Home Blog Page 2554

काजल की कोठरी में कैसो ही सयानो जाय…

चण्डीदत्त शुक्ल

मधुमिता शुक्ला, कविता चौधरी, शशि और ऐसे ही ना जाने कितने नाम। यूपी की सियासत को बहुत-से सेक्स स्कैंडल दागदार कर चुके हैं। ऐसा ही एक मामला था शीतल बिरला और बुलंदशहर के डिबाई विधायक श्रीभगवान शर्मा उर्फ गुड्डू पंडित का। कासगां की रहने वाली शीतल ने बसपा विधायक पर आरोप लगाया कि गुड्डू ने पहले उनका शोषण किया और अब जान से मार देना चाहते हैं। इसके उलट, गुड्डू ने इसे सियासी प्रपंच-षड्यंत्र करार दिया था। आगरा कॉलज की रिसर्च स्टूडेंट शीतल का आरोप था कि वो तो नेताजी से प्रेम करती थी, लेकिन वह उसे कीप की तरह इस्तेमाल करना चाहते हैं, जो उसे स्वीकार नहीं है। यह विवाद इतना बढ़ा कि शीतल कई दिन तक गायब रही और बाद में उसने बताया कि विधायक के गुंडों से बचने के लिए वह फ़रार थी। यह मसला ज्यादा तो नहीं बढ़ा, लेकिन एक समय में खूब गरमाता रहा।

• ऐसी ही एक घटना में महाराजगंज के सपा विधायक श्रीपत आजाद को जेल तक जाना पड़ा था। उन पर एक महिला को ज़िंदा जला देने का आरोप लगा था। श्रीपत कई दिन तक फरार हे, लेकिन सियासी दबाव के बाद उन्हें सरेंडर करना पड़ा। आजाद पर आरोप था कि उन्होंने सावित्री देवी नाम की महिला के घर जाकर उस पर कैरोसीन डालकर आग लगा दी थी। 90 फीसदी जलने के बाद सावित्री को अस्पताल में दाखिल कराया गया था, जहां बाद में उसकी मौत हो गई।

ऐसे अनगिनत किस्से हैं। सेक्स और सियासत की काली-कथा अनंत है। यह वो काजल की कोठरी है, जहां कैसो ही सयानो जाय, उसके दामन पर दाग लगते ही हैं। प्रेम, छल व यौन संबंधों के ये किस्से काल्पनिक नहीं हैं, ना एक-दो दिन में तैयार हुए हैं। ऐसा भी नहीं कि ऐसा कालापन किसी एक वज़ह से पैदा हुआ है।

किसी ज़माने में दुश्मन देशों के राज़ जानने के लिए स्त्रियों को विषकन्या के रूप में इस्तेमाल किया जाता था। ऐसी महिलाएं देह से लेकर छल-कपट के सारे समीकरण अपनाती थीं। जिन महिलाओं का नेताओं से शारीरिक संबंध रखने के कारण कत्ल हुआ, उनमें से भी बहुतेरी ऐसी हैं, जिन्हें विरोधियों ने प्रतिद्वंद्वी को बदनाम करने के लिए इस्तेमाल किया। यही नहीं, इस क्रम में ये स्त्रियां राजनीतिक शीर्ष तक पहुंचने और खुद सत्ता पर काबिज होने की लालसा से भी घिरी हैं।

शशि और मधुमिता शुक्ला की हत्याओं के पीछे क्या कारण थे, यह तो पूरी तरह स्पष्ट नहीं है, लेकिन बिहार के विधायक सरोज और सुल्तानपुर के अनूप संडा के उनकी तथाकथित प्रेमिका से विरोध की गाथाएं बताती हैं कि नेताजी के करीब रहने के बाद कई महिलाएं ये ज़रूर चाहने लगी होंगी कि वो भी सत्ता के केंद्र में रहें।

कई राजनेता अपने प्रेम-यौन संबंधों के चलते कु-चर्चा में रहे हैं। चर्चित पोर्टल नेटवर्क-6 के मॉडरेटर आवेश तिवारी साफ करते हैं—ऐसे मामले सिर्फ नेताओं की कुत्सित इच्छाओं के चलते नहीं होते। साफतौर पर वो महिलाएं भी दोषी हैं, जो ऊंचा मुकाम हासिल करने के लिए शॉर्टकट अपनाने से बाज नहीं आतीं। हालांकि जब नेताओं पर बदनामी के छींटे पड़ने लगते हैं, तो वो ऐसी महिलाओं से किनारा करने के लिए कुछ भी कर गुजरने से नहीं चूकते।

मनोविज्ञानी चंदन झा की मानें, तो जनता के हाहाकार करते रहने से कुछ नहीं होने वाला। सेक्स और सियासत के कॉकटेल को निष्फल तभी किया जा सकता है, जब दागदार नेताओं को चुनावों में पूरी तरह असफल कर दिया जाए। खैर, तर्क-वितर्क हज़ार हैं और सियासत में कीचड़ भी खूब ज्यादा, लेकिन इस बात से इनकार शायद ही कोई करेगा कि जब तक स्त्री की देह को उपभोग के नज़रिए से देखने की सोच कायम रहेगी, उनसे जुड़े विवाद हर क्षेत्र में नज़र आते रहेंगे, चाहे वह सियासत हो या फिर मीडिया।

युवा विचारक हिमवंत के मुताबिक, सेक्स के प्रलोभन से बचना मुश्किल है, लेकिन जो लोग बड़े उद्देश्यों की ख़ातिर काम करने के लिए विचार-रणभूमि में आए लोगों को संयम तो रखना ही चाहिए। समाजसेवी चंद्रशेखर पति त्रिपाठी साफ़ कहते हैं, सब जानते हैं—भारतीय लोकतंत्र के इन रक्षकों का स्तर कितना गिरा हुआ है। त्रिपाठी व्यंग्य करते हैं, हालांकि ये बात मेरी समझ में नहीं आती है कि इन महिलाओं के प्रेम को कैसे और क्या समझा जाए। हम मधुमिता शुक्ला की मृत्यु के प्रति इतनी भावुकता दिखाते हैं, लेकिन उनके प्रेम में शामिल स्वार्थ से इनकार क्यों कर देते हैं? क्या मधुमिता और रूपम को पता नहीं था कि हमारे माननीय विधायकों की सोच का स्तर क्या था? इन महिलाओं के साथ जो कुछ हुआ, वह कहीं से न्यायोचित नहीं है, लेकिन ऐसे संबंधों का अंत भी इसी तरह और ऐसा ही होता है।

राजनीति में सेक्स का घालमेल कितना बुरा और घृणित माना जाता है, इसका अंदाज़ा इसी उदाहरण से लगाया जा सकता है कि कई क्रांतिकारी और विद्रोही दलों में ऐसे संबंधों, (चाहे वो प्रेम ही क्यों ना हो), को पूरी तरह बैन कर दिया गया है। बिहार में भाकपा माओवादी के दर्जनों नेताओं को पुलिस ने महज इसलिए आसानी से धर-दबोचा, क्योंकि वो प्रेम संबंधों में तल्लीन होने के चलते अपनी सुरक्षा के प्रति लापरवाह हो गए थे। अपने कैडर वर्करों की तथाकथित मोहब्बत से परेशान भाकपा माओवादी के नेताओं ने सर्कुलर जारी कर ताकीद की कि विवाहेतर संबंधों से बचा जाए। संगठन ने अपने अखबार लाल चिनगारी के एक इश्यू में भी ऐसे मामलों से दूर रहने के लिए कहा।

…चलिए, देर से ही सही, राजनीति के आंगन में चहलकदमी करने वाली पार्टियों को भी अहसास हो रहा है कि सेक्स से सियासत को दूर ही रखा जाए तो भला…देखने वाली बात ये होगी कि पूंजीवादी राजनीति करने वाले सियासी दल कब ऐसा कदम उठाएंगे और अपने नेताओं को उच्च आदर्शों का पालन करने की हिदायत देंगे।(समाप्‍त)

बाहर से लड़ाई लड़े बिहार के ईमानदार पत्रकार

संजय स्वदेश

जीमेल पर चैट के दौरान पटना के एक विद्यार्थी अभिषेक आनंद से कहा – बिहार के मीडिया के बारे में बतायें।

अभिषेक का जवाब था।

क्या बताऊँ..पेपर पढ़ना छोड़ दिया कुछ दिनों से ऑनलाइन अखबार पढता हूँ नितीश जी भगवान हो गए हैं.. हर सुबह बड़ी बड़ी तस्वीरों से दर्शन होता हैं..

…. और अंदर कहीं भी किसी भी पेज पर अगर कहू कि सरकार के खिलाफ कोई आलोचना नहीं होती, तो आश्चर्य नहीं..

लालू कहां गए पता नहीं। कोई नया विपक्ष कब आएगा पता नहीं बिना विपक्ष के लोकतंत्र कि कल्पना आप कीजिये… मीडिया और सत्ता, खास कर बिहार में खेल जारी हैं.. ऐसा बाहर के लोग ही नहीं, कई बिहारी भी ऐसा ही मानते हैं..।

इधर फेसबुकर पर पत्रकार साथी पुष्पकर ने अपने वॉल पर लिखा : – बिहार में सबकुछ ठीक नहीं है .। बिहार की पत्रकारिता को नया रोग लग गया है। खबरें सिरे से गायब हो रही है। कुछ खबरों को लेकर एकदम खामोशी। पिछले कुछ समय की खबरों पर नजÞर डालिए, कई ऐसे उदहारण मिल जायेंगे। ऐसा तो लालू राज में भी नहीं हुआ था। लालू के दवाब के बावजूद बिहार की पत्रकारिता को जंक नहीं लगा था। माना नितीश राज में बिहार में बहुत सुधार हुए हैं लेकिन खबरों का यूँ लापता हो जाना।

इसके साथ ही दिल्ली के एक पत्रकार मित्र रितेश जी बेतियां गये। फोन पर बात हुई। नितिश राज में बिहार कैसा लग रहा है। उन्होंने जो कुछ बताया दिल पसीज उठा। उन्होंने बताया कि उन्हें पिता जी से जुड़ी कुछ प्रशासनिक कार्य के लिए तहसील के चक्कर लगाये पड़े तो उन्हें अहसास हुआ कि बिहार की प्रशासनिक व्यवस्था पर अफसरशाही और टालमटोल कितना हावी है। रितेश जी ने बताया कि वे अपने कार्य के सिलसिलम में उपमुखमंत्री सुशील कुमार मोदी से भी मिले, लेकिन काम नहीं बना। रिश्वत के बिना कोई काम नहीं हो सकता है। उन्होंने बताया कि दिल्ली या दूसरे प्रांतों में बैठ कर जो हम बिहार की हकीकत जान रहे हैं, दरअसल वह हकीकत नहीं है। हकीकत देखना है तो बिहार आकर देख लें। इन सबके अलावा पिछले दिनों अन्य ऐसी कई खबरे आई, जिससे यह साबित हुआ कि सुशासन बाबु के राज में मीडिया पत्रकारिता नहीं कर रही है, बल्कि चारे के लिए मेमने की तरह मिमिया रही है।

किसी जमाने में बिहार में खाटी पत्रकारिता का दौर रहा। मीडिया ने कई मामलों उजागर किये। पत्रकार की रिपोर्ट पर मुख्यमंत्री की कुर्सी तक भी गई। पर आज पूरा का पूरा माहौल बदला हुआ है। जैसे लालू-राबड़ी राज में बिहार की हकीकत निकल कर राष्टÑीय समाचार पत्रों तक पहुंचती थी, कई मायनों में वैसे हालात आज भी है, लेकिन अब खबरे नहीं आती है। लालू यादव मीडियाकर्मियों से दुर्वयवहार जरुर करते थे। लेकिन मीडिया की आवाज को नीतीश की शासन की तरह नहीं दबाया गया।

