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राष्ट्रवादी पत्रकारिता के ध्वजवाहकः पं. मदनमोहन मालवीय

जन्मशताब्दी वर्ष पर विशेष

संजय द्विवेदी

यह हिंदी पत्रकारिता का सौभाग्य ही है कि देश के युगपुरूषों ने अपना महत्वपूर्ण समय और योगदान इसे दिया है। आजादी के आंदोलन के लगभग सभी महत्वपूर्ण नेताओं ने पत्रकारिता के माध्यम से अपना संदेश लोगों तक पहुंचाया और अंग्रेजी दासता के विरूद्ध एक कारगर हथियार के रूप में पत्रकारिता का इस्तेमाल किया। इसीलिए इस दौर की पत्रकारिता सत्ता और व्यवस्था की चारण न बनकर उसपर हल्ला बोलने वाली और सामाजिक जागृति का वाहक बनी। लोकमान्य बालगंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय से लेकर महात्मा गांधी, पं. जवाहरलाल नेहरू, गणेशशंकर विद्यार्थी, अजीमुल्ला खान, पं. माखनलाल चतुर्वेदी, माधवराव सप्रे सबने पत्रकारिता के माध्यम से अपनी आवाज को लोगों तक पहुंचाने का काम किया। ऐसे ही नायकों में एक बड़ा नाम है पं. मदनमोहन मालवीय का, जिन्होंने अपनी पत्रकारिता के माध्यम से जो मूल्य स्थापित किए वे आज भी हमें राह दिखाते हैं। उस दौर की पत्रकारिता का मूल स्वर राष्ट्रवाद ही था। जिसमें भारतीय समाज को जगाने और झकझोरने की शक्ति निहित थी। इस दौर के संपादकों ने अपनी लेखनी से जो इतिहास रचा वह एक ऐसी प्रेरणा के रूप में सामने है कि आज की पत्रकारिता बहुत बौनी नजर आती है। उस दौर के संपादक सिर्फ कलम धिसने वाले कलमकार नहीं, अपने समय के नायक और प्रवक्ता भी थे। समाज जीवन में उनकी उपस्थिति एक सार्थक हस्तक्षेप करती थी। मालवीय जी इसी दौर के नायक हैं। वे शिक्षाविद् हैं,सामाजिक कार्यकर्ता हैं, स्वतंत्रता सेनानी हैं, श्रेष्ठ वक्ता हैं, लेखक हैं, कुशल पत्रकार और संपादक भी हैं। ऐसे बहुविध प्रतिभा सम्पन्न व्यक्ति को राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने यूं ही महामना की संज्ञा नहीं दी। मालवीय जी की पत्रकारिता उनके जीवन का एक ऐसा उजला पक्ष है जिसकी चर्चा प्रायः नहीं हो पाती क्योंकि उनके जीवन के अन्य स्वरूप इतने विराट हैं कि इस ओर आलोचकों का ध्यान ही नहीं जाता। किंतु उनकी यह संपादकीय प्रतिभा भी साधारण नहीं थी।

देश के अत्यंत महत्वपूर्ण अखबार हिंदोस्थान का संपादक होने के नाते उन्होंने जो काम किए वे आज भी प्रेरणा का कारण हैं। हिंदोस्थान एक ऐसा पत्र था जिसकी शुरूआत लंदन से राजा रामपाल सिंह ने की थी। वे बेहद स्वतंत्रचेता और अपनी ही तरह के इंसान थे। लंदन में रहते हुए उन्होंने भारतीयों की समस्याओं की ओर अंग्रेजी सरकार का ध्यानाकर्षण करने लिए इस पत्र की शुरूआत की। साथ ही यह पत्र प्रवासी भारतीयों में राष्ट्रीय चेतना भरने का काम भी कर रहा था। कुछ समय बाद राजा रामपाल सिंह स्वयं कालाकांकर आकर रहने लगे और हिंदोस्थान का प्रकाशन भी कालाकांकर से होने लगा। कालाकांकर, उप्र के प्रतापगढ़ जिले में स्थित एक रियासत है। यहां हनुमत प्रेस की स्थापना करके राजा साहब ने इस पत्र का प्रकाशन जारी रखा। कालाकांकर एक गांव सरीखा ही था और यहां सुविधाएं बहुत कम थीं। ऐसे स्थान से अखबार का प्रकाशन एक मुश्किल काम था। बावजूद इसके अनेक महत्वपूर्ण संपादक इस अखबार से जुड़े। जिनमें मालवीय जी का नाम बहुत खास है। राजा साहब की संपादकों को तलाश करने की शैली अद्भुत थी। पं. मदनमोहन मालवीय का सन 1886 की कोलकाता कांग्रेस में एक बहुत ही ओजस्वी व्याख्यान हुआ। इसमें उन्होंने अपने अंग्रेजी भाषा में दिए व्याख्यान में कहा- “ एक राष्ट्र की आत्मा का हनन और उसके जीवन को नष्ट करने से अधिक और कोई अपराध नहीं हो सकता। हमारा देश इसके लिए ब्रिटिश सरकार को कभी क्षमा नहीं कर सकता कि उसने एक वीर जाति को भेड़-बकरियों की तरह डरपोक बना दिया है।” इस व्याख्यान से राजा रामपाल सिंह बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने मालवीय जी से आग्रह किया कि वे उनके अखबार का संपादन स्वीकार करें। मालवीय जी ने उनकी बात तो मान ली किंतु उनसे दो शर्तें भी रखीं। पहला यह कि राजा साहब कभी भी नशे की हालत में उनको नहीं बुलाएंगें और दूसरा संपादन कार्य में हस्तक्षेप नहीं करेंगें। यह दरअसल एक स्वाभिमानी संपादक ही कर सकता है। पत्रकारिता की आजादी पर आज जिस तरह के हस्तक्षेप हो रहे है और संपादक की सत्ता और महत्ता दोनों खतरे में हैं, मालवीय जी की ये शर्तें हमें संपादक का असली कद बताती हैं। राजा साहब ने दोनों शर्तें स्वीकार कर लीं। मालवीय जी के कुशल संपादन में हिंदोस्थान राष्ट्र की वाणी बन गया। उसे उनकी प्रखर लेखनी ने एक राष्ट्रवादी पत्र के रूप में देश में स्थापित कर दिया।

हिंदी पत्रकारिता का यह समय एक उज्जवल अतीत है। मालवीय जी ने ही पहली बार इस पत्र के माध्यम से लेखकों के पारिश्रमिक के सवाल को उठाया। उनके नेतृत्व में ही पहली बार विकास और गांवों की खबरों को देने का सिलसिला प्रारंभ हुआ। गांवों की खबरों और विकास के सवालों पर मालवीय जी स्वयं सप्ताह में एक लेख जरूर लिखते थे। जिसमें ग्राम्य जीवन की समस्याओं का उल्लेख होता था। गांवों के माध्यम से ही राष्ट्र को खड़ा किया जा सकता है इस सिद्धांत में उनकी आस्था थी। वे पत्रकारिता के सब प्रकार के कामों में दक्ष थे। मालवीय जी की संपादकीय नीति का मूल लक्ष्य उस दौर के तमाम राष्ट्रवादी नेताओं की तरह भारत मां को अंग्रेजों की दासता से मुक्त कराना ही था। उनकी नजर में स्वराज्य और राष्ट्रभाषा के सवाल सबसे ऊपर थे। भाषा के सवाल पर वे हमेशा हिंदी के साथ खड़े दिखते हैं और स्वभाषा के माध्यम से ही देश की उन्नति देखते थे। भाषा के सवाल पर वे दुरूह भाषा के पक्ष में न थे। अंग्रेजी और संस्कृत पर अधिकार होने के बावजूद वे हिंदी को संस्कृतनिष्ट बनाए जाने को गलत मानते थे।मालवीय जी स्वयं लिखते हैं- “ भाषा की उन्नति करने में हमारा सर्वप्रथम कर्तव्य यह है कि हम स्वच्छ भाषा लिखें।पुस्तकें भी ऐसी ही भाषा में लिखी जाएं। ऐसा यत्न हो कि जिससे जो कुछ लिखा जाए, वह हिंदी भाषा में लिखा जाए। जब भाषा में शब्द न मिलें तब संस्कृत से लीजिए या बनाइए। ” अपनी सहज भाषा और उसके प्रयोगों के कारण हिंदोस्थान जनप्रिय पत्र बन गया जिसका श्रेय उसके संपादक मालवीय जी को जाता है।

अपनी संपादकीय नीति के मामले में उन्हें समझौते स्वीकार नहीं थे। वे इस हद तक आग्रही थे कि अपनी नौकरी भी उन्होंने राजा रामपाल सिंह द्वारा उन्हें नशे की हालत में बुलाने के कारण छोड़ दी । संपादक के स्वाभिमान का यह उदाहरण आज के दौर में दुर्लभ है। वे सही मायने में एक ऐसे नायक हैं, जो अपनी इन्हीं स्वाभिमानी प्रवृत्तियों के चलते प्रेरित करता है। एक बार किसी संपादकीय सहयोगी ने संपादकीय नीति के विरूद्ध अखबार में कुछ लिख दिया। मालवीय जी उस समय मिर्जापुर में थे। जब वह टिप्पणी मालवीय जी ने पढ़ी तो संबंधित सहयोगी को लिखा- “ हमें खेद है कि हमारी अनुपस्थिति में ऐसी टिप्पणी छापी गयी। कोई चिंता नहीं, हम अपनी टिप्पणी कर दोष मिटा देंगें।” अपने तीन सालों के संपादन काल में उन्होंने जिस तरह की मिसाल कायम की वह एक इतिहास है। जिस पर हिंदी पत्रकारिता गर्व कर सकती है। आज जबकि हिंदी पत्रकारिता पर संपादक नाम की संस्था के प्रभावहीन हो जाने का खतरा मंडरा रहा है, स्वभाषा के स्थान पर हिंग्लिश को स्थापित करने की कोशिशों पर जोर है, संपादक स्वयं का स्वाभिमान भूलकर बाजार और कारपोरेट के पुरजे की तरह संचालित हो रहे हैं- ऐसे कठिन समय में मालवीय जी की स्मृति बहुत स्वाभाविक और मार्मिक हो उठती है।

उत्तराखंड के विकास के लिए शासन का स्थिर होना जरूरी

गौतम चौधरी

कागजों पर उत्तराखंड के विकास पर लगातार टिप्पणी जारी है। आंकडे बता रहे हैं कि विगत एक साल में उत्तराखंड ने प्रगति के नये प्रतिमान स्थापित किये हैं। हालांकि जिस विकास को वर्तमान मुख्यमंत्री गति दे रहे हैं उसका आधार निर्वतमान मुख्यमंत्री जनरल खंडूडी ने ही बनाया लेकिन सीमित समय में विकास को पटरी पर लाना कोई साधारण बात नहीं है।

केन्द्रीय संख्यिकी संगठन की मानें तो उत्तराखंड का राष्ट्रीय विकास दर के मामले में छतीसगढ और गुजरात के बाद तीसरा स्थान है। यह स्थान राज्य ने वर्ष 2009-10 में प्राप्त किया है। उत्तराखंड के विकास की गति 9.41 प्रतिशत बतायी जा रही है। राज्य बनने के समय प्रदेश के विकास की गति मात्र 2.9 प्रतिशत थी लेकिन आज प्रदेश राष्ट्रीय फलक पर अपना स्थान बनाने लगा है। यही नहीं राज्य में प्रतिव्यक्ति आय का आंकडा भी ऊंचा हुआ है। सामान्य रूप से विकास का मापदंड आम व्यक्ति के जीवन स्तर में सुधारने है। ऐसे पहाड पर शिक्षा का स्तर पहले से अच्छा रहा है लेकिन पहाड़ की सबसे बडी समस्या पलायन की है। गोया पलायन में जितनी कमी आनी चाहिए उतनी तो नहीं लेकिन आंकडों पर भडोसा करें तो विगत एक वर्ष में इस दिशा में सकारात्मक परिवर्तन देखा जा रहा है। कृषि, पर्यटन, आधारभूत ढांचा निर्माण, औद्योगिक विकास, ऊर्जा आदि आधारभूत विकास के क्षेत्रों में प्रगति के लिए जो विगत एक वर्ष में प्रयास किये गये उसका प्रतिफल अब सामने है। इन तमाम प्रकार के विकासों के लिए आखिर जिम्मेवार कौन है? हालांकि जल्दबाजी में किसी एक व्यक्ति को या किसी एक समूह को इस मामलों के लिए जिम्मेवार ठहरा देना अतिश्‍योक्ति जैसा लगेगा लेकिन आज उत्तराखंड के शासन एवं शासन के लिए जिस कार्य संस्कृति का विकास किया जा रहा है उसमें नि:संदेह प्रदेश के मुख्यमंत्री डॉ0 रमेष पोखरियाल निशंक की भूमिका सराहनीय है। ऐसा कहना न तो फंतासी है और न ही पूर्वाग्रह जैसा। इस प्रकार की टिप्पणी ठोक-बजाकर की जा रही है। विगत पांच दिनों से उत्तराखंड की राजधानी देहरादून में हूं। पहले भी देहरादून में रह चुका हूं। आज शासन में कसाबट एवं कार्य संस्कृति में गति अनुभव कर रहा हूं। वर्तमान मुख्यमंत्री की सबसे बडी चुनौती जनता का दिल जीतना है। इस काम में वे कितने खडे उतरे हैं इसका जवाब तो आसन्न विधानसभा चुनाव के बाद ही दिया जा सकेगा लेकिन तमाम पड़ताल के बाद कार्य संस्कृति के कसाबट के पीछे जो कारण जिम्मेबाद दिखता है वह मुख्यमंत्री की सकारात्मक सोच है।

