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आतंकवाद में डिजिटल तकनीकों का बढ़ता उपयोग चिन्ताजनक

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-ललित गर्ग-

टेरर फंडिंग पर नजर रखने वाली वैश्विक संस्था वित्तीय कार्रवाई कार्य बल (एफएटीएफ) की नई रिपोर्ट में आतंकवादी गतिविधियों में डिजिटल तकनीकों के बढ़ते उपयोग पर चिंता जताई गई है। इस रिपोर्ट ने वैश्विक सुरक्षा के समक्ष एक नई और गहन चुनौती की ओर संकेत करते हुए आतंकवादी गतिविधियों में डिजिटल तकनीकों के बढ़ते प्रयोग को गहन चिन्ताजनक बताया है। रिपोर्ट में ई-कॉमर्स, ऑनलाइन भुगतान, सोशल मीडिया, क्रिप्टोकरेंसी और डार्कनेट जैसे प्लेटफार्मों के माध्यम से आतंकवादी गतिविधियों के वित्तपोषण और संचालन के बढ़ते खतरे पर न केवल प्रकाश डाला गया है बल्कि गंभीर चिंता जताई गई है। रिपोर्ट ने आतंकवाद के एक अलग ही पहलू की ओर ध्यान खींचा है। इसमें बताया गया है कि टेक्नॉलजी तक आतंकी संगठनों की आसान पहुंच उन्हें और खतरनाक बना रही है। इससे निपटने के लिए वैश्विक स्तर पर नई रणनीति एवं नियंत्रण नीति की जरूरत है। विशेष रूप से पाकिस्तान जैसे देशों में पलने-बढ़ने वाले आतंकी संगठन इन तकनीकों का उपयोग कर न केवल फंडिंग जुटा रहे हैं, बल्कि गोपनीयता और पहुँच के नए मार्ग भी तलाश रहे हैं। इसके अलावा, आतंकवादी संगठन अब विकेंद्रीकृत मॉडल की ओर बढ़ रहे हैं, जैसेकि अल-कायदा क्षेत्रीय इकाइयों के माध्यम से स्थानीय स्तर पर धन जुटाना और संचालन करना। भारत ने समय-समय पर पाकिस्तान पोषित एवं पल्लवित आतंकवाद को बेनकाब करते हुए दुनिया से मिल रहे आर्थिक सहयोग पर चिन्ता जताई और कठोर कार्रवाई की मांग की, इस रिपोर्ट को भारत के रुख का समर्थन करने वाले एक महत्वपूर्ण कदम माना जा सकता है।
एफएटीएफ के मुताबिक, 2019 में पुलवामा और 2022 में गोरखपुर के गोरखनाथ मंदिर में हुए आतंकी हमलों के लिए ऑनलाइन प्लैटफॉर्म का इस्तेमाल किया गया। पुलवामा में आतंकियों ने आईईडी का इस्तेमाल किया था और इसे बनाने के लिए एल्युमिनियम पाउडर एमेजन से खरीदा गया था। गोरखपुर में हुए हमले में पैसों के लेनदेन में ऑनलाइन जरिया अपनाया गया। गोरखपुर वाले केस में आतंकी विचारधारा से प्रभावित शख्स ने इंटरनैशनल थर्ड पार्टी ट्रांजैक्शन और वीपीएन सर्विस का उपयोग किया था। इस तरह से उसने आईएसआईएल के समर्थन में विदेश में धन भेजा था और उसे भी बाहर से आर्थिक मदद मिली थी। वीपीएन एक डिजिटल तकनीक है जो इंटरनेट उपयोगकर्ता की लोकेशन और पहचान को छुपाती है। जब कोई व्यक्ति वीपीएन का उपयोग करता है, तो उसका इंटरनेट ट्रैफिक एक एन्क्रिप्टेड सुरंग के माध्यम से किसी अन्य देश के सर्वर से होकर गुजरता है। इससे उसकी वास्तविक पहचान छिप जाती है और वह सेंसरशिप, ट्रैकिंग और जियो-रिस्ट्रिक्शन से बच सकता है।
2024 तक दुनिया में 150 करोड़ से अधिक वीपीएन यूज़र्स हैं। इनमें से बड़ी संख्या एशिया और मध्य पूर्व से है, जहां सेंसरशिप या निगरानी से बचने के लिए इसका उपयोग किया जाता है। भारत में 12 से 14 करोड़ वीपीएन उपयोगकर्ता हैं। भारत वीपीएन यूज़र्स की संख्या में दुनिया के शीर्ष 3 देशों में शामिल है। वीपीएन का उपयोग कर आतंकी सोशल मीडिया और गुप्त चैनलों के ज़रिए युवाओं को बरगलाने और भर्ती करने का काम करते हैं। कुछ आतंकवादी समूह वीपीएन नेटवर्क का प्रयोग कर सरकारी वेबसाइटों, रक्षा प्रतिष्ठानों और बैंकिंग सिस्टम पर साइबर हमला करते हैं। दुनिया की एक तिहाई आबादी ऑनलाइन शॉपिंग करती है। इस साल ग्लोबल ई-कॉमर्स मार्केट के 7 ट्रिलियन डॉलर तक पहुंच जाने की उम्मीद है। भारत इस लिस्ट में फिलहाल सातवें नंबर पर है। लेकिन सवाल यह है कि इस डेटा के बीच अगर कुछ संदिग्ध लोग कुछ हजार डॉलर की खरीददारी करते हैं, जिसका इस्तेमाल आगे जाकर किसी आतंकी हमले में होता है, तो उसे चिह्नित कैसे किया जाए? एफएटीएफ ने कुछ दिनों पहले पहलगाम को लेकर कहा था कि इतना बड़ा आतंकी हमला बाहरी आर्थिक मदद के बिना संभव नहीं हो सकता। उसकी हालिया रिपोर्ट इसी बात को और पुष्ट कर देती है। आतंकियों ने अपने काम का तरीका बदल लिया है। वे इंटरनेट की दुनिया की ओट ले रहे हैं, जो ज्यादा खतरनाक है।
एफएटीएफ की रिपोर्ट में कहा गया है कि आतंकवादी समूहों ने अब पारंपरिक धन स्रोतों के साथ-साथ क्रिप्टोकरेंसी जैसे डिजिटल वित्तीय माध्यमों का भी उपयोग करना शुरू कर दिया है। ये माध्यम उन्हें सरकार की नजरों से बचाते हुए सीमाओं के पार फंडिंग जुटाने की सहूलियत देते हैं। साथ ही, एन्क्रिप्टेड मैसेजिंग ऐप्स, फेक सोशल मीडिया अकाउंट्स, और ऑनलाइन गेमिंग प्लेटफॉर्म्स का इस्तेमाल कर वे अपने नेटवर्क का विस्तार कर रहे हैं। पाकिस्तान एफएटीएफ की ग्रे लिस्ट से बाहर भले हो गया हो, लेकिन उसके खिलाफ लगे आरोपों में कोई कमी नहीं आई है। अनेक ग्लोबल इंटेलिजेंस रिपोर्ट्स और एफएटीएफ ऑब्ज़र्वेशन्स इस बात की पुष्टि करती हैं कि पाकिस्तान में आतंकी गुटों को डिजिटल इकोसिस्टम का खुले तौर पर उपयोग करने दिया जा रहा है, या कभी-कभी सरकार की मौन सहमति से। उदाहरण के रूप में लश्कर-ए-तैयबा और जैश-ए-मोहम्मद जैसे संगठनों ने बिटकॉइन और अन्य डिजिटल टोकन के जरिए फंड जुटाने की नई तरकीबें अपनाई हैं। कई मामलों में आतंकी फंडिंग के लिए फर्जी चैरिटेबल ट्रस्ट और सामाजिक मीडिया अभियानों का सहारा लिया गया है। ‘ग़ज़वा-ए-हिंद’ जैसे डिजिटल प्रोपेगेंडा प्लेटफॉर्म्स पाकिस्तानी ज़मीन से संचालित होकर भारत में कट्टरपंथ को बढ़ावा देने में लगे हैं।
भारत के विरुद्ध हाइब्रिड वारफेयर और साइबर जिहाद की रणनीति पाकिस्तान समर्थित आतंकी संगठनों की नीति का हिस्सा बन चुकी है। एफएटीएफ की रिपोर्ट में यह स्पष्ट रूप से कहा गया है कि दक्षिण एशिया में भारत सबसे अधिक प्रभावित देश है, जहां डिजिटल माध्यम से न केवल फंडिंग, बल्कि ब्रेनवॉशिंग और भर्ती का कार्य भी तेजी से हो रहा है। जम्मू-कश्मीर में सोशल मीडिया के माध्यम से युवाओं को आतंकी संगठनों की ओर आकर्षित किया जाता है। उत्तर पूर्व में उग्रवादी संगठनों को डिजिटल भुगतान और चैनलों के माध्यम से सहायता मिलती रही है। एफएटीएफ ने पाकिस्तान समेत उन सभी देशों से अपेक्षा की है कि वे डिजिटल वित्तीय निगरानी तंत्र को मजबूत करें। क्रिप्टो ट्रांजैक्शन पर नियमित रिपोर्टिंग सुनिश्चित करें। आतंकी संगठनों के ऑनलाइन अस्तित्व को समाप्त करने के लिए तकनीकी टूल्स विकसित करें। एफएटीएफ का चेतावनी के स्वरों में यह भी कहना है कि यदि आतंक के गढ़ एवं आतंकवाद को पोषित करने वाले इन देशों ने इन सिफारिशों पर अमल नहीं किया तो उन्हें ‘हाई रिस्क जॉन’ की सूची में डाला जा सकता है। भारत को इस डिजिटल आतंकी खतरे से निपटने के लिए सभी सुरक्षा एजेंसियों के समन्वय से एक संयुक्त रणनीति बनानी चाहिए-क्रिप्टो ट्रांजैक्शन की रियल-टाइम निगरानी, साइबर आतंकवाद पर विशेष फोर्स का गठन, सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स से आतंकी कंटेंट की पहचान और हटाने के लिए मजबूत कानून, डार्क वेब और फेक डोनेशन चैनलों की सतत निगरानी आदि कदम उठाने चाहिए।
डिजिटल तकनीक ने जहां मानव जीवन को सरल और तेज़ किया है, वहीं इसका दुरुपयोग करके आतंकवाद को नया चेहरा देने की कोशिशें चिंता का विषय हैं। एफएटीएफ की चेतावनी को गंभीरता से लेने और वैश्विक सहयोग को मजबूत करने की जरूरत है। विशेष रूप से पाकिस्तान जैसे देशों पर अंतरराष्ट्रीय दबाव बनाना होगा ताकि वे अपनी धरती पर पनप रहे आतंकवाद एवं डिजिटल आतंकवाद के अड्डों को समाप्त करें। तभी एक सुरक्षित डिजिटल विश्व और शांतिपूर्ण वैश्विक समाज की कल्पना की जा सकती है। एफएटीएफ रिपोर्ट विश्लेषण करती है कि आतंकवादियों ने अपने आतंकवादी उद्देश्यों के लिए वैश्विक दर्शकों से धन जुटाने के लिए सोशल मीडिया पर धन उगाहने वाले प्लेटफॉर्म और क्राउडफंडिंग माध्यमों से आतंकवाद के वित्तपोषण प्राप्त किया है। आतंकवादी संगठन पारंपरिक तरीकों के साथ-साथ डिजिटल तरीकों से भी धन जुटाकर आतंकवाद को अंजाम दे रहे हैं।
भारत ने एफएटीएफ रिपोर्ट को अपने रुख के समर्थन में एक महत्वपूर्ण कदम बताया है, जिसमें पाकिस्तान स्थित आतंकवादी संगठनों पर कार्रवाई की मांग की गई है। यह रिपोर्ट आतंकवाद का मुकाबला करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय सहयोग और समन्वय की आवश्यकता पर प्रकाश डालती है। यह रिपोर्ट आतंकवाद के वित्तपोषण और संचालन में शामिल देशों और व्यक्तियों पर दबाव बढ़ाने और  आतंकवाद का मुकाबला करने के लिए नीतियों और रणनीतियों को विकसित करने में सहायक हो सकती है।

लुधियाना में इन्वेस्टर मीट पंजाब के उद्योगपतियों की मध्यप्रदेश में दस्तक 

प्रमोद भार्गव

मुख्यमंत्री मोहन यादव ने जब से मध्यप्रदेश की कमान संभाली है, तभी से वे देश के उद्योगपतियों को प्रदेश में पूंजी निवेश के लिए बातचीत कर रहे हैं। हाल ही में उन्होंने पंजाब की औद्योगिक राजधानी लुधियाना में प्रदेश सरकार द्वारा आयोजित किए गए उद्योगपतियों से परस्पर संवाद कायम किया है। उन्हें प्रदेश में सरलता से उद्योग स्थापित करने के लिए भरोसा भी दिलाया। जिससे एक ही खिड़की से जो उद्योगपति प्रदेश में उद्योग लगाने के इच्छुक हैं, उन्हें सभी अनुमतियां मिल जाएं। इसी आश्वासन का परिणाम रहा कि 15,606 करोड़ रुपए के पूंजीनिवेश के प्रस्ताव हाथों-हाथ मिल गए। दरअसल इस संवाद के पूर्व इंदौर, भोपाल, जबलपुर और ग्वालियर में कारोबारियों को जो आश्वासन दिए गए थे, सरकार उनके पालन में प्रतिबद्ध दिखाई दी है। यदि यह निवेश समय पर हो जाता है तो निजी क्षेत्र में लगभग 20,000 नए रोजगार सृजित होंगे ?
मोहन यादव ने निवेशकों को हर संभव सहयोग देने की प्रतिबद्धता जताते हुए कहा कि ‘पंजाब जहां कृषि में अग्रणी है तो मप्र खनिज, अधोसरंचना और आपूर्ति श्रृंखला में अपनी स्थिति मजबूत बनाए हुए है। यदि पंजाब का सहयोग मप्र को मिल जाता है तो दोनों मिलकर देश के विकास की गति को बढ़ाएंगे। वैसे भी लुधियाना, भारत का मैनचेस्टर है।‘ दरअसल मैनचेस्टर इंग्लैंड का एक ऐसा महानगर है जो औद्योगिक क्रांति, मजबूत अर्थव्यवस्था और सांस्कृतिक महत्व के लिए जाना जाता है। मैनचेस्टर को दुनिया का पहला औद्योगिक नगर होने का दर्जा प्राप्त है। इसी तर्ज पर उद्योग के क्षेत्र में लुधियाना की पहचान भारत में ही नहीं दुनिया में है। लुधियाना में ऊनी वस्त्रों के साथ आंतरिक वस्त्रों का भी बड़े पैमाने पर निर्माण होता है। यहां कृशि आधारित उद्योग के साथ साइकिलों का भी बड़े मात्रा में निर्माण होता है। ये साइकिलें विविध रूपों एवं आकारों में उपलब्ध होने के साथ गुणवत्ता की दृश्टि से भी अपनी साख बनाए हुए हैं। एक समय की एटलस और हीरो साइकिलें यहीं निर्मित होती थी। आज भी बच्चों, किशोर, युवाओं एवं खिलाड़ियों के लिए भी उच्च गुणवत्ता की साइकिलें पंजाब की भूमि पर ही बनाई जाती हैं, जिनकी पूरे देश में मांग है। यदि मप्र में साइकिल और ऊनी वस्त्रों के एक-दो बड़े कारखाने खुल जाते हैं तो बड़े पैमाने पर रोजगार का सृजन होगा। चूंकि साइकिल और वस्त्र निर्माण में आज भी जटिल तकनीक का इस्तेमाल नहीं होता है, इसलिए मेहनती युवाओं को आसानी से रोजगार मिल जाएगा।
आधुनिक खेती की षुरूआत भारत में पंजाब और हरियाणा से हुई थी। इसलिए ट्रैक्टर और उसके सहायक उपकरणों के निर्माण की शुरुआत पंजाब में आजादी के समय से ही हो गई थी। खेती-किसानी के लिए उपयोगी ट्राली, हैरो, कल्टीवेटर, थ्रेसर, बीज बुबाई मशीन और खेत में ही फसल काटने के हार्वेस्टर जैसी भारी मशीनें यहीं बनाई गईं। अब मप्र एक ऐसा प्रांत बन गया है, जहां गेहूं का उत्पादन सर्वाधिक होने लगा है। ऐसा इसलिए संभव हुआ, क्योंकि प्रदेश में सिंचाई की सुविधा के साथ खेती का रक्बा भी बढ़ गया। बावजूद प्रदेश में अभी किसी ट्रेक्टर एवं हार्वेस्टर का निर्माण तो होता ही नहीं है, उच्च गुणवत्ता के कृशि उपकरणों का निर्माण भी नहीं होता है। इसलिए हम देखते हैं कि फरवरी मार्च में जब गेहूं की फसल काटने का समय आता है, तब पंजाब से मप्र की ओर हार्वेस्टर की कतारें देखने में आने लगती हैं। हालांकि लगभग प्रत्येक जिला मुख्यालय पर ट्रौली व अन्य कृषि उपकरणों का निर्माण तो होता है, लेकिन आज भी उच्च गुणवत्ता के थ्रेसर बना पाना संभव नहीं हुआ है। प्रदेश में सिंचाई का रक्बा बहुत बढ़ गया है। बावजूद सिंचाई के उपकरण पंजाब और हरियाणा से ही खरीदे जाते हैं। यदि पंजाब के उद्योगपति सिंचाई के स्प्रिंकल जैसे उपकरण प्रदेश में बनाते हैं तो उनकी हाथों हाथ खपत होगी।
हालांकि अब कृषि क्षेत्र में तकनीक से जुड़े नए इलेक्ट्रोनिक तौर-तरीके प्रयोग में लाए जाने लगे हैं। इनमें कीटनाशक दवा छिड़काव के लिए ड्रोन, एरियल इमेजिंग और रोबोटिक्स जैसी इलेक्ट्रोनिक तकनीकों का भी इस्तेमाल होने लगा है। बड़े किसानों के यहां रोबोट जहां खेतों की रखबली से लेकर सिंचाई में योगदान दे रहे हैं, वहीं खेतों में खड़ी फसल की गुणवत्ता परखने के लिए एरियल इमेजिंग अर्थात हवाई छवि का इस्तेमाल होने लगा है। पंजाब इन तकनीकों के निर्माण में आग्रणी है। इस लिहाज से मप्र अभी पूरी तरह पिछड़ा है। अतएव पंजाब के कारोबारी इन तकनीकों से जुड़े उपकरणों का निर्माण प्रदेश में करते हैं तो उनके सामने प्रतिस्पर्धा की कोई चुनौती नहीं होगी। इन कामों के लिए दक्ष इंजनीनियार भी प्रदेश में मिल जाएंगे। मप्र देश का एकमात्र ऐसा राज्य हैं, जहां हीरे से लेकर सोने और लौह अयस्क तक विविध खनिज संपदाएं धरती के गर्भ में उपलब्ध हैं। निवेशकों को मुख्यमंत्री ने इनके दोहन के लिए आसानी से सुविधाएं हासिल कराने का भारोसा दिया है। जरूरत पड़ने पर वर्तमान नीतियों में भी संशोधन किया जा सकता है। इंवेस्टर मीट में उद्योगपति अकसर यह सवाल उठा देते हैं कि खासतौर से आधुनिक तकनीक से जुड़े उद्योगों के लिए रोजगार के अवसर और नौकरियों पैदा करने की चुनौतियां है। इस दिशा में एक बड़ी बाधा कौशल की कमी जताई जाती है। यहां तक कि इंजीनियर पेशेवरों को भी उद्योग के अनुरूप दक्ष नहीं पाया जाता है। हाल ही में इंस्टीट्यूट फॉर कांपटेटिबनेस द्वारा जारी स्किल्स फॉर द फ्यूचर रिपोर्ट ने बताया है कि या तो पीएचडी डिग्रीधारी चपरासी की नौकरी के लिए आवेदन कर रहे हैं या फिर युवाओं के पास उद्योग की जरूरतों के मुताबिक कौशल की कमी है। इन बहानों के चलते उद्योगपति प्रदेश में उद्योग लगाने से पीछे हट जाते हैं। लेकिन पंजाब के उद्योगपति ऐसे पेशेवर रहे हैं, जिन्होंने डिग्री की बजाय अपनी बुद्धि और श्रम से अपने कारखानों को स्थापित किया है। यदि इसी भावना से वे प्रदेश में निवेश करते है तो युवा रोजगारों में  कार्य कुशलता की कोई कमी है तो वही प्रशिक्षण देकर दक्षता का पाठ वही पढ़ा देंगे।        

प्रमोद भार्गव

शिक्षा, वैज्ञानिक सोच, और जागरूकता से ही होगा अंधविश्वासों का खात्मा !

