
ज फिर होली में
काम हुए सब रॉंग आज फिर होली में
सजी-धजी मुर्गी की देख अदाओं को
दी मुर्गे ने बांग आज फिर होली में
करे भांगड़ा भांग उछल कर भेजे में
नहीं जमीं पर टांग आज फिर होली में
फटी-फटाई पेंट के आगे ये साड़ी
कौन गया है टांग आज फिर होली में
करने लगे धमाल नींद के आंगन में
सपने ऊटपटांग आज फिर होली में
बोलचाल थी बंद हमारी धन्नों से
भरी उसीकी मांग आज फिर होली में
सजधज उनकी देख गधे भी हंसते हैं
रचा है ऐसा स्वांग आज फिर होली में
साडेनाल कुड़ी सोनिए आ जाओ
सुनो इश्क दा सांग आज फिर होली में
पत्रांक : बास/राअ/1112/1 दिनांक : 11.03.2011
प्रेषक : डॉ. पुरुषोत्तम मीणा, राष्ट्रीय अध्य्यक्ष-भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान (बास), राष्ट्रीय अध्यक्ष का कार्यालय-7 तँवर कॉलोनी, खातीपुरा रोड, जयपुर-302006 (राजस्थान), फोन : 0141-2222225, मोबाइल : 098285-02666
प्रेषिति :
माननीय श्री डॉ. मनमोहन सिंह जी,
प्रधानमन्त्री, भारत सरकार, नयी दिल्ली|
विषय : राजस्थान के उपभोक्ताओं के साथ बीएसएनएल की अन्यायपूर्ण एवं असंवैधानिक नीति कोतत्काल रोकने के सम्बन्ध में|
उपरोक्त विषय में ध्यान आकृष्ट कर अनुरोध है कि भारत सरकार के उपक्रम भारत संचार निगम लिमीटेड (बीएसएनएल) के अधिकारियों द्वारा आर्थिक, सामाजिक, शैक्षिक एवं भौगौलिक दृष्टि से पिछड़े और प्रकृतिक आपदाओं को झेलने का विवश राजस्थान राज्य के फोन उपभोक्ताओं के विरुद्ध संविधान के प्रावधानों का उल्लंघन करके मनमानी व अन्यायपूर्ण नीति अपनाई जा रही हैं, जिसके कारण लोकतान्त्रिक तरीके से चुनी गयी आपकी लोकप्रिय सरकार, अलोकप्रिय होती जा रही है|
यह कि कि भारत संचार निगम लिमिटेड सीधे तौर पर भारत सरकार के दूर संचार विभाग के अधीन कार्यरत एक राष्ट्रीय सरकारी निकाय है, कार्य विभाजन की दृष्टि से अलग-अलग क्षेत्रीय प्रशासनिक कार्यालयों द्वारा संचालित किया जाता है| बीएसएनएल केन्द्र सरकार के नियन्त्रण में होने के साथ-साथ भारत के संविधान का अनुपालन करने के लिये बाध्य है| इसके उपरान्त भी बीएसएनएल के अदूरदर्शी अधिकारियों के कारण ऐसी नीतियॉं बनाकर लागू की जा रही हैं, जिनके चलते आपकी लोकप्रिय, लोकतान्त्रिक सरकार के प्रति आम लोगों में लगातार असन्तोष और गुस्सा व्याप्त होता जा रहा है|
यह कि बीएसएनएल ने गुजरात राज्य में 111 रुपये प्रतिमाह के अतिरिक्त प्रभार पर ‘लो कर लो बात’ नाम से अनलिमिटेड योजना लगभग पांच वर्ष पूर्व से चालू कर रखी है, जिसके अन्तर्गत सम्पूर्ण गुजरात राज्य में बीएसएनएल के सम्पूर्ण नेटवर्क (बेसिक व सेलुलर) पर गैर मीटरिंग बात करने की सुविधा प्रदान की गयी है| जबकि इसके विपरीत बीएसएनएल ने गुजरात की ‘लो कर लो बात अनलिमिटेड’ के जैसी ही सुविधा राजस्थान में 17 मई, 2008 से 199 +कर रुपये आदि के अतिरिक्त मासिक भुगतान पर प्रारम्भ की थी| इसमें राजस्थान में गुजरात की तुलना में कर सहित लगभग दुगुना अर्थात् उपभोक्ताओं से 98 रुपये प्रतिमाह अधिक वसूल कर सरेआम शोषण किया जा रहा है| 15 अगस्त, 2008 से यह सुविधा भी नये उपभोक्ताओं हेतु बंद कर दी गई है| भारत सरकार के एक ही संस्थान द्वारा एक समान सेवा के लिए अधिक शुल्क वसूल करना शोषण व अस्वस्थ परिपाटी की परिभाषा में आता है| बीएसएनएल के अधिकारियों द्वारा भेदभाव, शोषण व असंवैधानिक कृत्य किया जा रहा है, जिसे तत्काल रोकना जरूरी है|
यह कि बेसिक फोन की तुलना में सेलुलर फोन की अतिरिक्त सुविधाओं के कारण सेलुलर फोन धारकों की संख्या बेसिक फोन से लगभग 10 गुणा है| अत: उपभोक्ताओं को वास्तविक लाभ सेलुलर फोन पर नि:शुल्क सुविधा उपलब्ध करवाने से हो सकता है| भारतीय संविधान के अनुच्छेद 38 के अनुसार कमजोर तथा पिछड़ों नागरिकों के हितो की रक्षा के लिए योगदान देना सरकार का अनिवार्य संवैधानिक कर्त्तव्य है, जिसे सुप्रीम कोर्ट द्वारा समय-समय पर अनेक निर्णयों में नागरिकों के अधिकार के रूप में भी परिभाषित भी किया है| इसके अलावा संविधान के अनुच्छेद 14 के प्रकाश में सरकार का अनिवार्य और बाध्यकारी दायित्व है कि वह अपने समस्त नागरिकों से एक समान व्यवहार करे|
यह कि बेशक बीएसएनएल को प्रशासनिक दृष्टि से कितने ही भागों या क्षेत्रों में विभाजित किया जा चुका हो, लेकिन सभी क्षेत्रों में सेवारत बीएसएनएल के सभी कर्मचारियों और अधिकारियों को एक समान वेतन-भत्तों का भुगतान किया जाता है| अत: यह स्वत: प्रमाणित है कि देश के सभी क्षेत्रों में बीएसएनएल की सेवा लागत एक समान है| ऐसे में अकारण अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग या कम-ज्यादा शुल्क वसूलना अतार्किक है|
यह कि यदि बीएसएनएल अपनी दरों में किसी प्रकार का अन्तर करना जरूरी समझता है तो ऐसा अन्तर संविधान सम्मत प्रावधानों के अनुरूप ही किया जाना चाहिये| जिसके लिये संविधान में अनेक उपबन्ध किये गये हैं और विधि का यह सर्वमान्य सिद्धान्त है कि ‘‘जिन्हें अपने जीवन में कम मिला है, उन्हें कानून में अधिक दिया जावे|’’ इसी अवधारणा को ध्यान में रखते हुए संविधान की उद्देशिका तथा अनुच्छेद 38 में आर्थिक न्याय के तत्व का समावेश किया गया है और इसी कारण बीएसएनएल द्वारा समान लागत के बावजूद ग्रामीण क्षेत्रों में कम आयवर्ग के नागरिकों के निवास के कारण कम किराये पर भी अधिक मुफ्त टेलिफोन कॉले उपलब्ध करवायी जा रही है| केवल यही नहीं, बल्कि अनेक कम आय अर्जित करने वाले राज्यों में भी इस प्रकार की छूट प्रदान की गयी है|
