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वीर सावरकर : तेज, तारुण्य एवं तिलमिलाहट की प्रतिमूर्ति

जयंती दिवस – 28 मई पर विशेष

“मैं तुम्हारे दर्शन करने आया हूँ मदन, मुझे तुम पर गर्व है. सावरकर तुम्हें मेरी आँखों में डर की परछाई तो नहीं दिखाई दे रही, बिल्कुल नहीं मुझे तुम्हारे चेहरे पर योगेश्वर कृष्ण का तेज दिखाई दे रहा है , तुमने गीता के स्थितप्रज्ञ को साकार कर दिया है मदन” न जाने ऐसे कितने ही जीवन है जो सावरकर से प्रेरणा प्राप्त कर मातृभूमि के लिए हस्ते हस्ते बलिदान हो गए. अपने महापुरुषों का स्मरण व सदैव उनके गुणों को आत्मसात करते हुए आगे बढ़ते रहना, यही भारत की श्रेष्ठ परंपरा है. ऐसे ही अकल्पनीय व अनुकरणीय जीवन को याद करने का दिन है सावरकर जयंती।

यहां दीप नहीं जीवन जलते है

स्वातंत्र्य विनायक दामोदर सावरकर केवल नाम नहीं, एक प्रेरणा पुंज है जो आज भी देशभक्ति के पथ पर चलने वाले मतवालों के लिए जितने प्रासंगिक हैं उतने ही प्रेरणादायी भी. वीर सावरकर अदम्य साहस, इस मातृभूमि के प्रति निश्छल प्रेम करने वाले व स्वाधीनता के लिए अपने प्राणों को न्यौछावर करने वाला अविस्मरणीय नाम है. इंग्लैंड में भारतीय स्वाधीनता हेतु अथक प्रवास, बंदी होने पर भी अथाह समुद्र में छलांग लगाने का अनोखा साहस, कोल्हू में बैल की भांति जोते जाने पर भी प्रसन्ता, देश के लिए परिवार की भी बाजी लगा देना, पल -प्रतिपल देश की स्वाधीनता का चिंतन व मनन, अपनी लेखनी के माध्यम से आमजन में देशभक्ति के प्राण का संचार करना, ऐसा अदभुत व्यक्तित्व था विनायक सावरकर का. सावरकर ने अपने नजरबंदी समय में अंग्रेजी व मराठी अनेक मौलिक ग्रंथों की रचना की, जिसमें मैजिनी, 1857 स्वातंत्र्य समर, मेरी कारावास कहानी, हिंदुत्व आदि प्रमुख है.

सर्वत्र प्रथम कीर्तिमान रचने वाले सावरकर
सावरकर दुनिया के अकेले स्वातंत्र्य योद्धा थे जिन्हें दो-दो आजीवन कारावास की सजा मिली, सजा को पूरा किया और फिर से राष्ट्र जीवन में सक्रिय हो गए। वे विश्व के ऐसे पहले लेखक थे जिनकी कृति 1857 का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम को दो-दो देशों ने प्रकाशन से पहले ही प्रतिबंधित कर दिया। सावरकर पहले ऐसे भारतीय राजनीतिज्ञ थे जिन्होंने सर्वप्रथम विदेशी वस्त्रों की होली जलाई। वे पहले स्नातक थे जिनकी स्नातक की उपाधि को स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेने के कारण अंग्रेज सरकार ने वापस ले लिया। वीर सावरकर पहले ऐसे भारतीय विद्यार्थी थे जिन्होंने इंग्लैंड के राजा के प्रति वफादारी की शपथ लेने से मना कर दिया। फलस्वरूप उन्हें वकालत करने से रोक दिया गया। वीर सावरकर ने राष्ट्र ध्वज तिरंगे के बीच में धर्म चक्र लगाने का सुझाव सर्वप्रथम दिया था, जिसे तात्कालिक राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने माना। उन्होंने ही सबसे पहले पूर्ण स्वतंत्रता को भारत के स्वतंत्रता आंदोलन का लक्ष्य घोषित किया। वे ऐसे प्रथम राजनैतिक बंदी थे जिन्हें विदेशी (फ्रांस) भूमि पर बंदी बनाने के कारण हेग के अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में मामला पहुँचा। वे पहले क्रांतिकारी थे जिन्होंने राष्ट्र के सर्वांगीण विकास का चिंतन किया तथा बंदी जीवन समाप्त होते ही जिन्होंने अस्पृश्यता आदि कुरीतियों के विरुद्ध आंदोलन शुरू किया। दुनिया के वे ऐसे पहले कवि थे जिन्होंने अंदमान के एकांत कारावास में जेल की दीवारों पर कील और कोयले से कविताएँ लिखीं और फिर उन्हें याद किया। इस प्रकार याद की हुई दस हजार पंक्तियों को उन्होंने जेल से छूटने के बाद पुन: लिखा।

काल कोठरी के ग्यारह साल व सावरकर

क्या मैं अब अपनी प्यारी मातृभूमि के पुनः दर्शन कर सकूंगा ? 4 जुलाई 1911 में अंदमान के सेलुलर जेल में पहुँचने से पहले सावरकर के मन की व्यथा शायद कुछ ऐसी ही रही होगी। अंदमान की उस काल कोठरी में सावरकर को न जाने कितनी ही शारीरिक यातनाएं सहनी पड़ी होगी, इसको शब्दों में बता पाना असंभव है. अनेक वर्षो तक रस्सी कूटने, कोल्हू में बैल की तरह जुत कर तेल निकालना, हाथों में हथकड़ियां पहने हुए घंटों टंगे रहना, महीनों एकांत काल-कोठरी में रहना और भी न जाने किसी -किस प्रकार के असहनीय कष्ट झेलने पड़े होंगे सावरकर को. लेकिन ये शारीरिक कष्ट भी कभी उस अदम्य साहस के प्रयाय बन चुके विनायक सावरकर को प्रभावित न कर सके. कारावास में रहते हुए भी सावरकर सदा सक्रिय बने रहे. कभी वो राजबंदियों के विषय में निरंतर आंदोलन करते , कभी पत्र द्वारा अपने भाई को आंदोलन की प्रेरणा देते, कभी अपनी सजाएँ समाप्त कर स्वदेश लौटने वाले क्रांतिवीरों को अपनी कविताएं व संदेश कंठस्थ करवाते। इस प्रकार सावरकर सदैव अपने कर्तव्यपथ पर अग्रसर दिखाई दिए. उनकी अनेक कविताएं व लेख अंदमान की उन दीवारों को लांघ कर 600 मील की दूरी पार करके भारत पहुँचते रहे और समाचार पत्रों द्वारा जनता में देशभक्ति की अलख जगाते रहे.

समरसता व हिंदुत्व के पुरोधा

सन 1921 में सावरकर को अंदमान से कलकत्ता बुलाना पड़ा. वहां उन्हें रत्नागिरी जेल भेज दिया गया. 1924 को सावरकर को जेल से मुक्त कर रत्नागिरी में ही स्थानबद्ध कर दिया गया. उन्हें केवल रत्नागिरी में ही घूमने -फिरने की स्वतंत्रता थी. इसी समय में सावरकर ने हिंदू संगठन व समरसता का कार्य प्रारम्भ कर दिया। महाराष्ट्र के इस प्रदेश में छुआछूत को लेकर घूम – घूमकर विभिन्न स्थानों पर व्याख्यान देकर धार्मिक, सामाजिक तथा राजनैतिक दृष्टि से छुआछूत को हटाने की आवश्यकता बतलाई। सावरकर के प्रेरणादायी व्याख्यान व तर्कपूर्ण दलीलों से लोग इस आंदोलन में उनके साथ हो लिए. दलितों में अपने को हीन समझने की भावना धीरे-धीरे जाती रही और वो भी इस समाज का महत्वपूर्ण हिस्सा है ऐसा गर्व का भाव जागृत होना शुरू हो गया. सावरकर की प्रेरणा से भागोजी नामक एक व्यक्ति ने ढाई लाख रूपए व्यय करके रत्नागिरी में ‘श्री पतित पावन मंदिर’ का निर्माण करवाया। दूसरी और सावरकर ने ईसाई पादरियों और मुसलमानों द्वारा भोले भाले हिंदुओं को बहकाकर किये जा रहे धर्मांतरण के विरोध में शुद्धि आंदोलन प्रारम्भ कर दिया। रत्नागिरी में उन्होंने लगभग 350 धर्म – भ्रष्ट हिंदुओं को पुनः हिंदू धर्म में दीक्षित किया।

युवाओं के सावरकर

सावरकर का जीवन आज भी युवाओं में प्रेरणा भर देता है. जिसे सुनकर प्रत्येक देशभक्त युवा के रोंगटे खड़े हो जाते है. विनायक की वाणी में प्रेरक ऊर्जा थी. उसमें दूसरों का जीवन बदलने की शक्ति थी. सावरकर से शिक्षा- दीक्षा पाकर अनेकों युवा व्यायामशाला जाने लगे, पुस्तकें पढ़ने लगे. विनायक के विचारों से प्रभावित असंख्य युवाओं के जीवन में सकारात्मक परिवर्तन आ गया. जो भोग – विलासी थे, वे त्यागी बन गए. जो उदास तथा आलसी थे, वे उद्यमी हो गए. जो संकुचित और स्वार्थी थे, वो परोपकारी हो गए. जो केवल अपने परिवार में डूबे हुए थे, वे देश-धर्म के संबंध में विचार करने लगे. इस प्रकार हम कह सकते है कि युवाओं के लिए सावरकर वो पारस पत्थर थे, की जो भी उनके संपर्क में आया वो ही इस मातृभूमि की सेवा में लग गया.

