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हिन्दू समाज की सहिष्णुता, कायरता व् अज्ञानता का प्रमाण है ज्ञानवापी विवाद

दिव्य अग्रवाल

अनादि अनंत अविनाशी महादेव के शिवलिंग पर सम्पूर्ण विश्व के सनातनी अभिषेक करते हैं । महादेव के परम् भक्त व् सेवक नन्दी महाराज के कान में अपनी मनोकामना मांगते हैं । परन्तु ज्ञानवापी का विषय ऐसा जहाँ सैकड़ो वर्षो से शिवलिंग पर अभिषेक नहीं हुआ नन्दी महराज अपने आराध्य के दर्शन की आशा में सैकड़ो वर्षो से स्थिर व् स्तब्ध होकर प्रतीक्षा कर रहे हैं । क्या हिन्दू समाज को नन्दी महराज की प्रतीक्षा से पीड़ा नहीं हुई , क्या इस बात की आत्मगिलानी नहीं हुई, जिस शिवलिंग पर पवित्र अभिषेक होना चाहिए था वहां हाथ पैर धोने हेतु वजू की जा रही थी ।आज जब नन्दी जी की धैर्यता व् शिवलिंग की सत्यता प्रमाणित हो रही है तो मुस्लिम समाज के नेता मुस्लिमो का प्रतिनिधित्व करते हुए कह रहे हैं की कयामत तक मस्जिद रहेगी । अब इसको सनातनियो की सहिष्णुता कहें,कायरता कहें ,अकर्मण्यता कहें या सेक्युलर हिन्दुओ की बुद्धिहीनता कहें जिसके चलते मुग़ल काल में हिन्दू अपने धर्म स्थलों को खंडित होते देखते रहे, उसके बाद धर्म के नाम पर बंटवारा होने के पश्चात भी अपने धार्मिक स्थलों को पुनर्जीवित न करके धार्मिक तुष्टिकरण में कटटरपंथियो का चरण वंदन करते रहे । अब सत्य प्रदर्शित होने के पश्चात भी ओवैसी जैसे मजहबी लोगो की धमकिया भी हिन्दू समाज सहज ही स्वीकार कर रहा है । सेक्युलर हिन्दू आपसी भाईचारे की बात करते है आज उन हिन्दुओ को यह क्यों नहीं दिख रहा की मुग़ल काल में जिस तरह हिन्दू धर्म को अपमानित करने हेतु चिन्हित करके हिन्दुओ के मुख्य तीर्थस्थलों को खंडित किया गया आज भी मुस्लिम समाज को उसकी कोई आत्मगिलानी नहीं है । अपितु सत्य को स्वीकारने के स्थान पर अक्रान्ताओ द्वारा किए गए कुकृत्य के समर्थन में मुस्लिम समाज संगठित होकर खड़ा है । वीडियोग्राफी का विरोध क्यों हो रहा था अब यह सर्वविदित हो चूका है । जिस तरह ओवैसी मुस्लिम समाज की संख्या के दम पर पुरे हिन्दू समाज को धमकी भरा सन्देश दे रहे है । तो क्या यह न्यायालय के आदेश की अवमानन्ना नहीं है, वास्तविकता है गांधी जी के तीन बंदरो वाली व् तथाकथित अहिंसा वाली पटकथा ने हिन्दू समाज की रक्तवाहनियों में योध्याभाव को समाप्त कर दिया था । अन्यथा निश्चित ही हिन्दू समाज को अपने देवताओ का स्मरण होता की किसी भी परिस्थिति में शस्त्र व् शास्त्र त्यागा नहीं जा सकता । आज भी हिन्दू समाज मुस्लिम आक्रांताओ के कुकृत्य व् अपने स्वर्णिम इतिहास को नहीं समझ पाया इसका मुख्य कारण लोभी धर्मगुरु एवं कायरता व् सत्ता के लालच से भरे हुए राजनेताओ का नेतृत्व है । सत्य जानने के पश्चात भी तर्क वितर्क करना , भययुक्त होकर सेक्युलर बनने का नाटक करना व् अपने धर्म व् संस्कृति के स्वाभिमान की सुरक्षा हेतु सजग न होना एवं विमुख होकर कटटरवादियो के कुकृत्यों का विरोध न करना मजहबी लोगो के मनसूबों को निश्चित ही बल देता है ।

टूट रहे परिवार !

बदल गए परिवार के, अब तो सौरभ भाव !
रिश्ते-नातों में नहीं, पहले जैसे चाव !!

टूट रहे परिवार हैं, बदल रहे मनभाव !
प्रेम जताते ग़ैर से, अपनों से अलगाव !!

गलती है ये खून की, या संस्कारी भूल !
अपने काँटों से लगे, और पराये फूल !!

रहना मिल परिवार से, छोड़ न देना मूल !
शोभा देते हैं सदा, गुलदस्ते में फूल !!

होकर अलग कुटुम्ब से, बैठें गैरों पास !
झुँड से निकली भेड़ की, सुने कौन अरदास !!

राजनीति नित बांटती, घर-कुनबे-परिवार !
गाँव-गली सब कर रहें, आपस में तकरार !!

मत खेलों तुम आग से, मत तानों तलवार !
कहता है कुरुक्षेत्र ये, चाहो यदि परिवार !!

बगिया सूखी प्रेम की, मुरझाया है स्नेह !
रिश्तों में अब तप नहीं, कैसे बरसे मेह !!

बैठक अब खामोश है, आँगन लगे उजाड़ !
बँटी समूची खिड़कियाँ, दरवाजे दो फाड़ !!

विश्वासों से महकते, हैं रिश्तों के फूल !
कितनी करों मनौतियां, हटें न मन की धूल !!

सौरभ आये रोज ही, टूट रहे परिवार !
फूट कलह ने खींच दी, आँगन बीच दिवार !!

–सत्यवान ‘सौरभ’

पूर्णिमा पर क्यों सुनी जाती है सत्‍यनारायण व्रत कथा…?


आमतौर पर देखा जाता है किसी शुभ काम से पहले या मनोकामनाएं पूरी होने पर सत्यनारायण व्रत की कथा सुनने का विधान है। सनातन धर्म से जुड़ा शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति होगा जिसने श्रीसत्यनारायण कथा का नाम न सुना हो। इस कथा को सुनने का फल हजारों सालों तक किए गये यज्ञ के बराबर माना जाता है । शास्त्रों के मुताबिक ऐसा माना गया है कि इस कथा को सुनने वाला व्यक्ति अगर व्रत रखता है तो उसेके जीवन के दुखों को श्री हरि विष्णु खुद ही हर लेते हैं । स्कन्द पुराण के मुताबिक भगवान सत्यनारायण श्री हरि विष्णु का ही दूसरा रूप हैं । इस कथा की महिमा को भगवान सत्यनारायण ने अपने मुख से देवर्षि नारद को बताया है । पूर्णिमा के दिन इस कथा को सुनने का विशेष महत्व है । कलयुग में इस व्रत कथा को सुनना बहुत प्रभावशाली माना गया है ।
जो लोग पूर्णिमा के दिन कथा नहीं सुन पाते हैं , वे कम से कम भगवान सत्यनारायण का मन में ध्यान कर लें । विशेष लाभ होगा । पुराणों में ऐसा भी बताया गया है कि जिस स्थान पर भी श्री सत्यनारायण भगवान की पूजा होती है, वहां गौरी-गणेश, नवग्रह और समस्त दिक्पाल आ जाते हैं। केले के पेड़ के नीचे अथवा घर के ब्रह्म स्थान पर पूजा करना उत्तम फल देता है। भोग में पंजीरी, पंचामृत, केला और तुलसी दल विशेष रूप से शामिल करें।

सिर्फ पूर्णिमा को ही नहीं परिस्थितियों के मुताबिक किसी भी दिन कथा सुनी जा सकती है, बृहस्पतिवार को कथा सुनना विशेष लाभकारी होता है, भगवान तो बस भाव के भूखे हैं । मन में उनके प्रति अगर सच्चा प्रेम है तो कोई भी दिन हो प्रभु की कृपा बरसती रहेगी । इस कथा के प्रभाव से खुशहाल जीवन, दाम्पत्य सुख, मनचाहे वर-वधु, संतान, स्वास्थ्य जैसी समस्त मनोकामनाओं की पूर्ति होती है । अगर पैसों से जुड़ी कोई समस्या है तो ये कथा किसी संजीवनी से कम नहीं है । तो जब भी मौका मिले भगवान की कथा सुने और सुनाएं ।
सत्यनारायण व्रत कथा पुस्तिका में इस संबंध में श्लोक इस प्रकार है :

यत्कृत्वासर्वदु:खेभ्योमुक्तोभवतिमानव:। विशेषत:कलियुगेसत्यपूजाफलप्रदा।
केचित् कालंवदिष्यन्तिसत्यमीशंतमेवच। सत्यनारायणंकेचित् सत्यदेवंतथाऽपरे।
नाना रूपधरोभूत्वासर्वेषामीप्सितप्रद:। भविष्यतिकलौविष्णु: सत्यरूपीसनातन:।

अर्थात् सत्यनारायण व्रत का अनुष्ठान करके मनुष्य सभी दु:खों से मुक्त हो जाता है। कलिकाल में सत्य की पूजा विशेष रूप से फलदायी होती है। सत्य के अनेक नाम हैं, यथा-सत्यनारायण, सत्यदेव। सनातन सत्यरूपीविष्णु भगवान कलियुग में अनेक रूप धारण करके लोगों को मनोवांछित फल देंगे।

भगवान सत्यनारायण पूजा सामग्री
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भगवन सत्यनारायण की मूर्ति या फ़ोटो
1 चौकी या पटला तथा उस पर बिछाने के लिए एक मीटर पीला या सफ़ेद कपडा
अबीर
गुलाल
कुमकुम (रोली)
सिंदूर
हल्दी
मोली
धुप
अगरबत्ती
10 ग्राम लौंग
10 ग्राम इलायची
32 सुपारी
चन्दन
500 ग्राम चावल
250 गेहूँ
50 ग्राम कपूर
इत्र
कापूस
गंगाजल
गुलाबजल
गोमूत्र
पञ्च मेवा
5 जनेऊ
1 नारियल
भगवन के वस्त्र
250 ग्राम घी
10 ग्राम पीली राई
5 पान के पत्ते
5 आम के पत्ते
हार फूल तुलसी पत्र
4 केले के खम्बे
250 ग्राम मिठाई
1 लीटर दूध
250 ग्राम दही
100 ग्राम चीनी
50 ग्राम शहद
भगवन के भोग के लिये चूरमा, पंजीरी या हलुआ इत्यादि

हवन प्रकरण (यदि हवन करना हो तो )
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हवन सामग्री
तिल
चावल
जौ
चीनी
घी
नव ग्रह समिधा 2 बण्डल
1 किलो आम की लकड़ी

पूजा के पूर्व की तैयारी
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जिस दिन पूजा करनी हो एक या दो दिन पूर्व ही यतन अनुसार पूजा की सभी सामग्री बाजार से ला कर उसे चेक कर ले ताकि पूजा के समय असुविधा न हो।

पूजन विधि
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श्री सत्यनारायण का पूजन महीने में एक बार पूर्णिमा या संक्रांति को या किसी भी दिन या समयानुसार किया जा सकता है। सत्यनारायण का पूजन जीवन में सत्य के महत्तव को बतलाता है। इस दिन स्नान करके कोरे अथवा धुले हुए शुद्ध वस्त्र पहनें। माथे पर तिलक लगाएं। अब भगवान गणेश का नाम लेकर पूजन शुरु करें।

पूजन का मंडप तैयार करना
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पूर्वाभिमुख हो कर एक चोकी पर पीला कपडा बिछा कर केले के खम्बे को लगा दे उस के बाद चित्रानुसार भगवन श्री सत्यनाराण गणेश नवग्रह कलश षोडश मातृकाएँ वास्तुदेवता की स्थापना करें अष्टदल या स्वस्तिक बनाएं। बीच में चावल रखें। पान सुपारी से भगवान गणेश की स्थापना करें। अब भगवान सत्यनारायण की तस्वीर रखें। श्री कृष्ण या नारायण की प्रतिमा की भी स्थापना करें।
सत्यनारायण के दाहिनी ओर शंख की स्थापना करें। जल से भरा एक कलश भी दाहिनी ओर रखें। कलश पर शक्कर या चावल से भरी कटोरी रखें। कटोरी पर नारियल भी रखा जा सकता है। अब बायी ओर दीपक रखें। केले के पत्तों से पाटे के दोनो ओर सजावट करें।
अब पाटे के आगे एक सफेद कपड़ा बिछाकर उस पर नौ जगह चावल की ढेरी रखें तथा नवग्रह मंडल बनाएं पूजन के समय इनमें नवग्रहों का पूजन किया जाना है। और उस के साथ ही गेहूँ की सोलह ढेरी रखें तथा षोडशमातृका मंडल तैयार करने के बाद पूजन शुरु करें।
प्रसाद के लिए पंचामृत, गेहूं के आटे को सेंककर तैयार की गई पंजीरी या शक्कर का बूरा, फल, नारियल इन सबको सवाया मात्रा में इकठ्ठा कर लें। या जितना शक्ति हो उस अनुसार इकठ्ठा कर लें। भगवान की तस्वीर के आगे ये सभी पदार्थ रख दें।

सकंल्प ;
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संकल्प करने से पहले हाथों मेे जल, फूल व चावल लें। सकंल्प में जिस दिन पूजन कर रहे हैं उस वर्ष, उस वार, तिथि उस जगह और अपने नाम को लेकर अपनी इच्छा बोले। अब हाथों में लिए गए जल को जमीन पर छोड़ दें।

पवित्रकरण ;
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बाएँ हाथ में जल लेकर दाहिने हाथ की अनामिका से निम्न मंत्र बोलते हुए अपने ऊपर एवं पूजन सामग्री पर जल छिड़कें-
अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोऽपि वा ।
यः स्मरेत् पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यंतरः शुचिः।।
पुनः पुण्डरीकाक्षं, पुनः पुण्डरीकाक्षं, पुनः पुण्डरीकाक्षं ।

आसन शुद्धि
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निम्न मंत्र से अपने आसन पर उपरोक्त तरह से जल छिड़कें-

पृथ्वी त्वया घता लोका देवि त्वं विष्णुना धृता ।
त्वं च धारय मां देवि पवित्रं कुरु च आसनम्।

ग्रंथि बंधन
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यदि यजमान या पूजा करने वाले भक्त सपत्नीक बैठ रहे हों तो निम्न मंत्र के पाठ से ग्रंथि बंधन या गठजोड़ा करें-

यदाबध्नन दाक्षायणा हिरण्य(गुं)शतानीकाय सुमनस्यमानाः ।
तन्म आ बन्धामि शत शारदायायुष्यंजरदष्टियर्थासम्।

आचमन करें
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इसके बाद दाहिने हाथ में जल लेकर तीन बार आचमन करें व तीन बार कहें-
ऊँ केशवाय नमः
ऊँ नारायणाय नमः
ऊँ माधवाय नमः
यह मंत्र बोलकर हाथ धोएं
ऊँ गोविन्दाय नमः हस्तं प्रक्षालयामि ।

स्वस्तिवाचन मंत्र
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सबसे पहले स्वस्तिवाचन किया जाना चाहिए।
स्वस्ति न इंद्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः ।
स्वस्ति नस्ताक्र्षयो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु।
द्यौः शांतिः अंतरिक्षगुं शांतिः पृथिवी शांतिरापः
शांतिरोषधयः शांतिः। वनस्पतयः शांतिर्विश्वे देवाः
शांतिर्ब्रह्म शांतिः सर्वगुं शांतिः शांतिरेव शांति सा
मा शांतिरेधि। यतो यतः समिहसे ततो नो अभयं कुरु ।
शंन्नः कुरु प्राजाभ्यो अभयं नः पशुभ्यः। सुशांतिर्भवतु।
अब सभी देवी-देवताओं को प्रणाम करें-
श्रीमन्महागणाधिपतये नमः ।
लक्ष्मीनारायणाभ्यां नमः ।
उमा महेश्वराभ्यां नमः ।
वाणी हिरण्यगर्भाभ्यां नमः ।
शचीपुरन्दराभ्यां नमः ।
मातृ-पितृचरणकमलेभ्यो नमः ।
इष्टदेवताभ्यो नमः ।
कुलदेवताभ्यो नमः ।
ग्रामदेवताभ्यो नमः ।
वास्तुदेवताभ्यो नमः ।
स्थानदेवताभ्यो नमः ।
सर्वेभ्योदेवेभ्यो नमः ।
सर्वेभ्यो ब्राह्मणोभ्यो नमः।
सिद्धि बुद्धि सहिताय श्री मन्यहा गणाधिपतये नमः।

