देश के संविधान की मूल आत्मा व सर्वोच्च न्यायालय के आग्रहों का सम्मान करते हुए शासन को “समान नागरिक संहिता” पर गम्भीरता से चिंतन करना चाहिये। अनेकता में एकता का राष्ट्रव्यापी विचार बिना एक समान कानून के अधूरा है। सबका साथ,सबका विकास व सबका विश्वास पाने का सशक्त सूत्र है “समान नागरिक संहिता”। इसके लिए शीर्ष नेतृत्व को अपनी दृढ़ राजनैतिक इच्छाशक्ति के साथ आगे बढ़ना होगा। राष्ट्रहित में आज केंद्रीय शासन जिस कार्यकुशलता व निर्णायक क्षमता से समस्याओं का समाधान करने के लिये संघर्षरत है उससे सभी देशवासी उत्साहित है। ऐसे सकारात्मक वातावरण में शासन को सबका साथ, विकास व विश्वास पाने के लिए सबको एक समान कानून के अंतर्गत लाकर इस बहुप्रतीक्षित कार्य को मूर्त रुप देना चाहिये।
सामान्यत: यह विचार क्यों नहीं किया जाता कि जब सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार को सन् 1985, 1995, 2003 और 2019 में बार बार समाज में घृणा, वैमनस्य व असमानता दूर करने के लिए समान कानून को लागू कराने आवश्यकता जतायी है तो फिर अभी तक कोई सार्थक पहल क्यों नहीं हो पायी? वर्षों पूर्व किये गए एक सर्वेक्षण के अनुसार 84 % देशवासी इस कानून के समर्थन में थे। जबकि इस सर्वे में अधिकांश मुस्लिम माहिलायें व पुरुषों की भी सहभागिता थी।अंतरराष्ट्रीय संस्था ‘संयुक्त राष्ट्र संघ’ ने भी सन् 2000 में समान नागरिक व्यवस्था अपनाने के लिए भारत सरकार से विशेष आग्रह किया था।
“समान नागरिक संहिता” (Uniform Civil Code ) का प्रावधान धीरे-धीरे लागू करने की अनुशंसा हमारे संविधान के अनुच्छेद 44 में आरम्भ से ही है। परन्तु मुस्लिम वोट बैंक के लालच व इमामों के दबाव में तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरु जी ने अनेक विवादों के बाद भी “समान नागरिक संहिता” के प्रावधान को संविधान के मौलिक अधिकारों की सूची से हटा कर “नीति निर्देशक तत्वों” में डलवा दिया। परिणामस्वरूप यह विषय न्यायपालिका के अधिकार क्षेत्र से बाहर हो गया और वह अब केवल सरकार को इस क़ानून को बनाने के लिए परामर्श दे सकती हैं, बाध्य नहीं कर सकती। अनेक विवादों के बाद भी सुधार के लिए हिन्दुओं के पर्सनल लॉ होने के उपरांत भी उसके स्थान पर 1956 में उन पर हिन्दू कोड बिल ( Hindu Code Bill ) थोपा गया था। परंतु अन्य धर्मावलंबियों के पर्सनल लॉ को यथावत् बनाये रखने की क्या बाध्यता थी जबकि उनमें भी आवश्यक सुधारों की आवश्यकता जब भी थी और अब भी बनी हुई है। निसन्देह मुस्लिम पर्सनल लाँ के यथावत बने रहने से मुस्लिम कट्टरता के दु:साहस ने देश में घृणा के वातावरण को ही उकसाया है।
विश्व के किसी भी देश में धर्म के आधार पर अलग अलग कानून नहीं होते, सभी नागरिकों के लिए एक सामान व्यवस्था व कानून होते हैं। केवल भारत ही एक ऐसा देश है जहाँ अल्पसंख्यक समुदायों के लिए पर्सनल लॉ बने हुए हैं। जबकि हमारे संविधान के अनुच्छेद 15 के अनुसार धर्म, लिंग, क्षेत्र व भाषा आदि के आधार पर समाज में भेदभाव नहीं करता और एक समान व्यवस्था सुनिश्चित करता है। लेकिन संविधान के अनुच्छेद 26 से 31 में कुछ ऐसे व्यवधान हैं जिससे हिंदुओं के सांस्कृतिक,शैक्षिक व धार्मिक संस्थानों एवं ट्रस्टों को विवाद की स्थिति में शासन द्वारा अधिग्रहण किया जाता रहा है। जबकि अल्पसंख्यकों के संस्थानों आदि में विवाद होने पर शासन कोई हस्तक्षेप नहीं करता, यह भेदभाव क्यों ? इसके अतिरिक्त एक और विचित्र व्यवस्था संविधान में की गई कि अल्पसंख्यकों को अपनी धार्मिक शिक्षाओं को पढ़ने व पढ़ाने की पूर्ण स्वतंत्रता हैं,जबकि बहुसंख्यक हिन्दुओं के लिए यह धारणा मान ही ली थी कि वह तो अपनी धर्म शिक्षाओं को पढ़ाते ही रहेंगे। अतः हिन्दू धर्म शिक्षाओं को पढ़ाने का प्रावधान संविधान में लिखित रूप में नही किये जाने का दुष्परिणाम यह हुआ कि आज तक हिन्दुओं को उनके धर्म शास्त्रों की शिक्षा की कोई अधिकारिक व्यवस्था नहीं होने से वे अपने धर्म मार्ग से विमुख होते जा रहे हैं। आज तक हिन्दू समाज इस अन्याय के प्रति आक्रोशित तो हैं परन्तु संवैधानिक विवशता से बंधा हुआ हैं।
हमारे संविधान में अल्पसंख्यकों को एक ओर तो उनको अपने धार्मिक कानूनों (पर्सनल लॉ) के अनुसार पालन करने की छूट है और दूसरी ओर संवैधानिक अधिकार भी बहुसंख्यकों के बराबर ही मिले हुए है। फिर भी विभिन्न राष्ट्रीय योजनाओं और नीतियां जैसे परिवार नियोजन, पल्स पोलियो, राष्ट्रगान, वन्देमातरम् आदि पर इस सम्प्रदाय विशेष का आक्रामक व्यवहार बना ही रहता है। इनके पर्सनल लॉ के अनुसार उत्तराधिकार, विवाह, तलाक़ आदि के सम्बंध में मुस्लिम महिलाओं के उत्पीड़न को रोका नहीं जा सकता।वर्तमान शासन ने मुस्लिम महिलाओं पर एक साथ “तीन तलाक़” कहने की वर्षो से चली आ रही अमानवीय प्रथा को समाप्त करके एक सराहनीय कार्य अवश्य किया। परंतु बहुविवाह का चलन अभी भी बना हुआ है जिससे मुस्लिम महिलाओं की पीड़ा को समझना कठिन है। साथ ही प्रजनन द्वारा बच्चे जनने की कोई सीमा न होने से इन महिलाओं को विभिन्न गंभीर बीमारियों को झेलना पड़ता है। साथ ही जनसंख्या नियंत्रण की नीति पर भी मुस्लिम समुदाय की बहुविवाह एक बड़ा रोड़ा बनी हुई है l
अधिकाँश कट्टरपंथी व उनके सहयोगी कहते हैं कि सरकार को हमारे धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप करने का कोई अधिकार नहीं है। परंतु सरकार का अपने नागरिकों को ऐसे अमानवीय अत्याचारों से बचाने का संवैधानिक दायित्व तो है। आज के वैज्ञानिक युग में जब आधुनिक समाज चारों ओर अपनी अपनी प्रतिभाओं के अनुसार निरंतर प्रगति के पथ पर अग्रसर है तो उस परिस्थिति में हलाला, मुताह व बहुविवाह जैसी अमानवीय कुरीतियों को प्रतिबंधित करके मुस्लिम महिलाओं को व्याभिचार की गंदगी से बचा कर उनके साथ न्याय तो होना ही चाहिये।
“समान नागरिक संहिता” का विरोध करने वाले कट्टरपंथी मुल्लाओं में इन मज़हबी अमानवीय कुरीतियों के प्रति कोई आक्रोश नहीं, क्यों ? बल्कि कट्टरपंथी मुल्लाओं ने “समान नागरिक संहिता” से मुस्लिम समाज में एक भय बना रखा है मानो कि भविष्य में उनके शवों को भी दफनाने की प्रथा के स्थान पर कहीं जलाने की व्यवस्था न हो जाय ? इस प्रकार के अज्ञानता से भरे रुढिवादी समाज को “अपना विकास, सबका साथ और सबका विश्वास” तो चाहिए परंतु उसको ठोस आधार देने वाली “समान नागरिक संहिता” स्वीकार नहीं, क्यों ? यह कहाँ तक उचित है कि देश में सुधारात्मक नीतियों का विरोध केवल इसलिए किया जाय कि कट्टरपंथी मुल्लाओं की आक्रमकता बनी रहे और अमानवीय अत्याचार होते रहे ? जबकि मुसलमानों को अनेक लाभकारी योजनाओं से लाभान्वित किया जाता है। फिर भी वे अपनी दकियानूसी, रूढ़िवादी व धार्मिक मान्यताओं से कोई समझौता तो दूर उसमें उन्हें कोई दखल भी स्वीकार नहीं।
यहाँ एक और विचारणीय बिंदु यह भी है कि मुस्लिम समुदाय ने अपराधों पर अपने मज़हबी कानून “शरिया” के स्थान पर “भारतीय दंड संहिता” को ही अपनाना उचित समझा है। क्योंकि शरिया में अपराधों की सजा का प्रावधान अत्यधिक भयानक व कष्टकारी है। फिर भी “समान नागरिक संहिता” का विरोध करना इनका जिहादी जनून है।
जबकि “समान नागरिक संहिता” में सभी धर्म, सम्प्रदाय व जाति के देशवासियों के लिए एक समान व्यवस्था होने से परस्पर वैमनस्य अवश्य कम होगा। परंतु विडम्बना यह है कि एक समान कानून की माँग को साम्प्रदायिकता का चोला पहना कर हिन्दू कानूनों को अल्पसंख्यकों पर थोपने के रूप में प्रस्तुत किये जाने का कुप्रचार किया जाता रहा है।
यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है कि सन् 1947 में हुए धर्माधारित विभाजन के 74 वर्ष बाद भी देश में अल्पसंख्यकवाद को प्रोत्साहित करने की परंपरा यथावत बनी हुई है। इस कारण मौलिक व संवैधानिक अधिकारों के होते हुए भी पर्सनल लॉ की कुछ मान्यताएं कई बार विषम परिस्थितियाँ खड़ी कर देती है, तभी तो उच्चतम न्यायालय “समान नागरिक संहिता” बनाने के लिए सरकार से बार-बार आग्रह कर रहा है। “राष्ट्र सर्वोपरि” की मान्यता मानने वाले भी यह चाहते हैं कि एक समान व्यवस्था से राष्ट्र स्वस्थ व समृद्ध होगा और भविष्य में अनेक संभावित समस्याओं से बचा जा सकेगा। साथ ही भविष्य में असंतुलित जनसंख्या अनुपात के संकट से भी बचेंगे और राष्ट्र का पंथनिरपेक्ष स्वरूप व लोकतांन्त्रिक व्यवस्था भी सुरक्षित रहेगी।
