हुए एससीओ के वार्षिक शिखर सम्मेलन में पहलगाम में हुए भयावह आतंकवादी हमले को भारत की अंतरात्मा पर आघात बताने के साथ, इसे विश्व बंधुत्व एवं मानवता में विश्वास रखने वाले प्रत्येक राष्ट्र के लिए एक खुली चुनौती भी माना। मोदी ने आतंकवाद से निपटने में दोहरे मापदंड त्यागने की जोरदार पैरवी की। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री षहबाज षरीफ, चीन के राश्ट्रपति षी जिनपिंग और अन्य वैश्विक नेताओं की उपस्थिति में मोदी ने कहा कि आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई मानवता के प्रति हमारा कर्त्तव्य हैं। याद रहे पाकिस्तान आतंकवाद का जनक होने के साथ उसका सबसे बड़ा समर्थक देश है। अब तक चीन पाकिस्तान का प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष समर्थन करता रहा है। चीन ने कथित तौर से संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में पाकिस्तान में स्थित लश्कर-ए-तैयबा और जैश-ए-मोहम्मद के पांच आतंकवादियों पर प्रतिबंध लगाने की उन्हें वैश्विक आतंकवादी घोषित करने के भारतीय प्रस्ताव को नामंजूर कर दिया था। हालांकि कुछ समय पहले पाकिस्तान में मौजूद लश्कर के आतंकवादियों के मुखौटा संगठन द रेजिस्टेंस फ्रंट (टीआरएफ) को अमेरिका द्वारा वैश्विक आतंकवादी संगठन घोषित किया था। इसे चीन ने भी सही ठहराया था। बावजूद चीन संयुक्त राश्ट्र की सदस्यता या सुरक्षा परिशद् में स्थायी सदस्यता लेने में सबसे बड़ी बाधा है। क्योंकि चीन स्वयं सुरक्षा परिशद् का स्थायी सदस्य है। इस कारण वैश्विक मंच पर अपने बीटो पावर का उपयोग भारत के विरुद्ध करता रहा है। 2016 में परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह (एनएसजी) में भारत के प्रवेश को रोकने में चीन की यह ताकत भारतीय विदेश नीति के विस्तार में एक बड़ी बाधा रही है। चीन के पास सुरक्षा परिशद् के पांच सदस्यों में से एक के रूप में बीटो षक्ति है, अब तक इसका उपयोग वह संयुक्त राश्ट्र में भारत के सदस्य बनने से लेकर क्रूर आतंकियों को वैश्विक आतंकी घोशित करने के प्रस्तावों को भी रोकता रहा है। क्योंकि भारत का बढ़ता वैश्विक प्रभाव चीन के वर्चस्व को चुनौती देता रहा है। चीन को यह वर्चस्व इसलिए खलता है, क्योंकि वह एशिया में अपना प्रभुत्व बनाए रखना चाहता है। एशिया में भारत ही ऐसा देश है, जो चीन के सामानांतर न केवल चौथी अर्थव्यवस्था बन गया है, बल्कि सामरिक षक्ति से लेकर अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी में भी अपनी धाक जमा रहा है। भारत और चीन के बीच गाढ़ी होती मित्रता में चीन के साथ भारत के सीमा विवाद और अन्य भू-राजनीतिक मुद्दे गौण होते दिख रहे हैं, इसी कारण उम्मीद जगी है कि अब चीन संयुक्त राश्ट्र की सदस्यता में भारत का रोड़ा न बने।  
फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता के लिए भारत की दावेदारी का समर्थन कर चुके हैं। साथ ही संयुक्त राष्ट्र निकाय के विस्तार की भी मैक्रों ने वकालात की थी। जर्मनी, जापान, भारत और ब्राजील को परिषद का स्थायी सदस्य होना चाहिए। भारत की दलील है कि 1945 में स्थापित 15 देशों की सुरक्षा परिषद् 21वीं सदी की लक्ष्यपूर्तियों के लिए पर्याप्त नहीं है। इसमें समकालीन भ-राजनीतिक वास्तविकताओं का प्रतिबिंब दिखाई नहीं देता है। वर्तमान में सुरक्षा परिषद में पांच स्थायी सदस्य और 10 अस्थायी सदस्य देश शामिल हैं। जिन्हें संयुक्त राष्ट्र महासभा के द्वारा दो साल के कार्यकाल के लिए चुना जाता है। परंतु पांच स्थायी सदस्य रूस, ब्रिटेन, चीन, फ्रांस और अमेरिका हैं, इनमें से प्रत्येक देश के पास ऐसी शक्ति हैं, जो किसी भी महत्वपूर्ण प्रस्ताव पर वीटो लगा सकता है। भारत 2021-22 में संयुक्त राष्ट्र की उच्च परिषद् में अस्थायी सदस्य के रूप में चुना गया था। किंतु दुनिया का जो वर्तमान परिदृश्य है, उससे निपटने के लिए स्थायी सदस्यों की संख्या दुनिया का हित साधने के लिए बढ़ाई जानी चाहिए। इसीलिए मैक्रों को कहना पड़ा था कि ‘सुरक्षा परिशद् के काम काज के तरीकों में बदलाव, सामूहिक अपराधों के मामलों में बीटो के अधिकार को सीमित करने और षांति बनाए रखने के लिए जरूरी फैसलों पर ध्यान देने की जरूरत है। अतएव जमीन पर बेहतर और बेहिचक तरीके से काम करने की दृश्टि से दक्षता हासिल करने का समय आ गया है। दरअसल मैक्रों की यह टिप्पणी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा 22 सितंबर 2024 को ‘भविश्य के शिखर सम्मेलन‘ को संबोधित करने के कुछ दिन बाद आई थी इसमें मोदी ने इस बात पर जोर दिया था कि वैश्विक शांति और विकास के लिए अंतरराष्ट्रीय संस्थानों में सुधार आवश्यक हैं। उन्होंने कहा था कि सुधार प्रासंगिकता की कुंजी है। वाकई इस समय संस्थाएं अपनी प्रासंगिकता खोती दिखाई दे रही है। संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंतोनियो गुतारेस ने 15 सदस्य देशों की सुरक्षा परिषद् को भी पुरानी व्यवस्था का हिस्सा बताकर आलोचना की थी। उन्होंने कहा था कि अगर इसकी संरचना और कार्य प्रणाली में सुधार नहीं होता है तो इस संस्था से दुनिया का भरोसा उठ जाएगा।  
दूसरे विश्व-युद्ध के बाद शांतिप्रिय देशों के संगठन के रूप में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का गठन हुआ था। इसका अहम् मकसद भविश्य की पीढ़ियों को युद्ध की विभीशिका और आतंकवाद से सुरक्षित रखना था। इसके सदस्य देशों में अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, रूस और चीन को स्थायी सदस्यता प्राप्त है। याद रहे चीन जवाहरलाल नेहरू की अनुकंपा से सुरक्षा परिशद् का सदस्य बना था। कांग्रेस नेता और संयुक्त राष्ट्र में अवर महासचिव रहे शशि थरूर की किताब ‘नेहरू-द इन्वेंशन ऑफ इंडिया‘ में थरूर ने लिखा है कि 1953 के आसपास भारत को संयुक्त राश्ट्र की सुरक्षा परिषद में भारत को स्थायी सदस्य बनने का प्रस्ताव मिला था। लेकिन उन्होंने चीन को दे दिया। थरूर ने लिखा है कि भारतीय राजनयिकों ने वह फाइल देखी थी, जिस पर नेहरू के इंकार का जिक्र है। नेहरू ने ताइवान के बाद इस सदस्यता को चीन को दे देने की पैरवी की थी। अतएव कहा जा सकता है कि नेहरू की भयंकर भूल और उदारता का नुकसान भारत आज तक उठा रहा है। जबकि उस समय अमेरिका भारत के पक्ष में था। अब देखना होगा कि बदलते परिदृश्य में चीन भारत के प्रति किस तरह का आचरण अपनाता दिखाई देता है ?