हालांकि डॉ0 निशंक को काम करने का मौका बहुत कम मिला है। डॉ0 निशंक विगत एक वर्ष से प्रदेश के मुख्यमंत्री है लेकिन उन्होंने कई ऐसे काम किये जिसे मील का पत्थड कहना गलत नहीं होगा। सबसे बडा काम तो उन्होंने अपनी पार्टी, संबंधित अनुषांगिक संगन एवं सरकार के बीच में तालमेल बिठाकर किया है। प्रदेष के नौकरशाहों के बीच एक नई कार्य संस्कृति का श्रीगणेश हुआ है जो न केवल प्रदेश को प्रगति दे रहा है अपितु इससे विचारधारा को भी बल मिलने लगा है। वर्तमान मुख्यमंत्री ने अपने व्यवहार और सकारात्मक कार्य सोच से क्षेत्रवादी मनोवृति पर भी लगाम लगाया है। अब मैदानी मूल के लोगों को सरकार के प्रति विश्‍वास पैदा हो रहा है। लोग मानने लगे हैं कि प्रदेश सरकार में पूर्वाग्रह नहीं है। विकास की गति का बढना, बेरोजगारी में कमी, संसाधनों के नित नवीन आयामों की खोज और शासन की कार्यपद्धति में सकारात्मक परिवर्तन यह साबित करता है कि प्रदेश की गति विकासोन्मुख है। हालांकि प्रदेश में जो कल-कारखाने आज दिख रहे हैं उसके लिए नारायण दत्त तिवारी का शासन जिम्मेबार है लेकिन उनके समय अनियमितताओं के कई मामले भी सामने आये।

कुल मिलाकर देखें तो राज्य में जो विकास की गति पैदा की गयी है वह सराहनीय है, लेकिन राज्य एवं प्रदेश के मुखिया के लिए कुछ चुनौतियां भी है जिसका समाधान किये बिना सत्ता को स्थायित्व नहीं दिया जा सकता है। और जबतक सत्ता में स्थायित्व नहीं होगा तब तक विकास की स्थाई गति संभव नहीं है। बिहार, गुजरात, मध्य प्रदेश, छतीसगढ, उडीसा आदि प्रांतों में विकास की गति तेज इसलिए भी है कि वहां की सरकार में स्थिरता है। विकास के लिए नीति का स्थिर होना जरूरी है और नीति तभी स्थिर होगा जब शासन का सूत्रधार स्थिर हो। दावे के साथ तो नहीं लेकिन कुल प्रयासों की मीमांसा यह संकेत दे रहा है कि वर्तमान परिप्रेक्ष्य में उत्तराखंड का वर्तमान मुख्यमंत्री सकारात्मक पहल कर रहे हैं। राज्य के हित में इसकी सराहना होनी चाहिए अन्यथा प्रदेश के विकास की गति खंडित होगी।

बुढ़ापे में दामन पर कलंक का टीका

चार बार यूपी के सीएम रहे, पांच साल तक उत्तराखंड के मुख्यमंत्री। गवर्नर, सेंट्रल मिनिस्टर और भी पता नहीं क्या-क्या…पचास साल से सियासत कर रहे हैं, लेकिन एक क्लिप में वो तीन महिलाओं के साथ कथित तौर पर दिखाए गए और एक युवक ने दावा किया—वही हैं मेरे असली पिता!

चण्डीदत्त शुक्ल

ये भारतीय राजनीति के मसीहा हैं। यूपी के चार बार मुख्यमंत्री रहने के साथ उत्तराखंड में पांच साल तक सीएम बनने-बने रहने का गौरव इन्हें हासिल हैं। राज्यपाल रह चुके। केंद्र की कुर्सियों पर भी काबिज़ रहे हैं। पचास साल से अच्छे सियासतदां हैं, विद्वान हैं। साफगोई और नम्रता का बैलेंस उनके व्यक्तित्व की खासियत है। ये हैं नारायण दत्त तिवारी यानी एनडी। बुजुर्ग राजनेता। उम्र के आखिरी पड़ाव में बदनामी के दाग झेल रहे हैं। वो कहते हैं—किसी स्त्री से मेरे अवैध रिश्ते नहीं रहे पर एक शख्स है, जो उन्हें अपना पिता बताता है, वहीं ब्लू सीडी में भी वो नज़र आ चुके हैं।

नारायण दत्त तिवारी ने कभी सोचा भी नहीं होगा कि उम्र के ऐसे दौर में इस कदर रुसवा होना पड़ेगा पर ऐसा हुआ और इस कदर हुआ कि लोग हैरत में पड़ गए। नैनीताल के एक गांव में साधारण किसान परिवार में जन्मे एनडी तिवारी ने होटल में जूठे बर्तन तक धोए हैं। आज़ादी की लड़ाई के दौरान जेल में इस तरह पिटाई हुई कि श्रवण शक्ति तक कमज़ोर हो गई। गुरबत से शोहरत और दौलत का कामयाब सफ़र तिवारी ने तय किया है। वर्षों पहले पत्नी की मृत्यु हो गई और उनके कोई बच्चा नहीं है। एकाकी जीवन गुजार रहे एनडी तिवारी पर आरोपों की बौछार हो रही है। किसी बेइमानी, घपले-घोटाले को लेकर नहीं, अवैध संबंधों को लेकर।

तिवारी को बदनामी से बचाने के लिए आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट की डिविजन बेंच को तो बाकायदा एक टीवी चैनल को आदेश देना पड़ा कि वो राज्य के गवर्नर नारायण दत्त तिवारी से ताल्लुक रखती एक ब्ल्यू क्लिप टेलिकास्ट ना करे। कथित तौर पर तब, 85 साल के तिवारी के साथ तीन नग्न महिलाएं इस क्लिप में नज़र आ रही थीं। उत्तराखंड की एक महिला ने तो यहां तक आरोप लगाया था कि तिवारी के कहने पर राजभवन के एक अफ़सर की मदद से तीन महिलाएं वहां भेजी गई थीं और ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। आरोप यह भी है कि महिलाओं से नौकरी देने का वादा किया गया था, लेकिन उनका उपयोग यौन संबंध बनाने के लिए किया गया।

ज्यादा पुरानी बात नहीं, जब एक नौजवान रोहित शेखर ने तिवारी को अपना पिता बताया था। उसने दिल्ली हाईकोर्ट में बाकायदा याचिका दायर कर इस बारे में सुनवाई की मांग की थी। रोहित का दावा था कि उनकी मां से तिवारी की क्लोज़ रिलेशनशिप की वज़ह से वह जन्मे हैं। यह मामला अब भी अदालत में है। नतीज़ा क्या आएगा, वक्त बताएगा, लेकिन यह एक और किस्सा है, जो बताता है—सियासत और सेक्स का गंठजोड़ कुछ ज्यादा ही गहरा और मज़बूत है।

क्रमश:

युवा हैं भारत की धमनियां

मुरारी गुप्ता

भारत सरकार ने स्वामी विवेकानंद की एक सौ पचासवीं जयंती को राष्ट्रीय स्तर पर मनाने का फैसला किया है। विवेकानंद की जयंती का अर्थ महज आयोजन या उत्सव की औपचारिकता नहीं है। इसका अर्थ है युवाओं का उत्सव। युवाओं के सुप्त विचारों में अग्नि के तेज सी उत्तेजना पैदा करने का उत्सव। मानसिक दरिद्रता से छुटकारा पाने का उत्सव। राष्ट्र को विश्वगुरू यानी ताकतवर बनाने का संकल्प लेने का उत्सव। क्या हम भारतीय युवा स्वामीजी के उन बहुतेरे स्वप्नों में से कुछ स्वप्नों में अपनी चरित्र भूमिका निभा सकते हैं। क्या हम भारतीय युवा अपने जीवन की वास्तविक भूमिका निभाने के लिए तैयार हैं। हर सवाल अपना जबाव मांगता है।

इसमें कोई शक नहीं है कि युवाओं में अतुल बल है। उनके सोचने और विचारने की क्षमता असीमित है। और पिछले कई सालों से तो हिंदुस्तानी युवा ने पूरी दुनिया में अपनी क्षमता का लोहा मनवाया ही है। स्वामीजी युवाओं के मस्तिष्क को चारों दिशाओं में खुला रखने के पक्षधर थे, मगर किसी ऐसे विचार का संक्रमण जो हमारी मनःशक्ति को हीन कर दे, निश्चित रूप से उन्हें पसंद न था। इसकी वजह ये कि वे भारतीय मनीषा को दुर्बलता से कोसों दूर ले जाना चाहते थे। इन तथ्यों का उन्हें उस वक्त भी आभास था, जब पश्चिम की अपसंस्कृति का प्रचार-प्रसार करने के लिए आज की तरह प्रचार माध्यम नहीं थे। षढयंत्रकारियों के पास ज्यादा हथियार नहीं थे।

स्वामीजी पश्चिम के विरोधी थे, ऐसा तो बिलकुल नहीं है। वे उनकी उद्योगशीलता के कायल थे। मगर क्या आज के हालात में वे भारतीय युवाओं को पश्चिम की अपसंस्कृति के अंधानुकरण को उचित मानते। ये बड़ा सवाल है। हम स्वामीजी के युवा क्या पश्चिम से आयातित अपसंस्कृति के खिलाफ उठकर लड़ने का माद्दा नहीं रखते। पश्चिम के कथित प्रेम दिवस के पीछे का षड्यंत्र कहीं न कहीं भारत की पुरातन सामाजिक ढांचे को तोड़ने की एक गहरी साजिश जैसा प्रतीत होता है। डा. भीमराम अंबेडकर ने ईसाई मिशनरियों के मतांतरण के संदर्भ में कहा था कि मतांतरण का अर्थ सिर्फ एक धर्म से दूसरा धर्म अपनाना ही नहीं है, बल्कि यह राष्ट्रांतरण है। बिलकुल वैसे ही आयातित और विध्वंशकारी कथित आधुनिकता भारत के सामाजिक ताने-बाने में अपना जाल बुन सकती है। शुरुआत में भले ही ये हानीकारक प्रतीत नहीं हो, मगर समाज की रीढ़ के अवचेतन मन में धीरे-धीरे जमा इसके तत्व तो अपना प्रभाव छोड़ेंगे ही। आज नहीं तो कल।

फिलहाल भले ही समाज के कथित बुद्धिजीवी ये कहकर इन बातों पर ज्यादा चर्चा नहीं करे कि हम किसी को रोक तो नहीं सकते, या फिर हर किसी को आजादी है या फिर इस तरह की दकियानूसी बातों का कोई मतलब नहीं। मगर जब वक्त बहुत बीत चुका होगा, आने वाली पीढ़ियां हमसे अपनी विरासत का हिसाब मांगेगी, तो उन्हें क्या कहकर संतुष्ट करिएगा।

व्यवसाय की होड़ ने मीडिया की नैतिकता का गला घोंट दिया है। उसकी आत्मा को लालच की जीभ ने लपेट रखा है। हालांकि उसकी स्याही अभी सूखी नहीं है। रंग जरूर फीका पड़ गया है। पत्रकारिता में काम कर रहा युवा खून चाहे तो हालात बदल सकता है। वे चाहे तो समृद्ध सनातन समाज के उन्नत नैतिक मूल्यों में अपनी स्याही की आहूति दे सकते हैं। जरूरत, नौका की दिशा बदलने की है, किनारे खुद-ब-खुद नजदीक आ जाएंगे।

कई बहुराष्ट्रीय कंपनियां और कुछ अंतरराष्ट्रीय वित्त पोषित कथित सेवा संगठन अलग-अलग और शांत तरीकों से राष्ट्र के सामाजिक ढांचे को छिन्न-भिन्न करने में जुटे हैं। उन संगठनों पर अंगुली उठाना कोई आसान बात नहीं है। भ्रष्टाचार प्रशासनिक गलियों और कूंचों में गंदगी की तरह फैला-पसरा पड़ा है। राजनीति में नीति को संभालने के लिए कोई तैयार नहीं है। भारतीय समाज की धमनियों में धड़कते नैतिकता के रक्त की राहें पाश्चात्य की गंदगी ने रोक ली है। इन तमाम नकारात्मक तथ्यों के बावजूद भारतीय युवा का अग्नितेज अभी शांत नहीं हुआ है। उसके तेज में परशुराम के फरसे जैसी धार और योगेश्वर कृष्ण के सुदर्शन चक्र जैसी तीव्रता अभी जिंदा है। भले ही वक्त की रेत ने उसे ढांप दिया हो।

