दीपक कुमार त्यागी
“‘नितिन गडकरी” देश-दुनिया की एक ऐसी दूरदर्शी विचारों वाली शानदार शख्सियत हैं, जिनके लिए हमेशा जनहित, देशहित व आधुनिक भारत का निर्माण सर्वोपरि रहा है। वह दूरगामी दृष्टिकोण से युक्त एक ऐसे कुशल प्रशासक हैं जिनका हर हाल में सकारात्मक परिणामों को हासिल करना लक्ष्य होता है। वह एक ऐसे विजनरी राजनेता हैं जो जनहित व देशहित की नीतियों का निर्माण करते हुए उनको धरातल पर मूर्त रूप देने में समक्ष हैं। वह देश में लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा करते हुए लोकतंत्र को बनाए रखने और उसकी रक्षा करने की क्षमता रखने वाले एक कुशल राजनेता हैं। वह अच्छे से जानते हैं कि मानव सभ्यता के सर्वांगीण विकास के लिए व उसके जीवन को सरल बनाते हुए उसका आर्थिक विकास करने के लिए देश में छोटे-बड़े संपर्क मार्ग यानी सड़कों के जाल का बेहद महत्वपूर्ण स्थान है। गडकरी जानते हैं कि आदिकाल से लेकर के आज के आधुनिक काल तक में हर सभ्यता में सड़कें हमेशा उस क्षेत्र में सर्वांगीण विकास का सबसे सरल व सशक्त माध्यम बनती आयी हैं, यह स्थिति आज के आधुनिक समय में भी निरंतर जारी है। आज के आधुनिक युग की बात करें तो सम्पूर्ण विश्व में जहां-जहां भी बेहतरीन अच्छे ढंग से उच्च मापदंडों पर आधारित सड़कों का जाल बना हुआ है, वह क्षेत्र उस देश के आर्थिक विकास के लिए सरकारी कोष में बड़ा राजस्व देकर के अपना बड़ा आर्थिक योगदान देकर अहम भूमिका निभाने का कार्य कर रहा है। भारत में भी मौजूदा समय में हर तरफ विश्वस्तरीय अत्याधुनिक सुविधाओं से लैस उच्च गुणवत्ता पूर्ण बेहतरीन सड़कों का जाल केंद्रीय सड़क परिवहन एवं राजमार्ग मंत्री “नितिन गडकरी” के कुशल नेतृत्व में “भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण (एनएचएआई)” के द्वारा बहुत तेजी के साथ बनाया जा रहा है, जिससे देश में आज व भविष्य के लिए एक बेहद मज़बूत विकास पथ मजबूत नींव के साथ तैयार हो रहा है।
*”21वीं सदी के आधुनिक भारत के विकास पथ की मज़बूत नींव रखने के कार्य को तेजी प्रदान करने का श्रेय भारत सरकार के केन्द्रीय मंत्री “नितिन गड़करी” की कार्यशैली व दूरगामी सोच को जाता है, क्योंकि उनके दिशानिर्देश व कुशल ओजस्वी नेतृत्व में आज “भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण (एनएचएआई)” देश में विश्वस्तरीय सड़कों का निर्माण करके, सड़क निर्माण के क्षेत्र में सफलता के नित-नये विश्वस्तरीय आयाम स्थापित करने का कार्य कर रहा है।”*
आज 21वीं सदी के आधुनिक भारत को विकास पथ पर तेज रफ्तार देने के लिए केन्द्रीय सड़क परिवहन राजमार्ग मंत्री “नितिन गडकरी” दिन-रात एक करके पूरी टीम के साथ कार्य कर रहे हैं। क्योंकि “नितिन गडकरी” यह अच्छे से जानते हैं कि किसी भी देश के आर्थिक विकास का मार्ग वहां पर सड़कों के बेहद मजबूत जाल के आधारभूत ढांचे के निर्माण से ही निकलता है। आज देश में उनके नेतृत्व में सड़क निर्माण के क्षेत्र में नित-नये विश्व रिकॉर्ड बनाने का काम किया जा रहा है। वहीं “नितिन गडकरी” देश में बढ़ते क्रूड ऑयल के खर्च को कम करने के लिए निरंतर प्रयास करने का कार्य कर रहे हैं, वह देश में ईंधन के वैकल्पिक ऊर्जा स्रोतों व उनके प्रयोग का पता लगाने के लिए निरंतर कार्य कर रहे हैं। इसी विजन के तहत “नितिन गडकरी” ने मेथनॉल को डीजल का विकल्प बताते हुए, इसे डीजल से सस्ता ईंधन बताया है और डीजल इंजन को मेथनॉल से चलने वाले इंजन में बदलने की तकनीक को बढ़ावा देने का सुझाव दिया है, उनका मानना है मेथनॉल बेस्ड फ्यूल सिस्टम को बढा़वा देने से निश्चित रूप से देश के लिए सकारात्मक परिणाम होगा। वह देश में निरंतर इलेक्ट्रिक वाहनों को प्रोत्साहन देने का कार्य कर रहे हैं और वह इन वाहनों की कीमत कम करने व सुरक्षा के मानदंडों पर खरा उतरने के लिए लगातार वाहन निर्माता कंपनियों से कार्य करवा रहे हैं। “नितिन गडकरी” देश में वैकल्पिक ऊर्जा को प्रोत्साहन देने पर लगातार काम कर रहे हैं, इस योजना के अंतर्गत ही कुछ दिन पहले ही उन्होंने देश के सामने पहली हाईड्रोजन ईंधन बेस कार पेश करके ग्रीन एनर्जी के क्षेत्र में एक बड़ी पहल करने का कार्य किया था, विजनरी गडकरी यह अच्छे जानते हैं कि हाईड्रोजन ईंधन देश-दुनिया में क्रूड ऑयल का भविष्य में बेहद अहम विकल्प बन सकता है, वह परिवहन व्यवस्था का भविष्य है, इसलिए इस तकनीक पर समय से कार्य करना बेहद आवश्यक है, जिसके दम पर भारत हाईड्रोजन ईंधन आधारित तकनीक में देश का लाभ करते हुए दुनिया को राह दिखाते हुए आर्थिक रूप से संपन्न हो सकता है। “नितिन गडकरी” ने ही देश में माल ढुलाई के लिए विभिन्न जलमार्गों को बढ़ावा देने का कार्य किया है, क्योंकि वह अच्छे से जानते हैं यह देश में एक बेहद सस्ता विकल्प मौजूद है, जिसका उपयोग करके धन, समय व पर्यावरण को होने वाले नुक़सान से बचा जा सकता है।
*”वैसे केन्द्रीय मंत्री “नितिन गडकरी” की कार्यशैली को देखा जाये तो प्रत्येक आम आदमी को भी यह स्पष्ट रूप से नज़र आयेगा कि उनका लक्ष्य देश में जल्द से जल्द वैश्विक मानकों के अनुरूप राष्ट्रीय राजमार्ग नेटवर्क का निर्माण करके अत्याधुनिक सड़कों का जाल बिछाकर, राष्ट्र की मौजूदा व भविष्य की आवश्यकताओं को पूरा करते हुए, भारत सरकार के द्वारा तय मानदंडों के रणनीतिक ढांचे के भीतर सबसे अधिक समयबद्ध ढंग से, कम से कम लागत में विश्व स्तरीय राष्ट्रीय राजमार्ग के निर्माण व रखरखाव करते हुए, देश में सड़क पर चलने वाले प्रत्येक आम व खास वर्ग के हर उपयोगकर्ता की अपेक्षाओं को पूरा करते हुए, वाहन प्रदूषण को कम करते हुए, देशवासियों के जीवन को सड़क पर चलते हुए सुरक्षित रखते हुए, उन्हें विश्वस्तरीय उच्च गुणवत्ता पूर्ण सुविधाएं देना और देश के विकास के पथ की नींव को मज़बूत करके देश में आर्थिक विकास के नित-नये आयाम स्थापित करना है, जिसके लिए वह लगातार कार्य कर रहे हैं।”*
देश में दिन-प्रतिदिन गंभीर होती प्रदूषण की समस्या के निदान के लिए “नितिन गडकरी” ने ही देश में जैव-ईंधन, ई-रिक्शा, इलेक्ट्रिक वाहन को बढ़ावा देकर प्रदूषण में कटौती करने के लिए धरातल पर एक ठोस कारगर पहल करने का कार्य किया है। “नितिन गडकरी” ने देश में सड़क किनारे वृक्षारोपण के लिए हरित राजमार्ग नीति की वर्ष 2015 में शुरूआत करके देश में ग्रीन नेशनल हाईवे कारिडोर प्रोजेक्ट शुरू करने का कार्य किया है, जिससे भविष्य में लोगों को रोजगार मिलने व पर्यावरण संरक्षण होने के दोनों कार्य होंगे।
वर्ष 2017 में जब “प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी” ने भारत के अब तक के सबसे बड़े राष्ट्रीय राजमार्ग विकास कार्यक्रम के अन्तर्गत “भारतमाला परियोजना” की घोषणा की थी, तो उस वक्त भारी भरकम बजट वाली “भारतमाला परियोजना” की सफलता पर देश के बहुत सारे लोगों को विश्वास नहीं हो रहा था, क्योंकि इसके प्रथम चरण के अंतर्गत ही 5,35,000 करोड़ रुपये की अनुमानित लागत पर 34,800 किलोमीटर राष्ट्रीय राजमार्गों को अपग्रेड करने की एक बहुत बड़ी चुनौती खड़ी थी। जिस चुनौती को केन्द्रीय मंत्री “नितिन गडकरी” ने स्वीकार किया और फंड की व्यवस्था करवाकर “भारतमाला परियोजना” पर “एनएचएआई” को दिशानिर्देश देकर युद्धस्तर पर कार्य करने का निर्देश देकर धरातल पर निर्माण कार्य को तेजी के साथ शुरू करवा दिया, इस परिजनों की कार्यक्रम की अवधि वर्ष 2017-2018 से वर्ष 2021-2022 तक है। जिसके चरण-1 में कुल 34,800 किलोमीटर सड़कों का विकास होना है, जिसमें से5,000 किलोमीटर राष्ट्रीय कॉरिडोर, 9,000 किलोमीटर आर्थिक कॉरिडोर, 6,000 किलोमीटर फीडर कॉरिडोर और इंटर कॉरिडोर, 2,000 किलोमीटर सीमावर्ती सड़कें 2,000 किलोमीटर तटवर्ती सड़कें एवं बंदरगाह संपर्क सड़कें, 800 किलोमीटर हरित क्षेत्र एक्सप्रेस वे और 10,000 किलोमीटर अधूरे सड़़क निर्माण कार्य शामिल हैं।यह परियोजना देश में महत्वपूर्ण बुनियादी ढाँचे के अंतराल को कम करके देशभर में सड़क यातायात गतिविधि की क्षमता को बढ़ाने का वादा करती है। इस परियोजना के माध्यम से “एनएचएआई” ने देश के दूरदराज के क्षेत्रों को जोड़ने और देश के सामाजिक-आर्थिक विकास के लिए नए रास्ते खोलने के लिए नए बहुत ही शानदार ग्रीन कॉरिडोर के विकास की भी परिकल्पना की है। “एनएचएआई” की इस महत्वाकांक्षी परियोजना का लक्ष्य देश में लॉजिस्टिक्स की लागत को कम करने, मल्टीमॉडल और कुशल परिवहन, उपलब्ध करवाते हुए, देश में अंतिम छोर तक संपर्क मार्ग और मौजूदा आपूर्ति श्रृंखला के बुनियादी ढांचे में सुधार करने पर केंद्रित है। यह परियोजना भविष्य में देश में विकास की नयी गाथा लिखने का कार्य करेगी। आज कोरोना काल की भयावह महामारी के भयंकर दौर के बाद भी इस महत्वाकांक्षी “भारतमाला परियोजना” का कार्य तेजी के साथ निरंतर चल रहा है, जो अपने आप में एक नज़ीर है। अधिकांश देशवासियों का मानना है कि आज हमारे देश में सड़कों का विश्वस्तरीय बेहतरीन जाल बुन देने के लिए केन्द्रीय मंत्री “नितिन गडकरी” के दूरगामी विजन का कमाल है, देशवासी उनके बेहद अनमोल योगदान को हमेशा याद रखेंगे।
कुछ समय पूर्व लोकसभा में वर्ष 2022-2023 के लिए सड़क परिवहन एवं राजमार्ग मंत्रालय के नियंत्रणाधीन अनुदानों की मांगों पर हुई चर्चा के वक्त केन्द्रीय मंत्री “नितिन गडकरी” ने राष्ट्रीय राजधानी में लगने वाले जाम का उल्लेख करते हुए लोकसभा को बताया था कि किस प्रकार से उन्हें और अन्य लोगों को पहले दिल्ली हवाई अड्डा जाने और वहां से आने के क्रम में धौलाकुआं में यातायात जाम का सामना करना पड़ता था। लेकिन आज धरातल पर हम लोग स्थिति जाकर देखें तो वहां पर एक विश्वस्तरीय बेहतरीन सड़क निर्माण के चलते अब बेहद व्यस्त रहने वाले इस मार्ग पर यात्रा करना जाम मुक्त व बेहद आसान हो गया है।
*”एक चर्चा के दौरान केंद्रीय मंत्री “नितिन गडकरी” ने लोकसभा में कहा था कि अमेरिकी की सड़कें इसलिए अच्छी नहीं हैं, क्योंकि अमेरिका अमीर है, अमेरिका अमीर है, क्योंकि अमेरिकी सड़कें अच्छी हैं, भारत को समृद्ध बनाने के लिए, मैं सुनिश्चित करता हूं कि दिसंबर 2024 से पहले भारत का सड़क ढांचा अमेरिका जैसा होगा।”*
यह विचार उनके स्पष्ट दृष्टिकोण, दृढ़संकल्प, कार्यशैली और देश व समाज हित की दूरगामी सोच को प्रदर्शित करने का कार्य करती है, क्योंकि बेहतरीन सड़कें समृद्ध भारत का निर्माण करने का सबसे सशक्त व कारगर माध्यम हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि आज देश की जनता की अदालत में केंद्रीय सड़क परिवहन राजमार्ग मंत्री “नितिन गडकरी” की छवि ऐसी बन गयी है कि वह जो कहते हैं उस पर अमल अवश्य करते हैं, देश में मतदाताओं के एक बहुत बड़े वर्ग का तो यह मानना है कि वर्ष 2019 में दोबारा “नरेंद्र मोदी” की सरकार बनवाने में “नितिन गडकरी” के द्वारा किए गए सड़क निर्माण के कार्यों का सबसे बड़ा योगदान है, लोकसभा की चुनावी रणभूमि में “नितिन गडकरी” के द्वारा किए गए विकास कार्यों ने जनता की बीच चीख-चीख कर गवाही देकर देश के मतदाताओं को भाजपा के पक्ष में मतदान करने के लिए आकर्षित करने का कार्य किया था, आज देश में लोगों का एक बहुत बड़ा तबका “नितिन गडकरी” को विकास पुरुष की उपाधि से सम्मानित करने का कार्य करता है, जो कि किसी भी समाजसेवा व राजनीति के क्षेत्र के व्यक्ति के लिए सबसे अनमोल सम्मान होता है, देश की जनता “नितिन गडकरी” की कार्यशैली व विजन की मुरीद हैं, वह चाहती है कि “नितिन गडकरी” पर ईश्वर का आशीर्वाद हमेशा बना रहे, जीवन पथ पर चलते हुए गडकरी यूं ही सफलता के नित-नये आयाम स्थापित करते हुए देशवासियों का मार्गदर्शन करते रहें।
