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ओ अनजाने सहयात्री

—विनय कुमार विनायक
ओ अनजाने सहयात्री!
तू बैठ जा मेरी आधी सीट पर
मेरी पीठ से लगकर कि यात्रा अभी बहुत लम्बी है!

यह मत समझना कि यकायक तुम पर
मेरा प्यार उमड़ आया किसी स्वार्थ या श्रद्धा भाव से!

मेरी सदाशयता है आशंका प्रसूत
कि तुम्हें ईर्ष्या न हो जाए मेरे भाग्य से
जग न जाए एक शैतान तुम्हारे अंदर
उग न आए तमंचा तुम्हारी जेब में
और चलाने न लगो अंधाधुंध गोलियां
निर्दोष सहयात्रियों पर!

तुम्हें कोफ्त है लंबे समय से कतार में खड़े होने
और टिकट के खप जाने से
उन बेकतारियों के बीच जो अभी-अभी उग आए थे
अफसोस कि मैं उन्हीं में हूं/मुझे जाना है
आज ही इस आखिरी गाड़ी से उस दादी से मिलने
जिसकी आखिरी सांसें अटकी हैं
सिर्फ मेरी मुलाकात के लिए!

कि मैंने खरीद ली एक फुट जगह मजबूरी में
उन बेकतारी आरक्षण खरीददारों की तरह
खर्च कर अलग से रोकड़े!

कि अलग से खर्चने के रोकड़े
अपनी औकात में नहीं होते किसी के पास
कि रोकड़े की चाहत, आशक्ति, संतुष्टि सबकी
अलग-अलग होती,मगर सबके पास होती
अपनी-अपनी मजबूरियां भी!

रोकड़े आवश्यकता से अधिक क्यों?
क्यों नहीं? इन यक्ष प्रश्नों के उत्तर में
आशंका है तुम चलाने लगो गोलियां
और निकल जाए निर्दोष यात्रियों की अर्थियां!

कि मुझे जीना है बूढ़ी दादी की उन अटकी सांसों के लिए
जो आखिरी सांस लेना चाहती थी पोते का मुख देखकर!

कि मुझे जीना है उस मां के लिए
जिसने मुझे जनने की सुखद अहसास में काटी थी नौ मास
बिना टानिक-अखरोट-मेवा खाए दो फटी साड़ियों में लिपट कर!

कि मुझे जीना है उस पिता के लिए जो मेरे जन्म के बाद
सुखद बुढ़ापे की तलाश में भर जवानी लादते रहे पीठ पर बोरे!

कि लिखना है मुझे भाग्य लेख उस नन्ही बिटिया का
जो मेरी मौत के बाद बन सकती है एक त्रासद कथा!

कि मुझे लिखनी है उस दक्ष जमाता की अनकही कहानी
जिसे घोषित किया गया था दहेज लोलुप हत्यारा
पितृयज्ञ में उसकी गौरी के आत्मदाह कर लेने पर!

कि लिखनी है एक कालजयी कविता उस भाई पर
जिसने चौथाई भर हिस्सा दहेज में ले जाने की आशंका से
मासूम कुंवारी बहन को जहर पिला दिया!

एक व्यंग्य कथा उस बेटे पर भी जिसने अनुकंपा नौकरी की
चाहत में दबा दिया नौकरीशुदा बाप का गला!

एक एकांकी उस पुरोहित पर जिसकी पुरोहिताई मर गई
अर्थाभाववश जिसके बेटे को मिली नहीं उच्च शिक्षा
कि पंडित का बेटा पंडित होता मिली नहीं कोई आजीविका!

कि हल चलाना चाहता था पंडित का बेटा
किन्तु हल चलाने देगी नहीं बिरादरी और हल चलवाएगा नहीं
गैर बिरादर कि ब्राह्मण को मजूरी खटाना पाप है!

लिखूंगा वह भी एक कथा कि दुखी राम का बेटा बी०ए० पास है
पर सुखी राम के बेटा का वह घास है और कि घोड़ा घास चर गया!

ओ अनजाने सहयात्री! तू बैठ जा मेरी आधी सीट पर,
मेरी पीठ से लगकर कि मैं लिखूंगा तेरी भी व्यथा कथा!

कमजोर न पड़ने दें कोरोना टीके का सुरक्षा कवच

  • योगेश कुमार गोयल
    कोरोना वैक्सीन का टीकाकरण 2.0 गत 13 फरवरी को शुरू हो गया और उसी के साथ भारत सबसे तेजी से 77.66 लाख वैक्सीन लगाने वाला देश बन गया। अभी तक एक करोड़ से अधिक लोगों का टीकाकरण हो चुका है। भारत टीकाकरण के 21 दिनों में ही 50 लाख लोगों को वैक्सीन देने वाल दुनिया का पहला देश और 26 दिनों में 70 लाख लोगों को वैक्सीन देने वाला दुनिया का सबसे तेज देश बना गया था। हालांकि इस तथ्य की अनदेखी किया जाना भी सही नहीं कि इस दौरान फ्रंटलाइन वर्कर्स का अपेक्षा के अनुरूप टीकाकरण नहीं हो पाया है और टीकाकरण 2.0 शुरू होने के बाद वैक्सीन की दूसरी डोज लेने वालों में भी उत्साह की कमी देखी जा रही है। इसके कारणों की पड़ताल करते हुए टीकाकरण के प्रति लोगों का भरोसा बढ़ाना जाना बेहद जरूरी है क्योंकि स्वास्थ्य विशेषज्ञों का स्पष्ट मत है कि यदि टीकाकरण की दूसरी खुराक छूट गई तो टीके का सुरक्षा कवच कमजोर हो जाएगा और टीकाकरण में ऐसी लापरवाही संक्रमण की रोकथाम के प्रयासों पर भारी पड़ सकती है।
    एक ओर जहां टीकाकरण अभियान को रफ्तार देने की जरूरत महसूस की जा रही है, वहीं बिहार तथा मध्यप्रदेश से जिस प्रकार के फर्जीवाड़े के मामले सामने आए हैं, ऐसे में दुनियाभर में सराहे जा रहे इस अभियान को पलीता न लगे, इसके लिए दोषी अधिकारियों पर कार्रवाई करने और भविष्य में कोरोना टीकाकरण में पूरी पारदर्शिता बरते जाने की सख्त दरकार है। उल्लेखनीय है कि जहां मध्य प्रदेश में कोरोना वैक्सीन लगवाने वाले करीब 1.37 लाख लोगों का एक ही मोबाइल नंबर रजिस्टर होने से वहां टीकाकरण अभियान के नाम पर हो रहे फर्जीवाड़े की पोल खुली, कुछ वैसा ही मामला बिहार के कुछ अस्पतालों में भी देखने को मिला। वहां भी टीकाकरण का लक्ष्य पूरा करने के लिए बोगस मोबाइल नंबरों के साथ हजारों ऐसे लोगों का विवरण दर्ज कर दिया गया, जिन्होंने न कभी कोरोना जांच कराई और न ही वैक्सीन ली।
    दुनियाभर में अभी तक कोरोना मरीजों की संख्या करीब 11 करोड़ हो चुकी है, जिनमें से 24 लाख से अधिक मौत के मुंह में समा चुके हैं। भारत में भी अब तक एक करोड़ से ज्यादा व्यक्ति संक्रमण के शिकार हो चुके हैं। हालांकि हमारे यहां रिकवरी दर अन्य देशों के मुकाबले काफी बेहतर रही है और पिछले कुछ समय में देशभर में कोरोना संक्रमितों की संख्या में तेजी से गिरावट भी दर्ज की गई है लेकिन अब जिस प्रकार कोरोना के मामले महाराष्ट्र, केरल, पंजाब, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ इत्यादि राज्यों में धीरे-धीरे बढ़ रहे हैं, ऐसे में टीकाकरण अभियान को अपेक्षित रफ्तार दिया जाना बेहद जरूरी है। 16 जनवरी को शुरू हुए टीकाकरण अभियान के बाद 30 दिनों के अंदर 83 लाख से अधिक लोगों को ‘कोरोना सुरक्षा कवच’ मिला लेकिन यह अपेक्षित लक्ष्य से काफी कम है। सरकार का लक्ष्य तीन करोड़ स्वास्थ्यकर्मियों सहित कुल 30 करोड़ लोगों के टीकाकरण का जुलाई-अगस्त तक का लक्ष्य है और विशेषज्ञों का मानना है कि तय लक्ष्य हासिल करने के लिए सरकार को 10 गुना तेज गति से टीकाकरण अभियान चलाना होगा और इसके लिए इस कार्य में निजी क्षेत्र को भी शामिल करना होगा।
    टीकाकरण 2.0 के बाद 50 वर्ष से अधिक आयु के लोगों के टीकाकरण की तैयारी की जा रही है, यह अभियान मार्च माह में शुरू होगा। टीकाकरण के प्रति लोगों में उत्साह की कमी के चलते अलग-अलग जगहों से वैक्सीन की खुराकें बर्बाद होने की खबरें भी सामने आ रही हैं। वैक्सीन को लेकर जागरूकता में कमी के चलते लोगों के टीका केन्द्रों पर नहीं पहुंचने के कारण कोरोना वैक्सीन बेकार हो रही है। दरअसल कोविशील्ड की एक शीशी में कुल 10 जबकि कोवैक्सीन की एक शीशी में 20 खुराकें होती हैं और वैक्सीन लगाने के लिए शीशी को खोलने के चार घंटे के अंदर सभी खुराक खत्म करनी होती हैं लेकिन कुछ स्थानों पर लोगों के टीका लगवाने के लिए कम संख्या में पहुंचने और टीका लगवाने वालों की अपेक्षित संख्या नहीं होने के कारण वैक्सीन की खुराकें बर्बाद हो जाती हैं। भारत बहुत बड़ी आबादी वाला देश है और ऐसे में समझना मुश्किल नहीं है कि इतनी बड़ी आबादी के टीकाकरण का काम इतना सरल नहीं है। इसके लिए टीकाकरण अभियान की खामियों को दूर करते हुए लोगों को जागरूक करने की सख्त जरूरत है और इसमें देरी किया जाना खतरनाक होगा।
    लोगों के मन में कोरोना वैक्सीन के साइड इफैक्ट्स को लेकर जो भ्रम व्याप्त हैं, उन्हें दूर करने के लिए व्यापक स्तर पर जागरूकता अभियान चलाए जाने की दरकार है। कुछ दिनों पहले एम्स निदेशक डा. रणदीप गुलेरिया ने कहा था कि कोरोना वैक्सीन को लेकर गलत और आधारहीन सूचनाओं की बाढ़ ने लोगों के मन में टीके को लेकर अनिच्छा पैदा की है और इसका समाधान यही है कि लोगों के मन में उत्पन्न संदेह और भ्रम को दूर करने के लिए सरकार द्वारा समुचित कदम उठाए जाएं। दरअसल कोरोना टीकों को लेकर सबसे बड़ा भ्रम लोगों के मन में इनके साइड इफैक्ट को लेकर है लेकिन कई प्रमुख स्वास्थ्य विशेषज्ञों का कहना है कि टीका लगने के आधे दिन तक टीके वाली जगह पर दर्द और हल्का बुखार रह सकता है, जो इस बात की निशानी है कि टीका काम कर रहा है। जब शरीर में दवा जाती है तो हमारा प्रतिरोधी तंत्र इसे अपनाने लगता है। नीति आयोग के सदस्य डा. वीके पॉल ने कोरोना के दोनों टीकों को पूर्ण सुरक्षित बताते हुए कहा था कि टीकाकरण के शुरूआती तीन दिनों में लोगों में वैक्सीन के प्रतिकूल प्रभाव के केवल 0.18 प्रतिशत मामले सामने आए थे, जिनमें केवल 0.002 फीसदी ही गंभीर किस्म के थे। अब स्वास्थ्य मंत्रालय का भी कहना है कि वैक्सीन लगवाने के बाद केवल 0.005 फीसदी लोगों को ही अस्पताल में भर्ती कराने की जरूरत पड़ी।
    अगर टीका लगने के बाद इसके सामान्य प्रभावों की बात की जाए तो इनमें थकान, सिरदर्द, बुखार, टीके के स्थान पर सूजन या लाली, दर्द, बीमार होने या शरीर में हरारत का अहसास, शरीर व घुटनों में दर्द, जुकाम इत्यादि सामान्य असर हैं। सेंटर फॉर डिजीज कंट्रोल के अनुसार ये सभी लक्षण कुछ ही समय बाद खत्म हो जाते हैं। कुछेक मामलों में टीका लगने के बाद साइड इफैक्ट भी सामने आ सकते हैं। इन साइड इफैक्ट्स में भूख कम हो जाना, पेट में तेज दर्द का अहसास, शरीर में खुजली, बहुत ज्यादा पसीना आना, बेहोशी जैसा महसूस होना, शरीर पर चकते पड़ना, सांस लेने में परेशानी शामिल हैं। हालांकि विशेषज्ञों का कहना है कि इस तरह के साइड इफैक्ट के कुछ अन्य कारण भी हो सकते हैं, जैसे टीके को लेकर तनाव या घबराहट, टीका लगाने के तरीके और रखरखाव में कमी या टीके की गुणवत्ता में किसी तरह की खामी।
    कोरोना वैक्सीन को लेकर कुछ लोगों के मन में जो शंकाएं हैं, उनका समाधान करने का प्रयास करते हुए कुछ विशेषज्ञों ने स्पष्ट किया है कि फिलहाल स्पष्ट रूप से यह तो नहीं कहा जा सकता कि वैक्सीन से किस व्यक्ति में कितने दिन के लिए एंटीबॉडीज बनेंगी लेकिन इतना अवश्य है कि टीके की दोनों डोज लगने के बाद कम से कम 6 माह तक शरीर में एंटीबॉडी मौजूद रहेंगी और अगर इतने समय तक लोगों को कोरोना से सुरक्षा मिल गई तो कोरोना की चेन को आसानी से तोड़ा जा सकता है। वैक्सीन लगवाने के बाद व्यक्ति को कुछ जरूरी बातों का ध्यान रखना भी अनिवार्य है। कोरोना टीका लगवाने के बाद कम से कम दो महीने तक शराब का सेवन करने से बचें क्योंकि विशेषज्ञों का स्पष्ट तौर पर कहना है कि शराब पीने की लत वैक्सीन के प्रभाव को बेअसर कर सकती है। बहरहाल, कोरोना टीकाकरण अभियान के तहत पहले चरण में तीन करोड़ और दूसरे चरण में इसे 30 करोड़ के लक्ष्य तक ले जाना है और यह लक्ष्य तभी हसिल किया जा सकता है, जब लोगों के मन में टीकाकरण को लेकर उपजे भ्रम को सफलतापूर्वक दूर किया जाए।

देश चाहता “आपातकाल स्ट्राइक”

