Home Blog

वैश्विक अर्थव्यवस्था पर बढ़ता अमेरिकी आतंक और भारत


प्रो. महेश चंद गुप्ता

दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में से एक होने के कारण अमेरिका लंबे समय से वैश्विक आर्थिक नीतियों पर दबदबा बनाए हुए है। यह 

दबदबा अब खुलेआम दादागिरी का रूप ले चुका है, खासकर जब 

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप मनमाने टैरिफ लगाकर देशों को आर्थिक रूप से झुकाने की कोशिश कर रहे हैं। भारत पर 25 फीसदी टैरिफ 

लगाने के बाद अतिरिक्त 25 फीसदी टैरिफ की घोषणा ने इस दादागिरी को और स्पष्ट कर दिया है, यानी कुल मिलाकर 50 फीसदी का टैरिफ — यह न सिर्फ व्यापारिक प्रतिस्पर्धा को प्रभावित करेगा, बल्कि वैश्विक व्यापार संतुलन पर भी असर डालेगा।

ट्रंप को भारत द्वारा रूस से तेल खरीदने पर आपत्ति है जबकि विडंबनायह है कि चीन भी यही कर रहा है और अमेरिका स्वयं रूस से यूरेनियम और खाद खरीद रहा है, यानी सिद्धांत और व्यवहार में अमेरिकी नीति दोहरे मानदंडों से भरी है। सवाल यह है कि भारत क्यों अपने हितों को ताक पर रखकर अमेरिकी दबाव में काम करे?

कल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की भारत पर टैरिफ बढ़ोतरी के एलान के बाद पहली बार एमएस स्वामीनाथन शताब्दी अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में प्रतिक्रिया ने भारत के अडिग रुख को और मजबूती से सामने रखा है। उससे भारत का अडिग रवैया परिलक्षित हो रहा है। मोदी ने साफ कह दिया है कि हमारे लिए, हमारे किसानों का हित सर्वोच्च प्राथमिकता है, चाहे उसके लिए कोई भी कीमत चुकानी पड़े। भारत किसानों, मछुआरों और डेयरी किसानों के हितों से कभी समझौता नहीं करेगा। यह वक्तव्य बताता है कि भारत अब वैश्विक दबावों के आगे नतमस्तक नहीं होगा।

  यूनाइटेड स्टेट्स ट्रेड रिप्रेजेंटेटिव (यूएसटीआर) के आंकड़ों के अनुसार भारत-अमेरिका के बीच वार्षिक व्यापार 11 लाख करोड़ रुपये का है। भारत अमेरिका को 7.35 लाख करोड़ रुपये का निर्यात करता है जिसमें दवाइयाँ, दूरसंचार उपकरण, जेम्स-एंड- ज्वेलरी, पेट्रोलियम, इलेक्ट्रॉनिक्स, इंजीनियरिंग उत्पाद और वस्त्र शामिल हैं। वहीं, अमेरिका से भारत 3.46 लाख करोड़ रुपये का आयात करता है जिसमें कच्चा तेल, कोयला, हीरे, विमान व अंतरिक्ष यानों के पुर्जे 

शामिल हैं।

लेकिन यहां चिंता की बात यह है कि चीन, वियतनाम, बांग्लादेश और इंडोनेशिया जैसे देशों पर अमेरिका ने इतना भारी शुल्क नहीं लगाया है, जिससे उनके उत्पाद भारतीय उत्पादों की तुलना में अमेरिकी बाजार में सस्ते पड़ेंगे। फिर भी, मोदी सरकार का रवैया दृढ़ है। साठ के दशक में हम गेहूं, दूध के लिए भी अमरीका पर निर्भर थे लेकिन लगता है ट्रंप ने उन दिनों लिखी गई कोई किताब ताजा मानकर पढ़ ली है। उन्हें आज भी पुराना भारत दिख रहा है जिसे वह झुकाने की सोच रहे हैं। उन्हें यह समझ में आ जाना चाहिए कि अब भारत पहले वाला भारत नहीं रहा है। वह आत्मनिर्भर एवं विश्व में तेजी से बढ़ती हुई अर्थ व्यवस्था है। भारत का पूरे विश्व में दबदबा बढ़ रहा है।

उद्योग जगत भी इस दबाव को एक अवसर के रूप में देख रहा है। उद्योगपति हर्ष गोयनका का कहना है कि अमेरिका निर्यात पर टैरिफ लगा सकता है लेकिन हमारी संप्रभुता पर नहीं। आनंद महिंद्रा ने तो यह भी कहा कि जैसे 1991 के विदेशी मुद्रा संकट ने उदारीकरण की राह खोली थी, वैसे ही यह टैरिफ संकट भी हमें आत्मनिर्भरता की दिशा में गति दे सकता है। ललित मोदी ने एक सोशल मीडिया पोस्ट के जरिए ट्रंप को 2023 की उस रिपोर्ट की याद दिलाई है जो अमेरिका की कंपनी गोल्डमैन सैक्स ने ही जारी की थी। गौरतलब है कि गोल्डमैन सैक्स ने इस रिपोर्ट में कहा था कि भारत 2075 तक दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने की ओर अग्रसर है जो न केवल जापान और जर्मनी, बल्कि संयुक्त राज्य अमेरिका को भी पीछे छोड़ देगा। रिपोर्ट में अनुमान है कि 2075 तक भारत की जीडीपी 52.5 ट्रिलियन डॉलर होगी जो चीन के 57 ट्रिलियन डॉलर से कम लेकिन अमेरिका के 51.5 ट्रिलियन डॉलर से अधिक होगी। वर्तमान में, भारत दुनिया की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है और तेजी से आगे बढ़ रही है।

अमेरिका की आर्थिक दादागिरी कोई नई बात नहीं है। प्रथम विश्व युद्ध के बाद से ही वह वैश्विक आर्थिक नीतियों में अपनी शर्तें थोपता आया है लेकिन अब हालात बदल रहे हैं। चीन पहले ही उसके दबाव में नहीं आ रहा और अब भारत भी साफ संकेत दे रहा है कि उसकी प्राथमिकता अपने राष्ट्रीय हित हैं। हाल ही में ऑपरेशन सिंदूर के दौरान भारत-पाक युद्ध रोकने का श्रेय लेने की अमेरिकी कोशिश को भारत ने सिरे से खारिज कर दिया। यही रुख अब टैरिफ विवाद में भी नजर आ रहा है।

मोदी सरकार का लक्ष्य स्पष्ट है  मेक इन इंडिया, वोकल फॉर लोकल और इंडिया फर्स्ट जैसी नीतियों के जरिये 2047 तक भारत को दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनाना। ऐसे में ट्रंप की टैरिफ राजनीति भारत के आत्मनिर्भरता अभियान को और तेज कर सकती है।

धैर्य और संयम के साथ नेतृत्व करना भारत की ताकत है। रामचरितमानस का वह प्रसंग याद आता है जब विभीषण ने युद्ध के समय श्रीराम से कहा कि रावण के पास सब कुछ है, पर आपके पास कुछ नहीं। तब श्रीराम ने उत्तर दिया कि सबसे बड़ी शक्ति धैर्य, शांति और सहनशीलता है। यही नीति आज भारत के नेतृत्व में झलक रही है. जहां ट्रंप अभिमान में हैं, वहीं भारत दृढ़ता और शांति के साथ आगे बढ़ रहा है।

इतिहास ने साबित किया है कि अमेरिका कभी भी भारत का स्थायी 

मित्र नहीं रहा। ट्रंप की नीतियों का विरोध अमेरिका के भीतर भी हो रहा है। ऐसे में बदलते समीकरण भारत के लिए नए अवसर खोल सकते हैं। ट्रंप भले ही मनमाना रवैया अपनाए हुए हैं पर वह भी फंस रहे हैं। 

टैरिफ के मुद्दे पर उनका अमरीका में भी विरोध हो रहा है। बदले 

परिदृश्य मे नए वैश्विक समीकरण बनने की संभावनाएं हैं। ट्रंप का रुख चीन के साथ भारत के संबंधों को बदल सकता है।

 पीएम मोदी इस महीने के आखिर में सात सालों के बाद चीन के दौरे पर जा रहे हैं। वह वहां तिआनजिन में 31 अगस्त से 1 सितंबर तक आयोजित होने वाली शंघाई कोऑपरेशन ऑर्गेनाइजेशन (एसीओ) समिट में शामिल होंगे। मोदी का यह चीन दौरा ऐसे समय में होने जा रहा है, जब दोनों देशों के रिश्तों को सुधारने की कोशिशें चल रही हैं। भारत बहुत बड़ा बाजार है जिसकी चीन को सख्त जरूरत है। भारत मे जब भी स्वदेशी का मुद्दा उठता है तो चीन इसे अपने खिलाफ मानता है। स्वदेशी की अवधारणा का चीनी उत्पादों पर सर्वाधिक प्रभाव पड़ता है। ऐसे में चीन क्यों नहीं चाहेगा कि उसके भारत के साथ संबंध मधुर हों, खासकर तब जब अमरीका खुद ही भारत से दूरियां बढ़ा रहा है। चीन को भारत के विशाल बाजार की जरूरत है, और अमेरिका के साथ भारत के रिश्तों में दूरी बढ़ने से बीजिंग अपने संबंध सुधारने को उत्सुक होगा।

अमेरिका की आर्थिक दादागिरी भले ही अभी भी जारी हो पर बदलते वैश्विक परिदृश्य में भारत का आत्मविश्वास, अडिग रुख और दूरदर्शी नेतृत्व इसे न सिर्फ झेलने में सक्षम है बल्कि इसे अपने विकास की सीढ़ी भी बना सकता है। आने वाले समय में अपने हितों की रक्षा करते हुए दुनिया में अपनी शर्तों पर आगे बढ़ना ही भारत की असली ताकत होगी । अर्थव्यवस्था के शिखर पर पहुंचकर भी भारत वसुधैव  कुटुंबकम  के मार्ग पर चलेगा। सबका कल्याण ही भारत की सोच है। हम तो प्राचीन काल से ही सर्वे भवन्तु सुखिन: ही सोच रखते हैं। दादागिरी हमारा स्वभाव नहीं है।

प्रो. महेश चंद गुप्ता

‘हाउसफुल 5’ रिलीज के बाद सुर्खियों में हैं सौंदर्या शर्मा

सलमान खान के रियलिटी शो ‘बिग बॉस 16’ (2022-2023) से अचानक सुर्खियों में आई एक्ट्रेस सौंदर्या शर्मा हाल ही में रिलीज फिल्‍म ‘हाउसफुल 5’ (2025) में अपनी एक्टिंग और डांस के जरिए खास पहचान बना चुकी हैं। फिल्‍म में उनके काम और स्‍क्रीन प्रजेंस की जमकर सराहना हो रही है।   

  ‘बिग बॉस 16’ (2022-2023) के दौरान सौंदर्या शर्मा ने को-कंटेस्टेंट गौतम विग के साथ अपने रिलेशनशिप को लेकर काफी सुर्खियां बटोरीं थीं जो शो के अंदर और बाहर दोनों जगह चर्चा का विषय रहीं।

फिल्‍म ‘हाउसफुल 5’ (2025) सौंदर्या ने जैकलीन फर्नांडिज के साथ अपने डांस नंबर ‘लाल परी’ से स्क्रीन पर आग लगा दी। उनके इस डांस नंबर को ऑडियंस ने काफी अधिक पसंद किया। इस फिल्‍म की रिलीज के बाद से ही सौंदर्या खासी सुर्खियों में हैं।   

एक एक्‍ट्रेस के तौर पर नाम कमाने के पहले सौंदर्या शर्मा इंटरनेट सेंसेशन के तौर पर विख्‍यात रह चुकी हैं। अपने फैशन स्टेटमैंट और बोल्ड लुक्स को लेकर वह अक्‍सर सोशल मीडिया पर छाई रहती है।

20 सितम्बर, 1994 को नई दिल्ली में पैदा हुई सौंदर्या शर्मा  ने स्कूल और कॉलेज की पढ़ाई दिल्ली से ही की है। सौंदर्या ने डेंटल स्टडीज में बैचलर की पढ़ाई पूरी की है, यानी वह एक्‍ट्रेस के अलावा एक प्रोफेशनल  डेंटिस्ट भी है।

कॉलेज की पढाई  के दौरान ही सौंदर्या की रूचि डांस और एक्टिंग में पैदा हुई। और उन्‍होंने एक थियेटर ग्रुप के साथ जुड़कर नाटकों में भाग लेना शुरू कर दिया।

सौंदर्या ने अमेरिका के ‘ली स्‍ट्रेसबर्ग थियेटर एंड फिल्‍म इंस्टिट्यूट से एक्टिंग वर्कशॉप के अतिरिक्‍त न्‍यूयार्क फिल्‍म ऐकेडमी से शोर्ट एक्टिंग कोर्स किया है।

सौंदर्या शर्मा को एक तम्‍बाकू टीवी एड में अक्षय कुमार, अजय देवगन और शाहरुख खान के साथ स्क्रीन स्पेस साझा करने का अवसर मिला। उसके बाद उन्‍होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा।  

साल 2017 में सौंदर्या शर्मा ने फिल्‍म ‘रांची डायरीज’ के जरिए फिल्‍मों में डेब्‍यू किया। उसके बाद वह फिल्‍म  ‘थैंक गॉड’ (2022) में नजर आईं। ‘हाउसफुल 5’ (2025) उनकी तीसरी हिंदी फिल्‍म है।

फिल्‍मों के अलावा सौंदर्या टीवी के लिए  ‘रक्तांचल 2’ (2022) ‘कंट्री माफिया’ (2022) और ‘कर्म युद्ध’ (2022) जैसे शो में भी काम कर चुकी हैं।