भगवान गणेश को स्नान कराएं। वस्त्र अर्पित करें। जनेऊ अर्पित करें। गंध, पुष्प, अक्षत अर्पित करें। भगवान नारायण को स्नान कराएं। जनेऊ अर्पित करें। गधं, पुष्प,अक्षत अर्पित करें। अब दीपक प्रज्वलित करें। धूप, दीप करें। भगवान गणेश और सत्यनारायण धूप-दीप अर्पित करें। ‘‘ऊँ सत्यनारायण नमः’’ कहते हुए सत्यनारायण का पूजन करें।
अब चावल की ढेरी में नवग्रहों का पूजन करें। अष्टगंध, पुष्प को नवग्रहों को अर्पित करे।

कथा-वाचन और आरती
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पूजन के बाद सत्यनारायण की कथा का पाठ करें अथवा सुनें। कथा पूरी होने पर भगवान की आरती करें। प्रदक्षिणा करें। अब नेवैद्य अर्पित करें। फल, मिठाई, शक्कर का बूरा जो भी पदार्थ सवाया इकठ्ठा करा हो। उन सभी पदार्थों का भगवान को भोग अर्पित करें। भगवान का प्रसाद सभी भक्तों को बांटे।

श्रीस्कन्दपुराण के अन्तर्गत रेवाखण्ड में श्रीसत्यनारायणव्रत कथा
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पहला अध्याय ,,एक समय की बात है नैषिरण्य तीर्थ में शौनिकादि, अठ्ठासी हजार ऋषियों ने श्री सूतजी से पूछा हे प्रभु! इस कलियुग में वेद विद्या रहित मनुष्यों को प्रभु भक्ति किस प्रकार मिल सकती है? तथा उनका उद्धार कैसे होगा? हे मुनि श्रेष्ठ ! कोई ऎसा तप बताइए जिससे थोड़े समय में ही पुण्य मिलें और मनवांछित फल भी मिल जाए. इस प्रकार की कथा सुनने की हम इच्छा रखते हैं. सर्व शास्त्रों के ज्ञाता सूत जी बोले – हे वैष्णवों में पूज्य ! आप सभी ने प्राणियों के हित की बात पूछी है इसलिए मैं एक ऎसे श्रेष्ठ व्रत को आप लोगों को बताऊँगा जिसे नारद जी ने लक्ष्मीनारायण जी से पूछा था और लक्ष्मीपति ने मनिश्रेष्ठ नारद जी से कहा था. आप सब इसे ध्यान से सुनिए –
एक समय की बात है, योगीराज नारद जी दूसरों के हित की इच्छा लिए अनेकों लोको में घूमते हुए मृत्युलोक में आ पहुंचे. यहाँ उन्होंने अनेक योनियों में जन्मे प्राय: सभी मनुष्यों को अपने कर्मों द्वारा अनेकों दुखों से पीड़ित देखा. उनका दुख देख नारद जी सोचने लगे कि कैसा यत्न किया जाए जिसके करने से निश्चित रुप से मानव के दुखों का अंत हो जाए. इसी विचार पर मनन करते हुए वह विष्णुलोक में गए. वहाँ वह देवों के ईश नारायण की स्तुति करने लगे जिनके हाथों में शंख, चक्र, गदा और पद्म थे, गले में वरमाला पहने हुए थे.
स्तुति करते हुए नारद जी बोले – हे भगवान! आप अत्यंत शक्ति से संपन्न हैं, मन तथा वाणी भी आपको नहीं पा सकती हैं. आपका आदि, मध्य तथा अंत नहीं है. निर्गुण स्वरुप सृष्टि के कारण भक्तों के दुख को दूर करने वाले है, आपको मेरा नमस्कार है. नारद जी की स्तुति सुन विष्णु भगवान बोले – हे मुनिश्रेष्ठ! आपके मन में क्या बात है? आप किस काम के लिए पधारे हैं? उसे नि:संकोच कहो. इस पर नारद मुनि बोले कि मृत्युलोक में अनेक योनियों में जन्मे मनुष्य अपने कर्मों के द्वारा अनेको दुख से दुखी हो रहे हैं. हे नाथ! आप मुझ पर दया रखते हैं तो बताइए कि वो मनुष्य थोड़े प्रयास से ही अपने दुखों से कैसे छुटकारा पा सकते है।

श्रीहरि बोले – हे नारद! मनुष्यों की भलाई के लिए तुमने बहुत अच्छी बात पूछी है. जिसके करने से मनुष्य मोह से छूट जाता है, वह बात मैं कहता हूँ उसे सुनो. स्वर्ग लोक व मृत्युलोक दोनों में एक दुर्लभ उत्तम व्रत है जो पुण्य़ देने वाला है. आज प्रेमवश होकर मैं उसे तुमसे कहता हूँ।

श्रीसत्यनारायण भगवान का यह व्रत अच्छी तरह विधानपूर्वक करके मनुष्य तुरंत ही यहाँ सुख भोग कर, मरने पर मोक्ष पाता है.
श्रीहरि के वचन सुन नारद जी बोले कि उस व्रत का फल क्या है? और उसका विधान क्या है? यह व्रत किसने किया था? इस व्रत को किस दिन करना चाहिए? सभी कुछ विस्तार से बताएँ. नारद की बात सुनकर श्रीहरि बोले – दुख व शोक को दूर करने वाला यह सभी स्थानों पर विजय दिलाने वाला है. मानव को भक्ति व श्रद्धा के साथ शाम को श्रीसत्यनारायण की पूजा धर्म परायण होकर ब्राह्मणों व बंधुओं के साथ करनी चाहिए. भक्ति भाव से ही नैवेद्य, केले का फल, घी, दूध और गेहूँ का आटा सवाया लें. गेहूँ के स्थान पर साठी का आटा, शक्कर तथा गुड़ लेकर व सभी भक्षण योग्य पदार्थो को मिलाकर भगवान का भोग लगाएँ। ब्राह्मणों सहित बंधु-बाँधवों को भी भोजन कराएँ, उसके बाद स्वयं भोजन करें. भजन, कीर्तन के साथ भगवान की भक्ति में लीन हो जाएं. इस तरह से सत्य नारायण भगवान का यह व्रत करने पर मनुष्य की सारी इच्छाएँ निश्चित रुप से पूरी होती हैं. इस कलि काल अर्थात कलियुग में मृत्युलोक में मोक्ष का यही एक सरल उपाय बताया गया है.

।। इति श्री सत्यनारायण व्रत कथा का प्रथम अध्याय संपूर्ण।।
श्री सत्यनारायण भगवान की जय ।।

दूसरा अध्याय
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सूत जी बोले ,, हे ऋषियों ! जिसने पहले समय में इस व्रत को किया था उसका इतिहास कहता हूँ, ध्यान से सुनो! सुंदर काशीपुरी नगरी में एक अत्यंत निर्धन ब्राह्मण रहता था. भूख प्यास से परेशान वह धरती पर घूमता रहता था. ब्राह्मणों से प्रेम से प्रेम करने वाले भगवान ने एक दिन ब्राह्मण का वेश धारण कर उसके पास जाकर पूछा ,, हे विप्र! नित्य दुखी होकर तुम पृथ्वी पर क्यूँ घूमते हो? दीन ब्राह्मण बोला ,, मैं निर्धन ब्राह्मण हूँ. भिक्षा के लिए धरती पर घूमता हूँ. हे भगवान ! यदि आप इसका कोई उपाय जानते हो तो बताइए. वृद्ध ब्राह्मण कहता है कि सत्यनारायण भगवान मनोवांछित फल देने वाले हैं इसलिए तुम उनका पूजन करो. इसे करने से मनुष्य सभी दुखों से मुक्त हो जाता है.
वृद्ध ब्राह्मण बनकर आए सत्यनारायण भगवान उस निर्धन ब्राह्मण को व्रत का सारा विधान बताकर अन्तर्धान हो गए. ब्राह्मण मन ही मन सोचने लगा कि जिस व्रत को वृद्ध ब्राह्मण करने को कह गया है मैं उसे जरुर करूँगा. यह निश्चय करने के बाद उसे रात में नीँद नहीं आई. वह सवेरे उठकर सत्यनारायण भगवान के व्रत का निश्चय कर भिक्षा के लिए चला गया. उस दिन निर्धन ब्राह्मण को भिक्षा में बहुत धन मिला. जिससे उसने बंधु-बाँधवों के साथ मिलकर श्री सत्यनारायण भगवान का व्रत संपन्न किया।
भगवान सत्यनारायण का व्रत संपन्न करने के बाद वह निर्धन ब्राह्मण सभी दुखों से छूट गया और अनेक प्रकार की संपत्तियों से युक्त हो गया. उसी समय से यह ब्राह्मण हर माह इस व्रत को करने लगा. इस तरह से सत्यनारायण भगवान के व्रत को जो मनुष्य करेगा वह सभी प्रकार के पापों से छूटकर मोक्ष को प्राप्त होगा. जो मनुष्य इस व्रत को करेगा वह भी सभी दुखों से मुक्त हो जाएगा।
सूत जी बोले कि इस तरह से नारद जी से नारायण जी का कहा हुआ श्रीसत्यनारायण व्रत को मैने तुमसे कहा. हे विप्रो ! मैं अब और क्या कहूँ? ऋषि बोले – हे मुनिवर ! संसार में उस विप्र से सुनकर और किस-किस ने इस व्रत को किया, हम सब इस बात को सुनना चाहते हैं. इसके लिए हमारे मन में श्रद्धा का भाव है.
सूत जी बोले – हे मुनियों! जिस-जिस ने इस व्रत को किया है, वह सब सुनो ! एक समय वही विप्र धन व ऎश्वर्य के अनुसार अपने बंधु-बाँधवों के साथ इस व्रत को करने को तैयार हुआ. उसी समय एक एक लकड़ी बेचने वाला बूढ़ा आदमी आया और लकड़ियाँ बाहर रखकर अंदर ब्राह्मण के घर में गया. प्यास से दुखी वह लकड़हारा उनको व्रत करते देख विप्र को नमस्कार कर पूछने लगा कि आप यह क्या कर रहे हैं तथा इसे करने से क्या फल मिलेगा? कृपया मुझे भी बताएँ. ब्राह्मण ने कहा कि सब मनोकामनाओं को पूरा करने वाला यह सत्यनारायण भगवान का व्रत है. इनकी कृपा से ही मेरे घर में धन धान्य आदि की वृद्धि हुई है।

विप्र से सत्यनारायण व्रत के बारे में जानकर लकड़हारा बहुत प्रसन्न हुआ. चरणामृत लेकर व प्रसाद खाने के बाद वह अपने घर गया. लकड़हारे ने अपने मन में संकल्प किया कि आज लकड़ी बेचने से जो धन मिलेगा उसी से श्रीसत्यनारायण भगवान का उत्तम व्रत करूँगा. मन में इस विचार को ले बूढ़ा आदमी सिर पर लकड़ियाँ रख उस नगर में बेचने गया जहाँ धनी लोग ज्यादा रहते थे. उस नगर में उसे अपनी लकड़ियों का दाम पहले से चार गुना अधिक मिलता है।

बूढ़ा प्रसन्नता के साथ दाम लेकर केले, शक्कर, घी, दूध, दही और गेहूँ का आटा ले और सत्यनारायण भगवान के व्रत की अन्य सामग्रियाँ लेकर अपने घर गया. वहाँ उसने अपने बंधु-बाँधवों को बुलाकर विधि विधान से सत्यनारायण भगवान का पूजन और व्रत किया. इस व्रत के प्रभाव से वह बूढ़ा लकड़हारा धन पुत्र आदि से युक्त होकर संसार के समस्त सुख भोग अंत काल में बैकुंठ धाम चला गया.

।।इति श्री सत्यनारायण व्रत कथा का द्वितीय अध्याय संपूर्ण।।

श्री सत्यनारायण भगवान की जय ।।

तीसरा अध्याय
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सूतजी बोले ,, हे श्रेष्ठ मुनियों, अब आगे की कथा कहता हूँ. पहले समय में उल्कामुख नाम का एक बुद्धिमान राजा था. वह सत्यवक्ता और जितेन्द्रिय था. प्रतिदिन देव स्थानों पर जाता और निर्धनों को धन देकर उनके कष्ट दूर करता था. उसकी पत्नी कमल के समान मुख वाली तथा सती साध्वी थी. भद्रशीला नदी के तट पर उन दोनो ने श्रीसत्यनारायण भगवान का व्रत किया. उसी समय साधु नाम का एक वैश्य आया. उसके पास व्यापार करने के लिए बहुत सा धन भी था. राजा को व्रत करते देखकर वह विनय के साथ पूछने लगा – हे राजन ! भक्तिभाव से पूर्ण होकर आप यह क्या कर रहे हैं? मैं सुनने की इच्छा रखता हूँ तो आप मुझे बताएँ।
राजा बोला – हे साधु! अपने बंधु-बाँधवों के साथ पुत्रादि की प्राप्ति के लिए एक महाशक्तिमान श्रीसत्यनारायण भगवान का व्रत व पूजन कर रहा हूँ. राजा के वचन सुन साधु आदर से बोला – हे राजन ! मुझे इस व्रत का सारा विधान कहिए. आपके कथनानुसार मैं भी इस व्रत को करुँगा. मेरी भी संतान नहीं है और इस व्रत को करने से निश्चित रुप से मुझे संतान की प्राप्ति होगी. राजा से व्रत का सारा विधान सुन, व्यापार से निवृत हो वह अपने घर गया।
साधु वैश्य ने अपनी पत्नी को संतान देने वाले इस व्रत का वर्णन कह सुनाया और कहा कि जब मेरी संतान होगी तब मैं इस व्रत को करुँगा. साधु ने इस तरह के वचन अपनी पत्नी लीलावती से कहे. एक दिन लीलावती पति के साथ आनन्दित हो सांसारिक धर्म में प्रवृत होकर सत्यनारायण भगवान की कृपा से गर्भवती हो गई. दसवें महीने में उसके गर्भ से एक सुंदर कन्या ने जन्म लिया. दिनोंदिन वह ऎसे बढ़ने लगी जैसे कि शुक्ल पक्ष का चंद्रमा बढ़ता है. माता-पिता ने अपनी कन्या का नाम कलावती रखा।
एक दिन लीलावती ने मीठे शब्दों में अपने पति को याद दिलाया कि आपने सत्यनारायण भगवान के जिस व्रत को करने का संकल्प किया था उसे करने का समय आ गया है, आप इस व्रत को करिये. साधु बोला कि हे प्रिये! इस व्रत को मैं उसके विवाह पर करुँगा. इस प्रकार अपनी पत्नी को आश्वासन देकर वह नगर को चला गया. कलावती पिता के घर में रह वृद्धि को प्राप्त हो गई. साधु ने एक बार नगर में अपनी कन्या को सखियों के साथ देखा तो तुरंत ही दूत को बुलाया और कहा कि मेरी कन्या के योग्य वर देख कर आओ. साधु की बात सुनकर दूत कंचन नगर में पहुंचा और वहाँ देखभाल कर लड़की के सुयोग्य वाणिक पुत्र को ले आया. सुयोग्य लड़के को देख साधु ने बंधु-बाँधवों को बुलाकर अपनी पुत्री का विवाह कर दिया लेकिन दुर्भाग्य की बात ये कि साधु ने अभी भी श्रीसत्यनारायण भगवान का व्रत नहीं किया।
इस पर श्री भगवान क्रोधित हो गए और श्राप दिया कि साधु को अत्यधिक दुख मिले. अपने कार्य में कुशल साधु बनिया जमाई को लेकर समुद्र के पास स्थित होकर रत्नासारपुर नगर में गया. वहाँ जाकर दामाद-ससुर दोनों मिलकर चन्द्रकेतु राजा के नगर में व्यापार करने लगे. एक दिन भगवान सत्यनारायण की माया से एक चोर राजा का धन चुराकर भाग रहा था. उसने राजा के सिपाहियों को अपना पीछा करते देख चुराया हुआ धन वहाँ रख दिया जहाँ साधु अपने जमाई के साथ ठहरा हुआ था. राजा के सिपाहियों ने साधु वैश्य के पास राजा का धन पड़ा देखा तो वह ससुर-जमाई दोनों को बाँधकर प्रसन्नता से राजा के पास ले गए और कहा कि उन दोनों चोरों हम पकड़ लाएं हैं, आप आगे की कार्यवाही की आज्ञा दें.
राजा की आज्ञा से उन दोनों को कठिन कारावास में डाल दिया गया और उनका सारा धन भी उनसे छीन लिया गया. श्रीसत्यनारायण भगवान से श्राप से साधु की पत्नी भी बहुत दुखी हुई. घर में जो धन रखा था उसे चोर चुरा ले गए. शारीरिक तथा मानसिक पीड़ा व भूख प्यास से अति दुखी हो अन्न की चिन्ता में कलावती के ब्राह्मण के घर गई. वहाँ उसने श्रीसत्यनारायण भगवान का व्रत होते देखा फिर कथा भी सुनी वह प्रसाद ग्रहण कर वह रात को घर वापिस आई. माता के कलावती से पूछा कि हे पुत्री अब तक तुम कहाँ थी़? तेरे मन में क्या है?
कलावती ने अपनी माता से कहा – हे माता ! मैंने एक ब्राह्मण के घर में श्रीसत्यनारायण भगवान का व्रत देखा है. कन्या के वचन सुन लीलावती भगवान के पूजन की तैयारी करने लगी. लीलावती ने परिवार व बंधुओं सहित सत्यनारायण भगवान का पूजन किया और उनसे वर माँगा कि मेरे पति तथा जमाई शीघ्र घर आ जाएँ. साथ ही यह भी प्रार्थना की कि हम सब का अपराध क्षमा करें. श्रीसत्यनारायण भगवान इस व्रत से संतुष्ट हो गए और राजा चन्द्रकेतु को सपने में दर्शन दे कहा कि – हे राजन ! तुम उन दोनो वैश्यों को छोड़ दो और तुमने उनका जो धन लिया है उसे वापिस कर दो. अगर ऎसा नहीं किया तो मैं तुम्हारा धन राज्य व संतान सभी को नष्ट कर दूँगा. राजा को यह सब कहकर वह अन्तर्धान हो गए। प्रात:काल सभा में राजा ने अपना सपना सुनाया फिर बोले कि बणिक पुत्रों को कैद से मुक्त कर सभा में लाओ. दोनो ने आते ही राजा को प्रणाम किया. राजा मीठी वाणी में बोला – हे महानुभावों ! भाग्यवश ऎसा कठिन दुख तुम्हें प्राप्त हुआ है लेकिन अब तुम्हें कोई भय नहीं है. ऎसा कह राजा ने उन दोनों को नए वस्त्राभूषण भी पहनाए और जितना धन उनका लिया था उससे दुगुना धन वापिस कर दिया. दोनो वैश्य अपने घर को चल दिए।