लोकतंत्र में जब मजबूत विपक्ष न हो तो यह भूमिका स्वत: मीडिया की बन जाती है। लेकिन खबरें कह रही है कि कमजोर विपक्ष के साथ ही बिहार की मीडिया भी पूरी तरह से कमजोर हो चली है। यदि ऐसा नहीं होता तो 10 फरवरी को पत्रकार/संपादकों के खिलाफ नागरिक सड़कों पर नहीं उतरते। आश्चर्य की बात है कि नागरिकों के इस जनआंदोलनों की खबर को बिहार की मीडिया में स्थान नहीं मिला। हिंदू ने इस आंदोलन एक फोटो प्रकाशित किया। फोटो बिहार की मीडिया की सारी हकीकत बताती है। बिहार के पत्रकार मित्र कहते हैं कि कुछ खिलाफ प्रकाशित करने पर धमकी मिलती है। समाचारपत्र का विज्ञापन बंद हो जाता है। मुख्यमंत्री संपादक को हटवा देते हैं। विज्ञापन के दम पर नीतीश सरकार ने विज्ञापन के दम पर मीडिया को पूरी तरह से अपने गिरफ्त में ले लिया है। मीडिया प्रबंधक का लक्ष्य पूरा हो रहा है, तो फिर भला, उनकी नौकरी करने वाले पत्रकार क्या करे। पत्रकार मित्रों की मजबूरी समझ में आती है। लेकिन चुपचाप चैन से बैठना समस्या का समाधान नहीं। बिहार के पत्रकार बिहार की मीडिया में सरकार की खिलाफत नहीं कर सकते है, तो कम से कम राज्य के पेशे के प्रति ईमानदार पत्रकार बाहर की मीडिया के लिए स्वतंत्र लेखन करें। भले ही बिहार की मीडिया नीतीश का नियंत्रण है। इसका मतलब यह नहीं कि देश की मीडिया भी नीतीश के पक्ष में कुछ नहीं बोले, लिखे। बाहर से लड़ाई भी धीरे-धीरे रंग जरूर लाएगी।

जनता के ज्‍यादा निकट होती है मंचीय कविता

आशीष कुमार ‘अंशु’

बात अधिक पुरानी नहीं है, मंचीय कवि अशोक चक्रधर जब हिन्दी अकादमी दिल्ली के उपाध्यक्ष तय हुए, उस वक्त हिन्दी साहित्य समाज इसलिए उन्हें गंभीरता से लेने को तैयार नहीं हुआ क्योंकि वे एक मंचीय कवि थे। उस वक्त की मंचीय कवियों की एकता उल्लेखनीय है। कवि जो मंच के गणित में अशोक जी के साथ के थे या खिलाफ के। सभी एक मंच पर आए और उनमें अपना विश्वास जताया। चूंकि हिन्दी अकादमी, दिल्ली का मामला पूरी तरह से मंचीय और गैर मंचीय रुप ले चुका था।

मंचीय और गैर मंचीय कवियों के बीच यह अघोषित लकीर हमेशा से रही है। कभी कभी यह लकीर जरुर थोड़ी गहरी हो जाती है। जिससे इस भेद को बाहर का समाज भी समझने लगता है। मंचीय और गैर मंचीय लोगों के बीच होने वाले इस भेदभाव की कीमत ही आज कानपुर के प्रमोद तिवारी और दिल्ली के विनय विश्वास जैसे कवि चुका रहे हैं। वरना इनकी कविताओं पर भी अकादमिक चर्चा हो सकती थी। विश्वास बताते हैं, मंचीय और गैर मंचीय या साहित्यिक और गैर साहित्यिक जैसे लकीर का कोई अर्थ नहीं है। मंच की कविता साहित्यिक पत्रिकाओं में सराही जा सकती है। साहित्यिक पत्रिकाओं में छपने वाले कवियों की कविताएं मंच की वाह वाही लूट सकती हैं। विश्वास ने अपने स्तर पर एक प्रयास भी किया है। वे मंच से राजेश जोशी, हेमंत कुकरेती, बद्रीनारायण की पंक्तियों को समय समय पर अपनी प्रस्तुति में जोड़ते हैं। खास बात यह कि साहित्यिक कवि माने जाने वाले राजेश जोशी, बद्रीनारायण की कविताओं को मंच पर उद्धृत करने पर श्रोताओं की तरफ से कई-कई बार ‘एक बार फिर’ (वन्स मोर) का आग्रह आया है।

यदि साहित्यिक पत्रिकाओं के पास अरुण कमल, राजेश जोशी, मंगलेश डबराल, केदारनाथ सिंह, इब्बार रब्बी जैसे कवि हैं तो कविता के दूसरे पलड़े अर्थात मंच पर भी गोपाल दास नीरज, सोम ठाकुर, बाल कवि बैरागी, उदय प्रताप सिंह, सुरेन्द्र शर्मा जैसे हस्ताक्षर मौजूद हैं। अब मंच और साहित्यिक कविता के दो पलड़ों में कौन सा पलड़ा भारी है, यह कहना मंचीय कविता को कम करके आंकने वालों के लिए भी मुश्किल होगा।

वरिष्ठ हास्य कवि सुरेन्द्र शर्मा कहते हैं, मंच का कवि होना, पत्रिकाओं में कविता लिखने से अधिक चुनौतीपूर्ण हैं। चूंकि साहित्य की कविता का पाठक एक खास तरह का पाठक वर्ग होता है। मंच की कविता सुनने वालों में कुली से लेकर कलेक्टर तक मौजूद होते हैं। अब आपको कुछ ऐसा सुनाना है, जो दोनों के समझ में आए और दोनों उसकी सराहना किए बिना ना रह पाएं।

शर्माजी गंभीर साहित्यिक कविताओं पर चुटकी लेते हुए कहते हैं, उस कविता का क्या पर्याय जो जिस शोषित समाज के लिए लिखी जाए, उस समाज के समझ में ही ना आए।

शर्मा एक कविता का हवाला देते हैं,

‘एक कवि ने पसीना बहाने वालों पर कविता लिखी,

पसीना बहाने वालों को समझ में नहीं आई,

मुझे समझने में पसीने आ गए।’

मंच पर कवि अपनी रचना के साथ श्रोताओं के सामने होता है। इस तरह श्रोता कवि के सामने अपनी नाराजगी या खुशी प्रकट कर देता है। कविता पर तालियों की गड़गडाहट होती है या फिर कवि हूट होते हैं। जो भी अंजाम होना है, सरेआम होता है। यह मंचीय कविता का ही जादू है, जो श्रोता अपने प्रिय कवि को सुनने के लिए पूरी पूरी रात कवि सम्मेलनों में बैठा रह जाता हैं। गोपाल दास नीरज के लिए मशहूर है कि उनकी महफिल में जो बैठ गया, कार्यक्रम खत्म होने तक वह उठकर नहीं जा पाया। दूसरी तरफ साहित्यिक कविता के पाठकों के पास त्वरित प्रतिक्रिया का कोई विकल्प नहीं होता। पाठकों के सामने संपादक जी ने जो परोस दिया, उसे पढ़ना पड़ता है। साहित्य की पत्रिका ‘हंस’ के संपादक राजेन्द्र यादव शायद इन्हीं वजहों से साहित्यिक कही जाने वाली कविताओं को पसंद नहीं करते।

बात मंच के जादू की करें तो जनवरी महीने में होने वाले गणतंत्र दिवस लाल किले के कवि सम्मेलन में रात दस से सुबह तीन चार बजे तक ठिठुरती ठंड में भी कविता सुनने के लिए हजारों की संख्या में श्रोता बैठे होते हैं। क्या शालीनता के साथ चलने वाला कोई दूसरा आयोजन है, जो इतनी बड़ी संख्या में लोगों को अपने साथ कड़ाके की ठंड में पूरी रात बांध कर रखे।

उम्मीद है, मंचीय और गैर मंचीय कवियों के बीच जो सरहद बनी है, उसे आने वाले समय में दोनों तरफ के कवि ही ‘फिजूल’ साबित करेंगे। फिर निर्बाध दोनों तरफ के कवि एक दूसरे की सीमा में आ जा सकेंगे।

ये है दिल्ली मेरी जान

लिमटी खरे

ड्यूरेबल हैं गांधी परिवार के वादे!

देश पर आधी सदी से ज्यादा राज करने वाली कांग्रेस में नेहरू गांधी परिवार की अपनी अहमियत है। इस परिवार के पंडित जवाहर लाल नेहरू, श्रीमति इंदिरा गांधी और राजीव गांधी ने लगभग चालीस साल देश पर शासन किया है। इनके बाद सत्ता की धुरी कहीं न कहीं सोनिया और राहुल गांधी के इर्द गिर्द ही घूमती रही है। जाहिर है इतने सालों में लोगों को लुभाने के लिए इस परिवार ने वायदे भी किए होंगे। नेहरू गांधी परिवार के वायदे किसी नामी बेटरी की तरह सालों साल चलने वाले हैं। विश्वास नहीं होता न। पिछले दिनों कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी ने महाराष्ट्र के पालघर में अपनी स्वर्गीय दादी पूर्व प्रधानमंत्री के चोंतीस साल वायदे को अमली जामा पहनाया और खुद अपनी पीठ थपथपाई। नेहरू गांधी परिवार को महिमा मण्डित करने वाले मीडिया ने भी इसे पूरी तवज्जो दी। सूबे के आदिवासी बाहुल्य जिले ठाणे में युवराज ने 80 वर्षीय कलाकर सोमा माशे को जमीन के कागजात सौंपे जिसका वायदा प्रियदर्शनी इंदिरा गांधी ने उन्हें देने के लिए किया था। इंदिरा जी के बाद राजीव जी देश के वजीरे आजम रहे, फिर सोनिया के हाथों सत्ता की चाबी रही, जो जल्द ही राहुल गांधी के हाथों में स्थानांतरित होने को आतुर है। अब देशवासी अंदाजा लगा सकते हैं कि यह वो परिवार है जिसे वायदा पूरा करने में चोंतीस साल लगते हैं, पर किया तो वायदा पूरा। इस लिहाज से कहा जा सकता है कि सोनिया राहुल ने जो देशवासियों को जो सपने दिखाए हैं, वे नेहरू गांधी परिवार की आने वाली पीढ़ी अवश्य ही पूरा करेगी।

थामस को मिलेगा पुनर्वास

सीवीसी के पद पर थामस की नियुक्ति ने कांग्रेसनीत केंद्र सरकार को खासा हलाकान कर रखा है। थामस अब कांग्रेस के गले की फांस बन चुके हैं। कहा जा रहा है कि वे प्रधानमंत्री डॉ.मनमोहन सिंह की पसंद हैं। वेल्लारी चुनावों में रेड्डी बंधुओं की करीबी के चलते लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष सुषमा स्वराज भी सीवीसी के निशाने पर हैं, सो उनके तेवर उग्र होना स्वाभाविक ही हैं। स्वराज के रूख को देखकर लगने लगा है कि थामस की विदाई तय है। अब सवाल यह है कि थामस को कहां एडजस्ट किया जाए। इसलिए कांग्रेस के प्रबंधकों ने उनके लिए पुर्नवास पैकेज बनाना आरंभ कर दिया है। कांग्रेस की फांस बने थामस ने भी अब बारगेनिंग आरंभ कर दी है। कहा जा रहा है कि उन्हें योजना आयोग का सदस्य, पोर्ट ट्रस्ट का अध्यक्ष या फिर अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष का पद सौंपने का लालीपाप दिया गया है। चतुर सुजान थामस हैं कि वे किसी राज्य में राज्यपाल से कम पर तैयार होते दिख ही नहीं रहे हैं।

ये हैं हमारे विदेश मंत्री का हाल सखे

देश का अजीब दुर्भाग्य है। विदेश मंत्रालय पिछले कुछ सालों से चर्चाओं का केंद्र बनकर रह गया है। पहले विदेश राज्य मंत्री थरूर ने कांग्रेस की मट्टी खराब की और अब एस.एम.कृष्णा उसी परंपरा को आगे बढ़ा रहे हैं। हाल ही में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में सुरक्षा और विकास विषय पर बहस के दरम्यान एस.एम.कृष्णा ने पुर्तगाल के विदेश मंत्री का भाषण ही पढ़ मारा, वह भी पूरे एक सौ अस्सी सेकण्ड तक। बाद में एक राजनयिक के टोकने पर उन्होंने अपना भाषण पढ़ना आरंभ किया। देश का यह दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि देश के नीतिनिर्धारक भाषण देने के बजाए पढ़ा करते हैं। बाद में एस.एम.कृष्णा की सफाई भी जोरदार रही कि वहां बहुत सारे कागज बिखरे पड़े थे सो उनके हाथ में आए भाषण को ही उनके द्वारा पढ़ा गया। कांग्रेस को एस.एम.कृष्णा की पीठ थपथपानी चाहिए क्योंकि इंटरनेशनल मंच पर पहली बार किसी ने इतनी भयानक गल्ति की है। अच्छा हुआ एस.एम.कृष्णा ने यह दलील नहीं दी कि इस पर एक जांच आयोग बिठाया जाए और पता किया जाए कि किसने उनके कागजों में पुर्तगाल के विदेश मंत्री का भाषण रख दिया था।

