Category: धर्म-अध्यात्म

कला-संस्कृति धर्म-अध्यात्म

अपनी राशि अनुसार ज्योर्तिलिंग की पूजा का महात्‍म, तथ्‍ाा फल प्राप्‍‍‍त होने का महात्‍म पढे—-

/ | Leave a Comment

जानिए किस राशि के व्यक्ति को किस ज्योर्तिलिंग पर पूजा करने से विशेष फल प्राप्त होता है— देवाधिदेव भगवान् महादेव सर्वशक्तिमान हैं\ भगवान भोलेनाथ ऐसे देव हैं जो थोड़ी सी पूजा से भी प्रसन्न हो जाते हैं |संहारक के तौर पर पूज्य भगवान शंकर बड़े दयालु हैं. उनके अभिषेक से सभी प्रकार की मनोकामनाएं पूरी […]

Read more »

कला-संस्कृति धर्म-अध्यात्म

नारद पत्रकार ही नहीं, जनउद्धारक थे

/ | Leave a Comment

२६वें श्लोक में स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने इनकी महत्ता को स्वीकार करते हुए कहा है देवर्षियों में मैं नारद हूं। वायुपुराण में देवर्षि के पद और लक्षण का वर्णन है- देवलोक में प्रतिष्ठा प्राप्त करनेवाले ऋषिगण देवर्षि नाम से जाने जाते हैं। भूत, वर्तमान एवं भविष्य-तीनों कालों के ज्ञाता, सत्यभाषी, स्वयं का साक्षात्कार करके स्वयं में सम्बद्ध, कठोर तपस्या से लोकविख्यात, गर्भावस्था में ही अज्ञान रूपी अंधकार के नष्ट हो जाने से जिनमें ज्ञान का प्रकाश हो चुका है, ऐसे मंत्रवेत्ता तथा अपने ऐश्वर्य (सिद्धियों) के बल से सब लोकों में सर्वत्र पहुँचने में सक्षम, मंत्रणा हेतु मनीषियों से घिरे हुए देवता, द्विज और नृपदेवर्षि कहे जाते हैं।

Read more »

धर्म-अध्यात्म

वेद ही मनुष्य मात्र के परम आदरणीय व माननीय धर्म ग्रन्थ क्यों?

| Leave a Comment

वेदों की उत्पत्ति और उनके विषय में कुछ तथ्यों पर भी दृष्टिपात कर लेते हैं। सृष्टि के आरम्भ काल में ईश्वर ने मनुष्य आदि प्राणियों को अमैथुनी सृष्टि अर्थात् बिना माता-पिता के संसर्ग हुए उत्पन्न किया था। यह सभी स्त्री व पुरुष युवावस्था में उत्पन्न किये गये थे। यदि ईश्वर इन्हें शैशवास्था में उत्पन्न करता तो इनके पालन करने के लिए माता-पिता की आवश्यकता होती और यदि इन्हें वृद्ध बनाता तो इनसे मैथुनी सृष्टि न चल पाती और वहीं समाप्त हो जाती। अमैथुनी सृष्टि में उत्पन्न इन युवा स्त्री पुरुषों को बोलने के लिए भाषा और पदार्थों के नाम व क्रिया पद आदि का ज्ञान चाहिये था।

Read more »

धर्म-अध्यात्म

मनुष्य जीवन का उद्देश्य

| Leave a Comment

मनुष्य जीवन का उद्देश्य संसारस्थ ईश्वर, जीव व प्रकृति के स्वरूप को यथार्थतः जानना है। ईश्वर को जानकर ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना करनी है। भौतिक सुखों का त्यागपूर्वक उपभोग करना है। परसेवा, परोपकार, सत्पात्रों को दान, ब्रह्म ज्ञान वा वेदप्रचार, यज्ञ व अग्निहोत्र कर्मों को करना कर्तव्य है। दान के लिए सत्पात्रों का चयन अति कठिन व दुष्कर कार्य है। ऋषियों ने जो पंचमहायज्ञों का विधान किया है उसे जानकर सब मनुष्यों को श्रद्धापूर्वक करना है। यह सब करने के लिए वेदाध्ययन व विद्वानों की संगति आवश्यक है। यदि करेंगे तो मिथ्या आचरण से बच सकते हैं अन्यथा काम, क्रोध व लोभ आदि से ग्रस्त व त्रस्त हो सकते हैं। इन पर नियंत्रण पाने के लिए सन्ध्या व यज्ञ सहित सभी वैदिक विधानों को करना है। तभी हम सभी बुराईयों से बच सकते हैं। महर्षि दयानन्द व उनके बाद के प्रमुख आर्य विद्वान नेताओं के जीवनों का अनुकरण कर भी हम अपने जीवन को श्रेय मार्ग पर चला सकते हैं।

Read more »

धर्म-अध्यात्म

ऋषि दयानन्द जी का संन्यासियों को उनके कर्तव्यबोध विषयक उपदेश

| Leave a Comment

जो वेदान्त अर्थात् परमेश्वर प्रतिपादक वेदमन्त्रों के अर्थज्ञान और आचार में अच्छे प्रकार निश्चित संन्यासयोग से शुद्धान्तःकरणयुक्त संन्यासी होते हैं, वे परमेश्वर में मुक्ति सुख को प्राप्त होके भोग के पश्चात्, जब मुक्ति में सुख की अवधि पूरी हो जाती है, तब वहां से छूट कर संसार में आते हैं। मुक्ति के बिना दुःख का नाश नहीं होता। जो देहधारी हैं वह सुख दुःख की प्राप्ति से पृथक् कभी नहीं रह सकता और जो शरीररहित जीवात्मा मुक्ति में सर्वव्यापक परमेश्वर के साथ शुद्ध होकर रहता है, तब उसको सांसारिक सुख दुःख प्राप्त नहीं होता। इसलिए लोक में प्रतिष्ठा वा लाभ, धन से भोग वा मान्य तथा पुत्रादि के मोह से अलग होके संन्यासी लोग भिक्षुक होकर रात दिन मोक्ष के साधनों में तत्पर रहते हैं। प्रजापति अर्थात् परमेश्वर की प्राप्ति के अर्थ इष्टि अर्थात् यज्ञ करके उसमें यज्ञोपवीत शिक्षादि चिन्हों को छोड़ आह्वनीयादि पांच अग्नियों को प्राण, अपान, व्यान, उदान और समान इन पांच प्राणों में आरोपण करके ब्राह्मण ब्रह्मवित् घर से निकल कर संन्यासी हो जावे। जो सब भूत प्राणिमात्र को अभयदान देकर धर्मादि विद्याओं का उपदेश करने वाला संन्यासी होता है उसे प्रकाशमय अर्थात् मुक्ति का आनन्दस्वरूप लोक प्राप्त होता है।

Read more »