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पाकिस्तान को थमाया जा रहा देश के खिलाफ प्रचार का हथियार

रीता जायसवाल

हिंदुस्तान के हिंदुओं का इससे बड़ा दुर्भाग्य और क्या हो सकता है कि विभाजन के 63 वर्षों बाद भी उन्हें अपना हिंदू राष्ट्र नहीं मिल सका। तकरीबन सौ साल की कुर्बानी भरे संघर्षों के बाद मिला भी तो तथाकथित धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र। विश्व के हर देश के पास अपनी भाषा, अपनी सभ्यता-संस्कृति के अनुरूप उनकी पहचान है लेकिन विश्वभर में फैले करीब एक करोड़ हिंदुओं का अपना कोई मुल्क नहीं है। अब हिंदु संगठनों के साथ आतंकवादी शब्द जोड़ कर हिंदुत्व और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को समाप्त करने की गहरी साजिश रची जा रही है। भारत के इतिहास, संस्कृति, संस्कार से अनभिज्ञ कांग्रेस का मौजूदा नेतृत्व और उसके नैसिखिए राजनीतिक मां-बेटे की पार्टी को सबसे बफादार साबित करने में देश के अस्तित्व को ही संकट में डालने का काम कर रहे हैं।

वाराणसी प्रवास के दौरान भाजपा के वरिष्ठ नेता व सांसद डॉ. मुरली मनोहर जोशी की यह चिंता काबिले गौर है कि कांग्रेस के बबुआ और बचवा वोट बैंक के खेल में पाकिस्तान को भारत के खिलाफ प्रचार का हथियार थमा रहें है। उनके इस राजनीतिक खेल पर अंकुश नहीं लगा अथवा लगाया गया तो देश को एक और विभाजन का दंश झेलना पड़ सकता है। उनका यह दुःख भी जायज ही है कि देश में बहस समस्याओं के समाधान पर होनी चाहिए न कि समस्या पैदा करने की लेकिन कांग्रेस उल्टी गंगा बहा रही है। भय, भूख, भ्रष्टाचार जैसी समस्याओं के समाधान तो कर नहीं पा रही है उल्टे हिंदू संगठनों को लश्करे तैयबा से ज्यादा खतरनाक बता कर देश के अस्तित्व को ही खतरे में डालने का काम कर रही है। भाजपा के वयोवृद्ध नेता की यह चिंता मौजूदा राजनीतिक परिदृष्य में राष्ट्रीय सुरक्षा और सामाजिक एकता के सामने सवालिया निशान खड़ा करता है। अधिक नहीं बीते एक दशक के राजनीतिक बदलाव की समीक्षा की जाए तो समझ में आ जाता है कि वोट बैंक की अंधी दौड़ में राजनीतिक तुष्टीकरण के कई दंश देश और समाज को झेलने पड़े हैं। इतना ही नहीं हिंदू सभ्यता-संस्कृति को समाप्त कर पश्चिम की मजहबी संस्कृति को देश पर थोपने जैसे प्रयास किये जा रहे हैं। हालात तो यहां तक आ पहुंचे हैं कि हिंदुस्तान में किसी संगठन के आगे हिंदु लिखना अब बड़े अपराध की श्रेणी में ला खड़ा करता है। हिंदुस्तान में ही मुसलमान, ईसाई, पारसी सभी को अपने धर्म-संप्रदाय के अनुरूप जीने-खाने और उसके प्रचार-प्रसार का अधिकार है लेकिन हिंदू संगठनों को इसका अधिकार नहीं है। जाहिर है हिंदुत्व कमजोर होगा तो पूरा विश्व संकट में आ जाएगा। क्योंकि विश्व समाज में अनादिकाल से सत्य-असत्य और धर्म-अर्धम के बीच संघर्ष होता रहा है और अंत में जीत सत्य व धर्म की हुई है। सच तो यह है कि हिंदू विश्व के जिस कोने में गए वहां शांति, सद्भभाव और अहिंसा का ही संदेश दिया। हिंदुत्व का आचरण व्यापक, विश्व कल्याण व शांति का संदेश देने वाला ही रहा है। कुल मिलाकर हिदू चिंतन किसी के विरोध में नहीं बल्कि सर्वे भवंतु सुखिनः की ही कामना करता है। देखा जा रहा है कि इन दिनों देश में दो धाराएं चल रही है। वोटबैंक को राष्ट्रीय राजनीति से जुड़ा एक तबका हिंदुत्व को संकुचित व सांप्रदायिक मानता हैं वहीं दूसरी धारा हिंदू समाज व हिंदुत्व के चिंतन को सशक्त बनाने में क्रियाशील है। यहां हिंदू समाज के चिंतन से अनभिज्ञ राजनितिक तबके को याद दिलाना जरूरी है कि यह वही हिंदू समाज है जिसने इस देश में मुस्लिम, पारसी, ईसाई धर्म से जुड़े लोगों को उसी तरह स्वीकार किया जिस तरह सागर विभिन्न नदियों को बिना किसी भेद के स्वीकार कर लेता है।

यह सच है कि स्वतंत्रता के बाद संविधान में भारत को धर्मनिरपेक्ष देश घोषित किया गया लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि देश में हिंदुत्व चिंतन पर रोक लगा दिया गया हो। बल्कि देश में किसी जाति-धर्म का भेदभाव न करते हुए उन्हें अपनी जाति-धर्म के अनुरूप जीवनयापन की आजादी देना है। मुसलमान, ईसाई जब भारत आए तो यहां पहले से न मस्जिद थी और ना ही गिरजाघर। हिंदुस्तान के हिंदुओं की विश्व बंधुत्व का ही तकाजा है कि उन्हें इबादत करने के लिए खुले दिल से जगह मिली। वहीं आज हिंदुस्तान में अपनी ही सरजमी पर राममंदिर बनाने जब हिंदू निकलता है तो उसे आतंकवादी ठहराया जा रहा है। राष्ट्रहित की सोचने वाले इंद्रेश कुमार सरीखों पर कीचड़ उछाला जा रहा है। दुःख इस बात का है कि कीचड़ फेकने का काम ऐसे लोग कर रहे हैं जिन्हें सिमी व संघ में कोई फर्क नजर नहीं आता। अंग्रेजी हुकूमत की नीति फूट करो, राज करो को आजाद हिंदुस्तान में अमल में लाकर तुष्टीकरण की जो नीति अपनी जा रही है उसकी कीमत यह देश अशिक्षा, भुखमरी, बेरोजगारी, हिंसा, दंगा, नक्सलवाद, आतंकवादी, जातिवाद के रूप में भुगत रहा है। राजनीति को समाज सेवा से हटा कर खानदानी व्यापार की शक्ल दी जा रही है। दुर्भाग्य यह भी है कि धीरे-धीरे राष्ट्रीय राजनीति ही इसी ढर्रे पर चल पड़ी है। ऐसे में देश के बारे में सोचने की फुर्सत किसी के पास है। यह एक बड़े सवाल के रूम में देश के सामने आ खड़ा हुआ है। बहस इस पर चलाने की जरूरत है।

देश की समस्या और भारतीय नेता

– पंकज

देश में नक्सलियों, माओवादियों और अलगाववादियों की समस्या से दो चार हो रहे देश के लिए पडोसी चीन और आतंकवाद के लिए स्वर्ग माने जाने वाले पाकिस्तान के बीच कथित सांठगांठ चिंता का विषय बन गयी है लेकिन हमारे देश के रहनुमाओं को इस बात की तनिक भी चिंता नहीं है कि इन खतरों से कैसे निपटा जाये। उन्हें चिंता केवल वोट बैंक की है। वह चाहे देश और मातृभूमि की कीमत पर ही क्यों न हो।

आम लोगों के समक्ष सबसे बडी समस्या जो मुंह बाये खडी है वह महंगाई है। इस पर अंकुश कैसे लगाया जाएगा इस पर नेताओं के बीच कोई चर्चा नहीं होती। इस मुददे पर आरोप प्रत्यारोप के सिवा कोई विचार नहीं किया जाता। देश की जड. को दीमक की तरह चाट कर खोखला करने वाले नक्सलवाद की समस्या से कैसे निपटा जाए इस पर कोई मंथन नहीं होता।

सीमा पर से प्रायोजित अथवा देश के भीतर पनप रहे आतंकवाद से कैसे पार पाना है इसका जिक्र तक नहीं होता है। ऐसा होता भी है तो केवल कागजों में। मीडिया में। कभी हिंदू आतंकवाद, तो कभी भगवा आतंकवाद और कभी इस्लामिक आतंकवाद कह कर सनसनी फैला दिया जाता है। आम लोग आपस में लड. मरते हैं और इन रक्तरंजित शवों के साथ नेता जी की तस्वीर छप जाती है और उनका काम पूरा हो जाता है।

देश के ये रहनुमा किसके लिए नीतियां गढते हैं यह अभी स्पष्ट नहीं हो पाया है। मेरे समझ से यह परे है कि जिस देश के चारों तरफ से हमला करने के लिए दुश्मन तैयार बैठा है उस देश के नेताओं को अपने वेतन बढोत्तरी की चिंता अधिक है। वह अपने लिए नौकरशाहों से सिर्फ एक रुपया अधिक की मांग करते हैं और अव्वल तो ये कि संसद में बिना किसी चर्चा के बेतन और भत्ते का विधेयक पारित कर दिया जाता है।

इन बेशर्म रहनुमाओं को यह जवाब देना चाहिए कि सडक पर और फलाइओवरों के नीचे जन्म लेने वाले बच्चों के लिए उनके पास कौन सी नीति है। उन बच्चों की माताओं के लिए वह क्या करते हैं। वातानुकूलित कमरों में बैठ कर मोटा वेतन लेने के लिए जिद करने वाले इन नेताओं के पास चैराहों पर रात गुजारने वाले बच्चों, महिलाओं और अन्य लोगों के लिए क्या व्यवस्था है।

पाक अधिकृत कश्मीर का गिलगित जो कभी हमारा हिस्सा था, पाक सरकार ने भारत के खिलाफ साजिश रचते हुए उसे चीन को दे दिया है। चीन वहां अपनी सेनायें तैनात कर रहा है। अपनी छावनी बना रहा है। चीन और पाक के नापाक इरादों को जान कर भी अंजान बनने की कोशिश की जा रही है। इस बारे में अमेरिका की रिपोर्ट आ रही है और सरकार चुप बैठी है।

देश के आंतरिक हिस्से में भी आतंकवाद है। नक्सलवाद, अलगाववाद, माओवाद और न जाने कौन कौन से वाद। इन सब समस्याओं से जूझते देश को बचाने के लिए इनके पास चर्चा करने का समय नहीं है लेकिन दिल्ली के पाश इलाकों में चौड़ी चौड़ी सडकों के किनारे बने सुविधा संपन्न सरकारी कोठियों में रहने वाले ये नेता अपने परिजनों को मुफत विमान यात्रा कराने पर मेहनत करते रहे हैं।

भारत संघ के सामने इतनी बडी बडी समस्यायें मुंह खोले बैठी है और यहां के नेता एक दूसरे पर आक्षेप करने से नहीं चूकते। सत्ता में आने के लिए ये किसी भी हद तक चले जाने से नहीं चूकत। कुछ लोग बाबरी मस्जिद और राम मंदिर का मुददा उठा कर सत्ता में आने की कवायद करते हैं तो कुछ लोग अनर्गल बयानबाजी कर ऐसा करते हैं।

सबसे अधिक राजनीति राम मंदिर, बाबरी मस्जिद और अयोध्या पर हो रही है। क्या इस देश में मंदिर और मस्जिद इतना जरूरी हो गया है कि उसके पीछे तुष्टिकरण और वोट बैंक की राजनीति के लिए हर मुददे को भुलाया जा रहा है। इस देश में क्या अब मंदिर और मस्जिद बनाने का ही काम लोगों के पास रह गया है।

देश में पहले से ही कई समस्यायें हैं। इन समस्याओं को दूर करने के लिए कभी चर्चा नहीं की गयी। बहस सिर्फ वेतन बढाने और माननीयों के संबंधियों को मुफ्त विमान यात्रा कराने पर होती रही है। बाबा रामदेव ने एक बार दिल्ली में कहा था कि कैसे चलेगा यह देश। कैसे नेता हैं यहां के जो कभी रिटायर ही नहीं होते। नौकरी करने वाले लोग एक समय में रिटायर हो जाते हैं लेकिन हमारे मुल्क के माननीय चल नहीं पाने की स्थिति में भी रिटायर नहीं होना चाहते हैं। जनसेवा का ऐसा जज्बा किसी भी मुल्क के नेताओं में नहीं जो व्हील चेयर पर बैठ कर और वैशाखी के सहारे चलते हुए भी लोगों की सेवा के लिए तत्पर रहने का दावा करते हैं।

अनाज का भंडार भरा हुआ है। देश में करोडों लोग रात को भूखे पेट सो रहे हैं लेकिन सरकार और सरकार के ओहदेदार तथा रहनुमा कभी जागने को तैयार ही नहीं हैं। उच्चतम न्यायालय ने जगाने की चेष्टा की तो सरकार के मुखिया ने कह दिया कि हमें मत जगाओ हम पहले से जागे हुए हैं।

कैसी विडंबना है कि उच्चतम न्यायालय के आदेशों के बावजूद सरकार भूखों में अन्न बांटने के लिए तैयार नहीं है। बयानबाजी में माहिर पूर्व गृह मंत्री की तरह बयानबाजी करते हुए केंद्रीय कृषि मंत्री ने भी कह दिया था कि इतने बडे देश में लोगों को मुफ्त में अनाज बांटना संभव नहीं है।

देश की समस्याओं से निजात पाने के लिए भी इन रहनुमाओं को एक न एक बार अपने स्वार्थ से उपर उठ कर एक मंच पर आना होगा और उन्हें चीन, पाकिस्तान और आंतरिक आतंकवाद, अलगाववाद, नक्सलवाद, माओवाद की समस्या पर गंभीरता पूर्वक विचार करने के लिए सही दिशा मे प्रयत्न करना होगा तभी देश बचेगा।

पाकिस्तान की मंशा से सभी वाकिफ हैं और चीन की उस मंशा को कभी भुलाया नहीं जा सकता, जिसमें उसके एक रक्षा विशेषज्ञ ने कहा था, भारत से आगे बढने के लिए पडोसी मुल्क को 26 टुकडों में बांटना होगा।

हमें इन बातों को नहीं भूलना चाहिए और आने वाली पीढी को ध्यान में रख कर उनके लिए काम करना चाहिए ताकि हम उन्हें सुरक्षित भारत और बेहतर भविष्य दें सकें।

इतने लंबे समय से नेता भगवा आतंकवाद, केसरिया आतंकवाद, हिंदू आतंकवाद और इस्लामिक आतंकवाद कहते आ रहे थे। मुसलमानों के साथ हमेशा धोखा करने वाली एक पार्टी के महासचिव ने मुस्लिम तुष्टिकरण के लिए और उनका वोट बटोरने के लिए यह कह कर हंगामा खडा करा दिया कि देश को आतकंवादी संगठन लश्कर ए तोयबा से नहीं बल्कि हिंदुओं से खतरा है।

क्या करना है इस आरोप प्रत्यारोप का। लोगों को स्वयं ही समझना होगा। ऐसे भी लोग आरोप प्रत्यारोप की बजाए केवल विकास चाहते हैं। चाहे वह किसी भी वर्ग के लोग क्यों न हों। सभी शांति पूर्वक रहना चाहते हैं। हिंसा कोई नहीं चाहता।

