संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार का दूसरा कार्यकाल पूरा होगा या नहीं इसके बारे में भविष्यवाणी करना जोखिम भरा होगा. वतनपरस्तों की सदिच्छा है कि सरदार मनमोहन सिंह के नेतृत्व में यूपीए द्वितीय भी अपना कार्यकाल पूरा करे, जिनकी याददाश्त अच्छी है वे जानते हैं कि संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार के पहले {२००४-२००९}कार्यकाल में बेशक अनेक खामियों के वाबजूद कुछ ऐसी उपलब्धियां अवश्य थीं जिनके कारण कांग्रेस नीत यूपीए सरकार पुनः सत्ता प्राप्त करने में सफल रही. जिस वामपंथ ने महंगाई, भ्रष्टाचार और वन-टू-थ्री, एटमी करार पर तथाकथित जनांदोलन की दरकार के चलते यूपीए प्रथम का साथ छोड़ दिया था, उसे उसके ही जनाधार वाले क्षेत्रों में आम जनता ने सर-आँखों पर नहीं लिया, ऐसा क्यों हुआ? वामपंथ ने वर्तमान संसद में अपनी आधी सीटें खो देने के बावजूद, अपनी तमाम तार्किक आलोचनाओं के बावजूद, देश कि जनता और अपने ही समर्थकों को उस चूक से अवगत नहीं कराया जो उनसे हुई थी.
२००४ में जब कांग्रेसनीत गठबंधन सत्ता में आया तब उसकी हालत ये थी कि श्रीमती सोनिया गाँधी के प्रधानमंत्री बनाए जाने कि चर्चा मात्र से बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज धढ़ाम से जमीन पर ओंधे मुह गिर रहा था.
उधर वैकल्पिक प्रधानमंत्री जी का नेशनल डेमोक्रेटिक अलाइंस पूरी दौलत दांव पर लगा देने पर भी उन्हें खरीद पाने में असफल रहा जिनकी गिनती से संसद में बहुमत तय होता है. माकपा, भाकपा, आर एस पी, फारवर्ड ब्लाक के रूप में वामपंथ को कुल जमा ६२ सांसद प्राप्त हुए थे और वाम की यह एतिहासिक उपस्थिति थी. वाम की इस विजय ने ही एनडीए को सत्ता से दूर रखने का महता कार्य किया था. यही वो असल कारण था कि आडवानी जी प्रधानमंत्री बनते-बनते रह गए और कांग्रेस जो १९९६ से २००४ तक सत्ताच्युत थी वो पुनः सत्तासीन होने में कामयाब हो गई. कांग्रेस के इस पुनर्जीवन में वाम की भूमिका एतिहासिक रही थी. देश और दुनिया को यह तो याद रहा कि सोनिया गाँधी ने तत्कालीन जन-मानसिकता का सही मूल्यांकन करते हुए प्रधानमंत्री पद स्वयम न ग्रहण करते हुए सरदार मनमोहनसिंह को इस उत्तरदायित्व हेतु नामित किया था, किन्तु यह विस्मृत कर दिया गया कि इस सत्ता हस्तांतरण में वाम की भूमिका कहाँ तक थी? वामपंथ ने न केवल वाम का अपितु सपा, बसपा, नायडू चौटाला और द्रुमुक इत्यादि का समर्थन भी यूपीए प्रथम के पक्ष में जुटाने का प्रयास किया था, लगभग गैर- एनडीए- के ४०० सांसद तब सोनिया गाँधी, स्व. हरकिशन सिंह सुरजीत एवं सरदार मनमोहन सिंह के साथ फोटो खिचवाना चाहते थे.
आजकल महंगाई पर विपक्ष और जनता का आक्रोश तो चरम पर है ही किन्तु सरकार के कुछ ईमानदार मंत्री तक इस भीषण महंगाई पर व्यथित हैं यूपीए द्वितीय की तरह ही यूपीए प्रथम के दौरान या यों कहें कि उससे पूर्व एनडीए के दौरान भी बेतहाशा महंगाई बढ़ती रही है, अर्थशास्त्रियों और विद्वानों ने इस विषय पर बड़े-बड़े ग्रन्थ लिखे हैं, यह मुद्दा मांग, आपूर्ति, क्रय-शक्ति, जनसंख्या, उत्पादन, वितरण और क़ानून एवं सुशासन इत्यादि से जुडा हुआ है, चूँकि इस आलेख की विषय-वस्तु महंगाई नहीं है; अतः इसे अर्थशास्त्रियों के हवाले छोड़ते हुए मैं सिर्फ उस मुद्दे की पड़ताल करना चाहता हूँ कि वामपंथ ने किस आधार पर और वैज्ञानिकता की किस कसौटी पर एनडीए से ज्यादा यूपीए को तवज्जो दी थी -२००४ में. ये भी मेरी उत्कंठा का विषय है की जब बंगाल, केरल, त्रिपुरा की तीन वामपंथी सरकारों को सीधे-सीधे भाजपा से कोई खतरा नहीं अपितु कांग्रेस और उसके अलाइंस से ही था तो कांग्रेस की केंद्र में सरकार बनवाकर क्या हासिल किया?
यूपीए प्रथम की शानदार पारी के लिए सबसे अच्छी बेटिंग किसने की थी? बिना सत्ता में शामिल हुए ही वामपंथ ने देश के गरीबों, बेरोजगारों, संगठित क्षेत्र के कामगारों, असंगठित क्षेत्र के कामगारों को अनेक नेमतें बख्शी थीं. राष्ट्रीय {अब महात्मा गाँधी}ग्रामीण रोजगार योजना, खेतिहर किसानों ,भूमिहीन किसानों के लिए अन्यान्य योजनायें, आधारभूत राष्ट्रीय संरचनाओं के लिए योजना आयोग से समर्थन, केन्द्रीय सार्वजनिक उपक्रमों में विदेशी निवेश का रोका जाना, केन्द्रीय प्रत्याभूत निगमों को देशी विदेशी निजी पूंजीपतियों के हाथों में जाने से रोकना, बीमार सार्वजानिक उपक्रमों को जीवन्तता प्रदान करना ,सरकारी क्षेत्र के बैंक, बीमा, दूर-संचार को बाजार गत स्पर्धा में बनाये रखना ताकि मूल्यों पर नियंत्रण बना रहे तथा और भी अनेक जन-हितैषी काम हैं जो वामपंथ ने देश हित में किए थे जैसे कि देश को अमेरिकी खेमे में जाने से रोकना {विकिलीक्स के खुलासे में प्रकाश करात को अमेरिकी कूटनीतिज्ञों ने किस शब्द से नवाजा उसका उल्लेख भी सभ्यता के दायरे में नहीं आता}. ईराक, ईरान, अफगानिस्तान में भारतीय हितों के अनुरूप गुट निरपेक्ष विदेश नीति तथा भयानक अमेरिकी आर्थिक मंदी के चंगुल से देश को बचाना इत्यादि.
२८ जुलाई २००८ को एनडीए के कुछ सांसदों को खरीदकर जब यु पी ए प्रथम ने अपना बहुमत जुटाया और वामपंथ को मजबूरी में उसको बाहर से दिए गए समर्थन का उपहास किया, तो सत्ता के चारों पिल्लरों की ताकत के बल पर बहुमत साबित करने के मद में चूर नेता ने कहा – अब हमें वाम की जरुरत नहीं, अब हम टोका टोकी से मुक्त हैं, अब हम आजाद हैं देश में निजीकरण, उदारीकरण और ठेकाकरण के लिए; आर्थिक सुधार के नाम पर, २-जी स्पेक्ट्रम घोटालों के लिए ;कामनवेल्थ घोटाले के लिए, आदर्श सोसायटी घोटाले के लिए अब हम स्वतंत्र हैं अमरीका से वन टू थ्री एटमी करार {जो अभी भी फाइलों में धूल खा रहा है} करने के लिए. वगैरह …वगैरह. .लेकिन यूपीए का बाहर से समर्थन और वक्त-वक्त पर उसी के खिलाफ विभिन्न मुद्दों पर असहमति और आंदोलनों को देश के मीडिया ने गलत तरीके से पेश किया था. क्या यह सच नहीं कि वाम के निरंतर दबाव कि बदौलत ही यूपीए प्रथम का चाल-चलन इतना ठीक ठाक माना गया कि देश की जनता ने उसे २००९ में यूपीए द्वितीय के रूप में पुनः केद्रीय सत्ता में प्रतिष्ठित किया. लेकिन आज देश के हालत देखकर, महंगाई देखकर, देश के अंदर और बाहर चौतरफा संकट देखकर स्वयम चिदम्बरम और प्रणव मुखर्जी पस्त हैं.
लगता है कि यूपीए प्रथम के समय उसे वामपंथ द्वारा दिए गए शक्तिवर्धक टोनिक्स का असर अब ख़त्म होने लगा है और धीरे-धीरे अलाइंस भी छिन्न भिन्न होने को है ,उधर आंध्र में सरकार अब गई कि तब गई. तेलांगना का अलग राज्य आन्दोलन, देश में फैला नक्सलवाद, आतंकवाद, पड़ोसी राष्ट्रों की बदमाशियां, भयानक भुखमरी, किसान आत्महत्या, महंगाई और भ्रष्टाचार के रोजनामचों के बोझ तले दब चुकी सरकार को भाजपा और वामपंथ ने संसद में और संसद के बाहर बुरी तरह घेर रखा है ऐसे में भी इस यूपीए द्वितीय का टिका रहना आश्चर्यजनक सत्य है. क्या देश नए सिरे से राजनैतिक ध्रुवीकरण के लिए तैयार है?
मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे दो ठाकुरों में क्या समानता है? दोनों ही क्षत्रियों को उपरवाले ने कुशाग्र बुद्धि का धनी बनाया है। इस फेहरिस्त में अव्वल हैं विन्ध्य के कुंवर अर्जुन सिंह तो दूसरे नंबर पर हैं राघोगढ़ के राजा दिग्विजय सिंह। बीसवीं शताब्दी के अंतिम दशकों में अर्जुन सिंह का डंका कांग्रेस में बजता रहा है। वे कांग्रेस के लिए चाणक्य और ट्रबल शूटर की भूमिका में रहे हैं। मामला चाहे पंजाब की समस्या का हो या फिर केंद्र में सरकार बनाने का, हर मामले में अर्जुन सिंह की चालों का लोहा मानते रहे हैं राजनेता।
इक्कसवीं शताब्दी के पहले दशक के उत्तरार्ध में कुंवर अर्जुन सिंह की ढलती उम्र और उनकी ढीली होती पकड़ के कारण उनके ही पैदा किए और सिखाए शिष्यों ने सिंह को हाशिए पर ढकेलने के सारे जतन कर डाले, और इसमें वे काफी हद तक कामयाब भी हुए। संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार के पहले कार्यकाल में मानव संसाधन और विकास जैसा महत्वपूर्ण विभाग संभालने वाले सिंह को दूसरी पारी में दूध में से मख्खी की तरह निकालकर अलग कर दिया गया। इसके बाद अर्जुन सिंह के आवास में खामोशी ने अपना डेरा डाल दिया।
संप्रग की दूसरी पारी में जैसे जैसे घपले और घोटालों की गूंज और उसकी अनुगूंज तेज हुई तब कांग्रेस के कुशाग्र बुद्धि के धनी प्रबंधकों का ध्यान अर्जुन सिंह की खामोशी की ओर गया। जहर बुझे तीर चलाने में उस्ताद रहे अर्जुन सिंह की खामोशी काफी कुछ कह गई। राजनीति के जानकारों का मानना है कि मनमोहन सिंह पर एकाएक घपले घोटालों के वार के पीछे कहीं न कहीं यह खामोशी भी नजर आ रही है।
देश के हृदय प्रदेश के राजनैतिक तालाब से उपजे कांग्रेस के दोनों ही क्षत्रपों ने अपने अपने हिसाब से राजनीति की धार पैनी की है। अर्जुन सिंह की खासियत यह रही है कि उनके वक्त उनके हर बयान के साथ समूची कांग्रेस खड़ी दिखाई देती थी, किन्तु दिग्विजय सिंह के साथ एसा होता नहीं दिख रहा है। अपने बयानों के बाद दिग्विजय सिंह अकेले ही नजर आ रहे हैं। अपनी बात कहने या सफाई देने के लिए भी दिग्गी राजा द्वारा ना तो अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के मुख्यालय 24 अकबर रोड़ और ना ही मध्य प्रदेश कांग्रेस कमेटी के कार्यालय का उपयोग किया जा रहा है। पत्रकारवार्ता में मीडिया में इस तरह के प्रश्न उठ ही गए कि आखिर क्या वजह है कि दिग्विजय सिंह अपनी बात कहने के लिए पार्टी का प्लेटफार्म उपयोग नहीं कर पा रहे हैं?
वैसे दिग्विजय सिंह का बतौर मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री दस साल का रिकार्ड देखा जाए तो वे जुबान के बड़े ही पक्के समझे जाते रहे हैं। यही कारण है कि 2003 में विधानसभा में बुरी तरह मात खाने के बाद उन्होंने दस साल तक सक्रिय राजनीति से परहेज का अपना कौल अब तक निभाया है। पता नहीं कैसे अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के महासचिव बनने के बाद वे लगातार कैसे विवादस्पद बयान देते और फिर उससे पलटते रहे।
करकरे से चर्चा के मुद्दे को ही लिया जाए, तो पहले बकौल दिग्विजय, करकरे ने उन्हें फोन किया था, अब वे काल रिकार्ड पेश करते वक्त फरमा रहे हैं कि यह काल उन्होंने यानी दिग्विजय सिंह ने लगाया था। आश्चर्य तो तब होता है जब उनका फोन एटीएस के मुंबई स्थित मुख्यालय में शाम पांच बजकर 44 मिनिट पर पहुंचता है, वह भी इंटरनेट पर एटीएस के पीबीएक्स नंबर पर। काल रिकार्ड बताते हैं कि इस नंबर पर 381 सेकण्ड बात हुई है।
सवाल यह उठता है कि जब दोपहर को ही मुंबई में ताज होटल पर आतंकवादियों ने कब्जा जमा लिया था, तब क्या एटीएस चीफ करकरे के पास आतंकियों से निपटने रणनीति बनने से इतर इतना समय था कि वे कांग्रेस महासचिव के साथ खुद को मिलने वाली धमकियों का दुखड़ा रोएं। इसके अलावा दिग्विजय सिंह खुद स्वीकार कर चुके हैं कि वे करकरे से कभी मिले नहीं थे, तब एसी स्थिति में क्या करकरे पहली ही बातचीत में दिग्गी राजा से मन की बात कह गए होंगे?
