एक परिवार में माँ सहित तीन बहनों नें केवल इस लिये अपनी जिंदगी खत्म कर ली ताकि उनके परिवार का इकलौता बेटा अपने जीवन का शेष भाग सुखपूर्वक बिता सके । यह दर्दनाक घटना कोई अचानक ही नही घट गई बल्कि इस पूरे परिवार नें अपने को लगातार चार दिनों तक खुद को कैद करते हुए, मीडिया के समक्ष अपनी पूरी बातें रखते हुए और सब कुछ होने के बाद भी अपनी मांगो को पूरा ना होते देखने के बाद जहर खाकर अपनी ईहलीला समाप्त कर ली । ( संलग्न विडियों में महिला विप्र समाज की ममता शुक्ला पूरे केस पर प्रकाश डालते हुए )
सेक्टर-4, सडक 34 , भिलाई में हुए इस ह्दयविदारक घटना में तीन अमानवीय पहलू उभर कर सामने आए हैं
1) भिलाई स्टील प्लांट का अमानवीय प्रबंधन 2) पुलिस प्रशासन की अदूरदर्शीता 3) राज्य शासन की घोर लापरवाही ।
1. भिलाई स्टील प्लांट के अधिकारीयों ने 17 साल से काबिज पूर्व बीएसपी कर्मी स्व. एमएल शाह जो बीएसपी के औद्योगिक संबंध विभाग में उप प्रबंधक थे कि तीन दिसंबर 1994 को रहस्यमय ढंग से रेल पटरी पर मृत मिले थे । शाह नें अपनी डायरी में उन लोगों के नाम लिखे हुए थे जिनसे उन्हे अपनी जान को खतरा था । उनकी मौत के बाद तात्कालिन नियमों के अनुसार मृतक के पुत्र सुनील कुमार को अनुकंपा नियुक्ति मिल जानी थी लेकिन बीएसपी के अधिकारी उसे नौकरी ना देकर केवल आश्वासन देते रहे । इसके बाद 1995 के नियमो का हवाला देते हुए बताया गया कि अनुकंपा नियुक्ति का प्रावधान हटा दिया गया है जबकि सुनील के पिता की मौत 1994 में हुई थी और उस समय के नियमों के आधार पर सुनील की अनुकंपा नियुक्ति का आधार बनता था ।
जब सुनील नें अपने परिवार को चलाने के लिये नौकरी के एवज में पचास लाख रूपयों की मांग की, जो की वर्तमान रेटिंग के आधार पर सही है तो तत्काल बीएसपी प्रबंधन नें सुनील का परिवार बैकफुट पर जैसी खबरों का प्रचार करवा दिया ।
एक ओऱ बीएसपी प्रबंधन अपने ही मृत कर्मी के परिवार के लिये उसके अधिकार को देने में असमर्थ बता रहा था तो वहीं दुसरी ओर लाखों रूपये खर्च करके हेमा मालिनी के बैले डांस का आयोजन सेक्टर-1 में किया जा रहा था जिसे मंगलवार को सुनील के परिवार द्वारा आत्महत्या कर लेने के बाद रद्द करा दिया गया । अब बीएसपी प्रशासन अपने को बचाने के लिये सुनील को फंसाने का कुत्सिक षणयंत्र रच रहा है । उस पर अपने परिवार को आत्महत्या करने के लिये उकसाने सहित कई मामले बनाने की तैय्यारी चल रही है ।
2). – इस मामले में पुलिस प्रशासन द्वारा घोर लापरवाही की गई । परिवार को केवल आश्वासन ही दिया जाता रहा । एस.पी. अमित कुमार द्वारा हमेशा यही कहा जाता रहा कि हम मामले को देख रहे हैं जबकि ऊपर सुनील का बयान सुनें । इसके अलावा सोमवार की रात को जब मैं सुनील के घर गया तो सुनील की माँ बताते बताते रो पडी की पुलिस वाले आकर कहते हैं कि मरने वाले लोग सीधे मर जाते हैं तुम लोगों के जैसे नौटंकी नही करते .. इसका क्या मतलब है । सुनील अभी जिंदा है और अस्पताल में है पुलिस उसका बयान लेने को आतुरता दिखा रही है लेकिन उन अपराधियों को नही पकड रही जिनके नाम सुनील के पिता ने अपनी डायरी में लिखे थे । अभी तक पुलिस नें बीएसपी प्रशासन के खिलाफ कोई अपराध दर्ज नही किया है जबकि बीएसपी प्रशासन पर मामला बनता है लेकिन इस मामले का सबसे दुःखद पहलू ये है कि पूरा पुलिस विभाग बीएपी की शरण में ही पडा हुआ है और जैसा बीएसपी अधिकारी चाह रहे हैं एस.पी. महोदय वैसा करवा रहे हैं । अभी तक सुनील को सेक्टर-9 हास्पिटल में रखा गया है जो कि भिलाई इस्पात संयंत्र का अश्पताल है और यहां के डॉक्टरों को तनख्वाह बीएसपी से मिलती है सो जाहिर है कि जैसा प्रबंधन चाहेगा वैसा ही वहां के डॉक्टर अपनी रिपोर्ट देंगे । जबकि एसपी अमित कुमार को चाहिये था कि सुनील को तत्काल सेक्टर9 हास्पिटल से निकाल कर दुर्ग के सरकारी अस्पताल में इलाज के लिये रखा जाता ताकि इलाज व रिपोर्ट निष्पक्ष बन पाती । हो सकता है कि सुनील नें सल्फास की कुछ गोलियां निगल भी ली हों लेकिन असप्ताल इस बारे में मौन साध ले तो एक हफ्ते बाद कौन सा डॉक्टर से बता पाएगा कि सुनील नें जहर खाया था या नही । जिन जिम्मेदारियों के लिये सुनील 17 साल से लड रहा था अब वे जिम्मेदारी सुनील पर नही रही तो क्या ऐसा नही हो सकता कि सुनील अब अपराध की राह अपना ले।
3.- इस मामले में राज्यशासन नें भी अपनी लापरवाही दिखलाने में कोई कसर बाकि नही छोडी । भिलाई इस्पात संयंत्र को केन्द्र की जवाबदारी बताते बताते मुख्यमंत्री ये भूल गये कि यह संयंत्र छत्तीसगढ राज्य का गौरव कहा जाता है । सुनील का परिवार पाँच दिनों तक अपने को कैद करके रखे रहा और राज्य के किसी भी मंत्री तो छोडिये कलेक्टर तक नही पहुंचे । सुनील की मौत नही हुई लेकिन अपनी आँको के सामने पूरे परिवार को मृत देखकर उसकी क्या हालत हो रही होगी इससे राज्यशासन को कोई दरकार नही है । मुख्यमंत्री अपने राज्य के एक इस्पात संयंक्ष को संभाल नही पा रहे हैं जबकि यहां खुलेआम दुसरे राज्यों के लोगों को पैसे लेकर के नौकरी लगाई जा रही है । चाहे वह बीएसपी हो या फिर जे.पी. सीमेंट दोनो जगहों का यही हाल है । स्थानीय लोगों की उपेक्षा की जा रही है औऱ आसपास के लोगों को सारा प्रदूषण झेलना पड रहा है । यहां पर इस एक जवाबदारी से मुख्यमंत्री अपना पल्ला झाड सकते हैं बाकि मामले में क्या कहेंगे उनसे पुछने वाला कोई नही है । धन्य है रमन सरकार । https://dabbumishra.blogspot.com/2011/04/4.html
ऐसा लगता है कि पूरा मुल्क जुल्म से, मिलावटखोरी से, काला बाजारी से, भ्रष्टाचार से घूसखोरी से ऊबने लगा है। यहाँ तक कि जो और जिसके परिवार के लोग खुद इन कामो में लिप्त है, वे भी इनके खिलाफ बात करते है पता नहीं गंभीरता से या केवल बात करने के लिए। पर मजेदार ये है कि जो एक सामान बाजार से गायब कर मुनाफा कमाता है उसे और उसके परिवार को दूसरा सामान पाने में दिक्कत होती है पर वह अपने को चालाक समझता है ।किसी एक चीज में मिलावट करने वाला समझता है कि वो चालाक है और उसने अपने इस्तेमाल का सामान तो अलग कर लिया बाकि जहर खाकर मरे तो उसकी बला से। पर वो नहीं जनता कि उसने अपने लिए एक सामान शुद्ध निकाल लिया है, पर उसी कि तरह अपने को चालाक समझाने वालो ने बाकि सभी चीजों में मिलावट कर उसे जहरीला बना दिया है। सभी मिलावट खोर जहर खा रहे है और खिला रहे है पूरे मुल्क को केवल इसलिए कि वो कई कारे रख सके, एक बाथरूम जाने को एक टहलने जाने को एक ऑफिस जाने को और कुछ दिखाने को। वो बहुत बड़ी कोठी या बंगला बनवा सके या हर शहर में बनवा सके, कि वे एक कमरे में जूते, एक में चप्पल, एक में कपडे और इसी तरह पता नहीं क्या क्या रख सके।वर्ना खाना तो रोटी सब्जी दाल या मीत मुर्गा ही होता है और इतना महंगा नहीं होता कि इतने पैसे कि जरूरत पड़े। कपडे़ भी आदमी कुछ ही पहनता है।
पर सभी एक दूसरे को या तो जहर खिला रहे है, सामान गायब कर मुनाफा कमा रहे है। जबकि उत्पादन करने वाले किसान ने तो पसीना बहा कर खूब उत्पादन किया और पाया केवल मजदूरी फिर केवल इन तिजारत करने वालो को किसने हक़ दिया कि ये केवल शहर में लाने के बदले सैकड़ो गुना मुनाफा कमाए? अगर सामान यही भाव बिकना है तो वह मुनाफा किसान को क्यों नहीं मिले? उसका खेत, उसका बीज, उसका पानी, उसकी खाद, उसकी रखवाली, उसकी मेहनत, उसका पसीना, बाढ़ और सूखे में उसका नुकसान फिर ये मुनाफा इन बेईमानो का क्यों?
लोगों को मिलावट कर जहर खिलने वाले तो उनसे भी ज्यादा देशद्रोही है जो कही बम लगा देते है, क्योंकि उस बम से तो केवल कुछ लोग मरते है पर ये तो सारी मानवता को, सभी नागरिकों को धीमी मौत बाँट रहे है हर वक्त, हर दिन।क्या इन लोगो पर उन्हीं धारावों में मुकदमा नहीं चलाना चाहिए जिनमे देशद्रोहियों पर चलता है?
इन्हीं के साथ हमारी मेहनत कि हजारों करोड़ रूपये कि मुद्रा हर साल बेईमानों कि जेब में चली जा रही है, यदि वो सचमुच अपने कामों में लग जाती तो एक बार बनी सड़क, पुल या कोई भी चीज हर साल या साल में कई बार बनाने और ठीक करने कि जरूरत नहीं पड़ती बल्कि उसी तरह जैसे हम अपना मकान या कोई चीज बनाते है तो वह जीवन भर चलता है केवल रंग रोगन करने के साथ उसी तरह ये सभी सरकार द्वारा बनी चीजें भी चलती और अब तक कोई गांव और गली बिना सड़क, बिना नाली, बिना बिजली कि नहीं होती, कोई गाँव बिना स्कूल का नहीं होता, कोई पंचायत बिना चिकित्सालय के नहीं होती। कोई कारखाना बंद नहीं हुआ होता बल्कि तमाम नए बन गए होते और कोई बेरोजगार नहीं होता। अगर किसी व्यापारी का चन्द हजारों से शुरू कारोबार कुछ सालो में बहुत बड़ा और हजारो करोड़ का हो जाता है तो सरकार द्वारा शुरू किये गए बढ़ने के स्थान पर बंद क्यों हो गए .जबकि उनका सञ्चालन उन लोगों द्वारा किया गया जिन्हें इस पृथ्वी पर भगवन के बाद सबसे योग्य और बुद्धिमान माना गया यानि आइएएस अफसर। क्या सचमुच ये योग्य होते है या अंग्रेजो द्वारा छोड़ी गयी एक बारे और उनकी निशानी आज भी देश को बर्बाद कर रही है और लूट रही है?
अपने पड़ोस में रहने वाले किसी भी छोटी से छोटी हैसियत वाले सरकारी कर्मचारी को देखते रहिये उसकी पुरानी हैसियत और दिन दूनी रत चौगुनी बढ़ती हैसियत। किसी ठेकेदार को और उसकी हैसियत को देखते रहिये, किसी इंजीनियर को देख लीजिये। किसी डॉ को देख लीजिये यहाँ तक कि आज के ६० % से अधिक शिक्षकों को देख लीजिये जो जमीर औए शिक्षा दोनों बेचने को दिन रात बेचैन है।तब नेताओ को बबी देखिये जिनके पास खाने को नहीं था आज वे किसी घर वाले के मरने पर और परिवार कि किसी शादी पर करोडो खर्च कर रहे है, टूटी साईकिल नहीं थी और अब गाडि़यों का बेडा चलता है, झोपड़ी नहीं थी और अब महलों कि संख्या उन्हें भी याद नहीं है।
घूसखोरी तो हम सभी के रक्त का हिस्सा बन गयी है, मांगने वाला इस अधिकार से मांगता है कि उसकी तनख्वाह तो उसके पिता उसके लिए छोड़ गए थे और अब वह जो मांग रहा है यही उसका मेहनताना है और उसका अधिकार है। केवल गलत कम या गलत तरीके से कम में विश्वास करने वाले भी बेहिचक इस तरह घूस पेश करते है जैसे किसी प्यासे को पानी पिला रहे हो। बात लम्बी करना चाहे तो पूरी रामायण लिख कर भी बात पूरी नहीं होगी। वैसे बहुत साल पहले से मानता था कि इसका अंत आएगा और लोगों को इस देशद्रोह और समाज द्रोह की सजा मिलेगी। आज एक मंत्री जेल में है एक सचिव सहित कई आईएएस अफसर जेल में है, फ़ौज के लेफ्टिनेंट जनरल रैक के अफसर को पहली बार तीन साल कि सजा मिली है।नीरा यादव और अशोक चतुर्वेदी व्यापारी को सजा हुई, अभी जमानत मिल गयी। गाजियाबाद में जजों के खिलाफ मुकदमा चल रहा है पर अभी ठेकेदार, इंजीनियर, करोडो कमाने वाले और रोज देश को पीछे ले जाने वाले तथा हर समय जनता का शोषण करने वाले कर्मचारियों का नंबर अभी नहीं आया, अभी दिन रात भ्रस्टाचार करने वाले और करवाने वाले मूल प्राणी व्यापारियों का जेल जाने और सजा पाने का नंबर नहीं आया, अभी मुनाफाखोरी और मिलावटखोरी करने वालों को फंसी या आजीवन सजा पाने का नंबर नहीं आया, अभी शिक्षा, सुरक्षा और स्वास्थ्य को हजम कर जाने वालों को पूरी सजा मिलने की शुरूआत नहीं हुई। कब होगा ये सब? विश्वास तो है कि अब जल्दी ही होगा।
पर क्या हम सब भी कुछ कर सकते है देश को बचाने के लिए अपनी लुटती हुई पूँजी को बचाने के लिए, हर समय हर जगह लोगो को जुल्म से बचाने के लिए, हर समय हर जगह लोगो को घूसखोरी से बचाने के लिए? क्या हम सब सह कर तथा इस सब के खिलाफ आवाज नहीं उठा कर खुद भी इन सारी बुराइयों के लिए उतना ही जिम्मेदार नहीं है? एक बार दिल पर हाथ रख कर पूछना जरूर चाहिए। शायद हम सभी शर्मिंदगी महसूस करे
मै एक तरीका बताना चाहता हूँ जिससे कोई कानून नहीं टूटेगा, कोई रास्ता नहीं रुकेगा और इन सब चीजों के खिलाफ ऐसा युद्ध शुरू हो जायेगा जिसमे कोई हिंसा नहीं होगी और धीरे धीरे सभी गाँधीवादी तरीके से लड़ना सीख जायेंगे। जिसके खिलाफ आप लड़ेंगे वो अगर दफ्तर छोड़ कर भाग जायेगा तो उस पर कार्यवाही होगी या तुरंत बिना घूस के काम करेगा। यह तरीका सभी जगह चलेगा सड़क से लेकर जो भी बन रहा है उस पर उसकी उम्�¤ ° लिखी जाये और ख़राब होने पर उसे बनवाने वाले अधिकारी, इंजीनयर और ठेकेदार को दुबारा अपने पैसे से बनवाना पड़े और कुछ सजा भी मिले, बस होने लगेगा कमाल।सभी तरह कि चीजो के लिए ऐसी ही चीजें तय हो सकती है।
हम क्या करे? बस देशभक्ति का वही नारा जो नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने लगाया था वाही जोर से लगाना सीख जाइये। जय हिंद बोलिए और भ्रष्टाचार से लड़िए। ये देश भक्ति का ज्वर सब कम अपने आप कर देगा। जब जहा कुछ भी गलत हो आप ये नारा लगाने लगिए, कुछ और लोग इकट्ठे हो जायेंगे उन्हें बात और मकसद बताइए वे भी आप के साथ शामिल हो जायेंगे। चूंकि आप केवल देश का नारा लगा रहे है अतः आप के खिलाफ कोई मामला नहीं बनता। कर के देखिये धीरे धीरे पूरे देश में जय हिंद का नारा गूजने लगेगा और आप जीतने लगेंगे और भ्रस्टाचार हारने लगेगा।बस बना लीजिये जय हिंद ग्रुप और प्रचार कर डालिए फिर देखिये इसका वही असर होगा जो नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के नारे से हुआ था। जय हिंद।