सावरकर स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए व उसके बाद भी उसकी रक्षा हेतु प्रयास करते रहे. इसलिए उनका नाम ‘स्वातंत्र्य सावरकर’ अमर हुआ. आज जयंती दिवस पर उस हुतात्मा को शत शत नमन ….

पैरो की है हम असली ढाल

पैरो की है हम असली ढाल,
उनकी रखते हम रखवाल।
चलते चलते हम घिस जाते,
तब भी हम साथ निभाते।।

हमको सब बाहर छोड़ जाते,
अंदर वालो को तकते रहते।
खुद ड्राइंग रूम में बैठ जाते,
हमको दरवाजे पर छोड़ जाते।।

मार पिटाई जब कभी होती,
हमारी सहायता सब है लेते।
फिर क्यों करते हमारा अपमान
मनुष्य से ज्यादा क्या हम शैतान ?

जब हम नए नए है होते,
बड़े चाव से हमे पहनते।
जब हम पुराने हो जाते,
हमे बाहर फैंक दिए जाते।।

हमे पहन कर सभी इतराते,
पर हम कभी नही इतराते।
शोकेस में जब हम लगे होते,
ललचाई आंखो से देखे जाते।।

जब संसद में झगड़ा होता,
हमारा प्रयोग खूब है होता।
तब भी हम कुछ न कहते,
दुम दबाकर हम बैठ जाते।।

आर के रस्तोगी

जीवन में अमृत है पानी : जल है तो कल है

-डॉ. सौरभ मालवीय
मनुष्य का शरीर पंचभूत से निर्मित है। पंचभूत में पांच तत्त्व आकाश, वायु, अग्नि, जल एवं पृथ्वी सम्मिलित है।
सभी प्राणियों के लिए जल अति आवश्यक है। प्रत्येक प्राणी को जीवित रहने के लिए जल चाहिए। नि:संदेह जल ही जीवन है। जल के बिना जीवन की कल्पना करना असंभव है। जल के पश्चात मनुष्य को जीवित रहने के भोजन चाहिए। भोजन के लिए अन्न, फल एवं सब्जियां उगाने के लिए भी जल की ही आवश्यकता होती है। कृषकों को अपनी फसल की सिंचाई के लिए वर्षा पर निर्भर रहना पड़ता है। पर्याप्त वर्षा न होने पर उनकी फसल सूख जाती है। अधिकांश क्षेत्र ऐसे हैं, जहां पर वर्षा नाममात्र की ही होती है। जलवायु परिवर्तन एवं जल के अत्यधिक दोहन के कारण भू-जल स्तर लगातार गिरता जा रहा है। इस गिरते भू-जल स्तर के कारण सिंचाई जल संकट उत्पन्न हो गया है। इसके अतिरिक्त जिन क्षेत्रों में जल की आपूर्ति नहीं है अथवा जल की पर्याप्त आपूर्ति नहीं है, वहां के निवासी भी पेयजल के लिए संकट में रह रहे हैं। देश के विभिन्न क्षेत्रों में जल संकट बना हुआ है।

वास्तव में इस जल संकट के लिए मनुष्य स्वयं उत्तरदायी है। प्राचीन काल में लोग प्राकृतिक वस्तुओं का उतना ही उपयोग करते थे, जितनी उनकी आवश्यकता होती है। भारतीय संस्कृति के अनुसार ईश्वर कण-कण में विद्यमान है। इसलिए प्रत्येक वस्तु में भगवान का वास माना जाता है। हमारी प्राचीन गौरवमयी संस्कृति में जल को जीवन माना गया है-
जलमेव जीवनम्।

ऋग्वेद में भी जल के गुणों का वर्णन करते हुए कहा गया है-
अप्स्वन्तरमृतमप्सु भेषजम्।।
अर्थात जल में अमृत है, जल में औषधि है।

महाभारत में भी जल के महत्त्व का वर्णन करते हुए इसे सर्वोत्तम दान कहा गया है-
अद्भिः सर्वाणि भूतानि जीवन्ति प्रभवन्ति च।
तस्मात् सर्वेषु दानेषु तयोदानं विशिष्यते।।
अर्थात संसार के समस्त प्राणियों की उत्पत्ति जल से हुई है तथा इसी से वे जीवित रहते हैं। अत: सभी प्रकार के दानों में जल-दान सर्वोत्तम माना गया है। महाभारत में यह भी कहा गया है-
पानीयं परमं लोके जीवानां जीवनं समृतम्।
पानीयस्य प्रदानेन तृप्तिर्भवति पाण्डव।
पानीयस्य गुणा दिव्याः परलोके गुणावहाः।।
अर्थात जल से ही संसार के समस्त प्राणियों को जीवन प्राप्त होता है। जल का दान करने से प्राणियों को तृप्ति प्राप्त होती है। जल में दिव्य गुण हैं, जो परलोक में भी लाभ प्रदान करते हैं।

विष्णु पुराण में जल-चक्र का वर्णन किया गया है कि किस प्रकार वह वाष्प बनता है तथा वर्षा के रूप में भूमि को तृप्त करता है। इसी जल से कृषि होती है अर्थात अन्न उत्पन्न होता है-
विवस्वानर्ष्टाभर्मासैरादायापां रसात्मिकाः।
वर्षत्युम्बु ततश्चान्नमन्नादर्प्याखिल जगत्।
अर्थात सूर्य आठ मास तक अपनी किरणों से रस स्वरूप जल को ग्रहण करता है। तत्पश्चात चार मास में उसे वर्षा के माध्यम से बरसा देता है। इससे अन्न उत्पन्न होता है, जिससे संपूर्ण जगत का पोषण होता है।

वर्षा का जल अत्यंत उपयोगी है। अर्थवेद में भी इस विषय में कहा गया है-
शिवा नः सन्तु वार्षिकीः।
अर्थात वर्षा का जल कल्याणकारी है।

प्राचीन ग्रन्थों में जल संरक्षण पर विशेष बल दिया गया है। ऋग्वेद के अनुसार-
अप्स्वडन्तरमृतमप्सु भेषजमपामुत प्रशस्तये देवा भक्त वाजिनः।
अर्थात अमृत के समान एवं गुणकारी जल का उचित उपयोग करने वाले बनो। जल की प्रशंसा के लिए सदैव तत्पर रहो।

प्राचीन काल में जल संरक्षण पर विशेष बल दिया जाता था। तालाब बनाए जाते थे एवं कुएं खोदे जाते थे। वर्षा का जल तालाबों आदि में एकत्रित हो जाता था। इन तालाबों से मनुष्य ही नहीं, जीव-जंतु भी लाभान्वित होते थे।
किन्तु कालांतर में प्राकृतिक एवं मनुष्य निर्मित जल स्रोत समाप्त होते जा रहे हैं। ऋग्वेद में जल संरक्षण के विषय में यह भी कहा गया है-
आपो अस्मान्मातरः शुन्ध्यन्तु द्यृतेन ना द्यृत्प्वः पुनन्तु।
अर्थात जल हमारी माता के समान है। जल घृत के समान हमें शक्तिशाली एवं उत्तम बनाता है। इस प्रकार का जल जहां कहीं भी हो, उसका संरक्षण करना चाहिए।

जल संकट के लिए प्रदूषण भी उत्तरदायी है, क्योंकि प्रदूषण के कारण जल अनुपयोगी हो जाता है। वह पीने योग्य नहीं रहता। अत: हमें जल को प्रदूषित होने से बचाना चाहिए। यजुर्वेद में भी जल संरक्षण पर बल दिया गया है-
मा आपो हिंसी।
अर्थात जल को नष्ट मत करो।
देश में नदियों की का अभाव नहीं है, परन्तु प्रदूषण के कारण उनका जल पीने योग्य नहीं है। स्थिति इतनी गंभीर है कि कारखानों से निकलने वाले घातक रसायनों एवं सीवर की गंदगी के कारण नदियों का पानी विषैला हो गया है।

