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जब न्याय के प्रहरी ही अपराधी बन जाएँ, तो कानून की आस्था कैसे बचे?

झूठे मुकदमे केवल निर्दोषों को पीड़ा नहीं देते, बल्कि न्याय तंत्र की नींव को भी हिला देते हैं। जब वकील ही इस व्यापार में शामिल होते हैं तो वकालत की गरिमा और न्यायपालिका की विश्वसनीयता दोनों पर गहरा आघात होता है। ऐसे वकीलों पर आपराधिक मुकदमे चलना अनिवार्य है ताकि कानून का दुरुपयोग रोका जा सके। न्याय केवल किताबों में दर्ज प्रावधान नहीं है, बल्कि करोड़ों लोगों की आस्था है। यह आस्था तभी बची रहेगी जब न्याय के प्रहरी – वकील और अदालत – स्वयं अपने आचरण से पारदर्शिता और ईमानदारी का उदाहरण प्रस्तुत करेंगे।

-डॉ. प्रियंका सौरभ

भारतीय न्याय व्यवस्था की नींव सत्य और न्याय पर आधारित है। न्यायालय को हमेशा से समाज का सबसे बड़ा सहारा माना जाता रहा है। जब अन्याय पीड़ित व्यक्ति हर दरवाज़े पर ठोकर खाकर थक जाता है, तब उसे अदालत से ही उम्मीद रहती है। लेकिन यह उम्मीद तब कमजोर पड़ जाती है जब न्याय का सहारा बनने वाले लोग ही उसे अपने स्वार्थ और लालच का साधन बना लेते हैं। हाल ही में लखनऊ की अदालत ने एक वकील परमानंद गुप्ता को 29 झूठे मुकदमे दर्ज कराने के अपराध में उम्रकैद और पाँच लाख रुपये के जुर्माने की सज़ा सुनाई। यह फैसला एक उदाहरण है कि न्यायपालिका कानून का दुरुपयोग करने वालों को बख्शेगी नहीं। यह केवल एक व्यक्ति की सजा नहीं है, बल्कि पूरे समाज और न्यायिक व्यवस्था के लिए चेतावनी है कि कानून का मज़ाक उड़ाने वालों की कोई जगह नहीं।

वकील पेशे को समाज में हमेशा सम्मानित दृष्टि से देखा जाता है। वकील को केवल मुवक्किल का प्रतिनिधि नहीं, बल्कि न्यायालय का अधिकारी भी माना जाता है। उससे अपेक्षा की जाती है कि वह सत्य और न्याय के लिए संघर्ष करेगा। लेकिन जब वही वकील झूठे मुकदमों का निर्माण करने लगे, निर्दोषों को फँसाने लगे, और अपने पेशे का इस्तेमाल व्यक्तिगत दुश्मनी या आर्थिक लाभ के लिए करने लगे, तो यह न केवल उसकी आचार संहिता का उल्लंघन है बल्कि पूरे पेशे की गरिमा पर भी प्रश्नचिह्न है। एक वकील जो अदालत में सत्य का पक्षधर होना चाहिए, अगर असत्य का सबसे बड़ा हथियार बन जाए तो समाज में न्याय की कोई गारंटी नहीं रह जाती।

झूठे मुकदमों का असर केवल आरोपित व्यक्ति तक सीमित नहीं रहता। यह उसके परिवार, उसकी सामाजिक स्थिति और उसकी आर्थिक स्थिति तक को झकझोर देता है। वर्षों तक अदालतों के चक्कर लगाने पड़ते हैं, बेगुनाही साबित करने के लिए सबूत जुटाने पड़ते हैं और मानसिक यातना अलग से झेलनी पड़ती है। समाज भी ऐसे व्यक्ति को संदेह की दृष्टि से देखने लगता है। इससे उसका आत्मविश्वास टूट जाता है और धीरे-धीरे कानून और अदालत पर से विश्वास उठने लगता है। यही सबसे बड़ा नुकसान है, क्योंकि न्याय पर से भरोसा खत्म होना किसी भी समाज के लिए सबसे खतरनाक स्थिति है।

झूठे मुकदमों की समस्या यह भी है कि यह असली पीड़ितों के मामलों को कमजोर करती है। जब कोई कानून, जैसे एससी-एसटी एक्ट, जिसका उद्देश्य कमजोर वर्गों की सुरक्षा करना है, झूठे मुकदमों में इस्तेमाल किया जाता है तो वास्तविक पीड़ितों की आवाज़ दब जाती है। अदालतों को यह तय करने में अधिक समय लग जाता है कि कौन-सा मामला सच है और कौन-सा झूठा। नतीजा यह होता है कि असली पीड़ितों को न्याय मिलने में देर होती है और उनका दर्द बढ़ जाता है।

इसलिए आज आवश्यकता है कि झूठे मुकदमे गढ़ने वाले और उन्हें अदालत में आगे बढ़ाने वाले वकीलों पर कठोरतम कार्रवाई हो। यदि कोई डॉक्टर लापरवाही करता है, तो उस पर केस चलता है। यदि कोई इंजीनियर खराब निर्माण करता है तो उसे दंडित किया जाता है। तो फिर वकील, जो न्याय के प्रहरी हैं, यदि झूठे मुकदमों का व्यापार करें, तो उन्हें भी आपराधिक षड्यंत्र, धोखाधड़ी और न्याय में बाधा डालने जैसी धाराओं में दंडित किया जाना चाहिए। उनकी प्रैक्टिस पर रोक लगनी चाहिए और बार काउंसिल को उनके लाइसेंस रद्द करने चाहिए।

यह केवल कानून की सख्ती का मामला नहीं है, बल्कि वकालत के पेशे की मर्यादा का प्रश्न है। जब तक झूठे मुकदमों के निर्माण और संचालन में शामिल वकीलों पर मुकदमे नहीं चलेंगे, तब तक यह कुप्रथा बंद नहीं होगी। अदालतें जितनी कठोर सज़ा देंगी, उतना ही यह संदेश समाज में जाएगा कि कानून का दुरुपयोग करने वालों की कोई जगह नहीं।

न्याय व्यवस्था को बचाने के लिए आवश्यक है कि कानून में ऐसे प्रावधान हों जिससे झूठे मुकदमों की पहचान होने पर तुरंत कार्रवाई हो। वकीलों की जवाबदेही तय करनी होगी। अगर यह साबित हो कि किसी वकील ने जानबूझकर मुवक्किल को झूठे मुकदमे के लिए उकसाया, तो उस पर केवल पेशेवर कार्रवाई न हो बल्कि आपराधिक मुकदमा भी दर्ज हो। इस कदम से न केवल निर्दोष लोगों की रक्षा होगी बल्कि वकालत का पेशा भी अपने वास्तविक उद्देश्य – न्याय की सेवा – के लिए जाना जाएगा।

आज लखनऊ की अदालत का फैसला पूरे देश के लिए मिसाल है। इसने साबित किया है कि न्यायालय केवल आरोपी और अपराधी के बीच निर्णय करने वाला संस्थान नहीं, बल्कि न्याय व्यवस्था की पवित्रता को भी सुरक्षित रखने वाला प्रहरी है। यदि वकील अपने कर्तव्य से भटकेंगे, तो वे भी अपराधी की श्रेणी में आएँगे और उन्हें उसी प्रकार दंड मिलेगा जैसे अन्य अपराधियों को मिलता है।

अब समय आ गया है कि समाज और न्यायपालिका दोनों मिलकर वकालत के पेशे को अपराध का साधन बनने से बचाएँ। बार काउंसिल ऑफ इंडिया को चाहिए कि वह वकीलों के लिए कठोर आचार संहिता लागू करे और झूठे मुकदमों में लिप्त पाए जाने पर तत्काल लाइसेंस रद्द करे। अदालतों को चाहिए कि वे ऐसे मामलों की सुनवाई तेज़ी से पूरी करें ताकि न्याय केवल होता हुआ नज़र ही न आए बल्कि सही समय पर मिले भी।

वकीलों को भी आत्ममंथन करना होगा। उन्हें यह समझना होगा कि उनका पहला कर्तव्य केवल मुवक्किल की जीत नहीं बल्कि न्याय की जीत है। यदि इस सोच को अपनाया जाए तो न्यायालय में पेश होने वाला हर वकील समाज की नज़रों में वास्तविक प्रहरी होगा, न कि अपराध का भागीदार। न्याय केवल कागज़ों पर लिखा शब्द नहीं, बल्कि करोड़ों लोगों की आस्था है। और यह आस्था तभी बनी रहेगी जब न्याय के रक्षक भी पूरी ईमानदारी और जिम्मेदारी से अपने कर्तव्य का पालन करेंगे।

झूठे मुकदमों से केवल अदालतों का बोझ नहीं बढ़ता बल्कि समाज का विश्वास भी टूटता है। निर्दोष लोग जब सालों तक जेलों में सड़ते हैं, तब उनके परिवार बर्बाद हो जाते हैं। उनकी मासूम ज़िंदगियाँ खत्म हो जाती हैं। ऐसे समय में अदालतों से सख्त और स्पष्ट संदेश मिलना ही समाज को यह विश्वास दिलाता है कि न्याय जीवित है और उसकी रक्षा की जा रही है।

लखनऊ का फैसला इस दिशा में एक ऐतिहासिक कदम है। यह न केवल एक अपराधी वकील को दंडित करने का मामला है बल्कि पूरे देश को यह चेतावनी है कि झूठे मुकदमे गढ़ने और चलाने वालों के लिए अब जगह नहीं बची है। यह संदेश हर उस वकील को याद दिलाना चाहिए जो कभी भी असत्य के रास्ते पर जाने का प्रयास करेगा। कानून और अदालत किसी के भी दबाव या छलावे में नहीं आने वाले।

इसलिए ज़रूरी है कि इस फैसले को समाज एक आदर्श की तरह देखे और इसे पूरे देश में लागू करने की कोशिश की जाए। वकीलों को भी चाहिए कि वे इस घटना से सीख लें और यह संकल्प लें कि वे अपने पेशे की गरिमा को कभी धूमिल नहीं होने देंगे। तभी न्याय वास्तव में न्याय कहलाएगा और अदालतें आम आदमी के लिए भरोसे का सबसे बड़ा आधार बन सकेंगी।

