भारत में 30 वर्ष पूर्व, वर्ष 1991 में, आर्थिक क्षेत्र में सुधार कार्यक्रम लागू किए गए थे। उस समय देश की आर्थिक स्थिति बहुत ही दयनीय स्थिति में पहुंच गई थी। देश में विदेशी मुद्रा भंडार मात्र 15 दिनों के आयात लायक राशि तक का ही बच गया था। ऐसी स्थिति में देश को सोना गिरवी रखकर विदेशी मुद्रा की व्यवस्था करनी पड़ी थी। इस ऐतिहासिक खराब आर्थिक स्थिति से उबरने के लिए आर्थिक एवं बैंकिंग क्षेत्रों में कई तरह के सुधार कार्यक्रम लागू किए गए थे। कुछ वर्षों तक तो देश में आर्थिक सुधार कार्यक्रम ठीक गति से चलते रहे परंतु इसके बाद वर्ष 2004 से वर्ष 2014 तक के कुछ वर्षों के दौरान सुधार कार्यक्रम की गति धीमी हो गई थी। वर्ष 2014 के बाद देश में एक बार पुनः आर्थिक सुधार कार्यक्रमों को गति देने का प्रयास लगातार किया जा रहा है एवं अब तो आर्थिक क्षेत्र में सुधार कार्यक्रमों ने देश में तेज रफ़्तार पकड़ ली है।
पिछले 30 वर्षों के दौरान मुख्यतः 5 क्षेत्रों में विशेष कार्य हुआ था। देश में राजकोषीय घाटे को कम करने के प्रयास लगातार लगभग सभी केंद्र सरकारों द्वारा किए गए हैं परंतु इस कार्य में भी वर्ष 2014 के बाद से गति आई है। वित्तीय वर्ष 1991 में राजकोषीय घाटा, सकल घरेलू उत्पाद का, 8 प्रतिशत की राशि तक पहुंच गया था। यह वित्तीय वर्ष 2019-20 में 5 प्रतिशत से नीचे ले आया गया था। परंतु, कोरोना महामारी के चलते, बहुत ही विशेष परिस्थितियों में, यह वर्ष 2020-21 में 9.5 प्रतिशत तक पहुंच गया है। इसे पुनः 3 से 4 प्रतिशत तक नीचे लाने का रोड्मैप केंद्र सरकार ने तैयार कर लिया है एवं इन नीतियों पर अमल भी प्रारम्भ हो गया है। इस प्रकार राजकोषीय घाटे को कम करना केंद्र सरकार की एक बहुत बड़ी उपलब्धि रही है।
दूसरे, देश में लाइसेन्स राज लगभग समाप्त हो गया है। एक तरह से संरक्षणवाद का खात्मा कर व्यापार की नीतियों को उदार बनाया गया है। भारतीय उद्योग जगत में तो अब, “ईज ऑफ डूइंग बिजनेस” की नीतियों में लगातार हो रहे सुधार के कारण, हर्ष व्याप्त है। विदेशी निवेशक भी अब इस कारण से भारत में अपना निवेश लगातार बढ़ा रहे हैं।
तीसरे, नरसिम्हन समिति के प्रतिवेदन के अनुसार देश में बैंकिंग क्षेत्र में भी सुधार कार्यकर्मों को लागू किया गया है। हाल ही में केंद्र सरकार द्वारा किए गए सुधार कार्यक्रमों को लागू करने के कारण अब न केवल सरकारी क्षेत्र के बैंकों बल्कि निजी क्षेत्र के बैकों में भी गैर निष्पादनकारी आस्तियों का निपटान तेजी से होने लगा है।
चौथे, विदेशों से आयात एवं निर्यात के नियमों को आसान बनाया गया है। साथ ही, विदेशों से आयात की जाने वाली वस्तुओं पर आयात कर में भी कमी की गई है। इससे अन्य देशों की नजरों में भारत की साख में सुधार हुआ है। पहिले विदेशी व्यापार में हमारा देश संरक्षणवाद की नीतियों पर चलता था।
पांचवां, देश में मौद्रिक नीतियों में भी सुधार कार्यक्रम लागू करते हुए इसे मुद्रा स्फीति नियंत्रण के साथ जोड़ दिया गया है। इस बीच भारतीय रिजर्व बैंक एवं केंद्र सरकार राजकोषीय नीति एवं मौद्रिक नीति में तालमेल बिठाते हुए कार्य करते दिखाई दे रहे हैं, जो देश हित में उचित कदम माना जाना चाहिए।
हाल ही के समय में आर्थिक क्षेत्र में तेजी से किए गए सुधार कार्यक्रमों के कारण देश में न केवल आर्थिक विकास की दर तेज हुई है बल्कि रोजगार के भी कई नए अवसर निर्मित हुए हैं। अन्यथा, कल्पना करें वर्ष 1991 के पूर्व की स्थिति की, जब देश में नौजवान केवल सरकारी क्षेत्र में ही नौकरी की तलाश करते नजर आते थे क्योंकि निजी क्षेत्रों में नौकरियों का नितांत अभाव रहता था। अब स्थितियां बहुत बदल गई हैं एवं अब तो निजी क्षेत्र भी रोजगार के लाखों नए अवसर निर्मित करता दिखाई दे रहा है।
भारत में अभी तक हालांकि कृषि क्षेत्र एवं सोशल क्षेत्र (स्वास्थ्य क्षेत्र, शिक्षा क्षेत्र एवं पीने का जल, आदि क्षेत्रों सहित) में सुधार कार्यक्रम लगभग नहीं के बराबर लागू किए गए थे इसलिए देश में आज भी लगभग 60 प्रतिशत आबादी ग्रामीण इलाकों में रहते हुए हुए अपनी आजीविका के लिए कृषि क्षेत्र पर निर्भर है एवं गरीबी में अपना जीवन जीने को मजबूर है। दरअसल, इन कारणों से देश में आर्थिक असमानता की दर में भी वृद्धि दृष्टिगोचर हुई है। परंतु, हाल ही के समय में कृषि क्षेत्र एवं सोशल क्षेत्र में लागू किए गए सुधार कार्यक्रमों के कारण एक बड़ा बदलाव देखने में आ रहा है कि देश के सकल घरेलू उत्पाद में कृषि क्षेत्र का योगदान बढ़ता दिखाई दे रहा है। यह एक बहुत अच्छा परिवर्तन है क्योंकि आज भी देश की लगभग 60 प्रतिशत आबादी ग्रामीण इलाकों में निवास करती है। यदि इस आबादी की आय में वृद्धि होती है तो गरीबी की रेखा के नीचे जीवन यापन कर रहे लोगों की संख्या में भी तेज गति से कमी होना दिखाई देगी। दूसरे, कृषि क्षेत्र एवं सोशल क्षेत्र में किए जा रहे सुधारों के कारण विदेशों में भी भारत की छवि में सुधार हुआ है एवं भारत से कृषि क्षेत्र से निर्यात लगातार बहुत तेजी से बढ़ रहा हैं। साथ ही, भारत में विदेशी निवेश भी लगातार नित नई उचाईयां छू रहा है।
हमारे देश में आर्थिक सुधार कार्यक्रमों को लागू करने में कुछ राज्य सरकारों का योगदान बहुत उत्साहवर्धक नहीं रहा है। यदि देश में गरीबी को समूल नष्ट करना है तो राज्य सरकारों को भी अपना योगदान बढ़ाना होगा। आर्थिक सुधार कार्यक्रमों को केंद्र सरकार एवं राज्य सरकारों को मिलकर ही लागू करना होगा। सोशल क्षेत्र में स्वास्थ्य सेवाएं, शिक्षा, पीने का स्वच्छ जल, प्रत्येक परिवार को बिजली की उपलब्धता आदि ऐसी सेवायें है जिन्हें राज्य सरकारों को ही उपलब्ध कराना होता है। इन क्षेत्रों में कुछ वर्षों पूर्व तक देश में बहुत अधिक उत्साहजनक कार्य नहीं हुआ था परंतु वर्ष 2014 से केंद्र सरकार ने इन क्षेत्रों की ओर भी अपना ध्यान देना प्रारम्भ किया है। जैसे एक नए जल शक्ति मंत्रालय का गठन किया गया है ताकि ग्रामीण इलाकों में प्रत्येक परिवार को स्वच्छ जल उपलब्ध कराया जा सके। अभी हाल ही में एक अन्य नए सहकारिता मंत्रालय का गठन किया गया है ताकि देश में सहकारिता आंदोलन को सफल बनाया जा सके। सोशल क्षेत्र में सुधार कार्यक्रम लागू कर देश के आर्थिक विकास तो गति दी जा सकती है।
आर्थिक सुधार कार्यक्रमों को लागू करने के पीछे मुख्य उद्देश्य यह भी होता है कि देश में दक्षता का विकास करते हुए उत्पादकता में सुधार किया जा सके ताकि अंततः सभी क्षेत्रों (कृषि, उद्योग एवं सेवा) में उत्पादन बढ़ सके। वर्ष 1991 में भारत में केवल 26,000 करोड़ अमेरिकी डॉलर का सकल घरेलू उत्पाद होता था जो आज बढ़कर 2 लाख 80,000 करोड़ अमेरिकी डॉलर के आस पास पहुंच गया है एवं अब केंद्र सरकार ने इसे वर्ष 2025 तक 5 लाख करोड़ अमेरिक डॉलर तक पहुंचाने का लक्ष्य निर्धारित किया है। इन्हीं कारणों के चलते केंद्र सरकार देश में आर्थिक सुधार कार्यक्रमों को गति देने का प्रयास कर रही है।
—विनय कुमार विनायक मृत्यु एक अवस्था है जीवन की तरह हीं जीवित देह जीव के लिए दृश्यमान स्थिति, जबकि मृत्यु एक अदृश्य अवस्था है!
लंबी उम्र जीनेवाले व्यक्ति को अपने रक्त रिश्तेदारों की मौत का दारुण दुख झेलना व सहना पड़ता है!
जबकि अल्प उम्र में मरने वालों की भी कम नहीं होती है भयानक मृत्यु की त्रासदी!
जीवन मृत्यु के बीच की निरंतरता होती किन्तु व्यक्त नहीं कर सकते जीवित प्राणी!
मृत व्यक्ति शायद मृत्यु के बाद देख सकते जीवित लोगों की उपस्थिति व गतिविधि पर अभिव्यक्त नहीं कर पाते जीवित लोगों के बीच और उनसे संपर्क साधने की नहीं होती क्षमता!
जीवन की लंबी उपलब्धता या मृत्यु की अवस्था दोनों ही दुखकारक है जीव जंतुओं के लिए!
जीवित लोगों की मौत पीड़ादायक होती, शायद मृत आत्मा सबकुछ देख सकती, अपने मृत शरीर के साथ होती हुई गतिविधि!
शायद अग्नि दाह की भीषण पीड़ा भी या फिर कब्र में शरीर पर मिट्टी का भारी दबाव और देह का धीरे-धीरे गलने की प्रक्रिया भी!
जीवित मानव की अल्प होती है दृष्टि मृतात्माओं की अधिक होती दृष्टि शक्ति!