जब आंदोलनकारी आन्दोलनजीवी बन जाये तो शासन क्या करें? राष्ट्रीय व सामाजिक व्यवस्थाएं ठप्प होती रहें। नागरिकों के मौलिक व संविधानिक अधिकारों का हनन होता रहे। दैनिक दिनचर्याओं को बाधक बना दिया जाता रहे।फिर भी शासन-प्रशासन उदासीन बना रहे,क्यों?आज जब राष्ट्र में अराजकता का भीषण वातावरण बनाने के लिए भारतविरोधी तत्वों का दुःसाहस चरम पर है तो क्यों न उनपर अंकुश लगाया जाय। हमारे देश के विरुद्ध बार-बार अंतरराष्ट्रीय षडयन्त्र होते रहे और हम मौन रहें, कब तक?क्या ऐसे आन्दोलनजीवियों को नियंत्रित करने के लिए आपातकालीन व्यवस्था लगाने का निर्णय आवश्यक नहीं होगा? भारतीय संविधान में बिगड़ती हुए ऐसी भयानक स्थिति में आपातकाल की व्यवस्था का प्रावधान किया गया है। अतः राष्ट्रीय व सामाजिक सुरक्षा को सर्वोच्च मानते हुए व देशवासियों के अधिकारों का सम्मान करते हुए शासन को आपातकाल लगाने का कठोर निर्णय लेना होगा। जब शासन बार-बार वार्ताओं व अन्य लोकतांत्रिक व न्यायायिक उपायों से शांति स्थापित करने में आन्दोलनजीवियों की घृष्टता के कारण सफल नहीं हो पा रहा तो अपने सशक्त संविधानिक अधिकारों का सदुपयोग तो करना ही होगा। इसलिए वर्षों से देशद्रोहियों के बढ़ते हुए दुःसाहस को नियंत्रित करने के लिए “आपातकाल स्ट्राइक” तो करनी ही चाहिये।

आज सत्ता सुख के वियोग में तथाकथित विरासती नेताओं की तड़पती हुई महत्वाकांक्षाओं ने भारतीय लोकतंत्र की मर्यादाओं को तार-तार करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। श्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में राष्ट्रवादियों का शासन विपक्षी दलों, संदिग्ध स्वयंसेवी संगठनों, विदेशी षड्यंत्रकारियों, आतकंवादियों,अलगाववादियों व नक्सलवादियों आदि को स्वीकार नहीं। इसी का परिणाम है कि लगभग सात वर्षों से राष्ट्रीय विकास को गति प्रदान करने वाली सरकार को घेरने के लिए सारे यत्न किये जा रहे है। यह सत्य है कि शासन-प्रशासन ने लोकतंत्र की मर्यादाओं का सम्मान बचाये रखते हुए बार-बार जिस धैर्य व संयम का परिचय दिया है उसका अभिप्राय यह नहीं होना चाहिये की विद्रोहियों को बार-बार ऐसे आन्दोलन करके देश में संकट बनाये रखना सरल बना रहे।

भारत को एक सशक्त राष्ट्र के रूप में उभरते हुए देख कर अनेक देशद्रोही व भारत विरोधी तत्वों के गठबंधन जो वर्षो से षडयन्त्र करते आ रहे हैं अब और अधिक गति से सक्रिय हो गए हैं। देश के विकास के लिए और भारतीयता की रक्षार्थ किसी भी योजना को किर्यान्वित करने व अवरोध पैदा करने में भीड़तंत्र को उकसाकर व लालच देकर दुःसाहस करने वाले धीरे-धीरे सफल हो रहे है। लोकतांत्रिक प्रणाली का ऐसा अनुचित लाभ उठाने वालों पर शासन-प्रशासन की उदारता उन्हें और अधिक दुःसाहसी बना रही है। “नागरिकता संशोधन कानून” व “कृषि कानूनों” के सहारे देशवासियों को भड़काने में देश को विखंडित करने का सपना देखने वालों की जड़ों को खोदना होगा। शासन को संवैधानिक शक्तियों का पालन करके ऐसे तत्वों पर कठोर कार्यवाही करने के लिए किन्तुओं व परंतुओं के जाल से बाहर निकलना होगा।

आखिर कब तक भारत विरोधी मानसिकता से केंद्र में लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं का पालन करते हुए जनता द्वारा चुनी हुई सरकार को ही उसी जनता द्वारा विरोध की आग में झुलसाया जाता रहे?क्या यह कहना अनुचित होगा कि संसद में पारित विधेयकों के विषय में बार-बार झूठा भ्रम फैलाकर देशवासियों को उकसा कर आन्दोलनों की आड़ में अराजकता फैलाने वालों के लिए यह एक प्रकार का नया उपक्रम/उद्योग बनता जा रहा है? इसको देशप्रेम मानने वाले आन्दोलनकारियों को यह समझना चाहिये कि यह स्पष्ट देशद्रोह है। केंद्र में चुनी हुई सरकार के विरोध में जब जनता ही आंदोलित हो जाएगी तो लोकतंत्र की रक्षा कैसे हो पाएगी? ऐसा प्रतीत होता है कि इन प्रतिकूल परिस्थितियों में देश में आपातकाल लगाने की अगर शासन पहल करें तो भारत का अधिकांश समाज इसका स्वागत करेगा। देश की एकता व अखण्डता को सुरक्षित रखने के लिए एवं भारतीयता के समक्ष बढ़ती ऐसी चुनौतियों से निपटने के लिए आपातकाल जैसी संवैधानिक व्यवस्था को अपनाने का साहस करना अनुचित नहीं होगा। देश की सीमाओं व सीमाओं के बाहर सर्जिकल व एयर स्ट्राइक का सशक्त व सफल प्रदर्शन करके विश्व में भारत की शक्ति का लोहा मनमाने वाली केंद्रीय सरकार को अब देश-विदेश में छिपे हुए इन आन्दोलनजीवियों व विद्रोहियों पर “आपातकाल स्ट्राइक” करके देशवासियों के मौलिक व संवैधानिक अधिकारों को सुरक्षित रखना होगा।

भूकंप के पूर्वानुमान की चुनौती

-अरविंद जयतिलक
देश की राजधानी नई दिल्ली समेत जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, पंजाब, उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में भूकंप के तेज झटके से एक बार फिर जनमानस सिहर उठा। हालांकि जानमाल का नुकसान नहीं हुआ लेकिन एक बात स्पष्ट है कि विकास के नए आयाम गढ़ने और उच्च तकनीकी हासिल करने के बावजूद भी हम भूकंप का पूर्वानुमान लगाने में विफल हंै। हां, रुस और जापान में आए अनेक भूकंपों के पर्यवेक्षणों से पूर्वानुमान के संकेत सामने आने लगे हैं लेकिन भारत अभी भी यह उपलब्धि हासिल नहीं कर सका है। जबकि भारत भूकंप से प्रभावित विनाशकारी क्षेत्रों में से एक संवेदनशील क्षेत्र है। गौर करें तो विश्व के भूकंप क्षेत्र मुख्यतः दो तरह के भागों में हैं एक-परिप्रशांत (सर्कम पैसिफिक) क्षेत्र जहां 90 फीसद भूकंप आते हैं और दूसरे-हिमालय और आल्पस क्षेत्र। भूकंप क्षेत्रों का इन प्रमुख प्राकृतिक भागों से घनिष्ठ संबंध है। वस्तुतः भूकंप के कई कारण हैं लेकिन भारत और यूरेशिया प्लेटों के बीच टकराव हिमालय क्षेत्रों में भूकंप का प्रमुख कारण है। अगर भारत के संदर्भ में बात करें तो ये प्लेटें 40 से 50 मिमी प्रति वर्ष की गति से चलायमान है। इस प्लेट की सीमा विस्तृत है। यह भारत में उत्तर में सिंधु-सांगपो सुतुर जोन से दक्षिण में हिमालय तक फैली है। यूरेशिया प्लेट के नीचे उत्तर की ओर स्थित भारत प्लेटों की वजह से पृथ्वी पर यह भूकंप के लिहाज से सबसे संवेदनशील क्षेत्र है। वैज्ञानिकों की मानें तो कश्मीर से नार्थ ईस्ट तक का इलाका भूकंप की दृष्टि से बेहद संवेदनशील है। इसमें हिमाचल, असम, अरुणाचल प्रदेश, कुमाऊं व गढ़वाल समेत पूरा हिमालयी क्षेत्र शामिल है। निश्चित रुप से उत्तरी मैदान क्षेत्र भयावह भूकंप के दायरे से बाहर है लेकिन पूरी तरह सुरक्षित नहीं हैं। दिल्ली, हरियाणा, पंजाब और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बारे में बताया गया है कि भूगर्भ की दृष्टि से यह क्षेत्र बेहद संवेदनशील है। दरअसल इस मैदान की रचना जलोढ़ मिट्टी से हुई है और हिमालय के निर्माण के समय सम्पीडन के फलस्वरुप इस मैदान में कई दरारें बन गयी है। यही वजह है कि भूगर्भिक हलचलों से यह क्षेत्र शीध्र ही कंपित हो जाता है। अगर इस क्षेत्र में भूकंप आता है तो भीषण तबाही मच सकती है। भीषण भूकपों से भारत में भी अनगिनत बार जनधन की भारी तबाही मच चुकी है। उदाहरण के लिए 11 दिसंबर 1967 में कोयना के भूकंप से सड़कें तथा बाजार वीरान हो गए। हरे-भरे खेत ऊबर-खाबड़ भू-भागों में तब्दील हो गए। हजारों व्यक्तियों की मृत्यु हुई। अक्टुबर, 1991 में उत्तरकाशी और 1992 में उस्मानाबाद और लातूर के भूकंपों में हजारों व्यक्तियों की जानें गयी और अरबों रुपए की संपत्ति का नुकसान हुआ। उत्तरकाशी के भूकंप में लगभग पांच हजार लोग कालकवलित हुए। 26 जनवरी 2001 को गुजरात के भुज कस्बे में आए भूकंप से 30000 से अधिक लोगों की जानें गयी। अभी हाल ही में इराक-ईरान सीमा पर आए 7.3 तीव्रता के भीषण भूकंप में तकरीबन 500 से अधिक लोगों की दर्दनाक मौत हुई। याद होगा अभी गत वर्ष पहले म्यांमार सीमा के निकट शक्तिशाली भूकंप आया थ जिसके झटके ने पूर्वोत्तर राज्यों समेत पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और उत्तराखंड के लोगों को डरा दिया था। इससे पहले पूर्वोत्तर में आए भीषण भूकंप में डेढ़ दर्जन से अधिक लोग मारे गए और सैकड़ों लोग घायल हुए थे। उचित होगा कि वैज्ञानिक बिरादरी भूकंप के पूर्वानुमान का भरोसेमंद उपकरण विकसित करें। सरकार की भी जिम्मेदारी है कि भवन-निर्माण में ऐसी तकनीकी का विकास करे जिससे कि इमारतें भूकंप के भीषण झटके को सहन कर सकें। ध्यान दें तो भूकंप में सर्वाधिक नुकसान भवनों इत्यादि के गिरने से होता है। दुनिया के सर्वाधिक भूकंप जापान में आते हैं। इसलिए उसने अपनी ऐसी आवास-व्यवस्था विकसित की है जो भूकंप के अधिकतर झटकों को सहन कर लेती है। इसके अलावा सरकार एवं स्वयंसेवी संस्थाओं को चाहिए कि वह आपदा के समय किए जाने वाले कार्य व व्यवहार के बारे में जनता को प्रशिक्षित करे। मानव जाति के लिए भी चाहिए कि वह प्राकृतिक आपदाओं से बचने के लिए प्रकृति के साथ सामंजस्य बिठाए। यह देखा जा रहा है कि विकास की अंधी दौड़ में मानव जाति प्रकृति के विनाश पर आमादा है। यह तथ्य है कि अंधाधुंध विकास के नाम पर मानव प्रति वर्ष 7 करोड़ हेक्टेयर वनों का विनाश कर रहा है। पिछले सैकड़ों सालों में उसके हाथों प्रकृति की एक तिहाई से अधिक प्रजातियां नष्ट हुई हैं। जंगली जीवों की संख्या में 50 फीसद कमी आयी है। जैव विविधता पर संकट है। वनों के विनाश से प्रतिवर्ष 2 अरब टन अतिरिक्त कार्बन-डाइआक्साइड वायुमण्डल में घुल-मिल रहा है। बिजली उत्पादन के लिए नदियों के सतत प्रवाह को रोककर बांध बनाए जाने से खतरनाक पारिस्थितिकीय संकट खड़ा हो गया है। जल का दोहन स्रोत सालाना रिचार्ज से कई गुना बढ़ गया है। पेयजल और कृषि जल का संकट गहराने लगा है। भारत की गंगा और यमुना जैसी अनगिनत नदियां सूखने के कगार पर हैं। वे प्रदूषण से कराह रही हैं। सीवर का गंदा पानी और औद्योगिक कचरा बहाने के कारण क्रोमियम और मरकरी जैसे घातक रसायनों से उनका पानी जहर बनता जा रहा है। जल संरक्षण और प्रदुषण पर ध्यान नहीं दिया गया तो 200 सालों में भूजल स्रोत सूख जाएगा। किंतु भोग में डूबा मानव इन संभावित आपदाओं से बेफिक्र है। नतीजतन उसे मौसमी परिवर्तनों मसलन ग्लोबल वार्मिंग, ओजोन क्षरण, ग्रीन हाउस प्रभाव, भूकंप, भारी वर्षा, बाढ़ और सूखा जैसी अनेक विपदाओं से जुझना पड़ रहा है। हालांकि प्रकृति में हो रहे बदलाव से मानव जाति चिंतित है और इसके लिए 1972 में स्टाकहोम सम्मेलन, 1992 में जेनेरियो, 2002 में जोंहासबर्ग, 2006 में मांट्रियाल, 2007 में बैंकाॅक और 2015 में पेरिस सम्मेलनों के जरिए चिंता जतायी गयी। पर्यावरण संरक्षण के लिए ठोस कानून भी बनाए गए। लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण यह कि उस पर अमल नहीं हो रहा है और मानव अपने दुराग्रहों के साथ है। लिहाजा प्रकृति भी प्रतिक्रियावादी हो गयी है। समझना होगा प्रकृति सार्वकालिक है। मनुष्य अपनी वैज्ञानिकता के चरम बिंदू पर क्यों न पहुंच जाए उसकी एक छोटी-सी खिलवाड़ भी सभ्यता का सर्वनाश कर सकती है। लेकिन विडंबना है कि मनुष्य प्रकृति की भाषा और व्याकरण को समझने को तैयार नहीं। वह अपनी समस्त उर्जा प्रकृति को ही अधीन करने में झोंक रहा है। लेकिन यह समझना होगा कि जब तक प्रकृति से एकरसता स्थापित नहीं होगी तब तक प्रकृति के गुस्से का कोपभाजन बनना होगा। गौर करना होगा कि सिंधु घाटी की सभ्यता हो या मिश्र की नील नदी घाटी की सभ्यता या दजला-फरात हो या ह्नांगहों घाटी की सभ्यता सभी में प्रकृति के प्रति एकरसता थी। इन सभ्यताओं के लोग प्रकृति को ईश्वर का प्रतिरुप मानते थे। इन सभ्यताओं में वृक्ष पूजा और नागपूजा के स्पष्ट प्रमाण हैं। यह इस बात का संकेत है कि हजारों वर्ष पूर्व मानव जाति प्रकृति के निकट और सापेक्ष था। उसकी प्रकृति से समरसता और आत्मीयता थी। उसकी सोच व्यापक और उदार थी। मौजूदा समय में भी स्वयं को बचाने के लिए प्रकृति के निकट जाना होगा। यह समझना होगा कि अमेरिका, जापान, चीन और कोरिया जिनकी वैज्ञानिकता और तकनीकी क्षमता का दुनिया लोहा मानती है, वे भी प्रकृति की कहर के आगे घुटने टेक चुके हैं। अलास्का, चिली और कैरीबियाइ द्वीप के आइलैंड हैती में आए भीषण भूकंप की बात हो या जापान में सुनामी के कहर की, बचाव के वैज्ञानिक उपकरण धरे के धरे रह गए। लेकिन विडंबना है कि इस ज्ञान के बावजूद भी 21 वीं सदी का मानव प्रकृति की भाषा को समझने को तैयार नहीं। बल्कि उसका चरम लक्ष्य प्रकृति की चेतना को चुनौती देकर अपनी श्रेष्ठता साबित करना है। किंतु मानव को समझना होगा कि उसका यह आचरण समष्टि विरोधी है। प्रकृति पर प्रभुत्व की लालसा विनाश का रास्ता है। मानव जाति को समझना होगा कि आए दिन आ रहे भूकंप प्रकृति की एक छोटी-सी प्रतिक्रिया भर है। अगर मानव जाति प्रकृति के प्रति अपने क्रुरता का परित्याग नहीं किया तो उसका अस्तित्व मिटना तय है।