साल 2021 में सौंदर्या ने पहला म्‍यूजिक वीडियो ‘मस्त बरसात’ किया। उसके बाद से अब तक वह कुल 4 म्‍यूजिक वीडियो का हिस्‍सा बन चुकी है।

कुछ महीने पहले सौंदर्या औपचारिक प्रवास पर लॉस एंजल्स गई थीं। वहां उनकी मुलाकात हॉलीवुड के एक नामी फिल्ममेकर से हुई। उसके बाद से ऐसी सुगबुगाहट आ रही हैं कि बहुत जल्‍दी सौंदर्या अपने पहले हॉलीवुड प्रोजेक्‍ट में काम करती नजर आ सकती है।

‘टाइगर ऑफ राजस्‍थान’ में नजर आएंगी देवोलीना भट्टाचार्जी

टीवी के मोस्ट पॉपुलर शो ‘साथ निभाना साथिया’ (2012-20217) में बहू ‘गोपी मोदी’ की भूमिका निभाकर घर-घर में पॉपुलर हुई देवोलीना भट्टाचार्जी ने कई हिट शोज में काम किया है।

देवोलीना ने टीवी पर आगाज ‘डांस इंडिया डांस 2’ (2010) से किया। उसके बाद देवोलीना को ‘संवारे सबके सपने प्रीतो’ (2011-2012) में बानी की भूमिका निभाते हुए देखा गया था लेकिन उन्हें सबसे ज्यादा पॉपुलैरिटी बहू ‘गोपी मोदी’ की भूमिका निभाकर मिली।   

22 अगस्त 1985 को असम में जन्मीं देवोलीना भट्टाचार्जी एक बंगाली परिवार से ताल्लुक रखती हैं। देवोलीना के सिर से बचपन में ही पिता का साया उठ गया था और मां स्राइजोफेनिया की शिकार थी। 

देवोलीना भट्टाचार्जी ने दिल्ली के नेशनल इंस्टीस्ट्यूट ऑफ फैशन एंड टेक्नोलॉजी से अपनी पढ़ाई पूरी की। देवोलीना भट्टाचार्जी ने जब टीवी पर डेब्यू नहीं किया था. उससे पहले वो ज्वैलरी डिजाइनिंग किया करती थीं।  

जब अपने सपनों को उड़ान देने के लिए देवोलीना ने दिल्‍ली से मुंबई का सफर तय किया, यहां आकर इंडस्ट्री में स्‍थापित होने के लिए उन्‍हैं काफी स्ट्रगल करना पड़ा।

‘बिग बॉस 13’ (2019) ‘बिग बॉस 14’ (2021) ‘बिग बॉस 15’ (2021-2022) और ‘गि बॉस ओटीटी (2021) में देवोलीना भट्टाचार्जी ने कंटस्‍टेंट के रूप में भाग लिया और खूब सुर्खियां बटोरी ।

3 वेब सीरीज कर चुकी देवोलीना भट्टाचार्जी ने साल 2022 में शाहनवाज़ शेख के साथ  शादी की। ए‍क मुस्लिम शख्स से शादी करने की वजह से वह सोशल मीडिया पर अचानक  ट्रोलर्स के निशाने पर आ गई थीं।

शादी के कुछ समय पहले उन्‍होंने टीवी एक्टर विशाल सिंह के साथ एक म्यूजिक वीडियो किया जिसे खूब पसंद किया गया था। वह अब तक कुल 4 म्‍यूजिक वीडियो कर चुकी हैं।

देवोलीना भट्टाचार्जी  ने ‘बंगाल 1947’ (2024) से फिल्‍मों में डेब्‍यू किया था। उसके बाद वह एक और फिल्‍म ‘कूकी’ (2024) में नजर आई थीं।

हाल ही में देवोलीना ने एक बच्‍चे को जन्‍म दिया है। पहले प्रेग्‍नेंसी और उसके बाद मां बन जाने की वजह से देवोलीना ने काम से ब्रेक लिया था।  उनकी आने वाली फिल्‍मों में ‘टाइगर ऑफ राजस्‍थान’ करियर के लिहाज से काफी अहम है। बहुत जल्‍दी वह इसके लिए अपने हिस्‍से की बची हुई शूटिंग शुरू करेगी।

सुभाष शिरढोनकर

युवाः वर्तमान की क्रांति एवं शांति के वाहक

अन्तर्राष्ट्रीय युवा दिवस, 12 अगस्त 2025 पर विशेष

– ललित गर्ग –

अंतरराष्ट्रीय युवा दिवस केवल एक कैलेंडर की तारीख नहीं है, बल्कि यह हमें याद दिलाता है कि आज की दुनिया में परिवर्तन का सबसे बड़ा वाहक युवा हैं। यह दिन संयुक्त राष्ट्र ने युवाओं के अधिकार, अवसर और योगदान को मान्यता देने के लिए तय किया है, लेकिन इसकी वास्तविक सार्थकता तभी है जब हम युवाओं को केवल ‘भविष्य के नेता’ कहकर टालें नहीं, बल्कि उन्हें वर्तमान का निर्णायक शक्ति केंद्र मानें। आज भारत की आबादी में लगभग 65 प्रतिशत हिस्सा 35 वर्ष से कम उम्र का है। यह केवल सांख्यिकीय तथ्य नहीं, बल्कि संभावनाओं का महासागर है। लेकिन इन संभावनाओं को दिशा देने के लिए केवल शिक्षा या नौकरी पर्याप्त नहीं; दृष्टि, मूल्यों और संकल्प की भी उतनी ही आवश्यकता है। क्योंकि युवा क्रांति का प्रतीक है, ऊर्जा का स्रोत है, इस क्रांति एवं ऊर्जा का उपयोग रचनात्मक एवं सृजनात्मक हो, इसी ध्येय से सारी दुनिया प्रतिवर्ष में सन् 2000 में अंतर्राष्ट्रीय युवा दिवस का आयोजन आरम्भ किया गया था। यह दिवस मनाने का मतलब है कि युवाशक्ति का उपयोग विध्वंस में न होकर निर्माण में हो। युवा, शांति और सुरक्षा पर सुरक्षा परिषद का प्रस्ताव 2250 (9 दिसंबर 2015) शांति को बढ़ावा देने और उग्रवाद का मुकाबला करने में युवा शांति निर्माताओं को शामिल करने की तत्काल आवश्यकता की अभूतपूर्व स्वीकृति का प्रतिनिधित्व करता है, और स्पष्ट रूप से युवाओं को वैश्विक प्रयासों में महत्वपूर्ण भागीदार के रूप में स्थान देता है।
स्वामी विवेकानंद का आह्वान आज भी गूंजता है-’उठो, जागो और तब तक मत रुको जब तक लक्ष्य की प्राप्ति न हो जाए।’ इस अंतरराष्ट्रीय युवा दिवस पर हमें न केवल युवाओं की सराहना करनी है, बल्कि उन्हें जिम्मेदारी सौंपनी है, क्योंकि वे सिर्फ कल के नहीं, बल्कि आज के भी निर्माता हैं। स्वामी विवेकानन्द ने भारत के नवनिर्माण के लिये मात्र सौ युवकों की अपेक्षा की थी। क्योंकि वे जानते थे कि युवा ‘विजनरी’ होते हैं और उनका विजन दूरगामी एवं बुनियादी होता है। उनमें नव निर्माण करने की क्षमता होती है। नया भारत निर्मित करते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को भी युवाशक्ति को आगे लाना होगा। युवा किसी भी देश का वर्तमान और भविष्य हैं। वो देश की नींव हैं, जिस पर देश की प्रगति और विकास निर्भर करता है। लेकिन आज भी बहुत से ऐसे विकसित और विकासशील राष्ट्र हैं, जहाँ नौजवान ऊर्जा व्यर्थ हो रही है। कई देशों में शिक्षा के लिए जरूरी आधारभूत संरचना की कमी है तो कहीं प्रछन्न बेरोजगारी जैसे हालात हैं। युवा अनेक विसंगतियों एवं बुराइयों से घिरे हैं।
युवाओं में जोश होता है, लेकिन बिना दिशा का जोश आग भी लगा सकता है और दीपक भी जला सकता है। यह चुनाव हमारे हाथ में हैकृहम उन्हें सृजनशील बदलाव के शिल्पी बनाते हैं या अराजकता के उपकरण। महात्मा गांधी ने कहा थाकृष्आप वह बदलाव बनें जो आप दुनिया में देखना चाहते हैं।’ युवा इस वाक्य को केवल नारा न बनाएं, बल्कि अपने जीवन का सूत्रवाक्य बनाएं। आज के युवा के सामने बेरोजगारी, मानसिक तनाव, नशे की लत, डिजिटल व्यसन, और सामाजिक असमानता जैसी चुनौतियां हैं। लेकिन इन्हीं के बीच नवाचार, स्टार्टअप संस्कृति, डिजिटल क्रांति, और वैश्विक मंच पर पहचान बनाने के अनगिनत अवसर भी हैं। जरूरत है-आत्मनिर्भर सोच की, नैतिकता आधारित नेतृत्व की और सतत विकास के प्रति प्रतिबद्धता की। जब जलवायु परिवर्तन, शांति स्थापना, मानवाधिकार, और वैश्विक न्याय जैसे मुद्दों की बात आती है, तो दुनिया युवाओं की आवाज सुनना चाहती है। स्वीडन की ग्रेटा थनबर्ग से लेकर भारत के अनगिनत सामाजिक नवप्रवर्तकों तक-युवा यह साबित कर रहे हैं कि उम्र कोई बाधा नहीं, दृष्टि और साहस ही असली पूंजी है। युवाओं के हाथ में केवल भविष्य की मशाल नहीं, बल्कि वर्तमान की बागडोर भी है। अगर वे खुद को केवल दर्शक बनाकर रखेंगे, तो इतिहास उनके बिना आगे बढ़ जाएगा। लेकिन अगर वे सक्रिय भागीदारी करेंगे, तो इतिहास उन्हें अपने पन्नों में सुनहरे अक्षरों में दर्ज करेगा।
अंतरराष्ट्रीय युवा दिवस मनाते हुए मूल प्रश्न है कि क्या हमारे आज के नौजवान भारत को एक सक्षम देश बनाने का स्वप्न देखते हैं? या कि हमारी वर्तमान युवा पीढ़ी केवल उपभोक्तावादी संस्कृति से जन्मी आत्मकेन्द्रित पीढ़ी है? दोनों में से सच क्या है? दरअसल हमारी युवा पीढ़ी महज स्वप्नजीवी पीढ़ी नहीं है, वह रोज यथार्थ से जूझती है, उसके सामने भ्रष्टाचार, आरक्षण का बिगड़ता स्वरूप, महंगी होती जाती शिक्षा, कैरियर की चुनौती और उनकी नैसर्गिक प्रतिभा को कुचलने की राजनीति विसंगतियां जैसी तमाम विषमताओं और अवरोधों की ढेरों समस्याएं भी हैं। उनके पास कोरे स्वप्न ही नहीं, बल्कि आंखों में किरकिराता सच भी है। इन जटिल स्थितियों से लौहा लेने की ताकत युवक में ही हैं। क्योंकि युवक शब्द क्रांति का प्रतीक है। विचारों के नभ पर कल्पना के इन्द्रधनुष टांगने मात्र से कुछ होने वाला नहीं है, बेहतर जिंदगी जीने के लिए मनुष्य को संघर्ष आमंत्रित करना होगा। वह संघर्ष होगा विश्व के सार्वभौम मूल्यों और मानदंडों को बदलने के लिए। सत्ता, संपदा, धर्म और जाति के आधार पर मनुष्य का जो मूल्यांकन हो रहा है मानव जाति के हित में नहीं है। दूसरा भी तो कोई पैमाना होगा, मनुष्य के अंकन का, पर उसे काम में नहीं लिया जा रहा है। क्योंकि उसमें अहं को पोषण देने की सुविधा नहीं है। क्योंकि वह रास्ता जोखिम भरा है। क्योंकि उस रास्तें में व्यक्तिगत स्वार्थ और व्यामोह की सुरक्षा नहीं है।
युवापीढ़ी पर यह दायित्व है कि संघर्ष को आमंत्रित करे, मूल्यांकन का पैमाना बदले, अहं को तोड़े, जोखिम का स्वागत करे, स्वार्थ और व्यामोह से ऊपर उठे। युवा दिवस मनाने का मतलब है-एक दिन युवकों के नाम। इस दिन पूरे विश्व में युवापीढ़ी के संदर्भ में चर्चा होगी, उसके हृास और विकास पर चिंतन होगा, उसकी समस्याओं पर विचार होगा और ऐसे रास्ते खोजे जायेंगे, जो इस पीढ़ी को एक सुंदर भविष्य दे सकें। इसका सबसे पहला लाभ तो यही है कि संसार भर में एक वातावरण बन रहा है युवापीढ़ी को अधिक सक्षम और तेजस्वी बनाने के लिए।
युवकों से संबंधित संस्थाओं को सचेत और सावधान करना होगा और कोई ऐसा सकारात्मक कार्यक्रम हाथ में लेना होगा, जिसमें निर्माण की प्रक्रिया अपनी गति से चलती रहे। विशेषतः राजनीति में युवकों की सकारात्मक एवं सक्रिय भागीदारी को सुनिश्चित करना होगा। अर्नाल्ड टायनबी ने अपनी पुस्तक ‘सरवाइविंग द फ्यूचर’ में नवजवानों को सलाह देते हुए लिखा है ‘मरते दम तक जवानी के जोश को कायम रखना।’ उनको यह इसलिये कहना पड़ा क्योंकि जो जोश उनमें भरा जाता है, यौवन के परिपक्व होते ही उन चीजों को भावुकता या जवानी का जोश कहकर भूलने लगते हैं। वे नीति विरोधी काम करने लगते है, गलत और विध्वंसकारी दिशाओं की ओर अग्रसर हो जाते हैं। इसलिये युवकों के लिये जरूरी है कि वे जोश के साथ होश कायम रखे। इसीलिये सुकरात को भी नवयुवकों पर पूरा भरोसा था। वे जानते थे कि नवयुवकों का दिमाग उपजाऊ जमीन की तरह होता है। उन्नत विचारों का जो बीज बो दें तो वही उग आता है। एथेंस के शासकों को सुकरात का इसलिए भय था कि वह नवयुवकों के दिमाग में अच्छे विचारों के बीज बोनेे की क्षमता रखता था। आज की युवापीढ़ी में उर्वर दिमागों की कमी नहीं है मगर उनके दिलो दिमाग में विचारों के बीज पल्लवित कराने वालेे स्वामी विवेकानन्द और सुकरात जैसे लोग दिनोंदिन घटते जा रहे हैं।
कला, संगीत और साहित्य के क्षेत्र में भी ऐसे कितने लोग हैं, जो नई प्रतिभाओं को उभारने के लिए ईमानदारी से प्रयास करते हैं? हेनरी मिलर ने एक बार कहा था- ‘‘मैं जमीन से उगने वाले हर तिनके को नमन करता हूं। इसी प्रकार मुझे हर नवयुवक में वट वृक्ष बनने की क्षमता नजर आती है।’’ महादेवी वर्मा ने भी कहा है ‘‘बलवान राष्ट्र वही होता है जिसकी तरुणाई सबल होती है।’’ इसीलिये युवापीढ़ी पर यह दायित्व है कि वह युवा दिवस पर कोई ऐसी क्रांति घटित करे, जिससे युवकों की जीवनशैली में रचनात्मक परिवर्तन आ सके, हिंसा-आतंक-विध्वंस की राह को छोड़कर वे निर्माण की नयी पगडंडियों पर अग्रसर हो सके।  