यह कि वर्ष 2002-2003 के आंकड़ों के अनुसार बिहार, राजस्थान व गुजरात राज्य की प्रति व्यक्ति वार्षिक आय क्रमश: 5683 रुपये, 12743 रुपये एवं 22047 रुपये है| सम्भवत: इसी विषमता को ध्यान में रखते हुए और के सामाजिक न्याय स्थापित करने वाले लोककल्याणकारी राज्य की स्थापना सुनिश्चित करने वाले प्रावधानों को ध्यान रखते हुए बिहार राज्य में बीएसएनएल द्वारा टेलीफोन सुविधा किसी प्रकार का किराया नहीं लिया जा रहा है| जबकि गुजरात राज्य में ‘‘लो कर लो बात अनलिमिटेड’’ सुविधा १११ रुपये प्रतिमाह शुल्क पर दी जा रही है, जबकि गुजरात में प्रतिव्यक्ति आय (22047 रुपये) की तुलना में राजस्थान के लोगों की प्रतिव्यक्ति आय (12743 रुपये) लगभग आधी है| क्षेत्रीय असंतुलन को दूर करने हेतु राजस्थान में समान सुविधा गुजरात में उपलब्ध करवाई जा रही दर से आधी दर (करीब 55 रुपये प्रतिमाह) पर उपलब्ध करवायी जानी चाहिए| किन्तु इसके विपरीत बीएसएनएल द्वारा संविधान के उक्त सभी प्रवधानों को धता बताते हुए न्यायसंगत दर (करीब 55 रुपये प्रतिमाह) की बजाय लगभग चार गुणा दर (199+कर) पर, गुजरात के समान सुविधा राजस्थान के नागरिकों को उपलब्ध करवायी जा रही है, जो भी अब बन्द कर दी गयी है| यह हर दृष्टि से न मात्र अन्यायपूर्ण है, बल्कि असंवैधानिक भी है|
यह कि यह सर्वविदित तथ्य है और सरकारी आंकड़ों से भी प्रमाणित होता है कि राजस्थान शिक्षा, कृषि एवं आर्थिक विकास आदि के सम्बन्ध में गुजरात राज्य की तुलना में पिछड़ा हुआ राज्य है और लगातार प्राकृतिक आपदाओं का शिकार भी होता रहता है| जहां पर संविधान के अनुच्छेद 38 के अनुसरण में बीएसएनएल को अपने संवैधानिक दायित्वों का निर्वाह करते हुए तुलनात्मक रूप से सस्ती सेवाएं उपलब्ध करवानी चाहिए| जबकि बीएसएनएल का वर्तमान दर ढांचा संविधान के प्रावधानों के पूर्णत: विपरीत है|
यह कि बीएसएनएल द्वारा राजस्थान में निर्धारित दर ढांचा मनमाना और संविधान के विपरीत होने के कारण सामाजिक न्याय एवं लोककल्याणकारी राज्य की अवधारणा के विपरीत है| ऐसी नीतियों से लोकतान्त्रिक तरीके से चुनी गयी सरकार जनता के बीच अलोकप्रिय हो जाती हैं| इसलिये केन्द्रीय सरकार को इस भेदभाव को तत्कान ठीक करने की जरूरत है|
आपसे अनुरोध है कि जनहित में बीएसएनएल को निर्देश दिये जावें कि-
(क) क्षेत्रीय विषमता दूर करने हेतु बीएसएनएल द्वारा राजस्थान में दूरभाष पर गुजरात राज्य से आधी दर अर्थात रूपये 61/- प्रतिमाह की दर पर ‘लो कर लो बात अनलिमिटेड’ सुविधा प्रदान की जावे|
(ख) बीएसएनएल द्वारा गुजरात राज्य की तुलना में राजस्थान राज्य के विभिन्न उपभोक्ताओं से अधिक वसूला गया शुल्क (199-61) 138 रुपये प्रतिमाह को पुराने उपभोक्ताओं को वापस किया जावे या आगे के बिलों में सामायोजित किया जावे| अन्यथा उपभोक्ता कल्याण निधि में अंतरित किया जावे|
प्रतिलिपि :
1. माननीय श्री कपिल सिब्बल जी, दूर संचार मन्त्री, भारत सरकार, नयी दिल्ली|
2. माननीय श्री सचिन पायलेट जी, दूर संचार राज्य मन्त्री, भारत सरकार, नयी दिल्ली|
3. राजस्थान से चुनकर जाने वाले सभी माननीय संसद सदस्य लोकसभा एवं राज्य सभा को उनके निवास के पते पर प्रेषित|
राजनीतिक कार्यों से संन्यास लेने की दलाई लामा की घोषणा तिब्बत के लिए ऐतिहासिक महत्व की है। 1959 में इसी दिन ल्हासा में हजारों तिब्बतियों ने चीन की सत्ता के खिलाफ विद्रोह कर दिया था। हजारों तिब्बती शहीद हो गए थे। तिब्बती स्वतंत्रता का आंदोलन उसी दिन से किसी न किसी रूप में आज तक चल रहा है। चीन तिब्बत को लेकर चैन से बैठने की स्थिति में नहीं है। तिब्बत के भीतर वहां का जनसाधारण विद्रोह करता रहता है और तिब्बत के बाहर निर्वासित तिब्बती इस मुद्दे को मरने नहीं देते। ऐसा माना जाता है कि इस आंदोलन की बहुत बड़ी ऊर्जा दलाई लामा से प्राप्त होती है। दलाई लामा ने तिब्बत के प्रश्न को विश्व मंच से कभी ओझल नहीं होने दिया, इसलिए चीन के शब्द-भंडार में ज्यादा गालियां दलाई लामा के लिए ही सुरक्षित रहती हैं। दरअसल, दलाई लामा साधारण शब्दों में तिब्बत के धर्मगुरु और शासक हैं। इतने से ही तिब्बत को समझा जा सकता। यही कारण था कि 1959 में जब चीन की सेना ने ल्हासा पर पूरी तरह कब्जा कर लिया, तब माओ ने चीनी सेना से पूछा था कि दलाई लामा कहां है? सेना के यह बताने पर कि वह पकड़े नहीं जा सके और भारत चले गए हैं, तो माओ ने कहा था कि हम जीतकर भी हार गए हैं।
अब उन्हीं दलाई लामा ने तिब्बत की राजनीति से संन्यास लेने का निर्णय किया है। वैसे चीन ने तो दलाई लामा की इस घोषणा को सिरे से खारिज करते हुए इसे उनकी एक और चाल बताया है, परंतु तिब्बती जानते हैं कि यह उनके धर्मगुरु की चाल नहीं है, बल्कि उनका सोचा-समझा निर्णय है। इसी कारण निर्वासित तिब्बती सरकार और आम तिब्बती में एक भावुक व्याकुलता साफ देखी जा सकती है।