आज देश में स्वस्थ राष्ट्रवाद की पताका लहरा रही है। ऐसे में देश की संप्रभुता, एकता व अखंडता को सुदृढ़ व अटूट रखने के लिए “समान नागरिक संहिता” द्वारा सबका विश्वास पाना भी सरल है। कुछ वर्षों से यह विषय अत्यधिक चर्चा में है परन्तु राष्ट्रीय स्तर पर सकारात्मक वातावरण नहीं बन पा रहा जिससे ऐसा प्रतीत होता है कि अभी शासन असमंजस में है। जबकि यह मानना अतिश्योक्ति नहीं कि एक समान कानून की व्यवस्था से मुख्य धारा की राजनीति व राष्ट्रनीति सशक्त होगी। नि:सन्देह “समान नागरिक संहिता” का प्रावधान मोदी जी के मन्त्र “सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास” पाने का सूत्र बनेगा।
मोदी सरकार के मंत्रिमंडल का ताज़ा विस्तार जहां कई उम्मीदों को जगाता सा दिखता है वहीं वो अपनी कई नाकामियों पर पर्दा डालता भी नज़र आता है। क्योंकि जिस प्रकार से भाजपा के कई दिग्गजों से स्तीफा लेकर नए चेहरों को सरकार में जगह दी गई है उससे इसे मंत्रिमंडल विस्तार न कहकर मंत्रिमंडल सुधार कहा जाए तो भी गलत नहीं होगा।
इतना ही नहीं मिनिमम गवर्नमेंट एंड मैक्सिमम गवर्नेन्स के मंत्र पर चलने वाले प्रधानमंत्री मोदी के इस मंत्रिमंडल विस्तार में 43 मंत्रियों ने शपथ ली है और इसी के साथ मोदी सरकार में मंत्रियों की संख्या 78 तक पहुंच गई है। इस मंत्रिमंडल विस्तार ने कई प्रश्न उत्पन्न किए हैं तो कई संदेश भी दिए हैं।
दअरसल कोरोना काल की शुरुआत में या फिर कोरोना की पहली लहर के दौरान जब कोरोना के कारण पूरे विश्व में तबाही मची हुई थी तब ऐसा लग रहा था कि भारत ने कोरोना को काबू में कर लिया है।
अपने सीमित संसाधनों और विशाल जनसंख्या के बावजूद भारत खुद को कोरोना की तबाही से बचाने में कामयाबी हासिल करके सम्पूर्ण विश्व को चौंका चुका था। मोदी सरकार मोदी ब्रांड बन चुकी थी लेकिन कोरोना की दूसरी लहर समुद्र में उठी सुनामी की वो लहर साबित हुई जिसने वर्तमान सरकार की कार्यक्षमता और उसकी प्रशासनिक क्षमता पर प्रश्न चिन्ह लगाकर उस ब्रांड पर ही पानी फेर दिया।
जिस प्रकार से देश में साधारण एंटीबायोटिक से लेकर जीवन रक्षक दवाओं की कालाबाज़ारी हुई या फिर ऑक्सिजन की कमी से हज़ारों जानें गईं और अस्पतालों में बिलों के द्वारा लूट का उपक्रम शुरू हुआ,आम आदमी के मन में प्रश्न उठने लगा था कि इस देश में प्रशासन नाम की कोई चीज़ भी है या फिर जंगल राज है।
यह सब विशेष रूप से इसलिए भी निराशाजनक था क्योंकि आम आदमी के साथ यह सब उस सरकार के शासन काल में हो रहा था जिस सरकार को उसने बेहद उत्साह और उम्मीदों के साथ दूसरी बार ऐतिहासिक बहुमत के साथ मौका दिया था। शायद आम जनमानस के हृदय में उपजी यही निराशा इस मंत्रिमंडल विस्तार के अनेक कारणों में से एक कारण रहा हो। क्योंकि मोदी जैसा अनुभवी राजनीतिज्ञ यह अच्छी तरह जानता है कि नोटबन्दी या जीएसटी या फिर पेट्रोल डीज़ल की बढ़ती कीमतों जैसे विषयों में भले ही लोग अपने नेता की नीयत देखेते हों लेकिन जब बात आम आदमी के जीवन, उसके स्वास्थ्य, उसके अस्तित्व पर ही आ जाती है तो वो ही जनमानस नीयत नहीं नतीजे देखता है।
और कोरोना काल के निराशाजनक नतीजे किसी से छिपे नहीं है। इस मंत्रिमंडल विस्तार में स्वास्थ्य मंत्री को बदल कर सरकार भले ही यह संदेश देने का प्रयास करे कि जो मंत्री नतीजे नहीं देगा वो हटा दिया जाएगा लेकिन यह संदेश आम आदमी के दिल तक कितना पहुंचता है यह तो समय ही बताएगा।
यही कारण है कि पांच राज्यों में आगामी चुनावों को देखते हुए तमाम राजनैतिक समीकरणों को साधने का लक्ष्य भी इस मंत्रिमंडल विस्तार में छुपा है। इसी को देखते हुए देश के इन प्रदेशों के प्रतिनिधियों को शामिल करने से लेकर अनुसूचित जाति और पिछड़ा वर्ग को इस मंत्रिमंडल में विशेष रूप से शामिल किया गया। इसके अलावा एनडीए के घटक दलों जैसे जनता दल,लोकजनशक्ति पार्टी,अपना दल को भी इस कैबिनेट विस्तार में शामिल करके भाजपा ने एनडीए को भी मजबूती प्रदान की है।
लेकिन राजनीति से इतर अगर इस मंत्रिमंडल विस्तार के सकारात्मक पक्ष की बात की जाए तो यह मंत्रिमंडल शायद आज़ाद भारत के इतिहास में अबतक का सबसे युवा और पढ़े लिखे नेताओं का मंत्रिमंडल है। योग्यता की बात करें तो इसमें सात पीएचडी, तीन एमबीए, तेरह वकील,छ डॉक्टर, पांच इंजीनियर और सात सिविल सेवक मंत्री हैं।
भारत जैसे देश की राजनीति में निश्चित ही यह एक महत्वपूर्ण और सकारात्मक स्वागतयोग्य बदलाव है। क्योंकि इस देश ने राजनीति में योग्यता के आभाव के बावजूद परिवारवाद अथवा भाई भतीजावाद या फिर वोटबैंक के दम पर अंगूठाछाप से लेकर ऐसे नेताओं को देश के महत्वपूर्ण पदों पर बैठे देखा है जिन्होंने अपनी स्कूल की पढ़ाई भी पूरी नहीं कि। देश की राजनीति में ऐसे माहौल से जनता त्रस्त थी और राजनेताओं से उनका मोहभंग होने लगा था ।
लेकिन इस मंत्रिमंडल में शिक्षित और युवा नेताओं को सरकार में शामिल किया जाना जहां एक ओर आम लोगों के मन में उम्मीद जगाता है तो दूसरी ओर नेताओं को कड़े संदेश भी देता है। इस प्रकार के कदम निश्चित ही देश की राजनीति में सकारात्मक बदलाव लाएंगे। इसके अलावा जो सबसे महत्वपूर्ण संदेश इस कैबिनेट विस्तार के द्वारा प्रधानमंत्री ने दिया है वो यह कि वो महिला सशक्तिकरण की केवल बात ही नहीं करते बल्कि उस दिशा में ठोस कदम भी उठाते हैं।
वित्त, विदेश और डिफेंस जैसे महत्वपूर्ण मंत्रालय महिलाओं के हाथ में देकर वो पहले भी महिलाओं में अपना विश्वास व्यक्त कर चुके थे। इस बार उन्होंने सात मंत्रालय महिलाओं के हाथों में सौंपे हैं और अब कुल 11 महिलाएं वर्तमान सरकार में मंत्री है जो महिलाओं के प्रति बदलते दृष्टिकोण का प्रतीक है। तो कहा जा सकता है कि कैबिनेट का यह विस्तार भले ही राजनैतिक नफा नुकसान को ध्यान में रखकर या छवि बदलने की कोशिश में किया गया हो लेकिन इसमें राजनैतिक शुचिता और महिलाओं के प्रति दृष्टिकोण बदलने जैसे महत्वपूर्ण बुनियादी विषयों पर जोर देकर वर्तमान राजनीति की दिशा बदलने का एक गंभीर प्रयास भी किया गया है जिसके लिए प्रधानमंत्री बधाई के पात्र हैं। राजनैतिक हितों को साधते हुए इससे बेहतर मंत्रिमंडल विस्तार शायद नहीं हो सकता था।
जावेद अनीस राज कपूर देवानंद और दिलीप कुमार की त्रिमूर्ति ने हिंदी सिनेमा को गढ़ने का काम किया है. दिलीप कुमार का 98 साल की उम्र में इंतकाल हो गया है और इसी के साथ ही हिंदी सिनेमा के शुरूआती तिकड़ी का आखिरी सितारा भी टूट गया,दिलीप कुमार भारतीय सिनेमा में नेहरूवादी युग और मूल्यों के अंतिम प्रतिनिधि थे. वे करीब एक दशक से अस्वस्थ चल रहे थे और शारीरिक व मानसिक रूप से लगभग निष्क्रीय थे साथ ही उनकी स्मरणशक्ति भी बहुत धुंधली हो चुकी थी लेकिन इसके बावजूद भी उनकी खामोश और गरिमामयी उपस्थति बनी हुयी थी. फिल्मी दुनिया के लिये तो उनकी मौजूदगी एक बुजुर्ग के साये की तरह थी जिनसे इंडस्ट्री के बड़े से बड़े अभिनेता प्रेरणा लेने की बात स्वीकार करने में गर्व महसूस करते थे. पिछली सदी के चौथे दशक में फिल्मी दुनिया में दिलीप कुमार की आमद ने अदाकारी के मायने ही बदल दिये. वे भारत ही नहीं दुनिया भर के उन शुरुआती मेथड अभिनेताओं में से एक रहे हैं जिन्हें “थेस्पियन” कहा जाता है. उन्होंने अपने समय और बाद की पीढ़ियों के अभिनेताओं को अदाकारी का गुर सिखाया है जो उनके जाने के बाद भी जारी रहने वाला है. वैसे तो उनकी आखरी फिल्म “किला” थी जो 1998 में रिलीज हुई थी. इसके बाद से वे स्क्रीन से अनुपस्थिति रहे. लेकिन उनकी आखिरी सफल और व्यावसायिक फिल्म “सौदागर” थी जो तीन साल पहले 1991 में रिलीज हुयी थी. इस दौरान कई पीढ़ियाँ उनके स्क्रीन प्रभाव से अछूती रही हैं इस बीच समाज, राजनीति, तकनीकी और खुद फिल्मी दुनिया भी पूरी तरह से बदल चुकी है. दुर्भाग्य से 80 और 90 के दशक में दूसरी पारी के दौरान उनकी अभिनय प्रतिभा का समुचित उपयोग नहीं हो सका. 