अन्ना हजारे -अरविंद केजरीवाल और बाबा रामदेव के बयानों में एक खास किस्म का भ्रष्टाचार निरंतर चल रहा है। इन लोगों की बातों और समझ में भ्रष्टाचार कोई नई बात नहीं है। यह एनजीओ राजनीति विमर्श की पुरानी बीमारी है। जन लोकपाल बिल का लक्ष्य है आर्थिक भ्रष्टाचार के खिलाफ एक सक्रिय कानूनी तंत्र का गठन। यह बहुत ही सीमित उद्देश्य है। निश्चित रूप से इतने सीमित लक्ष्य की जंग को आप धर्मनिरपेक्षता, साम्प्रदायिकता, संघ परिवार आदि के पचड़ों नहीं फंसा सकते।
अरविंद केजरीवाल ने 14 अप्रैल 2011 को टाइम्स आफ इण्डिया में लिखे अपने स्पष्टीकरण में साफ कहा है कि “हमारा आंदोलन धर्मनिरपेक्ष और गैरदलीय है।” सतह पर इस बयान से किसी को कोई आपत्ति नहीं हो सकती। समस्या है अन्ना हजारे के कर्म की। वे क्या बयान देते हैं उससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण है उनका कर्म। पर्यावरण के नाम पर उन्होंने जो आंदोलन चलाया हुआ है और अपने हरित गांवों में जो सांस्कृतिक वातावरण पैदा किया है वो उनके विचारधारात्मक चरित्र को समझने के लिए काफी है। कायदे से अरविंद केजरीवाल को मुकुल शर्मा के द्वारा काफिला डॉट कॉम पर लिखे लेख का जबाब देना चाहिए। बेहतर तो यही होता कि अन्ना हजारे स्वयं जबाव दें।
अरविंद केजरीवाल का टाइम्स ऑफ इण्डिया में जो जबाव छपा है वह अन्ना हजारे को धर्मनिरपेक्ष नहीं बना सकता। अन्ना ने पर्यावरण को धर्म से जोड़ा है। पर्यावरण संरक्षण का धर्म से कोई संबंध नहीं है। अन्ना ने पर्यावरण संरक्षण को हिन्दू संस्कारों और रीति-रिवाजों से जोड़ा है। अन्ना का सार्वजनिक आंदोलन को धर्म से जोड़ना अपने आप में साम्प्रदायिक कदम है।
अन्ना के तथाकथित एनजीओ आंदोलन की धुरी है संकीर्ण हिन्दुत्ववादी विचारधारा। जिसकी किसी भी समझ से हिमायत नहीं की जा सकती। अन्ना हजारे को लेकर चूंकि मीडिया में महिमामंडन चल रहा है और अन्ना इस महिमामंडन को भुना रहे हैं, इसलिए उनके इस वर्गीय चरित्र की मीमांसा करने की भी जरूरत महसूस नहीं की गई ।
अन्ना ने अपने एक बयान में कहा है कि ” मेरा अनशन किसी सरकार या व्यक्ति के खिलाफ पूर्वाग्रहग्रस्त नहीं था बल्कि वह तो भ्रष्टाचार के खिलाफ था। क्योंकि इसका आम आदमी पर सीधे बोझा पड़ रहा है।” अन्ना का यह बयान एकसिरे से गलत है अन्ना ने अनशन के साथ ही अपना स्टैंण्ड बदला है। अन्ना का आरंभ में कहना था केन्द्र सरकार संयुक्त मसौदा समिति की घोषणा कर दे मैं अपना अनशन खत्म कर दूँगा। बाद में अन्ना को लगा कि केन्द्र सरकार उनके संयुक्त मसौदा समिति के प्रस्ताव को तुरंत मान लेगी और ऐसे में अन्ना ने तुरंत एक नयी मांग जोड़ी कि मसौदा समिति का अध्यक्ष उस व्यक्ति को बनाया जाए जिसका नाम अन्ना दें। केन्द्र ने जब इसे मानने से इंकार किया तो अन्ना ने तुरंत मिजाज बदला और संयुक्त अध्यक्ष का सुझाव दिया लेकिन सरकार ने यह भी नहीं माना और अंत में अध्यक्ष सरकारी मंत्री बना और सह-अध्यक्ष गैर सरकारी शांतिभूषण जी बने। लेकिन दिलचस्प बात यह हुई कि अन्ना इस समिति में आ गए। जबकि वे आरंभ में स्वयं नहीं रहना चाहते थे। मात्र एक कमेटी के निर्माण के लिए अन्ना ने जिस तरह प्रतिपल अपने फैसले बदले उससे साफ हो गया कि पर्दे के पीछे कुछ और चल रहा था।
अन्ना हजारे के इस आंदोलन के पीछे मनीपावर भी काम करती रही है इसका साक्षात प्रमाण है मात्र 4 दिन में इस आंदोलन के लिए मिला 83 लाख रूपये चंदा और इस समिति के लोगों ने इसमें से तकरीबन 32 लाख रूपये खर्च भी कर दिए। टाइम्स ऑफ इण्डिया में 15 अप्रैल 2011 को प्रकाशित बयान में इस ग्रुप ने कहा है –
“it has received a total donation of Rs 82,87,668.”.. “spokesperson said, they have spent Rs 32,69,900.” यानी अन्ना हजारे के लिए आंदोलन हेतु संसाधनों की कोई कमी नहीं थी। मात्र 4 दिनों 83 लाख चंदे का उठना इस बात का संकेत है कि अन्ना के पीछे समर्थ लॉबी काम करती रही है। अन्ना हजारे के आंदोलन की मीडिया हाइप का यह सीधे फल है जो अन्ना के भक्तों को मिला है। एनजीओ संस्कृति नियोजित पूंजी की संस्कृति है। स्वतःस्फूर्त संस्कृति नहीं है बल्कि निर्मित वातावरण की संस्कृति है।
एनजीओ समुदाय में काम करने वाले लोगों की अपनी राजनीति है।विचारधारा है और वर्गीय भूमिका भी है। वे परंपरागत दलीय राजनीति के विकल्प के रूप में काम करते रहे हैं। अन्ना हजारे के इस आंदोलन के पीछे जो लोग हठात सक्रिय हुए हैं उनमें एक बड़ा अंश ऐसे लोगों का है जो विचारों से संकीर्णतावादी हैं।
मीडिया उन्माद,अन्ना हजारे की संकीर्ण वैचारिक प्रकृति और भ्रष्टाचार इन तीनों के पीछे सक्रिय सामाजिक शक्तियों के विचारधारा त्मक स्वरूप का विश्लेषण जरूर किया जाना चाहिए। इस प्रसंग में इंटरनेट पर सक्रिय भ्रष्टाचार विरोधी फेसबुक मंच पर आयी टिप्पणियों का सामाजिक संकीर्ण विचारों के नजरिए से अध्ययन करना बेहतर होगा। भ्रष्टाचार के खिलाफ सक्रिय लोग इतने संकीर्ण और स्वभाव से फासिस्ट हैं कि वे अन्ना हजारे के सुझाव से इतर यदि कोई व्यक्ति सुझाव दे रहा है तो उसके खिलाफ अपशब्दों का जमकर प्रयोग कर रहे हैं। वे इतने असहिष्णु हैं कि अन्ना की सामान्य सी भी आलोचना करने वाले पर व्यक्तिगत कीचड उछाल रहे हैं। औगात दिखा देने की धमकियां दे रहे हैं। यह अन्ना के पीछे सक्रिय फासिज्म है।
अन्ना की आलोचना को न मानना,आलोचना करने वालों के खिलाफ हमलावर रूख अख्तियार करना संकीर्णतावाद है। इस संकीर्णतावाद की जड़ें भूमंडलीकरण में हैं। अन्ना हजारे और उनकी भक्तमंडली के सामाजिक चरित्र में व्याप्त इस संकीर्णतावाद का ही परिणाम है कि अन्ना हजारे स्वयं भी कपिल सिब्बल की सामान्य सी टिप्पणी पर भड़क गए और उनसे मसौदा कमेटी से तुरंत हट जाने की मांग कर बैठे।
अन्ना हजारे फिनोमना हमारे सत्ता सर्किल में पैदा हुए संकीर्णतावाद का एनजीओ रूप है जिसका समाजविज्ञान में भी व्यापक आधार है। वरना यह कैसे हो सकता है कि अन्ना हजारे के संकीर्ण हिन्दुत्ववादी विचारों को जानने के बाबजूद बड़े पैमाने पर लोकतांत्रिक मनोदशा के लोग उनके साथ हैं। ये ही लोग प्रत्यक्षतः आरएसएस के साथ खड़े होने के लिए तैयार नहीं हैं लेकिन अन्ना हजारे के साथ खड़े होने के लिए तैयार हैं जबकि अन्ना के विचार उदार नहीं संकीर्ण हैं। इससे यह भी पता चलता है कि एजीओ संस्कृति की आड़ में संकीर्णतावादी -प्रतिगामी विचारों की जमकर खेती हो रही है,उनका तेजी से मध्यवर्ग में प्रचार-प्रसार हो रहा है।
अन्ना मार्का संकीर्ण विचार के प्रसार का बड़ा कारण है उनका सत्ता के विचारों का विरोध करना। वे सत्ता की विचारधारा का विरोध करते हैं और अपने विचारों को सत्ता के विचारों के विकल्प के रूप में पेश करते हैं। उन्होंने अपने को सुधारवादी -लिबरल के रूप में पेश किया हैं। वे हर चीज को तात्कालिक प्रभाव के आधार पर विश्लेषित कर रहे हैं। वे सत्ता के विकल्प का दावा पेश करते हुए जब भी कोई मांग उठाते हैं ,उसके तुरंत समाधान की मांग करते हैं, और जब वे चटपट समाधान कराने में सफल हो जाते हैं तो दावा करते हैं कि देखो हम कितने सही हैं और हमारा नजरिया कितना सही है। अन्ना हजारे का मानना यही है, उन्होंने जन लोकपाल बिल की मांग की और 4 दिन में केन्द्र सरकार ने उनकी मांग को मान लिया।यही सरकार 42 साल से नहीं मान रही थी,लेकिन अन्ना की मांग को 4 दिन में मान लिया।
अन्ना हजारे टाइप लोग ‘पेंडुलम इफेक्ट’ की पद्धति का व्यवहार करते हैं। चट मगनी पट ब्याह। इसके विपरीत लोकपाल बिल का सत्ता विमर्श बोरिंग,दीर्घकालिक और अवसाद पैदा करने वाला था। इसके प्रत्युत्तर में अन्ना हजारे टाइप एक्शन रेडीकल और तुरत-फुरत वाला था। यह बुनियादी तौर पर संकीर्णतावादी आर्थिक मॉडल से जुड़ा फिनोमिना है।
अन्ना के एक्शन ने संदेश दिया कि वह चटपट काम कर सकते हैं। जो काम 42 सालों में राजनीतिक दलों ने नहीं किया उसे हमने मात्र 4 दिन में कर दिया। लोकपाल बिल के पास होने की कोई उम्मीद नजर नहीं आ रही थी हमने इसके पास होने की उम्मीदें जगा दी। निराशा में आशा पैदा करना और इसकी आड़ में वैज्ञानिक बुद्धि और समझ को छिपाने की कला काम करती रही है। दूसरा संदेश यह गया कि सरकार परफेक्ट नहीं हम परफेक्ट हैं। सरकार की तुलना में अन्ना की प्रिफॉर्मेंश सही है।जो काम 42 साल से राजनीतिक दल नहीं कर पाए वह काम एनजीओ और सिविल सोसायटी संगठनों ने कर दिया। इस काम के लिए जरूरी है कि सत्ता के साथ एनजीओ सक्रिय भागीदारी निभाएं।
रामविलास पासवान ने जब लोकपाल बिल की मसौदा कमेटी में दलित भागीदारी की मांग की तो भ्रष्टाचार विरोधी मंच के लोग बेहद खफा हो गए। दूसरी ओर अन्ना ने भी कमेटी के लिए जिन लोगों के नाम सुझाए वे सभी अभिजन हैं। इससे अन्ना यह संदेश देना चाहते हैं कि वे लोकतंत्र में अभिजन के प्रभुत्व को मानते हैं। आम जनता सिर्फ वोट दे,शिरकत करे। लेकिन कमेटी में अभिजन ही रहेंगे। अन्ना हजारे इस सांकेतिक फैसले का अर्थ है लोकतंत्र में सत्ता और आम जनता के बीच खाई बनी रहेगी।
इसके अलावा अन्नामंडली ने इस पूरे लोकतांत्रिक मसले को गैरदलीय और अ-राजनीतिक बनाकर पेश किया। इससे यह संदेश गया कि लोकतंत्र में राजनीति की नहीं अ-राजनीति की जरूरत है। अन्ना हजारे के अनशन स्थल पर उमाभारती आदि राजनेताओं के साथ जो दुर्व्यवहार किया गया उसने यह संदेश दिया कि जनता और राजनीति के संबंधों का अ-राजनीतिकरण हो गया है। और आम जनता को राजनीतिक प्रक्रिया से अलग रहना चाहिए राजनीति दल चोर हैं,भ्रष्ट हैं। इस तरह अन्ना मुक्त बाजार में मुक्त राजनीति के नायक के रूप में उभरकर सामने आए हैं।
अन्ना ने एनजीओ राजनीति को उपभोक्ता वस्तु की तरह बेचा है। जिस तरह किसी उपभोक्ता वस्तु का एक व्यावसायिक और विज्ञापन मूल्य होता है।ठीक वैसे ही अन्ना हजारे मार्का आमरण अनशन का मासमीडिया ने इस्तेमाल किया है। उन्होंने अन्ना के आमरण अनशन और उसकी उपयोगिता पर बार बार बलदिया। उसका टीवी चैनलों के जरिए लंबे समय तक लाइव टेलीकास्ट किया।
अन्ना के आमरण अनशन की प्रचार नीति वही है जो किसी भी माल की होती है। अन्ना ने कहा ‘तेरी राजनीति से मेरी राजनीति श्रेष्ठ है।’ इसके लिए उन्होंने नागरिकों की व्यापक भागीदारी को मीडिया में बार बार उभारा और सिरों की गिनती को महान उपलब्धि बनाकर पेश किया। यह वैसे ही है जैसे वाशिंग मशीन के विज्ञापनदाता कहते हैं कि 10 करोड़ घरों में लोग इस्तेमाल कर रहे हैं तुम भी करो। अन्ना की मीडिया टेकनीक है चूंकि इतने लोग मान रहे हैं अतः तुम भी मानो। यह विज्ञापन की मार्केटिंग कला है।
टीवी कवरेज में बार-बार एक बात पर जोर दिया गया कि देखो अन्ना के समर्थन में “ज्यादा से ज्यादा” लोग आ रहे हैं। “ज्यादा से ज्यादा” लोगों का फार्मूला आरंभ हुआ चंद लोगों से और देखते ही देखते लाखों -लाख लोगों के जनसमुद्र का दावा किया जाने लगा। चंद से लाखों और लाखों से करोड़ों में बदलने की कला विशुद्ध विज्ञापन कला है। इसका जनता की हिस्सेदारी के साथ कोई संबंध नहीं है। यह विशुद्ध मीडिया उन्माद पैदा करने की कला है जिसका निकृष्टतम ढ़ंग से अन्नामंडली ने इस्तेमाल किया।
टीवी कवरेज में एक और चीज का ख्याल रखा गया और वह है क्रमशः जीत या उपलब्धि की घोषणा। विज्ञापन युद्ध की तरह शतरंज का खेल है। इसमें आप जीतना जीतते हैं उतने ही सफल माने जाते हैं।जितना अन्य का व्यापार हथिया लेते हैं उतने ही सफल माने जाते हैं। अन्नामंडली ने ठीक यही किया आरंभ में उन्होंने प्रचार किया कि केन्द्र सरकार जन लोकपाल बिल के पक्ष में नहीं है। फिर बाद में दो दिन बाद खबर आई कि सरकार झुकी, फिर खबर आई कि सरकार ने दो मांगें मानी,फिर खबर आई कि खाली मसौदा समिति के अध्यक्ष के सवाल पर मतभेद है,बाद में खबर आई कि सरकार ने सभी मांगें मान लीं। क्रमशः अन्ना की जीत की खबरों का फ्लो बनाए रखकर अन्नामंडली ने अन्ना को एक ब्राँण्ड बना दिया। उन्हें भ्रष्टाचारविरोधी ब्राँण्ड के रूप में पेश किया।
अन्ना के व्यक्तिवाद को खूब उभारा गया। अन्ना के व्यक्तिवाद को सफलता के प्रतीक के रूप में पेश किया गया। मीडिया कवरेज में अन्ना मंडली ने आंदोलन के ‘युवापन’ को खूब उभारा,जबकि सच यह है कि अन्ना ,अग्निवेश,किरन बेदी में से कोई भी युवा नहीं है। आमरण अनशन का नेतृत्व एक बूढ़ा कर रहा था। इसके बाबजूद कहा गया यह युवाओं का आंदोलन है। आरंभ में इसमें युवा कम दिख रहे थे लेकिन प्रचार में युवाओं पर तेजी से इंफेसिस दिया गया। आखिर इन युवाओं को प्रचार में निशाना बनाने की जरूरत क्यों पड़ी ? आखिर अन्ना के आंदोलन में किस तरह का युवा था ?