संसद संवाद और बहस का मंच है, हंगामे का नहीं

-ललित गर्ग-

लोकतंत्र की सबसे बड़ी पहचान उसकी संसद होती है। संसद वह संस्था है जहां जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधि राष्ट्र की नीतियों, योजनाओं और कानूनों पर विचार-विमर्श करते हैं। यह वह सर्वाेच्च मंच है जहाँ विभिन्न विचारधाराएं और दृष्टिकोण टकराते हैं और देशहित में समाधान निकलता है। लेकिन दुर्भाग्यवश आज भारतीय संसद की छवि हंगामे, तोड़फोड़, शोर-शराबे और गतिरोध का पर्याय बनती जा रही है। हाल ही में संपन्न मानसून सत्र इसकी बानगी था, जो आरंभ से अंत तक त्रासद हंगामे की भेंट चढ़ गया। यह सत्र बेहद निराशा एवं अफसोसजनक रहा, क्योंकि सरकार और विपक्ष में टकराव उग्र से उग्रत्तर हुआ। राज्यसभा में केवल 41.15 घंटे और लोकसभा में 37 घंटे काम हुआ। संवाद एवं सौहाई की कमी दिखी, कई सवाल अधूरे रहे, जिनका जवाब देश जानना चाहता था। यहां दोनों पक्षों से ज्यादा समझदारी, सौहार्द और संतुलित नजरिये की अपेक्षा थी, लेकिन देशहित को दोनों पक्षों ने नेस्तनाबूद किया। यह स्थिति केवल दुखद ही नहीं बल्कि लोकतंत्र के भविष्य के लिए गंभीर चिंता का विषय भी है।
लोकसभा के मानसून सत्र के लिए कुल 120 घंटे चर्चा के लिये निर्धारित थे, लेकिन कार्यवाही मात्र 37 घंटे ही चल पाई। यानी 70 प्रतिशत से अधिक समय लोकसभा में और 61 प्रतिशत से ज्यादा समय राज्यसभा में हंगामे और शोर-शराबे की भेंट चढ़ गया। संसद में बिताया गया प्रत्येक घंटा जनता के करोड़ों रुपये की कमाई से संचालित होता है। जब वही समय व्यर्थ हो जाए तो यह सीधे-सीधे जनता के साथ अन्याय है। गुजरात के एक निर्दलीय सांसद ने यह प्रश्न उठाया भी कि जो सांसद हंगामा कर सदन को ठप कर देते हैं, क्या वे जनता के धन की बरबादी की भरपाई करेंगे? यह प्रश्न केवल प्रतीकात्मक नहीं, बल्कि लोकतंत्र के प्रति हमारी गंभीरता की कसौटी भी है। काम कम, हंगामा अधिक-आखिर हमारे राजनीतिक दल एवं जनप्रतिनिधि लोकतंत्र की मर्यादा एवं आदर्श को तार-तार करने पर क्यों तुले हैं? कैसी विडम्बना है कि लोकसभा की कार्यवाही के लिए 419 तारांकित प्रश्न शामिल किए गए थे और इनमें से महज 55 का मौखिक उत्तर मिल सका।
लोकतंत्र में असहमति स्वाभाविक है और आवश्यक भी। विपक्ष का काम ही है सवाल उठाना, सत्ता को जवाबदेह बनाना। लेकिन यह काम हंगामे, नारेबाजी और सदन की कार्यवाही बाधित करने से नहीं हो सकता। संसद संवाद का मंच है, न कि संघर्ष का अखाड़ा। दुर्भाग्य यह है कि आज बहस और तर्क की जगह हंगामे और टकराव ने ले ली है। इससे न तो जनता की समस्याओं पर गंभीर विमर्श हो पाता है और न ही संसद की गरिमा सुरक्षित रह पाती है। सत्र शुरू होने के पहले कार्य मंत्रणा समिति में सरकार और विपक्ष के बीच कुछ मुद्दों पर चर्चा की सहमति बनी थी। लेकिन, सत्र शुरू होने के साथ ही उसे भुला दिया गया। संसदीय परंपरा में विरोध भी अधिकार है, लेकिन इसकी वजह से सदन की गरिमा और उसके कामकाज पर असर पड़ना दुर्भाग्यपूर्ण एवं चिन्ताजनक है।
भारत का हर नागरिक संसद से अपेक्षा करता है कि वहां उसकी समस्याओं पर चर्चा होगी-बेरोजगारी, महंगाई, भ्रष्टाचार, शिक्षा, स्वास्थ्य और सुरक्षा जैसे मुद्दे प्राथमिकता पाएंगे। लेकिन जब टीवी स्क्रीन पर वह अपने प्रतिनिधियों को मेज थपथपाते, नारे लगाते और वेल में जाकर हंगामा करते देखता है तो उसका विश्वास टूटता है और मन आहत होता है। उसे लगता है कि जिन नेताओं को उसने वोट देकर भेजा था, वे उसके हितों की बजाय केवल राजनीति का खेल खेल रहे हैं। यही कारण है कि आज लोकतंत्र के प्रति आम नागरिक का मोहभंग बढ़ रहा है। वैसे भी यह मानसून सत्र ऐसे वक्त हो रहा था, जब भारत नई चुनौतियों से गुजर रहा है। विदेश और आर्थिक, दोनों मोर्चों पर हालात तेजी से करवट ले रहे हैं। ऐसे में और भी अहम हो जाता है कि संसद में इस पर सार्थक चर्चा होती और वाद-विवाद से रास्ता निकाला जाता। बिहार में वोटर लिस्ट रिवीजन-एसआईआर और ऑपरेशन सिंदूर पर कई सवाल बचे रह गए। प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री एवं अन्य मंत्रियों के सजा की स्थिति-यानी जेल में होने पर पद से हटाने वाले संविधान संशोधन विधेयक जैसे महत्वपूर्ण मुद्दे पर जिस गंभीरता की जरूरत थी, वह नहीं दिखी।
संसद में हंगामे की प्रवृत्ति में केवल विपक्ष ही नहीं बल्कि सत्ता पक्ष भी अक्सर इसमें बराबर का भागीदार होता है। जब कोई दल विपक्ष में होता है तो वह विरोध के लिए हरसंभव कदम उठाता है, और जब वही दल सत्ता में आता है तो संसद की गरिमा की दुहाई देने लगता है। यह दोहरा रवैया लोकतंत्र को कमजोर करता है। संसद को सुचारुरूप से चलाना केवल सरकार की ही नहीं, बल्कि विपक्ष की भी जिम्मेदारी है। दोनों पक्षों को यह समझना होगा कि वे जनता के सेवक हैं, और जनता उनके कामकाज पर पैनी नजर रखती है। संसद में अनुशासन और मर्यादा बनाए रखने के लिए कठोर नियमों की आवश्यकता है। यदि कोई सांसद बार-बार हंगामा करता है, सदन की कार्यवाही बाधित करता है, तो उसके खिलाफ दंडात्मक कार्रवाई होनी चाहिए। आर्थिक दंड एक प्रभावी उपाय हो सकता है। जिस प्रकार एक कर्मचारी को कार्यालय में अनुशासन भंग करने पर वेतन काटा जाता है, उसी प्रकार सांसद का भत्ता और सुविधाएं भी रोकी जानी चाहिए। तभी उन्हें यह समझ आएगा कि संसद खेल का मैदान नहीं बल्कि देशहित का पवित्र मंच है।
कई बार सांसद यह तर्क देते हैं कि यदि उनकी आवाज संसद में नहीं सुनी जाती तो वे मजबूर होकर हंगामा करते हैं। लेकिन यह तर्क स्वीकार्य नहीं है। संसद में बोलने के लिए पर्याप्त अवसर मिलते हैं, शून्यकाल, प्रश्नकाल, विशेष उल्लेख, स्थायी समितियाँ-ये सभी मंच सांसदों को मुद्दे उठाने का अवसर देते हैं। यदि इन मंचों का सही उपयोग हो तो हंगामे की कोई आवश्यकता नहीं रहती। सड़क की राजनीति और संसद की राजनीति में अंतर होना चाहिए। यदि संसद भी सड़क जैसी दिखने लगे तो लोकतंत्र की पवित्रता पर प्रश्नचिह्न लगना स्वाभाविक है। अब समय आ गया है कि जनता अपने सांसदों से सवाल पूछे। मतदाता केवल जाति, धर्म या दल देखकर वोट न दें, बल्कि यह भी देखें कि उनका प्रतिनिधि संसद में कितना समय उपस्थित रहता है, कितनी बार बोलता है, कितने प्रश्न पूछता है और कितनी गंभीरता से बहस में भाग लेता है। चुनाव आयोग और मीडिया को भी यह आँकड़े मतदाताओं तक पहुँचाने चाहिए। जब मतदाता यह तय करने लगेंगे कि उनका वोट केवल उन नेताओं को जाएगा जो संसद में गंभीरता से काम करते हैं, तभी यह प्रवृत्ति बदलेगी।
लोकतंत्र की सफलता केवल संविधान या संस्थाओं से नहीं, बल्कि उन लोगों से होती है जो उन्हें संचालित करते हैं। यदि सांसद ही अपनी जिम्मेदारी नहीं निभाएँगे तो लोकतंत्र खोखला हो जाएगा। आज आवश्यकता है कि सभी राजनीतिक दल एक साथ बैठकर यह संकल्प लें कि चाहे सत्ता में हों या विपक्ष में, वे संसद की गरिमा को आंच नहीं आने देंगे। असहमति और संघर्ष लोकतंत्र का हिस्सा हैं, परंतु वह असहमति तर्क और संवाद से होनी चाहिए, हंगामे और अव्यवस्था से नहीं। संसद में हंगामे की प्रवृत्ति लोकतंत्र की आत्मा पर प्रहार है। यह जनता की गाढ़ी कमाई की बरबादी है और उनकी उम्मीदों का अपमान भी। यह संसाधनों की बर्बादी एवं जनविश्वास का हनन है। चिंताजनक बात यह है कि संसदीय कार्यवाही का ऐसा अंजाम अब आम हो चुका है। पिछले शीत सत्र में ही लोकसभा के 65 से ज्यादा घंटे बर्बाद हुए थे। संसद सत्र को चलाने में हर मिनट ढाई लाख रुपये से ज्यादा खर्च होते हैं। ऐसे में सदन जब काम नहीं करता, तो जनता की गाढ़ी कमाई के इन रुपयों के साथ देश का बेहद कीमती समय भी जाया हो जाता है। संसद में केवल वही बहसें होनी चाहिए जो देश के भविष्य को दिशा दें, समस्याओं का समाधान निकालें और नीतियों को प्रभावी बनाएँ। यदि संसद ही शोरगुल और हंगामे का अखाड़ा बन जाए तो लोकतंत्र का उद्देश्य ही विफल हो जाएगा। विरोध भी जरूरी है, पर मुद्दों पर और सकारात्मक उद्देश्य के साथ।

आर्यभट्ट से गगनयानः प्राचीन ज्ञान से अनंत संभावनाएँ 

23 अगस्त को दूसरा राष्ट्रीय अंतरिक्ष दिवस- 2025 विशेष रूप से चर्चा में है, क्योंकि यह चंद्रयान-3 मिशन की ऐतिहासिक सफलता की दूसरी वर्षगांठ है। पाठकों को बताता चलूं कि इस दिन को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 23 अगस्त के दिन 2023 में इसरो की चंद्रयान-3 लैंडर की चंद्रमा की सतह पर सफल लैंडिंग की याद में राष्ट्रीय अंतरिक्ष दिवस के रूप में घोषित किया था । इसका मुख्य उद्देश्य चंद्रयान-3 मिशन की सफलता को याद करना और युवाओं को विज्ञान, प्रौद्योगिकी, इंजीनियरिंग और गणित (एसटीईएम) में करियर बनाने के लिए प्रेरित करना है। गौरतलब है कि पहली बार राष्ट्रीय अंतरिक्ष दिवस का आयोजन 23 अगस्त 2024 को किया गया, जिसका विषय/थीम- ‘चंद्रमा को छूते हुए जीवन को छूना: भारत की अंतरिक्ष गाथा’ रखा गया था, तथा इस बार दूसरे राष्ट्रीय अंतरिक्ष दिवस(वर्ष 2025) की थीम ‘आर्यभट्ट से गगनयान: प्राचीन ज्ञान से अनंत संभावनाएँ ‘, रखी गई है,जो भारत की खगोलशास्त्रीय विरासत से लेकर आगामी मानव अंतरिक्ष उड़ान (गगनयान) तक की यात्रा को दर्शाता है। पाठक जानते होंगे कि 23 अगस्त 2023 को इसरो के चंद्रयान-3 मिशन ने चंद्रमा के दक्षिण ध्रुव के पास सफल सॉफ्ट लैंडिंग की थी। इसमें विक्रम लैंडर और प्रज्ञान रोवर की तैनाती शामिल थी, जिससे भारत यह ऐतिहासिक उपलब्धि हासिल करने वाला चौथा और चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव के पास उतरने वाला पहला देश बना। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि इसके अवतरण स्थल को ‘शिव शक्ति’ बिंदु नाम दिया गया था। बहरहाल, पाठकों को बताता चलूं कि भारत विज्ञान और प्रौद्योगिकी की दिशा में निरंतर प्रगति कर रहा है। अंतरिक्ष अनुसंधान के क्षेत्र में भारत ने जिस ऊँचाई को छुआ है, उसका श्रेय भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) को जाता है। अपने स्थापना काल से ही इसरो की उपलब्धियां बहुत ही शानदार रहीं हैं।1969-1980 तक इसरो का आरंभिक दौर था,जब 1969 में डॉ. विक्रम साराभाई के नेतृत्व में इसरो की स्थापना की गई थी। इसके बाद वर्ष 1975 में भारत ने अपना पहला उपग्रह आर्यभट्ट अंतरिक्ष में भेजा तथा साल 1980 में रोहिणी उपग्रह को स्वदेशी प्रक्षेपण यान (एसएलवी-3) से प्रक्षेपित किया गया। कहना ग़लत नहीं होगा कि इसरो ने दूरसंचार और मौसम उपग्रह में शानदार प्रगति की है।इनसैट और आईआरएस श्रृंखला के उपग्रहों ने भारत को संचार, प्रसारण, मौसम पूर्वानुमान और आपदा प्रबंधन में आत्मनिर्भर बनाया है। यहां पाठकों को बताता चलूं कि भारत ने पहली बार चंद्रमा पर चंद्रयान-1(वर्ष 2008) मिशन भेजा और वहां जल-बर्फ की उपस्थिति का प्रमाण विश्व को दिया।भारत ने अपनी पहली ही कोशिश में मंगल की कक्षा में(मंगलयान एम ओ एम-2013) पहुँचकर इतिहास रचा। यह उपलब्धि पाने वाला भारत एशिया का पहला और विश्व का चौथा देश बना। इतना ही नहीं साल 2017 के दौरान पीएसएलवी-सी37 से एक साथ 104 उपग्रह प्रक्षेपित कर इसरो ने विश्व रिकॉर्ड बनाया।इसके बाद चंद्रयान-2 (साल 2019) का प्रक्षेपण किया गया। यद्यपि लैंडर सफलतापूर्वक उतर नहीं सका, परंतु ऑर्बिटर आज भी चंद्रमा की कक्षा से महत्वपूर्ण आंकड़े भेज रहा है। चंद्रयान-3 (साल 2023) के बारे में तो पाठक जानते होंगे कि दक्षिणी ध्रुव पर सफल लैंडिंग कर भारत ने वैश्विक अंतरिक्ष इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में अपना नाम दर्ज कराया। आधुनिक मिशनों की यदि हम यहां पर बात करें तो आदित्य-एल1 (2023-24) सूर्य का अध्ययन करने वाला भारत का पहला मिशन है। इतना ही नहीं, भारत का पहला मानव अंतरिक्ष अभियान,भी आने वाले वर्षों में लॉन्च होने की संभावना है। गौरतलब है कि वर्तमान में निसार उपग्रह (अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा के साथ) पृथ्वी के पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन का अध्ययन कर रहा है। पाठकों को बताता चलूं कि 30 जुलाई 2025 को, इसरो ने नासा के साथ मिलकर विकसित निसार (नासा-इसरो सिंथेटिक अपर्चर रडार) उपग्रह को जीएसएलवी-एफ16 रॉकेट से कक्षा में स्थापित किया था। यह पृथ्वी की सतह पर होने वाले छोटे बदलावों को सेमी-स्तर की सटीकता से मापने की क्षमता रखता है—जैसे ग्लेशियर का पिघलना, भूकंपीय हलचल, आदि। यह एक महत्वपूर्ण वैश्विक सहयोग और पर्यावरण-अवलोकन उपलब्धि है। इतना ही नहीं संयुक्त राज्य, रूस और चीन के बाद भारत स्पेस डॉकिंग में सफलता प्राप्त करने वाला विश्व का चौथा देश बन गया। इसरो ने क्रायोजेनिक इंजन और तकनीकी परीक्षणों में भी अभूतपूर्व प्रगति की है। आदित्य-एल1 मिशन के साथ अंतरिक्ष में भेजे गए सोलर अल्ट्रावायलेट इमेजिंग टेलीस्कोप (एसयूआईटी) ने सूर्य की तस्वीरों और फ्लेयर्स की एनयूवी क्षेत्र में लगातार एक वर्ष तक सफल अवलोकन किया। यह उपकरण हमारे सौर वातावरण की समझ को और मजबूत करता है। इसरो ने जीएसएलवी-एफ15 से अपना 100वाँ रॉकेट लॉन्च करते हुए एनवीएस-02 नेविगेशन सैटेलाइट को कक्षा में सफलतापूर्वक स्थापित किया, जिससे NavIC नेटवर्क और मजबूत हुआ। यह इसरो का लोकल और विदेशी लॉन्च दोनों के लिए महत्वपूर्ण मोड़ था। इतना ही नहीं इसरो वर्तमान में मानवोन्मुख मिशन (गगनयान मिशन) पर लगातार काम कर रहा है।इसरो अगली पीढ़ी के ऐसे रॉकेट विकसित कर रहा है जो लगभग 40-मंज़िला इमारत जितने ऊँचे (120एम+) होंगे और 75 टन वजन का पेलोड भेज सकेंगे—यह भारी उपयोगों जैसे स्पेस स्टेशन मॉड्यूल्स की तैनाती हेतु जरूरी है।इसरो चंद्र और शुक्र मिशन के अलावा भारतीय अंतरिक्ष स्टेशन पर भी काम कर रहा है। उपलब्ध जानकारी के अनुसार भारत की अपनी अंतरिक्ष स्टेश्न की परियोजना जिसमें लगभग 20 टन भार का स्टेशन 400 किमी कक्षा में बनाया जाएगा, जहां पर 15–20 दिनों के लिए चालक दल रह सकेगा। यह 2028–2035 के बीच परिकल्पित है।चिप विकास और सेमीकंडक्टर आत्मनिर्भरता पर भी इसरो लगातार काम कर रहा है। पाठकों को बताता चलूं कि आइआइटी मद्रास और इसरो के सहयोग से विकसित आईआरआईएस नामक चाकती(CHAKTI) सीरीज का RISC-V आधारित माइक्रोप्रोसेसर चिप, जो विशेष रूप से अंतरिक्ष मिशनों के लिए फाल्ट टोरेंट मेमोरी, वाचडोग टाईमर्स आदि के साथ तैयार किया गया है। यह सेमीकंडक्टर आत्मनिर्भरता की दिशा में महत्वपूर्ण कदम है। अंत में यही कहूंगा कि आज हमारा इसरो अंतरिक्ष के क्षेत्र में सफलता के झंडे गाड़ रहा है और राष्ट्रीय अंतरिक्ष दिवस केवल एक तिथि नहीं, बल्कि भारतीय वैज्ञानिकों के अदम्य साहस और दृढ़ संकल्प का प्रतीक है। इसरो की उपलब्धियों ने भारत को अंतरिक्ष जगत में विश्व में सिरमौर तथा एक बड़ी महाशक्ति बना दिया है। आज अंतरिक्ष केवल शोध का क्षेत्र नहीं, बल्कि राष्ट्रीय गौरव और आत्मनिर्भर भारत की पहचान बन चुका है।दो पंक्तियां समर्पित हैं -‘जिस धरती की मिट्टी में,सपनों की उड़ान बसी है,उस भारत मां के बेटों ने चाँद-सूरज तक राह रची है। पसीने से सींची मेहनत, ज्ञान से गढ़ा विज्ञान, हर सफलता पर गर्व करे पूरा हिन्दुस्तान।’ जय-जय।