पहले काल रिकार्ड नहीं मिलने की बात करने वाले सिंह ने जादू की छड़ी से रिकार्ड भी तलब कर लिया। इसके बाद उन्होंने एनसीपी कोटे के महाराष्ट्र के गृह मंत्री आर.आर.पाटिल से माफी की मांग कर डाली है। एनसीपी और कांग्रेस के बीच इस मांग का क्या असर होगा यह तो वे ही जाने पर सूबे में दिग्विजय सिंह की दखल को स्थानीय क्षत्रप अलग नजर से अवश्य ही देखेंगे।
भाजपा के वरिष्ठ नेता वेंकैया नायडू के इस दावे में दम लगता है जिसमें उन्होंने कहा है कि कांग्रेस ने दिग्विजय को इस मिशन पर लगाया है जिसका मकसद लोगों का ध्यान कामन वेल्थ और टू जी घोटालों से भटकाना है। भले ही कांग्रेस ने इस मिशन पर उन्हें लगाया हो, पर एक बात तो है कि दिग्गी राजा के हिन्दू आतंकवादियों वाले बयान ने उन्हें मुस्लिम समाज में हीरो अवश्य ही बना दिया है। आज आवश्यक्ता इस बात की है कि कोई भी राजनेता इस मामले पर बहुत ही सोच समझकर बयान जारी करे, क्योंकि यह मामला आम नहीं वरन् भारत गणराज्य की अस्मिता के साथ जुड़ा हुआ है।
उल्लेखनीय होगा कि इसी आतंकी हमले के बाद केंद्रीय गृह मंत्री शिवराज पाटिल को अपनी कुर्सी छोड़नी पड़ी थी। महाराष्ट्र में सियासत करने वाले अब्दुल रहमान अंतुले ने भी इस मामले में विवादस्पद बयान दिया था, पार्टी को अंतुले से भी किनारा ही करना पड़ा था।
बहरहाल कांग्रेस के ताकतवर महासचिव राजा दिग्विजय सिंह के पिछले कुछ सालों के कदम ताल को देखकर लगने लगा है मानो वे अपने गुरू कुंवर अर्जुन सिंह के पदचिन्हों पर से धूल हटाकर उनका अनुसरण करना चाह रहे हों, किन्तु अर्जुन सिंह की बात निराली ही थी। वे एक कदम चलते थे तो बीस कदम आगे की सोच लेते थे। भोपाल गैस कांड में एंडरसन को भारत से भगाने की बात को छोड़कर अर्जुन सिंह पर कोई और आरोप एसा नहीं है जिसमें उन्हें देश की अस्मिता के साथ जरा भी खिलवाड़ करने का प्रयास किया हो। रही बात दिग्विजय सिंह की तो अपने आप को स्थापित करने और अपनी कही बात को सच साबित करने के चक्कर में उनके द्वारा जो चालें चलीं जा रहीं हैं, वे किसी भी दृष्टिकोण से उचित नहीं कही जा सकती हैं।
दरसअल यक्ष प्रश्न तो यह है कि जब 26 नवंबर 2008 को राजा दिग्विजय सिंह और स्व.हेमंत करकरे के बीच फोन पर कथित तौर पर बातचीत हुई उसके बाद राजा दिग्विजय सिंह ने यह बात दो सालों तक दबाकर क्यों रखी? हो सकता है दिग्विजय सिंह यह कह दें कि उसके उपरांत उन्होंने इंदौर प्रेस क्लब के प्रोग्राम में यह बात कही थी, किन्तु उसके बाद आज जिस वजनदारी से वे यह बात कह रहे हैं यही बात दो साल के अर्से में चिंघाड़ चिंघाड़ कर उन्होंने क्यों नहीं कही। कारण चाहे जो भी हो पर कांग्रेस महासचिव राजा दिग्विजय सिंह की इस चाल में कहीं न कहीं षड्यंत्र की बू अवश्य ही आ रही है।
उत्तर प्रदेश के सहारनपुर में स्थित भारत में मुसलमानों के लिए शिक्षा की सबसे बडी संस्था दारुल ओलूम देवबंद ने मुसलमानों की जिंदगी से जुड़े सवालों पर जवाब देते हुए पिछले साल कई फतवे जारी किया और चरचा में रही. देवबंद ने इस साल 5 जनवरी को भी एक अहम फतवा जारी कर मुस्लिम जगत को संदेहों के घेरे में डाल दिया. फतवे में यह कहा गया है कि, बैंक में काम करने वाले अपने भाई के साथ न रहें, क्योंकि सूदी कारोबार और ब्याज का पढ़ना, लिखना और गिनना इस्लाम में हराम है. इसलाम का दायरा इतना बड़ा है कि इसमें दीन और दुनिया ही नहीं बल्कि दोनों जहान की वो सारी बातें समायी हुयी हैं, जिसके बरक्स आज हम अपनी छोटी बड़ी तमाम बुनियादी चीजों के बारे में सही-गलत का फैसला लेते हैं. लेकिन उन फैसलों को फरमान बना कर जिस तरह से पेश किया जाता है, उससे इस्लाम पर खतरा तो नहीं लेकिन सवाल जरूर खड़ा किया जाता रहा है. दरअसल फतवों का जो मसला है वो सवाल और जवाब का मसला है. अगर किसी शख्स को किसी बात का इल्म नहीं है या अगर वो किसी ऐसी चीज के बारे में जानना चाहता है, तो वह इसलामी विद्वानों से सवाल करके उनसे जवाब हासिल कर सकता है. और यह जो जवाब होता है, वो इस्लामी नजरिये से कुर्आन और हदीस की रोशनी में दिया गया मशवरा होता है, जिसे फतवा कहा जाता है.
अब ये जो दारुल ओलूम देवबंद का फतवा आया है कि ”बैंक में काम करने वाले भाई के साथ नहीं रहना चाहिए,” तो यह पूरी तरह बेबुनियाद है, क्योंकि इसमें उस शख्स की सामाजिक हालात की अनदेखी की गयी है. हदीस में आता है, कि आने वाले दिनों में एक दिन हमारे समाज में सूद इस कदर फैल जायेगा कि जब हम सांस लेंगे तो उसके साथ भी सूद हमारे साथ शामिल होगा. आज दुनिया के किसी कोने में कोई ऐसी जगह नहीं जहां बैंक और ब्याज का कारोबार न होता हो. हां, इस्लाम में सूद हराम है, लेकिन तब, जब हम जानबूझकर सूदखोरी करें. बैंक में काम करना भी आम कारोबार की तरह मेहनत करना है. ऐसे में यह फतवा बेबुनियाद हो जाता है, क्योंकि यह जिस कलम से लिखा गया है, उसमें भी कहीं न कहीं ब्याज शामिल है. हम जो कपडे़ पहनते हैं, हम जो खाना खाते हैं या हम जिन चीजों का इस्तेमाल करते हैं, उन सभी चीजों में कहीं न कहीं से सूद शामिल है. भले ही हमें लगता है कि हम जायज चीजों का इस्तेमाल करते हैं. हम इस सूद से नहीं बच सकते, क्योंकि जिन कंपनियों में हमारे उपभोग की चीजें बनती हैं, वो सब सूद और ब्याज के कारोबार से कहीं न कहीं से संबंधित हैं. ऐसे में सिर्फ बैंक में नौकरी करने वाला शख्स ही सूदखोर नहीं बल्कि सभी कंपनियों में काम करने वाले लोग सूद का पैसा खाते हैं. अगर गौर करें तो इस फतवे से हिंदुस्तान ही नहीं पूरी दुनिया के लोगों को अपने परिवार से अलग होना पड़ेगा, क्योंकि यह सिर्फ भाई पर ही नहीं बल्कि सारे रिश्तों के लिए होगा. इस तरह के फतवों से उन मुसलमानों के दिल में नौकरी को लेकर डर बैठ जायेगा जो बैंक या किसी और ऐसी जगह काम करना चाहते हैं. सबसे अहम बात यह है कि जहां आदमी मजबूर हो जायेगा वहां शरियत नहीं लागू होती.
पाकिस्तान में जियाउल हक के समय में बैंकों को बंद कर दिया गया था, जिससे वहां कई तरह की परेशानियां आ गयीं और लोग पैसों को बचा पाने में नाकाम होने लगे. यह जो माडर्न बैंकिंग है, वो आज की जरूरत है. इस तरह के फतवों से सामाजिक विकास रुकता है. इसलाम ऐसा धर्म है जो कानून, समाज, राजनीति और दूसरे सभी धर्मों को लेकर चलता है, लेकिन पता नहीं क्यों इसके धार्मिक विद्वान इसकी अच्छाइयों की बात नहीं करते. हमेशा ऐसे फतवे देते हैं जिससे लोग असमंजस में पड़ जाते हैं कि वो क्या करें? बारहवीं-तेरहवीं सदी में अरबिया में केमिस्ट्री को लेकर बहुत शोध हुए लेकिन आज विज्ञान पर भी इसलामी विद्वान उंगलियां उठाने लगते हैं.
कुछ दिनों पहले एक फतवा आया था कि मुसलमान लड़कियों और औरतों को मर्दों के साथ काम नहीं करना चाहिए. जहां तक लड़कियों या औरतों के मर्दों के साथ काम न करने का सवाल है, तो इसे फिर इस्लामी तारीख में झांक कर देखने की जरूरत है. शादी से पहले मुहम्मद साहब की बीवी खदीजा ने मुहम्मद साहब को अपने पास काम पर रखा. खदीजा को एक ईमानदार आदमी की जरूरत थी, जो उनके व्यापारिक काफिले को सीरिया और जार्डन तक ले जा सके. अगर मर्दों के साथ औरतों को काम करने से इस्लाम मना करता है, तो उस वक्त ही मुहम्मद साहब, बीवी खदीजा के प्रस्ताव को ठुकरा देते. अगर यह उस वक्त हो सकता था, तो आज आधुनिक समय में क्यों नहीं हो सकता. ये फतवे लोगों द्वारा पूछे गये सवाल के जवाब में मशवरा भर हैं. इन्हें फरमान की तरह लागू नहीं किया जा सकता.
