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विश्व का बेहतरीन लड़ाकू विमान है राफेल

योगेश कुमार गोयल

            फ्रांस से करीब सात हजार किलोमीटर लंबा सफर तय कर अंततः लंबे इंतजार के बाद पांच राफेल लड़ाकू जेट विमान भारतीय वायुसेना के बेड़े में शामिल हो गए हैं। कुछ दिनों पहले तक चार राफेल भारत को मिलने की संभावना थी किन्तु चार के बजाय बहुप्रतीक्षित पांच राफेल भारत पहुंच चुके हैं। इनमें दो राफेल दो सीट वाले हैं, जो ट्रेनर विमान हैं जबकि तीन सिंगल सीटर हैं। हालांकि फ्रांसीसी कम्पनी ने 8 अक्तूबर 2019 को ही ऑपचारिक रूप से भारत को चार राफेल सौंप दिए थे और तभी से वहीं पर भारतीय पायलटों को राफेल का प्रशिक्षण दिया जा रहा था। पौने तीन माह पहले ये विमान भारत पहुंचने थे लेकिन कोरोना महामारी के कारण इनके भारत आने में विलम्ब हुआ है। इनके अलावा पांच और राफेल भी भारत को सौंपे जा चुके हैं, जो अभी फ्रांस में ही हैं और वहीं भारतीय वायुसेना के पायलट इनका प्रशिक्षण ले रहे हैं। इन दस राफेल के अलावा बाकी 26 राफेल विमान भी आने वाले समय में चरणबद्ध तरीके से भारत को मिलते रहेंगे। दो सीटों वाले प्रशिक्षण विमानों सहित आरबी सीरीज के कुल 36 राफेल विमानों की दो स्क्वाड्रनों में से पहली ‘17 गोल्डन एरोज’ भारत-पाक सीमा से करीब 220 किलोमीटर दूर अम्बाला में तथा दूसरी पश्चिम बंगाल के हासीमारा केन्द्र में तैनात होगी।

            राफेल की विशेषताओं की बात करें तो इसे हवा से हवा तथा हवा से जमीन पर मिसाइल हमलों के लिए बहुआयामी भूमिकाएं निभाने के लिए भारतीय वायुसेना की जरूरतों के हिसाब से परिष्कृत किया गया है। राफेल फ्रांस की विमान निर्माता कम्पनी ‘दसॉल्ट एविएशन’ द्वारा निर्मित दो इंजन वाला अत्याधुनिक मध्यम मल्टीरोल कॉम्बैट एयरक्राफ्ट (एमएमआरसीए) है, जो भारतीय वायुसेना की पहली पसंद माना जाता है। अफगानिस्तान, सीरिया, लीबिया, माली तथा इराक में हुई जंग में अपनी ताकत का प्रदर्शन कर चुके राफेल की टैक्नोलॉजी बेहतरीन है और इसमें कई ऐसी विशेषताएं हैं, जो इसे विश्व का बेहतरीन लड़ाकू विमान बनाने के लिए पर्याप्त हैं। यह हवाई हमला, वायु वर्चस्व, जमीनी समर्थन, भारी हमला, परमाणु प्रतिरोध इत्यादि कई प्रकार के कार्य बखूबी करने में सक्षम है। परमाणु बम गिराने की ताकत से लैस राफेल में इजरायल हेलमेट-माउंटेड डिस्प्ले, रडार चेतावनी रिसीवर, लो बैंड जैमर, दस घंटे की उड़ान डाटा रिकॉर्डिंग, इन्फ्रारेड खोज और ट्रैकिंग प्रणाली शामिल हैं। कई शक्तिशाली हथियारों को ले जाने में सक्षम राफेल विमान उल्का बीवीआर एयर-टू-एयर मिसाइल (बीवीआरएएएम) की अगली पीढ़ी है, जिसे एयर-टू-एयर कॉम्बैट में क्रांति लाने के लिए डिजाइन किया गया है। राफेल की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसमें ऑक्सीजन जनरेशन सिस्टम लगा होने के कारण लिक्विड ऑक्सीजन भरने की जरूरत नहीं पड़ती।

            फ्रांस में वर्ष 1970 में वहां की सेना द्वारा अपने पुराने पड़ चुके लड़ाकू विमानों को बदलने की मांग सरकार से की गई थी, जिसके बाद फ्रांस ने चार यूरोपीय देशों के साथ मिलकर एक बहुउद्देशीय लड़ाकू विमान परियोजना पर काम शुरू किया। कुछ वर्षों बाद फ्रांस के साथ उन देशों के मतभेद हो गए और फ्रांस ने अपने ही बूते पर इस परियोजना पर काम शुरू कर दिया। फ्रांस द्वारा निर्मित राफेल-ए श्रेणी के पहले विमान ने 4 जुलाई 1986 को जबकि राफेल-सी श्रेणी के विमान ने 19 मई 1991 को पहली उड़ान भरी थी। ‘दसॉल्ट एविएशन’ 1986 से लेकर 2018 के बीच कुल 165 राफेल विमान तैयार कर चुकी है। ये विमान ए, बी, सी तथा एम श्रेणियों में एक सीट, डबल सीट तथा डबल इंजन में उपलब्ध हैं। राफेल की लम्बाई 15.30 मीटर और ऊंचाई 5.30 मीटर है जबकि इसके विंग्स की लम्बाई 10.90 मीटर है। अमेरिका के लड़ाकू विमान एफ-16 की तुलना में यह मात्र 0.79 फुट ज्यादा लंबा और 0.82 फुट ऊंचा है। बेहद कम ऊंचाई पर उड़ान भरने के साथ ही यह परमाणु हमला करने में भी सक्षम है। अत्यंत घातक हथियारों से लैस ये विमान यूरोपीय मिसाइल निर्माता ‘एमबीडीए’ द्वारा निर्मित दृश्य सीमा से परे हवा से हवा में मार करने वाली मीटिअर मिसाइल के अलावा स्कैल्प क्रूज मिसाइल से भी लैस हैं। मीटिअर मिसाइल दृश्य सीमा से परे हवा से हवा में मार करने वाली अगली पीढ़ी की ऐसी मिसाइल है, जिसे हवाई लड़ाईयों में अत्यधिक कारगर माना जाता है।

            रक्षा विशेषज्ञों के मुताबिक कोई लड़ाकू विमान कितना ताकतवर है, यह उसकी सेंसर क्षमता और हथियारों पर निर्भर करता है अर्थात् कोई लड़ाकू विमान कितनी दूरी से स्पष्ट देख सकता है और कितनी दूरी तक मार कर सकता है और राफेल इस मामले में बिल्कुल अत्याधुनिक लड़ाकू विमान है। राफेल की विजिबिलिटी 360 डिग्री है, जिसके चलते यह ऊपर-नीचे, अगल-बगल अर्थात् हर तरफ निगरानी रखने में सक्षम है। उन्नत तकनीक और परमाणु हमला करने में सक्षम राफेल का हर तरह के मिशन में उपयोग किया जा सकता है। यह हर तरह के मौसम में लंबी दूरी के खतरे को भी तुरंत भांप सकता है और नजदीकी लड़ाई के दौरान एक साथ कई टारगेट पर नजर रख सकता है। यह जमीनी सैन्य ठिकाने के अलावा विमानवाहक पोत से उड़ान भरने में भी सक्षम है और इसकी बड़ी खासियत यह है कि इलैक्ट्रॉनिक स्कैनिंग रडार से थ्रीडी मैपिंग कर यह रियल टाइम में दुश्मन की पोजीशन खोज लेता है। राफेल में बैठे पायलट द्वारा दुश्मन की लोकेशन को देखकर बटन दबा देने के बाद बाकी काम इसमें लगे कम्प्यूटर करते हैं। कोई लड़ाकू विमान कितनी ऊंचाई तक जाता है, यह उसके इंजन की ताकत पर निर्भर करता है और केवल 1312 फुट के बेहद छोटे रनवे से उड़ान भरने में सक्षम राफेल 36 हजार फुट से लेकर 60 हजार फुट तक उड़ान भरने में सक्षम है, जो महज एक मिनट में ही 60 हजार फुट की ऊंचाई तक जा सकता है। अधिकतम 2200 से 2500 किलोमीटर प्रति घंटे तक की रफ्तार से उड़ान भरने में सक्षम राफेल 24500 किलोग्राम तक भार लेकर उड़ सकता है और इसकी मारक क्षमता 3700 किलोमीटर तक है।

            मल्टीमोड रडार से लैस राफेल जेट विमान हवाई टोही, ग्राउंड सपोर्ट, इन-डेप्थ स्ट्राइक, एंटी-शर्प स्ट्राइक और परमाणु अभियानों को अंजाम देने में निपुण है। ऑप्ट्रॉनिक सिक्योर फ्रंटल इंफ्रारेड सर्च और ट्रैक सिस्टम से लैस राफेल में एमबीडीए एमआइसीए, एमबीडीए मीटिअर, एमबीडीए अपाचे जैसी कई तरह की खतरनाक मिसाइलें और गन लगी हैं, जो पल भर में ही दुश्मन को नेस्तनाबूद कर सकती हैं। इसमें लगी मीटिअर मिसाइल सौ किलोमीटर दूर उड़ रहे दुश्मन के लड़ाकू विमान को भी पलभर में मार गिराने में सक्षम हैं। रक्षा विशेषज्ञों के अनुसार ऐसी मिसाइल चीन-पाकिस्तान सहित समस्त एशिया में किसी भी देश के पास नहीं हैं। 150 किमी की बियोंड विजुअल रेंज मिसाइल, 300 किलोमीटर रेंज वाली हवा से जमीन पर मार वाली स्कैल्प मिसाइल से लैस यह लड़ाकू विमान 4.5 जनरेशन के डबल इंजन से लैस है, जिसमें ईंधन क्षमता 17 हजार किलोग्राम है। इसमें लगी 1.30 एमएम की एक गन एक बार में 125 राउंड गोलियां चलाने में सक्षम है। केवल एक मिनट में ही विमान के दोनों तरफ से 30 एमएम की तोप से भी 2500 राउंड गोले दागे जा सकते हैं। यह ऊंचे इलाकों में लड़ने में भी माहिर है और इसमें एक या दो पायलट ही बैठ सकते हैं। एक बार में यह दो हजार समुद्री मील तक उड़ सकता है। परमाणु हथियारों से लैस राफेल हवा से हवा में 150 किलोमीटर तक मिसाइल दाग सकता है और हवा से जमीन तक इसकी मारक क्षमता 300 किलोमीटर है। रक्षा विशेषज्ञों के अनुसार इसकी क्षमता पाकिस्तान के एफ-16 से ज्यादा है। पाकिस्तान और चीन की ओर से देश की सीमाओं की सुरक्षा को लगातार मिलती चुनौती के मद्देनजर राफेल विमान भारतीय वायुसेना को अभेद्य ताकत प्रदान करने में अहम भूमिका निभाएंगे क्योंकि पाकिस्तान के पास इस समय जे-17, एफ-16 और मिराज जैसे जो उच्च तकनीक वाले लड़ाकू विमान हैं, वे तकनीक के मामले में राफेल से काफी पीछे हैं।

चंबल एक्सप्रेस–वे से विकास की आस

चम्बल एक्सप्रेस-वे के निर्माण की घोषणा ने सदियों से उपेक्षित, पिछड़े  और घोर अभावों में जीने  वाले चम्बल के सैकड़ों गाँवों के मन में आशा का संचार कर दिया है | इस परियोजना के अंतर्गत 8250 करोड़ रुपये की राशि से चम्बल के किनारे-किनारे राष्ट्रीय चम्बल अभयारण्य की सीमा पर जहाँ सामान्यतः  बाड़ का पानी नहीं  पहुँच पाता 404 किलोमीटर लम्बे राजमार्ग का निर्माण 2023 तक किया जाना है | यह  एक्सप्रेस-वे राजस्थान के कोटा से प्रारंभ होकर मध्यप्रदेश के श्योपुर, मुरैना और भिंड जिले से होता हुआ उत्तर प्रदेश के इटावा के पास एन –एच 27 से जुड़ेगा जो कानपुर से कोटा के लिए वैकल्पिक मार्ग खोलेगा | इस राजमार्ग के बनने से राजस्थान मध्यप्रदेश और उत्तरप्रदेश से सटे चम्बल के बीहड़ों में विकास की एक नई संभावना पैदा होने जारही है |

इस एक्सप्रेस-वे का सर्वाधिक  क्षेत्र केंद्रीय कृषिमंत्री नरेंद्र सिंह जी तोमर  के निर्वाचन क्षेत्र  में आता है इसीलिये वे इस प्रोजेक्ट को लेकर  पिछले कुछ  वर्षों से व्यक्तिगत रूप से भी प्रयासरत हैं | मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह जी के लिए यह प्रोजेक्ट चम्बल क्षेत्र में सरकार के प्रति विश्वास जगाने का सुनहरा अवसर है | क्योंकि वर्तमान सरकार इसी क्षेत्र के विधायकों के समर्थन से बनी है | माननीय मुख्यमंत्री जी ने इस एक्सप्रेस-वे को  प्रोग्रेस-वे की संज्ञा दी है | यही नहीं उन्होंने अपनी कैविनेट मीटिंग में इसका प्रस्ताव भी पारित कर दिया है | यदि वे अपनी घोषणा को मूर्तरूप देने  में सफल हुए तो उन्हें चम्बल के विकास के लिए सदैव याद किया जाएगा |

भारत की सुरक्षा में बड़ी संख्या में अपने बच्चों को भेजने वाले चम्बल अंचल  के लिए कितने दुःख की बात है कि उसे आज भी डाकुओं के लिए ही उल्लेखित किया जाता है जबकि चम्बल बहुत पहले ही डाकुओं से मुक्त हो चुकी है | पीला सोना (सरसों) उपजाने वाली चम्बल को अभी तक विकास का उचित अवसर नहीं दिया गया | राजनीतिक रूप से पिछड़े होने के कारण यह क्षेत्र अभी भी विकास की मुख्य धारा से कटा हुआ है | मुरैना जिले की रतन बसई ग्राम पंचायत के चम्बल नदी के किनारे बसे हुए गाँव सुखध्यान का पुरा, इन्द्रजीत का पूरा, रामगढ़ आदि चौमासे (वर्षा के दिनों) में मुख्य मार्गों से पूरी तरह कट जाते हैं | यहाँ कृषि के अतिरिक्त जीविका का अन्य कोई साधन नहीं है और कृषि भी चम्बल पर निर्भर है | पिछले वर्ष आई बाड़ के कारण  हुए दल-दल ने चुस्सलई गाँव जहाँ तक अब पक्का मार्ग बनगया है, तक कई किसानों के खेत छीन लिए थे | बेरोजगारी और निर्धनता के कारण  धीरे-धीरे लोग गाँवों  से पलायन करते जा रहे हैं | ऐसे में इस राजमार्ग ने पुनः एक आशा का दीप जलाया है किन्तु वह तभी कारगर होगा जब यहाँ उद्योग स्थापित हों व  लोगों को स्व रोजगार के लिए भी प्रेरित और प्रशिक्षित किया जाए | चम्बल के बीहड़ों की सबसे बड़ी विशेषता यहाँ मिट्टी के पहाड़ (टीले) हैं  जिन्हें आसानी से समतल किया जा सकता है,जबकि अन्य जंगलों और बीहड़ों में पथरीली भूमि होने के कारण खुदाई में बहुत कठिनाई आती है |