महिला उत्पीड़न से आहत हैं बेगम सलमा

सरकार चाहे जो भी दावे करे किन्तु भारत गणराज्य में महिलाओं की स्थिति चिंताजनक ही बनी हुई है, इस बात को नकारा नहीं जा सकता है। बीते दिनों दिल्ली के एक प्रोग्राम में शिकरत करने आईं महामहिम उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी की बेगम सलमा अंसारी की जुबान पर महिलाओं का दर्द आ ही गया। सलमा अंसारी ने यह कहकर सभी को चौंका दिया कि हमारा समाज अगर बेटियों को सुरक्षा नहीं प्रदान कर सकता है तो बेहतर होगा कि बेटियों के पैदा होते ही उन्हें मौत के घाट उतार दिया जाए। बेगम का कथन मीडिया की सुर्खियां नहीं बन पाया। वर्तमान दौर में मीडिया की निष्पक्षता पर भी अनेक प्रश्न चिन्ह लग चुके हैं। भारत सरकार के सूचना प्रसारण मंत्रालय और राज्यों में जनसंपर्क महकमे के विज्ञापन फीवर के चलते मीडिया वास्तविक चीजों को आम जनता तक नहीं परोस पा रहा है। बहरहाल बेगम सलमा अंसारी के वक्तव्य पर देशव्यापी बहस की आवश्यक्ता है। उनका कहना सच है कि आज समाज में महिलाओं का खेरख्वाह न तो समाज ही बचा है और न ही सरकारें।

. . . तो किसका काम है मंहगाई रोकना

देश में मंहगाई अपने पूरे शबाब पर है। कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी और प्रधानमंत्री डॉ.मनमोहन सिंह द्वारा मंहगाई बढ़ने के कारणों में देश धर्म के बजाए गठबंधन धर्म की दुहाई दी जा रही है। कांग्रेस द्वारा परोक्ष तौर पर कृषि मंत्री शरद पवार को इसके लिए जिम्मेवार बताया जा रहा है, पर सत्ता की मलाई चखने के लिए कांग्रेस उन पर सीधा प्रहार करने से कतरा रही है। हाल ही में केद्रीय कृषि मंत्री शरद पवार ने अपनी कमीज को यह कहकर झटक दिया कि उनका काम मंहगाई को रोकना नहीं है। केंद्रीय कृषि मंत्री शरद पवार का कहना है कि उनका काम मूलतः यह देखना है कि कृषि उत्पादन को कैसे और अधिक बढ़ाया जा सकता है। अब गेंद एक बार फिर कांग्रेस के पाले में आकर गिर गई है। अब देखना यह है कि पवार के इस पैंतरे का कांग्रेसनीत कंेद्र सरकार और कांग्रेस क्या जवाबी हमला करती है।

हमारे इलाके से भी सांसद बन जाएं मदाम

कांग्रेस की राजमाता श्रीमति सोनिया गांधी के संसदीय क्षेत्र में एक कांग्रेसी कार्यकर्ता को गैस का सिलंडर न मिलना केंद्रीय पेट्रोलियम मंत्रालय के लिए बुरा साबित हुआ। मामला सोनिया गांधी के दरबार पहुंचा और फिर क्या था घनघना गए फोन। आलम यह है कि पेट्रोलियम मंत्रालय के आला अफसरान भागे भागे सारे के सारे दस्तावेज लेकर पेट्रोलियम मंत्री के दरबार में हाजिरी बजा रहे हैं। सोनिया ने राजीव गांधी ग्रामीण एलपीजी वितरण योजना के बारे में जवाब तलब किया है। अधिकारियों ने हीला हवाला के लिए पूर्व पेट्रोलियम राज्यमंत्री को इसके लिए दोषी बता दिया। सोनिया के सामने यह सफाई काफी नहीं थी, उन्होंने कहा जिसे जो भी जवाब देने हों लिखित में दें। अब अफसरान सांसत में हैं, उनकी स्थिति सांप छछूंदर की सी हो गई है। एसी स्थिति में देश का हर वाशिंदा बरबस ही कह उठेगा, मदाम आप हमारे इलाके की सांसद बन जाएं, कम से कम गैस तो मिलने लगेगी समय पर।

वेलंटाईन डे: सर ने मांगा गिफ्ट में किस

प्रेम का इजहार होता है 14 फरवरी यानी वेलंटाईन डे पर। इस दिन प्रेमी युगल एक दूसरे में खोना चाहते हैं। दिल्ली के पास मेरठ में इस दिन एक अजीब वाक्या हुआ जिसने शिक्षक विद्यार्थी के पवित्र रिश्ते को कलंकित कर दिया। मेरठ सिटी के मावना रोड स्थित एक पब्लिक स्कूल की छात्रा ने अपने टीचर को फोन कर परीक्षा में मिले अंकों की जानकारी चाही। शिक्षक ने कहा नंबर कम हैं घर आकर मिलो। छात्रा ने भाई के साथ आने की बात कही तो टीचर ने उसे मना कर दिया। बाद में वह अपनी दो सहेलियों के साथ घर पहुंची। सर ने उसे अकेले अंदर बुलाया और उसके साथ अश्लील हरकतें कीं, और मोबाईल से कुछ फोटो भी खीचनें की खबरें हैं। साथ ही कहा कि अगर वह छात्रा उसे एक किस दे और केंडल लाईट डिनर पर ले जाए तो वे उसे पास कर सकते हैं। बाद में जब पीडित छात्रा ने अपनी मां से इसकी शिकायत की तो मामला पहुंच गया थाने। अब शिक्षक महोदय फरार हैं और पुलिस उनके दरवाजे बैठकर उनकी वापसी का इंतजार कर रही है।

अभी एक मार्च तक झेलो अवांछनीय काल

आपके मोबाईल पर आने वाली अवांछनीय काल से आपको फौरी राहत नहीं मिलने वाली है। दूरसंचार नियामक ट्राई ने इसकी अवधि एक मार्च तक के लिए बढ़ा दी है। ट्राई ने मोबाईल पर आने वाले काल और एसएमएस से छुटकारा दिलाने संबंधी दिशा निर्देशों की समय सीमा एक मार्च तक बढ़ा दी है। ट्राई ने पहले इसके लिए एक जनवरी तक समय दिया था, जो समयावधि बाद में बढ़ाकर 31 जनवरी कर दी गई थी। ट्राई के सूत्रों का कहना है कि ट्राई ने दूरसंचार विभाग को बताया है कि टेलीमार्केटिंग कंपनियों के लिए फोन की श्रंखला 70 के स्थान पर 140 की जा रही है जिसकी व्यवस्था करने में मोबाईल सेवा प्रदाता कंपनियों को और वक्त की दरकार है। कहा जा रहा है कि टेलीमार्केटिंग के जरिए मोबाईल सेवा प्रदाता कंपनियों की जेब में भी राजस्व तगड़ा जाता है जिसके चलते वे इस पर लगाम लगाए जाने से खुश नहीं हैं।

बलिदानी राय की श्रद्धांजलि की हकीकत

अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के नेशनल हेडक्वार्टर में इन दिनों पंजाब में कांग्रेसियों द्वारा किए गए एक कारनामे को चटखारे लेकर सुनाया जा रहा है। धर्म की रक्षा के लिए अपने आप को कुर्बान करने वाले वीर हकीकत राय को अमृतसर में श्रृद्धांजली अर्पित की गई। वीर हकीकत राय शहीदी दिवस प्रोग्राम में कांग्रेस के नुमाईंदों ने जो किया वह कांग्रेस और मानवता को शर्मसार करने के लिए काफी है। इस प्रोग्राम में शहीद की फोटो पर माला चढ़ाने की कोई व्यवस्था नहीं थी, बाद में पास ही शादी के लिए सज रही एक गाड़ी से मालाएं निकालकर शहीद को समर्पित की गईं। हद तो तब हो गई जब पब्लिसिटी के भूखे कांग्रेसियों ने फूलों से लदी फदी फोटो के साथ फोटो सेशन करना आरंभ किया। बाद में पता चला कि जिस फोटो पर माला चढ़ाई जा रहीं थीं, वह हकीकत राय के बजाय भगवान महावीर की थी।

देह व्यापार को मान्यता की हिमायती प्रिया

देश में सेक्स वर्कर्स के लिए खुशखबरी है कि उत्तर मुंबई की संसद सदस्य प्रिया दत्त देह व्यापार को कानूनी मान्यता देने की पक्षधर हैं। हाल ही में उन्होंने कहा है कि देह व्यापार को कानूनी मान्यता देने पर सेक्स वर्कर्स की जिंदगी बेहतर बनाई जा सकती है। मुंबई के रेड लाईट एरिया की महिलाओं पर रिसर्च कर चुकी प्रिया का मानना है कि हर एक महिला की कहानी अलग है। प्रश्न यह है कि सवा सौ साल पुरानी कांग्रेस जिसकी लगाम वर्तमान में सोनिया गांधी के हाथों में है भी महिला ही हैं। यक्ष प्रश्न तो यह है कि देश पर आधी सदी से ज्यादा राज करने वाली कांग्रेस की एक नुमाईंदी द्वारा महिलाओं के पुर्नुद्धार के बजाए वेश्यावृति जैसी प्रवृति को बढ़ावा देने की बात करना कहां तक उचित है। पहले इस तरह की संस्कृति कांग्रेस का अंग नहीं रही है, किन्तु सोनिया राहुल के काल में सब कुछ संभव है।

पानी संकट से दो चार हुए माननीय

इस सप्ताह दिल्ली में पानी का गंभीर संकट आन खड़ा हुआ। इस संकट से देश के माननीय सांसद महोदयों को भी दो चार होना पड़ा है। संसद भवन में पानी का संकट इतना जबर्दस्त रहा कि संसद भवन के कक्ष में आने वाले माननीय सांसदों और पूर्व सांसदों को चाय काफी भी नसीब नहीं हो सकी। देश के नीति निर्धारकों को भला यह बात कैसे गवारा होती कि उनकी सेवा में चाय काफी पेश न की जाए। बस फिर क्या था कुछ सांसदों ने अधिकारियों को आड़े हाथों ले ही लिया और निर्देश दे दिए कि पानी का संकट चलता है तो चलता रहे उनकी सेवा में गुस्ताखी माफ नहीं की जा सकती है। चाय काफी के लिए मंहगे मिनरल वाटर का प्रयोग किया जाए पर उन्हें चाय काफी अवश्य ही उपलब्ध कराई जाए। यह है भारत के गरीबों के जनादेश पाने वाले माननीयों की असली तस्वीर।

अब कांग्रेस के निशाने पर हैं वकील

देश में सस्ती न्याय व्यवस्था उपलब्ध कराने के लिए कटिबद्ध कांग्रेस के निशाने पर अब मंहगी फीस लेकर मुकदमा लड़ने वाले वकील आ गए हैं। राजस्थान में कांग्रेस विधि सम्मेलन में शिरकत के दौरान मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट और उच्च न्यायालय में वकीलों की फीस इतनी ज्यादा है कि आम आदमी इसके बारे में सोच ही नहीं सकता है। गहलोत का कहना सच है कि देश को एसी व्यवस्था विकसित करनी होगी ताकि बड़े और नामी वकील गरीबों के प्रकरण लड़ने पर मजबूर हो जाएं। आज आलम यह है कि उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय में गरीब जाने से बहुत ही हिचकता है, वह जानता है कि अगर वह बड़ी अदालत में गया तो उसके खप्पर तक बिक जाएंगे।

नंबर प्लेट पर तिरंगा, कटे चालान

दिल्ली पुलिस ने पहली मर्तबा कोई अच्छा काम किया है। फेसबुक पर जब पुलिस की ही शिकायतें मिलने लगीं तो पुलिस को मजबूरन देश की आन बान और शान का प्रतीक तिरंगा को नंबर प्लेट पर चस्पा करवाने वालों को सबक सिखाना पड़ा। नंबर प्लेट को निर्धारित के बजाए अपनी मनमर्जी से पुतवाने वालों के जब चालान काटे गए तब जाकर कुछ नेता नुमा लोगों की तंद्रा टूटी। पुलिस ने वाहन पर तिरंगा, रंगीन पट्टी, राजनीतिक दल का नाम, प्रेस, पुलिस, वकील और डाक्टर्स का चिन्ह आदि देखकर फटाफट चालाना काट दिए गए। वैसे भी इस तरह का काम यातायात पुलिस के नियमों के खिलाफ ही है। संभवतः पहली मर्तबा पुलिस ने इसकी सुध ली है। माना जा रहा है कि देश भर की यातायात पुलिस को इसे नजीर मानते हुए देश भर में इस तरह का अभियान चलाया जाना चाहिए।