आज हम इक्कीसवीं सदी में सांस ले रहे हैं।यह युग विज्ञान और तकनीक का युग है जहां आज आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआइ) का प्रयोग किया जा रहा है। विज्ञान और तकनीक के इस दौर के बीच भारत आज भी एक बहुत ही धार्मिक देश है, जहां अलग-अलग धर्म, संप्रदायों, वर्गों के लोग आपसी सहयोग, सद्भावना से रहते हैं, लेकिन विज्ञान और तकनीक के इस दौर में भी आज भी भारतीय समाज में कहीं न कहीं अंधविश्वास की जड़ें अब भी कम गहरी नहीं हैं। आज जरूरत इस बात की है कि अंधविश्वास की इन जड़ों को समूल नष्ट किया जाए।वास्तव में अंधविश्वास, अज्ञानता, डर, या तर्कहीन विश्वासों पर आधारित एक विश्वास या प्रथा है। यह अक्सर अलौकिक शक्तियों, भाग्य, या कुछ कार्यों या वस्तुओं के शुभ या अशुभ प्रभावों में विश्वास से जुड़ा होता है। अंधविश्वास किसी तर्क या प्रमाण पर आधारित नहीं होते हैं, बल्कि ये अक्सर मान्यताओं, परंपराओं, या व्यक्तिगत अनुभवों पर आधारित होते हैं। कहना ग़लत नहीं होगा कि ये अक्सर परंपराओं और रीति-रिवाजों से जुड़े होते हैं, जिनका पालन बिना किसी तर्क या प्रमाण के किया जाता है। हाल ही में अंधविश्वास के चक्कर में बिहार में परिवार के पांच लोगों की हत्या की खबरें मीडिया की सुर्खियों में आईं थीं।अंधविश्वास के कारण हैवानों ने पति-पत्नी और बच्चों को मार डाला, यह बहुत ही दुखद है। उपलब्ध जानकारी के अनुसार पूर्णिया जिले के मुफस्सिल थाना क्षेत्र अंतर्गत राजीगंज पंचायत के टेटगामा वार्ड-10 में डायन का आरोप लगाकर गांव के ही एक ही परिवार के पांच लोगों की पीट-पीटकर और जिंदा जलाकर हत्या कर दी गई। मरने वालों में तीन महिलाएं और दो पुरुष शामिल हैं। इसी प्रकार से आजमगढ़ में पुत्र की चाहत में एक महिला अंधिविश्वास की भेंट चढ़ गई। परिजनों का आरोप है कि तांत्रिक ने झांड़फूंक के नाम पर नाले का गंदा पानी पिलाया जिससे उसकी मौत हुई। इतना ही नहीं, मध्यप्रदेश के एक गांव में देवस्थान के चबूतरे पर नरबलि देने का मामला भी सामने आया है। इसी प्रकार से कुछ समय पहले महाराष्ट्र के अमरावती जिले में अंधविश्वास की वजह से मासूम बच्चे के साथ दरिंदगी की दिल दहला देने वाली घटना सामने आई थी। जानकारी के अनुसार यहां एक महिला ने 10 दिन की नवजात बच्ची को पेट दर्द से राहत दिलाने के नाम पर उसे गर्म लोहे की छड़ से दाग दिया। दरअसल अंधविश्वास ‘आत्मज्ञान’ के अभाव में पनपता है, व्यक्ति को ज्ञान का अभाव होता है। यह देखा गया है बहुत बार हमारी आस्था ही अंधविश्वास में बदल जाती है। वास्तव में, जब हमारी आस्था हमारी आत्मा और हमारे ज्ञान का गला घोंटने लगती है, तो हम अपने सोचने-समझने की क्षमताएं खो देते हैं और वहीं जाकर अंधविश्वास का रूप धारण कर लेता है।‘अंधविश्वास’ एक नकारात्मक भावना है, जबकि ‘आस्था’ एक सकारात्मक। आस्था हमें आगे बढ़ाती है, जबकि अंधविश्वास पीछे की ओर ढकेलता है। आस्था हमारे विश्वास का ‘दृढ़ और अडिग स्वरूप’ है, जबकि अंधविश्वास, विश्वास का एक विचलित और विकृत स्वरूप होता है।हम ईश्वर के प्रति आस्था रखें, यह ठीक है, क्यों कि आस्था हमें आगे बढ़ाती है, हमारे में विश्वास की जड़ों को मजबूत करती है, लेकिन हम अंधे होकर किसी भी चीज का अनुसरण नहीं करें। अंधविश्वास चमत्कार को जन्म नहीं देता। न ही कभी चमत्कार होते हैं। आदमी को चमत्कार के लिए कर्म करने पड़ते हैं, मेहनत करनी पड़ती है। टोनो-टोटको से यदि चमत्कार होते तो हर कोई कर लेता। यह बहुत दुखद है कि अनेक बार टोनो टोटको के चक्कर में हम अपने जीवन को दांव पर लगा देते हैं और जीवन में बदलाव की या चमत्कार की उम्मीद करने लगते हैं। हमें यह याद रखना चाहिए कि आस्था कभी भी मूर्तिपूजा, पूजा-पाठ, उपासना, किसी नियम विशेष या किसी धार्मिक-कर्मकांड विशेष का मोहताज नहीं होता। आस्था, ईश्वर की तरह ही असीम है, अनादि है, अनंत है।कबीर जी ने कहा था – ‘पाहन पूजे हरि मिले, तो मैं पूजूं पहार। याते चाकी भली, जो पीस खाए संसार।।’ हाल फिलहाल, यह बहुत ही दुखद है कि आज के इस युग में भी हम अनेक प्रकार की कुरूतियों, अंधविश्वासों और पाखंडों को ढ़ो रहे हैं और इनसे बाहर नहीं निकल पा रहे हैं। वास्तव में भारतीय समाज में व्याप्त ये सभी कुरीतियां, पाखण्ड एवं अंधविश्वास से जुड़ीं घटनाएं हमारे समाज की तरक्की में सबसे बड़ी बाधक बनी हुई हैं। आज अंधविश्वास के नाम पर पशु बलि दी जाती है। यहां तक कि बहुत बार तो ऐसा भी देखा गया है कि जादू-टोनों पर भरोसा करते हुए कोई नरबलि जैसे कृत्य तक पर उतारू हो जाते हैं। वास्तव में यह अंधविश्वास की पराकाष्ठा ही कहा जा सकता है। शिक्षा की कमी, परंपरा और सामाजिक दबाव अंधविश्वास के प्रमुख कारण हैं। वास्तव में आज वैज्ञानिक सोच, वैज्ञानिक दृष्टिकोण को बढ़ावा देने की जरूरत है।अज्ञात, बीमारी, या मृत्यु का भय अंधविश्वास को जन्म दे सकता है। कहना ग़लत नहीं होगा कि अंधविश्वासी प्रथाओं और उनके हानिकारक प्रभावों के बारे में जागरूकता बढ़ाना आज के समय में बहुत ही महत्वपूर्ण व जरूरी है। सच तो यह है कि हमें हमेशा सत्य की खोज करनी चाहिए और अंधविश्वासों पर कभी भी आंख मूंदकर विश्वास नहीं करना चाहिए।यह ठीक है कि आज शिक्षा व तकनीक दोनों क्षेत्रों में प्रगति के कारण हमारे समाज के लोग अंधविश्वास की छाया से निकलने लगे हैं, लेकिन अभी काफी कुछ करना बाकी है। कहना ग़लत नहीं होगा कि अंधविश्वास आज भी एक जटिल समस्या है जिसके कई कारण और निवारण हैं। शिक्षा, वैज्ञानिक सोच और जागरूकता बढ़ाकर, हम अंधविश्वासों को दूर करने और एक अधिक तर्कसंगत और वैज्ञानिक समाज बनाने की दिशा में काम कर सकते हैं। हमारे देश में आज अंधविश्वास की रोकथाम के लिए दंडात्मक प्रावधान हैं, लेकिन बावजूद इसके बहुत से पाखंडी लोग, तांत्रिक इस दिशा में सक्रिय हैं। पाखंड व अंधविश्वास का सहारा लेकर ऐसे लोग अपने चूल्हे के नीचे 

 आंच सरकाते हैं और लोगों को बरगलाते हैं। अंधविश्वास समाज को अंदर ही अंदर से खोखला व बर्बाद कर देता है, इसलिए इस पर रोक बहुत आवश्यक है। याद रखिए कि अंधविश्वास हमारी संस्कृति की धरोहर नहीं हैं, जैसा कि 

अक्सर ऐसा समझा जाता है।अंधविश्वास की असली जड़ भूत-प्रेत का डर, जादू-टोने होने का डर, प्रेम-विवाह, व्यापार-नौकरी में असफलता का डर और दुर्भाग्य घटित होने का डर है, जबकि ऐसा कुछ भी नहीं होता है। तांत्रिक उपायों से न तो सफलता मिलती है, न ही कोई बीमारी ठीक होती है, न ही पुत्र रत्न की प्राप्ति होती है, न ही कोई काम बनते हैं,यह कटु सत्य है। परेशानियां और दुःख कभी भी टोनो-टोटको से ठीक नहीं होते। विज्ञान और तकनीक के इस दौर में शिक्षित कहे जाने वाले लोग भी तांत्रिकों, पाखंडियों के चक्कर में आखिर क्यों आने लगे हैं, यह समझ से परे की बात है। अंत में यही कहूंगा कि अंधविश्वास को खत्म करने के लिए शिक्षा, वैज्ञानिक सोच, और जागरूकता फैलाना ज़रूरी है। याद रखिए कि वैज्ञानिक सोच लोगों को घटनाओं को तर्कसंगत रूप से देखने और उनके पीछे के कारणों को समझने में मदद करती है। इसके अलावा कानून को भी सख्त बनाने की आवश्यकता है। तभी हम वास्तव में हम अपने समाज और देश से अंधविश्वासों का खात्मा कर पायेंगे।

सुनील कुमार महला

गुरु जीवनरूपी अंधेरों को मिटाकर उजाला करते हैं

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गुरु पूर्णिमा- 10 जुलाई 2025
-ललित गर्ग-

भारतीय संस्कृति में गुरु का स्थान सर्वाेच्च है-ईश्वर से भी ऊंचा। गुरु न केवल ज्ञानदाता हैं, वे जीवन के वास्तुकार, जीवन-निर्माता एवं संस्कारदाता हैं। वे शिष्य को केवल अक्षरों का ज्ञान नहीं देते, बल्कि आत्मा के स्वरूप से उसका परिचय कराते हुए उसका जीवन-निर्माण करते हैं। वे न केवल अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाते हैं, बल्कि जीवन की दुविधाओं, असमंजसों और भ्रमों को दूर कर उसे सार्थक दिशा देते हैं। ऐसे ही गुरु-तत्व के पूजन का पर्व है-गुरु पूर्णिमा, जो हर वर्ष आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा को श्रद्धा और समर्पण से मनाया जाता है। हिन्दू धर्म की मान्यता के अनुसार इस दिन महर्षि वेदव्यास का जन्म हुआ था, इसलिये इसे व्यास पूर्णिमा भी कहते है। वेदव्यास ने चारों वेदों का संकलन किया, पुराणों की रचना की और महाभारत जैसा अद्वितीय महाकाव्य रचा। वे न केवल ज्ञान के स्रोत थे, बल्कि आत्मबोध के महामार्गदर्शक भी थे। गुरु पूर्णिमा सन्मार्ग एवं सत-मार्ग पर ले जाने वाले महापुरुषों के पूजन का पव र्है, जिन्होंने अपने त्याग, तपस्या, ज्ञान एवं साधना से न केवल व्यक्ति को बल्कि समाज, देश और दुनिया को भवसागर से पार उतारने की राह प्रदान की है। भारतीय लोकचेतना में सत्य की ओर गति कराने एवं जीवन को जीवंतता देने वाले गुरु को ईश्वर माना गया है। इसीलिये पर्वों, त्यौहारों और उत्सवों की श्रृंखला में गुरु पूर्णिमा का सर्वोपरि महत्व माना गया है। यह अध्यात्म-जगत विशेषतः सनातन धर्म का महत्वपूर्ण उत्सव है, इसे अध्यात्म जगत की बड़ी घटना के रूप में जाना जाता है।
गुरु एक नाम नहीं, एक स्थिति है। वे केवल शरीरधारी व्यक्ति नहीं, एक दिव्य ऊर्जा हैं, जो हमारे भीतर शक्ति, ज्ञान एवं संस्कार को जागृत करती है। कबीरदास ने कहा-“गुरु गोविंद दोऊ खड़े, काके लागूं पाय?” यह केवल काव्यात्मक अभिव्यक्ति नहीं, बल्कि भारतीय आध्यात्मिक चेतना की वह आधारशिला है, जिस पर जीवन की संपूर्ण संरचना टिकी है। गुरु वही है जो ‘मैं’ को गलाकर ‘तू’ में मिला दे, जो अहंकार को मिटाकर आत्मा को उभार दे। यह केवल पूजा का दिन नहीं, आत्म-प्रेरणा का दिवस है; गुरु के प्रति कृतज्ञता, मार्गदर्शन और जीवन को नया मोड़ देने वाले उस आधारस्तंभ को नमन करने का दिन है। गुरु पूर्णिमा का पर्व विशेष रूप से सनातन धर्म, बौद्ध धर्म, जैन धर्म एवं भारतीय ज्ञान परंपरा में अत्यंत पूज्यनीय है। भारत की मनीषा में गुरु केवल धार्मिक या शैक्षणिक संस्था के सदस्य नहीं हैं, बल्कि वे एक आध्यात्मिक बीज हैं, जो शिष्य के अंतर्मन में चेतना का वृक्ष बनकर प्रस्फुटित होते हैं।
गुरु-शिष्य का संबंध केवल औपचारिक नहीं, आत्मिक होता है। शिष्य का अर्थ ही है-‘जो शीघ्र ग्रहण करे, जो समर्पित हो।’ और गुरु का अर्थ है-‘गु’ यानी अंधकार और ‘रु’ यानी प्रकाश-जो अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाए। प्राचीन गुरुकुल परंपरा में यह संबंध अत्यंत पवित्र और जीवनपर्यंत टिकने वाला होता था। शिष्य केवल विद्या ही नहीं, गुरु के जीवन से भी सीखता था। चरित्र, संयम, श्रद्धा, विनम्रता और सेवा जैसे गुण गुरु के व्यक्तित्व से शिष्य के भीतर स्वतः उतरते थे। महावीर ने गौतम गणधर को, बुद्ध ने आनंद को, नानक ने अंगद को, श्रीकृष्ण ने संदीपनि को और फिर स्वयं अर्जुन को शिष्यत्व प्रदान किया। श्रीराम ने गुरु वशिष्ठ और विश्वामित्र से जीवन की मर्यादा सीखी, वहीं श्रीकृष्ण ने अर्जुन को युद्धभूमि में कर्मयोग का उपदेश देकर जगतगुरु का दर्जा पाया। ये उदाहरण दिखाते हैं कि सच्चा गुरु केवल ज्ञान नहीं देता-वह जीवन का दृष्टिकोण बदल देता है।
आज भौतिकतावादी युग में गुरु के प्रति आस्था में गिरावट आई है। शिक्षा संस्थान सूचना का प्रसार कर रहे हैं, लेकिन जीवन मूल्यों का संचार नहीं कर पा रहे। विद्यार्थियों को डिग्रियां तो मिल रही हैं, पर दिशा नहीं। ज्ञान है, पर विवेक नहीं; विज्ञान है, पर आत्मा नहीं; बुद्धि है, पर करुणा नहीं। इसका मूल कारण है-जीवन में सच्चे गुरु का अभाव। आज ट्यूटर हैं, टीचर हैं, प्रोफेसर हैं-पर गुरु नदारद हैं। ऐसे में गुरु पूर्णिमा हमें याद दिलाती है कि केवल पढ़ना-पढ़ाना पर्याप्त नहीं है, जीवन जीने की कला सिखाने वाला गुरु चाहिए। गुरु जीवन की धार को नया मोड़ देते हैं। जैसे नदी जब किसी घाट से गुजरती है, तो उसका स्वरूप बदलता है, वैसे ही गुरु का सान्निध्य शिष्य के भीतर नई चेतना, नई दृष्टि और नया जीवन का संचार करता है। वे हितचिंतक, मार्गदर्शक, विकास प्रेरक एवं विघ्नविनाशक होते हैं। उनका जीवन शिष्य के लिये आदर्श बनता है। उनकी सीख जीवन का उद्देश्य बनती है। अनुभवी आचार्यों ने भी गुरु की महत्ता का प्रतिपादन करते हुए लिखा है- गुरु यानी वह अर्हता जो अंधकार में दीप, समुद्र में द्वीप, मरुस्थल में वृक्ष और हिमखण्डों के बीच अग्नि की उपमा को सार्थकता प्रदान कर सके।
गुरु केवल उपदेश नहीं देता, वह जीता है। उसकी हर बात, हर चुप्पी, हर दृष्टि, हर मौन एक शिक्षा होती है। उसका जीवन एक ग्रंथ होता है, जिसकी हर बात शिष्य के जीवन में अमिट छाप छोड़ती है। शास्त्रों में कहा गया है-“गुरु बिना गति नहीं, गुरु बिना ज्ञान नहीं, गुरु बिना मोक्ष नहीं।” गुरु ही शिष्य के अंतर्मन में आत्मा की चिंगारी प्रज्वलित करता है। आज के समय में सबसे बड़ी चुनौती है-सच्चे गुरु की पहचान। आज ऐसे कई कथित गुरु हैं जो अपने अनुयायियों की संख्या, चमत्कारों और धन-संपत्ति के आधार पर महान कहलाते हैं। वे गुरु नहीं, व्यापारी हैं-जो मोक्ष, आत्मज्ञान, कुण्डलिनी जागरण, रोग निवारण और चमत्कारों के नाम पर लोगों की भावनाओं का दोहन कर रहे हैं। इनसे सावधान रहने की आवश्यकता है। ऐसे अज्ञानी, धन-लोलुप और पाखंडी लोगों ने गुरु परंपरा की छवि को धूमिल किया है। सही कहा गया है-“पानी पीजै छान के, गुरु कीजै जान के।”
सच्चा गुरु न विज्ञापन करता है, न दिखावा। वह न चमत्कार दिखाता है, न भीड़ जुटाता है। वह मौन से शिक्षा देता है, दृष्टि से दिशा देता है और आशीर्वाद से शांति देता है। उसका सान्निध्य ही साधना है, उसकी चरण-वंदना ही ऊर्जा है। गुरु पूर्णिमा हमें स्मरण कराती है कि चातुर्मास काल में जब ईश्वर निद्रा में होते हैं तब गुरु ही हमें मार्ग दिखाते हैं। वे हमारे दुःखों का हरण करते हैं, मोह का निवारण करते हैं और जीवन को नई दृष्टि देते हैं। गुरु का सच्चा सम्मान केवल उनकी मूर्ति पर फूल चढ़ाना नहीं है, बल्कि उनके बताए मार्ग पर चलना है। उनके उपदेशों को आत्मसात करना, अपने जीवन में विनम्रता, सेवा, संयम और समर्पण जैसे गुणों को विकसित करना ही सच्ची गुरु-पूजा है। तुलसीदासजी ने हनुमान चालीसा में लिखा है-“जय जय जय हनुमान गोसाईं, कृपा करहु गुरुदेव की नाई।” जिनके पास कोई गुरु न हो, वे हनुमानजी को गुरु बना सकते हैं-क्योंकि गुरुत्व एक चेतना है, एक भावना है, एक समर्पण है। पश्चिमी देशों में गुरु का कोई महत्व नहीं है, वहां विज्ञान और विज्ञापन का महत्व है परन्तु भारत में सदियों से गुरु का महत्व रहा है। यहां की माटी एवं जनजीवन में राह दिखाने वाले दीपक होते हैं ईश्वरतुल्य गुरु, क्योंकि गुरु न हो तो ईश्वर तक पहुंचने का मार्ग कौन दिखायेगा?
गुरु वह दीप है, जो हमारे अंतर्मन के अंधकार को मिटाता है। वह वह द्वीप है, जो संसाररूपी समुद्र में दिशा देता है। वह वह वृक्ष है, जो तपते जीवन में छांव देता है। और वह ऐसी अग्नि है, जो चेतना को प्रज्वलित करती है। हमें इस गुरु पूर्णिमा पर यह संकल्प लेना चाहिए कि हम सच्चे गुरु की तलाश करें-जो भीतर की यात्रा कराए, जो अहंकार को तजने में सहायता करे, जो आत्मा की पहचान कराए। गुरु जीवन का वह मोड़ है, जहां से जीवन बदलता है। वह नया घाट है, जहां से आत्मा का जल बहता है। अंततः, गुरु पूर्णिमा केवल एक पर्व नहीं, आत्म-बोध और समर्पण का पर्व है। यही इसकी सार्थकता है कि हम गुरु को केवल पूजें नहीं, अपने भीतर जगाएं। जब तक जीवन में सच्चा गुरु नहीं आता, तब तक आत्मा मौन रहती है। जैसे ही गुरु आता है, आत्मा गूंज उठती है। गुरु जीवन को नया घाट देते हैं, नयी झंकार देते हैं।