दलाई लामा की उम्र 76 साल हो चुकी है। जाहिर है कि वह भविष्य के बारे में सोचेंगे ही। यदि तिब्बती स्वतंत्रता का आंदोलन उन्हीं के इर्द-गिर्द सिमटा रहा, तो उनके जाने के बाद उसका क्या होगा? दलाई लामा ने इसी को ध्यान में रखते हुए कुछ दशक पूर्व निर्वासित तिब्बत सरकार का लोकतंत्रीकरण कर दिया था। निर्वासित तिब्बती संसद के लिए बाकायदा चुनाव होते हैं। प्रधानमंत्री चुना जाता है। मंत्रिमंडल का गठन होता है और निर्वासित तिब्बत सरकार लोकतांत्रिक ढंग से कार्य करती है। जो लोग इस संसद की बहसों का लेखा-जोखा रखते रहे हैं, वे जानते हैं कि संसद में अक्सर तीव्र असहमति का स्वर भी सुनाई देता है। यहां तक कि दलाई लामा के मध्यम मार्ग और स्वतंत्रता के प्रश्न पर भी गरमागरम बहस होती है। निर्वासित तिब्बत सरकार के संविधान में दलाई लामा को भी कुछ अधिकार दिए गए हैं, लेकिन वह धीरे-धीरे उन्हें छोड़ते जा रहे हैं। संसद में कुछ सदस्य मनोनीत करने का उनके पास अधिकार था, लेकिन उन्होंने इसे स्वेच्छा से त्याग दिया। जाहिर है, दलाई लामा अपनी गैरहाजिरी में तिब्बत के लोकतांत्रिक नेतृत्व को स्थापित करने का प्रयास कर रहे हैं। दलाई लामा जानते हैं कि उनकी मृत्यु के उपरांत चीन सरकार अपनी इच्छा से किसी को भी उनका अवतार घोषित कर सकती है और फिर उससे मनमर्जी की घोषणाएं करवा सकती है। इस आशंका को ध्यान में रखते हुए ही दलाई लामा ने दो कदम उठाए हैं। पहला, यह घोषणा कि वह चीन के कब्जे में गए तिब्बत में पुनर्जन्म नहीं लेंगे। दूसरा, उन्होंने राजनीतिक क्षेत्र में दलाई लामा के अधिकारों को ही समाप्त कर दिया है। भविष्य में चीन यदि किसी मनमर्जी के दलाई लामा से राजनैतिक घोषणाएं भी करवाएगा, तो तिब्बतियों की दृष्टि में उनकी कोई कीमत नहीं होगी।
दलाई लामा के इस कदम से उनके जीवनकाल में तिब्बतियों का ऐसा नेतृत्व उभर सकता है, जो अपने बल-बूते इस आंदोलन को आगे बढ़ा सके। दलाई लामा शुरू से ही यह मानते हैं कि लोकतांत्रिक प्रणाली से ही जन-नेतृत्व उभरता है। वह कहते रहते हैं कि भारत अपनी समस्याओं से इसलिए जूझने में सक्षम है, क्योंकि यहां शासन की लोकतांत्रिक प्रणाली है, वे इसे भारत की आंतरिक शक्ति बताते हैं। दलाई लामा तिब्बती शासन व्यवस्था में इसी शक्ति को स्थापित करना चाहते हैं, ताकि तिब्बती पहचान का आंदोलन कभी मंद न पड़े। फिलहाल चाहे दलाई लामा अपने राजनैतिक उत्तरदायित्व से मुक्त हो जाएंगे, लेकिन उनका नैतिक मार्गदर्शन तिब्ब्ती समुदाय को मिलता ही रहेगा। उनका यही नैतिक मार्ग दर्शन तिब्बत में नए नेतृत्व की शक्ति बनेगा और उसे विभिन्न मुद्दों पर एकमत न होते हुए भी व्यापक प्रश्नों पर साथ चलने की शक्ति प्रदान करेगा। दलाई लामा ने कहा है कि वे धर्मगुरु के नाते ही अपने दायित्वों का निर्वाह करेंगे। तिब्बत की पहचान का प्रश्न भी मूलत: धर्म से ही जुड़ा है। उनके इस कदम से धीरे-धीरे तिब्बतियों का आत्मविश्वास बढ़ेगा और अपने बल-बूते लड़ने की क्षमता भी।
वह जानते हैं कि उनकी मृत्यु के उपरांत नए दलाई लामा के वयस्क होने तक जो शून्य उत्पन्न होगा, उससे तिब्बती निराश हो सकते हैं और भटक भी सकते हैं। शायद इसीलिए करमापा लामा से उनकी आशा है कि वे इस शून्यकाल में तिब्बतियों का मार्गदर्शन करेंगे। यही कारण रहा होगा कि करमापा लामा को लेकर उठे विवाद में दलाई लामा ने अपना विश्वास स्पष्ट रूप से करमापा में जताया।
कुछ विद्वानों ने हवा में तीर मारने शुरू कर दिए हैं कि दलाई लामा की घोषणा से भारत और चीन के संबंध सुधरने का रास्ता साफ हो जाएगा। यह विश्लेषण इस अवधारणा पर आधारित है कि भारत और चीन के रिश्तों की खटास का कारण दलाई लामा हैं। पर चीन भारत से इसलिए खफा नही हैं कि यहां दलाई लामा रहते हैं। चीन के खफा होने का कारण यह है कि भारत चीन को अरुणाचल और लद्दाख क्यों नहीं सौंप रहा? चीन भारत के बहुत बड़े भू-भाग को अपना मानता है और वह चाहता है कि भारत उसके इस दावे को स्वीकार करे। दलाई लामा के भारत में रहने या न रहने से चीन के इस दावे पर कोई असर नहीं पड़ता।
पैंतीस साल के वामशासन की आयरनी है कि लोकतंत्र की रक्षा का भार अब वाम के कंधों से उतरकर अवाम दलों के कंधों पर चला गया है। वाम का एकच्छत्र सामाजिक नियंत्रण टूट चुका है। विकल्प के रूप में विपक्षी दलों की साख बेहतर हुई है। खासकर ममता बनर्जी और उनके दल के प्रति आम आदमी की आस्थाएं मुखर हुई हैं। यह पश्चिम बंगाल के लोकतांत्रिक वातावरण के लिए शुभसंकेत है। वामदलों को अपनी
राजनीतिक कार्यपद्धति पर गंभीर मंथन करने की जरूरत है। उन्हें उन कारणों को गंभीरता के साथ विश्लेषित करना चाहिए जिनके कारण ममता बनर्जी आज लोकतांत्रिक आकांक्षाओं की प्रतीक बन गई हैं। वाममोर्चा ने 35 सालों में सामाजिक नियंत्रण स्थापित करने की सबसे बड़ी गलती की है। यह काम किया गया लोकतांत्रिक संस्थाओं और लोकतंत्र की आड़ में। वाममोर्चे को यदि फिरसे जनता का दिल जीतना है तो
सामाजिक नियंत्रण की राजनीति को तिलांजलि देनी होगी। वरना भविष्य में सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी सेभी बुरी अवस्था का उसे सामना करना पड़ सकता है।
विगत पाँच सालों में ममता बनर्जी और उनके दल की कार्य पद्धति में मूलगामी बदलाव आया है। वे जनता के हितों और दुखों के साथ तेजी से जुड़ी हैं। यह काम उन्होंने पालुलिस्ट राजनीतिक हथकंड़े अपनाते हुए किया है। वे पापुलिज्ट वाम की भाषा बोलती रही हैं। इसी कड़ी में तृणमूल कांग्रेस की सुप्रीमो ममता बनर्जी ने 20 फरवरी को धर्मतल्ला पर अपनी चुनाव सभा में कहा ‘वामपंथ अच्छा है,लेकिन