माधवराव सदाशिव राव गोलवलकर उपाख्य श्री गुरूजी और संघ

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के धुर-से-धुर विरोधी एवं आलोचक भी कदाचित इस बात को स्वीकार करेंगें कि संघ विचार-परिवार जिस सुदृढ़ वैचारिक अधिष्ठान पर खड़ा है उसके मूल में माधवराव सदाशिव राव गोलवलकर उपाख्य श्री गुरूजी के विचार ही बीज रूप में विद्यमान हैं। संघ का स्थूल-शरीरिक ढाँचा यदि डॉक्टर हेडगेवार की देन है तो उसकी आत्मा उसके द्वितीय सरसंघचालक श्री गुरूजी के द्वारा रची-गढ़ी गई है। उनका वास्तविक आकलन-मूल्यांकन होना अभी शेष है, क्योंकि संघ-विचार परिवार के विस्तार और व्याप्ति का क्रम आज भी लगातार जारी है। किसी भी नेतृत्व का मूल्यांकन तात्कालिकता से अधिक उसकी दूरदर्शिता पर केंद्रित होता है। यह उदार मन से आकलित करने का विषय है कि एक ही स्थापना-वर्ष के बावजूद क्या कारण हैं कि तीन-तीन प्रतिबंधों को झेलकर भी संघ विचार-परिवार विशाल वटवृक्ष की भाँति संपूर्ण भारतवर्ष में फैलता गया, उसकी जड़ें और मज़बूत एवं गहरी होती चली गईं, वहीं तमाम अंतर्बाह्य आर्थिक-संस्थानिक-व्यवस्थागत सहयोग-संरक्षण पाकर भी वामपंथ लगातार सिकुड़ता चला गया। संघ के इस विश्वव्यापी विस्तार एवं व्याप्ति के पीछे श्री गुरूजी का मौलिक एवं दूरदर्शी चिंतन, ध्येयनिष्ठ-निःस्वार्थ-अनुशासित जीवन, अभिनव दैनिक शाखा-पद्धत्ति और व्यक्ति निर्माण की अनूठी योजना कारणरूप में उपस्थित रही है। क्या साधना के बिना सिद्धि, साहस-संघर्ष के बिना संकल्प और प्रत्यक्ष आचरण के बिना प्रभाव की प्रप्ति संभव है? श्री गुरूजी में ऐसे सभी दुर्लभ गुण एकाकार थे। उनकी कथनी और करनी में कोई अंतर नहीं था।

संघ संस्थापक डॉक्टर हेडगेवार द्वारा सन 1940 में संघ का दायित्व सौंपे जाने के बाद उन्होंने तत्कालीन परिस्थितियों का अध्ययन करते हुए स्वतंत्रता-आंदोलन में संघ की रचनात्मक-विधायक भूमिका सुनिश्चित की। मातृभूमि के लिए किए जा रहे कार्यों का श्रेय न लेना संघ के उल्लेखनीय संस्कारों में से प्रमुख है। स्वाभाविक है कि भारत छोड़ो आंदोलन में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेने के बावजूद संघ के स्वयंसेवकों एवं कार्यकर्त्ताओं ने कभी उसका श्रेय नहीं लिया। देश का विभाजन न हो, इसके लिए संघ प्राणार्पण से प्रयासरत रहा। पर जब विभाजन और उससे उपजी भयावह त्रासदी को देश और देशवासियों पर थोप दिया गया, जब अखंड भारतवर्ष के लाखों हिंदूओं को अपनी जड़-ज़मीन-ज़ायदाद-जन्मस्थली को छोड़कर विस्थापन को विवश होना पड़ा, जब एक ओर सामूहिक नरसंहार जैसी सांप्रदायिक हिंसा की भयावह-अमानुषिक घटनाएँ तो दूसरी ओर सब कुछ लुटा शरणार्थी शिविरों में जीवन बिताने की नारकीय यातनाएँ ही जीवन की अकल्पनीय-असहनीय-कटु वास्तविकता बनकर महान मानवीय मूल्यों एवं विश्वासों की चूलें हिलाने लगीं, ऐसे घोर अंधेरे कालखंड और प्रतिकूलतम परिस्थितियों के मध्य संघ ने अकारण शरणार्थी बना दिए गए उन लाखों विस्थापित-शरणार्थी हिंदुओं की जान-माल की रक्षा के लिए अभूतपूर्व-ऐतिहासिक कार्य किया। श्री गुरूजी स्वयं उन शरणार्थी शिविरों में जा-जाकर लोगों को सांत्वना व दिलासा देते रहे, उनकी यथासंभव सहायता करते रहे। महाराजा हरिसिंह को समझा-बुझाकर जम्मू-कश्मीर का भारत में विलय करवाने में उनका निर्णायक योगदान था और जब पाकिस्तानी सेना ने कबायलियों के वेश में जम्मू-कश्मीर पर हमला किया तब उनके दिशानिर्देशन में ही संघ के स्वयंसेवकों ने राष्ट्र के जागरूक प्रहरी की भूमिका निभाते हुए भारतीय सेना की यथासंभव सहायता की। संघ के स्वयंसेवकों ने राष्ट्र-रक्षा में सजग-सन्नद्ध प्रहरी की इस भूमिका का निर्वाह 1962 और 1965 के युद्ध में भी किया। उल्लेखनीय है कि युद्ध सेना तो अपने दम पर लड़ती ही लड़ती है, पर युद्ध में जय बोलने वालों, उसका मनोबल बढ़ाने वालों और उसका सहयोगी-तंत्र बनने वालों का भी अपना महत्त्व होता है। 1948 में गाँधी जी की दुर्भाग्यपूर्ण हत्या का आरोप मढ़कर जब संघ को 18 महीने के लिए प्रतिबंधित कर दिया गया और श्री गुरूजी को जेल में डाल दिया गया, तब भी वे विचलित नहीं हुए। उन्होंने हार नहीं मानी, न डरे, न झुके, न समझौता किया। संघर्षों की उस आग में तपने के पश्चात वे और संघ दोनों कुंदन की तरह निखरे-दमके और चहुँ ओर अपनी कीर्त्ति-रश्मियाँ बिखेरीं। वह एक ऐसा निर्णायक दौर था, जब गुरुजी की एक चूक या भूल संघ की दशा-दिशा को सदा-सर्वदा के लिए प्रभावित कर सकती थी। वे चाहते तो प्रतिबंध की प्रताड़ना को झेलने के पश्चात संघ को एक राजनीतिक दल के रूप में परिणत कर सकते थे। उसे सत्ता-संधान या तदनुकूल परिस्थितियों तक सीमित कर सकते थे। पर नहीं, उन्होंने अभूतपूर्व दूरदर्शिता का परिचय देते हुए संघ को राजनीतिक नहीं, सामाजिक-सांस्कृतिक संगठन के रूप में विकसित किया। क्योंकि यह सत्य है कि व्यापक मानवीय संस्कृति का एक प्रमुख आयाम होते हुए भी राजनीति प्रायः तोड़ती है, संस्कृति जोड़ती है, राजनीति की सीमाएँ हैं, संस्कृति की अपार-अनंत संभावनाएँ हैं। कदाचित गुरुजी इसे जानते थे। यह उनके द्वारा दी गई दृष्टि का ही सुखद परिणाम है कि देश-धर्म-संस्कृति की रक्षा हेतु प्रतिरोधी स्वर को बुलंद करने के बावजूद संघ का मूल स्वर और स्वरूप विधायी एवं रचनात्मक है, प्रतिक्रियावादी नहीं। वह सृजन, साधना और निर्माण का स्वर है। यह अकारण नहीं है कि राष्ट्र के सम्मुख चाहे कोई संकट उपस्थित हुआ हो या कोई आपदा-विपदा आई हो, संघ के स्वयंसेवक स्वयंप्रेरणा से सेवा-सहयोग हेतु अहर्निश प्रस्तुत एवं तत्पर रहते हैं। प्राणों की परवाह किए बिना कोविड-काल में किए गए सेवा-कार्य उसके ताज़ा उदाहरण हैं। संघ के स्वयंसेवकों ने यदि सदैव एक सजग-सन्नद्ध-सचेष्ट प्रहरी की भूमिका निभाई है तो उसके पीछे राष्ट्र को एक जीवंत भावसत्ता मानकर उसके साथ तदनुरूप एकाकार होने का दिव्य भाव उन्होंने ही स्वयंसेवकों में जागृत-आप्लावित किया था। यह कम बड़ी बात नहीं है कि एक ऐसे दौर में जबकि चारों ओर बटोरने-समेटने-लेने की प्रवृत्ति प्रबल-प्रधान हो, संघ के स्वयंसेवक देने के भाव से प्रेरित-संचालित-अनुप्राणित हो राष्ट्रीय-सामाजिक-सांस्कृतिक सरोकारों में योगदान देकर जीवन की धन्यता-सार्थकता की अनुभूति करते हैं।

संघ का पूरा दर्शन ही ‘मैं नहीं तू ही’, ‘माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः’, ‘याची देही याची डोला’ के भाव पर अवलंबित है। संघ समाज के विभिन्न वर्गों-खाँचों-पंथों-क्षेत्रों-जातियों को बाँटने में नहीं, जोड़ने में विश्वास रखता है। वह बिना किसी नारे, मुहावरे और आंदोलन के अपने स्वयंसेवकों के मध्य एकत्व का भाव विकसित करने में सफल रहा है। गाँधीजी और बाबा साहेब आंबेडकर तक ने यों ही नहीं स्वयंसेवकों के मध्य स्थापित भेदभाव मुक्त व्यवहार की सार्वजनिक सराहना की थी। संघ संघर्ष नहीं, सहयोग और समन्वय को परम सत्य मानकर कार्य करता है। उसकी यह सहयोग-भावना व्यष्टि से परमेष्टि तथा राष्ट्र से संपूर्ण चराचर विश्व और मानवता तक फैली हुई है। छोटी-छोटी अस्मिताओं को उभारकर अपना स्वार्थ साधने की कला में सिद्धहस्त लोग और विचारधाराएँ संघ द्वारा प्रस्तुत व्यापक राष्ट्रीय-मानवीय अस्मिता के विरुद्ध जान-बूझकर कुप्रचार फैलाती हैं। वस्तुतः संघ जिस हिंदुत्व और राष्ट्रीयता की पैरवी करता है, उसमें संकीर्णता नहीं, उदारता है। उसमें विश्व-बंधुत्व की भावना समाहित है। उसमें यह भाव समाविष्ट है कि पुरखे बदलने से संस्कृति नहीं बदलती। जब-जब राष्ट्र की एकता-अखंडता, संघ के व्यापक विस्तार, वैश्विक व्याप्ति की चर्चा होगी श्री गुरूजी याद आएँगें, क्योंकि उसकी इस सफल-गौरवशाली यात्रा की नींव में उनके विचार ही ठोस आधारशिला एवं प्रेरणा-पाथेय के रूप में विद्यमान हैं।

छत्रपति शिवाजी और राष्ट्रीय-जीवन में उनका अप्रतिम योगदान

राष्ट्रीय जीवन एवं ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में छत्रपति शिवाजी महाराज की महत्ता एवं योगदान को रेखांकित-मूल्यांकित करने के लिए तत्कालीन परिस्थितियों को दृष्टिगत रखना पड़ेगा। सदियों की गुलामी ने हिंदू समाज के मनोबल को भीतर तक तोड़ दिया था। पराधीन एवं पराजित हिंदू समाज को मुक्ति का कोई उपाय नहीं सूझ रहा था। मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम और लोकरक्षक श्रीकृष्ण जैसे सार्वकालिक महानायकों का आदर्श सम्मुख होने के बावजूद वर्तमान दुरावस्था ने उन्हें हताशा और निराशा के गर्त्त में धकेल दिया था। सनातन समाज के अंतर्मन में संघर्ष और विजय की कामना तो पलती थी, पर परकीय शासन की भयावहता और क्रूरता उन्हें चुप्पी साध लेने को विवश करती थी। देश में विधर्मी-विदेशी आक्रांताओं का राज्य स्थापित हो जाने के पश्चात हिंदू जनता और अधिकांश हिंदू राजाओं के हृदय में गौरव, उत्साह और विजिगीषा के लिए कोई अवकाश शेष नहीं था। उनके सामने ही उनके देवमंदिर गिराए जाते थे, देवमूर्त्तियाँ तोड़ी जाती थीं और पूज्य पुरुषों का अपमान किया जाता था। गुलामी और संघर्ष के बावजूद अपनी किसी-न-किसी सामाजिक-सांगठनिक-सैन्य दुर्बलता, रणनीतिक चूक या भीतरघात आदि के कारण लगातार मिलने वाली पराजय के परिणामस्वरूप शनैः-शनैः एक ऐसा भी कालखंड आया, जब लोगों ने अपने साहस, शौर्य, स्वत्व एवं स्वाभिमान को तिलांजलि देकर ‘दिल्लीश्वरो जगदीश्वरोवा” की धारणा को सत्य मानना प्रारंभ कर दिया।

निराशा और हताशा के घटाटोप अंधकार भरे ऐसे परिवेश में भारतीय नभाकाश पर छत्रपति शिवाजी जैसे तेजोद्दीप्त सूर्य का उदय हुआ। शिवाजी का उदय केवल एक व्यक्ति का उदय मात्र नहीं था, बल्कि वह जातियों के उत्साह और पुरुषार्थ का उदय था, गौरव और स्वाभिमान का उदय था, स्वराज, सुराज, स्वधर्म व सुशासन का उदय था और इन सबसे अधिक वह आदर्श राजा के जीवंत और मूर्त्तिमान प्रेरणा-पुरुष का उदय था। उनका राज्याभिषेक केवल किसी व्यक्ति विशेष के सिंहासन पर बैठने की घटना भर नहीं थी। बल्कि वह समाज और राष्ट्र की भावी दिशा तय करने वाली एक युगांतकारी घटना थी। वह सदियों की सोई हुई चेतना को झकझोर कर जागृत करने वाली घटना थी। शिवाजी महाराज केवल एक व्यक्ति नहीं थे, वे एक सोच थे, संस्कार थे, संस्कृति थे, पथ-प्रदर्शक, क्रांतिकारी मशाल थे, युगप्रवर्तक शिल्पकार थे।