अन्ना की मीडिया टेकनीक ‘सफलता’ पर टिकी है। ‘सफलता’ पर टिके रहने के कारण अन्ना को सफल होना ही होगा। यदि अन्ना असफल होते हैं तो संकीर्णतावाद का प्रचार मॉडल पिट जाता है। अन्ना के बारे में बार-बार यही कहा गया कि देखो उन्होंने कितने ‘सफल’ आंदोलनों का नेतृत्व किया। एनजीओ संस्कृति और संघर्ष की रणनीति में ‘सफलता’ एक बड़ा फेक्टर है जिसके आधार पर अ-राजनीति की राजनीति को सफलता की ऊँचाईयों के छद्म शिखरों तक पहुँचाया गया।
अन्नामंडली की मीडिया रणनीति की सफलता है कि वे अपने आंदोलन को नियोजित और पूर्व कल्पित की बजाय स्वतःस्फूर्त और स्वाभाविक रूप में पेश करने में सफल रहे। जबकि यह नियोजित आंदोलन था। जब आप किसी आंदोलन को स्वतःस्फूर्त और स्वाभाविक रूप में पेश करते हैं तो सवाल खड़े नहीं किए जा सकते। यही वजह है अन्ना हजारे,उनकी भक्तमंडली,आमरण अनशन,लोकपाल बिल,भ्रष्टाचार आदि पर कोई परेशानी करने वाला सवाल करने वाला तुरंत बहिष्कृतों की कोटि में डाल दिया जाता है। अन्ना ने इस समूचे प्रपंच को बड़ी ही चालाकी के साथ भ्रष्टाचार के कॉमनसेंस में रखकर पेश किया। भ्रष्टाचार के कॉमनसेंस में आमरण अनशन को पेश करने का लाभ यह हुआ कि आमरण अनशन पर सवाल ही नहीं उठाए जा सकते थे। भ्रष्टाचार के कॉमनसेंस में पेश करने के कारण ही अन्ना हजारे ने भ्रष्टाचार को अतिसरल बना दिया और उसकी तमाम जटिलताओं को छिपा दिया। भ्रष्टाचार के कॉमनसेंस में जब जन लोकपाल बिल और भ्रष्टाचार को पेश किया तो दर्शक को इस मांग और आंदोलन के पीछे सक्रिय विचारधारा को पकड़ने में असुविधा हुई। भ्रष्टाचार के कॉमनसेंस को दैनंदिन जीवन में व्याप्त भ्रष्टाचार के फुटेजों के जरिए पुष्ट किया गया।
एनजीओ संकीर्णतावाद के पीछे लोगों को गोलबंद करने के लिए कहा गया कि राजनीतिज्ञ ,राजनीतिक प्रक्रिया,चुनाव आदि भ्रष्ट हैं। इससे एनजीओ संकीर्णतावाद और अन्नामंडली के प्रतिगामी विचारों को वैधता मिली।
राजनेताओं से निराश और अफसरशाही से त्रस्त भोले देशवासियों द्वारा बिना कुछ जाने समझे कथित गॉंधीवादी अन्ना हजारे के गीत गाये जा रहे हैं| गाये भी क्यों न जायें, जब मीडिया बार-बार कह रहा है कि एक अकेले अन्ना ने वह कर दिखाने का विश्वास दिलाया है, जिसे सभी दल मिलकर भी नहीं कर पाये| अर्थात् उन्होंने देश के लोगों में जन लोकपाल बिल पास करवाने की आशा जगाई है| मीडिया ने अन्ना हजारे का गीत इतना गया कि बाबा रामदेव की ही तरह हजारे के बारे में भी कुछ छुपी हुई बातें भी जनता के सामने आ गयी हैं| जिनके बारे में व्यावसायिक मीडिया से आम पाठक को जानकारी नहीं मिल पाती है| जबकि इन बातों को देश के लोगों को जानना जरूरी है| जिससे कि अन्ना के आन्दोलन में सहभागी बनने वालों को ज्ञात हो सके कि वे किसके साथ काम करने जा रहे हैं| कुछ बातें, जिन पर वैब-मीडिया ने काफी माथा-पच्ची की है :-
1. अन्ना हजारे असली भारतीय नहीं, बल्कि असली मराठी माणुस :मुम्बई में हिन्दीभाषी लोगों को जब बेरहमी से मार-मार कर महाराष्ट्र से बाहर खदेड़ा जा रहा था तो अन्ना हजारे ने इस असंवैधानिक और आपराधिक कुकृत्य का विरोध करने के बजाय राज ठाकरे को शाबासी दी और उसका समर्थन करके असली भारतीय नहीं, बल्कि असली मराठी माणुस होने का परिचय दिया| जानिये ऐसे हैं हमारे नये गॉंधीवादी अवतार!
2. अन्ना हजारे ने दो विवादस्पद पूर्व जजों के नाम सुझाये : जन्तर-मन्तर पर अनशन पर बैठते समय अन्ना हजारे ने कहा कि उनके प्रस्तावित जन लोकपाल बिल का ड्राफ्ट बनाने वाली समिति का अध्यक्ष किसी मन्त्री या किसी राजनैतिक पृष्ठभूमि के व्यक्ति को नहीं, बल्कि सुप्रीम कोर्ट के किसी पूर्व जज को बनाया जायेगा| इस काम के लिये अन्ना हजारे ने दो पूर्व जजों के नाम भी सुझाये|
3. एक हैं-पूर्व चीफ जज जे. एस. वर्मा जो संसार की सबसे कुख्यात कम्पनी ‘‘कोका-कोला’’ के हितों के लिये काम करते हैं : दो पूर्व जजों में से एक हैं-पूर्व चीफ जज जे. एस. वर्मा, जिनके बारे में देश को लोगों को जानने का हक है कि आज जे. एस. वर्मा क्या कर रहे हैं? संसार की सबसे कुख्यात कम्पनी ‘‘कोका-कोला’’ को भ्रष्ट अफसरशाही एवं राजनेताओं के गठजोड़ के कारण भारत की पवित्र नदियों को जहरीला बनाने और कृषि-भूमि में जहरीले कैमीकल छोड़कर उन्हें बंजर बनाने की पूरी छूट मिली हुई है| जिसे देश की सबसे बड़ी अदालत ने भी सही ठहरा दिया है| ये कैसे सम्भव हुआ होगा, इसे आसानी से समझा जा सकता है| ऐसी खतरनाक कम्पनी को देश से बाहर निकालने हेतु देशभर में राष्ट्रभक्तों द्वारा वर्षों से जनान्दोलन चलाया जा रहा है| इस आन्दोलन को कुचलने और इसे तहस-नहस करने के लिये कम्पनी ने अपार धन-सम्पदा से सम्पन्न एक ‘‘कोका-कोला फाउण्डेशन’’ बनाया है, जिसके प्रमुख सदस्य हैं पूर्व चीफ जज जे. एस. वर्मा| इसके अलावा सारे संसार को यह भी पता है कि कोका कोला कम्पनी साम्राज्यवादी देशों के हितों के लिये लगातार काम करती रही है| ऐसी कम्पनी के हितों की रक्षा के लिये काम करते हैं, इस देश के पूर्व चीफ जज-जे. एस वर्मा| जिन्हें अन्ना हजारे बिल ड्राफ्ट करने वाली समिति का अध्यक्ष बनाना चाहते थे| देश का सौभाग्य कि बना नहीं सके|
4. दूसरे पूर्व जज हैं-एन. सन्तोष हेगड़े जो संविधान की मूल अवधारणा सामाजिक न्याय के विरुद्ध जाकर शोषित एवं दमित वर्ग अर्थात्-दलित, आदिवासी और पिछड़ों के विरुद्ध निर्णय देने से नहीं हिचकिचाये : अन्ना हजारे द्वारा सुझाये गये दूसरे पूर्व जज हैं-एन. सन्तोष हेगड़े| जो सुप्रीम कोर्ट के जज रहते संविधान की मूल अवधारणा सामाजिक न्याय के विरुद्ध जाकर आरक्षण के विरोध में फैसला देने के लिये चर्चित रह चुके हैं| जो व्यक्ति देश की सबसे बड़ी अदालत की कुर्सी पर बैठकर भी मूल निवासियों को इंसाफ नहीं दे सका हो, जो अपने जातिगत पूर्वाग्रहों को नहीं त्याग सका हो और हजारों वर्षों से शोषित एवं दमित वर्ग अर्थात्-दलित, आदिवासी और पिछड़ों के विरुद्ध (जिनकी आबादी देश की कुल आबादी का 85 प्रतिशत है) निर्णय देने से नहीं हिचकिचाया हो, उसे अन्ना हजारे जी जन लोकपाल बिल का ड्राफ्ट बनाने वाली समिति का चैयरमैन बनाना चाहते थे| देश का सौभाग्य कि बना नहीं सके|
5. वकालती हुनर के जरिये बीस करोड़ सम्पत्ति एक लाख में ले लेने वाले शान्तिभूषण को बनाया सह अध्यक्ष : उक्त दोनों जजों की सारी असलियत अनशन के दौरान ही जनता के सामने आ गयी, तो अन्ना हजारे वित्तमन्त्री प्रणव मुखर्जी को अध्यक्ष एवं अपनी ओर से सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता शान्तिभूषण को सह-अध्यक्ष बनाने पर सहमत हो गये, जो 1977 में बनी पहली गैर-कॉंग्रेसी सरकार में मन्त्री रह चुके है| हजारे की ओर से समिति के सह अध्यक्ष बने शान्तिभूषण एवं उनके पुत्र प्रशान्त भूषण (दोनों जन लोकपाल का ड्राफ्ट बनाने वाली समिति में हैं) ने 2010 में अपने वकालती हुनर के जरिये इलाहाबाद शहर में बीस करोड़ से अधिक बाजार मूल्य की अचल सम्पत्ति एवं मकान मात्र एक लाख में ले ली और स्टाम्प शुल्क भी नहीं चुकाया|
6. शान्तिभूषण एवं नियुक्त सदस्यों की सत्सनिष्ठा, देशभक्ति एवं देश के संविधान के प्रति निष्ठा के बारे में अन्ना हजारे को कैसे विश्वास हुआ : इससे अन्ना हजारे की राजनैतिक एवं भ्रष्ट व्यक्ति को समिति का अध्यक्ष नहीं बनाने वाली बात की असलियत जनता के सामने आ चुकी है| भूषण पिता-पुत्र सहित हजारे की ओर से नियुक्त अन्य सदस्यों की सत्सनिष्ठा, देशभक्ति एवं देश के संविधान के प्रति निष्ठा के बारे में अन्ना हजारे को कैसे विश्वास हुआ, यह आज तक देश को अन्ना हजारे ने नहीं बताया है| जबकि इस बारे में देश के लोगों को जानने का पूरा-पूरा हक है|
7. बाबा रामदेव और अन्ना हजारे कितने गॉंधीवादी और अहिंसा के कितने समर्थक हैं? हजारे ने अनशन शुरू करने से पूर्व गॉंधी की समाधि पर जाकर मथ्था टेका और स्वयं को गॉंधीवादी कहकर अनशन की शुरूआत की, लेकिन स्वयं अन्ना की उपस्थिति में अनशन मंच से अल्पसंख्यकों को विरुद्ध बाबा रामदेव के हरियाणा के कार्यकर्ता हिंसापूर्ण भाषणबाजी करते रहे| जिस पर स्वयं अन्ना हजारे को भी तालियॉं बजाते और खुश होते हुए देखा गया| यही नहीं अनशन समाप्त करने के बाद हजारे ने आजाद भारत के इतिहास के सबसे कुख्यात गुजरात के मुख्यमन्त्री नरेन्द्र मोदी को देश का सर्वश्रेष्ठ मुख्यमन्त्री घोषित कर दिया| अब यह देशवासियों को समझना होगा कि बाबा रामदेव और आधुनिक गॉंधी अन्ना हजारे कितने गॉंधीवादी और अहिंसा समर्थक हैं?
8. एनजीओ और उद्योगपतियों के काले कारनामों और भ्रष्टाचार के बारे में भी एक शब्द नहीं बोला : अन्ना हजारे ने सेवा के नाम पर विदेशों से अरबों का दान लेकर डकार जाने वाले और देश को बेचने वाले कथित समाजसेवी संगठनों (एनजीओज्) के बारे में एक शब्द भी नहीं बोला, सरकारी बैंकों का अस्सी प्रतिशत धन हजम कर जाने वाले भारत के उद्योगपतियों के काले कारनामों और भ्रष्टाचार के बारे में भी एक शब्द नहीं बोला! आखिर क्यों? क्योंकि इन्हीं सबके मार्फत तो अन्ना के अनशन एवं सारे तामझाम का खर्च वहन किया जा रहा था|
9. अन्ना की मानसिक स्थिति-‘‘देश का आम मतदाता सौ रुपये में और दारू की एक बोतल में बिक जाता है|’’ स्वयं अन्ना हजारे अपनी अप्रत्याशित सफलता के कारण केवल दिल्ली से महाराष्ट्र रवाना होने से पूर्व आम मतदाता को गाली देने से भी नहीं चूके| संवाददाताओं को अन्ना ने साफ शब्दों में कहा कि ‘‘देश का आम मतदाता सौ रुपये में और दारू की एक बोतल में बिक जाता है|’’ अब अन्ना को ये कौन समझाये किमतदाता ऐसे बिकने को तैयार होता तो संसद में आम लोगों के बीच के नहीं, बल्कि अन्ना के करीब मुम्बई में रहने वाले उद्योगपति बैठे होते| अन्ना जी आम मतदाता को गाली मत दो, आम मतदाता ही भारत और स्वयं आपकी असली ताकत हैं| इस बात से अन्ना की मानसिक स्थिति समझी जा सकती है!
10. लोकपाल कौन होगा? ऐसे हालात में सबसे बड़ा सवाल तो ये है कि हजारे के प्रस्तावित जन लोकपाल बिल को यदि संसद पास कर भी देती है, तो इस सबसे शक्ति सम्पन्न संवैधानिक संस्था का मुखिया अर्थात् लोकपाल कौन होगा? क्योंकि जिस प्रकार का जन-लोकपाल बिल ड्राफ्ट बनाये जाने का प्रस्ताव है, उसके अनुसार तो लोकपाल इस देश की कार्यपालिका, न्यायपालिका और व्यवस्थापिका से भी सर्वोच्च होगा| उसके नियन्त्रणाधीन केन्द्रीय एवं सभी राज्य सरकारें भी होगी और वह अन्तिम और बाध्यकारी निर्णय लेकर लागू करने में सक्षम होगा| बाबा राम देव तो लोकपाल को सुप्रीम कोर्ट के समकक्ष दर्जा देने की मांग कर रहे हैं|
11. भ्रष्ट, चालाक और मानसिक रूप से रुग्ण व्यक्ति के लोकपालबनने की सम्भावना को पूरी तरह से नकारा नहीं जा सकता : ऐसे में देश के सवा सौ करोड़ लोगों की ओर से मेरा सीधा सवाल यह है कि यदि गलती से इस (लोकपाल) पद पर कोई भ्रष्ट, चालाक और मानसिक रूप से रुग्ण व्यक्ति आ गया तो..? आने की सम्भावना को पूरी तरह से नकारा भी नहीं जा सकता है| इतिहास के पन्ने पटलकर देखें तो पायेंगे कि जब संविधान बनाया गया था तो किसने सोचा होगा कि पण्डित सुखराम, ए. राजा, मस्जिद ध्वंसक लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, उमा भारती, संविधान निर्माता डॉ. अम्बेड़कर को गाली देने वाले अरुण शौरी जैसे लोग भी मन्त्री के रूप में संविधान की शपथ लेकर माननीय हो जायेंगे? जब सीवीसी अर्थात् मुख्य सतर्कता आयुक्त बनाया गया था तो किसी ने सोचा होगा कि इस पथ पर एक दिन दागी थॉमस की भी नियुक्ति होगी? ….ऐसे हालातों में हमें हजारे जी कैसे विश्वास दिलायेंगे कि जितने भी व्यक्ति आगे चलकर प्रस्तावित जन लोकपाल के शक्ति-सम्पन्न पद पर बिराजमान होंगे, वे बिना पूर्वाग्रह के पूर्ण-सत्यनिष्ठा और ईमानदारी के साथ राष्ट्रहित में अपने कर्त्तव्यों का निर्वाह करेंगे| विशेषकर तब जबकि जन लोकपाल का बिल ड्राफ्ट बनाने वाली समित के लिये हजारे जी को अपनी ओर से मनवांछित और पूर्व घोषित पैमाने पर खरा उतरने वाला एक अराजनैतिक एवं निष्कलंक छवि का यक्ति नहीं मिल सका!
इसलिये जन लोकपाल बिल का ड्राफ्ट बनाने वाली समिति को प्रस्तावित जन लोकपाल को नियन्त्रित करने की व्यवस्था भी, बिल में ही करनी चाहिये| अन्यथा कहीं ऐसा न हो कि इस देश के सभी संवैधानिक निकायों पर नियन्त्रण करने वाला लोकपाल स्वयं अधिनायक बन जाये और भारत की लोकतान्त्रिक विरासत मिट्टी में मिल जाये और, या ऐसा शक्ति-सम्पन्न कोई भी व्यक्ति उन सभी से अधिक भ्रष्ट हो जाये, जिन भ्रष्टों के भ्रष्टाचार की रोकथाम के पवित्र उद्देश्य से हजारे और देशवासियों द्वारा उसे बनाया और रचा जा रहा है? विशेषकर तब जबकि थॉमस के मामले में सुप्रीम कोर्ट के समक्ष भारत सरकार की ओर से यह कहा जा चुका है कि पूरी तरह से निर्विवाद और निश्कलंक छवि का व्यक्ति ढूँढना आसान नहीं है!