प्रमोद भार्गव

BE और MSc: शिक्षा के स्तर नहीं, सोच के आईने हैं

महिमा सामंत

यहाँ उल्लिखित MSc से आशय भौतिकी, रसायनशास्त्र, गणित आदि शुद्ध विज्ञान विषयों की स्नातकोत्तर डिग्री से है। कुछ लोग BE (स्नातक डिग्री) और इस प्रकार की MSc (स्नातकोत्तर डिग्री) की ग़लत तुलना करके, MSc करने वालों को BE करने वालों से कम महत्त्व का समझते हैं। इस लेख में उसी ग़लत धारणा के बारे में बताया गया है।

हमारे समाज में अकादमिक डिग्रियों को लेकर एक अदृश्य लेकिन गहरा पूर्वाग्रह व्याप्त है। विशेषतः जब बात BE (बैचलर ऑफ इंजीनियरिंग) और MSc (मास्टर ऑफ साइंस) जैसी डिग्रियों की होती है, तो अक्सर BE को एक “सम्मानजनक” या “बड़ी” डिग्री समझा जाता है, जबकि MSc को एक गौण या द्वितीय स्तर की योग्यता माना जाता है। यह धारणा न केवल भ्रामक है, बल्कि उच्च शिक्षा की बुनियादी समझ को भी चुनौती देती है। BE एक स्नातक स्तर की तकनीकी डिग्री है, जिसमें विद्यार्थी को चार वर्षों तक इंजीनियरिंग, गणित और विज्ञान के मूल सिद्धांतों में प्रशिक्षित किया जाता है। यह डिग्री तकनीकी करियर की नींव रखती है। दूसरी ओर, MSc एक स्नातकोत्तर डिग्री है जो गहराई, विश्लेषण और अनुसंधान कौशल को विकसित करने पर केंद्रित होती है। यह शिक्षा की अगली सीढ़ी है, जहाँ विद्यार्थी अपने विषय में विशेषज्ञता प्राप्त करते हैं। समस्या तब उत्पन्न होती है जब समाज इन दोनों को तुलना के तराजू पर रखकर एक को दूसरे से ‘बड़ा’ या ‘छोटा’ करार देता है। वास्तविकता यह है कि दोनों डिग्रियाँ अलग-अलग शैक्षणिक स्तर को दर्शाती हैं — एक प्रारंभिक ज्ञान की नींव है, तो दूसरी उसमें गहराई का विस्तार। यह दृष्टिकोण न केवल छात्रों के आत्मविश्वास को प्रभावित करता है, बल्कि उच्च शिक्षा को केवल डिग्री के नाम और समाज में उसकी “प्रतिष्ठा” के आधार पर देखने की प्रवृत्ति को भी बढ़ावा देता है। ऐसे में MSc जैसे कोर्स की वैज्ञानिकता, अनुसंधान क्षमता और विशेषज्ञता को नजरअंदाज कर दिया जाता है, जबकि यही वे मूल्य हैं जो राष्ट्र निर्माण और नवाचार की नींव रखते हैं। हमें यह समझना होगा कि BE और MSc दो अलग पथ हैं, जो एक ही शिक्षा-यात्रा का हिस्सा हैं। एक बिना दूसरे के अधूरा है। MSc करने वाले विद्यार्थी वही होते हैं जो BE या BSc के बाद ज्ञान की गहराई में उतरना चाहते हैं, वे केवल नौकरी नहीं बल्कि ज्ञान-साधना और नवाचार के लिए प्रतिबद्ध होते हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि आज MSc जैसी डिग्रियों को कमतर आँका जाता है, जबकि वास्तविकता यह है कि PG स्तर की शिक्षा में परिश्रम, गहराई, और विषयानुराग का उच्चतम स्तर होता है। हमें डिग्री के नाम पर नहीं, उसके स्तर और गुणवत्ता पर ध्यान देना चाहिए। जब हम किसी से कहते हैं, “मैंने MSc किया है,” तो अक्सर चुप्पी या हल्का संदेह मिलता है; लेकिन “मैंने BE किया है,” कहने पर त्वरित सम्मान। यह केवल समाज की सोच नहीं, बल्कि हमारी शिक्षा व्यवस्था और सांस्कृतिक मूल्यों की भी एक परीक्षा है। हमें युवाओं को यह सिखाना होगा कि शिक्षा की कोई ‘छोटी’ या ‘बड़ी’ डिग्री नहीं होती — होती है तो केवल ज्ञान की सच्ची प्यास और अभ्यास की ईमानदारी। MSc और BE को एक दूसरे का प्रतिस्पर्धी नहीं, बल्कि एक-दूसरे का पूरक समझना होगा। यह समय है जब हम शिक्षा को केवल करियर की सीढ़ी न मानकर, उसे जीवन के गहरे अर्थ की खोज के रूप में देखें। जब हम समाज में सभी शैक्षणिक स्तरों को समान सम्मान देना शुरू करेंगे, तभी ज्ञान का वास्तविक सम्मान संभव होगा।