आज़ाद भारत और 15 अगस्त

शम्भू शरण सत्यार्थी

हर साल जब 15 अगस्त आता है, पूरा देश गर्व और देशभक्ति की भावना से भर जाता है। यह दिन भारत के इतिहास का सबसे सुनहरा दिन है क्योंकि 15 अगस्त 1947 को हमारा देश गुलामी की ज़ंजीरों को तोड़कर आज़ाद हुआ था। यह दिन केवल एक तारीख नहीं है, यह बलिदान, संघर्ष और देशप्रेम की याद दिलाने का दिन है।

भारत पर लगभग 200 वर्षों तक अंग्रेजों का राज रहा। उन्होंने हमारे देश के लोगों पर अत्याचार किए, हमारे संसाधनों का शोषण किया, और हमें हमारे ही देश में कमजोर और असहाय बना दिया। उस समय भारतीयों के पास ना तो बोलने की आज़ादी थी, ना ही अपने हक के लिए लड़ने की।

अंग्रेजों के खिलाफ कई छोटे-बड़े आंदोलन हुए लेकिन 1857 का स्वतंत्रता संग्राम पहला बड़ा प्रयास था जिसमें रानी लक्ष्मीबाई, तात्या टोपे, नाना साहेब जैसे कई वीरों ने भाग लिया। इसके बाद कई आंदोलनों ने आज़ादी की ज्वाला को और भी प्रज्वलित किया।

भारत की आज़ादी आसान नहीं थी। इसके लिए हजारों स्वतंत्रता सेनानियों ने जेलें झेली, यातनाएँ सहीं और अपनी जान तक कुर्बान कर दी । महात्मा गांधी ने ‘सत्य और अहिंसा’ का मार्ग अपनाकर देश को एकजुट किया। भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव ने फाँसी के फंदे को हँसते-हँसते गले लगाया । नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने आज़ाद हिंद फौज बनाकर अंग्रेजों से लोहा लिया। सरदार पटेल, बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय, मौलाना आज़ाद जैसे कई नेता आज़ादी की इस लड़ाई के स्तंभ बने। इन सबके प्रयासों और त्याग के कारण ही हमें 15 अगस्त 1947 को आज़ादी मिली।

15 अगस्त, भारत का स्वतंत्रता दिवस उन अनगिनत बलिदानों और प्रेरक कहानियों का प्रतीक है जिन्होंने भारत को आजादी दिलाई। 

महात्मा गांधी ने अहिंसा और सत्याग्रह के सिद्धांतों के माध्यम से ब्रिटिश शासन के खिलाफ एक अनूठा आंदोलन चलाया। 15 अगस्त 1947 को जब भारत आजाद हुआ, यह गांधीजी के दृढ़ विश्वास और नेतृत्व का परिणाम था। उनका दांडी नमक मार्च (1930) एक ऐसा प्रेरक प्रसंग है, जिसने न केवल भारतीयों को एकजुट किया बल्कि विश्व को अहिंसा की ताकत दिखाई। इस मार्च में गांधीजी ने 24 दिनों तक 390 किलोमीटर की यात्रा की और समुद्र तट पर नमक बनाकर ब्रिटिश नमक कानून का उल्लंघन किया। यह छोटा-सा कदम स्वतंत्रता संग्राम में एक बड़ा प्रतीक बन गया।

23 वर्षीय युवा क्रांतिकारी भगत सिंह ने स्वतंत्रता के लिए अपने प्राणों की आहुति दी। 1929 में उन्होंने दिल्ली की सेंट्रल असेंबली में बम फेंका लेकिन इसका उद्देश्य किसी को मारना नहीं, बल्कि ब्रिटिश सरकार का ध्यान भारतीयों की मांगों की ओर खींचना था। उनके नारे “इंकलाब जिंदाबाद” ने लाखों युवाओं को प्रेरित किया। 15 अगस्त 1947 को भले ही भगत सिंह इसे देखने के लिए जीवित न रहे, लेकिन उनकी कुर्बानी ने स्वतंत्रता की नींव को मजबूत किया।

1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की नायिका, झांसी की रानी लक्ष्मी बाई ने ब्रिटिश शासन के खिलाफ अपनी तलवार उठाई। अपने छोटे से राज्य की रक्षा और देश की आजादी के लिए उन्होंने अभूतपूर्व साहस दिखाया। रानी ने अपने बेटे को पीठ पर बांधकर युद्ध लड़ा, जो नारी शक्ति का प्रतीक बन गया। उनकी वीरता की गूंज 15 अगस्त 1947 को आजादी के उत्सव में भी सुनाई दी।

“तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा” – नेताजी सुभाष चंद्र बोस का यह नारा हर भारतीय के दिल में गूंजता है। उनकी आजाद हिंद फौज ने ब्रिटिश शासन को सशस्त्र चुनौती दी। 1943 में नेताजी ने सिंगापुर में आजाद हिंद सरकार की स्थापना की और “दिल्ली चलो” का आह्वान किया। उनकी यह लड़ाई 15 अगस्त 1947 को आजादी के रूप में परिणत हुई।

15 अगस्त की कहानी केवल बड़े नेताओं की नहीं, बल्कि उन लाखों आम भारतीयों की भी है, जिन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में हिस्सा लिया। चाहे वह लाला लाजपत राय हों जिन्होंने साइमन कमीशन के खिलाफ प्रदर्शन किया, या फिर गुमनाम किसान, मजदूर और महिलाएं, जिन्होंने आंदोलनों में हिस्सा लिया। इन सभी के छोटे-छोटे प्रयासों ने मिलकर भारत को आजादी दिलाई।

15 अगस्त 1947 को, भारत ने 200 वर्षों के ब्रिटिश शासन से मुक्ति प्राप्त की। इस दिन पंडित जवाहरलाल नेहरू ने दिल्ली के लाल किले से तिरंगा फहराया और अपना प्रसिद्ध भाषण “ट्रिस्ट विद डेस्टिनी” दिया। यह दिन हमें याद दिलाता है कि आजादी केवल एक घटना नहीं, बल्कि एक जिम्मेदारी है। हमें अपने देश को और मजबूत, समृद्ध और एकजुट बनाने के लिए प्रेरित करता है।

 15 अगस्त हमें सिखाता है कि एकता, साहस और समर्पण के साथ हम अपने देश को नई ऊंचाइयों तक ले जा सकते हैं। आइए, इस स्वतंत्रता दिवस पर हम अपने कर्तव्यों को याद करें और भारत को एक बेहतर राष्ट्र बनाने का संकल्प लें।

यह दिन केवल भारत के लिए ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया के लिए एक मिसाल था कि बिना हथियार उठाए, एक देश शांति और एकता से स्वतंत्र हो सकता है।

स्वतंत्रता के बाद भारत ने संविधान निर्माण की ओर कदम बढ़ाया और 26 जनवरी 1950 को भारत एक गणराज्य बना। उसके बाद देश ने हर क्षेत्र में तरक्की की।शिक्षा, स्वास्थ्य, विज्ञान और तकनीक में प्रगति हुई।रेलवे, सड़कों और संचार के माध्यमों का विकास हुआ।किसानों और गरीबों के लिए नई योजनाएँ बनीं। महिलाओं और पिछड़े वर्गों को अधिकार दिए गए। भारत ने खुद को एक लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी गणराज्य के रूप में स्थापित किया। आज 15 अगस्त सिर्फ एक छुट्टी का दिन नहीं है बल्कि यह हमें हमारी जड़ों की याद दिलाता है। प्रधानमंत्री लाल किले से तिरंगा फहराते हैं और देश को संबोधित करते हैं। स्कूलों और कॉलेजों में देशभक्ति गीत, नृत्य, नाटक और भाषण होते हैं। हर भारतीय अपने तिरंगे के साथ गर्व महसूस करता है।

यह दिन हमें संविधान, लोकतंत्र और आज़ादी के महत्व को समझने का अवसर देता है।आज हम आज़ाद हैं, लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि यह आज़ादी बहुत संघर्षों के बाद मिली है। इसलिए हमारी जिम्मेदारी है कि हम अपने देश को साफ, सुंदर और विकसित बनाएं।हम समानता, भाईचारे और इंसानियत को बढ़ावा दें।हम देश की एकता और अखंडता की रक्षा करें।हम झूठ, भ्रष्टाचार और हिंसा से दूर रहें। देश की तरक्की सिर्फ सरकार से नहीं होती, बल्कि हर नागरिक की मेहनत और ईमानदारी से होती है।15 अगस्त हमें ना सिर्फ आज़ादी की खुशी देता है बल्कि यह हमें अपने कर्तव्यों की याद भी दिलाता है। हमें उन वीरों का सम्मान करना चाहिए जिन्होंने अपनी जान देकर हमें यह दिन दिखाया।आइए, हम सब मिलकर ये संकल्प लें कि हम एक बेहतर भारत का निर्माण करेंगे — जहाँ हर कोई सुरक्षित, शिक्षित और सम्मानित हो। यही आज़ादी की असली जीत होगी।

शम्भू शरण सत्यार्थी

बाल मन में राष्ट्रीय चेतना जागरण

विनोद बब्बर 

79वें स्वतंत्रता दिवस पर भारत की एकता, अखण्डता को अक्षुण रखने के लिए अपना  सर्वोच्च बलिदान देने वाले वीरों, पूरे विश्व में भारत की प्रतिष्ठा को बुलंदियों तक पहुंचाने के लिए दिन-रात एक करने वाले सभी वैज्ञानिकों, शिक्षकों, सांस्कृतिक राजदूत साहित्यकारों को श्रद्धा से नमन करना कर्मकांड नहीं अपितु हम सब का कर्तव्य है। स्वाभाविक रूप से संपूर्ण राष्ट्र अपने इस कर्तव्य का पालन करेगा। इस अवसर पर देश की भावी पीढ़ी के बाल मन में राष्ट्रीय चेतना जागृत करने के अभियान को गति देना आवश्यक है। प्रत्येक बालक को अपनी मातृभूमि और श्रेष्ठ सांस्कृतिक मूल्यों के बारे में जानकारी होनी चाहिए।