भारतीय संस्कॄति में गंगा को पवित्र नदी माना जाता है। इसे मोक्षदायिनी भी कहा जाता है। किन्तु दुख की बात यह है कि सबके पाप धोने वाली यह पवित्र नदी दिन-प्रतिदिन प्रदूषित होती जा रही है। नदियों में शव बहाने से भी यह प्रदूषित हो रही है। इस नदी को साफ करने के लिए सरकारी और गैर सरकारी स्तर पर प्रयास होते रहते है। समय-समय पर कई कार्यक्रम और योजनाएं भी चलाई गईं ऐसे कार्यक्रमों में समाज जीवन से जुड़े प्रत्येक व्यक्ति को लोकमंगल के कार्य मे सहयोगी होने की आवश्यकता है।
भारतीय संस्कृति में जल को देवता माना गया है। अत: विभिन्न मांगलिक अवसरों पर जल की पूजा की जाती है अर्थात कुआं पूजन किया जाता है। महिलाएं गीत गाती हुई कुआं पूजने जाती हैं। महानगरों में अब कुएं नहीं हैं। अत: महानगरों से यह परम्परा भी समाप्त हो रही है। गांवों में अभी कुआं पूजन की परम्परा जीवित है। भारतीय संस्कृति में नदियों को देवी स्वरूप माना गया है। नदियों के तट पर धार्मिक कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है।
प्रयागराज में कुम्भ मेले का आयोजन किया जाता है, क्योंकि यहां गंगा, यमुना और सरस्वती का अद्भुत संगम होता है, जिसे अत्यंत पवित्र माना जाता है। भारत में महाकुम्भ धार्मिक स्तर पर अत्यंत पवित्र एवं महत्वपूर्ण आयोजन है। खगोल गणनाओं के अनुसार कुम्भ मेला मकर संक्रान्ति के दिन प्रारम्भ होता है। उस समय सूर्य और चन्द्रमा, वृश्चिक राशि में और वृहस्पति, मेष राशि में प्रवेश करते हैं। इस दिवस को अति शुभ एवं मंगलकारी माना जाता है। मान्यता है कि इस दिन पृथ्वी से उच्च लोकों के द्वार खुलते हैं। इस दिन स्नान करने से आत्मा को उच्च लोकों की प्राप्ति होती है। पौराणिक कथाओं के अनुसार भगवान विष्णु अमृत से भरा कुम्भ लेकर जा रहे थे कि असुरों ने आक्रमण कर दिया। अमृत प्राप्ति के लिए देव एवं दानवों में परस्पर बारह दिन तक निरंतर युद्ध हुआ। देवताओं के बारह दिन मनुष्यों के बारह वर्ष के समान होते हैं। इसलिए कुम्भ भी बारह होते हैं। इनमें से चार कुम्भ पृथ्वी पर होते हैं तथा शेष आठ कुम्भ देवलोक में होते हैं। देव एवं दानवों के इस संघर्ष के दौरान अमृत की चार बूंदें गिर गईं। ये बूंदें प्रयाग, हरिद्वार, नासिक तथा उज्जैन में गिरीं, जहां पर तीर्थस्थान बना दिए गए। तीर्थ उस स्थान को कहा जाता है जहां मनुष्य को मोक्ष की प्राप्ति होती है। इस प्रकार जहां अमृत की बूंदें गिरीं, उन स्थानों पर तीन-तीन वर्ष के अंतराल पर बारी-बारी से कुम्भ मेले का आयोजन किया जाता है। इन तीर्थों में प्रयाग को तीर्थराज के नाम से जाना जाता है, क्योंकि यहां तीन पवित्र नदियों का संगम होता है। इसके अतिरिक कालिंदी, कावेरी, रामगंगा, कोसी, गगास, कृष्णा, गोदावरी, गंडक, घाघरा, चम्बल, चेनाब, झेलम, दामोदर, नर्मदा, ताप्ती, बेतवा, पद्मा, फल्गू, बागमती, ब्रह्मपुत्र, भागीरथी, महानदी, महानंदा, रावी, व्यास, सतलुज, सरयू, सिन्धु नदी, सुवर्णरेखा, हुगली, गोमती, माही आदि नदियों में भी श्रद्धालु स्नान करते हैं। छठ के अवसर पर नदियों के तटों पर श्रधालुओं का जमावड़ा लगा रहता है।

नदी, तालाब एवं कुएं आदि अथाह जल के स्रोत हैं। ये अमूल्य हैं। हमें इनका संरक्षण करना चाहिए। यदि वर्षा के जल को तालाबों आदि में एकत्रित किया जाए, तो जल संकट से उबरा जा सकता है। इसके साथ ही हमें जल को व्यर्थ न बहाकर इसका सदुपयोग करना चाहिए।

नशे की अंधी गलियों में गुम होता जीवन

विश्व धूम्रपान निषेध दिवस -31 मई 2022
– ललित गर्ग –

बेशक 31 मई 2022 को विश्व धूम्रपान निषेध दिवस मनाया जा रहा है मगर ऐसे दिवस को मनाने की उपयोगिता तभी है जब नशे की अंधी गलियों में भटक चुके युवाओं को बाहर निकालना विश्व की हर सरकार का नैतिक एवं प्राथमिक कर्तव्य हो, क्योंकि युवा पीढ़ी नशे की गुलाम हो चुकी है। विश्व की गम्भीर समस्याओं में प्रमुख है तम्बाकू और उससे जुड़े नशीले पदार्थों का उत्पादन, तस्करी और सेवन में निरन्तर वृद्धि होना। नई पीढ़ी इस जाल में बुरी तरह कैद हो चुकी है। आज हर तीसरा व्यक्ति विशेषतः महिलाएं किसी-न-किसी रूप में तम्बाकू की आदी हो चुकी है। बीड़ी-सिगरेट के अलावा तम्बाकू के छोटे-छोटे पाउचों से लेकर तेज मादक पदार्थों, औषधियों तक की सहज उपलब्धता इस आदत को बढ़ाने का प्रमुख कारण है। इस दीवानगी को ओढ़ने के लिए प्रचार माध्यमों ने भी भटकाया है। सरकार की नीतियां भी दोगली है। एक नशेड़ी पीढ़ी का देश कैसे आदर्श हो सकता है? कैसे स्वस्थ हो सकता है? कैसे प्रगतिशील हो सकता है? यह समस्या केवल भारत की ही नहीं है, बल्कि समूची दुनिया इससे पीड़ित, परेशान एवं विनाश के कगार पर खड़ी है। इसी बात की गंभीरता एवं विकरालता को देखते हुए साल 1987 में विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के सदस्य देशों ने एक प्रस्ताव पारित किया और हर 31 मई को विश्व धूम्रपान निषेध दिवस मनाने का फैसला किया गया।
आज छोटे-छोटे बच्चे एवं महिलाएं नशे के आदी हो चुकी हैं। वे ऐसे नशे करती है कि रुह कांपती है। हर साल लाखों लोग नशे के कारण अपना जीवन दांव पर लगा रहे हैं। नशा आज एक फैशन बन चुका है। पूरे विश्व के लोगों को तंबाकू मुक्त और स्वस्थ बनाने के लिये तथा सभी स्वास्थ्य खतरों से बचाने के लिये तंबाकू चबाने या धूम्रपान के द्वारा होने वाले सभी परेशानियों और स्वास्थ्य जटिलताओं से लोगों को आसानी से जागरूक बनाने के लिये इस दिवस की महत्वपूर्ण भूमिका है। लेकिन यह विडम्बनापूर्ण है कि सरकारों के लिये यह दिवस कोरा आयोजनात्मक है, प्रयोजनात्मक नहीं। क्योंकि सरकार विवेक से नहीं, स्वार्थ से काम ले रही है। शराबबन्दी का नारा देती है, नशे की बुराइयों से लोगों को आगाह भी करती है और शराब, तम्बाकू का उत्पादन भी बढ़ा रही है। राजस्व प्राप्ति के लिए जनता की जिन्दगी से खेलना क्या किसी लोककल्याणकारी सरकार का काम होना चाहिए?
नशे की संस्कृति युवा पीढ़ी को गुमराह कर रही है। अगर यही प्रवृत्ति रही तो सरकार, सेना और समाज के ऊंचे पदों के लिए शरीर और दिमाग से स्वस्थ व्यक्ति नहीं मिलेंगे। नशे की बढ़ती प्रवृत्ति के कारण हम एक स्वस्थ नहीं, बल्कि बीमार राष्ट्र एवं समाज का ही निर्माण कर रहे हैं। प्रसिद्ध फुटबाल खिलाड़ी मैराडोना, पाॅप संगीत गायक एल्विस प्रिंसले, तेज धावक बेन जाॅनसन, युवकों का चहेता गायक माईकल जैक्सन, ऐसे कितने ही खिलाड़ी, गायक, सिनेमा कलाकार नशे की आदत से या तो अपनी जीवन लीला समाप्त कर चुके हैं या बरबाद हो चुके हैं। नशे की यह जमीन कितने-कितने आसमान खा गई। विश्वस्तर की ये प्रतिभाएं कीर्तिमान तो स्थापित कर सकती हैं, पर नई पीढ़ी के लिए स्वस्थ विरासत नहीं छोड़ पा रही हैं। नशे की ओर बढ़ रही युवापीढ़ी बौद्धिक रूप से दरिद्र बन जाएगी।
जीवन का माप सफलता नहीं, सार्थकता होती है। सफलता तो गलत तरीकों से भी प्राप्त की जा सकती है। जिनको शरीर की ताकत खैरात में मिली हो वे जीवन की लड़ाई कैसे लड़ सकते हैं? ये बहुत जरूरी है कि वैश्विक स्तर पर तंबाकू सेवन के प्रयोग पर बैन लगाया जाये या इसे रोका जाये क्योंकि ये कई सारी बीमारियों का कारण बनता है जैसे दीर्घकालिक अवरोधक फेफड़ों संबंधी बीमारी (सीओपीडी), फेफड़े का कैंसर, हृदयघात, स्ट्रोक, स्थायी दिल की बीमारी, वातस्फीति, विभिन्न प्रकार के कैंसर आदि। तंबाकू का सेवन कई रूपों में किया जा सकता है जैसे सिगरेट, सिगार, बीड़ी, मलाईदार तंबाकू के रंग की वस्तु (टूथ पेस्ट), क्रिटेक्स, पाईप्स, गुटका, तंबाकू चबाना, सुर्ती-खैनी (हाथ से मल के खाने वाला तंबाकू), तंबाकू के रंग की वस्तु, जल पाईप्स, स्नस आदि। कितने ही परिवारों की सुख-शांति ये तम्बाकू उत्पाद नष्ट कर रहे हैं। बूढ़े मां-बाप की दवा नहीं, बच्चों के लिए कपड़े-किताब नहीं, पत्नी के गले में मंगलसूत्र नहीं, चूल्हे पर दाल-रोटी नहीं, पर नशा चाहिए। अस्पतालों के वार्ड ऐसे रोगियों से भरे रहते हैं जो अपनी जवानी नशे को भेंट कर चुके होते हैं। ये तो वे उदाहरणों के कुछ बिन्दु हैं, वरना करोड़ों लोग अपनी अमूल्य देह में बीमार फेफड़े और जिगर लिए एक जिन्दा लाश बने जी रहे हैं पौरुषहीन भीड़ का अंग बन कर। डब्ल्यूएचओ के अनुसार धूम्रपान की लत से हर साल लगभग 60 लाख लोग मारे जा रहे हैं और इनमें से अधिकतर मौतें कम तथा मध्यम आय वाले देशों में हो रही हैं।
डब्ल्यूएचओ ने पनामा में एक सम्मेलन में अपनी रिपोर्ट में बताया है कि अगर ऐसा ही चलता रहा तो वर्ष 2030 में प्रति वर्ष धूम्रपान की वजह से मारे जाने लोगों की संख्या बढ़कर 80 लाख हो जाएगी। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि 92 देशों के 2.3 अरब लोगों को धूम्रपान पर किसी न किसी तरह लगाए गए प्रतिबंधों से लाभ हुआ है। मतलब साफ है कि आने वाले समय में इनमें से सबसे ज्यादा नुकसान भारत को ही होने जा रहा है। सिगरेट या बीड़ी का धुआं किसी मजहब और प्रांत को नहीं पहचानता, किसी आरक्षण या राजनीतिक झुकावों को नहीं जानता। वह किसी अमीर और गरीब में भी भेद नहीं करता, उसका सबके लिए एक ही मेसेज है, और वह है मौत। किन्तु दुर्भाग्यवश इस गलत आदत को स्टेटस सिंबल मानकर अक्सर नवयुवक एवं महिलाएं अपनाते हैं और दूसरों के सामने दिखाते हैं। धूम्रपान दरअसल एक लत है जिससे जब तक व्यक्ति दूर रहता है तब तक तो वह ठीक रहता है लेकिन एक बार यदि इसे प्रारम्भ कर दिया जाए तो इंसान को इस नशे में मजा आने लगता है। कुछ कहने-सुनने से पहले यह जान लें की धूम्रपान हर दृष्टि से हानिकारक है, जानलेवा है। धूम्रपान से रक्तचाप में वृद्धि होती है, रक्तवाहिनियों में रक्त का थक्का बन जाता है। ऐसे लोगों में मृत्यु दर 2 से 3 गुना अधिक पाई जाती है। धूम्रपान से टीबी होता है। कई ऐसे हॉलिवुड सिंगर्स हैं जिन्होंने इस बात को स्वीकार किया कि अधिक धूम्रपान करने से उनकी आवाज खराब हुई। इससे प्रजनन शक्ति कम हो जाती है। यदि कोई गर्भवती महिला धूम्रपान करती है तो या तो शिशु की मृत्यु हो जाती है या फिर कोई विकृति उत्पन्न हो जाती है।
लंदन के मेडिकल जर्नल द्वारा किये गये नए अध्ययन में पाया गया कि धूम्रपान करने वाले लोगों के आसपास रहने से भी गर्भ में पल रहे बच्चे में विकृतियाँ उत्पन्न हो जाती हैं। हार्वर्ड मेडिकल स्कूल के डॉ. जोनाथन विनिकॉफ के अनुसार, गर्भावस्था के दौरान माता-पिता दोनों को स्मोकिंग से दूर रहना चाहिए। स्कूलों के बाहर नशीले पदार्थों की धडल्ले से बिक्री होती है, किशोर पीढ़ी धुए में अपनी जिन्दगी तबाह कर रही है। हजारों-लाखों लोग अपने लाभ के लिए नशे के व्यापार में लगे हुए हैं और राष्ट्र के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं। चमड़े के फीते के लिए भैंस मारने जैसा अपराध कर रहे हैं। बढ़ती तम्बाकू प्रचलन की समस्या विश्व की दूसरी समस्याओं में सबसे देरी से जुड़कर सबसे भयंकर रूप से मुखर हुई है। लगता है विश्व जनसंख्या का अच्छा खासा भाग नशीले पदार्थों के सेवन का आदी हो चुका है। अगर आंकड़ों को सम्मुख रखकर विश्व मानचित्र (ग्लोब) को देखें, तो हमें सारा ग्लोब नशे में झूमता दिखाई देगा।
आतंकवाद की तरह नशीले पदार्थों की रोकथाम के लिए भी विश्व स्तर पर पूरी ताकत, पूरे साधन एवं पूरे मनोबल से एक समन्वित लड़ाई लड़नी होगी। वरना कुछ मनुष्यों की धमनियों में फैलता हुआ यह विष विश्व स्वास्थ्य को निगल जाएगा और लाखों-लाखों प्रयोगशालाओं में नई दवाओं का आविष्कार करते वैज्ञानिक समय से बहुत पिछड़ जाएंगे। तम्बाकू और इस नशे के परिणामों के प्रति सचेत करने के लिए तथा विश्व की इस ज्वलंत समस्या के प्रति लोगों में भिज्ञ कराने के लिए एक दिन तम्बाकू निषेध दिवस मनाने से नशा मुक्ति की सशक्त स्थिति पैदा नहीं की जा सकती पर नशे के प्राणघातक परिणामों के प्रति ध्यान आकर्षित किया जा सकता है।