23 अगस्त राष्ट्रीय अंतरिक्ष दिवस 

सुनील कुमार महला

ऑनलाइन गेमिंग बिल : “मनोरंजन, रोजगार और सामाजिक ज़िम्मेदारी के बीच संतुलन की तलाश

लोकसभा में ऑनलाइन गेमिंग बिल 2025 को लेकर गहन बहस हुई। सरकार ने इसे समाज में जुए और लत जैसी प्रवृत्तियों को रोकने के लिए आवश्यक बताया, जबकि विपक्ष ने इसे रोजगार और उद्योग पर चोट मानते हुए संशोधन की माँग रखी। सूचना प्रौद्योगिकी मंत्री ने स्पष्ट किया कि बिल केवल रियल-मनी गेमिंग और सट्टेबाज़ी पर रोक लगाता है, जबकि ई-स्पोर्ट्स और कौशल आधारित खेलों को प्रोत्साहित करेगा। कुछ सांसदों ने युवाओं की मानसिक सेहत और परिवारों की सुरक्षा पर चिंता जताई, वहीं उद्योग से जुड़े हितों पर विशेष समिति गठित करने का सुझाव आया।

डॉ. सत्यवान सौरभ

भारत में डिजिटल क्रांति के बाद से मोबाइल और इंटरनेट ने जिस तरह लोगों के जीवन को प्रभावित किया है, उसमें ऑनलाइन गेमिंग का संसार सबसे अधिक आकर्षक और विवादित रहा है। स्मार्टफोन की बढ़ती पहुँच, तेज़ इंटरनेट और युवाओं के बीच डिजिटल प्लेटफॉर्म की लोकप्रियता ने इस क्षेत्र को तेजी से विस्तार दिया है। लेकिन जहाँ एक ओर ई-स्पोर्ट्स और कौशल-आधारित खेलों ने भारत को विश्व मानचित्र पर जगह दिलाई है, वहीं दूसरी ओर पैसे के दाँव पर खेले जाने वाले खेल, बेटिंग ऐप्स और जुए जैसी प्रवृत्तियों ने समाज और सरकार दोनों को चिंतित किया है। इसी पृष्ठभूमि में केंद्र सरकार ने हाल ही में ऑनलाइन गेमिंग बिल को मंजूरी दी है। यह बिल न केवल आर्थिक और सामाजिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है बल्कि भविष्य में भारत की डिजिटल नीति की दिशा भी तय करेगा।

यह बिल स्पष्ट रूप से कहता है कि कोई भी वास्तविक धन पर आधारित गेमिंग या ऑनलाइन सट्टेबाज़ी प्रतिबंधित होगी। इसके साथ ही ऐसे खेलों के विज्ञापन, प्रचार और वित्तीय लेन-देन पर भी रोक लगाने का प्रावधान है। इसका सीधा मतलब है कि बैंक और वित्तीय संस्थान किसी भी रूप में ऐसे खेलों से जुड़े लेन-देन को प्रोसेस नहीं करेंगे। इस प्रावधान से सरकार यह सुनिश्चित करना चाहती है कि पैसे के लालच में जुए जैसी प्रवृत्तियाँ समाज में न फैलें।

परंतु इस बिल की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह ई-स्पोर्ट्स और कौशल-आधारित गैर-आर्थिक गेमिंग को बढ़ावा देता है। सरकार ने साफ किया है कि उसे खेल के रूप में ई-स्पोर्ट्स को प्रोत्साहित करना है। आने वाले समय में “नेशनल ई-स्पोर्ट्स अथॉरिटी” जैसी संस्था की स्थापना की जा सकती है, जो ई-स्पोर्ट्स को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत का प्रतिनिधि बनाने की दिशा में काम करेगी। यह कदम न केवल डिजिटल खेलों को वैधता देगा बल्कि उन लाखों युवाओं को भी अवसर देगा जो गेमिंग को कैरियर बनाना चाहते हैं।

इस बिल का एक और महत्वपूर्ण पहलू यह है कि इसके तहत सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय (MeitY) को केंद्रीय नियामक की भूमिका सौंपी गई है। मंत्रालय को यह अधिकार होगा कि वह गैर-पंजीकृत या अवैध गेमिंग प्लेटफॉर्म को ब्लॉक कर सके। यह व्यवस्था उपभोक्ताओं को धोखाधड़ी और अवैध गतिविधियों से बचाने के उद्देश्य से की गई है। भारत में अब तक ऑनलाइन गेमिंग से जुड़े नियम अलग-अलग राज्यों में अलग थे। कहीं इसे वैध माना गया तो कहीं प्रतिबंधित। ऐसे में एक राष्ट्रीय स्तर की रूपरेखा बनाना समय की मांग थी।

यह बिल केवल नियम-कानून का दस्तावेज़ नहीं है बल्कि इसके पीछे गहरे सामाजिक और मनोवैज्ञानिक कारण भी हैं। पिछले कुछ वर्षों में देखा गया है कि ऑनलाइन बेटिंग और वास्तविक धन से जुड़े खेलों की लत ने कई युवाओं की ज़िंदगियाँ बर्बाद कर दी हैं। कई मामलों में लोगों ने कर्ज़ लेकर खेला और परिवार तबाह हो गए। बच्चों में भी मोबाइल गेम्स की लत मानसिक स्वास्थ्य पर गहरा असर डाल रही है। सरकार को यह भी एहसास है कि इस समस्या को रोकना उतना ही ज़रूरी है जितना मादक पदार्थों की लत को रोकना। कई विशेषज्ञों ने तो इसे नशे से भी खतरनाक बताया है क्योंकि यह बिना किसी भौतिक पदार्थ के सीधे दिमाग़ पर नियंत्रण कर लेती है।

हालाँकि उद्योग जगत का पक्ष बिल्कुल अलग है। गेमिंग इंडस्ट्री का कहना है कि इस बिल से लगभग दो लाख नौकरियों पर खतरा मंडराने लगा है और सरकार को हर साल मिलने वाले बीस हज़ार करोड़ रुपये के जीएसटी राजस्व पर भी असर पड़ सकता है। “ड्रीम11”, “गेम्स24×7”, “विन्ज़ो” जैसी कंपनियाँ लंबे समय से करोड़ों रुपये का कारोबार कर रही हैं। उनका कहना है कि यदि घरेलू प्लेटफॉर्म को पूरी तरह रोक दिया गया तो उपयोगकर्ता विदेशी और ऑफशोर प्लेटफॉर्म की ओर रुख करेंगे, जहाँ न तो सरकार का कोई नियंत्रण होगा और न ही उपभोक्ताओं की सुरक्षा। इससे उल्टा नुकसान ही होगा।

इस बहस में दोनों पक्षों की अपनी-अपनी दलीलें हैं। सरकार का तर्क है कि समाज को जुए और नशे की लत से बचाना ज़रूरी है, वहीं उद्योग जगत मानता है कि यह क्षेत्र देश की डिजिटल अर्थव्यवस्था का बड़ा हिस्सा है और इसे खत्म करना युवाओं के रोजगार और नवाचार दोनों के लिए नुकसानदायक होगा। असली चुनौती यही है कि सही संतुलन कैसे कायम किया जाए।

बिल के समर्थकों का कहना है कि इस कदम से न केवल सामाजिक सुरक्षा सुनिश्चित होगी बल्कि युवाओं की ऊर्जा सही दिशा में लगेगी। ई-स्पोर्ट्स को प्रोत्साहन देकर भारत अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मेडल जीत सकता है, जैसा कि हमने बैडमिंटन, कुश्ती या क्रिकेट में देखा है। इसके अलावा गैर-आर्थिक गेम्स को बढ़ावा देने से बच्चों का मनोरंजन भी सुरक्षित दायरे में रहेगा।

दूसरी ओर आलोचकों का मानना है कि सरकार को “पूर्ण प्रतिबंध” की बजाय “कड़े नियमन” का रास्ता चुनना चाहिए था। यदि धन-आधारित गेमिंग को लाइसेंस प्रणाली और कड़े कराधान के तहत नियंत्रित किया जाता तो न केवल सरकार को राजस्व मिलता बल्कि उपभोक्ताओं की सुरक्षा भी बनी रहती। पूरी तरह प्रतिबंध लगाने से समस्या यह है कि लोग भूमिगत या विदेशी प्लेटफॉर्म की ओर भागेंगे और सरकार का नियंत्रण और भी कमजोर हो जाएगा।

यह बहस केवल भारत तक सीमित नहीं है। विश्व के कई देशों में ऑनलाइन गेमिंग को लेकर अलग-अलग दृष्टिकोण हैं। अमेरिका और यूरोप के कई हिस्सों में इसे सख्त नियमों और टैक्स प्रणाली के तहत वैध किया गया है। वहीं चीन जैसे देशों ने बच्चों के लिए गेमिंग के समय पर ही पाबंदी लगा दी है। भारत ने अब तक इस दिशा में कोई स्पष्ट राष्ट्रीय नीति नहीं बनाई थी, यही कारण है कि राज्यों के स्तर पर भ्रम और असमानता बनी रही।

अब सवाल यह उठता है कि आगे क्या होगा? यह बिल लोकसभा में पेश किया जाएगा और संभव है कि इसमें संशोधन हों। उद्योग जगत की चिंताओं को देखते हुए सरकार कुछ नरमी दिखा सकती है। उदाहरण के लिए “फैंटेसी स्पोर्ट्स” को कौशल-आधारित खेल मानकर सीमित अनुमति दी जा सकती है। इसी तरह कराधान और नियमन के ज़रिए सरकार और उद्योग के बीच समझौता हो सकता है।

परंतु एक बात तय है कि यह बिल भारत की डिजिटल यात्रा का अहम पड़ाव है। यह देश को यह सोचने पर मजबूर करता है कि तकनीक और समाज का संतुलन कैसे बनाया जाए। तकनीक अपने आप में न अच्छी है न बुरी, उसका इस्तेमाल उसे अच्छा या बुरा बनाता है। यदि ऑनलाइन गेमिंग युवाओं को कैरियर, रोजगार और अंतरराष्ट्रीय पहचान दे सकती है तो यह सकारात्मक है। लेकिन यदि वही गेमिंग परिवारों को तोड़ दे, युवाओं को कर्ज़ में डुबो दे और अपराध को बढ़ावा दे, तो यह खतरनाक है।

इसलिए ज़रूरी है कि सरकार, उद्योग, समाज और परिवार – सभी मिलकर समाधान निकालें। अभिभावकों को बच्चों पर नज़र रखनी होगी, शिक्षा संस्थानों को डिजिटल साक्षरता सिखानी होगी, उद्योग जगत को आत्मनियंत्रण और पारदर्शिता अपनानी होगी और सरकार को नियमन और प्रोत्साहन के बीच संतुलन बनाना होगा।

ऑनलाइन गेमिंग बिल केवल एक कानून नहीं है, यह हमारे समाज के भविष्य की रूपरेखा है। यह हमें यह सोचने पर विवश करता है कि क्या हम डिजिटल क्रांति को सिर्फ मनोरंजन और जुए का साधन बनने देंगे या इसे शिक्षा, रोजगार और वैश्विक प्रतिस्पर्धा का अवसर बनाएँगे। आने वाले वर्षों में यह बिल किस रूप में लागू होगा और समाज पर इसका क्या असर पड़ेगा, यह देखने वाली बात होगी। लेकिन एक बात स्पष्ट है कि यह बहस भारत के हर घर तक पहुँचेगी, क्योंकि मोबाइल और इंटरनेट अब हर जेब में है और गेमिंग हर उम्र की पसंद।