दुनिया भर के मनोवैज्ञानिक एक स्वर में बताते हैं कि श्रेष्ठ संस्कार प्रदान करने का ‘सही समय’ बचपन ही हो सकता है। केवल भारत ही नहीं, दुनिया का हर विवेकशील राष्ट्र अपने भावी कर्णधारों को स्कूली शिक्षा के साथ राष्ट्रभक्ति के गुणों से भी समृद्ध करने का प्रयास करता है। जापान का वह प्रसंग सर्वविदित है जब स्वामी रामतीर्थ वहां के एक विद्यालय में गए। स्वामी जी ने एक विद्याार्थी से पूछा, ‘बच्चे, तुम किस धर्म को मानते हो? छात्र का उत्तर था, ‘बौद्ध धर्म।’ स्वामी जी ने फिर पूछा, ‘बुद्ध के विषय में तुम्हारे क्या विचार हैं?’ विद्यार्थी ने उत्तर दिया, ‘हर रिश्ते नाते में प्रथम बुद्ध हमारे भगवान हैं।’ इतना कह कर उसने अपने देश की प्रथा के अनुसार भगवान बुद्ध को सम्मान के साथ प्रणाम किया। अनेक प्रश्नों के अंत में स्वामी जी ने पूछा, ‘बेटा, अगर किसी दूसरे देश से जापान को जीतने के लिए एक भारी सेना आए और उसके सेनापति बुद्ध हों तो उस समय तुम क्या करोगे?’ इतना सुनते ही छात्र का चेहरा क्रोध से तमतमा उठा। अपनी लाल-लाल आंखों से स्वामी रामतीर्थ को घूरते हुए उसने जोश से कहा, ‘तब मैं अपनी तलवार से बुद्ध का सिर काट दूंगा।’
समाज और राष्ट्र के भावी स्वरूप की पृष्ठभूमि तैयार करने में श्रेष्ठ बाल साहित्य और शैक्षिक पाठ्यक्रम की महत्वपूर्ण भूमिका है। सरकार ने शिक्षा नीति में अनेक महत्वपूर्ण बदलाव किए हैं लेकिन स्कूली पाठ्यक्रम में देश प्रेम और संस्कृतिके प्रति जागृत करने वाली सामग्री का अभाव दिखाई देता है। बदलते परिवेश में समाज- परिवार भी अपने बच्चों को श्रेष्ठ संस्कार और विचार रूपी खाद प्रदान करने के प्रति बहुत सजग नहीं है। इसी कारण परिस्थितियां हमारे बच्चों को मोबाइल, इंटरनेट गेम आदि की ओर धकेल रही हैं। दुर्भाग्य की बात यह है कि परिवारों में साहित्य और संस्कृति से संबंधित साहित्य का पठन-पाठन लगभग बंद हो गया है। ऐसे में हमारे बच्चे भी बाल साहित्य की पत्रिकाओं से दूर गेम डाउनलोड करने अथवा यू-ट्यूब पर वह सब देख-सुन रहे हैं जो इस आयु में उनसे दूर होना चाहिए था। ऐसा नहीं है कि इन परिस्थितियों और उनके विस्फोटक परिणाम की जानकारी न हो। परंतु न जाने क्यों अभिभावक, शिक्षक, समाज, सरकार सब लगभग मौन हैं। कटु सत्य तो यह कि कुछ पत्रिकाओं  को छोड़ अधिकांश साहित्यकार भी  देश प्रेम और संस्कृति से संबंधित सरस रचनाएं लिखना भूल दिखावटी प्रेम और तथाकथित आधुनिकता के रंग में रंगा भ्रमित है। ऐसे में जापान जैसी भावना हमारे छात्र में भला कैसे संभव है? उसके लिए तो अपने स्कूली पाठ्यक्रम से बाल-साहित्य, लोक-व्यवहार, खेलों, गीतों, फिल्मों, टीवी चैनलों पर प्रसारित किये जा रहे कार्यक्रमों को राष्ट्रीय चेतना से समृद्ध करना होगा। राष्ट्रीय चेतना के विकास में बाधक उपसंस्कृति को हतोत्साहित करना होगा। ज्ञातव्य है कि महात्मा गांधी भी बच्चों में राष्ट्रीय चेतना जागृत करने के प्रबल पक्षधर थे इसलिए उन्होंने बच्चों के लिए धार्मिक संदेशों व शिक्षा पर आधारित बाल पोथी और नीति धर्म नामक पुस्तकें तैयार की। 

आश्चर्य है कि हम पश्चिम की तरफ भाग रहे हैं लेकिन पश्चिम भारत के श्रेष्ठ गुणों को धारण करने की दिशा में अग्रसर है। एक विद्यार्थी के रूप में मुझे विश्व के अनेक देशों में जाने का अवसर मिला। लगभग हर देश में मुझे सम्मान से भारतीय (इण्डियन) के रूप में पहचान  ‘नमस्ते इण्डिया’ सुनने को मिला। विश्व फैशन नगरी मिलान (इटली) के अनुभव ने गौरवांवित होने का अवसर प्रदान किया। सात समुद्र पार, अपने देश की सीमाओं से हजारों मील दूर एक अनजान व्यक्ति के मुख से भारत का गौरव गान सुनना रोमांचित करने वाला क्षण था। वह हमारे भारत की माटी,  हमारे पूर्वज ऋषियों और उनके द्वारा विकसित संस्कृति का अभिषेक था। भारत की गुरुता के प्रमाण रूपी ऐसे एक नहीं, हजारों बल्कि लाखों- करोड़ों उदाहरण यत्र-तत्र बिखरे हुए हैं।  तब हमारे युवा पीढ़ी को इस गौरव गाथा की जानकारी क्यों नहीं होनी चाहिए?

एक घटना का उल्लेख करना आवश्यक समझता हूं जिसके स्मरण मात्र से  दशकों बाद आज भी मन-मस्तिष्क को असीमित उत्साह और ऊर्जा मिलती है। एक बार सर्वत्र मांसाहारी भोजन के कारण बहुत समस्या हो गई तो किसी ने लगभग 10 किमी दूर इण्डियन रेस्टोरेंट की राह दिखाई जहां भारतीय भोजन उपलब्ध था। हम प्रतिदिन शाम को वहां जाते। अपने प्रवास की समाप्ति पर रेस्टोरेंट के स्वामी के मिलने पर यह जानना आश्चर्य हुआ कि वह भारत नहीं, पाकिस्तान से था। ‘आपने अपने प्रतिष्ठान का नाम इण्डियन की बजाय पाकिस्तानी रेस्टोरेंट क्यों नहीं रखा?’ के जवाब में उसका कहना था, ‘तब यहां कौन आएगा!’ उसके ये चार शब्द मेरे देश, मेरी जन्मभूमि की यशोगाथा है। भारत से हजार युद्ध करने का उद्घोष करने वाले सर्वत्र प्रतिष्ठित भारत ब्रांड से अपनी रोजी-रोटी चल रहे हैं। परंतु यदा-कदा जब जब अपने ही देश में कुछ लोगों के मुख से इस महान धरा को काटने अथवा बांटने की बात सुनता हूं तो मन आक्रोश से भर उठता है। समाजशास्त्रियों की विवेचना के अनुसार ‘आत्मगौरव विहीन इन लोगों को यदि ‘सही समय’ अर्थात बाल्य काल में ही राष्ट्रीय चेतना से परिचित कराया जाता तो वेे भ्रामक प्रचार के शिकार नहीं होते।’

वर्तमान में नई शिक्षा नीति में मातृभाषा और भारतीय भाषाओं को महत्व दिए जाने की बात तो सराहनीय है लेकिन यह भी देखना होगा कि भारी-भरकम बस्ते में क्या ऐसा कुछ है जो सहजता से बच्चों की सांसों में ‘सबसे पहले देश’ का भाव  जागृत करें। क्या स्कूली पाठ्यक्रम में देश की बलि बेदी पर अपना सर्वस्व समर्पित कर देने वाले स्वतंत्रता सेनानियों पर नाखून कटाकर शहीद होने वाले तो हावी नहीं हैं? काले पानी की सेल्यूलर जेल में दो दो उम्र कैद की सजा भुगतने वालों को महत्वहीन और महलों में ‘सजा’ बिताने वालों को देश का एकमात्र उद्धारक बताया जाने की प्रवृत्ति देश की भावी पीढ़ी कोसत्य से बहुत दूर ले जा सकती है। बिना किसी भेदभाव के अमर बलिदानियों के बारे में हर बच्चे को पता होना ही चाहिए। उनके द्वारा सहे अकल्पनीय कष्टों की जानकारी होनी चाहिए। तभी उनके हृदय में देश के लिए कुछ कर गुजरने का भाव जागृत और स्थापित होगा।

प्राथमिक स्तर तक प्रत्येक बच्चे को अपने राष्ट्रीय ध्वज, राष्ट्रीय गीत, राष्ट्रीय चिन्ह आदि की जानकारी होनी चाहिए। उनके सम्मान का भाव होना चाहिए। प्रत्येक बालक को स्थानीय भाषा में लोकगीतों तथा कहानियों के माध्यम से अपने महान पूर्वजो की गौरव गाथा से परिचित कराय़ा जाना चाहिए। माध्यमिक स्तर पर उन्हें अनिवार्य रूप से ऐसीे गतिविधियों में शामिल किया जाये जिससे राष्ट्रीय चेतना विकसित हो। विश्वविद्यालय स्तर पर उत्तर के युवाओं के लिए पूर्व या दक्षिण, दक्षिण वालों को उत्तर या पश्चिम, पूर्व वालों को पश्चिम या दक्षिण, पश्चिम वालों कोउत्तर या पूर्व शिविर लगाये जाये जहां वे अपने देश और उसकी माटी की सुगंध को जाने। भारत को जानने के इस अभियान को अनिवार्य बनाया जाए। अध्ययन के साथ गोष्ठियां आयोजित कर छात्रों को प्रतिभागिता के लिए प्रोत्साहित किया जाये। प्रतिभाशाली छात्रों को विदेश बसने की ललक को अपने देश, अपनी माटी के लिए कुछ विशिष्ट करने की ओर मोड़ना है तो कागजी प्रोजेक्टों के स्थान पर कुछ विशिष्ट लेकिन वास्तविक करने की कार्यपद्धति विकसित करनी होगी। ‘यहां सब बेकार है’ का भाव तिरोहित कर ‘यही धरा सबसे न्यारी’ भाव जागरण बिन सकारात्मक बदलाव संभव नहीं।

अनियंत्रित सोशल मीडिया पर भी सेंसर जैसा कुछ होना चाहिए ताकि हमारे किशोर और युवा पथभ्रष्ट न हो। पाश्चात् संस्कृति  के बढ़ते प्रभाव के कारण कामुक और देश की गौरवशाली परम्पराओं को कलुषित करने वाली फिल्मों तथा टीवी सीरियलों के प्रसारण की अनुमति नहीं होनी चाहिए। जबकि सामाजिक समरसता, एकता, सौहार्द को बढ़ावा देने वाले गीतों, लघु नाटिकाओं आदि को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। साहित्य अकादमियों को अपने प्रतिष्ठित पुरस्कारों का निर्णय करते समय समकालीन साहित्य  में एकता, समता, सौहार्द की प्रतिध्वनि को सुनना चाहिए।

यह प्रसन्नता की बात है कि पिछले कुछ समय से समाज में राष्ट्रीयता के महत्व और सांस्कृतिक मूल्यों के प्रति जागरण बढ़ा है। भारत हमारा राष्ट्र है हम सबकी पहचान है। इसका भविष्य हमारी आने वाली पीढ़ियों का भविष्य है इसलिए बाल मन में राष्ट्रीय चेतना के अंकुर रोपित करने के इस महत्वपूर्ण यज्ञ में सरकार, समाज और  भारत के प्रत्येक जागरूक नागरिक को अपनी भूमिका सुनिश्चित करनी चाहिए।

विनोद बब्बर 

फांसी के फंदे को चूमकर शहीद हो गए खुदीराम बोस

शहादत  दिवस,  11 अगस्त 1908

कुमार कृष्णन 

आज की तारीख में आम तौर पर उन्नीस साल से कम उम्र के किसी युवक के भीतर देश और लोगों की तकलीफों, और जरुरतों की समझ कम ही होती है लेकिन खुदीराम बोस ने जिस उम्र में इन तकलीफों के खात्मे के खिलाफ आवाज बुलंद की, वह मिसाल है जिसका वर्णन इतिहास के पन्नों पर स्वर्णिम अक्षरों में दर्ज है।

इससे ज्यादा हैरान करने वाली बात और क्या हो सकती है कि जिस उम्र में कोई बच्चा खेलने-कूदने और पढ़ने में खुद को झोंक देता है, उस उम्र में खुदीराम बोस यह समझते थे कि देश का गुलाम होना क्या होता है और कैसे या किस रास्ते से देश को इस हालत से बाहर लाया जा सकता है। इसे कम उम्र का उत्साह कहा जा सकता है लेकिन खुदीराम बोस का वह उत्साह आज भारत में ब्रिटिश राज के खिलाफ आंदोलन के इतिहास में सुनहरे अक्षरों में दर्ज है तो इसका मतलब यह है कि वह केवल उत्साह नहीं था बल्कि गुलामी थोपने वाली किसी सत्ता की जड़ें हिला देने वाली भूमिका थी। अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि महज उन्नीस साल से भी कम उम्र में उसी हौसले की वजह से खुदीराम बोस को फांसी की सजा दे दी गई लेकिन यही से शुरू हुए सफर ने ब्रिटिश राज के खिलाफ क्रांतिकारी आंदोलन की ऐसी नींव रखी कि आखिर कार अंग्रेजों को इस देश पर जमे अपने कब्जे को छोड़ कर जाना ही पड़ा।

बंगाल के मिदनापुर जिले के हबीबपुर गांव में त्रैलोक्य नाथ बोस के घर 3 दिसंबर 1889 को खुदीराम बोस का जन्म हुआ था लेकिन बहुत ही कम उम्र में उनके सिर से माता-पिता का साया उठ गया। माता-पिता के निधन के बाद उनकी बड़ी बहन ने मां-पिता की भूमिका निभाई और खुदीराम का लालन-पालन किया था। इतना तय है कि उनके पलने-बढ़ने के दौरान ही उनमें प्रतिरोध की चेतना भी विकसित हो रही थी। दिलचस्प बात यह है कि खुदीराम ने अपनी स्कूली जिंदगी में ही राजनीतिक गतिविधियों में हिस्सा लेना शुरू कर दिया था। तब वे प्रतिरोध जुलूसों में शामिल होकर ब्रिटिश सत्ता के साम्राज्यवाद के खिलाफ नारे लगाते थे, अपने उत्साह से सबको चकित कर देते थे। यही वजह है कि किशोरावस्था में ही खुदीराम बोस ने अपने भीतर के हौसले को उड़ान देने के लिए सत्येन बोस को खोज लिया और उनके नेतृत्व में अंग्रेजों के विरुद्ध मैदान में कूद पड़े थे।

 तब 1905 में बंगाल विभाजन के बाद उथल-पुथल का दौर चल रहा था। उनकी दीवानगी का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि उन्होंने नौंवीं कक्षा की पढ़ाई भी बीच में ही छोड़ दी और अंग्रेजों के खिलाफ मैदान में कूद पड़े। तब रिवोल्यूशनरी पार्टी अपना अभियान जोर-शोर से चला रही थी और खुदीराम को भी एक ठौर चाहिए था जहां से यह लड़ाई ठोस तरीके से लड़ी जाए।

