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सेमेटिक चिंतन का ही विस्तार है इस्लाम, ईसाइयत एवं साम्यवाद

गौतम चौधरी

समाजवाद का सिध्दांत रॉवट ओवेन एवं सेंट साईमन ने दिया। मेकाइबर और पेज नामक समाज विज्ञानी ने समाज को परिभाषित किया। पश्चिम में समाज की संरचना का जो क्रमिक विकास हुआ है वह संघर्ष और विखंडन के सिध्दांत पर आधारित है। इसलिए वैज्ञानिक समाजवाद के प्रवर्तक कार्ल मर्क्स को दुनिया का इतिहास संघर्ष से भरा पडा दिखा। जो लोग यूरोप की सभ्यता को यूनानी सभ्यता का विस्तार मानते हैं वे भ्रम में हैं। आज का यूरोप यूनान का नहीं अपितु आद्य अरब सभ्यता का विस्तार है। भारत में शुक्राचार्य नाम के एक चिंतक हो गये हैं। उन्हें दानवों के गुरू के रूप जाना जाता है। दानव यानि भौतिक और जडवादी चिंतन को मानने वाला। शुक्राचार्य के पौत्र का नाम हर्ब था। जिसका अपभ्रंश अरब हो गया। इस बात में कितनी सत्यता है, उसके लिए तो शोध की जरूरत है, लेकिन एक यह भी दृष्टिकोण है जिसे दुनिया में समाज की संरचना को समझने के लिए उपयोग में लाया जा सकता है।

कहा जाता है कि सेमेटिक विचार को मानने वाले पहले मिश्र में रहते थे। वहां के राजा को उन लोगों ने छल से मार कर रातों रात निकल गये और मध्य पूरव के समुद्री किनारे पर अपना स्थाई आवास बनाया। यही हजरत इब्राहिम और हजरत ईसा नामक दो चिंतक पैदा हुए जिन्होंने दुनिया को दो अभिनव चिंतन से अवगत कराया। हजरत ईसा ने ईसाइयत का कनसेप्त दिया और और हजरत इब्राहिम ने इस्लाम का। ये दोनों यहूदी थे इसलिए आज भी ईसाइयत और इस्लाम में यहूदी मान्यताओं की झलक मिलती है। इससे यह साबित होता है कि यूरोप का सांस्कृतिक विस्तार यूनानी नहीं सेमेटिक है। सेमेटिक चिंतन को दानवी चिंतन से जोडकर देखा जाना चाहिए,तब बातें समझ में आएगी। इस चिंतन के असली प्रणेता शुक्राचार्य को ही माना जाना चाहिए। यूनान के चिंतन को तो सेमेटिकवादियों ने जड मूल से समाप्त कर दिया। हां थोडी बहुत भाषा बची हुई है। सेमेटिक चिंतन के मानने वालों ने दुनिया में उत्पात भी खूब मचाया है। जिस प्रकार इस्लाम के मानने वालों ने अपने चिंतन की स्थापना के लिए खून बहाए, उसी प्रकार ईसाई धर्मावलंवियों ने भी जबरदस्त रक्तपात किये। सेमेटिक उत्पात के कारण ही संपूर्ण यूरोप के सहअस्ततित्ववादी मारे गये।

इसके बाद इंग्लैंड नामक द्वीप पर फ्रांसिस बैकन नामक एक चिंतक पैदा हुआ। जिसने कहा कि प्रकृति एक स्त्री के समान है, जिसके बाहों को मरोडने से वह अपने रहस्यों को उगल देगी। बैकन के उस सिध्दांत से यूरोप में प्रकृति के खिलाफ संघर्ष का श्रीगणेश हो गया जो आज तक चल रहा है। इस चिंतन की मिमांशा से स्पष्ट हो जाता है कि जिस संघर्ष में सेमेटिक चिंतन को मानने वाले विश्वास करते थे उस बात को ही बैकन ने फिर से परिभाषित कर दिया। बैकन का चिंतन कार्ल मार्क्स के चिंतन से मिलता है और कार्ल मार्क्स का चिंतन शुक्राचार्य के चिंतन से मिलता है। दानव गुरू शुक्राचार्य भी संघर्ष और बलात आधिपत्य पर विश्वास करते थे। प्रकृति के खिलाफ संघर्ष की घोषणा उन्होंने ही सबसे पहले की और प्रकृति पर आधिपत्य के लिए उन्होंने कई सिध्दांत भी गढे। यहां एक पैराणिक कथा का उल्लेख यहां करना ठीक रहेगा। देव दानव की लडाई में इन्द्र ने छल से रंभ नामक दानव की हत्या कर दी। इस घटना की जानकारी जब शुक्राचार्य को हुई तो उन्होंने रंभ के मृत्य देह से वीर्य निकाल एक भैंस के गर्भ में प्रतिस्थापित कर दिया और उससे महिशासुर नामक दानव का निर्माण किया। शुक्राचार्य यही नहीं रूके उन्होंने महिशासुर की मृत्यु के बाद उसके वीर्य को हथनी के गर्भ में प्रतिस्थापित कर हथासुर नामक दानव पैदा कर दिया। शुक्राचार्य अपने इस अभियान में कितना सफल हुए यह तो पता नहीं लेकिन इससे प्रकृति के खिलाफ संघर्ष के इतिहास का पता चलता है। इस कथा के उल्लेख से यह साबित होता है कि जिस चिंतन को आज इस्लाम, ईसाइयत और साम्यवादी स्थापित करने में लगे हैं उसके प्रवर्तक शुक्राचार्य को ही माना जाना चाहिए। शुक्राचार्य, कार्ल मार्क्स और बैकन में समानता दिखती है। इसलिए यूरोप को यूनान की सभ्यता का विस्तार मानना भ्रम है। आज के पूरे खुराफात की जड सेमेटिक चिंतन में ही है।

इधर भरत में चार्वाक की एक संपुष्ट धारा रही है। जिसने मात्र चार तत्वों की ही प्रधानता दी और घोषित कर दिया कि जन्म से पहले तथा मृत्यु के बाद का सारा विधान, साहित्य कपोल कल्पना है एवं पंडितों ने अपने व्यापार के लिए बनाया है। बुध्दकालीन चिंतक पूरणकस्यप ने तो कर्म के सिध्दांत को ही नकार दिया और कहा कि कोई कर्म न तो शुभ होता है और न ही अशुभ। उन्होंने तो यहां तक कह दिया कि कर्म का कोई फल नहीं होता है। चार्वाक दार्शनिक पुरंदर ने कहा कि शरीर से आत्मा को अलग करके नहीं देखा जाना चाहिए। इन तमाम चिंतकों के चिंतन का उल्लेख करने का कारण यह है कि अब दुनिया जिस दिशा की ओर जा रही है वह दिशा निहायत भौतिकवादी है तथा इस मार्ग में संघर्ष एवं विखंडन को ही केन्द्र में रखा गया है। सबसे बडी बात यह है कि दुनिया जिस ओर जा रही है वहां केवल संघर्ष और भौतिकता का ही मतलब रह जाएगा। कुल मिलाकर संयुक्त राज्य अमेरिका भी उसी सेमेटीजम का विस्तार है जिस चिंतन को भयानक रक्तपात के बाद स्थापित किया गया। संयुक्त राज्य अमेरिका के चिंतकों ने अपने ढंग के नये विश्व की कल्पना की है। यूरोप के ईयाई जब अमेरिकी महाद्वीप पर पहुंचे तो वहां की भौतिक समृध्द को देखकर वे प्रभावित हुए। वहां की समृध्दि ने उन्हें आकर्षित किया। इस आकर्षन के कारण यूरोपियों ने अमेरिका की सभ्यता को समाप्त कर दिया। अब अमेरिकी महाद्वीप में यूरोपिये ईयाई के साथ एक बडी समस्या सामने आयी। वे लोग जिस सभ्यता को स्थापित करना चाहते थे उसके वे दास थे लेकिन जिस सभ्यता के साथ उनकी लडाई थी अब वे उनके मालिक थे। इस द्वंद्व ने अमेरिका में आए यूरोपियों को नया सिध्दान्त गढने के लिए मजबूर कर दिया। उसी द्वंद्व का ही प्रतिफल है कि यूरोपिये अमेरिकियों ने पोस्ट मॉडर्न विश्व का कन्सेप्ट दिया। उत्तर आधुनिक शब्द यूरोपिये अमेरिकी ईसाई के द्वंद्व का परिनाम है। अमेरिका पहुंचे ईसाइयों का ऐसा कोई इतिहास नहीं है जिसपर अमेरिकी गर्व कर सकें। इसलिए अमेरिकी ईसाइयों ने इतिहास और संस्कृति का मजाक उडाया। यही तो भौतिकवादी चाहते हैं और यही मार्क्सवादी भी चाहते हैं। अब दुनिया जिस ओर बढ रही है उसमें तीन चिंतन का समावेश है। पहला जडवाद एवं भौतिकवाद, दूसरा संघर्ष और तीसरा उत्तर आधुनिकता। आने वाला विश्व इन्ही तीन चिंतनों का विस्तार होगा। जिसका स्वरूप दिखने लगा है। यानि प्रकृति को पराजीक करने का संघर्ष, बस शरीर ही सबकुछ है और इतिहासा कुछ नहीं होता। संस्कृति, मान्यता, धर्म, सभ्यता, परिवार, समाज, भाषा आदि का कोई मतलब नहीं है। बस जीवन को जीना है और जीना है तो ऐश करना है।

आज के विश्व की सामाजिक और राजनीतिक – आर्थिक व्यवस्था एवं संरचना निःसंदेह कार्ल मार्क्स के सिध्दांन्तो के चारो ओर भ्रमण कर रहा है। मार्क्स भौतिक तत्वों से दुनिया के निर्माण के सिध्दांत में विश्वास करते हैं। मार्क्स यह भी मानते हैं कि दुनिया संघर्षों का इतिहास है। केवल मार्क्स ही नहीं आईन्स्टाईन एवं मनोवैज्ञानिक फ्रायड भौतिक जगत के स्वरूप को ही सबकुछ मानते हैं। मार्क्स के सिध्दांत को राजनीतिक और व्यवस्थात्मक स्वरूप लेनिन ने दिया और उसने पृथ्वी पर स्वर्ग की कल्पना कर दी। लेनिन मार्क्स के सिध्दांतों पर चल कर रसिया के राजनीतिक विस्तार वाले स्थान पर स्वर्ग नहीं ला सके। उलटे रसिया नर्क में बदलता चला गया। सच पूछो तो स्वर्ग की कल्पना सामंती सोच पर आधारित कल्पना है। इससे यह साबित होता है कि मार्क्स अपने चिंततन में समानता के सिध्दांतों की बात तो करते हैं लेकिन जीवना में उन्हें भी सामंती सुख चाहिए। स्वर्ग में अप्सराओं के नृत्य की कल्पना की गयी है। स्वर्ग में वे सारे सुख होंगे जिसकी कल्पना की जा सकती है।

इधर भारत में स्वर्ग के कनसेप्त के बाद एक नया चिंतन सुराज का आया। जिसे गांधी से जोड कर देखा जाना चाहिए। महात्मा गांधी ने सुराज को राम राज से जोडा और तुलसी के उस पद को अपने चिंतन का आधार बनाया जिसमें तुलसी कहते हैं कि राम राज दैहिक, दैविक और भौतिक कष्टों को समाप्त करने वाला राज्य होगा। मार्क्स की परिकल्पना सुराज की परिकल्पना से हट कर है । सुराज में सामंती सोच नहीं है लेकिन वर्ग विहीन राज्य व्यवस्था में सामंती सोच साफ दिखती है। मार्क्स की व्यवस्था को प्राप्त करने का मतलब है एक निहायत फिजूलखर्ची वाली व्यवस्था खडी करना, बावजूद इसके कुछ सिरफिरे चिंतकों ने अपनी पूरी ताकत लगाकर मार्क्स के चिंतन को स्थापित किया है। जिसका परिनाम रूस में तो दिखा ही आज चीन में भी दिख रहा है। आज चीन हो अया फिर अमेरिका या कोई अन्य देश वहां के राज व्यवस्था के चिंतन का आधार मार्क्स का भौतिक चिंतन ही है । कुछ भी कह लें लेकिन आज मार्क्स का चिंतन दुनिया का एक ध्रुव तो हो ही गया है। ईसाइयत अपनी पूरी लडाई हार चुका है। संपूर्ण व्यवस्था के केन्द्र में आज मार्क्स आ गये हैं। जो लोग मार्क्स के चिंतन को समाप्त हो गया मानते हैं वे भ्रम में हैं। अब मार्क्स का चिंतन नये स्वरूप में लोगों के सामने है। मार्क्स का भौतिकवाद और अमेरिका का उत्तरआधुनिकतावाद के आपस में मिल जाने से दुनिया में एक नये युग का श्रीगणेश होने वाला है। यह युग पूरे पूरी सेमेटिक चिंतन के आधार पर खडा होगा। मार्क्स को किसी राज्य व्यवस्थ के केन्द्र में रखकर नहीं देखें। उसके सामाजिक संरचना के चिंतन को देखें तो आज का विश्व मार्क्स के चिंतन का ही विस्तार दिखेगा। सेमेटिक चिंतन को अब इस्लाम या फिर ईसाइत में रूचि नहीं है। ईसाइयत को मार्क्स के चिंतन ने अपने में पचा लिया और अब इस्लाम को निगलने की योजना में है। इस्लाम को अमेरिका और चीन दोनों अपने अपने तरीके से निगल रहा है। समय के साथ इस्लाम और ईसाइयत दोनों एक ही खोल में समा जाएगंगा और तीन बातों सामने आगएी पहला पीछे कुछ भी नहीं है, दूसरा संघर्ष करना है और तीसरा यह भौतिक संसार तथा अपना शरीर ही सब कुछ है। वही टिकेगा जो संघर्ष में रहेगा। इस प्रकार के चिंतन का स्वरूप व्यापक होने वाला है।