जीवित मानव में दृष्टि श्रवण घ्राण क्षमता कम होती शायद मृतात्मा में दृष्टि श्रवण घ्राण शक्ति अधिक होती किन्तु अभिव्यक्ति के लिए होता नहीं दैहिक वजूद! —विनय कुमार विनायक
योगेश कुमार गोयल भारत में कोरोना की दूसरी लहर भले ही काफी कम हो गई हो लेकिन इसका खतरा अभी टला नहीं है। अभी भी देशभर में प्रतिदिन 40 हजार से ज्यादा नए मामले सामने आ रहे हैं और कुछ राज्यों में मामले धीरे-धीरे बढ़ने भी लगे हैं। इसके अलावा कोरोना वायरस के सामने आ रहे नए वेरिएटंस खतरे को बढ़ा रहे हैं। डेल्टा के बाद डेल्टा प्लस और अब डेल्टा का ही भाई माना जा रहा ‘कप्पा’ वेरिएंट भी मिला है, जिसे काफी घातक माना जा रहा है। दूसरी ओर कोरोना के तमाम नियम-कानूनों को धत्ता बताते हुए खासकर पर्वतीय इलाकों में जिस प्रकार लोगों की भीड़ बढ़ रही है, वह आने वाले किसी बड़े संकट को न्यौता देती प्रतीत हो रही है। दूसरी लहर का प्रकोप कम होने के बाद भारत में जहां विभिन्न चरणों में अनलॉक की प्रक्रिया जारी है, वहीं हाल के दिनों में दो दर्जन से भी ज्यादा देशों में कोरोना संक्रमण में काफी तेजी आई है। इसीलिए विश्व स्वास्थ्य संगठन चेतावनी भरे शब्दों स्पष्ट कह रहा है कि इस समय किसी भी देश को पूर्ण प्रतिबंध हटा लेने की मूर्खता नहीं करनी चाहिए। डब्ल्यूएचओ का कहना है कि अभी जो देश जल्दबाजी में अनलॉक करेंगे या बचाव के नियमों में ढ़ील देंगे, उनके लिए यह बहुत बड़ा मूर्खतापूर्ण कदम साबित हो सकता है। भारत में लापरवाहियों का अंजाम हम कोरोना की दूसरी खतरनाक लहर के रूप में भुगत चुके हैं और अब लगातार मिल रही तीसरी लहर की चेतावनियों के बावजूद फिर से देशभर में बेफिक्री और लापरवाहियों का जो आलम देखा जा रहा है, उसके दृष्टिगत डब्ल्यूएचओ की चेतावनी की अनदेखी के गंभीर परिणाम हो सकते हैं। कोरोना की तीसरी लहर की चिंता के बीच कोरोना के नए-नए वेरिएंट मुसीबत बन रहे हैं। एक के बाद एक नए-नए वेरिएंट कहर मचा रहे हैं और भयावहता के मामले में सभी एक-दूसरे पर भारी पड़ रहे हैं। डब्ल्यूएचओ ने कोरोना वायरस के स्ट्रेन का नाम ग्रीक अल्फाबेटिकल लेबल्स पर रखा है और उसी के अनुरूप भारत में कोरोना के वेरिएंट स्ट्रेन का नाम डेल्टा तथा कप्पा पर रखा जाता है। देश में कोरोना की दूसरी लहर के लिए डेल्टा वेरिएंट प्रमुख रूप से जिम्मेदार रहा और अब तीसरी लहर के लिए कौन-कौनसे वेरिएंट जिम्मेदार होंगे और इस लहर को कितना भयावह बनाएंगे, अभी कहा जा नहीं जा सकता। शरीर में एंटीबॉडी को चकमा देने में सक्षम कोरोना का घातक लैंबडा वेरिएंट पिछले करीब एक महीने में 30 से भी ज्यादा देशों में फैल चुका है। हालांकि भारत में अभी तक लैंबडा वेरिएंट का भले ही कोई मामला सामने नहीं आया है लेकिन जिस प्रकार डेल्टा के बाद डेल्टा प्लस और अब कप्पा स्ट्रेन के मामले मिले हैं, ऐसे में कोरोना के मामलों को लोगों द्वारा हल्के में लिया जाना खतरनाक हो सकता है। दरअसल यह वायरस लगातार अपना रूप बदलकर बड़ी आबादी को ऐसे निशाना बनाने लगा है कि फिर संभलने के लिए ज्यादा समय नहीं मिलता। हाल के दिनों में कोरोना वायरस के स्पाइक प्रोटीन में तीन बड़े बदलाव (म्यूटेशन) एल452आर, ई484क्यू तथा पी681आर हुए हैं। इनमें सबसे प्रमुख म्यूटेशन एल452आर है, जिसमें प्रोटीन की 452वीं स्थिति पर ल्यूसीन प्रोटीन अर्जिनाइन में बदल गई है। एल452आर को इम्यून एस्केप म्यूटेशन माना जाता है। स्पाइक प्रोटीन जीनोम के 484वें क्रम पर ग्लूटामिक एसिड बदलकर ग्लूटामाइन हो गया है। यह बदलाव इसे इंसानी रिसेप्टर एसीई-2 से जुडने में ज्यादा सक्षम बनाता है और होस्ट के प्रतिरोधी तंत्र में सेंध लगाने में ज्यादा सक्षम बनाता है। वायरस के स्पाइक जीनोमक्रम 681 में भी म्यूटेशन हुआ है। यहां मौजूद प्रोलाइन प्रोटीन की जगह अर्जिनाइन प्रोटीन आ गई है, इस बदलाव का असर इसकी संक्रामकता को बढ़ाता है। पिछले दिनों देश के विभिन्न हिस्सों में डेल्टा प्लस वेरिएंट के कुछ मामले मिले हैं, जिसे बी.1.617.2 स्ट्रेन भी कहा जाता है और अन्य स्ट्रेन की तुलना में 60 फीसदी ज्यादा संक्रामक माना जाता है। अब जिस कप्पा वेरिएंट (बी.1.617.1 स्ट्रेन) के मामले सामने आए हैं, उसे डेल्टा प्लस वेरिएंट से भी ज्यादा खतरनाक बताते हुए स्वास्थ्य विशेषज्ञों का कहना है कि यह नया वेरिएंट बहुत खतरनाक साबित हो सकता है। हालांकि कप्पा वेरिएंट को लेकर कई शोध किए जा रहे हैं और विशेषज्ञों के मुताबिक इन शोधों के जरिये ही कप्पा वेरिएंट को लेकर और जानकारियां सामने आ सकती है। विशेषज्ञों के अनुसार कप्पा वेरिएंट डेल्टा वायरस का ही बदला स्वरूप है, जो डेल्टा प्लस की तरह ही खतरनाक है। यह बी.1.617 वंश के वेरिएंट के म्यूटेशन से बना है, जो पहले भी देश में पाया जा चुका है। कोविड के कप्पा स्वरूप के बारे में नीति आयोग के सदस्य डा. वीके पॉल का कहना है कि यह स्वरूप फरवरी-मार्च में भी देश में मौजूद था लेकिन उस समय इसकी तीव्रता बहुत कम थी। सबसे पहले महाराष्ट्र में इसका पता दिसम्बर 2020 में चला था जबकि डेल्टा वेरिएंट महाराष्ट्र में ही अक्तूबर 2020 में सामने आया था। कोरोना वायरस की पैंगो लीनेज वह वंशावली है, जिसका नोमेनकल्चर पैंगोलिन में होता है और कोरोना के ये दोनों ही वेरिएंट पैंगो लीनेज बी.1.617 के म्यूटेशन हैं। डेल्टा को बी.1.617.2 और कप्पा को बी.1.617.1 म्यूटेशन कहा जाता है। बी.1.617 के कई म्यूटेशन हो चुके हैं, जिनमें से ई484क्यू तथा एल452आर के कारण ही इसे ‘कप्पा वेरिएंट’ कहा गया है। डेल्टा प्लस को भारत में ‘वेरिएंट ऑफ कंर्सन’ घोषित किया गया है जबकि कप्पा को डब्ल्यूएचओ द्वारा ‘वेरिएंट ऑफ इंटरेस्ट’ घोषित किया गया है अर्थात् इसमें यह पता लगाने के प्रयास किए जा रहे हैं कि यह किस प्रकार अपना रूप बदल रहा है। कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि कप्पा वेरिएंट दूसरी लहर के लिए जिम्मेदार डेल्टा वेरिएंट से ज्यादा संक्रामक है लेकिन डेल्टा प्लस से कम खतरनाक है। भारत में डेल्टा वेरिएंट के कारण कोरोना की दूसरी खतरनाक लहर आई थी। दरअसल इसका संक्रमण बहुत तेजी से फैलता है और मरीजों में कोरोना के गंभीर लक्षण दिखते हैं। अब तक सौ से ज्यादा देशों में इसकी मौजूदगी दर्ज की जा चुकी है। जहां तक डेल्टा प्लस की बात है तो कोरोना का यह वेरिएंट डेल्टा में म्यूटेशन के बाद ही देखने को मिला है। कोरोना के नए वेरिएट कप्पा के प्रमुख लक्षणों की बात करें तो इसमें भी डेल्टा प्लस वेरिएंट की ही भांति संक्रमितों में खांसी, बुखार, गले में खराश, सांस लेने में तकलीफ, दस्त, स्वाद चला जाना इत्यादि प्राथमिक लक्षण दिखाई देते हैं और माइल्ड तथा गंभीर लक्षण कोरोना के अन्य म्यूटेंट्स के लक्षणों की ही भांति होते हैं। हालांकि कुछ मामलों में यह संक्रमण लक्षण रहित भी हो सकता है। इसलिए बेहतर है कि हल्के लक्षण नजर आने पर भी तत्काल अपने डॉक्टर से परामर्श लें। बहरहाल, कोरोना के अन्य स्ट्रेन की ही भांति डेल्टा प्लस, कप्पा या ऐसे ही अन्य वेरिएंट्स से बचाव के लिए भी प्रमुख हथियार मास्क का उपयोग, भीड़-भाड़ से बचाव और साफ-सफाई ही हैं।
-अशोक “प्रवृद्ध” वैदिक मतानुसार जिसे शब्दों में वर्णन किया जा सके, उसे पदार्थ कहा जाता है, और दिव्य गुण युक्त पदार्थ को देवता कहते हैं। वर्णन करने योग्य दिव्य ज्ञान युक्त पदार्थ व्यक्त अथवा अव्यक्त दोनों हो सकते हैं, क्योंकि परमात्मा से लेकर पृथ्वी पर्यंत सभी पदार्थ वर्णनीय हो सकते हैं, और यदि उसमें कोई दिव्य गुण हो तो वह देवता हो जाएगा। देवता शब्द दिव धातु से व्युत्पन्न है। दिव शब्द का अर्थ है दीप्ति अर्थात चमक युक्त अर्थात अपने गुणों से प्रकट होने वाला। दिव्य पदार्थ में अन्य गुण भी हो सकते हैं, परंतु कम से एक कम एक गुण विशेष होने से वह दिव्य होता अथवा देवता माना जाता है। वेद मंत्रों में ऐसे अनेक दिव्य पदार्थ पदार्थों के वर्णन हैं। वेद मंत्रों में उनमें से किसी दिव्य पदार्थ की स्थिति का वर्णन होने पर वह उस मंत्र का विषय अथवा देवता कहा जाता है। दिव्य गुण वाले पदार्थ मंत्र का विषय न होने पर भी कभी किसी विशेष प्रयोजन से मंत्र में प्रयुक्त होते हैं। ऐसे पदार्थ तो देवता ही हैं, और वहां पर वह अपने दिव्य गुणों से देवता होते हैं। उनका दिव्य होना तो उनके कर्म से जाना जाता है। और मंत्रों को जानने वाले स्तोताओं के द्वारा देवताओं के नाम से मंत्रों को जानने वाला होता है। इसी से कहा जाता है कि कर्म से ही नाम का ज्ञान होता है। वेद का वास्तविक अर्थ अथवा जो कुछ भी संबंधित बात है, वह इन नामों से ही जाना जाता है। इससे स्पष्ट है कि मंत्र में शब्दों अथवा देवताओं के नामों का अर्थ उनके कर्म से जाना जाता है, जो मंत्र में ही वर्णन किया होता है। ऋग्वेद के प्रथम मंडल के पहले सूक्त में अग्नि की स्तुति है और इसमें अग्नि का वर्णन किया गया है। इसका अर्थ है कि इस मंत्र का देवता अग्नि है। सृष्टि रचना के समय अग्नि सामने उपस्थित हो यज्ञ कर रही थी। वह होता है, और धनसंपदा देने वाली है। ऋग्वेद के इस पहले मंत्र में अग्नि के दिव्य गुणों की ओर संकेत किया गया है। इस कारण अग्नि इस मंत्र का देवता है। अग्नि की संज्ञा अर्थात नाम अग्रणी कर्म से पड़ा है। सबसे पहले रचना कार्य में यह यज्ञ करती है। जो पहले कर्म करे, वह अग्रणी अर्थात अग्नि है। अग्रे से अग्नि नाम पड़ा है। वेद मंत्रों में दिव्य गुण वाले पदार्थों की स्तुति की जाती है और उस स्तुति से ही देवता के नाम की सिद्धि होती है। इंद्र से संबंधित मंत्र ऋग्वेद 2/12/1 में इंद्र को प्रथम जातः बताते हुए कहा गया है कि जो मन के गुणों वाला पहले ही पैदा हुआ, जो संसार के देवताओं को अपने कर्म से, अपने कर्तव्य शक्ति से सुंदर उपकारी करता है, जिसके बल से पृथ्वी, आकाश पृथक- पृथक होते हैं और जिसके सामर्थ्य को महत्वपूर्ण कहा है, जिससे सब डरते हैं, जिससे धन अर्थात सामर्थ्य की महिमा है, वह इंद्र है। इससे स्पष्ट है कि इंद्र प्रथम जन्म लेने वाला है, और इसीलिए वेद में इंद्र को प्रथमः जात: कहा है। अग्नि को प्रथमः जातः नहीं कहा है, बल्कि समक्ष उपस्थित अर्थात पहले ही उपस्थित कहा है। इसका अर्थ है- अग्नि अर्थात आदिअग्नि पैदा नहीं हुई। इंद्र को सृष्टि की उत्पन्न होने वाली वस्तुओं में पहले उत्पन्न हुआ कहा है। जहां अग्नि के विषय में कहा है कि यह धन रत्नादि अर्थात जगत के सब पदार्थ देने वाली है, वही इंद्र के संबंध में कहा है कि उससे संसार के अन्य दिव्य गुण युक्त पदार्थों का निर्माण होता है और जिससे सब डरते हैं अर्थात पृथ्वी और आकाश पृथक -पृथक होते हैं, और जिसकी महान सामर्थ्य है। वेद मंत्रों में ही देवता को पहचानने के लक्षण वर्णन किए गए होते हैं। इंद्र के नाम की व्युत्पति के सम्बन्ध में शतपथ ब्राह्मण में कहा गया है- स योSयं मध्ये प्राण:। एषSएवेंद्रस्तानेष प्राणान्मध्यत Sइन्द्रियेणेन्द्ध यदैन्द्ध तस्मादिन्धSइन्धो ह वै तमिन्द्र। शतपथ ब्राह्मण 6-1- 1- 2 