खुदीराम बोस ने डर को कभी अपने पास फटकने नहीं दिया, 28 फरवरी 1906 को  वे सोनार बांग्ला नाम का एक इश्तिहार बांटते हुए पकड़े गए लेकिन उसके बाद वह पुलिस को चकमा देकर भाग निकले। 16 मई 1906 को पुलिस  ने उन्हें दोबारा गिरफ्तार कर लिया लेकिन इस बार उन्हें चेतावनी देकर छोड़ दिया गया। इसके पीछे वजह शायद यह रही होगी कि इतनी कम उम्र का बच्चा किसी बहकावे में आकर ऐसा कर रहा होगा लेकिन यह ब्रिटिश पुलिस के आकलन की चूक थी। खुदीराम उस उम्र में भी जानते थे कि उन्हें क्या करना है और क्यों करना है। अंग्रेजी सत्ता के खिलाफ उनका जुनून बढ़ता गया और 6 दिसंबर 1907 को बंगाल के नारायणगढ़ रेलवे स्टेशन पर आंदोलनकारियों के जिस छोटे से समूह ने बम विस्फोट की घटना को अंजाम दिया, उसमें खुदीराम प्रमुख थे।

इतिहास में दर्ज है कि तब कलकत्ता में किंग्सफोर्ड चीफ प्रेसिडेंसी मजिस्ट्रेट को बहुत ही सख्त और बेरहम अधिकारी के तौर पर जाना जाता था। वह ब्रिटिश राज के खिलाफ खड़े होने वाले लोगों पर बहुत जुल्म ढाता था। उसके यातना देने के तरीके बेहद बर्बर थे जो आखिरकार किसी क्रांतिकारी की जान लेने पर ही खत्म होते थे। बंगाल विभाजन के बाद उभरे जनाक्रोश के दौरान लाखों लोग सड़कों पर उतर गए और तब बहुत सारे भारतीयों को मजिस्ट्रेट किंग्सफोर्ड ने क्रूर सजाएं सुनाईं। इसके बदले ब्रिटिश हुकूमत ने उसकी पदोन्नति कर दी और मुजफ्फरपुर जिले में सत्र न्यायाधीश बना दिया। उसके अत्याचारों से तंग जनता के बीच काफी आक्रोश फैल गया था। इसीलिए युगांतर क्रांतिकारी दल के नेता वीरेंद्र कुमार घोष ने किंग्सफोर्ड मुजफ्फरपुर में मार डालने की योजना बनाई और इस काम की जिम्मेदारी खुदीराम और प्रफुल्ल चाकी को दी गई।

तब तक बंगाल के इस वीर खुदीराम को लोग अपना आदर्श मानने लगे थे। बहरहाल, खुदीराम और प्रफुल्ल, दोनों ने किंग्सफोर्ड की समूची गतिविधियों, दिनचर्या, आने-जाने की जगहों की पहले रेकी की और अपनी योजना को पुख्ता आधार दिया। उस योजना के मुताबिक दोनों ने किंग्सफोर्ड की बग्घी पर बम से हमला भी किया लेकिन उस बग्घी में किंग्सफोर्ड की पत्नी और बेटी बैठी थी और वही हमले का शिकार बनीं और मारी गईं। इधर खुदीराम और प्रफुल्ल हमले को सफल मान कर वहां से भाग निकले लेकिन जब बाद में उन्हें पता चला कि उनके हमले में किंग्सफोर्ड नहीं, दो महिलाएं मारी गईं तो दोनों को इसका बहुत अफसोस हुआ लेकिन फिर भी उन्हें भागना था और वे बचते-बढ़ते चले जा रहे थे। प्यास लगने पर एक दुकान वाले से खुदीराम बोस ने पानी मांगा जहां मौजूद पुलिस को उनपर शक हुआ और खुदीराम को गिरफ्तार कर लिया गया लेकिन प्रफुल्ल चाकी ने खुद को गोली मार ली।

बम विस्फोट और उसमें दो यूरोपीय महिलाओं के मारे जाने के बाद ब्रिटिश हुकूमत के भीतर जैसी हलचल मची थी,  उसमें गिरफ्तारी के बाद फैसला भी लगभग तय था। खुदीराम ने अपने बचाव में साफ तौर पर कहा कि उन्होंने किंग्सफोर्ड को सजा देने के लिए ही बम फेंका था। जाहिर है, ब्रिटिश राज के खिलाफ ऐसे सिर उठाने वालों के प्रति अंग्रेजी राज का रुख स्पष्ट था, लिहाजा खुदीराम के लिए फांसी की सजा तय हुई। 11 अगस्त 1908 को जब खुदीराम को फांसी के तख्ते पर चढ़ाया गया, तब उनके माथे पर कोई शिकन नहीं थी, बल्कि चेहरे पर मुस्कुराहट थी। यह बेवजह नहीं है कि आज भी इतिहास में खुदीराम महज ब्रिटिश सत्ता के खिलाफ नहीं बल्कि किसी भी जन-विरोधी सत्ता के खिलाफ लड़ाई के सरोकार और लड़ने के हौसले के प्रतीक के रूप में ताकत देते हैं।

कुमार कृष्णन 

भारत अमेरिका टैरिफ वार

शिवानन्द मिश्रा

कहते हैं बाज़ जब शिकार करता है तो सबसे पहले ऊँचाई पर चढ़ता है, फिर बिना आहट के झपट्टा मारता है। आज भारत ठीक उसी मोड़ पर खड़ा है। अमेरिका ने भारत से होने वाले आयात पर टैरिफ को 25% से बढ़ाकर 50% कर दिया है। कुछ लोग कह रहे हैं कि प्रधानमंत्री जी को तुरंत बात करनी चाहिए, अमेरिका से दो टूक कह देना चाहिए कि ये हमें मंज़ूर नहीं पर समझदारी इसी में है कि इस वक्त हम चुप रहें लेकिन हाथ पर हाथ धर कर नहीं बल्कि मन ही मन तैयारी करते हुए।

 कोरोना जैसे संकट ने पूरी दुनिया को झकझोर दिया लेकिन भारत उस समय भी घबराया नहीं। जहाँ एक ओर अमेरिका में लोग सड़कों पर ऑक्सीजन के लिए तड़प रहे थे, वहीं भारत गाँव की पगडंडियों से लेकर महानगरों की गलियों तक जीवन के लिए लड़ रहा था और लड़ कर जीता भी। हमने टीके बनाए, दवाइयाँ बाँटी, यहाँ तक कि दूसरों की मदद भी की।

अब जब अमेरिका ने टैरिफ बढ़ाए हैं तो क्या हमें नहीं घबराना चाहिए क्योंकि यह पहला और आखिरी झटका नहीं है। हो सकता है कल ये टैरिफ 150% तक बढ़ जाएँ। हमने सीखा है रोटी तब पकती है जब आँच तेज़ हो।

भारत को अब मुँह से नहीं, हाथों से जवाब देना है।

जो चीज़ें बाहर से आती हैं, उन्हें यहीं बनाना सीखना चाहिए। देश के गाँव-गाँव में हुनर बिखरा पड़ा है। बस उसे दिशा देने की ज़रूरत है। आज भी लोहार की भट्टी में वह आग है जो मशीन को टक्कर दे सकती है, अगर उसे अवसर मिले।

अगर अमेरिका अपना दरवाज़ा बंद करता है तो अफ्रीका, रूस, दक्षिण एशिया और अरब देशों के साथ व्यापारिक रिश्ते मज़बूत करना चाहिए। बाजार एक नहीं,कई होते हैं पर आँख सिर्फ उसी पर टिकती है जहाँ आदत पड़ जाए।

जनता को जागरूक बनना होगा। हम हर विदेशी चीज़ के पीछे दौड़ने वाले लोग नहीं रहे। अब हम समझ चुके हैं कि ‘मेड इन इंडिया’ सिर्फ शब्द नहीं, एक ज़रूरत है, आत्मसम्मान की ज़रूरत।

सरकार को चाहिए कि वह छोटे कारीगरों को, खेत के किसानों को और छोटे उद्यमियों को ऐसी छत दे जहां वो धूप-बारिश में भी कुछ बना सकें जो बाहर भेजा जा सके।

सबसे बड़ा संकट बाहर से नहीं, भीतर से आता है। जब घर की दीवारें खुद कमजोर हो जाएँ तो बाहर की आंधी क्या कर लेगी लेकिन जब भीतर ही दरारें हों, एकता की नींव हिलने लगे, तब सबसे बड़ा डर वहीं से होता है।

आज देश के भीतर कुछ ऐसे स्वर सुनाई देते हैं जो विदेशी ताक़तों को न्योता देते हैं। जब एक घर का बेटा ही पड़ोसी से कहे कि ‘आओ,हमारे घर में आग लगाओ’ तो किसे दोष दिया जाए?

हमें सतर्क रहना है लेकिन उत्तेजित नहीं।

हमें जागरूक रहना है लेकिन आक्रामक नहीं।

क्योंकि राष्ट्र की रक्षा सिर्फ सरहद पर नहीं होती। गाँव के किसान,शहर के मजदूर,और पढ़ने वाले छात्र के भीतर भी होती है।

इस समय प्रधानमंत्री जी को कोई जवाब नहीं देना चाहिए बल्कि उन्हें वही करना चाहिए जो एक धैर्यवान पिता करता है जब कोई पड़ोसी ऊँची आवाज़ में बोलता है.  वह अपना काम दोगुनी मेहनत से करता है ताकि उसका घर पहले से मज़बूत हो जाए।

बात तब होनी चाहिए जब बोलने का मतलब हो और आज नहीं तो कल वह दिन आएगा। जब भारत बोलेगा भी और दुनिया सुनेगी भी।

देश की रक्षा बंदूक से ही नहीं, चरित्र से भी होती है। नारे से नहीं, निर्माण से होती है और सबसे बढ़कर आत्मनिर्भरता से होती है। आज भारत को सिर झुकाकर बात नहीं करनी है लेकिन सिर उठाकर चलने की तैयारी ज़रूर करनी है।

शिवानन्द मिश्रा

क्या राहुल गांधी एक जिम्मेदार राजनीतिज्ञ हैं ?

वीरेन्द्र सिंह परिहार

क्या राहुल गांधी एक गैर जिम्मेदार राजनीतिज्ञ हैं। अब जब 2022 की राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा में राहुल गांधी की इस बात पर कि चीन ने भारत की 2000 कि.मी. जमीन कब्जा ली, सर्वोच्च  न्यायालय ने तीखी टिप्पणी करते हुये कहा कि इस बात का क्या सबूत है। अगर आप सच्चे भारतीय हैं तो ऐसी बाते नहीं कर सकते। इस तरह से अनेको बातें है जिससे यह पता चलता है, कि उनका रवैया सदैव ही एक गैर जिम्मेदाराना राजनीतिज्ञ  का रहा है। वह चाहे राफेल का मामला हो, चाहे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, वीर सावरकर या पैगोसेस का मामला हो, सभी मामलों में वह झूठे और गलत साबित हुये हैं। अब प्रियंका वाड्रा भले ही यह कहे कि यह जज तय नहीं कर सकते कि सच्चा भारतीय कौन है ? पर लाख टके की बात यह कि यदि देशका सर्वोच्च   न्यायालय यह तय नहीं करेगा तो कौन करेगा ? क्या यह एक खानदान विशेष करेगा ? इसी तरह से आये दिन राहुल गांधी  चुनाव आयोग पर बेसिर-पैर के हमले करते रहते हैं, उस पर वोट चोरी करने और देख लेने की धमकी देते हैं। उस पर जब कर्नाटक चुनाव आयोग ने राहुल से शपथ-पत्र माँग लिया तो साय-पटाय बकने लगे कि वह नेता है और जो सार्वजनिक रूप से कह रहे हैं, वही शपथ-पत्र है। 

अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रम्प जब अपने निहित स्वार्थों  के चलते भारत की अर्थव्यवस्था को डेड/मृत बताते हैं, तो लोकसभा में प्रतिपक्ष के नेता राहुल गांधी उस पर पूरी तरह सहमति व्यक्त करते हैं। परीक्षण करने का विषय है कि क्या इसमें कुछ सच्चाई है। अन्तराष्ट्रीय मुद्रा कोष एवं वल्र्ड बैंक की रिपोर्ट यह कहती है कि भारत की अर्थव्यवस्था राकेट बनी हुई है। वर्तमान में भारत की विकास दर जहाँ 6.4 प्रतिशत है वहीं चीन की 4.8 प्रतिशत, अमेरिका 1.9 प्रतिशत, यू.के. की 1.2 प्रतिशत, जर्मनी 0.1 प्रतिशत, जापान 0.7 प्रतिशत फ्रांस 0.6 प्रतिशत विकास दर है। कुल मिलाकर भारत विश्व की सबसे ज्यादा बढ़ती हुई अर्थव्यवस्था है। वर्ष 2015 में  भारत की अर्थव्यवस्था जहाँ 2.1 ट्रिलियन डालर की थीं, वहीं 2025 में  दुगुने से ज्यादा 4.3 ट्रिलियन डालर की हो चुकी है। विनिर्माण क्षेत्र में भारत की स्थिति जहाँ 57.4 प्रतिशत की है, चीन जहाँ 50.4 प्रतिशत है, वहीं अमेरिका 40.1 प्रतिशत में ही अटका हुआ है। कहने का आशय यह कि दुनिया की नम्बर 1 और नम्बर 2 दोनो ही अर्थव्यवस्थाओं से भारत विनिर्माण क्षेत्र में आगे है। आज दुनिया का प्रत्येक

देश भारत से ज्यादा से ज्यादा व्यापार करने के तत्पर है। 25 प्रतिशत अमेरिकी टैरिफ पर देश का शेयर मार्केट धड़ाम हो जाना चाहिए था पर इसका बहुत हल्का असर हुआ।