इसलिए जो लोग इस्लाम, ईसाइयत और साम्याद को अलग अलग करके देखते हैं वे भ्रम में जी रहे हैं। इन तीनों को एक ही चिंतन ने खडा किया है। और इन तीनों की मान्यता एक जैसी है। इस्लाम में एक भगवान की कल्पना है। ईसाइयत में भी एक ही भगवान की कल्पना है। मार्क्स का चिंतन कहने के लिए निरिश्वरवादी है लेकिन एक शक्ति में वह भी विश्वास करता है। ईसाई, इस्लाम और मार्क्सवादी अपने पुराने पहचान को मिटाना चाहते हैं। विखंडन और संघर्ष में तीनों विश्वास करते हैं। तीनों के पास एक एक कानून की संहिता है तथा सिध्दांतों का एक एक किताब है। तीनों के साथ एक विडंबना यह भी है कि इनके चिंतन का कोई विरोध करे उन्हें बरदास्त नही। वे लोग उसकी हत्या तक कर सकते हैं। इस प्रकार ऐसा कहा जा सकता है कि ईसाई, इस्लाम और साम्यवाद, यहूदी सेमेटिक चिंतन का ही तीन फेज है। इन तीनों के अलावे विश्व में आज जो भी दिखता है देर सबेर उसी सेमेटि सागर का अंग बनने वाला है। लेकिन दुनिया कभी विकल्पहीन नहीं हो सकती है। इसलिए दुनिया को विकल्प देने के लिए दुनियाभर के सहअस्तित्ववादियों को आगे गाना चाहिए।

वास्तव में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के उस चिंतन से भी सहमत नहीं हुआ जा सकता है जिसमें परम वैभव और महाशक्ति की कल्पना की गयी है। सच तो यह है कि भारत के लागों को आने वाले समय के 200 सालों में जो मानवता का अहित होने वाला है उससे दुनिया को आगाह करना चाहिए। भारत के पास दुनिया को विकल्प देने की क्षमता है लेकिन उस क्षमता को और ज्यादा परिष्कृत करने की जरूरत है। क्योंकि जब सेमेटिक चिंतन के महासागर में झंझावात पैदा होगा तो उसे बचाने की क्षमता और किसी के पास नहीं होगी। उस झंझावात को शांत करने की ताकत शेषनाग पर विराजमान भगवान विष्णु के वंशज के पास ही है। इसलिए विष्णु के वंशजों को जिन्दा रहना जरूरी है।

उत्साह और उल्लास का पर्व: वसंत पंचमी

विजय कुमार

बसंत ऋतु आते ही प्रकृति का कण-कण खिल उठता है। मानव तो क्या पशु-पक्षी तक उल्लास से भर जाते हैं। हर दिन नयी उमंग से सूर्योदय होता है और नयी चेतना प्रदान कर अगले दिन फिर आने का आश्वासन देकर चला जाता है।

यों तो माघ का यह पूरा मास ही उत्साह देने वाला है; पर वसंत पंचमी (माघ शुक्ल 5) भारतीय जनजीवन को अनेक तरह से प्रभावित करती है। प्राचीनकाल से इसे ज्ञान और कला की देवी मां सरस्वती (शारदा) का जन्मदिवस माना जाता है। कैसा दुर्भाग्य है कि मां शारदा की प्राकट्य स्थली शारदा पीठ (जिला मुजफ्फराबाद) आज पाकिस्तान के कब्जे में कराह रही है।

जो शिक्षाविद भारत और भारतीयता से प्रेम करते हैं, वे इस दिन मां शारदे की पूजाकर उनसे और अधिक ज्ञानवान होने की प्रार्थना करते हैं। कलाकारों का तो कहना ही क्या ? जो महत्व सैनिकों के लिए अपने शस्त्रों और विजयादशमी का है, जो विद्वानों के लिए अपनी पुस्तकों और व्यास पूर्णिमा का है, जो व्यापारियों के लिए अपने तराजू, बाट, बहीखातों और दीपावली का है, वही महत्व कलाकारों के लिए वसंत पंचमी का है। चाहे वे कवि हों या लेखक, गायक हों या वादक, नाटककार हों या नृत्यकार, सब दिन का प्रारम्भ अपने उपकरणों की पूजा और मां सरस्वती की वंदना से करते हैं।

इसके साथ ही यह पर्व हमें अतीत की अनेक प्रेरक घटनाओं की भी याद दिलाता है। सर्वप्रथम तो यह हमें त्रेता युग से जोड़ती है। रावण द्वारा सीता के हरण के बाद श्रीराम उसकी खोज में दक्षिण की ओर बढ़े। इसमें जिन स्थानों पर वे गये, उनमें दंडकारण्य भी था। यहीं वह शबरी नामक भीलनी रहती थी। जब राम उसकी कुटिया में पधारे, तो वह सुध-बुध खो बैठी और चख-चखकर मीठे बेर राम जी को खिलाने लगी। प्रेम में पगे झूठे बेरों वाली इस घटना को रामकथा के सभी गायकों ने अपने-अपने ढंग से प्रस्तुत किया।

दंडकारण्य का वह क्षेत्र इन दिनों गुजरात और महाराष्ट्र में फैला है। गुजरात के डांग जिले में वह स्थान है जहां शबरी मां का आश्रम था। वसंत पंचमी के दिन ही रामचंद्र जी वहां आये थे। उस क्षेत्र के वनवासी आज भी एक शिला को पूजते हैं, जिसके बारे में उनकी श्रद्धा है कि श्रीराम आकर यहीं बैठे थे। वहां शबरी माता का मंदिर भी है।

वसंत पंचमी का दिन हमें पृथ्वीराज चौहान की भी याद दिलाता है। उन्होंने विदेशी हमलावर मौहम्मद गौरी को 16 बार पराजित किया और उदारता दिखाते हुए हर बार जीवित छोड़ दिया; पर जब 17वीं बार वे पराजित हुए, तो गौरी उन्हें अपने साथ अफगानिस्तान ले गया और उनकी आंखे फोड़ दीं।

इसके बाद की घटना तो जगप्रसिद्ध ही है। गौरी ने मृत्युदंड देने से पूर्व उनके शब्दभेदी बाण का कमाल देखना चाहा। पृथ्वीराज के साथी कवि चंद्रबरदाई के परामर्श पर गौरी ने ऊंचे स्थान पर बैठकर तवे पर चोट मारकर संकेत किया। तभी चंद्रबरदाई ने पृथ्वीराज को संदेश दिया।

चार बांस चौबीस गज, अंगुल अष्ट प्रमाण

ता ऊपर सुल्तान है, मत चूको चौहान।।

पृथ्वीराज चौहान ने इस बार भूल नहीं की। उन्होंने तवे पर हुई चोट और चंद्रबरदाई के संकेत से अनुमान लगाकर जो बाण मारा, वह गौरी के सीने में जा धंसा। इसके बाद चंद्रबरदाई और पृथ्वीराज ने भी एक दूसरे के पेट में छुरा भौंककर आत्मबलिदान दे दिया। यह घटना भी 1192 ई0 में वंसत पंचमी वाले दिन ही हुई थी।

यह दिन हमें शिवाजी और तानाजी मालसुरे की भी याद दिलाता है। शिवाजी को एक बार मुगलों से हुई सन्धि के कारण अनेक किले छोड़ने पड़े थे, जिनमें ‘कोंडाणा’ भी था। एक बार मां जीजाबाई ने शिवाजी से कहा कि सुबह भगवान सूर्य को अर्घ्य देते समय कोंडाणा पर फहराता हरा झंडा मेरी आंखों को बहुत चुभता है। इसके स्थान पर यथाशीघ्र भगवा झंडा फहराना चाहिए।

मां के आदेश को मानकर शिवाजी ने अपने विश्वस्त सहायक तानाजी मालसुरे को यह काम सौंपा। तानाजी ने अपने भाई सूर्याजी एवं 500 सैनिकों के साथ योजना बनाकर किले पर रात में धावा बोल दिया। इस युद्ध में तानाजी स्वयं मारे गये; पर किला जीत लिया गया। शिवाजी ने यह समाचार सुनकर कहा – गढ़ आया, पर सिंह गया। तब से उस किले का नाम ‘सिंहगढ़’ हो गया। उसी दिन तानाजी के पुत्र रायबा का विवाह था; पर उन्होंने निजी कार्य की अपेक्षा देशकार्य को अधिक महत्व दिया। यह प्रसंग चार फरवरी, 1670 (वसंत पंचमी) का ही है।

वसंत पंचमी का लाहौर निवासी वीर हकीकत से भी गहरा संबंध है। एक दिन जब मुल्ला जी किसी काम से विद्यालय छोड़कर चले गये, तो सब बच्चे खेलने लगे; पर वह पढ़ता रहा। जब अन्य बच्चों ने उसे छेड़ा, तो उसने दुर्गा मां की सौगंध दी। मुस्लिम बालकों ने दुर्गा मां की हंसी उड़ाई। हकीकत ने कहा कि यदि में तुम्हारी बीबी फातिमा के बारे में कुछ कहूं, तो तुम्हें कैसा लगेगा ?

बस फिर क्या था; मुल्ला जी के आते ही उन शरारती छात्रों ने शिकायत कर दी कि इसने बीबी फातिमा को गाली दी है। फिर तो बात बढ़ते हुए बड़े काजी तक जा पहुंची। मुस्लिम शासन में वही निर्णय हुआ, जिसकी अपेक्षा थी। आदेश हो गया कि या तो हकीकत मुसलमान बन जाये, अन्यथा उसे मृत्युदंड दिया जायेगा। हकीकत ने यह स्वीकार नहीं किया। परिणामतः उसे तलवार के घाट उतारने का फरमान जारी हो गया।

कहते हैं उसके भोले मुख को देखकर जल्लाद के हाथ से तलवार गिर गयी। हकीकत ने कहा कि जब मैं बच्चा होकर अपना धर्म निभा रहा हूं, तो तुम बड़े होकर अपने धर्म से क्यों विमुख हो रहे हो ? इस पर जल्लाद ने दिल मजबूत कर तलवार चला दी; पर उस वीर का शीश धरती पर न गिरकर आकाशमार्ग से सीधा स्वर्ग चला गया। यह घटना वसंत पंचमी (4.2.1734) को ही हुई थी। पाकिस्तान यद्यपि मुस्लिम देश है; पर हकीकत के आकाशगामी शीश की याद में वहां वसंत पंचमी पर पतंगें उड़ाई जाती हैं। हकीकत लाहौर का निवासी था। अतः पतंगबाजी का सर्वाधिक जोर लाहौर में रहता है।

वंसत पंचमी हमें गुरु रामसिंह कूका की भी याद दिलाती है। उनका जन्म 1816 ई0 में वंसत पंचमी पर लुधियाना के भैणी ग्राम में हुआ था। कुछ समय वे रणजीत सिंह की सेना में रहे; फिर घर आकर खेतीबाड़ी में लग गये; पर आध्यात्मिक प्रवृत्ति होने के कारण इनके प्रवचन सुनने लोग आने लगे। धीरे-धीरे इनके शिष्यों का एक अलग पंथ ही बन गया, जो ‘कूका पंथ’ कहलाया।

गुरु रामसिंह गोरक्षा, स्वदेशी, नारी उद्धार, अंतरजातीय विवाह, सामूहिक विवाह आदि पर बहुत जोर देते थे। उन्होंने ही सर्वप्रथम अंग्रेजी शासन का बहिष्कार कर अपनी स्वतन्त्र डाक और प्रशासन व्यवस्था चलायी थी। प्रतिवर्ष मकर संक्रांति पर भैणी गांव में मेला लगता था। 1872 में मेले में आते समय उनके एक शिष्य को मुसलमानों ने घेर लिया। उन्होंने उसे पीटा और उसके सामने गाय काटकर मंुह में गोमांस ठूंस दिया। यह सुनकर गुरु रामसिंह के शिष्य भड़क गये। उन्होंने मुसलमानों पर हमला बोल दिया; पर दूसरी ओर से अंग्रेज सेना आ गयी। अतः युद्ध का पासा पलट गया।