1981 में आयी “क्रांति” से लेकर 1998 में रिलीज हुई “क़िला” के बीच उनकी भूमिकाओं में एक प्रकार की एकरूपता दिखाई पड़ती है. शायद इस दौरान ऐसा कोई निर्देशक नहीं था जो उन्हें विविध और चुनौतीपूर्ण भूमिकाएं दे सके. लेकिन इन सबके बावजूद दिलीप कुमार अपने आखरी सांस तक एक किवदंती बने रहे और आगे भी अदाकरों के अभिनय में बहते रहेगें. ‘दिलीप कुमार’ उनका स्क्रीन नाम था जिसे उन्हें बॉम्बे टॉकीज़ की मालकिन देविका रानी से मिला था. इससे पहले भी उन्होंने अपने पति हिमांशु राय के साथ मिलकर कुमुदलाल गांगुली को “अशोक कुमार” का स्क्रीन नाम दे चुकी थी जो बाद में इंडस्ट्री के “दादा मुनि” कहलाये. ये देविका रानी ही थीं जिनकी पारखी नजरों ने यूसुफ़ खां में छिपे ‘दिलीप कुमार’ को पहचाना था और उन्हें पहला मौका भी दिया था. बॉम्बे टॉकीज़ में काम करते हुये उन्हें अशोक कुमार की सोहबत मिली. एक अभिनेता के तौर पर दिलीप कुमार करीब सन् चालीस से लेकर नब्बे तक करीब 6 दशकों तक सक्रिय रहे लेकिन इस दौरान उन्होंने मात्र 63 के करीब फिल्में की हैं जिससे पता चलता है कि एक कलाकार के तौर पर वे कितने चूज़ी और परफेक्शनिस्ट थे.1944 में आई अपनी पहली फिल्म ‘ज्वार भाटा’ और 1998 में आई अंतिम फिल्म ‘क़िला’ के दौरान न केवल बेहतरीन अभिनय किया है बल्कि अभिनय के विभिन्न आयामों को परिभाषित भी किया है. वे भारतीय सिनेमा में अभिनय के पहले और वास्तविक ट्रेंड सेटर थे. जब उन्होंने अपना अभिनय शुरू किया था भारत में उनके पास अभिनय कला का कोई उल्लेखनीय उदाहरण नहीं था इसलिये उन्हें अपनी राह खुद बनानी पड़ी जो बाद में दूसरे अभिनेताओं के लिये भी अभिनय का रास्ता बना. दिलीप कुमार सिनेमा के उन दुर्लभ अभिनेताओं में से हैं जो एक साथ “स्टार” और “अभिनेता” दोनों थे उन्होंने बॉक्स ऑफिस और फिल्म आलोचकों दोनों को सामान रूप से आकर्षित किया. उन्होंने राजकपूर और देवानंद के साथ मिलकर हिंदी सिनेमा को शुरुआती दौर से निकाल पर परिपक्व बनाया लेकिन जब सिर्फ अभिनय की बात आती है तो बाकी सब पीछे छूट जाते हैं और उनकी तुलना हॉलीवुड के शुरूआती मेथड एक्टर मार्लन ब्रैंडो से की जाती है. दुर्भाग्य से दुनिया दिलीप कुमार के मुकाबले मार्लन ब्रैंडो को ज्यादा जानती और मानती है, ऐसा शायद हॉलीवुड और अंग्रेजी की वैश्विक पहुंच और औपनिवेशिक मानसिकता की वजह से हैं.बेशक मार्लन ब्रैंडो महान कलाकार हैं लेकिन दिलीप कुमार को अभिनय के मामले में किसी भी तरह से उनसे उन्नीस नहीं कहा जा सकता है. मार्लन ब्रैंडो को पहला मेथड एक्टर होने का श्रेय दिया जाता है जबकि वे अपने उम्र और अभिनय कैरियर के शुरुआत के मामले में दिलीप कुमार से करीब 6 साल जूनियर थे साथ ही ब्रैंडो के पास स्टेला एडलर जैसी शिक्षिका थीं जिन्होंने उन्हें मेथड एक्टिंग के गुर सिखाया था लेकिन दिलीप कुमार के मामले में ऐसा नहीं था. बहरहाल उनके अभिनय कला का हिंदी ही नहीं पूरे भारतीय सिनेमा पे बहुत गहरा प्रभाव पड़ा है और यह हमेशा कायम रहेगा. यह कहा भी जाता है कि भारत के हर अभिनेता के अंदर थोड़ा थोड़ा दिलीप कुमार जरूर होता है और जिसके अंदर ज्यादा होता है वह बड़ा अभिनेता बन जाता है. अभिनेता शाहिद कपूर ने उन्हें श्रद्धांजलि देते हुये कहा भी है “हम सभी दिलीप साब के संस्करणों के अलावा कुछ भी नहीं हैं”. दिलीप कुमार उन चुनिन्दा शख्सियतों में से हैं जिनपर भारत और पाकिस्तान दोनों सामान रूप से हक़ जताते हैं और गर्व महसूस करते हैं. उनका नाम आने से दोनों मुल्कों की सरहदें और दुश्मनियां हवा और पानी की तरह बहने लगती थी. दोनों मुल्कों ने उन्हें भरपूर प्यार दिया, पाकिस्तान ने उन्हीं अपने सर्वोच्य नागरिक सम्मान निशान-ए-इम्तियाज़ से नवाजा था. भारत में भी उन्हें पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया था.सही मायनों में वे इस उपमहादीप के सबसे सम्मानित फिल्मी कलाकार थे. हॉलीवुड के निर्देशक मार्टिन स्कॉर्सेज़ ने एक बार मार्लन ब्रैंडो के बारे में कहा था, “वे मार्कर हैं, हॉलीवुड में सब कुछ ‘ब्रैंडो से पहले और ‘ब्रैंडो के बाद है”. कुछ ऐसा ही हिंदी सिनेमा के दिग्गज अमिताभ बच्चन ने दिलीप कुमार के बारे में कहा है, दिलीप कुमार को श्रद्धांजलि देते हुये उन्होंने ट्विटर पर लिखा है “जब भी भारतीय सिनेमा का इतिहास लिखा जाएगा वो हमेशा दिलीप कुमार से पहले और दिलीप कुमार के बाद लिखा जाएगा”. भारत ने अपने एक ऐसे रत्न को खोया है जिसकी विरासत को हम हमेशा सहेंज कर रखना चाहेगें. अलविदा “थेस्पियन” आपने एक ऐताहिसिक और नाबाद पारी खेली है.
शक्ति ही तो शांति का आधार है l शांति स्थापित करने के लिए शक्तिमान बनना ही होगा l बार-बार आत्मसमर्पण को विवश होने से तो अच्छा है कि संगठन की शक्ति का शंखनाद हो और हिंदुओं में तेजस्विता का संचार हो l मुसलमानों के दिल में जगह बनाने के प्रयास में वर्षों से सक्रिय संघ प्रमुख भागवत जी क्या संघ के लाखों स्वयंसेवकों को बारंबार भ्रमित करके उनमें अपने प्रति कोई विद्रोह की भावना तो नहीं भड़का रहे हैं_?
जिस प्रकार किसी भी सेना की शक्ति उसके सेनापति में होती है और सेनापति की शक्ति भी वह सेना है उसी प्रकार झुंड की शक्ति भेड़िया है और भेड़िये की शक्ति झुंड है अर्थात सेनापति और सेना एक-दूसरे के बिना अधूरे हैं l अतः शत्रु पर विजयी होने के लिये परस्पर सामंजस्य होना अति आवश्यक है l शास्त्रों और शस्त्रों को समयानुकूल सदुपयोग ही बुद्धिमत्ता होती है उसी प्रकार संगठन के कार्यकर्ताओं को भी साथ लेकर चलने में ही नेतृत्व की कुशलता है l
यह चिंता का विषय है कि राजनैतिक लाभ-हानि के विचार से हम बढते हुए इस्लामिक आतंकवाद और कट्टरवाद की आलोचना करने में घबराते है और आत्मनिंदा (हिन्दुत्व की निंदा) को पंथनिरपेक्षता मान कर मुस्लिम सांप्रदायिक कट्टरता को ही दुस्साहसी बना रहे हैं l हिन्दुत्व की रक्षार्थ हिन्दुओं की एकजुटता के सभी विरोधी हो जाते हैं परंतु आक्रामक मुस्लिम एकजुटता और कट्टरता पर कोई क्यों नहीं चिंता करता ? यह कैसी विडम्बना है कि पीड़ित हिन्दुओं का विरोध और जेहादियों से सहानुभूति को राष्ट्रवाद का रूप दिया जा रहा है ? जबकि यह सत्य है कि हिन्दुत्व सहिष्णुता का प्रतीक है पर सहिष्णुता की भी एक सीमा होती हैं l अतः जब राष्ट्रभक्ति के प्रवाह के बीच अवरोध उत्पन्न होगा तो अवरोध को भी अपनी प्रवृत्ति बदलने को विवश होना पड़ सकता है l
हिन्दू राष्ट्र के स्वपन दृष्टा भाई परमानंदजी कहा करते थे कि “यह ठीक है कि मुसलमान पहले हिन्दू ही थे तथा वे हमारे समाज के ही अंग है, परंतु जिस प्रकार शरीर में दो प्रकार के कीटाणु होते हैं एक स्वास्थ के लिए व दूसरा रोग के लिए l उसी प्रकार ये रोग के कीटाणु हैं l जिस प्रकार स्वास्थ्य के कीटाणुओं को प्रबल करना आवश्यक है उसी प्रकार हिन्दू समाज का प्रबल होना भी आवश्यक है l इस देश की समस्या हिंदू-मुस्लिम एकता से नहीं समस्त हिन्दू समाज को एक झंडे तले लाकर ही सुलझेगी l”
डॉ भीमराव अंबेडकर ने बौद्ध धर्म स्वीकार करने के बाद भी अक्टूबर 1935 में लाहौर में आयोजित “जाति-पाति तोड़क मंडल” के एक कार्यक्रम में कहा था कि “हिन्दू संगठित नहीं बने तो एक दिन ऐसा आएगा जब उन्हें अपने समाज या जाति का कुछ भी बचा पाना सम्भव नहीं होगा l हिन्दू संगठन राष्ट्रीय कार्य है l वह स्वराज्य से भी अधिक महत्व का है l स्वराज्य का संरक्षण नहीं किया तो क्या उपयोग? स्वराज्य के रक्षण से भी स्वराज्य के हिन्दुओं का संरक्षण करना अधिक महत्त्व का है l हिंदुओं में सामर्थ्य नहीं होगा तो स्वराज्य का रूपांतर दासता में हो जाएगा l”
भारतीय संस्कृति के उदार, सहिष्णु, अहिंसक, त्याग, क्षमा व दया आदि अनेक सकारात्मक तथ्यों को हम आत्मसात करके उसी अनुसार व्यवहार करते आ रहे हैं l लेकिन अपनी ही प्राचीन संस्कृति की अनमोल उक्तियों “जैसे को तैसा”, “हिंसक के आगे कैसी अहिंसा”, “दुर्जन के आगे कैसी सज्जनता”, “भय बिन होत न प्रीत” और “अन्याय एवं अत्याचार करने वालो का विरोध” आदि ऊर्जावान करने वाले कथनों को भूलते रहे, परिणामत: हम हिन्दुओं को कायर, नपुंसक, दुर्बल, डरपोक व लालची आदि न जाने क्या-क्या समझा जाने लगा l क्या ऐसी विनम्रता से आक्रमकता का संगम हो सकता है? हमको बार-बार झुकाना नहीं झुकना सिखाया जाता है, क्यों?