देश के बहुत से युवा और युवा संगठन इस दिशा में बहुत सकारात्मक ढंग से काम भी कर रहे हैं। गौरवमय अतीत की नींव पर वे वर्तमान और भविष्य के उन्नत भवन खड़ा करने में जुटे हैं। इसलिए निराश होने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता। भारत जैसे सनातन राष्ट्र का जीवन कोई पचास-सौ वर्षों का होता नहीं है। यह सनातन राष्ट्र है। इसलिए किसी के लिए ये कल्पना करना कि कुछ षढयंत्रों या सांस्कृतिक प्रदूषण से इस राष्ट्र की आत्मा दूषित हो जाएगी, एकदम बेमानी है। हर युग की तरह इस युग में भी राष्ट्र के इस भार को युवाओं के कंधों की जरूरत है। स्वामीजी भी तो मजबूत स्नायु और लोहे जैसी मांसपेशियों वाले भारतीय युवा की कल्पना करते थे।

भारत को परम वैभव पर पहुंचाने के लिए विवेकानंद ने युवाओं के माध्यम से सपने देखे थे। क्या उनके सपनों को वर्तमान युवा के आंखों में बसाने और उन्हें साकार करने का वक्त नहीं आ गया है। कई शहरों, कस्बों, गांवों और स्कूल तथा महाविद्यालयों में विभिन्न युवा संघ किशोर और युवा पीढ़ी को सही दिशा देने के लिए विभिन्न रचनात्मक कार्य कर रहे हैं। क्या हम उन्हें अपना नैतिक, लैखिक, पारिश्रमिक और वैचारिक सहयोग नहीं दे सकते। विचार हमें करना है। क्योंकि आने वाली पीढ़ियों को जबाव भी हमें ही देना होगा।

(लेखक आकाशवाणी, ईटानगर में समाचार संपादक हैं)

अब बंद भी करो सब ठीक-ठाक है जैसी लीपापोती की परंपरा


निर्मल रानी

आज हमारे देश में चारों ओर भ्रष्टाचार का मुद्दा चर्चा का मुख्‍य विषय बना हुआ है। ऐसा लगता है कि आगामी लोकसभा चुनाव में ‘भ्रष्टाचार ही चुनाव का केंद्र बिंदु होगा। परंतु यदि हम भ्रष्टाचार के इन कारणों की तह में जाने की कोशिश करें तो हम यह पाएंगे कि हमारे देश में लीपापोती करने की जो आदत सी बन चुकी है, वह भी दरअसल भ्रष्टाचार की अहम जड़ों में से एक है। आज नेता हो या अधिकारी अथवा समाज के किसी और तबके का कोई भी व्यक्ति लगभग सभी की मनोवृति ऐसी बन चुकी देखी जा सकती है कि वह सब कुछ ठीक-ठाक न होते हुए भी यह दर्शाना चाहता है कि सब कुछ ठीक-ठाक ही है। और इसी तथाकथित ठीक-ठाक है के थोथे प्रदर्शन के पीछे छुपा होता है छोटे से लेकर बड़े से बड़ा भ्रष्टाचार, घोटाला, लापरवाही, अकर्मण्यता, हरामखोरी, रिश्वतखोरी तथा ढेर सारी गैरजि़म्‍मेदारियां आदि।

आईए,चंद उदाहरणों के साथ इन बातों को समझने की कोशिश की जाए। आज के यह तथाकथित वी वी आई पी और वी आई पी गण कहीं न कहीं आते-जाते रहते हैं। इनका भी कोई न कोई मार्ग होता है और कभी कभी शहरों के व्यस्त बाज़ारों या रास्तों से भी इन्हें गुज़रना पड़ता है। जलसे-जुलूस व सभाओं आदि के लिए इन्हें कहीं न कहीं आना जाना पड़ता है। अब ज़रा ग़ौर कीजिए कि स्वयं को समाजसेवी कहने वाले परंतु हमारी नज़रों में अति विशिष्टगण का रुतबा रखने वाले यह मंत्रीगण, मुख्‍यमंत्री अथवा किसी अन्य श्रेणी का वी आई पी जब तथाकथित तौर पर हमारी ही समस्याओं को सुनने, समझने या उसपर चर्चा करने के लिए या किसी योजना अथवा भवन आदि का उद्घाटन करने के सिलसिले में हमसे मिलने हमारे ही क्षेत्र में आता है तो उस समय उस शहर तथा $खासतौर पर उस क्षेत्र विशेष के रखरखाव के लिए क्या कुछ नहीं किया जाता, यह हम सभी भलीभांति जानते हैं। यदि उस कथित वी आई पी के गुज़रने वाले रास्ते में गड्ढे हैं तो भले ही वह विगत कई महीनों व कई वर्षों से क्यों न हों तथा जनता उन गड्ढों में कितनी बार गिर कर अपना नुकसान क्यों न कर चुकी हो परंतु जब विशिष्ट व्यक्ति अर्थात हमारे सेवक को उस रास्ते से गुज़रना है तो उन गड्ढों को तत्काल भर दिया जाता है। जिन रास्तों में कई महीनों से नालियां साफ नहीं हुई हैं या सफाई नहीं हुई है, जिन सड़कों पर कूड़े करकट के ढेर लगे पड़े हैं वह सभी स्थान वी आई पी के आने से पूर्व साफ सुथरे, चमकदार तथा आर्कषक हो जाते हैं। इतना ही नहीं इन रास्तों के किनारे चूने का छिड़काव भी कर दिया जाता है तथा रंगीन झंडियां आदि लगाकर उनका स्वागत किया जाता है।

यदि वी आई पी ऊंची हैसियत वाला है फिर तो जिस दिन वह किसी शहर में पधारता है, उस दिन तो गोया उस शहर के भाग्य ही खुल जाते हैं। शहर वालों को कम से कम इतनी देर तक बिजली व पानी की अबाध आपूर्ति की पूरी गारंटी रहती है, जितनी देर कि उक्त विशिष्ट व्यक्ति शहर की शोभा बढ़ा रहा है। जिस भवन में वी आई पी जाता है उसे भी तत्काल तौर पर ऐसा कर दिया जाता है कि वह भवन देखने में ठीक-ठाक लगे और माननीय महोदय यहां से खुश होकर जाएं। उन्हें यह एहसास इसलिए नहीं कराया जाता कि यह सब केवल उनके स्वागत के लिए ही किया गया है। बल्कि दरअसल इन सबके पीछे छुपा होता है नाकामी, निठल्लेपन, भ्रष्टाचार और गैर जि़ मेदारी का एक ऐसा पहलू जो धीरे-धीरे हमारे देश को दीमक की तरह खाए जा रहा है। वास्तव में इस तरह की थोथी नुमाईश के द्वारा ‘समाजसेवी अतिथि को यह दिखाया जाता है कि हमारा पूरा का पूरा शहर ही इसी प्रकार चमक-दमक रहा है। हमारे शहर में बिजली-पानी की आपूर्ति इसी प्रकार 24 घंटे बनी रहती है। हमारे पूरे शहर की सड़कें ऐसी ही चिकनी, सपाट, साफ-सुथरी हैं। और इसी झूठे व मक्कारीपूर्ण प्रदर्शन के पीछे हो जाता है बड़े से बड़ा भ्रष्टाचार या घोटाला।

पिछले दिनों बराड़ा कस्बे में एक फ्लाईओवर का उद्घाटन हरियाणा के मु यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा द्वारा किया गया। वैसे भी इस  फ्लाईओवर के निर्माण की गति शुरु से ही बहुत धीमी थी। परंतु किसी प्रकार यह तैयार हुआ। इस लाईओवर के दोनों ओर स्ट्रीट लाईट का प्रबंध किया गया है। ज़ाहिर है उद्घाटन से पूर्व लाईओवर की चूना-सफेदी की गई तथा उसपर लगे बिजली के खंभों को सिल्वर पेंट द्वारा चमकाया गया। आपको यह जानकर आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि उस फलाईओवर पर जिस स्थान पर उद्घाटन का पत्थर लगा था उसी स्थान तक लगे बिजली के खंभों को पेंट किया गया था। वह भी आधा-अधूरा। उसके बाद आगे के खंभों को न तो तब पेंट किया गया था और न ही तब से लेकर अब तक पेंट किया गया है। आखिर इस प्रकार की प्रशासनिक ‘कार्यकुशलता का अर्थ क्या है? यह लाईओवर तो जनता के लिए, जनता की सहूलियतों व उसके सुख-दु:ख के लिए बना है। परंतु इसकी चमक-दमक में होने वाली लीपापोती तथा इस लीपापोती की आड़ में यह प्रदर्शित करना कि सब कुछ ‘ठीकठाक है, आखिर इस प्रवृति का अर्थ क्या है? क्या सरकार के पास पूरे  फ्लाईओवर के खंभों को पूरी तरह से पेंट किए जाने के लिए धन की कमी थी या मुख्‍यमंत्री को चंद पेंट किए हुए खंभे दिखाकर यह समझाने की कोशिश कर दी गई था कि फ्लाईओवर पर लगे सभी खंभे पेंट हो चुके हैं।

ऐसी ही एक घटना अंबाला छावनी के मुख्‍य बस स्टैंड के उद्घाटन के समय की याद आती है जबकि प्रकृति ने ही ऐसी प्रशासनिक लापापोती की पोल खोलकर रख दी। स्वर्गीय बंसी लाल हरियाणा के मु यमंत्री के रूप में अपनी सत्ता के अंतिम दिन गुज़ार रहे थे। जाते-जाते वह अपने नाम की अधिक से अधिक उद्घाटन शिलाएं तमाम सरकारी इमारतों में लगाकर जाना चाह रहे थे। उन्हीं इमारतों में से एक भवन अंबाला छावनी बस अड्डे का भी था। उस नवनिर्मित हुए बस अड्डे का काम अभी भी पूरी नहीं हुआ था कि मुख्‍यमंत्री कार्यालय द्वारा बस अड्डे के भवन के उद्घाटन करने की तिथि घोषित हो गई। दिन-रात तेज़ी से काम कर सरकार को यह बता दिया गया कि बस अड्डा पूरी तरह से ठीक-ठाक है तथा उद्घाटन के लिए तैयार है। वह तिथि व निर्धारित समय आ गया। मुख्‍यमंत्री आए उद्घाटन समारोह बस स्टैंड के मुख्‍य विशाल शेड में संपन्न हुआ। अभी मुख्‍यमंत्री महोदय का भाषण चल ही रहा था कि काफी तेज़ बारिश शुरु हो गई। इस भारी बारिश के चलते पूरे सभा स्थल की छत टपकने लगी। चारों ओर पानी ही पानी हो गया। गोया जिस प्रकार की लीपापोती प्रशासन ने करनी चाही उसकी पोल प्रकृति ने खोलकर रख दी।

लीपापोती तथा सब ठीकठाक दिखाई देने जैसी कमज़ोर व खोखली परंपरा कोई गांव,शहर या राज्यस्तर तक ही सीमित नहीं है। बल्कि दुर्भाग्यवश शायद यह प्रवृति हमारी परंपराओं में ही शामिल हो चुकी है और राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय स्तर के आयोजनों में भी हम अपनी इसी प्रवृति या परंपरा के शिकार होते देखे जाते हैं। जैसे गत् वर्ष भारत में पहली बार राष्ट्रमंडल खेल आयोजित हुए। यह तो भला हो हमारे देश के खिलाडिय़ों का जिन्होंने अप्रत्याशित रूप से सौ से अधिक पदक जीतकर देश की इज्ज़त बचा ली। क्योंकि शासन व प्रशासन के लोगों की तरह खेल जैसी प्रतिस्पर्धाओं में लीपापोती या जबरन सब ठीक-ठाक है कहने से पदक कतई हासिल नहीं हो सकता। अन्यथा इस आयोजक मंडल के सदस्यों ने तो देश की नाक कटवाने में अपनी ओर से तो कोई कसर ही बाकी नहीं रखी थी। ज़रा कल्पना कीजिए कि उन विदेशी मेहमानों को या विदेशी खिलाडिय़ों को आज जब यह पता लग रहा होगा कि भारत में हुए राष्ट्रमंडल खेल आयोजन समिति की अमुक-अमुक हस्तियां जो कल तक अहंकार तथा सत्ता का प्रतीक बनी हुई दिखाई दे रहीं थीं, वही हस्तियां आज जांच एजेंसियों द्वारा की जाने वाली पूछताछ, संदेह व फज़ीहत की शिकार हैं तो उनके दिलो-दिमाग पर हमारे देश की क्या छवि बन रही होगी? यह ऐसे निठल्ले, हरामखोर तथा घोटालेबाज़ शासनिक व प्रशासनिक अधिकारियों व जि़ मेदार लोगों की ही देन थी कि राष्ट्रमंडल खेलों की तैयारी के दौरान कभी कोई पुल गिर गया तो तमाम जगहों पर गड्ढे नहीं भरे जा सके। कई भवनों को आधा-अधूरा रखकर ही उन पर लीपापोती कर दी गई। और आिखरकार ऐसे तमाम गड्ढों को व गंदगी, कूड़ा-करकट आदि को छुपाने के लिए उन बेशकीमती हार्डिंग्स का सहारा लिया गया जिन्हें किन्हीं अन्य स्थानों पर लगाने के लिए बनवाया गया था। कहीं गमले रखकर अपनी इज्ज़त बचाने की कोशिश की गई तो कहीं रातोंरात घास व पौधे लगाकर लीपापोती की गई। और इन्हीं सब लापरवाहियों के परिणामस्वरूप ही निकल कर आया है देश का सबसे बड़ा राष्ट्रमंडल खेल घोटाला। लीपापोती करने व सब कुछ ठीक-ठाक है जैसा थोथा प्रदर्शन करने से हमें बाज़ आना चाहिए तथा जहां भी इस प्रकार की कोशिशें की जा रही हों, उसका न सिर्फ पर्दाफाश करना चाहिए बल्कि सामाजिक स्तर पर इनका विरोध भी किया जाना चाहिए। ऐसी परंपराओं का प्रबल विरोध निश्चित रूप से देश में भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने में सहायक साबित होगा।