वरिष्ठ गांधीवादी नेता अन्ना हज़ारे द्वारा जंतर मंतर पर अपना आमरण अनशन समाप्त किए जाने के बाद देश में भ्रष्टाचार जैसे नासूर रूपी मुद्दे को लेकर अब एक और नई बहस छिड़ गई है। अब यह शंका ज़ाहिर की जाने लगी है कि केंद्र सरकार द्वारा अन्ना हज़ारे की जन लोकपाल विधेयक बनाए जाने की मांग को स्वीकार करने के बाद तथा इसके लिए प्रारूप समिति का गठन किए जाने के बाद क्या अब इस बात की उमीद की जा सकती है कि देश से भ्रष्टाचार समाप्त हो जाएगा? इसके अतिरिक्त और भी कई प्रकार के प्रश्न जंतर मंतर के इस ऐतिहासिक अनशन के बाद उठने लगे हैं। उदाहरण के तौर पर क्या अन्ना हज़ारे के इर्द गिर्द रहने वाले सभी प्रमुख सहयोगी व सलाहकार भ्रष्टाचार से पूरी तरह मुक्त हैं? एक प्रश्र यह भी खड़ा हो रहा है कि समाजसेवियों तथा राजनेताओं की तुलना में राजनेता कहीं अब अपनी विश्वसनीयता खोते तो नहीं जा रहे हैं? एक और प्रश्र यह भी लोगों के ज़ेहन में उठ खड़ा हुआ है कि भ्रष्टाचार के विरूद्ध आखिर राजनेताओं अथवा राजनैतिक दलों के बीच से आखिर भ्रष्टाचार विरोधी ऐसी आवाज़ अब तक पहले क्यों नहीं उठी जो सामाजिक संगठनों तथा स्वयंसेवी संस्थाओं द्वारा आज़ादी के 64 वर्षों बाद उठाई गई।
एक अनुमान के अनुसार हमारे देश में लगभग दस प्रतिशत लोग ही ऐसे हैं जो भ्रष्टाचार को अपनी दिनचर्या में प्रमुख रूप से शामिल करते हैं। चाहे वे राजनीति के क्षेत्र में हों या सरकारी सेवा अथवा उद्योग आदि से संबंधित। इसी प्रकार 10प्रतिशत के लगभग लोग ही ऐसे हैं जो इन भ्रष्टाचारियों के सर्मथक हैं या इनके नेटवर्क का हिस्सा हैं। देश की शेष लगभग 80 प्रतिशत आबादी भ्रष्टाचार से मुक्त है। इसके बावजूद 20प्रतिशत भ्रष्टाचारी तबके ने पूरे देश को बदनाम कर रखा है। इतना ही नहीं बल्कि इन भ्रष्टाचारियों के कारण ईमानदार व्यक्ति का जीना भी दुशवार हो गया है। देश में तमाम ईमानदार व कर्तव्यनिष्ठ व्यक्ति इन भ्रष्टाचारियों के हाथों अपनी जान की कुर्बानी तक दे चुके हैं। परंतु चिंतनीय विषय यह है कि भ्रष्टाचारियों के लगभग बीस प्रतिशत के इस नेटवर्क ने देश की लोकसभा, राज्य सभा तथा देश की अधिकतर विधानसभाओं से लेकर अफसरशाही तक पर अपना शिकं जा इस प्रकार कस लिया है कि ईमानदार नेता व अधिक ारी भी या तो इनको संरक्षण देने के लिए मजबूर होते दिखाई दे रहे हैं या फिर इनके विरूद्ध जानबूझ कर किसी प्रकार की क़ कानूनी कारवाई करने से कतराते व हिचकिचाते रहते हैं। कहा जा सकता है कि ईमानदार नेताओं व अधिकारियों की यही खामोशी, निष्क्रियता व उदासीनता ही भ्रष्टाचार व भ्रष्टाचारियों के नापाक इरादों को परवान चढ़ाने का एक प्रमुख कारण है।
अब यदि सत्ता में बने रहने या चुनाव में धन बल का समर्थन प्राप्त करने के लिए भ्रष्टाचारियों से समझौता करना राजनीतिज्ञों की मजबूरी समझ ली जाए फिर तो देश को भ्रष्टाचार को एक यथार्थ के रूप मेंस्वीकार करना ही बेहतर होगा। और यदि देश ने ऐसा किया तो यह गांधी, सुभाष, आज़ाद, भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरू, अशफाक़उल्ला, तिलक, नेहरू तथा पटेल जैसे उन तमाम स्वतंत्रता सेनानियों के सपनों पर कुठाराघात होगा जिन्होंने देश को अंग्रेज़ों से मुक्त कराकर स्वाधीन, प्रगतिशील एवं आत्मर्निार भारत के निर्माण का सपना देखा था। इसी स्वर्णिम स्वप्र को साकार रूप देने हेतु भारतीय संविधान की रचना की गई थी जिसके तहत भारत को एक धर्म निरपेक्ष लोकतंत्र घोषित किया गया था। परंतु यह हमारे स्वतंत्रता सेनानियों तथा शहीदों का घोर अपमान ही समझा जाएगा कि उनकी बेशकीमती कुर्बानियों की बदौलत देश आज़ाद तो ज़रूर हो गया परंतु वास्तविक लोकतंत्र शायद अब तक नहीं बन सका । इसके विपरीत देशवासियों को आज ऐसा महसूस होने लगा है कि देश में लोकतंत्र के नाम पर भ्रष्टतंत्र स्थापित हो चुका है। और इससे बड़े दुर्भाग्य की बात यह है कि गत् 64 वर्षों से आज़ाद हिंदुस्तान के इतिहास में भ्रष्टाचार को लेकर छाती पीटने का ढोंग करते तो तमाम नेता व राजनैतिक दल दिखाई दिए परंतु भ्रष्टाचार के विरुद्ध सड़कों पर तिरंगा लहराता तथा भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम को सड़कों पर लाता हुआ कोई भी राजनेता नज़र नहीं आया। और इन 64 वर्षों के बाद पहली बार यदि किसी व्यक्ति ने राष्ट्रव्यापी भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम की अगुवाई का साहस किया तो वह श़िसयत केवल अन्ना हज़ारे जैसा बुज़ुर्ग गांधीवादी नेता की ही हो सकती थी।
अन्ना हज़ारे की कोशिशों तथा आमरण अनशन जैसे उनके बलिदानपूर्ण प्रयास के बाद अब भाजपा के वरिष्ठ नेता तथा पार्टी द्वारा घोषित प्रतीक्षारत प्रधानमंत्री लाल कृष्ण अडवाणी ने जंतर मंतर पर आयोजित धरने के विषय में अपने ब्लॉग पर यह लिखा है कि- ‘मेरा विचार है कि जो लोग राजनेताओं और राजनीति के विरुद्ध घृणा का माहौल बना रहे हैं वह लोकतंत्र को बड़ा नुकसान पहुंचा रहे हैं। कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा अपनाया गया रुख लोकतंत्र के लिए नुकसानदेह है’। अडवाणी ने अपने यह विचार उस परिपेक्ष्य में व्यक्त किए हैं जबकि जंतर मंतर पर आयोजित हुए भ्रष्टाचार विरोधी धरने व आमरण अनशन के दौरान वहां पहुंचे कई प्रमुख नेताओं जैसे ओम प्रकाश चौटाला, मदन लाल खुराना, मोहन सिंह तथा उमा भारती को उत्साही आंदोलन कर्ताओं ने धरना स्थल से वापस कर दिया था। इन नेताओं के विरूद्ध सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा नारेबाज़ी भी की गई थी। हालांकि नेताओं के विरूद्ध जनता ने किसी प्रकार का अभद्र व्यवहार नहीं किया न ही किसी प्रकार की हिंसा का सहारा लिया। परंतु भ्रष्टाचार से तंग आ चुकी जनता द्वारा भ्रष्टाचार या भ्रष्टाचारियों को संरक्षण देने या इनका समर्थन करने वाले नेताओं के विरूद्ध अपने मामूली से गुस्से या विरोध का प्रदर्शन करना भी स्वाभाविक था। क्या देश की जनता ने 64 वर्षों तक इन्हीं नेताओं से यह आस नहीं बांधे रखी कि आज नहीं तो कल यही नेेता हमें व हमारे देश को भ्रष्टाचार से मुक्त कराएंगे तथा देश को साफ सुथरा शासन व प्रशासन प्रदान करेंगे ? परंतु जनता ने यही देखा कि नेताओं से ऐसी सकारात्मक उमीद रखना तो शायद पूरी तरह बेमानी ही था। क्योंकि इनमें से तमाम नेता या तो भ्रष्टाचार के रंग में स्वयं को पूरी तरह रंग चुके हैं या फिर किसी न किसी प्रकार से भ्रष्टाचार से या भ्रष्टाचारियों से अपना नाता जोड़े हुए हैं।
और यदि ऐसा न होता तो बिना कि सी समाज सेवी संगठन के प्रयासों के तथा अन्ना हज़ारे के आमरण अनशन किए बिना लोकपाल विधेयक अपने वास्तविक तथा जनहित की आकांक्षाओं के अनुरूप अब तक कानून का रूप धारण कर चुका होता। परंतु अफसोस कि यह तब होने जा रहा है जबकि समाजसेवी संगठनों व कार्यकर्ताओं ने सरकार को ऐसा करने के लिए बाध्य किया है। अन्ना हज़ारे ने राजनेताओं के प्रति अडवाणी की चिंताओं के जवाब में अपनी त्वरित टिप्पणी देते हुए यह कहा है कि-‘अडवाणी जी ने जो भी कहा है वह गलत कहा है। यदि अडवाणी जी जैसे नेता सही रास्ते पर होते तो हमें भ्रष्टाचार के खि़लाफ इतना बड़ा क़ दम उठाने की ज़रूरत ही नहीं पड़ती।’ अन्ना हज़ारे ने गत दिनों महाराष्ट्र में अपने पैतृक गांव रालेगंज पहुंच कर वहां भी भ्रष्टाचार विरोधी अपने कड़े तेवर उस समय दिखाए जबकि उनके मंच पर भाऊसाहेब आंधेड़कर नामक एक ऐसा पुलिस इंस्पेक्टर सुरक्षा व्यवस्था को नियंत्रित करते हु़ए पहुंच गया जिस पर कि कुछ समय पूर्व ही भ्रष्टाचार का आरोप लगा था। अन्ना हज़ारे ने उसे फौरन अपने मंच से नीचे उतर जाने का निर्देश दिया। और साफ किया कि उनके साथ भ्रष्टाचारियों की जमात के सदस्यों की कोई आवश्यकता नहीं है।
जहां तक भ्रष्टाचार के आरोपों का प्रश्र है तो इलाहाबाद से समाचार तो यहां तक आ रहे हैं कि जन लोक पाल विधेयक की प्रारूप समिति के दो प्रमुख सदस्य पूर्व केंद्रीय मंत्री शांतिभूषण तथा उनके वकील पुत्र प्रशांत भूषण ने इलाहाबाद में 19, एल्गिन रोड, सिविल लाईन्स स्थित एक विशाल कोठी जिसकी कीमत बाज़ार के हिसाब से 20 करोड़ रूपये आंकी जा रही है, को अपने किरायेदार के हाथों मात्र एक लाख रूपये में एग्रीमेंट टू सेल कर दिया है। यदि इस डील में अनियमितताएं उजागर हुईं तो हमें इस बात की भी प्र्रतीक्षा करनी चाहिए कि अन्ना हज़ारे अपने ऐसे क़ानूनी सलाहाकारों से भी अवश्य पीछा छुड़ा लेंगे। परंतु इन सब बातों के बावजूद हमें व हमारे देशवासियों को भ्रष्टाचार विरोधी इस राष्ट्रव्यापी मुहिम के प्रति सकारात्मक सोच अवश्य रखनी चाहिए तथा प्रत्येक व्यक्ति को अपने-अपने स्तर पर इस मुहिम के प्रति अपनी सकारात्मक भूमिका भी निभानी चाहिए। देश की जनता बिना किसी पूर्व नियोजित कार्यकम के तथा बिना किसी दबाव व लालच के तमाम आशाओं व उमीदों के साथ जिस प्रकार भ्रष्टाचार के विरूद्ध देश में पहली बार लामबंद हुई है उससे अन्ना हज़ारे जैसे समर्पित गांधीवादी नेता को भी काफी बल मिला है तथा वृद्धावस्था में उनके बलिदानपूर्ण हौसले को देखकर जनता में काफी उम्मीदें जगी हैं। लिहाज़ा जनता को भी चाहिए कि वह भ्रष्टाचार जैसे संवेदनशील मुद्दे के विरुद्ध चलने वाली इस राष्ट्रव्यापी मुहिम के प्रति सिर्फ सकारात्मक सोच ही रखे।
मध्य पूरब एवं उत्तरी अफ्रिकी मुस्लिम और साम्यवाद प्रभाव वाले देशों में जनआन्दोलन का गुब्बार अब शांत होने लगा है। इस पूरे एपिसोड के कितने पहलू हो सकते हैं इस पर टिप्पणी के लिए थोडा वक्त चाहिए लेकिन दुनिया के चार-पांच देशों में इस प्रकरण का जबरदस्त प्रभाव पड़ा है। आन्दोलन का इपीसेंटर टयूनेशिया को मान लेना चाहिए। हालांकि इस आन्दोलन के दौरान ही सुड्डान को विभाजित कर एक नये ईयाई देश की स्थापना की गयी है। जिससे यह साबित होता है कि मामले को एक खास मकसद से तूल दिया जा रहा है।
टयूनेशिया में सत्ता का हस्तानांतरण बताया जाता है। मिश्र का शासक हुस्नेमुबारक नेपथ्य में चले गये, गोया म्यामा में लोकतंत्र की हवा चलने लगी है। सबसे चौकाने वाली बात लीबिया में हुई। इधर आन्दोलन न खडा हुआ कि उधर अमेरिकी नेतृत्व वाला उत्तर अटलांटिक व्यापार संघ की सेना ने लीबिया पर आक्रमण कर दिया। वह भी लांकतंत्र की स्थापना के नाम पर। याद रहे स्वोबोदन मिलोशेविच को भी अमेरिका ने इसी प्रकार ठिकाने लगाया था। कुल मिलाकर जिस लोकतंत्र समर्थक आन्दोलन की हम चर्चा कर रहे हैं उसपर पश्चिम समर्थक समाचार माध्यम के दृष्टिकोण से इतर भी एक दृष्टिकोण बनाने की जरूरत है।
अफ्रिका के मुस्लिम बाहुल्य वाले देशों के जनआन्दोलन की हवा साम्यवादी देश चीन तक को प्रभावित कर रहा है, ऐसा समाचार माध्यम का पश्चिम खेमा प्रचारित कर रहा है। भारत के साम्यवादी लेखक, विचारक, चिंतक और कार्यकर्ता इस पूरे आन्दोलन को अमेरिका विरोधी घोषित करने पर तुले हैं। अमेरिका खुद इसे लोकतंत्र से जोड़कर देख रहा है और चीन मामले पर चुपी साधे हुए है। सच पुछिये तो हालिया कथित लोकतंत्र समर्थक आन्दोलन को हर कोई अपने अपने ढंग से प्रचारित करने में लगा है लेकिन इस आन्दोलन पर अभी तक कोई तटस्थ विचार नहीं बन पाया है। यह आन्दोलन समाजवाद के खिलाफ है या पूंजीवाद के खिलाफ, यह आन्दोलन इस्लाम के खिलाफ है या अरब देषों में बढ रहे ईसाई वर्चस्व के खिलाफ। आन्दोलन स्थानीय शसन के खिलाफ या भूमंडलीकरण और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के खिलाफ है, इसपर अभी मिमांषा बांकी है, लेकिन आन्दोलन के तौर तरीके और मीडिया कवरेज को देखकर ऐसा लगता है कि पूरा का पूरा आन्दोलन एक खास मकसद के लिए प्रायोजित है। जिस दिशा में हम विचार कर रहे हैं उसमें शत प्रतिशत सत्यता के दावे नहीं किये जा सकते हैं लेकिन इतना तो कहा ही जा सकता है कि पूरे आन्दोलन में एक खास गुट को फायदा हो रहा है जो किसी न किसी रूप में संयुक्त राज्य अमेरिका तथा उसके गिरोह को लगातार फायदा पहुंचा रहा है। ऐसा इसलिए भी कि, यह आन्दोलन सउदी अरब में नहीं हुआ, न ही यह आन्दोलन ओमान, यमन, कुवैत अथवा संयुक्त अरब अमिरात में हुआ है। लोकतंत्र की लडाई उसी देशों में लड़ी जा रही है जो देश किसी जमाने में अमेरिकी प्रभुत्व को चुनौती दिया करता था। अरब और उत्तरी अफ्रिका के मुस्लिम देषों में मिश्र प्रभावषाली देश माना जाता है। इतिहास के पन्नों पर झांकें तो मिश्र के बारे में बडे रोचक तथ्य सामने आएंगे। ऑटोमन साम्राज्य का विस्तार आधे यूरोप तक था। ईसाइयों के द्वारा इस्लाम के खिलाफ संयुक्त युद्ध घोषणा जिसे इतिहास में क्रुसेट के नाम से भी जाना जाता है ऑटोमन के सामने नहीं टिका और अरब ने कुस्तुतूनिया पर आक्रमण कर एक सभ्यता को ही विनष्ट कर दिया। कई शताब्दी तक अरब जीतता रहा लेकिन फ्रांस के शासक नेपोलियन बोनापार्ट ने कई शताब्दियों के बाद मिश्र को हराकर अरब पर फतह का इतिहास रचा। फिर बाद में स्वेज नहर के मामले पर एक बार फिर से अरब और युरोप में तलबारें खिच गयी जिसका अरब की ओर से मिश्र और यूरोप की ओर से इंग्लैंड ने मोर्चा सम्हाला। स्वेज नहर पर हुई लड़ाई में युरोप को पीछे हटना पडा और स्वेज नहर पर मिश्र का प्रभुत्व स्थापित हो गया। इस हार को यूरोक्रिश्चिन समूह अभी तक पचा नहीं पाया है। हाल की लडाई को इस इतिहासिक तथ्य से जोडकर देखने से बातें अच्छी तरह समझ में आएगी। असली लडाई स्वेज पर अरब को मात देने की है। वर्तमान में यूरोईसाई समूह का अगुआ संयुक्त राज्य अमेरिका है। फिर बेटिकन के पोप यूरोप, अमेरिका और अफ्रिका पर फतह के बाद एशिया को अपना गुलाम बनाना चाह रहे हैं। इसकी घोषणा पोप जानपॉल ने भारत में आगमन के दैरान कर चुके हैं। इसका प्रभाव भी दिखने लगा है। भारत में ईसाई जनसंख्या बढोतरी की दर 70 प्रतिषत के करीब है। पाकिस्तान जैसे कट्टर इस्लामी देश में ईसाई जनसंख्या बढ रही है। एक चौथाई श्रीलंकाई तमिल ईसाई हो चुके हैं। श्रीलंका की वर्तमान सरकार ईसाई गिरफ्त बताई जाती है। नेपाल, बांग्लादेश, म्यामार, लाओस, वितनाम, कंबोडिया, हिन्देशिया, मलेशिया आदि देशों में लगातार ईसाई प्रभाव बढ रहा है। चीन और अपने को आर्थिक शक्ति कहने वाला जापान भी ईसाइयत के आक्रमण से सन्न है। चीन में देखते ही देखते ईसाई जनसंख्या 20 करोड पर पहुंच गयी है। दक्षिण कोरिया, ताईवान, हांकांग, सिंगापोर आदि देशों में 80 प्रतिशत से ज्यादा जनसंख्या ईसाइयों की है। ईसाई मिशनरी केवल ईसाई देशों में ही नहीं दुनिया भर में सक्रिय हैं। इनको खुले तौर पर अमेरिका एवं यूरोपीये देशों का समर्थन प्राप्त है। इसके पीछे का कारण भी स्पष्ट है। अमेरिका और पष्चिम के देष अब समझ गये हैं कि दुनिया को सैनिकों के द्वारा गुलाम नहीं बनाया जा सकता है। इसलिए उन्होंने दुनिया को गुलाम बनाने के लिए दो हथियार गढे हैं। एक का नाम ईसाइयत है तो दूसरे का नाम साम्यवाद। दुनिया में आर्थिक साम्राज्य अस्थापित करने के लिए अमेरिका ने दो और हथियार तैयार किये हैं। जिसे लोकतंत्र और मानवाधिकार का नाम दिया गया है। ये सारे हथियार दुनिया को सुंदर बनाने के लिए नहीं गुलाम बनाने के लिए गढा गया है, जिसमें कहीं न कहीं ईसाई हित भी छुप हुआ है।