  ‘जटाधारा’ में नजर आएंगी शिल्पा शिरोडकर

सुभाष शिरढोनकर

20 नवंबर 1973 को मुंबई में एक मराठी परिवार में पैदा हुई एक्ट्रेस शिल्पा शिरोडकर पूर्व मिस इंडिया और तेलुगु स्टार महेश बाबू की पत्नी नम्रता शिरोडकर की बड़ी बहन हैं। नम्रता खुद भी हिंदी और साउथ फिल्म इंडस्ट्री की एक्ट्रेस रह चुकी हैं।

 शिल्पा की दादी, मीनाक्षी शिरोडकर, 1930 के दशक की जानी-मानी अभिनेत्री थीं जिन्होंने एक वक्‍त फिल्म ‘ब्रह्मचारी’ में स्विमसूट पहनकर इतिहास रचा था।

 शिल्पा शिरोडकर ने 1989 में अपने एक्टिंग करियर की शुरुआत रमेश सिप्पी की फिल्म ‘भ्रष्टाचार’ से की। इस फिल्‍म में उन्‍होंने एक अंधी लड़की का किरदार निभाया था। फिल्म  में उन पर फिल्‍माए गए रेप सीन ने उन्हें चर्चा में ला दिया। इस तरह डेब्‍यू फिल्म से ही उन्हें पहचान मिल गई।

शिल्पा को फिल्म ‘भ्रष्टाचार’ (1989) मिथुन चक्रवर्ती के कारण मिली। उसके पहले उन्हें करियर शुरू करने में काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ा । उनकी दो फिल्में शुरू होने से पहले ही बंद हो चुकी थीं।

शिल्‍पा शिरोडकर को असली पहचान 1990 की फिल्म ‘किशन कन्हैया’ से मिली जिसमें वह अनिल कपूर के साथ नजर आईं। इसके बाद उन्होंने ‘त्रिनेत्र’ (1991), ‘हम’ (1991), ‘योद्धा’ (1991) ‘खुदा गवाह’ (1992), ‘अपराधी’ (1992), ‘पहचान’ (1993) और ‘आंखें’ (1993) जैसी कई फिल्मों में काम किया।

फिल्म ‘गोपी किशन’ (1994) में सुनील शेट्टी के साथ उनकी ऑनस्क्रीन केमिस्ट्री ऑडियंस को खूब पसंद आई ।  ‘किशन कन्हैया’ (1990) के बाद वह एक बार फिर माधुरी दीक्षित के साथ ‘गज गामिनी’ (2000) में नजर आईं लेकिन यह फिल्‍म बॉक्‍स ऑफिस पर अच्‍छा प्रदर्शन नहीं कर सकी।

1989 से 2000 तक लगभग 50 से अधिक फिल्मों में काम करते हुए शिल्‍पा शिरोडकर 1990 के दशक की टॉप अभिनेत्रियों में शुमार रहीं। इस दौरान शिल्पा ने अमिताभ बच्चन, रजनीकांत, अनिल कपूर, मिथुन चक्रवर्ती, धर्मेंद्र और गोविंदा जैसे दिग्गज अभिनेताओं के साथ स्क्रीन साझा की। उन्‍होंने मिथुन चक्रवर्ती के साथ सबसे जादा 9 फिल्में कीं ।

साल 2000 में शिल्पा बैंकर अपरेश रंजीत के साथ शादी की और शादी के बाद वह अपने पति के साथ विदेश में शिफ्ट हो गईं। शिल्पा और अपरेश की एक बेटी अनुष्का है।

शादीके 13 साल बाद साल 2013 में शिल्पा ने जी टीवी   सीरियल ‘एक मुट्ठी आसमान’ के जरिए एक्टिंग में वापसी की। इस सीरियल का प्रदर्शन लगभग 2 साल तक हुआ।

इसके बाद वह ‘सिलसिला प्‍यार का’ (2016), ‘सावित्री देवी कॉलेज एंड हॉस्‍पीटल (2017-2018) जैसे कुछ सीरियलों में भी नजर आईं। लेकिन कोई बड़ा प्रभाव नहीं छोड़ सकीं।

साल 2024-2025 में शिल्पा ने सलमान खान द्वारा होस्ट किए गए कलर्स टीवी के रिएलिटी शो ‘बिग बॉस 18’ में हिस्सा लेकर जबर्दस्‍त सुर्खियां बटोरीं। यह उनके करियर का एक महत्वपूर्ण पड़ाव था, क्योंकि इस शो ने उन्हें फिर से दर्शकों के बीच ला खड़ा किया।

शिल्पा ने बिग बॉस के घर में 102 दिन बिताए और फिनाले तक पहुंचीं, हालांकि वह ट्रॉफी जीतने से चूक गईं। लेकिन शो में उनका जबर्दस्‍त ट्रांसफॉर्मेशन दिखाई दिया। शो में शिल्पा के गेम को खूब पसंद किया गया।

‘एक मुट्ठी आसमान’ से लेकर ‘बिग बॉस 18’ तक, शिल्‍पा शिरोडकर की यात्रा उतार-चढ़ाव से भरी रही, लेकिन उनके आत्मविश्वास और प्रतिभा ने उन्हें फिर से सुर्खियों में ला दिया।

उनकी हालिया शारीरिक और मानसिक ट्रांसफॉर्मेशन ने उनके प्रशंसकों को काफी अधिक उत्साहित किया है, और दर्शक अब उनके अगले कदम का इंतजार कर रहे हैं।

मिली जानकारी के अनुसार शिल्‍पा शिरोडकर की बतौर निर्माता फिल्‍म ‘सौ. शशि देवधर’ आने वाली है। इसके अलावा वह पेन इंडिया फिल्‍म ‘जटाधारा’ भी कर रही है। इसमें उनका किरदार खासा दमदार बताया जा रहा है।  अब यह देखना अत्‍यंत कौतुहलपूर्ण होगा कि इस बार वह अपनी मौजूदगी को कितना और मजबूत कर पाती है।   

सुभाष शिरढोनकर

अवैध घुसपैठियों के साथ क्यों खड़े हुए विपक्षी दल

राजेश कुमार पासी

भारत के दूसरे विभाजन की नींव कांग्रेस ने विभाजन के दौरान ही रख दी थी. हम लाख कोशिश कर ले लेकिन हमारी तीसरी पीढ़ी के बाद की कोई एक पीढ़ी इस विभाजन की गवाह बन सकती है । आप कितनी भी सम्पति इकट्ठी कर ले लेकिन एक दिन खाली हाथ देश के एक हिस्से से दूसरे हिस्से में जाना ही होगा जैसा कि 1947 में एक बार हो चुका है। इसकी बड़ी वजह यह है कि आरक्षण के लिए सवर्ण समाज जिस महापुरुष बाबा साहब अम्बेडकर को कोसता है, उनकी एक सलाह को कांग्रेस के नेतृत्व ने मानने से इनकार कर दिया था । बाबा साहब चाहते थे कि विभाजन से पहले दोनों देशों में आबादी की अदलाबदली हो जाए लेकिन कांग्रेस ने उनकी इस सलाह को सिरे से नकार दिया । सरदार पटेल भी ऐसा चाहते थे लेकिन कांग्रेस में उस समय वही होता था जो गांधी और नेहरू चाहते थे ।

 बाबा साहब का कहना था कि भारत से गरीब देशों ने विभाजन से पहले आबादी की अदलाबदली की है क्योंकि ऐसा न करना दूसरे विभाजन को जन्म देना होगा । उनका कहना था कि अगर आबादी की अदलाबदली नहीं होती है तो समस्या वहीं खड़ी रहेगी और देश दंगों की आग में जलता रहेगा । आजादी के बाद हम अपने देश को लगातार दंगों की आग में जलता देख रहे हैं क्योंकि कांग्रेस ने इसका इंतजाम विभाजन के दौरान ही कर दिया था । आजादी के बाद कांग्रेस लगातर ऐसे हालात पैदा कर रही है कि भविष्य में भारत का एक और विभाजन हो जाए । विभाजन के बाद इस देश में मुस्लिमों की बड़ी आबादी भारत में रूक गई और पाकिस्तान में भी बड़ी आबादी हिन्दुओं की रूक गई । पाकिस्तान और बांग्लादेश धीरे-धीरे हिन्दुओं की बड़ी आबादी को खत्म कर चुके हैं और बची खुची को जल्दी ही समाप्त कर देंगे  लेकिन भारत में मुस्लिमों की आबादी लगातार बढ़ती जा रही है । इसका पहला कारण तो यह है कि विभाजन के बाद भी भारत में मुस्लिमों का आना जारी रहा है और दूसरी सबसे बड़ी वजह यह है कि मुस्लिमों की जन्मदर हिन्दुओं के मुकाबले बहुत ज्यादा है । इसके अलावा बड़ी मात्रा में हिन्दुओं का धर्मपरिवर्तन आज भी जारी है । भारत ने विभाजन के बाद एक बड़ी समस्या का सामना किया है और वो मुस्लिमों की अवैध घुसपैठ की समस्या है । 

               अवैध घुसपैठ भारत की बड़ी समस्या है. एक अनुमान के अनुसार भारत में लगभग 6 करोड़ बांग्लादेशी, रोहिंग्या और  अन्य मुस्लिम देशों से आए अवैध घुसपैठ रह रहे हैं । वास्तव में भारत के विभाजन के लिए मुस्लिम लीग जिम्मेदार थी लेकिन आज तो भारत में कई मुस्लिम लीग हैं । जिन्हें हम सेकुलर पार्टियां बोलते हैं उनमें से ज्यादातर मुस्लिम लीग से भी ज्यादा साम्प्रदायिक सोच वाली पार्टियां हैं । मुस्लिम लीग मुसलमानों के लिए समान अधिकार मांगती थी लेकिन ये पार्टियां तो मुस्लिमों के लिए विशेषाधिकार मांगती हैं । आप सोचिए पाकिस्तान से आए हिन्दुओं की सम्पत्ति को पाकिस्तान की सरकार ने 1948 में ही शत्रु सम्पत्ति कानून बनाकर कब्जे में ले लिया था लेकिन भारत में इस सम्बंध में कांग्रेस ने 1968 तक कोई कानून ही नहीं बनाया । एक तरफ पाकिस्तान ने अपने देश में हिन्दुओं की छोड़ी गई सम्पत्ति को 1948 में ही कब्जे में ले लिया और भारत में आज तक मुकदमें चल रहे हैं ।

 कांग्रेस का कमाल तो यह था कि 1968 में कानून बनाकर उसने पाकिस्तान गए मुस्लिमों की सम्पत्ति को कब्जे में लेने की जगह  संरक्षित कर दिया था । पाकिस्तान में विस्थापितों के पुनर्वास की कोई समस्या नहीं आई क्योंकि उसने हिन्दुओं की सम्पत्ति उनके हवाले कर दी थी लेकिन भारत में विस्थापित भटकते रहे क्योंकि यहां उन्हें मुस्लिमों द्वारा छोड़ी सम्पत्ति से दूर रहने को कहा गया था । ये मुस्लिम तुष्टिकरण की समस्या आज भी हमारे देश में बनी हुई है । पहले सिर्फ कांग्रेस ऐसा कर रही थी लेकिन अब भाजपा के अलावा अन्य विपक्षी पार्टिायां भी इस काम में जुट गई हैं । भारत का विभाजन इसलिए नहीं होगा क्योंकि मुस्लिम ऐसा चाहते हैं बल्कि इसलिए होगा क्योंकि विपक्षी दल ऐसा चाहते हैं । विपक्षी दल मुस्लिमों को मुख्यधारा में शामिल होने से रोकने की हर संभव कोशिश कर रहे हैं । ये दल उन्हें विशेष होने का अहसास कराने के लिए देश की मुख्यधारा से जुड़ने नहीं दे रहे हैं ।  

              सभी विपक्षी दल एनआरसी का विरोध करते हैं क्योंकि वो नहीं चाहते हैं कि भारत में अवैध रूप से रह रहे मुस्लिमों के खिलाफ कोई कार्यवाही की जा सके । कोई भी देश में अपने देश में किसी को नागरिकता बहुत सोच समझकर देता है लेकिन भारत में करोड़ो लोग अवैध घुसपैठ करके भारतीय नागरिक बनकर रह रहे हैं । ये घुसपैठिए न केवल भारत की अर्थव्यवस्था को चौपट कर रहे हैं बल्कि मतदाता बनकर सरकार भी चुन रहे हैं । ये घुसपैठिए विपक्षी दलों के बड़े वोट बैंक हैं इसलिए विपक्षी दल नहीं चाहते हैं कि इनके खिलाफ कोई कार्यवाही हो । चुनाव आयोग ने बिहार विधानसभा चुनाव से पहले मतदाता सूची के सत्यापन और पुनरीक्षण का काम शुरू कर दिया है । जब से चुनाव आयोग ने इस काम को शुरू किया है, देश के विपक्षी दल चुनाव आयोग के विरोध में खड़े हो गए हैं । इस काम को रूकवाने के लिए ये लोग सुप्रीम कोर्ट पहुंच गए हैं ताकि अवैध घुपपैठियों का नाम मतदाता सूची से न हटे । 