।।इति श्रीसत्यनारायण भगवान व्रत कथा का तृतीय अध्याय संपूर्ण ।।

श्री सत्यनारायण भगवान की जय ।।

चतुर्थ अध्याय
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सूतजी बोले ,, वैश्य ने मंगलाचार कर अपनी यात्रा आरंभ की और अपने नगर की ओर चल दिए. उनके थोड़ी दूर जाने पर एक दण्डी वेशधारी श्रीसत्यनारायण ने उनसे पूछा – हे साधु तेरी नाव में क्या है? अभिवाणी वणिक हंसता हुआ बोला – हे दण्डी ! आप क्यों पूछते हो? क्या धन लेने की इच्छा है? मेरी नाव में तो बेल व पत्ते भरे हुए हैं. वैश्य के कठोर वचन सुन भगवान बोले – तुम्हारा वचन सत्य हो! दण्डी ऎसे वचन कह वहाँ से दूर चले गए. कुछ दूर जाकर समुद्र के किनारे बैठ गए. दण्डी के जाने के बाद साधु वैश्य ने नित्य क्रिया के पश्चात नाव को ऊँची उठते देखकर अचंभा माना और नाव में बेल-पत्ते आदि देख वह मूर्छित हो जमीन पर गिर पड़ा।
मूर्छा खुलने पर वह अत्यंत शोक में डूब गया तब उसका दामाद बोला कि आप शोक ना मनाएँ, यह दण्डी का शाप है इसलिए हमें उनकी शरण में जाना चाहिए तभी हमारी मनोकामना पूरी होगी. दामाद की बात सुनकर वह दण्डी के पास पहुँचा और अत्यंत भक्तिभाव नमस्कार कर के बोला – मैंने आपसे जो जो असत्य वचन कहे थे उनके लिए मुझे क्षमा दें, ऎसा कह कहकर महान शोकातुर हो रोने लगा तब दण्डी भगवान बोले – हे वणिक पुत्र ! मेरी आज्ञा से बार-बार तुम्हें दुख प्राप्त हुआ है. तू मेरी पूजा से विमुख हुआ. साधु बोला – हे भगवान ! आपकी माया से ब्रह्मा आदि देवता भी आपके रूप को नहीं जानते तब मैं अज्ञानी कैसे जान सकता हूँ. आप प्रसन्न होइए, अब मैं सामर्थ्य के अनुसार आपकी पूजा करूँगा. मेरी रक्षा करो और पहले के समान नौका में धन भर दो।
साधु वैश्य के भक्तिपूर्वक वचन सुनकर भगवान प्रसन्न हो गए और उसकी इच्छानुसार वरदान देकर अन्तर्धान हो गए. ससुर-जमाई जब नाव पर आए तो नाव धन से भरी हुई थी फिर वहीं अपने अन्य साथियों के साथ सत्यनारायण भगवान का पूजन कर अपने नगर को चल दिए. जब नगर के नजदीक पहुँचे तो दूत को घर पर खबर करने के लिए भेज दिया. दूत साधु की पत्नी को प्रणाम कर कहता है कि मालिक अपने दामाद सहित नगर के निकट आ गए हैं।
दूत की बात सुन साधु की पत्नी लीलावती ने बड़े हर्ष के साथ सत्यनारायण भगवान का पूजन कर अपनी पुत्री कलावती से कहा कि मैं अपने पति के दर्शन को जाती हूँ तू कार्य पूर्ण कर शीघ्र आ जा! माता के ऎसे वचन सुन कलावती जल्दी में प्रसाद छोड़ अपने पति के पास चली गई. प्रसाद की अवज्ञा के कारण श्रीसत्यनारायण भगवान रुष्ट हो गए और नाव सहित उसके पति को पानी में डुबो दिया. कलावती अपने पति को वहाँ ना पाकर रोती हुई जमीन पर गिर गई. नौका को डूबा हुआ देख व कन्या को रोता देख साधु दुखी होकर बोला कि हे प्रभु ! मुझसे तथा मेरे परिवार से जो भूल हुई है उसे क्षमा करें.
साधु के दीन वचन सुनकर श्रीसत्यनारायण भगवान प्रसन्न हो गए और आकाशवाणी हुई – हे साधु! तेरी कन्या मेरे प्रसाद को छोड़कर आई है इसलिए उसका पति अदृश्य हो गया है. यदि वह घर जाकर प्रसाद खाकर लौटती है तो इसे इसका पति अवश्य मिलेगा. ऎसी आकाशवाणी सुन कलावती घर पहुंचकर प्रसाद खाती है और फिर आकर अपने पति के दर्शन करती है. उसके बाद साधु अपने बंधु-बाँधवों सहित श्रीसत्यनारायण भगवान का विधि-विधान से पूजन करता है. इस लोक का सुख भोग वह अंत में स्वर्ग जाता है।

।।इति श्री सत्यनारायण भगवान व्रत कथा का चतुर्थ अध्याय संपूर्ण ।।

श्री सत्यनारायण भगवान की जय ।।

पाँचवां अध्याय
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सूतजी बोले ,, हे ऋषियों ! मैं और भी एक कथा सुनाता हूँ, उसे भी ध्यानपूर्वक सुनो! प्रजापालन में लीन तुंगध्वज नाम का एक राजा था. उसने भी भगवान का प्रसाद त्याग कर बहुत ही दुख सान किया. एक बार वन में जाकर वन्य पशुओं को मारकर वह बड़ के पेड़ के नीचे आया. वहाँ उसने ग्वालों को भक्ति-भाव से अपने बंधुओं सहित सत्यनारायण भगवान का पूजन करते देखा. अभिमानवश राजा ने उन्हें देखकर भी पूजा स्थान में नहीं गया और ना ही उसने भगवान को नमस्कार किया. ग्वालों ने राजा को प्रसाद दिया लेकिन उसने वह प्रसाद नहीं खाया और प्रसाद को वहीं छोड़ वह अपने नगर को चला गया.
जब वह नगर में पहुंचा तो वहाँ सबकुछ तहस-नहस हुआ पाया तो वह शीघ्र ही समझ गया कि यह सब भगवान ने ही किया है. वह दुबारा ग्वालों के पास पहुंचा और विधि पूर्वक पूजा कर के प्रसाद खाया तो श्रीसत्यनारायण भगवान की कृपा से सब कुछ पहले जैसा हो गया. दीर्घकाल तक सुख भोगने के बाद मरणोपरांत उसे स्वर्गलोक की प्राप्ति हुई।

जो मनुष्य परम दुर्लभ इस व्रत को करेगा तो भगवान सत्यनारायण की अनुकंपा से उसे धन-धान्य की प्राप्ति होगी. निर्धन धनी हो जाता है और भयमुक्त हो जीवन जीता है. संतान हीन मनुष्य को संतान सुख मिलता है और सारे मनोरथ पूर्ण होने पर मानव अंतकाल में बैकुंठधाम को जाता है.
सूतजी बोले – जिन्होंने पहले इस व्रत को किया है अब उनके दूसरे जन्म की कथा कहता हूँ. वृद्ध शतानन्द ब्राह्मण ने सुदामा का जन्म लेकर मोक्ष की प्राप्ति की. लकड़हारे ने अगले जन्म में निषाद बनकर मोक्ष प्राप्त किया. उल्कामुख नाम का राजा दशरथ होकर बैकुंठ को गए. साधु नाम के वैश्य ने मोरध्वज बनकर अपने पुत्र को आरे से चीरकर मोक्ष पाया. महाराज तुंगध्वज ने स्वयंभू होकर भगवान में भक्तियुक्त हो कर्म कर मोक्ष पाया.

।।इति श्री सत्यनारायण व्रत कथा का पंचम अध्याय संपूर्ण ।।

श्री सत्यनारायण भगवान की जय ।।

कथा श्रवण के बाद श्री सत्यनारायणजी की आरती करें और अंत मे 3 बार प्रदक्षिणा कर आटे की पंजीरी में विविध फल और दही लस्सी का चरणामृत बना कर सभी लोगो प्रसाद स्वरूप बांटे और स्वयं भी ग्रहण करें।

श्री सत्यनारायणजी की आरती
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जय लक्ष्मी रमणा, स्वामी जय लक्ष्मी रमणा ।
सत्यनारायण स्वामी, जन-पातक-हरणा ॥ जय लक्ष्मी… ॥
रत्न जड़ित सिंहासन, अद्भुत छवि राजे ।
नारद करत नीराजन, घंटा वन बाजे ॥ जय लक्ष्मी… ॥
प्रकट भए कलि कारण, द्विज को दरस दियो ।
बूढ़ो ब्राह्मण बनकर, कंचन महल कियो ॥ जय लक्ष्मी… ॥

दुर्बल भील कठारो, जिन पर कृपा करी ।
चंद्रचूड़ एक राजा, तिनकी बिपति हरी ॥ जय लक्ष्मी… ॥
वैश्य मनोरथ पायो, श्रद्धा तज दीन्हीं ।
सो फल भोग्यो प्रभुजी, फिर स्तुति किन्हीं ॥ जय लक्ष्मी… ॥

भाव-भक्ति के कारण, छिन-छिन रूप धर्‌यो ।
श्रद्धा धारण किन्ही, तिनको काज सरो ॥ जय लक्ष्मी… ॥
ग्वाल-बाल संग राजा, बन में भक्ति करी ।
मनवांछित फल दीन्हों, दीन दयालु हरि ॥ जय लक्ष्मी… ॥
चढ़त प्रसाद सवायो, कदली फल मेवा ।
धूप-दीप-तुलसी से, राजी सत्यदेवा ॥ जय लक्ष्मी… ॥
सत्यनारायणजी की आरती जो कोई नर गावे ।
तन-मन-सुख-संपति मनवांछित फल पावै॥ जय लक्ष्मी… ॥

  *‼️  जय श्री हरि   ‼️*

नाटो का विस्तार और भारत

डॉ. वेदप्रताप वैदिक

‘नाटो’ नामक सैन्य संगठन में अब यूरोप के दो नए देश भी जुड़नेवाले हैं। ये हैं- फिनलैंड और स्वीडन। इस तरह 1949 में अमेरिका की पहल पर बने 15 देशों के इस संगठन के अब 32 सदस्य हो जाएंगे। यूरोप के लगभग सभी महत्वपूर्ण देश इस सैन्य संगठन में एक के बाद एक शामिल होते गए, क्योंकि शीतयुद्ध के जमाने में उन्हें सोवियत संघ से अपनी सुरक्षा चाहिए थी और सोवियत संघ के खत्म होने के बाद उन्हें स्वयं को संपन्न करना था। फिनलैंड, स्वीडन और स्विटजरलैंड जान-बूझकर सैनिक गुटबंदियों से अलग रहे लेकिन यूक्रेन पर हुए रूसी हमले ने इन देशों में भी बड़ा डर पैदा कर दिया है। फिनलैंड तो इसलिए भी डर गया है कि वह रूस की उत्तरी सीमा पर अवस्थित है। रूस के साथ उसकी सीमा 1340 किमी की है, जो नाटो देशों से दुगुनी है। फिनलैंड पर हमला करना रूस के लिए यूक्रेन से भी ज्यादा आसान है। यूक्रेन की तरह फिनलैंड भी रूसी साम्राज्य का हिस्सा रहा है। सेंट पीटर्सबर्ग से मास्को जितनी दूर है, उससे भी कम दूरी (400 किमी) पर फिनलैंड है। द्वितीय महायुद्ध के बाद फिनलैंड तटस्थ हो गया लेकिन स्वीडन तो पिछले 200 साल से किसी भी सैन्य गठबंधन में शामिल नहीं हुआ। अब ये दोनों देश नाटो में शामिल होना चाहते हैं, यह रूस के लिए बड़ा धक्का है। उधर दक्षिण कोरिया भी चौगुटे (क्वाड) में शामिल होना चाह रहा है। ये घटनाएं संकेत दे रही हैं— नई वैश्विक गुटबाजी के! रूस और चीन मिलकर अमेरिका को टक्कर देना चाहते हैं और अमेरिका उनके विरूद्ध सारी दुनिया को अपनी छतरी के नीचे लाना चाहता है। यदि फिनलैंड और स्वीडन नाटो की सदस्यता के लिए अर्जी डालेंगे तो भी उन्हें सदस्यता मिलने में साल भर लग सकता है, क्योंकि सभी 30 देशों की सर्वानुमति जरुरी है। नाटो के महासचिव ने इन दोनों देशों का स्वागत किया है लेकिन मास्को ने काफी सख्त प्रतिक्रिया दी है। रूसी प्रवक्ता ने कहा है कि नाटो का यह विस्तार रूसी सुरक्षा के लिए सीधा खतरा है। रूस चुप नहीं बैठेगा। वह जवाबी कार्रवाई करेगा। वह फौजी, तकनीकी और आर्थिक कदम भी उठाएगा। रूस ने धमकी दी है कि वह फिनलैंड को गैस की सप्लाय बंद कर देगा। वह बाल्टिक समुद्र के तट पर परमाणु प्रक्षेपास्त्र तैनात करने की भी तैयारी करेगा। इन सब धमकियों को सुनने के बावजूद इन देशों की जनता का रूझान नाटो की तरफ बढ़ रहा है। इनकी 70-80 प्रतिशत जनता नाटो की सदस्यता के पक्ष में है, क्योंकि नाटो चार्टर की धारा 5 कहती है कि नाटो के किसी एक सदस्य पर किए गए हमले को सभी तीसों सदस्यों पर हमला माना जाएगा। यदि यूक्रेन नाटो का सदस्य होता तो रूस की हिम्मत ही नहीं होती कि वह उस पर हमला करे। यूक्रेन की फजीहत इसीलिए हो रही है कि वह नाटो का सदस्य नहीं है। ऐसा लगता है कि अब विश्व राजनीति फिर से दो गुटों में बंटनेवाली है। यह खेल ज़रा लंबा चलेगा। भारत को अपने कदम फूंक-फूंककर रखने होंगे। भारतीय विदेश नीति को अपना ध्यान दक्षिण और मध्य एशिया के पड़ौसी देशों पर केंद्रित करना होगा। इन देशों को गुटीय राजनीति में फिसलने से बचाना भारत का लक्ष्य होना चाहिए।

ईश्वरोपासना अर्थात् सन्ध्या क्यों करें?