विश्व मंचों पर भारत की भूमिका

कभी गुटनिरपेक्ष देश के रूप में विश्व राजनीति में आगे बढ़ने वाला भारत एक फुसफुसिया जीव के रूप में जाना जाता था। यही कारण था कि जब पाकिस्तान ने हमसे सिंधु नदी का पानी मांगने की जिद की तो हमारे देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने इसका निर्णय लेने के लिए वर्ल्ड बैंक के अध्यक्ष को अधिकार दे दिए। जिसने रीढविहीन भारत के साथ अन्याय करते हुए 20% पानी भारत को और 80% पानी पाकिस्तान को दे दिया।
देखिए ! पानी हमारा, नदी हमारी, क्षेत्र हमारा और इस सबके उपरांत भी हमको 20% पानी मिला, जबकि 80% पानी पाकिस्तान ले गया। ‘अनुमान की गलती’ करने वाले नेहरू 1947 में गांधी जी के साथ मिलकर यह अनुमान नहीं लगा पाए थे कि जब देश का विभाजन होगा तो कितने लोग पाकिस्तान की ओर से उठकर भारत की ओर चल पड़ेंगे ? इसी प्रकार उन्होंने एक बार फिर ‘अनुमान की गलती’ की और उनका यह अनुमान गलत निकला कि पाकिस्तान वर्ल्ड बैंक के निर्णय से प्रसन्न होकर भारत के साथ मित्रता का व्यवहार करने लगेगा ?
आज का भारत आर्थिक और सैन्य मोर्चे पर विश्व के बड़े देशों के लिए ईर्ष्या का पात्र बन चुका है। अमेरिका ने टैरिफ वृद्धि कर भारत को छेड़कर देख लिया है। उसके बाद उसने यह अनुमान लगा लिया है कि आज का भारत सक्षम भारत है और अपने राजनीतिक हानि लाभ को भली प्रकार जानता है। वह अपनी राष्ट्रीय अस्मिता के लिए मजबूत निर्णय लेना भी जानता है। आज का भारत आदित्य अर्थात तेजस्वी भारत है। इसी आदित्य भारत के इस रूप से रूस, चीन और अमेरिका सहित सभी देश भली प्रकार परिचित हो चुके हैं। इसका परिणाम यह आया है कि विश्व के जी-7, नाटो, जी–20, ब्रिक्स और एससीओ जैसे अंतरराष्ट्रीय संगठनों में ग्लोबल साउथ के सम्मान में वृद्धि हुई है। भारत इस समय ग्लोबल साउथ के नेता के रूप में स्थापित हो चुका है। आज का सारा विश्व यह भली प्रकार जानता है कि भारत अपनी जिस परंपरागत वैदिक संस्कृति का ध्वजवाहक रहा है , उसमें मानव मात्र के प्रति सहिष्णुता का व्यवहार किया जाता है। यही कारण है कि दक्षिण एशिया सहित संसार के सभी देश इस बात को भली प्रकार जानते हैं कि भारत जो कुछ कह रहा है, उसमें किसी प्रकार की कुटिल राजनीति नहीं हो सकती। यही कारण है कि विश्व मंचों पर भारत की विश्वसनीयता में वृद्धि हुई है। भारत की विश्वसनीयता में हुई इस वृद्धि से अमेरिका सहित सभी देश परिचित हैं। यही कारण है कि अमेरिका इस समय भारत के साथ चाहे जितनी गर्मी दिखा रहा हो, परंतु राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप यह भारी प्रकार जानते हैं कि वह भारत को अब छूने तक की भी स्थिति में नहीं हैं।
भारत के प्रधानमंत्री, विदेश मंत्री और रक्षा मंत्री भारत की विदेश नीति के मोर्चे पर अपना अपना सफल अभिनय कर रहे हैं। उनकी भाषा में अपेक्षित विनम्रता होती है , परन्तु राष्ट्रीय हितों को लेकर यदि कठोर शब्द बोलने आवश्यक दिखाई देते हैं तो ऐसा करने से भी वे चूकते नहीं हैं। अपने राष्ट्रीय हितों की इस प्रकार निर्भीकता से पैरोकारी करना प्रत्येक देश का अपना राष्ट्रीय मौलिक अधिकार है। परंतु विश्व की बड़ी शक्तियां यूएनओ की सुरक्षा परिषद में अपनी वीटो पावर के आधार पर दूसरे देशों के इस प्रकार के राष्ट्रीय अधिकारों की हत्यारी बन चुकी थीं। उनके इस रूप से विश्व के छोटे और दुर्बल देश तंग आ चुके थे, ऐसे सभी देश इस समय भारत की ओर देख रहे हैं। जिससे भारत के बढ़ते वजन को देखकर बड़ी शक्तियां दुखी हैं। भारत ने प्रत्येक बड़ी शक्ति को यह स्पष्ट संदेश दे दिया है कि हम अपनी राष्ट्रीय अस्मिता और राष्ट्रीय हितों से समझौता नहीं कर सकते। हम बराबरी के स्तर पर बात करेंगे और बराबरी के स्तर पर ही अपनी बात को मनवाएंगे। केंद्रीय मंत्री संजय सेठ की इस बात को सभी ने गंभीरता से लिया है कि नया भारत शेर की तरह दहाड़ता है।
शक्तिशाली नेताओं की आंखों में आंख डालकर बात करता है। वास्तव में राजनीति का यही तकाजा होता है कि जब आप किसी बड़ी शक्ति के साथ बात कर रहे हों तो निर्भीकता के साथ अपने राष्ट्रीय हितों को प्रस्तुति देने में किसी प्रकार का संकोच न करें। अभी कुछ समय पहले अमेरिका ने भारत की इकोनॉमी को ‘डेड’ बताया था । उसके बाद उसे भारत की ओर से जिस प्रकार का उत्तर दिया गया है, उसे देखकर वह समझ गया है कि आज का भारत नजरों में नजरें डालकर बात करता है ,भारत के तेज को अमेरिका ने गंभीरता से अनुभव कर लिया है। अमेरिका इस बहम में रहता रहा है कि मैं दुनिया का सबसे बड़ा दादा हूं , अब उसके इस प्रकार के बहम को भारत ने तोड़ दिया है। इसी संदर्भ में भारत के रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने कहा है कि कुछ देशों को भारत का तेजी से विकास पसंद नहीं आ रहा है। रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह का यह बयान अमेरिका की दादागिरी की ओर संकेत करता है । जिसने हाल ही में भारत पर 50% आयात कर लगाकर भारत को दबाने का प्रयास किया है। रक्षा मंत्री ने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि बदलते और उभरते भारत को अब विश्व शक्ति बनने से कोई रोक नहीं पाएगा। आज का तेजस्वी भारत ₹24000 करोड़ का रक्षा उत्पाद विश्व के अन्य देशों को निर्यात कर रहा है। आज के भारत ने यह संकल्प ले लिया है कि वह आतंकवादियों को उनका धर्म देखकर नहीं बल्कि कर्म देखकर निपटाएगा। प्रधानमंत्री मोदी भी कई बार यह स्पष्ट कर चुके हैं कि भारत तेजी से एक विश्व अर्थव्यवस्था के रूप में स्थापित हो रहा है। पिछले 11 वर्षों में भारत की अर्थव्यवस्था विश्व स्तर पर दसवें स्थान से पहले शीर्ष 5 में पहुंच गई है। शीघ्र ही यह शीर्ष की तीन अर्थव्यवस्थाओं में से एक बन जाएगी। इस प्रकार भारत अपनी उस स्थिति से बहुत दूर नहीं है जब भारत का रुपया अमेरिका के डॉलर की तरह दुनिया पर राज करेगा। यद्यपि इस स्थिति के लिए अभी भारत को कई प्रकार की अग्नि परीक्षाओं से गुजरना होगा । इन अग्नि परीक्षाओं में सबसे बड़ी परीक्षा है, देश के भीतर का माहौल शांत बनाए रखना। जिसके लिए भारत के नागरिकों को भी अपनी जिम्मेदारी समझनी होगी । यदि हमने मिलकर जीना नहीं सीखा और गृह युद्ध की स्थिति में फंस गए तो सब कुछ ध्वस्त भी हो सकता है।

डॉ राकेश कुमार आर्य

मदिरालय

ये उर है की मसलसल रूह में बसता
तवायफ़ की अनुराग में काफिर
अहोरात्र मदिरालय दिखता
ये शब ए दिन उसकी तस्वीर चूमता
ये चंचला मुझे तशवीश कर रही, हर लफ्ज को
बातील सा बता रही हैं
मैं इन अश्कों को कहाँ ले जाऊ
ये लतीफ से, अनिष्ट बनते जा रहे है
रूह, देह, मैं बिन तस्सवुर के होते जा रहे हैं
खत्म हुआ ये मंजर अब उर में कोई गिला नही
दिन तो ढल जाता, शब है की डूबा यातना में कही
तुम्हारी बाते जख्म की तरह कुरेद रही
हर जराहत को तस्सवुर से भर रही
ये तुम्हारी आँखे मुझे छतिग्रस्त करती
होंठ तुम्हारे मख़मली पंखुड़ी मधुशाला सी लगती
तुम्हारी मुश्क से लोक को एक चहक मिलती
लिखता श्लोक हर शब्द , तुम मेरे रूह में बसती
अब तो मुझे न सताओ वापिस आगार को आओ
क्यों ख़फ़ा होती मुझसे मुझमे अब जाँ नही
मेरी प्रियतम लौट आओ अब बचा कोई ख़्वाब नही

     श्लोक कुमार 

भक्ति, संस्कृति और सामाजिकता का संगम : श्रीकृष्ण जन्माष्टमी

                                                                                                                                 डॉ शिवानी कटारा

जन्माष्टमी, जिसे श्रीकृष्ण जन्मोत्सव के रूप में भी जाना जाता है, भारतीय धार्मिक और सांस्कृतिक परंपरा का एक अत्यंत महत्वपूर्ण पर्व है। भगवान श्रीकृष्ण का व्यक्तित्व धर्म, नीति, प्रेम, करुणा और कूटनीति का अद्वितीय संगम प्रस्तुत करता है, और उनका जन्मोत्सव सनातन संस्कृति के इन मूल्यों को पीढ़ी-दर-पीढ़ी संचारित करता आया है।
श्रीमद्भागवत, महाभारत और विष्णु पुराण में वर्णित कृष्ण जन्मकथा का केंद्र मथुरा है और, भारत के अनेक तीर्थस्थलों में श्रीकृष्ण जन्मोत्सव बड़े उत्साह और श्रद्धा के साथ मनाया जाता है, परंतु वृंदावन में इसका महत्व विशेष और अद्वितीय है। वृंदावन, जिसे ‘कृष्ण की लीलाओं की भूमि’ कहा जाता है, न केवल जन्माष्टमी के धार्मिक उत्सव का केंद्र है, बल्कि यह भक्ति, लोक कला, संगीत और आध्यात्मिक अनुभव का अद्वितीय संगम प्रस्तुत करता है। वृंदावन यमुना नदी के किनारे स्थित है और पौराणिक कथाओं के अनुसार, यह वही स्थान है जहाँ बालकृष्ण ने अपने गोप-बाल मित्रों के साथ लीलाएं कीं, तुलसी और कदंब वृक्षों के मध्य रासमंडल रचाया, और गोपियों के साथ अलौकिक प्रेम का अनुभव कराया। मध्यकाल में, 16वीं शताब्दी के भक्ति आंदोलन के दौरान चैतन्य महाप्रभु जैसे संतों ने वृंदावन को पुनः खोजा और यहाँ अनेक मंदिरों की स्थापना की, जिनमें गोविंद देव, मदन मोहन, श्री राधा वल्लभ, राधा रमण और बांके बिहारी मंदिर प्रमुख हैं।
वृंदावन में जन्माष्टमी का पर्व केवल एक दिन का आयोजन नहीं, बल्कि पूरे सप्ताह या उससे भी अधिक समय तक चलने वाला महोत्सव है। मंदिरों को फूलों, दीपों और रंग-बिरंगे वस्त्रों से सजाया जाता है। अष्टमी की रात ठीक बारह बजे भगवान कृष्ण का ‘जन्म’ माना जाता है, तब घंटियों, शंखनाद और जयघोष से वातावरण गूंज उठता है। मध्यरात्रि अभिषेक और आरती पंचामृत, दूध, गुड़ और फूलों के साथ की जाती है। ब्रज कलाकार श्रीकृष्ण की लीलाओं का नाट्यरूपांतरण करते हैं, जो लोकनाट्य शैली में भक्तिभाव और सांस्कृतिक रंग-रूप का अद्भुत मिश्रण प्रस्तुत करता है। वृंदावन की गलियों और मंदिरों में भजनों की स्वर-लहरियां निरंतर गूंजती रहती हैं, विशेषकर सूरदास, मीराबाई और रसखान की रचनाएं। वृंदावन की जन्माष्टमी में ब्रजभाषा के लोकगीतों और रसिया गायन की विशेष परंपरा है। सोहर गीत, जो जन्म के अवसर पर गाए जाते हैं, कृष्ण के आगमन को पारिवारिक और सामाजिक उत्सव का रूप देते हैं, विराटिय दृष्टान्त गीत—जैसे ब्रज भजन “मैया मोरी मैं नहिं माखन खायो”—भावनात्मक व सांस्कृतिक गहराई प्रदान करते हैं जबकि रसिया गीतों में राधा-कृष्ण की दिव्य प्रेम लीला और उनके मधुर संवादों का भावपूर्ण चित्रण होता है। वृंदावन की गलियों में बच्चों द्वारा कृष्ण-बलराम के वेश में निकलने वाली शोभायात्राएं पूरे ब्रज क्षेत्र को जीवंत कर देती हैं। झूला यात्रा में भक्त कलात्मक झूलों में बालकृष्ण की मूर्ति को झुलाते हुए भजन गाते हैं, जो प्रेम और सौहार्द का प्रतीक है।
रासलीला और झांकियां प्रशासनिक आयोजनों से लेकर स्थानीय गांवों तक होती हैं, जहाँ नाट्य, लोकनृत्य और रंगीन परिधान कथात्मक और आध्यात्मिक दोनों अनुभव प्रदान करते हैं। वृंदावन की सांस्कृतिक लोकभाषा, लोकगीत और पारंपरिक खान-पान जन्माष्टमी को संवेदनशील रूप से प्रदर्शित करते हैं। चप्पन भोग, पंचामृत, पापड़ी–मिक्स, ब्रज क्षेत्रीय पकवान जैसे मैथुरा पेड़ा, ब्रज पंजिरी और वृंदावन दही-अरबी झोर का प्रसाद वितरित किया जाता है। धार्मिक पर्यटन और उससे जुड़ी अर्थव्यवस्था की दृष्टि से जन्माष्टमी एक ‘धार्मिक पूंजी’ (Religious Capital) का निर्माण करती है, जिसमें भक्ति और आस्था के साथ-साथ सामाजिक प्रतिष्ठा, नेटवर्किंग और आर्थिक अवसरों का भी विस्तार होता है। वार्षिक आर्थिक अनुमान बताता है कि जन्माष्टमी के दौरान ब्रज मंडल (मथुरा–वृंदावन) में 2,500 से 5,000 करोड़ रुपये तक का कारोबार होता है, जिसमें पर्यटन और हस्तशिल्प भी सम्मिलित हैं। लगभग दो हजार छोटे और मध्यम उद्योग तथा करीब दो लाख कारीगर इस अवसर से प्रभावित होते हैं।
उत्तर प्रदेश सरकार का ‘ब्रज सर्किट’ और जागरूक पर्यटन नीतियां इस क्षेत्र को संरचनात्मक रूप से मजबूत बना रही हैं। वृंदावन की जन्माष्टमी एक धार्मिक उत्सव से आगे बढ़कर सामाजिक-आर्थिक, सांस्कृतिक और मनोवैज्ञानिक यात्रा है। यहाँ कृष्ण को ‘लीलामय’ ईश्वर के रूप में देखा जाता है, जो जीवन के हर पहलू में आनंद, प्रेम और करुणा का संदेश देते हैं। वृंदावन की भक्ति परंपरा यह सिखाती है कि ईश्वर के साथ संबंध केवल पूजा का विषय नहीं, बल्कि गहन प्रेम और आत्मिक मिलन का अनुभव है। समाजशास्त्रीय रूप से देखा जाए तो वृंदावन की जन्माष्टमी एक ‘समग्र सामाजिक घटना’ (Total Social Fact) बन जाती है, जिसमें धार्मिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, भावनात्मक और राजनीतिक सभी आयाम एक साथ सक्रिय रहते हैं। यह न केवल आध्यात्मिक संतोष प्रदान करती है, बल्कि सामाजिक संरचना को भी सजीव, लचीला और सामूहिक अनुभवों से परिपूर्ण बनाती है।