अर्थात-वह जो इस परमाणु के मध्य में प्राण शक्ति है, यह ही इंद्र है। अपने इंद्रिय अर्थात बल से इन्हें अर्थात प्राणों को दीप्त अर्थात प्रकाशित करता है। दीप्ति करने से ही यह ईन्द्ध अर्थात इंद्र कहा जाता है। ईन्द्ध अर्थात दीप्ति प्रकाशित करने से इसका नाम इंद्र पड़ा है। इससे स्पष्ट है कि कर्म देख कर ही यह नाम रखा गया है। इस प्रकार इंद्र देवता है। वह दिव्य गुण वाला पदार्थ जिसका नाम उसके गुण, कर्म, स्वभाव से रखा जाता है, जिससे गुण, कर्म, स्वभाव का वर्णन किया जाता है, वह उस मंत्र का देवता अर्थात विवेच्य विषय कहा जाता है। कभी -किसी अन्य प्रयोजन से भी किसी देवता का नाम मंत्र में आ जाता है, परंतु तब वह मंत्र का देवता नहीं होता। वेदार्थ करने का ढंग का ज्ञान देने वाले शास्त्र को निरुक्त कहते हैं। निरुक्तकार यास्क ने निरुक्त 7/1 में देवताओं का प्रकरण प्रारंभ करते हुए कहा है कि जो नाम प्रधान स्तुति अर्थात गुण, कर्म, स्वभाव का विशेष वर्णन वाले देवताओं के दिए हैं, वे देवता प्रकरण वाले हैं। अर्थात जिनका वर्णन वेद मंत्र में है, वे मंत्र के देवता होते हैं। अर्थात जब मंत्र में किसी का विशेष गुण, कर्म, स्वभाव वर्णन किया गया हो तो वह उस मंत्र का देवता होता है। इसलिए मंत्र में प्रयत्न से उसके वर्णित देवता अर्थात वर्णित विषय को जानना चाहिए। जो कोई मंत्र के देवता को जानता है, वही उसके अर्थ को समझ सकता है। वह व्यक्ति ही ठीक-ठीक सम्मति दे सकता है कि मंत्र करने का उद्देश्य क्या है? मंत्र के ऋषि पर प्रकट होने के समय मंत्र में निहित उद्देश्य को वही बता सकता है। मंत्र के देवता का ज्ञान नहीं रखने वाला व्यक्ति न तो उस मंत्र के अर्थ को समझता है और न ही उसमें कहे कर्म को करने में सफल होता है। मंत्र के देवताओं के संबंध में सूक्त अथवा मंत्र अथवा मंत्रांश पर ही बता दिया गया है कि उसमें किस देवता की स्तुति की गई है, अर्थात किसके गुण, कर्म, स्वभाव का वर्णन किया गया है? यह प्रायः उन ऋषियों ने ही कह दिए हैं, जिन पर मंत्रों का आविर्भाव हुआ है। इन मंत्रों के देवताओं का ज्ञान मंत्र के भाव से भी पता चल जाता है। मंत्रों में स्तुत्य देवता उस मंत्र अथवा सूक्त में मध्यम पुरुष के रूप में संबोधित किया हुआ होता है। यदि ऐसा न भी हो तो मंत्रार्थ करने से पता चल जाता है कि मंत्र किस के विषय में कहा गया है? कभी-कभी मंत्रार्थ से देवता सिद्ध नहीं होता, ऐसी स्थिति में बुद्धि से मंत्र का अर्थ लगाने के लिए स्वतंत्रता होती है, ताकि मंत्र में वर्णित विषय का ज्ञान प्राप्त किया जा सके। इसके लिए निरुक्त सृजक यास्काचार्य ने भी एक सिद्धांत प्रतिपादित किया है। निरुक्त 13/11 के अनुसार यह मंत्र के अर्थ के लिए चिंता- विचार स्फूर्ति दिखाई है। कहा जाता है कि वेद का अर्थ तर्क से पता चलता है। पृथक -पृथक मंत्र का निर्वचन नहीं किया जाता, और न ही प्रकरण छोड़कर मंत्र का अर्थ किया जाता है। निरुक्ताचार्य के अनुसार निर्वचन अर्थात निश्चय से अर्थ करने के लिए तीन बातों का ध्यान रखना आवश्यक है- प्रथम- वेद में परस्पर विरोधी अर्थ नहीं हो सकते। वेद ज्ञान एक ज्ञानवान द्वारा कहा गया है, इस कारण इसमें एक स्थान का दूसरे स्थान से विरोध नहीं होना चाहिए। द्वितीय- तर्क से अर्थ सिद्ध होना चाहिए। तृतीय- प्रकरण जिस देवता का अर्थात विषय का वर्णन हो रहा है उसके अनुसार ही अर्थ होंगे।
शंकराचार्य आदि कुछ विद्वान तर्क को प्राथमिकता नहीं देते, लेकिन सांख्य, न्याय और ब्रह्मसूत्रों में तर्क को अर्थ सिद्ध करने में समर्थ माना गया है। तर्क आधार युक्त होना चाहिए अर्थात किसी प्रत्यक्ष घटना के आधार पर किया गया तर्क उतना ही विश्वसनीय होता है, जितना कि प्रत्यक्ष देखा हुआ होता है। प्रत्यक्ष देखे हुए तर्क के आधार पर तर्क का आशय है कि जब हम प्रत्यक्ष में बार-बार किन्ही दो वस्तुओं, घटनाओं अथवा विचारों का साथ साथ होना देखते हैं, तो एक के होने से दूसरे का होना भी तर्क से मान लिया जाता। जैसे- धुआं और आग को साथ- साथ देखा जाता है, इस कारण धुआं देखकर वहां अग्नि का होना तर्कसिद्ध है। प्रत्येक उत्पन्न होने वाले व्यक्ति को मरता देखकर किसी बालक के जन्म लेने के साथ ही तर्क के आधार पर उसके मृत्यु का अनुमान किया जाता है। तर्क का आधार प्रत्यक्ष हो तो इससे जो सत्य दर्शन होता है, वह सिद्ध ही है। निरुक्त 13/12 के अनुसार ऋषियों के अपने सुकृत लोगों को चले जाने पर मनुष्य देवताओं अर्थात विद्वानों से बोले- कौन हममें अब मंत्र दृष्टा ऋषि होगा? उनको कहा गया कि तर्क तुम्हारा मंत्र दृष्टा अर्थात ऋषि होगा। मंत्रार्थ में संगति को देखना चाहिए। जो पूर्वापर के अनुसार तर्क से सिद्ध हो, वही अर्थ होगा। अर्थात जहां मंत्र अथवा सूक्त पर उल्लिखित देवता पर संदेह हो, वहां तर्क द्वारा पूर्वापर और प्रकरण से देवता का निश्चय किया जा सकता है। देवता से मंत्र का विषय जाना जा सकता है। इससे स्पष्ट है कि सूक्तों, मंत्रों अथवा मंत्रांशों पर लिखे गये देवता, मंत्र का विषय होते हैं और मंत्रार्थ करते समय उनका ध्यान रखा जाना चाहिए। जहां संदेह हो, वहां मंत्र के अर्थ से ही युक्ति द्वारा देवता का पता किया जाता है। देवताओं की गणना तथा उनके गुण, कर्म, स्वभाव के विषय को जानने के लिए देवताओं का ज्ञान ठीक- ठीक रखना आवश्यक है। देवताओं के गुण, कर्म, स्वभाव को वेद मंत्रों से ही जानने के लिए वेदार्थ करने पर विचार करना ही पड़ता है अन्यथा वेदार्थ अशुद्ध होंगे और मंत्रों में वर्णित देवताओं का भी ज्ञान ठीक से न हो सकेगा।
एक तरफ हम चांद और मंगल पर जीवन बसाने की संभावनाएं तलाश रहे हैं। तो वही दूसरी तरफ हमारे समाज का एक बड़ा तबका महिलाओं के ‘ड्रेसकोड’ में ही उलझा हुआ है। अब हम इक्कीसवीं सदी में भले पहुँच गए हो, लेकिन महिलाओं के कपड़ो को लेकर राजनीति आम हो चली है और हो भी क्यों न? आधुनिकता की दौड़ में हमारे संस्कारों की परिभाषा जो बदल गई है। ऐसे में सोचने वाली बात तो यह है कि क्या हमारी संस्कृति इतनी कमजोर है जिसे अब कपडों से परिभाषित करना पड़ रहा है? क्या अब वस्त्र ही हमारे सभ्य और असभ्य होने की परिधि तय करेंगे? मान लीजिए किसी के पति या पिता की मौत हुई है। तो क्या पहले वह ड्रेस पर ध्यान केंद्रित करें या उससे भी कोई ज़रूरी बात होती है। यह तो समाज को स्वयं तय करना चाहिए। ऐसा कहने के पीछे कारण है। बीते दिनों मंदिरा बेदी के पति का असमय निधन हो गया। जिसके बाद उन्हें ट्रोल किया जाने लगा कि उन्होंने ऐसे कपड़े क्यों पहने फलाँ-फलां बातें हुईं।
अब सवाल यहीं क्या कोई महिला जिसके पति का निधन हुआ। वह पहले उस कपड़ें पर ध्यान केंद्रित करें या फ़िर पति के जाने का गम मनाएं? यह काफ़ी साधारण सी बात है कि कोई भी व्यक्ति पहले से तो ऐसे दुःखद समय के लिए तैयार नहीं रहता। फ़िर ऐसे अजीबोगरीब सवाल से किसी की आत्मा और हमारे संस्कारों को औछा आख़िर क्यों साबित करना। जिसपर आज के दौर में हमारे समाज को बोलना चाहिए। उन विषयों पर तो हम येन-केन प्रकारेण चुप्पी साध लेते हैं और जिन विषयों पर नहीं बोलना। उस पर बेवज़ह बोलकर हम बात का बतंगड़ बनाते। यह हमारे समाज में बड़ी ही अचरज़ वाली स्थिति निर्मित होती जा रही है। मंदिरा बेदी को पति के निधन के बाद कैसे कपड़े पहनने चाहिए या नहीं। क्या उन्हें उत्तरप्रदेश में हुई वह घटना याद नहीं आई। जब योगीराज में एक महिला प्रस्तावक के दामन को तार-तार करने वाली घटना घटित हुई? मतलब नज़रिए की भी हद्द होती है। अब हमारा समाज सलेक्टिव होते जा रहा है। उसे कब, क्या और कहां कितना बोलना है। वह उतना ही करता है। फ़िर वह ग़लत, सही को भूला देता है। जो कहीं न कहीं हमारे समाज को ग़लत दिशा की और लेकर जा रहा है।
एक तरफ़ हमारे समाज में महिलाओं का संस्कारी होना उनके कपडों के आधार पर तय किया जाता है। वहीं दूसरी ओर समाज के एक वर्ग विशेष के द्वारा महिला का ही सरेआम पल्लू खींचा जाता है। वह भी उस समय जब वह महिला अपने ब्लाक प्रमुख की उम्मीदवारी का पर्चा भरने के लिए जा रही होती है। ऐसे में सवाल कई उठते हैं। लेकिन उनपर गहन मंथन करने वाला कोई नहीं। हमारे देश में हाल ही में प्रधानमंत्री के मंत्रिमंडल में 11 महिलाओं को शामिल किया गया है। उत्तरप्रदेश सूबे की ही बात करे। तो यहां से 4 महिलाएं मोदी मंत्रिमंडल में शामिल है और 11 महिला सांसद है। इसके अलावा सूबे में 40 महिला विधायक हैं। इन सबके बावजूद एक महिला का सूबे में सरेआम पल्लू खींचा जाता है। वह भी तमाम मीडिया कैमरों के सामने, लेकिन सामान्य जनमानस तो सामान्य कोई भी महिला मंत्री इस मुद्दे पर अपनी आवाज तक नही उठा पाती है। कोई महिला आयोग इस मुद्दे पर खुलकर सामने नही आता है। फ़िर आख़िर हम किस संस्कार और संस्कृति की ढपली पीटते हैं और किस हैसियत से मंदिरा बेदी को कौन सा कपड़ा पहनना चाहिए था या नहीं उस बात के लिए सलाह देते हैं।
मतलब लोकतांत्रिक निर्लज्जता की भी हद्द होती है। एक तरफ़ तो जो महिला कपड़ें पहने हुए है। उसके बदन से कपड़े खींचे जाते हैं और दूसरी तरफ़ एक अन्य महिला जिसके ऊपर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा। जिसने असमय अपने पति को खो दिया। उसे कैसे कपडे पहनने चाहिए और कैसे नहीं उसकी सीख दी जा रही। वैसे कई बार जिन महिलाओं को हम अपना प्रतिनिधित्व करने के लिए चुनते है वे भी मौन धारण कर लेती है। फ़िर काफ़ी खीझ छूटती है, कि अगर वो ही अपने जैसी महिलाओं की बात नहीं रख सकती। फ़िर बाक़ी से क्या उम्मीद लगाई जाएं। आज के समय का एक कड़वा सच तो यह भी है कि हम जिन महिलाओं को अपने प्रतिनिधित्व करने के लिए चुनते है वह भी हमें इंसाफ नही दिला पाती है।
समाज का कोई भी वर्ग हो महिलाओं के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार हर परिस्थिति में होता रहा है। महाभारत काल की ही बात करे तो द्रोपदी का चीरहरण भरी सभा मे किया गया और सारा हस्तिनापुर मौन रहा। ऐसे में आज की परिस्थितियों को देखकर यही प्रतीत होता है। मानो एक बार फिर देश महिलाओं पर होते अत्याचार के खिलाफ आंखे बंद करके तमाशबीन बन गया है। समाज मे महिलाओं को बराबरी के हक दिए जाने की बात का ढिंढोरा बड़े जोरो शोरों से गूंजता है लेकिन जब वही महिला अपनी रूढ़िवादी परम्पराओं से बाहर निकलने का प्रयास करती है। तो बड़ी आसानी से उन पर लांछन लगा दिया जाता है। अभी हाल ही में मंदिरा वेदी के पति की मौत पर कंधा देना और जीन्स पहनकर उनके पति का अंतिम संस्कार करने की ही घटना को देखे तो साफ दिखाई देता है कि कैसे जब कोई महिला समाज के नियमों से बाहर जाती है। तो पितृसत्तात्मक मानसिकता उन पर सवाल खड़े कर देती है। यहां सोचने वाली बात यह है कि क्या महिला के दर्द को उनके कपड़ों के आधार पर देखा जाएगा? क्या मंदिरा बेदी साड़ी पहनकर अपने पति का अंतिम संस्कार करती तो उनका दर्द बेहतर ठंग से दिखाई देता है? या फ़िर क्या साड़ी पहनने से मंदिरा बेदी के पति वापस लौट आते?