महेंदर सिंह धोनी की कप्तानी में भारतीय क्रिकेट टीम जब दक्षिण अफ्रीका के दौरा पर जा रही थी तो हर किसी ने यही कहा था कि यह दौरा धोनी के लिए एक बहुत बड़ा चैलेंज है और देखना यह है कि धोनी भी दूसरे कप्तानों की तरह ही दक्षिण अफ्रीका में फ्लॉप रहते है या फिर जिस प्रकार वो धीरे धीरे दूसरे देशों में सफलता के झंडे गाड़ रहें हैं वैसे ही दक्षिण अफ्रीका में भी डालेंगे या नहीं। चूंकि सचिन तेंडुलकर, राहुल द्रविड़ और वी वी एस लक्ष्मण जैसे बड़े खिलाड़ी दक्षिण अफ्रीका में पहले बहुत सफल नहीं रहे थे इस लिए यह डर तो बना ही हुआ था कि कहीं धोनी का हश्र भी दूसरे भारतिए कप्तानों की तरह न हो जाए। मगर नतीजा जब सामने आया तो साबित हो गया कि धोनी की टीम सिर्फ अपने देश में ही शेर नहीं है बल्कि अपने देश से बाहर और वो भी दक्षिण अफ्रीका जैसे देश में भी शानदार खेल पेश कर सकती है। धोनी के जांबाज़ों ने बेहतरीन खेल पेश कर के न सिर्फ सिरीज़ ड्रा कराई बल्कि नंबर वन का ताज भी बरकरार रखा।
पहले टेस्ट की पहली पारी में जब भारत की टीम मात्र 136 रन के स्कोर पर आउट हो गयी तो ऐसा लगा कि भारत के बल्लेबाज़ों के लिए दक्षिण अफ्रीका के तेज़ गेंदबाजों को झेलना आसान नहीं होगा मगर दूसरी पारी में भारतिए बल्लेबाज़ों ने शानदार बल्लेबाज़ी की और 459 रन बना कर बता दिया कि इस बार हम इतनी आसानी से घुटने टेकने वाले नहीं हैं। यह अलग बात है कि भारत को पहले टेस्ट में पारी के अंतर से हार का मुंह देखना पड़ा मगर दूसरे टेस्ट में 87 रन से जीत हासिल कर के भारत ने बता दिया कि इस बार हमारा इरादा कुछ और ही है। तीसरा टेस्ट जब शुरू हुआ तो भारत के लिए पहली चुनौती तो यह थी कि टेस्ट बचा कर पहली बार दक्षिण अफ्रीका में सेरीज़ ड्रा खेली जाये मगर जब टेस्ट शुरू हुआ और जैसे जैसे आगे बढ़ा इस टेस्ट में भारत की पोजीशन बेहतर होती चली गयी। भला हो जैक कलिस का जिन्होंने अस्वस्थ होने के बावजूद दोनों पारियों में शतक बना कर न सिर्फ दक्षिण अफ्रीका को मजबूत किया बल्कि एक बार तो भारत को ऐसे ड्रा दिया कि उसे हार भी हो सकती थी मगर कॅलिस की भांति ही ज़ख्मी गौतम गंभीर के कमाल से भारत ने इस टेस्ट को ड्रा करने में सफलता हासिल कर ली और इस तरह धोनी भारत के ऐसे पहले कप्तान बने जिन्हों ने दक्षिण अफ्रीका में सिरीज़ ड्रा करने में सफलता पाई। इस से पहले भारत की टीम जब भी दक्षिण अफ्रीका गयी उसे हार का ही सामना करना पड़ा। भारत की टीम सबसे पहले 1992-93 में मोहम्मद अजहरुद्दीन की कप्तानी में दक्षिण अफ्रीका गयी थी। तब उस दौरे पर 4 टेस्ट हुये थे जिन में से एक में दक्षिण अफ्रीका जीता था जबकि बाक़ी के तीन टेस्ट ड्रा रहे थे। 1996-97 में सचिन की कप्तानी में भारत ने दक्षिण अफ्रीका से दक्षिण अफ्रीका में 3 टेस्ट खेला। इस में से भारत को दो टेस्ट में हार मिली जबकि एक टेस्ट ड्रा रहा। 2001-02 में सौरव गांगुली की कप्तानी में भारत ने दक्षिण अफ्रीका में दो टेस्ट खेले जिस में से एक टेस्ट ड्रा रहा जबकि एक टेस्ट में दक्षिण अफ्रीका को जीत मिली। 2006-07 में जब भारत की टीम दक्षिण अफ्रीका गयी तो भारत के कप्तान राहुल द्रविड़ थे। उस दौरे पर तीन टेस्ट हुये जिसमें से दो में भारत को हार मिली और एक टेस्ट में उसे जीत का सामना करना पड़ा। यानि कोई भी भारतीय कप्तान दक्षिण अफ्रीका में टेस्ट सिरीज़ ड्रा नहीं करा सका। अब धोनी और उनके धुरंधरों ने यह सफलता हासिल कर ली है। कॅलिस ने मामला खराब कर दिया नहीं तो भारतिए टीम 2-1 से सिरीज़ जीतने के करीब पहुँच गयी थी। कुल मिलकर देखा जाये तो भारत के लिए यह दौरा सफल कहा जा सकता है। यह अलग बात है कि राहुल द्रविड़ और वीरेंदर सहवाग सफल नहीं रहे मगर इस के बावजूद यदि एक टीम के तौर पर भारत का प्रदर्शन देखा जाये तो उसे बेहतर कहा जा सकता है। यही कारण है कि कप्तान धोनी ने भी अपने खिलाड़ियों की प्रशंसा करते हुये कहा कि मुझे अपने खिलाड़ियों पर गर्व है। इस सिरीज़ में व्यक्तिगत प्रदर्शन की बात करें तो हालांकि सिरीज़ में सब से ज्यादाह 498 रन जॅक कॅलिस ने बनाए मगर यह सिरीज़ यदि किसी के लिए सबसे ज़्यादा यादगार रही तो वो सचिन रहे। सचिन ने इस सिरीज़ के दौरान अपने शतकों का अर्धशतक पूरा किया बल्कि अंतिम टेस्ट में भी शतक लगा कर वो टेस्ट में नंबर एक बल्लेबाज़ बन गए। सचिन ने इस सीरीज के तीन मैचों में 81.50 की औसत से 326 रन बनाए जिसमें 146 रन उनका उच्चतम स्कोर रहा। इस सिरीज़ में बेहतर खेल से उनहों ने दक्षिण अफ्रीका में अपने रिकार्ड में सुधार भी किया जो कि इस महान बल्लेबाज़ के लिए अब तक बहुत अच्छा नहीं था।
किसी भी देश का बच्चा उस देश की वास्तविक स्थिति पेश करता है। वह उसके सभ्यता संस्कृति से ही साक्षात्कार नहीं कराता है बल्कि उसके भविष्य का भी स्पष्ट संकेत देता है। इस स्थापना के आलोक में देखें तो हमारे नौनिहाल जिस हाल में हैं उसे देख कर खासी निराशा होती है। लेकिन यह भी पूरा सच नहीं है कि क्योंकि पिछले दो तीन दशकों में तमाम प्रकार के संघर्ष और कठिनाईयों के बावजूद आज हमारा देश जहां खडा है उसकी कल्पना शायद बहुत कम लोगों ने ही की होगी।
बहरहाल हमारे देश के नौनिहाल कई वर्गों में बंटे हैं। कुछ सामान्य जीवन जी रहे भाग्यशाली हैं तो कुछ परिस्थितियों के मारे हुए हैं। कुछ बच्चे ऐसे हैं जो आर्थिक विपन्नता का अर्थ ही नहीं जानते हैं। कुछ ने घुटटी में गरीबी का कडवा स्वाद ही चखा है।
कुछ मां बाप और परिवार के संरक्षण में हैं तो कुछ अनाथ और बेसहारा हैं। इतनी विषमता वर्ग विभेद के बावजूद एक बात सौ फीसदी सच है कि उनमें आपसी स्तर पर कोई वैमनस्य नहीं है। वह जाति धर्म समुदाय जैसे संकुचित अर्थ से शायद अपरिचित ही रहते हैं और उनके आपसी व्यवहार में इनकी छाया तक महसूस नहीं होती।
बच्चे अमीर हों या गरीब परिवार में रहते हों अथवा फूटपाथ पर उनकी अपनी एक दुनिया होती है जिनमें उनकी कलपनायें उडान भरती है। लेकिन क्या उन्हें और उनकी दुनिया को हम समझने की कोशिश करते हैं। सामान्यतया यह लगता है कि बच्चे सबसे अधिक संरक्षित हैं। गहराई से सोचे उनके साथ वह न्याय नहीं होता जिनकी वास्तव में उन्हें आवश्यकता होती है।
दरअसल हमारा सामाजिक ढांचा ही ऐसा है कि हम बच्चों की स्वतंत्रता अस्मिता एवं उनके व्यक्तित्व को मान्यता नहीं देते हैं। हमारा ध्यान उन्हें भविष्य में बडा आदमी या महान व्यक्ति बनाने पर होता है उनकी जरूरतों और आकांक्षाओं पर उतरना नहीं। उनकी सोच उनके विकास और उनकी समस्याओं पर हम उतना गौर नहीं करते हैं जितना उनसे जुडी अपनी इच्छाओं पर करते हैं।
परिवार एवं विद्यालय बच्चे के समाजीकरण का सबसे बडा माध्यम है लेकिन ये उस भूमिका का उपयुक्त निर्वाह करते हैं कहना मुश्किल है। उन पर पढाई और होमवर्क का बोझ लगातार बढता जाता है और बस्ते का बोझ तो अनिवार्य सत्य है।
जैसे जैसे वह बडे होते हैं उनको लेकर माता पिता और परिजनों की इच्छायें विस्तार लेती जाती हैं प्रतिस्पर्धा के इस दौर की बहुत बड़ी मार बच्चों पर भी पड रही है आज बच्चों में कुंठा एवं आत्महत्या करने का इरादा यू हीं नही घर किया है। इसके पीछे पड़ोस और सामाजिक दबावों की भी बेहद नकारात्मक भूमिका है। इस पर गंभीरता से सोचना होगा। बच्चों को भविष्य का औजार मानने की बजाए उन्हें बच्चा समझना ही उनका बडा सहयोग होगा।
जहां तक पिरिस्थितियों के मारे वंचित गरीब और तमाम तरह के शोषण झेलने के लिए अभिशप्त बच्चों का सवाल है तो उनके प्रति सरकार समाज और लोगों के साथ साथ स्वैच्छिक संगठनों को और उदार नजरिया अपनाना होगा। बच्चे संरक्षित और सुरक्षित होंगे तो यह देश और और भी खूबसूरत और चमकदार नजर आएगा। देश के नौनिहालों की दुनिया की पड़ताल की एक कोशिश इस शोध में की गयी है।
भारत की कुल जनसंख्या का 42 फीसदी 18 साल से कम आयु के बच्चों का है। एक हालिया सर्वेक्षण में कहा गया है कि वर्ष 2000 और 2005 के बीच केंद्र सरकार द्वारा व्यय किये गए प्रत्येक 100 रुपये में से औसतन तीन पैसे बच्चों की सुरक्षा पर खर्च किये गए जबकि बाल स्वास्थ्य के हिस्से में 40 पैसे गए। उसके बाद बाल विकास पर 45 पैसे और प्रारंभिक शिक्षा पर डेढ रुपये खर्च हुए। ध्यान देने की बात है कि भारत में बच्चों के विकास में ह्रास का को जो सिलसिला बना हुआ है वह पिछले डेढ दशक में विकास प्रक्रिया की विफलता का एक प्रमुख दृष्टांत है। अतः विषमतायें मिटाने अंतर को समाप्त करने और देशवासियों का कल्याण सुनिश्चित करने वाली किसी भी रणनीति का संभारंभ बच्चों के अधिकारों के प्रति सम्मान के साथ होना चाहिए। इस बात को अब अधिकाधिक स्वीकार किया जा रहा है कि नियोजन केंद्र में बच्चों के अधिकार आधारित विकास को प्रमुखता देनी होगी। पिछले कुछ सालों में बच्चों पर जो हमारा रणानीतिक फोकस रहा वह कल्याण से आगे बढ कर विकास और अधिकार आधारित दृष्टिकोण पर केंद्रित है।
पांचवी योजना में फोकस बाल कल्याण से हट कर बाल विकास पर किया गया। नौवीं योजना में बाल विकास को न केवल देश के भविष्य में वांछित सामाजिक निवेश के रूप में देखा गया बल्कि इसे अपनी विकास क्षमताओं को हासिल करने के प्रत्येक बच्चे के अधिकार के रूप्प में भी देखा गया। दसवीं योजना में कतिपय अंतर मंत्रालयीन और अंतर्विभागीय कदम बाल विकास की दिशा में उठाए गए। विद्यालयों में बच्चों की संख्या बढाने और यह सुनिश्चित करने कि प्रत्येक बच्चों को अच्छी गुणवत्ता वाली शिक्षा पाने का अधिकार है, सर्वशिक्षा अभियान शुरू किया गया। समेकित बाल विकास सेवा योजना का विस्तार किया गया और राष्ट्रीय किशोरी कन्या कार्यक्रम की षुरूआत हुई। ग्यारहवीं योजना सभी आयु समदाय और आर्थिक समूहों के बच्चों की उत्तरजीविता, सुरक्षा और बहुमुखी विकास के लिए प्रतिबद्ध है। हाल ही में राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग को अधिसूचित किया गया है। भारत सहस्राब्दि विकास लक्ष्यों को पूरा करने के लिए बचनबद्ध है। बाल अधिकार अभिसमय समझौता: सहित अनेक अंतरराष्ट्रीय संधियों में भी भारत शामिल है।
इन सभी पहलुओं को ध्यान में रखते हुए बच्चों को सम्मानपूर्वक जीने का अधिकार देना और उनके समग्र विकास के अवसर प्रदान करना अभी भी एक चुनौती बनी हई है। परंतु सामूहिक प्रयास और सभी क्षेत्रों की सामेकित कार्रवाई से निकट भविष्य में इसे यथार्थ में बदला जा सकता है। केंद्र सरकार ने 2006 से रेस्त्रां, होटल , चाय की दूकानों, भोजनालयों, और घरों में नौकरों के रूप में काम करने के लिए 14 साल से कम उम्र के बच्चों को रोजगार देने पर रोक लगा दिया गया है। बाल अधिकार कार्यकर्ताओं के अनुसार इससे स्थिति में कोई खास सुधार नहीं हुआ है।
पूरे देश मे बाल श्रम अभी भी प्रचलित है। 2001 की जनगणना के अनुसार होटलों, रेस्तराओं, चाय की दुकानों, और ढाबों में आदि में काम करने वाले बच्चों की संख्या 61 हजार से अधिक है। यह संख्या तो भारत में कार्यरत एक करोड. 26 लाख बाल श्रमिकों की कुल संख्या का एक अंश भर है। सबसे अधिक बाल श्रमिक भारत में ही है।
कानून एक आवश्यक उपाय जरूर है। लेकिन इससे समस्या का निराकरण नहीं होता। केवल प्रतिबंध से काम नहीं चलता। यह गौर करना जरूरी है कि क्या संबद्ध कानून यथार्थवादी है। क्या वह सफल होगा। क्या अभिभावक सहयोग करेंगे। यदि बच्चे वास्तव में आजीविका के लिए कुछ कमाई कर रहे हैं तो क्या यह आसानी से अपना काम छोड. देंगे। 90 के दशक में जब अमेरिका ने नेपाल से कालीन के आयात पर प्रतिबंध लगा दिया तो नेपाली बच्चों ने वेश्यावृत्ति अपना ली।
बांग्लादेश के कपडा उद्योग को जब नुकसान उठाना पड़ा तो वहां के बच्चों ने पत्थर तोडने जैसे जोखिम काम करना शुरू कर दिये। लगभग हरेक मामले में बच्चों को या तो आर्थिक अथवा सामाजिक विवशता के कारण या फिर अवसरों एवं विकल्पों के अभाव के कारण काम करने के लिए मजबूर होना पड़ता है। कामकाजी बच्चों के पालनकर्ता या तो बेरोजगार होते हैं और यदि उन्हें काम मिलता भी है तो वह साल में पचास से साठ दिनों से अधिक काम नहीं होता है। हमारे नीति निर्धारक समाज के इस कटु सत्य से निश्चित रूप से अवगत होंगे। यदि बच्चों को काम से हटा कर विद्यालयों में पढ़ने के लिए भेजा जाए तो वह उच्च विद्यालय तक की पढाई अवश्य कर सकेंगे। लेकिन उसके बाद क्या उनके लिए किसी काम की गारंटी है। हमारे देश में रोजगार मिलना कोई आसान बात नहीं है। परंतु बच्चे अगर कोई शिल्प सीख रहे हैं तो उनहें प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। उसी के साथ साथ उनकी शिक्षा के लिए भी उपयुक्त व्यवस्था की जानी चाहिए। पैसा कमाने के साथ साथ उन्हें पढ़ना लिखना भी सिखाया जा सकता है। खेलने के लिए भी बच्चों को पर्याप्त समय मिलना चाहिए। उन्हें नैतिक, भावात्मक और शारीरिक विकास की सभी सुविधायें प्रदान करना समाज का दायित्व है। अतः हमें इसे और सामयिक रूप से देखना होगा।