-मनमोहन कुमार आर्य
सन्ध्या भली भांति ईश्वर का ध्यान करने को कहते हैं। यही ईश्वर की पूजा कहलाती है। इससे भिन्न प्रकार से यदि ईश्वर की पूजा आदि करते हैं तो जो लाभ ईश्वर के सत्यस्वरूप का ध्यान व चिन्तन करने से मिलता है, वह अन्य प्रकार से या तो मिलता नहीं या बहुत कम मिलता है। ज्ञानी व विज्ञान कर्मी जानते हैं कि यदि हम कोई भी काम करें और वह ज्ञान विज्ञान के अनुकूल न हो तो सफलता नहीं मिलती। इसी प्रकार से यदि हम ईश्वर की पूजा, ध्यान व उपासना आदि करते हैं तो हमें उसकी विधि के ज्ञान के अनुरूप होने पर पहले विचार कर लेना चाहिये। ईश्वर का ध्यान व सन्ध्या करने से पूर्व हमें ईश्वर व आत्मा के विषय में ज्ञान होना चाहिये। ईश्वर क्या है? इस प्रश्न का एक उत्तर यह है कि ईश्वर वह है जिसने इस सारी सृष्टि को बनाया है, जो इसका पालन व संचालन कर रहा है, इसे सृष्टि को धारण करना भी कहते हैं तथा जो इस सृष्टि की अवधि वा आयु पूर्ण होने पर इसकी प्रलय करता है। ईश्वर ने इस सृष्टि, इसके लोक-लोकान्तर ही नहीं बनाये अपितु हमारी पृथिवी पर अग्नि, वायु, जल, आकाश आदि पदार्थों की उत्पत्ति सहित समस्त अन्न, फल, वनस्पतियों व ओषधियों एवं गाय आदि प्राणियों को भी उसी ने हमारी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए बनाया है। ईश्वर का सत्य स्वरूप सृष्टि के आरम्भ में सबसे प्रथम ईश्वर ने ही वेदों के द्वारा प्रकाशित व उद्घाटित किया था। विचार करने पर हम पाते हैं कि यदि ईश्वर वेदों का प्रकाश न करता तो हम ईश्वर, जीवात्मा सहित अन्य पदार्थों का ज्ञान कदापि प्राप्त नहीं कर पाते। इसके अतिरिक्त ईश्वर ने वेदों का प्रकाश कर हमें भाषा प्रदान की व हमें बोलना भी उसी ने सिखाया है। वेदों के आधार पर ईश्वर का जो स्वरूप हमारी दृष्टि में आता है उसका उल्लेख ऋषि दयानन्द जी ने अपने ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, आर्याभिविनय सहित लघु ग्रन्थों स्वमन्तव्यामन्तव्यप्रकाश, आर्योद्देश्यरत्नमाला एवं आर्यसमाज के दूसरे नियम में भी किया है। समूचे वेद भाष्य में भी हमें ईश्वर के यथार्थ व सत्य स्वरूप के दर्शन होते हैं। हम यहां आर्यसमाज के दूसरे नियम के अनुसार पाठकों के लिए ईश्वर का सत्य स्वरूप, जैसा कि वेदों से प्राप्त होता है, उद्धृत कर रहे हैं। ऋषि दयानन्द जी लिखते हैं कि ‘ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है। उसी की उपासना करनी योग्य है।’ ऋषि दयानन्द जी ने इन शब्दों में ईश्वर का सत्यस्वरूप बताकर इसी स्वरूप वाले ईश्वर की उपासना का करना आवश्यक बताया है।

वेद यह भी बताते हैं कि इस सृष्टि की रचना वा उत्पत्ति ईश्वर ने अपने किसी निजी प्रयोजन के लिए नहीं की है अपितु अपनी शाश्वत प्रजा चेतन जीवात्माओं की उन्नति व उनको सुख पहुंचाने के लिए की है। ईश्वर ने हमारे कर्मानुसार हमें मनुष्य बनाया है। हम इस जीवन में जो सुख भोग रहे है, अतीत में भोग चुके हैं व आगे भी भोगेंगे उनका आधार व कारण परम पिता परमेश्वर ही है। इस जन्म से पूर्व भी अनन्त बार हम जन्म लेकर इसी प्रकार से व इससे भी अधिक सुख भोग चुकें हैं और भविष्य में अनन्त काल तक भोगेंगे। इसके बदले में हम ईश्वर को अपनी कोई वस्तु क्या दे सकते हैं? यह मनुष्य का स्वभाव है कि वह जब किसी भी मनुष्य से उपकृत होता है तो वह उसका धन्यवाद करता है। वह किसी का ऋण व अहसान लेना नहीं चाहता और यदि लेना पड़ता है तो उसका मूल्य दिया करता है। परमात्मा ने हम पर इतनी कृपा की है कि जितनी अन्य कोई नहीं कर सकता। अतः हम ईश्वर के प्रति कृतज्ञता का भाव रखते हैं और सभी को रखना भी चाहिये। कृतज्ञता का भाव रखने से हमारे अहंकार का नाश होता है। यह ज्ञातव्य है कि अहंकारी मनुष्य का नाश उसके अहंकार के कारण ही होता है। अहंकार कोई अच्छा मानवीय गुण नहीं है। इसका सभी को त्याग करना ही चाहिये। अहंकार के विपरीत विनयशीलता का गुण होता है। मनुस्मृति में एक प्रामाणिक बात कही गई है कि अभिवादन-शील मनुष्य जो प्रति दिन व नियमित रूप से ज्ञान व आयु में वृद्ध लोगों की सेवा किया करता है उसकी आयु, विद्या, यश व बल बढ़ता है। मनु जी के यह विचार समाज में प्रत्यक्ष सत्य सिद्ध होते हुए पाये जाते हैं। अतः आयु, विद्या, यश और बल की प्राप्ति के लिए मनुष्यों को अहंकार का नाश कर विनयशील स्वभाव को धारण करना चाहिये। हम ईश्वर के प्रति मनुष्य के कर्तव्यों पर चर्चा कर रहे हैं। परमात्मा ने हमारे लिए सृष्टि बनाई, हमें माता-पिता के द्वारा सुख का सर्वोत्तम साधन यह मनुष्य शरीर दिया, हमारे लिए संसार में भोजन, वस्त्र, आवास आदि के लिए नाना पदार्थ बनाये और उनका उपयोग करने के लिए वेदों के द्वारा हमें शिक्षा दी, अतः हमारा कर्तव्य है कि हम उस ईश्वर के प्रति कृतज्ञता का भाव रखते हुए उसकी स्तुति, प्रार्थना व उपासना किया करें। ऐसा करने से ही हम अपनी हानि से बच सकते हैं और हमें अनेक प्रकार से लाभ पहुंचता है। अतः सभी मनुष्यों को ईश्वर की उपासना वा संन्ध्या आदि कर्म यथासमय अर्थात् प्रातः व सायं की सन्ध्या वेला में अवश्यमेव करने चाहिये। 

सन्ध्या कैसे करें? इसके लिए हमें वेद वा वेदानुकुल ईश्वर के गुण, कर्म व स्वभाव को बताने वाले ऋषि व आप्त पुरूषों के ग्रन्थों का अध्ययन करना चाहिये। वैदिक विद्वानों द्वारा लिखे गये ईश्वर विषयक ग्रन्थों का अध्ययन करने पर भी हमारी आत्मा ईश्वर के गुणों को अपनी आत्मा से ग्रहण करती है। हम जब ईश्वर के सत्य गुण-कर्म-स्वभाव को बताने वाले ऋषियों के ग्रन्थों का अध्ययन करते हैं तो हमारी आत्मा उसे पढ़कर व जानकर उसके सत्य होने की पुष्टि करती है। यह ध्यान रहे कि अध्ययन करते हुए हमें अपने विवेक को जाग्रत रखना होता है। किसी भी बात को आंखे बन्द कर स्वीकार नहीं करना चाहिये। बुद्धि से सत्य व असत्य का विवेचन करके ही सत्य को स्वीकार करना चाहिये। ऐसा करने से ही हम सत्य को जान पाते हैं और हमें उसके अनुरूप क्रियायें करने से लाभ होता है। स्वाध्याय के लिए सत्यार्थप्रकाश, आर्याभिविनय, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, योगदर्शन, वेद मंजरी, ऋग्वेद ज्योति, यजुर्वेदज्योति, अथर्ववेदज्योति, श्रुति सौरभ आदि ग्रन्थों सहित ऋषि दयानन्द व आर्य विद्वानों के वेदभाष्य पठनीय हैं। इन्हें पढ़कर ईश्वर का सत्य स्वरूप ज्ञात हो जाता है, सारी शंकायें व भ्रान्तियां दूर हो जाती है और ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना करने की प्रेरणा मिलती है। 

ईश्वर की उपासना न केवल विद्वानों को ही करनी चाहिये अपितु ज्ञानी-अज्ञानी सभी मनुष्यों को भी करनी चाहिये। ईश्वर की उपासना से ईश्वर का सान्निध्य प्राप्त होता है। हमारे बुरे गुण, कर्म व स्वभाव में सुधार होता है। ईश्वर ज्ञानस्वरूप व आनन्दस्वरूप है। सन्ध्या व उपासना करने से हमारे ज्ञान में वृद्धि होती है और दुःख दूर होकर आनन्द की उपलब्धि होती है। इन लाभों को प्राप्त करने के लिए हमें ईश्वर की भक्ति वा सन्ध्या अवश्य करनी चाहिये। सन्ध्या करने से हमें सत्य कर्मों को करने की प्रेरणा मिलने सहित बुरे कर्मों के प्रति अनिच्छा भी उत्पन्न होती है जिससे हमारा यह जीवन व परजन्म भी सुधरता है। ईश्वर की उपासना के लिए ऋषि दयानन्द जी ने ‘सन्ध्या’ नाम की एक पुस्तक लिखी है। इसे पढ़कर ही सबको सन्ध्या करनी चाहिये। सन्ध्या से पूर्व व सन्ध्या करते हुए सन्ध्या के अर्थों पर भी दृष्टि डालनी चाहिये व उनके अनुसार चिन्तन व ईश्वर का ध्यान करना चाहिये। सन्ध्या का मन्त्र बोलते हुए उसके अर्थों की भावना भी बननी चाहिये। यदि ऐसा नहीं होगा तो सन्ध्या करने में मन नहीं लगेगा व उससे सन्ध्या करने का लाभ नहीं होगा। मन्त्रों के अर्थ जानने से हमें ईश्वर की हमारे ऊपर जो अहेतुकी कृपा अर्थात् हम पर अकारण कृपा हो रही है व ईश्वर से हमें जो सुख प्राप्त हो रहे हैं, उसका ज्ञान होता है। लेख का विस्तार न कर हम सन्ध्या के समर्पण मन्त्र में उपासक द्वारा ईश्वर को सम्बोधित कर कहे गये शब्दों को प्रस्तुत कर रहे हैं। उपासक ईश्वर को कहता है ‘हे परमेश्वर दयानिधे! आपकी कृपा से जप और उपासना आदि कर्मों को करके हम धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की सिद्धि को शीघ्र प्राप्त होंवे।’ सन्ध्या करने से मनुष्य को धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति होती है। इस कारण भी हम सन्ध्या करते हैं। यह उपलब्धि व प्राप्ति न धन से हो सकती है, न रूतबे से व न अन्य किसी प्रकार से। यह प्राप्ति होती है ईश्वर व आत्मा के यथार्थ ज्ञान, स्वाध्याय व ईश्वर का भली भांति ध्यान करने से। यह भी जान लें कि ईश्वर की उपासना से जो सुख व लाभ राजा व बड़े-बड़े धनवानों को नहीं होता वह लाभ ईश्वर भक्तों, उपासकों व योगियों को होता है। इसी के साथ इस लेख को विराम देते हैं। ओ३म् शम्। 

-मनमोहन कुमार आर्य

प्रेम जताते ग़ैर से, अपनों से अलगाव ।।

टूट रहे परिवार हैं, बदल रहे मनभाव ।

प्रेम जताते ग़ैर से, अपनों से अलगाव ।।

-प्रियंका सौरभ

आज सभी को एक संस्था के रूप में पारिवारिक मूल्यों और परिवार के बारे में सोचने-समझने की बेहद सख्त जरूरत है और साथ ही इन मूल्यों की गिरावट के कारण ढूंढकर उनको दुरुस्त करने की भी जरूरत है। इसके लिए समाज के कर्णधार कवि/लेखकों/गायकों/ नायक/नायिकाओं/शिक्षक वर्गों और अन्य सामाजिक कार्यकर्ताओं के साथ-साथ राजनीतिज्ञों को एक संस्था के रूप में परिवार के पतन के निहितार्थ के बारे में भी लिखना और सोचना चाहिए. खुले मंचो से इस बात पर चर्चा होनी चाहिए कि इस गिरावट के कारण क्या है? और इस गिरावट से कैसे उभरा जा सकता है? युवा कवि सत्यवान सौरभ ने इस स्थिति को अपने शब्दों में कहते हुए सही लिखा है कि-

टूट रहे परिवार हैं, बदल रहे मनभाव !
प्रेम जताते ग़ैर से, अपनों से अलगाव !!

परिवार, भारतीय समाज में, अपने आप में एक संस्था है और प्राचीन काल से ही भारत की सामूहिक संस्कृति का एक विशिष्ट प्रतीक है। संयुक्त परिवार प्रणाली या एक विस्तारित परिवार भारतीय संस्कृति की एक महत्वपूर्ण विशेषता रही है, जब तक कि शहरीकरण और पश्चिमी प्रभाव के मिश्रण ने उस संस्था को झटका देना शुरू नहीं किया। परिवार एक बुनियादी और महत्वपूर्ण सामाजिक संस्था है जिसकी व्यक्तिगत और साथ ही सामूहिक नैतिकता को प्रभावित करने में महत्वपूर्ण भूमिका है। परिवार सांस्कृतिक और सामाजिक मूल्यों का पोषण और संरक्षण करता है।

यह कानून का पालन करने वाले नागरिकों को प्रोत्साहन देकर समाज को स्थिरता प्रदान करता है। यह व्यक्ति में सामूहिक चेतना के निर्माण में मदद करता है। परिवार प्रणाली एक एकल, शक्तिशाली किस्में है जो सदियों से है, और विविधता के साथ समृद्ध, सामाजिक ताने-बाने को मजबूत करती है समाजीकरण में यह भावनात्मक संबंध का प्रमुख स्रोत है, समाजीकरण और नैतिकता को आकार देने के तरीके से सही और गलत की भावना उत्पन्न करता है। बच्चों को उनके माता-पिता, उनके साथियों और उनके समाज के “सामाजिक सम्मेलनों” के अनुसार नैतिक निर्णय लेने के रूप में देखा जाता है। यह व्यक्तिगत चरित्र को मजबूत करता है। यह आदत बनाने का पहला स्रोत है जैसे अनुशासन, सम्मान, आज्ञाकारिता आदि।

नैतिक मजबूती के साथ-साथ यह व्यक्ति के परिवार के सदस्यों, रिश्तेदारों को बिना किसी हिचकिचाहट के कठिन समय में भरोसा करने के लिए लचीलापन प्रदान करता है। यह कठिनाइयों से निपटने के लिए अनैतिक साधनों के उपयोग से बचाता है। परिवार लोगों को सांसारिक समस्याओं के प्रति स्त्री के दृष्टिकोण को विकसित करने में मदद करता है। मगर वर्तमान दौर में हम संस्था के रूप में परिवार में गिरावट का कटु अनुभव झेल रहे है.