इसके साथ-साथ चम्बल अंचल में  ऊर्जावान युवकों की एक बड़ी संख्या है जो बेरोजगारी से जूझ रही है | यदि उद्योग-व्यापार को बढ़ावा दिया जाए तो यहाँ की लैंड पॉवर और मैंन पॉवर दोनों का ही सदुपयोग किया जा सकता है | चम्बल नदी की सहायक नदियाँ क्वारी,आसन आदि  के किनारे भी भूमि का एक बड़ा भाग बीहड़ों के रूप में है | शासन की लापरवाही के कारण  इन बीहड़ों के अधिकांश भाग पर अवैध कब्जे होते जा रहे हैं |  ध्यान यह भी रखना होगा कि यदि सभी बीहड़ तोड़ कर भूमि समतल कर दी गई तो बाड़ के समय चम्बल का पानी इन गांवों को नष्ट कर देगा | इसीलिये चम्बल के किनारे दोनों  ओर दो किलो मीटर भूमि के बीहड़ों को उनके प्राकृतिक रूप में रखते हुए वहाँ वृक्षा रोपण भी कराना चाहिए |

यद्यपि चम्बल को लेकर देश और प्रदेश की सरकारों ने अब तक  उतना ध्यान नहीं दिया जितना दिया जाना चाहिए था | अशिक्षा और जागरूकता के अभाव में विकास की अधिकांश परियोजनाएँ घोषित हो कर रह जाती हैं या फाइलों में हीं  समाप्त हो जाती हैं | आज से लगभग तीस वर्ष  पूर्व तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गाँधी जी  ने पिनाहट उसैद घाट पुल का शिलान्यास किया था किन्तु अब तक पुल का निर्माण नहीं हो पाया है एक पीढ़ी इस पुल के निर्माण कार्य के आरम्भ होने बाट जोहते हुई  ही चली गई |  अनेक प्रयासों के बाद अब जाकर निर्माण कार्य आरंभ हुआ है |  यदि उसैद घाट पुल 25-30  वर्ष पूर्व बन गया होता तो इस मार्ग पर अब तक अनेक व्यापारिक गतिविधियाँ प्रारंभ हो चुकी होतीं |

कहा जा रहा है कि इस उन्नत राजमार्ग के द्वारा चम्बल अंचल स्वर्ण चतुर्भुज गलियारे से क्रॉस कनेक्टिविटी में आ जाएगा | सुदूर अंचल में बसे गाँवों के लिए   भी दिल्ली, मुंबई, कोलकाता आदि शहरों तक  आने जाने का मार्ग सुगम हो जाएगा | इसमें कोई संदेह नहीं कि इस उन्नत राजमार्ग के बनने से चम्बल में विकास के एक नए युग का प्रारंभ होगा | किन्तु इसके लिए मध्यप्रदेश सरकार और स्थानीय  जिला प्रशासन को विशेष  परिश्रम करना होगा  | एक्सप्रेस-वे  के आस-पास के गाँवों की श्रम शक्ति और भूमि के अध्ययन द्वारा समयानुकूल प्रोजेक्ट तैयार करने होंगे | चम्बल में अभी सरसों,गेहूँ,बाजरा,चना आदि ही मुख्य रूप से पैदा किये जाते हैं | यहाँ की भूमि के मृदा परीक्षण द्वारा  जैविक एवं औषधीय  कृषि की दिशा में कार्य किया जा सकता है | डेयरी उद्योग, फूड  प्रोसेसिंग,पशुपालन व कृषि से जुड़े हुए प्रोजेक्ट्स आरम्भ करके भी इसे प्रोग्रेस-वे बनाया जा सकता है | डॉ.रामकिशोर उपाध्याय

सीरत के धनकुबेर : श्री रतन नवल टाटा

  • श्याम सुंदर भाटिया

जिंदगी भर कारोबार… कारोबार… बस कारोबार… जिद, जुनून और लगन के चलते बिज़नेस के सिवाय कुछ नहीं किया. ठोस फैसले लेते गए.. सही साबित भी करते गए… दुनिया इन्हें श्री रतन नवल टाटा के नाम से जानती और पहचानती है. भारत के सबसे बड़े और बेहद ईमानदार उद्योगपतियों में से एक रतन टाटा इतनी कमाई के बावजूद दुनिया के धनकुबरों की सूची में इसीलिए शुमार नहीं हो पाते हैं, क्योंकि वह अपनी कमाई का 65  प्रतिशत हिस्सा दान कर देते हैं। श्री टाटा यूँ तो कम ही बोलते हैं, लेकिन जब बोलते हैं, बेलौस। किसी को बुरा लगे तो लगे। हकीकत से वह मुँह नहीं मोड़ते हैं। वह महामारी के चलते कॉर्पोरेट जगत में छटनी, उद्योगपतियों की नैतिकता सरीखे फैसलों पर आहत हैं। कहते हैं, कॉर्पोरेट जगत की टॉप लीडरशिप में सहानुभूति की कमी हो गई है। कोरोना के मुश्किल दौर में उद्यमियों और कंपनियों के लिए लम्बे समय तक काम करने और अच्छा प्रदर्शन करने वाले कारिंदों के प्रति संवेदनशीलता जरूरी है। ये वे लोग हैं, जिन्होंने अपना पूरा करियर कंपनी के लिए लगा दिया है। संकट के समय आप इन्हें सपोर्ट करने की जगह बेरोजगार कर रहे हैं। श्री टाटा ने कहा, मुनाफा कमाना गलत नहीं है, लेकिन यह काम भी नैतिकता से करना जरूरी है। यह सवाल बहुत जरूरी है, आप मुनाफा कमाने के लिए क्या-क्या कर रहे हैं ? यह सवाल खुद से लगातार पूछते रहना चाहिए, वे जो फैसले ले रहे हैं, क्या वे सही हैं? वह कंपनी ज्यादा दिन सर्वाइव नहीं कर सकती है, जो अपने स्टाफ को लेकर संवेदनशील नहीं है। कर्मचारियों की छंटनी कोई समाधान नहीं है। इससे पता चलता है, भारतीय कॉर्पोरेट जगत की टॉप लीडरशिप में हमदर्दी का अभाव है।     

टाटा ग्रुप की कंपनियों में एयरलाइन्स, होटल बिज़नेस, फ़ाइनेंशियल सर्विसेज, ऑटो बिज़नेस शुमार हैं। ये ऐसे सेक्टर हैं, जहां कोरोना महामारी का सर्वाधिक असर हुआ है। एविएशन और होटल इंडस्ट्री की सूरत से हरेक वाकिफ है। ऑटो सेक्टर की भी हालत पतली है। कारों की बिक्री में रिकॉर्ड गिरावट देखी जा सकती है।  बावजूद इसके टाटा ग्रुप ने अभी तक एक भी कर्मी को नौकरी से नहीं निकाला है। सिर्फ सॉफ्टवेयर समूह ने अपने शीर्ष मैनेजमेंट के वेतन में 20 पर्सेंट की कटौती की है। दरियादिली में पीछे नहीं रहे हैं। कोरोना से निपटने के लिए टाटा समूह ने पीएम केयर्स फंड में 1500 करोड़ का दान किया है। नामचीन उद्योगपति श्री रतन टाटा मानते हैं, बिज़नेस का मतलब सिर्फ मुनाफा कमाना नहीं होता है। देशभर में लाखों-लाख लोगों को नौकरी से निकाल दिया गया है। क्या इससे समस्या का हल हो सकता है ? वह खुद ही जवाब देते हैं, उन्हें नहीं लगता है- ऐसा हो सकता है। आपको बिज़नेस में नुकसान हुआ है, ऐसे में लोगों को नौकरी से निकल देना विकल्प नहीं है, बल्कि उनके प्रति आपकी जिम्मेदारी बनती है। आप इस माहौल में तब तक ज़िंदा नहीं रह पाएंगे, जब तक आप संवेदनशील नहीं रहते हैं। सबसे पहले लोगों के कार्यस्थल के बारे में आपको चिंतित होना चाहिए।

लेजन्डेरी उद्योगपति श्री टाटा कहते हैं, मंदी के दौर में बने रहने के लिए आपको जो उचित और आवश्यक लगता है, उसके सन्दर्भ में आपको बदलना होगा। कोरोना संकट के दौर में कोई निश्चित तरीके से व्यापार करना जारी नहीं रख सकता है। इस महामारी के दौरान वर्क फॉर्म होम अच्छा उपाय है। ले-ऑफ कंपनी की समस्याओं को हल करने में मदद नहीं करेगा। श्री टाटा कहते हैं, आय का कोई सोर्स न होने के करना लॉकडाउन के दौरान प्रचंड गर्मी ने बिना साधन के श्रम शक्ति ने घर वापसी की है। देश की सबसे बड़ी श्रम शक्ति को एक ही झटके में कह दिया गया, आपके लिए कोई काम नहीं है। उनके घरों तक भेजने की व्यवस्था नहीं की। रहने-खाने का कोई बंदोबस्त नहीं किया गया। इससे क्षुब्ध श्री टाटा ने सवाल किया, ऐसा करने वाले आप कौन होते हैं ? आप अपनी लेबर फाॅर्स के साथ इस तरह का बर्ताव करते हैं। क्या आपकी नैतिकता की यही परिभाषा है ? टाटा ने इंडस्ट्री के शीर्ष अफसरों से पूछा इस मुश्किल समय में उनका क्या कर्तव्य बनता है? उनके लिए नैतिकता की क्या यही परिभाषा है? जिन्होंने आपके लिए दिन-रात काम किया, आपने उन्हें ही छोड़ दिया।

श्री रतन टाटा का मानना है, कोई भी बिज़नेस करते समय दो चीजों पर ध्यान देना हमेशा जरूरी है। पहला, किसी भी सिचुएशन में अपने स्टेकहोल्डर्स या शेयरहोल्डर्स से सामना करना।  दूसरा निचले तबके के कर्मचारियों को भी समझना। अगर कंपनी से जुड़ा कोई भी व्यक्ति नाराज है तो उसका कोई न कोई कारण होता ही है। उसका सोल्युशन निकालना भी जरूरी है। उन्होंने बताया कि जिस वक़्त उन्हें टाटा मोटर्स का चेयरमैन बनाया गया था, उसके कुछ समय बाद कंपनी में बहुत बड़ी स्ट्राइक हुई थी। उन्होंने उन दिनों 3 से 4 दिन प्लांट में ही बिताए। सभी को यह भरोसा दिलाया था कि हम एक हैं। उन्होंने कहा कि वास्तविकता यही है कि किसी भी कंपनी को उसके प्रॉफ़िट्स और परफॉरमेंस के आधार पर ही जज किया जाता है। प्रॉफ़िट कंपनी की आतंरिक स्थिति को कवर करता है। आजकल की कंपनियां वर्कर्स की खुशियों से ज्यादा अपने प्रॉफिट पर ध्यान देती हैं। ऐसा ही कुछ वर्कर्स के साथ भी है। ग्राहकों को भी सोचना चाहिए कि जिस कंपनी से वे डील कर रहे हैं, वे गुणवत्ता और कस्टमर सर्विस के अनुसार फेयर हैं या नहीं। एक कंपनी के तौर पर सोचना होगा कि क्या आप अपने कस्टमर्स के प्रति फेयर हैं? अगर कोई भी कंपनी, कस्टमर या वर्कर अपने एथिक्स भूल जाता है तो उसे एक वक़्त पर उसका खामियाज़ा भुगतना ही होगा। कोविद की स्थिति में आपके पास भागने का विकल्प ही नहीं है। आपको बस यह स्वीकार करना होगा कि कोई भी कारण हो आपको परिस्थितियों के मुताबिक बदलना ही होगा। इसका एक बहुत बड़ा उदाहरण है ‘वर्क फ्रॉम होम’। ऐसा पहली बार हुआ जब वर्कर्स को उनके वर्कप्लेस से फर्क नहीं पड़ा। किसी भी परिस्थिति में काम चालू रखना एक बड़ी बात है, इसीलिए लोगों ने ‘वर्क फ्रॉम होम’ को अपनाया।

बकौल श्री टाटा, आपके पास छिपने और भागने के लिए कोई जगह नहीं है। आप जहां भी जाते हैं, कोविद-19 महामारी आपको हिट करती है। ऐसे में बेहतर है कि हालात को स्वीकारें। पदमभूषण और पदमविभूषण से सम्मानित इंडस्ट्री के इस बड़े खिलाड़ी श्री टाटा ने कोरोना महामारी के दौरान एक पोर्टल को पहली बार अपनी बहुमूल्य राय साझा की है।   बोले, आपको उन बातों में बदलाव करना होगा, जिन्हें आप अच्छा मानते हैं या जो जिन्दा रहने के लिए जरुरी है। किसी भी व्यक्ति को अपनी ख़्याली दुनिया से ज्यादा सच्ची असफलता के बारे में चर्चा करनी चाहिए। दुनिया का एक और कटु सत्य यह है कि हर कोई स्पॉटलाइट के पीछे है। उस सफलता को लोग प्रॉफिट से ही नापते हैं, इसीलिए आप प्रॉफिट को कभी भी इग्नोर नहीं कर सकते। सवाल यह उठता है कि उस प्रॉफिट को कमाने के लिए करना क्या है ? कड़वी सच्चाई यह है, आप डिफिकल्ट सिचुएशन से भाग नहीं सकते हैं। उन्होंने उम्मीद जताई, भारत की युवा शक्ति नैतिकता और रचनात्मकता के आधार पर दुनिया में पॉवरहाउस बनकर उभरेगी। हमें ज्यादा क्रिएटिव और इन्नोवेटिव बनने की दरकार है। 

