श्रीमती सोनिया गांधी की अध्यक्षता में बनाई गई राष्ट्रीय सलाहकार परिषद(NAC) द्वारा तैयार किया गया प्रस्तावित “साम्प्रदायिक हिंसा रोकथाम विधेयक’’ यदि संसद द्वारा पारित कर दिया गया तो मुस्लिम, ईसाई आदि अल्पसंख्यक समूहों को हिन्दुओं के प्रति घृणा फैलाने, हिन्दुओं को प्रताडित करने और हिन्दू महिलाओं से बलात्कार करने के लिए प्रोत्साहन मिल जायेगा क्योंकि इस प्रस्तावित कानून के अन्तर्गत यदि बहुसंख्यक वर्ग अर्थात हिन्दू किसी अल्पसंख्यक समूह के प्रति घृणा फैलाएं या हिंसा करें या यौन उत्पीडन करें तो हिन्दुओं को दंडित करने का प्रावधान है किन्तु मुस्लिम, ईसाई आदि अल्पसंख्यक समूहों द्वारा हिन्दुओं के प्रति घृणा फैलाई जाये या हिंसा की जाये या बलात्कार आदि यौन शोषण किया जाये तो उन अल्पसंख्यकों को किसी प्रकार का दण्ड देने का कोई प्रावधान नहीं है।
इतना ही नहीं यदि कोई अल्पसंख्यक उपरोक्त अपराधों के लिये किसी बहुसंख्यक व्यक्ति या संगठन के विरुद्ध शिकायत करता है तो उसकी जांच किये बिना ही उस व्यक्ति एवं संगठन को अपराधी मानकर उसका संज्ञान लिया जायेगा। इस अपराध की असत्यता सिद्ध करना अपराधी का दायित्व होगा।
ध्यान देने योग्य बात यह है कि इस विधेयक में ‘समूह की परिभाषा’ धार्मिक या भाषाई अल्पसंख्यक वर्ग ही है बहुसंख्यक वर्ग के लिए समूह शब्द का प्रयोग नहीं है और केवल समूह के विरुद्ध घृणा, हिंसा आदि किया गया अपराध ही अपराध माना जायेगा। इस विधेयक के भाग दो की धारा 7 में निर्धारित किया गया है कि किसी व्यक्ति को उस स्थिति में यौन संबंधी अपराध के लिए दोषी माना जाएगा यदि वह अल्पसंख्यक समूह से संबंध रखने वाले व्यक्ति से यौन अपराध करता है। इस विधेयक कि धारा 8 में यह निर्धारित किया गया है कि घृणा संबंधी प्रचार उस स्थिति में अपराध माना जाएगा जब कोई व्यक्ति किसी अल्पसंख्यक समूह से संबंध रखने वाले व्यक्ति के विरूद्ध घृणा फैलाता है। धारा 9 में साम्प्रदायिक हिंसा संबंधी अपराधों का वर्णन है। कोई व्यक्ति अकेले या मिलकर या किसी संगठन के कहने पर किसी अल्पसंख्यक समूह के विरूद्ध कोई गैर कानूनी कार्य करता है तो उसे संगठित साम्प्रदायिक एवं लक्षति हिंसा के लिए दोशी माना जाएगा। धारा 10 में उस व्यक्ति को दंड दिए जाने का प्रावधान है जो किसी अल्पसंख्यक समूह के खिलाफ किसी अपराध को करने अथवा उसका समर्थन करने हेतु पैसा खर्च करता है या पैसा उपलब्ध कराता है।
इस प्रस्तावित विधेयक में यह मान लिया गया है कि साम्प्रदायिक हिंसा केवल बहुसंख्यक समुदाय के सदस्यों द्वारा ही पैदा की जाती है और अल्पसंख्यक समुदाय के सदस्य कभी ऐसा नहीं करते। अतः बहुसंख्यक समुदाय के सदस्यों द्वारा अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों के खिलाफ किए गए साम्प्रदायिक अपराध तो दंडनीय हैं, अल्पसंख्यक समूहों द्वारा बहुसंख्यक समुदाय के खिलाफ किए गए ऐसे अपराध कतई दंडनीय नहीं माने गए हैं। अतः इस विधेयक के तहत यौन संबंधी अपराध इस हालात में दंडनीय हैं यदि वह किसी अल्पसंख्यक समूह के किसी व्यक्ति के विरूद्ध किया गया हो। अल्पसंख्यक समुदाय के विरूद्ध घृणा संबंधी प्रचार को अपराध माना गया है जबकि बहुसंख्यक समुदाय के मामले में ऐसा नहीं है। संगठित और लक्षित हिंसा, घृणा संबंधी प्रचार, ऐसे व्यक्तियों को वित्तीय सहायता, जो अपराध करते हैं, यातना देना या सरकारी कर्मचारियों द्वारा अपनी ड्यूटी में लापरवाही, ये सभी उस हालात में अपराध माने जाएंगे यदि वे अल्पसंख्यक समुदाय के किसी सदस्य के विरूद्ध किए गए हो अन्यथा नहीं। अल्पसंख्यक समुदाय का कोई भी सदस्य इस कानून के तहत बहुसंख्यक समुदाय के विरुद्ध किए गए किसी अपराध के लिए दंडित नहीं किया जा सकता। केवल बहुसंख्यक समुदाय का सदस्य ही ऐसे अपराध कर सकता है और इसलिए इस कानून का विधायी मंतव्य यह है कि चूंकि केवल बहुसंख्यक समुदाय के सदस्य ही ऐसे अपराध कर सकते हैं अतः उन्हें ही दोशी मानकर उन्हें दंडित किया जाना चाहिए।
इस विधेयक में धर्म या जाति के आधार पर भेदभाव क्यों किया गया है? अपराध तो अपराध है चाहे वह किसी भी वर्ग के व्यक्ति ने किया हो।
इस विधेयक को तैयार करने वाली एनएसी के सदस्य सोनिया जी द्वारा चुने हुए लोग ऐसे लोग है जोकि प्रायः माओवादियों के पक्ष में वक्तव्य देते रहे हैं। इस विधेयक से श्रीमती सोनिया गांधी की हिन्दू विरोधी मानसिकता का पता चलता है।
भारतीय लोकतांत्रिक विकेन्द्रीकरण की व्यवस्था का मूल आधार पंचायती राज व्यवस्था ही है। सभ्य समाज की स्थापना के बाद मानव ने समूह में रहना सीखा और उसकी चेतना में धीरेधीरे बदलाव आता गया। इस बदलाव के साथ पंचायती राज के आदर्श एवं मूल उनकी चेतना में होते आये है। इसी व्यवस्था को विविध कालों में अलगअलग नामों से जाना जाता रहा है। कभी वे गणराज्य कहलाए तो कभी नगर प्रशासन व्यवस्था में एक दूजे में एक साथ रहने, मिलजुल कर करर्य करने तथा अपनी वर्तमान समस्याओं को अपने आप में सुलझाने का विचार निरन्तर समयानुसार बदलता गया है।
संविधान परिषद के अध्यक्ष डां राजेन्द्र प्रसाद ने 10 मई 1948 को यह विचार व्यक्त किया कि “संविधान का ढांचा ग्राम पंचायतों तथा अप्रत्यक्ष चुनाव पद्धति के अनुसार खड़ी की गयी मंजिलों पर आधरित होना चाहिए, परंतु यह भी कहा गया कि अब इस चुनाव के अनुसार संपूर्ण संविधान को संशोधित करने का यही अवसर है।’’ 22 नवम्बर 1948 को के. संन्थनाम का एक संशोधन डां बाबा साहब अंबेडकर द्वारा स्वीकृत होकर अनुच्छेद 40 के रूप में सम्लित किया गया। इस अनुच्छेद के अनुसार “राज्य ग्राम पंचायतों का संगठन करने के लिए अग्रसर होगा तथा उनको ऐसी शक्तियां तथा अधिकार प्रदान करेगा; जो उनकी स्वयत्त शासन की इकाइयों के रूप में कार्य करने योग्य बनाने के लिए आवश्यक होगा।’’
महात्मा गांधी ने स्वतंत्र भारत में एक सशक्त पंचायती राज व्यवस्था का सपना देखा था, जिसमें शासन के कार्य की प्रथम इकाई पंचायते ही होगीं। गांधी जी की कल्पना पंचायतों की शासन व्यवस्था की केन्द्र होने के साथ ही आत्मनिर्भर, पूर्णतया, स्वायत्त एवं स्वावलंबी होने की थी। भारत स्वतंत्र होने से लेकर आज तक पंचायत की कल्पना को साकार करने का प्रयास निरन्तर चलता रहा है। कभी ग्रामीण विकास के नाम पर जो कभी सामुदायिक विकास योजना के माध्यम से पंचायत को लोकतंत्र का मूल आधार मजबूत बनाने के लिए किया जाता रहा है, जिससे पंचायती राज व्यवस्था की स्थापना एवं आम जनता के हाथ में सीधे अधिकार देने का आरभ भारतीय संविधान के माध्यम से संभव हो पाया है। संविधान में वर्णित पंचायती राज व्यवस्था ने सभी को सामाजिक समानता, न्याय, आर्थिक विकास एवं व्यक्ति की प्रतिष्ठा पर आधारित ग्रामीण जीवन को नया रूप देने का एक सामूहिक प्रयास है। इसी संदर्भ में पंचायती राज व्यवस्था में महिलाओं की भागीदारी ब़ाने का शासन द्वारा समय समय पर निरन्तर प्रयास चलता रहा है।
सर्वविदित है कि आज भारत में पंचायती राज व्यवस्था विद्यमान है उसका श्रेय बलवंत राय मेहता को जाता है। जिनकी अध्यक्षता में ॔सामुदायिक विकास कार्यक्रम एवं राष्टीय विस्तार सेवा’’ का अध्ययन दल द्वारा की गई संतुस्मियों के आधार पर 2 अक्टूबर 1959 को पंचायती राज व्यवस्था का श्रीगणेश हुआ। बलवंत राय मेहता समिति का प्रतिवेदन पंचायती राज प्रणाली के क्षेत्र में सर्वाधिक मह्रत्व का रहा है, क्योंकि मेहता प्रतिवेदन जो आधारभूत सिद्यांत एवं संस्थाओं का स्वरूप निश्चित किया गया था, जिसका परित्याग अभी तक नही किया गया हैं। 73 वें संविधान संशोधन के बाद स्थापित पंचायती राज का स्वरूप सामान्यतः उन्हीं आधारभूत सिद्यांतों पर आधारित है जिन्हें मेंहता समिति ने दिया था। इन सिद्यांतों के आधार पर भरत के विविध राज्यों में त्रिस्तरीय पंचायती राज व्यवस्था का गठन स्वरूप में थोड़े बहुत अंतर के साथ 73 वें संविधान संशोधन के अनुसार स्थापना की गई है। इस त्रिस्तरीय संरचना के स्परूपानुसार स्थापना की गई है। जिसमें चयनित पदाधिकारी एवं नौकरशाह/ शासकीय अधिकारी व कर्मचारियों के माध्यम से कार्यक्रमों का नियोजन, कि्रयान्वयन एवं मूल्यांकन किया जाता है।
1.ग्रामस्तर ग्राम सभा व पंचायत सरपंच, उपसरपंच एवं पंचायत सचिव
2.खण्डस्तर पंचायत समिति प्रधान/ अध्यक्ष, उपाध्यक्ष, विकास खंड अधिकारी/ मुख्य कार्यकारी अधिकारी,
3.जिलास्तर जिला परिषद जिलाअध्यक्ष, उपजिला अध्यक्ष, मुख्य कार्यपालन अधिकारी, अधिकारी व अन्य कर्मचारी वर्ग।
आरक्षण और महिलाएं :
आरक्षण आदिकालीन शब्द है , जो दो शब्द अ़रक्षण से मिलकर बनाता हैं, जिसका अर्थ है किसी अधिकार को आरक्षित करना या सुरक्षित करने की व्यवस्था करना। वर्तमान समय में आरक्षण की व्यापकता लगभग सभी क्षेत्रों देखी जा सकती है। चाहे किसी यात्रा, नौकरी, सिनेमा हाल की बात हो या किसी अयोजन क्यों न हो सभी में आरक्षण की व्यापकता अपने पैर फैला रही है।
बलवंत राय मेहता समिति से लेकर 73वां संविधान तक विभिन्न समितियों के माध्यम से इन पंचायती राज संस्थाओं में महिलाओं की सहभागिता के बारे में कई उतारच़ाव देखने को मिलता है। पंचायती राज योजना से संबंधित मेहता समिति ने अपना प्रतिवेदन नवम्बर 1957 में प्रस्तुत किया। इस समिति ने महिलाओं व बच्चो से संबंधित कार्यक्रमों कि्रयान्वयन को देखने के लिए जिला परिषद मे दो महिलाओं के समावेश की अनुशंसा की थी। “भारत में महिलाओं की स्थिति’’ विषय पर अध्ययन करने के लिए गठित समिति ने 1974 में अनुसंशा की थी कि ऐसे पंचायतें बनाई जाय, जिसमें केवल महिलाएं ही हो। 1978 में अशोक मेहता की अध्यक्षता में गठित समिति द्वारा अनुसंशा की गई कि जिन दो महिलाओं को सर्वाधिक मत प्रापत हो उसे जिला परिषद का सदस्य बनाया जाए। कर्नाटक पंचायत अधिनियम में महिलाओं के लिए 25 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान किया गया था। वैसा ही हिमाचल प्रदेश के पंचायत अधिनियम में व्यवस्था थी। “नॅश्नल पर्सपेक्टिव प्लान फॉर द विमेन 1988’’ ने ग्राम पंचायत से लेकर जिला परिषद तक 30 प्रतिशत सीटों के आरक्षण की अनुशंसा की। मध्यप्रदेश में 1990 के पंचायत अधिनियम में ग्राम पंचायत में महिलाओं के लिए 20 प्रतिशतद्व जनपद व जिला पंचायत में 10 प्रतिशत का प्रावधान था। महाराष्ट पंचायत अधिनियम में 30 प्रतिशत एवं उड़ीसा पंचायत अधिनियम में 1/3 आरक्षण का प्रावधान 73 वां संविधान संशोधन से पूर्व ही था। पंचायती राज संस्थाओं को सकारात्मक संवैधानिक दर्जा देने के उद्देश्य से 1989 में 64 वां संविधान संशोधन विधेयक संसद के संमुख प्रस्तुत किया गया, लेकिन राजनीतिक कारणों से यह संशोधन विधेयक पारित नहीं हो सका।