अरब के सूखे रेगिस्तान में पला-बढा कट्टर लडाकू सम्प्रदाय है : “इस्लाम” l इसमें रेगिस्तान के समान ही निर्ममता, संकीर्णता, असहिष्णुता और मजहबी कट्टरता है l मुसलमान इस्लाम में बने रहकर उनके सिद्धान्तों का त्याग नहीं कर सकता और उसके पालन का सीधा अर्थ है, युद्ध, विध्वंस और अशांति l वे कुरान को अल्लाह का संदेश समझते हैं, जिसका एक शब्द भी परिवर्तित या संशोधित नहीं किया जा सकता l मुसलमानों का पवित्रम धर्मग्रंथ कुरान घोषित करता है कि “काफ़िर तुम्हारे खुले शत्रु है” जबकि हिन्दू कहते हैं कि हिन्दू-मुस्लिम-सिक्ख-इसाई सब हैं आपस में भाई-भाई l
मुस्लिम संगठनों की ही व्यापक अड़ियल, अराजक, हिंसक व बर्बरतापूर्ण कार्यवाहियों के कारण जब धार्मिक आधार पर देश का विभाजन हुआ तो अब यह कहना कि भारत की अखंडता के लिये हिन्दू – मुस्लिम एक साथ आये, क्या इतिहास को भूला कर नकारना होगा? देश आज तक अपनी उन्हीं समस्याओं से जुझ रहा हैं l सन् 1947 के विभाजन का मुख्य ध्येय हिन्दू – मुस्लिम जनता की पूर्णतः अदला-बदली होना सुनिश्चित होते हुए भी उसे ठुकराया जाना तत्कालीन नेताओं की अदूरदर्शिता को भयंकर भूल मान कर मौन रहने को विवश कर देता है l जब तक काफ़िर – कुफ्र की रुग्ण मानसिकता प्राचीन अखंड भारत के मुस्लिम समाज को जिहाद के लिये उकसाती रहेगी तब तक मानवता और राष्ट्रवाद को सुरक्षित कैसे रख पायेंगे? पिछले वर्ष “नागरिकता संशोधन अधिनियम” के विरुद्ध सक्रिय छोटे- छोटे बच्चे जो बचपन से काफ़िर-काफ़िर व जिहाद-जिहाद खेलते हो उनसे यह सब कराना बहुत सरल हो जाता हैं l काफ़िर कौन है और जिहाद क्या है यही इनकी शिक्षा है l
डी.एन.ए. एक शारीरिक जैविक परीक्षण होता है उससे शरीर के भौतिक गुणों की रचना का ज्ञान मिलता है। शांति, सौहार्द, एकता व स्वभाव आदि व्यवहारिक गुण तो केवल संस्कृति व संस्कारों के माध्यम से ही विकसित होते हैं। कौरवों व पांडवों का भी डीएनए एक ही था लेकिन संगत और संस्कारों के कारण उनके भी धर्म और अधर्म के लिए दृष्टिकोण भिन्न-भिन्न हुए l इसलिए शांति व सौहार्द आदि को डीएनए के परीक्षण से नही जांचा जा सकता l अतः भारतीय संस्कृति व इस्लामिक संस्कृति के मूलभूत भेदों को मिटाये बिना सभ्यताओं के टकरावों को टाला जाना सरल नहीं होगा? ऐसे में रेगिस्तान की भूमि से उपजी इस्लामिक अमानवीय संस्कृति और भारत भक्ति के संस्कारों से निर्मित राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का घालमेल कैसे सम्भव हो पायेगा?
महात्मा कहे जाने वाले गांधी जी का एक पंक्ति में अहिंसा का सूत्र “वध होने के लिए स्वयं को हत्यारों के सम्मुख प्रस्तुत कर दो”, क्या स्वीकार्य होगा?
अल्पकालिक सामाजिक व राजनैतिक लाभ दीर्धकाल में विनाशकारी बन सकता है l ऐसे में समस्याओं के समाधान के स्थान पर सम्भवत अनगिनत संघर्षों का सामना करना पड़े तो कोई आश्चर्य नहीं होगा? जेहादियों की तैयारी ज़ारी है,जिनको हम शांतिदूत कहते हैं l अपना अस्तित्व सुरक्षित रखना है तो मित्र व शत्रु में भेद करना आना चाहिए l मुस्लिम नेताओं के जिहादी विचारों को बदला नही जा सकता जबकि ऐसा प्रतीत हो रहा है कि हमारे कुछ नेताओं के स्वार्थ सिद्ध होते ही विचारों में परिवर्तन आने लगता है l इसी निर्बलता के कारण मोब लिंचिंग (भीड़ हिँसा) एक नया शब्द गढ कर तथाकथित बुद्धिजीवियों ने बड़ी चालाकी से मुस्लिम साम्प्रदायिता के दर्दनाक अत्याचारों से भरे इतिहास और वर्तमान दोनों को भुलाने व गौ हत्या के पापियों को बचाने के बहाने हिंदुओं को ही दोषी बना कर भ्रमित प्रचार करने का माध्यम बना लिया था l भीड़ हिंसा के भ्रमित करने वाले विषय को जब देश लगभग भूल चुका है तो अब उसको पुनः जीवित करके अपने ही राष्ट्रवादी समाज को कोसने की क्या आवश्यकता थी ? जबकि सामूहिक धर्मांतरण, सामूहिक बलात्कार, सामूहिक कत्लेआम व सामूहिक दंगे व लूटमार आदि अत्याचार क्या “मॉब लिंचिंग” के सर्वाधिक उचित प्रमाणों से भरें हुए नित्य आने वाले समाचारों पर उदासीन रहने के बाध्य होना पड़ता है ?
जितना राष्ट्रवादी हिन्दू समाज मुसलमानों के लिये बाहें पसार रहा है उतना ही अधिक तेजी से भारत में मुस्लिम आतंकवादियों के स्लीपर सेल व ओवर ग्रांउड वर्कर के अतिरिक्त अब हाइब्रिड व पार्ट टाईम आतंकवादियों के नये नये रूपों के भी समाचार आने लगे हैं l आज हमारा राष्ट्र रूपी मंदिर आई.एस.आई व मुस्लिम आतंकवादियों के संगठनों के द्वारा घिरता जा रहा है l इनके जाल को फैलाने में मदरसे व मस्जिदे सहयोगी बने हुए है l किन्तु इनके विरूद्ध असरदार अभियान इसलिए नहीं चलाया जाता कि तथाकथित अल्पसंख्यक मतदाता नाराज हो जाएगा l ध्यान होना चाहिये कि हमारी सीमाओं पर निर्बाध गति से मस्जिदे व मदरसे अवैध रूप से बढ़ते जा रहे हैं और ये इस्लामिक आतंकवादियों के गढ़ बन चुके हैं lजिससे देश में अनेक आपराधिक व आतंकी षडयंत्रो का संचालन होता है। क्या ऐसे में विश्व का सबसे बड़ा अनुशासित व सामर्थ्यशाली संगठन आरएसएस अगर राष्ट्र की सीमाओं पर अपनी उपस्थिति सुनिश्चित करता है तो यह उन समस्त घुसपैठियों, आतंकवादियों व भारतविरोधी शक्तियों के विरुद्ध राष्ट्र की रक्षा में एक बड़ा योगदान होगा।
हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि ये अतिवादी तत्व इसलिए बने हुए हैं, क्योंकि इनका पोषण करने वाला समाज अभी भी सक्रिय हैं l शासन-प्रशासन को इनके वैचारिक जिहादी दुष्प्रचारकों व उनसे सहानुभूति रखने वालों को भी पहचानना आवश्यक है l ऐसे कट्टरपंथियों को ढील देना संकट को निमंत्रण देना होगा l भारत भक्तों में जेहादियों के अत्याचारों के प्रति आक्रोश कौन भरेगा?
लोकतांत्रिक व्यवस्था की ऐसी विडंबनाये जब भविष्य में राष्ट्र की संप्रभुता व अखंडता पर प्रहार करेगी तो प्रजा का कैसे और कौन बचाव करेगा ? क्या राष्ट्रीय हितों के लिए राजनैतिक स्वार्थो को त्यागना आवश्यक नहीं होगा? अतः शान्ति व मानवता की रक्षार्थ सभ्य समाज को भी इस्लामिक आतंकवाद पर अंकुश लगाने के लिये शक्तिमान बनना होगा l
ठीक है कि गुलामी के दौर में विधर्मी आक्रांताओं ने हमारी संस्कृति, हमारे धर्म पर भी हृदय विदारक एवं जघन्यतम हमले किये। देवी-देवताओं के मंदिरों को ही नहीं ज्ञान के मंदिरों को भी भारी क्षति पहुंचाई गई। मंदिरों की अकूत सम्पत्तियों को लूटा खसोटा गया और पुजारियों व रक्षकों की निर्मम हत्यायें की गई। और तो और अनेक प्रख्यात हिन्दू मंदिरों को तोड़कर वहां/उन पर मस्जिदें तामीर कर दी गई। यह तो नहीं कहा जा सकता है कि सनातन धर्म व सनातन संस्कृति की रक्षा हेतु हिन्दुओं ने कुछ किया ही नहीं। कुर्बानियां दी ही नहीं पर नि:संदेह सिखों की कुर्बानियों के आगे उनकी कुर्बानियां फ ीकी पड़ जाती हैं। हालांकि सिख भी जैन, बौद्ध की तरह हिन्दू से ही उपजे हैं। सत्य तो यह है कि सिखों का आर्विभाव ही सनातन संस्कृति की रक्षार्थ हुआ था। यह बात दीगर है कि कालांतर में उनकी अपनी अलग पहचान बन गई। जैसा कि इसी स्तम्भ में पूर्व में बार-बार लिखा जा चुका है कि दुनिया के सारे धर्म/सम्प्रदाय वैदिक धर्म की ही देन है। और अधिसंख्य धर्म व्यक्ति विशेष द्वारा प्रवर्तित हैं इसी लिये ऐसे धर्मो को सम्प्रदाय कहा जाता है। अहम सवाल यह उठता है कि आखिर देश आजाद होने के बाद धर्मान्तरण क्यों कर जारी रहा/जारी है? यह तथ्य भी बार-बार उजागर हो चुका है कि धर्मान्तरण के शिकार मुख्य रूप से दलित वर्ग के ही लोग होते रहे हैं। अब सवाल उठता है कि इसके लिये कौन जिम्मेदार है? सपाट उत्तर है कि सरकार व समाज दोनो बराबर के जिम्मेदार हैं। सरकार इसलिये कि उसने धर्मान्तरण के विरूद्ध कोई प्रभारी कानून ही नहीं बनाया। यह भी कि संविधान में ‘धर्म निरपेक्षÓ शब्द जोड़कर देश में हिन्दुत्व के साथ सनातन धर्म को भी कमजोर करने का सधा खेल खेला गया और ऐसा महज मुस्लिम वोटों के लिये किया गया। सरकार के कर्णधार माने जाने वाले राजनीतिक दलों ने वोटों के लिये हिन्दुत्व व सनातन धर्म का कितना नुकसान किया अब यह तथ्य भी किसी से छिपा नहीं रह गया है। आजादी के बाद जातिपात को नये सिरे से परवान चढ़ाने का काम देश के कुछ चुनिंदा राजनीतिक दलों ने किया ही नहीं आज भी करने में संलग्न है। और अंतत: इन सबके लिये हमारा हिन्दू समाज जिम्मेदार है। विशेषकर हिन्दू समाज के ठेकेदार प्रभुत्वशाली सर्वण व दलित वर्ग के कथित मसीहाओं ने अपने तुच्छ स्वार्थो के खातिर समाज व राष्ट्र के साथ अक्षम्य अपघात किया व आज भी कर रहे हंै। दुर्भाग्य देखिये कि ऐसे मुठ्ठी भर तत्वों ने समाज की एक जुटता को जो नुकसान पहुंचाया