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शिक्षक या सेल्समैन?

यह कहानी है अविनाश सर की—एक ईमानदार, आदर्शवादी और प्रतिभाशाली शिक्षक की, जो शिक्षा को अपने जीवन का धर्म समझते हैं और विद्यालय को मंदिर। लेकिन जब उनका सामना एक ऐसे विद्यालय से होता है, जिसका संचालन एक पूर्व अपराधी-राजनेता द्वारा किया जा रहा होता है, तो उन्हें अपने आदर्शों और व्यवहारिक यथार्थ के बीच की गहरी खाई दिखाई देती है।

अविनाश झारखंड के एक छोटे से कस्बे में पले-बढ़े। बचपन से ही किताबों और शिक्षकों के प्रति उनका झुकाव असाधारण था। कॉलेज में गोल्ड मेडलिस्ट रहे अविनाश ने एमए और बीएड की पढ़ाई पूरी की और सपना देखा एक ऐसे विद्यालय में पढ़ाने का, जहाँ बच्चों को सिर्फ़ अंकों की दौड़ में नहीं, बल्कि इंसानियत और सोचने की ताकत में भी प्रशिक्षित किया जाए।

कई कोशिशों के बाद उन्हें एक बड़ा ऑफर मिला—राजधानी के पास खुले एक नए निजी विद्यालय “सृजन ग्लोबल एकेडमी” में “हिंदी और सामाजिक अध्ययन” के सीनियर टीचर के रूप में। विद्यालय नया था, लेकिन फीस बहुत ज़्यादा थी और प्रमोशन के बड़े वादे किए गए थे। अविनाश खुश थे—कम से कम शुरुआत तो हुई।

पहले दिन ही एक अजीब दृश्य देखने को मिला। विद्यालय का प्रिंसिपल एक रिटायर्ड आर्मी अफसर था, लेकिन वह खुद डर-डर कर एक काले चश्मे वाले, मोटे शरीर वाले व्यक्ति से बात कर रहा था—जिसे सब “साहब” कह रहे थे। बाद में पता चला कि वो साहब, विद्यालय के मालिक रामा शंकर सिंह हैं—एक पूर्व ठेकेदार, जिन पर कई मामले भी चल चुके थे, लेकिन अब वो एक उभरते स्थानीय नेता हैं।

“शिक्षा से उनका कोई लेना-देना नहीं है,” वरिष्ठ शिक्षिका विनीता मैम ने अविनाश से धीरे से कहा। “यह स्कूल सिर्फ़ पैसा कमाने की मशीन है।”

जल्द ही अविनाश ने देखा कि विद्यालय में अध्यापन से अधिक महत्व उस पर था कि कौन शिक्षक कितने एडमिशन ला सकता है। उन्हें भी कह दिया गया—

“अविनाश जी, मोहल्ले में अपने जान-पहचान में बच्चों को एडमिशन के लिए कहिए। आप सैलरी ले रहे हैं, तो संस्था के लिए थोड़ा योगदान तो बनता है।”

उन्हें प्रचार रैली में भी भाग लेने को कहा गया, और एक दिन साहब के बेटे की बर्थडे पार्टी में हाज़िर होने का आदेश भी आया।

धीरे-धीरे उन्हें एहसास हुआ कि यहाँ शिक्षक नहीं, कर्मचारी हैं। सम्मान नहीं, आदेश मिलते हैं। और मूल्यांकन परीक्षा से नहीं, ‘प्रबंधक की मर्जी’ से होता है।

विद्यालय में पढ़ाई केवल दिखावे की चीज़ थी। फीस स्ट्रक्चर आकाश छूता था लेकिन कक्षा में किताबें आधी अधूरी, और कई शिक्षक बिना योग्यताओं के थे। जब अविनाश ने बार-बार बच्चों को गाइडेड नोट्स के बजाय सोचने और खुद लिखने के लिए प्रेरित किया, तो उन्हें चेतावनी दी गई—

 “आप पढ़ाते अच्छा हैं, लेकिन बोर्ड रिजल्ट खराब हुआ तो दोष आप पर आएगा। बच्चा जो रट कर पास हो जाए, वही सही शिक्षा है। आदर्श बाद में देखिएगा।”

शिक्षकों के लिए कोई अनुबंध नहीं था। सैलरी समय पर नहीं आती। दो बार अविनाश की क्लास किसी निजी कार्यक्रम के लिए हटा दी गई—क्योंकि “साहब” को स्कूल में राजनीतिक बैठक करनी थी।

अविनाश चुप नहीं बैठे। उन्होंने अपने जैसे कुछ और शिक्षकों को जोड़ा और शिक्षा विभाग में शिकायत दर्ज कराई। कुछ पत्रकारों से बात की। लेकिन जल्द ही उन्हें नोटिस थमा दिया गया—“अनुशासनहीनता और विद्यालय की छवि खराब करने का प्रयास।”

अब उनके पास दो ही रास्ते थे—या तो समझौता कर लें और नौकरी बचा लें, या फिर आदर्श की आग में अपने भविष्य की आहुति दें।

अविनाश ने इस्तीफा दे दिया। वह टूटे नहीं। उन्होंने छोटे स्तर पर एक निःशुल्क कोचिंग शुरू की, जिसमें वे गरीब बच्चों को पढ़ाते। सोशल मीडिया पर उन्होंने “गुरु पथ” नाम से ब्लॉग शुरू किया, जिसमें ऐसे ही स्कूलों की असलियत उजागर करने लगे।

धीरे-धीरे उन्हें शिक्षकों, अभिभावकों और समाज का साथ मिलने लगा। उनका आंदोलन अब राज्य स्तर पर चर्चा का विषय बन गया। शिक्षा मंत्रालय ने भी जांच का आश्वासन दिया।

अविनाश आज भी संघर्ष कर रहे हैं, लेकिन अब वे अकेले नहीं हैं। उन्होंने दिखा दिया कि शिक्षक समाज का दीपक होता है। वो झुकता नहीं, क्योंकि जब वह झुकता है, तो पूरी पीढ़ी अंधकार में चली जाती है।

:- आलोक कौशिक

बारिश का कहरः प्रकृति का विक्षोभ या विकास की विफलता?