आखिर में एक बात कहना चाहूंगा कि एक पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त ने एक बार कहा था कि भारतीय राजनीति में राजनेता कोढ के समान है। इस पर बडी प्रतिक्रिया हुई थी। आज यह बात चरितार्थ हो रही है।

मूर्ख चिंतन

संतोष कुमार

अरे भाई चौंकिए मत, मूर्ख भी चिंतन करते है इसके कुछ उदाहरण आपको आगे मिल जायेंगें। पहले मैं यह स्पष्ट कर दूं कि मैं एक मूर्ख हूँ, इसका प्राथमिक प्रमाण यह है कि भाषा, शब्द, व्याकरण और विषय का समुचित ज्ञान ना होने के बावजूद मैंने लिखने की कोशिश की, और शत प्रतिशत आशान्वित भी हूँ कि संजीव जी मेरे मूर्खत्वपूर्ण लेख को प्रवक्ता में स्थान देंगे।

मैं हमेशा अपने काम, गृहस्थी, परिवार के भारी बोझ तले दबा रहने के बावजूद मौका मिलते ही थोडा चिंतन कर लेता हूँ। आप मेरी तुलना मेरे दूर के भाई गदर्भ-राज से कर सकते हैं, जिनको बोझ उठाते और चिंतन करते हुए सबने देखा होगा।

मेरे ताजा चिंतन की शुरुआत इस बात से होती है कि देश में कितने प्रधानमंत्री हैं। मुख्य प्रधानमंत्री, सुपर प्रधानमंत्री, कार्यकारी प्रधानमंत्री, और प्रतीक्षारत प्रधानमंत्री आदि के होते हुए भी इस देश की जनता ऐसी पीड़ा में डूबी है कि उसे अब यह भी महसूस होना बंद हो गया है कि दर्द कहाँ ज्यादा है और कहाँ कम। कभी लगता है कि मंहगाई की पीड़ा असह्य है, कभी लगता है कि भ्रष्टाचार का नासूर कैंसर बन जायेगा, कभी आतंकवाद / अलगाववाद का नश्तर आत्मा को छलनी कर देता है तो कभी अपने ही भविष्य की गहरी चिंता से सरदर्द होने लगता है।

चिंतन करते-करते मैं मूरख इस नतीजे पर पहुंचा कि सत्ता शिखर पर बैठे लोगों की सबसे बड़ी चिंता शिखर पर बने रहने की ही होनी चाहिए, क्योंकि यदि एक बार जनता सचेत हो गयी तो बेचारों का बंटाधार हो जायेगा। इसीलिए इन्होंने दिग्गी राजा जैसों को जनता का ध्यान वास्तविक पीडाओं से हटाने के लिए नियुक्त कर रखा है। जब भी देश की सरकार पर कोई गंभीर प्रश्न उठता है तभी ये साहब मीडिया के सामने अपनी ढपली बजाना शुरू कर देते हैं। इनकी टाइमिंग इतनी गजब की होती है कि मुझ जैसे मूर्ख को भी इनका मतलब समझ में आ जाता है।

एक दिन सुबह-सुबह मैं भ्रष्टाचार पर चिंतन करने लगा तो ऐसा डूबा कि शाम को बीबी ने सिर पर दो बाल्टी पानी डाल कर मेरी चेतना लौटाई। मैं तो यह सोच कर पागल होने वाला था कि कांग्रेसी भाई लोग किस मुह से सोनिया – मनमोहन की ईमानदारी की कसमे खा रहे हैं, मेरे मूर्ख दिमाग की सोच तो यह कहती है कि इनकी छत्रछाया और आशीर्वाद से ही हर तरफ लूट का नंगा नाच हुआ है और अब सबको बचाने की पूरी तैयारी है। कुछ बिन्दुओं पर विचार करके यह बात और भी स्पष्ट हो जाएगी —–

* इन लोगों ने गड़बड़ी की बात तभी स्वीकार जब इनके पास स्वीकार करने के सिवा कोई और रास्ता नहीं बचा , तब तक भाई लोगों ने सारे सुबूतों को ठिकाने लगाने का काम पूरी कुशलता , कर्मठता और ईमानदारी से पूरा कर लिया होगा।

* सभी घोटालों की जाँच सीबीआई से ही कराना इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि कांग्रेस के पास छुपाने के लिए बहुत कुछ है, क्योंकि सभी जानते हैं कि सरकार ने सीबीआई को पालतू, रीढविहीन संस्था बना दिया है ,और वह सरकार के इच्छानुसार ही काम करेगी। बेफोर्स , दिल्ली दंगा ,मायावती-मुलायम जैसे मामलों में सीबीआई अपनी स्वामिभक्ति सिद्ध कर चुकी है। मुझ जैसे मूर्ख को यह बात अभी तक याद है कि क्वात्रोची के बैंक खातों को खुलवाने में सीबीआई ने कितनी मेहनत की थी।

इसके अलावा न्यायपालिका भी कई बार सीबीआई की मंशा पर सवाल उठा चुकी है।

* एक आरोपी व्यक्ति को हठपूर्वक CVC की महत्त्वपूर्ण पद पर बिठाने से मुझ जैसे मूर्ख को भी सरकार की मंशा स्पष्ट रूप से दिख जाती है।

एक और विशालकाय मंत्रालय के भारी-भरकम मंत्री का नाम आते ही मेरा चिंतन भाग जाता है और चिंता घेर लेती है। पता नहीं ये कब और क्यों अपना मुंह खोल दें और तुरंत हमारी जेब में सेंध लग जाती है। इनके ताजा कथनानुसार प्याज का उत्पादन कम हुआ है, लेकिन साहब से कोई पूछे की आपको कब पता चला? निश्चित ही बेचारे को पहले नहीं पता चला होगा नहीं तो कुछ कदम जरूर उठाते, कम से कम निर्यात तो रोक ही लेते। अब अगर मुझ मूर्ख को इसमें भी घोटाला नजर आता है तो इससे मेरा मूर्खत्व प्रमाणित होता है। चीनी, दाल, आटा, सब्जी, प्याज, लहसुन ,के बाद पता नहीं किसकी बारी है, लेकिन मैं इस बात से खुश हूँ कि नमक इनके अधिकार क्षेत्र से बाहर है, कम से कम हम नमक-रोटी खाकर जिन्दा तो रह ही सकते हैं।

कभी- कभी मैं कुछ और नेताओं की विद्वता पर भी चिंतन कर लेता हूँ, इनकी विद्वता का अकाट्य प्रमाण यह है कि ये कभी भी गलत नहीं हो सकते, चाहे वो सरेआम देश को लूटें / लुटवाएं, जनता को लड़वायें,जमाखोरों मुनाफाखोरों रिश्वतखोरों की मदद करें, विदेशियों को देश की आन्तरिक सूचनाएं दें आदि आदि। आखिर नेतागिरी का सवाल जो है यदि एक बार गलती मान ली तो पता नहीं अपने साथ साथ कितने सगे-सम्बन्धियों, आकाओं,चमचों का कितना नुकसान हो जायेगा। कुर्सी प्राप्त करने के लिए बेचारों को पता नहीं कितने पूंजी पतिओं, पत्रकारों ,लाबिस्टों के दर पर माथा टेकना पड़ता होगा, इसका अंदाजा लगाना मुझ मूर्ख के बस की बात नहीं है।

मेरे मूर्ख दिमाग को लगता है कि गाँधी परिवार को सरदार मनमोहन सिंह के रूप में एक और बलि का बकरा मिल गया है जिन्हें जरूरत पड़ने पर संजय गाँधी और नरसिंघाराव के क्लब में शामिल कर उन्हें सभी गलतिओं का जिम्मेदार बता दिया जायेगा, और युवराज की विदेशी शिक्षा प्राप्त सेना देश को नए सपने दिखाने लगेगी।

कई मंत्रालयों पर चिंतन करना तो मुझ मूर्ख को भी मूर्खता लगती है। पर्यावरण मंत्री हर मामले पर कम से कम दो – तीन राय जरूर रखते हैं, पता नहीं कब किसका इस्तेमाल करना पड़ जाय। रेल कौन, कहाँ से और कैसे चला रहा है? कुछ पता नहीं।एक मंत्री जी को मिस्टर १५ परसेंट के रूप में ख्याति मिलनी शुरू हो गयी है, आशा है और तरक्की करेंगे। एक बडबोले वकील मंत्री जिनको अभी-अभी काजल की कोठरी का जिम्मा भी दिया गया है , वो तो सारे हिंदुस्तान को ही मूर्ख समझने की गलत फहमी पाले हुए है, और ये समझाने में लगे हैं कि घोटाला तो हुआ ही नहीं है। पहली बार मुझे अपने मूर्खत्व से ज्यादा उनकी विद्वता पर शर्म आयी।

कभी-कभी विपक्षी दलों पर भी चिंतन कर लेता हूँ लेकिन उनका उल्लेख करने से लेख ज्यादा लम्बा हो जायेगा, संक्षेप में कहें तो उजाला कहीं भी नहीं दिखता, लेकिन मैं अपने संस्कारों, मूल्यों, दर्शन, विश्वास, आस्था और निजी मूर्खत्व के आधार पर यह जरूर कहूँगा कि इस काली रात के बाद भी सुबह जरूर होगी।

सियासत और सेक्स की कॉकटेल-कथा

देश के तीन माननीय विधायक आरोपों के घेरे में हैं। एक यौन शोषण की तोहमत ङोलते हुए जान से हाथ धो बैठे, दूसरे बता रहे हैं-मैं नपुंसक हूं, रेप कैसे करूंगा और तीसरे पर लगा है किडनैपिंग का चार्ज। दुहाई है-दुहाई है..

– चण्डीदत्त शुक्ल

ये महामहिम हैं, माननीय विधायक जी हैं, इनके दम से ही लोकतंत्र ज़िंदा है। पचास बरस से भी ज्यादा बूढ़ी हो चुकी मुल्क की आज़ादी ने हमें यही बात सिखाई है, लेकिन हाय रे राम, दुहाई है-दुहाई है..लोकतंत्र के रखवालों पर यह कैसी शामत आई है?दो दिन पहले बिहार में भाजपा विधायक राज किशोरी केसरी को एक महिला टीचर ने चाकू मारकर हलाल कर डाला, तो बुधवार को यूपी के एक एमएलए दुहाई देते नज़र आए। प्रेसवालों से कहने लगे—साहब, मैं तो नपुंसक हूं। भला रेप कैसे कर सकता हूं? बात यहीं खत्म नहीं होती। लोकतंत्र के रखवाले तमाम हैं, उनके किस्से भी हज़ार हैं। ऐसे-कैसे ख़त्म हो जाएं। बुधवार को ही सुल्तानपुर के एमएलए अनूप संडा पर आरोप लगा है कि उन्होंने अपनी प्रेमिका की बेटी को किडनैप करा लिया है..। वाह रे एमएलए साहब, आपको तो पब्लिक ने चुना था इसलिए, ताकि आप सड़कें बनवाएं, पुल बनवाएं, इन्क्रोचमेंट हटवाएं, बिजली-पानी मुहैया कराएं और यह तो आपका क्या हाल हो रहा है? आरोपों की सफ़ाई देते-देते हलकान हो रहे हैं..ये क्या हो रहा है आपके साथ?चलिए, सुन लेते हैं सियासत और सेक्स के कॉकटेल की ताज़ातरीन टॉप थ्री स्टोरीज़—पहले बात दिवंगत भाजपा विधायक राज किशोरी केसरी की। दो दिन पहले पूर्णिया के एक स्कूल की प्रिंसिपल रुपम पाठक ने चाकू मारकर उनकी जान ले ली थी। उसका आरोप था कि विधायक जी यौन शोषण कर रहे थे और शिकायत करने पर पुलिस कोई सुनवाई नहीं कर रही है। अब लालूप्रसाद जैसे बड़े नेता इस हत्याकांड की उच्चस्तरीय जांच की मांग कर रहे हैं। पूर्णिया के पुलिस उप महानिरीक्षक अमित कुमार कह रहे हैं कि आरोपी का कैरेक्टर संदिग्ध था। ..और विधायक जी तो अब रहे नहीं, लेकिन उनके चरित्र पर जाते-जाते जितने धब्बे लग चुके हैं, उनकी सफाई कौन देगा? बिहार के भाजपा विधायक के बाद अब यूपी में बांदा के बीएसपी विधायक पुरुषोत्तम द्विवेदी की बात। उन पर एक नाबालिग लड़की को बंधक बनाकर रेप करने का आरोप लगा है। फिलहाल, द्विवेदी जी कह रहे हैं कि वो नपुंसक हैं। उनका दावा है—मेरे ऊपर दुष्कर्म का आरोप आधारहीन है। मैं बलात्कार करने में समर्थ नहीं हूं। उन्होंने तो ये भी कह डाला है कि जो मैं ये बात साबित करने के लिए किसी भी मेडिकल स्पेशलिस्ट से जांच कराने के लिए तैयार हूं। और चलते-चलते सुन लीजिए सुल्तानपुर (यूपी) के सदर विधायक अनूप संडा जी से। संडा पर उन्हीं के शहर की एक महिला समरीन ने यौन उत्पीड़न का आरोप लगाया था और विधायक ने उस पर ब्लैकमेलिंग का। दोनों के खिलाफ मुकदम चल रहे हैं। समरीन जेल भी काट चुकी है। चंद रोज पहले उसके ब्यूटी पार्लर पर कुछ लोगों ने हमला किया था। इससे पहले समरीन ने भी विधायक के पेट्रोल पंप पर तोड़-फोड़ की थी और अब बुधवार को समरीन की ओर से आरोप लगाया गया है कि उसकी मासूम बेटी को विधायक के इशारे पर अगवा कर लिया गया है। इन सब विधायकों (केसरी तो रहे नहीं, सो उनके समर्थकों) का कहना है कि आरोप राजनीति से प्रेरित हैं। सच क्या है, न्यायपालिका तय करेगी। हम तो यही कहेंगे—सियासत और सेक्स के इस कॉकटेल में कुछ तो काला है और वो इतना काला है कि लोकतंत्र की अस्मिता पर, उसके चेहरे पर शर्म की कालिख पुतती ही जा रही है।

आंकड़ों में उलझा 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाला

सतीश सिंह

पेशे से वकील और निवर्तमान दूरसंचार मंत्री श्री कपिल सिब्बल ने जिस तरह से नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (कैग) के रिर्पोट को सिरे से खारिज किया है, वह निश्चित रुप से पूरे मामले पर लीपा-पोती करने के समान है। श्री सिब्बल ने आंकडों की बाजीगरी में अपने अदालती अनुभव का इस्तेमाल करते हुए कैग के रिर्पोट में बताए गए 1.76 लाख करोड़ के सरकारी खजाने को चूना लगाने वाले दावे को खारिज करते हुए कहा कि सरकारी खजाने को एक पैसे का नुकसान नहीं हुआ है।

ज्ञातव्य है कि कैग ने अपनी पड़ताल में मूल रुप से 3 जी स्पेक्ट्रम के नीलामी के दौरान जिन दरों पर दूरसंचार कंपनियों को लाइसेंस दिए गए थे, उनको आधार मानते हुए सरकारी खजाने को 1.76 लाख करोड़ का चूना लगाने की बात कही थी।

1.76 लाख करोड में से 1,02,490 करोड़ का नुकसान 2008 में हुआ था। जब पूर्व दूरसंचार मंत्री श्री ए राजा ने नियमों की अनदेखी करते हुए 122 नई दूरसंचार कंपनियों को 2001 की दरों पर 2 जी स्पेक्ट्रम के लिए लाइसेंस दिया था।

2008 में ही आरकॉम और टाटा को 2001 की दर पर डुअल टेक लाइसेंस दिया गया, जिससे पुनष्च: सरकार को 37,154 करोड़ का नुकसान हुआ।