।। जय हिन्द जय भारत ।।।। मेरा भारत मेरी शान मेरी पहचान ।।
देश में विकास पथ की मज़बूत नींव रखते विकास पुरुष “नितिन गडकरी”
वायु प्रदूषण से निपटने के लिए दक्षिण एशियाई देशों का बने एक फोरम
वायु प्रदूषण खासकर दक्षिण एशियाई देशों के लिये बहुत विकट समस्या बन गया है। इस विपत्ति की सबसे ज्यादा तपिश दक्षिण एशियाई देशों भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश और नेपाल को सहन करनी पड़ रही है। वायु प्रदूषण संपूर्ण दक्षिण एशियाई क्षेत्र के लिए बहुत बड़ी समस्या है और इस क्षेत्र में स्थित कोई भी देश इससे अकेला नहीं लड़ सकता। भारत और पाकिस्तान के सांसदों ने इन देशों का एक ऐसा मंच तैयार करने की जरूरत बतायी है, जहां पर वायु प्रदूषण से निपटने के लिये विशेषज्ञताओं और अनुभवों का आदान-प्रदान किया जा सके।
पर्यावरण थिंक टैंक ‘क्लाइमेट ट्रेंड्स’ ने वायु प्रदूषण, जन स्वास्थ्य और जीवाश्म ईंधन के बीच अंतर्सम्बंधों को तलाशने और सभी के लिये स्वस्थ धरती से सम्बन्धित एक विजन का खाका खींचने के लिये शनिवार को एक ‘वेबिनार’ का आयोजन किया। वेबिनार में असम की कलियाबोर सीट से सांसद गौरव गोगोई ने कहा कि वायु प्रदूषण के मामले में पूरी दुनिया की नजर दक्षिण एशिया पर होती है, क्योंकि ये विशाल भूभाग प्रदूषण की समस्या का सबसे बड़ा शिकार है, लिहाजा हमें अपने मानक और अपने समाधान तय करने होंगे। हमें एक ऐसा मंच और ऐसे मानक तैयार करने होंगे जिनसे इस सवाल के जवाब मिलें कि हमने स्टॉकहोम और ग्लास्गो में जो संकल्प लिए थे उन्हें दिल्ली, लाहौर, ढाका और दिल्ली में कैसे लागू किया जाएगा। यह मंच विभिन्न विचारों के आदान-प्रदान का एक बेहतरीन प्लेटफार्म साबित होगा। उन्होंने कहा कि जब हम वायु प्रदूषण के एक आपात स्थिति होने के तौर पर बात करते हैं तो इस बात को भी नोट करना चाहिए कि हम इस मुद्दे पर कितना ध्यान केन्द्रित करते हैं। इन मामलों में सांसद बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। ऐसे में बहुत जरूरी है कि हम इस क्षेत्र में अपने सांसदों की क्षमता को और बढ़ाएं। उन्हें इस बात की जानकारी होनी चाहिए कि वायु प्रदूषण उनके अपने राज्य को किस तरह प्रभावित कर रहा है ताकि वे अपने क्षेत्र में सर्वे कर सकें और लोगों को जागरूक बना सकें। इससे यह भी पता लगेगा कि वायु प्रदूषण की समस्या को लेकर हमारे स्थानीय निकाय कितने तैयार हैं।
पाकिस्तान के सांसद रियाज फतयाना ने वायु प्रदूषण को दक्षिण एशिया के लिये खतरे की घंटी बताते हुए महाद्वीप के स्तर पर मिलजुलकर काम करने की जरूरत पर जोर दिया। उन्होंने कहा कि दक्षिण एशियाई सांसदों का एक फोरम बनाया जाना चाहिए जहां इन विषयों पर बातचीत हो सके। पाकिस्तान में वायु प्रदूषण की समस्या बहुत ही खतरनाक रूप लेती जा रही है। जहां एक तरफ दुनिया कह रही है कि नए कोयला बिजलीघर न लगाए जाएं लेकिन दक्षिण एशिया के विभिन्न देशों में अब भी इन्हें लगाए जाने का सिलसिला जारी है। इनकी वजह से होने वाला वायु प्रदूषण जानलेवा साबित हो रहा है।
उन्होंने कहा कि हमें वैकल्पिक ऊर्जा और एनवायरमेंटल एलाइनमेंट दोनों पर ही काम करना होगा। एक दूसरे के अनुभवों का आदान-प्रदान करना भी बहुत महत्वपूर्ण है। हमें और भी ज्यादा प्रभावी कानून बनाने होंगे। क्लाइमेट ट्रेंड्स की निदेशक आरती खोसला ने कहा कि वायु की गुणवत्ता का मसला अब सिर्फ भारत की समस्या नहीं रहा, बल्कि यह पूरे दक्षिण एशिया की भी समस्या बन चुका है। दुनिया वर्ष 1972 में स्टॉकहोम में ह्यूमन एनवॉयरमेंट पर हुई संयुक्त राष्ट्र की पहली कॉन्फ्रेंस की 50वीं वर्षगांठ अगले महीने मनाने जा रही है। यह इस बात के आकलन के लिए एक महत्वपूर्ण वर्ष है कि किस तरह से जैव विविधता तथा पर्यावरण से जुड़े अन्य तमाम पहलू मौजूदा स्थिति से प्रभावित हो रहे हैं। वायु प्रदूषण एक प्राथमिक सार्वजनिक स्वास्थ्य इमरजेंसी है। दक्षिण एशिया यह मानता है कि जलवायु परिवर्तन सिर्फ राजनीतिक मसला नहीं है बल्कि सामाजिक और आर्थिक समस्या भी बन चुका है।
बांग्लादेश के सांसद साबेर चौधरी ने कहा कि जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिये राजनीतिक इच्छाशक्ति की जरूरत बेहद महत्वपूर्ण है। हमें पूरी दुनिया में सांसदों की ताकत का सदुपयोग करना चाहिये। वायु प्रदूषण एक पर्यावरणीय आपात स्थिति नहीं बल्कि प्लेनेटरी इमरजेंसी है। इसकी वजह से वॉटर स्ट्रेस और खाद्य असुरक्षा समेत अनेक आपदाएं जन्म ले रही हैं। वायु प्रदूषण दक्षिण एशिया के लिये एक साझा चुनौती है। यह किसी एक देश की सेहत का सवाल नहीं है। यह पूरे दक्षिण एशिया का प्रश्न है। सांसद के रूप में मैं जन स्वास्थ्य पर ध्यान केन्द्रित करना चाहता हूं। हमें नये सिरे से विकास की परिकल्पना करनी होगी।
नेपाल की सांसद पुष्पा कुमारी कर्ण ने काठमांडू की दिन-ब-दिन खराब होती पर्यावरणीय स्थिति का विस्तार से जिक्र करते हुए कहा कि वायु प्रदूषण दुनिया की सभी जानदार चीजों की सेहत पर प्रभाव डाल रहा है। काठमांडू नेपाल की राजधानी है और यह दुनिया के सबसे प्रदूषित शहरों में से एक है। हर साल सर्दियों के मौसम में काठमांडू में वायु की गुणवत्ता बहुत खराब हो जाती है। ऑटोमोबाइल्स और वाहनों की बढ़ती संख्या की वजह से समस्या दिन-ब-दिन विकट होती जा रही है। काठमांडू में पीएम 2.5 का स्तर डब्ल्यूएचओ के सुरक्षित मानकों के मुकाबले 5 गुना ज्यादा है। हालांकि नेपाल सरकार ने इलेक्ट्रिक मोबिलिटी के लिए एक योजना तैयार की है। इसी तरह की योजनाएं दक्षिण एशिया के अन्य देशों में भी लागू की जानी चाहिए।
वायु प्रदूषण खासकर दक्षिण एशियाई क्षेत्रों के लिये एक स्वास्थ्य सम्बन्धी आपात स्थिति बन गया है। मेदांता हॉस्पिटल के ट्रस्टी डॉक्टर अरविंद कुमार ने कहा कि भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश और नेपाल को यह सवाल पूछने की जरूरत है कि जलवायु परिवर्तन कितना प्रभावी है। इन चारों देशों में वायु प्रदूषण के स्तर खतरनाक रूप ले चुके हैं। वायु प्रदूषण सिर्फ पर्यावरणीय और रासायनिक मुद्दा नहीं है बल्कि यह विशुद्ध रूप से स्वास्थ्य से जुड़ा मसला है।
फेफड़े के विशेषज्ञ के तौर पर वह अपने 30 साल के अनुभव से कहते हैं कि फेफड़े के कैंसर के लगभग 50 प्रतिशत मरीज ऐसे आ रहे हैं जो धूम्रपान नहीं करते। इसके अलावा 10 प्रतिशत मरीज 20 से 30 साल के बीच के होते हैं। भारत के 30% बच्चे यानी हर तीसरा बच्चा दमा का मरीज है। वायु प्रदूषण सिर्फ हमारे फेफड़ों को ही नुकसान नहीं पहुंचा रहा है बल्कि इसकी वजह से दिल की बीमारियां, तनाव, अवसाद और नपुंसकता समेत अन्य अनेक रोग पैदा हो रहे हैं। गर्भ में पल रहे बच्चे को भी समस्याएं हो रही हैं। यानी पैदाइश से पहले से लेकर मौत तक वायु प्रदूषण हमें प्रभावित कर रहा है। हमारे पास वायु प्रदूषण को समाप्त करने के अलावा और कोई चारा नहीं है। हमें अपनी जिम्मेदारी समझनी होगी और इस दिशा में काम करने का सबसे सही समय आज ही है।
नेपाली रेस्पिरेटरी सोसाइटी के अध्यक्ष डॉक्टर रमेश चोखानी ने दक्षिण एशिया के पर्वतीय देश नेपाल में वायु प्रदूषण की चिंताजनक स्थिति का जिक्र करते हुए कहा कि नेपाल जीवाश्म ईंधन का प्रमुख उपयोगकर्ता है और वह ज्यादातर जीवाश्म ईंधन को भारत से आयात करता है। नेपाल में अन्य वैकल्पिक ऊर्जा स्रोतों की कमी की वजह से मजबूरन बायोमास और लकड़ी का इस्तेमाल किया जाता है। नेपाल की ज्यादातर आबादी परंपरागत बायोमास पर निर्भर करती है। नेपाल में बायोमास जलने के कारण उत्पन्न वायु प्रदूषण की वजह से हर साल तकरीबन 7500 लोगों की मौत होती है।
उन्होंने बताया कि वायु प्रदूषण को लेकर आपात स्थिति से गुजरने के बावजूद पिछले पांच सालों में नेपाल में पेट्रोल की खपत लगभग दोगुनी हो गयी है। डीजल का उपयोग भी लगभग 96% बढ़ा है। हाल ही में 69 किलोमीटर की पेट्रोलियम पाइपलाइन बिहार के मोतिहारी से नेपाल के बीच तैयार की गई है। इसका मतलब यह है कि नेपाल सरकार का अक्षय ऊर्जा में रूपांतरण का कोई भी इरादा नहीं है। हालांकि नेपाल के पास अक्षय ऊर्जा स्रोतों से बड़े पैमाने पर ऊर्जा उत्पादन करने की क्षमता है। उसके पास वायु, हाइड्रो और सोलर पावर उत्पन्न करने की काफी संभावना है लेकिन अभी उन पर ज्यादा काम नहीं किया गया है। अगर हाइड्रो पावर की तमाम संभावनाओं का सर्वश्रेष्ठ दोहन किया जाए तो इससे नेपाल की अर्थव्यवस्था को बढ़ाने में काफी मदद मिल सकती है। नेपाल के पास काफी प्राकृतिक संपदा है लेकिन उसका सही उपयोग नहीं हो रहा है। बांग्लादेश लंग फाउंडेशन के काजी बेन्नूर ने कहा कि जीवाश्म ईंधन यानी कोयला, तेल और प्राकृतिक गैस की वजह से अनेक पर्यावरणीय तथा स्वास्थ्य सम्बन्धी नुकसान होते हैं।
इससे जीवाश्म ईंधन की आपूर्ति श्रृंखला के हर चरण में अतिरिक्त भार पैदा होता है। जब जीवाश्म ईंधन को जलाया जाता है तो उससे कार्बन डाइऑक्साइड जैसी ग्रीनहाउस गैस उत्पन्न होती है जो जलवायु परिवर्तन को बढ़ावा देती है। जीवाश्म ईंधन से पैदा होने वाली गैसों की वजह से समुद्रों का अम्लीकरण, अत्यधिक बारिश और समुद्र के जल स्तर में वृद्धि होती है। जीवाश्म ईंधन जलाने के कारण उत्पन्न वायु प्रदूषण की वजह से दमा, कैंसर, दिल की बीमारी और असामयिक मौत हो सकती है। वैश्विक स्तर पर हर पांच में से एक मौत वायु प्रदूषण की वजह से होती है। वहीं, प्रदूषण दुनिया में चौथा सबसे बड़ा मानव स्वास्थ्य संबंधी खतरा है।
उन्होंने कुछ आंकड़े देते हुए बताया कि वायु प्रदूषण एक अदृश्य हत्यारा है। दक्षिण एशिया में 29% लोगों की मौत फेफड़े के कैंसर से होती है, 24% लोगों की मौत मस्तिष्क पक्षाघात से, 25% लोगों की मौत दिल के दौरे से और 43 प्रतिशत लोगों की मौत फेफड़े की बीमारी से होती है। दक्षिण पूर्व एशियाई क्षेत्र में वायु प्रदूषण की वजह से 20 लाख से ज्यादा लोगों की मृत्यु होती है।
फॉसिल फ्यूल ट्रीटी के हरजीत सिंह ने वायु प्रदूषण के लिये मौजूदा आर्थिक ढर्रे को काफी हद तक जिम्मेदार ठहराया। उन्होंने कहा कि हम मौजूदा आर्थिक मॉडल के साथ आगे नहीं बढ़ सकते। हमें एक ऐसे विकास मॉडल की जरूरत है जो हमारे पर्यावरण को संरक्षण देता हो।
कोई भी देश मौजूदा आर्थिक ढर्रे से हटना नहीं चाहता है, लेकिन ऐसा किए बगैर दुनिया को सुरक्षित नहीं बनाया जा सकता। इसके लिए हमें अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सहयोग की भी जरूरत होती है क्योंकि इसके बिना कुछ नहीं हो सकता।
रूपहले पर्दे को दरकार है सुधार की तभी इसका स्वर्ण युग वापस लौट सकता है . . .