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ललित गर्ग

बीते कुछ वर्षों में पहाड़ों में बारिश एवं बादल फटना अब डर, कहर और तबाही का पर्याय बन गई है। उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, सिक्किम, और पूर्वाेत्तर के अन्य पहाड़ी राज्यों में हर वर्ष मानसून के साथ भयावह भूस्खलन, बादल फटना, पुल बहना और सड़कें टूटना एक आम दृश्य बन गया है। यह केवल प्राकृतिक आपदा नहीं है, बल्कि एक व्यवस्थागत विफलता, सरकारी निर्माण की लापरवाही और अनियोजित विकास की पोल खोलने वाला यथार्थ है। निश्चय ही हाल के वर्षों में बारिश के पैटर्न में बदलाव आया है और बारिश की तीव्रता बढ़ी है। हर वर्ष जब मानसून की पहली बारिश पहाड़ों को भिगोती है, तो स्थानीय जनजीवन एक नई उम्मीद के साथ खिल उठता है। खेतों में हरियाली, नदियों में जल, और प्रकृति की शीतलता-मानसून एक उत्सव जैसा लगता है। लेकिन हालिया मानसूनी बारिश और मौसमी विक्षोभ की जुगलबंदी से हिमाचल के कई इलाकों में तबाही का जो भयावह मंजर उभरा, उसे हमें कुदरत के सबक के तौर पर देखना चाहिए। बड़ी संख्या में लोगों की मौत व लापता होने के साथ ही अरबों रुपये की निजी व सार्वजनिक संपत्ति का नुकसान हुआ है।
2023 और 2024 के मानसून ने हिमाचल और उत्तराखंड जैसे राज्यों में जो कहर बरपाया, वह केवल आँकड़ों में सीमित नहीं है। दर्जनों लोग मारे गए, सैकड़ों मकान जमींदोज़ हो गए, हजारों लोग बेघर हुए। हाइड्रो प्रोजेक्ट्स, सड़कों, सुरंगों और इमारतों के निर्माण ने जिस तरह से पहाड़ों की प्राकृतिक संरचना के साथ छेड़छाड़ की, वह अब प्रकृति के प्रतिशोध का कारण बन रही है। उत्तराखंड में ‘ऑल वेदर रोड’, हिमाचल में सुरंगें और जल विद्युत परियोजनाएं-इन सभी ने विकास के नाम पर जिस प्रकार अंधाधुंध खुदाई और कटान किए हैं, उससे पर्वतीय क्षेत्र अपनी स्थायित्व खोते जा रहे हैं। वैज्ञानिक चेतावनियों के बावजूद कई निर्माण कार्यों में भूगर्भीय सर्वेक्षण की अनदेखी की गई। नतीजा यह हुआ कि हल्की-सी भारी बारिश में ही सड़कें धंस जाती हैं, इमारतें दरकने लगती हैं, और पूरा गाँव मलबे में दब जाता है। वास्तव, पहाड़ी इलाकों में अतिवृष्टि से आपदा का जो भयावह मंजर उभर रहा है, उसके मूल में सिर्फ जलवायु परिवर्तन ही मुख्य कारक नहीं है। दरअसल, इस तबाही के मूल में हमारी नाजुक हिमालयी पारिस्थिकीय तंत्र के प्रति बड़ी लापरवाही भी है। इस तथाकथित विकास के नाम पर हमने उन सीढ़ीनुमा रास्तों को दरकिनार कर दिया, जो पहाड़ों को मजबूती देते थे।
पहाड़ी क्षेत्रों में भूस्खलन कोई नई बात नहीं है, लेकिन हाल के वर्षों में इनकी तीव्रता और आवृत्ति में ज़बरदस्त वृद्धि देखी गई है। इसकी मुख्य वजहें हैं-अनियंत्रित पहाडों की कटिंग और खुदाई, बढ़ता भारी वाहन यातायात, जल निकासी की अव्यवस्था एवं वन क्षेत्र का अत्याधिक क्षरण। सरकारी निर्माण एजेंसियां अक्सर तय मानकों की अनदेखी करती हैं। निर्माण सामग्री घटिया होती है और मुनाफाखोरी के चक्कर में दीवारें और पुल बरसात में ताश के पत्तों की तरह ढह जाते हैं। राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (एनडीएमए), भारतीय मौसम विभाग (आईएमडी) और पर्यावरण वैज्ञानिक लगातार चेताते रहे हैं कि हिमालयी क्षेत्र बेहद संवेदनशील हैं। फिर भी, निर्माण कार्यों के लिए भू-सर्वेक्षण, पर्यावरण प्रभाव मूल्यांकन (ईआईए) और जनसुनवाई की प्रक्रियाओं को या तो टाल दिया जाता है या खानापूर्ति भर की जाती है। चार धाम यात्रा मार्ग पर बनने वाली सड़क परियोजनाओं को सुप्रीम कोर्ट ने भी कई बार रोका और सुझाव दिए कि पहाड़ों को काटने की बजाय टनल या वैकल्पिक मार्ग बनाए जाएं, लेकिन ज़मीनी हकीकत इससे उलट है।
निश्चय ही पूरी दुनिया में ग्लोबल वॉर्मिंग के चलते मौसम के बिगड़े तेवर नजर आ रहे हैं, लेकिन पहाड़ों में जल-प्रलय सी आपदा का विनाश निश्चय ही भयावह है। वैज्ञानिकों को इस तथ्य पर गंभीरता से विचार करना चाहिए कि पहाड़ों में बादल फटने की घटनाओं में अप्रत्याशित वृद्धि क्यों हुई है। इस साल की मानसूनी बारिश में मंडी जिले में बादल फटने की घटनाओं ने बुनियादी ढांचे, घरों, सड़कों और बगीचों को जिस तरह से नुकसान पहुंचाया है, उसने पहाड़ों में विकास के स्वरूप को लेकर फिर नये सिरे से बहस छेड़ दी है। राज्य के तमाम महत्वपूर्ण राजमार्ग भूस्खलन और अतिवृष्टि से बाधित रहे हैं। कांगड़ा घाटी में ऐतिहासिक रेल परिवहन को स्थगित करना पड़ा है। शिमला के पास एक बहुमंजिला इमारत के भरभरा कर गिरने के सोशल मीडिया पर वायरल वीडियो ने भयभीत किया। जब बारिश आती है, तो केवल इमारतें और सड़कें नहीं ढहतीं, आम लोगों का जीवन भी उजड़ जाता है। लोग रातोंरात बेघर हो जाते हैं। स्कूल, अस्पताल, बिजली-पानी की सुविधाएं बंद हो जाती हैं। प्रशासनिक अमला अकसर घटनास्थल पर देर से पहुँचता है और राहत कार्यों में राजनीतिक रस्साकशी आड़े आ जाती है। राहत कैंपों में भोजन, शौचालय और दवाइयों की भारी कमी रहती है। जब किसी राज्य में बड़ी आपदा आती है, तभी मीडिया और नेताओं की नज़र जाती है। हेलिकॉप्टर से निरीक्षण, मुआवज़े की घोषणाएं, और ‘हम साथ हैं’ जैसे बयान आते हैं। लेकिन जैसे ही मौसम सामान्य होता है, पीड़ितों की सुध लेने वाला कोई नहीं रहता। लंबे समय तक पुनर्वास और पुनर्निर्माण कार्य अधर में लटकते हैं।
 निश्चय ही मौसम के मिजाज में तल्खी नजर आ रही है लेकिन इस संकट के मूल में कहीं न कहीं अवैज्ञानिक विकास, खराब आपदा प्रबंधन और निर्माण में पारिस्थितिकीय ज्ञान की उपेक्षा भी निहित है। जिसने इस संकट को और अधिक बढ़ाया है। दरअसल, पानी के प्रवाह के जो प्राकृतिक रास्ते थे, हमने उन पर बहुमंजिली इमारतें खड़ी कर दी हैं। हमने अपेक्षाकृत नयी हिमालयी पर्वतमालाओं पर इतना भारी-भरकम विकास व निर्माण लाद दिया कि वे इस बोझ को सहन नहीं कर पा रही हैं। निर्माण कार्य में स्थानीय पारंपरिक वास्तुकला और प्राकृतिक सामग्री का प्रयोग बढ़ाया जाए। भू-सर्वेक्षण और ईआईए को अनिवार्य किया जाए, हर निर्माण से पहले वैज्ञानिक स्तर पर ज़मीन की जाँच और पर्यावरण प्रभाव मूल्यांकन आवश्यक हो। वनों की अंधाधुंध कटाई को रोका जाए और जलग्रहण क्षेत्रों को पुनर्स्थापित किया जाए। गाँवों और कस्बों के स्थानीय लोगों को निर्णय प्रक्रिया में शामिल किया जाए ताकि निर्माण कार्य ज़मीनी ज़रूरतों और जोखिमों के अनुसार हो।
हिमालय को केवल भूगोल नहीं, अध्यात्म का स्रोत भी माना जाता है। यहाँ की नदियां, पहाड़ और घाटियां धार्मिक, सांस्कृतिक और भावनात्मक महत्व रखती हैं। जब इन स्थानों पर अंधाधुंध निर्माण होता है, तो केवल भू-आकृति नहीं, सांस्कृतिक चेतना भी नष्ट होती है। पर्वतीय जीवन में तबाही के पीछे केवल प्रकृति नहीं, हमारी नीति, नियत और विकास का वह मॉडल ज़िम्मेदार है जो केवल तात्कालिक लाभ और मुनाफे पर केंद्रित है। हम पहाड़ों को केवल पर्यटक स्थल या परियोजना-स्थल की दृष्टि से न देखें, बल्कि वहां के पर्यावरण, संस्कृति और जीवन पद्धति को समझें और संरक्षण का दायित्व लें। नहीं तो हर बारिश के साथ पहाड़ों से जीवन खिसकता जाएगा और एक दिन यह संकट केवल स्थानीय न रहकर राष्ट्रीय बन जाएगा। दरअसल, पहाड़ों की संवेदनशीलता को देखते हुए नये सिरे से निर्माण के मानक तय करने होंगे। वहीं दैनिक जल निकासी और बरसाती पानी के प्रवाह के लिये वैज्ञानिक ढंग से व्यवस्था करनी होगी। निश्चित रूप से पहाड़ों में लगातार बढ़ती जनसंख्या और बुनियादी ढांचे में पहाड़ की प्राथमिकताओं को नजरअंदाज करने की कीमत हम चुका रहे हैं। भविष्य में ऐसी आपदाओं को टालने के लिये अतीत के सबक सीखकर हमें विकास के नये मानक तय करने होंगे। ऐसा लगता है कि किसी का इस पर ध्यान ही नहीं कि यदि बुनियादी ढांचे से जुड़े निर्माण की गुणवत्ता पर ध्यान नहीं दिया जाएगा तो जैसा हादसा मंडी अथवा शिमला में हुआ, वैसे हादसें होते ही रहेंगे और उनका दोष प्रकृति पर मढ़कर कर्तव्य की इतिश्री कर ली जाएगी। बात केवल हिमाचल की ही नहीं है, उत्तराखंड में भी कुछ स्थानों पर भूस्खलन होने से तीर्थयात्री संकट में पड़े हैं। इसका कोई मतलब नहीं कि हम बार-बार विकसित भारत की बात करें, लेकिन सरकारी निर्माण कार्यों की गुणवत्ता की अनदेखी करें और मानक होते हुए भी उनका पालन न करें। इस तरह से तो हम विकसित देश नहीं बन सकते।