2008 में ही पुन: सारे नियमों को ताख पर रखते हुए जीएसएम ऑपरेटरों को 6.2 मेगाहट्र्ज से अधिक स्पेक्ट्रम मुहैया करवाने के कारण सरकार को 36,993 करोड़ का घाटा उठाना पड़ा।

श्री सिब्बल के अनुसार 2 जी एयरवेव की तुलना 3 जी एयरवेव से करना मुनासिब नहीं है। 3 जी एयरवेव ज्यादा सक्षम और गुणवता से युक्त है। लिहाजा दोनों के बीच तुलना करके सरकार को नुकसान होने की बात कहना बेमानी है।

इस मुद्दे पर श्री सिब्बल की आपत्ति इसलिए भी है, क्योंकि कैग 6.2 मेगाहट्र्ज की दर से एयरवेव नई दूरसंचार कंपनियों को बेचने की बात कह रहा है, जबकि हकीकत में नई दूरसंचार कंपनियो को 4.4 मेगाहट्र्ज की दर से एयरवेव बेचा गया।

अगर 4.4 मेगाहर्ट्ज की दर से एयरवेव बेचने की गणना की जाती है तो कैग द्वारा बताया जा रहा घाटा 1,02,490 करोड़ से घटकर 72000 करोड़ हो जाता है।

पुनष्च: आरकॉम और टाटा को डुअल टेक लाइसेंस देने के क्रम में भी 4.5 मेगाहर्ट्ज की दर से एयरवेव बेचा गया, लेकिन कैग ने दर की गणना 6.2 मेगाहर्ट्ज के हिसाब से किया। 4.5 मेगाहट्र्ज की दर से एयरवेव की गणना करने पर सरकार को हुआ नुकसान घटकर 37,154 करोड़ से 26,367 करोड़ हो जाता है।

श्री सिब्बल यह भी कहते हैं कि जीएसएम दूरसंचार कंपनियों को 6.2 मेगाहट्र्ज से अधिक स्पेक्ट्रम मुहैया करवाने के कारण सरकार को हुए 36,993 करोड़ के घाटे को 1.76 लाख करोड के नुकसान के साथ जोड़कर नहीं देखना चाहिए, क्योंकि इस आवंटन में किसी तरह की अनियमतता नहीं बरती गई है।

इसी संदर्भ के आलोक में श्री सिब्बल बताते हैं कि दूरसंचार मंत्रालय के नियमों के अनुसार मोबाईल के लिए 2 जी स्पेक्ट्रम का एयरवेव देने के साथ 4.4 मेगाहर्ट्ज का स्टार्ट-अप एयरवेव मुफ्त देने का प्रावधान है, इसलिए कैग के द्वारा 17,755 करोड़ से सरकारी खजाने को नुकसान होने की बात कहना गलत है।

उपर्युक्त आंकड़ों और जिरह के दम पर श्री सिब्बल आज की तारीख में ठसक से कह रहे हैं कि सरकार को 2 जी स्पेक्ट्रम की नीलामी से किसी तरह का नुकसान नहीं हुआ है।

इसमें दो मत नहीं है कि 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले की जाँच कैग के द्वारा 2010 में की गई, पर श्री सिब्बल का सरकारी एजेंसी के बारे में यह कहना कि उसने अपनी जाँच में 2008 में बँटे दूरसंचार कंपनियों के बीच 2 जी स्पेक्ट्रम के लाइसेंस के लिए दरों की गणना 2010 की प्राइसिंग के आधार पर की है, पूर्ण से हास्याप्रद है।

श्री सिब्बल का कैग पर यह आरोप भी लगाना गलत है कि कैग ने ज्यादा मेगाहट्र्ज के दर से गणना करके सरकारी खजाने को लूटने का ए राजा को आरोपी माना है।

पर यहाँ पर यह सवाल उठता कि क्या कैग की जानकारी और तकनीक को दोयम दर्जा का माना जाना चाहिए? श्री सिब्बल का यह मानना भी वेबुनियाद है कि कैग ने अपनी पड़ताल के क्रम में 2 जी स्पेक्ट्रम की तुलना 3 जी स्पेक्ट्रम से करके सरकार को नुकसान होने की बात को सही माना है।

श्री सिब्बल सिर्फ इतना मानने के लिए तैयार हैं कि 2008 में ए राजा ने टेलीकॉम लाइसेंस और स्पेक्ट्रम आवंटित करने के दौरान दूरसंचार मंत्रालय के नियमों की अनदेखी की। श्री ए राजा की वजह से सरकार को हुए किसी भी तरह के नुकसान की बात को स्वीकार करने के मूड में श्री सिब्बल नहीं है।

उल्लेखनीय है कि श्री ए राजा को पाक-साफ बताने के साथ-साथ श्री सिब्बल एनडीए पर यह आरोप भी लगाने से नहीं चूक रहे हैं कि एनडीए शासन में दूरसंचार मंत्रालय के नियमों की अनदेखी करने और एयरवेव के आवंटन में भारी अनियमतता बरतने के कारण देश के खजाने को 1.5 लाख करोड़ का नुकसान हुआ था।

गौरतलब है कि हाल ही में श्री सिब्बल ने स्वीकार किया था कि पूर्व दूरसंचार मंत्री ए राजा द्वारा 122 दूरसंचार कंपनियों को आवंटित लाइसेंस में से 85 दूरसंचार कंपनियों को फर्जी दस्तावेजों के आधार पर लाइसेंस बाँटे गए थे।

यूनिनॉर, वीडियोकॉन, लूप टेलीकॉम, एस टेल, एतिसलत और अलायंज जैसे नामी-गिरामी कंपनियों ने भी गलत तरीके से लाइसेंस हासिल किया था। लाइसेंस हासिल करने के लिए जमकर फर्जीवाड़ा किया गया था। कई लाइसेंसधारियों के पास पहले के तारीखों के डिमांड ड्राफ्ट थे, जिसके सहारे वे पिछले दरवाजे से लाइसेंस प्राप्त कर सके।

लाइसेंसधारकों में से एक कंपनी स्वान, रिलायंस टेलीकॉम की फ्रंट कंपनी थी। उल्लेखनीय है कि स्वान पर 2 जी स्पेक्ट्रम के लाइसेंस को हासिल करने के लिए आवेदन देने के दौरान कंपनी के मालिकाना हक से जुड़ी महत्वपूर्ण जानकारी छुपाने का आरोप है।

2 जी स्पेक्ट्रम की स्टोरी में रतन टाटा और सुनील मित्ताल की भूमिका देश के कॉरपोरेट घरानों का सरकार पर हमेशा से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष प्रभाव रहने के तथ्य को उजागर करता है। इससे यह साबित होता है कि कहने के लिए तो हमारा देश लोकतांत्रिक है, लेकिन सच्चाई में हमारे देश में कॉरपोरेट घरानों का राज चल रहा है, वे जब चाहते हैं अपने हिसाब से देश के नियम-कानून को तोड़-मरोड़ कर अपना काम करवा लेते हैं।

2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले के बरक्स में जेपीसी की मांग को लेकर जिस तरह से संसद को भाजपा और उसके सहयोगी दलों ने हालिया दिनों में चलने नहीं दिया है, उससे यूपीए सरकार और खास करके कांग्रेस पार्टी दबाव में थी। इस दबाव को कम करने के साथ-साथ आम जनता व विपक्ष का ध्यान घोटाले से हटाने की जिम्मेदारी प्रधानमंत्री श्री मनमोहन सिंह ने श्री सिब्बल को सौंपी थी।

अब श्री सिब्बल आज्ञाकारी सिपहसालार की तरह कैग की पड़ताल को आधारहीन बता रहे हैं। उनका कहना है कैग ने 1.76 लाख करोड़ का चूना देश के खजाने को लगाने की बात कह करके पूरे देश में सनसनी फैला दी। जबकि कैग द्वारा प्रस्तुत आंकड़ा पूर्ण से गलत और झूठ का पुलिंदा है। कैग ने जिन तरीकों का इस्तेमाल करके आंकड़ें निकाले हैं वह खामियों से भरा हुआ है। वे कैग द्वारा अपनाए गए तकनीकों की पुरजोर निंदा करते हैं।

2 जी स्पेक्ट्रम के आवंटन में घोटाला हुआ भी था कि नहीं, इस मुद्दे पर ही अब श्री सिब्बल ने प्रष्नचिन्ह लगा दिया है। आंकड़ों की बाजीगिरी से श्री सिब्बल ने कैग की रिर्पोट को आधारहीन व गलत साबित करने का प्रयास किया है।

सच जो भी हो, पर श्री सिब्बल के इस ताजा बयान से देश की साख को जरुर गहरा धक्का लगा है। साथ ही इस पूरे मामले से देश की जनता भी आहत है, क्योंकि सरकार यह पूरा खेल देश के नागरिकों के खून-पसीने की कमाई से खेल रही है। इस खेल में यूपीए और एनडीए दोनों दोनों के दामन दागदार हैं।

असफल रैनेसां का प्रतीक हैं गालियां

जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

हिन्दी में रैनेसां का शोर मचाने वाले नहीं जानते कि हिन्दी में रैनेसां असफल क्यों हुआ ? रैनेसां सफल रहता तो हिन्दी समाज गालियों का धडल्ले से प्रयोग नहीं करता। बांग्ला ,मराठी ,तमिल,गुजराती में रैनेसां हुआ था और वहां जीवन और साहित्य से गालियां गायब हो गयीं। लेकिन हिन्दी में गालियां फलफूल रही हैं और यह हिन्दी जाति के पतन की निशानी है। गालियां असभ्यता की सूचक हैं। जिस साहित्य और समाज में अभिव्यक्ति का औजार गाली हों वह समाज पिछडा माना जाएगा। गालियां इस बात का संकेत हैं कि हमारे समाज में सभ्यता का विकास धीमी गति से हो रहा है। यथार्थ की भाषिक चमक यदि गाली के रास्ते होकर आती है तो यह सांस्कृतिक पतन की सूचना है। गालियां हमारे आदिम जीवन की निशानी हैं।

हिन्दी में अनेक लेखक हैं जो साहित्य में गालियों का प्रयोग करते रहे हैं। अकविता से लेकर काशीनाथ सिंह तक साहित्य में गालियां सम्मान पा रही हैं। गाली अभिव्यक्ति नहीं है। यथार्थ कभी गालियों के जरिए व्यक्त नहीं होता। अधिकांश बड़े साहित्यकारों ने यथार्थ की अभिव्यक्ति के लिए कभी गालियों का प्रयोग नहीं किया। गालियां हमारे जीवन में असभ्यता की निशानी हैं। गालियों का किसी भी तर्क के आधार पर महिमामंडन करना गलत है। हिन्दी में कई लेखक हैं जो अपनी साहित्यिक अभिव्यक्ति के लिए गालियों का प्रयोग करना जरूरी समझते हैं। युवाओं में गालियों का सहज प्रयोग मिलता है। इन दिनों इलैक्ट्रोनिक मीडिया में भी गालियों का प्रयोग बढ़ गया है।खासकर फिल्मों, रियलिटी टीवी शो और टॉक शो में इसकी झलक मिलती है। हिन्दी में गालियों का बचे रहना इस बात का संकेत है कि हिन्दी अभी आदिम अभिव्यक्ति के रूपों से मुक्त होकर आधुनिक सभ्य भाषा नहीं बन पायी है। समाज में एक बड़ा हिस्सा है जो धडल्ले से गालियां देता है।

सवाल उठता है हिन्दी समाज इतना गाली क्यों देता है ? क्या हम गालियों से मुक्त समाज नहीं बना सकते ? वे कौन सी सांस्कृतिक बाधाएं हैं जो हमें गालियों से मुक्त नहीं होने देतीं ? प्रेमचंद ने लिखा है ‘हर जाति का बोलचाल का ढ़ंग उसकी नैतिक स्थिति का पता देता है। अगर इस दृष्टि से देखा जाए तो हिन्दुस्तान सारी दुनिया की तमाम जातियों में सबसे नीचे नजर आएगा। बोलचाल की गंभीरता और सुथरापन जाति की महानता और उसकी नैतिक पवित्रता को व्यक्त करती है और बदजवानी नैतिक अंधकार और जाति के पतन का पक्का प्रमाण है। जितने गन्दे शब्द हमारी जबान से निकलते हैं शायद ही किसी सभ्य जाति की ज़बान से निकलते हों।’

आम तौर पर हिन्दी में पढ़े लिखे लोगों से लेकर अनपढ़ लोगों तक गालियों का खूब चलन है। कुछ के लिए आदत है। कुछ के लिए धाक जमाने,रौब गांठने का औजार हैं गालियां। पुलिस वाले तो सरेआम गालियों में ही संप्रेषित करते हैं। गालियों के इस असभ्य संसार को हम तरह-तरह से वैध बनाने की कोशिश भी करते हैं। कायदे से हमें अश्लील भाषा के खिलाफ दृढ़ और अनवरत संघर्ष आरंभ करना चाहिए। यह काम सौंदर्यबोध के साथ -साथ शैक्षिक दृष्टि से भी जरूरी है। इससे हम भावी पीढ़ी को बचा सकेंगे। गालियों के प्रयोग के खिलाफ हमें खुली निर्मम बहस चलानी चाहिए। बगैर बहस के गालियां पीछा छोड़ने वाली नहीं हैं। बहस से ही दिमागी परतों की धुलाई होती है।

गालियां मिथ्या साहस की अभिव्यक्ति हैं। गालियां एक सस्ती,घृणित और नीच अश्लीलता है। गालियां महज यांत्रिक आघात नहीं करतीं। इनसे न तो सेक्सी बिम्ब उभरते हैं और न कामुक अनुभूतियां ही पैदा होती हैं। सेक्सी गालियां हमारी अरूचिकर और अस्वास्थ्यकर संवेदनशीलता की अभिव्यक्ति हैं। अश्लील गालियां और अश्लील मजाक के जरिए परपीड़न होता है। गंदे किस्से,चुटकुले,चालू अश्लील शब्द मानवीय सौंदर्य की गरिमा को कम करते हैं। मानव इतिहास आदिम शरीरक्रियात्मक मानकों को कूड़े के ढ़ेर पर फेंक चुका है। लेकिन अभी भी हमारे अनेक मित्र गालियों की हिमायत कर रहे हैं। इस प्रसंग में प्रसिद्ध रूसी शिक्षाशास्त्री अन्तोन माकारेंको याद आ रहे हैं उन्होंने लिखा है- ‘पुराने जमाने में शायद गाली-गलौज की गंदी भाषा कमजोर शब्दावली तथा मूक-निरक्षरता के लिए सहायक की तरह अपने ही ढ़ंग से काम आती थी। स्टैंडर्ड गाली की सहायता से आदिम- भावों को अभिव्यक्त किया जा सकता था, जैसे क्रोध,प्रसन्नता, आश्चर्य, निंदा और ईर्ष्या । लेकिन अधिकांशतः यह किसी भी भावना को व्यक्त नहीं करती थी, बल्कि असम्बद्ध ,मुहावरों और विचारों को जोड़ने के साधन का काम देती थी।’