मौलाना मदनी की चेतावनी को भारत गंभीरता से समझे

दिव्य अग्रवाल

जमीयत उलेमा ऐ हिन्द के मौलाना मदनी के वक्तव्य को समझने के लिए हिंदुस्तानियों को वास्तविक इतिहास को खंगालना होगा। क्यूंकि जो समाज इतिहास से कुछ सीख नहीं लेता इतिहास उस समाज के साथ निश्चित ही दोहराया जाता है। भारत के प्रथम शिक्षा मंत्री मौलाना अब्दुल कलाम आज़ाद ने देश के बंटवारे पर स्पष्ट कहा था हम बंटवारा नहीं चाहते , हम जिन्ना को नहीं मानते क्यूंकि अंग्रेजो से पहले इस धरती पर हमारा साशन था हम भारत को इस तरह नहीं छोड़ सकते एवं भारत के मुसलमान को इस ओर प्रयासरत रहना होगा। आज मौलाना मदनी कह रहे हैं की जो हमारे मजहब को नहीं मानता वो कहीं ओर चला जाए ,यह देश छोड़कर चला जाए अर्थात यह देश उनका है । मौलाना यह भी कह रहे हैं की मुस्लिम समाज शरीयत से चलेगा शरीयत ही उसका संविधान है देवबंद केअधिवेशन में यहाँ तक चेतावनी दी गयी यदि सरकार नहीं झुकी तो देश बर्बाद हो जाएगा । क्या माननीय सर्वोच्च न्यायालय इन मौलानाओ के बयानों का स्वतः संज्ञान लेते हुए राष्ट्र अश्मिता की अवमानना एवं देश द्रोह के सम्वबंध में कोई कार्यवाही करेगा । वर्तमान परिस्थितियों के परिपेक्ष में देश को यह भी जानना चाहिए की अंग्रेजों से आजादी के नाम पर इसी तरह की तकरीरों के साथ खिलाफत आंदोलन शुरू हुआ था । जिसमें भारत का हिन्दू समाज गांधी जी व नेहरू जी पर विश्वास करते हुए अहिंसा परमो धर्म के सिद्धांत पर चल रहा था परन्तु मुस्लिम समाज को अंग्रेजों से आजाद भारत नहीं अपितु मुगलिया भारत का शासन चाहिए था । अतः आज भी मुस्लिम समाज इस देश को सिर्फ अपना देश समझता है हिंदुओं का देश नहीं । इसी कारण आजादी के समय हिन्दू समाज का वीभत्स नरसंघार हुआ एवं राजनेताओ ने शान्ति स्थापना हेतु मुसलमानो को एक नया मुल्क बनाकर दे दिया था । भारत को शायद स्मरण नहीं होगा वर्ष 2018 में मौलाना मदनी ने जमीयत यूथ क्लब का गठन किया था । जिसका लक्ष्य वर्ष 2028 तक सवा करोड़ मुलिम कमांडो तैयार करना था क्या यह लक्ष्य 2028 से पूर्व ही पूर्ण हो चूका है । जिसके दम पर देश के बर्बाद होने से लेकर भारत का मुसलमान अल्पसंख्यक नहीं अपितु देश की दूसरी बड़ी आबादी होने तक की चेतावनी दी जा रही है । इस गंभीर विषय पर भारत के सभ्य समाज को राजनितिक चश्मे के स्थान पर समाजिक स्तर पर सोचना होगा अन्यथा जमीयत उलमा ऐ हिन्द जैसे संगठनों की चेतावनी को सार्थक होने से रोक पाना लगभग असम्भव हो जाएगा।