पुच्छल तारा

मध्य प्रदेश में पाले से किसानों की खड़ी फसलों को बहुत ज्यादा नुकसान हुआ है। कर्ज से दबे किसान आत्महत्या पर मजबूर हो रहे हैं। प्रदेश की शिवराज सिंह चौहान की सरकार और कांग्रेस दोनों ही मिलकर इस मामले पर राजनीति की कोशिश में लगे हैं। शिवराज प्रधानमंत्री से मिले और फिर खबर आई कि इसके लिए ग्रुप ऑफ मिनिस्टर्स का गठन किया जा रहा है। जबलपुर से अरूणा सन्याल ने ईमेल भेजा है कि पता नहीं कब जीओएम गठित होगा, हो सकता है इसके गठन में दो चार माह लग जाएं। फिर जीओएम का गठन शायद इसलिए किया जा रहा है कि अगले सालों में पाले से होने वाले नुकसान को आंका जा सके और उन्हें मुआवजा मिल सके। इस साल के मुआवजे की बात तो कोई कर ही नहीं रहा है।

दारूल उलूम खतरे में

के. विक्रम राव

राष्ट्रवादी दारूल उलूम में हो रही घटनाओं से सेक्युलर भारत देवबन्द के प्रत्येक हितैषी को सक्रिय सरोकार होना चाहिए। पाकिस्तान का पुरजोर विरोध करनेवाली इस इस्लामी संस्था को चन्द कट्टर महजबी लोगों की सनक तथा फितरत पर नहीं छोड़ा जा सकती है। दारूल उलूम के नवनियुक्त कुलपति मौलाना गुलाम मोहम्मद वस्तानवी को कुछ मुल्लाओं ने गुनहगार करार दिया है। उनकी बर्खास्तगी का अभियान चलाया है। कैसे घोर पाप किये हैं वस्तानवी ने? कुलपति बनने के एक सप्ताह में ही वे महाराष्ट्र के एक सार्वजनिक समारोह में अतिथि के रूप में शामिल हुए तथा आयोजकों के आग्रह पर युवाओं में गणेश की मूर्ति वितरित की। उलूम के उन्होंने सुधारवादी कार्यक्रम में उल्लेख किया कि फतवा जारी करनेवाले साहित्यिक विभाग की समीक्षा करेंगे, ताकि उसके निर्देशों में गंभीरता आये, हास्यास्पद विवाद न उठे। विकास योजनाओं में उनका प्रयास होगा कि इंजिनियरिंग, मेडिकल, कम्प्यूटर आदि विषयों को पाठयक्रम में समावेशित किया जाये ताकि धार्मिक शिक्षा के साथ जीवन की चुनौतियों का छात्र सामना कर सकें। आज दारूल उलूम के छात्र किसी गांव अथवा कस्बे की मस्जिद में पेशे इमाम बनकर रह जाते हैं। वस्तानवी की राय है कि मुस्लिम युवाओं को सरकारी नौकरियां, गुजरात को मिलाकर, हासिल करनी चाहिए। गुजरात के संदर्भ में उन्होंने कहा कि विकास की धारा में बहते गुजरात में अब हिन्दु-मुस्लिम में भेदभाव नहीं है। बस इस सादे से बयान को विकृत कर हिन्दीभाषी क्षेत्र के मुल्लाओं ने गुजरात के इस उदारवादी शिक्षक पर हल्ला बोल दिया। मानो तीन हजार छात्रों को वे अधार्मिक बना डालेंगे। वस्तानवी अभी सूरत शहर के पास अपने अक्कलउवा मदरसे के दो लाख छात्रों को आधुनिक और इस्लामी शिक्षा दे रहे हैं। कुरान के अध्यन के साथ तकनीकी ज्ञान में माहिर बना दिया है। मुल्लाओं ने वस्तानवी पर इल्जाम लगाया है कि दीनी तालीम को गौण बनाया है। अर्थात् कयामत के दिन अपने गुनाहों के बारे में वस्तानवी अल्लाह को सफाई देना होगा तो क्या कहेंगे वे? वस्तानवी तब पैगम्बेर इस्लाम की बात कहेंगे कि यदि इल्म सुदूर चीन में मिलता है तो चीन भी जाओ। इसलिए दीनी तालीम तथा इल्म में वस्तानवी सामंजस्य बैठा रहे हैं।

मगर वस्तानवी के खिलाफ अभियान चला है कि उन्होंने परम्पराओं, रूढ़ियों, व्यवस्थाओं, आस्था के नियमों, पुराने तौर-तरीकों आदि को तोड़ने का अपराध किया है। उन्हें ”हत्यारे” नरेन्द्र दामोदर दास मोदी के प्रशासन को अच्छा कहने का दोषी मानते हैं। हालांकि न तो कोई दस्तावेजी प्रमाण है और न उनके कोई विरोधी दिखा ही पाये कि वस्तानवी ने कहीं मोदी की श्लाघा की हो। सूरत शहर में ”टाइम्स ऑफ इंडिया” के संवाददाता से एक लम्बे इन्टरव्यू (25 जनवरी) में उन्होंने केवल एक वाक्य कहा कि गुजरात सरकार अल्प तथा बहुसंख्यकों में भेदभाव नहीं कर रही है। बस वस्तानवी पर सितम और कहर टूट पड़े कि गोधरा में आठ वर्ष पूर्व लाशे बिछानेवाले की सरकार को अच्छा कैसे कह दिया। खैर इस संवेदनशील मुद्दे पर चर्चा होगी, यहां सिलसिलेवार ढंग़ से उन सारे आरोपों का विश्लेषण को जो वस्तानवी पर जड़े गये हैं।

कटघरे में दारूल उलूम के कुलपति को खड़ा करें। पहले आती है बात उनके द्वारा गणेश की मूर्ति के वितरण की जिसे मुल्लाओं ने अधार्मिक कहा है। सवाल है कि क्या सेक्युलर गणराज्य में दूसरे की आस्था का आदर करना पाप है? मूर्ति की व्यक्तिगत उपासना करना वर्जित हो सकता है, पर सार्वजनिक गैर-धार्मिक समारोह में शिरकत करने मात्र से कोई भी मुसलमान गुनहगार नहीं हो सकती है। वर्ना गंगा-जमुनी तहजीव के क्या मायने हैं? समाचारपत्र सुर्खियों में प्रकाशित करते हैं कि फलाना गांव में मुसलमानों ने मन्दिर का निर्माण कराया, होली-दीपावली साथ मनाई आदि। गणेश प्रतिमा बांटना भी इसी सांझा तहजीब का हिस्सा होगी। तो मुल्ला लोग इस बात को स्वीकार कर वस्तानवी को मूर्ति पूजक तो नहीं कहेंगे? धार्मिक समभाव के नाम पर, सौहार्द के लिए यदि मौलाना ने थोड़ी देर के लिए किसी प्रतिमा को हाथ लगा दिया तो क्या कहर बरपा? हिन्दू लोग मजारों पर मत्था टेकते है। चादरें चढ़ाते हैं, ईद बकरीद के नमाज में शरीक होते हैं। मजहबी संबंध और व्यवहार इकतरफा नहीं हो सकता है, ताकि तनाव और दंगों का खात्मा हो सके। अब यदि छोटी बात को तूल दिया जाये, गणेश की प्रतिमा के मसले पर गुनहगार मान लें तो कट्टरता पनपेगी।

मौलाना वस्तानवी पर अगला आरोप है कि वे दारूल उलूम के फतवा विभाग पर नियंत्रण करना चाहते हैं। समीक्षा द्वारा मजहवी सौम्यता लाने के नाम पर अव्यवस्था कर देंगे। यूं भी भारतीय भाषाओ के पत्रकार अक्सर फतवा की खबर को सनसनीखेज बना देते हैं। टीवी चैनल वाले तो टीआरपी के बढ़ाने और विज्ञापन से मुनाफाा बटोरने की ललक में फतवा को संदर्भ से तोड़कर पेश करते हैं। मीडिया से अपेक्षा की जाती है कि संयमित शैली, परिवेश का बिना अतिक्रमण किए, धार्मिक संवेदनशीलता का लिहाज करते हुए फतवा का समाचार प्रसारित करेंगे। अर्थात् फतवा को मजाक का विषय न बनाया जाय। फतवा जारी करनेवाले व्यक्ति का मकसद भी जान लें। हानिलाभ तौल लें। अत: जब मौलाना वस्तानवी फतवा पर सावधानी चाहते हैं तो उदाहरण मिल जाते हैं कि फतवों का विवादास्पद प्रयोग कैसे हुआ। मसलना सर्वोच्च न्यायालय ने एक नारी समर्थक निर्णय दिया था कि परित्यता को पति से जीविका की राशि मिलनी चाहिए। पर फतवा देकर इस न्यायिक निर्णय को अस्वीकार कर दिया गया। संसद पर दबाव पड़ा और न्यायिक निर्णय को निरस्त कर दिया गया। विरोध में केन्द्रीय मंत्री आरिफ मोहम्मद खां ने राजीव गांधी काबीना से त्यागपत्र दे दिया। मगर कट्टर मुसलमानों की जीत में एक प्रगतिशील कदम पिछड़ गया। इसी संदर्भ में मेरठ की गृहणी गुड़िया के मसले पर जारी किया गया फतवा भी विघटनकारी था।

टीवी पर आधुनिक शिक्षा के प्रतिकूल फतवा, सहशिक्षा के विरोध में फतवा, परिवार नियोजन पर पाबंदी वाला फतवा यही दर्शाता है कि भारतीय समाज में आम मुसलमानों को कदम से कदम मिलाकर चलने से अवरूध्द किया जा रहा है। सबसे अव्यवहारिक और हास्यास्पद फतवा था कि कार्यालय में स्त्री और पुरूष कर्मी परस्पर बात न करें। किसी ने भी इसे नहीं माना। बुर्के पर प्रतिबंध वाला फतवा बहुतेरों ने नहीं माना। आज के सभ्य जीवन में चलता फिरता ताबूत कौन खातून बनना चााहेगी। इस्लामी तुर्की का उदाहरण है जहां बुर्के को गैरकानूनी करार दिया गया है। इसी सिलसिले में एक फतवा आया था कि हरिवंशराय बच्चन की कृति मधुशाला पढ़ना भी गैर इस्लामी है क्योंकि शराब पीना गुनाह है। तो फिर सुलतान और बादशाह लोग, उर्दू के शायर लोग और मुस्लिम राजनेता कौन से पाक साफ हैं। ऐसे ही विवादास्पद फतवे आये जैसे कि टेनिस कोर्ट पर सानिया मिर्जा के स्कर्ट की लम्बाई कितनी हो? मगर किसी भी मुल्ला अथवा मौलवी ने यह नहीं कहा कि रोजेदारों को उन हिन्दुओं का आतिथ्य नहीं स्वीकारना चाहिए जो स्वयं उपवास नहीं रखते हैं। धार्मिक रीति को सामाजिक अथवा सियासी स्टन्ट नहीं बनाना चाहिए। इसीलिए मौलाना वस्तानवी की अपेक्षा है कि फतवा की बड़ी पवित्रता से संजोया जाय। मौलाना वस्तानवी ने फतवे की तरह शब्द जिहाद को भी परिभाषित किया क्योंकि मुस्लिम आतंकवादी उसे गैरमुसलमानों के खिलाफ भड़काने के लिए इस्तेमाल करते हैं। मौलाना ने कहा कि जिहाद का सही अर्थ है ”प्रयास” करना ताकि बेहतर मानसिकता उपजे।