लगभग चार दशक पूर्व स्थापित पंचायती राज व्यवस्था डगमगाने लगी तो इसी संशोधन ने उसे पुनः संबल प्रदान किया। पी. व्ही. नरसिंहाराव सरकार ने राजीव गांधी सरकार द्वारा तैयार पंचायती राज संस्थाओं से संबधित विधेयक को संशोधित कर दिसंबर 1992 में 73 वां संविधान संशोधन के रूप में संसद से पारित करवाया। यह 73वां संविधान संशोधन 24 अप्रैल 1993 से लागू किया गया। इस संशोधन द्वारा संविधान में एक नया भाग अध्याय 9 जोड़ा गया है। अध्याय 9 द्वारा संविधान में 16 अनुच्छेद और एक ग्यारहवीं अनुसूची जोड़ी गयी है। जिसका शीर्षक ‘पंचायत’ है। 73वां संविधान संशोधन अधिनियम 1992 में पंचायती राज व्यवस्था को न केवल नई दिशा प्रदान की बल्कि यह महिलाओं की पंचायतों में 33 प्रतिशत आरक्षण प्रदान कर उनकी सहभागिता ब़ने का अवसर प्रदान किया है।
सर्व विदित है कि संसद ने पंचायती राज व्यवस्था में महिलाओं के लिए 50 प्रतिशत आरक्षण देने के लिए हरी झंडी दे दी है। इतना ही नहीं कुछ राज्य जैसे मध्यप्रदेश, छत्तीसग़, विहार आदि राज्यों ने आगामी चुनाव में महिलाओं के लिए 50 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था तो कर ही दी है। इस व्यवस्था को सुनतें ही पुरूषों के पैर के नीचे की जमीन ही खिसक गई हैं कि अब महिलाओं की पंचायती राज में 50 से 70 प्रतिशत तक प्रचायतों में सहभागिता होने से उनकी सत्ता व अधिकार क्षेत्र में हस्ताक्षेप व कब्जा होने की संभावनाएं ब़ी है। क्योंकि महिलाएं पंचायत में चुनकर भी आई है और आएगी भी। परंतु देखा जा रहा है कि उन्हें अविश्वास प्रस्ताव, भ्रष्टाचार, आदि के आरोपों के माध्यम से उदों से बाहर किया जा रहा है तथा साथ ही साथ सरकार की जांच उपरोक्त तालिकाओं के माध्यम से पंचायती राज संस्थाओं में महिलाओं की स्थिति को देखा और आंका जा सकता है, जिसकी बजह से महिलाओं में सामाजिक एवं आर्थिक एवं राजनैतिक विकास एवं बदलाव हुआ है।
आरक्षण से महिलाओं में बदलाव :
73 वां संविधान संशोधन से लेकर 2008 तक के महिलाओं की स्थिति का अध्ययन करने में पाया गया कि महिलाएं पंचायती राज में चुनकर आई है। पंचायतों में चुनकर आने के बाद बदलाव देखा गया है जो इस प्रकार हैः
1.आरक्षण कानून के कारण महिलाओं की विकास प्रकि्रया में हिस्सेदारी में वृद्वि हुई है।
2.शिक्षा के क्षेत्र में रूचि ब़ रही है ताकि राजनीतिक सहभाग में सकि्रय बन सके।
3.सामाजिक व आर्थिक सुधार व बदलाव,
4.आरक्षण के कारण अपने अधिकारों व अवसरों का लाभ उठाना,
5.पुरूषों के साथ कार्य करने, बात चीत करने में जो संकोच, डर एवं हिचकिचाहट थी वह कम,
6.स्वयं के काय करने में आत्मनिर्भता में विकास हुआ है।
7.सत्ता के गलियारे में पुरूषों की भांति अच्छी तरह चहलकदमी करना, जिसका एहसास पुरूषों को भी होने लगा है।
8.पिछड़े वर्ग की महिलाओं को भी इस आरक्षण के कारण राजनीतिक क्षेत्रों में कदम रखने का अवसर प्राप्त हुआ।
9.पंचायती राज के तीनों स्तरों के अधिकारियों व पदाधिकारियों से सम्पर्क होने लगा है।
10.घर की चार दीवारी से बाहर आकर अपने अधिकारों व विचारों को रखने की क्षमता में विकास हुआ है।
11.आरक्षण रूपी पाठशाला से सकि्रय सहभागिता का अवसर प्राप्त हुआ है।
निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि आरक्षण की व्यवस्था के कारण पंचायती राज में ही नही वल्कि देश के सभी वर्गों की महिलाओं को सामाजिक, आर्थिक, व राजनीतिक क्षेत्रों में कार्य करने का अवसर प्राप्त हुआ है। सर्व विदित है कि केन्द्र एवं राज्य स्तर पर महिलाओं को सभी क्षेत्रों में 50 प्रतिशत आरक्षण का विधेयक संसाद में विचारार्थ रखा गया है, जो आज नही तो कभी न भी पास होकर पूरे भारत में लागू हो जाएगा। तब संविधान में वर्णित समानता, न्याय, की बात पूरी होगी और महिलाएं सभी क्षेत्रों में सहभागिता निभा पायेगी। नीति निमार्ण से लेकर उसके कि्रयान्वयन एवं मूल्यांकन में सहभागिता कर सकेगी जो एक सशक्त समाज व देश के निमार्ण में सहयोग प्राप्त होगा।
आज बीमारी के नाम से गरीब की रूह कांप जाती है वजह है देश में दिन प्रतिदिन मंहगा होता इलाज। बडे बडे पूंजीपतियो ने चिकित्सा के नाम पर आज जगह जगह दुकाने खोल ली है जिस कारण आज देश में प्राईवेट अस्पतालो की बा सी आई हुई है। इन में अधिकतर अस्पताल फाईव स्टार सुविधाओ से युक्त होने के साथ ही आम आदमी की पहुॅच से दूर रहते है यदि मजबूरन इन अस्पतालो में किसी गरीब को इलाज करवाना प जाये तो उसे एक जान बचाने के लिये अपने परिवार के न जाने कितने लोगो के भविष्यो को बनिये के यहा गिरवी रखना पडता है और कभी कभी इन अस्पतालो में इलाज कराने आये रोगी की मृत्यू होने पर मृत शरीर को छुडाने के लिये उस के परिवार के पास पैसे भी नही होते। वही आज देश के सरकारी अस्पतालो की हालत गरीबो से भी बदतर और दिनो दिन खस्ता होती जा रही है। आजादी के बाद चिकित्सा के क्षेत्र में निजी क्षेत्रो का हस्तक्षेप केवल 8 फीसदी था जो आज सरकार की उदासीनता के कारण 80 फीसदी तक हो चुका है। आज देश में जगह जगह मानको की अनदेखी करते हुए मेडीकल शिक्षा, प्रिशक्षण, मेडीकल टेकनीक और दवाओ पर नियंत्रण से लेकर अस्पतालो के निर्माण और चिकित्सा सुविधाओ देने में निजी क्षेत्रो का बोलबाला होने के साथ ही चिकित्सा के क्षेत्र में प्राईवेट अस्पतालो के मालिक भरपूर पैसा कमाने के साथ ही सरकार का मुॅह भी चीड़ा रहे है।
सरकारी योजनाओ के बडे बडे फ्लैक्स बोर्ड अखबारो में विज्ञापन के रूप में सरकार लगवा और छपवा तो देती है पर आम आदमी के लिये ये तमाम सरकारी योजनाए सरकारी छलावा और सफेद हाथी जैसी होती है जो बहुत जल्द ही देश में दानव रूपी भ्रष्टतंत्र के आगे दम तोड देती है। सरकार के तमाम दावो के बाद भी देश में गांवगांव तक बेहतर स्वास्थ्य सेवा मुहय्या कराने के दावो के बीच देश की राजधानी सहित विभिन्न राज्यो में सरकारी और कुछ केंद्रीय अर्द्व सैनिक बलो के स्वास्थ्य केंद्रो में करोडो रूपये मूल्य की दवांए घटिया पाई गई। पिछले दिनो जांच के दौरान राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली स्थित पंडित मदन मोहन मालवीय अस्पताल में ॔॔एंटा एसिड’’ की लगभग 4320 बोतले जिन की कीमत 50444 आंकी गई, चैन्नई स्थित सरकारी मेडिकल स्टोर (जीएमएसडी) में ॔॔पारासिटामोल’’ 500 एमजी की 2,99,800 गोलिया व पीजीआई चंडीग में 40327 रूपये मूल्य की ॔॔पारासिटामोल’’ एंव ॔॔क्लोराक्वीन’’ टैबलेट जांच में घटिया पाई गई जिन का उपयोग रिपोर्ट आने तक किया जा चुका था। वही सूचना के अधिकार के तहत प्राप्त जानकारी के अनुसार पिछले पॉच सालो में हरियाणा में 2005 में विटामिन बी कंप्लेक्स की 56000 गोलिया, डेक्ट्रोस इंजेक्शन की 6200 व 2006 में 3640 शीशिया। इनके अलावा 2006 में ही ॔॔सेरोपेप्टीडोज’’ की 53400 गोलिया और ॔॔एम्पीसिलिन’’ इंजेक्शन की 4400 शीशिया 2007 में जांच में घटिया पाई गई। सरकारी अस्पतालो में एक्सपायर दवाओ का वितरण और अधिकारियो के निरीक्षण के दौरान लाखो रूपये की दवाओ को जलाकर नष्ट करना तो आम बात है। गरीब मरे या जिये सरकारी अस्पताल के डाक्टरो को इस बात से कोई मतलब नही।
दवाओ के साथ ही खाद्य पदार्था और फलो में मिलावट का धंधा आज देश में जोर शोर से चल रहा है इस के साथ ही मंहगाई की मार अलग अगर गरीब अपने बच्चो के लिये कुछ फल लेकर आ रहा होता है तो रास्ते में कुछ लोग पूछने लगते है क्या घर में कोई बीमार है। फलो को पकाने में उपयोग किये जा रहे घटिया केमिकल दूध में डिर्टजेंट, यूरिया, सब्जियो रंगने में इस्तेमाल किये जा रहे घातक केमिकल रंग और इन्हे जल्द से जल्द उगाने के लिये खाद के इस्तेमाल ने गरीब की औसत आयु आज काफी घटा दी है। दिन भर मेहनत मजदूरी करने के बाद भी शरीर को उर्जा प्रदान करने के लिये आज वो क्या खाए घी दूध ऊॅचे दाम चुकाने के बावजूद नकली होते है। नकली दूध में पाए गये आक्सीटीसिन की वजह से उस का पावर हाऊस कहे जाने वाला शरीर का मुख्य अंग लीवर कमजोर हो रहा जो संक्रमण बने पर अचानक फैल हो जाता है। इंडीयन सोसाइटी ऑफ गैस्टोइंटोलोजी और गणेश विद्यार्थी मेडीकल कालेज कानपुर के मेडिसन विभाग द्वारा कराए गये सर्वेक्षण में पिछले दिनो ये बात सामने आई।
दरअसल हमारे देश में गरीबो की गणना करने के मापदण्ड विभिन्न संस्थाओ के साथ ही प्रदेश सरकारो के भी अलग अलग है। जिस के कारण गणना में प्रायः अंतर आ जाता है और देश में अपुष्ट आंकलन के कारण स्थिति स्पष्ट नही हो पाती। ओर गरीबो के लिये सरकार द्वारा बनाई तमाम योजनाए सरकारी आकडो का पेट भरने मात्र रह जाती है। सरकार के लक्ष्य और गरीब तक नही पहॅुच पाती है। देश मे सरकार द्वारा करोडो अरबो रूपया पानी की तरह बहाने के बाद भी गरीब महिलाओ की स्वास्थ्य संबधी देखभाल और बेहतरी पर समुचित ध्यान नही दिया जा रहा है। हर साल भारत में हजारो गरीब महिलाए केवल इस लिये मौत के मुॅह में समा जाती है क्याकि उन की पहॅुच सरकार द्वारा चलाई जा रही मूलभूत स्वास्थ्य सुविधाओ तक नही होती है। यूनिसेफ की ताजा रिर्पोट के अनुसार भारत में हर वर्ष गर्भावस्था तथा प्रसव की जटिलताओ के कारण 67,000 महिलाओ की मौत हो जाती है। ॔स्टेट ऑफ द वर्ल्ड मदर्स 2010’ की रिर्पोट के अनुसार भारत में 74,000 मान्यता प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ताओ (एकि्रडिटेड सोशल हेल्थ एक्टिविस्ट) की ओर 21,066 ऑग्जिलरी नर्स मिडवाइफ्स (एएनएम) की कमी है। सरकारी मानदंडो के अनुसार मैदानी इलाको में 1000 की आबादी पर एक स्वास्थ्य कार्यकर्ता और 5000 की आबादी पर एक एएनएम होना चाहिये। ये ही कारण है कि भारत मां बनने के लिये सवोर्तम देशो की सूची में 73 वां स्थान पर है। हमारे देश में हर साल पॉच साल से कम उम्र के 19.5 करोड बच्चे मौत के मुॅह में चले जाते ह यानि हर दिन देश में 5000 बच्चे या प्रति 20 सेकंड में एक बच्चे की मौत होती है। यह आंकडा विश्व में सर्वोधिक है।