मनुष्य की सम्पूर्ण उन्नति का आधार अविद्या नाश और विद्या की वृद्धि


-मनमोहन कुमार आर्य
मनुष्य के जीवन के दो यथार्थ हैं पहला कि उसका जन्म हुआ है और दूसरा कि उसकी मृत्यु अवश्य होगी। मनुष्य को जन्म कौन देता है? इसका सरल उत्तर यह है कि माता-पिता मनुष्य को जन्म देते हैं। यह उत्तर सत्य है परन्तु अपूर्ण भी है। माता-पिता तभी जन्म देते हैं जबकि ईश्वर माता-पिता व जन्म लेने वाली जीवात्मा के शरीर के निर्माण वा रचना सहित सभी व्यवस्था और उपाय करते हैं। क्या मनुष्य का जन्म बिना ईश्वर के सहाय के सम्भव है?, इसका उत्तर नहीं में है। अब प्रश्न है कि ईश्वर व माता-पिता ने सन्तान को जन्म क्यों दिया है? माता-पिता तो यह कह सकते हैं कि यह मनुष्य का स्वभाव सा है कि युवावस्था में उसे विवाह की आवश्यकता अनुभव होती है और विवाह के बाद परिवार की वृद्धि की इच्छा से सन्तान का जन्म होता है। अन्य कुछ कारण और भी हो सकते हैं। माता-पिता द्वारा सन्तानों से वृद्धावस्था व आपातकाल में सेवा-सुश्रुषा आदि की अपेक्षा भी की जाती है। ईश्वर जन्म लेने वाली जीवात्मा को पिता व माता के शरीर में प्रवेश कराने सहित उसका लिंग ‘स्त्रीलिंग वा पुल्र्लिंग’ निर्धारित करते हैं और माता के गर्भ में एक शिशु का शरीर रचकर उसे गर्भ की अवधि पूरी होने पर जन्म देते हैं। इसका उद्देश्य तो सामान्य व्यक्ति ईश्वर से पूछ नहीं सकता। हां, योगी व ज्ञानी अपने अध्ययन, विवेक, योग साधना व कुछ सिद्धियों से इसका यथार्थ उत्तर दे सकते हैं। वह उत्तर है कि जीवात्मा ज्ञान वा विद्या प्राप्त कर अपने अज्ञान को दूर करे। इसके साथ मनुष्य जन्म में अपने अकर्तव्य व अकर्तव्यों सहित उसे संसार, ईश्वर व जीवात्मा का यथार्थ ज्ञान भी होना चाहिये। जीवात्मा, ईश्वर व अनेकानेक विषयों का ज्ञान प्राप्त कर ईश्वर को प्राप्त करना मनुष्य जन्म में ही सुलभ है। अतः ईश्वर जीवात्माओं को मनुष्य आदि अनेक योनियों में उसके पूर्वजन्म के कर्मानुसार जन्म देता है और पुराने कर्मों का भोग करने तथा नये कर्मों के आधार पर मृत्यु के पश्चात जीवात्मा के नये जीवन अर्थात् पुनर्जन्म की योनि का निर्धारण करता है।

मनुष्य जीवन केवल शरीर को पोषण देने, स्वादिष्ट भोजन करने व धन स्म्पत्ति अर्जित कर सुख-सुविधाओं की वस्तुओं का संग्रह करने मात्र के लिए ही नहीं मिला है। यह काम अवश्य करने हैं परन्तु सबसे महत्वपूर्ण इस संसार सहित ईश्वर व जीवात्मा के सत्य ज्ञान व रहस्यों को जानकर ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना को भी करना होता है। इन सब कामों के लिए ज्ञान की आवश्यकता होती है जो हमें माता-पिता के बाद आचार्यों व शास्त्रों के अध्ययन से प्राप्त होता है। यदि जीवन में शास्त्रों का ज्ञान व सदाचरण नहीं है तो वह जीवन मनुष्य का होकर भी पशु के समान, एकांगी जीवन अर्थात् सुखों का भोग करनेवाला, ही कहा जाता है। पशु का काम खाना-पीना व अपने स्वामी की सेवा करना होता है। यदि मनुष्य भी धनसंग्रह करने व शारीरिक सुविधाओं के लिए ही जीवित रहता है तो यह पशुओं के समान ही है। सत्य शास्त्रों के ज्ञान से जो विवेक प्राप्त होता है वही मनुष्य की वास्तविक पूंजी होता है। विद्या वा अज्ञानरहित ज्ञान व इसकी प्रेरणा से किए गये सदकर्म न केवल इस जीवन अपितु भावी अनेकानेक जन्मों में भी सहयोगी, लाभदायक व सुखप्रदायक होते हैं। अतः सभी मनुष्यों का मुख्य कर्तव्य यह है कि वह अपने अज्ञान व अविद्या का नाश करने के लिए योग्य आचार्यों से वेदाध्ययन वा ज्ञान की प्राप्ति करे और उपासना सहित सदाचरण वा सत्याचरण से जीवन के लक्ष्य परमात्मा की प्राप्ति व उसका प्रत्यक्ष करें। 

यदि हम इतिहास पर दृष्टि डाले तो हमें इतिहास में बड़े-बड़े ज्ञानियों, धर्मपालकों, ऋषियों, आचार्यों के नाम मिलते हैं जिनका नाम श्रद्धा से लिया जाता है। ऐसे लोग ही मानव समुदाय का आदर्श हुआ करते हैं। इतिहास में प्राचीन महापुरुषों में श्री रामचन्द्र जी व श्री कृष्ण जी का नाम प्रसिद्ध होने के साथ उनको लोग आज भी श्रद्धा-भक्ति से स्मरण करते हैं। इसका कारण उनके कार्य व जीवन का आदर्श आचरण है जो उन्होंने किया था। इन महापुरुषों के जीवन को प्रकाश में लाने का काम महर्षि वाल्मीकि और महर्षि वेदव्यास जी ने रामायण व महाभारत ग्रन्थों की रचना कर किया। यह सभी लोग विद्या में सर्वोच्च थे। आज भी हम महर्षि दयानन्द, स्वामी शंकराचार्य, आचार्य चाणक्य, महाराणा प्रताप, वीर शिवाजी, गुरु गोविन्द सिंह, नेताजी सुभाषचन्द्र बोस, पं. रामप्रसाद बिस्मिल, भगत सिंह, सरदार पटेल आदि को स्मरण करते हैं तो इसका कारण भी इन लोगों का ज्ञान व उसके अनुरुप किये गये कार्य हैं। इन उदाहरणों का अभिप्राय यही है कि मनुष्यों को पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर श्रेष्ठ कार्यों को करना चाहिये जैसा कि इन कुछ महापुरुषों ने किये हैं। ऐसा करके हम अपने अपने जीवन को सफल व सफलतम बना सकते हैं। 

शास्त्रों ने बताया है कि विद्या वह होती है जो मनुष्यों को दुःखों से मुक्त कराती है। इससे यह आभाष मिलता है कि मनुष्यों के दुःखों का कारण अविद्या व असत् ज्ञान होता है। हम संसार में भी देखते हैं कि असत् ज्ञान व ज्ञानहीनता निर्धनता का मुख्य कारण होता है। अज्ञानी व्यक्ति अन्याय व शोषण से पीड़ित भी होता है व स्वयं भी ऐसा ही आचरण दूसरों के प्रति करता है। ऐसा भी देखा जाता है कि जिस व्यक्ति को ज्ञान हो जाता है वह न केवल अपने जीवन का सुधार करता है अपितु अपने साथ अपने सम्पर्क में आने वाले अनेकों का भी उससे सुधार होता है। आजकल संसार में नाना विषयों का ज्ञान उपलब्ध है। यह सांसारिक ज्ञान अपरा विद्या कहलाता है। इस विद्या से मनुष्य अनेकानेक काम करके धन व सम्पत्ति व अनेक पदार्थों का सृजन कर सकता है परन्तु अपनी आत्मा को उत्तम नहीं बना सकता। आत्मा को उत्तम व श्रेष्ठ बनाने के लिए वेदों व वैदिक साहित्य की शरण में जाना पड़ता है। वेदों का आत्मा व ईश्वर सम्बन्धी ज्ञान परा विद्या कहलाती है। इसे आध्यात्मिक विद्या भी कह सकते हैं। इस विद्या से मनुष्यों को अपने यथार्थ कर्तव्यों का बोध होता है। इस ज्ञान व विज्ञान को प्राप्त होकर मनुष्य अपरिग्रह को अपनाता है और आत्मा व ईश्वर का चिन्तन करते हुए ईश्वर का अधिकतम व पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लेता है जिससे उसकी अविद्या नष्ट होकर वह वैदिक मान्यता के अनुसार जन्म व मरण के दुःखों से 4.32X2X360X100 = 3,11,040  अरब वर्षों तक के लिए मुक्त होकर ईश्वर के सान्निध्य में पूर्ण आनन्द का भोग करता है। यही मनुष्य जीवन का वास्तविक स्वर्ग है जिसका विस्तृत वर्णन सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ में उपलब्ध होता है। 