मोदी-शाह की जोड़ी ने साकार किया डा. श्यामप्रसाद मुखर्जी का अखंड सपना

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अशोक बजाज 

आज़ादी के साथ कश्मीर समस्या हमें विरासत में मिली थी जो भारत के लिए नासूर बन गई थी. आज़ादी के बाद पं. जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में बनी सरकार ने तुष्टीकरण की नीति के चलते जम्मू-कश्मीर में संविधान की धारा 370 लगा कर उसे विशेष दर्जा प्रदान कर दिया था. धारा 370 भारतीय संविधान का एक विशेष अनुच्छेद है, जिसके चलते जम्मू-कश्मीर को भारत के अन्य राज्यों के मुकाबले विशेष अधिकार मिल गया था. भारतीय संविधान में अस्थायी, संक्रमणकालीन और विशेष उपबन्ध सम्बन्धी भाग 21 का अनुच्छेद 370 तत्कालीन प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू के विशेष हस्तक्षेप से तैयार किया गया था. धारा 370 के प्रावधानों के मुताबिक राज्य में संसद को रक्षा, विदेश मामले और संचार के विषय में कानून बनाने का तो अधिकार है लेकिन किसी अन्य विषय से संबंधित कानून को लागू करवाने के लिए केंद्र को राज्य सरकार की सहमति लेनी होती है. इसी विशेष दर्जे के चलते जम्मू-कश्मीर राज्य में संविधान की धारा 356 लागू नहीं हो पाती थी. राष्ट्रपति के पास राज्य सरकार को बर्खास्त करने का अधिकार ही नहीं था. यहाँ तक कि 1976 का शहरी भूमि कानून भी जम्मू-कश्मीर पर लागू नहीं हो पाया. भारत के अन्य राज्यों के लोग जम्मू-कश्मीर में जमीन नहीं खरीद सकते थे, जबकि भारतीय नागरिक को विशेष अधिकार प्राप्त राज्यों के अलावा भारत में कहीं भी भूमि खरीदने का अधिकार है. भारतीय संविधान की धारा 360 यानी देश में वित्तीय आपातकाल लगाने वाला प्रावधान जम्मू-कश्मीर पर लागू नहीं होता था. जम्मू-कश्मीर में धारा 370 लगाते समय ये दलील दी गई थी कि यह एक अस्थाई व्यवस्था है लेकिन वास्तव में वह स्थाई रूप ले चुकी थी. पं नेहरू एवं कालांतर में बनी सरकारों की ढुलमूल एवं तुष्टीकरण की नीतियों के चलते धारा 370 का प्रावधान भी स्थाई हो गया है और कश्मीर की समस्या भी स्थाई हो गई है. तथाकथित बुद्धिजीवियों ने कश्मीर की आज़ादी या जनमतसंग्रह जैसे मुद्दे उठाकर इस समस्या को सुलझाने के बजाय उलझाने का ही काम किया है.  देश की एकता और अखंडता की बात करने वाले कथित बुद्धिजीवी कभी संविधान के अनुच्छेद 370 को कायम रखने की बात करते थे तो कभी जनमत संग्रह की वकालत करते रहे. 

जब नेहरू सरकार ने जम्मू-कश्मीर में संविधान की धारा 370 लगाई तो डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने इसका पुरजोर विरोध करते हुये मंत्रीमंडल से स्तीफ़ा दे दिया था. डा. मुखर्जी भारत की अखंडता के प्रबल हिमायती थे तथा अखंड भारत के स्वप्न दृष्टा थे. उन्होने जम्मू-कश्मीर में धारा 370 लगाए जाने की कार्यवाही को भारत की अखंडता के विरुद्ध मानते हुये अपनी असहमति प्रकट करते हुये कहा था कि “एक देश में दो विधान, दो प्रधान और दो निशान− नहीं चलेंगे’, लेकिन तुष्टीकरण की नीति के कारण नेहरू जी ने उनकी एक न सुनी. अंततः उन्होने डा. मुखर्जी ने विरोध स्वरुप अपने पद से स्तीफ़ा दे दिया. संसद में भी डॉ. मुखर्जी ने धारा 370 को समाप्त करने की जोरदार वकालत की. उन्होंने अगस्त 1952 में जम्मू की विशाल रैली में अपना संकल्प व्यक्त किया था कि या तो मैं आपको भारतीय संविधान प्राप्त कराऊँगा या फिर इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये अपना जीवन बलिदान कर दूँगा. अपने संकल्प को पूरा करने के लिये उन्होने 1953 में बिना परमिट लिये जम्मू-कश्मीर में प्रवेश करने की चेष्टा की, सीमा में ही उन्हें गिरफ्तार कर नजरबन्द कर लिया गया. 23 जून 1953 को रहस्यमय परिस्थितियों में उनकी मृत्यु हो गयी. डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी ऐसे राष्ट्र भक्त थे जिंहोने देश की एकता और अखंडता के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर किया. उन्हें आज़ाद भारत का प्रथम शहीद कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नही होगी. 

देश में जब नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में पूर्ण बहुमत की सरकार बनी तो देशवासियों के मन में नई आशा की किरण जागी. केंद्र में आज एक दृढ़ इच्छा शक्ति वाली सरकार है. श्री मोदी ने जब गृह मंत्री के रूप में अमित शाह को चुना तो लोगों को यह विश्वास हो गया था कि जम्मू-कश्मीर की समस्या मोदी सरकार की प्राथमिकता में है. लोगों का विश्वास तब और दृढ़ हो गया जब श्री शाह ने गृह मंत्री के रूप में अपना दौरा कश्मीर से शुरू किया. इस दौरे में जो परिवर्तन देखने को मिला वो सबके सामने है. गृह मंत्री के दौरे के दौरान कश्मीर में पूरी तरह शांति थी, ना श्रीनगर के बाज़ार बंद हुये और ना ही गोला बारूद चला जैसा कि पहले देखने सुनने को मिलता था. पत्थरबाजी करने वाले भी अपने अपने घरों में दुबक गए थे. श्री शाह ने प्रदेश में कानून व्यवस्था की समीक्षा की तथा अमरनाथ यात्रा निर्विध्न सम्पन्न करने की योजना बनाई. 

पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने अपने कार्यकाल में इंसानियत, जम्हूरियत और कश्मीरियत के सिद्धांत पर चलते हुए इस समस्या को हल करने का प्रयास किया था लेकिन बहुमत के अभाव में उनकी इच्छा अधूरी रह गई थी. अब मोदी और शाह की जोड़ी ने डा. श्यामाप्रसाद मुखर्जी के सपने को साकार कर दिया है. कुल मिलाकर देश बदल रहा है तो कश्मीर को बदलना ही था. भारत में आज एक दृढ़ इच्छा शक्ति वाली सरकार है जो देश की एकता और अखंडता तथा देश की सीमा की सुरक्षा के लिए संकल्पित है.