बॉलीवुड को भाने लगा मध्यप्रदेश

लो‍केन्‍द्र सिंह राजपूत

मध्यप्रदेश, देश का हृदय है। प्राकृतिक सौंदर्य, संपदा और ऐतिहासिक महत्व के स्थलों से भी खूब समृद्ध है मध्यप्रदेश। इसके सौंदर्य का गुणगान पर्यटन को आकर्षित करने के लिए बनाए गए विज्ञापन बखूबी करते हैं। मन को आल्हादित करने वाले मध्यप्रदेश के वातावरण ने आखिरकार बॉलीवुड को अपने मोहपाश में बांध ही लिया है। बॉलीवुड के नामी निर्देशकों में शुमार प्रकाश झा को भी मध्यप्रदेश भा गया है। सिने सितारों से सजी उनकी सफल फिल्म राजनीति की अधिकांश शूटिंग प्रदेश की राजधानी भोपाल में ही हुई थी। भोपालियों सहित प्रदेश की आवाम ने राजनीति में वीआईपी रोड और न्यू मार्केट का अप्रितम सौंदर्य निर्देशक प्रकाश झा की नजरों से देखा। अब वे अपनी बहुचर्चित फिल्म आरक्षण की शूटिंग के लिए सदी के महानायक अमिताभी बच्चन सहित भोपाल में डटे हुए हैं। इससे पहले बेहतरीन काम से लोगों के दिल पर राज करने वाले आमिर खान ने किसानों की दुर्दशा के प्रति देशभर में सहानभूति जुटाई अपनी फिल्म पीपली लाइव से। इसकी शूटिंग भी मध्यप्रदेश में ही हुई। प्रदेश के एक और महत्वपूर्ण शहर ग्वालियर ने भी बॉलीवुड सहित हॉलीवुड का ध्यान अपनी ओर खींचा है। खबर है कि ग्वालियर और ओरछा के किले पर पहली बार एक हॉलीवुड फिल्म की शूटिंग होने वाली है। बेल्जियम की फिल्म निर्माता कंपनी कोरसम और मुंबई की नील मुद्रा एंटरटेनमेंट फिल्म सिंगुलरिटी का निर्माण कर रहे हैं। इसमें हॉलीवुड के अभिनेता जोश हार्टनेट और अभिनेत्री ट्रेसी उल्मा के साथ ही बॉलीवुड अभिनेत्री बिपाशा बसु, अभिनेता अभय देओल, अतुल कुलकर्णी और मिलिंद सोमण भी दिखाई देंगे। इसके अलावा प्रसिद्ध अभिनेता और निर्देशक पंकज कपूर भी फिल्म मौसम की शूटिंग के सिलसिले में ग्वालियर प्रवास कर चुके हैं। फिल्म मौसम एक रोमांटिक फिल्म है जिसमें पंकज कपूर के बेटे शाहिद कपूर मुख्य अभिनेता हैं। शाहिद ग्वालियर एयरवेज स्टेशन से फाइटर प्लेन उड़ाते नजर आएंगे।

खैर, ऐसा नहीं है कि मध्यप्रदेश ने अभी-अभी कुछ जादू चलाया है जो बॉलीवुड इस ओर दौड़ पड़ा है। पहले भी प्रदेश में कई फिल्मों की शूटिंग होती रही है। ग्वालियर के चम्बल और जबलपुर के भेड़ाघाट सहित अन्य जगहों पर कुछेक प्रसिद्ध फिल्मों की शूटिंग हो चुकी है। यहां रोमांचित और प्रसन्न होने की बात सिर्फ इतनी-सी नहीं है कि फिल्मों में हमारा प्रदेश दिखेगा। बल्कि प्रसन्नता का कारण यह है कि यह सिलसिला यूं ही चल निकला तो निश्चित ही प्रदेश के राजस्व में बढ़ोतरी होगी। जिसका लाभ प्रदेश की जनता को मिलेगा। इससे पर्यटकों की संख्या में भी आशातीत वृद्धि होगी। प्रदेश के थियेटर कलाकारों को कुछ काम भी मिलने की संभावना है। यहां कई प्रतिभावान कलाकार हैं, जिन्हें बस मंच की दरकार है। प्रदेश ने बॉलीवुड को कई दिग्गज कलाकार दिए भी हैं। जिनमें संगीतकारों की लम्बी सूची तो है ही, अभिनेता, निर्देशक भी शामिल हैं। प्रसन्नता की एक खबर यह भी है कि निर्देशक प्रकाश झा ने आरक्षण के लिए भोपाल व प्रदेश के कई थियेटर कलाकारों का चयन किया है। जिनमें ग्वालियर के स्केटिंग कोच अरविंद दीक्षित का नाम भी शामिल है। हे प्रभु! यह सिलसिला यूं ही चलता रहे, बल्कि रफ्तार पकड़ ले।

मदरसा आरक्षण और आधुनिक शिक्षा

राखी रघुवंशी

मदरसों के पाठयक्रम को बदलने की कोशिश की जा रही है। मदरसे काफी पुराने पाठ्यक्रम और इस्लामी शिक्षा पद्धति पर ही चल रहे हैं। पिछले कुछ समय से मदरसों की भूमिका को लेकर लगातार बहस होती रही है, मदरसों पर चरमपंथ को बढ़ावा देने के आरोप भी लगते रहे हैं। पाकिस्तान की लाल मस्ज़िद के मदरसे के छात्रों और सैनिकों के बीच टकराव के बाद यह बहस एक बार फिर तेज़ हुई। मालूम हो कि राजेन्द्र सच्चर कमिटी ने भी अपनी रिपोर्ट में कहा कि मुसलमान आधुनिक शिक्षा के अवसरों से वंचित हैं। अब उत्तर प्रदेश सरकार ने जहां नया पाठयक्रम नए सत्र से लागू करने का फैसला लिया है वहीं पश्चिम बंगाल की वाम मोर्चा सरकार ने मदरसों की पढ़ाई को आज की जरूरतों के हिसाब से बदलना तय किया है और भी राज्यों के मदरसों में तकनीकी शिक्षा की पहल की जा रही है। भारत सरकार ने मदरसों के आधुनिकीकरण के लिए एक कानून बनाने का प्रस्ताव रखा है, जिसका उददेश्य पाठयक्रम और पढ़ाई की व्यवस्था को बेहतर बनाना बताया जा रहा है। सरकार मदरसों को सीबीएसई की तरह केन्द्रीय मदरसा बोर्ड के तहत लाने के लिए एक कानून पारित करना चाहती है। सरकार का कहना है कि इससे मदरसों की पढ़ाई को आधुनिक और उपयोगी बनाया जा सकेगा। प्रधानमंत्री सहित कई लोग इसका पुरजोर हिमायत कर रहे हैं, वहीं इसका विरोध करने वाले भी हैं। मगर कुछ मुसलमान धार्मिक नेताओं का कहना है कि धार्मिक अध्ययन के केन्द्र मदरसों के कामकाज में सरकारी हस्तक्षेप अनुचित है।

हाल ही में ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की बैठक में बोर्ड के अध्यक्ष मौलाना राबे हसनी नदवी ने कहा कि मदरसों में सरकारी हस्तक्षेप कबूल नहीं किया जायेगा। दरअसल मौलाना का ये रूख इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि केन्द्रीय सरकार मदरसों के लिए केन्द्रीय मदरसा बोर्ड बनाने की तैयारी में है। मौलाना ने कहा कि केन्द्रीय मदरसा बोर्ड के प्रस्ताव को हम दोनों शैक्षिक संस्थाओं के लिए हानिकारक मानते हैं। उन्होंने कहा कि मदरसों के जरिए इस्लाम की शिक्षा दी जाती है। इस वजह से उसमें हम किसी तरह का हस्तक्षेप नहीं चाहते।

इसी सिलसिले में हाल ही में केन्द्रीय मानव संसाधन मंत्री कपिल सिब्बल ने केन्द्रीय मदरसा बोर्ड की स्थापना के संबंध में मुस्लिम सांसदों की एक बैठक बुलाई। हालांकि इस बैठक में कुल 59 मुस्लिम सांसदों में से सिर्फ 18 ने शिरकत की। बैठक में शामिल 5 सांसदों ने इस बोर्ड के संबंध में तैयार किए गए मसौदे को सही ठहराया, जबकि बाकी कई सांसदों ने इसमें बदलाव की सलाह दी। कुछ सांसदों ने तो मसौदे को सिरे से नकार ही दिया। सरकार तो मदरसों के अंदरूनी मामलों में दखलअंदाजी नहीं करना चाहती है, वह तो मदरसों को पारंपरिक मजहबी तालीम के साथ साथ आधुनिक शिक्षा से भी लैस करना चाहती है और इसके लिए आर्थिक मदद भी देना चाहती है। ऐसा तो नहीं है कि मुस्लिम तालीमी इदारे या दीगर मुस्लिम संस्थाऐं सरकार की आर्थिक मदद से फायदा न उठाती हों या सरकारी सब्सिडी को हराम समझती हों। भारत सरकार से हज यात्रा पर जाने वाली सब्सिडी का लाभ बड़ी संख्या में मुस्लमान उठा रहे हैं। वैसे भी मदरसों के आधुनिकीकरण की सिफारिश तो सच्चर कमेटी की रिपोर्ट में भी की गई है। इस रिपोर्ट में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि मदरसों में मुस्लिम छात्रों की सिर्फ 4 फीसदी तादाद है, बाकी 96 फीसदी मुस्लिम बच्चे सरकारी या गैरसरकारी स्कूलों में पढ़ते हैं। कमिटी की रिपोर्ट में यह सिफारिश भी की गई है कि तालीम के क्षेत्र में मुसलमानों को आबादी के दूसरे हिस्सों के बराबर खड़ा करने के लिए यह जरूरी है कि मुसलमानों की ज्यादा आबादी वाले इलाकों में केन्द्रीय विद्यालय, नवोदय विद्यालय या कस्तूरबा गांधी विद्यालय खोले जाएं। असल में सरकार की नीयत पर कुछ मुसलान इसलिए शक कर रहे हैं कि ज्यादा मुस्लिम आबादी वाले इलाकों में अभी तक ऐसा कोई विद्यालय नहीं खोला गया और न ही इस बारे में सरकार की तरफ से कोई बैठक बुलाई गई।