मंहगाई से बेहाल परेशान गरीब आज सरकार से ये पूछना चाहती है कि जिस देश में 19.5 करोड पॉच वर्ष से कम उम्र के बच्चे हर साल मौत के मुॅह में समा जाते हो जिस देश में अस्पतालो के गेट के बाहर गरीब सिसक सिसक कर मर जाते हो जिस देश में हर वर्ष गर्भावस्था तथा प्रसव की जटिलताओ के कारण 67,000 महिलाओ की मौत हो जाती हो। जिस देश की अधिकतम विशाल आबादी भूखेनंगे की हो वहा करोडो अरबो रूपये कॉमनवैल्थ के नाम पर सिर्फ झूठी शान दिखाने के लिये खर्च करना क्या सही है। नही बिल्कुल नही, आज देश के गरीब नागरिको को जरूरत है दो वक्त की रोटी की, तन ापने के लिये कपडे की, देश के नौनिहालो को पाने के लिये स्कूलो की, दवाई के लिये सिसक सिसक कर मर रहे लोगो को अस्पतालो की। आखिर कब तक देशवासी कुछ देश के गैर जिम्मेदार लोगो की सनक की इतनी बडी कीमत अदा करते रहेगे, और कुछ राजनेता अपनी खामियो को छुपा कर झूठी शान की खातिर देशवासियो कि खून पसीने की कमाई को यू ही लुटाते रहेगे। देश का कानून ऑखो पर पट्टी बॉधे आखिर कब तक ये सब देखता रहेगा।
आंखो मे नमी हंसी लबों पर …क्या बात है क्या छुपा रहे हो? हिप हिप हुर्रे ,अर्थ तथा और भी कई फिल्मों मे अपने शानदार अभिनय से जीवंत करने वाले राजकिरण आज अमेरिका के एक मेंटल असाइलम मे अपनी जिंदगी के गुमनाम दौर को जी रहे हैं । असफलता जब आती है तो हर तरफ से आती है और ये बात राजकिरण के साथ भी घटी …फिल्म मे किस्मत से मार खाने के बाद जब व्यसाय से जुडे तो वहां भी असफलता ने दामन पकडे रखा नतीजा वो शारीरिक रूप सेबीमार रहने लगे और परिवार ने भी उनका साथ छोड़ दिया। अपनापन ही प्यारा लगता है, यह आत्मीयता जिस पदार्थ अथवा प्राणी के साथ जुड़ जाती है, वह आत्मीय, परम प्रिय लगने लगती है। और यही अपनापन जब छूट जाता जाता है तब इंसान अपने आप को पूरी तरह से खो देता है। राजकिरण के साथ भी यही होता दिखाई दे रहा है। रूपहले पर्दे पर खूबसूरत मुस्कान बिखेरने वाला एक फिल्मी सितारा आज रोने की स्थिती मे भी नही है।
अपने आप को एक परिवार बताने क दंभ भरता हिन्दी फिल्मी दुनिया की असलियत यही है। कभी नादिरा, तो कभी ऐ.के.हंगल, कभी साधना तो कभी परवीन बाबी…कितने ऐसे नाम हमे यहां मिलेंगे जो जीवन के अकेलेपन से जूझते हुए कुंठा का शिकार हो बैठे और ये रंगीन दुनिया बडी आसानी से अपनी राह चलता चला गया। बालीवुड हमेशा से बडी आदर्शों की बात करता रहा मगर जिस आदर्श के व्यवहार का प्रभाव न हो, वह फिजूल है और जो व्यवहार आदर्श प्रेरित न हो, वह भयंकर है। ये दोनो बातें आज बालिवुड का हिस्सा बन चुकी है। इस चकाचौंध की दुनिया मे जाने कितनो के दम घुट गये इस बात के कई प्रमाण है…मगर जो बात सबसे ज्यादा टीस पहुंचाती है वो यह है कि आखिर यहां ऐसा क्यूं है? यहां जरा सी असफलता ने आपको छुआ नही कि आप श्रापित मान लिए जाते हैं। इस बालीवुड मे सफलता एक सार्वजनिक उत्सव है , जबकि असफलता व्यक्तिगत शोक । और जब कोई व्यक्तिगत शोक के लिए अकेला पड जाता है, तब उसकी जिंदगी मे आनेवाले आंसू किसी को दिखते नहीं। हमारा बालीवुड इस बात पर अडिग रहता है कि संसार में प्रायः सभी जन सुखी एवं धनशाली मनुष्यों के शुभेच्छु हुआ करते हैं। विपत्ति में पड़े मनुष्यों के प्रियकारी दुर्लभ होते हैं।
वैसे भी विपत्ति में पड़े हुए का साथ बिरला ही कोई देता है। आज राजकिरण का साथ देने के लिए ऋषि कपूर और दिप्ती नवल जैसे इंसानी कलाकार आगे आ रहे हैं। अगर इसी तरह से पूरा बालीवुड आगे आये तो निश्चित तौर पर यह मानव-कल्याण की दिशा मे एक बडा कदम होगा। पर क्या ऐसा हो पाएगा.?..क्योंकि ये दुनिया तो मानती है कि अर्थो हि लोके पुरुषस्य बन्धु:- संसार मे धन ही आदमी का भाई है। और बिना धन वाले विपत्ति मे पडे एक इंसान के प्रति क्या इनकी कोई संवेदनशीलता नजर आ पाएगी? खैर ये तो समय ही बताएगा..पर संभावना बहुत कम नजर आती है। आज राजकिरण को निस्तेज हो चले हैं और निस्तेज मनुष्य का समाज तिरस्कार करता है । तिरष्कृत मनुष्य में वैराग्य भाव उत्पन्न हो जाते हैं और तब मनुष्य को शोक होने लगता है । जब मनुष्य शोकातुर होता है तो उसकी बुद्धि क्षीण होने लगती है और बुद्धिहीन मनुष्य का सर्वनाश हो जाता है । आज राजकिरण जिस सर्वनाश के द्वार पर खडे हैं क्या इससे उन्हें कोई बाहर ला पाएगा? ये सवाल आज बालीवुड के सामने सर उठा कर खडी है कि आखिर वो अपने परिवार के एक सदस्य की कोई मदद करेगा ? इस व्यस्त दुनिया के लोग क्या कुछ समय निकालने का प्रयास करेंगे? मानवी चेतना का परावलंबन – अन्तःस्फुरणा का मूर्छाग्रस्त होना , आज की सबसे बडी समस्या है । इस समस्या से निकल पाना बडा कठिन माना जाता है ….सच मे यह दिख भी रहा है। इस बालीवुड मे इतने सारे लोग और इतनी थोडी सोच ! अगर यहां कोई सालों से लापता है तो उसे पता करने के बजाये लोग उसे मृत मान लेने मे ज्यादा सहूलियत महसूस करते हैं। यहां ज्ञान की बाते तो बहुत की जाती है पर आचरण? आचरण के बिना ज्ञान केवल भार होता है, शायद इस बात से यहां के लोग बिलकुल अंजान है…या फिर अंजान बनने का ढोंग भी तो कर सकते हैं। यहां कुछ भी हो सकता है..और हो भी क्यूं न….ये सितारों की दुनिया जो ठहरी। हजारों मील की यात्रा भी प्रथम चरण से ही आरम्भ होती है । इस सितारों की दुनिया को अब दुबारा किसी अपने को गुमनामी से बचाने के लिए प्रथम चरण बढाने का प्रयत्न अवश्य करना चाहिए। खुशियों और पार्टियों का दौर चलाने वाला बालीवुड क्या राजकिरण को फिर से एक नयी जिंदगी देने के दिशा मे कोई कदम बढाने वाला है? भलाई का एक छोटा सा काम हजारों प्रार्थनाओं से बढकर है । आशा करता हूं कि राजकिरण फिर से हमे रूपहले पर्दे पर दिखाई दे और हम सभी उन्हे फिर से उसी जगह का हिस्सा बनते देखें जहां की बेरूखी ने उन्हे जीवन से इतना अलग कर दिया है। साथ ही साथ उन सभी गुमनाम सितारों को भी एक बार पुन: वैसे ही सम्मान दिए जाने की जरूरत है जो कभी इस दुनिया से उन्हे मिला था। इस दिशा मे बालीवुड को निश्चित रूप से एक ठोस एवं कदम उठाने की जरूरत है। विषयों, व्यसनों और विलासों में सुख खोजना बंद कर हमारी फिल्मी दुनिया कुछ ऐसे कार्य करे कि भविष्य मे फिर कोई राजकिरण किसी मेंटल अस्पताल मे न जाने पाये। ऐ,के,हंगल जैसे मंझे हुए वृद्ध अभिनेता अपने को धारा से अलग-थलग न पाए….न कोई नादिरा गुमनामी की मौत मरे….और ना ही कोई रौशनी से अंधेरे की गर्त मे अपने को डूबा पाए। सूरज और चांद को हम अपने जन्म के समय से ही देखते चले आ रहे हैं। फिर भी यह दुर्भाग्य है कि हम यह नहीं जान पाये कि काम कैसे करने चाहिए ? निराशा सम्भव को असम्भव बना देती है । अत: हम मिलकर यह कोशिश करें कि कोई निराश न होने पाए।
पश्चिम बंगाल में वामपंथियों ने नंदीग्राम को निशाने पर लिया था। यह भारत की सांस्कृतिक, सामाजिक, आर्थिक विरासत पर हिंसक प्रहार था। देर हुई, मगर अन्धेर नहीं हुआ। परिणाम सामने है। वामपंथियों का मजबूत किला खण्डर में बदल गया। मेरठ के बड़ौत में जैन मुनि प्रभासागर ने अनशन के माध्यम से ‘अहिंसा परमोधर्मः’ की अलख जगाने का प्रयास किया। पुलिस के बल पर उनको वहां से हटा दिया गया। वह जीवहत्या रोकने की मांग कर रहे थे। वह जीवहत्या, गोहत्या को बड़े उद्योग के रूप में मान्यता देने का विरोध कर रहे थे। वह यांत्रिक बूचड़खाना के लाइसेंस न देने, उनको बंद करने की पैरवी कर रहे थे। इसमे कोई नई बात नहीं थी। भारतीय संस्कृति में पशुओं में भी आत्मा का अस्तित्व प्रतिपादित किया गया। इसी रूप में उनके प्रति अहिंसा का संदेश दिया गया। भारत ने जब तक इस मार्ग का अनुसरण किया, जब तक गाय को माता मानकर सम्मानित किया, उसका संरक्षण संवर्ध्दन किया, तब तक वह सोने की चिड़िया के रूप में प्रतिष्ठित रहा। हमारे ऋषियों ने अकारण ही गाय को पूजनीय नहीं बताया था। इसके पीछे गहन सामाजिक आर्थिक आधार था। जैन मुनि ने अनशन के माध्यम से इस ओर ध्यान आकर्षित किया था। पुलिस ने उन्हें अनशन से हटा दिया। किन्तु यहां से उठे प्रश्नों का समाधान नहीं हुआ।
प्रश्न शासन और समाज दोनो के लिए है। शासन को जीवित गाय के अमूल्य उपकार की जगह उसके मांस का घृणित व्यापार आकर्षित क्यों करता है? क्यों राजनीतिक दलों के लिए गौ-संवर्ध्दन का मुद्दा साम्प्रदायिक हो जाता है? वहीं समाज को भी आत्मचिंतन करना चाहिए। हम गाय का सम्मान करते हैं। लेकिन हम इसको व्यवहार में लाने का प्रयास नहीं करते। समाज गो-सेवा और गो-संवर्ध्दधन के लिए कितना सजग है। यदि समाज इसके प्रति जागरूक हो तब शासन और राजनीति को भी नीति बदलने के लिए बाध्य किया जा सकता है।
नंदीग्राम की प्रतिक्रिया उल्लेखनीय है। यह आशा का संचार करती है। कुछ वर्ष पहले यहां कैसा दृश्य था। सिंगूर और नंदीग्राम के किसान अपनी उपजाऊ जमीन और पशुधन बचाने की गुहार कर रहे थे। दूसरी तरफ वामपंथियों और पूंजीपतियों का गठजोड़ था। उनके इशारे पर पुलिस और काडर सशस्त्र हमलावर था। उदारीकरण के प्रति वामपंथी दीवानगी की यह हद थी। ग्राम और पशुधन के बिना समृध्द, सुखी भारत की कल्पना नहीं की जा सकती। इसीलिए विकास दर के आकर्षक आंकड़ो व दावों के बावजूद भारत की बड़ी आबादी मूलभूत सुविधाओं, खाद्यान्न और पोषण से वंचित है। पशुधन, कृषि, स्वास्थ, पोषण, ईंधन आदि के द्वारा मनुष्य पर अमूल्य उपकार करता है। कोई उनके प्रति हिंसक कैसे हो सकता है। उनकी क्रूर हत्या के लिए यांत्रिक बूचडखानो की स्थापना की अनुमति कैसे दे सकता है? इससे भारत माता की आत्मा तक चीत्कार करती है। देश सुखी कैसे हो सकता है?