“घर-घर में मनभेद है, बचा नहीं अब प्यार !
फूट-कलह ने खींच दी, हर आँगन दीवार !!
स्नेह और आशीष में, बैठ गई है रार !
अरमानों के बाग़ में, भरा जलन का खार !!”

गिरावट के प्रतीक के रूप में आज परिवार खंडित हो रहा है, वैवाहिक सम्बन्ध टूटने, आपसे भाईचारे में दुश्मनी एवं हर तरह के रिश्तों में कानूनी और सामाजिक झगड़ों में वृद्धि हुई है। आज सामूहिकता पर व्यक्तिवाद हावी हो गया है. इसके कारण भैतिक उन्मुख, प्रतिस्पर्धी और अत्यधिक आकांक्षा वाली पीढ़ी तथाकथित जटिल पारिवारिक संरचनाओं से संयम खो रही है। जिस तरह व्यक्तिवाद ने अधिकारों और विकल्पों की स्वतंत्रता का दावा किया है। उसने पीढ़ियों को केवल भौतिक समृद्धि के परिप्रेक्ष्य में जीवन में उपलब्धि की भावना देखने के लिए मजबूर कर दिया है।

वर्तमान स्थिति में भड़काऊ रवैया परिवारों के बिखरने का प्रमुख कारण है. परिवार के अन्य सदस्यों को उच्च आय और कम जिम्मेदारी ने विस्तारित परिवारों को विभाजित किया है। उच्च तलाक की दर निसंदेह सामाजिक रिश्तों को निगल रही है. विवाह के टूटने का प्रमुख कारण एकल रवैये, व्यवहार और समझौता किए गए मूल्यों में प्रौद्योगिकी काला धब्बा है। युवा पीढ़ी का असामाजिक व्यवहार परिवारों को तेजी से नष्ट कर रहा है। आज के अधिकांश सामाजिक कार्य, जैसे कि बच्चे की परवरिश, शिक्षा, व्यावसायिक प्रशिक्षण, बुजुर्गों की देखभाल, आदि, बाहर की एजेंसियों, जैसे क्रेच, मीडिया, नर्सरी स्कूलों, अस्पतालों, व्यावसायिक प्रशिक्षण केंद्रों, धर्मशाला संस्थानों ने ठेकेदारों के तौर पर संभाल लिए हैं जो कभी परिवार के बड़े लोगों की जिम्मेवारी होती थी।

“बड़े बात करते नहीं, छोटों को अधिकार !
चरण छोड़ घुटने छुए, कैसे ये संस्कार !!
कहाँ प्रेम की डोर अब, कहाँ मिलन का सार !
परिजन ही दुश्मन हुए, छुप-छुप करे प्रहार !! “

परिवार संस्था के पतन ने हमारे भावनात्मक रिश्तों में बाधा पैदा कर दी है. एक परिवार में एकीकरण बंधन आपसी स्नेह और रक्त से संबंध हैं। एक परिवार एक बंद इकाई है जो हमें भावनात्मक संबंधों के कारण जोड़कर रखता है। नैतिक पतन परिवार के टूटने में अहम कारक है क्योंकि वे बच्चों को दूसरों के लिए आत्म सम्मान और सम्मान की भावना नहीं भर पाते हैं। पद-पैसों की अंधी दौड़ से आज सामाजिक-आर्थिक सहयोग और सहायता का सफाया हो गया है. परिवार अपने सदस्यों, विशेष रूप से शिशुओं और बच्चों के विकास और विकास के लिए आवश्यक वित्तीय और भौतिक सहायता तक सिमित हो गए हैं, हम आये दिन कहीं न कहीं बुजुर्गों सहित अन्य आश्रितों की देखभाल के लिए, अक्षम और दुर्बल परिवार प्रणाली की गिरावट की बातें सुनते और देखते हैं जब उन्हें अत्यधिक देखभाल और प्यार की आवश्यकता होती है।

आज ज्यादातर लोग सार्थक जीवन का अभाव झेल रहें है. पारिवारिक प्रणाली के पतन का एक नुकसान ये है कि साझाकरण, देखभाल, सहानुभूति, सहयोग, ईमानदारी, सुनने, स्वागत करने, मान्यता, विचार, सहानुभूति और समझ के गुणों का कम होना है। हाल के दिनों में तनाव की सहनशीलता में कमी, चिंता और अवसाद जैसे मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दे बढ़ रहे हैं। परिवार प्रणाली बुजुर्ग सदस्यों से बात करने, बच्चों के साथ खेलने आदि से गहरी असुरक्षा की अभिव्यक्ति के साथ मानसिक रूप से व्यक्ति को राहत दे सकती है। परिवार प्रणाली में गिरावट अधिक व्यक्तियों के लिए मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दों के मामले पैदा कर सकती है।

भविष्य में संस्था के रूप में परिवार में गिरावट समाज में संरचनात्मक परिवर्तन लाएगी। सकारात्मक पक्ष पर, भारतीय समाज में जनसंख्या की वृद्धि में कमी देखी जा सकती है और संस्था के रूप में परिवार में गिरावट के प्रभाव के रूप में कार्यबल का महिलाकरण हो सकता है। हालाँकि, संयुक्त परिवार से परिवार के संरचनात्मक परिवर्तनों को समझने की आवश्यकता है, कुछ मामलों में इसे परिवार प्रणाली की गिरावट नहीं कहा जा सकता है। जहाँ परिवार प्रणाली किसी सकारात्मक परिवर्तन के लिए संयुक्त परिवार से एकल परिवार में परिवर्तित होती है। वैसे भी भारतीय समाज भी परिवार के संलयन और विखंडन की अनूठी विशेषता का निवास करता है जिसमें भले ही परिवार के कुछ सदस्य अलग-अलग स्थानों में अलग-अलग रहते हैं, फिर भी एक परिवार के रूप में रहते हैं।

“बच पाए परिवार तब, रहता है समभाव !
दुःख में सारे साथ हो, सुख में सबसे चाव !!
अगर करें कोई तीसरा, सौरभ जब भी वार !
साथ रहें परिवार के, छोड़े सब तकरार !!”

परिवार एक बहुत ही तरल सामाजिक संस्था है और निरंतर परिवर्तन की प्रक्रिया में है। आधुनिकता समान-लिंग वाले जोड़ों (एलजीबीटी संबंध), सहवास या लिव-इन संबंधों, एकल-माता-पिता के घरों, अकेले रहने वाले या अपने बच्चों के साथ तलाक का एक बड़ा हिस्सा उभरने का गवाह बन रहा है। इस तरह के परिवारों को पारंपरिक रिश्तेदारी समूह के रूप में कार्य करना आवश्यक नहीं है और ये समाजीकरण के लिए अच्छी संस्था साबित नहीं हो सकती। भौतिकवादी युग में एक-दूसरे की सुख-सुविधाओं की प्रतिस्पर्धा ने मन के रिश्तों को झुलसा दिया है.

कच्चे से पक्के होते घरों की ऊँची दीवारों ने आपसी वार्तालाप को लुप्त कर दिया है. पत्थर होते हर आंगन में फ़ूट-कलह का नंगा नाच हो रहा है. आपसी मतभेदों ने गहरे मन भेद कर दिए है. बड़े-बुजुर्गों की अच्छी शिक्षाओं के अभाव में घरों में छोटे रिश्तों को ताक पर रखकर निर्णय लेने लगे है. फलस्वरूप आज परिजन ही अपनों को काटने पर तुले है. एक तरफ सुख में पडोसी हलवा चाट रहें है तो दुःख अकेले भोगने पड़ रहें है. हमें ये सोचना -समझना होगा कि अगर हम सार्थक जीवन जीना चाहते है तो हमें परिवार की महत्ता समझनी होगी और आपसी तकरारों को छोड़कर परिवार के साथ खड़ा होना होगा तभी हम बच पायंगे और ये समाज रहने लायक होगा.

-प्रियंका सौरभ

बुद्ध हैं धर्म एवं व्यक्ति क्रांति के शिखर

बुद्ध पूर्णिमा- 16 मई 2022 पर विशेष

  • ललित गर्ग –

बुद्ध जयन्ती/बुद्ध पूर्णिमा बौद्ध धर्म में एवं मानवता में आस्था रखने वालों का एक प्रमुख त्यौहार है। बुद्ध जयन्ती वैशाख पूर्णिमा को मनाया जाता हैं। पूर्णिमा के दिन ही गौतम बुद्ध का स्वर्गारोहण समारोह भी मनाया जाता है। बुद्ध की कीर्ति किसी एक युग तक सीमित नहीं हैं। उनका लोकहितकारी चिन्तन एवं कर्म कालजयी, सार्वभौमिक, सार्वकालिक एवं सार्वदैशिक है और युग-युगों तक समाज का मार्गदर्शन करता रहेगा। गौतम बुद्ध एक प्रकाशस्तंभ हैं, बुद्ध पूर्णिमा न केवल बौद्ध धर्म के अनुयायियों के लिए बल्कि सम्पूर्ण मानव जाति के लिये एक महत्वपूर्ण दिन है। उनको सबसे महत्वपूर्ण भारतीय आध्यात्मिक महामनीषी, सिद्ध-संन्यासी, समाज-सुधारक धर्मगुरु में से एक माना जाता हैं। उन्हें धर्मक्रांति के साथ-साथ व्यक्ति एवं विचारक्रांति के सूत्रधार भी कह सकते हैं। उनकी क्रांतिवाणी उनके क्रांत व्यक्तित्व की द्योतक ही नहीं वरन् धार्मिक, सामाजिक विकृतियों एवं अंधरूढ़ियों पर तीव्र कटाक्ष एवं परिवर्तन की प्रेरणा भी है, जिसने असंख्य मनुष्यों की जीवन दिशा को बदला।
बुद्ध संन्यासी बनने से पहले कपिलवस्तु के राजकुमार सिद्धार्थ थे। शांति की खोज में वे 27 वर्ष की उम्र में घर-परिवार, राजपाट आदि छोड़कर चले गए थे। भ्रमण करते हुए सिद्धार्थ काशी के समीप सारनाथ पहुंचे, जहाँ उन्होंने धर्म परिवर्तन किया। यहाँ उन्होंने बोधगया में बोधि वृक्ष के नीचें कठोर तप किया। कठोर तपस्या के बाद सिद्धार्थ को बुद्धत्व ज्ञान की प्राप्ति हुई और वह महान संन्यासी गौतम बुद्ध के नाम से प्रचलित हुए और अपने ज्ञान से समूचे विश्व को ज्योतिर्मय किया। बुद्ध ने जब अपने युग की जनता को धार्मिक-सामाजिक, आध्यात्मिक एवं अन्य यज्ञादि अनुष्ठानों को लेकर अज्ञान में घिरा देखा, साधारण जनता को धर्म के नाम पर अज्ञान में पाया, नारी को अपमानित होते देखा, शुद्रों के प्रति अत्याचार होते देखे-तो उनका मन जनता की सहानुभूति में उद्वेलित हो उठा। वे महलों में बंद न रह सके। उन्होंने स्वयं प्रथम ज्ञान-प्राप्ति का व्रत लिया था और वर्षों तक वनों में घूम-घूम कर तपस्या करके आत्मा को ज्ञान से आलोकित किया। उन्होंने अपने जीवन के प्रत्येक क्षण को जिस चैतन्य एवं प्रकाश के साथ जीया है, वह भारतीय ऋषि परम्परा के इतिहास का महत्वपूर्ण अध्याय है। स्वयं ने सत्य की ज्योति प्राप्त की, प्रेरक जीवन जीया और फिर जनता में बुराइयों के खिलाफ आवाज बुलन्द की। लोकजीवन को ऊंचा उठाने के उन्होंने जो हिमालयी प्रयत्न किये, वे अद्भुत और आश्चर्यकारी हैं।
बुद्ध ने बचपन में ही ईश्वरीय सत्ता को पहचान लिया और मानवता की मुक्ति तथा ईश्वरीय प्रकाश का मार्ग ढूंढ़ने के लिए उन्होंने राजसी भोगविलास त्याग दिया और अनेक प्रकार के शारीरिक कष्ट झेले। अंगुलिमाल जैसे दुष्टों ने अनेक तरह से उन्हें यातनायें पहुँचाई किन्तु धरती और आकाश की कोई भी शक्ति उन्हें दिव्य मार्ग की ओर चलने से रोक नहीं पायी। बुद्ध ने पवित्र पुस्तक त्रिपिटक के माध्यम से समता का सन्देश सारी मानव जाति को दिया। त्रिपिटक प्रेरणा देती है कि समता ईश्वरीय आज्ञा है, छोटी-बड़ी जाति-पाति पर आधारित वर्ण व्यवस्था मनुष्य के बीच में भेदभाव पैदा करती है। इसलिए वर्ण व्यवस्था ईश्वरीय आज्ञा नहीं है।
महात्मा बुद्ध ने मध्यममार्ग अपनाते हुए अहिंसा युक्त दस शीलों का प्रचार किया तो लोगों ने उनकी बातों से स्वयं को सहज ही जुड़ा हुआ पाया। उनका मानना था कि मनुष्य यदि अपनी तृष्णाओं पर विजय प्राप्त कर ले तो वह निर्वाण प्राप्त कर सकता है। इस प्रकार उन्होंने पुरोहितवाद पर करारा प्रहार किया और व्यक्ति के महत्त्व को प्रतिष्ठित किया। जो मनुष्य बुद्ध की, धर्म की और संघ की शरण में आता है, वह सम्यक् ज्ञान से चार आर्य सत्यों को जानकर निर्वाण की परम स्थिति को पाने में सफल होता है। ये चार आर्य सत्य हैं – पहला दुःख, दूसरा दुःख का हेतु, तीसरा दुःख से मुक्ति और चौथा दुःख से मुक्ति की ओर ले जाने वाला अष्टांगिक मार्ग। इसी मार्ग की शरण लेने से मनुष्य का कल्याण होता है तथा वह सभी दुःखों से छुटकारा पा जाता है। निर्वाण के मायने है तृष्णाओं तथा वासनाओं का शान्त हो जाना। साथ ही दुखों से सर्वथा छुटकारे का नाम है- निर्वाण। बुद्ध का मानना था कि अति किसी बात की अच्छी नहीं होती है। मध्यम मार्ग ही ठीक होता है। बुद्ध ने कहा है – वैर से वैर कभी नहीं मिटता। अवैर (मैत्री) से ही वैर मिटता है – यही सनातन नियम है।
गौतम बुद्ध ने बौद्ध धर्म का प्रवर्तन किया और अत्यन्त कुशलता से बौद्ध भिक्षुओं को संगठित किया और लोकतांत्रिक रूप में उनमें एकता की भावना का विकास किया। इसका अहिंसा एवं करुणा का सिद्धांत इतना लुभावना था कि सम्राट अशोक ने दो वर्ष बाद इससे प्रभावित होकर बौद्ध मत को स्वीकार किया और युद्धों पर रोक लगा दी। इस प्रकार बौद्ध मत देश की सीमाएँ लांघ कर विश्व के कोने-कोने तक अपनी ज्योति फैलाने लगा। आज भी इस धर्म की मानवतावादी, बुद्धिवादी और जनवादी परिकल्पनाओं को नकारा नहीं जा सकता और इनके माध्यम से भेद भावों से भरी व्यवस्था पर जोरदार प्रहार किया जा सकता है। यही धर्म आज भी दुःखी, पीड़ित एवं अशान्त मानवता को शान्ति प्रदान कर सकता है। ऊँच-नीच, भेदभाव, जातिवाद पर प्रहार करते हुए यह लोगों के मन में धार्मिक एकता का विकास कर रहा है। विश्व शान्ति एवं परस्पर भाईचारे का वातावरण निर्मित करके कला, साहित्य और संस्कृति के विकास के मार्ग को प्रशस्त करने में इसकी महत्वपूर्ण भूमिका है।
मानवता को बुद्ध की सबसे बड़ी देन है भेदभाव को समाप्त करना। यह एक विडम्बना ही है कि बुद्ध की इस धरती पर आज तक छूआछूत, भेदभाव किसी न किसी रूप में विद्यमान हैं। कुछ दशक पूर्व डाक्टर भीमराव आम्बेडकर ने भारी संख्या में अपने अनुयायियों के साथ बौद्ध मत को अंगीकार किया ताकि हिन्दू समाज में उन्हें बराबरी का स्थान प्राप्त हो सके। मूलतः बौद्ध मत हिन्दू धर्म के अनुरूप ही रहा और हिन्दू धर्म के भीतर ही रह कर महात्मा बुद्ध ने एक क्रान्तिकारी और सुधारवादी आन्दोलन चलाया।
महात्मा बुद्ध सामाजिक क्रांति के शिखर पुरुष थे। उनका दर्शन अहिंसा और करुणा का ही दर्शन नहीं है बल्कि क्रांति का दर्शन है। उन्होंने केवल धर्म तीर्थ का ही प्रवर्तन ही नहीं किया बल्कि एक उन्नत और स्वस्थ समाज के लिए नये मूल्य-मानक गढ़े। उन्होंने प्रगतिशील विचारों को सही दिशा ही नहीं दी बल्कि उनमें आये ठहराव को तोड़कर नयी क्रांति का सूत्रपात किया। बुद्ध ने कहा -पुण्य करने में जल्दी करो, कहीं पाप पुण्य का विश्वास ही न खो दे। समााजिक क्रांति के संदर्भ में उनका जो अवदान है, उसे उजागर करना वर्तमान युग की बड़ी अपेक्षा है। ऐसा करके ही हम एक स्वस्थ समाज का निर्माण कर सकेंगे। बुद्ध ने समतामूलक समाज का उपदेश दिया। जहां राग, द्वेष होता है, वहां विषमता पनपती है। इस दृष्टि से सभी समस्याओं का उत्स है-राग और द्वेष। व्यक्ति अपने स्वार्थों का पोषण करने, अहं को प्रदर्शित करने, दूसरों को नीचा दिखाने, सत्ता और सम्पत्ति हथियाने के लिए विषमता के गलियारे में भटकता रहता है।
बुद्ध ने जीवन का सच जाना। फिर उन्होंने कहा अपने भीतर कुछ भी ऐसा न आने दो जिससे भीतर का संसार प्रदूषित हो। न बुरा देखो, न बुरा सुनो, न बुरा कहो। यही खालीपन का संदेश सुख, शांति, समाधि का मार्ग है। उन्होंने अप्प दीपो भव- अपने दीपक स्वयं बनने की बात कही। क्योंकि दिन-रात संकल्पों-विकल्पों, सुख-दुख, हर्ष-विषाद से घिरे रहना, कल की चिंता में झुलसना तनाव का भार ढोना, ऐसी स्थिति में भला मन कब कैसे खाली हो सकता है? कैसे संतुलित हो सकता है? कैसे समाधिस्थ हो सकता है? इन स्थितियों को पाने के लिए वर्तमान में जीने का अभ्यास जरूरी है। न अतीत की स्मृति और न भविष्य की चिंता। जो आज को जीना सीख लेता है, समझना चाहिए उसने मनुष्य जीवन की सार्थकता को पा लिया है और ऐसे मनुष्यों से बना समाज ही संतुलित हो सकता है, स्वस्थ हो सकता है, समतामूलक हो सकता है। जरूरत है उन्नत एवं संतुलित समाज निर्माण के लिए महात्मा बुद्ध के उपदेशों को जीवन में ढालने की। बुद्ध-सी गुणात्मकता को जन-जन में स्थापित करने की। ऐसा करके ही समाज को स्वस्थ बना सकेंगे। कोरा उपदेश तक बुद्ध को सीमित न बनाएं, बल्कि बुद्ध को जीवन का हिस्सा बनाएं, जीवन में ढालें।