वाममोर्चा खराब है।’ उन्होंने कहा वे वामपंथ की असली वारिस हैं, इसलिए वामपंथी जनता उनका साथ दे। ममता बनर्जी का यह प्रभावशाली चुनावी पैंतरा है। वे इसके बहाने एक साथ कई शिकार करना चाहती हैं,पहला शिकार हैं वाममोर्चे के हमदर्द। ये किसी न किसी वजह से स्थानीय वामनेताओं की दादागिरी से दुखी हैं। ममता के दूसरे शिकार हैं वे लेखक-संस्कृतिकर्मी-फिल्मी कलाकार जो किसी न किसी रूप में
वाम विचारों में आस्था रखते हैं, लंबे समय तक वाममोर्चे के साथ रहे,लेकिन नंदीग्राम-सिंगूर की घटना के बाद से वाममोर्चे का साथ छोड़कर ममता के साथ चले आए हैं। ममता बनर्जी इन लोगों को बाँधे रखना चाहती हैं। इन लोगों की ममता की मीडिया इमेज बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका है। ममता के तीसरे शिकार हैं वे सरकारी कर्मचारी ,कॉलेज और विश्वविद्यालय शिक्षक जो वाम के साथ हैं लेकिन अपने
वेतनमानों और अन्य सुविधाओं के संबंध में उठायी गयी समस्याओं के अभी तक समुचित समाधान नहीं किए जाने से वाममोर्चा से नाराज हैं। सब जानते हैं ममता बनर्जी और उनका दल वामदल नहीं है। इस दल में वाम के कोई राजनीतिक लक्षण नहीं हैं। यह एकनायककेन्द्रित बुर्जुआदल है,जिसका नव्यउदार आर्थिक नीतियों में विश्वास है।जिसका सामाजिक आधार मध्यवर्ग,लंपट सर्वहारा,कारपोरेट घराने और
जमींदार हैं।
असल में ममता बनर्जी अपने वोटबैंक का दायरा बढ़ाना चाहती हैं और इस समय उनके पास जो वोट हैं वे अब तक के सबसे ज्यादा वोट हैं। इनमें यदि कहीं से भी बढ़ोतरी हो सकती है तो वह है वाममोर्चे के वोट बैंक में सेंधमारी करके। नंदीग्राम-सिंगूर के बहाने जो प्रचार अभियान ममता हनर्जी ने चलाया था उसने वाम के ग्रामीण और अल्पसंख्यक जनाधार को सीधे प्रभावित किया है और वाम को विगत लोकसभा
चुनाव में बड़ी पराजय का सामना करना पड़ा ।
वाममोर्चे ने जनाधार को बचाए रखने की नीति अपनायी और गांवों में उद्योगों के लिए जमीन अधिग्रहण के काम को पूरी तरह रोक दिया। उल्लेखनीय है कारखानों के लिए भूमि अधिग्रहण के सवाल ने पहले से मौजूद सामाजिक असंतोष को अभिव्यक्ति दी है। इसका तत्काल फायदा मिला और गांवों में उठा वामविरोधी उन्माद थम सा गया है, लेकिन इस प्रक्रिया में गांवों में वाममोर्चे का एकच्छत्र शासन खत्म हो गया
है।गांवों में लोकतंत्र को प्रवेश मिल गया है और संयोग से इसका श्रेय किसानों की प्रतिवादी चेतना और ममता बनर्जी को जाता है । उल्लेखनीय है त्रिस्तरीय पंचायत व्यवस्था बनाई वाममोर्चे ने, लेकिन पंचायतों के संचालन के नाम पर गांधीवादी सामाजिक शिरकत, स्वतंत्रता और लोकतंत्र की पद्धति को त्यागकर सामाजिक नियंत्रण की चीन की कम्युनिस्ट पार्टी की पद्धति लागू की गई। वाममोर्चे के
नेता भूल गए पंचायती राज्य का मकसद है गांवों में सत्ता के विकेन्द्रीकरण के जरिए लोकतंत्र को दीर्घजीवी बनाना,लेकिन उन्होंने पंचायती व्यवस्था और भूमि सुधारों को पार्टी के शासनतंत्र और सामाजिक नियंत्रण का हिस्सा बना दिया। इस मसले पर आज भी वाम मोर्चा साफ नहीं है कि क्या वो भविष्य में गांवों में सामाजिक नियंत्रण जारी रखेगा ? वाममोर्चा यदि सामाजिक नियंत्रण में ढ़ील देता
है तो उसे गावों में अपने कैडरों की हत्याओं का डर है, बनाए रखता है तो आम जनता से कट जाने का खतरा है। लालगढ़ में माओवादियों के साथ माकपा की चल रही जंग इस स्थिति का आदर्श उदाहरण है। वाममोर्चे के पास इस प्रसंग में विकल्प बहुत कम हैं। वे सिर्फ एक ही स्थिति में गांवों में जनाधार बनाए रख सकते हैं सामाजिक नियंत्रण और पुलिसबलों के जरिए । ऐसी स्थिति में सतह को नियंत्रित किया जा सकता
है कि लेकिन ग्रामीण जनता के मन में शासन नहीं किया जा सकता, यदि आगामी विधानसभा चुनाव में शांति से वोट पड़े तो ममता बनर्जी के पक्ष में गांवों में हवा बह सकती है। यदि वामदलों ने सामाजिक नियंत्रण की प्रक्रिया के दौरान हुई ज्यादतियों के लिए आम जनता से ईमानदारी माफी मांगी और उसका दिल जीतने की कोशिश की तो ममता बनर्जी की गांवों में आँधी थम सकती है,लेकिन यह सब कुछ निर्भर करता है
स्थानीय वामनेताओं की विनम्रता और विश्वसनीय कोशिशों पर। वामनेताओं पर आम जनता का विश्वास कम हो गया है और यही सबसे बड़ी बाधा हैं गांवों से लेकर शहरों तक। वामदलों की भाषा,भंगिमा और राजनीति में किसी भी किस्म की लोच इन दिनों नजर नहीं आ रही है और यह वाम समर्थकों के लिए चिन्ता का प्रधान कारण है। वामनेताओं का अहंकार,सत्तामद,बाहुबल का नशा,संगठन का नशा,अन्य दलों के प्रति
नकारात्मकभाव आदि चीजें हैं जो ममता बनर्जी को ईंधन प्रदान कर रहे हैं।
कुछ समय पूर्व भारत के टीवी चैनल्स पर एक नामी सीमेंट कम्पनी का विज्ञापन प्रसारित किया जा रहा था जिसमें एक लड़की के कुछ अंगों को उभारकर दिखाया जाता था। यहां सोचने वाली बात यह है कि सीमेंट से लड़की का ताल्लुक क्या था? क्या वह लड़की सीमेंट खाती थी या वह सीमेंट से बनी थी? शायद कारण तक जाने की किसी को आवश्यकता ही नहीं महसूस हुई। किंतु इसकी जड़ में पश्चिमी नव वामपंथी विचारधरा कार्य कर रही थी जो वास्तव में वर्तमान में हमारे सर चढ़ कर बोल रही है।
इस पश्चिमी नव वामपंथी विचारधरा में सेक्स को खुलकर परोसा जसा रहा है क्योकि यह पश्चिम विचारधरा इस बात पर विश्वास करती है कि सेक्स व स्त्राी का सुडौल शरीर कहीं छुपा कर रखने की चीज नहीं है। पश्चिम में यौन शिक्षा की भी बहुत पैरवी की जाती है। स्कूलों में कंडोम दिखाया जाता है और उसके प्रयोग के तरीके भी बताये जाते हैं। और भी न जाने क्या-क्या?