(लेखक स्वस्तंत्र लेखन से जुड़े हुए हैं और पत्रकारिता में मास्टर डिग्री प्राप्त कर देश के बड़े बड़े पत्रों में नियमित लेखन कर रहे हैं।)
माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता और संचार विश्वविधालय, भोपाल में 22 जनवरी को उर्दू पत्रकारिता पर राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया जा रहा है। संगोष्ठी ‘उर्दू पत्रकारिताः चुनौतियां और अपेक्षाएं’ में उर्दू पत्रकारिता के सामने क्या चुनौतियां हैं? वह किस तरह, स्वयं को संभालकर आज के समय को संबोधित करते हुए जनाकांक्षाओं की पूर्ति कर सकती है, जैसे मुद्दों पर चर्चा की जाएगी।
इस बारे में बात करते हुए, विश्वविधालय के जनसंचार विभाग के अध्यक्ष संजय द्विवेदी ने बताया, “आजादी के आंदोलन से लेकर, भारत के नव-निर्माण में उर्दू के पत्रकारों एवं उर्दू पत्रकारिता ने अपना योगदान देकर एक बड़ा मुकाम बनाया है। आज, जबकि देश की तमाम भारतीय भाषाओं की पत्रकारिता प्रगति कर रही है और अपने पाठक वर्ग का निरंतर विस्तार कर रही है। उर्दू पत्रकारिता इस दौड़ में पिछड़ती दिख रही है। नए जमाने की चुनौतियों और अपनी उपयोगिता के हिसाब से ही भाषाएं अपनी जगह बनाती हैं। ऐसे में, उर्दू पत्रकारिता के सामने क्या चुनौतियां हैं? वह किस तरह, स्वयं को संभालकर आज के समय को संबोधित करते हुए, जनाकांक्षाओं की पूर्ति कर सकती है। इन प्रश्नों पर संवाद बहुत प्रासंगिक है।”
संगोष्ठी में देश के जाने-माने और सीनियर उर्दू जर्नलिस्ट सहित कई पत्रकारिता शिक्षक शामिल होने जा रहे हैं। इस संगोष्ठी को तीन भागों में बांटा गया है। पहले सत्र में, ‘उर्दू पत्रकारिता : चुनौतियां और अपेक्षाएं’। दूसरे सत्र में, ‘उर्दू पत्रकारिता की समस्याएं और समाधान’ और तीसरे सत्र में, ‘उर्दू पत्रकारिता शिक्षण की वर्तमान स्थिति और अपेक्षाएं’ पर चर्चा की जाएगी।
कुशासन का जो डरावना चेहरा वर्तमान में भारत के जनमानस के सामने उभरकर आया है, वैसा तो उस समय भी नहीं था जब भारतीय राजनीति की व्यवस्था में छोटे-छोटे राजा-रजवाड़े आपस में युद्धरत थे और जिसका लाभ उठाकर मुगलों ने अपना आधिपत्य हिन्दुस्तान में जमाया। मुगलों ने भी भारत को खूब लूटा और लगभग 100 वर्षों के कार्यकाल में अंग्रेजों ने भी हमारे देश को लूटने में कोई कसर नहीं छोड़ी। परन्तु अंग्रेजों और मुगलों की लूट उस लूट से बहुत न्यून दिखती है जो लूट आज का शासक वर्ग देश में कर रहा है। मुहम्मद गौरी ने सारी लूट गजनी में जमा की और अंग्रेजों की सारी लूट ब्रिटेन में संकलित हुई। आज के भारतीय लुटेरों ने भी भारत की पूंजी को विदेशी बैंकों में जमा किया है।
राडिया केस के खुलासे हों या 2जी स्केंडल की राशि की असंख्य बिन्दियां या फिर महाराष्ट्र आवासीय घोटाला सभी में राजनीतिज्ञों और प्रशासकों ने दलालों का प्रयोग किया है। इसके अतिरिक्त राजस्थान, पश्चिम बंगाल, कर्नाटक, आन्ध्रप्रदेश, केरल व अन्य कई राज्यों में छोटे-बड़े घोटाले प्रतिदिन सामने आते हैं। भ्रष्टाचार की छोटी-मोटी घटना तो अब समाचार ही नहीं बनती। कार्यपालिका, न्यायपालिका और खबरपालिका सभी में भ्रष्ट व्यवहार की दुर्गन्ध जनमानस तक पहुंच रही है। यह तो वह कहानियां हैं जो खुल गई, परन्तु इनके खुलने से मन में एक और डर उत्पन्न होता है कि जो खुला नहीं वह कितना विराट और भयंकर होगा? अंग्रेजी शब्दावली का प्रयोग करें तो जितना खुला वह तो ‘टिप ऑफ द आईस वर्ग’ है।
देश की अर्थव्यवस्था में जो धन संचालित है उससे कहीं अधिक धन काले धन्धों में लगा है और उससे भी कहीं अधिक धन भारतीय नागरिकों के नाम से विदेशी बैंकों में जमा है। कुछ विदेशी बैंकों ने जब इस बात के संकेत दिये कि वह अपने यहां भारतीयों के खातों का विवरण देने को तैयार है तो हमारी सरकार मौन रही। कारण स्पष्ट है, अपने पांव पर कुल्हाड़ी मारने वाला शेखचिल्ली कहलाता है।
स्वाधीनता का उद्देश्य स्व के तंत्र का निर्माण था, जिससे की सुशासन जनमानस को दिया जा सके। पराधीन भारत स्वाधीन तो हुआ परंतु तंत्र वही रहा उपनिवेशवादी। गुलाम देश को चलाने वाले इन तंत्रों से कुशासन पला। जनमानस भय और दुख से भौचक्का हो रहा है क्योंकि देश का नेतृत्व भ्रष्ट सिद्ध हो गया है। इसलिए आमजन में विशेषकर आने वाली पीढ़ी में ऐसे संस्कार बन रहे हैं मानो की अनैतिक और भ्रष्ट व्यवहार ही शिष्टाचार है। ऐसा लगने लगा है कि दो नंबर की कमाई करना मान्य है और उसके लिए प्रयास करना वांछित सामाजिक व्यवहार है। नैतिकता का आधार खिसकता हुआ दिख रहा है। आम व्यक्ति स्तब्ध है और नहीं जानता है कि उसे क्या सोचना चाहिए और क्या करना चाहिए।
आर्थिक और नैतिक धारणाओं के आधार पर वर्तमान भारतीय समाज को तीन हिस्सों में विभाजित किया जा सकता है। पहला वर्ग सत्ता के गलियारों में स्थित कमरों में बैठने वाला और गलियारों में घूमने वाला है। इसमें अधिकतर राजनेता, प्रशासनिक अधिकारी, बड़े-छोटे व्यापारी व उद्योगपति हैं जिनको दलालों का वर्ग संचालित करता है। दलालों के लिए भी अंग्रेजी के एक प्रतिष्ठित शब्द का प्रयोग हो रहा है-‘लॉबिस्ट’। यह पूरा का पूरा वर्ग मन, वचन और कर्म से भ्रष्ट है। देश को लूटना अपना अधिकार ही नहीं कर्तव्य और धर्म भी मानता है। इनकी मानसिकता उन लुटेरे मुगलों की और ब्रिटिश अधिकारियों की है जिन्होंने उस देश को कंगाल बना दिया, जिस देश की दूध-दही की नदियां बहने वाली व्याख्या की जाती थी। इनके मन में कभी भी अपने कार्य के प्रति शक या पश्चाताप की गुंजाईश नहीं है। ए. राजा, अशोक चव्हाण व राडिया उनके प्रतिनिधि हैं।
समाज का दूसरा वर्ग वह है जो ईमानदारी और शिष्टाचार का लबादा ओढ़ कर बैठा है। वह पहले वर्ग के भ्रष्टाचारी लोगों के साथ उठता-बैठता है। कदम मिलाकर चलता है और हम प्याला होता है, परंतु अपनी छवि भ्रष्ट न होने की चेष्ठाएं बनाये रखता है। यह वर्ग भ्रष्ट नहीं है ऐसा विश्वास जनमानस के मन में रहता है। परन्तु यह भ्रष्ट है या नहीं यह शक के दायरे में है। उनके नाक के नीचे भ्रष्टाचार हो रहा है और जिस टोली के वह नेता हैं उस टोली के ही कार्यकर्ता हर किस्म का अपराध कर रहे हैं परन्तु अपने अधीन हो रहे भ्रष्टाचार से वह अपने आपको अलग रखते हैं और कभी-कभी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से भ्रष्टाचार को संरक्षण भी देते हैं। किसी भी भावी जांच के पक्ष में वह नहीं होते और यदि जांच हो भी तो उसे प्रभावित करके भ्रष्टाचारियों को अपने लबादे के अंदर लपेट कर बचा के ले जाते हैं। वर्तमान में प्रशासन के शीर्ष नेता और संगठन के शीर्ष नेता दोनों ही भ्रष्ट प्रणाली के सर्वेसर्वा हैं। निष्क्रिय हैं और मौन हैं। सज्जन व्यक्तित्व का आडंबर भी करते हैं। यह वर्ग छोटा है परन्तु देश और राष्ट्र के लिए सबसे अधिक घातक है। भ्रष्टाचारी, देशद्रोही की तो पहचान है परन्तु जो भेड़िये बकरी का रूप धारण किए हैं उनसे बचना होगा।
समाज का तीसरा वर्ग आम जनता का है। जो नीयत और व्यवहार से देशप्रेमी है, ईमानदार है परन्तु अपने कर्तव्य की पहचान उसे नहीं है। इनमें से एक वर्ग ऐसा है जो मौका मिलते ही पहले या दूसरे वर्ग अर्थात भ्रष्टाचारियों या छद्म शिष्टाचारियों के साथ मिल जाता है। इनकी देशभक्ति के संस्कार दुर्बल हैं और समाज के प्रति समर्पण क्षीण है। परन्तु यदि उचित वातावरण मिले तो यह लोग भी शिष्टाचारी और ईमानदार हो जाते हैं। जैसा अवसर या वातावरण मिलता है उसी में यह ढल जाते हैं। इसी वर्ग में एक संख्या उनकी भी है जिसमें बेईमान होने की निपुणता या क्षमता ही नहीं है। बेईमानी या समाज विरोधी कार्य करने का अवसर आने पर यह या तो कन्नी काट लेते हैं या फिर इसका विरोध करते हैं। इसे हम समाज की सज्जन शक्ति कहते हैं। आशा की किरण यह है कि इस सज्जन शक्ति की संख्या पर्याप्त है और चिंता यह है कि यह शक्ति विघटित है और नेतृत्व विहीन है। समाज के पहले दो वर्ग अर्थात भ्रष्टाचारी और छद्म शिष्टाचारी सज्जन वर्ग को विघटित रखने के लिए षड़यंत्र करते हैं। जब भी सज्जन शक्ति में नेतृत्व उभरता है तो उसके विनाश में लग जाते हैं। महात्मा गांधी के साथ यही हुआ। लालबहादुर शास्त्री को भी टिकने नहीं दिया गया। जयप्रकाश नारायण के चारो तरफ इन शक्तियों का बोल-बाला रहा और जन-नायक अपने को ठगा सा महसूस करते रहे। वर्तमान में भी सज्जन शक्ति में छोटे-बड़े नेतृत्व उभरते हैं परन्तु शीघ्र ही या तो उन्हें निष्क्रय कर दिया जाता है या फिर उन्हें भी भ्रष्टाचारी और छद्म शिष्टाचारी बना दिया जाता है।
आज के भारतीय समाज के सामने स्थापित और मान्य भ्रष्टाचार की समस्या विकराल रूप धरे खड़ी है। यदि कुछ वर्ष और ऐसी स्थितियां रही तो यह व्यवस्थाएं इतनी विकराल हो जाएगी कि देश और समाज टूटने लगेगा। आज केवल पाकिस्तान को ‘असफल राष्ट्र’ कहा जाता है। खतरा इस बात का है कि आने वाले समय में भारत भी कहीं इस विशेषण का हकदार न बन जाये। सज्जन शक्ति की निष्क्रयता इसके लिए जिम्मेदार होगी। समाज के बड़े वर्ग को जो न तो भ्रष्टाचारी है न भ्रष्टाचार को संरक्षण देता है यह तय करना होगा कि कब तक वह इन देशद्रोही शक्तियों का वर्चस्व सहेगा? कहा जाता है कि जो रिश्वत लेता है वह तो अपराधी है ही परन्तु जो रिश्वत देता है वह भी उतना ही अपराधी है। समझने की बात यह है कि जो इस रिश्वत के लेन-देन का विरोध नहीं करते उनका भी कहीं-न-कहीं अपराध में योगदान है। पाप न करना धर्म का अनुपालन है, परन्तु पाप का विरोध करना धार्मिक कर्तव्य हो ऐसा दायित्व व्यक्ति का होना चाहिए।
एक नैतिक नेतृत्व के उभारने की आवश्यकता है जो समाज के तथाकथित चारों अंगों से बाहर हो। वह न तो राजनेता हो और न ही वह न्यायपालिका से हो उसे कार्यपालिका का हिस्सा भी नहीं होना चाहिए और वह तथाकथित चौथे स्तंभ का भी भाग न हो। ऐसा नेतृत्व जिसकी नैतिक शक्ति इतनी हो कि उसके परामर्श पर सर्वसहमति हो। हर विकसित समाज में ऐसा वर्ग रहता है और रहना ही चाहिए। यह नेतृत्व पूर्णतः निःस्वार्थी होता है और उसका व्यक्तिगत जीवन आदर्श उदाहरण होता है। गीता में भी इसी तरह के नेतृत्व की ओर इशारा है कि जब-जब समाज में दुराचार और अनाचार का व्यवहार एक सीमा से बढ़ेगा तो शिष्टाचार को फिर से स्थापित करने के लिए समाज के अंदर से ही शक्तियां उभरती हैं। अगर आज के भारत में यह नहीं हुआ तो भारतीय समाज अवश्य ही किसी गंभीर संकट में अपने को उलझा हुआ पायेगा।
आजादी छः दशकों ने आखिर हमें क्या सिखाया है ? हम राष्ट्र, एक जन का व्यवहार भी नहीं सीख पा रहे हैं। लोकतंत्र की अतिवादिता तो हमने सीख ली है किंतु मर्यादापूर्ण व्यवहार और आचरण हमने नहीं सीखा। वाणी संयम की बात तो जाने ही दीजिए। यूं लगता है कि देशभक्ति, देश की बात करना और कहना ही एक बोझ बन गया है। देश के हालात तो यही हैं कि कुछ भी कहिए शान से रहिए। क्या दुनिया का कोई देश इतनी सारी मुश्किलों के साथ सहजता से सांस ले सकता है। शायद नहीं, पर हम ले रहे हैं क्योंकि हमें अपने गणतंत्र पर भरोसा है। यह भरोसा भी तब टूटता दिखता है जब संवैधानिक पदों पर बैठे लोग ही अलगाववादियों की भाषा बोलने लगते हैं। बात जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर फारूख की हो रही है जिनका कहना है कि गणतंत्र दिवस पर भाजपा श्रीनगर के लालचौक पर तिरंगा न फहराए क्योंकि इससे हिंसा भड़क सकती है। आखिर एक मुख्यमंत्री के मुंह से क्या ऐसे बयान शोभा देते हैं।