यदि तुलनात्मक दृष्टि से देखा जाये तो वर्ष 2004 से वर्ष 2014 तक यूपीए शासन के दौर में महगाई की दर 8.2 प्रतिशत वार्षिक थी जबकि मोदी शासन में यह 5.5 से ऊपर कभी नहीं गई। यूपीए शासन में एफडीआई के माध्यम से जहाँ मात्र 305 करोड़ रूपये आये, वहीं मोदी शासन में 595 करोड़ रूपये का निवेश हुआ। जी.एस.टी. का कलेक्शन जुलाई 2025 में 1.96 लाख करोड़ रूपये है जो पिछले वर्ष से 7.5 प्रतिशत ज्यादा है। ऐसी स्थिति में भारत की अर्थव्यवस्था को डेड कहना एक सफेदपोश झूठ और ट्रम्प का फ्रस्टेशन ही कहा जा सकता है। यद्यपि इस मामले में राहुल के रवैये को लेकर उनकी ही पार्टी के नेताओं जैसे राजीव शुक्ला एवं शशि थरूर ने ही असहमति जताते हुये राहुल गांधी को आईना दिखाया। राजीव शुक्ला ने कहा कि हमारी इकोनामी बहुत मजबूत है तो शिवसेना उद्धव गुट की प्रियंका चतुर्वेदी ने भी इस मामले में अपनी असहमति जताई। इसी अर्थव्यवस्था के तहत राहुल गांधी ने म्यूचल फंड एवं शेयर मार्केट के माध्यम से स्वतः भारी कमाई की है। 2014 के बाद जहाँ म्यूचल फंड से वह 3.8 करोड़ और शेयर मार्केट से 4.87 करोड़ अर्जित कर चुके हैं। वर्ष 2014 में राहुल गांधी ने शेयर मार्केट में 83 लाख रूपये का निवेश किया जो 2019 में 5 करोड़ और 2024 में 8 करोड़ रूपये हो गया। राहुल गांधी ने पिछले 5 महीनें में 66 लाख 49 हजार का मुनाफा कमाया। यही स्थिति उनकी माँ सोनिया गांधी और बहन प्रियंका वाड्रा की भी है।

बड़ी सच्चाई यह कि ट्रम्प ने 2014 के पश्चात भारत में स्वतः निवेश किया है। ट्रम्प स्वतः कह चुके हैं कि निवेश की दृष्टि से भारत अच्छी जगह है। ट्रम्प टावर्स के कार्य मुम्बई, पुणे, गुरूग्राम जैसे शहरों में तेजी से फैले हैं तो नोयडा, हैदराबाद, बेंगलुरू जैसी जगहों में 15000 करोड़ के निवेश ट्रम्प रियल स्टेट में कर चुके हैं। वर्तमान में भारत में ट्रम्प का कारोबार 29 लाख करोड़ रूपये का है। ट्रम्प के बेटे स्वतः भारत आकर कई परियोजनाओं की शुरूआत करने वाले हैं। बड़ा सवाल फिर यही कि यदि भारत डेड इकोनामी है तो फिर ट्रम्प की कम्पनियाँ भारत में इतना निवेश क्यों कर रही हैं ?

यदि ट्रम्प भारत को रूस से तेल और हथियार खरीदने को लेकर नहीं झुका पा रहे हैं। भारत के कृषि बाजार, पशुपालन और डेयरी को अमेरिका के लिये नहीं खुलवा पा रहे हैं तो ट्रम्प का भारत के विरोध में खड़ा होना तो समझ में आता है पर यदि राहुल गांधी ऐसे भारत विरोधियों के साथ खड़े हो जाते हैं तो यह समझ के परे है। सिर्फ इतना ही नहीं, वह जब पाकिस्तान के इस दावे  कि आपरेशन सिन्दूर के दौरान उसने भारत के पाँच लड़ाकू विमान गिरा दिये, उस पर सुर-से-सुर मिलाते हुये सरकार से पूछते हैं कि बताओं हमारे कितने जहाज गिरे तो यह सब एक तरफ जहाँ राष्ट्र-बोध का अभाव है, वहीं किसी भी कीमत पर पागलपन की हद तक सत्ता पाने की छटपटाहट भी है। जैसा कि शशि थरूर ने कहा, भारत मात्र निर्यात पर निर्भर नहीं, वह एक मजबूत और विशाल बाजार है। बड़ी बात यह कि अमेरिकी धमकी के बाद भारतीय व्यापारियों के संगठन कैट ने ‘भारतीय सम्मान हमार स्वाभिमान’ का अभियान चलाते हुये स्वदेशी वस्तुओं की ही खरीदी और बिक्री पर जोर दिया है। उपरोक्त आधारों पर यह कहा जा सकता है कि राहुल सिर्फ एक गैर जिम्मेदार राजनीतिज्ञ ही नहीं बल्कि भारत-विरोधी मानसिकता के नागरिक भी हैं।

गंदगी और बंदगी एक साथ कैसे?

डॉ.वेदप्रकाश

विगत दिनों एक समाचार पढ़ा- साढ़े  चार करोड़ कांवड़ यात्री धर्मनगरी में छोड़ गए 10 हजार मीट्रिक टन कूड़ा। यह समाचार हाल ही में संपन्न हुई कांवड़ यात्रा के संबंध में था। समाचार के विश्लेषण में आगे लिखा था- 11 जुलाई से कांवड़ यात्रा विधिवत रूप से शुरू हुई थी। यात्रा का आधा पड़ाव पूरा होने के बाद कांवड़ यात्रियों ने खाद्य पदार्थ,प्लास्टिक की बोतलें, चिप्स और गुटके के रैपर्स, पॉलिथीन की थैलियां, पुराने कपड़े, जूते- चप्पल आदि सामान कूड़ेदान में डालने के बजाय सड़क और गंगा घाटों पर ही फेंक दिया। हर की पैड़ी के संपूर्ण क्षेत्र में गंदगी फैली है। मालवीय घाट, सुभाष घाट, महिला घाट, रोड़ी बेलवाला,पंतद्वीप, कनखल, भूपतवाला, ऋषिकुल मैदान, बैरागी कैंप आदि क्षेत्रों में गंदगी पसरी है। गौरतलब यह भी है कि हरिद्वार में राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण द्वारा प्लास्टिक पर प्रतिबंध के बाद भी कांवड़ यात्रा के दौरान पॉलीथिन और प्लास्टिक का कारोबार जमकर हुआ। क्या यह प्रशासन की मिलीभगत नहीं है?

 संयोग से इस दौरान मुझे भी हरिद्वार और ऋषिकेश गंगा स्नान एवं दर्शन के लिए जाने का सौभाग्य मिला। परमार्थ निकेतन ऋषिकेश में विश्व प्रसिद्ध गंगा आरती के समय प्रतिदिन की भांति पूज्य स्वामी चिदानंद सरस्वती जी उन दिनों भी विशेष रूप से अपने उद्बोधन में कह रहे थे- घाटों पर गंदगी न करें, कूड़ा कूड़ेदान में डालें, प्लास्टिक का प्रयोग न करें, मां गंगा में पुरानी कांवड़ और पुराने कपड़े आदि न फेंके। प्लास्टिक की थैलियों का प्रयोग न हो, इसके लिए उन्होंने एक विशेष अभियान के अंतर्गत कपड़े के लाखों थैले बंटवाए। जगह-जगह स्वच्छ पेयजल हेतु व्यवस्थाएं की। तदुपरांत भी गंगा घाटों पर गंदे कपड़े, कूड़ा और प्लास्टिक की बोतलें सहजता से इधर-उधर पड़ी दिखाई दे रही थी। यहां समझने की आवश्यकता है कि गंदगी न करना, स्वच्छता रखना, प्रकृति- पर्यावरण, नदी और जल स्रोतों को दूषित न करना अपने आप में एक बड़ी भक्ति अथवा बंदगी है। अनेक स्थानों पर लोग भंडारे और अन्य कार्यक्रमों के आयोजन करते हैं, जिसमें प्लास्टिक की प्लेट, चम्मच, गिलास आदि के रूप में ढेर कूड़ा दाएं बाएं बिखरा पड़ा रहता है। भंडारा करना और अन्य धार्मिक आयोजन हर्षोंल्लास से करना बहुत अच्छी बात है लेकिन गंदगी के लिए भी सजग होना पड़ेगा। एक नागरिक के रूप में हमें  यूज एंड थ्रो की संस्कृति को छोड़ना होगा। तीर्थ स्थानों पर अथवा कहीं भी गंदगी फैलाना हमें बंदगी की भावना से दूर करता है। विगत दिनों प्रयागराज में महाकुंभ मेले का आयोजन हुआ। मेले में प्रतिदिन सैकड़ों मीट्रिक टन कूड़ा निकलता था, लेकिन प्रशासन की समुचित योजना और सजगता होने से मेला क्षेत्र लगातार स्वच्छ रहा। कुछ ही स्थानों पर प्लास्टिक की थैलियां, बोतलें और कूड़ा दिखाई दिया।


    भारत विविधताओं का देश है। यहां  विभिन्न जातियां, मत- संप्रदाय एवं पर्व- उत्सव हैं। समूचे देश में विभिन्न नदियों एवं स्थानों पर अनेक तीर्थ हैं। जहां प्रतिदिन भारी संख्या में श्रद्धालु एवं तीर्थयात्री पहुंचते हैं। क्या अपनी इन पवित्र यात्राओं पर जाते समय हम प्रकृति-पर्यावरण और तीर्थों को गंदा न करने और स्वच्छ रखने का संकल्प नहीं ले सकते? स्वच्छता की दृष्टि से लगातार प्रयास करते हुए इंदौर देश का सबसे स्वच्छ शहर बना हुआ है जबकि राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में कई जगह कूड़े के पहाड़ बन चुके हैं। लगातार बढ़ती जनसंख्या के बीच शासन- प्रशासन की भी अपनी सीमाएं हैं। ऐसे में प्रत्येक व्यक्ति को यह संकल्प लेना होगा कि मेरा कूड़ा मैं ही संभालूं।
    हरिद्वार और ऋषिकेश की यात्रा के संबंध में गांधी जी ने लिखा है- गंगा तट पर जहां पर ईश्वर दर्शन के लिए ध्यान लगाकर बैठना शोभा देता है- पाखाना, पेशाब करते हुए बडी संख्या में स्त्री-पुरुष अपनी मूढ़ता और आरोग्य के तथा धर्म के नियमों को भंग करते हैं…जिस पानी को लाखों लोग पवित्र समझकर पीते हैं, उसमें फूल, सूत, गुलाल,चावल, पंचामृत वगैरा चीजें डाली गई… मैंने यह भी सुना कि शहर के गटरों का गंदा पानी भी नदी में ही बहा दिया जाता है जोकि एक बड़े से बड़ा अपराध है। आज भी गंगोत्री धाम से लेकर गंगासागर तक मां गंगा, यमुनोत्री से लेकर प्रयागराज संगम तक मां यमुना, कृष्णा, कावेरी, मंदाकिनी, ब्रह्मपुत्र आदि विभिन्न ऐसी नदियां हैं जिनमें व्यापक स्तर पर भिन्न-भिन्न प्रकार का प्रदूषण और गंदगी फैलाई जा रही है। इस गंदगी के लिए न तो प्रशासन सजग है और न ही लोग। दिल्ली, हरियाणा और फिर उत्तर प्रदेश, वृंदावन में भी मां यमुना के किनारे गंदगी सहज ही देखी जा सकती है। यद्यपि भारत सरकार नमामि गंगे मिशन के अंतर्गत गंगा व अन्य नदियों को प्रदूषण मुक्त करने के लिए प्रयास कर रही है तथापि अभी स्थिति में अधिक बदलाव नहीं हुए हैं।
     स्वच्छता ही सेवा, सेवा ही धर्म आदि महत्वपूर्ण सूत्रों का व्यवहार में आना अभी बाकी है। परमार्थ निकेतन में मां गंगा आरती के समय पूज्य मुनि चिदानंद सरस्वती जी, विभिन्न संत एवं भारतवर्ष की ज्ञान परंपरा के अनेक ग्रंथ लगातार यह कह रहे हैं कि- नदियां जीवनदायिनी हैं, प्रकृति-पर्यावरण के बिना जीवन का अस्तित्व नहीं है, नदियां बचेंगी तो जीवन बचेगा, संतति बचेंगी,संस्कृति बचेगी। पूज्य स्वामी चिदानंद जी अपने उद्बोधन में अक्सर कहते हैं- गंदगी और बंदगी एक साथ नहीं हो सकती। जब आप गंदगी को छोड़ देंगे, स्वच्छता को अपना लेंगे, तो बंदगी की राह बहुत आसान हो जाएगी।
       आइए खूब बंदगी करें, खूब तीर्थ करें, खूब स्नान करें लेकिन प्रकृति-पर्यावरण और नदियों को गंदा न करें। यदि प्लास्टिक की बोतलें, थैली अथवा कुछ कूड़ा हमारे पास है तो उसे यहां वहां न फेंके, कूड़ेदान में डालें ताकि उसे उचित व्यवस्था में ले जाकर समाप्त किया जा सके।


