मुकुल मिश्रा
कोलकाता के मेट्रो चैनल के पास लोग अन्ना हजारे के समर्थन में प्रदर्शन कर रहे थे. संख्या हजारों में थी. अधिकतर युवा, शिक्षित अथवा कॉलेज जाने वाले विद्यार्थी! मैं भी अन्ना साहब को नैतिक समर्थन देने के लिहाज से वहाँ उपस्थित था. लेकिन जब वहाँ उपस्थित कुछ लोगों से जनलोकपाल बिल के बारे में उनके विचार पूछा तो उत्तर चौंकाने वाले थे. अधिकतर लोगों को जनलोकपाल बिल के बारे में कोई जानकारी हीं नहीं थी. किसी ने कहा कि अन्ना भ्रष्टाचार के विरुद्ध अनशन पर है. जिन्हें बिल के बारे में जानकारी थी उनकी जानकारी भी बेहद कम थी और वे भी बिल का विश्लेषण कर पाने कि स्थिति में नहीं थे. यानि अन्ना के पीछे मुस्तैद लोगों को असल में पता हीं नहीं कि वे लड़ाई क्या लड़ रहे हैं. और यही बात सोशल मीडिया (फेसबुक और ट्विटर) पर कांग्रेस अथवा कहें कि भ्रष्टाचार के समर्थक कह रहे हैं. लेकिन बस वही नहीं कह रहे हैं और भी लोग हैं सवालों के साथ. यद्यपि ध्यान देने वाली बात यह है कि अन्ना के आंदोलन और उनके साथ खड़े लोगों का महत्व इससे कम नहीं हो जाता है कि उन्होंने जनलोकपाल बिल का सूक्ष्म निरिक्षण नहीं किया है. बल्कि सिक्के का दूसरे पहलू यह है कि जनता भ्रष्टाचार से इतनी तंग आ गई है कि एक ईमानदार आदमी दिखा नहीं और बिना सवाल जवाब के उसके पीछे खड़ी हो गई. कोलकाता से लेकर चेन्नई तक और छोटे-छोटे कस्बों तक में लोग उनका समर्थन में आगे आ रहे हैं. जनता यदि इसे जनलोकपाल से अधिक भ्रष्टाचार के समूल विनाश कि लड़ाई मान रही है तो यह सुखद हीं है.
मैं अगर अपनी बात करूँ तो अभी तक तय नहीं कर सका हूँ कि अन्ना की मांग उचित है अथवा अनुचित. क्या यह सांसद के प्रतिष्ठा का हनन नहीं होगा कि एक प्रस्तवित बिल का मसौदा एक अधिकार प्राप्त कमिटी तैयार करे जिसमे अनधिकृत लोग शामिल हों अर्थात जनता ने संवैधानिक तौर पर उन्हें यह अधिकार नहीं दिया हो. बेशक प्रत्येक बिल पर अपनी राय प्रकट करने का अधिकार देश की जनता को है लेकिन अधिकारप्राप्त कमिटी यदि संसद से बाहर हो और संसद को ऐसे प्रस्तवों को पारित करने के लिए मजबूर किया जाये तो क्या यह एक गलत परिपाटी कि शुरुआत नहीं होगी. बेशक हमारे नेता विश्वास के योग्य नहीं है लेकिन उन्हें निर्वाचित तो जनता ने हीं किया है. बेशक अन्ना हजारे और उनके साथियों की विश्वसनीयता हमारे नेताओं से अधिक है लेकिन उनका किसी कानून बनाने वाली समिति में अधिकारपूर्वक प्रवेश करने की जिद्द लोकतंत्र का हनन और संसदीय राजनीति का अपमान नहीं तो और क्या है?
यदि जनलोकपाल बिल की बात करें तो यह भी कोई अमृत का घड़ा नहीं है. यह लोकायुक्त को असीमित शक्ति देता है. भला यह कौन निश्चित करेगा कि वह अपने शक्ति का दुरुपयोग नहीं करेंगे. क्या यह सामानांतर सत्ता नहीं होगी. हमारी सरकार और सांसद तो फिर भी 5 वर्षों के बाद जनता को जवाब देने आते हैं लेकिन यदि लोकायुक्त मनमानी करे तो उसे भला किसकी जवाबदेही है?