अमेरिका की मनमानी व्यापार नीति और भारत का आत्मसम्मान

वैश्विक राजनीति और अर्थव्यवस्था में अमेरिका की भूमिका हमेशा से निर्णायक मानी जाती रही है। विशेष रूप से डोनाल्ड ट्रंप के कार्यकाल में अमेरिकी नीतियों में एकतरफ़ा और आक्रामक दृष्टिकोण अधिक स्पष्ट रूप से देखने को मिला। हाल ही में अमेरिकी निवेश कंपनी जियोफ्रीज़ की रिपोर्ट ने इस बात की पुष्टि की है कि भारत के विरुद्ध ट्रंप प्रशासन द्वारा थोपे गए टैरिफ किसी तार्किक आर्थिक नीति का हिस्सा नहीं थे, बल्कि निजी खुन्नस और राजनीतिक विचारधारा से प्रेरित कदम थे।

अमेरिका ने भारत पर व्यापारिक दबाव बनाने की कोशिश की, लेकिन भारत ने अमेरिकी दबाव के आगे झुकने के बजाय अपने राष्ट्रीय हितों और आत्मसम्मान को सर्वोपरि रखा। यह प्रसंग न केवल भारत-अमेरिका संबंधों की दिशा को स्पष्ट करता है, बल्कि यह भी बताता है कि बदलते वैश्विक परिदृश्य में कोई भी देश अब एकतरफा धमकियों से प्रभावित होकर अपनी नीतियों को नहीं बदल सकता।

कृषि बाजार पर दबाव

अमेरिकी रिपोर्ट के अनुसार, ट्रंप प्रशासन चाहता था कि भारत अपना कृषि बाजार अमेरिकी उत्पादों के लिए खोल दे। लेकिन भारत सरकार ने स्पष्ट किया कि किसानों की आजीविका और खाद्य सुरक्षा से समझौता संभव नहीं है। भारत में कृषि क्षेत्र देश की लगभग 40 प्रतिशत से अधिक आबादी को रोज़गार प्रदान करता है और यह अर्थव्यवस्था की रीढ़ है। यदि अमेरिका के कृषि उत्पादों को बिना शर्त आयात की अनुमति मिल जाती तो भारतीय किसान गहरी मार झेलते। इसीलिए भारत ने लगभग 25 प्रतिशत कृषि उत्पादों पर उच्च टैरिफ बनाए रखा। यह कदम पूरी तरह भारतीय किसानों और ग्रामीण अर्थव्यवस्था की सुरक्षा के लिए आवश्यक था।

विद्वलीकरण का परिणाम

ट्रंप प्रशासन का झुकाव ‘विद्वलीकरण’ यानी डिग्लोबलाइजेशन की ओर रहा। मुक्त व्यापार की बजाय उन्होंने ‘अमेरिका फर्स्ट’ नीति अपनाकर मित्र राष्ट्रों पर भी मनमाने टैरिफ थोप दिए। जियोफ्रीज़ की रिपोर्ट के अनुसार, यह रवैया न केवल भारत बल्कि विश्व अर्थव्यवस्था के लिए भी घातक साबित हुआ। व्यापारिक संतुलन बिगड़ा, वैश्विक सहयोग कमजोर पड़ा और पारंपरिक मित्र देशों के बीच अविश्वास बढ़ा।