क्या इन सवालों के जवाब आम लोगों के आप हैं, नहीं न! फ़िर उस समाज के लिए एक ही बात कि वह इतना भी असंवेदनशील न हो जाएं, कि महिला को अपने महिला होने से ही दिक़्क़त हो जाएं। वैसे भी वह महिला ही है। जो मां के रूप में ममता बरसाती है। वरना वह दुर्गा और काली भी बन जाती है। कुल-मिलाकर देखें तो समाज को सलेक्टिव अप्रोच से बाहर निकलना होगा। ख़ासकर महिलाओं को लेकर। इसके अलावा हर महिला को एक दृष्टिकोण से देखना होगा। महिला कोई भी हो, अमीर या ग़रीब घर की। हर महिला का सम्मान होना चाहिए। कपड़ें हमारी पहचान नहीं बन सकते, पहचान हमारा अपना व्यक्तित्व ही होता है। भले ही वह अच्छा हो या बुरा। ऐसे में व्यक्ति को चाहें वह महिला हो या पुरुष उसे अपने व्यक्तित्व पर ध्यान देना चाहिए और ग़लत को ग़लत और सही को सही कहने की क्षमता हर किसी में होना चाहिए, न कि चुप्पी साधने का गुण। जैसा कि उत्तर प्रदेश में महिला के पल्लू खींचें जाने पर देखने को मिला। आख़िर में एक बात यही कि हमारे देश की तो सदियों से नारी को पूजने की परंपरा रही है। फिर क्यों आज नारी की अस्मिता पर चोट करने से समाज पीछे नही हटता? देखा जाए तो धर्म के ठेकेदारों ने ही धर्म को अपनी सुविधानुसार व्याख्या करना शुरू कर दिया है। जिसकी वज़ह से ये जड़तामूल्क समस्याएं उत्पन्न हो रही। जिसका निदान बहुत आवश्यक है।
-मनमोहन कुमार आर्य हमारी जीवात्माओं को मनुष्य जीवन ईश्वर की देन है। ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान होने के साथ सर्वज्ञ भी है। उससे दान में मिली मानव जीवन रूपी सर्वोत्तम वस्तु का सदुपयोग कर हम उसकी कृपा व सहाय को प्राप्त कर सकते हैं और इसके विपरीत मानव शरीर का सदुपयोग न करने के कारण हमें नियन्ता ईश्वर के दण्ड का भागी होना पड़ सकता है। इस शिक्षा को एक उदाहरण से इस प्रकार समझ सकते हैं कि हमने किसी भूखे व्यक्ति को देखा। उसके पास भूख दूर करने के साधन नहीं है। उसके प्रति हमारे अन्दर दया उत्पन्न हुई। हमने उसे कुछ धन दिया जिससे वह भोजन कर सके। यदि वह भोजन कर अच्छे काम करेगा तो हमें स्वाभाविक रूप से प्रसन्नता होगी और यदि वह उस धन से भोजन न कर उस धन से अन्य किसी निकृष्ट पदार्थ मदिरापान का सेवन व अभक्ष्य पदार्थ को खाता है तो हमें अपने कृत्य पर पछतावा होगा। हम इसके बाद उसकी सहायत नहीं करेंगे। ईश्वर ने भी जीवात्मा पर दया करके उसे दुर्लभ व सर्वोत्तम मानव शरीर दिया है। अतः हमें इसका सदुपयोग कर ईश्वर की अधिक से अधिक सहायता व कृपा को प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिये। यदि ऐसा नहीं करेंगे तो हम ईश्वर की सुख, ऐश्वर्य-सम्पत्ति, आत्मोन्नति, अच्छा स्वास्थ्य, अच्छे ज्ञानी व महात्मा स्वभाव वाले विद्वानों व मित्रों की संगति आदि भावी कृपाओं से वंचित हो जायेंगे।
बृहदारण्यक उपनिषद के ऋषि ने जीवन निर्माण के स्वर्णिम सूत्र ‘असतो मा सद्गमय। तमसो मा ज्योर्तिगमय। मृत्योर्मा अमृतं गमय।।’ दिये हैं। यह सूत्र उस प्रत्येक व्यक्ति के लिए उपयोगी व लाभदायक हैं जो जीवन को इसके वास्तविक लक्ष्य पर ले जाना वा पहुंचाना चाहते हैं। इसके लिए इसमें पहली शिक्षा यह दी गई है कि ‘असतो मा सद्गमय’ अर्थात् मनुष्य जीवन को जीवात्मा में विद्यमान असत् को हटाकर सत्य मार्ग पर चलाना है। ऐसा इसलिये कहा गया है कि असत मार्ग अवनति वा दुःख की ओर ले जाता है और सत मार्ग उन्नति व सुख की ओर ले जाता है। संसार में कोई भी मनुष्य वा प्राणी दुःख नहीं चाहता। सभी कामना करते हैं कि मेरे सारे दुःख दूर हो जाये और सभी सुखों की उपलब्धि व प्राप्ति मुझे हो। इसका उपाय ही उपनिषद के ऋषि ने ‘असतो मा सद्गमय’ कहकर बताया है।
महर्षि दयानन्द ने आर्यसमाज का चैथा नियम इसके समान ही बनाया है। नियम है कि ‘सत्य के ग्रहण करने और असत्य के छोड़ने में सर्वदा उद्यत रहना चाहिये।’ इसका प्रयोजन भी वही है जो कि ‘असतो मा सद्गमय’ का है। इस नियम को विचार कर हमें लगता है कि इसे देश व विश्व का ध्येय वाक्य बना देना चाहिये। शिक्षा व विद्यालयों में हर स्तर पर इसका विवेचन व प्रचार हो और यह हमारे जीवन के लिए एक कसौटी का कार्य करे। हमें प्रतिदन विचार करना चाहिये कि हमारे जीवन में इस आदर्श का कितना भाग विद्यमान है। महर्षि दयानन्द सहित हमारे सभी ऋषि-मुनि व महापुरुष इसी मार्ग पर चले थे। उन्होंने इस वैदिक ज्ञानयुक्त मान्यता का अपने जीवनों में पूरा-पूरा पालन किया था और इसी से वह सब महान बने थे।
वर्तमान समय में हमें मनुष्य जाति का जो पतन देखने को मिलता है उसमें कहीं न कहीं इस नियम की अवहेलना व उपेक्षा ही दृष्टिगोचर होती दिखाई देती है। इस नियम के पालन न करने से ही प्राचीन काल में यज्ञों में पशुओं की हिंसा होती थी, इसी के कारण देश को मूर्तिपूजा, अवतारवाद की कल्पना, फलित ज्योतिष, वेदाध्ययन में प्रमाद, सामाजिक असमानता व विषमता, छोटे-बडे की भावना, बाल विवाह, मांसाहार, मदिरापान, धूम्रपान, असद् व्यवहार वा भ्रष्टाचार के रोग लगे। सन् 1863 से सन् 1883 तक महर्षि दयानन्द ने धार्मिक व सामाजिक इन अज्ञान, अविवेकपूर्ण व मिथ्या अन्धविश्वासों का खण्डन किया और सद्ज्ञान का प्रसार करने के लिए ईश्वर प्रदत्त सत्यज्ञान युक्त वेदों की मान्यताओं का देश व भूमण्डल में प्रचार किया। इसे जितने अंशों में देश समाज व विश्व ने अपनाया है उसी अनुपात में आज हम देश व समाज की उन्नति देख रहे हैं। उद्देश्य से अभी हम बहुत पीछे हैं। लगता है कि देश अब रूक गया है। लोग परा व आध्यात्म विद्या की उपेक्षा कर रहे हैं और केवल अपरा विद्या वा भौतिक ज्ञान में ही डुबकी लगा रहे हैं। अतः आध्यात्मिक विद्या की उन्नति द्वारा मनुष्य जीवन से असद् व्यवहार को हटाकर सद्व्यवहार को स्थापित करना ही ईश्वर को प्रसन्न करना व उससे सभी सात्विक सर्वोत्तम सम्पत्तियों व इष्ट पदार्थों को प्राप्त करने का मार्ग विदित होता है।
उपनिषद के ऋषि ने इसके बाद ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ कह कर यह भी सुस्पष्ट कर दिया कि जीवन में तम, अज्ञान व मिथ्याचरण नाम मात्र का भी नहीं होना चाहिये। यदि जीवन में तम रूपी अज्ञान व अन्धकार होगा तो वह सद्गमय के हमारे ध्येय में बाधक होगा। इसलिये तम के अज्ञान व अन्धकार को ज्ञान की ज्योति से दूर करने की शिक्षा उन्होंने दी है। यह तम व अज्ञान ऐसा है कि कई बार यह बडे-बड़े ज्ञानियों को भी लग जाता है। यह तम मनुष्यों में राग, द्वेष, काम, क्रोध व अहंकार आदि मिथ्या बातों के स्वभाव में आ जाने पर प्रविष्ट हो जाता है जिन पर विजय पाना कठिन होता है। आज देखा जाये तो साधारण मनुष्य से लेकर विद्वान तक प्रायः सभी इन तमों से ग्रसित हैं। इसके लिये वेदादि सद्ग्रन्थों का स्वाध्याय व प्रातः सायं ईश्वरोपासना, योगाभ्यास, यज्ञाग्निहोत्रादि अनुष्ठान सहित सत्पुरुषों की संगति आवश्यक होती है। सन्ध्या में चिन्तन करते हुए भी यह देखना उचित होता है कि मेरे अन्तःकरण में ये मानसिक रोग व विकार हैं अथवा नहीं। यदि हों तो उन्हें विचार कर दूर करने का दृण संकल्प लेना चाहिये और प्रातः सायं उसकी विद्यमानता पर विचार कर उसको जीवन से दूर करने का प्रयत्न करना चाहिये। तम रहित ज्योतिर्मय जीवन ही सदगमय का प्रतीक सहित सात्विक व पारमार्थिक जीवन होता है। सत्य का धारण और तम रूपी असत्य का निरन्तर त्याग ही मनुष्य जीवन का उद्देश्य है और इसको करके ही हम मनुष्य कहलाते हैं। हमें मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम, योगेश्वर श्री कृष्ण और वेदभक्त महर्षि दयानन्द में सदाचार का धारण ही उनकी दिव्यताओं व आदर्शों का कारण अनुभव होता है। उन्हीं का अनुकरण हमें भी करके उनके समान बनना है। यही इन महापुरुषों को मानने व उनके गुण-कीर्तन करने का प्रयोजन है।
सूत्र की तीसरी व अन्तिम शिक्षा है कि ‘मृत्योर्मा अमृतं गमय’ अर्थात् मैं मृत्यु पर विजय प्राप्त करूं और अमृत अर्थात् जन्म-मरण से अवकाश प्राप्त कर मोक्ष की प्राप्ति करूं। यह अमृत वा मोक्ष ही मनुष्य जीवन का सर्वोत्तम लक्ष्य व सम्पत्ति है। यही वास्तविक व सर्वोत्तम स्वर्ग, विष्णुलोक व निरन्तर ईश्वर की उपलब्धता की स्थिति है जिसमें जीवात्मा ईश्वर में निहित अमृतमय आनन्द का भोग करते हुए ईश्वर के साथ ईश्वर प्रदत्त अनेक शक्तियों से विद्यमान रहता है। इसके विपरीत विद्वानों, धार्मिक गुरुओं वा प्रचारकों द्वारा स्वर्ग आदि की जो कल्पनायें की जाति है वह यथार्थ नहीं है। उपनिषद की इसी शिक्षा के समान यजुर्वेद के अध्याय 30 का तीसरा मन्त्र ‘ओ३म् विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परासुव। यद् भद्रन्तन्न आसुव।।’ भी है। इसका हम प्रतिदिन अर्थ सहित पाठ करते ही हैं जिसमें कहा गया है कि ‘हे सकल जगत् के उत्पत्तिकत्र्ता, समग्र ऐश्वर्ययुक्त शुद्धस्वरूप, सब सुखों के दाता परमेश्वर ! आप कृपा करके हमारे समस्त दुर्गुण, दुव्र्यसन और दुःखों को दूर कर दीजिए और जो कल्याणकारक गुण, कर्म, स्वभाव और पदार्थ हैं, वह सब हमको प्राप्त कीजिए।’ इस मन्त्र के अर्थ में ‘जो कल्याणकारक गुण, कर्म, स्वभाव और पदार्थ हैं, वह सब हमको प्राप्त दीजिए।’, इसमें सभी प्रकार के सात्विक सांसारिक सुखों के साधनों व सम्पत्तियों सहित अमृतमय मोक्ष सुख भी सम्मिलित हैं।
हम आशा करते हैं कि पाठक इस लेख पर विचार कर उपनिषद वाक्य में वर्णित वैदिक शिक्षा को अपने जीवन में अपनायेंगे और महर्षि दयानन्द द्वारा जनसाधारण की भाषा में लिखित ‘सत्यार्थ-प्रकाश’ आदि अन्यान्य ग्रन्थों का अध्ययन वा स्वाध्याय कर अपने जीवन को मनुष्य जीवन के ध्येय सर्वोत्तम सुख मोक्ष की ओर अग्रसर करेंगे।
यूरोपीय संघ की ग्रीन डील के तहत, साल 2050 तक जलवायु तटस्थ बनने के लक्ष्यों को हासिल करने की और एक बड़ा कदम उठाते हुए कल, 14 जुलाई को, यूरोपीय आयोग 1990 के मुक़ाबले 2030 में ग्रीनहाउस-गैस उत्सर्जन के स्तर में 55% की कटौती करने के एक मसौदा कानून का विशाल पैकेज पेश करेगा। इस पैकिज का नाम है ‘फिट फॉर 55’। यह एक महत्वपूर्ण घटनाक्रम है जो यूरोपीय संघ को जलवायु तटस्थ होने के बेहद क़रीब ले आएगा।