उसका न तो समाज ने कभी संगठित विरोध किया और न ही उसके गंभीर परिणामों पर चिंतन की आवश्यकता ही समझी। इसमें दो राय नहीं है कि हर स्तर पर सरकारी संरक्षण मिलने के बावजूद आज भी दलितों के साथ घृणित भेदभाव की घटनायें सामने आती ही रहती हैं। इससे अधिक लज्जाजनक हो भी क्या सकता है कि आजादी के ७४ वर्षो बाद भी समाज, ऊंच-नीच, सवर्ण एवं दलित के खांचे में बंटा हुआ है। छुआ-छूत का कंलक आज तक नहीं मिट सका है। यह भी कम लोमहर्षक नहीं है कि कल के अपमानित दलित वर्ग के वे लोग जो आज ताकतवर बन चुके है प्रत्यक्ष/अप्रत्यक्ष अपने स्वार्थो हेतु अपने ही भाई बन्धुओं को सवर्णो के खिलाफ भड़काने का कोई अवसर हाथ से नहीं जाने देते। चुनाव के समय ऐसे ही लोग अपनी विरादरी के वोटों का ठेका लेने में भी गुरेज नहीं करते। ऐसी स्थिति में सवर्ण समाज का चाहे ब्राह्मण हो, चाहे क्षत्रिय और चाहे वैश्य सभी का दायित्व और बढ़ जाता है। सर्वण समाज को पूरी ईमानदारी से खासकर समाज के दलित भाईयों को समाज की मुख्य धारा में लाना ही होगा। उनकी परेशानियों को दूर करने के साथ उनकी जरूरते पूरी करनी होगी ताकि वे विधर्मियों के चंगुल में फ ंसने को मजबूर न हो। कुल मिलाकर आज पूरे देश में पूरी ताकत के साथ ‘छुआछूत विरोधी आंदोलन, ‘दलित आत्म सम्मान जैसे आंदोलन चलाने की जरूरत है। यदि ऐसा होता है तो कोई ताकत नहीं जो एक भी हिन्दू का धर्म परिवर्तन करा सके। अथवा कोई भी हिन्दू धर्म परिवर्तन को विवश हो सके।
, यह बात पूरी तरह से सत्य है बढ़ती हुई जनसंख्या किसी भी देश अथवा परिवार के लिए शुभ संकेत नहीं है। यदि उच्च शिक्षा तथा उच्च चिकित्सा का बात करते हैं तो बढ़ती हुई जनसंख्या बहुत बड़ा संकट सामने खड़ा कर देती है। किसी भी परिवार को सम्पन्न और सबल बनाने में शिक्षा का बहुत बड़ा योगदान होता है। लेकिन यह तभी संभव हो पाता है जब किसी भी परिवार की जनसंख्या नियन्त्रित हो जोकि संसाधनों को ध्यान में रखकर तैयार की गई हो। ऐसा कदापि नहीं हो सकता कि किसी भी परिवार में बीस बालक हों और सभी बालक उच्च शिक्षा ग्रहण पाएं। इसके लिए सबसे पहले जनसंख्या वृद्धि को नियंत्रित करना होगा। जब तक जनसंख्या वृद्धि में नियंत्रण नहीं होगा कोई भी प्रयोग सफल नहीं हो सकता। अच्छा भविष्य एवं खुशहाल जीवन यदि बनाना है तो निश्चित ही जनसंख्या विस्फोट पर लगाम लगानी पड़ेगी। संयुक्त राज्य अमेरिका की जनगणना ब्यूरो द्वारा प्रकाशित एक पत्र के अनुसार विश्व की जनसंख्या 24 फ़रवरी 2006 को 6.3अरब 650,00,00,000 के आंकड़े से भी पार हो चुकी है। 1987 में विश्व जनसंख्या के 5 अरब तक पहुँचने के लगभग 12 साल बाद और 1993 में विश्व जनसंख्या के 5.5 अरब तक पहुँने के 6 साल बाद हुआ। 1700 वीं शताब्दी के बाद जैसे जैसे औद्योगिक क्रांति तेज़ गति से बढ़ती गयी वैसे वैसे जनसंख्या वृद्धि में भी काफ़ी बढ़त देखने को मिली पिछले 50 वर्षों में जनसंख्या वृद्धि की दर और भी ज़्यादा तेज़ हुई इसकी मुख्य वजह है जागरूकता का आभाव। सन् 2007 में संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या प्रभाग ने अनुमान लगाया कि वर्ष 2055 में दुनिया की आबादी 10 अरब के आँकड़े को पार कर जाएगी जोकि संपूर्ण विश्व के लिए बहुत ही घातक होगा। यह एक ऐसा भय है जिससे कि निकट भविष्य में दुनिया की आबादी में वृद्धि शिखर तक पहुंचेगी और उसके बाद आर्थिक कारणों, स्वास्थ्य चिंताओं, भूमि के अंधाधुंध प्रयोग और उसकी कमी और पर्यावरणीय संकटों के कारण पूरे संसार में बड़ी उथल-पुथल भरी तबाही फैल चुकी होगी। इसलिए जनसंख्या वृद्धि को कम करने की जरूरत है। इस पर अंकुश लगाने का मात्र एक उपाय है वह यह कि जन्म दर को कम करके जनसंख्या वृद्धि में कटौती करने को ही आम तौर पर जनसँख्या नियंत्रण माना जाता है। प्राचीन ग्रीस दस्तावेजों में मिले उत्तर जीविता के रिकॉर्ड जनसँख्या नियंत्रण के अभ्यास एवं प्रयोग के सबसे पहले उदाहरण हैं। इसमें शामिल है उपनिवेशन आन्दोलन, जिसमे भूमध्य और काला सागर के इर्द-गिर्द यूनानी चौकियों का निर्माण किया गया था ताकि अलग-अलग राज्यों की अधिक जनसँख्या को बसने के लिए पर्याप्त जगह मुहैया कराई जा सके। कुछ यूनानी नगर राज्यों में जनसँख्या कम करने के लिए शिशु हत्या और गर्भपात को प्रोत्साहन दिया गया था। हत्या और गर्भपात पूरी तरह कानून का उलंग्घन करता जोकि पूरी तरह गलत है किसी की भी हत्या करना अपराध है। परन्तु इसका दूसरा उपाय है कि व्यक्ति को जागरूक करना तथा उसको समाज के प्रति जिम्मेदार बनाना। ऐसा करना सबसे अच्छा विकल्प है। योजनाओं के माध्यम से उसको एक विकल्प प्रदान करना जब व्यक्ति को किसी भी प्रकार का विकल्प दिया जाएगा तो वह निश्चित ही उस विकल्प पर विचार करेगा और स्वेच्छा से जन्संख्या वृद्धि पर स्वयं ही अंकुश लगा देगा। अगर प्रजनन नियंत्रण करने को व्यक्ति के व्यक्तिगत निर्णय के रूप में और जनसंख्या नियंत्रण को सरकारी या राज्य स्तर की जनसंख्या वृद्धि की विनियमन नीति के रूप में देखा जाए तो प्रजनन नियंत्रण की संभावना तब हो सकती है जब कोई व्यक्ति या दम्पति या परिवार अपने बच्चे पैदा करने के समय को घटाने या उसे नियंत्रित करने के लिए कोई कदम उठाए। अन्सले कोले द्वारा दिए गए संरूपण में प्रजनन में लगातार कमी करने के लिए तीन पूर्व प्रतिबंध दिए गए हैं (1) प्रजनन के मान्य तत्व के रूप में परिकलित चुनाव को स्वीकृति (भाग्य या अवसर या दैवीय इच्छा की तुलना में) (2) कम किए गए प्रजनन से ज्ञात लाभ (3) नियंत्रण के प्रभावी तरीकों का ज्ञान और उनका प्रयोग करने का कुशल अभ्यास। प्राकृतिक प्रजनन पर विश्वास करने वाले व्यक्तियों के विपरीत वह समाज जो कि प्रजनन को सीमित करने की इच्छा रखते हैं और ऐसा करने के लिए उनके पास संसाधन भी उपलब्ध हैं। वह इन संसाधनों का प्रयोग बच्चों के जन्म में विलम्ब बच्चों के जन्म के बीच अंतर रखने या उनके जन्म को रोकने के लिए कर सकते हैं। संभोग (या शादी) में देरी या गर्भनिरोध करने के प्राकृतिक या कृत्रिम तरीके को अपनाना ज्यादा मामलों में व्यक्तिगत या पारिवारिक निर्णय होता है इसका राज्य नीति या सामाजिक तौर पर होने वाले अनुमोदनों से कोई सरोकार नहीं होता है। दूसरी ओर वह व्यक्ति जो प्रजनन के मामले में खुद पर नियंत्रण रख सकते हैं। सामाजिक स्तर पर प्रजनन में गिरावट होना महिलाओं की बढती हुई जागरुकता एवं शिक्षा का एक अनिवार्य परिणाम है। हालाँकि मध्यम से उच्च स्तर तक के प्रजनन नियंत्रण में प्रजनन दर को कम करना शामिल हो। यहां तक कि ऐसे अलग-अलग व्यक्तियों की तुलना न कि किसी समाज की जोकि प्रजनन नियंत्रण को अच्छी खासी तरह अपना चुके हैं तो बराबर प्रजनन नियंत्रण योग्यता रखने वाले समाज भी काफी अलग अलग प्रजनन स्तर में भागीदारी ले सकते हैं। जो कि इस बात से जुड़ा होता है कि छोटे या बड़े परिवार के लिए या बच्चों की संख्या के लिए व्यक्तिगत और सांस्कृतिक पसंद क्या है। साथ ही व्यवस्थओं एवं रहन सहन की रूप रेखा पर विचार एवं प्रचार प्रसार हो। जिससे की छोटे परिवार की आर्थिक स्थिति और बड़े परिवार की आर्थिक तंगी को पटल पर रखा जाए। जिससे की साफ एवं स्पष्ट संदेश स्वयं ही ऐसी मानसिकता हो मिल जाएगा जोकि जनसंख्या विस्फोट की जिम्मेदार हैं। प्रजनन क्षमता पर नियंत्रण के विपरीत जो मुख्य रूप से एक व्यक्तिगत स्तर का निर्णय है सरकार जनसँख्या नियंत्रण करने के कई प्रयास कर सकती है जैसे गर्भनिरोधक साधनों तक लोगों की पहुँच बढ़ाकर या अन्य जनसंख्या नीतियों और कार्यक्रमों के द्वारा जैसा की ऊपर परिभाषित है सरकार या सामाजिक स्तर पर जनसंख्या नियंत्रण को लागू करने में प्रजनन नियंत्रण शामिल नहीं है क्योंकि एक राज्य समाज की जनसंख्या को तब नियंत्रित कर सकता है जब समाज में प्रजनन नियंत्रण का प्रयोग किया जाता हो। जनसंख्या नियंत्रण के एक पहलू के रूप में आबादी बढ़ाने वाली नीतियों को अंगीकृत करना भी ज़रूरी है। हाल के सालों में इस तरह की नीतियों फ्रांस और स्वीडन में अपनाई गयी। जनसंख्या वृद्धि नियंत्रण पर कई बार सरकार ने गर्भपात और जन्म नियंत्रण के आधुनिक साधनों के प्रयोग को भी नियंत्रित करने की कोशिश की है। पारिस्थिति में कई बार जनसंख्या नियंत्रण पूरी तरह सिर्फ परभक्षण, बीमारी, परजीवी और पर्यावरण संबंधी कारकों द्वारा किया जाता है। एक निरंतर वातावरण में जनसंख्या नियंत्रण भोजन पानी और सुरक्षा की उपलब्धता द्वारा ही नियंत्रित होता है। एक निश्चित क्षेत्र अधिकतम कुल कितनी प्रजातियों या कुल कितने जीवित सदस्यों को सहारा दे सकता है। ऐसे प्रयोग को उस जगह की धारण क्षमता कहते हैं। कई बार इसमें पौधों और पशुओं पर मानव प्रभाव को भी इसमें शामिल किया जाता है। किसी विशेष ऋतू में भोजन और आश्रय की ज्यादा उपलब्धता वाले क्षेत्र की और पशुओं का पलायन जनसंख्या नियंत्रण के एक प्राकृतिक तरीके के रूप में देखा जा सकता है। भारत एक और ऐसा उदाहरण है जहाँ सरकार ने देश की आबादी कम करने के लिए कई उपाय किए हैं। तेज़ी से बढती जनसँख्या आर्थिक वृद्धि और जीवन स्तर पर सीधा प्रभाव डाल रही है। इस बात की चिंता के अंतर्गत 1950 के दशक के आखिर और 1960 के दशक के शुरू में भारत ने एक आधिकारिक परिवार नियोजन कार्यक्रम लागू किया भारत ऐसी चिंता करने वाला विश्व में पहला देश था। लेकिन सारी नीति कुछ समय के बाद कागज के पन्नों की शोभा मात्र बढ़ाती रह गई और देश में जनसंख्या विस्फोट हो गया। यह जनसंख्या विस्फोट देश और समाज के लिए बहुत बड़ी बीमारी है जिसे सभी देश वासियों को समय रहते समझ लेना चाहिए। खुशहाल जीवन की ओर एक कदम बढ़ाना सबकी जिम्मेदारी है।