ऑनलाइन शिक्षण की चुनौतियाँ : एक विमर्श

जैसा कि हम सभी जानते हैं कि वर्तमान में कोविड 19 या कोरोना के संकट के इंसानी जीवन के हर पक्ष को प्रभावित किया है। मानवीय जीवन के कुछ हिस्से ज्यादा और कुछ कम प्रभावित हो सकते हैं लेकिन हर किसी पक्ष पर इसका कुछ न कुछ असर तो हो ही रहा है। शिक्षा जगत भी एक ऐसा क्षेत्र है जहां इसका व्यापक असर देखा जा सकता है। ग़ौरतलब है कि 15 मार्च से ही देश के लगभग सभी स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालयों को बंद कर दिया गया और आदेश दिया गया कि ऑनलाइन शिक्षा के माध्यम से बाकी बचे कोर्स को पूरा कराया जाये। सरकार ने भी इस ओर ध्यान देते हुए पहले से मौजूद ऑनलाइन शिक्षा के प्लेटफार्मों जैसे स्वयं, ईपीजी—पाठशाला, डिजिटल लाइब्रेरी आदि को उपयोग करने के लिए नोटिफिकेशन जारी कर दिए। ऑनलाइन शिक्षा को बेहतर बनाने के लिए सरकार निरंतर विषय विशेषज्ञों और इससे प्रभावित लोगों के संपर्क में है। विश्वविद्यालयों, स्कूलों और कॉलेजों ने भी कोरोना से उत्पन्न समस्या को एक अवसर मानते हुए ऑनलाइन शिक्षा को अपना लिया। लेकिन प्रश्न यह उठता है कि ऑनलाइन शिक्षा में क्या सबकुछ ठीक चल रहा है? COVID-19 महामारी के बढ़ते प्रभाव को रोकने के लिये लागू किये गए लॉकडाउन के कारण स्कूल, कॉलेज और विश्वविद्यालय की शिक्षा प्रतिकूल रूप से प्रभावित हो रही है। परिणामस्वरूप शिक्षा अब तेज़ी से ई-शिक्षा की ओर अग्रसर हो रही है।       ई-शिक्षा से क्या तात्पर्य है? ई-शिक्षा से तात्पर्य अपने स्थान पर ही इंटरनेट व अन्य संचार उपकरणों की सहायता से प्राप्त की जाने वाली शिक्षा से है।  ई-शिक्षा के विभिन्न रूप हैं, जिसमें वेब आधारित लर्निंग, मोबाइल आधारित लर्निंग या कंप्यूटर आधारित लर्निंग और वर्चुअल क्लासरूम इत्यादि शामिल हैं। आज से जब कई वर्ष पहले ई-शिक्षा की अवधारणा आई थी, तो दुनिया इसके प्रति उतनी सहज नहीं थी, परंतु समय के साथ ही ई-शिक्षा ने संपूर्ण शैक्षिक व्यवस्था में अपना स्थान बना लिया है।    ई-शिक्षा  के प्रकार  ई-शिक्षा को दो श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है- सिंक्रोनस (Synchronous) असिंक्रोनस (Asynchronous)  सिंक्रोनस शैक्षिक व्यवस्था- इस शैक्षिक व्यवस्था से तात्पर्य है कि ‘एक ही समय में’ अर्थात विद्यार्थी और शिक्षक अलग-अलग स्थानों से एक दूसरे से शैक्षिक संवाद करते हैं। इस तरह से किसी विषय को सीखने पर विद्यार्थी अपने प्रश्नों का तत्काल उत्तर जान पाते हैं, जिससे उनके उस विषय से संबंधित संदेह भी दूर हो जाते हैं। इसी कारण से इसे रियल टाइम लर्निंग भी कहा जाता है। इस प्रकार की ई-लर्निंग व्यवस्था में कई ऑनलाइन उपकरण की मदद से छात्रों को स्टडी मटीरियल उपलब्ध कराया जाता है। सिंक्रोनस ई-शैक्षिक व्यवस्था के कुछ उदाहरणों में ऑडियो और वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग, लाइव चैट तथा वर्चुअल क्लासरूम आदि शामिल हैं। ये तरीके बीते कुछ वर्षो में अधिक लोकप्रिय हो गए हैं।  असिंक्रोनस शैक्षिक व्यवस्था- इस शैक्षिक व्यवस्था से तात्पर्य है कि ‘एक समय में नहीं’ अर्थात यहाँ विद्यार्थी और शिक्षक के बीच वास्तविक समय में शैक्षिक संवाद करने का कोई विकल्प  नहीं है। इस व्यवस्था में पाठ्क्रम से संबंधित जानकरी पहले ही उपलब्ध होती है। उदाहरण के लिये वेब आधारित अध्ययन, जिसमें विद्यार्थी किसी ऑनलाइन कोर्स, ब्लॉग, वेबसाइट, वीडियो ट्युटोरिअल्स, ई-बुक्स इत्यादि की मदद से शिक्षा प्राप्त करते हैं। इस तरह की ई-शैक्षिक व्यवस्था का सबसे बड़ा लाभ यह है कि विद्यार्थी किसी भी समय, जब चाहे तब शैक्षिक पाठ्यक्रमों तक पहुँच सकते हैं। यही कारण है कि छात्रों का एक बड़ा वर्ग असिंक्रोनस शैक्षिक व्यवस्था के माध्यम से अपनी पढ़ाई करना पसंद करता है। 

भारत में ई-शिक्षा की स्थिति ई-शिक्षा, इलेक्ट्रॉनिक्स और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय द्वारा शैक्षणिक उपकरणों और संचार माध्यमों का उपयोग करते हुए शिक्षा प्रदान करने के लिये पहचाने जाने वाले प्रमुख क्षेत्रों में से एक है। वस्तुतः अभी भारत में ई-शिक्षा अपने शैशवावस्था में है या वो कौन—कौन सी चुनौतियां हैं जिससे शिक्षक और विद्यार्थी दोनों प्रभावित हैं? क्या स्कूली शिक्षा से जुड़े करीब 25 करोड़ और उच्च शिक्षा से जुड़े करीब आठ करोड़ विद्यार्थी ऑनलाइन शिक्षा से जुड़ पा रहे हैं? हालांकि देश के शिक्षा जगत ने समस्या को अवसर में बदलने के लिए भरसक प्रयास किए हैं परंतु वो नाकाफी से नज़र आ रहे हैं। भारत में आनलाइन शिक्षा के समाने बहुत सारी चुनौतियां मूंहबाये खड़ी हैं। ऑनलाइन शिक्षा के लिए गुणवत्ता तंत्र और गुणवत्ता बेंचमार्क स्थापित करना भी महत्वपूर्ण है। कई ई-लर्निंग मंच एक ही विषय पर कई पाठ्यक्रम प्रदान करते हैं। इसलिए, विभिन्न ई-लर्निंग प्लेटफार्मों में पाठ्यक्रमों की गुणवत्ता भिन्न हो सकती है। तकनीक का असमय फेल होना जैसे इंटरनेट की स्पीड, कनेक्टिविटी की समस्या, लॉक डाउन के समय में कोई साथ उपस्थित होकर सिखाने एवं बताने वाला नहीं होने से भी ऑनलाइन ट्यूटोरियल की सहायता से ही सीखने की मजबूरी, घर में जो साधन है उन्हीं की सहायता से लेक्चर तैयार करना उसे रिकॉर्ड करना, नोट्स बनाना उनकी डिजिटल कॉपी तैयार करना, स्टडी मटेरियल खोजना एवं पाठ्यक्रम के अनुरूप उसे विश्वविद्यालय की वेबसाइट पर अपलोड करना, छात्र-छात्राओं से संवाद करना आदि अनेकों नई प्रकार की चुनौतियां शिक्षा समुदाय के समक्ष हैं  प्रौद्योगिकी का डेमोक्रेटाइजेशन अब एक महत्वपूर्ण मुद्दा है, जिसमें इंटरनेट कनेक्टिविटी, टेलीकॉम इंफ्रास्ट्रक्चर, ऑनलाइन सिस्टम की क्षमता, लैपटॉप / डेस्कटॉप की उपलब्धता, सॉफ्टवेयर, शैक्षिक उपकरण, ऑनलाइन मूल्यांकन उपकरण आदि शामिल हैं। देश में हर शैक्षणिक बोर्ड, कॉलेज, विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम अलग अलग हैं। जिसका अपना एक अलग अर्थशास्त्र है।

पाठ्यक्रम की असमानता एक बहुत बड़ी चुनौती है, जो ऑनलाइन शिक्षा के समुचित क्रियान्वयन में आड़े आ सकती है। *पाठ्यक्रम की असमानता * इंटरनेट स्पीड और तकनीकी का अभाव * तुरंत प्रतिक्रिया का आभाव *तकनीकी समझ का आभाव *मानसिक और शारीरिक स्थिति पर प्रतिकूल प्रभाव *प्राकृतिक भाषा प्रसंस्करण जैसी तकनीकें परिपक्व नहीं हुई है, अधिकांशत: सभी स्कूल, कॉलेज और विश्वविद्यालय जो ऑनलाइन शिक्षण चला रहे हैं, वह टाइम टेबल के उसी स्वरूप को अपना रहे हैं जो वह कक्षाओं में चला रहे थे। ऐसे में समस्या यह खड़ी होती है कि क्या विद्यार्थी और शिक्षक कुर्सी से चिपके हुए सुबह नौ बजे से शाम पांच बजे तक कक्षायें चला सकते हैं? इसके कई दुष्प्रभाव भी हैं। सामान्यत: यह संभव नहीं है। फिर भी शिक्षकों और विद्यार्थियों पर यह थोपा जाना एक बड़ी समस्या है। ऑनलाइन शिक्षण को सामान्यत: रेगुलर कक्षाओं की तरह नहीं चलाया जा सकता। तकनीकी की लत और दुष्प्रभाव अभी वर्तमान में ऑनलाइन कक्षायें सामान्यत: चार से पांच घंटें तक चलाई जा रही हैं। उसके बाद शिक्षार्थी को गृहकार्य के नाम पर एसाइनमेंट और प्रोजेक्ट दिए जा रहे हैं। जिसका औसत यदि देखा जाये तो एक विद्यार्थी और शिक्षक दोनों लगभग आठ से नौ घंटे ऑनलाइन व्यतीत कर रहे हैं। जोकि उनकी मानसिक और शारीरिक स्थिति के लिए घातक है। छोटे बच्चों के लिए और भी अधिक नुकसानदेह है। कई अभिभावकों ने फेसबुक पोस्ट के माध्यम से बताया कि उनके बच्चों की आंखों में समस्यायें पैदा रही है। इसके अलावा तकनीकी का बहुतायत उपयोग अवसाद, दुश्चिंता, अकेलापन आदि की समस्यायें भी पैदा करता है। बहरहाल सवाल अब भी वहीं खड़ा है कि क्या ऑनलाइन शिक्षा एक प्रभावी शिक्षा प्रणाली हो सकती है, जो गुरू—शिष्य की आमने सामने पढ़ाई का विकल्प बने? अभी तक तो ऐसा नहीं दिखता। सरकार और शिक्षा जगत के लोग इसको बेहतर बनाने के लिए प्रयासरत हैं लेकिन भारत जैसे बड़े देश में ऑनलाइन शिक्षा में आने वाली बाधाओं से पार पाना अभी दूर की कौड़ी नज़र आ रहा है। परीक्षाओं और तकनीकी विषयों की प्रयोगात्मक परीक्षायें आदि को ऑनलाइन कराने का सवाल अभी भी जस का तस खड़ा है। हाल ही में जारी यूजीसी की गाइड लाइन ने भी पेन—कॉपी वाले एग्जाम की ही वकालत की है। ऑनलाइन शिक्षा के बढ़ाव की भारत में प्रबल संभावनायें हैं, लेकिन चुनौतियां भी कम नहीं हैं। जब तक चुनौतियों का बेहतर आंकलन नहीं किया जायेगा तब तक अच्छे परिणाम प्राप्त नहीं किए जा सकते। इन समस्याओं से बचने के लिए प्रभावी चिंतन की आवश्यकता है, जिससे इनसे देश के भविष्य को बचाया जा सके।

उच्च शिक्षा में नए युग का आगाज़

  • श्याम सुंदर भाटिया

नई शिक्षा नीति, एक्सेस-सब तक पहुंच, इक्विटी-भागीदारी, क्वालिटी-गुणवत्ता, अफ़ोर्डेबिलिटी- किफ़ायत और अकॉउंटेबिलिटी- जवाबदेही सरीखे इन पांच महत्वपूर्ण स्तम्भों पर टिकी है। 34 बरसों के बाद देश के शिक्षा बंदोबस्त में आमूल-चूल बदलाव हुए हैं। उच्च शिक्षा को नई ऊंचाई मिली है तो स्कूली शिक्षा की सूरत ही बदल गई है। एनईपी में हायर एजुकेशन को दुनिया के बाजार और जरुरतों के मुताबिक ढाला गया है। यदि यह कहें तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होनी चाहिए, हिंदुस्तान की एजुकेशन प्रणाली में नए युग का आगाज़ हुआ है। यूजी से लेकर शोधकर्ताओं को सिलेबस  में ऐसे फ्रेम किया गया है, किसी के हाथ भी खाली नहीं रहेंगे। नई शिक्षा नीति में युवाओं को उड़ने के लिए नए पंखों का पुख्ता बंदोबस्त है। नई शिक्षा नीति को लेकर मोदी सरकार 2015 से ही संजीदा रही है।  अब अंततः केंद्रीय मंत्रिमंडल ने इसरो के पूर्व प्रमुख एवं पदमभूषण डॉ. के कस्तूरीरंजन की अगुआई में गठित कमेटी की रिपोर्ट पर अपनी मोहर लगा दी है। इस शिक्षा नीति के लिए कितने बड़े स्तर पर रायशुमारी की गई, इसका अंदाजा इन आंकड़ों से लगाया जा सकता है। कमेटी ने 2.5 लाख ग्राम पंचायतों 6,600 ब्लॉक्स और 676 जिलों के लोगों से सलाह ली गई। देश में मौजूदा शिक्षा नीति को 1986 में तैयार किया गया। 1992 में उसमें एक बार सुधार हुआ। नई नीति का मकसद समग्र शिक्षा को बढ़ावा देना है। इसके तहत 2035 तक उच्च शिक्षा में पंजीकरण 28.3% से बढ़ाकर 50% पहुँचाने का लक्ष्य है। विभिन्न पाठ्यक्रमों में 3.5 करोड़ नई सीटें जोड़ी जाएंगी। वहीं स्कूल में बोर्ड परीक्षा साल में एक की जगह सेमेस्टर या दो बार हो सकती है। इसके लिए अलग नीति बनेगी।   

नई शिक्षा नीति की विशेषताएं ये हैं, अब मानव संसाधन विकास मंत्रालय को शिक्षा मंत्रालय के नाम से जाना जाएगा। एमफिल कोर्सेज समाप्त होंगे। लीगल और मेडिकल कॉलेजों को छोड़कर सभी उच्च शिक्षण संस्थानों का संचालन सिंगिल रेग्गुलेटर के जरिए होगा। पांचवीं तक पढ़ाई होम लैंग्वेज, मातृ भाषा या स्थानीय भाषा माध्यम से होगी। विश्वविद्यालयों और उच्च शिक्षण संस्थानों में प्रवेश के लिए कॉमन एंट्रेंस एग्जाम होंगे। कक्षा छह के बाद से ही वोकेशनल एजुकेशन की शुरुआत होगी। सभी सरकारी और निजी शिक्षण संस्थानों के लिए एक ही तरह के मापदंड होंगे। बोर्ड एग्जाम रटने पर पर नहीं, बल्कि ज्ञान के स्थान पर आधारित होंगे। 03 – 18 साल तक के बच्चों को शिक्षा का अधिकार कानून, 2009 के अंदर लाया जाएगा। कला, संगीत, शिल्प, खेल, योग, सामुदायिक सेवा जैसे सभी विषयों को भी पाठ्यक्रम में शामिल किया जाएगा। इस नीति की सबसे खास बात यह है, इसमें मल्टीपल एंट्री और एग्जिट सिस्टम लागू किया गया है। क्षेत्रीय भाषाओं में ई-कोर्स प्रारम्भ होंगे। वर्चुअल लैब्स विकसित होंगी।   

अब चार साल का होगा डिग्री कोर्स

अब कॉलेजों में डिग्री चार बरस का होगा, लेकिन अभी तीन साल का है। नई शिक्षा नीति-एनईपी के मुताबिक तीन साल की डिग्री उन छात्रों के लिए है, जिन्हें हायर एजुकेशन नहीं करना है। हायर करने वाले छात्र-छात्राओं को साल साल की डिग्री करनी होगी। चार साल की डिग्री करने वाले विद्यार्थी अब एक साल में एमए कर लेंगे। एनईपी के तहत अब किसी भी स्टुडेंट का बच जाएगा। नई शिक्षा नीति में छात्रों की बल्ले-बल्ले है। छात्रों का अब एक बरस भी बर्बाद होने वाला नहीं है। यदि एक साल बाद किसी छात्र को वित्तीय/ शारीरिक/ पारिवारिक दुश्वारियां आती हैं तो उसे एक साल की पढ़ाई ले एवज में सर्टिफिकेट दो साल की पढ़ाई के एवज में डिप्लोमा मिलेगा। तीन साल मुकम्मल करने के बाद वह डिग्री पाने का पात्र को जाएगा। एनईपी के अनुसार एमफिल को बंद कर दिया जाएगा। विद्यार्थिओं को यूजी के बीच दूसरे कोर्स करने की सहूलियतों का भी प्रावधान है। एनईपी के अनुसार कोई छात्र अगर एक कोर्स के बीच में कोई दूसरा कोर्स करना चाहता है तो उसे पहले कोर्स से सीमित समय के लिए ब्रेक दिया जा सकता है।  

