वासंती हवाओं के साथ मन में इस समय प्रेम की जगह भय ने ले लिया है. एक बार फिर डराने की सूचना से सबके चेहरे पर शिकन दिखने लगी है. जानलेवा कोरोना का एक और दौर शुरू हो गया है. आंकड़ों की बतकही पर ना भी जाएं तो कोरोना का जो वैश्विक रूप से देखने को मिल रहा है, वह सुकून देने वाला तो कतई नहीं है. बीते एक साल जो कुछ हम सबने झेला, उससे आज तक हम उबर नहीं पाए हैं. अब फिर सूचना आने लगी है. चेतावनी दी जाने लगी है कि कोरोना का यह दौर पहले से ज्यादा खतरनाक है. सरकारें भी सचेत हो गई हैं. मध्यप्रदेश के इंदौर और भोपाल में धडक़न जिस तरह से थमने लगी थी, उस पर शासन-प्रशासन की सख्ती से किसी तरह काबू पाया जा सका था. जो गया, उसकी वापसी नहीं हो सकती थी लेकिन जिन्हें बचाया जा सकता था, उन्हें बचाने की भरसक कोशिश की गई. काल का दूसरा नाम कोरोना है. और कोरोना से बचने की जिम्मेदारी हम सब की है. सरकार और तंत्र को सहयोग करना हमारी नैतिक जवाबदारी है. सरकार ने फरमान जारी कर दिया है कि मॉस्क लगाना कम्पलसरी होगा लेकिन असल सवाल यह है कि हम क्यों नहीं चेत जाते? क्यों अभी हम मॉस्क से तौबा-तौबा कर रहे हैं? अभी नहीं, आगे भी मॉस्क, फिजीकल डिस्टेंसिंग और हेंडवॉश की आदत बनाये रखिए. कई लोगों को इस बात का भरम है कि वैक्सीनेशन के बाद वे सेफ हैं. यह बात भी ठीक है लेकिन वेक्सीनेशन आपको बेफ्रिक बनाती है, लापरवाह नहीं. कोरोना यह नहीं देखता है कि आप पर क्या जवाबदारी है? आपके घर को आपकी क्या जरूरत है? वह तो चाहे जिस पर हमला बोल दे. हमारी धडक़न कायम रहे. हम स्वस्थ्य रहें, इसके लिए जरूरी है कि एक साल से जो नसीहतें हमें मिल रही है, उसे ना भूलें.
बहुत छोटी छोटी सी सावधानियां है जिनका अनदेखा किये जाने से हमारी जान पर बन आती है. चेहरे पर मुंह और नाक पर मॉस्क जरूर लगाएं. कोशिश हो कि सर्जिकल मॉस्क का उपयोग करें क्योंकि डॉक्टरों की सलाह है कि यह सबसे सेफ है. वैसे आप अपने डॉक्टर से बात कर कौन सा मॉस्क कोरोना से सुरक्षा देगा, पहन लें. मॉस्क अपनी सुविधा से खरीदें लेकिन मॉस्क का उपयोग आप घर से बाहर कदम रखने और लौटने तक करें. घर वापसी के साथ आप साबुन से हाथ धोना नहीं भूलें. घर पर होने के बाद भी अधिकतम समय हाथ धोते रहें. कपड़ों को धोने से डालें तो स्वयं आत्मनिर्भर बनकर. स्वयं के कपड़े खुद पानी में डुबो दें और उस पर डिटॉल छिडक़ दें. ध्यान रहे आपकी यह सावधानी आपके परिवार को अनचाही मुसीबत से बचा सकती है. गर्म पानी पीना और गरारे करने की हिदायत डॉक्टर दे रहे हैं. इसका पालन भी सुनिश्चित करें. जीभ तो हर वक्त स्वाद के लिए बेताब रहती है. स्वयं पर नियंत्रण पाना सीखें. घर पर बना सादा गर्म भोजन करें. बेवजह तफरी करने घर से बाहर ना निकलें. यह आपके हमारे लिए हानिकारक हो सकता है.कोरोना से बचने के लिए आपकी सर्तकता और सावधानी से आप अपने और अपने परिवार को सुरक्षा कवच देते हैं तो प्रशासन की आप मदद करते हैं. स्वयं पर नियंत्रण कर लेते हैं तो अनावश्क जो काम का भार उन पर पड़ता है, वह बच जाता है. हमारी सुरक्षा के लिए जो एक बड़ा तंत्र तैनात होता है, उस पर बजट भी भारी खर्च होता है. यह बजट आपके हमारे जेब से जाता है. लेकिन हम और आप सावधानी बरतेेंगे तो बजट की राशि कम होती जाएगी और यह बजट हमारे कल्याणकारी दूसरे खर्चो में उपयोग आएगा. घर पर ही अपने ही स्तर पर छोटी-छोटी सावधानी से अस्पतालों में बढ़ती भीड़ से भी मुक्ति मिलेगी. हमारे कोरोना वॉरियर डॉक्टर और पुलिस को अथक मेहनत करना पड़ती है. सो उन्हें भी राहत होगी. अभी कोरोना का दूसरा चरण शुरू ही हुआ है. अभी सम्हल जाएं और खुद को सम्हाल लें. आपकी धडक़न आपके परिवार के लिए महत्वपूर्ण है. सरकार और मुख्यमंत्री एक्शन के मूड में हैं. जो तकलीफ प्रदेशवासियों ने बीते दिनों में हुई है, उसे दुबारा नहीं होना देना चाहते हैं. वे जानते हैं कि कोरोना का इलाज कितना महंगा होता है. जान की कीमत पर पैसा कोई मायने नहीं रखता है लेकिन आर्थिक रूप से परिवार कमजोर हो जाता है. कोरोना को उसके शुरूआती दौर में नहीं रोका गया तो घर, समाज और सरकार आर्थिक तंगहाली से घिर जाते हैं. व्यापार व्यवसाय पर घात होता है और नतीजा फिर हम एक बड़े संकट से घिर जाते हैं. इसलिए जरूरी है कि हम सावधानी बरतें, सर्तकता रखें क्योंकि आप अपने घर परिवार के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं. ध्यान रहे यह बात आपको पता है, कोरोना को नहीं.
मध्यप्रदेश विधानसभा के चौदहवें विधानसभा अध्यक्ष श्री गिरीश गौतम को जिसने जितना जाना, उसे हमेशा लगा है कि बहुत कम जाना। कहते हैं कर्म ही भाग्य का निर्माण करता है, और यह कर्मफल कब भाग्य में प्रकट हो जाए कुछ कहा नहीं जा सकता। गौतमजी के बारे में भी यही बातें सौ फीसदी सत्य हैं, वे तो सिर्फ सेवा के उस महान यज्ञ में लगे हुए हैं, जिसमें अंतिम छोर पर खड़े व्यक्ति को मुख्य धारा में लाने का संकल्प लिया गया है।
वस्तुत: मध्य प्रदेश के विंध्य क्षेत्र से आनेवाले वे एक ऐसे नेता है, जिन्होंने समाजवाद के दामन को छोड़कर कमल को आत्मसात किया और अपने क्षेत्र के हर नागरिक के चहरे पर कमल की तरह ही मुस्कान बिखेरने के लिए सतत प्रयासों में वे लगे रहते हैं। एक तरह से देखें तो श्री गिरीश गौतम चार बार के विधायक हैं। उनका राजनीति में आना ठीक वैसा ही है, जैसे कभी सारस जैसे एक क्रौंच पक्षी के जोड़े को ऋषि वाल्मीकि ने तमसा नदी के तट पर अह्लाद करते देखा और उनके मुख से कविता बह निकली, जिसके कारण से भविष्य में रामायण एवं तुलसी की रामचरित मानस जैसी कालजयी रचना का निर्माण हो सका । ठीक इसी प्रकार से आमजनता के दुखों से द्रवित हुए हसिया और हथौड़े का लाल झंडा उठाए श्री गौतम सड़क पर संघर्ष करते-करते राजनीति के सेवा कार्य में खिंचे चले आए ।
इस बात को स्वीकार्य करने में किसी को संकोच नहीं होना चाहिए कि समाजवाद का जो सपना किताबों में दिखाया जाता है, प्रारंभ में वह सबसे अधिक युवाओं को जो उसके संपर्क में आते हैं, उन्हें सबसे अधिक प्रभावित करता है। पूंजीवाद की जिस तरह से व्याख्या मार्क्स और लेनिन के समाजवाद में की गई है, उसे पढ़कर और तत्काल में समझकर यही लगता है कि सभी उद्योगपति और व्यापारी चोर हैं, गरीबों का खून चूसकर ये गुलाब कांटों के साथ इठला रहे हैं, किंतु जब उसकी व्यवहारिकता का अध्ययन किया जाता है तब अवश्य ही लगता है कि किसी भी समाज या देश के संपूर्ण विकास के लिए हर समूह, वर्ग, संस्था का अपना ही महत्व है । वह किसी को हटाने या समाप्त कर पूरा नहीं होता, उसके लिए उसका ही होना जरूरी है। यहीं आकर यह समाजवाद फैल हो जाता है और जो सुनने में अच्छा लगता है, आचरण में भी किसी हद तक इसे धारण कर लिया जाए तो भी इसकी व्यवहारिक कठिनाईयां बता देती हैं कि यह सिर्फ एक स्वप्न के समान है। आखिरकार यह समाज में समरसता नहीं, विभेदीकरण ही पैदा करता है।
ऐसे में युवाकाल के गौतमजी कैसे इस विचार से प्रभावित हुए वगैर रह सकते थे। 1972 में रीवा में हुए छात्रों के आंदोलन में अपनी सक्रिय भूमिका निभाने के बाद वे 1977 से कम्युनिष्ट पार्टी में शामिल हुए और उसी की विचारधारा को आगे बढ़ाते रहे। किसान, मजदूरों के लिए आंदोलन करते कई बार जेल गए । भाकपा की टिकट पर मनगँवा से चुनाव लड़ा और महज 196 मतों से वे हारे भी, किंतु तभी उन्हें मध्यप्रदेश में भाजपा के शिल्पी कुशाभाऊ ठाकरे और पूर्व मुख्यमंत्री सुन्दरलाल पटवा, रीवा संभाग के तत्कालीन संगठन मंत्री भगवत शरण माथुर का इस प्रकार का सानिध्य मिला कि वे गहरे लाल रंग से भगवा में रंग गए। उनके जीवन में अब हसिया और हथोड़े ने कमल का रूप धारण कर लिया था। फिर जब 2003 के विधानसभा चुनाव में तत्कालीन विधानसभा अध्यक्ष रहे श्रीनिवास तिवारी को जिस तरह से उन्होंने हराया, उसके बाद जैसे पूरे प्रदेश में यह उनकी जीत उल्लास एवं आश्चर्य का विषय बन सुर्खियां बटोरने लगी थी ।
उनका चुनाव जीतने तक का संघर्षकाल 30 सालों का है, अपनी संपूर्ण जवानी उन्होंने गरीब, असहाय लोगों के लिए होम कर दी थी, यही कारण रहा कि न केवल मनगँवा क्षेत्र की जनता बल्कि दूर-दराज के लोग भी उन्हें अपना असली हीरो मानने लगे हैं, ये बात अलग है कि राजनीतिक पद प्रतिष्ठा के समीकरणों में वे उतने फिट कभी नहीं रहे जितना कि आज की आवश्यकता है, नहीं तो कोई कारण नहीं था कि 2003 के चुनाव में कांग्रेस के दिग्गज व मुख्यमंत्री के समानांतर रसूख रखने वाले श्रीनिवास तिवारी को 28 हजार से ज्यादा मतों से हराकर देशभर के अखबारों की सुर्खियां बने गौतमजी चार बार, 18 वर्ष तक की विधायकी होने के बाद भी किसी बड़े पद के लिए इंतजार करते ।
खैर, यह अच्छी बात है कि भारतीय जनता पार्टी ने उनके त्याग और समर्पण को आज सम्मान दिया है, एक जननेता से सत्ता के शीर्ष तक पहुंचने की उनकी यह कहानी यह अवश्य सिद्ध करती है कि धैर्य के साथ निरंतर किए गए कार्य का कोई विकल्प नहीं, एक न एक दिन उसके सुखद परिणाम अवश्य ही आते हैं। जिस मप्र विधानसभा के आज वे अध्यक्ष हैं, कभी अपनी ही सरकार पर वे एक विधायक के नाते अपने क्षेत्र और प्रदेश में कई मामले बिना इस संकोच के उठाते रहे हैं कि आखिर जिस भरोसे के साथ जनता ने उन्हें लोकतंत्र के इस पवित्र मंदिर में अपना प्रतिनिधित्व बनाकर भेजा है, उसे न्याय दिलाना उनका प्रथम कर्तव्य है। वस्तुत: इसलिए वे समय-समय पर विधानसभा में मुखर होकर अपनी बात रखते रहे हैं। आगनबाड़ी केन्द्रों में नियुक्तियों और पोषण आहार वितरण जिस पर कि सरकार को बड़ी संख्या में कार्रवाई करनी पड़ गई थी। जिले की सड़कों की खराब हालत, शिक्षा विभाग की नियुक्तियां हों या ऐसे ही अन्य मामले उन्होंने सदन में जिस तरह हर बार तथ्यों के साथ अपनी बात रखी है, उससे तत्काल में भले ही सरकार की मुश्किलें बढ़ीं लेकिन सच यही है कि उनके उठाए सवालों ने हर बार सरकार को व्यवस्थाएं सही करने पर मजबूर किया है ।
वे विधानसभा की जिस भी समिति में रहे वहां अपने सुझावों से विकासपरक कार्यों को जमीन पर उतारने के लिए अधिकारियों को प्रेरित करते रहे हैं। इतना ही नहीं तो एक विधायक के रूप में नईगढ़ी माइक्रो लिफ्ट एरिगेशन के लिए उन्होंने पहले जनांदोलन किया फिर सरकार से घोषणा करवाई। करीब आठ सौ करोड़ से अधिक के इस प्रोजेक्ट में क्षेत्र का बड़ा हिस्सा जो सिंचाई से वंचित था, वहां अब शीघ्र पानी पहुंचेगा । वास्तव में यह प्रदेश में भूमिगत पाइपलाइन के माध्यम से नहर ले जाने का प्रदेश का यह पहला प्रयोग है। इसके अलावा भी इनके खाते में अनेक विकासोन्मुख कार्य जाते हैं, जिन्होंने आज विंध्य को एक नई पहचान दी है।