सत्तर और अस्सी के दशक तक बंबई का जादू लोगों के सर चढ़कर बोलता था, क्योंकि बंबई वह स्थान था जहां रूपहले पर्दे पर दिखाई देने वाली फिल्मों का निर्माण होता था। उस दौर में हिन्दी में मायापुरी, अंग्रेजी में द सन जैसी पत्रिकाएं वालीवुड की गासिप्स से भरे हुआ करते थे। इन पत्रिकाओं को लोग हाथों हाथ लिया करते थे।
अखबारों में सिने अभिनेता और अभिनेत्रियों के साक्षात्कार पढ़ने व फोटो देखने लोग लालायित रहा करते थे। प्रौढ़ हो रही पीढ़ी इस बात की गवाह है कि उस दौर में जब दूरदर्शन का आगाज नहीं हुआ था तब मनोरंजन का साधन ट्रांजिस्टर ही हुआ करते थे। बुधवार को बिनाका गीत माला, रविवार को एस कुमार्स का फिल्मी मुकदमा, रोज शाम को फौजी भाईयों की पसंद जैसे कार्यक्रम लोगों को बांध कर रखा करते थे।
इसके बाद जैसे ही दूरदर्शन का आगाज हुआ वैसे ही रविवार की शाम आने वाली फीचर फिल्म देखने के लिए रविवार को महिलाएं भोजन आदि जल्द ही बना लिया करतीं थीं, क्योंकि शाम छः बजे से ही फीचर फिल्म आया करती थी। उस दौर में टॉकीज के जलजले हुआ करते थे। जिन शहरों में अघोषित बिजली कटौती हुआ करती थी, वहां एक फिल्म को लोग चार पांच दिन तक उसी शो में टुकड़ों में भी देखा करते थे।
आज सिनेमा की स्थिति क्या है। इस पर मनन करने की जरूरत है। अस्सी के दशक तक समाज को दिशा और दशा देने वाली कहानियां लिखी जाती थीं, जिन पर फिल्में बना करती थीं। इनमें मसाला, मारधाड़, कुछ हद तक उत्तेजना वाले दृश्य भी हुआ करते थे। इस तरह की फिल्में जो व्यस्कों के लिए बना करती थीं उन्हें ए सर्टिफिकेट दिया जाता था। आज के समय में अधिकांश फिल्मों को अगर आप देख लें तो उन्हें ए सर्टिफिकेट दिया जा सकता है।
सिनेमा के स्वर्णिम युग की अगर बात की जाए तो उस दौर में एक से बढ़कर एक निर्माता और निर्देशक हुआ करते थे। बिमल राय, चेतन आनंद, व्ही. शांताराम, राज कपूर, कमाल अमरोही, महबूब खान न जाने कितने सुलझी सोच वाले निर्माता और निर्देशक हुआ करते थे उस दौर में। फिल्मों के कथानक या कहानी की बात की जाए तो विषयवस्तु, कानों को भाने वाला संगीत, दर्शकों को बांधे रखने वाला अभिनय आदि इसमें भरा होता था।
उस दौर में संगीतकारों को बहुत मेहनत करना पड़ता था। उस दौर में सचिन देव बर्मन, राहुल देव बर्मन, सलिल चौधरी, हेमंत कुमार, शंकर जयकिशन, कल्याण जी आनंद जी, लक्ष्मीकांत प्यारेलाल, हसरत जयपुरी, सहिर लुधियानवी, मदन मोहन, सी. रामचंद्र, नौशाद आदि जैसे संगीतकार थे जो संगीत में जान भर दिया करते थे। उस दौर में अपने सुरों से महफिल सजाने वाले मोहम्मद रफी, मुकेश, किशोर कुमार, तलत महमूद, हेमन्त कुमार, लता मंगेशकर, सरैया जैसे कलाकार हुआ करते थे। बैजू वावरा के एक गाने ऐ दुनिया के रखवाले, सुन दर्द भरे मेरे नाले को सुनकर श्रोताओं की आंखों में आंसू आ जाते थे। इसी तरह सुर सम्राज्ञी लता मंगेशकर के द्वारा गाए गए ए मेरे वतन के लोगों, जरा आंख में भर लो पानी गीत ने तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू की आंखें भी नम कर दी थीं।
उस दौर के गानों में बोल भी बहुत कुछ कह जाते थे, यही कारण है कि आज भी पुराने गीत ही सुनना लोग पसंद करते हैं, यह अलहदा बात है कि आज के समय में युवा पीढ़ी को बोल से ज्यादा सरोकार नहीं रह गया है आज तो युवा सिर्फ धूम धड़ाम ही सुनना चाहता है। याद है एक बार मशहूर गायक किशोर कुमार का एक साक्षात्कार मायापुरी में छपा था, उन्होंने कहा था कि एक बार वे अपनी खुली कार में मुंबई में चालक के साथ जा रहे थे और एक चौराहे पर यातायात जाम होने की स्थिति में लगातार बजने वाले हार्न को देखकर उन्होंने अपने चालक से कहा था कि यही है भविष्य का संगीत! आज किशोर कुमार की बात सत्य ही साबित होती दिखती है।
आज के सिने उद्योग की तुलना अगर उस समय के सिने उद्योग से की जाए तो आज सब कुछ बनवाटी एवं खोखला ही प्रतीत होता है। उस दौर की फिल्में साल साल भर टाकीज में लगी रहतीं थीं, जो गोल्डन जुबली मनाया करती थीं। उस दौर में सुपर स्टार के बजाए जुबली स्टार हुआ करते थे। आज फिल्म में न तो प्रेरणादायक कहानी है न ही कर्णप्रिय संगीत। हीरो हीरोईन्स के द्वारा जिस तरह अंग प्रदर्शन कर अपनी फिल्में हिट करवाने का प्रयास किया जाता है वह किसी भी दृष्टिकोण से उचित नहीं माना जा सकता है।
पता नहीं आज के निर्माता निर्देशक, संगीतकार, पटकथा लेखक, अदाकारों आदि को क्या हो गया है। उस दौर में बहुत ही कम पारिश्रमिक पर सभी पूरी मेहनत से काम किया करते थे, पर आज वह चीज नहीं दिखाई देती है। आज की फिल्में जनता के दिलो दिमाग पर प्रभाव नहीं डाल पा रही हैं। उस समय डाकुओं के उन्नमूलन के लिए डकैतों पर फिल्में बनीं और अनेक डकैतों ने आत्म समर्पण किया। आज नशे के अवैध कारोबार पर बनने वाली फिल्में लोगों को इस कारोबार से दूर करने के बजाए उनके व्यापार के लिए नए आईडियाज देने का काम करती दिख रही हैं। इसलिए केंद्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय, सेंसर बोर्ड आदि को चाहिए कि वह इस पर लगाम लगाए और समाज को दिशा और दशा देने वाली फिल्मों को प्रोत्साहित करने के मार्ग प्रशस्त करे।
दुशांबे में पाक क्यों नहीं आया?
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
अफगानिस्तान के आठ पड़ौसी देशों का एक चौथा सम्मेलन ताजिकिस्तान की राजधानी दुशांबे में इस हफ्ते हुआ। इस सम्मेलन में कजाकिस्तान, किरगीजिस्तान, उजबेकिस्तान और ताजिकिस्तान ने तो भाग लिया ही, उनके साथ रूस, चीन, ईरान और भारत के प्रतिनिधि भी उसमें गए थे। यह सम्मेलन इन देशों के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकारों का था। भारत से हमारे प्रतिनिधि अजित दोभाल थे। उनके साथ विदेश मंत्रालय के संयुक्त सचिव जे.पी. सिंह भी थे लेकिन पिछली बार जब यह सम्मेलन भारत में हुआ था तो चीनी प्रतिनिधि इसमें सम्मिलित नहीं हुए थे। उन्होंने कोई बहाना बना दिया था। पाकिस्तान न तो उस सम्मेलन में आया था और न ही इस सम्मेलन में आया। क्यों नहीं आया? क्योंकि एक तो इसमें भारत की उपस्थिति ऐसी है, जैसे किसी ड्राइंग रूम में हाथी की होती है। भारत इन देशों में चीन के बाद सबसे बड़ा देश है। भारत आतंकवाद का शिकार हुआ है। पाकिस्तान के लिए वह सिरदर्द बन सकता है लेकिन इस बार चीन दुशांबे में तो आया लेकिन दिल्ली में नहीं आया। क्यों नहीं आया, क्योंकि वह दिल्ली आता तो पाकिस्तान नाराज़ हो सकता था। पाकिस्तान और चीन की दोस्ती मामूली नहीं है। इस्पाती है। इसके बावजूद भारत और ताजिकिस्तान ने अफगानिस्तान में सक्रिय आतंकवादियों की भर्त्सना की और काबुल में सर्वसमावेशी सरकार की मांग की। ताजिकिस्तान वही देश है, जहां काबुल से भागकर राष्ट्रपति अशरफ गनी पहुंच गए थे। अफगानिस्तान के फारसीभाषी ताजिक लोग उसका सबसे बड़ा अल्पसंख्यक समूह हैं जबकि तालिबान मुख्यतः गिलजई पठान हैं। ताजिकिस्तान में बैठकर ही अहमदशाह मसूद ने काबुल की रूसपरस्त सत्ता को हिला रखा था। अब भी तालिबान का काबुल पर कब्जा होते ही मसूद के बेटे और भाई दुशांबे में बैठकर तथाकथित प्रवासी सरकार चला रहे हैं। इस सम्मेलन से तालिबान इसलिए भी बाहर है कि एक तो उनकी सरकार को किसी ने भी मान्यता नहीं दी है और दूसरा वे ताजिक दखलंदाजी के खिलाफ हैं। चाहे जो हो, इस सम्म्मेलन में रूस और चीन की उपस्थिति बहुत महत्वपूर्ण है, क्योंकि पूतिन का रूस अब ब्रेजनेव वाला रूस नहीं रहा और चीन को अपने शिन च्यांग में चल रहे उइगर मुसलमानों से बहुत परेशानी है। लाखों उइगर मुसलमानों को चीन ने यातना-शिविरों में बंद कर रखा है। इस दृष्टि से भारत और चीन की चिंताएं लगभग एक-जैसी हैं। जैसे हमारे कश्मीर और पंजाब में वैसे ही शिनच्यांग में आतंकवादी काफी सक्रिय हैं। पाकिस्तान को इस सम्मेलन में सबसे अधिक सक्रिय होना चाहिए, क्योंकि आतंकवाद सबसे ज्यादा उसी का नुकसान कर रहा है। इस सम्मेलन ने आतंकवाद-विरोध और सर्वसमावेशी सरकार की जमकर मांग की लेकिन मंहगाई, बेरोजगारी और अभाव से ग्रस्त जनता की मदद के लिए ये सभी राष्ट्र कोई बड़ी घोषणा करते तो बहुत अच्छा रहता।
सवालों में पत्रकारिता और पत्रकारिता पर सवाल
हिन्दी पत्रकारिता दिवस पर विशेष लेख
सवाल करती पत्रकारिता इन दिनों स्वयं सवालों के घेरे में है. पत्रकारिता का प्रथम पाठ यही पढ़ाया जाता है कि जिसके पास जितने अधिक सवाल होंगे, जितनी अधिक जिज्ञासा होगी, वह उतना कामयाब पत्रकार होगा. आज भी सवालों को उठाने वाली पत्रकारिता की धमक अलग से दिख जाती है लेकिन ऐसा क्या हुआ कि हम सवालों से किनारा कर गए. सवाल हमें दिये जाते हैं और जवाब भी पहले से तय होते हैं, इस पर कोई संशय नहीं होना चाहिए क्योंकि यह सच सब जानते हैं. जब 30 मई को हिन्दी पत्रकारिता दिवस की चर्चा करते हैं तो मन में सहज यह सवाल आता है कि पंडित जुगलकिशोर जी सवाल नहीं करते तो क्या उदंत मार्तंड आज भी हमारे स्मरण में होता? जिस अखबार ने अंग्रेजी शासकों के नाक में नकेल डाल रखी थी, वह सवालों से दूर होता तो क्या आज हम हिन्दी पत्रकारिता पर गौरव कर सकते थे? इसका जवाब शायद ना में होगा. उदंत मार्तंड ही क्यों, पराधीन भारत के हर उस पत्र ने अंग्रेजों से सवाल किये तो उनका दमन किया गया. इतिहास इस बात का साक्षी है. लेकिन आज स्वतंत्र भारत में ऐसा क्या होगा कि हम सवाल नहीं कर पा रहे हैं? सवाल और पत्रकारिता एक-दूसरे के पूरक हैं. सवाल होंगे तो पत्रकारिता होगी और बिना सवाल पत्रकारिता नहीं हो सकती है.
वर्तमान समय में पत्रकारिता सवाल नहीं कर रही है बल्कि पत्रकारिता सवालों के घेरे में है. पत्रकारिता को लेकर जो सवाल दागे जा रहे हैं, वह कुछ अधकचरे हैं तो कुछ तार्किक भी. पत्रकारिता की विश्वसनीयता को लेकर सबसे पहला सवाल होता है. कदाचित कुछ अंश तक इसे सच भी मान लिया जाए तो गैर-वाजिब नहीं होगा लेकिन यह पूरा सच नहीं है. पहला तो यह कि पत्रकारिता अगर अविश्वसनीय हो गया होता तो समाज का ताना-बाना छिन्न-भिन्न हो गया होता. पत्रकारिता समाज का प्रहरी है और वह बखूबी अपनी जिम्मेदारी को निभा रहा है. पत्रकारिता एकमात्र ऐसा स्रोत है जिससे अमर्यादित व्यवहार करने वाले, समाज की शुचिता भंग करने वाले और निजी स्वार्थ के लिए पद और सत्ता का दुरुपयोग करने वाले भयभीत रहते हैं. यह एक पक्ष है तो समाज का बहुसंख्य वर्ग जो किसी तरह अन्याय का शिकार है, व्यवस्था से पीडि़त है और उसकी सुनवाई कहीं नहीं हो रही है तब पत्रकारिता उसकी सुनता है और उसके हक में खड़ा होता है. इन दो पक्षों की समीक्षा करने के बाद यह आरोप अपने आपमें खारिज हो जाता है कि पत्रकारिता अविश्वसनीय हो चला है. अपितु समय के साथ पत्रकारिता समाज के लिए अधिक उपयोगी और प्रभावकारी के माध्यम के रूप में अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहा है.
इन सबके बावजूद इस बात को खारिज करने के बजाय चिंतन करना होगा कि पत्रकारिता की विश्वसनीयता पर सवाल क्यों उठ रहा है? इसका एक बड़ा कारण यह है कि अब पत्रकारिता में जो लोग आ रहे हैं, वह सामाजिक सरोकार से नहीं बल्कि व्यक्तिगत स्वार्थसिद्धि के लिए पत्रकार बनने को बेताब हैं. जीवन भर शासन और सत्ता का सुख भोगने के बाद पत्रकार बन जाने वाले लोग सेवानिवृत्ति के बाद मिलने वाले आर्थिक सुख को तिलांजलि देने के स्थान पर उस लाभ के साथ खड़े हैं. सालों शासन और सत्ता की चाकरी करने के बाद आज बता रहे हैं कि सिस्टम में जंग लग चुका है इसलिए उन्हें पत्रकारिता में आना पड़ा. ऐसे लोगों के कारण जमीनी पत्रकार दरकिनार कर दिये जाते हैं. सुविधाभोगी पत्रकारों की बड़ी फौज के कारण पत्रकारिता की विश्वसनीयता पर सवाल उठ रहा है. ये वो लोग हैं जिन्होंने कभी पराडक़र जी की पत्रकारिता की कक्षा में नहीं गए, ये वो लोग हैं जो नहीं जानते कि माखनलाल चतुर्वेदी जेल के सींखचों में बंद होने के बाद भी पत्रकारिता का धर्म निभाते रहे. शायद ये लोग गणेशशंकर विद्यार्थी की शहादत से भी अपरिचित हैं. तब इन्हें इस बात का इल्म कैसे हो सकता है कि आज भी हजारों पत्रकारों का परिवार वायदे पर जी-मर रहा है. ऐसे लोगों का पत्रकारिता के मंच पर स्वागत भी है लेकिन शर्त है कि वे सेवानिवृत्ति के बाद के आर्थिक लाभ को छोडक़र आएंगे जो शायद उन्हें मंजूर नहीं होगा.
हिन्दी पत्रकारिता दिवस एक ऐसा अवसर है कि हम अपनी समीक्षा स्वयं करें कि आखिर कहां से चले थे और कहां पहुंच गए? पत्रकारिता मिशन थी तो यह प्रोफेशन में कैसे बदली या पत्रकारिता ने मीडिया का वेश कब धर लिया और सामाजिक सरोकार की पत्रकारिता कब मीडिया इंडस्ट्री में बदल गई. आज जब हम मीडिया इंडस्ट्री की बात करते हैं तो यह विशुद्ध व्यवसाय है और व्यवसाय सरोकार को नहीं, सहकार और लाभ की कामना करता है. शासन और सत्ता को भी सहकार लेना और लाभ देना सुहाता है इसलिए मीडिया जब इंडस्ट्री है तो सब जायज है लेकिन पत्रकारिता आज भी सौफीसदी खरी है क्योंकि पत्रकारिता समाज की ताकत है. पत्रकारिता आज भी मिशनरी है और कोविड जैसे महामारी के समय समाज ने इस बात को महसूस किया. सरोकारी पत्रकारिता का केनवास छोटा दिख सकता है लेकिन उसके प्रभाव और परिणाम ही पत्रकारिता की धडक़न है.