इसके विपरीत मदरसा बोर्ड की स्थापना के बारे में सरकार जल्दबाजी में दिखलाई देती है। ऐसे में सिब्बल साहब को यही सुझाव दिया जा सकता है कि मुसलमानों को कौमी तालीमी धारा में लाने की शुरूआत वह मुस्लिम बहुल इलाकों में सच्चर केटी के सुझावों के अनुसार विद्यालय खोलें। इसके बाद मदरसों का आधुनिकीकरण हो। अगर ऐसा होता है तो वो लोग खुद ही हाशिये पर चले जायेंगे, जो मदरसों पर अपनी इजारेदारी कायम रखने के मकसद से मदरसा बोर्ड की स्थापना की मुखालफत कर रहे हैं। जहां तक मदरसों का ताल्लुक है, कुछ को छोड़ कर बाकी की हालत बहुत ही खराब है। उनमें बच्चे भेड़ बकरियों की तरह रहते हैं और खैरात, ज़कात, फितरे और सदके की रकम पर पल रहे हैं। जबकि इन मदरसों के मालिक और संचालक अच्छी जिंदगी जी रहे हैं। इन मदरसों में पढ़ने वाले ज्यादातर बच्चों का संबंध गरीबी रेखा से नीचे जीने वाले परिवारों से होता है। कमजोर वर्ग के अनेक मुस्लिम परिवारों के लिए मदरसे ही अपने बच्चों को साक्षर बना पाने का एकमात्र स्त्रोत होते हैं और यह बात अचानक नहीं हो गई है कि मदरसों में सुधार या आधुनिक धर्मनिरपेक्ष शिक्षा देने की मुहिम आगे बढ़ाने की जगह सिर्फ उनकी संख्या बढ़ाने या उनमें पढ़ने वालों की संख्या बढ़ने का प्रमाण ही सामने आता है। चूंकि इस व्यवस्था में निचली जातियों और निचले वर्ग के बच्चे पढ़ने आते हैं, इसलिए वहां के पाठयक्रम और शिक्षण विधि में जानबूझकर संवाद, बहस, आलोचना और प्रश्नाकुलता जैसी चीजों को उभरने नहीं दिया जाता और उनसे शिक्षा पाकर निकलने वाले भी उसी दकियानूसी को जारी रखते हैं, जो नेतृत्व चाहता है। वहां से निकलने वाले लड़के भी ज्यादा कुछ नहीं कर पाते। समाज की सामाजिक, आर्थिक परेशानियों की तो इस पढ़ाई में कोई चर्चा ही नहीं होती, धार्मिक सवालों पर भी तार्किक और खुले ढंग से चर्चा नहीं होती। मदरसों की तालीम पूरी करने के बाद ये बच्चे या तो मस्जिदों में इमाम और मुअज्जिन बनते हैं या फिर हज़ार-पांच सौ रूपये की टीचरी करते हैं।

इस तरह देखा जाए तो ज्यादातर मदरसे अर्धशिक्षित, गरीब मुसलमानों की एक ऐसी फौज तैयार कर रहे हैं जो जमाने की दौड़ में सबसे पीछे और खस्ताहाल हैं। क्या यही हम चाहते है कि गरीबी की रेखा से नीचे वाले परिवारों के बच्चे मदरसे और म्यूनिसिपल स्कूलों में पढ़ें और खुशहाल परिवार अपने बच्चों को अंग्रेजी स्कूलों में पढ़ाएं। अगर लोग ऐसा सोचते हैं तो इससे साफ होता है कि वे मॉडर्न तालीम पर अपनी पकड़ रखना चाहते हैं, जबकि गरीब मुसलमानों को मदरसा और म्युनिसिपल स्कूलों की तालीम पर छोड़े रखना चाहते हैं। इस तरह तो मदरसों को रवायती मजहबी तालीम के साथ आधुनिक तालीम से भी जोड़ने के लिए सरकार और सिब्बल साहब को एक लंबी जद्दोजहद करनी होगी। उन्हें मुस्लिम समाज को अपने विश्वास में लेकर उसके जेहन में यह बिठाना होगा कि अगर मदरसे से एक ऐसा पढ़ा-लिखा व्यक्ति निकलता है जो एक दीनदार मुसलमान होने के साथ-साथ एक अच्छा डॉक्टर, इंजीनियर या फिर अच्छे पद पर पहुंचता है तो इसमें हर्ज ही क्या है ?

आज के समय में जिस तरह से मदरसों की हालत खराब होती चली जा रही है और वहां पढ़ाने वाले शिक्षकों को जिस तरह कम पैसों में अपना खर्च चलाना पड़ता है, उस स्थिति को बदलने में इस तरह का कोई बोर्ड काफी मदद कर सकता है। आखिर सरकारी स्तर पर संचालित किये जाने वाले वक्फ़ बोर्ड भी तो अपना काम कर ही रहे हैं। हां इतना जरूर है कि कुछ लोग इसके माध्यम से अपने फायदे की बात कर रहे हैं। अगर सरकारी मदद मिलने से मदरसों में शैक्षणिक माहौल में सुधार होता है तो उससे किसका भला होगा ? आख़िर सरकार की इस मंशा पर क्यों पानी फेरने का काम किया जा रहा है ? आज की तारीख में मदरसों के पास इतने संसाधन नहीं हैं कि वे स्वयं अपना खर्च चलाने के लिए अच्छी व्यवस्था कर पाएं ! इस स्थिति में अगर सरकार से कुछ पैसा इन मदरसों को मिल जाता है जिससे यहां पर भवन और अन्य बुनियादी सुविधाओं को बेहतर किया जा सके तो यह किस तरह से समाज के लिए हितकर नहीं होगा ? हां एक बात में सरकार का हस्तक्षेप नहीं बर्दाश्त किया जा सकता कि ये मदरसे वहां पर दीनी तालीम के अलावा कुछ और नहीं पढ़ाना चाहें तो कोई जबरजस्ती न की जाए। इतना तो किया ही जा सकता है कि विकास कर रहे मुस्लिम देशों में मदरसों कि व्यवस्था को देख समझकर भारत में भी उनका उदाहरण देकर अच्छी शिक्षा देने का प्रबंध किया जा सकता है।

इस तरह के काम केवल मिलकर ही किये जा सकते हैं। भारत में हिंदूओं की बहुतायत होने के कारण सरकार में भी यही अधिक हैं, बस यही बात मुस्लिम समाज को कहीं से शंकालु बना देती है कि कहीं किसी दिन इन मदरसों पर अन्य कोई बंधन न लगा दिया जाये ? अगर सरकार पूरे मुस्लिम समाज के भले की बात कर रही है तो इसके पक्ष में मुस्लिम समाज को ही मंथन करने की आवश्यकता अधिक है। मुस्लिम संदर्भ में करीब दसेक साल से मदरसा और आरक्षण अक्सर संवाद के केन्द्र में हैं। कुछ लोग इन दोनों यानी मदरसा और मुसलमानों के आरक्षण को राष्ट्रद्रोहिता की श्रेणी में रखने के एक ज़िद तक हिमायती हैं। उधर मुस्लिम मौलानाओं ने मदरसे की खिड़कियां और दरवाज़े बंद कर दिए हैं कि कहीं हल्की सी भी बयार आधुनिक शिक्षा की न पहुंच जाय और इस्लाम खतरे में न पड़ जाय ! अब ज्यादातर अनपढ़ मुसलमान क्या करें ? मुसलमानों की सियासत करने वालों ने भी कभी इन्हें अंधकूप से बाहर निकालने की कोशिश न की। समाज की निरक्षरता का फायदा उन्हें यह मिलता रहा कि उन्हें वरगलाना सुविधाजनक हुआ। जबकि यह तो सब जानते हैं कि बिना आधुनिक शिक्षा के विकास की बात बेमानी है। आरक्षण जैसी वैसाखी से हम कितनी दूर तक चल पायेंगे ?

वैसे भी मुस्लिम भाईयों को याद रखना होगा कि अल्लाह और रब के बाद कुरान में सबसे ज्यादा आने वाला शब्द है ज्ञान, शिक्षा ! अगर हम इतिहास की तरफ देखें तो इसके लिए मस्ज़िद को ऐसे केन्द्र की शक्ल में विकसित किया गया, जहां पर धार्मिक शिक्षा के साथ राजनीति और सामाजिक शिक्षा भी दी जाती थी। मस्ज़िद के साथ पुस्तकालय की भी व्यवस्था होती थी। मदीना और दमिश्क में बनी मस्ज़िद में प्राथमिक शिक्षा दी जाती थी और यहां पर लड़के और लड़कियों दोनों के पढ़ने की व्यवस्था थी। लेकिन मुगल शासन के पतन और ब्रिटिश हुकूमत की स्थापना के साथ ऐसे केन्द्र तेज़ी से कम होते गए और संसाधनों के अभाव में दम तोड़ते गए।

सवाल जरूरी है कि आखिर बिना सरकार की आर्थिक सहायता के मदरसों में आधुनिक शिक्षण की व्यवस्था कैसे की जाए ? मुसलमान देश के दलितों से इस अर्थ में खुश किस्मत हैं कि उनके पास मुस्लिम राजाओं, नबावों और सामंतों की समाज हितार्थ दान की गई ढेरों संपत्तियां हैं। जिन्हें वक्फ जायदाद कहते हैं। लगभग चार लाख एकड़ भूमि पर अवस्थित तीन लाख रजिस्टर्ड संपत्तियां वक्फ की हैं। जिनकी आय हजार करोड़ है। अगर वक्फ जायदाद का अच्छी तरह प्रबंध किया जाये तो इसकी आय से मुसलानों की ढेरों समस्याओं का समाधान किया जा सकता है। लेकिन आज इतना भी वक्फ बोर्ड को हासिल नहीं होता और जो होता है उसका भी सही इस्तेमाल नहीं होता। दरअसल कुल वक्फ संपत्तियों में से सत्तर फीसदी पर अवैध कब्ज़ा है या उसे किसी तरह बेच दिया गया है। शेष तीस फीसदी जो है उसका दुरूपयोग ही हो रहा है। जबकि 1954-55 एक्ट स्पष्ट लिखता है कि केन्द्रीय सरकार राज्य सरकार को पूर्ण अधिकार देती है कि वह वक्फ बोर्ड कायम करे। उसे सही ढंग से चलाये और उसकी आय को मुसलमानों की प्रगति व उन्नति में खर्च किया जाय। लेकिन वक्फ बोर्ड पर काबिज लोग ऐसा होने नहीं देना चाहते । अगर इन संपत्तियों पर शिक्षण संस्थाएं, अस्पताल आदि खोले जाएं और उसकी आय को मदरसों पर खर्च किया जाएं तो आधुनिक शिक्षा का यथोचित प्रबंध हो सकता है।

उ.प्र. सरकार बोर्ड ऑफ मदरसा एजुकेशन ने मदरसे में पढ़ने वाले छात्रों के लिए नौकरियों का बाज़ार बढ़ाने के उददेश्य से पाठयक्रम में बदलाव करके अंग्रेजी, हिंदी, उर्दू और कम्प्यूटर को अनिवार्य विषय बना दिया है। जब केन्द्र सरकार की ओर से केन्द्रीय मदरसा बोर्ड बनाने की बात आई तो जमीयत की ओर से इसका विरोध किया गया। देवबंद सहित मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करने वाले कुछ प्रमुख और प्रभावशाली माने जाने वाले संस्थानों ने इस पर अपनी आपत्ति दर्ज कराई। अब सरकार असमंजस की स्थिति में है कि बोर्ड बनाने की प्रक्रिया को आगे ले जाए या नहीं। सरकार के मसौदे पर बैठकर कई उलेमा विचार विमर्श कर चुके हैं और इस पर सहमति भी बनी कि कुछ सुधारों के बाद इसे लागू किया जा सकता है। मसलन, देवबंद और कई अन्य गुटों को तो इसी प्रक्रिया में सरकार ने शामिल किया है पर सूफी रवायत को मानने वालों का प्रतिनिधित्व नहीं है। जानकार बताते हैं कि नौ राज्यों में राज्यस्तर पर मदरसा बोर्ड बना हुआ है लेकिन कई मुस्लिम संगठनों को लगता है कि इन बोर्डों से उन्हें मदद कम मिली है, सरकारी तानाशाही ज्यादा। केन्द्रीय बोर्ड पर विरोध की एक वजह यह भी हो सकती है। फिर मौलानाओं का कहना है कि सरकार को केवल मदरसों में पढ़ रहे बच्चों की ही परवाह क्यों है ? नए विश्वविद्यालयों का अल्पसंख्याकों के लिए निर्माण, पहले से मौजूद विश्वविद्यालयों को मुस्लिम युनिवर्सिटी का दर्जा और उन्हें मजबूत करने के सवाल पर सरकार गंभीर क्यों नहीं है ? मुस्लिम समाज अब बदल रहा है, उसे भावनात्मक मुददों से ज्यादा शिक्षा, रोजगार, अधिकार और विकास की चिंता सता रही है। वैसे भी आज का दौर प्रतियोगिता का है जिसमें शिक्षा के जरिए ही मुसलमान दूसरे से मुकाबला कर सकते हैं।

मदरसे का इतिहास

मदरसा अरबी भाषा का शब्‍द है एवं इसका अर्थ है शिक्षा का स्‍थान। इस्‍लाम धर्म एवं दर्शन की उच्‍च शिक्षा देने वाली शिक्षण संस्‍थाएं भी मदरसा ही कहलाती है। वास्‍तव में मदरसों को तीन श्रेणियों में बांटा जा सकता है। प्राथमिक शिक्षा देने वाले मदरसों को मक़तब कहते हैं। यहां इस्‍लाम धर्म का प्रारंभिक ज्ञान कराया जाता है। मध्‍यम श्रेणी के मदरसों में अरबी भाषा में कुरान एवं इसकी व्‍याख्‍या, हदीस इत्‍यादि पढ़ाई जाती है। इससे भी आगे उच्‍च श्रेणी के मदरसे होते हैं जिन्‍हें मदरसा आलिया कहते हैं। इनके अध्‍ययन का स्‍तर बीए और एमए का होता है। इनमें अरबी भाषा का साहित्‍य, इस्‍लामी दर्शन, यूनानी विज्ञान इत्‍यादि विषयों का अध्‍ययन होता है। इन उच्‍च शिक्षा संस्‍थानों का पाठ्यक्रम दार्से-निजामी कहलाता है। इसे मुल्‍ला निजामी नाम के विद्वान ने अठारहवीं शताब्‍दी में बनाया था एवं ये आज भी वैसे ही चल रहे हैं। उदारवादी एवं कट्टरपंथी मुसलमानों में इस मुद्दे पर बहस छिड़ी हुई है कि क्‍या इस पाठ्यक्रम को ज्‍यों का त्‍यों जारी रखा जाए या परिवर्तित कर दिया जाए।