संघर्षों के विरासत से मिली साफगोई और खाँटीपन अभी भी उनके चरित्र का हिस्सा है। विधानसभा के अध्यक्षीय दायित्व के पद को ग्रहण करने के साथ उन्होंने जो कहा, वह अपने आप में बहुत कुछ कहता है गिरीश गौतम कहते हैं कि सत्ता पक्ष एवं विपक्ष के विधानसभा में जो सदस्य हैं, उनको एक नजरिये से देखने की आवश्यकता है और मेरा यही प्रयास रहेगा। मैं विधानसभा में सभी सदस्यों के हितों की रक्षा करूं। वस्तुत: अध्यक्षीय आसंदी से अपेक्षा भी सभी को यही रहती है, निश्चित ही यह निर्णय भाजपा में संगठन स्तर और राजनीतिक तौर पर कितना सही है आज यह कहने से अधिक महत्वपूर्ण यह है कि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान एवं संपूर्ण भाजपा ने जिन्हें मध्यप्रदेश की विधानसभा के अध्यक्ष के लिए चुना है, वह अपने स्वभाव से ही जन मन और जन-जन है। उनके लिए राज्य और राष्ट्र का हित ही सर्वोपरि है।
डॉ. वेदप्रताप वैदिक कुछ दिन पहले जब मैंने लिखा था कि कोरोना का टीका भारत को विश्व की महाशक्ति के रूप में उभार रहा है तो कुछ प्रबुद्ध पाठकों ने मुझे कहा था कि आप मोदी सरकार को जबर्दस्ती इसका श्रेय दे रहे हैं। इसका श्रेय आप जिसे चाहें दें या न दें, जो बात मैंने लिखी थी, उस पर विश्व स्वास्थ्य संगठन के महासचिव एंतोनियो गुतरेस ने मोहर लगा दी है। गुतरेस ने कहा है कि कोरोना के युद्ध में भारत ने विश्व का नेतृत्व किया है। वह विश्व-त्राता बन गया है। जैसा कि मैं दशकों से लिखता रहा हूं कि भारत को हमें भयंकर महाशक्ति नहीं, प्रियंकर महाशक्ति बनाना है, उसका अब शुभारंभ हो गया है। भारत ने दुनिया के लगभग 150 देशों को कोरोना के टीके, जांच किट, पीपीई और वेंटिलेटर उपलब्ध करवाए हैं। इन देशों से भारत ने इन चीजों के पैसे या तो नाम-मात्र के लिए हैं या बिल्कुल नहीं लिए हैं। संयुक्तराष्ट्र संघ की शांति सेना को दो लाख टीके भारत ने भेंट किए हैं। अभी तक भारत लगभग ढाई करोड़ टीके कई देशों को भेज चुका है। उन देशों के राष्ट्रपतियों और प्रधानमंत्रियों ने भारत का बहुत आभार माना है। इसका श्रेय भारत के वैज्ञानिकों, दवा-उत्पादकों और स्वास्थ्य मंत्रालय को अपने आप मिल रहा है। यदि भारत सरकार इस संकट में आयुर्वेदिक काढ़े को भी सारे विश्व में फैला देती तो भारत को अरबों रु. की आमदनी तो होती ही, भारत की महान और प्राचीन चिकित्सा-पद्धति सारे विश्व में लोकप्रिय हो जाती लेकिन हमारे नेताओं में आत्म-विश्वास और आत्म-गौरव की इतनी कमी है कि वे नौकरशाहों के इशारे पर ही थिरकते रहते हैं। कोरोना युद्ध में भारत की विजय सारी दुनिया में बेजोड़ हैं। अमेरिका-जैसे शक्तिशाली और साधन-संपन्न देश में 5 लाख से ज्यादा लाख लोग मर चुके हैं। जो देश भारत के प्रांतों से भी छोटे हैं, उनमें हताहत होनेवालों की संख्या देखकर हमें हतप्रभ रह जाना पड़ता है। ऐसा क्यों है ? इसका कारण भारत की जीवन-पद्धति, खान-पान और चिकित्सा-पद्धति है। दुनिया के सबसे ज्यादा शाकाहारी भारत में रहते हैं। जो मांसाहार करते हैं, वे भी इन दिनों शाकाहारी हो गए हैं। हमारे भोजन में रोजाना इस्तेमाल होनेवाले मसाले हमारी प्रतिरोध-शक्ति को बढ़ाते हैं। हमारी नमस्ते लोगों में शारीरिक दूरी अपने आप बना देती है। मेरे आग्रह पर आयुष मंत्रालय ने काढ़े की कोरोड़ों पुड़ियां बटवाईं। इन सब का सुपरिणाम है कि भारत की गरीबी, गंदगी और भीड़-भाड़ के बावजूद आज भारत कोरोना को मात देने में सारे देशों में सबसे अग्रणी है। यदि भारत सरकार थोड़ी ढील दे दे और गैर-सरकारी स्तर पर भी टीकाकरण की शुरुआत करवा दे तो कुछ ही दिनों में 50-60 करोड़ लोग टीका लगवा लेंगे।
यूपी बोर्ड की परीक्षा में आठ लाख विद्यार्थियों का हिन्दी में फेल होने का समाचार 2020 में सुर्खियों में था. कुछ दिन बाद जब यूपीपीएससी का रेजल्ट आया तो उसमें भी दो तिहाई से अधिक अंग्रेजी माध्यम के अभ्यर्थी सफल हुए. यह संख्या पहले 20-25 प्रतिशत के आस-पास रहती थी. सितंबर 2020 में जब यूपीपीएससी का परिणाम आया तो उसके दूसरे दिन प्रयागराज के एक प्रतिभाशाली छात्र राजीव पटेल ने निराशा और दबाव में आकर आत्महत्या कर ली. उसके बाद से हिन्दी माध्यम के परीक्षार्थी अपनी माँगों को लेकर प्रयागराज की सड़कों पर महीनों आन्दोलन करते रहे. 2020 का यूपीएससी का रेजल्ट भी ऐतिहासिक और अभूतपूर्व था. हिन्दी माध्यम वाले सफल अभ्यर्थियों की संख्या सिर्फ तीन प्रतिशत रह गई. 97% अभ्यर्थी अंग्रेजी माध्यम वाले सफल हुए. मैने समस्या की तह में जाने की कोशिश की तो सिर घूम गया.
देश में अराजपत्रित कर्मचारियों के चयन के लिए कर्मचारी चयन आयोग (स्टाफ सलेक्शन कमीशन) सबसे बड़ा संगठन है. इस संगठन की परीक्षाओं से हिन्दी को पूरी तरह बाहर का रास्ता दिखाया जा चुका है. मैंने उसकी वेबसाइट पर जाकर देखा, अध्ययन किया तो सकते में आ गया. कंबाइंड ग्रेजुएट लेबल की परीक्षा जो तीन सोपानों में आयोजित होती है, उसके प्रत्येक सोपान में क्रमश: इंग्लिश कंप्रीहेंशन, इंग्लिश लैंग्वेज एण्ड कंप्रीहेंशन तथा डेस्क्रिप्टिव पेपर इन इंग्लिश ऑर हिन्दी है. प्रश्न यह है कि जब आरंभिक दो सोपानों में इंग्लिश लैंग्वेज एण्ड कंप्रीहेंशन अनिवार्य है तो तीसरे सोपान में भला हिन्दी का विकल्प कोई क्यों और कैसे चुन सकता है? जाहिर है यहाँ हिन्दी का उल्लेख केवल नाम के लिए है.
कंबाइंड हायर सेकेंडरी लेबल की परीक्षा में इंग्लिश लैंग्वेज का प्रश्नपत्र है किन्तु हिन्दी का कुछ भी नहीं है. स्टेनोग्राफर्स ( ग्रेड ‘सी’ एण्ड ‘डी’ ) के लिए 200 अंकों की परीक्षा में इंग्लिश लैंग्वेज एण्ड कंप्रीहेंशन 100 अंकों का है किन्तु हिन्दी को पूरी तरह हटा लिया गया है. जूनियर इंजीनियर्स की परीक्षा में हिन्दी का नामोनिशान नहीं है. सब इंस्पेक्टर्स ( दिल्ली पुलिस, सीएपीएफ तथा सीआईएसएफ) की परीक्षा दो भाग में होती है. इसके पहले भाग में 50 अंकों का इंग्लिश कंप्रीहेंशन तो है ही, दूसरे भाग में भी 200 अंकों का सिर्फ इंग्लिश लैंग्वेज एण्ड कंप्रीहेंशन है. विभिन्न राज्यों और केन्द्र शासित प्रदेशों में मल्टी टास्किंग (नान टेक्निकल) स्टाफ के लिए भी दो भागों में बँटी परीक्षा के पहले भाग में जनरल इंग्लिश है और दूसरे भाग में शार्ट एस्से एण्ड इंग्लिश लेटर राइटिंग है. आयोग ने मान लिया है कि हिन्दी में कुछ भी लिखने की कभी जरूरत नहीं पड़ेगी. इसीलिए हिन्दी के किसी स्तर के ज्ञान की परीक्षा का कोई प्रावधान नहीं है. यह सब देखने के बाद कहा जा सकता हैं कि देश की अराजपत्रित सरकारी नौकरियों के लिए अब हर स्तर पर सिर्फ अंग्रेजी को स्थापित कर दिया गया है और हिन्दी को पूरी तरह बाहर का रास्ता दिखा दिया गया है.
राजपत्रित अधिकारियों के चयन के लिए संघ लोक सेवा आयोग तथा विभिन्न राज्यों के लोक सेवा आयोग हैं. संघ लोक सेवा आयोग का गठन अंग्रेजों ने 1926 में किया था. अंग्रेजों के जमाने में यहाँ परीक्षाओं का माध्यम सिर्फ अंग्रेजी थीं. आजादी के बाद 1950 में इस परीक्षा के लिए सिर्फ तीन हजार प्रतिभागियों ने हिस्सा लिया था और 1970 में यह संख्या बढ़कर ग्यारह हजार हुई थी. 1979 में कोठारी समिति के सुझाव लागू हुए जिसने संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल सभी भाषाओं में परीक्षा देने की संस्तुति की थी. इससे देश के दूर दराज के गाँवों में दबी प्रतिभाओं को भी अपनी भाषा में परीक्षा देने के अवसर उपलब्ध हए. परिणाम यह हुआ कि 1979 में परीक्षा देने वालों की संख्या एकाएक बढ़कर एक लाख दस हजार हो गई. अब हर साल गाँवों के गरीबों के बच्चों की भी एकाध तस्वीरें अखबारों में अवश्य देखने को मिल जाती थीं जिनका चयन इस प्रतिष्ठित सेवा में हो जाता था. शीर्ष पर बैठे हमारे नीति नियामकों को यह बर्दाश्त नहीं हुआ. उन्होंने 2011 में वैकल्पिक विषय को हटाकर उसकी जगह 200 अंकों का सीसैट ( सिविल सर्विस एप्टीट्यूट टेस्ट) लागू किया जिसमें मुख्य जोर अंग्रेजी पर था. इससे हिन्दी माध्यम वाले परीक्षार्थियों की संख्या तेजी से घटी. इसका राष्ट्र व्यापी विरोध हुआ. दिल्ली हाईकोर्ट ने भी आन्दोलनकारियों के पक्ष में अपेक्षित निर्देश दिए, तब जाकर 2014 में आयोग ने कुछ बदलाव किए. किन्तु इसके बाद धीरे- धीरे आयोग ने सीसैट सहित यूपीएससी परीक्षा के नियमों में दूसरे अनेक ऐसे परिवर्तन किए जिससे हिन्दी माध्यम के अभ्यर्थियों के लिए प्रारंभिक परीक्षा पास करना भी कठिन होता गया. 2009 में हिन्दी माध्यम से जहाँ 25.4 प्रतिशत परीक्षार्थी सफल हुए थे वहाँ 2019 में यह संख्या घटकर मात्र 3 प्रतिशत रह गई. पहले जहाँ टॉप टेन सफल अभ्यर्थियों में तीन-चार हिन्दी माध्यम वाले अवश्य रहते थे वहाँ 2019 में चयनित कुल 829 अभ्यर्थियों में हिन्दी माध्यम वाले चयनित अभ्यर्थियों में पहले अभ्यर्थी का स्थान 317वाँ है.
तीन स्तरों पर होने वाली संघ लोक सेवा आयोग की इस सर्वाधिक प्रतिष्ठित परीक्षा में हिन्दी माध्यम वालों को अमूमन प्रारंभिक परीक्षा में ही छाँट दिया जाता है. मुख्य परीक्षा की तैयारी के लिए भी न तो उन्हें स्तरीय पाठ्य-सामग्री सुलभ है और न बेहतर कोचिंग की सुविधा क्योंकि आर्थिक दृष्टि से भी वे कमजोर होते हैं. ग्रामीण पृष्ठभूमि के ऐसे अभ्यर्थी ज्यादातर मानविकी के विषय चुनते हैं. तकनीकी विषय चुनने वाले अभ्यर्थियों की तुलना में स्वाभाविक रूप से उन्हें कम अंक मिलते हैं. साक्षात्कार में भी हिन्दी माध्यम वालों के साथ भेदभाव किया जाता है. साक्षात्कार के समय अमूमन उनसे पूछा जाता है कि वे हिन्दी में साक्षात्कार देंगे या अंग्रेजी में, जबकि वे अपने आवेदन पत्र में पहले ही हिन्दी माध्यम का विकल्प चुनकर उन्हें अवगत करा चुके होते हैं. हिन्दी माध्यम वाले अभ्यर्थियों को मिलने वाले प्रश्नों के हिन्दी अनुवाद देखकर तो कोई भी समझदार व्यक्ति सिर पीट लेगा. कुछ बानगी आप भी देखिए,
“भारत में संविधान के संदर्भ में, सामान्य विधियों में अंतर्विस्ट प्रतिषेध अथवा निर्बंधन अथवा उपबंध अनुच्छेद-142 के अधीन सांविधानिक शक्तियों पर प्रतिरोध अथवा निर्बंधन की तरह कार्य नहीं कर सकते.”