अब भारत में भी उसी तर्ज पर यौन शिक्षा स्कूलों में पेश की जाने की बातें की जा रही हैं। हम भी आंख बंद कर पश्चिम की नकल करने में लगे हुये हैं। हाल ही में अमेरिका के एक घर के अंदर की बात पढ़ने को मिली। टीवी पर कंडोम का विज्ञापन आ रहा था तभी एक बारह साल की लड़की अपनी मां से पूछती है कि मां यह कंडोम क्या होता है? अब यदि हम भी यौन शिक्षा का प्रचार करना चाहते हैं तो अपने बच्चों के ऐसे ही सवालों का जवाब देने के लिए तैयार रहना चाहिए? ऐसा नहीं होगा कि बच्चा जो स्कूल में पढ़कर आयेगा उसे घर पर दोहराएगा नहीं? भारत मंे अब तक अश्लील शब्द की परिभाषा कानून ही तय नहीं कर पाया है। पहले तो उसे ही इस शब्द को पढ़ लेना चाहिए।
पश्चिम में रिश्ते नाते नहीं होते हैं। सेक्स उनके लिए पिज्जा-बर्गर जैसा ही है। हमारे देश में ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो यह कहते हैं कि देश में यौन शिक्षा का प्रचार खुलकर होना चाहिए। इस बात को पुख्ता करने के लिए वे जो तर्क देते हैं जरा उसे भी सुनिए, सन् 1999 तक 150 देशों में 3,23,379 व्यक्ति एड्स से पीड़ित थे ;यूनेस्कोद्ध, जिनमें सबसे अध्कि संख्या भारतीयों की ही थी। अगर भारत में यौन शिक्षा का प्रचार हो तो ऐसा नहीं होगा। जबकि अब यह साबित हो चुका है कि इस बान को यूनेस्को ने अमेरिका के कहने पर ही पफैलाया था ताकि उसकी सेक्स इंडस्ट्री भारत में तथा विश्व में पैर पसार सके। दूसरी तरपफ अमेरिका में ही 60 पफीसदी से ऊपर ‘पफीमेल सेक्सुअल डिस्पफंक्शन’ से पीड़ित हैं। इस बात को अमेरिका की ही कुछ कंपनियों ने पफैलाया है। जबकि अमेरिका के वैज्ञानिक ही कहते हैं कि इस तरह की कोई बिमारी होती ही नहीं है। अब आप ‘पफीमेल सेक्सुअल डिस्पफंक्शन’ का अर्थ भी जान लीजिये, जैसे पुरुषों में नामदांगी होती है वैसे ही महिलाओं में भी नजनानीपन को यह नाम दिया गया है। जबकि विज्ञान कहता है कि स्त्रिायां बांझ हो सकती हैं किंतु ‘पफीमेल सेक्सुअल डिस्पफंक्शन’ कभी नहीं। यह बस स्वार्थी लोगों की चाल है, अब बताइये कि हम ऐसे चालबाज लोगों की राह पर कैसे चल सकते हैं।
अमेरिका में लगभग 3 अरब लोग एड्स से पीड़ित हैं तथा यह आकड़ा भारत, कनाड़ा, ब्रिटेन तथा जापान से कहीं ज्यादा है। संमलैगिकों की सबसे ज्यादा भरमार अमेरिका में ही है। अमेरिकर वामपंथ बोल रहा है कि उसके देश में 17 प्रतिशत टीन प्रेग्नेंसी कम हो गई है क्योकि वो यौन शिक्षा का प्रचार कर रहा है। यह उसका नजरिया है, भारतीय सनातन के अनुसार इसका अर्थ यह है कि वहां के युवा अब बिना किसी झिझक के सेक्स कर रहे हैं। वहां की लड़कियां मातृत्व को खो रही हैं। कड़ोम, आई पिल्स है तो डर अब है ही नहीं। जबकि भारतीय र्ध्म कहता है कि गर कंडोम और ये स्टोप प्रेंग्नेंसी नहीं होगी तो एक डर से युवा मार्ग से भटकने से बच सकता है।
अमेरिका में हर साल 30 लाख किशोरियों को यौन रोग हो रहे हैं। 100 में से 56 प्रतिशत किशोरियां ही मां बनने को तैयार होती हैं। 83 प्रतिशत बिन ब्याही लड़किया जो मां बनती हैं वे गरीब घर से होती हैं तथा भु्रण हत्या का खर्च वहन नहीं कर सकती हैं। सबसे बड़ा आश्चर्य यह है कि अमेरिका में 35 प्रतिशत लड़के तथा 25 प्रतिशत लड़कियां 15 साल की उम्र से पहले ही संभोग कर लेते हैं। 19 साल तक पहुंचते-पहुंचते यह आकड़ा 85 प्रतिशत लड़के तथा 77 प्रतिशत लड़कियों तक पहुंच जाता है। एक अध्ययन में बताया गया कि अगर वहां के युवा ऐसा न करें तो इन पर इनके दोस्त हसंते हैं। इसी अध्ययन में यह भी बताया गया कि 19 साल की जो 77 प्रतिशत लड़कियां संभोग करती हैं उनमें से 12 प्रतिशत ही इतनी खुशनसीब होती है जिनसे उनका बायप्रफैंड शादी करता है।
आज प्श्चिम में भी दबे शब्दों में कहा जाने लगा है कि भारत का ब्रहाचार्य एक अच्छा शस्त्रा है। किंतु कितनी बड़ी विडबना है कि हम अंध्े होकर प्श्चिम के पीछे भागे जा रहे हैं। माता-पिता अपने बच्चों को स्वतंत्राता दे रहे हैं यह अच्छी बात है किंतु इसका मतलब यह नहीं है कि उनके बच्चें कहां जा रहे हैं, क्या पहन रहे हैं? इससे उन्हें कोई मतलब ही नहीं है। आज दिल्ली में ही 60 प्रतिशत लड़किया आई-पिल्स को हाजमें की गोली की तरह खा रही हैं।
भारत में एक नामी चैनल पर प्रसारित कार्यक्रम ‘स्वंवर’, ‘अमेरिकन बैचलर’ नामक शो की कापी है, इस बैचलर शो में सेक्स का प्रदर्शन होता है। स्त्राी-पुरूष संबंध् तार-तार किये जाते हैं। ऐसे बहुत से नये प्रोगा्रम भी जल्द शुरू होने वाले हैं जो यह सि( करते है कि अब भारत में भी सेक्स इंडस्ट्री पश्चिम द्वारा खूब उगाई और खाई जा रही है। यह सेक्स इंडस्ट्री 1000 करोड़ का व्यापार हमारे देश में कर रही है। इंटरनेट पर खुलकर सेक्स सामग्री को परोसा जा रहा है तथा हमारा प्रशासन कुछ भी नहीं कर पा रहा है। भारत में भी अब सेक्स के अविवाहित मरीजों की संख्या बढ़ रही है।
जागरूकता के नाम पर अब हमारे देश में भी देहकामना की पूर्ति की जा रही है। अखबारांे, टीवी चैनलों पर जो यौन क्रांति पेश की जा रही है वह पश्चिमी विध्वंसक शक्तियों की ही सोचा समझी एक चाल है जो भारतीय संस्कृति कोे पूरी तरह से नष्ट कर देना चाहती हैं।
दुनियाभर में होली का त्यौंहार जहाँ उत्साह, उमंग व मस्ती के साथ मनाया जाता है वहीं पुकरणा ब्राह्मण समाज की चोवटिया जोशी जाति के लिए होली खुशी का नहीं वरन ाोक का त्यौंहार है। ये लोग होली का त्यौंहार हँसी खुशी न मनाकर ाोक के साथ मनाते हैं। इन दिनों में होलकाटक से लेकर धुलण्डी के दिन तक चोवटिया जोशी जाति के घरों में लगभग खाना नहीं बनता है। इस दौरान वे ऐसी सब्जी नहीं बनाते जिसमें छौंक लगाई जाए या कोई भी ऐसा व्यंजन नहीं बनाते जो तला जाए। फलस्वरूप इन चोवटिया जोशी जाति के रिश्तेदार व लड़के के ससुराल के संबंधी इन लोगों के लिए आठ दिनों तक लगातार सुबह शाम दोनों वक्त भोजन का प्रबंध करते हैं।