नेशनल रिसर्च फाउंडेशन- एनआरएफ का होगा गठन

विधि और चिकित्सा शिक्षा को छोड़कर पूरी उच्च शिक्षा के लिए एक ही नियामक होगा यानी विश्वविद्यालय अनुदान आयोग-यूजीसी, अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद- एआईसीटीई, भारतीय वास्तुकला परिषद आदि के स्थान पर सिर्फ एक ही नियामक संस्था बनाई जाएगी। अमेरिका की नेशनल साइंस फाउंडेशन- एनएसएफ की तर्ज पर देश में नेशनल रिसर्च फाउंडेशन- एनआरएफ बनेगा। इसमें न केवल साइंस बल्कि सोशल साइंस भी शामिल होगी। एनआरएफ बड़े प्रोजेक्ट्स को फाइनेंसिंग तो करेगा ही, साथ ही शिक्षा के अलावा रिसर्च में भी मील का पत्थर साबित होगा।  

नर्सरी से बाहरवीं तक के पाठ्यक्रम को चार हिस्सों में बांटा

बहुप्रतिक्षित नई शिक्षा नीति में 10+2 के स्थान पर 5+3+3 +4 सिस्टम लागू किया गया है। फाउंडेशन के पहले पांच साल में नर्सरी, केजी और अपर-केजी होंगे। इसमें तीन से आठ साल तक के बच्चे कवर होंगे। प्राथमिक में तीसरी, चौथी और पांचवीं कक्षा के छात्र शामिल  होंगे। इन बच्चों की आयु आठ से ग्यारह वर्ष होगी। माध्यमिक में छठी से आठवीं की कक्षाएं चलेंगी। माध्यमिक शिक्षा की यह खास बात होगी, कक्षा छह से ही कौशल विकास कोर्स कराया जाएगा। इसमें ग्यारह से चौदह वर्ष तक के छात्र शामिल होंगे।अंतिम वर्ग यानी सेकंडरी स्टेज में नौवीं से बाहरवीं तक पढ़ाई होगी। 14-18 साल के छात्र-छात्राओं का ध्यान बोर्ड की तैयारी पर फोकस होगा। नई शिक्षा नीति में 10वीं के बोर्ड को पूरी तरह समाप्त कर दिया गया है।

यशस्वी प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी कहते हैं, नई शिक्षा नीति से लाखों का जीवन बदल जाएगा। एक भारत, श्रेष्ठ भारत पहल के तहत इसमें संस्कृत समेत भारतीय भाषाओं को बढ़ावा दिया जाएगा। केंद्रीय शिक्षा मंत्री बोले, शिक्षा पर अब जीडीपी का 6% खर्च करने का लक्ष्य है जो अब तक 4.43% था। बोले, बोर्ड परीक्षा में एकबार फेल या अच्छा प्रदर्शन न करने पर छात्र और दो या उससे अधिक बार मौका मिलेगा। इसरो के पूर्व प्रमुख एवं पदमभूषण डॉ. के कस्तूरीरंजन कहते हैं, नई शिक्षा नीति से न केवल गुणवत्तापूर्ण शिक्षा मिलेगी, बल्कि रोजगार भी मिलेगा। राष्ट्रीय मुक्त विद्यालयी संस्थान-एनआईओएस के पूर्व शैक्षणिक निदेशक श्री कुलदीप अग्रवाल कहते हैं, पहली बार किसी शिक्षा नीति में भारत केंद्रित शिक्षा तंत्र की बात हुई है। एनसीईआईटी के पूर्व निदेशक एवं शिक्षाविद श्री जेएस राजपूत कहते हैं, इस नीति से बोर्ड परीक्षाओं के दबाव को कम करने का निर्णय पूरी से तरह क्रांतिकारी कदम है। 

क्या नई शिक्षा नीति से शिक्षा क्षेत्र में सकारात्मक परिवर्तन आएंगे?


हमारे प्राचीन शैक्षिणिक इतिहास, उपलब्धियों, गलतफहमी का जायजा लेने और 21 वीं सदी के भारत के लिए भविष्य की शिक्षा योजना का चार्ट सही समय परआया है। पेशेवर योग्य शिक्षकों की कमी और गैर-शैक्षिक उद्देश्यों के लिए शिक्षकों की तैनाती में वृद्धि ने हमारी शिक्षा व्यवस्था को त्रस्त कर दिया है।
  
—प्रियंका सौरभ   
भारत में ज्ञान प्रदान करने की एक अति समृद्ध परंपरा रही है। ‘गुरुकुल’ प्राचीन भारत में एक प्रकार की शिक्षा प्रणाली थी जिसमें एक ही घर में गुरु के साथ रहने वाले शिष्य (छात्र) थे। नालंदा इस  दुनिया में शिक्षा का सबसे पुराना विश्वविद्यालय-तंत्र था। दुनिया भर के छात्र भारतीय ज्ञान प्रणालियों से आकर्षित और अचंभित थे। आधुनिक ज्ञान प्रणाली की कई शाखाओं की उत्पत्ति भारत में हुई थी। प्राचीन भारत में शिक्षा को एक उच्च गुण माने जाने के पीछे हमारी प्राचीन ज्ञान परमपरा ही रही है।  हालांकि, आधुनिक भारत औपनिवेशिक शासन के वर्षों, वित्तीय बाधाओं और गलत नीतियों के कारण भारतीय शिक्षा पद्धति अपने शुरुआती बढ़त को भुनाने में विफल रही है, जिसका खमियाजा पूरे हिन्दुस्तान को पीढ़ियों तक भुगतना पड़ा है।

आज मोदी सरकार भारत में शिक्षा प्रणाली के पुनर्गठन के लिए नई शिक्षा नीति को नवाचारों के साथ लेकर आई है जो अपने जनसांख्यिकीय लाभांश का उपयोग करके भविष्य में चौथी औद्योगिक क्रांति में भारतीय जरूरतों को पूरा करेगी। नई शिक्षा नीति का मसौदा राष्ट्रीय शिक्षा नीति  समिति डॉ के कस्तूरीरंगन की अध्यक्षता में  31 मई, 2019 को अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत कर अंतिम रूप से पेश हुआ था और बजट 2019-20 में जल्द ही इस नीति को लागू करने का प्रस्ताव किया गया था। आज इस शिक्षा नीति को अगले वर्ष से पूरे देश भर में लागू कर दिया गया है।

वर्तमान शिक्षा नीति में खामियों के चलते इस नए रूप को लाने की आवश्यकता अनुभव की गई थी। वैसे भी वर्तमान पाठ्यक्रम बच्चों की विकासात्मक आवश्यकताओं को पूरा नहीं करता है। और वर्तमान शिक्षा क्षेत्र योग्य और प्रशिक्षित शिक्षकों की कमी से बुरी तरह संघर्ष कर रहा है। वर्तमान में, बचपन की अधिकांश शिक्षा आंगनवाड़ियों और निजी-प्ले स्कूलों के माध्यम से दी जाती है। हालांकि, इस नई शिक्षा नीति में प्रारंभिक बचपन के शैक्षिक पहलुओं पर कम ध्यान दिया गया है। नीति में बचपन की देखभाल और शिक्षा के लिए दो-भाग के पाठ्यक्रम को विकसित करने की सिफारिश की गई है। तीन साल तक के बच्चों के लिए दिशानिर्देश और  तीन से आठ साल के बच्चों के लिए शैक्षिक ढांचा। जो आंगनवाड़ी प्रणाली में सुधार और विस्तार और प्राथमिक विद्यालयों के साथ आंगनवाड़ियों के सह-कार्यान्वयन द्वारा लागू किया जाएगा।

नई नीति में तीन से 18 वर्ष की आयु के सभी बच्चों के लिए शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2009 के दायरे में विस्तार की बात हुई है, जिसमे  प्रारंभिक बचपन की शिक्षा और माध्यमिक स्कूल शिक्षा शामिल है। सतत और व्यापक मूल्यांकन और नो-डिटेंशन पॉलिसी पर आरटीई अधिनियम में हालिया संशोधनों की समीक्षा पर जोर  दिया गया है। कक्षा आठ तक के बच्चों के लिए स्कूलों को यह सुनिश्चित करने के दिशा निर्देश दिए गए है कि बच्चे आयु-उपयुक्त सीखने के स्तर को प्राप्त कर रहे हैं या नहीं। अब नई नीति के आधार पर केवल मूल अवधारणा का परीक्षण करने के लिए बोर्ड परीक्षाओं का पुनर्गठन किया जायेगा न की टोपर ढूंढने के लिए। ये बोर्ड परीक्षा कई विषयों पर होगी। छात्र अपने विषयों और सेमेस्टर का चयन अपनी रूचि अनुसार कर सकते हैं, जिसमे वो विज्ञान के साथ कला के विषयों को पढ़ने का अवसर भी अपनी रूचि अनुसार पा सकेंगे।

छात्रों की विकास आवश्यकताओं के आधार पर स्कूली शिक्षा की वर्तमान संरचना का पुनर्गठन किया गया है। जिसमे 10 + 2 + 3 संरचना को 5-3-3-4 डिज़ाइन द्वारा प्रतिस्थापित किया जाना है जिसमें शामिल हैं: (i) पांच साल का फाउंडेशनल स्टेज (पूर्व-प्राथमिक स्कूल के तीन साल और कक्षा एक और दो), (ii) तैयारी के तीन साल मंच (कक्षा तीन से पांच), (iii) तीन साल का मध्य चरण (कक्षा छह से आठ), और (iv) चार साल का माध्यमिक चरण (कक्षा नौ से 12)। वर्तमान शिक्षा प्रणाली केवल रट्टा सीखने पर केंद्रित है। अब पाठ्यक्रम भार को इसकी आवश्यक मूल सामग्री तक कम किये जाने के प्रयास किये गए हैं। स्कूल परीक्षा सुधार हेतु नए तरीके ढूंढें गए है, वर्तमान बोर्ड परीक्षाएं छात्रों को केवल कुछ विषयों पर ध्यान केंद्रित करने के लिए मजबूर करती है, जो उनके सर्वागीण विकास में बाधक है, ख़ुशी-ख़ुशी पढाई करना तो भारतीय छात्रों को आता ही नहीं। आज की पद्धत्ति में एक फार्मूलाबद्ध तरीके से सीखने का परीक्षण  छात्रों में तनाव का कारण बन गया है ।

यद्यपि हर बस्ती में प्राथमिक स्कूलों की स्थापना ने शिक्षा की पहुंच को बढ़ाया है, इसने बहुत छोटे स्कूलों के विकास को संचालित किया है लेकिन वो इसे जटिल बनाते हैं। इसलिए नई नीति में स्कूल परिसर बनाने के लिए कई पब्लिक स्कूलों को एक साथ लाया जाना चाहिए की बात की गई है। इसके लिए एक कॉम्प्लेक्स में एक माध्यमिक स्कूल (कक्षा नौ से बारह) और उसके पड़ोस के सभी पब्लिक स्कूल शामिल होंगे जो कि प्री-प्राइमरी से लेकर कक्षा आठ तक शिक्षा प्रदान करते हैं। इनमें आंगनवाड़ियों, व्यावसायिक शिक्षा सुविधाओं और एक वयस्क शिक्षा केंद्र भी शामिल होंगे। प्रत्येक स्कूल परिसर एक अर्ध-स्वायत्त इकाई होगी जो प्रारंभिक अवस्था से लेकर माध्यमिक शिक्षा तक सभी चरणों में एकीकृत शिक्षा प्रदान करेंगे। बुनियादी ढांचे और प्रशिक्षित शिक्षकों जैसे संसाधनों को एक स्कूल परिसर में कुशलता से साझा करने के हर प्रयास किये जायेंगे।

पेशेवर योग्य शिक्षकों की कमी और गैर-शैक्षिक उद्देश्यों के लिए शिक्षकों की तैनाती में वृद्धि ने हमारी शिक्षा व्यवस्था को त्रस्त कर दिया है। इसके लिए नई नीति के अनुसार शिक्षकों की नयी भर्ती और उनको को कम से कम पांच से सात साल के लिए एक विशेष स्कूल परिसर में तैनात किया जाना चाहिए पर जोर दिया गया है। उन्हें स्कूल के घंटों के दौरान किसी भी गैर-शिक्षण गतिविधियों में भाग लेने की अनुमति नहीं दी जाएगी। मौजूदा बी.एड. कार्यक्रम को चार वर्षीय एकीकृत बी.एड द्वारा प्रतिस्थापित किया जाएगा। उच्च गुणवत्ता वाली सामग्री, शिक्षाशास्त्र और व्यावहारिक प्रशिक्षण और सभी विषयों के लिए एक एकीकृत सतत व्यावसायिक विकास भी किया जाएगा। नीति निर्धारण, स्कूल संचालन और शैक्षणिक विकास जैसे पहलुओं से स्कूलों के विनियमन को अलग अलग संचालित किया जायेगा। प्रत्येक राज्य के लिए स्वतंत्र राज्य स्कूल नियामक प्राधिकरण स्थापित किये जायेंगे जो सार्वजनिक और निजी स्कूलों के लिए बुनियादी समान मानकों को निर्धारित करेंगे। नीति को मजबूत करने के लिए राज्य का शिक्षा विभाग नीति तैयार करेगा और निगरानी और पर्यवेक्षण करेगा।

सही में नई शिक्षा नीति में शोध और अनुसंधान पर बल दिया गया है, तकनीकी के उपयोग, विभिन्न विषयों के बीच परस्पर सहयोग, सामंजस्य और संवाद, शिक्षकों का प्रशिक्षण , ये सभी सम्मिलित रूप से देश के शिक्षा क्षेत्र में सकारात्मक परिवर्तन लाएंगे। शिक्षा क्षेत्र में नवीनतम कस्तूरीरंगन रिपोर्ट या नई शिक्षा नीति का मसौदा शिक्षा में सुधार के लिए समय की आवश्यकता को दर्शाता है। आधुनिक भारतीय शिक्षा प्रणाली एक सुधार के लिए रो रही है। नई शिक्षा नीति (एनईपी) का मसौदा अपने पिछले इतिहास, उपलब्धियों, गलतफहमी का जायजा लेने और 21 वीं सदी के भारत के लिए भविष्य की शिक्षा योजना का चार्ट बनाने का सही समय है।

