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आत्मउन्नयन एवं जीवन-जागृति का पर्व है पर्युषण

पर्युषण महापर्व- 20-27 अगस्त, 2025
-ललित गर्ग-

जैन धर्म में पर्युषण महापर्व का अपना विशेष महत्व है। यह केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं बल्कि आत्मा की गहराइयों तक जाने का, आत्मनिरीक्षण करने का और आत्मशुद्धि का अनूठा पर्व है। जैन संस्कृति ने सदियों से इस पर्व को आत्मकल्याण, साधना और तपस्या का महान माध्यम बनाया है। ‘पर्युषण’ का शाब्दिक अर्थ है-अपने भीतर ठहरना, आत्मा में रमना, आत्मा के समीप होना। इस वर्ष अन्तःकरण की शुद्धि का यह महापर्व 20 से 27 अगस्त, 2025 को मनाया जा रहा है, इन आठ दिनों में हर जैन अनुयायी अपने तन और मन को साधनामय बना लेता है, मन को इतना मांज लेता है कि अतीत की त्रुटियां को दूर करते हुए भविष्य में कोई भी गलत कदम न उठे। इस पर्व में एक ऐसा मौसम ही नहीं, माहौल भी निर्मित होता है, जो हमारे जीवन की शुद्धि कर देता है। इस दृष्टि से यह पर्व आध्यात्मिकता के साथ-साथ जीवन उत्थान का पर्व है, यह मात्र जैनों का पर्व नहीं है, यह एक सार्वभौम पर्व है। पूरे विश्व के लिए यह एक उत्तम और उत्कृष्ट पर्व है, क्योंकि इसमंे आत्मा की उपासना करते हुए जीवन को शांत, स्वस्थ एवं अहिंसामय बनाया जाता है। संपूर्ण संसार में यही एक ऐसा उत्सव या पर्व है जिसमें आत्मरत होकर व्यक्ति आत्मार्थी बनता है व अलौकिक, आध्यात्मिक आनंद के शिखर पर आरोहण करता हुआ मोक्षगामी होने का सद्प्रयास करता है।
जैनधर्म की त्याग प्रधान संस्कृति में पर्युषण पर्व का अपना अपूर्व एवं विशिष्ट आध्यात्मिक महत्व है। इसमें जप, तप, साधना, आराधना, उपासना, अनुप्रेक्षा आदि अनेक प्रकार के अनुष्ठान से जीवन को पवित्र किया जाता है। यह अंर्तआत्मा की आराधना का पर्व है- आत्मशोधन का पर्व है, निद्रा त्यागने का पर्व है। सचमुच में पर्युषण पर्व एक ऐसा सवेरा है जो निद्रा से उठाकर जागृत अवस्था में ले जाता है। अज्ञानरूपी अंधकार से ज्ञानरूपी प्रकाश की ओर ले जाता है। तो जरूरी है प्रमादरूपी नींद को हटाकर इन आठ दिनों विशेष तप, जप, स्वाध्याय की आराधना करते हुए अपने आपको सुवासित करते हुए अंर्तआत्मा में लीन हो जाए जिससे हमारा जीवन सार्थक व सफल हो पाएगा।
पर्युषण का एक अर्थ है-कर्मों का नाश करना। कर्मरूपी शत्रुओं का नाश होगा तभी आत्मा अपने स्वरूप में अवस्थित होगी अतः यह पर्युषण-पर्व आत्मा का आत्मा में निवास करने की प्रेरणा देता है। यह आध्यात्मिक पर्व है, इसका जो केन्द्रीय तत्त्व है, वह है-आत्मा। आत्मा के निरामय, ज्योतिर्मय स्वरूप को प्रकट करने में पर्युषण महापर्व अहं भूमिका निभाता रहता है। अध्यात्म यानि आत्मा की सन्निकटता। यह पर्व मानव-मानव को जोड़ने व मानव हृदय को संशोधित करने का पर्व है, यह मन की खिड़कियों, रोशनदानों व दरवाजों को खोलने का पर्व है। पर्युषण पर्व जैन एकता का प्रतीक पर्व है। दिगंबर परंपरा में इसकी ‘‘दशलक्षण पर्व’’ के रूप मंे पहचान है। उनमें इसका प्रारंभिक दिन भाद्र व शुक्ला पंचमी और संपन्नता का दिन चतुर्दशी है। दूसरी तरफ श्वेतांबर जैन परंपरा में भाद्र व शुक्ला पंचमी का दिन समाधि का दिन होता है। जिसे संवत्सरी के रूप में पूर्ण त्याग-प्रत्याख्यान, उपवास, पौषध सामायिक, स्वाध्याय और संयम से मनाया जाता है। वर्ष भर में कभी समय नहीं निकाल पाने वाले लोग भी इस दिन जागृत हो जाते हैं। कभी उपवास नहीं करने वाले भी इस दिन धर्मानुष्ठान करते नजर आते हैं।
पर्युषण पर्व मनाने के लिए भिन्न-भिन्न मान्यताएं उपलब्ध होती हैं। आगम साहित्य में इसके लिए उल्लेख मिलता है कि संवत्सरी चातुर्मास के 49 या 50 दिन व्यतीत होने पर व 69 या 70 दिन अवशिष्ट रहने पर मनाई जानी चाहिए। दिगम्बर परंपरा में यह पर्व 10 लक्षणों के रूप में मनाया जाता है। यह 10 लक्षण पर्युषण पर्व के समाप्त होने के साथ ही शुरू होते हैं। यह पर्व जैन अनुयायियों के लिए संयम, साधना और आत्मसंयम का विशेष अवसर लेकर आता है। इन दिनों में जैन समाज उपवास, प्रतिक्रमण, पाठ, स्वाध्याय, सामायिक, ध्यान और पूजा के माध्यम से आत्मिक उन्नति का मार्ग प्रशस्त करता है। घर-घर में धार्मिक वातावरण बनता है और हर व्यक्ति अपने जीवन की दिशा को सुधारने का प्रयत्न करता है। पर्युषण पर्व का मुख्य उद्देश्य है आत्मा को कर्मों की परतों से मुक्त करना। जीवन में चाहे जितनी भी व्यस्तता हो, इन दिनों में हर जैन श्रावक-श्राविका अपने जीवन की गति को धीमा कर आत्मचिंतन करता है। यह पर्व हमें यह सिखाता है कि बाहरी सुख-सुविधाएँ क्षणिक हैं, वास्तविक सुख भीतर है और आत्मा की शुद्धि में ही है। जब व्यक्ति अपने भीतर झाँकता है तो उसे अपने दोष, अपने अपराध और अपनी कमजोरियों का बोध होता है। इसी बोध से क्षमा और आत्मपरिवर्तन की भावना उत्पन्न होती है।
पर्युषण पर्व के अंतिम दिन ‘क्षमावाणी’ का आयोजन होता है, जिसे ‘क्षमा दिवस’ भी कहा जाता है। इस दिन हर व्यक्ति अपने परिचितों, रिश्तेदारों, मित्रों और यहां तक कि शत्रुओं से भी यह कहता है-“मिच्छामि दुक्कडम्” अर्थात् यदि मुझसे किसी को भी मन, वचन या शरीर से कोई पीड़ा पहुँची है तो मैं उसके लिए क्षमाप्रार्थी हूँ। इस प्रकार क्षमा माँगने और क्षमा करने की परंपरा से समाज में सद्भाव, प्रेम और मैत्री का वातावरण बनता है। पर्युषण पर्व आत्मसंयम और आत्मिक साधना का गहन अभ्यास है। यह पर्व हमें याद दिलाता है कि जीवन का वास्तविक उद्देश्य केवल भोग-विलास और सांसारिक उपलब्धियाँ नहीं हैं, बल्कि आत्मा का उत्थान और मोक्ष की दिशा में अग्रसर होना है। यही कारण है कि इन दिनों में लोग केवल धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन ही नहीं करते, बल्कि व्यवहारिक जीवन में भी सात्त्विकता, करुणा, अहिंसा और सहअस्तित्व को अपनाने का प्रयास करते हैं। यह पर्व हर जैन साधक के लिए एक आत्मयात्रा है। तप, संयम, स्वाध्याय और क्षमा की साधना से वह स्वयं को नया जन्म देता है।
पर्युषण पर्व एक दूसरे को अपने ही समान समझने का पर्व है। गीता में भी कहा है‘‘‘आत्मौपम्येन सर्वत्रः, समे पश्यति योर्जुन’’-‘श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा-हे अर्जुन ! प्राणीमात्र को अपने तुल्य समझो। भगवान महावीर ने कहा-‘‘मित्ती में सव्व भूएसु, वेरंमज्झण केणइ’’ सभी प्राणियों के साथ मेरी मैत्री है, किसी के साथ वैर नहीं है। मानवीय एकता, शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व, मैत्री, शोषणविहीन सामाजिकता, अंतर्राष्ट्रीय नैतिक मूल्यों की स्थापना, अहिंसक जीवन आत्मा की उपासना शैली  का समर्थन आदि तत्त्व पर्युषण महापर्व के मुख्य आधार हैं। ये तत्त्व जन-जन के जीवन का अंग बन सके, इस दृष्टि से इस महापर्व को जन-जन का पर्व बनाने के प्रयासों की अपेक्षा है। मनुष्य धार्मिक कहलाए या नहीं, आत्म-परमात्मा में विश्वास करे या नहीं, पूर्वजन्म और पुनर्जन्म को माने या नहीं, अपनी किसी भी समस्या के समाधान में जहाँ तक संभव हो, अहिंसा का सहारा ले- यही पयुर्षण की साधना का हार्द है। हिंसा से किसी भी समस्या का स्थायी समाधान नहीं हो सकता। हिंसा से समाधान चाहने वालों ने समस्या को अधिक उकसाया है। इस तथ्य को सामने रखकर जैन समाज ही नहीं आम-जन भी अहिंसा की शक्ति के प्रति आस्थावान बने और गहरी आस्था के साथ उसका प्रयोग भी करे। परलोक सुधारने की भूलभुलैया में प्रवेश करने से पहले इस जीवन की शुद्धि पर ध्यान केंद्रित होना चाहिए। धर्म की दिशा में प्रस्थान करने के लिए यही रास्ता निरापद है और यही इस पर्व की सार्थकता का आधार है, प्रतिक्रमण का प्रयोग है। पीछे मुड़कर स्वयं को देखने का ईमानदार प्रयत्न है। वर्तमान की आंख से अतीत और भविष्य को देखते हुए कल क्या थे और कल क्या होना है इसका विवेकी निर्णय लेकर एक नये सफर की शुरुआत की जाती है। यह पर्व अहिंसा और मैत्री का पर्व है। अहिंसा और मैत्री के द्वारा ही शांति मिल सकती है। आज जो हिंसा, आतंक, आपसी-द्वेष, नक्सलवाद, भ्रष्टाचार जैसी ज्वलंत समस्याएं न केवल देश के लिए बल्कि दुनिया के लिए चिंता का बड़ा कारण बनी हुई है और सभी कोई इन समस्याओं का समाधान चाहते हैं। उन लोगों के लिए पर्युषण पर्व एक प्रेरणा है, पाथेय है, मार्गदर्शन है और अहिंसक जीवन शैली का प्रयोग है।

आरती श्री बलराम जी की

(दाऊ महाराज जी की)

आरती दाऊ बाबा की कीजै।
अपनौ मन पावन कर लीजै।।

वासुदेव सूत रोहिणी छैया।
श्रीकृष्ण कौ प्यारौ बड़ौ भैया।।
रेवती माँ के संग दर्शन कीजै।
आरती दाऊ बाबा की कीजै।।

नन्द यशोदा के आंगन में।
खेले ये मोहन के संग में।।
ग्वाल बाल के संग गाय चरावै।
ब्रज कौ ये राजा कहलावै।।
श्री कृष्णा संग पूजन कीजै।
आरती दाऊ बाबा की कीजै।।

शेष नाग के हैं अवतारी।
त्रेता में लक्ष्मण रूप है धरी।।
द्वापर में भी कृष्णा संग आये।
नाम से यह बलराम कहाय।।
भजन कीर्तन इनका कीजै।
आरती दाऊ बाबा की कीजै।।

गोकुल के पास में है गाँव बसाया।
बलदेव नगर है वह कहलाया।।
गदा और हल के हैं धारी।
ये तो हैं अतुलित बल धारी।।
ब्रिज के राजा सुमिरन कीजै।।
आरती दाऊ बाबा की कीजै।।

देश विभाजन के दोषी कौन ?