वास्तव में, इस प्रकार की नीतियाँ वैश्विक व्यवस्था को अस्थिर करती हैं। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद से दुनिया ने यह अनुभव किया है कि वैश्विक आर्थिक सहयोग और मुक्त व्यापार ही दीर्घकालिक समृद्धि का आधार है। जब अमेरिका जैसे महाशक्ति राष्ट्र ही इस सहयोग की उपेक्षा करते हैं तो अंतरराष्ट्रीय संबंधों में खटास आना स्वाभाविक है।

भारत-पाक मुद्दे पर तटस्थता

अमेरिका ने लंबे समय से भारत-पाक विवाद में हस्तक्षेप से परहेज़ किया है। ट्रंप ने भी इसी नीति का पालन किया। रिपोर्ट का यह भी कहना है कि शायद इसी वजह से उन्हें शांति का नोबेल पुरस्कार प्राप्त करने का अवसर नहीं मिल सका। किंतु भारत के लिए यह स्थिति लाभप्रद रही। क्योंकि भारत नहीं चाहता कि कोई तीसरा देश कश्मीर या द्विपक्षीय विवादों में मध्यस्थ बने। भारत की स्पष्ट नीति है कि पाकिस्तान के साथ मुद्दों का समाधान आपसी बातचीत से ही होगा।

धमकियों से मजबूत होता भारत

अमेरिका ने जब भारत पर टैरिफ और दबाव की नीति अपनाई, तो एक समय यह आशंका बनी कि भारत की अर्थव्यवस्था पर प्रतिकूल असर पड़ेगा। किंतु वास्तविकता इसके विपरीत सामने आई। भारत ने अमेरिकी धमकियों को झुककर स्वीकारने की बजाय वैकल्पिक बाज़ारों और नए सहयोगियों की ओर रुख किया। यूरोप, एशिया और अफ्रीका के कई देशों से भारत ने व्यापारिक संबंध मज़बूत किए। इस प्रकार अमेरिका का दबाव अंततः भारत को और अधिक आत्मनिर्भर व दृढ़ बनाने में सहायक साबित हुआ।

ट्रंप प्रशासन की मनमानी व्यापार नीतियाँ अल्पकालिक लाभ की राजनीति से प्रेरित थीं, जिनसे न तो अमेरिका को कोई स्थायी फायदा हुआ और न ही वैश्विक अर्थव्यवस्था को। भारत ने इस दबाव के सामने आत्मसम्मान और राष्ट्रीय हितों को प्राथमिकता दी। आज की दुनिया में किसी भी देश को केवल धमकियों और अनुचित शर्तों से नियंत्रित करना संभव नहीं है।

भारत की यह नीति न केवल उसकी संप्रभुता की रक्षा करती है, बल्कि यह संदेश भी देती है कि विश्व व्यवस्था तभी संतुलित और स्थायी हो सकती है जब सभी देश समानता, सहयोग और पारस्परिक सम्मान के आधार पर आगे बढ़ें।

सुरेश गोयल धूप वाला 

जल प्रलय के सन्देश ?