विकराल होते आनलाइन गेम पर नियंत्रण का कानून सराहनीय

-ललित गर्ग-
इंटरनेट के विस्तार ने आधुनिक दौर में जीवन को अनेक सुविधाएं दी हैं, लेकिन इसके साथ ही कुछ नए गंभीर संकट भी पैदा किए हैं। इनमें सबसे गंभीर संकटों में से एक है ऑनलाइन गेमिंग या कहें तो मनी गेमिंग की बढ़ती लत। यह सच है कि गेमिंग मनोरंजन का साधन हो सकती है, पर जब इसमें धन का जुड़ाव होता है, तब यह सीधा-सीधा जुए एवं सट्टे के रूप में बदल जाती है। यह एक कड़वी सच्चाई है कि ऑनलाइन मनी गेमिंग यदि लत बन जाए तो यह संपन्न व्यक्ति एवं परिवार को भी कंगाल कर सकती है। एक आंकड़े के अनुसार देश में एक साल में 45 करोड़ लोगों ने बीस हजार करोड़ गवां दिये हैं। सब कुछ गंवा कर आत्महत्या करने के मामले भी प्रकाश में आते रहे हैं। सवाल इन लालच बेचने एवं जगाने वाली मनी गेमिंग की पारदर्शिता को लेकर भी उठते रहे हैं। इन्हीं चिंताओं एवं त्रासद विडम्बनाओं के बाद ऑनलाइन गेमिंग पर नियंत्रण का एक विधेयक भारत सरकार इसी मानसून सत्र में ऑनलाइन गेमिंग संवर्धन एवं विनियमन विधेयक 2025 लेकर आई है। जिसे अब गंभीर चर्चा के बिना संसद ने पारित भी कर दिया है। यह विधेयक पैसे से खेले जाने वाले किसी भी ऑनलाइन गेम को गैरकानूनी घोषित करता है। यह स्वागत योग्य कदम है, क्योंकि गेमिंग के नाम पर अरबों रुपए का लेन-देन और करोड़ों युवाओं की मानसिक शांति को नष्ट करने वाली प्रवृत्ति दिनोंदिन विकराल रूप ले रही है।
आज स्थिति यह है कि ऑनलाइन गेमिंग की लत केवल समय और धन की बर्बादी ही नहीं कर रही, बल्कि सामाजिक और पारिवारिक रिश्तों में भी तनाव और विघटन का कारण बन रही है। स्कूल और कॉलेज के छात्र अपनी पढ़ाई की उपेक्षा कर इस आभासी दुनिया में डूबते जा रहे हैं। युवा वर्ग का एक बड़ा हिस्सा रात-दिन गेमिंग में डूबा रहता है, जिससे उनके व्यक्तित्व और भविष्य पर गहरा नकारात्मक असर पड़ रहा है। यह संकट केवल आर्थिक ही नहीं, मानसिक और सामाजिक भी है। दिन-रात स्क्रीन से चिपके रहने वाले युवक चिड़चिड़ापन, अवसाद और एकाकीपन का शिकार हो रहे हैं। उनमें हिंसक प्रवृत्तियां भी उभर रही हैं। कई ऐसी खबरें भी आ चुकी है, जिनमें लगातार आनलाइन गेम खेलते रहने से मना करने पर कोई किशोर हिंसक हो गया और उसने या तो आत्महत्या कर ली या फिर किसी की जान ले ली। ऑनलाइन गेमिंग से जुड़ी लत रिश्तों को तोड़ रही है, दोस्ती और पारिवारिक बंधनों को कमजोर कर रही है। एक पूरी पीढ़ी, जिसे राष्ट्रनिर्माण की दिशा में आगे बढ़ना चाहिए था, अपनी ऊर्जा और रचनात्मकता इस आभासी जुए में गँवा रही है।
सरकार के मुताबिक, वह ई-स्पोर्ट्स और सोशल गेमिंग को बढ़ावा देने के लिये अवश्य उत्सुक है, जिसमें कोई वित्तीय जोखिम न हो। यहां उल्लेखनीय है कि ऑनलाइन गेमिंग का वार्षिक राजस्व 31,000 करोड़ रुपये से अधिक है। इसके साथ ही यह हर साल प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष करों के रूप में बीस हजार करोड़ रुपये से अधिक का योगदान देता है। लेकिन इसके साथ चिंता का विषय यह भी है कि सुनहरे सब्जबाग दिखाने वाले कई ऑनलाइन गेमिंग एप लत, खेलने वाले आम लोगों के आर्थिक नुकसान और मनी लॉन्ड्रिंग को भी बढ़ावा देते हैं। यही वजह है कि ऑनलाइन गेमिंग में अपनी जमा पूंजी लुटाने वाले बदकिस्मत उपयोगकर्ता नाकामी के बाद आत्महत्या तक करने को मजबूर हो जाते हैं। निस्संदेह सरकार ने राजस्व की परवाह न करते हुए ऑनलाइन मनी गेमिंग पर पूर्ण प्रतिबंध लगाकर एक बड़ा जोखिम भी उठाया है। लेकिन सवाल यह भी है कि क्या केवल कानून से इस प्रवृत्ति पर अंकुश लग सकेगा? इंटरनेट का विस्तृत दायरा और विदेशी ऑनलाइन ऑपरेटर विधेयक के प्रमुख उद्देश्यों को विफल करने की कोशिश कर सकते हैं। यह नितांत अपेक्षित है कि वित्तीय प्रणालियों की अखंडता के साथ-साथ राष्ट्र की सुरक्षा और संप्रभुता की रक्षा होनी चाहिए। माना जा रहा है कि इस नये कानून को बनाने की जरूरत संभवतः छह हजार करोड़ रुपये वाले महादेव ऑनलाइन सट्टेबाजी घोटाले के बाद महसूस की गई। जिसकी जांच सीबीआई और ईडी कर रहे हैं। छत्तीसगढ़ के कुछ शीर्ष राजनेताओं और नौकरशाहों पर सट्टेबाजी एप के यूएई स्थित प्रमोटरों के साथ संबंध होने के आरोप लगे हैं। जो कथित तौर पर हवाला कारोबार और विदेशों में धन-शोधन के कार्यों में लिप्त बताये जाते हैं।
भारत सरकार का यह कदम इसलिए भी जरूरी एवं प्रासंगिक है कि इस उद्योग का टर्नओवर कई आर्थिक, राष्ट्रीय एवं सामाजिक विसंगतियों के साथ कई हजार करोड़ तक पहुंच गया है। विदेशी कंपनियां भी इस क्षेत्र में सक्रिय होकर भारतीय युवाओं को लुभाने के लिए तरह-तरह के विज्ञापन और प्रलोभन दे रही हैं। इन मंचों पर जीतने की लालच में फंसकर युवा अपने उज्ज्वल भविष्य को दांव पर लगा रहे हैं। यह प्रवृत्ति केवल व्यक्तिगत जीवन नहीं बिगाड़ती, बल्कि राष्ट्र की प्रगति में भी बाधक है, क्योंकि जिन युवाओं को शिक्षा, विज्ञान, प्रौद्योगिकी और राष्ट्रनिर्माण में योगदान देना चाहिए, वे अपना समय और ऊर्जा इन आभासी खेलों में गवां रहे हैं। आज जरूरत है कि ऑनलाइन गेमिंग की इस समस्या को केवल कानूनी दायरे में ही नहीं, बल्कि सामाजिक और पारिवारिक स्तर पर भी गंभीरता से लिया जाए। अभिभावकों को चाहिए कि वे बच्चों को समय पर समझाएं, उनका मार्गदर्शन करें और उन्हें सकारात्मक गतिविधियों की ओर प्रेरित करें। समाज को भी मिलकर यह संकल्प लेना होगा कि मनोरंजन के नाम पर फैल रहे इस जुए की घातक एवं विध्वंसक संस्कृति को बढ़ावा न दिया जाए।
यह ठीक है कि सरकार ने ऑनलाइन गेमिंग को नियंत्रित करने का प्रस्ताव पारित कर एक सही दिशा में सराहनीय कदम बढ़ाया है, लेकिन कानून से भी अधिक जरूरी है जागरूकता। जब तक लोग स्वयं यह नहीं समझेंगे कि गेमिंग का यह जुआ उनके भविष्य को तबाह कर रहा है, तब तक समस्या का समाधान संभव नहीं है। इसलिए अब समय आ गया है कि हम मनोरंजन के नाम पर छल रही इस प्रवृत्ति का पर्दाफाश करें और अपने युवाओं को सुरक्षित, रचनात्मक और सकारात्मक भविष्य की राह पर अग्रसर करें। असंख्य परिवारों को आज अपने बच्चों की इस आदत के कारण कर्ज और बर्बादी में अंधेरों में जाने से बचाये। खेल के नाम पर ऑनलाइन मंचों पर पैसा लगाना दरअसल सट्टेबाजी ही है, जिसमें जीत की संभावना क्षणिक होती है और हार की संभावना लगभग निश्चित। लाखों युवक अपने खून-पसीने की कमाई या माता-पिता की मेहनत की कमाई को इन कंपनियों की तिजोरियों में डाल रहे हैं। यह समस्या अब जुए की लत से भी अधिक खतरनाक हो चुकी है, क्योंकि इसमें तकनीक की चकाचौंध और आसानी से उपलब्धता ने युवाओं को पहले से ज्यादा असुरक्षित बना दिया है।
यह बात किसी से छिपी नहीं है कि ऑनलाइन गेमिंग का बाजार बीते कुछ वर्षों में तेजी से फैला है। विज्ञापनों, प्रलोभनों और चमकदार ऑफरों ने युवाओं को अपने शिकंजे में इस तरह जकड़ लिया है कि लाखों लोग इसमें डूबकर अपनी शिक्षा, करियर और परिवार तक को दांव पर लगा बैठे हैं। जब खेल केवल मनोरंजन तक सीमित रहता है तब तक उसकी उपयोगिता है, पर जैसे ही इसमें धन और लालच का तत्त्व जुड़ता है, यह जुए में बदल जाता है। और यही वह बिंदु है जहां से विनाश की शुरुआत होती है। सच्चाई यह है कि ऑनलाइन गेमिंग का जाल इतना व्यापक हो चुका है कि इसे रोकने के लिए कानून की सख्ती के साथ-साथ सामाजिक जागरूकता और पारिवारिक हस्तक्षेप भी उतने ही जरूरी हैं।  ऑनलाइन मनी गेमिंग के सख्त नियमन और इसे भारी कराधान के अधीन लाना एक व्यावहारिक समाधान होगा। साथ ही पारदर्शिता और जवाबदेही पर जोर देकर उपभोक्ताओं के लिये सुरक्षा उपाय सुनिश्चित किए जाने की भी जरूरत है। इस अभियान में गैर-कानूनी गतिविधियों में लिप्त प्लेटफॉर्मों पर जुर्माना भी लगाना एवं बड़े-बड़े दावे करने वाली मशहूर हस्तियों पर कार्रवाई भी होते हुए दिखनी चाहिए, तभी यह कानून कारगर एवं प्रभावी बन पायेगा।
प्रेषकः-