झारखण्ड का एक अनोखा जंगली मशरूम पुटू

अशोक “प्रवृद्ध”

झारखण्ड और छतीसगढ़ की सीमावर्ती जिलों के वनों, जंगलों में वर्षा ऋतु के प्रारम्भिक काल में स्वतः ही उगने, निकलने वाली पुटू नामक मशरूम के इस वर्ष कमोत्पति अर्थात कम उपज के कारण लोग इसके प्राकृतिक, असली और बेहतरीन स्वाद से वंचित होकर रह गए हैं। लोग मजबूरी में घरों में मशरूम की खेती से उत्पादित पुटू के व्यंजनों में उस जानी- पहचानी, सदियों से आनुवंशिकी में बसी पुटू के स्मरणीय स्वाद को ढूँढने को विवश हैं। विगत वर्षों में पुटू को खोज व उसे पाकर जमीन से खोदकर निकाल, संग्रहण करने के लिए लोग प्रातः काल ब्रह्म बेला में ही घर से पैदल अथवा अपने वाहनों से दूर- दूर के जंगलों तक निकल पड़ते थे, और सुबह से शाम तक इस कार्य में तल्लीन रहते थे, लेकिन इस वर्ष पुटू अर्थात रूगड़ा की अनुपलब्धता के कारण जंगलों में इसको ढूंढने वाले लोग भी विगत वर्षों की अपेक्षा कम ही दिखाई देते हैं, बल्कि दिखलाई ही नहीं दे रहे हैं।

उल्लेखनीय है कि वर्षा ऋतु में जंगलों में कई प्रकार के मशरूम उगते हैं। इन मशरूमों का उपयोग खाने में किया जाता है और ये अपने अनोखे स्वाद और महत्वपूर्ण खनिज व पोषक तत्वों के लिए जाने जाते हैं। झारखण्ड और छतीसगढ़ की सीमाओं के जंगलों में वर्षा ऋतु के आरंभ में वनों में, जंगलों में उगने वाले अनेक मशरूमों में से एक ऐसा ही मशरूम है- पुटू, जो वर्षा ऋतु में जंगलों में उगने वाले कई प्रकार के अन्य मशरूमों से अनेक रूपों में भिन्न है। खाने के लिए उपयोग में लाया जाने वाला यह मशरूम अपने अनोखे स्वाद और पोषक तत्वों के लिए लोकप्रिय हैं । झारखण्ड के जंगलों में पाया जाने वाला यह वन्य मशरूम पुटू अथवा रुगड़ा एक मौसमी मशरूम है, जो वर्षा ऋतु में उगता है। रुगड़ा या पुटू का उपयोग स्थानीय व्यंजनों में किया जाता है और यह अपने अनोखे स्वाद और पोषक तत्वों के लिए जाना जाता है। यह चावल और रोटी के साथ ही विभिन्न प्रकार के स्थानीय व्यंजनों के साथ चाव से खाया जाता है। पुटू को स्थानीय भाषा में रुगड़ा भी कहा जाता है। कुछ क्षेत्रों में इसे गुच्छी, मोरछी भी कहा जाता है। क्षेत्रीय भाषा में इसके विभिन्न नाम हैं। झारखण्ड प्रदेश और देश के अन्य क्षेत्रों में वन्य मशरूमों के नाम विभिन्न क्षेत्रीय भाषाओं में अलग-अलग हैं। नागपुरी, संथाली, हो, मुंडारी, कुड़ुख आदि झारखण्ड के स्थानीय भाषाओं में पुटू मशरूम के कई नाम हैं। इसे सादरी व नागपुरी में पुटू, रुगड़ा, गुच्छी या गुच्ची, संथाली, मुंडारी व हो भाषा में गुच्ची या गुचुम, कुड़ुख में गुच्ची या खुखुरू (खुखरी) कहा जाता है। पुटू के इन नामों में भिन्नता हो सकती है और विभिन्न क्षेत्रों में अलग-अलग नामों का उपयोग किया जा सकता है।

झारखण्ड के जंगलों में पाया जाने वाला यह वन्य मशरूम पुटू अथवा रुगड़ा एक मौसमी मशरूम है जो वर्षा ऋतु में उगता है। वर्षा ऋतु के शुरुआती काल में जंगलों में स्वतः ही उगने वाली इस मशरूम की अनेक विशेषताएं हैं। पुटू का आकार गोलाकार या अंडाकार होता है। इसका रंग सफेद या हल्का भूरा होता है। यह उगने के अंतिम दौर में काला रंग का भी हो जाता है। पुटू का स्वाद अनोखा और स्वादिष्ट होता है। यह एक मौसमी मशरूम है जो वर्षा ऋतु के अतिरक्त अन्य समय में नहीं उगता है। झारखण्ड के आदिवासी- गैर आदिवासी सदान समुदायों में यह मशरूम एक महत्वपूर्ण खाद्य स्रोत है। इसका उपयोग सब्जी, सूप, और सलाद आदि विभिन्न प्रकार के व्यंजनों में किया जा सकता है। पुटू का स्वाद अनोखा और स्वादिष्ट होता है, जो इसे स्थानीय व्यंजनों में एक लोकप्रिय घटक बनाता है। पुटू एक पौष्टिक मशरूम है, जिसमें शरीर के लिए आवश्यक प्रोटीन, पाचन तंत्र के लिए फायदेमंद फाइबर, विटमिन बी व डी, पोटैशियम, फॉस्फोरस, मैग्नीशियम और कॉपर जैसे महत्वपूर्ण खनिज व पोषक तत्व होते हैं। पुटू में विटामिन और खनिज होते हैं जो प्रतिरक्षा प्रणाली को मजबूत करते हैं। कुछ अनुसंधानों के अनुसार पुटू में उपलब्ध एंटीऑक्सीडेंट गुण कैंसर से बचाव में मदद करते हैं। शरीर को ऑक्सीडेटिव तनाव से बचाते हैं। इन पोषक तत्वों और खनिजों के कारण रुगड़ा एक स्वस्थ और पौष्टिक खाद्य विकल्प हो सकता है। पुटू का स्वाद अनोखा और स्वादिष्ट होता है, जो इसे स्थानीय व्यंजनों में एक लोकप्रिय घटक बनाता है। यह सब्जी व सलाद के रूप में एक स्वादिष्ट और पौष्टिक तथा पेय पदार्थ के रूप में एक आरामदायक और पौष्टिक पेय पदार्थ अर्थात सूप का बेहतर विकल्प हो सकता है।

पुटू अर्थात रूगड़ा के स्वाद के शौकीनों व स्थानीय लोगों के अनुसार इस वर्ष मौसम की अनियमितता, पर्यावरण की परिवर्तनीयता इसके कम उगने का कारण हो सकती है। वर्ष भर समय- समय पर वर्षा होते रहने के कारण क्षेत्र में इस वर्ष गर्मी अपने प्रचंड स्वरूप को कभी दिखला न सकी। सूर्यदेव पृथ्वी को, जंगली धरती को मन भर तपा भी न सके और वर्षा ऋतु की शुरुआत हो गई। वर्षा रानी जमकर बरसने लगी। घर- आंगन, खेत- खलिहान, तालाब- पोखर, जंगल -पहाड़, नदी-नाले सभी जल से तर बतर हो गए। जब वह बरसी तो लगातार बरसती ही रह गई। वह आज तक भी रूकने का नाम ही नहीं ले रही है। इससे डाड़ व उच्चे जमीन की दलहन, तेलहन, व श्री के नाम से वर्तमान में लोकप्रिय मोटे अनाज की खेती- किसानी भी प्रभावित हो गई। कही- कहीं तो यह कृषि कार्य आज तक रुकी पड़ी है। और खरीफ धान के रोपाई करने का समय भी आ चला है। लेकिन वर्षा रानी के इस अनवरत वर्षण से, प्रकृति के इस चलन से क्षेत्र में, क्षेत्र के जंगलों में तापमान और आर्द्रता की स्थिति में प्राकृतिक बदलाव अवश्यम्भावी था, जो हुआ। जलवायु परिवर्तन के परिणाम स्वरूप जंगलों में तापमान और आर्द्रता की स्थिति में बदलाव जैसे कारणों से पुटू जैसी प्रजातियों की उत्पत्ति प्रभावित हुई। झारखण्ड के गुमला, लोहरदगा, सिमडेगा, रांची आदि जिलों में मानसून की अचानक और तीव्र वर्षा के कारण पुटू मशरूम के उगने के लिए उपयुक्त वातावरण नहीं बन सका, जिससे इसकी उत्पन्न होने की प्रक्रिया बाधित हुई। फलतः पुटू की उत्पत्ति नहीं हुई अथवा बहुत ही कम हुई। पुटू जैसे मशरूम के उगने के लिए विशिष्ट पर्यावरणीय परिस्थितियों की आवश्यकता होती है, जैसे कि उचित तापमान, आर्द्रता और मिट्टी की स्थिति। पुटू वर्षा ऋतु में उगता है, जब जंगलों में वर्षा होती है और मिट्टी में आर्द्रता बढ़ जाती है। लेकिन वर्षा की तीव्रता और आवृत्ति अधिकाधिक होने से पुटू जैसी मशरूम के उगने की प्रक्रिया प्रभावित हुई। ग्रीष्म काल में जंगलों में लगने अथवा लगाई जाने वाली आग से वर्षा काल में स्वतः ही उग आने वाली वन्य जन्माओं, बीजों, पौधों, मरुशमोपज संसाधनों के वनाग्नि के भेंट चढ़ जाने के कारण जंगलों में पुटू, रुगडा अथवा अन्यान्य वनोपज सम्बन्धित बीजों, संसाधनों की अनुपलब्धता, अन्य प्रजातियों की अधिकता, जंगल की स्थिति में बदलाव आदि कई अन्य कारण भी पुटू जैसे जंगली मशरूम की उत्पत्ति को प्रभावित करने का कारण बनी। इसी कारण झारखण्ड, छतीसगढ़ की सीमावर्ती जिलों के वनों में रुगड़ा जैसी प्रजातियों की उत्पत्ति प्रभावित हुई, और लोग इसके चिर- परिचित स्वाद से वंचित हो रहे हैं। राजनीतिकों का कहना है कि आदिवासी हितों की रक्षा करने के उद्देश्य से प्रस्तावित झारखण्ड में पेसा कानून की राज्य में वास्तविक परिस्थिति तथा अन्य सरकारी कानूनों के कारण जंगलों के उपयोग और प्रबंधन में बदलाव के कारण भी रुगड़ा की उत्पत्ति पर असर पड़ा। वन के प्रति गलत व स्वार्थपरक सोच, जंगलों के उपयोग और प्रबंधन जैसी कारकों का भी रुगड़ा की उत्पत्ति पर सीधा प्रभाव स्पष्ट है। पुटू का आर्थिक महत्व भी है, क्योंकि इसकी बिक्री से स्थानीय लोगों को आय होती है। पुटू की बिक्री से ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूत किया जा सकता है।