इस संघर्ष में अनेक कूका वीर शहीद हुए और 68 पकड़ लिये गये। इनमें से 50 को 17 जनवरी, 1872 को मलेरकोटला में तोप के सामने खड़ाकर उड़ा दिया गया। शेष 18 को अगले दिन फांसी दी गयी। दो दिन बाद गुरु रामसिंह को भी पकड़कर बर्मा की मांडले जेल में भेज दिया गया। 14 साल तक वहां कठोर अत्याचार सहकर 1885 ई0 में उन्होंने अपना शरीर त्याग दिया।

वसंत पंचमी हिन्दी साहित्य की अमर विभूति महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ का जन्मदिवस (21.2.1899) भी है। निराला जी के मन में निर्धनों के प्रति अपार प्रेम और पीड़ा थी। वे अपने पैसे और वस्त्र खुले मन से उन्हें दे डालते थे। अतः लोग उन्हें ‘महाप्राण’ कहते थे। एक बार नेहरू जी ने उनके लिए शासन की ओर से कुछ सहयोग का प्रबंध किया; पर वह राशि उन्होंने महादेवी वर्मा के माध्यम से भिजवाई। उन्हें भय था कि यदि वह राशि सीधे निराला जी को मिली, तो वे उसे भी निर्धनों में बांट देंगे।

श्रीकृष्ण की भक्ति में अपने राजकुल को ठुकरा देने वाले मीराबाई ने 1570 ई0 में इसी दिन अपनी देह का विसर्जन प्रभु चरणों में किया था। आर्य समाज के माध्यम से हिन्दुत्व और देशप्रेम की अलख जगाने वाले महर्षि दयानंद सरस्वती का जन्म (12.2.1824) भी इसी दिन हुआ था। 1823 ई0 की वसंत पंचमी पर ग्राम रसूलपुर (गाजियाबाद, उ0प्र0) में जन्मे संत गंगादास ने रानी लक्ष्मीबाई के बलिदान के बाद उनका शरीर अपनी झोपड़ी में रखकर उसे आग लगा दी। इससे रानी के शरीर को अंग्रेज हाथ नहीं लगा सके।

जहां एक ओर वसंत ऋतु हमारे मन में उल्लास का संचार करती है, वहीं दूसरी ओर यह हमें उन वीरों का भी स्मरण कराती है, जिन्होंने देश और धर्म के लिए अपने प्राणों की बलि दे दी। आइये, इन्हें नमन करते हुए हम भी वसंत के उत्साह में सम्मिलित हों।

विनायक सेन : व्‍यवस्‍था की उपज………

राजीव बिश्‍नोई

“ईश्वर ने सब मनुष्यों को स्वतन्त्र पैदा किया हैं, लेकिन व्यक्तिगत स्वतंत्रता वहीं तक दी जा सकती हैं, जहाँ दुसरों की आजादी में दखल न पड़े। यही राष्‍ट्रीय नियमों का मूल हैं” जयशंकर प्रसाद का ये कथन किसी भी लोकतान्त्रिक व्यवस्था वाले देश के लिए सटीक बैठता हैं। तो आखिर विनायक सेन ने ऐसा क्या किया की उन्हें रायपुर के जिला सत्र न्यायालय ने उम्रकैद की सजा दी? छत्‍तीसगढ़ पुलिस ने पीयूसीएल नेता डॉ. बिनायक सेन को जन सुरक्षा कानून के अंतर्गत 14 मई 2007 को गिरफ्तार किया था। बिनायक सेन को देश के खिलाफ युद्ध छेड़ने, लोगों को भड़काने, प्रतिबंधित माओवादी संगठन के लिए काम करने के आरोप में दोषी करार दिया गया था और 24 दिसंबर 2010 को अदालत ने उन्हें आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी। और सजा के बाद जैसी अपेक्षा थी कई बुद्धिजीवी सामने आये और नई दिल्ली के जंतर मंतर पर विचारों, कविताओं और गीत-संगीत के जरिये अपना विरोध दर्ज कराने के लिए अर्पणा सेन, शार्मिला टैगोर, गिरीश कर्नाड, गौतम घोष, अशोक वाजपेयी व रब्बी शेरगिल जैसी कई जानीमानी हस्तियों ने पत्र लिखकर विनायक सेन के लिए न्याय की मांग की। डॉ. बिनायक सेन के मुकदमे के पेरवी बी.जे.पी. के राज्यसभा सांसद और वरिष्ठ वकील रामजेठमलानी कर रहे हैं। जेठमलानी साहब का पता नही की कब वो वकील की हेसियत से काम करते हैं…..और कब राजनेता के रूप में ………?

58 वर्षीय डा.विनायक सेन शिशु रोग विशेषज्ञ है, जिसका जन स्वास्थ्य अधिकारी के रूप में राज्य के आदिवासियों को सेवाएं प्रदान करने का 25 सालों का रिकार्ड है। सेन ने वेल्यूर के सीएमसी (क्रिश्चन मेडिकल कॉलेज) से स्नातक की डिग्री हासिल की थी। 2004 में उसे पॉल हैरिशन नामक अवार्ड से नवाजा गया था। लंबे समय तक बिनायक ने चिकित्सा के क्षेत्र में सेवाएं देने के साथ-साथ दूसरे कामों में भी समय दिया। राज्य मितानिन कार्यक्रम के तहत उसे राज्य सरकार के साथ काम करने का मौका मिला। पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी के समय में वो स्वास्थ्य विभाग के अतंर्गत राज्य सलाहकार कमेटी के सदस्य के पद पर नियुक्त रहे। धीरे-धीरे सेन ने नागरिक आजादी और मानव अधिकार के कार्यो में रुचि बढ़ाई और वह राज्य के ऐसे सबसे पहले व्यक्तियों में गिने जाने लगे, जिन्होंने धान का कटोरा कहलाने वाले छत्तीसगढ़ प्रदेश में भूखमरी और कुपोषण के खिलाफ एक खोजी रिपोर्ट तैयार की।

उसी समय उन्हें पीयूसीएल (पीयूपल्स यूनियन फॉर सिविल लीबरटिस) का राज्य अध्यक्ष और राष्ट्रीय उपाध्यक्ष चुना गया। उन्होंने सलवा जुडूम के खिलाफ लोगों का सबसे पहले ध्यान आकर्षित किया था। इसके बाद से ही उन पर नक्सलियों को समर्थन देने और उनके उद्देश्य के तहत काम करने का आरोप लगा। बाद में पुलिस ने इसकी गंभीरता से जांच की, उनकी गिरफ्तारी हुई और फिर पिछले दो सालों से इस मामले में मुकदमा चलता रहा।

चूंकि वे राष्ट्रीय स्तर पर संगठन के उपाध्यक्ष रहे, इसलिए उनके खिलाफ देशद्रोह के तहत युद्ध की योजना बनाने के लिए भी धारा लगाई गई। बाद में इसके ठोस सबूत नहीं मिल सके। जहाँ एक और शंकर गुहा की आवाज मिल मजदूरो के लिए उठी पर हमेशा के लिए दबा की गई , वही विनायक सेन की आवाज सलाखों के पीछे धकेल दी गई , पर विनायक सेन शायद इस बात को जानते थे की वो जो करने जा रहे हैं उसका परिणाम क्या होगा ………..!

देश में आर्थिक उदारीकरण का दौर नब्बे के दशक में जब से शुरू हुआ तब से भारत दो पाटो में पिसना शुरू हो गया था जिसका सबसे ज्यादा खामियाजा मध्यम वर्ग को उठाना पड़ा। अगर आज महाराष्ट्र के विधर्भ में सबसे ज्यादा किसान आत्महत्या कर रहे हैं तो उसी क्षेत्र में सबसे ज्यादा मर्सडीज़ या बी.एम.डब्लू. कारें सड़क पर उतरती हैं , औरंगाबाद में 113 मर्सडीज़, 101 बी.एम.डब्लू. और वही महाराष्ट्र के पश्चिमी समर्द्ध इलाके जेसे कोहलापुर, सांगली में डॉक्टर ,उद्योगपति और किसान तक़रीबन 180 इम्पोर्टेड कारों की बुकिंग करवातें हैं यानि जो सामाजिक विसंगति पैदा हुई हैं वही आज की परिस्थिति के लिए ज़िम्मेदार हैं और जो इस विसंगति को दूर करने के लिए आवाज उठता हैं वो सरकार विरोधी या विकास में बाधक माना जाता हैं।

विनायक सेन अगर दिल्ली के पॉश इलाके या किसी न्यूज़ चेनल के स्टूडियो में बैठ कर नक्सली इलाको में सुधार की बात करते या फिर नक्सलियों की मांगो को जायज ठहराते तो उनको कम से कम सजा तो नही मिलती पर उन्होंने देवता रूपी चिकित्सक के पेशे को किसी मल्टीस्टार हॉस्पिटल के बजाय छत्तीसगढ़ के आदिवासी इलाको में इस्तेमाल करने का फैसला किया और जब से उन्हें उम्रकेद की सजा हुई हैं तब से कई बुद्धिजीवी जिसमे लेखक , कलाकार , छात्र संघटन शामिल हैं , उनकी रिहाई की मांग उठा रहे हैं ,……….ये आवाज शिबू सोरेन, कलमाड़ी या पूर्व दूरसंचार मंत्री राजा सरीखे व्यक्तियों के मामले में नही उठी , जो भ्रष्टाचार के मामलो में आरोपी हैं , और जो रकम इन लोगो ने हड़पी हैं वो देश की आवाम की हैं, पर वो उन लोगो तक नही पहुँच पाई जिन पर उनका हक था ……..और अपने इसी हिस्से को हासिल करने ले लिए कुछ लोग आन्दोलन करते हैं और कुछ सीधे बन्दुक का सहारा लेतें हैं। पर इसे विडम्बना कहे या दुर्भाग्य जो व्यवस्था के शिकार हैं वो दोषी माने जातें हैं और जिनके कारण ये सब हुआ हैं वो शासन में भागीदारी रखते हैं।

डॉ सेन पर कई विचारक लिखते हैं की, आखिर सेन ने अपने काम के लिए भारत में छत्तीसगढ़ ही क्यों चुना …..? उनके अनुसार विचारो के आवेश और मृग मरीचिका में आकर विनायक सेन, कानू सान्याल , चारू मजुमदार , कोबाद गाँधी जैसे लोग इस तरह की विचारधारा को अपना लेते हैं ……….। पर हाथ पर हाथ धर कर या सिर्फ सुझाव देकर किसी समस्या से निजात नहीं मिलती।

04 फरवरी 2011 को सुप्रीम कोर्ट ने भी अपने एक फैसले में कहा हैं की कोई भी प्रतिबंधित संघठन की सदस्यता से कोई भी व्यक्ति अपराधी नही बन सकता ……….जब तक कोई व्यक्ति हिंसा में शामिल न हो या हिंसा के लिए लोगो को न उकसाए , उसे अपराधी नही माना जायेगा …….” अदालत ने यह आदेश प्रतिबंधित उग्रवादी संघठन उल्फा के कथित कार्यकर्ता अरूप भुईया के मध्य नज़र दिया। दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 124 के तहत अगर कोई व्यक्ति या संगठन जो शासकीय व्यवस्था को कोसते हों या सुधारने की कोशिश करते हों, तो उसे राज्य के खिलाफ युद्ध नहीं माना जाना चाहिए।

क़ानून हमें अभिव्यक्ति और अपने अधिकारों के प्रति सजग रहने को कहता हैं लेकिन कोई भी सरकार न तो अधिकारों को जनता को दिला पाई हैं बल्कि जनता को उनके कर्तव्यों का बोध कराने लगती हैं।

हाल ही में महाराष्ट्र का वाकया सबके सामने हैं ……….पदमश्री पुरुष्कार प्राप्त विश्वविख्यात आदिवासी चित्रकार जिव्या मसे को 34 साल के संघर्ष के बाद ज़मीन मिली, ये ज़मीन उन्हें 1976 में राष्ट्रपति फखरूदीन अली अहमद द्वारा दी गई थी। पर लम्बे संघर्ष के बाद आखिर राहुल गाँधी के महाराष्ट्र दौरे पर खुद राहुल गाँधी ने तीन एकड़ भूमि के कागजात उन्हें सोपे। पर जिन्दगी 34 साल उन्होंने इसे भंवर में उलझकर बिता दिए ……..ये सब घटनाये समाज के सामने चुनोतियाँ हैं क्योकि इन्ही की वजह से एक इन्सान सिस्टम के खिलाफ खड़ा होता हैं।