हमें इस सवाल पर भी सोचना चाहिए कि हिन्दी में गालियां कहां से आ रही हैं। गालियों के मामले में हम लोकल और ग्लोबल एक ही साथ होते जा रहे हैं। जाने-अनजाने असभ्यता का विनिमय कर रहे हैं। कुछ लोग भाषा को उग्र या आक्रामक बनाने के लिए गालियों का इस्तेमाल करते हैं। ऐसे लोग यह भूल जाते हैं कि हमारी जनता उग्र और आक्रामक भाषा पसंद नहीं करती। वह इसे असभ्यता मानती है। गालियों से अभिव्यक्ति में पैनापन नहीं आता बल्कि असभ्यता का संचार होता है। तीक्ष्णता और अभद्रता में हमें अंतर करना चाहिए। हमें बहस-मुबाहिसों में असभ्यता से बचना चाहिए। बहस मुबाहिसे में यदि असभ्यता आ जाती है तो फिर गालियां स्वतः ही चली आती हैं। हिन्दी में स्थिति इतनी बदतर है कि एक नामी साहित्यिक पत्रिका के संपादक आए दिन अपने संपादकीय तेवरों को आक्रामक बनाने के लिए असभ्य भाषा का प्रयोग करते हैं। वे भाषा में तीक्ष्णता पैदा करने के लिए ऐसा करते हैं लेकिन यह मूलतः असभ्यता है। हमें अभिव्यक्ति के लिए तीक्ष्णता का इस्तेमाल करना चाहिए ,असभ्य भाषिक प्रयोगों का नहीं। इन जनाब के संपादकीय अनेक मामलों में अधकचरी विद्वता और अक्षम तर्कपूर्ण शैली से भरे होते हैं।

हमें विचारों की तीक्ष्णता और साहित्यिक अभिव्यंजना की अभद्रता के बीच अंतर करना चाहिए। लेखन में गाली का प्रयोग एक ही साथ गलत और सही दिखता है। एक जमाने में महान रूसी लेखक पुश्किन ने तीक्ष्णता और अभद्रता के अंतर का विवेचन करते हुए लिखा था, ‘ गाली कभी-कभी ,निश्चय ही,बिल्कुल अनुचित है। जैसे कि आपको नहीं लिखना चाहिएः ‘‘यह हांफता हुआ बूढ़ा,चश्मा लगाए हुए एक बकरा है,एक कमीना झूठा है,बदकार है,बदजात है।’’- ये व्यक्ति को दी गयी गालियां हैं। किन्तु अगर आप चाहें ,तो लिख और छाप सकते हैं कि ‘‘यह साहित्यिक पुराना उपासक(अपने लेखों में) एक निरर्थक बकवासी है,हमेशा दुर्बल,हमेशा उकताने वाला,कष्टकर और बिल्कुल अहमक़ तक है।’’क्योंकि यहां पर कोई व्यक्ति नहीं एक लेखक है।’

इसी प्रसंग में अन्तोन माकारेंको ने लिखा है, ‘हमारे देश में गाली-गलौज के शब्दों का ‘‘तकनीकी’’ महत्व खत्म हो गया है, लेकिन भाषा में वे अभी भी मौजूद हैं। अब वे मिथ्या साहस को, ‘‘लौह चरित्र’’ को,निर्णायकत्व,सरलता ,सुरूचि के प्रति तिरस्कार को अभिव्यक्त करते हैं। अब वे एक किस्म के ऐसे नखरे हैं,जिनका मकसद सुनने को खुश करना ,उनको जीवन के प्रति सुनानेवाले के साहसिक रवैय्ये और पूर्वाग्रहहीनता को दर्शाना है।’

साहित्य में गाली के पक्षधरों का मानना है पात्र यदि गाली देते हैं तो हमारे लिए उससे बचना संभव नहीं है। इस प्रसंग में यही कहना है कि गालियां साहित्य नहीं हैं। गालियां जीवन का यथार्थ भी नहीं हैं। गालियां महिलाओं का अपमान हैं और बच्चों के लिए हानिकारक हैं। गालियों के प्रति हमें लापरवाह नहीं होना चाहिए। गालियों को साहित्य में रखकर हम उन्हें दीर्घजीवी बना रहे हैं। उन्हें मूल्यबोध प्रदान कर रहे हैं। विरासत के रूप में गालियां हमारे समाज और संस्कृति की गंभीर क्षति कर रही हैं। प्रेमचंद ने लिखा है ‘ गाली हमारा जातीय स्वभाव हो गयी है।’ ‘गालियों का असर हमारे आचरण पर बहुत खराब पड़ता है। गालियाँ हमारी बुरी भावनाओं को उभारती है और स्वाभिमान व लाज-संकोच की चेतना को दिलों से कम करती हैं जो दूसरी क़ौमों की निगाहों में ऊँचा उठाने के लिए जरूरी है।’

जब कोई व्यक्ति गालियों का इस्तेमाल करता है तो पढ़ने या सुनने वाला किसी सापेक्ष शब्द को नहीं सुनता बल्कि वह गाली के जरिए उसमें अन्तर्निहित सेक्स के अर्थ तक पहुँचता है। इस दुर्भाग्य का मूल सार यह नहीं है कि सेक्स का राज पाठक या श्रोता के सामने खुल जाता है, बल्कि यह कि वह राज अपने सबसे ज्यादा कुरूप,मानवद्वेषी तथा अनैतिक रूप में उदघाटित होता है। ऐसे शब्दों का बारम्बार होने वाला उच्चारण या लिखित प्रयोग पाठक या श्रोता को सेक्सी मामलों पर अत्यधिक ध्यान देने की,विरूपित दिवास्वप्न देखने की आदत पैदा करता है। इससे लोगों में अस्वास्थ्यकर रूचियों का विकास होता है।

अधिकांश गालियां स्त्रीकेन्द्रित हैं और उनके गुप्तांगों को लेकर हैं या उसके विद्रूपों को लेकर हैं। इससे सामाजिक हिंसा में बढ़ोतरी होती है। साथ ही यह भावना पैदा होती है कि औरत इस्तेमाल की चीज है। अपमानित है। मादा है। आश्चर्यजनक बात है कि हमारे स्कूली पाठ्यक्रमों से लेकर बड़ी कक्षाओं तक गालियों के खिलाफ कोई पाठ नहीं है। सारे देश के बुद्धिजीवी आराम से आए दिन सिलेबस बनाते हैं और पढ़ाते हैं। लेकिन गालियों के बारे में कभी क्लास नहीं लेते। कभी बोलते नहीं हैं। उलटे यह देखा गया है कि जिस बच्चे को डांटना होता है उस पर गालियों की बौछार कर देते हैं।

गालियों का प्रयोग सत्य को स्थगित कर देता है। हम जब गाली देते हैं या गाली लिखते हैं तो उस समय हमारी नजर गाली पर होती है सत्य पर नहीं,हम गाली में उलझे होते हैं। गालियों के प्रयोग से वर्तमान साफ नजर नहीं आता। गालियों का प्रयोग विचारों और यथार्थ को एक नई भंगिमा में तब्दील कर देता है। एक विलक्षण किस्म के पाठ की सृष्टि करता है। वह अवधारणाओं के अर्थ और यथार्थ के अर्थ को संकुचित करता है। अर्थ संकुचन गालियों की पूर्वशर्त है। यह य़थार्थ को उसके स्रोत से काट देता है । जबकि लेखक यही दावा करता है कि वह वास्तविकता दरशाने के लिए गालियों का प्रयोग कर रहा है। गालियों के साहित्यिक प्रयोग को स्वाभाविक अभिव्यक्ति के रूप में ही पेश किया जाता है। जबकि सच इसके एकदम विपरीत है।

गालियों का प्रयोग अर्थविस्तार नहीं करता उलटे अर्थसंकोच करता है। जब कोई लेखक यथार्थ को गालियों में खींच लाता है तो वह यथार्थ के साथ जुड़े बुनियादी तर्कों से उसे अलग कर देता है। यथार्थ के सत्य और असत्य विकल्पों की संभावनाएं खत्म कर देता है। गालियों का प्रयोग यथार्थ की बहस को वर्तमान काल में ले आता है। अब उसके लिए वर्तमान का जीवंत यथार्थ बेमानी होता है। गालियों का प्रयोग वर्तमान यथार्थ को शरणार्थी बना देता है।

वैसे अधिकांश रचनाओं में एकाधिक अर्थ की संभावनाएं होती हैं लेकिन गाली के प्रयोग वाले अंशों में एक ही अर्थ होता है। एकाधिक अर्थ या भिन्न अर्थ की संभावनाओं को गालियां नष्ट कर देती हैं। गालियों का प्रयोग सामाजिक गैर बराबरी को बनाए रखता है। सामाजिक हायरार्की को आप इसके प्रयोगों के जरिए अपदस्थ नहीं कर सकते। गालियों में परिवर्द्धन और सम्बर्द्धन संभव नहीं है वे जैसी बनी थीं वैसी ही चली आ रही हैं। यह सिलसिला सैंकड़ों सालों से चला आ रहा है। गालियों के जरिए युगीन विचारों को नहीं पकड़ सकते। हिन्दी में जिसे दिल्लगी कहते हैं वह भी गालियाँ है। प्रेमचंद ने दिल्लगी को गालियों से कुछ कम घृणित माना है। गालियों को उन्होंने ‘जातीय कमीनेपन’ और ‘नामर्दी’ का सबूत कहा है। साथ ही इसे ‘जातीय पतन की देन’ माना है। उनके ही शब्दों में ‘ जातीयपतन दिलों की इज़्ज़त और स्वाभिमान की चेतना को मिटाकर लोगों को बेग़ैरत और बेशर्म बना देती है।’ गालियां अनुभूति की शक्ति मिटा देती हैं।

सुमित शर्मा से प्रेरणा लें आईएएस अधिकारी

लिमटी खरे

कहते हैं देश को चलाने वाले भारतीय प्रशासिनक सेवा (आईएएस) अधिकारी होते हैं, इन नौकरशाहों के आगे राजनेताओं के साथ ही साथ अन्य अखिल भारतीय सेवा के अधिकारी बौने ही साबित होते हैं। आईएएस जब किसी जिले का जिलाधिकारी यानी कलेक्टर बनकर पदस्थ होता है, तब उसका रूतबा कुछ और होता है। वह जिले का अघोषित मालिक होता है। जिलाधिकारी जिले में जिला दण्डाधिकारी के बतौर भी काम करता है।

सत्तर के दशक तक की समाप्ति तक अखिल भारतीय सेवा के अधिकारियों को बड़े ही सम्मान के साथ देखा जाता था। उस वक्त अधिकारियों को भय होता था कि अगर उन्होंने किसी से भी रिश्वत ली तो समाज उन्हें हेय दृष्टि से देखेगा। शनैः शनैः नौकरशाह, मीडिया और राजनेताओं के गठजोड़ ने समूची व्यवस्था को ही पंगु बना डाला है।

पिछले तीन दशकों में देश में अखिल भारतीय स्तर के चुनिंदा अधिकारी ही हैं, जिनके नाम पर आज भी लोग गर्व करते हैं। आज भी इन नौकरशाहों के साथ काम करने वाले सेवानिवृत या सेवानिवृति की कगार पर पहुंचने वाले बाबुओं को अपने संस्मरण सुनाने में काफी हर्ष महसूस होता है।

याद पड़ता है मध्य प्रदेश में भी एक आईएएस अधिकारी हुए हैं, जिनका नाम था, मोहम्मद पाशा राजन। एम.पी.राजन के बारे में कहा जाता था कि वे शासन की सेवा के एवज में महज एक रूपए ही वेतन लिया करते थे। उनकी ईमानदारी की कस्में खाई जातीं थीं, किन्तु जब वे सेवानिवृति के मुहाने पर पहुंचे तो उनका दामन इतना दागदार निकला कि कसमें खाने वालों के मुंह का स्वाद ही कसैला हो गया।

राजस्थान संवर्ग के युवा आईएएस अधिकारी डॉ.सुमित शर्मा ने इस भ्रष्टाचारी जमाने में एक मिसाल कायम की है। शर्मा ने जता दिया है कि कलेक्टर वाकई जिले का मालक नहीं पालक होता है। सच है कि अगर जिले का कोई आला अधिकारी पूरी ईमानदारी, कार्यकुशलता, संवेदनशीलता, मेहनत और लगन के साथ काम करे तो वह जिले का कायापलट कर सकता है।

अमूमन देखा गया है कि जब भी कोई आला अधिकारी किसी जिले में पदस्थ होता है, तो वह दिखावे के लिए स्वांग रच लेता है कि उस जिले के निवासी उसके परिवार का हिस्सा है। दरअसल वह अधिकारी उस जिले में जाकर अपनी तैनाती के समय को सफलता के साथ काटना चाहता है। वह नहीं चाहता कि किसी भी तरह का कोई पंगा हो जिसकी आंच उसके गोपनीय प्रतिवेदन (सीआर) पर पड़े। यही कारण है कि आज जिलों में पदस्थ अधिकारी अपने काम को ईमानदारी के साथ करने के बजाए समय काटने में ही ज्यादा दिलचस्पी दिखाते हैं। अनेक एसे भी अधिकारी हैं, जो दूसरी या तीसरी बार उस जिले में पदस्थ होते हैं, उन अधिकारियों का अवश्य ही जिले के साथ लगाव समझा जा सकता है, वे जिले के विकास के प्रति कुछ ज्यादा फिकरमंद हुआ करते हैं।

होता यह है कि अगर कोई अधिकारी कर्मठता का परिचय देना आरंभ करता है तो स्थानीय राजनेता, विधायक, सांसद उसे सही रास्ते पर चलने नहीं देते। जरा जरा सी बात पर शिकायतों के माध्यम से उस अधिकारी के सर पर निलंबन या स्थानांतरण की तलवार लटकना आम बात है। अगर किसी अफसर ने जनसेवक की सही गलत बात नहीं मानी बस हो जाती हैं उनकी नजरें तिरछी। यही कारण है कि अफसरों ने भी अपने आप को राजनेताओं की मंशा के अनुरूप ही ढालने में भलाई समझी है।

बहरहाल राजस्थान के नागौर जिले में जो भी घटित हुआ है, वह निस्संदेह ही देश के सवा छः सौ जिलों के मालिकों के लिए नजीर बन सकता है। नागौर के जिला कलेक्टर डॉ.सुमित शर्मा का तबादला कर दिया गया, फिर क्या था जिले की जनता सड़कों पर उतर आई। कहा जा रहा है कि उन्होंने एक पहुंच संपन्न इंडस्ट्रीयलिस्ट का शराब कारखाना बंद करवा दिया था, जिसका भोगमान उन्हें भुगतना पड़ा। डॉ.शर्मा के साथ यह पहली मर्तबा नहीं हुआ, इसके पहले जब वे चित्तोड़गढ़ में पदस्थ थे, तब भी उनके स्थानांतरण पर जनता ने सड़कों को थाम लिया था। अमूमन इस तरह की बातें या दृश्य हिन्दुस्तानी सिनेमा में ही देखने को मिला करते हैं, वास्तविकता में यह देखने को नहीं मिलता है। पेशे से पशु चिकित्सक रहे डॉ. शर्मा ने अपने कर्तव्यों के साथ ही साथ जिले में रहते हुए नियमित जनसुनवाई को संपादित किया जिससे वे जनता के दिलों के काफी करीब आ गए।

बताते हैं कि डॉ.शर्मा पुराने राजाओं की तरह भेस बदलकर जिले का भ्रमण कर रियाया का हाल चाल दुख दर्द जाना करते थे, बाद में उसे दूर करने की दिशा में प्रयास किया करते थे। नागौर के हर कार्यालय में ‘‘रिश्वत न देने‘‘ संबंधी जुमलों के साथ बोर्ड लगे हुए हैं। एसा नहीं कि ये बोर्ड हाथी कि मंहगे दांतों की तरह हों, इन पर बाकायदा उन्होंने कार्यवाही भी की है। नागौर की जनता को कलयुग के इस काल में राम राज्य की कुछ तो अनुभूति हुई ही होगी। पहले भी अनेक जिलों के जिलाधीशों ने इस तरह का दिखावा करने का प्रयास किया किन्तु वे बाद में जनता के सामने एक्सपोज हो गए। देश के हर प्रांत की सीमाओं पर परिवहन, सेल टेक्स, मण्डी, आदि की जांच चौकियां आकंठ भ्रष्टाचार में डूबी हैं, यहां से हर माह लाखों रूपए ‘चौथ‘ के तौर पर राजनैतिक दलों, राजनेताओं, पत्रकारों और अधिकारियों को जाता है। सब कुछ देखने सुनने जानने के बाद भी जिला कलेक्टरों की खामोशी उनकी कार्यप्रणाली की ओर इशारा करने के लिए पर्याप्त मानी जा सकती है।