एक दूसरा वाक्य है, “वार्महोल से होते हुए अंतरा-मंदाकिनीय अंतरिक्ष यात्रा की संभावना की पुष्टि हुई.” ( डॉ. विजय अग्रवाल द्वारा उद्धृत)
प्रश्न निर्माताओं ने सर्जिकल स्ट्राइक के लिए ‘शल्यक प्रहार’, डिजिटलीकरण के लिए ‘अंकीयकृत’, साइंटिस्ट आब्जर्ब्ड के लिए ‘वैज्ञानिकों ने प्रेक्षण किया’, स्टील प्लांट के लिए ‘इस्पात का पौधा’, डेलिवरी के लिए ‘परिदान’, सिविल डिसओबिडिएंस मूवमेंट के लिए ‘असहयोग आन्दोलन’ आदि किया है. इनमें डेलिवरी के लिए ‘वितरण’ तथा डिसओबिडिएँस मूवमेंट के लिए ‘सविनय अवज्ञा आन्दोलन’ तो बेहद प्रचलित शब्द हैं. इन्हें भी गलत लिखना प्रमाणित करता है कि हिन्दी अनुवाद को गंभीरता से नहीं लिया जाता.
अमूमन सहज ही कह दिया जाता है कि जिन्हें हिन्दी अनुवाद समझ में नहीं आता है उनके लिए मूल अंग्रेजी तो रहता ही है. किन्तु यहाँ समझने की बात यह है कि यूपीएससी की प्रारंभिक परीक्षा में छ: से सात लाख परीक्षार्थी शामिल होते हैं और उनमें से लगभग तेरह प्रतिशत परीक्षार्थी ही मुख्य परीक्षा के लिए अपनी अर्हता प्रमाणित कर पाते हैं. ऐसी दशा में 0.01 प्रतिशत अंक का भी महत्व होता है. परीक्षार्थियों को निर्धारित समय सीमा के भीतर ही लिखना होता है. ऐसी दशा में हिन्दी माध्यम का परीक्षार्थी यदि प्रश्न को समझने के लिए अंग्रेजी मूल भी देखने लगा और ऐसे पाँच प्रश्न भी पढ़ने पड़े तो उसका पिछड़ना तय है. किन्तु प्रतिवर्ष औसतन ऐसे दस प्रश्न अवश्य होते हैं. यही कारण है कि हिन्दी माध्यम वाले परीक्षार्थी आम तौर पर प्रारंभिक परीक्षा में ही बाहर हो जाते हैं.
प्रश्न यह है कि देश के लोक सेवकों को कितनी अंग्रेजी चाहिए ? उन्हें इस देश के लोक से संपर्क करने के लिए हिन्दी सीखनी जरूरी है या अंग्रेजी ? उन्हें जनता के सामने अंग्रेजी झाड़कर उनपर रोब जमाना है या उन्हें समझा बुझाकर उनसे आत्मीय संबंध जोड़ना और उनकी सेवा करना ? उनके साक्षात्कार अंग्रेजी माध्यम से क्यों लिए जाते हैं ? क्या उन्हें इंग्लैंड में सेवा देनी है ? इस देश के सबसे बड़े पद तो राष्ट्रपति, प्रधान मंत्री और गृहमंत्री के है. इन पदों पर बैठे लोगों का काम तो हिन्दी और गुजराती बोलने से चल जाता है और इस देश की जनता बार- बार उन्हें वोट देकर उनके कुशल प्रशासन पर अपनी स्वीकृति की मुहर भी लगा देती है. हिन्दी माध्यम के अपने बैच के टापर निशांत जैन ने अपना अनुभव बाँटते हुए कहा है कि हिन्दी माध्यम वाले आईएएस अधिकारी अंग्रेजी माध्यम वालों की तुलना में जनता के प्रति अधिक संवेदनशील देखे गए हैं. ऐसे लोक सेवकों को लोक सेवा का अधिकार क्यों मिलना चाहिए जो लोक की भाषा में बोल पाने में भी अक्षम हों ?
न्याय के क्षेत्र की दशा यह है कि आज हमारे देश में सुप्रीम कोर्ट से लेकर 25 में से 21 हाई कोर्टों में हिन्दी सहित किसी भी भारतीय भाषा का प्रयोग नहीं होता है. मुवक्किल को पता ही नहीं होता कि वकील और जज उसके केस के बारे में क्या सवाल- जवाब कर रहे हैं. उसे अपने बारे में मिले फैसले को समझने के लिए भी वकील के पास जाना पड़ता है और उसके लिए भी उसे पैसे देने पड़ते हैं.
सरकारी नौकरियों, प्रशासन और न्याय व्यवस्था में अंग्रेजी के वर्चस्व के लिए क्या जनता जिम्मेदार है या सरकार और उसकी नीतियाँ ? आज जब शिक्षा को व्यापार और मुनाफे के लिए ज्यादातर निजी क्षेत्र के हवाले कर दिया गया है, देश की अधिकाँश राज्य सरकारों ने सरकारी विद्यालयों को भी अंग्रेजी माध्यम में बदल दिया है और हमारे नौनिहालों से उनकी मातृभाषाएँ क्रूरतापूर्वक छीन ली हैं. केन्द्रीय विद्यालयों और नवोदय विद्यालयों में भी ऐसी व्यवस्था कर दी गई है कि बच्चों की हिन्दी आठवीं -नवीं के बाद ही छूट जाती है. उनके तर्क हैं कि अभिभावकों की यही माँग है. प्रश्न यह है कि जब अफसर से लेकर चपरासी तक की सभी नौकरियाँ अंग्रेजी के बलपर ही मिलेंगी तो कोई अपने बच्चे को हिन्दी पढ़ाने की मूर्खता कैसे करेगा ? निस्संदेह हिन्दी पढ़ने से नौकरी मिलने लगे तो लोग हिन्दी पढ़ाएँगे. यूपी बोर्ड में आठ लाख बच्चों के फेल होने की खबर तो सुर्खियों में थी और सारा दोष शिक्षकों पर डाला जा रहा था किन्तु इस ओर ध्यान नहीं था कि अंग्रेजी की शब्दावली और व्याकरण रटने में ही जब बच्चों का सारा समय चला जाएगा तो अपने घर की भाषा हिन्दी पढ़ने के लिए वे कैसे समय निकाल पाएँगे ? अब तो लोग अंग्रेजी को एक भाषा नहीं बल्कि ज्ञान का पर्याय मानने लगे हैं.
इस देश में तकनीकी, मेडिकल, मैनेजमेंट, कानून आदि की शिक्षा तो अंग्रेजी माध्यम से होती ही है राजधानी के विश्वविद्यालयों में मानविकी और सामाजिक विज्ञान की शिक्षा भी अंग्रेजी माध्यम से होने लगी है जबकि पढ़ाने वाले अध्यापक ज्यादातर हिन्दी पट्टी के ही हैं. इन सबके पीछे अंग्रेजी का दिनोंदिन बढ़ता रुतबा है जिसके लिए सिर्फ सरकारें जिम्मेदार हैं.
हाल ही में प्रकाशित अपनी पुस्तक “द इंग्लिश मीडियम मिथ” में संक्रान्त सानु ने प्रति व्यक्ति सकल राष्ट्रीय उत्पाद के आधार पर दुनिया के सबसे अमीर और सबसे गरीब, बीस -बीस देशों की सूची दी है. बीस सबसे अमीर देशों के नाम हैं, क्रमश: स्विट्जरलैंड, डेनमार्क, जापान, अमेरिका, स्वीडेन, जर्मनी, आस्ट्रिया, नीदरलैंड, फिनलैंड, बेल्जियम, फ्रांस, ब्रिटेन, आस्ट्रेलिया, इटली, कनाडा, इजराइल, स्पेन, ग्रीस, पुर्तगाल और साउथ कोरिया. इन सभी देशों में उन देशों की जनभाषा ही सरकारी कामकाज की भी भाषा है और शिक्षा के माध्यम की भी.
इसके साथ ही उन्होंने दुनिया के सबसे गरीब बीस देशों की भी सूची दी है. इस सूची में शामिल हैं क्रमश: कांगो, इथियोपिया, बुरुंडी, सीरा लियोन, मालावी, निगेर, चाड, मोजाम्बीक, नेपाल, माली, बुरुकिना फैसो, रवान्डा, मेडागास्कर, कंबोडिया, तंजानिया, नाइजीरिया, अंगोला, लाओस, टोगो और उगान्डा. इनमें से सिर्फ एक देश नेपाल है जहां जनभाषा, शिक्षा के माध्यम की भाषा और सरकारी कामकाज की भाषा एक ही है नेपाली. बाकी उन्नीस देशों में राजकाज की भाषा और शिक्षा के माध्यम की भाषा भारत की तरह जनता की भाषा से भिन्न कोई न कोई विदेशी भाषा है. ( द्रष्टव्य, द इंग्लिश मीडियम मिथ, पृष्ठ-12-13) इस उदाहरण से आसानी से समझा जा सकता है कि अंग्रेजी माध्यम हमारे देश के विकास में कितनी बड़ी बाधा है.
वास्तव में व्यक्ति चाहे जितनी भी भाषाएँ सीख ले किन्तु वह सोचता अपनी भाषा में ही है. हमारे बच्चे दूसरे की भाषा में पढ़ते हैं फिर उसे अपनी भाषा में सोचने के लिए अनूदित करते हैं और लिखने के लिए फिर उन्हें दूसरे की भाषा में ट्रांसलेट करना पड़ता है. इस तरह हमारे बच्चों के जीवन का एक बड़ा हिस्सा दूसरे की भाषा सीखने में चला जाता है. इसीलिए मौलिक चिन्तन नहीं हो पाता. मौलिक चिन्तन सिर्फ अपनी भाषा में ही हो सकता है. पराई भाषा में हम सिर्फ नकलची पैदा कर सकते हैं. अंग्रेजी माध्यम वाली शिक्षा सिर्फ नकलची पैदा कर रही है.
हमें स्मरण रखना चाहिए कि हम अपने जिस अतीत पर मुग्ध हैं उस अतीत की सारी उपलब्धियाँ अपनी भाषाओं में अध्ययन करने का परिणाम थीं. और आज भी यदि कुछ मौलिक अर्जित करना है तो अपनी भाषाओं को अपनाना ही पड़ेगा.
आज भी इस देश की सत्तर प्रतिशत जनता गावों में ही रहती है. उनकी शिक्षा ग्रामीण परिवेश की शिक्षण संस्थाओं में ही होती है. गाँवो की इन प्रतिभाओं को यदि मुख्य धारा में लाना है तो उन्हें उनकी अपनी भाषाओं में शिक्षा देना एकमात्र रास्ता है और यही हमारे संविधान का भी संकल्प है. हमारा संविधान, देश के प्रत्येक नागरिक को अवसर की समानता का अधिकार देता है.
अंत में मैं जोर देकर कहना चाहूँगा कि अंग्रेजी इस देश में सिर्फ एक विषय के रूप में पढ़ाई जानी चाहिए माध्यम के रूप में नहीं. माध्यम के रूप में किसी भी स्तर पर नहीं. इसके साथ ही नौकरियों में अंग्रेजी की जगह हमारी मातृभाषाओं को वरीयता मिलनी चाहिए.