बात सिर्फ एक विनायक सेन को सजा को लेकर नहीं हैं , बल्कि इस बात को लेकर हैं की सरकार अपने नागरिको को लेकर कितनी सजीदा हैं, क्या नागरिको को ही राष्ट्रधर्म निभाना होगा और प्रशासन अपना सेवा धर्म भूलता जा रहा हैं, सर्वोच्च न्यायलय को देश की सर्वोच्च संसद को आज उसकी ज़िम्मेदारी याद दिलानी पड़ती हैं ………….परिवर्तन की ये आहट किसी भी लोकतान्त्रिक व्यवस्था वाले देश के लिए घातक हैं खासकर भारत जैसे देश के लिए जिसके बड़ी आबादी युवा हैं और वह एक बेहतर भविष्य की आस में हैं। हाल ही में अरब देशो में हुआ घटना क्रम इसका सबसे ताज़ा उदहारण हैं। टयूनीशिया, यमन, मिस्त्र , सूडान में जो आक्रोश वहां की जनता ने दिखाया वो एक सबक हैं , जहाँ शासन के विरुद्ध आक्रोश दिखने वाले ज़्यादातर युवा हैं। सरकार को युवाओं के बेहतर भविष्य का ज़िम्मा बखूबी निभाना चाहिए। जिससे हमारे देश की राष्ट्रीय अस्मिता पर कोई आंच न आये।

तीसरी दुनिया बनाम साम्राज्यवाद का चरागाह

श्रीराम तिवारी

विगत दिनों मुंबई पोर्ट से दो समाचार एक जैसे आये. एक -विदेशी आयातित प्याज बंदरगाहों पर सड़ रही थी . कोई महकमा या सरकार सुध लेने को तैयार नहीं ;परिणामस्वरूप देश में निम्नआय वर्ग की थाली से प्याज लगभग गायब ही हो चुकी थी. दूसरा समाचार ये था कि पश्चिमी विकसित राष्ट्रों का परमाण्विक कचरा भारतीय बंदरगाहों से ; रातोंरात ऐसे उतारवा लिया कि किसी को भी कानों कान भनक भी नहीं लगी .वह खतरनाक पर माणुविक रेडिओ-धर्मी कूड़ा करकट कहाँ फेंका गया? मुझे नहीं मालूम, उसके नकारात्मक परिणामों का सरकार और जनता ने क्या निदान ढूंढा वह भी मुझे नहीं मालूम .जिस किसी भारतीय दिव्य-आत्मा को मालूम हो सो सूचित करे …..

यह नितांत सोचनीय है कि एक ओर देश के बंदरगाहों पर विदेशी औद्योगिक कचरे को उतारा जा रहा है, दूसरी ओर खुले आम कहा जा रहा है कि तीसरी दुनिया के देशों को प्रदूषण-निर्यात से अमेरिका को तो भारी लाभ होगा ही आयातक राष्ट्रों को भी विकसित राष्ट्रों -G -२० से आधुनिकतम तकनालोजी और विश्व बैंक की कम ब्याज दरों पर ऋण उपलब्धि कि गारंटी का प्रलोभन .विश्व बैंक के आर्थिक सलाहकार सामर्स का कहना है कि ’ हमें तीसरी दुनिया को प्रदूषण निर्यात करने कि जरुरत है’ यह पूंजीवादी पश्चिमी राष्ट्रों कि क्रूरतम मानसिकता और उद्द्योग-जनित प्रदुषण संकट को विस्थापित करने की साम्राज्यवादी दादागिरी नहीं तो और क्या है ? उनका तर्क है की तीसरी दुनिया के अधकांश देश अभी भी औद्योगीकरण से कोसों दूर हैं, उनके समुद्रीय किनारों पर यदि किसी तरह का परमाणु कचरा फेंका जाता है तो इससे होने वाला वैश्विक पर्यावरण प्रदूषण उतना घातक नहीं होगा जितना कि उस सूरते-हाल में संभावित है; जब वो उन्नत राष्ट्रों की सरजमी पर ही पड़ा रहे या यूरोप अमेरिका के सामुद्रिक तटों पर दुष्प्रभावी विकिरणों से धरती को नष्ट करता रहे .उनका एक तर्क और भी है कि तीसरी दुनिया में मौत कि लागत कम है याने जिन्दगी सस्ती सो विषाक्त कचरा तीसरी दुनिया के देशों कि सर-जमीन पर उनके समुद्र तटों पर भेजना युक्तिसंगत है . प्रदूषित पदार्थों के सेवन से चाहे मछलियाँ मरें या इंसान उन्नत देशों के रहनुमाओं को लगता है कि यह सस्ता सौदा है क्योकि इन उन्नत देशों में मौत महंगी हुआ करती है .

पूंजीवादी मुनाफाखोरों की सभ्यता के निहितार्थ स्पष्ट हैं .२०० सालों से यह सिलसिला जारी है .ये तब भी था जब अधिकांश तीसरी दुनिया गुलाम थी .ये तब भी है जबकि लगभग सारी दुनिया आजाद है . प्रारंभ में तो व्यापार और आग्नेय अश्त्रों कि बिना पर यह पूंजीवादी निकृष्ट रूप सामने आया था ; बाद में निवेश, कर्ज और अब प्रौद्योगिकी हस्तांतरण ने विकासशील देशों को पूंजीवादी सबल राष्ट्रों का लगभग गुलाम ही बना डाला है -यही नव्य उदारवाद की बाचिक परिभाषा हो सकती है .तीसरी दुनिया को एक ओर तो आउटडेट तकनीकी निर्यात की जाती है, दूसरी ओर जिन नकारात्मक आत्मघाती शर्तों पर विकासशील राष्ट्रों में औद्द्योगीकरन थोड़े हीले-हवाले से आगे बढ़ा उनमें ये शर्तें भी हैं की आप तीसरी दुनिया के लोग अपने जंगलात, नदियाँ पर्वत स्वच्छ रखें ताकि हम पश्चिम के उन्नत राष्ट्र तुम्हारे देश में आकर उसे इसलिए गन्दा कर सकें की हमारे हिस्से के विषाक्त कचरे का निस्तारण हो सके और पर्यावरण संतुलन की जन-आकांक्षा के सामने हमें घुटने न टेकने पड़ें . विकासशील देशों के पर्यावरण संगठन जंगल बचाने या विकसित देशों के कचरे आयात करने से रोकने के अभियान को मजबूत बनाने के लिए विश्व-व्यापार संगठन पर न तो दबाव डाल रहे हैं और न ही इसमें निहित असमानता, अन्याय एवं खतरनाक आर्थिक -राजनैतिक दुश्चक्र के खिलाफ कोई क्रांतिकारी सांघातिक प्रहार कर पा रहे हैं .यह विडम्बना ही है कि विकसित देशों के पर्यावरण संगठन अपनी सरकारों पर बेजा दबाव डालते हैं कि वे उनके देशों कि जिजीविषा कि खातिर विकासशील राष्ट्रों से अमुक-अमुक आयात बंद करें .उनके लिए कोस्टारिका, भारत या बंगला देश कि शक्कर और शहद भी कडवी है, सो इन गरीब देशों के कपड़ों से लेकर खाद्यान्न तक में उन्हें जैविक-प्रदूषण नज़र आता है ये पर्यावरणवादी पाश्चात्य संगठन ये भूल जाते हैं कि तीसरी दुनिया के गरीब मुल्कों के पिछड़ेपन, अशिक्षा और तमाम तरह के प्रदूषण के लिए सम्पन्न और विकसित राष्ट्र ही जिम्मेदार हैं ;उन्ही के राष्ट्र हितैषियों कि करतूत से तीसरी दुनिया में कुपोषण, भुखमरी, जहालत और प्रदूषण इफरात से फैला पड़ा है .

विकाशशील देश इस भ्रम में हैं कि उनके यहाँ प्रौद्द्योगिकी आ रही है, उनका आर्थिक उत्थान होने जा रहा है किन्तु वे प्रदूषण-समस्या के साथ-साथ बेरोजगारी और विषमता ही आयात कर रहे हैं .विकासशील देशों को ऐसा रास्ता ढूँढना होगा जो इस परिवर्तन कि प्रक्रिया को न केवल रोजगार मूलक बनाए अपितु धरती के स्वरूप को और ज्यादा हानि न पहुंचाए . तब अमेरिका में इंसानी-जिन्दगी महंगी और भारत में इतनी स स्ती न होगी कि भोपाल गैस काण्ड कि २५ वीं वर्षगाँठ पर असहाय अपंगता को अश्रुपूरित श्रद्धांजलि अर्पित करनी पड़े …..

विरोध के बहाने मिशनरी को अपनी जमीन बचाने की चिंता

आर.एल.फ्रांसिस

जैसे-जैसे नर्मदा कुंभ का दिन नजदीक आता जा रहा है वैसे ही ईसाई मिशनरी इसके विरोध में खुल कर सामने आने लगे है। उन्हें डर सताने लगा है कि इस कुंभ में शामिल होने वाले गैर ईसाई आदिवासियों और ईसाई आदिवासियों के बीच तनाव फैल सकता है और इसके साथ ही घबराहट में ईसाई आदिवासी पुन: हिन्दू धर्म में वापसी कर सकते है।

आगामी 10 से 12 फरवरी को मध्य प्रदेश के मंडला में हिन्दू संगठनों द्वारा नर्मदा के तट पर ”माँ नर्मदा सामाजिक कुंभ” का आयोजन किया जा रहा है। राष्ट्रीय स्वयसवेक संघ के बड़े नेताओं सहित इसमें हजारों साधु-संतो के शिरकत करने की सम्भावना है। कुंभ में लाखों आदिवासी समुदाय के लोग इन्हें सुनने के लिए पुंहचने वाले है। आयोजकों का दावा है कि प्रकृति से जुड़ी जनजातियां जो विकास के वह आयाम तय नहीं कर पाई है, जो किया जाना चाहिए था उन्हें विकास की मुख्य धारा से जोड़ने के लिए भी यह सामाजिक कुंभ बड़ा सहायक होगा। अब तक भोले भाले आदिवासी समाज को दिग्भ्रमित कर, उनकी भावनाओं का शोषण किया जाता रहा है। जिस पर अंकुश लगाने के लिये राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा अभियान चलाया जा रहा है।

मंडला भारत के सबसे पिछड़े जिलों की सूची में बीसवें स्थान पर है। यहां पर कौल आदिवासी बड़ी संख्या में है। चर्च उनके बीच लम्बे समय से कार्य कर रहा है। हिन्दू संगठनों द्वारा इस क्षेत्र में दखल को चर्च अपने लिए खतरे की घंटी मान रहा है। हालांकि वह सीधे-सीधे ”माँ नर्मदा सामाजिक कुंभ” पर रोक लगाने की बात तो नही करता लेकिन मध्य प्रदेश सरकार से लेकर केन्द्र सरकार तक जिस तरह की अपनी चिंताओं को वह बता रहा है उसका आशय यही है कि कोई आगे आकर इस आयोजन पर रोक लगा दें। चर्च को डर है कि अगर वह सीधे-सीधे ऐसे आयोजन पर रोक की मांग करता है तो कल को उसके द्वारा की जाने वाली चंगाई सभाओं पर भी ऐसी मांग उठ सकती है।

”माँ नर्मदा सामाजिक कुंभ” को लेकर चर्च नेता देश भर में भय का वातावरण बनाने में जुट गए है। चर्च की एक तीन मैबरों वाली टीम ने आयोजन को लेकर काफी खौफनाक तस्वीर खींची है। टीम ने कहा है कि अब नहीं तो आयोजन के बाद ईसाई समुदाय पर खतरा बड़ सकता है। टीम की सबसे बड़ी चिंता यह है कि कहीं इससे ईसाई आदिवासियों की हिन्दू धर्म में वापसी न होने लगे। वहीं स्थानीय ईसाई इस आयोजन से कोई खतरा महसूस नहीं करते। मध्य प्रदेश कैथोलिक ईसाई महासंघ से जुड़े रार्बट फ्रांसिस ने दूरभाष पर बताया कि स्थानीय ईसाइयों को इससे कोई परेशानी नहीं है। उन्होंने कहा कि जब हमारे ऐसे कार्यक्रम होते है तो हिन्दू समुदाय भी हमसे कोई शिकायत नहीं करता। उन्होंने कहा कि हां, कुछ लोगों को अपना कार्यक्षेत्र कम होता जरुर दिखाई दे रहा है और ऐसे ही लोग समुदाय की सुरक्षा की बातें देश-विदेश में कर रहे है। स्थानीय लोग इस बात को जानते है।