वल्र्ड हेल्थ स्टैटिस्टिक्स रिपोर्ट 2021 की रिपोर्ट के अनुसार दुनिया में औसत आयु तो बढ़ रही है, पर स्वस्थ औसत आयु में वैसी बढ़ोतरी नहीं दिख रही। वैश्विक औसत आयु 73.3 वर्ष है तो स्वस्थ औसत आयु 63.7 वर्ष। यानी दोनों के बीच करीब नौ साल का अंतर है। इसका साफ मतलब यह हुआ कि लोगों के जीवन के आखिरी दस साल तरह-तरह की बीमारियों, तकलीफों एवं झंझावतों के बीच गुजरते हैं। बुजुर्ग आबादी के स्वास्थ्य का पहलू बहुत महत्वपूर्ण है। जीवन लम्बा होकर सुखद एवं स्वस्थ नहीं बन पा रहा है, यह चिन्ताजनक स्थिति है, यह स्थिति शासन-व्यवस्थाओं पर एक प्रश्नचिन्ह है। वार्धक्य पश्चाताप नहीं, वरदान बने, इस पर व्यापक कार्य-योजना देश एवं दुनिया के स्तर पर बननी चाहिए। इस रिपोर्ट में महिलाओं और पुरुषों की औसत आयु और उनके स्वास्थ्य से जुड़े कुछ पहलुओं पर नए सिरे से विचार की जरूरत बताई है। रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया भर में महिलाओं की औसत आयु पुरुषों के मुकाबले अधिक है। वे अपेक्षाकृत ज्यादा लंबा जीवन जीती हैं। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि स्वास्थ्य के मामले में भी वे पुरुषों से बेहतर हैं। रिपोर्ट के मुताबिक अगर बात औसत स्वस्थ आयु की हो तो महिलाओं और पुरुषों के बीच का यह अंतर काफी कम हो जाता है। स्वस्थ औसत आयु के लिहाज से महिलाएं और पुरुष करीब-करीब एक जैसी ही स्थिति में हैं। यानी जीवन के आखिरी हिस्से में पुरुषों के मुकाबले स्त्रियों का स्वास्थ्य ज्यादा कमजोर एवं अनेक परेशानियां से संकुल होता है। अपने देश में भी औसत आयु के मामले में पुरुषों से तीन साल आगे दिखती महिलाएं स्वस्थ औसत आयु का सवाल उठने पर पुरुषों के समकक्ष नजर आने लगती हैं। वल्र्ड हेल्थ स्टैटिस्टिक्स रिपोर्ट 2021 के सन्दर्भ में विचारणीय विषय है कि औसत आयु बढ़ने के साथ-साथ स्वस्थ एवं सुखी औसत आयु क्यों नहीं बढ़ रही है। इस सन्दर्भ में चिकित्सा-सोच के साथ-साथ अन्य पहलुओं पर गौर करने की अपेक्षा है। इस दृष्टि से सही ही कहा है कि इंसान के जीवन पर उसकी सोच का गहरा असर होता है और जैसी जिसकी सोच होगी वैसा ही उसका जीवन होगा। इसी वजह से “थिंक पॉजिटिव” यानी “सकारात्मक सोचिए”, यह केवल कहावत नहीं है, बल्कि स्वस्थ एवं सुखी जीवन का अमोघ साधन है। सकारात्मक सोच तब होती है जब आप सकारात्मक दृष्टिकोण के साथ चुनौतियों का सामना करते हैं। यदि आप एक सकारात्मक सोच वाले व्यक्ति हैं तो आप जानते हैं कि जीवन में नकारात्मक परिस्थितियों का सामना कैसे किया जाए। जीवन बाधाओं और चुनौतियों से भरा है, लेकिन अगर आप अपनी मानसिकता को बदल सकते हैं और अधिक सकारात्मक बन सकते हैं, तो यह वास्तव में आपकी स्वास्थ्य सहित कई चीजों में मदद कर सकता है। यह जीवन की सच्चाई है और अब विशेषज्ञों ने भी अपने शोध में साबित किया है कि अगर व्यक्ति जीवन में सकारात्मक सोच रखता है तो स्वस्थ और लंबा जीवन जी सकता है। पॉजिटिव सोच रखने वाले लोग खुश रहते हैं और खुश रहना एक स्वस्थ जीवन जीने के लिए सबसे महत्वपूर्ण है। येल यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने 600 से अधिक लोगों की मृत्यु दर पर जांच की, जिन्होंने सर्वेक्षण के सवालों का जवाब कुछ 20 साल पहले दिया था, जब उनकी उम्र 50 साल की थी। शोधकर्ताओं ने पाया कि कुछ लोग इस तरह के बयानों से सहमत थे, जैसे ‘मेरे बूढ़े होने पर चीजें और खराब हो रही हैं’ और ‘जैसे-जैसे आप बड़े होते जाते हैं, आप कम उपयोगी होते हैं।’ वहीं कुछ इस तरह के बयानों से सहमत थे कि ‘जब मैं छोटा था तब मैं भी उतना ही खुश था।‘ पाया गया कि उम्र बढ़ने पर अधिक सकारात्मक दृष्टिकोण वाले लोग नकारात्मक लोगों की तुलना में औसतन 7.5 वर्ष लम्बा, स्वस्थ एवं सुखी जीवन जीया था। ऐसे ही बोस्टन यूनिवर्सिटी द्वारा किये गये अध्ययन में कहा गया कि लंबी उम्र का राज अच्छी सेहत, संतुलित जीवनशैली और बिना किसी अक्षमता के जीना है, लेकिन सिर्फ नजरिया बदलकर भी अच्छी सेहत पाई जा सकती है और इससे उम्र बढ़ जाती है। शोध में शामिल प्रतिभागियों की औसतन उम्र 70 साल थी। शोध में करीब 70 हजार महिलाएं और 1429 पुरुषों को शामिल किया गया था। नकारात्मक सोच वालों की तुलना में सकारात्मक लोगों के उम्र की संभावना 15 प्रतिशत ज्यादा पाई गई। नयी रिपोर्ट के अनुसार अब हमारी औसत आयु बढ़ रही है तो उस जीवन में सकारात्मकता की ज्यादा अपेक्षा है। सकारात्मकता और हमारी इम्यूनिटी यानी रोगों से लड़ने की क्षमता (प्रतिरक्षा) के बीच गहरा संबंध हैं। एक शोध में 124 प्रतिभागियों ने भाग लिया और आशावादी सोच दिखाने वाले लोगों में अधिक रोगप्रतिरोधक क्षमता दिखाई दी। जिनका नकारात्मक दृष्टिकोण था, उन्होंने अपनी रोगप्रतिरोधक प्रणाली की प्रतिक्रिया पर नकारात्मक प्रभाव दिखाया। शोध यह भी दर्शाता है कि नकारात्मक दृष्टिकोण होने से आप अनेक असाध्य बीमारी की चपेट में आ सकते हैं। अध्ययनों से पता चला है कि सकारात्मक सोच वास्तव में आपको आघात या संकट से जल्दी उबरने में मदद कर सकती है। सकारात्मक सोच आपको अधिक लचीला बनाने में मदद कर सकती है, जो इन कठिन परिस्थितियों का सामना करने में मददगार हो सकता है। तनाव वास्तव में स्वास्थ्य समस्याओं का कारक माना जाता है। सकारात्मक सोच हमारे तनाव के स्तर को सही तरीके से मैनेज करने और कम करने में मदद करता है। अगर किसी भी परिस्थिति में जल्द घबरा जाते हैं तो सबसे पहले नकारात्मकता हावी है जिससे तनाव होना तय है और तनाव के साथ उच्च रक्तचाप की शिकायत रहेगी। अगर किसी भी परिस्थिति में सकारात्मक रहकर डटे रहे तो तनाव नहीं होगा और ब्लड प्रेशर नियंत्रित रहेगा। वल्र्ड हेल्थ स्टैटिस्टिक्स रिपोर्ट 2021 की रिपोर्ट में वृद्ध आबादी के स्वास्थ्य से जुड़े प्रश्नों को प्रमुखता से उजागर किया है। महिलाओं की वृद्धावस्था में गिरती स्वास्थ्य स्थितियां विशेषज्ञों की नजरों से अछूती नहीं रही है, यह अच्छी बात है। परिवार में पितृसत्तात्मक सोच के प्रभाव में महिलाओं के स्वास्थ्य को ज्यादा तवज्जो नहीं मिलती। खाने-पीने के मामले में भी महिलाएं खुद को पीछे रखना उपयुक्त मानती हैं। इसके अलावा आर्थिक आत्मनिर्भरता के अभाव में स्वास्थ्य सेवाओं तक महिलाओं की सीधी पहुंच अमूमन नहीं हो पाती। जैसे-जैसे महिलाओं की आत्मनिर्भरता बढ़ेगी, इस मोर्चे पर सुधार की उम्मीद की जा सकती है। लेकिन जहां तक वैश्विक स्तर पर औसत आयु और स्वस्थ औसत आयु में अंतर का सवाल है तो वहां मामला सरकार की नीतियों और योजनाओं की दिशा का भी है। विभिन्न सरकारों का ही नहीं वैश्विक स्तर पर मेडिकल रिसर्चों के लिए होने वाली फंडिंग में भी जोर मौत के कारणों को समझने और दूर करने पर रहता है जिसका पॉजिटिव नतीजा औसत आयु में बढ़ोतरी के रूप में नजर आता है। अब जरूरत बुजुर्ग आबादी को होने वाली बीमारियों पर ध्यान केंद्रित करने की है ताकि उसे उन बीमारियों बचाने के उपाय समय रहते किए जा सकें। तभी हम अपने बुजुर्गों के लिए लंबा और साथ ही अच्छी सेहत से युक्त सुखी एवं प्रसन्न जीवन सुनिश्चित कर पाएंगे।
