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लगता है बाबा रामदेव से कांग्रेस डर गई

डॉ. मनीष कुमार

 

राजनीति और अध्यात्म में सबसे बड़ा फर्क़ यह है कि आध्यात्म मनुष्य को मौन कर देता है, जबकि राजनीति में मौन रखना सबसे बड़ा पाप साबित होता है. बाबा रामदेव के हमले के बाद कांग्रेस पार्टी अध्यात्म की ओर मुड़ गई है, उसने चुप्पी साध ली है. यह चुप्पी किसी योजना या रणनीति का हिस्सा नहीं है, बल्कि डर का परिणाम है. बाबा रामदेव और उनके सहयोगियों ने काले धन की आड़ में कांग्रेस और गांधी परिवार पर हमले किए. उनका आरोप है कि राहुल गांधी को रूस की खुफिया एजेंसी केजीबी से पैसे मिलते हैं. राजीव गांधी ने स्विस बैंक में काला धन जमा किया. कांग्रेस सरकार ने क्वात्रोकी के बेटे को अंडमान निकोबार में तेल की खुदाई का ठेका दिया. काला धन जमा कराने वालों में केंद्रीय मंत्री विलासराव देशमुख और सोनिया गांधी के राजनीतिक सलाहकार अहमद पटेल का नाम लिया गया. इन आरोपों के जवाब में पार्टी ने मौन धारण कर लिया है. लगता है, बाबा रामदेव से कांग्रेस पार्टी डर गई है.

बाबा रामदेव और कांग्रेस पार्टी के बीच चल रही लड़ाई एक दिलचस्प मोड़ पर पहुंच गई है. रामदेव के तेवरों में तल्खी अभी भी बरकरार है, वह रह-रहकर दहाड़ उठते हैं, लेकिन कांग्रेस ने अचानक चुप्पी साध ली है. कांग्रेस की यह चुप्पी कई सवाल खड़े कर रही है. समूचे देश की निगाहें कांग्रेस की ओर हैं कि वह बाबा एवं उनके सहयोगियों द्वारा लगाए गए आरोपों पर अपनी सफाई पेश करे, ताकि सच सबके सामने आ सके.

दरअसल, यह मामला अरुणाचल प्रदेश में शुरू हुआ. बाबा के शिविर में कांग्रेस के सांसद निनोंग एरिंग मौजूद थे. बाबा रामदेव अपने शिविरों में योग के साथ-साथ राजनीति की बातें करते हैं. बाबा ने गांधी परिवार पर कुछ टिप्पणी की तो सांसद एरिंग ने विरोध किया. बाबा का आरोप है कि कांग्रेसी सांसद ने उन्हें ब्लडी इंडियन कहा. वहां मीडिया था, कैमरे थे, इस पूरे मामले का वीडियो इंटरनेट पर भी उपल्ब्ध है. घटना के बाद बाबा रामदेव का बयान भी है, लेकिन हैरानी इस बात की है कि सांसद ने जो कुछ कहा, उसका वीडियो कहीं नहीं दिखा. निनोंग एरिंग स़फाई देते रहे कि उन्होंने ऐसा कुछ भी नहीं कहा, लेकिन तीर कमान से निकल चुका था. बाबा रामदेव और कांग्रेस की जंग शुरू हो चुकी थी. इसके तुरंत बाद कांग्रेस के प्रो-एक्टिव महासचिव दिग्विजय सिंह ने मोर्चा संभाला. बाबा रामदेव द्वारा कांग्रेस के खिलाफ बयानबाजी और गांधी परिवार पर आरोप लगाने की उन्होंने भर्त्सना की और बाबा के धन का हिसाब मांग लिया. दिग्विजय सिंह ने कहा कि बाबा रामदेव के पास इतने पैसे कहां से आए, इसका भी हिसाब उन्हें देना चाहिए. मामले ने तूल पकड़ा. बाबा रामदेव एक फाइल के साथ हर टीवी चैनल पर ऩजर आने लगे. वह फाइल पतंजलि ट्रस्ट के इनकम टैक्स रिटर्न की थी. अचानक दिग्विजय सिंह भी चुप हो गए. कांग्रेस का हमला बंद हो गया, लेकिन रामदेव ने नए सिरे से हमला शुरू कर दिया.

हम चाहते हैं कि बाबा जी भी इस बात का ध्यान रखें कि उनको जो दान मिलता है, वह कहीं काला धन तो नहीं है. बाबा जी से मेरी यही प्रार्थना है कि सबको एक लाठी से न लपेटा करें और सोच-समझ कर बयान दिया करें. क्या पूंजीवादी बस कांग्रेस में हैं और उनके साथ कोई पूंजीवादी नहीं है? कोई ग़रीब आदमी उन्हें दान देता है क्या?

– दिग्विजय सिंह

दिल्ली के रामलीला मैदान में बाबा ने रैली की. भ्रष्टाचार के खिला़फ लड़ने वाले चेहरों को स्टेज पर बुलाया. कांग्रेस पर एक से बढ़कर एक आरोप लगाने शुरू कर दिए. आरोप भी ऐसे कि जिन्हें सुनकर देश के तबाह होने का डर पैदा हो जाता है. इन आरोपों के जवाब में कांग्रेस ने कुछ भी नहीं कहा. किसी नेता ने कोई जवाब नहीं दिया या रामदेव पर कोई हमला नहीं किया. हैरानी की बात यह है कि दिग्विजय सिंह ने भी मौन धारण कर लिया. कांग्रेस के कई नेताओं से बातचीत के दौरान यह समझ में आया कि कांग्रेस के हर लीडर को बाबा रामदेव और उनके सहयोगियों द्वारा लगाए गए आरोपों के बारे में जानकारी है. फिर ऐसा क्या हुआ. ऐसा क्या निर्देश दिया गया. ऐसा क्या फैसला लिया गया कि कांग्रेसी नेताओं की पूरी मंडली में एक भी ऐसा नहीं है, जिसने बाबा के खिला़फ मुंह खोला हो. बात यहीं खत्म नहीं हुई. कांग्रेस के वरिष्ठ नेता सत्यव्रत चतुर्वेदी ने यह कहकर चौंका दिया कि पार्टी के महासचिव दिग्विजय सिंह का बयान उनका निजी बयान है, कांग्रेस पार्टी को इससे कुछ लेना-देना नहीं है.

यह व्यक्तिगत झगड़ा है दोनों का, पार्टी का इससे कोई लेनां-देना नहीं है. दिग्विजय सिंह ने अनेक बार ऐसे स्टेटमेंट्‌स दिए हैं, जिनको पार्टी ने कहा कि यह उनकी व्यक्तिगत भावना है, व्यक्तिगत सोच है. यह बाबा और दिग्विजय सिंह के बीच की बात है, कांग्रेस और बाबा के बीच की नहीं है.

– सत्यव्रत चतुर्वेदी

इसका मतलब तो यह है कि जो सत्यव्रत चतुर्वेदी कह रहे हैं, वही पार्टी का फैसला है. वही सोनिया गांधी का फैसला है. बाबा रामदेव के आरोपों पर कांग्रेस में बहस हुई. एक योजना बनी. यह तय किया गया कि बाबा रामदेव को इग्नोर किया जाए. रामलीला मैदान की रैली में कांग्रेस पर जो आरोप लगे, उनसे कांग्रेस में हड़कंप मच गया. जिस तरह के आरोप लगाए गए, वे बिल्कुल आरएसएस स्टाइल के आरोप थे. काला धन से यह मामला सोनिया गांधी तक चला गया.

कांग्रेस के कुछ नेताओं ने सोनिया गांधी को यह समझा दिया कि दिग्विजय सिंह की वजह से ही बाबा रामदेव आरोप लगा रहे हैं. दिग्विजय अगर मुंह नहीं खोलते तो बाबा रामदेव नहीं बोलते. कुछ कांग्रेसी नेता तो यह भी कह रहे हैं कि दिग्विजय सिंह ने जानबूझ कर बयान दिया. मतलब यह कि इस विवाद के लिए दिग्विजय सिंह ही ज़िम्मेदार हैं. इन नेताओं ने सोनिया गांधी को डराया कि रामदेव को हमने ही मुद्दा दे दिया. हम पहले से ही घोटालों में घिरे हुए हैं. मनमोहन सिंह सरकार ठीक से काम नहीं कर पा रही है. महंगाई है. ऐसे में बाबा रामदेव से टकराना ठीक नहीं है. फिर सोनिया गांधी को यह समझाया गया कि कांग्रेस के कुछ नेता बाबा रामदेव को ख्वामखाह बड़ा बना रहे हैं. बेवजह हम बाबा रामदेव को खतरा समझ रहे हैं. यह भी समझाया गया कि अगर कांग्रेस पार्टी कोई प्रतिक्रिया देती है तो बाबा रामदेव देश में घूम-घूमकर कांग्रेस के खिला़फ बयानबाज़ी करेंगे. बाबा रामदेव के साथ जनता का समर्थन है, इसलिए पार्टी को नुक़सान हो सकता है. स्वाभिमान आंदोलन की भ्रष्टाचार के खिला़फ लड़ाई में स़िर्फ कांग्रेस निशाने पर आ जाएगी. इसलिए बाबा रामदेव के आरोपों का जवाब न देकर ही इस मामले को ठंडा किया जा सकता है. पार्टी की इसी में भलाई है. कांग्रेस पार्टी बाबा रामदेव से डर गई और उसने बाबा रामदेव के आरोपों पर चुप्पी साध ली. दिग्विजय सिंह के बयान को उनका निजी बयान क़रार दिया गया.

इस घटना से कांग्रेस पार्टी की मानसिकता और राजनीति दोनों ही उजागर हो गई. कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं में दक्षिणपंथी मानसिकता वालों की अच्छी खासी संख्या है. ये मुखर भी हैं. इनका दबदबा भी चलता है. कांग्रेस के इसी दक्षिणपंथी गुट ने एक तऱफ सोनिया को डराया, दूसरी तऱफ राहुल गांधी की तरफ दबाव दिया गया कि वह दिग्विजय सिंह से किनारा करें. दरअसल ये लोग रामदेव को मौक़ा देना चाहते हैं कि वह देश में घूम-घूमकर कार्यकर्ताओं की बड़ी फौज खड़ी कर लें. कांग्रेस के जवाब देने या न देने से रामदेव चुप होने वाले तो हैं नहीं. जबसे लोकसभा चुनाव शुरू हुए हैं, तबसे काले धन का मामला लेकर रामदेव ने हमला शुरू किया. इस विवाद से पहले भी वह कांग्रेस के खिला़फ बोल रहे थे. अब जब लड़ाई आमने-सामने की हो गई है तो उनका हमला और भी तेज़ हो गया है. कांग्रेस में एक दूसरा तबका भी है, जो बाबा रामदेव से दो-दो हाथ करना चाहता है. बाबा के खिला़फ लगे आरोपों की जांच कराना चाहता है. उनके हर आरोप का जवाब देना चाहता है, लेकिन कांग्रेस की यह वामपंथी लॉबी खामोश है. शायद उनका अस्तित्व नहीं है. अगर है भी, तो पता नहीं वे किस मांद के अंदर बैठे हैं. संगठन में उनका दबदबा खत्म हो गया है. उन्हें हम अब कह सकते हैं कि वे कांग्रेस के विलुप्त प्राणियों में से हैं. कुछ सांसदों ने पार्टी में अपना नंबर बढ़ाने के लिए रामदेव के नार्को टेस्ट की बात ज़रूर कही, लेकिन साथ ही यह भी कहा कि वे पार्टी की तऱफ से नहीं, बल्कि एक सांसद होने के नाते यह मांग कर रहे हैं. कांग्रेस पार्टी अपने ही सांसदों की मांगों पर भी मौन है.

कांग्रेस के नेताओं ने एक तो सोनिया को डराया, दूसरा दिग्विजय सिंह को राहुल गांधी से दूर करने की चाल चली. राहुल गांधी ने सोनिया से बात करने की कोशिश की. समझने वाली बात यह है कि बाबा रामदेव राहुल गांधी से चुपके से मिले. वह चुपके से मिलने हरिद्वार भी जाते हैं. चुपके से इसलिए, क्योंकि तब मीडिया नहीं जाता. किसी को पता भी नहीं चलता. तब बाबा प्रेस को नहीं बुलाते. कई कांग्रेसी नेता दबी ज़ुबान में यह कहते हैं कि बाबा रामदेव को शुरुआत में कांग्रेस ने ही मदद की. सरकारी धन मुहैय्या कराया. उस व़क्त कांग्रेस के नेताओं को यह लगा कि बाबा रामदेव अगर पार्टी बना लेते हैं तो भारतीय जनता पार्टी के ही वोट काटेंगे. बाबा रामदेव की राजनीति से कांग्रेस पार्टी को ही फायदा होगा. बाबा रामदेव के खिला़फ जब दिग्विजय सिंह ने बयान दिया तो दक्षिणपंथी लॉबी परेशान हो गई. बाबा ने दिग्विजय सिंह जैसे नेताओं को राहुल गांधी से अलग करने की भी कोशिश की, ताकि राहुल के आसपास भी दक्षिणपंथियों की भीड़ लग जाए. आज की तारी़ख में राहुल गांधी राजनीतिक मामले में दिग्विजय सिंह की बात सुनते हैं. यही वजह है कि दिग्विजय सिंह के एक बयान ने बाबा रामदेव को इतना परेशान कर दिया कि उन्होंने खुलेआम सोनिया गांधी और राहुल गांधी पर हमला कर दिया.

दिग्विजय सिंह कांग्रेस के सबसे प्रो-एक्टिव महासचिव हैं. राहुल गांधी के निकट हैं. पार्टी में उनकी अहमियत इसलिए है, क्योंकि वह एकमात्र ऐसे नेता हैं, जो कांग्रेस का मुस्लिम चेहरा बनकर उभरे हैं. आज की तारीख में दिग्विजय सिंह के अलावा कोई दूसरा नेता नहीं है, जिस पर देश के मुसलमान भरोसा करते हों. मुसलमानों के संगठनों से उनका संपर्क है. कांग्रेस पार्टी दिग्विजय सिंह के ज़रिए ही मुस्लिम संगठनों से बातचीत करती है. एक और खासियत यह है कि कांग्रेस में दिग्विजय सिंह के अलावा आरएसएस से लड़ने वाला कोई मुखर नेता नहीं है. आरएसएस के खिला़फ बयानबाजी हो, दिल्ली के बाटला हाउस में आजमगढ़ के छात्रों का एनकाउंटर हो, भगवा आतंक का विरोध हो, हर जगह दिग्विजय सिंह मुसलमानों के साथ खड़े ऩजर आते हैं. बाबा रामदेव और कांग्रेस की लड़ाई की जड़ में दिग्विजय सिंह हैं. अगर दिग्विजय सिंह को पार्टी दरकिनार करती तो वह मुसलमानों के एजेंडे से दूर होती ऩजर आती. समझने वाली बात यह है कि दिग्विजय सिंह मुस्लिम एजेंडे को उठाते ज़रूर हैं, लेकिन उन मुद्दों को, जिन्हें हम भावनात्मक कह सकते हैं. बेहतर तो यह होता कि दिग्विजय सिंह सच्चर कमेटी और रंगनाथ मिश्र कमीशन की रिपोर्ट के लिए संघर्ष करते तो मुसलमानों की परेशानी कम होती. असलियत यह है कि मुसलमानों को गुमराह करने में कांग्रेस ने कभी कोई कमी नहीं की. दिग्विजय सिंह भी यही कर रहे हैं.