प्रमोद भार्गव

भारत में राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (एनसीईआरटी) द्वारा विभाजन की विभीषिका स्मृति दिवस के मौके पर जारी एक विशेष पाठ में भारत के बंटवारे के लिए मोहम्मद अली जिन्ना, कांग्रेस और तत्कालीन ब्रिटिश वायसराय लार्ड माउंटबेटन को जिम्मेदार ठहराया है। पाठ में यह भी उल्लेख है कि विभाजन के बाद कश्मीर नई समस्या के रूप में पेश आया। भारत में यह समस्या पहले कभी मौजूद नहीं थी। इसने देश की विदेश नीति के लिए चुनौती बनाए रखी। नतीजतन कुछ देश पाकिस्तान को सहायता देते रहते हैं और कश्मीर मुद्दे के नाम पर भारत पर दबाव बनाते रहते हैं। वस्तुतः ‘भारत का विभाजन गलत विचारों के कारण हुआ। भारतीय मुसलमानों की पार्टी मुस्लिम लीग ने 1940 में लाहौर में एक सम्मेलन आयोजित किया। इसमें जिन्ना ने कहा कि हिंदू और मुसलमान दो अलग-अलग धार्मिक दर्शन, सामाजिक रीति-रिवाज से संबंधित हैं। अतएव एक साथ नहीं रह सकते।‘ एनसीईआरटी के विशेष पाठ में ‘विभाजन के अपराधी‘ शीर्षक वाले खंड में कहा है कि ‘अंततः 15 अगस्त 1947 को भारत का बंटवारा हुआ। किंतु यह किसी एक व्यक्ति का काम नहीं था। इसके लिए तीन कारण जिम्मेदार थे, एक जिन्ना, जिन्होंने बंटवारे की मांग की। दूसरे कांग्रेस, जिसने बंटवारे को स्वीकार किया और तीसरे माउंटबेटन जिन्होंने इस पर अमल किया। माउंटबेटन एक बड़ी भूल के दोशी साबित हुए।‘
एनसीईआरटी ने उक्त दो पार्ट छापे हैं। इनमें छठी कक्षा से आठवीं के लिए और नौवीं कक्षा से बारहवीं के लिए एक-एक पाठ हैं। ये अंग्रेजी और हिंदी में पूरक पाठ हैं, नियमित पाठ्य पुस्तकों में नहीं हैं। इसलिए इनका प्रयोग परियोजनाओं, पोस्टरों और वाद-विवादों के माध्यम से किया जाना है। ये दोनों पाठ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा 2021 में दिए गए संदेश के साथ शुरू होते हैं, जिसमें विभाजन की विभीषिका स्मृति दिवस मनाने की घोषणा की गई थी। साफ है, ये पाठ पूरे देश में वाद-विवाद का ऐसा हिस्सा बनें, जिससे लोग जान सकें कि वास्तव में विभाजन के अपराधी कौन हैं। केंद्र सरकार इस उद्देश्य की पूर्ति में सफल होती दिख रही है।    दरअसल स्वतंत्रता संघर्ष के बीच महात्मा गांधी ने आत्मविश्वास से कहा था कि ‘अगर कांग्रेस बंटवारे को स्वीकार करना चाहती है तो उसे मेरी लाश के ऊपर से गुजरना होगा। जब तक मैं जीता हूं, मैं कभी भी हिन्दुस्तान का बंटवारा स्वीकार नहीं करूंगा और जहां तक मेरा वश चलेगा कांग्रेस को भी स्वीकार नहीं करने दूंगा।‘ अलबत्ता ऐसा एकाएक क्या हुआ कि जवाहरलाल नेहरू और सरदार वल्लभ भाई पटेल को बंटवारे के समर्थन में खड़े होना पड़ गया। लार्ड माउंटबेटन से पहली मुलाकात में ही गांधी उनके वाग्जाल की गिरफ्त में ऐसे आए कि उनकी प्राण जाए, पर वचन न जाए, की वचनबद्धता भंग हो गई। कांग्रेस मुस्लिम अलगाववाद के आगे घुटने टेकती चली गई। नतीजतन भारत और पाकिस्तान स्वतंत्रता अधिनियम पर ब्रिटिश संसद में मोहर लगा दी गई। ब्रितानी हुकूमत में औपनिवेशिक दासता झेल रहे अखंड भारत को विभाजित कर दो स्वतंत्र देश बनाकर पृथक-पृथक सत्ता का हस्तांतरण करने का निर्णय ले लिया। संपूर्ण सत्ता सौंपने का दिन 14 अगस्त 1947 निश्चित किया। यह दिन भी एक तरह से दोनों देशों के स्वतंत्रता सेनानियों को चिढ़ाने की दृष्टि से मुकर्रर किया गया, क्योंकि इसी दिनांक को जापान मित्र देशों के समक्ष आत्मसमर्पण करने को मजबूर हुआ था।

अंग्रेजों द्वारा अपनी सत्ता कायम रखने की दृष्टि से बंगाल.विभाजन एक ऐसा षड्यंत्रकारी घटनाक्रम रहा जो भारत विभाजन की नींव डाल गया। इस बंटवारे के फलस्वरूप अंग्रेजों के विरुद्ध ऐसी उग्र जन.भावना फूटी की बंग.भंग विरोध में एक बड़ा आंदोलन खड़ा हो गया। दरअसल जब गोरी पलटन ने समूचे भारत को अपनी अधीनता में ले लिया, तब क्रांतिकारी संगठनों और विद्रोहियों के साथ कठोरता बरतने के लिए 30 सितंबर 1898 को भारत की धरती पर वाइसराय लॉर्ड कर्जन के पैर पड़े। कर्जन को 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम से प्रेरणा ले रहे क्रांतिकारियों के दमन के लिए भेजा गया था। इस संग्राम पर नियंत्रण के बाद फिरंगी इस बात को लेकर चिंतित व सर्तक थे, कि कहीं इसकी राख में दबी चिंगारी फिर न सुलग पड़े। क्योंकि अंग्रेज भली भांति जान गए थे कि 1857 का सिलसिला टूटा नहीं है। अंग्रेजों को यह भी शंका थी कि कांग्रेस इस असंतोष को पनपने के लिए खाद.पानी देने का काम कर रही है। कर्जन ने अंग्रेजी सत्ता के संरक्षक बने मुखबिरों से ज्ञात कर लिया कि इस असंतोष को सुलगाए रखने का काम बंगाल से हो रहा है। वाकई स्वतंत्रता की यह चेतना बंगाल के जनमानस में एक बेचैनी बनकर तैर रही थी। यह बेचैनी 1857 के संग्राम जैसे रूप् में फूटे, इससे पहले कर्जन ने कुटिल क्रूरता के साथ 1905 में बंगाल के दो टुकड़े कर दिए। जबकि इस बंग.भंग का विरोध हिंदू और मुसलमानों ने अपनी जान की बाजी लगाकर किया था। इस बंटवारे का मुस्लिम बहुल क्षेत्र को पूर्वी बंगाल और हिंदू बहुल इलाके को बंगाल कहा गया। अर्थात जिस भूखंड पर हिंदू-मुस्लिम संयुक्त भारतीय नागरिक के रूप में रहते चले आ रहे थे, उनका मानसिक रूप से सांप्रदायिक विभाजन कर दिया। इय विभाजन से सांप्रदायिक भावना की एक तरह से बुनियाद डाल दी गई, वहीं दूसरा इसका सकारात्मक परिणाम यह निकला कि पूरे भारत में अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष तेज हो गया। यानी फिरंगी.सत्ता के विरुद्ध एकजुटता ने देशव्यापी उग्र भावना का संचार अनजाने में कर दिया। लेकिन कर्जन ने इसे कुटिल चतुराई से मुस्लिम लीग की स्थापना में बदल दिया।

यही नहीं कर्जन ने अपने वाकचातुर्य से ढाका के नवाब सलीमुल्ला को बंगाल विभाजन का समर्थन और अचानक उदय हुए स्वदेशी आंदोलन का बहिष्कार करने के लिए राजी कर लिया। सलीमुल्ला कर्जन से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने सक्रिय होकर कुछ नवाबों को बरगलाकर दिसबंर 1906 में मुस्लिम लीग संगठन खड़ा कर दिया। स्वदेशी आंदोलन को विफल करने के लिए अंग्रेज अधिकारियों ने सलीमुल्ला के साथ मिलकर हिंदू-मुस्लिमों के बीच संप्रदाय के आधर पर दंगे भड़काने का काम भी शुरू कर दिया। यहीं से हिंदुओं की हत्या करने और उनकी संपत्ति लूटने व हड़पने का सिलसिला शुरू हो गया। इस दुर्विनार स्थिति के निर्माण होने पर ब्रिटिश पत्रकार एच डब्ल्यू नेविंसन ने गार्जियन अखबार में लिखा, ब्रिटिश न्यायिक अधिकारी जानबूझकर हिंदुओं पर अत्याचार के साक्ष्यों को नजरअंदाज करते हैं और मुस्लिमों के कथन पर एक तरफा यकीन करते हैं।
गवर्नर जनरल और वायसराय मिंटो ने मुस्लिम पृथकतावादियों के साथ मिलकर एक नई चाल चली। इसके तहत बंग.भंग विरोध आंदोलन को देश के एक मात्र मुस्लिम-प्रांतष की खिलाफत के आंदोलन के रूप में प्रस्तुत किया जाने लगा। नतीजतन मुस्लिम नेता पूरी ताकत से बंटवारे के समर्थन में आ खड़े हुए। इसी समय आगा खान के नेतृत्व में एक प्रतिनिधि मंडल मिंटो से शिमला में मिला और मुस्लिमों के लिए पृथक मतदाता सूची बनाए जाने की मांग उठा दी। मिंटो इस मंशा पूर्ति के लिए ही भारत भेजे गए थे कि मुस्लिमों को हिंदुओं के विरुद्ध एक समुदाय के रूप में खड़ा किया जाए। अतएव मिंटो ने नगर पालिकाओं, जिला मंडलों और विधान परिषदों में मुस्लिमों की संख्या आबादी के अनुपात में बढ़ाने की पहल कर दी। यही नहीं मुस्लिमों को महत्व ब्रिटिश साम्राज्य के प्रति वफादारी के आधार पर भी रेखांकित की गई। इसी कालखंड में हिंदुओं के खिलाफ मुल्लाओं ने घृणित प्रचार की कमान अपने हाथ में ले ली। एक लाल पुस्तिका छापी गई। जिसमें कहा गया कि् हिंदुओं ने इस्लाम के गौरव को लूटा है। उन्होंने हमारा धन और सम्मान लूटा है। स्वदेशी का जाल बिछाकर हमारी जान लेना चाहते हैं। इसलिए वो मुसलमानों एहिंदुओं के पास अपना धन मत जाने दो। हिंदुओं की दुकानों का बहिष्कार करो। वह सबसे नीच होगा, जो उनके साथ वंदे मातरम् कहेगा। इस सब के बावजूद कांग्रेस को उच्च शिक्षित वकील जिन्ना से समन्यवादी सहयोग की उम्मीद थी। जिन्ना के नेतृत्व में शिक्षित व युवा मुस्लिम सहयोगी बने भी रहे। लेकिन ब्रितानी हुकूमत के पास हिंदू-मुस्लिम एकता और सद्भावना नष्ट-भृष्ट करने की औजार थी। अतएव 1909 में मोर्ले.मिंटो सुधारों के अंतर्गत मुस्लिमों के लिए अलग मतदाता सूची की मांग मंजूर कर ली गई। इस पहल ने हिंदु-मुस्लिम एकता की राह में स्थायी दरार उत्पन्न कर दी।
6 दिसंबर 1946 ब्रिटेन के प्रधानमंत्री एटली ने भारत में एक तीन सदस्यीय शिष्टमंडल भेजा। ये लार्ड लारेंस, स्टेफर्ड क्रिप्स और एवी अलेक्जेंडर थे। इन्हें शांतिपूर्ण सत्ता हस्तांतरण के लिए भेजा गया था। इस मिशन ने कांग्रेस और लीग के प्रतिनिधियों से बातचीत की और सांप्रदायिक दंगों को रोकने के लिए हिंदू-मुस्लिमों के बीच साझा सत्ता की योजना को मूर्त रूप देना चाहा। इस संवाद में अनेक विरोधाभासी पहलू सामने आए। जिन्ना भारत के साथ रहना तो चाहते थे, लेकिन संविधान में मुसलमानों को विशेष राजनीतिक संरक्षण गारंटी चाहते थे। जिसमें हिंदूओं के साथ बराबरी की मांग प्रमुख थी। यही वह दौर था, जिसमें ठीक दीपावली पर्व के बीच नोआखली में भयंकर सांप्रदायिक दंगे भड़के। मुस्लिम बहुल इलाके में हिंदू नरसंहार, मंदिरों का विध्वंस और आगजनी की दर्जनों घटनाएं घटी। हिंदू महिलाओं का अपहरण, दुष्कर्म और धर्मांतरण कराकर जबरन विवाह भी रचाए गए। इन घटनाओं से गांधी को जबरदस्त सदमा पहुंचा और शांति के लिए नोआखली पहुंच गए। बहरहाल कैबिनेट मिशन की शिमला बैठक में कोई कारगर परिणाम नहीं निकला।