अब मौलाना द्वारा कथित तौर पर मोदी की सरकार की तारीफ करने की बात पर गौर करें। इस संदर्भ में एक सांप्रदायिक शैली की चर्चा कर लें। अमूमन कोई हिन्दू यदि मुसलमानों की सामाजिक बुराइयों की आलोचना करे तो उस पर भाजपाई और आरएसएस की मुहर लग जाती है। उसी तरफ कोई भारतीय मुसलमान कुछ ज्यादा धार्मिक अथवा परम्परागत् हो जाय तो उसे पाकिस्तानी कह देने का फैशन बन गया है। ऐसी सोच खोटी है। राष्ट्रविरोधी है। अत: गुजरात यदि वस्तुत: विकास कर रहा है तो उसे स्वीकारना कोई भाजपा का समर्थक हो जाना नहीं है। सोनिया गांधी के चहेते और योजना आयोग के उपाध्यक्ष सरदार मोन्टेक सिंह अहलुवालिया ने भी गुजरात की विकास दर की बहुत तारीफ की थी। विश्वबैंक भी कर चुका है। अत: मौलाना वस्तानवी ने कर दिया तो वे कोई स्वयं सेवक नहीं बन गये और न मतान्तरण कर लिया। मुसलमानों के बड़े खैरख्वाह बननेवाले माक्र्सिस्ट सरकार के पश्चिम बंगाल में अल्पसंख्याकों को विकास के सबसे नीचे पायदान पर सचर आयोग ने टिकाया है।

अगर मोदी सरकार की गोधरा दंगों के दौरान नृशंसता को मान ले तो लोकतांत्रिक मर्यादा का भी ख्याल करना होगा। चुनाव में जनादेश मोदी को दुबारा मिला है। अब कौन सा पैमाना लगायेंगे? संजय गांधी जिसने 1975-77 के आपात्काल के दौरान, जामामस्जिद, चांदनी चौक, तुर्कमान गेट आदि स्थलों पर लाशें गिराईं, झोपड़ियां उजड़वाई, जबरन नसबंदी कराकर अल्पसंख्यकों पर अमानुलिक अत्याचार किए थे। मगर इन्हीं मुसलमानों ने ढ़ाई सालों बाद डेढ़ लाख वोटों से संजय गांधी और उनकी कांग्रेस पार्टी को लोकसभा निर्वाचन में जितवा दिया। तो ऐसा दोहरा मानदण्ड क्यों?

फिर मौलाना गुलाम मोहम्मद वस्तानवी को दारूल उलूम के कुलपति पद से हटाने के अन्य कारण हैं। वे सब मूलत: धार्मिक नहीं, वरन राजनीतिक और पारम्परिक हैं। दारूल उलूम पर दशकों से कांग्रेस सांसद मदनी और उनके जमायते उलेमा का कब्जा था। जनवरी में इस गुजराती मौलाना ने उत्तर प्रदेश के मौलाना को चुनाव में पराजित कर दिया। रंजिश तो होनी ही थी। सो हो गई।

दारूल उलूम पर हिन्दी भाषियों का लौह शिकंजा रहा अत: उत्तर प्रदेश की राजनीतिक कट्टरता तथा वोट बैंक की नीति भी घुस आई। इसके कारण वर्षो से इस आलमी मदरसे का अधुनिकीकरण नहीं हुआ। काहिरा के मशहूर अल-अजहर विश्वविद्यालय में मुझे दिखा था कि लौकिक तथा आध्यात्मिक प्रगति का सम्मिश्रण हो सकता है। दारूल उलूम का नंबर अल-अजहर के बाद आता है। मौलाना वस्तानवी इसे और विकसित देखना चाहते हैं। उनके संपर्क सूत्र हैं जिनसे उन्होंने अपने सूरतवाले मदरसे को शीर्ष पर पहुंचाया। दारूल उलूम भी संपन्न होगा यदि मौलाना को हटाया नहीं गया। लेकिन मंजर आशावादी नहीं हैं। मुल्लाओं ने गणेश प्रतिमा, फतवा, नरेन्द्र मोदी आदि मसलों को समेटकर एक घातक घोल बना दिया है।

मौलाना वस्तानवी अशरफ (कुलीन परिवार) नहीं हैं। वे दक्षिण गुजरात की पिछड़ी जाति में जन्में थे। उनका दारूल उलूम का कुलपति बनना उत्तर प्रदेश के कुलीन परिवारिक मुसलमानों को पसन्द नहीं आ रहा है। जातीय विग्रह का मसला है। हालांकि इस्लाम धर्म में सभी समान माने जाते हैं। अत: मौलाना वस्तानवी मजहब के नाम पर समान्य मुसलमानों का शोषण नहीं होने देंगे। कट्टरता का दमन करेंगे। उदाहरणार्थ पाकिस्तानी पंजाब के गवर्नर जनाब सलमान तासीर के कट्टर गार्ड द्वारा हत्या का दारूल की पत्रिका ”तर्जुमा देवबन्द” ने समर्थन किया। कई दारूल उलूम वालों को यह पसन्द नहीं आया। मौलाना वस्तानवी ऐसी उग्रता को रोकेंगे। लेकिन मसला यहां यह है कि महत्वपूर्ण मदरसे को आगे देखू बनाने के लिए मौलाना गुलाम मोहम्मद वस्तानवी को प्रगतिशील मुसलमानों का कितना सहयोग मिलेगा। अथवा दकियानूस लोग उन्हें हटाकर फिर विकास की सुई को रोक देंगे। बल्कि इस बार पीछे कर देंगे।

बसपा-कांग्रेस के बीच का ‘खेल’

संजय सक्सेना

उत्तर प्रदेश विधान सभा का बजट सत्र अपने पीछे कई सवाल छोड़ गया। ऐसा नहीं था कि इस बार परम्परा से हट कर या फिर बिना शोरगुल के बिना सब काम निपट गया था, न ही बसपा सरकार के चार साल के शासनकाल में उसकी ऐसी कोई साफ-सुथरी छवि उभर कर आ गई थी जिस कारण विपक्ष को हो-हल्ले का मौका न मिला हो, लेकिन बजट सत्र इस बात का अहसास जरूर करा गया कि कांग्रेस और बसपा के बीच अंदर ही अंदर कुछ पक जरूर रहा है। यह बात हवा में नहीं कही जा रही है। विधान सभा सत्र की कार्रवाई को जिसने भी ध्यान से देखा उसे यह समझने में देर नहीं लगी कि कांग्रेस चौपालों और सड़क पर भले माया सरकार के खिलाफ हमलावर हो लेकिन विधानसभा के भीतर वह ऐसा कुछ नहीं करना चाहती थी,जिससे कि बसपा सरकार को किसी मुश्किल समय का सामना करना पड़े। देखा यह गया कि जब विपक्ष में बैठे बाकी दल सरकार पर आक्रामक होते थे तो कांग्रेस सरकार के लिए ढाल का काम करती दिखी। इस बार सदन में कांग्रेस जो किरदार निभाया,उससे तो यही लगता है कि वह पंचायत चुनाव में कुछेक खास स्थानों पर कांग्रेसी उम्मीदवारों को जिताने में बसपा सरकार से मिले सहयोग का शुक्रिया अदा करना चाहती हो।यह और बात है कि कांग्रेस इस बात को मानने को तैयार नहीं है। उत्तर प्रदेश कांग्रेस के मुख्य प्रवक्ता सुबोध श्रीवास्तव से जब इस संबंध में पूछा गया तो उन्होंने बसपा सरकार को कांग्रेस की तरफ से किसी तरह की ‘छूट’ दिए जाने की बात को सिरे से नाकार दिया और कहा कि हम जहां जरूरी होता है बसपा सरकार के भ्रष्टाचार ,प्रदेश में फैले जंगल राज और माया के लूटतंत्र का विरोध करते है,लेकिन हमें अपनी मर्यादाए भी पता हैं जिसका हम कभी उल्लंघन नहीं करते।

कांग्रेस भले ही बसपा को किसी तरह की ‘छूट’ दिए जाने की बात से इंकार करती हो लेकिन कांग्रेस का सदन में बसपा सरकार के प्रति हमलावर न होने पर राजनैतिक पंडितों की अपनी अलग ही राय है। वह इसे कांग्रेस की मजबूरी बताते हैं।पदाधिकारियों की बैठकों और केन्द्रीय नेतृत्व के सामने भले कांग्रेस सड़क से सदन तक सरकार को छकाने की बात करती हो लेकिन जब सचमुच ऐसा अवसर आता है तो वह हमेशा बैकफुट पर नजर आती है। यही नहीं जो लोकायुक्त भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे मंत्रियों की जांच कर रहे हैं कांग्रेस उन्हीं के खिलाफ प्रस्ताव ले आई।जब पहली बार कोई लोकायुक्त बसपा मंत्रियों आदि पर तेजी से शिकंजा कसने की कोशिश कर रहा हो तो उस समय उसके खिलाफ कोई प्रस्ताव लाना लोकायुक्त की पीठ में छूरा भोंकने जैसा ही है। इससे सिर्फ और सिर्फ बसपा को ही फायदा होगा।जल्दबाजी और बेसमय लाए गए कांग्रेस के इस प्रस्ताव से कांग्रेस को क्या हासिल हुआ यह तो नहीं पता लेकिन सम्पूर्ण विपक्ष को जरूर कटघरे में खड़ा होना पड़ गया।कांग्रेस द्वारा लाए गए प्रस्ताव में उन्हीं लोकायुक्त की कार्यशैली पर सवाल खड़े किए गये जिनकी संस्तुति पर माया सरकार के एक राज्यमंत्री की उनके मंत्रिमंडल से छुट्टी हो गई और तीन मंत्रियों के खिलाफ जांच चल रही हैं। कांग्रेस के उक्त प्रस्ताव पर विपक्ष में बैठे गैर-कांग्रेसी दलों को सरकार की साजिश नजर आ रही है।ं जो दल विधानसभा में इस प्रस्ताव के विरोध में थे, वहीं अब कह रहे हैं कि सरकार ने स्वयं लोकायुक्त पर दबाव बनाने के लिए बाकी दलों की अपेक्षा कांग्रेस पर भरोसा किया।इसी लिए कांग्रेस के माध्यम से इस आश्य का प्रस्ताव लाया गया। कांग्रेस द्वारा लोकायुक्त पर विधायक निधि समाप्त किए जाने का सुझाव देने की बात कहकर उनके खिलाफ निंदा प्रस्ताव लाया गया। इस प्रस्ताव में लोकायुक्त पर विधायिक के कार्यों में हस्तक्षेप करने की बात कही गई थी जबकि लोकायुक्त ने इस बाबत विधानसभाध्यक्ष को पत्र लिखा तो असलियत समाने आई। विधान सभा अध्यक्ष को लिखे लोकायुक्त के पत्र से पता चला कि लोकायुक्त ने इस तरह का कोई सुझाव दिया ही नहीं था। जब सारे दलों को असलियत पता लगी तो सबसे ज्यादा किरकिरी कांगेस की ही हुई।

कांग्रेस की ओर यह कोई पहला आचरण नहीं था जिससे ऐसी स्थिति का सामना करना पड़ा हो। कानून व्यवस्था के मुद्दे सपा-भाजपा के लोग सरकार को गठघरे में खड़ा करते हैं तो उसके बचाव में कांग्रेस ही उतरती है।वह पूर्ववर्ती सरकार की खामियां गिनाकर परोक्ष रूप से मायावती सरकार की मदद करती है। बसपा सरकार के प्रति कांग्रेस की इस दरियादिली के बारे में भाजपा के इस आरोप में काफी दम नजर आता है कि कांग्रेस-बसपा दोनों का विरोध केवल जनता को गुमराह करने के लिए है। भारतीय जनता पार्टी के प्रदेशाध्यक्ष सूर्य प्रताप शाही कहते हैं कि जब प्रदेश में सत्तारूढ़ बसपा केन्द्र की कांग्रेस सरकार को बिना शर्त समर्थन दे रही है तो उत्तर प्रदेश में कांग्रेस उसका विरोध कर भी कैसे सकती है। हाल में ही सम्पन्न हुए पंचायत चुनाव में जब बसपा उम्मीदवारों को जितवाने के लिए कांग्रेस के हाथ बसपा की मदद के लिए बढ़े थे,तभी साफ गया था कि बसपा बसपा सरकार का विरोध केवल दिखाने भर का हैं पंचायत अध्यक्षी के चुनाव में प्रतापगढ़ जिसे कांग्रेस का गढ़ कहा जाता है, वहां की कांग्रेस सांसद और पदाधिकारी बाकायदा बसपा उम्मीदवार के जुलूस में शामिल हुए थे। यही नहीं प्रदेश में कई और जगह भी इसी प्रकार की सहयोग की सुगबुगाहट सुनने और देखने को मिली थी। अब कांग्रेस सफाई दे रही है, लेकिन उसकी बातों पर विश्वास करने वाला कोई नहीं है।