कुटुम्बप्रबोधन: भारतीयता का मूल हैं हमारे परिवार

विश्व परिवार दिवस(15 मई) पर विशेष

प्रो.संजय द्विवेदी
भारत में ऐसा क्या है जो उसे खास बनाता है? वह कौन सी बात है जिसने सदियों से उसे दुनिया की नजरों में आदर का पात्र बनाया और मूल्यों को सहेजकर रखने के लिए उसे सराहा। निश्चय ही हमारी परिवार व्यवस्था वह मूल तत्व है, जिसने भारत को भारत बनाया। हमारे सारे नायक परिवार की इसी शक्ति को पहचानते हैं। रिश्तों में हमारे प्राण बसते हैं, उनसे ही हम पूर्ण होते हैं। आज कोरोना की महामारी ने जब हमारे सामने गहरे संकट खड़े किए हैं तो हमें सामाजिक और मनोवैज्ञानिक संबल हमारे परिवार ही दे रहे हैं। व्यक्ति कितना भी बड़ा हो जाए उसका गांव, घर, गली, मोहल्ला, रिश्ते-नाते और दोस्त उसकी स्मृतियां का स्थायी संसार बनाते हैं। कहा जाता है जिस समाज स्मृति जितनी सघन होती है, जितनी लंबी होती है, वह उतना ही श्रेष्ठ समाज होता है।
परिवार नाम की संस्था दुनिया के हर समाज में मौजूद हैं। किंतु परिवार जब मूल्यों की स्थापना, बीजारोपण का केंद्र बनता है, तो वह संस्कारशाला हो जाता है। खास हो जाता है। अपने मूल्यों, परंपराओं को निभाकर समूचे समाज को साझेदार मानकर ही भारतीय परिवारों ने अपनी विरासत बनाई है। पारिवारिक मूल्यों को आदर देकर ही श्री राम इस देश के सबसे लाड़ले पुत्र बन जाते हैं। उन्हें यह आदर शायद इसलिए मिल पाया, क्योंकि उन्होंने हर रिश्ते को मान दिया, धैर्य से संबंध निभाए। वे रावण की तरह प्रकांड विद्वान और विविध कलाओं के ज्ञाता होने का दावा नहीं करते, किंतु मूल्याधारित जीवन के नाते वे सबके पूज्य बन जाते हैं, एक परंपरा बनाते हैं। अगर हम अपनी परिवार परंपरा को निभा पाते तो आज के भारत में वृद्धाश्रम न बन रहे होते। पहले बच्चे अनाथ होते थे आज के दौर में माता-पिता भी अनाथ होने लगे हैं। यह बिखरती भारतीयता है, बिखरता मूल्यबोध है। जिसने हमारी आंखों से प्रेम, संवेदना, रिश्तों की महक कम कर भौतिकतावादी मूल्यों को आगे किया है।
न बढ़ाएं फासले, रहिए कनेक्टः
आज के भारत की चुनौतियां बहुत अलग हैं। अब भारत के संयुक्त परिवार आर्थिक, सामाजिक कारणों से एकल परिवारों में बदल रहे हैं। एकल परिवार अपने आप में कई संकट लेकर आते हैं। जैसा कि हम देख रहे हैं कि इन दिनों कई दंपती कोरोना से ग्रस्त हैं, तो उनके बच्चे एकांत भोगने के साथ गहरी असुरक्षा के शिकार हैं। इनमें माता या पिता, या दोनों की मृत्यु होने पर अलग तरह के सामाजिक संकट खड़े हो रहे हैं। संयुक्त परिवार हमें इस तरह के संकटों से सुरक्षा देता था और ऐसे संकटों को आसानी से झेल जाता था। बावजूद इसके समय के चक्र को पीछे नहीं घुमाया जा सकता। ऐसे में यह जरूरी है कि हम अपने परिजनों से निरंतर संपर्क में रहें। उनसे आभासी माध्यमों, फोन आदि से संवाद करते रहें, क्योंकि सही मायने में परिवार ही हमारा सुरक्षा कवच है।
आमतौर सोशल मीडिया के आने के बाद हम और ‘अनसोशल’ हो गए हैं। संवाद के बजाए कुछ ट्वीट करके ही बधाई दे देते हैं। होना यह चाहिए कि हम फोन उठाएं और कानोंकान बात करें। उससे जो खुशी और स्पंदन होगा, उसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। परिजन और मित्र इससे बहुत प्रसन्न अनुभव करेगें और सारा दिन आपको भी सकारात्मकता का अनुभव होगा। संपर्क बनाए रखना और एक-दूसरे के काम आना हमें अतिरिक्त उर्जा से भर देता है। संचार के आधुनिक साधनों ने संपर्क, संवाद बहुत आसान कर दिया है। हम पूरे परिवार की आनलाईन मीटिंग कर सकते हैं, जिसमें दुनिया के किसी भी हिस्से से परिजन हिस्सा ले सकते हैं। दिल में चाह हो तो राहें निकल ही आती हैं। प्राथमिकताए तय करें तो व्यस्तता के बहाने भी कम होते नजर आते हैं।
जरूरी है एकजुटता और सकारात्मकताः
सबसे जरूरी है कि हम सकारात्मक रहें और एकजुट रहें। एक-दूसरे के बारे में भ्रम पैदा न होने दें। गलतफहमियां पैदा होने से पहले उनका आमने-सामने बैठकर या फोन पर ही निदान कर लें। क्योंकि दूरियां धीरे-धीरे बढ़ती हैं और एक दिन सब खत्म हो जाता है। खून के रिश्तों का इस तरह बिखरना खतरनाक है क्योंकि रिश्ते टूटने के बाद जुड़ते जरूर हैं, लेकिन उनमें गांठ पड़ जाती है। सामान्य दिनों में तो सारा कुछ ठीक लगता है। आप जीवन की दौड़ में आगे बढ़ते जाते हैं, आर्थिक समृद्धि हासिल करते जाते हैं। लेकिन अपने पीछे छूटते जाते हैं। किसी दिन आप अस्पताल में होते हैं, तो आसपास देखते हैं कि कोई अपना आपकी चिंता करने वाला नहीं है। यह छोटा सा उदाहरण बताता है कि हम कितने कमजोर और अकेले हैं। देखा जाए तो यह एकांत हमने खुद रचा है और इसके जिम्मेदार हम ही हैं। संयुक्त परिवारों की परिपाटी लौटाई नहीं जा सकती, किंतु रिश्ते बचाए और बनाए रखने से हमें पीछे नहीं हटना चाहिए। इसके साथ ही सकारात्मक सोच बहुत जरूरी है। जरा-जरा सी बातों पर धीरज खोना ठीक नहीं है। हमें क्षमा करना और भूल जाना आना ही चाहिए। तुरंत प्रतिक्रिया कई बार घातक होती है। इसलिए आवश्यक है कि हम धीरज रखें। देश का सबसे बड़ा सांस्कृतिक संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ऐसे ही पारिवारिक मूल्यों की जागृति के कुटुंब प्रबोधन के कार्यक्रम चलाता है। पूर्व आईएएस अधिकारी विवेक अत्रे भी लोगों को पारिवारिक मूल्यों से जुड़े रहने प्रेरित कर रहे हैं। वे साफ कहते हैं ‘भारत में परिवार ही समाज को संभालता है।’
जुड़ने के खोजिए बहानेः
हमें संवाद और एकजुटता के अवसर बनाते रहने चाहिए। बात से बात निकलती है और रिश्तों में जमी बर्फ पिधल जाती है। परिवार के मायने सिर्फ परिवार ही नहीं हैं, रिश्तेदार ही नहीं हैं। वे सब हैं जो हमारी जिंदगी में शामिल हैं। उसमें हमें सुबह अखबार पहुंचाने वाले हाकर से लेकर, दूध लाकर हमें देने वाले, हमारे कपड़े प्रेस करने वाले, हमारे घरों और सोसायटी की सुरक्षा, सफाई करने वाले और हमारी जिंदगी में मदद देने वाला हर व्यक्ति शामिल है। अपने सुख-दुख में इस महापरिवार को शामिल करना जरूरी है। इससे हमारा भावनात्मक आधार मजूबूत होता है और हम कभी भी अपने आपको अकेला महसूस नहीं करते। कोरोना के संकट ने हमें सोचने के लिए आधार दिया है, एक मौका दिया है। हम सबने खुद के जीवन और परिवार में न सही, किंतु पूरे समाज में मृत्यु को निकट से देखा है। आदमी की लाचारगी और बेबसी के ऐसे दिन शायद भी कभी देखे गए हों। इससे सबक लेकर हमें न सिर्फ सकारात्मकता के साथ जीना सीखना है बल्कि लोगों की मदद के लिए हाथ बढ़ाना है। बड़ों का आदर और अपने से छोटों का सम्मान करते हुए सबको भावनात्मक रिश्तों की डोर में बांधना है। एक दूसरे को प्रोत्साहित करना, घर के कामों में हाथ बांटना, गुस्सा कम करना जरूरी आदतें हैं, जो डालनी होंगीं। एक बेहतर दुनिया रिश्तों में ताजगी, गर्माहट,दिनायतदारी और भावनात्मक संस्पर्श से ही बनती है। क्या हम और आप इसके लिए तैयार हैं?