महर्षि दयानन्द वेद सहित आदि वा प्राचीन काल से उनके समय तक ऋषियों व विद्वानों द्वारा रचित सभी शास्त्रों व ग्रन्थों के अपूर्व विद्वान थे। संसार का सुधार व उन्नति करने के लिए उन्होंने आर्यसमाज की स्थापना की थी। वेद ज्ञान के आधार पर उन्होंने आर्यसमाज के दस नियमों की रचना की जिसमें से आठवां नियम है कि ‘अविद्या का नाश और विद्या की वृद्धि करनी चाहिये।’ यह नियम सर्वमान्य नियम है। इसका महत्व सभी जानते हैं। इस पर किसी को विवाद नहीं है। परन्तु विद्या का क्षेत्र कहां तक है यह बहुतों को ज्ञात नहीं है। पूर्ण विद्या की प्राप्ति वेद व वैदिक साहित्य का अध्ययन कर ही सम्पन्न होती है। वेदों के ज्ञान से रहित मनुष्य पूर्ण ज्ञानी नहीं कहा जा सकता। अतः जीवन की पूर्ण उन्नति के लिए संसार के अनेकानेक विषयों का अध्ययन करने के साथ वेद व वैदिक साहित्य यथा उपनिषद, दर्शन, मनुस्मृति, सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका आदि का अध्ययन भी अवश्य ही करना चाहिये। जो करेंगे उनको आत्मा के विकास सहित ईश्वर की प्राप्ति का लाभ होगा और परजन्मों, इस जन्म के बाद होने वाले जन्मों, की उन्नति होगी। जो नहीं करेंगे वह इन लाभों से वंचित रहेंगे। महर्षि दयानन्द के आर्यसमाज के तीसरे नियम में प्रस्तुत शब्दों का उल्लेख कर लेख को विराम देते हैं। उन्होंने लिखा है कि ‘वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है। वेद का पढ़ना पढ़ाना व सुनना सुनाना सब आर्यों (श्रेष्ठ मनुष्यों) का परम धर्म है।’ 

-मनमोहन कुमार आर्य

करते है प्यार कितना,ये बता सकते नहीं हम।

करते है प्यार कितना,ये बता सकते नहीं हम।
दिल में जो बसा है,उसे हटा सकते नहीं हम।।

सांसों में बसे हो तुम,धड़कनों में बसो हो तुम।
तेरी चाहत को कभी मिटा सकते नहीं हम।।

प्यासी हूं कब से मै,अब तो आ जाओ सनम।
मेरी प्यास को कोई बुझा सकता नहीं सनम।।

न मर सकते है,न जी सकते है अब हम सनम।
कब दम निकल जाए, ये बता सकते नहीं हम।।

प्यार किया है मैंने,कोई खता नहीं की मैंने सनम।
इस खता को तुम,खता बता सकते नहीं सनम।।

कोई तुलना न प्यार की गहराई किसी से सनम।
कितना गहरा है मेरा प्यार,बता सकते नहीं हम।।

आर के रस्तोगी

अनाथ बच्चों के लिये मोदी की संवेदनशील पहल

अंतर्राष्ट्रीय बाल रक्षा दिवस-01 जून 2022

  • ललित गर्ग –

सम्पूर्ण विश्व में प्रत्येक वर्ष 01 जून को ‘अंतर्राष्ट्रीय बाल रक्षा दिवस’ मनाया जाता है। यह दिवस सबसे पुराना अंतर्राष्ट्रीय उत्सव माना जाता है जो कि साल 1950 से मनाया जाता आ रहा है। इसकी शुरुआत का निर्णय मॉस्को में ‘अंतर्राष्ट्रीय महिला लोकतांत्रिक संघ’ की एक विशेष बैठक में किया गया था। इस दिवस का उद्देश्य बच्चों के अधिकारों की रक्षा करने की आवश्यकता की ओर लोगों का ध्यान आकर्षित करना है। रूस में आज के दिन अनाथ, विकलांग और ग़रीब बच्चों की समस्याओं की ओर विशेष रूप से लोगों का ध्यान खींचा जाता है। बच्चों को तोहफ़े दिए जाते हैं और उनके लिए विशेष समारोहों का आयोजन किया जाता है। रूस की ही भांति भारत में भी इस दिवस से तीन दिन पूर्व नरेंद्र मोदी सरकार की आठवीं वर्षगांठ पर कोरोना के समय अनाथ हुए बच्चों के लिये बाल-कल्याण एवं राहत योजना घोषित करते हुए बच्चों को उन्नत, अपराधमुक्त एवं कल्याणकारी भविष्य देने की स्वागतयोग्य पहल की गयी है। प्रधानमंत्री ने सोमवार को वीडियो कांफ्रेंसिंग के जरिये बच्चों के लिए पीएम केयर योजना के तहत अनेक लाभ एवं बाल-कल्याण की घोषणाएं की। जिससे न केवल सरकार के लोकल्याणकारी स्वरूप को बल मिलेगा, बल्कि दुनिया की सरकारों के लिये यह अनुकरणीय एवं प्रेरक उदाहरण होगा। पीएम केयर्स फॉर चिल्ड्रन स्कीम के जरिये कोरोना से अनाथ हुए बच्चों के लिए स्कॉलरशिप और अन्य आर्थिक सहायता की घोषणा से अंतर्राष्ट्रीय बाल रक्षा दिवस की सार्थकता सामने आयेगी।
प्रधानमंत्री मोदी ने स्कूल जाने वाले बच्चों को छात्रवृत्ति दी है। पीएम केयर फॉर चिल्ड्रन की पासबुक और आयुष्मान भारत-प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना का स्वास्थ्य कार्ड भी भेंट किया है। वैसे यह पिछले वर्ष ही स्पष्ट हो गया था कि केंद्र सरकार अनाथ हुए बच्चों को सहारा देने के लिए अनेक उपाय करेगी। बेशक, आज ऐसे बच्चों को अधिकतम देखभाल व मदद की जरूरत है, केंद्र ही नहीं, राज्य सरकारों को भी ऐसे बच्चों के साथ खड़ा होना चाहिए। दुनिया में दूसरी सरकारों ने भी अपने यहां अनाथ हुए बच्चों के हित में कदम उठाए हैं। सरकारें होती ही इसलिए हैं कि जरूरतमंदों को भरपूर सहारा दें, विशेषतः बच्चों के जीवन पर छाये अंधेरों को दूर करें। इसकी आवश्यकता इसलिये भी है कि भारत में आज भी 14 साल से कम उम्र के 40 प्रतिशत बच्चें चाय के होटल, ढाबा, दुकान और मोटर मैकैनिक के अलावा अनौपचारिक क्षेत्र में न्यूनतम वेतन पर काम करते हैं। कुछ तो बेहद कम मजबूरी में काम करते हैं या कुछ बच्चों के माता-पिता हाथ में हुनर का हवाला देने की बात कहकर उन्हें किसी न किसी काम में लगा देते हैं। इससे उनकी शिक्षा पर गहरा असर पड़ता है। खेलने-कूदने और शिक्षा से लेकर उनके भरण−पोषण तक हर जगह बच्चों के अधिकारों को अनदेखा किया जाता है। बच्चों के अधिकार क्या हैं और कैसे हो इनकी सुरक्षा, इस पर गंभीरता से मंथन की जरूरत है। मोदी बच्चों को देश के भविष्य की तरह देखते थे। लेकिन उनका यह बचपन रूपी भविष्य आज अभाव, नशे, उपेक्षा एवं अपराध की दुनिया में धंसता चला जा रहा है। बचपन इतना उपेक्षित, डरावना एवं भयावह हो जायेगा, किसी ने कल्पना भी नहीं की होगी। आखिर क्या कारण है कि बचपन अभाव एवं उपेक्षा की अंधी गलियों में जा रहा है? बचपन इतना उपेक्षित क्यों हो रहा है? बचपन के प्रति न केवल अभिभावक, बल्कि समाज और सरकार इतनी बेपरवाह कैसे हो गयी है? यह प्रश्न अंतर्राष्ट्रीय बाल रक्षा दिवस मनाते हुए हमें झकझोर रहे हैं।
कुछ ऐसी की पीड़ा ने मोदी को झकझोरा है, इसलिये एक संवेदनशील प्रधानमंत्री के रूप में मोदी ने राहत-मदद की घोषणा करते हुए उचित ही कहा है कि मैं प्रधानमंत्री के रूप में नहीं, बल्कि परिवार के सदस्य के रूप में संबोधित कर रहा हूं। जरूरी है, सरकार के सभी अंग प्रधानमंत्री की मंशा के अनुरूप ही जरूरतमंद बच्चों को अपने परिवार का सदस्य मानकर चलें। ऐसे बच्चों की शिक्षा एवं खुशहाली से लेकर रोजगार तक की चिंता सरकार को करनी चाहिए। बच्चे स्वास्थ्य कार्ड से पांच लाख रुपये तक की मुफ्त सेवाओं का लाभ उठा सकते हैं। सरकार ने ऐसे बच्चों के नामांकन के लिए ऑनलाइन पोर्टल शुरू किया है, जिसके माध्यम से बच्चों के नाम अनुमोदन की प्रक्रिया व अन्य कार्य आसानी से किए जा सकेंगे। सभी सरकारों को यह सुनिश्चित करना होगा कि जरूरतमंद बच्चों तक मदद आसानी से पहुंच सके। एक भी बच्चा वंचित नहीं रहना चाहिए। साथ ही, यदि हो सके, तो उन सभी बच्चों को मदद दी जाए, जो मां या पिता में से किसी एक को भी खो चुके हैं। दोनों अभिभावकों के कोरोना से निधन की पीड़ा एवं वेदनादायक स्थितियों को मानवीय व व्यावहारिक दृष्टि से देखना चाहिए। बच्चों के आवेदनों में तकनीकी खामियों या कमियों को भी उदारता से दूर करना चाहिए। क्योंकि आजादी का अमृत महोत्सव मनाते हुए निर्मित हुए भारत में आज भी हम यत्र-तत्र 12-14 साल के बच्चे को टायर में हवा भरते, पंक्चर लगाते, चिमनी में मुंह से या नली में हवा फूंकते, जूठे बर्तन साफ करते या खाना परोसते देखते हैं और जरा-सी भी कमी होने पर उसके मालिक से लेकर ग्राहक द्वारा गाली देने से लेकर, धकियाने, मारने-पीटने और दुर्व्यवहार होते देखते हैं तो अक्सर ‘हमें क्या लेना है’ या ज्यादा से ज्यादा मालिक से दबे शब्दों में उस मासूम पर थोड़ा रहम करने के लिए कहकर अपने रास्ते हो लेते हैं। लेकिन कब तक हम बचपन को इस तरह प्रताड़ित एवं उपेक्षा का शिकार होने देंगे।
हमें मोदी के स्वर में अपना स्वर मिलाते हुए खुशहाल बचपन को जीवंत करने के लिये प्रयत्नशील होना चाहिए। एक-एक बच्चे तक मदद पहुंचाने की प्रधानमंत्री की कोशिश तभी कामयाब होगी, जब समाज के नागरिकों के साथ-साथ अधिकारी भी पूरी ईमानदारी से अनाथ बच्चों का सहारा बनेंगे। सबसे जरूरी है कि ऐसे बच्चों का सही डाटा एकत्र किया जाए। यहां केवल सरकार ही नहीं, स्थानीय सामाजिक संगठनों की भी जिम्मेदारी बनती है। आखिर ऐसे कितने बच्चे हैं? चूंकि सरकार के पास अभी स्पष्ट डाटा नहीं है, इसलिए तरह-तरह के अध्ययन सामने आए हैं। द लैंसेट के अध्ययन के अनुसार, भारत में लगभग 19 लाख बच्चों ने कोविड-19 के चलते माता-पिता या दोनों में से किसी एक को खोया है। दूसरी ओर, इस साल 5 फरवरी तक महिला और बाल विकास मंत्रालय के पास कुल 3,890 कोविड अनाथों का डाटा पंजीकृत था। मतलब, आधिकारिक रूप से डाटा दुरुस्त करने का अहम कार्य शेष है। योजना की सफलता इसी में है कि हर जरूरतमंद बच्चे तक जल्द से जल्द मदद पहुंचे। जरूरत है कोरोना में अनाथ हुए बच्चों को राहत पहुंचाने के साथ खेलने-कूदने और शिक्षा से लेकर उनके भरण−पोषण तक हर जगह बच्चों के अधिकारों को अनदेखा करने की स्थितियों पर काबू पाने की। जरूरत इस बात की भी है कि बच्चों को डांटने और मारने की बजाय उन्हें स्नेह एवं प्यार से समझाने की। बच्चों को एक सख्त माता-पिता नहीं बल्कि एक दोस्त और प्यार की आवश्यकता होती हैं। इसलिए डांट, मार से नहीं प्यार से बच्चे सुधरेंगे।
कमजोर नींवों पर हम कैसे एक सशक्त राष्ट्र की कल्पना कर सकते हैं? कैसा विरोधाभास है कि हमारा समाज, सरकार और राजनीतिज्ञ बच्चों को देश का भविष्य मानते नहीं थकते लेकिन क्या इस उम्र के लगभग 25 से 30 करोड़ बच्चों से बाल मजदूरी के जरिए उनका बचपन और उनसे पढने का अधिकार छीनने का यह सुनियोजित षड्यंत्र नहीं लगता? बाल मजदूरी से बच्चों का भविष्य अंधकार में जाता ही है, देश भी इससे अछूता नहीं रहता क्योंकि जो बच्चे काम करते हैं वे पढ़ाई-लिखाई से कोसों दूर हो जाते हैं और जब ये बच्चे शिक्षा ही नहीं लेंगे तो देश की बागडोर क्या खाक संभालेंगे? इस तरह एक स्वस्थ बाल मस्तिष्क विकृति की अंधेरी और संकरी गली में पहुँच जाता है और अपराधी की श्रेणी में उसकी गिनती शुरू हो जाती हैं। आवश्यक है कि अभिभावकों और बच्चों के बीच बर्फ-सी जमी संवादहीनता एवं संवेदनशीलता को फिर से पिघलाया जाये। फिर से उनके बीच स्नेह, आत्मीयता और विश्वास का भरा-पूरा वातावरण पैदा किया जाए। सरकार को बच्चों से जुड़े कानूनों पर पुनर्विचार करना चाहिए एवं बच्चों के समुचित विकास के लिये योजनाएं बनानी चाहिए। ताकि इस उपेक्षित एवं अभावग्रस्त बचपन और भटकते राष्ट्र के नव पीढ़ी के कर्णधारों का भाग्य और भविष्य उज्ज्वल हो सकता है। ऐसा करके ही हम अंतर्राष्ट्रीय बाल रक्षा दिवस को मनाने एवं प्रधानमंत्री मोदी की बाल-कल्याणकारी योजनाओं की सार्थकता हासिल कर सकेंगे।