बहरहाल, झारखण्ड में इस वर्ष रुगड़ा या पुटू की उत्पत्ति नहीं के बराबर होने के कई कारण हो सकते हैं। लेकिन पुटू जैसी जंगली मशरूम की खेती करना भी मुश्किल है। इसकी खेती के लिए जंगल की मिट्टी और वर्षा ऋतु की आर्द्रता में सम्बन्ध जैसी विशेष परिस्थितियों की आवश्यकता होती है, जिन्हें कृत्रिम रूप से निर्माण कर पाना आसान नहीं। यही कारण है कि लोग वन्य पुटू का स्वाद घरों में उत्पादित पुटू में नहीं ढूंढ पा रहे हैं और जंगलों की और टकटकी लगाये देखने को विवश हैं। पुटू का संरक्षण और प्रबंधन एक महत्वपूर्ण मुद्दा है, क्योंकि इसकी उत्पत्ति जंगलों की विशिष्ट परिस्थितियों पर निर्भर करती है। जंगलों के कटाव और प्रदूषण के कारण पुटू की उत्पत्ति प्रभावित हो सकती है, जिससे इसकी उपलब्धता कम हो सकती है। पुटू के संरक्षण और प्रबंधन के लिए स्थानीय लोगों और सरकार के बीच सहयोग की आवश्यकता है।

सुशासन की सरकार पर सवालिया निशान खेमका की हत्या 

कुमार कृष्णन 

अपने बिहार दौरे में  रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने जिस जंगलराज के बहाने महागठबंधन को घेरने की कोशिश की, वह उलट सावित हो रहा है। अब लोग सवाल कर रहे हैं कि यदि सुशासन में सरे आम अपराधी तांडव कर रहे हैं, तो फिर जंगल राज क्या है? महागठबंधन  का नेतृत्व कर रहे तेजस्वी यादव पहले से ही अपराध बुलेटिन जारी कर सुशासन की पोल खोलकर  सरकार के विरुद्ध गोलबंदी की मुहिम छेड़ दी है । ऐसे में गोपाल खेमका समेत कई व्यवसाई की हत्या के बाद नाराज वैश्य समाज सुशासन की सरकार के विरुद्ध खड़ा हो जाए तो यह अतिश्योक्ति नहीं होगी।

लोकसभा चुनाव में वैश्य समाज का एक वर्ग महागठबंधन के साथ जा जुड़ा था। सुशासन की सरकार पर सवालिया निशान खड़ा कर रहे हैं। पटना के राजेन्द्र नगर स्थित मगध हॉस्पिटल के मालिक और राज्य के प्रमुख व्यवसायी गोपाल खेमका की 4 जुलाई, को अपराधियों ने गोली मारकर हत्या कर दी। जहां हत्या हुई है, उस स्थल से गांधी मैदान थाने महज ढाई सौ मीटर की दूरी पर है। आसपास ही पुलिस अधीक्षक  और वरीय पुलिस अधीक्षक  के आवास हैं। बावजूद इसके अपराधी हत्या कर चलते बने। हद तो ये है कि घटनास्थल पर स्थानीय पुलिस डेढ़ घंटे बाद पहुंची।

व्यवसायी गोपाल खेमका के पहले गत जून माह में ही पुनपुन के सुहागी-कंडाप पथ पर बाइक सवार बदमाशों ने जमीन कारोबारी अंजनी सिंह की गोली मारकर हत्या कर दी थी। यह घटना गौरीचक के कंडाप पैक्स गोदाम के पास की है, जहां सुनसान जगह का फायदा उठाकर अपराधियों ने वारदात को अंजाम दिया। मृतक हंडेर गांव के श्याम नंदन सिंह के पुत्र थे और जमीन के कारोबार से जुड़े थे। कारोबारी जयप्रकाश नारायण की भी गत वर्ष अपहरण कर हत्या कर दी गई थी। आरोप यह था कि अपराधियों ने कारोबारी जयप्रकाश से 1.5 करोड़ रुपये की फिरौती मांगी थी। जब पैसा नहीं मिला तो उनकी हत्या कर दी गई।

बेगूसराय में अक्टूबर 2024 को सोना व्यापारी अनिल कुमार की अपहरण कर हत्या कर दी गई। अनिल कुमार ज्योति ज्वेलर्स के मालिक थे। जून 2024 में ही बिहार के नालंदा जिले के पनहेस्सा गांव के पास दो बाइक सवार बदमाशों ने जमीन कारोबारी को गोलियों से छलनी कर दिया। उन्हें चार गोलियां मारी गयीं। इलाज के लिए ले जाने के दौरान उनकी मौत हो गयी। मृतक की पहचान पनहेस्सा गांव निवासी 42 वर्षीय रजी अहमद उर्फ नन्हे के रूप में की गयी। इस हत्या का कारण भी जमीन की खरीद-बिक्री के कारोबार बताया गया।

इस घटना के बाद बिहार में कानून व्यवस्था को लेकर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने एक समीक्षा बैठक की। नीतीश कुमार ने कहा कि अपराधियों को किसी भी कीमत पर बख्शा नहीं जाएगा। 

गोपाल खेमका हत्याकांड को लेकर हुई समीक्षा बैठक में मुख्य मंत्री नीतीश कुमार के साथ पुलिस के बड़े अधिकारी भी शामिल थे। नीतीश कुमार ने अधिकारियों को सख्त निर्देश दिए कि वे अपराधियों को जल्द से जल्द पकड़ें और उन्हें कड़ी सजा दें। 

‘1 अणे मार्ग स्थित ‘संकल्प’ में पुलिस महानिदेशक एवं अन्य वरीय पुलिस पदाधिकारियों के साथ विधि व्यवस्था की समीक्षा बैठक की। विधि व्यवस्था सरकार की सर्वोच्च प्राथमिकता है। अपराध करने वाले कोई भी हों, उन्हें किसी कीमत पर बख्शा नहीं जाए। घटित आपराधिक घटनाओं के अनुसंधान कार्यों में तेजी लाने और दोषियों पर त्वरित कार्रवाई करने का निर्देश दिया। कानून व्यवस्था को बनाए रखने के लिए पुलिस और प्रशासन को पूरी मुस्तैदी एवं कड़ाई से काम करने को कहा।   

एनडीए में नीतीश के सहयोगी चिराग पासवान की पार्टी लोजपा (आर) के खगड़िया से सांसद राजेश वर्मा ने भी सवाल खड़े कर दिए हैं। उन्होने कहा कि जिस तरह गोपाल खेमका की हत्या को अंजाम दिया गया। उससे लगने लगा है कि राज्य में अपराधियों को पुलिस का कोई खौफ नहीं है। कानून व्यवस्था पूरी तरह ध्वस्त है। बिहार में व्यापारी सुरक्षित नहीं है।