मनमोहन कुमार आर्य गुरुकुल शिक्षा प्रणाली विश्व की सबसे प्राचीन शिक्षा प्रणाली है। महाभारत के समय तक इसी प्रणाली से लोग विद्याध्ययन करते थे। इसी शिक्षा पद्धति का अनुसरण कर हमें ऋषि, मुनि, योगी, धर्म प्रचारक, विद्वान, आचार्य, उच्च कोटि के ब्रह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूरवीर आदि मिला करते थे। महाभारत युद्ध के कुछ वर्षों बाद वैदिक धर्म का प्रचार व प्रसार अवरुद्ध हो गया था। ऋषि परम्परा भी अवरुद्ध हो गई थी। गुरुकुलों का संचालन व अध्ययन अध्यापन भी बाधित हुआ था। इसी कारण से संसार में अज्ञान फैला और इससे अन्धविश्वास एवं सामाजिक कुरीतियों ने जन्म लिया था। समय बीतने के साथ अज्ञान, अन्धविश्वासों, पाखण्डों तथा सामाजिक कुरीतियों में वृद्धि हुई थी। इन्हीं के कारण हमारा धार्मिक एवं सामाजिक पतन होने के साथ हम गुलाम भी हुए थे। महाभारत के बाद यदि वैदिक धर्म व संस्कृति का प्रचार व प्रसार पूर्ववत् होता रहता तो हमारे गुरुकुल भी स्थापित व संचालित रहते और उस स्थिति में देश देशान्तर में अज्ञान व अन्धविश्वासों की वृद्धि न होने से देश देशान्तर में अवैदिक मत उत्पन्न न होते और पूरा विश्व वैदिक संस्कृति के वाक्य ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ के आदर्श को सिद्ध करने वाला होता।
मनुष्य की उन्नति ज्ञान तथा शारीरिक बल की प्राप्ति व वृद्धि से मुख्यतः होती है। अज्ञान ही मनुष्य की उन्नति में सबसे बाधक कारक होता है। अतः मनुष्य को सद्ज्ञान प्राप्त करने तथा शारीरिक उन्नति पर विशेष ध्यान देना चाहिये। इन दोनों लक्ष्यों की पूर्ति हमारे प्राचीन गुरुकुलों से होती थी और वर्तमान गुरुकुल भी इन लक्ष्यों को प्राप्त कराने में समर्थ हैं। हम जब ज्ञान शब्द पर विचार करते हैं तो इसमें सभी प्रकार का ज्ञान सम्मिलित होता है। भौतिक पदार्थों के ज्ञान सहित सामाजिक ज्ञान भी मनुष्य की उन्नति में आवश्यक होता है। इन दोनों प्रकार के ज्ञान के अतिरिक्त मनुष्य को इस संसार की रचना करने व पालन करने वाली शक्ति ईश्वर सहित शरीर आत्मा व इनके गुण, कर्म व स्वभाव का भी यथोचित ज्ञान होना चाहिये। मनुष्य को ईश्वर, देश व समाज सहित अपने परिवार के प्रति कर्तव्यों का भी उचित ज्ञान होना चाहिये। आजकल इस ज्ञान की कमी सर्वत्र अनुभव की जाती है। बड़े बड़े विद्वान कहलाने वाले व्यक्ति भी ईश्वर व आत्मा सहित मनुष्यों के कर्तव्यों तथा सामजिक ज्ञान विज्ञान से न्यून व हीन देखे जाते हैं। इस ज्ञान की पूर्ति ही वेद एवं वैदिक साहित्य सहित हमारे गुरुकुल किया करते थे और अब भी कर रहे हैं। वैदिक धर्म एवं संस्कृति के प्रचार व रक्षा के लिए ही प्राचीन काल में गुरुकुल शिक्षा प्रणाली का विकास हुआ था। यही गुरुकुलीय शिक्षा प्रणाली प्राचीन काल से प्रचलित रही और आज भी यह प्रासंगिक एवं सार्थक है और आज भी यह शिक्षा प्रणाली हमें वैदिक विद्वान, पुरोहित, आचार्य, उपदेशक, पत्रकार, शासकीय अधिकारियों सहित समाज के लिए आवश्यक सभी प्रकार के योग्य युवा प्रदान कर रही है। यह सुनिश्चित है कि वेद एवं वैदिक धर्म व संस्कृति की रक्षा हो सकती है तो वह गुरुकुलों सहित वेद प्रचार तथा सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों की शिक्षा आदि के प्रचार से ही हो सकती है।
गुरुकुलों का मुख्य उद्देश्य संस्कृत भाषा तथा इसके व्याकरण सहित वेद एवं वैदिक साहित्य का उच्चस्तरीय अध्ययन कराना होता है। वेदों के अध्ययन से ही मनुष्य के जीवन व व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास व उन्नति होती है। वेदों के अध्ययन से ही मनुष्य को ईश्वर, जीव तथा प्रकृति के सत्यस्वरूप तथा इनके गुण, कर्म व स्वभावों का यथार्थ व सत्य सत्य बोध होता है। महर्षि मनु ने वेदों को धर्म का मूल कहा है। धर्म कर्तव्यों के ज्ञान व पालन को कहते हैं। बिना वेदों के मनुष्य को अपने सभी कर्तव्यों का सम्यक् बोध प्राप्त नहीं होता। मनुष्य जीवन का क्या उद्देश्य है, इसका ज्ञान भी वेदों के अध्ययन व पालन से ही होता है। वेदों के अनुसार मनुष्य का आत्मा अनादि, नित्य, अनुत्पन्न, अविनाशी, अल्पज्ञ, एकदेशी, ससीम, अल्पशक्ति, कर्मों का कर्ता तथा अपने किये हुए कर्मों के फलों का भोक्ता होता है। मनुष्य जो कर्म करता है उसका कुछ भोग इस जन्म में व शेष बचे हुए कर्मों का भोग इस जन्म के बाद दूसरे जन्म व उनके बाद के जन्मों में होता है। कर्मों के फल भोगने के लिए ही मनुष्य का जन्म होता है। इसी कारण से अनादि काल से जीवात्मा के निरन्तर जन्म होते आ रहे हैं। अनन्त काल तक इसी प्रकार से सृष्टि की रचना, पालन व प्रलय होती रहेगी तथा प्रत्येक कल्प व सृष्टि में जीवात्मायें वा मनुष्य आदि प्राणी अपने पूर्वजन्मों के कर्मों के अनुसार कर्मों के फल भोगने के लिए ईश्वर की व्यवस्था से जन्म लेते रहेंगे।
हमारा यह जन्म भी हमारे पूर्वजन्म के कर्मों का फल भोगने एवं नये कर्मों को करने के लिए हुआ है। मृत्यु के बाद हमारा पुनर्जन्म होना सुनिश्चित है। इस विषय को वेद सहित उपनिषद, दर्शन, गीता, सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों में भी बताया व समझाया गया है। संसार में ऐसे अनेक मत हैं जो पूर्वजन्म व पुनर्जन्म को न तो जानते हैं और न ही मानते हैं। इस कारण से वह अपने पुनर्जन्म व परजन्म को सुन्दर व श्रेष्ठ, सुखी व कल्याणप्रद बनाने के लिए प्रयत्न भी नहीं करते। वेद एवं वैदिक धर्म हमें बताते हैं कि जन्म के बाद मृत्यु और मृत्यु के बाद जन्म का होना निश्चित है। हम चाहें तो इस जन्म में शुभ कर्मों को अधिक मात्रा में करके और अशुभ व पाप कर्मों का त्याग कर अपने परजन्म को सुखी, कल्याणकारी, उत्तम व श्रेष्ठ बना सकते हैं। इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए ही वेद एवं वैदिक साहित्य में नित्य प्रति पंचमहायज्ञों व मनुष्य के पांच कर्तव्यों के पालन का विधान किया गया है। इन पंचमहायज्ञों तथा त्यागपूर्ण वैदिक जीवन व्यतीत करने से मनुष्य धर्म, अर्थ, काम सहित मोक्ष सुख को भी प्राप्त होता है। मोक्ष अवस्था प्राप्त होने पर सभी योनियों में जन्म-मरण होने पर जिन दुःखों से जीवात्मा को गुजरना पड़ता है, उससे मुक्ति वा सर्वथा निवृत्ति हो जाती है। जीवात्मा के सभी क्लेश नष्ट हो जाते हैं। इस तथ्य व रहस्य को जानने के कारण ही हमारे प्राचीन पूर्वज व विद्वान वेदानुकूल जीवन व्यतीत करते थे और पंचमहायज्ञों का पालन किया करते थे। इसी कारण से ऋषि दयानन्द ने जहां ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, ऋग्वेद तथा यजुर्वेद भाष्य, सत्यार्थप्रकाश, आर्याभिविनय, संस्कारविधि आदि ग्रन्थों की रचना की, वहीं पंचमहायज्ञविधि ग्रन्थ की भी रचना की थी जिससे पंचमहायज्ञ करने के कारणों, प्रमाणों एवं विधि का ज्ञान भी होता है। मोक्ष प्राप्ति के लिए प्रयत्न करना मनुष्य का शाश्वत् व सनातन लक्ष्य रहा है और अनन्त काल तक जीवात्मा का यही प्रमुख लक्ष्य बना रहेगा। अतः सभी मनुष्यों को यथासम्भव इस लक्ष्य की प्राप्ति के विषय में सत्यार्थप्रकाश का नवम समुल्लास पढ़कर अपना ज्ञान बढ़ाना चाहिये और मुक्ति प्राप्ति के लिये जो कर्म, आचरण व अनुष्ठान किये जाते हैं उन्हें करने का प्रयत्न भी करना चाहिये।
वेद सृष्टिकाल के आरंभ में परमात्मा से प्रदत्त ज्ञान है जिससे मनुष्य की इहलौकिक एवं पारलौकिक उन्नति होती है। वेदों जैसा ज्ञान संसार में कहीं नहीं है। बिना वेदज्ञान के मनुष्य जीवन का उद्देश्य व लक्ष्य समझ में नहीं आता। वेद परमात्मा की वाणी है और यह संस्कृत भाषा में है। इस भाषा और वेदों के ज्ञान का अध्ययन ही हमारे गुरुकुलों में कराया जाता है। इस ज्ञान को प्राप्त होकर मनुष्य को इस संसार के प्रायः सभी रहस्यों का यथार्थ बोध होता है। सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ को पढ़कर भी हमें वेद तथा संसार के रहस्यों का यथार्थ बोध होता है। जो मनुष्य गुरुकुलों में नहीं पढ़े और वैदिक संस्कृत वा आर्ष व्याकरण को नहीं जानते, उनके लिए सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ अमृत के तुल्य है। सत्यार्थप्रकाश को पढ़कर मनुष्य अपने जीवन को वेदमार्ग पर चलाते हुए धर्मपथ, कर्तव्यपथ तथा मोक्षपथ पर आगे बढ़ सकते हैं। इसी वेदज्ञान को गुरुकुलों में आचार्यों से विधिवत् व उनके श्रीमुख से पढ़कर वेदों का सूक्ष्मता से ज्ञान होता है और ऐसा विद्वान वेद व वैदिक साहित्य के मर्म को जान सकता है। गुरुकुलों के हमारे ब्रह्मचारी व विद्वान हमारी धर्म व संस्कृति के रक्षक होते हैं। वह वेदाचरण कर वेदों का संदेश जन साधारण में प्रचारित व प्रसारित करते थे। वैदिक धर्म के प्रचार व प्रसार सहित धर्मरक्षा के कार्यों में हमारे गुरुकुलों व यहां अध्ययन करने वाले ब्रह्मचारियों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। हम सबको गुरुकुलों के संचालन, संवर्धन सहित गुरुकुलों के कार्यों में यथाशक्ति सहयोग करना चाहिये जिससे हमारे यह गुरुकुल अपने उद्देश्य को पूरा कर सकें। वैदिक धर्म एवं संस्कृति की रक्षा हो सके। वैदिक धर्म के महत्व का सन्देश पूरे संसार में फैल जाये और अविद्यायुक्त मत-मतान्तर संसार से सूर्योदय पर अन्धकार की निवृत्ति के समान दूर व समाप्त हो जायें। हमारे गुरुकुलों का संचालन करने वाले संन्यासी, आचार्य, सभी सहयोगियों व ब्रह्मचारियों को भी हम अपनी ओर से धन्यवाद एवं शुभकामनायें देते हैं व सबको नमन करते हैं। हमें यह स्मरण रखना चाहिये कि यदि गुरुकुल होंगे तो इन गुरुकुलों में भविष्य में ऋषि, मुनि, योगी, वेदाचार्य, राम, कृष्ण, शंकर तथा दयानन्द जैसे ऋषि व महापुरुष उत्पन्न हो सकते हैं। ईश्वर हमारे गुरुकुलों को सुव्यवस्थित करने में सहयोग करें और इनसे अतीत की भांति वेद रक्षा व धर्म रक्षा यथावत् होती रहे। ओ३म् शम्।
—विनय कुमार विनायक ‘सर’ संबोधन का ये रिवाज मिटाना होगा, विदेशी गुलामी से हमें निजात पानी होगी, देशी संबोधनों को अब हमें अपनाना होगा!
‘सर’ में बड़ा अहं है, अधिकार का वहम है, ‘सर’ संबोधन में सेवा भावना बहुत कम है, तनिक नहीं रहम,’सर’ अंग्रेजों सा बेरहम है!
सर में डर है,डरा-डरा देश का हर जन है, सर बोलनेवाले दीन,हीन,लाचार दीखते हैं, मगर सुननेवाले में अहंकार तो भरदम है!
‘सर’ ‘टर’ से बने सारे शब्दों में सदाचार नहीं है, जैसे अफसर, इंस्पेक्टर में भ्रष्टाचार अमूमन है!
अंग्रेजी के पदनाम ‘सर’,’जर’, ‘टर’, ‘यर’ लगाकर, जो बने, बदनाम अधिक, जिम्मेदार कम लगते हैं!
सर और नाइटहुड भी कुछ भारतीय बने थे, अंग्रेजों से मिले, ये गुलामी के बड़े तमगे थे!
गोरों के जलियांवालाबाग नरसंहार से वे सहमे थे, नाइटहुड की सर उपाधि लौटाने वाले लोग भले थे!
पर ये ‘सर’ हमारे घर बैठे हैं ‘सर जी’ बनकर, आगे सर, पीछे सर, बीच में सर, सर! सर! सर! ये ‘सर’ ही आज का काला देशी अंग्रेज अफसर है!
सर! सर! सर! की गुलामी करना छोड़ो, देश धर्म संस्कृति से अब तो नाता जोड़ो, मानव को मानव समझो, सर से मुंह मोड़ो!
सर से अच्छा संबोधन है, श्री मान, महोदय,महाशय, जिसमें श्री है, मन है, सहृदय भी दोनों का संभाषण है, इन संबोधनों में मान व सम्मान कहां किसी को कम है?
छोटे और बड़े में भगवान तो आखिर होता सम है! इन देशी पदनाम में अहं-वहम-सहम नहीं, अपनापन है!
सर को छोड़ो,वर लगाकर आत्मीय रिश्ता जोड़ो, बहुत सारे संबोधन है अपनी भाषा और संभाषण में, अगर सदाचार से नाता निभाना, भ्रष्टाचार को मिटाना है, तो आक्रांताओं,अताताईयों की उपाधि,पदवी,संबोधन को छोड़ो!
कहो प्रियवर,बंधुवर, मित्रवर, मान्यवर, गुरुवर,आर्यवर, मुक्ति मिलेगी सर, अफसर से, भागेगा गुलामी का डर!
जैसा संबोधन होगा,वैसी मानवता का बंधन होगा, वसुधैव कुटुंबकम् होगा, यहां नहीं कोई दुश्मन होगा!
शिक्षक तो गुरुवर हैं,होते माता-पिता के समकक्ष, माता-पिता गुरुजन, कभी सर, मास्टर, होते नहीं!
अंग्रेजी सर-मास्टर का अर्थ खुद मालिक,शेष नौकर, अक्षर है नाद ब्रह्म, अजर-अमर होता है हर अक्षर!