लॉर्ड माउंटबेटन इतना चतुर निकला कि उसने विभाजन के लिए जिन्ना, नेहरू, पटेल और यहां तक की गांधी को भी मना लिया। भारत को दो स्वतंत्र राष्ट्रों में भारत और पाकिस्तान में विभाजित कर दिया गया। यही नहीं पंजाब और बंगाल को भी कपड़े की तरह दो टुकड़ों में चीर दिया गया,जिससे भारत हमेशा गृह कलह की आंच से सुलगता रहे। यह पाकिस्तान के अस्तित्व से भी ज्यादा खतरनाक था। ब्रिटिश अधिकारियों ने जानबूझ कर 652 भारतीय रियासतों की प्रभुसत्ता उन्हें वापस सौंप दी। उन्हें भारत या पाकिस्तान मिल जाने की छूट तो थी ही, स्वतंत्र राष्ट्र बने रहने की छूट भी दे दी गई थी। अर्थात भारत और पाकिस्तान के बीच हुआ विभाजन तो आधा सच है, पूरा सच तो देश के 652 टुकड़े कर देने का बन गया था। जिसे पटेल ने संभाला और रियसतों का विलय भारतीय गणतंत्र में हो पाया। अतएव जिन दो पाठों में जिन्ना, कांग्रेस और लाउंटबेटन को दोशी ठहराया गया है, वह कोई केंद्र की वर्तमान सरकार का झूठ नहीं, अपितु ऐतिहासिक सत्य है, जो निश्पक्ष भाव से लिखे स्वतंत्रता आंदोलन की इतिहास पुस्तकों में पूर्व से ही दर्ज है।  
प्रमोद भार्गव

नकली कान्हा

जन्माष्टमी का पर्व
बड़ी धूमधाम से मनाया गया,
बाज़ार से पीताम्बर मंगवाया गया।
जो बच्चे डरते हैं छिपकली से,
उन्होंने भी कान्हा बनाया गया।
सिर पर मुकुट पहना, कर बांसुरी दी गई,
इस अद्भुत छवि की खूब सेल्फ़ी ली गई।

बालिकाएँ राधा बन गई थीं,
बड़ी ही मोहक लग रही थीं।
रूप तो नयनाभिराम था,
पर सब बाज़ार का ही तो सामान था।
बच्चों को भी लगा होगा,
क्या कान्हा का यही काम था?
बांसूरी बजाना, माखन खाना
गोपिन के संग रास रचाना?

वैसे जन्माष्टमी पर सब ख़ुश हुए—
दुकानदार कान्हा-वस्त्रों का मुँह माँगा दाम पाकर,
माता-पिता छवि नयनाभिराम पाकर,
बच्चे कान्हा का नाम पाकर।

बस स्वयं कान्हा ही दुखी था।
जो रूप शक्ति का द्योतक होना चाहिए था,
श्रृंगार का हो गया।
कान्हा केवल बांसुरीधारी है आज,
गोवर्धनधारी खो गया।
अरे! बांसुरी तो तब बजती है जब—
किसी बकासुर को मारा जाए,
यमुना-स्तर उतारा जाए।
नदी से नाग निकाला जाए,
हजार गऊ को पाला जाए।
पूतना का उद्धार हो,
कंस पर प्रहार हो।
रास ही नहीं था, केवल कान्हा का काम,
और अगर होता ऐसा, नहीं लेता कोई नाम।
कान्हा वही बनेगा जिसमें है शक्ति का बोध,
जो अत्याचार, अधर्म का कर सकता प्रतिरोध।

✍🏻 राजपाल शर्मा ‘राज’

डायरेक्ट एक्शन डे (16अगस्त,1946) मुस्लिम लीगियों द्वारा “सीधी कार्यवाही” का अखिल भारतीय कार्यक्रम

(मुस्लिम लीग ने अपनी पाकिस्तान की मांग मनवाने के लिए ‘डायरेक्ट ऐक्शन’ का ऐलान कर उसके लिए 16 अगस्त, 1946 की तारीख निश्चित कर दी थी। तत्सम्बन्धी जारी किये गये गुप्त परिपत्र का अनुवाद यहां प्रस्तुत है। तदनुसार मुसलमानों ने देश भर में जो हत्याकांड रचे, उनमें कलकत्ता और नोआखाली के हिन्दू-संहार भीषणतम ये। अकेले कलकत्ता में 3 दिन के अन्दर (16 से 18 अगस्त) 10,000 से अधिक हिन्दुओं की लाशें सड़कों पर बिछा दी गयी थी। इस भीषण नरसंहार के मुख्य तीन पुरोधा ये-जिन्ना, जिसे गांधी जी ने ‘कायदे आजम’ कहा, सोहरवर्दी, जिन्हें गांधी जी ने ‘शरीफ आदमी’ बताया और मुस्लिम नेशनल गार्ड का प्रमुख शेख मुजीबुर्रहमान, जिसे इन्दिरा जी ने ‘बंगबन्धु’ कहा। इस ‘डायरेक्ट ऐक्शन’ को देश की हर सरकार ने थोक में मुस्लिम वोटों के लालच में जान-बुझकर भुला देना समीचीन समझा। आज देश 1946 से कहीं अधिक भयावह स्थिति में है। अतः लोक-जागरण की दृष्टि में डायरेक्ट ऐक्शन की भयावहता उजागर करना सर्वतोभद्र है।- सम्पादक)

‘सीधी कार्यवाही’ का तेइस बिन्दुओं से युक्त कार्यक्रम ‘मुस्लिम लीग’ कोलकत्ता से प्राप्त हुआ था और लीग के कार्यकर्ताओं को संसूचित कर दिया था। इस कार्यक्रम में गैर-मुस्लिमों को छुरा भोंककर मार डालने, उनके घरो को आग लगाने तथा उनको आतंकित करने के विस्तृत निर्देश दिये गये थे। निम्नलिखित परिपत्र की मुद्रित तथा साइक्लोस्टाइल्ड प्रतियां भारत के मुसलमानों में गुप्त रूप से वितरित की गयी थी।

1. भारत के सभी मुसलमानों को अपना जीवन पाकिस्तान के लिए समर्पित करना चाहिए।

2. पाकिस्तान की स्थापना के साथ ही सम्पूर्ण भारत को भी जीत लेना चाहिए।

3. भारत की सम्पूर्ण जनता को इस्लाम मे धर्मान्तरित करना चाहिए ।

4. समस्त मुस्लिम राज्यों को पूरे विश्व का शोषण करने वाले ऐग्लो-अमेरिकनों से हाथ मिला लेना चाहिए ।

5. एक मुसलमान को पांच हिन्दूओं के बराबर अधिकार प्राप्त करना चाहिए अर्थात् एक मुसलमान पांच हिन्दुओं के

बराबर हो ।

6. जब तक पाकिस्तान और भारतीय साम्राज्य स्थापित नहीं हो जाता निम्नलिखित पग उठाये जायें –👇

👉हिन्दूओं के सभी कारखानों और दुकानों को जलाकर नष्ट कर देना चाहिए लूट लेना चाहिए और लूटे हुए माल को लीग के कार्यालय को सौप देना चाहिए ।

👉मुस्लिम लीग के सभी कार्यकर्ताओं को कानून व्यवस्था का उल्लंघन कर शस्त्र रखना चाहिए ।

👉लीग में सम्मिलित होने से इन्कार करने वाले सभी राष्ट्रवादी मुसलमानों को लीग से गेस्टापो (गुप्त कार्यकर्ताओं) द्वारा मार डाला जाना चाहिए ।

👉हिन्दुओं को शनैः मारकर समाप्त करने के साथ ही उनकी जनसंख्या को कम कर देना चाहिए ।

👉सभी मन्दिरों को नष्ट कर देना चाहिए ।

👉मुस्लिम लीग के जासूस हर जिले व गांव में हो।

👉गुपचुप ढंग से हर महीने कांग्रेस के एक नेता को मार डालते रहना चाहिए ।

👉मुस्लिम गुप्त-संगठन द्वारा कांग्रेस के उच्च कार्यालयों का ध्वंस कर देना चाहिए मात्र एक व्यक्ति द्वारा ।

👉मुस्लिम लीग स्वयं सेवकों द्वारा दिसम्बर 1946, तक करांची, बम्बई, कलकत्ता, मद्रास, गोआ, विजगापटनम को निःशक्त (पैरालाइज) कर देना चाहिए ।

👉स्थल सेना, नौसेना, राजकीय सेवाओं या निजी संस्थानों में मुसलमान हिन्दुओं के अधीन कार्य न करें।

👉मुसलमानों को भारत पर अन्तिम रूप से आक्रमण के उ‌द्देश्य से कांग्रेस सरकार तथा पूरे भारत को अन्तर्ध्वस्त कर देना चाहिए ।

👉इसके लिए वित्तीय साधन मुस्लिम लीग द्वारा दिये जा रहे है। निजाम, कम्युनिस्ट, कुछ यूरोपियन लोग, भोपाल के खोजा, कुछ ऐंग्लो-इंडियन कुछ पारसी, कुछ ईसाई भारत पर आक्रमण करेंगे। सभी प्रकार के शस्त्र-निर्माण के केन्द्र पंजाब, सिन्ध और बंगाल में होंगे, जहां से प्राप्त शस्त्रों द्वारा मुस्लिम लीगी भारत में मुस्लिम साम्राज्य की स्थापना हेतु आक्रमण करेंगे ।

👉सभी शस्त्रों का वितरण बम्बई, कलकत्ता, दिल्ली, मद्रास, बैंगलोर, लाहौर, करांची स्थित मुस्लिम लीग शाखाओं से किया जायेगा।

👉हिन्दुओं को नष्ट करने या उनको भारत से भगा देने के लिए मुस्लिम लीग के सभी वर्गों द्वारा अपने पास थोडे हथियार, कम से कम जेब में एक चाकू तो अवश्य रखा जाये, हिन्दुओं के विरूद्ध युद्ध में सभी प्रकार के वाहनों का उपयोग किया जाये ।

👉अक्टूबर 1946 से हिन्दू महिलाओं और लडकियों को, बलात्कार द्वारा शील हरण कर और उन्हें अपहृत कर मुसलमानी मजहब में धर्मान्तरित कर लेना चाहिए। हिन्दू संस्कृति को नष्ट कर देना चाहिए ।