लोजपा (आर) के सांसद राजेश वर्मा ने कहा कि खेमका परिवार में ये दूसरी हत्या है, इससे पहले 2018 में गोपाल खेमका के बेटे गुंजन की हत्या भी इसी तरह की गई है। बिहार को आगे बढ़ाने की सोच रखने वाला वैश्य समाज भी सुरक्षित नहीं है। हाथ जोड़कर आग्रह करते हुए सांसद ने कहा कि सबसे पहले बिहार में व्यापारी वर्ग की सुरक्षा पुख्ता की जाए। अगर आप बिहार में उद्योग-धंधे लगाने की बात करते हैं। यही नहीं कानून व्यवस्था में सुधार के लिए पड़ोसी राज्य यूपी का हवाले देते हुए लोजपा (आर) के सांसद ने कहा कि यूपी से भी सीख सकते हैं कि कैसे लॉ एंड ऑर्डर को दुरूस्त किया जा सकता है। अपराधियों को उन्हीं की भाषा में जवाब देने का वक्त आ गया है। आज गोपाल खेमका नहीं तो कल कोई और होगा।

विपक्षी पार्टियां सरकार पर हमला कर रही हैं। उनका कहना है कि बिहार में कानून का राज खत्म हो गया है। नीतीश कुमार को इस्तीफा दे देना चाहिए।

इस घटना के बाद बिहार की राजनीति भी गरमा गई है। कांग्रेस पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष राजेश कुमार ने सरकार पर जमकर हमला बोला। उन्होंने कहा कि खेमका परिवार ने घटना के बाद वरीय पुलिस अधीक्षक, पुलिस उपाधीक्षक और स्थानीय थाने में फोन किया, लेकिन किसी ने फोन नहीं उठाया। इसके बाद जिला मजिस्ट्रेट को फोन किया गया, जिन्होंने फोन उठाया। उन्हें बताया गया कि पुलिस जवाब नहीं दे रही है और उन्हें मदद की ज़रूरत है। 

राजेश कुमार ने आरोप लगाते हुए आगे कहा कि जिला मजिस्ट्रेट को फोन करने के तीन घंटे बाद पुलिस पहुंची। उन्होंने नीतीश कुमार के शासन को बीमार बताया और मांग की कि नीतीश कुमार और राजग गठबंधन को इस मुद्दे पर इस्तीफा देना चाहिए। उन्होंने पीड़ित परिवार को सुरक्षा देने की भी मांग की।

वहीं पूर्व उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव ने भी कानून व्यवस्था के मुद्दे पर सरकार को घेरा। उन्होंने कहा कि पटना में थाने से कुछ ही कदम दूर, बिहार के एक प्रमुख व्यापारी की गोली मारकर हत्या कर दी गई! उन्होंने सवाल उठाया कि बिहार में हर महीने सैकड़ों व्यापारियों की हत्या की जा रही है, लेकिन इसे जंगल राज क्यों नहीं कहा जा सकता? उन्होंने मीडिया मैनेजमेंट और परसेप्शन मैनेजमेंट पर भी सवाल उठाए। तेजस्वी यादव ने कहा कि ‘बिहार में हर महीने सैकड़ों व्यापारियों की हत्या की जा रही है, लेकिन हम इसे जंगल राज नहीं कह सकते? क्योंकि यही तो शास्त्रों में मीडिया मैनेजमेंट, परसेप्शन मैनेजमेंट और इमेज मैनेजमेंट कहते हैं।’

जन सुराज पार्टी के संस्थापक प्रशांत किशोर ने भी इस मामले पर अपनी राय रखी। उन्होंने कहा कि लालू यादव के जंगल राज और नीतीश कुमार के राज में कोई अंतर नहीं है। लालू यादव के राज में अपराधियों का तांडव था और नीतीश कुमार के राज में अधिकारियों का तांडव है। उन्होंने कहा कि पहले जिस तरह का भ्रष्टाचार और कानून-व्यवस्था की स्थिति थी, वह आज भी वैसी ही है।

प्रशांत किशोर ने कहा कि पटना में इतने बड़े व्यवसायी की गोली मारकर हत्या कर दी जाती है और कोई कार्रवाई नहीं होती। उन्होंने सीवान में हुई तीन लोगों की हत्या का भी जिक्र किया और कहा कि यह रोज की बात है। उन्होंने इसे अधिकारियों का राज बताया, जो अपनी मर्जी से काम चला रहे हैं। प्रशांत किशोर ने कहा, ‘लालू यादव के राज में अपराधियों का तांडव था और नीतीश कुमार के राज में अधिकारियों का तांडव है।’

कुमार कृष्णन

कहीं महंगा न पड़ जाये आस्था से मजाक

सचिन त्रिपाठी

भारत की सांस्कृतिक परंपरा पर्वों की उस रंग-बिरंगी माला के समान है जिसका प्रत्येक मनका किसी ऋतु, किसी फसल, किसी प्राकृतिक तत्व या किसी लौकिक सत्य से बंधा हुआ है। यहां उत्सव केवल उल्लास नहीं, ऋतुओं का स्वागत है, आकाश-पवन-नदी का वंदन है, और भूमि माता के चरणों में अर्पित श्रद्धा है। मकर संक्रांति के साथ जब सूर्य उत्तरायण होता है तो वह मात्र खगोल घटना नहीं होती, वह अन्नदाता के हृदय में नई आशा की किरण भी जगाता है। छठ पूजा में सूर्य को अर्घ्य देते समय केवल एक देवता नहीं, बल्कि सम्पूर्ण प्रकाश व्यवस्था के प्रति आभार प्रकट किया जाता है किंतु दुःख की बात यह है कि आज इन्हीं पर्वों को उपहास का विषय बना दिया गया है, कभी सोशल मीडिया की मीम संस्कृति के माध्यम से तो कभी तथाकथित बुद्धिजीविता के नाम पर।

आश्चर्य होता है जब छठ पूजा जैसे विराट और श्रमसाध्य पर्व को ‘रिवर्स योगा’ कहा जाता है या होली जैसे रंगों के उत्सव को जल अपव्यय की उपमा देकर बदनाम किया जाता है। हास्य की यह धारा जब आस्था का उपहास बनने लगे, तब वह केवल मनोरंजन नहीं, सांस्कृतिक विघटन का औजार बन जाती है।

कुछ वर्ष पूर्व एक वेब सीरीज में छठ व्रत करने वाली स्त्रियों को ‘गंवार और अंधविश्वासी’ कहकर चित्रित किया गया। यह कोई अलग घटना नहीं बल्कि एक बढ़ती हुई प्रवृत्ति का उदाहरण था जहां पर्वों को ‘साइंटिफिक टेंपर’ की कसौटी पर कसा जाने लगा किंतु बिना यह समझे कि ये पर्व ही तो भारतीय मानस का विज्ञान हैं, हमारे शरीर, पर्यावरण और समाज के सामूहिक संतुलन का जीवंत उदाहरण हैं।

दीपावली के आते ही शोर उठता है ‘पटाखे मत जलाओ, प्रदूषण होता है!’ मानो पूरे वर्ष का पर्यावरणीय संतुलन केवल एक रात के दीपोत्सव से डगमगाने लगे। क्या किसी ने होली के पूर्व गांवों में की जाने वाली तालाब सफाई देखी है? क्या किसी एनजीओ ने छठ पूजा से पूर्व गंगा घाटों की सामूहिक सफाई की सराहना की है? नहीं, क्योंकि अब आलोचना का उद्देश्य सुधार नहीं, अपमान है। भारतीयता को ‘पर्यावरण विरोधी’ दिखाकर, पश्चिमी मानकों की श्रेष्ठता स्थापित करना है।

क्या आपने कभी देखा है कि ‘थैंक्स गिविंग’ पर टर्की की बलि का मज़ाक उड़ाया गया हो? क्या ‘ईस्टर’ पर अंडों और चॉकलेट्स की बर्बादी के खिलाफ कोई अभियान चला? लेकिन भारत में तो हर त्योहार के साथ एक झूठा अपराधबोध जोड़ दिया जाता है। गणेश चतुर्थी को ‘नदी प्रदूषण का पर्व’, होली को ‘जल बर्बादी का उत्सव’, और दीपावली को ‘ध्वनि और वायु प्रदूषण का महापर्व’ कहकर प्रस्तुत किया जाता है।

पर्व केवल पूजा नहीं होते. वे समाज की चेतना होते हैं। होली, जहां रंगों में जाति-वर्ग-भेद मिट जाता है; छठ, जहां स्त्री प्रकृति से तादात्म्य स्थापित करती है; गणेश चतुर्थी, जहां बुद्धि और बाधाओं के बीच संवाद होता है, इन सभी को ‘जोक्स’ के जरिए तुच्छ बना देना किसी सभ्यता की जड़ों को काटने जैसा है।