इसके पीछे कहानी यह है कि एक समय की बात है कि हालिका दहन के समय इसी चोवटिया जोशी जाति की एक औरत दहन हो रही होली के फेरे निकाल रही थी। उस औरत के गोद में उसका छोटा बच्चा {लड़का} भी था। बच्चा माँ की गोद में उछल कूद कर रहा था और माँ होलिका के फेरे लगा रही थी। इस दौरान हाथ से छिटक कर वह बच्चा माँ की गोद से धूं धूं कर जल रही होलिका में गिर गया। बच्चे को जलती हुई आग में देखकर माँ चीखने चिल्लाने लगी और बच्चे को बचाने के लिए गुहार करने लगी पर कोई और उपाय न दिखा तो अपने बच्चे को बचाने के लिए वह माँ भी जलती हुई होलिका में कूद पड़ी। इस दुर्घटना में वह माँ और बच्चा दोनों न बच सके और माँ अपने बच्चे के पीछे सती हो गई। कहते हैं बाद में इसी सती माता ने श्राप दे दिया कि कोई भी चोवटिया जोशी जाति का परिवार होलिका दहन में हिस्सा नहीं लेगा और न होली को उत्साह से मनाएगा और तब से पुकरणा ब्राह्मण समाज की इस चोवटिया जाति के लिए होली मातम का त्यौंहार हो गया।
अब अगर किसी भी चोवटिया जोशी परिवार में होलिका दहन के दिन लड़के का जन्म हो और वह लड़का पूरे एक साल तक जिंदा रहे और अपनी माँ के साथ जलती हुई होलिका की परिक्रमा कर होलिका की पूजा करे तो ही इस जाति के लिए होली का त्यौंहार हँसी खुशी के साथ मनाना संभव होगा। इसे चमत्कार कहेंगे या संयोग कि इस दुर्घटना को हुए आज सैंकड़ों साल हो गए हैं लेकिन आज तक चोवटिया जोशीयों के किसी भी परिवार में होलिका दहन के दिन किसी लड़के का जन्म नहीं हुआ है।
पुकरणा ब्राह्मण समाज का बाहुल्य बीकानेर, जोधपुर, पोकरण, फलौदी, जैसलमेर में है और इसके साथ ही साथ भारत भर में इस जाति के लोग रहते हैं और यह परम्परा पूरे भारतवार में निभाई जाति है। जोधपुर, पोकरण, बीकानेर में तो यह परम्परा भी किसी समय रही है कि होलिका दहन से पूर्व जोर का उद्घोा कर आवाज लगाई जाति थी कि अगर कोई चोवटिया जोशी है तो वह अपने अपने घर मंें चला जाए क्योंकि होलिका दहन होने वाला है।
इसी के साथ यहाँ यह बताना भी आवश्यक है कि धुलंडी वाले दिन इन चोवटिया जोशी परिवार के लोगों को रंग लगाने के लिए व होली खेलने के लिए अपने घरों से बाहर निकालने के लिए इनके मित्र, रिश्तेदार, सगे, संबंधी इनके घर जाते हैं और इनके चेहरों पर रंग लगाकर होली की मस्ती में इनको ामिल करते हैं। बीकानेर में तो एक तणी जोड़ने का आायेजन भी इन्हीं जोशी परिवार के लोगों द्वारा किया जाता है।
तो यह है परम्परा आस्था और विश्वास जो हर त्यौंहार में होता है चाहे होली हो दिपावली, ईद हो या बैसाखी। विचित्र व समृद्ध परम्पराओं से भरा हमारा भारत। होली की भमकामनाऍं।
याम नारायण रंगा ‘अभिमन्यु’
अडोसी-पडोसी और मोहल्ले वाले मुझे मनोरंजन कह्कर पुकारते हैं ! उनका कहना है कि मैं अपने मां-बाप के मनोरंजन का नतीजा हूँ ! जब मैंने आईने में अपनी शक्ल देखी तो मुझे भी पडोसियों की बात पर यकीन करना पडा ! जैसी मेरी शक्ल सूरत है वो तो किसी के मनोरंजन का ही नतीजा हो सकती है ! यदि मेरे माता-पिता अपने मनोरंजन के बजाय मेरे बारे में ज़रा सा भी गम्भीर होते या उन्होंने ज़रा सी भी मेहनत की होती तो मेरी शक्ल, मेरी अक्ल, मेरा ढांचा, मेरा कद, मेरा नाम, मेरा काम, मेरा दाम कुछ और ही होता ! लेकिन मनोरंजन को कौन टाल सकता है ? ….मेरा मतलब है कि होनी को कौन टाल सकता है ? उनका मनोरंजन ठहरा, मेरी ऐसी-तैसी फिर गई ! मैंने तो देखा नहीं, लोग कहते हैं कि होली से ठीक नौ महीने पहले मेरे पूज्य पिता जी ने मनोरंजन ही मनोरंजन में मेरी पूज्य माता जी पर अपने प्रेम रूपी रंगो की बौछार की थी ! उसी मनोरंजन के परिणाम स्वरूप ठीक होली वाले दिन मैं पैदा हुआ ! लम्बा सिर, लम्बा मुंह, लम्बे हाथ, लम्बे पैर ! सीधे खडे बाल ! चाहे जितना तेल लगा लो चाहे जितनी कंघी कर लो सिर के बाल हमेशा सरकंडे की तरह खडे रहते थे ! मेरे रंग में और नान-स्टिक तवे के रंग में कोई अंतर नहीं कर पाता था ! हर अंग बेडौल ! ना कोई माप ना कोई तौल ! पता ही नहीं लगता कि सिर बिच मुंह है कि मुंह बिच सिर है ! जब मैं खडा होता हूं तो ऐसा लगता है जैसे किसी ने बांस पर कपडे टांग दिए हों ! जब मैं बैठता हूं तो ऐसा लगता है जैसे किसी ने होलिका दहन के लिए लकडियां इकट्ठा कर के सज़ा कर रख दी हों ! “जसुमति मैया से बोले नंदलाला” की तर्ज पर मैंने अपनी माता-श्री से कई बार पूछा कि मेरे साथ ही ऐसा मनोरंजन क्यों ? परंतु मेरा प्रश्न सुनकर हर बार वे मौन समाधि में चली गईं !
उधर जब मैं पैदा हुआ तो भी हादसा हो गया ! शायद होली के दिन पैदा होने के कारण पैदा होते ही मैंने दाई के उपर रंग बिरंगा सू-सू कर दिया ! दाई कुछ ईनाम-कराम पाने की तमन्ना लिए उसी प्रकार उठ कर कमरे से बाहर बैठे मेरे पिता-श्री को बेटा होंने की खबर सुनाने के लिए हिरनी की तरह छलांगे लगाते हुए बाहर आई ! बेटे की खबर सुनकर खुशी में मेरे पिता-श्री ने दाई को अपने बाजुओं में भरकर उसे चूमना चाहा ! लेकिन उसके मुंह और कपडों पर मेरा रंग बिरंगा सू-सू देखकर पीछे हट गए ! इस प्रकार से मेरे सू-सू ने मेरे पिता-श्री को पर-स्त्री-चुम्बन के आरोप में कुम्भी पाक नर्क में जाने से बचा लिया !
हरि कथा की तरह मेरे नाम भी अनंत हैं ! मां मुझे राज दुलारा कहकर बुलाती है ! उसका कहना है कि मेरा बेटा चाहे जैसा भी है, है तो मेरा ! मैं तो इसे नौ महीने कोख में लिए ढोती- डोलती रही हूं ! पिता जी मुझे निकम्मा और नकारा कहकर बुलाते हैं ! स्कूल में मेरे पूज्य गुरुजन मुझे डफर और नालायक कहते हैं ! मेरी सखियां (गर्ल-फ्रेन्डस) प्यार से मुझे कांगचिडि कहती हैं ! मेरे बाल-सखा मेरे नाम के बदले मुझे बेवकूफ, गधा, ईडियट, उल्लू आदि आदि विशेषणों से अलंकरित करते रहते हैं ! हमारे मुहल्ले में एक सरदार जी रहते हैं वो मुझे झांऊमांऊ कहकर मुस्कराते हुए मेरे हाथ में एक टाफी पकडा देते हैं ! मैं खुश हो जाता हूं !