राजनेता संविधान की दुहाई देते हैं। संविधान में उल्लिखित शपथ लेकर सत्ता में आसीन होते हैं। लेकिन पशुधन के संवर्ध्दन की संवैधानिक व्यवस्था का खुला उल्लंघन करते हैं। गाय के लिये कुछ कहना तो साम्प्रदायिक माना जाता है। जबकि संविधान के अनुच्छेद 48 में कहा गया कि राज्य गौरक्षा के प्रयत्न करेगा। संविधान निर्माताओं ने प्राचीन काल से लेकर अद्यतन भारतीय परिवेश का गहन विश्लेषण किया था। वह इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि गाय के बिना इस कृषि प्रधान देश में खुशहाली नहीं लाई जा सकती। इसे नीति-निर्देशक तत्वों में शामिल किया गया। सर्वोच्च न्यायालय ने अपने निर्णयों में निर्देश तत्वों को शासन के मूलभूत मार्गदर्शक के रूप में स्वीकार किया।
लेकिन शासन गौरक्षा की जगह गौ विनाश में लगा है। संवैधानिक पदों पर आसीन लोग यांत्रिक बूचड़खाना स्थापना का लाइसेंस देते हैं। इसमें वह निजी लाभ देखते हैं। इसके द्वारा वह ‘वोटबैंक’ को संतुष्ट करते हैं। इसके आधार पर वह अपने को धर्मनिरपेक्ष साबित करते हैं। कैसी विडम्बना है कि ‘युदवंशी’ राजनेता भी गौरक्षा की बात करने से बचते हैं। इससे उनका मजहबी समीकरण प्रभावित होता है। वोट बैंक की राजनीति चिंतन को कितना सीमित कर देती है। गाय तो उन सबको उपकृत करती है, जो उसकी सेवा करते हैं। वे भेद नहीं करती। लेकिन चुनावी समीकरण बनाने वाले भेद करते हैं। उनमें गाय के संवर्ध्दन की बात उठाने का साहस नहीं होता। वोट के लिए देश के वर्तमान और भविष्य से खिलवाड़ करने में इन्हें संकोच नहीं होता।
लेकिन यह स्थिति लम्बे समय तक नहीं चल सकती। मानवता को बचाने के लिए ‘गोरक्षा’ का उद्धोष करना होगा। जमीन की उपजाऊ क्षमता को बनाए रखने के लिए जैविक खाद एवं मात्र विकल्प है। केमिकल्स खाद चार दिन की चांदनी, साबित हो रही है। इससे गोमाता ही बचा सकती है। सबसे तेजी से उभरती अर्थव्यवस्था का दावेदार भारत बच्चों के कुपोषण की सूची में नंबर वन है। यह विज्ञापनों से दूर नहीं होगा। किसी तरह पेट भरना भी पोषण की गारंटी नहीं है। यह उपकार केवल गोमाता कर सकती है।
यांत्रिक बूचड़खाने स्थापित करने वालों से सद्बुध्दि की उम्मीद नहीं की जा सकती। लेकिन भारतीय समाज यह सब कब तक चुपचाप देखता रहेगा? अन्याय के विरूध्द चुप रहना भी पाप है।
फ़िल्म, फ़ैशन व मस्ती के नाम पर या सस्ती लोकप्रियता पाने की लालसा में हिन्दू धर्म के प्रतीकों का अपमान आज कल आम बात बनती जा रही है। कभी गीतों में कभी चित्रों में तो कभी टेलीविजन के कार्यक्रमों व विज्ञापनों में कोई भी और अभी भी इन प्रतीकों (हिन्दू देवी-देवताओं, साधू-संतों तथा धर्म ग्रंथों) की मर्यादा को तार-तार कर देता है। कभी जूतों पर, कभी चप्पलों पर, कभी बीयर की बोतलों पर, तो कभी किसी महिला की बिकनी पर या फ़िर भोंडे विज्ञापनों में हिन्दू देवी-देवताओं को इस तरह से चित्रित किया जाता रहा है कि देखने वाला या तो आक्रोशित हो उठता है या इनके प्रति अपनी आस्था खो बैठता है। हालांकि ऐसा नहीं कि इस सब का विरोध या प्रतिकार नहीं किया गया। हिन्दू धर्म और भारत माता का अपमान करने वाला चित्रकार एम एफ़ हुसैन गत अनेक वर्षों से विदेशों में निर्वासित जीवन व्यतीत करने को मजबूर है। अनेक फ़िल्मों को भी भौंडे गानों व गलत फ़िल्मांकन के कारण सेंसर करवाया गया। अब हाल ही में आस्ट्रेलियाई फ़ैशन डिजाइनर लीसा ब्लू को भी हिन्दू समाज ने एक सबक सिखा कर माफ़ी मांगने को मजबूर कर दिया। इतना ही नहीं चाहे देर से ही सही किन्तु, भारत और आष्ट्रेलिया के बीच राजनयिक स्तर पर इस मसले पर हुई वार्ता और इस सम्बन्ध में विदेशी मीडिया द्वारा विस्तार पूर्वक दी गई खबर और विश्लेषणों से स्पष्ट होता है कि अब कोई देश हिन्दू समाज का इस तरह अपमान आसानी से नहीं होने देगा। गत 6 मई को एक हिन्दी और दो अंग्रेजी दैनिक अखबारों ने एक माडल के दो ऐसे चित्र छापे थे जिसके स्विम सूट और बिकनी पर धन और परम वैभव की देवी माता लक्ष्मी को चित्रित किया गया था। यह चित्र 5 मई को सिडनी में हुए एक फ़ैशन वीक के पहले दिन के थे। 6 मई को अक्षय त्रितीया के पवित्र दिन सुबह लगभग दस बजे विश्व हिन्दू परिषद पूर्वी दिल्ली के मंत्री श्री राम पाल सिंह के फ़ोन से मिली जानकारी के तुरंत बाद समाचार पत्र में मैंने जब यह चित्र देखा तो दंग रह गया। एक मन में आया कि इस मसले को तूल देने से फ़ैशन डिजाइनर को अनावश्यक प्रचार मिलेगा तो दूसरे ही क्षण यह भी सोचा कि यदि इन सब विधर्मियों को रोका नहीं गया तो हिन्दुओं का उपहास उड़ाने वालों की फ़ौज बढती ही जाएगी। इस संदर्भ में एक मेल तुरन्त विहिप के केन्द्रीय संयुक्त महामंत्री व विदेशी मामलों के प्रमुख स्वामी विज्ञानानंद जी को भेज कर खबर की सत्यता की पुष्टी और उनका मार्ग दर्शन चाहा गया। शायद विदेशों में उनके गहन प्रवास की व्यस्तता के कारण उनका जबाब जब दूसरे दिन तक नहीं मिला तो शनिवार दोपहर विहिप आस्ट्रेलिया के प्रधान श्री ब्रज पाल सिंह से सम्पर्क कर मामले की सत्यता की जानकारी ली तथा विषय की गम्भीरता को देखते हुए एक मेल लीसा ब्लू को भेजा गया। इस मेल की कापी भारत में आष्ट्रेलियाई दूतावास को तथा दूसरी स्वामी जी तथा श्री ब्रज पाल सिंह को भेजी गई। इस मेल को अनेक हिन्दू धर्मावलम्बियों को भी लीसा व दूतावास के संपर्क सूत्र (फ़ोन/फ़ैक्स/ई-मेल) के साथ भेजा गया। इधर यह खबर जैसे-जैसे फ़ैली, एक तरफ़ तो लोगों ने व्यक्तिगत रूप से लीसा व दूतावास से अपना विरोध दर्ज कराया वहीं दूसरी ओर विहिप दिल्ली ने सोमवार को जंतर-मंतर पर प्रदर्शन कर अपना विरोध दर्ज कराने का निर्णय लिया। साथ ही यह भी तय किया गया कि दूतावास को हम ज्ञापन भी देंगे। इस बाबत एक प्रेस वक्तव्य भी जारी किया गया जिसे रविवार के अधिकांश देशी व विदेशी अखबारों तथा शनिवार को ही कुछ टीवी चैनलों द्वारा प्रसारित किया गया।
रविवार सुबह एक अंग्रेजी दैनिक के मुख पृष्ठ पर खबर थी सौरी, सेज लीसा यानि लीसा ने माफ़ी मांगी। जब मेल खोल कर देखा तो पता चला कि लीसा ने तो वास्तव में माफ़ी मांग ली है। शनिवार देर रात दस बजकर चालीस मिनट पर विहिप आस्ट्रेलिया के राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री ब्रज पाल सिंह के माध्यम से मिले इस माफ़ी नामे में डिजाइनर ने लिखा है कि उस प्रत्येक व्यक्ति से हम माफ़ी मांगते हैं जिनकी भावनाएं आहत हुई हैं तथा देवी मां लक्ष्मी की तस्वीर अब हमारे किसी भी ब्राण्ड पर नहीं मिलेगी साथ ही यह भी लिखा है कि हमारे नये कलेक्शन के उत्पादन को पूरी तरह से रोक दिया है तथा यह उत्पाद या खुदरा बाजार में कहीं भी नहीं मिलेगी। दुनिया के किसी भी कोने में मां लक्ष्मी के चित्र वाला उत्पादन नहीं रहेगा। विहिप दिल्ली के महा मंत्री श्री सत्येन्द्र मोहन से वार्ता कर यह तय किया गया कि भले ही अपने कुकर्म के लिए लीसा ने मांफ़ी मांग ली हो किन्तु भारतीयों को आष्ट्रेलिया में बार-बार प्रताड़ित किया जाता रहा है अत: हम अपना प्रदर्शन यथावत रख अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर इस मुद्दे को उठाएंगे जिससे इन घटनाओं की पुनरावृति न हो सके। इस संबन्ध में फ़िर एक प्रेस वक्तव्य जारी कर रविवार को हमने कहा कि हमारा प्रदर्शन यथावत रहेगा। पंजाब व उत्तर प्रदेश सहित कुछ राज्यों में विहिप-बजरंग दल के कार्यकर्ता शनिवार को ही प्रदर्शन कर चुके थे। सोमवार को देश की राजधानी दिल्ली में किए गए विशाल प्रदर्शन के दौरान देशी मीडिया से अधिक विदेशी मीडिया के लोगों को देखा गया। प्रदर्शन के बाद आष्ट्रेलिया के दूतावास को एक ज्ञापन सौंप कर मांग की गई कि आस्ट्रेलिया सरकार भविष्य में इस प्रकार की घटना की पुनरावृति न होने का वचन दे।
यह खबर हिन्दी के तो लगभग सभी अखबारों में प्रमुखता के साथ दी किन्तु भारत का अंग्रेजी मीडिया हमेशा की तरह हिन्दू भावनाओं के प्रति उदासीन ही दिखा। विश्व के लगभग सभी बडे अखबारों में यह खबर प्रमुखता के साथ प्रकाशित की गयी। इसी बीच सोमवार को एक जनहित याचिका पर विचार करते हुए इलाहाबाद हाई कोर्ट ने इसी सम्बन्ध में भारत सरकार, आस्ट्रेलियाई दूतावास तथा कुछ अखबारों (जिन्होंने बिकनी पर माता के फ़ोटो छापे थे) को नोटिस जारी कर दिए। मंगलवार को विहिप ने एक पत्र इस सम्बन्ध में भारत के प्रधानमंत्री तथा विदेशमंत्री को भी भेजा तो सरकार ने आस्ट्रेलियाई दूतावास से इस सम्बन्ध में अपना रोष जताया। बाद में दोनों देशों के वाणिज्य सचिवों के बीच हुई वार्ता में भी इस मुद्दे को गंभीरता से उठाया गया, ऐसा विदेशी मीडिया ने प्रकाशित किया। इस पूरे घटनाक्रम पर विचार करने पर दो बातें सामने आती हैं। एक तो यह कि भारत की सरकार और यहां का तथाकथित सेक्यूलर मीडिया आखिर हिन्दू धर्मावलम्बियों तथा उनके मानविन्दुओं/आस्था केन्द्रों पर बार-बार होते हमलों के प्रति संवेदनहीन क्यों है? दूसरा, क्या हिन्दूओं को अपने धर्म व स्वाभिमान की रक्षार्थ हमेशा आन्दोलन की राह अपनानी पड़ेगी या अन्य धर्मों की तरह हिन्दू धर्म की रक्षार्थ हमारी सरकार अपने आप भी कभी चेतेगी। खैर! हिन्दू मानविन्दुओं का उपहास तो रोकना ही होगा।
प्रत्येक देश का अपना ही कानून होता है। दरअसल कानून अपराधियों को प्रताडि़त करने के लिए नहीं बल्कि उनके विचारों में बदलाव लाने के लिए बनाये जाते है। उनके मस्तिष्क में कानून का डर बना रहें और वो समाज के सभ्य लोगों को परेशान न करें। इसीलिए उन्हें कानून की दृष्टि से सजा सुनाई जाती है। पूर्वकाल में राजा महाराजाओं की बात करें तो उस युग में हाथ के बदले हाथ और जान के बदले जान का प्रावधान हुआ करता था। लेकिन अब समय बदल गया है। लोग अपने अधिकारों के प्रति काफी हद तक जागरूक हो रहें हैं। भारतीय संविधान की बहुत ही कम धाराओं के अन्तर्गत मौत या फांसी की सजा का प्रवधान है उस पर भी भारतीय राष्ट्रपति के आदेश पर उन सजाओं को टाला जा सकता है। कहने का मतलब केवल इतना है कि अब अपराधियों को अपराध की सजा केवल जेल में समय बिताकर पूरी करनी होती है।
लेकिन जब कोई अपराधी अपराध के क्षेत्र में पहली बार कदम रखता है तो उसका सामना कानून के रक्षक कहें जाने वाले जल्लादों से होता है और फिर शुरू होता है कानूनी दहशत का गंदा खेल। पुलिस आपराधिक मामलों को जल्द निपटाने के चक्कर में गरीब व मासूम लोगों पर धावा बोलती है। जिन्हें पूछताछ के नाम पर थानों में बैठाया जाता है। फिर उन्हें झूठे मुकदमों में फसाने की बात कही जाती है या फिर बदले में सुविधा शुल्क ले देकर छोड़ने की बात की जाती है। एक आम आदमी जिसके मन में कानून का खौफ समाया होता है। वो या पैसे देकर मुक्त होता है या फिर पुलिस के बनाये हुए जाल में फस जाता है।
अब कहानी शुरू होती है जेल की, एक अपराधी के लिए शायद जेल उस मंदिर की तरह हो जो अपने काम से मिलने वाले धन को समय समय पर यहां चढ़ाने आता है। लेकिन एक निर्दोष व शरीफ इंसान जब जेल में पहली बार आता है। तो उसके लिए यह किसी खौफनाक पिंजड़े की तरह है जिसमें उस परकटे पंक्षी को कैद कर दिया हो।
पैसा बाहर की दुनिया के लिए तो जरूरी है लेकिन जेल की दुनिया के लिए बहुत-बहुत ही जरूरी है। यह बात इंसान को जेल में पहंुचने बाद पता चलती है। अब आप सोच रहें होंगे कि यह क्या बात हुयी जेल में सजा काटने के लिए अपराधियों को बंद किया जाता है जिनके खाने पीने का इंतजाम स्वयं सरकार का जिम्मा होता है। तो जनाब यह बात भी सही है लेकिन सरकारी खाना तो सिर्फ कागजों में अच्छा चढ़ाया जाता है लेकिन उनक कैदियों की थाली में परोसा जाने वाला खाना तो कुत्ते भी खाने से इंकार कर दें।
लेकिन कोई बात नहीं यहां भी चलता है पैसा का राज। कहते है कि पैसे के बलबूते पर क्या नहीं खरीदा जा सकता हैं ? सबकुछ जेल के अंदर भी।