उनका राज्याभिषेक और हिंदवी साम्राज्य की स्थापना उनके सुदीर्घ चिंतन और प्रत्यक्ष अनुभव का परिणाम था। वह उनके अथक प्रयासों और अभिनव प्रयोगों की सार्थक परिणति थी। सदियों से पराधीन जाति की सुषुप्त चेतना व स्वत्व को जगाने का यह उनका असाधारण व सुविचारित प्रयास था। पृथ्वीराज चौहान के बाद से हिंदू जाति तुर्कों/मुगलों के निरंतर आधीन रही। ऐसे में शिवाजी ने पहले समाज के भीतर आत्मविश्वास जगाया। उनमें राष्ट्रीय स्वाभिमान की भावना का संचार कर उन्हें किसी बड़े ध्येय के लिए प्रेरित और संगठित किया। छोटे-छोटे कामगारों-कृषकों मेहनतकश जातियों, जुझारू मावलों को एकत्रित किया। उनमें विजिगीषु वृत्ति भरी। उनमें यह विश्वास भरा कि आदिलशाही-कुतबशाही-मुग़लिया सल्तनत कोई आसमानी ताकत नहीं है। ये सत्ताएँ अपराजेय नहीं हैं। अपितु थोड़ी-सी सूझ-बूझ, रणनीतिक कौशल, साहस, सामर्थ्य और संगठन से उन्हें हराया जा सकता है। न केवल हराया जा सकता है, अपितु प्रजाजनों की इच्छा के अनुरूप एक धर्माधारित-प्रजापालक राजकीय सत्ता और राज्य भी स्थापित किया जा सकता है। उन्होंने छोटे-छोटे किलों को जीतकर पहले अपने सैनिकों का मनोबल बढ़ाया। और तत्पश्चात उन्होंने बड़े-बड़े किले जीतकर अपना राज्य-विस्तार तो किया ही; आदिलशाही, कुतबशाही, अफ़ज़ल खां, शाइस्ता खां, मिर्जा राजा जयसिंह आदि प्रतिपक्षियों और उनकी विशाल सेना से ज़बरदस्त मोर्चा भी लिया। कुछ युद्ध हारे तो बहुधा जीते। कभी संधि और समझौते किए। जब ज़रूरत पड़ी पीछे हटे, रुके, ठहरे, शक्ति संचित की और पुनः वार किया। उन्होंने हठधर्मिता और कोरी आदर्शवादिता के स्थान पर ठोस व्यावहारिकता का पथ चुना। व्यावहारिकता को चुनते समय न तो निजी एवं राष्ट्रीय जीवन के उच्चादर्शों व मूल्यों को ताक पर रखा, न ही प्रजा के हितों और समय की माँग की उपेक्षा की। वस्तुतः उनका लक्ष्य राष्ट्र और धर्म रक्षार्थ विजय और केवल विजय रहा। और अंततः इसमें वे सफ़ल रहे। वे एक प्रकार से मुग़लिया सल्तनत के ताबूत की आख़िरी कील साबित हुए। यदि औरंगज़ेब दक्षिण में मराठाओं से न उलझता तो कदाचित मुग़लिया सल्तनत का इतना शीघ्र अंत न होता। कल्पना कीजिए कि शिवाजी का नेतृत्व-कौशल, सैन्य-व्यूह और संगठन-शिल्प कितना सुदृढ़ रहा होगा कि उनके जाने के बाद भी मराठे मुगलों और अंग्रेजों से अनवरत लड़ते रहे, झुके नहीं।

न केवल मराठों में बल्कि शिवाजी महाराज की सफलता को देखकर अन्य भारतीय राजाओं में भी स्वतंत्रता की अलख जगी। वे भी पराधीनता की बेड़ियाँ उतार फेंकने को उद्धत हो गए। दक्षिण से लेकर उत्तर तक, राजस्थान से लेकर असम तक स्वाधीनता के प्रयास तीव्र हो गए। उनसे प्रेरणा पाकर राजस्थान में वीर दुर्गादास राठौड़ के नेतृत्व में सब राजपूत राजाओं ने मुगलों-तुर्कों के विरुद्ध ऐसा आक्रमण छेड़ा कि दुबारा उन्हें राजस्थान में पाँव रखने की हिम्मत नहीं हुई। वीर छत्रसाल ने अलग रणभेरी बजा दी और स्वधर्म पर आधारित स्वशासन की स्थापना की। असम के राजा चक्रध्वज सिंह ने घोषणा की कि ”हमें शिवाजी जैसी नीति अपनाकर ब्रह्मपुत्र के तट पर स्थित राज्यों में मुगलों के क़दम नहीं पड़ने देना चाहिए।” कूच-बिहार के राजा रूद्र सिंह ने कहा कि ”हमें शिवाजी के रास्ते पर चलते हुए इन पाखंडियों को बंगाल के समुद्र में डुबो देना चाहिए।” दिल्लीश्वर के दरबार की शोभा बढ़ाने की बजाय कवि भूषण ने अपनी संस्कृति, अपने धर्म की रक्षा के लिए संघर्ष एवं पराक्रम की परंपरा को आगे बढ़ाने वाले वीर शिरोमणि महाराज शिवाजी पर ”शिवा बावनी” लिखी। उन्होंने औरंगज़ेब की चाकरी को लात मार दी। उन्होंने भरे दरबार में कहा- ”कवि बेचा नहीं जाता। जो उज्ज्वल चरित्र और स्तुति योग्य है, उसी की स्तुति करता है। तुम स्तुति के लायक नहीं हो।” वस्तुतः शिवाजी महाराज के जीवन का उद्देश्य भी यही था। वे अपने उद्यम-पुरुषार्थ, सोच-संकल्प, नीति-नेतृत्व से संपूर्ण देश में सांस्कृतिक चेतना का संचार करना चाहते थे। उनके व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व को केवल महाराष्ट्र और उनके काल तक सीमित करना उनके साथ सरासर अन्याय होगा। यह निरपवाद सत्य है कि उन्होंने अपने समय और समाज की चेतना को तो झंकृत किया ही, आने वाली पीढ़ियों एवं स्वतंत्रता सेनानियों के लिए भी वे ऊर्जा और प्रेरणा के सबसे दिव्य एवं प्रखर प्रकाशपुंज बने। पश्चिम के पास यदि ऐसा कोई योद्धा नायक होता तो वे उसे कला, सिनेमा, साहित्य के माध्यम से दुनिया भर में प्रचारित, प्रसारित एवं प्रतिष्ठित कर महानता के शिखर पर आरूढ़ करते। परंतु भारत में लोकमानस ने तो उन्हें सिर-माथे धारण किया, पर कतिपय इतिहासकारों ने उन्हें पहाड़ी चूहा, चौथ व लगान वसूलने वाला लुटेरा सामंत सिद्ध करने की कुत्सित चेष्टा की। पर तेजोद्दीप्त सूर्य को चंद बादल-गुच्छ भला कब तक रोक सका है, कब तक रोक सकेगा!

वे पहले आधुनिक शासक थे जिसने चतुरंगिनी सैन्य-बल का गठन किया था। वे नौसेना के जनक थे। उन्होंने शास्त्रों के साथ-साथ शस्त्रों की महत्ता समझी थी। उसके निर्माण के कल-कारखाने स्थापित किए थे। धर्मांतरितों की घर वापसी को कदाचित उन्होंने ही सर्वप्रथम मान्यता दिलवाई। उनका अष्टप्रधान बेजोड़ मंत्रीमंडल और शासन-तंत्र का उदाहरण था। उस समय के वंशवादी दौर में पेशवा का चलन, वास्तव में योग्यता का सम्मान था। अपनों को भी दंड देकर उन्होंने न्याय का उच्चादर्श रखा। जो जितने ऊँचे पद पर है, उसके लिए उतना बड़ा दंड-विधान जिम्मेदारी और जवाबदेही तय करने की उनकी अनूठी शैली थी। साहस, निष्ठा व प्रतिभा को पुरस्कृत करने का अनेकानेक दृष्टांत उन्होंने प्रस्तुत किया। विधर्मी आक्रांताओं को जहाँ उन्होंने अपने कोपभाजन का शिकार बनाया, वहीं अ-हिन्दू प्रजाजनों के प्रति वे उतने ही सदाशय, सहिष्णु एवं उदार रहे। शिवाजी जैसा अमर, दिव्य एवं तेजस्वी चित्र अतीत के प्रति गौरवबोध विकसित करेगा और निश्चय ही वर्तमान का पथ प्रशस्त कर स्वर्णिम भविष्य की सुदृढ़ नींव रखेगा।

आर्य द्रविड़ को अलग जाति बताके भ्रम फैलाना ठीक नहीं

—विनय कुमार विनायक
आर्य-द्रविड़ को अलग-अलग जाति
बताके भ्रम को फैलाना ठीक नहीं!

‘आर्य’ भारत में नहीं अलग जाति,
यह तो एक संबोधन और उपाधि,
संस्कृत भाषा-भाषियों से संबोधित,
भारतीय भाषाओं द्वारा संपोषित!

आज का ‘सर’ अंग्रेजी सरनेम जैसे,
नाम के आगे या पीछे में लगा देते,
जैसे सर सैयद अहमद, सर इकबाल,
अंग्रेज नहीं, मुस्लिम हिन्दू मूल के!

ज्यों मुहम्मद जिन्ना,मुहम्मद इकबाल,
अरबी नस्ल के नहीं,भारतीय जाति के,
आर्य को जाति बताके उत्तर-दक्षिण में,
आर्य-द्रविड़ में घृणा फैलाना ठीक नहीं!

आर्य नहीं कोई जाति,ये एक संबोधन;
श्रद्धेय, महोदय, महाशय, श्रीमान जैसे,
श्री, मुहम्मद या अंग्रेज की सर उपाधि,
हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई को लगाई जाती,
क्या उनकी मजहबी-जाति बदल जाती?

हमें हिन्दी, पारसी-ईरानियों ने कही थी,
हम हिन्दी हैं,वतन ये हिन्दोस्तां हमारा,
सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां, का नारा,
किसी तथाकथित आर्यजाति नहीं बल्कि,
हिन्दू से धर्मांतरित मुस्लिम शायर का!

तय है तथाकथित उत्तर की आर्यजाति ने,
तथाकथित द्रविड़ जातियों को नहीं जीती,
ईरानी, यूनानी, अरबी, तुर्की आक्रांताओं सा,
दक्षिणी स्थानों को धार्मिक संज्ञा नहीं दी!

फिर दक्षिणी आंध्र,तमिल,कर्नाटक,केरल की
स्थानीय संज्ञा विजयनगर,रामेश्वरम,बालाजी,
अनन्तपुर,मीनाक्षीपुरम संस्कृत में कैसे हुई?
ये सारी सांस्कृतिक संज्ञा द्रविड़ों की अपनी!

दक्षिण में भी उत्तर जैसा हिन्दू हैं चतुष्वर्णी,
ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्य-शूद्र मिश्रित जातियों की,
जप-तप-पूजन सोलह संस्कार की रीति-नीति,
वेद पूर्व मन्वन्तर परम्परा द्रविड़ भू से चली,
प्रथम स्वायंभुव मनुवंशी ऋषभ से जैन भी!

ऋषभदेव विष्णुअंशी,इन्द्रबाला जयंती-पति,
आदि जैन तीर्थंकर ऋषभदेव के पुत्र द्वय;
भरत व बाहुबली, भरत से भारत का नाम,
हम भारती कहलाते मनुर्भरती, बाहुबली की
कर्नाटक के श्रमणबेलगोला में पुण्य भूमि!

आर्य-अनार्य की अवधारणा वर्तमान मनु;
विवश्वान सूर्य पुत्र वैवस्वत मनु से चली,
वैवश्वत मनु के पूर्व छः मनु व प्रजापति,
आदि मनु स्वायंभुव मनुवंश-परंपरा प्रसूत,
स्वारोचिष,उत्तम,तामस,रैवत,चाक्षुष थे मनु!

छः मनु, पैंतालीस प्रजापति; दक्ष तक की
प्राग्वैदिक सतयुग तक अवधि,त्रेता से चली
वैदिक संस्कृति वैवश्वत मनु के पुत्र-पुत्री से,
‘कृण्वन्तो विश्वम् आर्यम’ अभियान दौर ये,
आर्यकरण था उपनयन संस्कार शिक्षा हेतु!

आर्य कुल परंपरा सूर्यपुत्र वैवश्वत मनु ने
अपने पिता सूर्य के नाम से सूर्यवंश और
मनुपुत्री इला ने श्वसुर से चन्द्रवंश चलाई,
सूर्य पिता कश्यप,दक्ष प्रजापति के जमाई,
चन्द्र पिता अत्रि, कश्यप पिता थे मरीचि!

वैवस्वत मनु के पूर्ववर्ती छ:मनु-मुनि-ऋषि,
दक्ष प्रजापति गण ब्रह्मापुत्र, आर्य नहीं थे,
सिर्फ दक्ष पुत्री अदिति-कश्यपपुत्र आदित्य;
सूर्य संतति मनुवंशी मानव आर्य कहलाती,
दक्ष की अन्य पुत्रियों; कश्यप की संतति;
दिति के दैत्य,दनु-दानव आदि अनार्य थी!

इतना ही नहीं सप्तर्षि मरीचि व अत्रि के
सूर्य चंद्र कुल छोड़ अन्य सप्तर्षि अंगिरा,
पुलह,पुलस्त्य,भृगु,वशिष्ठ आदि के वंशज,
आर्य नहीं थे, पर आज ब्राह्मण कहलाते,
अस्तु आर्य नहीं जाति,बल्कि ये है पदवी
कश्यपगोत्री राजन्य महाजन जातियों की!

ऋषियों ब्राह्मणों ने आर्य संस्कार दिए थे,
मगर खुद वो आर्य कभी नहीं कहलाते थे,
पुलस्त्य वंशी विश्रवा,रावण आदि ब्राह्मण,
भृगु वंशी शुक्राचार्य,परशुराम आदि भार्गव,
किन्तु मारीचि कश्यप सूर्यवंशी इच्छवाकु,
रघु,राम, जैन तीर्थंकर महावीर,बुद्ध आर्य!

आत्रेय चन्द्रवंशी पुरुरवा, नहुष, ययाति,यदु,
सहस्त्रार्जुन, कृष्ण,पौरव, कौरव आदि आर्य,
आश्चर्य है कि इन आर्य उपाधिधारियों ने
कभी अनार्य, असुर, वनवासी, द्रविड़ पे
आक्रमण नहीं किए, बल्कि सहयोगी थे,
आर्य राम तो ब्राह्मण रावण से लड़े थे!

आर्य सहस्त्रार्जुन; भृगु परशुराम से भिड़े,
मुंडा मुरुण्ड, द्राविड़,पौण्ड्र,किरात मित्र थे!
आर्य कृष्ण; मामा कंस व कौरव के शत्रु!
आर्य बुद्ध; ब्राह्मणी कर्मकांड विरोधी थे!
किन्तु इन आर्य उपाधिधारी क्षत्रियों को,
अनार्य,असुर,द्रविड़ के आक्रांता कहे जाते?

क्या द्रविड़ आर्यों से अलग कोई जाति?
तो फिर वैदिक धर्म उद्धारक ब्राह्मण;
आदि शंकराचार्य द्रविड़ गौरव कौन थे?
हिन्दू भक्ति आंदोलन के आदि आचार्य,
द्रविड़ भू क्षेत्र के ब्राह्मण रामानुजाचार्य,
रामानंद,बल्लभाचार्य क्या आर्य नहीं थे?