👉मुस्लिम लीग के सभी कार्यकर्ताओं को हिन्दुओं का सामाजिक, आर्थिक तथा अन्य अनेक ढंग से बहिष्कार करते हुए उनके प्रति हर समय निर्दयी रहना चाहिए। किसी भी मुसलमान को हिन्दू की दुकान से कोई सामान क्रय नहीं करना चाहिए। सभी मुसलमान लीगियो को इन सभी निर्देशों का पालन करना चाहिए तथा 15 सितम्बर 1946 तक इनको कार्यान्वित कर देना चाहिएl 

सूत्र : न्यायमूर्ति जी.डी. खोसला कृत ‘स्टर्न रेकनिंग’

(साभार – जनसंघ टुडे)

अनुवाद – डॉ. सर्वेशचन्द्र शर्मा

साभार – राष्ट्रधर्म (अगस्त 2008)

प्रेषक : विनोद कुमार सर्वोदय 

सुदर्शनचक्रधारी श्री कृष्ण की आवश्यकता अनुभव करता देश

जन्माष्टमी पर्व की आप सभी के लिए बहुत-बहुत शुभकामनाएं। श्री कृष्ण जी भारतीय सनातन के पुरोधा योद्धा महापुरुष रहे हैं। जिन लोगों ने उन्हें केवल राधा के संग नचाने का कार्य किया है या “छलिया का भेष बनाकर श्याम चूड़ी बेचने आया” या गोपिकाओं के वस्त्र चुराने वाला दिखाया है या माखन चोर दिखाया है, उन्होंने उनके व्यक्तित्व के साथ अन्याय किया है। जिन लोगों ने उन्हें 16108 रानियों का पति बताया है, उन्होंने तो उनके व्यक्तित्व को और भी अधिक कलंकित किया है। हमें अपने उस कृष्ण की आराधना करनी चाहिए , जिन्होंने देशद्रोहियों आतंकवादियों समाजद्रोहियों का विनाश करने में तनिक भी देर नहीं लगाई ।
कल देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी ने 15 अगस्त के अवसर पर अर्थात 79 वें स्वाधीनता दिवस के अवसर पर राष्ट्र को संबोधित करते हुए लालकिले की प्राचीर से घोषणा की है कि अब सुदर्शन चक्र बनाने का समय आ गया है। प्रधानमंत्री की घोषणा का कोई ना कोई अर्थ है और अर्थ साफ है कि हमें सुदर्शन चक्रधारी कृष्ण की आवश्यकता है । वेद भक्त, देशभक्त, ईश, समाज भक्त, राष्ट्रभक्त योगेश्वर की आवश्यकता है।
आज हम अपने उसी कृष्ण की जयंती मना रहे हैं, जिसने आतंकवादियों देशद्रोहियों का विनाश करने के लिए बार-बार जन्म लेने की आवश्यकता का उद्घोष किया था। जिसको अपना राष्ट्र नायक स्वीकार करते हुए अनेक क्रांतिकारियों ने देश के क्रांतिकारी आंदोलन में भाग लेकर अपना बलिदान किया था और देश को आजाद कराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। हमें किसी अवतार की प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिए बल्कि अपने आप यह सोचना चाहिए कि हम राष्ट्र के लिए कृष्ण भक्त होकर कितना कुछ कर पा रहे हैं ? यही उनके प्रति सच्ची निष्ठा होगी। इसी को लेकर यह कविता है :-

गाओ गीत गीता के…

तर्ज : बहारो फूल बरसाओ…

गाओ गीत गीता के, हमें जीना सिखाती है।
योगी राज कृष्ण की हमारे पास थाती है।। टेक ।।

बनाती है ये ‘बिस्मिल’ को बनाती है ‘भगत सिंह’ को,
ये ‘सावरकर’ बनाती है , बनाती है ये ‘वल्लभ’ को।
बनाती क्रांतिकारी है, कहानी याद आती है…
गाओ गीत गीता के, हमें जीना सिखाती है…

जो मैदानों से भगते हों उन्हें यह रोकती रण में,
हिंसक और अनाचारी को गीता मारती रण में।
जो भी आततायी हैं, उनका नाश कराती है…
गाओ गीत गीता के, हमें जीना सिखाती है…

भक्ति और शक्ति का बनाकर मेल चलती है,
माला और भाला का बनाकर खेल चलती है।
‘अर्जुन’ जब भी थकता है, उसे संदेश सुनाती है….
गाओ गीत गीता के, हमें जीना सिखाती है…

देश की रक्षा हित जीना और देश के हित मरना,
हथियार पकड़ लो हाथों में मत दूर कहीं भगना।
‘राकेश’ ये मीरा भी और दुर्गा भी बनाती है…
गाओ गीत गीता के, हमें जीना सिखाती है…

डॉ राकेश कुमार आर्य

शहर, कुत्ते और हमारी ज़िम्मेदारी

“पॉटी उठाना शर्म नहीं, संस्कार है, शहर की सड़कों पर पॉटी नहीं, जिम्मेदारी चाहिए”

भारत में पालतू कुत्तों की संख्या 2023 में लगभग 3.2 करोड़ आंकी गई, और यह हर साल 12-15% की दर से बढ़ रही है। लेकिन साफ़-सफ़ाई और सार्वजनिक शिष्टाचार पर आधारित पालतू नीति केवल गिने-चुने शहरों में ही लागू है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, कुत्ते की पॉटी में मौजूद परजीवी और बैक्टीरिया से बच्चों और बुजुर्गों में गंभीर संक्रमण हो सकता है। विकसित देशों में पालतू की गंदगी न उठाने पर औसतन 50 से 500 डॉलर तक का जुर्माना होता है, जबकि भारत में यह प्रावधान कई जगह मौजूद होते हुए भी शायद ही लागू होता है।

पालतू जानवर केवल हमारे घर का हिस्सा नहीं, बल्कि हमारे शहर की संस्कृति और अनुशासन का भी आईना होते हैं। उनकी देखभाल में हमारी आदतें यह तय करती हैं कि हम कितने जिम्मेदार नागरिक हैं।

– डॉ प्रियंका सौरभ

पालतू कुत्ता आज केवल घरेलू साथी नहीं, बल्कि शहरी जीवन शैली का अहम हिस्सा बन चुका है। शहरों में सुबह और शाम की सैर करते हुए सैकड़ों कुत्ते और उनके मालिक फुटपाथ, पार्क और गलियों में दिखाई देते हैं। यह दृश्य अपने आप में सुखद हो सकता है, बशर्ते इसके साथ ज़िम्मेदारी और अनुशासन भी उतना ही साफ़ दिखे। दुर्भाग्य से भारत में कुत्ता-पालन की संस्कृति में यह पहलू अब भी अधूरा है।

कुत्ता पालना केवल उसकी देखभाल तक सीमित नहीं है, बल्कि उस गंदगी को भी संभालना है, जो वह सार्वजनिक जगहों पर छोड़ता है। विकसित देशों में कुत्ते के मालिक के लिए यह सामान्य बात है कि यदि उसका पालतू कहीं पॉटी करता है तो वह तुरंत पॉलीथिन बैग निकालकर उसे उठाता है और नज़दीकी डस्टबिन में डालता है। इसके लिए कई नगरपालिकाएं मुफ्त बैग और पॉटी डस्टबिन उपलब्ध कराती हैं। इसके विपरीत भारत में सार्वजनिक स्थानों पर कुत्तों की पॉटी साफ़ करना अब भी एक दुर्लभ दृश्य है। कई मालिक यह मान लेते हैं कि ज़मीन तो सबकी है, इस पर गंदगी छोड़ने से कोई फर्क नहीं पड़ता। यह सोच न केवल अस्वच्छता को बढ़ावा देती है, बल्कि बच्चों, बुजुर्गों और राहगीरों के लिए खतरा भी बनती है।

पालतू कुत्ते का प्रशिक्षण कितना भी अच्छा क्यों न हो, वह अंततः एक जानवर है और उसका व्यवहार परिस्थितियों से प्रभावित हो सकता है। इसी वजह से विकसित देशों में सार्वजनिक स्थानों पर पट्टा लगाना अनिवार्य है। वहां के लोग न केवल कानून के डर से, बल्कि सामाजिक आदत के कारण भी ऐसा करते हैं। भारत में यह नियम अक्सर नज़रअंदाज़ होता है। कई मालिक गर्व से कहते हैं—“हमारा कुत्ता किसी को नहीं काटता।” लेकिन किसी अनजान राहगीर के डरने, बच्चे के गिरने या साइकिल सवार के असंतुलित होने की स्थिति में दुर्घटना हो सकती है। पट्टा न लगाना केवल नियम का उल्लंघन नहीं, बल्कि दूसरों की सुरक्षा के प्रति लापरवाही भी है।

कई देशों में कुत्तों का ज़्यादा भौंकना असामान्य माना जाता है और इसे नियंत्रित करने के लिए प्रशिक्षण पर ज़ोर दिया जाता है। भौंकना केवल खतरे या असामान्य परिस्थिति में होना चाहिए, इसे शोर-प्रदूषण और असामाजिक व्यवहार के रूप में देखा जाता है। भारत में इसके उलट, कुत्तों का दिन-रात भौंकना सामान्य समझा जाता है। यह न केवल पालतू बल्कि आवारा कुत्तों में भी दिखता है। इससे बच्चों और बुजुर्गों की नींद, मानसिक शांति और सुरक्षा प्रभावित होती है, लेकिन इस पर शायद ही कोई चर्चा होती है।

विकसित देशों में कुत्ता काटने, पट्टा न लगाने या गंदगी न उठाने पर भारी जुर्माना और कानूनी कार्रवाई का प्रावधान है। वहां कानून का पालन केवल दंड के डर से नहीं, बल्कि सामाजिक दबाव से भी होता है—क्योंकि नियम तोड़ना शर्मनाक माना जाता है। भारत में भी कुछ नगर निगमों ने ऐसे नियम बनाए हैं, लेकिन उनका पालन बेहद ढीला है। जुर्माने के प्रावधान अक्सर कागज़ों में ही रह जाते हैं, और लोग इन्हें गंभीरता से नहीं लेते।

विदेशों में ‘सार्वजनिक’ का मतलब है—सबका और सबके लिए। भारत में अक्सर ‘सार्वजनिक’ का मतलब बन जाता है—किसी का नहीं। यही कारण है कि सार्वजनिक संपत्ति और जगहों की देखभाल को व्यक्तिगत जिम्मेदारी नहीं माना जाता। कुत्ता पालने के मामले में भी यही मानसिकता हावी है। पालतू को परिवार का हिस्सा मानने का दावा किया जाता है, लेकिन उसकी गंदगी, सुरक्षा और सामाजिक व्यवहार की जिम्मेदारी को लेकर ढिलाई बरती जाती है।

पालतू कुत्ते की पॉटी में कई प्रकार के बैक्टीरिया, परजीवी और रोगजनक तत्व हो सकते हैं, जो इंसानों के लिए हानिकारक हैं। सार्वजनिक जगहों पर इसे छोड़ना न केवल अस्वच्छता बल्कि स्वास्थ्य के लिए भी खतरा है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) की रिपोर्ट बताती है कि खुले में पालतू जानवरों की गंदगी से बच्चों में आंत संबंधी बीमारियों का खतरा कई गुना बढ़ जाता है। ऐसे में यह केवल एक सफ़ाई का मुद्दा नहीं, बल्कि सार्वजनिक स्वास्थ्य का सवाल भी है।

इस समस्या को हल करने के लिए व्यक्तिगत, सामाजिक और प्रशासनिक—तीनों स्तरों पर बदलाव ज़रूरी है। सबसे पहले, लोगों में यह समझ विकसित करनी होगी कि पालतू जानवर पालना केवल भावनात्मक जुड़ाव नहीं, बल्कि जिम्मेदारी भी है। स्कूलों और सामुदायिक कार्यक्रमों के माध्यम से बच्चों और वयस्कों को पालतू जानवरों के प्रति सही व्यवहार और सार्वजनिक शिष्टाचार सिखाया जा सकता है।

दूसरा, नगरपालिकाओं को अपनी भूमिका सक्रिय रूप से निभानी होगी। हर पार्क, फुटपाथ और सार्वजनिक स्थल पर पालतू पॉटी डस्टबिन और मुफ्त बैग की व्यवस्था करना आवश्यक है। यह न केवल सुविधा बढ़ाएगा, बल्कि लोगों को जिम्मेदार बनाएगा।