संसद के नियमों में हो परिवर्तन

देश के चुने हुए प्रतिनिधियों द्वारा देश के सर्वोच्च लोकतांत्रिक प्रतिष्ठान अर्थात देश की संसद की अवमानना करना अब एक प्रचलन बन चुका है। संसद के मानसून सत्र को लेकर सरकार का इरादा था कि इसमें 120 घंटे की चर्चा की जाएगी। जिससे देश का विधायी कार्य निपटाने में सहायता मिलेगी। परंतु विपक्ष के अड़ियल दृष्टिकोण के चलते 120 घंटे के स्थान पर मात्र 37 घंटे ही चर्चा हो पाई। जिसका परिणाम यह हुआ कि देश की जनता की गाढ़ी कमाई का पैसा संसद की कार्यवाही पर व्यर्थ ही खर्च हो गया । मानसून सत्र में लोकसभा में 12 और राज्यसभा में 14 विधेयक पास हुए।
जिस बात को देश का आम आदमी भी जानता है कि संसद की कार्यवाही पर प्रति मिनट ढाई लाख रुपए खर्च होते हैं। हमारे देश की जनसंख्या का अधिकांश भाग ऐसा है, जिसके पास वर्ष भर में अपने ऊपर खर्च करने के लिए ढाई लाख रुपए नहीं होते । 2012 के आंकड़े के अनुसार 1 घंटे में डेढ़ करोड़ से अधिक रुपया संसद की कार्यवाही पर खर्च हो जाता है। इसके अतिरिक्त हमारे जनप्रतिनिधियों के वेतन, भत्ते और उनकी दूसरी सुविधाएं उनके आवासों का खर्च, उनके लिए मिले कर्मचारियों के खर्च अलग हैं।
इसके उपरांत भी संसद के सदस्य जब अपने वेतन भत्ते बढ़ाते हैं तो उस पर सभी की सहमति बड़े आराम से बन जाती है और तत्संबंधी विधेयक को यथाशीघ्र पारित करा लेते हैं। देश के शिक्षित वर्ग में इन प्रतिनिधियों के इस प्रकार के आचरण को लेकर अब चर्चा होने लगी है। लोग अपने अनेक जनप्रतिनिधियों की भूमिका को राष्ट्रहित में उचित नहीं मान रहे हैं। विपक्ष की भूमिका निश्चित रूप से विशेष पक्ष की होती है, उसे सरकार पर अंकुश लगाना चाहिए- यह भी उसका वैधानिक अधिकार है, परंतु वह देश की संसद को ही नहीं चलने देगा और लोकतंत्र की मर्यादाओं का हनन करेगा, इसे किसी भी दृष्टिकोण से उचित नहीं कहा जा सकता। सत्तापक्ष के लिए भी यह बात उतनी ही लागू होती है जितनी विपक्ष के लिए।
समय आ गया है जब देश की संसद को चलाने के नियमों में व्यापक परिवर्तन होने चाहिए। यह बात तब और भी अधिक आवश्यक हो जाती है जब देश के सरकारी कर्मचारियों की कार्य के प्रति थोड़ी सी लापरवाही भी अक्षम्य मानी जाती है तो देश को चलाने वाले लोगों का यह आचरण भी अक्षम्य ही माना जाना चाहिए कि वह देश की संसद को ही चलने नहीं देंगे। इन्हें देश के लिए काम करने के लिए जनता चुनकर भेजती है, देश को रोकने के लिए नहीं भेजा जाता।
अब समय आ गया है जब काम के बदले ही दाम मिलने की नीति देश के सांसदों, विधायकों अथवा जनप्रतिनिधियों के प्रति भी अपनाई जानी चाहिए। काम नहीं तो वेतन नहीं, काम नहीं तो सुविधा भी नहीं – ऐसा नियम बनाकर अब कड़ाई से लागू करना चाहिए। जो भी सांसद अमर्यादित और असंसदीय भाषा का प्रयोग करता हुआ पाया जाए, उसके विरुद्ध भी कठोर कानूनी कार्यवाही अमल में लाई जानी चाहिए। जो कोई सांसद, विधायक या जनप्रतिनिधि विधानमंडलों में बैठकर किसी आतंकवादी संगठन की वकालत करेगा या कोई भी ऐसा आचरण करेगा जिससे देशद्रोही और समाजद्रोही लोगों को प्रोत्साहन मिलता हो या देश के शत्रु देश की भारत के प्रति शत्रुता पूर्ण नीतियों या सोच को बल मिलता हो, ऐसे सांसद / विधायक/ जनप्रतिनिधि या राजनीतिक दल के विरुद्ध भी कठोर कानून बनाए जाने अपेक्षित हैं। भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को असीमित स्थिति तक प्रयोग में लाने की स्वतंत्रता दिया जाना देश के लिए अच्छा नहीं है।
देश के जनप्रतिनिधियों की गिरफ्तारी की मर्यादा पर भी विचार करने की आवश्यकता है। यदि देश के सम्मान को अथवा देश की सेना के सम्मान को कोई भी सांसद या चुना हुआ जनप्रतिनिधि अपने शब्दों से या अपने आचरण से चोट पहुंचाता है तो उसे विशेष शर्तों के अंतर्गत संसद के चलते हुए सत्र से भी गिरफ्तार किया जा सकता है।
हमारा चुना हुआ कोई भी जनप्रतिनिधि जब देश की संसद की मर्यादाओं को तार-तार करे अथवा संसद की गरिमा का उल्लंघन करता हो अथवा किसी भी प्रकार के अलोकतांत्रिक आचरण को एक से अधिक बार आचरण में लाने का दोषी पाया जाता रहा हो तो उसे मतदाताओं को वापस बुलाने का अधिकार दिया जाना चाहिए। ऐसे किसी भी संसद को संसद में जनप्रतिनिधि के रूप में बैठने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए। ऐसी स्थिति में या तो उसे संसद की सदस्यता से स्वयं ही त्यागपत्र दे देना चाहिए या फिर उसके विरुद्ध लोकसभा अध्यक्ष को कार्यवाही करने के अधिकार दिए जाने चाहिए। जिसमें उसे संसद के वर्तमान सत्र की अवधि से लेकर लोकसभा के पूरे कार्यकाल तक के लिए निलंबित करने का अधिकार लोकसभा अध्यक्ष के पास होना चाहिए। उसके स्थान पर कोई नया चुनाव न करवाकर चुनाव के समय दूसरे स्थान पर रहे, व्यक्ति को उसके स्थान पर बैठने की अनुमति दी जानी चाहिए।
हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि देश पर कोई व्यक्ति विशेष शासन नहीं करता है, बल्कि दंड शासन करता है। दंड का भय शासन करता है। यदि दंड का भय संसद के सदस्यों के भीतर से निकल गया तो वह भयमुक्त समाज नहीं बना पाएंगे। भयमुक्त समाज तभी बनता है जब दंड का शासन होता है। जब संसद सदस्य ही स्वेच्छाचारी और उच्छृंखल व्यवहार संसद में करेंगे तो वैसा ही व्यवहार करने वाले लोग सड़कों पर उत्पात मचाएंगे। जैसी अराजकता संसद के भीतर होगी, वैसी ही अराजकता समाज में भी फैल जाएगी। क्योंकि जनसाधारण अपने राजा का या कानून बनाने वालों का अनुकरण करता है। इलाज किसी व्यक्ति का नहीं किया जाता है, इलाज होता है – अराजक मानसिकता का, उन्मादी सोच का, व्यवस्था विरोधी आचरण का। सोच को ठीक करने के लिए ही नियमों में कठोरता आवश्यक होती है। यदि यह कठोरता जनसाधारण के लिए आवश्यक है तो इस कठोरता को जनप्रतिनिधियों के विरुद्ध भी लागू किया जाना समय की आवश्यकता है। मनु महाराज के चिंतन को लेकर जो लोग चिंता व्यक्त करते रहते हैं, उन्हें नहीं पता कि मनु महाराज अराजक राजनीतिक लोगों के प्रति कितने कठोर थे ? अमर्यादित , अनीतिपरक और देशद्रोही सोच के कीटाणुओं से युक्त लोगों के राजनीति में प्रवेश करने के विरोधी थे – मनु महाराज । अब यदि भारत की राजनीति में इस प्रकार के लोग प्रवेश करने में सफल हो ही गए हैं तो उनका इलाज मनुवादी व्यवस्था के अंतर्गत ही खोजा जा सकता है।

डॉ राकेश कुमार आर्य

विधेयक पर हंगामा क्यों, जब मुद्दा है राजनीतिक शुचिता का

-ललित गर्ग-

गंभीर आपराधिक आरोपों में घिरे नेता चाहे वे प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री एवं मंत्री ही क्यों न हो, उनकी गिरफ्तारी या हिरासत के बाद एक निश्चित अवधि बीत जाने पर हटाने की व्यवस्था वाले विधेयक को जब केन्द्र सरकार ने लोकसभा में प्रस्तुत किया तो जरूरत से ज्यादा हंगामा एवं विरोध समझ में नहीं आया। इस तरह ईमानदार, अपराधमुक्त राजनीति एवं चरित्रसम्पन्न-पवित्र राजनेताओं की पैरवी वाले विधेयक पर हंगामा लोकतंत्र की गरिमा को आहत करता है। गृहमंत्री अमित शाह ने सूझबूझ का परिचय देते हुए अपनी ओर से इन विधेयकों को संसद की संयुक्त समिति को भेजने का प्रस्ताव रखा, जिसे लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला ने स्वीकार भी कर लिया, अब तो विपक्ष को विरोध एवं हंगामें को विराम देते हुए इस पर विचार करना चाहिए कि आखिर ऐसी ईमानदार, समानतापूर्ण एवं आदर्श व्यवस्था क्यों नहीं बननी चाहिए, जिससे उच्च पदों पर बैठे नेताओं के गंभीर अपराधों में गिरफ्तारी अथवा हिरासत में लिये जाने पर उनके लिये पद छोड़ना आवश्यक हो जाये? आखिर इस आदर्श व्यवस्था में समस्या क्या है? क्यों विपक्ष नैतिक एवं आदर्श राजनीतिक व्यवस्था में अवरोधक बनकर अपने नैतिक चरित्र पर प्रश्न खड़े कर रहा है? क्या इस विधेयक का असर सत्तापक्ष के नेताओं पर नहीं होगा?
 आजादी के बाद से कतितय राजनीतिक विसंगतियों के चलते राजनीति में अपराधी तत्वों का वर्चस्व बना रहा है। जनता यह अपेक्षा करती है कि जिन्हें वह अपना प्रतिनिधि चुनती है, वे अपराधमुक्त, निष्कलंक, ईमानदार और चरित्रवान हों। परन्तु स्थिति इसके विपरीत दिखती रही है। एक ओर जनप्रतिनिधि अपराधों में संलिप्त पाए जाते हैं, दूसरी ओर वे पद से इस्तीफा देने या सार्वजनिक जीवन से दूर रहने के बजाय सत्ता की कुर्सी से चिपके रहते हैं। यही प्रवृत्ति जनता के विश्वास को तोड़ती है और राजनीति को संदेह के घेरे में डाल देती है। यह प्रश्न अब और गंभीर हो उठा है कि क्या ऐसे व्यक्तियों को शासन और सत्ता के उच्च पदों पर बने रहने का अधिकार होना चाहिए? क्या लोकतंत्र का आधार अपराध और भ्रष्टाचार पर खड़ा किया जा सकता है? निश्चित ही नहीं। जब तक राजनीति से अपराधी तत्वों का निष्कासन नहीं होगा, तब तक न तो सुशासन स्थापित हो सकता है न ही नया भारत, विकसित भारत एवं आदर्श भारत बन सकता है और न ही राजनीति के प्रति जनता का भरोसा लौट सकता है।
आज समय आ गया है कि नए कानून बनाकर राजनीति को अपराधमुक्त बनाने की दिशा में ठोस एवं कारगर कदम उठाए जाएं। यह केवल चुनाव सुधार का मामला नहीं है, बल्कि यह लोकतंत्र की आत्मा को बचाने का प्रश्न है। ऐसे प्रावधान होने चाहिए कि जिस क्षण कोई जनप्रतिनिधि गंभीर अपराध में आरोपित होकर जेल भेजा जाए या आरोप सिद्ध होने तक हिरासत में रहे, वह स्वचालित रूप से अपने पद से मुक्त हो जाए। इस्तीफे की प्रतीक्षा या राजनीतिक दबाव की आवश्यकता ही न रहे। अनेक नेताओं ने ऐसा आदर्श प्रस्तुत भी किया, लेकिन आम आदमी पार्टी, कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, झारखण्ड मुक्ति मोर्चा आदि अनेक पार्टियों के नेताओं ने जेल से सरकारें चलाने एवं मंत्री पद पर बने रहने के काले अध्याय रचे हैं, इसी के चलते इस नये विधेयक की अपेक्षा सामने आई।
भारत जैसे विशाल लोकतंत्र में स्वच्छ राजनीति केवल आदर्श नहीं, बल्कि अनिवार्यता है। जब सत्ता और शासन के केंद्र में अपराधी मानसिकता के लोग बैठते हैं, तो वे शासन को अपने स्वार्थ और अपराधों की ढाल बना लेते हैं। इससे न केवल लोकतांत्रिक व्यवस्था खोखली होती है, बल्कि आम जनता का जीवन भी संकट में पड़ता है। भ्रष्टाचार, धनबल, बाहुबल, भाई-भतीजावाद, हिंसा और अनैतिकता का वातावरण उसी समय पनपता है, जब राजनीति अपराधियों के कब्जे में जाती है। ईमानदार और स्वच्छ छवि वाले नेताओं की मांग आज पहले से अधिक बढ़ गई है। जनता ऐसे नेतृत्व की तलाश में है जो अपने आचरण से उदाहरण प्रस्तुत करे। राजनीति यदि सेवा और त्याग का माध्यम बनेगी तो ही समाज का कल्याण होगा। जिन नेताओं पर जरा भी संदेह का धुंधलका हो, उन्हें स्वयं स्वेच्छा से पद छोड़ देना चाहिए। यही परंपरा राजनीति को उच्चता और गरिमा प्रदान कर सकती है।
अपराधमुक्त राजनीति केवल नैतिक अपेक्षा नहीं, बल्कि लोकतंत्र की मजबूरी है। जब तक राजनीति में शुचिता और नैतिकता का स्थान नहीं बनेगा, तब तक सुशासन और ईमानदार प्रशासन की कल्पना अधूरी ही रहेगी। नए कानूनों का निर्माण कर अपराधियों के लिए राजनीति के दरवाजे बंद करना समय की सबसे बड़ी मांग है। यह कदम न केवल लोकतंत्र को सुदृढ़ करेगा, बल्कि जनता के भीतर यह विश्वास भी जगाएगा कि राजनीति वास्तव में लोककल्याण के लिए है, न कि अपराधियों की शरणस्थली। यही अपराधमुक्त राजनीति का दर्शन है, जहां सत्ता अपराधियों का आश्रय-स्थल न होकर समाज की नैतिक ऊर्जा का केंद्र बने। यही उसकी सबसे बड़ी उपयोगिता है कि वह लोकतंत्र को उसकी वास्तविक आत्मा लौटाए और राजनीति को सेवा, शुचिता और ईमानदारी का प्रतीक बनाए।
भारतीय लोकतंत्र में पिछले कुछ वर्षों से राजनीति और अपराध के गठजोड़ को लेकर गहरी चिंता लगातार उठती रही है। जनता बार-बार यह अपेक्षा करती है कि जिन्हें वे संसद और विधानसभा भेजते हैं, वे न केवल ईमानदार और पारदर्शी हों बल्कि उनके चरित्र और आचरण पर कोई दाग न हो। किंतु बार-बार यही देखने को मिलता है कि गंभीर आपराधिक मामलों में फंसे नेता भी उच्च पदों पर बने रहते हैं और शासन-सत्ता का उपयोग अपने बचाव के लिए करते हैं। इसी पृष्ठभूमि में केंद्र सरकार द्वारा संसद में पेश किया गया नया विधेयक (संविधान का 130वां संशोधन) एक ऐतिहासिक कदम माना जा सकता है, केन्द्र सरकार इन विधेयकों को भ्रष्टाचार एवं अपराध विरोध बता रही है, जबकि विपक्ष इससे सहमत नहीं। उनकी असहमति अनेक प्रश्नों को खड़ा कर रही है कि आखिर विपक्ष दागियों की वकालत करते हुए वह स्वयं भी दागी क्यों बन रही है? आशंका जताई जा रही है कि यदि यह संशोधन पारित हो गया तो विपक्ष-शासित राज्यों के मुख्यमंत्री और मंत्री अस्थिर हो सकते हैं, उनके पद संकट में पड़ सकते हैं। दरअसल यह विरोध केवल विधेयक का नहीं बल्कि अपनी राजनीतिक सुविधा, अपनी सत्ता बचाने और सुरक्षा का है। प्रश्न यह उठता है कि क्या विपक्ष वास्तव में अपराधमुक्त राजनीति नहीं चाहता? क्या केवल सत्ता में बने रहने के लिए राजनीति को अपराधियों का अड्डा बनाए रखना आवश्यक है?
विपक्ष का तर्क है कि सरकार इस विधेयक का दुरुपयोग कर सकती है, और केवल आरोप लगाकर भी नेताओं को पद से हटाया जा सकता है। लेकिन सच्चाई यह है कि लोकतंत्र में जब तक कानून कठोर और स्पष्ट नहीं होगा, तब तक राजनीति से अपराध का सफाया संभव नहीं है। यदि किसी निर्दाेष व्यक्ति पर आरोप गलत सिद्ध होता है तो उसके लिए पुनः प्रतिष्ठा अर्जित करने के रास्ते खुले रहेंगे, परंतु गंभीर आरोपियों को शासन की कुर्सी पर बने रहने देना लोकतंत्र के साथ अन्याय है, उसकी मूल आत्मा को ध्वस्त करना है। ऐसा अरविन्द केजरीवाल ने पहली बार किया और जेल से ही सरकार चलाने का दम भरते रहे।
आज देश ‘विकसित भारत’ के संकल्प की ओर बढ़ रहा है। विकसित भारत का सपना केवल तकनीकी प्रगति या आर्थिक मजबूती से पूरा नहीं होगा, बल्कि इसके लिए स्वच्छ, ईमानदार और पारदर्शी राजनीति आवश्यक है। राजनीति में अपराधियों की घुसपैठ न केवल लोकतंत्र की नींव को कमजोर करती है बल्कि जनता के विश्वास को भी तोड़ती है। अपराधमुक्त राजनीति न केवल आदर्श है बल्कि सुशासन और विकास की बुनियादी शर्त है। इसलिए आवश्यक है कि ऐसे विधेयक का स्वागत किया जाए, क्योंकि यह राजनीति को शुचिता, नैतिकता और जनहित के मार्ग पर ले जाने का प्रयास है। राजनीति में एक नये सूरज का उदय है। विपक्ष यदि इसका विरोध करता है तो यह सवाल स्वतः उठता है कि क्यों विपक्ष अपराधमुक्त राजनीति का विरोध करके अपराधियों का संरक्षण कर रहा है? क्या उसे अपने ही दागी नेताओं के लिए भय है? लोकतंत्र को बचाने और मजबूत करने के लिए यह विधेयक समय की मांग है। नया भारत तभी विकसित भारत बनेगा जब उसकी राजनीति अपराधियों से मुक्ति होगी। अपराधमुक्त राजनीति से ही सुशासन आएगा, ईमानदार नेतृत्व पनपेगा और जनता के बीच विश्वास की नई रोशनी जगेगी। यही लोकतंत्र की असली जीत होगी।