भारत आर्य अनार्य द्रविडों का है मगर आक्रांताओं का नहीं है

—विनय कुमार विनायक
सुनो संतों! भारत आर्य अनार्य द्रविडों का देश है,
मगर इस्लामी आक्रांता महमूद गजनवी, गोरी के
गुलाम, खिलजी, तुगलक, सैयद, लोदी, मुगलवंशी
बर्बर तुर्क बाबर,औरंगजेब और अंग्रेजों का नहीं है!

भारत में आर्य अनार्य अलग कोई जाति नहीं थी,
बल्कि आर्य एक उपाधि रही है श्रेष्ठ महाजनों की,
ब्राह्मण रावण अनार्य,पर अनुज विभीषण आर्य थे,
क्षत्रिय कृष्ण आर्य,पर मामा कंश असुर अनार्य थे!

भारत में नस्लभेद नहीं,भारत में नस्लीय लड़ाई नहीं,
सभी लड़ाई अपनों के बीच अच्छाई बुराई की हुई थी!

देवासुर संग्राम देव-दानव-दैत्य दायाद बांधवों में था,
कश्यप अदिति से आदित्य देव,कश्यप दिति से दैत्य,
कश्यप दनु से दानव, कश्यप कद्रू से नाग जन्मे थे,
सभी एक पिता और तेरह बहन माताओं के मौसीपुत्र
आपस में देव दानव दैत्य नाग आदि दायाद भाई थे!

परशुराम सहस्त्रार्जुन संघर्ष ब्राह्मण क्षत्रिय अमर्ष था,
आर्य आदिवासी नहीं,ब्राह्मण क्षत्रिय द्विपक्ष आर्य का!
राम रावण युद्ध में वनवासी,आर्य राम के संगी-साथी,
इसलिए मत कहो भारत अनार्य भूमि, आर्यों की नहीं!
महाभारत की लड़ाई भाई-भाई के बीच में लड़ी गई थी,
आर्यों को बाहरी व द्रविडों को भीतरी कहना ठीक नहीं!

भारत में आर्य द्रविड़ अलग कुल कुन्वा नहीं,
बल्कि द्रविड़ हैं आर्य ययातिपुत्र द्रहयु संतति,
जिन्हें दक्षिण भारत की हिस्सेदारी मिली थी,
उत्तरी आर्य, दक्षिणी द्रविड़ में कोई भेद नहीं!

आर्य ययाति जम्बूद्वीप के चक्रवर्ती सम्राट हुए,
चंद्रवंश के ययाति ने अपने पांच पुत्रों में से चार
यदु द्रहयु अनु पुरु को आर्यावर्त व द्राविड़ दिए!

यदु से यादव हैहय,द्रहयु से द्रविड़,अनु से आनव,
पुरु से पौरव कौरव,तुरु तुरुष्क से तुर्क वंश चला!
पांचवें तुरुष्क को भारत बाह्य तुर्किस्तान मिला,
लेकिन तुरुष्क वंशी तुर्क बने भारत का आक्रांता!

परन्तु उत्तर और दक्षिण में नहीं कोई संघर्ष हुआ,
द्रविड़ से आई भक्ति उत्तर को स्वीकार्य सहर्ष था,
द्रविड़ शंकराचार्य रामानुजाचार्य थे आर्य; वेदज्ञाता!

ययाति थे दानवगुरु भार्गव और्व शुक्राचार्य जमाता,
और्व से अरब बना और्व का एक नाम था काव्या,
काव्या मंदिर मकेश्वर महादेव अब बना मक्का!

दैत्य दानव गुरु शुक्राचार्य के सम्मान में अरबी
इस्लामी शुक्रवार को जुमा मनाते कहते शुक्रिया,
जमाई चंद्रवंशी ययाति की शान में चांद पताका,
ये वसुधैव कुटुंबकम्, पर समझते नहीं आक्रांता!

भारत का एकमात्र नारा ‘कृण्वंतो विश्वम् आर्यम’,
पूरी वसुंधरा सभ्य शिक्षित श्रेष्ठ मानव ‘मनुर्भव:’
राम आर्य, कृष्ण बुद्ध महावीर दसगुरु आर्य थे,
शुद्र तो क्षुद्र आचरण वश लोग स्वयं बन जाते!

सुनो शान्तिदूतों! बाबा आदम के सपूतो! आदमी हो,
तो आदित्य सूर्यपुत्र वैवस्वतमनु के वंशज मानव हो,
आद का अर्थ सूर्य,आद से आदम यानि सूर्यपुत्र मनु,
अरबी जुबान में जिसे पैगम्बर नूह,अब्राहम या ब्रह्म
आदम-मनु-नूह, अब्राहम-ब्रह्मा को अलग ना समझो!