दर्द भरी प्रेम कहानी…बच गया राजा, चली गई रानी

सियासत की दुनिया में दखल रखने वाला रोमेश जेल गया और बाहर उसकी महबूबा का क़त्ल हो गया। रोमेश ने वादा पूरा किया और प्रेमिका की लाश से शादी रचाई। उस पर ही कुंजुम के कत्ल का आरोप था पर अदालत ने उसे बेगुनाह माना…

चण्डीदत्त शुक्ल

महबूबा की लाश से लिपट, फफक-फफककर रो पड़ा रोमेश। देखने वालों की आंख भर आई पर शव श्मशान नहीं गया। मरने वाली दुल्हन बनी और दूल्हे की तरह सजा रोमेश…वही रोमेश, जिस पर कुंजुम की हत्या का आरोप था। जेल से महज शादी करने के लिए वो कुंजुम के शव तक पहुंचा था। एक वादा था, जो निभाया गया और फिर कुंजुम सदा-सदा के लिए सबसे ज़ुदा हो गई।

दस साल तक सलाखों के पीछे रहने के बाद रोमेश को बरी कर दिया गया है। अब तो शायद ही किसी को याद हो रोमेश-कुंजुम की प्रेमकहानी, लेकिन यह एक ऐसी लवस्टोरी है, जिसमें किसी सस्पेंस, थ्रिलर फ़िल्म से कम टर्न नहीं हैं।

कुंजम बुद्धिराजा का 20 मार्च, 1999 को रोमेश शर्मा के जय माता दी फार्म हाउस में कत्ल कर दिया गया था। उस समय रोमेश तिहाड़ की कैद भुगत रहा था। उस पर बहुत-से आरोप थे। हालांकि जेल जाने से पहले रोमेश की पहचान एक सियासी व्यक्ति के रूप में ही होती थी। शान-ओ-शौकत और दौलत से भरपूर रोमेश की ज़िंदगी सबकी आंखों में चुभती थी।

इलाहाबाद के एक मामूली किसान के बेटे रोमेश के पास हेलिकॉप्टर तक था, इससे ही उसके ऐश्वर्य का अंदाज़ा लगाया जा सकता है…। हालांकि आरोप यह है कि उसने चुनाव प्रचार के लिए हेलिकॉप्टर किराए पर लिया था, लेकिन बाद में लौटाया ही नहीं।

और…कुंजुम? रोमेश और कुंजुम की मुलाकात चुनाव प्रचार के दौरान ही हुई थी। जल्द ही दोनों एक-दूसरे को दिल-ओ-जान से चाहने लगे।

रोमेश ने कुंजम को दिल्ली में एक कोठी दिला दी। दोनों बिना शादी के साथ रहने लगे। इसी बीच दिल्ली पुलिस की क्राइम ब्रांच ने दुबई से आने वाली एक फोन कॉल सुनी और रोमेश शर्मा को अंडरवर्ल्ड डॉन अबू सलेम से रिश्तों की बिना पर धर-दबोचा।

अब दोनों दूर थे। कुंजुम बाहर और रोमेश जेल में, लेकिन उनके बीच मोहब्बत कम नहीं हुई थी। कुंजुम दर्द भरी चिट्ठियां लिखती, जिसमें तनहाई के एक-एक पल का ज़िक्र होता। तड़प का बयान किया जाता। एक चिट्ठी में कुंजुम ने लिखा था, मेरी लिए बहुत पीड़ादायक है कि मैं आज़ाद हूं लेकिन आप के लिए कुछ नहीं कर पा रही हूं। स्वीटहार्ट, मुझे तुम पर गर्व है और मै इस ब्रह्मांड की सबसे लकी लडकी हूं, जो तुम जैसा जीवनसाथी मुझे मिला है। इस दुनिया मे आपका कोई मुकाबला नहीं है। इन चिट्ठियों में रोजमर्रा की हर छोटी-बड़ी बात होती। सारी दुनिया के लिए खलनायक रोमेश को कुंजुम संजय दत्त जैसा हैंडसम बताती।

रोमेश की गिरफ्तारी को छह महीने ही गुजरे थे कि कुंजुम का किसी ने कत्ल कर दिया। जांच में पता चला कि कुंजुम का कत्ल रोमेश के ही भतीजे सुरेंद्र ने कराया है। वज़ह यह कि कुंजुम सारी जायदाद खुद हड़प कर लेना चाहती थी। आरोप था कि रोमेश के इशारे पर ही कुंजुम का कत्ल कर दिया गया, क्योंकि वो उसके सारे राज़ जान गई थी। नौ साल बाद कुंजुम की हत्या के मामले में दिल्ली हाईकोर्ट ने रोमेश को बेगुनाह माना है। अब इस प्रेमकहानी का राजा आज़ाद है। वो चुनाव लड़ता-लड़वाता है पर कुंजुम सिर्फ कहानियों में बाकी है।

क्रमश:

चुनाव व्यवस्था में परिवर्तन

विजय कुमार

परिवर्तन की बात करना राजनेताओं और समाजसेवियों में प्रचलित एक फैशन है। चुनाव आयुक्त श्री कुरैशी भी देश भर के विद्वानों और राजनेताओं से परामर्श कर रहे हैं कि चुनाव व्यवस्था में क्या सुधार होने चाहिए ? पिछले दिनों राहुल गांधी ने उ0प्र0 में कहा कि सारी राजनीतिक व्यवस्था सड़ गयी है, अतः इसे बदलना चाहिए। उनके आक्रोश का कारण यह है कि पिछले 20 साल से उ0प्र0 में कांग्रेस सत्ता से बाहर है। राहुल जी कांग्रेस के बड़े नेता हैं, अतः उनके बयान से मीडिया में इस विषय पर चर्चा होने लगी। यद्यपि इस व्यवस्था का विकल्प न उन्होंने बताया और न ही किसी अन्य ने।

जहां तक परिवर्तन की बात है, तो वह लोकतन्त्र की मर्यादा में होना चाहिए। यद्यपि वर्तमान चुनाव प्रणाली भी पूर्णतया लोकतान्त्रिक ही है; पर भ्रष्टाचार, जातिवाद, मजहबवाद, क्षेत्रीयता, महंगाई, अनैतिकता और कामचोरी लगातार बढ़ रही है। इसका कारण यह दूषित चुनाव प्रणाली ही है। दुनिया में कई प्रकार की चुनाव प्रणालियां प्रचलित हैं। हमने उन पर विचार किये बिना ब्रिटिश प्रणाली को अपना लिया। इसका भविष्य तो गांधी जी ने ही इसे ‘बांझ’ कहकर बता दिया था। अब तो इंग्लैंड में भी इसे बदलने और सांसदों की संख्या घटाने के लिए पांच मई को जनमत संग्रह होने जा रहा है।

यदि आप किसी सांसद या विधायक से मिलें, तो वह अपने क्षेत्र की बिजली-पानी, सड़क और नाली की व्यवस्था में उलझा मिलेगा। यदि वह ऐसा न करे, तो अगली बार लोग उसे वोट नहीं देंगे। इन दिनों एक विधानसभा क्षेत्र में प्रत्याशी एक करोड़ रु0 तक खर्च कर देता है। पार्टी तो उसे इतना देती नहीं। ऐसे में वह भ्रष्टाचार से पैसा जुटाता है, जिससे अगला चुनाव जीत सके। भारत में लगातार बढ़ रहे भ्रष्टाचार का मुख्य कारण यही है।

लोकसभा और विधानसभा का काम देश और प्रदेश के लिए नियम बनाना है; पर सांसद और विधायक यह नहीं करते। यह उनकी मजबूरी भी है। अतः इस चुनाव प्रणाली के बदले हमें भारत में ‘सूची प्रणाली’ का प्रयोग करना चाहिए।

इसमें प्रत्येक राजनीतिक दल को सदन की संख्या के अनुसार चुनाव से पहले अपने प्रत्याशियों की सूची चुनाव आयोग को देनी होगी। जैसे लोकसभा में 525 स्थान हैं, तो प्रत्येक दल 525 लोगों की सूची देगा। इसके बाद वह दल चुनाव लड़ेगा, व्यक्ति नहीं। चुनाव में व्यक्ति का कम, दल का अधिक प्रचार होगा। चुनाव रैली और अन्य माध्यमों से हर दल अपने विचार और कार्यक्रम जनता को बताएगा। इसके आधार पर जनता उस दल को वोट देगी।

चुनाव सम्पन्न होने के बाद जिस दल को जितने प्रतिशत वोट मिलेंगे, उसके उतने प्रतिशत लोग सूची में से क्रमवार सांसद घोषित कर दिये जाएंगे। यदि किसी एक दल को बहुमत न मिले, तो वह मित्र दलों के साथ सरकार बना सकता है। इस प्रणाली से चुनाव का खर्च बहुत कम हो जाएगा। इसमें उपचुनाव का झंझट भी नहीं है। किसी सांसद की मृत्यु या त्यागपत्र देने पर सूची का अगला व्यक्ति शेष समय के लिए स्वयमेव सांसद बन जाएगा।

इस व्यवस्था से अच्छे, शिक्षित तथा अनुभवी लोगों को राजनीति में आने का अवसर मिलेगा। इससे जातीय समीकरण टूटेंगे। आज तो दलों को प्रायः जातीय या क्षेत्रीय समीकरण के कारण दलबदलू या अपराधी को टिकट देना पड़ता है। उपचुनाव में सहानुभूति के वोट पाने के लिए मृतक के परिजन को इसीलिए टिकट दिया जाता है। सूची प्रणाली में ऐसा कोई झंझट नहीं है।

इस प्रणाली में हर सांसद या विधायक किसी क्षेत्र विशेष का न होकर पूरे देश या प्रदेश का होगा। अतः उस पर किसी जातीय या मजहबी समीकरण के कारण सदन में किसी बात को स्वीकार करने या न करने की मजबूरी नहीं होगी। किसी भी प्रश्न पर विचार करते सबके सामने पूरे देश या प्रदेश का हित होगा, केवल एक जाति, क्षेत्र या मजहब का नहीं।

इससे राजनीति में उन्हीं दलों का अस्तित्व रहेगा, जो पूरे देश के बारे में सोचते हैं। एक जाति, क्षेत्र या मजहब की राजनीति करने वाले दलों तथा अपराधी, भ्रष्ट और खानदानी नेताओं का वर्चस्व समाप्त हो जाएगा। उन्हें एक-दो सांसदों या विधायकों के कारण सरकार को बंधक बनाने का अवसर ही नहीं मिलेगा। यह प्रणाली राजनीति के शुद्धिकरण की दिशा में मील का पत्थर सिद्ध होगी।

पर ऐसे में प्रश्न है जनता का प्रतिनिधि कौन होगा ? इसके लिए हमें जिला, नगर, ग्राम पंचायतों के चुनाव निर्दलीय आधार पर वर्तमान व्यवस्था की तरह ही कराने होंगे। इन लोगों का अपने क्षेत्र की नाली, पानी, बिजली और थाने से काम पड़ता है। इस प्रकार चुने गये जनप्रतिनिधि प्रदेश और देश के सदनों द्वारा बनाये गये कानूनों के प्रकाश में अपने क्षेत्र के विकास का काम करेंगे। ऊपर भ्रष्टाचार न होने पर नीचे की संभावनाएं भी कम हो जाएंगी।

यहां एक बात और ध्यान देने योग्य है कि लोकसभा, विधानसभा आदि में बहुत अधिक सदस्यों की आवश्यकता नहीं है। संसद में 200 सांसद; बड़े राज्यों में 50 और छोटे राज्यों में 10 विधायक पर्याप्त हैं। यद्यपि सूची प्रणाली से कुछ समय के लिए दल में सूची को अंतिम रूप देने वाले बड़े नेताओं का प्रभाव बढ़ जाएगा; पर यदि वे जमीनी, अनुभवी और काम करने वालों को सूची में नहीं रखेंगे, तो जनता उन्हें ठुकरा देगी। अतः एक-दो चुनाव में व्यवस्था स्वयं ठीक हो जाएगी।