वर्तमान में सोशल मीडिया ने ‘मीम’ को संवाद का माध्यम बना दिया है लेकिन यह मीम, जहां किसी विदेशी प्रधानमंत्री की टोपी का मजाक हल्के हास्य में लिया जाता है, वहीं जब किसी भारतीय स्त्री की ‘करवा चौथ’ की तस्वीर आती है तो उसके साथ ‘पितृसत्ता की गुलामी’ जैसे कटाक्ष जोड़े जाते हैं। यह केवल मज़ाक नहीं बल्कि एक सांस्कृतिक मानस को चुपचाप नष्ट करने की चेष्टा है।

पर्वों के पीछे की वैज्ञानिकता को समझे बिना उन्हें ‘अंधविश्वास’ कहना उस दृष्टिहीन व्यक्ति जैसा है जो सूर्य की गर्मी से डरकर उसे नकारता है। छठ पूजा में जब स्त्रियां व्रत के माध्यम से सूर्य की सीधी किरणों को स्वयं पर लेती हैं तो वह केवल भक्ति नहीं, शरीर और प्रकाश विज्ञान का अनुप्रयोग भी है। दीपावली में जब घरों की सफाई होती है तो वह कीट नियंत्रण का पारंपरिक उपाय है। होलिका दहन कृषि अवशेषों के निपटान का स्थानीय तंत्र है जिसे अब ‘पर्यावरण खतरा’ कहा जाता है।

यह आवश्यक है कि हम अपनी नई पीढ़ी को इन पर्वों के मूल तत्व से परिचित कराएं। उन्हें यह सिखाया जाए कि गणेश केवल मूर्ति नहीं, विघ्न-विनाशक ऊर्जा के प्रतीक हैं; कि दीपक केवल तेल और बाती नहीं, चेतना की लौ हैं; और कि छठ केवल सूर्य पूजन नहीं, जल-प्रकाश-व्रत और स्त्री चेतना का महायोग है।

यदि हमने इन पर्वों को केवल ‘हास्य’ और ‘फॉरवर्ड्स’ की वस्तु बनने दिया, तो आने वाले समय में हमारी संतति इन्हें ‘संस्कृति’ नहीं, ‘कॉमेडी’ मानेगी। तब हम अपनी पहचान नहीं, अपनी जड़ों से दूर हो चुके होंगे। इसलिए, समय है कि हम अपने पर्वों का पुनर्पाठ करें, वैज्ञानिक दृष्टिकोण से, सांस्कृतिक श्रद्धा से, और सामाजिक चेतना से। उपहास का उत्तर उपदेश नहीं, ज्ञान है और यह ज्ञान हमें बताता है कि ये पर्व मात्र परंपरा नहीं, प्रकृति से एक सतत संवाद हैं।

हंसी उचित है जब वह आदर के साथ हो लेकिन जब वह आस्था पर वज्र की तरह गिरे तो वह केवल व्यंग्य नहीं, आत्म-अपमान बन जाती है। स्मरण रखिए, पर्वों का उपहास प्रकृति के प्रति हमारी निष्ठा को भी खंडित करता है और जो समाज अपनी ऋतुओं, नदियों, और सूर्य की उपेक्षा करता है, वह धीरे-धीरे अपनी ही चेतना से कट जाता है।

सावन की पहली बूँद

बादल की पहली दस्तक, मन के आँगन आई,
भीग गया हर कोना, हर साँस मुस्काई।
पीपल की टहनी बोली, झूले की है बारी,
छत की बूँदों ने फिर, गाई प्रेम पिचकारी।

मिट्टी ने भी मुँह खोला, सौंधी-सौंधी भाषा,
मन में उठे भावों की, भीनी-भीनी आशा।
चुनरी उड़ती दिशा-दिशा, लहराए सावन,
पलकों पर ठहरी जैसे, बरखा में जीवन।

बिरहा के गीतों में, घुलता राग अधूरा,
झोपड़ी की दीवारें भी, रोतीं तनहा-सा सूरत।
बच्चों की हँसी बिखरे, कीचड़ के संग संग,
भीग रहा हर रिश्ता, जैसे कोई उमंग।

सावन की पहली बूँदें, दिल तक उतरें आज,
हर किसी की आँखों में, बसी कोई आवाज़।
वो जो गया है दूर कहीं, उसे लिखूं संदेस,
“बरखा आई फिर वही, लेकर तेरा भेस

झूले वाले दिन आए

झूले वाले दिन आए, पायल की छनकार,
घूँघट में लजाए सावन, रंग भरे हज़ार।
काजल भीगे नैना, मेंहदी रचती हाथ,
सखियाँ गाएं गीत वो, जिसकी हो तलाश।

पलाश और आम की, डालें हुईं जवाँ,
झूले संग लहराए, मन की हर दुआ।
बरखा की चूनर ओढ़े, धरती की ये माँ,
हरियाली की चिट्ठियाँ, लेकर आई हवा।

पथिक रुके हैं थमकर, सुनने बादल गीत,
पगली नदी भी झूमें, बाँधें जल की रीत।
बंसी फिर से बोले, कान्हा पुकारे राधा,
मन मंदिर में बजे हैं, प्रेम भरे प्रभादा।

झूले वाले दिन आए, हर मन रंग जाए,
चुनरी सी उड़ती ख़ुशियाँ, कोई रोक न पाए।
मौसम का ये तावीज़, बाँधे रिश्तों को पास,
सावन जैसे हर जन को, दे प्रेम का प्रकाश।

अब के सावन में

अब के सावन में
बूँदें सिर्फ़ पानी नहीं रहीं,
वो सवाल बनकर गिरती हैं
छतों, छायाओं और चेतना पर।

अब के सावन में
न कोई प्रेम पत्र भीगा,
न कोई हथेली मेंहदी से लिपटी,
बस मोबाइल स्क्रीन पर टपकी बारिश की रील।

अब के सावन में
कविताएं भीगने से डरती हैं,
काग़ज़ गल जाए तो?
या भाव उड़ जाए तो?

पर फिर भी,
जब एक बूँद चुपचाप
मेरी खिड़की पर टिकती है,
मैं जानती हूँ—
भीतर का सावन अब भी जीवित है।

सावन की सिसकी

भीग गया मन फिर चला, तेरी यादों की ओर,
सावन ने फिर छेड़ दिया, वो भीगा सा शोर।
टपक रही हर साँझ में, कुछ अधूरी बात,
छत पर बैठी पाती पढ़े, भीगी-भीगी रात।

झूला झूले याद में, पीपल की वह छाँव,
तेरे संग सावन जिया, अब लगता बेजान।
बूँद-बूँद में नाम तेरा, भीगा पत्र पुराना,
तेरे बिना हर मौसम में, खालीपन का गाना।

चाय की प्याली अकेली, खिड़की की तन्हाई,
भीतर गूंजे सावन, बाहर बारिश आई।
भेज रहा हूँ हवा से, फिर इक संदेश,
“तेरा इंतज़ार अब भी है, सावन का ये वेश।”

सावन बोल पड़ा

सावन बोल पड़ा —
“मैं वो साज़ हूँ, जो मन को छूता है।
मैं वो गीत हूँ, जो बिन बोले गूंजता है।
मैं भीगते बालकों की हँसी हूँ,
और चुपचाप रोते खेतों की तृप्ति भी।”

सावन फिर बोला —
“मुझमें पनपता है प्रेम,
और मिटती है दूरी।
मैं झोपड़ी का गीत हूँ,
और महलों की चुप्पी भी।”

सावन बोला —
“मेरे संग बहती हैं स्मृतियाँ,
और उगती हैं उम्मीदें।
मैं आज भी वही हूँ —
बस तुमने देखना छोड़ दिया है मुझे।”

बच्चों को स्कूल बचाएंगे मधुमेह से

डॉ घनश्याम बादल

स्कूली बच्चों में बढ़ती हुई टाइप 2 शुगर की बीमारी को ध्यान में रखते हुए सीबीएसई ने विद्यालयों में बच्चों को मधुमेह से बचने की शिक्षा देने एवं  शुगर हो जाने पर कैसे उसे नियंत्रित किया जा सकता है जैसे बिंदुओं पर शिक्षित करने का एक अच्छा कदम उठाया है। 

प्रायः माना जाता है कि मधुमेह बच्चों में नहीं होती लेकिन लंबे समय से देखने में आ रहा है कि किशोर अवस्था के बच्चों में भी अब मधुमेह के लक्षण बढ़ते जा रहे हैं यदि पाठ्यक्रम में इस तरह के अध्याय रखे जाएं जो बच्चों को मधुमेह के लक्षणों एवं कारणों के बारे में बता सकें तो यह निश्चित रूप से आने वाली पीढ़ी के लिए एक लाभदायक कदम होगा। 