अब सवाल यह उठता है कि आखिर लालचौक में तिरंगा फहराने से किसे दर्द होता है। उमर की चेतावनी है कि इस घटना से कश्मीर के हालात बिगड़ते हैं तो इसके लिए भाजपा ही जिम्मेदार होगी। निश्चित ही एक कमजोर शासक ही ऐसे बयान दे सकता है। हालांकि अपने विवादित बयानों को लेकर उमर की काफी आलोचना हो चुकी है किंतु लगता है कि इससे उन्होंने कोई सबक नहीं सीखा है। वे लगातार जो कह और कर रहे हैं उससे साफ लगता है कि न तो उनमें राजनीतिक समझ है न ही प्रशासनिक काबलियत। कश्मीर के शासक को कितना जिम्मेदार होना चाहिए इसका अंदाजा भी उन्हें नहीं है। आखिर मुख्यमंत्री ही अगर ऐसे भड़काऊ बयान देगा तो आगे क्या बचता है। सही मायने में उमर अब अलगाववादियों की ही भाषा बोलने लगे हैं। एक आजाद देश में कोई भी नागरिक या समूह अगर तिरंगा फहराना चाहता है तो उसे रोका नहीं जाना चाहिए। देश के भीतर अगर इस तरह की प्रतिक्रियाएं एक संवैधानिक पद पर बैठे लोग कर रहे हैं तो हालात को समझा जा सकता है। उमर, भारत में कश्मीर के विलय को लेकर एक आपत्तिजनक टिप्पणी कर चुके हैं ऐसे व्यक्ति से क्या उम्मीद की जा सकती है? देश के भीतर तिरंगा फहराना आखिर पाप कैसे हो सकता है? देश के राजनीतिक दल भी भारतीय जनता युवा मोर्चा के इस आयोजन में राजनीति देखते हैं तो यह दुखद ही है। आखिर तिरंगा अगर किसी राजनीति का हिस्सा है तो वह देशभक्ति की ही राजनीति है। किंतु इस देश में तमाम लोगों को भारत माता की जय और वंदेमातरम की गूंज से भी दर्द होता है, शायद उन्हीं लोगों को तिरंगे से भी परेशानी है। आखिर क्या हालात है कि हम अपने राष्ट्रीय पर्वों पर ध्वजारोहण भी अलगाववादियों से पूछकर करेगें। वे नाराज हो जाएंगें इसलिए प्लीज आज तिरंगा न फहराएं। क्या बेहूदे तर्क हैं कि बड़ी मुश्किल से घाटी में शांति आई है। चार लाख कश्मीरी पंडितों को अपना घर छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा, अनेक उदारवादी मुस्लिम नेताओं की हत्याएं की गयीं, अभी हाल तक सेना और पुलिस पर पत्थर बरसाए गए और आज भी सेना को वापिस भेजने के सुनियोजित षडयंत्र चल रहे हैं। आप इसे शांति कहते हैं तो कहिए पर इससे चिंताजनक हालात क्या हो सकते हैं? अगर तिरंगा फहराने से किसी इलाके में अशांति आती है तो तय मानिए वे कौन से लोग हैं और उनकी पहचान क्या है।
पाकिस्तान के झंडे और “गो इंडियंस” का बैनर लेकर प्रर्दशन करने वालों को खुश करने के लिए हमारी सरकार सेनाध्यक्षों के विरोध के बावजूद आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर्स एक्ट में बदलाव करने का विचार करने लगती है। सेनाध्यक्षों के विरोध के बावजूद आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर्स एक्ट में बदलाव की गंदी राजनीति से हमारे सुरक्षाबलों के हाथ बंध जाएंगें। हमारी सरकार इस माध्यम से जो करने जा रही है वह देश की एकता-अखंडता को छिन्न-भिन्न करने की एक गहरी साजिश है। जिस देश की राजनीति के हाथ अफजल गुरू की फांसी की फाइलों को छूते हाथ कांपते हों वह न जाने किस दबाव में देश की सुरक्षा से समझौता करने जा रही है। यह बदलाव होगा हमारे जवानों की लाशों पर। इस बदलाव के तहत सीमा पर अथवा अन्य अशांत क्षेत्रों में डटी फौजें किसी को गिरफ्तार नहीं कर सकेंगीं। दंगों के हालात में उन पर गोली नहीं चला सकेंगीं। जी हां, फौजियों को जनता मारेगी, जैसा कि सोपोर में हम सबने देखा। घाटी में पाकिस्तानी मुद्रा चलाने की कोशिशें भी इसी देशतोड़क राजनीति का हिस्सा है। यह गंदा खेल,अपमान और आतंकवाद को इतना खुला संरक्षण देख कर कोई अगर चुप रह सकता है तो वह भारत की महान सरकार ही हो सकती है। आप कश्मीरी हिंदुओं को लौटाने की बात न करें, हां सेना को वापस बुला लें।क्या हम एक ऐसे देश में रह रहे हैं जिसकी घटिया राजनीति ने हम भारत के लोगों को इतना लाचार और बेचारा बना दिया है कि हम वोट की राजनीति से आगे की न सोच पाएं? क्या हमारी सरकारों और वोट के लालची राजनीतिक दलों ने यह तय कर लिया है कि देश और उसकी जनता का कितना भी अपमान होता रहे, हमारे सुरक्षा बल रोज आतंकवादियों-नक्सलवादियों का गोलियां का शिकार होकर तिरंगें में लपेटे जाते रहें और हम उनकी लाशों को सलामी देते रहें-पर इससे उन्हें फर्क नहीं पड़ेगा। किंतु अफसोस इस बात का है कि गणतंत्र को चलाने और राजधर्म को निभाने की जिम्मेदारी जिन लोगों पर है वे वोट बैंक से आगे की सोच नहीं पाते। वे देशद्रोह को भी जायज मानते हैं और उनके लिए अभिव्यक्ति के नाम पर कोई भी कुछ भी कहने और बकने को आजाद है। कश्मीर में पाकिस्तानी झंडे लेकर घूमने से शांति और तिरंगा फहराने से अशांति होती है – शायद छः दशकों में यही भारत हमने बनाया है। ऐसे में क्या नहीं लगता कि देशभक्ति भी अब एक बोझ बन गयी है शायद इसीलिए हमारे संविधान की शपथ लेकर बैठे नेता भी इसे उतार फेंकना चाहते हैं। कश्मीर का संकट दरअसल उसी देशतोड़क द्विराष्ट्रवाद की मानसिकता से उपजा है जिसके चलते भारत का विभाजन हुआ। पाकिस्तान और द्विराष्ट्रवाद की समर्थक ताकतें यह कैसे सह सकती हैं कि कोई भी मुस्लिम बहुल इलाका हिंदुस्तान के साथ रहे। किंतु भारत को यह मानना होगा कि कश्मीर में उसकी पराजय आखिरी पराजय नहीं होगी। इससे हिदुस्तान में रहने वाले हिंदु-मुस्लिम रिश्तों की नींव हिल जाएगी और सामाजिक एकता का ताना-बाना खंड- खंड हो जाएगा। इसलिए भारत को किसी भी तरह यह लड़ाई जीतनी है। उन लोगों को जो देश के संविधान को नहीं मानते, देश के कानून को नहीं मानते उनके खिलाफ हमें किसी भी सीमा तक जाना पड़े तो जाना चाहिए।
आज जिस तरह के राक्षसी अपराध तथा भ्रष्ट कारनामें भारत में देखने मिल रहे हैं तब यह प्रश्न सहज ही उठता है कि क्या भारत सभ्य है? यही प्रश्न बीसवीं शती के प्रारंभ में विलियम आर्चर ने उठाया था और अपनी कट्टर सांप्रदायिक दृष्टि तथा औपनिवेशिक अहंकार में झूठे तर्कों से सिद्ध कर दिया था कि न केवल भारत असभ्य है, वरन हमेशा ही असभ्य था और जैसी कि दुखवादी तथा परलोकवादी उसकी संस्कृति है वह कभी सभ्य नहीं हो सकता। इसका पहला मुँहतोड़ जवाब तो संक्षेप में सर जान वुड्रफ़ ने दिया था और फ़िर बहुत ही विस्तार में श्री अरोबिन्दो ने दिया था जो कि उनकी पुस्तक ’भारतीय संस्कृति के आधार’ में दिया गया है। वह पुस्तक उन दिनों से कहीं अधिक आज प्रासंगिक है क्योंकि हम आज स्वयं ही अपनी भाषा और इसलिये अपनी संस्कृति को छोड़कर पश्चिम की संस्कृति की भोंड़ी नकल करने में लगे हुए हैं और भौतिक प्रगति की चकमक करती चौँधियाती बत्तियों में डिस्को करते हुए मस्त मस्त गा रहे हैं।
श्री अरोबिन्दो, उस पुस्तक में, कहते हैं कि द्वन्द्व, संघर्ष और प्रतियोगिता आज भी अंतर्राष्ट्रीय नियामक हैं, और यह अनुमान करना स्वाभाविक है कि सारा जगत पश्चात्य सभ्यता में दीक्षित हो जाएगा; किंतु उऩ्हें आशा थी कि इस संभावना पर भारत की छाया पड़ चली है – या तो भारत इतनी पूरी तरह से तर्कवादी एवं व्यवसायवादी हो जाएगा कि वह भारत ही नहीं रहेगा या वह अपने दृष्टांत तथा सांस्कृतिक प्रभा के द्वारा पश्चिम की नयी प्रवृत्तियों को प्रोत्साहित करता हुआ मानव को आध्यात्मिक बनाएगा। किन्तु आज लगभग सौ वर्षों के बाद उस आशा का कोई भी आधार नहीं बचा है। फ़िर वे स्वयं कहते हैं कि भारत को अपनी रक्षा करनी होगी।
मुख्य प्रश्न यह है कि क्या मानव जाति भविष्य तर्कप्रधान एवं यांत्रीकृत सभ्यता एवं संस्कृति में निहित है या आध्यात्मिक, बोधिमूलक और धार्मिक सभ्यता एवं संस्कृति में है?
खतरा इस बात का है कि पश्चिम का भोगवाद भारत की पुरानी सांस्कृतिक एवं सामाजिक व्यवस्था को इतना दबा सकते हैं कि वह टूटफ़ूट जाए, तब तर्कवाद में दीक्षित और पश्चिमी रंग में रंगा भारत पश्चिम की नकल करने वाला भूरा बंदर बन सकता है।
अत: एक प्रबल आक्रमणशील प्रतिरक्षा की आवश्यकता उत्पन्न होती है; आक्रमणशीलता का अर्थ है पुरानी संस्कृति में आधुनिकता लाना, और वह हमारी आध्यात्मिक संस्कृति में सहज ही संभव है। सब त्रुटियों के रहते और पतन के होते हुए भी भारतीय संस्कृति का मूल भाव, उसके श्रेष्ठ आदर्श आज भी केवल भारत के लिये नहीं अपितु समस्त मानव जाति के लिये संदेश लिये हुए हैं। और कुछ ऐसे सिद्ध आदर्शभूत विचार हैं जो एक अधिक विकसित मानवजाति के जीवन के अंग बन सकते हैं।
पाश्चात्य सभ्यता को अपनी सफ़ल आधुनिकता पर गर्व है। परंतु ऐसा बहुत कुछ है जिसे इसने अपने लाभों की उत्सुकता में गवां दिया है, जिसके कारण इसका जीवन क्षत विक्षत हो गया है। पैरिक्लीज़ यदि आज आए तब वह इसके भोगवाद, इसकी विकसित की हुई कितनी ही चीज़ों की अस्वाभाविक अतिरंजना और अस्वस्थता को देखकर घृणा से मुँह फ़ेर लेगा; . . .कि बर्बरता यहां अभी भी बची हुई है।. . .. . किन्तु तब भी अनेक महान आदर्शों का विकास भी हुआ है।
दूसरी और यदि उपनिष्त्कालीन ऋषि को लाया जाए तब उसे यह अनुभव होगा कि इस राष्ट्र और संस्कृति का सर्वनाश हो गया है।. . . कि मेरी जाति भूतकाल के बाह्य आचारों, खोखली और जीर्णशीर्ण वस्तुओं से चिपकी हुई है और अपने उदात्त तत्त्वों का नौदशमांश खो बैठी है। प्राचीनयुग की अधिक सरल और अधिक आध्यात्मिक सुव्यवस्था के स्थान पर उसे एक घबरा देने वाली, अस्तव्यस्त व्यवस्था दिखलाई देगी जिसका न कोई केंद्र होगा और न व्यापक समन्वयकारी विचार। इस देश में श्रद्धा और आत्मविशास की इतनी कमी हो गई है कि इसके मनीषी बाहर से आयी हुई विजातीय संस्कृति के लिये अपने प्राचीन भावों और आदर्शों को मटियामेट करने के लिये लालायित हैं। किन्तु भारत की आत्मा मर नहीं गई है, उसे जगाने की आवश्यकता है। भूत काल के आदर्शों की महत्ता इस बात का आश्वासन देती है कि भविष्य के आदर्श और भी महान होंगे ।
यदि हम सभ्यता की परिभाषा इन शब्दों से करें कि यह आत्म, मन और देह का सामंजस्य है, तब यह आज कहीं भी विद्यमान नहीं है।
इसमें संदेह नहीं कि प्रत्येक विघटनकारी आक्रमण का प्रतिकार हमें पूरे बल से करना होगा। और हम क्या थे, क्या हैं और क्या बन सकते हैं, यह निश्चित करना होगा। हमें पश्चिम से और प्राचीन भारत दोनों से सीखना होगा।तुलना करने पर हमें पता चलेगा कि ऐसी चीजें नहीं के बराबर हैं जिनके कारण हमें पश्चिम के सामने सिर नीचा करना पड़े, और ऐसी बहुत चीजें हैं जिनमें हम पश्चिम से ऊँचे उठ जाते हैं। हमारे जीवन संबन्धी सिद्धान्तों तथा सामाजिक प्रथाओं में कुछ ऐसी चीज़ें हैं जो अपने आप में भ्रान्त हैं। अस्पृशों के साथ हमारा व्यवहार इसका एक ज्वलंत उदाहरण है।
जब बाहर से आक्रमण कारी शक्तियां, इस्लाम और यूरोप भारत में घुस आए तब हिन्दू समाज संकीर्ण और निष्क्रिय आत्म संरक्षण और जीने भर की शक्ति से संतुष्ट रहा।. . और अब तो आत्म विस्तार किये बिना जीवन की रक्षा करना भी असंभव हो गया है।
यह दृष्टि हमारे सामने एक क्षेत्र खोल देती है पूर्व तथा पश्चिम के मिलन का, जो संस्कृतियों के संघर्ष के परे ले जाता है। मनुष्य के अंदर अवस्थित दिव्य आत्मा के अंदर बस एक ही लक्ष्य है, परंतु विभिन्न समुदाय पृथक पृथक दिशाओं में उस लक्ष्य की ओर अग्रसर होते हैं। आत्मा की आधारभूत एकता को न जानने के कारण वे एक दूसरे के साथ युद्ध करते हैं और दावा करते हैं कि केवल उऩ्हीं का मार्ग मनुष्य जाति के लिये यथार्थ मार्ग है। यूरोपीय मनोवृत्ति संघर्ष के द्वारा विकास करने के सिद्धान्त को प्रथम स्थान देती है। भारतीय संस्कृति सामंजस्य के ऐसे सिद्धान्त को लेकर अग्रसर हुई है जिसने एकता में ही अपना आधार पाने की चेष्टा की है। सदा से आत्मा के सत्य को धारण करने वाले भारत को पश्चिम के अभिमानपूर्ण आक्रमण का प्रतिरोध करना होगा और अपने गंभीरतर सत्य को स्थापित करना होगा।
किसी जाति की संस्कृति उसकी जीवनशैली में अभिव्यक्त होती है। और वह अपने आपको तीन रूपों में प्रकट करती है। १ – विचार, आदर्श और आत्मिक शक्ति। २. – सृजन और कल्पना शक्ति; ३.- व्यावहारिक संगठन। किसी जाति का दर्शन उसकी जीवन विषयक चेतना और जगत विषयक दृष्टि का रूप उपस्थित करता है। किसी जाति का धर्म उसके ऊर्ध्वमुखी संकल्प को प्रकट करता है; उसके सर्वोच्च आदर्श को अभिव्यक्त करता है। किसी जाति का समाज और राजनीति एक बाह्य ढाँचा प्रदान करतीहैं। उसके धर्म, दर्शन, कला और समाज आदि कोई भी पीछे अवस्थित आत्मा को पूर्ण रूप से प्रकाशित नहीं करता यद्यपि वे सभी उसी से अपनी पूरी प्रेरणा ग्रहण करते हैं।वे सब मिलकर उसकी आत्मा, मन और देह का गठन करते हैं। धर्म द्वारा क्रियाशील बना हुआ दर्शन, और दर्शन द्वारा आलोकित धर्म ही समाज को जीवन देते हैं। ’ब्राह्मणों की सभ्यता’ जिसे कहा जाता है उसका सही अभिप्राय यही है; पुरोहिती सभ्यता नहीं। संस्कृति के निर्माण में दार्शनिक विचारकों और धार्मिक मनीषियों का ही हाथ रहा है, यद्यपि वे सभी के सभी ब्राह्मणकुल में नहीं जन्मे थे। किन्तु फ़िर भी उसने उस पर एकाधिकार स्थापित नहीं किया।
हमारे सामने दो विकल्प हैं – १. जीवन संबन्धी आध्यात्मिक एवं धर्म प्रधान ’त्यक्तेन भुन्जीथा:’ दृष्टिकोण, और २. जीवन का बौद्धिक और व्यावहारिक तर्क के द्वारा नियंत्रित भोगवादी दृष्टिकोण – इन दोनों में से मनुष्य जाति का सर्वोत्तम मार्गदर्शक कौन हो सकता है?