द्रोण के बढ़ते बहुआयामी उपयोग
प्रमोद भार्गव
द्रोण देश के लिए बहुआयामी सफलता का उपयोगी उपकरण बनने जा रहा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भारत द्रोण महोत्सव उद्घाटन के दौरान द्रोण उड़ाने के बाद कहा कि ‘मेरा सपना है कि देश के हर व्यक्ति के हाथ में द्रोण हो, स्मार्ट फोन हो और हर घर में समृद्धि की बहार हो। ड्रोन तकनीक कृषि क्षेत्र को नए पंख देगी इससे छोटे किसानों को ताकत मिलेगी और उनकी तरक्की सुनिश्चित होगी। द्रोण से पता चलेगा कि किस जमीन पर कितनी और कौनसी खाद डालनी हैं, मिट्टी में किस चीज की कमी है और कितनी सिंचाई करनी है। अभी तक ये सारे कार्य अंदाज से होते थे, जो कम पैदावार और फसल की बर्बादी का कारण बन रहे थे।‘ वाकई देश में द्रोण क्रांति रक्षा क्षेत्र के बाद अब कृषि में भी बड़ी भागीदारी करके किसान को मददगार साबित होने जा रही है। द्रोण रक्षा क्षेत्र में भी अहम् भूमिका निभा रहा है।
भारत सरकार ने पिछले साल 15 सितंबर को द्रोण के इस्तेमाल संबंधी नियमों में ढील दी थी। लाइसेंस हासिल करने की प्रक्रिया को आसान बनाया था। साथ ही भारी पेलोड की अनुमति भी दी थी, ताकि द्रोण को मानव राहित फलाइंग टैक्सियों के रूप में प्रयोग में लाया जा सके। इस नाते भारत दुनिया के सबसे बड़े ब्रांडस को भारत में अपने उत्पाद बनाने और फिर उन्हें दुनिया में निर्यात करने के लिए आकर्षित कर रहा है। इस परिप्रेक्ष्य में केंद्र सरकार ने भारत में द्रोण और उसके कम्पोनेंट (यौगिक) में निर्माण के लिए कंपनियों को पीएलआई योजनाओं के तहत अगले तीन साल के लिए 120 करोड़ रुपय का प्रोत्साहन देने की घोषणा की हुई है। तकनीकी रूप से दक्ष भारतीय युवाओं को भी स्र्टाटअप के तहत यह लाभ मिलेगा। इस नाते सुरक्षा और कृषि क्षेत्र में अंतरिक्ष विज्ञान की अहम् भागीदारी के लिए दो नवीन नीतियां भी वजूद में लाई जा रही हैं। इस हेतु प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भारतीय अंतरिक्ष संगठन यानी इंडियन स्पेस एसोषिएशन (आईएसपीए) का शुभारंभ कर दिया है। इसके तहत स्पेसकाॅम (अंतरिक्ष श्रेणी) और रिमोट सेंसिंग (सुदूर संवेदन) नीतियां जल्द बनेंगी। इन नीतियों से स्पेस और रिमोट क्षेत्रों में निजी और सरकारी भागीदारी के द्वार खुल जाएंगे। वर्तमान में ये दोनों उद्यम ऐसे माध्यम हैं, जिनमें सबसे ज्यादा रोजगार के अवसर हैं। क्योंकि आजकल घरेलू उपकरण, रक्षा संबंधी, कृषि संचार व दूरसंचार सुविधाएं, हथियार और अंतरिक्ष उपग्रहों से लेकर राॅकेट और मिसाइल ऐसी ही तकनीक से संचालित हैं, जो रिमोट से संचालित और नियंत्रित होते हैं। चंद्र, मंगल और गगनयान भी इन्हीं प्रणालियों से संचालित होते हैं। भविश्य में अंतरिक्ष-यात्रा (स्पेस टूरिज्म) के अवसर भी बढ़ रहे हैं। भारत में इस अवसर को बढ़ावा देने के लिए निजी स्तर पर बड़ी मात्रा में निवेष की जरूरत पड़ेगी। इस हेतु नीतियों में बदलाव की आवष्यकता लंबे समय से अनुभव की जा रही थी। 20 जुलाई 2021 को ब्लू ओरिजन कंपनी ने न्यू शेफर्ड कैप्सूल से चार यात्रियों को अंतरिक्ष की यात्रा कराई थी। ऐसी यात्राओं का सिलसिला आम लोगों के लिए कीमत वसूल कर बड़ी कमाई का माध्यम बनने जा रहे है।
घरेलू रक्षा उद्योग को बढ़ावा देने के नजरिए से सैंकड़ों रक्षा उपकरणों के आयात पर पहले से ही रोक लगी हुई है। आयात किए जाने वाले उपकरणों, हथियारों, मिसाइलों, पनडुब्बियों, द्रोण और हेलिकॉप्टरों का निर्माण अब भारत में होगा। इस मकसदपूर्ति के लिए आगामी 5 से 7 साल में घरेलू रक्षा उद्योग को करीब चार लाख करोड़ रुपए के ठेके मिलेंगे। प्रधानमंत्री के आत्मनिर्भर भारत-मंत्र के आवाहन के तहत रक्षा मंत्रालय अब रक्षा उत्पादन के क्षेत्र में स्वदेशी निर्माताओं को बड़ा प्रोत्साहन देने की तैयारी में आ गया है। दरअसल अभी तक देश तात्कालिक रक्षा खरीद के उपायों में ही लगा रहा है, लेकिन इस परिप्रेक्ष्य में दीर्घकालिक रणनीति के अंतर्गत स्वदेशी रक्षा उपाय इसलिए जरूरी हैं, क्योंकि एक समय रूस ने हमें क्रायोजनिक इंजन देने से मना कर दिया था। दूसरी तरफ धनुष तोप के लिए चीन से जो कल-पुर्जे खरीदे थे, वे परीक्षण के दौरान ही नष्ट हो गए थे। इधर चाइनीज द्रोण गुप्तचारी करते हुए भी निशाना बनाए गए हैं। अमेरिका और चीन के बीच इंटरनेट की दुनिया पर नियंत्रण का संघर्श तल्ख बना हुआ है। चीनी हैकर लगातार अमेरिकी व्यावसायिक संस्थानों को निशाना बना रहे हैं।
पड़ोसी देश चीन और पाकिस्तान से युद्ध की स्थिति बनी होने के चलते ऐसा अनुमान है कि भारत को 2025 तक रक्षा सामग्री के निर्माण व खरीद में 1.75 लाख करोड़ रुपए या 25 अरब डॉलर खर्च करेगा। वैसे भी भारत शीर्ष वैश्विक रक्षा सामग्री उत्पादन कंपनियों के लिए सबसे आकर्षक बाजारों में से एक हैं। भारत पिछले आठ वर्षों में सैन्य हार्डवेयर के आयातकों में शामिल है। इन रक्षा जरूरतों की पूर्ति के लिए अमेरिका, रूस, फ्रांस, चीन और इजराइल इत्यादि देशों पर भारत की निर्भरता बनी हुई है, जिसमें उल्लेखनीय कमी आएगी। 2015 से 2019 के बीच सऊदी अरब के बाद भारत दूसरे नंबर पर हथियारों की खरीद करता है। अतएव अच्छा है कि भारत ने द्रोण निर्माण क्षेत्र में आत्मनिर्भरता बढ़ाने का अहम् फैसला लिया है। इससे भारतीय कंपनियों की हौसला. अफजाई होगी। हमारे नवोन्मेषी वैज्ञानिक व इंजीनियरों को राष्ट्र के लिए कुछ अनूठा कर डालने का गौरव हासिल होगा। अब तक देश में व्यक्तिगत उपयोग वाली पिस्तौलें और सेना के लिए राइफलें बनती हैं। हिन्दुस्तान एरोनॉटिक्स लिमिटेड ने हल्के लड़ाकू विमान तेजस का निर्माण भी किया है। टाटा, महिंद्रा और लार्सन एंड टुब्रो कंपनियां मध्यम मारक क्षमता वाली राइफलें बनाती हैं।
यदि इन कंपनियों को सर्विलांस, राडार और साइवर संबंधी सामग्रियों का बाजार मिलता है तो इनके निर्माण में भी ये कामयाबी हासिल कर लेंगी। साथ ही डीआरडीओ जैसी सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों को भी प्रोत्साहित करने और उनकी कार्य व उत्पादन क्षमता बढ़ाने की जरूरत है। सरकार भारतीय उद्योगपतियों को भी रक्षा और कृषि उद्योग में उतारने के लिए प्रेरित करे। मौजूदा दौर में अंबानी, अडानी, टाटा, बिरला, अजीम प्रेमजी जैसे कई उद्योगपति हैं, जिनके पास बड़ी मात्रा में अतिरिक्त पूंजी है। लेकिन वे इस पूंजी को केवल ऐसे आसान उद्योग .धंधों में लगाना चाहते हैं, जिनमें मुनाफा तंुरत हो। जबकि रक्षा उद्योग ऐसा क्षेत्र है, जिसमें अत्याधिक पूंजी निवेश के बावजूद देर से लाभ के रास्ते खुलते हैं। किंतु कृषि क्षेत्र में द्रोण जैसे उपकरणों की बिक्री तुरंत शुरू होगी और अनवरत बनी रहेगी। इस दृष्टि से द्रोण निर्माण में 120 करोड़ रुपए की प्रोत्साहन राशि की घोषणा उचित है।
कुशल व्यक्ति एवं राष्ट्र-शिल्पी थे वीर सावरकर
वीर सावरकर जयन्ती -28 मई 2022
- ललित गर्ग –
अखण्ड भारत का स्वप्न देखने एवं उसे आकार देने वालों में प्रखर राष्ट्रवादी नेता विनायक दामोदर सावरकर का योगदान अनूठा एवं अविस्मरणीय है। आज नया भारत बनाने, भारत को नये सन्दर्भों के साथ संगठित करने, राष्ट्रीय एकता को बल देने की चर्चाओं के बीच भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के प्रखर सेनानी, महान देशभक्त, ओजस्वी वक्ता, दूरदर्शी राजनेता, इतिहासकार, एक बहुत निराले साहित्यकार-कवि और सशक्त हिन्दुत्व के पुरोधा श्री सावरकर की जयंती और उनका जीवन-दर्शन आधार-स्तंभ एवं प्रकाश-किरण है। अग्रिम पंक्ति के स्वतंत्रता सेनानी सावरकरजी प्रेरणाएं एवं शिक्षाएं इसलिये प्रकाश-स्तंभ हैं कि उनमें नये भारत को निर्मित करने की क्षमता है। उन्होंने अनेक विपरीत एवं संघर्षपूर्ण स्थितियों के बीच एक भारत और मजबूत भारत की कल्पना की थी, जिसे साकार करने का संकल्प आज हर भारतीय के मन में है।
वीर सावरकर का जन्म महाराष्ट्र के नासिक जिले के ग्राम भगूर में 28 मई 1883 में हुआ था। वह अपने माता पिता की चार संतानों में से एक थे। उनके पिता का नाम दामोदर पंत सावरकर था, जो गांव के प्रतिष्ठित व्यक्तियों में जाने जाते थे, वे अंग्रेजी के अच्छे जानकार थे। लेकिन उन्होंने अपने बच्चों को अंग्रेजी के साथ-साथ भारतीय संस्कृति के अनुकरणीय प्रसंगों, रामायण, महाभारत, महाराणा प्रताप, वीर शिवाजी आदि महापुरूषो के प्रसंग भी सुनाया करते थे। सावरकर का बचपन भी इन्हीं बौद्धिकता के साथ-साथ स्व-संस्कृति के वातावरण में बीता। सावरकर अल्प आयु से ही निर्भीक होने के साथ-साथ बौद्धिक रूप से भी संपन्न थे। उनकी माता का नाम राधाबाई था। जब विनायक 9 साल के थे, तब ही उनकी माता का देहांत हो गया था। बचपन से ही वे पढ़ाकू थे। बचपन में उन्होंने कुछ कविताएं भी लिखी थीं। उन्होंने शिवाजी हाईस्कूल, नासिक से 1901 में मैट्रिक की परीक्षा पास की।
वीर सावरकर के मन में बचपन में ही अखण्ड भारत, स्वतंत्र भारत एवं सशक्त भारत को निर्मित करने का जज्बा जग गया था। आजादी के लिए काम करने के लिए उन्होंने एक गुप्त सोसायटी बनाई थी, जो ‘मित्र मेला’ के नाम से जानी गई। 1905 के बंग-भंग के बाद उन्होंने पुणे में विदेशी वस्त्रों की होली जलाई। फर्ग्युसन कॉलेज, पुणे में पढ़ने के दौरान भी वे राष्ट्रभक्ति से ओत-प्रोत ओजस्वी भाषण देते थे। तिलक की अनुशंसा पर 1906 में उन्हें श्यामजी कृष्ण वर्मा छात्रवृत्ति मिली। ‘इंडियन सोसियोलॉजिस्ट’ और ‘तलवार’ में उन्होंने अनेक लेख लिखे, जो बाद में कोलकाता के ‘युगांतर’ में भी छपे। वे रूसी क्रांतिकारियों से ज्यादा प्रभावित थे। लंदन में रहने के दौरान सावरकर की मुलाकात लाला हरदयाल से हुई। लंदन में वे इंडिया हाउस की देखरेख भी करते थे। मदनलाल धींगरा को फांसी दिए जाने के बाद उन्होंने ‘लंदन टाइम्स’ में भी एक लेख लिखा था। उन्होंने धींगरा के लिखित बयान के पर्चे भी बांटे थे।
वीर सावरकर जैसे बहुत कम क्रांतिकारी एवं देशभक्त होते हैं जिनके तन में जितनी ज्वाला हो उतना ही उफान मन में भी हो। उनकी कलम में चिंगारी थी, उसके कार्यों में भी क्रांति की अग्नि धधकती थी। वीर सावरकर ऐसे महान सपूत थे जिनकी कविताएं एवं विचार भी क्रांति मचाते थे और वह स्वयं भी महान् क्रांतिकारी थे। उनमें तेज भी था, तप भी था और त्याग भी था। वीर सावरकर हमेशा से जात-पात से मुक्त होकर कार्य करते थे। राष्ट्रीय एकता और समरसता उनमें कूट कूट कर भरी हुई थी। रत्नागिरी आंदोलन के समय उन्होंने जातिगत भेदभाव मिटाने का जो कार्य किया वह अनुकरणीय था। वहां उन्होंने दलितों को मंदिरों में प्रवेश के लिए सराहनीय अभियान चलाया। महात्मा गांधी ने तब खुले मंच से सावरकर की इस मुहिम की प्रशंसा की थी, भले ही आजादी के माध्यमों के बारे में गांधीजी और सावरकर का नजरिया अलग-अलग था।
वीर सावरकर नेे 1909 में लिखी अपनी पुस्तक ‘द इंडियन वॉर ऑफ इंडिपेंडेंस-1857’ में इस लड़ाई को ब्रिटिश सरकार के खिलाफ आजादी की पहली लड़ाई घोषित किया। वीर सावरकर 1911 से 1921 तक अंडमान जेल में रहे। 1921 में वे स्वदेश लौटे और फिर 3 साल जेल भोगी। जेल में ‘हिन्दुत्व’ पर शोध ग्रंथ लिखा। 1937 में वे हिन्दू महासभा के अध्यक्ष चुने गए। 1943 के बाद वे दादर, मुंबई में रहे। 9 अक्टूबर 1942 को भारत की स्वतंत्रता के लिए चर्चिल को समुद्री तार भेजा और आजीवन अखंड भारत के पक्षधर रहे। दुनिया के वे ऐसे पहले कवि थे जिन्होंने अंडमान के एकांत कारावास में जेल की दीवारों पर कील और कोयले से कविताएं लिखीं और फिर उन्हें याद किया। इस प्रकार याद की हुई 10 हजार पंक्तियों को उन्होंने जेल से छूटने के बाद पुनः लिखा। 26 फरवरी 1966 को भारत के इस महान क्रांतिकारी का निधन हुआ। उनका संपूर्ण जीवन स्वराज्य की प्राप्ति के लिए संघर्ष की प्रेरणास्पद दास्तान है।
हम आजाद हो गये, लेकिन हमारी मानसिकता एवं विकास प्रक्रिया अभी भी गुलामी की मानसिकता को ओढ़े हैं। शिक्षा से लेकर शासन व्यवस्था की समस्त प्रक्रिया अंग्रेजों की थोपी हुई है, उसे ही हम अपनाये जा रहे हैं। जीवन का उद्देश्य इतना ही नहीं है कि सुख-सुविधापूर्वक जीवन व्यतीत किया जाये, शोषण एवं अन्याय से धन पैदा किया जाये, बड़ी-बड़ी भव्य अट्टालिकाएं बनायी जाये और भौतिक साधनों का भरपूर उपयोग किया जाये। उसका उद्देश्य है- निज संस्कृति को बल देना, उज्ज्वल आचरण, सात्विक वृत्ति एवं स्व-पहचान। भारतीय जनता के बड़े भाग में राष्ट्रीयता एवं स्व-संस्कृति की कमी को दूर करना ही सावरकरजी के जन्म एवं जीवन का ध्येय था, वे अखण्ड भारत के पक्षधर थे। वे विश्वभर के क्रांतिकारियों में अद्वितीय थे। उनका नाम ही भारतीय क्रांतिकारियों के लिए उनका संदेश था। उनकी पुस्तकें क्रांतिकारियों के लिए गीता के समान थीं।
नया भारत निर्मित करते हुए उसके इतिहास में सच्चाई के प्रतिबिम्बों को उभारने पर बल देना ही वीर सावरकर की जन्म-जयन्ती मनाने का वास्तविक उद्देश्य होना चाहिए, क्योंकि भारत के इतिहास को धूमिल किया गया, धुंधलाया गया है, हिन्दू प्रतीकों, मन्दिरों एवं संस्कृति को नष्ट किया गया अन्यथा भारत का इतिहास दुनिया के लिये एक प्रेरणा है, अनुकरणीय है। क्योंकि भारत एक ऐसा शांति-अहिंसामय देश है जिसका न कोई शत्रु है और न कोई प्रतिद्वंद्वी। सम्पूर्ण दुनिया भारत की ओर देख रही है, उसमें विश्व गुरु की पात्रता निरन्तर प्रवहमान रही है, हमने कोरोना महामारी के एक जटिल एवं संघर्षमय दौर में दुनिया के सभी देशों के हित-चिन्तन का भाव रखा, सबका साथ, सबका विकास एवं सबका विश्वास मंत्र के द्वारा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने साबित किया कि वसुधैव कुटुम्बकम- दुनिया एक परिवार है, यही वीर सावरकर दर्शन ही मानवता का उजला भविष्य है। इसी विचार पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ आगे बढ़ रहा है, वह एक अनोखा और दुनिया का सबसे बड़ा गैर राजनीतिक संगठन है। यह भारतीय राष्ट्रवाद की सबसे मुखर, सबसे प्रखर आवाज है, इस आवाज को वीर सावरकर ने संगठित किया। देश की सुरक्षा, एकता और अखंडता उसका मूल उद्देश्य है। जैसे-जैसे संघ का वैचारिक, सांस्कृतिक, सामाजिक प्रभाव देश और दुनिया में बढ़ रहा है, वैसे-वैसे हिंदुत्व और राष्ट्र के प्रति समर्पित इस संगठन के बारे में जानने और समझने की ललक लोगों के बीच बढ़ती जा रही है।