जेलों में सरकारी केंटीनें अपराधियों को मुंह का जायका बदलने के लिए चाय, समोसा, कचैड़ी जैसे पकवान भी पैस करती हैं। जिसके बदले में बाहर की अपेक्षा लगभग तीन गुना पैसा भुगतान करना पड़ता है।
आखिर यह पैसा कैदियों के पास आता कहां से है दरअसल कैदियों से मिलने के लिए उनके परिवारजन व जानने वाले लोग उन्हें जेल मेें मुलाकात के दौरान पैसे व जरूरत की सामग्री दे जाते हैं। जिसका इस्तेमाल वो अपने खाने पीने की वस्तुओं पर करते हैं। जेल के खाने से ऊब जाने के बाद कभी कवार कैदी उस पैसे से मुंह का जायका बदल लेते है। इसी लिए यह कहना गलत नहीं होगा कि जेल में भी पैसा बोलता है।
यह सारी बाते तो समझ में आती है लेकिन यह बात कुछ हजम नहीं होती कि जेल में अपराधियों को सुधारने का प्रयास किया जाता है। लेकिन अपराधी तो ओर भी ज्यादा बिगड़ जाते हंै। पैसे वाले अपराधी इसका गलत लाभ उठाते है। आपराधिक प्रवृति के लोग पैसे के बलबूते पर जेल के कानूनों को ताक पर रखकर मौज उड़ाते हैंै। क्योंकि घूसखोर व सुविधा शुल्क लेने वाले लोग यहां भी भरे पड़े हैं। जो थोड़े से लाभ के लिए आपको जेल के अन्दर वो सारी वस्तुएं मुहैया करा सकते हैं जो आपराधिक लोगों की जरूरत होती है। इसमें शामिल है जैसे गुटका, तम्बाकू, बीड़ी, सिगरेट व पान मसाला। जेल में इन सभी चीजों पर प्रतिबंध होने के वाबजूद इन्हें जेल में बेचा जाता है। लेकिन यह सब बाहरी दाम से लगभग पांच गुना मंहगे दिये जाते है। अब जब गैर कानूनी बस्तुओं का क्रेय करना है तो दाम भी तो ज्यादा चुकाने पड़ेंगे।
पैसे के बलबूते पर कुछ अपराधी अपनी सुकून की जिंदगी जेल में बिताते हैं। वो अपनी खुशामत भी कराते है और अपराधियों के नेता भी बन जाते हैं। जिनका पक्ष जेल के छोटे तबके के अधिकारी भी लेते हैं। वहीं मुसीबत के मारे गरीब अपराधी बेवसी की जिंदगी गुजारतें हैं और हर पल अपने बाहर की दुनिया की कल्पनाओं मंे खोये रहते हैं। वो हर वक्त अपनी बाहरी दुनिया में वापस जाने का ख्याल करते रहते हैं। ऐसे लोग ही जेल में बिताई जिंदगी को कभी भूल नहीं पाते वो उनकी जिंदगी का सबसे बुरा वक्त बन जाता है। जिससे बाहर निकलने के बाद वो कभी याद करना नहीं चाहते। ऐसे लोगों पर कानून का ’’अपराधियों को सुधारने’’ वाला पेन्तरा काम कर जाता है। लेकिन आपराधिक प्रवृति के अपराधियों के लिए तो यह मंदिर की दहलीज है जिसका वो माथा चुमते है। क्योंकि उन्हें कानूनी की सच्चाई पता और साथ में कानून के गुरगों की हकिकत भी। जिसका वो सही लाभ उठाते है।
पैसा दुनिया में हर वस्तु दिला सकता है। लेकिन क्या उन लोगों का खोया हुआ वक्त दुवारा नही दिला सकता है जो कई दिन, महिने व सालें जेल के अन्दर बिताई है। कई लोग बिना अपराध किये अपराधी बन जाते हैं और अपना पूरा जीवन जेल में बिता देते है। उन पर समाज की नजर में एक आपराधी की मौहर लग जाती है। उन परिवार में बहने, भाईयों की शादी संबंध की बात मानों सपने की तरह लगने लगती हैं। वहीं पूरी जिंदगी जेल में बिताने वाले बेगुनाह अपराधी अपने बेटे-बेटी की शादी नहीं देख पाते।
अपराधी सजा पाकर भी नहीं सुधरते तो कुछ बेगुनाह कानून का शिकार होकर अपनी जिंदगी का अहम हिस्सा खो चुके होते हैं।
“हमारे समाज में कोई सबसे अधित हताश हुआ है तो वे महिलाएं ही हैं और इस बजह से हमारा अंधःपतन भी हुआ हैं महिलापुरूष के बीच जो फर्क प्रकृति के पहले है और जिसे खुली आंखों से देखा जा सकता है, उसके अलावा मैं किसी किस्म की फर्क को नही मानता’’ महात्मा गांधी
भारत में अतीत से ही नारी का सर्वोपरी स्थान रहा हैं परंतु गत वर्षो में महिलाओं की स्थिति में काफी बदलाव आया हैं। नारी एक वह पहलू हैं जिसके बिना किसी समाज की रचना संभव नही हैं। समाज में नारी एक उत्पादक की भूमिका निभाती हैं। नारी के बिना एक नये जीव की कल्पना भी नही कर सकते अर्थात नारी एक सर्जन हैं, रचनाकार हैं। यह कुल जनसंख्या का लगभग आधा भाग होती हैं फिर भी इस पित्रसत्तात्मक समाज में उसे ही दृष्टि से देखा जाता हैं। पुत्र जन्म पर हर्ष तथा पुत्री जन्म पर संवेदना व्यक्त की जाती हैं। भारतीय समाज में आज भी पुत्रों को पुत्रियों से अधिक महत्व दिया जाता हैं। “यत्र नार्यस्तु पुज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता’’ अर्थात जहां नारी की पूजा होती हैं वहां देवता निवास करते हैं। विविध प्रतिवेदनों के अध्ययन से ज्ञात हुआ कि गत वर्षों में महिलाओं के मानवाधिकार का जितना उलंघन हुआ है, शायद पहले ऐसा कभी नहीं हुआ होगा।
2001 की जनगणना के अनुसार भारत की कुल जनसंखया 1,028737,436 है जिसमे ग्रामीण जो विश्व के प्रतिशत में 16.44 प्रतिशत है। 1000 में से 933 महिलाएं है। आजादी के 63 वर्षो के बाद भी महिलाओं की साक्षरता 64.8 प्रतिशत है, जिसमें 53.7 महिलाएं व 75.3 प्रतिशत पुरूष है। महाराष्ट्र के संदर्भ में देखें तो यहां की जनसंख्या 9,68,78,627 है। 5,57,77,647 ग्रामीण एवं 4,11,00,980 नगरीय जनसंख्या है। इस राज्य का लिगांनुपात 1000 में से 922, कुल साक्षरता 76.9 प्रतिशत है जिसमें 86.0 पुरूष एवं 76.0 महिलाओं का है।
केन्द्र एवं राज्य सरकारो ने इस संबंध में कई प्रयास किए हैं किंतु इसमें वे पूर्णरूपेण सफल नही हो पाए हैं। जाहिर हैं योजनाओं की सफलता के लिए उसके लाभार्थियों का सहयोग भी उतना ही अहमियत रखता हैं जितनी कि अन्य बाते। समाज व राज्य की विभिन्न गतिविधियों में पर्याप्त सहभागिता के बावजूद इनके साथ अभद्र व्यवहार, घरेलू हिंसा, कार्यस्थल, सडको, सार्वजनिक यातायात एवं अन्य स्थलों पर होने वाली हिंसा में वृद्धि हुई हैं। इसमें शारीरिक, मानसिक एवं यौन शोषण भी शामिल हैं। दैनिक समाचार पत्रों में दिनब-दिन की घटनाएं छपी होती जो महिलाओं के साथ होती है जैसे बलात्कार, दहेज के लिए बहू को जलाना, प्रताड़ित करना तथा बालिका का भ्रूणहत्या। यह सच हैं कि आज महिलाओं ने अपने आपको मुख्य धारा में शामिल कर लिया हैं परंतु उनके इस विकास में उनकी दृ इच्छा शक्ति के साथ मीडिया और भारतीय फिल्मों का भी अत्यंत योगदान हैं जिसके मानसिक तौर पर नारी को निरंतर विकास की ओर गतिशील किया हैं। भारतीय संस्कृति में महिलाओं को समाज में सबसे ऊचा दर्जा दिया गया हैं। वैदिक युग में पिता अपनी पुत्री के विवाह के समय उसे आिशर्वाद देता था कि वह सार्वजनिक कार्य और कलाओं में उत्कष्टता प्राप्त करे। सभ्यता के अनेक महत्वपूर्ण पडाव महिलाओं की उसी ओजस्विता और रचनात्मकता पर आधारित रहे हैं। वस्तुतः भारत दुनिया के उन थोडे से देशों में से हैं जहां की संस्कृति और इतिहास में महिलाओं को सम्मानजनक स्थान प्राप्त हैं और जहां मनुष्य कों मनुष्य बनाने में उनके योगदान को स्विकार किया गया हैं किंतु विभिन्न कारणों से कालांतर में भारतीय समाज में स्ति्रयों की पारिवारीक सामाजिक स्थिति निरंतर कमजोर होती हैं और पुरूष समाज द्वारा आरोपित मर्यादा और अधिनता स्विकार करने हेतु विवश कर दिया गया हैं।
19वी सदीं में बदलाव आना प्रारंभ हुआ जब नवजागरण काल में भारतीय फलक पर अनेक सुधारवादी व्यक्तित्व सक्रिय हुए। बंगाल में राजा राममोहन राय ने जहां सती प्रथा के खिलाफ मुहिम चलाई वही ईश्वरचंद्र विद्यासागर और गुजरात में दयानंद सरस्वती ने स्त्री शिक्षा और विधवा विवाह जैसे मुद्दों को लेकर काम किया। महाराष्ट्र में सन 1848 में सावित्री बाई फुले ने लडकियों हेतु प्रथम स्कूल पुणे में खोला। नारी उत्कर्ष की दिशा में यह एक विशष्ट प्रयास था फलतः समूचे भारत की महिलाओं में एक नई चेतना जागृत होने लगी।
20वी सदीं में इस प्रक्रिया को ठोस धरातल और भक्ति भारत में आजादी के बाद मिली। भारत के संविधान ने महिलाओं को समाज की एक महत्वपूर्ण इकाई माना और इन्हें नागरिकता, वयस्क मताधिकार और मूल अधिकारों के आधार पर पुरूषों के बराबर दर्जा तथा समान अधिकार प्रदान किए, किंतु वास्तविक शक्ति महिलाओं से अब भी दूर थी। खासकर ग्रामीण एवं जनजातीय समाजों की महिलाओं से। संविधान के अनुच्छेद 39 में की गई व्यवस्था के अनुसार राज्य अपनी नीति का विशष्टतया इस प्रकार संचालन करेगा कि सुनिश्चित रूप से पुरूष और स्त्री सभी नागरिकों को समान रूप से जीविका के पर्यात साधन प्राप्त करने का अधिकार हों अतः भारतीय सरकार ने वर्ष 2001 को राष्ट्रीय महिला सशक्तीकरण वर्ष के रूप में मनाने का फैसला किया।
73 वां संविधान संशोधन ने स्थानीय निकायों में 33 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान करके अधिकार संपन्न बनाने का अवसर प्रदान किया है अभी हाल ही में महिलाओं के लिए कुछ राज्यों में आगामी स्थानीय निकायों के चुनाव के लिए 50 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान किया जा चुका है और कुछ राज्यों में स्थानीय निकायों के चुनाव भी संपन्न कराये जा चुके है और कुछ राज्यों में करवाये जाने का प्रावधान किया जा रहा है, जिससे महिलाओं की सभी क्षेत्रों में सहभागिता बेगी। भारत ने इस प्रक्रिया की शुरूवात करते हुए ग्रामिण अंचलों और विभिन्न समुहों की महिलाओं को शक्ति संपन्न बनाने की दिशा में यह एक क्रांतिकारी कदम साबित हुआ। इन जनतांत्रिक इकाइयों से जुडी महिलाएं जैसे जैसे अपनी अधिकारों के प्रति जागरूक होती जाएगी उनके अधिकार वंचित की प्रक्रिया भी उसी गति से थमती जाएगी।
भारतीय समाज में महिला की भूमिका को बडा ही महत्व का स्थान था फिर भी उसे मानव अधिकार नही था उसे अपनी इच्छा से रहने नही दिया जाता था। समाज के नियमों पर और एक सीमित ही दिशा से चलने की अनुमती थी। इस तरह हर वक्त अपनी इच्छाओं का बलिदान देना पडता था। वैसे ही भारतीय समाज में स्ति्र व पुरूषों को समान अधिकार नही थे। महिलाएं यह पुरूषों की तुलना में बहुत ही कमजोर मानी जाती थी। कुछ अंतराल के बाद महिलाओं की स्थिती में परिवर्तन आने लगा। इसका कारण अंग्रेजो के शासन को माना जाएगा।
भारत में अंग्रेजो के शासन काल से भारत में हर क्षेत्र में बहुत ही तेजी से परिवर्तन आने लगा। स्त्री पुरूषों में जो भेद दिखाई देते थे वे दूर होने लगे और दोनो के लिए समान अधिकार दिये गये। इस कारण स्ति्रयों को सामाजिक, आर्थिक, शैक्षणिक क्षेत्रों में समान अधिकार दिये गये। महिलाओं को पने की अनुमति दी गई फिर भी आज हम देखते हैं कि ग्रामीण क्षेत्र की महिलाओं को पाया जाता हैं लेकिन उसे नौकरियां अर्थार्जन करने की अनुमति नही दी जाती। अधिकतर गांवों में देखा जामता है कि 80 प्रतिशत परिवार संयुक्त ही रहता हैं इसका कारण घर के काम व घर के अलावा खेती में काम करने की अनुमति दी जाती हैं। महिलाओं का अर्थार्जन करने की अवसर या अधिकार यह भारत में औद्योगिकरण के बाद ही दिया गया। औद्योगिकरण के कारण एैसी परिस्थिती तैयार हुई जिसके कारण महिलाओं को भी अर्थार्जन करने की जरूरत लगने लगी।
नारी समाज का एक अभिन्न अंग हैं। अतित से नारी का समाज में सर्वोपरी स्थान रहा हैं। उसे सुख और समृद्धी का प्रतिक माना जाता रहा हैं परंतु गत वर्षो में महिलाओं के मानवाधिकारों का जितना उल्लंघन हुआ हैं शायद पहले कभी नही हुआ होगा। गत वर्षे दिल्ली में हुए देश भर के पुलिस महानिदेशकों के सम्मेलन में बोलते हुए उपप्रधानमंत्री श्री लालकृष्ण आडवानी ने दिल्ली के पुलिस आयुक्त को चेतावनी दी और इस बात पर दुःख प्रकट किया कि सीटी फोर्ट ऑडिटोरियम के बाहर स्विस महिला के साथ हुए बलात्कार के अपराधियों को पुलिस अब तक पकड नही पायी हैं। उन्होंने कहां कि एैसी घटनाओं से विदेशों में भारत की छवि खराब होती हैं एवं जिस समाज में स्ति्रयां सुरक्षित न हो, वह समाज स्वतंत्र और सभ्य होने का दावा नही कर सकता। विदेशी राजनयिक के साथ बलत्कार की घटना सम्भव ही इसलिए हो सकी क्योंकि देश में और खासतौर से राजधानियों और महानगरों में बलात्कार की घटनाएं तेजी से ब रही हैं और कम से कम प्रशासन के स्तर पर इसके प्रति कोई संवेदनशीलता नही हैं। भारतीय पुलिस तथा प्रशासन को इस योग्य नही बनाया गया कि वह मानवाधिकारों की रक्षा करना अपना कर्तव्य माने इसलिये पुलिस में हिंसा, हत्या और बलत्कार को गंभीरता से लेने की प्रवृत्ति पैदा ही न हो सकी।