मध्य प्रदेश राज्य अल्पसंख्यक आयोग के पूर्व सदस्य अन्नद बनार्ड ने कहा कि पिछले कुछ दशकों से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े संगठन अब आदिवासी समाज के बीच जाकर काम कर रहे है इस कारण इस समुदाय पर से चर्च का एकाधिकार कम होता जा रहा है और यही चर्च की सबसे बड़ी चिंता है। जहां तक सुरक्षा का मामला है तो यह पूरा आयोजन शांतिपूर्वक तरीके से हो रहा है। राज्य के मुख्यमंत्री ने चर्च नेताओं को सुरक्षा का पूरा भरोसा दिलाया है इस सबके बावजूद कुछ लोग डर का महौल बना रहे है। इसके पीछे एक सोची समझी रणनीति काम कर रही है ताकि ज्यादा लोग इसमें भाग न लें।

दरअसल अब लड़ाई आदिवासी ओर वंचितों को अपने-अपने पाले में रखने की है। ”माँ नर्मदा सामाजिक कुंभ” की काट भी चर्च मिशनरियों ने ढूढ निकाली है। इस आयोजन के दौरान मिशनरी मंडला से 70 कि.मी. दूर ढिढोरी (जिला ढिढोरी) में एक विशाल स्वास्थ्य कैंप का आयोजन कर रहे है। सेंट इलाईस कालेज, जबलपुर की इसमें महत्वपूर्ण भूमिका है। मंडला की तरह ढिढोरी का भी खास महत्व है यह छतीसगढ़ की सीमा से सटा हुआ है। मिशनरियों को आशा है कि इस कैंप के चलते हिन्दू आयोजन में आदिवासियों की भागीदारी कम रहेगी।

चर्च नेता ”माँ नर्मादा सामाजिक कुंभ” पर राज्य सरकार द्वारा खर्च किये जाने वाले सौ करोड़ रुपयों पर भी स्वाल उठा रहे है। अन्नद बर्नार्ड एवं ईसाई विचारक एवं चर्च रेस्टोरेशन के संपादक पी.बी. लोमियो इसे चर्च की सरकार विरोधी मानसिकता बताते है। बनार्ड के मुताबिक यह पैसा हिन्दू संगठनों की जेब में नही गया है बल्कि इस पैसे से रोड, हैंडपंप, और दूसरी बुनयादी सुविधाए प्रशासन द्वारा जुटाई जा रही है और वह स्थानीय लोगो के लिए है। लोमियो कहते है कि प्रभु खीस्त ज्यंती 2000 में वाजपेयी सरकार ने कई सौ करोड़ रुपये अलाट किये थे इसलिए ऐसी बातें केवल सप्रदायों के बीच दूरी बढ़ाने वाली है अत: इनसे बचा जाना चाहिए।

समाज को जोड़ने और उसमें समरसता घोलने का दयित्व सभी का है हिन्दू समाज के साधु संतों को अपने समाज में फैली बुराइयों के विरुद्ध यहा से संघर्ष का बिगुल बजाने की जरुरत है वहीं चर्च को भी धर्मांतरण के चक्रव्यूह से निकलकर अपने ही घर में दयानीय अवस्था में हाशिए पर खड़े करोड़ों धर्मातंरितों की सुध लेनी चाहिए और आशा कि जानी चाहिए कि मंडला और ढिढोरी से सामाजिक बुराइयों के विरुद्ध संघर्ष का बिगुल बजेगा।

अपनी जाति के ब्यूरोक्रेट्स से दूरी बनाएं माया

संजय सक्सेना

उत्तर प्रदेश की ब्यूरोक्रेसी में वर्ण भेद हमेशा से ही चर्चा में रहा है। भाजपा को बनिया-ब्राहमण, कांग्रेस को ठाकुर-ब्राहमण और समाजवादी पार्टी को पिछड़े और मुस्लिम ब्यूरोक्रेट्स पर ज्यादा भरोसा रहा तो बसपा ने दलित वर्ग के ब्यूरोक्रेट्स पर अधिक भरोसा किया, लेकिन अबकी बार माया का निजाम बदला-बदला नजर आ रहा है। यही वजह है कभी आंखों के ‘नूर’ रहे, दलित अफसर अबकी उनके लिए ‘नासूर’ बन गये हैं। लगता है कि पिछले तीन शासन कालों में बसपा और मुख्यमंत्री मायावती के करीबी रहे दलित अधिकारी इस बार माया के ‘सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय’ की नीति में फिट नहीं बैठ रहे हैं। बसपा की सोच को आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले यह दलित ब्यूरोक्रेट्स अबकी के माया राज में उपेक्षित और महत्वहीन पदों पर बैठे हैं, इससे तो वह कुंठित हैं ही,इससे अधिक दुख उन्हें दुख इस बात का है कि मायावती ‘अपर कास्ट’ के अधिकारियों के चंगुल में फंस कर अपने वोट बैंक को कमजोर कर रही हैं। राजनैतिक पंडितों का आकलंन है कि बसपा सरकार के करीब चाल साल के कार्यकाल के दौरान दलित अधिकारियों को महत्वपूर्ण पदों के बजाय महत्वहीन पदों पर तैनाती मिलने से इस वर्ग के अधिकारियों में जो नारजगी बढ़ी हैं, वह भविष्य में होने वाले चुनावों में बसपा के लिए खतरे की घंटी साबित हो सकती है। चौथी बार सत्ता पर काबिज हुईं माया ने अबकी अपर कास्ट के अधिकारियों पर तो अधिक विश्वास किया ही इसके अलावा जिन दलित अधिकारियों ने अपनी योगयता के बल पर महत्वपूर्ण पदों को हासिल किया था, उन्हें भी सोशल इंजीनियरिंग के नाम पर ‘बलि’ देनी पड़ गई।

कभी नेतराम, श्रीकृष्ण, कपिलदेव, डॉ जेएन चैम्बर, फतेहर बहादुर, चंद्रप्रकाश, चंद्रभानु तथा अनिल संत आदि अधिकारियों को मुख्यमंत्री का करीबी माना जाता था। ये दलित अधिकारी मायावती के पिछले तीन कार्यकालों में महत्वपूर्ण पदों पर तैनात भी रहे थे।यूपी में 13 मई 2007 को दलित की बेटी कहने वाली मायावती के नेतृत्व में बसपा की पूर्ण बहुमत की सरकार बनी तो दलित अफसरों की उम्मीदों के पंख लग गए। उनको विश्वास था कि अब उनका वनवास खत्म होगा और महत्वपूर्ण पदों पर तैनाती मिलेगी, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। न जाने क्यों माया ने दलित अफसरों से दूरी बढ़ा ली। सेवानिवृत्ति के करीब पहुंच चुके एक दलित अधिकारी ने माया की सोच में आए परिवर्तन के संबंध में कहा कि इस बात का उन्हें काफी दुख है कि उनकी उपेक्षा अपनी ही सरकार में हो रही है जबकि पूर्व सरकारों में भी इतनी उपेक्षा नहीं थी जिन दलित अधिकारियों के पास महत्वपूर्ण पद हैं वे अपने पद को बचाने के लए ज्यादा फिक्रमंद रहते हैं।’दलितों क मसीहा’ के चौथे कार्यकाल में माया के करीबी अधिकारियों में दलितों के बजाय सवर्ण जाति के अधिक हैं। कहा तो यहां तक जाता है कि सवर्ण जाति के कुछ अधिकारी ही दलित अधिकारियों की महत्वहीन तैनाती करवाने में अहम भूमिका निभाते हैं। इन्हीं अधिकारियों की वजह से कई दलित अधिकारियों से महत्वपपूर्ण पद छीने गए हैं। जिनमें डा जेएन चैम्बर, नेतराम श्रीकृष्ण, कपिलदेव, चंद्र प्रकाश तथा एनएस रवि आदि हैं। इस सबंध में एक पूर्व आईजी एसआर दारूरी कहते हैं कि मुख्यमंत्री मायावती दलितों के नाम पर राजनीति तो जरूर कर रही हैं, लेकिन दलित अधिकरियों को महत्वपूर्ण पदों पर तैनाती नहीं दे रही हैं। इसकी वजह साफ है कि मायापती के एजेंडे में दलित नहीं अब सिर्फ ब्राहमण ही रह गये हैं। कभी मायावती के करीबी अधिकारियों में रहे बारबांकी से कांग्रेसी सांसद और राष्ट्रीय अनुसूचित जति आयोग के अध्यक्ष पीएल पुनिया का तो मायावती से विश्वास ही उठ गया है। वह जिस भी मंच पर जाते हैं,वहां बार-बार दोहराना नहीं भूलते हैं कि मायावती दलितों के साथ धोखा कर रही हैं। पुनिया, माया को दलितों का गुनहागार बताते हुए कहती हैं कि मायावती को सबसे अधिक चिढ़ दलित नेताओं और अधिकारियों से ही है। यही वजह है कि वह किसी भी दलित नेता या अधिकारी को आगे बढ़ने नहीं देना चाहती हैं।

पीएल पुनिया उदाहरण देते हुए बताते हैं कि नेतराम को अपर कैबिनेट सचिव पद से और पूर्व विधानसभा परिषद सभापति कमलाकांत गौतम को इसी वजह से हटाया गया कि कहीं ये दलित अधिकारी और नेता अधिक लोकप्रिय न हो जाएं। उन्होंने कहा कि उनके पास तमाम ऐसे दलित अधिकारी फोन कर अपने उत्पीड़न का दुखड़ा रोते हैं। इसमें से कुछ उम्मीद लगाए बैठे है कि विधान सभा का चुनाव करीब आते-आते उनको ‘शानदार’ तैनाती मिल जाएगी।

यह क्या हो रहा है?

श्याम नारायण रंगा ‘अभिमन्यु’

लोकतंत्रात्मक व्यवस्था में जनता द्वारा शासन को सुचारू चलाने के लिए एक तंत्र का निर्माण किया जाता है और आमजन अपने इस तंत्र से उम्मीद करता है कि वह आमजन की परेशानी को समझे और उसको दूर करने के उपाय करे। लेकिन जब राज चलाने वाला यही तंत्र राज काज में विफल हो रहा हो तो आमजन किसकी तरफ देखे और फिर किससे उम्मीद करे। वर्तमान में जो हालात है उस पर गौर करें तो पता चलता है विश्व के इस सबसे बड़े लोकतंत्र को शायद किसी की नजर लग गई है और इसको जनता की उम्मीदों पर चलाने वाला कोई नहीं रहा है। हम गौर करें तो पिछले कुछ समय से इस देश में जो कुछ भी हो रहा है उसको देख कर सबके मुँह से यही निकल रहा है कि ये क्या हो रहा है………

पिछले दिनों भरी अदालत में दिन दहाड़े एक युवक ने आरूषि हत्याकांड की जाँच के दौरान गवाही के लिए जा रहे आरूषि के पिता राजेश तलवार पर हमला कर उनको लहुलुहान कर दिया, याद रहे ये वो ही युवक है जिसने रूचिका गिरहोत्र मामले में एसपी राठौड़ पर भी हमला किया था। इसी तरह छत्तीसगढ़ के कुछ पुलिसकर्मी अपने अपने परिवार के अपहृत परिजनों की तलाश खुद कर रहे हैं उनको अपने ही पुलिस प्रशासन पर भरोसा नहीं रहा है। एक और घटना पर गौर करे तो दिल्ली में सरेराह आम लोगों ने एक चोर को पकड़ा और इतना पीटा की वह चोर सड़क पर ही मर गया। इसी तरह की घटनाएँ आजकल आम हो गई है और बलात्कार की शिकार एक महिला ने मंत्री को उसके घर में जाकर चाकू घोंप दिया।

अगर हम चिंतन करें तो यह बात सामने आती है कि आज आम जन को अपने ही बनाए तंत्र पर भरोसा नहीं रहा है। आम आदमी को लगता है कि यह मामला पहले पुलिस में जाएगा तो हो सकता है कि कोई रसूखदार और पहुँचवाले आदमी की शह मिल जाए और मामला थाने तक ही सिमट कर रह जाए या फिर यह मामला अदालत में जाएगा जहाँ पहले से ही लाखों मामले अटके पड़े हैं तो आज आम आदमी के दिलों दिमाग पर यह बात घर कर गई है कि ऐसे ही चोरियाँ होनी है ऐसे ही भ्रष्टाचार होना है और इन सब बेईमानों का कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता तो इस मन: स्थिति ने व्यवस्था को अपने हाथ में लेने की आदत डाल दी है। लोगों को कोई उम्मीद अपने राजनेताओं और न्यायापालिका या कार्यपालिका से नहीं रही है और आम जन का धीरज टूट गया है और यही कारण है कि जनता उग्र हो जाती है तोड़ फोड़ करती है। यह सारी स्थितियाँ राज की कमजोरी को दिखाती है और यह दर्शाती है कि आज राज का नियंत्रण नहीं रहा हेै।