पूर्वांचल की भावनाओं से खेलते अमर सिंह

प्रदीप चन्‍द्र पाण्‍डेय

अमर सिंह इन दिनों उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल के जनपदों की यात्रा कर लोगों को उनके दर्द और अभाव का आभास करा रहें हैं। यह यात्रा पूर्वांचल की जनता के लिये कितना लाभदायक होगी यह तो नहीं पता किन्तु अमर सिंह को एक मुद्दा तो मिल ही गया है। अवसरवादी राजनीति के कई चेहरे हैं। वे लोगों की भावनाओं को भड़काकर अपना उल्लू सीधा करते रहे हैं। जिस अमर सिंह को समाजवादी पार्टी की सरकार में पूर्वाचल का दर्द नजर नहीं आया और वे पश्चिमी जनपदों के विकास में लगे रहे वे आजकल पूर्वांचल राज्य के नाम पर घड़ियाली आंसू बहा रहें हैं। जब अवसर था तो अपनी मातृभूमि का दर्द नहीं छलका और अब जबकि सपा मुखिया से उनके रिश्ते तल्ख हो गये हैं तो वे पूर्वांचल की गरीबी, अभाव, उद्योगहीनता, पलायन की मजबूरियों का विलाप कर इस अंचल को सपनों का सब्जबाग परोस रहें हैं। राज्यों का विभाजन ही यदि विकास का पैमाना होता तो शायद छोटे राज्य प्रगति के नये आयाम बना चुके होते। कम से कम अमर सिंह और उनके अनुयाइयों को यह स्मरण तो होगा ही कि जिस पूर्वांचल राज्य के गठन को लेकर वे सपने बांट रहें हैं उसी पूर्वांचल में हर 10 किलोमीटर पर राजे रजवाडों ने शासन किया। कभी बस्ती के राजा, नगर, महसो, बांसी, जैसे राजा रहे। उनकी सीमायें बहुत छोटी थी। एक समय अवश्य ऐसा रहा होगा जब कुंआनों के उस पार आना जाना एक राज्य से दूसरे राज्य की यात्रा रही होगी। सवाल ये है कि जब छोटे-छोटे हिस्सोें में विभक्त राजे रजवाडों के शासन काल में विकास नहीं हुआ, लोगों पर तरह-तरह के जुल्म ढाये गये तो इस बात की क्या गारन्टी है कि यदि पूर्वांचल राज्य बन भी जाय तो समस्याओं का समाधान हो जायेगा।

कटु यर्थाथ तो ये है कि कुछ नेता जन भावनाओं को आगे बढने की सीढी के रूप में इस्तेमाल करते हैं और जब उनका लक्ष्य पूरा हो जाता है तो मौन साध लेते हैं। अमर सिंह के पास इस बात का जबाब नही है कि जब उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी की सरकार थी और वे निर्णायक भूमिका में थे, आये दिन उद्योगपतियों के साथ बैठककर प्रदेश के औद्योगिक विकास का खाका खींच रहे थे उस समय उन्हे इस अंचल के पिछड़ेपन का आभास क्यों नहीं हुआ। सच तो ये है कि अन्य नेताओं की तरह अमर सिंह भी पूर्वांचल के पिछड़ेपन के लिये सीधे तौर पर जिम्मेदार हैं और उन्हें विलाप करने का कोई हक नही बनता।

कहते हैं सत्ता तो भ्रष्ट होती ही है और शासक का कोई चरित्र नहीं होता। अमर सिंह आज के चालू राजनीति में उससे भिन्न हैं ऐसा शायद अमर सिंह ही खुद को मानते हों। किसी कवि ही यह पंक्तियों सटीक है ” टुकड़े-टुकड़े, टुकड़े-टुकडे, जितने तन-मन, उतने टुकड़े, टुकडों से ही पूंछ रहा हूं। मेरा हिन्दुस्तान कहा है।” भारत विभाजन के बाद पटेल जी जैसे लोग आगे न आये होते तो राजे रजवाडों से जमीने खाली कराना और आम आदमी को हिस्सेदारी कराना आसान काम नहीं था। देश की सरहद यदि आज जम्मू-कश्मीर से कन्या कुमारी तक फैला तो इसलिये कि हमारी सोच बड़ी थी। यदि 1947 में अमर सिंह जैसे राजनीतिज्ञ रहे होते तो शायद देश को आजादी ही न मिलती। यदि घडियाली आंसू के सिवा वे पूर्वांचल के लिये कुछ करना चाहते हैं तो गोरखपुर का बन्द कारखाना चलाने, बुनकरों में विश्वास पैदाकर उन्हें अवसर दिलाने, लघु उद्योगों की स्थापना कराने, कृ षि आधारित विकास की पहल करे और अपने उद्योग क्षेत्र के बन्धु बान्धुओं को प्रेरित करें कि वे पूर्वांचल में कल कारखाना लगाये। किन्तु शायद वे ऐसा नहीं करेंगे। उन्हें तो मुद्दा चाहिये जिस पर पांव रखकर वे सपा नेतृत्व को चिढा सके। यदि पूर्वांचल पिछड़ा है, बाढ, बीमारी, उद्योगहीनता, बेरोजगारी की गिरफ्त में है तो इसके लिये अमर सिंह जैसे जन प्रतिनिधि भी सीधे तौर पर जिम्मेदार हैं जिन्होने लोगों से वोट तो लिया किन्तु वे किसी और के होकर रह गये। विभाजन किसी समस्या का समाधान नहीं है। पूर्वांचल की जनता को भी चाहिये कि वे ऐसे राजनीतिक षड़यंत्रों से सर्तक रहे जो लोग राजनीति की आड में हमारी गरीबी, अभाव, उपेक्षा और संत्रास को सियासत की बड़ी मंण्डियों में बेच देने के लिये माहौल तैयार कर रहें हैं। कितना अच्छा हो कि प्रकृति अमर सिंह को सद्बुध्दि दे कि वे पूर्वांचल की भावनाओं को भडकाने की जगह कुछ कर दिखायें, फिर विलाप करें।

(लेखक दैनिक भारतीय बस्ती के प्रभारी सम्पादक हैं)

गीत / अब तो जागो जवानी तुम्हें है क़सम

है परीक्षा को देखो घड़ी आ गयी ,

अब तो जागो जवानी तुम्हें है क़सम।

भावनाओं का बढ़ है प्रदूषण रहा,

आए दिन अब सुलगने लगे हैं शहर।

जड़ जमाती ही जातीं दुरभिसन्धियाँ,

और फैला रही हैं नसों में ज़हर।

साज़िशों में घिरी यह धरा छोड़कर,

यों न भागो जवानी तुम्हें है क़सम।

लाख चौकस है हम किन्तु शत्रु यहाँ,

जश्न अपना मनाकर चले जाते हैं।

बाद में खेल चलता सियासत का है,

देशवासी स्वयं को ठगे पाते हैं।

ब्रेन की ‘गन’ सहेजोगे कब तक भला,

गोली दागो जवानी तुम्हें है क़सम।

देश का ही पराभव गया हो अगर,

अपना मुँह बोलो लेकर कहाँ जाओगे।

जाओगे तुम जहाँ भी वहाँ बेरुखी,

पाओगे और कायर ही कहलाओगे।

भेदकर शत्रुओं के हृदय शूल पर,

बढ़के टाँगो जवानी तुम्हें है क़सम।

देश को है अपेक्षाएँ तुम से बहुत,

लड़ लो बढ़कर लडाई जो सर आ पड़ी।

वरना मुश्किल में पड़ जाएगा यह चमन,

संस्कृति की बचेगी न कोई कड़ी।

मात्र सुविधाओं की चाशनी में न यों,

प्राण पागो जवानी तुम्हें है क़सम।

हिन्द से है तुम्हारी अपेक्षा सही,

मन का शासक तुम्हें कोई ऐसा मिले।

ज़ख्म बदहालियों के मिले जो तुम्हें,

प्रेम से उनको सहलाए और फिर सिले।

रोज़ी रोटी के सब अपने अधिकार को,

हक़ से मांगो जवानी तुम्हें है क़सम।

– डॉ. रंजन विशद

वालीवुड अछूता नहीं है क्रिकेट की दीवानगी से

लिमटी खरे

इस बात में कोई संदेह नहीं है कि ब्रितानियों की बदौलत भारत के लोग क्रिकेट को समझ पाए हैं। एक समय था जब देश में क्रिकेट के बजाए हाकी का जादू सर चढ़कर बोलता था। तब हाकी स्टिक नहीं मिलने पर गली मोहल्लों मे बच्चे पेड़ों की टहनियों को तोड़कर हाकी के रूप में प्रयुक्त किया करते थे। उस वक्त हाकी का जुनून देखते ही बनता था। शनैः शनैः हाकी का स्थान क्रिकेट ने कब ले लिया पता ही नहीं चला।

देश में वालीवुड का जादू सबसे ज्यादा है। वालीवुड के सितारों के पोस्टर आम आदमी के घरों में मिलना आम बात है। वालीवुड के सितारे भी क्रिकेटरों के दीवाने हैं। न जाने कितनी फिल्में वालीवुड में क्रिकेटरों और क्रिकेट के खेल पर बन चुकी हैं। यह अलहदा बात है कि इनमें से अधिकांश फिल्में फ्लाप ही साबित हुई हैं।

आजादी के उपरांत सबसे पहले 1959 में देवानंद अभिनीत लव मेरिज में पहली मर्तबा क्रिकेट को देश के रूपहले पर्दे पर स्थान मिला था। इसमे मशहूद एक्टर देवानंद ने क्रिकेटर का किरदार निभाया था। इसके एक गाने में तो क्रिकेट की समूची शब्दावली का ही प्रयोग कर दिया गया था।

इसके उपरांत काफी समय तक देश प्रेम का जज्बा जगाने वाली फिल्में दिखाई जाती रहीं। तब खेल भावना को उकारने के लिए देश के चलचित्रों में स्थान नहीं दिया गया। उस वक्त के निर्माता निर्देशकों पर केंद्र सरकार के सूचना प्रसारण विभाग का जोर चलता था यही कारण है कि सिनेमा के प्रदर्शन के पूर्व न्यूज रील में आजादी के बाद के भारत निर्माण की झलक देखने को मिल जाया करती थी।

लंबे अंतराल के उपरांत 1984 में कुमार गौरव की फिल्म आल राउंडर आई जो बाक्स आफिस पर सफल नहीं मानी गई। इस फिल्म में एक क्रिकेटर के जीवन के उतार चढ़ाव को रेखांकित किया गया था। इस फिल्म से कुमार गौरव को ज्यादा उम्मीदें रहीं किन्तु बाक्स आफिस पर इसने दम ही तोड़ दिया।

आल राउंडर के उपरांत लंबे समय तक रूपहला पर्दा क्रिकेट के मामले में खामोश ही रहा। फिर 1990 में एक बार फिर देवानंद ने अव्वल नंबर नामक फिल्म के जरिए क्रिकेट को पर्दे पर उतारने की नाकाम कोशिश की। सदाबहार अभिनेता देवानंद के अलावा इस फिल्म में आदित्य पंचोली ने भी अभिनय किया था। इस फिल्म को दर्शकों की सराहना नहीं मिल सकी।

फिर बारी आई 2001 में लगान की। इस फिल्म ने बाक्स आफिस के सारे रिकार्ड ध्वस्त कर दिए। आमिर खान के जोरदार अभिनय की बदोलत आज भी लगान लोगों की स्मृति से विस्मृत नहीं हो सकी है। आजाद भारत में क्रिकेट पर बनी इकलौती फिल्म है लगान जिसे बाक्स आफिस पर जबर्दस्त सफलता मिली थी। आलम यह था कि 74वें आस्कर फिल्म अवार्ड के लिए यह फिल्म विदेशी भाषा की श्रेणी में नमित कर दी गई थी।

2006 में आया नागेश कुकुनूर निर्देशित चलचित्र इकबाल दर्शकों द्वारा खूब सराहा गया। इस फिल्म में कुकुनूर ने दूर बसे एक गांव के एक ऐसे बच्चे की कहनी को पर्दे पर उतारा जो बड़ा होकर भारत के लिए खेलना चाह रहा था। इस फिल्म की खासियत यह रही कि इसे आलोचकों द्वारा भी खूब सराहा गया।