दक्षिण भारत के राजन्य चेर,चोल,पौण्ड्र,
आंध्र सातवाहन, देवगिरी के हैहय-यादव,
विदर्भ वरार के भीष्मक रुक्मिणी पिता,
कल्याणी के कलचुरी,भारशिव, लिंगायत,
विज्जल,पाशुपतपंथी, दत्तात्रेय के भक्त,

द्रविड़ सामंत बंगाल के सेन राजवंशादि
सूर्य-चंद्र वंशी आर्य उपाधिधारी नहीं थे?

प्रश्न अनुत्तरित है मैक्समूलर वादियों!
अंग्रेजी के अनुवाद नहीं आगम-निगम,
संस्कृत, तमिल आदि धर्मग्रंथ,साहित्य,
अपनी देशी भाषाओं में जो संग्रहित है,
उसके ज्ञान गंगा में सामाजिक हित है!
आर्य व द्रविड़ की अलग नहीं जाति है,
मिथ्या भ्रम व घृणा फैलाना ठीक नहीं!
—विनय कुमार विनायक

हमें संसार के स्वामी ईश्वर की वेदाज्ञाओं का पालन करना चाहिये

-मनमोहन कुमार आर्य
हम परमात्मा के बनाये हुए इस संसार में रहते हैं। इस संसार के सूर्य, चन्द्र, पृथिवी सहित पृथिवी के सभी पदार्थों, वनस्पतियों एवं प्राणी जगत को भी परमात्मा ने ही बनाया है। हमारा जन्मदाता, पालनकर्ता तथा मुक्ति सुखों सहित सांसारिक सुखों का दाता भी परमात्मा ही है। यह सिद्धान्त सत्य वैदिक सिद्धान्त है जिसका अध्ययन कर प्रत्यक्ष अनुभव किया जा सकता है। इस सिद्धान्त को जान लेने के बाद सभी मनुष्यों का कर्तव्य होता है कि वह अपने सभी कार्य व आचरण ईश्वर द्वारा वेदों में की गई परमात्मा की शिक्षाओं, प्रेरणाओं व आज्ञाओं के अनुसार करें। ऐसा करने पर ही मनुष्य सुखी रहकर जीवन के उद्देश्य ज्ञान प्राप्ति तथा बल प्राप्ति सहित जन्म व मरण के बन्धनों से मुक्ति को प्राप्त हो सकता है। मनुष्य यदि परमात्मा की वेदाज्ञाओं के विपरीत आचरण करता है तो वह परमात्मा की व्यवस्था से दण्ड प्राप्ति का अधिकारी होता है। यह दण्ड दुःख व रोग सहित भावी जन्मों में मनुष्य योनि के स्थान पर नाना पशु, पक्षी आदि योनियों में जन्म के रूप में भी हो सकता है। अतः मनुष्य को इस संसार के स्वामी परमात्मा की मनुष्यों को की गई आज्ञाओं का अध्ययन करने हेतु वेद व वेदानुकूल ग्रन्थों का अध्ययन करना चाहिये। सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, चतुर्वेद भाष्य, पंचमहायज्ञविधि, व्यवहारभानु आदि हमें परमात्मा की वेदाज्ञाओं से परिचित कराते हैं। वेद व प्रामाणिक वेदभाष्यों सहित उपनिषद, दर्शन, विशुद्ध मनुस्मृति आदि ग्रन्थों का अध्ययन कर भी ईश्वर की आज्ञाओं को जाना जाता है। इसके लिए सरलतम व सुलभ साधन तो सत्यार्थप्रकाश का अध्ययन ही प्रतीत होता है। इसका कारण इस ग्रन्थ का आर्यभाषा हिन्दी में होना तथा इसके अनेक भाषाओं में अनुवादों का उपलब्ध होना भी है।

वेद मनुष्यों को ज्ञान प्राप्ति तथा सद्कर्म करने की प्रेरणा करते हैं। ज्ञान प्राप्ति वेद, उपनिषद, दर्शन, विशुद्ध मनुस्मृति सहित सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय, पंचमहायज्ञविधि एवं ऋषि दयानन्द ऋग्वेद एवं यजुर्वेद भाष्य के अध्ययन से मुख्यतः होती है। मनुष्य को पुरुषार्थ एवं तप से युक्त जीवन व्यतीत करना चाहिये। वेदों के आधार पर मनुष्यों के मुख्य पांच कर्तव्य बताये गये हैं। मनुष्य का प्रथम कर्तव्य स्वाध्याय व विद्वानों के उपदेशों से ईश्वर के सत्यस्वरूप को जानना तथा वेद व ऋषियों द्वारा प्रवृत्त उपासना पद्धति से उपासना करना होता है। उपासना में ईश्वर के सत्य गुणों, कर्मों व स्वभावों के अनुरूप स्तुति तथा प्रार्थना आदि करना सम्मिलित होता है। स्वाध्याय एवं ईश्वर की स्तुति से मनुष्य का ज्ञान बढ़ता है तथा उसके अभिमान व अहंकार में कमी आती है। उपासना से मनुष्य निरभिमानी बनता है। ईश्वर स्वयं अहंकार से रहित है अतः उनकी सन्तान होने के कारण हमें भी अभिमान से सर्वथा रहित होना चाहिये। ईश्वर में अनन्त गुण व कर्म हैं। इन गुणों का विचार व चिन्तन करने से हमारे गुण, कर्म व स्वभाव भी सुधरते व ईश्वर के गुणों के अनुरूप बनते हैं। मनुष्य के गुण, कर्म व स्वभाव का सुधरना ईश्वर की स्तुति तथा प्रार्थना का महत्वपूर्ण लाभ होता है। ईश्वर की प्रतिदिन प्रातः व सायं स्तुति, प्रार्थना व उपासना करने से मनुष्य ईश्वर का सच्चा उपासक बन जाता है। वह बिना ईश्वर की उपासना के रह नहीं सकता। उसमें उपासना की प्रवृत्ति उत्पन्न व प्रबल हो जाती है। उपासना में उसका मन लगने लगता है। ऐसा करने से वह अपकर्मों व पाप कर्मों से बचता भी है जिससे उसे वर्तमान व भावी जीवन में दुःख नहीं होते।

 ईश्वर की उपासना करना मनुष्य का प्रमुख कर्तव्य इसलिए भी होता है कि ईश्वर ने संसार व इसके सभी पदार्थ जीवों के सुख व उपभोग के लिए ही बनाये हैं। यदि ईश्वर संसार को न बनाता और हमें मानव शरीर न देता तो हम आत्मा को प्राप्त होने वाले सभी सुखों से वंचित होते। इतना महान उपकार ईश्वर ने हम पर अपनी अहेतुकी कृपा से किया है। हमसे कुछ लिया नहीं और न ही वह हमसे कुछ अपेक्षा करता है। ऐसा ईश्वर वस्तुतः अपने महान गुणों व उपकारों के कारण सब मनुष्यों का स्तुत्य व उपासनीय होता है। अतः कृतघ्नता से बचने व उपासना के लाभों को प्राप्त करने के लिए सभी मनुष्यों को प्रतिदिन प्रातः व सायं ईश्वर की उपासना अवश्य करनी चाहिये। इसे करने से मनुष्य को सत्यधर्म, शुद्ध अर्थ, पवित्र कामनाओं व मोक्ष की प्राप्ति होती है। मोक्ष की प्राप्ति ही जीवात्मा का मुख्य उद्देश्य होता है। मोक्ष में जीवात्मा जन्म व मरण के बन्धनों, सभी दुःखों वा बार बार के आवागमन से मुक्त हो जाता है। जीवात्मा मोक्ष में ईश्वर के सान्निध्य में रहकर पूर्ण आनन्द का भोग करते हुए 31 नील वर्षों से अधिक अवधि तक आनन्द व सुख भोगता है। अतः सभी मनुष्यों को ऋषियों के अनुसार अपना जीवन बनाकर उपासना को महत्व देना चाहिये और अपना भविष्य सुधारना चाहिये। 

मनुष्यों का वेदनिहित दूसरा प्रमुख कर्तव्य देवयज्ञ अग्निहोत्र का प्रातः व सायं अनुष्ठान करना होता है। ऐसा वायु, जल, अन्न व ओषधियों की शुद्धि के लिए किया जाता है। हम जानते हैं कि मनुष्य श्वास व प्रश्वास द्वारा दूषित वायु का त्याग करता है। मल मूत्र के त्याग से भी वायु, जल व भूमि में प्रदूषण होता है। चैका चक्की आदि के कार्यों से भी वायु प्रदुषण होता है। वायु व जल आदि की अशुद्धि से रोग उत्पन्न होते व स्वयं व अन्य मनुष्यों व प्राणियों को भी दुःख होता है। इस दोष के निवारणार्थ ऋषियों ने देवयज्ञ अग्निहोत्र करने का विधान किया है। देवयज्ञ में हम सुगन्धित गोघृत सहित ओषधियों, अन्न, मिष्ट व पुष्टिकारक पदार्थों की अग्नि में वेदमन्त्रों के उच्चारण के साथ आहुतियां देते हैं जिससे वायु एवं जल का शोधन होता है। वायु व जल के शोधन से अन्न भी उत्तम कोटि का उत्पन्न होता है। इन सब कार्यों से मनुष्य को स्वयं व दूसरे प्राणियों को भी सुखों की प्राप्ति होती है। देवयज्ञ करना पुण्य कर्म होता है। पुण्यकर्म वह होते हैं जिससे हम दूसरे प्राणियों को लाभ पहुंचाते हैं। ऐसा करने से हमें पुण्य मिलता व परमात्मा की व्यवस्था से जन्म-जन्मान्तर में सुख मिलने के साथ हमारे भावी जन्म व जीवन सुधरते व मृत्यु होने पर जीवात्मा को उत्तम योनियां प्राप्त होती हैं। अतः हमें पंचमहायज्ञों के अन्तर्गत दूसरे देवयज्ञ का सेवन भी पूर्ण श्रद्धा व निष्ठा से जीवन भर करना चाहिये। ऐसा करने से हमें उपासना से होने वाले लाभों की भांति ही अनेक लाभ प्राप्त होंगे। यज्ञ पर अनेक अनुसंधान हुए हैं। इनसे विदित होता है कि यज्ञ करने से मनुष्य को रोग नहीं होते हैं और यज्ञ का अनेक रोगों पर रोगनिवारक प्रभाव भी होता है। मनुष्य का शरीर ही नहीं अपितु उसके मन, बुद्धि, चित्त व आत्मा भी स्वस्थ होते हैं। 

पंचमहायज्ञों में तीसरे, चौथे तथा पांचवें कर्तव्यों में पितृ-यज्ञ, अतिथि-यज्ञ तथा बलिवैश्वदेव-यज्ञ करने का विधान है। इसका उल्लेख एवं विस्तृत वर्णन सत्यार्थप्रकाश एवं पंचमहायज्ञ विधि आदि ग्रन्थों में मिलता है। पितृ यज्ञ में श्रद्धापूर्वक माता, पिता व वृद्ध जनों की सेवा की जाती है। अतिथि यज्ञ में देश व समाज के विद्वानों की अपने निवास पर आने पर माता, पिता आदि के समान श्रद्धापूर्वक सेवा की जाती है और उनके देश व समाज हितकारी कार्यों में यथाशक्ति सहायता की जाती है। पांचवें वैदिक कर्तव्य बलिवैश्वदेव यज्ञ में पशु, पक्षियों को चारा व दाना खिलाया जाता है। इस कर्म से भी मनुष्य को पुण्य अर्जित होता है। पशु व पक्षी आदि भोग योनियां होती हैं। इन योनियों में जीवात्मा मनुष्य जीवन में अपने कुछ पाप कर्मों का फल भोगते हैं। यह योनियां एक प्रकार से परमात्मा की जेल होती हैं जहां रहकर जीवात्मा का सुधार होता है और भोग पूरे होने पर उन्हें पुनः मनुष्य योनि प्राप्त होती है। वर्तमान जेलों में अपराधी मनुष्यों को भी भोजन व अन्य सुविधायें प्राप्त होती है। अतः हम ज्ञान व बल सम्पन्न मनुष्यों को भी परमात्मा के इन सुधार गृहों की उत्तम व्यवस्था करनी चाहिये और प्रतिदिन कुछ मात्रा में पशु व पक्षियों को भोजन कराने सहित उनके प्रति ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ वा सबमें एक समान आत्मा के होने का भाव रखना चाहिये। 

वेदों में गर्भाधान से लेकर अन्त्येष्टि पर्यन्त मनुष्यों के सत्य कर्म व कर्तव्यों का विधान है। यह विधान सृष्टि के स्वामी परमात्मा ने किये हैं। मनुष्यों को वेदों का अध्ययन कर उन वेद विधानों का पालन करना चाहिये। ऐसा करने से ही मनुष्य का जन्म व जीवन सफल होता है तथा उसकी सांसारिक तथा पारलौकिक उन्नति होती है। इन्हीं शब्दों के साथ हम लेख को विराम देते हैं। ओ३म् शम्। 