कुछ सालों पूर्व महाराष्ट्र के अहमद नगर जिले में एक जिला कलेक्टर द्वारा एकल खिड़की प्रणाली आरंभ की थी। वह प्रणाली इतनी सफल हुई कि अनेक सूबों में ‘अहमदनगर प्रणाली‘ के नाम से हर जिलों में काउंटर खोल दिए गए थे। जिला कलेक्टरों की अनदेखी के चलते इस व्यवस्था ने अहमदनगर सहित समस्त जिलों में दम ही तोड़ दिया।

हमारी निजी राय में तो डॉ.सुमित शर्मा के बतौर कलेक्टर कार्यकाल को एक नजीर मानकर आईएएस के प्रशिक्षण में इसे शामिल करना चाहिए, ताकि देश के जिलों को चलाने वाले जिलाधीशों को कम से कम इस बारे में तो जानकारी मिल सके कि जिस मिशन जिस उद्देश के तहत उनके कांधों पर जिलों की कमान सौंपी जा रही है, वह मुकाम वे कैसे पा सकते हैं। हमें यह कहने में कोई संकोच नहीं कि आज अनेक सूबों में जिलों में कलेक्टरी तक की बोली लगने लगी है। डॉ.सुमित शर्मा द्वारा किए गए अनूठे, अद्भुत, जनकल्याणकारी प्रयासों के लिए वे बधाई के पात्र हैं, किन्तु यह वाकई उनकी कार्यप्रणाली का हिस्सा ही रहे तो बेहतर होगा, कहीं एसा न हो कि आने वाले समय में उनके बारे में भी कोई कहानी सुनने को मिल जाए।

वेब पत्रकारिता : चुनौतियां व संभावनाएं- अनुराग ढेंगुला


विषय विस्तार के लिए दो प्रसंगों का उल्लेख करना समीचीन होगा। प्रथम हिंदी फिल्मों के महानायक अमिताभ बच्चन का इंटरनेट की संपर्क करने और ज्ञान प्रदाता के रूप में असीम क्षमताओं को देखते हुए सार्वजनिक रूप से ‘नेटवर्किंग जी’ का अभिवादन करना और द्वितीय प्रसंग है जूलियन असांजे की रहस्योद्धाटन करनेवाली वेबसाइट ‘विकीलीक्स’ का समाज के प्रत्येक क्षेत्र एवं हर तबके पर होनेवाला प्रभाव। यह दोनों प्रसंग वेब पत्रकारिता की संभावनाएं, जो कि निश्चित ही मनुष्य की सोच (Beyond the thinking) से आगे है, की धारणा को पुष्टि प्रदान करती है।

अमिताभ बच्चन ने देश, समाज और विश्व को भी उस समय से देखा, समझा और जिया है, जब तकनीक अपने प्रारंभिक रूप में जरूर थीं, मगर इनका प्रभाव मानवीय जीवन और समाज पर प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष रूप से पड़ता था और वह व्यक्ति डब्ल्यू डब्ल्यू डब्ल्यू (WWW) यानी वर्ल्ड वाईड वेब से प्रभावित होकर कहता है कि -‘नेटवर्किंग जी! मैं तुम्हें सलाम करता हूं। आदमी ने तुम्हें ईजाद किया और यह मनुष्यता ही है जो तुम्हें गति देती है। दुनिया में ऐसी जगह और कहां है जहां हम इस तरह मिल सकें। आप हमें विवश करते हैं अपनी राय और टिप्पणी देने के लिए भी। और सबसे बड़ी बात है कि आप गलत निर्णयों और मूल्यों को बदलने की ताकत रखते हैं। उनके आगे के शब्द ‘वेब पत्रकारिता के लिए निश्चित ही उत्साहवर्धक होंगे।’ यह नेटवर्किंग इतनी बड़ी शक्ति है कि इसकी कल्पना भी कभी की नहीं गई थी। यह एक अनंत संपदा है। इससे प्रेम और भाईचारा परवान चढ़ता है। यह संबंधों को प्रगाढ़ता देता है, इंसानियत को और भी सजग बनाता है।” मुझे लगता है कि पत्रकारिता के उद्देश्य भी अमिताभ के इन्हीं शब्दों में तलाशे जा सकते हैं। अमिताभ महज फिल्मी महानायक नहीं हैं, वे टि्वटर पर लाखों चाहने वालों का जिस तरह मार्गदर्शन करते हैं, हौसला अफजाई करते हैं, उससे साबित होता है कि वे लोकजीवन के, नई पीढ़ी के भी महानायक हैं।

नई दुनिया समाचार पत्र के इंटरनेट संस्करण ‘वेब दुनिया’ को प्रथम औपचारिक प्रकाशन माना जा सकता है वेब पत्रकारिता का। लगभग 15 वर्ष पहले जब यह प्रारंभ किया था, तब इसे कोई खास तव्वजों नहीं दी गई थी और ‘एक विशेष वर्ग’ को लक्षित करके ही इसे निकाला जा रहा है, ऐसा भी बोला गया। बोलने के कारण भी साफ थे, कंप्यूटर और इंटरनेट गिने-चुने थे, इनका उपयोग भी काफी महंगा था और उपयोगकर्ता भी कम ही थे। दरअसल इंटरनेट को जन-जन तक पहुंचाने और उसकी गति बढ़ाने के लिए जो अधोसंरचना थी, हमारा देश उसके लिए संसाधन बढ़ाने में जुटा हुआ था, लेकिन बीते वर्षों में भारत में इंटरनेट और कंप्यूटर उपयोगकर्ताओं की वृध्दि अप्रत्याशित रूप से हुई है और दूरस्थ अंचलों में सामान्य जन तक इसकी पहुंच बनी है। इसी संदर्भ में, उल्लेखनीय है कि चैन्नई के ‘द हिंदु’ समाचार पत्र ने अपने इंटरनेट संस्करण की शुरूआत 1995 में की थी और ऐसा करनेवाला यह देश का पहला समाचार पत्र था। अब आप देखिए ‘द हिंदु’ समाचार-पत्र ने सर्वप्रथम अपने स्वयं के हवाई जहाज पदार्पित किए थे, समाचार-पत्रों को देश के सभी शहरों में एक साथ पहुंचाने के लिए। जब कंप्यूटर के माध्यम से सभी शहरों के संस्मरण एक साथ निकालना संभव नहीं था। लेकिन वायुयान की भी अपनी सीमाएं होती है, मगर इंटरनेट के बारे में आपका क्या ख्याल है? इसके माध्यम से प्रसारित होने वाली सामग्री को आप किन सीमाओं में बांधोगे? तो समय और दूरी के बंधन से मुक्ति दिलाकर वेब ने हमें जीते जी ज्ञान और सूचना रूपी मोक्ष प्रदान किया कि नहीं? जूलियन असांजे ने वेब-पत्रकारिता की इसी असीमित शक्ति को भांपकर बिना किसी पते ठिकाने के ‘विकीलीकस’ को आधार बनाया देश-दुनिया में सूचनाएं प्रसारित करने के लिए जूलियन के इस कार्य को नैतिकता और अनैतिकता की कसौटी पर परखना हमारा विषय नहीं है, मगर उन्होंने जो माध्यम अपनाया है, उस पर हमें जरूर गौर करना होगा। क्या सिर्फ एक समाचार-पत्र, एक रेडियो चैनल, एक टेलीविजन चैनल या मीडिया के अन्य किसी परंपरागत माध्यम से लगातार ऐसा करना संभव होता? इस प्रश्न के उत्तर हममें से अधिकांश की यही राय होती कि वह सतत् रखने में असफल होते और इतने कम समय में सवाल ही नहीं होता। तकनीक के सहारे तो वह जगह बदलकर अपने अभियान को जारी रखे हुए हैं। यद्यपि कई देश की सरकारों ने ‘विकीलीक्स’ द्वारा प्रसारित सूचनाओं को रोकने के लिए भी तकनीकी का ही सहारा लिया है, मगर इसमें भी वह आंशिक रूप से ही सफल हुए हैं।

बीच में हम वेब-पत्रकारिता की चुनौतियों पर भी बात करते हैं। जब हमारे देश में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का आगमन हुआ तो मीडिया-विशेषज्ञों के मध्य बहस का सबसे चर्चित विषय यही होता था कि क्या इससे प्रिंट मीडिया की प्रासंगिकता पर प्रश्नचिन्ह लग जाएगा। इस विषय पर समाचार-पत्रों, विश्वविद्यालयों, गोष्ठियों में बहुतेरा विचार-विमर्श हुआ, जिसमें से यह भी निकल कर आया कि जब सूचनाएं तत्काल और एक बटन दबाने पर ही उपलब्ध होगीं, तो बासी खबरों के लिए समाचार-पत्र पढ़ने की जहमत कौन उठाएगा? पक्ष-विपक्ष में इसी से मिलते-जुलते प्रश्न निकलते थे। कुछ समय पश्चात् ही इस प्रश्न का जवाब सभी लोगों को मिल गया और वर्तमान में तो यह प्रश्न ही विलोपित हो गया, क्योंकि इसकी प्रासंगिकता ही नहीं रही। प्रासंगिकता क्यों नहीं रही यह प्रश्न जरूर विचारणीय हो सकता है, मगर प्रिंट मीडिया और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया जरूर प्रासंगिक बने हुए हैं और अपनी-अपनी भूमिका का निर्वहन कर रहे हैं। वेब-पत्रकारिता के पोर्टल द्वारा ‘वैकल्पिक मीडिया’ शब्द का प्रयोग करने का मैं पक्षधर नहीं हूं, बल्कि मैं इसे ‘पूरक मीडिया’ कहना ज्यादा श्रेयस्कर समझता हूं। वह इसलिए क्योंकि आप किस मीडिया का पूर्णरूपेण विकल्प बनना चाहते हैं? क्या वास्तविकता में ऐसा होना संभव है? हां, ‘सहयोगी’ शब्द का प्रयोग मुझ जैसी सोच वालों को और ज्यादा खुशी दे सकता है। आज लगभग सभी छोटे-बड़े समाचार-पत्रों, टेलीविजन चैनलों की सूचनाएं प्रसारित करने के अपने ‘वेब-पोर्टल’ हैं, ई-पेपर संस्करण हैं। इनको संभालने के लिए कुछ लोगों की नियुक्ति भी कर रखी है, मगर सामग्री (content) थोड़े-बहुत फेरबदल के साथ वही रहती है, जो उनके सभी संस्करणों में दिख जाएगी। आज वेब-पोर्टल की सनसनीखेज एवं महत्वपूर्ण खबरें समाचार-पत्रों एवं इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में प्रमुखता से प्रसारित होती हैं और इसका विपरीत यानी कि समाचार-पत्रों एवं इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की खबरें वेब-पोर्टल में भी स्थान पाती है। आज जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में चयन का विस्तार उपलब्ध है, व्यक्ति अपनी पसंद से उनका आनंद लेता है। यह तो मनुष्य का स्वाभाविक गुण है कि वह सभी उपलब्ध-अनुपलब्ध वस्तुओं का स्वाद लेना चाहता है, उन्हें कम से कम एक बार जरूर चखना चाहता है, तो फिर मीडिया पर भी यही सिध्दांत लागू होगा। आज उनके पास मीडिया के कई प्रकार उपलब्ध हैं, उन्हें सभी प्रकारों का मजा लेने दो। वह समाचार-पत्र पढ़ने के बाद दोपहर में अपने कार्यस्थल पर पोर्टल देखें और सायं का टेलीविजन में सूचनाओं का आनंद ले। दिक्कत कहां है? तो फिर क्या वेब-पत्रकारिता के लिए कोई चुनौती ही नहीं बची? सर्वप्रथम वेब-पत्रकारिता का चुनौती तो स्वयं से ही है। तमाम पोर्टलों के बीच विश्वसनीयता बनाए रखने की चुनौती, पत्रकारित शब्द की गरिमा बनाए रखने की चुनौती, अपनी असीमित क्षमताओं का दुरूपयोग न करने की चुनौती। आप उन सूचनाओं विचारों को प्रसारित-प्रचारित करें जो समाज-हित में हों। बिना प्रमाण के कोई सूचना न दें। ऐसे कई मूलभूत सिध्दांत हैं, जिनका लिखना आवश्यक नहीं मगर एक जिम्मेदार नागरिक खासकर पत्रकार उन्हें बखूबी समझता है, अत: वेब-पत्रकारिता के पोर्टल का संचालन एक जिम्मेदार पत्रकार के हाथ में होना अनिवार्य है।

भारत में बहुत कम व्यक्तियों द्वारा इंटरनेट-उपयोगी (Net User) होना भी वेब-पत्रकारिता के विस्तार के लिए एक बड़ी चुनौती है। जिस देश में साक्षरता का प्रतिशत बढ़ाने के लिए सरकारी और गैर सरकारी संगठन जुटे हुए हैं, उस देश में कंप्यूटर को अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचाना निश्चित ही एक बड़ा कार्य है। मगर इसमें भी सुधार आ रहा है, मगर गंभीर प्रयासों की अभी भी जरूरत है।

आंकड़ों के हिसाब से देखें तो 1998 में सिर्फ 48 समाचार-पत्रों के इंटरनेट संस्करण थे, जबकि रजिस्ट्रार ऑफ न्यूजपेपरर्स फॉर इंडिया के कार्यालय में उस समय पंजीकृत समाचार-पत्रों की संख्या 4719 थी। इन 48 इंटरनेट संस्करणों को अगर हम भाषाई-वर्गीकरण में बांटे तो स्थिति इस प्रकार होगी-अंग्रेजी 19 (338), हिंदी 5 (2,118), मलयालम 5 (209), गुजराती 4 (99), बंगाली 3 (93), कन्नड़ 3 (279), तमिल 3 (341), तेलगु 3 (126), उर्दू 2 (495) तथा मराठी 1 (283) कोष्ठक के अंदर कुल प्रकाशन की संख्या तथा बाहर इंटरनेट संस्करणों की संख्या दी है। यह सर्वेक्षण पुणे विश्वविद्यालय के प्रोफेसर श्री किरण ठाकुर ने प्रस्तुत किया था, जिसमें उन्होंने असमी, मणिपुरी, पंजाबी, उड़िया, संस्कृत, सिंधी तथा शेष भारतीय भाषाओं के आंकड़े शामिल नहीं किए थे। 1998 के मुकाबले आज की स्थिति वेब-पत्रकारिता की सुदृढ़ता को स्वत: ही बयान करती है। सभी प्रमुख साप्ताहिक एवं प्रतिदिन प्रकाशित होने वाले समाचार-पत्र, स्थापित पत्रिकाएं, टेलीविजन चैनल्स के वेब-संस्करण ही ऑनलाइन समाचार वितरित नहीं करते हैं, बल्कि कई समाचार-पोर्टल एमएसएन ढेराेंं ऐस नाम भी इसमें शामिल हैं। आप इस क्षेत्र का विस्तार तो देखिए, क्लिक करते ही सूचनाएं पटल पर हाजिर हैं। अब यदि यह सूचनाएं अधकचरी और भ्रमित करनेवाली हैं तो आपका स्वविवेक ही इनसे आपको बचा सकता है।