तीसरा, कानून का सख़्त पालन होना चाहिए। पट्टा न लगाने, पॉटी न उठाने या आक्रामक कुत्ते को खुला छोड़ने पर जुर्माना और कार्रवाई सुनिश्चित करनी होगी। नियमों का अस्तित्व तभी सार्थक है जब उनका पालन हो और उल्लंघन पर तुरंत कार्यवाही की जाए।

चौथा, केवल दंड ही नहीं, बल्कि अच्छे व्यवहार के लिए सार्वजनिक सराहना और प्रोत्साहन भी देना चाहिए। अगर कोई पालतू मालिक नियमों का पालन करता है, तो उसकी मिसाल पेश की जानी चाहिए। इससे सकारात्मक प्रेरणा मिलेगी और बदलाव तेज़ होगा।

अंत में, कुत्तों के प्रशिक्षण केंद्रों को बढ़ावा देना ज़रूरी है। एक प्रशिक्षित कुत्ता न केवल अपने मालिक के लिए बल्कि पूरे समाज के लिए सुरक्षित होता है। प्रशिक्षण में न केवल आदेश मानना बल्कि भौंकने की आदत और आक्रामक व्यवहार को नियंत्रित करना भी शामिल होना चाहिए।

शहर केवल इंसानों का नहीं, बल्कि उन सभी जीवों का भी है जो इसमें रहते हैं—चाहे वे पालतू हों या आवारा। पालतू कुत्ता पालना एक सुखद अनुभव है, लेकिन यह तभी संपूर्ण होता है जब हम उसकी जिम्मेदारियों को भी गंभीरता से निभाएं। सड़कें, पार्क और फुटपाथ सबके लिए सुरक्षित और साफ़ रहें, यह सुनिश्चित करना हम सबकी जिम्मेदारी है। इसका मतलब है कि पालतू की गंदगी उठाना, उसे पट्टा लगाना, उसके भौंकने और आक्रामकता को नियंत्रित करना और दूसरों की सुविधा का ध्यान रखना हमारी आदत में शामिल हो।

अगर हम सच में चाहते हैं कि हमारे शहर रहने लायक बनें, तो हमें यह मानना होगा—मुद्दा यह नहीं कि कुत्ता किसका है, मुद्दा यह है कि शहर किसका है। जब हम इस शहर को अपना मान लेंगे, तब हमारा कुत्ता भी इसका जिम्मेदार नागरिक बन जाएगा।

भारत की माटी का सौ सौ बार हम करते अभिनंदन

—विनय कुमार विनायक
वतन से प्यार करनेवाले शब्दकार को नमन!
वतन से प्यार करनेवाले भारतीय संस्कार को नमन!
वतन पर न्योछावर अमर दिलवर दिलदार को नमन!
हम रहें ना रहें वतन सलामत रहे
वतन पर मरने मिटने वाले विचार को नमन!
चंद्रशेखर आजाद को नमन!
भगत सिंह को श्रद्धा सुमन!
अमर सेनानी सुभाषचंद्र बोस की जोश को नमन!
हरिसिंह नलवा,जस्सासिंह की जवांदानी को नमन!
असफाक को नमन!
खुदा की नायाब कृति खुदीराम को नमन!
जिन्होंने कृष्ण गीता लेकर शहादत दी थी
रामप्रसाद बिस्मिल को नमन!
ऊधम सिंह के दमखम को नमन!
सुखदेव राजगुरु बटुकेश्वर को नमन!
वंदेमातरम! वंदेमातरम! वंदेमातरम!
मर जाएँ हम मिट जाएँ हम
इस मिट्टी में मिल जाए हमारा तन
फिर भी बोलेंगे हम
वंदेमातरम! वंदेमातरम! वंदेमातरम!
जय भारत जय भारती
हम उतारें तुम्हारी आरती
भारत की माटी को नमन!
झाँसी को नमन! काशी को नमन!
अमृतसर की स्वर्ण मिट्टी अकाल तख्त को नमन!
गुरु अर्जुनदेव तपे जहाँ उस तबा के रेत को नमन!
गुरु तेगबहादुर के शीश गिरे जहाँ उस शीशगंज को नमन!
गुरु गोविंद के दो लाल चिन गए उस दीवार को नमन!
आनंदपुर साहिब चमकौर युद्ध भूमि को नमन!
ननकाना साहिब लाहौर की पुण्य भूमि को नमन!
मेरठ को नमन! अल्फ्रेड पार्क को नमन!
भागलपुर के तिलका मांझी चौक को नमन!
अंडमान के कालापानी सेलुलर जेल को नमन!
जलियांवाला बाग के रक्त सने धूल कण को नमन!
भारत के जर्रे-जर्रे कण-कण को कोटिशः नमन!
भारत से उत्तम और न्यारा नहीं कोई और वतन!
भारत की माटी है चंदन!
भारत सोने की चिड़िया ज्यों इंद्र का नंदन कानन!
भारत माँ वीर प्रसूता सदा सुहागन!
भारत की माटी का करते हम पूजन और वंदन
भारत की मिट्टी से हम
भारत माटी का हमारा तन
भारत की माटी से हमारा पुश्त दर पुश्त बंधन!
सौ-सौ बार लेंगे हम जनम, सौ-सौ बार मरण!
भारत की माटी का
सौ-सौ बार हम करते अभिनंदन
वंदेमातरम! वंदेमातरम! भारत वतन!
भारत माता के प्रति अतिशय विनम्र!
–विनय कुमार विनायक

श्रीकृष्ण हैं शाश्वत एवं प्रभावी सृष्टि संचालक

श्रीकृष्ण के जन्मोत्सव-जन्माष्टमी- 16 अगस्त 2025 पर विशेष
-ललित गर्ग –

भगवान श्रीकृष्ण भारतीय संस्कृति के ऐसे अद्वितीय महापुरुष हैं, जिनके व्यक्तित्व में आध्यात्मिक ऊँचाई, लोकनायकत्व, व्यावहारिक बुद्धिमत्ता और कुशल प्रबंधन का अद्भुत संगम दिखाई देता है। वे केवल एक धार्मिक देवता नहीं, बल्कि सृष्टि के महाप्रबंधक, समय के श्रेष्ठ रणनीतिकार और जीवन के महान शिक्षक-संचालक भी हैं। उनका सम्पूर्ण जीवन इस बात का प्रमाण है कि सही प्रबंधन के बिना न तो राष्ट्र का संचालन संभव है, न ही व्यक्ति का उत्थान। उन्होंने यह सिखाया कि प्रबंधन केवल योजनाओं और नीतियों का नाम नहीं, बल्कि भावनाओं, विवेक, नीति और समय के सामंजस्य का विज्ञान है। वे प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों की संयोजना में सचेतन बने रहे। श्रीकृष्ण के आदर्शों से ही देश एवं दुनिया में शांति स्थापित करने का मार्ग प्रशस्त होगा। श्रीकृष्ण के प्रबंधन रहस्य को समझना होगा कि उन्होंने किस प्रकार आदर्श राजनीति, व्यावहारिक लोकतंत्र, सामाजिक समरसता, एकात्म मानववाद और अनुशासित सैन्य एवं युद्ध संचालन किया। राष्ट्र के सर्वांगीण विकास के लिए किस तरह की नीति और नियत चाहिए- इन सब प्रश्नों के उत्तर श्रीकृष्ण के प्रभावी प्रबंधन सूत्रों से मिलते हैं, आधुनिक शासक-नायक यदि श्रीकृष्ण के मैनेजमेंट को प्रेरणा का माध्यम बनाये तो दुनिया में युद्ध, आतंक एवं अराजकता की स्थितियां समाप्त हो जाये एवं एक आदर्श समाज-निर्माण को आकार दिया जा सके।
श्रीकृष्ण का व्यक्तित्व एवं कृतित्व नेतृत्व एवं प्रबंधन की समस्त विशेषताओं को समेटे बहुआयामी एवं बहुरंगी है, यानी राजनीतिक कौशल, बुद्धिमत्ता, चातुर्य, युद्धनीति, आकर्षण, प्रेमभाव, गुरुत्व, सुख, दुख और न जाने और क्या? एक देश-भक्त के लिए श्रीकृष्ण भगवान तो हैं ही, साथ में वे जीवन जीने की कला एवं सफल नागरिकता भी सिखाते है। उन्होंने अपने व्यक्तित्व की विविध विशेषताओं से भारतीय-संस्कृति में उच्च महाप्रबंधक का पद प्राप्त किया। एक ओर वे राजनीति के ज्ञाता, तो दूसरी ओर दर्शन के प्रकांड पंडित थे। धार्मिक, राजनैतिक एवं सामाजिक जगत् में भी नेतृत्व करते हुए ज्ञान-कर्म-भक्ति का समन्वयवादी धर्म उन्होंने प्रवर्तित किया। अपनी योग्यताओं के आधार पर वे युगपुरुष थे, जो आगे चलकर युवावतार के रूप में स्वीकृत हुए। उन्हें हम एक महान् क्रांतिकारी नायक के रूप में स्मरण करते हैं। वे दार्शनिक, चिंतक, गीता के माध्यम से कर्म और सांख्य योग के संदेशवाहक और महाभारत युद्ध के नीति निर्देशक थे। हमारे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी में भी हम इन्हीं प्रबंधकीय विशेषताओं का दर्शन करते है, क्योंकि श्रीकृष्ण के जीवन-आदर्शों को आत्मसात करते हुए वे एक कुुशल प्रबंधक के रूप में सशक्त भारत-नया भारत निर्मित कर रहे हैं।
श्रीकृष्ण ने द्वारका के शासक होते हुए भी कभी अपने को ‘राजा’ कहलाने में रुचि नहीं दिखाई। वे ब्रज के नंदलाल थे, ग्वालों के सखा, गोपियों के प्रियतम, और साथ ही धर्म के रक्षक भी। उनका जीवन दर्शाता है कि एक सच्चा नेता पद और सत्ता से नहीं, अपने कर्म और दृष्टिकोण से पहचाना जाता है। उन्होंने प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों के बीच अद्भुत संतुलन साधा-एक ओर वे महाभारत जैसे महायुद्ध के नीति निर्देशक थे, तो दूसरी ओर रास की मधुर लीलाओं में प्रेम और आनंद के स्वर बिखेरते थे। उनका प्रबंधन कौशल इस बात में स्पष्ट झलकता है कि अत्याचारी कंस को पराजित करने से पहले उन्होंने उसकी आर्थिक शक्ति को कमजोर किया। यह आधुनिक रणनीति की दृष्टि से भी सर्वाेत्तम तरीका था, पहले प्रतिद्वंद्वी की संसाधन शक्ति को समाप्त करो, फिर निर्णायक प्रहार करो। यही व्यावहारिक सोच उन्हें आदर्श मैनेजमेंट गुरु बनाती है। महाभारत के युद्ध में वे स्वयं अस्त्र-शस्त्र नहीं उठाते, लेकिन रथसारथी बनकर अर्जुन के मानसिक संकट को दूर करते हैं। यह इस बात का प्रतीक है कि एक श्रेष्ठ प्रबंधक स्वयं अग्रिम पंक्ति में खड़े होकर मार्गदर्शन देता है, लेकिन अपनी टीम को ही सफलता का श्रेय देता है।
गीता का उपदेश वास्तव में प्रबंधन का अमरसूक्त है, कर्तव्य के साथ कर्म में निष्ठा, परिणाम से अनासक्ति, समय पर निर्णय लेने की क्षमता और परिस्थितियों के अनुरूप रणनीति बदलने की लचीलापन। उन्होंने सिखाया कि असफलता का भय और परिणाम की चिंता व्यक्ति को कमजोर करती है, जबकि कर्तव्यपरायणता और आत्मसंयम सफलता की गारंटी है। श्रीकृष्ण की दृष्टि में इच्छाओं का त्याग, मन की स्थिरता, और विवेकपूर्ण कार्य-ये जीवन प्रबंधन के मूल सूत्र हैं। उनके व्यक्तित्व में असंख्य भूमिकाएं समाहित थीं, एक ओर वे सुदामा के लिए अद्वितीय मित्र हैं, तो दूसरी ओर दुष्ट शिशुपाल के वध में धर्म के कठोर संरक्षक। वे नंदगांव में माखन चुराने वाले नटखट बालक हैं, लेकिन वही आगे चलकर कुरुक्षेत्र में धर्मयुद्ध के नीति निर्माता भी हैं। यही विरोधाभासों का संतुलन उन्हें अद्वितीय बनाता है। उन्होंने दिखाया कि कब करुणामय होना है और कब कठोर, कब प्रेम करना है और कब दुष्टता का दमन करना है, यह निर्णय केवल वही कर सकता है जो परिस्थितियों को भलीभांति समझता हो और समय का सदुपयोग जानता हो। श्रीकृष्ण एक आदर्श चरित्र है जो अर्जुन की मानसिक व्यथा का निदान करते समय एक मनोवैज्ञानिक, कंस जैसे असुर का संहार करते हुए एक धर्मावतार, स्वार्थ पोषित राजनीति का प्रतिकार करते हुए एक आदर्श राजनीतिज्ञ, विश्व मोहिनी बंसी बजैया के रूप में सर्वश्रेष्ठ संगीतज्ञ, बृजवासियों के समक्ष प्रेमावतार, सुदामा के समक्ष एक आदर्श मित्र, सुदर्शन चक्रधारी के रूप में एक योद्धा व सामाजिक क्रान्ति के प्रणेता हैं। उनके जीवन की छोटी से छोटी घटना से यह सिद्ध होता है कि वे सर्वैश्वर्य सम्पन्न थे। धर्म की साक्षात् मूर्ति थे। कुशल राजनीतिज्ञ थे। सृष्टि संचालक के रूप में एक महाप्रबंधक थे।
श्रीकृष्ण की समय-नियोजन क्षमता अद्भुत थी। 64 दिन में 64 कलाओं का ज्ञान प्राप्त करना इस बात का प्रमाण है कि जीवन में सीखने की गति और बहुआयामी दक्षता ही नेतृत्व की असली पहचान है। वे संगीत, नृत्य, युद्धकला, राजनीति, कूटनीति और दर्शन-हर क्षेत्र में पारंगत थे। एक श्रेष्ठ प्रबंधक की तरह उन्होंने न केवल अपनी क्षमताओं का विकास किया, बल्कि अपने समय और संसाधनों का सर्वाेत्तम उपयोग भी किया। श्रीकृष्ण की राजनीतिक दृष्टि इतनी सूक्ष्म थी कि वे राजसत्ता को धर्मसत्ता के अधीन रखना चाहते थे। उनके जीवन में राष्ट्रहित सर्वाेपरि था। उन्होंने विषमताओं को समाप्त करने, शत्रुता मिटाने और समाज में सामंजस्य स्थापित करने के लिए हर संभव प्रयास किया। उनके लिए सत्ता कोई व्यक्तिगत लाभ का साधन नहीं, बल्कि लोककल्याण का माध्यम थी। आवश्यकता पड़ने पर उन्होंने सत्ता का त्याग करने में भी संकोच नहीं किया। उनका ग्रामीण संस्कृति के प्रति प्रेम भी उल्लेखनीय है। माखनचोर की उनकी छवि केवल बाललीला नहीं, बल्कि उस समय की निरंकुश कर-व्यवस्था का प्रतिकार और ग्रामीण स्वावलंबन का समर्थन भी थी। उन्होंने गायों, ग्वालों और उनके उत्पादों को सम्मान और संरक्षण दिया, जिससे गांवों की आत्मनिर्भरता बनी रहे।
आज जब हम प्रबंधन की बात करते हैं तो यह केवल कॉर्पाेरेट, व्यापार या राजनीति तक सीमित नहीं है। यह जीवन की हर परिस्थिति में लागू होता है, चाहे वह व्यक्तिगत विकास हो, सामाजिक नेतृत्व हो या राष्ट्रीय पुनर्निर्माण। श्रीकृष्ण के जीवन से हम सीख सकते हैं कि स्थिर मन, समय पर निर्णय, संसाधनों का सही उपयोग, और नैतिकता का पालन-ये सभी किसी भी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए अनिवार्य हैं। श्रीकृष्ण का सम्पूर्ण जीवन सांस्कृतिक राष्ट्रवाद, धर्मपालन, और समय-सम्बद्ध रणनीति का जीवंत उदाहरण है। उनके सिद्धांतों को अपनाकर ही भारत आत्मनिर्भर, शक्तिशाली और सांस्कृतिक दृष्टि से संपन्न बन सकता है। जैसे उन्होंने कहा-‘यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति’ जब भी अन्याय बढ़ेगा, तब एक श्रीकृष्ण का अवतरण होगा, और वह न केवल धर्म की पुनर्स्थापना करेगा बल्कि प्रबंधन की उस कला को भी जीवित रखेगा, जो व्यक्ति, समाज और राष्ट्र तीनों को संतुलित रूप से आगे बढ़ाती है। श्रीकृष्ण के जन्मोत्सव-जन्माष्टमी पर आज भारत का निर्माण उनकी शिक्षाओं, जीवन-आदर्शों, प्रबंधन-कौशल एवं सिद्धान्तों पर करने की अपेक्षा है, तभी हिन्दू सशक्त होंगे, तभी भारत सही अर्थों में हिन्दू राष्ट्र बन सकेगा।