वर्तमान में भारतीय महिलाएं समाज व राज्य की विभिन्न गतिविधियों में पर्याप्त सहभागिता कर रही हैं परंतु इससे उनके प्रति घरेलु हिंसा के अलावा कार्यस्थल पर सडको एवं सार्वजनिक यातायात के माध्यमों में व समाज के अन्य स्थलों पर होने वाली हिंसा में भी वृद्धि हुई हैं। इसमें शारीरिक, मानसिक व यौन सभी प्रकार की हिंसा शामिल हैं। प्रताडना, छेडछाड, अपहरण, बलत्कार, भ्रुण हत्या (यौन उत्पीडन, दहेज मृत्यु, दहेज निषेद व अन्य) यह अन्याय पूरे राष्ट्रीय स्तर पर होते हैं पर इनमें उत्तर प्रदेश सबसे आगे हैं। मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा ने भेदभाव को न करके सिद्घांत की अतिपुष्टि की थी और घोषित किया था कि सभी मानव स्वतंत्र पैदा हुए हैं और गरिमा एवं अधिकारों में समान हैं तथा सभी व्यक्ति बिना किसी भेदभाव के, जिसमें लिंग पर आधारित भेदभाव भी शमिल हैं। फिर भी महिलाओं के विरूद्ध अत्यधिक भेदभाव होता रहा हैं।
सर्वप्रथम 1946 में महिलाओं की परिस्थिती पर आयोग की स्थापना की गई थी। महासभा ने 7 नवंबर 1967 को महिलाओं के विरूद्ध सभी प्रकार के भेदभाव की समाप्ति पर अभिसमय अंगीकार किया। 1981 एवं 1999 में अभियमय पर एैच्छिक नवाचार को अंगीकार किया जिससे लैंगीक भेदभाव, यौन शोंषण एवं अन्य दुरूपयोग से पिडित महिलाओं को अक्षम बनाएगा। मानव अधिकारो की रक्षा के लिए एवं संयुक्त राष्ट्र घोषणा पत्र के उद्देश्य को दृष्टिगत रखते हुए भारत में मानवाधिकार आयोग का गठन किया गया हैं। भारत ने संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार सम्मेलनों आर्थिक एवं सामाजिक परिषद एवं महासभा के अधिवेशनों में मानवाधिकार मुद्दों पर सक्रिय रूप से भाग लिया हैं। मानव अधिकार संरक्षण अधिनीयम, 1993 की धारा 30 में मानव अधिकारों के उल्लंघन संबंधी शीघ्र सुनवाई उपलब्ध कराने के लिए मानव अधिकार न्यायालय अधिसुचित करने की परिकल्पना की गई हैं। आन्ध्र प्रदेश, असम, सिक्किम, तमिलनाडु और उत्तरप्रदेश में इस प्रकार के न्यायालय स्थापित भी किए जा चुके हैं। यहां यह कहना उचित होगा कि जब से मानवाधिकार संरक्षण कानून बना हैं और राष्ट्रीय महिला आयोग का गठन हुआ हैं, नारी की स्थिति समाज में और अधिक सुदृ होने लगी हैं। अब महिलाउत्पीडन की घटनाओं में भी अपेक्षाकृत कमी आई हैं। हमारी न्यायिक व्यवस्था ने भी नारी विषयक मानवधिकारो की समुचित सुविधा की हैं। आज महिलाएं कर्मक्षेत्र में भी आगे आई हैं। वे विभिन्न सेवाओं में कदम रखने लगी हैं लेकिन जब कामकाजी महिलाओं के साथ यौन उत्पीडन की घटनाएं होने लगी तो न्यायपालिका ने उसमें हस्तक्षेप कर यौन उत्पीडन की घटनाओं पर अंकुश लगाना अपना दायित्व समझा। विशाका बनाम स्टेट ऑफ राजस्थान, ए. आई. आर. 1997 इस. सी. उमा का इस सम्बंध में एक महत्वपूर्ण मानना हैं। उल्लेखनीय हैं कि महिलओं के प्रति निर्दयता को उच्चतम न्यायालय ने एक निरंतर अपराध माना हैं। पति द्वारा पत्नी को अपने घर से निकाल देने तथा उसे मायके में रहने के लिए विवश करने पर आपराधिक कृत्य का मामला दर्ज किया गया हैं। महिलाओं के सिविल एवं संवैधानिक अधिकारो पर विचार करते हैं। संविधान के अनुच्छेद 15 में यह प्रावधान किया गया हैं कि धर्म, पुलवंश, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर किसी नागरिक के साथ विभेद नही किया जायेगा। अनुच्छेद 16 लोक नियोजन में महिलाओं को भी समान अवसर प्रदान करता हैं। समान कार्य के लिए समान वेतन की व्यवस्था की गई हैं। महिलाओं को मात्र महिला होने के नाते समान कार्य के लिए पुरूष के समान वेतन देने से इंकार नही किया जा सकता हैं। उत्तराखंड महिला कल्याण परिषद बनाम स्टेट ऑफ उत्तर प्रदेश, ए. आई. आर. 1992 एस. सी. 1965 के मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा महिलओं को समान कार्य के लिए पुरूष के समान वेतन एवं पदोन्नती के समान अवसर उपलब्ध कराने के दिशा निर्देश प्रदान किये गये हैं। हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 की धारा 18 स्ति्रयों को सम्पत्ति में मालिकाना हक प्रदान करती हैं। श्रम कानून महिलाओं के लिए संकटापन्न यंत्री तथा रात्रि में कार्य का निषेध करते हैं। मातृत्व लाभ अधिनियम कामकाजी महिलाओं को प्रसुति लाभ की सुविधाएं प्रदान करता हैं। दंड प्रक्रिया संहिता 1973 की धारा 125 में उपेक्षित महिलाओं के लिए भरण पोषण का प्रावधान किया गया हैं। इस प्रकार कुल मिलाकर नारी विषयक मानवाधिकारों को विभिन्न विधियों एवं न्यायिक निर्णयों में पर्याप्त संरक्षण प्रदान किया गया हैं। बदलते परिवेश में संविधान में 12वे संशोधन द्वारा अनुच्छेद 51 के अंतर्गत नारी सम्मान को स्थान दिया गया और नारी सम्मान के विरूद्ध प्रथाओं का त्याग करने का आदशर अंगीकृत किया गया हैं। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग तथा राष्ट्रीय महीला आयोग नारी सम्मान की रक्षा एवं सतत प्रयासरत हैं।
भारतीय संविधान, राज्य व केन्द्र सरकार, पंचायती राज व्यवस्था आदि के माध्यम से महिलाओं पर हाने वाले अपराध व अत्याचार के निदान के लिए निरन्तर प्रयास किया जा रहा है लेकिन महाराष्ट राज्य में महिलाओं पर अत्याचार सुचारू रूप से फलफूल रहा है। वर्ष 200910 में 16620 हजार महिलाओं ने पुलिस विभाग का सहारा लिया है। ग्रामीण समाज की तुलना में सुशिक्षित व शहरी भाग में अत्याचार का प्रमाण पाया गया। इस राज्य की विधि रिपोर्ट व प्रकाशित समाचार पत्रों के अध्ययन से ज्ञात हुआ कि महिलाओं पर दहेज की मांग को लेकर मराठवाड़ा क्षेत्र में मामले पाये गये है। राज्य सरकार द्वारा महिलाओं का घरेलू हिंसा नियंत्रण के लिए विविध स्तर पर जनजागरूकता कार्यक्रम कियान्वित किया जाता है। देश में दहेज लेने वालों पर कानूनी कार्यवाई का प्रावधान किया गया है। यवतमाल जिले में वर्ष 2010 में पारिवारिक कलह से त्रस्त 1200 महिलाओं के अपनी जीवनलीला समाप्त कर चुकी है। यवतमाल 75, अहमदनगर व पूना ग्रामीण में 69 एवं मुमंबई शहर में 68 मामले दर्ज करवाये गये है। इन जिलों में महिलाओं को आत्महत्या करने के लिए दबाव डाला गया है। इस घटना के लिए यह जिला राज्य की तुलना में प्रथम स्थान पर है।
महिलाओं के प्रति हिंसा विश्वव्यापी घटना बनी हुई हैं जिससे कोई भी समाज एवं समुदाय मुक्त नही हैं। महिलाओं के प्रति भेदभाव इसलिए विद्यमान हैं क्योंकि इसकी जडे सामाजिक प्रतिमानों एवं मूल्यों में जमी हुई हैं। वैसे तो महिलाओं के विरूद्ध हिंसा के कारणों को समाप्त किये बिना उसका पूर्ण निदान संभव नही पर यदि पाश्चात्य एवं विकसीत देशों पर दृष्टिपात करे तो एैसा लगता हैं कि इसका कारण मानविय संरचना व स्वभाव में अंतनिहित होने के कारण जड से इसका उन्मुलन सम्भव नही हैं। प्रत्येक स्थल व प्रत्येक प्रकार की महिला विरोधी हिंसा के लिए समाज और समाज और राज्य दोनों को ही अपना नैतिक एवं विधिक उत्तरदायित्व निभाना पडेगा। व्यवहारिक स्वरूप यही मांग करता हैं कि एक एैसी सामाजिक पहल हों जिससे महिलाओं के प्रति पूरे समाज की सोच बदले।
भारत में महिला हिंसा के भयानक स्वरूप के विरूद्ध संघर्ष के लिए और जन जागृति पैदा करने के लिए एक व्यापक अभियान चलाया जाना चाहिए। भारत जैसे विकासशील देश में मानव अधिकार का मुद्दा एक एैसा मुद्दा हैं जिसके लिए दीर्घकालिन नीति तथा सरकार एवं गैर सरकारी संगठन से सहयोग की जरूरत हैं। आकाशवाणी तथा दूरदशर्न दोनों मानवाधिकारों के प्रति जागरूकता लाने की दिशा में प्रभावी एवं सक्रिय भूमिका निर्वाह कर सकते हैं हम सभी की जिम्मेदारी है कि महात्मा गॉधी के इस वाक्य ‘स्वतंत्र भारत को एैसा होना चाहिए कि कोई महिला कश्मीर से कन्याकुमारी तक अकेली घुम ले और उसके साथ कोई अशोभनीय घटना न हों’। को साकार करने का निरन्तर प्रयास करना आवश्यक है साथ ही सभी को महिलाओं को जीवन का आधा अंग मानकर स्वीकार करना चाहिए।
संदर्भ:-
1.ण्महिला जागृति और सशक्तिकरणः संजीव गुप्ता व सोनी वर्मा सवलिया बिहारी अविश्कार पब्लिशर्स डिस्ट्रीब्यूटर्स, जयपुर, राजस्थान, 2005
2. ण्कम्पेंडियम जनरल नॉलेजः 2011
3 .ण्भारत : 2010
4. ण्लिंग एवं समाजः नाटाणी नारायण गौतम ज्योति रिसर्च पब्लिकेशन जयपुर, नई दिल्ली 2005
अप्रैल 2011 से लेकर आज तक जन लोकपाल विधेयक के समर्थन पर देश के स्वयं सेवी संगठन, भ्रष्टाचार से ग्रसित व्यक्ति ने अन्ना भाई को निरन्तर समर्थन करते देखे जा रहे हैं लेकिन ये राजनैतिक दल के लोग इस पर खीचातानी करने में कभी भी पीछे नहीं रहते। उसी तरह योग गुरू रामदेव बाबा द्वारा काला धन वापस के संदर्भ में भी देखा जा रहा है। प्रस्तावित इस लोकपाल विधेयक को लेकर गतिरोध एक बार पुनः जन्म ले लिया है और अन्ना भाई ने इसके लिए पुनः सड़कों पर उतरने की धमकी दे दी है। प्रश्न यह उठ रहा है कि वास्तव में हम लड़ई किसके लिए कर रहे हैं? और किसके बल के बादौलत? यह विधेयक जिन प्रतिनिधियों पर नजर रखने के लिए लाने का प्रयास किया जा रहा है उन्हें भी जन आन्दोलन की दरकार है। ऐसा तो नहीं कि दांया हांथ, बांये हाथ से लडने की कोशिश कर रहा हो? प्रस्तावित इस जन लोकपाल विधेयक में तल्लीन अगुआ को गत दिनों जन समर्थन मिला। यहां स्पष्ट दिखता है कि जनता में अपने प्रतिनिधियों को लेकर जबर्दस्त नाराजगी है, किन्तु इससे यह प्रमाणित नहीं होता कि भ्रष्ट जन प्रतिनिधियों के विरोध में लड़ाई लड़ने वालों का रास्ता साफ ही होगा। अन्ना भाई एवं उनके कार्यकर्ताओं के विरोध में पिछले दिनों मीडिया के माध्यम से जो खबरें मिली है उसने कोई खास प्रभाव नहीं पड़ा है। मीडिया में उनसे संबंधित खबरों के छपने से भ्रष्ट प्रतिनिधियों का दोष तो कम नहीं हो जाता। अन्ना भाई ने तो समयानुसार मांग की थी और कर रहे है लेकिन ये तो सीधे डांका डालने का कार्य कर रहे है। आज हम देख रहे है कि प्रचीन काल का कल्प वृक्ष कहा जाने वाला आम का फल अब भ्रष्टाचार का दैंत्यकार रूप धरण कर चुका है, लेकिन इसकी जड़ें हम गरीबों के भीतर ही है। हम सभी ने मिलकर उसे खादपानी देकर परवरिस की है। हम सभी को यह मूल्यांकन करने की आवश्यकता है कि हममे से कितने लोग ऐसे है जो बहती गंगा में स्नान करना नहीं चाहते अर्थात भ्रष्टाचार करने से चूकते हैं और अपने आसपास के छोटेमोटे भ्रष्ट व्यक्तियों को जानते हुए भी उनका समाजिक बहिस्कार करते हैं? नहीं, हमारे समाज में उन्हे बडा की खास व्यक्ति कहा जाता है, और झट से कह देते है कि जैसा समय हो वैसा अपने आप को लेना चाहिए। अन्ना भाई के पास समस्या इस बात की है कि देश में इस विधेयक का मसौदा बनाने से लेकर लोक सभा एवं राज्य सभा से पारित करवाना कोई बच्चों का खेल नहीं है क्योंकि हम आप सभी जानते है कि कुछ ऐसे विधेयक हैं जिन्हें पारित करने के बाद हमारे इन चोर भाईयों के गर्दन में तलवार लटकने जैसे होगा, इसलिए ये चोर भाई इस तलवार में धार आने से पूर्व ही तलवार व उसकी म्यान को कानून के रूप में आने नहीं देना चाहते है। उदाहणार्थ विधान सभा एवं लोक सभा में 33 प्रतिशत महिला आरक्षण, जन लोकपाल विधेयक आदि। लेकिन वर्ममान में जन लोकपाल विधेयक की बात है जन लोकपाल विधेयक पारित करवाने के बाद लोकपाल की नियुक्त करके हम इस वृक्ष की कुछ डालियों को काटने में सक्षम तो होगें लेकिन उनकी जडें़ खोदना और स्वयं को झांकना होगा, लेकिन यह भी सच है कि हम ऐसा नहीं करेंगे। कानून बनाने वाला कोई और नही हमारे वृक्ष की जड़े ही होगी, क्या वे अपने आप को बचाने की कोशिश नही करेगीं?