सदियों से गूंज रहा हर अक्षर आकाशवाणी बनकर, हर नाम जीवंत होगा मन में, देख जरा उच्चारण कर!
शब्द में शक्ति होती, शब्द से भक्ति, आशक्ति होती, शब्द अगर सात्त्विक होगा, परिणाम भी तो तात्विक होगा, पुकारोगे यदि रावण रुदन होगा, फिर राम का कहां रमन होगा?
-मनमोहन कुमार आर्य वैदिक धर्म एवं संस्कृति में यज्ञ का प्रमुख स्थान है। यज्ञ किसी भी पवित्र व श्रेष्ठ कार्य करने को कहा जाता है। मनुष्य जो शुभ कर्म करता है वह सब भी यज्ञीय कार्य होते हैं। माता पिता व आचार्यों सहित अपने परिवार की सेवा व पालन पोषण करना मनुष्य का कर्तव्य होता है। यह कार्य भी पितृयज्ञ के अन्तर्गत समाहित होते हैं और इस कर्तव्य का पालन भी यज्ञ ही माना जाता है। सन्ध्या, पितृ, अतिथि व बलिवैश्वदेव यज्ञ भी मनुष्य के पांच प्रमुख कर्तव्यों के अन्तर्गत आते हैं और इन सबको भी यज्ञ कह कर सम्बोधित किया जाता है। इन पांच यज्ञों में एक महत्वपूर्ण यज्ञ देवयज्ञ अग्निहोत्र होता है। देव दिव्य गुणों से युक्त चेतन मनुष्य आदि प्राणियों, विद्वानों, आचार्यों व जड़ पदार्थों को कहते हैं। इन सभी देवों के प्रति अपने कर्तव्यों को जानना व उनको पूरा करना देवयज्ञ कहलाता है। जड़ देवों में पृथिवी तथा वायु का महत्वपूर्ण स्थान है। मनुष्य श्वास लेता व छोड़ता है। श्वास में वह शुद्ध वायु का ग्रहण तथा दूषित वायु का त्याग करता है। यदि मनुष्य को वायु न मिले तो उसका कुछ मिनट भी जीवित रहना सम्भव नहीं होता। इस दृष्टि से मनुष्य के जीवन में वायु का महत्व सर्वाधिक होता है। वायु जितना शुद्ध व पवित्र होता है उतना ही मनुष्य का जीवन स्वस्थ रहता तथा वह सुखों की अनुभूति करता है।
हमारा यह प्राण वायु अनेक कारणों से निरन्तर दूषित होता रहता है। हम जो श्वास छोड़ते हैं उसमें हम नासिका से कार्बन डाइआक्साइड छोड़ते जबकि हमें श्वास के लिए आक्सीजन वायु की आवश्यकता होती है। शुद्ध आक्सीजन से हमें लाभ होता है। अतः हमें वायु में आक्सीजन की मात्रा बढ़ाने व वायु से दुर्गन्ध दूर करने के उपाय करने चाहिये। ऐसा करने से हम स्वस्थ व निरोग रह सकते हैं और अपने अन्य सभी कर्तव्यों का पालन भली प्रकार से कर सकते हैं। हमारा प्राण वायु हमारे श्वास छोड़ने सहित अनेक अन्य कारणों से भी दूषित होता है। घर में अग्नि जलाकर भोजन पकाया जाता है। इस अग्नि के सम्पर्क में आकर भी वायु का आक्सीजन कार्बन डाइ-आक्साईड में बदल जाता है। वस्त्र धोने, मल मूत्र के त्याग व इसके सम्पर्क में आने से भी वायु प्रदूषित व विकृत होता है। उद्योगों एवं वाहनों से भी वायु प्रदुषण बड़ी मात्रा में होता है। इन सब प्रकार से जो वायु प्रदुष्ाित होता है उसको शुद्ध, पवित्र व सुगन्धित करने का वैदिक साधन देवयज्ञ अग्निहोत्र करना होता है जिसमें हम सुगन्धित गोघृत, ओषधियों तथा गुणकारी वनस्पतियों सहित मिष्ट व पुष्टिकारक पदार्थों की आहुतियां देते हैं। अग्नि में डाली गई हमारी आहुतियां सूक्ष्म होकर वायुमण्डल व आकाश मैं फैल जाती है। अग्निहोत्र यज्ञ की सुगन्धित वायु के सम्पर्क में जो वायु आती है उसकी दुर्गन्ध तथा अपवित्रता का नाश यज्ञ की वायु करती है। घरों में यज्ञ करने से गृहस्थ वा घर का वायु अग्नि के सम्पर्क से हल्का होकर बाहर निकल जाता है और बाहर का शुद्ध वायु घर में प्रविष्ट होता है। इससे हमारी श्वास प्रक्रिया भलीप्रकार चलती है और हम अनेक विकारों व रोगों से बच जाते हैं। बाहर का वायु भी यज्ञ से शुद्ध होती है जिससे उस वायु में श्वास आदि लेने वाले अनेक प्राणी लाभान्वित होते हैं और इस शुभ कर्म का फल परमात्मा यज्ञकर्ता को जन्म व जन्मान्तर में सुख व जीवन की उन्नति के रूप में देते हैं। अतः यज्ञ का करना प्रत्येक मनुष्य का प्रमुख एवं दैनिक कर्तव्य सिद्ध होता है। इसी कारण से वेदों में भी नित्य प्रति यज्ञ करने की आज्ञा है और प्राचीन काल से हमारे ऋषियों ने वेदाज्ञा को शिरोधार्य कर देवयज्ञ प्रतिदिन प्रातः व सायं करने का विधान किया था जिससे सभी लोग प्रदुषण मुक्त वातावरण मे जीवन व्यक्ति करते हुए सुखों का अनुभव करते थे, स्वस्थ रहते थे एवं दीघार्यु हुआ करते थे।
हम जो दैनिक यज्ञ करते हैं वह विधि विधानपूर्वक होता है। यज्ञ में आचमन, इन्द्रिय स्पर्श, ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना तथा यज्ञों में नाना प्रकार की आहुतियों का विनियोग व प्रावधान होता है। इन सब क्रियाओं के भी अपने अपने लाभ होते हैं। आचमन करते हुए हम मन्त्र का उच्चारण कर कहते हैं कि परमात्मा जगत का आधार है। वह जगत का पालक तथा धारण करने वाला है। वह परमात्मा जल के आचमन से हमारा कल्याण करें अर्थात् जल के सेवन से हम स्वस्थ एवं सुखी रहें। आचमन के मन्त्र में यह भी प्रार्थना की जाती है कि जगदीश्वर हमें सत्यनिष्ठा, सुयश, श्री, धनसम्पत्ति एवं ऐश्वर्य आदि प्रदान करे। जल से इन्द्रिय स्पर्श करते हुए हम परमात्मा से इन्द्रियों के सदुपयोग की प्रार्थना करने के साथ उनके सुदृण, बलवान एवं उनमें विकृतियां न आने की प्रार्थना करते हैं। प्रार्थना का भाव होता है कि ईश्वर की कृपा से हमारे शरीर के सब अंग स्वस्थ, सबल एवं संयमी हों और सम्पूर्ण शरीर का भरपूर विकास व उन्नति हो। इसके बाद स्तुति प्रार्थना व उपासना के मन्त्रों से ईश्वर की उपासना की जाती है। इन मन्त्रों में जो स्तुति व प्रार्थनायें हम करते हैं उसका प्रभाव हमारी आत्मा व मन पर पड़ता है। उसके अनुरूप ही हमारा जीवन निर्माण होता है। इसी प्रकार से यज्ञ में जो भी क्रियायें व आहुतियां दी जाती हैं उन सबका प्रभाव व लाभ हमारे जीवन पर होता है। यज्ञ से वायु की शुद्धि, रोग निविृत्ति, स्वास्थ्य लाभ सहित स्तुति व प्रार्थना से होने वाले लाभ यज्ञ करने वाले मनुष्य को प्राप्त होते हैं। उपासना से ईश्वर से मेल व मित्रता सहित आत्मबल व दुःख सहन करने की शक्ति का विकास होता है। अतः यज्ञ करना मनुष्य जीवन में लाभकारी होता है। इससे मनुष्य दुःखों व विघ्नों से दूर होकर सुख व शान्ति का लाभ करते हैं।
मनुष्य जीवन में दुःख व सुख प्रायः आते व जाते रहते हैं। हम दुःखों से बचना तथा सुखों में वृद्धि करना चाहते हैं। ईश्वर की स्तुति व प्रार्थना के मन्त्र ‘विश्वानि देव’ में भी हम दुरितों को दूर करने तथा भद्र की प्राप्ति की प्रार्थना करते हैं। सन्ध्या व यज्ञ करने से हमारे दुःखों की निवृत्ति होकर सुख व कल्याण प्राप्ति का लाभ होता है। यज्ञ करने से मनुष्य को निजी लाभों सहित समाज के अन्य सभी मनुष्यों व प्राणियों को भी वायु से दुर्गन्ध व विकारों की निवृत्ति का लाभ होकर सुख प्राप्त होता है। इससे परमात्मा की ओर से यज्ञकर्ता को ईश्वर को कर्म फल विधान के अनुसार विशेष सुख प्राप्त होता है। इसी कारण से हमारे ऋषियों ने कहा है कि ‘स्वर्गकामो यजेत’ अर्थात् सुख की इच्छा रखने वाले सभी मनुष्यों को यज्ञ करना चाहिये। हम जीवन को जितना अधिक यज्ञीय बनायेंगे उतना ही हमें सुख लाभ होगा। अतः हमें स्वयं यज्ञ करना चाहिये और दूसरों को भी यज्ञ से होने वाले सभी लाभों के विषय में बताना चाहिये। ऋषि दयानन्द ने महती कृपा कर हमें वैदिक धर्म एवं संस्कृति के यथार्थ, सत्य व वास्तविक स्वरूप से परिचय कराया। आज उन्हीं की प्रेरणा एवं प्रचार के कारण से हम वैदिक धर्म को अपनाने व उसका पालन करने में समर्थ हुए हैं। वैदिक सन्ध्या-यज्ञ व देवयज्ञ अग्निहोत्र वैदिक धर्म के ही अंगभूत कार्य हैं। हमें भी अपने ऋषियों व विद्वानों के समान वैदिक धर्म की श्रेष्ठता व महानता का प्रचार करते हुए अपने जीवन को धन्य करना चाहिये। हम यज्ञ करें, स्वस्थ व निरोग रहें, बल व ज्ञान से सम्पन्न हों, अन्धविश्वास व पाखण्डों से बचें, समाज व देश का कल्याण करें, विश्व में सुख व शान्ति के विस्तार में एक इकाई बनें, इसी भावना के साथ इस संक्षिप्त लेख को विराम देते हैं।
आजकल कुछ वामपंथी ईर्ष्यालु लोगों ने भाषा विज्ञान का आडंबर रचकर संस्कृत को बहुत नवीन भाषा कहना शुरु किया है। वे लोग बौद्ध साहित्य में भी आये वेदादिशास्त्रों के नाम को ऊटपटांग अर्थ करके जान बचाना चाहते हैं। इनके सिपहसालार राजेंद्र प्रसाद ने तो “त्रैविद्यासुत्त” को प्रक्षेप ही घोषित कर रखा है। इनके एक चेले ने विनयपिटक, क्षुद्रकस्कंधक में आये “छांदस् यानी वैदिक संस्कृत” का भी कपोलकल्पित अर्थ किया है, जो न पालि से सिद्ध हो सकता है, न बौद्ध साहित्य में है न कोई बौद्ध विद्वान उसको मानता है।
जब-जब बुद्ध का अपमान हुआ तब-तब इन्होंने रत्ती भर भी विरोध भी नहीं किया चाहे मुसलमानों द्वारा लखनऊ में बुद्ध की मूर्तियाँ तोड़ी जाए या बामियान में 2000 साल पुरानी बुद्ध की मूर्ति तोड़ी जाय या इंडियन मुजाहिदीन द्वारा बोध गया में हमला हो। ये तथाकथित बौद्ध एक ऐसी विचारधारा के लोग हैं जो बुद्ध धर्म को एक छद्मावरण के तौर इस्तेमाल कर रहे हैं ताकि हिन्दू धर्म पर हमला करतें रहें। एक समय काँचा इलैया अपने को बौद्ध विद्वान कहता था, बुद्ध के बहाने हिन्दू धर्म पर हमला करता था। आज वह बेनकाब है, उसका असली नाम काँचा इलैया शेफर्ड है, यानी क्रिप्टो-क्रिस्चियन।
अगर आप इंडोनेशिया की सैकड़ों साल पुरानी बुद्ध की मूर्तियां देखें तो पाएंगे कि बुद्ध मूर्ति में जनेऊ पहने हैं और माथे पर तिलक लगाएं हैं। यदि हम बारीकी से देखें तो त्रिपिटक में सैकड़ो जगह वेदादिशास्त्रों के नाम आ जायेंगे। हम पूछते हैं कि वादी कितने प्रमाणों को मिलावट कहकर अपनी जान छुड़ायेंगे? हम केवल सुत्तनिपात से ही कई प्रमाण देते हैं जहां स्पष्ट रूप से वेदादिशास्त्रों का वर्णन है।
(१):- गौतम बुद्ध कहते हैं कि वो गायत्री मंत्र जानते थे!:-
तं सावित्तिं पुच्छामि , तिपदं चतुवीसतक्खरं।।३३।। ” तुम अपने को ब्राह्मण कहते हो और मुझे अब्राह्मण कहते हो, तो तुमसे त्रिपद और चौबीस अक्षरों वाले सावित्री मंत्र को पूछता हूं।।३३।। ( सुंदरिकभारद्वाज सुत्त ३,४, पेज ११५)
(२):- प्राचीन ब्राह्मणों के धर्म के विषय में सुत्तनिपात में एक “ब्राह्मणधम्मिक सुत्त” है। इसमें गौतम बुद्ध प्राचीन ब्राह्मणों के धर्म को कहते हुये बताते हैं;-
ब्राह्मणों के पास न पशु होते थे न हिरण्य तथा धान्य स्वाध्याय = वेदों का पाठ करना ही उनका धन धान्य था।।२।। ( ब्राह्मणधम्मिक सुत्त,२,७ पेज ७३) बुद्ध के अनुसार पहले यज्ञ में ब्राह्मण गौ आदि पशु नहीं हवन करते थे। पर बाद में कुछ स्वार्थी लोग राजा इक्ष्वाकु के पास मंत्र रचकर गये व वेदविरुद्ध यज्ञ वेद के नाम पर किये।इसी सुत्त की २० वीं गाथा में अश्वमेध,पुरुषमेध आदि यज्ञ का वर्णन है। क्या ये यज्ञ भी बिना संस्कृत के मंत्र के होते थे?