तनवीर जाफ़री
भारत के पंजाब राज्य को सबसे उपजाऊ धरती के राज्यों में सर्वोपरि गिना जाता है। इसका मुख्य कारण यही है कि यह राज्य खेती के लिये सबसे ज़रूरी समझे जाने वाले कारक यानी पानी के लिये सबसे धनी राज्य है। सिंधु नदी की पांच सहायक नदियाँ सतलुज, ब्यास, रावी, चिनाब और झेलम इसी पंजाब राज्य से होकर बहती हैं। इन पांचों नदियों में केवल व्यास ही एक ऐसी नदी है जो केवल भारत में बहती है शेष सतलुज, रावी, चिनाब और झेलम नदियाँ भारत से होते हुये पाकिस्तान में भीप्रवाहित होती हैं। यही नदियां जो पंजाब को उपजाऊ भूमि बनाने और यहाँ की संस्कृति का आधार समझी जाती हैं इन दिनों यही नदियां भारत से लेकर पाकिस्तान तक जल प्रलय का कारण बनी हुई हैं। इन नदियों के उफान पर होने का कारण जम्मू कश्मीर व हिमाचल प्रदेश जैसे पहाड़ी क्षेत्रों में लगातार होने वाली तेज़ बारिश यहाँ तक कि अनेक स्थानों पर बादल फटने जैसी घटनाओं को माना जा रहा है।
दरअसल पिछले कुछ दिनों हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर और पंजाब के जलागम क्षेत्रों में असामान्य रूप से भारी बारिश हुई। कई ज़िले तो ऐसे भी थे जहाँ केवल एक ही दिन में पूरे एक महीने की बारिश दर्ज की गई। जैसे केवल अमृतसर और गुरदासपुर में 150-200 मिमी से अधिक वर्षा दर्ज हुई। इससे शहरी जलनिकासी प्रणाली पूरी तरह फ़ेल हो गयी। दुर्भाग्यवश हमारे देश के अधिकांश राज्यों में बरसाती जल निकासी प्रणाली प्रायः फ़ेल ही रहती है। भ्रष्टाचारयुक्त निर्माण से लेकर सरकारी अम्लों की अकर्मण्यता व ग़ैर ज़िम्मेदार जनता द्वारा नाले नालियों में अवांछित वस्तुओं की डम्पिंग यहाँ तक कि मरे जानवर से लेकर रज़ाई गद्दे बोतलें प्लास्टक पॉलीथिन आदि सब कुछ नालों व नालियों में फ़ेंक देने जैसी ग़ैर ज़िम्मेदाराना प्रवृति, जल निकासी प्रणाली के फ़ेल होने में सबसे अहम भूमिका निभाती है।
एक ओर तो भारी बारिश व जलभराव उसके बाद भारत के सबसे विशाल भाखड़ा नंगल डैम, पोंग डैम रणजीत सागर डैम व शाहपुर कंडी जैसे डैम्स से अतिरिक्त पानी का छोड़ा जाना भी पंजाब की बड़े हिस्से की तबाही का कारण बन गया। इन डैम्स से पानी छोड़ना भी इसलिये ज़रूरी हो गया था क्योंकि इनमें इनकी क्षमता से अधिक जलभराव हो गया था। उदाहरण के तौर पर भाखड़ा डैम का जल स्तर 1,671 फीट तक पहुँच गया था तो पोंग डैम का जलस्तर भी अधिकतम से ऊपर चला गया था। इसी के परिणाम स्वरूप राज्य की सतलुज, ब्यास और रावी नदियाँ उफान पर आ गईं थीं। भारत से पानी छोड़ने के कारण ही पाकिस्तान के पंजाब प्रान्त में भी बाढ़ आई, जहाँ रावी, सतलुज और चेनाब नदियाँ प्रभावित हुईं। इस स्थिति के मद्देनज़र भारत ने पहले ही मानवीय आधार पर पाकिस्तान को तीन चेतावनियाँ जारी कर दी थीं।