लेकिन हिंदुस्तान में वेब-पत्रकारिता की प्रसारित-सामग्री (content) को अधिकांश मीडिया विशेषज्ञ गंभीर एवं संतुलित श्रेणी में रखते हैं। इस संबंध में इंटरनेट के माध्यम से अपने विचार व्यक्त करनेवाले पत्रकार रमेश मेनन कहते हैं कि वेब-पत्रकारिता ऐसी ताजी हवा के झोकें की तरह है, जो हमे भारतीय टेलीविजन पर प्रसारित होनेवाले समाचारों के पागलपन से बचाकर तरोताजा रखती है। श्री मेनन आगे लिखते हैं कि अधिकांश टेलीविजन चैनल तथाकथित ‘ब्रेकिंग न्यूज’ के प्रोमो में भूत, तंत्र, मंत्र, सर्प आदि की खबरें इस अंदाज में प्रस्तुत करते हैं कि सामान्य जन को छोड़िए, पढ़े-पढ़ाए समझदार लोग भी टकटकी लगाकर देखते हैं और भ्रमित होकर समाज में विभिन्न प्रकार की अफवाहें फेलाने का काम नि:संकोच करते हैं। टेलीविजन चैनल्स तो यह कार्य ‘टीआरपी’ के दौड़ में बने रहने के लिए करते हैं, मगर इन सब कार्यों में पत्रकारिता के सिध्दांत और नैतिकता का जो नुकसान करते हैं, उसकी भरपाई कौन करेगा? भरपाई करने के इस समाज हितैषी कार्य में वेब-पत्रकारिता एक पहल करती दिखाई दे रही है। वह बताते हैं कि वेब पर खबर ‘बोल्ड’ होती है, यह खबर त्वरित होती है, इसकी अपनी स्वतंत्र पहचान होती है, खोजपरक होने के साथ-साथ त्वरित संवाद (interactive) करती है। कुल मिलाकर वर्तमान में खबरों के मारा-मारी युग में वेब खबरें सुकुन के साथ संतुष्टि प्रदान करती है। वेब-पत्रकारिता ने बीड़ा उठाया है पत्रकारिता में सकारात्मक परिवर्तन का। आज का पत्रकार भी नई-नई तकनीक से युक्त होकर पाठकों को ज्ञानवर्धक सामग्री मनोरंजक ढंग से प्रस्तुत कर रहे हैं और पाठक मनवांछित ग्रहण कर त्वरित टिप्पणी भी दे रहे हैं। पाठक वेब-पत्रकारिता के माध्यम से प्रसारित खबरों से खुद को जुड़ा हुआ महसूस करता है और देश-विदेश के भिन्न-भिन्न विषय-विशेषज्ञों के विचारों से एक जगह बैठकर, एक ही स्क्रीन पर परिचित होता रहता है।

आलोच्य विषय में किसी भी निष्कर्ष पर पहुंचना जल्दबाजी होगी, क्योंकि वेब-पत्रकारिता से जुड़े व्यक्तियों को अभी बहुत लंबा रास्ता तय करना है। वह शनै:-शनै: ही इस क्षेत्र में व्याप्त चुनौतियों से निपटकर वेब-पत्रकारिता की संभावनाओं को बलवती कर पाएंगे। परन्तु यह तय है कि वर्तमान और भविष्य दोनों सुनहरे हैं, हां लेकिन इसे अपनी गरिमा का ख्याल रखना होगा। क्योंकि सिध्दांतों के साथ गरिमा बनाए रखने से लोकतंत्र और सामाजिक ढांचे का मजबूती प्रदान होगी, इससे पत्रकारिता के धर्म का पालन स्वत: ही होगा, अन्ततोगत्वा भला सबका होगा। तो वेब के रथ पर सवार होकर पत्रकारिता का ध्वज संभालने के इच्छुक गणमान्य सारथी और सवारी दोनों आप ही हैं, ध्वज को भी हाथ से न छूटने दीजिए, जिससे पताका लहराती रहे और युध्द की मारा-मारी में अपनी जगह बनाते हुए, पड़ाव-दर-पड़ाव तय करते हुए, मंजिल को अपने समीप लाइए।

संपर्क : 307, विज्ञान नगर (राजेंद्र नगर), इन्दौर-452012

लाल चौक पर राष्ट्र-ध्वजा हम, जा करके फहराएंगे….

गिरीश पंकज

किसी भी राष्ट्र की अस्मिता का प्रतीक है उसका ध्वज, उसकी भाषा, उसका राष्ट्र-गान. दुनिया में भारत ही वह अनोखा उदारवादी देश है जहाँ दिन दहाड़े संविधान जला दिया जाता है. ध्वज का अपमान होता है. बेचारी राष्ट्र भाषा की हालत क्या है, ये सब जानते है. अपने यहाँ तो कोई भी देशविरोधी बातें कर देता है और उस पर कार्रवाई नहीं होती. इसी उदारता का दुष्परिणाम यह हो रहा है कि कश्मीर में देश विरोधी लोग तिरंगा न फहराने की घोषणा कर देते है. इसलिये अगर कुछ लोगों ने २६ जनवरी को कश्मीर के लाल चौक पर तिरंगा फहराने की ठान ली है तो उनकास्वागत होनाचाहिए. यह पहल केवल भारतीय जनता पार्टी के युवा लोग कर रहे है. जबकि यह सर्वदलीय अभियान होना चाहिए. इसमे देश भर के युवको को शामिल होना चाहिए. राष्ट्र ध्वज केवल भाजपा का नहीं है. यह कांग्रेस का भी है औ दूसरे दलों का भी. लेकिन देश का यही दुर्भाग्य है कि यहाँ देश की अस्मिता का सवाल भी घटिया और टुच्ची राजनीति का शिकार हो जाता है. होनातो यह चाहिए था कि २६ जनवरी को एक सर्वदलीय मोर्चा बनाता और सारे राजनीतिक दल के लोग मिलजुल कर लाल चौक पर तिरंगा फहराते. पता नहीं हमारा देश राष्ट्रीयता के सवाल पर कब एकजुट होगा. मै भाजपा कार्यकर्त्ता नहीं हूँ. न कभी हो सकता हूँ. मगर लाल चौक पर तिरंगा फहराने के अभियान का मैं खुल कर उनका समर्थन करता हूँ. मैं वहाँ नहीं जा पाऊँगा. लेकिन मेरी भावनाए वहां जायेंगी. मैंने २६ जनवरी के लिये एक अभियान-गीत लिखा है. यह गीत उस भावना को समर्पित है, जो देश की शान के लिये अपनी जान लुटाने का भी संकल्प लेती है. उम्मीद है यह गीत केवल दल विशेष का गीत नहीं बनेगा वरन हर देशवासी इसे दिल से गायेगा. क्योंकि केवल कश्मीर ही अमर नहीं है. इस देश का चप्पा-चप्पा हमारा है. हम कहीं भी जा कर तिरंगा फहरा सकते है. हमें कोई नहीं रोक सकता. जो रोकेगा मतलब वह देशद्रोही है. जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर का यह बयान कितना हास्यास्पद है कि लाल चौक पर तिरंगा फहराने से कश्मीरी नाराज हो जंगे और वे भड़केंगे. अलगाववादी नेता यासीन मालिक ने भी चुनौती दी है, कि हम देखते है,कि लाल चौक पर कैसे फहराता है तिरंगा. हद है इस मानसिकता की. इस मानसिकता को चुनौती देने जो लोग निकल रहे है,. उनकाखुल कर स्वागत करनाचाहिये देश विरोधी लोगों से निपटना हमारा परमपुनीत कर्तव्य है. क्योंकि सवाल है देश का..किसी पार्टी का नहीं. प्रस्तुत है वन्दे मातरम के जय घोष के साथ यह अभियान-गीत—-

अभियान-गीत

युवा- शक्ति ने ठान लिया है, आगे कदम बढ़ाएंगे.

लाल चौक पर राष्ट्र-ध्वजा हम, जा करके फहराएंगे.

वन्दे मातरम…वन्दे मातरम…

नहीं डरेंगे गोली से हम, लाठी-पत्थर खाएंगे,

वीरों के जो वंशज है वे, कभी नहीं घबराएंगे.

है कश्मीर हमारा सुंदर, इसको नहीं गवाएंगे.

लाल चौक पर राष्ट्र-ध्वजा हम, जा करके फहराएंगे.

वन्दे मातरम…वन्दे मातरम…

बहुत हो चुका अब न सहेगे, गद्दारों की बातें.

भारत में रह कर जो करते, देशविरोधी घातें.

देशद्रोहियों को जा कर हम, अब तो सबक सिखायेंगे…

लाल चौक पर राष्ट्र-ध्वजा हम, जा करके फहराएंगे..

युवा- शक्ति ने ठान लिया है, आगे कदम बढ़ाएंगे.

वन्दे मातरम…वन्दे मातरम…

हम उदार है इसका मतलब, हमें न कायर जानो.

हम है कट्टर देशभक्त बस, तुम हमको पहचानो.

जिन्हें मुल्क से प्यार नहीं हैं, वे न यहाँ टिक पाएंगे..

लाल चौक पर राष्ट्र-ध्वजा हम, जा करके फहराएंगे.

युवा- शक्ति ने ठान लिया है, आगे कदम बढ़ाएंगे.

वन्दे मातरम…वन्दे मातरम…

बढ़ो-बढ़ो ओ वीर सपूतों, यह कश्मीर हमारा है.

चप्पा-चप्पा इस भारत का, हमें जान से प्यारा है.

देश हमारा, धरती अपनी, हम परचम लहरायेंगे..

युवा- शक्ति ने ठान लिया है, आगे कदम बढ़ाएंगे.

लाल चौक पर राष्ट्र-ध्वजा हम, जा करके फहराएंगे.

वन्दे मातरम…वन्दे मातरम…

जय-जय भारत वर्ष हमारा, अमर शान है तेरी.

तेरे लिये अगर जाती है, धन्य जान है मेरी.

बढ़े कदम माँ की खातिर अब, पीछे नहीं हटायेंगे.

लाल चौक पर राष्ट्र-ध्वजा हम, जा करके फहराएंगे.

वन्दे मातरम…वन्दे मातरम…

युवा- शक्ति ने ठान लिया है, आगे कदम बढ़ाएंगे.

लाल चौक पर राष्ट्र-ध्वजा हम, जा करके फहराएंगे.

वन्दे मातरम…वन्दे मातरम..

विधायक की हत्या से सुलगते सवाल

निर्मल रानी

हमारे देश में वैसे तो लगभग सभी प्रकार के जुर्म के ग्राफ में लगातार इज़ाफा होता जा रहा है। परंतु गत कुछ वर्षों से बलात्कार तथा बलात्कार के बाद हत्या, सामूहिक बलात्कार एवं महिला यौन उत्पीडऩ जैसे अपराधों की संख्‍या में कुछ ज्य़ादा ही बढ़ोतरी देखी जा रही है। इन अपराधों से निपटने के लिए भारत सरकार महिलाओं की सुरक्षा के लिए तमाम प्रकार के उपाय कर रही है जैसे कामकाजी महिलाओं के यौन उत्पीडऩ को रोकने के लिए विशेष कानून बनाया जाना, महिला थाने स्थापित करना, महिलाओं की शिकायतों को सुनने के लिए विशेष महिला सेल बनाना, महिलाओं के लिए विशेष रूप से ट्रेन, मैट्रो तथा बसें आदि चलाना। इसके अतिरिक्त सरकार महिला आयोग के रूप में एक ऐसी संस्था संचालित कर रही है जोकि महिलाओं पर होने वाले सभी प्रकार के ज़ुल्मो-सितम की सुनवाई करता है तथा सरकार को अपनी रिपोर्ट, सुझाव एवं सिफारशें प्रेषित करती है।

वहीं दूसरी ओर हमारा देश बलात्कार जैसी मानसिक बीमारी कही जा सकने वाली भीषण समस्या से भी इस कद्र जूझ रहा है कि आज हम इस बुराई को लेकर पूरी दुनिया में बदनाम होते जा रहे हैं। कई विभिन्र देशों से ऐसी खबरें अक्सर आती रहती हैं कि किसी भारतीय नागरिक ने बलात्कार किया तथा उसके जुर्म में उसे सज़ा काटनी पड़ रही है। भारत में विदेशी पर्यटकों के साथ बलात्कार किए जाने के भी समाचार प्राय: आते रहते हैं। अब तो अक्सर इस प्रकार के आलेख भी कई विशेषज्ञों द्वारा लिखे जाने लगे हैं जिनमें यह प्रश्र उठाया जा रहा है कि बलात्कार अथवा यौन उत्पीडऩ जैसे अपराध की ओर भारतीय लोगों के बढ़ते रुझान का कारण आखिर है क्या? इसे मानसिक बीमारी समझा जाए,दिवालियापन कहा जाए, पागलपन समझा जाए या कुछ और? जो भी हो इस दुष्प्रवृति का बढ़ता चलन हमारे समाज को अत्यधिक प्रदूषित,बदनाम तथा दागदार करता जा रहा है। खासतौर पर उस समय हमारे देश की छवि को और अधिक धक्का पहुंचता है जबकि हमारे देश की कानून व्यवस्था,संविधान,शासन या प्रशासन से जुड़ा कोई जि़ मेदार व्यक्ति ऐसी घिनौनी हरकतों में संलिप्त पाया जाता है।

पिछले दिनों बिहार के पूर्णिया जि़ले में हुई घटना ने तो न केवल पूरे देश का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया बल्कि विदेशों में भी इस समाचार को तरह-तरह के शीर्षकों के साथ प्रकाशित किया गया। बिहार के पूर्णिया जि़ले के सदर हल्के से निर्वाचित हुआ विधायक राजकिशोर केसरी चौथी बार भारतीय जनता पार्टी जैसे तथाकथित ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवादी दल से निर्वाचित हुआ था। रूपम पाठक नामक एक स्कूल की संस्थापिका एवं प्रधानाचार्य ने चाकुओं से उसकी हत्या उसी के निवास पर कर डाली। इस घटनाक्रम को ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवादी दल के तमाम सरबराह विपक्षी दलों की साजि़श का परिणाम बता रहे हैं। परंतु यह घटना अपने आप में स्वयं इस बात का जीता-जागता प्रमाण है कि कोई महिला और वह भी शिक्षित व स्कूल चलाने वाली महिला आखिर क्यों और किन परिस्थितियों में किसी सत्तारुढ़ दल के विधायक का उसी के निवास पर आम लोगों के सामने कत्ल कर सकती है।