इस भ्रष्ट वृक्ष की जड़ों को खोदने के लिए स्वयं सेवी संगठनों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, संत महात्माओं एवं आम जनता को एक होकर देश की नैतिकता को बचाने के लिए जन जागरण करके इसे जड़पेड़ से उखाड़ फेंकने का संकल्प करना चाहिए। वृक्षों के तनों को काटने से कुछ नहीं होगा वल्कि वे आकर्षक को केन्द्र बन जाएगें। यदि इन जड़ों को खोदकर बाहर करना है तो नींव का पत्थर बनना होगा। जब तक हम ऐसा नीव का पत्थर निमार्ण नहीं कर पायेगें तब तक इस विधेयक को कानून और कानून का कि्रयान्वयन सही ंग से नहीं होगा और भ्रष्टाचार का वृक्ष अपनी जड़े फैलाकर फलताफूलता रहेगा।
अन्ना हजारे भाई, योग गुरू रामदेव बाबा व अन्य देश के स्वाभिमान व नैतिकता के चिन्तक
हम और हमारा समूह आपके साथ रहेगा,
क्योकि हमारे देश का स्वाभिमान व नैतिकता हर व्यक्ति का होगा,
महाभारत में प्रसंग आता है कि एकलव्य धनुर्विद्या सीखने के लिए गुरु द्रोणाचार्य के पास गया तो गुरु द्रोणाचार्य ने एकलव्य को धनुर्विद्या सिखाने से मना कर दिया जब एकलव्य ने गुरु द्रोणाचार्य कि मूर्ति के सम्मुख स्वयं के अभ्यास से धनुर्विद्या में प्रवीणता हासिल कर ली तो गुरु द्रोणाचार्य ने गुरुदक्षिना के बदले एकलव्य का अंगूठा मांग लिया ताकि भविष्य में एकलव्य कभी भी राजकुमार अर्जुन को चुनौती न दे सके और राजकुमार अर्जुन विश्व का सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बन सके भोला एकलव्य इस चाल को न समझा और उसने अपना अंगूठा तुरंत काट कर गुरु द्रोणाचार्य को भेंट कर दिया
भ्रष्टाचार के विरूद्ध लड़ाई में भी ऐसा ही कुछ हो रहा है बस एकलव्य, अर्जुन और द्रोणाचार्य बदल गए है भारत की आम जनता एकलव्य हो गयी है, तो भ्रष्टाचारी लोग राजकुमार अर्जुन बन बैठे है जिनकी रक्षा गुरु द्रोणाचार्य की भूमिका में भ्रष्ट राजनेता कर रहे है.
भारत की भोली, गरीब और लाचार जनता ने भ्रष्टाचार से त्रस्त होकर जब सरकार से भ्रष्टाचारियों पर लगाम कसने के विषय में कानून बनाने अनुरोध किया तो सरकार कोई न कोई बहाना बना कर उसे टालती रही और जब जनता ने बिना सरकार की सहायता के “जन लोकपाल बिल” तैयार कर लिया और उसे लागू कराने के लिए अन्ना हजारे के उपवास के माध्यम से सरकार पर चौतरफा दबाव बनाया तो सरकार को जनता की बात माननी पड़ी और एक “लोकपाल बिल ड्राफ्टिंग कमेटी” का गठन किया गया परन्तु कुछ लोग “लोकपाल बिल ड्राफ्टिंग कमेटी” के जन प्रतिनिधियों को लगातार किसी न किसी प्रकार से निशाना बना रहे है और उनकी विश्वसनीयता पर सवाल खड़े करके भ्रष्टाचार के विरूद्ध लड़ाई की धार को कुंद करने में लगे हुए है ताकि भ्रष्टाचारी लोगों का बोलबाला कायम रह सके.
हमें इस सत्य को स्वीकार करना ही पड़ेगा कि भ्रष्टाचारी लोग न तो कभी ये स्वीकार करेंगे कि उन्होंने कुछ गलत किया है और न ही उनकी गलती बताने वाले या पकड़ने वाले किसी व्यक्ति या कानून को वे आगे बढ़ने देंगे और वे कमेटी में शामिल जन प्रतिनिधियों पर हमला करते हुए उन्हें बदनाम करके अपने निहित स्वार्थों कि रक्षा में लगे रहेंगे जो की वो कर भी रहे है किन्तु कमेटी में शामिल जन प्रतिनिधियों पर लगाये गए कुछ आरोप गंभीर है और उनमे कुछ सत्यता भी हो सकती है परन्तु हमें यह भी स्वीकार करना पड़ेगा कि इस भ्रष्ट समाज में शत प्रतिशत भ्रष्टाचार मुक्त व्यक्ति को ढूँढना लगभग असंभव है और यदि कमेटी के किसी प्रतिनिधि ने कोई भ्रष्टाचार किया है तो कानून अपना काम करेगा यदि आप सचमुच भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ाई के पक्षधर है तो आप उस भ्रष्टाचारी को सही माध्यम से सजा दिलाने का काम करे न कि सिर्फ बयान बाज़ी करके भ्रष्टाचार के विरुद्ध चल रही लड़ाई को कमज़ोर करे
“लोकपाल बिल” किसी धर्म, जाति और लिंग से जुडा हुआ मुद्दा भी नहीं है इस लिए धर्म, जाति और लिंग के सवाल उठाकर कुछ राजनेता केवल मात्र अपने क्षुद्र राजनितिक स्वार्थों कि पूर्ति करते हुए केवल इसके व्यवहारिक होने में ही अडंगा डालने का काम कर रहे है आम जनता को इस बात पर भी विचार करना चाहिए की जब इतनी बड़ी और समझदार संविधान सभा द्वारा बनाए गए संविधान में कुछ परिवर्तनों की गुंजाइश रह सकती है तो यदि धर्म, जाति और लिंग के कारण “लोकपाल बिल” में किसी कारण कोई कमी रह जायेगी तो उसमे भी आवश्यकतानुसार परिवर्तन किये जा सकते है इस लिए हमारा सारा ध्यान केवल एक व्यवहारिक और ठोस “लोकपाल बिल” पर होना चाहिए न कि कंही और…
दूसरी ओर यदि जनप्रतिनिधि अपने उद्देश्य से किंचित मात्र भी विचलित होते है तो इतिहास और ये जनता जिसने इस आन्दोलन के लिए अप्रत्याशित समर्थन दिया है वह इस कमेटी के सदस्यों को कभी माफ़ नहीं करेगी और यह भविष्य में होने वाले जनांदोलनो के लिए भी घातक होगा जो कि भ्रष्ट लोग चाहते है इसलिए जनप्रतिनिधियों का यह परम और एकमात्र कर्तव्य बन जाता है कि वे अपने ऊपर लगने वाले हर आरोप का समुचित और सटीक उत्तर दे और व्यर्थ कि बातों में न उलझकर अपनी एकाग्रता को बनाए रखे उन्हें चाहिए की वे किसी भी प्रकार के दबाव में आए बिना निष्पक्ष रूप से अपना काम करे और एक ठोस एवं कारगर लोकपाल विधेयक का निर्माण करे इसके निर्माण के दौरान उन्हें उन गंभीर विषयों और आलोचनाओ एवं टिप्पणियों के विषय में भी विचार करना चाहिए जो समय समय पर कुछ विद्वान् लोगो द्वारा इस भ्रष्टाचार विरोधी मुहीम को और मज़बूत करने के विषय में कि जाती रही है क्योंकि अच्छे विचारों का सदैव स्वागत होना चाहिए
क्योंकि इस देश की समस्त जनता की भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ाई भी अब “लोकपाल बिल” के जनप्रतिनिधियों पर निर्भर है और कमेटी के लगभग सभी सदस्यों पर एक साथ कोई न कोई आरोप लगना भी किसी साजिश कि तरफ इशारा करता है इसलिए जनप्रतिनिधियों को विशेष रूप से सजग और सतर्क रहना होगा और बिना किसी ब्लैक मेलिंग का शिकार हुए ऐसा प्रभावशाली और व्यवहारिक “लोकपाल बिल” बनाना होगा कि अब कोई भ्रष्टाचारी द्रोणाचार्य अंगूठा मांगने की हिम्मत न कर सके तभी सच्चे अर्थों में देश, जनता और सत्य की विजय होगी
जैसा की मेने अपने विगत आलेख ”सुजलाम-सुफलाम-मलयज-शीतलाम-भाग{एक]में रेखांकित किया है कि सभ्यताओं के शुभारम्भ से ही सचेत और दूरदर्शी मानवो ने सितारों की गति से धरती पर और धरती कि गतिशीलता से उस पर अवस्थित प्रत्येक चेतन-अचेतन वस्तु या पिंड कि स्थिति
पर परिवर्तन का नियम प्रत्यारोपित किया था.कालांतर में १८ वीं शताब्दी के मध्य में उसे वैज्ञानिक प्रयोग कि कसौटी पर कसा गया और ”पदार्थ और उर्जा की अविनाष्ट्ता तथा उसके संरक्षण का सिद्धांत”प्रतिपादित किया गया.तदनुसार ब्रम्हाण्ड में जिस किसी पदार्थ का अस्तित्व है वह कभी भी समूल नष्ट नहीं होगा,किन्तु वह नित्य परिवर्तनशीलता के नियमानुसार या तो परिवर्ती पदार्थ में उसके आनुषां गिक अवयवों में या उर्जा के किसी संभाव्य रूप में जीवित अवश्य रहेगा .