भारत और चीन में दर्शन ने जीवन पर प्रभुत्व स्थापित कर रखा है, वहां पश्चिम में यह ऐसा मह्त्व स्थापित करने में कभी सफ़ल नहीं हुआ। पश्चिम में सर्वोच्च मनीषियों ने दर्शन का अनुशीलन किया है पर वह अनुशीलन जीवन से कुछ पृथक ही रहा है। पश्चिम की दृष्टि में अंतिम सत्य प्राय: ही विचारात्मक तथा तर्क बुद्धि के सत्य होते हैं। औसत पश्चिमवासी अपने मार्गदर्शक विचार दार्शनिक नहीं वरन प्रत्यक्षवादी एवं व्यावहारिक बुद्धि से ही ग्रहण करता है। भारतवासी का विश्वास है कि अंतिम सत्य आत्मा के ही सत्य हैं जो आंतरिक तथा बाह्य जीवन का हित कर सकते हैं। यदि वह अपने निष्कर्षों (डाग्माज़) को धार्मिक विश्वास के विशिष्ट अंग बनाने में समर्थ हुआ है तो इसका कारण यह है कि उऩ्हें वह एक ऐसे अनुभव पर प्रतिष्ठित करने में सफ़ल हुआ है जिसकी सत्यता की जाँच कोई भी व्यक्ति कर सकता है।
किसी भी संस्कृति की परीक्षा तीन कसौटियों से करना चाहिये, १. उसकी मूल भावना से, २. उसकी सर्वोत्तम प्राप्ति से और ३.उसकी अपेक्षाकृत दीर्घ जीवन और नवीकरण की शक्तियों से। पश्चिम भारतीय दर्शन के मूल्यों के विरुद्ध अभियोग लगाता है कि यह इहलौकिक पुरुषार्थ से मुंह मोड़ता है। यह समस्त इच्छा- प्रधान व्यक्तित्व का उन्मूलन करता है। यह जगत को मिथ्या मानता है, दैनिक लाभों के प्रति अनासक्ति की शिक्षा देता है, अतीत और अनागतजीवनों की तुलना में वर्तमान जीवन की तुच्छता की शिक्षा देता है। यह सब कुप्रचार कितना गलत है इसके लिये एक उदाहरण ही पर्याप्त होगा, ईशावास्य उपनिषद का एक ही मंत्र – ’विद्यांचाविद्यांच यस्तद्वेदोभयंसह। अविद्यया मृत्युंतीर्त्वा विद्ययाममृतमश्नुते।।” अर्थात सांसारिक विद्याओं से हम जीवन जीते हैं और अध्यात्म विद्या से आनंदरूपी अमृत प्राप्त करते हैं। अब समय आ गया है यह तोता रटंत बन्द हो जाना चाहिये कि भारतीय सभ्यता अव्यावहारिक, निवृत्तिमार्गी और जीवन विरोधी है।
यह सत्य है कि भारतीय संस्कृति ने मनुष्य के अन्दर की उस चीज को, जो लौकिक इच्छाओं के ऊपर उठ जाती है सदैव सर्वोच्च मह्त्व प्रदान किया है। प्राचीन आर्य संस्कृति समस्त मानव संभावनाओं को मान्यता देती थी, पर आध्यात्मिक संभावनाओं को वह सर्वोच्च स्थान प्रदान करती थी। और चार पुरुषार्थों, चार आश्रम और चार वर्णों की अपनी प्रणाली में उसने जीवन को क्रमबद्ध किया था। बौद्ध धर्म ने सबसे पहले स न्यास के आदर्श तथा भिक्षु प्रवृत्ति को अतिरंजित और विपुल रूप में प्रसारित किया, और जीवन के संतुलन को भंग कर डाला। अंत में शंकर का मायावाद आया, फ़लस्वरूप संसार को मिथ्या या आपेक्षिक मानकर उसकी अत्यधिक अवहेलना की जाने लगी। इसीलिये उऩ्हें प्रच्छन्न बौद्ध कहा गया। जनता ने इसे स्वीकार नहीं किया। जनता पर तो भक्ति प्रधान धर्मों का ही अधिक प्रभाव पड़ा है।
वैराग्य का थो.डा बहुत अंश लिए बिना कोई भी संस्कृति महान नहीं हो सकती; क्योंकि वैराग्य का अर्थ है आत्मत्याग और आत्म विजय जिनके द्वारा मनुष्य अपने निम्न आवेगों का दमन कर अपनी प्रकृति के महत्तर शिखरों की और आरोहण करता है। भारतीय वैराग्यवाद न तो कष्ट की विषादपूर्ण शिक्षा है और न शरीर का दु:खदायी निग्रह है, वरन वह तो आत्मा के उच्चतर आनंद के लिये एक उदात्त प्रयत्न है।
भारतीय आध्यात्मिक दर्शन कर्म और अनुभव के अंदर जो रूप ग्रहण करता है वही भारतीय धर्म है; और संस्कृति उसका व्यावहारिक आधार है। क्या हमारे जीवन को शक्तिशाली और समुन्नत करने के लिये भारतीय संस्कृति में पर्याप्त शक्ति है?? किसी संस्कृति की जाँच करने के लिये इसकी तीन शक्तियों को अच्छी तरह समझ लेना चाहिये। (१). जीवन संबन्धी उसके मौलिक विचार की शक्ति; (२). उन रूपों, आदर्शों और व्यवहारों की शक्ति जो उसने जीवन को प्रदान किये हैं;(३). उसके उद्देश्यों की कार्यान्विति के लिये प्रेरणा, उत्साह और शक्ति। दो चीजें यूरोपीय आदर्श में महत्व रखती हैं – मनुष्य के अपने पृथक व्यक्तित्व का विकास और संगठित समुन्नत राष्ट्रीय जीवन। व्यक्तिवाद तो व्यक्ति में, परिवार मे और समाज में विघटन पैदा कर दुख ही पैदा करता है। राष्ट्रीय जीवन की समुन्नति का एक ही माप है -भोग के साधनों की समृद्धि।
भारतीय आध्यात्मिक मुक्ति और सिद्धि का अर्थ है कि स्वयं मनुष्य एक विश्वमय आत्मा बन सकता है। किन्तु मनुष्य को सामान्य जीवन के उद्देश्य की पूर्ति के लिये एक सजग प्रयास करते हुए, इसके सुखों को पूर्ण रूप से उपभोग करना होगा। उसके बाद ही कहीं हम आत्म जीवन की ओर बढ़ सकते हैं। आवेगों की क्रीड़ा के लिये अनुमति दी गई थी, उऩ्हें तब तक परिष्कृत और सुशिक्षित किया जाता था कि जब तक वे दिव्य स्तरों के योग्य नहीं बन जाते थे। एकमात्र मन और इंद्रियों के जीवन में आसक्त रहने वाले विराट अहंभाव को भारत राक्षस का स्वभाव मानता था। और मनुष्य पर तो एक और शक्ति अधिकार रखने का दावा करती है जो कामना, स्वार्थ और स्वेच्छा से ऊपर उठी हुई है और वह है धर्म की शक्ति। धर्म तो हमारे जीवन के सभी अंगों के कार्य-व्यापार का यथार्थ विधान है। कामना, स्वार्थ और सहजप्रवृत्ति के नियमहीन आवेग को मानवीय चर ित्र का नेतृत्व नहीं करने दिया जा सकता।
भारतीय और यूरोपीय संस्कृति में जो भेद है वह भारतीय सभ्यता के आध्यात्मिक उद्देश्यों से उत्पन्न होता है। इसने समस्त जीवन को आध्यात्मिकता की ओर मो.डने का प्रयास भी किया, इसलिये आवश्यक हो गया कि चिन्तन और कर्म को धार्मिक साँचे में ढाल दिया जाये और जीवन संबन्धी प्रत्येक बात को स्थायी रूप से धार्मिक भावना से भर दिया जाये, अत: एक विशिष्ट दार्शनिक संस्कृति की आवश्यकता हुई। जिस धार्मिक संस्कृति को हम आज हिन्दू धर्म से जानते हैं उसने इस उद्देश्य को केवल पूरा ही नहीं किया अपितु कई अन्य साम्प्रदायिक धर्मों के विपरीत उसने अपना कोई नाम नहीं रखा, क्योंकि उसने स्वयं कोई सांप्रदायिक सीमा नहीं बाँधी; उसने सारे संसार को अपना अनुयायी बनाने का दावा नहीं किया, किसी एकमात्र निर्दोष सिद्धान्त की प्रस्थापना नहीं की, मुक्ति का कॊई एक ही संकीर्ण पथ निश्चित नहीं किया; वह कोई मत या पंथ की अपेक्षा कहीं अधिक मानव के ईश्वरोन्मुख गति की एक सतत प्रगतिशील परंपरा थी। हिन्दू धर्म में एक मात्र स्थिर और सुनिश्चित वस्तु है सामाजिक विधान, किन्तु तब भी हिन्दू धर्म का सार आध्यात्मिक अनुशासन है, सामाजिक अनुशासन नहीं। यहां वर्ण का शासन है, न कि चर्च का; परंतु वर्ण भी किसी मनुष्य को उसके विश्वासों के लिये दण्ड नहीं दे सकता, न वह विधर्मिता पर रोक लगा सकता है और न एक नये क्रान्तिकारी सिद्धान्त या नये आध्यात्मिक नेता का अनुसरण करने से उसे मना कर सकता है। यदि वह ईसाई या मुसलमान को समाज से बहिष्कृत करता है तो वह उसे धार्मिक विश्वास या आचार के कारण नहीं वरन इसलिये कि वे उसकी सामाजिक व्यवस्था और नियम को अमान्य करते हैं।
पश्चिम ने इस उग्र एवं सर्वथा युक्तिहीन विचार का पोषण किया है कि समस्त मानव जाति के लिये एक ही धर्म होना चाहिये। मानुषी तर्कहीनता की यह भद्दी रचना अत्यधिक क्रूरता और उग्र धर्मांधता की जननी है। जब कि भारत के धर्म प्रधान मन की स्वतंत्रता, नमनीयता और सरलता ने धर्म को सदैव चर्चों के समान उन परंपराओं एवं स्वेच्छाचारी पोप राज्यों जैसी किसी चीज का सूत्रपात करने से रोका है। जो जाति जी वन के विकास के साथ असीम धार्मिक स्वतंत्रता दे सकती है, उसे उच्च धार्मिक क्षमता का श्रेय देना ही होगा। आंतरिक अनुभव की एक महान शक्ति ने इसे आरंभ से ही वह वस्तु दी थी जिसकी ओर पश्चिम का मन अंधों की तरह अग्रसर हो रहा है -वह वस्तु है ’विश्व -चेतना, विश्व दृष्टि।
भारतीय धर्म का निरूपण पश्चिमीबुद्धि की जानी हुई परिभाषाओं में से किसी के द्वारा भी नहीं किया जा सकता। एकमेव सत्य को अनेकों पार्श्वों से देखते हुए भारतीय धर्म ने किसी भी पार्श्व के लिये अपने द्वार बन्द नहीं किये. यह मत-विश्वासात्मक धर्म बिलकुल नहीं है, बल्कि आध्यात्मिक संस्कृति की एक विशाल, बहुमुखी, सदा एकत्व लाने वाली और सदा प्रगतिशील एवं आत्म विस्तारशील प्रणाली है।
परंतु आखिरकार हिंदू धर्म है क्या? भारतीय धर्म उच्चतम एवं विशालतम आध्यत्मिक अनुभव के तीन मूल तत्वों पर प्रतिष्ठित है : १. उपनिषदों का ’एकमेवाद्वितीयं’ जो अनंत है; २. मानव बुद्धि इसे अनंत प्रकार के सूत्रों में प्रकट कर सकती है; ३. इन शाश्वत अनंत को खोजना– यही भारत के धार्मिक मन का प्रथम सार्वजनीन विश्वास है। एकमेव परमेश्वर अपने आपको अपने गुणों के रूप में नाना नामों और देवताओं में प्रकट करते हैं। हमारे ज्ञान ने उच्चतम सत्ता और हमारी भौतिक जीवन प्रणाली के बीच कोई खाई नहीं खोदी थी। भारतीय धर्म का सार ऐसे जीवन को लक्ष्य बनाना है जिससे हम अज्ञान का, जो इस आत्मज्ञान को हमारे मन से छुपाए रखता है, अतिक्रम करके अपने अंत:स्थित भगवान को जान सकें।
धर्म और आध्यात्मिकता का कार्य ईश्वर और मनुष्य में, अर्थात अव्यक्त सत्यचेतना के और अज्ञानी मन के बीच मध्यस्थता करना है। अधिक लोग जीवन का संपूर्ण बल बाह्य सत्ता पर ही देते हैं या बौद्धिक सत्य या नैतिक बुद्धि एवं इच्छा शक्ति या रसात्मक सौन्दर्य को पश्चिम की तरह अध्यात्मिकता समझने की भूल करते हैं। कुछ धर्म बाह्य जीवन के रूप के साथ सामंजस्य करने की अपेक्षा कहीं अधिक उससे विद्रोह करते है। ईसाई साधना की मुख्य प्रवृत्ति भौतिक जीवन को तुच्छ समझने की ही नहीं अपितु हमारी प्रकृति की बौद्धिक प्यास को तिरस्कृत एवं अवरुद्ध करने और सौन्दर्य संबन्धी प्यास पर अविश्वास करने की भी है। उनके लिये नैतिक भावना की अभिवृद्धि अध्यात्म जीवन की एकमात्र मानसिक आवश्यकता है।