इस प्रणाली में नये दल का निर्माण, राष्ट्रीय या राज्य स्तर के दल की अर्हता आदि पर संविधान के विशेषज्ञ तथा विद्वान लोगों में बहस होने से ठीक निष्कर्ष निकलेंगे। उन्हीं दलों को मान्यता मिले, जिनमें आंतरिक चुनाव ठीक से हों। आज तो अधिकांश दल एक परिवार के बंधक जैसे बन गये हैं। इसके लिए भी कुछ नियम बनाने होंगे।

‘‘एके साधे सब सधे, सब साधे सब जाए’’ की तर्ज पर कहें, तो चुनाव प्रणाली बदलकर, चुनाव को सस्ता और जाति, क्षेत्र, मजहब आदि के चंगुल से मुक्त करने से देश की अनेक समस्याएं हल हो जाएंगी। भाजपा की पूर्वावतार जनसंघ ‘सूची प्रणाली’ की समर्थक थी। अब यदि राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस भी इस पर सहमत हो जाए, तो यह सड़ी और बांझ व्यवस्था बदलते देर नहीं लगेगी।

पाकिस्तान के बारे में एक उत्कृष्ट पुस्तक

लालकृष्ण आडवाणी

विगत् तीन दशकों में मैंने असंख्य पुस्तक विमोचन कार्यक्रमों में भाग लिया है। पुस्तक विमोचन से पूर्व अपनी शुरुआती टिप्पणियों में अक्सर मैं यह कहता हूं कि आपातकाल के उन्नीस महीने जो मैंने बंगलूर सेंट्रल जेल और कुछ रोहतक जेल में बिताए, उस समय सलाखों के पीछे बंद सभी राजनीतिक बंदियों के लिए ‘रिलीज‘ (छूटना) शब्द आनन्ददायक होता था। 18 जनवरी, 1977 में मेरी रिहाई जोकि 26 जून, 1975 में गिरफ्तारी के बाद हुई थी। अत: जब भी किसी लेखक मुझे अपनी पुस्तक ‘रिलीज‘ करने का अनुरोध किया तो शायद ही मैंने उसे निराश किया हो।

एक महीना पूर्व मुझे एक अत्यन्त प्रभावी पुस्तक के विमोचन में भाग लेने का मौका मिला जिसमें उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी ने एम.जे. अकबर की पुस्तक टिंडरबॉक्स (Tinderbox) विमोचित की। पुस्तक का उप शीर्षक है: ‘पाकिस्तान का अतीत और भविष्य‘ (The Past and Future of Pakistan) सम्मानीय अंसारी ने स्वंय पुस्तक को ‘श्रेष्ठ एम.जे. अकबर‘ के रुप में निरुपित किया, जो पुस्तक के साथ-साथ लेखक की प्रशंसा भी है। पुस्तक न केवल पाकिस्तान नाम के एक कृत्रिम देश बनाने की प्रेरणा का ज्वलंत विश्लेषण्ा करती है अपितु उन पर भी प्रकाश डालती है जिनके चलते एम.जे. ने इसे ‘जेली स्टेट‘ कहा। अकबर कहते हैं ”……..यह न तो स्थिरता हासिल कर पाएगा और न ही विघटन। परमाणु हथियारों के विशाल जखीरे ने इसे एक विषैली ‘जेली‘ बना दिया है और वह भी एक ऐसे क्षेत्र में जो लगता है संकीर्णता, भाई-भाई की हत्या और और अंतरराष्ट्रीय युध्दों से दोषित है। यह विचार सकून देने वाला नहीं है।”

ह्यात रीजेन्सी होटल में सम्पन्न हुए इस भव्य पुस्तक विमोचन कार्यक्रम में प्रमुख विद्वान और प्रतिष्ठित महानुभाव उपस्थित थे। अकबर की पुस्तक उस समय विमोचित हुई जब पाकिस्तान में एक जघन्य दु:खद घटना घटी थी। पाकिस्तान के सर्वाधिक आबादी वाले राज्य पंजाब के गवर्नर सलमान तासीर की उनके ही सुरक्षा गार्ड मलिक मुमताज कादरी ने हत्या कर दी। तासीर को यह कीमत एक ईसाई महिला आयशा बीबी जो वर्तमान में ईशनिंदा के आरोपों में मृत्युदण्ड की सजा काट रही, के मुखर समर्थन में बालने के कारण चुकानी पड़ी। तासीर ईशनिंदा कानून बदलने की निडरतापूर्वक वकालत कर रहे थे।

पुस्तक के परिचय में अकबर लिखते हैं:

”ब्रिटिश भारत के मुस्लिमों ने एक सेकुलर भारत की संभावनाओं को नष्ट करते हुए जिसमें हिन्दू और मुस्लिम सह-अस्तित्व से रह सकते थे को छोड़ 1947 में पृथक होमलैण्ड चुना। क्योंकि वे मानते थे कि एक नए राष्ट्र पाकिस्तान में उनकी जान-माल सुरक्षित रहेगी और उनका मजहब भी सुरक्षित रहेगा। इसके बजाय, छ: दशकों के भीतर ही पाकिस्तान इस धरती पर सर्वाधिक हिंसक राष्ट्रों में एक बन गया है, इसलिए नहीं कि हिन्दू मुस्लिमों की हत्या कर रहे थे अपितु इसलिए कि मुस्लिम मुस्लिमों को मार रहे थे।”

उनकी इस मान्यता की पृष्ठिभूमि में ही उन्होंने अपने संक्षिप्त भाषण में सर्वाधिक महत्वपूर्ण टिप्पणी की कि ”यदि सलमान तासीर भारत में होते तो उन्हें मरना नहीं पड़ता!”

एम.जे. की पुस्तक की विषय वस्तु ऐसी थी कि उस दिन जो-जो भी बोले – मुख्य अतिथि हमीद अंसारी के अलावा, हारपर कॉलिन्स पब्लिकेशंस के चेयरमैन अरूण पुरी और वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी – भारत और पाकिस्तान की कुछ न कुछ तुलनात्मक विशेषताएं गिना रहे थे जो उनकी वर्तमान स्थितियों तथा सफलताओं और असफलताओं को बताती हैं।

जब इस अवसर पर मुझे कुछ शब्द बोलने को कहा गया तो मैंने सन् 2005 में अपनी पाकिस्तान यात्रा के समय वहां के कुछ प्रमुख राजनीतिज्ञों से हुई संक्षिप्त बातचीत का स्मरण दिलाया। उस समय पाकिस्तान में भारत के उच्चायुक्त द्वारा आयोजित स्वागत में, बीच की मेज पर उच्चायुक्त और मैं बैठे थे, साथ ही सभी राजनीतिक दलों के प्रतिनिधि तथा तीन या चार मंत्री भी मौजूद थे। अनेक राजनीतिज्ञों द्वारा सीधे-सीधे एक सवाल मुझसे पूछा गया: ‘मि0 आडवाणी, आप एक सिंधी हैं जिसका जन्म और शुरू के बीस वर्ष करांची में बीते। आज, आप भारत की राजनीति में इतने ऊपर तक गए कि उप-प्रधानमंत्री भी बने! क्या आपका मूल, आपका जन्म इत्यादि आपके राजनीतिक कैरियर में बाधा नहीं बना?’ मेरा उत्तर था: बिल्कुल नहीं। भारतीय राजनीति में, वे सभी जो ंसिंध, नार्थ वेस्टर्न प्रोविंस, पंजाब, पूर्वी बंगाल इत्यादि से राजस्थान, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल इत्यादि गए; सोशलिस्ट पार्टी, कम्युनिस्ट पार्टी इत्यादि में शामिल हुए और राजनीतिक मुख्यधारा का अंग बने। वास्तव में यह आपके सोचने का विषय है कि उत्तर प्रदेश, राजस्थान, गुजरात, बिहार इत्यादि से पाकिस्तान आए मुस्लिम, पचास वर्ष से ज्यादा समय के बावजूद अभी भी मुहाजिर (शरणार्थी) हैं और उन्हें अपना अलग दिल एम क्यू एम बनाना पड़ा)!

मैंने उन्हें बताया कि भारत का लोकाचार सदैव समावेशी रहा है जबकि पाकिस्तान का लोकाचार गैर-समावेशी!

वस्तुत:, ‘टिंडरबॉक्स‘ बार-बार इस पर जोर देती है कि अपने समय के प्रमुख सुन्नी धर्मगुरू और बुध्दिजीवी शाह वलीउल्लाह ने एक ऐसे समुदाय जो उनके हिसाब से काफिरों की सांस्कृतिक शक्ति और सैन्य बल से अपने को खतरे में महसूस करती है, के लिए ‘इस्लामिक पवित्रता‘ की विशिष्टता और सुरक्षा का सिध्दांत प्रतिपादित किया।

यह पुस्तक यह अनुबोधक टिप्पणी करती है:

”राजनीति में इस्लाम की भूमिका के बारे में पाकिस्तान में बहस तभी शुरू हो गई थी जब जिन्ना जीवित थे। पाकिस्तान के पिता को पाकिस्तान के पितामह मौलाना मौदूदी, जमायते-इस्लामी के संस्थापक और दक्षिण एशिया में इस्लामिक आंदोलन के शिल्पी और इससे सम्बन्धित विश्वव्यापी घटनाक्रम पर सर्वाधिक शक्तिशाली प्रभाव रखने वाले, ने चुनौती दे दी थी। इस्लामवाद को कभी पाकिस्तान में जन समर्थन नहीं रहा, यहां जब कभी चुनाव हुए, उनसे यह सिध्द हो गया। लेकिन कानून और राजनीतिक जीवन पर इसका प्रभाव जबरदस्त था। मौदूदी शिष्य, जनरल जियाउल हक, जिन्होंने 1976 से पाकिस्तान पर एक दशक तक निरंकुशता से शासन किया ने पंगु हो चुके उदारवादियों से एक सवाल पूछा: यदि इस्लाम के लिए पाकिस्तान नहीं बनाया गया होता तो यह मात्र दोयम दर्जे का भारत होता?

अपनी प्रस्तावना को अकबर ने इन शब्दों में निष्कर्ष रूप में लिखा है:

”पाकिस्तान एक स्थिर, आधुनिक राष्ट्र बन सकता है लेकिन सिर्फ तभी ही जब पाकिस्तान के पिता के बच्चे पितामह मौदूदी के वैचारिक उत्तराधिकारियों को परास्त कर सकें।”

अकबर की पुस्तक में शिवाजी द्वारा औरंगजेब को लिखा गया एक असाधारण पत्र प्रकाशित किया गया है। जो पहले कभी मेरी नजर में नहीं आया। उसे यहां उदृत करना समाचीन होगा। अकबर कहते हैं:

चमत्कारिक मराठा शासक शिवाजी जिनकी मुगल सल्तनत को चुनौती, अक्सर उसके पतन के मुख्य कारणों के रूप में गिनी जाती है, ने जजिया के विरूध्द विरोध करते हुए एक असाधारण पत्र औरंगजेब को लिखा: ‘यदि आप सच्ची दिव्य पुस्तक और ईश्वर के शब्दों (कुरान) में विश्वास रखते हो तो आप उसमें पाएंगे रब्ब-उल-अलामीन, सभी मनुष्यों का मालिक न कि रब्ब-उल-मुसलमीन, सिर्फ मुस्लिमों का मालिक। इस्लाम और हिन्दू परस्पर तुल्नात्मक हैं। उनको नाना प्रकार के रंग सच्चे दिव्य चित्रकार रेखाओं में रंग करने और भरने में उपयोग करता है; यदि यह मस्जिद में है तो अजान को उसकी याद में स्मरण किया जाता है। यदि यह मंदिर है तो घंटियां सिर्फ उनके लिए बजती हैं, किसी व्यक्ति की अपनी जाति और वर्ण के प्रति पक्षपात किया जाता है तो यह पवित्र पुस्तक के शब्दों को बदलने जैसा है……‘ यही वह दर्शन था जिसे शिवाजी ने उल्लिखित किया जिसने अकबर को सुलह-ए-कुल की ओर प्रेरित किया तथा जहांगीर और शाहजहां को हिन्दुओं को पृथक होने से रोका‘। शिवाजी लिखते हैं, उनके पास भी जजिया लगाने की शक्ति थी लेकिन उन्होंने अपने दिलों में धर्मान्धता को स्थान नहीं दिया।‘

भ्रष्टों के सरदार मनमोहन

लिमटी खरे

वर्तमान हालातों में यक्ष प्रश्न तो यही है कि भारत गणराज्य के वजीरे आजम होने के नाते डॉ.मनमोहन सिंह और सत्तारूढ़ गठबंधन की मुखिया होने के नाते श्रीमति सोनिया गांधी इन घपले घोटालों और मंहगाई के मसले पर जनता को जवाब देने की जहमत उठाएंगे या फिर बिना जवाबदेही के ही खुद को ‘मजबूर‘ बताकर सत्ता की मलाई चखते रहेंगे?