मध्य पूरब और उत्तरी अफ्रिकी मुस्लिम देशों का हालिया जनआन्दोलन संभवत: तीन कारणों से प्रायोजित हो सकता है। पहला अमेरिका एवं उसके गिरोह के देशों का प्राकृतिक तेल बाहुल्य वाले मुस्लिम देशों पर पकड़ के लिए, दूसरा अमेरिकी और नाटो सेना द्वारा किये गये कुकृत्यों को ढकने के लिए और तीसरा अमेरिका के गुट से कन्नी काटने वालों को धमकाने के लिए यह आन्दोलन किया गया है। ऐसे इस आन्दोलन से ईसाई जगत को बहुत फायदा होता दिख रहा है। इसलिए इस आन्दोलन के प्रयोजन में उनकी भूमिका को भी नकारा नहीं जाना चाहिए। इस प्रकार इस आन्दोलन को जो लोग ऐसा वैसा बता रहे हैं, हो सकता है वे भी सही हों लेकिन इस आन्दोलन से जिसे फायदा होता दिख रहा है उस आधार पर तो यही कहा जाना चाहिए कि आन्दोलन अमेरिका और चर्च द्वारा संपोषित आन्दोलन है।
पहले बसपा ने और तीन माह बाद सपा ने अपने उम्मीदवार तय कर दिये।यह और बात है कि सपा ने सम्भावित विधानसभा प्रत्याशियों की बाकायदा सूची जारी करके बसपा से बढ़त बना ली।बसपा ने अपने प्रत्याशियों के बारे में मन तो बना लिया है लेकिन अधिकारिक रूप से कोई सूची जारी नहीं की है। बसपा ने जिन उम्मीदवारों को जहां से लड़ाने का मन बनाया है, उन्हें उसी विधान सभा क्षेत्र का प्रभारी बना कर उनको चुनावी तैयारियां करने की छूट प्रदान कर दी है। बहरहाल, प्रत्याशी घोषित करने की यह पहली लड़ाई है।दोनों पार्टियां अपने आप में ही इसलिए मुग्ध हैं क्योंकि एक सत्ता में बैठी है तो दूसरी बड़े दल के रूप में विपक्ष में और सत्ता में वापसी का सपना सजोए है। सपा ने अबकी जिस तरह से उम्मीदवारों का चयन किया है, उससे यही प्रतीत होता है कि उसका सारा जोर पिछड़ा-दलित और मुस्लिम गठजोड़ पर है। इसके अलावा युवाओं और कुछ नए चेहरों के अलावा दागियों को भी टिकट देने से पार्टी ने गुरेज नहीं किया, शायद सपा का शीर्ष नेतृत्व जिताऊ प्रत्याशी को ही मैदान में उतारना चाहता था।समाजवादी पार्टी की 165 प्रत्याशियों वाली पहली लिस्ट देखने से एक बात का और आभास होता है कि सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव भले ही ‘एकला चलो’ की बात कर रहे हों लेकिन उनकी निगाहें कांग्रेस के साथ गठजोड़ पर भी टिकी हुईं हैं। यही वजह है सपा ने सम्भावित प्रत्याशियों की जो सूची जारी की है उसमें एक-दो जगह को छोड़कर कहीं भी कांग्रेस के सीटिंग विधायकों वाले विधान सभा क्षेत्र के लिए प्रत्याशी घोषित नहीं किए गए हैं। सपा की पहली लिस्ट में सबसे अधिक आश्चर्यजनक रहा वैश्य बिरादरी की अनदेखी। पार्टी ने मात्र तीन सीटों के लिए वैश्य प्रत्याशी मैदान में उतारे हैं। सपा के हौसले बुलंद लग रहे हैं लेकिन उनको सम्भावित खतरे का भी अंदेशा दिखाई दे रहा है। आगामी विधान सभा चुनाव में पीस पार्टी की दस्तक भी सुनाई देगी। ऐसी उम्मीद सभी लोग कर रहे हैं। गुप्त रूप से पांव पसार रही पीस पार्टी को सपा का सबसे बड़ा ‘दीमक’ बताया जाने लगा है। ढुलमुल राजनीति करने वाले रालोद नेता अजित सिंह भी इस सियासत को पहचान कर अपना पाला बदलने के लिए मजबूर हुए। मुख्यमंत्री का ख्वाब देख रहे अजित सिंह पश्चिमी उत्तर प्रदेश से पीस पार्टी का साथ देकर मतदाताओं को अपनी तरफ आकर्षित करेंगे तो सपा के राह में रोढ़े फंस सकते हैं।
2012 के विधानसभा चुनाव के लिए समाजवादी पार्टी ने अपने परम्परागत कहे जाने वाले वोट बैंक यानी मुस्लिम यादव समीकरण के साथ साथ तमाम पुराने चेहरों पर ही भरोसा किया हैं। पहली सूची में 44 विधायकों में 42 को टिकट देकर सपा ने सिटिंग गेटिंग फार्मूले को भी अमली जमा पहनाया है। जिन दो विधायकों के टिकट काटे गये हैं उनमें एक जेल में बंद अमरमणि त्रिपाठी है। उनके स्थान पर उनके पुत्र अमनमणि त्रिपाठी को नौतनवां से टिकट दिया गया है। अमनमणि सपा का युवा चेहरा होगें। अमनमणि की जीत-हार कई मायनों में देखने लायक होगी। इसी प्रकार एक और युवा चेहरा उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्य सचिव अखंड प्रतात सिंह की पुत्री जूही सिंह के रूप में सामने आया है। उन्हें लखनऊ पूर्व से प्रत्याशी बनाया गया है। गुन्नौर से विधायक प्रदीप यादव को टिकट काटा गया हैं उनकी जगह राम खिलाड़ी सिंह को उतारा गया हैं। विधानसभा के प्रमुख सचिव रहे राजेन्द्र पाण्डेय को मीरजापुर की मझवां सीट से टिकट देकर रिटायर्ड नौकरशाहों को भी उपकृत किया गया गया हैं,लेकिन मौजूदा आईएएस जयशंकर मिश्र के पुत्र अभिषेक मिश्र को लेकर पार्टी में अभी उहापोह है।पार्टी उन्हें लखनऊ से लड़ाना चाहती है। बात दागियों की की जाए तो सपा ने ददुआ के पुत्र वीर सिंह पटेल को चित्रकूट से मैदान में उतारा हैं। इससे पूर्व वह वहां जिला पंचायत अध्यक्ष रह चुके हैं। बसपा सरकार के एक मंत्री पर जानलेवा हमले के अरोप में जेल में बंद विधायक विजय मिश्रा को ज्ञानपुर से टिकट देकर सपा से यह जताने की कोशिश की है कि विजय मिश्र के ऊपर बसपा सरकार ने जो मुकदमे ठोंक रखे हैं वह राजनीति से प्रेरित हैं। हाल ही में बसपा छोड़ सपा में शामिल हुए नथुनी कुशवाहा को उम्मीदवार बना सपा ने दलबदलुओं को भी आवभगत का संकेत दिया हैं। पूर्व सांसद अमीर आलम खां के पुत्र नवाजिस आलम खां, पूर्व सांसद बालेश्वर यादव के पुत्र बिजेन्द्र पाल उर्फ बबलू, पूर्व मंत्री चिरंजन स्वरूप के पुत्र सौरभ स्वरूप, पूर्व विधान परिषद सदस्य रमेश यादव के पुत्र आशीष यादव और सांसद मिथलेश कुमार की पत्नी शकुंतला को टिकट देकर सपा ने परिवारवाद के परचम को लहराने का काम जारी रखा है। इससे सपा प्रमुख को फायदा यह होगा कि पार्टी के भीतर चोरी छिपे उनके ऊपर परिवारवाद का आरोप लगाने वालों की संख्या कम हो जाएगी।कद्दावर सपा नेता आजम खॉ जो कुछ माह पूर्व सपा में लौट कर आए थे, उन्हें रामपुर की उनकी पुरानी सीट से ही उतारा गया है।
सपा की पहली सूची से साफ है कि उसने जातीय समीकरणों का भी खासा ध्यान रख है । सूची में एक तिहाई टिकट पिछड़ों को दिया गया हैं इनमें 25 यादवों सहित 56 उम्मीदवार पिछड़ी जाति के हैं। मुस्लिम उम्मीदवारों की तादाद 31 है। सपा ने परम्परागत मुस्लिम यादव समीकरण को आजमाने के साथ ही पिछड़ों पर ज्यादा भरोसा जताया है।पिछड़ों में यादव प्रत्याशियों की संख्या भी कम नहीं है। 18 क्षत्रिय और 16 ब्राहमण को टिकट देकर उसने इनमें सामंजस्य बनाने की कोशिश की है।
सूबे में खुद को दमदार विकल्प साबित करने के फेर में समाजवादी पार्टी ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाट-मुस्लिम का चुनावी समीकरण बनाने में जुटे राष्ट्रीय लोकदल को भी झटका दिया। अधिकांश मुस्लिम बाहुल्य क्षत्रों में प्रत्याशी घोषित किए जाने और अजित विरोधियों को तरजीह देने से रालोद व सपा की संभावित दोस्ती लगभग खटाई में पड़ती दिख रही है। रामपुर से आजम खां, बेहट से उमर खां नकुड़ से इमरान मसूद, बुढ़ाना से नवाजिश आलम, नूरपुर से नईमुल हसन, कुंदरकी से हाजी रिजवान, किठौर से शाहिद मंजूर, संभल से नवाब इकबाल, अमरोहा से महबूब अली, हसनपुर से कमला अख्तर , लोनी से औलाद अली, अलीगढ़ से जफर आलम, बदायूं से आदि रजा, पीलीभीत से रिजवान अहमद व मेरठ शहर से रफीक अंसारी जैसों को मैदान में उतार सपा ने बसपा के दलित मुस्लिम गठजोड़ भी जवाब दिया। लोनी से औलाद अली का नाम तय कर सपा ने विधायक मदन भैया के सामने मुश्किल खड़ी कर दी । परिसीमन के कारण कई नेताओं की सीटें भी बदली गई हैं।भाजपा सरकार में कैबिनेट मंत्री रहे राजा अरिदमन सिंह को भी सपा में आकर बाह क्षेत्र से टिकट मिल गया। इसके अलावा शिवपाल सिंह यादव,अम्बिका चौधरी, डा0 अशोक बाजपेई,माता प्रसाद पांडेय, श्यामा चरण गुप्त जैसे दिग्गजों के साथ कोई छेड़छाड़ नहीं की गई।
देश के रिज़र्व बैंक के वाल्ट पर सीबीआई ने छापा डाला. उसे वहां पांच सौ और हज़ार रुपये के नक़ली नोट मिले. वरिष्ठ अधिकारियों से सीबीआई ने पूछताछ भी की. दरअसल सीबीआई ने नेपाल-भारत सीमा के साठ से सत्तर विभिन्न बैंकों की शाखाओं पर छापा डाला था, जहां से नक़ली नोटों का कारोबार चल रहा था. इन बैंकों के अधिकारियों ने सीबीआई से कहा कि उन्हें ये नक़ली नोट भारत के रिजर्व बैंक से मिल रहे हैं. इस पूरी घटना को भारत सरकार ने देश से और देश की संसद से छुपा लिया. या शायद सीबीआई ने भारत सरकार को इस घटना के बारे में कुछ बताया ही नहीं. देश अंधेरे में और देश को तबाह करने वाले रोशनी में हैं. आइए, आपको आज़ाद भारत के सबसे बड़े आपराधिक षड्यंत्र के बारे में बताते हैं, जिसे हमने पांच महीने की तलाश के बाद आपके सामने रखने का फ़ैसला किया है. कहानी है रिज़र्व बैंक के माध्यम से देश के अपराधियों द्वारा नक़ली नोटों का कारोबार करने की. नक़ली नोटों के कारोबार ने देश की अर्थव्यवस्था को पूरी तरह अपने जाल में जकड़ लिया है. आम जनता के हाथों में नक़ली नोट हैं, पर उसे ख़बर तक नहीं है. बैंक में नक़ली नोट मिल रहे हैं, एटीएम नक़ली नोट उगल रहे हैं. असली-नक़ली नोट पहचानने वाली मशीन नक़ली नोट को असली बता रही है. इस देश में क्या हो रहा है, यह समझ के बाहर है. चौथी दुनिया की तहक़ीक़ात से यह पता चला है कि जो कंपनी भारत के लिए करेंसी छापती रही, वही 500 और 1000 के नक़ली नोट भी छाप रही है. हमारी तहक़ीक़ात से यह अंदेशा होता है कि देश की सरकार और रिज़र्व बैंक ऑफ इंडिया जाने-अनजाने में नोट छापने वाली विदेशी कंपनी के पार्टनर बन चुके हैं. अब सवाल यही है कि इस ख़तरनाक साज़िश पर देश की सरकार और एजेंसियां क्यों चुप हैं?
एक जानकारी जो पूरे देश से छुपा ली गई, अगस्त 2010 में सीबीआई की टीम ने रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के वाल्ट में छापा मारा. सीबीआई के अधिकारियों का दिमाग़ उस समय सन्न रह गया, जब उन्हें पता चला कि रिज़र्व बैंक ऑफ इंडिया के ख़ज़ाने में नक़ली नोट हैं. रिज़र्व बैंक से मिले नक़ली नोट वही नोट थे, जिसे पाकिस्तान की खु़फिया एजेंसी नेपाल के रास्ते भारत भेज रही है. सवाल यह है कि भारत के रिजर्व बैंक में नक़ली नोट कहां से आए? क्या आईएसआई की पहुंच रिज़र्व बैंक की तिजोरी तक है या फिर कोई बहुत ही भयंकर साज़िश है, जो हिंदुस्तान की अर्थव्यवस्था को खोखला कर चुकी है. सीबीआई इस सनसनीखेज मामले की तहक़ीक़ात कर रही है. छह बैंक कर्मचारियों से सीबीआई ने पूछताछ भी की है. इतने महीने बीत जाने के बावजूद किसी को यह पता नहीं है कि जांच में क्या निकला? सीबीआई और वित्त मंत्रालय को देश को बताना चाहिए कि बैंक अधिकारियों ने जांच के दौरान क्या कहा? नक़ली नोटों के इस ख़तरनाक खेल पर सरकार, संसद और जांच एजेंसियां क्यों चुप है तथा संसद अंधेरे में क्यों है?
अब सवाल यह है कि सीबीआई को मुंबई के रिज़र्व बैंक ऑफ इंडिया में छापा मारने की ज़रूरत क्यों पड़ी? रिजर्व बैंक से पहले नेपाल बॉर्डर से सटे बिहार और उत्तर प्रदेश के क़रीब 70-80 बैंकों में छापा पड़ा. इन बैंकों में इसलिए छापा पड़ा, क्योंकि जांच एजेंसियों को ख़बर मिली है कि पाकिस्तान की खु़फ़िया एजेंसी आईएसआई नेपाल के रास्ते भारत में नक़ली नोट भेज रही है. बॉर्डर के इलाक़े के बैंकों में नक़ली नोटों का लेन-देन हो रहा है. आईएसआई के रैकेट के ज़रिए 500 रुपये के नोट 250 रुपये में बेचे जा रहे हैं. छापे के दौरान इन बैंकों में असली नोट भी मिले और नक़ली नोट भी. जांच एजेंसियों को लगा कि नक़ली नोट नेपाल के ज़रिए बैंक तक पहुंचे हैं, लेकिन जब पूछताछ हुई तो सीबीआई के होश उड़ गए. कुछ बैंक अधिकारियों की पकड़-धकड़ हुई. ये बैंक अधिकारी रोने लगे, अपने बच्चों की कसमें खाने लगे. उन लोगों ने बताया कि उन्हें नक़ली नोटों के बारे में कोई जानकारी नहीं, क्योंकि ये नोट रिजर्व बैंक से आए हैं. यह किसी एक बैंक की कहानी होती तो इसे नकारा भी जा सकता था, लेकिन हर जगह यही पैटर्न मिला. यहां से मिली जानकारी के बाद ही सीबीआई ने फ़ैसला लिया कि अगर नक़ली नोट रिजर्व बैंक से आ रहे हैं तो वहीं जाकर देखा जाए कि मामला क्या है. सीबीआई ऱिजर्व बैंक ऑफ इंडिया पहुंची, यहां उसे नक़ली नोट मिले. हैरानी की बात यह है कि रिज़र्व बैंक में मिले नक़ली नोट वही नोट थे, जिन्हें आईएसआई नेपाल के ज़रिए भारत भेजती है.
रिज़र्व बैंक आफ इंडिया में नक़ली नोट कहां से आए, इस गुत्थी को समझने के लिए बिहार और उत्तर प्रदेश में नक़ली नोटों के मामले को समझना ज़रूरी है. दरअसल हुआ यह कि आईएसआई की गतिविधियों की वजह से यहां आएदिन नक़ली नोट पकड़े जाते हैं. मामला अदालत पहुंचता है. बहुत सारे केसों में वकीलों ने अनजाने में जज के सामने यह दलील दी कि पहले यह तो तय हो जाए कि ये नोट नक़ली हैं. इन वकीलों को शायद जाली नोट के कारोबार के बारे में कोई अंदाज़ा नहीं था, स़िर्फ कोर्ट से व़क्त लेने के लिए उन्होंने यह दलील दी थी. कोर्ट ने जब्त हुए नोटों को जांच के लिए सरकारी लैब भेज दिया, ताकि यह तय हो सके कि ज़ब्त किए गए नोट नक़ली हैं. रिपोर्ट आती है कि नोट असली हैं. मतलब यह कि असली और नक़ली नोटों के कागज, इंक, छपाई और सुरक्षा चिन्ह सब एक जैसे हैं. जांच एजेंसियों के होश उड़ गए कि अगर ये नोट असली हैं तो फिर 500 का नोट 250 में क्यों बिक रहा है. उन्हें तसल्ली नहीं हुई. फिर इन्हीं नोटों को टोक्यो और हांगकांग की लैब में भेजा गया. वहां से भी रिपोर्ट आई कि ये नोट असली हैं. फिर इन्हें अमेरिका भेजा गया. नक़ली नोट कितने असली हैं, इसका पता तब चला, जब अमेरिका की एक लैब ने यह कहा कि ये नोट नक़ली हैं. लैब ने यह भी कहा कि दोनों में इतनी समानताएं हैं कि जिन्हें पकड़ना मुश्किल है और जो विषमताएं हैं, वे भी जानबूझ कर डाली गई हैं और नोट बनाने वाली कोई बेहतरीन कंपनी ही ऐसे नोट बना सकती है. अमेरिका की लैब ने जांच एजेंसियों को पूरा प्रूव दे दिया और तरीक़ा बताया कि कैसे नक़ली नोटों को पहचाना जा सकता है. इस लैब ने बताया कि इन नक़ली नोटों में एक छोटी सी जगह है, जहां छेड़छाड़ हुई है. इसके बाद ही नेपाल बॉर्डर से सटे बैंकों में छापेमारी का सिलसिला शुरू हुआ. नक़ली नोटों की पहचान हो गई, लेकिन एक बड़ा सवाल खड़ा हो गया कि नेपाल से आने वाले 500 एवं 1000 के नोट और रिज़र्व बैंक में मिलने वाले नक़ली नोट एक ही तरह के कैसे हैं. जिस नक़ली नोट को आईएसआई भेज रही है, वही नोट रिजर्व बैंक में कैसे आया. दोनों जगह पकड़े गए नक़ली नोटों के काग़ज़, इंक और छपाई एक जैसी क्यों है. एक्सपर्ट्स बताते हैं कि भारत के 500 और 1000 के जो नोट हैं, उनकी क्वालिटी ऐसी है, जिसे आसानी से नहीं बनाया जा सकता है और पाकिस्तान के पास वह टेक्नोलॉजी है ही नहीं. इससे यही निष्कर्ष निकलता है कि जहां से ये नक़ली नोट आईएसआई को मिल रहे हैं, वहीं से रिज़र्व बैंक ऑफ इंडिया को भी सप्लाई हो रहे हैं. अब दो ही बातें हो सकती हैं. यह जांच एजेंसियों को तय करना है कि रिज़र्व बैंक ऑफ इंडिया के अधिकारियों की मिलीभगत से नक़ली नोट आया या फिर हमारी अर्थव्यवस्था ही अंतरराष्ट्रीय मा़फ़िया गैंग की साज़िश का शिकार हो गई है. अब सवाल उठता है कि ये नक़ली नोट छापता कौन है.