मतों की हेराफेरी के जनक और उनके परनाती की सनक

                              मनोज ज्वाला

      कांग्रेस के नेतागण जब चुनाव हार जाते हैं, या हारने की सम्भावना
देख लेते हैं, तब वे ईवीएम में गडबडी का राग अलापने लगते हैं । हॉलाकि
चुनावी मतदान के लिए ईवीएम का इस्तेमाल ही हो रहा है- पहले की तत्सम्बन्धी व्यवस्था में होती रही गडबडियों को रोकने के लिए । ‘ईवीएम’ की विश्वसनीयता पर सवाल उठाते रहने वाले कांग्रेसी नेतागण अब इन दिनों मतदाता-सूची में हेराफेरी का एक नया शोर मचा रहे हैं । वे कहीं यह कह रहे हैं कि चुनाव आयोग द्वारा निर्मित सूची में  फर्जी मतदाताओं के नाम दर्ज हैं, तो कहीं यह कि भारतीय जनता पार्टी मतों की चोरी कर के चुनावी जीत हासिल की है और तब सत्तासीन हुई है । वे कर्नाटक में मतदाता-सूची के शुद्धिकरण की मांग कर रहे हैं, तो बिहार में आसन्न चुनाव से पहले हो रहे उक्त शुद्धिकरण का विरोध करते रहे हैं और अब जब चुनाव आयोग ने वहां के ६५ लाख फर्जी मतदाओं के नामों को सूची से खारिज कर दिया है, तब वे उन्हें वापस दर्ज करने-कराने के लिए पटना की संडकों से ले कर दिल्ली की संसद तक हंगामा बरपा रहे हैं ।

       ऐसे तमाम कांग्रेसी नेताओं को यह जान लेना चाहिए कि चुनावी मतों की हेरा-फेरी और प्रशासनिक धाक से मतों की चोरी के व्याकरण का आविष्कार कांग्रेस के द्वारा ही किया गया है, जिसके जनक हमारे ऐतिहासिक चाचाजी ही हैं  । लोकसभा के प्रथम चुनाव (१९५२ में)  ही इस आविष्कार का सफल परीक्षण कर हमारे चाचाजी ने कांग्रेस को चुनाव जीतने का यह मंत्र दे दिया था- भविष्य में इसका प्रयोग करते रहने के लिए । जी हां, हमारे चाचाजी, अर्थात वर्तमान कांग्रेस के सबसे नामदार युवा नेता के  ‘परनाना’ जी ! जिन्हें सारी दुनिया जवाहरलाल नेहरु के नाम से जानती है । आज उन्हीं का  ‘परनाती’  उपरोक्त हंगामे का नेतृत्व कर रहा है ।   यह दावा मैं ऐसे ही नहीं कर रहा हूं , बल्कि उन्हीं चाचाजी के जमाने के उस प्रशासनिक अधिकारी की पुस्तक से कर रहा हूं जो उस चुनावी हेरा-फेरी में एक माध्यम बने हुए थे । उन दिनों उतर प्रदेश की सरकार के सूचना-निदेशक रहे शम्भूनाथ टण्डन ने अपने एक लेख में यह खुलासा करते हुए लिखा है कि “चुनाव में जीत-हार की हेरा-फेरी के लिए मत-पत्रों की अदली-बदली एवं ‘बूथ कैप्चरिंग’ जैसे हथकण्डों के मास्टरमाइण्ड थे- जवाहरलाल नेहरु ।” उनके लेख का पूरा शीर्षक है- “जब विशन सेठ ने मौलाना आजाद को धूल चटाई थी, भारत के इतिहास की एक अनजान घटना ।’’ अखिल भारतीय खत्री महासभा द्वारा हिन्दू महासभाई नेता केशनलाल सेठ के सम्मान में प्रकाशित स्मृति ग्रंथ में संलित है उनका यह लेख । 

     बकौल शम्भूनाथ टण्डन- “वर्ष १९५२ में हुए प्रथम आम चुनाव में कांग्रेस के एक दर्जन दिग्गज प्रत्याशी चुनाव हार गये थे,  जिन्हें नेहरु ने प्रशासन पर दबाव दे कर जबरिया जितवाया था । उनमें एक तो हमारे वो चाचा जी स्वयं भी थे ।” दिग्गज कांग्रेसियों की हार का कारण यह था कि देश-विभाजन में कांग्रेस की भूमिका और उससे उत्त्पन्न हालातों से देश भर में कांग्रेस-नेतृत्व  के विरुद्ध जनाक्रोश उबल रहा था ।  तब हिन्दू महासभा  देश-विभाजन के लिए नेहरु व कांग्रेस को दोषी ठहराते हुए देश भर में उनके विरुद्ध वातावरण बना रखी थी और उस लोकसभा-चुनाव में प्रायः हर दिग्गज कांग्रेसी के खिलाफ अपने दमदार प्रत्याशी खडा किये हुए थी । उसने फूलपुर क्षेत्र में जवाहर लाल नेहरु के खिलाफ जाने-माने प्रखर संत
प्रभुदत्त ब्रह्मचारी को खडा किया था, तो रामपुर में मौलाना आजाद के
विरुद्ध वहां के लोकप्रिय नेता विशनचन्द सेठ को । कांग्रेस के बडे नेताओं
को सर्वत्र कडी चुनौती मिल रही थी । किन्तु अन्तरीम सरकार की कमान चूँकि
नेहरू के हाथ में ही थी, इस कारण चाचाजी ने कांग्रेस-प्रत्याशियों की
जीत सुनिश्चित करने के लिए शासन-तंत्र का जम कर दुरुपयोग किया । मतदान के
दौरान शासन-तंत्र ने लोकतंत्र के लिए जो किया सो तो किया ही ; असली खेल
तो हमारे चाचाजी मतगणना के दिन खेले । शासनतंत्र को यह पाठ पहले ही पढा
दिया गया था कि लोकतंत्र की सलामती के लिए नेहरु को हर हाल में सदा ही
अजेय बनाये रखना है ; सो मतों की गिनती के दौरान प्रभुदत्त ब्रह्मचारी
की जीत जब सुनिश्चित सी दिखने लगी, तब प्रशासनिक अधिकारियों ने अन्तिम
चक्र में उनकी पेटी से २००० मतपत्रों को निकाल कर नेहरुजी की पेटी में
मिला कर गिनती पूरी कर दी । इस प्रकार हमारे चाचाजी बहुमत से चुनाव जीत
गए ।