क्या है यह ‘फिट फॉर 55’? ‘फिट फॉर 55’ पैकेज यूरोपीय यूनियन (ईयू) के आगामी विधान का मसविदा है। यह उस राजनीतिक प्रतिज्ञा के समर्थन के लिये तैयार किया गया है जिसके तहत वर्ष 2030 तक ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में 1990 के स्तरों के मुकाबले 55 प्रतिशत तक की कटौती करने का इरादा जाहिर किया गया था।
यह लक्ष्य वर्ष 2030 तक ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में 40 प्रतिशत कटौती करने के पिछले लक्ष्य के मुकाबले ज्यादा महत्वाकांक्षी है। यह वर्ष 2050 तक जलवायु-तटस्थ हो जाने (और दुनिया के बाकी देशों को जलवायु परिवर्तन से लड़ने के लिए 2015 पेरिस समझौते के तहत कार्य करने के लिए प्रेरित करना) के ईयू के लक्ष्य का एक हिस्सा है। व्यापक संदर्भ में देखें तो इसका उद्देश्य एक यूरोपियन ‘ग्रीन डील’ को अंजाम देना है ताकि ईयू को अधिक सतत, समावेशी और प्रतिस्पर्द्धी बनाया जाए।
ईयू ऐसे देशों का नेतृत्वकर्ता संगठन है जिन्होंने दिसम्बर 2020 में वर्ष 2030 तक ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कुल 55 प्रतिशत की कटौती के लक्ष्य पर रजामंदी दी थी। इससे यूरोपियन विधायी प्रस्तावों के लिये एक मंच तैयार हुआ, जिनका उद्देश्य लक्ष्य को हासिल करने का है।
इस पैकेज में 12 प्रस्ताव शामिल होंगे। चूंकि प्रदूषणकारी तत्वों के उत्सर्जन में 40% तक की कटौती करने का पिछला लक्ष्य यूरोपीय कानूनों में पहले से ही शामिल है, इसलिये पैकेज का ज्यादातर हिस्सा कानून के इन हिस्सों में प्रस्तावित सुधार को समर्पित होगा ताकि उसे 55% कटौती के लक्ष्य के अनुरूप बनाया जा सके।
इसके औद्योगिक उद्देश्यों में कई चीजें शामिल हैं। जैसे कि कोयला तेल तथा प्राकृतिक गैस समेत तमाम जीवाश्म ईंधनों पर निर्भरता को कम करना, सौर, वायु तथा पनबिजली जैसे वैकल्पिक ऊर्जा स्रोतों के इस्तेमाल को और विस्तार देना, इलेक्ट्रिक कारों को विकसित करने के काम में तेजी लाना और विमानन तथा जहाजरानी (शिपिंग) के लिए स्वच्छ ऊर्जा के विकल्पों को अपनाने के प्रति प्रेरित करना इत्यादि।
इसकी समय सीमा
यूरोपियन कमीशन को 14 जुलाई को अपने प्रस्ताव पेश करने हैं, जिसमें कारों से निकलने वाली कार्बन डाइऑक्साइड को सीमित करने से लेकर दोषपूर्ण स्टील पर आयात कर तक शामिल होगा।
इस पैकेज को जहां एक तरफ यूरोपीय यूनियन में शामिल देशों की सरकारों की मंजूरी की जरूरत होगी, वहीं दूसरी तरफ यूरोपीय पार्लियामेंट की भी रजामंदी की आवश्यकता पड़ेगी। यह ऐसी प्रक्रिया है जो उनके एजेंडा को कम से कम 12 महीनों तक प्रभावित करेगी। इस दौरान सघन लामबंदी, मुश्किल मोल-भाव और अनेक पहलुओं में सुधार की मांग जैसी बातें सामने आ सकती हैं।
इसके पांच प्रमुख तत्व
1) पावर प्लांट्स और फैक्ट्रियों के लिए उत्सर्जन संबंधी अधिक मुश्किल पाबंदियां
इस पैकेज में उद्योगों को अपने दायरे में लेने वाले उस कानून में बदलाव का प्रस्ताव शामिल किया जाएगा, जिसमें ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में 40% की कटौती का प्रावधान किया गया है।
उद्योगों के डिस्चार्ज का नियमन किया गया है और उनमें ज्यादा आक्रामक रूप से कटौती की जाएगी। यह काम यूरोपीय एमिशंस ट्रेडिंग सिस्टम या ईटीएस के जरिए होगा। इसके माध्यम से 10,000 से ज्यादा औद्योगिक इकाइयों को प्रदूषण संबंधी अनुमति या दी जाती हैं (यह उनके लिए जरूरी होगा जिन्होंने कारोबारों से सरप्लस अलाउंस खरीदने के लिए अपने कोटा को बढ़ाया है) और यूरोपीय कमीशन समग्र आपूर्ति में तेजी से गिरावट लाने की कोशिश करेगा। ईटीएस के दायरे में यूरोप की विमान सेवाएं भी आती हैं।
पुनरीक्षित ईटीएस कानून, प्रदूषण संबंधी अनुमति की संख्या में तेजी से कटौती करने के साथ-साथ इस मुद्दे का भी समाधान करेगा कि उनमें से कितने लोगों को यह अनुमति मुफ्त में (नीलामी के विपरीत, जिसमें सरकार के लिए राजस्व इकट्ठा करने में मदद मिलती है। साथ ही साथ उसमें ‘पोल्यूटर पे’ का सिद्धांत लागू किया जाता है) आवंटित की जा सकती है। इसके अलावा शिपिंग को शामिल करके ईटीएस कानून का दायरा और बढ़ाया जा सकता है।
2)- भूतल परिवहन (सड़क रेल तथा शिपिंग), इमारतों, कृषि तथा अपशिष्ट से निकलने वाली ग्रीन हाउस गैसों की राष्ट्रीय स्तर पर सीमाएं निर्धारित करने के अधिक कड़े नियम
पैकेज में कुछ कानूनों में संशोधन का प्रस्ताव शामिल किया गया है, जिसके तहत यूरोपीय संघ में शामिल देशों द्वारा उत्सर्जित ग्रीन हाउस गैसों के 60% हिस्से के लिए जिम्मेदार औद्योगिक इकाइयां आती हैं।
ये गैर-ईटीएस सेक्टर यूरोपीय संघ के एफर्ट शेयरिंग रेगुलेशन या ईएसआर के तहत आते हैं। इस रेगुलेशन को यूरोपीय यूनियन के सदस्य देशों द्वारा तैयार की गई नीतियों के जरिए लागू किया गया है और कमीशन इसकी निगरानी करता है। ईयू देश अपने ईएसआर सेक्टर द्वारा किये जाने वाले ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी लाने के बाध्यकारी और विविध लक्ष्यों का सामना कर रहे हैं।
3)- कारों से निकलने वाली कार्बन डाइऑक्साइड पर ईयू की अधिक कड़ी सीमाएं
पैकेज में उस ईयू टूल को और धारदार बनाने की कोशिश की जाएगी जो सड़क परिवहन से होने वाले प्रदूषण पर लगाम लगाने के राष्ट्रीय उपायों के पूरक के तौर पर काम करता है। यह एक कानून है जो वाहन निर्माताओं को कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जन में कटौती करने के लिए मजबूर करता है। कमीशन वर्ष 2030 तक के लिए एक लोअर सीलिंग (इस साल प्रति किलोमीटर कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन के लिए 95 ग्राम की औसत सीमा तय की गई है और वर्ष 2030 के लिए निर्धारित लक्ष्य के तहत इसमें 37.5% की कमी लाने का लक्ष्य है) तैयार करने की योजना बना रहा है।
4)- अक्षय ऊर्जा
मौजूदा यूरोपीय कानून में एक और बदलाव की योजना के तहत कमीशन वर्ष 2030 तक ऊर्जा उपभोग में अक्षय ऊर्जा स्रोतों की भागीदारी से संबंधित और अधिक महत्वाकांक्षी ईयू-व्यापी लक्ष्य का प्रस्ताव रखेगा। वर्ष 2030 के लिए मौजूदा लक्ष्य 32% भागीदारी का है जबकि नया लक्ष्य 38 से 40% के बीच होने की संभावना है। ऐसे लक्ष्य की मौजूदगी उस विचार को जाहिर करती है कि अक्षय ऊर्जा प्रौद्योगिकियों का विकास सिर्फ जीवाश्म ईंधन से निकलने वाले प्रदूषणकारी तत्वों के उत्सर्जन में अनिवार्य कटौती पर ही नहीं, बल्कि अक्षय ऊर्जा स्रोतों को बढ़ावा देने के लिए सरकार के सक्रिय कदमों पर भी निर्भर करता है।
यूरोपीय यूनियन ने वर्ष 2030 के लिए निर्धारित अपने अक्षय ऊर्जा उद्देश्य को बाध्यकारी राष्ट्रीय लक्ष्यों के साथ जोड़ने से परहेज किया है। फिर भी सदस्य देशों के अक्षय ऊर्जा संबंधी अलग-अलग संकेतात्मक लक्ष्य हैं जो उनके यहां मौजूद ऊर्जा मिश्रण को जाहिर करते हैं और उनका मकसद यह है कि यूरोपीय यूनियन समग्र रूप से अपने लक्ष्य को पूरी तरह हासिल करे।
मौजूदा स्वरूप में इस विधेयक के दो अन्य प्रमुख हिस्से हैं। पहला, परिवहन क्षेत्र में अक्षय ऊर्जा के इस्तेमाल की भागीदारी को 14% तक लाने का लक्ष्य और प्लांट्स जैसे कि बायो एनर्जी से उत्पन्न होने वाली बिजली की सततता का मानदंड।
5)- कार्बन बॉर्डर एडजेस्टमेंट मेकैनिज्म (सीबीएएम)
यह उन कुछ आयातित सामानों की कीमतें बढ़ाने के लिए एक नया और विवादित ईयू टूल होगा जिन्हें ईटीएस में उत्पादकों द्वारा वहन की जाने वाली जलवायु संरक्षण लागतों से छूट मिली है। इसका उद्देश्य यूरोपीयन यूनियन के देशों को कार्बन डाइऑक्साइड पर अपनी कीमतें लगाने के लिए प्रेरित करना है। साथ ही यूनियन में शामिल देशों के निर्माताओं को इस बात के लिए आश्वस्त करना भी है कि ईटीएस उन्हें अनावश्यक रूप से नुकसान नहीं पहुंचायेगा।
राजनीतिक प्रभाव से भरे तकनीकी सवाल की वजह से सीबीएएम पर गरमागरम बहस होती है। क्या यह एक ऐसा उपाय होगा जो यूरोपीय यूनियन के आयातों पर पाबंदी लगाएगा और यूरोपीय निर्माणकर्ताओं का इस तरह से बचाव करेगा कि जिससे विश्व व्यापार संगठन के नियमों का उल्लंघन होता हो? इसका जवाब सीबीएएम के जरिये ईयू उद्योगों को कवर करने की हद पर निर्भर हो सकता है। स्टील उनमें से एक है जिसे ईटीएस का मुफ़्त परमिट देने से इनकार कर दिया गया है।
यूरोपियन कमीशन पैकेज एक नज़र में
वर्ष 2030 के लिये निर्धारित नये लक्ष्य
वर्ष 2030 के लिये निर्धारित पुराने लक्ष्य
बिजली संयंत्र/कारखाने/एयरलाइंस
-43% उत्सर्जन सापेक्ष 2005
परिवहन/भवन/खेत/अपशिष्ट
-30% उत्सर्जन सापेक्ष 2005
कारें
-37.5% CO2 सापेक्ष 2021
नवीकरणीय ऊर्जा
खपत का 32%
ऊर्जा दक्षता
32.5% कम खपत
एक अन्य तत्व पर भी रखनी होगी नजर सड़क परिवहन और निर्माण को किसी स्वरूप में यूरोपीय कमीशन ट्रेडिंग सिस्टम में शामिल किए जाने की संभावना पर नजर रखनी होगी। जर्मनी ने दुनिया को यह विचार दिया था। उस वक्त उसने अपने यहां घरेलू स्तर पर ऐसी प्रणाली लागू की थी। इसकी वजह से यूरोपीय यूनियन में उपभोक्ताओं के लिए कीमतें बढ़ने की संभावना को लेकर चिंता जाहिर की गई थी। साथ ही इस बात पर भी फिक्र जताई गई थी कि कहीं वर्ष 2018 में फ्रांस में ईंधन पर लागू कर में वृद्धि के खिलाफ हुए जन आंदोलन जैसी स्थिति न पैदा हो जाए। इसके बावजूद अर्सुला वान दर लेन की अध्यक्षता वाले कमीशन ने ऐसे ईयू व्यापी उपाय को प्रस्तावित करने की मंशा के संकेत दिए हैं।
क्या यूरोपियन ईटीएस में सड़क परिवहन और इमारतों के निर्माण को शामिल करने से ठीक वही बात पैदा होगी जैसे कि यूरोपीय यूनियन द्वारा कारों से निकलने वाली कार्बन डाइऑक्साइड की अधिकतम सीमा तय किए जाने से उत्पन्न हुई है? क्या इससे सदस्य देशों की सरकारों को पैकेज में उल्लेखित एफर्ट शेयरिंग में मदद मिलेगी या फिर उनके लिए हालात राजनीतिक रूप से और भी ज्यादा मुश्किल हो जाएंगे?