राममंदिर पर ओवैसी के विरोध का सच

ए.आई.एम.आई.एम. (ऑल इंडिया मजलिस ए एतिहाद उल मुसलमीन) के नेता असदुद्दीन ओवैसी ने एक बार फिर राममंदिर के विरुद्ध स्वर मुखर करने का असफल प्रयत्न किया है। ओवैसी परतंत्र भारत में बनी उस राजनीतिक पार्टी के वर्तमान अध्यक्ष हैं जो धर्म की एकांकी छद्म राजनीति पर टिकी है, जिसमें भारतीयता अथवा संपूर्ण भारतीय समाज के लिए कोई स्थान नहीं है, जो भारतीय संविधान की मूल भावना ‘हम भारत के लोग’ के स्थान पर अलिखित समूह बोध ‘हम भारत के मुसलमान’ की संकीर्ण मानसिकता से ग्रस्त है और स्वयं को सभी भारतीय मुस्लिम नागरिकों की स्वयंभू प्रतिनिधि समझती है। वस्तुतः यह मुस्लिम लीग की पाकिस्तान बनवा लेने वाली अलगाववादी-विभाजनकारी मानसिकता की विषवल्लरी है जो स्वतंत्र भारत में तुष्टीकरण का खाद-पानी प्राप्त कर भारतीय समाज को विघटित और विषाक्त करने के लिए पुनः सक्रिय है। इस दल के नेताओं के उत्तेजक बयान इसी ओर संकेत करते हैं। सन् 2014 से पूर्व तक भारतीय राजनीति से जीवनशक्ति अर्जित करने वाली इस दल की कूट योजनाएं केंद्र में भाजपा की प्रतिष्ठा के साथ ही बाधित हुई हैं। इसलिए इस दल के नेतृत्व में बौखलाहट स्वाभाविक है। केंद्र में कांग्रेसी सरकारों का प्रायः समर्थन करने वाला यह दल भाजपा सरकार के प्रत्येक कार्य पर उंगली उठाता रहा है। कश्मीर में आतंकवादी संगठनों पर लगाम कसने, धारा 370 हटाने, पाकिस्तान के विरुद्ध सर्जिकल एवं एयर स्ट्राइक होने, राम मंदिर के पक्ष में उच्चतम न्यायालय का निर्णय आने से लेकर अब राममंदिर की नींव रखे जाने तक ओवैसी निरंतर केंद्र सरकार पर प्रहार कर रहे हैं। यहाँ तक कि जब लगभग सभी मुस्लिम संगठनों ने उच्चतम न्यायालय के निर्णय को पूरे अथवा आधे-अधूरे मन से स्वीकार कर विवाद समाप्त कर दिया है और देश के बहुसंख्यक समाज के साथ चलने का मन बना लिया है तब भी ओवैसी उच्च न्यायालय के निर्णय पर असंतोष और अविश्वास प्रकट करते हुए आग लगाने के कुटिल प्रयत्नों में व्यस्त हैं। न्यायालय, संविधान और सरकार ओवैसी और उनके समर्थकों को तब ही तक मान्य हैं जब तक इन संस्थाओं के कार्य उनके मनोनुकूल हों। अपनी दुरभिलाषाओं और स्वार्थों के विरुद्ध कोई भी कार्य अथवा निर्णय उन्हें कभी स्वीकार्य नहीं। यह पृथक्तावादी मानसिकता देश की एकता, अखंडता और सांप्रदायिक-समरसता के विरुद्ध है। यह अलग बात है कि उनकी यही मानसिकता कट्टर मुस्लिमों के बीच उनकी लोकप्रियता का आधार है; उनकी शक्ति है और उनके भारतीय राजनीति में बने रहने का सुगम राजपथ है।

      भारतवर्ष में अमीर खुसरो और जायसी से लेकर  नजीर अकबराबादी एवं अकबर इलाहाबादी तक, हुमायूं और दाराशिकोह से लेकर आज की राजनीति में सक्रिय अनेक मुस्लिम नेताओं तक ऐसे मुस्लिम बंधुओं की कोई कमी नहीं है जो भारतीय समाज में रच बस कर जीना जानते हैं; जीना चाहते हैं किंतु देश के दुर्भाग्य से मध्यकाल से लेकर आज तक इस देश की राजनीति में हिंदुओं ने उदारवादी मुस्लिमों के स्थान पर कट्टर कठमुल्लाओं को ही सिर पर बैठाया। उदारवादी दाराशिकोह के स्थान पर कट्टरपंथी औरंगजेब को सत्ता दिलाई। अकबर इलाहाबादी जैसे उदार शायर को हाशिए पर धकेल कर पाकिस्तान के विचार को आधार देने वाले इकबाल को महत्व दिया। कट्टरता के पोषण की यही भयानक भूल भारतीय-समाज में जब-तब सांप्रदायिक दंगों की आग भड़काती है और कश्मीर घाटी से हिंदुओं को पलायन पर विवश करती है। कितने दुख और आश्चर्य का विषय है कि राज्य और केंद्र की सरकारें देखती रह जाती हैं और हत्या, बलात्कार लूट-पाट करके कश्मीरी पंडितों को उनके मूल स्थान से विस्थापित करने वालों के विरुद्ध एक भी अभियोग कहीं दर्ज नहीं होता; एक भी अपराधी को सजा नहीं मिलती। देश की धर्मनिरपेक्ष संवैधानिक सरकार और विश्व के बड़े-बड़े मानवाधिकारवादी संगठन मूक दृष्टा बने रहते हैं। आखिर क्यों ? यह प्रश्न आज भी अनुत्तरित है।

     एक विवादित ढांचा ढहाए जाने पर श्रीमान असदुद्दीन ओवैसी को अपार कष्ट होता है किंतु भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश में किसी मंदिर, गुरुद्वारे, चर्च आदि के तोड़े जाने पर वे कभी कोई आपत्ति दर्ज नहीं कराते। आखिर क्यों ? कल्पना कीजिए जब एक विवादित ढांचा ढह जाने पर ओवैसी और दाऊद जैसों को इतनी पीड़ा पहुंचती है तो बिगत 800 वर्षों में इस देश के 3000 से अधिक मंदिरों को ढहाए जाने और उन पर मस्जिदें खड़ी किए जाने से धर्मप्राण हिंदू कितनी पीड़ा हृदय में दबाएं हैं। राजा जयचन्द, मानसिंह और जयसिंह जैसी मानसिकता वाले लोगों को भले ही कोई कष्ट न हो किन्तु महाराणाप्रताप, शिवाजी और गुरू गोविन्द सिंह जैसे वलिदानी एवं संघर्षशील वीरों के वंशज तो निश्चित रूप से पीड़ित हैं।

     सामान्यतः मंदिर अथवा मस्जिद में कोई भेद नहीं। दोनों ईश्वर की आराधना के ही स्थल हैं किंतु जब किसी मंदिर को विजेता भाव से ढहाकर, उसमें स्थापित-पूजित मूर्तियों को तोड़कर अस्मिता और आस्था पर आघात किया जाता है तब वह स्वाभिमान को आहत कर कसक बनकर बार-बार उभरता है और बलपूर्वक अधिकृत की गई संपदा की पुनः प्राप्ति तक अनंत संघर्ष की प्रेरणा देता है। राममंदिर की संघर्ष-कथा इसी विजय की गौरवशाली बलिदान-गाथा है।

      इतिहास के लिखित और पुरातात्विक तथ्यों से तर्क-कुतर्क का अनंत विवाद खड़ा किया जा सकता है किंतु इस निर्दय सत्य को अस्वीकृत नहीं किया जा सकता कि सशस्त्र सैन्य-बल के सहारे भारत में इस्लाम का विस्तार करने वालों ने यहां के मंदिर ध्वस्त किए; मूर्तियां तोड़ीं। महमूद गजनबी द्वारा सोमनाथ का ध्वंस किए जाने के 1000 वर्ष बाद आज भी पाकिस्तान और बांग्लादेश में मंदिर-गुरुद्वारे तोड़े जाते हैं। भारत में धर्मनिरपेक्ष शासन की छाया में भी सांप्रदायिक दंगों के समय मूर्तियों और मंदिरों पर आक्रमण होते हैं। अतः अतीत और वर्तमान के इन कटु अनुभवों के आलोक और विवादित ढांचे के नीचे खुदाई में मिले मंदिर के अवशेषों-मूर्तियों से यह स्पष्ट हो जाता है कि वह विवादित ढांचा मंदिर के स्थान पर स्थित था और मंदिर की सामग्री से निर्मित भी था। उच्चतम न्यायालय ने भी अनेक साक्ष्यों के आधार पर इसीलिए मंदिर-निर्माण के पक्ष में निर्णय दिया है किन्तु ओवैसी इन तथ्यों पर विचार कर वस्तुस्थिति को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं और किसी नये संघर्ष की जमीन तैयार करने में व्यस्त हैं। उनका यह व्यवहार भारतीय समाज के लिए दुर्भाग्यपूर्ण है।

    ओवैसी बार-बार कहते हैं कि वे सदा याद रखेंगे कि राममंदिर वाली भूमि पर 400 वर्ष से मस्जिद थी जिसे गिराकर मंदिर बनाया जा रहा है। वे यह बात अपनी आने वाली पीढ़ियों को भी बताएंगे ताकि इस संघर्ष को अनंत काल तक जीवित रखा जा सके। अब जातीय-स्मृति कि यह विरासत यदि हिंदुओं ने भी अपनी स्मृति में पीढ़ी-दर-पीढ़ी सुरक्षित रखकर अगर उच्चतम न्यायालय से अपनी भूमि वापस प्राप्त कर ली है तो इसमें बुराई ही क्या है ?

     रामजन्मभूमि-निर्णय के उपरांत विवाद शांत हुआ है। एक बार फिर सांप्रदायिक सद्भाव का अवसर बना है किंतु यदि इस्लामिक कट्टरता पुनः रस में विष घोलने का पाप करेगी तो परिणाम निश्चय ही भयावह होंगे। अब यह समझ लेना अत्यावश्यक है कि आज की परिस्थितियाँ मध्यकाल से भिन्न हैं। अब कोई गजनबी, कोई बाबर अथवा औरंगजेब सशस्त्र सैन्यबल के सहारे किसी धर्मस्थल का ध्वंस नहीं कर सकता। किसी की चुराई या छीनी हुई वस्तु को यदि उसका वास्तविक स्वामी उसे किसी प्रकार पुनः प्राप्त कर ले तो चोर-लुटेरे को मलाल नहीं होना चाहिए। उसे यह विचार करके संतोष रखना चाहिए कि वह वस्तु तो उसकी थी ही नहीं। जिसकी थी उसके पास वापस चली गई। इसमें दुख कैसा ?

                                                                          डॉ. कृष्णगोपाल मिश्र

अब उपभोक्ता अधिकारों को मिलेगी नई ऊंचाई : उपभोक्ता संरक्षण कानून-2019’

उपभोक्ताओं को ताकतवर बनाएगा नया कानून

योगेश कुमार गोयल

      लंबे इंतजार के बाद आखिरकार देश की जनता के उपभोक्ता अधिकारों को मजबूती प्रदान करने के लिए पिछले दिनों केन्द्र सरकार द्वारा ‘उपभोक्ता संरक्षण कानून-2019’ (कन्ज्यूमर प्रोटेक्शन एक्ट-2019) लागू कर दिया गया। ग्राहकों के साथ आए दिन होने वाली धोखाधड़ी को रोकने के लिए बने इस कानून ने अब 34 वर्ष पुराने ‘उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम 1986’ का स्थान ले लिया है। इस कानून के तहत उपभोक्ताओं के अधिकारों की रक्षा के लिए उपभोक्ता अदालतों के साथ-साथ एक सलाहकार निकाय के रूप में केन्द्रीय उपभोक्ता संरक्षण प्राधिकरण (सीसीपीए) की स्थापना की व्यवस्था की गई है, जो उपभोक्ता अधिकारों, अनुचित व्यापार प्रथाओं और भ्रामक विज्ञापनों से संबंधित मामलों में पूछताछ और जांच करेगा। परिषद का कार्यकाल तीन वर्ष का होगा और इसके अध्यक्ष केन्द्रीय उपभोक्ता मंत्री तथा उपाध्यक्ष केन्द्रीय उपभोक्ता राज्यमंत्री होंगे जबकि विभिन्न क्षेत्रों के 34 अन्य व्यक्ति इसके सदस्य होंगे।

      नए कानून के लागू होते ही ग्राहकों के हितों की रक्षा के लिए कई ऐसे नए नियम भी लागू हो गए हैं. जो पुराने कानून में नहीं थे। इस कानून को क्रांतिकारी बताते हुए केन्द्रीय उपभोक्ता मंत्री रामविलास पासवान का कहना है कि पहले का उपभोक्ता कानून उपभोक्ताओं को न्याय दिलाने की दृष्टि से समय खपाऊ था। नए कानून के तहत उपभोक्ताओं को किसी भी प्रकार की ठगी और धोखाधड़ी से बचाने के लिए कई प्रावधान किए गए हैं। पहली बार ‘उपभोक्ता मध्यस्थता सेल’ के गठन का भी प्रावधान किया गया है ताकि दोनों पक्ष आपसी सहमति से मध्यस्थता का विकल्प चुन सकें। हालांकि मध्यस्थता दोनों पक्षों की सहमति के बाद ही किया जाना संभव होगा और ऐसी स्थिति में दोनों पक्षों को उपभोक्ता अदालत का निर्णय मानना अनिवार्य होगा तथा इस निर्णय के खिलाफ अपील भी नहीं की जा सकेगी। नए कानून में प्रयास किया गया है कि दावों का यथाशीघ्र निपटारा हो। उपभोक्ता आयोगों में स्थगन प्रक्रिया को सरल बनाने के साथ राज्य और जिला आयोगों को अपने आदेशों की समीक्षा करने का अधिकार भी दिया गया है।

      देश में पारम्परिक विक्रेताओं के अलावा तेजी से बढ़ते ऑनलाइन कारोबार को भी पहली बार उपभोक्ता कानून के दायरे में लाया गया है। इससे ऑनलाइन कारोबार में उपभोक्ता हितों की अनदेखी इन कम्पनियों पर भारी पड़ सकती है। अब ई-कॉमर्स कम्पनियां खराब सामान बेचकर उपभोक्ताओं की शिकायतों को दरकिनार नहीं कर सकेंगी। किसी भी उपभोक्ता की शिकायत मिलने पर अब ई-कॉमर्स कम्पनी को 48 घंटे के भीतर उस शिकायत को स्वीकार करना होगा और एक महीने के भीतर उसका निवारण भी करना होगा। अगर कोई ई-कॉमर्स कम्पनी ऐसा नहीं करती है तो उसके खिलाफ कार्रवाई की जाएगी। ई-कॉमर्स नियमों के तहत ई-रिटेलर्स के लिए मूल्य, समाप्ति तिथि, रिटर्न, रिफंड, एक्सचेंज, वारंटी-गारंटी, वितरण और शिपमेंट, भुगतान के तरीके, शिकायत निवारण तंत्र, भुगतान के तरीकों के बारे में विवरण प्रदर्शित करना अनिवार्य किया गया है। ई-कॉमर्स कम्पनियों को सामान के ‘मूल उद्गम देश’ का विवरण भी देना होगा। उपभोक्ता अधिकारों को नई ऊंचाई देने वाले नए कानून के तहत उपभोक्ता अब देश की किसी भी उपभोक्ता अदालत में मामला दर्ज करा सकेंगे। वे किसी भी स्थान और किसी भी माध्यम के जरिये शिकायत कर सकते हैं अर्थात् उपभोक्ता को अब उस स्थान पर जाकर शिकायत करने की आवश्यकता नहीं है, जहां से उसने सामान खरीदा है। नया कानून उपभोक्ताओं को इलैक्ट्रॉनिक रूप से शिकायतें दर्ज कराने और उपभोक्ता आयोगों में शिकायतें दर्ज करने में भी सक्षम बनाता है।

      खाने-पीने की वस्तुओं में मिलावट करने वाली कम्पनियों और भ्रामक विज्ञापनों पर निर्माता तथा सेलिब्रिटी पर जुर्माने तथा सख्त सजा जैसे प्रावधान भी एक्ट में जोड़े गए हैं। कम्पनी अपने जिस उत्पाद का प्रचार कर रही है, वह वास्तव में उसी गुणवत्ता वाला है या नहीं, इसकी जवाबदेही अब सेलिब्रिटी की भी होगी क्योंकि अगर विज्ञापन में किए गए दावे झूठे पाए गए तो उस पर भी कार्रवाई होगी। शरीर को आकर्षक बनाने वाले झूठे विज्ञापन दिखाने पर एक लाख रुपये तक जुर्माना और छह माह तक की कैद हो सकती है। इसके अलावा ऐसे उत्पादों से कोई नुकसान होने या मौत हो जाने पर बड़ा जुर्माना और लंबी सजा हो सकती है। भ्रमित करने वाले विज्ञापनों पर अब सीसीपीए को अधिकार दिया गया है कि वह जिम्मेदार व्यक्तियों को 2-5 वर्ष की सजा के साथ कम्पनी पर दस लाख रुपये तक का जुर्माना लगा सके। यही नहीं, बड़े और ज्यादा गंभीर मामलों में जुर्माने की राशि 50 लाख रुपये तक भी संभव है। सीसीपीए के पास उपभोक्ता अधिकारों की जांच करने के अलावा वस्तु और सेवाओं को वापस लेने का अधिकार भी होगा।