कांग्रेस का इतिहास रहा है कि पार्टी में कभी भी वैचारिक पवित्रता कोई मुद्दा ही नहीं रही. यह बहुत बड़ी खूबी भी है और कमज़ोरी भी कि कांग्रेस में अलग-अलग विचारधारा के लोग एक साथ काम करते रहे हैं, आपस में वर्चस्व की लड़ाई लड़ते रहे हैं. कांग्रेस को ऐसे लोगों ने भी नेतृत्व दिया है, जो हिंदू महासभा के लीडर हुआ करते थे. महात्मा गांधी मध्यमार्गी थे तो जवाहर लाल नेहरू और सुभाष चंद्र बोस का झुकाव वामपंथ की ओर था. सुभाष चंद्र बोस का कांग्रेस के दक्षिणपंथियों ने ही विरोध किया था. इंदिरा जी हमेशा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से लड़ती थीं. राजीव गांधी के समय से आरएसएस से यह लड़ाई कमजोर पड़ गई. जब राजीव गांधी को 412 सीटें मिली थीं, तब आरएसएस ने कांग्रेस की मदद की थी. कांग्रेस पार्टी का रोल बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि प्रकरण में विवादास्पद है. गुजरात में कांग्रेस सॉफ्ट हिंदुत्ववादी पार्टी भी इन्हीं नेताओं की वजह से बन गई है. कांग्रेस का यही तबका सच्चर कमेटी और रंगनाथ मिश्र आयोग की रिपोर्ट पर कार्रवाई करने में अड़चनें खड़ी करता है. पिछले 15 सालों में जबसे मनमोहन सिंह वित्तमंत्री हुए हैं, तबसे पार्टी में दक्षिणपंथियों का वर्चस्व बढ़ गया है. कार्यशैली बदल गई है. इनएक्शन को एक्शन समझ लिया गया है. निर्णय न लेना भी निर्णय बन गया है. चुप्पी जवाब बन गई है. आज नेहरू और इंदिरा गांधी की पार्टी का आलम यह है कि रामदेव और उनके सहयोगियों ने कांग्रेस पर आरोपों की झड़ी लगा दी है और पार्टी ने जवाब न देना ही सबसे सही जवाब मान लिया है. पांच राज्यों में चुनाव हो रहे हैं. इन चुनावों में भ्रष्टाचार सबसे मुख्य मुद्दा है. काले धन को लेकर आम जनता में रोष है. यह भी एक वजह है कि कांग्रेस बाबा रामदेव से टक्कर लेने की हिम्मत नहीं जुटा पाई.

राजनीति भी अजब खेल है. यह कभी-कभी सर्वशक्तिमान को शक्तिहीन और एक फक्कड़ को सर्वशक्तिमान बना देती है. कांग्रेस के पास सरकार है, सरकार के पास जांच एजेंसियां हैं, जांच एजेंसियों के पास शक्ति है, फिर भी पूरा कुनबा चुप है. रामदेव और उनके साथियों द्वारा लगाए गए आरोप अगर गलत हैं तो कांग्रेस को यह चुप्पी तोड़नी चाहिए. हर आरोप की जांच होनी चाहिए. अगर यह चुप्पी बनी रही तो लोग तो यही समझेंगे कि बाबा और उनके साथियों ने जो आरोप लगाए हैं, वे सच हैं.

 

चिदम्बरम का भ्रम

डॉ0 मनोज मिश्र

 

इस समय पूरी दुनियॉ टेक्नोलॉजी की बढ़त की चपेट में है। मामला चाहे मिस्त्र की मुक्ति की लड़ाई में इण्टरनेट की भूमिका का हो, मीडिया की पहुॅच के कारण बिहार में सुशासन की विजय का हो या विकीलीक्स के खुलासों से घायल छद्म लोक तन्त्र का, हर मामले में टेक्नोलॉजी की विजय हुई है। विकीलीक्स के ताजे खुलासे में देश के गृहमंत्री पी0 चिदम्बरम की दोहरी मानसिकता का पर्दाफास कर दिया। 25 अगस्त 2009 को अमेरिकी राजदूत टिमोथी रोमर द्वारा अपने देश अमेरिका को भेजे गये गुप्त सन्देश (222183-सीक्रेट) में गृहमन्त्री चिदम्बरम द्वारा कही गई तमाम आपत्तिजनक बातों का खुलासा हुआ है। इन खुलासों से पूरा देश भौचक एवं हतप्रभ है। इस गुप्त संदेश में चिदम्बरम के हवाले से कहा बताया गया है कि भारत की प्रगति 11-12 प्रतिशत की दर से होती यदि देश केवल दक्षिणी एवं पश्चिमी हिस्से ही होते, दक्षिण भारत और शेष भारत में विकास का काफी अन्तर है, शेष भारत विकास (दक्षिणी पश्चिमी को छोड़कर) को पीछे खींच रहा है और विदेशी राजदूत को देश के नेताओं के बजाय आम जनता से मिलना ज्यादा उचित रहेगा आदि-आदि। इन खुलासाेंं के अगले ही दिन देश की संसद में हंगामा हुआ और माननीय गृहमंत्री ने खण्डन भी कर दिया। अब भाारत वासियों के मन में है कि यदि यह बात सच है तो? गृह मंत्री चिदम्बरम ने यदि ये बाते विदेशी राजदूत के समक्ष की है तो मामला बेहद चिन्ताजनक एवं संवदेनशील है।

चिदम्बरम और चिदम्बरवादियों के मन में अगर ऐसा कुछ चल रहा है तो उन्हे भारत की सांस्कृतिक और राजनैतिक आत्मा को समझना होगा। विकास दर की इस तात्कालिक सनक के कारण देश की सांस्कृतिक विरासत, साहित्य की भूमिका, देश के इतिहास और भूगोल के लिए हुए संघर्षों, राजनैतिक आन्दोलनो, असंख्य बलिदानों तथा देश की विशालता को नजर अन्दाज करना देश के लिए शहीद हुए नायकों का अपमान है। यदि देश में केवल दक्षिण-पश्चिम भाग ही होते तो पवित्र गंगा-यमुना का संगम कहा होता? राम की अयोध्या, कृष्ण की मथुरा और शिव की काशी कहॉ होते? कहॉ होता पवित्र तीर्थ बद्रीनाथ, केदारनाथ, यमुनोत्री और गंगोत्री और कहॉ होता पर्वतराज हिमालय? रामायण का गायन और गीता का उपदेश किस देश में हुआ होता? सूर, कबीर, तुलसी, जायसी और मीरा ने किस देश के साहित्य को समृध्द किया होता? और अगर यह सब नहीं होता तो भारत की सांस्कृतिक विरासत क्या होती? यह देश आज भी आई0टी0 के साथ-साथ राम-रहीम, गीता और रामायण के लिए पूरी दुनियॉ में जाना जाता है ऋषि परम्परा इसी देश की संस्कृति की देन है बसुदैव कुटम्बकम जिसे आजकल व्यापारिक दृष्टि से ‘ग्लोबल विलेज’ कहा जाता है। देश की कुल सांस्कृतिक विरासत में दक्षिण पश्चिम के साथ-साथ शेष भारत की अतुलनीय योगदान है।

भारत के राजनैतिक आन्दोलनों की गवाह भी यही भूमि बनी है। जिसे चिदम्बरम साहब ने देश पर बोझ समझा है। यवनों के आक्रमण से आहत विभक्त भारत को एक सूत्र में पिरोकर चन्द्रगुप्त के नेतृत्व में देश को एकजुट कर संघर्ष के लिए तैयार करने वाला नायक चाणक्य भी इसी भूभाग का था। अगर देश में केवल दक्षिणी-पश्चिमी हिस्से ही होते तो अरावली की पहाड़ियॉ चेतक की टापों की गवाह न बनी होती। अगर केवल देश में दक्षिणी-पश्चिमी हिस्से ही होते तो सन् 1857 की क्रान्ति की चिंगारी न फूटी होती और न ही झॉसी की रानी का उदय हुआ होता। समाज सुधार राजा राम मोहन राय, भगवान बुध्द, दयानन्द सरस्वती और रवीन्द्र नाथ टैंगोर ने अपना ज्ञान तथा व्यवहार का संदेश कहॉ दिया होता? क्या सुभाष चन्द्र बोस, भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरू और चन्द्रशेखर आजाद ने इसीलिए अपने प्राण न्यौछावर किये थे कि आजाद भारत के विकास वादी गृहमन्त्री भारत को एक राष्ट्र न समझकर टुकड़ों में देखे। क्या गॉधी जी ने कभी कल्पना भी की थी कि जिस राष्ट्र के लिए वे जिये और मरे वह राष्ट्र विकसित और कम विकसित हिस्सों में बॉट दिया जाये। आजाद भारत के नेता जवाहरलाल नेहरू और डॉ0 राजेन्द्र प्रसाद क्या इसी आधुनिक भारत के निर्माण की बात कर रहे थे? एकात्म मानववाद के प्रणेता दीन दयाल उपाध्याय तथा समाजवाद के पुरोधा राम मनोहर लोहिया भी इसी भूभाग में जन्मे थे। लोक नायक जयप्रकाश नारायण ने सम्पूर्ण भारत के युवाओं का सम्पूर्ण क्रान्ति के लिए आह्वान किया था न कि केवल शेष भारत का। दलित चेतना के नायक कांशीराम की जन्म स्थली और कर्मस्थली भी इसी भूभाग में है जिसे चिदम्बरम जी बोझ समझते है। चिदम्बरम जी जिस दल के गृहमंत्री के रूप में देश का नेतृत्व कर रहे है उस दल की नेता की पारिवारिक विरासत का स्रोत भी यही भूभाग है और अगर यह सब नही होता तो भारत कैसा होता?

गृहमंत्री की विकास की परिभाषा समझ से परे है। समन्वित विकास का मायने हर पक्ष का विकास होता है न कि केवल एक हिस्से का विकास। हर राष्ट्र की एक आत्मा होती है और होती है उसकी एक समृध्द संस्कृति। किसी राष्ट्र का निर्माण संस्कृति का परिणाम होता है और यहीं सांस्कृतिक इकाई भारत राष्ट्र राज्य के रूप में स्थापित है। भारत पूरब-पश्चिम तथा उत्तर और दक्षिण में नहीं बटॉ है। कश्मीर से कन्याकुमारी और अटक से कटक तक भारत एक है। देश का अगर एक हिस्सा आर्थिक तौर समृध्द है तो दूसरा हिस्सा सांस्कृतिक और राजनैतिक तौर पर पुष्ट है, हर हाल में भारत एक इकाई है जिसका अगर एक हिस्सा विकास कर रहा है तो सम्पूर्ण भारत विकास कर रहा है और अगर एक हिस्सा पिछड़ा है तो यह पूरे देश के लिए चिन्ता का कारण है। इस सबके बावजूद क्या केवल विकास दर ही किसी राष्ट्र की परिभाषा होती है? क्या राष्ट्र की पहचान विकास दर से ही होती है? तो क्या जिन देशों की विकासदर कम है वे राष्ट्र रहने के काबिल नहीं? दुनियॉ का सबसे विकसित देश भी समस्याओं से जूझ रहा है। अमेरिका में भी लगभग 04 करोड़ लोग बिना बीमा के जीवन यापन कर रहे है। ये लोग अमेरिका के विकास में बाधा हो सकते है तो क्या अमेरिका यह कह दे काश! ये 4 करोड़ लोग अमेरिका में न होते, काश! अपराध ग्रस्त टैक्सास न होता और काश! अमेरिका में एक सवा करोड़ अवैध घुसपैठिये न होते। क्या मायने हैं इन सब बातो का। हर राष्ट्र आन्तरिक चुनौतियों से जूझता है। और उनसे पार पाने की कोशिश करता है। किसी देश का एक भूभाग सम्पन्न और दूसरा भूभाग कमजोर हो सकता है तो क्या सम्पन्न भूभाग ही राष्ट्र होना चाहिए? विकास की इस अन्धी दौड़ ने सांस्कृतिक और राजनैतिक विरासत को बेगाना बना दिया है।

इस सच से इनकार नहीं किया जा सकता है कि दक्षिण-पश्चिम का भौतिक विकास शेष भारत की तुलना में कहीं ज्यादा है। उत्तर और उत्तर पूर्वी राज्य विकास के इस नये दौर में पिछड़ गये प्रतीत होते है। यह अचरज भरा प्रश्न है कि आजादी के बाद से केन्द्र में ज्यादातर नेहरू-गॉधी परिवार का प्रत्यक्ष या परोक्ष शासन रहा है फिर भी उत्तर प्रदेश बेहाल और बदहाल ही रहा है। इन प्रदेशों के नेतृत्व समय की परिवर्तन की आहट नहीं समझ सके और न ही विकास के नये पैमानों के अनुसार अपने को ढाल सके। इधर बिहार, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, पंजाब, और उत्तराखण्ड ने सुशासन का राज कायम किया है और अपनी विकासदर में अपेक्षित सुधार किया है। इस सच से भी इनकार नहीं किया जा सकता है सबसे ज्यादा युवा संभावनाओं वाला राज्य विकास की इस दौड़ में पिछड़ गया है। सत्ता पाने के लिए क्षेत्रीय राजनैतिक दलों के नेतृत्व ने विकास के सिवा सब कुछ किया है और राष्ट्रीय दल क्षेत्रीय दलों के राजनैतिक टोटकों के समाने असहाय सिध्द हुए है। फिर भी इन राज्यों की भूमिका को राष्ट्र राज्य के निर्माण में उपेक्षा नहीं की जा सकती है। अभी कुछ वर्षों पहले तक देश की विकास दर काफी कम थी तो क्या उसे विश्व विरादरी का हिस्सा होने का हक नहीं था। इस समय जबकि उत्तर-दक्षिण का विवाद लगभग समाप्ति पर है उस समय चिदम्बरम के यह उदगार चिन्ता का विषय है। जब देश के गृहमंत्री का विचार ही अपने देश के बारे में ऐसा हो तो अलगाववादियों से उनका अन्तर करना मुश्किल है। इन खुलासो से एक बात तो सिध्द हुई है कि टेक्नोलॉजी के इस युग में दोहरी बातों और दोहरे चरित्र का कोई स्थान नहीं है।

 

टूटते परिवार दरकते रिश्ते

श्याम नारायण रंगा ‘अभिमन्यु’

 

एक समय था जब लोग समूह में और परिवार में रहना पसंद करते थे। जिसका जितना बड़ा परिवार होता वो उतना ही संपन्न और सौभाग्यशाली माना जाता था और जिस परिवार में मेल मिलाप होता था और सम्पन्नता होती थी उसके पूरे क्षेत्र में प्रतिष्ठा रहती थी। यह ऐसा समय था जब समाज में परिवारों का बोलबाला था और समाज में सम्पन्नता की निशानी परिवार की प्रतिष्ठा से लगाई जाती थी। उस दौर में व्यक्ति की प्रधानता नहीं थी बल्कि परिवारों की प्रधानता थी। परिवार के धनी लोगों की बिरादरी में विशेष इज्जत होती थी और ऐसे लोग पूरे समूह और समाज का प्रतिनिधित्व करते थे। बड़े परिवार का मुखिया पूरे समाज का मुखिया बन कर सामने आता था और उसकी बात का एक विशेष वजन होता था। संयुक्त परिवारों के उस दौर में परिवार के सदस्यों में प्रेम, स्ेह, भाईचारा और अपनत्व का एक विशेष माहौल रहता था। इस माहौल और संयुक्त परिवारों का फायदा परिवार के साथ पूरे समाज को मिलता था और जो पूरे समाज और राष्ट्र को एकसूत्र में बांधने का संदेश देता था। जहाँ तक मेरा मानना है उस दौर में संयम, बड़ो की कद्र, छोटे बड़े का कायदा, नियंत्रण इन सब बातों का प्रभाव था। ऐसे ही संयुक्त परिवारों से संयुक्त समाज का निर्माण हुआ था और पूरा मौहल्ला और गाँव एक परिवार की ही तरह रहते थे। परिवार की नहीं मौहल्ले का बुजुर्ग सबका बुजुर्ग माना जाता था और ऐसे बुजुर्गो के सामने जबान निकालने या किसी अप्रिय कृत्य करने का साहस किसी का नहीं होता था। उस दौर में मौहल्लों में ऐसा माहौल और अपनापन होता था कि गाँव का दामाद या मौहल्ले का दामाद कहकर लोग अपने क्षेत्र के दामाद को पुकारते थे और अगर कोई भांजा है तो किसी परिवार का नहीं बल्कि पूरे मौहल्ले और गाँव का भांजा माना जाता था और यही कारण था कि लोग गाँव की बेटी या गाँव की बहू कहकर ही किसी औरत को संबोधित करते थे। सच कितना अपनापन और आत्‍मीय स्‍नेह था उस दौर में। यह वह समय था जब किसी व्यक्ति की चिंता उसकी चिंता न बनकर पूरे परिवार की चिंता बन जाती थी और सहयोग से सब मिलकर उस चिंता को दूर करने का प्रयास करते थे। ऐसे समय में रिश्तों में अपनापन था और लोग रिश्ते निभाते थे ढ़ोते नहीं थे, उस समय में समाज में रिश्तों को बोझ नहीं समझा जाता था बल्कि रिश्तों की जरूरत समझी जाती थी ओर ऐसा माना जाता था कि रिश्तों के बिना जीवन जीया ही नहीं जा सकता है।