एक अर्ध आलोकित आध्यात्मिक लहर ईसाइयत के रूप में, पश्चिम भर में फ़ैल गई थी, उसके होते हुए भी पश्चिमी सभ्यता की वास्तविक प्रवृत्ति बौद्धिक, तार्किक, लौकिक और यहां तक कि जड़वादी ही रही। भारतीय समाज की संगठन शक्ति अपूर्व थी, जिसने अपने अर्थ और कामनावाले सांसारिक जीवन के सामाजिक सामंजस्य का विकास किया, उसने अपने कर्म का परिचालन सदा ही पद पद पर नैतिक और धार्मिक विधान के अनुसार किया; – परंतु इस बात को उसने आँखों से कभी ओझल नहीं किया कि आध्यात्मिक मोक्ष ही हमारे जीवन के प्रयास का उच्चतम शिखर है।
दुर्भाग्यवश भारतीय संस्कृति का ह्रास हुआ। यदि भारतीय संस्कृति को जीवित रखना है तो उसके विकास को केवल पौराणिक प्रणाली को फ़िर से प्रचलित करने में नहीं, वरन उपनिषदों की ओर मुड़ना होगा।
भारतीय संस्कृति के विकास की आधुनिक अवस्था की तैयारी दीर्घकाल से हो रही है। इसमें एक तो यह भावना है कि मनुष्य मात्र अपना जीवन परमात्मा के महान सत्य पर प्रतिष्ठित करे। दूसरी यह कि उस सत्ता तक मात्र आरोहण ही नहीं वरन भगवत्चेतना के अवरोहण द्वारा मानव-प्रकृति के दिव्य-प्रकृति में रूपांतरण को भी संभव करे। यदि भगवत चेतना उसकी सत्ता के अंगों में जरा भी चरितार्थ हो जाए तो वह मानव जीवन को एक दिव्य अधिजीवन में परिणित कर देगा। इस के लिये जनसाधारण को हर क्षण धार्मिक प्रभाव में रहना चाहिये। और यह हमारी सुखद परंपरा रही है। हमारी संस्कृति की प्रणाली का ढाँचा एक त्रिविध चौपदी से गठित था : प्रथम वृत्त में जीवन के चार पुरुषार्थ धर्म, अर्थ काम और मोक्ष। दूसरे वृत्त में चातुर्वर्ण्य व्यवस्था, तीसरे वृत्त में जीवन के चार आश्रम – विद्यार्थी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और स्वतंत्र समाजातीत मनुष्य। इसीलिये भारतवासियों के लिये समस्त जीवन ही धर्म है।
आध्यात्मिक ज्ञान पर प्रतिष्ठित जीवन का संपूर्ण व्यवहार भारतीय संस्कृति की दृष्टि में धर्म कहलाता है, जिसमें नैतिकता का विशेष मह्त्व होता है। धर्म के जटिल जाल में सबसे पहले आता है सामाजिक विधान, क्योंकि मनुष्य का जीवन कहीं अधिक अनिवार्यरूप में समष्टि के लिये ही है, यद्यपि सर्वाधिक अनिवार्य रूप में वह आत्मा परमात्मा के लिये है। तब भी वैराग्यरूपी उच्च तपस्या के रहते, मनुष्य का सौंदर्यप्रिय या यहां तक कि सुखभोगवादी प्रवृत्ति पर भी कोई रुकावट नहीं लगायी। काव्य, नाटक, गीत, नृत्य, संगीत को प्रस्तुत किया गया, और उसे भी आत्मा के उत्कर्ष के रूप में। अध्यात्म सिद्धि के लिये प्रमुखत: तीन मार्ग बनें – बुद्धिप्रधान के लिये ज्ञान योग; कर्मठ नैतिक के लिये कर्मयोग; और भावुक सौन्दर्यप्रेमी एवं सुखभोगवादी के लिये प्रेम तथा भक्ति योग की रचना की गयी थी।
उससे महान संस्कृति क्या हो सकती है जो यह मानती है कि मनुष्य सनातन और अनंत को केवल जान ही नहीं सकता वरन आत्मज्ञान के द्वारा आध्यात्मिक और दिव्य भी बना सकता है? किसी भी महान संस्कृति का संपूर्ण लक्ष्य यह होता है कि वह मनुष्य को ज्ञान की ओर ले जाए, शुभ और एक्त्व के साथ सुन्दरता और समस्वरता के साथ द्वारा जीना सिखाए।
विज्ञान द्वारा विपुल आर्थिक उत्पादन ही मनुष्य को उसका दास, अथवा आर्थिक व्यवस्था -रूपी शरीर का एक अंग बना देता है – तब हमें पूछने का अधिकार है क्या यही हमारी संपूर्ण सत्ता है, और सभ्यता का स्वस्थ या संपूर्ण वर्तमान एक ऐसी बुद्धिमान आसुरिक बर्बरता प्रतीत होता था जिसका कि जर्मनी एक अत्यंत प्रशंसित और सफ़ल नायक था। क्या भारत के लिये यह ठीक नहीं है कि वह पश्चिम के अनुभव से शिक्षा भले ग्रहण कर ले पर पश्चिम का अनुकरण न कर अपनीमूल भावना और संस्कृति के सर्वश्रेष्ठ और अत्यंत मौलिक तत्वों को विकसित करे? बहुत समय तक यह सत्य था, और मैं कहूंगा कि अब और अधिक सत्य है, कि भारतीय का कर्तव्य यही रहा है कि वह सभ्य बनाने वाली अंग्रेज की डोर में बँधा हुआ एक बंदर बन कर उसके ढोल की आवाज पर नाचा करे।
शंकर के सिद्धान्त में एक प्रवृत्ति अपनी चरम पर पहुँच गई जिसने भारतीय मन पर गहरी छाप डाली और अवश्य ही कुछ समय के लिये उसने सांसारिक जीवन की निषेधात्मक दृष्टि को स्थिर करने और विशालतर भारतीय आदर्श को विकृत करने की चेष्टा की। परंतु उनका सिद्धान्त महान वेदान्तिक शास्त्रों से निकलने वाला कोई अनिवार्य परिणाम बिलकुल नहीं है।
आखिर जीवन का अर्थ क्या है, हम अत्यंत पूर्ण और महान जीवन किसे कहते हैं? जीवन निश्चित ही मनुष्य की आत्मा की सक्रिय आत्म-अभिव्यक्ति है, और विचार, सृजन, प्रेम और कर्म करना तथा सफ़लता प्राप्त करना उसके संकल्प ही हैं। यह भी संभव है कि जीवन यापन के सभी साधारण करणोपकरण और परिस्थितियां विद्यमान हों, पर यदि जीवन महान अर्थात आध्यात्मिक आशाओं, अभीप्साओं और आदर्शों के द्वारा ऊँचा न उठा हो तब हम कह सकते हैं कि वह समाज वास्तव में जीवित नहीं है।
शून्य, दशमलव तथा स्थानमूल्य की अवधारणाओं के बल पर गणित में, तथा चरक, सुश्रुत, (विमान शास्त्र के रचयिता) भरद्वाज मुनि, आर्य भट, भास्कराचार्य प्रथम एवं द्वितीय, नागार्जुन, वरह मिहिर, आदि आदि के बल पर विज्ञान में यह देश अग्रणी रहा है, साहित्य में वेद, उपनिषद, गीता हैं और सर्वाधिक महान और उदात्त महाकाव्य रामायण है; जीवन को अद्भुत पूर्णता से अभिव्यक्त करने वाला महाकाव्य महाभारत है, कालिदास, माघ, भास, भारवि, बाणभट्ट आदि की अनुपम कृतियां हैं, पाली, प्राकृत, तथा आधुनिक भारतीय भाषाओं की श्रेष्ठ कृतियां भी हैं। तूफ़ानी सदियों के समस्त विध्वंस के बाद जो कुछ बचा है वह तथा भरत मुनि के अनुपम ’नाट्यशास्त्र, चाणक्य के अर्थशास्त्र, भारत की कलाओं की सुदीर्घ परंपरा भारत की श्रेष्ठता का उद्घोष करते हैं। वैदिक काल में शूद्रों में से ऋषि उत्पन्न हुए। बाद के युग में बुद्ध और महावीर से लेकर रामानुज, चैतन्य, नानक रामदास, और तुकाराम, और फ़िर विवेकानन्द और दयानंद तक की अविच्छिन्न परंपरा है। प्रामाणिक इतिहास चन्द्रगुप्त, चाणक्य, अशोक और गुप्तवंशी सम्राटों के प्रभावशाली व्यक्तित्वों से प्रारंभ होता है। प्राचीन भारत में गणतंत्र और जनतंत्र थे। साम्राज्य निर्माण का दीर्घकालीन प्रयत्न, पठानों और मुगलों के उत्थान और पतन से सन्लग्न तीव्र संघर्ष, राजपूती वीर ता का आश्चर्यजनक इतिहास, आदि है। हमारे शूद्रों में से सम्मानित संत प्रकट हुए, जिसे यूरोप का पतनशील काल (डार्क मैडीवियल एजैज़) कहा जाता है, वह काल संत साहित्य की कृपा से भारत का स्वर्णकाल है।
अतएव यह कथन कि भारत जाति में अपनी संस्कृति के कारण जीवन, इच्छाशक्ति और क्रियाशीलता का अभाव है. एक षड़यंत्र है। एक अत्यंत विचित्र और झूठ बात यह है कि इस दोष का कारण जीवन के प्रति वैराग्य को माना गया है – भारत सनातन में इतना व्यस्त था कि उसने उसने समय की जानबूझकर उपेक्षा की। यह एक और मिथ्या गाथा है।. . . . औसत यूरोपीय मन एक अहंकारमय अस्तित्व पर भीषण आग्रह के साथ बल देता है। जो शार्लमान ई साई बनाने के लिये सैक्सनों का संहार करता है, वह अशोक के पश्चाताप को कैसे समझ सकता है। भारत ने निर्वैयक्तिकता को अधिक महत्व प्रदान किया है। निर्वैयक्तिता सत्ता का अभाव नहीं वरन नदी बनने के स्थान पर उसकी सागर के समान समग्रता है। पूर्णताप्राप्त मनुष्य विश्वमय हो जाता है, वह सहानुभूति और एकता की भावना में प्राणिमात्र का आलिंगन करता है।
यह सत्य है कि भारत किऩ्हीं कारणों से गुलाम हुआ और उसका पतन हुआ। किन्तु जैसा कि ऊपर दर्शाया गया है, उसमें सदा ही एक महान दिव्य आध्यात्मिकता रहती है जिसके बल पर वह पुन: अपनी उच्चस्थिति प्राप्त कर सकता है। किन्तु इसके लिये एक ही खतरा है कि पश्चिम की रंगीन चकाचौंध में फ़ँसकर, उनकी भाषा और भोगवादी संस्कृति की नकल करता हुआ भारतीय कहीं भूरा बंदर ही न बन जाए।
मध्य प्रदेश की संस्कारधानी जबलपुर के भातखण्डे संगीत महाविद्यालय में 24 दिसंबर को स्वर्गीय हीरा लाल गुप्त स्मृति पुरूस्कार समारोह में स्वर्गीय प्रमिला बिल्लोरे साव्यासाची अलंकरण से फीचर लेखक और वरिष्ठ पत्रकार लिमटी खरे को सम्मानित करते जवाहर लाल नेहरू कृषि विश्वविद्यालय के कुलपति प्रोफेसर गौतम कल्लू और वरिष्ठ पत्रकार श्याम कटारे।
श्री लिमटी खरे को प्रवक्ता डॉट कॉम की ओर से हार्दिक बधाई।
विनायक सेन को काल्पनिक आरोपों की जद में आजीवन कारावास की सजा के समर्थन और विरोध के स्वर केवल भारत ही नहीं, वरन यूरोप, अमेरिका में भी सुने जा रहे हैं.इस फैसले के विरोध में दुनिया भर के लोकतान्त्रिक, जनवादी, धर्मनिरपेक्ष और वामपंथी शामिल हैं, वे जुलुस, नुक्कड़ नाटक, रैली और सेमिनारों के मार्फ़त श्री विनायक सेन की बेगुनाही पर अलख जगा रहे हैं और इस फैसले के समर्थन में वे लोग उछल-कूद कर रहे हैं जो स्वयम हिंदुत्व के नाम की गई हिंसात्मक गतिविधियों में फंसे अपने भगनी भ्राताओं की आपराधिक हिंसा पर देश की धर्मनिरपेक्ष कतारों के असहयोग से नाराज थे. ये समां कुछ ऐसा ही है जैसा कि शहीद भगतसिंह-सुखदेव-राजगुरु की शहादत के दरम्यान हुआ था, उस समय गुलाम भारत की अधिसंख्य जनता-जनार्दन ने भगत सिंह और उनके क्रन्तिकारी साथियों के पक्ष में सिंह गर्जना की थी और उस समय की ब्रिटिश सत्ता के चाटुकारों-पूंजीपतियों, पोंगा-पंथियों ने भगतसिंह जैसे महान शहीदों को तत्काल फाँसी दिए जाने की पेशकश की थी. इस दक्षिणपंथी सत्तामुखापेक्षी धारा के समकालिक जीवाणुओं ने भी निर्दोष क्रांतिकारी विनायक सेन को जल्द से जल्द सूली पर चढ़वाने का अभियान चला रखा है। इनके पूर्वजों को जिस तरह भगत सिंह इत्यादि को फाँसी पर चढ़वाने में सफलता मिल गई थी, वैसी आज के उत्तर-आधुनिक दौर में विनायक सेन को फाँसी पर चढ़वाने में उनके आधुनिक उत्तराधिकारियों को नहीं मिल सकी है. इसीलिए वे जहर उगल रहे हैं, विनायक सेन के वहाने सम्पूर्ण गैर साम्प्रदायिक जनवादी आवाम को गरिया रहे हैं.