मैं पूरा का पूरा ओ-पाज़िटिव हूं ! अर्थात जैसे ओ-पाज़िटिव ग्रुप का ब्लड सबको रास आ जाता है उसी प्रकार अडोसी-पडोसी अपनी जरुरत के मुताबिक अपने अपने तरीके से मेरा उपयोग कर लेते हैं ! मोहल्ले में गुप्ता जी की कोठी बन रही थी ! अचानक रात को तेज हवा चलने के कारण उनकी छत पर टंगा हुआ नज़रबट्टू कहीं उड गया ! दूसरे दिन जब गुप्ता जी को पता चला तो उन्हें बिना नज़रबट्टू के कोठी को नज़र लगने का डर सताने लगा ! वे दौडे-दौडे आए और मुझे काले कपडे पहना कर अपनी छत पर ले गए ! मैं सारा दिन जीभ निकाल कर उनकी छत पर खडा रहा ! शाम को गुप्ता जी का लडका बाज़ार से नया नज़रबट्टू लेकर आया तो उसने वो नज़रबट्टू छत पर टांगा तब मुझे नीचे उतारा !
शर्मा जी हाथ में झोला लिए बाजार से सामान लेने जा रहे थे ! तभी मैली-कुचैली सी 18-20 साल की दो लडकियां शर्मा जी से खाने के लिए कुछ पैसे मांगने लगीं ! शर्मा जी को बातों में उलझा कर उनका पर्स मार लिया ! शर्मा जी को पता लग गया ! उन्होंने शोर मचा दिया ! मोहल्ला इकट्ठा हो गया ! लडकियां बहुत शातिर थीं ! पैरों पर पानी नही पडने देती थीं ! तभी किसी ने पुलिस को फोन कर दिया ! थानेदार साहब दो सिपाही लेकर मौका-ए-वारदात पर आ धमके ! उन्होंने भी उनसे सच उगलवाने की बडी कोशिश की लेकिन नतीजा वही ढाक के तीन पात ! तभी उनकी नज़र मुझ पर पडी ! थानेदार साहब ने मेरी तरफ इशारा करके उन लडकियों से कहा कि सच सच बता दो नहीं तो तुम्हारी शादी इस लंगूर से कर देंगें ! मेरी तो शक्ल ही काफी है ! दोनों लडकियों ने अपने अपने ब्लाउज़ों में हाथ डाला और शर्मा जी के पर्स के साथ तीन पर्स और निकाल कर थानेदार के हाथ पर रख दिए !
पिछले साल कुछ साथी मेले में जाने का प्रोग्राम बनाने लगे ! सौ-सौ रुपये इकट्ठा करके पैसे बिरजू को पकडा दिए ! मैंने भी साथ जाने की जिद पकड ली ! मेले में बहुत भीड थी ! हम लोग अपनी मस्ती में टहल रहे थे ! लोग मेला कम मुझे अधिक देख रहे थे ! कोई मुझे देखकर हंस रहा था तो कोई भगवान की कुदरत की दुहाई दे रहा था ! हलवाई की दुकान आई तो जलेबी खाने का मन कर आया ! जलेबी तुलवा कर जब पैसे देने लगे तो पता चला कि जेब खाली हो चुकी है ! कोई जेबकतरा अपने कौशल का प्रदर्शन कर गया था ! सबके चेहरे सफेद पड गए ! वापिस जाने का किराया भी नहीं था ! करें तो क्या करें ? बिरजू का दिमाग बहुत काम करता है ! उसने हलवाई से एक चादर मांगी ! दो लकडियां लेकर गाड दीं ! रस्सी से उन पर चादर बांध कर पर्दा सा बना दिया ! मेरे कपडे उतार कर मुझे चादर के पीछे खडा कर दिया ! एक गत्ते पर “पांच रुपये में दुनिया का आठ्वां अजूबा देखिए” लिख कर बोर्ड टांग दिया ! शाम तक बिरजू की जेब नोटों से भर गई !
उसकी अम्मा जी का कहना है कि जब वो पैदा हुई थी तब भी उसके सिर पर बाल नहीं थे ! आज जब वो “मेरी उमर है सोलह साल, जमाना दुश्मन है” गीत गुनगुनाती रहती है तब भी उसके सिर पर बाल नहीं हैं ! उसकी अम्मा जी बडे गर्व से कहती हैं आज तक मेरी बेटी ने जमीन पर पैर नहीं रखा ! कैसे रखती ? 150 वज़न का पहलवानी शरीर है उसका ! हर चीज़ गोल-मटोल ! बस सिर और मुंह के बारे में मार खा गई ! उसका मुंह बिल्कुल चुहिया जैसा है ! पूरा रोज़गार कार्यालय है ! उसके कारण पांच लोगों को रोजगार मिला हुआ है ! पैदल तो वो चल ही नहीं सकती ! रिक्शा पर बैठाने-उतारने, उसके कपडे आदि बदलने के लिए अलग अलग नौकर हैं ! मैं तो उसे ही आंठवा अजूबा मानता हूं ! लेकिन मैं बहुत खुश हूं ! क्योंकि होली वाले दिन उसकी मेरे साथ शादी होनी तय हो गई है ! आप सब लोगो को मेरा खुला निमंत्रण है ! नोटों से भरा शगुन का लिफाफा हाथ में लेकर शादी में जरुर आना !
जापान में प्राकृतिक विनाशलीला का ताण्डव सारी दुनिया को एक नए किस्म के आर्थिक-राजनीतिक संकट की ओर ले जा रहा है। जापान के भूकंप और परमाणु विकिरण का सामाजिक-आर्थिक राजनीतिक प्रभाव सिर्फ जापान तक सीमित नहीं रहेगा। बल्कि इसका असर आने वाले समय में समूची विश्व राजनीति पर पड़ेगा। खासकर वे देश जो परमाणु ऊर्जा और परमाणु अस्त्रों के बारे में शांतिपूर्ण प्रयोग के बहाने परमाणु
खतरे का संचय कर रहे हैं उनके यहां भी आने वाले समय में परमाणु ऊर्जा के विरोध में आंदोलन तेज होंगे।
खासकर भारत जैसे देश में नव्य उदारीकरण और अमेरिकी परमाणु इजारेदारियों के दबाब में जिस तरह भारत सरकार परमाणु संयंत्रों पर तेजी से काम कर रही है और मनमोहन सिंह-सोनिया-आडवाणी-अटल और संघ परिवार की लॉबी भारत को परमाणु शक्ति संपन्न बनाने के लिए जो काम कर रही है उससे भारत भविष्य में कभी भी श्मशान में तब्दील हो सकता है। परमाणु अस्त्रों और परमाणु ऊर्जा के हिमायतियों को नए युग
के कापालिक कहा जा सकता है जो परमाणु के शांतिपूर्ण इस्तेमाल की ओट में श्मशान साधना कर रहे हैं। आज इसके बारे में आम जनता को गोलबंद करने और राजनीतिक दबाब पैदा करने की जरूरत है।
मनमोहन सिंह सरकार को जापान की सामयिक तबाही का यह संदेश है कि भारत को परमाणु विनाश की गोद में मत बैठाओ। भारत के कारपोरेट मीडिया को यह संदेश है कि वह परमाणु ऊर्जा और परमाणु बम की संस्कृति का विरोध करने वालों को उपहास का पात्र न बनाए। परमाणु ऊर्जा के बारे में भारत के कारपोरेट मीडिया ने तथ्यों को छिपाया है और आम जनता को गुमराह किया है। परमाणु ऊर्जा का मामला महज बिजली
उत्पादन का मामला नहीं है। यह अमेरिका बनाम वामदलों का मामला नहीं है। परमाणु ऊर्जा संयंत्र महज तकनीक मात्र नहीं हैं। यह असामान्य विध्वंसक तकनीक है,जिसके सामान्य से विस्फोट से भारत कभी भी मरघट में बदल जाएगा। परमाणु तकनीक असाधारण तौर पर मंहगी तकनीक है। जनविरोधी तकनीक है। विकास विरोधी तकनीक है। यही वजह है कि परमाणु ऊर्जा विरोधी आंदोलन को और भी ज्यादा शक्तिशाली बनाने और