डॉ.वेदप्रकाश

दिल्ली में लैंडफिल गैसें बन रही हैं मुसीबत

प्रमोद भार्गव 
  दिल्ली की आबोहवा खराब करने में कचरों के ऐसे ठिकाने  खतरनाक साबित हो रहे हैं, जिनसे लैंडफिल गैसें हवा और जल स्रोतों को एक साथ प्रदूषित करते हैं। दिल्ली समेत समूचे राजनीति क्षेत्र में अनेक लैंडफिल ठिकाने हैं। इसलिए इस पूरे क्षेत्र में कचरे के इन ढेरों से फूटती लैंडफिल नामक षैतानी गैसों से एक बड़ी आबादी का जीना कठिन हो गया है। इन ठिकानों को हटाने और कचरे का वैज्ञानिक ढंग से निस्तारण करने के लिए विभिंन्न संस्थाएं राश्ट्रीय हरित प्राधिकरण और सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटा चुकी हैं, लेकिन अब तक नतीजा ढांक के तीन पांत ही रहा है। अब मौसम विभाग की तर्ज पर लैंडफिल ठिकानों पर ‘अर्ली वार्निंग सिस्टम‘ जैसी व्यवस्था होगी। इस कचरे से उत्सर्जित होने वाली तीव्र ज्वलनशील मीथेन गैस को चिन्हित करने वाले डिटेक्टर भी लगाए जाएंगे। इन ठिकानों के तापमान पर भी निगरानी रखने के लिए ‘नान कांटेक्ट इंफ्रारेड थर्मामीटर‘ लगाए जाएंगे। वायु गुणवत्ता प्रबंधन आयोग (सीक्यूएम) ने इन साइटों पर आग लगने की घटनाओं को थामने और इससे होने वाले प्रदूषण की रोकथाम के लिए 8 सूत्रीय निर्देश भी जारी किए हैं। इन निर्देशों का पालन दिल्ली, हरियाणा, उत्तर प्रदेश एवं राजस्थान सरकार को एनसीआर नगरों की सभी लैंडफिल साइटों पर इन निर्देशों का पालन करना होगा।    
दिल्ली में गाजीपुर, भलस्वा तथा ओखला में लैंडफिल ठिकाने हैं। इनमें रोजाना हजारों टन कचरा डाला जाता है। इसके वैज्ञानिक ढंग से निस्तारण के कोई तकनीकी इंतजाम नहीं हैं। एनजीटी ने एक समिति का गठन कर उससे राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के कचरे से बिजली पैदा करने की संभावना तलाशने को कहा था, लेकिन दिल्ली सरकार, दिल्ली प्रदूशण नियंत्रण समिति और केंद्रीय प्रदूशण नियंत्रण बोर्ड किसी परिणाम तक नही पहुंच पाए। इन ढेरों में अचानक आग भी लग जाती है, इस कारण समूचे राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में वायु प्रदूषण जानलेवा साबित होने लगता है। पर्यावरणीय मामलों के प्रमुख वकील गौरव बंसल का कहना है कि ये लैंडफिल कचरों के ठिकाने नहीं हैं। क्योंकि ऐसे ठिकानों के लिए विशेष डिजाइन और कायदे-कानून का प्रावधान है। कचरा डालने से पहले इन मैदानों में मिट्टी, प्लास्टिक, जैव और जैव-चिकित्सा जैसे कचरे को अलग किया जाता है। जबकि इन ठिकानों पर ऐसा कुछ भी नहीं होता है। इसलिए ये ठिकाने वेस्ट डंपिंग ग्राउंड बनकर रह गए हैं। दरअसल मीथेन गैस अत्यधिक ज्वलनशील गैस है। अन्य स्रोतों के अलावा लैंडफिल ठिकाने पर जमा जैविक कचरे के विघटित होने से मीथेन गैस का उत्सर्जन होता है। इस गैस में रंग और गंद नहीं होते है। इस कारण इसके रिसाव का पता नहीं चलता है। माना जाता है कि हवा में 5 से 15 प्रतिशत की सांद्रता से भी आग लग सकती है। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के पूर्व अपर निदेशक डॉ एसके त्यागी का कहना है कि मीथेन ग्रीन हाउस गैस है। उपग्रह से इसकी निकली छवि को देखा जा सकता है। इसे ट्रेप कर इसका उपयोग करने पर काम होना चाहिए। लेकिन सबसे ज्यादा जरूरी है कि महानागरों में इस तरह के बड़े कचरे के ढेरों को एकत्रित करने से रोका जाए। इसके लिए कचरे को अलगाने, उसे रिसाइकल करने एवं उससे खाद एवं ईंधन तैयार करने पर विचार होना चाहिए।
दरअसल लैंडफिल गैसें उन स्थलों से उत्सर्जित होती हैं, जहां गड्ढों में शहरी कचरा भर दिया गया हो। इस कचरे में औद्योगिक कचरा भी षमिल हो तो इसमें प्रदूशण की भयानकता और बढ़ जाती है। नए षोधों से पता चला है कि नियम-कानूनों को ताक पर रखकर लापरवाही से तैयार किए भूखंडों पर खड़ी इमारतों में चल रहे सूचना तकनीक के कारोबार में प्रयुक्त चांदी, तांबा और पीतल के कल-पूर्जों की सेहत लैंडफिल गौसों के संपर्क में आकर बिगड़ जाती है। इनका हमला निर्जीव यांत्रिक उपकरणों पर ही नहीं मानव स्वास्थ्य पर भी प्रतिकूल असर डालता है। हमारे देष की महानगर पालिकाएं और भवन-निर्माता गड्ढो वाली भूमि के समतलीकरण का बड़ा आसान उपाय इस कचरे से खोज लेते हैं। रोजाना घरों से निकलने वाले कचरे और इलेक्ट्रॉनिक कचरे से गड्ढों को पाटने का काम बिना किसी रासायनिक उपचार के कर दिया जाता है। इस मिश्रित कचरे में मौजूद विभिन्न रसायन परस्पर संपर्क में आकर जब पांच-छह साल बाद रासायनिक क्रियाएं करते हैं, तो इसमें से जहरीली लैंडफिल गैसें पैदा होने लगती हैं। इनमें हाइड्रोजन पेरोक्साइड, हाइड्रोजन ऑक्साइड, मीथेन, कार्बन मोनोऑक्साइड और सल्फर डाइऑक्साइड इत्यादी होती हैं।
कचरे के सड़ने से बनने वाली इन बदबूदार गैसों को वैज्ञानिकों ने लैंडफिल गैसों के दर्जे में रखकर एक अलग ही श्रेणी बना दी है। दफन कचरे में भीतर ही भीतर जहरीला तरल पदार्थ जमीन की दरारों में रिसता है। यह जमीन के भीतर रहने वाले जीवों के लिए प्राणघातक होता है। भूगर्भ में निरंतर बहते रहने वाले जल-स्रोतों में मिलकर यह शुद्ध पानी को जहरीला बना देता है। गंधक के अनेक जीवाणुनाशक यौगिक भूमि में फैलकर उसकी उर्वरा क्षमता को नष्ट कर देते हैं।
आधुनिक जीवन शैली बहुत अधिक कचरा पैदा करती है। इसलिए भारत ही नहीं, दुनिया के ज्यादातर विकसित और विकासशील देश कचरे को ठिकाने लगाने की समस्या से जूझ रहे हैं। लेकिन ज्यादातर विकसित देशों ने समझदारी बरतते हुए इस कचरे को अपने देशों में ही नष्ट कर देने की कार्यवाही पर रोक लगा दी है। दरअसल पहले इन देशों में भी इस कचरे को धरती में गड्ढे खोदकर दफना देने की छूट थी। लेकिन जिन-जिन क्षेत्रों में यह कचरा दफनाया गया, उन-उन क्षेत्रों में लैंडफिल गैसों के उत्सर्जन से पर्यावराण बुरी तरह प्रभावित होकर खतरनाक बीमारियों का जनक बन गया। जब ये रोग लाइजाज बीमारियों के रूप में पहचाने जाने लगे तो इन देषों का शासन-प्रशासन जागा और उसने कानून बनाकर औद्योगिक व घरेलू कूड़े-कचरे को अपने देष में दफन करने पर सख्त प्रतिबंध लगा दिए। तब इन देषों ने इस कचरे को ठिकाने लगाने के लिए लाचार देषों की तलाष की और सबसे लाचार देष निकला भारत। दुनिया के 105 से भी ज्यादा देष अपना औद्योगिक कचरा भारत के समुद्री तटवर्ती इलाकों में जहाजों से भेजते हैं। इन देषों में अमेरिका, चीन, ब्राजील, आस्ट्रेलिया, जर्मनी और ब्रिटेन प्रमुख हैं।
नेषनल एनवायरमेंट इंजीनियारिंग रिसर्च इंस्टीयूट के एक षोध पत्र के अनुसार वर्श 1997 से 2005 के बीच भारत में प्लास्टिक कचरे के आयात में 82 फीसदी की बढ़ोत्तरी हुई है। ये आयात देष में पुनर्षोधन व्यापार को बढ़ावा देने के बहाने किया जाता है। इस क्रम में विचारणीय पहलू यह है कि इस आयातित कचरे में खतरनाक माने जाने वाले ऑर्गेनो-मरक्यूरिक यौगिक निर्धारित मात्रा से 1500 गुना अधिक पाए गए हैं, जो कैंसर जैसी लाइजाज और भयानक बीमारी को जन्म देते हैं। सर्वोच्च न्यायालय की मुल्याकांन समीति के अनुसार देष में हर साल 44 लाख टन कचरा पैदा होता है। ऑर्गेनाइजेशन फॉर कॉरपोरेशन एंड डवलपमेंट ने इस मात्रा को 50 लाख टन बताया है। इसमें से केवल 38.3 प्रतिशत कचरे का ही पुनर्शोधन किया जा सकता है, जबकि 4.3 प्रतिशत कचरे को जलाकर नष्ट किया जा सकता है। लेकिन इस कचरे को औद्योगिक इकाईयों द्वारा ईमानदारी से पूनर्षोधित न किया जाकर ज्यादातर जल स्रोतों में धकेल दिया जाता है।
कचरा भण्डारों को नश्ट करने के ऐसे ही फौरी उपायों के चलते एक सर्वे में पर्यावरण नियोजन एवं समन्वय संगठन ने पाया है कि हमारे देष के पेयजल में 750 से 1000 मिलिग्राम प्रति लीटर तक नाइट्रेट पानी में मिला हुआ है और अधिकांष आबादी को बिना किसी रासायनिक उपचार के पानी प्रदाय किया जा रहा है, जो लोगों के स्वास्थ्य पर बुरा असर डालता है। एप्को के अनुसार नाइट्रेट बढ़ने का प्रमुख कारण औद्योगिक कचरा, मानव व पषु मल है।
ऐसे ही कारणों से लैंडफिल गैंसों का उत्सर्जन बढ़ रहा है। नतीजतन बच्चों में ब्लू बेबी सिंड्रोम जैसी बीमारी फैल रही है। इन गैसों के आंख, गले और नाक में स्थित ष्लेश्मा परत के संपर्क में आने से दमा, सांस, त्वचा और एलर्जी की बिमारियां बढ़ रही हैं। कचरा मैदानों के ऊपर बने भवनों में रहने वाले लोगों में से, खास तौर से महिलाओं में मूत्राशय का कैंसर होने की आशंका बढ़ जाती है। लैंडिफल गैंसें इन खतरों को चार गुना बढ़ा देती हैं। यह प्रदूशण गर्भ में पल रहे शिशु को भी प्रभावित करता है।
नियमानुसार कचरा मैदानों में भवन निर्माण का सिलसिला 15 साल बाद होना चाहिए। इस लंबी अवधि में कचरे के सड़ने की प्रक्रिया पूर्ण होकर लैंडफिल गैसों का उत्सर्जन भी समाप्त हो जाता है और जल में घुलनशील तरल पदार्थ का बनना भी बंद हो जाता है। लेकिन प्रकृति की इस नैसर्गिक प्रक्रिया के पूर्ण होने से पहले ही हमारे यहां जमीन के समतल होने के तत्काल बाद ही आलीशान इमारतें खड़ी करने का सिलसिला शुरू कर देते हैं। जिसका नतीजा उस क्षेत्र में रहने वाली आबादी और इलेक्ट्रोनिक उपकरणों को भुगतना होता है।
अब इस औद्योगिक व घरेलू कचरे को नश्ट करने के प्राकृतिक उपाय भी सामने आ रहे है। हालांकि हमारे देश के ग्रामीण अंचलों में घरेलू कचरे व मानव एवं पशु मल-मूत्र को घर के बाहर ही घरों में प्रसंस्करण करके खाद बनाने की परंपरा रही है। इसके चलते कचरा महामारी का रूप धारण कर जानलेवा बीमारियों का पर्याय न बनते हुए खेत की जरूरत के लिए ऐसी खाद में परिवर्तित होता है, जो फसल की उत्पादकता व पौश्टिकता बढ़ाता है। अब एक ऐसा ही अद्वितीय व अनूठा प्रयोग औद्योगिक व घरेलू जहरीले कचरे को नष्ट करने में सामने आया है। अभी तक हम केंचुओं का इस्तेमाल खेतों की उत्पादकता बढ़ाने के लिए वर्मी कंपोस्ट खाद कें निर्माण में करते रहे हैं। हालांकि खेतों की उर्वरा क्षमता बढ़ाने में केंचुओं की उपयोगिता सर्वविदित है, पर अब औद्योगिक कचरे को केंचुओं से निर्मित वर्मी कल्चर से ठिकाने लगाने का सफल प्रयोग हुआ है। अहमदाबाद के निकट मुथिया गांव में एक पायलट परियोजना शुरू की गई है। इसके तहत जमा 60 हजार टन कचरे में 50 हजार केंचुए छोड़े गए थे। चमत्कारिक ढंग से केंचुओं ने इस कचरे का सफाया कर दिया। फलस्वरूप यह स्थल पूरी तरह प्राकृतिक ढंग से जहर के प्रदूषण से मुक्त हो गया। लैंडफिल गैसों से सुरक्षा के लिए कचरे को नष्ट करने के कुछ ऐसे ही प्राकृतिक उपाय अमल में लाने होंगे, जिससे कचरा मैदानों में बसी आबादी के लोग और इलेक्ट्रॉनिक उपकरण सुरक्षित रहें।