      संसद द्वारा पिछले साल ही ‘उपभोक्ता संरक्षण विधेयक 2019’ को मंजूरी दे दी गई थी और यह नया कानून पहले इसी वर्ष जनवरी में और फिर बाद में मार्च में लागू किया जाना तय किया गया किन्तु मार्च में कोरोना प्रकोप और लॉकडाउन के कारण लागू नहीं किया जा सका। अब इसके लागू हो जाने के बाद उपभोक्ताओं की शिकायतों पर तुरंत कार्रवाई शुरू हो जाएगी। नए कानून के तहत अब कैरी-बैग के पैसे वसूलना कानूनन गलत होगा और सिनेमा हॉल में खाने-पीने की वस्तुओं पर ज्यादा पैसे लेने की शिकायत पर भी कार्रवाई होगी। पुराने उपभोक्ता कानून में पीआईएल या जनहित याचिका उपभोक्ता अदालतों में दायर करने का प्रावधान नहीं था लेकिन नए कानून के तहत अब ये याचिकाएं भी उपभोक्ता अदालतों में दायर की जा सकेंगी। नए कानून के तहत कन्ज्यूमर फोरम में एक कराड़ रुपये तक के मामले जबकि राज्य उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग (स्टेट कन्ज्यूमर डिस्प्यूट रिड्रेसल कमीशन) में एक करोड़ से 10 करोड़ तक के और राष्ट्रीय उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग में 10 करोड़ रुपये से ऊपर के मामलों की सुनवाई हो सकेगी। उम्मीद की जानी चाहिए कि नया उपभोक्ता कानून देश के उपभोक्ताओं को और ज्यादा ताकतवर बनाएगा तथा इसके तहत उपभोक्ता विवादों को समय पर और प्रभावी एवं त्वरित गति से सुलझाने में मदद मिलेगी।

भारतीय परिदृश्य और कोइतूर सिनेमा

सिनेमा समाज का प्रतिनिधित्व करता है। भारतीय सिनेमा ने भी अपने सौ वर्षों के इतिहास में समाज के विभिन्न पहलुओं को प्रस्तुत करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। कोइतूर समाज भारत का छोटा पर निश्चित ही महत्वपूर्ण हिस्सा है। पर यह हिस्सेदारी भारतीय सिनेमा के परिदृश्य में कहीं गुम सी हो जाती है। ‘कमर्शियल’ या ‘पोपुलर’ सिनेमा का मुख्य उद्देश्य तो वैसे भी व्यावसायिक सफलता अर्जित करना होता है इसलिए यह उम्मीद तो नहीं की जा सकती कि कोई नामचीन फ़िल्मकार कोइतूर विषय या कोइतूर समाज का बड़े पर्दे पर प्रतिनिधित्व करे। डाक्यूमेंट्री कल्पना से दूर सत्य के ज्यादा करीब होती है। इसके साथ ही डाक्यूमेंट्री बनाने का उद्देश्य फिक्शन या फीचर फिल्म से सर्वथा भिन्न होता है, जैसे व्यावसायिक सफलता से परे समाज के अनछुए पहलुओं को टटोलना, सरोकारों और व्यवस्था की बात करना। इसलिए बड़े पैमाने पर नहीं व्यक्तिगत स्तर पर और सरकार के प्रोत्साहन के चलते डाक्यूमेंट्री फिल्मों में कोइतूर समाज कहीं न कहीं नज़र आता है। समय-समय पर कोइतूर समाज की समस्याएं, समृद्ध संस्कृति और लोकविधायें को डाक्यूमेंट्री के रूप में एक प्लेटफार्म मिल रहा है। जनजातीय कार्य मंत्रालय द्वारा भी भारत के कोइतूर समुदाय का वीडियो दस्तावेजीकरण डाक्यूमेंट्रीज़ के द्वारा किया गया है, जो युट्यूब प्लेटफार्म पर बिना किसी शुल्क के उपलब्ध हैं।
विषय की पृष्ठभूमि
देखा जाये तो कोइतूर समाज को फिल्मों में दिखाने की या कहें फिल्माने की कहानी फिल्मों के उद्भव के साथ ही शुरू हो गयी थी। हिंदी सिनेमा का आदिपुरुष धुंडीराज गोविंद फाल्के को माना जाता है, जिन्हें हम दादा साहेब फाल्के नाम से भी जानते हैं। विडम्बना यह है कि अगर उनकी दो फिल्मों ‘बुद्धदेव’ और ‘सत्यवान सावित्री’ को छोड़ दिया जाये तो उनकी ज़्यादातर फिल्मों में कोइतूर समाज को जंगल में रहने वाले असभ्य मनुष्य लगभग राक्षसों के रूप में दिखाया गया है, इस दृष्टिकोण में सिनेमा के सौ वर्ष बीत जाने के बाद भी आजतक कोई बदलाव नहीं हुआ है। लोकप्रिय फिल्म बाहुबली में कालकेय समुदाय का भयावह चित्रण एक ताज़ा उदहारण है। फिल्मों की कहानी में, फिल्म बनाने की तकनीक में और दर्शकों में भी, ज़मीन-आसमान का अंतर आ गया हैं पर कोइतूर पहले भी जंगलवासी थे और आज भी जंगलवासी हैं।

कई फिल्मों में कोइतुरो को नाचते-गाते हुए, कभी अर्धनग्न, तो कभी पत्तों से लपेटे हुए दिखाया जाता है। यहाँ नाचने-गाने से सम्बन्ध कोइतूर संस्कृति या लोक गीतों से बिलकुल नहीं है जो कि सर्वथा अनुचित है। इस नज़रिए से देखने या दिखाने वाले कोइतूर समुदाय या समाज के उस यथार्थ को नज़रअंदाज कर जाते हैं, जिसमें कि वह अभावों से घिरा है फिर भी प्रकृति के सबसे समीप है और उसको बेवजह नुकसान ना पहुंचाते हुए संधारण विकास के साथ अपना जीवन व्यतीत कर रहा है। भारतीय सिनेमा के शुरुआती काल की एक और फिल्म ‘रोटी’ जो 1942 में बनी, यह फिल्म स्वयं पूंजीवादी विचारधारा की खिलाफत करती है लेकिन उसमें भी दर्शकों को आकर्षित करने के लिए उस समय के आइटम डांस के रूप में कोइतूर समुदाय को फूल-पत्ती लपेटकर रूमानी मुद्रा में नृत्य करते हुए दिखाया गया है। बिमल रॉय द्वारा निर्देशित, ऋत्विक घटक द्वारा लिखी और दिलीप कुमार, वैजैयंती माला, प्राण जैसे बेहतरीन अदाकारों से सुसज्जित 1958 में बनी फिल्म मधुमती एक बेहतरीन फिल्म थी पर उसमें भी कोइतूरों को नाचते-गाते हुए रूमानी अंदाज़ में लहराते हुए दिखाया है।

मधुमती तो भारतीय सिनेमा इतिहास के स्वर्णिम युग और समानांतर सिनेमा के उद्भव काल की फिल्म है, जब यथार्थवादी विषय, किरदार, सेट डिज़ाइन और मुद्दे को प्राथमिकता दी जाती थी। ऐसी ही कई और फिल्मों के नाम गिनाये जा सकते हैं, जिनमें कोइतूर समुदाय को और नृत्यों को फिल्मों में केवल नयनाभिराम रचनांश की तरह रखा गया – ‘नागिन’, ‘विलेज गर्ल’, ‘अलबेला’, ‘दुपट्टा’, ‘श्रीमतीजी’, ‘यह गुलिस्तां हमारा’, ‘टार्जन और जादुई चिराग’, ‘दिलरुबा’, ‘टावर हाउस’ एवं ‘शिकार’ आदि। 1970 के बाद का समय, जिसे आधुनिक भारतीय सिनेमा का आगाज भी माना जाता है, यथार्थ से वैसे भी दूर था तो उससे उम्मीद करना कि वह कोइतूर समाज के किसी सकारात्मक पहलु को दिखाए या उस पर फिल्म बनाए, यह तो बहुत असंभव सी बात लगती है। 1983 में बालू महेंद्र की फिल्म ‘सदमा’ कोइतूर समुदाय के बारे में मिथ्य चरित्रकरण का एक और सशक्त उदहारण है। कमल हासन और श्रीदेवी के फ़िल्मी करियर की शायद सबसे बेहतरीन फ़िल्मों में से एक, पद्मभूषण इल्लैराजा द्वारा संगीतबद्ध इस फिल्म का एक गीत और उसके पीछे विचार गौर करने लायक हैं। फिल्म की दूसरी सहनायिका विजयालक्ष्मी वाडलापति जो दक्षिण भारतीय फिल्मों में स्टेज नाम सिल्क स्मिता के नाम से जानी जाती थी, नायक कमल हसन के साथ एक रूमानी गाना स्वप्न में देखती है, जिसके बोल हैं- “ये महुआ करे क्या इशारे”।

निर्देशक ने गाने के दृश्य में नायक-नायिका दोनों को कोइतूर पहनावे या कहा जाए निर्देशक या कॉस्ट्युम डिज़ाइनर द्वारा कल्पित अर्धनग्न कोइतूर पहनावे में बेहद रूमानी अंदाज़ में दिखाया गया गया है। गोयाकि अगर कोई अंतरंगता की कल्पना भी करे तो उसमें कोइतूर ही हो और वह महुआ के फूल से बनी ग्रामीण शराब को पीने से हो या उसके बाद होश खो दे। कोइतूर समुदाय का यह शराब पीकर उद्दंडता करने या होश खो देने वाला चरित्र ही सामान्य वर्ग के सामने आता है क्योंकि वर्षों से सिनेमा और मीडिया के अन्य माध्यमों में यही दिखाया गया है और जैसा कि लेख के आरम्भ में लिखा गया था कि सिनेमा समाज का सजीव और हुबहू चित्रण करता है और केवल कल्पित रचना लिख देने से या फ़िल्म के सभी पात्र काल्पनिक लिख देने से फिल्मकार का दायित्व समाप्त नहीं हो जाता। क्योंकि फिल्मकार की कल्पना निराधार नहीं होती बल्कि प्रच्छन्न विचार या सोच होती है, जिसे वह फिल्म के माध्यम से अभिव्यक्त करता है।
विषय की प्रासंगिकता
यदाकदा कोइतूर समाज को या किसी कोइतूर व्यक्ति विशेष को भारतीय मुख्यधारा की  फिल्मों में दिखाया भी जाता है। एक दशक पहले आई ‘चक दे इंडिया’ फिल्म में भारतीय राष्ट्रीय हॉकी टीम में चार कोइतूर हॉकी प्लेयर्स को दिखाया गया था। फिल्म में वे भारतीय टीम में झारखण्ड और उत्तर भारत राज्यों का प्रतिनिधित्व करती हैं, जिनके बिना हॉकी टीम की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। संख्या के रूप में तो छोड़िये फिल्म में भी उनका रूपण कम पढ़ी-लिखी, कम समझ वाली और हिंदी न बोल पाने वाली प्लेयर्स के रूप में किया गया है। कमाल की बात यह है कि उन्हें फिल्म में भी फाइनल टीम में जगह नहीं मिलती और उन्हें पूरे समय दरकिनार रखा जाता है।
गोयाकि कोइतूर समाज को एक काल्पनिक कहानी में भी हाशिये पर रखा गया है। प्रसिद्ध फ़िल्मकार मणिरत्नम द्वारा निर्देशित फिल्म ‘रावण’ की कहानी एक ऐसे कोइतूर समाज के मुखिया बीरा के इर्द-गिर्द घूमती है जो कि हिंसक-उग्रवादी है और अपने साथियों के साथ समाज का बहिष्कार करता है, लोगों का अपहरण करता है। कोइतूर समाज को उग्रवादी, हिंसक, अनपढ़ और समाज विरोधी दिखने की परंपरा भारतीय फिल्मों में लगातार चली आ रही है। फिल्म ‘टैंगो चार्ली’ भारतीय सेना के एक बड़े ऑपरेशन पर आधारित है जिसे असम राज्य में प्रतिबंधित कर दिया गया था। फिल्म में एक बोडो जनजाति विद्रोही को एक बंदी का कान काटकर अपनी प्रेमिका को भेंट करते दिखाया गया था।
एक अन्य फिल्म ‘रेड अलर्ट’ भी नक्सलवाद के इर्द-गिर्द ही घूमती है और अन्य फिल्मों की तरह इसमें भी कोइतूर समाज की समस्या का कोई समाधान नहीं बताया है बल्कि उसे फिल्म में समाज, सरकार और व्यवस्था विरोधी बताया गया है। 1980 में आई ‘द नक्सलाइट’, 2002 में आई ‘लाल सलाम’, 2003 में आई ‘हजारों ख्वाहिशें ऐसी’ और 2012 में आई ‘चक्रव्यूह’ में भी कोइतूर प्रतिनिधित्व है जो नक्सलवाद पर केंद्रित है। फिल्म में उनके संगठन, भर्ती, अनुशासन, नेतृत्व, रणनीति, पुलिस के साथ मुठभेड़, मुखबिरी, महिला कैडर की उपस्थिति, प्रेम संबंध वगैरह को चित्रित किया गया है। “आपने इस इलाके में आकर बड़ी गलती कर दी। ये आदिवासी न इंसान हैं और न जानवर, ये शैतान हैं।” ये डायलॉग है हिंदी फीचर फिल्म ‘एमएसजी-2 का, जो कि डेरा सच्चा सौदा प्रमुख गुरमीत राम रहीम सिंह द्वारा निर्मित निर्देशित की गयी थी जिसमें मुख्य किरदार भी उन्हीं के द्वारा निभाया गया था। कोइतूर समाज के देशव्यापी विरोध के बाद इसे कई राज्यों में रिलीज़ होने से रोक दिया गया था। बाद में गुरमीत राम रहीम ने एक टीवी चैनल को अपनी सफाई देते हुए कहा था कि “फिल्म जब बनी भी नहीं उससे पहले मैं 2000-2002 के बीच छत्तीसगढ़ के घने जंगलों में आदिवासियों के बीच गया था। वहां मैंने देखा कि वे लोग बिल्कुल मध्ययुगीन तरीके से बिना कपड़ों के सिर्फ पत्ते लपेटे रहते हैं। जिंदा जानवर का मांस खाते हैं। ऐसे लोगों को जो जंगली हैं, शैतान हैं, उन्हें हमने इंसान बनाने की बात कही है, जो कहीं से भी गलत नहीं है”।  कोइतूर समाज का रूपण अगर इस तरह सामान्य दर्शक के सामने जायेगा तो कहीं न कहीं वह उसकी विचारधारा का हिस्सा बन ही जाती है। इसी तरह के मिथ्या निरूपण की पराकाष्ठा हमें देखने को मिलती है हिंदी सिनेमा की सबसे बड़ी और व्यावसायिक रूप से सफल फिल्म ‘बाहुबली’ में। इसमें नेगेटिव किरदार में कालकेय जनजाति को वीभत्स, खूंखार, हिंसक, बलात्कारी के रूप में दिखाया गया था, जिसको उतनी ही क्रूरता से खत्म करने पर युवा राजकुमार अपने को कुशल प्रशासक के रूप में स्थापित करता है।
पीरियड फिल्मों में कोइतूर समाज का चित्रण तो एक अलग नज़रिया है पर सच्चाई से प्रेरित बायोपिक फिल्मों में ऐसे कोइतूर व्यक्तित्व के चित्रण में उसके समाज को पूरी तरह से भुला दिया जाता है। जबकि एक व्यक्तित्व के निर्माण में उसकी परवरिश और उसके समाज के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता। जैसे वर्ल्ड चैंपियन बॉक्सर और ट्राइब्स इंडिया की ब्रांड एम्बेसडर मैंगते चंग्नेइजैंग मैरी कॉम पर बनी फिल्म ‘मैरी कॉम’ में उत्तर-पूर्वी राज्य की समृद्ध संस्कृति, लोकगीतों और भाषा को दरकिनार कर दिया गया था, व्यावसायिक मापदंडो के चलते। फिल्म की मुख्य अभिनेत्री प्रियंका चोपडा, जिन्होंने मैरी कॉम का किरदार निभाया था, उन्हें मैरी कॉम जैसा दिखने के लिए प्रोस्थेटिक और मेकअप का इस्तेमाल करना पड़ता था, जिसमें फिल्म प्रोडक्शन की दृष्टि से काफी समय और पैसा खर्च हुआ। इसकी जगह मैरी कॉम के जैसे चेहरे और ढीलढौल वाली उत्तर पूर्व की किसी मूल निवासी को लेकर भी यह फिल्म बनायी जा सकती थी, जिससे न केवल बजट कम होता बल्कि किसी नये चेहरे को हिंदी सिनेमा में परिचय करवाया जा सकता था। सोनम वांगचुक जो कि लद्दाख की पहचान के रूप में जाने जाते हैं और आजकल चीन की घुसपैठ के विरोध में और चीन के उत्पादों के बहिष्कार का मुख्य चेहरा बनकर सामने आये हैं, उन्हीं से प्रेरित था फिल्म 3-इडियट्स का मुख्य किरदार जो कि आमिर खान द्वारा अभिनीत किया गया था। 3-इडियट्स जो कि एक व्यावसायिक रूप से सफल और अत्यंत प्रेरणादायक फिल्म थी, उसमें भी मैरी कॉम के समान ही सोनम वांगचुक के कोइतूर व्यक्तित्व और लद्दाखी संस्कृति को केवल मुख्य प्लॉट का हिस्सा ही बनाया गया। अगर नये भारत के ये दो कोइतूर आदर्श व्यक्तित्व सिनेमा के माध्यम से अपनी बात नहीं कह पाएंगे तो सामान्य लोगों को मुख्यधारा में आने में बरसों लग जायेंगे