इन सबसे इतर एक और हालात है जो अभी सुर्खियों में है और वो है महंगाई से बेहाल जनता। महंगाई का यह आलम है कि आमजन प्याज नहीं खा सकता और चीनी की मिठास से दूर हो गया है। दाल के स्वाद को भूलने की स्थिति आ गई है और अगर ये हालात ऐेसे ही रहे तो चोरी, लूट, कालाबाजारी को इतना बढ़ावा मिलेगा कि स्थिति नियंत्रण के बाहर हो जाएगी और हालात काबू में नहीं रहेंगे। महँगाई के कारण एक चक्र चलता है जिससे अंतर्गत आम आदमी अपनी जरूरत को पूरा करने के लिए चोरी का सहारा लेता है और इससे समाज में अराजकाता और अशांति फैलती है और आम जन के जीवन पर इसका फर्क पड़ता है।

ये तो बात हुई आम आदमी की अब दूसरी तरफ हम अगर लोकतंत्र के हूक्मरानों पर नजर डाले तो माजरा कुछ ओैर ही नजर आता है। इस देश के प्रधानमंत्री यह कहते हैं कि भ्रष्टाचार इतना है कि अपने लोगों के बीच जाते शर्म आती है, तो सम्मानीय प्रधानमंत्री जी इस भ्रष्टाचार को रोकने के लिए भारत का आम आदमी ओबामा के सामने फरिययाद थोड़ी करेगा, इस समस्या का समाधान तो आपको ही निकालना होगा भारतीय लोकतंत्र के तंत्र के आप ही सबसे प्रमुख व्यक्ति हो और अगर आप ही ये कहते हो कि शर्म आती है तो आम आदमी किसके पास जाए।

एक तरफ जहाँ महँगाई का आलम है वहीं शरद पँवार जैसे जिम्मेदार मंत्रियों का यह कहना है कि मैं कोई ज्योतिषि नहीं हँ और प्रणव मुखर्जी वित्त मंत्री के पद पर रहते हुए यह कहते हैं कि मेरे पास कोई जादू की छड़ी नहीं है। गौर करें कि विश्व के इस सबसे बड़े लोकतंत्र के राजाओं के यह बयान कितने गैर जिम्मेदाराना है। उनको यह मालूम होना चाहिए कि भारत की आम जनता यह मानती है कि उनके कृषि मंत्री ज्योतिषि नहीं है परन्तु जब अनाज की समस्या आएगी तो कृषि मंत्री को ही उसका हल निकालना होगा और अगर महँगाई बढ़ेगी तो वित्त मंत्री ही कोई जादू की छड़ी घुमाएॅगे। आम आदमी यह नहीं जानता कि वह जादू कैसा होगा या क्या होगा। पर यह जनता दाल रोटी प्रेम से खाना चाहती है, गरीब आदमी प्याज से ही गुजर बसर करता है तो उसको यह पता है कि अगर प्याज के भाव कम होेंगे तो सरकार ही करेगी तो वित्त मंत्री जी आपको इसका कोई उपाय तो करना ही होगा।

इसी तरह एक प्रदेश के मुख्यमंत्री यह कहते हैं कि डॉक्टर लाशों को वैन्टीलेटर पर रखते हैं, बाबू लोगों का काम नहीं करते, पुलिस वाले चोरों को जानते है पर पकड़ते नहीं है। तो मुख्यमंत्री जी आपको यह ध्यान रखना होगा कि ये डॉक्टर ये बाबू ये पुलिस वाले सब आपके ही कर्मचारी है और ये सब लोग अगर ऐसा करते हैं तो इसकी जिम्मेदारी आपकी है कि आप इस सारी व्यवस्था में सुधार करें । आप जनता के सामने यह कहकर क्या जताना चाहते हैं कि आप पाक और साफ है और व्यवस्था खराब है। नहीं मुख्यमंत्री जी यह जनता भी आपकी है और यह व्यवस्था भी आपकी है।

आजकल इस तरह के बयान देना फैशन बन गया है लगता है। इस देश के नेता जनता के सामने लाचारगी दिखा कर जनता का विश्वास जीतना चाहते हैं और उनके दया के पात्र बनना चाहते हैं। पर उनको यह याद रखना चाहिए कि व्यवस्था में राजा ही नाकाम हो जाए तो दोष जनता का नहीं है। यह राजा की जिम्मेदारी है कि वह जनता के सुख स्वास्थ्य व सुविधा का ध्यान रखे। इस तरह की व्यवस्था में जनता कहाँ जाए किसके सामने फरियाद करे।

अंत में अपनी बात यह कहकर ही समाप्त करना चाहूँगा कि लोकतंत्र में तंत्र की सुदृढ़ता जिम्मेदारी लोक के नुमाइंदों की है और इन नुमांइंदों को समझना होगा कि वे राज के हकदार नहीं है बल्कि इस राज के न्यासी है और उनकी जिम्मेदारी है कि जिस जनता ने उनको ये राज सौंपा है उस जनता की चेहरे पर मुस्कान रहे और उसकी नजरों की आशाओं के दीप झिलमिलाते रहे।

आत्मशोधन, आत्मनिरीक्षण और आत्मपरीक्षण

नंदलाल शर्मा

आज के समय में गाँधी के आदर्श और उनके मूल्यों की जरूरत हर किसी को हो रही हैं। देश में बढ़ती हिंसा और अमीर गरीब के बीच बढ़ती खाई ने गाँधी के बताये रास्तों पर चलने वालों के माथे पर शिकन की लकीरें खींच दी हैं। आज गाँधी के ग्राम स्वराज की कल्पना का दूर- दूर तक कोई निशान दिखाई नहीं देता।

आज देश की सत्ता कुछ चंद गिने चुने उद्योगपतियों और राजनेताओं के हाथों का खिलौना बनकर रह गयी है। गाँधी के जन्मदिन और पुण्यतिथि पर उनके समाधिस्थल राजघाट पर फूल चढ़ाने वालों की कोई कमी नहीं है। लेकिन फूल चढ़ाने वालों को गाँधी के विचारों , मूल्यों और सपनों से कोई लगाव नहीं है। इसका कारण बहुत कुछ है, लेकिन ये तो कहा जा सकता है की आज के सत्ताधीशों की पीढ़ी ने गाँधी के विचारों और मूल्यों से तौबा कर ली है।

गाँधी को समझने के लिए मात्र तीन चीज़ें ही काफी है। आत्मशोधन, आत्मनिरीक्षण और आत्मपरीक्षण। अगर आप ने इन तीनों को अपने जेहन में उतार लिया तो समझिये आप ने गाँधी को समझ लिया। अगर हम गाँधी द्वारा किए गए कार्यो का अवलोकन करे तो गाँधी के व्यक्तित्व में ये तीनों चीज़ें साफ दिखती हैं । गाँधी को हमने राष्ट्रपिता का दर्जा तो दे दिया। लेकिन उनके बताये मूल्यों को अपना ना सकें।

इस देश को चलाने वाले लोगों ने गाँधी के आत्मशोधन, आत्मनिरीक्षण और आत्मपरीक्षण को अपनाया होता तो आज देश में भ्रष्टाचार का बोलबाला नहीं होता। सत्ता पर लोगों का मनमानापन नहीं चलता। देश के हर व्यक्ति को उसका हक मिल पाता और समुदायों के बीच इतनी खाई ना होती। जब देश की जनता आपको सत्ता की बागडोर सौपती है तब आपकी यह जिम्मेदारी बन जाती है की आप देश की जनता के प्रति जिम्मेदार हों। आत्मशोधन इसमें आपकी मदद करता है। इसकी मदद से आकंक्षाओं, लालसा और स्वार्थ पर नजर रखते हैं। इसकी वजह से आप अनैतिक कार्यो से बचते हैं। और खुद में सुधार करके अपने व्यक्तित्व को उँचा उठाते हैं।

आत्मशोधन के बाद व्यक्ति को आत्मपरीक्षण की मदद से अपने व्यक्तित्व को मापते रहना चाहिए। इससे व्यक्ति को अपने व्यक्तित्व की खामियों का पता लगातार चलता रहता हैं। जिससे उसे सुधार की दिशां में आगे बढ़ने में सहूलियत रहती है। आत्मपरीक्षण व्यक्ति के विश्वास को मजबूत बनाता है साथ ही असत्य और भय से मुक्त रखता हैं। आज के सत्ताधीशों के व्यक्तित्व में इन तीनों चीज़ों की घनघोर कमी दिखाई पड़ती हैं। शायद इन लोगों ने स्वार्थ, अहंकार और गैर जिम्मेंदारी का आवरण ओढ़ना ही बेहतर समझा है। ताकि दूसरों के हिस्सें को आसानी से पचाया जा सके।

गाँधी ने कहा था की सत्य मेरे लिए सहज था। बाकी चीज़ें मैंने प्रयत्नपूर्वक प्राप्त किया। जैसे ब्रह्मचर्य, सत्य बालक मात्र के सहज होता है। एक बालक को बाकी चीजें असहज बना देती हैं। आज भारतीय प्रशासन में सत्यता कि कोई जगह नहीं है। जनता को आज मुर्ख बनाया जा रहा है। चेहरे पर सत्य का आवरण ओढ़े लोगों की सच्चाई राडिया टेप से सामने आ रही है।

सत्य को देखने में गाँधी को उनकी भाषा, संस्कृति और अस्तित्व ने काफी मदद की, लेकिन जब भाषा, संस्कृति और अस्तित्व ही बदल जाये तो आप क्या करेगें। फिर सत्य को कैसे देख पायेगें। आज यही हो रहा है। सत्ता में विराजमान लोगों को इस देश के पिछड़ों, गरीबों और आदिवासियों से जुड़ी समस्याएं नहीं दिख पा रही हैं। क्यों की इन्होंने तो अपनी संस्कृति को ही भुला दिया हैं। इसलिए किसी व्यक्ति के लिए भाषा, संस्कृति और अस्तित्व का महत्वपूर्ण होना उचित हों जाता है। किसी दूसरी भाषा और संस्कृति की अपेक्षा।

गाँधी की नौका दो श्रध्दा में चली। पहला यह की हर किसी में सत्य और अच्छाई विद्यमान हैं। और दूसरा यह की विश्व, सदैव कल्याण की दिशा में आगे बढ़ता हैं। आज के आलोचक जो गाँधी के बारे में लिखते हैं। उन चीज़ों का जिक्र गाँधी ने अपनी आत्मकथा में किया हैं। गाँधी हाथ जोड़कर बैठने वालों में से नहीं थें। उन्होंने ने चुनौतियों को स्वीकार किया। अपने जीवन में गाँधी हर परिस्तिथि को चुनौती देने के लिए तैयार थें। सत्य को वो अतीत से देखते थे।

आज हम गाँधी के मूल्यों, सपनों और आदर्शों की बात किताबों तक ही छोड़ देते है।

अगर हम उन्हें सच्ची श्रध्दांजलि देना चाहते है तो उनके बताये रास्तों पर चलना होगा। लोगों के प्रति ईमानदार होना होगा। ना की दूसरे के हितों को ताक पर रखकर अपने लिए हरम का निर्माण किया जाय।

पत्रकारिता विवि में मनाई गई बसंत पंचमी व निराला जयंती

भोपाल, 8 फरवरी । माखनलाल पत्रकारिता विवि में बसंत पंचमी के पावन पर्व पर मंगलवार को सरस्वती पूजा एवं महाकवि सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला की जयंती मनाई गई। मां सरस्वती की पूजा-अर्चना के बाद विविध सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन किया गया।

कार्यक्रम की शुरूआत मां शारदे वरदान दे , हमको नए नित ज्ञान दे , गीत से करते हुए सरस्वती मां का वंदन किया गया। इसके बाद सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की जयंती पर उनकी कविताओं को याद करते हुए नृत्य-नाटिका आयोजित की गयी। कार्यक्रम में राष्ट्रीय एकता को रेखांकित करते हुए भोजपुरी , मराठी , पंजाबी , मालवी बोली में गीत प्रस्तुत किए गए ।