सरकार/सत्ता में चेहरा बदलता हैं चाल और चरित्र नहीं। सारे नेताओं का चाल और चरित्र सत्ता मिलते ही वैसा ही हो जाता है जैसा पूर्ववर्ती सत्ता पक्ष के लोगों का होता है। नेता जब तक सत्ता में नहीं होता तब तक शालीन होता है। शालीनता, मानवता का प्रतीक है। सत्ता मिलते ही नेता अभिनेता हो जाता है। कहने का तात्पर्य जिस प्रकार अभिनेता, अभिनय करके किसी भी चरित्र का निर्माण करता हैं। उसी प्रकार नेता सत्ता मिलते ही अभिनय की भूमिका में आ जाता है। अभिनय नाटक का एक अंग है। नेताओ को गौर से देंखे और समझें तो आप पाएंगे कि सत्ता पाते ही नेताओं के बोलने का ढंग,चलने का ढंग,बैठने का ढंग,खान-पान का ढंग,लोगों के प्रति संवेदना व्यक्त करने का ढंग सब कुछ बेढंगा हो जाता है। सत्ता मिलते ही सुख सुविधाओं की अति नेताओं की दुर्गति का कारण बनती है। सुख सुविधा उतनी ही होनी चाहिए जितनी आवश्यक हो। किसी भी चीज कि अति दुर्गति का कारण बनती है। ज्यादा खाना खा लीजिये,खाना पचना बंद हो जाता है। उसी तरह नेताओं की ज्यादा सुख सुविधा नेताओं को बेढंगा बनाने में मदद करती है। लोकतंत्रात्मक प्रणाली का जुगाड़ तंत्रात्मक हो जाना आदि अन्य सामाजिक कुरीतियों ने जन्म ले लिया। सत्य अहिंसा विरोधी रथ पर सवार हो सत्ता के चरम शिखर पर पहुंचने वाले सुधारकों की मनोदशा ठीक नहीं है। सुधारकों की प्रवृत्ति ठीक होती तो देश में गरीबों और वंचितों पर जुल्म न होता,आए दिन लोग गरीबी से न मरते,नौकरी न मिलने की वजह से युवा आत्महत्या न करता,और समाज में विषमता न पैदा होती आदि। राजनेता को समाज के लिए मार्गदर्शक की भूमिका में होना चाहिए ना कि अभिनय की भूमिका में। लोकतंत्र में लोगों के मतों के द्वारा ही सत्ता का निर्माण होता है। मकान रूपी सत्ता का निर्माण ईंट रूपी जनता के द्वारा ही होता है। कोई भी मकान बिना ईंट के नहीं बनता| मकान की ईंट पर आंच आएगी तो मकान गिरेगा। उसी प्रकार यदि जनता पर आंच आएगी तो सत्ता का गिरना तय है। अभिनय, अभिमान (घमंड) को जन्म देती है। अभिमान अर्थात अभी + मान मतलब अपनी ही चलाना (जनता की न सुनना)। हर एक सत्ता पक्ष का नेता घमंडी है क्योंकि वह अभिमान से घिरा है। उसके पास वह सब कुछ है जो जनता के पास नहीं। अभी हाल ही में मोदी मंत्रीमंडल में बड़ा फेरबदल हुआ| फेरबदल से सरकार पर अतिरिक्त खर्चे का बोझ आता है। ये अतिरिक्त खर्चा जनता के खून पसीने की गाढ़ी कमाई का हिस्सा होता है। हर एक सत्ता पक्ष यही करता है। चुनाव नजदीक आता है सत्ता पक्ष अपने हर एक नेता को खुश करने के लिए मंत्रीमंडल में शामिल करता है। ऐसे समय में सरकारें जनता को मुर्ख समझती हैं। खुश करना है तो जनता को करो, नेता को नहीं। जनता को समझदारी के साथ चुनाव में निर्णायक भूमिका अदा करनी चाहिए। जनता कोरोना से मर रही है। यहाँ सरकारें चुनाव में जीतने के लिए अपने नेताओं को सरकारी खजाना लुटाकर खुश कर रही है। सरकारें जनता की चिंता न कर, अपने नेताओं की चिंता कर रहीं हैं। जागो वोटर ! जागो। किसी विशेष राजनैतिक पार्टी को लम्बे समय तक दिया गया लाभ,दूसरे राजनैतिक पार्टी के लोगों को प्रभावित करता है। ये समानता कैसी है ? जो सत्तापक्ष है उसको कुछ भी करने की आजादी और जो विपक्ष में है उसको कुछ न करने की आजादी। ये समानता में दरार पैदा करती है। यही कारण है कि राजनीति बदले की राजनीति हो गई है। जिस प्रकार दूध में पाए जाने वाले माइकोबैक्टीरियम ट्यूबरकुलोसिस और गैर-बीजाणु बनाने वाले अन्य रोग-रोधी सूक्ष्मजीवों को नष्ट करने के लिए समय (15 सेकंड) और तापमान (72°सेंटीग्रेड ) आवश्यक है। यदि समय और तापमान बहुत ज्यादा कर दें तो दूध का पोषण ख़त्म हो जाएगा। कहने का तात्पर्य यह है कि सीमा से ज्यादा समय और तापमान देकर हम दूध में से हानिकारक बैक्टीरिया तो ख़त्म कर सकते हैं पर दूध की क्वालिटी खराब हो जाती है। उसी प्रकार से सीमा से ज्यादा समय तक सत्ता पक्ष को दी गई सुख सुविधा, सत्ता पक्ष के नेताओं को अपंग और आलसी बना देता है। अतएव सत्ता पक्ष के नेताओं को सुख सुविधा देते समय,समय और परिस्थिति तय होनी चाहिए| कोरोना महामारी के दौर में सरकार को जनता-हित में जनता के सुख के लिए कार्य करना चाहिए। ये क्या हो रहा है मंत्रीमंडल और गवर्नर आए दिन बदले जा रहे हैं। इससे कोरोना न तो ख़त्म होगा और न ही जनता खुश होगी। ये कैसी सरकार जिसके कार्यकर्ताओं की सुनी नहीं जाती। कार्यकर्ता आए दिन पुलिस और प्रशासन के शोषण का शिकार हो रहे है। किसी भी पार्टी का कार्यकर्ता ही पार्टी को सत्ता का सुख दिलाता है। कार्यकर्ता सरकारी सुख सुविधाओं से वंचित होता है इसलिए ये जनता के सुख दुःख का भागी होता हैं और जनता के करीब होता है। राष्ट्र,राष्ट्र में रहने वाले लोगों से मिलकर बना है| राष्ट्रवाद बिना मानव के संभव नहीं है। अतएव कोरोना महामारी में मानव-जीवन को बचाने की प्राथमिकता होनी चाहिए। किसी भी देश में महामारी के समय सत्ता पक्ष के नेताओं की सुख सुविधाएं कम कर देनी चाहिए। जिससे महामारी से लड़ने में खर्चे का वहन हो सके। कोरोना महामारी में हमें देखने को मिला कि “जनता त्रस्त है,नेता मस्त हैं”। अतएव हम कह सकते हैं कि इस महामारी में जनता त्रस्त है और नेता मस्त हैं।
चंद समय के लिए मज़बूरी में देश का प्रधानमंत्री बने थे चन्द्रशेखर, लेकिन वह मामूली कालखंड ने देश की आधी सदी की पॉलिटिक्स को बेहद प्रभावित किया है। वे कहते थे जब तक दिल्ली से लोगों के दिलों की दूरी रहेगी तब तक सत्ता में बैठे लोग राजा और नवाब ही लगेंगे। सर्वोच्च पद पर बैठे व्यक्ति को आम लोगों की जीवन-दशा का अनुभव होना चाहिए। वे इसी तजुर्बे के लिए 4,260 किलोमीटर तक पदयात्रा की। एक आम नागरिक की तरह ज़िन्दगी गुजारे। उनका रहन-सहन, पोषाक, आचार-व्यवहार ही सबकुछ बयां करते हैं। वे खुद निर्माण कार्य देखने के लिए लकड़ी की सीढ़ी के सहारे छत पर चढ़ जाते थे। खूब पैदल चलते थे। खेतों में मजदूरों के साथ बातें कर देश की नब्ज टटोलते थे। वे जब पीएम बने थे तब पूरा देश धधक रहा था। अर्थ व्यवस्था चौपट हो गई थी। उन पर जानकारी रखनेवाले रामबालक राय या सलाहकार रहे हरिवंश (वर्तमान में राज्यसभा उपसभापति) की मानें तो कुछ दिन और वे रहते तो अयोध्या विवाद का हल टेबल पर ही ढूंढ़ लेते। दोनों पक्षों के लोगों को बुलाकर चन्द्रशेखर ने दो टूक कहा था कि नहीं मानोगे तो बुक कर देंगे। गोलियां भी चलेंगी। किसी सीएम के कंधे का मैं इस्तेमाल नहीं करूंगा।
संयोग से चन्द्रशेखर से मुझे कोयला नगर गेस्ट हाउस में मिलने का सौभाग्य हुआ था। बच्चा बाबू के सौजन्य से मैं मिला था। मेरे शरीर पर मेटल डिटेक्टर लगाने से जब आवाज़ बन्द नहीं होने लगी तब उन्होंने कहा हड्डी को लोहा बना लिए हो क्या? श्रद्धेय गुरुजी ब्रह्मदेव सिंह शर्मा ने मुझे एक प्रश्न लिखकर दिया था, ‘आप इतने पॉपुलर हैं। पीएम रह चुके। फिर माफिया से ताल्लुकात क्यों?’ गुस्से से लाल हो गए थे पूर्व पीएम।उन्होंने कहा, मीडिया को सिर्फ मसाला चाहिए। देश से कोई मतलब नहीं। उन्होंने कहा, देश की इकोनॉमी चौपट हो गई है। पूरी पूंजी चंद लोगों के हाथों में कैद हो जाएगी।जब मैंने पूछा, आप क्या कर रहे हैं?उन्होंने कहा, कोई सुसाइड करने जा रहा, उसे मना ही तो कर सकते हैं। चन्द्रशेखर व्यक्तिगत सम्बन्धों को राजनीति में नहीं लाते थे।
ऐसे बन गए पीएम
एक दिन अचानक आरके धवन उनके पास आ कर बोले कि राजीव गाँधी आप से मिलना चाहते हैं। जब वे धवन के यहाँ गए तो राजीव गांधी ने उनसे पूछा, क्या आप सरकार बनाएंगे?”
चन्द्रशेखर ने कहा, सरकार बनाने का उनका कोई नैतिक आधार नहीं है। सरकार बनाने के लिए पर्याप्त संख्या भी नहीं है। इस पर राजीव ने कहा कि आप सरकार बनाइए। हम आपको बाहर से समर्थन देंगे।
सवाल उठता है कि चंद्रशेखर जैसे शख़्स ने राजीव गांधी के इस आश्वासन पर विश्वास कैसे कर लिया?
वे बताते हैं, मैं सरकार बनाने के लिए देश हित में तैयार हुआ, क्योंकि उस समय देश में ख़ूनख़राबे का माहौल था। जिन दिन मैंने शपथ ली, उस दिन 70-75 जगहों पर कर्फ़्यू लगा हुआ था । युवक आत्मदाह कर रहे थे । दूसरी तरफ़ सांप्रदायिक दंगे हो रहे थे। मुझे सरकार बनाने और चलाने का कोई अनुभव नहीं था। लेकिन मेरा विश्वास था कि अगर देश के लोगों से सही बात कही जाए तो देश की जनता सब कुछ करने के लिए तैयार रहेगी….”
वित्त सचिव को ऐसे बदला
सरकार बनाने के तीसरे दिन चंद्रशेखर ने वरिष्ठ अधिकारियों की एक बैठक बुलाई. इसी बैठक में वित्त सचिव विमल जालान ने उन्हें एक नोट दिया जिसमें लिखा था कि हालात इतने ख़राब हैं कि हमें अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व बैंक पर निर्भर रहना पड़ेगा। चंद्रशेखर लिखते हैं, “मैंने विमल जालान से पूछा कि आपके नोट का जो आख़िरी वाक्य है,) उसके बाद आपके वित्त सचिव की कुर्सी पर बने रहने का क्या औचित्य है? यह स्थिति एक दिन में पैदा नहीं हुई होगी, महीनों में बनी होगी. मैं जानना चाहता हूँ कि इससे निपटने के लिए पिछले दिनों क्या क्या कदम उठाए गए?”