पूर्ण परमाणु निरस्त्रीकरण पर जोर देने की जरूरत है। वैकल्पिक ऊर्जा के सवालों पर विचार करने की जरूरत है।
जापान में जिस समय भूकंप आया उस समय किसी को यह आभास भी नहीं था कि परमाणु ऊर्जा केन्द्रों में इस तरह भयानक विस्फोट होंगे,परमाणु भट्टियां धू-धू करके जल उठेंगी,परमाणु आग बेकाबू हो जाएगी और जापान की अधिकांश आबादी परमाणु खतरे की जद में आ जाएगी। जापान में आए भूकंप औक सुनामी से समुद्री इलाकों में बसे शहरों का पूरी तरह सफाया हो गया है। हजारों लोग मर गए हैं या लापता हैं। पूरे शहर
मिट्टी के मलबे में तब्दील हो गए हैं। जापान के भूंकप और सुनामी ने यह बात एक बात फिर से सिद्ध कर दी है कि प्रकृति पर नियंत्रण का पूंजीवाद ने जो दावा किया था वह खोखला है।
जापान में भूकंप,सुनामी और परमाणु विकिरण के त्रिस्तरीय संकट ने जापान के साथ समूचे विश्व को हिलाकर रख दिया है। फिलहाल जापान में बड़े पैमाने पर बिजली का संकट है,बिजली की सप्लाई के अभाव के कारण जापान के 55 परमाणु रिएक्टर बंद हैं। इनके लिए प्राइमरी और वैकअप बिजली सप्लाई बंद है। लाखों घरों में अँधेरा है।
उल्लेखनीय है सोवियत संघ के यूक्रेन स्थित चेरनोविल परमाणु संयंत्र में 1986 में हुए विस्फोट और विकिरण ने समूची समाजवादी व्यवस्था को धराशायी कर दिया था ठीक वैसे ही परवर्ती पूंजीवाद की विदाई का संकेत जापान के परमाणु विकिरण और परमाणु ऊर्जा केन्द्रों में हुए विस्फोटों ने भेजा है। चेरनोविल (यूक्रेन) ने समाजवाद पर आम रूसी जनता का विश्वास उठा दिया वैसे ही जापानी परमाणु संकट
ने परवर्ती पूंजीवाद के ताबूत में कील ठोंक दी है और परवर्ती पूंजीवाद के ऊपर से आम जनता पूरा विश्वास खत्म कर दिया है।
जापान के 55 परमाणु रिएक्टरों में से 3 में विस्फोट हुए हैं और स्थिति किसी भी तरह नियंत्रण में नहीं है। विध्वस्त परमाणु संयंत्रों के आसपास के इलाकों से दो लाख से ज्यादा लोगों को निकालकर सुरक्षित इलाकों में पहुँचाया गया है।
जापान के परमाणु विध्वंस के कई सबक हैं,पहला सबक है प्रकृति अजेय है। दूसरा, परमाणु इजारेदारियां सारी दुनिया में परमाणु ऊर्जा के नाम पर आक्रामक ढ़ंग से जीवनघाती तकनीक को थोप रही हैं। वे और उनके भोंपू कारपोरेट मीडिया प्रचार कर रहे हैं परमाणु तकनीक और परमाणु सवालों पर आम जनता को सिर खपाने की जरूरत नहीं है। परमाणु सुरक्षित ऊर्जा है। तीसरा सबक है परमाणु ऊर्जा संयंत्र किसी
भी कीमत पर सुरक्षित नहीं हैं,यदि प्राकृतिक विपदा आ जाए तो जनता के ऊपर तबाही दर तबाही का मंजर टूट सकता है। जापान का चौथा सबक है हम परमाणु ऊर्जा के विकल्पों पर अभी से सोचें और परमाणु ऊर्जा के मोह को त्यागें। जो देश परमाणु मोह को नहीं त्यागेगा उसे कभी भी भयानक जनविनाश का सामना करना पड़ सकता है। भविष्य को सुंदर बनाने के लिए परमाणु से बचो।
इस समय सारी दुनिया में 440 व्यवसायिक परमाणु संयंत्र काम कर रहे हैं। इनमें अमेरिका में 104 संयंत्र हैं, अमेरिका में अधिकांश परमाणु संयंत्रों में जो डिजाइन इस्तेमाल किया गया है वह जापान में फेल हो गया है। जापान में आई परमाणु विभीषिका के तात्कालिक और दीर्घकालिक दुष्प्रभावों के बारे में अभी कुछ भी कहना संभव नहीं है। भूकंप-सुनामी में मरने वालों की सही संख्या का अनुमान करना
कठिन है, उस पर से परमाणु संयंत्रों में हुए विस्फोटों ने सारे मामले को और भी पेचीदा बना दिया है।फुकोसीमा परमाणु ऊर्जा उत्पादन संयंत्र केन्द्र में 3 रिएक्टरों में विस्फोट हो चुका है और चौथे में भी दरारें आ गयी हैं।
विगत 40 सालों से जापान में लगाये जा रहे परमाणु संयंत्रों का वैज्ञानिक विरोध कर रहे थे और सावधान कर रहे थे कि जापान कभी भी विनाश के मुँह में जा सकता है ,लेकिन जापान के शासकों और कारपोरेट घरानों ने इस पर ध्यान नहीं दिया। लेकिन इसबार सुनामी और भूकंप की घटना ने जापान को परमाणु सुनामी के करार पर पहुँचा दिया है। परमाणु विकिरण का खतरा टोक्यो तक पहुँच गया है। जगह जगह परमाणु पाइप
लाइन फट गयी हैं। उनसे बड़े पैमाने पर परमाणु रिसाव हो रहा है। जापान के प्रधानमंत्री ने माना है हीरोशीमा-नागासाकी पर परमाणु विस्फोट के समय जैसी आपदा आयी थी उससे ज्यादा बड़ी विपत्ति है ये। मीडिया ने इसे “कैटेस्ट्रोफी” कहा है। न्यूयार्क टाइम्स ने 1997 में कराए एक शोध के हवाले से लिखा है कि “It estimated 100 quick deaths would occur within a range of 500 miles and 138,000 eventual deaths. The study also found that land over 2,170 miles would be contaminated and damages would hit $546 billion. That section of the
Brookhaven study focused on boiling water reactors—the kind at the heart of the Japanese crisis.” यह शोध ब्रुकवेन नेशनल लेबोरेटरी ने लॉग आइसलैंड के बारे में किया था। उल्लेखनीय है जापान के ज्यादातर परमाणु संयंत्र भूकंप संभावित समुद्री क्षेत्रों में ही लगाए गए हैं। यही स्थिति अमेरिका की भी है वहां पर भी समुद्री तटों के किनारे दर्जनों परमाणु केन्द्र बनाए गए हैं।
इस समय फ्रांस में 58,ब्रिटेन में 19,जर्मनी में 17,स्वीडन में 10,बेल्जियम में 7,स्विटजरलैण्ड में 5 और कनाडा में 18 परमाणु ऊर्जा संयंत्र केन्द्र हैं। जापान की परमाणु ऊर्जा संयंत्रों की तबाही एक ही संदेश दे रही है कि परमाणु रैनेसां का अंत । परमाणु रैनेसां सामाजिक उत्थान का नहीं सामाजिक विध्वंस का प्रकल्प है और इसका हर कीमत पर विरोध करना चाहिए।