कार्यक्रम के मुख्य अतिथि के रूप में पधारे वरिष्ठ पत्रकार महेश श्रीवास्तव ने कहा कि शस्त्र के बिना शास्त्र काम नहीं कर सकता । उन्होंने मीडिया के छात्रों का आह्वान किया कि वे समाज में उपस्थित चुनौतियों से जूझने के लिए खुद को तैयार करें और एक सुंदर समाज की रचना करें जिसमें हर व्यक्ति को न्याय मिल सके। सरस्वती मां को उन्होंने आदि शक्ति मां की उपमा दी । विवि के कुलपति प्रो. बी. के . कुठियाला ने मां सरस्वती के पूजन को शिक्षा मंदिरों के लिए अनिवार्य बताया, उन्होंने कहा कि सृष्टि से सरस्वती, सरस्वती से सत्य ,सत्य से सृष्टि की रचना की गई है। विवि के पुस्तकालय परिवार की ओर से हर साल दिया जाने वाला सर्वश्रेष्ठ पाठक का पुरस्कार जनसंपर्क विभाग के छात्र गौरव मिश्रा को दिया गया। मंच का संचालन विवि की छात्रा स्निग्धा वर्धन, मंयक मिश्रा, पूजा श्रीवास्तव, व एनी अंकिता ने किया । कार्यक्रम में मुख्य रूप से रेक्टर प्रो. सीपी अग्रवाल, डा. श्रीकांत सिंह, पी.पी.सिंह, डा. पवित्र श्रीवास्तव, संजय द्विवेदी डा. आरती सारंग, दीपक शर्मा, आशीष जोशी सहित विश्वविद्यालय के शिक्षक एवं छात्र –छात्राएं उपस्थित रहे। कार्यक्रम का आभार प्रदर्शन एम.फिल. के छात्र सुनील वर्मा ने किया ।

अपनी आत्मा व आवाज दोनों खो चुकी है पत्रकारिता : श्याम खोसला

भोपाल, 7 फरवरी। इंडियन मीडिया सेंटर के निदेशक और मीडिया क्रिटिक के संपादक श्याम खोसला (दिल्ली) का कहना है कि वर्तमान युग में पत्रकारिता अपनी आत्मा और आवाज दोनों खो चुकी है। अपनी आत्मा नहीं बेचने वाले उंगलियों पर गिने जा सकते हैं। कही। वे यहां माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में ‘संपादक की सत्ता और महत्ता’ विषय पर आयोजित व्याख्यान में अपने विचार व्यक्त कर रहे थे।

उन्होंने कहा कि पत्रकारिता जब मिशन से प्रोफेशन बनी तो हर्ज नहीं, पर अगर प्रोफेशन से कॉमर्स बन जाए, यह बहुत खतरनाक है। श्री खोसला ने कहा कि पत्रकारिता में भ्रष्टाचार इसलिए नहीं शुरू हुआ कि गुजारा नहीं होता था, बल्कि इसलिए शुरू हुआ क्योंकि लालच बहुत ज्यादा हो गई थी।आज पेड-न्यूज के कारण संपादक रूपी बाड़ ही पत्रकारिता रूपी खेत को खा रही है। ऐसी स्थितियों के कारण खोजी पत्रकारिता की संभावनाएँ लगातार क्षीण होती जा रही हैं क्योंकि पत्रकारिता में ईमानदारी का सख्त अभाव होता जा रहा है।

कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. बृजकिशोर कुठियाला ने कहा कि संपादक नाम की संस्था का क्षरण होने से ही ये हालात पैदा हुए हैं और हमें कई स्थानों पर निराशाजनक उदाहरण मिले हैं। उन्होंने कहा कि संपादक की सत्ता को अनुकूलित किया जाना खतरनाक है। इससे मीडिया, कारपोरेट और व्यावसायिक घरानों का पुरजा बनकर रहा जाएगा। संपादक की सत्ता दरअसल उस आम आदमी की आवाज भी है, जिसे अनसुना किया जा रहा है। कार्यक्रम में अंत में जनसंपर्क विभाग के अध्यक्ष डॉ. पवित्र श्रीवास्तव ने आभार व्यक्त किया तथा संचालन जनसंचार विभाग के अध्यक्ष संजय द्विवेदी ने किया। इस अवसर पर महाराणा प्रताप कालेज, गोरखपुर के प्राचार्य डा. प्रदीप राव, पत्रकारिता विभाग के अध्यक्ष पुष्पेंद्रपाल सिंह, पूर्णेंदु शुक्ल, डा. संजीव गुप्ता, केसी मौली, डा. मोनिका वर्मा, सुरेंद्र पाल सहित विश्वविद्यालय के विद्यार्थी मौजूद रहे।

भविष्य का मीडिया और समाज

पूजा श्रीवास्तव

लोकतंत्र का पहरेदार, चौथा स्तम्भ-प्रेस भविष्य में क्या रूप इख्तियार करेगा इस बात ने हर किसी को अपने पाष में बांध रखा है। मीडिया के हितों की चिंता करने वालों में एक वर्ग ऐसा भी है जो वर्तमान स्थितियों में समाचार पत्रों के अस्तित्व को संकट में मानता है तो दूसरा वर्ग मीडिया में भावी संकट की आकाषवाणी कर रहा है। भविष्य का मीडिया, इसे सुनकर दो तरह की बातें ज़हन में आती है एक ये कि भविष्य का मीडिया कैसा होगा, दूसरी ये कि भविष्य का मीडिया कैसा होना चाहिए?

भविष्य का मीडिया कैसा होना चाहिए इस बात का अनुमान हम वर्तमान और भूतकाल में हुई घटनाओं के द्वारा लगा सकते हैं। यह तो सब को विदित है कि पत्रकारिता जिस उद्देश्य को लेकर शुरू हुई थी आज उसका वह स्वरूप नहीं रह गया है। विज्ञापनों की अधिक संख्या में समाचार तत्व का गुम हो जाना, एक तरफा समाचारों के प्रकाशन के लिए दबाव, समाचार चयन और उनके प्रकाशन में प्रबंधन, मार्केटिंग, प्रसार आदि विभागों का हस्तक्षेप अन्य समाचार माध्यमों जैसे टी वी, इंटरनेट आदि के प्रभाव में समाचार पत्रों की ताज़गी पर सवाल खड़े उठते हैं।

भावी मीडिया का रूख किस तरफ होगा, इस बात की पुष्टी आज के अखबार एवं मीडिया हाउस स्पष्ट करते नज़र आ रहे हैं। आज सहज देखा जा सकता है कि बड़े समाचारपत्रों की दिलचस्पी गंभीर साहित्यिक, संस्कृतिक व राजनीतिक पत्रिकाओं के प्रकाशन में लगभग न के बराबर है। कई पत्रों ने तो अपने पृष्ठ से साहित्य, संस्कृति, पुस्तक-समीक्षा आदि मसलों को बाहर कर दिया है। खबरों को रोचक बनाना, शीर्षक दिलचस्प होना आदि समाचार प्रस्तुति की शर्त बना दी गई है। समाचार पत्रों में अब फैशन, फिटनेस, सौंदर्य, खाना पीना, ज्वेलरी, मॉडल आदि के कवरेज ज्यादा दिखाए जा रहे है। आज यह हालत है तो कल भविष्य में टीवी चैनलों से गंभीर आर्थिक, राजनीतिक सांस्कृतिक व साकाजिक बहस लगभग लुप्त हो जाएंगे। समाज से जुड़े सभी जरूरी मसले तब मीडिया की प्राथमिकता -सूची में नहीं रहेंगे। दूसरी और जहां तक बात की इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की तो इनका ये हाल होगा की ये क्राईम, अश्लीलता, मनोरंजन, धर्मदर्शन दिखाने के साथा-साथ कम से कम एक ख़बर दिखाने का वादा करते नज़र आएंगे। खबर की प्रस्तुति की जाए तो मीडिया चैनल गलाकाट प्रतिस्पर्धा व टी आर पी बढाने के उददेश्य से अपने मूलर् कत्तव्यों से विमुख हो जाते है। इसी का प्रतिफल है कि वर्ष 2008 में मुंबई में घटी आतंकवादी घटना ने पूरे देश के सामने भारत का मीडिया कटघरे में खड़ा हो गया। खासतौर पर टीवी चैनलों ने 60 घंटो का रियलिटी शो या टेरर रियालिटी शो दिखाकर दहशत फैलाने के साथ-साथ सेना व सुरक्षा बलों के काम में भी गंभीर रूकावटे पैदा की। अगर इस बिना लगाम वाले मीडिया पर पाबंदी न लगाई गई तो भविष्य में भयानक परिणाम के साथ मीडिया का रूप दिखाई देगा।

दूसरी ओर जहां तक बात की जाए सामाजिक सरोकार के मुद्दे पर तो पिछले दो दशक में भूमंडलीयकरण की तेज चल रही प्रक्रिया के कारण भारतीय मीडिया के स्वरूप व चरित्र में गुणात्मक बदलाव आया है। जो मीडिया पहले देशी सरोकारों और राष्टीय भावनाओं से ओत-प्रोत था वह अब विदेषी पूंजी के लोभ में सारी मर्यादाएं तोड़ देने को उदधत है। मीडिया के दो घटक महत्तवपूर्ण हैं-पूंजी और समाज। दोनों ही आवष्यक तत्व है पर इसका अर्थ यह नहीं की मीडिया दोनों में संतुलन ही भूल जाए। भूतकाल में मीडिया में जो समाज और दुनिया की बातें होती थी, वो आज मतलब की चाश्नी में लपेटकर पेश की जाती है। बडी सेलिब्रिटी हो या राजनेता हर कोई मीडिया का इस्तेमाल स्वार्थ सिद्धि के लिए ही करता नजर आता है। उदाहरण प्रस्तुत है कि अभी हाल ही में थ्री इडियट फिल्म के अभिनेता आमिर खान चंदेरी के कारीगरों से मिलने आए पर ठीक उसी वक्त जब उनकी फिल्म रिलीज होने की कगार पर थी। अगर यही हाल रहा तो मीडिया में सामाजिक सरोकारों की कल्पना भविष्य में इस प्रकार ही होगी कि सेलिब्रिटियों द्वारा किये गये समाज उत्थान के लिए किए गए दिखावे ही मीडिया में अपनी जगह दिखा पाएंगे।

जब आज वर्तमान में ही कुछ गिने चुने को छोडकर कोई पत्रकार सामाजिक विषयों पर काम करना नहीं चाहता तो भविष्य में इसकी हम क्या आषा कर सकते हैं। उदाहरण प्रस्तुत है एक बार जाने माने पत्रकार पी. साईनाथ ने बताया था कि ”जब मुंबई में (वर्ष 2007) लेक मे फैशन वीक में कपास से बनी सूचती कपड़ों का प्रदर्शन किया जा रहा था लगभग उसी दौरान विदर्भ में किसान कपास की वजह से आत्महत्या कर रहे थे। ” इन दोनों घटनाओं की सबसे बड़ी विडम्बना यह है कि फैशन वीक को कवर करने 512 पत्रकार पहुंचे पर उन किसानों की आत्महत्या को कवर करने के लिए पूरे देश से मात्र 6 पत्रकार ही पहुंचे।

भविष्य के मीडिया में कई दोष नजर आ रहे हैं। वजह यह है कि मीडिया के कई घोडों ने सत्ता की घास से गहरी दोस्ती कर ली है जिसका सार्वजनिकर प्रदर्षन व बड़ी एंठ के साथ करते हैं। अत: कई बार जिसे चैनल या पत्र विषेष जिसे सत्यकथा कहकर प्रचारित कर रहा है। वह हो सकता है की किसी मित्र दल या संस्थान विशेष के स्वार्थों से जुड़ा कोई उपक्रम भर हो। पूंजी और लालच के दलदल में मीडिया दिन-प्रतिदिन धंसता जा रहा है। पेड पत्रकारिता का परचम आज ही षिखर पर है तो भविष्य में इसका असर अत्यधिक दुष्कर होगा। उदाहरण प्रस्तुत है कि मार्च 2003 में देश के सबसे बड़े मीडिया समूह ने मीडिया नेट नाम की पहल की। जिसमें दावा किया गया कि, यह तेजी से बदलते समय में पत्रकारीय रूझानों के साथ कदम से कदम मिलाकर चलने का प्रयास है, पर दरअसल ये पहल पत्रकारों द्वारा निजी स्तर पर इस उद्योग को बढ़ाने का प्रयास था ताकि भ्रष्टाचार को संस्थागत रूप दिया जा सके । एक और उदाहरण यह है कि 1999 से ही छोटे पैमाने पर पैसे के बदले समाचार छापने का चलन शुरू हो चुका है। 2004 और उसके बाद उत्तार प्रदेश, उत्तराखण्ड आदि के विधानसभा चुनावों के दौरान ये बीमारी बढ़ चुकी है।