(३):- वासेट्ठ सुत्त में बुद्ध जी एक वसिष्ठ नामक ब्राह्मण से, जोकि जन्मना जातिव्यवस्था मानता था, का खंडन किया है। वसिष्ठ कहता है:
हे! हम अनुज्ञात प्रविज्ञात त्रैविद्य हैं।।१।। पद, व्याकरण और जल्प(वाद) में हम अपने आचार्य के समान हैं।।२।। यहां त्रैविद्य का अर्थ वेदत्रयी को जानने वाला किया है। ( वासेट्ठ सुत्त, ३,९ पेज १६१) इससे सिद्ध है कि वसिष्ठ वेदादिशास्त्र जानता था।
(४):- सेलसुत्त में शैल नामक ब्राह्मण का वर्णन है जो तीन सौ विद्यार्थियों को वेद पढ़ाता था:-
“उस समय निघंटु,कल्प,अक्षर प्रभेद सहित तीनों वेदों तथा पांचवे इतिहास में पारंगत,पदक= कवि, वैयाकरण, लोकायत शास्त्र तथा महापुरुष लक्षण में निपुण शैल नाम ब्राह्मण आपण में वास करता था….और तीन सौ विद्यार्थियों को वेद पढ़ाता था।” ( सुत्तनिपात, सेलसुत्त ३,७- पेज १४४)
(५):- वत्थुगाथा में बावरी नामक ब्राह्मण का वर्णन है। इस प्रकरण में भी तीन चार बार वेद का नाम है व संस्कृत ग्रंथों का भी:-
“तब वेदों में पारंगत ब्राह्मण शिष्यों को उसने संबोधित किया। ।।२२।। वेदों में महापुरुष लक्षण आये हैं।।२५।।”
( वत्थुगाथा ५,१ सुत्तनिपात, पेज २५९)
भगवाव बुद्ध कहते हैं- “तिणिस्स लक्खणा गत्ते, तिण्णं वेदान पारगू।।४४।।”
” उसकी (बावरी ब्राह्मण की) आयु सौ वर्ष है, वह गोत्र ले बावरी है… वह तीनों वेदों में पारंगत है।।४४।। वह लक्षण शास्त्र, इतिहास, तथा निघंटु सहित कैटुभ( यानी कल्पसूत्र) को पांच सौ को पढ़ाता है।।४५।।”
( वत्थुगाथा, ५,१ पेज २६३)
निष्कर्ष- इतने सारे स्पष्ट प्रमाणों से सिद्ध है कि वेदादिक का अस्तित्व बौद्ध मत के बहुत पहले से था। यहां तक की बुद्ध जी ही वेदों को जानते थे। सभी प्रमाणों को प्रक्षेप कहना ही हास्यास्पद और दुराग्रह है। लेखक – कार्तिक अय्यर
धन्यवाद । संदर्भ ग्रंथ एवं पुस्तकें;- सुत्तनिपात- अनुवादक भिक्षु धर्मरक्षित
मोहनदास करमचन्द गांधी को सारा भारत ही क्या, सारा विश्व जानता है; पर उन्हें गोधी जी के रूप में आगे बढ़ाने के लिए जिस महिला ने अन्तिम समय तक सहारा और उत्साह प्रदान किया, वह थीं उनकी धर्मपत्नी कस्तूरबा गांधी, जो ‘बा’ के नाम से प्रसिद्ध हुईं। यह बात गांधी जी ने कई बार स्वयं स्वीकार की है कि उन्हें महान बनाने का श्रेय उनकी पत्नी को है। बा के बिना गांधी जी स्वयं को अपूर्ण मानते थे।
कस्तूरबा का जन्म पोरबन्दर, गुजरात के कापड़िया परिवार में अपै्रल, 1869 में हुआ था। उनके पिता पोरबन्दर के नगराध्यक्ष रह चुके थे। इस प्रकार कस्तूरबा को राजनीतिक और सामाजिक जीवन विरासत में मिला। उस समय की सामाजिक परम्पराओं के अनुसार उन्हें विद्यालय की शिक्षा कम और घरेलू कामकाज की शिक्षा अधिक दी गयी। 13 साल की छोटी अवस्था में उनका विवाह अपने से पाँच महीने छोटे मोहनदास करमचन्द गांधी से हो गया।
वे गांधी परिवार की सबसे छोटी पुत्रवधू थीं। विवाह के बाद एक सामान्य हिन्दू नारी की तरह बा ने अपनी इच्छा और आकांक्षाओं को अपने पति और उनके परिवार के प्रति समर्पित कर दिया। फिर तो गांधी जी ने जिस मार्ग की ओर संकेत किया, बा ना-नुकुर किये बिना उस पर चलती रहीं।
दक्षिण अफ्रीका के प्रवास में जब गांधी जी ने सत्याग्रह के शस्त्र को अपनाया, तो कस्तूरबा उनके साथ ही थीं। भारत में भी जितने कार्यक्रम गांधी जी ने हाथ में लिये, सबमें उनकी पत्नी की भूमिका महत्त्वपूर्ण रही। मार्च, 1930 में नमक कानून के उल्लंघन के लिए दाण्डी यात्रा का निर्णय हुआ। यद्यपि उस यात्रा में बा साथ नहीं चलीं; पर उसकी पूर्व तैयारी में उन्होंने कोई कसर नहीं रखी। यात्रा के बाद जब गांधी जी को यरवदा जेल ले जाया गया, तो उन्होंने बा को एक बहादुर स्त्री की तरह आचरण करने का सन्देश दिया।
बा ने इसे जीवन में उतार कर अपना मनोबल कम नहीं होने दिया। जेल से गांधी जी ने उनके लिए एक साड़ी भेजी, जो उन्होंने स्वयं सूत कातकर तैयार की थी। यह इस बात का प्रतीक था कि गांधी जी के हृदय में बा के लिए कितना प्रेम एवं आदर था।
गांधी जी प्रायः आन्दोलन की तैयारी के लिए देश भर में प्रवास करते रहते थे; पर पीछे से बा शान्त नहीं बैठती थीं। वे भी महिलाओं से मिलकर उन्हें सत्याग्रह, शराब बन्दी, स्वदेशी का प्रयोग तथा विदेशी कपड़ों की होली जैसे कार्यक्रमों के लिए तैयार करती रहती थीं। जब गांधी जी यरवदा जेल से छूटकर वायसराय से मिलने शिमला गये, तो बा भी उनके साथ गयीं और वायसराय की पत्नी को देश की जनता की भावनाओं से अवगत कराया।
कांग्रेस ने दो अगस्त, 1942 को ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ करने का प्रस्ताव पास किया। गांधी जी ने ‘करो या मरो’ का नारा दिया। 9 अगस्त की शाम को मुम्बई के शिवाजी पार्क में एक विशाल रैली होने वाली थी; पर दिन में ही गंाधी जी को गिरफ्तार कर लिया गया। इस पर बा ने घोषणा कर दी कि रैली अवश्य होगी और वे उसे सम्बोधित करेंगी। इस पर शासन ने उन्हें भी गिरफ्तार कर आगा खाँ महल में बन्द कर दिया।
जेल में बा का स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता था; पर उन्होंने किसी भी कीमत पर झुकना स्वीकार नहीं किया। 21 फरवरी, 1944 को बा ने अन्तिम साँस ली और वहीं आगा खाँ महल में उनका अन्तिम संस्कार कर दिया गया।
लोकसभा चुनाव के बाद ही बंगाल में भाजपा की बढ़ती ताकत का अहसास हो गया था, वहीं ममता बनर्जी की तानाशाही प्रवृति का शिकार बनी तृणमूल कांग्रेस डूबता जहाज बनने की ओर अग्रसर होती दिखाई दे रही है। हालांकि यह कितना सही साबित होगा, यह अभी भविष्य के गर्भ में है।
कभी वामपंथी राजनीति का मजबूत गढ़ रहे पश्चिम बंगाल राज्य में गहरे तक पांव जमाए ममता बनर्जी के राजनीतिक अस्तित्व की परतें उधेड़ने लगी हैं। वैसे तो पिछले लोकसभा चुनाव के परिणामों ने ममता बनर्जी की छत्रछाया में पनप रही तृणमूल कांग्रेस के धरातलीय आधार को यह स्पष्ट संकेत दे दिया था कि तृणमूल कांग्रेस के विजयी रथ पर कुछ हद तक लगाम लग चुकी है। बंगाल में शून्य से शिखर पर जाने का जीतोड़ प्रयास करने वाली भारतीय जनता पार्टी ने ममता के किले को उस स्थान से खिसकाने का प्रयास किया है, जो पिछले 15 वर्षों से बंगाल की राजनीति में ममता ने बनाया था। हालांकि प्रारंभ में ममता बनर्जी भाजपा नीत राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन का हिस्सा रहीं, जिसके कारण पश्चिम बंगाल में वामपंथियों के शासन को जड़ से उखाड़ फेंका और ममता बनर्जी के सिर पर सत्ता का ताज स्थापित हो गया। इसके बाद ममता बनर्जी ने जिस प्रकार की राजनीति की, उसके चलते भाजपा और तृणमूल कांग्रेस एक दूसरे के राजनीतिक दुश्मन बनकर सामने आ गए। जिसकी परिणति स्वरूप आज दोनों दल एक दूसरे को पटखनी देने के दांवपेच खेल रहे हैं।
पश्चिम बंगाल में लोकसभा के चुनाव के बाद ही भाजपा की बढ़ती ताकत का अहसास हो गया था, वहीं ममता बनर्जी की तानाशाही प्रवृति का शिकार बनी तृणमूल कांग्रेस डूबता जहाज बनने की ओर अग्रसर होती दिखाई दे रही है। हालांकि यह कितना सही साबित होगा, यह अभी भविष्य के गर्भ में है, लेकिन तृणमूल कांग्रेस के दिग्गज नेता आज ममता बनर्जी से किनारा करने की प्रतीक्षा की ताक में हैं। अभी हाल ही में ममता बनर्जी के खास माने जाने वाले और तृणमूल कांग्रेस को राजनीतिक अस्तित्व में लाने वाले दिग्गज नेता दिनेश त्रिवेदी ने तृणमूल कांग्रेस से छलांग लगाने के बाद जो वक्तव्य दिया है, वह निश्चित ही इस बात का संकेत करने के काफी है कि अब ममता बनर्जी की आगे की राजनीतिक राह आसान नहीं है। वैसे तृणमूल कांग्रेस की आंतरिक राजनीति का अध्ययन किया जाए तो यही परिलक्षित होता है कि इसके लिए स्वयं ममता बनर्जी ही जिम्मेदार हैं। तृणमूल कांग्रेस में अपने पारिवारिक सदस्यों को महत्व देने के बाद पार्टी को सत्ता के सिंहासन पर पहुंचाने वाले वरिष्ठ नेता नाराज दिखाई दे रहे हैं। कुछ नेता खुलकर बोलने लगे हैं तो कुछ अभी समय की प्रतीक्षा कर रहे होंगे। सवाल यह आता है कि जब इतने बड़े नेता तृणमूल कांग्रेस में अपमानित महसूस कर रहे हैं, तब छोटे कार्यकर्ताओं की क्या स्थिति होगी, इस बात का अनुमान लगाया जा सकता है।
पश्चिम बंगाल की वर्तमान राजनीति का अध्ययन किया जाए तो यह स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि तृणमूल कांग्रेस की सर्वेसर्वा ममता बनर्जी भविष्य की राजनीति को लेकर भयभीत हैं। यह भय सत्ता चले जाने का है। इसके बाद भी ममता बनर्जी पूरी ताकत के साथ अपनी पार्टी की नाव को एक बार फिर से पार करने का साहस दिखा रही हैं। इसे साहस कहा जाए या ममता बनर्जी की बौखलाहट, क्योंकि ममता बनर्जी वर्तमान में अपनी पार्टी की नीतियों को कम भारतीय जनता पार्टी को कोसने में ज्यादा समय व्यतीत कर रही हैं। ऐसा लगता है कि वह अपने ही देश की सरकार के प्रति पूर्वाग्रह से ग्रसित हो चुकी हैं। इसलिए आज उन्हें भगवान श्रीराम के नाम से चिढ़ हो रही है। जबकि यह सभी जानते हैं कि भारत में भगवान राम का अस्तित्व तब से है, जब न तो भाजपा थी और न ही ममता बनर्जी। इतना ही नहीं आज के राजनीतिक दल भी नहीं थे। इसलिए ममता बनर्जी ने इस नारे को भाजपा से जोड़कर देखने का जो भ्रम पाल रखा है, वह नितांत उनकी संकुचित सोच या एक वर्ग विशेष के प्रति नरम रवैए को ही प्रदर्शित करता है। ममता बनर्जी ऐसा क्यों कर रही हैं, ये तो वही जानें, लेकिन भाजपा ने वही किया है जो उनके घोषणा पत्र में है और इसी घोषणा पत्र पर भाजपा को लोकतांत्रिक रूप से व्यापक समर्थन भी मिला है। यहां यह कहना तर्कसंगत ही होगा कि भारत की जनता ने भाजपा की नीतियों से प्रभावित होकर ही समर्थन दिया है। इसलिए ममता बनर्जी के कदम को अलोकतांत्रिक कहा जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी।