नर्मदा निर्मलता : कुछ विचारणीय सुझाव



लेखक: अरुण तिवारी


नीति पहले, कार्ययोजना बाद में
किसी भी कार्ययोजना के निर्माण से पहले नीति बनानी चाहिए। नीतिगत तथ्य, एक तरह से स्पष्ट मार्गदर्शी सिद्धांत होते हैं। एक बार दृष्टि साफ हो जाये, तो आगे विवाद होने की गुंजाइश कम हो जाती है। इन सिद्धांतों के आलोक में ही कार्ययोजना का निर्माण किया जाना चाहिए। कार्ययोजना निर्माताओं और क्रियान्वयन करने वालों को किसी भी परिस्थिति में तय सिद्धांतों की पालना करनी चाहिए। ऐसा करने से कार्ययोजना हमेशा अनुकूल परिणाम लाने वाली होती है। अतः मध्य प्रदेश शासन को चाहिए कि नर्मदा कार्ययोजना बनाने से पहले ’नमामि नर्मदे संस्कार नीति’ अथवा मध्य प्रदेश की सभी नदियों को लेकर ’राज्य नदी संस्कार नीति’ बनाये। नीति, नदी के साथ हमारा ऐसा व्यवहार-संस्कार बताने वाली हो, जिससे नर्मदा की समृद्धि सुनिश्चित हो सके। इस नदी नीति और इसकी पालना परिदृश्य की समीक्षा के लिए हर तीसरे वर्ष नर्मदा किनारे एक पांच दिवसीय नर्मदा कंुभ लगाने का चलन शुरु किए जाना अच्छा होगा।  
अविरलता के बगैर, निर्मलता एक भ्रम
नीतिगत बात यह है कि अविरलता सुनिश्चित के बगैर, किसी भी नदी की निर्मलता सुनिश्चित करने का दावा करना एक छलावा मात्र है। अविरलता का मतलब होता है, नदी में पर्याप्त जल और इतने प्रवाह की सुनिश्चितता कि स्वयं को खुद निर्मल करते रहने की नदी प्रवाह क्षमता साल के बारह मास बनी रहे। अनुभव ये हैं कि ऐसी अविरलता सुनिश्चित किए बगैर निर्मलता के तकनीकी प्रयास सिर्फ और सिर्फ कर्ज़ और खर्च बढ़ाने वाले साबित हुए हैं। ऐसे प्रयासों से दीर्घकालिक निर्मलता की अपेक्षा करना व्यर्थ है। अविरलता सुनिश्चित करने के लिए मध्य प्रदेश शासन से निम्नलिखित कदम अपेक्षित हैं:प्रवाह की समृद्धि हेतु कुछ सुझाव
1.  नर्मदा प्रवाह मार्ग और नदी भूमि में नई बाधायें न खड़ी की जायें अर्थात शासन सुनिश्चित करे कि नर्मदा और इसकी सहायक नदियों पर भविष्य में कोई बांध, बैराज अथवा तटबंध परियोजना नहीं बनाई जायेगी। 
2. नर्मदा प्रवाह मार्ग के सभी प्रमुख स्थानों पर वर्ष के किस माह में न्यूनतम प्रवाह कितना रहना चाहिए; यह सुनिश्चित कर इसकी पालना का तंत्र बनाया जाना जाये। 
3. नदी जोड़ परियोजना, नदी की जीवंत प्रणाली को नष्ट कर उसके प्रवाह की मात्रा और विशेष गुणवत्ता.. दोनो को नुकसान पहुँचाने वाली साबित होती है। इसके कारण समुद्र के खारेपन और तापमान को संतुलित रखने में नदी की जो भूमिका है; वह भी बाधित होती है। अतः कम पानी इलाकों को पानी मुहैया कराने के लिए इससे कम खर्च के छोटे स्वावलंबी जल संचयन और संरक्षण ढांचों के निर्माण तथा उपयोग किए पानी के पुर्नोपयोग की परियोजनाओं पर काम शुरु हो। 
4. नदी भूमि का चिन्हीकरण कर इसे अधिसूचित किया जाये। यह सुनिश्चित हो कि नदी भूमि का उपयोग सिर्फ और सिर्फ नदी को समृद्ध करने वाली गतिविधियों के लिए होगा। नदी भूमि पर पक्के निर्माण की अनुमति कभी न दी जाये। नदी भूमि का भू-उपयोग बदलने की छूट किसी को न हो।
5.  नर्मदा की मुख्य धारा के प्रवाह मार्ग के पांच किलोमीटर और सहायक नदियों के प्रवाह मार्ग के दो किलोमीटर और उप-सहायक नदियों के प्रवाह मार्ग के एक किलोमीटर के दायरे में शीतल पेय, शराब, बोतलबंद पानी जैसी ज्यादा पानी खींचने वाली किसी भी औद्योगिक इकाई को अनुमति न हो। 
6. उक्त दायरे मे पहले से मौजूद सभी प्रकार की व्यावसायिक और औद्योगिक इकाइयों को बाध्य करें कि वे जिस इलाके से जितना और जैसा भूजल अथवा सतही जल उपयोग करती हैं, अपने संयंत्र के दस किलोमीटर के दायरे में उतना और वैसा पानी अथवा वर्षाजल संचित कर धरती को वापस लौटायें।
7. रेत एवम् अन्य खनन नर्मदा के लिए बड़ी चुनौती पेश कर रहे हैं। नर्मदा तथा इसकी सहायक नदियों के मूल स्त्रोत स्थान पर भू-खनन तथा भूजल का व्यावसायिक शोषण पूरी तरह प्रतिबंधित हो। मूल स्त्रोत स्थान के कितने किलोमीटर के दायरे में यह प्रतिबंध हो, यह स्थानीय स्थितिनुसार तय हो।
8. नर्मदा प्रवाह मार्ग के पांच किलोमीटर और सहायक नदियों के प्रवाह मार्ग के दो किलोमीटर के दायरे में भू-खनन कब और अधिकतम कितनी गहराई तक किया जा सकता है; शासन, इस पर नीतिगत निर्णय ले और उसकी पालना सुनिश्चित करे।
9. नर्मदा की सभी सहायक धाराओं, उनसे जुड़ी उप-धाराओं तथा उनके मूल स्त्रोतों में पर्याप्त जल होने से ही नर्मदा का प्रवाह बढ़ेगा। प्रवाह ठहरता है, तो नदी में नुकसानदेह वनस्पतियां और उनके कारण जल व वायु प्रदूषण बढ़ता है। प्रवाह बढ़ने से ही नदी में नुकसानदेह वनस्पतियों के कारण हो रहा रासायनिक प्रदूषण घटेगा। इसे नियंत्रित करने के लिए भी नदी में प्रवाह का बढ़ना ज़रूरी है। अतः ग्राम पंचायतों को प्रेरित किया जाये कि वह अपनी-अपनी ग्रामसभाओं के साथ मिलकर पंचायत क्षेत्रफल में आने वाली ऐसे प्राकृतिक प्रवाहों और उनके स्त्रोतों को दुरुस्त करने की कार्ययोजना बनायें। बारिश आने से पहले पुराने तालाबों की मरम्मत, छोटी-छोटी नदियों के मोड़ों पर छोटे-छोटे कुण्ड खोदना, नर्मदा में उग आई अजोला घास जैसी नुकसानदेह वनस्पति, कचरा हटाना जैसे नदी प्रवाह के अनुकूल कार्य इस कार्ययोजना का हिस्सा हो सकते है। ये सभी काम मनरेगा के तहत् करने की छूट हो। नर्मदा सेवा समितियां इसमें सलाह, सहयोग और निगरानी की भूमिका निभायें।
10.  बारिश आने पर नदी किनारे बरगद, पीपल, पाकड़, जामुन, कदम्ब जैसे पानी को अपनी जड़ों में पकड़कर रखने वाले पेड़ तथा मिट्टी को बांधकर रखने वाली घास तथा चारा प्रजाति की उपयोगी वनस्पतियों के बीज फेंकने का कार्य स्कूल-काॅलेज के विद्यार्थियों के जिम्मे डाला जाये। इसके लिए उन्हे अच्छे बीज मुहैया कराये जायें। इससे मिट्टी का कटान व नमी रोकने के साथ-साथ वन्य जीव जंतुओं तथा मवेशियों का संरक्षण होगा।
11.  ग्रामसभा और स्थानीय नर्मदा सेवा समिति के साथ मिलकर प्रत्येक पंचायत भूजल का वह स्तर तय करे, जिसके नीचे बोर करने की अनुमति सिर्फ और सिर्फ लगातार पांच साला अकाल में ही होगी। 
12. यदि ग्रामीण अपनी आजीविका और समस्त सपनों की पूर्ति के लिए पूरी तरह खेती और बागवानी पर निर्भर रहा, तो भूजल के अतिदोहन और कृत्रिम रसायनों के बढ़ते उपयोग को हतोत्साहित करना मुश्किल होगा। बेहतर है कि म. प्र. शासन नर्मदा बेसिन में पारंपरिक कारीगरी आधारित प्रकृति अनुकूल ग्रामोद्योगों की ऐसी सुनिश्चित योजना तैयार करे, जिसमें ग्रामीणों की आय बढ़े। ग्राम स्तर पर उत्पाद बिक्री की गारंटी इस योजना की सफलता की पहली शर्त की तरह है। इससे पलायन रुकेगा, किसानों पर कर्ज घटेगा, आत्महत्यायें घटेंगी और धरती का शोषण कम होगा। इन सभी कदमों से अंततः नर्मदा समृद्ध ही होगी।
13.  सिद्धांत है कि आसमान से बरसने वाले जल में से 65 प्रतिशत नदियों में बहने दें और 35 प्रतिशत को पकड़कर हम धरती की तिजोरी में डाल दें। इस दृष्टि से नगर नियोजक देखें  कि पुराने नगरों में देखें कि कितनी प्रतिशत भूमि को हरित क्षेत्र तथा जल क्षेत्र घोषित करना संभव है। नये नगर, औद्योगिक/व्यावसायिक/आवासीय परियोजना के लिए इस नीति का निर्माण जरूरी है कि वे अपने कुल क्षेत्रफल में कम से कम 35 प्रतिशत हिस्से को जलक्षेत्र, हरित क्षेत्र व कचरा डंप एरिया के रूप में आरक्षित करें। ये आरक्षित क्षेत्र कहां हों और कहां न हों; किस रूप में हों और किस रूप में न हों; नीति में इसकी स्पष्टता भी बेहद ज़रूरी है। 
14. शासन अपने भूजल कानूनों और उनके क्रियान्वयन परिदृश्य की समीक्षा करे। 15. भूजल ही नहीं, नदी को समृद्ध करने वाले सभी आदेशों, नियमों और कानूनों की पालना सुनिश्चित करने के लिए शासन, प्रशासन, स्थानीय निकायों और पंचायतो के साथ मिलकर एक कुशल, अधिकार सम्पन्न तथा जवाबदेह जन-निगरानी तंत्र विकसित करे।
निर्मलता हेतु प्रत्यक्ष करने योग्य कार्य 
1. औद्योगिक अवजल, नगरीय ठोस कचरा, मल, खनन और कृषि में कृत्रिम रसायन – ये पांच प्रमुख कारक नर्मदा में प्रदूषण के विशेष जिम्मेदार है। मूर्ति विसर्जन, शवदाह, नदी तट पर खुले में शौच आदि नित्यकर्म हैं, जो नदी को प्रत्यक्ष-प्रत्यक्ष रूप से प्रदूषित करते हैं। इनकी रोकथाम के लिए कचरा प्रबंधन नीति का तय होना जरूरी है।
2.  नीति यह है कि कचरा, कैंसर की तरह है। जिस तरह से कैंसर का इलाज उसके मूल स्त्रोत पर किया जाता है। कचरा निष्पादन का मूल सिद्धांत यही है कि उसका निष्पादन उसके मूल स्त्रोत पर ही हो। जहां यह संभव न हो, वहां कचरा उपजने और निष्पादन के बीच की दूरी यथासंभव कम से कम हो। यह सुनिश्चित करके ही सर्वश्रेष्ठ कचरा निष्पादन संभव है। इसकी पालना कैसे हो ? इस पर विचार करके ही कार्ययोजना बने।
3.   मल को उसके पैदा होने के स्थान से ढोकर ले जाना और फिर किसी नदी के किनारे मल शोधन संयंत्र लगाकर निष्पादित करना, निर्मलता के मूल सिद्वांत के विरुद्ध है। अतः सीवेज पाइप आधारित वर्तमान मल शोधन प्रणाली को हतोत्साहित किया जाये। इसकी जगह प्रकृति अनुकूल शौचालयों को प्रोत्साहित किया जाये।
प्रकृति अनुकूल मल शोधन संयंत्र का मतलब बिना बिजली, बिना रसायन और बिना अधिक पानी मल निष्पादन की तकनीक होता है। आई आई टी, कानपुर द्वारा तैयार हरित शौचालय, डीआरडीओ द्वारा तैयार जीवाणु छन्नी युक्त शौचालय, त्रिकुण्डीय प्रणाली युक्त पारंपरिक शौचालय हनी शकर्स, बंगलुरु का प्रयोग, नासिक म्युनिसपलिटी द्वारा उपयोग में लाई जा रही बायो सेनिटाइजर तकनीक युक्त मल निष्पादन प्रणाली उनके इलाकों में प्रकृति अनुकूल साबित हुई हैं। इनमें जो मध्य प्रदेश की प्रकृति के अनुकूल हों, उन्हे अपनाना चाहिए।
4. जिन नगरों में पाइप लाइने बिछ चुकी हैं, वहां नदी किनारे एक मल शोधन संयत्र लगाने की बजाय, हर काॅलोनी में उचित ढाल देखकर छोटे-छोटे प्रकृति अनुकूल मल शोधन संयंत्र लगाये जायें। शोधित जल का बागवानी, शौचालयों आदि में पुर्नोपयोग की व्यवस्था बने। 
5. जिन नगरों में सीवेज पाइप नहीं बिछे हैं, वहां प्राथमिकता के तौर पर हर घर में त्रिकुण्डीय प्रणाली टैंक आधारित शौचालय को प्रोत्साहित करें। सावधानी रहे कि स्नानघर का साबुन, शैंपू, वाशिंग पाउडर युक्त पानी इन टैंकों में न जाये।
6. जिन मोहल्लों में व्यक्तिगत स्तर पर टैंक बनाना किसी भी हालत में संभव न हो, वहां मोहल्ले के पार्क में एक बड़ा त्रिकुण्डीय टैंक बनाया जाये। सभी घरों के शौचालय इस टैंक से जोड़ दिए जायें। नियमित समय अंतराल पश्चात् टैंकरों के जरिए मल निकालकर दूर खेतों में फैलाकर इनसे खाद तैयार की सकती है।
7. सभी प्रस्तावित आवासीय/व्यावसायिक परियोजनाओं के लिए आवश्यक हो कि वे अपने मल का निष्पादन खुद अपने परिसर के भीतर करें। मौजूदा तकनीकों के जरिए यह संभव भी है और परियोजनाओं के लिए आर्थिक रूप से लाभकारी भी।
8. अभी हमसे शहरी मल संभाले नहीं संभल रहा; दूसरी ओर हम घर-घर शौचालयों के जरिए ग्रामीण मल का एक ऐसा ढांचागत तंत्र खड़ा कर रहे हैं, जो आगे चलकर गांव-गांव सीवेज पाइप और मल शोधन संयंत्र की मांग करने लाने वाला साबित होगा। सोचिए, यदि हम ग्रामीण मल का शोधन न कर पाये, तो आगे चलकर गांवों के नजदीक के तालाबों, नदियांे और भूजल का क्या होगा ? इसके साथ ही गांव-गांव पानी की पाइपलाइन, जलापूर्ति के निजीकरण और पानी-सीवेज के बिल लाने वाला और गांव के गरीब की जेब से धन उगाहने वाला भी। सोचिए, यदि हम ग्रामीण मल का शोधन न कर पाये, तो आगे चलकर गांवों के नजदीक के तालाबों, नदियों और भूजल का क्या होगा ? 
9. बंद टैंक में शौच का दूसरा पहलू यह है, वहां शौच को निष्पादित होने में तीन महीने लगते हैं, वहीं ‘टट्टी पर मिट्टी’ सिद्धांत की पालना के साथ खुले में किया शौच सामान्य तापमान वाले इलाकों में 72 घंटे में कम्पोस्ट में बदल जाता है। हमारे बीमार होने के कारणों में खुले में शौच उतना बड़ा कारण नहीं है, जितना बड़ा कारण हमारे मल शोधन संयंत्रों की नाकामयाबी है। चौथी  बात यह है कि खुले में शौच के जरिए एक इंसान साल भर में करीब साढे़ चार किलो जैविक खाद हमारे खेतों में पहुंचाता है। भारत की ग्रामीण आबादी की संख्या से गुणा करें, तो समझ में आयेगा कि शौचालय को टैंकों में बद करके जैविक खाद की कितनी बड़ी मात्रा खोने की तैयारी कर रहे हैं। नर्मदा निर्मलता के लिहाज से भी इन सभी तथ्यों पर विचार जरूरी है।  
10. मेरा विचार यह है कि नगरों तथा कस्बाई हो चुके गांवों में शौचालय निर्माण ज़रूरी है। यह जरूर हो, लेकिन जिन गांवों के आसपास अभी भी जंगल, मैदान और झाड़ियां मौजूद हैं; जहां बिना शौचालय कोई दिक्कत नहीं हैं; कृपा करके उन गांवों को ‘ओडीएफ’ बनाने की जिद्द छोड़ दें। मां नर्मदा और हम सभी के लिए यही अच्छा होगा।
11. अविरलता, प्रदूषण मुक्ति, नदी-इंसान-अन्य जीवों की सेहत की दृष्टि से जैविक खेती कोे आगे बढ़ाने की घोषणा अच्छी है। किसान जैविक खेती करे; इसकी दृष्टि से जैविक कृषि के साथ जैविक बागवानी युक्त मिश्रित खेती को प्रोत्साहित करना बेहतर होगा। इसके लिए ग्राम पंचायत स्तर पर फसल भण्डारण की क्षमता का विकास तथा खेत पर ही उत्पादों की बिक्री सुनिश्चित करने का ईमानदार तंत्र खड़ा करके ही ऐसा किया जा सकता है। जैविक उत्पाद प्रमाणीकरण प्रक्रिया को किसान की पहुंच तक बनाना जरूरी होगा। कृत्रिम रासायनिक उर्वरकों/कीटनाशकों की कीमतों को बढ़ाते जाना और जैविक खाद, जैविक कीटनाशक, चारागाह, मवेशी पालन आदि को प्रोत्साहित करते जाना जैविक कृषि में सहायक कदम होगा।
12.  ठोस कचरा, नर्मदा के लिए एक बड़ी चुनौती है। जिन नगर-निगमों, नगरपालिकाओं अथवा ज़िला पंचायतों के अधिकार क्षेत्र में कोई भी नदी बहती है, वे सुनिश्चित करें कि नदी भूमि से कम से कम एक किलोमीटर की दायरे में कचरा डंप एरिया नहीं बनाया जायेगा। जैविक-अजैविक कचरा अलग करना सुनिश्चित होगा। जैविक का कम्पोस्ट बनाने वाले मोहल्लों को प्रोत्साहित किया जायेगा। अजैविक का निष्पादन करने की सर्वश्रेष्ठ तकनीक उपलब्ध कराई जायेगी। 
13. अस्पतालों का जैविक-अजैविक कचरा काफी नुकसानदेह होता है। सभी निजी व सरकारी अस्पतालों के लिए जरूरी होगा कि वे उपने परिसर में पैदा होने वाले जैविक-अजैविक कचरे का निष्पादन अपने परिसर के भीतर खुद करने का इंतजाम करें। 
14.  इलेक्ट्राॅनिक कचरा, निष्पादन काफी जहरीला और दीर्घकालिक असर डालने वाला होता है। देखा गया कि अक्सर इसे जलाकर अथवा धरती के भीतर दबाकर नष्ट करने की कोशिश होती है। इसके उचित निष्पादन हेतु कड़ी निगरानी जरूरी है।
15.  औद्योगिक संगठनों के साथ मिलकर औद्योगिक कचरा निष्पादन में उद्योगों की अरुचि के कारणों की तलाश कर आवश्यक शोध, तकनीक तथा मदद मुहैया कराई जाये। सख्ती और निगरानी तंत्र का निर्माण साथ-साथ हो।
16. भारत के राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड अभी ‘प्रदूषण नियंत्रण में हैं’ का प्रमाणपत्र बांटने वाले संस्थान बनकर रह गये हैं। इन्हे इस छवि से बाहर निकालने के लिए अधिक अधिकार और अधिक जवाबदेही देने तथा ढांचागत बदलाव की जरूरत है।
17.  मूर्ति निर्माण में कृत्रिम रसायनों का प्रयोग पूरी तरह प्रतिबंधित हो। कृत्रिम सिंदूर, विशेष नुकसानदेह तत्व है। इसके निर्माण पर रोक लगे। कोई धर्मग्रंथ मूर्ति के नदी विसर्जन को अनिवार्य नहीं बताता है। मूर्ति के जल विसर्जन की बात अवश्य कही गई है। अतः धर्माचार्यों के साथ पहला प्रयास मूर्ति के भू-विसर्जन का हो। दूसरा प्रयास नदी से अन्यत्र जल-विसर्जन की सहमति बनाने का हो। 