अप्रतिम प्रतिभा सम्पन्न सावरकरजी कुशल मानवशिल्पी के साथ राष्ट्र-शिल्पी थे। उनकी वाणी तीक्ष्ण, तेजधार होने के साथ-साथ सीधी, सरल एवं हृदय को छूने एवं प्रभावकारी परिणाम करने वाली थी। अपनी पारखी दृष्टि से व्यक्ति की क्षमताओं को पहचान कर न केवल उसका विकास करते थे अपितु उसे देश, समाज एवं राष्ट्र हित में नियोजित भी करते थे। राष्ट्रोत्थान की भावना जगाने में उनका कौशल अद्भुत था। एक सामाजिक-सांस्कृतिक-राष्ट्रीय व्यक्तित्व होते हुए भी वीर सावरकर ने भारतीय राजनीति की दिशा को राष्ट्रीयता की ओर कैसे परिवर्तित किया है, यह समझने के लिए भी उनके जीवन-दर्शन को पढ़ना आवश्यक है। भारत की हिंदू अस्मिता, हिंदू समाज की उत्पत्ति व संघटन, विवाह, माता-पिता द्वारा संतान का पालन-पोषण, आपसी सौहार्द, सामाजिकता, आध्यात्मिकता, धार्मिकता, आर्थिक स्थितियां, कृषि, जीवनशैली तथा ऐसे ही अन्य अनेक विषयों पर उनके जीवन-दर्शन से मार्ग प्रशस्त होता है। सावरकर एकमात्र ऐसे भारतीय थे जिन्हें एक ही जीवन में दो बार आजीवन कारावास की सजा सुनाई गयी थी। काले पानी की कठोर सजा के दौरान सावरकर को अनेक यातनाएं दी गयी। अंडमान जेल में उन्हें छः महिने तक अंधेरी कोठरी में रखा गया। एक -एक महिने के लिए तीन बार एकांतवास की सजा सुनाई गयी। सात-सात दिन तक दो बार हथकड़ियां पहनाकर दीवारों के साथ लटकाया गया। इतना ही सावरकर को चार महिनों तक जंजीरों से बांध कर रखा गया। इतनी कठोर यातनाएं सहने के बाद भी सावरकर ने अंग्रेजों के सामने झुकना स्वीकार नहीं किया।
सावरकर जेल में रहते हुए भी स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय रहे। यह भी अजीब विडंबना है कि इतनी कठोर यातना सहने वाले राष्ट्र-योद्धा के साथ तथाकथित इतिहासकारों ने न्याय नहीं किया, उनके विराट व्यक्तित्व एवं राष्ट्र-विचारों को धूमिल किया। किसी ने कुछ लिखा भी तो उसे तोड़ मरोड़ कर पेश किया। राष्ट्रोत्थान की मूल भावना के अभिप्रेरित वीर सावरकर भले ही आज हमारेे बीच में नहीं है लेकिन उनकी प्रखर राष्ट्रवादी सोच हमेशा राष्ट्र एवं राष्ट्र के लोगों के दिलो में जिन्दा रहेगी ऐसे भारत के वीर सपूत वीर सावरकर को हम सभी भारतीयों को हमेशा गर्व रहेगा।
अमेरिका में बंदूक संस्कृति के दुष्परिणाम
संदर्भ:- अमेरिका में छात्र ने 21 लोगों की हत्या की
प्रमोद भार्गव
यह सच्चाई कल्पना से परे लगती है कि विद्या के मंदिर में पढ़ाई जा रही किताबें हिंसा की रक्त रंजित इबारत लिखेंगी ? लेकिन हैरत में डालने वाली बात है कि इन हृदयविदारक घटनाओं का एक लंबे समय से सिलसिला हकीकत बना हुआ है। देश के महानगर और शैक्षिक गुणवत्ता की दृष्टि से महत्वपूर्ण माने जाने वाले देश अमेरिका के राॅब एलीमेंट्री प्राथमिक विद्यालय में एक 18वर्षीय छात्र साल्वाडोर रैमोस ने अंधाधुंध गोलीबारी करके 19 छात्रों समेत 21 लोगों की हत्या कर दी। इनमें उसकी दादी भी शालि है। घर पर दादी की हत्या के बाद ही उसने स्कूल में पहुंचकर यह तांडव रचा था। इस घटना के बाद अमेरिका ने चार दिन के राष्ट्रीय शोक की घोषणा तो कर दी, लेकिन हथियार बेचने वाली बंदूक लाॅबी पर अंकुश लगाए जाने के कोई ठोस उपाय अमेरिका जैसा शक्तिशाली देश नहीं कर पा रहा है। हालांकि अमेरिकी राष्ट्र पति जो बाइडेन ने राष्ट्र के नाम दिए संबोधन में कहा है कि ‘स्कूल में बच्चों ने अपने मित्रों को ऐसे मरते देखा जैसे वह किसी युद्ध के मैदान में हों। एक बच्चे को खोना ऐसा है, जैसे की आपकी आत्मा का एक हिस्सा चीर दिया गया हो। बावजूद इसके क्या हमें नहीं सोचना चाहिए कि आखिर हम बंदूक संस्कृति के विरुद्ध कब खड़े होंगे ? और कुछ ऐसा करेंगे, जो हमें करना चाहिए।‘ साफ है, बाइडेन का इशारा संसद की तरफ था, जिससे वह संविधान में संशोधन कर ऐसा कानून बनाए, जिससे बंदूक रखने पर अंकुश लगे।
अमेरिका में कोरोना कालखंड में भी ऐसी ही घटना देखने में आई थी। जब दसवीं कक्षा के एक 14 वर्षीय नाबालिग छात्र ने तीन छात्रों की शाला परिसर में गोली मारकर हत्या कर दी थी। हत्यारे आरोपी छात्र ने अपने पिता की सेटमी स्वचालित बंदूक से करीब 20 गोलियां दागी थीं। अचरज में डालने वाली बात है कि कोरोना के भयावह संकटकाल में भी अमेरिका में बंदूकों की मांग सात गुना बढ़ गई थी। इनमें से 62 प्रतिशत बंदूकें गैर श्वेतों के पास हैं। इस बीच महिलाओं में भी बंदूकें खरीदने की दिलचस्पी बढ़ी है। महिलाएं पिंक पिस्टल खरीद रही हैं। बंदूकों की इस बढ़ी बिक्री का ही परिणाम है कि 2021 में ही फायरिंग की 650 घटनाएं घट चुकी हैं और दस छात्रों की मौत इस एक साल में हो चुकी थी। इस साल इसी प्रकृति की अमेरिका में 200 से ज्यादा घटनाएं घट चुकी हैं। साफ है, आधुनिक और उच्च शिक्षित माने जाने वाले इस देश में हिंसा की इबारत लिखने का खुला कारोबार चल रहा है। जाहिर है, यहां के शिक्षा संस्थानों में किताबों से संस्कार ग्रहण करने वाली शिक्षा शायद हिंसा की इबारत कैसे लिखी जाए, यह पाठ पढ़ा रही है ?
अमेरिका गन कल्चर से उभर नहीं पा रहा है। सर्वजनिक स्थानों, विद्यालयों, संगीत समाहोहों आदि में आए दिन बंदूक की आवाज सुनाई दे जाती है। नतीजतन युनाइटेड स्टेट का यह गन कल्चर उसके लिए आत्मघाती दस्ता साबित हो रहा है। इसलिए अमेरिका में रोजाना 53 लोगों की गोली मारकर हत्या होती है। अमेरिका में होने वाली हत्याओं में से 79 प्रतिशत लोग बंदूक से मारे जाते हैं। अमेरिका की कुल आबादी लगभग 33 करोड़ है, जबकि यहां व्यक्तिगत हथियारों की संख्या 39 करोड़ हैं। अमेरिका में हर सौ नागरिकों पर 120.5 हथियार हैं। अमेरिका में बंदूक रखने का कानूनी अधिकार संविधान में दिया हुआ है। ‘द गन कन्ट्रोल एक्ट‘ 1968 के मुताबिक, रायफल या कोई भी छोटा हथियार खरीदने के लिए व्यक्ति की उम्र कम से कम 18 साल होनी चाहिए। 21 वर्ष या उससे अधिक उम्र है तो व्यक्ति हैंडगन या बड़े हथियार भी खरीद सकते हैं। इसके लिए भारत की तरह किसी लाइसेंस की जरूरत नहीं है। इसी का परिणाम है कि जब कोरोना से अमेरिका जूझ रहा था, तब 2019 से लेकर अप्रैल 2021 के बीच 70 लाख से ज्यादा नागरिकों ने बंदूकें खरीदी हैं। यहां घटने वाली इस प्रकृति की घटनाओं को सामाजिक विसंगतियों का भी नतीजा माना जाता है। अमेरिकी समाज में नस्लभेद तो पहले से ही मौजूद है, अब बढ़ती धन-संपदा ने ऊंच-नीच और अमीरी-गरीबी की खाई को भी खतरनाक ढंग से चैड़ा कर दिया है। टेक्सास के प्राथमिक विद्यालय का हमलावर यह छात्र भी अत्यंत गरीब परिवार से था। इसके सहपाठियों ने बताया है कि उसके सस्ते कपड़ो के कारण अन्य छात्र उसकी खिल्ली उड़ाया करते थे। गरीबी को इंगित करने वाला यह मजाक 21 लोगों की जान पर भारी पड़ गया।
दरअसल अमेरिका ही नहीं दुनिया के उच्च शिक्षित और सभ्य समाजों में परिवार या कुटुंब की अवधारणा समाप्त होती चली जा रही है। परिवार निरंतर विखंडित हो रहे हैं। यहां पति और पत्नी दोनों को अपने विवाहहेतर संबंधों की मर्यादा का कोई ख्याल नहीं है। नतीजतन तलाक की संख्या बढ़ रही है। ऐसे में उपेक्षित और हीन भावना से ग्रस्त युवा आक्रोश , असहिष्णुता एवं हिंसक प्रवृत्ति की गिरफ्त में आकर मानसिक रूप से विक्षिप्त हो रहा है। इन मानसिक बीमारियों को बढ़ाने में बेरोजगारी भी बड़ा कारण बन रही है। अवसाद की स्थिति में जब युवकों को आसानी से बंदूक हाथ लग जाती है, तो वे अपने भीतरी आक्रोष को हिंसा की इबारत लिखकर तात्कालिक उपाय कर लेते हैं। किंतु उनका और उनके परिजनों का दीर्घकालिक जीवन कानूनी दुविधाओं के चलते लगभग नष्ट हो जाता है। गन कल्चर नाम से कुख्यात इस प्रवृत्ति पर अंकुश के लिए अमेरिका में पचास साल से चर्चाएं तो हो रही हैं, लेकिन संविधान में बदलाव दूर की कौड़ी बना हुआ है। अमेरिकी नागरिक को बंदूक रखने पर गर्व की अनुभूति होती है और वह इस अधिकार को बने रहना चाहता है। बंदूक लाॅबी विज्ञापनों के जरिए इस माहौल को गर्वयुक्त बनाए रखने की पृष्ठभूमि रचती रहती है।
विद्यालयों में छात्र हिंसा से जुड़ी ऐसी घटनाएं पहले अमेरिका जैसे विकसित देशों में ही देखने में आती थीं, लेकिन अब भारत जैसे विकासशील देशों में भी क्रूरता का यह सिलसिला चल निकला है। हालांकि भारत का समाज अमेरिकी समाज की तरह आधुनिक नहीं है कि जहां पिस्तौल अथवा चाकू जैसे हथियार रखने की छूट छात्रों को हो। अमेरिका में तो ऐसी विकृत संस्कृति पनप चुकी है, जहां अकेलेपन के शिकार एवं मां-बाप के लाड-प्यार से उपेक्षित बच्चें घर, मोहल्ले और संस्थाओं में जब-तब पिस्तौल चला दिया करते हैं। आज अभिभावकों की अतिरिक्त व्यस्तता और एकांगिकता जहां बच्चों के मनोवेगों की पड़ताल करने के लिए दोषी है, वहीं विद्यालय नैतिक और संवेदनशील मूल्य बच्चों में रोपने में सर्वथा चूक रहे हैं। छात्रों पर विज्ञान, गणित और वाणिज्य विषयों की शिक्षा का बेवजह दबाव भी बर्बर मानसिकता विकसित करने के लिए दोशी हैं। आज साहित्य, समाजशास्त्र व मनोविज्ञान की पढ़ाई पाठ्यक्रमों में कम से कमतर होती जा रही है, जबकि साहित्य और समाजशास्त्र ऐेसे विषय हैं जो समाज से जुड़े सभी विषयों और पहलुओं का वास्तविक यथार्थ प्रकट कर बाल-मनों में संवेदनशीलता का स्वाभाविक सृजन करने के साथ सामाजिक विषंगतियों से परिचत कराते हैं। इससे हृदय की जटिलता टूटती है और सामाजिक विषंगतियों को दूर करने के कोमल भाव भी बालमनों में अंकुरित होते हैं। महान और अपने-अपने क्षेत्रों में सफल व्यक्तियों की जीवन-गाथाएं (जीवनियां) भी व्यक्ति में संघर्ष के लिए जीवटता प्रदान करती हैं। लेकिन दुर्भाग्य से हमारे यहां ऐसा कोई पाठ्यक्रम पाठशालाओं में नहीं है, जिसमें कामयाब व्यक्ति की जीवनी पढ़ाई जाती हो ? जीवन-गाथाओं में जटिल परिस्थितियों से जूझने एवं उलझनों से मुक्त होने के सरल, कारगर और मनोवैज्ञानिक उपाय भी होते हैं।
वैसे मनोवैज्ञानिकों की मानें तो आमतौर से बच्चे आक्रामकता और हिंसा से दूर रहने की कोशिश करते हैं। लेकिन घरों में छोटे पर्दे और मुट्ठी में बंद मोबाइल पर परोसी जा रही हिंसा और सनसनी फैलाने वाले कार्यक्रम इतने असरकारी साबित हो रहे हैं कि हिंसा का उत्तेजक वातावरण घर-आंगन में विकृत रूप लेने लगा है, जो बालमनों में संवेदनहीनता का बीजारोपण कर रहा है। मासूम और बौने से लगने वाले कार्टून चरित्र भी पर्दे पर बंदूक थामे दिखाई देते हैं, जो बच्चों में आक्रोश पैदा करने का काम करते हैं। कुछ समय पहले दो किशोर मित्रों ने अपने तीसरे मित्र की हत्या केवल इसलिए कर दी थी कि वह उन्हें वीडियो गेम खेलने के लिए तीन सौ रूपए नहीं दे रहा था। लिहाजा छोटे पर्दे पर लगातार दिखाई जा रही हिंसक वारदातों के महिमामंडन पर अंकुश लगाया जाना जरूरी है। यदि बच्चों के खिलौनों का समाजशास्त्र एवं मनोवैज्ञानिक ढंग से अध्ययन एवं विश्लेषण किया जाए तो हम पाएंगे की हथियार और हिंसा का बचपन में अनाधिकृत प्रवेश हो चुका है।
महापुरुषों को अपमानित करने वाले ज़रा अपनी परिवारिक व संस्कारिक पृष्ठभूमि भी देखें
तनवीर जाफ़री
गत 27 मई को जब कृतज्ञ राष्ट्र आधुनिक भारत के निर्माता व देश के यशस्वी प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू की पुण्य तिथि मना रहा था इससे ठीक दो दिन पूर्व मध्य प्रदेश के सतना शहर में कलेक्ट्रेट कार्यालय के बिल्कुल क़रीब धवारी चौराहे पर पंडित नेहरू की प्रतिमा पर कुछ असामाजिक तत्वों द्वारा लाठी डंडे व पत्थर बरसाये गये और प्रतिमा को खण्डित करने प्रयास किया गया। देश के स्वतंत्रता संग्राम से लेकर इसे आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में ले जाने तक में पंडित नेहरू की राजनैतिक सूझ बूझ व उनकी दूरदर्शिता का क़ायल है। पंडित नेहरू के विषय में देश के महान क्रांतिकारी भगतसिंह ने कहा था कि -‘मैं देश के भविष्य के लिए गांधी, लाला लाजपत राय और सुभाष बोस वग़ैरह सब को ख़ारिज करता हूं। केवल जवाहरलाल वैज्ञानिक मानववादी होने के कारण देश का सही नेतृत्व कर सकते हैं। नौजवानों को चाहिए नेहरू के पीछे चलकर देश की तक़दीर गढ़ें।’ परन्तु चतुर चालाक नेहरू विरोधी भगत सिंह के इस कथन को याद करने के बजाये कभी पंडित नेहरू व भगत सिंह के मध्य तो कभी पंडित नेहरू व सरदार पटेल के मध्य नये नये मतभेदों की कथायें गढ़ते रहते हैं। नेहरू ही थे जिन्होंने देश को योजना आयोग, भाषावादी प्रांत,भाखड़ा नंगल डैम, आणविक शक्ति आयोग, अनेक सार्वजनिक उपक्रम, तथा भिलाई इस्पात संयंत्र आदि के अतिरिक्त और भी बहुत सारे उपक्रम,संस्थान,संस्थायें योजनायें देकर देश को प्रगति पर लाने अपना बेशक़ीमती योगदान दिया।
भारत से लेकर विदेशों तक में इसी विचारधारा के लोगों द्वारा न केवल पंडित नेहरू बल्कि राष्ट्रपिता महात्मा गांधी व संविधान निर्माता बाबा साहब भीम राव अंबेडकर की प्रतिमाओं पर भी अनेक स्थान पर दर्जनों बार हमले किये जा चुके हैं और उन्हें खंडित भी किया जा चुका है। कहीं इनकी प्रतिमाओं पर पेन्ट लगाया गया तो कहीं स्याही फेंक कर अपनी भड़ास निकाली गयी। इसी वर्ष 14 फ़रवरी को बिहार राज्य के पूर्वी चंपारण ज़िले के मोतिहारी शहर के मध्य स्थित गांधी स्मारक एवं संग्रहालय के समक्ष स्थित चरख़ा पार्क में स्थापित महात्मा गांधी की आदम क़द प्रतिमा को कुछ असामाजिक तत्वों द्वारा तोड़ दिया गया । इस चरख़ा पार्क का निर्माण मोतिहारी के ऐतिहासिक गांधी स्मारक के सामने 2017 में किया गया था। यह चंपारण का वही ऐतिहासिक स्थल है जो गाँधी की कर्मभूमि व सत्याग्रह आंदोलन की प्रयोग स्थली के रूप में विश्व विख्यात है। कितना दुखद है कि जिस चंपारण से महात्मा गांधी ने अपना सत्याग्रह शुरू किया था,ठीक उसी जगह पर उनकी प्रतिमा को तोड़ कर फेंक दिया गया ? उस प्रतिमा को जिसे बापू के सत्याग्रह आंदोलन की स्मृति में लगाया गया था ?