चंद्रशेखर ने आगे लिखा है, ”उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया । अगले दिन मैंने वित्त सचिव को हटा दिया । इसी तरह दो प्रधानमंत्रियों के प्रिय पात्र रहे बीजी देशमुख मुझसे मिलने आए. आते ही उन्होंने अभिमान भरे अंदाज़ में फ़रमाया, ‘क्या आप समझते हैं कि मैं नौकरी के लिए यहाँ आया हूँ? मुझे टाटा के यहाँ से कई साल पहले से ऑफ़र हैं । मैंने सोचा भारत सरकार में सबसे ऊँचे पद पर बैठा हुआ ये शख़्स टाटा की नौकरी के बल पर यहाँ बना हुआ है । ज़िंदगी में पहली बार अपने घर में किसी आए हुए व्यक्ति से बात करने के बजाय मैं उठा और कमरे के बाहर चला गया।मैंने उनसे कहा, आप यहाँ से जा सकते हैं। “
शरीफ को दो टूक
क्या भाईजान! अब बदमाशी पर उतर आए
एकबार कश्मीर में आतंकवादियों ने दो स्वीडिश इंजीनियर का अपहरण कर लिया। स्वीडिश सरकार बार-बार एसओएस कर रही थी। खुफिया तंत्र भी फेल था। चन्द्रशेखर ने सीधे पाकिस्तान के पीएम से हॉटलाइन पर सम्पर्क किया। कहा, क्या बदमाशी पर उतर आए हो भाईजान! नवाज़ शरीफ़ ने कहा, कुछ समझे नहीं। क्या गुस्ताख़ी हो गई? इधर से कहा गया, सब समझते हो। फटाफट स्वीडिश इंजीनियरों को रिहा कराओ। ऐसी तिकड़म ठीक नहीं। पाक पीएम ने कहा, इसमें टेररिस्ट इन्वॉल्व है। पाक सरकार का कोई रोल नहीं है भाईसाहब। चन्द्रशेखर कहां चुप रहनेवाले थे? उन्होंने कहा, हम दोनों जानते हैं माज़रा क्या है? फटाफट लग जाओ। रिहा कराओ। उन्होंने रिसीवर रख दिया। चंद घण्टे बाद इंटेलिजेंस ने सूचना दी दोनों इंजीनियरों को ससम्मान मुक्त कर दिया गया है।
बेटे को ऐसे दिया जवाब
अपने जिंदा रहते उन्होंने अपने किसी पुत्र या पाल्य का राजनीतिक रास्ता हमवार नहीं किया। कहते हैं कि एक बार उनके बेटे ने पूछा कि वे उसे क्या देकर जा रहे हैं? इस पर उन्होंने अपने एक सुरक्षाकर्मी को बुलाकर उससे उसके पिता का नाम पूछा। उसने बताया तो बेटे से पूछा कि तुम इनके पिता जी को जानते हो? बेटे ने कहा नहीं, तो बोले-मैं तुमको यही देकर जा रहा हूं कि जब तुम किसी को अपने पिता का नाम बताओगे तो वह यह नहीं कहेगा जो तुमने इनके पिता के बारे में कहा.
महिलाओं को लेकर समाज में व्याप्त धारणाएं बदल रही हैं। अब महिलाएं अंतरिक्ष विज्ञान से लेकर भूविज्ञान तक, हर क्षेत्र में अपना महत्वपूर्ण योगदान दे रही हैं। केंद्र से लेकर राज्य सरकारों तक महिला सशक्तिकरण के लिए कई योजनाएं चलाई जा रही हैं। बिहार सरकार की ओर से भी महिलाओं के रोज़गार से जुड़ी योजनाओं पर बल दिया जाता रहा है, ताकि वह अपने लिए तरक्की का मार्ग चुन सकें। महिलाओं से जुड़ी राज्य में कई योजनाएं संचालित की जा रही हैं, जिससे न केवल वह स्वयं आर्थिक रूप से सशक्त बने बल्कि अन्य महिलाओं के लिए भी रोज़गार उपलब्ध करवा सकें।
अनुकूल भौगोलिक परिस्थिती को देखते हुए बिहार के कोसी क्षेत्र की महिलाओं को रोज़गार से जोड़ने और आत्मसम्मान दिलाने के लिए बिहार सरकार द्वारा मुख्यमंत्री कोसी मलवरी परियोजना की शुरुआत की गई थी। यह योजना किसानों विशेषकर महिला किसानों के लिए एक उम्मीद की किरण है, क्योंकि इससे मलवरी कीट पालन उद्योग (रेशम उद्योग) को रफ्तार मिलने की उम्मीद है। यह पूर्णिया और कोसी प्रमंडल में शहतूती रेशम विकास के लिए 10वीं, 11वीं और 12वीं पंचवर्षीय योजना है, जिसे कुछ जिलों में चलाया गया था। लोगों ने योजना में अपनी बेमिसाल भागीदारी निभाई। इसके उत्साहवर्धक परिणाम को देखते हुए मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की ओर से कृषकों के आर्थिक सुधार के लिए शहतूती रेशम कीट पालन को एक कुटीर उद्योग के रूप में स्थापित करने का निर्णय लिया गया है।
मुख्यमंत्री ने कोसी मलवरी परियोजना की घोषणा साल 2012 में सुपौल जिला में किया था। वर्तमान में यह परियोजना पूर्णिया और कोसी प्रमंडल के सात ज़िलों- पूर्णिया, कटिहार, अररिया, किशनगंज, मधेपुरा, सुपौल और सहरसा में सफलतापूर्वक चलाई जा रही है। इस योजना को जीविका (बिहार ग्रामीण जीविकोपार्जन परियोजना) के माध्यम से संचालित किया जा रहा है। महिलाओं के लिए यह परियोजना इसलिए भी लाभकारी है क्योंकि इसमें उन्हें घर से बाहर जाने की ज़रूरत नहीं होती है और वह घर से ही इस काम को पूरा कर सकती हैं। जिससे महिलाएं अपने परिवार से भी जुड़ी रहती हैं। जीविका से जुड़े होने के कारण इसमें महिलाओं की भागीदारी भी ज्यादा देखी जा रही है।
महिलाओं और किसानों की बढ़ती दिलचस्पी को देखते हुए बिहार राज्य सेरीकल्चर विभाग और जीविका ने उनकी अधिक से अधिक सहभागिता के लिए कई प्रमुख नीतियों को अमल में लाने का प्रयास तेज़ कर दिया है। इसके लिए कम लागत में अधिक उत्पादन बढ़ाना शामिल है, जिससे उन्हें अधिक से अधिक लाभ प्राप्त हो और वह न केवल इससे आर्थिक रूप से सशक्त बने बल्कि अधिक से अधिक रोज़गार भी दे सकें। इस परियोजना के तहत रेशम के कीड़े को मलवरी के पत्तों पर बढ़ाया जाता है, अर्थात रेशम का कीड़ा मलवरी के पत्तों से अपना आहार ग्रहण करता है, जिसके बाद वह बढ़कर कुकुन का रूप धारण कर लेता है। कुकुन बनते ही उसे पत्ते से उतार लिया जाता है और गरम पानी में उबाल दिया जाता है, जहां से रेशम के धागों की प्राप्ति हो जाती है। इन्हीं रेशम के धागों से कपड़े तैयार किये जाते हैं।
महिलाओं के लिए अपने घर के साथ-साथ अपने काम को करना पहली पसंद होती है, जिसे जीविका के सहयोग ने सही साबित किया है। मलवरी की खेती में महिलाओं की भूमिका उल्लेखनीय है क्योंकि महिलाएं रेशम के धागों द्वारा अपनी किस्मत बुन रही हैं। किशनगंज जिला गांव मैदा, प्रखंड मोतिहारा तालुका की रहने वाली शकीला वर्ष 2017 से मलवरी की खेती और रेशम कीट पालन का कार्य कर रही हैं। वह अपने एक बीघा ज़मीन में मलवरी की खेती करती हैं। साथ ही रेशम कीट के सौ अंडों से प्राप्त कीड़ों का पालन करती हैं, जिससे प्राप्त कुकून से वह साल का लगभग 80 हज़ार रुपये कमा लेती हैं।
पहले वह अपनी जमीन में धान और मकई की खेती किया करती थीं, जिससे उन्हें 15 से 20 हज़ार तक की ही कमाई हो पाती थी। शकीला का परिवार बहुत बड़ा है। उनके दस बच्चे हैं, वहीं पति हैंडपंप मिस्त्री हैं। उनकी आय नियमित नहीं है, ऐसे में इतने बड़े परिवार को संभालना बहुत मुश्किल काम था मगर कुकून निर्माण से प्राप्त आय से शकीला को परिवार का भरण- पोषण करने में बहुत मदद मिली है। हाल ही में उनके एक लड़के ने बीए पास किया है। जीविका और उद्योग विभाग की ओर से शकीला को मलवरी के पौधे, रेशम कीट के अंडे, उपस्कर, कीटगृह निर्माण और सिंचाई की व्यवस्था के लिए पैसों के साथ साथ प्रशिक्षण भी दिया गया है।
वहीं सुपौल ज़िले के त्रिवेणीगंज प्रखंड स्थित बरहकुरवा पंचायत की रहने वाली राधा देवी पिछले चार सालों से लगातार मलवरी की खेती और कोकून उत्पादन कार्य से जुड़ी हैं। इससे न केवल उनकी आर्थिक स्थिति सुधरी है बल्कि उन्हें घर पर रह कर ही अतिरिक्त आमदनी होने लगी है। राधा का परिवार परंपरागत रूप से खेती और पशुपालन से जुड़ा हुआ है। मलवरी की खेती और रेशम उत्पादन के बारे में उन्हें कोई जानकारी नहीं थी, मगर परियोजना की जानकारी मिलने के बाद उन्होंने इसे सीखा। ट्रेनिंग के दौरान ही उन्हें मलवरी खेती से जुड़े सभी तकनीकी पहलुओं से अवगत कराया गया। साथ ही उन्हें इसका विधिवत प्रशिक्षण भी दिया गया।
राधा ने कोशिकी जीविका मलवरी उत्पादक समूह के तहत जुलाई 2016 में मलवरी की खेती शुरू की थी, जिससे उन्होंने अपने पहले वर्ष में लगभग 25 किलोग्राम कोकून का उत्पादन किया था, जिसे उत्पादक समूह ने 350 रुपये प्रति किलोग्राम के दर से खरीदा था, इससे उन्हें 8,750 रुपये की आमदनी हुई थी। महज ढाई माह की मेहनत के बाद अच्छी आमदनी मिलने पर राधा का मनोबल मजबूत हो गया। अब वह साल के सभी सीज़नों में मलवरी कोकून का उत्पादन करती हैं, जिससे उन्हें सालभर में औसतन 35 से 40 हज़ार रुपये तक की आमदनी हो जाती है।
यह परियोजना मलवरी स्टेट कंसलटेंट डॉ आरके पांडे द्वारा साल 2014-2015 में सात जिलों में लागू की गई थी, जिसमें पहली लिस्ट में सहरसा, सुपौल और मधेपुरा को शामिल किया गया था। साल 2015-2016 में चार अन्य ज़िलों को शामिल किया गया, जिसमें अररिया, पूर्णिया, किशनगंज और कटिहार सम्मिलित है। इसका उद्देश्य हर ज़िले से लगभग एक हज़ार किसानों का चयन कर शहतूत की खेती द्वारा मलबरी कीटपालन को बढ़ावा देना है, जिससे कोकून का उत्पादन किया जा सके। अभी तक इस परियोजना से किशनगंज, अररिया, मधेपुरा, सहरसा और सुपौल के तक़रीबन 4668 किसान जुड़ चुके हैं। इस परियोजना से 97 प्रतिशत महिलाएं जुडी हैं। जिन्हें न केवल उन्हें आर्थिक लाभ हो रहा है बल्कि वह सशक्त भी हो रही हैं।
शुरुआत में महिलाओं को मलवरी की खेती और कीड़ा पालन को लेकर मन में डर था, वह इस रोज़गार को शुरु करने से पहले बहुत उधेड़बुन थीं। एक तरफ जहां उनके लिए यह एक बिल्कुल नया काम था, वहीं वह उत्पादन में लगने वाली लागत पर भी संशय में थीं क्योंकि उनके लिए यह एक नया काम था। मगर महिलाओं ने अपने हौसलों को मजबूत करके अपने कदमों को आगे बढ़ाया। वहीं दूसरी ओर जीविका द्वारा कराए गए प्रशिक्षण और मदद से धीरे-धीरे उनका सारा डर खत्म हो गया। आज महिलाएं अपने घरों की बागडोर थामे आगे बढ़ रही हैं। वह कुशलतापूर्वक कोकून का उत्पादन कर रही हैं. जिससे समाज में उनका सम्मान बढ़ा है। कोसी क्षेत्र की यह महिलाएं रेशम के धागों से अपनी पहचान बुन रही हैं।