राज ठाकरे:अवसरवादी व विकृत राजनीति का एक और चेहरा

तनवीर जाफ़री

                                                  यदि हम पीछे मुड़कर राज ठाकरे के राजनैतिक महत्वाकांक्षा भरे जीवन पर एक नज़र डालेंगे तो यही पायेंगे कि बाल ठाकरे की विरासत के रूप में शिव सेना की कमान न मिल पाने के विरोध में ही 9 मार्च 2006 को कथित रूप से हिंदुत्व तथा भूमिपुत्र के सिद्धान्तों पर आधारित महाराष्ट्र नव निर्माण सेना (मनसे) महाराष्ट्र के एक क्षेत्रीय राजनैतिक दल के रूप में वजूद में आई। यह भी कहा जाता है कि उद्धव ठाकरे के साथ मतभेद तथा राज्य में चुनाव में टिकट वितरण जैसे अहम फ़ैसलों में राज ठाकरे की अवहेलना के चलते भी मनसे गठित की गयी। परन्तु हक़ीक़त तो यह है कि यदि बाल ठाकरे अपनी राजनैतिक विरासत अपने पुत्र उद्धव ठाकरे को सौंपने के बजाये भतीजे राज ठाकरे को सौंप देते तो यक़ीनन मनसे वजूद में ही न आती। बहरहाल मनसे ने राज ठाकरे के नेतृत्व में बाल ठाकरे तर्ज़ की आक्रामक राजनीति करनी शुरू की। शिवसेना को कमज़ोर करने की कोशिश करते हुए बी एम सी,पुणे नगर निगम,ठाणे तथा नासिक नगर निगम जैसे महत्वपूर्ण स्थानों पर अपने प्रतिनिधि निर्वाचित कराये। इतना ही नहीं बल्कि 2009 के महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में मनसे ने 13 विधानसभा सीटें भी जीतीं । इसके अलावा 24 से अधिक स्थानों पर मनसे दूसरे स्थान पर भी रही।
                परन्तु अब सीटें जीतने के लिहाज़ से धीरे धीरे मनसे का राजनैतिक जनाधार लगभग समाप्त सा हो गया है। इसका मुख्य कारण यह है कि जो मनसे हिंदुत्व का ध्वजवाहक बनना चाहती थी उसी ने 2008 में उत्तर भारतीयों विशेषकर उत्तर प्रदेश,झारखण्ड,मध्य प्रदेश और बिहारी प्रवासियों के विरुद्ध खुले आम हिंसा शुरू कर दी। मनसे कार्यकर्ताओं ने महाराष्ट्र के विभिन्न भागों में उत्तर भारतीय दुकानदारों और विक्रेताओं पर हमला किया। कई जगह सरकारी सम्पत्ति नष्ट कर दी। छठ जैसे उत्तर भारतीयों के प्रमुख त्यौहार का विरोध किया जाने लगा। इस घटना पर लोकसभा में भी काफ़ी हंगामा हुआ था। इसी तरह 9 नवम्बर 2009 को समाजवादी पार्टी के विधायक अबू आज़मी को मनसे विधायकों द्वारा उन्हें हिंदी में शपथ लेने से रोका गया। और उनसे सदन में मार पीट की गयी। महाराष्ट्र विधान सभा अध्यक्ष ने इस घटना में शामिल मनसे के चार विधायकों को चार वर्ष के लिए निलम्बित कर दिया गया था । मुम्बई और नागपुर में विधान सभा बैठक के दौरान उनके प्रवेश पर भी रोक लगा दी गई थी । अभी पिछले दिनों पूर्व महाराष्ट्र में मनसे द्वारा खड़े किये गये अज़ान-लाउडस्पीकर-हनुमान चालीसा विवाद के मध्य मनसे प्रमुख राज ठाकरे को कथित तौर पर कोई धमकी भरा पत्र मिला। इस पत्र के मिलने के बाद एक मनसे नेता ने कहा कि राज ठाकरे को एक धमकी भरा उर्दू में लिखा गया पत्र मिला है, उनकी जान को ख़तरा है। इस नेता ने चेतावनी दी है कि अगर ठाकरे को कुछ हुआ तो 'वे महाराष्ट्र को जला देंगे'। स्वयं राज ठाकरे की राजनीति का अंदाज़ प्रायः आक्रामक व तल्ख़ी भरा ही रहता है। वे कई बार अपने साक्षात्कार के दौरान आपे से बाहर और वरिष्ठ पत्रकारों के प्रति अपमानजनक शब्दों का इस्तेमाल करते दिखाई देते हैं।
                 अब जबसे शिवसेना ने भाजपा से अपना पुराना नाता तोड़ कांग्रेस व राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी से मिलकर सरकार गठित की है तब ही से राज ठाकरे भाजपा के साथ अपने राजनैतिक संबंध बनाने की जुगत में लगे थे। या यूँ कहें कि भाजपा व मनसे दोनों को ही एक दूसरे से संबंध बनाने की मजबूरी दरपेश थी। परन्तु इसके लिये राज ठाकरे को अपने मराठी नहीं बल्कि हिंदुत्ववादी तेवरों में धार रखनी ज़रूरी थी। जो उन्होंने मस्जिदों से लाउडस्पीकर हटाने,अज़ान के वक़्त लाउडस्पीकर पर हनुमान चालीसा पढ़ने जैसा विवाद खड़ा कर, करने की पूरी कोशिश भी की। साथ ही राज ठाकरे ने अपने नये 'हिंदुत्ववादी अवतार' को क्षेत्रीय की जगह राष्ट्रीय 'कवच ' पहनाने के लिये 5 जून को अयोध्या में राम लला के दर्शन का कार्यक्रम भी घोषित कर दिया।ख़बरों के मुताबिक़ मनसे ने 11 ट्रेन रैक बुक कराने की योजना बनाई है ताकि अयोध्या में मनसे के कार्यकर्ता अपने नेता का स्वागत कर सकें। परन्तु उत्तर भारतीयों द्वारा राज ठाकरे का पुराना रिकार्ड अब खोल दिया गया है। बहराइच,अयोध्या से लेकर इलाहबाद और पूर्वांचल के कई ज़िलों में उन्हीं उत्तर भारतीयों ने राज ठाकरे का विरोध करने के लिये कमर कस ली है जिन्हें 2008 में राज ठाकरे के निर्देशों पर मनसे कार्यकर्ताओं द्वारा इतना प्रताड़ित किया गया था कि लाखों लोग रास्तों में और ट्रेनों,बसों व टैक्सियों में मार खाते, लुटते, पिटते अपने घरों को लौटने के लिये मजबूर हो गए थे। राज ठाकरे के विरोध में सत्ताधारी दल भाजपा के क़ैसर गंज के सांसद बृजभूषण शरण सिंह जोकि भारतीय कुश्ती संघ के अध्यक्ष भी हैं, ने मोर्चा खोल दिया है। उन्होंने कहा है कि ठाकरे को अयोध्या आने देना तो दूर उन्हें उत्तर प्रदेश की सीमा में भी घुसने नहीं दिया जायेगा। और भी कई राजनेता व धर्मगुरु भी राज ठाकरे की अयोध्या यात्रा का विरोध कर रहे हैं। उनके अयोध्या आगमन से पहले ही अनेक राजनैतिक संगठन और संस्‍थायें विरोध में उतर आई हैं। अयोध्या के कई प्रमुख साधु संत व  धर्मगुरु भी राज ठाकरे के प्रस्तावित अयोध्या दौरे का विरोध कर रहे हैं।
                                राज ठाकरे के अयोध्या दौरे का विरोध करने वालों का कहना है कि उत्तर भारतीयों को अपराधी कहने वाले राज ठाकरे या तो उत्तर भारतीयों से माफ़ी मांगें अन्यथा अयोध्या आने का साहस न करें। इनका कहना है कि 'हम उत्तर भारतीय ही भगवान श्री राम के वंशज हैं अतः उत्तर भारतीयों का महाराष्ट्र में अपमान किया जाना भगवान श्रीराम का अपमान है। राज ठाकरे भगवान श्री राम के अपराधी हैं। लिहाज़ा बिना माफ़ी मांगे अयोध्या आने पर उत्तर भारतीय राज ठाकरे का जमकर विरोध करेंगे। इस पूरे प्रकरण में आश्चर्य की बात तो यह है कि जहाँ एक भाजपा सांसद खुलकर राज ठाकरे के अयोध्या दौरे का विरोध कर रहे हैं वहीँ इन्हीं विरोध स्वरों के बीच अयोध्या से भाजपा के ही सांसद लल्लू सिंह, राज ठाकरे के समर्थन में आ गये हैं। सांसद लल्लू सिंह का कहना है कि जो भी प्रभु श्रीराम की शरण में आना चाहता है उसका अयोध्या में स्वागत है। सांसद लल्लू सिंह ने यह भी कहा कि -'राज ठाकरे पर हनुमान जी की कृपा हुई है इसलिए वह अयोध्या में प्रभु श्रीराम जी की शरण में आ रहे हैं। मैं प्रभु से प्रार्थना करता हूं कि उन्हें सद्बुद्घि मिले जिससे कि वह स्वयं के व महाराष्ट्र के कल्याण के लिए प्रधानमंत्री मोदी जी की शरण में भी जाएं'। उधर 10 जून को राज ठाकरे के भतीजे आदित्य ठाकरे भी अयोध्या आ रहे हैं। अयोध्या में दोनों 'ठाकरे' के दौरे को लेकर पोस्टर लगाये जा रहे हैं। इसके चलते अयोध्या शिवसेना और महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के टकराव का केंद्र बनता जा रहा है। बहरहाल राज ठाकरे के रूप में अवसरवादी व विकृत राजनीति का एक और चेहरा तो ज़रूर उभर रहा है परन्तु इन सब के बीच उत्तर भारतीयों को यह जानना भी बेहद ज़रूरी है कि उत्तर भारतीयों के दम पर अपनी सरकार बनाने वाली व हिंदी भाषा का प्रसार करने की कोशिशों में लगी भारतीय जनता पार्टी हिंदी भाषा व उत्तर भारतीयों का विरोध करने वाले राज ठाकरे के प्रति नीतिगत व सैद्धांतिक रूप से आख़िर क्या विचार रखती है।

सेहतमंद गांव से स्वस्थ भारत मुमकिन है

नरेन्द्र सिंह बिष्ट

हल्द्वानी, नैनीताल

भारत ने जहां 21वी सदी में प्रवेश किया है वहीं ऐसा लगता है कि पहाड़ी राज्य उत्तराखंड के दूरस्थ ग्रामो ने स्वास्थ्य सुविधाओं के मामलें में इसके विपरित 12वी सदी में प्रवेश किया है. राज्य के दूरस्थ इलाकों का धरातलीय सच शर्मसार करता है. यहां के दूर दराज़ क्षेत्रों में ऐसे कई अस्पताल हैं जहां डॉक्टरों की कमी के चलते या तो फार्मासिस्ट या फिर भगवान के भरोसे मरीजों का इलाज चल रहा है. अल्मोड़ा जनपद के अस्पतालों में जितने डाक्टर की आवश्यकता है उनके आधे अपनी सेवाएं दे रहे हैं. यह केवल एक जनपद की बात नहीं है, राज्य के प्रत्येक जनपदों में यही स्थिति देखने को मिल जायेगी. सरकार के लिए स्वास्थ्य विभाग एक मुद्दा मात्र है, परन्तु राज्य बनने के बाद ग्रामीण क्षेत्रों में डॉक्टरों की कमी आम बात है. ज़्यादातर पहाड़ी क्षेत्रों के दुरस्थ ग्रामों में तो आज भी फार्मसिस्ट ही प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों को चला रहे हैं.

कैग रिपोर्ट के खुलासे में भी सामने आया कि राज्य के लोगों का स्वास्थ्य भगवान भरोसे चल रहा है. रिपोर्ट में बताया गया कि जिला अस्पताल रेफरल सेंटर बन कर रह गये है जहां उपकरण से लेकर डॉक्टर, नर्सों, दवा, पैथोलॉजी जांच आदि की भारी कमी है. इन संसाधनों का उपयोग सही तरीके से भी नहीं किया जा रहा है, जबकि राज्य में लोगों के स्वास्थ्य में जबरदस्त सुधार की जरूरत है. नैनीताल जनपद के ओखलकांडा विकासखंड के कई ग्राम ऐसे है जो आज भी प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं से वंचित है एक्सरे मशीन है पर इसे ऑपरेट करने वाला कोई नहीं है. इमर्जेन्सी की हालत में 4 घंटे का पर्वतीय सफर करना मरीज और परिवार सदस्यों के लिए भी एक चुनौती से कम नहीं होता है. शहर में मंहगा इलाज गरीब वर्ग की कमर तोड़ देता है. अक्सर पाया भी गया है कि कई बार तो मरीज सफर के दौरान अपनी जान से हाथ धो बैठते हैं. यह सफर 8 से 10 घंटे का भी होता है. वहीं दूसरी ओर सड़कविहीन गांव से मुख्य सड़क तक मरीज़ को लाने के लिए चारपाई या डोली की व्यवस्था 21वी सदी में विकास का दावा करने वाली सरकारों को आईना दिखाता है.

ओखलकांडा विकासखंड के ही ग्राम भद्रकोट की मधुली देवी बताती हैं कि वह विगत कई वर्षों से पैर में सूजन से परेशान हैं. ग्राम स्तर पर स्वास्थ्य सुविधा न होने के कारण तीन चार बार वह अपना इलाज हल्द्वानी के प्राइवेट डॉक्टर से करा रही थी. परन्तु परिवार की आर्थिक स्थिति बहुत कमजोर होने के कारण अब इलाज को करवा पाना संभव नहीं है. पैसे के आगे जीवन ने घुटने टेक दिये व आर्थिक कमजोरी व शारीरिक ह्रास के कारण जैसे तैसे जीवन के पलो को दुःख के साथ काटने के लिए वह विवश हो गयी हैं. उन्होने कहा यदि ग्राम स्तर पर स्वास्थ्य सुविधा होती तो उनका इलाज मुमकिन हो पाता. हालांकि इस संबंध में हल्द्वानी स्थित डॉक्टर अविनाश का कहना है कि परिवार को बताया गया था कि मधुली देवी को पैर में सूजन ठंड का कारण है, उन्हें सांस से संबंधित भी परेशानी है. जिसका इलाज भी चल रहा था, परंतु पर्वतीय समुदाय के ग्रामीण इलाज से कहीं ज़्यादा अधंविश्वास, झाड़ फूक पर विश्वास करते हैं. जिसके चलते परिवार ने उनके इलाज को बीच में रूकवा दिया. आधुनिक भारत में जागरूकता के अभाव में डॉक्टरी इलाज से कहीं अधिक झाड़ फूंक पर विश्वास करना, कहीं न कहीं हमारे पूरे सिस्टम पर ही प्रश्न चिन्ह खड़ा करता है. जबकि इसके लिए एक तरफ जहां समाज की ज़िम्मेदारी बनती है कि वह जागरूकता के माध्यम से लोगों की इस सोच में परिवर्तन लाए वहीं स्वास्थ्य विभाग की ज़िम्मेदारी होती है कि वह इलाज की प्रक्रिया को इस प्रकार सुचारू बनाये कि लोगों का उन पर भरोसा हो.

इस संबंध में नैनीताल जनपद के धारी विकासखंड स्थित अर्नपा गांव की ग्राम प्रधान रेखा आर्या का कहना है कि उनका ग्राम मुख्य सड़क से 11 किमी. दूर है. स्वास्थ्य विभाग की उदासीनता के कारण गांव वालों को इलाज के लिए गांव से 60 किमी दूर जाना पड़ता है, जिसमें समय व लागत काफी आती है जो आर्थिक रूप से कमज़ोर ग्रामीणो के लिए बड़ी समस्या है. यही कारण है कि वह इलाज की जगह झाड़ फूंक का सहारा लेते हैं. ऐसे में सरकार द्वारा ग्राम स्तर पर प्रति माह स्वास्थ शिविरों का आयोजन करना ग्रामीणों के पक्ष में जहां सकारात्मक प्रयास होगा और ग्रामीण समुदाय को बीमारियों से निदान मिल सकेगा वहीं लोग झाड़ फूंक जैसे अंधविश्वास से भी दूर होंगे. उन्होंने बताया कि उनके गांव में दांतों व आंखों के बहुत से बुजुर्ग मरीज हैं लेकिन इस उम्र में उनके लिए शहर जाना संभव नहीं है. ग्राम स्तर पर इनके कैंप लगाने की अति आवश्यकता है.

नैनीताल स्थित भीमताल ब्लॉक में दांतों के डॉक्टर अर्नव का कहना है कि उनके क्लीनिक में ग्रामीण समुदाय के लोग काफी दूर से आते हैं. उनके अनुसार राज्य में दांतों से संबंधित हजारों केस हैं लेकिन दूरी व संसाधनों के अभाव के कारण ग्रामीणों को समय पर उचित इलाज नहीं मिल पाता है. इलाज ग्राम स्तर पर किया जाना भी संभव नहीं है क्योकि अधिकांश गांवों तक रोड नहीं है या फिर ऐसी रोड है जिन पर इस प्रकार के उपकरणों को लेकर जाना संभव नहीं है. उन्होंने कहा कि गांव में सुविधाएं नहीं होने के कारण ग्राम स्तर पर डॉक्टर रहना भी नहीं चाहते हैं. इस दशा में कुछ इस प्रकार के मानक बनाये जाने की आवश्यकता है कि डॉक्टरों को सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों में कम से कम 10 वर्ष अपनी सेवाएं देनी अनिवार्य करनी होगी, साथ ही प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों में भी उन्नत संसाधन उपलब्ध करवाए जाने की आवश्यकता है. वहीं ग्राम खन्स्यू स्थित प्राथमिक स्वास्थ केन्द्र के युवा डाॅ विनय चौहान का कहना है कि ग्रामवासियों में जानकारी का अभाव भी एक बड़ी समस्या है. सरकार द्वारा कई योजनाएं शहरी व ग्रामीण क्षेत्रों के लिए बनायी गयी हैं जिसमें राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन प्रमुख है, लेकिन जानकारी का अभाव इन योजनाओं के सफल होने में बाधा साबित हो रही है. सरकार को प्राथमिक स्तर पर शिक्षा में स्वास्थ्य संबंधित विषयों को जोड़कर प्रति परिवार जागरूकता को विकसित करने की ज़रूरत है.

इसके अतिरिक्त कई स्वयंसेवी संस्थाएं भी समय समय पर निजी रूप से स्वास्थ्य शिविरों के माध्यम से ग्राम स्तर पर बीमारियों के इलाज में सहायता कर रही हैं, सरकार को इनके साथ भी सामन्जस्य स्थापित करने की आवश्यकता है. ज़रूरत इस बात की है कि सभी प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों में शिशु देखभाल, गंभीर से गंभीर बीमारियों का समुचित इलाज और रोगियों को मुफ्त दवाएं उपलब्ध करवायी जानी चाहिए. सरकार को भौगोलिक परिस्थितियों को देखते हुए ग्राम स्तर पर स्वास्थ्य मुद्दों पर गंभीरता से कार्य करने की ज़रूरत है, तभी वास्तव में राज्य बदहाल स्वास्थ्य व्यवस्था के श्राप से मुक्त हो सकता है.

सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय को लेकर भ्रामकता सही नहीं है’

~कृष्णमुरारी त्रिपाठी अटल
मध्यप्रदेश के पंचायत एवं नगरीय निकाय चुनावों में बगैर ओबीसी आरक्षण के निर्वाचन सम्पन्न कराने एवं अधिसूचना जारी करने के लिए माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय सुनाया है। किन्तु इस पर राजनैतिक गिद्ध दृष्टि गड़ाने वाले इस निर्णय को भी निराशापूर्ण बताते हुए अपनी वोटबैंक की राजनीति सिद्ध करना चाह रहे हैं। ये राजनैतिक दल और उनके नेतागण जो हमेशा सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय को स्वागत योग्य बताने में लगे रहते हैं। वहीं अब सर्वोच्च न्यायालय के इस निर्णय को लेकर ओबीसी वर्ग की रहनुमाई का दिखावा करते हुए नेतागणों की प्रेस विज्ञप्तियां , सोशल मीडिया में बयान व भाषणों की रफ्तार तेज होनी शुरु हो गई है। वे अब इस निर्णय पर ही प्रश्न चिन्ह लगाने पर जुटे हुए हैं। क्या यह सर्वोच्च न्यायालय की अवमानना के अन्तर्गत नहीं आता है ?

जब पंचायती राज व्यवस्था में ओबीसी आरक्षण को लेकर कोई प्रावधान ही नहीं है,तब राजनीति की चौसर में विद्वेषपूर्ण राजनैतिक रोटियां सेंकने से राजनैतिक दल और उनके नेतागण बाज क्यों नहीं आ रहे हैं ? वैसे जो हर पल संविधान की कसमें खाते रहते हैं और संविधान को ही धर्म बताते हैं। तब वे सर्वोच्च न्यायालय के इस निर्णय पर विरोध जतलाते हुए क्या हासिल करना चाह रहे हैं ? क्या इसे ही सामाजिक न्याय कहते हैं?

आखिर! जनमानस के मध्य न्यायपालिका के निर्णय के विरूद्ध भ्रामकता फैलाने पर क्यों जुटे हुए हैं ? क्या राजनैतिक दल और उनके नेतागण सर्वोच्च न्यायालय से बड़े हो गए हैं? याकि जानबूझकर न्यायपालिका की अवमानना करने का एजेंडा शुरु कर दिया गया है। जिस सामाजिक न्याय की रट लगाते हुए ये जनमानस को वोटबैंक के लालच में बरगलाने पर जुटे हुए हैं। आज तक इन राजनैतिक दलों , नेताओं और उन वर्गों के तथाकथित ठेकेदारों ने उन वर्गों का कितना भला किया है?

जातियों और वर्गों की ठेकेदारी करने वाले इन सत्तालोभियों ने अब तक केवल अपना घर परिवार ही अकूत संपत्तियों से भरा है‌ ‌। ये जिन वर्गों के नाम पर राजनीति की ठेकेदारी करते हैं,उसके वंचित आमजन का जीवन आज भी बदहाली का शिकार है। लेकिन मजाल क्या कि ये अपनी बेशुमार दौलत को उन वर्गों के उत्थान के लिए खर्च कर दें। इन ठेकेदारों का एक ही फण्डा है ,वह यह कि बरगलाइए,उन्माद फैलाइए और अपने लिए वोटबैंक का ध्रुवीकरण करते हुए वारा – न्यारा करिए।

अपने गिरेबान में झांकने के बजाय वोटबैंक की राजनीति चमकाने के लिए ये खुलेआम सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के प्रति अपना विरोध दर्ज करवा रहे हैं‌। तो क्या यह इनकी संवैधानिक अनास्था को व्यक्त नहीं करता है ? देश और समाज को वोटबैंक के तौर पर बनाने और उसका ध्रुवीकरण करते हुए वैमनस्य फैलाने के कारण ही देश विकास कार्यों में इतना पीछे चला जा रहा है। संवैधानिक स्थिति के अनुसार राष्ट्रीय स्तर पर ओबीसी वर्ग में जातियों या समूहों को शामिल करने , हटाने को लेकर कोई स्पष्ट मापदंड नहीं बना है। ऐसे में आधिकारिक तौर पर ओबीसी वर्ग की गणना का निर्णय भी सुस्पष्ट नहीं है।

वहीं जब न्याय के रखवाले सुप्रीम कोर्ट ने बिना ओबीसी आरक्षण के चुनाव करवाने के लिए निर्णय दिया है,तब उसे लेकर राजनैतिक वितण्डा खड़ा करना व उसके विरोध में राजनैतिक टीका-टिप्पणियां करना‌ । यह निश्चय ही राजनैतिक दलों और उनके राजनेताओं की संविधान के प्रति अनास्था का सूचक व न्यायिक अवमानना के अन्तर्गत ही माना जाना चाहिए। हालांकि न्यायिक अवमानना का निर्धारण न्यायपालिका ही करती है‌ । फिर भी जिस प्रकार से सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के विरोध में राजनीति की शतरंजी चाल खेली जा रही है। वह राष्ट्र की न्यायपालिका की शाख को विधायिका द्वारा बट्टा लगाया जाना ही है।

अगर वोटबैंक के जहर को इसी तरह से राजनैतिक दल और उनके नेता परोसते रहे तब देश किस दिशा में जाएगा,इसके बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता है। और राजनैतिक तुष्टिकरण की यह विषबेल विभीषक वर्ग संघर्ष की चिंगारी को सुलगा देगी। अभी समय है कि राजनैतिक दल और नेतागण अपनी यह प्रवृत्ति त्यागें और जनकल्याण के प्रति निष्ठावान बनें।

ऐसे में राजनैतिक दलों और उनके नेतागणों को चाहिए कि अपने वौटबैंकीय राजनैतिक स्वार्थ को साधने के चक्कर में जनमानस के मध्य सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के प्रति भ्रामकता न फैलाएं और न ही जनमानस को बरगलाएं। सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय का पालन करते हुए निर्वाचन सम्पन्न कराएं ताकि व्यवस्थाएं दुरुस्त हों और जनकल्याण के कार्य सुचारू रुप से गति पकड़ सकें!

~कृष्णमुरारी त्रिपाठी अटल

सूना-सूना लग रहा बिन पेड़ों के गाँव

सूना-सूना लग रहा, बिन पेड़ों के गाँव ।
पंछी उड़े प्रदेश को, बांधे अपने पाँव ।।

-सत्यवान ‘सौरभ’

पक्षियों को पर्यावरण की स्थिति के सबसे महत्वपूर्ण संकेतकों में से एक माना जाता है। क्योंकि वे आवास परिवर्तन के प्रति संवेदनशील हैं और पक्षी पारिस्थितिकीविद् के पसंदीदा उपकरण हैं। पक्षियों की आबादी में परिवर्तन अक्सर पर्यावरणीय समस्याओं का पहला संकेत होता है। चाहे कृषि उत्पादन, वन्य जीवन, पानी या पर्यटन के लिए पारिस्थितिक तंत्र का प्रबंधन किया जाए, सफलता को पक्षियों के स्वास्थ्य से मापा जा सकता है। पक्षियों की संख्या में गिरावट हमें बताती है कि हम आवास विखंडन और विनाश, प्रदूषण और कीटनाशकों, प्रचलित प्रजातियों और कई अन्य प्रभावों के माध्यम से पर्यावरण को नुकसान पहुंचा रहे हैं।

बदल रहे हर रोज ही, हैं मौसम के रूप ।
सर्दी के मौसम हुई, गर्मी जैसी धूप ।।
सूनी बगिया देखकर, ‘तितली है खामोश’ ।
जुगनूं की बारात से, गायब है अब जोश ।।

हाल ही की एक रिपोर्ट, ‘स्टेट ऑफ द वर्ल्ड्स बर्ड्स’ के अनुसार, दुनिया भर में मौजूदा पक्षी प्रजातियों में से लगभग 48% आबादी में गिरावट के दौर से गुजर रही है या होने का संदेह है। प्राकृतिक प्रणालियों के महत्वपूर्ण तत्वों के रूप में पक्षियों का पारिस्थितिक महत्व है। पक्षी कीट और कृंतक नियंत्रण, पौधे परागण और बीज फैलाव प्रदान करते हैं जिसके परिणामस्वरूप लोगों को ठोस लाभ होता है। कीट का प्रकोप सालाना करोड़ों डॉलर के कृषि और वन उत्पादों को नष्ट कर सकता है। पर्पल मार्टिंस लंबे समय से हानिकारक कीटनाशकों के स्वास्थ्य और पर्यावरणीय लागत (आर्थिक लागत का उल्लेख नहीं) के बिना कीट कीटों की आबादी को काफी हद तक कम करने के एक प्रभावी साधन के रूप में जाना जाता है।

आती है अब है कहाँ, कोयल की आवाज़ ।
बूढा पीपल सूखकर, ठूंठ खड़ा है आज ।।
जब से की बाजार ने, हरियाली से प्रीत ।
पंछी डूब दर्द में, फूटे गम के गीत ।।

पक्षी प्राकृतिक प्रणालियों में कीड़ों की आबादी को कम करने और बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। पूर्वी जंगलों में पक्षी 98% तक बुडवार्म खाते हैं और 40% तक सभी गैर-प्रकोप कीट प्रजातियों को खाते हैं। इन सेवाओं का मूल्य 5,000 डॉलर प्रति वर्ष प्रति वर्ग मील वन पर रखा गया है, संभावित रूप से पर्यावरण सेवाओं में अरबों डॉलर में अनुवाद किया जा सकता है। पक्षियों और जैव विविधता के नुकसान का सबसे बड़ा खतरा आवासों का विनाश और क्षरण है। पर्यावास के नुकसान में प्राकृतिक क्षेत्रों का विखंडन, विनाश और परिवर्तन शामिल है, जिन्हें पक्षियों को अपने वार्षिक या मौसमी चक्र को पूरा करने की आवश्यकता होती है।

फीके-फीके हो गए, जंगल के सब खेल ।
हरियाली को रौंदती, गुजरी जब से रेल ।।
नहीं रहे मुंडेर पर, तोते-कौवे-मोर ।
लिए मशीनी शोर है, होती अब तो भोर ।।

1800 के दशक के बाद से अधिकांश पक्षी विलुप्त होने के लिए आक्रामक प्रजातियां जिम्मेदार हैं, जिनमें से अधिकांश समुद्री द्वीपों पर हुई हैं। उदाहरण के लिए, अकेले हवाई में, आक्रामक रोगजनकों और शिकारियों ने 71 पक्षी प्रजातियों के विलुप्त होने में योगदान दिया है। कुछ पक्षियों का अवैध शिकार वाणिज्यिक और निर्वाह उद्देश्यों के लिए, भोजन के लिए, या उनके पंखों के लिए किया जाता है। ऐतिहासिक रूप से, कुछ प्रजातियों का अत्यधिक शिकार विलुप्त होने का प्रमुख कारण रहा है। स्थानीय स्तर पर निर्वाह के शिकार के परिणामस्वरूप शायद ही कभी प्रजातियों का विलोपन होता है। व्यावसायिक शिकार से किसी प्रजाति के मरने की संभावना अधिक होती है।

अमृत चाह में कर रहे, हम कैसे उत्थान ।
जहर हवा में घोलते, हुई हवा तूफ़ान ।।
बेचारे पंछी यहाँ, खेलें कैसे खेल ।
खड़े शिकारी पास में, ताने हुए गुलेल ।।

जलवायु परिवर्तन से आवास के नुकसान और आक्रामक प्रजातियों के खतरों के साथ-साथ नई चुनौतियों का निर्माण करने का खतरा है, जिन्हें पक्षियों को दूर करना होगा। इसमें आवास वितरण में बदलाव और चरम खाद्य आपूर्ति के समय में बदलाव शामिल है जैसे कि पारंपरिक प्रवासन पैटर्न अब पक्षियों को नहीं रख सकते हैं जहां उन्हें सही समय पर होने की आवश्यकता होती है। अन्य मानव निर्मित संरचनाओं के साथ टकराव भी एक इनकी मौत का कारण है। उदाहरण के लिए, पावरलाइन पक्षियों के लिए एक खतरा पेश करती है, विशेष रूप से बड़े पंखों वाले, और हर साल 25 मिलियन पक्षियों की मौत का अनुमान है। संचार टावरों का अनुमान है कि हर साल 7 मिलियन पक्षियों की मौत हो जाती है और रात में प्रवास करने वाले पक्षियों के लिए एक विशेष खतरा पैदा होता है।

वाहन दिन भर दिन बढ़े, खूब मचाये शोर ।
हवा विषैली हो गई, धुआं चारों ओर ।।
बिन हरियाली बढ़ रहा, अब धरती का ताप ।
जीव-जगत नित भोगता, कुदरत के संताप ।।

कीटनाशक और अन्य विषाक्त पदार्थ के कारण यूएस फिश एंड वाइल्डलाइफ सर्विस का अनुमान है कि हर साल लगभग 72 मिलियन पक्षी कीटनाशक विषाक्तता से मर जाते हैं। पक्षियों पर कीटनाशकों के वास्तविक प्रभाव का आकलन करना मुश्किल है: प्रदूषण और विषाक्त पदार्थ उप-घातक प्रभाव पैदा कर सकते हैं जो सीधे पक्षियों को नहीं मारते हैं, लेकिन उनकी लंबी उम्र या प्रजनन दर को कम करते हैं। कीटनाशकों के अलावा, भारी धातुओं (जैसे सीसा) और प्लास्टिक कचरे सहित अन्य संदूषक भी पक्षियों के जीवन काल और प्रजनन सफलता को सीमित करते हैं। तेल और अन्य ईंधन रिसाव का पक्षियों, विशेष रूप से समुद्री पक्षियों पर विनाशकारी प्रभाव पड़ता है। तेल पक्षियों के पंखों का सबसे बड़ा दुश्मन है है, जिससे पंख अपने जलरोधक गुणों को खो देता है और पक्षी की संवेदनशील त्वचा को अत्यधिक तापमान में झुलसा देता है।

जीना दूभर है हुआ, फैले लाखों रोग ।
जब से हमने है किया, हरियाली का भोग ।।
शहरी होती जिंदगी, बदल रहा है गाँव ।
धरती बंजर हो गई, टिके मशीनी पाँव ।।

दुर्लभ, लुप्तप्राय और संकटग्रस्त पक्षी प्रजातियों की रक्षा करें,महत्वपूर्ण जैव विविधता वाले क्षेत्रों में पक्षी सर्वेक्षण करना,पक्षियों की रक्षा के लिए आर्द्रभूमि की रक्षा करें संरक्षण रणनीति में जनसंख्या बहुतायत और परिवर्तन का विश्वसनीय अनुमान लगाना शामिल है। अधिक कटाई वाले जंगली पक्षियों की मांग में कमी के लिए नए और अधिक प्रभावी समाधान बड़े पैमाने पर लागू किए गए। हरित ऊर्जा संक्रमणों की निगरानी करना जो अनुपयुक्त तरीके से लागू किए जाने पर पक्षियों को प्रभावित कर सकते हैं।

रोज प्रदूषण अब हरे, धरती का परिधान ।
मौन खड़े सब देखते, मुँह ढाँके हैरान ।।
हरे पेड़ सब कट चले, पड़ता रोज अकाल ।
हरियाली का गाँव में, रखता कौन ख्याल ।।

पक्षी पर्यावरणीय स्वास्थ्य के अत्यधिक दृश्यमान और संवेदनशील संकेतक हैं, उनका नुकसान जैव विविधता के व्यापक नुकसान और मानव स्वास्थ्य और कल्याण के लिए खतरे का संकेत देता है। इस प्रकार, हमें तेजी से बड़े पैमाने पर विलुप्त होने की गति को कम करने के लिए प्रकृति पर बढ़ते मानव पदचिह्न को कम करने के लिए सरकार, पर्यावरणविदों और नागरिकों के समन्वित कार्यों की आवश्यकता है।

सच्चा मंदिर है वही, दिव्या वही प्रसाद ।
बँटते पौधे हों जहां, सँग थोड़ी हो खाद ।।
पेड़ जहां नमाज हो, दरख़्त जहां अजान ।
दरख्त से ही पीर सब, दरख्त से इंसान ।।

  • सत्यवान ‘सौरभ’