भारतीय पंजाब के जो ज़िले इस भीषण जल प्रलय में प्रभावित हुये उनमें गुरदासपुर, पठानकोट, होशियारपुर, कपूरथला, अमृतसर, तरन तारन, फिरोज़पुर व फ़ज़िल्का के नाम ख़ासतौर पर उल्लेखनीय हैं जबकि लुधियाना और जालंधर में भी बढ़ का प्रभाव देखने को मिला। दर्जनों पुल टूट गये,सैकड़ों पशु बह गये अनेक वाहन तेज़ बहाव में समा गये। लाखों एकड़ फ़सल तबाह हो गयी ,तमाम मकान बह गये या क्षतिग्रस्त हो गये। दर्जनों जगह से हाईवे व मुख्य मार्ग बंद हो गये। और इस प्रलयकारी हालात से जूझने में कई जगह पंजाब का वह किसान स्वयं को असहाय महसूस करता दिखाई दिया जो हमेशा पूरी हिम्मत व हौसले के साथ दूसरों की सेवा सत्कार के लिये तत्पर दिखाई देता है। एक अनुमान के अनुसार राज्य के 500 से अधिक गांव डूबे गये इन गांवों में लगभग 6,600 से अधिक लोग फंसे थे। अमृतसर के रामदास क्षेत्र में रावी नदी का धुसी बांध टूट गया, जिससे 40 गांव डूब गए। इसी तरह गुरदासपुर में लगभग 150, कपूरथला में क़रीब 115, और अमृतसर में लगभग 100 गांव इस प्रलयकारी बाढ़ से बुरी तरह प्रभावित हुये। गोया इस बार की बाढ़ ने कृषि-प्रधान पंजाब की अर्थव्यवस्था को बुरी तरह प्रभावित कर दिया। इस बाढ़ के चलते सैकड़ों घर, 300 से अधिक स्कूल अनेक सड़कें, पुल और बिजली लाइनें आदि क्षतिग्रस्त हो गयीं । अमृतसर में गुरुद्वारा बाबा बुढ़ा साहिब डूब गया। कई जगह रेल यातायात बाधित हुआ अनेक ट्रेन्स कैंसिल कर दी गयीं। हाईवे टूटने व क्षतिग्रस्त होने के चलते 1,000 से अधिक सड़कें बंद कर गयीं । अकेले वैष्णो देवी में बारिश के चलते हुये भूस्खलन से 30 से अधिक मौतें होने की ख़बर है।
अभी तक जो अनुमान लगाया जा रहे उसके मुताबिक़ धान, गन्ना व मक्का की लगभग 1.5 लाख एकड़ फ़सल पूरी तरह डूब गई। पंजाब में लगभग 3 लाख एकड़ से अधिक भूमि जलमग्न हो गयी। इन बाढ़ग्रस्त क्षत्रों के किसानों को सितंबर-अक्टूबर में होने वाली रबी की फ़सलों में भी नुकसान की आशंका बनी हुई है। पंजाब में आई बाढ़ से हुआ अरबों रुपये का यह नुक़सान खाद्य मुद्रास्फीति को भी प्रभावित करेगा। बाढ़ और बारिश-संबंधी हादसों से भारत व पाकिस्तान में अनेक मौतें भी हुई हैं जबकि अनेक लोग लापता भी हो गए हैं। इसी तरह हज़ारों पशुओं के बह जाने, मरने,बीमार पड़ने के साथ साथ उनके चारों की भी भारी कमी दर्ज की जा रही है। इन्हीं हालात में बीमारियों का भी ख़तरा बढ़ गया है। इससे पर्यटन उद्योग भी बुरी तरह प्रभावित हुआ है।आपदा के इस समय में सेना एनडीआरएफ़ व एसडीआरएफ़ द्वारा 5,000 से अधिक लोगों की जान बचाई गयी व उन्हें सुरक्षित स्थानों पर पहुँचाया गया। इन ऑपरेशन्स में चिनूक हेलीकॉप्टर, चीता हेलीकॉप्टर,नावें और एम्फीबियन वाहन इस्तेमाल किये गये ।
पंजाब और ख़ासकर पहाड़ी क्षेत्रों में होने वाली असाधारण बारिश व बादल फटने जैसी अनेक घटनाओं ने मौसम वैज्ञानिकों व विशेषज्ञों को हैरत में डाल दिया है। इन हालात के लिये जहाँ दुर्लभ परिस्थितियों में पूर्वी, दक्षिणी और पश्चिमी मौसम प्रणालियों के एक साथ आने को ज़िम्मेदार माना जा रहा है वहीं ग्लेशियर का लगातार पिघलते जाना भी बाढ़ को और अधिक भयावह बना रहा है। माना जा रहा है कि यह बाढ़ 1988 की उस भीषण बाढ़ से भी प्रलयकारी है जिसे हज़ार वर्षों में एक बार आने वाली बाढ़ की संज्ञा दी गयी थी। गोया हमें जल प्रलय के इस सन्देश को समझना होगा कि इन हालात के लिये ग्लोबल वार्मिंग के परिणामस्वरूप होने वाला जलवायु परिवर्तन ही सबसे अधिक ज़िम्मेदार है। और निश्चित रूप से विकास और इसके नाम पर पैदा किये गये ग्लोबल वार्मिंग के यह हालात पूरी तरह मानवजनित हैं।