आईए संक्षेप में सुनिए इस ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवादी’ दल के विधायक राजकिशोर केसरी की हत्या का वह कारण जिसे शायद ही कोई व्यक्ति दरगुज़र कर सकता था। रुपम पाठक के पति गोहाटी में रहते हैं तथा रुपम स्वयं पूर्णिया में राजहंस पब्लिक स्कूल नामक अपना स्कूल 2006 से संचालित कर रही है। आम लोगों में शिक्षा का प्रचार-प्रसार करने के उद्देश्य से चलाया गया यह स्कूल शीघ्र ही लोकप्रिय हो गया था। 2007 में विधायक राजकिशोर केसरी इसी स्कूल में आयोजित एक कार्यक्रम में बतौर मु य अतिथि पधारे। पूरे पूर्णिया क्षेत्र में एक अय्याश प्रवृति के विधायक होने की छवि रखने वाले केसरी ने रूपम पाठक से भीनज़रें चार कर डाली। समाचारों के अनुसार उसके साथ भी यह रंगरेलियां मनाने लगा। धीरे-धीरे उसके साथी भी रूपम पर अपनी मनमर्जी करने का दबाव बनाने लगे। होत-होते यौन शोषण के अपराध का यह सिलसिला आगे बढ़कर ब्लैक मेलिंग व धन उगाही के रूप में तब्दील होने लगा। अब रूपम पाठक स्वयं को परेशान व आतंकित महसूस करने लगी। आखिरकार वह राजकिशोर केसरी की काली करतूतों व उसके तथा उसके साथियों द्वारा की जाने वाली ज़ोरज़बरदस्ती की शिकायतें लेकर स्थानीय पुलिस की शरण में जा पहुंची। भारतीय व्यवस्था को जानते व पहचानते हुए यह बखूबी सोचा जा सकता है कि एक साधारण महिला की शिकायत पर पुलिस विभाग किसी स्थानीय विधायक और वह भी सत्तारुढ़ दल के विधायक के विरुद्ध क्या कदम उठा सकती है। यहां भी वही हुआ। न्याय और व्यवस्था से गुहार कर चुकी रूपम पाठक विधायक के विरुद्ध पुलिस द्वारा कोई कार्रवाई न किए जाने पर उसने आखिरकार विधायक केसरी व उसके गुर्गों के दबाव में आकर अपने परिवार की जान की सुरक्षा की खातिर अपने कदम पीछे खींच लिए।

परंतु रूपम पाठक द्वारा अपने कदम वापस लिया जाना विधायक केसरी की हौसला अफज़ाई का कारण साबित हुआ। अब वह विधायक तथा उसके मवाली गुंडे रुपम पाठक को और भी तंग करने लगे। कभी ब्लैक मेलिंग के द्वारा तो कभी यौन शोषण को लेकर। बताया जाता है कि पिछले दिनों रुपम पाठक अपने पति के पास गोहाटी गई हुई थी। उधर उसके घर में उसकी 13 वर्षीया बेटी तथा एक नौकर मौजूद थे। समाचारों के अनुसार अय्याश विधायक राजकिशोर केसरी अपने कुछ गुंडों के साथ रुपम पाठक के घर पहुंच गया तथा उसकी 13 वर्षीया बेटी को अपनी हवस का शिकार बना डाला। यह सूचना मिलते ही रुपम पाठक गोहाटी से पूर्णिया आ गई। उसने अपने आप पर काबू न रख पाते हुए एक बड़े धारदार हथियार के साथ विधायक केसरी के निवास की ओर कूच किया। शॉल में मुंह ढके तथा शॉल में ही खंजर छुपाए रुपम भी उस भीड़ में जाकर खड़ी हो गई जिससे विधायक मुलाकात कर रहे थे। वहां रुपम ने विधायक जी से अकेले में बात करने की बात करने का निवेदन किया। शाल में मुंह छिपा होने के कारण केसरी जी रुपम पाठक को पहचान न सके। और जैसे ही वह रुपम से एकांत में बात करने की गऱज़ से थोड़ा ही आगे बढ़े कि रुपम ने अपनी 13 वर्षीय बेटी के बलात्कारी पर चाकुओं से ताबड़तोड़ प्रहार कर उसे वहीं ढेर कर दिया।

इस घटना के बाद विधायक के गुर्गों ने उस महिला को पीट-पीट कर अधमरा कर दिया। परंतु वह भीड़ अपने विधायक को बचा नहीं सकी। हां राजकीय सम्‍मान के साथ बलात्कारी विधायक को बिदाई ज़रूर दी गई। इस घटना को राजनैतिक रूप देने से कुछ हासिल होने वाला नहीं है। क्योंकि यौनाचार जैसी दूषित मानसिकता का शिकार कोई भी व्यक्ति हो सकता है। किसी भी पार्टी का कोई भी नेता, अधिकारी, उद्योगपति, गरीब, मज़दूर, किसान, फौजी, पुलिसकर्मी कोई भी व्यक्ति। इस घटना से जो सबक हमें मिल रहा है वह यह कि आखिर नौबत यहां तक क्यों आ पहुंची कि रुपम पाठक को विधायक केसरी की हत्या तक करनी पड़ी? अभी कुछ ही वर्ष पूर्व की बात है जबकि एक पेशेवर बलात्कारी व्यक्ति को उसके द्वारा किए गए बलात्कार से पीडि़त कई महिलाओं ने इकट्ठा हो कर अदालत के बाहर ही उसे पीट-पीट कर मार डाला था। हत्या जैसे मामले में भी खासतौर पर हमारे देश में यह कई बार तथा कई मामलों में यह देखा गया है कि यदि हत्या आरोपी के विरुद्ध पुलिस या अदालत सही कार्रवाई या न्याय नहीं कर पाती तो पीडि़त पक्ष स्वयं कानून अपने हाथ में ले लेता है। परिणामस्वरूप हत्या का जवाब हत्या से दिए जाने की खबरें सुनने को मिलती हैं।

अब इसी परिपेक्ष्य में अपैल 2009 में माननीय उच्चतम् न्यायालय के एक आदेश पर गौर फरमाईए। इसमें उच्चतम् न्यायालय ने कहा है कि ‘बलात्कार व हत्या जैसे जघन्य अपराधों में शामिल अपराधियों के प्रति कोई सहानुभूति नहीं दिखाई जानी चाहिए। अन्यथा यह न्याय व्यवस्था में लोगों के भरोसे को नुकसान पहुंचाएगा।’ उच्चतम न्यायालय ने यह टिप्पणी उस समय दी थी जबकि मध्य प्रदेश की एक निचली अदालत द्वारा एक बलात्कारी को 7 वर्ष के सश्रम कारावास की सज़ा को घटाकर मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने उसे 6 माह के कारावास में परिवर्तित कर दिया था। उच्च न्यायालय के इस फैसले को निरस्त करते हुए उच्चतम न्यायालय ने ऐसी टिप्पणी दी थी। गौरतलब है कि हमारे देश में तो समय-समय पर बलात्कारी को फांसी देने तक की मांग उठती रहती है। यहां तक कि कई जघन्य हत्या एवं बलात्कार के मामलों में फांसी तथा आजीवन कारावास जैसी सज़ाएं हो भी चुकी हैं। ऐसे में यदि देश की व्यवस्था यह चाहती है कि राजकिशोर केसरी की हत्या जैसी घटनाओं की पुनरावृति न होने पाए तो पीडि़त एवं प्रभावित जनता को इस बात का यकीन दिलाना ज़रूरी है कि पुलिस, प्रशासन तथा न्यायपालिका में उसकी सुनवाई होकर ही रहेगी। और यदि यह भावना पैदा करने में हमारे देश की व्यवस्था असफल रही तो ऐसी घटनाओं को बार-बार दोहराए जाने से भी कभी रोका नहीं जा सकेगा।

रूपम पाठक एक चेतावनी है!

डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’

सारे देश में लोगों के लिये यह खबर एक नया सन्देश लेकर आयी है कि-बिहार विधानसभा में भारतीय जनता पार्टी के टिकिट पर चुनकर आये बाहुबली विधायक राजकिशोर केसरी का जनता से मेलमिलाप के दौरान रूपम पाठक ने सार्वजनिक रूप से चाकू घोंपकर बेरहमी से कत्ल कर दिया। मौके पर तैनात पुलिस वालों ने रूपम को घटनास्थल पर पकड लिया और पीट-पीट कर अधमरा कर दिया।

घटनास्थल पर उपस्थित अधिकांश लोगों को और विशेषकर पुलिसवालों को इस बात की पूरी जानकारी थी कि विधायक पर क्यों हमला किया गया है एवं हमला करने वाली महिला कितनी मजबूर थी। बावजूद इसके पुलिस वालों ने आक्रमण करने वाली महिला अर्थात् रूपम पाठक द्वारा किये गए आक्रमण के समय सुरक्षा गार्ड उसको नियन्त्रित नहीं कर सके और उसकी बेरहमी से पिटाई की, जिसका पुलिस को कोई अधिकार नहीं था। जहाँ तक मुझे जानकारी है, रूपम की पिटाई करने वाले पुलिस वालों के विरुद्ध किसी प्रकार का प्रकरण तक दर्ज नहीं किया गया है। जबकि रूपम के विरुद्ध हत्या का अभियोग दर्ज करने के साथ-साथ, रूपम पर आक्रमण करने वालों के विरुद्ध भी मामला दर्ज होना चाहिये था।

राजकिशोर केसरी की हत्या के बाद यह बात सभी के सामने आ चुकी है कि इस घटना से पहले रूपम पाठक ने बाकायदा लिखित में फरियाद की थी कि राज किशोर केसरी, विधायक चुने जाने से पूर्व से ही गत तीन वर्षों से उसका यौन-शोषण करते रहे थे और उन्हें तरह-तरह से प्रताड़ित भी कर रहे थे। जिसके विरुद्ध नीतिश कुमार प्रशासन से कानूनी संरक्षण प्रदान करने और दोषी विधायक के विरुद्ध कानूनी कार्यवाही करने की मांग भी की गयी थी, लेकिन पुलिस प्रशासन एवं नीतिश सरकार कुमार ने रूपम पाठक को न्याय दिलाना तो दूर, किसी भी प्रकार की प्राथमिक कानूनी कार्यवाही करना तक जरूरी नहीं समझा। आखिर सत्ताधारी गठबन्धन के विधायक के विरुद्ध कानूनी कार्यवाही कैसे की जा सकती थी?

स्वाभाविक रूप से रूपम पाठक द्वारा पुलिस को फरियाद करने के बाद; विधायक राज किशोर केसरी एवं उनकी चौकडी ने रूपम पाठक एवं उसके परिवार को तरह-तरह से प्रताड़ित करना शुरू कर दिया। सूत्र यह भी बतलाते हैं कि रूपम पाठक से राज किशोर केसरी के लम्बे समय से सम्बन्ध थे। जिन्हें बाद में रूपम ने यौन शोषण का नाम दिया है। हालांकि इन्हें रूपम ने अपनी नीयति मानकर स्वीकार करना माना है, लेकिन पिछले कुछ समय से राज किशोर केसरी ने रूपम की 17-18 वर्षीय बेटी पर कुदृष्टि डालना शुरू कर दिया था, जो रूपम पाठक को मंजूर नहीं था। इसी कारण से रूपम पाठक ने पहले पुलिस में गुहार की और जब कोई सुनवाई नहीं हुई तो खुद ने ही विधायक एवं विधायक के आतंक का खेल खतम कर दिया!

रूपम पाठक ने जिस विधायक का खेल खत्म किया है, उस विधायक के विरुद्ध दाण्डिक कार्यवाही नहीं करने के लिये बिहार की पुलिस के साथ-साथ नीतिश कुमार के नेतृत्व वाली संयुक्त सरकार अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकती है। विशेषकर भाजपा इस कलंक को धो नहीं सकती, क्योंकि राजकिशोर केसरी को भाजपा ने यह जानते हुए भी टिकिट दिया कि राज किशोर केसरी पूर्णिया जिले में आपराधिक छवि के व्यक्ति के रूप में जाना जाता था। जिसकी पुष्टि चुनाव लडने के लिये पेश किये गये स्वयं राज किशोर केसरी के शपथ-पत्र से ही होती है।

पवित्र चाल, चरित्र एवं चेहरे तथा भय, भूख एवं भ्रष्टाचार से मुक्ति दिलाने का नारा देने वाली भाजपा का यह भी एक चेहरा है, जिसे बिहार के साथ-साथ पूरे देश को ठीक से पहचान लेना चाहिये और नीतिश कुमार को देश में सुशासन के शुरूआत करने वाला जननायक सिद्ध करने वालों को भी अपने गिरेबान में झांकना होगा। इससे उन्हें ज्ञात होना चाहिये कि बिहार के जमीनी हालात कितने पाक-साफ हैं। जो सरकार एक महिला द्वारा दायर मामले में संज्ञान नहीं ले सकती, उससे किसी भी नयी शुरूआत की उम्मीद करना दिन में सपने देखने के सिवा कुछ भी नहीं है!

रूपम पाठक का मामला केवल बिहार, भाजपा, नीतिश कुमार या राजनैतिक ताकतों के मनमानेपन का ही प्रमाण नहीं है, बल्कि यह प्रकरण एक ऐसा उदाहरण है जो हर छोटे-बडे व्यक्ति को यह सोचने का विवश करता है कि नाइंसाफी से परेशान इंसान किसी भी सीमा तक जा सकता है। पुलिस, प्रशासन एवं लोकतान्त्रिक ताकतें आम व्यक्ति के प्रति असंवेदनशील होकर अपनी पदस्थिति का दुरूपयोग कर रही हैं और देश के संसाधनों का मनमाना उपयोग तथा दुरूपयोग कर रही हैं। सत्ता एवं ताकत के मद में आम व्यक्ति के अस्तित्व को ही नकार रही हैं।

ऐसे मदहोश लोगों को जगाने के लिये रूपम ने फांसी के फन्दे की परवाह नहीं करते हुए, अन्याय एवं मनमानी के विरुद्ध एक आत्मघाती कदम उठाया है। जिसे यद्यपि न्यायसंगत नहीं ठहराया जा सकता, लेकिन रूपम का यह कदम न्याय एवं कानून-व्यवस्था की विफलता का ही प्रमाण एवं परिणाम है। जब कानून और न्याय व्यवस्था निरीह, शोषित एवं दमित लोगों के प्रति असंवेदनशील हो जाते हैं तो रूपम पाठक तथा फूलन देवियों को अपने हाथों में हथियार उठाने पडते हैं। जब आम इंसान को हथियार उठाना पडता है तो उसे कानून अपराधी मानता है और सजा भी सुनाता है, लेकिन देश के कर्णधारों के लिये और विशेषकर जन प्रतिनिधियों तथा अफसरशाही के लिये यह मनमानी के विरुद्ध एक ऐसी शुरूआत है, जिससे सर्दी के कडकडाते मौसम में अनेकों का पसीना छूट रहा है।

अत: बेहतर होगा कि राजनेता, पुलिस एवं उच्च प्रशासनिक अधिकारी रूपम के मामले से सबक लें और लोगों को कानून के अनुसार तत्काल न्याय देने या दिलाने के लिये अपने संवैधानिक और कानूनी फर्ज का निर्वाह करें, अन्यथा हर गली मोहल्लें में आगे भी अनेक रूपम पैदा होने से रोकी नहीं जा सकेंगी। समझने वालों के लिये रूपम एक चेतावनी है!