यूरोपीय कठिनाइयां और सुगमताएं
यूरोपीय यूनियन के कानून आमतौर पर या तो ईटीएस के जरिए कारोबार को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करते हैं या फिर ईएसआर के माध्यम से सदस्य देशों को नियमन संबंधी शर्तें मानने के लिए बाध्य करके अप्रत्यक्ष रूप से असर डालते हैं। दोनों ही मामलों में यूरोपीय यूनियन अक्सर अनिवार्यताओं और प्रोत्साहनों के संयोजन का इस्तेमाल करता है। ‘फिट फाॅर 55’ पैकेज भी कोई अपवाद नहीं है। इससे संबंधित प्रासंगिक नियमों के कुछ उदाहरण निम्नलिखित हैं :
सुगमताएं
1)- जलवायु के प्रति मित्रवत निवेशों के लिए सैकड़ों बिलियन यूरो की ईयू फंडिंग।
2)- सतत परियोजनाओं के लिए अंतर्राष्ट्रीय पूंजी उपलब्ध कराने पर अधिक प्रोत्साहन।
3)- प्रदूषण मुक्त तरीके से तैयार सामान के इस्तेमाल के लिए अधिक उपभोक्ता जागरूकता।
4)- एमिशंस ट्रेडिंग सिस्टम से बाहर के क्षेत्रों के लिए ईटीएस उद्योगों पर एक बाध्यकारी नियम लागू है, ताकि ईयू कटौती के समग्र भार के वहन में अधिक संतुलन बनाया जा सके (भले ही वे प्रदूषणकारी तत्वों का उत्सर्जन कम क्यों ना करते हों)।
5)- यूरोपीय यूनियन की सरकारों के लिए एफर्ट शेयरिंग रेगुलेशन के अंदर लचीलापन
ईएसआर क्षेत्रों में उत्सर्जन को ‘ऑफसेट’ करने के लिए ईटीएस भत्ते का उपयोग।
भूमि उपयोग (जैसे कि वानिकी और कृषि) से संबंधित कार्बन अवशोषण से जुड़े क्रेडिट तक पहुंच।
वर्षों के दौरान उत्सर्जन लक्ष्यों में किसी भी तरह की कमी या ज्यादती को सुचारू करना (बैंकिंग और उधार)
एक दूसरे से आवंटन खरीदना और बेचना।
6)- कार निर्माताओं के लिए शून्य और कम उत्सर्जन वाले वाहनों के उत्पादन में कार्बन डाइऑक्साइड को सीमित करने वाले कानून में प्रोत्साहन के पहलू को शामिल करना।
कठिनाइयां
1)- ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन करने वाले कारोबारों के लिए ईयू नियामक लागतों में वृद्धि।
2)- सदस्य देशों वाली सरकारों के लिए अधिक सख्त ईयू नीतिगत आवश्यकताएं।
3)- कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन की अधिकतम सीमा का उल्लंघन करने वाले कार निर्माताओं पर वित्तीय दंड।
4)- कुछ सामान निर्यातकों के लिए यूरोपीय यूनियन के बाजार में दाखिला मुश्किल होना।
ईयू देशों के लिये ‘फिट फॉर 55’ के क्या मायने होंगे? “फिट फॉर 55” पैकेज को राष्ट्रों के लिए इसके अलग-अलग हिस्सों और घरेलू केन्द्रीय बिंदुओं के बीच लिंक बनाकर प्रस्तुत किया जा सकता है, जो देश दर देश अलग-अलग हो सकते हैं।
क) सभी के लिये एक ही लिंक
सबसे साधारण लिंक ईयू के सभी सदस्यों पर लागू होता है : यूरोपियन एमिशंस ट्रेडिंग सिस्टम (ईटीएस) से बाहर के क्षेत्रों में ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कटौती सम्बन्धी नये राष्ट्रीय लक्ष्य।
यह एक बाध्यकारी लिंक भी है, क्योंकि भूतल परिवहन (सड़क, रेल तथा शिपिंग), इमारत निर्माण, कृषि तथा अपशिष्ट जैसे गैर-ईटीएस सेक्टर ईयू देशों द्वारा किये जाने वाले कुल ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के आधे से ज्यादा हिस्से के लिये जिम्मेदार हैं।
इसके अलावा, एफर्ट शेयरिंग रेगुलेशन (ईएसआर विवरण के लिये अनुलग्नक 1 देखें) में शामिल राष्ट्रीय लक्ष्य दरअसल, बाध्यकारी हैं। इसके परिणामस्वरूप मुश्किल लक्ष्यों को हासिल करने के लिए तैयार की जाने वाली घरेलू नीतियों की श्रृंखला विश्वसनीय होनी चाहिए।
ख)- देश विशिष्ट मामले
जर्मनी
l ईटीएस उद्योगों पर ईयू-व्यापी कटौती की अधिक सख्त बाध्यताएं और बिजली उत्पादन में कोयले के इस्तेमाल को खत्म करने के लिये वर्ष 2038 तक इंतजार करने की जर्मनी की योजना के लिये इसके क्या मायने हैं।
l कारों से निकलने वाली कार्बन डाई ऑक्साइट पर निर्धारित ईयू-व्यापी अधिक सख्त ऊपरी सीमा और जर्मनी में आटो निर्माताओं की पहुंच, जिसके जरिये परंपरागत रूप से अनुमोदन प्रक्रिया के दौरान यूरोपीय कमीशन द्वारा प्रस्तावित यूरोपीय संघ के ऑटो-प्रदूषण प्रतिबंधों में रियायत करने (या उन्हें कड़ा होने से बचाने के लिए) की मांग की जाती है।
l ईयू कार्बन बॉर्डर एडजस्टमेंट मैकेनिज्म (सीबीएएम) और जर्मनी में उद्योग और राजनेताओं की स्थिति, जो एक निर्यात चैंपियन के रूप में ब्लॉक के वाणिज्यिक भागीदारी को नाराज कर सकने वाली यूरोपीय व्यापार गतिविधियों का समर्थन करने के लिए पारंपरिक रूप से अनिच्छुक है।
l निर्माण/सड़क परिवहन और ईटीएस के बीच सम्भावित लिंक। क्योंकि जर्मनी अनेक ईयू देशों की आपत्ति के बावजूद इन दो उद्योगों को कवर करने के लिये यूरोपियन एमिशंस-ट्रेडिंग के दायरे को व्यापक करने के लिये प्रयास कर रहा है।
फ्रांस
l सीबीएएम और यह सवाल कि क्या ईयू-आधारित निर्माताओं को कुछ मुफ्त ईटीएस परमिट के हकदार बने रहना चाहिए (नोट : फ़्रांस ने सीबीएएम के विचार का समर्थन किया है, जिसके बारे में कुछ लोग तर्क देते हैं कि यह भत्तों के मुक्त आवंटन के साथ वैश्विक व्यापार नियमों के तहत असंगत होगा)।
l एफर्ट शेयरिंग रेगुलेशन के तहत नये राष्ट्रीय लक्ष्य और यह सवाल कि क्या फ्रांस पर्याप्त रूप से महत्वाकांक्षी बनेगा? खासकर तब, जब यह जाहिर है कि वह वर्ष 2030 के लिये निर्धारित मौजूदा लक्ष्य की प्राप्ति की दौड़ में पीछे हो चुका है।
l इमारतों/सड़क परिवहन और ईटीएस के बीच संभावित लिंक क्योंकि फ्रांस जर्मनी द्वारा इन दो उद्योगों को कवर करने के लिए यूरोपीय उत्सर्जन व्यापार के दायरे को चौड़ा करने के लिए किये जा रहे प्रयासों पर संदेह कर सकता है।
प्रगतिशील जलवायु वाले देश
l क्या यह समूह, जिसमें स्कैंडिनेवियाई, बाल्टिक और कुछ अन्य यूरोपीय संघ के देश शामिल हैं, पैकेज के विभिन्न हिस्सों को कमजोर किये जाने से रोकने के लिए एकजुट रहेगा?
पोलैंड l पैकेज के प्रमुख हिस्सों के बारे में पोलैंड की प्रतिक्रिया कैसी होगी और अपने हितों को साधने के लिये पोलैंड अन्य सदस्य देशों के साथ कौन सा राजनीतिक गठबंधन करेगा?
l यूरोपियन कमीशन ने अक्टूबर 2020 में कहा कि पोलैंड ने उत्सर्जन में कटौती सम्बन्धी अपने बाध्यकारी राष्ट्रीय लक्ष्यों और वर्ष 2030 के लिये निर्धारित अक्षय ऊर्जा लक्ष्यों को हासिल करने की दिशा में पर्याप्त कदम नहीं उठाये हैं।
स्पेन l कमीशन ने पिछले साल अक्टूबर में कहा था कि स्पेन वर्ष 2030 तक ईटीएस से इतर अपने उत्सर्जन कटौती सम्बन्धी बाध्यकारी लक्ष्य को हासिल करने की दिशा में सही तरीके से बढ़ रहा है और ऐसा लगता है कि उस साल तक वह अपने अक्षय ऊर्जा सम्बन्धी लक्ष्य से ज्यादा हासिल कर लेगा।
l क्या यह कहा जा सकता है कि स्पेन ऐसा करके सम्पूर्ण ‘फिट फॉर पैकेज’ के सहयोग की दिशा में एक महत्वपूर्ण शक्ति बन गया है? और क्या इसका यह मतलब है कि आर्थिक रूप से महत्वपूर्ण मसविदा कानून को लेकर ईयू के भीतर राजनीतिक खींचतान से अपेक्षाकृत दूर ही रहने वाला स्पेन इस मौके पर ब्रसेल्स में ज्यादा मुखर साबित होगा?