झारखंड में थम नहीं रहा कालाजार का प्रकोप

शैलेन्द्र सिन्हा

दुमका, झारखंड

इसमें कोई दो राय नहीं है कि इस समय देश और दुनिया में कोरोना एक महामारी का रूप लिया हुआ है। जिसके उन्मूलन के लिए अलग अलग स्तर पर टीका तैयार किया जा रहा है। लेकिन इसके साथ साथ कुछ ऐसी बीमारियां भी हैं, जो चुपके से अपना पैर पसार रही हैं और लोग असमय काल के गाल में समा रहे हैं। लेकिन कोरोना के आगे यह मीडिया में हेडलाइन नहीं बन पा रहा है। इनमें सबसे अधिक कालाज़ार की बीमारी है, जो झारखंड में तेज़ी से फ़ैल रहा है। राज्य के संताल परगना प्रमंडल में आदिवासी गांव में कालाजार के रोगी अधिक पाए जा रहे हैं। वर्ष 2013 से कालाजार के रोगी के मिलने का सिलसिला शुरू हुआ और अब तक जारी है। अभी तक संताल परगना में लगभग 500 से अधिक कालाज़ार के रोगी चिन्हित किए जा चुके हैं। केंद्र और राज्य सरकार ने वर्ष 2021 तक कालाजार उन्मूलन के लिए अभियान चलाया है। झारखंड के साहेबगंज, गोड्डा, दुमका एवं पाकुड़ में कालाजार के रोगी के मिलने का सिलसिला जारी है।

विशेषज्ञों के अनुसार कालाजार वेक्टर जनित रोग है, जो संक्रमित मादा बालू मक्खी से होता है। इस संबंध में दुमका के सिविल सर्जन डॉक्टर आनंद कुमार झा ने बताया कि ग्रामीण स्तर पर कालाजार रोगी का उपचार संभव नहीं है। मरीज को अस्पताल लाना पड़ता है। कालाजार रोगी को सहिया एवं मल्टीपर्पज हेल्थ वर्कर अस्पताल लाते हैं। रोगी को एक दिन अस्पताल में रहना पड़ता है। जहां उसे एमबी ज़ोन नामक दवा दी जाती है। सिविल सर्जन ने कालाजार रोगी के लक्षण के संबंध में बताया कि रोगी को 15 दिनों से अधिक बुखार रहता है। इस दौरान उसे भूख नहीं लगती है और लगातार वजन में कमी आती रहती है। मामले की गंभीरता को देखते हुए झारखंड के कालाजार से प्रभावित जिलों में वेक्टर बोर्न डिजीज ऑफिसर को नोडल अफसर बनाया गया है। डॉक्टर अभय कुमार बताते हैं कि बालू मक्खी के संक्रमण को रोकने के लिए प्रति 10,000 की आबादी पर इंटरनल रेसीडुएल नामक दवा का छिड़काव किया जाता है। इसके लिए 15 फरवरी से यह काम सभी गांव में किया जा रहा है। इसके लिए छिड़काव टीम को स्क्वायर ट्रेनिंग दी जाती है। प्रत्येक टीम में 6 सदस्य होते हैं। इस प्रकार प्रत्येक जिले में 38 टीमों का गठन किया गया है।

डॉक्टर अभय ने बताया कि कालाजार के रोगी दो प्रकार के होते हैं। जूनोटिक और एंथ्रोपोनोटिक कालाज़ार, जिसे संक्षेप में वीएल और पीएलडीएल की संज्ञा दी जाती है। इसमें भारत में प्रायः एंथ्रोपोनोटिक कालाज़ार के ही मरीज़ होते हैं। जिनमें पोस्ट कालाज़ार डरमल लिशमैनियसिस के लक्षण उभर कर सामने आते हैं। इसमें मरीज़ के जिगर और तिल्ली में असर के साथ साथ त्वचा पर भी प्रभाव पड़ता है। उन्होंने बताया कि झारखंड से कालाजार को समाप्त करने के लिए बड़े पैमाने पर स्वास्थ्य विभाग द्वारा प्रयास किया जा रहा है। इसके लिए दुमका प्रखंड के जड़का कुरूम पहाड़ी, मुरभांगा, कोदोखिचा, बाघदुब्बी, हेट मुर्गठल्ली, मोर्तांगा, बलाबहाल एवं रोहड़ापाड़ा में अभियान चलाकर अब तक कालाजार के 25 रोगी को चिन्हित किया जा चुका है। स्टेट कालाजार पदाधिकारी डॉक्टर एसएन झा ने बताया कि कालाजार की रोकथाम के लिए माइक्रो प्लान के तहत हर एक गांव में स्प्रे का छिड़काव किया जा रहा है। इसके लिए स्वास्थ्य विभाग के कर्मचारियों को प्रशिक्षण दिया गया है। उन्होंने बताया कि नियमित अंतराल पर आदिवासी गांव की सेविका और सहायिका एक्टिव केस की खोज करती है और अस्पताल लाकर मरीज़ों का उसका उपचार कराती है।

संताल परगना के आदिवासी गांव में कालाजार के रोगी अधिकतर पाए जाते हैं। दुमका प्रखंड के स्वास्थ्य पदाधिकारी डॉ जावेद ने बताया कालाजार उन्मूलन के लिए राज्य सरकार भी गंभीर है। इसके लिए मरीज़ों के खानपान के लिए सरकार की ओर से 6600 रुपए दिए जाते हैं। जिले का गोपीकंदर काठीकुंड का क्षेत्र पूर्व से ही कालाजार के लिए प्रसिद्ध रहा है। विभाग द्वारा इस क्षेत्र को डेंजर जोन के रूप में चिन्हित किया गया है। लेकिन अब तो सदर प्रखंड दुमका में भी कालाजार ने दस्तक दे दी। दुमका प्रखंड के कुरवा पंचायत के रघुनाथगंज के आदिवासी टोला में कई लोग कालाजार से ग्रसित हो चुके हैं। रघुनाथगंज के आदिवासी टोला के बुज़ुर्ग मार्शल हेंब्रम कालाजार से पीड़ित हैं। उनके पुत्र फ्रांसिस हेंब्रम बताते हैं कि उन्हें लॉकडाउन के दौरान ही कालाजार हुआ था, जिसका हाल ही में पता चला। फ्रांसिस बताते हैं कि प्रारंभ में उन्हें तेज बुखार, सर दर्द और बदन दर्द होना शुरू हुआ। उसने जड़ी बूटी का इलाज कराया लेकिन कोई लाभ नहीं हुआ। बाद में उन्हें अस्पताल ले जाया गया, जहां जांच के बाद कालाजार की पुष्टि हुई। उसे अस्पताल में स्लाइन और दवा दी गई, जिससे तबियत में सुधार होने लगा। कुरुआ गांव की 35 वर्षीय हेमलता सोरेन ने बताया कि उसे शुरू शुरू में सर दर्द, भूख न लगना, कमजोरी, चल ना पाना और शरीर में हर तरह की परेशानी होनी शुरू हो गई थी। अस्पताल जाकर जब चेकअप कराया तो वह भी कालाजार से ग्रसित निकली। हेमलता बताती है कि इससे पहले 2005 में भी उसे कालाज़ार हो चुका था।

विशेषज्ञ इस क्षेत्र में कालाजार का तेज़ी से फैलने का कारण यहां अधिकतर आदिवासी का घर कच्चे मिट्टी का होना बताते हैं। जिससे घरों में नमी होती है और अंधेरा छाया रहता है। ऐसी ही जगहों पर कालाजार की बीमारी फैलाने वाली बालू मक्खी पनपती है। इससे बचने के लिए घरों में लिक्विड का छिड़काव जरूरी होता है। जिस गांव में कालाजार के रोगी पाए जाते हैं, वह सभी घरों में कम से कम लिक्विड का छिड़काव दो बार होना चाहिए, लेकिन आदिवासी घरों में ऐसा नहीं किया जाता है। अधिकतर संथाल निवासी बीमारी के इलाज के लिए डॉक्टर के पास न तो जाते हैं और न खून की जांच कराते हैं। शहरों से दूर होने के कारण संथाल गांव में लोगों का उचित रूप से हेल्थ चेकअप भी नहीं होता है, इसी कारण कालाजार का पता नहीं चल पाता है। दुमका जिले के आदिवासी टोला में कालाजार की दवा का छिड़काव नहीं होने से कालाजार रोगी की पहचान नहीं हो पा रही है। दुमका जिले के जामा प्रखंड के 68 गांव में अब तक कालाजार के रोगियों को चिन्हित किया जा चुका है।

कालाजार उन्मूलन के लिए स्वास्थ्य विभाग लगातार काम कर रहा है। इसके लिए कालाजार प्रभावित गांवों में जागरूकता अभियान चलाया जा रहा है। प्रत्येक गांव में जागरूकता कार्यक्रम के तहत दीवार लेखन का काम कर रही है। स्वास्थ्य विभाग ने अभियान के तहत लोगों को यह बताया कि किसी भी व्यक्ति को ज्यादा बुखार हो तो उन्हें अस्पताल जाकर जांच कराना चाहिए। जामा के 8 नए गांव में कालाजार का प्रसार हुआ है। दलदली, हररखा, म्हारो, लकड़ा पहाड़ी, कुरूम तांड, खिजुरिया, पिपरा, कटनिया, अगुया का सर्वे किया गया है। कालाजार उन्मूलन के लिए भारत सरकार और झारखंड सरकार ने इसे समाप्त करने के लिए अभियान चलाया है। जिसे वर्ष 2021 तक पूरी तरह से समाप्त किये जाने का लक्ष्य रखा गया है। लेकिन कोई भी उन्मूलन जागरूकता के बिना संभव नहीं है। इस दिशा में स्वयंसेवी संस्थाओं को भी आगे आने और क्षेत्र को इस बिमारी से मुक्त करने में सहयोग करने की आवश्यकता है।