प्रस्तुत सिद्धांत के अनुसार हमारा सौरमंडल,ज्ञात आकाश गंगाएं,नीहारिकाएं और हमारी यह प्यारी पृथ्वी सभी नित्य परिवर्तनशील हैं.ये परिवर्तन बर्फ-पानी-भाप जैसे भौतिक और दूध से दही-छाँछ बनने की तरह रासायनिक भी हो सकते हैं.,ये परिवरतन चंद्रमा की घटती -बढ़ती कलाओं की तरह नियमित भी हो सकते हैं और ये परिवरतन किसी खगोलीय विराट गुरुतीय कारणों से होने वाले अनियमित प्रलय,खंड प्रलय या म हा-प्रलय जैसे भी हो सकते हैं.निष्कर्ष यह है कि ब्रह्माण्ड कि परिवर्तनीयता में पृथ्वी का विनाश,आंशिक विनाश अथवा सम्पूर्ण विनाश सन्निहित है.यह यदि उसके अपने स्वभाविक -सहज समयांतराल पर होने की कल्पना केवल भारतीय पुराणकारों ने ही कही होती तो में भी उसे ’कपोल-कल्पना’धार्मिक आश्था’अंध-विश्वाश या अवैज्ञानिकता के खाते में जमा कर देता..किन्तु न केवल पुराण,न केवल संहिताएँ,और न के वल वेदान्त-दर्शन अपितु अब तो सारा पश्चिमी भौतिकतावादी-विज्ञानवादी बौद्धिक वर्ग भी प्रकारांतर से इस धरती की आयु को विभिन्न कालखंडों से गुजरते हुए अपने अंत की संभावित भविष्यवाणियाँ करने लगा है तबइस सिद्धांत में द्वैत नहीं रह जाता.अब विवेचना का विषय सिर्फ इतना ही नहीं हो सकता कि”धरती अपनी सहज मौत मरती है तो मर जाए, कोई उज्र नहीं ,मनुष्य को पृथ्वी का विनाश अपने हाथों से नहीं कर� �ा चाहिए” इससे से इतर मनुष्य ही एक ऐसा तत्व है जो कि धरती की उम्र यदि घटा सकता है तो बढ़ा भी सकता है{!}यह मेरी वैयक्तिक ह्य्पोथीसिस हो सकती है,सिद्ध करने की क्षमता मुझ में नहीं है.बहरहाल मेरे प्रस्तुत आलेख का मकसद यह है कि धरती कि आयु घटाने वाले तत्वों और उसकी आयु बढ़ा सकने वाले तत्वों की पहचान की जाए.जैसे की कोई योग्य चिकित्सक सर्वप्रथम अपने मरीज के मर्ज़ की पहचान निर्धारित करता है और फिर रोग निदान के उपायों-उपादानो-दवाइयों,परहेजों तथा जांचों की प्रिस्क्रिप्सन लिखता है.विश्व स्वाश्थ संगठन या विश्व राजनैतिक मंच के अजेंडे में यह विषय शीर्ष पर होना चाहिए.यह एक दो आलेखों या एक-दो सेमीनारों के बूते की बात नहीं.यह समग्र संसार में समग्र ब्रह्मांड में सर्वकालिक -सार्वजनीन अभियानों का मुखापेक्षी विराटतम अभियान होना चाहिए.
अनावशय्क भय या वितंडावाद पैदा करना इस आलेख का मकसद नहीं.आज वैश्विक समग्र चेतना का सार तत्व है कि धरती संकट में है इसके लिए कुछ हद तक हम मनुष्य ही जिम्मेदार हैं,हम चाहें तो इसे अब भी बचा सकते हैं.आज जबकि हर बीस मिनिट में संसार से प्राणियों की एक प्रजाति विलुप्त हो रही है,योरोप-और एशिया में पाई जाने वाली गोरैया से लेकर अमरीकन पीका और खरगोश तक विलुप्त होते जा रहें ,आज जबकि कटते जंगलों और खतरनाक दवाओं और केमिकलों ने आसमान को गिद्ध विहीन कर दिया है,आज जबकि पृथ्वी पर शेष वचे केवल ४५०० बाघों का जीवन भी खतरे में है तब कल्पना की जा सकती है कि मामूली प्राण शक्ति-धारक अन्य जीवों के अस्तित्व का अंजाम क्या होगा?
मानव सभ्यता ने विकाश के मार्ग में जो बीज बोये थे उसकी विषेली और घातक फसल पूरे शबाब पर है.पृथ्वी के गगन मंडल में कार्बन-डाय-ओक्साइड कि भयानक बृद्धि ने उसमें आक्सीकरण कि प्रक्रिया के लिए जिम्मेदार साइनोबेक्तीरिया को लगभग निष्क्रिय बना डाला है.ओउद्द्योगिक विकाश के महा दैत्य ने तमाम प्राणियों समेत अपने जन्मदाता मनुष्य को भी अपने ख़ूनी जबड़े में ले रखा है.विश्व कि जनसँख्या गभग सात अरब हो चुकी है,पृथ्वी के धरातल का ८६%मनुष्यों की दुर्दमनीय जिजीविषा और जहालत का चारागाह हो चुका है.संसार की अधिकाँश नदियाँ या तो मृतप्राय हो चुकीं हैं या आधुनिक औद्दोगीकरन का मल-मूत्र उदरष्ट करते हुए गंदे नालों में तब्दील हो चुकीं हैं.खेती के लिए बढ़ते हुए फर्टीलाईजर के कारण इको सिस्टम में नाइट्रोजन का वैसम्य अब प्रतिकूल हो चुका है.इसी कारण समुद्र का २४५००० वर्ग किलोम ीटर क्षेत्र कम आक्सीजन वाला डेड जोन घोषित किया जा चुका है.
विगत दिनों महान वैज्ञानिक और नोबल विजेता पाल कुर्तज़ें ने अपनी थ्योरी से यह सावित किया है कि हम अपने ही बनाए ऐसे युग में या काल खंड में जी रहें हैं,जो हमारे ही विनाश का कारण बन सकता है.उन्होंने रेखांकित किया है कि पृथ्वी ने होलोसीन युग [हिमयुग के बाद के ११७०० वर्ष}१७८४ में तभी छोड़ दिया था जब स्टीम इंजन का आविष्कार हुआ था.१८ वीं सदी से पृथ्वी एन्थ्रोपोसीन युग में आ चुका है.ये भयावह कालखंड हम मानवों ने स्वयम निर्मित किया है.जैव विविधता के विनाशकारी भयानक असंतुलन,समुद्र के बढ़ते जल स्तर,जंगलों और खेती योग्य उर्वरा भूमि पर कांक्रीट के जंगलों का दानवी आकार,ये सभी हम मनुष्यों की भोग लिप्सा के जीवंत प्रमाण हैं १९४५ में परमाणु शक्ति के आविष्कार से लेकर अमेरिकी सोवियत शीत युद्ध तक और अब ९/११ से लेकर २६/११ तक सर्वत्र भयानक एन्थ्र्पोसीन व्याप्त है.खनज तेल और अन्य खनिजों के अनवरत खनन और परमानुविक कचरे के संकट ने सभी सुधी इंसानों को चकरघिन्नी बना डाला है..इतना सब होने पर धरती पर महाप्रलय नहीं तो खंड -प्रलय की संभावना तो अवश्य ही वन सकती है.इस दौर में कोई भी ऐरा -गैरा नथ्थू खेरा यदि २१-मई २०११ या २१ दिसंबर -२०१२ को धरती के विनाश की भविष्यवाणी करता है तो उसमें गलत क्या है? भले ही ये धरती अभी सदियों तक सलामत रहेगी किन्तु इंसान होंगे की नहीं इसकी गारंटी कोई नहीं दे सकता.यदि जलचर-नभचर-थलचर होंगे भी तो कैसे होंगे?शायद पुराणों को ठीक से पढने वाले ही उसकी कल्पना कर सकते हैं
”गुलाबी सपनों का शहर जयपुर और इसकी खूबसूरती में चार चाँद लगाते यहाँ के शॉपिंग मॉल्स,शाम गहराते ही जहाँ यूँ लगता है मानो इसकी भव्यता देखने को ही सूरज दुसरे छोर पर जा छुपा है.हाथ में हाथ डाले जोड़े ,अपनी गुफ्तगू में मशगूल तमाम युवक युवतियां ,खरीददारी करने आये लोगों का उत्साह उस पर तमाम दुकानें ऐसी सजी हुई मानो कोई नवविवाहिता शाम ढले अपने पति का इन्तजार कर रही हो.
जयपुर में वैसे तो शाम बिताने के लिए कई जगहें हैं लेकिन मालवीय नगर स्थित गौरव टावर अपने निर्माण काल से लेकर आज तक लोगों का चहेता बना हुआ है ..तमाम बड़े ब्रांड्स के शोरूम आपको इसकी छत के नीचे मिल जायेंगे उसके साथ ही खाने पीने के लिए युवाओं के मैक डी से लेकर तमाम छोटे बड़े स्टाल्स आपके स्वागत के लिए तैयार मिलेंगे.
तमाम नापसंदगी के बाद भी एक रोज वहां जाना हुआ .. गेट पर ही तमाम छोटे छोटे बच्चों ने घेर लिया ……२-४ रुपये मांगते ये बच्चे नये भारत की बुलंद तस्वीर बना रहे थे……इनसे निपट कर थोड़ी दूरी पर जा के बैठने का स्थान बनाया और वहीं से पूरे टावर के दर्शन करने लगा …… शनिवार होने की वजह से भीड़ कुछ ज्यादा ही थी. वहीं से भीड़ का दीदार कर निगाहें जाने क्यों फिर उन बच्चों की और मुड गई . कुछ पैसो की चाह में ये बच्चे लोगों के पैरों पर गिरे जा रहे थे . पैसे मिले तो ठीक नहीं तो ये किसी दूसरी तरफ मुड गए.२०२५ तक युवा भारत के निर्माण में क्या इनके सहयोग की भी जरुरत पड़ेगी ये सवाल खुद से पूंछ कर चुप बैठ गया.और सोचने लगा की कभी किसी ने सोचा या नहीं की ये कहाँ से आते हैं और रात गहराते ही कहाँ खो जाते हैं दूसरी सुबह फिर से लोगों के आगे हाथ फ़ैलाने के लिए . देश में होने वाली जातिगत गिनती मे क्या इनकी जात भी पूछी जाएगी या नहीं यही सब सोच रहा था कि वो पास आया . वो यानि ”विजय” ,काली पड़ चुकी कमीज और एकमात्र हुक के सहारे अटके पैंट में एक गुमसुम सा ५ बरस का बच्चा . आवाज बहुत धीमी कि कान लगाकर सुनना पड़े, आँखें रोने और दयावान आदमी खोजने में व्यस्त , मैंने पास बैठा लिया तो चुपचाप बैठा रहा पूछने पर जो कहानी पता चली वो कुछ इस तरह थी.
शहर के जगतपुरा की कच्ची बस्ती में रहने वाला विजय तीन भाइयों में सबसे छोटा है,उसके दुनिया में आते ही उसकी माँ चल बसी थी. पिता ने दूसरी शादी की और दो और बच्चों के पिता बनने का सौभाग्य हासिल कर दुनिया से कूच कर गए . अब विजय के दोनों बड़े भाई घर छोड़ कर चले गए हैं और विजय की नई माँ लोगों के घरों में काम कर के अपने जाए दोनों बच्चों का पेट पालती है. अगर पांच साल के विजय को अपने घर में खाना और सो ना है तो इसकी कीमत है ५० रुपये रोज,इसीलिए विजय सुबह उठकर रोज लगभग ३ किलोमीटर पैदल चलकर यहाँ आता है और फिर देर रात तक ५० रुपये कमाने की ज़द्दोज़हद में लग जाता है . इसके लिए वो लोगो के पैर नहीं छूता कहता है लोग डांट देते हैं ,तमाम झिड़कियों के बाद अगर रात तक ५० रुपये जुट गए तो घर पर उसे खाना और सोना नसीब होता है नहीं तो खुद उसकी जबान में ”माँ चमड़ी उधेड़ कर घर से निकल देती है और फिर पूरी रात भूखे पेट ही,घर के बाहर ही गुज़ारनी पड़ती है,”रोज रोज चमड़ी उधड़वाने से सहमा विजय अब घर तभी जाता है जब उसके पास ५० रुपये का जुगाड़ हो जाता है नहीं तो वह यहीं सो जाता है ,जिससे वह अलसुबह फिर रुपयों के इंतजाम में लग सके . विजय की जिंदगी में सिर्फ यही एक परेशानी नहीं है एक मुसीबत यह भी है कि इसी जगह पर कोई कुलदीप भी है जो विजय के पैसे कभी छीन लेता है तो कभी फाड़ देता है .छीने गए पैसे वापस पाने का तो कोई तरीका नहीं लेकिन फटे नोटों का इलाज विजय ने खोज लिया है और अब वह सुलेसन अपने साथ रखता है ताकि वह फटे नोटों को जोड़ सके और ५० रुपये पूरे कर सके .
विजय कि कहानी सुनने के बाद जब उससे पूछा कि सुबह से कुछ खाया तो कहीं गुम हो चुकी मासूमियत चेहरे पर वापस दिखी और वो बोला ”एक दीदी ने पेटिस खिलाई थी ” छोटा सा लेकिन मन को दो टूक कर देने वाला जवाब.और खाओगे कुछ ”नहीं भैया पैसे दे दो बहुत रात हो गई आज घर जाने का मन है”इस बात मन के कितने टुकड़े हुए गिन नहीं सका |
इसके बाद उसने बताया कि कल से वह यहाँ नहीं आएगा क्यूं कि एक तो यहाँ रात तक ५० रुपये नहीं पूरे हो पाते दूसरा अगर मिलते भी हैं तो उनपर कुलदीप का खतरा बना रहता है….मैं उससे और कोई बात नहीं कर पाया और वो भीड़ में खो गया .
जयपुर के मॉल्स आबाद हैं ,एक विजय के जाने से कोई फर्क नहीं पड़ता उसे जानता भी कौन होगा वहां,सुना है और भी मॉल्स बन रहे हैं यहाँ ,शहर फल-फूल रहा है वर्ल्ड क्लास सिटी का सपना बस साकार होने को है ,मेट्रो भी आने वाली है ,हिंदुस्तान का पेरिस कहे जाने वाला जयपुर अब लगभग पेरिस जैसा ही लगेगा . लगना भी चाहिए,सरकार पानी कि तरह पैसा बहा रही है , लेकिन क्या होगा विजय और उस जैसे तमाम का,वो इस वर्ल्ड क्ल ास सिटी में कहा जायेंगे ये कौन सोच रहा है .सरकार या ये मॉल्स बनाने वाले,दोनों समर्थ हैं लेकिन इच्छाशक्ति किसमें है ये कोई नहीं जानता,ठीक वैसे ही जैसे कि कोई नहीं जानता कि विजय अब कहाँ जायेगा जहाँ उसे ५० रुपये मिल सकें ताकि वह घर जा सके और रात कि रोटी खाकर अपने पिता की बनाई छत के नीचे सो सके |