 

लेकिन बदलते दौर और समय ने इस सारी व्यवस्था को बदल कर रख दिया है। अब वह दौर नहीं रहा। आज परिवार छोटे हो गए हैं और सब लोग स्व में केंन्द्रित होकर जी रहे हैं पहले व्यक्ति पूरे परिवार के लिए जीता था पर आज अपने बीबी बच्चों के लिए जीता है। उसे अपने बच्चों और अपनी बीबी के अलावा किसी और का सुख और दुख नजर नहीं आता है वह अपनी पूरी जिंदगी सिर्फ इसी उधेड़बुन में लगा देता है कि कैसे अपने बच्चों को ज्यादा से ज्यादा सुविधाएँ दे दूं और कैसे अपने आप को समाज में प्रतिष्ठित बना सकूं। आपाधापी के इस दौर में जीवन से संघर्ष करता हुआ व्यक्ति आज रिश्तों को भूल गया है। आज के बच्चों को अपने चाचा, मामा, मौसी, ताऊ के लड़के लड़की अपने भाई -बहन नहीं लगते उन्हें इन रिश्तों की मिठास और प्यार का अहसास ही नहीं हो पाता है क्योंकि कभी उन्होंने इन रिश्तों की गर्माहट को महसूस ही नहीं किया है। आज स्कूल के बस्ते के बोझ में दबा बचपन रिश्तों की पहचान भूल गया है। आज के बच्चों को अपने मौहल्ले में रह रहे बच्चो के बारे में ही पता नहीं होता तो उनको भाई-बहन मान कर प्रेम करने की बात तो कोसों दूर रह जाती है।

 

आज का व्यक्ति सिर्फ अपनी जिंदगी जी रहा है, उसे दूसरे की जिंदगी में झांकना दखलअंदाजी लगता है। वह सारी दुनिया की खबर इंटरनेट से रख रहा है पर पड़ोसी का क्या हाल है? उसे नहीं पता। परिवारों की टूटन ने रिश्तों की डोरी को कमजोर कर दिया है। आज का व्यक्ति आत्मनिर्भर होते ही अपना एक अलग घर बनाने की सोचता है। पहले हमारे बुजुर्ग जब भगवान से प्रार्थना करते थे तो कहते थे कि हे ईश्वर घर छोटा दे और परिवार बड़ा दे। ऐसा इसलिए कहते थे कि घर छोटा होगा और परिवार बड़ा तो परिवार के लोगों में प्रेम बढ़ेगा। साथ रहेंगे तो अपनापन होगा, एक दूसरे की वस्तु को आदान प्रदान करना सीखेंगे और इससे एकता बढ़ेगी लेकिन बदलते समय में व्यक्ति भगवान से एक अदद घर की प्रार्थना करता है कि हे ईश्वर मेरा खुद का एक घर हो। तो ऐसे एक अलग घर में रिश्तों की सीख नहीं बन पाती और ऐसा घर बनते ही परिवार टूट जाता है।

 

सामूहिक परिवार में कब बच्चे बड़े हो जाते थे ओर दुनियादारी की समझ कर लेते थे बच्चों के माँ-बाप को पता ही नहीं लगता था पर आज बच्चो को पालना एक बड़ा काम हो गया है। सामूहिक परिवारों में बच्चे अपने चाची, ताई, भाभी के पास रहते थे और उन लोगों को भी अपने इन बच्चों से काफी प्यार होता था। सामूहिक परिवारों में एक परम्परा बहुत शानदार थी वह यह कि बच्चा अपने पिता से बड़े किसी भी व्यक्ति के सामने अपने पिता से बात नहीं करता था और पिता भी अपने से बड़े के सामने अपने बेटे-बेटी का नाम लेकर नहीं बुलाता था और अक्सर ऐसा होता था कि बच्चा अपनी ताई, चाची या भाभी के पास ही रहता था। बच्चे से उनका भी बराबर का लगाव होता था और यही लगाव पूरे परिवार को एकसूत्र में बांध कर रखता था। हो सकता है कि भाई-भाई में लड़ाई हो जाए पर भाई के बच्चे से लगाव के कारण परिवारों में टूट नहीं आती थी। शायद इसी अपनत्व का कारण रहा है कि आज भी उत्तर भारत में बेटी की शादी में बेटी के माँ-बाप की उपेक्षा उसके चाचा-चाची या ताऊ-ताई से कन्यादान करवाया जाता है ताकि वे उसे अपनी बेटी ही माने। ऐसा देखा गया है कि ऐसे चाचा या ताया कन्यादान के बाद उसको अपनी ही बेटी मानकर प्यार करते थे और जीवनभर उसके साथ वो ही रिश्ता निभाते थे और सामाजशास्त्र के दृष्टिकोण से देखें तो यह एक महान् परम्परा रही है जिसने परिवारों को एकसाथ रहने के लिए प्रेरित किया है।

 

ऊपर लिखे के बारे में मैं यह कह सकता हूँ कि मेरे स्वयं के परिवार में मैंने कभी भी आज तक मेरे दादाजी या मेरे पिजाती से बड़े किसी के सामन उनसे बात नहीं की है और हमारे यहॉ आज भी कन्या की शादी में कन्यादान उसके चाचा या ताया ने ही किया है। लगभग यही परम्परा पूरे भारत में एक समय रही है और इसके फायदे हमेशा से ही पूरे परिवार व समाज को मिलते रहे हैं।

 

परन्तु बदलते समय ने व्यक्ति की सोच में निजता को हावी किया और इसी निजता ने व्यक्ति को परिवार से दूर करने के लिए प्रेरित किया। जबसे व्यक्ति ने अपने भतीजे या भतीजी को छोड़कर अपने बेटे या बेटी के बारे मे सोचना शुरू किया है तब से संयुक्त परिवार टूटे हैं। व्यक्ति ने यह सोचना शुरू कर दिया कि मेरे परिवार में किसका योगदान ज्यादा है और किसका कम और यहीं से शुरू हुआ परिवारों में दरार आना। व्यक्ति ने सोचना शुरू कर दिया कि कैसे मेरा बेटा सबसे आगे निकले ओर कैसे मैं अपनी कमाई के हिसाब से अपना जीवनस्तर जीना शुरू करूँ और इसी सोच ने अपनत्व और भाईचारे की भावना को आघात पहुँचाया है। आज हालात यह हैं कि व्यक्ति की इस सोच ने रिश्तों की पहचान को समाप्त कर दिया है। बच्चों से बचपन छिन गया है और बड़ो से बड़कपन्न। आज माँ-बाप मजबूर है कि अपने बच्चों के साथ समय नहीं बिता पाते । आज छः माह या एक साल का बच्चा किसी आया के हाथ में पलता है और किराये का यह पालना किसी भी सूरत में ताई या चाची का अपनापन नहीं दे पाता है। आज पड़ोसी या मौहल्ले की समस्या से दूर भागना एक आदत बन गई है और यह सोचा जा रहा है कि अपने को क्या मतलब है किसी बात से। इसी सोच के कारण समाज में अपराध बढ़े रहे हैं, चोरियाँ हो रही है ओर अराजकता फैल रही है। भाईचारे के अभाव ने समाज में एक ऐसी दरार पैदा कर दी है कि हर व्यक्ति दूसरे व्यक्ति को संदेह की नजर से देख रहा है। लोग कहते हैं आज जमाना नहीं रहा कि घर मे अकेले रहा जाय, आज जमाना नहीं रहा कि किसी नौकर को घर में अकेले छोड़ा जाय, अक्सर लोगों को कहते सुना होगा कि आज जमाना नहीं है कि अकेले बच्चों को बाहर भेजा जाए। आज कॉलोनियों और महानगरों मे रहने वाले परिवार अपने ही घर में सुरक्षित महसूर नहीं करते हैं और घर के मुख्य द्वार पर एक छेद रखा जाता है कि पहले देखा जाए कि कौन है। लोग दिन दिहाड़े अपने घरों में अंदर से ताला लगाकर कैद होकर रह रहे हैं और कह रहे हैं कि जमाना बदल गया है।

 

कभी सोचा है यह जमाना बदला किसने? आज जरूरत है इन तालो को तोड़ने की, मुख्य दरवाजों में लगे इन छेदों की जगह दिल में रोशनदान बनाने की ताकि आप अपने मौहल्ले और शहर को अपना समझे और भाईचारा फैलाएँ। आज जरूरत है औपचारिकताओ को मिटाकर दिमाग के दरवाजे खोलने की ताकि आपके दिल में सारा परिवार समा जाए और पूरा मौहल्ला आ जाए और आपको लगे कि यह शहर मेरा है, यह परिवार मेरा है, यह मौहल्ला मेरा है। हम अपने संस्कारों को न भूले, अपनी परम्पराओं को न भूलें। याद रखे विकास करना बुरी बात नहीं है पर विकास के साथ परम्पराओं को भूलना नासमझी है। हम समझदार बने और संयुक्त परिवार और मौहल्ले के महत्व को समझे ताकि आने वाले समय में हमारी पीढ़ी को कह सके कि हाँ हमने भी आपके लिए एक सुखी, समृध्द, सम्पन्न और विकसित भारत छोड़ा है।

 

* लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।

फेसबुक और मीडिया का सांस्कृतिक परिवेश

जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

 

फेसबुक संचार की दुनिया में लंबी छलांग है। यह एक ऐसा सामाजिक मंच है जिस पर आप व्यापार, संवाद, संचार, विचार-विमर्श, राजनैतिक प्रचार, सामाजिक गोलबंदी आदि कर सकते हैं। यह ऐसा मंच है जो व्यक्तिगत और सामाजिक एक ही साथ है। यह ऐसा मंच भी है जो संचार के साथ -साथ आपके ऊपर नजरदारी भी करता है। यह सूचनाओं का साझा सामाजिक मंच है।

फेसबुक के यूजरों की संख्या 60 करोड़ से ऊपर है। आज फेसबुक पर गतिविधियां ज्यादा चल रही हैं। इसने गूगल की गतिविधियों को काफी पीछे छोड़ दिया है। इंटरनेट पर इस समय 40 हजार से ज्यादा सर्वर हैं जो सोशल नेटवर्क का इस्तेमाल कर रहे हैं। फेसबुक पर प्रतिमाह 4 बिलियन से सूचनाएं यूजरों के द्वारा साझा इस्तेमाल की जाती हैं। 850 मिलियन से ज्यादा फोटोग्राफ हैं और 8 बिलियन वीडियो हैं। ये सब गूगल के पास नहीं हैं।

कुछ अर्सा पहले तक यह माना जा रहा था कि गूगल सारे विश्व का सूचना कुबेर है लेकिन फेसबुक के आने और तेजी से विस्तार करने के साथ ही गूगल की जगह सूचना कुबेर का पद फेसबुक ने हथिया लिया है। आज फेसबुक सारी दुनिया में सूचनाओं का सबसे बड़ा खजाना है। गूगल से ज्यादा फेसबुक पर हलचल हो रही है।

क्लारा शिन ने “दि फेसबुक एराः टेपिंग ऑनलाइन सोशल नेटवर्क्स टु बिल्ड बेटर प्रोडक्टस,रीच न्यू ऑडिएंशेज,एंड सेल मोर स्टफ” नामक किताब में लिखा है ऑनलाइन सोशल नेटवर्क के तेजी से विस्तार ने हमारी जीवनशैली,काम और संपर्क की प्रकृति को बुनियादी तौर पर बदल दिया है। इसने व्यापार के विस्तार की अनंत संभावनाओं को जन्म दिया है।

फेसबुक विस्तार के तीन प्रधान कारण हैं। पहला, विश्वसनीय पहचान। दूसरा,विशिष्टता और तीसरा है समाचार प्रवाह। फेसबुक द्वारा डाटा और सूचनाओं के सार्वजनिक कर देने के बाद से इंटरनेट पर्दादारी का अंत हो गया है। सूचना की निजता की विदाई हुई है और वर्चुअल सामाजिकता और पारदर्शिता का उदय हुआ है। डाटा के सार्वजनिक होने से यूजर आसानी से पहचान सकता है कि वह किसके साथ संवाद और संपर्क कर रहा है।

ब्लॉगिंग के साथ निजी सूचनाओं के सार्वजनिक करने की परंपरा आरंभ हुई थी जिसे फेसबुक ने नयी बुलंदियों पर पहुँचा दिया है। इसका यह अर्थ नहीं है कि सामाजिक जीवन से निजता का अंत हो गया है। इसका अर्थ सिर्फ इतना है कि इंटरनेट पहले की तुलना में और भी ज्यादा पारदर्शी बना है। साथ ही सामान्य लोगों में निजी बातों को सार्वजनिक करने की आदत बढ़ी है। निजी और सार्वजनिक बातों के वर्गीकरण के सभी पुराने मानक दरक गए हैं।

फेसबुक ने प्राइवेसी का अर्थ भी बदला है पहले प्राइवेसी का अर्थ था छिपाना। लेकिन इंटरनेट युग में अब कुछ भी छिपाना संभव नहीं है। आज प्राइवेसी का अर्थ है संचार के संदर्भ का सम्मान करना। लोगों को संचार के संदर्भ के बाहर ठेलना इसका मकसद नहीं है। अनेक लोग सोचते हैं कि फेसबुक उनकी प्राइवेसी का हनन कर रहा है। ऐसा सोचना सही नहीं है। फेसबुक में एक विकल्प है ‘ सिर्फ मित्र के लिए’ यानी आप अपनी सूचना मित्र को ही शेयर करना चाहते हैं।लेकिन यह भी नहीं चाहते तो उसका भी विकल्प है।

फेसबुक के बारे में यह कहा जा रहा है कि यह संचार का सर्वोत्तम रूप है और इसकी सफलताओं को परवर्ती पूंजीवाद की सफलताओं के रूप में देखा जा रहा है। इसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का परम रूप तक कहा जा रहा है। सच इसके एकदम उलट है। फेसबुक या अन्य ग्लोबल मीडिया के हमारे घरों तक चले आने का अर्थ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का विस्तार नहीं है बल्कि यह नियंत्रण का विस्तार है। यह स्वतंत्र का विस्तार और नियंत्रण दोनों है। इससे सूचना दरिद्र और सूचना समृद्ध की खाई और भी चौड़ी हुई है।

उल्लेखनीय है इंटरनेट आने के बाद दरिद्रता और असमानता के खिलाफ राजनीतिक जंग कमजोर हुई है। वर्चस्वशाली ताकतों को बल मिला है। सामाजिक और राजनीतिक निष्क्रियता बढ़ी है। शाब्दिक गतिविधियां बढ़ी हैं,कायिक शिरकत घटी है। अब हम वर्चुअल में मिलते हैं और वर्चुअल में ही गायब हो जाते हैं। वर्चुअल की तथाकथित स्वतंत्रता का मजा लेते हैं।

माध्यम की भाषा में वर्चुअल का अर्थ है यथार्थ का विलोम। वर्चुअल के संचार ने समाज में वर्चस्वशाली ताकतों को और भी ज्यादा ताकतवर बनाया है और सामान्यजन को अधिकारहीन, नियंत्रित और पेसिव बनाया है।

आज लोकतांत्रिक विमर्श,बहस,विवाद, संघर्ष की जगह समाज में नहीं टीवी स्क्रीन और इंटरनेट में है। लोकतंत्र का मंच समाज नहीं टीवी चैनल हो गए हैं। पक्षधर कहते हैं टीवी चैनल मुक्तसमाज का दर्पण हैं। मानवाधिकारों के सरोकारों का मंच हैं। टीवी पर आई खबर स्वतःप्रमाण है।