       मालूम हो कि उन दिनों हर प्रत्याशी के लिए अलग-अलग मतपेटियां ही
हुआ करती थीं , प्रत्याशी या दल के नाम किसी चिन्ह पर मुहर नहीं लगाई
जाती थी, बल्कि मतपत्र को अपने पसंदिदा प्रत्याशी की पेटी में डाल देने
का विधान था । इस कारण मतपत्रों की हेरा-फेरी बहुत आसानी से हो सकती थी ।
अपने लेख में टण्डन साहब लिखते हैं- “सेठ विशनचन्द्र के पक्ष में
भारी मतदान हुआ था और मतगणना के पश्चात् प्रशासन ने बाक़ायदा
लाउडस्पीकरों से सेठ विशनचन्द्र को 10000 वोटों से विजयी घोषित कर दिया
था । उस जीत की ख़ुशी में हिन्दू महासभा के लोग विशाल विजय-जुलूस भी
निकाल चुके थे । किन्तु जैसे ही यह समाचार वायरलैस के द्वारा लखनऊ होते
हुए दिल्ली पहुँचा कि मौलाना अबुल आज़ाद चुनाव हार गए सुनते ही चाचाजी
तिलमिला उठे । उन्होंने तुरन्त उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमन्त्री
पं. गोविन्द वल्लभ पन्त को चेतावनी दे डाली कि मैं मौलाना की हार किसी भी
कीमत पर बर्दाश्त नहीं कर सकताऔर अगर मौलाना को आप जिता नहीं सकतेतो शाम तक मुख्यमंत्री-पद से इस्तीफा दे दीजिए । फिर क्या था ! पंतजी ने
आनन फानन में मुझे (सूचना निदेशक- शम्भूनाथ टण्डन को) बुलाया और रामपुर
के जिलाधिकारी से सम्पर्क कर उसे किसी भी कीमत पर मौलाना आजाद को जिताने
का आदेश देने को कहा”  बकौल टण्डनउन्होंने पंतजी से जब यह बताया कि
ऐसा करने से देश में दंगे भी भड़क सकते हैंतो पन्तजी ने कहा कि देश
जाये भाड़ मेंनेहरू जी का हुक़्म है” । बकौल ट्ण्डन- “फिर तो मौलाना को जिताने के लिए रामपुर के जिलाधिकरी निर्देशित कर दिए गए । तदोपरांत रामपुर का कोतवाल जीत की बधाइयां स्वीकार कर रहे सेठ विशनचन्द्र के पास गया और कहा कि आपको
डीएम० साहब बुला रहे हैं । सेठ जी जब जिलाधिकारी से मिले तब उसने कहा कि
मतगणना अभी-अभी दुबारा होने वाली है । हिन्दू महासभा के उस उमीदवार ने
इसका कड़ा विरोध किया और कहा कि मेरे सभी कार्यकर्ता विजय-जुलूस निकाले
हुए हैंतो ऐसे में आप मेरे मतगणना-एजेंट के बिना दुबारा मतगणना कैसे कर
सकते हैं लेकिन उनकी एक नहीं सुनी गई । जिलाधिकारी ने सेठ जी के सामने
ही उनकी मत-पेटी से हजारों मत-पत्र निकाल कर मौलाना की मत-पेटी में
मिलाते हुए साफ़-साफ़ कह दिया कि सेठ जी ! हम अपनी नौकरी बचाने के लिए
आपकी बलि ले रहे हैंक्योंकि यह नेहरूजी का आदेश है । असहाय बने सेठ जी
देखते रह गए और जिलाधिकारी ने पूर्व घोषित चुनाव-परिणाम को रद्द करते
हुए पुनर्घोषित चुनाव-परिणाम के आधार पर हिन्दू महासभा के उस प्रत्याशी
को चुनाव हरा कर कांग्रेस-प्रत्याशी मौलाना अब्दुल कलाम को विजयी घोषित
कर दिया”।

    तो इस तरह से हमारे चाचाजी अर्थात वर्तमान कांग्रेस के सदाबहार युवा नेता के परनाना जी   ने कांग्रेस को चुनावी जीत-हार कामंत्र प्रदान करते हुए लोकतंत्र की स्थापना का श्रेय भी बटोर लिया । बाद में विशनचन्द सेठ सन १९५७ व सन १९६२ में दो-दो बार हिन्दू महासभा से निर्वाचित हो कर सांसद बने, किन्तु प्रथम चुनाव में तो उनका सारा श्रम नेहरु-कांग्रेस से लोकतंत्र का पाठ पढने में ही व्यर्थ हो गया । अब उन्हीं नेहरु की विरासत को ढो रही वर्तमान कांग्रेस का कथित युवा नेता चुनाव
की  ‘ईवीएम-प्रणाली’ में गडबडी और ‘मतदाता-सूची में हेराफेरी’ का शोर मचा रहा है,  तो यह उसकी सनक मात्र है,  जिसे  ‘खिसियानी बिल्ली खम्भा नोचे’  के सिवाय और कुछ नहीं कहा जा सकता ।   

• मनोज ज्वाला

परम्परागत संस्कृत अध्ययन की अनिवार्यता ही लौटाएगी देववाणी का पुरातन गौरव

 परम्परागत अध्ययन से ही संस्कृत का लौटेगा गौरव

सुशील कुमार ‘नवीन’

चाणक्य नीति का एक प्रसिद्ध श्लोक है जो आज के समय में देववाणी संस्कृत पर सटीक बैठता है।

 कार्यार्थी भजते लोकं यावत्कार्य  सिद्धति

 उत्तीर्णे  परे पारे नौकायां किं प्रयोजनम्।

लोग तब तक दूसरों की प्रशंसा करते हैं जब तक उनका काम नहीं निकल जाता। एक बार जब उनका काम हो जाता है, तो वे उन लोगों को भूल जाते हैं, जिन्होंने उनकी मदद की थी। यह एक सामान्य स्वभाव है, नदी पार के बाद नौका की कोई पूछ नहीं होती है। संस्कृत के साथ भी कुछ ऐसा ही है। कोई भी ऐसा क्षेत्र नहीं है जिसमें संस्कृत से कुछ न लिया गया हो। संस्कृत को दिया किसी ने भी नहीं।

    संस्कृत देव भाषा है। संस्कृति का आधार है। वेदों, उपनिषदों, और पुराणों जैसे महत्वपूर्ण ग्रंथों की जननी है। भारतीय संस्कृति, दर्शन और साहित्य का भंडार है। आदि वाक्यों से पिछले एक सप्ताह संस्कृत का खूब गुणगान किया गया। विभिन्न मंत्रियों, क्रिकेटरों ,बॉलीवुड यहां तक प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति आदि तक ने संस्कृत की महत्ता को वर्तमान समय के लिए आवश्यक बताते हुए इसे आत्मसात करने का आह्वान किया। पर वास्तव में क्या आज संस्कृत का हमारे जीवन में वह स्थान है जिसकी वो बाकायदा अधिकार है। सवाल है कि कहने भर से क्या संस्कृत अपने आपको गौरवान्वित महसूस कर लेगी। जवाब होगा, नहीं। जिस भाषा का गौरवमयी स्वर्णिम अतीत रहा हो, आज वह जिस गति से धरातल की ओर बढ़ रही है। वह भाषा विशेषज्ञों के साथ-साथ आमजन के लिए भी कम चिंता का विषय नहीं है। संस्कृत की वर्तमान स्थिति का जिम्मेदार कौन है, इस पर चिंतन समय की जरूरत है।

    भारत में प्रतिवर्ष श्रावणी पूर्णिमा के पावन अवसर को संस्कृत दिवस के रूप में मनाया जाता है। इससे पहले के तीन दिन और बाद के तीन दिनों को मिलाकर संस्कृत सप्ताह का नाम दिया गया है। इस बार यह आयोजन 6 अगस्त से 12 अगस्त तक रहा। 9 अगस्त को विश्व संस्कृत दिवस भी मनाया गया। यह दिन संस्कृत भाषा के महत्व को बढ़ावा देने के लिए समर्पित है, जिसे भारत की सबसे पुरानी भाषाओं में से एक माना जाता है।

     श्रावणी पूर्णिमा अर्थात् रक्षाबन्धन ऋषियों के स्मरण तथा पूजा और समर्पण का पर्व माना गया है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि ऋषि ही संस्कृत साहित्य के आदि स्रोत हैं इसलिए श्रावणी पूर्णिमा को ऋषि पर्व और संस्कृत दिवस के रूप में मनाया जाना सार्थक भी है। इस अवसर पर हर वर्ष की तरह राज्य तथा जिला स्तरों पर संस्कृत दिवस आयोजित गए। संस्कृत कवि सम्मेलन, लेखक गोष्ठी, भाषण तथा श्लोकोच्चारण प्रतियोगिताओं आदि का भी व्यापक स्तर पर आयोजन हुआ।

   ध्यान देने योग्य बात यह है कि क्या संस्कृत सप्ताह मात्र संस्कृत संस्थानों और संगठनों का सामान्य कार्यक्रम होकर ही होकर रहना चाहिए? क्या संस्कृत के प्रति हमारी जिम्मेदारी नहीं है ? आज जब बात संस्कार की हो, संस्कृति की हो तो क्या संस्कृत को नजर अंदाज कर सकते हैं। संस्कृत सभी की है और सभी को संस्कृत सीखना या संस्कृत के लिये कार्य करना आवश्यक है।

संस्कृत की जो वर्तमान में स्थिति है उसके जिम्मेदार राजनेताओं के साथ-साथ हम सब संस्कृत की रोटी खाने वाले भी हैं। हमने सिर्फ अपने समय के बारे में सोचा है। जैसा है, जो है बस उसी को सिरोधार्य कर संस्कृत सेवा की इतिश्री कर ली। जो संस्कृत विद्वान है उन्हें अपनी विद्वता पर इतराने से फुर्सत नहीं। जो सामान्य है उन्हें इससे आगे बढ़ना नहीं। यही वजह है कि संस्कृत समय के साथ अपने आपको बरकरार नहीं रख पा रही।

   एक समय था जब संस्कृत की रोजगार प्रतिशतता सौ फीसदी थी। गुरुकुल, संस्कृत महाविद्यालयों में दाखिलों के लिए होड़ बनी रहती थी। आज हालत यह है कि दाखिलों के अभाव में गुरुकुल बंद होते जा रहे हैं। जो शेष है या तो उन्होंने समय के साथ आधुनिकता का समावेश कर लिया है या फिर कर्मकांड ज्योतिष प्रशिक्षण तक अपने आपको सीमित कर लिया है। जब सामान्य संस्कृत की पढ़ाई से ही शिक्षक, व्याख्याता आदि की नौकरी प्राप्त होने की योग्यता प्राप्त हो रही है तो क्यों फिर तपस्वियों जैसे रहकर विशारद, शास्त्री, आचार्य, विद्यावारिधि, विद्यावाचास्पति की उपाधियां प्राप्त कर जीवन के कीमती 10 वर्ष खराब करें। सामान्य व्याकरण से काम चलता हो तो क्यों अष्टाध्यायी, महाभाष्य, कौमुदी त्रय लघु सिद्धांत,मध्य सिद्धांत, वैयाकरण सिद्धांत पढ़कर सोशल मीडिया पर व्यतीत होने वाला समय क्यों गंवाएं। महाकाव्य रामायण,  महाभारत, भगवतगीता, मेघदूत, कुमारसंभव, कादंबरी, काव्य शास्त्र, अलंकार शास्त्र, चरक संहिता सरीखे बहुमूल्य ग्रन्थ के हिंदी सार से काम चलता हो तो क्यों संस्कृत के गूढ़ अर्थों के लिए अमरकोश, निरुक्त, अभिधानचिंतामणि, शब्दकल्पद्रुम् ,वाचस्पत्यम्, जैसे ग्रंथों से माथापच्ची की जाए।

  ऐसी स्थिति में संस्कृत को फिर से गौरवान्वित करना है तो इसके पठन-पाठन, अध्ययन-अध्यापन में परंपरागत शिक्षण, पाठ्यक्रम को फिर से अपनाना होगा। सामान्य पाठ्यक्रम की अपेक्षा रोजगारों के अवसरों में परम्परागत संस्कृत पढ़ने की अनिवार्यता को लागू करना होगा। अन्यथा शास्त्री, आचार्य, विद्यावारिधि, विद्यावाचास्पति जैसी उपाधियां, स्नातक, परास्नातक, पीएचडी, डी.लिट में हो गुम होकर रह जाएंगी। संस्कृत के प्रति रोजगारों में परम्परागत संस्कृत पठन की अनिवार्यता बढ़ेगी तो प्राचीन गुरुकुलीय पद्धति को भी संबल मिलेगा। गुरुकुल लौटेंगे तो प्राचीन संस्कृति, संस्कार बचे रहेंगे, जो आज के समय के लिए बहुत ही आवश्यक है। प्राचीन ग्रन्थ हितोपदेश की यह सूक्ति इस बात को और दृढ़ करेगी यही उम्मीद है –