इसके अगले साल 2007 में सिदार्थ कपूर की निर्देशित फिल्म सलाम इंडिया ने शुरूआत में ही दम तोड़ दिया। इस फिल्म की कहानी चार गरीब बच्चों के इर्द गिर्द ही घूमती रही जो क्रिकेट के जुनून में दीवाने थे। ये बच्चे देश के लिए क्रिकेट खेलना चाहते थे। अफसोस यह फिल्म दर्शकों को बांधने में सफल नहीं रही।

इसके बाद तो मानो क्रिकेट पर फिल्म बनाने का सिलसिला चल ही पड़ा। 2008 में आई जन्नत यद्यपि बाक्स आफिस पर कुछ करामात नहीं दिखा सकी किन्तु इस फिल्म ने लोगों को कुछ हद तक बांधने में सफलता हासिल अवश्य ही की। रातों रात अमीर बनने की चाहत में इसका हीरो विश्व भर में क्रिकेट फिक्सिंग का बादशाह बन जाता है। इस सटोरिए में लोगों को असल सटोरियों का अक्स दिखाई पड़ा। इस चलचित्र के गाने काफी हिट रहे।

मेच फिक्सिंग पर ही आधारित 2009 में एक और फिल्म बनी वर्ल्ड कप 2011। इसमें मैच फिक्सिंग को आधार बनाकर ही बनाया गया था। यह फिल्म भी बाक्स आफिस पर दम तोड चुकी है। इसी साल रानी मुखर्जी अभिनीत एक और फिल्म आई दिल बोले हडिप्पा। इस फिल्म में रानी का रोल बहुत अच्छा नहीं कहा जा सकता है। यह भी बाक्स आफिस पर बहुत ज्यादा कमाल नहीं दिखा सकी।

ज्ञानार्जन भारत की परंपराः आरिफ मोहम्मद खान

भारतीय संस्कृति में पत्रकारिता के मूल्य विषय पर राष्ट्रीय संविमर्श

भोपाल 22 फरवरी। पूर्व केंद्रीय मंत्री आरिफ मोहम्मद खान का कहना है कि भारत की परंपरा, ज्ञान की परंपरा है, प्रज्ञा की परंपरा है। भारतीय संस्कृति का सारा जोर ज्ञानार्जन पर है। वे यहां “भारतीय संस्कृति में पत्रकारिता के मूल्य” विषय पर माखन लाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल द्वारा आयोजित राष्ट्रीय संविमर्श में मुख्य वक्ता की आसंदी से बोल रहे थे।

उन्होंने कहा कि प्राचीनकाल से ही भारत में ज्ञान का संचय होता रहा है और यहां ज्ञान से ही लक्ष्मी को प्राप्त किया जाता है। परंतु आज हम लक्ष्मी को सर्वोपरि मानकर अज्ञानता को थोप रहे हैं। उन्होंने कहा की आज भारतीय मीडिया में महाभारत के संजय जैसे पत्रकारों की भारी जरूरत है ,जो बिना किसी लगाव व अलगाव के निष्पक्षता पूर्वक अपने काम को अंजाम दे सकें। उन्होंने कहा कि पत्रकारिता की पहली कसौटी निष्पक्षता है किंतु वह अपने इस धर्म से विचलित हुयी है।

श्री खान ने कहा कि यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि आज पेड न्यूज जैसी विकृति भारतीय मीडिया में पश्चिम से नहीं बल्कि स्वतः आई है, हमें ऐसी विकृतियों के समाधान भी अपनी सांस्कृतिक परंपराओं में ही तलाशने होंगें। उनका कहना था कि कोई भी पत्रकारिता शून्य में नहीं हो सकती। उसे देश की समस्याओं आतंकवाद, माओवादी आतंकवाद, गरीबी, अशिक्षा और विकास के सवालों को संबोधित ही करना पड़ेगा। तभी वह प्रासंगिक हो सकती है और उसे जनता का आदर प्राप्त हो सकता है। उन्होंने कहा कि शिक्षा के माध्यम से ही किसी भी दुर्बल वर्ग का को शक्तिशाली बनाया जा सकता है। क्योंकि शिक्षा ही एक मात्र ऐसा विषय है जिस पर कोई विवाद नहीं है। उन्होंने कहा कि भारत की संस्कृति विविधताओं का आदर करने वाली है।

राष्ट्रीय संविमर्श के मुख्य अतिथि मध्य प्रदेश शासन के उच्च शिक्षा एवं जनसंपर्क मंत्री लक्ष्मीकांत शर्मा ने अपने उदबोधन में कहा कि आज मीडिया द्वारा किसी नकारात्मक समाचार को बार-बार दिखाना काफी खेदजनक है। मीडिया को इससे बचना चाहिए। उन्होंने कहा कि हालांकि आज के लोग बहुत जागरूक हैं इसलिए चिंता करने की जरूरत नहीं है। किंतु सकारात्मक चिंतन से समाज को शक्ति मिलती है और उसे हर संकट के समाधान का संबल भी मिलता है। उन्होंने कहा भारतीय संस्कृति ने सभी संस्कृतियों के श्रेष्ठ गुणों को आत्मसात किया है और सबको स्वीकार किया है। हमारी संस्कृति कुछ थोपने की संस्कृति नहीं है, वरन श्रेष्ठता का आदर करने वाली संस्कृति है। उन्होंने मीडिया के विद्यार्थियों का आह्ववान किया वे समाज जीवन में सकारात्मक मूल्यों की स्थापना करते हुए सुसंवाद का वातावरण बनाने में सहयोगी बनें। श्री शर्मा ने कहा कि अगर नई पीढ़ी बेहतर करेगी तो आने वाले समय में समाज जीवन में एक जीवंत वातावरण बनेगा तथा भारत को महाशक्ति बनने से कोई रोक नहीं सकता।

संविमर्श की अध्यक्षता कर रहे विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. बृजकिशोर कुठियाला ने अपने अध्यक्षीय उदबोधन में कहा कि मीडिया के आधारभूत तत्वों में कहीं न कहीं कमी दिखती है। पूरी दुनिया में स्थापित व्यवस्थाओं में परिर्वतन और विकल्पों की तलाश हो रही है। मीडिया का वैकल्पिक माडल खड़ा करने और उसके विकल्प प्रस्तुत करने के लिए हमें तत्पर रहना चाहिए। उन्होंने कहा कि आज यह सोचने का समय है कि एक पत्रकार कैसा होना चाहिए और मीडिया का भावी स्वरूप क्या हो। शुभारंभ सत्र का संचालन प्रो. आशीष जोशी ने किया।

सेमीनार का दूसरा सत्र भारतीय संस्कृति पर केंद्रित था जिसमें सर्वश्री रामेश्वर मिश्र पंकज, रमेश शर्मा, डा. नंदकिशोर त्रिखा अपने विचार व्यक्त किए। सत्र का संचालन डा.श्रीकांत सिंह ने किया। यह दो दिवसीय आयोजन 23 फरवरी को भी चलेगा। जिसमें मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान, पत्रकार पद्मश्री मुजफ्फर हुसैन, बलदेव भाई शर्मा, साधना न्यूज के संपादक एनके सिंह, प्रो.अजहर हाशमी हिस्सा लेगें।

जांच एजेंसियों के काम में राजनीतिक हस्तक्षेप से आतंरिक सुरक्षा पर उठे सवाल

भूपेन्द्र धर्माणी

स्वतंत्र भारत के इतिहास के सबसे बड़े घोटालों में उलझी मनमोहन सरकार अब सरकारी जांच एजेंसियों की कार्यप्रणाली को लेकर उठ रहे प्रश्नों में उलझती प्रतीत हो रही है। देश के बडे प्रदेशों उत्तर प्रदेश एवं पश्चिम बंगाल सहित कुछ राज्यों के विधानसभा चुनावों को देखते हुए कांग्रेस ने मुस्लिम वोट बैंक को लेकर देश के विभिन्न राजनीति दलों के नेताओं में मची होड में आगे निकलने की तेजी दिखाई है। इस अभियान में कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह द्वारा पिछले लगभग एक वर्ष से लगातार भगवा आतंकवाद को लेकर छेडे गए अभियान ने पार्टी के अंदर ही एक नई बहस प्रारंभ कर दी है। इसी पृष्ठभूमि में कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह द्वारा देश में आतंकवाद का एक नया नामकरण किए जाने से कांग्रेस के भीतर ही कांग्रेस महासचिव की भगवा आतंकवाद की रट को लेकर संगठन में विरोधी स्वर भी अब जोर पकडने लगे हैं। इसी बीच संघ के महासचिव (सरकार्यवाह) सुरेश (भैया जी) जोशी ने प्रधानमंत्री को पत्र लिख राजनीतिक हितों के लिए जांच एजेंसियों के दुरुपयोग का आरोप लगाया है। ये सभी तथ्य राजनीतिक हितों के लिए राजनेताओं की कार्यप्रणाली को लेकर अनेक प्रश् खडे करता हैं, जिससे देश की जांच एजेंसियों में राजनीतिक हस्तक्षेप से देश की आंतरिक सुरक्षा को लेकर भी प्रश् उठने लगे हैं।