राजीव भाई दीक्षित आप अमर हैं…

ई. दिवस दिनेश गौड़

मित्रों, राजीव दीक्षित एक महत्वपूर्ण नाम होने के बाद भी बहुत जाना पहचाना नहीं है। बहुत से लोग तो इन्हें जानते भी नहीं होंगे। कुछ लोगों ने केवल उनका नाम ही सुना है। यही होते हैं नींव के पत्थर जो पूरी इमारत को अपने ऊपर खड़ा रखते हैं किन्तु किसी को दिखाई भी नहीं देते।

बहुत कम लोग जानते होंगे कि स्वामी रामदेव जी को भारत स्वाभिमान का सुझाव देने वाले एवं उनके साथ कंधे से कन्धा मिला कर इस संगठन को सफल बनाने वाले राजीव दीक्षित ही थे। जो लोग इन्हें जानते हैं उन्हें राजीव भाई के निधन का दु:खद समाचार भी मिल गया होगा। राजीव भाई से मिलने के बाद यह जाना कि एक लौह पुरुष क्या होता है। जब मैं दसवीं या ग्यारहवीं कक्षा में पढता था तब उनसे मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। उस समय राजीव भाई आज़ादी बचाओ आन्दोलन नामक एक संगठन के प्रवक्ता थे जिसे उन्होंने खुद खड़ा किया था और जन-जन तक पहुंचाने के लिये खुद गाँव-गाँव घूम कर एक आम आदमी में राष्ट्रीय चेतना भरने का काम करते थे।

मित्रों, जिस जगह से राजीव भाई निकल कर आए थे, शायद ही कोई ऐसा हो जो उनकी इस राह को अपना सके। यह बात समझाने के लिये मै राजीव भाई का परिचय आपको देना चाहता हूँ।

राजीव भाई का जन्म ३० नवम्बर १९६७ को उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद जिले के नाह गाँव में एक स्वतंत्रता सेनानी परिवार में हुआ था। उनके पिता किसान थे। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा अपने गाँव में ही हुई फिर उच्च शक्षा के लिये वे इलाहाबाद गए। इंजीनियरिंग के बाद उन्होंने आईआईटी कानपुर से सेटेलाईटकम्युनिकशन में एमटेक किया। विदेशों से आने वाले बहुत सारे नौकरी के प्रस्तावों को उन्होंने ठुकरा दिया व अपना जीवन देश को समर्पित कर दिया। वे खुद एक वैज्ञानिक थे एवं डॉ. कलाम के साथ भी कार्य कर चुके हैं। वे सीएसआईआर इंडिया में टेलीकॉम क्षेत्र में भी कार्य कर चुके हैं। उन्होंने डाक्टरिट की उपाधि फ्रांस में ली थी किन्तु कभी भी अपने नाम के आगे ”डॉ.” नहीं लगाया। पिछले बीस सालों से राजीव भाई भारतीय स्वदेशी के सिद्धांत पर ही कार्य कर रहे थे।

राजीव भाई पिछले बीस वर्षों से बहुराष्ट्रीय कंपनियों और बहुराष्ट्रीय उपनिवेशवाद के खिलाफ तथा स्वदेशी की स्थापना के लिए संघर्ष कर रहे थे । वे भारत को पुनर्गुलामी से बचाना चाहते थे। अपनी शिक्षा पूरी करने के बाद उन्होंने सभी वेदों, शास्त्रों, उपनिषदों व पुराणों का अध्ययन किया। पिछले ३००० वर्षों के विश्व इतिहास को भी उन्होंने बड़ी बारीकी से पढ़ा। न केवल हिन्दू धर्मग्रन्थ अपीतु कुर आन, बाइबिल व गुरु ग्रन्थ साहिब का भी अध्ययन किया। विश्व का शायद ही कोई दर्शनशास्त्री होगा जिसे राजीव भाई ने नहीं पढ़ा। अर्थशास्त्र के बहुत से भारतीय व विदेशी विद्वानों को भी राजीव भाई ने पढ़ा। एलोपैथी, होम्योपैथी, आयुर्वेद व प्राकृतिक चिकित्सा का अध्ययन व आयुर्वेद व होम्योपैथी का विशेष अध्ययन राजीव भाई ने किया। खुद इंजीनियर थे किन्तु होम्योपैथ का अद्भुत ज्ञान होने के कारण बड़ी बड़ी बिमारी का इलाज होम्योपैथ व आयुर्वेद से करते थे। मुझे याद है मैंने कई बार उनके पास मरीजों की भीड़ देखी है। इनके साथ साथ क़ानून व्यवस्था व खेती बाड़ी जैसे विषय भी उन्होंने पढ़ डाले।

राजीव भाई ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के बहुत से स्वतंत्रता सेनानियों की जीवनी व दर्शन पढ़ा। प्रारम्भ से ही राजीव भाई उधम सिंह, भगत सिंह, चंद्रशेखर, रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खान, राजगुरु, सुखदेव, खुदीराम बोस व सुभाष चन्द्र बोस से प्रभावित रहे। बाद में जब उन्होंने गांधी जी के जीवन दर्शन का अध्ययन किया तो उनसे इतना प्रभावित हुए कि उन्हें इतिहास में पिछले ५०० वर्षों का सबसे महान व्यक्ति मानने लगे।

राजीव भाई ने आजीवन अविवाहित रह कर अपनी समस्त शक्ति राष्ट्र को समर्पित करने की शपथ ले ली थी। पिछले करीब पच्चीस सालों से राजीव भाई ने इतिहास से जो सबक लिया उससे गाँव गाँव घूम कर भारतवासियों को जागृत करते रहे। यूनानी, पुर्तगाली, तुर्की, मुग़ल, फ्रांसीसी व अंग्रज़ भारत क्यों आये, उन्होंने भारत को कैसे गुलाम बनाया, कैसे अंग्रजों ने हमारी संस्कृती व सभ्यता को नष्ट किया, कैसे उन्होंने हमारी शिक्षा नीति को बदला, इसके पीछे उनका क्या उद्देश्य था? आदि सब प्रश्नों के उत्तरों से वे भारत वासियों को जगाते रहे। इस समय अंतराल ने राजीव भाई ने करीब १५००० व्याख्यान दिए। अंग्रजों ने भारत को गुलाम बनाने के लिये जितने क़ानून बनाए थे उनका राजीव भाई आजीवन विरोध करते रहे। ५००० से अधिक विदेशी कम्पनियां जिस प्रकार से आज भारत को लूट रही हैं उसके विरोध में राजीव भाई ने आज़ादी बचाओ आन्दोलन जैसे मंच की स्थापना की। देश की पहली स्वदेशी व विदेशी कंपनियों के सामान की सूची राजीव भाई ने ही तैयार की थी। और इसी के आधार पर वे देशवासियों से स्वदेशी अपनाने का आग्रह करते रहे। १९९१ में डंकल प्रस्तावों के खिलाफ घूम घूम कर जन जाग्रति की और रेलियाँ निकाली। कोका कोला और पेप्सी जैसे पेयों के खिलाफ अभियान चलाया और कानूनी कार्यवाही की। १९९१ व १९९२ में राजस्थान के अलवर जिले में केडिया कंपनी के कारखाने बंद करवाए। १९९५-९६ में टिहरी बाँध के विरोध में ऐतिहासिक मोर्चा निकाला। इसमें वे इतने प्रबल रूप से संघर्ष कर रहे थे कि उन पर पुलिस का लाठी चार्ज भी हुआ जिसमे उन्हें गंभीर चोटें आई, किन्तु फिर भी वे संघर्ष करते रहे। टिहरी पुलिस ने तो राजीव भाई को मारने की पूरी योजना बना रखी थी। १९९७ में सेवाग्राम आश्रम, वर्धा में प्रख्यात गाँधीवादी इतिहासकार धर्मपाल जी के सानिध्य में‚ अंग्रेजों के समय के ऐतिहासिक दस्तावेजों का अध्ययन करके देश को जाग्रत करने का काम किया। उनके पास ऐसे ऐसे दस्तावेज़ थे जिसमे कांग्रेस पार्टी व नेहरु की करतूतों की पोल खुलती दिखाई दी।

मेरे पिता आज़ादी बचाओ आन्दोलन के बीकानेर जिला संयोजक रह चुके हैं। अत: उस समय राजीव भाई का बीकानेर आगमन हुआ और मेरा उनसे मिलने का प्रथम सौभाग्य। मै उस समय दसवीं या ग्यारहवीं कक्षा में पढता था। राजीव भाई के विचारों से मैं और मेरे दोनों भाई इतना प्रभावित हुए कि हमने उनके सिद्धांतों को अपना लिया। उसके बाद तो कई बार राजीव भाई से मिलना हुआ। कोई समस्या होती तो उनसे समाधान भी करवाया। उस समय एक बार मेरे बड़े भाई ने राजीव भाई को एक ख़त लिखा जिसमें उन्होंने राजीव भाई के सामने एक समस्या रखी कि किस प्रकार मैं अपने संगी साथियों को इस राष्ट्रवादी चेतना से जोड़ सकूं? क्योंकि सभी युवा ही हैं और वे इस प्रकार की विचारधारा से बोरियत महसूस करते हैं। साथ ही मुझे भी यह सलाह देते रहते हैं कि तू कहाँ इन फालतू चक्करों में पड़ गया? इस पर करीब तीन महीने बाद राजीव भाई का पत्र आया जिसमे पहले उन्‍होंने देरी के लिये क्षमा मांगी व देरी का कारण बताया कि किस प्रकार से वे पिछले कुछ महीनों से वर्धा से बाहर थे, अत: उन्हें आज ही कई पत्र मिले जिनमे आपका पत्र भी मिला। उन्होंने बड़े सहज़ अदाज़ में भैया को समझाया कि इस प्रकार की घटनाओं से न घबराएं व पूरे मन से पहले अपनी पढ़ाई करें फिर अपने ज्ञान से आप उन्हें समझाएं। आज नहीं तो कल वे आपको जरूर समझेंगे। राजीव भाई का इस प्रकार एक तरुण को इतना महत्व देना व इतने प्यार से समझाना हमें बहुत प्रभावित कर गया। हमें तो लगा कि इस प्रकार के व्यस्त लोग शायद ही जवाब दें।

एक बार राजस्थान के कोटा जिले में लोगों के आग्रह पर सुखमय पारिवारिक जीवन पर एक सुन्दर व्याख्यान दिया। जिसे सुन मैं हतप्रभ रह गया। इतिहास, राजनीति, व्यापार, अर्थशास्त्र, देश-विदेश, स्वदेशी, भ्रष्टाचार, भुखमरी, चिकित्सा, शिक्षा व आतंकवाद जैसे विषयों पर बोलने वाले राजीव भाई को जब पहली बार परिवार, जीवन मूल्यों, परम्पराओं व रिश्ते नातों पर बोलते सुना तो आश्चर्य स्वाभाविक ही था। उनके वे सुन्दर शब्द मुझे आज भी याद हैं।

प्रारम्भ में राजीव भाई ने प्रचार के आधुनिक संसाधनों को नज़र अंदाज़ किया। वे विभिन्न चैनलों पर दिखाए जाने वाले बेहूदा कार्यक्रमों व सिनेमाई पर्दे पर दिखाई जाने वाली फूहड़ फिल्मों के इतने प्रबल आलोचक रहे कि इन्होंने टेलिविज़न के माध्यम से प्रचार का तरीका ही नहीं अपनाया। शायद यही कारण था कि आज़ादी बचाओ आन्दोलन अधिक समय तक लोकप्रिय नहीं रह सका व राजीव भाई को भी अधिक लोग नहीं जान पाए। किन्तु वे फिर भी डटे रहे।

इधर परम पूजनीय स्वामी रामदेव जी ने आधुनिक संसाधनों का उपयोग कर पूरे देश में क्रान्ति ला दी थी। स्वामी जी ने एक लुप्त हो चुकी विद्या को पुनर्जीवित कर दिया था व इसे जन-जन तक पहुंचा दिया था। स्वामी जी ने कई बार अपने व्याख्यानों में राजीव भाई का ज़िक्र किया था। उन्होंने बताया था किस प्रकार वे स्वदेशी आन्दोलन को सफल बनाने का काम कर रहे हैं। इस प्रकार कई लोगों तक राजीव भाई का सन्देश मिला। फिर राजीव भाई स्वामी जी से मिले और पिछले १० वर्षों से उनके संपर्क के बाद उन्होंने ९ जनवरी २००९ को भारत स्वाभिमान की स्थापना की। स्वामी जी के नेतृत्व में राजीव भाई ने आन्दोलन का लिम्मा अपने सर ले लिया व अपने ही तेतालिसवें जन्मदिवस ३० नवम्बर २०१० को छत्तीसगढ़ के भिलाई में वे इसी रण में शहीद हो गए। उनके द्वारा किये कार्यों को भारत कभी नहीं भुला पाएगा।

उनकी मृत्यु का समाचार मुझे मेरे एक परिचित से ३० नवम्बर को प्रात: ही मिल गया था। कई दिनों तक मन अति व्याकुल रहा। जयपुर में मैं अकेला ही रहता हूँ। अकेले में कई बार रोने की इच्छा भी हुई किन्तु शायद यह काम मेरे लिये संभव नहीं है। दुःख तो मन में ही रहा। कहते तो सब यही हैं कि शहीद की मौत पर दुःख करने से उसकी शहादत का अपमान होता है, किन्तु मुझे तो दुःख यह था कि इस धरा ने अपने एक और वीर पुत्र को खो दिया। हम तो शहीद की मौत पर गर्व से सीना फुला लेते हैं किन्तु उसकी माँ पर क्या बीत रही है यह हम क्या जाने। हम तो राजीव भाई को अंतिम विदाई दे चुके हैं किन्तु इस भारत माँ के आंसू कौन पौंछेगा जिसकी सेवा में राजीव भाई ने अपना जीवनहोम कर दिया व अपने प्राण भी दे दिए।

कुछ दिनों पहले ही भारत स्वाभिमान ने यह घोषणा की थी कि यह संगठन अगले लोकसभा चुनावों में चुनाव लडेगा। २९ नवंबर की शाम करीब ६:३० बजे राजीव भाई को हृदय में दर्द हुआ। इससे पहले वे किसी मीटिंग से वापस आये थे। और आधी रात को उन्होंने अंतिम सांस ली। उनका पूरा शरीर काला पड़ गया था। शव काला तभी पड़ता है जब या तो व्यक्ति को ज़हर देकर मारा जाए या फिर बिजली के झटके से। साथ ही राजीव भाई का पोस्टमार्टम भी नहीं होने दिया गया। आपको याद होगा लालबहादुर शास्त्री जी का मृत शरीर जब ताशकंज से आया था तो वह भी काला पड़ गया था और कांग्रेस ने उनका अंतिम संस्कार नहीं होने दिया था। शायद राजीव भाई भी इसी प्रकार शिकार बने हों। यह एक संभावना भी हो सकती है। क्योंकि ऐसा हमारे देश में होता आया है। सरदार पटेल, लालबहादुर शास्त्री, जय प्रकाश नारायण की सूची में अब राजीव भाई का नाम भी जुड़ गया है।

राजीव भाई को सच्ची श्रद्धांजलि देने के लिये हमें उनके सिद्धांतों को अपनाना होगा। राजीव भाई ने तो अपना पूरा जीवन राष्ट्र को समर्पित कर दिया था किन्तु यदि हम दिन का एक घंटा भी उनके सपनों को यथार्थ करने में लगा दें तो ही राजीव भाई की आत्मा को शान्ति मिलेगी।

मन से तो अब यही आवाज निकलती है…” राजीव भाई आप अमर हैं!”

राजीव भाई द्वारा लिखित लेख व उनके व्याख्यान तो बहुत हैं किन्तु कुछ यहाँ दे रहा हूँ…

* भारतीय आज़ादी का इतिहास

* विदेशी विज्ञापनों का झूठ

* मैकॉले शिक्षा पद्धति

* एलिजाबेथ की भारत यात्रा

* विज्ञापनों का बाल मन पर प्रभाव

* गौ रक्षा एवं उसका महत्व

* अर्थव्यवस्था में मंदी के कारण और निवारण

* पेटेंट क़ानून और दवाओं पर हमला

* CTBT और भारतीय अस्मिता

* सच्चे स्वराज्य की रूप रेखा

* स्वदेशी और स्वावलंबन

* स्वदेशी खेती

* महात्मा गांधी को श्रद्धांजलि

* प्रतिभा पलायन

* भारत पर विदेशी आक्रमण

* आतंकवाद और उसके निवारण

* स्विस बैंकों में भारत की लूट

इत्यादि इत्यादि…

इन सबके अलावा राजीव भाई ने घर बैठे देश सेवा करने पर भी बहुत से व्याख्यान दिए हैं।