 सुप्रीम कोर्ट ने इस पर रोक तो नहीं लगाई है लेकिन 10 जुलाई से इस पर विस्तार से सुनवाई करने का फैसला किया है । विपक्ष आरोप लगा रहा है कि सरकार चुनाव आयोग के माध्यम से कुछ लोगों को मताधिकार से वंचित करना चाहती है । इसका इस्तेमाल मतदाता सूचियों के आक्रामक और अपारदर्शी संशोधनों को सही ठहराने के लिए किया जा रहा है, जो मुस्लिम, दलित और गरीब प्रवासी समुदायों को असंगत रूप से लक्षित करते हैं । इसका भी विरोध किया जा रहा है कि इसकी शुरूआत बिहार से क्यों की जा रही है । सवाल यह है कि अगर यह सही है तो बिहार से शुरू करने में क्या बुराई है । कहा जा रहा है कि चुनाव आयोग अपने मनमाने और अनुचित आदेश से राज्य में करोड़ो मतदाताओं को मताधिकार से वंचित करना चाहता है । इसे मौलिक अधिकारों का हनन बताते हुए सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल  की गई है । ममता बनर्जी ने इसे एनआरसी से भी ज्यादा खतरनाक बताया है । अगले साल बंगाल में चुनाव होने वाले हैं इसलिए वो अभी से मोर्चा खोकर बैठ गई हैं क्योंकि बंगाल में अवैध घुसपैठियों के भारी संख्या में होने का अनुमान है। 

               चुनाव आयोग यह कार्यवाही संविधान के अनुच्छेद-326, जन प्रतिनिधित्व अधिनियम और निर्वाचन पंजीकरण नियमावली  1960 के नियमों के अनुरूप कर रहा है । सवाल  यह है कि जब चुनाव आयोग अपने संवैधानिक दायित्वों का पालन कर रहा है तो इससे लोकतंत्र की हत्या कैसे हो रही है और कैसे नागरिकों के अधिकार छीने जा रहे हैं । महाराष्ट्र में 40 लाख मतदाता बढ़ गए तो यही विपक्ष शोर मचा रहा था. अब चुनाव आयोग मतदाता सूची में सुधार करना चाहता है तो विपक्ष फिर शोर मचा रहा है । मतदाता सूची का विशेष पुनरीक्षण  अब तक नौ बार हो चुका है और इसमें से दो बार को छोड़कर ये काम कांग्रेस के शासन में किया गया है । 58 सालों में जो काम 9 बार किया गया, अब वो काम 22 सालों में एक बार होने जा रहा है तो विपक्ष इतना परेशान क्यों है । जब नौ बार पहले किया गया तो ठीक था लेकिन अब ऐसा क्या हो गया है कि संविधान और लोकतंत्र खतरे में आ गया है ।

विपक्ष का कहना है कि करोड़ों लोगों के नाम मतदाता सूची से कट सकते हैं । अब सवाल यह है कि जो लोग 22 सालों में दुनिया छोड़ गए या बिहार छोड़कर चले गए, उनका नाम मतदाता सूची से क्यों नहीं हटना चाहिए । चुनाव आयोग ने ऐसे दस्तावेज प्रस्तुत करने का कहा है जिससे कि साबित हो कि आप 2003 के पहले से भारतीय नागरिक हैं । आधार और राशन कार्ड को इससे बाहर रखा गया है क्योंकि ये बड़ी आसानी से फर्जी बनाए जाते हैं । विपक्ष इन्हें ही शामिल करने को कह रहा है । वास्तव में सारा शोरशराबा इसलिए किया जा रहा है क्योंकि विपक्ष जानता है कि चुनाव आयोग की कार्यवाही से भारत में अवैध रूप से रह रहे घुसपैठिए मतदाता सूची से बाहर हो सकते हैं और भारत सरकार उनके खिलाफ आगे भी कार्यवाही कर सकती है । पूरा विपक्ष अवैध घुसपैठियों के बचाने के लिए मैदान में उतर आया है ।

 सवाल फिर वही है कि जो लोग भारत  की  सुरक्षा के लिए बड़ा खतरा हैं उनको बचाने की कोशिश  क्यों की जा रही है । राजनीतिक फायदे के लिए देशहित की बलि क्यों दी जा रही है । अंत में इतना कहना चाहता हूं कि अवैध घुसपैठ, धर्मपरिवर्तन और तीव्र मुस्लिम जन्म दर एक दिन भारत का दूसरा विभाजन करवा सकती है । आजादी के बाद मुस्लिमों की आबादी नौ प्रतिशत से बढ़कर 16 प्रतिशत हो  गई है । इसके लिए सिर्फ तीव्र मुस्लिम जन्मदर जिम्मेदार नहीं है बल्कि अवैध घुसपैठ और धर्मपरिवर्तन भी बड़ी वजह है । मुस्लिमों में कट्टरवाद और अलगाववाद बड़ी तेजी से बढ़ रहा है क्योंकि  राजनीतिक दल इसे अपने लिए फायदेमंद मानते हैं। पहले अंग्रेजों ने हिन्दू-मुस्लिम भाईचारे को खत्म करके देश का विभाजन करवाया, अब यही काम हमारे देश के कुछ राजनीतिक दल कर सकते हैं। ये हमारी आदत है कि जब तक खतरा सिर पर नहीं आ जाता तब तक हम उसकी अनदेखी करते हैं। अभी खतरा दूर है लेकिन उसकी आहट महसूस की जा सकती है।

राजेश कुमार पासी

वोटिंग लिस्ट के पुनरीक्षण को लेकर बवाल

कुमार कृष्णन

बिहार विधानसभा चुनाव से पहले वोटिंग लिस्ट के पुनरीक्षण को लेकर बवाल मचा हुआ है। कारण चुनाव आयोग अपने नागरिकों से उसकी नागरिकता का प्रमाण मांग रहा है। चुनाव आयोग की तरफ से वोटिंग लिस्ट का पुनरीक्षण का काम शुरू भी कर दिया गया था और इसके लिए जो नियम बनाए गए थे। उस पर विपक्ष चिंता में डूब गया था क्योंकि लोगों से भारत की नागरिकता साबित करने को कहा जा रहा था। विपक्ष ने चुनाव आयोग के नियम पर सवाल उठाए लेकिन मुख्य चुनाव आयुक्त ने साफ कर दिया कि वो फैसला वापस नहीं लेंगे पर जैसे ही ये मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा, चुनाव आयोग ने यू टर्न ले लिया।

सुप्रीम कोर्ट में 10 तारीख को सुनवाई होगी। वहीं 9 तारीख को बंद का  आह्वान किया गया है। अब स्थिति सड़क से लेकर अदालत वाली हो  गयी है।

एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स  की ओर से बिहार में चुनाव आयोग के तरफ से चलाए जा रहे विशेष पुनरीक्षण अभियान को लेकर कोर्ट में भी मामला ले जाया गया है। एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स के बिहार के संयोजक राजीव कुमार का कहना है कि बिहार में गरीब मतदाताओं के पास आधार कार्ड और राशन कार्ड है और जो 11 दस्तावेज मांगा जा रहा है वह जमा करना मुश्किल होगा।

 बिहार के वोटर लिस्ट वेरिफिकेशन के मामले में अब तक 9 याचिका दाखिल की जा चुकी है। राष्ट्रीय जनता दल यानी आरजेडी के राज्यसभा सांसद मनोज झा, तृणमूल कांग्रेस यानी टीएमसी की लोकसभा सांसद महुआ मोइत्रा और एक्टिविस्ट योगेंद्र यादव ने कोर्ट का दरवाजा खटखटाया है। इनके अलावा ‘एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स’ (एडीआर) और ‘पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज’ ने भी ईसीआई को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी है। राष्ट्रीय जनता दल सांसद मनोज झा ने अपनी रिट याचिका में कहा है कि ये फैसला न सिर्फ जल्दबाजी में लिया गया है बल्कि गलत समय पर भी लिया गया है। उनका मानना है कि इससे करोड़ों वोटर मताधिकार से वंचित हो जाएंगे। जिससे वोट देने का उनका संवैधानिक अधिकार छिन जाएगा। इसके अलावा मनोज झा ने ये भी कहा है कि आयोग ने फैसला करने से पहले राजनीतिक दलों के साथ कोई बातचीत नहीं की। उन्होंने ईसीआई पर गंभीर आरोप लगाते हुए कहा, अपारदर्शी बदलावों को सही ठहराने की कोशिश की जा रही है। इसके जरिए मुस्लिम, दलित और गरीब समुदायों को टारगेट किया जा रहा है। अब इस मामले में सुप्रीम कोर्ट क्या रूख अपनाता है, ये  देखने वाली बात होगी। 

बिहार में  वोटर लिस्ट पुनरीक्षण पर राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन यानी एनडीए में ही फूट है। राष्ट्रीय लोक मोर्चा के नेता और एनडीए सहयोगी उपेंद्र कुशवाहा ने  बिहार में चुनाव आयोग द्वारा किए जा रहे वोटर लिस्ट पुनरीक्षण पर चिंता जताई। कुशवाहा ने कहा कि ईसीआई को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि मतदाता सूची में कोई भी वास्तविक मतदाता छूट न जाए। उन्होंने मतदाता सूची के पुनरीक्षण में समय की कमी पर भी सवाल उठाए। कुशवाहा ने प्रवासी मतदाताओं के मतदाता सूची से बाहर होने की आशंका व्यक्त की और कहा कि कई लोगों के पास चुनाव आयोग द्वारा उल्लिखित दस्तावेज नहीं हैं, जिससे उनमें घबराहट है।

राष्ट्रीय लोक मोर्चा (आरएलएम) के नेता उपेंद्र कुशवाहा ने निर्वाचन आयोग द्वारा बिहार में चलाए जा रहे विशेष पुनरीक्षण कार्यक्रम (एसआईआर) पर सवाल उठाए हैं। उन्होंने कहा कि मतदाता सूची से किसी भी वास्तविक मतदाता का नाम नहीं काटा जाना चाहिए। कुशवाहा ने कहा कि मतदाता सूची का पुनरीक्षण कोई नई बात नहीं है और यह पहले भी होता रहा है। उन्होंने कहा कि निर्वाचन आयोग (ईसीआई) को जनसंख्या को देखते हुए यह अभ्यास एक या दो साल पहले शुरू कर देना चाहिए था।

कुशवाहा ने कहा कि बिहार एक ऐसा राज्य है जहां बहुत से लोग देश के विभिन्न हिस्सों में काम कर रहे हैं लेकिन वे बिहार के मतदाता हैं। उन्होंने कहा कि प्रवासी मतदाताओं में यह डर है कि उन्हें मतदाता सूची से बाहर कर दिया जाएगा। कुशवाहा ने कहा कि राज्य में रहने वाले लोगों के एक बड़े वर्ग में भी यही डर है। उन्होंने कहा कि बिहार में कई ऐसे लोग हैं जिनके पास ईसीआई द्वारा बताए गए दस्तावेज नहीं हैं। कुशवाहा ने कहा कि अब ऐसे लोगों में दहशत है कि उनका नाम मतदाता सूची से हटा दिया जाएगा। 

हरनौत विधानसभा क्षेत्र, जिसमें मुख्य मंत्री नीतीश कुमार का गांव कल्याण बिगहा भी शामिल है और जिसे नीतीश ने पहले भी कई बार जीता है, में ओबीसी कुर्मियों के साथ-साथ कुछ ईबीसी और ब्राह्मण परिवारों का वर्चस्व है। चुनाव आयोग की कवायद के कारण हाशिए पर पड़े ईबीसी जैसे लोगों को सबसे ज्यादा वंचित होने की आशंका है। कारण 10 फीसदी लोगों के पास ही चुनाव आयोग द्वारा मान्य दस्तावेज हैं ।

 चुनाव आयोग का यह निर्णय संविधान के अनुच्छेद 14,19,21,325 और 326 और जनप्रतिनिधित्व कानून 1950 और उसके रजिस्ट्रेशन ऑफ इलेक्टोर्स रूल 1960 के नियम 21ए का उल्लंघन है.

मतदाता सूची में शामिल होने की पात्रता साबित करने की जिम्मेदारी नागरिकों पर डाल दी है। आधार और राशन कार्ड जैसे सामान्य पहचान पत्र को बाहर करके यह प्रक्रिया हाशिए पर पड़े समुदायों पर नकारात्मक असर डालेगी। मतदाताओं के लिए न सिर्फ अपनी नागरिकता साबित करने के लिए, बल्कि अपने माता-पिता की नागरिकता साबित करने के लिए भी दस्तावेज पेश करने होंगे। चुनाव आयोग का यह फैसला संविधान के अनुच्छेद 326 का उल्लंघन है। चुनाव आयोग ने बिहार में मतदाता सूची के विशेष सघन पुनरीक्षण को लागू करने के लिए अव्यवहारिक समय सीमा निर्धारित की है, विशेषकर निकट में नवंबर 2025 में होने वाले राज्य विधानसभा चुनावों को देखते हुए। ऐसे बहुत से लोग हैं, जिनका नाम 2003 की मतदाता सूची में नहीं था। जिनके पास विशेष सघन पुनरीक्षण आदेश में मांगे गए दस्तावेज नहीं हैं।

चुनाव आयोग ने अपना फैसला वापस ले लिया है। वोटिंग लिस्ट में नाम शामिल कराने के लिए अब जन्म प्रमाण पत्र देने की बाध्यता नहीं हैं। सिर्फ फार्म भरकर जमा कराया जा सकता है और फार्म भरने में परेशानी आ रही हैं तो बीएलओ को घर पर बुलाया जा सकता है। दरअसल बिहार में वोटिंग लिस्ट में सुधार के नाम पर चुनाव आयोग की तरफ से विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआईआर) अभियान शुरू किया गया। वोटिंग लिस्ट में शामिल लोगों और जो नए वोटर बनने के योग्य है, उन सभी से जन्म का प्रमाण देने को कहा गया था। विपक्ष की तरफ से इसे चोरी छुपे देश में एनआरसी थोपने की कोशिश बताई जा रही थी। आनन फानन में इस तरह की कोशिश से बिहार में दो करोड़ लोगों का वोट देने का अधिकार छिन जाएगा। राशन कार्ड जैसे सामान्य पहचान दस्तावेजों को बाहर करके, यह प्रक्रिया हाशिए पर पड़े समुदायों और गरीबों पर असंगत रूप से प्रभाव डालती है, जिससे उनके बाहर होने की संभावना अधिक होती है।इसके अलावा, पुनरीक्षण प्रक्रिया के तहत मतदाताओं के लिए न केवल अपनी नागरिकता साबित करने के लिए बल्कि अपने माता-पिता की नागरिकता साबित करने के लिए भी दस्तावेज प्रस्तुत करने की आवश्यकता अनुच्छेद 326 का उल्लंघन करती है।इन आवश्यकताओं को पूरा करने में विफल रहने पर उनके नाम मसौदा मतदाता सूची से बाहर किए जा सकते हैं या यहां तक कि उन्हें पूरी तरह से हटा दिया जा सकता है।

बिहार की कुल आबादी लगभग 13 करोड़ है। इनमे से कोई 8 करोड़ वयस्क हैं जिनका नाम मतदाता सूची में होना चाहिए। इनमे से सिर्फ़ 3 करोड़ के क़रीब लोगों का नाम 2003 की मतदाता सूची में था। बाक़ी 5 करोड़ को अपनी नागरिकता के प्रमाण जुटाने पड़ेंगे। उनमे से आधे यानी ढाई करोड़ लोगों के पास वो प्रमाणपत्र नहीं होंगे जो चुनाव आयोग माँग रहा है। मतलब इस ‘विशेष गहन पुनरीक्षण’ से अंतिम व्यक्ति के हाथ से वो एक मात्र अधिकार चला जाएगा जो आज भी उसके पास है — वोट का अधिकार। पहले नोटबंदी हुई, फिर कोरोना में देशबंदी हुई, अब वोटबंदी की तैयारी है। मतदाता सूची पुनरीक्षण के खिलाफ विपक्ष ने लामबंदी तेज कर दी है। महागठबंधन ने 9 जुलाई को बिहार में चक्का जाम का ऐलान किया है। इसमें लोकसभा के नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी भी शामिल होंगे।

नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव ने कहा, ‘हमनेविशेष गहन पुनरीक्षण के खिलाफ अपनी आपत्ति दर्ज कराई है, जो कमजोर वर्गों को उनके मताधिकार से वंचित करने की साजिश है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को यह डर है कि राजग (राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन) आगामी विधानसभा चुनाव हार सकता है।’

तेजस्वी यादव ने कहा कि विपक्ष ने निर्वाचन आयोग के साथ अपनी चिंताओं को साझा किया है, लेकिन पटना में अधिकारी कोई भी निर्णय लेने में शामिल नहीं हैं। उन्होंने कहा, ‘और हर कोई जानता है कि कौन फैसले ले रहा है।’ राजद नेता ने कहा, ‘हम बिहार के लोगों से सतर्क रहने की अपील करते हैं। हम उनके साथ हैं और 9 जुलाई को महागठबंधन, भाजपा नीत राजग को लाभ पहुंचाने की इस साजिश के विरोध में चक्का जाम करेगा।’बिहार में इस साल के अंत में चुनाव होने हैं, जबकि पांच राज्यों – असम, केरल, पुडुचेरी, तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल में विधानसभा चुनाव 2026 में होने हैं।टीएमसी नेता महुआ मोइत्रा ने कहा कि बिहार चुनाव के बहाने लाए गए ये संशोधन नियम दरअसल 2026 के बंगाल चुनाव को टारगेट करते हैं। इससे प्रवासी मजदूरों को भारी परेशानी होगी और नागरिकों को बार-बार अपनी नागरिकता साबित करनी होगी।

 बांग्लादेश और म्यांमा से आने वाले अवैध प्रवासियों के खिलाफ विभिन्न राज्यों में की जा रही कार्रवाई के मद्देनजर यह कवायद महत्वपूर्ण मानी जा रही है।

एनडीए के अंदर भी चुनाव आयोग की कोशिश पर सवाल उठ रहे थे लेकिन मुख्य चुनाव आयुक्त ज्ञानेश कुमार अपने फैसले से पीछे हटने को तैयार नहीं थे। चुनाव आयोग की विश्वसनीयता और निष्पक्षता पर लगातार सवाल उठ रहे हैं। लोकसभा चुनाव के बाद भी चुनाव की प्रक्रिया और पारदर्शिता को लेकर विपक्ष और चुनाव आयोग के बीच टकराव बना हुआ है। महाराष्ट्र हरियाणा में चुनाव आयोग पर सवाल उठने   के बिहार में पुनरीक्षण ने कटघरे में खड़ा कर दिया है। पुर्णिया से निर्दलीय सांसद पप्पू यादव का कहना है  कि चुनाव आयोग आरएसएस का दफ्तर हो चुका है।  चुनाव आयोग भगवान नहीं है, अलाउद्दीन का चिराग नहीं है। अब आर पार की लड़ाई होगी।

राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह पर निशाना साधते हुए कहा है कि दो गुजराती मिलकर आठ करोड़ बिहारियों का वोट का अधिकार छीनने जा रहे हैं। इन दोनों को बिहार, लोकतंत्र और संविधान से सख्त नफरत है, जागो,आवाज उठाओ, लोकतंत्र ओर संविधान बताओ। कांग्रेस, राजद, वामदल समेत सारा विपक्ष ताल ठोंक कर मैदान में आ चुका है। तो अब उम्मीद बंध गई है कि बिहार में चुनाव की वो चोरी नहीं हो पाएगी, जिसके आरोप राहुल गांधी ने महाराष्ट्र और हरियाणा चुनाव में लगाये हैं और बिहार में भी होने की आशंका जाहिर की थी।

इस बीच खबर  है कि चुनाव आयोग के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देने के  बाद सुबह जब बिहार में लोग के घर अखबार पहुंचता है तो वो हैरान रह जाते हैं। अखबार में पूरे पेज का एड छपा हुआ था। जो चुनाव आयोग की तरफ से जारी किया गया है और इसमें साफ साफ लिखा है कि पहला : गणना प्रपत्र बीएलओ से प्राप्त होते ही तत्काल भर कर आवश्यक दस्तावजे और फोटो के साथ बीएलओ को उपलब्ध करा दें और दूसरा : अगर आवश्यक दस्तावेज और फोटो उपलब्ध नहीं हों तो सिर्फ गणना प्रपत्र भरकर बीएलओ को उपलब्ध करा दें। गणना प्रपत्र आनलाइन भी भरा जा सकता है। इसके लिए क्यू आर कोड जारी किया गया है यानी जो लोग बिहार से बाहर रहते हैं। वो भी गणना प्रपत्र भर सकते हैं। इसे आनलाइन ही जमा कराया जा सकता है जबकि पहले इसे बूथ पर जमा कराने के निर्देश थे। यानी चुनाव आयोग की तरफ से अपने पहले के फैसले से पूरी तरह से यू टर्न ले लिया गया है और इसके पीछे सबसे बड़ा कारण सुप्रीम कोर्ट को ही माना जा रहा है ।

एनडीए में भाजपा के साथी दल भी इस कवायद से होने वाले नुक़सान को समझ रहे थे लेकिन खुल कर कहने की हिम्मत नहीं दिखा रहे थे। ख़ास तौर पर जनता दल (यू) के कई नेताओं का मानना था कि इस तरह की दस्तावेज़ की शर्तों से उनके अति पिछड़े और महिला मतदाताओं पर काफ़ी बुरा असर पड़ेगा। गौरतलब है कि चुनाव आयोग ने सरकारी कर्मचारी/पेंशनर पहचान पत्र, जन्म प्रमाणपत्र, पासपोर्ट, मैट्रिक का सर्टिफिकेट, डोमिसाइल, वन अधिकार और ओबीसी, एससी, एसटी प्रमाणपत्र, राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर, पारिवारिक रजिस्टर, और जमीन या मकान आबंटन प्रमाणपत्र इन दस्तावेज के आधार पर वोटर को वैध या अवैध निश्चित करने का फ़ैसला किया था। इसमें कहीं भी आधार कार्ड, पैन कार्ड, मनरेगा या राशनकार्ड का जिक्र नहीं था जबकि हिन्दुस्तान की कम से कम 90 प्रतिशत आबादी अपनी पहचान बताने के लिए इन्हीं में से कोई एक कागज़ दिखाती है।

कोरोना वैक्सीन लगवाने से लेकर, स्कूल-कॉलेज में दाखिला, बैंक खाता खोलने, पासपोर्ट बनवाने या हवाई जहाज से सफ़र करने तक हर जगह पहचान के नाम पर आधार कार्ड, पैन कार्ड, राशनकार्ड ही दिखाया जाता है। जिन दस्तावेज़ को रहने, खाने, काम करने, सफर करने, आजीविका के लिए ज़रूरी माना गया, उनमें से किसी को भी वोट डालने के लिए जरूरी क्यों नही माना गया, यह सवाल भी उठा। अगर चुनाव आयोग किसी को वोट देने के योग्य नहीं मानेगा, तो इसका मतलब है कि वह इन्हें भारत का नागरिक भी नहीं मानेगा। इसमें एक बड़े चुनावी घोटाले की बू आई, जिसके बाद ही विपक्ष ने बड़ी तेजी से इस मसले पर मोर्चा खोला और अब इसमें उसे जीत भी मिली है।

25 जून से लागू हुए इस आदेश में रोजाना की तब्दीलियां हो रही हैं, जो बता रही हैं कि इस फैसले को हड़बड़ी में लिया गया है। ठीक वैसे ही जैसे आधी रात को संसद लगाकर जीएसटी तो लागू की गई थी, फिर रोज़ाना नियम बदले जाते थे। जब नोटबंदी लागू की गई, उसके बाद भी यही आलम रहा कि बार-बार नियम बदले गए और अब मतदाता सूची गहन पुनरीक्षण अभियान में भी यही हो रहा है। ताज़ा बदलाव यही है कि अब दस्तावेज दिखाना ही जरूरी नहीं है।

मतदाता सूची के गहन पुनरीक्षण को लेकर चुनाव आयोग के तेवर कई बार ढीले पड़े हैं लेकिन याद रखने की बात यह है कि अब भी इसने इसमें एक पेंच लगा रखा है। चुनाव आयोग के विज्ञापन में यह बात बताई गई है कि अगर आप जरूरी दस्तावेज उपलब्ध कराते हैं तो निर्वाचन निबंधन पदाधिकारी यानी ईआरओ को आवेदन को प्रोसेस करने में आसानी रहेगी। इसके ठीक बाद चुनाव आयोग का विज्ञापन कहता है कि अगर आप जरूरी दस्तावेज उपलब्ध नहीं करा पाते हैं तो निर्वाचक निबंधन पदाधिकारी यानी ईआरओ द्वारा स्थानीय जांच या अन्य दस्तावेज के साक्ष्य के आधार पर निर्णय लिया जा सकेगा। यानी अब दस्तावेज देना ज़रूरी तो नहीं रहा लेकिन अगर चुनाव आयोग का अधिकारी यह मान ले कि आपको दस्तावेज की ज़रूरत है तो उसे देना पड़ेगा।

कुमार कृष्णन 

डी के शिवकुमार को ‘सीएम इन वेटिंग’ में रखने के पीछे खरगे का पुत्र मोह तो नहीं!

                            रामस्वरूप रावतसरे

   चिक्कबल्लापुर में मीडिया से बातचीत में कर्नाटक के डिप्टी सीएम डीके शिवकुमार ने सीएम सिद्धारमैया के बारे में कहा, “मेरे पास और क्या चारा है? मुझे उनके साथ खड़ा होना है और उनका साथ देना है। मुझे इसमें कोई ऐतराज नहीं है। पार्टी हाईकमान जो कहेगा, जो फैसला करेगा, वो पूरा होगा, मैं अभी इस पर कुछ बोलना नहीं चाहता। लाखों कार्यकर्ता इस पार्टी के साथ हैं।‘

    कर्नाटक की सियासत में एक बार फिर डिप्टी सीएम डीके शिवकुमार की उम्मीदों को तगड़ा झटका लगा है। मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने साफ कर दिया है कि वह पूरे पाँच साल तक अपनी कुर्सी पर बने रहेंगे। इस बयान ने शिवकुमार और उनके समर्थकों के अरमानों पर पानी फेर दिया। शिवकुमार ने मजबूरी में सिद्धारमैया का साथ देने की बात कही लेकिन उनके बयान में छिपी निराशा साफ झलक रही थी।

    राजनीतिक पंडितों की माने तो डीके शिवकुमार का यह कहना कि मेरे पास और कोई रास्ता नहीं, मुझे उनके साथ खड़ा होना ही है। यह बयान उनकी उस हताशा को दिखाता है जो बार-बार हाईकमान के फैसलों से उपज रही है। दरअसल, कर्नाटक में कॉन्ग्रेस की सत्ता को मजबूत करने में शिवकुमार की मेहनत को कोई नकार नहीं सकता, फिर भी उन्हें बार-बार इंतजार करने को कहा जा रहा है। क्या वह हमेशा ‘सीएम इन वेटिंग’ बने रहेंगे या कोई बड़ा सियासी कदम भी उठा सकते हैं?

    इधर सिद्धारमैया ने पत्रकारों से बातचीत में दो टूक कहा, “हाँ, मैं मुख्यमंत्री बना रहूँगा। आपको क्यों शक है?” उन्होंने भाजपा और जेडी(एस) पर नेतृत्व परिवर्तन की अफवाहें फैलाने का आरोप लगाया। दूसरी तरफ डीके शिवकुमार ने सिद्धारमैया के बयान के बाद कहा, “मुख्यमंत्री के सामने मेरा कोई सवाल ही नहीं उठता। मैंने किसी से मेरे पक्ष में बोलने को नहीं कहा।‘ डीके ने यह भी जोड़ा कि कॉन्ग्रेस हाईकमान का जो भी फैसला होगा, वह उसे मानेंगे लेकिन उनके इस बयान में वह जोश और आत्मविश्वास नहीं दिखा, जो पहले उनके भाषणों में झलकता था। यह साफ है कि हाईकमान ने एक बार फिर सिद्धारमैया को प्राथमिकता दी है और शिवकुमार को इंतजार करने को कहा गया है।

    साल 2023 के विधानसभा चुनाव में कॉन्ग्रेस की जीत के बाद शिवकुमार को उम्मीद थी कि उन्हें सीएम की कुर्सी मिलेगी। उनकी मेहनत और संगठन कौशल ने पार्टी को 135 सीटें दिलाई थीं। सूत्रों की मानें तो उस वक्त ढाई-ढाई साल के फॉर्मूले की बात हुई थी, जिसमें सिद्धारमैया और शिवकुमार बारी-बारी से सीएम बनते। लेकिन अब सिद्धारमैया ने साफ कर दिया है कि वह पूरे कार्यकाल तक कुर्सी नहीं छोड़ेंगे और हाईकमान ने भी इस पर मुहर लगा दी है।

   बताया जाता है कि कर्नाटक की सियासत में जाति का एंगल हमेशा से अहम रहा है। डीके शिवकुमार ताकतवर वोक्कालिगा समुदाय से आते हैं जो कर्नाटक की राजनीति में बड़ा प्रभाव रखता है। उनके समर्थकों का मानना है कि पार्टी ने उनके साथ नाइंसाफी की है। हाल ही में वोक्कालिगा समुदाय के कुछ धर्मगुरुओं ने भी शिवकुमार के पक्ष में बयान दिए थे। दूसरी तरफ सिद्धारमैया पिछड़े वर्ग (कुर्मी) से हैं, और उनका सामाजिक आधार भी मजबूत है। कॉन्ग्रेस हाईकमान ने सिद्धारमैया को समर्थन देकर यथास्थिति बनाए रखने का फैसला किया।

कॉन्ग्रेस विधायक इकबाल हुसैन ने दावा किया था कि 100 से ज्यादा विधायक शिवकुमार को सीएम बनाने के पक्ष में हैं। उन्होंने कहा था कि अगर कॉन्ग्रेस को 2028 में सत्ता में वापसी करनी है तो शिवकुमार को मौका देना होगा लेकिन हाईकमान ने हुसैन को नोटिस थमाकर चुप करा दिया। यह दिखाता है कि पार्टी में अनुशासन की आड़ में शिवकुमार के समर्थकों को दबाया जा रहा है। कर्नाटक विधानसभा में कॉन्ग्रेस के 138 विधायक हैं जिसमें से करीब 100 शिवकुमार के साथ माने जाते हैं। फिर भी हाईकमान ने सिद्धारमैया को प्राथमिकता दी।

    कॉन्ग्रेस हाईकमान ने इस पूरे मामले में सधी हुई चाल चली। सूत्रों के मुताबिक, बिहार चुनाव तक सिद्धारमैया को बनाए रखने का बहाना बनाया गया। हाईकमान को डर है कि सिद्धारमैया को हटाने से बिहार में पिछड़े वर्ग के बीच गलत संदेश जाएगा और भाजपा इसे भुनाएगी। साथ ही शिवकुमार के खिलाफ चल रही सीबीआई जाँच को भी फैसले में शामिल किया गया। 2019 में मनी लॉन्ड्रिंग केस में उनकी जेल यात्रा को याद दिलाकर कहा गया कि अगर वह सीएम बने तो भाजपा जाँच एजेंसियों को और सक्रिय कर सकती है जिससे कॉन्ग्रेस को नुकसान हो सकता है। यही नहीं, मल्लिकार्जुन खरगे ने सिद्धारमैया के पक्ष में फैसला लेते हुए यह भी सुनिश्चित किया कि उनके बेटे प्रियांक खरगे का नाम भी सीएम की दौड़ में बना रहे। सूत्रों का कहना है कि सिद्धारमैया ने शिवकुमार के सामने प्रदेश अध्यक्ष की कुर्सी छोड़ने की शर्त रखी थी लेकिन शिवकुमार ने इसे ठुकरा दिया। इसके बाद गेंद हाईकमान के पाले में गई और खरगे ने यथास्थिति बनाए रखने का फैसला किया।

   जानकारों की माने तो शिवकुमार की स्थिति एमपी में ज्योतिरादित्य सिंधिया, छत्तीसगढ़ में टीएस सिंहदेव और राजस्थान में सचिन पायलट जैसी है, जिन्हें भी कॉन्ग्रेस ने लंबे समय तक इंतजार कराया। सिंधिया ने आखिरकार बगावत कर भाजपा का दामन थाम लिया जबकि पायलट ने धैर्य रखा। हालाँकि शिवकुमार ने अब तक तो कॉन्ग्रेस के प्रति वफादारी दिखाई है लेकिन उनके समर्थकों में बेचैनी बढ़ रही है। वोक्कालिगा समुदाय का गुस्सा और उनकी अपनी महत्वाकांक्षा देर-सबेर कोई बड़ा सियासी तूफान ला सकती है। क्या शिवकुमार बगावत करेंगे? यह संभावना कम लगती है क्योंकि वह कॉन्ग्रेस के लिए कर्नाटक में एक मजबूत चेहरा हैं लेकिन अगर हाईकमान बार-बार उनकी अनदेखी करता रहा तो उनके धैर्य की भी सीमा टूट सकती है। फिलहाल उन्होंने हाईकमान के फैसले को स्वीकार कर लिया है लेकिन उनके समर्थकों का मानना है कि यह शांति ज्यादा दिन नहीं टिकेगी।

    कर्नाटक की सियासत में यह ड्रामा अभी थमा नहीं है। सिद्धारमैया की कुर्सी फिलहाल सुरक्षित है लेकिन शिवकुमार और उनके समर्थकों की बेचैनी बनी रहेगी। अगर कॉन्ग्रेस 2028 के चुनाव में कमजोर प्रदर्शन करती है, तो शिवकुमार के लिए मौका बन सकता है लेकिन अगर हाईकमान ने फिर से उनकी अनदेखी की, तो कर्नाटक में कॉन्ग्रेस की एकता पर सवाल उठ सकते हैं। भविष्य में क्या होगा, यह तो आने वाला समय ही बताएगा।

रामस्वरूप रावतसरे

घुरती मेला का संघर्ष : क्या हम अपनी जड़ों से कटते जा रहे हैं?

अशोक कुमार झा

रांची की धरती न केवल जंगलों, जल और जनजातीय आत्मा की पहचान रही है, बल्कि यहां की परंपराएं और सांस्कृतिक मेलों ने सदियों से इस धरती की आत्मा को जीवित रखा है। इन्हीं परंपराओं में एक घुरती रथ मेला भी है, जो न केवल एक धार्मिक आयोजन है बल्कि आदिवासी और स्थानीय ग्रामीण जीवनशैली का उत्सव भी है।

हर वर्ष यह मेला रथ यात्रा के साथ आरंभ होता है और स्थानीय ग्रामीणों द्वारा पूरी श्रद्धा, समर्पण और सहयोग से संपन्न किया जाता है लेकिन विडंबना यह है कि आज वही ग्रामीण अपनी ही परंपरा के आयोजन में हाशिए पर खड़े कर दिए गए हैं — क्योंकि अब यह रथ मेला भी व्यवसायीकरण की चपेट में आ चुका है।

घुरती मेला: एक सांस्कृतिक विरासत

रांची में घुरती रथ मेला कोई नया आयोजन नहीं है । यह सैकड़ों वर्षों से चली आ रही हमारी परंपरा है जिसे कुटे और आसपास के गांवों के पूर्वजों ने शुरू किया था। उनका उद्देश्य यह था कि धार्मिक रथ यात्रा के साथ-साथ एक मेला भी लगे जिससे आसपास के गांवों के लोग न केवल सांस्कृतिक रूप से जुड़ें बल्कि उन्हें स्थानीय उत्पाद बेचने और आर्थिक लाभ कमाने का अवसर भी प्राप्त हो सके।

साल में एक बार लगने वाला यह मेला कई मायनों में ग्रामीण अर्थव्यवस्था का एक अस्थायी लेकिन महत्वपूर्ण केंद्र रहा है। खेती के बाद के समय में जब गांवों में आर्थिक गतिशीलता कम हो जाती है, तब ऐसा मेला लघु उद्यमहस्तशिल्पपारंपरिक खानपानलोकनृत्य और सांस्कृतिक विनिमय का जरिया बनता है।

सांप्रदायिक सौहार्द का प्रतीक — ‘हम सबका मेला

यह मेला सिर्फ एक जाति, धर्म या समुदाय का आयोजन नहीं। हिंदूआदिवासीओबीसीमुस्लिम, सभी इस मेला में सहयोग करते हैं — कोई स्टॉल लगाता है, कोई सुरक्षा देता है, कोई झूले चलाता है, कोई लाउडस्पीकर का प्रबंध करता है।

ऐसे समय में जब देश में धर्म और जाति के नाम पर सामाजिक विभाजन फैलाने की कोशिशें हो रही हैं, घुरती मेला जैसे आयोजन एकता का जीवंत उदाहरण बनता हैं।

इसे सांप्रदायिक सौहार्द और सामाजिक समरसता का प्रतीक बनाए रखना देश की साझी विरासत के लिए भी आवश्यक है।

महिलाओं की भागीदारी : घरेलू काम से लेकर सामूहिक नेतृत्व तक

इस मेले की नींव में स्थानीय महिलाओं की मेहनत भी छिपी होती है — चाहे वो रथ यात्रा के लिए प्रसाद तैयार करना हो, बच्चों के साथ पुआ-पकवान बेचना हो, या सांस्कृतिक कार्यक्रमों में नृत्य और गीत प्रस्तुत करना हो।

परंतु यह भी एक कड़वी सच्चाई है कि मेला में प्रबंधनमंच और स्टॉल आवंटन जैसे निर्णयों में महिलाओं की भूमिका लगभग नगण्य हो गई है।