अंगीकृतं सुकृतिनः परिपालयन्ति

अर्थ है कि सज्जन व्यक्ति जिस बात को स्वीकार कर लेते हैं, उसका पालन करते हैं, या पुण्यात्मा जिस बात को स्वीकार करते हैं, उसे निभाते हैं।

हवा-पानी की आज़ादी के बिना आज़ादी अधूरी

– ललित गर्ग –

देश एवं दुनिया के सामने स्वच्छ जल एवं बढ़ते प्रदूषण की समस्या गंभीर से गंभीरतर होती जा रही है। शुद्ध हवा एवं पीने के स्वच्छ जल की निरन्तर घटती मात्रा को लेकर बड़े खतरे खड़े हैं। धरती पर जीवन के लिये जल एवं हवा सबसे जरूरी वस्तु है, जल एवं हवा है तो जीवन है। जल एवं हवा ही किसी भी प्रकार के जीवन और उसके अस्तित्व को संभव बनाता है। जीवन के तीन आधार तत्व हैं-हवा, पानी और धरती है। इनकी संरक्षा न केवल हमारी अस्तित्व-निर्भरता से जुड़ी है, बल्कि मानवता की नैतिक जिम्मेदारी भी है। आज का युग, जिस तेज़ी से विकसित हो रहा है, उसी भागदौड़ में हवा और पानी को परम स्वाधीनता से वंचित कर रहा है। रूस-यूक्रेन युद्ध, दिल्ली का उच्च प्रदूषण सूचकांक, अमेरिका के जंगलों की धुएं से गंदली हवा, बढ़ता वाहन प्रदूषण-ये सब संकेत देते हैं कि हवा से आज़ादी मतलब ‘स्वस्थ हवा’ पाना है। हमारे “आज़ादी” को नया अर्थ चाहिए तो यह प्राकृतिक संसाधनों  यानी हवा एवं पानी की आज़ादी पर भी निर्भर है, जो मानव व पर्यावरण-जगत दोनों के लिए जीवनदायिनी है। स्वतंत्रता का अर्थ केवल राजनीतिक बंधनों से मुक्ति नहीं है, बल्कि जीवन के हर पहलू में सुरक्षित, स्वस्थ और सम्मानजनक अस्तित्व का अधिकार है। 78वें स्वतंत्रता दिवस पर जब हम आज़ादी का जश्न मना रहे हैं, तब यह सवाल भी उठाना जरूरी है कि क्या हमें हवा और पानी की सच्ची आज़ादी मिली है?
आज़ादी केवल तिथि नहीं, एक निरंतर संघर्ष है। यह सिर्फ़ झंडा फहराने का अधिकार नहीं, बल्कि हर नागरिक को मूलभूत सुविधाएं, समान अवसर और सम्मान देने की जिम्मेदारी है। हवा, पानी और धरती- इनके बिना जीवन संभव नहीं। पर दुर्भाग्य से आज इन मूलभूत संसाधनों पर गहरा संकट है। स्वच्छ हवा में सांस लेना और शुद्ध पानी पीना अब विलासिता जैसी चीज़ बनती जा रही है। ‘हवा-पानी की आज़ादी’ का मतलब है कि हर व्यक्ति को स्वच्छ हवा और शुद्ध पानी तक सहज पहुंच हो। यह केवल स्वास्थ्य का ही नहीं, बल्कि मानवता का मूल अधिकार है। परंतु शहरीकरण, औद्योगीकरण और संसाधनों के दुरुपयोग ने हवा और पानी दोनों को विषाक्त बना दिया है। विश्व में 2.2 अरब लोगों के पास सुरक्षित पेयजल की सुविधा नहीं है। भारत में करोड़ों लोग अभी भी दूषित या अपर्याप्त पानी पर निर्भर हैं। रसायनयुक्त कृषि, औद्योगिक अपशिष्ट, प्लास्टिक प्रदूषण और भूजल के अंधाधुंध दोहन ने जल की गुणवत्ता को लगातार गिराया है।
जल संकट भविष्य में सबसे बड़ा युद्ध का कारण बन सकता है। भारत-पाकिस्तान के बीच बढ़ती युद्ध की संभावनाओं का कारण भी जल ही बनता हुआ दिख रहा है। ऑपरेश्न सिंधूर के बाद भारत ने पाक पर सिंधु जल समझौते को रद्द कर देने से पाक में जल संकट खड़ा हो गया है, पाक की ओर से परमाणु बम की धमकी दी जा रही है, वहीं भारत भी युद्ध की संभावनाओं को देखते हुए तैयार में जुट गया है। जल संकट केवल भारत और पाक में ही नहीं, दुनिया में एक बड़ी समस्या है। क्योंकि ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं, नदियों का प्रवाह घट रहा है, भूजल का स्तर गिर रहा है। जलवायु परिवर्तन के कारण बाढ़, सूखा और भूस्खलन की घटनाएं बढ़ी हैं। आंकड़े बताते हैं कि 2000 से अब तक बाढ़ की घटनाओं में 134 प्रतिशत और सूखे की अवधि में 29 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। धरती का 70 प्रतिशत भाग पानी से भरा है, लेकिन पीने योग्य पानी केवल 3 प्रतिशत है, जिसमें से उपयोगी मीठा जल 1 प्रतिशत से भी कम है। बढ़ती जनसंख्या और बर्बादी ने इस अमूल्य संसाधन को गंभीर संकट में डाल दिया है।
दिल्ली और अन्य महानगरों में वायु गुणवत्ता सूचकांक लगातार ‘बहुत खराब’ या ‘खतरनाक’ श्रेणी में पहुंचता है। प्रदूषित हवा श्वसन रोग, हृदय रोग और कैंसर तक का कारण बन रही है। बच्चों और बुजुर्गों पर इसका सबसे अधिक दुष्प्रभाव पड़ता है। रिसर्च बताती है कि दिल्ली के 75 प्रतिशत से अधिक बच्चों को सांस लेने में कठिनाई होती है, आंखों में जलन और खांसी की शिकायत रहती है। वाहन प्रदूषण, औद्योगिक धुआं, निर्माण गतिविधियों की धूल और फसल अवशेष जलाना-ये सब मिलकर हवा को ज़हरीला बना रहे हैं।
भारत के पास जल प्रबंधन की प्राचीन परंपरा रही है-तालाब, कुएं, बावड़ियां, जोहड़ और सरोवर जल संरक्षण के अद्भुत उदाहरण हैं। राजस्थान के किलों और गांवों में जल संचयन व्यवस्था आज भी दुनिया के लिए प्रेरणा है। पर्यावरणविद अनुपम मिश्र कहते थे-“अब भी खरे हैं तालाब।” आज आवश्यकता है कि हम इन परंपराओं को आधुनिक तकनीक के साथ जोड़कर जल संकट का समाधान करें। सरकार ने ‘अटल भूजल योजना’, ‘नल से जल’ और ‘नदी पुनर्जीवन’ जैसी योजनाएं शुरू की हैं। लेकिन केवल सरकारी प्रयास काफी नहीं, जनभागीदारी आवश्यक है। गांव-गांव में वर्षा जल संचयन, नदियों की सफाई, औद्योगिक अपशिष्ट का प्रबंधन और भूजल संग्रहण की व्यवस्था अनिवार्य होनी चाहिए। हवा की शुद्धता के लिए जरूरी है कि सार्वजनिक परिवहन को विश्वसनीय और सुलभ बनाया जाये, इलेक्ट्रिक वाहनों को बढ़ावा दिया जाये, औद्योगिक उत्सर्जन पर सख्त नियंत्रण हो, हरित क्षेत्र और वृक्षारोपण को बढ़ाना अत्यंत जरूरी कदम हैं। आज़ादी का असली मतलब यह है कि सत्ता का केंद्र नागरिक हो, उसकी मूलभूत सुविधाएं हो और उसकी आवाज़ सिर्फ़ चुनावी भाषणों में नहीं, नीतियों और फैसलों में भी सुनी जाए।
आजादी के अमृतकाल में 78वां स्वतंत्रता दिवस मनाते हुए हमें हवा एवं पानी की आजादी के लिये संकल्प लेना होगा। वायु-जल संसाधनों पर गहराते संकट को खत्म करने के लिए अपनी जीवन-शैली में परिवर्तन करना होगा। इसके लिए सभी लोगों को बच्चे-बूढ़े, स्त्री-पुरूष, किसान, उद्यमियों सभी को पहल करनी है। पानी को बचाने एवं हवा की शुद्धि की आदत को व्यवहार में ढालना होगा। हवा में घूल रहा प्रदूषण भी खतरनाक होता जा रहा है।  भू-विज्ञान मंत्रालय के एक रिसर्च के अनुसार वायु निर्माण में 41 प्रतिशत हिस्सेदारी वाहनों की रहती है। भवन निर्माण आदि से उड़नेवाली धूल 21.5 प्रतिशत के दूसरे स्थान पर है। दिल्ली परिवहन विभाग के आंकड़े के मुताबिक पिछले 30 साल में वाहन और उनसे होने वाला प्रदूषण तीन गुणा बढ़ गया है। फिर भी सार्वजनिक यातायात व्यवस्था को बेहतर और विश्वसनीय बनाने की दिशा में कुछ खास नहीं किया गया। इस विषम एवं ज्वलंत समस्या से मुक्ति के लिये हर राजनीतिक दल एवं सरकारों को संवेदनशील एवं अन्तर्दृष्टि-सम्पन्न बनना होगा। खेती में प्रदूषकों की रोकथाम से जल संसाधनों के संकट और पारिस्थिकी तंत्र में बदलाव के संकट को कम किया जा सकता है। नदियों के प्राकृतिक प्रवाह को नियमित करके समस्या को काफी हद तक सुलझाया जा सकता है। उपलब्ध जल संसाधनों तक उपभोग को सीमित करके, संसाधन पर दवाब कम किया जा सकता है।
आज हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र हैं, हमारी अर्थव्यवस्था तेजी से आगे बढ़ रही है, विज्ञान और तकनीक में नए मुकाम हासिल हो रहे हैं। मेट्रो ट्रेन, डिजिटल पेमेंट, सैटेलाइट मिशन और वैश्विक मंच पर बढ़ता प्रभाव हमें गर्व से भर देता है। लेकिन इस चमक के पीछे एक सच छुपा है-हमारी आज़ादी अब भी अधूरी है। यह अधूरापन केवल गरीबी या बेरोज़गारी का नहीं, बल्कि शुद्ध हवा-पानी जैसी मूलभूत जरूरतों से जुड़ी सोच, व्यवस्था और व्यवहार में गहरे बैठी असमानताओं का है। हमने अंग्रेज़ी शासन से मुक्ति पाई, लेकिन अगर हमारे बच्चे दूषित हवा में सांस लें और जहरीला पानी पिएं, तो यह कैसी आज़ादी है? आज़ादी का वास्तविक अर्थ तभी होगा जब हर नागरिक को स्वच्छ हवा और शुद्ध पानी मिले। 78वां स्वतंत्रता दिवस केवल झंडा फहराने और भाषण देने का नहीं, बल्कि जीवनदायिनी संसाधनों की रक्षा का संकल्प लेने का अवसर है। अपने घर, मोहल्ले और कार्यस्थल पर पानी बचाने की आदत डालें। प्लास्टिक का उपयोग कम करें। वर्षा जल संचयन करें। प्रदूषण फैलाने वाली गतिविधियों का विरोध करें। वृक्षारोपण को जीवन का हिस्सा बनाएं। क्योंकि हवा और पानी की आज़ादी ही जीवन की सच्ची आज़ादी है।