वर्तमान में ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस के समक्ष अपना प्रदर्शन दोहराने की बड़ी चुनौती है। यह चुनौती किसी किसी और ने नहीं, बल्कि उनके करीबियों ने ही पैदा की है। प्रायः सुनने में आता है कि तृणमूल कांग्रेस का कोई भी नेता अपने विरोधी राजनीतिक दल के नेता को सहन करने की मानसिक स्थिति में नहीं है। सवाल यह आता है इस प्रकार की मानसिकता का निर्माण किसने किया? स्वाभाविक ही है कि वरिष्ठ नेतृत्व के संरक्षण के बिना यह संभव ही नहीं है। इसी कारण बंगाल में लगातार होती राजनीतिक हिंसा में सीधे-सीधे तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ताओं को आरोपी समझ लिया जाता है। ऐसे घटनाक्रमों को देखकर जो व्यक्ति सात्विक और देश हितैषी राजनीति करने को ही असली रास्ता मानते हैं, वे तृणमूल कांग्रेस से दूरी बनाने की मानसिकता में आते जा रहे हैं। अभी तक कई दिग्गज राजनेता तृणमूल से दामन छुड़ा चुके हैं। भाजपा के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह के कथनों पर भरोसा किया जाए तो यह संख्या और बढ़ने वाली है। गृहमंत्री अमित शाह ने दावा किया है कि ममता दीदी का यही व्यवहार रहा तो बंगाल के विधानसभा चुनावों के समय तक अकेली खड़ी रह जाएंगी। अमित शाह द्वारा यह कहना कहीं न कहीं यही संकेत कर रहा है कि भाजपा अपेक्षित सफलता के प्रति आशान्वित है।
पश्चिम बंगाल के बारे में कहा जाता है कि राज्य की सबसे बड़ी समस्या बांग्लादेशी घुसपैठ की है। जहां राजनीतिक संरक्षण के चलते यह घुसपैठिए असामाजिक गतिविधियों में भी संलग्न पाए जाते हैं। इसके पीछे मूल कारण यही माना जा रहा है कि मुख्यमंत्री ममता बनर्जी इन्हीं घुसपैठियों के समर्थन से अपनी राजनीति कर रही हैं। इससे राज्य में हिंदुओं के प्रति दुर्भावना भी निर्मित हुई है। पश्चिम बंगाल के कई जिलों में आज हिन्दू समाज अल्पसंख्यक की स्थिति में आ चुका है। पश्चिम बंगाल की वर्तमान राजनीति के लिए यह एक बड़ा मुद्दा है। भाजपा के यह मुद्दा संजीवनी का काम कर रहा है, लेकिन बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की कार्यशैली हिंदुओं की इस समस्या के विपरीत ही दिखाई देती है। हद तो तब हो गई, जब ममता बनर्जी बांग्लादेशी घुसपैठियों को बसाने के समर्थन में ताल ठोंककर मैदान में आ गईं। यह भी ममता बनर्जी के राजनीतिक पराभव का बड़ा कारण माना जा रहा है।
कभी पश्चिम बंगाल में राजनीतिक रूप से प्रभावी रही वामपंथी विचारधारा अब लगभग निचले पायदान पर है और कांग्रेस की उम्मीदें चकनाचूर हैं। ऐसे में अब बंगाल में ममता और भाजपा आमने-सामने हैं। राजनीतिक ऊंट किस करवट बैठेगा, यह फिलहाल घोषित करना जल्दबाजी ही होगी, लेकिन बंगाल में जिस प्रकार राजनीतिक वातावरण प्रदर्शित हो रहा है, वह कमोबेश यह बताने के लिए काफी है कि ममता बनर्जी की भावी राजनीतिक राहें उनके लिए कई प्रकार की कठिनाइयों को जन्म दे रही हैं। जो ममता बनर्जी की सत्ता प्राप्त करने में बड़ी अवरोधक भी बन सकती हैं।
समाज एक से अधिक लोगों के समुदायों से मिलकर बने एक वृहद समूह को कहते हैं जिसमें सभी व्यक्ति मानवीय क्रियाकलाप करते हैं। मानवीय क्रियाकलाप में आचरण,सामाजिक सुरक्षा और निर्वाह आदि की क्रियाएं सम्मिलित होती हैं।मनुष्य सामाजिक प्राणी है|मनुष्य सभी प्राणियों में सर्वश्रेष्ठ है|अन्य प्राणियों की मानसिक शक्ति की अपेक्षा मनुष्य की मानसिक शक्ति अत्यधिक विकसित है|समाज रूपी मकान जब न्याय रूपी स्तम्भ पर खड़ा होता है तो ऐसा समाज सौम्यता,समानता और शांति का प्रतीक होता है|सामाजिक न्याय (सोशल जस्टिस )की बुनियाद सभी मनुष्यों को समान मानने के आग्रह पर आधारित है।सामाजिक न्याय अर्थात समानता का अधिकार|न्याय ही समाज में फैली तमाम तरह की बुराईयों और गैर-सामाजिक तत्वों पर लगाम लगाने उन्हें सजा देने तथा तमाम नागरिकों के नैतिक और मानवाधिकारों की रक्षा करता हैं| यह दिवस खास कर समाज में फैली असमानता और भेदभाव जैसी कुरीतिओं के प्रति तेजी से उठ रहे असमानता और भेदभाव से समाजिक न्याय की मांग को देखते हुए कई कानून बने लेकिन आज भी यह बुराई हमारे समाज में फैली हुयी हैं | इसे दूर करने के लिए कई बार विचार विमर्श हुए और इसके निदान के लिए कई अभियान भी चलाये गए|लेकिन फिर भी अभी तक समाज से यह बुराई नहीं मिट पायी|सामाजिक न्याय एक सपना का सपना ही बना रहा|समाज में फैली भेदभाव और असमानता के कारण मानवाधिकारों का हनन लगातार होता रहा| संयुक्त राष्ट्र महासभा ने वर्ष २००७ में २० फरवरी के दिन को विश्व सामाजिक न्याय दिवस के रुप में मनाने की घोषणा की थी|अतएव विश्व में प्रत्येक वर्ष २० फरवरी के दिन को विश्व सामाजिक न्याय दिवस (वर्ल्ड डे ऑफ़ सोशल जस्टिस) के रूप में मनाया जाता हैं|विश्व सामाजिक न्याय दिवस का आयोजन विभिन्न सामाजिक मुद्दों,जैसे– बहिष्कार, बेरोजगारी तथा गरीबी से निपटने के प्रयासों को बढ़ावा देने के लिए मनाया जाता है|इसी दिवस को सफल बनाने के लिए संयुक्त राष्ट्र एवं अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन के लोगो के द्वारा सामाजिक न्याय हेतु अलग अलग तरह के कैम्प लगाये जाते हैं और लोगो को सामाजिक न्याय के प्रति जागरूक किया जाता हैं|विश्व सामाजिक न्याय दिवस- २०२१ का थीम / प्रसंग है ” अंकीय अर्थव्यवस्था में सामाजिक न्याय का आह्वान |”(ए कॉल फॉर सोशल जस्टिस इन द डिजिटल इकोनॉमी)|अंकीय अर्थव्यवस्था (डिजिटल इकोनॉमी) का अर्थ उस अर्थव्यवस्था से है जो अंकीय संगणन की प्रौद्योगिकी (जैसे कम्प्यूतर, इन्टरनेट) आदि पर आधारित हो। कभी-कभी इसे इन्टरनेट अर्थव्यवस्था, नयी अर्थव्यवस्था, या वेब अर्थव्यवस्था भी कहते हैं। विश्व में डिजिटल अर्थव्यवस्था कार्य करने की क्षमता को नया आयाम दे रही है। पिछले एक दशक में, ब्रॉडबैंड कनेक्टिविटी, क्लाउड कंप्यूटिंग और डेटा के विस्तार ने डिजिटल प्लेटफार्मों के प्रसार को बढ़ावा दिया है| डिजिटल अर्थव्यवस्था समाज के कई कार्य क्षेत्रों में प्रवेश कर चुका हैं। वर्ष २०२० की शुरुआत से,कोविड-१९ महामारी के परिणामों ने विश्व में दूरस्थ कार्य व्यवस्था को जन्म दिया है| डिजिटल प्लेटफार्म ने कोविड-१९ महामारी के दौरान दुनिया को वेब /इंटरनेट के माध्यम से जोड़े रखा| डिजिटल प्लेटफार्म ने समाज के प्रत्येक कार्य क्षेत्र में जैसे शिक्षा,बैंकिंग,सुरक्षा,एंटरटेनमेंट आदि को काफी मजबूती प्रदान करी| डिजिटल प्लेटफार्म ने कई व्यावसायिक गतिविधियों की निरंतरता को बनाए रखा |अंतर्राष्ट्रीय या राष्ट्रीय स्तर पर होने वाले उत्सव और प्रतिस्पर्धा का लोगो ने डिजिटल प्लेटफार्म के माध्यम से जमकर लुफ्त उठाया|डिजिटल प्लेटफार्म ने न्याय व्यवस्था को समाज से जोड़े रखा है|कोरोना महामारी के दौरान समाज को सुलभ और सस्ता न्याय दिलाने में डिजिटल प्लेटफार्म ने अहम् भूमिका निभाई है |डिजिटल प्लेटफार्म पर लोगो ने अर्थव्यवस्था के विकास और प्रभाव को और मजबूती प्रदान की है। डिजिटल लेबर प्लेटफ़ॉर्म मज़दूरों को आय-सृजन के अवसर और लचीली कार्य व्यवस्था से लाभ प्रदान करते हैं|कई देशों के नियामक प्रतिक्रियाओं ने डिजिटल श्रम प्लेटफार्मों पर काम करने की स्थिति से संबंधित कुछ मुद्दों को संबोधित करना शुरू कर दिया है। हालाँकि, अंतर्राष्ट्रीय नीति संवाद और समन्वय की आवश्यकता है क्योंकि डिजिटल श्रम मंच कई न्यायालयों में काम करते हैं। राष्ट्रीय, क्षेत्रीय और अंतर्राष्ट्रीय बहु-हितधारक नीति संवाद और समन्वय को बढ़ावा देना भी महत्वपूर्ण है ताकि देशों और मंच कंपनियों द्वारा प्रतिक्रियाओं की विविधता को देखते हुए नियामक निश्चितता और सार्वभौमिक श्रम मानकों की प्रयोज्यता सुनिश्चित की जा सके।
भारत में अशिक्षा, ग़रीबी, बेरोजगारी, महंगाई और आर्थिक असमानता ज्यादा है। इन्हीं भेदभावों के कारण सामाजिक न्याय बेहद विचारणीय विषय हो गया है। डॉ॰ मार्टिन लूथर किंग, जूनियर (१५ जनवरी १९२९–४ अप्रैल १९६८) अमेरिका के एक पादरी,आन्दोलनकारी (ऐक्टिविस्ट) एवं अफ्रीकी-अमेरिकी नागरिक अधिकारों के संघर्ष के प्रमुख नेता थे। उन्हें अमेरिका का गांधी भी कहा जाता है। मार्टिन लूथर किंग ने कहा था कि “जहां भी अन्याय होता है वहां हमेशा न्याय को खतरा होता है| यह बात केवल वैधानिक न्याय के बारे में ही सही नहीं है क्योंकि एक विवेकपूर्ण समाज से सदैव समावेशी प्रणाली के लिये रंग,नस्ल,वर्ग,जाति जैसी किसी भी प्रकार की सामाजिक बाधा से मुक्त न्याय सुनिश्चित करने की उम्मीद की जाती है| ताकि समाज का कोई भी व्यक्ति अपने न्याय के अधिकार से वंचित न हो सके|किसी को भी न्याय से वंचित रखना न केवल सामाजिक न्याय के सिद्धांतों के खिलाफ है बल्कि संविधानिक प्रावधानों के भी खिलाफ़ हैं|” भारत में लोकतंत्र है और राजनेताओं ने लोकतंत्र का आधार,आरक्षण को बना दिया है| भ्रष्ट प्रशासन,शिक्षा से लेकर न्याय तक का राजनैतिककरण होना,लोकतंत्रात्मक प्रणाली का जुगाड़ तंत्रात्मक हो जाना आदि अन्य सामाजिक कुरीतियों ने जन्म ले लिया|सत्य अहिंसा विरोधी रथ पर सवार हो सत्ता के चरम शिखर पर पहुंचने वाले सुधारकों की मनोदशा ठीक नहीं है| सुधारकों की प्रवृत्ति ठीक होती तो देश में आरक्षण को लेकर राजनीति न होती| शिक्षा समाज का दर्पण है|इस परिपेक्ष्य में शिक्षा का बहुजन हिताए स्वरुप प्रधान होकर गरीब तथा वंचित वर्ग का नेतृत्व करता दिखाई देता है|भारत में शैक्षिक प्रबंधन अच्छा नहीं है|२५.०८.