भारत में आर्थिक विकास को गति देने के उद्देश्य से सहकारिता आंदोलन को सफल बनाना बहुत जरूरी है। वैसे तो हमारे देश में सहकारिता आंदोलन की शुरुआत वर्ष 1904 से हुई है एवं तब से आज तक सहकारी क्षेत्र में लाखों समितियों की स्थापना हुई है। कुछ अत्यधिक सफल रही हैं, जैसे अमूल डेयरी, परंतु इस प्रकार की सफलता की कहानियां बहुत कम ही रही हैं। कहा जाता है कि देश में सहकारिता आंदोलन को जिस तरह से सफल होना चाहिए था, वैसा हुआ नहीं है। बल्कि, भारत में सहकारिता आंदोलन में कई प्रकार की कमियां ही दिखाई दी हैं। देश की अर्थव्यवस्था को यदि वर्ष 2023 तक 5 लाख करोड़ अमेरिकी डालर के आकार का बनाना है तो देश में सहकारिता आंदोलन को भी सफल बनाना ही होगा। इस दृष्टि से हाल ही में केंद्र सरकार द्वारा एक नए सहकारिता मंत्रालय का गठन किया गया है। भारतीय संसद में वित्तीय वर्ष 2021-22 का बजट पेश करते समय भी सहकारिता मंत्रालय के गठन की चर्चा की गई थी। विशेष रूप से गठित किए गए इस सहकारिता मंत्रालय से अब न केवल सहकारिता आंदोलन के सफल होने की आशा की जा रही हैं बल्कि “सहकार से समृद्धि” की परिकल्पना के साकार होने की उम्मीद भी की जा रही है।
भारत में सहकारिता आंदोलन का यदि सहकारिता की संरचना की दृष्टि से आंकलन किया जाय तो देखने में आता है कि देश में आज 8.5 लाख से अधिक सहकारी साख समितियां कार्यरत हैं। इन समितियों में कुल सदस्य संख्या 28 करोड़ है। हमारे देश में आज 55 किस्मों की सहकारी समितियां विभिन्न क्षेत्रों में कार्य कर रही हैं। जैसे, देश में 1.5 लाख प्राथमिक दुग्ध सहकारी समितियां कार्यरत हैं। इसके अतिरिक्त 93,000 प्राथमिक कृषि सहकारी साख समितियां कार्यरत हैं। ये मुख्य रूप से ग्रामीण इलाकों में कार्य करती हैं। इन दोनों प्रकार की लगभग 2.5 लाख सहकारी समितियां ग्रामीण इलाकों को अपनी कर्मभूमि बनाकर इन इलाकों की 75 प्रतिशत जनसंख्या को अपने दायरे में लिए हुए है। उक्त के अलावा देश में सहकारी साख समितियां भी कार्यरत हैं और यह तीन प्रकार की हैं। एक तो वे जो अपनी सेवाएं शहरी इलाकों में प्रदान कर रही हैं। दूसरी वे हैं जो ग्रामीण इलाकों में तो अपनी सेवाएं प्रदान कर रही हैं, परंतु कृषि क्षेत्र में ऋण प्रदान नहीं करती हैं। तीसरी वे हैं जो उद्योगों में कार्यरत श्रमिकों एवं कर्मचारियों की वित्त सम्बंधी जरूरतों को पूरा करने का प्रयास करती हैं। इसी प्रकार देश में महिला सहकारी साख समितियां भी कार्यरत हैं। इनकी संख्या भी लगभग एक लाख है। मछली पालन को बढ़ावा देने के उद्देश्य से मछली सहकारी साख समितियां भी स्थापित की गई हैं, इनकी संख्या कुछ कम है। ये समितियां मुख्यतः देश में समुद्र के आसपास के इलाकों में स्थापित की गई हैं। देश में बुनकर सहकारी साख समितियां भी गठित की गई हैं, इनकी संख्या भी लगभग 35,000 है। इसके अतिरिक्त हाउसिंग सहकारी समितियां भी कार्यरत हैं।
उक्तवर्णित विभिन क्षेत्रों में कार्यरत सहकारी समितियों के अतिरिक्त देश में सहकारी क्षेत्र में तीन प्रकार के बैंक भी कार्यरत हैं। एक, प्राथमिक शहरी सहकारी बैंक जिनकी संख्या 1550 है और ये देश के लगभग सभी जिलों में कार्यरत हैं। दूसरे, 300 जिला सहकारी बैंक कार्यरत हैं एवं तीसरे, प्रत्येक राज्य में एपेक्स सहकारी बैंक भी बनाए गए हैं।
इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि हमारे देश में सहकारी आंदोलन की जड़ें बहुत गहरी हैं। दुग्ध क्षेत्र में अमूल सहकारी समिती लगभग 70 वर्ष पूर्व प्रारम्भ हुई है, जिसे आज भी सहकारी क्षेत्र की सबसे बड़ी सफलता के रूप में गिना जाता है। सहकारी क्षेत्र में स्थापित की गई समितियों द्वारा रोजगार के कई नए अवसर निर्मित किए गए हैं। सहकारी क्षेत्र में एक विशेषता यह पाई जाती है कि इन समितियों में सामान्यतः निर्णय सभी सदस्यों द्वारा मिलकर लिए जाते हैं। सहकारी क्षेत्र देश के आर्थिक विकास में अपनी अहम भूमिका निभा सकता है। परंतु इस क्षेत्र में बहुत सारी चुनौतियां भी रही हैं। जैसे, सहकारी बैंकों की कार्य प्रणाली को दिशा देने एवं इनके कार्यों को प्रभावशाली तरीके से नियंत्रित करने के लिए अपेक्स स्तर पर कोई संस्थान नहीं है। जिस प्रकार अन्य बैकों पर भारतीय रिजर्व बैंक एवं अन्य वित्तीय संस्थानों का नियंत्रण रहता है ऐसा सहकारी क्षेत्र के बैकों पर नहीं है। इसीलिए सहकारी क्षेत्र के बैंकों की कार्य पद्धति पर हमेशा से ही आरोप लगते रहे हैं एवं कई तरह की धोखेबाजी की घटनाएं समय समय पर उजागर होती रही हैं। इसके विपरीत सरकारी क्षेत्र के बैंकों का प्रबंधन बहुत पेशेवर, अनुभवी एवं सक्रिय रहा है। ये बैंक जोखिम प्रबंधन की पेशेवर नीतियों पर चलते आए हैं जिसके कारण इन बैंकों की विकास यात्रा अनुकरणीय रही है। सहकारी क्षेत्र के बैंकों में पेशेवर प्रबंधन का अभाव रहा है एवं ये बैंक पूंजी बाजार से पूंजी जुटा पाने में भी सफल नहीं रहे हैं। अभी तक चूंकि सहकारी क्षेत्र के संस्थानों को नियंत्रित करने के लिए प्रभावी तंत्र का अभाव था अतः अब केंद्र सरकार द्वारा किए गए नए मंत्रालय के गठन के बाद सहकारी क्षेत्र के संस्थानों को नियंत्रित करने में कसावट आएगी एवं इन संस्थानों का प्रबंधन भी पेशेवर बन जाएगा जिसके चलते इन संस्थानों की कार्य प्रणाली में भी निश्चित ही सुधार होगा।
सहकारी क्षेत्र पर आधरित आर्थिक मोडेल के कई लाभ हैं तो कई प्रकार की चुनौतियां भी हैं। मुख्य चुनौतियां ग्रामीण इलाकों में कार्य कर रही जिला केंद्रीय सहकारी बैकों की शाखाओं के सामने हैं। इन बैंकों द्वारा ऋण प्रदान करने की स्कीम बहुत पुरानी हैं एवं समय के साथ इनमें परिवर्तन नहीं किया जा सका है। जबकि अब तो ग्रामीण क्षेत्रों में आय का स्वरूप ही बदल गया है। ग्रामीण इलाकों में अब केवल 35 प्रतिशत आय कृषि आधारित कार्य से होती है शेष 65 प्रतिशत आय गैर कृषि आधारित कार्यों से होती है। अतः ग्रामीण इलाकों में कार्य कर रहे इन बैकों को अब नए व्यवसाय मोडेल खड़े करने होंगे। अब केवल कृषि व्यवसाय आधारित ऋण प्रदान करने वाली योजनाओं से काम चलने वाला नहीं है।
भारत विश्व में सबसे अधिक दूध उत्पादन करने वाले देशों में शामिल हो गया है। अब हमें दूध के पावडर के आयात की जरूरत नहीं पड़ती है। परंतु दूध के उत्पादन के मामले में भारत के कुछ भाग ही, जैसे पश्चिमी भाग, सक्रिय भूमिका अदा कर रहे हैं। देश के उत्तरी भाग, मध्य भाग, उत्तर-पूर्व भाग में दुग्ध उत्पादन का कार्य संतोषजनक रूप से नहीं हो पा रहा है। जबकि ग्रामीण इलाकों में तो बहुत बड़ी जनसंख्या को डेयरी उद्योग से ही सबसे अधिक आय हो रही है। अतः देश के सभी भागों में डेयरी उद्योग को बढ़ावा दिए जाने की आवश्यकता है। केवल दुग्ध सहकारी समितियां स्थापित करने से इस क्षेत्र की समस्याओं का हल नहीं होगा। डेयरी उद्योग को अब पेशेवर बनाने का समय आ गया है। गाय एवं भैंस को चिकित्सा सुविधाएं एवं उनके लिए चारे की व्यवस्था करना, आदि समस्याओं का हल भी खोजा जाना चाहिए। साथ ही, ग्रामीण इलाकों में किसानों की आय को दुगुना करने के लिए सहकारी क्षेत्र में खाद्य प्रसंस्करण इकाईयों की स्थापना करनी होगी। इससे खाद्य सामग्री की बर्बादी को भी बचाया जा सकेगा। एक अनुमान के अनुसार देश में प्रति वर्ष लगभग 25 से 30 प्रतिशत फल एवं सब्ज़ियों का उत्पादन उचित रख रखाव के अभाव में बर्बाद हो जाता है।
शहरी क्षेत्रों में गृह निर्माण सहकारी समितियों का गठन किया जाना भी अब समय की मांग बन गया है क्योंकि शहरी क्षेत्रों में मकानों के अभाव में बहुत बड़ी जनसंख्या झुग्गी झोपड़ियों में रहने को विवश है। अतः इन गृह निर्माण सहकारी समितियों द्वारा मकानों को बनाने के काम को गति दी जा सकती है। देश में आवश्यक वस्तुओं को उचित दामों पर उपलब्ध कराने के उद्देश्य से कंजूमर सहकारी समितियों का भी अभाव है। पहिले इस तरह के संस्थानों द्वारा देश में अच्छा कार्य किया गया है। इससे मुद्रा स्फीति की समस्या को भी हल किया जा सकता है।
देश में व्यापार एवं निर्माण कार्यों को आसान बनाने के उद्देश्य से “ईज आफ डूइंग बिजिनेस” के क्षेत्र में जो कार्य किया जा रहा है उसे सहकारी संस्थानों पर भी लागू किया जाना चाहिए ताकि इस क्षेत्र में भी काम करना आसान हो सके। सहकारी संस्थानों को पूंजी की कमी नहीं हो इस हेतु भी प्रयास किए जाने चाहिए। केवल ऋण के ऊपर अत्यधिक निर्भरता भी ठीक नहीं है। सहकारी क्षेत्र के संस्थान भी पूंजी बाजार से पूंजी जुटा सकें ऐसी व्यवस्था की जा सकती हैं।
विभिन्न राज्यों के सहकारी क्षेत्र में लागू किए गए कानून बहुत पुराने हैं। अब, आज के समय के अनुसार इन कानूनो में परिवर्तन करने का समय आ गया है। सहकारी क्षेत्र में पेशेवर लोगों की भी कमी है, पेशेवर लोग इस क्षेत्र में टिकते ही नहीं हैं। डेयरी क्षेत्र इसका एक जीता जागता प्रमाण है। अब चूंकि केंद्र सरकार द्वारा सहकारी क्षेत्र में नए मंत्रालय का गठन किया गया है तब यह आशा की जानी चाहिए के सहकारी क्षेत्र में भी पेशेवर लोग आकर्षित होने लगेंगे और इस क्षेत्र को सफल बनाने में अपना भरपूर योगदान दे सकेंगे। साथ ही, किन्हीं समस्याओं एवं कारणों के चलते जो सहकारी समितियां निष्क्रिय होकर बंद होने के कगार पर पहुंच गई हैं, उन्हें अब पुनः चालू हालत में लाया जा सकेगा। अमूल की तर्ज पर अन्य क्षेत्रों में भी सहकारी समितियों द्वारा सफलता की कहानियां लिखी जाएंगी ऐसी आशा की जा रही है। “सहकारिता से विकास” का मंत्र पूरे भारत में सफलता पूर्वक लागू होने से गरीब किसान और लघु व्यवसायी बड़ी संख्या में सशक्त हो जाएंगे।
—विनय कुमार विनायक एक बात मन में अवश्य सहेज लो, हे भाई बंधुवर! कोई मत दहेज लो! कुछ भी नहीं अंतर बेटा व बेटी में, बेटा के खातिर एक बेटी खोज लो!
बेटी को मत समझो कोई बोझ है, बेटा गर गुलाब है तो बेटी रोज है! दहेज एक बुराई अब जमींदोज हो, बेटा अगर राजा, बेटी रानी समझो!
वैदिक काल में बेटा और बेटी में, तनिक ना भेद था, बेटी थी बेटा! मनुज के पिता मनु की एक बेटी, इला थी भ्राता इच्छवाकु सा बेटा!
इला को मनु ने बेटे सा राज दिए, सृष्टि की प्रथम कन्या इला रानी पुत्र से नहीं कम थी पिता के लिए, बुध की ब्याहता इला थी पुरुष भी!
स्त्री पुरुष सा उपनयन पहनती थी, स्त्री पुरुषों सा, शिक्षा ग्रहण करती, स्त्री पुरुष सा युद्ध भूमि जाती थी स्त्री पुरुषों से, कभी नहीं डरती थी!
नारी पतिम्बरा थी, स्वयंवर में स्त्री, पुरुष को ग्रहण या त्याग करती थी, घोषा विदुषी, कैकेयी युद्ध में सारथी, सीता,शिखण्डी राजा की सेनापति थी!
महाभारत रण से स्त्री अधिकार घटी, मध्य काल में विदेशी आक्रांताओं से, स्त्री अधिकारों में होने लगी कटौती, बाल-विवाह,सतीप्रथा आई विदेशी से!