जांच एजेंसियों की कार्यप्रणाली को लेकर जिस प्रकार संघ के महासचिव जोशी ने प्रश् उठाए हैं, उससे कांग्रेस एक बार पुन: जांच एजेंसियों के राजनीतिक हितों के लिए दुरुपयोग के आरोपों में घिरती दिख रही है। प्रधानमंत्री को लिखे पत्र में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के महासचिव द्वारा जांच एजेंसियों की कार्यप्रणाली का जिस प्रकार विस्तृत उल्लेख कर जांच एजेंसियों की कार्यप्रणाली पर प्रश् खडे करते हुए विस्तृत निष्पक्ष जांच की मांग की है वास्तव में चौंकाने वाली है। संघ नेता ने प्रधानमंत्री को लिखे पत्र में हालांकि कांग्रेस का कहीं भी सीधा उल्लेख करने में संयम दिखाया है और जांच एजेंसियों द्वारा अपनाई गई प्रक्रिया का उल्लेख करते हुए जो चार प्रश् खडे किए हैं उनका उत्तर देश का प्रत्येक नागरिक जानना चाहेगा कि आखिर जनवरी 2009 में आतंकवाद निरोधक दस्ते द्वारा न्यायालय में दाखिल आरोप पत्र के साथ दिए गए सबूतों में संघ नेताओं को मारने की साजिश रचे जाने का खुलासा होने के बावजूद इस षडयंत्र को दबाया क्यों गया और इसकी विस्तृत जांच क्यों नहीं की गई? संघ नेता ने हाल ही में समाचार पत्रों में छपी खबरों का उल्लेख करते हुए सितम्बर 2008 में कर्नल पुरोहित द्वारा दयानंद पांडे के इशारे पर संघ नेता इन्द्रेश कुमार को मारने की साजिश रचने का सैन्य खुफिया रिपोर्टों का जो हवाला दिया वह इस मामले की गम्भीरता को दर्शाता है। संघ ने इन गम्भीर प्रश्नों को उठाते हुए जांच के दायरे में षडयंत्रकारियों के साथ जुडे लोगों तथा उनके सहयोगियों की वास्तविक राजनीतिक भूमिका की जांच की मांग कर देश के सत्तादल की भूमिका पर ही प्रश् खडे किए हैं। इसी प्रकार का खुलासा तहलका द्वारा छापी गई टेपों में किया गया जिनमें दर्शाया गया है कि दयानंद पांडे, कर्नल पुरोहित के तीसरे सहयोगी डा. आर पी सिंह भी संघ नेताओं को मारने की साजिश में सम्मिलित रहे, परन्तु आश्चार्यजनक रूप से आज तक किसी भी जांच एजेंसी ने उनके खिलाफ कार्रवाई तो दूर पूछताछ तक नहीं की। अपने पत्र लिखने का उद्देश्य बताते हुए संघ नेता ने मालेगांव, अजमेर और हैदराबाद बम विस्फोटों के सिलसिले में की जा रही वर्तमान जांच प्रक्रिया को जानबूझकर विकृत्त करने, उसे सही मार्ग से हटाने तथा उसका राजनीतिकरण करने की कोशिशों के साथ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को बदनाम करने के प्रयासों की ओर ध्यान आकृष्ट करना बताया है। संघ नेता का यह आरोप कि इस प्रकरण में मात्र एक सच्चाई पूरे झूठ का पर्दाफाश कर देगी कि महाराष्ट्र आतंकवादी निरोधक दस्ते के पास इस बात के पुख्ता प्रमाण है कि मालेगांव केस के मुख्य षडयंत्रकारी कर्नल पुरोहित और दयानंद पांडे मालेगांव विस्फोट की साजिश को अंजाम देने के साथ-साथ संघ के तत्कालीन सरकार्यवाह (महासचिव) वर्तमान में संघ प्रमुख मोहन भागवत तथा संघ के वरिष्ठ नेता इन्द्रेश कुमार को जान से मारने का षडयंत्र रच रहे थे। उन्होंने पत्र में महाराष्ट्र आतंकवाद निरोधक दस्ते के एक अधिकारी द्वारा संघ के एक प्रमुख नेता को मालेगांव केस के उक्त आरोपियों की इस साजिश से अवगत कराए जाने का उल्लेख किया गया है। उन्होंने पत्र में पूछा है कि आखिर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को उन तत्वों के साथ कैसे जोडा जा रह है जो सदैव इसके विरुध्द रहे और उल्टे इसी के नेताओं को जान से मारने का षडयंत्र रच रहे थे। संघ नेता द्वारा यह प्रश् उठाया गया है कि महाराष्ट्र आतंकवाद निरोधक दस्ते द्वारा संघ नेताआें को जान से मारने के षडयंत्र की जांच को क्यों छोड दिया गया और कहीं ऐसा तो नहीं कि इस पूरे षडयंत्र के उजागर हो जाने से मालेगांव षडयंत्रकारियों के साथ संघ को लपेटने की जो साजिश चल रही है वह असफल हो जाती? संघ नेता ने इस पूरे मामले की चर्चा गत वर्ष महाराष्ट- विधानसभा में होने के बावजूद राज्य तथा केन्द्र सरकारों की रहस्यमयी चुप्पी का उल्लेख कर इस पूरे मामले में सत्तादल की इसमें सहभागिता का संकेत दिया है। संघ नेता ने इस चुप्पी के पीछे छुपे राजनीतिक सम्बंधों तथा एजेंडे का पता चलाने के लिए गहराई से जांच की आवश्यकता पर बल दिया है जिससे दयानंद पांडे और कर्नल पुरोहित की गतिविधियों का खुलासा हो और पूरी सच्चाई देशवासियों के सामने आ सके। इस पृष्ठभूमि में देश के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा बार-बार विभिन्न मामलों में देश की सबसे प्रतिष्ठित जांच एजेंसी सीबीआई की कार्यप्रणाली पर सवाल खडे करना और एजेंसी के सरकार के दबाव में उसी दिशा में जांच करना जिस दिशा में सरकार चाहती है जैसी टिप्पणियां देश की आंतरिक सुरक्षा के प्रति चल रहे खिलवाड के मामले को और भी गम्भीर बनाती हैं। कहीं ऐसा तो नहीं देश में चल रहे आतंकवाद को लेकर भारत सरकार कहीं अमेरिका के दबाव में बहक गई हो और सरकार के इशारे पर जांच एजेंसियां आतंकवाद की घटनाओं में उन्हीं लोगों को लपेटने में लगी हैं, जो इन घटनाओं से सबसे अधिक प्रभावित हो रहे हैं। नहीं तो कोई कारण नहीं कि आतंकवादी जिन संघ नेताओं को मारने की साजिश रच रहे हों और इसके प्रमाण जांच एजेंसियों के पास हों उसी संगठन को बम विस्फोटों के लिए दोषी ठहराया जाए। इसके पीछे कहीं यह नीति तो काम नहीं कर रही कि इस प्रक्रिया द्वारा कांग्रेस को मुसलमानों को लुभाकर उनके चंद वोट मिलेंगे और अमेरिका को चर्च द्वारा इस देश में चलाए जा रहे मतांतरण के अभियान हेतु खुली छूट एवं शक्ति?

हिमाचल प्रदेश में भी संतों पर हुआ प्रहार

डॉ कुलदीप चन्द अग्निहोत्री

देश के अनेक हिस्सों में पिछले कुछ दशकों से मंदिरों-मठों और साधु-संतों पर अनेक प्रकार से प्रहार हो रहे हैं । भारतीय जनता की आस्था के केन्द्र मन्दिर मठों को बदनाम करने की कोशिश हो रही है और जाने-माने साधु-संतों को लांछित किया जा रहा है । कुछ साल पहले कांची कामकोटी पीठ के शंकराचार्य को कांग्रेस शासित आंध्रप्रदेश से आधी रात को हत्या के एक तथाकथित मामले में गिरफ्तार ही नहीं किया गया बल्किं बाद में मीडिया के एक वर्ग की सहायता से उनके चरित्र पर लांछन लगाने का प्रयास भी किया गया । दो साल पहले उड़िशा के कंधमाल जिले में स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती की चर्च के आतंकवादियों ने जन्माष्टमी के दिन उनके आश्रम में ही हत्या कर दी थी । उससे कुछ अरसा पहले त्रिपुरा में चर्च के आतंकवादियों ने शांति कालीजी महाराज के आश्रम में घुस कर उनकी हत्या की थी । पिछले दिनों भारत सरकार की जांच एजेंसियां आतंकवादियों द्वारा किये गये बम विस्फोटों में श्री रविशंकर महाराज जी का नाम भी उछाल रही थी । हिन्दु आस्था के इन प्रतीकों को लांछित करने का एक विश्वव्यापी षडयंत्र है जिसमें चर्च के साथ साथ मध्य एशिया और पाकिस्तान से धन प्राप्त करने वाले इस्लामी आतंकवादी संगठन भी शामिल हो चुके हैं । कांग्रेस पर जब से सोनिया गांधी का कब्जा हुआ है तब से लगता है हिन्दु प्रतीकों पर आक्रमण करने में सोनिया कांग्रेस और चर्च आपस में मिल गये हैं । सौभाग्य से हिमाचल प्रदेश इस त्रिमूर्ति के इन षडयंत्रों से बचा हुआ था ,परन्तु लगता है कि अब इन शक्तियों ने इस शांत प्रदेश को भी अपने निशाने पर ले लिया है ।

कांगड़ा और ऊना के सीमांत पर किन्नु के स्थान पर स्थित सप्त देवी मंदिर आश्रम और वहाँ के स्वामी महंत सूर्यनाथ पर जानलेवा आक्रमण इसकी शुरूआत के संकेत हैं । गोरखपंथ सम्प्रदाय के महंत सूर्यनाथ का हिमाचल प्रदेश में काफी प्रभाव है । वे केवल मठ के भीतर सिमट कर रहने वाले महंत नहीं है बल्कि हिमाचल प्रदेश के सामान्य जन के समाजिक और सांस्कृतिक सरोकारों से भी सक्रिय रूप से जुड़े हुए है । सामाजिक समरसता के क्षेत्र में उनका अच्छा खासा योगदान है । पिछड़ी और अनुसूचित जातियों के उत्थान के लिए वे कर्मशील रहते हैं । जाहिर है इस आश्रम के इस प्रकार के क्रियाकलापों से उन लोगों को चिन्ता होती जो पंथनिरपेक्षता की आड़ में इस देश की पहचान को समाप्त करने का प्रयास कर रहे हैं । मुस्लिम सम्प्रदाय के कुछ भटके हुए लोग सप्त देवी आश्रम को पहले भी अपना निशाना बना चुके हैं । हिमाचल प्रदेश में इस्लाम को मानने वाला सम्प्रदाय प्रदेश के समाज से एक प्रकार से समरस हो चुका है । ये लोग वस्तुतः यहां के स्थानीय लोग ही हैं जिन्होंने कभी मुगलकाल में अनेक कारणों से अपनी पूजा पद्वति बदल ली थी परन्तु इन्होंने अपना सामाजिक परिवेश नहीं बदला था । यही कारण है कि हिमाचल प्रदेश में मुसलमानों को लेकर कभी तनाव की स्थिति पैदा नहीं हुई और हिन्दु-मुसलमान का सम्बन्ध घी-शक्कर की तरह ही रहा । परन्तु इधर जब से देश में इस्लामी आतंकवाद और जिहाद का प्रभाव बढ़ा है तब से उसका अपशकुन हिमाचल में भी देखने में आ रहा है । पश्चिमी उत्तर प्रदेश से आने वाले मुल्ला मौलवियों का दखल हिमाचल प्रदेश में भी बढ़ा है और ये मुल्ला मौलवी प्रदेश के मुसलमानों और अन्य लोगों में सैकड़ों वर्षों से चली आ रही समरसता में दरारे डाल कर मुसलमानों में अलग पहचान और अलगाव के बीज बो रहे हैं । अनेक स्थानों पर मुस्लिम सम्प्रदाय की युवा पीढ़ी इन मौलवियों की उन्मादकारी जहर का शिकार भी हो रही है ।

पिछले दिनों सप्त देवी आश्रम के महंत सूर्यनाथ जी पर किया गया आक्रमण इस प्रवृति का ताजा उदाहरण है । कुछ लोग आश्रम की संपत्ति पर अवैध कब्जा करने का प्रयास कर रहे थे । उन लोगों ने महंत सूर्यनाथ पर जानलेवा आक्रमण ही नहीं किया बल्कि उनका चरित्र हनन करने का प्रयास भी किया । सबसे आश्चर्यजनक बात यह है कि आक्रमणकारियों के हौसले इतने बढ़े हुए थे कि उन्होंने सम्पत्ति स्थल पर महंत जी से मारपीट करने के बाद उन पर न्यायलय परिसर में भी आक्रमण किया । शुरू में ऐसा समझा गया कि शायद यह केवल आश्रम की संपत्ति को हथियाने का भौतिकवादी मामला ही था । परन्तु प्रदेश के लोग तब सकते में रह गये जब कुछ दिनों बाद कांग्रेस और मुसलमानों ने मिलकर महंत सूर्यनाथ जी के खिलाफ बार-बार प्रदर्शन कर उनके चरित्र हनन का प्रयास किया । कुछ स्थानों पर तो कांग्रेस के एक विधायक ही इसका नेत्तृव करते हुए सामने आ गये । वोटों के लालच में देश भर में सोनिया कांग्रेस मुस्लिम संगठनों के साथ तालमेल बिठाने और उनके साथ समझौता करने के प्रयासों में लगी हुई है । केरल में तो सत्ता प्राप्ति के लिए कांग्रेस लंबे अरसे से मुस्लिम लीग के साथ सम्बन्ध बनाये हुए है । केन्द्र में भी कांग्रेस की सरकार को मुस्लिम लीग का समर्थन प्राप्त है । इन सम्बन्धों को और पुख्ता करने के लिए मंदिर-मठों और साधु-संतों को आक्रमण का निशाना बनाया जायेगा ऐसा किसी ने सोचा नहीं था । खास कर हिमाचल प्रदेश जैसा शांत क्षेत्र और देवभूमि कांग्रेस और मुस्लिम संस्थाओं के इस नये प्रयोग का अखाड़ा बनेगी – इसकी कल्पना करना मुश्किल था । परन्तु राजनीति जो न करवाये सो थोड़ा । हो सकता है इस षडयंत्र में प्रशासन के कुछ लोग भी भागीदार हों , अन्यथा महंत सूर्यनाथ जी पर प्रशासकीय भवन में ही आक्रमण संभव नहीं था ।

हिमाचल प्रदेश सरकार को चाहिए कि इस बात की पुख्ता जांच की जाये की प्रदेश में मठ-मंदिरों की संपत्ति को हथियाने और साधु-संतों को लांछित करने का अभियान चलाने के पीछे कौन सी शक्तियां हैं । प्रदेश में मुल्ला- मौलवियों को जहर फैलाने के लिए और मुसलमानों में अलगाव की भावना पैदा करने के लिए वित्तीय सहायता कौन दे रहा है अभी पिछले दिनों हिमाचल से आईएसआई के कुछ एजेंट भी पकड़े गये थे । क्या आइएसआई इन एजेंटों के माध्यम से प्रदेश के मुसलमानों में अपने स्वार्थों के लिए पैठ तो नहीं बना रही । महंत सूर्यनाथ पर जानलेवा आक्रमण को साधारण घटना न मानकर इसके पीछे के षडयंत्र की जांच सरकार को करवानी चाहिए, अन्यथा प्रदेश का वातावरण विषाक्त होगा ।