चूँकि जिस प्रकार तमाम विपरीत धारणाओं, अंध-विश्वासों, कुटिल-मंशाओं और संकीर्णताओं के वावजूद कट्टरवादी-साम्प्रदायिकता के रक्ताम्बुज महासागरों के बीच सत्यनिष्ठ-ईमानदार व्यक्ति हरीतिका के टापू की तरह हो सकते हैं, उसी तरह कट्टर-उग्र वामपंथ की कतारों में भी कुछ ऐसे सत्पुरुष हो सकते हैं जो न केवल सर्वहारा अपितु सम्पूर्ण मानव मात्र के हितैषी हो सकते हैं, क्या विनायक सेन ऐसा ही एक अपवाद नहीं हैं ?
विगत नवम्बर में और कई मर्तबा पहले भी मैंने प्रवक्ता.कॉम पर नक्सलवाद के खिलाफ, माओवादियों के खिलाफ शिद्दत से लिखा था, जो मेरे ब्लॉग www.janwadi.blogspot.com पर उपलब्ध है, पश्चिम बंगाल हो या आंध्र या बिहार सब जगह उग्र वामपंथ और संसदीय लोकतंत्रात्मक आस्था वाले वामपंथ में लगातार संघर्ष चलता रहा है किन्तु माकपा इत्यादि के अहिंसावाद ने बन्दुक वाले माओवादिओं के हाथों बहुत कुछ खोया है, अब तो लगता है कि अहिंसक क्रांति की मुख्य धारा का लोप हो जायेगा और उसकी जगह पर ये नक्सलवादी, माओवादी अपना वर्ग संघर्ष अपने तौर तरीके से जारी रखेंगे जब तक की उनका अभीष्ट सिद्ध नहीं हो जाता देश के कुछ चुनिन्दा वाम वुद्धिजीवी भी आज हतप्रभ हैं की किस ओर जाएँ? विनायक सेन प्रकरण ने विचारधाराओं को एतिहासिक मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया है. इस प्रकरण की सही और अद्द्तन तहकीकात के वाद यह स्वयम सिद्ध होता है कि विनायक सेन निर्दोष हैं, और जब विनायक सेन निर्दोष हैं तो उनसे किसे क्या खतरा हो सकता है?राजद्रोह की परिभाषा यदि यही है; जो विनायक सेन पर तामील हुई है; तो भारत में कोई देशभक्त नहीं बचता..
मैं न तो नक्सलवाद और न ही माओवाद का समर्थक हूँ और न कोई मानव अधिकार आयोग का एक्टिविस्ट; डॉ विनायक सेन के बारे में उतना ही जानता हूँ जितना प्रेस और मीडिया ने अब तक बताया. जब किसी व्यक्ति को कोई ट्रायल कोर्ट राजद्रोह का अपराधी घोषित करे, और आजीवन कारावास की सजा सुनाये; तो जिज्ञासा स्वाभाविक ही सचाई के मूल तक पहुंचा देती है. पता चला की डॉ विनायक सेन ने छत्तीसगढ़ के आदिवासियों के बीच काफी काम किया है.उन्हें राष्ट्रीय -अंतर राष्ट्रीय स्तर पर सम्मानित किया जा चुका है.वे पीपुल्स यूनियंस फॉर सिविल लिबर्टीज (पी यू सी एल) के प्रमुख की हैसियत से मानव अधिकारों के लिए निरंतर कार्यशील रहे. उन्होंने नक्सलवादियों के खिलाफ खड़े किये गए ‘सलवा जुडूम’ जैसे संगठनों की ज्यादतियों का प्रबल विरोध किया.छत्तीसगढ़ स्टेट गवर्नमेंट और पुलिस की उन पर निरंतर वक्र दृष्टि रही है.
मई २००७ में उन्हें जेल में बंद तथाकथित नक्सलवादी नेता नारायण सान्याल का सन्देश लाने-ले जाने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था. उन्हें लगभग दो साल बाद २००९ में सुप्रीम कोर्ट से जमानत मिली थी.उस समय भी उनकी गिरफ्तारी ने वैचारिक आधार पर देश को दो धडों में बाँट दिया था.एक तरफ वे लोग थे जो उनसे नक्सली सहिष्णुता के लिए नफ़रत करते थे; दूसरी ओर वे लोग थे जो मानव अधिकार, प्रजातंत्र और शोषण विहीन समाज के तरफदार होने से स्वाभाविक रूप से विनायक सेन के पक्ष में खड़े थे.इनमे से अनेकों का मानना था की विनायक सेन को बलात फसाया जा रहा है. उस समय उनके समर्थन में बहुत कम लोग थे; क्योंकि उस वक्त तक नक्सलवादियों और आदिवासियों के बीच काम करने वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं में भेद करने की पुलिसिया मनाही थी.नक्सलवाद और मानव अधिकारवाद के उत्प्रेरकों में फर्क करने में छत्तीसगढ़ पुलिस की असफलता के परिणाम स्वरूप उस वक्त सच्चाई के पक्ष में खड़ा हो पाना बेहद खतरों से भरा हुआ अग्नि-पथ था.इस दौर में जबकि सही व्यक्ति या विचार के समर्थन में खड़ा होना जोखिम भरा है तब विनायक सेन का अपराध बस इतना सा था कि वे नारायण सान्याल से जेल में जाकर क्यों मिले?
भारत की किसी भी जेल के बाहर वे सपरिजन-घंटों, हफ़्तों, महीनों, इस बात का इन्तजार करते हैं कि उन्हें उनके जेल में बंद सजायफ्ता सपरिजन से चंद मिनिटों कि मुलाकात का अवसर मिलेगा, मेल मुलाकात का यह सिलसिला आजीवन चलता रहता है किन्तु किसी भी आगन्तुक मित्र -बंधू बांधव को आज तक किसी ट्रायल कोर्ट ने सिर्फ इस बिना पर कि आप एक कैदी से क्यों मिलते हैं ? आजीवन कारावास तो नहीं दिया होगा.बेशक नारायण सान्याल कोई बलात्कारी, हत्यारे या लुटेरे भी नहीं हैं और उनसे मिलने उनकी कानूनी मदद करने के आरोपी विनायक सेन भी कोई खूंखार-दुर्दांत दस्यु नहीं हैं. उनका अपराध बस इतना सा ही है कि आज जब हर शख्स डरा-सहमा हुआ है, तब विनायक महोदय आप निर्भीक सिंह कि मानिंद सीना तानकर क्यों चलते हो ?
क़ानून को इन कसौटियों और तथ्यों से परहेज करना पड़ता है सो सबूत और गवाहों कि दरकार हुआ करती है और इस प्रकरण के केंद्र में विमर्श का असली मुद्दा यही है कि इस छत्तीसगढ़िया न्याय को यथावत स्वीकृत करें या लोकतंत्र कि विराट परिधि में पुन: परिभाषित करने कि सुप्रीम कोर्ट से मनुहार करें अधिकांश देशवासियों का मंतव्य यही है ; बेशक कुछ लोग व्यक्तिश विनायक सेन नामक बहुचर्चित मानव अधिकार कार्यकर्त्ता को इस झूंठे आरोप और अन्यायपूर्ण फैसले से मुक्त करना-बचाना चाहते होंगे. कुछ लोग इस प्रकरण में जबरन अपनी मुंडी घुसेड रहे हैं और चाहते हैं कि विनायक सेन के बहाने उनके अपने मर्कट वानरों कि गुस्ताखियाँ पर पर्दा डाला जा सके जबकि उनका इस प्रकरण से दूर का भी लेना देना नहीं है. संभवतः वे रमण सरकार की असफलता को ढकने कि कोशिश कर रहे हैं..
छतीसगढ़ पुलिस ने विनायक सेन के खिलाफ जो मामला बनाया और ट्रायल कोर्ट ने फैसला दिया वह न्याय के बुनियादी मानकों पर खरा नहीं उतरता.पुलिस के अनुसार पीयूष गुहा नामक एक व्यक्ति को ६ मई -२००७ को रायपुर रेलवे स्टेशन के निकट गिरफ्तार किया गया था जिसके पास प्रतिबंधित माओवादी पम्फलेट, एक मोबाइल, ४९ हजार रूपये और नारायण सान्याल द्वारा लिखित ३ पत्र मिले जो डॉ विनायक सेन ने पीयूष गुहा को दिए थे.पीयूष गुहा भी कोई खूंखार आतंकवादी या डान नहीं बल्कि एक मामूली तेंदूपत्ता व्यापारी है जो नक्सलवादियों के आतंक से निज़ात पाने के लिए स्वयम नक्सल विरोधी सरकारी कामों का प्रशंसक था.
डॉ विनायक सेन को भारतीय दंड संहिता कि धारा १२४ अ (राजद्रोह) और १२४ बी (षड्यंत्र) तथा सी एस पी एस एक्ट और गैर कानूनी गतिविधि निरोधक अधिनियम कि विभिन्न धाराओं के तहत सुनाई गई सजा पर एक प्रसिद्द वकील वी कृष्ण अनंत का कहना है कि ”१८६० की मूल भारतीय दंड संहिता में १२४ -अ थी ही नहीं इसे तो अंग्रेजों ने बाद में जब देश में स्वाधीनता आन्दोलन जोर पकड़ने लगा तो अभिव्यक्ति कि आजादी को दबाने के लिए १८९७ में बालगंगाधर तिलक और कुछ साल बाद मोहनदास करमचंद गाँधी को जेल में बंद करने, जनता कि मौलिक अभिव्यक्ति कुचलने के लिए तत्कालीन वायसराय द्वारा अमल में लाइ गई ”
भारत के पूर्व मुख्य-न्यायधीश न्यायमूर्ति श्री वी पी सिन्हा ने केदारनाथ सिंह बनाम बिहार राज्य मामले में १९६२ में फैसला दिया था कि धारा १२४-अ के तहत किसी को भी तभी सजा दी जानी चाहिए जब किसी व्यक्ति द्वारा लिखित या मौखिक रूप से लगातार ऐसा कुछ लिखा जा रहा हो जिससे क़ानून और व्यवस्था भंग होने का स्थाई भाव हो.जैसे कि वर्तमान गुर्जर आन्दोलन के कारण विगत दिनों देश को अरबों कि हानी हुई, रेलें २-२ दिन तक लेट चल रहीं या रद्द ही कर दी गई, आम जानता को परेशानी हुई सो अलग. सरकार किरोड़ीसिंह बैसला को हाथ लगाकर देखे. यह न्याय का मखौल ही है कि एक जेंटलमेन पढ़ा लिखा आदमी जो देश और समाज का नव निर्माण करना चाहता है, मानवतावादी है, वो सींकचों के अंदर है; और जिन्हें सींकचों के अंदर होना चाहिए वे देश को चर रहे हैं.
कुछ लोग उग्र वाम से भयभीत हैं, होना भी चाहिए, वह किसी भी क्रांति का रक्तरंजित रास्ता हो भारत कि जनता को मंजूर नहीं, यह गौतम-महावीर-गाँधी का देश है. जाहिर है यहाँ पर वही विचार टिकेगा जो बहुमत को मंजूर होगा. नक्सलियों को न तो बहुमत प्राप्त है और न कभी होगा. वे यदि बन्दूक के बल पर सत्ता हासिल करना चाहते हैं तो उनको इस देश कि बहुमत जनता का सहयोग कभी नहीं मिलेगा भले ही वो कितने ही जोर से इन्कलाब का नारा लगायें.यहाँ यह भी प्रासंगिक है कि देश के करोड़ों दीन-दुखी शोषित जन अपने शांतिपूर्ण संघर्षों को भी इन्कलाब-जिंदाबाद से अभिव्यक्त करते हैं …भगत सिंह ने भी फाँसी के तख्ते से इसी नारे के मार्फ़त अपना सन्देश राष्ट्र को प्रेषित किया था … यदि विनायक सेन ने भी कभी ये नारा लगाया हो तो उसकी सजा आजीवन कारावास कैसे हो सकती है और यह भी संभव है कि इस तरह के फैसलों से हमारे देश में संवाद का वह रास्ता बंद हो सकता है जो लाल देंगा जैसे विद्रोहियों के लिए खोला गया और जो आज कश्मीरी अलगाववादियों के लिए भी गाहे बगाहे टटोला जाता है सत्ता से असहमत नागरिक समाज ऐसे रास्ते खोलने में अपनी छोटी -मोटी भूमिका यदा -कदा अदा किया करता है, डॉ विनायक सेन उसी नागरिक समाज के सम्मानित सदस्य हैं.