भारतीय सिनमा में कोइतूर जीवन शैली को यथार्थ से परे दिखाने वाली अनेकों फिल्मों के बावजूद कुछ फिल्मकार या फ़िल्में ऐसी भी हैं जो घनी काली घटाओं में उम्मीद की किरण के सामान हैं। अगर फीचर फिल्मों की बात की जाए तो यथार्थवादी फिल्मकार मृणाल सेन की 1977 में ‘मृगया’ एक दर्शनीय फिल्म है, जो एक संथाली युवक की कहानी हैं, जो अंग्रेजी हुकमत द्वारा अपनी पत्नी के यौन शोषण के खिलाफ आवाज़ उठाता है। जानने योग्य बात यह है कि फिल्म में बेहतरीन अभिनय के लिये मिथुन चक्रवर्ती को अपनी पहली ही फिल्म में राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था। आदिवासी विषयों को विश्वसनीयता के साथ फिल्माने वाली ‘मृगया’ में पद्मभूषण, पद्मविभूषण और दादा साहेब फाल्के पुरस्कार से नवाज़े गए निर्देशक मृणाल सेन ने दिखाने का प्रयास किया है कि फ़िल्म में वास्तविक शिकारी धूर्त साहूकार है, शायद उसी तरह जिस तरह भारत की सामाजिक संरचना रही है, उसमें निचली जाति या तबके का शोषण उनकी नियति बन गई है। पर यह सब तभी तक संभव है जब तक वह निरंतर दमन से परेशान तबका जाग न जाए। इसी विचार का समर्थन करती है गोविन्द निहलानी की 1998 में आई नेशनल अवार्ड से पुरस्कृत फिल्म ‘हजार चौरासी की मां’। जया बच्चन, अनुपम खेर, जोय सेनगुप्ता, सीमा बिस्वास, नंदिता दास और मिलिंद गुनाजी जैसे मंझे हुए कलाकारों से सुसज्जित और नक्सलवाद का एक अलग कोण दिखाती इस फिल्म का निष्कर्ष है कि क्रांति की समाप्ति तभी हो सकती है जब शासन गरीबों और शोषितों को मूलभूत अधिकारों के साथ ही सम्मान भी देगा। कोइतूर समुदाय या समाज स्वचैतन्य है और धीरे-धीरे प्रकृति के साथ चलते हुए भी निरंतर प्रगति के पथ पर अग्रसर है। फिल्म निर्माताओं के साथ ही दर्शक भी अपनी विचारधाराओं को व्यापक उड़ान भरने दे, वर्षों से आये पूर्वाग्रहों, एकतरफ़ा विचारधाराओं और मानसिकताओं को विराम दे ताकि फिल्मकार भी आज़ाद होकर हर विषय, हर समाज, हर समस्या को सामने ला सके।

राहुल खडिया
सहायक प्राध्यापक
एम सी यू विश्वविद्यालय
फ़िल्म मेकर, कोइतूर

बीजेपी में सिंधिया का विरोध कितना जायज ?

डॉ अजय खेमरिया

मप्र में बीजेपी के कुछ नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया के दलबदल  के साथ ही मुरझाए हुए है।कैबिनेट के गठन के बाद तो मामला सन्निपात सा हो गया है।बड़े ही सुव्यवस्थित तरीके से पार्टी में  एक विमर्श खड़ा किया जा रहा है कि बाहर से आये नेताओं को समायोजित करने से पार्टी का कैडर ठगा महसूस कर रहा है।कैडर के हिस्से की सत्ता दूसरे दलों से आये नेता ले जा रहे है..!

इस विमर्श के अक्स में बीजेपी की विकास यात्रा पर नजर दौड़ाई जाए तो स्पष्ट है कि सिंधिया के आगमन और उनकी धमाकेदार भागीदारी बीजेपी में कोई नया घटनाक्रम नही है।आज की अखिल भारतीय भाजपा असल में राजनीतिक रूप से गैर भाजपाईयों के योगदान का भी परिणाम है।

जिन सिंधिया को लेकर बीजेपी का एक वर्ग आज प्रलाप कर रहा है उन्हें याद होना चाहिये कि 1967 में सिंधिया की दादी राजमाता विजयाराजे अगर कांग्रेस छोड़कर बारास्ता स्वतन्त्र पार्टी जनसंघ में न आई होती तो क्या मप्र में इतनी जल्दी पार्टी का कैडर खड़ा हुआ होता?

एक बहुत ही प्रेक्टिकल सवाल विरोध के स्वर बुलन्द करने वालों से पूछा जा सकता है कि क्या वे जिस क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करते है उसके आसपास की विधानसभाओं में उनकी भीड़ भरी सभाएं  सिंधिया की टक्कर में आयोजित की जा सकती है?क्या देश भर में सिंधिया की उपयोगिता से कोई इनकार कर सकता है?क्या मप्र में सिंधिया के भाजपाई हो जाने से कांग्रेस का अस्तित्व संकट में नही आ गया?

रही बात बीजेपी कैडर की तो वह सदैव ही यह चाहता ही है कि उसकी पार्टी के व्यास का विस्तार हो।यह निर्विवाद तथ्य है कि बीजेपी में उसकी रीति नीति को आत्मसात करने वाले ही आगे बढ़ पाते है।ऐसा भी नही की बाहर से आये सभी नेताओं के अनुभव खराब है।मप्र में जनसंघ के अध्यक्ष रहे शिवप्रसाद चिनपुरिया मूल कैडर के नही थे।इसी तरह ब्रजलाल वर्मा भी बीजेपी में बाहर से आकर प्रदेश अध्यक्ष तक बने। ऐसा लगता है कि बीजेपी ने मप्र में सिंधिया के दबाब में 14 मंत्री बना दिए है लेकिन पार्टी ने बहुत ही करीने से अपने  नए कैडर को मप्र की राजनीति में मुख्य धारा में खड़ा कर दिया है।मसलन कमल पटेल,मोहन यादव,इंदर सिहं परमार,अरविंद भदौरिया,(सभी विद्यार्थी परिषद)को मंत्री बनाकर खांटी संघ कैडर को आगे बढ़ने का अवसर दिया है।,उषा ठाकुर ,भूपेंद्र सिंह,भारत सिह कुशवाहा, प्रेम पटेल,कावरे, मीना सिंह जैसे जन्मजात भाजपाईयों को जिस तरह मंत्री बनाया गया है उसे आप पार्टी का सोशल इंजीनियरिंग बेस्ड पीढ़ीगत बदलाब भी कह सकते है।जाहिर है जो मीडिया विमर्श बीजेपी को ज्योतिरादित्य सिंधिया के आगे सरेंडर दिखाता है उसके उलट मप्र में नए नेतृत्व की स्थापना को भी देखने की जरूरत है।मप्र में पार्टी के मुखिया के रूप में बीड़ी शर्मा की ताजपोशी क्या किसी ने कल्पना की थी।बीड़ी शर्मा असल में मप्र की भविष्य की राजनीति का चेहरा भी है वे पीढ़ीगत बदलाब के प्रतीक भी है।यानी मप्र में दलबदल के बाबजूद  वैचारिक अधिष्ठान से निकला कैडर मुख्यधारा में सदैव बना रहा है।

मप्र राजमाता सिंधिया को बीजेपी ने सदैव राजमाता बनाकर रखा अब ज्योतिरादित्य सिंधिया की बारी है कि वे अगर अपनी दादी के सियासी अक्स को अपने जीवन मे 25 फीसदी भी उतार सके तो वह भी महाराजा की तरह प्रतिष्ठित पायेंगे।बीजेपी के केंद्रीय नेतृत्व ने तो उनको राजमाता की तरह ही अवसर उपलब्ध करा दिया है।वैसे बीजेपी में बाहर से आये नेताओं को उनकी निष्ठा के अनुसार सदैव प्रतिष्ठा मिली है।मप्र की सियासत के ताकतवर चेहरे डॉ नरोत्तम मिश्रा का परिवार कभी कांग्रेस में हुआ करता था उनके ताऊ प. महेश दत्त मिश्र कांग्रेस सरकार में मंत्री रहे है लेकिन नरोत्तम मिश्रा को बीजेपी ने इस पारिवारिक पृष्ठभूमि के बाबजूद आगे बढ़ाया।

हरियाणा में दूसरी बार बनी बीजेपी की खट्टर सरकार में आधे से ज्यादा मंत्री विधायक मूल बीजेपी के नही है।यहीं से निकली सुषमा स्वराज लोकसभा में पार्टी की नेता और देश की सबसे लोकप्रिय बीजेपी वक्ताओं में शामिल रही।

उत्तराखंड में बीजेपी सरकार के आधे मंत्री कांग्रेस से आए।जिस पूर्वोत्तर में कभी बीजेपी का विधायक जीतना बड़ा प्रतीत होता था वहां आज कमल और भगवा की बयार है।

आसाम के मुख्यमंत्री सर्वानंद सोनोवाल मूलतः बीजेपी के नही है इसी आसाम से निकलकर पूरे नार्थ ईस्ट में वामपंथ और कांग्रेस का सफाया कराने वाले हिमंता विश्व सरमा जिंदगी भर कांग्रेसी रहे है लेकिन पिछले 7 साल से वे बीजेपी के लिए नॉर्थईस्ट में मजबूत बुनियाद बनकर उभरे है।त्रिपुरा में भी बीजेपी सरकार की नींव में तमाम कम्युनिस्ट शामिल है। बैटल फाइट ऑफ सरई घाट केवल बीजेपी कैडर के दम पर नही जीता गया है त्रिपुरा में।बंगाल, बिहार,कर्नाटक,तेलंगाना, यूपी सभी राज्यों में अगर बीजेपी ने चमत्कारिक विस्तार हांसिल किया है तो इसके मूल में बाहर यानी अन्य राजनीतिक दलों से आये लोगों का योगदान अहम है।सिकन्दर बख्त,आरिफ बेग,हुकुमदेव नारायण यादव,नजमा हेपतुल्ला, रामानन्द सिह,चन्द्रमणि त्रिपाठी से लेकर तमाम फेहरिस्त है जो बाहर से आये और बीजेपी में रच बस गए।

सवाल यह है कि जब बीजेपी का  राजनीतिक दर्शन “पार्टी को सर्वव्यापी और सर्वस्पर्शी “बनाने का है तब मप्र में सिंधिया प्रहसन पर सवाल क्यों उठाये जा रहे है?क्या यह तथ्य नही है कि सिंधिया के कारण ही मप्र जैसे बड़े राज्य में पार्टी को फिर से सत्ता हांसिल हुई।क्या सवाल उठाने वाले चेहरों ने सत्ता बनी रहे इसके लिए अपने खुद के योगदान का मूल्यांकन ईमानदारी से किया है?क्या इस तथ्य को स्वीकार नही कर लेना चाहिए कि सिंधिया प्रहसन पर आपत्ति केवल उन लोगों को है जो  जीवन भर बीजेपी में रहकर दल से बड़ा देश अपने मन मस्तिष्क में उतार ही नही पाए।

तथ्य यह है कि ज्योतिरादित्य सिंधिया के बीजेपी में आने से मप्र में कांग्रेस नेतृत्व विहीन होकर रह गई है।आज कमलनाथ और दिग्विजयसिंह 70 पार वाले नेता है और दोनों के पुत्रों को मप्र की सियासत में स्थापित होने में लंबा वक्त लगेगा।सिंधिया का आकर्षक व्यक्तित्व और ऊर्जा बीजेपी के लिए मप्र भर में अपनी जमीन को फौलादी बनाने में सहायक हो सकती है।सिंधिया के लिए भी बीजेपी एक ऐसा मंच और अवसर है जिसके साथ सामंजस्य बनाकर वह जीवन की हर सियासी महत्वाकांक्षा को साकार कर सकते है क्योंकि यहां एक व्यवस्थित संगठन है अनुशासन है और एक  सशक्त आनुषंगिक नेटवर्क है।कांग्रेस में यह सब नही था केवल चुनाव लड़ने वालों की फौज भर थी।

बीजेपी के लिए सिंधिया का महत्व भी कम नही है उनके प्रभाव का राजनीतिक फायदा स्वयंसिद्ध है।इससे पहले भी राजेन्द्र शुक्ला रीवा,गोपाल भार्गव,सागर,जैसे लोग बीजेपी में बाहर से आकर आज पार्टी के नीतिनिर्माताओं में शुमार है।बघेलखण्ड में राजेंद्र शुक्ला को अर्जुन सिंह,श्रीनिवास तिवारी जैसे नेताओं की टक्कर में खड़ा किया जाना कम बड़ी बात नही है।शहडोल,अनूपपुर,उमरिया,धार,झाबुआ, बड़बानी,आलीराजपुर जैसे इलाकों में तो मूल पिंड के बीजेपी नेता आरम्भिक दौर में बहुत ही कम थे।आज इन सभी क्षेत्रों में बीजेपी का मजबूत जनाधार है।

असल में आज बुनियादी आवश्यकता इस बात  की है कि बीजेपी संगठन की प्रभावोत्पादकता सत्ता साकेत में कमजोर न हो। संगठन और विचार का महत्व बनाएं रखने की जबाबदेही मूल पिंड से उपजे नेताओं की ही।होती है।बशर्ते वे खुद सिर्फ सत्ता के लिए सियासी चोला न पहनें हुए हो।बीजेपी के वैचारिक अधिष्ठान में प्रचारक की तरह आचरण अपेक्षित है।जो नेता इस अधिष्ठान को समझते है उनका उत्कर्ष यहां बगैर वकालत के निरन्तर होता रहा है।इसलिए सिंधिया हो या पायलट सामयिक रूप से जो सियासी उत्कर्ष में सहायक हो उन्हें लेकर कोई भृम नही होना चाहिये।अगर ऐसे नेताओं के अंदर समन्वय और वैचारिक अबलंबन का माद्दा होगा तो वह मूल विचार के लिए उपयोगी ही होंगे।अंततः समाज के बेहतर और प्रभावशाली लोगों को अपने साथ जोड़कर चलना ही तो संघ विचार का मूल उद्देश्य है।