इसलिए ज़रूरी है कि “घुरती मेला संचालन समिति” में कम से कम 40% महिला भागीदारी सुनिश्चित की जाए। यह मेला तब जाकर और जीवंत, और अधिक न्यायपूर्ण बनेगा।

परंपरा पर मंडराता व्यवसायीकरण का संकट

लेकिन बीते कुछ वर्षों से जो तस्वीर सामने आ रही है, वह बेहद चिंताजनक होते जा रहा है। अब यह मेला स्थानीय लोगों के लिए नहींबल्कि ठेकेदारों और बड़े व्यापारियों के लिए मुनाफा कमाने का मंच बनता जा रहा है। ऐसे में कुछ ग्रामीणों का कहना है कि उनके परंपरागत स्टॉलों को दरकिनार कर भारी किराए पर बाहरी दुकानदारों को जगह दी जा रही है। उनके पारंपरिक उत्पादों और सांस्कृतिक कार्यक्रमों को मंच नहीं मिल रहा, और धीरे-धीरे उनका अपना मेला उनसे छिनता जा रहा है।

यह स्थिति न केवल उसके साथ एक आर्थिक अन्याय है, बल्कि एक सांस्कृतिक विस्थापन भी है — जहाँ परंपरा को पूंजी के सामने झुका दिया गया है।

विस्थापित ग्रामीणों की दोहरी पीड़ा

कुटे गाँव और आसपास के इलाके के ग्रामीण पहले से ही हटिया रेलवेऔद्योगीकरण और शहरीकरण के कारण विस्थापन की मार झेल चुके हैं। उनकी जमीनें छिनी गईं, घर उजड़े, रोजगार छिना। अब जब वे मेले जैसे आयोजनों से कुछ सामाजिक और आर्थिक जुड़ाव पाते हैं, तो उन्हें वहां से भी दरकिनार कर दिया जाता है।

हटिया विस्थापित परिवार समिति के अध्यक्ष पंकज शाहदेव की अध्यक्षता में हुई हालिया बैठक में ग्रामीणों ने दो टूक कहा कि अगर व्यवसायीकरण इसी तरह हावी रहा तो भविष्य में इस मेला का विरोध भी हो सकता है। यह चेतावनी सिर्फ एक आयोजन के लिए नहीं है, बल्कि यह हाशिए पर खड़े लोगों की पहचान बचाने की पुकार है।

जन-नियंत्रण की अवधारणा : मेला हमारे गाँव का हैहमारी निगरानी भी हो

अभी तक जो सबसे बड़ा संकट सामने आया है, वह है — स्थानीय जन-नियंत्रण का अभाव

जब तक मेला के संचालन, सुरक्षा, व्यय, स्टॉल आवंटन, मंच निर्धारण और आय-व्यय की पारदर्शिता ग्राम स्तर की समिति के हाथ में नहीं दी जाएगी, तब तक व्यवसायीकरण के खिलाफ संघर्ष अधूरा ही रहेगा।

समाधान है – एक लोक संकल्प समिति (People’s Mela Control Committee) का गठन, जिसमें ग्राम प्रतिनिधि, युवा, महिला समूह, सामाजिक संगठन और प्रशासनिक प्रतिनिधि हों।

प्रशासन की भूमिका और जिम्मेदारी

यह सवाल प्रशासन से भी है। क्या प्रशासन को यह ध्यान नहीं रखना चाहिए कि जिस आयोजन में वे सुरक्षा, सफाई और यातायात की जिम्मेदारी उठाते हैं, उसकी मूल आत्मा और स्थानीय सहभागिता भी संरक्षित हो?

प्रशासन को चाहिए कि वह मेला आयोजन में स्थानीय ग्राम समितियों को भागीदार बनाएस्टॉल के 70% हिस्से स्थानीय ग्रामीणों के लिए आरक्षित रखे, और मंच पर स्थानीय संस्कृति को प्राथमिकता दे। तभी एक संतुलन बन सकता है — धार्मिक आस्था, सांस्कृतिक पहचान और आर्थिक न्याय के बीच।

मेला सिर्फ उत्सव नहींयह अस्मिता का प्रश्न है

आज जब दुनिया भर में सांस्कृतिक विरासतों के संरक्षण पर ज़ोर दिया जा रहा है, तब राँची जैसे शहर में अपने ही पूर्वजों द्वारा शुरू की गई परंपरा के भीतर विस्थापन और वंचना की अनुभूति बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है।

घुरती रथ मेला सिर्फ एक आयोजन नहीं है, यह ग्रामीणों की पहचानस्वाभिमान और आत्मनिर्भरता का प्रतीक है। यदि इसे केवल टिकट, स्टॉल और मंच के कॉन्ट्रैक्ट में बदल दिया गया तो यह मूल उद्देश्य की हत्या होगी।

इतिहास की गहराइयों से निकली परंपरा

झारखंड जैसे राज्य, जो अपने आदिवासीजनजातीय और ग्रामीण परंपराओं के लिए दुनिया में विशेष पहचान रखता है, वहाँ “घुरती रथ मेला” जैसा आयोजन लोकजीवन की स्मृति और एक सजीव विरासत है।

पुराने बुजुर्ग बताते हैं कि सदियों पहले जब इस क्षेत्र में राजाओं की सत्ता थी, तब गांवों के प्रमुख जनसमुदायों ने आपसी मेल-मिलाप और सामाजिक उत्सव की भावना से यह रथ मेला शुरू किया। इसका उद्देश्य केवल पूजा नहीं था, बल्कि ग्रामीण आपसी सहयोगसाझी संस्कृति और सामूहिक उत्सव को जीवंत करना था।

यह मेला न सिर्फ एक धार्मिक प्रक्रिया, बल्कि स्थानीय लोकतंत्रसाझी संस्कृति और ग्रामीण अर्थव्यवस्था का भी मॉडल था।

मेला में रचा-बसा गाँव — जहाँ देवीदरबार और दादी की कहानियाँ मिलती हैं

घुरती मेला केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं, यह गाँव की पूरी सामाजिक संरचना का जीवंत प्रतिबिंब है। यहाँ देवी की आरती भी होती है, रथ की पूजा भी, लेकिन साथ ही दादी की लोककथाएँमवेशियों की खरीद-बिक्रीबच्चों के खिलौनेमहिलाओं के द्वारा पकाए गए पिठा-पुआऔर युवा पीढ़ी के लोकनृत्य — सब कुछ एक साथ देखने को मिलता है।

यह वह वर्टिकल कल्चर है, जो एक साथ पीढ़ियों को जोड़ता है। यह वह अंतर-पीढ़ीय संवाद है, जहाँ एक दादी अपने पोते को बताती है कि “घुरती मेला में जब तुम्हारे दादा ने पहली बार रथ खींचा था…”

अब जब यह मेला ठेकेदारोंफास्ट फूडस्टेज शो और टिकटों में सिमटता जा रहा है, तो यह संवाद भी टूटता जा रहा है।

संस्कृति का मंच या कॉरपोरेट का कब्ज़ा?

आज जिस तरह ठेकेदारीटिकट व्यवस्थास्पॉन्सर-बोर्ड और वीआईपी दर्शन’ जैसी व्यवस्थाएं मेला में देखने को मिलती हैं, वह यह सोचने पर मजबूर करता है — क्या हम अपने ही सांस्कृतिक उत्सवों को बाज़ार की चपेट में सौंप चुके हैं? क्या हमारी संस्कृति अब इवेंट मैनेजमेंट कंपनियों के हवाले हो चुकी है?

यह मेला कभी लोकगीतोंमांदर की थापनगाड़ोंहस्तशिल्पपत्तल-बर्तननींबू-चूड़ागोंद के खिलौनों और आत्मीय जुड़ाव का केंद्र था। अब इन सबकी जगह लाउड डीजेमहंगे झूलेमोबाइल गेमिंग बूथ और ब्रांडेड फूड स्टॉल्स ने ले ली है।

क्या ये विकास है या सांस्कृतिक मूल्यों का मरणोत्सव?

प्रशासनिक और राजनीतिक चुप्पी : एक खतरनाक संकेत

ग्रामीणों की बातों में कहीं कोई अराजकता नहीं, बल्कि अपनी परंपरा की रक्षा की चिंता है। वे कहते हैं कि प्रशासन का सहयोग चाहिए, लेकिन सिर्फ सुरक्षा या सफाई के लिए नहीं — बल्कि स्थानीय सहभागिता सुनिश्चित करने के लिए।

स्थानीय जनप्रतिनिधियों को चाहिए कि वे इस विषय को पंचायतनगर निगमविधानसभा और प्रशासनिक बैठकों में उठाएं। यदि यह मेला उनकी राजनीतिक संवेदनशीलता का हिस्सा नहीं बनता, तो फिर यह मान लेना चाहिए कि विकास’ के नाम पर परंपरा कुचली जा रही है।

समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से देखें तो मेला केवल उत्सव नहींएक अनौपचारिक विश्वविद्यालय है

हर मेला केवल बिक्री और भीड़ का आयोजन नहीं होता। ग्रामीण मेलों की भूमिका हमारे समाज में सदियों से ज्ञानपरंपरासामूहिकता और बाजार की शिक्षा देने वाली रही है।

“घुरती रथ मेला” में पीढ़ियों से बच्चे मिट्टी से खिलौने बनानापरंपरागत गीत गानाहाट में व्यवहार करनाघर की बनी चीजें बेचनादूसरों की संस्कृति को जानना और लोक-न्याय के ढंग सीखते आए हैं। लेकिन जब इस आयोजन को मात्र कॉमर्शियल प्रॉफिट सेंटर बना दिया जाता है, तो यह परंपरा की पाठशाला को पूंजी की जेल में बदल देने जैसा है।

विस्थापन की त्रासदी और सांस्कृतिक पुनर्जागरण की आवश्यकता

हटिया रेलवे स्टेशन, प्लॉटिंग और अनियोजित विकास के कारण कुटेहटियारातू और आसपास के हजारों परिवारों को विस्थापन की पीड़ा सहनी पड़ी है। सरकारें बुनियादी पुनर्वास की बात तो करती हैं, लेकिन उनकी संस्कृतिपरंपराऔर आत्मसम्मान का पुनर्वास नहीं करतीं।

“घुरती मेला” जैसे आयोजन इन विस्थापित परिवारों के लिए आर्थिक नहींबल्कि भावनात्मक संबल हैं। यही उनका मंच है, यही उनकी पहचान है, यही उनका साझा संवाद है। यदि यह भी छीन लिया गया तो उनका इतिहास ही गुम हो जाएगा

यह केवल मेला नहींयह सांस्कृतिक स्वराज का स्वर है

जब महात्मा गांधी ने ‘स्वदेशी’ और ‘ग्राम स्वराज’ की बात की थी, तो उसका तात्पर्य सिर्फ खादी पहनना नहीं था। उसका मूल था – स्थानीयता को प्राथमिकता देनाग्राम आधारित आत्मनिर्भरता को बढ़ावा देना, और बाहरी हस्तक्षेप से स्थानीय पहचान को बचाना

“घुरती मेला” को अगर एक बार सांस्कृतिक स्वराज का प्रयोग क्षेत्र बना दिया जाए, तो यह झारखंड के लिए स्थानीय मॉडल बन सकता है। पर्यटन, हस्तशिल्प, पारंपरिक फूड और सांस्कृतिक संवाद के ज़रिए यह एक स्थायी स्थानीय अर्थव्यवस्था को जन्म दे सकता है।

ग्लोबल सन्दर्भ में घुरती मेला : क्या दुनिया ने मेलों को ऐसे ही बचाया?

आप जानकर चौंकेंगे कि जापानस्पेनथाईलैंडब्राज़ील और इटली में ऐसे कई पारंपरिक मेले हैं जिन्हें UNESCO की ‘Intangible Cultural Heritage’ सूची में शामिल किया गया है।

इन आयोजनों को संरक्षित करने के लिए सरकारें:

  • स्थानीय समितियों को कानूनी शक्ति देती हैं
  • प्राथमिकता ग्रामीणों को दी जाती है
  • बाहरी कंपनियों की भूमिका सीमित होती है
  • पर्यटन से होने वाली आय को साझा किया जाता है

झारखंड सरकार को भी चाहिए कि वह “घुरती रथ मेला” जैसे आयोजनों को:

1.  राज्य सांस्कृतिक धरोहर घोषित करे

2.  यूनेस्को नामांकन प्रक्रिया शुरू करे

3.  स्थायी प्रबंधन बोर्ड बनाए जो ग्रामस्तरीय हो

मीडिया की भूमिका — क्या ग्रामीण आवाज़ें उनके कैमरे तक पहुँचती हैं?

मेला की रंगीनता तो हर टीवी कैमरा दिखाता है — लेकिन क्या वह कैमरा उस ग्रामीण महिला की पीड़ा भी दिखाता है, जिसका वर्षों से लगने वाला पीठा स्टॉल अब किसी बाहरी ब्रांडेड कंपनी के नीचे दब गया है?

क्या वे चैनल उस ग्रामीण कलाकार से बात करते हैं, जिसकी ढोलक की जगह अब डीजे ने ले ली है?

मीडिया को चाहिए कि वह केवल प्रमोशनल विजुअल्स के पीछे न भागे, बल्कि सांस्कृतिक संघर्षोंविस्थापितों की आवाजऔर परंपरा बचाने की जद्दोजहद को मंच दे। क्योंकि यही असली पत्रकारिता है।

नई पीढ़ी को मेला से जोड़ना क्यों ज़रूरी है?

आज की पीढ़ी यदि सिर्फ शॉपिंग मॉल और मोबाइल एप्स में रमती रही, तो आने वाले वर्षों में उन्हें अपने गाँव का नामदेवी की परंपरारथ यात्रा का मार्गहाट का अनुभव और स्थानीय लोककला का ज्ञान नहीं रहेगा।

जरूरी है कि स्कूलों और कॉलेजों में मेला आधारित शिक्षा मॉडल विकसित हो। बच्चों को रथ मेला से जोड़ा जाए — पेंटिंग, नुक्कड़ नाटक, पारंपरिक गीत, स्टोरीटेलिंग, लोककला आदि के ज़रिए। इससे उनमें सांस्कृतिक चेतना और सामाजिक उत्तरदायित्व दोनों आएगा।

आगामी दिशा: क्या राज्य सरकार तैयार है सांस्कृतिक नीति बनाने को?

झारखंड जैसे राज्य में जहाँ हर पर्वहर गीत और हर गांव एक जीवंत विरासत है, वहाँ “राज्य सांस्कृतिक नीति” का अब तक अभाव है। घुरती मेला जैसे आयोजनों के संरक्षण के लिए ज़रूरी है कि सरकार:

  • स्थानीय सांस्कृतिक आयोजनों की सूची बनाए
  • व्यवसायीकरण पर सीमा तय करे
  • स्थानीय समितियों को कानूनी मान्यता दे
  • पर्यटन के साथ-साथ संस्कृति पर आधारित योजना बनाए

यदि झारखंड “टूरिज्म हब” बनने की ओर बढ़ना चाहता है, तो उसे अपने मेलों और उत्सवों को स्थानीय नेतृत्व के साथ जोड़ना ही होगा।

सवाल भविष्य का है — हम कैसे मेला छोड़कर मॉल में चले गए?

जो लोग यह सोचते हैं कि घुरती मेला जैसे आयोजन पुरानी बात हैं — वे यह भूल जाते हैं कि मॉल और मार्केट में आत्मा नहीं होतीकेवल लेन-देन होता है। मेला वह जगह है जहाँ मोल-भाव नहींसंवाद होता है। वहाँ रिश्ते बनते हैं, गीत गूंजते हैं, और गाँव अपनी स्मृति को फिर से जीता है।

क्या यह सब केवल इसलिए मिटा दिया जाए कि किसी कंपनी को ज्यादा किराया देना है?

यह घुरती मेला नहींयह घुरती चेतना है — इसे बुझने न दें

“घुरती रथ मेला” की लड़ाई केवल एक उत्सव बचाने की नहीं है — यह संविधानसंस्कृति और समरसता बचाने की लड़ाई है।

  • जब रथ यात्रा से पहले गाँव के बच्चे झंडा गाड़ते हैं — वो लोकतंत्र है।
  • जब महिला समूह प्रसाद बनाती हैं — वो आत्मनिर्भरता है।
  • जब ग्रामीण सभा तय करती है कि कौन स्टॉल लगाएगा — वो स्वराज है।
  • जब व्यवसायीकरण को चुनौती दी जाती है — वो आत्मसम्मान है।

 यह मेला नहीं रुकेगा। यह चलता रहेगा — जैसे हमारी साँसें चलती हैं। क्योंकि जब तक घुरती मेला जीवित है, तब तक हमारी जमीनजड़ और जातीय चेतना भी जीवित है।

हर रथ को रोकने वाली रस्सी एक दिन टूटती है। लेकिन जो रथ अपनी संस्कृतिअस्मिता और सामाजिक सामंजस्य की शक्ति से चलता है — उसे कोई नहीं रोक सकता। घुरती मेला उसी रथ का प्रतीक है — जो गाँव-गाँवपीढ़ी-पीढ़ीऔर आत्मा से आत्मा तक चलता आया है।

घुरती मेला कोई एक आयोजन नहीं। यह एक जन स्मृति है, एक लोक उत्सव है, एक सांस्कृतिक संविधान है। इसे बचाना न केवल प्रशासन और राजनीति की जिम्मेदारी है, बल्कि हर जागरूक नागरिक की नैतिक जिम्मेदारी भी है।

यह मेला किसी ठेके या कॉन्ट्रैक्ट से नहीं चलतायह चलता है लोगों के भरोसेपरंपरा की भावना और समर्पण से — जिसे किसी भी कीमत पर मिटने नहीं दिया जाना चाहिए।

यह केवल आयोजन नहीं — एक चेतावनी है कि अगर हमने अभी इस पर ध्यान नहीं दिया, तो आने वाले वर्षों में हम केवल एक स्लोगन बनकर रह जाएँगे: “यहाँ एक मेला हुआ करता था, जहाँ गाँव सांस लिया करता था।”

अगर समय रहते न चेता गया, तो आने वाले 10 वर्षों में यह मेला कॉरपोरेट इवेंट में बदल जाएगा, जहां स्थानीय लोगों की भूमिका सिर्फ दर्शक की होगी। रथ तो खिंचेगा, लेकिन उसका हाथ बाहरी प्रबंधन एजेंसी के पास होगा। मंच सजेंगे, लेकिन उन पर मौलिक लोककला नहीं, किसी बड़ी कंपनी के डीजे प्रमोशन होंगे।