असल में टीवी में जो है वही हमारा कॉमनसेंस भी है। जीवन और मन पर हमने टीवी के बताए मार्ग,लालच,झूठ और सच,विचार आदि को धारण कर लिया है। टीवी हमारे जीवन का माई-बाप हो गया है। इसके कारण हम कम से कम तथ्यों में जीने लगे हैं। अब हमें ज्यादा तथ्यों की नहीं कम तथ्यों में जीने की आदत पड़ गयी है। टीवी के तथ्य ऐसे हैं जिनके लिए किसी सामाजिक एक्शन की दरकार नहीं है।

टीवी पर बढ़ती निर्भरता ने व्यक्ति के मेनीपुलेशन की अनंत संभावनाओं को जन्म दिया है। आज सामान्यजन की आस्था और विश्वास की दुनिया पूरी तरह टीवी पर टिकी है अतः अपनी नियत धारणाओं के परे जाकर तथ्यों को खोजना दूभर हो गया है।

टीवी जिन्हें विशेषज्ञ के रूप में पेश करता है उन्हें ही हम संबंधित विषय का विशेषज्ञ मानते हैं। हम सीमित तथ्यों में बंधे रहते हैं और उनके आधार पर ही सोचते हैं,टीवी जैसा समझा रहा है हम वैसी ही जीवनशैली अपनाते चले जा रहे हैं।वह जैसा मनोरंजन देता है वैसे ही मनोरंजन के आदी हो गए हैं। हमारे चारों ओर नकली चीजों ने नाकेबंदी कर ली है। हमें कोई नहीं बताता कि नकली दुनिया के बाहर कैसे निकलें। साहित्य से लेकर संस्कृति तक कॉमनसेंस की सत्ता को प्रतिष्ठित करने की मुहिम चल रही है। कॉमनसेंस की बातों के आधार पर सत्य को परखने की कोशिश की जा रही है। टीवी के माध्यम से बृहत्तर समाज को सुझाव दिए जा रहे हैं। इन सुझावों के आधार पर ही आम सहमति बनाने की कोशिशें हो रही हैं। आज वातावरण ऐसा बना दिया गया है कि जो बात तत्काल समझ में नहीं आती उसे तुरंत ही बकबास कहकर खारिज कर देते हैं। जो अप्रिय सत्य है उसे हम देखने और सुनने को तैयार नहीं होते।जो तर्क हमारे कॉमनसेंस के खिलाफ होते हैं उन्हें हंसी-मजाक में उड़ा देते हैं। जो जगत हमारी तयशुदा समझ के परे होता है उसे एकसिरे से खारिज कर देते हैं। अथवा जो बात हमारे हितों के खिलाफ होती है उसे खारिज कर देते हैं।

परवर्ती पूंजीवादी समाज के मनुष्य की विशेषता है विवेक और दृढ़ता का अभाव। यह ऐसा मनुष्य है जो सवाल नहीं करता। इसके पास सामाजिक हितों का बोध नहीं है।

मीडिया हमारे मन में यह विश्वास भी पैदा करता है कि हम चीजों को नियंत्रित नहीं करते। चूंकि हम नियंत्रित नहीं करते फलतः हमें बार बार यही बोध होता है कि जो कुछ गलत हो रहा है उसके लिए हम निजी तौर पर जिम्मेदार हैं। मीडिया ने ऐसा वातावरण बनाया है जिसके कारण अधिकांश लोग अब अपनी राय व्यक्त ही नहीं करते। मीडिया लोगों को मुँह खोलने की बजाय मुँह बंद रखने की आदत पैदा कर रहा है। संशय,अर्द्धसत्य ,भ्रम,और नाटकीयता ये चार तत्व हैं जिन्हें मीडिया पैदा कर रहा है।

अमेरिका नियंत्रित माध्यमों में वर्चस्वशाली ताकतों के खिलाफ प्रतिवाद के लिए कोई जगह नहीं होती। धीरे धीरे भारत का कारपोरेट मीडिया भी उसी दिशा में जा रहा है। यहां पर प्रतिवाद के लिए स्थान कम होता जा रहा है।

यह उपभोक्ता समाज है। इसमें व्यक्ति की निजी अनुभूति का हिस्सा है यथार्थ । यथार्थ के नए रूपों ने पुराने रूपों को अपदस्थ कर दिया है। आज यथार्थ संकेतों और ‘फीलिंग’ में व्यक्त होता है। वस्तु की अनुभूति में व्यक्त होता है। एक अवस्था के बाद यह अनुभूति गायब हो जाती है और यही वह अवस्था है जब हम ‘हाइपर रियलिटी’ से दो चार होते हैं। दो सौ साल पहले जिस यथार्थ का उदय हुआ था उसे अब हम खो चुके हैं। वह अपना परा-भौतिक मर्म खो चुका है। अब सामयिक समाज वर्चुअल रियलिटी में दाखिल हो चुका है। यथार्थ को अब तक अवधारणा के रूप में देखते रहे हैं। सामान्यत: यह वस्तु की अमूर्त मानसिक धारणा है। यह ऐसी धारणा है जिसे सामुदायिक चेतना के रूप में प्राप्त करते हैं। आज यह अपनी चारित्रिक विशेषताएं खो चुकी है। अथवा व्यक्तिगत अनुभूति के रूप में संकुचित होकर रह गयी है।सामूहिक प्रस्तुति के युग से निकलकर व्यक्तिगत अनुभूति के युग में दाखिल हो गई है। परिणामत: यथार्थ सामूहिक नियमन से निकलकरव्यक्तिगत नियमन की अवस्था में दाखिल होगया है इससे यथार्थ विकृत हुआ है। देखने पर लगेगा कि समाज अपने को आधुनिक मानता है। लेकिन जिसे हम आधुनिक समाज कहते हैं वह आधुनिक समाज नहीं है बल्कि ‘अनुकरण समाज’ है। इस समाज को अनुकरणमूलक परिवेश मिला है। यह ऐसा समाज है जिसमें हर चीज वस्तु है। यह ऐसा जगत है जो हमारे बारे में सोच रहा है हम उसके बारे में सोच रहे हैं। आज किताब आपको पढ़ रही है, टीवी आपको देख रहा है। वस्तुएं हमारे बारे में सोच रही हैं। लेंस हमें देख रहे हैं। इनका भाव हमें प्रभावित कर रहा है। भाषा हमसे बोल रही है। समय हमारे पास खाली पड़ा है। पैसा हमें कमा रहा है। मौत हमारा इंतजार कर रही है।

आज हम घर बैठे टीवी देखते हैं,जिसमें 5सौ से ज्यादा चैनल उपलब्ध हैं, चैनलों में जो दिखाया जा रहा है क्या वह हमारा यथार्थ है ?क्या उस यथार्थ के साथ वास्तव यथार्थ की तुलना कर सकते हैं ? क्या यह यथार्थ है ? यह टीवी इमेज है ? यदि टीवी इमेज है तो यथार्थ और इमेज के बीच क्या संबंध है ? क्या इमेज को यथार्थ मान लें ? क्या टीवी इमेजों को अ-यथार्थ मानकर खारिज किया जा सकता है ? हम टीवी में जो देख रहे हैं यदि वह यथार्थ नहीं है और प्रस्तुतिभर है तो आखिरकार उसे कैसे देखें ? अथवा समाज में मौजूद यथार्थ के अनेक रूपों को कैसे देखें ? यथार्थ की अनेक इमेजों को जब हम देखते हैं तो क्या खोखली इमेजों को देखते हैं ? आखिरकार इस तरह की इमेजों को किस तरह की सैध्दान्तिकी के आधार पर पढें ? क्या इस तरह के मामलों में इमेज को अस्वीकार करके पढ़ा जा सकता है ? इत्यादि सवालों पर विस्तार से विचार किया जाना चाहिए।

जनता जब भीड़ में तब्दील हो जाती है

तो भीड़ का न्याय अकल्पनीय होता है|

डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’

सुधी पाठक इस आगे पढने से पूर्व केवल इतना सा जान लें कि प्रत्येक सरकारी अधिकारी और कर्मचारी भारत के संविधान के अनुसार पब्लिक सर्वेण्ट हैं, जिसका स्पष्ट अर्थ है कि प्रत्येक सरकारी अधिकारी एवं कर्मचारी न तो भारत सरकार का नौकर है और न हीं वह अफसर या कर्मचारी है, बल्कि वास्तव में वह देश की ‘‘जनता का नौकर’’ है| जिसे जनता की खून-पसीने की कमाई से एकत्रित किये जाने वाले अनेकों प्रकार के राजस्वों (करों) से संग्रहित खजाने से प्रतिमाह वेतन मिलता है| जनता का प्रत्येक नौकर जनता की सेवा करने के लिये ही नौकरी करता है और दूसरी बात यह समझ लेने की है कि प्रत्येक पब्लिक सर्वेण्ट अर्थात् जनता के नौकर का पहला और अन्तिम लक्ष्य है, ‘‘पब्लिक इण्ट्रेस्ट अर्थात् जनहित|’’ जनहित को पूरा करने के लिये जनता के नौकर केवल आठ घण्टे ही नहीं, बल्कि चौबीसों घण्टे कार्य करने को कानूनी रूप से बाध्य होते हैं| इसके उपरान्त भी जनता के नौकर स्वयं को जनता का नौकर या सेवक नहीं, बल्कि जनता का स्वामी मानने लगे हैं, जिसके विरुद्ध जनता चुप रहती है और अपने नौकरों की मनमानियों का विरोध नहीं करती है, जिसके चलते हालात इतने बदतर हो गये हैं कि नौकर तो मालिक बन बैठा है और मालिक अर्थात् जनता अपने नौकरों की सेवक बन गयी है| यह स्थिति विश्‍व के सबसे बड़े भारतीय लोकतन्त्र के लिये शर्मनाक और चिन्ताजनक है| इस स्थिति को कोई एक व्यक्ति न तो बदल सकता है और न हीं समाप्त कर सकता है, लेकिन कोई भी व्यक्ति जनता के नौकरों को यह अहसास तो करवा ही सकता है कि वे जनता के नौकर हैं और जनता के सुख-दुख की परवाह करना और जनता के हितों का हर हाल में संरक्षण करना, जनता के नौकरों का अनिवार्य तथा बाध्यकारी कानूनी एवं संवैधानिक दायित्व है! इसी बात को पाठकों की अदालत में प्रस्तुत करने के लिये कुछ तथ्य प्रस्तुत करने का प्रयास किया जा रहा है|

 

कुछ समय पूर्व की घटना है| मैंने एक जिला स्तर के अफसर अर्थात् लोक सेवक अर्थात् जनता के नौकर से किसी जरूरी काम से बात करना चाहा, फोन उनके पीए ने उठाया और मुझे बताया कि ‘‘साहब यहॉं नहीं हैं’’ और आगे मेरी बात सुने बिना ही फोन काट दिया गया| संयोग से मेरे पास उनका मोबाइल नम्बर भी था, मैंने उन्हें मोबाइल लगाया, तो बोले ‘‘कौन?’’ मैंने कहा, ‘‘देश का एक आम व्यक्ति अर्थात् पब्लिक!’’ उधर से जवाब आया, ‘‘अभी मैं मीटिंग में हूँ, बाद में बात करना|’’ मैंने पूछा, ‘‘मीटिंग कब खत्म होगी?’’ जवाब मिला, ‘‘साढे पांच बजे…’’ और उन्होंने मोबाइल काट दिया| मैंने सोचा मैं ‘‘पब्लिक’’ हूँ और ‘‘पब्लिक का नौकर’’ ‘‘पब्लिक हित’’ में कोई जरूरी मीटिंग में व्यस्त हैं, लेकिन अचानक मेरा माथा ठनका कि उनके पीए ने तो बताया था कि ‘‘साहब यहॉं नहीं हैं’’ जबकि साहब स्वयं को मीटिंग में बतला रहे हैं| मैंने फिर से उनके पीए को फोन लगाया और पूछा, ‘‘आपके साहब कहॉं हैं?’’ जवाब आया, ‘‘जरूरी काम से बाहर गये हैं|’’ इस बार जवाब देने वाला कोई सज्जन पब्लिक सर्वेण्ट था, जिसने फोन नहीं काटा तो मैंने दुबारा पूछा ‘‘कब तक आयेंगे|’’ पीए साहब बोले, ‘‘जरूरी काम हो तो आप मोबाइल पर बात कर लें, साहब तो शायद ही ऑफिस आयेंगे, वे मैडम के साथ बाजार गये हैं|’’ उनको धन्यवाद कहकर मैंने फोन रख दिया और साढे पांच बजने का इन्तजार करने लगा, लेकिन कार्यालय समय (छह बजे) समाप्त होने तक उनका कोई फोन नहीं आया| आप सोच रहे होंगे कि अधिकारी से मैंने फोन करने की आशा ही क्यों की?

 

अगले दिन मैंने दस बजे फोन लगया तो पीए ने बताया, ‘‘साहब साढे दस बजे तक आने वाले हैं|’’ साढे दस बजे लगाया तो जवाब मिला, ‘‘बस आने ही बाले हैं, कुछ समय बाद दुबारा फोन लगालें|’’ ग्यारह बजे फोन लगाया तो पूछा, ‘‘आप कौन बोल रहे हैं?’’ मैंने अपना नाम बता दिया, किन्तु फिर से उनके पीए ने पूछा कि ‘‘आपकी कोई पहचान?’’ मैंने कहा कि ‘‘मैं पब्लिक हूँ!’’ पीए ने अपने साहब को न जाने क्या बोला होगा, लेकिन उन्होंने मेरी बात करवा दी| अब आप हमारी बातचीत पर गौर करें :-

 

‘‘बोलिये कौन बोल रहे हैं?’’

 

‘‘क्यों, क्या आपके पीए ने नहीं बताया कि मैं कौन बोल रहा हूँ?’’

 

‘‘हॉं बताया तो था, बोलिये क्या काम है?’’

 

‘‘आपको मैंने कल फोन किया था, तब आप मीटिंग में थे, लेकिन आपने मीटिंग समाप्त होने के बाद मुझसे मोबाइल पर बात नहीं की, जबकि आपके मोबाइल में मेरा मोबाइल नम्बर भी आ ही गया होगा|’’

 

कुछ क्षण रुक कर, सकपकाते हुए ‘‘हॉं..हॉं.. आ तो गया होगा, लेकिन आप हैं कौन?’’

 

‘‘अभी-अभी आपके पीए ने बताया तो है!’’

 

‘‘हॉं.. मगर आप चाहते क्या हैं’’

 

‘‘मैं आपसे बात करना चाहता हूँ और बात कर रहा हूँ, लेकिन आप मेरी बात का जवाब ही नहीं दे रहे हैं, आखिर आपने मुझसे कल मीटिंग खत्म होने के बाद बात क्यों नहीं की?’’

 

‘‘आप ये बात मुझसे किस हैसियत से पूछ रहे हैं, आप हो कौन….?’’

 

‘‘अभी तक आपको मेरा परिचय समझ में नहीं आया है, मैं फिर से बतला दूँ कि मैं पब्लिक हूँ और आप पब्लिक सर्वेण्ट हैं| आपका मालिक होने की हैसियत से आपसे पूछ रहा हूँ कि आपने मुझे साढे पांच बजे मीटिंग समाप्त होने के बाद फोन क्यों नहीं किया?’’

 

कुछ क्षण तक सन्नाटा, कोई जवाब नहीं!

 

मैं फिर से बोला, ‘‘आप मेरी बात सुन तो रहे हैं? कृपया बोलिये…?’’

 

(अत्यन्त नम्रता से)

 

‘‘हॉं आपकी बात सही है, मीटिंग देर तक चलती रही और बाद में, मुझे याद नहीं रहा| आप अब बतायें क्या सेवा कर सकता हूँ|’’

 

‘‘आप मीटिंग में थे या पत्नी को शॉपिंग करवा रहे थे? शर्म नहीं आती झूठ बोलते हुए?’’

एकदम से सन्नाटा! कोई जवाब नहीं!

 

फिर से मैंने ही बात की, ‘‘आप कोई जवाब देंगे या आपके बॉस से बात करूँ…..?’’