हमारी तहक़ीक़ात डे ला रू नाम की कंपनी तक पहुंच गई. जो जानकारी हासिल हुई, उससे यह साबित होता है कि नक़ली नोटों के कारोबार की जड़ में यही कंपनी है. डे ला रू कंपनी का सबसे बड़ा करार रिज़र्व बैंक ऑफ इंडिया के साथ था, जिसे यह स्पेशल वॉटरमार्क वाला बैंक नोट पेपर सप्लाई करती रही है. पिछले कुछ समय से इस कंपनी में भूचाल आया हुआ है. जब रिजर्व बैंक में छापा पड़ा तो डे ला रू के शेयर लुढ़क गए. यूरोप में ख़राब करेंसी नोटों की सप्लाई का मामला छा गया. इस कंपनी ने रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया को कुछ ऐसे नोट दे दिए, जो असली नहीं थे. रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया की टीम इंग्लैंड गई, उसने डे ला रू कंपनी के अधिकारियों से बातचीत की. नतीजा यह हुआ कि कंपनी ने हम्प्शायर की अपनी यूनिट में उत्पादन और आगे की शिपमेंट बंद कर दी. डे ला रू कंपनी के अधिकारियों ने भरोसा दिलाने की बहुत कोशिश की, लेकिन रिज़र्व बैंक ऑफ इंडिया ने यह कहा कि कंपनी से जुड़ी कई गंभीर चिंताएं हैं. अंग्रेजी में कहें तो सीरियस कंसर्नस. टीम वापस भारत आ गई.
डे ला रू कंपनी की 25 फीसदी कमाई भारत से होती है. इस ख़बर के आते ही डे ला रू कंपनी के शेयर धराशायी हो गए. यूरोप में हंगामा मच गया, लेकिन हिंदुस्तान में न वित्त मंत्री ने कुछ कहा, न ही रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया ने कोई बयान दिया. रिज़र्व बैंक के प्रतिनिधियों ने जो चिंताएं बताईं, वे चिंताएं कैसी हैं. इन चिंताओं की गंभीरता कितनी है. रिज़र्व बैंक ऑफ इंडिया के साथ डील बचाने के लिए कंपनी ने माना कि भारत के रिज़र्व बैंक को दिए जा रहे करेंसी पेपर के उत्पादन में जो ग़लतियां हुईं, वे गंभीर हैं. बाद में कंपनी के चीफ एक्जीक्यूटिव जेम्स हसी को 13 अगस्त, 2010 को इस्ती़फा देना पड़ा. ये ग़लतियां क्या हैं, सरकार चुप क्यों है, रिज़र्व बैंक ऑफ इंडिया क्यों ख़ामोश है. मज़ेदार बात यह है कि कंपनी के अंदर इस बात को लेकर जांच चल रही थी और एक हमारी संसद है, जिसे कुछ पता नहीं है.
5 जनवरी, 2011 को यह ख़बर आई कि भारत सरकार ने डे ला रू के साथ अपने संबंध ख़त्म कर लिए. पता यह चला कि 16,000 टन करेंसी पेपर के लिए रिज़र्व बैंक ऑफ इंडिया ने डे ला रू की चार प्रतियोगी कंपनियों को ठेका दे दिया. रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया ने डे ला रू को इस टेंडर में हिस्सा लेने के लिए आमंत्रित भी नहीं किया. रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया और भारत सरकार ने इतना बड़ा फै़सला क्यों लिया. इस फै़सले के पीछे तर्क क्या है. सरकार ने संसद को भरोसे में क्यों नहीं लिया. 28 जनवरी को डे ला रू कंपनी के टिम कोबोल्ड ने यह भी कहा कि रिज़र्व बैंक ऑफ इंडिया के साथ उनकी बातचीत चल रही है, लेकिन उन्होंने यह नहीं बताया कि डे ला रू का अब आगे रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के साथ कोई समझौता होगा या नहीं. इतना सब कुछ हो जाने के बाद भी डे ला रू से कौन बात कर रहा है और क्यों बात कर रहा है. मज़ेदार बात यह है कि इस पूरे घटनाक्रम के दौरान रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया ख़ामोश रहा.
इस तहक़ीक़ात के दौरान एक सनसनीखेज सच सामने आया. डे ला रू कैश सिस्टम इंडिया प्राइवेट लिमिटेड को 2005 में सरकार ने दफ्तर खोलने की अनुमति दी. यह कंपनी करेंसी पेपर के अलावा पासपोर्ट, हाई सिक्योरिटी पेपर, सिक्योरिटी प्रिंट, होलोग्राम और कैश प्रोसेसिंग सोल्यूशन में डील करती है. यह भारत में असली और नक़ली नोटों की पहचान करने वाली मशीन भी बेचती है. मतलब यह है कि यही कंपनी नक़ली नोट भारत भेजती है और यही कंपनी नक़ली नोटों की जांच करने वाली मशीन भी लगाती है. शायद यही वजह है कि देश में नक़ली नोट भी मशीन में असली नज़र आते हैं. इस मशीन के सॉफ्टवेयर की अभी तक जांच नहीं की गई है, किसके इशारे पर और क्यों? जांच एजेंसियों को अविलंब ऐसी मशीनों को जब्त करना चाहिए, जो नक़ली नोटों को असली बताती हैं. सरकार को इस बात की जांच करनी चाहिए कि डे ला रू कंपनी के रिश्ते किन-किन आर्थिक संस्थानों से हैं. नोटों की जांच करने वाली मशीन की सप्लाई कहां-कहां हुई है.
हमारी जांच टीम को एक सूत्र ने बताया कि डे ला रू कंपनी का मालिक इटालियन मा़िफया के साथ मिलकर भारत के नक़ली नोटों का रैकेट चला रहा है. पाकिस्तान में आईएसआई या आतंकवादियों के पास जो नक़ली नोट आते हैं, वे सीधे यूरोप से आते हैं. भारत सरकार, रिज़र्व बैंक ऑफ इंडिया और देश की जांच एजेंसियां अब तक नक़ली नोटों पर नकेल इसलिए नहीं कस पाई हैं, क्योंकि जांच एजेंसियां अब तक इस मामले में पाकिस्तान, हांगकांग, नेपाल और मलेशिया से आगे नहीं देख पा रही हैं. जो कुछ यूरोप में हो रहा है, उस पर हिंदुस्तान की सरकार और रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया चुप है.
अब सवाल उठता है कि जब देश की सबसे अहम एजेंसी ने इसे राष्ट्रीय सुरक्षा का मुद्दा बताया, तब सरकार ने क्या किया. जब डे ला रू ने नक़ली नोट सप्लाई किए तो संसद को क्यों नहीं बताया गया. डे ला रू के साथ जब क़रार ़खत्म कर चार नई कंपनियों के साथ क़रार हुए तो विपक्ष को क्यों पता नहीं चला. क्या संसद में उन्हीं मामलों पर चर्चा होगी, जिनकी रिपोर्ट मीडिया में आती है. अगर जांच एजेंसियां ही कह रही हैं कि नक़ली नोट का काग़ज़ असली नोट के जैसा है तो फिर सप्लाई करने वाली कंपनी डे ला रू पर कार्रवाई क्यों नहीं हुई. सरकार को किसके आदेश का इंतजार है. समझने वाली बात यह है कि एक हज़ार नोटों में से दस नोट अगर जाली हैं तो यह स्थिति देश की वित्तीय व्यवस्था को तबाह कर सकती है. हमारे देश में एक हज़ार नोटों में से कितने नोट जाली हैं, यह पता कर पाना भी मुश्किल है, क्योंकि जाली नोट अब हमारे बैंकों और एटीएम मशीनों से निकल रहे हैं.
डे ला रू का नेपाल और आई एस आई कनेक्शन
कंधार हाईजैक की कहानी बहुत पुरानी हो गई है, लेकिन इस अध्याय का एक ऐसा पहलू है, जो अब तक दुनिया की नज़र से छुपा हुआ है. इस खउ-814 में एक ऐसा शख्स बैठा था, जिसके बारे में सुनकर आप दंग रह जाएंगे. इस आदमी को दुनिया भर में करेंसी किंग के नाम से जाना जाता है. इसका असली नाम है रोबेर्टो ग्योरी. यह इस जहाज में दो महिलाओं के साथ स़फर कर रहा था. दोनों महिलाएं स्विट्जरलैंड की नागरिक थीं. रोबेर्टो़ खुद दो देशों की नागरिकता रखता है, जिसमें पहला है इटली और दूसरा स्विट्जरलैंड. रोबेर्टो को करेंसी किंग इसलिए कहा जाता है, क्योंकि यह डे ला रू नाम की कंपनी का मालिक है. रोबेर्टो ग्योरी को अपने पिता से यह कंपनी मिली. दुनिया की करेंसी छापने का 90 फी़सदी बिजनेस इस कंपनी के पास है. यह कंपनी दुनिया के कई देशों कें नोट छापती है. यही कंपनी पाकिस्तान की आईएसआई के लिए भी काम करती है. जैसे ही यह जहाज हाईजैक हुआ, स्विट्जरलैंड ने एक विशिष्ट दल को हाईजैकर्स से बातचीत करने कंधार भेजा. साथ ही उसने भारत सरकार पर यह दबाव बनाया कि वह किसी भी क़ीमत पर करेंसी किंग रोबेर्टो ग्योरी और उनके मित्रों की सुरक्षा सुनिश्चित करे. ग्योरी बिजनेस क्लास में स़फर कर रहा था. आतंकियों ने उसे प्लेन के सबसे पीछे वाली सीट पर बैठा दिया. लोग परेशान हो रहे थे, लेकिन ग्योरी आराम से अपने लैपटॉप पर काम कर रहा था. उसके पास सैटेलाइट पेन ड्राइव और फोन थे.यह आदमी कंधार के हाईजैक जहाज में क्या कर रहा था, यह बात किसी की समझ में नहीं आई है. नेपाल में ऐसी क्या बात है, जिससे स्विट्जरलैंड के सबसे अमीर व्यक्ति और दुनिया भर के नोटों को छापने वाली कंपनी के मालिक को वहां आना पड़ा. क्या वह नेपाल जाने से पहले भारत आया था. ये स़िर्फ सवाल हैं, जिनका जवाब सरकार के पास होना चाहिए. संसद के सदस्यों को पता होना चाहिए, इसकी जांच होनी चाहिए थी. संसद में इस पर चर्चा होनी चाहिए थी. शायद हिंदुस्तान में फैले जाली नोटों का भेद खुल जाता.
नकली नोंटों का मायाजाल
सरकार के ही आंकड़े बताते हैं कि 2006 से 2009 के बीच 7.34 लाख सौ रुपये के नोट, 5.76 लाख पांच सौ रुपये के नोट और 1.09 लाख एक हज़ार रुपये के नोट बरामद किए गए. नायक कमेटी के मुताबिक़, देश में लगभग 1,69,000 करोड़ जाली नोट बाज़ार में हैं. नक़ली नोटों का कारोबार कितना ख़तरनाक रूप ले चुका है, यह जानने के लिए पिछले कुछ सालों में हुईं कुछ महत्वपूर्ण बैठकों के बारे में जानते हैं. इन बैठकों से यह अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि देश की एजेंसियां सब कुछ जानते हुए भी बेबस और लाचार हैं. इस धंधे की जड़ में क्या है, यह हमारे ख़ुफिया विभाग को पता है. नक़ली नोटों के लिए बनी ज्वाइंट इंटेलिजेंस कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में लिखा कि भारत नक़ली नोट प्रिंट करने वालों के स्रोत तक नहीं पहुंच सका है. नोट छापने वाले प्रेस विदेशों में लगे हैं. इसलिए इस मुहिम में विदेश मंत्रालय की मदद लेनी होगी, ताकि उन देशों पर दबाव डाला जा सके. 13 अगस्त, 2009 को सीबीआई ने एक बयान दिया कि नक़ली नोट छापने वालों के पास भारतीय नोट बनाने वाला गुप्त सांचा है, नोट बनाने वाली स्पेशल इंक और पेपर की पूरी जानकारी है. इसी वजह से देश में असली दिखने वाले नक़ली नोट भेजे जा रहे हैं. सीबीआई के प्रवक्ता ने कहा कि नक़ली नोटों के मामलों की तहक़ीक़ात के लिए देश की कई एजेंसियों के सहयोग से एक स्पेशल टीम बनाई गई है. 13 सितंबर, 2009 को नॉर्थ ब्लॉक में स्थित इंटेलिजेंस ब्यूरो के हेड क्वार्टर में एक मीटिंग हुई थी, जिसमें इकोनोमिक इंटेलिजेंस की सारी अहम एजेंसियों ने हिस्सा लिया. इसमें डायरेक्टरेट ऑफ रेवेन्यू इंटेलिजेंस, इंटेलिजेंस ब्यूरो, आईबी, वित्त मंत्रालय, सीबीआई और सेंट्रल इकोनोमिक इंटेलिजेंस ब्यूरो के प्रतिनिधि मौजूद थे. इस मीटिंग का निष्कर्ष यह निकला कि जाली नोटों का कारोबार अब अपराध से बढ़कर राष्ट्रीय सुरक्षा का मुद्दा बन गया है. इससे पहले कैबिनेट सेक्रेटरी ने एक उच्चस्तरीय बैठक बुलाई थी, जिसमें रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया, आईबी, डीआरआई, ईडी, सीबीआई, सीईआईबी, कस्टम और अर्धसैनिक बलों के प्रतिनिधि मौजूद थे. इस बैठक में यह तय हुआ कि ब्रिटेन के साथ यूरोप के दूसरे देशों से इस मामले में बातचीत होगी, जहां से नोट बनाने वाले पेपर और इंक की सप्लाई होती है. तो अब सवाल उठता है कि इतने दिनों बाद भी सरकार ने कोई कार्रवाई क्यों नहीं की, जांच एजेंसियों को किसके आदेश का इंतजार है?