भारतवंशी हो पर अरबी फारसी तुर्की में गुफ्तगू करते,
भारत की मिट्टी से बने खुद को अरबी तुर्की समझते,
भारत है उनका जो भारत को अपनी मातृभूमि मानते,
जो आक्रांताओं के समर्थक वे भारतीय कैसे हो सकते?
—-विनय कुमार विनायक

नेताओं पर कुछ पाबंदियां जरुरी

संसद की संयुक्त समिति ने एक आदेश जारी किया है, जिसके कारण अब सांसदों को सिर्फ अपनी एक ही पेंशन पर गुजारा करना होगा। अभी तक एक सांसद को, यदि वह विधायक भी रहा हो और सरकारी कर्मचारी भी रहा हो तो तीन-तीन पेंशनें लेने की सुविधा बनी हुई है। हमारे सांसदों को तीन लाख 30 हजार रु. तो हर महिने वेतन के तौर पर मिलते ही हैं, उन्हें तरह-तरह की इतनी सुविधाएं भी मिलती हैं कि उन सबका हिसाब बाजार भाव से जोड़ा जाए तो उन पर होने वाला सरकारी खर्च कम से कम 10 लाख रु. प्रति माह होता है।

जबकि भारत के लगभग 100 करोड़ लोग 10 हजार रु. प्रति माह से भी कम में गुजारा करते हैं। हमारे वे सांसद और विधायक बिल्कुल भौंदू माने जाएंगे, जो सिर्फ अपने वेतन और भत्तों पर ही निर्भर होंगे। राजनीति में आने वाला हर व्यक्ति, चाहे वह किसी भी पार्टी का हो, उसके लिए यह सरकारी वेतन और भत्ते तो ऊँट के मुंह में जीरे के समान हैं। हमारी राजनीति का शुद्धिकरण तभी हो सकता है जबकि हमारे जन-प्रतिनिधि आचार्य कौटिल्य की सादगी का अनुकरण करें या यूनानी विद्वान प्लेटो के दार्शनिक सेवकों की तरह रहें।

प्रधानमंत्री ने खुद को ‘प्रधान जनसेवक’ कहा है, जो बिल्कुल उचित है लेकिन हमारे नेता गण वास्तव में जनता के प्रधान मालिक बन बैठते हैं। उनकी लूट-पाट और उनकी अकड़ हमारे नौकरशाहों के लिए अत्यंत प्रेरणादायक होती है। वे उनसे भी ज्यादा अकड़बाज और लुटेरे बनकर ठाठ करते हैं। संसदीय समिति को बधाई कि उसने अभी सांसदों की दुगुनी-तिगुनी पेंशन पर रोक लगाई है लेकिन यह काम अभी अधूरा ही है।

उसे पहला काम तो यह करना चाहिए कि सांसदों को अपने वेतन और भत्ते खुद ही बढ़ाने के अधिकार को वह समाप्त करे। दुनिया के कई लोकतांत्रिक देशों में यह अधिकार दूसरे संगठन को दिया गया है। इसके अलावा जरा यह भी सोचा जाए कि यदि कोई व्यक्ति पांच साल से कम समय तक संसद और विधायक रहे तो उसे पेंशन क्यों दी जाए? क्या सरकारी कर्मचारी और विश्वविद्यालयों के प्रोफेसरों को इस तरह पेंशन मिल जाती है? मेरी अपनी राय तो यह है कि सांसदों और विधायकों को कोई पेंशन नहीं लेनी चाहिए।

इसके अलावा यदि विभिन्न राज्यों का हिसाब-किताब देखें तो वहां पेंशन के नाम पर लूट मची हुई है। कई राज्यों में जो विधायक कई बार चुने जाते हैं, उनकी पुरानी पेंशन में नई पेंशन भी जुड़ जाती है। पंजाब में अकाली दल के 11 बार विधायक रहे प्रकाशसिंह बादल को लगभग 6 लाख रु. प्रति माह पेंशन मिलती है। ‘आप पार्टी’ की मान सरकार इस प्रावधान पर रोक लगा रही है।

इसके अलावा विधायकों के और भी कई मजे हैं। देश के सात राज्यों में विधायक लोगों की आय पर आयकर उनकी सरकारें भरती हैं। उन्हें भी सांसदों की तरह निवास, यात्राओं आदि की कई मुफ्त सुविधाएं मिली रहती हैं। जो सुविधाएं जन-सेवा के लिए जरुरी हैं, वे अवश्य दी जाएं लेकिन नेताओं की पेंशन, मोटी तनख्वाह और अनावश्यक सुविधाओं में यदि कटौती कर दी जाए तो हजारों करोड़ रु. की बचत हो सकती है, जिसका लाभ देश के वंचितों, गरीबों और पिछड़ों को पहुंचाया जा सकता है। आजकल देश के नेतागण अपने विज्ञापन छपाने और दिखाने पर अरबों-खरबों रु. खर्च कर रहे हैं। इस पर भी तुरंत पाबंदी लगनी चाहिए।

ले लो दुवाये अपने मां बाप की

ले लो दुवाये अपने मां बाप की,
इससे बड़ी दौलत न है आप की।
जो जीवन में इससे बंछित हो पाया,
उसने जीवन में कभी सुख न पाया।।

जैसा बोओगे,वैसा ही तुम काटोगे,
बोए पेड़ बबूल के आम कैसे खाओगे।
प्रकृति का यह नियम चला आया है,
इसको कोई भी झूठा कर न पाया है।।

जो अपने मां बाप को दुःख है देते,
वे अपने जीवन में कभी सुख न पाते।
जब कभी जीवन में वे मां बाप बनेंगे,
तभी वे इस बात का अनुभव करेंगे।।

जो अपने मां बाप की सेवा है करता,
उनका आशीर्वाद उन्हे हमेशा मिलता।
जो करता है अपने मां बाप का निरादर,
उसे समाज में कभी न मिलता है आदर।।

मां बाप की सेवा ही है चारो धाम,
इससे बड़ा ने कोई दुनिया में धाम।
जो अपने मां बाप की सेवा है करता,
उसको चारो धाम का फल है मिलता।।

नही जरूरत है किसी पूजा पाठ की,
जिसने सेवा की है अपने मां बाप की।
मां बाप की जिस घर में कदर नही होती,
उस घर में कभी भी बरकत नहीं होती।।

जब जब घर में कोई मुसीबत है आई,
तब तब मां बाप की दुवाये काम है आई।
इन दुवाओ में होता है दुनिया भर का दम,
ये किसी धन दौलत से होती नही है कम।।

बंद किस्मत की कोई ताली नहीं होती,
सुखी जीवन की कोई डाली नही होती।
जो झुक जाए अपने मां बाप के चरणों में,
उसकी झोली कभी भी खाली नही होती।।

आर के रस्तोगी

जब हिन्दुत्व पर हुआ अत्याचार दस गुरुओं ने लिया अवतार

—विनय कुमार विनायक
जब-जब हिन्दुत्व पर हुआ था अत्याचार
तब तब प्रभु राम कृष्ण बुद्ध महावीर
दस सिख सद्गुरुओं ने लिए थे अवतार!

हर हिन्दू पूजते हैं प्रकृति मूर्ति प्रस्तर
करते धर्मग्रंथ गुरुग्रंथसाहिब का आदर
मानते बौद्ध जैन सिख आर्य धर्माचार!

हिन्दुओं ने आक्रांत किया ना किसी पर
हिन्दुओं ने सद्व्यवहार किया सब पर
हमसे फैला अहिंसा धर्म संपूर्ण धरा पर!

जब जहांगीर ने हिन्दुत्व पर किया प्रहार
हिन्दुओं के धर्मांतरण का किया कुविचार
गुरु अर्जुनदेव शहीद हुए किए धर्मोद्धार!

जब औरंगजेब ने कश्मीर के हिन्दुओं पर
जारी किया फरमान छः माह में धारणकर
इस्लाम नहीं तो हिन्दुओं का होगा संहार!

तब गुरु तेगबहादुर ने भेजा पैगाम विचार
हिन्दुओं का मैं रक्षक मेरे जीते जीवनभर
कश्मीरी हिन्दू नहीं होंगे इस्लामी झंडाबरदार!

क्रूर अताताई औरंगजेब ने गुरु तेगबहादुर पर
किया वार शीशगंज दिल्ली में शीश लिए उतार
और कश्मीर में धर्मांतरण किया था धुआंधार!

अबके कश्मीरी मुस्लिम है तबके हिन्दू संसार
इस्लामी अत्याचार से जन्मे इस्लामी दुराचार
भूल गए अपने पूर्वज भूल गए हिन्दू संस्कार!

औरंगजेब की बर्बरता का यही तक ना पारावार
दशम गुरु गोबिंद सिंह के दो दुधमुंहे बच्चे को
दीवार में चुनवाए जिन्हें धर्मांतरण ना स्वीकार!

औरंगजेब ने दशमेश पिता गुरु गोबिंदसिंह पर
महाकहर बरपाया, बांकी के दो पुत्र शहीद हुए
गुरुजी ने हिन्दुत्व पर किए सर्वबंश न्योछावर!

ये दस गुरु हिन्दूधर्म के त्राणकर्ता ईश्वरावतार
इनको नमन करते हिन्दू एक नहीं हजारों बार
गुरु ऋण मुक्ति हेतु करो सिख पंथ अंगीकार!
—विनय कुमार विनायक