 

‘‘नहीं…नहीं इसकी कोई जरूरत नहीं है| शौरी आपको तकलीफ हुई, आप मुझे सेवा का मौका तो दें….काम तो बतायें|’’

 

इसके बाद मैंने उन्हें पब्लिक इण्ट्रेस्ट का जो कार्य था, वह बतलाया और साथ ही यह भी बतलाया कि जब भी पब्लिक फोन/मोबाइल पर बात करती है, तो उसमें पब्लिक का खर्चा होता है, इसलिये पब्लिक की ओर से उपलब्ध कराये गये सरकारी फोन/मोबाइल पर, अपने कार्य से फ्री होने पर पब्लिक से बात की जानी चाहिये| यह प्रत्येक पब्लिक सर्वेण्ट का अनिवार्य दायित्व है और अपने पीए को भी समझावें कि वे जनता की पूरी बात न मात्र सुनें ही, बल्कि नोट करके समाधान भी करावें| जिससे जनता के नौकरों के प्रति जनता की आस्था बनी रहे, अन्यथा लोगों के लिये अपने नौकरों को हटाना असम्भव नहीं है| जनता जब भीड़ में तब्दील हो जाती है तो भीड़ का न्याय अकल्पनीय होता है| प्रत्येक पब्लिक सर्वेण्ट का प्रथम कर्त्तव्य है कि जनता के असन्तोष को जनाक्रोश में तब्दील नहीं होने दें|

 

इस घटना के कुछ दिनों बाद राजस्थान के सवाई माधोपुर जिला मुख्यालय पर थाना प्रभारी फूल मोहम्मद को भीड़ द्वारा जिन्दा जला देने की दुखद घटना धटित हो गयी तो इन महाशय ने मुझे फोन करके कहा कि मीणा जी आपने सही कहा था कि ‘‘जनता जब भीड़ में तब्दील हो जाती है तो भीड़ का न्याय अकल्पनीय होता है|’’ मैं आपका आभारी हूँ कि आपने मुझे अपने कर्त्तव्यों के प्रत

संख्या बल बढ़ाने का पर्व: वासंतिक नवरात्र

विजय कुमार

नवरात्र का पर्व वर्ष में दो बार आता है। आश्विन शुक्ल 1 से प्रारम्भ होने वाले शारदीय नवरात्र की समाप्ति आ0शु0 9 पर होती है। इसका अगला दिन विजयादशमी भगवान राम का रावण पर विजय का पर्व है। इसी प्रकार वासंतिक नवरात्र का प्रारम्भ चैत्र शुक्ल 1 को होकर श्रीराम के जन्म दिवस (नवमी) को समापन होता है। दोनों का संबंध एक ओर श्रीराम से तो दूसरी ओर मां दुर्गा से है। इसके साथ-साथ शारदीय नवरात्र जहां हमें शस्त्र-शक्ति के संचय के लिए, तो वासंतिक नवरात्र हमें संख्या बल बढ़ाने को प्रेरित करता है।

 

 

नवरात्र के पीछे की धार्मिक कहानी चाहे कुछ भी हो; पर आज उसे दूसरे संदर्भों में समझने की आवश्यकता है। चैत्र शुक्ल 1 से भारतीय परम्परा के अधिकांश नववर्षों का प्रारम्भ होता है। यद्यपि भारत इतनी विविधताओं वाला देश है कि यहां उत्तर-दक्षिण या पूर्व-पश्चिम में पर्वों की तिथियों में भेद हो जाना स्वाभाविक है। इसके बावजूद दोनों नवरात्रों में मां दुर्गा की विशेष पूजा सभी हिन्दू करते हैं। इस समय मौसम भी बदलता है। अतः व्रत या उपवास द्वारा पेट को कुछ विश्राम देना स्वास्थ्य के लिए भी ठीक रहता है। इसलिए अपनी आयु एवं स्वास्थ्य के अनुसार प्रायः सभी लोग उपवास करते ही हैं। हां, व्रत के नाम पर जो लोग दिन भर पेट में गरिष्ठ पदार्थ डालते रहते हैं, उनके पाखंड की बात दूसरी है।

 

 

पर केवल व्यक्तिगत रूप से कुछ नियम या व्रतों का पालन कर लेने से ही नवरात्रों की भावना पूरी नहीं हो जाती। वासंतिक नवरात्र को मनाते समय हमें भगवान राम के जीवन के दो प्रसंगों का स्मरण करना होगा। पहली घटना है अहल्या के उद्धार की। अहल्या प्रकरण में दोषी इन्द्र ही था; पर तत्कालीन पुरुष प्रधान समाज और उनके पति ऋषि गौतम ने उन्हें निर्वासन का दंड दिया। अहल्या घने जंगल में कुटिया बनाकर, कंदमूल फल खाकर, पशु-पक्षियों के बीच रहने लगी। उससे न कोई मिलने आता था और न ही वह कहीं जाती थी। अहल्या के पत्थर होने का यही अर्थ है।

 

 

पर मुनि विश्वामित्र के साथ उनके यज्ञ की रक्षा के लिए जाते समय श्रीराम को जब इस घटना का पता लगा, तो वे अहल्या के आश्रम में गये और उन्हें वहां से लाकर समाज में उनका सम्मानजनक स्थान फिर से दिलाया। मानो पत्थर बनी नारी को फिर उसके मूल रूप में जीवित कर दिया। श्रीराम चक्रवर्ती सम्राट दशरथ के बड़े पुत्र थे, अतः उनके द्वारा दी गयी व्यवस्था को सबने मान लिया। ऋषि गौतम को भी अपनी भूल अनुभव हो गयी थी। वे स्वयं भी पत्नी-वियोग से पीड़ित थे; पर सामाजिक कुरीतियों से टकराने का साहस उनमें नहीं था; पर जब श्रीराम ने अहल्या का उद्धार कर दिया, तो उन्होंने भी उसे स्वीकार कर लिया।

 

 

श्रीराम के जीवन की दूसरी घटना सीता की खोज के समय की है। उस दौरान वे जब दंडकारण्य में स्थित शबरी के आश्रम में पहुंचे, तो वह इतनी भावविभोर हो गयी, कि चख-चखकर मीठे बेर उन्हें देने लगी। श्रीराम भी अपने भक्त के प्रेम में डूबकर बेर खाने लगे। फिर शबरी ने ही उन्हें सुग्रीव से मित्रता करने को कहा। इसी से आगे चलकर सीता की खोज और फिर रावण का वध संभव हुआ।

 

 

ये दोनों प्रसंग हमें बताते हैं कि श्रीराम का दृष्टिकोण दुर्बल, असहाय, निर्धन और अन्याय से पीड़ितों के प्रति क्या था ? स्पष्टतः वे इनके प्रति उदारता और सहृदयता रखते थे। उन्होंने जाति, पंथ, भाषा, क्षेत्र..आदि का विचार किये बिना सबको गले लगाया। ये प्रसंग हमें आज भी कुछ संकेत देते हैं। भारत में आज करोड़ों लोग हिन्दू समाज से दूर खड़े दिखायी देते हैं। उनमें से बड़ी संख्या उनकी है, जिनके पूर्वजों ने मुस्लिम आक्रमण के समय प्राणरक्षा के लिए धर्म बदल लिया था। ऐसे लोगों की संख्या भी कम नहीं है, जो छुआछूत और ऊंचनीच जैसी कुरीति से नाराज होकर उधर चले गये। अंग्रेजों के अत्याचार और उनके द्वारा दिये गये धन, शिक्षा या चिकित्सा के बदले लाखों लोग ईसाई भी बने हैं। आज इन विदेशी मजहबों को मानने वालों की संख्या इतनी बढ़ गयी है कि देश पर फिर से विभाजन के बादल मंडराने लगे हैं।

 

 

इस समस्या का समाधान यही है कि हिन्दू समाज से अब कोई व्यक्ति दूसरी ओर न जाये। साथ ही जो लोग चले गये हैं, उन्हें वापस लायें। पानी की टंकी को खाली होने से रोकने के लिए उसके रिसाव को रोकने के साथ-साथ उसमें ताजा जल आता रहे, यह प्रबंध भी करना होता है। इसलिए वासंतिक नवरात्रों में हमें अपने आसपास के सभी निर्धन, निर्बल, हरिजन, दलित, वंचित आदि वर्ग के लोगों को सपरिवार अपने घर पर भोजन पर आमंत्रित करना चाहिए। उन्हें साथ बैठाकर भोजन कराने और घर के बुजुर्ग द्वारा उन्हें वस्त्रादि भेंट देने से सबको ऐसा लगेगा कि जाति, पंथ और आर्थिक स्थिति भिन्न होने के बाद भी सब एक विशाल हिन्दू परिवार के अंग हैं।

 

 

दूसरी ओर जो लोग विधर्मी बन गये हैं, उनसे सम्पर्क कर बड़े स्तर पर परावर्तन के समारोह आयोजित किये जायें। जैन समाज में प्रचलित क्षमावाणी पर्व इस दृष्टि से बहुत अनुकरणीय है। हिन्दुओं के बड़े धर्माचार्यों तथा समाज के प्रमुखों को ऐसे लोगों से अपनी या अपने पूर्वजों की भूलों के लिए क्षमा मांगते हुए उन्हें हिन्दू धर्म में लौट आने का आग्रह करना चाहिए। उन्हें यह आश्वासन भी देना होगा कि उन्हें उसी जाति, वंश तथा गोत्र में सम्मानजनक स्थान दिया जाएगा, जिसमें वे पहले थे। उनके साथ पहले जैसे रोटी-बेटी के संबंध भी स्थापित किये जाएंगे। यदि गांव-गांव में इस प्रकार के क्षमावाणी पर्व और घर वापसी समारोह आयोजित किये जायंे, तो आगामी कुछ वर्षों में भारत का चित्र बदल सकता है।

 

 

वर्ष 2006 में गुजरात के डांग क्षेत्र में आयोजित शबरी कुंभ से यह कार्य प्रारम्भ हो चुका है। उस वनवासी क्षेत्र में ईसाईयों का प्रभाव बहुत अधिक है। स्वामी सत्यमित्रानंद जी ने वहां करबद्ध होकर सभी लोगों से कहा कि यदि मेरे पूर्वजों ने कोई भूल की है, तो मैं उसके लिए क्षमायाचना करता हूं। मोरारी बापू ने तो ‘‘आ लौट के आजा मेरे मीत, तुझे मेरे गीत बुलाते हैं….’’ वाला फिल्मी गीत गाकर परावर्तन की मार्मिक अपील की। फरवरी, 2011 का नर्मदा कुंभ भी इस अभियान की अगली कड़ी के रूप में सम्पन्न हो चुका है। अब जबकि साधु, संत तथा कथावाचकों ने इस दिशा में कदम बढ़ाया है, तो फिर सभी स्तर पर परावर्तन समारोह आयोजित होने ही चाहिए। यह काम सरल नहीं है। आज यदि प्रयास शुरू करेंगे, तो पांच-सात साल में जाकर परिणाम निकलेगा।

 

 

कौन नहीं जानता कि भारत में बढ़ रहे आतंकवाद तथा अशांति का मुख्य कारण भारत में इन विदेशी मजहबों के अनुयायियों की संख्या बढ़ना ही है। इससे निबटने के लिए जहां एक ओर हिन्दुओं को संगठित होना होगा, वहीं दूसरी ओर इन्हें समझाकर, गले लगाकर फिर से वापस हिन्दू धर्म में लाया जाये। होली के अवसर पर सब परस्पर गले मिलते ही हैं। इसी की पूर्णाहुति वासंतिक नवरात्रों के परावर्तन समारोहों में दिखायी देनी चाहिए।

 

 

श्रीराम द्वारा अहल्या के उद्धार एवं शबरी के झूठे बेर खाने के प्रसंग का स्मरण रखते हुए गांव के मंदिरों में बड़े-बड़े सहभोज कार्यक्रम हों। महिला हो या पुरुष; बच्चा हो या बूढ़ा, सब उसमें आयें। समाज के निर्धन, निर्बल और दलित वर्ग के लोगों को आग्रहपूर्वक बुलाया जाये। अच्छा हो, वे ही भोजन बनायें और सबको वितरण करें। इससे समरसता की जो गंगा बहेगी, वह सब कलुष बहा देगी। तब ही हम श्रीराम के सच्चे अनुयायी कहलाएंगे।

 

 

यह कौन नहीं जानता कि भारत के मंदिर और तीर्थ ही नहीं, तो भारतीय संविधान और लोकतंत्र भी तब तक ही सुरक्षित है, जब तक यहां हिन्दू बहुमत में हैं। 14-15 प्रतिशत विधर्मियों के कारण ही देश का वातावरण कितना विषाक्त हो गया है ? इसलिए वासंतिक नवरात्र में परावर्तन समारोहों का आयोजन कर भारत को सुरक्षित रखने का प्रयास बड़े स्तर पर होना आवश्यक है।

यूरोपियन रेनेसां और फ्रांसीसी क्रांति से भारत ने क्या सीखा

श्रीराम तिवारी

यूरोपियन रेनेसां और फ्रांसीसी क्रांति की मध्यावधि में यूरोपियन दर्शन-शास्त्रियों द्वारा एक सर्वमान्य, सर्वव्यापी सिद्धांत स्थापित किया जा चुका था कि “सामंतवाद के गर्भ से पूंजीवाद का जन्म होता है., और पूंजीवाद के गर्भ से साम्यवाद का उदय होगा” इसी दरम्यान भारतीय उपमहाद्वीप में भी प्रतिगामी एवं अधोगामी दोनों ही प्रकार के मिले-जुले सामाजिक- राजनैतिक -आर्थिक बदलावों का यूरोपियन रेनेसां जैसा ही कुछ कुछ दृष्टिगोचर हुआ था.

जहां फ्रांसीसी क्रांति और सोवियत अक्टूबर क्रांति की लहरों ने और उसकी समस्थानिक आनुषांगिक तरंगों ने सम्पूर्ण यूरोप, अमेरिका ,अफ्रीका और अधिकांश एशिया महाद्वीप की सनातन से दलित -शोषित -गुलाम रही आवाम को बन्धन-मुक्ति की राह दिखाई ,वहीं दूसरी ओर उसी दौरान अंग्रेज कौम और उसकी समर्थक भारतीय सामंतशाही ने भारत की शोषित -पीड़ित आवाम को दोहरी -तिहरी गुलामी की घातक बेड़ियों में जकड़ने का एतिहासिक घृणित कुकृत्य किया है.

दुनिया भर के आधुनिक पाश्चात्य दार्शनिकों कि आमराय है कि पूंजीवादी समाज व्यवस्था को सामंती – राजसी पतनशील व्यवस्था से बेहतर होना, मानव समाज कि एतिहासिक मानवीय सकारात्मक छलांग का आवश्यक परिणाम है. उनका यह निष्कर्ष भी है कि पूंजीवादी निजाम अपने तमाम भयावह विनाशकारी विकृत रूपों के बरक्स एक शानदार भूमिका में प्रगतशील हुआ करता है. कबीलाई समाज से सामंतशाही संमाज में स्थापित होने कि लम्बी प्रक्रिया का उल्लेख मैं नहीं करूंगा, क्योंकि एक तो यह दीर्घ कालीन सामाजिक -एतिहासिक संक्रमण कि विपथ गाथा है,दूसरी बात ये है कि यह परिवर्तन हर मुल्क में अपने -अपने मिज़ाज में दरपेश हुआ है. सेकड़ों पुस्तकों में यह विषय समेत पाना दुरूह लगता है.