१९४९ ई. में संविधान सभा में अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति आरक्षण को मात्र १० वर्ष सीमित रखने के प्रस्ताव पर एस. नागप्पा व बी. आई. मुनिस्वामी पिल्लई आदि की आपत्तियां आईं | डॉ भीम राव अम्बेडकर ने कहा मैं नहीं समझता कि हमें इस विषय में किसी परिवर्तन कि अनुमति देनी चाहिए|यदि १० वर्ष में अनुसूचित जातियों कि स्थिति नहीं सुधरती तो इसी सरंक्षण को प्राप्त करने के लिए उपाय ढूढ़ना उनकी बुद्धि शक्ति से परे न होगा| आरक्षण समानता का का प्रतीक नहीं रह गया क्योंकि आरक्षित कोटा सामान्य कोटे को बहुत पीछे धकेल दिया है, अब सामान्य कोटे को आरक्षण की जरुरत पड़ गई है| इसलिए सामाजिक न्याय देते समय समय और परिस्थिति का विशेष ध्यान रखना चाहिए|किसी विशेष जाती को लम्बे समय तक दिया गया लाभ दूसरे जाती के लोगों को प्रभावित करता है|ये समानता कैसी है ? जो समानता में दरार पैदा करती है|जिस प्रकार दूध में पाए जाने वाले माइकोबैक्टीरियम ट्यूबरकुलोसिस और गैर-बीजाणु बनाने वाले अन्य रोग-रोधी सूक्ष्मजीवों को नष्ट करने के लिए समय (१५ सेकंड) और तापमान ( ७२°सेंटीग्रेड ) आवश्यक है। यदि समय और तापमान बहुत ज्यादा कर दें तो दूध का पोषण ख़त्म हो जाएगा| कहने का तात्पर्य यह है कि सीमा से ज्यादा समय और तापमान देकर हम दूध में से हानिकारक बैक्टीरिया तो ख़त्म कर सकते हैं पर दूध के कि क्वालिटी खराब हो जाती है|उसी प्रकार से सीमा से ज्यादा समय तक दिया गया आरक्षण व्यक्ति को अपंग और आलसी बना देता है|अतएव आरक्षण देते समय, समय और परिस्थिति तय होनी चाहिए|अम्बेडकर जी ने १० वर्ष का जो समय सीमा तय तय किया था वहीँ तक आरक्षण को सीमित रखना था|आरक्षणवादी लोग डॉ. अम्बेडकर की राष्ट्र सर्वोपरिता की कद्र नहीं करता| आरक्षणवादी लोगों ने राष्ट्र का संतुलन खराब कर दिया है|आरक्षणवादी लोग वोट की राजनीति करने लगे हैं, न कि डॉ. अम्बेडकर के सिद्धांत का अनुपालन कर रहे है|आरक्षण को ख़त्म कर देना चाहिए|आरक्षण कोटे से चयनित आई.ए.एस.,पी.सी.एस.,इंजीनियर,डॉक्टर आदि अपने कार्य का संचालन ठीक से नहीं कर पाते है क्यों कि उनको ,कोटे के तहत उभारा गया| ताजा स्थिति यह है कि आरक्षण राष्ट्रीय विकास पर हावी है|अतः सामाजिक न्याय को पुनःजीवित करने के लिए,आरक्षण को वोट कि राजनीति से दूर रखना होगा|आरक्षण विकास का आधार नहीं हो सकता|आरक्षण लोकतंत्र का आधार नहीं हो सकता|आरक्षण समुदाय को अलग करने का काम करता है न कि जोड़ने का|ऐसी डोर जो समुदाय या लोगों को जोड़े वह है लोकतंत्र|लोकतंत्र का आधार सिर्फ और सिर्फ विकास हो सकता है क्योंकि डोर या रस्सी रूपी विकास ही समूह को जोड़ने का आधार है|लोकतंत्र का आधार विकास होना चाहिए न कि आरक्षण|आरक्षण सामाजिक न्याय का द्योतक नहीं है|भारत जैसे देश में आरक्षण सामाजिक वैमनस्यता का मूल कारण है|आरक्षण समाज को विघटित करता है संगठित नहीं|वैमनस्यता से असमानता की बाधा को दूर नहीं किया जा सकता|अतः सामाजिक न्याय समय और परिस्थिति पर आधारित होना चाहिए|अतएव आरक्षण देना,सामाजिक न्याय का का हिस्सा नहीं हो सकता|
छत्रपति शिवाजी महाराज न केवल एक महान योद्धा थे, बल्कि वे एक कुशल एवं सुयोग्य प्रशासक भी थे। उन्होंने प्राचीन भारतीय परंपराओं और समकालीन शासन प्रणालियों में समन्वय कर ठोस सिद्धांतों के आधार पर अपनी शासन-व्यवस्था विकसित की थी। यह उनकी प्रशासनिक क्षमता ही थी कि विजित भूभागों के निवासियों ने भी हृदय से उन्हें अपना अधिपति माना। शिवाजी महाराज की शासन-व्यवस्था लोकाभिमुख थी। वे एक निरंकुश शासक की बजाय लोककल्याणकारी शासक के रूप में हमारे सामने आते हैं। एक ऐसे शासक के रूप में जो प्रजा-हित को सर्वोपरि रखता था। उनकी शासन-पद्धत्ति में प्रजातंत्र के बीज मौजूद थे। दरअसल उनका मुख्य उद्देश्य ही भारतीय न्याय-परंपरा पर आधारित शासकीय व्यवस्था विकसित करना था। एक प्रशासक के रूप में उन्होंने कभी अपने अधिकारों का दुरुपयोग नहीं किया। वे अपने उन सैनिकों-सहयोगियों को भी पुरस्कृत करते थे जो राजा यानी व्यक्ति से अधिक राज्य के हितों के प्रति निष्ठा रखते थे। ऐसे अनेक दृष्टांत शिवाजी के जीवन में दिखाई देते हैं। निरंकुशता या एकाधिकारवादिता विकृति लाती है। यह राजा को स्वेच्छाचारी बना देती है। उस काल के अधिकांश राजा या सम्राट (बादशाह) निरंकुश प्रवृत्तियों से ग्रस्त थे। दुनिया के इतिहास में शिवाजी पहले ऐसे सत्ताधीश थे, जिन्होंने स्वयं अपनी सत्ता का विकेंद्रीकरण किया था। आज जब श्रेष्ठ प्रबंधन का पाठ पढ़ाया जाता है तो उसमें उत्तरदायित्वों के विकेंद्रीकरण की बात सबसे ऊपर रखी जाती है। एक व्यक्ति के अपने गुण-दोष होते हैं, अपनी सबलता-दुर्बलता होती है, पसंद-नापसंद होते हैं, सोच-सामर्थ्य की अपनी सीमा होती है, शिवाजी इस सच्चाई को भली-भाँति जानते थे। वे उन दुर्बल प्रशासकों की भाँति नहीं थे, जिन्हें हर क्षण अपनी सत्ता और अधिकार खोने का भय सताता रहता है। चुने हुए विशेषज्ञों द्वारा शिवाजी महाराज ने ‘राजव्यवहार कोष’ नामक शासकीय शब्दावली का बृहत शब्दकोश तैयार कराया था। यह उनकी प्रगल्भता और बुद्धिमत्ता का परिचायक है। उसके अनुसार उन्होंने शासकीय कार्यों में मदद के लिए आठ मंत्रियों की एक परिषद बनाई थी, जिसे अष्ट प्रधान कहा जाता था। योग्यता, कर्त्तव्यनिष्ठा, राजनिष्ठा, ईमानदारी और बहादुरी ही उनके मंत्रीमंडल में किसी के सम्मिलित किए जाने की एकमात्र कसौटी थी। तत्कालीन चलन के विपरीत मंत्री पद के लिए आनुवंशिकता अनिवार्य नहीं थी। ‘पेशवा’ उस मंत्रीमंडल का प्रमुख होता था। ‘अमात्य’ वित्त और राजकीय कार्यभार वहन करता था। ‘सचिव’ राजा के पत्राचार और अन्य राजकीय कार्य संपन्न करता था। जिसमें शाही मुहर लगाना और संधि-पत्रों का आलेख तैयार करना भी सम्मिलित था। ‘मंत्री’ का प्रमुख कार्य विभिन्न प्रकार की जानकारियाँ एवं गुप्त सूचनाएँ एकत्र कर उनका सत्यापन करना, राज्य में होने वाली घटनाओं और गतिविधियों पर निकट नज़र रखना, समाचारों को संकलित कर उस पर महाराज का ध्यान आकर्षित करवाना हुआ करता था। वह राजा का रोज़नामचा रखता था। अतिरिक्त व्यय होने पर उसे राजा से प्रश्न पूछने का अधिकार था। आप सोचिए क्या आज के कर्मचारी अपने अधिकारी या प्रमुख से आय-व्यय का ब्यौरा माँग सकते हैं? ‘सुमंत’ विदेशी मामलों की देखभाल करते हुए लगभग आज के विदेश मंत्री का कार्य संपादित करता था। वह अन्य राज्यों में राजा के प्रमुख प्रतिनिधि या वार्त्ताकार के रूप में बातचीत को आगे बढ़ाता था। ‘सेनापति’ सेना का प्रधान होता था। सेना में सैनिकों की नियुक्ति का सर्वाधिकार उसके पास सुरक्षित होता था। सेना के संगठन, अनुशासन, युद्ध-क्षेत्र आदि में तैनाती आदि की जिम्मेदारी भी उसी की हुआ करती थी। ‘पंडितराव’ धार्मिक मामलों और अनुदानों का उत्तरदायित्व निभाता था। ‘न्यायाधीश’ न्यायिक मामलों का प्रधान था। प्रत्येक प्रधान न्यायाधीश की सहायता के लिए अनेक छोटे अधिकारियों के अतिरिक्त ”दावन, मजमुआदार, फडनिस, सुबनिस, चिटनिस, जमादार और पोटनिस” जैसे आठ प्रमुख अधिकारी भी हुआ करते थे। छत्रपति शिवाजी महाराज ने आज की तरह अपना एक संविधान यानी शासन-संहिता तैयार कराई थी। उन्होंने सत्ता के विकेंद्रीकरण और शासन के लोकतंत्रीकरण को बढ़ावा दिया। वे भली-भाँति जानते थे कि व्यक्ति चाहे कितना भी योग्य और शक्तिशाली क्यों न हो वह एक सुसंबद्ध तंत्र के बिना व्यवस्थाएँ नहीं संचालित कर सकता। इसलिए उनका जोर व्यक्ति-केंद्रित शासन-व्यवस्था की बजाय तंत्र-आधारित व्यवस्था खड़ी करने पर रहा। स्वयं एक सत्ताधीश होते हुए भी उन्होंने सामंतवाद को जड़-मूल से नष्ट करने का अपरोक्ष प्रयास किया। आज तमाम दलों एवं नेताओं द्वारा वंशवादी विरासत को पालित-पोषित करता देख शिवाजी का यह आदर्श कितना ऊँचा और दुर्लभ जान पड़ता है! वे स्वयं को राज्य का स्वामी न समझकर ट्रस्टी समझते थे। राज्य का स्वामी तो वे ईश्वर को मानते थे। शासन की सुविधा के लिए उन्होंने ‘स्वराज’ कहे जाने वाले विजित क्षेत्रों को चार प्रांतों में विभाजित किया था। हर प्रांत के ‘सूबेदार’ को ‘प्रांतपति’ कहा जाता था। उसके पास गाँव की अष्टप्रधान समिति होती थी। हर गाँव में एक ‘मुखिया’ होता था। उनके समय में तीन प्रकार के कर प्रचलित थे। ‘भूमि-कर, चौथ एवं सरदेशमुखी।” उल्लेखनीय है कि किसानों से केवल भूमि-कर वसूल किया जाता था। ग़रीब किसानों से उनके ज़मीन के रकबे और उपज के आधार पर कर वसूला जाता था। उनके राज्य के सभी सैनिक, अधिकारी, सरदार, मंत्री आदि वेतनधारी होते थे। उनकी तरह की, सुनियोजित और समृद्ध वेतन-प्रणाली अन्य किसी राजा ने प्रभावी तरीके से लागू नहीं की थी। शिवाजी की यह दूरदर्शिता भ्र्ष्टाचार और कामचोरी पर अंकुश लगाने में सहायक थी। समाजवाद और साम्यवाद का गुण गाने वाले लोगों को यह जानकर आश्चर्य होगा कि शिवाजी पहले ऐसे शासक थे जिन्होंने वतनदारी और जमींदारी को रद्द कर दिया था। उन्होंने कहा कि ओहदा रहेगा, पर सत्ता नहीं रहेगी। उस समय सरदारों/ जागीरदारों की अपनी निजी सेनाएँ होती थीं। उन्होंने सेना को स्वराज्य के केंद्रीय प्रशासन के अंतर्गत लेते हुए उन्हें वेतन देना प्रारंभ कर दिया, जिसका सुखद परिणाम यह हुआ कि सैनिकों की निष्ठा व्यक्तियों के प्रति न होकर राष्ट्र-राज्य से जुड़ गई। उन्होंने सामाजिक स्तर पर भी अनेक परिवर्तन किए। नेताजी पालकर, बजाजी निंबालकर जैसे धर्मांतरित योद्धाओं को पुनः शास्त्रोक्त पद्धत्ति से हिंदू धर्म में वापस लिया। न केवल वापस लिया अपितु उनसे अपना पारिवारिक संबंध जोड़ घर-वापसी को सामाजिक मान्यता भी दिलाई। वे अपने समय से आगे की सोच रखते थे। इसलिए उन्होंने अरब और यूरोप की आधुनिक कलाओं और युद्ध-तकनीकों को अपनाने में कोई संकोच नहीं दिखाया। मुद्रण, छापाखाना, तोपें, तलवारें आदि बनाने की कला को उन्होंने हाथों-हाथ लिया। नौसेना का गठन करके सिंधुदुर्ग, सुवर्णदुर्ग, पद्मदुर्ग, विजयदुर्ग जैसे जलदुर्ग बनवाए। कुल मिलाकर उन्होंने युगानुकूल शासन-तंत्र की व्यापक रचना की। और इन सब दृष्टांतों एवं प्रसंगों के आलोक में यह कहा जा सकता है कि शिवाजी आधुनिक भारत के सच्चे निर्माता थे। आज यह प्रश्न पूर्णतः न्यायसंगत और औचित्यपूर्ण होगा कि किनकी कुटिल योजना और परोक्ष-प्रत्यक्ष षड्यंत्रों से शिवाजी जैसे कुशल प्रशासक एवं महान योद्धा को पाठ्य-पुस्तकों के चंद पृष्ठों या यों कहिए कि अनुच्छेदों में समेट दिया गया? क्या यह शिवाजी जैसे राष्ट्रनायकों के साथ घोर अन्याय नहीं है? प्रणय कुमार