 प्रमोद भार्गव

मांसाहारी दूध पर भारत-अमेरिका विवाद: सांस्कृतिक मूल्यों और व्यापारिक हितों का टकराव

अमेरिका द्वारा भारतीय वस्तुओं के आयात पर 50 % टेरीफ लगाने के बाद भारत और अमेरिका के बीच व्यापारिक तनाव कई क्षेत्रों में देखा जा रहा हैं। लेकिन डेयरी उत्पादों को लेकर उठा विवाद विशेष रूप से संवेदनशील और गंभीर है। इस तनाव का प्रमुख कारण अमेरिका द्वारा भारत को गाय का दूध निर्यात करने की इच्छा है, जो भारत की सांस्कृतिक, धार्मिक और नैतिक मान्यताओं से टकराता है। भारत का आरोप है कि अमेरिका का दूध “मांसाहारी दूध” है, क्योंकि वहां की डेयरी गायों को मांस और पशु अवशेषों से बने चारे का सेवन कराया जाता है।

भारत में दूध को न केवल पोषण का स्रोत बल्कि धार्मिक और सांस्कृतिक दृष्टि से पवित्र माना जाता है। सनातन परंपरा में गाय को “गौ माता” के रूप में पूजा जाता है और उसके दूध को सात्विक, शाकाहारी व रोगनिवारक आहार माना जाता है। ऐसे में यदि दूध उत्पादन की प्रक्रिया में मांस या पशुजन्य अवयवों का उपयोग हो, तो भारतीय दृष्टिकोण से यह दूध अपवित्र और मांसाहारी माना जाएगा। यही कारण है कि भारत ने स्पष्ट रूप से ऐसे दूध और उससे बने उत्पादों के आयात पर प्रतिबंध लगा रखा है।

मांसाहारी चारे की वास्तविकता
अमेरिका और कई अन्य पश्चिमी देशों में डेयरी उत्पादन की लागत कम करने और गायों की दूध देने की क्षमता बढ़ाने के लिए उच्च प्रोटीन वाले “एनिमल बाय-प्रोडक्ट फीड”का इस्तेमाल किया जाता है। यह चारा प्रायः पोल्ट्री फार्म, मांस उद्योग और मछली उद्योग से बची-खुची सामग्री से तैयार होता है। इसमें शामिल होते हैं:

मुर्गियों और मछलियों के आंतरिक अंग, हड्डी और रक्त का पाउडर,
पशुओं के मांस के बचे हुए टुकड़े,
हड्डियों को पीसकर बनाया गया बोन मील,
मछली से निकले तेल और चूर्ण
इस मिश्रण को अन्य अनाज और विटामिन सप्लीमेंट्स के साथ मिलाकर पशु-आहार बनाया जाता है। अमेरिका में इसे “सामान्य फार्मिंग प्रैक्टिस” के रूप में स्वीकार किया गया है, क्योंकि उनके दृष्टिकोण में यह पोषण बढ़ाने और वेस्ट मैनेजमेंट का एक व्यावहारिक तरीका है। लेकिन भारतीय परंपरा में, यह पूरी प्रक्रिया नैतिक रूप से अनुचित और धार्मिक मान्यताओं के विपरीत मानी जाती है।
भारत का रुख और अमेरिका की प्रतिक्रिया
भारत ने अमेरिका से साफ कहा है कि या तो वे अपनी गायों को मांसाहारी चारा देना बंद करें, या फिर ऐसे दूध और डेयरी उत्पादों पर स्पष्ट लेबल लगाएं, जिससे उपभोक्ताओं को सही जानकारी मिल सके। लेकिन अमेरिका का तर्क है कि उनकी कृषि प्रणाली में यह सामान्य प्रक्रिया है और वे इसे बदलने के लिए बाध्य नहीं हैं। अमेरिका का मानना है कि लेबलिंग की ऐसी शर्तें गैर-जरूरी बाधाएं हैं और अंतरराष्ट्रीय व्यापार नियमों के विपरीत हैं।

संस्कृति बनाम वाणिज्य का सवाल
यह विवाद केवल दूध के आयात-निर्यात का नहीं, बल्कि सांस्कृतिक मूल्यों और व्यावसायिक हितों का टकराव है। भारत के लिए यह मामला धार्मिक और नैतिक आस्था से जुड़ा है, जबकि अमेरिका इसे महज व्यापारिक अवसर और कृषि पद्धति का हिस्सा मानता है। यही कारण है कि दोनों देशों के बीच डेयरी उत्पादों पर कोई ठोस व्यापारिक समझौता अब तक नहीं हो पाया है।
गाय, दूध और उससे जुड़ी पवित्रता भारतीय समाज की गहराई में बसी है। अमेरिका से आने वाला “मांसाहारी दूध” इस भावनात्मक और सांस्कृतिक ताने-बाने से मेल नहीं खाता। यदि भारत अपनी परंपराओं और उपभोक्ता अधिकारों की रक्षा करना चाहता है, तो उसे अपने प्रतिबंध और लेबलिंग की शर्तों पर दृढ़ रहना होगा। यह विवाद एक बार फिर यह साबित करता है कि वैश्विक व्यापार में केवल मुनाफा ही मायने नहीं रखता, बल्कि सांस्कृतिक संवेदनशीलता और स्थानीय मान्यताओं का सम्मान भी उतना ही आवश्यक है।
-सुरेश गोयल धूप वाला

कांग्रेस का ‘भगवा आतंकवाद’ और न्यायालय का निर्णय

राष्ट्रीय जांच एजेंसी की एक विशेष अदालत ने मालेगांव बम विस्फोट मामले में सभी सात आरोपियों को बरी कर दिया है। न्यायालय के इस आदेश के आने के बाद कांग्रेस और उसके नेताओं के द्वारा फैलाए गए इस भ्रम की भी पोल खुल गई है कि देश में कोई “भगवा आतंकवाद” नाम की चिड़िया भी रहती है। 17 वर्ष तक इस मामले के कथित आरोपियों को न्याय की प्रतीक्षा करनी पड़ी है। बहुत धीमी गति से न्याय इनके पास पहुंचा है अर्थात जीवन के 17 वर्ष अपने आप को दोष मुक्त कराने में इनको लग गए। विश्व हिंदू परिषद के राष्ट्रीय प्रवक्ता विनोद बंसल ठीक कहते हैं कि “आज जिन कथित हिंदू आतंकवादियों के बारे में न्यायालय ने यह निर्णय दिया है, वास्तव में यह निर्णय कांग्रेस के गाल पर एक करारा तमाचा है। इस निर्णय के आने के पश्चात कांग्रेस को हाथ जोड़कर हिंदू समाज से माफी मांगनी चाहिए। क्योंकि उनकी स्टोरी झूठी सिद्ध हो चुकी है। “
मालेगांव विस्फोट में कुल 14 आरोपी थे। जिनमें से 7 पर मुकदमा चला। उनके नाम हैं – साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर, श्रीकांत पुरोहित, सेवानिवृत्त मेजर रमेश उपाध्याय,समीर कुलकर्णी,अजय रहिरकर, सुधाकर धर द्विवेदी, सुधाकर चतुर्वेदी। मालेगांव के इन आरोपियों पर आरोप लगाया गया था कि उनके द्वारा आरडीएक्स लाया गया और उसका प्रयोग किया गया, परंतु किसी भी आरोपी के घर में आरडीएक्स के होने के सबूत नहीं मिले। देश के लिए यह बहुत ही दुखद स्थिति है कि यहां पर हिंदू अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए यदि कान भी हिलाता है तो भी वह अपराधी हो जाता है।
दूसरे के अत्याचारों को झेले तो भी गलत है और अत्याचारों का प्रतिशोध करें तो भी गलत है। इसी प्रकार की स्थिति में हिंदू मुगल काल में जीता था। जब उसका पूर्ण रूपेण निशस्त्रीकरण कर दिया गया था। उसे हथियार रखने की अनुमति नहीं थी, यदि कोई मुस्लिम आगे से घोड़े पर चढ़कर आ रहा है तो हिंदू को अपने घोड़े से उतरना पड़ता था। पहले मुस्लिम को रास्ता देना पड़ता था। हिंदू अपने घरों में किसी की मृत्यु होने पर रुदन भी नहीं कर सकते थे। रामधारी सिंह दिनकर जी की पुस्तक “संस्कृति के चार अध्याय ” से हमें इन तथ्यों की जानकारी होती है। स्वाधीन भारत में भी कांग्रेस के शासनकाल में न्यूनाधिक हिंदू की यही स्थिति बनी रही है। देश को अस्थिर करने में लगी शक्तियों के संकेत पर सोनिया गांधी सांप्रदायिक हिंसा निषेध अधिनियम लाकर हिंदू के दमन को कानूनी परिधान पहनाकर और भी तेज करने पर उतारू हो गई थीं। वह आज भी इसी पहले हैं भारतीय बाद में । जिस प्रकार मालेगांव मामले को तूल दिया गया, वह कांग्रेस की इसी प्रकार की मानसिकता को लागू करने के संकेत था । यदि समय पर सांप्रदायिक हिंसा निषेध अधिनियम को लेकर हिंदूवादी संगठन और राजनीतिक दल उठ खड़े न होते तो आज मालेगांव मामले के सातों अभियुक्तों को बहुत संभव था कि हम अपने बीच ही न पाते अर्थात उन्हें फांसी दे दी गई होती। तनिक सोचिए कि उसके बाद यह सिलसिला कहां जाकर रुकता ?
साध्वी प्रज्ञा सिंह के साथ क्या-क्या किया गया है अर्थात उन्हें किस-किस प्रकार की यातनाएं दी गई हैं,उन्हें सुनकर भी आत्मा कांप उठती है। स्वतंत्र भारत में कांग्रेस की सरकारों के समय में किए गए इस प्रकार के अत्याचारों ने मुगलों और अंग्रेजों के अत्याचारों की यादों को ताजा कर दिया है।
इन अभियुक्तों में से एक मेजर रमेश उपाध्याय जी के साथ कई बार बैठने का और बातचीत करने का अवसर मुझे मिला है। उनकी सादगी, उनकी देशभक्ति, हिंदुत्व के प्रति समर्पण और राष्ट्र के प्रति निष्ठा सराहनीय है। किसी भी दृष्टिकोण से यह नहीं लगता कि वे अपराधी हो सकते हैं। यही स्थिति अन्य 6 लोगों के बारे में भी कही जा सकती है । उन्होंने अपनी राष्ट्रभक्ति का प्रदर्शन किया या करते रहे हैं , यही उनका अपराध था और उस अपराध के लिए इतनी यातनाओं से उन्हें गुजरना पड़ेगा, ऐसा स्वतंत्र भारत में सोचा भी नहीं जा सकता था। इन सभी लोगों पर गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम (यूएपीए) और भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की विभिन्न धाराओं के अंतर्गत आरोप लगाए गए थे।
इस निर्णय के आने के उपरांत कांग्रेस के नेता मुंह दिखाने योग्य नहीं रहे हैं। इसके उपरांत भी बहुत निर्लज्जता के साथ कहे जा रहे हैं कि उन्होंने कभी नहीं कहा कि देश में हिंदू आतंकवाद है। जबकि सच यह है कि कांग्रेस वोट बैंक की राजनीति करते हुए और मुस्लिम तुष्टिकरण का खेल खेलते हुए भगवा आतंकवाद का हव्वा खड़ा करके अपनी सत्ता को चिरस्थाई बना देना चाहती थी। देश के लोगों को सोचना चाहिए कि अपनी सत्ता की भूख को मिटाने के लिए कांग्रेस कितने निम्न स्तर तक जा सकती थी या जा सकती है? कांग्रेस के नेता दिग्विजय सिंह और शिंदे ‘हिंदू आतंकवाद’ की बात करते थे। सारे संसार के लोग यह भली प्रकार जानते हैं कि हिंदू कभी आतंकवादी नहीं हो सकता । क्योंकि वह वेदों के मानवतावाद में विश्वास रखता है। इसके उपरांत भी कांग्रेस संसार भर के विद्वानों के इस विमर्श को झुठलाने पर उतारू थी।
एक अंग्रेजी पत्रिका ने 4 जुलाई को प्रेस नोट जारी किया था। इनमें कराची आधारित लश्करे तैयबा के आतंकी आरिफ 2009 के अंक में रक्षा विशेषज्ञ बी. रमन का लेख प्रकाशित हुआ। उस लेख से कांग्रेस की घृणित सोच का पता चलता है। उक्त रिपोर्ट के अंश यहाँ उद्धृत हैं, ‘आरिफ कासमानी अन्य आतंकी संगठनों के साथ लश्करे तैयबा का मुख्य समन्वयकर्ता है और उसने लश्कर की आतंकी गतिविधियों में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। कासमानी ने लश्कर के साथ मिलकर आतंकी घटनाओं को अंजाम दिशा, जिनमें जुलाई 2006 में मुंबई और फरवरी 2007 में पानीपत में समझौता एक्सप्रेस में हुए बम धमाके शामिल हैं। सन् 2005 में लश्कर की ओर से कासमानी ने धन उगाहने का काम किया और भारत के कुख्यात अपराधी दाऊद इब्राहीम से जुटाए गए धन का उपयोग जुलाई 2006 में मुंबई की ट्रेनों में बम धमाकों में किया। कासमानी से अलकायदा को भी वित्तीय व अन्य मदद दी। कासमानी के सहयोग के लिए अलकायदा ने 2006 और 2007 के बम धमाकों के लिए आतंकी उपलब्ध कराए।’
इतने प्रमाणों के होने के उपरांत भी कांग्रेस के नेताओं को देश में भगवा आतंकवाद तो दिखाई दिया, परन्तु उनके मुंह पर इस्लामिक आतंकवाद कहने के लिए ताले पड़ गए।

डॉ राकेश कुमार आर्य