यूरोपियन समाजों को वैज्ञानिक भौतिकवादी विकास धारा ने जिस भी रूप में ढाला वह अपने पूर्ववर्ती अधम व्यवस्थाओं से बेहतरथा. भारत या पूर्ववर्ती सम्पूर्ण अखंड हिन्दोस्तान कि आवाम का वर्गीय स्वरूप बेहद जटिल और रूढ़ होने से यहाँ पूंजीवाद का जन्म भी ‘उत्तरा के गर्भस्थ शिशु’ परीक्षित जैसा ही हो पाया. भारत के समकालीन सामंतों कि अय्याशियों ,बदमाशियों और निरंकुश्ताओं कि वजह से भारत का “जागृत” जन-गन तीन हिस्सों में विभाजित था. एक- जो सामंती दमन के प्रतिकार को भाग्य या किस्मत का या कर्मफल का परिणाम मानकर “हरी इच्छा भावी बलवाना.” से बंधे थे. दो-अपने आपको तत्कालीन व्यवस्था के अनुकूल बनाकर उस शोषण और दमन कि व्यवस्था के अंग बनकर उसी में नष्ट होने को अभिशप्त थे.तीन-राज्य सत्ता से बड़ी ईश्वरीय सत्ता कि परिकल्पना कर ,अतीत कि पुरातन गाथाओं के उदात्त चरित्रों को महाकाव्यों के मार्फ़त आम जनता कि भाषा प्रस्तुत करने वाले -महाकवि और भक्तिमार्गी संतजन.

अतीत के काल्पनिक उज्जवल -धवल चरित्रों को अपने समकालिक बदमिजाज़ शासकों के सामने आदर्शरूप में प्रस्तुत करने कि एतिहासिक, साहित्यिक सृजनशीलताको किसी भी रूप में रूढ़ या पुरोगामी नहीं कहा जा सकता.कबीर तुलसी ,सूरदास ,चेतन्य , केशव रहीम रैदास और मीरा इत्यादी के भक्ति साहित्य में मानवीय मूल्यों को पाने कि ललक साबित करती है कि अधिकांश भक्तिकालीन साहित्य सृजन प्रगतिशील और मानवतावादी था. कुछ इनसे अलग किस्म के तत्व भी इस दौर में हुए जो अपने समकालिक सामंतों कि ठकुर सुहाती या भडेती करने में लगे रहे. चंदवर दाई,विद्द्यापति ,कल्हण,जयदेव,जगनिक और बिहारी जैसे भी थे जो स्वामीनिष्ठ भाव से काव्य सृजन में-कनक ,कामिनी और कंचन कि तलाश में लगे रहे.

हालाँकि इस भक्ति का इश्वर ,अध्यात्म या दर्शन से कोई सरोकार नहीं था.यह प्रारंभ में दासत्व का कातरभाव मात्र था. यह दक्षिण भारत में जागृत महामानवों की जन-मानस को अनुपम देन थी कि वे अपने आपको सनातन दासत्व से मुक्त करें किन्तु परिवर्ती काल में कुछ धूर्तों ने इस भक्तिरूपी वेदनामूलक मलहम को मंदिरों में सीमिति कर दिया और वहां अकिंचनों ,अनिकेतों ,दासों तथा तथाकथित शूद्रों का प्रवेश निषेध कर दिया.इस प्रकार जो भक्तिमार्ग प्रारंभ में मानव कि चतुर्दिक मुक्ति का साधन था वो उत्तरकाल में शासक वर्गों के खुशामदियों द्वारा शोषण का साधन बना दिया गया. यही वजह है कि रेनेसां और पुनर्जागरण जैसी सामाजिक क्रांतियों के बावजूद भारत और दुनिया भर में पूंजीवादी क्रांतियों के उभार के बावजूद भारत में ,पाकिस्तान में ,बंगला देश में और अफगानिस्तान तक में अधिकांश समाज’खाप पंचायतों’ जैसाहीहै. इसके खिलाफ कोईबाबा ,कोईसामाजिक कार्यकर्त्ता या स्वनामधन्य वुद्धिजीवी जुबान नहीं खोल रहा, सिर्फ भृष्टाचार कि दुग्दुगी बजाकर पूंजीवादी जामात कि लूट को बरकरार रखने में यथेष्ठ सहयोग किया जा रहा है. यही काम आज के नवउदारवादी वैश्विक व्यापारिक दौर में भारत के कुछ चतुर चालक ‘बाबा’ लोग कर रहे हैं या करने वाले हैं.

जैसा कि इस आलेख के प्रारंभ में भी मैंने लिखा है कि पूंजीवाद कि एक मात्र अच्छाई है कि वह जातीयता के संकीर्ण बन्धनों को काट फैंकता है. भले ही वह विश्व युद्धों का जन्मदाता भी है ,किन्तु सामाजिक क्रांतियों का वह एतिहासिक अलमबरदार है. पूंजीवादी और उसके बाद साम्यवादी क्रांतियों ने पूर्वी यूरोप,सोवियत यूनियन चीन,क्यूबा इत्यादि में तो जातिवाद कभी का समाप्त हो चुका है ,यहाँ तक कि जो साम्यवाद से परहेज करनेवाले घोर पूंजीवादी राष्ट्र हैं उनमें भी जातीयता का इतना वीभत्स रूप नहीं है ,जितना कि भारत में. भारत में अर्ध-पूंजीवादी एवं अर्ध-सामंती मिलावट ने अजीबोगरीब स्थिति निर्मित कर डाली है. यहाँ पूंजीवाद ने आर्थिक मोर्चे पर तो गरीबों को और ज्यादा गरीब बनाकर रख छोड़ा है और पूंजीपतियों को करोड़ पति से अरब पति ,खरबपति बना दिया है .इतना ही नहीं इस अर्ध-पूंजीवादी निजाम ने एक और कमाल कर दिखाया कि जहां पहले लगभग १०-१५ पूंजीपति थे इस देश में ,वहीं अब ६७ ‘त्रिलियानार्स’ भारत को दुनिया भर में सुशोभित कर रहे हैं.शायद यह इसकी इन्तहा ही है कि भारत का एक पूंजीपति ‘बैंक ऑफ़ अमेरिका ‘ के बोर्ड ऑफ़ डायरेक्टर में नामजद किया जा चुका है.हम मुकेश धीरुभाई अम्बानी को बधाई देते हैं किन्तु भारत के आमजनों कि आर्थिक और सामाजिक मोर्चे पर जो दुर्गति हो रही है उसमें इस उद्दाम पूंजीवाद ने भी बजाय सामाजिक बन्धनों को ढीला करने के, सारे देश {केरल बंगाल त्रिपुरा को छोड़कर} का ‘खापीकरण’ कर के रख दिया है.प्रश्न यह है कि जिस पूंजीवाद ने भारत जैसे गरीब मुल्क को इतनी इज्जत बक्शी कि एक भारतीय को अमेरिकी बैंक में सर्वेसर्वा बनवा दिया वहीं ७७ करोड़ भारतीयों को एक वक्त भरपेट भोजन जुटाने कि असफलता के साथ यह तमगा सा माथे पर ज्यों का त्यों बरकरार क्यों है ?अक्सर कहा जाता है कि ‘हम सब भारतीय एक नहीं बल्कि अनेक हैं .हम ब्राम्हण ,बनिया ,ठाकूर,जाट,गूजर,आर्य द्रविण दलित ,महादलित ,पिछड़ा महापिछ्डा और हिन्दू -मुस्लिम -सिख ईसाई बगेरह मात्र हैं.इस सामंत्कालीन सोच और पतनशील व्यवस्था को पूंजीवाद भारत में एक इंच भी इधर से उधर खिसकाने में असमर्थ रहा है?भले ही इस लफंगे पूंजीवाद ने यूरोप और अमेरिका या दुनिया भर में जीत के झंडे गाड़े हों किन्तु भारत को तो दोनों ओर से बुरी तरह रोंदा है .एक तरफ सामंती जातीय जकड़न ,साम्प्रदायिक घृणा और दूसरी ओर कृतिम उत्पीडन ,हत्या ,बलात्कार ,भय -भूंख ,और भृष्टाचार इत्यादि ने दो पाटों के बीच में भारत कि जनता को दबोचकर रखा है. इस व्यवस्था के खिलाफ जब तक आवाम का सामूहिक अवज्ञा आन्दोलन जैसा कदम नहीं उठता तब तक कांग्रेस ,भाजपा या वामपंथ भी इस कि चूल भी नहीं हिला सकते.

जो काम भारत के मध्ययुग में श्रृंगार-वादियों या पोंगा-पंडितों ,कठमुल्लों ने सामंतवाद को खुश रखने के लिए किया था वही काम बाबा रामदेव या उनसे हित-संबल पाने वाले अब पूंजीवादी पतनोमुखी व्यवस्था के लिए कर रहे हैं. उनके पास कोरी शाब्दिक लफ्फाजी के अलावा कुछ नहीं है.

आर. सिंह की कविता/ नाली के कीडे़

भोर की बेला थी

लालिमा से ओत प्रोत हो रहा था

धरती और आकाश

और मैं

टहल रहा था उपवन में

हृदय था प्रफुल्लित

स्वप्न संसार में भटकता हुआ

आ जा रहे थे एक से एक विचार

टूटी शृंखला विचारों की

जब मैं बाहर आया उपवन के

दो घंटों बाद

देखा मेरा बेटा

सुकोमल छोटा

खेल रहा था

गली के बच्चों के साथ

खेल-खेल में पकड़ लिया था उन लोगों ने

नाली के कुछ कीड़ों को

दिखा रहे थे वे मुझे

और फिर

डाल दिया था उन नन्हें मुन्नों ने

नाली के उन कीड़ों को

गन्दी नालीं मे रहने वालों को

स्वच्छ जल के एक पात्र में

और देख रहे थे तमाशा

पर नहीं चला तमाशा देर तक

मर गये थे वे कीडे़ तड़प-तड़प कर

उस स्वच्छ जल में

जल जो जीवन है

स्‍वच्छता जो स्वर्गीय है

बन गयी थी काल उन कीड़ों के लिये

उन कीड़ों के लिये

जो खुश थे

उठा रहे थे लुफ्त जिन्दगी का

जब तक पडे़ थे वे उन नालियों में

जो भरपूर था गन्दगी से

व्‍याप्त था दुर्गंध से

नहीं सह सके वे सफाई

नहीं सह सके वे स्वच्छता

सफाई जो, स्वच्छता जो प्रतीक है जीवन का

बन गयी मौत का कारण उनके लिये

विचार आया

हम भी कहीं, वहीं नाली के कीडे़ तो नहीं

जी रहे हैं गन्दगी में

तन की गन्दगी, मन की गन्दगी

सांस ले रहे हैं दुषित वायु में

और प्रसन्न हैं

कहीं मौत हमारी भी तो नहीं हो जायेगी

जब हम बढेंगे स्वच्छता की ओर

सादगी और सत्यता की ओर.

 

कविता/ मैं भावनाओं में बह गया था

मैं भावनाओं में बह गया था

मुझे नहीं मालूम ऊंच -नीच

मेरे पास पढाई की डिग्री नहीं है

मैं अनपढ़ हूँ

मुझे क्या पता

यहाँ डिग्री की जरुरत होती है

मैं अनपढ़ हूँ

डिग्री धारी होता तो

गरीबों का पेट काटता , खून चूसता

देश को गर्त में ले जाता

बड़े -बड़े घोटाले और मजलूमों पर अत्याचार करता

इस सभ्य संसार में

मेरी कोई क़द्र नहीं

हाँ मैं साहब को सलाम करता हूँ

पर साहब के जैसा बेईमान नहीं

मेरे मन में छोटे -बड़े की भेद नहीं है

क्योंकि मैं अनपढ़ हूँ

० लक्ष्मी नारायण लहरे पत्रकार कोसीर

‘जब पड़ा वक़्त बुतों पे तो खुदा याद आया’

तनवीर जाफ़री

पश्चिमी देशों द्वारा अमेरिका के नेतृत्व में लीबिया के तानाशाह कर्नल मोअ मार गद्दाफी को सत्ता से बेदखल किए जाने की स्क्रिप्ट लिखी जा चुकी है। नाटो भी लीबिया में लागू उड़ान निषिध क्षेत्र की क मान संभालने को तैयार हो गया है। गठबंधन सेनाओं द्वारा लीबिया की वायुसेना तथा थलसेना की कमर तोड़ी जा चुकी है। गद्दाफी के एक पुत्र के मारे जाने का समाचार है। कल तक अपनी सैन्य शक्ति तथा समर्थकों के बल पर मज़बूत स्थिति में दिखाई देने वाले गद्दाफी अब किसी भी क्षण सत्ता से बेदखल किए जा सकते हैं। उनके जीवन तथा भविष्य को लेकर भी तरह-तरह की अटकलें लगाई जा रही हैं। यदि गद्दाफी के ही कथन को माना जाए तो वे स्वयं लीबिया में ही शहीद होने को प्राथमिकता देंगे। अब देखना यह होगा कि सत्ता के अंतिम क्षणों में गद्दाफी का अंत किस प्रकार होता है? क्या वे लीबिया छोड़ कर अन्यत्र पनाह लेने के इच्छुक होंगे? यदि हाँ तो क्या नाटो सेनाएं तथा विद्रोही उन्हें वर्तमान स्थिति में देश छोड़ कर जाने कीअनुमति देंगे? या फिर वे भी अपने पुत्र की तरह विदेशी सेनाओं का निशाना बन जाएंगे? या उनका हश्र सद्दाम हुसैन जैसा होगा? या फिर वे आत्महत्या करने जैसा अंतिम रास्ता अख्तियार करेंगे?

 

बहरहाल, कल तक जिस कर्नल गद्दाफी की लीबिया की सत्ता से बिदाई आसान प्रतीत नहीं हो रही थी आज वही तानाशाह न केवल अपनी सत्ता के लिए बल्कि अपनी व अपने परिवार की जान व माल की सुरक्षा के विषय में भी अनिश्चित नज़र आ रहा है। इन परिस्थितियों में गद्दाफी ने भी एक बार फिर उसी ‘धर्मास्त्र’ का प्रयोग किया है जिसका प्रयोग करते कभी ओसामा बिन लाडेन, कभी मुल्ला उमर तथा कभी एमन-अल जवाहिरी जैसे आतंकी सरगना नज़र आए तो कभी इराकी तानाशाह सद्दाम हुसैन। गोया ‘जब पड़ा वक़्त बुतों पे तो ‘खुदा याद आया’। यानी गद्दाफी ने भी अपना व अपनी सत्ता का अंतिम समय आता देखकर वही घिसी पिटी बात दोहराई है कि लीबिया पर हो रहा हमला ‘ईसाईयत का इस्लाम’ पर हमला है तथा दुनिया के मुसलमानों एक हो जाओ, यह स यता के संघर्ष का परिणाम है वग़ैरह-वग़ैरह। परंतु जिस प्रकार दुनिया के इस्लामी देश लाडेन व सद्दाम के इस धर्मास्त्र चलाए जाने के झांसे में नहीं आए उसी प्रकार मुस्लिम देश गद्दाफी के इस ब्रहास्त्ररूपी अंतिम धर्मास्त्र को भी महज़ एक छलावा ही समझ रहे हैं। प्रमुख अरब देश संयुक्त अरब अमीरात तो गद्दाफी को सत्ता से हटाने की मुहिम में गठबंधन सेनाओं के साथ शामिल भी हो गया है।

 

ऐसे में सवाल यह उठता है कि इरा’क हो या कुवैत या अ’फग़ानिस्तान अथवा वर्तमान लीबियाई प्रकरण आखिर इन सभी मुस्लिम राष्ट्रों में अमेरिकी अथवा पश्चिमी देशों की सेनाओं के हस्तक्षेप की आवश्यकता आखिर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् को क्यों महसूस होती है। मुस्लिम जगत के नेताओं द्वारा अलक़ायदा प्रमुख लाडेन की ही तरह समय समय पर स यता के संघर्ष की बात करना या अमेरिका को मुस्लिम देशों का दुश्मन बताना आखिर कितना उचित है? और यदि वास्तव में अमेरिका इस्लामी देशों अथवा मुस्लिम जगत का विरोधी है तो दुनिया के इस्लामी देश इस बात को समझते हुए अमेरिका के विरूद्ध एकजुट क्यों नहीं होते? और सबसे बड़ी बात यह कि जब सद्दाम या गद्दाफी जैसे शासकों के तथा लाडेन, मुल्ला उमर व जवाहिरी जैसे आतंकी सरगनाओं के सिर पर मौत के बादल मंडराते दिखाई देने लगते हैं उसी समय यह लोग इत्तेहाद-ए-बैनुल-मुसलमीन’ (दुनिया के मुसलमानों एक हो जाओ) की बात क्यों करने लग जाते हैं। युद्ध छिडऩे या किसी संघर्षपूर्ण स्थिति के उत्पन्न होने से पूर्व आखिर इन तानाशाहों को इस्लाम व दुनिया के मुसलमानों की याद क्यों नहीं आती? इसमें कोई दो राय नहीं कि अमेरिका की पहचान दुनिया में एक साम्राज्यवादी देश के रूप में स्थापित हो चुकी है। अमेरिका दुनिया में अपना वर्चस्व ‘कायम रखने की लड़ाई लड़ रहा है।