राधाकृष्णन की उम्मीदवारी से कई हित सधेंगे

-ललित गर्ग-

भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाले राजग ने चंद्रपुरम पोन्नुस्वामी राधाकृष्णन को उपराष्ट्रपति पद का उम्मीदवार घोषित करके एक तीर से अनेक निशाने साधे हैं। भाजपा ने बहुत सोच-समझकर उन्हें इस प्रतिष्ठित पद का उम्मीदवार बनाया है। वे तमिल हैं, पिछडे़ भी हैं, संघ से जुड़े हैं और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के पुराने करीबी एवं साफ-सुथरी छवि वाले राजनायक हैं। भाजपा ने जब उन्हें उपराष्ट्रपति पद का उम्मीदवार घोषित किया, तो यह केवल राजनीतिक गणित का परिणाम नहीं था, बल्कि एक ऐसे व्यक्तित्व को राष्ट्रीय मंच पर स्थापित करने का निर्णय था, जो सादगी, ईमानदारी और सेवा की पहचान रखते हैं। उनका चयन भारतीय लोकतंत्र की व्यापकता और समावेशिता का जीवंत प्रतीक है।
अब तक भारतीय राजनीति में दक्षिण भारत, विशेषकर तमिलनाडु में भाजपा की जड़ें अपेक्षाकृत कमजोर और सबसे बड़ी चुनौती रहा है। उत्तर और पश्चिम भारत में लगातार सफलता के बाद पार्टी चाहती है कि दक्षिण के राज्य भी उसके प्रभाव में आएं। राधाकृष्णन तमिलनाडु से आते हैं और वहां भाजपा के शीर्ष चेहरों में गिने जाते हैं। उनका उपराष्ट्रपति उम्मीदवार बनना भाजपा की यह घोषणा है कि वह दक्षिण भारत को अब हाशिए पर नहीं, बल्कि सत्ता की मुख्यधारा में लाना चाहती है। राधाकृष्णन तमिलनाडु में भाजपा के मजबूत संगठनकर्ता के रूप में पहचाने जाते हैं। सीपी राधाकृष्णन उत्तर भारत के भाजपा के राजनीतिक गलियारे में राधाजी के नाम से जाने जाते हैं। तमिलनाडु की कोयंबटूर लोकसभा सीट से 1998 और 1999 के आम चुनावों में भाजपा के टिकट पर सांसद चुने गए सीपी राधाकृष्णन ने स्कूली जीवन से ही आरएसएस का दामन थाम लिया था। हालांकि एक दौर में वे तमिल राजनीति में अन्नाद्रमुक के करीब माने जाते थे। उनके तमाम राजनीतिक दलों के नेताओं से मधुर संबंध हैं। उपराष्ट्रपति चुनाव में डीएमके भी उनकी उम्मीदवारी का विरोध करना कठिन हो सकता है।
उपराष्ट्रपति पद पर उनका चयन ओबीसी समाज को सम्मान और सशक्तिकरण का नया संदेश देगा। प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में भाजपा ने लगातार इस वर्ग को सशक्त बनाने की दिशा में कार्य किया है। राधाकृष्णन ओबीसी समाज से आते हैं। प्रधानमंत्री मोदी ने हमेशा ‘सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास’ की नीति को बल दिया है। राधाकृष्णन का चयन इसी दिशा में एक और महत्वपूर्ण कदम है। इससे भाजपा को देशभर में ओबीसी समाज का और अधिक समर्थन मिल सकता है। इससे भाजपा की सामाजिक आधारशिला और मजबूत होगी। भाजपा अपने निर्णयों से हमेशा करिश्मा घटित करती रही है, अपने चतुराई का परिचय देती रही है, सी.पी. राधाकृष्णन का चयन भाजपा की इसी रणनीतिक चतुराई का ही बड़ा उदाहरण है। इससे पार्टी ने एक तीर से अनेक निशाने साधे हैं, दक्षिण भारत में पैठ बनाना, ओबीसी समाज को साधना, विपक्ष को असहज करना और साफ-सुथरी राजनीति का संदेश देना। यह तय है कि उपराष्ट्रपति के रूप में वे न केवल भाजपा बल्कि पूरे राष्ट्र के लिए सफल नायक सिद्ध होंगे।
यह एक संयोग की कहा जायेगा कि देश के शीर्ष दो पदों पर विराजमान हस्तियों का नाता झारखंड से रहा है। राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु देश के सर्वाेच्च पद पर चुने जाने से पहले झारखंड की राज्यपाल रहीं और देश के उपराष्ट्रपति बनने जा रहे सीपी राधाकृष्णन भी इस राज्य के राज्यपाल रहे हैं। इन दिनों वे महाराष्ट्र के राज्यपाल हैं। वे झारखंड के साथ ही तेलंगाना के राज्यपाल और पुदुचेरी के उपराज्यपाल का भी अतिरिक्त कार्यभार संभाल चुके हैं। मोदी-शाह का उन पर बड़ा भरोसा रहा है, क्योंकि उन्हें एक समय एक साथ तीन-तीन राज्यों के राज्यपालों की जिम्मेदारी थमाई गई थी। अभी उपराष्ट्रपति पद पर ऐसे ही भरोसेमंद, निष्ठाशील एवं जिम्मेदार व्यक्ति की ही तलाश थी। उपराष्ट्रपति भारत का प्रतिनिधित्व अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भी करते हैं। राधाकृष्णन का अध्ययनशील स्वभाव, शालीन व्यवहार और संतुलित दृष्टिकोण भारत की सॉफ्ट पावर को और मजबूत करेगा। उनका व्यक्तित्व भारत की परंपरा, संस्कृति और लोकतांत्रिक मूल्यों का प्रभावी प्रतिनिधित्व करेगा।
भारतीय राजनीति में उपराष्ट्रपति केवल राज्यसभा के सभापति ही नहीं होते, बल्कि सर्वदलीय संवाद और लोकतांत्रिक परंपराओं के संरक्षक भी होते हैं। राधाकृष्णन का सौम्य व्यक्तित्व, धैर्य और संवाद क्षमता उन्हें इस भूमिका में और अधिक सफल बनाएगी। विपक्षी दलों के लिए भी उनकी छवि स्वीकार्य है, जो संसद की कार्यवाही को संतुलित बनाए रखने में सहायक होगी। सी.पी. राधाकृष्णन का उपराष्ट्रपति पद पर चयन भारतीय लोकतंत्र की उस विशेषता को रेखांकित करता है, जिसमें सादगी और सेवा जैसे गुण सर्वाेपरि माने जाते हैं। वे न केवल दक्षिण भारत और ओबीसी समाज का सम्मान हैं, बल्कि पूरे राष्ट्र के लिए आशा और संतुलन का चेहरा हैं। निश्चित रूप से वे उपराष्ट्रपति पद की जिम्मेदारी को सफलतापूर्वक निभाते हुए आने वाले वर्षों में एक आदर्श और प्रेरक नायक सिद्ध होंगे। जैसाकि पूर्व उपराष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन हमारे आदर्श नायक हैं।
वैसे भी डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन और वर्तमान उपराष्ट्रपति पद के उम्मीदवार सी.पी. राधाकृष्णन के बीच कुछ उल्लेखनीय समानताएं दिखाई देती हैं। भले ही दोनों की पृष्ठभूमि अलग हो, एक महान दार्शनिक, शिक्षक और राजनयिक रहे, तो दूसरे राजनीति और सामाजिक जीवन से जुड़े हैं, फिर भी उनके व्यक्तित्व में कई साझा बिंदु हैं जैसे दोनों का नाम ‘राधाकृष्णन’ है, जो भारतीय संस्कृति में श्रीकृष्ण से जुड़ी भक्ति, ज्ञान और नीति का प्रतीक है। दोनों ने अपने-अपने क्षेत्र में भारतीय परंपरा और मूल्यों को प्रतिष्ठित किया। डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने भारतीय दर्शन को विश्वपटल पर प्रतिष्ठा दिलाई और शिक्षा जगत को नई दिशा दी। सी.पी. राधाकृष्णन ने राजनीति और सार्वजनिक जीवन में सेवा, ईमानदारी और पारदर्शिता के लिए ख्याति अर्जित की। डॉ. राधाकृष्णन जीवन भर शिक्षक रहे और शिक्षा को राष्ट्र निर्माण का मूल आधार माना। सी.पी. राधाकृष्णन का राजनीतिक जीवन भी शिक्षा, नैतिकता और संस्कारों की धरती पर खड़ा है। वे स्वच्छ छवि और सादगी के लिए जाने जाते हैं। दोनों का जीवन साधारण परंतु ऊँचे आदर्शों से जुड़ा रहा। किसी प्रकार का दुराचार या विवाद इन दोनों के जीवन में नहीं जुड़ा, जो आज के राजनीतिक और सार्वजनिक जीवन में बहुत दुर्लभ है। डॉ. राधाकृष्णन को दार्शनिक-राजनेता के रूप में विश्वभर में सम्मान मिला। सी.पी. राधाकृष्णन को जनता का भरोसा, सरल व्यवहार और समाज में उनकी स्वीकार्यता ने एक सम्मानित नेता बनाया। डॉ. राधाकृष्णन ने भारतीय संस्कृति के सार्वभौमिक दृष्टिकोण को स्थापित किया। सी.पी. राधाकृष्णन भी राजनीति में समन्वयकारी, सर्वसमावेशी और राष्ट्रहित की सोच को आगे बढ़ाते हैं। दोनों ही भारतीय मूल्यों, ईमानदारी और राष्ट्र-सेवा के प्रतीक माने जा सकते हैं।
राजनीति में सी.पी. राधाकृष्णन की पहचान एक स्वच्छ और सादगीपूर्ण नेता की है। वे कभी भी विवादास्पद राजनीति का हिस्सा नहीं बने, बल्कि अपने संगठन कौशल, जनता से जुड़ाव और सेवाभाव से अपनी अलग जगह बनाई। सामाजिक और शैक्षणिक संस्थाओं से जुड़े रहने के कारण उनका व्यक्तित्व सिर्फ राजनीतिक दायरे तक सीमित नहीं रहा। यही कारण है कि वे उपराष्ट्रपति पद की गरिमा और जिम्मेदारी निभाने में पूरी तरह सक्षम होंगे। भाजपा ने राधाकृष्णन को मैदान में उतारकर विपक्ष के लिए कठिनाई खड़ी कर दी है। उनकी सादगीपूर्ण और निर्दाेष छवि के कारण विपक्ष उनके खिलाफ आक्रामक रुख अपनाने में हिचकेगा। साथ ही, वे किसी विवाद या कट्टरपंथी राजनीति से दूर रहे हैं, जिससे उनकी स्वीकार्यता सर्वदलीय स्तर पर अधिक है। वे न केवल चुनावी राजनीति में सक्रिय रहे, बल्कि सामाजिक और शैक्षणिक गतिविधियों से भी जुड़े रहे हैं। इससे भाजपा की यह छवि और प्रखर होगी कि वह स्वच्छ और ईमानदार नेतृत्व को प्राथमिकता देती है। राधाकृष्णन क्यों सफल उपराष्ट्रपति साबित होंगे, इस प्रश्न का उत्तर निम्न पंक्तियों में समाया है कि वे पक्षपात से दूर और सर्वदलीय संवाद को बढ़ावा देने वाले विरल व्यक्तित्व माने जाते हैं। भाजपा संगठन में लंबे अनुभव के कारण वे राजनीतिक नब्ज को भली-भांति समझते हैं। इससे जनता और सभी दलों में उनकी विश्वसनीयता बनी रहेगी। दक्षिण भारत का केन्द्र में समुचित प्रतिनिधित्व होने से वे राष्ट्रीय राजनीति में समावेशिता का चेहरा बनेंगे। 