उस दिन न हमारे पूर्वज गर्व कर पाएंगे, न आने वाली पीढ़ियां हमें माफ करेंगी।

अशोक कुमार झा

राजनाथ सिंहः रक्षा, राष्ट्रीयता और राजनीतिक कौशल के प्रतीक

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रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह के 74वें जन्मदिवस – 10 जुलाई, 2025
-ललित गर्ग-

भारत के राजनीतिक आकाश पर जिन व्यक्तित्वों ने अपनी सादगी, दृढ़ता, राष्ट्रभक्ति और कर्मठता से अमिट छाप छोड़ी है, उनमें राजनाथ सिंह का नाम शीर्ष पर आता है। राजनाथ सिंह आज देश के रक्षा मंत्री के रूप में भारत की सुरक्षा नीति, सामरिक रणनीति और आत्मनिर्भर रक्षा तंत्र के मजबूत स्तंभ बन चुके हैं। उनका राजनीतिक जीवन एक प्रेरणा की तरह है-जहां संघर्ष है, सिद्धांत हैं, और राष्ट्रहित सर्वाेपरि है। उनकी लोकप्रियता एवं राजनीतिक कद यूं ही शिखरों पर आरुढ़ नहीं हुआ है, भारत के नवनिर्माण की उनकी प्रभावशाली शैली इसका कारण है। एक तरफ उन्होंने भारत की आजादी के अमृतकाल में रक्षा क्षेत्र में न केवल आत्मनिर्भरता बल्कि निर्यातक की भूमिका निर्मित की है, वही दूसरी ओर स्वराज्य, नये भारत-विकसित भारत के सपने को साकार करने की दिशा में तेजी से कदम बढ़ाये हैं।
  रक्षामंत्री राजनाथ सिंह ने हाल ही में चीन के पोर्टे सिटी किंगदाओ में आयोजित शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) की बैठक में आतंकवाद के मुद्दे पर पाकिस्तान को बेनकाब करते हुए संयुक्त घोषणापत्र में हस्ताक्षर करने से मना कर न केवल पाकिस्तान और चीन को नये भारत का कड़ा संदेश दिया, बल्कि दुनिया को भी जता दिया कि भारत आतंकवाद को पोषित एवं पल्लवित करने वाले देशों के खिलाफ अपनी लड़ाई निरन्तर जारी रखेगा। राजनाथ सिंह जैसे साहसी, निर्भीक एवं कद्दावरी नेताओं के कारनामों को दुनिया देख रही है, भारत अब पुराने वाले भारत नहीं रहा, जिसे दबाया जा सकता है। यह नया भारत है, जो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में नई करवटें ले रहा है। इसका नवनिर्माण हो रहा है। आज पूरी दुनिया में भारत की विश्वसनीयता है, राजनाथ सिंह ने स्वदेशी रक्षा उत्पादों की दृष्टि से दुनिया में इस विश्वसनीयता को निर्मित किया है। भारत के रक्षा उत्पाद दुनियाभर में निर्यात हो रहे हैं, उनकी गुणवत्ता, प्रभावशीलता एवं पूर्णता में दुनिया का विश्वास बढ़ रहा है, जो एक क्रांतिकारी उपलब्धि है। ‘मेक इन इंडिया’ दुनिया में परचम फहरा रहा है, सफलता की नई कहानी लिख रहा है।
राजनाथ सिंह ने चीन और पाकिस्तान जैसे बाहरी खतरों के विरुद्ध रणनीतिक दृष्टिकोण ही नहीं अपनाया, बल्कि भारतीय रक्षा तंत्र को भी आधुनिक और आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में ठोस कार्य किए हैं। रक्षा उत्पादन नीति के अंतर्गत उन्होंने कई विदेशी उपकरणों की आयात पर रोक लगाई और 100 से अधिक रक्षा सामग्रियों को ‘निषिद्ध सूची’ में डालते हुए भारत में ही निर्माण को प्राथमिकता दी। ‘मेक इन इंडिया’ अभियान को बल देते हुए उन्होंने स्वदेशी फाइटर जेट तोप, और ड्रोन तकनीक को प्रोत्साहित किया। देश के निजी उद्योगों को भी उन्होंने रक्षा क्षेत्र में निवेश के लिए प्रेरित किया और डीआरडीओ के साथ साझेदारी के नए मॉडल लागू किए। ड्रोन तकनीक के क्षेत्र में उनकी दूरदृष्टि ने भारत को एक वैश्विक शक्ति के रूप में उभरने का मार्ग दिया है। हाल ही में 2000 करोड़ के ड्रोन प्रोत्साहन पैकेज के अंतर्गत उन्होंने न केवल सैन्य उपयोग के लिए बल्कि कृषि, ट्रैफिक प्रबंधन और आपदा राहत जैसे क्षेत्रों के लिए भी ड्रोन विकास को गति दी है।
पाकिस्तान के संदर्भ में उनका रुख अत्यंत स्पष्ट रहा है-“बातचीत तब ही संभव है जब आतंकवाद बंद हो और पाकिस्तान अपने गुनाह स्वीकार करे।” उन्होंने यह भी कहा कि यदि पाकिस्तान से कोई संवाद होगा, तो वह केवल पाक अधिकृत कश्मीर (पीओके) पर होगा। यह उनके नेतृत्व की स्पष्टता, साहसिकता और रणनीतिक स्थिरता को दर्शाता है। राजनाथ सिंह ने भारत की सामरिक नीतियों को केवल आक्रामकता ही नहीं दी, बल्कि संतुलन भी प्रदान किया है। उनका कहना है, “हम शांति के पक्षधर हैं, लेकिन यदि कोई हमें ललकारेगा, तो हम उसे जवाब देना जानते हैं।” यह भावना ही आज के भारत को एक मजबूत राष्ट्र के रूप में स्थापित कर रही है। उनकी दूरदर्शिता और राष्ट्रप्रेम ने उन्हें देश के सर्वाेच्च नेताओं की श्रेणी में स्थापित किया है। राजनाथ सिंह का व्यक्तित्व विनम्रता, नीतिपरक दृढ़ता और संतुलित संवाद का उदाहरण है। वे विरोधी विचारों का सम्मान करते हैं लेकिन राष्ट्रहित से समझौता नहीं करते। इसी विचारधारा को उन्होंने रक्षा मंत्री बनने के बाद अपनी कार्यशैली में उतारा। बीते वर्षों में भारत जिन आतंकी चुनौतियों का सामना कर रहा है, उसमें राजनाथ सिंह का रुख न केवल स्पष्ट रहा है बल्कि निर्णायक भी। कोई आंख तरेर कर तो देखें! पर ललकार की मुद्रा में वे कठोर जबाव देते हैं।
हाल ही में जम्मू-कश्मीर के पहलगाम में हुए आतंकवादी हमले के बाद केंद्र सरकार ने जिस तत्परता और आक्रामकता से ‘ऑपरेशन सिंदूर’ को अंजाम दिया, वह भारत की बदली हुई सैन्य सोच का प्रतीक है। राजनाथ सिंह ने चीन एवं पाक के दोगलेपन पर यह स्पष्ट किया कि “शांति केवल एक भ्रम है, हमें हर पल युद्ध जैसी तैयारी में रहना होगा।” इस अभियान में भारतीय वायुसेना और नौसेना की संयुक्त कार्रवाई ने पाकिस्तान स्थित आतंकवादी अड्डों को ध्वस्त कर यह संदेश दे दिया कि भारत अब केवल प्रतिक्रिया नहीं, प्रति-प्रहार की नीति पर चलेगा। उन्होंने यह भी उजागर किया कि इस बार की कार्रवाई में स्वदेशी हथियारों और ड्रोनों की प्रमुख भूमिका रही, जो उनकी ‘आत्मनिर्भर भारत’ रक्षा नीति की बड़ी सफलता है। जो नवनिर्माण की रफ्तार एवं नई कड़ी है। रक्षा मंत्री ने गर्व से बताया कि भारतीय सेना अब आयात पर निर्भर नहीं, बल्कि स्वदेशी तकनीक से आतंकवाद को जवाब दे रही है। उनका मानना है कि सुरक्षा केवल सीमाओं की रक्षा नहीं है, बल्कि राष्ट्र के आत्मबल और तकनीकी सामर्थ्य को विकसित करना भी है।
रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने कहा है कि आज के तकनीकी युग में, कंप्यूटर सूचना प्रौद्योगिकी, उपग्रह संचार, कृत्रिम बुद्धिमत्ता और क्वांटम कंप्यूटिंग में प्रगति वैश्विक अर्थव्यवस्था को बदल रही है। भारत ने इन नवाचारों को अपनाते हुए गतिशील आर्थिक परिदृश्य का निर्माण किया है। रक्षा मंत्री के रूप में राजनाथ सिंह आधुनिक युद्धकला में तेज गति से बदलाव कर रहे हैं एवं रक्षा में करिश्मा दिखा रहे हैं। उन्होंने युवाओं की प्रतिभा को सामने लाने के लिए रक्षा उत्कृष्टता के लिए नवाचार (आईडीईएक्स) और प्रौद्योगिकी विकास निधि (टीडीएफ) जैसी योजनाएं शुरू की हैं, जिसके माध्यम से उनके साथ-साथ देश के सपने भी साकार हो सकते हैं। भारत के पास विकास और सुरक्षा को लेकर एक विशिष्ट दृष्टिकोण है, जिसने रक्षा में आत्मनिर्भरता को एक प्रमुख राष्ट्रीय लक्ष्य बनाया है। राजनाथ सिंह के सफल नेतृत्व में भारत रक्षा क्षेत्र में आत्मनिर्भर बन रहा है, जिसके दूरगामी प्रभाव होंगे।
राजनाथ सिंह ने वैज्ञानिकों और इंजीनियरों से बदलते समय के साथ आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और क्वांटम कंप्यूटिंग जैसी उच्च-स्तरीय तकनीकों पर नियंत्रण हासिल करने का आह्वान किया है, जिसका उद्देश्य उन्नत, अग्रणी और अत्याधुनिक नवाचार के क्षेत्र में भारत की स्थिति को और मजबूत करना है। भारत पहले कुछ कारणों से आधुनिक हथियारों और तकनीक के मामले में पीछे रह गया था, लेकिन प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व एवं दूरदर्शी रक्षामंत्री राजनाथ सिंह के नये मंजिले-नये रास्तों की रफ्तार के साथ भारत अभूतपूर्व गति से रक्षा में आत्मनिर्भरता की ओर तीव्र गति से अग्रसर है। सिंह ने रक्षा आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए नई सोच एवं स्वदेशी उत्पाद को प्राथमिकता दी है। उनके नेतृत्व में देश में एक ऐसा डिफेंस इंडस्ट्रियल कॉम्प्लेक्स तैयार हो रहा है, जो केवल भारत की जरूरतों को नहीं, बल्कि दुनिया में रक्षा निर्यात की संभावनाओं को भी मजबूत करेगा।
राजनाथ सिंह के पांच दशक के सार्वजनिक एवं राजनीतिक जीवन की शुरुआत राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद से जुड़ाव के साथ हुई। छात्र राजनीति से लेकर मुख्यमंत्री, पार्टी अध्यक्ष, गृह मंत्री और फिर रक्षा मंत्री जैसे शीर्ष पदों तक पहुंचना उनके संगठनात्मक कौशल, राजनीतिक कर्मठता, प्रशासनिक नवाचार और वैचारिक प्रतिबद्धता का प्रमाण है। उनके 74वें जन्मदिवस पर यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि राजनाथ सिंह जैसे नेता ही भारत को एक सुरक्षित, आत्मनिर्भर और सामर्थ्यवान राष्ट्र बनाने की दिशा में नेतृत्व दे रहे हैं। संस्कृति के अग्रदूत राजनाथ सिंह की दृष्टि में केवल वर्तमान नहीं, बल्कि भविष्य भी सन्निहित है। उनकी ईमानदारी, सादगी और राष्ट्रप्रेम आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणास्रोत बनेगा। यह जन्मदिवस केवल एक व्यक्ति का उत्सव नहीं, बल्कि भारत की रक्षा-संस्कृति, नीति और विचारधारा के सशक्त होने का प्रतीक है।

अमेरिकी कृषि उत्पाद बेचने से बचे भारत 

प्रमोद भार्गव
भारत और अमेरिका के बीच 9 जुलाई से पहले व्यापार समझौता होना हैं। यदि भारत अमेरिका की षर्तें नहीं माना है तो 9 जुलाई से टैरिफ यानी अंतरराष्ट्रीय व्यापार में लगाया जाने वाला कर 10 से बढ़ाकर 26 प्रतिशत हो जाएगा। भारत चाहता है कि जल्द अंतरिम व्यापार समझौता हो जाए। लेकिन अमेरिका अपने हितों को प्राथमिकता देते हुए चाहता है कि भारत में उसे कृषि और डेयरी उत्पाद बचने की अनुमति दी जाए। चीन ने अमेरिकी उत्पात खरीदने से मना कर दिया है। भारत राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप प्रशासन के दबाव के बावजूद अमेरिका के लिए कृषि उत्पाद का बाजार खोलने के पक्ष में नहीं है। दरअसल भारत की 70 करोड़ से भी अधिक आबादी कृषि , दूध और मछली व अन्य समुद्री उत्पादन पर आश्रित है। इन उत्पादों से जुड़े लोग आत्मनिर्भर रहते हुए अपनी आजीविका चलाते हैं। हालांकि भारत सरकार इनकी आर्थिक स्थिति को ओर मजबूत बनाए रखने की दृष्टि से मुफ्त अनाज, खाद्य सब्सिडी और किसानों को छह हजार रुपए प्रतिवर्ष अनुदान के रूप में देती है।
भारत की 70 प्रतिशत अर्थव्यवस्था का मूल आधार कृषि और उससे जुड़े उत्पाद हैं। अब अमेरिका इस परिप्रेक्ष्य में भारत पर व्यापक दबाव बनाकर द्विपक्षीय बातचीत करने का दबाव बना रहा है। अमेरिका चाहता है कृषि उत्पादों के लिए भारतीय बाजार तो खुले ही उत्पादों पर शुल्क भी कम करे। यदि भारत कोई समझौता करता है तो ब्रिटेन और यूरोपीय संघ भी मुक्त व्यापार समझौते (एफटीए) के लिए दबाव बनाएंगे। यूरोपीय संघ चीज व अन्य दुग्ध उत्पादों पर शुल्क कटौती की इच्छा जता चुका है। अमेरिका के वाणिज्य मंत्री हावर्ड लुटनिक और अमेरिकी व्यापार प्रतिनिधि जेमीसन ग्रीर ने भारत के वाणिज्य एवं उद्योग मंत्री पीयूष गोयल से बातचीत में इन मुद्दों को द्विपक्षीय वार्ता में शामिल करने की बात कही है। किंतु भारत के लिए कृषि में बाहरी दखल एक संवेदनशील मसला है, क्योंकि हमारे किसान विदेशी पूंजीपतियों से प्रतिस्पर्धा करने की स्थिति में नहीं हैं।  
भारत में कृषि केवल आर्थिक गतिविधि नहीं है, बल्कि यह जीवन जीने का एक सांस्कृतिक तरीका भी है। इसीलिए भारत के जितने भी पर्व हैं, उनका पंचांग कृषि पद्धति पर ही आधारित है। जबकि अमेरिका व यूरोपीय देश कृषि को मुनाफे का उद्योग मानते हैं। एक रिपोर्ट के अनुसार 2024 में अमेरिका का कृषि निर्यात 176 अरब डॉलर था, जो उसके कुल व्यापारिक निर्यात का लगभग 10 प्रतिशत हैं। बड़े पैमाने पर मशीनीकृत खेती और भारी सरकारी सब्सिडी के साथ अमेरिका और अन्य विकसित देश भारत को अपने निर्यात का विस्तार करने के लिए आकर्षक बाजार के रूप में देखते हैं। जबकि भारत अपने कृषि क्षेत्र को मध्यम से उच्च षुल्क की कल्याणकारी योजनाओं के द्वारा संरक्षित किए हुए है ताकि अपने किसानों को अनुचित प्रतिस्पर्धा से बचाया जा सके। कृषि क्षेत्र को मुक्त बाजार बनाने का मतलब है कि आयात प्रतिबंधों और शुल्कों को कम करना। कृषि को बाहरी सब्सिडी वाले विदेशी आयातों के लिए खोलने का अर्थ होगा, सस्ते खाद्य उत्पादों का भारत में आना, यह खुलापन भारतीय किसानों की आय और आजीविका को गंभीर रूप से प्रभावित करेगी।  
ऐसा ही दबाव भारत पर विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) ने जेनेवा में 2022 में हुई बैठक में बनाया था। यहां तक कि अमेरिका और अन्य यूरोपीय देशों ने भारतीय किसानों को दी जाने वाली कृषि अनुवृत्ति (सब्सिडी) का जबरदस्त विरोध किया था। ये देश चाहते हैं कि किसानों को जो सालाना छह हजार रुपए की आर्थिक मदद और न्यूनतम समर्थन मूल्य पर अनाज खरीदनें की सुविधा दी जा रही है, भारत उसे तत्काल बंद करे। यही नहीं राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून के तहत देशभर के 81 करोड़ लोगों को जो मुफ्त अनाज दिया जा रहा है उस पर भी आपत्ति जताई थी। देश की करीब 67 फीसदी आबादी को मुफ्त अनाज मिलता है। इस कल्याणकारी योजना पर 1 लाख 40 हजार करोड़ रुपए का खर्च सब्सिडी के रूप में प्रति वर्ष होता है। परंतु भारत ने अपने किसान और गरीब आबादी के हितों से समझौता करने से साफ इंकार कर दिया था। इसे डब्ल्यूटीओ के तय नियमों का खुला उल्लंघन करार दिया गया था। क्योंकि नियमानुसार अनाजों के उत्पादन मूल्य पर 10 प्रतिशत से ज्यादा सब्सिडी नहीं दी जा सकती है। जबकि भारत इससे कई गुना ज्यादा सब्सिडी देता है। दरअसल इन देशों का मानना है कि सब्सिडी की वजह से ही भारतीय किसान चावल और गेहूं का भरपूर उत्पादन करने में सक्षम हुए हैं। इसी का परिणाम है कि भारत गेहूं व चावल के निर्यात में अग्रणी देश बन गया है। बांग्लादेश, श्रीलंका, संयुक्त अरब अमीरात, इंडोनेशिया, फिलीपींस और नेपाल के अलावा 68 देश भारत से गेहूं आयात करते हैं। भारत दुनिया के कुल 150 देशों को चावल का निर्यात करता है। अमेरिका को भारत की यह समृद्धि फूटी आंख नहीं सुहा रही है।  
किसी भी देश की प्रतिबद्धता विदेशी हितों से कहीं ज्यादा देश के किसान, गरीब व वंचित तबकों की खाद्य उत्पादन और सुरक्षा के प्रति ही होनी चाहिए। लिहाजा नरेंद्र मोदी 2014 में प्रधानमंत्री बनने के समय से ही किसानों के हित में खड़े दिखाई दिए हैं। अतएव 2014 में इसी जेनेवा में डब्ल्यूटीओ के हुए सम्मेलन में नरेंद्र मोदी ने भागीदारी करते हुए ‘समुचित व्यापार अनुबंध‘ ;ट्रेड फैलिसिटेशन एग्रीमेंटद्ध पर हस्ताक्षर नहीं किए थे। इस करार की सबसे महत्वपूर्ण शर्त थी कि संगठन का कोई भी सदस्य देश,अपने देश में पैदा होने वाले खाद्य पदार्थों के मूल्य का 10 फीसदी से ज्यादा अनुदान खाद्य सुरक्षा पर नहीं दे सकता है। जबकि भारत खाद्य सुरक्षा कानून के तहत देश की 67 फीसदी आबादी खाद्य सुरक्षा के दायरे में है। इसके लिए बतौर सब्सिडी जिस धनराशि की जरूरत पड़ती है, वह सकल फसल उत्पाद मूल्य के 10 फीसदी से कहीं ज्यादा बैठती है। दरअसल सकल फसल उत्पाद मूल्य की 10 फीसदी सब्सिडी  का निर्धारण 1986-88 की अंतरराश्ट्रीय कीमतों के आधार पर किया गया था। इन बीते साढ़े तीन दशक में मंहगाई ने कई गुना छलांग लगाई है। इसलिए इस सीमा का भी पुनर्निर्धारण जरूरी है। यही वह दौर रहा है, जब भूमण्डलीय आर्थिक उदारवाद की अवधरणा ने बहुत कम समय में ही यह प्रमाणित कर दिया कि वह उपभोक्तावाद को बढ़ावा देकर अधिकतम मुनाफा बटोरने का उपाय भर है। टीएफए की सब्सिडी संबंधी षर्त, औद्योगिक देश और उनकी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के इसी मुनाफे में और इजाफा करने की दृष्टि से लगाई गई है। जिससे लाचार आदमी के आजीविका के संसाधनों को दरकिनार कर उपभोगवादी वस्तुएं खपाई जा सकें। नवउदारवाद की ऐसी ही इकतरफा व विरोधाभासी नीतियों का नतीजा है कि अमीर और गरीब के बीच खाई लगातार बढ़ती जा रही है। दरअसल देशी व विदेशी उद्योगपति पूंजी का निवेश दो ही क्षेत्रों में करते हैं, एक उपभोक्तावादी उपकरणों के निर्माण और वितरण में, दूसरे प्राकृतिक संपदा के दोहन में। यही दो क्षेत्र धन उत्सर्जन के अहम स्रोत हैं। उदारवादी अर्थव्यवस्था का मूल है कि भूखी आबादी को भोजन के उपाय करने की बजाय विकासशील देश पूंजी का केंद्रीकरण एक ऐसी निश्चित आबादी पर करें,जिससे उसकी खरीद क्षमता में निरंतर इजाफा होता रहे।