दुनिया में चौधराहट बनाए रखना अमेरिकी विदेश नीति का एक प्रमुख हिस्सा है। विश्व का सबसे बड़ा तेल उपभोक्ता होने के नाते निश्चित रूप से उसे तेल की भी सबसे अधिक ज़रूरत है। यही वजह है कि तेल उत्पादन करने वाले देशों में अमेरिकी द’खल अंदाज़ी को प्राय: इसी नज़रिए से देखा भी जाता है। दुनिया समझती है कि यह लड़ाई किसी तानाशाह को सत्ता से बेदखल करने या विद्रोही जनता का समर्थन करने की नहीं बल्कि अमुक देश की तेल संपदा पर अमेेरिकी नियंत्रण करने की लड़ाई है। परंतु दुनिया के लाख शोर-शराबा करने या वावैला करने के बावजूद अमेरिकी नीतियों में न तो कोई परिवर्तन आता है न ही अमेरिका की ओर से इन आरोपों के जवाब में कोई ठोस खंडन किया जाता है। गोया अमेरिका ऐसे आरोपों की अनसुनी कर अपनी नीतियों पर आगे बढ़ते रहने में ही अपनी भलाई समझता है। मज़े की बात तो यह है कि अमेरिकी नीतियों को सरअंजाम देने में अधिकांश मुस्लिम राष्ट्र भी अमेरिका के साथ खड़े नज़र आते हैं। ऐसे में उन चंद मुस्लिम नेताओं की इस्लाम पर ‘अमेरिकी ‘खतरे’जैसी ललकार स्वयं ही निरर्थक साबित हो जाती है।

 

ताज़ा उदाहरण लीबिया का ही देखा जाए तो यहाँ भी उड़ान निषिध क्षेत्र बनाने की हिमायत अरब लीग के सदस्य देशों द्वारा सर्वस मति से की गई। विदेशी सेनाओं द्वारा लीबिया पर बमबारी किए जाने का मार्ग अरब लीग के देशों ने ही प्रशस्त किया। और अब संयुक्त अरब अमीरात जैसा अरब देश गठबंधन सेनाओं के साथ मिलकर लीबिया पर बम बरसा रहा है। ऐसे में कैसा स यता का संघर्ष तो कैसी इस्लाम व ईसाईयत की लड़ाई? और इन सब के अलावा सबसे बड़ी बात यह है कि गद्दाफी व सद्दाम हुसैन जैसे तानाशाह उस समय इस्लामपरस्ती को ‘कतई भूल जाते हैं जब यह लोग सत्ता के नशे में चूर होकर अपने-अपने देशों में मनमानी करने की सभी हदों को पार कर जाते हैं। जब यह तानाशाह अपनी बेगुनाह व निहत्थे अवाम पर ज़ुल्म ढा रहे होते हैं उस वक़्त उन्हें यह नहीं सूझता कि हम जिन पर ज़ुल्म ढा रहे हैं वे भी मुसलमान हैं तथा हमारे यह कारनामे इस्लाम विरोधी हैं। यह क्रूर तानाशाह उस समय तो इस्लामी इतिहास के राक्षस प्रवृति के सबसे बदनाम शासक यज़ीद की नुमाईंदगी करते नज़र आते हैं। परंतु जब इन्हें मौत के रूप में अमेरिका,संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद्, संयुक्त राष्ट्र संघ तथा नाटो जैसे संगठनों के ‘फैसलों का समाना करना होता है तब इन्हें इस्लाम भी याद आता है। मुस्लिम इत्तेहाद भी, जेहाद भी और सभ्‍यता का संघर्ष भी।

 

प्रश्र यह है कि मुस्लिम राष्ट्रों को इन परिस्थितियों से उबरने के लिए आखिर क्या करना चाहिए? सर्वप्रथम तो तमाम मुस्लिम राष्ट्रों में इस समय मची खलबली का ही पूरी पारदर्शिता तथा वास्तविकता के साथ अध्ययन कर अवाम द्वारा विद्रोह के रूप में लिखी जा रही इबारत को पूरी ईमानदारी से पढऩे की कोशिश की जानी चाहिए। अफगानिस्तान, इराक और लीबिया जैसे देश मुल्ला उमर, सद्दाम व गद्दाफी जैसे सिरफिरे शासकों की ‘गलत व विध्वंसकारी नीतियों के चलते बरबाद हुए हैं। इस वास्तविकता को सभी देशों विशेषकर मुस्लिम जगत को समझना चाहिए। गोया किसी देश में विदेशी सेनाओं अथवा पश्चिमी सेनाओं के नाजायज़ हस्तक्षेप का कारण वहाँ की अवाम नहीं बल्कि वहाँ का सिरफिरा शासक ही देखा गया है। नागरिकों पर ज़ुल्म करना और ज़ुल्म करते हुए सत्ता में आजीवन बने रहने की जि़द रखना तथा सत्ता को अपनी विरासत समझते हुए अपनी संतानों को हस्तांतरित किए जाने जैसी इच्छाएं पालना यज़ीदी शासन तंत्र के लक्षण हैं। और यही लक्षण देश,धर्म तथा मानवता सभी को आहत व बदनाम करते हैं। ऐसी ही तानाशाही प्रवृति के शासक पश्चिमी देशों विशेष कर अमेरिका का कोपभाजन उस समय हो जाते हैं जबकि यह अपनी अवाम के साथ-साथ अमेरिका से भी मधुर संबंध बनाए नहीं रख पाते। लिहाज़ा विद्रोही जनता के मूड को भांपकर पश्चिमी देश बाआसानी इराक व लीबिया जैसे देशों में सैन्य हस्तक्षेप कर डालते हैं। और अंत में यही ज़ालिम तानाशाह हाय इस्लाम-हाय मुसलमान और हाय जेहाद कहते नज़र आते हैं।

 

अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने संघर्ष की अफवाहों पर पूर्ण विराम लगाने की ‘गरज़ से ही शर्म-अल-शेख में मुस्लिम राष्ट्रों के प्रमुखों को अस्लामअलैकुम कहा था तथा मुस्लिम देशों को साथ लेकर चलने का आह्वान किया था। परंतु तब से लेकर अब तक मुस्लिम राष्ट्रों में सुधारवाद की कोई बयार चलती तो हरगिज़ नहीं दिखाई दी। हाँ विद्रोह, क्रांति तथा बगा़वत के बिगुल कई देशों में बजते ज़रूर दिखाई दे रहे हैं। इनका कारण सिर्फ यही है कि सत्ताधीश मुस्लिम तानाशाह कहीं ज़ालिम है तो कहीं निष्क्रिय। कहीं अकर्मण्यता का प्रतीक हैं तो किसी के राज में भुखमरी, बेरोज़गारी और ‘गरीबी ने अपने पांव पसार लिए हैं। कोई अपने व्यक्तिगत धन या संपत्ति के संग्रह में जुटा है तो किसी को अपनी खाऩदानी विरासत के रूप में अपनी सत्ता को सुरक्षित रखने या हस्तांतरित करने की ‘फिक्र है। कोई शासक जनता की आवाज़ को चुप कराने के लिए ज़ुल्म व अत्याचार के किसी भी उपाय को अपनाने से नहीं कतराता तो कई ऐसे हैं जिन्हें अपने देश के विकास, प्रगति या अर्थव्यवस्था में कोई दिलचस्पी नहीं। ऐसे में जनविद्रोह का उठना भी स्वाभाविक है तथा विदेशी सेनाओं द्वारा उस जनविद्रोह का लाभ उठाना भी स्वाभाविक है।

क्रिकेट-अल्लाह और भगवान

निर्मल रानी

 

मोहाली क्रिकेट स्टेडियम में भारत ने पाकिस्तान पर 29 रनों से अपनी बढ़त बनाते हुए आखिरकार फतेह हासिल कर ली। भारत-पाक के बीच खेला गया विश्व कप क्रिकेट टूर्नामेंट 2011का यह सेमीफाईनल मैच निश्चित रूप से अत्यंत रोमांचकारी रहा। भारत व पाकिस्तान दोनों ही देशों की टीमें चूंकि अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट की सर्वाधिक मज़बूत टीमों में गिनी जाती हैं लिहाज़ा इन टीमों के बीच हुई इस कांटे की टक्कर ने खेल के अंत तक दर्शकों का भी खूब मनोरंजन किया। इसमें कोई दो राय नहीं कि किसी भी खेल के मैदान में आखिर हार या जीत किसी एक पक्ष की ही होती है। फिर भी इस मैच को लेकर भारत व पाकिस्तान दोनों ही देश अपने-अपने देशों की टीमों को जिताने के लिए तरह-तरह के धार्मिक तथा भावनात्मक प्रयत्न करते देखे गए। इस में कोई दो राय नहीं कि क्रिकेट के मुकाबले में जब कभी भी भारत व पाकिस्तान की टीमें आमने-सामने होती हैं तो इन दोनों देशों के खेल में कुछ अतिरिक्त ही रोमांच तथा उत्सुकता पैदा हो जाती है। न जाने इस बात को लेकर कि यह खेल दो भाईयों जैसे पड़ोसी देशों के बीच हो रहा है या फिर यह सोच कर कि यह खेल दो परस्पर दुश्मन देशों या दो विभिन्न धर्मों की टीमों के बीच खेला जाने वाला मैच है।

भारत-पाक के खेल में सनसनी पैदा करने में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया काफी हद तक अपनी नकारात्मक भूमिका अदा करता है। संभवत: ऐसा उनकी व्यापारिक मजबूरियों के चलते हो। उदाहरण के तौर पर कभी भारत-पाक के बीच होने वाले खेल को महायुद्ध कह कर संबोधित किया गया तो कभी इसे महासंग्राम अथवा जंग की संज्ञा दी गई। कभी मीडिया ने दोनों टीमों के कप्तानों को क्रिकेट यूनीफार्म में दिखाने के बजाए फौजी यूनिफार्म में दिखाया तो कभी खिलाडिय़ों की पृष्ठभूमि में कारगिल का दृश्य प्रसारित किया। गोया मीडिया ने क्रिकेट जैसे आकर्षक व हरदिल अज़ीज़ खेल को युद्ध जैसा रंग देने में कोई कसर बाकी नहीं रखी। यह नज़ारा केवल भारतीय मीडिया का ही नहीं था बल्कि कमोबेश पाकिस्तान में भी यही हाल देखा गया। पाक मीडिया ने पाकिस्तानी खिलाडिय़ों की तुलना पाकिस्तानी मिसाईल ‘शाहीन’ से करते हुए यह दिखाया कि पाक ‘शाहीन’ भारतीय टीम पर बरसेगी। इतना ही नहीं बल्कि दोनों देशों के दर्शकों के बीच दीवानगी की हदें उस समय और अधिक पार होजाती हैं जबकि मात्र मनोरंजन के लिए खेले जाने वाले इस खेल को धर्म, भगवान या अल्लाह से जोडऩे की भरपूर कोशिश की जाती है।

आखिर अपने देश से प्यार किसे नहीं होता? हर देश का प्रत्येक व्यक्ति यही चाहता है कि किसी भी प्रतियोगिता में विजयश्री उसी के ही देश को मिले । परंतु खेल जैसी प्रतियोगिता में विजयश्री किसी के चाहने न चाहने, हवन यज्ञ करने, नमाज़ पढऩे, अल्लाह से या भगवान से दुआएं मांगने, गला फाडऩे ताली बजाने या अफसोस करने से तो हरगिज़ हासिल नहीं हो सकती। किसी भी खेल के मैदान में हमेशा जीत सिर्फ अच्छा खेल खेलने वाले व्यक्ति या टीम की ही होती है। अल्लाह या भगवान यदि खेल में दखल देता भी है तो वह भी अपना निर्णय उसी के पक्ष में सुनाता है जो अच्छे खेल का प्रदर्शन करता है। अब मोहाली में हुए इस सेमीफाईनल मैच को ही ले लीजिए। पाक खिलाडिय़ों ने मैच से पूर्व स्टेडियम में सामूहिक नमाज़ भी अदा की, तमाम पाकिस्तानी दर्शक हाथों में तसबीह (माला )लिए हुए उसे जपते हुए भी दिखाई दिए। तमाम दर्शक कुरान शरीफ की आयतें पढ़ते रहे। उधर खेल के दौरान पूरा पाकिस्तान अल्लाह को इस तरह मदद के लिए पुकार रहा था गोया अल्लाह के पास क्रिकेट में जीत या हार दिलवाने के सिवा दूसरा और कोई काम ही नहीं है। उधर भारत में भी जहां बहुसंख्यक हिंदू समुदाय के लोग अपने ईश्वर व भगवान से प्रार्थना करने में लगे थे वहीं अन्य समुदायों से जुड़े भारतीय भी अपने-अपने ईश को इस अवसर पर याद कर उनसे भारतीय टीम को विजयश्री दिलाने की प्रार्थना कर रहे थे। मुनाफ पटेल, ज़हीर खान तथा युसुफ पठान जैसे भारतीय क्रिकेट टीम के मुस्लिम खिलाडिय़ों के माता-पिता भी पूरे खेल के दौरान नमाज़ें पढ़कर अपने बच्चों की तथा देश की टीम की जीत के लिए दुआएं मांग रहे थे। माना जा सकता है इन भारतीय मुस्लिम खिलाडिय़ों के परिजनों का तो अल्लाह ने साथ दिया तथा इनकी दुआएं कुबूल कीं जबकि पूरे पाकिस्तान की दुआओं को अल्लाह ने नकार दिया। हालांकि हकीकत में ऐसा कुछ भी नहीं हैं। भारत की जीत में सचिन तेंदुलकर के शानदार 85 रनों की महत्वपूर्ण भूमिका रही। यदि खुदा न खास्ता सचिन तेंदुलकर भी युवराज की ही तरह बिना कोई रन बनाए या थोड़े बहुत रनों पर आऊट हो गए होते तो इसी मैच का नज़ारा कुछ और ही होता। परंतु क्रिकेट के महानायक सचिन तेंदुलकर ने अपनी श्रेष्ठ बल्लेबाज़ी का प्रदर्शन कर भारत को आखिरकार जीत दिलाई।

जहां मीडिया ने अपनी व्यवसायिक रणनीति पर अमल करते हुए मोहाली सेमीफाईनल को सनसनीखेज़ व तनावपूर्ण बनाने की कोशिश की वहीं भारतीय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने खेल भावना का शानदार परिचय देते हुए इस अवसर का कूटनीतिक लाभ उठाने का सफल प्रयास किया। मनमोहन सिंह के इन सकारात्मक प्रयासों को समान देते हुए जहां पाकिस्तानी प्रधानमंत्री यूसुफ रज़ा गिलानी के नेतृत्व में एक उच्चस्तरीय शासकीय दल पाकिस्तान से भारत आया तथा मोहाली में क्रिकेट मैच का लुत्फ उठाया वहीं प्रधानमंत्री के सकारात्मक कूटनीतिक प्रयासों के प्रति अपना समर्थन देते हुए भारत की तमाम अतिविशिष्ट तथा विशिष्ट हस्तियां मोहाली स्टेडियम में खिलाडिय़ों की हौसला अफज़ाई करने आ पहुंची। इन में लोकसभी अध्यक्ष मीरा कुमार, सोनिया गांधी, राहुल गांधी, शरद पवार, प्रफुल्ल पटेल, मुकेश अंबानी, विजय माल्या सहित तमाम राजनीतिज्ञ, उद्योगपति तथा फिल्मी हस्तियां मौजूद थीं। भारतीय दर्शकों के मध्य बार-बार एक विशाल बैनर दिखाया जाता रहा जिसमें भारत-पाक राष्ट्रीय ध्वज के साथ लिखा था ‘इंडिया-पाकिस्तान: फ्रैंडस फॉर ऐवर।’ मैच के दौरान जहां देश-विदेश के तमाम विशिष्ट दर्शकों ने खिलाडिय़ों की हौसला अफज़ाई की वहीं इसी क्रिकेट कूटनीति का सहारा लेते हुए दोनों देशों के प्रधानमंत्रियों ने परस्पर सहयोग व मधुर रिश्ते कायम करने के मद्देनज़र अलग से उच्चस्तरीय वार्ता भी की। गोया भारत-पाक के मध्य हुए इस सेमीफाईनल मैच में ही दोनों देशों के मध्य मधुर रिश्ते कायम किए जाने के पक्ष में सकारात्मक कदम उठाए जाने का रास्ता हमवार किया गया।