ज्ञान का उजियारा फ़ैलाने वाले साक्षरता कर्मियों का जीवन अंधकारमय


   भगवत कौशिक

अनपढ़ ग्रामीण महिला -पुरुषो को साक्षर बनाने और सरकारी योजनाओ में बढ़ चढ़ भाग लेने वाले शिक्षा प्रेरक आज दर -दर की ठोकरे खाने पर मजबूर है | हम बात कर रहे है साक्षर भारत मिशन के तहत लगी देश की लगभग 160000 महिला शिक्षा प्रेरको सहित 321000 के करीब साक्षरता कर्मचारीओ की जो पिछले एक – दो साल से रोजगार बहाली की मांग को लेकर धरना प्रदर्शन से लेकर दर दर की ठोकरें खाने पर विवश हैं।आप को बता दे कि देश के 25 राज्यों व एक केंद्र शासित प्रदेश सहित 26 राज्यों के 365 जिलों के 4263 ब्लाकों की 157875 ग्राम पंचायतो में जंहा महिला साक्षरता दर 50 प्रतिशत से कम थी वहा पर राष्ट्रीय साक्षरता प्राधिकरण मिशन अथॉरिटी द्वारा साक्षर भारत मिशन कार्यक्रम की शुरुवात की गई | राज्यों में साक्षर भारत मिशन को सुचारु रूप से चलाने की जिमेवारी राज्य साक्षरता प्राधिकरण मिशन अथॉरिटी को दी गई | प्रत्येक जिले में एक सरकारी कर्मचारी को मिशन कोऑर्डिनेटर की जिमेवारी सौंपी गई व एक जिला कोऑर्डिनेटर को 10000 रुपये प्रतिमाह ,एक अकाउंटेंट जिसको 7500 रुपये प्रतिमाह व एक चपरासी जिसको 6000 रुपये प्रतिमाह और ब्लॉक लेवल पर सभी ब्लॉकों में एक एक ब्लॉक कोऑर्डिनेटर जिसको 7500 रुपये प्रतिमाह के मानदेय के आधार पर नियुक्त किया गया | प्रत्येक गांव मे एक महिला और एक पुरूष की नियुक्ति शिक्षा प्रेरक पद पर की गई।लगभग देश मे 150000 से ज्यादा लोक शिक्षा केंद्र खोले गए जिनके माध्यम से स्कूल छोड़ चुके या अनपढ़ महिलाओ और 15 साल से ज्यादा उम्र के अनपढ़ो को अक्षर ज्ञान दिया गया । शिक्षा प्रेरकों को दो हजार रुपए प्रतिमाह मानदेय दिया गया।

 कई वर्षो तक सरकार की स्कीमों साक्षर भारत मिशन, ड्राप आउट बच्चो को स्कूल में लाने, बीएलो का कार्य, चुनाव ड्यूटी, स्वच्छ भारत मिशन, बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ, प्रधानमंत्री सुरक्षा बीमा योजना, कैशलैश आदि में प्रेरकों द्वारा सराहनीय योगदान देने के बावजूद 31 मार्च 2018 को इन शिक्षा प्रेरकों को घर का रास्ता दिखा दिया गया। कई राज्यों में तो राज्य सरकारों दवारा तो 2017 में ही प्रेरको को बजट की कमी का हवाला देकर  घर का रास्ता दिखा दिया | मिशन को बंद करने के समय अभी भी देश में लगभग  25 से 30 लाख असाक्षर बचे हुये है |  
 इन्ही शिक्षा प्रेरकों की बदोलत अगस्त 2015 में भारत ने बुनियादी साक्षरता परीक्षा में चीन के विश्व रिकार्ड को तोडक़र भारत को नम्बर-1 बनाया था व स्वच्छ भारत मिशन के तहत लोगो को स्वच्छता के प्रति जागरूक करके सरकार के मिशन को साकार किया |

यूपीए के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने देश में फैली हुई असाक्षरता को खत्म करने के लिए 08 सितम्बर 2009 को साक्षर भारत मिशन योजना को लांच किया जिसके माध्यम से देश के लोगो को असाक्षरता  के अंधेरे से निकालकर डिजिटलीकरण  कि ओर ले जाने व उसके बाद लोगो को एक ही जगह पर सारी सरकारी योजनाओ की जानकारी उपलब्ध करवाने का लक्ष्य रखा गया | केंद्र और राज्य सरकार के बीच  मिशन को चलाने के लिए 75:25 का अनुपात व सिक्किम सहित पूर्वोत्तर राज्यों के मामले में क्रमशः 90:10 का अनुपात तय किया गया ,जिसके अनुसार इस मिशन पर खर्च का 75 प्रतिशत केंद्र सरकार व 25 प्रतिशत राज्य सरकार वहन करेंगी वही सिक्किम सहित पूर्वोत्तर राज्यों के मामले में 90 प्रतिशत केंद्र सरकार व 10 प्रतिशत राज्य सरकार वहन करेंगी | राज्यों में मिशन की शरुवात  14 दिसम्बर 2009 को हुई | मिशन के तहत असाक्षारो को पढ़ाने के लिए कक्षाओ की शरुवात जनवरी 2010 में हुई और इन नवसाक्षारो की परीक्षा/मूल्यांकन का पहला दौर सितम्बर 2010 में हुआ इसके बाद हर साल वर्ष में दो बार मार्च और अगस्त में परीक्षा/मूल्यांकन होती रही है आप को बता दे कि साक्षर भारत मिशन की शुरुवात के समय देश में असाक्षारो की संख्या लगभग केंद्र सरकार के नोटिफिकेशन के अनुसार 70 लाख के करीब थी जिसमे एससी केटेगरी के पुरुषो की संख्या 4 लाख  व महिलाओ की संख्या 10 लाख ,एसटी केटेगरी के पुरुषो की संख्या 2 लाख व महिलाओ की संख्या 6 लाख, मुस्लिम केटेगरी के पुरुषो की संख्या 2 लाख व महिलाओ की संख्या 10 लाख ,जर्नल केटेगरी के पुरुषो की संख्या 2 लाख व महिलाओ की संख्या 34 लाख थी |कुल         26 राज्य                365 जिला        4263 ब्लॉक          157875 ग्राम पंचायतें
  शिक्षा प्रेरक      157875*2= 315750 
जिला समन्वयक     365*1=     365
ब्लॉक समन्वयक     4263*1=   4263
एकाउंटेंट             365*1=          365
चपरासी              365*1=          365
कुल साक्षरता कर्मचारी     321078
शिक्षा प्रेरक और सभी साक्षरता कर्मी सरकार से बस केवल यही मांग कर रहे है की सभी को उनकी योग्यतया  के अनुसार कही न कही शिक्षा विभाग में समायोजित किया जाये और कम से कम  न्यूनतम वेतनमान दिया जाये जिससे वे अपने परिवार की रोजी रोटी चला सके | सभी साक्षरता कर्मी सरकार की सभी योजनानाओ से ट्रेनेड है :अ:त सरकार को चाहिए कि इनको पुन: सेवा में लेकर इनकी समस्याओ का समाधान किया जाये |जब तक सरकार को इनकी जरुरत थी सरकार ने साक्षरता कर्मियों से जमकर काम करवाया ,लेकिन काम निकलने के बाद सरकार ने इनको सेवा से मुक्त करके इनके साथ धोखा किया है |सरकार के डिजिटल इंडिया कार्यक्रम व लोकल ही वोकल अभियान को शिक्षा प्रेरको कामयाब बनाने का माद्दा रखते है इसलिए हमे मौका देना चाहिए।
== भगवत कौशिक 

सामाजिक परिवर्तन के लिए जातिगत नामों की सख्त मनाही होनी चाहिए।

—डॉo सत्यवान सौरभ
हाल ही में अतिरिक्त महानिदेशक पुलिस,आर्म्ड बटालियन,जयपुर राजस्थान ने एक पत्र अपने सभी कमांडेंट को जारी किया है जिसमें सभी बटालियन के अधिकारियों को निर्देश दिए गए है कि उनके सभी अधिकारी और अधीनस्थ कर्मी अपनी वर्दी, अपने ऑफिस के कमरे के बाहर या अपनी टेबल की नाम पट्टिका पर लिखे गए नाम के साथ जातिगत या गोत्रगत नाम नहीं लगाएंगे और सरकारी आदेशों में इनका प्रयोग न करके केवल अपने प्रथम नाम से पुकारे या जाने जायँगे.  नाम पट्टिका पर  व आदेशों  और निर्देशों में पूरा स्टाफ अपना नाम व बेल्ट नंबर ही इस्तेमाल करेगा. क्या जबरदस्त आदेश आया है?  वास्तव में ऐसा ही हमारे देश के हर सरकारी महकमे में और सार्वजनिक स्थानों पर होना चाहिए.

किसी भी जातिगत नाम और सार्वजनिक स्थानों पर जातिगत इश्तेहारों को पूर्णत बंद कर देना चाहिए. हम आये रोज देखते है कि अपने निजी वाहनों पर जातिगत नाम से लोग अपना प्रभाव दिखाने की जुगत में समाज में अशांति फैलाते है.  लोग अपने वाहनों पर अपना नाम, जाति, संगठनों का पद नाम, विभिन्न चिन्ह, भूतपूर्व पद, गांव के नाम लिखवाकर दुरुपयोग करते हैं। यह परम्परा दिनोंदिन बढ़ती जा रही है। दिनप्रतिदिन वाहन चालकों में बढ़ रही ऐसी गतिविधियों से अशांति का वातावरण पनप रहा है, जो चरम पर है। इस परपंरा से जातिवाद भी पनप रहा है। आधुनिक दौर के गीत आज जाति से प्रभावित है, जिनका बाकी तबकों पर उल्टा प्रभाव पड़ता है और वो अपने आपको हीन समझते हैं या बराबरी वाले सामाजिक तनाव पैदा करने में आगे बढ़ जाते हैं, जो हमारे देश के लिए ठीक नहीं है. आज भटकती हुई युवा पीढ़ी को सही राह दिखाने की जरूरत है और जातिगत गीत. कविता और लेखों को समाज से बाहर करने की जरूरत है .

इन सब पर भी तुरंत कानूनी शिकंजा कसना चाहिए. ऐसा करने से सरकारी विभागों के प्रति आम लोगों की सोच में जातिगत पक्षपात की भावनाओं में कमी आएगी. सभी आपस में एकजुटता से कार्य करेंगे और लोगों में विश्वश्नीयता बढ़ेगी. स्वतंत्र भारत में जाति का सामाजिक गतिविधियों के कई क्षेत्रों में प्रभाव रहा है। प्रतिनिधि राजनीतिक संस्थानों में जाति अब व्यापक रूप से मान्यता प्राप्त है। भारतीय सेना संगठन में जाति का अपना प्रभाव रहा है. भूतकाल में जाति अपने संगठन का बहुत बड़ा हिस्सा थी, भारत को यह विरासत अंग्रेजों से मिली थी और तब से यह स्थिति बनी हुई है। हालाँकि अंग्रेजों ने सेना को पारंपरिक रूप से अलग संगठित किया और भारतीयों को अपनी सेना में भर्ती करने के प्रयास में उन्होंने मार्शल प्रतिभाओं की तलाश की, जो अलग-अलग वर्गों से आते थे।

उन्होंने कुछ जाति और धार्मिक समूहों को ‘मार्शल रेस’ के रूप में पहचाना और नामित किया, और सेना में भर्ती के लिए उन्हें दूसरों पर वरीयता दी। इन ‘मार्शल रेस’ में राजपूत, जाट, मराठा, सिख, डोगरा, गोरखा और महार थे। सेना में कुछ रेजिमेंटों के गठन में न केवल जातिगत विचार स्पष्ट थे, बल्कि सेना के कुछ अन्य पहलुओं में भी देखे गए थे उदाहरण के लिए, नाई, धोबी और सेना में सफाईकर्मी आमतौर पर नायस, धोबी और भांगियों की अपनी संबंधित जातियों से भर्ती होते थे; और कुछ मजदूरों को सेना में खड़ा किया गया था, जो ज्यादातर हरिजन थे।

इस प्रकार अंग्रेजों ने न केवल जातिगत विचारों को प्रोत्साहित किया बल्कि भारत में ‘मार्शल रेस’ के विचार को बढ़ावा दिया, और इसे ब्रिटिश भारतीय सेना के संगठन में शामिल किया, जो स्वतंत्र भारत को विरासत में मिला था। यह सवाल कि क्या ‘मार्शल रेस’ मौजूद थी?  अतीत एक ऐतिहासिक है और इसलिए जवाब देने की मेरी क्षमता से परे है। लेकिन इस तथ्य का तथ्य यह है कि सैन्य, सामाजिक संरचना के किसी अन्य पहलू के रूप में, सामाजिक स्तरीकरण की प्रमुख विशेषताओं को दर्शाता है, जिस प्रकार यह शक्ति के वितरण और इसका उपयोग करने की क्षमता का निर्धारण करके सामाजिक संरचना को प्रभावित करता है।

मगर अब जातिगत पहचान खासकर सरकारी महकमों और सार्वजनिक स्थानों के जुड़े विषयों में हमें बांटने का काम कर रही है, ऐसा नहीं होना चाहिए. केंद्र सरकार को इस विषय पर बिल लाकर एक सख्त कानून बनाना चाहिए, जिसमे कोई भी सरकारी स्टाफ  केवल अपने प्रथम नाम और विभागीय कोड का ही इस्तेमाल करें. जातिगत नाम की सख्त मनाही होनी चाहिए. चुनाव और सार्वजनिक कार्यों से जुड़े लोगों पर भी ये प्रतिबन्ध हो कि वो जातिगत भावनाओं को न उकसाये. सड़क सुरक्षा के परिप्रेक्ष्य में भी वाहनों पर लिखवाए गए विभिन्न चिन्ह, स्लोगनों की वजह से अन्य वाहन चालकों का ध्यान भंग होता है। इससे सड़क दुर्घटना होने की आशंका रहती है। ऐसे में इस घातक गतिविधि को प्रतिबंधित करने के कठोर ट्रैफिक नियम लागू  किये जाये.

सामाजिक परिवर्तन के लिए जातिगत नामों को जीवन से बाहर करना ही होगा. तभी समाज में एकरूपता आयेगी और समरसता बढ़ेगी. वैसे भी जिस आधार पर जातियां बनी थी वो परिपाटी अब गायब हो चुकी है. नाई, धोबी.कुम्हार, खाती, सुनार और अन्य को आज हम काम के आधार पर नहीं पहचान सकते. आज की पीढ़ी अपनी योग्यता और मन के अनुसार कार्य कर रही है. फिर इन सबकी जरूरत भी क्यों?

जातिवाद खत्म होगा तो देश की आधी से ज्यादा समस्याएं अपने अपने आप खत्म हो जाएगी. आज लिए गए छोटे-छोटे फैसले कल को स्वर्णिम बना सकते है. वैसे भी जाति ने इस देश को बार-बार बांटने की कोश्शि की है.  यदि यह सच है तो सबसे पहली जरूरत इस बात ही है कि जाति के वर्चस्व को एक हद तक नष्ट कर दिया जाए.  ईश्वर भी इस क्रूर प्रथा से नाराज़ है तो उसे और भी जल्दी खत्म किया जाना चाहिए.