आखिर भारत ने घुमा के दे ही दिया। पटक के मारा लंका को, अटक के मारा पाकिस्तान को, झटक के मारा आस्ट्रेलिया को। यानि जीत के रास्ते पर दुनिया की तीन शीर्ष टीमों को धराशायी करते हुए पूरे विश्वास के साथ विश्व कप जीता। दुनिया में एक शक्तिशाली राष्ट्र के रूप मे भारत की प्रतिष्ठा के चलते यह आवश्यक हो गया था कि इस प्रतिष्ठा की खेलों में भी कोई अभिव्यक्ति हो। लाखो-अरबों डालर की फुटबाल प्रतियोगिताएं में भारत कही नहीं है। एशियाड और ओलंपिक में भी पिछले पायदान पर है। पर भारत और भारतीयों का एक पैशन है- क्रिकेट। लाला अमरनाथ के जमाने से कपिलदेव तक, कपिलदेव से सचिन तक और सचिन से धोनी तक भारतीय क्रिकेट खाते हैं, क्रिकेट पीते हैं , क्रिकेट के सपने लेते हैं , क्रिकेट जागते हैं। यहां तक कि कारगिल जैसे युद्द पर भी भारत की जनता का ध्यान तब गया जब 1999 का विश्वकप समाप्त हो गया। जब तक विश्वकप चल रहा था तब तक तो कारगिल युद्द जीतने का दारोमदार सचिन एंड कंपनी को दे रखा था।
सचिन भारत और भारतीयता को जिस तरह से अभिव्यक्त करते हैं, वैसा शायद ही कोई खिलाड़ी करता हो । लक्ष्य के प्रति समर्पण, असाधारण प्रतिभा, तकनीकी सक्षमता, अवसर का महत्व समझना आदि गुण उनमें हैं, परंतु यह तो किसी भी सफल खिलाड़ी के गुण है- राहुल द्रविड़, सौरभ गांगुली, सुनील गावस्कर, अनिल कुंबले। पर सचिन की विशेषता उसकी विनम्रता है, टीम के लिए स्वयं के त्याग का भाव है, भारत और भारतीयता की अपेक्षाओं की समझ और उसे पूरा करने का ज़ुनून है। इस मामले में वे कहीं लता मंगेशकर,अमिताभ बच्चन की पंक्ति में आते हैं।
पर धोनी नए भारत के प्रतीक है। जिसे विजय की इच्छा मात्र नहीं है , पर विजय के प्रति विश्वास है। परिस्थितियों और संकटो के प्रति भाव ऐसा मानों संकटों की तो प्रतीक्षा ही कर रहे हों और संकट आने पर स्वयं आगे बढ़कर उससे दो हाथ करने का माद्दा। यह आत्मविश्वास लंका के खिलाफ टूर्नामेंट के सबसे सफल खिलाड़ी युवराज सिंह से पहले आने पर भी झलका और टीम के चयन में भी। अगर जनता का वोट कराया जाए तो युसुफ पठान जैसे धुआंधार खिलाड़ी सहजता से टीम में शामिल हो जाएंगे। पर गैरी कर्स्टन जैसे रणनीतिज्ञ के साथ मिलकर योजना बनाते हुए विश्व में अपनी पताका फहराना धोनी के लबालब भरे विश्वास का ही परिचायक है।
युवराज सिंह ने बता दिया की एक जीनियस जब धैर्य और अनुशासन के रांद पर अपने को रगड़ता है तो सारे विश्व से अपना लोहा मनवा लेता है। अपनी नैसर्गिक प्रतिभा बैटिंग के साथ जब उन्होंने बालिंग को भी जोड़ लिया तो बैंसेन और हेजिस कप के रवि शास्त्री की याद ताज़ा कर दी। जो मैच- दर- मैच मैन आफ द मैच बने थे।
क्रिकेट जब ज़ुनून बन जाता है तो भारत और पाकिस्तान में युद्दोन्माद का रूप लेता है पर जब यह खेल भावना और आत्मीयता का रूप लेता है तो हिंदुस्तानी भी पाकिस्तानी चेहरों पर अपनापा और भाईचारा ढूंढने लगता है। मोहाली के मैच ने भारत और पाकिस्तान के रिश्तों में जमी बर्फ को पिघला दिया । पाकिस्तान के प्रधानमंत्री और भारत के प्रधानमंत्री साथ तालियां बजाते नज़र आए। जो काम ओबामा की डिप्लोमेसी ना कर पायी वह काम क्रिकेट के बल्ले और गेंद ने किया। जो चीजें लड़ाई के मैदान पर स्लिप कर गयी थी वह यहां क्रिकेट की गली मे मिल गयी। जनता ने भी तोप और बंदूको के बजाए क्रिकेट के पावर प्ले का आनंद लिया।
पूरा भारत जश्न मना रहा है। जैसे सबने मेहनत की हो और जीता हो विश्वकप। क्यों नहीं, सबकी दुआओँ और शुभकामनाओँ से भारत विश्वविजेता बना है। सबको बधाई।
जानकारों से हमने सुना है, नियति पूर्वनिर्धारित रहती है, जन्मलेख होती है। कुछ दूसरे जानकार कहते हैं कि नियति की रूपरेखा व्यक्ति के बाल्यावस्था के प्रारम्भिक चरणों में तय हुआ करती है, परिवेश में निवेश के द्वारा। पुपुल जयकर श्रीमती इन्दिरा गाँधी के संस्मरण लिखती हुई बताती हैं कि एक बार इन्दिराजी ने कहा था, “मैं लोगों से सहमति की अपेक्षा नहीं करती, पर यह अपेक्षा अवश्य रखना चाहती हूँ कि वे मुझे समझने का जतन करें।“ जीवन के जटिल समीकरण को समझने का एक विनम्र प्रयास।
संयुक्त परिवार के विघटन की प्रक्रिया के झञ्झावात से जूझकर एकल परिवार के उभड़ने की प्रक्रिया-जन्य यन्त्रणा के साथ अवदमित व्यक्तित्व की हिंसक अभिव्यक्ति से क्षत-विक्षत तथा विकृत भुक्तभोगी के रूप में जो व्यक्ति मेरे सामने उभड़ता है वह है हमारा नुनदा।
नुनदा हमारे बड़े भाई थे पाँच भाइयों और तीन बहनों में, बस केवल एक दीदी से छोटे। हमारे पिता आदर्शवादी आधुनिक विचारों से युक्त व्यक्ति थे जिन्होंने आधुनिक शिक्षा का आलोक फैलाने का व्रत ले रखा था। उन्होंने अपने विचारों को प्रतिष्ठापित एवं सम्मानित करने का व्रत लिया था, साधनों की कृच्छता एवम् अभाव की निरन्तरता के जीवन का वरण किया था। उन्होंने सोचा था कि उनकी सन्तानों को इस स्थिति से उद्दीपन मिलेगा अपनी व्यक्तिगत क्षमताओं को उपलब्धियों में रूपान्तरित करने का। ऐसा हुआ भी। पर नुनदा की संवेदनशील चेतना पर इस उद्दीपन की प्रतिक्रिया परिवार की आय और व्यवस्था में तात्कालिक योगदान करने की रही होगी कदाचित्। फलतः अपने को आगे की चुनौतियों के लिए सुसज्जित करने की प्रवृत्ति से वञ्चित कर लिया था उन्होंने। पिताजी के भोलेपन ने अगली पीढ़ी के लिए उनके स्वयम् के उच्च शिक्षा के एजेण्डा को धूमिल कर दिया था।
पिताजी मास के आरम्भ में अपना वेतन लाकर माँ के हाथ में दे देते और व्यवस्था की उलझन से अपने को निश्चिन्त रखा करते। माँ उस सीमित अल्प राशि में दैनिक व्यय-भार के साथ भविष्य को सँजोने का भी प्रयास करती होतीं। उनके एकमात्र सहयोगी, या सँवाग की भूमिका में रहते नुनदा, जो अभी किशोरावस्था में आए ही होंगे। माँ ने पिताजी के द्वार कोई उत्साह नहीं दिलाने के बावजूद उनका ही हाथ पकड़कर घर बनवाने के काम की शुरुआत कर दी थी । तब नुनदा हाई स्कूल की प्रारम्भिक कक्षाओं के छात्र रहे होंगे। पढ़ाई की अपेक्षा गृह कार्य में उनकी अधिक रूचि एवं झुकाव की नींव कदाचित तभी पड़ गई थी।
हाई स्कूल की परीक्षा में सफलता पाने के बाद उन्होंने उच्च शिक्षा से इनकार कर दिया। इसकी वजह शायद घर की आर्थिक अवस्था में योगदान देने का ख्याल भी रहा हो। पिताजी ने उन्हें बहुत समझाया, पर वे नहीं माने। इसके पहले हमारे मँझले भाई, जो अत्यन्त मेधावी तथा संभावनामय थे तथा इण्टर कक्षा में पढ़ रहे थे, का देहान्त हो चुका था। मेरी समझ है कि उन दोनों भाइयों में पारस्परिक स्नेह और निर्भरता का संबंध था। वे उस मानी में नुनदा की शक्ति एवं प्रकाश-स्तम्भ रहे होंगे। तब पिताजी ने नुनदा को अपने मित्र पंडित महेश्वर प्रसाद झा, जो जिले के प्रतिष्ठित एवं ख्यात वकील थे, के पास लॉ-क्लर्क के रुप में काम पर लगा दिया था। यहाँ उन्होंने बर्षों तक काफी मनोयोगपूर्वक तथा सफलता के साथ काम किया। वे दुमका में महेश्वर बाबू के घर पर ही बतौर पारिवारिक सदस्य रहते, और हर शनिवार की शाम को घर आते। सप्ताह भर की कमाई माँ के हाथों में दे देते और सोमवार की सुबह फिर दुमका काम पर वापस लौट जाते। इस बीच उनका विवाह हो चुका था। भाभी सबों के साथ घर पर ही रहती थीं। परम्परागत परिवार के विशुद्ध सैद्धान्तिक रूप में हमारा परिवार काम कर रहा था। नुनदा और पिताजी –दो व्यक्ति कमाऊ थे और हम भाई-बहन विद्यार्थी के रूप में थे। माँ के जिम्मे घर की व्यवस्था का भार था और उनकी सहायता भाभी किया करतीं।
ताराबाद की हमारी पैतृक खेतीबारी जो महाजन के पास गिरवी पड़ी थी, देना चुका कर वापस ले ली गई और हमलोग खेती बारी वाले बन गए थे।
वे दिन थे जब नुनदा का स्नेहशील, उदार और विनोदी रूप पूरे परिवेश पर उभड़ा रहा करता था। हमारी जरूरतों के प्रति हमेशा सजग और सक्रिय, साथ ही हमसे चुहल करना उनके लिए सहज सी बात थी। घर में गाय रखते थे वे, गाय के चारे का जुगाड़ करने, उसकी सेवा करने में मुझे मन लगता था, याद है अभी भी मुझे। एक बछड़ा रोग-ग्रस्त हो गया था, तो उसे मवेशी अस्पताल ले जाकर इलाज की व्यवस्था के साथ उसके घाव की ड्रेसिंग मैं करता था।
नुनदा की शादी उनकी नौकरी शुरु होने के पहले ही हो चुकी थी। भाभी सामान्य परम्परागत संयुक्त परिवार के वधु के प्रारूप में आदर्श आचरण की थीं। अपने समवयस्क एवम् अपने से छोटे देवरों ननदों के बीच वे घुलमिल गई थीं। सबों का ख्याल रखना, सुबह घर में सबसे पहले उठकर काम में लग जाना, रात में सबों के बाद बिस्तर पर जाना इत्यादि उनके लिए सहज दिनचर्या थी।
लग रहा था कि सब कुछ ठीक –ठाक चल रहा है। पर इस व्यवस्था में दरार थी। महेश्वर बाबू के घर पर रहते हुए नुनदा को अस्वस्तिकर स्थितियों से अक्सर साबिका पड़ा करता। उन्हें लगा करने लगा जैसे उस घर में उनकी हैसियत सदस्य की न होकर कर्मचारी की है। इधर हमारी भाभी दुमका पति के साथ रहना चाहती थीं। इस आशय का प्रस्ताव परोक्ष रूप से लाया भी गया , पर यह स्वीकार्य नहीं हुआ।
अब पिताजी की प्रबल असहमति के बावजूद नुनदा ने तय कर लिया कि वे दुमका का काम छोड़ देंगे, और ताराबाद की खेती देखने के साथ स्वतन्त्र व्यवसाय करेंगे। ऐसा निर्णय ले पाने में उन्हें भाभी की ओर से प्रभावकारी प्रेरणा मिली। वे अपने लिए अलग पहचान एवम् कृतित्व स्थापित करने को उद्यत हो उठी थीं। पिताजी की समझ थी कि खेती का काम हमलोगों के लिए निर्भर-योग्य तथा लाभदायी नहीं हो सकता, इसमें अनिश्चितताएँ सन्निहित थीं। यों भी बिना सिंचाई की व्यवस्था के खेती तो जीविका का निर्भर योग्य साधन नहीं ही हो सकता था उन दिनों।एक तो कृषि की अल्प जमीन, वह भी सिंचाई की कोई सुविधा नहीं , फिर ब्राह्मण होने के कारण स्वयम् हल नहीं पकड़ने की स्थिति।
समय बीतने के साथ हम अन्य भाई लोग भी कमाऊ हुए, पर नुनदा से एक महत्वपूर्ण फर्क हममें था कि हम सब बँधी-बँधाई नौकरियों में थे, जिसमें मास के अन्त में वेतन का मिलना निश्चित था; दूसरी ओर नुनदा खेतीहर एवं काठ के व्यवसाई ; जिसमें सब कुछ अनिश्चित। दूसरी महत्वपूर्ण बात थी कि हमारी आय पर माँ का आंशिक दावा ही रहा करता था। नुनदा में व्यवसायिक चतुराई के संस्कार नहीं थे ; वे न तो सफल खेतीहर हो पाए न सफल व्यवसाई, यद्यपि उन्होंने अनवरत परिश्रम तथा लगन कायम रखा था। उनकी सारी कमाई खेती में लगती रहती , फिर भी सुरसा का मुँह नहीं भरता। संयुक्त परिवार का ढाँचा कायम था, पर उसकी यह काया निष्प्राण हो चुकी थी। नुनदा इस संक्रमण के बावजूद संयुक्त परिवार के प्रोटोकॉल से ही सीमाबद्ध रह गए थे। अपने लिए कोई शौक नहीं, शरत् चन्द्र के विप्रदास की भाँति अपनों में एकात्म, एकल परिवार की व्यावहारिक संकीर्णताओं एवं प्रैग्मैटिज़्म को सम्मानित करने में असमर्थ रह गए थे वे। संयुक्त परिवार के एकल स्वरूप में संक्रमण, सहोदर की प्रतिद्वन्द्विता(sibling rivalry), आर्थिक असफलता एवं इन सबके साथ अपनों के अवदमित व्यक्तित्व नुनदा को अपदस्थ करने के आक्रामक और हिंसक प्रयास उन्हें लहूलुहान करते रहे थे।
बेटे-बेटियों के वैवाहिक संबंधों को अञ्जाम देने के मामले में भी वे विडम्बना की स्थिति में रहे थे। बेटियों की शादियों की जिम्मेदारी उन्हें खुद निभानी पड़ी थी, जब कि उनके बेटों की शादियों में गणेशजी कर्त्ता की असरदार भूमिका में रहे। एक समानान्तर तस्वीर रही, जब बुत्तुदा ने अपनी बेटी की शादी के समय गणेशजी को दिया गया अभिभावकत्व अपने बेटे का विवाह संबंध तय तथा संपादित करते वक्त वापस ले लिया था।
वे नितान्त अकेले रहे थे। मुझे याद है तब मैं पटना में काम करता था, नियमित छुट्टियों में देवघर आया था। मित्र के बीच बैठा हुआ था मैं, तभी नुनदा उधर से गुजरे। उनके बदन पर धोती के साथ एक गञ्जी मात्र थी, कमीज या कुर्ता नहीं। मुझे ग्लानि सी हुई। घर पर आकर माँ से मैंने कहा कि नुनदा कमीज क्यों नहीं पहनते। माँ ने कहा कि उसके पास पैसे नहीं होते। मुझे यह बात जँची नहीं , मैंने उससे कहा कि मेरे पास तो हैं। तो माँ ने कहा कि उसको पैसे मिलेंगे तो वह कमीज सिलवाने के बजाय किसी काम में लगा देगा। तुम बनवा दो उसकी कमीज। मैंने कहा कि मैं अपने बड़े भाई को नहीं कह सकता कि मैं आपकी कमीज सिलवा दूँगा। तुमको मैं पैसे दे देता हूँ, तुम सिलवा देना। मुझे याद है मैंने दस रूपए माँ को दिए थे , तब दस रूपयों में एक कमीज बन जा सकती थी। एक सप्ताह बाद जब पटना से वापस आया तो माँ ने बतलाया कि नुनदा को जब उनसे सारी बातें मालूम हुईं तो जिद्द करके पैसे ले लिए और ताराबाद जाकर किसी मजदूर को दे दिया। कमीज नहीं ही बनी।
एक और तस्वीर। नुनु अपनी इकाई के साथ देवघर से टाटा जा रहा था। घर से निकलकर रिक्शे की प्रतीक्षा कर रहे थे वे सब। उन्हें घेरे हुए उसके चाचा-चाची और बच्चे तथा उसकी माँ थीं। मैं भी वहाँ था, तभी मैंने देखा सड़क के दूसरी ओर कुछ दूरी पर नुनदा खड़े होकर इधर ही देख रहे थे। किसीका ध्यान उन पर नहीं था, वे भी जैसे अपनी उपस्थिति छिपा रहे थे। रिक्शा आया, नुनु , बहू एवं बच्चे चढ़ गए, रिक्शा चल दिया , हम सब घर की और मुड़ गए और नुनदा उलटी तरफ। अपनी कोमल भावनाओं को परोक्ष रूप से भी अभिव्यक्त करने के अवसर ग्रहण करने की सुविधा से जैसे अपने आपको वञ्चित किया हुआ था उन्होंने।
एक बार उन्होंने मुझसे कहा था कि तुम सब भाई मुझे नियमित रूप से एक निर्दिष्ट राशि दिया करो। मैंने उनके इस प्रस्ताव पर हैरानी व्यक्त की तो उन्होंने कहाथा, “ इसमें ग़लत क्या है? अगर मेरी कमाई पर तुम सब का हक हो सकता है तो तुम्हारी कमाई पर मेरा हक तो बनता ही है।” मैं उनके भोलेपन के सामने निरूत्तर रह गया था। यद्यपि उनसे मैंने कहा था कि विघटित होते हुए परिवार में बड़ा भाई होना एक विडंबना है। मेरी उनके साथ समानुभूति (empathy) थी। मैं अपनी सीमाओं के अन्दर उन्हें अपने सम्मान, स्नेह, स्वीकृति और समानुभूति के एहसास दिलाते रहना चाहता था , किन्तु विधि का परिहास हमारे साथ चलता रहा था। भाभी तथा उनके बच्चे मेरे साथ संबंध के मामले में गणेशजी से सहमति रखते थे कि यथासंभव मुझे अप्रतिष्ठित किया जाए।
बहुत साल पहले हमारे बड़े बहनोई (दीदी के पति) बाबू ने जमीन का एक प्लॉट नुनदा के नाम से खरीदा हुआ था। दीदी का देहान्त हो गया, फिर बाबू का भी। आज से पाँच-छः साल पहले हमारे भगिना लोगों ने नुनदा को कहा कि वे जमीन को उनके नाम स्थानान्तरित कर दें। नुनदा के बेटे इसका विरोध कर रहे थे। उनका कहना था कि जब यह जमीन नुनदा के नाम से खरीदी गई है तो इस पर उनके बेटों का अधिकार है। नुनदा से तब मुझे उनकी बात सुनने का इत्तिफाक़ हुआ ता, “ मेरे बेटा कहता है कि अगर आप जमीन लिख देंगे तो आपका खाना-पीना और अन्य सेवा बंद हो जाएगी। तुम ही बताओ यह जमीन तो बाबू की है, अगर मैंने उनके बेटों के हवाले नहीं किया तो ऊपर जाने पर दीदी- बाबू को क्या जवाब दूँगा ?” बहुत बाद में भगिना लोगों से मुझे मालूम हुआ कि नुनदा ने जमीन भगिना लोगों के नाम स्थानान्तरित कर दिया था अपने बेटों के तमाम अवरोधों के बावजूद।