लेकिन फिर सोचता हूँ कि जब पिछले 60 सालों में संसदीय राजनीति भ्रष्टाचार की जननी हीं प्रमाणित हुई है तो फिर उसके अवमूल्यन का दोष जनता का कैसा? जब किसी एक घोटाले में देश के प्रत्येक नागरिक के जेब से लगभग 1700 रुपये निकाल लिया जाता है. जब अवैध रूप से खनिजों की खुदाई में हमारे नेता और मंत्री कर्णाटक और आँध्रप्रदेश की सीमा तक भूल जाते हैं, जब भाजपा से लेकर कांग्रेस तक के रेड्डी एक हीं तरह के नजर आते हैं. जब कॉमनवेल्थ खेलों में टॉयलेट पेपर से लेकर टिकट बेचने तक में धांधली करनेवाला इसी संसद का सदस्य हो, जब बलात्कार से लेकर अपहरण और हत्या से लेकर तस्करी तक के आरोपी संसद की शोभा बढ़ा रहे हैं, जबकि अन्य देश में हत्या का आरोपी और एक विदेशी नागरिक तक लोकतंत्र के इस मंदिर में पुजारी रह चूका है जब इसी संसद के सदस्य नोटों से ख़रीदे और बेचे जाते हैं तो फिर उस पर नकेल कसने कि जिम्मेवारी भी उसे हीं कैसे सौंपी जा सकती है. कुल मिलाकर जब संसद ने स्वयं हीं अपनी प्रतिष्ठा और विश्वसनीयता को तार-तार कर दिया है तो उसके विशेषाधिकार की चिंता अब कौन करे?
यदि लोकायुक्त द्वारा अपनी शक्ति का दुरुपयोग करने का भय है तो क्या संप्रग सरकार समर्थन जुटाने के लिए सीबीआई का दुरुपयोग नहीं करती? किसे नहीं पता कि क्यों मुलायम और मायावती उत्तर प्रदेश में तो सांप और नेवले की लड़ाई लड़ते हैं लेकिन 10 जनपथ के चौखट पर एक साथ नाक रगड़ते हैं?
लगभग यही सवाल दौर रहे हैं और जवाब भी कुछ ऐसे हीं है और कमाल की बात है कि दोनों पक्ष हीं पूरी तरह सही है और किसी एक को भी नकारना बिल्ली को देखकर कबूतर के आँख बन्द करने जैसा है.
कुछ लोग तो यहाँ तक कह रहे हैं कि अन्ना हजारे दूसरे जयप्रकाश नारायण (जेपी) साबित होंगे और अधूरे सम्पूर्ण क्रांति को सम्पूर्ण करेंगे. लेकिन यकीन मानिये ऐसा होगा नहीं क्योंकि आज परिस्थितियां भिन्न है. जेपी कि लड़ाई निरंकुश होती जा रही इंदिरा के खिलाफ था. लेकिन अन्ना भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ रहे हैं जिसके कीटाणु कमोबेश सभी पार्टियों में हैं. जेपी ने सत्ता परिवर्तन के रास्ते व्यवस्था परिवर्तन का सपना देखा था लेकिन अन्ना हजारे जनजागरण के रास्ते हीं व्यवस्था परिवर्तन की बात सोच सकते हैं. यानि अन्ना सीधे तौर पर सत्ता पर हमला कर रहे हैं न कि सत्ताधारी पार्टी पर.
तो आखिर होगा क्या? सरकार अन्ना को अनसुना कर देगी? यह असंभव है. कांग्रेस को अच्छी तरह पता है कि अन्ना का आज की स्थिति में जंतरमंतर पर डटे रहना उसे कितना महंगा पड़ेगा. दूसरे यदि अन्ना को कुछ हो गया (भगवान न करे) तो फिर जो आग लगेगी उसमे 10 जनपथ भी जलेगा. उन्हें अन्ना को सुनना हीं होगा और एक समझौते पर पहुँचाना हीं होगा.
लेकिन इस लड़ाई कि सार्थकता इसी में है कि बात जनलोकपाल बिल तक न रहकर आगे तक जाये और भ्रष्टाचार के खिलाफ एक माहौल बने. यानि जंतरमंतर इतना शक्तिशाली प्रतिक बने कि संसदीय राजनीति उसे नकार न सके. लेकिन जंतरमंतर भारतीय संसद का विकल्प बनने की कोशिश भी न करे. इसी में लोकतंत्र का भी हित है और देश का भी.