गाँधी से नफ़रत का जो सिलसिला उनकी हत्या से शुरू हुआ था वह ख़त्म होने का नाम नहीं ले रहा है। गोडसे को गाँधी उपलब्ध हो गये थे इसलिये उसने उनकी हत्या कर दी। परन्तु आज जिन ‘गोडसेवादियों ‘ को गांधी नहीं मिल पाते वे या तो गांधी का पुतला बना कर उसी पर गोलियां बरसाकर अपने ‘संस्कारों ‘ पर फूल चढ़ाते हैं या इसी तरह प्रतिमाओं को खंडित कर या इन्हें अन्य तरीक़ों से अपमानित करने का प्रयास कर अपने दिल की भड़ास निकालते रहते हैं। सवाल यह है कि क्या इस तरह की हरकतों से महात्मा गांधी के शांति,सत्य व अहिंसा तथा साम्प्रदायिक सद्भावना के विचारों को कभी समाप्त किया जा सकता है? इतिहास तो यही बताता है कि गांधी लोगों के दिलों पर जितना अपने जीवनकाल में राज नहीं करते थे,हत्या बाद उनका व्यक्तित्व उससे कहीं ज़्यादा प्रभावी हो गया। गाँधी व नेहरू की प्रतिमाओं की ही तरह बाबा साहब अंबेडकर की प्रतिमाओं व मूर्तियों पर जब जब आक्रमण किया जाता रहा है तब तब उनके विचारों को और भी बल मिलता है।
इन महापुरुषों की लोकप्रियता व स्वीकार्यता का अंदाज़ा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि लोग भले ही अपने संस्कार व शिक्षा के चलते स्वयं को इन महापुरुषों को अपमानित करने के तरह तरह के प्रयासों से स्वयं को न रोक पाते हों। परन्तु इसी विचारधारा के ज़िम्मेदार पदों पर बैठे लोग इन महापुरुषों के देश के प्रति किये गये योगदान की वजह से इनके विरुद्ध उतने आक्रामक नहीं हो पाते जितना कि इनके मातहत के छुटभैय्ये हो जाते हैं। बल्कि प्रायः इन ‘ज़िम्मेदारों ‘ को तो देश व दुनिया को दिखाने के लिये इनकी प्रतिमाओं पर माल्यार्पण भी करना पड़ता है। यहाँ तक कि बुझे दिल से ही सही परन्तु इनका थोड़ा बहुत गुणगान भी करना पड़ता है।
गाँधी,नेहरू और अंबेडकर अलावा भी हमारे देश में तमिलनाडु के वेल्लुर में समाज सुधारक पेरियार की मूर्ति तोड़ी जा चुकी। बंगाल के बीरभूम में स्वामी विवेकानंद की मूर्ति तोड़ी गयी , त्रिपुरा में लेनिनकी मूर्ति ध्वस्त की गयी। और भी अनेक महापुरुष की प्रतिमायें समय समय पर असामाजिक तत्वों के निशाने पर रही हैं। देश के लोगों के लिये आदर्श स्थापित करने वाले महापुरुष जो हमारे देश की धरोहर हैं,उन्हें अपमानित करने की कोशिश करने वाले लोगों को ऐसा करने से पहले कम से कम देश के प्रति स्वयं उनके अपने योगदान,अपनी पारिवारिक पृष्ठभूमि व संस्कारों पर भी ग़ौर करना चाहिये ? आख़िर उन्हें ऐसी शिक्षा व निम्नस्तरीय संस्कार कहाँ से हासिल होते हैं जो उनमें देश के महापुरुषों को अपमानित करने का साहस पैदा करते हैं ?
संस्कृत वांग्मय का ह्रास
-आचार्य चतुरसेन गुप्त जी की पुस्तक से-
-मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।
आर्यसमाज के विद्वान कीर्तिशेष आचार्य चतुरसेन गुप्त जी ने कई वर्ष पूर्व एक पुस्तक ‘महान् आर्य हिन्दू-जति विनाश के मार्ग पर’ पर लिखी थी। इस पुस्तक का एक संस्करण 17 वर्ष पूर्व सम्वत् 2062 (सनू् 2005) में श्री घूडमल प्रहलादकुमार आर्य धर्मार्थ ट्रस्ट, हिण्डोन सिटी से प्रकाशित किया गया था। पुस्तक में 32 पृष्ठ हैं। पुस्तक का प्रकाशकीय ऋषिभक्त श्री प्रभाकरदेव आर्य जी ने लिखा है। पुस्तक का मूल्य मात्र 8.00 रुपये है। यह पुस्तक हरयाणा एवं मध्यप्रदेश के कुछ बन्धुओं द्वारा प्रदत्त दान से प्रकाशित की गई है। पुस्तक ज्ञानवर्धक एवं सभी आर्यों तथा हिन्दुओं के लिए पठनीय है। जब तक हमें अपनी जाति के सामाजिक रोगों का पता नहीं होगा हम उसका उपचार नहीं कर सकते हैं, न ही निरोग वा स्वस्थ हो सकते हैं। इस दृष्टि से इस पुस्तक को पढ़ना हमें सभी के लिए अभीष्ट प्रतीत होता है। यद्यपि पूरी पुस्तक पठनीय है, परन्तु हम आज इस पुस्तक से कुछ सामग्री प्रस्तुत कर रहे हैं। यह सामग्री पुस्तक में पृष्ठ 22 पर ‘‘संस्कृत वांग्मय का ह्रास” शीर्षक से दी गई है। हम आशा करते हैं कि इस सामग्री से संस्कृत पे्रमी बन्धुओं को इस विषय की कुछ जानकारी मिलेगी और यह अनुभव होगा कि संस्कृत भाषा की उन्नति के कार्यों की देश की केन्द्र व राज्य सरकारों ने उपेक्षा की है। पुस्तक से ‘संस्कृत वांग्मय का ह्रास’ विषयक सामग्री प्रस्तुत है।
संस्कृत आर्यजाति की ही नहीं अपितु मानवजाति की सांस्कृतिक जननी है। इस सम्बन्ध में अधिक क्या लिखूं। स्वराज्य के पश्चात् संस्कृत शिक्षा प्रचार-प्रसार के स्रोत सूख गए या बन्द हो गए। मुगलकाल में भी संस्कृत किसी प्रकार जीवित बच निकली किन्तु आज की दशा अत्यन्त चिन्तनीय है।
संस्कृत के सम्बन्ध में महामहिम राष्ट्रपति राजेन्द्रप्रसादजी ने 22 नवम्बर 1952 में अपने एक भाषण में जो कहा था वह संस्कृतप्रेमियों की आंखें खोलनेवाला और मनन करने योग्य है। राष्ट्रपति महोदय कहते हैं-
सांस्कृतिक दृष्टि से संस्कृत के अध्ययन के महत्व के सम्बन्ध में विदेशी विद्वानों और शासकों तक ने भी किसी प्रकार की शंका नहीं की। जिस प्रकार आज अनेकों देशों के विद्यार्थी शिक्षा के लिए यूरोप या अमेरिका जाते हैं, उसी प्रकार संस्कृत और उसका वांग्मय पढ़ने के लिए अन्य देशों से विद्या-जिज्ञासु हमारे देश में सहस्राब्दियों तक आते रहे। इनमें चीनी थे, यूनानी थे, फारसी थे, अरबी थे और स्वर्ण दीपमाला के वासी थे। उस युग में संस्कृत, सभ्यता के रहस्यों को पाने की एक कुंजी समझी जाती थी और इसलिए भारत के विद्वानों को विदेशों में आमंन्त्रित किया जाता था जिससे वहां के लोगों को संस्कृत में संचित ज्ञान का उनकी भाषा में ज्ञान करायें। ....... मुझे इस बात का खेद है कि इस दिशा में जैसी व्यवस्था होनी चाहिए, जितना धन, समय और शक्ति लगनी चाहिए, वैसी न तो व्यवस्था है और न उतना धन, समय और शक्ति हम लगा रहे हैं। एक समय था जब राज्य और समाज, दोनों ही संस्कृत के अध्ययन का पोषण करते थे। दरबार में संस्कृत पण्डितों और कवियों का बहुत आदर-सम्मान होता था और राजा तथा सामन्तगण उन्हें प्रोत्साहन प्रदान करने के लिए पर्याप्त धेनु, धन और धान्य देते थे। ......
मुझे कभी-कभी यह भय होने लगता है कि सम्भवतः स्वतन्त्र भारत में संस्कृत अध्ययन की परम्परा कहीं समाप्त न हो जाए। आज संस्कृत-विद्वानों की जो अवस्था है, वह वास्तव में चिन्तनीय है। अभी राज्य ने संस्कृत-अध्ययन को प्रश्रय देने का भार अपने सिर पर नहीं लिया। ........
बड़ी-बड़ी रियासतें और जमींदारियां जो इस काम में बहुत व्यय किया करती थीं, अब नहीं रहीं और उनके स्थान पर अभी तक कोई नया प्रबन्ध नहीं हो पाया है। फल यह हो रहा है कि संस्कृत के शिक्षकों और विद्यार्थियों दोनों ही की दुर्दशा हो रही है। दूसरे शब्दों में आज समाज से आनेवाली दान-सरिता लगभग सूख गई है। .......
अतीत में संस्कृत पाठशालाओं को दानशील रियासतों, जमींदारों और सेठ-साहूकारों से आवश्यक वित्तीय सहायता मिल जाया करती थी। कुछ तो उनके लिए दान की गई जमींदारियों की आय के सहारे चल रही थीं, किन्तु अब तो हमने जमींदारी व्यवस्था का उन्मूलन (का निर्णय) कर लिया है। ......
मैं समझता हूं कि इस दिशा में राज्य सरकारें पहल कर सकती हैं। अब समय आ गया है कि वे संस्कृत-अध्ययन के लिए आवश्यक वित्तीय सहायता का प्रबन्ध करें। जब समाज के सब सम्पत्ति-साधनों को वे अपने हाथों में ले रही हैं तो कोई कारण नहीं कि वे समाज के उत्तरदायित्वों को भी क्यों न वहन करें। .....