मधुमेह के कारणों की पृष्ठभूमि में जाएं तो दो कारण मुख्य रूप से उभर कर आते हैं इनमें से पहला कारण है आनुवंशिक रूप से मधुमेह का होना जो बच्चे में अपने पैतृक या माता के वंश से आता है। इसका दूसरा सबसे बड़ा कारण है बच्चों में बढ़ता हुआ मोटापा । मोटापे का मूल कारण है शरीर में वसा का अधिक मात्रा में जमा होना।  जितनी कैलोरी हम भोजन या अन्य खाद्य पदार्थों से प्राप्त करते हैं यदि उ

उसे पर्याप्त मात्रा में बर्न नहीं किया जाता है तो शरीर में ग्लूकोटिन की मात्रा बढ़ती चली जाती है जो अंततः शुगर का कारण बन जाती है। 

   मधुमेह के बारे में एक गलत अवधारणा देखने में आती है कि मधुमेह  मीठा खाने से होता है । यह एक मिथक है दरअसल मधुमेह मीठा खाने से नहीं होता लेकिन यदि मधुमेह हो जाए तो अधिक मीठा खाने से स्थिति बिगड़ने का भय ज़रूर रहता है। शुगर से बचने का आसान तरीका है उसके प्रारंभिक लक्षणों को जानकर उपयुक्त सावधानी बरतना। 

  सामान्य लक्षण

मधुमेह  के प्रारंभिक लक्ष्ण में  बार-बार पेशाब आना, त्वचा में खुजली होना, धुंधला दिखना, थकान व कमजोरी महसूस करना, पैरों का सुन्न होना, प्यास अधिक लगना, घाव भरने में  बहुत समय लगना, हमेशा भूख महसूस करना, वजन कम होना और त्वचा में संक्रमण होना प्रमुख हैं।यदि त्वचा का रंग, कांति या मोटाई में परिवर्तन दिखे, कोई चोट या फफोले ठीक होने में सामान्य से अधिक समय लगे, कीटाणु संक्रमण के प्रारंभिक चिह्न लालीपन, सूजन, फोड़ा या छूने से त्वचा गरम हो, योनि या गुदा मार्ग, बगलों या स्तनों के नीचे तथा अंगुलियों के बीच खुजलाहट हो, जिससे फफूंदी संक्रमण की संभावना का संकेत मिलता है या कोई न भरने वाला घाव हो तो रोगी को तुरंत चिकित्सक से संपर्क कर शुगर टेस्ट कराना चाहिए । 

विशेष लक्षण:

रोगी का मुँह सूखना,अत्यधिक प्यास व भूख लगना, दुर्बल होते जाना, बिना कारण भार कम होना, शरीर में थकावट के साथ-साथ मानसिक चिन्तन एवं एकाग्रता में कमी होना। मूत्र त्यागने के स्थान पर  चीटियाँ लगना, पौरुष शक्ति में क्षीणता, स्त्रियों में मासिक स्राव में विकृति अथवा उसका बन्द होनाआदि मधुमेह के विशेष लक्ष्ण है। 

  कारण 

हमारे भोजन में कार्बोहाइड्रेट एक प्रमुख तत्त्व है, यही कैलोरी व ऊर्जा का स्रोत है। शरीर को 60 से 70 प्रतिशत कैलोरी इन्हीं से प्राप्त होती है। कार्बोहाइड्रेट पाचन तंत्र में पहुंचते ही ग्लूकोज के छोटे-छोटे कणों में बदल कर रक्त प्रवाह में मिल जाते हैं इसलिए भोजन लेने के आधे घंटे भीतर ही रक्त में ग्लूकोज का स्तर बढ़ जाता है तथा दो घंटे में अपनी चरम सीमा पर पहुंच जाता है। दूसरी ओर शरीर तथा मस्तिष्क की सभी कोशिकाएं इस ग्लूकोज का उपयोग करने लगती हैं। ग्लूकोज छोटी रक्त नलिकाओं द्वारा प्रत्येक कोशिका में प्रवेश करता है, वहां इससे ऊर्जा प्राप्त की जाती है। यह प्रक्रिया दो से तीन घंटे के भीतर रक्त में ग्लूकोज के स्तर को घटा देती है। भोजन के पश्चात यह स्तर 120-140 मि.ग्रा.डे.ली. हो जाता है तथा धीरे-धीरे कम होता चला जाता है।

मधुमेह में इंसुलिन की कमी के कारण कोशिकाएं ग्लूकोज का उपयोग नहीं कर पातीं क्योंकि इंसुलिन के अभाव में ग्लूकोज कोशिकाओं में प्रवेश ही नहीं कर पाता। इंसुलिन एक रक्षक की तरह ग्लूकोज को कोशिकाओं में प्रवेश करवाता है ताकि ऊर्जा उत्पन्न हो सके। यदि ऐसा न हो सके तो शरीर की कोशिकाओं के साथ-साथ अन्य अंगों को भी रक्त में ग्लूकोज के बढ़ते स्तर के कारण हानि होती है। 

 ख़तरे  । 

यदि रक्त में शर्करा का स्तर लंबे समय तक सामान्य से अधिक बना रहता है तो उच्च रक्त ग्लूकोज अधिक समय के बाद विषैला हो जाता है। अधिक समय के बाद उच्च ग्लूकोज, रक्त नलिकाओं, गुर्दे, आंखों और स्नायुओं को खराब कर देता है जिससे जटिलताएं पैदा होती है और शरीर के प्रमुख अंगों में स्थायी खराबी आ सकती है।

 स्नायुतंत्र की समस्याओं से पैरों अथवा शरीर के अन्य भागों की संवेदना चली जा सकती है। रक्त नलिकाओं की बीमारी से हृदयाघात भी सकता है, पक्षाघात और संचरण की समस्याएं पैदा हो सकती हैं ।  ग्लूकोमा  या मोतियाबिंद रोग हो सकते हैं। 

इसके अतिरिक्त भी उच्च रक्तचाप,  उच्च कोलेस्ट्रोल व रक्त संचारण धीमा होने  से  दिल का दौऱा पड़ सकता है। मधुमेह में पक्षाघात और दिल के दौरे का खतरा 16 गुना बढ़ जाता है । 

मधुमेह मरीजों में हार्ट-अटैक होने पर भी छाती में दर्द नहीं होता, क्योंकि दर्द का अहसास दिलाने वाला इनका स्नायु क्षतिग्रस्त हो जाता है।

मधुमेह रोगियों को एन्जाइना भी होने का खतरा रहता है, यदि रक्त का ग्लूकोज स्तर अत्यधिक बढ़ जाता है और रक्त में किरोन का स्तर भी बढ़ता है तो अचानक रक्त संचार की प्रणाली कार्य करना बंद कर देती है और उससे मौत भी हो सकती है ।

 मधुमेह  का घनिष्ठ संबंध जीवन-शैली से  है ,अतः नियमित अंतराल में चिकित्सकीय परीक्षण करवायें, जिससे रोग का शुरुआती अवस्था में ही पता लग सके।

ऐसे रोकें मधुमेह :

मधुमेह होने के कारण पैदा होने वाली जटिलताओं की रोकथाम के लिए नियमित आहार, व्यायाम, व्यक्तिगत स्वास्थ्य, सफाई और संभावित इनसुलिन इंजेक्शन अथवा डाॅक्टर के सुझाव के अनुसार खाने वाली दवाइयों का सेवन करना जरुरी है ।

तनाव से बचें सुपाच्य खाएं:

 चिन्ता, तनाव, व्यग्रता से मुक्त रहें। तीन माह में एक बार रक्त शर्करा की जाँच कराएं। भोजन कम करें, भोजन में रेशे युक्त द्रव्य, तरकारी, जौ, चने, गेहूँ, बाजरे की रोटी, हरी सब्जी एवं दही का प्रचुरमात्रा में सेवन करें। चना और गेहूँ मिलाकर उसके आटे की रोटी खाना बेहतर है। शारीरिक परिश्रम करें व प्रातः 4-5 कि.मी. घूमें । कोल्ड ड्रिंक व पैक्ड फूड से जितना परहेज करें उतना अच्छा है

नियमित रहें पैदल चलें 

 नियमित एवं संयमित जीवन के साथ  मीठे का सेवन सीमित करें। वजन अधिक  है तो कम करें। दवाओं का सेवन चिकित्सक के परामर्श से करें।    प्राणायाम व योग अवश्य करें । जहाँ तक संभव हो कुछ समय नंगे पैर जमीन पर अवश्य चलें, और शुगर की नियमित जाँच ज़रुर कराते रहें।

डॉ घनश्याम बादल