अपनी ही बिसात पर मात खा रहा है विपक्ष

-ललित गर्ग-

भारत का लोकतंत्र विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। यह केवल संख्याओं और मतों का खेल नहीं है, बल्कि एक ऐसी जीवंत प्रक्रिया है जिसमें सत्ता और विपक्ष दोनों की समान रूप से महत्वपूर्ण भूमिका होती है। सत्ता पक्ष जहां शासन संचालन और नीतियों को लागू करने के लिए जिम्मेदार होता है, वहीं विपक्ष लोकतंत्र का प्रहरी बनकर उसके हर कदम पर प्रश्नचिह्न खड़ा करता है, असंतोष को स्वर देता है और जनभावनाओं को दिशा देता है। लेकिन वर्तमान विपक्ष इन भूमिकाओं में नकारा साबित हो रहा है, ऐसा प्रतीत होता है कि विपक्ष अपनी ही बिसात पर मात खा रहा है, जिस तरह से विपक्ष और विशेषतः कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने वोट चोरी, ईवीएम मंें गड़बड़ी एवं मतदाता सूचियों के विशेष गहन परीक्षण पर बेतूके एवं आधारहीन आरोप लगाये हैं, उससे संवैधानिक संस्था चुनाव आयोग की गरिमा एवं प्रतिष्ठा तो आहत हुई ही है, लेकिन विपक्ष की भूमिका भी कठघरे में दिख रही है। यह अच्छा हुआ कि मुख्य चुनाव आयुक्त ज्ञानेश कुमार ने प्रेस कांफ्रेंस कर वोट चोरी सहित ऐसे ही बेहूदा, आधारहीन एवं गुमराह करने वाले राहुल गांधी के आरोपों का न केवल बिन्दुबार जबाव दिया, बल्कि उन्हें बेनकाब करते हुए यह भी कहा कि वे या तो अपने निराधार आरोपों के सन्दर्भ में शपथ पत्र दें या सात दिनों के भीतर देश से माफी मांगें। निश्चित ही राहुल गांधी को ऐसी चेतावनी देना आवश्यक हो गया था, क्योंकि वे अपने संकीर्ण एवं स्वार्थी राजनीतिक हितों की पूर्ति के लिये लोकतंत्र की संवैधानिक संस्थाओं की गरिमा को धुंधलाने की सारी हदें पार चुके हैं।
हाल के दिनों में जिस तरह चुनाव आयोग, मतदाता सूची और वोट चोरी के आरोपों को लेकर बहस छिड़ी है, उसने इस प्रश्न को फिर से गहराई से सोचने को बाध्य किया है कि क्या लोकतंत्र में विपक्ष बेबुनियाद आरोप लगाते हुए अपनी भूमिका को प्रश्नों के घेरे में कब तक डालता रहेगा? विपक्ष बिना ठोस प्रमाण के बड़े आरोप लगाकर लोकतांत्रिक संस्थाओं की विश्वसनीयता पर प्रश्न खड़े कर देता है। क्या जनहित के नाम पर जनता के व्यापक हित से जुड़े सुधारों का विरोध करना विपक्ष का शगल बन गया है? पिछले एक दशक से विपक्ष लोकतंत्र को सशक्त बनाने की अपनी भूमिका की बजाय उसे कमजोर एवं जर्जर करने में जुटा है। उसने सत्ता-पक्ष को घेरने के लिये जरूरी मुद्दों को सकारात्मक तरीकों से उठाने की बजाय विध्वंसात्मक तरीकों से विकास के जनहितकारी मुद्दों को भी विवाद का मुद्दा बनाते हुए सारी हदें पार कर पार दी है। आधार को बैंक अकाउंट से जोड़ने का मामला हो या अनुच्छेद 370 को खत्म करना हो। सीएए-एनआरसी का मामला हो या हाल में चुनाव आयोग द्वारा बिहार में मतदाता सूची का विशेष गहन परीक्षण अभियान हो। विपक्ष मोदी सरकार के इन विकासमूलक सुधारों  को जनहित के खिलाफ बताते हुए मुखर विरोध कर रहा हैं, जो लोकतंत्र को धुंधलाने की एक बड़ी साजिश प्रतीत होती है। निश्चित ही विपक्ष की इस खींचतान में सबसे बड़ी क्षति जनता की आस्था की होती है। जब चुनाव आयोग जैसी संवैधानिक संस्थाओं की निष्पक्षता संदिग्ध बनाई जाती है, तो लोकतंत्र की नींव हिलने लगती है। लोकतंत्र में हार-जीत से भी बड़ा मुद्दा चुनाव प्रक्रिया की पारदर्शिता और विश्वसनीयता होता है।
विपक्ष केवल सत्ता की आलोचना करने के लिए नहीं है। उसका दायित्व है कि वह जनता की समस्याओं  जैसे बेरोजगारी, महंगाई, जीएसटी की अतिश्योक्तिपूर्ण वसूली, पर्यावरण, सफाई, नारी की असुरक्षा जैसे ज्वलंत मुद्दों को उजागर करे, ठोस विकल्प प्रस्तुत करे और लोकतांत्रिक संस्थाओं की मजबूती में योगदान दे। केवल आरोप-प्रत्यारोप में उलझकर यदि विपक्ष अपनी ऊर्जा खर्च कर देता है तो वह जनता का विश्वास खो देता है। यही कारण है कि आज विपक्ष की स्थिति कमजोर मानी जा रही है, क्योंकि वह केवल आरोप लगाता हुआ दिखता है, समाधान प्रस्तुत करने में पिछड़ जाता है। सत्ता पक्ष को भी यह नहीं भूलना चाहिए कि लोकतंत्र केवल बहुमत से नहीं चलता, बल्कि सहमति और पारदर्शिता से भी चलता है। यदि विपक्ष लगातार सवाल उठा रहा है तो सत्ता पक्ष का कर्तव्य है कि वह धैर्यपूर्वक उत्तर दे, जाँच के रास्ते खोले और हर आरोप को तथ्यों से परखे। विपक्ष को नकार देना लोकतंत्र को कमजोर करना है। जब सत्ता और विपक्ष के बीच टकराव बढ़ता है, तब न्यायपालिका अंतिम सहारा बनती है। यही कारण है कि आज बार-बार सुप्रीम कोर्ट से हस्तक्षेप की माँग उठती है। यह स्थिति लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं है, क्योंकि इसका अर्थ है कि जनता और राजनीतिक दल चुनाव आयोग व अन्य संवैधानिक संस्थाओं पर भरोसा नहीं कर पा रहे। इसलिए न्यायपालिका की भूमिका भी अब केवल विवाद सुलझाने की नहीं रह गई है, बल्कि लोकतंत्र के विश्वास को पुनः स्थापित करने की हो गई है, जबकि यह कार्य राजनीतिक दलों एवं चुनी हुई सरकारों का होता है।
लोकतंत्र का सार यही है कि सत्ता और विपक्ष दोनों एक-दूसरे के पूरक हों, शत्रु नहीं। विपक्ष को केवल विरोध की राजनीति से बाहर आकर वैकल्पिक दृष्टिकोण देना होगा, और सत्ता-पक्ष को भी यह समझना होगा कि विपक्ष की आलोचना लोकतंत्र का अभिन्न हिस्सा है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने प्रारंभ से ही विपक्ष को महत्व दिया है, उन्होंने संवेदनशील सरकार के साथ सृजनात्मक नेतृत्व का परिचय दिया है लेकिन विपक्ष जब आग्रह, पूर्वाग्रह एवं दुराग्रह से घिरा हो तो सकारात्मक दिशाएं कैसे उद्घाटित हो सकती है? आज की राजनीति में लोकतंत्र और विपक्ष के बीच खींचतान तेज़ है। यह टकराव लोकतंत्र को कमजोर करने वाला नहीं बल्कि उसे और परिपक्व बनाने वाला होना चाहिए। आवश्यकता इस बात की है कि विपक्ष अपनी रचनात्मक भूमिका निभाए और सत्ता पक्ष उसकी आलोचना को स्वीकार कर उत्तरदायित्वपूर्ण जवाब दे। तभी लोकतंत्र की असली शक्ति और जनता के विश्वास को बनाए रखा जा सकता है।
लोकतंत्र की शक्ति केवल सरकार में नहीं बल्कि एक सशक्त और रचनात्मक विपक्ष में भी निहित होती है। विपक्ष लोकतांत्रिक ढांचे का आवश्यक स्तंभ है, जो सत्ता पर निगरानी रखता है, नीतियों में कमियों को उजागर करता है और जनता की आवाज़ को सदन तक पहुँचाता है। लेकिन जब विपक्ष अपनी इस जिम्मेदारी को भूलकर केवल नकारात्मक राजनीति पर उतर आए, तो लोकतंत्र की नींव कमजोर होने लगती है और देश की छवि तथा स्थिरता पर गंभीर खतरा उत्पन्न हो जाता है। आज भारत का विपक्ष जिस तरह संसद को ठप करने, व्यक्तिगत हमलों, दुष्प्रचार और असंवेदनशील आचरण पर आमादा है, उसने लोकतंत्र की गरिमा को ठेस पहुँचाई है। संसद सत्र, जहाँ जनता की समस्याओं का समाधान खोजा जाना चाहिए, वहाँ विपक्ष का रवैया अवरोध पैदा करने वाला अधिक दिखता है। महत्वपूर्ण विधेयकों पर सार्थक चर्चा के बजाय नारेबाज़ी और वॉकआउट आम बात हो गई है। यह स्थिति केवल सरकार ही नहीं, पूरे राष्ट्र के लिए घातक है। इतिहास गवाह है कि जब-जब विपक्ष ने रचनात्मक भूमिका निभाई है तो लोकतंत्र और मजबूत हुआ है। 1977 में आपातकाल के विरोध से लेकर 1989 तक विपक्ष ने लोकतंत्र को बचाने और पुनर्जीवित करने का कार्य किया। लेकिन 2014 के बाद से जिस तरह विपक्ष अपरिपक्व, निरंतर बिखरा हुआ, नेतृत्वविहीन और नकारात्मक एजेंडे पर केंद्रित रहा है, उसने लोकतांत्रिक संस्कृति को आघात पहुँचाया है।
विदेशी ताकतें हमेशा से भारत की आंतरिक कमजोरी का फायदा उठाने की फिराक में रहती हैं। जब विपक्ष सरकार की नीतियों का विरोध करने के नाम पर राष्ट्र-विरोध, राष्ट्रीय सुरक्षा, सेना की कार्रवाई या विदेश नीति तक पर सवाल उठाने लगता है, तो इसका सीधा लाभ पाकिस्तान और चीन जैसे देशों को मिलता है। अंतरराष्ट्रीय मंच पर भारत की छवि को धूमिल करना विपक्ष का उद्देश्य नहीं होना चाहिए, लेकिन दुर्भाग्य से हालात यही इशारा कर रहे हैं। लोकतंत्र में मतभेद होना स्वाभाविक है, लेकिन मतभेद को ‘विघटन’ में बदल देना खतरनाक है। विपक्ष को याद रखना होगा कि उसकी जिम्मेदारी केवल सत्ता पाने की नहीं, बल्कि देश की स्थिरता और विकास को सही दिशा देने की भी है। अगर विपक्ष अपने दायित्वों को नकारात्मक राजनीति में खोता रहा तो यह न केवल उसके लिए बल्कि पूरे लोकतंत्र के लिए आत्मघाती सिद्ध होगा। आज समय की मांग है कि विपक्ष आत्ममंथन करे, अपनी नीतियों और रणनीतियों को परखे तथा केवल विरोध के लिए विरोध करने की बजाय वैकल्पिक दृष्टि और ठोस समाधान प्रस्तुत करे। यही सच्चे लोकतंत्र का तकाज़ा है और यही राष्ट्रहित का मार्ग।