हमें जन्मना-जाति के स्थान पर ज्ञानयुक्त वेदोक्त व्यवहार करने चाहियें

मनमोहन कुमार आर्य

      वैदिक धर्म के आधार ग्रन्थ वेदों में प्राचीन सृष्टि के आरम्भ काल से जन्मना जाति का उल्लेख कहीं नहीं मिलता। हमारी आर्य हिन्दूजाति के पास बाल्मीकि रामायण एवं महाभारत नाम के दो विशाल इतिहास ग्रन्थ हैं। रामायण की रचना महर्षि बाल्मीकि जी ने लाखों वर्ष पूर्व रामचन्द्र जी के जीवन काल में की थी। महाभारत की रचना भी पांच हजार पूर्व ऋषि वेद व्यास जी ने की है। इन दोनों इतिहास ग्रन्थों में समाज में जन्मना जाति के प्रचलन का उल्लेख प्राप्त नहीं होता। वेद, उपनिषद, दर्शन, विशुद्ध मनुस्मृति आदि ग्रन्थों में जन्मना जातिवाद का उल्लेख उपलब्ध नहीं मिलता। इससे यह निश्चित होता है कि वर्तमान में प्रचलित जन्मना जाति व्यवस्था महाभारत युद्ध के सैकड़ो हजारों वर्ष बाद आरम्भ हुई है। प्राचीन वैदिक काल में गुण, कर्म स्वभाव के आधार परवर्ण व्यवस्थाप्रचलित थी। यह वर्ण व्यवस्था मनुष्य को शूद्र, वैश्य व क्षत्रिय से ब्राह्मण बनाने तथा गुणहीन ब्राह्मणों, क्षत्रिय व वैश्यों को उनके कर्मानुसार क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र बनाने का कार्य करती थी। इस व्यवस्था में किसी मनुष्य के साथ किसी प्रकार का किंचित भेदभाव नहीं होता था। सभी अपने कर्तव्य कर्मों को करते हुए परस्पर प्रेम से मिलकर रहते थे। ऋषि दयानन्द ने अपने सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ में वर्णव्यवस्था का शुद्धस्वरूप प्रस्तुत किया है। जिस प्रकार वर्तमान व्यवस्था में एक डाक्टर का पुत्र बिना चिकित्सा विज्ञान पढ़े और रोगोपचार का कार्य किये डाक्टर व चिकित्सक नहीं बनता है इसी प्रकार से वैदिक वर्णव्यवस्था में ब्राह्मण, क्षत्रिय व वैश्य अपने अपने वर्ण का ज्ञान प्राप्त करने तथा कार्य करने से ही बनते थे। यदि कोई पुत्र अपने पिता के वर्ण का कार्य नहीं करता था तो वह अपनी शैक्षित योग्यता, ज्ञान तथा कर्मों में प्रवृत्ति व व्यवसाय आदि के आधार पर उसी वर्ण का हुआ करता था। वर्तमान में जन्मना जाति व्यवस्था में मनुष्य को जन्म से ही अनेकानेक जातिगत आधार प्राप्त हो जाते हैं। यह नहीं देखा जाता कि जिसे जो अधिकार प्राप्त हैं वह उसका अधिकारी है भी अथवा नहीं। अनधिकारी व्यक्तियों को यदि कोई अधिकार दिया जाता है तो समाज में व्यवस्था में दोष उत्पन्न होते हैं जिससे योग्य लोगों के अधिकारों का हनन भी होता है। अतः धर्म एवं समाज विषयक विद्वानों वा धर्माचार्यों को इस विषय में ध्यान देना चाहिये और अपनी सभी व्यवस्थाओं व परम्पराओं को ज्ञान के अनुरूप बनाना चाहिये जिसमें किसी व्यक्ति के अधिकारों का हनन न होता हो और सब परस्पर मिलकर एक दूसरे के सहयोग से अपने ज्ञान व बल की उन्नति करते हुए सुखपूर्वक जीवन व्यतीत कर सके। ऐसा करके ही हम समाज को सुदृण और आज की आवश्यकताओं के अनुरूप बना सकते हैं। यदि यह कार्य नहीं किया जायेगा तो समाज के लिए इसके दुष्परिणाम होंगे जिसके लिए दोष वर्तमान के समाज व उसके शीर्ष पुरुषों पर आयेगा।

                जन्मना जाति में बच्चों को अपने पिता की जाति से सम्बोधित किया जाता है। कुछ जातियां उच्च जातियां मान ली गई हैं जिससे उस समुदाय में उत्पन्न बच्चों लोगों को उसके अनुरूप सामाजिक अधिकार बिना किसी योग्यता को प्राप्त किये ही मिल जाते हैं। जो बच्चे किसी ऐसी जाति में उत्पन्न होते हैं जो दलित या पिछड़ी होती कहलाती है तो उन लोगों उस समुदाय के बच्चों के साथ शिक्षा, सामाजिक विवाह आदि व्यवहारों में भेदभाव किया जाता है। अतीत में इन अन्धविश्वासों के चलते स्त्री शूद्रों को वेद विद्या के अधिकार से ही वंचित कर दिया गया था जिससे हमारी सभी मातायें, बहिने शूद्र कुल में उत्पन्न होने वाले बन्धु शिक्षा वेद ज्ञान की प्राप्ति से वंचित कर दिये जाते थे। विवाह की भी ऐसी व्यवस्था की गई थी कि सब अपनी अपनी जाति में ही विवाह कर सकते थे। इससे मनुष्य समाज में सिकुड़न पैदा हुई और ऐसा देखा गया कि समाज में युवावस्था में गुण, कर्म व स्वभाव के अनुसार विवाह के स्थान बाल विवाह व बेमेल विवाह भी होने लगे। कुछ लोग बहु विवाह भी करते थे। इनका विरोध करने वाला समाज में कोई नहीं था। देश व समाज में बाल विधवाओं की भी दुर्दशा होती थी। देश में सती प्रथा की कुप्रथा भी प्रचलित रही है जो राजा राममोहन राय एवं आर्यसमाज के प्रचार से दूर हुई है। समाज के अधिकार सम्पन्न लोगों ने विवाह में विसंगतयों व समस्याओं पर ध्यान नहीं दिया जिससे नारी जाति व विधवाओं को अनेक प्रकार के अनावश्यक दुःख व उत्पीड़नों से गुजरना पड़ता था। यदि हमारे तत्कालीन धर्माचार्य वेदों के आधार पर चिन्तन करते हुए इन समस्याओं पर निर्णय लेते तो यह सामाजिक समस्यायें सुधर सकती थी। वर्तमान समय में भी यह समस्यायें अपने दूसरे रूपों में विद्यमान हैं।

                ऋषि दयानन्द (1825-1883) और आर्यसमाज के अन्धविश्वास निवारण एवं समाज सुधार कार्यों के कारण समाज की स्थिति में कुछ सुधार अवश्य हुआ परन्तु वर्तमान व्यवस्था में अभी और अधिक सुधारों की आवश्यकता अनुभव की जाती है। ऐसा करना समय की आवश्यकता है अन्यथा समाज में इसके घातक प्रभाव होंगे। जन्मना जातिवाद के कारण हिन्दू समाज व वृहद आर्य मनुष्य जाति संगठित नहीं हो पा रही है। इसकी शक्ति बिखरी हुई है। इस कारण से कुछ समुदाय व संगठन इसका अनुचित लाभ उठा रहे हैं। अतः वैदिक सनातन धर्म के सभी धर्माचार्यों एवं विद्वानों को इस जन्मना जातिवाद की समस्या पर विचार करना चाहिये और इसे वेदों की मान्यताओं के अनुकूल बनाने का प्रयत्न करना चाहिये। ऐसा करना समय की आवश्यकता है। यह कार्य जितना शीघ्र सम्पन्न कर लिया जाये उतना ही वैदिक सनानन धर्म एवं देश के हित में है। यदि इसमें देर की जायेगी तो इससे देश व समाज की भारी क्षति होगी, ऐसा हम अनुभव करते हैं।

                जन्मना जातिवाद के प्रचलन व्यवहार में जाने अनजाने में लोग एक दूसरे के साथ यदाकदा भेदभाव आदि करते हुए देखे जाते हैं। सभी अधिकांश मातापिता अपनी सन्तानों के विवाह अपने ही समुदाय जाति में करते हैं। कुछ युवा जो इस नियम के विपरीत व्यवहार करना चाहते हैं उनको परिवार समाज के कुछ लोगों द्वारा हतोत्साहित भी किया जाता है। जन्मना जातिवाद और एक ही जाति समुदाय में विवाह होने से अनेक युवाओं युवतियों को अपने अपने गुण, कर्म तथा स्वभाव के अनुसार इच्छित उपयुक्त वर नहीं मिल पाते हैं। जो विवाह होते हैं वह कुछ मजबूरी विवशता में करने पड़ते हैं। इससे युवाओं व युवतियों का जीवन उस प्रसन्नता व सुख का अनुभव करने से वंचित रह जाता है जो उन्हें वैदिक सनातन धर्म के अन्दर ही अपने दूसरे परिवारों व जातियों में करने की अनुमति देने पर हो सकता था। वेद और शास्त्र तो जन्मना जातिवाद के दायरे से बाहर स्वयंवर विवाह की आज्ञा देते हैं परन्तु सामाजिक व्यवहार ऐसा बन गया है कि युवा पीढ़ी को इसकी अनुमति नहीं मिल रही है। हमने अनेक परिवारों में ऐसी कन्याओं को भी देखा है कि जिनके विवाह ही नहीं हो पा रहे हैं व जातिवाद की बेड़ियों के कारण विवाह के इन्तजार में उनकी विवाह की आयु ही निकल गई। माता पिता वर की तलाश करते रह जाते हैं परन्तु उन्हें उनकी इच्छा व आवश्यकता के अनुसार योग्य वर नहीं मिलते। इस काम में जन्म-पत्री का मिलान करना भी बाधक होता है। बहुत से ऐसे समुदाय हैं जो जन्म-पत्री को विवाह करने में प्रमुख व आवश्यक साधन मानते हैं। वहां भी इच्छित कन्या व युवक का विवाह नहीं हो पाता।

                वेदों में फलित ज्योतिष का विधान आज तक किसी ने सिद्ध नहीं किया है। वेदों के मर्मज्ञ ऋषि दयानन्द फलित ज्योतिष को अव्यवहारिक मानते थे और इतिहास में भारत की अनेक युद्धों में पराजय का कारण भी फलित ज्योतिष इसकी मान्यतायें अन्धविश्वास आदि ही रहे हैं। अतः जन्मना जाति को विवाह में बाधक नही बनने देना चाहिये और विवाह कन्या युवक के गुण, कर्म स्वभाव के आधार पर बिना जन्म पत्र को मिलाये किये जाने चाहिये। ऐसा करते हुए जन्मना जाति व क्षेत्रवाद की उपेक्षा भी की जानी चाहिये जिससे हमारा धर्म, समाज, देश व संस्कृति सुदृण हो सके। ऐसा करके हम आने वाले समय में गुलामी से बच सकेंगे और हमारा धर्म व संस्कृति सुरक्षित रह सकेगी। हम समझते हैं कि आज के ज्ञान व विज्ञान के युग में जन्मना जाति को समाप्त कर मनुष्यो ंको अपने गोत्र को महत्व देना चाहिये। सगोत्र विवाह को नहीं करना चाहिये क्योंकि ऐसा करना हमारे प्राचीन ऋषियों की उचित आज्ञाओं के विपरीत होगा। हमें हिन्दू व आर्य समाज में धार्मिक क्रियाकलापों व कर्मकाण्डों सहित पूजा व उपासना पद्धति में भी एकरूपता स्थापित करनी चाहिये। ऐसा करके ही हम अपने सामाजिक सम्बन्धों को सुदृण कर सकते हैं और ऐसा करके ही हिन्दू व वैदिक विचारधारा के परिवारों में सबके साथ भेदभाव दूर होकर न्याय हो सकता है। ऐसा करके ही हम ईश्वर व वेद की आज्ञाओं के पालक बनेंगे। हमारा समाज, मनुष्य जाति तथा धर्म एवं संस्कृति संगठित एवं सुदृण हो सकेंगे।

                ऋषि दयानन्द ने अपने जीवनकाल में वेद प्रचार का कार्य किया था। उन्होंने गुण, कर्म स्वभाव पर आधारित वेदविहित वर्ण व्यवस्था का समर्थन किया था। वैदिक वर्ण व्यवस्था में सबको अपने ज्ञान गुणों को विकसित करने का अवसर मिलता है। किसी के साथ किसी प्रकार का भेदभाव नहीं होता। सब अपनी अधिकतम उन्नति कर सकते हैं। वेदों में किसी अन्धविश्वास सामाजिक कुरीति का उल्लेख नहीं है। वेद सत्य पर आधारित समाज व देश हित के सभी कार्यों को करने का समर्थन करते हैं। ऋषि दयानन्द द्वारा स्थापित और वेदों के अनुसार देश व समाज का निर्माण करने में अग्रणीय आर्यसमाज जन्मना-जातिवाद को इसकी भावना एवं व्यवहार के अनुरूप स्वीकार नहीं करता। इस आर्यसमाज में सभी जन्मजातियों व समुदायों के लोग आश्रय व सुख पाते हैं और परस्पर मिलकर वेदों के अनुसार उपासना व यज्ञादि कर्मकाण्ड करते हैं। जन्मना-जातिगत भेदभावों को भुलाकर परस्पर विवाह आदि सम्बन्ध भी करते हैं। आर्यसमाज ने ही विवाहों में अन्तर्जातीय विवाहों का प्रचलन किया है। आर्यसमाज कन्या व युवक की प्रसन्नता से गुण, कर्म व स्वभाव के अनुसार विवाह करने का समर्थन करता है। आर्यसमाज समाज से सभी प्रकार के भेदभावों को दूर करता है और न्याय पर आधारित सामाजिक व्यवस्था का पोषक व समर्थक है। इस कार्य को हमारी समस्त हिन्दू जाति को पूर्णतया अपनाने से देश व हिन्दू जाति को लाभ होगा। इस लिये हमने इस विषय को आज यहां प्रस्तुत किया है। देश से जन्मना-जातिवाद की सभी बुराईयां दूर हों, सभी प्रकार के परस्पर के भेदभाव दूर हों, सब परस्पर मिलकर एक परिवार की भांति जीवन यापन करें, वेदों की मान्यताओं व सिद्धान्तों को अपनायें, इस भावना से यह लेख लिखा है। सब वेद पढ़े, ईश्वर को जाने, ईश्वर की उपासना व यज्ञ करें, देश व धर्म के विषय में चिन्तन करें व इनकी रक्षा के उपाय करें, सभी भेदभावों को समाप्त करें, यही आर्यसमाज, वेद, ईश्वर व हमारी अपेक्षा है। ओ३म् शम्।

तब अकेली थामे हाथ बनी सेनीटाईजर हाला

—विनय कुमार विनायक
कोरोना काल में गंगा जल से बेहतर ये हाला,
बिना हाला से हाथ धोए, गटका नहीं निवाला!

नमक को छोड़ा,तेल छोड़ा,चीनी को भी छोड़ा,
ये सारे हैं ब्लड प्रेशर व सुगर को बढ़ानेवाला!

पर किसी ने बुरे दौर में भी टाली नहीं हाला,
ये विषाणु मिटाने वाली, आला दर्जे की हाला!

हाला को हलाहल कहके,बुरा कहनेवालो सुनो,
जब मुर्दे में मुर्दे भेद बढ़े, भेद मिटायी हाला!

जब हाथ को हाथ, छूने तक से कतराने लगा,
तब अकेली थामे हाथ बनी, सेनीटाईजर हाला!

जब प्यारे पुत्र-पुत्री,बहन-भ्राता, माता-पिता के,
प्राण छूटे,बेकफन,दफन हुए,ना कोई छूनेवाला!

कलतक जो कर मेहंदी,हल्दी-चंदन चर्चित थे,
बिना दर्शन-स्पर्श-अश्रुधार के, बिदा हुई बाला!

उस विषम घड़ी में मुंह पे मास्क बनी साकी,
साहस बढ़ाने आई,सेनीटाईजर बनके ये हाला!

जब लाश उठानेवाले चार कंधे साथ ना मिले,
तुलसीदल,गंगाजल मुख में ना कोई देनेवाला!

जब राम नाम सत्य है, नहीं कोई बोलनेवाला,
उस घड़ी सेनीटाईजर की सब जपते थे माला!

जब शैव-शाक्त-तबलीगी,आपस में लड़ रहे थे,
मास्क को साकी बना, मेल कराने आई हाला!

प्यारी हाला भट्टी की प्रथम धार से निकली,
दो चार बूंद में तृप्त हुए,बोतल को पीनेवाला!

ये हाला है सोम सुरा की प्यारी छोटी बहना,
अश्विनी कुमार के वंशज हैं, इसे बनानेवाला!

ये हाला निषिद्ध नहीं, बस-ट्रेन-प्लेन में भी,
पाकेट में रख लो, कोई यम नहीं डरानेवाला!

सब मंदिर-मस्जिद-गिरजाघर जब बंद पड़े थे,
पर मृत संजीवनी सुराघर में नहीं लगा ताला!

समझो महिमा हाला की, कोविड-19 के आगे,
हर संकट में हाथ से हाथ,मिलाएगी ये हाला!