अब पुनः बेटियां कंधे से कंधा मिला, शिक्षा चिकित्सा अंतरिक्ष रक्षा क्षेत्र में, फिर से परचम लहराने लगी वाह-वाह, अब नहीं बेटियों का मत लो इम्तहा! —विनय कुमार विनायक
-मनमोहन कुमार आर्य परमात्मा ने संसार में जीवात्माओं के कर्मों के अनुसार अनेक प्राणी-योनियों को बनाया है। हमने अपने पिछले जन्म में आधे से अधिक शुभ व पुण्य कर्म किये थे, इसलिये ईश्वर की व्यवस्था से इस जन्म में हमें मनुष्य जन्म मिला है। जिन जीवात्माओं के हमसे अधिक अच्छे कर्म थे, उन्हें अच्छे माता-पिता व परिवार मिले और जिनके पुण्य कर्म पंचास प्रतिशत की सीमा पर व उससे कुछ अधिक थे उन्हें बहुत अच्छा पारिवारिक वातावरण एवं अन्य सुख-सुविधायें नहीं मिली। बहुत सी जीवात्मायें ऐसी थीं जिनके पुण्य कर्म कम और पाप कर्म अधिक थे। उन आत्माओं को परमात्मा ने मनुष्य से निम्न पशु, पक्षी एवं अन्य थल, जल व नभचर योनियों में उत्पन्न किया है। मनुष्येतर योनियां भी मनुष्यों की ही तरह अपने-अपने पूर्वजन्मों के पुण्य व पाप कर्मों का फल भोग रही हैं। जिस प्रकार से मनुष्यों को यह अधिकार प्राप्त है कि वह अपने निजी जीवन में स्वतन्त्रतापूर्वक निर्भय होकर अपनी इच्छानुसार शुभाशुभ कर्म कर सकते हैं, उसी प्रकार से अन्य योनियों के प्राणियों को भी परमात्मा ने यह अधिकार दिया है कि वह भी अपने-अपने कर्मों का भोग कर आयु पूरी करें और उनके जो भोग कम हो जायें, उसके बाद बचे हुए शेष कर्मों के आधार पर परमात्मा की व्यवस्था से उनका किसी अन्य उपयुक्त योनि में पुनः-जन्म हो।
वैदिक मान्यता है कि कर्मफल के अनुसार मनुष्य का सभी प्राणी योनियों में से किसी भी योनि में जन्म हो सकता है और अन्य योनियों के प्राणी भी अपने कर्म फलों का भोग कर फिर मनुष्य व अन्य योनियों में ईश्वर की व्यवस्था से जन्म प्राप्त करते हैं। अतः मनुष्य को ईश्वर से ज्ञान व विवेक के साधन प्राप्त होने के कारण सत्य व ईश्वर ज्ञान वेदों से प्रेरणा ग्रहण कर सद्कर्म ही करने चाहिये और किसी प्राणी के कर्मफल भोग में बाधक न बनकर साधक ही बनना चाहिये। ऐसा करके मनुष्य के पुण्य कर्मों में वृद्धि होगी जिसका परिणाम इस जन्म सहित परजन्म में सुख व कल्याण की प्राप्ति होगी। जो मनुष्य ऐसा करते हैं वह सौभाग्यशाली है और जो नहीं करते वह हतभाग्य व मूर्ख कहे जा सकते हैं। किसी पशु को अकारण दुख व कष्ट देना, उनकी हत्या करना व करवाना तथा उनके मांस का भोजन रूप में सेवन करना ईश्वर से मनुष्य को प्राप्त ज्ञान वा बुद्धि का अपमान है और इसका दण्ड परमात्मा कर्मों के परिपक्व हो जाने पर इस जन्म के उत्तर भाग व परजन्म में अवश्य देता है। इन प्रश्नों को विचार कर मनुष्य को अशुभ व पापकर्मों के प्रतिदिन त्याग करने में तत्पर रहना चाहिये। जो बन्धु मांसाहार करते हैं, उन्हें आज व इसी समय से इसका त्याग कर देना चाहिये अन्यथा इस कारण से उन्हें अपने भावी जीवन में भारी हानि उठानी पड़ेगी, यह वैदिक सिद्धान्तों के आधार पर सुनिश्चित है। कुछ बन्धु यह प्रश्न भी करते हैं कि बहुत से पापी व भ्रष्टाचारी इस जन्म में सुखी देखे जाते हैं, ईश्वर उन्हें दण्ड क्यों नहीं देता? इसका उत्तर हमें निकृष्ट पशु आदि योनियों में जन्म लेने वाली जीवात्माओं को देखकर हो जाता है। वर्तमान के पापी लोगों को परमात्मा अगले जन्म में नीच योनि में जन्म देकर दण्ड देता है। इस जन्म में हम अपने पूर्वजन्मों की अर्जित पूंजी को ही प्रायः खर्च करते हैं। इस जन्म में हम जो कर्मों की पूंजी, पाप व पुण्य, जमा करेंगे उसको अगले जन्म में खर्च करेंगे, ऐसा अनुमान होता है।
महर्षि दयानन्द ने जहां वेदों का पुनरुद्धार किया वहीं उन्होंने यह भी बताया कि जीवात्मा चेतन होने के कारण ज्ञान व कर्म की शक्तियों एवं गुणों से युक्त है। ईश्वर नित्य व सर्वव्यापक होने सहित स्वभावतः सर्वज्ञ है वहीं जीवात्मा एकदेशी व ससीम होने से अल्पज्ञ है। जीवात्मा वेदों के अध्ययन एवं ईश्वर की उपासना सहित चिन्तन व मनन से अपना ज्ञान तो बढ़ा सकता है परन्तु यह कभी सर्वज्ञ नहीं हो सकता। मनुष्य सभी विषयों में सत्यासत्य का निर्णय भी नहीं कर सकता। इसी कारण से धर्म, परमात्मा एवं जीवात्मा सहित मनुष्य के कर्तव्य एवं अकर्तव्यों से सम्बन्धित सत्य व असत्य के निर्णय में परमात्मा का दिया हुआ ज्ञान वेद परम प्रमाण माना जाता है। इस तथ्य को जान लेने व स्वीकार कर लेने पर मनुष्य का जीवन वास्तविक रूप में मनुष्य का जीवन बनता है अन्यथा वह एकांगी एवं सत्य एवं असत्य मान्यताओं से युक्त जीवन व्यतीत करने को बाध्य होता है। आर्यसमाज की स्थापना भी ऋषि दयानन्द ने लोगों तक वेद के सत्य सन्देशों को पहुंचाने के लिये ही की थी। आर्यसमाज की जो विविध गतिविधियां चलाई जाती हैं, उसके केन्द्र में विश्व के सभी लोगों तक वेदों का सत्य स्वरूप व उसकी शिक्षाओं को प्रचारित करना व उन्हें स्वीकार कराना भी उद्देश्य है। ऐसा करके ही संसार से मनुष्यों की अविद्या दूर होकर सभी प्राणियों को सुख की प्राप्ति हो सकती है। आज भी आर्यसमाज इसी कार्य को विभिन्न रूपों में कर रहा है।
यह संसार अपौरूषेय है जिसे परमात्मा ने बनाया है और वही इसका संचालन कर रहा है। वही परमात्मा जीवात्माओं के पुण्य व पाप कर्मों का फल प्रदाता है। सभी जीवों का वास्तविक न्यायाधीश परमात्मा ही है। वह सर्वव्यापक एवं सर्वान्तर्यामी होने से ब्रह्माण्ड के समस्त जीवों के सभी कर्मों का साक्षी होता है। वह दूसरों की साक्षी लेकर न्याय नहीं करता अपितु अपने सत्य व प्रत्यक्ष ज्ञान के आधार पर, जीवों के प्रत्येक कर्मों का साक्षी होकर, उन्हें उनके प्रत्येक कर्म का उचित मात्रा में, पक्षपात रहित होकर अपने याथातथ्य ज्ञान व विधि विधान से सुख व दुःख रूपी फल देता है। मनुष्य को ईश्वर के कर्मफल विधान को समझना चाहिये और सत्य के ग्रहण करने तथा असत्य को छोड़ने में सर्वदा उद्यत रहना चाहिये। ऐसा करके ही उसका मनुष्य जीवन सार्थक हो सकता है। मनुष्य को अपने मार्गदर्शन के लिये वेद, उपनिषद, दर्शन, मनुस्मृति सहित सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय एवं वैदिक विद्वानों के वेदानुकूल ग्रन्थों का अध्ययन करना चाहिये। ऐसा करके वह ईश्वर व जीवात्मा के सत्यस्वरूप सहित अपने कर्तव्यों का बोध प्राप्त कर सकते हैं। ईश्वरोपासना, अग्निहोत्र, पितृयज्ञ आदि के महत्व एवं लाभों का भी उन्हें इससे बोध होता है।
वैदिक धर्म में समस्त धर्म-कर्म कार्यों का उद्देश्य आत्मा की उन्नति सहित धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति है। वेदाध्ययन करने से हमें यथार्थ मनुष्य धर्म का बोध होता है। वैदिक आचरणों व कर्मों से हम अर्थ व जीवन जीने के लिये आवश्यक साधनों को प्राप्त करते हैं। धर्मपूर्वक अर्थ प्राप्ति से हम अपनी मर्यादित आवश्यकताओं की पूर्ति करते हुए सुख देने वाले कार्यों का करते हैं। इसके साथ ही उपासना वा ईश्वर के ध्यान को करते हुए समाधि की अवस्था को प्राप्त होकर ईश्वर साक्षात्कार करना मनुष्य जीवन का उद्देश्य है जो मोक्ष प्राप्ति का कारण बनता है। बिना ईश्वर साक्षात्कार के किसी मनुष्य, योगी, महात्मा, महापुरुष व सन्त आदि को मोक्ष प्राप्त नही हो सकता। ईश्वर का साक्षात्कार भी बिना समाधि अवस्था को प्राप्त किये मनुष्य को नहीं होता। समाधि की प्राप्ति अष्टांग योग के बिना सम्भव नहीं है। अतः मनुष्य धर्म में अष्टांग योग का सेवन व व्यवहार करने का सर्वोपरि महत्व है। अष्टांग योग से रहित धर्म व मत सार्थक न होने से मनुष्य को उसके लक्ष्य मोक्ष पर कभी नहीं पहुंचा सकते। अतः सुख, आनन्द व मोक्ष की प्राप्ति के लिये मनुष्य को वैदिक धर्म एवं योग की शरण में आना ही होगा।
अष्टांग-योग को जानने व आचरण करने वाला मनुष्य पूर्ण अहिंसक बन जाता है और वह सभी प्राण़्िायों जिनमें सभी पशु एवं पक्षी आदि योनियां सम्मिलित हैं, उन्हें अपनी मित्र की दृष्टि से देखता और व्यवहार करता है। ऐसा मनुष्य अहिंसक होने के साथ सभी प्राणियों को जीवन में अभय प्रदान कर उनके सुखों की वृद्धि करता है। इतिहास में ऐसे उदाहरण देखे जाते हैं कि हिंसक पशु सिंह आदि भी अहिंसक मनुष्यों के प्रति अपनी हिंसा की प्रवृति का त्याग कर देते हैं। हमने ऐसी आश्चर्यजनक यथार्थ वीडियों देखीं हैं जिनमें हिंसक शेर आदि पशु मनुष्यों का आलिंगन कर रहे हैं। यह उन मनुष्यों के पशु-पे्रम व उसमें सफलता का उदाहरण कह सकते हैं। ऐसा ही एक वीडियों हमें किसी ने भेजा है जिसमें एक परिवार में पशु हत्या की जा रही है। उस परिवार में 2 से 5 वर्ष के कई बच्चे हैं। वह बच्चे उन पशुओं की प्राण रक्षा के लिये रो रोकर उस पशु को न मारने के लिये कह रहे हैं। यह ऐसा मार्मिक वीडियों है कि जिसे हम पूरा देख भी नहीं सके। अतः हमें पशुओं से प्रेम करना सीखना होगा। वेद में कहा गया है कि मैं सब प्राणियों को मित्र की दृष्टि से देखता हूं। यजुर्वेद में कहा गया है कि जो सब प्राणियों में स्वयं की आत्मा को और अपनी आत्मा में सब प्राणियों की आत्मा को समभाव रखकर देखता है उसका मोह, शोक एवं दुःख दूर हो जाते हैं। अतः हमें सच्चा मनुष्य बनने का प्रयत्न करना चाहिये और सभी पशु-पक्षियों की रक्षा करने का व्रत लेना चाहिये। हमें प्रसन्नता होती है जब हम यह समाचार पढ़ते हैं कि यूरोप के देशों में शाकाहार बढ़ रहा है। अन्य हिंसक मांसाहारी मनुष्यों को यूरोप के उन शाकाहारी मनुष्यों से पे्ररणा लेनी चाहिये जो मांसाहार का त्याग कर चुके हैं।
ईश्वर के अनेक नामों में एक नाम ‘‘दयालु” भी है। ऋषि दयानन्द के नाम में भी दया शब्द का प्रयोग हुआ है। दयानन्द शब्द में दया व आनन्द दो शब्दों का योग है। इससे यह प्रतीत होता है आनन्द की प्राप्ति के लिए मनुष्य का दयावान होना आवश्यक है। ईश्वर अपना आनन्द उन्हीं मनुष्यों को देता है जो सही अर्थों में सभी प्राणियों वा पशुओं के प्रति दयावान होते हैं। हमें सच्चा मनुष्य बनने के लिये ईश्वर के सभी गुणों को धारण करना होता है। यदि हम दयालु नहीं बने तो हम ईश्वर का सहाय व कृपा को प्राप्त नहीं कर सकते। दयालु बनने का अर्थ है कि सभी प्राणियों पर दया करना, प्रेम करना, उनसे सहानुभूति व संवेदना रखना। ऐसा मनुष्य ही वास्तवकि मनुष्य कहला सकता है। हमें सच्चा मनुष्य बनने का प्रयत्न करना चाहिये। जितना जीवन जीने का अधिकार हम मनुष्यों को है, वैसा ही अधिकार परमात्मा द्वारा उत्पन्न सभी अहिंसक पशु व पक्षियों को भी है। इसको जानकर हमें तदवत् व्यवहार करना है। ऋषि दयानन्द ने मनुष्य की परिभाषा करते हुए कहा कि मनुष्य उसी को कहना कि जो स्वात्मवत् होकर अपने व दूसरों के सुख दुःख व हानि लाभ को समझे। मनुष्य को भी सभी प्राणियों के प्रति स्व-आत्म-वत् अनुभूति एवं व्यवहार को करना है। इसी से मनुष्य जाति की रक्षा सहित सृष्टि में समस्त प्राणियों की रक्षा होकर सभी को सुख प्राप्त हो सकता है।