(भारत सरकार द्वारा प्रकाशित राष्ट्रपति राजेन्द्रप्रसाद के भाषण पृ0 115)
राष्ट्रपति महोदय ने अपनी विचारधारा में संस्कृत वांग्मय की महानता और प्रचार की आवश्यकता पर बल देते हुए उसके प्रसार के स्रोत सूखने पर गहरी चिन्ता प्रकट की है। साथ ही राज्य सरकारों पर इसके संरक्षण का उत्तरदायित्व सौंपा है। हिन्दूजाति के ह्रास के साथ-साथ हिन्दूजाति का संस्कृत वांग्मय कैसे जीवित रहेगा यही चिन्ता है। और अब तो हिन्दी के भी दुर्दिन आ रहे हैं। राष्ट्रभाषा का हिन्दी पद-भुलावा या छलावा मात्र रह गया है। अब हम उर्दू और अंग्रेजी की गुलामी में फंसे बिना नहीं रह सकते। पुस्तक की संस्कृत वांग्मय का ह्रास विषयक सामग्री यहां समाप्त होती है।
हम इस लेख में आचार्य चतुरसेन गुप्त जी का संक्षिप्त परिचय देना आवश्यक समझते हैं। यह परिचय हम शीर्ष आर्य विद्वान डा. भवानीलाल भारतीय जी की पुस्तक ‘आर्य लेखक कोश’ से साभार प्रस्तुत कर रहे हैं। आचार्य चतुरसेन गुप्त जी का जन्म मुजफ्फर-नगर जिले के शामली कस्बे में 1906 में हुआ। यद्यपि आपको व्यवस्थित रूप से विद्याध्ययन करने का अवसर नहीं मिला, किन्तु आर्य-समाज के सम्पर्क में आने पर आपने स्वाध्याय के द्वारा ज्ञानोपार्जन किया। आपने स्वयं तो अनेक महत्वपूर्ण ग्रन्थ लिखे ही, समय समय पर अनेक प्रकाशन संस्स्थाओं की स्थापना कर उनके द्वारा विभिन्न उपयोगी ग्रन्थों का प्रकाशन भी किया। ऐसे प्रकाशनों में महाभारत प्रकाशन, राष्ट्रनिधि प्रकाशन, सत्यार्थप्रकाश धर्मार्थ ट्रस्ट प्रकाशन, वैदिक धर्मशास्त्र प्रकाशन, भारतीय राजनीति प्रकाशन, सार्वदेशिक प्रकाशन तथा आर्य व्यवहार प्रकाशन आदि के नाम आते हैं। इनका निधन 23 दिसम्बर, 1973 को दिल्ली में हुआ।
लेखक के लेखन कार्य-सत्यार्थप्रकाश उपदेशामृत (1985), स्वर्ग में हड़ताल, साम्प्रदायिकता का नंगा नाच, नेहरूजी की आर्य विचारधारा (1959), नरक की रिर्पोट, काश्मीर मुसलमान कैसे बना?, राष्ट्रपति जी के नाम 11 पत्र (1962), पूंजीपतियों की कहानी, भारत मां की अश्रुधारा, ईसाइयों के खूनी कारनामे, विदेशी समाजवाद के मुंह पर चपत, गांधी जी की गाय, पागलखाने से, मैं बुद्धू बन गया, भाग्य की बातें, मैं हंसू या रोऊं, परलोक में 26 जनवरी, महान् हिन्दू जाति मृत्यु के मार्ग पर, रंगीले लाला, पुरुषार्थ प्रकाश, हे मेरे भगवान। (आत्मकथन) (2029 विक्रमी सम्वत्)।
हम आशा करते हैं कि आचार्य चतुरसेन गुप्त जी द्वारा लिखित संस्कृत वांग्मय का ह्रास विषयक सामग्री पाठकों को उपयोगी प्रतीत होगी। हम समझते हैं कि संस्कृत भाषा की रक्षा एवं पोषण में आर्यसमाज और इसके अनुयायियों द्वारा संचालित गुरुकुलों, मुख्यतः गुरुकुल कांगड़ी हरिद्वार, का उल्लेखीय योगदान है। सभी गुरुकुलों का पोषण व रक्षा करनी सभी हिन्दुओं व आर्यसमाज के अनुयायियों का कर्तव्य है। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य
सात्विकता का प्रतीक है दूध
डॉ. शंकर सुवन सिंह
दूध मानव जीवन के खान पान का विशिष्ट अंग है। दूध के बिना स्वास्थ्य अधूरा है। दूध संपूर्ण आहार है। दूध एक अपारदर्शी सफेद द्रव है,जो मादाओं के दुग्ध ग्रन्थियों द्वारा बनाया जता है। गाय के दूध में प्रति ग्राम 3.14 मिली ग्राम कोलेस्ट्रॉल होता है। गाय का दूध पतला होता है। जो शरीर मे आसानी से पच जाता है। स्तनधारियों से प्राप्त दूध शाकाहार है या मांसाहार ये विवाद बड़ा पुराना है। वेगन मिल्क की परिभाषा जब से आई वैसे ही दूध शाकाहार और मांसाहार के बीच फंस गया। इस द्वन्द को इस प्रकार समझें – जब स्तनधारी प्राणियों के बच्चे गर्भ में पलते हैं तब वो अपनी खुराक अपनी माँ के द्वारा ली गई खुराक से पूरा करते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि गर्भ में पलने और माँ के स्तन पान से बच्चा मांसाहारी नहीं हो जाता है। ये तो वही बात हुई कि जल शाकाहारी है या मांसाहारी। जल प्रकृति प्रदत्त है। जल पृथ्वी के नीचे से आता है न कि पेड़ पौधों से। पेड़ पौधों और जीव जंतुओं सभी को जल की आवश्यकता होती है। तभी तो कहा गया है जल ही जीवन है। मैं आपसे पूछता हूँ जल शाकाहार है या मांसाहार ? प्रकृति प्रदत्त चीजों के साथ मनुष्य को खिलवाड़ नहीं करना चाहिए। हमारा मानना है कि प्रकृति प्रदत्त सभी चीजें शाकाहार की श्रेणी में आती हैं। सिर्फ ये कहना कि पेड़ पौधों से प्राप्त चीजें शाकाहर हैं और जानवरों से प्राप्त चीजें मांसाहार हैं, ये गलत होगा। स्तनधारियों का दूध देना प्रकृति प्रदत्त है ये शाकाहार श्रेणी में आता है। दूसरे शब्दों में मांस पर निर्भर रहने वाला मांसाहारी और पेड़ पौधों से प्राप्त भोज्य पदार्थों पर निर्भर रहने वाला शाकाहारी कहलाता है। प्रकृति प्रदत्त चीजें यदि मांस जैसे भोज्य पदार्थ पर निर्भर हैं तो भी वह मांसाहारी की श्रेणी में आएँगे। जैसे बहुत से पेड़ पौधे कीट पतंगों को अपना भोजन बना लेते हैं। तो ऐसे पेड़ पौधे मांसाहारी की श्रेणी में आएँगे। जानवरों से प्राप्त गोबर, मूत्र, आदि मांस की श्रेणी में नहीं आते हैं। अतएव इनका उपभोग करने वाला मांसाहारी कैसे हो गया ? इसी प्रकार स्तनधारियों से प्राप्त होने वाला दूध मांस तो नहीं है फिर इसका उपभोग करने वाला मांसाहारी कैसे हो गया ? अतएव दूध को पीने वाला दूधाहारी कहलाएगा। जल को पीने वाला जलाहारी कहलाएगा। फल को खाने वाला फलाहारी कहलाएगा। इसी प्रकार साग सब्जी को खाने वाला शाकाहारी कहलाएगा। दूध को शाकाहार कहने में आपत्ति तब से होने लगी है जब से देश में वीगनिस्म (वेगन मिल्क) के बारे में जागृति आने लगी। वीगनिस्म, फ़ूड प्रोसेसिंग की देन है। फ़ूड प्रोसेसिंग प्रक्रिया के अंतर्गत पेड़ पौधों से प्रात चीजों की प्रोसेसिंग करके वेगन मिल्क का निर्माण होता है। वीगन मिल्क पौधे आधारित दूध होते हैं। जिसमें कम मात्रा में फैट पाया जाता है। जैसे सोया मिल्क, कोकोनट मिल्क, कैश्यू मिल्क, बादाम का दूध, ओट्स मिल्क आदि। वेगन मिल्क, दूध उत्पादन बढ़ाने में सहायक हो सकता है पर ये कहना कि स्तनधारी प्राणियों से प्राप्त दूध को पीना मांसाहार है तो ये भारत की संस्कृति पर प्रहार होगा। वेगन मिल्क पोषण का एक अच्छा स्रोत्र है। पौधों से उनके फल या बीज लेकर उनका प्रोसेस किया जाता है तब जा कर कहीं वेगन मिल्क का निर्माण होता है। दुधारू पशुओं से प्राप्त दूध बिना प्रोसेसिंग किये प्राप्त किया जा सकता है। वेगन मिल्क से ज्यादा अच्छा पोषण, दुधारू पशुओं से मिलने वाले दूध में होता है। अमेरिकी संस्था पेटा जानवरों के संरक्षण की बात करती है। पेटा (पशुओं के साथ नैतिक व्यवहार के पक्षधर लोग) एक पशु-अधिकार संगठन है। इसका मुख्यालय यूएसए के वर्जिनिया के नॉर्फोल्क में स्थित है। विश्व भर में इसके लगभग 20 लाख सदस्य हैं और यह अपने को विश्व का सबसे बड़ा पशु-अधिकार संगठन होने का दावा करता है। इन्ग्रिड न्यूकिर्क इसके अन्तरराष्ट्रीय अध्यक्ष हैं। पेटा पशुओं के प्रति इतना सम्मान रखती है तो दुधारू पशुओं को बीफ के रूप में क्यों खाया जाता है ? पेटा पशुओं के प्रति इतना प्रेम रखती है तो विश्व में पशु क्यों काटे जाते हैं ? पेटा को वेगन मिल्क और दुधारू पशुओं से मिलने वाले मिल्क पर बहस न करके पशुओं के कटने – काटने पर रोक लगाने सम्बन्धी विषय पर शोध करना चाहिए। पेटा को दुधारू पशुओं से मिलने वाले दूध से द्वेष नहीं होना चाहिए। ‘आरोग्य गीता’ में लिखा है कि चेहरे की चमक को प्राकृतिक रूप से निखारने के लिए ‘पंचगव्य (गोमूत्र, गोबर, दूध, दही, घी) दुनिया की सर्वश्रेष्ठ दवा है। सरकार ने मार्च 2020 से गोबर से पेंट बनाने के लिए खादी एवं ग्रामोद्योग आयोग को प्रेरित किया था। जिसके बाद खादी एवं ग्रामोद्योग आयोग की जयपुर में स्थित यूनिट कुमारप्पा नेशनल हैंडमेड पेपर इंस्टीट्यूट ने इसके लिए एक फैक्ट्री भी बनाई। जहां लोगों को गोबर से पेंट बनाने की कला को सिखाया जाता है। सरकार ने गोबर से कागज बनाने का सफल प्रयोग कर लिया है। एमएसएमई मंत्रालय के तहत देश भर में इस प्रकार के प्लांट लगाने की योजना तैयार की जा रही है। कागज बनाने के लिए गोबर के साथ कागज के चिथड़े का इस्तेमाल किया जाता है। नेशनल हैंडमेड पेपर इंस्टीट्यूट में गाय के गोबर से पेपर बनाने की विधि इजाद की गई है. गौ मूत्र कुष्ठ रोग, पेट के दर्द, सूजन, मधुमेह और यहां तक की कैंसर के इलाज में मददगार है। बुखार का इलाज करने के लिए इसे काली मिर्च, दही और घी के साथ लिया जाता है। माना जाता है कि त्रिफला, गोमूत्र और गाय के दूध का मिश्रण एनीमिया को दूर करने में मदद करता है। गाय जिस जगह खड़ी रहकर आनंदपूर्वक चैन की सांस लेती है वहां वास्तु दोष समाप्त हो जाते हैं। जिस जगह गौ माता खुशी से रभांने लगे उस जगह देवी देवता पुष्प वर्षा करते हैं और मां लक्ष्मी का उस घर में वास माना जाता है। गाय हमारी धरोहर है। गाय भारत ही नहीं अपितु पूरे विश्व की माता है। गाय भारतीय संस्कृति के रोम रोम में बसी है। गाय पर सभी देवी देवताओं का वास है। अमेरिका अपने गिरेबान में झांक कर देखे कि इतना ही पशु प्रेम है तो भारत से ज्यादा मांस अमेरिका में क्यों खाते हैं लोग ? अमेरिका या पेटा को भारत की संस्कृति और सभ्यता सिखने की जरुरत है। भारत में प्रत्येक पशु का सम्मान है। सांप और नंदी भगवान् शंकर का प्रतीक है। चूहा भगवान् गणेश का प्रतीक है। उल्लू देवी लक्ष्मी का प्रतीक है। हमारे यहां तो सारी प्रकृति ही देव् तुल्य है। अमेरिका अपनी गन्दी पाश्चात्य संस्कृति को बचाए , न की भारत की संस्कृति में दखलंदाजी करे। भारत को अभी पूर्ण रूप से पशुओं के कटने पर रोक लगानी चाहिए। भारत की सरकार को इसे लेकर एक अध्यादेश जारी करना चाहिए। दुधारू पशुओं का दूध निकालना पशुओं के प्रति सम्मान है न कि प्रताड़ना। ये प्रकृति प्रदत्त है। अतएव इसमें कोई बुराई नहीं है, बशर्ते पशुओं के कटने पर रोक लगनी चाहिए। अतएव हम कह सकते हैं कि दुधारू पशुओं से प्राप्त दूध शाकाहार की श्रेणी में आएगा। दूध पोषण का प्रतीक है। मानव का पर्यावरण से घनिष्ठ सम्बन्ध है। स्वस्थ मानव ही पर्यावरण की देखभाल कर सकता है। पोषित मानव ही पर्यावरण को संरक्षित करने में अहम् भूमिका निभाता है। मानव को पोषित रखने में दूध एक सम्पूर्ण आहार है। अतएव हम कह सकते है दूध हमारे पर्यावरण को सुदृढ़ करने सहायक साबित होता है। दूध के उत्पादन को बढ़ाने के लिए डेरी प्रोसेसिंग यूनिट/प्लांट को बढ़ाना होगा। डेरी प्लांट के ज्यादा संख्या में खुलने से दूध सप्लायर की मांग बढ़ेगी। ज्यादातर दूध सप्लायर गाँव से आते हैं ऐसे में एक ओर गाँव में रोजगार बढ़ेगा तो वहीँ शहरों में लगे डेरी प्लांट में रोजगार के अवसर बढ़ेंगे। ताजे दूध के उत्पादन में से लगभग 60 फीसदी की खपत मिठाई की दुकानों में होती है। देखा जाए तो दूध का सम्बन्ध स्वास्थ्य/पोषण के साथ-साथ पर्यावरण और आर्थिक रूप से भी महत्वपूर्ण है। दूध का उत्पादन बढ़ेगा तो रोजगार बढ़ेगा। रोजगार बढ़ेगा तो लोग समृद्ध होंगे। समृद्धि होंगे तो वो पोषित होंगे। असमृद्ध लोग कुपोषित होते हैं। पोषण अच्छे स्वास्थ्य की जननी है। दुग्ध उत्पादन में भारत विश्व में पहले स्थान पर स्थित है। सत्र 2001 में, विश्व दुग्ध दिवस को संयुक्त राष्ट्र के खाद्य और कृषि संगठन (एफएओ) द्वारा वैश्विक भोजन के रूप में दूध के महत्व को पहचानने और हर साल 1 जून को डेयरी क्षेत्र का जश्न मनाने के लिए पेश किया गया था। इसलिए विश्व दुग्ध दिवस 2001 से प्रत्येक वर्ष 1 जून को मनाया जाता है। इस बार विश्व दुग्ध दिवस की 22 वीं वर्षगांठ है। “सुरक्षित दूध – सुरक्षित राष्ट्र; डेयरी उद्योग परिप्रेक्ष्य” को प्रभावी बनाने पर जोर देने की जरुरत है। संयुक्त राष्ट्र के खाद्य और कृषि संगठन का उद्देश्य डेयरी के लिए कम कार्बन भविष्य बनाने में मदद करके,दुनिया में डेयरी फार्मिंग को फिर से पेश करना है। यह दिन (1 जून) लोगों का दूध पर ध्यान केंद्रित करने और दूध व डेयरी उद्योग से जुड़ी गतिविधियों को प्रचारित करने का अवसर प्रदान करता है। दूध की महत्वता के माध्यम से विश्व दुग्ध दिवस इस उत्सव के द्वारा बड़ी जनसंख्या पर असर डालता है। कोरोना महामारी में हल्दी वाले दूध ने लोगों का आत्मविश्वास बढ़ाया था। ये वही दूध था जो दुधारू पशुओं से प्राप्त होता है। कोरोना महामारी में लोगों ने दूध और हल्दी का प्रयोग कर अपनी रोग प्रतिरोधक क्षमता (इम्युनिटी) को बढ़ाया था। दूध की भारी मांग को पूरा करने के लिए भारत में 1970 के दशक में श्वेत क्रांति जिसे ऑपरेशन फ्लड के रूप में जाना जाता है की शुरुआत हुई थी। इसने भारत को दूध की कमी वाले राष्ट्र से दुनिया के सबसे बड़े दूध उत्पादकों में बदल दिया। इतनी अधिक मात्रा में दूध के उत्पादन के लिए उतनी ही संख्या में दुधारू पशुओं का होना भी जरुरी है। चूँकि दूध एक महत्वपूर्ण आहार है इसलिए स्वास्थ्य के लिहाज से इसे हर व्यक्ति को लेना चाहिए। दूध की शुद्धता अच्छे स्वास्थ्य की निशानी है। भारत विश्व का नंबर वन दुग्ध उत्पादक देश है। भारत में दूध का उत्पादन 14.5 करोड़ लीटर लेकिन खपत 66 करोड़ लीटर है। इससे साबित होता है की दूध में मिलावट बड़े पैमाने पर हो रही है। दक्षिणी राज्यों के मुकाबले उत्तरी राज्यों में दूध में मिलावट के ज्यादा मामले सामने आए हैं। दूध में मिलावट को लेकर कुछ साल पहले देश में एक सर्वे हुआ था। इसमें पाया गया कि दूध को पैक करते वक्त सफाई और स्वच्छता दोनों से खिलवाड़ किया जाता है। दूध में डिटर्जेंट की सीधे तौर पर मिलावट पाई गई। यह मिलावट सीधे तौर पर लोगों की सेहत के लिए खतरा साबित हुई। इसके चलते उपभोक्ताओं के शारीरिक अंग काम करना बंद कर सकते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने दूध में मिलावट के खिलाफ भारत सरकार के लिए एडवायजरी जारी की थी और कहा था कि अगर दूध और दूध से बने प्रोडक्ट में मिलावट पर लगाम नहीं लगाई गई तो देश की करीब 87 फीसदी आबादी 2025 तक कैंसर जैसी खतरनाक और जानलेवा बीमारी का शिकार हो सकती है। मिलावटी दूध सफ़ेद जहर है। हमे यह नहीं भूलना चाहिए की “राष्ट्र के समुदाय का स्वास्थ्य ही उसकी संपत्ति है।” अतएव विश्व दुग्ध दिवस पर भारत को दूध में होने वाले मिलावट के बारे में सोचना होगा और इससे उबरने के लिए भारत सरकार को ठोस रणनीति बनाने की जरुरत है। जिससे भारत के लोगों के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ न हो सके और शुद्ध दूध लोगों तक पंहुच सके। दूध सात्विक होने कि वजह से शाकाहार है। यदि दूध मिलावट रहित है तो यह कहने में आश्चर्य नहीं होगा कि दूध, सात्विकता की निशानी है। दूध पर निर्भरता लोगों के स्वास्थ्य को दिव्य बनाती है। दूध पेय पदार्थों में श्रेष्ठ है। दूध,आहार की दिव्य अवस्था का दूसरा नाम है। अतएव हम कह सकते हैं कि दूध सात्विकता (पवित्रता) का प्रतीक है।
लेखक
डॉ. शंकर सुवन सिंह
मीडिया में हिंदी का बढ़ता वर्चस्व
-डॉ. पवन सिंह मलिक
30 मई ‘हिंदी पत्रकारिता दिवस’ देश के लिए एक गौरव का दिन है। आज विश्व में हिंदी के बढ़ते वर्चस्व व सम्मान में हिंदी पत्रकारिता का विशेष योगदान है। हिंदी पत्रकारिता की एक ऐतिहासिक व स्वर्णिम यात्रा रही है जिसमें संघर्ष, कई पड़ाव व सफलताएं भी शामिल है। स्वतंत्रता संग्राम या उसके बाद के उभरते नये भारत की बात हो, तो उसमें हिंदी पत्रकारिता के भागीरथ प्रयास को नकारा नहीं जा सकता। वास्तव में हिंदी पत्रकारिता जन सरोकार की पत्रकारिता है, जिसमें माटी की खुशबू महसूस की जा सकती है। समाज का प्रत्येक वर्ग फिर चाहे वो किसान हो, मजदूर हो, शिक्षित वर्ग हो या फिर समाज के प्रति चिंतन – मनन करने वाला आम आदमी सभी हिंदी पत्रकारिता के साथ अपने को जुड़ा हुआ मानते हैं। हिंदी पत्रकारिता सही मायनों में सरकार व जनता के बीच एक सेतु का कार्य करती है। डिजिटल भारत के निर्माण में भी हिंदी पत्रकारिता का अपना एक विशेष महत्त्व दिखाई देता है ।
हिंदी पत्रकारिता व मूल्यबोध :
हिंदी पत्रकारिता कि जब हम बात करते हैं तो मूल्य बोध उसकी आत्मा है। भारत में हिंदी पत्रकारिता का प्रारंभ हुआ 30 मई 1826 में पहले साप्ताहिक समाचार पत्र ‘उदंत मार्तंड’ जिसे पंडित जुगल किशोर ने शुरू किया के साथ हुआ। अपने पहले ही संपादकीय में उन्होंने लिखा कि उदंत मार्तंड हिंदुस्तानियों के हितों लिए है। भारतीयों के हितों की रक्षा और राष्ट्र के सर्वोन्मुखी उन्नयन के लिए समाचार पत्र और मीडिया की भूमिका महत्वपूर्ण है। जिस दौर में उदंत मार्तंड शुरू हुआ था वह दौर पराधीनता का दौर था। भारत की पत्रकारिता का पहला लक्ष्य था राष्ट्रीय जागरण और भारत की स्वाधीनता के यज्ञ को तीव्र करना। ऐसे महान उद्देश्य को लेकर भारत की पत्रकारिता की शुरुआत हुई। यह भारत की पत्रकारिता का सर्वप्रथम मूल्य बोध है कि मीडिया या पत्रकारिता किसी भी कारण से राष्ट्र और समाज के हित से विरक्त नहीं हो सकती। और इसीलिए पत्रकारिता के प्रति भारत का जन विश्वास हुआ। आज जब हम यह कहते हैं कि मीडिया लोकतंत्र का चोथा स्तंभ है तो ऐसे ही नहीं कह देते मीडिया ने अपनी भूमिका से यह साबित किया है कि समाज की अंतिम पंक्ति में जो सबसे दुर्बल व्यक्ति खड़ा है, उसके हितों की रक्षा के लिए कोई साथ है तो वह पत्रकारिता है। इन्हीं वजहों से अखबार को आम आदमी की आवाज कहा जाता था। इसी मूल्य बोध के कारण, उसका समर्पण व्यवसाय के लिए नहीं था। अखबार का या मीडिया का समर्पण देश एवं समाज के हितों के लिए साथ ही कमजोर व्यक्तियों के कल्याण की कामना के प्रति समर्पित था। यह जो जीवन दृष्टि है पत्रकारिता की यही वास्तव में पत्रकारिता की ख्याति है। वक्त के साथ बहुत सारी चीजें बदलती है, आज हम अपने स्वार्थ के हिसाब से उनके अर्थों को भी नए तरीके से परिभाषित करते हैं, लेकिन जो आत्मा है वह कभी बदलती नहीं है। उसकी पवित्रता, उसकी जीवंतता, उसकी व्यापकता, घोर सत्य है। जैसे हम कहते हैं कुछ चीजें सर्वदा सत्य होती हैं, सूर्य पूर्व से निकलता है। यह निश्चित सत्य है, वैश्विक सत्य है, यह बदल नहीं सकता। हम आज व्यवसाय और व्यावसायिक होड़ की बात कहकर पत्रकारिता को चाहे अलग-अलग तरीके से परिभाषित करें, लेकिन पत्रकारिता का मूल्य धर्म जो है, लोक कल्याण राष्ट्रीय जागरण और ऐसे हर दुर्बल व्यक्ति के साथ खड़े होना उसके अधिकारों, हितों के लिए लड़ना, जिसका कोई सहारा नहीं है। इस मूल्य को लेकर भारत की पत्रकारिता का उदय हुआ।
पत्रकारिता व साहित्य का अभेद संबंध :
साहित्यिक व पत्रकारिता का कार्य है ठहरे हुए समाज को सांस और गति देना। जो समाज बनने वाला है, उसका स्वागत करना। समाज को सूचना देना व जागरुक करना, नयी रचनाशीलता और नयी प्रतिभाओं को सामने लाना। साहित्यिक व पत्रकारिता की यही जरूरी शर्त है। इसलिए यह एक अटल सत्य है कि साहित्य व पत्रकारिता दोनों अन्योनाश्रित है, दोनों अभेद है। जहां साहित्यकारों ने अच्छी पत्रिकाएं निकाली है वही अच्छे पत्रकार पत्रकारों ने यशस्वी साहित्यकार भी पैदा किये, यशस्वी साहित्य भी पैदा किया इस तरह दोनों का एक अभेद हमें दिखाई देता है अपने प्रारंभिक समय से और अब तक क्योंकि पत्रकारिता में साहित्य संभव नहीं था और बिना साहित्य के उत्कृष्ट पत्रकरिता संभव नहीं है। पत्रकारिता को साहित्य से शक्ति मिलती है इसके विकास में साहित्य का महत्वपूर्ण योगदान होता है महर्षि नारद को हमारी परंपरा में आदि पत्रकार कहा गया हैं। उन्होने जो भी प्रयत्न किये उनका मकसद लोकमंगल ही होता था। इस आधार पर कहा जा सकता है कि पत्रकारिता अपने उद्भव के उषाकाल से ही लोकमंगल का संकल्प लेकर चली है ठीक इसी तरह साहित्य में भी लोकमंगल ही उसके केंद्र में है। हिंदी पत्रकारिता की शुरूआत होती है एक सीमित संसाधन और कमजोर आर्थिक स्थिति वाले व्यक्ति जिनके पास मीडिया हाउसेस नहीं थे लेकिन बावजूद इसके उनका संकल्प बहुत बड़ा था। आगे चलकर उस संकल्प का परिणाम भी हमें दिखाई देता है। कालांतर में राजा राममोहन राय की प्रेरणा से बंग दूत 4 भाषाओं अंग्रेजी, हिंदी, फ़ारसी और बंगला में निकलता हैं। साल 1854 में हिंदी का पहला दैनिक समाचार पत्र सुधावर्शण नाम से श्याम सुंदर सेन ने प्रकाशित किया । पत्रकारिता की उद्भव भूमि कलकत्ता (कोलकाता) बनता है । समय के साथ-साथ धीरे-धीरे इन समाचार पत्रों का प्रभाव कोलकाता से लेकर संयुक्त अवध प्रांत तक होता गया और फिर काशी और प्रयाग में अखबार निकलने प्रारंभ हो गए। 1845 में शुभ सात सितारे, शुभ शास्त्र, हिंद की प्रेरणा से बनारस से अखबार निकलता है। इस लंबे काल तक समाचार पत्र और हिंदी पत्रकारिता अपना विकास यात्रा तय करती है तो अपने साथ-साथ एक उत्कृष्ट साहित्य और यशस्वी साहित्यकारों को लेकर चलती है । 1920 में जब छायावाद युग आता है तब जबलपुर से ‘शारदा’ नामक एक पत्रिका का प्रकाशन होता है जिसमें मुकुटधर पांडे ने छायावाद शीर्षक लेख लिखे थे और जिससे छायावाद के उद्भव की बात की थी जहां से छायावाद जुड़ने की बात की थी और वो साबित करते हैं के इस समय वे द्विवेदी युगीन कवि थे उनकी रचनाओं में भी छायावादी तत्व, सांकेतिकता के तत्व दिखाई देते हैं। हमारे यहाँ अनेक ऐसे उदाहरण हैं, जिनसे यह साबित होता है कि पत्रकारिता यदि साहित्य से मिल जाए तो वैचारिक क्रांति का जन्म होता है।
इंटरनेट मीडिया में बढ़ता हिंदी का वर्चस्व :
आज के दौर में डिजिटल व सोशल मीडिया पर हिंदी के बढ़ते वर्चस्व को नकारा नहीं जा सकता। आजकल जब लगभग हर मीडिया हॉउस, संस्था, व्यक्ति, सरकार, कंपनी, साहित्यकर्मी से समाजकर्मी तक और नेता से अभिनेता को सोशल मीडिया में उसकी सक्रियता, उसको फॉलो करने वाले लोगों की संख्या के आधार पर उसकी लोकप्रियता को तय किया जाता है। ऐसे में इन सबके द्वारा ज्यादा से ज्यादा लोगों तक अपनी पहुँच बनाने के लिए हिंदी या स्थानीय भाषा का प्रयोग दिखाई देता है। भारत में हिंदी और क्षेत्रीय भाषाओं के पोर्टल्स का भविष्य भी बहुत उज्ज्वल है। हिंदी पढ़ने वालों की दर प्रतिवर्ष 94 प्रतिशत की रफ्तार से बढ़ रही है जबकि अंग्रेजी में यह दर 19 प्रतिशत के लगभग है। यही कारण है कि तेजी से नए पोर्टल्स सामने आ रहे हैं। अब पोर्टल के काम में कई बड़े खिलाड़ी आ गए हैं। इनके आने का भी कारण यही है कि आने वाला समय हिंदी पोर्टल का समय है। पोर्टल पर जो भी लिखा जाए वह सोच समझ कर लिखना चाहिए क्योंकि अखबार में तो जो छपा है वह एक ही दिन दिखता है, लेकिन पोर्टल में कई सालों के बाद भी लिखी गई खबर स्क्रीन पर आ जाती है और प्रासंगिक बन जाती है। एंड्रॉयड एप्लीकेशन ने हम सभी को इंफॉर्मेशन के हाईवे पर लाकर खड़ा कर दिया है। रेडियो को 50 लाख लोगों तक पहुंचने में 8 वर्ष का समय लगा था। जबकि डब्ल्यूडब्ल्यूडब्ल्यू को 50 लाख लोगों तक पहुंचने में केवल 2 साल का समय लगा। आज हमारे देश में 80% रीडर मोबाइल पर उपलब्ध हैं आज देश ही नहीं पूरी दुनिया जब डिजिटल की राह पर आगे बढ़ रही है तो कहना गलत न होगा कि ऐसे परिवेश में हिंदी जैसी भाषाओं की व्यापकता और आसान हो गई है। डिजिटल वर्ल्ड में तकनीक के सहारे हिंदी जैसी भाषाओं को खास प्राथमिकता दी जा रही है।
विश्व में लगभग 200 से अधिक सोशल मीडिया साइटें हैं जिनमें फेसबुक, ऑरकुट, माई स्पेस, लिंक्डइन, फ्लिकर, इंटाग्राम सबसे अधिक लोकप्रिय हैं। दुनियाभर में फेसबुक को लगभग 1 अरब 28 करोड़, इंस्टाग्राम को 15 करोड़, लिंक्डइन को 20 करोड़, माई स्पेस को 3 करोड़ और ट्विटर को 9 करोड़ लोग प्रयोग में ला रहे हैं। इन सभी लोकप्रिय सोशल मीडिया साइटों पर हिंदी भाषा ही सबसे ज्यादा प्रयोग की जाने वाली भाषा बनी हुई है। स्मार्टफोनों पर चलने वाली वाहट्सएप्प मैसेंजर तत्क्षण मैसेंजिंग सेवा में तो हिंदी ने धूम मचा राखी है। जिस तरह से आज समाज के हर वर्ग ने डिजिटल व सोशल मीडिया को अपनी स्वीकृति दी है उससे पूरी संभावना है कि डिजिटल युग में भी हिंदी पत्रकारिता के भविष्य की अपार संभावनाएं हैं।
हिंदी पत्रकारिता का स्थान दुनियाभर में पहले से बढ़ा है व निरंतर और भी बढ़ रहा है। आज हिंदी व स्थानीय भाषाओँ में कंटेंट लिखने वाले दक्ष पेशेवरों की मांग बढ़ रही है। हिंदी पत्रकारिता वास्तव में संचार की शक्ति रखती है। इसलिए आज हिंदी पत्रकारिता से जुड़े व्यक्तियों का उत्तरदायित्व पहले से अधिक हो गया है। हिंदी में अंग्रेजी के बढ़ते स्वरुप के प्रति भी हमें सतर्क होना होगा। हिंदी भाषा को भ्रष्ट होने से बचाना होगा। हिंदी के सही स्वरुप को बनाए रखने के लिए हमें एक योद्धा के रुप में काम करना होगा। हिंदी पत्रकारिता के केंद्र में सदैव समाज हित व राष्ट्र हित को अपनी प्राथमिकता बनाना होगा। यही संकल्प व प्रतिबद्धता वास्तव में भविष्य की हिंदी पत्रकारिता के मार्ग को प्रशस्त करेगा।