मोहाली सेमीफाईनल जहां भारत-पाक रिश्तों को बेहतर बनाने के प्रयासों के साथ-साथ भारत की जीत के लिए एक यादगार घटनाक्रम साबित हुआ वहीं नफरत की दुकान चलाने वाले लोग इस अवसर पर भी अपना ज़हर उगलने से बाज़ नहीं आए। उदाहरण के तौर पर भारतीय समाज में वैमनस्य फैलाने का ठेका लिए बैठे बाल ठाकरे जैसे संकीर्ण मानसिकता के व्यक्ति को पहले तो मनमोहन सिंह द्वारा पाक प्रधानमंत्री यूसुफ रज़ा गिलानी को मोहाली क्रिकेट मैच देखने हेतु निमंत्रण दिया जाना ही बहुत नागवार गुज़रा। उन्होंने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के इस कूटनीतिक कदम की सत आलोचना की। उसके पश्चात ठाकरे ने पाक क्रिकेट खिलाडिय़ों द्वारा स्टेडियम में नमाज़ अदा किए जाने पर भी एतराज़ जताया। क्रिकेट पिच खोदने तथा पाकिस्तानी कलाकारों व खिलाडिय़ों का विरोध करने के नाम पर यह प्राईवेट लिमिटेड तथाकथित राजनैतिक परिवार पहले भी काफी शोहरत हासिल कर चुका है। ऐसे में मोहाली सेमीफाईनल को लेकर यदि ठाकरे अपनी ऐसी नकारात्मक टिप्पणी न करते तो शायद उनकी राजनैतिक दुकानदारी में कुछ कमी आ जाती। इसी प्रकार जमू में भी खेल खत्म होने के बाद एक शर्मनाक समाचार की खबर मिली। जीत का जश्र मनाते हुए तमाम उत्साही लोग अल्पसंयक समुदाय की बस्ती की ओर निकल पड़े जिसमें पत्थरबाज़ी की मामूली घटनाओं का समाचार है। कितने हैरत की बात है कि सांप्रदायिक तनाव फैलाने वाले लोग यह भी नहीं समझ पाते कि धर्मनिरपेक्ष भारतवर्ष की ही तरह भारतीय हॉकी अथवा क्रिकेट टीम ने भी हमेशा ही अपने धर्मनिरपेक्ष स्वरूप का प्रदर्शन किया है और वह आज भी कर रही है। ऐसे में खेल को सांप्रदायिक रंग देना न केवल अज्ञानता तथा कट्टरपंथी सांप्रदायिकता की निशानी है बल्कि इससे हमारे देश के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप को भी झटका लगता है।

लिहाज़ा बेहतर यही है कि खेल को केवल खेल भावना से ही देखा जाए तथा इसका लुत्फ उठाया जाए। हमारी यही पक्की सोच होनी चाहिए कि अल्लाह, भगवान, हवन-यज्ञ या मन्नतों के बल पर न कभी कोई जीता है और न भविष्य में जीतेगा। पहले भी अच्छे खेल व अच्छे खिलाडिय़ों की ही जीत होती रही है तथा भविष्य में भी ऐसा ही होगा। अत: यदि संभव हो तो प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की ही तरह खेल को खेल भावना की नज़रों से देखते हुए इसका लाभ उठाने की ही कोशिश करनी चाहिए। खेल भावना का इस्तेमाल प्रेम व सद्भाव को बढ़ाने तथा रिश्तों को जोडऩे के पक्ष में किया जाना चाहिए। अपनी राजनैतिक दुकानदारी या व्यवसायिक दृष्टिकोण के अंतर्गत जनता में बेवजह की राष्ट्रवादी भावना पैदा करना देश हित में हरगिज़ नहीं है। और कोशिश की जानी चाहिए कि खेल के मैदान में सार्वजनिक रूप से अल्लाह, भगवान या ईश्वर आदि को हरगिज़ न शामिल किया जाए क्योंकि इन्हें तो पूरी सृष्टि चलानी है न कि केवल किसी एक मैच की जीत-हार का निर्धारण मात्र करना है।

ठगों का स्वर्ग बनता ‘इंटरनेट’

निर्मल रानी

 

‘जब तक संसार में लालच जिंदा है उस समय तक ठग कभी भूखा नहीं मर सकता। यह कथन है ठग सम्राट नटवर लाल का। संभवत: नटवर लाल के इसी कथन को आधार मानकर ठगों द्वारा अन्तराष्ट्रीय स्तर पर एक व्यापक नेटवर्क तैयार किया गया है। इस नेटवर्क की विशेषता यह है कि इसमें ठगी करने के प्रयास में लगे सभी लोग भी पूर्णतय: शिक्षित प्रतीत होते हैं। इतना ही नहीं बल्कि जिन्हें वे अपने जाल में फंसाना चाहते हैं वह वर्ग भी आम तौर पर शिक्षित ही होता है। शायद इसी लिए जहां ठगों द्वारा अत्याधुनिक वैज्ञानिक तकनीक अर्थात् कंप्यूटर व इंटरनेट का सहारा लिया जा रहा है वहीं ठगी का शिकार भी उन्हीं को बनाया जा रहा है जो कंप्यूटर व इंटरनेट का प्रयोग करते हैं। अपने शिकार को ठगने के लिए वे मात्र लालच या प्रलोभन को ही अपने धंधे का मुख्य आधार बनाते हैं। जाहिर है कि लालच का शिकार होना या किसी प्रलोभन में आना केवल गरीबों का ही काम नहीं बल्कि किसी पैसे वाले व्यक्ति को शायद धन की कुछ ज्य़ादा ही आवश्यकता होती है। इसी सूत्र पर अमल करते हुए अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के ठगों का यह विशाल नेटवर्क लगभग पूरी दुनिया में छा चुका है।

 

यह अन्तर्राष्टीय गिरोह ठगी का अपना व्यवसाय पहले तो मुख्य रूप से कई दक्षिण अफ्ऱीकी देशों से ही संचालित कर रहा था। परंतु अब तो लगता है इन ठगों ने दुनिया के लगभग सभी देशों में अपने जाल फैला दिए हैं। यह इंटरनेट ठग गूगल अथवा याहू या किन्हीं अन्य सर्च साइट्स के माध्यम से या फिर किन्हीं अन्य तरीकों से विश्व के तमाम लोगों के ई-मेल पते इकट्ठा करते हैं। उसके पश्चात वे बाकायदा अपने पूरे नाम, टेलीफोन नंबर व पते के साथ-साथ किसी भी ई-मेल पर अपना भारी भरकम परिचय देते हुए प्रलोभन युक्त मेल प्रेषित करते हैं। उस मेल का वृत्तान्त कुछ ऐसा होता है, जिसे पढ़कर बड़े से बड़ा बुद्घिमान एवं समझदार व्यक्ति भी एक बार उनके झांसे में आसानी से आ जाता है। उदाहरण के तौर पर आपको उनका यह संदेश आ सकता है कि- ‘बधाई हो, आप जैकपॉट का पुरस्कार जीते हैं। यह लॉटरी इन्टरनेट प्रयोग करने वाले ई-मेल खाताधारकों के मध्य आयोजित की गई थी। इसमें आपका 14 लाख डॉलर का पुरस्कार निकला है। कृप्या इसे ग्रहण करने के लिए अमुक ई-मेल पर संपर्क करें। जाहिर है एक बार इस मेल को प्राप्त करने वाला व्यक्ति बड़ी $खामोशी के साथ एक कदम आग बढ़ाते हुए ठगों द्वारा भेजे गए उनके ई-मेल पते पर संपर्क साधता है। मात्र 24 घंटों के भीतर ही आपको उस ठग का उत्तर भी मिल जाएगा। उसका उत्तर यह होता है कि- ‘हां मैं बैरिस्टर अमुक हूं तथा आप वास्तव में लॉटरी के विजेता हैं। आपको बधाई। उसके बाद वह तथाकथित बैरिस्टर आपसे आपका नाम, पूरा पता, व्यवसाय, टेलीफोन नंबर, बैंक अकाउंट नंबर तथा आपके बैंक का स्विफट कोड नं आदि जानकारी मांगता है। बस इसके बाद यदि आपने उनके द्वारा मांगी गई सभी सूचनाएं उपलब्ध करवा दीं फिर न तो वे दोबारा आप से संपर्क साधेंगे, न ही आपके किसी अगले ई-मेल का जवाब देंगे। यह ठग इलेक्ट्रोनिक उपायों का प्रयोग कर किसी भी प्रकार से आपके खाते से पैसे निकालने का भरसक प्रयास करने में जुट जाते हैं। और किसी न किसी शिकार व्यक्ति के बैंक खाते से पैसे निकालने में कामयाब हो ही जाते हैं।

 

लॉटरी निकलने की सूचना देने के अतिरिक्त और भी तरह-तरह के किस्से-कहानी से भरपूर ई-मेल ठगों का यह नेटवर्क पूरी दुनिया में ई-मेल धारकों को भेजता रहता है। किसी ठग द्वारा यह सूचित किया जाता है कि अमुक परिवार विमान हादसे में मारा गया है। उस परिवार का चूंकि कोई वारिस नहीं है तथा यदि आप उसके वारिस बन जाएं तो उसकी जमा धनराशि यथाशीघ्र आप पा सकते हैं। कोई महिला शादी का प्रलोभन देते हुए लिखती है कि मेरा करोड़ों डॉलर बैंक में है, मैं यह धनराशि आपके खाते में स्थानान्तरित करना चाहती हूं। अत: आप मुझे अपना नाम, पता, खाता व अपने बैंक का स्विफ्ट कोड आदि भेजिए। कई ठग तो सीधे तौर पर यही लिख देते हैं कि मैं अमुक बैंक में गुप्त दस्तावेज डील करने वाले विभाग में अधिकारी हूं। मेरे एक जानकार व्यक्ति की मृत्यु हो गई है। उनका करोड़ों डॉलर मेरे ही बैंक में जमा है। यदि आप इस धनराशि को लेने में रुचि रखते हैं तो अपना व अपने बैंक अकाऊंट का विस्तृत ब्यौरा यथाशीघ्र भेजें ताकि मैं यह धनराशि आपके खाते में स्थानान्तरित कर सकूं। अपने आपको चीन का बताने वाले एक ठग ने भावनात्मक रूप से ब्लैकमेल करने की तो हद ही कर दी। उसने स्वयं को कैंसर का मरीज बताते हुए यह लिखा कि वह चीन का एक नामी-गिरामी उद्योगपति है। चूंकि वह अपने जीवन की अन्तिम सांसें ले रहा है अत: वह चाहता है कि उसकी नक़द धनराशि का एक बड़ा हिस्सा गरीब व बेसहारा लोगों में बांट दिया जाए। फिर उस तथाकथित उद्योगपति ने इस कार्य के लिए सहयोग मांगते हुए अपने तथाकथित बैरिस्टर का ई-मेल पता दे दिया। उधर उस तथाकथित बैरिस्टर ने भी अन्य ठगों की भांति विस्तृत पता तथा बैंक खाते का विस्तार मांगना शुरु कर दिया।

 

कुछ ठग तो धार्मिक व जातिगत भावनाओं को भी जगाने का प्रयास अपने इस ठग व्यवसाय में करते हैं। परन्तु भारतीय संस्कृति की स पूर्ण जानकारी न होने की वजह से उन्हें बारीकी से परखा जा सकता है। उदाहरण के तौर पर यदि आपका नाम संजय चौधरी है तो जाहिर है आपने अपना ई-मेल भी लगभग संजय चौधरी के नाम से या इससे मिलता जुलता ही बनाया होगा। यह अन्तर्राष्ट्रीय ठग चौधरी शब्द को तो यह समझ कर चुन लेते हैं कि हो न हो, यह किसी व्यक्ति का सरनेम ही होगा। उसके पश्चात ठगानन्द जी आपके ई-मेल पर जो संदेश भेजते हैं उसमें लगभग यह लिखा होता है कि- ‘कार एक्सीडेंट में अथवा विमान हादसे में अथवा किसी समुद्री जहाज के डूबने में फलां देश का एक परिवार मारा गया। उसका मुखिया रॉबर्ट चौधरी था। चूंकि आप संजय चौधरी हैं अत: आप राबर्ट चौधरी के भाई के रूप में स्वयं को प्रस्तुत करते हुए उसके खाते में जमा 22 करोड़ डॉलर की नक़द धनराशि प्राप्त कर सकते हैं। यहां यह ठग चौधरी शब्द का तो बड़ी आसानी से महज इसलिए प्रयोग कर लेता है क्योंकि वह उसे सरनेम ही समझता है परन्तु संजय के स्थान पर दूसरे भारतीय शब्द का अभाव होने के चलते उसे राबर्ट नाम का सहारा लेना पड़ता है। इन ठगों द्वारा दिए जाने वाले इन सभी प्रलोभन में जो कहानी तथा अनुबन्ध उल्लिखित किया जाता है उसमें बाकायदा 30 अथवा 40 या 50 प्रतिशत का उनका अपना हिस्सा भी बताया जाता है ताकि कोई भी व्यक्ति अचानक यह न समझ बैठे कि अमुक व्यक्ति को मेरे ही साथ इतनी हमदर्दी आखिर क्योंकर है।और यह पूरी रकम केवल मुझे ही क्यों देने की बात कर रहा है।

 

कंप्यूटर क्रांति विशेषकर इन्टरनेट के रूप में वैज्ञानिकों ने नि:संदेह दुनिया को वह बेशकीमती सौगात दी है जिसकी कभी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। इसमें कोई शक नहीं कि इन्टरनेट व क पूटर के तमाम $फायदे व सुविधाएं हैं। परन्तु जिस प्रकार देवताओं के समय में भी राक्षसों व राक्षस प्रवृत्ति के लोगों की कोई कमी नहीं थी, ठीक उसी तरह इस कंप्यूटर व इंटरनेट के स्वर्णिम व अत्याधुनिक युग में भी जहां पूरा संसार उससे तमाम सुविधाएं उठा रहा है वहीं ठग प्रवृत्ति के तमाम लोग भी इस प्रणाली का दुरुपयोग करने हेतु अपनी कमर कस चुके हैं। इंटरनेट के माध्यम से तरह-तरह की योजनाएं बता कर ठगी करना, गन्दे व अश्लील ई-मेल भेजना,किसी का ई-मेल हैक करना, वायरस भेजना दूसरों को डराना-धमकाना तथा आतंकवाद संबंधी गतिविधियों की सूचनाओं का गैर कानूनी आदान-प्रदान व अवैध रूप से गुप्त दस्तावेजों का हस्तानान्तरण करना भी इसी कंप्यूटर के माध्यम से हो रहा है। जहां हमें कंप्यूटर के तमाम सकारात्मक व लाभप्रद पहलुओं को स्वीकार करना तथा उन्हें अपने प्रयोग में लाना है वहीं इससे होने वाले नुकसान व दुष्परिणामों से भी पूरी तरह चौकस व सचेत रहने की जरूरत है। इंटरनेट के माध्यम से प्राप्त होने वाले किसी भी अंजान व्यक्ति के किसी भी लालचपूर्ण प्रस्ताव को पढऩे में समय गंवाने के बजाए ऐसे मेल को डिलीट कर देना ही ठगी से बचने का सबसे ज्य़ादा उचित व सुरक्षित उपाय है।