भावी मीडिया अपने साथ कई नई-नई तकनीकियों को समाहित करके आएगा। तकनीकी क्रांति, मीडिया की बढ़ती ताकत संचार के साधनों की गति समुचित दुनिया को एक स्वप्न लोक में तब्दील कर दिया। भविष्य समाचारपत्रों की टेबलॉयड रूप में हमारे हाथों में आएंगे। इसकी वजह यह है कि भविष्य में समाचारी कागज़ों की कीमत घटेगी नहीं बल्कि और बढ़ेगी। अत: अगर समाचारपत्र निकालना है तो उसके आकार से समझौता करना पड़ेगा। इसके अलावा मोबाईल और इंटरनेट पर समाचार प्राप्ति शुरू होने के साथ ही मीडिया अन्य क्षेत्रों में भी प्रसारित होने लगेगी। भावी मीडिया, टेलीकम्युनिकेषन और कम्प्यूटर उद्योगों के साथ मिल-जुल कर काम करने से यह भूमंडलीय अर्थव्यवस्था का ऐसा क्षेत्र हो जाएगा जो सबसे तेज काम करने वाला और सबसे अधिक विषाल उद्योग बन जाएगा। बिना आर्थिक लाभों और मुनाफाखोरी के यह उद्योग विषुध्द सामाजिक सरोकारों का कोई उपक्रम नहीं कर सकता । आज के अखबार हो या भविष्य के ये उसी प्रकार बिक रहे हैं जैसे साबुन टूथपेस्ट या षेविंग क्रीम। जब आज के समय में तेजस्वी पत्रकारों के लिए कोई स्थान नहीं रह गया है तो भविष्य में क्या स्थिति होगी? पूरे तंत्र पर मार्केटिंग शक्तियां हावी हैं।

आज मीडिया आम आदमी की आजादी का सहारा लेकर हर तरह के बंधनों को तोड़ने को तैयार है। व उन मूल्यों और आदर्शों को भी नहीं मानता जिसकी बाँह पकड़कर उसने समाज में अपनी विश्वसनीयता बनाई है।

मीडिया का यह कृष्ण पक्ष है, किन्तु असीम विसंगतियों के बावजूद मीडिया का अपना एक शुक्ल पक्ष भी है। इस मीडिया के द्वारा ही देष में राजनेताओं और प्रभावशाली लोगों द्वारा किए गए घोटालों का पर्दाफाष किया है। स्टिंग ऑपरेशन की नैतिकता पर भले ही कितने ही प्रष्न चिह्न खड़े हुए हो, किन्तु इसके जरिए उस वर्ग पर अंकुष लगने पर अवष्य सहायता मिलेगी जो अपने को देष के कानून से बड़ा समझते हैं। इसलिए इस तथ्य को नहीं नकारा जा सकता कि मीडिया ने इस के प्रकरणों को उजागर कर सामाजिक चिन्ताओं के प्रति अपनी भूमिका का परिचय दिया है।

सामाजिक सरोकारों से जुड़े मीडिया के अच्छे प्रयासों की बात करे तों वो भी जरूर आगे बढ़ेंगें पर किस रूप में ये पता नहीं। वर्तमान में कई मीडिया संरचनाएं समाज व जनता के हित हेतु कार्य कर रही है उदाहरण के लिए जल सत्याग्रह, पक्षी बचाओं अभियान के साथ साथ मध्यप्रदेश शासन द्वारा प्रस्तावित भास्कर प्लान की असलियत बताते हुए मीडिया ने जलहित में अपना योगदान दिया है। समाज के लिए कार्य करने के लिए मीडिया को प्रोत्साहन देना जरूरी है कई मीडियाकर्मी सामाजिक मुद्दों पर काम तो करना चाहते हैं पर जनता द्वारा उन्हें समर्थन नहीं मिलता। मीडिया के साथ साथ जनता को भी अपना नजरिया बदलने की जरूरत है। अगर जनता की तरफ से प्रोत्साहन मिलता है तो भावी मीडिया समाज के लिए कार्य करने के लिए विवश हो जाएगा। पर अगर इसके विपरीत हुआ तो इसका दोष सिर्फ मीडिया पर ही मढ़ा नहीं जा सकता। अत: ज़रूरत है आज जनता के समर्थन की ताकि भविष्य में भी मीडिया में सामाजिक मुद्दों को जगह मिल सके।

माछ भात और मनमोहन सिंह का अर्थशास्त्र

डॉ. कुलदीप चंद अग्निहोत्री

देश में मंहगाई जिस बेतहाशा गति से बढ रही है उससे आम आदमी का चिंतित होना स्वभाविक ही है। दरासल मंहगाई से आम आदमी केवल चिंतित ही नही है बल्कि अनेक स्थानों पर जीवन यात्रा के सूत्र उनके हाथांे से छूटते भी जा रहे हैं। जो वर्ग उत्पादन के क्षेत्र में लगा हुआ है, मसलन किसान और मजदूर, महगाई के कारण उनकी हालत बद से बदतर होती जा रही है। यही कारण है पिछले कुछ वर्षो से, नई आर्थिक नीतियों से पटडी न बिठा पाने के कारण आत्महत्या करने वाले मजदूरों और किसानों की संख्या हजारों के आंकडे को पार कर गई है। मंहगाई और मंदी का यह दौर विश्वव्यापी है ऐसे वौद्धिक भाषण देने वाले अनेक विद्वान यत्र तत्र मिल रहे है। अमेरीका के पूर्व राष्ट्रपति बूश ने तो विश्व भर की मंहगाई और मंदी की जिम्मेदारी भारतीयों पर ही डाल दी थी । उनका कहना था कि दूनिया भर में खानें पीनें की चीजों की जो कमी हो रही है और जिसके कारण इन चीजों के दाम आसमानो को छू रहे है उसका एक मुख्य कारण भारतीय लोग ही है। उनके अनुसार भारतीय बहुत ज्यादा खाते है या अप्रत्क्ष रूप से जरूरत से भी ज्यादा खाते है। जाहिर है जब एक देश के लोग, खासकर जिसकी आवादी सौ करोड़ को भी पार कर गई हो, ठुंस -ठुंस कर खाएगें तो दूसरे देशो में खाने पीने की चीजों की कमी आएगी और मंहगाई बढे़गी।

अमेरीका में राष्ट्रपति जो आम तौर पर जो वयांन देते हैं, वह उस क्षेत्र के विशेषयज्ञों की राय पर ही आधारित होता है । इसका अर्थ यह हुआ कि अमेरीका के अर्थ-शास्त्रीयों ने काफी खोजबीन करके और अपना मग्ज खपाकर विश्व भर की मंहगाई का जो कारण ढुढा वह भारतीयों के ठुंस-ठुंस कर खाने पीने के सभाव के कारण है। मनमोहन सिंह का भी चितंन के स्तर पर अमेंरीका के अर्थ-शास्त्रीयों की बीरादरी में ही शुमार होता है। अमेरीकी अर्थ-शास्त्र की जिस प्रकार अपनी एक आधार भूमि है उसी प्रकार साम्यवादी अर्थ-शास्त्र की एक विशिष्ट आधार भूमि है। इसी प्रकार भारतीय अर्थ-शास्त्र की एक अपनी परम्परा है। साम्यवादी अर्थ-शास्त्र तो अपने प्रयोग काल में ही पीटता चला आ रहा है और लगभग पीट ही गया है। अमेरीकी अथवा पूंजीवादी अर्थ-शास्त्र एक ओर शोषण पर आधारित हैं और दूसरी और मानव मन के भीतर सूप्त अवस्था मे पडी पशु वृतियों को जागृत करने के सिद्धात पर आधारित है। भारतीय अर्थ-शास्त्र परम्परा मानव के समर्ग विकास पर केन्द्रित है जिसे कभी दीन दयाल उपाध्याय ने एकात्म मानवदर्शन का नाम दिया था। यह भारतीय अर्थ-

शास्त्र के कारण ही था। जब पूरा विश्व मंदी की लपेट में आकर लड़खड़ा रहा था तो भारत सफलता पूर्वक इस आंधी को झेल गया।

डॉ0 मनमोहन सिंह अर्थ-शास्त्र के क्षेत्र में भारतीय परम्परा के नही बल्कि अमेरीकी परम्परा के अनुगामी है। दरसल वह अमेरीकी आर्थिक नीतियों को भारत में स्थापित करने का प्रयास कर रहे हैं। अर्थ-शास्त्र के क्षेत्र में उनका प्रशिक्षण अमेरीकी अथवा पूंजीवादी अर्थतंत्र मंे ही हुआ है। वह विश्व बैंक के मुलाजिम रह चुके हैं। विश्व बैंक अमेरीकी अर्थिक हितो और आर्थिक नीतियों का दूनिया भर में विस्तार करने के लिए वहुत बढा अडडा है। स्वभाविक है मनमोहन सिंह जब पूरी ईमानदारी से भी भारत मे बढ़ रही महगाई के कारणो की जांच पडताल करने के लिए निकलेगें तो वह उन्ही निष्कर्षो पर पहुचेगें जिन निष्कर्षो पर अमेरीका के राष्ट्रपति पहले ही पहुच चुके है। इसका मुख्य कारण यह है कि कारण निमानसा के लिए जिन सूत्रों और फारमूलांे का प्रयोग अमेरीका के अर्थ-शास्त्री कर रहे हैं उन्ही का प्रयोग डॉ0 मनमोहन सिंह कर रहे हैं।

कुछ अरसा पहले प्रधानमंत्री ने कहा था कि देश में महगाई वढने का मुख्य कारण यह है कि अब लोग ज्यादा चीजे और ज्यादा उत्पादन खरीद रहे है। सुवाभिक है जब वाजार में खरीददारों की संख्या एक दम बढ जाएगी तो वस्तुओं के दाम भी वढ़ जाएगें। तो महगाई का मुल कारण लोगों की खरीदने की क्षमता वढना है। लेकिन प्रशन है कि आचानक बाजार में इतने खरीददार कैसे आने लगे है। मनमोहन सिंह के पास इसका भी

उत्तर है। उनके अनुसार सरकार ने पिछले कुछ सालो से देश में जो आर्थिक नीतियां जो लागू की है उसके कारण लोगो के पास पैसा बहुत आ गया है। लोग खुशहाल होने लगे हैं। अब उनकी इच्छा अपने जीवन स्तर को उपर उठाने की है। इस लिए वह जेब में पैसा डाल कर बाजार में जाते है और उसके कारण मंहगाई बढ रही है। अर्थ-शास्त्री प्रधानमंत्री के इस पूरे विश्लेषण और स्पष्टीकरण का कुल मिलाकर सार यह है कि देश मंे बढ़ रही मंहगाई वास्तव में उनकी अर्थ नीतियों की सफलता और देश के विकास का संकेत है। यानि जितनी जितनी मंहगाई बढती जाएगी उतना-उतना ही देश विकास करता जाएगा।

अब मनमोहन सिंह अपने इस तर्क और विश्लेषण को खींच कर और आगे ले गए है। उनके अनुसार आर्थिक नीतियों की सफलता के कारण गरीबों के पास भी इतना पैसा आ गया है कि उन्होनें धडले से मांस, मूर्गी, मछली और अडे़ उडाने शुरू कर दिये है। जब गारीब भी खुशहाल हो रहा है और वह दिन रात मछली मूर्गी पर हाथ साफ कर रहा है तो मंहगाई तो बढे़गी ही। इस लिए मंहगाई पर रोने की जरूरत नही है बल्कि ढोल बजाने की जरूरत है क्योकि यह देश में खुशहाली का प्रतिक है। यह अलग बात है कि इस देश के लोग प्याज, आलू, टमाटर, हरी सब्जीयां, दालों इत्यादि की आसमान छुती मंहगाई का रोना रो रहे हैं । मछली, मंास और मूर्गी की मंहगाई की तो किसी ने बात ही नही की । इसमें मनमोहन सिंह का दोष नही है, क्योंकि जब वह भारत की मंहगाई पर अपना यह शोधपत्र अमेरीका में अंग्रेजी भाषा में छपी अर्थ-शास्त्र की किसी किताब के आधार पर लिख रहे होगें तो उसमें दाल और प्याज का उदाहरण तो नही ही होगा। वहां उदाहरण के लिए मांस और मंछली को ही लिया गया होगा।

मनमोहन सिंह के भारत में बढ़ रही मंहगाई पर किए गए इस शोध से अमेरीका के अर्थ-शास्त्री तो प्रसन्न हो सकते है परन्तु भारतीयों को निराशा ही हाथ लगेगी। मनमोहन सिंह की अपनी ही सरकार मनरेगा में करोडों लोगों को एक दिन के लिए 100 रूपये की मजदूरी देती है और वह भी साल में केवल सौ दिन के लिए । यानि एक साल के लिए मजदूर की तनख्वाह केवल दस हजार रूपये । साल भर में दस हजार की कमाई से कोई गरीब आदमी परीवार कैसे पाल सकता है और साथ ही मूर्गा मछली का भोज कैसे उडा सकता है, यह मनमोहन सिंह जैसे अर्थ-शास्त्री ही बेहतर बता सकते है। जिस स्पैकुलेटिव टेªडिंग की शुरूआत मनमोहन सिंह ने खाद्यान के क्षेत्र में भी की है वह किसान और मजदूर को आत्महत्या की और तो ले जा सकता है । मांस, मछली के भोज की और नही । वैसे भी देश के गरीब को भारत सरकार से केवल दाल रोटी की दरकार है, मांस मछली का भोज उन्ही को मुबारक जो दिल्ली में वैठ के गरीब के जख्मों पर नमक मिर्च छिडकते है।