माननीय अन्ना हजारे जी ने दिल्ली के जंतर मंतर में एक अभूतपूर्व जन आन्दोलन लोकपाल विधेयक के लिए और इसकी ड्राफ्टिंग कमेटी में जनता के प्रतिनिधित्व और इसके स्वरुप को लेकर छेड़ा, इस देश के आम नागरिकों ने स्वमेव आगे आकर प्रबल समर्थन दिया केंद्र की सरकार को झुकाना पड़ा ,अन्ना जी की कल्पना व्यावहारिक सिद्ध हुवी सरकार ने ड्राफ्टिंग कमेटी में सुझाये गए लोगों का नाम शामिल किया,लोकपाल बिल के लिए अधिसूचना जारी हुवी , १० लोगों की ये कमेटी १६ अप्रेल से ड्राफ्टिंग का काम प्रारंभ करेगी -मानसून सत्र में लोकपाल विधेयक संसद में जाएगा .ये सारी प्रक्रिया इस बात का प्रतीक है की भारत में बढ़ाते हुवे भ्रस्ट आचरण से जनता अब परेशान हो चुकी है ,अब हर कोई भ्रष्टाचार मिटने की बात कर रहा है सभी निश्चित रूप से बधाई के पात्र हैं . आमरण अनसन समाप्त होने के बाद विभिन्न राजनितिक दलों ने अपने अपने बेसुरे राग छेड़ दिए हैं कोई कहता है की लोकपाल विधेयक से कुछ नहीं होने वाला है ,कोई ये कहता है की इससे भ्रष्टाचार समाप्त नहीं होगा ,किसी ने ये कह दिया की सभी नेता भ्रस्ट नहीं होते सभी की अपनी अपनी ढपली अपना राग किन्तु सच्चाई ये है की चाहे नेता हो या अधिकारी किसी ना किसी रूप में आज प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रूप में हर कोई भ्रष्ट है ,ये आज की जीवन शैली हो गई सहज रूप में स्वीकार्य स्थिति में आज इसे स्थान मिल रहा है इसी लिए एक बड़ी चिंता की बात देश के समक्ष खड़ी हो गई है इसी मर्म को समझ कर देश की प्रबुद्ध जनता जनार्दन ने इस आन्दोलन को अपना समर्थन दिया ,कुछ नेताओं का पेट गड़बड़ा गया उन्होंने ये कहा की “एक वर्ग विशेष” द्वारा दबाव बनाया गया ,अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर देश की ये छबी जा रही थी की देश के सभी नेता बेईमान हैं इस लिए दबाव में आकर केंद्र सरकार ने अन्ना जी की बात मान ली ये बात हास्यास्पद तो है ही किन्तु जो लोग कहतें हैं की दबाव में आकर वो भी “एक वर्ग विशेष” के दबाव में आकर,सरकार झुकी कह रहें हैं ,क्या इतना बड़ा स्वस्फूर्त आन्दोलन जिसमें देश के हर वर्ग ने अपना समर्थन दिया -वो वर्ग विशेष का सहयोग था ? क्या इसे आम व्यक्ति का आन्दोलन नहीं कहा जाएगा ? जहाँ तक सभी नेता भ्रस्ट नहीं होते की बात है तो ये भी सच है की ” सभी नेता नेता नहीं होते ” कुछ लोग आज भी इस देश में है जो जन सेवा के उद्देश्य को सर्वोपरि मान कर अपने सार्वजनिक जीवन में उदहारण स्थापित कर रहें हैं . एक समय था जब नेता का लोग अंतरात्मा से सम्मान करते थे ,किन्तु धीरे धीरे अपने कृत्यों से आम मानस के मन में नेता ने ये बात बैठा दी है की सार्वजनिक जीवन में लोग अपना स्वार्थ सिध्ध कर रहें हैं जन सेवा जैसी अब कोई बात नहीं रही है,सभी नेता भ्रस्ट नहीं हैं ये बात सही है ,ये बात भी सही है की सभी नेता- नेता नहीं होते ,इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता की सभी सांसद आज वास्तव में जन प्रतिनिधि तो हैं किन्तु किसी भी लोक सभा क्षेत्र के कुल मतदाताओं का मात्र १५% वोट पाकर भी आज सांसद विधायक बन जाता है ,इसके लिए भी “अनिवार्य वोटिंग ” का नियम बने ,तब कहीं जाकर कुछ सुधर संभव है ,ये सच है की देश में लोकतंत्र अब दुनिया के लिए मिसाल बन गया किन्तु परदे के अन्दर और बाहर वोटो का जो खेल होता है वो कहीं ना कहीं दीमक का काम कर रहा है ,अल्प मतों से जीत के बाद सांसद विधायकों से बनी सरकारें भी अब तो जोड़तोड़ का प्रतिनिधित्व,गढ़बंधन धर्म निभाने की बातें कर सिध्धान्तों की बलि चढ़ा रहीं हैं ,वर्तमान में केवल गुजरात की सरकार ही एक ऐसी सरकार है जिसने ५०% से ज्यादा वोट पाकर सरकार बनाई है ये एक दृष्टिकोण है की सभी नेता भ्रस्ट नहीं होते सभी नेता नेता नहीं होते सभी सांसद विधायक सही जन प्रतिनिधि नहीं होते ,सभी सरकारें ५०% से जयादा वोट पाने वाली नहीं होतीं ,इस लिए केवल एक आन्दोलन से घबराना नहीं चाहिए बल्कि सहज रूप से इस बात को मान लेना चाहिए की देश की ९५% जनता अब भ्रस्टाचार से दुखी हो गई है ,वो अब आश्वासन नहीं समाधान चाहती है ,ये चाहत किसी वर्ग विशेष की नहीं बल्कि देश के हर आम और ख़ास की शसक्त और बुलंद आवाज़ है,जो किसी भी प्रकार के ढोल नगाडो या शोर गुल तले दबाने या दबने वाली नहीं हैं . लोकतंत्र इस देश की साख है ,दुनिया में हम सबसे बड़े प्रजातान्त्रिक देश के रूप में जाने जाते हैं ,समय के साथ साथ ६१ वर्षों में संविधान में अनेकों बार संसोधन किये गए ,अब वर्त्तमान परिस्थितियों में दो महत्वपूर्ण संसोधन अपेक्षित है – (१) अनिवार्य वोटिंग -देश के सभी मतदाताओं को अनिवार्य वोटिंग के लिए नियम बनाए जा सकते हैं ,जैसे वोटिंग कार्ड -वोट देने वाले मतदाता के कार्ड पर अंक देकर उसे प्रेरित किया जा सकता है .जिससे साबित होगा की मतदाता केवल कहने के लिए या पहचान भर के लिए वोटर नहीं है बल्कि इसने वास्तव में मतदान भी किया है . (२) किसी भी दशा में जीतने वाले प्रत्याशी को ५०% से ज्यादा वोट प्राप्त करने ही होंगें ,अन्यथा फिर से मतदान कराया जाएगा ,जीत के लिए ५०% से ज्यादा वोट प्राप्त क़रने की अनिवार्यता के कारण जनता को अपना सही जन प्रतिनिधि भी मिलेगा और साथ ही साथ चुनाव और नेता को लेकर उठाये जाने वाले अनेक संदेह भी बंद हो जायेंगें ,हो सकता है की प्रारंभ में हमें थोडा कठिन परिश्रम करना पड़े किन्तु वास्तव में ये जब होने लग जाएगा तो एक परिपक्व प्रजातंत्र हमारी पहचान अलग ढंग से बनाएगा . इस प्रकार से जब जनप्रतिनिधि चुने जायेंगें तो लोकपाल विधेयक के साथ ही साथ हम उम्मीद कर संकेगें की जनता -नेता -प्रशासन-शासन सब कुछ ठीक हो सकेगा ,या उम्मीद की कुछ किरणे ज़रूर प्रज्वलित होंगीं
बिहार में महाराष्ट्र की तरह दलित आंदोलन तो नहीं दिखता है, लेकिन यहां की जमीन, दलित उत्पीड़न-जुल्म-सितम और दलित चेतना-अवचेतना से भरी पड़ी है। देशा के अन्य भागों की तरह बिहार के दलित अभी भी हाशिए पर हैं। दलित आंदोलन को लेकर महाराष्ट्र की तरह कोई बड़ा आंदोलन यंहा नहीं दिखता है। लेकिन दलित का दर्द। दलित की पीड़ा, यहां साफ झलकती है। जहां तक दलित आंदोलन को गति देने में या आंदोलन में साहित्य की भूमिका की बात है तो देखा जाए तो ज्यादा प्रभावशाली नहीं दिखता है। दलित आंदोलन से जुड़े लोगों का साफ मानना है कि यहंा ऐसा कुछ नहीं। मतलब, बिहार में ठहराव की स्थिति में दलित आंदोलन व साहित्य है ?
हालांकि ऐसा नहीं है कि बिहार में दलित आंदोलन को गति देने में यहां के सहित्यकारों ने अहम् भूमिका नहीं निभायी हो। दलित और गैर दलित साहित्यकारों ने अपनी-अपनी रचनाओं से समय-समय पर गति प्रदान करने की पूरजोर कोशिश की है, लेकिन वह धार-तेवर नहीं दिखता जो दिखना चाहिए था। एक दौऱ में बिहार में दलित आंदोलन को साहित्यकारों ने उठाया भी था लेकिन धीरे-धीरे उसमें ठहराव आने लगा और आज उसमें इतना ठहराव आ गया है कि बिहार के दलित आंदोलन में यहंा के गैर और दलित साहित्यकारों की गोलबंदी नहीं के बराबर दिखती है। हालांकि, दलित आंदोलन और दलित पीड़ा को व्यवस्था, सामाज के सामने लाने की पहल वर्षों पहले हुई थी, वह भी एक दलित के माध्यम से।
बिहार के दलित आंदोलन में हीरा डोम की भूमिका काफी सराहनीय और आज भी मजबूती लिए हुए है। हीरा डोम ने दलितों की पीड़ा संवेदना को (अपनी कविता) ‘‘अछुत की शिकायत’’ से की थी। भोजपुरी में लिखी यह कविता सरस्वती के 1914 के अंक में प्रकाशित हुई थी। इस कविता में उस समय जो दलितों की पीड़ा थी, समाज में भेदभाव था, दलित को लेकर अमानवीय व्यवहार था, उसे कविता में पीरोकर हीरा डोम ने सरकार और भगवान को घेरने की सार्थक कोशिश तो की थी। साथ ही, समाज को भी कठघरे में लाकर खड़ा किया था। हीरा डोम ने दलितों के साथ गैर बराबरी के व्यवहार को इतनी मजबूती से उठाया था कि उसके एक-एक शब्द आज भी प्रसांगिक तो है ही और दलित आंदोलन से जुड़े लोगों के समक्ष सवाल भी खड़े करते हैं कि, वर्षों बाद भी आज बिहार में दलितों के साथ वहीं व्यवहार हो रहा है जो हीरा डोम के दौर में था या उससे पहले। सरकार बदली, व्यवस्थाएं बदली, लोग बदले, समाज और देश बदला लेकिन समाज के अंदर बराबरी और गैरबराबरी का दंष नहीं हटा। दलितों की पीड़ा आज भी बिहार में या फिर दिनो-दिन घटनाओं में साफ झलकती है। मंदिर में घुसने का सवाल हो या दलितों के साथ बलात्कार, उत्पीड़न या यों कहें हर जुल्म-सितम जारी है। कहने के लिए सरकार / व्यवस्था में दलितों का राजनीतिकरण कर दिया है। दलितों के विकास और समाज के मुख्यधारा से जोड़ने के लिए महादलित आयोग बना दिया गया है लेकिन, साल दर साल गुजरता जा रहा है। दलित की पीड़ा संवेदना जस की तस है। हमारे साहित्यकार बंधु भी ठस से मस नहीं हो रहे हैं। एक दौर था जब यहां के गैर दलित साहित्यकारों ने दलित संवेदना को उठाते हुए कई रचनात्मक कार्य किये और समाज को सोचने पर विमर्श कर दिया। चर्चित कथाकार मधुकर सिंह की कहानी दुश्मन आज भी उतना ही प्रसांगिक है जितना उन्होंने उस दौर में लिखी थी। मधुकर सिंह ने लगातार दलित पिछड़ों को केंद्र बनाकर रचनाकर्म करते रहे। मधुकर सिंह के बाद मिथलेश्वर, राजेन्द्र प्रसाद, प्रेम कुमार मणि, रामधारी सिंह दिवाकर, कामेंदुु शिशिर, रामयतन यादव सहित कई लेखकों ने अपनी रचनाक्रम से दलित आंदोलन को एक आयाम देने की कोशिश की है। इस दिशा में कुछ लोग तो काम कर रहे हैं, लेकिन कुछ लोग वही पर राजनीति की वैशाखी पकड़ चुके हैं। उनका लेखन कुंद हो चुका है। कहने के लिए वे लिख तो रहे हैं, लेकिन जो तेवर वर्षों पहले उनके लेखन में दलित संवेदना को लेकर थी वह अब नहीं दिखती है। जहां तक दलित लेखकों का सवाल है तो बिहार में दलित लेखकों का आंदोलन से भी उतना जुड़ाव नहीं हुआ जितना होना चाहिए। लगातार कोई लेखन नहीं हो रहा है। छिटपुट तौर पर दलित संवेदना को उठाते हुए आंदोलन खड़ा करने का प्रयास किया जा रहा है। दलित लेखकों ने बाबूलाल मधुकर, रामाशंकर आर्या, बुद्ध शरण हंस, मुसाफिर बैठा, सुकन पासवान प्रज्ञा चक्ष्युु,, राकेष प्रियदर्शी, सहित कई रचनाकर हैं जो लिख तो रहे हैं लेकिन लगातार लिखते हुए दलित आंदोलन को जमीनी हकीकत नहीं दे पा रहे हैं।
बिहार में दलित आंदोलन को गति देने में साहित्यकारों की भूमिका के ठहराव पर मुसाफिर बैठा कहते हैं कि लेखक आज मुद्दों को छोड़कर लिख रहे हैं। ऐसा नहीं है कि बिहार में दलित आंदोलन की जरूरत नहीं है यहां भी दलितों के साथ वह सब कुछ हो रहा है जो अन्य जगहों पर। वर्षों से यहंा के दलित, पीड़ित उपेक्षित हैं। जहां तक साहित्यकारों की भूमिका की बात है तो ऐसा लगता है कि सबकुछ बाजारवाद की चपेट में है और ऐसे में देखा जाए तो बिहार में न तो दलित आंदोलन दिखता है और न ही आंदोलन से जुड़ा साहित्य। दलित आंदोलन से जुड़े शिव कुमार कांत का मानना है कि वर्तमान दलित आंदोलन में भी कमी है और दलित साहित्यकार की भूमिका का इसमें घोर अभाव है। देखा जाए तो इससे जुड़े दलित साहित्यकार, दलित समाज का दर्पण नहीं बनाकर आर्थिक दर्पण बना रहे हैं और जब साहित्य में आर्थिक दर्पण दिखेगा तो वैसे में साहित्य कभी भी सामाजिक आंदोलन का दर्पण नहीं बन सकता। जैसे एच.एल. दुसाध ने डायभरसीटी पुस्तक लिख है और उसमें दलितों के आर्थिक समस्या को उठाया है।
बिहार का कथा साहित्य काफी मजबूत स्थिति में हैं। देश भर में छपने वाले साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं में 75 प्रतिशत लेखक बिहार और उत्तर प्रदेश से होते हैं। इसमें बिहार की संख्या काफी होती है। पत्र-पत्रिकाओं के संपादक इस बात को स्वीकार कर चुके हैं। अब सवाल उठता है कि कथा साहित्य में बिहार इतना समृद्ध होते हुए भी दलित चेतना, संवेदना और आंदोलन से क्यों नहीं जुड़ पाया। हालात यह है कि बिहार में दलित रचनाधर्मी को चिन्हित करना मुश्किल है। यह स्थिति दुर्भाग्यपूर्ण है। इससे निपटने की पहल तक नहीं हुई। न दलित वर्ग से और न ही गैर दलित वर्ग से। बिहार की जमीन उर्वरक तो है और इसकी पड़ताल होनी ही चाहिये कि आखिर ऐसा क्यों हुआ। कभी कभी दलित व गैर दलित संस्थाओं द्वारा सेमिनार/गोष्ठी भर कर देने से कुछ नहीं होगा। एक अलग से दलित सांस्कृतिक आंदोलन की जरूरत यहां महसूस की जा रही है। दलित आंदोलन की गुंजाइश रहने के बावजूद यहां कुछ नहीं होने के पीछे केवल बिहार के दलित व गैर दलित साहित्यकारों/ चिंतकों को दोषी नहीं माना जा सकता है। देखा जाये तो बिहार के बाहर के दलित व गैर दलित साहित्यकारों/ चिंतकों ने भी इस दिशा में कोई कारगर पहल की शुरूआत यहां आ कर नहीं की।
दलित आंदोलन के लिए विचारधारा व जन जागृति से जुड़े मुद्दे चाहिए लेकिन इन सभी चीजों की कमी बिहार में साफ दिखती है। बिहार में दलित आंदोलन को फैलने से राजनीतिक पार्टियों से जुड़े कुछ हरिजन नेताओं पर आरोप लगाया जाता रहा है कि उनकी वजह से बिहार में दलित आंदोलन की गति अवरूद्ध हुई। बिहार में बाबा साहेब के आंदोलन को रोकने का प्रयास हुआ था। जब वर्ष 1952 में पटना के गांधी मैदान में बाबा साहेब डॉक्टर भीम राव अम्बेडकर सभा को संबोधित करने आये थे, तब इस सभा में कुछ तथाकथित राजनीतिक दलों से जुड़े दलित नेताओं ने बखेड़ा खड़ा कर दिया था। सभा के दौरान बाबा साहेब पर पत्थर तक भेंके गये थे। बिहार में दलित आंदोलन को पीछे धकेलने के लिए यह घटना काफी थी। दलित आंदोलान के साथ यह राजनीति यही नहीं रूकी, बल्कि जारी रही। राजनीतिक पार्टियों पर आरोप लगता रहा कि एक साजिश के तहत दलितों का इस्तेमाल हर दल ने वोट बैंक के तौर पर किया। बिहार के सत्ता में दलित भागीदारी नहीं के बराबर रही। हालांकि बिहार की सत्ता पर दलित मुख्यमंत्री भी आसीन हुए, देश-राज्य की सत्ता में बिहार से कई दलित राजनेता शिखर पर पहुंचे, लेकिन उन्होंने राजनीति में दलित भागीदारी पर कोई कारगर प्रयास नहीं किया। राजनीतिक उदासनीता की वजह से ही आज बिहार में दलित आंदोलन हाशिये पर है। बिहार में अगड़ा-पिछड़ा की राजनीति तो खूब हुई लेकिन दलित उपेक्षित रहे। इसकी वजह साफ है राजीतिक उदासनीता और इसमें रचनाधर्मी भी शामिल रहे।