नेहरू गांधी परिवार से इतर पांच सालों से ज्यादा देश के प्रधानमंत्री बनने का सौभाग्य पाने वाले वजीरे आजम डॉ.मनमोहन सिंह की छवि अब धूल धुसारित हो चुकी है। संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन ने दूसरी पारी में सरकार इसलिए बना पाई क्योंकि राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन ने लाल कृष्ण आड़वाणी को बतौर प्रधानमंत्री पेश किया था, जिन पर मनमोहन सिंह की ईमानदार छवि भारी पड़ी थी।

विडम्बना देखिए कि आज मनमोहन सिंह की ईमानदारी पर उनके सहयोगियों के भ्रष्टाचार भारी पड़ते जा रहे हैं। आज मनमोहन सिंह और कांग्रेस चहुंओर घपले घोटालों से पूरी तरह घिर चुकी है। कांग्रेस के सामने अब कोई विकल्प नजर नहीं आ रहा है। सोनिया गांधी खुद पशोपेश में हैं कि आखिर मनमोहन जैसे ईमानदारी का चोला ओढ़ने वाले प्रधानमंत्री के रहते विपक्ष द्वारा भ्रष्टाचार को कैसे मुद्दा बना लिया जा रहा है।

प्रधानमंत्री डॉ.मनमोहन सिंह और कांग्रेस की राजमाता श्रीमति सोनिया गांधी के बीच खुदी खाई पटने का नाम ही नहीं ले रही है। सोनिया और मनमोहन के बीच मतभेद जाहिर होने लगे हैं। 2जी घोटाले पर विपक्ष की जेपीसी की मांग पर सोनिया गांधी पहले से ही तैयार थीं, किन्तु मनमोहन सिंह ने इसे अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया था। पीएम के इस मामले में न झुकने से सरकार की बुरी तरह किरकिरी हो चुकी है।

आलम यह है कि सात रेसकोर्स (प्रधानमंत्री आवास) और 10 जनपथ (सोनिया गांधी का सरकारी आवास) के बीच अघोषित जंग का आगाज हो चुका है। सियासी बिछात पर नित्य ही नई व्यूह रचनाएं हो रही हैं। मनमोहन से त्यागपत्र मांगने का नैतिक साहस भी सोनिया गांधी नहीं जुटा पा रहीं हैं। वहीं कांग्रेस के आला नेता प्रणव मुखर्जी और राजा दिग्विजय सिंह मनमोहन के ‘सक्सेसर‘ बनकर न केवल उभर रहे हैं, बल्कि इसके मार्ग भी प्रशस्त कर रहे हैं।

दरअसल, मनमोहन के अधीन काम करने में वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी अपने आप को असहज ही महसूस करते आए हैं, दादा ने भी पीएमओ के खिलाफ सोनिया की तरह ही अघोषित जंग का एलान कर दिया है। इसका कारण यह है कि जब वे वित्त मंत्री थे, तब उनके अधीन काम करने वाले अफसरान में डॉ.मनमोहन सिंह पांचवे क्रम वाले अफसर हुआ करते थे। तब और अब में जमीन आसमान का अंतर है। उस दर्मयान डॉ.मनमोहन सिंह को सीधे प्रणव मुखर्जी से मिलना बेहद मुश्किल होता था, इसमें प्रोटोकाल आड़े आता था।

अब वही अदना सा अफसर (डॉ.मनमोहन सिंह) छः साल से ज्यादा समय से दादा को सीधे निर्देश देने की स्थिति में है। दादा की पीड़ा समझी जा सकती है। पिछले दिनों बैंक चला गांव की ओर कार्यक्रम में प्रणव मुखर्जी ने कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमति सोनिया गांधी को तो बुलावा भेजा किन्तु देश के वजीरे आजम को न्योता भेजना उन्होंने मुनासिब नहीं समझा। इसके साथ ही साथ मनमोहन सिंह सुप्रसिद्ध अर्थशास्त्री भी हैं, सो इस लिहाज से वित्त मंत्री को उनसे मशविरा कर ही कोई कदम उठाना चाहिए, वस्तुतः एसा हो नहीं रहा है। प्रणव मुखर्जी बिना पीएम की सलाह के ही सारे निर्णय ले रहे हैं। उधर गृह मंत्री पलनिअप्पम चिदम्बरम की निष्ठा प्रधानमंत्री में गहरी होती दिख रही है।

भारत गणराज्य में छः से ज्यादा दशकों से लोकतंत्र कायम रहना ही अपने आप में सबसे बड़ी बात और मिसाल है। स्वतंत्र भारत में अब तक की सबसे भ्रष्ट सरकार है संप्रग दो की मनमोहन सिंह सरकार। अब तक इस सरकार के तीन लाख करोड़ रूपए से अधिक के घपले घोटाले सामने आ चुके हैं। जब मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनाया जा रहा था, तब उनकी दो योग्यताओं को हाईलाईटेड किया गया था। अव्वल तो वे निहायत ईमानदार हैं, दूसरा वे बड़े अर्थशास्त्री हैं। घपले घोटालों, और रिकार्ड ध्वस्त करती मंहगाई ने मनमोहन सिंह की दोनों ही योग्यताओं पर प्रश्न चिन्ह लगा दिया है।

हमें यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि देश के कथित ईमानदार प्रधानमंत्री डॉ.मनमोहन सिंह और कांग्रेस पर सवा दशक से ज्यादा समय से राज करने वाली श्रीमति सोनिया गांधी ने स्वतंत्र भारत के वर्तमान को दागदार किया है। सोनिया की नाक के नीचे प्रधानमंत्री और प्रधानमंत्री का कार्यालय, मंत्रियों और अन्य सहयोगियों को कटघरे में खड़ा किया जा रहा है। टूजी घोटाले के बाद देश की न्यायपालिका को विधायिका से प्रश्न पर प्रश्न करने पर मजबूर होना पड़ा।

देश के इतिहास में पहली बार हुआ जब शीर्ष अदालत ने प्रधानमंत्री से यह पूछा था कि इतने बड़े घोटाले के बाद भी आदिमत्थू राजा अब तक मंत्री पद पर कैसे बैठे हैं? अदालत ने यह भी कहकर प्रधानमंत्री को शर्मसार कर दिया था कि राजा पर मुकदमा चलाने की मांग पर पीएमओ ने दो साल तक कार्यवाही क्यों नहीं की?

इसके बाद एक अदालत ने फिर देश के कथित ईमानदार प्रधानमंत्री डॉ.मनमोहन सिंह को शर्मसार होने पर यह कहकर मजबूर कर दिया कि घपलेबाज विलासराव देशमुख को मंत्री बनाना शर्मनाक है! ये सारे मामलों में अखबारों की रोशनाई अभी सूखी भी नहीं थी कि एस बेण्ड घोटाले की आग में पीएमओ झुलस गया। यह मामला अंतरिक्ष विभाग का है, जिसके मुखिया कोई और नहीं डॉ.मनमोहन सिंह ही हैं।

प्रधानमंत्री की पसंद के चलते सीवीसी बने थामस ने प्रधानमंत्री को कम शर्मसार नहीं किया। चोरी और सीना जोरी की कहावत को चरितार्थ करते हुए थामस ने देश की सर्वोच्च अदालत में यह कहकर सभी को चौंका दिया कि संसद में कानून बनाने वाले 153 सांसदों पर आपराधिक और 74 पर तो गंभीर आरोप हैं, फिर उनके सीवीसी बनने पर किसी को क्या आपत्ति होना चाहिए। प्रधानमंत्री ने थामस को सीवीसी बना दिया है, जिस विभाग में सभी की जन्म कुण्डलियां हैं, जो थामस के हाथ लग चुकी हैं। आज की तारीख में थामस बारगेनिंग की स्थिति में आ गए हैं, और सरकार बेकफुट पर। हालात देखकर कहा जा सकता है कि अब थामस को हिलाने की स्थिति में सरकार कतई दिखाई नहीं पड़ रही है। अव्वल तो सरकार ने आरंभ में थामस का बचाव कर उनके हौसले बुलंद कर दिए जिसके परिणामस्वरूप आज अदना सा नौकरशाह न केवल देश की शीर्ष अदालत को चुनौति दे रहा है, वरन् सरकार और देश की सबसे बड़ी पंचायत के पंच (सांसदों) को ही आंख दिखाने की स्थिति में आ गया है।

वर्तमान हालातों में यक्ष प्रश्न तो यही है कि भारत गणराज्य के वजीरे आजम होने के नाते डॉ.मनमोहन सिंह और सत्तारूढ़ गठबंधन की मुखिया होने के नाते श्रीमति सोनिया गांधी इन घपले घोटालों और मंहगाई के मसले पर जनता को जवाब देने की जहमत उठाएंगे या फिर बिना जवाबदेही के ही सत्ता की मलाई चखते रहेंगे? राष्ट्रमण्डल खेल, 2जी स्पेक्ट्रम, आदर्श आवासीय सोसायटी, एस बेण्ड घोटाला आदि के साथ ही साथ सीवीसी की नियुक्ति आदि जैसे ज्वलंत मसलों पर देश की जनता अपनी चुनी हुई सरकार से स्पष्टीकरण मांग रही है, देश के कथित ईमानदार प्रधानमंत्री डॉ.मनमोहन सिंह, कांग्रेस की राजमाता श्रीमति सोनिया गांधी के साथ ही साथ कांग्रेस की नजर में भविष्य के प्रधानमंत्री राहुल गांधी भी जनता के द्वारा करों के माध्यम से दिए गए पैसे की इस होली को चुपचाप देखा और सुना जा रहा है। इन सभी की चुप्पी से साफ हो जाता है कि इन घपले घोटालों के जगमगाने वाले लट्टुओं को को करंट, कहीं न कहीं प्रधानमंत्री और नेहरू गांधी परिवार की बेटरी से ही मिल रहा है।

संतोष भारतीय को आफ़ताब-ए-सहाफ़त अवार्ड

आल इंडिया तंज़ीम उलेमा-ए-हक़ द्वारा आयोजित आतंकवाद और सांप्रदायिकता के ख़िलाफ़ राष्ट्रीय एकता अधिवेशन का आयोजन नई दिल्ली के कांस्टीट्यूशन क्लब में किया गया, जिसमें उर्दू के पहले अंतरराष्ट्रीय साप्ताहिक चौथी दुनिया अख़बार के प्रधान संपादक संतोष भारतीय को उर्दू पत्रकारिता के क्षेत्र में उनकी उल्लेखनीय सेवाओं के लिए आफ़ताब-ए-सहाफ़त अवार्ड से सम्मानित किया गया. इस अवसर पर कांग्रेस के वरिष्ठ नेता ऑस्कर फर्नांडीज़ ने अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा कि राष्ट्रीय एकता देश की सुरक्षा के लिए बेहद ज़रूरी है. उन्होंने कहा कि देश के मौजूदा हालात में सांप्रदायिकता के ख़िलाफ़ हम सबको राष्ट्रीय एकता के विकास के लिए हरसंभव कोशिश करनी चाहिए.

अधिवेशन में चौथी दुनिया के प्रधान संपादक संतोष भारतीय ने कहा कि वह उर्दू न जानते हुए भी उर्दू की लड़ाई लड़ना चाहते हैं, क्योंकि उर्दू गंगा-जमुनी तहज़ीब की ज़ुबान है, उर्दू ने देश को आज़ादी दिलाई, उर्दू ने ख्वाब को ताबीर दी, उर्दू ने देश को एक लड़ी में पिरो दिया और उर्दू ने राष्ट्रीय एकता का विकास किया. उन्होंने वहां मौजूद तमाम लोगों से कहा कि हम सबको मिलजुल कर राष्ट्रीय एकता के विकास के लिए काम करना चाहिए.

इस अवसर पर त्रैमासिक हुस्न-ए-तदबीर के विशेष अंक मदारिस नंबर और मासिक नारा-ए-तकबीर के ईरान के हवाले से विशेष अंक का विमोचन भी हुआ. राष्ट्रीय एकता अधिवेशन में विभिन्न क्षेत्रों में बेहतरीन सेवाएं प्रदान करने वाले अहम लोगों को भी सम्मानित किया गया, जिनमें उत्तर प्रदेश के पूर्व मंत्री डॉक्टर मेराजुद्दीन, जमीअतुल कुरैश दिल्ली के अध्यक्ष साजिद अतीक़, मौलाना रोशन आलम मज़ाहिरी, मीर हसन अल्वी, इश्तियाक़ हुसैन रफ़ीक़ी, ख़ालिद अनवर, मौलाना अल्ताफ़ हुसैन मज़ाहिरी, डॉ. काशिफ़ ज़काई, क़ारी शम्सुद्दीन,मोहम्मद अज़ीज़ बक़ाई, मोहम्मद रियाज़ुद्दीन, मौलाना मुईनुल हक क़ासमी, डॉक्टर ताजुद्दीन अंसारी और मोहम्मद शारिक़ उर्फ़ आशू ख़ां आदि के नाम उल्लेखनीय हैं. अधिवेशन का संचालन मुफ़्ती अफ़रोज़ आलम क़ासमी ने किया, जबकि उद्घाटन क़ारी अबुल हसन आज़मी की तिलावते=कुरआन-ए-पाक से हुआ.