प्रमोद भार्गव

भाषायी विवादों के पीछे विभाजनकारी षड्यंत्र 

~कृष्णमुरारी त्रिपाठी अटल 

संत ज्ञानेश्वर और हिंदवी स्वराज्य प्रणेता छत्रपति शिवाजी महाराज की पुण्यभूमि में राजनीतिक वितंडावादियों ने ‘भाषा’ के नाम पर जिस अराजकता का परिचय दिया।हिंसा का मार्ग अपनाते हुए विभाजनकारी सोच का उत्पात मचाया। वह हर किसी को अंदर से झकझोर देने वाला षड्यंत्र है। वस्तुत: ऐसा करने वालों के मूल में ‘मराठी अस्मिता’ का भाव नहीं है। बल्कि वे भारत की विराट पहचान को मिटाने की कुत्सित सोच से ग्रसित हैं। आप सोचिए कि जिस महान महाराष्ट्र की भूमि में – संत नामदेव , संत एकनाथ, संत तुकाराम महाराज, संत बहिणाबाई,संत जनाबाई, संत कान्होपात्रा और समर्थ रामदास, संत गाडगे जैसी महान विभूतियों ने राष्ट्रीय एकता और एकात्मता को स्थापित किया हो। मूल्यों, संस्कारों और आदर्शों का मार्ग दिखाया हो। उस भूमि से अगर अलगाव के उत्पाती कृत्य आ रहे हों तो यह निश्चित तौर पर महाराष्ट्र की छवि को धूमिल करने का षड्यंत्र ही सिद्ध होता है।‌ जो ‘मराठी अस्मिता’ के नाम पर समाज में विभाजन फैला रहे हैं। विराट हिंदू समाज को बांटने का षड्यंत्र कर रहे हैं। वे महाराष्ट्र के आदर्शों की कही या लिखी गई — ऐसी एक पंक्ति लाकर समाज के मध्य दिखला दें। जो किसी भी प्रकार के विभाजन की बात करती हो। ऐसे में क्या यह अक्षम्य अपराध नहीं है? क्या महाराष्ट्र की महान परंपरा को आघात पहुंचाने वालों को समाज स्वीकार करेगा? 

ईश्वरीय निमित्त वश मुझे छत्रपति शिवाजी महाराज द्वारा स्थापित हिंदवी स्वराज्य स्थापना के 350 वें वर्ष पर एक ग्रंथ के संपादन का सौभाग्य मिला। उस समय मैंने छत्रपति शिवाजी महाराज से जुड़े कई ग्रंथों का अध्ययन किया।‌विभिन्न विद्वानों के विचारों को पढ़ा और सुना। लेकिन एक भी अंश ऐसा नहीं पाया जब छत्रपति शिवाजी महाराज ने स्थानीयता, प्रांतीयता की परिधि में स्वयं को समेटा हो। उनके कार्यों और विचारों की दृष्टि सर्वदा अखिल भारतीय-अखंड भारत वर्ष पर ही केंद्रित रही।‌ शिवाजी महाराज ने जब स्वराज्य की स्थापना की तो उसका नाम उन्होंने ‘महाराष्ट्र’ या मराठी राज्य नहीं किया। अपितु उन्होंने उसका नामकरण’हिंदवी स्वराज्य’ किया। उन्होंने स्वराज्य के संचालन के लिए जब ‘राज व्यवहार कोश’ का निर्माण कराया।‌उस समय उन्होंने अरबी फ़ारसी के स्थान पर संस्कृतनिष्ठ और मराठी के शब्दों का शब्दकोष बनवाया। इसी प्रकार शिवाजी महाराज की राजमुद्रा में ‘संस्कृत’ का प्रयोग किया गया। उनकी राजमुद्रा में लिखा रहता था— 

“प्रतिपच्चन्द्रलेखेव वर्धिष्णुर्विश्ववन्दिता ।

शाहसूनोः शिवस्यैषा मुद्रा भद्राय राजते ।।”

अभिप्रायत: छत्रपति शिवाजी महाराज ने जिस महान हिंदवी स्वराज्य की स्थापना की। राष्ट्रीय एकता और एकात्मता को स्थापित किया। अब उस पर ‘मराठी अस्मिता’ के नाम पर आघात किया जा रहा है। विराट हिंदू पहचान को संकुचित और संकीर्ण दायरों में समेटने का अक्षम्य अपराध किया जा रहा है। ऐसा करने वाले ये वही लोग हैं जिन्हें ‘मराठी मानुष’ ने चुनावों में सिरे से खारिज़ कर दिया है। क्योंकि महाराष्ट्र की जनता अपनी महान विरासत के साथ राष्ट्रीय विचारों के साथ एकात्म है।उसे किसी भी हाल में विभाजन स्वीकार नहीं है। ऐसे में विभाजनकारी मानसिकता से ग्रस्त लोग और राजनेता; समाज की एकता को खंडित करने में जुट गए हैं। चाहे हिंदी हो, मराठी हो, तमिल, तेलुगू, कन्नड़ हो या बंगाली हो। संस्कृत हो मलयालम हो, कोंकणी,संथाली या उड़िया हो चाहे पंजाबी हो। याकि कश्मीरी, असमिया, बोडो या डोगरी हो। संथाली, सिंधी, नेपाली हो। सभी भारतीय भाषाएं हमारी हैं। भारत की कोख से जन्मी हर भाषा, बोली और परंपराएं हमारी अमूल्य विरासत हैं। ये किसी व्यक्ति विशेष या राज्य विशेष की संपत्ति नहीं हैं बल्कि हर भारतीय का जीवन मूल्य और संस्कार हैं। इनमें राष्ट्र की महान परंपरा और संस्कृति का अविरल और अक्षुण्ण प्रवाह अंतर्निहित है। जो एक ही धुन सुनाता है जय-जय जय भारत।‌

ऐसे में भला कोई ये दावा कैसे कर सकता है कि— ये मेरी भाषा है-ये तुम्हारी भाषा है? क्या हमारे महापुरुषों और भाषाओं ने किसी भी व्यक्ति, दल या समूह को ऐसे कोई अधिकार दिए हैं? क्या समाज ने कभी भी ऐसे विभाजन को स्वीकार किया है? क्या हमारे संविधान ने ऐसे किसी भी प्रकार के भेदभाव का प्रावधान किया है? इन सबका उत्तर है— नहीं। भारत के कोने-कोने में रहने वाला प्रत्येक व्यक्ति अपनी हर भाषा, बोली, परंपराओं के प्रति गहरा आदर और श्रद्धा रखता है। उसे अपनी सभी भाषाओं और सभी परंपराओं से प्रेम है। उसके लिए कुछ भी अपना या पराया नहीं है। हमारे सभी श्रद्धा के केंद्र, आदर्श, महापुरुष और भाषाएं हमें एकता के सूत्रों से गुंफित किए हुए हैं।‌हम सबका मस्तक अपनी महान परंपरा के हर मानबिंदु के समक्ष श्रद्धा से नत होता है। यही तो भारतीय मूल्य और संस्कार हैं। हो सकता है सभी को हर भाषा नहीं आती हो। किसी को सभी भारतीय भाषाएं आती हों। किसी को दो-चार या उससे अधिक भाषाएं आती हों।‌लेकिन इसका अर्थ तो ये नहीं कि — इस आधार पर कोई अपनी श्रेष्ठता का दावा करेगा? किसी के साथ अत्याचार या भेदभाव करेगा। यह तो असह्य है। इसे किसी भी स्थिति में स्वीकार नहीं किया जा सकता है।‌ 

दूजे जहां तक बात रही ‘हिंदी’ के विरोध की — तो ये कोई नई बात नहीं है। भारत विभाजनकारी शक्तियां ‘हिंदी और हिंदू’ के विरोध से अपना षड्यंत्र शुरू करते हैं और फिर हिंदुस्तान के विरोध में उतर जाते हैं। भारत विभाजनकारी शक्तियों का एक और अंतिम लक्ष्य है भारत राष्ट्र का खंडन करना। इसके लिए वो कभी समाज को भाषा के आधार पर लड़ाएंगे। कभी जाति और महापुरुष के नाम पर लड़ाएंगे।‌कभी क्षेत्रवाद, बोली, पहनावों और परंपराओं के नाम पर समाज के मध्य विभाजन की दीवार खड़ी करेंगे। क्योंकि उन्हें ये पता है कि विराट हिंदू समाज को छोटे-छोटे विभाजनों में फंसाकर आसानी से तोड़ा जा सकता है।लेकिन अगर एक और अंतिम पहचान ‘हिंदू’ है तो वे मुंह की खाएंगे।वे कभी भी हिंदू समाज को कमजोर नहीं कर पाएंगे। बस इसी के निमित्त वो कोई न कोई ऐसा भावनात्मक मुद्दा उठाएंगे जो हिंदू समाज को आपस में ही लड़ा देने वाला हो। वो भावनाओं को उद्वेलित करेंगे। मुद्दा बनाएंगे और समाज में विभाजन के विष फैलाने में जुट जाएंगे। अक्सर जो राजनीतिक दल, नेता या समूह हिंदी या संस्कृत का विरोध करते दिखते हैं। वो क्या कभी विदेशी विशेषकर ‘अंग्रेजी’ भाषा का विरोध करते नज़र आए हैं? क्या कभी आपने ऐसा देखा है कि — वे अंग्रेजी के बायकॉट का अभियान चलाते दिखे हों। आप एक भी उदाहरण नहीं देखेंगे। क्योंकि भाषायी आधार पर समाज में अलगाववाद फैलाने वालों का एजेंडा भारतीय भाषाओं-स्थानीय भाषाओं को बढ़ावा देना नहीं है। बल्कि हिंदी विरोध के नाम पर समाज में विभाजन उत्पन्न करना और ध्रुवीकरण करना है। ताकि उनकी राजनीतिक सत्ता बनी रहे और संपूर्ण हिंदू समाज एकजुट न हो पाए। इतना ही नहीं भाषायी या क्षेत्रीय आधार पर अलगाववाद फैलाने वालों के पीछे कई सारी भारत विरोधी शक्तियां काम करती हैं। जो कभी राजनेताओं के माध्यम से,कभी समूहों के माध्यम से — विभाजन उत्पन्न करती रहती हैं।‌ प्रायः चुनावों के समय इसकी गति बढ़ जाती है। क्या आप ये सब अनुभव करते हैं? अगर हां तो तय मानिए कि ये सब बिल्कुल योजनाबद्ध ढंग से किया जाता है। आपने ध्यान दिया होगा कि—

असमय ही हिंदी विरोध की ये मुहिम कभी इस राज्य से तो कभी उस राज्य से दिखाई देती है। ये सब इसलिए होता है क्योंकि राष्ट्र की अधिसंख्य जनता हिंदी में एकता और राष्ट्रीयता का बोध पाती है। ऐसे में राष्ट्रीय एकता और अखंडता को व्यक्त करने वाले जितने भी प्रतीक, आदर्श और व्यवहार होंगे। उनके विरोध में अलगाववाद का वातावरण तैयार करना— राष्ट्रद्रोही शक्तियों का उद्देश्य है।‌

इसीलिए हम सबकी सतर्कता और सजगता की महती आवश्यकता है।‌ हम देश के किसी भी हिस्से में रहें। जहां भी पृथकता और अलगाववाद के ये कुकृत्य हों। उनका हमें मुखरता के साथ प्रतिकार करना चाहिए।क्योंकि हम सब भारतवासी — भारत माता की संतान हैं। जो हमारी माता का अपमान करेगा। भारत माता को पीड़ा देने का अपराध करेगा। हम भला उसे कैसे छोड़ सकते हैं? हमारी परंपरा तो यही कहती है न कि— न्यायार्थ अपने बंधु को भी, दंड देना धर्म है।

अतएव हम सबकी जितनी भी भिन्न-भिन्न पहचाने हैं वो सब ‘राष्ट्रीयता’ और हिंदुत्व की छतरी के नीचे ही समवेत होनी चाहिए। एकाकार और एकात्म होनी चाहिए। अगर ऐसा नहीं है तो हम नि:संदेह यह मान लें कि हम किसी बहुत बड़े विभाजनकारी ‘ट्रैप’ का टूल बनते जा रहे हैं। 

हमारी सभी भाषाएं, बोलियां, प्रांत, स्थानीयता वेशभूषा सबकुछ राष्ट्र की एकता-अखण्डता को अभिव्यक्त करने वाली हैं। भारत की संस्कृति इतनी विविधवर्णी है कि वह अपने संयोजन में संपूर्ण ब्रह्मांड का प्रतिनिधित्व करती है। अनंत कलाएं, अनंत परंपराएं और शैलियां आपको मिलेंगी। लेकिन सबके केन्द्र में सर्वसमावेशी दृष्टि और सृष्टि का दर्शन मिलेगा। आप किसी भी भाषा, बोली या क्षेत्र में जाइए वहां एकता के सूत्र एक मिलेंगे। हमारे आदर्श, मूल्य और संस्कार एक मिलेंगे। कहीं कोई विभाजन नहीं मिलेगा। हां ये ज़रूर हो सकता है कि इनके रुप और अभिव्यक्तियां अलग-अलग हों। लेकिन मूल और ध्येय आपको एक ही मिलेगा जो राष्ट्र को अभिव्यक्त करेगा। अपनी-अपनी परंपराओं, क्षेत्रों , बोलियों और भाषाओं के प्रत्येक आदर्शों को देख लीजिए। कहावतों, मुहावरों और सूक्तियों को देख लीजिए। संतों और विद्वानों को देख लीजिए। उनके विचारों और कार्यों में ‘विराट राष्ट्र’ और एकता, समरसता, बंधुता और प्राणि मात्र के कल्याण की ही भावना मिलेगी। सबमें राष्ट्र की परंपरा का अविरल प्रवाह मिलेगा जो सबको सत्मार्ग की ओर ले जाने वाला है। यही हमारा वैशिष्ट्य है। यही हमारी शक्ति और सामर्थ्य है।‌ लेकिन भारत की यही शक्ति और सामर्थ्य भारत विरोधियों को रास नहीं आ रही है। दुराग्रही कुंठित राजनीतिक दलों और उनके नेताओं को राष्ट्रीयता का यह विराट स्वरूप पच नहीं पा रहा है। क्योंकि अलगाववाद, क्षेत्रवाद और भाषावाद के नाम पर बने राजनीतिक दलों को जनता ने बारंबार ख़ारिज कर दिया है। ऐसे में राष्ट्रीयता के समस्त मूल्य और आदर्श उनके लिए बाधक सिद्ध हो रहे हैं। इसीलिए वो अपनी खीझ उतारने के लिए किसी भी स्तर तक नीचे गिरते चले जा रहे हैं। लेकिन क्या राष्ट्र और समाज उन्हें देख और समझ नहीं रहा है? अगर उन्हें ये भ्रम है तो वो जितना जल्दी हो उसे दूर कर लें। क्योंकि ये राष्ट्र अपने महान आदर्शों और परंपराओं के साथ आगे बढ़ चला है। जो हर विभाजन का मुखर प्रतिकार कर रहा है। एकता की बांसुरी बजाता हुआ—हर भाषा और परंपराओं को अपनाता हुआ नित निरंतर आगे बढ़ रहा है। ये राष्ट्र पाञ्चजन्य का शंखनाद करते हुए समरसता का जीवन जीते हुए नई लीक बनाते की ओर बढ़ चला है। 

~कृष्णमुरारी त्रिपाठी अटल